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अफ्सपा का विरोध

साल के अन्त से पहले का पखवाड़ा काफ़ी उथल-पुथल भरा रहा है। भारत ने अपने पहले चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ, जनरल बिपिन रावत और 12 अन्य लोगों को तमिलनाडु में कुन्नूर के पास एक विमान दुर्घटना में खो दिया। इस पखवाड़े के दौरान ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अप्रत्याशित रूप से मुख्य माँगों को मान लेने के बाद किसानों ने दिल्ली की सीमाओं पर अपना साल भर का आन्दोलन वापस ले लिया। पखवाड़े के ही दौरान नागालैंड में सुरक्षाबलों की गोलीबारी में 14 नागरिकों की मौत से न केवल पूर्वोत्तर, बल्कि पूरे देश में आक्रोश फैल गया।

‘तहलका’ ने वर्तमान अंक में इन सभी घटनाओं को व्यापक रूप से कवर किया है। इस बार की हमारी कवर स्टोरी नागालैंड की ग्राउंड जीरो रिपोर्ट है। अब यह स्पष्ट है कि विद्रोहियों के सम्भावित आन्दोलन के बारे में सूचना अधपकी थी; भले यह पूरी तरह ग़लत नहीं थी। किसी भी मामले में ख़राब ख़ुफ़िया जानकारी के कारण बेगुनाहों की हत्या को सही नहीं ठहराया जा सकता है।

सेना ने इस घटना को लेकर कोर्ट ऑफ इंक्वायरी का आदेश दिया है, जबकि नागालैंड सरकार ने सच्चाई का पता लगाने के लिए एक विशेष जाँच दल का गठन किया है। ज़ाहिर है घटना से उभरी भावनाओं को उपचारात्मक स्पर्श प्रदान करने के लिए जाँच को तेज़ी से पूरा करने की आवश्यकता है। हालाँकि यह भी कडु़वा सच है कि पिछली जाँचों ने ज़्यादा विश्वास नहीं जगाया है; क्योंकि अफ्सपा के तहत आज तक किसी भी सुरक्षाकर्मी पर नागरिकों की हत्या का मामला नहीं बनाया गया है। जम्मू और कश्मीर एक उदाहरण है, जहाँ पिछले दो दशक के दौरान केंद्र ने सुरक्षा बलों के ख़िलाफ़ राज्य सरकार द्वारा अनुशंसित मामलों में अफ्सपा के तहत अभियोजन की मंज़ूरी नहीं दी है।

सरकार और सशस्त्र बलों द्वारा प्रदान किये गये तर्क के बावजूद दुर्भाग्यपूर्ण घटना स्पष्ट रूप से अफ्सपा के तहत सशस्त्र बलों को प्रदान की गयी अनंत शक्तियों का परिणाम है। यह अधिनियम वर्तमान में असम, नागालैंड, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश के तीन ज़िलों और असम की सीमा से लगे राज्य के आठ पुलिस स्टेशनों के अधिकार क्षेत्र में आने वाले क्षेत्रों में लागू है। नागालैंड के मुख्यमंत्री, नेफ्यू रियो और मेघालय के मुख्यमंत्री, कोनराड संगमा ने तुरन्त इस अधिनियम को निरस्त करने की माँग की है। यह समझने की ज़रूरत है कि अफ्सपा को बन्द किया जाना चाहिए और अधिनियम के राजनीतिक ग़ुस्से को जन्म देने से पहले इसे निरस्त करने की लम्बे समय से लम्बित माँग को स्वीकार किया जाना चाहिए।

प्राथमिकता यह सुनिश्चित करने की होनी चाहिए कि यह त्रासदी नागालैंड में और अधिक हिंसा और अस्थिरता में न बदल जाए। इस घटना में सरकार और नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालिम के बीच सौहार्द और नाज़ुक़ नागा शान्ति वार्ता को संकट में डालने की क्षमता है। इस समय एक उच्च स्तरीय राजनीतिक हस्तक्षेप की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नागालैंड की यात्रा पर विचार कर सकते हैं, और जो हुआ उसके बारे में ख़ेद जताने के साथ आश्वासन से सकते हैं कि सुरक्षा बलों में नागरिकों के विश्वास को बहाल करने के लिए यह फिर से नहीं होगा। निश्चित ही ऐसी पहल राजनीतिक विश्वसनीयता को मज़बूत करेगी और घटना के प्रति पश्चाताप भी वास्तविक लगेगा।

चरणजीत आहुजा

अलगाव को हवा देतीं घटनाएँ

क्या पूर्वोत्तर में सशस्त्र सेना विशेषाधिकार क़ानून (अफ्सपा) के तहत मिली शक्तियों के दुरुपयोग और मानवाधिकार के उल्लंघन की बढ़ती घटनाओं से जनता का आक्रोश अलगाववाद की भावना को हवा दे रहा है? यह सवाल हाल में नागालैंड में निहत्थे 13 लोगों के सेना की गोलीबारी में जान गँवाने के बाद और बड़े स्तर पर सामने आया है। इन राज्यों में हाल के वर्षों में सुरक्षा बलों के लोगों के हाथों महिलाओं के बलात्कार की कुछ घटनाओं के आरोपों के बाद लोगों में अफ्सपा को वापस लेने की माँग और तेज़ हुई है।

पूर्वोत्तर ही नहीं, जम्मू-कश्मीर और देश के नक्सल प्रभावित इलाकों में भी दशकों से इस क़ानून को वापस लेने की माँग बहुत ज़ोर-शोर से उठती रही है। क्योंकि लोगों का आरोप रहा है कि असीमियत शक्तियों वाले इस क़ानून का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग होता है। वे पिछले तीन दशक से इस क़ानून को वापस लेने की माँग कर रहे हैं। इसके लिए प्रदर्शन, आन्दोलन सब कुछ हुआ है। महिलाएँ सडक़ों पर उतरी हैं और इस क़ानून के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी है।

इस क़ानूनों के ख़िलाफ़ विरोध को देखते हुए ही सन् 2004 में यूपीए की केंद्र में आयी नयी सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में पाँच सदस्यों की एक समिति का गठन किया था, जिसे सुरक्षा बलों को विशेष अधिकार देने वाले आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल प्रोटेक्शन एक्ट (अफ्सपा) को लेकर अपनी सिफ़ारिशें देने को कहा गया था। समिति ने अपनी रिपोर्ट में अफ्स्पा क़ानून को हटाने की सिफारिश की थी। लेकिन इसके बाद इस रिपोर्ट पर कोई अमल नहीं हुआ। हालाँकि एक और समिति ने इस क़ानून को बनाये रखने की सिफ़ारिश की थी। अब इसी 4 दिसंबर को नागानैंड के मोन ज़िले में सेना के हाथों 13 लोगों की मौत के बाद इस क़ानून को लेकर देश भर में चर्चा शुरू हो गयी है।

संसद में कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों ने नागालैंड की घटना को लेकर जबरदस्त आक्रोश दिखाया। नागालैंड में जनता में तो इस घटना के प्रति ग़ुस्सा भडक़ा ही, राज्य के राजनीतिक नेता भी विरोध करने से ख़ुद को रोक नहीं पाये।

याद रहे अफ्सपा अंग्रेजों के शासन-काल का क़ानून है। भारत छोड़ो आन्दोलन के समय भारत के लोगों को कुचलने के लिए अपनी फ़ौज को अंग्रेजों ने आन्दोलनकारियों के हनन और दमन के कई ख़ास अधिकार दे दिये, जिनमें एक अफ्सपा भी था। लेकिन आज़ादी के बाद भी यह क़ानून बना रहा।

जवाहरलाल नेहरू जैसे लोकतंत्र और मानवाधिकार के प्रबल समर्थक नेता के होते हुए भी सन् 1958 में एक अध्यादेश के ज़रिये अफ्स्पा लाकर तीन महीने बाद इसे संसद की मंज़ूरी दिला दी गयी और 11 सितंबर, 1958 को अफ्सपा एक क़ानून बनकर लागू हो गया।

जब यह क़ानून बना, तो प्रारम्भ में इसे पूर्वोत्तर और पंजाब के उन क्षेत्रों में लगाया गया; जो उन दिनों अशान्त थे। दरअसल इन इलाक़ों की सीमाएँ ज़्यादातर पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश और म्यांमार से सटी थीं। इस एक्ट में सशस्त्र बलों को अशान्त क्षेत्रों में शान्ति बनाये रखने के लिए विशेष अधिकार दिये गये हैं; लिहाज़ा इसे लेकर स्थानीय लोग सुरक्षा बलों पर ज़्यादतियों के आरोप लगाते रहे हैं। सशस्त्र बल क़ानून का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को चेतावनी देने के बाद उस पर सीधे गोली चलाने का अधिकार सुरक्षा बल जवान के पास होता है।

ज़्यादतियों की सम्भावना इसलिए भी बढ़ जाती है, क्योंकि इस क़ानून में सैन्य बलों को बिना गिरफ़्तारी समन (अरेस्ट वारंट) के किसी व्यक्ति को सन्देह के आधार पर गिरफ़्तार करने, किसी परिसर में प्रवेश करने और तलाशी लेने का भी अधिकार है। देश-विरोधी घटना के समय तो यह अधिकार उचित माना जा सकता है; लेकिन यह तब अनुचित लगता है, जब आम नागरिकों को प्रताड़ित होना पड़ता है। लोगों के मानवाधिकार हनन के मामले में ऐसे स्थान ज्यादा हैं, जहाँ यह क़ानून लागू है।

यदि सरकारी लेखा-जोखा देखा जाए, तो आज की तारीख़ में यह क़ानून पूर्वोत्तर के सभी सात राज्यों- असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नागालैंड में लागू है। जबकि पंजाब, चंडीगढ़, जम्मू-कश्मीर समेत देश के नक्सल प्रभावित इलाक़ों छत्तीसगढ़ आदि में कई राज्यों में लागू किया जाता रहा है। वर्तमान में जम्मू-कश्मीर के अलावा नागानैंड, असम, मणिपुर (राजधानी इम्फाल के सात विधानसभा क्षेत्रों को छोडक़र) और अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में यह लागू है। त्रिपुरा, मिजोरम और मेघालय में से क़ानून को ज़रूरत के हिसाब से लगाया जाता है।

 

मानवाधिकार संगठनों की माँग

देखा जाए, तो देश भर के मानवाधिकार संगठन लम्बे समय से जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों से इस क़ानून को हटाने की वकालत करते रहे हैं। इन संगठनों का आरोप है कि इस क़ानून का दुरुपयोग होता है। इरोम शर्मिला को के अलावा सन् 2005 में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश बी.पी. जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाली समिति ने अपनी रिपोर्ट में अफ्सपा को ख़त्म करने की सिफ़ारिश की थी। पाँच सदस्यीय इस समिति ने 6 जून, 2005 को 147 पन्नों की रिपोर्ट सौंपी थी, जिसमें अफ्सपा को दमन का प्रतीक बताया गया था।

हालाँकि सेना और रक्षा मंत्रालय ने इस रिपोर्ट को लागू करने के ख़िलाफ़ कमर कस ली और इस विरोध के चलते केंद्र सरकार ने इस सिफ़ारिश को ख़ारिज कर दिया। सन् 2004 में मणिपुर में असम राइफल्स की हिरासत में एक महिला थंगजाम मनोरमा की मौत के विरोध में हुए आन्दोलन और इरोम शर्मिला द्वारा की जा रही अनिश्चितकालीन हड़ताल के चलते सन् 2004 में न्यायाधीश रेड्डी समिति का गठन हुआ था।

इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र में विशेष प्रतिवेदक क्रिस्टोफर हेंस ने 31 मार्च, 2012 को भारत से अफ्सपा हटाने की माँग की थी। उन्होंने कहा था कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में अफ्सपा जैसा कठोर क़ानून नहीं होना चाहिए। ह्यूमन राइट्स वॉच भी इस क़ानून को लेकर समय-समय पर आपत्तियाँ जताता रहता है। सन् 2019 के लोकसभा चुनाव के वक्त कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र में अफ्सपा को हटाने का वादा किया था। कांग्रेस ने कहा था कि अगर उसे केंद्र की सत्ता मिली, तो वह अफ्सपा ख़त्म कर देगी।

अब नागानैंड के मोन ज़िले में सुरक्षा बलों की गोलीबारी में आम नागरिकों के मारे जाने की घटना के बाद सशस्त्र बल (विशेष शक्ति) अधिनियम-1958 को वापस लेने की माँग फिर से ज़ोर पकडऩे लगी है। मेघालय की प्रतिपक्षी पार्टी कांग्रेस क़ानून वापस लेने की माँग कर रही है। घटना के बाद कांग्रेस विधायक आम्परिन लिंगदोह ने एक में कहा कि हमें अपने लोगों पर अत्याचार रोकने के लिए तत्काल इस क़ानून को वापस लिए जाने की माँग करना चाहिए। कृपया जल्द-से-जल्द बैठक बुलाएँ। सिविल सोसायटी, मानवाधिकार कार्यकर्ता और पूर्वोत्तर क्षेत्र के नेता वर्षों से इस क़ानून की आड़ में सुरक्षा बलों पर ज़्यादती करने का आरोप लगाकर इसकी वापसी की माँग कर रहे हैं।

 

कब, कहाँ लागू हुआ अफ्सपा?

अफ्सपा के अस्तित्व में आने के बाद पहली बार इसे 1 सितंबर, 1958 में असम और मणिपुर में लागू किया गया था। फिर सन् 1972 में कुछ संशोधनों के बाद इसे त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नागानैंड सहित पूरे पूर्वोत्तर भारत में लागू कर दिया गया। बाद में पंजाब, चंडीगढ़ और जम्मू-कश्मीर भी इसके दायरे में आया। भिंडरावाले के नेतृत्व में पंजाब में जब अलगाववादी आन्दोलन शुरू हुआ, तो अक्टूबर, 1983 में पूरे पंजाब और केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ में अफ्सपा लागू कर दिया गया।

बाद में भिंडरावाले के मौत के बाद सन् 1997 में पंजाब और चंडीगढ़ से अफ्सपा को वापस ले लिया गया था। त्रिपुरा में उग्रवाद शान्त होने पर मई, 2015 में अफ्सपा को हटाया गया था। वहाँ यह क़ानून 18 साल तक लागू रहा था। इसी तरह सन् 1990 के दशक में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने जोर पकड़ा, तो जम्मू-कश्मीर में भी अध्यादेश के ज़रिये अफ्सपा लागू किया गया। फिर एक साल बाद 5 जुलाई, 1990 को क़ानून बना दिया गया, जो वहाँ आज तक लागू है। इस क़ानून से लेह-लद्दाख़ का क्षेत्र प्रभावित नहीं है।

यह बहुत दिलचस्प है कि नागानैंड के उग्रवादी समूह का सन् 2015 में केंद्र सरकार के साथ समझौता हुआ था। तब एनएससीएन-आईएम के महासचिव थुंगलेंग मुइवा और सरकार के वार्ताकार आर.एन. रवि के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे। हालाँकि इस समझौते के बावजूद नागानैंड में अफ्सपा $कायम रहा। इस घटना के बाद वहाँ सुरक्षा बलों के ख़िलाफ़ जबरदस्त आक्रोश पैदा हो गया, जो हिंसा और आगजनी के रूप में सामने दिखा है।

अफ्सपा हटाने की पहल ख़ुद केंद्र सरकार कर सकती है। सम्बन्धित राज्य सरकार भी अफ्सपा को हटाने, उसकी अवधि बढ़ाने आदि को लेकर सिफ़ारिश कर सकती है; लेकिन अन्तिम फ़ैसला लेने का अधिकार राज्यपाल या केंद्र सरकार को ही प्राप्त है।

जहाँ तक इसे लागू करने के प्रावधान की बात है, तो भाषा, क्षेत्र, समुदाय, जाति, नस्ल आदि के आधार पर हिंसा या गहरे विवाद की स्थिति में उग्रवादी गतिविधियों और उपद्रव के मद्देनजर किसी इलाक़े या पूरे प्रदेश को अशान्त क्षेत्र घोषित किये जाने का प्रावधान है। अफ्सपा की धारा-3 में कहा गया है कि किसी प्रदेश (राज्य या केंद्र शासित प्रदेश) के राज्यपाल को वहाँ अलग-अलग आधार पर बने गुटों के बीच तनाव के कारण पैदा हुई अशान्ति के आधार पर भारत के राजपत्र में आधिकारिक सूचना जारी करवानी होती है। राजपत्र में सूचना निकलते ही सम्बन्धित क्षेत्र को अशान्त मान लिया जाता है और तब केंद्र सरकार वहाँ की पुलिस की शान्ति की बहाली के प्रयास में मदद के लिए सशस्त्र बलों को भेजती है।

नागानैंड घटना में तो सभी मानते हैं कि इस मामले में सुरक्षा बलों से चूक हुई है। ख़ुद गृहमंत्री ने घटना पर अफसोस जताया है और जाँच की भी घोषणा की है। लेकिन ऐसी घटनाओं पर सरकार क्या स्पष्टीकरण देती है? इससे बड़ा सवाल यह बनता है कि सरकारी स्पष्टीकरण को उस क्षेत्र के लोग किस तरह देखते हैं। ख़ासकर उत्तर-पूर्व के सन्दर्भ में देखा जाए तो ऐसे तमाम मामलों में जाँच की घोषणाएँ होती रही हैं; लेकिन उनका कोई ख़ास नतीजा निकलता नहीं देखा गया।

समस्या की जड़ अफ्सपा को ही माना जाता है। देखा जाए, तो पिछले 20 वर्षों के दौरान जम्मू-कश्मीर सरकार की ओर से आर्मी के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जितनी भी सिफ़ारिशें आयीं, केंद्र ने अफ्सपा के तहत उन सभी मामलों में मुक़दमा चलाने की इजाज़त देने से इन्कार कर दिया। स्वाभाविक ही अफ्सपा झेल रहे तमाम इलाक़ों में इसे काले क़ानून के रूप में देखा जाता है। इस बार भी घटना के बाद से अफ्सपा हटाने की माँग तेज़ हो गयी है। वहाँ तक कि भाजपा के सहयोगी दलों से जुड़े दो मुख्यमंत्री-नागानैंड के नेफ्यू रियो और मेघालय के कॉनराड के संगमा भी ऐसी माँग करने वालों में शामिल हो चुके हैं।

इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि आतंकवाद या उग्रवाद से निपटना काफ़ी मुश्किल काम है और सुरक्षा बलों को भी अपनी जान जोखिम में डाले रहते हुए ड्यूटी करनी पड़ती है। इसके बावजूद सुरक्षा बलों या आम लोगों के बीच इस तरह का अहसास जमने देना ठीक नहीं है कि सुरक्षा बलों के जवान कुछ भी करें, मगर उनके ख़िलाफ़ किसी तरह की क़ानूनी कार्रवाई नहीं होगी।

कई चर्चित मामलों में भी सुरक्षा बलों के ख़िलाफ़ किसी तरह की कार्रवाई न होने से ऐसा भाव बनने लगा है और यह भी एक वजह है कि कई विशेषज्ञ भी अफ्सपा हटाने की ज़रूरत बताते रहे हैं। खासकर चीन के साथ सीमा विवाद से गरमाये माहौल और म्यांमार में सैन्य सत्ता की वापसी के चलते सीमावर्ती राज्यों में बने हालात को ध्यान में रखें, तो अफ्सपा पर पुनर्विचार की यह ज़रूरत और बढ़ जाती है।

 

सेना का विरोध क्यों?

मणिपुर की बात करें, तो नवंबर 10 जुलाई, 2004 में आधी रात को एक महिला थंगजाम मनोरमा के साथ सेना के जवानों ने कथित रूप से रेप करके उसकी हत्या कर दी थी। बाद में मनोरमा का शव क्षत-विक्षत हालत में मिला था। घटना के बाद 15 जुलाई, 2004 को दर्ज़नों मणिपुरी महिलाओं ने नग्न होकर सेना के ख़िलाफ़ हाथ में तख्तियाँ लिए सडक़ों प्रदर्शन किया था। इन तख़्तियों पर लिखा था- ‘रेप मी’।

इस घटना के बाद देश भर में बहुत नाराज़गी उभरी। कई सामजिक संगठनों के इसके ख़िलाफ़ प्रदर्शन किये। इसके अलावा नवंबर, 2000 में मणिपुर में ही एक बस स्टैंड के पास 10 लोगों को सैन्य बलों ने गोली मार दी। घटना के वक़्त इरोम शर्मिला वहीं मौज़ूद थीं, जिन्होंने अफ्स्पा के विरोध में बाद में लगातार 16 साल तक अनशन किया। उस समय 29 साल की इरोम की यह भूख हड़ताल देश ही नहीं दुनिया भर में चर्चा में रही। अगस्त, 2016 में भूख हड़ताल ख़त्म करने के बाद उन्होंने अपनी पार्टी बनाकर चुनाव भी लड़ा; लेकिन सफल नहीं हुईं। राज्य ही नहीं दर्ज़नों मानवाधिकार संगठन और कार्यकर्ता इस क़ानून का जबरदस्त विरोध करते आये हैं। जम्मू-कश्मीर में भी यह क़ानून लागू है और सेना और सुरक्षा बलों पर आरोप लगते हैं, इसका दुरुपयोग किया जाता है। नक़ली मुठभेड़ों में आम लोगों की हत्या के दर्ज़नों आरोप लगाये जाते रहे हैं। इनमें कई आरोप सच साबित हुए हैं। हिरासत में लेकर प्रताडि़त करने के आरोप भी लगते हैं। राजनीतिक दल राजनीतिक आधार पर प्रताडऩा के आरोप लगाते हैं। इसमें गिरफ़्तारी भी मनमाने तरीक़े से होती है। क़ानून के तहत अर्धसैन्य बलों पर मुक़दमे बिना केंद्र की मंज़ूरी के नहीं हो सकते, लिहाज़ा यह आरोप लगते कि सेना के मनोवल के नाम पर जब कभी भी सैन्य बलों पर ऐसे आरोप लगते हैं, तो बहुत कम में ही कोई मामला दर्ज हो पाता है या पीडि़त को न्याय मिल पाता है। सरकार क़ानून के पक्ष में यह तर्क देती है कि इसके बिना आतंकी या उग्रवादी घटनाओं को रोकने में मदद नहीं मिल सकती। नक्सल प्रभाहित राज्यों में भी इस क़ानून का इस्तेमाल होता है। वहाँ भी लोगों के मानवाधिकार हनन के आरोप लगते रहे हैं।

सालाना संकट बन चुका वायु प्रदूषण

देश में वायु प्रदूषण एक गम्भीर सलाना संकट बन गया है। इसे लेकर पर्यावरणविद् भी कहने लगे हैं कि शासन-प्रशासन इस समस्या का समाधान करने के बजाय हर साल सेमिनारों में लाखों-करोड़ों रुपये ख़र्च करके सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रदूषण का रोना रोकर बचकर निकलने की कोशिश करते हैं। दो महीने का रोना रोने के बाद ख़ुद ही मौसम साफ़ होने लगता है और सब शान्त होकर बैठ जाते हैं। यह कहानी हर साल की है। अगर शासन-प्रशासन में बैठे ज़िम्मेदार लोग सेमिनारों के ज़रिये चिन्ता व्यक्त करने के बजाय प्रदूषण कम करने की दिशा में काम करें, तो बेहतर परिणाम मिल सकते हैं। उनका कहना है कि प्रदूषण की ज़हरीली धुन्ध के दंश का सामना लोगों को हर साल इसी तरह करना पड़ता है।

विडम्बना यह है कि जब हर साल अक्टूबर माह में वायु प्रदूषण कहर बनकर उभरता है और लोगों को साँस तक लेने में दिक़्क़त होने लगती है, स्कूलों और दफ़्तरों को बन्द करना पड़ता है। तब भी शासन-प्रशासन द्वारा वायु प्रदूषण से निपटने के उचित उपाय न करते हुए, इस ओर उतना ध्यान नहीं दिया जाता, जितना कि देना चाहिए। बल्कि सियासत करके उन पहलुओं पर बहस की जाती है, जिससे उनका ख़ुद का गला बच सके। ज़्यादा-से-ज़्यादा किसानों पर पराली जलाने को लेकर ठीकरा फोड़ दिया जाता है।

हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय इस ओर हर साल केंद्र और दिल्ली सरकार का ध्यान दिलाता है और दोनों सरकारों की फटकार भी लगाता है। इस बार तो सर्वोच्च न्यायालय ने बाक़ायदा इस बात को लेकर भी दिल्ली सरकार और विशेषकर केंद्र सरकार की फटकार लगायी कि किसानों को दोष देना आपने फैशन बना रखा है। बेहतर हो जल्द-से-जल्द प्रदूषण कम करने के उपाय किये जाएँ। बता दें कि इस साल सर्वोच्च न्यायालय ने दीपावली पर पटाखों पर रोक का आदेश दिया था; लेकिन इस बार जिस तरह पटाखे जलाये गये, उससे एक बात तो यह साफ़ हुई कि सरकारें अपने वोट बैंक के चक्कर में धार्मिक मामलों में लोगों को छेडऩा नहीं चाहतीं।

हालाँकि इस विषय पर लोगों को ही सोचना होगा कि पटाखों से उन्हें ख़ुद को कितना नुक़सान होता है। बहुत हो, तो दस्तूर के तौर पर एक-दो पटाखा जलाकर भी दीपावली मना सकते हैं। वैसे तो दीपावली दीपों यानी प्रकाश का त्योहार है, न कि पटाखों का। लेकिन पटाखे जलाना और वो भी दूसरे से ज़्यादा जलाना अधिकतर लोगों के लिए अब नाक का सवाल-सा बन गया है। यही वजह है कि हर साल दीपावली पर करोड़ों पटाखे हमारे देश में लोग फोड़ देते हैं, जिसके चलते धुआँ-ही-धुआँ वातारण में छा जाता है, जो हर किसी को विकट नुक़सान पहुँचाता है।

हैरत की बात यह रही कि हर साल दिल्ली बनी गैस चैंबर जैसी ख़बरों की हर रोज़ भरमार देखने को मिलती है, जबकि सच्चाई यह है कि पूरे उत्तर भारत में इन दिनों प्रदूषण बढ़ता है, जिसकी वजह किसान नहीं, बल्कि फैक्ट्रियाँ, उद्योग, बढ़ते वाहन और सर्दियों में लोगों द्वारा तापने और खाना बनाने के लिए जलायी जाने वाली आग होती है। इस ओर भी सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार का ध्यान इस बार खींचा था। दिल्ली में हर साल सम-विषम (ऑड-ईवन) लागू करने का काम दिल्ली सरकार करती रही है, जिससे प्रदूषण का स्तर कम हो जाता है। लेकिन इस बार इसे लागू नहीं किया गया। इसकी जगह दिल्ली सरकार ने पानी का छिडक़ाव दीपावली के बाद कराया। इसके अलावा हर चौराहे पर कुछ लोगों को खड़ा करके, उनके हाथों में कुछ बोर्ड थमाये हैं, जिन पर लिखा है- ‘रेड लाइट ऑन, गाड़ी ऑफ’, ‘युद्ध, प्रदूषण के विरुद्ध’। इस तरह के बैनर लिये दिल्ली के हर चौराहे पर दो-तीन युवा आजकल खड़े दिखायी दे रहे हैं। इसके अलावा दिल्ली सरकार ने सीएनजी बसों को डीटीसी बेड़े में ठेके पर शामिल करके प्रदूषण रोकने की कोशिश इस बार की है। इससे कुछ युवाओं को रोज़गार भले ही दिल्ली सरकार से मिल गया है; लेकिन प्रदूषण रोकने के लिए ये उपाय नाकाफ़ी हैं। दिल्ली जैसे शहर में प्रदूषण रोकने के लिए निर्माण और पेट्रोल-डीजल के वाहनों पर रोक, फैक्ट्रियों के चलने पर रोक लगानी ही पड़ेगी। इससे ज़्यादा ज़रूरी चीन में निर्मित पटाखों पर रोक लगानी होगी। क्योंकि इन पटाखों से बहुत ख़तरनाक प्रदूषण वातावरण में फैलता है, जो जल्दी ख़त्म नहीं होता। सर्दियों में प्रदूषण इसलिए भी बढ़ जाता है, क्योंकि हवा में आर्द्रता बढऩे से कार्बन और जहरीली गैसें पिघल नहीं पातीं और पृथ्वी की सतह पर ही ये सब तैरते रहते हैं। हालाँकि दिसंबर के पहले सप्ताह में दिल्ली-एनसीआर में बारिश होने के चलते प्रदूषण कम हुआ है। लेकिन प्रदूषण का वर्तमान स्तर भी कम घातक नहीं है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. आदित्य कुमार कहते हैं कि सन् 2000 से संसद में वायु प्रदूषण को लेकर चिन्ता व्यक्त की गयी थी और उन पहलुओं पर ग़ौर किया गया था, जो वायु प्रदूषण बढ़ाते हैं। लेकिन देश की सरकारी व्यवस्था ऐसी है कि वह इंतज़ार करती है कि समस्या का समाधान ख़ुद-ब-ख़ुद हो जाए। इसके चलते वायु प्रदूषण एक स्थायी समस्या बनकर हमारे सामने है। प्रो. आदित्य का कहना है कि वायु प्रदूषण महानगरों में अक्टूबर महीने से दिसंबर के महीने तक लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करता है, जिससे निपटने के लिए गम्भीरता से क़दम उठाये जाने का ज़रूरत है।

पर्यावरणविद् डॉक्टर सुबोध कुमार का कहना है कि वायु प्रदूषण को रोकने की बजाय एक-दूसरे कोसने की राजनीति जब तक होती रहेगी, तब तक वायु प्रदूषण एक स्थायी समस्या रहेगी। क्योंकि पहले पराली जलाने वालों को वायु प्रदूषण फैलाने के लिए दोषी ठहराने और राजनीतिक दलों द्वारा एक-दूसरे को कोसे जाने की रीति बन गयी है। जब अकेले पराली जलाने के आरोप से काम नहीं चलता, तो अन्य कारकों के लिए राज्य सरकारों में एक-दूसरे को दोषी ठहराने की होड़-सी लग जाती है। इस सबसे समस्या का समाधान न होकर समस्या बढ़ जाती है। डॉक्टर सुबोध कुमार कहते हैं कि नवंबर महीने में सर्वोच्च न्यायालय ने बढ़ते वायु प्रदूषण को लेकर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा था कि नौकरशाही जड़ता में चली गयी है और न्यायालय के निर्देश की प्रतीक्षा कर रही है। न्यायालय की सख़्त तल्ख़ी के बाद शासन-प्रशासन चौंकन्ने तो हुए; लेकिन समाधान न के बराबर ही हुआ है। अब भी दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण का स्तर ख़राब बना हुआ है। दिल्ली प्रदूषण विभाग में काम करने वालों ने ‘तहलका’ को बताया कि जब धुन्ध में शासन रहने का आदि हो जाए, तो आम आदमी क्या कर सकता है? सवाल यह है कि जब वायु प्रदूषण को रोकने और प्रदूषण बढ़ाने वालों को चिह्नित किया जा चुका है, तो उन पर कार्रवाई क्यों नहीं होती है? कार्रवाई के तौर पर दो-चार दिनों के लिए कारख़ानों को बन्द कर दिया जाता है। फिर साँठ-गाँठ करके उन कारख़ानों को फिर चालू करा दिया जाता है। जिन संस्थाओं को प्रदूषण रोकने और प्रदूषण बढ़ाने वालों को चिह्नित करने के लिए लगाया गया है, वो ही ख़ुद वायु प्रदूषण को बढ़ाने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के बजाय उनकी चौकीदारी करती हों, तो दूषित-प्रदूषित माहौल से कैसे बचा जा सकता है?

पर्यावरण बचाओ पर गत दो दशक से काम करने वाले राजेश शुक्ला का कहना है कि जब तक धरातल पर सरकार प्रदूषण फैलाने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं करेगी, तब तक वायु प्रदूषण से हर साल लोगों के जीवन से खिलवाड़ होता रहेगा। दरअसल प्रदूषण रोकने से सम्बन्धित विभाग जो हैं, वो सब उदासीनता के शिकार हैं। उन्होंने कहा कि जब तक यह भ्रान्ति रहेगी कि सर्दी के आते ही वायु प्रदूषण फैलता है, तब तक कुछ भी नहीं हो सकता है। क्योंकि वायु प्रदूषण को साल भर के हर दिन भयानक रूप से फैलाया जा रहा है। शहरों में वायु प्रदूषण के कहर को लेकर जागरूक जनता आवाज़ उठाती है, जबकि गाँवों की जनता चुपचाप पीडि़त की तरह सहन करती रहती है। राजेश शुक्ला कहते हैं कि शासन-प्रशासन की नाक के नीचे हर रोज़ वायु प्रदूषण फैलाया जाता है, जिसमें कूड़े के ढेरों को जलाया जाना शामिल है। सरकारी पुलों के नीचे टायरों को जलाया जाता है। सालोंसाल पुराने वाहन जो खुलेआम ध्वनि प्रदूषण के साथ ज़हरीला धुआँ छोड़ते हुए दौड़ते हैं। जब तक इन सब पर रोक नहीं लगेगी, तब तक वायु प्रदूषण बढ़ता रहेगा।

दिल्ली टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी में पढऩे वाले रोमित कुमार का कहना है कि जब देशवासियों को स्मार्ट सिटी जैसे सपने दिखाये गये, तब उम्मीद जगी थी कि देश को दूषित परिवहन व्यवस्था के साथ प्रदूषण जैसी समस्या से निजात मिलेगी। लेकिन अब स्मार्ट सिटी की बात ही नहीं हो रही है। कुल मिलाकर वायु प्रदूषण ख़ुद ही प्राकृतिक रूप से कम होगा, तब ही वायु प्रदूषण से मुक्ति मिलेगी।

बंजर ज़मीन को बना दिया उपजाऊ

एक सरकारी योजना ने हिमाचल में 4,669 हेक्टेयर बंजर हो चुकी ज़मीन को कृषि योग्य बना दिया

पहाड़ी राज्य हिमाचल में जंगली जानवरों, ख़ासकर बंदरों के उत्पात के कारण बंजर हो चुकी 4669 हेक्टेयर ज़मीन में फिर खेती लहराने लगी है। इसके पीछे एक योजना है, जिसे प्रदेश सरकार ने शुरू किया है। करोड़ों रुपये ख़र्च करके इस ज़मीन को खेती योग्य बनाया जा सका है। खेत संरक्षण योजना से हज़ारों किसानों को लाभ हुआ है; क्योंकि उन्होंने इस ज़मीन पर फ़सलें उगानी शुरू कर दी हैं। हिमाचल के बड़े इलाक़े में बंदर और आवारा पशु फ़सलों के दशकों से नुक़सान पहुँचा रहे थे। इसका असर यह हुआ कि इन इलाक़ों में लोगों ने वहाँ खेती करनी ही बन्द कर दी। समय के साथ यह ज़मीन बंजर हो गयी।

सरकार ने इस ज़मीन को दोबारा खेती योग्य बनाने के लिए 175 करोड़ रुपये की मुख्यमंत्री खेत संरक्षण योजना पर काम किया और इसे लागू किया। इससे पहले कृषि विशेषज्ञों को इस काम पर लगाया गया कि कैसे इस ज़मीन को फिर से खेती योग्य बनाया जा सकता है। प्रदेश के क़रीब सभी ज़िले इस ज़मीन के तहत आते हैं। ख़ासकर वो, जहाँ बंदरों और जंगली जानवरों का बड़ा प्रभाव है। कुछ डर और कुछ नुक़सान के कारण किसानों ने वहाँ फ़सलें बोनी बन्द कर दीं, जिसके बाद यह ज़मीन कृषि के योग्य नहीं रही। अब योजना पर काम होने के बाद फ़सलें लहलहाने लगी हैं।

जानकारों के मुताबिक, हिमाचल की जलवायु नक़दी फ़सलों के उत्पादन के लिए अति उत्तम है। इसके अलावा यहाँ पारम्परिक खेती से भी लाखों परिवार जुड़े हुए हैं। कई क्षेत्रों में किसानों की कड़ी मेहनत से उगायी गयी फ़सलों को बेसहारा और जंगली जानवरों से काफ़ी नुक़सान पहुँचता है। इससे बचाव के लिए प्रदेश सरकार ने खेत संरक्षण योजना आरम्भ की। योजना के अंतर्गत कृषकों को सौर ऊर्जा चालित बाड़ लगाने के लिए अनुदान दिया जा रहा है। व्यक्तिगत स्तर पर सौर ऊर्जा बाड़ लगाने के लिए 80 फ़ीसदी तथा समूह आधारित बाड़बंदी के लिए 85 फ़ीसदी अनुदान का प्रावधान इसमें किया गया है। कुल्लू ज़िले के एक किसान हरी सिंह ठाकुर ने कहा कि बाड़ को सौर ऊर्जा से संचारित किया जा रहा है। बाड़ में बिजली प्रवाह से बेसहारा पशुओं, जंगली जानवरों और बंदरों को दूर रखने में मदद मिल रही है। प्रदेश सरकार ने किसानों की माँग तथा सुझावों को देखते हुए काँटेदार तार अथवा चेनलिंक बाड़ लगाने के लिए 50 फ़ीसदी उपदान और कम्पोजिट बाड़ लगाने के लिए 70 फ़ीसदी उपदान का भी प्रावधान किया है। प्रदेश के कृषि मंत्री वीरेंद्र कँवर ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा कि अच्छी बात यह है कि प्रदेश में किसानों का इस योजना के प्रति उत्साह एयर भरोसा लगातार बढ़ा है। हमने देखा है कि लाभार्थियों की संख्या भी उसी अनुपात में बढ़ी है। बेसहारा और जंगली जानवरों, ख़ासकर बंदरों के उत्पात से खेती-किसानी से किनारा कर रहे कृषक फिर से खेतों की ओर मुड़े हैं और यह योजना हिमाचल में सुरक्षित खेती की नयी इबारत लिख रही है।

उधर किसानों का कहना है कि जंगली जानवरों विशेषतौर पर बंदरों के उत्पात से फ़सलें ख़राब होने के कारण उनका खेती के प्रति उत्साह कम हो गया था; लेकिन मुख्यमंत्री खेत संरक्षण योजना वरदान बनकर आयी है। हमीरपुर ज़िले के पटलांदर के किसान भूपिंदर सिंह ने कहा कि बंदरों के उत्पात से उनकी फ़सलों का बचाव सम्भव हुआ है। इसमें सोलर फैंसिंग के साथ-साथ काँटेदार बाड़बंदी का प्रावधान जुडऩे से अन्य जंगली व बेसहारा जानवरों से भी फ़सल सुरक्षित हुई है।

सरकार के मुताबिक, योजना के तहत अभी तक क़रीब 175.38 करोड़ रुपये व्यय किये जा चुके हैं। कृषि मंत्री वीरेंद्र कँवर बताते हैं कि इस योजना के लागू होने के उपरांत प्रदेश में क़रीब 4,669.20 हेक्टेयर खेती योग्य भूमि की रक्षा की गयी है, जो बेसहारा पशुओं, जंगली जानवरों और बंदरों से ख़तरे के कारण बंजर पड़ी थी। प्रदेश के क़रीब 5,535 किसान इस योजना का लाभ उठा चुके हैं।

योजना के मुताबिक, मुख्यमंत्री खेत संरक्षण योजना का लाभ उठाने के लिए किसान व्यक्तिगत तौर पर अथवा किसान समूह के रूप में नज़दीक के कृषि प्रसार अधिकारी, कृषि विकास अधिकारी अथवा विषयवाद विशेषज्ञ (एसएमएस) के माध्यम से कृषि उप निदेशक के समक्ष आवेदन कर सकते हैं। विभाग के वृत्त, विकास खण्ड और ज़िला स्तरीय कार्यालयों में आवेदन फॉर्म उपलब्ध रहते हैं। आवेदन के साथ उन्हें अपनी भूमि से सम्बन्धित राजस्व दस्तावेज़ संलग्न करने होंगे।

वैसे भी यह एक तथ्य है कि प्रदेश की अर्थ-व्यवस्था में कृषि का महत्त्वपूर्ण योगदान है। कृषि विभाग के एक अनुमान के अनुसार, प्रदेश के क़रीब 90 फ़ीसदी लोग ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं और 70 फ़ीसदी लोग सीधे तौर पर कृषि पर निर्भर हैं। राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि व इससे जुड़े क्षेत्रों का योगदान क़रीब 13.62 फ़ीसदी है। प्रदेश में क़रीब 9.97 लाख किसान परिवार हैं और 9.44 लाख हैक्टेयर भूमि पर खेती होती है। यहाँ औसतन जोत का आकार क़रीब 0.95 हैक्टेयर है।

प्रदेश में 88.86 फ़ीसदी किसान सीमान्त और लघु वर्ग के हैं, जिनके पास बोई जाने वाली भूमि का क़रीब 55.93 फ़ीसदी भाग है। क़रीब

10.84 फ़ीसदी किसान मध्यम श्रेणी के हैं और 0.30 फ़ीसदी किसान ही बड़े किसानों की श्रेणी में आते हैं। ऐसे में प्रदेश सरकार की खेत संरक्षण योजना सीमान्त, लघु और मध्यम वर्ग के किसानों के लिए निश्चित ही वरदान बनकर आयी है।

एक बीघा योजना

हिमाचल सरकार ने इसके आलावा महिला सशक्तिकरण को अधिमान देने के उद्देश्य से एक बीघा योजना शुरू भी है। क़रीब डेढ़ साल पहले शुरू की गयी इस योजना का मक़सद ग्रामीण महिलाओं को किचन गार्डनिंग के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। स्वयं सहायता समूह की महिलाएँ किचन गार्डन के विकास से पोषणयुक्त सब्ज़ियों और फलों का उत्पादन कर खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने के साथ उत्पादित उत्पादों को खुले बाज़ार में बेचकर आर्थिक लाभ अर्जित कर रही हैं। प्रदेश की ग्रामीण महिलाओं की आर्थिकी को सुदृढ़ करने के साथ-साथ स्वयंसहायता समूह की महिलाओं को खाद्य सुरक्षा और आजीविका के अवसर प्रदान करने के उद्देश्य से प्रदेश में मुख्यमंत्री एक बीघा योजना क्रियान्वित की जा रही है।

इस योजना का मुख्य उद्देश्य महिलाओं और स्वयंसहायता समूहों से जुड़ी महिलाओं को आर्थिक रूप से सुदृढ़ करने के साथ-साथ उन्हें बैकयार्ड किचन गार्डनिंग के लिए प्रशिक्षित करना है। यह योजना राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन और मनरेगा के बीच एक अभिसरण योजना है और राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के अंतर्गत बने स्वयं सहायता समूह की कोई भी महिला सदस्य इस योजना का लाभ उठा सकती है। इस योजना के अन्तर्गत स्वयं सहायता समूह एक लाख रुपये का लाभ प्राप्त कर सकते हैं। इस योजना का लाभ उठाने के लिए महिला के पास मनरेगा जॉब कार्ड होना आवश्यक है। प्रदेश के कृषि मंत्री वीरेंद्र कँवर के मुताबिक, मनरेगा और स्वच्छ भारत मिशन का अनुसरण कर ग्रामीणों को किचन गार्डनिंग के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। स्वयं सहायता समूह की महिलाएँ किचन गार्डन के विकास से पोषणयुक्त सब्ज़ियों और फलों का उत्पादन कर खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने के साथ उत्पादित उत्पादों को खुले बाज़ार में बेचकर आर्थिक लाभ अर्जित कर रही है।

एक बीघा योजना के तहत प्रदेश में भूमि सुधार, नर्सरी उत्पादन, फलदार पौधरोपण, केंचुआ खाद गड्ढा निर्माण, अजोला पिट निर्माण, सिंचाई और जल संचयन संरचना निर्माण और गौशाला निर्माण जैसे कार्य किये जा रहे हैं। प्रदेश में वर्ष 2020-21 में इस योजना के अन्तर्गत 11,254 कार्य स्वीकृत किये गये, जिनमें से 1,690 कार्य पूर्ण कर लिये गये हैं। योजना के अन्तर्गत प्रदेश में अब तक विभिन्न कार्यों पर क़रीब 17.91 करोड़ रुपये ख़र्च किये जा चुके हैं।

साल 2021-22 के दौरान प्रदेश के विभिन्न ज़िलों में इस योजना के अन्तर्गत 2281 कार्य स्वीकृति किये गये, जिनमें से 1045 का कार्य आरम्भ किये जा चुका है और चालू वित्त वर्ष में अब तक 852 कार्य पूर्ण कर लिये गये हैं। प्रदेश में इस वर्ष अब तक 4.25 करोड़ रुपये ख़र्च किये जा चुके हैं। योजना प्रदेश में महिलाओं के आत्मनिर्भर बनने का मार्ग प्रशस्त कर रही है। इस योजना का लाभ उठाकर महिलाएँ आत्मनिर्भरता की राह पर अग्रसर हो रही हैं। ज़िला सिरमौर के राजगढ़ खण्ड के शिरगुल महाराज स्वयं सहायता समूह की महिलाओं ने इस योजना का लाभ उठाकर अपनी आर्थिकी को सुदृढ़ किया है। यह योजना उनके लिए वरदान सिद्ध हुई है। अदरक के औषधीय गुणों को देखते हुए यह स्वयं सहायता समूह अदरक की खेती करना चाहता था; परन्तु धन की कमी उनके इस कार्य में बाधा बन रही थी। स्वयं सहायता समूह की महिलाओं को जब मुख्यमंत्री एक बीघा योजना के बारे में जानकारी मिली, तो उन्होंने राजगढ़ विकास खण्ड में जाकर इस योजना के लिए आवेदन किया। इस योजना से मिली आर्थिक सहायता का उपयोग कर इस समूह की महिलाओं ने बंजर भूमि उपजाऊ बनाकर अदरक की खेती की शुरुआत की।

इस स्वयं सहायता समूह की मेहनत रंग लायी और उनके सात सदस्यों के इस समूह ने हिम ईरा साप्ताहिक बाज़ार में 50,000 रुपये की अदरक की बिक्री की। अपने पहले प्रयास पर मिली सफलता से उत्साहित होकर अब इस स्वयं सहायता समूह की महिलाओं ने मूली की खेती की है और हिम ईरा साप्ताहिक बाज़ार में इसे बेचेंगी। इस स्वयं सहायता समूह की महिलाओं ने महज़ सात-आठ महीनों के भीतर जैविक खेती को अपनाकर इन उत्पादों को बाज़ार में उपलब्ध करवाया है। यह स्वयं सहायता समूह प्रदेश की अन्य स्वयं सहायता समूहों को प्रगति का मार्ग दिखा रहा है। कृषि मंत्री वीरेंद्र कँवर ने कहा कि प्रदेश में शिरगुल महाराज स्वयं सहायता समूह का सफल उदाहरण इस बात का प्रतीक है कि सरकार द्वारा कार्यान्वित की जा रही मुख्यमंत्री एक बीघा योजना किस प्रकार महिलाओं के जीवन में ख़ुशहाली ला रही है। यह छोटी-सी शुरुआत लम्बी विकास यात्रा का आगाज़ है।

बन्द नहीं हुआ है देश में नक़ली नोटों का खेल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2016 में 8 नवंबर को देश में जब नोटबन्दी की घोषणा की, तब उन्होंने कहा था कि नोटबन्दी से नक़ली मुद्रा (करेंसी), आतंकवाद और काले धन पर रोक लगेगी। लेकिन नोटबन्दी के बाद भी देश में नक़ली नोटों की खपत पर पूरी तरह रोक नहीं लग सकी है। इसकी पुष्टि नक़ली नोटों के सामने आने की कई ख़बरों से हो चुकी है। इसी साल 31 अगस्त को उत्तर प्रदेश के एक ज़िले बदायूँ के सैदपुर क़स्बे में स्थित एसबीआई के एटीएम से एक सफ़ार्इकर्मी ने 5,000 रुपये निकाले, जिसमें दो नक़ली नोट निक़ले। इनमें एक नोट पर मनोरंजन बैंक लिखा हुआ था। जैसे ही यह सूचना वहाँ स्थित एसबीआई बैंक की शाखा प्रबन्धक को मिली, उन्होंने एटीएम को तुरन्त बन्द कराकर जाँच के आदेश दिये। इससे आगे की घटना का ख़ुलासा नहीं हुआ।

इसी तरह इसी साल जनवरी में मध्य प्रदेश के ज़िला बालाघाट की पुलिस ने पाँच करोड़ नक़ली नोट बरामद कर आठ लोगों को गिरफ़्तार किया। पुलिस ने इस गिरोह को पकडक़र कई हैरानी वाली ख़ुलासे भी किये थे, जिनमें कहा गया था कि पकड़े गये लोग नक़ली नोट खपाने वाले गिरोह से हैं, जो कि गाँवों में नक़ली नोटों को खपाते थे। इन नोटों में 10 के काग़ज़ के नोट से लेकर 2,000 रुपये तक के नोट शामिल होते थे। जिस समय पुलिस ने नक़ली नोट खपाने वालों को पकड़ा था, वे मध्य प्रदेश के ही बैहर के ग्रामीण इलाक़ों में पकड़े गये नक़ली नोटों को खपाने की तैयारी में थे। इसके बाद इसी साल 21 मार्च को बैहर थाना क्षेत्र में पुलिस ने चार लोगों को 4.94 लाख रुपये के नक़ली नोटों के साथ गिरफ़्तार किया था।

अभी हाल ही में एक बुज़ुर्ग हमारे पड़ोस की दुकान पर कुछ लेने के लिए आये, दुकानदार ने उन्हें सामान तौल दिया और पैसे माँगे; लेकिन जैसे ही बुज़ुर्ग ने दुकानदार को 100 रुपये का नोट दिया, दुकानदार ने उन्हें वह नोट नक़ली बताते हुए वापस कर दिया। पहले बुज़ुर्ग को भरोसा नहीं हुआ; लेकिन जब दुकानदार ने एक अन्य व्यक्ति को नोट दिखाया, तो उसने भी उसे नक़ली बताया। बुज़ुर्ग हक्का-बक्का रह गये और उदास होकर बिना सामान लिये वहाँ से चले गये।

इन घटनाओं से बड़ी एक घटना हाल ही में एक दैनिक अख़बार के स्टिंग ऑप्रेशन से सामने आयी है। इस अख़बार ने दावा किया है कि देश के देश के 25 शहरों में नक़ली करेंसी का गिरोह सक्रिय है, जिसके तार विदेशों से जुड़े हैं। अख़बार ने यहाँ तक दावा किया है कि नक़ली नोटों के इस अवैध कारोबार का पर्दाफ़ाश करने वाले उसके रिपोर्टर को गिरोह के लोगों की तरफ़ से जान से मारने की धमकियाँ मिल रही हैं।

दरअसल इसी साल नवंबर के आख़िरी सप्ताह में प्रकाशित अपनी एक ख़बर में अख़बार ने दावा किया है कि देश में नक़ली नोटों का अवैध कारोबार धड़ल्ले से चल पड़ा है और दिल्ली इसका सबसे बड़ा अड्डा है। अख़बार का दावा है कि नक़ली नोटों का कारोबार करने वालों में गिरोह के एक सदस्य से उसके रिपोर्टर ने बाक़ायदा व्हाट्स ऐप पर डील भी की, जिसमें नक़ली नोटों के उस सप्लायर ने कहा कि 25 लाख रुपये के बदले वह एक करोड़ रुपये देगा। अख़बार ने यह भी दावा किया है कि नक़ली नोटों के ये अवैध कारोबारी 2,000 और 500 के नक़ली नोटों की सप्लाई करते हैं। 15 दिन के क़रीब चली इस डील में अख़बार के रिपोर्टर ने भारत में नक़ली नोटों का अवैध कारोबार सँभालने वाला साउथ अफ्रीकी गुर्गा माइकल से व्हाट्स ऐप नंबर +33752583492 पर बातचीत की और काफ़ी मेहनत व जोखिम के बाद आख़िरकार उसके एक गुर्गे को पुलिस के हवाले कराया। इस गुर्गे ने पुलिस में क़ुबूल किया कि भारत के 25 शहरों में नक़ली नोटों का धन्धा चल रहा है, जो कि फ्रांस से ऑपरेट होता है। गुर्गे ने दावा किया कि दिल्ली और बेंगलूरु में नक़ली नोटों के मुफ़्त सैंपल मिल जाएँगे, जिन्हें बाज़ार में चलाकर देखा जा सकता है। भरोसा होने पर एक लाख रुपये देकर चार लाख के नक़ली नोट ले लें। बताया जाता है कि इस काम में सरगना माइकल से बातचीत के बाद उसके एक अन्य गुर्गे यातारे ने वॉट्स ऐप नंबर 7835929389 के ज़रिये रिपोर्टर से सम्पर्क किया, जिसका काम पार्टी से मिलकर उसके बारे में पूरी पड़ताल करना था, जिसका एक लाख की डील पर 10,000 रुपये यानी 10 फ़ीसदी कमीशन मिलता था। अख़बार का कहना है कि इस गुर्गे से बातचीत के बाद माइकल ने 29 नवंबर की सुबह रिपोर्टर को कॉल की और 500 व 2000 के नक़ली नोटों के बंडल दिखाये, जिसके बाद मशीन में पकड़े जाने की आशंका ज़ाहिर करने पर उसने नोटों को मशीन से भी गिनकर दिखाया। इसके बाद ग्राहक बने रिपोर्टर को यातारे ने महिपालपुर बुलाया। उसने पहले रिपोर्टर को एक होटल में आने को कहा; लेकिन बाद में अपना प्लान बदलकर बाहर बुलाया। वहाँ उसके दो साथी और एक अफ्रीकन लडक़ी मिली। वहाँ से वह दूसरी जगह रिपोर्टर को लेकर जाने लगे, जहाँ पहले से दिल्ली पुलिस ने एक को दबोच लिया, जबकि बाइक सवार दो युवक और लडक़ी फ़रार हो गये। पकड़े गये अफ्रीकी गुर्गे ने बताया कि माइकल ही भारत के 25 शहरों में नक़ली नोटों की सप्लाई को देखता है और उसके सभी एजेंट अफ्रीकी हैं। जैसे ही माइकल को इसकी सूचना मिली, उसने रिपोर्टर को धमकी दी कि दुनिया के किसी भी कोने में छिप जाना। मैं तुझे अगले 24 घंटे में ढूँढकर जान से मार दूँगा।

एनसीआरबी की रिपोर्ट

हाल ही में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट में ख़ुलासा किया गया है कि नोटबन्दी से पहले 2015 में नक़ली नोटों के 1,100 मामले दर्ज हुए। 15.48 करोड़ रुपये की क़ीमत के नक़ली नोट बरामद हुए और 1,178 आरोपी गिरफ़्तार किये गये। जबकि नोटबन्दी वाले साल 2016 में नक़ली नोटों के 1,398 मामले दर्ज हुए। 1,376 लोग गिरफ़्तार हुए और 24.61 करोड़ रुपये के नक़ली नोट पकड़े गये। वहीं अगले ही साल 2017 में साढ़े तीन लाख से अधिक नक़ली नोट बरामद हुए, जिनकी क़ीमत 28 करोड़ रुपये थी। इसके बाद साल 2018 में नक़ली नोटों की सप्लाई के 884 मामले दर्ज हुए। 969 आरोपी गिरफ़्तार हुए और 17.75 करोड़ रुपये की क़ीमत के नक़ली नोट बरामद हुए।

एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2019 के पहले महीने यानी जनवरी में ही नक़ली नोटों की सप्लाई के कुल 254 मामले दर्ज हुए। जबकि 5.05 करोड़ रुपये की क़ीमत के नक़ली नोट ज़ब्त किये गये और 357 लोग गिरफ़्तार किये गये। जबकि इस पूरे साल में कुल 25.39 करोड़ रुपये की क़ीमत के कुल 2,87,404 नोट बरामद हुए। साल 2020 में केवल महाराष्ट्र में 97 लोगों को गिरफ़्तार करके पुलिस ने 83.61 करोड़ रुपये की क़ीमत के कुल 6,99,495 नक़ली नोट ज़ब्त किये। पूरे देश में इस साल 92.18 करोड़ रुपये की क़ीमत के कुल 8,34,947 नक़ली नोट पुलिस ने पकड़े। यह राशि साल 2019 की तुलना में 190.5 फ़ीसदी ज़्यादा है।

इस साल के आँकड़े फ़िलहाल एनसीआरबी ने जारी नहीं किये हैं। लेकिन नक़ली नोटों के अफ्रीकी सरगना माइकल के गुर्गे के पकड़े जाने से इस बात का ख़ुलासा हो चुका है कि देश में नोटबन्दी के बाद भी नक़ली नोटों का अवैध कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है और उस पर नोटबन्दी का कोई असर नहीं हुआ। लेकिन हैरत इस बात की है कि इतने पर भी सरकार नक़ली नोटों के इस अवैध कारोबार के ख़िलाफ़ कोई ठोस क़दम उठाती नहीं दिख रही है।

नये नोटों में असली-नक़ली की पहचान नहीं आसान

जबसे देश में नये नोटों को सरकार ने जारी किया है, लोगों को पुराने नोटों की तरह इनकी पहचान करनी नहीं आती। इसकी एक वजह इन नोटों का काग़ज़ पहले के नोटों की अपेक्षा काफ़ी हल्का होना है। जब नये नोट सरकार ने जारी किये थे, तब बहुत-से लोगों ने इन्हें चूरन वाले नोट कहा था। वास्तव में इन नोटों में पहले जैसी बात नहीं है, जिससे इन्हें पहचानना आसान नहीं है। ज़्यादातर देखा गया है कि इन नोटों को बहुत कम लोग ही ग़ौर से देखते हैं। लेकिन यह भी सच है कि नक़ली नोट गाहे-ब-गाहे मिल ही जाते हैं। ऐसे में भले ही लोग एटीएम से पैसे निकालें; लेकिन सरकार के नोटों की पहचान वाले दिशा-निर्देश के हिसाब से ठीक से उनकी जाँच कर लें, जिससे बाद में उन्हें पछताना न पड़े।

कम हो रहे 2,000 के नोट

प्रधानमंत्री ने नोटबन्दी के दौरान दावा किया था कि नोटबन्दी से कालाधन ख़त्म हो जाएगा। लेकिन स्विस बैंक में तेज़ी से बढ़े भारतीय काले धन से उनके यह दावे खोखले होते नज़र आते हैं। इसकी एक बानगी बाज़ार से 2,000 के नोटों का ग़ायब होना भी है। क्योंकि अब बाज़ार में 2,000 के नोट कम नज़र आते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि लोगों ने 1,000 की जगह 2,000 के नोटों का संग्रह शुरू कर दिया है, जो कि 1,000 के नोट की अपेक्षा कालाधन बढ़ाने में दोगुना सहयोग करते हैं।

अभी तक शापित क्यों हैं मैला ढोने वाले?

भारत में जाति एक सामाजिक व राजनीतिक विमर्श का मुद्दा है। सियासत करने वाले मौक़े के अनुकूल इसे भुनाते हैं और समाज विज्ञानी इस पर शोध के ज़रिये नये पहलुओं को सामने लाते रहते हैं। इन दिनों आज़ादी की 75वीं सालगिरह के मौक़े पर देश भर में भारत की आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। मगर सवाल यह भी है कि क्या सरकार और समाज के उच्च वर्ग द्वारा तथाकथित निचली जातियों को उनके हिस्से का अमृत पीने दिया जा रहा है?

इस कड़ुवे सवाल का जबाव सामाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्रालय के राज्य मंत्री रामदास अठावले के हाल ही में राज्यसभा में एक सवाल के जबाव से मिल जाता है। 1 दिसंबर को संसद के चालू शीतकालीन सत्र के दौरान राज्य मंत्री रामदास अठावले ने राज्यसभा में बताया कि देश में हाथ से मैला ढोने वालों की संख्या 58,098 है और उनमें से 42,594 अनुसूचित जाति से सम्बन्ध रखते हैं। यानी सरकार मानती है कि यह अमानवीय काम करने वाले अधिकतर लोग जातीय संरचना में सामाजिक पायदान पर सबसे नीचे खड़े इंसान हैं। अफ़सोस इस बात का है कि ये लोग आज के आधुनिक युग और प्रधानमंत्री के घर-घर शौचालय निर्माण के दावे के बावजूद भी इस घृणित काम को करने के लिए मजबूर हैं या फिर समाज के कुछ दबंग और उच्च वर्गीय कहे जाने वाले लोगों द्वारा मजबूर किये जा रहे हैं।

दरअसल देश में विकास, जीडीपी ग्रोथ की बड़ी-बड़ी बातें नेता और नीति निर्माता अक्सर करते रहते हैं। लेकिन वे न तो भारत में सदियों से चली आ रही हाथ से मैला ढोने की प्रथा को ख़त्म कर सके हैं और न इस काम को करने वाले जातिगत ढाँचे के सबसे निचले पायदान पर खड़ी जाति के लोगों को ही कोई बेहतर दिशा दे सके हैं। यही वजह है कि समाज में अधिकतर लोगों द्वारा हेय दृष्टि से देखे जाने वाले ये लोग आज भी श्रापित हैं।

किसी व्यक्ति द्वारा अपने हाथों से मानवीय अपशिष्टों की सफाई करने या उसे सर पर ढोने की प्रथा को हाथ से मैला ढोने की प्रथा या मैनुअल स्कैवेंजिंग कहते हैं। देश में शुष्क शौचालयों की सफाई ऐसे ही की जाती थी। आज बेशक देश में शुष्क शौचालय देखने को मिलते हैं; लेकिन हाथ से मैला ढोने के अलावा सफाई करने वाले काम में अब नालों, सेप्टिक टैंकों, सीवरेज आदि की सफाई शामिल है, जो काफ़ी असुरक्षित और बीमारीजन्य है। हालाँकि सरकार हाथ से मैला ढोने और सीवरेज व सेप्टिक टैंकों की सफाई के काम में अन्तर करती है। लेकिन ऐसे सफाईकर्मियों के अधिकारों के लिए काम करने वाले लोगों की दलील है कि बाद वाला काम पहले काम का ही विस्तार है।

अधिनियम से भी नहीं लगी रोक

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने हाथ से मैला ढोने की प्रथा का जमकर विरोध किया था। इस प्रथा को अमानवीय कहकर इसका विरोध शुरू हुआ और सफाई कर्मचारी नियोजन और शुष्क शौचालय निर्माण (प्रतिषेध) अधिनियम-1993 बना। इस अधिनियम के तहत लोगों को हाथ से मैला ढोने के रूप में रोज़गार पर प्रतिबन्ध लग गया। इसके अंतर्गत हाथ से मैला साफ़ कराने वाले काम को संज्ञेय अपराध मानते हुए आर्थिक दण्ड और कारावास दोनों ही प्रावधान रखे गये। यह अधिनियम शुष्क शौचालय के निर्माण को भी प्रतिबन्धित करता है। इस अधिनियम को अधिक कारगर न देख एक मज़बूत अधिनियम बनाने की माँग ज़ोर पकडऩे लगी। कार्यकर्ताओं ने मामले कई राज्यों की उच्च न्यायालयों में दायर किये। सर्वोच्च न्यायालय तक आवाज़ पहुँची। 20 साल बाद सफाई कर्मचारी नियोजन का प्रतिषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम-2013 अमल में लाया गया। यह अधिनियम हाथ से मैला ढोने के तौर पर किए जा रहे किसी भी काम या रोज़गार का निषेध करता है। यह हाथ से मैला साफ़ करने वाले और उनके परिवार के पुनर्वास की व्यवस्था भी करता है। और यह ज़िम्मेदारी राज्यों पर डालता है। इसके तहत ऐसे व्यक्ति को सरकार एकमुश्त 40,000 रुपये देती है और उसे कौशल प्रशिक्षण भी देती है। पुनर्वास रोज़गार योजना के तहत आजीविका परियोजना शुरू करने के लिए सरकार रियायती दर पर 15 लाख रुपये तक का क़र्ज़ भी देती है। लेकिन इसके बावजूद देश में हाथ से मैला ढोने वालों की इतनी बड़ी संख्या हैरत में डालती है। सरकारों की नीयत और सामाजिक व्यवस्था पर सवाल उठते हैं। अगर सरकार ने ऐसे सफाई कर्मचारियों के पुनर्वास के लिए योजनाएँ बना रखी हैं, तो भी उनकी हालत बदतर क्यों हैं?

मौत का खेल

नालों, सीवरेज और सेप्टिक टैंकों की सफाई के दौरान सफाई कर्मचारियों के मरने की ख़बरें अक्सर पढऩे-सुनने को मिलती हैं। गन्दगी, असहीनय बदबूदार वाले पानी में कौन मरना चाहता है? पर अफ़सोस कि देश में हर साल सफाईकर्मी ऐसी मौत मर रहे हैं और सरकार मौतों के असली आँकड़ों को सामने लाने से डरती है। नेशनल कमीशन फॉर सफाई कर्मचारी के आँकड़ों के अनुसार, सन् 2013 से 2017 के दरमियान देश में 608 सफाईकर्मियों की काम के दौरान मौत हुई। सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता मंत्रालय के एक अधिकारी ने बीते साल बताया था कि बीते 27 साल में (2020 तक) ऐसी मौतों की संख्या 1,013 है। लेकिन ऐसे लोगों के हक़ों के लिए आवाज़ उठाने वाले संगठन सरकार पर बराबर सच्चाई को दबाने का आरोप लगाते रहते हैं। अधिकांश सरकारों का चरित्र ही सच्चाई को कुचलकर राज करना होता है। हाल ही में ऑक्सीजन की कमी से कोरोना महामारी से पीडि़त असंख्य लोगों की मौत हो गयी। मगर सरकारें बोलती हैं कि उनके पास ऐसी मौतों का कोई लेखा-जोखा ही नहीं है। यानी ऑक्सीजन की कमी से कोई कोरोना वायरस के रोगी नहीं मरे। अब इन 1,013 सफाईकर्मियों की मौत पर नज़र डाली जाए, तो पता चलता है कि प्रशासन, पुलिस और सरकारें कितनी गम्भीरता से ऐसी मौतों को लेते हैं। 462 मामलों में एफआईआर दर्ज की गयी। इनमें से 418 मामलों में आईपीसी की धारा-304 के तहत लापरवाही से मौत का मामला बनाया गया। 44 मामले दुर्घटना मौत के तौर पर दर्ज हुए और केवल 37 मामलों में एफआईआर सम्बन्धित क़ानून के तहत दर्ज की गयी, अर्थात् एक फ़ीसदी से भी कम एफआईआर उस क़ानून के तहत दर्ज की गयीं, जो वास्तव में सफाईकर्मियों के संरक्षण के लिए बना है। आने वाले कुछ महीनों में देश के पाँच राज्यों पंजाब, गोवा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और मणिपुर में विधानसभा चुनाव होंगे। माहौल में चुनावी बयार बहनी शुरू हो चुकी है; लेकिन उत्तर प्रदेश में इस बयार की रफ़्तार बहुत ही तेज़ है। हर रोज़ किसी-न-किसी एक्सप्रेस-वे का उद्घाटन या अन्य किसी बड़ी परियोजना का शिलान्यास होने की ख़बरें आती रहती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इन दिनों दिल्ली से इस राज्य में आना-जाना लगा हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी की जोड़ी की तस्वीरों के बड़े-बड़े विज्ञापनों में जारी सरकारी आँकड़ों का ढिंढोरा देश भर में पीटा जा रहा है। जनता के पैसों और चमक के दम पर ऐसा समा बाँधा जा रहा है कि मानो देश के सबसे बड़े इस राज्य में सब कुछ अच्छा-ही-अच्छा है। मगर यहाँ पर प्रसंगवश यह भी ज़िक्र करना ज़रूरी है कि एक सर्वे के अनुसार, इस राज्य में सन् 2018 तक सफाई कर्मचारियों की संख्या 29,923 थी, जो देश में सबसे अधिक थी। राज्य सरकार अपने विज्ञापनों में ऐसी जानकारी आमजन तक क्यों नहीं साझा करती?

विश्व स्वास्थ्य संगठन का सन् 2019 का एक अध्ययन बताता है कि भारत में कमज़ोर वैधानिक संरक्षण और क़ानून के पालन में ख़ामियों और सफाईकर्मियों की ख़राब आर्थिक हालत की वजह से भी यह प्रथा आज भी अपना वजूद बनाये हुए है। बीते साल (2020) में सफाई मित्र सुरक्षा चैलेंज कार्यक्रम लॉन्च किया गया, जिसका मक़सद 30 अप्रैल, 2021 तक देश भर के 243 शहरों में बने सेप्टिक टैंकों और सीवरेज की सफाई के काम का पूर्णत: मशीनीकरण करना था। लेकिन पूर्णत: ऐसा होता दिख नहीं रहा। सरकारी मंशा तभी पूरी होती है, जब उसमें राजनीतिक इच्छाशक्ति अपना पुरज़ोर दम दिखाती है। इसके साथ ही साथ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि देश में सीवरेज और सेप्टिक टैंकों का बनाया ही इस तरह से गया है कि उसमें इंसान नहीं जा सकता है। मशीनों से सफाई करना वहाँ लगभग असम्भव है। सँकरी गलियों, सडक़ों में मशीनों का इस्तेमाल अलग चुनौती है। बेशक देश की राजधानी दिल्ली की सरकार ने तेलंगाना के सफाई मॉडल को अपनाते हुए दिल्ली में सीवरेज आदि की सफाई का काम मशीनों से शुरू कर दिया है, मगर पूरी दिल्ली में ऐसा होना सम्भव नहीं दिखता। इसकी वजह पुराने डिजाइन, सँकरे स्थान आदि हैं। यह समस्या देश भर की है। एक और अहम पहलू, इस सन्दर्भ में सरकारी नज़रिया इस समस्या को शहरी लेंस से देखने का है। वह इसे शहरी चुनौती के तौर पर लेता है। अधिकतर सर्वे शहरों में ही किये गये हैं। स्वच्छ भारत अभियान के तहत ग्रामीण इलाक़ों में जो शौचालय बनाये गये, उन पर नज़र डाले तो पता चलता है कि इन शैचालयों के निर्माण के लिए दो गड्डे, एक गड्डे, सेप्टिक टैंक विद सोक टिंक प्रणाली को अपनाया गया है। जहाँ तक दो गड्डे वाले शौचालयों कासवाल हैं, वहाँ तो एक गड्डे के भर जाने के बाद भी दूसरे का इस्तेमाल किया जा सकता है, वहाँ मानव अपशिष्ट की सफाई के लिए इंसान की ज़रूरत नहीं पड़ती, मगर बाक़ी दो में इंसान या मशीन की ज़रूरत होती है। गाँवों में सेक्शन पम्प बहुत कम होते हैं, तो वहाँ फिर इंसान ही सफाई का काम करते देखे जा सकते हैं। आख़िर हासिल क्या हो रहा है?

पंजाब में भी मुफ़्त सुविधाओं की गूँज

मुफ़्त के नाम पर मतदाताओं को लुभाकर सत्ता में आने और टिके रहने का जो राजनीतिक पैंतरा दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने आजमाया है, अब उसका विस्तार पंजाब में हो सकता है। इसकी वजह यह है कि जबसे दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने पंजाब में चुनाव जीतने पर मुफ़्त सुविधाओं की बात कही है, कांग्रेस भी लोगों को प्रलोभन देने में लग गयी है। कांग्रेस ने मुफ़्त तो नहीं, लेकिन बिजली की दरों में भारी कमी कर उसी लीक पर चलकर सत्ता में बने रहने का दाँव चला है। लेकिन मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी की तीन रुपये प्रति यूनिट बिजली की दर की घोषणा की आलोचना विपक्षी दलों से पहले उनकी ही पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू ने करते हुए इसे लॉलीपाप बता दिया है। सिद्धू स्पष्ट कहते हैं कि कांग्रेस मुफ़्त की घोषणाओं से नहीं, बल्कि उसके द्वारा किये गये पहले के वादों को पूरा करके ही सत्ता में आ सकती है।

गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी मामले में दोषियों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई का वादा अब भी अधूरा ही है। चुनाव से पहले इस वादे के पूरा होने की सम्भावना ही बहुत कम है। सिद्धू सब कुछ मुफ़्त करने से पहले पुराने वादे पूरे करने के पक्ष में खड़े हैं। वहीं चन्नी वादों के साथ मुफ़्त की घोषणाओं में भरोसा कर रहे हैं। सब कुछ मुफ़्त करने की घोषणाओं में शिरोमणि अकाली दल (शिअद) भी पीछे नहीं रहेगा। जल्द ही आम आदमी पार्टी की तर्ज पर उसके घोषणा-पत्र में मुफ़्त की सौगातों का अंबार देखने को मिलेगा।

राज्य में आम आदमी पार्टी का आधार मौज़ूदा राजनीतिक हालातों के मद्देनज़र ठीक है। कैप्टन अमरिंदर सिंह के मुख्यमंत्री रहते कांग्रेस की हालत भी काफ़ी अच्छी थी। पार्टी की तुष्टिकरण की नीति के चलते न केवल उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा, बल्कि कांग्रेस से भी उन्होंने किनारा कर लिया। अब वही कांग्रेस को चुनौती देने की तैयारी कर रहे हैं। हालाँकि उनका सिक्का पहले की तरह नहीं चलेगा, यह तो तय है। इसकी एक वजह उनका भाजपा की ओर झुकाव है। भाजपा और शिअद (संयुक्त) के साथ सीटों का तालमेल करके कैप्टन कांग्रेस का खेल बिगाडऩे की कोशिश में हैं। तीन कृषि क़ानून वापस लेने के बाद राज्य में भाजपा अब पहले जैसी अछूत नहीं रही। लेकिन उसे अभी भी बड़ा जनाधार पसन्द नहीं करता। भले ही अकाली दल के नेता और दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी (डीएसजीएमसी) के प्रमुख मनजिंदर सिंह सिरसा भाजपा में शामिल हो गये हैं। बल्कि इससे सिरसा से भी बहुत-से लोग नाराज़ ही हुए हैं। पंजाब की आर्थिक स्थिति बेहद बदहाल है। मौज़ूदा मुफ़्त की घोषणाएँ जारी रखना किसी भी सरकार के लिए चुनौती से कम नहीं है, बावजूद इसके हज़ारों करोड़ों रुपये की घोषणाएँ चुनाव से पहले होने लगी हैं।

मुफ़्त सुविधाओं की घोषणा करना आसान है; लेकिन उन्हें लागू करना कम-से-कम पंजाब में तो बहुत मुश्किल है। इसे पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह समझते रहे हैं। मौज़ूदा मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी भी इससे अनजान नहीं है, बावजूद इसके पार्टी को सत्ता में बनाये रखने के लिए वह घोषणाएँ कर रहे हैं। अस्थायी सरकारी कर्मचारी स्थायी होने के लिए जगह-जगह आन्दोलन कर रहे हैं। मोबाइल टॉवरों से लेकर पानी की टंकियों पर चढक़र रोष जता रहे हैं। उन्हें नियमित नहीं किया जा रहा है, तो इसके पीछे कारण आर्थिक ही है।

वित्तमंत्री मनप्रीत बादल कई बार संकेतों के माध्यम से आँकड़ें पेश करके बता चुके हैं कि ऐसी घोषणाएँ मौज़ूदा बजट में सम्भव नहीं हैं। पंजाब पर हज़ारों करोड़ रुपये का क़र्ज़ है, जिसकी मोटी ब्याज राशि सरकार के लिए चुनौती बनी हुई है। राजस्व के मुक़ाबले ख़र्च बेहताशा बढ़ता जा रहा है। पंजाब में दो दशक से किसी भी पार्टी ने यह दावा नहीं किया कि हमारी सरकार ने भरा-पूरा ख़जाना छोड़ा था और अमुक सरकर ने उसे ख़ाली कर दिया। राज्य में ख़जाना ख़ाली ही है, किसी तरह काम चल रहा है।

कहने को पंजाब देश का सबसे ख़ुशहाल राज्य है; लेकिन वास्तविक स्थिति ऐसी नहीं है। राज्य की खस्ता आर्थिक हालत को आँकड़ों से बख़ूबी समझा जा सकता है। हालाँकि ऐसा नहीं है कि पंजाब में राजस्व कम आता है। फिर भी वहाँ हालत आदमनी अठन्नी ख़र्चा रुपय्या वाली है। लेकिन सत्ता में आने की चाह में सभी पार्टियाँ इससे आँख मूँदे रही हैं। राज्य में विधानसभा चुनाव के बाद सरकार चाहे किसी भी दल या गठबन्धन की बन जाए, मुफ़्त की घोषणाएँ जारी रखना एक चुनौती रहेगी। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है- दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को लगता है कि पंजाब में आम आदमी पार्टी के लिए मैदान खुला है। कांग्रेस बिखराव के दौर में है। शिअद का आधार वैसे ही कमज़ोर है। ऐसे में देरी है, तो दिल्ली की तर्ज पर सब कुछ मुफ़्त की घोषणाएँ कर मतदाताओं को पूरी तरह अपने पक्ष में करने की। केजरीवाल ने पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद प्रदेश की महिलाओं (18 वर्ष से ज़्यादा) के लिए 1,000 रुपये प्रतिमाह देने की घोषणा की है। इस मद पर 5,000 करोड़ रुपये ख़र्च होंगे; लेकिन यह पैसा आएगा कहाँ से? इस पर केजरीवाल भी कुछ नहीं कहते। फिर वह दिल्ली में जारी मुफ़्त की योजनाएँ बताते हैं कि किस तरह सरकार ने उन्हें बख़ूबी जारी रखा है।

केजरीवाल जानते हैं कि दिल्ली की तरह पंजाब में भी मुफ़्त का दाँव चल गया, तो पार्टी की सरकार बनना तय है। पंजाब बिजली उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं है। निजी कम्पनियों से बिजली ख़रीद के समझौते भी सन्देह के घेरे में रहे हैं। चन्नी की घोषणा से पहले पंजाब में बिजली की दरें पड़ोसी राज्य हरियाणा और हिमाचल से बहुत ज़्यादा थीं। दरें कम करने की घोषणा का लोगों ने स्वागत किया, तो पार्टी को लगा शायद फिर से सत्ता में वापसी का यही सबसे रामबाण है। शिअद ने भी संकेत दे दिया है कि सत्ता में आने के बाद पाँच रुपये प्रति यूनिट बिजली मुहैया कराएगी। इसी शिअद सरकार के समय में बिजली कम्पनियों से ख़रीद समझौते हुए थे, जिन्हें जारी रखना कांग्रेस सरकार के लिए मुसीबत बना हुआ है। अब वही शिअद पाँच रुपये यूनिट का वादा किस बूते कर रही है? कहा जा सकता है कि पंजाब में इस विधानसभा चुनाव से पहले सबसे बड़ा मुद्दा मुफ़्त का रहेगा। जो पार्टी या गठबन्धन सबसे ज़्यादा मुफ़्त की योजनाओं की घोषणा करेगी और मतदाताओं को रिझा लेगी, उसके सत्ता में आने की सम्भावना उतनी ही ज़्यादा रहेगी। देखना यह होगा कि मतदाताओं पर कौन-सी पार्टी असर छोड़ पाने में सफल होती है।

क्या करेंगे कैप्टन?

लगभग पाँच साल पहले पंजाब के विधानसभा चुनाव में कैप्टन अमरिंदर सिंह जनसभाओं में कहा करते थे कि यह उनका अन्तिम चुनाव है। इसके बाद वह राजनीति से किनारा कर लेंगे। ऐसी बातों का नतीजों पर क्या असर रहा होगा? कहना मुश्किल है। लेकिन मतदाताओं की सहानुभूति उन्हें ज़रूर मिली होगी। अब वही अमरिंदर सिंह कांग्रेस को सबक़ सिखाने की तैयारी कर रहे हैं। उन्हें जिस तरह से पहले मुख्यमंत्री की कुर्सी और फिर पार्टी छोडऩे पर मजबूर होना पड़ा, उससे वह बहुत आहत हैं।

वह फिर से चुनाव मैदान में उतरेंगे; लेकिन क्या वह कोई चुनौती बन सकेंगे? केंद्र सरकार के तीन कृषि क़ानून वापस लेने के बाद पंजाब में भाजपा भी सक्रिय हो गयी है। शहरी क्षेत्रों में पार्टी का कुछ आधार है। कैप्टन भाजपा के साथ मिलकर नयी चुनौती पेश करने वाले हैं। फ़िलहाल तो शिअद (संयुक्त) सुखदेव सिंह ढींढसा के साथ सीटों के तालमेल पर बात बन सकती है।

पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह चुनावी राजनीति के बड़े रणनीतिकार हैं। आने वाले दिनों में कुछ क्षेत्रीय दलों से सीटों के तालमेल पर बात बन सकती है। वह गठबन्धन में मुख्यमंत्री पद के दावेदार रहेंगे। भाजपा को राज्य में अपनी जड़ें जमाने के लिए कैप्टन सबसे ज़्यादा मुफ़ीद है। भाजपा के पास खोने को ज़्यादा नहीं; लेकिन पाने को बहुत कुछ है। लेकिन लगता है कि इस बार पंजाब में आसानी से उसकी दाल गलने वाली नहीं।

तू डाल-डाल, मैं पात-पात

माना जाता है कि हाथी के दाँत दिखाने को कुछ और तथा खाने के कुछ और होते हैं। पंजाब और दिल्ली में यही हो रहा है। पंजाब के आन्दोलनरत शिक्षकों को दिल्ली के मुख्यमंत्री सत्ता में आने के बाद तुरन्त प्रभाव से नियमित करने का वादा कर रहे हैं और उनके साथ बैठकर उन्हें समर्थन देते नज़र आये। पर दिल्ली में अभी तक अतिथि अध्यापक अभी नियमित नहीं हुए हैं।

हालाँकि दिल्ली सरकार ने इस दिशा में पहल की है और उसका आरोप है कि भाजपा और उप राज्यपाल इसमें अड़चन डाल रहे हैं। हाल ही में इस पर विधानसभा में भी विधेयक पेश करने के लिए उन्होंने यही बात कही, जबकि विधेयक पर चर्चा करने से भाजपा विधायक बचते हुए नज़र आये। दरअसल दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार भले ही है; लेकिन उप राज्यपाल की अनुमति के बग़ैर दिल्ली सरकार कुछ नहीं कर सकती और उप राज्यपाल केंद्र के अधीन हैं। इसी तिकड़म के चलते दिल्ली में बहुत-से काम लम्बे समय तक लटके रहते हैं या फिर लटके ही रह जाते हैं। इसे लेकर दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार में लगातार तकरार बनी रहती है।

ख़ैर, गेस्ट टीचरों को लेकर दोनों राज्यों में माँगें समान हैं। लेकिन पंजाब में मुख्यमंत्री के हाथ में पूर्ण सत्ता होगी, जो कि दिल्ली में नहीं है। पिछले दिनों पंजाब दौर पर केजरीवाल मोहाली में अनुबन्धित शिक्षकों के प्रदर्शन में शामिल हुए थे। उनके साथ संगरूर से सांसद भगवंत मान समेत राज्य में आम आदमी पार्टी के प्रमुख नेता थे। हालाँकि दिल्ली के अतिथि अध्यापक भी आन्दोलन कर चुके हैं। फ़िलहाल उन्हें नियमित होने की उम्मीद बँधी है; लेकिन यह काम उपराज्यपाल की मंशा के बिना नहीं हो सकता।

केजरीवाल की तरह इस बार पंजाब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू दिल्ली में आन्दोलनरत शिक्षकों के साथ जुड़े। उन्हें बताया कि किस तरह केजरीवाल दोहरे मानदण्ड अपना रहे हैं। पंजाब में अनुबन्धित कर्मियों को सरकार बनने पर पक्का करने का भरोसा दिला रहे हैं, वहीं अपने राज्य के शिक्षकों को अँगूठा दिखा रहे हैं। सिद्धू दिल्ली के अतिथि अध्यापकों के साथ खड़े नज़र आते हैं; लेकिन पंजाब में काफ़ी समय से अनुबन्धित शिक्षकों से दूरी बनाये रखते हैं।

केंद्र ने बढ़ाया सीबीआई-ईडी प्रमुखों का कार्यकाल

अब सियासतदानों द्वारा राजधर्म की बातें करना आम चलन है, लेकिन उस पर अमल कोई नहीं करता। सत्ता में पहुँचते ही सब अपने भरोसेमंद अधिकारियों को महत्त्व देने और हित साधने के लिए अनेक विधेयक विपक्ष की अनदेखी कर संसद में पास करने लगते हैं। इस सरकार में भी यही किया जा रहा है; और कुछ ज़्यादा ही सिद्दत से किया जा रहा है। यह सरकार लम्बे समय से केंद्रीय जाँच एजेंसियों- सीबीआई और ईडी को तोता बनाने और इन स्वायत्त जाँच संस्थाओं के प्रमुखों का कार्यकाल पाँच साल करने के लिए उतावली रही है। आख़िरकार 9 दिसंबर को संसद में इस विधेयक पर मुहर लगा दी गयी। संसद में विपक्ष ने बिल के दौरान सरकार पर जमकर हमला बोला और आरोप लगाया कि सरकार इन संस्थाओं का दुरुपयोग करके अपने हित साधेगी। संसद में चर्चा के दौरान तीखी नोकझोंक हुई। आरोपों-प्रत्योरोपों के बीच प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह ने कहा कि बढ़ती अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों को देखते हुए संस्थाओं को मज़बूत और चुस्त-दुरस्त बनाना है। उन्होंने स्पष्ट किया कि सरकार ने इनका कार्यकाल नहीं बढ़ाया है, बल्कि इनके कार्यकाल की समय-सीमा तय की है। विधेयकों के प्रावधानों का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि इन जाँच संस्थाओं का कार्यकाल तो दो ही साल का होगा; लेकिन अगर ज़रूरत पड़ी, तो इन्हें एक साल से तीन साल तक का विस्तार दिया जा सकता है।

पत्रकारों और जानकारों का कहना है कि विधेयक तो अपनों को बढ़ाने का बहाना है। क्योंकि जो मनमर्जी के काम सियासी दाँवपेंच से नहीं हो आसानी से नहीं हो सकते, वो सरकारी संस्थाओं के मार्फत हो जाते हैं। सरकार इन संस्थाओं का उपयोग अस्त्र-शस्त्र के तौर पर काम करती है। ऐसा नहीं है कि यही सरकार ऐसे विधेयक पास करा रही है। पूर्व की सरकारें भी ऐसा करती आयी हैं। वर्तमान सरकार भी एक क़दम बढक़र वही कर रही है। बसपा के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि पाँच राज्यों के आगामी विधानसभा चुनाव में सीबीआई और ईडी का असर उन नेताओं पर देखने को मिलेगा, जो किसी-न-किसी रूप में किसी घोटाले में फँसे हैं। उन पर इस सीबीआई और ईडी का हंटर चल सकता है। उत्तर प्रदेश की सियासत में कई पार्टियों के वरिष्ठ नेता और अध्यक्षों पर कई-कई घोटालों के आरोप हैं। ऐसे में सीबीआई और ईडी के अस्त्र-शस्त्र चल सकते हैं। कृषि क़ानूनों की वापसी के दौरान ये विधेयक लाया गया है, ताकि सरकार मज़बूती के साथ इन अधिकारियों से वो काम ले सके, जो वह चाहती है। सियासत में शक्ति और सूचनाएँ हासिल करना अहम होता है। तभी तो सरकार का कहना है कि अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों के मद्देनज़र ये विधेयक लाया गया है।

जानकारों का कहना है कि इस विधयेक पर मुहर का मतलब विपक्ष को चेतावनी देना है। समाजवादी पार्टी के सांसद और बसपा के सांसद ने ‘तहलका’ को नाम न छापने की शर्त पर बताया कि विपक्ष की भूमिका से सरकार परिचित है; इसलिए मनमानी कर रही है।

कांग्रेस के सांसद बालू भाऊ नारायणराव ने कहा कि केंद्र की भाजपा सरकार अपनी मनमानी कर रही है। जो भी नेता, व्यापारी और कलाकार सरकार की बात नहीं मानता है, उसके ख़िलाफ़ सरकार ईडी और सीबीआई का दुरुप्रयोग करती है। जबसे देश आज़ाद हुआ है, तबसे सीबीआई-ईडी की इतनी छापे मारी इस सरकार से पहले कभी नहीं हुई। लेकिन भाजपा की सरकार ने तो हद कर दी है। अब आये दिन छापेमारी होती है। लोगों को परेशान किया जा रहा है। पहले किसी भी राज्य में साल-दो साल में छापेमारी होती थी। लोगों में सीबीआई-ईडी का डर होता था। अब इस सरकार ने इन दोनों संस्थाओं का महत्त्व कम कर दिया है। सांसद नारायणराव ने कहा कि कई मामलों में सीबीआई-ईडी के छापेमारी में भी कुछ हासिल नहीं होता है। लोगों में डर न के बराबर हो गया है। लोग ईडी के कई-कई बार समन (नोटिस) मिलने पर जाते तक नहीं हैं।

बता दें कि सरकार ने गत चार महीने पहले ही इस बात का संकेत दिया था कि वह सीबीआई और ईडी प्रमुखों के कार्यकाल का विस्तार करेगी; लेकिन विपक्ष ने तब भी कुछ नहीं कहा। इससे साफ़ हो गया था कि विधेयक पर मुहर लगने के दौरान विपक्ष विरोध करेगा। अगर सही मायने में विपक्ष ठान लेता, तो विधेयक पर आसानी से मुहर नहीं लग सकती थी।

संसद में टीएमसी के सांसद सौगत रॉय ने सीबीआई-ईडी के कार्यकाल बढ़ाने वाले विधेयक का मुखर विरोध करते हुए कहा कि यह पूरी क़वायद सीबीसी प्रमुख संजय मिश्रा को एक और कार्यकाल देने के लिए की गयी है।

शहीद की पत्नी ने चुनी देश सेवा की राह

आतंकी मुठभेड़ में शहीद भारतीय सेना अधिकारी दीपक नैनवाल की पत्नी ज्योति नैनवाल बनीं लेफ्टिनेंट

वैसे तो देश के शहीदों के और उनके परिवार वालों के त्याग और बलिदान की गाथाएँ हम हर साल 26 जनवरी और 15 अगस्त या शहीदी दिवस पर कहते-सुनते हैं। लेकिन इन गाथाओं में कुछ अमर गाथाएँ भी होती हैं।

जिनके घर के चिराग सीमा पर शहीद होते हैं, उनके घर के की दु:खभरी कहानी शहीदों के परिवार वालों से बेहतर कौन समझ सकता है। लेकिन अगर जवान औरत बेवा हो जाए और उसके कन्धों पर नन्हें-नन्हें बच्चो का बोझ हो, बुजुर्ग माँ-बाप, शादी लायक ननद हो, तो उस महिला पर क्या बीतती होगी, यह कोई बयाँ नहीं कर सकता। लेकिन ऐसी नारी अगर शहीद पति के नाम पर रोना छोडक़र पति के नक़्शेक़दम पर चलना शुरू करके पति की तरह देश की सेवा करने का मन बना ले और उस मकाम तक पहुँचकर दिखाए, तो यह फ़ख़्र की बात होती है। ऐसा ही कुछ भारतीय सेना में अधिकारी शहीद दीपक नैनवाल की पत्नी ज्योति नैनवाल ने कर दिखाया है। पति की शहादत के बाद ख़ुद को एक बेवा के रूप में देश के सामने पेश करने के बजाय उन्होंने लेफ्टिनेंट की वर्दी पहनकर देश की नारी शक्ति के सामने एक मिसाल पेश की है।

गौरतलब हो कि सन् 2018 में जम्मू और कश्मीर में ऑपरेशन रक्षक के दौरान 11 अप्रैल, 2018 को आतंकवादियों से हुई मुठभेड़ में सेना के अधिकारी दीपक नैनवाल बुरी तरह जख़्मी हो गये और इसके सवा महीने बाद उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। शहीद अधिकारी दीपक नैनवाल की पत्नी पत्नी ज्योति नैनवाल ने ख़ुद से वादा किया कि वह अपने पति को अश्रुपूर्ण नहीं, बल्कि गौरवपूर्ण श्रद्धांजलि देंगी। और तीन साल बाद 20 नवंबर, 2021 को ज्योति नैनवाल ने अधिकारी प्रशिक्षण अकादमी (चेन्नई) से एक अधिकारी के रूप में स्नातक करके अपने उस वादे को पूरा भी किया।

दीपक के शहादत के समय ज्योति सिर्फ़ एक गृहिणी थीं। लेकिन उनकी माँ की एक सलाह से उनकी ज़िन्दगी में अचानक एक नया मोड़ आया। ज्योति की माँ ने कहा- ‘तुम्हारा जीवन अबसे तुम्हारे बच्चों के लिए एक उपहार होना चाहिए। वे तुम्हारा अनुकरण करेंगे। यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम अपने जीवन को कैसे जीना चाहती हो।’

उस समय ज्योति इस बात से बिल्कुल अनजान थीं कि सेना में उनके पति की जगह भर्ती होने की क्या प्रक्रिया है? लेकिन सेना में शामिल होने की ज्योति की उत्सुकता की बात जब दीपक नैनवाल की महार रेजीमेंट के ब्रिगेडियर चीमा और कर्नल एम.पी. सिंह को पता चली, तो उन्होंने ज्योति के गुरु की भूमिका निभायी। और आज ज्योति एक लेफ्टिनेंट के रूप में हैं। जब भारतीय सेना के नायक दीपक नैनवाल शहीद हुए थे, तो उनके परिवार समेत पूरे देश ने उन्हें अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित की। लेकिन उन्हें जो सच्ची श्रद्धांजलि उनकी पत्नी ने भारतीय सेना में शामिल होकर दी है, वह अनमोल है।

पास आउट समारोह में ज्योति अपने दोनों बच्चों के साथ सेना की वर्दी में नज़र आयीं। इस अवसर पर कई लोगों की आँखें ख़ुशी से छलछला उठीं। क्योंकि ज्योति ने न केवल पति का, वरन् पूरे देश का मान बढ़ाया है। उनके अधिकारी बनने को समय का एक वीडियो सोशल मीडिया पर काफ़ी वायरल हुंआ, जिसमें ज्योति नैनवाल कहते हुए नज़र आ रही हैं कि पति दीपक ने उन्हें यह ख़ास तोहफ़ा ज़िन्दगी भर के लिए दिया है, जिसे वह आगे बढ़ाएँगी। उन्होंने आगे कहा कि मैं अपने पति के रेजिमेंट को शुक्रिया अदा करती हूँ, जो हर क़दम पर मेरे साथ खड़े थे और मुझे एक बेटी की तरह प्यार और अपना समर्थन दिया। बहादुर महिलाओं के लिए मैं जन्म के लिए नहीं, बल्कि कर्म के लिए माँ बनना चाहती हूँ और मैं यहाँ जो कुछ भी ज़िन्दगी जिऊँगी, वो मेरे बच्चो के लिए होगी। दून पहुँची ज्योति का उनके हर्रावाला स्थित आवास पर ज़ोरदार स्वागत किया गया। सेना के बैंड की धुन पर हरिद्वार रोड स्थित शहीद द्वार से घर तक स्वागत यात्रा निकली गयी। सुबह से लेकर शाम तक उनके घर पर बधाई देने वालों का तांता लगा रहा। घर के गेट पर सास पार्वती नैनवाल ने लेफ्टिनेंट बहू की आरती उतारी। इसके बाद लेफ्टिनेंट ज्योति, बेटी लावण्या और बेटे रेयांश ने शहीद दीपक नैनवाल के चित्र पर पुष्प चक्र अर्पित कर उन्हें सैल्यूट किया। इस दौरान बच्चों ने भी माँ की तरह सैन्य वर्दी पहनी थी। ससुराल के बाद ज्योति नथुवावाला स्थित मायके पहुँचीं। वहाँ भी उनका ज़ोरदार स्वागत हुआ।

अब ज्योति ओटीए चेन्नई में आयोजित पीओपी के बाद बतौर लेफ्टिनेंट सेना में शामिल हैं। सैन्य अ$फसर बनने के बाद वह अपने घर हर्रावाला पहुँचीं। वहाँ पर भी उनका ज़ोरदार स्वागत हुआ। सैनिक कल्याण मंत्री गणेश जोशी के साथ पूर्व मंत्री हीरा सिंह बिष्ट भी हर्रावाला पहुँचे। उन्होंने शहीद दीपक के चित्र पर पुष्पचक्र अर्पित किया। उन्होंने नैनवाल परिवार की सेना के प्रति समर्पण की भावना की सराहना की। इसके बाद सोशल बलूनी पब्लिक स्कूल में आयोजित कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि लेफ्टिनेंट ज्योति नैनवाल ने कहा कि दृढ़ निश्चय, हौसले और मेहनत से लक्ष्य हासिल होता है। जीवन में कैसी भी परिस्थितियाँ हों, यदि कुछ कर गुजरने की चाहत हो, तो फिर मंज़िल तक पहुँचना मुश्किल नहीं होता।

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 जातिवादी बिसात पर राजनीतिक पैंतरेबाज़ी

उत्तर प्रदेश के चुनाव जैसे-जैसे नज़दीक आते जा रहे हैं, सभी दल नयी-नयी राजनीतिक पैंतरेबाजियाँ करके अपनी-अपनी जीत का इंतज़ाम करने में लगे हैं। मगर कई तरह की कोशिशों की के बावजूद सत्ता में मौज़ूद भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की गोटियाँ जब फिट नहीं बैठ रही हैं, तो उसने पुलिस को भी अपने पक्ष में काम करने के लिए लगा दिया है। पुलिस भी अपनी असली ड्यूटी के कर्तव्यों को भूलकर चुनावी मोड में आ गयी है। मगर पुलिस के कई क़दम लोगों के दिमाग़ में विद्रोह के बीज बो रहे हैं। हाल-फ़िलहाल में सहायक शिक्षक भर्ती मामले में अपनी माँगों को लेकर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में कैंडल मार्च निकाल रहे 69,000 सहायक शिक्षा अभ्यार्थियों पर पुलिस ने तब लाठियाँ भाँज डाली, जब वे परिषदीय विद्यालयों मे नियुक्ति की माँग को लेकर मुख्यमंत्री आवास की ओर बढ़ रहे थे। पुलिस ने इन अभ्यर्थियों को दौड़ा-दौड़ाकर मारा। अब सरकार के विरोध में एक बार फिर आवाज़ों उठने लगी हैं और प्रदेश की सियासत गरमा गयी है। प्रदेश में विधानसभा चुनाव में हाथ आजमाने वाले विपक्षी दलों के हाथ सरकार को घेरने के लिए किसानों, बेरोज़गारों, महँगाई और प्रदेश में बढ़ते अपराध के अलावा टीईटी पेपर लीक के बाद एकदम से अब यह एक नया मुद्दा मिल गया है। समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने अपने ट्वीटर पर लिखा है कि भाजपा के राज में भावी शिक्षकों पर लाठीचार्ज करके विश्व गुरु बनने का मार्ग प्रशस्त किया जा रहा है। हम 69,000 शिक्षक भर्ती की माँगों के साथ हैं। वहीं कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी (बसपा), आम आदमी पार्टी (आप) ने भी सरकार को घेरा है। बसपा के राष्ट्रीय महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ने तो लिखा है कि साहब! बात तो नौकरी की हुई थी। लाठियाँ क्यों मार रहे हो? देश के भविष्य इन बच्चों को बूट वाले जूते से मारा जा रहा है। ये अत्यंत शर्मनाक और निंदनीय है।

इससे पहले ही टीईटी पेपर लीक मामले में सरकार बुरी तरह घिरी रही है। उसे यूपीटेट की परीक्षा भी रद्द करनी पड़ी। टीईटी पेपर लीक मामले में भले ही योगी सरकार ने 23 लोगों को गिरफ़्तार करके अपनी पगड़ी बचाने की कोशिश की है, मगर इससे भगवा और सफ़ेद कुर्तों पर लगे धाँधली के दाग़ तो नहीं धुल जाएँगे! अब मामले की जाँच एसटीएफ करेगी, जबकि ऐसे मामलों में जाँच का ज़िम्मा न्यायालय की देखरेख में कम-से-कम दो-तीन जाँच संस्थाओं के द्वारा किया जाना चाहिए, ताकि जाँच में कोई धाँधली न हो। क्योंकि जब दो या तीन संस्थाएँ इतने गम्भीर मामले की जाँच करेंगी, तो वह निष्पक्ष होगी। अन्यथा या तो मामले में लीपापोती करके मुख्य दोषियों को बचा लिए जाने की आशंका रहती है या निचले स्तर के लोगों की धरपकड़ करके मामले को दबा दिये जाने की चाल चली जाती है। वैसे योगी सरकार आम लोगों के विरोध को कुचलने में पीछे नहीं है। चाहे वो किसान हों, अध्यापक हों, आँगनबाड़ी कार्यकर्ता हों या कोई और; विरोध पर लाठियाँ पड़वाना, जेल भेज देना, मक़दमे दर्ज करना, एन्काउंटर करवाना, गुण्डों से पिटवाना और मरवाना उत्तर प्रदेश की सत्ता अपना विशेषाधिकार समझती है। अपराध में नंबर वन इस प्रदेश के कथित राम राज्य को लोग गुण्डाराज के नाम से सम्बोधित करते हैं।

जो भी हो, अगर प्रदेश में चुनावी तिकड़मबाज़ी की बात करें, तो तमाम माध्यमों से प्रचार करके अपनी ही पीठ थपथपाने वाली भाजपा की योगी सरकार एक तरफ़ जीत का दावा करते हुए जमकर प्रचार-प्रसार करने में लगी है और प्रदेश को नये-नये तोहफ़े एवं पैकेज देने की घोषणाओं में लगी है। बड़ी बात यह है कि इन दिनों भाजपा के बड़े-बड़े दिग्गज नेता प्रचार में लगे हैं। अगर नेताओं की गिनती की जाए, तो सबसे अधिक नेता भाजपा के ही मैदान में दिख रहे हैं। मगर इसी पार्टी को हार का डर भी बहुत सता रहा है, जो कि बुख़ार की तरह बढ़ता जा रहा है। क्योंकि सरकार कुछ ग़लत कामों, अपराधों पर रोक ही नहीं लगा पा रही है। भले ही वह सभी को कोरोना वैक्सीन लगाने की मुहिम चला रही हो या राशन मुफ़्त देने के अपनी योजना पर अपनी पीठ थपथपा रही हो या हर रोज़ हज़ारों की संख्या में रोज़गार देने के दावे कर रही हो। मगर समाजवादी पार्टी उसे चुनाव में हर रोज़ डराती हुई नज़र आ रही है। क्योंकि प्रदेश में सरकार के ख़िलाफ़ जो घटनाएँ काम कर रही हैं, समाजवादी पार्टी के लिए वही घटनाएँ मज़बूती देती नज़र आ रही हैं। हालाँकि बसपा भी अब पहले से काफ़ी सक्रिय दिख रही है। कांग्रेस तो इस बार पहले से कहीं अधिक चर्चा में है ही। ऐसा लगता है कि कांग्रेस का पुराना जनाधार उसकी तरफ़ मुड़ रहा है।

इन दिनों कई मीडिया चैनल और अख़बार मतदातओं का रूख़ टटोल रहे हैं। इसी सिलसिले में एक चैनल ने अपने मतदाता सर्वे में दावा किया है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा ही भारी पड़ रही है। हालाँकि इस चैनल के सर्वे पर विश्वास करना अभी उचित नहीं है। क्योंकि भाजपा का डर इस बात की गवाही दे रहा है कि उसे इस बार प्रदेश की सत्ता आसानी से हासिल नहीं होगी। इन दिनों प्रदेश में विधानसभा चुनाव की बिसात पर कुछ अलग-अलग चुनावी गतिविधियों की स्थिति इस प्रकार है-

जातिगत सम्मेलन

अब भाजपा प्रदेश में जातिगत सामाजिक प्रतिनिधि सम्मेलन करके प्रत्येक ज़िले जातीय समीकरण साधने में लगी है। बता दें कि प्रदेश में 75 ज़िले हैं और इन सभी ज़िलों में पिछड़े और दलितों की आबादी का फ़ीसद दूसरी जातियों से कहीं अधिक है। भाजपा इन जातिगत सम्मेलनों के माध्यम से इन्हीं पिछड़े और दलित मतदाताओं को लुभाने की कोशिश करेगी। दरअसल भाजपा जानती है कि अगर उसे पिछड़े और दलित वर्ग के मतों का सहारा एक बार फिर मिल गया, तो उसे कोई नहीं हरा सकता। केवल सवर्णों के मतों के दम पर भाजपा ही नहीं, कोई भी पार्टी प्रदेश में नहीं जीत सकती। वैसे भी न तो सवर्णों के मत किसी एक पार्टी को कभी जाते हैं और न दूसरी जातियों के। लेकिन पिछड़ों और दलितों के मत जिधर का रूख़ करते हैं, उस पार्टी की जीत आसानी से हो जाती है। हालाँकि सभी राजनीतिक पार्टियाँ जातिगत आँकड़े साधने में लगी हैं और पिछड़े और दलित मतों पर सभी की नज़र है। जातिगत सम्मेलन की शुरुआत इस बार बसपा ने ब्राह्मण सम्मेलन से की थी। इसके बाद लगभग सभी पार्टियाँ जातिवार आँकड़े साधने में लगी हैं। भाजपा इस खेल को कुछ अलग तरीक़े से खेल रही है, वह पिछड़ों के सम्मेलन में पिछड़े नेताओं को मंच पर ला रही है और दलितों के सम्मेलन में दलित नेताओं को मंच पर लाती है। उसे लगता है कि ऐसा करने से पिछड़े और दलित मतदाता उसके पक्ष में मत करेंगे।

एक पद वाली चाल

इस बार भाजपा प्रदेश की जनता में यह सन्देश देने की कोशिश कर रही है कि वह उसे ही टिकट देकर पार्टी उम्मीदवार बनाएगी, जो पहले से किसी पद का लाभ नहीं ले रहा हो। इसके लिए उसने एक व्यक्ति, एक पद की मुहिम को हवा दी है। लेकिन बताते हैं कि इस बार भाजपा से टिकट पाने की उम्मीद लिए बैठे बहुतों के दिल टूटेंगे। इसका वे भले ही इसका खुलकर विरोध न करें, मगर इसका असर विपरीत ज़रूर होगा। हालाँकि मुख्यमंत्री योगी इसका तोड़ ग्रामीण स्तर पर व्यवस्था को साधने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें वह ग्राम पंचायत स्तर पर चुने हुए प्रतिनिधियों का वेतन बढ़ाने की बात पहले ही कह चुके हैं।

नारियल से टूटी सडक़

भाजपा के दिन ख़राब चल रहे हैं या फिर वक़्त को ही कुछ और मंज़ूर है, यह तो पता नहीं; मगर यह ज़रूर है कि भाजपा सत्ता की डोर को एक हाथ सँभालने की कोशिश करती है, तो यह डोर दो हाथ टूट जाती है। कुछ दिन पहले बिजनौर में कुछ ऐसा ही हुआ। यहाँ भाजपा की विधायक ही धरने पर तब बैठ गयीं, जब सिंचाई खण्ड विभाग द्वारा बनायी गयी सडक़ के शुभारम्भ के लिए वह उद्घाटन करने पहुँचीं और नारियल फोडक़र रस्म करने के दौरान नारियल नहीं, बल्कि नयी सडक़ ही टूट गयी। इस घटना की पूरे प्रदेश में चर्चा है और विरोधी दल सरकार का मखौल उड़ा रहे हैं।

गुलाबी गैंग

इन दिनों उत्तर प्रदेश में महिलाओं का गुलाबी गैंग लोगों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है। दरअसल यह गैंग आने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जिताने के लिए खड़ा हुआ है। इस गैंग से भाजपा से लेकर सपा और बसपा तक में एक डर घर कर रहा है। इस गैंग के खड़े होने के पीछे कांग्रेस की स्टार प्रचारक प्रियंका गाँधी का महिलाओं को चुनाव में 40 फ़ीसदी टिकट और जीतने पर नौकरियों में समान अवसर देने का वादा है। गुलाबी गैंग की नेता संपत पाल देवी कह रहीं हैं कि प्रियंका गाँधी के साथ बात यह है कि वह जो कुछ कहती हैं, करती हैं। कांग्रेस एकमात्र सरकार है, जिसने ग़रीबों, महिलाओं के बारे में बात की है।

ख़ैर, गुलाबी गैंग तो बन गया, अब देखना है कि यह गुलाबी गैंग कांग्रेस के लिए क्या बड़ा कर पाता है?

बाक़ी चार राज्यों की स्थिति

जबसे उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब, गोवा और मणिपुर- इन पाँच राज्यों के चुनाव की घोषणा हुई है, देश में सबसे ज़्यादा चर्चा उत्तर प्रदेश की ही है। इसकी वजह यह है कि उत्तर प्रदेश की केंद्र की सत्ता में सबसे अहम भूमिका का होना है। मगर बाक़ी राज्यों की स्थिति भी जानना ज़रूरी है, जो इस प्रकार है-

उत्तर प्रदेश की ही तरह उत्तराखण्ड में भी भाजपा की सरकार है और जमकर प्रचार-प्रसार कर रही है। यहाँ तीन मुख्य पार्टियाँ मैदान में हैं-  भाजपा, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी। भाजपा को यहाँ भी उत्तर प्रदेश की तरह ही अनेक चुनौतियाँ हैं और उसे यहाँ भी हार का डर सता रहा है। यही वजह है कि उत्तराखण्ड का भी दौरा प्रधानमंत्री कर रहे हैं। इसी तरह गोवा में भाजपा की सरकार है। वहाँ उसे सत्ता जाने का उतना डर नहीं सता रहा है। मगर गोवा में भी उसे कांग्रेस और आम आदमी पार्टी से बराबर चुनौती मिल रही है।

पंजाब में भाजपा की दाल गलना मुश्किल है। क्योंकि वहाँ कांग्रेस की साख मज़बूत है। वहाँ कांग्रेस के बाद आम आदमी पार्टी को काफ़ी तवज्जो मिल रही है। अकाली दल भी वहाँ की स्थानीय पार्टी है; मगर राज्य में उसका भी कांग्रेस के बराबर जनाधार नहीं है। भाजपा की वहाँ कोई गिनती नहीं है।

इसी तरह मणिपुर में भी भाजपा को एक बार फिर उम्मीद है कि उसकी सरकार बनेगी। वहाँ दूसरी कोई बड़ी पार्टी कांग्रेस के अलावा है भी नहीं। मगर भाजपा को इस बार वहाँ भी झटका लग सकता है। पिछली बार मणिपुर में कांग्रेस की सबसे ज़्यादा सीटें आयी थीं; मगर भाजपा ने वहाँ तीन पार्टियों की मदद से सरकार बना ली। इस बार अगर वहाँ भाजपा की हारी, तो कांग्रेस को सत्ता मिल सकती है।