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मधुमेह है तमाम बीमारियों की जड़

जैसे –जैसे सर्दी का प्रकोप बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे सर्दी से सम्बधित बीमारियों का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। सर्दी – जुकाम  के अलावा सर्दी में अस्थमा रोगियों की संख्या में काफी  इजाफा हो रहा है। अस्थमा रोगियों के लक्षण और कोरोना रोगियों के लक्षण एक जैसे होने से लोगों में कोरोना के नये स्वरूप ओमिक्रोन होने का भय सता रहा है।

दिल्ली –एनसीआर सहित देश के कई राज्यों में अस्थमा रोग जैसे पीड़ित मरीजों की संख्या दिन व दिन बढने से लोगों में तो हड़कंप मचा हुआ ही है। इस बारे में गंगा राम अस्पताल के वरिष्ठ डाँ प्रवीण भाटिया ने बताया कि सर्दी के मौसम को तो वैसे तो हेल्दी मौसम कहा जाता है।

लेकिन यह मौसम हार्ट रोगियों अस्थमा रोगियों और मधुमेह रोगियों के लिये काफी घातक माना जाता है।डाँ प्रवीण भाटिया का कहना है कि सारी बीमारियों की जड़ मधुमेह है। मधुमेह होने से हार्ट रोग, किड़नी रोग और नेत्र रोग जैसी बीमारियां बढ़ती है। इसलिये समय रहते मधुमेह रोग को नियत्रित रखें । समय-समय पर जांच करवाते रहे। वजन को काबू रखें। क्योंकि मोटापा रोग से पीड़ित मरीजों को मधुमेह रोग की शिकायत ज्यादा होती है।

मधुमेह और मोटापा से बचाव के लिये नियमित व्यायाम करें और तलीय पदार्थो का सेवन कम से कम करें।डाँ प्रवीण भाटिया ने बताया कि जागरूकता के अभाव में बच्चों तक में मधुमेह की शिकायत तेजी से बढ़ रही है। इसकी मुख्य वजह खान –पान में अनियमितता है। उन्होंने बताया कि समय रहते अगर मधुमेह पर काबू पाने का प्रयास नहीं किया गया तो आने वाले दिनों में तेजी से मधुमेह सभी वर्ग के लोगों को अपनी चपेट में ले लेगी।

पंजाब में किसान कर रहे हैं अपना ही राजनीतिक दल बनाने की पूरी तैयारी

मीनाक्षी भट्टाचार्य

पंजाब में विधानसभा चुनाव से पहले नया राजनीतिक दल बन सकता है और यह दल बना रहे हैं खुद किसान। आंदोलन के बाद किसान घर लौटने से पहले भी यही बात कह गए थे। अगर किसानों की ओर से राजनीतिक दल बनाया जाता है तो इससे पहले से स्‍थापित सभी राजनीतिक पार्टियों की चिंता बढ़ सकती है |

किसानों के इस कदम से अन्‍य दलों का चुनावी गणित बिगड़ने के संभावना प्रबल है।  नाम न छापने की शर्त पर एक किसान नेता ने बताया, “कुछ राजनीतिक दल किसान संगठनों से राजनीतिक पार्टी बनाने के लिए संपर्क कर रहे हैं। साथ ही बड़े स्‍तर पर चुनाव लड़ने को लेकर भी बात की जा रही है |”

उन्होंने कहा कि सभी प्रमुख लोगों को एक साथ लाकर किसानों की पार्टी बनाने में   इस बात को प्रमुखता से समझा जा रहा है कि इसमें अन्‍य क्षेत्रों के प्रतिनिधियों और प्रोफेशनल्‍स को भी शामिल किया जाए ताकि पंजाब में राजनीति बदलाव लाया जाए | उन्होंने कहा कि संयुक्‍त किसान मोर्चा अन्‍य कृषि संगठनों और  मजदूर संगठनों से बातचीत कर रहा है।

किसान नेता ने कहा – ”जनता पहले से ही स्‍थापित दलों से तंग आ चुकी है, अब बड़े बदलाव की बात पूरी संभावना दिख रही है |” किसान संगठनों और किसानों के बीच इस बात की चर्चा है कि अब अपने दायरे को बढ़ाया जाए और चुनाव लड़ा जाए |

पिछले दिनों सरकार ने किसानों की इस नाराजगी को देखते हुए अपने तीनों विवादित कृषि कानून वापस ले लिए थे | इसके बाद सरकार ने किसानों की अन्‍य मांगों को भी मान लिया है। किसानों ने अपना आंदोलन स्‍थगित कर दिया है और घर लौट रहे हैं | पंजाब लौटने पर किसानों का बड़ा स्‍वागत किया गया था |

इस बीच इस बात की भी चर्चा है कि किसान पंजाब चुनाव से पहले राजनीतिक दल बना सकते हैं | केंद्र सरकार की ओर से लाए गए तीन विवादित कृषि कानूनों  के खिलाफ पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी समेत अन्‍य जगहों से किसान दिल्‍ली की सीमाओं पर एक साल से अधिक समय पहले से जुटे हुए थे |

पंचतत्व में देह, और अमर हो के नारे; ग्रुप कैप्टन वरुण को नम आँखों से अंतिम विदाई

तमिलनाड के कुन्नूर में सीडीएस रावत हेलिकॉप्टर हादसे में गंभीर घायल होने के बाद बुधवार को दिवंगत हुए वायुसेना के ग्रुप कैप्टन वरुण सिंह शुक्रवार को पंचतत्व में विलीन हो गए। हज़ारों लोगों ने नम आँखों से मध्य प्रदेश के भोपाल में बैरागढ़ स्थित विश्राम घाट पर पूरे सैन्य सम्मान के साथ उनको अंतिम विदाई दी। उनके परिजन, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और कई मंत्रियों के अलावा जन-प्रतिनिधि इस मौके पर  उपस्थित थे।

अंतिम संस्कार से पहले ग्रुप कैप्टन वरुण सिंह की पार्थिव देह को अंतिम दर्शन के किए रखा गया। हज़ारों लोगों ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की। वरुण सिंह इकलौते शख्स थे जो 8 दिसंबर को तमिलनाड हेलिकॉप्टर हादसे में जीवित बच पाए थे जबकि अन्य  13 लोगों की मौके पर ही मौत हो गई थी जिसमें भारत के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) जनरल बिपिन रावत और उनकी पत्नी भी शामिल हैं।

इस बीच मध्य प्रदेश सरकार ने उनके परिवार को एक करोड़ रुपए की सहायता राशि देने का ऐलान किया है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने गुरुवार को कहा –
”मैं ग्रुप कैप्टन वरुण सिंह को श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। वरुण के पिता भी बहुत बहादुर हैं। पूरा परिवार देश के प्रति समर्पित है। हम इस दुख के समय में उनके साथ खड़े हैं।”

हेलिकॉप्टर क्रैश में गंभीर रूप से घायल होने के बाद भी वरुण सिंह एक हफ्ते से ज्यादा तक मौत से लड़ते रहे। हालांकि बहुत प्रयास के बाद भी चिकित्सक उन्हें बचा नहीं पाए। बेंगलुरु के मिलिट्री हॉस्पिटल में वरुण का इलाज चल रहा था, जहां बुधवार को उनका निधन हो गया था। गुरुवार की दोपहर ग्रुप कैप्टन वरुण सिंह का पार्थिव शरीर बेंगलुरु से भोपाल लाया गया और भोपाल के एयरपोर्ट रोड पर स्थित सिटी कॉलोनी में उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की गई।

यूपी में मिले चाचा-भतीजे के सुर

क्या दिखाएगी यह जोड़ी कमाल, अखिलेश–शिवपाल एक ही साईकिल पर सवार

आखिरकार समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव के बीच चुनावी तालमेल हो ही गया है। चाचा शिवपाल यादव और भतीजे अखिलेश यादव के बीच तनातनी की खबरे अक्सर आ ही जाती थी। जैसे चुनावी माहौल बनने लगा तो चाचा–भतीजे ने दोस्ती करने में देरी नहीं की।

बताते चलें, शिवपाल यादव ने अपने भाई मुलायम सिंह यादव के साथ रहकर जमीनी राजनीति की है। उनकी प्रदेश में अच्छी पकड़ मानी जाती है। उनके साथ जमीनी स्तर के कई बड़े-बड़े नेता आज भी जुड़े है। उनकी प्रदेश करीबी एक सौ ऐसी सीटें है। जहां पर उनका अच्छा खासा प्रभाव है।

शिवपाल यादव ने 2019 के लोकसभा के चुनाव में प्रगतिशील समाजवादी से लगभग 40-50 सीटों पर प्रत्याशी उतारें थे। जिसके कारण समाजवादी पार्टी को काफी नुकसान भी हुआ था।

समाजवादी पार्टी के समर्थक व उत्तर प्रदेश की सियासत में पकड़ रखने वाले पत्रकार बीरेन्द्र कुमार का कहना है कि समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव जानते है कि अगर प्रदेश की सियासत में पकड़ के साथ –साथ चुनाव भी जीतना है तो चाचा शिवपाल यादव की पार्टी से चुनाव का तालमेल जरूरी है।

बताते चलें, प्रदेश में चुनावी मुकाबला समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के बीच में ही है। मौजूदा समय में समाजवादी पार्टी को लेकर एम बाई फैक्टर को लेकर तरह –तरह की चर्चा हो रही है।कि इस बार अगर एम फैक्टर समाजवादी पार्टी के साथ नहीं जुड़ता है। तो चुनावी परिणाम कुछ और ही निकलेगें।क्योंकि कांग्रेस और बसपा भी एम वोट पर नजर लगाये हुये है।

चुनाव प्रचार समिति की बैठक, वरिष्ठ नेता जाखड़ नाराज नहीं

पंजाब कांग्रेस में चुनाव प्रचार समिति की पहली ही बैठक काफी हंगामेदार रहने से साफ़ हो गया है कि पंजाब कांग्रेस में चीजेँ अभी पूरी तरह पटड़ी पर नहीं आये हैं। सुनील जाखड़ की अध्यक्षता में बनी कमेटी की बुधवार को हुई इस बैठक से पहले कयास थे कि जाखड़ नाराज हैं और वे यह पद ग्रहण करेंगे भी या नहीं। हालांकि, यह अटकलें गलत साबित हुईं और उन्होंने कल बैठक की जिससे साफ़ हो गया कि वह नाराज नहीं हैं।

इस बैठक में आने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर चर्चा की गयी। बैठक में आने वाले विधानभा चुनाव को लेकर सभी नेताओं ने अपने-अपने विचार रखे। चुनाव प्रचार समिति का गठन हाल में कुछ अन्य समितियों के साथ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने किया था। उस समय ऐसा लग रहा था कि जाखड़, जिन्हें चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाया गया है, पार्टी से नाराज हैं। हालांकि, आज उनके इस समिति की बैठक की अध्यक्षता करने से जाहिर हो गया है कि शायद यह बात सही नहीं थी ।

हालांकि, आज की बैठक में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू ने हाल में पूरे राज्य में लगे मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के चेहरे वाले पोस्टरों पर सख्त ऐतराज जता दिया। उनका कहना था कि ऐसे पोस्टर में एक व्यक्ति की जगह पार्टी को तरजीह मिलनी चाहिए। जानकारी के मुताबिक बैठक में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू ने पूरे राज्य में मुख्यमंत्री के चेहरे वाले पोस्टर लगाने पर नाखुशी का इजहार किया।

जाखड़ ने मुख्यमंत्री चन्नी से अलग से भी बैठक की। बैठक में प्रचार समिति के अध्यक्ष जाखड़ के अलावा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू, सीएम चरणजीत सिंह चन्नी और वरिष्ठ मंत्री परगट सिंह ने भी हिस्सा लिया। रिपोर्ट के मुताबिक बैठक में सीएम चन्नी और पीसीसी प्रमुख सिद्धू के बीच मतभेद साफ़ तौर पर उजागर हुए। सिद्धू अभी भी दबाव वाली राजनीति खेल रहे हैं।

अभी तक पार्टी ने यह साफ़ नहीं किया है कि वह किसे मुख्यमंत्री का चेहरा बनाकर विधानसभा चुनाव में आगे करेगी। हालांकि, पार्टी के बड़े नेता यह संकेत ज़रूर कर चुके हैं कि वह तीन बड़े नेताओं सिद्धू, चन्नी और जाखड़ को साझे तौर पर आगे करके चुनाव लड़ेगी।

सोशल मीडिया कंपनियों पर नकेल कसने की तैयारी

व्हाट्सप्प, मेटा, ट्विटर के साथ-साथ साभी सोशल मीडिया कंपनियों पर नकेल कसने के लिए ‘पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन बिल’ पर बनी संयुक्त संसदीय समिति ने सोशल मीडिया के लिए रेगुलेटर बनाने की सिफारिश की है। संयुक्त संसदीय समिति ने आज यानी गुरुवार को संसद में अपनी रिपोर्ट सौंपी है। संयुक्त संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि, सोशल मीडिया कंपनियों के लिए भारत में अपने ऑफिस खोलना जरूरी है नहीं तो उन्हें ऑपरेट करने की अनुमति ना दी जाये।

रिपोर्ट में सोशल मीडिया के लिए रेगुलेटर बनाने की सिफारिश के साथ यह भी कहा गया है कि कंपनियां उपभोक्ताओं का अकाउंट अनिवार्य रूप से वेरीफाई करें। यदि कंपनियां अगर यूजर को वेरिफाई नहीं करती हैं तो कंपनियों को ही पब्लिशर माना जाए और इसके अलावा उनकी जवाबदेही भी तय की जाए।

समिति ने छोटे फर्मों को इससे अलग रखने की बात कही है, इसके लिए, डीपीए को कानून बनाने की बात कही गई है जिसके तहत एक सीमा तय कर डाटा जुटाने से जुड़ीं छोटी कंपनियों को अपवाद के तौर पर सूचीबद्ध किया जा सके, ताकि एमएसएमई के तहत आने वाली फर्मों के विकास में बाधा न आए।

‘डाटा प्रोटेक्शन बिल’ को पहली बार 2019 में संसद में लाया गया था और उस समय इसे सांसदों की मांग के मुताबिक संयुक्त संसदीय समिति के पास जांच के लिए भेजा गया था। यह विधेयक एक ऐतिहासिक कानून है, जिसका उद्देश्य यह विनियमित करना है कि विभिन्न कंपनियां और संगठन भारत के अंदर व्यक्तियों के डेटा का इस्तेमाल कैसे करते है।

संसद की संयुक्त समिति ने ‘पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन बिल’ में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को पब्लिशर्स के रूप में मानने के साथ-साथ उससे जुड़े डाटा की निगरानी और जांच के अधिकार को भी विधेयक के दायरे लाने की सिफारिश की थी। दो साल के विचार-विमर्श के बाद इस विधेयक में सुधार से जुड़े सुझावों को 22 नवंबर को स्वीकार कर लिया गया था।

समिति के प्रमुख पूर्व मंत्री व भाजपा सांसद पीपी चौधरी ने कहा कि, सरकार और उसकी एजेंसियों के डाटा को लेकर प्रक्रिया आगे बढ़ाने से उसी स्थिति में छूट दी गई है, जब इसका उपयोग लोगों के फायदे के लिए हो। उन्होंने यह भी कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े विषयों पर किसी तरह की अनुमति की जरूरत नहीं होगी।

‘पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन बिल’ के दायरे को बढ़ाने के लिए संसदीय समिति ने अपने सुझावों में गैर-व्यक्तिगत डाटा और इलेक्ट्रॉनिक हार्डवेयर द्वारा जुटाए जाने वाले डाटा को भी इसके अधिकार क्षेत्र में शामिल किया था। साथ ही सभी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को भी इसमें शामिल करने का सुझाव दिया गया था।

संसद की संयुक्त समिति ने इस विधेयक को लेकर कुल 93 अनुशंसाएं की है। जेसीपी का कहना है कि इस विधेयक में सरकार के कामकाज और लोगों की निजता की सुरक्षा के बीच संतुलन बनाने का पूरा प्रयास किया गया है। समिति के सुझावों में उस प्रावधान को बरकरार रखा गया है, जो सरकार को अपनी जांच एजेंसियों को इस प्रस्तावित कानून के दायरे से मुक्त रखने का अधिकार देता है।

समिति के प्रमुख पीपी चौधरी ने कहा, “सदस्यों और दूसरे संबंधित पक्षों के साथ गहन विचार-विमर्श के बाद यह रिपोर्ट तैयार किया गया है। सहयोग के लिए मैं सभी सदस्यों का आभार प्रकट करता हूँ, इस प्रस्तावित कानून का वैश्विक असर होगा और  डाटा सुरक्षा को लेकर अंतरराष्ट्रीय मानक भी तय होगा”।

समिति के प्रमुख ने कहा की इस कानून से देश की डिजिटल अर्थव्यवस्था पर सीधा असर पड़ने वाला है | संसदीय समिति ने डाटा जुटाने वाली फर्मों को कुछ समय देने की बात कही है ताकि वो कानून के हिसाब से अपनी नीतियों, बुनियादी ढांचे और प्रोसेस को तैयार कर सकें | समिति ने सुझाव दिया है कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर पब्लिश होने वाले या पोस्ट किए जाने वाले कंटेंट की निगरानी व नियमों के लिए भी एक ऑथोरिटी बनाई जाए।

राज्यसभा में कांग्रेस के मुख्य सचेतक जयराम रमेश और विवेक तन्खा, लोकसभा में मनीष तिवारी और गौरव गोगोई ; तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सांसद डेरेक ओ’ब्रायन और लोकसभा सांसद महुआ मोइत्रा और बीजू जनता दल के राज्यसभा सांसद अमर पटनायक ने समिति की कुछ सिफारिशों को लेकर अपनी असहमति जताई थी।

विपक्षी सदस्यों की ओर से मुख्य रूप से इसको लेकर विरोध जताया गया था कि केंद्र सरकार को अपनी एजेंसियों को कानून के दायरे से छूट देने के लिए बेहिसाब ताकत दी जा रही है। उन सांसदों ने यह कहते हुए विरोध किया कि इसमें निजता के अधिकार की सुरक्षा सुनिश्चित करने के उचित उपाय नहीं किए गए है।

असहमति के नोट में यह भी सुझाव दिया गया था कि विधेयक की सबसे महत्वपूर्ण धारा 35 तथा धारा 12 में संशोधन किया जाए। धारा 35 केंद्र सरकार को असीम शक्तियां देती हैं कि वह किसी भी सरकारी एजेंसी को इस प्रस्तावित कानून के दायरे से बाहर रख दे न|कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने समिति के कामकाज को लेकर असहमति का विस्तृत नोट सौंपते हुए दावा किया था कि यह प्रस्तावित अधिनियम, कानून की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाएगा।

दुनिया की बड़ी कम्पनियों में भारतीय सीईओ का डंका

जब पराग अग्रवाल को हाल में ट्विटर इंक का सीईओ नियुक्त किया गया, तो एक बार फिर कोई भारतीय-अमेरिकी प्रमुख वैश्विक प्रौद्योगिकी दिग्गज बनकर सुर्ख़ियों में आ गया। अग्रवाल का जन्म 21 मई, 1984 को राजस्थान के अजमेर में हुआ था और उनके पिता परमाणु ऊर्जा विभाग में एक वरिष्ठ अधिकारी थे, जबकि उनकी माँ शिक्षिका थीं। पराग ने 2001 में तुर्की में अंतरराष्ट्रीय भौतिकी ओलंपियाड में स्वर्ण पदक जीता और आईआईटी बॉम्बे से कम्प्यूटर विज्ञान में इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त की और फिर स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय से कंप्यूटर विज्ञान में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। ट्विटर के सह-संस्थापक और पूर्व सीईओ जैक पैट्रिक डोरसी ने 29 नवंबर, 2021 को घोषणा की कि वह ट्विटर के सीईओ के रूप में इस्तीफ़ा दे रहे हैं और अग्रवाल तत्काल प्रभाव से उनकी जगह ले रहे हैं।

यह नियुक्तियाँ भारत की शीर्ष स्तर की प्रबन्धन प्रतिभा को उजागर करती हैं। शीर्ष स्तर पर आईटी पेशेवरों का वैश्विक दिग्गजों के साथ नेतृत्व करना निश्चित ही बड़ी उपलब्धि है। इसने भारत की सॉफ्ट पॉवर को एक नया आयाम दिया है। माइक्रोसॉफ्ट के सत्या नडेला से लेकर अल्फाबेट के सुंदर पिचाई और एबोड के शांतनु नारायण और आईबीएम के अरविंद कृष्ण, माइक्रोन टेक्नोलॉजी के संजय मेहरोत्रा से पालो ऑल्टो नेटवक्र्स के निकेश अरोड़ा तक और वीएमवेयर के रंगराजन रघुराम से लेकर अरिस्टा नेटवक्र्स जयश्री उल्लाल तक, वैश्विक प्रौद्योगिकी सीईओ की सूची में भारतीयों का नाम हर देशवासी गौरवान्वित कर रहा है।

इसमें कोई शक नहीं कि सांसद शशि थरूर ने इस नियुक्ति के तुरन्त बाद ट्वीट किया कि जितना हमें भारत पर गर्व है, उतना ही भारत को हम पर गर्व है। साथ ही ट्वीट में उन्होंने वैश्विक प्रौद्योगिकी कम्पनियों का नेतृत्व करने वाले शीर्ष भारतीयों की सूची भी संलग्न की है। ग़ैर-तकनीकी क्षेत्र में कई भारतीय अग्रणी वैश्विक फर्म हैं। इनमें इवान मेनेजेस, डियाजियो के सीईओ; नोवार्टिस के वास नरसिम्हन, बाटा के संदीप कटारिया, डेलॉइट के पुनीत रेनजेन, रेकिट बेंकिज़र के लक्ष्मण नरसिम्हन, जीएपी के सोनिया सिंघल, बकार्डी मार्टिनी के महेश माधवन और परफेटी वैन मेल के समीर सुनेजा आदि हैं। भारतीय सीईओ का उदय इस तथ्य की एक मज़बूत पुष्टि करता है कि दुनिया प्रतिभा को पहचानती है, जिससे सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा को शीर्ष पर पहुँचने में मदद मिलती है। भले ही नस्ल, राष्ट्रीयता या पृष्ठभूमि कुछ भी हो। दुनिया भर में वे योग्यता को पुरस्कृत करते हैं। यह भी ज़ाहिर होता है कि सभी के लिए एक अवसर है। यदि आप अपनी कड़ी मेहनत करते हैं और परिणाम देते हैं, तो वे आपको शीर्ष पर ले जाएँगे। नब्बे के दशक तक, कॉरपोरेट क्षेत्र के शीर्ष क्षेत्रों में बहुत कम भारतीय अमेरिकी थे; लेकिन नब्बे के दशक के मध्य में यह सिलसिला बदल चुका था। सन् 2000 के दशक तक काफ़ी अधिक भारतीय अमेरिकी सीईओ के पद पर नियुक्त हो गये थे।

सन् 2001 में जब पेप्सिको ने इंद्रा नूयी को अपना सीईओ नियुक्त किया, तो वह फॉच्र्यून 100 कम्पनी का नेतृत्व करने वाली पहली भारतीय अमेरिकी महिला बनीं। नूयी, जिनका जन्म मद्रास (अब चेन्नई) में हुआ; ने पेप्सिको का अध्यक्ष और सीईओ बनकर देश को गौरवान्वित किया था। उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से भौतिकी, रसायन विज्ञान और गणित में स्नातक की डिग्री और आईआईएम, कोलकाता से स्नातकोत्तर कार्यक्रम प्राप्त किया। सन् 1978 में नूयी को येल स्कूल ऑफ मैनेजमेंट में दाख़िल कराया गया और वह संयुक्त राज्य अमेरिका चली गयीं, जहाँ उन्होंने सन् 1980 में सार्वजनिक और निजी प्रबन्धन में मास्टर डिग्री हासिल की। भारत में अपने करियर की शुरुआत करते हुए नूयी ने जॉनसन एंड जॉनसन में उत्पाद प्रबन्धक और बोस्टन में रणनीति परामर्श समूह में बतौर सलाहकार के पद पर कार्य किया। वह लगातार दुनिया की 100 सबसे शक्तिशाली महिलाओं में स्थान पाती रही हैं।

दरअसल सन् 2014 में फोब्र्स की दुनिया की 100 सबसे शक्तिशाली महिलाओं की सूची में नूयी को 13वें स्थान पर रखा गया था और सन् 2015 में फॉच्र्यून सूची में उन्हें दूसरी सबसे शक्तिशाली महिला का दर्जा हासिल हुआ। फिर सन् 2017 में उन्हें फोब्र्स की व्यापार में 19 सबसे शक्तिशाली महिलाओं की सूची में, फिर दूसरी सबसे शक्तिशाली महिला का दर्जा दिया गया। राजस्व पर एक नज़र डालने से पता चलता है कि कई भारतीय अमेरिकी सीईओ अमेरिकी कम्पनियों का नेतृत्व करते हैं, जिन्होंने इस स्तर पर संयुक्त राजस्व जुटाया, जो कई देशों के सकल घरेलू उत्पाद से भी अधिक था। यह भारतीय सीईओ के लिए अपने सपनों को जीने का शुभ संकेत है। बैंकिंग एक और स्थान है, जहाँ भारतीयों की नेतृत्व में महत्त्वपूर्ण वैश्विक उपस्थिति है- अक्सर इस संख्या का श्रेय भारतीयों के तेज़ दिमाग़ को दिया जाता है। याद करें विक्रम पंडित को, जो सन् 2007 से 2012 के बीच सिटी के ग्लोबल सीईओ रहे। कुछ साल पहले तक ड्यूश बैंक चलाने वाले अंशु जैन को हटाकर सिंगापुर के डीबीएस बैंक का सीईओ पीयूष गुप्ता को बनाया गया। इसी तरह सुंदर पिचाई को जो गूगल के सीईओ हैं। गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई का जन्म तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में हुआ था और वह इसी शहर में पले-बढ़े। पिचाई ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान-खडग़पुर से बी.टेक की डिग्री हासिल की और स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग और मटीरियल साइंस में एमएस और व्हार्टन स्कूल से एमबीए किया है। वह सन् 2015 से गूगल का नेतृत्व कर रहे हैं। उन्होंने तत्कालीन सीईओ और संस्थापक लैरी पेज का स्थान लिया था।

माइक्रोसॉफ्ट के अध्यक्ष के रूप में स्टीव बाल्मर की जगह लेने वाले सत्य नडेला का जन्म 19 अगस्त, 1967 को हैदराबाद में हुआ था। उन्होंने सन् 1988 में मणिपाल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, कर्नाटक से इलेक्ट्रिकल इंजीनियर में स्नातक स्तर तक की डिग्री हासिल की। इसके बाद उन्होंने सन् 1990 में अमेरिका के विस्कॉन्सिन-मिल्वौकी विश्वविद्यालय में कम्प्यूटर विज्ञान में मास्टर डिग्री हासिल की और सन् माइक्रोसिस्टम्स में अपना करियर शुरू किया। सीईओ बनने से पहले उन्होंने माइक्रोसॉफ्ट के क्लाउड एंड एंटरप्राइज ग्रुप के कार्यकारी उपाध्यक्ष के रूप में कार्य किया था। हैदराबाद में जन्मे नडेला ने सन् 1992 में माइक्रोसॉफ्ट में शामिल होने से पहले सन माइक्रोसिस्टम्स में काम किया। उन्होंने भारत में मणिपाल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। विस्कॉन्सिन-मिल्वौकी विश्वविद्यालय से एमएस और शिकागो बूथ स्कूल विश्वविद्यालय से एमबीए किया।

एडोब के सीईओ शांतनु नारायण का जन्म हैदराबाद में हुआ। वह सन् 2007 से एडोब इंक के सीईओ रहते हुए कम्पनी में बदलाव का नेतृत्व कर रहे हैं और इसके रचनात्मक और डिजिटल दस्तावेज़ सॉफ्टवेयर फ्रैंचाइजी को आगे बढ़ा रहे हैं। सन् 1998 में दुनिया भर में उत्पाद विकास के वरिष्ठ उपाध्यक्ष के रूप में एडोब में शामिल होने से पहले नारायण ने सन् 1986 में सिलिकॉन वैली स्टार्ट-अप मेजऱक्स ऑटोमेशन सिस्टम के साथ काम किया और बाद में सन् 1989 से 1995 तक ऐपल में रहे। सन् 1996 में उन्होंने पिक्टरा इंक नाम की कम्पनी की सह-स्थापना की, जिसने इंटरनेट पर डिजिटल फोटो शेयरिंग की अवधारणा का बीड़ा उठाया। नारायण पूर्व अमेरिकी राष्टट्रपति बराक ओबामा के प्रबन्धन सलाहकार बोर्ड के सदस्य भी थे। उन्होंने यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, उस्मानिया यूनिवर्सिटी से इलेक्ट्रॉनिक्स और कम्युनिकेशन इंजीनियरिंग में स्नातक, यूसी बर्कले से एमबीए और बॉलिंग ग्रीन स्टेट यूनिवर्सिटी से कम्प्यूटर साइंस में मास्टर डिग्री प्राप्त की।

अरविंद कृष्ण भी भारतीय मूल के हैं और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर के पूर्व छात्र हैं। सन् 1990 के दशक में कम्प्यूटर हार्डवेयर कम्पनी आईबीएम में शामिल हुए। उन्हें जनवरी, 2020 में गिन्नी रोमेट्टी के स्थान पर आईबीएम के सीईओ के रूप में नियुक्त किया गया था। आईबीएम के सूचना प्रबन्धन सॉफ्टवेयर और सिस्टम और प्रौद्योगिकी समूह में महाप्रबन्धक की भूमिका निभाने के बाद वह आईबीएम रिसर्च के वरिष्ठ उपाध्यक्ष और बाद में आईबीएम के क्लाउड और संज्ञानात्मक सॉफ्टवेयर डिवीजन के वरिष्ठ उपाध्यक्ष बने। अब वह कृष्णा कम्पनी के निर्माण के लिए अग्रणी हैं और उसका विस्तार कर रहे हैं।

पालो ऑल्टो नेटवर्क के अध्यक्ष और मुख्य कार्यकारी अधिकारी निकेश अरोड़ा ने सॉफ्टबैंक कॉर्प के उपाध्यक्ष और सॉफ्टबैंक इंटरनेट एंड मीडिया, इंक. (सिमी) के सीईओ के रूप में भी कार्य किया है। उन्होंने सन् 1989 में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, वाराणसी से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री प्राप्त की थी।

क़ानून के ख़िलाफ़ आवाज़

Neiphiu Rio, Chief Minister of the northeastern state of Nagaland, places a wreath on a coffin during a mass funeral of civilians who were mistakenly killed by security forces, in Mon district of Nagaland, India, December 6, 2021. REUTERS/Stringer

नागालैंड में सेना के हाथों 14 लोगों की मौत के बाद अफ्सपा हटाने की माँग तेज़

देश भर में जहाँ-जहाँ अफ्सपा लागू है, वहाँ से अक्सर इस क़ानून के दुरुपयोग के आरोप समय-समय पर लगते रहे हैं। पूर्वोत्तर हो या जम्मू-कश्मीर या देश के दूसरे राज्य, लोगों का आरोप है कि सुरक्षा बलों को अपनी ही जनता के ख़िलाफ़ इतने असीमित अधिकार दे देने से मानवाधिकार के उल्लंघन की घटनाएँ बड़े पैमाने पर होती रही हैं। अब नागालैंड के सोम ज़िले में काम से लौट रहे ग्रामीण युवकों को ले जा रही एक पिकअप बैन पर सेना द्वारा अकारण गोलीबारी से 14 लोगों की मौत से व्यापक जनाक्रोश पैदा हो गया है। नागालैंड की इस घटना पर नवा ठाकुरिया की ग्राउंड ज़ीरो रिपोर्ट :-

सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम-1958 (एएफएसपीए) के ख़िलाफ़ वैसे तो पूर्वोत्तर भारत में हमेशा ही विरोध के सुर मज़बूत रहे हैं; लेकिन हाल में सेना की गोलीबारी में 14 लोगों की मौत ने आग में घी का काम किया है। वर्षों पहले मणिपुर ने इस कठोर क़ानून के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर विद्रोह देखा था, जो उग्रवाद विरोधी अभियानों में लगे हुए सुरक्षाकर्मियों को अशान्त क्षेत्रों में उनकी उपयुक्तता के अनुसार नागरिक अदालतों से पूरी छूट के साथ कार्य करने का अधिकार देता है। यही वो दौर था, जब टी. मनोरमा देवी और शर्मिला इरोम चन्नू क्षेत्र में अफ्सपा विरोधी स्थिति के दौरान मैतेई समाज में लगभग देवताओं के रूप में उभरे।

हाल ही में नागालैंड के ओटिंग गाँव की घटना के साथ विरोध के स्वर फिर जीवंत हो गये हैं। इस घटना में अफ्सपा के इस्तेमाल के कारण 14 नागरिकों की जान चली गयी। अब स्थानीय गाँवों से लेकर राज्य स्तर के संगठनों तक, उत्तर-पूर्व से लेकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संस्थानों की तरफ से छ: दशक पुराने अधिनियम के ख़िलाफ़ आवाज़ और बुलंद हो गयी है और इसे तत्काल निरस्त करने की माँग ज़ोर पकड़ रही है। कुछ संगठनों ने नई दिल्ली में केंद्र सरकार को क़ानून के ख़िलाफ़ चुनौती दी है और इसमें आतंकवाद से त्रस्त मध्य भारतीय प्रान्त के लोग शामिल हैं।

यह 4 दिसंबर, 2021 की घटना है, जब नागालैंड के मोन ज़िले से बेहद परेशान करने वाली यह ख़बर आयी। जहाँ सुरक्षा बलों ने तिरू घाटी कोयला खदान में दैनिक काम से निपटकर गाँव लौट रहे युवाओं के एक समूह को ले जा रहे एक वाहन पर गोलियाँ चला दीं। भारतीय सेना के 21 पैरा कमांडोज को तिरू-ओटिंग ग्रामीण इलाक़े में कुछ सशस्त्र विद्रोहियों के आन्दोलन के बारे में एक जानकारी मिली थी। इसके बाद पैरा कमांडोज ने घात लगाकर इन लोगों के वाहन पर हमला किया। दरअसल सशस्त्र विद्रोहियों के वाहन की जगह कुछ ही देर में जब युवकों की गाड़ी वहाँ पहुँची सुरक्षाकर्मियों ने उसे रुकने का आदेश दिया। लेकिन कथित तौर पर वाहन धीमा नहीं हुआ, तो यह सन्देह करते हुए उन्होंने उस पर फायरिंग कर दी कि विद्रोही उसमें यात्रा कर रहे थे।

वाहन में सवार छ: लोगों की मौके पर ही मौत हो गयी और दो गम्भीर रूप से घायल हो गये। किसी भी यात्री के पास हथियार या गोला-बारूद नहीं होने की ग़लती का अहसास होने के तुरन्त बाद, सुरक्षाकर्मी इन घायल ग्रामीणों को पास के अस्पताल ले गये। लेकिन इस घटना के बाद ग्रामीणों में जबरदस्त नाराज़गी उभर आयी और वहाँ हंगामा मच गया। ग़ुस्से से भरे लोगों ने अलग-अलग जगह सुरक्षा बलों को निशाना बनाया। दो दिनों के भीतर, विरोध-प्रदर्शनों में आठ अन्य ग्रामीण मारे गये, जबकि असम राइफल्स के एक जवान की भी जान चली गयी।

घटनाओं की श्रृंखला में 14 ग्रामीणों को खोने वाले ओटिंग के निवासी, अफ्सपा को तत्काल रद्द करने की ज़ोरदार माँग के साथ जनजातियों के शीर्ष निकाय (कोन्याक संघ) के तहत सडक़ों पर उत्तर आये। नागरिक समाज समूहों, मानवाधिकार संगठनों, क्षेत्र के राजनीतिक दल के नेताओं के अलावा नागालैंड के मुख्यमंत्री नेफिउ रियो और उनके मेघालय समकक्ष (कॉनराड के संगमा) ने भी इस क़ानून को निरस्त करने की माँग की है। पीडि़तों को श्रद्धांजलि देते हुए रियो ने एफएसपीए के ख़िलाफ़ कड़ा बयान दिया। रियो ने ओटिंग हत्याओं को अफ्सपा के दुरुपयोग और दुरुपयोग का स्पष्ट उदाहरण बताया। घटना में 14 कोन्याक ग्रामीणों के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए उन्होंने लोगों से संयम बरतने का आग्रह किया और कहा कि यह अहिंसा से क्रूरता को हराने का समय है।

मेघालय के मुख्यमंत्री संगमा, भले ही उनके राज्य में एएफएसपीए लागू नहीं है; ने भी इस क़ानून को निरस्त करने का आह्वान किया और कहा कि वह व्यक्तिगत रूप से केंद्रीय मंत्रालय के साथ इस मुद्दे को उठाएँगे। संगमा ने स्पष्ट रूप से कहा कि सोम की घटना साबित करती है कि आज के समाज में अफ्सपा के लिए कोई जगह नहीं है।

मामला संसद तक पहुँचा, जहाँ केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने यह स्वीकार करते हुए एक बयान दिया कि यह ग़लत पहचान का मामला है। शाह ने यह भी कहा कि नागालैंड में स्थिति गम्भीर बनी हुई है; लेकिन पूरी तरह नियंत्रण में है। उन्होंने कहा कि केंद्र घटना पर ख़ेद व्यक्त करता है और पीडि़त परिवारों के प्रति संवेदना व्यक्त करता है। उन्होंने बताया कि मामले की जाँच के लिए एक विशेष जाँच दल का गठन किया गया है, जिसे एक महीने के भीतर अपनी रिपोर्ट देने को कहा गया है।

हालाँकि कोन्याक संघ ने शाह के बयान का कड़ा विरोध किया और यहाँ तक कि उनसे माफ़ी माँगने की भी माँग की, जिसमें आरोप लगाया गया था कि केंद्रीय गृह मंत्री ने संसद को ओटिंग नरसंहार के बारे में ग़लत जानकारी दी थी। एक बयान में कहा गया कि शाह को कोन्याक लोगों और नागालैंड के निवासियों से स्पष्ट करना चाहिए और उनसे माफ़ी माँगनी चाहिए। कोन्याक लोगों के मंच ने इस बात पर भी नाराज़गी व्यक्त की कि भारत में स्थित समाचार चैनलों सहित कुछ मीडिया आउटलेट्स ने इसे सुरक्षा बलों और एनएससीएन विद्रोहियों के बीच एक टकराव के रूप में पेश करने की कोशिश की।

इससे पहले सेना ने एक बयान जारी करके घटना पर खेद जताया। उसने घटना की जाँच का भी वादा किया। नागालैंड पुलिस ने इस घटना को लेकर सुरक्षा बलों के ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज की और कोहिमा में सरकार ने प्रत्येक पीडि़त के परिवार को 5-5 लाख रुपये की अनुग्रह राशि देने की घोषणा की। यहाँ तक कि नागालैंड (असम भी) के राज्यपाल प्रोफेसर जगदीश मुखी ने भी आधिकारिक तौर पर इस घटना की निंदा की।

अब राज्यपाल द्वारा सोम नागरिकों की हत्याओं की पृष्ठभूमि में अफ्सपा पर चर्चा के लिए 20 दिसंबर को नागालैंड विधानसभा का विशेष सत्र बुलाने की उम्मीद है। विशेष सत्र, जिसके लिए नागा मदर्स एसोसिएशन, नागा स्टूडेंट्स फेडरेशन, आदि सहित विभिन्न नागा समूहों द्वारा माँग की गयी थी, आफ्सपा को निरस्त करने के लिए एक प्रस्ताव पारित कर सकता है। इससे पहले 7 दिसंबर को रियो सरकार की एक आपात मंत्रिमंडल की बैठक में नागालैंड से अफ्सपा को तुरन्त ख़त्म करने का सर्वसम्मत निर्णय किया गया था। नागालैंड के पूर्व मुख्यमंत्री टी.आर. जेलियांग ने कहा कि कोई भी कारण नागरिकों की हत्या को सही नहीं ठहरा सकता। उन्होंने कहा कि अफ्सपा हमारे लोगों के लिए केवल दर्द और पीड़ा लेकर आया है।

यहाँ तक कि नागालैंड भाजपा के अध्यक्ष तेमजेन इम्मा अलोंग, जो रियो के मंत्रिमंडल में मंत्री भी हैं; ने भी इस घटना को नरसंहार क़रार दिया। कोन्याक यूनियन कोहिमा के अध्यक्ष एच. अंगनेई कोन्याक ने अफ्सपा को रद्द करने का आह्वान किया। इस बीच एच.के. झिमोमी के नेतृत्व में एक नागा होहो प्रतिनिधिमंडल ने ग्रामीणों के प्रति अपनी एकजुटता बढ़ाने के लिए ओटिंग गाँव का दौरा किया। वे कठोर क़ानून को निरस्त करने की माँग से एकमत थे।

विद्रोही संगठन नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड ने तुरन्त टिप्पणी की कि अफ्सपा की छाया में चल रही शान्ति वार्ता फलदायी नहीं होगी। बता दें कि यह कुख्यात अधिनियम सुरक्षाकर्मियों (यहाँ तक कि एक ग़ैर-कमीशन अधिकारी) को ग़िरफ़्तार करने का अधिकार देता है। सशस्त्र संगठन ने कहा कि केवल सन्देह पर किसी भी व्यक्ति को गोली मरना या जान से मार देना एक कड़ुवा अनुभव है और नगाओं को आज तक कई मौक़ों पर अफ्सपा का कड़ुवा स्वाद चखना पड़ा है। संगठन ने ज़ोर देकर कहा कि किसी भी कारण से रक्त और राजनीतिक बातचीत एक साथ नहीं चल सकती।

नागालैंड के मोरुंग एक्सप्रेस अख़बार ने इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के एक चश्मदीद का हवाला देते हुए बताया कि पीडि़तों द्वारा माँगा गया न्याय अफ्सपा को निरस्त करना ही होगा, ताकि भविष्य में ऐसी कोई घटना न हो (न तो नागालैंड में और न ही देश में कहीं भी)। मनलेई, जिनका अभी भी चोटों के लिए चिकित्सा उपचार चल रहा है; ने दावा किया कि उन्हें एक सुरक्षा व्यक्ति ने केवल शवों के बारे में पूछताछ करने के लिए गोली मार दी थी। साथी ग्रामीणों द्वारा उन्हें जल्द ही एक अस्पताल ले जाया गया। मनलेई ने ख़ुलासा किया कि उनका छोटा भाई शोमाँग उन आठ युवकों में से एक था, जो एक पिकअप वाहन में काम करके घर लौट रहे थे और उन्हें सुरक्षा बलों की गोलियाँ खानी पड़ीं। शोमाँग सहित पाँच अन्य की मौके पर ही मौत हो गयी। बाद में मनलेई उस स्थान पर पहुँचे और देखा कि वाहन ख़ून से अटा था। शुरू में उन्हें कुछ अन्य लोगों के साथ कोई शव नहीं मिला; लेकिन बाद में उन्हें एक सैन्य ट्रक से बरामद किया गया।

ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन, ऑल मणिपुर स्टूडेंट्स यूनियन, ऑल अरुणाचल प्रदेश स्टूडेंट्स यूनियन, खासी स्टूडेंट्स यूनियन, गारो स्टूडेंट्स यूनियन, मिजो जिरलाई पावल, ट्विपरा स्टूडेंट फेडरेशन सहित अपनी सम्बद्ध राज्य इकाइयों के साथ पूर्वोत्तर छात्र संगठन (एनईएसओ) आदि ने हाल ही में आफ्सपा प्रावधानों का लाभ उठाते हुए सुरक्षा बलों के निर्मम कृत्यों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन आयोजित किये। उनके कुछ नारों में ‘अफ्सपा निरस्त करना, दोषी सुरक्षा कर्मियों को दण्डित करना, पूर्वोत्तर की उपेक्षा करना बन्द करना और पूर्वोत्तर में शान्ति हो’ शामिल थे।

पत्रकार मानस प्रतिम डेका ने एंकरिंग में एक टेलीविजन डिबेट में भाग लेते हुए और आसु महासचिव शंकरज्योति बरुआ ने एक भाषण में गम्भीर आलोचनात्मक टिप्पणी की कि नई दिल्ली अभी भी मानती है कि कोलकाता के बाद भारत नहीं है। उन्होंने घोषणा की कि पूर्वोत्तर के स्वदेशी लोग ओटिंग के निवासियों के साथ एकजुटता से खड़े हैं, जिन्हें सम्मान के साथ जीने का पूरा अधिकार है। छात्र नेता ने केंद्र से यहाँ तक सवाल किया कि भारत की मुख्य भूमि के आतंक प्रभावित क्षेत्रों में अफ्सपा क्यों नहीं लागू किया जाता है।

असम जातीयतावादी युवा छात्र परिषद् के एक अन्य पैनलिस्ट पलाश चांगमई ने चेतावनी दी कि पूर्वोत्तर के लोग अब और अत्याचार बर्दाश्त नहीं करेंगे। उन्होंने सभी उत्तर-पूर्वी मुख्यमंत्रियों से अफ्सपा को ख़त्म करने के लिए एक साथ आने का आग्रह किया। राजनीतिक विश्लेषक आदिपी फुकन ने केंद्र से अफ्सपा की वैधता के बारे में भी पूछा, जो अब 63 साल का हो गया है। फुकन ने शो में प्रासंगिक सवाल उठाया कि पूर्वोत्तर में कब तक निर्दोष लोगों को आतंकित करने और सुरक्षाकर्मियों के मारने के लिए इसे लागू किया जाएगा?

फुकन ने कहा कि 21 पैरा कमांडो इलाकों और उसके निवासियों से परिचित नहीं थे। लेकिन उन्होंने शायद नागालैंड पुलिस और यहाँ तक कि असम राइफल्स (जो उन इलाकों में सुरक्षा ड्यूटी में लगी हुई है) को भी घात लगाकर हमला करने की सूचना नहीं दी। जल्दबाज़ी में उन्होंने वाहन पर फायरिंग की (जो कि सही नहीं था)। लेकिन बाद में असम राइफल्स के कैम्प को ग्रामीणों के ग़ुस्से का सामना करना पड़ा। जाँच में ये सभी तथ्य सामने आने चाहिए।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी, नई दिल्ली) ने मोन आर्मी ऑपरेशन में नागरिकों की हत्याओं पर रक्षा सचिव और केंद्रीय गृह सचिव और नागालैंड के मुख्य सचिव और पुलिस प्रमुख से विस्तृत रिपोर्ट माँगने के लिए नोटिस जारी किया। एनएचआरसी के एक बयान में कहा गया है कि आगजनी, दंगा और सैनिकों और असम राइफल्स कैंप पर हमले की कई अन्य घटनाओं को अंजाम दिया, जिसके परिणामस्वरूप एक सैनिक सहित अधिक घायल और मौतें हुई।

हॉन्गकॉन्ग स्थित एशियाई मानवाधिकार आयोग (एसीएचआर) ने भी नागालैंड की घटना पर एक बयान जारी किया, जिसका निचोड़ यह था कि ऑपरेशन में शामिल विशेष इकाई (सुरक्षा बलों की) ने मानक संचालन प्रक्रियाओं की धज्जियाँ उड़ाते हुए काम से लौट रहे निहत्थे नागरिकों को मार डाला। उन्होंने बिना किसी चेतावनी के गोलियाँ चला दीं, जो अमानवीय है। जब खनिकों के परिजन समय पर नहीं लौटने पर उनकी तलाश करने निकले, तो दूसरे दौर का ख़ूनी घटनाक्रम हो गया।

एसीएचआर ने कहा कि मीडिया घरानों की रिपोर्ट के अनुसार, जब ग्रामीणों ने यूनिट के वाहनों को देखा, तो उन्हें बताया गया कि उन्हें अस्पताल ले जाया गया। ख़ुद जाँच करने पर सुरक्षा बलों को उसमें ग्रामीणों के शव मिले। इसके बाद भी वहाँ  फायरिंग की गयी।

अधिनियम को एक औपनिवेशिक अवशेष बताते हुए, जो अशान्त क्षेत्रों में तैनात सुरक्षा बलों को अफ्सपा की धारा-4 के तहत कोई भी कार्रवाई करने की शक्ति प्रदान करता है, आयोग ने कहा कि शायद इस बार भारत सरकार न केवल समझने की कोशिश कर रही है, बल्कि अपनी नियम पुस्तिकाओं में इस तरह के एक कठोर कृत्य की अवैधता, बल्कि इसके राजनीतिक सहयोगियों सहित लोगों की भावनाओं को भी दर्शाता है और इसे रद्द करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति को दर्शाता है।

राज्य के एक लोकप्रिय अंग्रेजी दैनिक नागालैंड पोस्ट ने इस मुद्दे पर अपने संपादकीय में कहा कि दुनिया भर के ईसाई क्रिसमस पर यीशु के जन्म का जश्न मनाने और फिर एक नये का स्वागत करने की तैयारी कर रहे हैं। 4 दिसंबर की इस दिल दहला देने वाली घटना से नागालैंड के लोग आज भी बाहर निकलने की कोशिश कर रहे हैं। विशेष रूप से ओटिंग गाँव के लोग और सामान्य रूप से मोन ज़िले के लोग, जो इस हादसे से बाहर आने की कोशिश कर रहे हैं। वे 21 पैरा कमांडो के विशेष बलों की एक इकाई द्वारा नागरिकों के नरसंहार पर काबू नहीं पा सकते हैं। पीडि़त परिवारों के लिए कोई भी अनुग्रह राशि या रोज़गार मलहम नहीं हो सकता है, बल्कि उनके गहरे दु:ख को कम करने की ज़रूरत है। वे यह कैसे भूल सकते हैं कि कैसे उनके प्रियजनों को बिना किसी कारण के गोली मार दी गयी।

सम्पादकीय में आगे कहा गया है कि अप्राकृतिक मौतों के कारण हुए दर्द और दु:ख ने न केवल राज्य या पूर्वोत्तर को, बल्कि उसके बाहर भी लोगों को पीड़ा का अहसास कराया है। यह उस घटना की भयावहता को दर्शाता है, जिसने कठोर सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) अधिनियम-1958 को फिर सुर्ख़ियों में ला दिया है। उन्होंने कहा कि सुरक्षा बलों की दोषी इकाई को न्याय के लिए अदालत में लाना त्रासदी का एक और महत्त्वपूर्ण पहलू है। नागालैंड के लोगों के लिए, अफ्सपा उन क्रूरताओं का जीता-जागता सुबूत है, जो पिछले 60 साल से उन पर थोपी गयी हैं। इस तरह के कठोर और काले क़ानून का लोकतांत्रिक देश में कोई स्थान नहीं होना चाहिए। इसमें कहा गया है कि 4 दिसंबर के नरसंहार के बाद, नई दिल्ली की प्रतिक्रिया चोट पर नमक डालने जैसी थी।

संपादकीय में दावा किया गया है कि नरसंहार में बच गये लोगों सहित अन्य के वाहन (सुरक्षा बलों द्वारा लक्षित) को बिना किसी चेतावनी और बिना किसी उकसावे के निशाना बनाया गया। इसमें कहा गया है कि केंद्र सरकार सभी तथ्यों को बिना किसी हेरफेर के सामने रखे और गृह मंत्री अमित शाह के बयान का विवादास्पद हिस्सा, जिसमें उन्होंने कहा कि यात्रा करने वाले युवाओं की ग़लत पहचान के कारण यह घटना हुई। इसे दुरुस्त करे, भले अब बहुत देर हो चुकी हो।

अफ्सपा का विरोध

साल के अन्त से पहले का पखवाड़ा काफ़ी उथल-पुथल भरा रहा है। भारत ने अपने पहले चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ, जनरल बिपिन रावत और 12 अन्य लोगों को तमिलनाडु में कुन्नूर के पास एक विमान दुर्घटना में खो दिया। इस पखवाड़े के दौरान ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अप्रत्याशित रूप से मुख्य माँगों को मान लेने के बाद किसानों ने दिल्ली की सीमाओं पर अपना साल भर का आन्दोलन वापस ले लिया। पखवाड़े के ही दौरान नागालैंड में सुरक्षाबलों की गोलीबारी में 14 नागरिकों की मौत से न केवल पूर्वोत्तर, बल्कि पूरे देश में आक्रोश फैल गया।

‘तहलका’ ने वर्तमान अंक में इन सभी घटनाओं को व्यापक रूप से कवर किया है। इस बार की हमारी कवर स्टोरी नागालैंड की ग्राउंड जीरो रिपोर्ट है। अब यह स्पष्ट है कि विद्रोहियों के सम्भावित आन्दोलन के बारे में सूचना अधपकी थी; भले यह पूरी तरह ग़लत नहीं थी। किसी भी मामले में ख़राब ख़ुफ़िया जानकारी के कारण बेगुनाहों की हत्या को सही नहीं ठहराया जा सकता है।

सेना ने इस घटना को लेकर कोर्ट ऑफ इंक्वायरी का आदेश दिया है, जबकि नागालैंड सरकार ने सच्चाई का पता लगाने के लिए एक विशेष जाँच दल का गठन किया है। ज़ाहिर है घटना से उभरी भावनाओं को उपचारात्मक स्पर्श प्रदान करने के लिए जाँच को तेज़ी से पूरा करने की आवश्यकता है। हालाँकि यह भी कडु़वा सच है कि पिछली जाँचों ने ज़्यादा विश्वास नहीं जगाया है; क्योंकि अफ्सपा के तहत आज तक किसी भी सुरक्षाकर्मी पर नागरिकों की हत्या का मामला नहीं बनाया गया है। जम्मू और कश्मीर एक उदाहरण है, जहाँ पिछले दो दशक के दौरान केंद्र ने सुरक्षा बलों के ख़िलाफ़ राज्य सरकार द्वारा अनुशंसित मामलों में अफ्सपा के तहत अभियोजन की मंज़ूरी नहीं दी है।

सरकार और सशस्त्र बलों द्वारा प्रदान किये गये तर्क के बावजूद दुर्भाग्यपूर्ण घटना स्पष्ट रूप से अफ्सपा के तहत सशस्त्र बलों को प्रदान की गयी अनंत शक्तियों का परिणाम है। यह अधिनियम वर्तमान में असम, नागालैंड, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश के तीन ज़िलों और असम की सीमा से लगे राज्य के आठ पुलिस स्टेशनों के अधिकार क्षेत्र में आने वाले क्षेत्रों में लागू है। नागालैंड के मुख्यमंत्री, नेफ्यू रियो और मेघालय के मुख्यमंत्री, कोनराड संगमा ने तुरन्त इस अधिनियम को निरस्त करने की माँग की है। यह समझने की ज़रूरत है कि अफ्सपा को बन्द किया जाना चाहिए और अधिनियम के राजनीतिक ग़ुस्से को जन्म देने से पहले इसे निरस्त करने की लम्बे समय से लम्बित माँग को स्वीकार किया जाना चाहिए।

प्राथमिकता यह सुनिश्चित करने की होनी चाहिए कि यह त्रासदी नागालैंड में और अधिक हिंसा और अस्थिरता में न बदल जाए। इस घटना में सरकार और नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालिम के बीच सौहार्द और नाज़ुक़ नागा शान्ति वार्ता को संकट में डालने की क्षमता है। इस समय एक उच्च स्तरीय राजनीतिक हस्तक्षेप की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नागालैंड की यात्रा पर विचार कर सकते हैं, और जो हुआ उसके बारे में ख़ेद जताने के साथ आश्वासन से सकते हैं कि सुरक्षा बलों में नागरिकों के विश्वास को बहाल करने के लिए यह फिर से नहीं होगा। निश्चित ही ऐसी पहल राजनीतिक विश्वसनीयता को मज़बूत करेगी और घटना के प्रति पश्चाताप भी वास्तविक लगेगा।

चरणजीत आहुजा

अलगाव को हवा देतीं घटनाएँ

क्या पूर्वोत्तर में सशस्त्र सेना विशेषाधिकार क़ानून (अफ्सपा) के तहत मिली शक्तियों के दुरुपयोग और मानवाधिकार के उल्लंघन की बढ़ती घटनाओं से जनता का आक्रोश अलगाववाद की भावना को हवा दे रहा है? यह सवाल हाल में नागालैंड में निहत्थे 13 लोगों के सेना की गोलीबारी में जान गँवाने के बाद और बड़े स्तर पर सामने आया है। इन राज्यों में हाल के वर्षों में सुरक्षा बलों के लोगों के हाथों महिलाओं के बलात्कार की कुछ घटनाओं के आरोपों के बाद लोगों में अफ्सपा को वापस लेने की माँग और तेज़ हुई है।

पूर्वोत्तर ही नहीं, जम्मू-कश्मीर और देश के नक्सल प्रभावित इलाकों में भी दशकों से इस क़ानून को वापस लेने की माँग बहुत ज़ोर-शोर से उठती रही है। क्योंकि लोगों का आरोप रहा है कि असीमियत शक्तियों वाले इस क़ानून का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग होता है। वे पिछले तीन दशक से इस क़ानून को वापस लेने की माँग कर रहे हैं। इसके लिए प्रदर्शन, आन्दोलन सब कुछ हुआ है। महिलाएँ सडक़ों पर उतरी हैं और इस क़ानून के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी है।

इस क़ानूनों के ख़िलाफ़ विरोध को देखते हुए ही सन् 2004 में यूपीए की केंद्र में आयी नयी सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में पाँच सदस्यों की एक समिति का गठन किया था, जिसे सुरक्षा बलों को विशेष अधिकार देने वाले आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल प्रोटेक्शन एक्ट (अफ्सपा) को लेकर अपनी सिफ़ारिशें देने को कहा गया था। समिति ने अपनी रिपोर्ट में अफ्स्पा क़ानून को हटाने की सिफारिश की थी। लेकिन इसके बाद इस रिपोर्ट पर कोई अमल नहीं हुआ। हालाँकि एक और समिति ने इस क़ानून को बनाये रखने की सिफ़ारिश की थी। अब इसी 4 दिसंबर को नागानैंड के मोन ज़िले में सेना के हाथों 13 लोगों की मौत के बाद इस क़ानून को लेकर देश भर में चर्चा शुरू हो गयी है।

संसद में कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों ने नागालैंड की घटना को लेकर जबरदस्त आक्रोश दिखाया। नागालैंड में जनता में तो इस घटना के प्रति ग़ुस्सा भडक़ा ही, राज्य के राजनीतिक नेता भी विरोध करने से ख़ुद को रोक नहीं पाये।

याद रहे अफ्सपा अंग्रेजों के शासन-काल का क़ानून है। भारत छोड़ो आन्दोलन के समय भारत के लोगों को कुचलने के लिए अपनी फ़ौज को अंग्रेजों ने आन्दोलनकारियों के हनन और दमन के कई ख़ास अधिकार दे दिये, जिनमें एक अफ्सपा भी था। लेकिन आज़ादी के बाद भी यह क़ानून बना रहा।

जवाहरलाल नेहरू जैसे लोकतंत्र और मानवाधिकार के प्रबल समर्थक नेता के होते हुए भी सन् 1958 में एक अध्यादेश के ज़रिये अफ्स्पा लाकर तीन महीने बाद इसे संसद की मंज़ूरी दिला दी गयी और 11 सितंबर, 1958 को अफ्सपा एक क़ानून बनकर लागू हो गया।

जब यह क़ानून बना, तो प्रारम्भ में इसे पूर्वोत्तर और पंजाब के उन क्षेत्रों में लगाया गया; जो उन दिनों अशान्त थे। दरअसल इन इलाक़ों की सीमाएँ ज़्यादातर पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश और म्यांमार से सटी थीं। इस एक्ट में सशस्त्र बलों को अशान्त क्षेत्रों में शान्ति बनाये रखने के लिए विशेष अधिकार दिये गये हैं; लिहाज़ा इसे लेकर स्थानीय लोग सुरक्षा बलों पर ज़्यादतियों के आरोप लगाते रहे हैं। सशस्त्र बल क़ानून का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को चेतावनी देने के बाद उस पर सीधे गोली चलाने का अधिकार सुरक्षा बल जवान के पास होता है।

ज़्यादतियों की सम्भावना इसलिए भी बढ़ जाती है, क्योंकि इस क़ानून में सैन्य बलों को बिना गिरफ़्तारी समन (अरेस्ट वारंट) के किसी व्यक्ति को सन्देह के आधार पर गिरफ़्तार करने, किसी परिसर में प्रवेश करने और तलाशी लेने का भी अधिकार है। देश-विरोधी घटना के समय तो यह अधिकार उचित माना जा सकता है; लेकिन यह तब अनुचित लगता है, जब आम नागरिकों को प्रताड़ित होना पड़ता है। लोगों के मानवाधिकार हनन के मामले में ऐसे स्थान ज्यादा हैं, जहाँ यह क़ानून लागू है।

यदि सरकारी लेखा-जोखा देखा जाए, तो आज की तारीख़ में यह क़ानून पूर्वोत्तर के सभी सात राज्यों- असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नागालैंड में लागू है। जबकि पंजाब, चंडीगढ़, जम्मू-कश्मीर समेत देश के नक्सल प्रभावित इलाक़ों छत्तीसगढ़ आदि में कई राज्यों में लागू किया जाता रहा है। वर्तमान में जम्मू-कश्मीर के अलावा नागानैंड, असम, मणिपुर (राजधानी इम्फाल के सात विधानसभा क्षेत्रों को छोडक़र) और अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में यह लागू है। त्रिपुरा, मिजोरम और मेघालय में से क़ानून को ज़रूरत के हिसाब से लगाया जाता है।

 

मानवाधिकार संगठनों की माँग

देखा जाए, तो देश भर के मानवाधिकार संगठन लम्बे समय से जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों से इस क़ानून को हटाने की वकालत करते रहे हैं। इन संगठनों का आरोप है कि इस क़ानून का दुरुपयोग होता है। इरोम शर्मिला को के अलावा सन् 2005 में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश बी.पी. जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाली समिति ने अपनी रिपोर्ट में अफ्सपा को ख़त्म करने की सिफ़ारिश की थी। पाँच सदस्यीय इस समिति ने 6 जून, 2005 को 147 पन्नों की रिपोर्ट सौंपी थी, जिसमें अफ्सपा को दमन का प्रतीक बताया गया था।

हालाँकि सेना और रक्षा मंत्रालय ने इस रिपोर्ट को लागू करने के ख़िलाफ़ कमर कस ली और इस विरोध के चलते केंद्र सरकार ने इस सिफ़ारिश को ख़ारिज कर दिया। सन् 2004 में मणिपुर में असम राइफल्स की हिरासत में एक महिला थंगजाम मनोरमा की मौत के विरोध में हुए आन्दोलन और इरोम शर्मिला द्वारा की जा रही अनिश्चितकालीन हड़ताल के चलते सन् 2004 में न्यायाधीश रेड्डी समिति का गठन हुआ था।

इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र में विशेष प्रतिवेदक क्रिस्टोफर हेंस ने 31 मार्च, 2012 को भारत से अफ्सपा हटाने की माँग की थी। उन्होंने कहा था कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में अफ्सपा जैसा कठोर क़ानून नहीं होना चाहिए। ह्यूमन राइट्स वॉच भी इस क़ानून को लेकर समय-समय पर आपत्तियाँ जताता रहता है। सन् 2019 के लोकसभा चुनाव के वक्त कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र में अफ्सपा को हटाने का वादा किया था। कांग्रेस ने कहा था कि अगर उसे केंद्र की सत्ता मिली, तो वह अफ्सपा ख़त्म कर देगी।

अब नागानैंड के मोन ज़िले में सुरक्षा बलों की गोलीबारी में आम नागरिकों के मारे जाने की घटना के बाद सशस्त्र बल (विशेष शक्ति) अधिनियम-1958 को वापस लेने की माँग फिर से ज़ोर पकडऩे लगी है। मेघालय की प्रतिपक्षी पार्टी कांग्रेस क़ानून वापस लेने की माँग कर रही है। घटना के बाद कांग्रेस विधायक आम्परिन लिंगदोह ने एक में कहा कि हमें अपने लोगों पर अत्याचार रोकने के लिए तत्काल इस क़ानून को वापस लिए जाने की माँग करना चाहिए। कृपया जल्द-से-जल्द बैठक बुलाएँ। सिविल सोसायटी, मानवाधिकार कार्यकर्ता और पूर्वोत्तर क्षेत्र के नेता वर्षों से इस क़ानून की आड़ में सुरक्षा बलों पर ज़्यादती करने का आरोप लगाकर इसकी वापसी की माँग कर रहे हैं।

 

कब, कहाँ लागू हुआ अफ्सपा?

अफ्सपा के अस्तित्व में आने के बाद पहली बार इसे 1 सितंबर, 1958 में असम और मणिपुर में लागू किया गया था। फिर सन् 1972 में कुछ संशोधनों के बाद इसे त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नागानैंड सहित पूरे पूर्वोत्तर भारत में लागू कर दिया गया। बाद में पंजाब, चंडीगढ़ और जम्मू-कश्मीर भी इसके दायरे में आया। भिंडरावाले के नेतृत्व में पंजाब में जब अलगाववादी आन्दोलन शुरू हुआ, तो अक्टूबर, 1983 में पूरे पंजाब और केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ में अफ्सपा लागू कर दिया गया।

बाद में भिंडरावाले के मौत के बाद सन् 1997 में पंजाब और चंडीगढ़ से अफ्सपा को वापस ले लिया गया था। त्रिपुरा में उग्रवाद शान्त होने पर मई, 2015 में अफ्सपा को हटाया गया था। वहाँ यह क़ानून 18 साल तक लागू रहा था। इसी तरह सन् 1990 के दशक में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने जोर पकड़ा, तो जम्मू-कश्मीर में भी अध्यादेश के ज़रिये अफ्सपा लागू किया गया। फिर एक साल बाद 5 जुलाई, 1990 को क़ानून बना दिया गया, जो वहाँ आज तक लागू है। इस क़ानून से लेह-लद्दाख़ का क्षेत्र प्रभावित नहीं है।

यह बहुत दिलचस्प है कि नागानैंड के उग्रवादी समूह का सन् 2015 में केंद्र सरकार के साथ समझौता हुआ था। तब एनएससीएन-आईएम के महासचिव थुंगलेंग मुइवा और सरकार के वार्ताकार आर.एन. रवि के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे। हालाँकि इस समझौते के बावजूद नागानैंड में अफ्सपा $कायम रहा। इस घटना के बाद वहाँ सुरक्षा बलों के ख़िलाफ़ जबरदस्त आक्रोश पैदा हो गया, जो हिंसा और आगजनी के रूप में सामने दिखा है।

अफ्सपा हटाने की पहल ख़ुद केंद्र सरकार कर सकती है। सम्बन्धित राज्य सरकार भी अफ्सपा को हटाने, उसकी अवधि बढ़ाने आदि को लेकर सिफ़ारिश कर सकती है; लेकिन अन्तिम फ़ैसला लेने का अधिकार राज्यपाल या केंद्र सरकार को ही प्राप्त है।

जहाँ तक इसे लागू करने के प्रावधान की बात है, तो भाषा, क्षेत्र, समुदाय, जाति, नस्ल आदि के आधार पर हिंसा या गहरे विवाद की स्थिति में उग्रवादी गतिविधियों और उपद्रव के मद्देनजर किसी इलाक़े या पूरे प्रदेश को अशान्त क्षेत्र घोषित किये जाने का प्रावधान है। अफ्सपा की धारा-3 में कहा गया है कि किसी प्रदेश (राज्य या केंद्र शासित प्रदेश) के राज्यपाल को वहाँ अलग-अलग आधार पर बने गुटों के बीच तनाव के कारण पैदा हुई अशान्ति के आधार पर भारत के राजपत्र में आधिकारिक सूचना जारी करवानी होती है। राजपत्र में सूचना निकलते ही सम्बन्धित क्षेत्र को अशान्त मान लिया जाता है और तब केंद्र सरकार वहाँ की पुलिस की शान्ति की बहाली के प्रयास में मदद के लिए सशस्त्र बलों को भेजती है।

नागानैंड घटना में तो सभी मानते हैं कि इस मामले में सुरक्षा बलों से चूक हुई है। ख़ुद गृहमंत्री ने घटना पर अफसोस जताया है और जाँच की भी घोषणा की है। लेकिन ऐसी घटनाओं पर सरकार क्या स्पष्टीकरण देती है? इससे बड़ा सवाल यह बनता है कि सरकारी स्पष्टीकरण को उस क्षेत्र के लोग किस तरह देखते हैं। ख़ासकर उत्तर-पूर्व के सन्दर्भ में देखा जाए तो ऐसे तमाम मामलों में जाँच की घोषणाएँ होती रही हैं; लेकिन उनका कोई ख़ास नतीजा निकलता नहीं देखा गया।

समस्या की जड़ अफ्सपा को ही माना जाता है। देखा जाए, तो पिछले 20 वर्षों के दौरान जम्मू-कश्मीर सरकार की ओर से आर्मी के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जितनी भी सिफ़ारिशें आयीं, केंद्र ने अफ्सपा के तहत उन सभी मामलों में मुक़दमा चलाने की इजाज़त देने से इन्कार कर दिया। स्वाभाविक ही अफ्सपा झेल रहे तमाम इलाक़ों में इसे काले क़ानून के रूप में देखा जाता है। इस बार भी घटना के बाद से अफ्सपा हटाने की माँग तेज़ हो गयी है। वहाँ तक कि भाजपा के सहयोगी दलों से जुड़े दो मुख्यमंत्री-नागानैंड के नेफ्यू रियो और मेघालय के कॉनराड के संगमा भी ऐसी माँग करने वालों में शामिल हो चुके हैं।

इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि आतंकवाद या उग्रवाद से निपटना काफ़ी मुश्किल काम है और सुरक्षा बलों को भी अपनी जान जोखिम में डाले रहते हुए ड्यूटी करनी पड़ती है। इसके बावजूद सुरक्षा बलों या आम लोगों के बीच इस तरह का अहसास जमने देना ठीक नहीं है कि सुरक्षा बलों के जवान कुछ भी करें, मगर उनके ख़िलाफ़ किसी तरह की क़ानूनी कार्रवाई नहीं होगी।

कई चर्चित मामलों में भी सुरक्षा बलों के ख़िलाफ़ किसी तरह की कार्रवाई न होने से ऐसा भाव बनने लगा है और यह भी एक वजह है कि कई विशेषज्ञ भी अफ्सपा हटाने की ज़रूरत बताते रहे हैं। खासकर चीन के साथ सीमा विवाद से गरमाये माहौल और म्यांमार में सैन्य सत्ता की वापसी के चलते सीमावर्ती राज्यों में बने हालात को ध्यान में रखें, तो अफ्सपा पर पुनर्विचार की यह ज़रूरत और बढ़ जाती है।

 

सेना का विरोध क्यों?

मणिपुर की बात करें, तो नवंबर 10 जुलाई, 2004 में आधी रात को एक महिला थंगजाम मनोरमा के साथ सेना के जवानों ने कथित रूप से रेप करके उसकी हत्या कर दी थी। बाद में मनोरमा का शव क्षत-विक्षत हालत में मिला था। घटना के बाद 15 जुलाई, 2004 को दर्ज़नों मणिपुरी महिलाओं ने नग्न होकर सेना के ख़िलाफ़ हाथ में तख्तियाँ लिए सडक़ों प्रदर्शन किया था। इन तख़्तियों पर लिखा था- ‘रेप मी’।

इस घटना के बाद देश भर में बहुत नाराज़गी उभरी। कई सामजिक संगठनों के इसके ख़िलाफ़ प्रदर्शन किये। इसके अलावा नवंबर, 2000 में मणिपुर में ही एक बस स्टैंड के पास 10 लोगों को सैन्य बलों ने गोली मार दी। घटना के वक़्त इरोम शर्मिला वहीं मौज़ूद थीं, जिन्होंने अफ्स्पा के विरोध में बाद में लगातार 16 साल तक अनशन किया। उस समय 29 साल की इरोम की यह भूख हड़ताल देश ही नहीं दुनिया भर में चर्चा में रही। अगस्त, 2016 में भूख हड़ताल ख़त्म करने के बाद उन्होंने अपनी पार्टी बनाकर चुनाव भी लड़ा; लेकिन सफल नहीं हुईं। राज्य ही नहीं दर्ज़नों मानवाधिकार संगठन और कार्यकर्ता इस क़ानून का जबरदस्त विरोध करते आये हैं। जम्मू-कश्मीर में भी यह क़ानून लागू है और सेना और सुरक्षा बलों पर आरोप लगते हैं, इसका दुरुपयोग किया जाता है। नक़ली मुठभेड़ों में आम लोगों की हत्या के दर्ज़नों आरोप लगाये जाते रहे हैं। इनमें कई आरोप सच साबित हुए हैं। हिरासत में लेकर प्रताडि़त करने के आरोप भी लगते हैं। राजनीतिक दल राजनीतिक आधार पर प्रताडऩा के आरोप लगाते हैं। इसमें गिरफ़्तारी भी मनमाने तरीक़े से होती है। क़ानून के तहत अर्धसैन्य बलों पर मुक़दमे बिना केंद्र की मंज़ूरी के नहीं हो सकते, लिहाज़ा यह आरोप लगते कि सेना के मनोवल के नाम पर जब कभी भी सैन्य बलों पर ऐसे आरोप लगते हैं, तो बहुत कम में ही कोई मामला दर्ज हो पाता है या पीडि़त को न्याय मिल पाता है। सरकार क़ानून के पक्ष में यह तर्क देती है कि इसके बिना आतंकी या उग्रवादी घटनाओं को रोकने में मदद नहीं मिल सकती। नक्सल प्रभाहित राज्यों में भी इस क़ानून का इस्तेमाल होता है। वहाँ भी लोगों के मानवाधिकार हनन के आरोप लगते रहे हैं।