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कृषि यंत्र योजना से ज़रूरतमंद किसान महरूम!

मोदी-योगी की फार्म मशीनरी बैंक योजना का पात्र किसान नहीं ले पा रहे लाभ, अधिकारी-कर्मचारी लगा रहे पलीता

अब तक केंद्र सरकार के सौजन्य से जो भी योजनाएँ प्रधानमंत्री मोदी द्वारा लायी गयी हैं, उनमें प्रधानमंत्री कृषि यंत्र योजना को सरकारी बाबू और अपात्र मिलकर पलीता लगाने का काम कर रहे हैं, जिसके चलते देश के सीमांत और ग़रीब किसानों के हित में लायी गयी कई विकास योजनाएँ कारगर सिद्ध नहीं हो पा रही हैं। इन्हीं में से एक है: फार्म मशीनरी बैंक योजना।

दरअसल फार्म मशीनरी बैंक योजना के माध्यम से उत्तर प्रदेश के किसानों की आय दोगुनी करने के लिए यह योजना चलायी गयी। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी का सपना है कि वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो। इस सपने को साकार करने के लिए सरकार द्वारा फार्म मशीनरी बैंक योजना को एक बेहतरीन माध्यम बनाया गया। किसानों की आय दोगुनी हो सके इसलिए यह योजना सबसे पहले राजस्थान में और फिर उत्तर प्रदेश में शुरू की गयी है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य किसानों को खेती के लिए बैंकों के माध्यम से कृषि यंत्रों को आसानी से उपलब्ध कराना है।

फार्म मशीनरी बैंक योजना के तहत आजकल के महत्त्वपूर्ण कृषि यंत्र ट्रैक्टर सहित अन्य कई कृषि यंत्र किसानों को दिये जाते हैं, ताकि छोटे और मध्यम किसानों को भी, जो अपने दम पर इन महँगे कृषि यंत्रों को नहीं ख़रीद सकते, उन्हें खेती करने में आसानी हो।

निश्चित ही इस योजना के माध्यम से निम्न और मध्यम वर्ग के किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार आएगा तथा उनके पैसे और समय की भी बचत होगी। इसके अलावा वो सही समय पर फ़सल की बुवाई और कटाई कर सकें। फार्म मशीनरी बैंक योजना का उद्देश्य कृषि क्षेत्र में किसानों के प्रोत्साहन और उनकी आय को बढ़ाना है।
किसानों की आय दोगुनी करने के भारत सरकार के मुख्य लक्ष्य को पूरा करने के लिए सबसे बड़ी ज़रूरत है कि छोटे और सीमांत किसानों को भी खेती की नयी तकनीक और नयी कृषि योजनाओं का लाभ मिल सके, ताकि वे इनका समुचित उपयोग कर सकें। इसके लिए ये किसान सब्सिडी पर कृषि यंत्र ख़रीद सकें इसकी व्यवस्था के लिए ही केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों के साथ मिलकर ग्राम पंचायतों में सीएससी सेंटर की सहायता से फार्म मशीनरी बैंक योजना स्थापना पर काम शुरू किया है।

अपात्रों को भी मिल रहा लाभ

लेकिन अफ़सोस की बात है कि उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले में इस योजना से जुड़े अधिकारियों और कर्मचारियों लेकर बड़े किसान संगठनों, टैक्स जमा करने वाले औद्योगिक समूहों को योजना का लाभ ग़लत तरीक़े से पहुँचा रहे हैं, जिसके चलते लघु सीमांत यानी छोटे और मध्यम वर्ग के किसानों को केंद्र सरकार की इस महत्त्वपूर्ण योजना का लाभ नहीं मिल पा रहा है। जबकि योजना के तहत अनुसूचित जाति, जनजाति की महिलाओं, बीपीएल कार्ड धारक छोटे किसानों और मध्यम वर्ग के किसानों को इस योजना का लाभ देना था, जिनके पास संसाधनों का अभाव है। इन कृषि यंत्रों को समूह के रूप में इन्हीं लघु व सीमांत किसानों को देने की योजना थी।
अगर हम महज़ मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले मे बने समूहों की बात करें, तो अभी तक 185 समूहों को इस योजना का लाभ दिया गया है। लेकिन समस्या यह है कि रिश्वती और पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने वाले, अधिकारियों व कर्मचारियों की मनमानी की वजह से इन समूहों की पात्रता की किसी भी स्तर पर जाँच नहीं की गयी। हाल यह है कि कुछ राजनीतिक चेहरों और कई दबंग अपात्र लोगों ने भी इसी का $फायदा उठाते हुए फार्म मशीनरी योजना का लाभ ले लिया है।

इस तरह पिछली योजनाओं की तरह भ्रष्टाचारी प्रवृत्ति के अधिकारी और कर्मचारी मिलकर प्रधानमंत्री मोदी के सपनों को चूर-चूर करने में लगे हुए हैं। मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के जागरूक किसान तथा राष्ट्रीय किसान मज़दूर संगठन (रजि.) के ज़िलाध्यक्ष सुमित मलिक ने बताया कि 8 किसानों का एक समूह बनता है। जो मुरादनगर में एक समूह बना और उसे फार्म मशीनरी बैंक योजना के तहत कृषि यंत्रों के लिए 10 लाख की अनुदान राशि भी दे दी गयी; लेकिन जिन लोगों को यह राशि आवंटित की गयी, उन्हें कृषि अधिकारी, उप निदेशक नरेंद्र कुमार द्वारा किसी किसान को किसान दिवस, गोष्ठी और व्हाट्स ऐप के माध्यम से कोई जानकारी नहीं दी गयी।
उन्होंने कहा है कि मुरादनगर में कुल 19 समूहों को फार्म मशीनरी बैंक योजना का लाभ दिया गया है। इन समूहों के सदस्य योजना को संचालित करने वालों के अपने लोग हैं।

फार्म मशीनरी बैंक योजना में इसी तरह की तमाम ख़ामियाँ हैं। मसलन, इस योजना में सभी बड़ी ख़ामी यह है कि पात्र किसानों का पंजीकरण ही नहीं हो पाता, वे जब भी समूह बनाकर इस योजना का लाभ लेने के लिए अधिकारियों और कर्मचारियों से मिलते हैं, तो उन्हें कम्प्यूटर का सर्वर डाउन अथवा अन्य तकनीकी ख़राबी बताकर टरका (टाल) दिया जाता है। मज़े की बात यह है कि आज तक किसी भी लघु व सीमांत किसानों के समूह को योजना का नहीं मिला है, जब भी जानकारी लेने की कोशिश की जाती है, तो सम्बन्धित विभाग इसकी कोई भी जानकारी देने में असमर्थ होता है।
पात्रता का दायरा क्या है? एक व्यक्ति और समूह को दोबारा-दोबारा योजना का लाभ दिया जा चुका है, जबकि शासन का निर्देश है कि दोबारा योजना का लाभ नहीं दिया जाना चाहिए। नियम के अनुसार, ट्रैक्टर कितने हॉर्स पॉवर का लेना होता है? यदि किसी समूह ने अधिक हाउस पॉवर का ट्रैक्टर लिया है, तो क्या कार्यवाही होनी अनिवार्य है।

सबसे बड़ी बात यह है कि वर्षों से यह योजना छोटे व मध्यम किसानों के लिए चलायी जा रही है। लेकिन सम्बन्धित विभाग इसका प्रचार-प्रसार क्यों नहीं करते? जबकि उन्हें इसका कम-से-कम हर साल प्रचार करना चाहिए, ताकि अनभिज्ञ किसानों को इस योजना का पता चल सके और वे इसका लाभ ले सकें। हमारे द्वारा ज़िले के सम्बन्धित अधिकारी से यह सवाल पूछने पर बताया गया कि यह सब चीज़ें लखनऊ से संचालित होती है।

क्या है योजना?
ग़ौरतलब है कि इस समय प्रदेश में क़रीब 92 फ़ीसदी लघु व सीमांत किसान हैं, जिनकी जोत भी बहुत कम है और आर्थिक स्थिति भी ऐसी नहीं है कि वे अधिक लागत के आधुनिक कृषि यंत्र ख़रीद सकें। बावजूद इसके उन्हें इस योजना का लाभ नहीं मिल पा रहा है।
वित्त वर्ष 2017-2018 में 1 मई 2017 को सब मिशन ऑन एग्रीकल्चरल मेकेनाइज़ेशन योजनान्तर्गत भारत सरकार, कृषि एवं सहकारिता मंत्रालय, नई दिल्ली के पत्रांक 3-1/2D15-M&T (I&P) इस योजना की स्वीकृति प्राप्त हुई। जिसके लिए सब मिशन ऑन एग्रीकल्चरल मेकेनाइज़ेशन के दिशा-निर्देश दिये गये हैं।
दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि इस योजना का लाभ 30 फ़ीसदी महिलाओं को और 50 फ़ीसदी लघु व सीमांत किसानों को, 16 फ़ीसदी अनुसूचित जाति के किसानों को, जबकि 8 फ़ीसदी अनुसूचित जनजाति के किसानों को मिलेगा।
इस तरह के अन्य कई दिशा-निर्देश केंद्र और राज्य की सरकारों द्वारा जारी किये गये थे, लेकिन तथ्यों के आधार पर देखें, तो उनका पालन ही नहीं किया जा रहा है।

शिकायतों का नहीं हुआ असर
इस विषय पर बात करते हुए सुमित मलिक आगे बताते हैं कि उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) और प्रदेश मुख्यमंत्री कार्यालय (सीएमओ) को कई बार प्रार्थना पत्र देकर इस अनैतिक काम की सूचना दी है व शिकायत भी की है।
इतना ही नहीं उन्होंने इस सम्बन्ध में मुज़फ़्फ़रनगर के ज़िलाधिकारी को भी कई बार शिकायत दी है। लेकिन वर्ष 2017, 2018 और 2019 में लगातार और बार-बार अनुचित तरीक़े से अपात्र लोगों को बिना जाँच के ही फार्म मशीनरी बैंक योजना का लाभ दिया गया, जिसका सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। केंद्र सरकार, ख़ासतौर पर प्रधानमंत्री मोदी की मनसा को दरकिनार करते हुए अपने निजी स्वार्थ में अधिकारी और कर्मचारी किसानों की आय दोगुनी करने के लिए बनायी गयी इस स्वर्णिम योजना का लाभ कर (टैक्स) जमा करने वाले दबंग, सम्पन्न और अपात्र लोगों को बेख़ौफ़ पहुँचा रहे हैं।
आलम यह है कि मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के ही कई उद्योगपतियों ने भी मशीनरी बैंक योजना का लाभ ले लिया है। इसी तरह कई और भी पूँजीपति और रसूख़दार लोगों ने समूह बनाकर आम किसानों के लिए लायी गयी इस सरकारी योजना का लाभ लेते हुए योगी मोदी की किसानों के लिए स्वामी स्वामी योजना और केंद्र व राज्य सरकारों की किसानों की सहायता की मंशा पर पानी फेरते हुए सरकारी पैसे और योजना को पलीता लगाने का काम किया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की इस प्रकार की किसानों के हित की योजनाओं का लाभ कुछ भ्रष्टाचारी अधिकारियों की वजह से किसानों को प्राप्त नहीं हो पा रहा है, जिससे किसानों में स्थानीय प्रशासन के लिए रोष व्याप्त है।

क्या कहते हैं उप निदेशक?
इस योजना से जुड़े मुज़फ़्फ़रनगर के कृषि प्रसार भवन के उप निदेशक आर.के. चौधरी ने बातचीत में कहा कि ऐसा नहीं है कि इस योजना का लाभ बड़े किसान नहीं ले सकते। सभी किसान इस योजना का लाभ ले सकते हैं। इस सवाल पर कि किसानों के लिए यह बाध्यता है कि वह कितने हॉर्स पॉवर का ट्रैक्टर इस योजना के तहत ले सकता है? आर.के. चौधरी ने बताया कि भारत सरकार की इन भुगतान कम्पनियाँ है, उन्हीं से किसान को मशीनें ख़रीदनी होंगी। अगर कोई किसान मान लीजिए कि 15 लाख रुपये की मशीनरी ख़रीदता है, तो पाँच लाख रुपये अपनी जेब से लगाये, हम तो उतना ही भुगतान करेंगे, जितना योजना के तहत दिया जाता है यानी 10 लाख। यह पूछने पर कि जिन किसानों के पास पैसा ही नहीं है, वे कैसे योजना का लाभ ले सकते हैं?

चौधरी ने कहा कि उसके लिए भारत सरकार से ही कुछ लिखवाकर दीजिए। यहाँ सवाल यह उठता है कि भारत सरकार तक आम किसानों की पहुँच ही कहाँ होती है? किसानों की पात्रता के बारे में पूछने पर चौधरी ने बताया कि लखनऊ से मंत्रालय के द्वारा विज्ञापन निकलता है, उस पर टोकन मनी लिखी होती है, किसान और किसान समूह को वह टोकन मनी जमा करनी है, उसके बाद वह पात्र हो जाएगा और मशीनरी ले सकता है।

मशीनरी लेने के बाद वह हमें सूचित करेगा कि मैंने मशीनरी ले ली है। उसके बाद हमारे यहाँ से एक अधिकारी उसकी जाँच करने जाएगा। बिल में लिखे सीरियल नंबर से मशीनरी पर अंकित सीरियल नंबर से मिलाएगा और देखेगा कि मशीनरी किसके नाम है तथा वह उसके यहाँ खड़ी है या नहीं। अगर सब कुछ ठीक है, तो हम 7 दिन के अन्दर उसका पैसा ऑनलाइन भुगतान कर देते हैं। मशीनरी यानि सभी कृषि यंत्रों पर सीरियल नंबर अंकित होना आवश्यक है। इस योजना में पहले आओ, पहले पाओ के हिसाब से सब चलता है। इस योजना के अंतर्गत प्रदेश में 20-25 कम्पनियाँ इन पैनल्ड हैं, जो मशीनरी उपलब्ध कराती हैं।
गड़बड़ी के मामले में पूछने पर उप निदेशक चौधरी ने कहा कि उन्हें 11 महीने यहाँ हो गये, उनके संज्ञान में कोई शिकायत नहीं आयी है।

हालाँकि सुमित मलिक ने 27 अगस्त, 2021 को भी उप कृषि निदेशक, मुज़फ़्फ़रनगर को लिखित शिकायत दी थी। इस कृषि यंत्र योजना की जानकारी किसानों को कैसे मिलती है, इस बारे में पूछने पर आर.के. चौधरी ने कहा कि इसकी सूचना लखनऊ स्थित उनके मुख्यालय से दी जाती है, जिसका विज्ञापन कृषि मंत्री की अनुमति से जारी विज्ञापन के ज़रिये लोगों को दी जाती है।

बहरहाल कुल मिलाकर एक तरफ़ मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के कृषि प्रसार भवन के उप निदेशक जहाँ इस योजना में कोई गड़बड़ी न होने का दावा कर रहे हैं, वहीं छोटे व मध्यम वर्गीय किसानों का कहना है कि उन्हें इस योजना का लाभ नहीं मिल पा रहा है, जबकि पहुँच और पैसे वाले लोग इसका जमकर फायदा उठा रहे हैं।
कुछ जागरूक किसान इस योजना में ईमानदारी से काम होने के लिए लगातार लड़ाई लड़ रहे हैं, लेकिन फ़िलहाल उनकी बात पर सरकारों का ध्यान नहीं पहुँचा है। उम्मीद है कि जैसे ही सरकारों का ध्यान इस योजना में हो रही गड़बड़ी की तरफ़ जाएगा, इसमें सुधार के लिए तत्काल कार्रवाई की जाएगी।
ज़ाहिर है कि जिस प्रकार से उत्तर प्रदेश में योगी सरकार सुशासन और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ संज्ञान लेने के लिए जाने जाते हैं, वह इस गड़बड़ झाले को समझते हुए, इस विषय पर तत्काल संज्ञान लेते हुए आवश्यक क़दम उठाएँगे, जिससे कि ग़रीब किसानों का भला होगा और वे सरकार की इस किसान हित योजना का लाभ ले सकेंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

कोरोना मामलों में तेजी जारी, 24 घंटे में आए 20,038 नए मामले

भारत में कोरोना मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। इसे लेकर जहाँ सरकार चिंतित है वहीं जनता मास्क पहनने जैसे जरूरी उपायों को भूलती जा रही है। आंकड़ों की बात करें तो पिछले 24 घंटे में देश में कोविड-19 के 20,038 नए मामले सामने आए हैं और इस दौरान 47 लोगों की जान गयी है।

स्वास्थ्य मंत्रालय के आज सुबह जारी आंकड़ों के मुताबिक देश में अब कोरोना के 1,39,073 एक्टिव मामले हो गए हैं जबकि कोरोना से संक्रमित होने की दर 4.44 फीसदी है। बीते 24 घंटे के दौरान कोरोना वैक्सीन की 18,92,969 खुराक दी गई है, जिससे देश में वैक्सीनेशन का आंकड़ा 1,99,47,34,994 पहुंच गया है।

उधर कोरोना के नए मामले चिन्हित करने के लिए पिछले 24 घंटे के दौरान 4,50,820 टेस्ट किए हैं, जिससे कुल टेस्ट की संख्या 86.86 करोड़ पहुंच गई है। इस दौरान 16,994 लोगों ने कोरोना को हराया भी है। देश में कोरोना से रिकवरी रेट 98.48 फीसदी है।

गौरतलब है कि गुरुवार को भारत में कोरोना वायरस के नए मामलों में 19 फीसदी का उछाल देखने को मिला था और 20,139 नए मामले दर्ज किए गए थे। अब तक कुल 525,597 लोगों की कोरोना की वजह से जान गयी है।

केरल में मिला मंकीपॉक्स का पहला मामला, केंद्र ने भेजी हाई लेवल टीम

भारत के केरल में मंकीपॉक्स का पहला मामला सामने आया है। केरल के स्वास्थ्य मंत्री वीना जार्ज ने बताया कि कुछ दिन पहले पीड़ित शख्स यूएई गया था।

पीड़ित शख्स को यूएई से आने के बाद ही उसके अंदर मंकीपॉक्स के लक्षण दिखे है और जब उसका टेस्ट करवाया गया तो वो पोजिटिव निकला। पीड़ित के संपर्कों को पहचान कर ली गर्इ है, जिनमें उसके पिता, मां, एक टैक्सी चालक, एक ऑटो चालक व बगल की सीटों के 11 साथी यात्री शामिल है।

केंद्र सरकार ने केस के सामने आते ही राज्य की सहायता के लिए एक टीम भेजी है। इस टीम में राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (एनसीडीसी) के विशेषज्ञ शामिल है। साथ ही केंद्र सरकार ने राज्यों को सावधानी बरतने के लिए लिखा था अफ्रीका के बाहर मंकीपॉक्स के मामले शायद ही कभी रिपोर्ट किया गया था।

आपको बता दें, मंकीपॉक्स एक प्रकार का वायरस है और इसके लक्षणों में एक विशिष्ट ऊबड़ चकत्ते के अलावा बुखार भी शामिल है। इसके दो मुख्य प्रकार बताए गए है जिसमें कांगो स्ट्रेन, जो अधिक गंभीर है इसके अंतर्गत 10 प्रतिशत रोगियों की मृत्यु का कारण बनता है। वहीं पश्चिम अफ्रीकी नस्ल, जिसकी मृत्यु दर लगभग 1 प्रतिशत है।

बता दे मंकीपॉक्स ज्यादातर अफ्रीका के पश्चिमी और मध्य क्षेत्रों में होते है साथ ही यूनाइटेड किंगडम, पुर्तगाल व स्पेन में भी इसके मामले दर्ज किए गए है।

कुछ समय पश्चात WHO ने बैठक कर कहा था कि फिलहाल मंकीपॉक्स अंतरराष्ट्रीय चिंता का सबब नहीं है। किंतु WHO के महानिदेशक टेड्रोस एडनास घेब्येयियस ने मंकीपॉक्स को लेकर चिंता जरूर जाहिर की थी।

भाजपा की दक्षिण में दस्तक

साल 2024 के आम चुनाव से पहले दक्षिणी राज्यों में पैठ बनाने की कोशिश में भाजपा

हैदराबाद में जुलाई के शुरू में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के अपने संकल्प वाले प्रस्ताव में भाजपा ने कहा- ‘पार्टी जल्द ही तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में अपनी सरकारें बनाएगी।’

इसके एक हफ़्ते के भीतर केंद्र सरकार ने केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश से चार हस्तियों को राज्यसभा के लिए मनोनीत किया। भाजपा उत्तर भारत और उत्तर-पूर्व में पैर जमाने के बाद अब दक्षिण में अपनी ताक़त बढ़ाने की तैयारी में जुट गयी है। हैदराबाद में प्रधानमंत्री मोदी का भाषण और भाजपा के राजनीतिक प्रस्ताव ज़ाहिर करते हैं कि दक्षिण की राजनीति में अपनी अनुपस्थिति से भाजपा अब बेचैनी महसूस करने लगी है। भाजपा को लगता है कि अगर दक्षिण में पैर जमते हैं, तो उसके लिए 2024 की राह आसान होगी। हालाँकि दक्षिण में उसकी दस्तक कितनी मज़बूत रहेगी, इसे लेकर अभी काफ़ी पेच हैं।

दक्षिण भारत में राजनीतिक रूप से पाँच बड़े राज्य हैं- आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल और तेलंगाना। इन राज्यों में लोकसभा की 129 सीटें हैं। सन् 2019 के लोकसभा चुनाव की बात करें, तो भाजपा (एनडीए) ने पूरे दक्षिण की 131 सीटों में से महज़ 30 सीटें जीती थीं, जिसमें 25 अकेले कर्नाटक से थीं। तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश में उसका खाता भी नहीं खुला था।

तमिलनाडु में एआईडीएमके ने सन् 2014 में 39 में से 37 सीटें जीती थीं, जिससे भाजपा अब गठबंधन कर चुकी है। लेकिन 2019 में पास पलट गया था। डीएमके को इस चुनाव में 16, कांग्रेस को 10, पीएमके को 5, वामपंथी दलों को चार (सीपीआई और सीपीएम को 2-2) व एमडीएमके को चार सीटें मिली थीं।

माना जाता है कि भाजपा वहाँ पनीरसेल्वम वाले धड़े को भाजपा से जोडऩे की क़वायद में जुटी हुई है। भाजपा ने तमिलनाडु में एक सीट जीती थी। तमिलनाडु में मुख्य विपक्षी पार्टी एआईडीएमके में वैसे भी वर्चस्व की लड़ाई चल रही है। पार्टी के संयोजक और पूर्व मुख्यमंत्री ओ. पनीरसेल्वम ने मद्रास उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की हुई है, जिसमें वे पार्टी में अपने प्रतिद्वंद्वी पार्टी कोषाध्यक्ष एडप्पादी पलानीस्वामी के ख़िलाफ़ क़ानून लड़ाई लड़ रहे हैं। अब चूँकि राज्य में डीएमके सत्ता में है। एआईडीएमके और भाजपा के लिए रास्ता आसान नहीं है। डीएमके कांग्रेस की सहयोगी है।

बहुत दिलचस्प बात है कि तमिलनाडु विधानसभा में भाजपा विधायक दल के नेता नैनार नागेंद्रन ने हाल में तमिलनाडु को विभाजित करने का सुझाव दिया है। उनका यह बयान तब आया, जब डीएमके नेता ए. राजा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से तमिलनाडु को स्वायत्तता प्रदान करने का आग्रह किया था। राजा ने यह आग्रह करते हुए कहा था- ‘उम्मीद है कि हमें एक स्वतंत्र तमिल देश की माँग करने के लिए बाध्य नहीं किया जाए।’

क्यों चुना हैदराबाद?
भाजपा ने हैदराबाद को राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के लिए सोच-समझकर ही चुना। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पहले से ही भाजपा के लिए दक्षिण राज्यों में ज़मीन तैयार करने में जुटा है। वहाँ प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह हैदराबाद को भाग्य नगर का नाम दिया, उससे लगता है कि भाजपा तेलंगाना को दक्षिण में अपने प्रवेश के भाग्य द्वार के रूप में देखने की कल्पना कर रही है। तेलंगाना में दिसंबर, 2023 में विधानसभा के चुनाव हैं। इसके कुछ महीने बाद अप्रैल, 2024 में आंध्र प्रदेश विधानसभा के चुनाव हैं, जब लोकसभा के चुनाव भी होंगे।

हैदराबाद के ज़रिये भाजपा तेलंगाना में तो पैठ बढ़ाना ही चाहती है, आंध्र प्रदेश में भी दस्तक देना चाहती है; क्योंकि फ़िलहाल उसका कोई आधार है नहीं। हाल में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अपने कोटे से (केंद्र सरकार ने) जिन चार हस्तियों को राज्यसभा के लिए मनोनीत किया था, उनमें आंध्र प्रदेश के के.वी. विजयेंद्र प्रसाद भी शामिल हैं। अन्य तीन पीटी उषा (केरल), इलैयाराजा (तमिलनाडु) और वीरेंद्र हेगड़े (कर्नाटक) भी दक्षिण राज्यों के ही हैं।

भले भाजपा पर मुसलमानों के फायर ब्रांड नेता और एआईएमआईएम अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी को अन्य राज्यों में अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करने के आरोप लगते हों, तेलंगाना में ओवैसी का गढ़ होने के कारण भाजपा को उसे घेरने के लिए आक्रामक रणनीति पर काम करना पड़ेगा। भाजपा तमाम कोशिशों के बाद भी हाल के वर्षों में दक्षिण में कर्नाटक को छोड़कर अन्य किसी राज्य में पैर पसारने में नाकाम रही है।

दिलचस्प यह है कि भाजपा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर फोकस करके ध्रुवीकरण की रणनीति पर काम कर रही है। हैदराबाद में ओवैसी की उपस्थिति से भाजपा के लिए काम आसान रहेगा। मई में जब गृहमंत्री अमित शाह तेलंगाना के दौरे पर गये थे, तो उन्होंने कहा था- ‘हम तेलंगाना को बंगाल नहीं बनने देंगे।’ समझा जा सकता है कि भाजपा किस रास्ते से अपनी ज़मीन तलाश करना चाहती है। भाजपा की नयी रणनीति यह है कि उसने तेलंगाना के लिए अपने फायर ब्रांड नेताओं की टीम बना ली है जो जल्द ही वहाँ के धुआँधार दौरे करेंगे। भाजपा के बड़े नेता अब दक्षिण के दौरों पर दिखेंगे।

प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपनी सरकार के 8 साल पूरे होने पर चेन्नई और हैदराबाद में बड़ी रैली की थी। भाजपा अपनी रैलियों को बहुत नियोजित तरीके से करती है और यह ख़ास ख़याल रखती है कि इसमें भीड़ जुटाने का हर इंतज़ाम किया जाए, ताकि सन्देश दिया जा सके कि जनता उसके साथ है। हाल में भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने त्रिपुरा में पार्टी की जीत के बड़े किरदार राष्ट्रीय मंत्री सुनील देवधर को आंध्र प्रदेश का सह प्रभारी जबकि संघ की पृष्ठभूमि वाले विदेश राज्यमंत्री वी. मुरलीधरन को प्रभारी तैनात किया है।

उधर तेलंगाना में यह ज़िम्मा राष्ट्रीय महासचिव तरुण चुग को दिया गया है। भाजपा के संगठन महामंत्री बी.एल. सन्तोष तो हैं ही कर्नाटक से। उन पर पार्टी भरोसा कर रही है। यह माना जाता है कि पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हैदराबाद में करवाने के पीछे दिमाग सन्तोष का ही था। उन्होंने ही हैदराबाद में बैठक स्थल का चयन किया था।

भाजपा ज़मीन पर अपने मिशन दक्षिण को पूरा करने के लिए किस स्तर पर जुट चुकी है, यह इस तथ्य से ज़ाहिर हो जाता है कि हैदराबाद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के अगले ही दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आंध्र प्रदेश के भीमावरम में स्वतंत्रता सेनानी और आदिवासी कल्याण के लिए काम करने वाले अल्लूरी सीताराम राजू की 30 फीट की कांस्य प्रतिमा का अनावरण किया। ख़ास बात यह रही कि अपने सम्बोधन के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने पसाला कृष्णमूर्ति के परिवार से मुलाक़ात की जो आंध्र प्रदेश के प्रमुख स्‍वतंत्रता सेनानी थे।

प्रधानमंत्री ने कृष्णमूर्ति की बेटी 90 वर्षीय पसाला कृष्ण भारती से मुलाक़ात करते हुए उनके चरण स्पर्श किये और उनका आशीर्वाद लिया। जनता के बीच होते हुए मोदी इस बात का ख़ास ख़याल रखते हैं कि कुछ ऐसा करें, जिससे उनकी छवि एक नम्र प्रधानमंत्री जैसी दिखे। प्रधानमंत्री ने स्‍वाधीनता सेनानी की बहन और भतीजी से भी मुलाक़ात की। अल्लूरी सीताराम को अपनी श्रद्धांजलि में मोदी ने कहा कि उन्होंने आदिवासी कल्याण और देश के लिए ख़ुद को समर्पित कर दिया और वह भारत की संस्कृति, आदिवासी पहचान और मूल्यों के प्रतीक थे।

आदिवासी भी अब भाजपा की सूची में काफ़ी ऊपर हैं। द्रोपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर देश के वृहद आदिवासी वोट वर्ग पर नज़र जमायी है। अल्लूरी सीताराम राजू बड़े आदिवासी नेता थे, जिन्होंने सशत्र राम्पा आन्दोलन में आदिवासियों का नेतृत्व किया था। हाल के महीनों में भाजपा ने अपनी रणनीति में आदिवासियों पर ख़ास फोकस किया है और दक्षिण राज्यों के आदिवासी इलाक़ों पर वह ज़्यादा ध्यान दे रही है।

भाजपा की रणनीति का अध्ययन करने से ज़ाहिर होता है कि देश भर के 73,000 कमज़ोर बूथों पर पार्टी को मज़बूत करने और जनाधार बढ़ाने के लिए उसने जो कार्यक्रम शुरू किया है, उसमें दक्षिण भारत राज्यों पर ज़्यादा फोकस है। यदि इतिहास पर नज़र दौड़ाएँ तो कर्नाटक में भाजपा अपने अस्तित्व में आने के सिर्फ़ चार साल बाद ही (2004 में) उपस्थिति दर्ज करवाने में सफल रही थी। हालाँकि बाक़ी दक्षिणी राज्यों में भाजपा को जनता का समर्थन नहीं मिल पाया।

कर्नाटक की 2004 की बात करें, तो उसने विधानसभा चुनाव में जबरदस्त प्रदर्शन किया और सन् 2006 में धर्म सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार गिराकर जनता दल (एस) के एच.डी. कुमारस्वामी के नेतृत्व में साझा सरकार बना ली। उसके बाद भाजपा कर्नाटक में एक राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित हो गयी। फ़िलहाल कर्नाटक में भाजपा की वर्तमान सरकार भी कांग्रेस की सरकार गिराकर ही बनी थी।

एक समय था, जब सत्तारुढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के साथ भाजपा का गठबंधन था। लेकिन वर्तमान में टीआरएस नेता और मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव भाजपा के कट्टर विरोधी दिखते हैं। साफ़ दिख रहा है कि भाजपा ने तेलंगाना में पूरी ताक़त झोंकी हुई है। प्रधानमंत्री मोदी, वरिष्ठ पार्टी नेता अमित शाह और जे.पी. नड्डा टीआरएस और मुख्यमंत्री राव पर वैसे ही परिवारवाद को लेकर हमला कर रहे हैं, जैसा वह कांग्रेस और गाँधी परिवार पर करते रहे हैं। नड्डा ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में तो कहा कि जहाँ से परिवारवादी पार्टियाँ साफ़ हो जाती हैं, वहीं तेज़ी से विकास होता है।

भाजपा का दक्षिण के लिए नेरेटिव उत्तर भारत से अलग है। वहाँ पार्टी के सामने विचारधारा से जुड़ी गम्भीर चुनौतियाँ हैं। भाजपा का फीडबैक है कि तेलंगाना में वह उभर सकती है। क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव में वह राज्य की कुल 17 लोकसभा सीटों में से चार जीतने में सफल रही थी। ख़ुद भाजपा इस नतीजे से हैरानी में थी, क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव में उसे महज़ एक सीट से सन्तोष करना पड़ा था। भाजपा का फोकस शहरी क्षेत्रों पर ज़्यादा है।

दक्षिण पर ज़ोर क्यों?
क्या दक्षिण भाजपा की एक अधूरी ख़्वाहिश भर है या उसकी ज़रूरत भी? यह एक बड़ा सवाल है। दरअसल भाजपा के थिंक टैंक का अनुमान है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को अतिरिक्त सीटों की ज़रूरत पड़ सकती है। पार्टी को लगता है कि दक्षिण में मज़बूत रही कांग्रेस के कमज़ोर होने का लाभ भाजपा को मिल सकता है।
यदि भाजपा यह नहीं करती है, तो क्षेत्रीय दल और मज़बूत होंगे या जनता भविष्य में दोबारा कांग्रेस की तरफ़ लौट सकती है। भाजपा के थिंक टैंक ने दक्षिण में पैठ के लिए जो रणनीति तैयार की है, उसमें तीन-सी का फार्मूला रखा गया है। इनमें पहला है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद (कल्चरल नेशनलिज्म), दूसरा है भ्रष्टाचार पर मार (ज़ीरो टालरेंस ऑन करप्शन) और तीसरा है दक्षिण में अपनी विश्वसनीयता (क्रेडिबिलिटी) को उच्च स्तर पर ले जाना। भाजपा नेतृत्व को लगता है कि पार्टी इससे जनता अपनी पैठ बना सकती है। यदि वह इसमें सफल रहती है, तो 2024 के चुनाव में उसे इसका बहुत लाभ होगा।

भाजपा मानती है कि प्रधानमंत्री मोदी के रूप में तुरुप का पत्ता उसके पास है ही, जो जनता को अपने भाषण से आकर्षित कर लेते हैं। दक्षिण पर भाजपा की नज़र का एक और बड़ा कारण है। पार्टी नेतृत्व महसूस करता है कि उस पर उत्तर भारत की पार्टी होने का जो ठप्पा लगा है, उससे मुक्ति पानी चाहिए। सन् 2014 में मोदी के केंद्रीय सत्ता में आने के बाद भले उत्तर-पूरब-पश्चिम तक भाजपा का विस्तार हुआ हो, दक्षिण जीतने का उसका सपना अभी भी सपना ही है। भाजपा महसूस करती है कि चूँकि पिछले लगातार दो लोकसभा चुनावों में पार्टी को उत्तर भारत में व्यापक जनसमर्थन मिला है। यदि यहाँ किसी कारण कुछ या ज़्यादा एंटी इनकम्बेंसी उभरती है, तो उसकी भरपाई की रणनीति पहले से बनानी ज़रूरी है। इसके लिए दक्षिण में ख़ुद को मज़बूत करना पड़ेगा। कर्नाटक और पुडुचेरी में पहले से उसकी राज्य सरकारें हैं। पुडुचेरी की इकलौती लोकसभा सीट तो कांग्रेस के पास है; लेकिन कर्नाटक की 25 में से 24 सीटें भाजपा के पास हैं। हाल में कांग्रेस के कुछ नेता दक्षिण के राज्यों में भी भाजपा या अन्य दलों में गये हैं। हालाँकि इनकी संख्या बहुत ज़्यादा नहीं है। फिर भी भाजपा को लगता है कि कांग्रेस का वोट पार्टी की तरफ़ खिसक सकता है। तमिलनाडु में तो जयललिता के समय मज़बूत ताक़त रही एआईडीएमके बिखराव जैसी स्थिति झेल रही है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अन्नामलाई एआईडीएमके में ही पार्टी का आधार देख रहे हैं। हो सकता है कि आने वाले समय में एआईडीएमके का एक बड़ा धड़ा भाजपा में चला जाए। वहाँ हाल के पंचायत चुनाव में जनता ने भाजपा में दिलचस्पी दिखायी है।

भाजपा कार्यकारिणी के संकल्प
पार्टी ने बैठक में कई प्रस्ताव पारित किये। वरिष्ठ नेता अमित शाह ने राजनीतिक संकल्‍प के प्रस्‍ताव पर कहा कि अगले 30 से 40 साल में भाजपा का युग होगा और भारत विश्व गुरु बन जाएगा। पैगंबर मोहम्मद पर विवादास्पद टिप्पणियों और उदयपुर और अमरावती में हत्याओं पर शाह ने कहा कि तुष्टिकरण की राजनीति ख़त्म होने के बाद साम्प्रदायिकता भी ख़त्म हो जाएगी। हाल की चुनावी जीत पर अमित शाह ने कहा कि पिछले चुनावों और उपचुनावों में भाजपा की जीत ने पार्टी के विकास और प्रदर्शन की राजनीति के लिए लोगों की स्वीकृति को रेखांकित किया है।

उनके मुताबिक, यह नतीजे परिवार का शासन, जातिवाद और तुष्टिकरण की राजनीति को ख़त्म करने के लिए हैं। अमित शाह ने कहा कि भाजपा तेलंगाना और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में पारिवारिक शासन समाप्त करेगी और आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और ओडिशा सहित अन्य राज्यों में सत्ता में आएगी।
बैठक में शाह ने 2002 के गुजरात दंगों के मामले में आये सर्वोच्च न्यायालय के $फैसले को ऐतिहासिक बताया, जिसमें ज़किया जाफ़री की याचिका ख़ारिज़ कर दी गयी थी। शाह ने कहा- ‘दंगों में अपनी कथित भूमिका को लेकर जाँच का सामना करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने चुप्पी साध ली और भगवान शिव की तरह ज़हर पीकर संविधान में अपना विश्वास बनाये रखा।’

मानसिक रोगों में अवसाद सबसे ज़्यादा

तंदुरुस्ती के लिए वैकल्पिक चिकित्सा हो रही सफल

डॉक्टर ने मानसिक रोगी सुमेधा से कहा- ‘कितनी दवा खाएँगी आप? पहले भी खा रही हैं। मैं भी लिख दूँ? मैं बिना दवा के ठीक कर रहा हूँ तुम्हें।’ अवसाद (डिप्रेशन) की शिकार सुमेधा एक्यूप्रेशर से डर रही थी और दवा खाने को तैयार थी। उसकी माँ डॉक्टर से कहती हैं कि इसके अन्दर डर बहुत है। अन्दर से बात तो निकालती ही नहीं न! बाहर से या तो बिलकुल चुप रहती है या फिर हमारे कुछ कह देने से बुरी तरह चिल्लाती है। पहले पतली थी। पिछले छ: साल से तनाव के कारण दवाइयाँ बहुत खायी हैं इसने, इसीलिए मोटापा काफ़ी बढ़ गया है। हालाँकि थायराइड भी नहीं है। देखने में अच्छी-ख़ासी सुमेधा मानसिक रूप से अस्वस्थ है।
‘मन रोगी, तो तन रोगी’ यह कहावत आज के समय में काफ़ी चरितार्थ हो रही है। लोगों में शरीर से ज़्यादा मन की बीमारियाँ बढ़ी हैं। ऐसे रोगियों की संख्या अधिक हो रही है, जो अस्वस्थ जीवन-शैली के चलते अवसाद, तनाव और रुग्णता का शिकार हो रहे हैं। विडंबना यह है कि हमारे समाज में मानसिक स्वास्थ्य की तरफ़ ध्यान नहीं दिया गया। इससे शारीरिक रोग तो बढ़े ही हैं, मानसिक रोग और भी ज़्यादा बढ़े हैं। डॉक्टर्स (चिकित्सकों), मनोवैज्ञानिकों और मनो-चिकित्सकों का कहना है कि अगर हम अपने मानसिक मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहें, तो शारीरिक रोगों से बचा जा सकता है। इसके लिए वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियाँ अधिक कारगर सिद्ध हो रही हैं। एक अनुमान के मुताबिक, विश्व में अवसाद पहले स्थान पर है, जिसकी शिकार अधिकतर महिलाएँ हुई हैं।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार में ‘मानसिक स्वास्थ्य देखभाल में आध्यात्मिकता, आयुर्वेद और वैकल्पिक उपचार’ विषय पर 9 से 11 जुलाई तक तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया। इसमें चिकित्सकों, मनोवैज्ञानिकों और इस विषय से जुड़े विशेषज्ञों ने आधुनिक जीवन शैली से बढ़ी मन के रोगों और वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों पर चर्चा की।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर डॉ. चिन्मय पंड्या ने इस अवसर पर कहा कि आदमी की असल समस्या उसका मन है, जिसमें असन्तोष, ईष्र्या और क्रोध जैसी दुर्भावनाएँ हैं; जबकि समाधान भी इसी मन में छिपा है। उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति में ही अंत:करण की समझ है। इसकी विभिन्न ऐसी प्राचीन विधाएँ हैं, जो आध्यात्मिकता की मदद से आदमी के मन में सकारात्मक भावनाएँ जगाती हैं, साथ ही व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक स्तर पर स्वस्थ बनाती हैं।

21वीं शताब्दी में वैकल्पिक चिकित्सा

इसी विश्वविद्यालय के कंप्लीमेंट्री एंड अल्टरनेटिव थेरेपी विभाग के डॉ. अमृत लाल गुरवेंदर एक्यूप्रेशर का हवाला देते हुए बताते हैं कि अगर नींद न आ रही हो या फिर कोई टेंशन हो, तो अँगूठे के ऊपरी भाग पर नीला रंग लगाएँ। इससे ब्लड प्रेशर भी नीचे आ जाएगा और नींद भी आ जाएगी। इसे रंग चिकित्सा कहा जाता है। उन्होंने कुछ महिलाओं के हाथ में एक्यूप्रेशर किया। उन महिलाओं को घुटने और सिर दर्द से आराम मिलने लगा। डॉ. अमृत का कहना है कि आदमी की जीभ इतनी महत्त्वपूर्ण है, जिसे देखकर अलग-अलग रोगों (हो चुके और होने वाले रोगों) का पता लग सकता है। जैसे लकवा (पैरालाइसिस) का अटैक होने से एक या छ: महीने पहले जीभ टेढ़ी होने लग जाती है; लेकिन घर वालों को इसका पता नहीं चलता। क्योंकि परिवार में इस तरह की कोई जागरूकता नहीं होती।

अवसाद से बढ़ीं आत्महत्याएँ

हमारे समाज में बहुत-से लोगों को पता नहीं कि मानसिक स्वास्थ्य होता क्या है? उसके लक्षण क्या हैं? अक्सर देखा जाता है कि बाहर से अच्छा-ख़ासा तगड़ा व्यक्ति मन से दु:खी रहता है। हमने कई बार देखा, सुना और पढ़ा होगा कि फलाँ आदमी बड़ा गुमसुम रहता है; और एक दिन पता चलता है कि उसने आत्महत्या कर ली। अगर उसके लक्षणों का घर में किसी को पता होता, तो उसकी ज़िन्दगी बचायी जा सकती थी। यूनिवर्सिटी ऑफ राजस्थान, जयपुर के डिपार्टमेंट ऑफ साइकोलॉजी की प्रो. डॉक्टर प्रेरणा पुरी कहती हैं कि हमारे समाज में एक कलंक है। अगर कोई अपने मन की पीड़ा को लेकर मनोचिकित्सक के पास जाता है, तो लोग उसे पागल समझने लगते हैं। लोग अपने मन की समस्याओं पर बात नहीं करना चाहते। अवसाद के कारण विश्व में आत्महत्याएँ बहुत बढ़ी हैं। कोरोना के समय में भी बहुत सारे लोग हृदयाघात (हार्ट अटैक) से मर गये। हालाँकि उन्हें कोरोना वायरस का अटैक नहीं भी आया; लेकिन उसके डर से ही हार्ट अटैक आ गया। डॉक्टर प्रेरणा का कहना है कि पहले हमारा संयुक्त परिवार था, जिसमें एक-दूसरे से संवाद होता रहता था, जिससे मन भी तंदुरुस्त रहता था। अब हर आदमी अपने आप में केंद्रित है। वह अपने मन की बात किसी से नहीं कर सकता। यही कारण है कि शरीर के रोग कब आकर पकड़ लेते हैं? उसे पता ही नहीं चलता। शारीरिक कष्ट होते ही आदमी तुरन्त चिकित्सक के पास जाता है। अगर मन उदास रहता है, तो उसे रोना आता है; या किसी और चीज़ से परेशान रहता है, तो वह चिकित्सक या मनोचिकित्सक के पास जाने से बचता है। इसीलिए आज सकारात्मक मनोविज्ञान (पॉजिटिव साइकोलॉजी) पर अधिक काम हो रहा है। वर्ष 2017 में विश्व स्वास्थ्य दिवस पर डब्ल्यूएचओ की थीम भी डिप्रेशन लेट्स टॉक थी।
जयपुर में कई अस्पतालों में सेवाएँ दे चुकीं डॉक्टर प्रेरणा बताती हैं कि वहाँ के चिकित्सकों ने उन्हें बताया कि अस्पताल में 80 फ़ीसदी ऐसे रोगी हैं, जिनका मेडिकल टेस्ट करने से कुछ नहीं निकला, केवल मानसिक बीमारी है। ऐसी स्थिति में भारतीय वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियाँ अधिक कारगर लगती हैं; जैसे योग, अध्यात्म और ध्यान (मेडिटेशन) आदि। इनका आदमी के दिमाग़ पर काफ़ी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। तिहाड़ जेल में उन्होंने कुछ क़ैदियों पर ध्यान का अभ्यास कराया, जिससे उन्हें काफ़ी अच्छा परिणाम मिला।

शुड और मस्ट से बचें

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में साइकोलॉजी डिपार्टमेंट की प्रो. उर्मिला रानी श्रीवास्तव ने पॉजिटिव ऑर्गेनाइजेशनल बिहेवियर एंड रिसोर्स मैनेजमेंट एंड ऑक्यूपेशनल हेल्थ विषय पर काम किया है। उनका कहना है कि धर्म और अध्यात्म अलग-अलग हैं। हमें अध्यात्म का सहारा लेना चाहिए, जो आदमी के मन को स्वस्थ रखने में काफ़ी भूमिका निभाता है। कर्मचारी और कम्पनी के मालिक और प्रबंधन में अच्छा तालमेल होना चाहिए। एक-दूसरे को ख़ुश रखने में और कार्यस्थल पर अच्छा वातावरण बनाये रखने की कोशिश करनी चाहिए। इससे जहाँ कम्पनी का प्रोडक्ट भी अच्छा रहता है और कर्मचारियों में काम करने के प्रति उत्साह बना रहता है। आजकल के कारपोरेट कल्चर में काम करने का समय लम्बा होता है, शिफ्ट में होता है। इसलिए कर्मचारी को चाहिए कि प्राथमिकताएँ तय करें। काम को आनन्दित होकर करें। तनाव व दबाव लेने से बचें और अपने मन को तंदुरुस्त रखने के लिए अच्छे विचार मन में लाएँ। जैसे दूसरे का भला कैसे करूँ? मंत्र जाप, संगीत चिकित्सा आदि थेरेपी का इस्तेमाल करें। उसे शुड और मस्ट (होगा और चाहिए) से बचना चाहिए; क्योंकि इसी से व्यक्ति में नकारात्मक भाव पैदा होता है। व्यक्ति को अपनी भावना, चिन्तन और क्रिया को सकारात्मक बनाने की कोशिश करनी चाहिए। आम आदमी को छोटी-छोटी बातों से ही अध्यात्म का मर्म समझाया जा सकता है। जब हम अन्दर से ख़ुश हैं, तो सांसारिक वस्तुओं का होना बहुत मायने नहीं रखता।

वैकल्पिक चिकित्सा के विकल्प

सुगन्ध चिकित्सा : इसमें विभिन्न प्रकार के सुगन्धित तेल अलग-अलग प्रकार के मानसिक रोगों की चिकित्सा में उपयोगी हैं।
संगीत चिकित्सा एवं मस्तिष्क खेल : निष्ष्क्रिय एवं शुष्क मस्तिष्क में नयी ऊर्जा का संचार करने एवं विश्रान्ति (रिलैक्सेशन) के लिए त्राटक एवं ध्यान के द्वारा मन को एकाग्र करके परामर्श एवं अन्य मानस उपचार के लिए तैयार किया जाता है।

प्राण चिकित्सा यानी प्राणिक हीलिंग

प्राण ऊर्जा के संचार द्वारा मन को उपचार के लिए तैयार किया जाता है।
 मंत्र चिकित्सा : विभिन्न मंत्रों के माध्यम से मन को नियंत्रित किया जाता है।
 हवन चिकित्सा : विभिन्न प्रकार की हवन सामग्री, गोबर के उपले आदि के द्वारा औषधियुक्त धुएँ को सही मात्रा में नाक के रास्ते से नाड़ी चैनल तक पहुँचाया जाता है। इससे अवसाद और अनिद्रा दूर होते हैं।
 स्वाध्याय : विशिष्ट तकनीकों का उपयोग करके हानिकारक विचारों के स्थान पर विभिन्न पुस्तकों के माध्यम से मन में रचनात्मक विचार भरे जाते हैं।
 दर्पण चिकित्सा : स्व: निर्देश एवं अन्य पद्धतियों में दर्पण चिकित्सा का उपयोग किया जाता है।
 योग एवं रिलैक्सेशन : प्राणायाम आदि यौगिक चिकित्सा पद्धतियों एवं रिलैक्सेशन तकनीकों के द्वारा मन को अन्य मानस उपचार के लिए तैयार किया जाता है।

संवैधानिक अधिकारों एवं कर्तव्यों के असन्तुलन से उपजा संघर्ष

Thane: Women from the Muslim community shout slogans during their protest against BJP spokesperson Nupur Sharma over her alleged remarks on Prophet Mohammad, in Thane, Tuesday, May 31, 2022. (PTI Photo)(PTI05_31_2022_000211B) *** Local Caption ***

देश संकट में है। यह संकट धार्मिक टकराव का है, जो तत्क्षण पैदा नहीं हुआ, बल्कि एक लम्बी विवादास्पद ऐतिहासिकता की उपज है। विवादित बयान, उकसाऊ जुमले, उन्मादी जुलूस, क्रूर हत्याएँ, राजनीतिक हस्तक्षेप आदि इस इस संघर्ष प्रक्रिया के अंग बन चुके हैं। नूपुर शर्मा के बयान से उपजा विवाद अभी तक देश के जनजीवन को दिक़्क़त में डाले हुए है। इससे भड़काऊ बयानबाज़ी का दौर प्रारम्भ हो गया है।

अजमेर दरगाह के ख़ादिम सलमान चिश्ती ने नूपुर शर्मा को गोली मारने की धमकी देते हुए ऐसा करने वाले को इनाम और मकान देने की घोषणा की है। राजस्थान के एक मौलाना मुफ़्ती नदीम अ$ख्तर ने एक जुलुस में सार्वजनिक रूप से नूपुर शर्मा मामले में क़ानून के ख़िलाफ़ भी जाने की धमकी दी। वहीं अजमेर के चिश्ती सरवर ने 800 साल की इस्लामिक हुकूमत की याद दिलाते हुए फिर से हुकूमत क़ायम करने के लिए धमकाया। दूसरी ओर उदयपुर और अमरावती की निर्मम हत्याओं के विरोध में हिन्दू संगठनों ने 9 जुलाई को दिल्ली में ‘हिन्दू संकल्प मार्च’ नामक विशाल रैली निकाली। ऐसी रैलियों का आयोजन जयपुर एवं अजमेर में भी किया गया।

अभी बदज़ुबानी से उत्पन्न विवाद थमे नहीं थे कि इसी बीच लीना मणिमेकलई नामक एक अनाम निर्देशक ने अपनी फ़िल्म ‘काली’ का विवादित पोस्टर जारी कर दिया। पोस्टर में माँ काली की भेषभूषा धारण किये एक महिला को धूम्रपान करते हुए प्रदर्शित किया गया है। पाश्र्व में एलजीबीटीक्यू समुदाय का झण्डा दिखाया गया है। हिन्दू संगठनों इसका विरोध करते हुए उक्त महिला के ख़िलाफ़ कार्रवाई की माँग की, तो इस विवाद में टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा भी कूद पड़ी और देवी काली पर अभद्र टिप्पणी करने लगी। इस विवाद को और आगे बढ़ाते हुए उस महिला ने शिव-पार्वती का सिगरेट पीते हुए एक दूसरा पोस्टर ट्वीट किया। उसका मानना है कि वह अपनी आवाज़ उठा रही है। संविधान अपनी बात कहने का अधिकार देता है; लेकिन किसी पर कींचड़ उछालने की अनुमति नहीं? वर्तमान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं समीक्षा के अधिकार का प्रयोग सामाजिक-सांस्कृतिक उन्नति के बजाय विवाद पैदा करने में अधिक किया जाने लगा है। जहाँ एक तरफ़ धार्मिक टकराव से पहले ही जनतंत्र त्रस्त है, वहीं नूपुर विवाद के बीच ये विवादास्पद और भद्दे पोस्टर जारी करने का कोई औचित्य नहीं था कि भाजपा नेता अरुण यादव को पैग में पैगम्बर नज़र आ रहे हैं।

ऐसा लगता है कि इस देश को धार्मिक हिंसा की आग में झोंक देने की होड़-सी लग गयी है। चंद लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं स्वधर्म पालन के संविधान प्रदत्त मूल अधिकारों का प्रयोग देश को धार्मिक उन्माद और धार्मिक संघर्षों की ओर धकेलने में कर रहे हैं; और आश्चर्यजनक रूप से उन अधिकारों का हवाला भी दे रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि हम मध्ययुग में लौट गये हैं, जहाँ धर्म राष्ट्र के जीवन में एक अंग होने के बजाय धर्म ही राष्ट्र का पर्याय हो गया है।

विचारणीय मसला यह है कि आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा यह राष्ट्र मौलिक अधिकारों और कर्तव्यों को किस दृष्टि से देखता है? देश का संविधान कुछ बुनियादी मूल्यों की नींव पर प्रतिष्ठित है। संविधान में शामिल मूल अधिकार (भाग-3 में अनुच्छेद-12 से 35 तक) इस अवधारणा पर आधारित हैं कि किसी भी राजनीतिक-सामाजिक परिस्थिति में नागरिकों के कुछ अनिवार्य अधिकार अनुल्लंघनीय बने रहें। संविधान प्रदत्त मूल अधिकारों में समता का अधिकार (अनुच्छेद-14 से 18), स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद-19 से 22), शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद-22 से 24), धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद-29 से 30), संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद-32) आदि हैं। इन मूल अधिकारों का रक्षक भारत का सर्वोच्च न्यायालय है। हालाँकि मूल अधिकारों के बहुत-से पहलू हैं, जिनकी संविधान में व्याख्या नहीं की गयी है। लेकिन वे मानवीय गरिमा के लिए अनिवार्य हैं; जैसे- पुलिस कार्रवाई करने में विफलता, ग़ैर-क़ानूनी तौर पर हिरासत में रखना, झूठे मामलों में फँसाना, मुक़दमे की त्वरित सुनवाई का अधिकार, हिरासत में हिंसा के विरुद्ध अधिकार, निजता का अधिकार आदि। समय-समय पर उच्चतम एवं विभिन्न उच्च न्यायालयों ने अपने निर्णयों में मौलिक एवं मानवाधिकारों की व्याख्या की है और उसके फ़लक को विस्तृत किया है। उदाहरणस्वरूप रणजीत सिंह ब्रह्मजीत सिंह शर्मा बनाम महाराष्ट्र सरकार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि महिलाओं के साथ अन्याय, प्रदूषण, दलितों का सामाजिक बहिष्कार मानव अधिकार के उल्लंघन के विविध स्वरूप हैं।

तात्पर्य यह है कि संविधान न सिर्फ़ लोगों को अधिकार देता है, बल्कि उनकी सुरक्षा भी करता है। हालाँकि मूल अधिकारों के उपयोग में संयम की बड़ी आवश्यकता एवं समझ का होना ज़रूरी है। लिपमैन के शब्दों में ‘आपके प्रत्येक अधिकार के साथ आपका एक दायित्व भी जुड़ा रहता है, जिसे पूरा किया जाना ज़रूरी है।’ संविधान सभा ने अधिकार तो दिये; लेकिन कर्तव्यों की कोई सूची नहीं दी। क्योंकि उसका ऐसा मानना था कि प्रत्येक नागरिक इन मूलभूत कर्तव्यों का स्वाभाविक रूप से पालन करेगा; इसलिए इनका अलग से उल्लेख करने की आवश्यकता महसूस नहीं की गयी। नवीन जिंदल बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय का भी कहना था कि मूल कर्तव्य, मूल अधिकारों की अवधारणा में ही अन्तर्निहित हैं और मूल अधिकारों के उपयोग में कुछ प्रतिबंध लगाते हैं। सन् 1969 चंद्रभवन बोर्डिंग बनाम मैसूर राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी- ‘यह सूचना भ्रान्ति है कि संविधान के अंतर्गत केवल अधिकार दिये गये हैं, कर्तव्य नहीं।’ लेकिन जनता इस दृष्टिकोण को ठीक से आत्मसात नहीं कर पायी। अत: संविधान में मूल कर्तव्यों की प्रतिष्ठा करनी पड़ी।

मूल कर्तव्य वह प्रणाली है, जिसका उद्देश्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक हितों के बीच सन्तुलन क़ायम करना है। इन कर्तव्यों से सार्वजनिक दायित्व नहीं बढ़ते, बल्कि यह व्यक्ति के रूप में नागरिकों पर लागू होते हैं। भारतीय समाज में राजनीतिक उदासीनता एवं बढ़ती विघटनकारी प्रवृतियों के शमन हेतु 42वें संविधान संशोधन अधिनियम-1976 के द्वारा भाग-4(क) के अंतर्गत अनुच्छेद-51(क) को जोड़कर 10 मूल कर्तव्यों को शामिल किया गया, जिसमें संविधान का पालन, राष्ट्रीय आन्दोलन के आदर्शों का सम्मान, भारत की सम्प्रभुता और अखण्डता की रक्षा, देश में समरसता और समानता की भावना का निर्माण, प्राकृतिक पर्यावरण एवं सार्वजनिक सम्पत्ति की सुरक्षा हिंसा से दूरी आदि शामिल हैं। 86वें संविधान अधिनियम-2002 के द्वारा छ: से 14 वर्ष के बच्चों की शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराने के रूप में 11वाँ कर्तव्य जोड़ा गया। स्वर्ण सिंह समिति (1976) की अनुशंसा के बाद 42वें संशोधन के ज़रिये संविधान में शामिल मौलिक कर्तव्य, सार्वभौम मानवाधिकार घोषणा के अनुच्छेद-29(1) के अनुरूप है। इसके अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति का समुदाय के प्रति कर्तव्य है, जिसमें व्यक्तित्व का उन्मुक्त और पूर्ण विकास सम्भव है। लेकिन दो दशक बीतने के बावजूद यह देखा गया है कि भारतीय समाज अधिकारों के लिए जितना सजग रहा है, उतना कर्तव्यों के प्रति नहीं। इसी अंतराल को भरने के लिए सन् 1999 में गठित वर्मा समिति ने मौलिक कर्तव्यों को और अधिक कारगर बनाने के तौर-तरीक़े सुझाये थे। बाद में संविधान समीक्षा के लिए सन् 2000 में गठित राष्ट्रीय आयोग (वेंकटचलैया आयोग) ने अपनी रिपोर्ट में मौलिक कर्तव्यों के महत्त्व एवं क्रियान्वयन पर बल दिया था। 20 साल पहले संविधान के कार्य करने के तरीक़े की समीक्षा के लिए गठित राष्ट्रीय आयोग ने जब न्यायमूर्ति वर्मा समिति के सुझाव पर विचार किया, तो उसके समक्ष सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल था कि क्या अनुच्छेद-51(क) ने अपना उद्देश्य पूरा किया है? अगर नहीं, तो इसके प्रावधान को बनाने वालों ने एक नागरिक के रूप में अपने लोकतांत्रिक कर्तव्यों के निर्वहन में कहाँ पर चूक की? और अपने साथ ही नागरिकों को निराश किया। लास्की लिखते हैं- ‘अधिकार कार्यों से जुड़े हैं और केवल कर्तव्य पालन के बदले ही दिये जाते हैं।’ अनुच्छेद-51(ए) का अधिदेश अनिवार्य नहीं, बल्कि बाध्यकारी है। यह स्पष्ट करता है कि प्रत्येक नागरिक के कुछ कर्तव्य है, जिसका उन्हें पालन करना है। एम्स विद्यार्थी संघ बनाम एम्स और अन्य (2001) मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है- ‘अनुच्छेद-51(ए) के अनुसार मौलिक कर्तव्य मौलिक अधिकारों की तरह किसी न्यायालय आदेश द्वारा बाध्यकारी नहीं बनाये गये हैं; लेकिन इन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। देश सभी नागरिकों का समुच्चय है, इसलिए भी। हालाँकि अनुच्छेद-51(ए) देश के लिए कोई मौलिक कर्तव्य अलग से निर्धारित नहीं करता; लेकिन यह वास्तविकता बनी रहती है कि भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य देश का सामूहिक कर्तव्य है।’

उपरोक्त तथ्यों और वक्तव्यों के आधार पर देश की वर्तमान परिस्थितियों पर नज़र डालें, तो प्रतीत होता है कि हम संविधान की मूल भावना से कब का मुँह फेर चुके हैं। देश में अधिकार एवं कर्तव्यों के बीच संघर्ष की अजीब-सी स्थिति पैदा हो गयी है। लोगों को न अपने मूल अधिकारों की ठीक जानकारी है, न वे कर्तव्यों की परवाह करते हैं। अधिकार एवं कर्तव्यों के बीच के असन्तुलन ने आज संविधानवाद की अवधारणा को क्षीण किया है। मूल कर्तव्य भारतीय परम्परा, धार्मिक मूल्यों एवं पद्धतियों से अनुप्रेरित हैं, जो इस सोच को पुष्ट करते हैं कि किसी राष्ट्र में उसके नागरिक केवल लोकतंत्र के मूकदर्शक नहीं, बल्कि राष्ट्र के उन्नयन में सहभागी भी हैं। लेकिन आज अधिकारों के नाम पर लोग कुछ भी अनर्गल बोलकर विवादों के ज़रिये सस्ती लोकप्रियता पाने के प्रयास में हैं। रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य मामले (1950) में सर्वोच्च न्यायालय ने मुखरता से वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा की थी। किन्तु एस. रंगराजन बनाम पी. जगजीवन राम मामले (1989) में उच्चतम न्यायालय ने अभिव्यक्ति और उसके कारण सार्वजनिक व्यवस्था भंग होने की सम्भावना को ‘बारूद के ढेर में चिंगारी’ के समान बताया।

आस्था है, तो तर्क भी हैं। धार्मिक उन्माद एवं कट्टरता है, तो समरसता एवं सर्वधर्म समभाव भी हैं। सियासत है, तो समाज भी है। ऐसे ही अधिकार हैं, तो कर्तव्य भी हैं। विचारणीय यह है कि आज जो लोग धार्मिक विवाद पैदा करते हुए इसे अपने मूल अधिकार का मसला बता रहे हैं, उन्हें सम्भवत: किंचित मात्र भी अपने कर्तव्यों का भान नहीं है; या फिर वे उसकी परवाह ही नहीं करते। वे क्यों नहीं सोचते कि मूल अधिकारों और मूल कर्तव्यों को भिन्न परिपेक्ष्य में सुविधानुसार अपनाने के प्रयास से इनका सन्दर्श बिगड़ जाएगा।

महात्मा गाँधी कहते हैं- ‘अधिकारों का असली स्रोत कर्तव्य हैं। अगर हम सब अपने कर्तव्यों का पालन करें, तो अधिकार हासिल करना मुश्किल नहीं होगा। अगर हम अपने कर्तव्यों को पूरा किये बग़ैर अधिकारों की ओर भागेंगे, तो वे भी मृग मरीचिका की तरह हमसे दूर भाग जाएँगे।’
समाज में वैमनस्यता प्रसार के इन नये उन्नायकों के लिए यह समझना नितांत आवश्यक है कि वे अधिकार एवं कर्तव्यों में एक-दूसरे के प्रति पूरकता को समझें, न कि उन्हें एक-दूसरे का प्रतिद्वन्द्वी बनाएँ। क्योंकि अगर समाज उन्माद के भँवर में फँसेगा, तो उसकी तबाही इन नफ़रती ना$खुदाओं तक भी ज़रूर पहुँचेगी।
(लेखक इतिहास और राजनीति के जानकार हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)

घाटी में मुक़ाबले को तैयार गुपकर

जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिलकर टक्कर देंगे एनसी-पीडीपी

जम्मू-कश्मीर की राजनीति में एक-दूसरे के घोर विरोधी रहे नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) और पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) राज्य विधानसभा के अगले चुनाव में मिलकर लडऩे की तैयारी में हैं। इसका कारण यह है कि दोनों का साझा राजनीतिक विरोधी एक ही है- भाजपा। कांग्रेस का भी राज्य में प्रभाव है; लेकिन अभी तय नहीं कि क्या वह किसी गठबंधन का हिस्सा बनेगी या अकेले मैदान में उतरेगी? परिसीमन की सिफ़ारिशें लागू होने के बाद सम्भावना है कि इस साल के आख़िर या अगले साल जम्मू-कश्मीर में विधानसभा के चुनाव हो सकते हैं।

दरअसल जम्मू-कश्मीर में एनसी और पीडीपी गुपकर गठबंधन का हिस्सा हैं। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, भाजपा से मुक़ाबला करने के लिए दोनों दलों सहित पाँच दल साथ लडऩे के लिए तैयार हो गये हैं। गुपकार गठबंधन का गठन मोदी सरकार के 5 अगस्त, 2019 को राज्य का विशेष दर्जा ख़त्म करके इसे विधानसभा के साथ केंद्र शासित प्रदेश बनाने के एक दिन पहले घाटी के आठ राजनीतिक दलों ने मिलकर फ़ारूक़ अब्दुल्ला की अध्यक्षता में गुपकर (पीपल्स अलायंस फॉर गुपकर डेक्लेरेशन / पीएजीडी) गठबंधन का गठन किया था, जिसका असल मक़सद नई दिल्ली के जम्मू-कश्मीर राज्य को लेकर किये फ़ैसले का विरोध करना था।

बाद में अगस्त, 2020 में इसकी दूसरी बैठक (छ: दल) हुई, जिसमें अनुच्छेद-370 की बहाली की ज़ोरदार माँग की गयी। साथ ही डीडीसी के चुनाव साथ लडऩे का फ़ैसला किया गया। गठबंधन की इस बैठक में एनसी और पीडीपी के अलावा सीपीएम, पीपल्स कॉन्फ्रेंस, अवामी नेशनल कॉन्फ्रेंस और जे-के पीपल्स मूवमेंट शामिल रहे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 24 जून, 2021 को जम्मू-कश्मीर पर चर्चा के लिए जो बैठक की थी, उसमें गुपकर गठबंधन को ही बातचीत के लिए बुलाया गया था। गुपकर गठबंधन की ताक़त तब सामने आयी, जब दिसंबर 2020 में हुए डीडीसी (ज़िला विकास समितियों) के चुनाव में कश्मीर में गुपकर ने एकतरफ़ा जीत हासिल की; जबकि जम्मू में भी वह सीटें जीतने में सफल रहा। ज़ाहिर है भाजपा लाख कोशिशों के बाद भी कश्मीर घाटी में पैर जमाने में नाकाम रही है।

सन् 2014 के विधानसभा चुनाव के बाद पीडीपी (28) और भाजपा (25) ने मिलकर सरकार बनायी थी, जबकि सन् 2018 में भाजपा ने पीडीपी से समर्थन वापस लेकर सरकार गिरा दी थी और वहाँ राष्ट्रपति शासन लागू हो गया था।

गुपकर गठबंधन के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा- ‘हाँ, यह सही है। हम साथ चुनाव लड़ेंगे। हमें अपने एक सहयोगी दल ने सूचित किया है कि वे अब हमारे साथ नहीं, लिहाज़ा अब पाँच पार्टियाँ मिलकर लड़ेंगी। हमें पहले से ही इस दल को लेकर कुछ आशंकाएँ थीं। हमारा एजेंडा वही है, जो हमने अब तक कहा है; जिसमें अनुच्छेद-370 की बहाली की माँग भी शामिल है।’

चतुर रणनीति

विधानसभा के चुनाव साथ लडऩे का एनसी-पीडीपी का फ़ैसला काफ़ी चतुराई भरा है। दोनों का कश्मीर घाटी में तो ख़ासा प्रभाव है ही, जम्मू में भी इनका असर रहा है। निश्चित ही इसका सबसे बड़ा असर भाजपा पर पड़ेगा। लेकिन इसका असर सज्जाद लोन की पीपल्स कॉन्फ्रेंस (पीसी) और अल्ताफ़ बुख़ारी की ‘जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी’ पर भी पड़ेगा। जहाँ तक कांग्रेस की बात है, तो उसका अपना आधार है। यदि जम्मू क्षेत्र में भाजपा को नुक़सान होता है, तो उसका लाभ कांग्रेस को मिलेगा।

सज्जाद लोन एक समय भाजपा के सहयोगी रहे हैं और महबूबा मुफ़्ती के नेतृत्व वाली तत्कालीन पीडीपी-भाजपा सरकार में भाजपा के कोटे से ही मंत्री थे। बाद में जब भाजपा ने पीडीपी से समर्थन वापस लिया, तो वह सज्जाद लोन को मुख्यमंत्री बनाने की तैयारी में दिख रही थी। ज़ाहिर है गुपकर के साथ न लडऩे का उसे नुक़सान होगा। बुख़ारी की ‘अपनी पार्टी’ के लिए भी यह अच्छी ख़बर नहीं, जिन्होंने दो साल पहले पीडीपी से अलग होकर यह पार्टी बनायी थी। कहा जाता है कि उन्हें इसके लिए भाजपा का समर्थन था।

यदि सन् 2014 के विधानसभा चुनाव की बात करें, तो उसमें पीपल्स कॉन्फ्रेंस को दो ही सीटें (दोनों कुपवाड़ा ज़िले में) मिली थीं। उस चुनाव में पीपल्स कॉन्फ्रेंस का वोटशेयर 24.7 फ़ीसदी को लगता था कि सज्जाद पर दाँव आजमाया जा सकता है। चुनाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस का वोट शेयर 26.7 और पीडीपी का 32.2 फ़ीसदी था। ज़ाहिर है इन दोनों के मतों को जोड़ दिया जाए, तो गुपकार गठबंधन बहुत मज़बूत हो जाता है।

चिनाब वैली और पीर पंजाल इलाक़े मुस्लिम बहुल हैं, जहाँ जम्मू-कश्मीर की कुल 16 सीटें इन इलाक़ों में हैं। पिछले चुनाव में चिनाब, पीर पंजाल में नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी और कांग्रेस के बीच मतों (वोटों) का बँटवारा हुआ था। ज़ाहिर है यदि अनुच्छेद-370 के मुद्दे पर मुस्लिम वोट एकतरफ़ा जाता है, तो गुपकर गठबंधन को लाभ होगा।
यहाँ यह देखना भी दिलचस्प होगा कि क्या कांग्रेस नाराज़ चल रहे अपने वरिष्ठ नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद को चुनावों में आगे करके लड़ेगी? आज़ाद की कश्मीर ही नहीं जम्मू में भी अच्छी छवि और पैठ है। यदि आज़ाद कांग्रेस से छिटके, तो क्या उस भाजपा के साथ जाने की हिम्मत कर सकेंगे, जिसने अनुच्छेद-370 के ज़रिये जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म कर दिया? आज़ाद अनुच्छेद-370 हटाने के फ़ैसले का सख़्त विरोध करते रहे हैं। वैसे यह भी हो सकता है कि कांग्रेस ही गुपकर गठबंधन का हिस्सा बन जाए; क्योंकि इससे जम्मू क्षेत्र में भाजपा की चुनौती बढ़ जाएगी।

भाजपा जम्मू-कश्मीर में जीतकर अपना राज तो चाहती है; लेकिन यह आसान नहीं। जम्मू में हिन्दू और कश्मीर में कश्मीरी पंडित उसका बड़ा वोट बैंक रहे हैं। हाल में कश्मीरी पंडितों की आतंकियों के हाथों हत्या के बाद कश्मीरी पंडित केंद्र सरकार से नाराज़ दिखे हैं। कई कश्मीरी पंडितों का यह भी मानना है कि कश्मीर फाइल्स फ़िल्म का राजनीतिकरण करके भाजपा ने कश्मीरी पंडितों का संकट बढ़ाया है। बता दें हाल की घटनाओं के बाद घाटी से सैकड़ों कश्मीरी पंडितों को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा है, क्योंकि उनके मन में ख़ौफ़ बढ़ा है। यह पलायन दो दशक पहले हुए पलायन के बाद सबसे बड़ा है।

एक कश्मीरी पंडित नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि ‘भाजपा उन पर (कश्मीरी पंडितों पर) हुई ज़्यादतियों को अपनी राजनीति के लिए भुनाना चाहती है; जबकि उसने ज़मीन पर कश्मीरी पंडितों के लिए कुछ ठोस नहीं किया। कश्मीर पंडितों के लिए जो कुछ बेहतर हुआ, वह मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार के समय में ही हुआ, जिसमें सुरक्षित जगह बने एक-दो कमरे के घर और रोज़गार देना शामिल हैं।’


“सरकार (केंद्र) लोकतंत्र की सलामती की बात करती हैं, तो चुनाव से बड़ा और क्या हो सकता है? जिसमें जनता को आप उनकी पसन्द के प्रतिनिधि चुनने का मौक़ा देते हैं, और जो उनका लोकतंत्र में अधिकार है। चुनाव जल्द-से-जल्द होने चाहिए। …और सवाल यह भी है कि वे (केंद्र) चुनाव कैसे लडऩा चाहते हैं?”
फ़ारूक़ अब्दुल्ला
अध्यक्ष, गुपकर गठबंधन

“हमने साथ मिलकर चुनाव लडऩे का फ़ैसला इसलिए किया है, क्योंकि यह अवाम की आवाज़ है। अवाम चाहती है कि हमें अपनी खोयी हुई गरिमा को बहाल करने के लिए एक साथ कोशिश करनी चाहिए।”
महबूबा मुफ़्ती
उपाध्यक्ष, गुपकर गठबंधन

17 जुलाई को होगी 16 दौर की भारत-चीन कमांडर स्तर की वार्ता

पूर्वी लद्दाख में अप्रैल 2020 से जारी तनाव को घटाने के लिए भारत और चीन की सेना के बीच 16वें दौर की बातचीत 17 जुलाई को होगी। भारतीय पक्ष की अगुवाई 14वीं कोर के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल ए सेनगुप्ता करेंगे वहीं दूसरी तरफ चीन की तरफ से दक्षिण तिब्बत मिलिट्री डिस्ट्रिक्ट के प्रमुख मेजर जनरल यांग लिन करेंगे।

दोनों देशों के बीच बातचीत का मुख्य मुद्दा सेना के डिसएंगेजमेंट यानी सैनिकों को गलवान घाटी, हॉट स्प्रिंग, पैंगोंग त्सो के अलावा देपसांग और देमचोक व अन्य पर पीछे हटने पर ठोस बातचीत रहेगा।

गौरतलब है दोनों देशों के विदेश मंत्री पिछले हफ्ते जी 20 बैठक के दौरान बाली में मिले थे। साथ ही दोनों मंत्रियों ने आपसी रिश्ते को बेहतर करने पर जोर दिया था। किंतु फिलहाल पूर्वी लद्दाख में दोनों देशों की 50 हजार से ज्यादा सैनिक तैनात है।

आपको बता दें, भारत-चीन के बीच वर्ष 2020 में शुरू हुआ टकराव आज तक खत्म नहींहुआ है। और दोनों देशों की सेनाएं देपसांग और डेमचोक जैसे इलाकों में आमने-सामनेहै। इस मुद्दे पर भारत-चीन की 15 दौर की बैठक हो चुकी है किंतु दोनों देशों के बीचसैन्य वार्ता अभी नहीं हुई है। ऐसे में यह बैठक बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है।इससे पहले दोनों देशों के बीच वार्ता लद्दाख के चुशूल मोल्दो में मार्च मेंहुई थी। जिसमें भारतीय पक्ष का नेतृत्व लेह स्थित सेना की 14वीं कोर के कमांडरलेफ्टिनेंट-जनरल अनिंघ सेनगुप्ता और चीन की ओर से दक्षिण शिनजियांग सैन्य जिलाप्रमुख मेजर जनरल यांग लिन ने किया था। 

धार्मिक जाल और भूखा भारत

मुसीबतें जीवन का एक हिस्सा हैं। लेकिन अपने लिए कोई जानबूझकर मुसीबत मोल नहीं लेता। पर लेते हैं; भारतीय जानबूझकर मुसीबत मोल लेते हैं। सदियों से मुसीबतें मोल लेते आये हैं। हैरत यह है कि भारतीय मुसीबतों का समाधान भी नहीं खोजते। क्योंकि वे बँटे हुए हैं। किसी एक तबक़े पर मुसीबत आती है, तो दूसरा तबक़ा सोचता है कि यह उसकी अपनी मुसीबत नहीं है। सब पर मुसीबत आती है, तो सोचते हैं कि क्या कर सकते हैं, परेशानी तो सभी को है।

कुछ लोग अपने फ़ायदे की सोचते हैं। इसी तरह सब कुछ चल रहा है और एक-एक करके मुसीबतें भारतीयों के सिर पर बढ़ती जा रही हैं। हैरत है कि इन मुसीबतों से निपटने का रास्ता निकालने की चिन्ता न भारत सरकार को है और न लोगों को। कोरोना महामारी एक बार फिर बढ़ रही है। उस पर यूएन की रिपोर्ट द स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन इन द वल्र्ड 2022 ने उस भारतीय अन्न भण्डार की पोल को खोलकर रख दिया, जिसका दम भरते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन से कहा था कि भारत के पास एक अरब 40 करोड़ लोगों के लिए पर्याप्त भोजन है। द स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन इन द वल्र्ड 2022 की रिपोर्ट में कहा गया है कि सन् 2019 के बाद से लोगों का भूख से संघर्ष बढ़ा है। दुनिया भर में सन् 2021 में 76.8 करोड़ कुपोषण का शिकार हुए, जिसमें बड़ी संख्या में भारतीय हैं। रिपोर्ट बताती है कि भारत में 22.4 करोड़ लोग कुपोषण के शिकार हैं। शर्म की बात है कि यह आँकड़ा पूरी दुनिया के एक-चौथाई से अधिक लगभग 29 फ़ीसदी है।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2021 की रिपोर्ट भी भारतीयों को शर्मसार करती है। यह रिपोर्ट कहती है कि भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा खाद्य उत्पादक देश है। दूध, दाल, गेहूँ, चावल, मछली और सब्ज़ी उत्पादन में दुनिया में पहले स्थान पर है। फिर भी यहाँ एक बड़ी आबादी कुपोषण की शिकार है।

चलिए अब भारत में भुखमरी के पिछले 15 साल के ग्राफ को जाँचते हैं। 15 साल पहले भारत की आबादी जब लगभग 118.32 करोड़ थी, तब भारत में कुल 25.557 करोड़ लोग कुपोषण का शिकार थे। यह संख्या उस समय की आबादी का 21.6 फ़ीसदी थी। अब भारत की जनसंख्या 1,39,44,20,224 है। (यूनाइटेड नेशन के आँकड़ों के अनुसार, 26 जुलाई 2021 तक), तब भारत में 22.4 करोड़ लोग कुपोषण का शिकार हैं।

यह संख्या भारत की कुल वर्तमान आबादी का लगभग 16.4 फ़ीसदी हैं। इसका मतलब अगर कोरोना वायरस की आफ़त नहीं आती, तो भारत मे कुपोषण का स्तर कम होता। फिर भी आबादी के लिहाज़ से पहले से कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या कम हुई है। फिर भी कुपोषण की दोनों ही रिपोर्ट भारतीयों के लिए शर्मनाक हैं। शर्मनाक इसलिए भी, क्योंकि दुनिया के दूसरे देशों में कुपोषित लोगों का फ़ीसदी कम हुआ है, जबकि भारत में दुनिया के मुक़ाबले बढ़ा है। कृषि प्रधान देश में यह स्थिति बताती है कि लोगों को भरपेट भोजन मिलने के मामले में कोई समानता नहीं है। भारत में 15 से 49 की उम्र तक के 3.4 करोड़ लोग अधिक वज़न के शिकार हैं। चार साल अधिक वज़न के शिकार लोगों की संख्या 2.5 करोड़ थी। यूएन की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में भूख से लड़ाई के मोर्चे पर सफलता बहुत धीमी गति से हासिल हुई है।

भारत में पुरुषों की तुलना में महिलाओं कुपोषण की शिकार अधिक हुई हैं। सन् 2019 में भारत में एनिमिया की शिकार महिलाओं की संख्या लगभग 17.2 करोड़ थी। सन् 2021 में यह संख्या बढ़कर 18.7 करोड़ हो गयी। इस तरह भारत में कुपोषित महिलाओं की संख्या दो साल में डेढ़ करोड़ बढ़ी। 18 जनवरी, 2022 को देश की सर्वोच्च अदालत के सामने जब भारत सरकार की ओर से अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने कहा था- ‘भारत में एक भी मौत भुखमरी से नहीं हुई है।’ उसी वक़्त मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना के साथ पीठ में शामिल न्यायमूर्ति एस. बोपन्ना और न्यायमूर्ति हिमा कोहली ने कहा- ‘क्या हम इस बात का पूरी तरह से यक़ीन कर लें कि भारत में एक भी मौत भुखमरी से नहीं हुई है? क्या इस कथन को रिकॉर्ड में लिया जाए?’

इस सवाल पर सफाई देते हुए अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल बोले- ‘राज्यों ने भुखमरी से होने वाली मौत के आँकड़े नहीं दिये हैं, लिहाज़ा उन्हें इसके लिए जानकारी लेनी होगी।’ सरकार का इस तरह भुखमरी और उससे होने वाली मौतों को छुपाने का प्रयास बताता है कि बदनामी से बचने के लिए वह बड़ी ख़ामोशी के साथ लोगों को भूखों मरते देख सकती है। राइट टू फूड कैंपेन की रिपोर्ट बताती है कि सन् 2015 से सन् 2020 तक 13 राज्यों में भुखमरी से कुल 108 मौतें हुईं। विशेषज्ञ कहते हैं भुखमरी से मौत के आँकड़ों में स्पष्टता नहीं है। इन मौतों की अलग स्पष्ट पहचान के मानक भी नहीं हैं। इन सबके बीच अब दुनिया में आर्थिक संकट का ख़तरा मँडराने की चर्चा ज़ोरों पर है। कहा जा रहा है कि मुद्रास्फीति उस मुकाम पर पहुँच गयी है, जो बीते कई दशकों में नहीं देखी गयी थी। हैरत की बात है कि भारत में दो साल के कोरोना के दौरान भारत में 30 से ज़्यादा अमीरों की सम्पत्ति दोगुनी हो गयी। वहीं आम भारतीय की औसत सम्पत्ति सात फ़ीसदी कम हुई है। दुनिया में भी यही स्थिति है। कोरोना के इन दो वर्षों में 11 फ़ीसदी अमीर दुनिया में बढ़े हैं। इस समय दुनिया के कुल अमीरों की संख्या 13,637 है।

याद रहे अमीरों की इस सूची में 10, 20, 50 करोड़ वाले लोगों की गिनती नहीं है। आर्थिक मंदी रोकने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने ब्याज दरें बढ़ाने जैसा क़दम उठाया है। समझ नहीं आता कि आख़िर लोगों को निचोडऩे से आर्थिक संकट कैसे ख़त्म होगा? वह भी तब, जब भारत में रोज़गार के अवसर घट रहे हैं और ग़रीबी बढ़ रही है। अमेरिकी सूचकांक में लम्बे समय से गिरावट का सिलसिला जारी है। विशेषज्ञों की आर्थिक मंदी की आशंका अगर सच साबित होती है, तो इससे भारतीय जीडीपी पर भी नकारात्मक असर पड़ेगा। भारत की अर्थ-व्यवस्था पहले ही चरमराती दिख रही है। आर्थिक जानकार कह रहे हैं कि आर्थिक मंदी अगले ही महीनों में आने वाली है। वहीं कुछ आर्थिक विशेषज्ञ 2023 में आर्थिक मंदी की सम्भावना जता रहे हैं।

ऐसे समय में जब आर्थिक मंदी की चिन्ता की जानी चाहिए भारतीय धर्म के झगड़े में पड़े हुए हैं। धर्म की आड़ में देश को सुलगाने की एक साज़िश हो रही है। देश को सुलगाने की कोशिश करने वालों की अति यह है कि अगर कोई एक धार्मिक चिंगारी लोगों की एकता के चलते बुझ भी जाती है, तो तत्काल दूसरी चिंगारी उनके बीच फेंक दी जाती है। आजकल तो हिन्दू और मुस्लिम खुलकर आमने-सामने हैं। धार्मिक विवाद के बाद गले काटे जा रहे हैं। उसका वीडियो बनाया जा रहा है। जिन्हें इस सबसे लाभ हो रहा है, वो यही चाहते हैं।

हैरत की बात यह है कि इन साज़िशों पर कोई अख़बार लिखता नहीं है, कोई चैनल डिबेट नहीं करता है। अब तो ख़बरों को तय करने का सम्पादकों का स्तर भी समझ से परे है। अभी हाल ही में जब हिन्दू-मुस्लिम विवाद चरम पर रहा, तब नूपुर शर्मा के बयान की फ़िज़ूल चर्चा और उसके बाद कन्हैया की हत्या पर हंगामे की ख़बरें प्रमुखता से सुर्ख़ियों में थीं। लेकिन कुपोषण की ख़बर को प्रमुखता से उठाने की हिम्मत किसी ने नहीं की। उदयपुर और अमरावती की घटनाएँ बेशक शर्मनाक हैं, लेकिन रोज़ाना भूख से मरते हुए लोगों की हत्याएँ भी तो शर्मनाक हैं। माना जा रहा है कि भारत में भूख से रोज़ाना हज़ारों बच्चे, बड़े और बुज़ुर्ग मर रहे हैं। धर्म के नाम पर भड़कने वालों को इसकी चिन्ता क्यों नहीं है? आख़िर यह भी एक प्रकार की हत्या है। फिर इससे निपटने के लिए क्यों न रोज़गार दिये जाएं? धार्मिक झगड़े के बजाय मेहनत क्यों नहीं की जाए? जिससे असहाय लोगों की भूख मिटायी जा सके। अब भारत को खाद्यान्न और ज़्यादा चाहिए, क्योंकि यह दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश होने जा रहा है।

राजनीतिक विमर्श गिरने से हो रहे न्यायपालिका पर हमले

सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ ने जब भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा के बारे में कहा- ‘जिस तरह से उन्होंने देश भर में भावनाओं को प्रज्ज्वलित किया है… देश में जो हो रहा है… उसके लिए यह महिला अकेले ज़िम्मेदार है। यह स्पष्ट था कि देश में राजनीतिकों की भाषा बहुत निचले स्तर पर पहुँच गयी है।’

एक टीवी चर्चा के दौरान पैगंबर मोहम्मद के बारे में नूपुर ने जो टिप्पणी की थी, उसका ज़िक्र करते हुए न्यायालय ने नूपुर शर्मा द्वारा देश भर में उनके ख़िलाफ़ दर्ज कई एफआईआर को जोडऩे (क्लब करने) के लिए दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए ये टिप्पणियाँ कीं। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि नूपुर को टीवी पर आकर देश से माफ़ी माँगनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा- ‘उन्हें शब्द वापस लेने में बहुत देर हो चुकी थी। सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि न्यायालय ने टीवी चैनल को भी एक विवादास्पद न्यायिक विषय पर बहस आयोजित करने के लिए फटकार लगायी और पूछा कि क्या यह एजेंडे को हवा देना का सम्भावित मक़सद था।’

मामला यहीं ख़त्म हो जाना चाहिए था; लेकिन ऐसा नहीं हुआ। फ़ैसले के कुछ दिन बाद सर्वोच्च न्यायालय में नूपुर शर्मा के मामले की सुनवाई करते हुए न्यायाधीश सूर्यकांत और न्यायाधीश जे.बी. पारदीवाला द्वारा की गयी टिप्पणी के ख़िलाफ़, 15 सेवानिवृत्त न्यायाधीशों, 77 सेवानिवृत्त नौकरशाहों और 25 सेवानिवृत्त सशस्त्र बल अधिकारियों द्वारा हस्ताक्षरित एक खुला पत्र प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) एन.वी. रमना को भेजा गया। इन हस्तियों ने इसमें निलंबित भाजपा नेता नुपुर शर्मा के ख़िलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फ़ैसले की आलोचना की। प्रधान न्यायाधीश एन.वी. रमना को लिखे खुले पत्र में उन्होंने दावा किया कि सर्वोच्च न्यायालय ‘लक्ष्मण रेखा’ लाँघ गया। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय से जल्द सुधारात्मक उपाय की माँग की।

01 जुलाई को उच्चतम न्यायालय ने पैगंबर मोहम्मद के ख़िलाफ़ की गयी टिप्पणी के लिए नूपुर शर्मा की आलोचना की, जिसमें कहा गया कि उनके बयान परेशान करने वाले और अहंकार से भरे हैं। सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने कहा कि पैगंबर मोहम्मद के ख़िलाफ़ अपनी टिप्पणी के लिए अफ़सोस करने के बजाय उन्होंने ख़ेदजनक स्थिति पैदा की। पूर्व न्यायाधीशों, सरकारी अधिकारियों और सशस्त्र बलों के अधिकारियों ने न्यायमूर्ति सूर्यकांत के रोस्टर को तब तक वापस लेने के लिए कहा, जब तक कि वह सेवानिवृत्त नहीं हो जाते और कम-से-कम नूपुर शर्मा मामले की सुनवाई के दौरान की गयी टिप्पणियों को वापस लेने का निर्देश दिया जाए। हस्ताक्षरित बयान में आगे कहा गया कि इन टिप्पणियों, जो न्यायिक आदेश का हिस्सा नहीं हैं; को न्यायिक औचित्य और निष्पक्षता के आधार पर सही नहीं किया जा सकता है। इस तरह के अपमानजनक अपराध न्यायपालिका के इतिहास में और नहीं हैं।

लगभग उसी दौरान विख्यात पूर्व सिविल सेवकों के एक समूह ने एक अन्य फ़ैसले के मामले में कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और अन्य के ख़िलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय की अनावश्यक टिप्पणियों को वापस लेने की माँग की। इसी फ़ैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने 2002 के गुजरात दंगों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मिली क्लीन चिट पर मुहर लगायी थी। फ़ैसले के बाद अहमदाबाद की एक न्यायालय ने 2 जुलाई को सीतलवाड़ को 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया।

एक खुले पत्र में इन पूर्व सिविल सेवकों ने सर्वोच्च न्यायालय से इस आशय का स्पष्टीकरण जारी करने के लिए कहा कि उनका यह इरादा नहीं था कि सीतलवाड़, जिन्हें फ़ैसले के एक दिन बाद हिरासत में लिया गया था और अगले दिन गुजरात पुलिस द्वारा कथित दंगा मामलों के सम्बन्ध में साक्ष्य निर्माण के लिए गिरफ़्तार किया गया था; को गिरफ़्तार जाए। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय से उनकी बिना शर्त रिहाई का आदेश देने का आग्रह किया।

पूर्व 92 सिविल सेवकों के हस्ताक्षरित खुले बयान में कहा गया कि हर दिन की चुप्पी न्यायालय की प्रतिष्ठा को कम करती है और संविधान के मूल सिद्धांत को बनाये रखने के अपने दृढ़ संकल्प पर सवाल उठाती है, जिसका ज़िम्मा राज्य के संदिग्ध कार्यों के ख़िलाफ़ जीवन और स्वतंत्रता के मूल अधिकार की रक्षा करना है। हस्ताक्षर करने वालों में पूर्व केंद्रीय गृह सचिव जी.के. पिल्लई, पूर्व विदेश सचिव सुजाता सिंह, पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह, पूर्व स्वास्थ्य सचिव के. सुजाता राव, पूर्व आईपीएस अधिकारी ए.एस. दुलत और पूर्व आईएएस अधिकारी अरुणा रॉय शामिल हैं। बयान में कहा गया है कि ज़किया अहसान ज़ाफरी बनाम गुजरात राज्य मामले में हाल ही में तीन न्यायाधीशों की बेंच के 24 जून, 2022 के फ़ैसले ने कम-से-कम नागरिकों को पूरी तरह से परेशान और निराश कर दिया।

उन्होंने कहा कि यह सिर्फ़ अपील ख़ारिज़ करने की बात नहीं है, जिसने लोगों को हैरान किया है; बल्कि पीठ ने अपीलकर्ताओं, उनके वकील और समर्थकों के बारे में अनावश्यक टिप्पणी की है। फ़ैसले के पैरा 88 का हवाला देते हुए बयान में कहा गया है कि सबसे आश्चर्यजनक टिप्पणी में सर्वोच्च न्यायालय ने विशेष जाँच दल के अधिकारियों की सराहना की है, जिन्होंने राज्य का बचाव किया है और एसआईटी के निष्कर्षों को चुनौती देने वाले अपीलकर्ताओं को उत्साहित किया है।

सर्वोच्च न्यायालय ने 24 जून को 2002 के साम्प्रदायिक दंगों के मामले में प्रधानमंत्री मोदी और 63 अन्य को एसआईटी की क्लीन चिट को बरक़रार रखा था, जिसमें कहा गया था कि गोधरा ट्रेन नरसंहार पूर्व नियोजित होने के बाद हिंसा दिखाने के लिए सामग्री नहीं है और आपराधिक साज़िश कथित तौर पर राज्य में उच्चतम स्तर पर रची गयी थी।

पूर्व सिविल सेवकों द्वारा जारी बयान में कहा गया कि हम सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से अपने आदेश की समीक्षा करने और पैरा 88 में निहित टिप्पणियों को वापस लेने का आग्रह करेंगे। हम उनसे उनकी बिरादरी के एक प्रतिष्ठित पूर्व सदस्य, न्यायमूर्ति मदन लोकुर द्वारा सुझायी गयी कार्रवाई को अपनाने का भी अनुरोध करेंगे। मानो इतना ही काफ़ी नहीं था। ट्रोल्स की एक संगठित सेना न्यायाधीशों के बारे में फ़र्ज़ी ख़बरें बनाने और फैलाने में व्यस्त थी, जिसमें नक़ली और विकृत तस्वीरों को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं के साथ झूठी निकटता दिखाने के लिए साझा किया जा रहा था। प्रोपेगैंडा पोर्टल ने न्यायाधीशों के ख़िलाफ़ ख़तरनाक और खुलेआम अवमाननापूर्ण बयान जारी किये। एक प्रमुख टीवी चैनल का पर्दाफ़ाश किया गया और उसे फ़र्ज़ी ख़बरें चलाने के लिए बुक किया गया, जिसके लिए उसे माफ़ी माँगने के लिए मजबूर होना पड़ा।

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने छत्तीसगढ़ पुलिस का समर्थन करने के बजाय आरोपी को बचाने की कोशिश करने के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस पर निशाना साधा। उत्तर प्रदेश पुलिस के साथ तकरार के एक दिन बाद जब उन्होंने ज़ी न्यूज के एंकर रोहित रंजन को उनके ग़ाज़ियाबाद स्थित आवास से गिरफ़्तार करने की माँग की; तो छत्तीसगढ़ पुलिस ने उनके घर पर ताला देखकर उन्हें फ़रार घोषित कर दिया। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी के वायनाड के एक बयान को कथित तौर पर शरारती तरीक़े से तोड़-मरोड़कर पेश करने पर राज्य के एक विधायक की शिकायत के आधार पर रंजन के ख़िलाफ़ दर्ज की गयी प्राथमिकी (एफआईआर) पर कार्रवाई करते हुए छत्तीसगढ़ पुलिस की एक टीम पत्रकार के आवास पर पहुँची; लेकिन उत्तर प्रदेश पुलिस के जवान उनके रास्ते में बाधा बन गये।

इस बीच कर्नाटक उच्च न्यायालय के एक वरिष्ठ न्यायमूर्ति ने खुले न्यायालय (ओपन कोर्ट) में चौंकाने वाले आरोप लगाये हैं। न्यायमूर्ति एच.पी. सन्देश ने अपने स्थानांतरण के दबाव और ख़तरों को उजागर किया और प्रत्येक नागरिक को याद दिलाया कि उनका सबसे महत्त्वपूर्ण कर्तव्य संविधान के प्रति है। ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायाधीशों पर हमले केवल गिनी-चुनी घटनाएँ भर नहीं हैं, बल्कि यह हमला संगठित, मानकीकृत और संस्थागत है। इस तरह के अभियानों के पीछे मुख्य उद्देश्य न्यायपालिका का मनोबल गिराना, दबाव बनाना और उसे आतंकित करना है।

ग़ौरतलब है कि अब न्यायाधीश जे.बी. पारदीवाला ने सोशल मीडिया के लिए नियम-क़ानून बनाने की पैरवी की है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश पारदीवाला दो न्यायाधीशों की उस पीठ का हिस्सा थे, जिसने पिछले हफ़्ते कहा था कि निलंबित भाजपा नेता नूपुर शर्मा के बयान ने पूरे देश में आग लगा दी।

फॉलोअर्स ने सोशल मीडिया पर टिप्पणियों की आलोचना की है। न्यायाधीश पारदीवाला ने न्यायपालिका के मीडिया ट्रायल पर गहरी चिन्ता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों पर उनके फ़ैसलों के लिए व्यक्तिगत हमले एक ख़तरनाक स्थिति का संकेत करते हैं, जहाँ न्यायाधीशों को यह सोचना पड़ता है कि क़ानून वास्तव में क्या सोचता है और मीडिया क्या सोचता है?

उन्होंने आगे कहा कि भारत में जिसे पूरी तरह से परिपक्व या परिभाषित लोकतंत्र के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता है, सोशल मीडिया पूरी तरह से $कानूनी और संवैधानिक मुद्दों का राजनीतिकरण करने के लिए उसे अक्सर इस्तेमाल करता है।