अभी तक शापित क्यों हैं मैला ढोने वाले?

भारत में जाति एक सामाजिक व राजनीतिक विमर्श का मुद्दा है। सियासत करने वाले मौक़े के अनुकूल इसे भुनाते हैं और समाज विज्ञानी इस पर शोध के ज़रिये नये पहलुओं को सामने लाते रहते हैं। इन दिनों आज़ादी की 75वीं सालगिरह के मौक़े पर देश भर में भारत की आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। मगर सवाल यह भी है कि क्या सरकार और समाज के उच्च वर्ग द्वारा तथाकथित निचली जातियों को उनके हिस्से का अमृत पीने दिया जा रहा है?

इस कड़ुवे सवाल का जबाव सामाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्रालय के राज्य मंत्री रामदास अठावले के हाल ही में राज्यसभा में एक सवाल के जबाव से मिल जाता है। 1 दिसंबर को संसद के चालू शीतकालीन सत्र के दौरान राज्य मंत्री रामदास अठावले ने राज्यसभा में बताया कि देश में हाथ से मैला ढोने वालों की संख्या 58,098 है और उनमें से 42,594 अनुसूचित जाति से सम्बन्ध रखते हैं। यानी सरकार मानती है कि यह अमानवीय काम करने वाले अधिकतर लोग जातीय संरचना में सामाजिक पायदान पर सबसे नीचे खड़े इंसान हैं। अफ़सोस इस बात का है कि ये लोग आज के आधुनिक युग और प्रधानमंत्री के घर-घर शौचालय निर्माण के दावे के बावजूद भी इस घृणित काम को करने के लिए मजबूर हैं या फिर समाज के कुछ दबंग और उच्च वर्गीय कहे जाने वाले लोगों द्वारा मजबूर किये जा रहे हैं।

दरअसल देश में विकास, जीडीपी ग्रोथ की बड़ी-बड़ी बातें नेता और नीति निर्माता अक्सर करते रहते हैं। लेकिन वे न तो भारत में सदियों से चली आ रही हाथ से मैला ढोने की प्रथा को ख़त्म कर सके हैं और न इस काम को करने वाले जातिगत ढाँचे के सबसे निचले पायदान पर खड़ी जाति के लोगों को ही कोई बेहतर दिशा दे सके हैं। यही वजह है कि समाज में अधिकतर लोगों द्वारा हेय दृष्टि से देखे जाने वाले ये लोग आज भी श्रापित हैं।

किसी व्यक्ति द्वारा अपने हाथों से मानवीय अपशिष्टों की सफाई करने या उसे सर पर ढोने की प्रथा को हाथ से मैला ढोने की प्रथा या मैनुअल स्कैवेंजिंग कहते हैं। देश में शुष्क शौचालयों की सफाई ऐसे ही की जाती थी। आज बेशक देश में शुष्क शौचालय देखने को मिलते हैं; लेकिन हाथ से मैला ढोने के अलावा सफाई करने वाले काम में अब नालों, सेप्टिक टैंकों, सीवरेज आदि की सफाई शामिल है, जो काफ़ी असुरक्षित और बीमारीजन्य है। हालाँकि सरकार हाथ से मैला ढोने और सीवरेज व सेप्टिक टैंकों की सफाई के काम में अन्तर करती है। लेकिन ऐसे सफाईकर्मियों के अधिकारों के लिए काम करने वाले लोगों की दलील है कि बाद वाला काम पहले काम का ही विस्तार है।

अधिनियम से भी नहीं लगी रोक

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने हाथ से मैला ढोने की प्रथा का जमकर विरोध किया था। इस प्रथा को अमानवीय कहकर इसका विरोध शुरू हुआ और सफाई कर्मचारी नियोजन और शुष्क शौचालय निर्माण (प्रतिषेध) अधिनियम-1993 बना। इस अधिनियम के तहत लोगों को हाथ से मैला ढोने के रूप में रोज़गार पर प्रतिबन्ध लग गया। इसके अंतर्गत हाथ से मैला साफ़ कराने वाले काम को संज्ञेय अपराध मानते हुए आर्थिक दण्ड और कारावास दोनों ही प्रावधान रखे गये। यह अधिनियम शुष्क शौचालय के निर्माण को भी प्रतिबन्धित करता है। इस अधिनियम को अधिक कारगर न देख एक मज़बूत अधिनियम बनाने की माँग ज़ोर पकडऩे लगी। कार्यकर्ताओं ने मामले कई राज्यों की उच्च न्यायालयों में दायर किये। सर्वोच्च न्यायालय तक आवाज़ पहुँची। 20 साल बाद सफाई कर्मचारी नियोजन का प्रतिषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम-2013 अमल में लाया गया। यह अधिनियम हाथ से मैला ढोने के तौर पर किए जा रहे किसी भी काम या रोज़गार का निषेध करता है। यह हाथ से मैला साफ़ करने वाले और उनके परिवार के पुनर्वास की व्यवस्था भी करता है। और यह ज़िम्मेदारी राज्यों पर डालता है। इसके तहत ऐसे व्यक्ति को सरकार एकमुश्त 40,000 रुपये देती है और उसे कौशल प्रशिक्षण भी देती है। पुनर्वास रोज़गार योजना के तहत आजीविका परियोजना शुरू करने के लिए सरकार रियायती दर पर 15 लाख रुपये तक का क़र्ज़ भी देती है। लेकिन इसके बावजूद देश में हाथ से मैला ढोने वालों की इतनी बड़ी संख्या हैरत में डालती है। सरकारों की नीयत और सामाजिक व्यवस्था पर सवाल उठते हैं। अगर सरकार ने ऐसे सफाई कर्मचारियों के पुनर्वास के लिए योजनाएँ बना रखी हैं, तो भी उनकी हालत बदतर क्यों हैं?

मौत का खेल

नालों, सीवरेज और सेप्टिक टैंकों की सफाई के दौरान सफाई कर्मचारियों के मरने की ख़बरें अक्सर पढऩे-सुनने को मिलती हैं। गन्दगी, असहीनय बदबूदार वाले पानी में कौन मरना चाहता है? पर अफ़सोस कि देश में हर साल सफाईकर्मी ऐसी मौत मर रहे हैं और सरकार मौतों के असली आँकड़ों को सामने लाने से डरती है। नेशनल कमीशन फॉर सफाई कर्मचारी के आँकड़ों के अनुसार, सन् 2013 से 2017 के दरमियान देश में 608 सफाईकर्मियों की काम के दौरान मौत हुई। सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता मंत्रालय के एक अधिकारी ने बीते साल बताया था कि बीते 27 साल में (2020 तक) ऐसी मौतों की संख्या 1,013 है। लेकिन ऐसे लोगों के हक़ों के लिए आवाज़ उठाने वाले संगठन सरकार पर बराबर सच्चाई को दबाने का आरोप लगाते रहते हैं। अधिकांश सरकारों का चरित्र ही सच्चाई को कुचलकर राज करना होता है। हाल ही में ऑक्सीजन की कमी से कोरोना महामारी से पीडि़त असंख्य लोगों की मौत हो गयी। मगर सरकारें बोलती हैं कि उनके पास ऐसी मौतों का कोई लेखा-जोखा ही नहीं है। यानी ऑक्सीजन की कमी से कोई कोरोना वायरस के रोगी नहीं मरे। अब इन 1,013 सफाईकर्मियों की मौत पर नज़र डाली जाए, तो पता चलता है कि प्रशासन, पुलिस और सरकारें कितनी गम्भीरता से ऐसी मौतों को लेते हैं। 462 मामलों में एफआईआर दर्ज की गयी। इनमें से 418 मामलों में आईपीसी की धारा-304 के तहत लापरवाही से मौत का मामला बनाया गया। 44 मामले दुर्घटना मौत के तौर पर दर्ज हुए और केवल 37 मामलों में एफआईआर सम्बन्धित क़ानून के तहत दर्ज की गयी, अर्थात् एक फ़ीसदी से भी कम एफआईआर उस क़ानून के तहत दर्ज की गयीं, जो वास्तव में सफाईकर्मियों के संरक्षण के लिए बना है। आने वाले कुछ महीनों में देश के पाँच राज्यों पंजाब, गोवा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और मणिपुर में विधानसभा चुनाव होंगे। माहौल में चुनावी बयार बहनी शुरू हो चुकी है; लेकिन उत्तर प्रदेश में इस बयार की रफ़्तार बहुत ही तेज़ है। हर रोज़ किसी-न-किसी एक्सप्रेस-वे का उद्घाटन या अन्य किसी बड़ी परियोजना का शिलान्यास होने की ख़बरें आती रहती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इन दिनों दिल्ली से इस राज्य में आना-जाना लगा हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी की जोड़ी की तस्वीरों के बड़े-बड़े विज्ञापनों में जारी सरकारी आँकड़ों का ढिंढोरा देश भर में पीटा जा रहा है। जनता के पैसों और चमक के दम पर ऐसा समा बाँधा जा रहा है कि मानो देश के सबसे बड़े इस राज्य में सब कुछ अच्छा-ही-अच्छा है। मगर यहाँ पर प्रसंगवश यह भी ज़िक्र करना ज़रूरी है कि एक सर्वे के अनुसार, इस राज्य में सन् 2018 तक सफाई कर्मचारियों की संख्या 29,923 थी, जो देश में सबसे अधिक थी। राज्य सरकार अपने विज्ञापनों में ऐसी जानकारी आमजन तक क्यों नहीं साझा करती?

विश्व स्वास्थ्य संगठन का सन् 2019 का एक अध्ययन बताता है कि भारत में कमज़ोर वैधानिक संरक्षण और क़ानून के पालन में ख़ामियों और सफाईकर्मियों की ख़राब आर्थिक हालत की वजह से भी यह प्रथा आज भी अपना वजूद बनाये हुए है। बीते साल (2020) में सफाई मित्र सुरक्षा चैलेंज कार्यक्रम लॉन्च किया गया, जिसका मक़सद 30 अप्रैल, 2021 तक देश भर के 243 शहरों में बने सेप्टिक टैंकों और सीवरेज की सफाई के काम का पूर्णत: मशीनीकरण करना था। लेकिन पूर्णत: ऐसा होता दिख नहीं रहा। सरकारी मंशा तभी पूरी होती है, जब उसमें राजनीतिक इच्छाशक्ति अपना पुरज़ोर दम दिखाती है। इसके साथ ही साथ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि देश में सीवरेज और सेप्टिक टैंकों का बनाया ही इस तरह से गया है कि उसमें इंसान नहीं जा सकता है। मशीनों से सफाई करना वहाँ लगभग असम्भव है। सँकरी गलियों, सडक़ों में मशीनों का इस्तेमाल अलग चुनौती है। बेशक देश की राजधानी दिल्ली की सरकार ने तेलंगाना के सफाई मॉडल को अपनाते हुए दिल्ली में सीवरेज आदि की सफाई का काम मशीनों से शुरू कर दिया है, मगर पूरी दिल्ली में ऐसा होना सम्भव नहीं दिखता। इसकी वजह पुराने डिजाइन, सँकरे स्थान आदि हैं। यह समस्या देश भर की है। एक और अहम पहलू, इस सन्दर्भ में सरकारी नज़रिया इस समस्या को शहरी लेंस से देखने का है। वह इसे शहरी चुनौती के तौर पर लेता है। अधिकतर सर्वे शहरों में ही किये गये हैं। स्वच्छ भारत अभियान के तहत ग्रामीण इलाक़ों में जो शौचालय बनाये गये, उन पर नज़र डाले तो पता चलता है कि इन शैचालयों के निर्माण के लिए दो गड्डे, एक गड्डे, सेप्टिक टैंक विद सोक टिंक प्रणाली को अपनाया गया है। जहाँ तक दो गड्डे वाले शौचालयों कासवाल हैं, वहाँ तो एक गड्डे के भर जाने के बाद भी दूसरे का इस्तेमाल किया जा सकता है, वहाँ मानव अपशिष्ट की सफाई के लिए इंसान की ज़रूरत नहीं पड़ती, मगर बाक़ी दो में इंसान या मशीन की ज़रूरत होती है। गाँवों में सेक्शन पम्प बहुत कम होते हैं, तो वहाँ फिर इंसान ही सफाई का काम करते देखे जा सकते हैं। आख़िर हासिल क्या हो रहा है?