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महँगाई खा रही सारी कमायी

लगातार बढ़ती महँगाई निम्न-मध्यम वर्ग के लिए अब असहनीय होती जा रही है। गैस से लेकर खाद्यान्न तक सब कुछ कई-कई गुना महँगा हो चुका है। बढ़ती महँगाई को कैसे क़ाबू किया जाए? इसे लेकर आर्थिक मामलों के जानकारों से बातचीत के आधार पर ‘तहलका’ के विशेष संवाददाता राजीव दुबे की रिपोर्ट:-

देश में पिछले छ:-सात साल से महँगाई लगातार बढ़ रही है। सरकार महँगाई पर जवाब देने से बचने के लिए यूक्रेन-रूस युद्ध को ज़िम्मेदार ठहरा रही है। लेकिन वास्तविकता यह है कि बढ़ी जीएसटी, वैट, जीएसटी और जमाख़ोरी करके मुनाफ़ा कमाने की पूँजीपतियों की चाहत इसके लिए ज़िम्मेदार है। इस सबके लिए हमारा सरकारी तंत्र ज़िम्मेदार है, जो पूरी तरह अव्यवस्था के दौर से गुज़र रहा है। जनता से सच छिपाया जा रहा है। जो भी आँकड़े बताये जा रहे हैं, वो सही नहीं हैं। बढ़ती महँगाई को लेकर मध्यम और ग़रीब तबक़ा परेशान है। जानकारों का कहना है कि अगर समय रहते महँगाई पर क़ाबू नहीं पाया गया, तो आने वाले दिनों में यह और भी बढ़ेगी, जिससे अपराध बढ़ेंगे।

आर्थिक मामलों के जानकार पीयूष जैन का कहना है कि महँगाई तो 2020 के कोरोना के आने के दौरान से तेज़ी से बढ़ रही है। लेकिन सरकार ने बढ़ती महँगाई के लिए कोरोना को दोषी ठहराकर अपना पल्ला छाड़ लिया था। तब लोगों ने भी कोरोना को वैश्विक महामारी समझकर महँगाई के दंश को स्वीकार कर लिया था। लेकिन अब सरकार ने रूस और यूक्रेन युद्ध को महँगाई के लिए ज़िम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया है। ऐसे में जब सरकार ही अपनी ज़िम्मेदारी से बचेगी, तो महँगाई पर कैसे क़ाबू पाया जा सकता है? पीयूष जैन का कहना है कि देश के कुछ चंद पूँजीपतियों ने जिस तरह से बाज़ार पर अपना क़ब्ज़ा किया है, उसे देखकर तो नहीं लगता है कि महँगाई पर जल्द क़ाबू पाया जा सकता है। आटा, दाल और चावल के साथ खाद्य तेल का कारोबार चंद पूँजीपतियों के हाथों में है। ये लोग सरकार की अनदेखी कर अपनी इच्छानुसार चीज़ों के भाव तय करके जमकर पैसा कमाने में लगे हैं। क्योंकि सरकार का अप्रत्यक्ष रूप से इनके ऊपर हाथ है। यही वजह है कि महँगाई अनियंत्रित होती जा रही है।

आर्थिक मामलों के जानकार एवं कर विशेषज्ञ (टैक्स एक्सपर्ट) ध्रुव अग्रवाल का कहना है कि सरकार अपना ख़ज़ाना भरने के लिए ग़रीबों की जेबें ख़ाली करने में लगी है। जिस तरीक़े से मई के पहले सप्ताह में ही घरेलू गैस के सिलेंडर के दाम एक मुश्त 50 रुपये बढ़ाये हैं, उससे देश के ग़रीब और मध्यम वर्ग के लोगों को करारा झटका लगा है। उन्होंने बताया कि खुदरा महँगाई दर तो क़रीब सात फ़ीसदी के आस-पास है, जबकि थोक महँगाई दर पिछले एक साल से दो-दहाई अंकों पर पहुँच चुकी है, जो अपने आप में सामान्य बात नहीं है। उनका कहना है कि कोरोना के कारण देश के लोग बढ़ती आर्थिक परेशानियों से उबरे नहीं थे कि यूक्रेन और रूस के लम्बे खिंचते युद्ध की वजह से कच्चे तेल और अनाज के साथ खाद्य तेल के दाम बढ़ते ही जा रहे हैं।

दिल्ली के चाँदनी चौक के व्यापारी विजय प्रकाश जैन का कहना है कि पटरी से उतरी अर्थ-व्यवस्था सुचारू रूप से पटरी पर लाने के लिए बड़ी सूझबूझ और मेहनत की आवश्यकता होती है। अगर व्यवस्था में पारदर्शिता न हो, तो वह ठीक नहीं हो सकती। हमारे यहाँ कुछ भी ठीक नहीं है, यही वजह है कि व्यवस्था सुधरने की जगह बिगड़ती जा रही है। जैसा कि मौज़ूदा समय में हो रहा है। उनका कहना है कि सन् 2020 में जब कोरोना के चलते जिन लोगों की नौकरियाँ गयीं, उनकी अभी तक पूर्ण रूप से वापसी नहीं हुई है। जिन्हें नौकरी मिल गयी, उनमें से बहुतों को पूरा और योग्यतानुसार वेतन नहीं मिल रहा है। इससे देश में बड़े तबक़े की आर्थिक स्थिति बिगड़ चुकी है। सरकार इस ओर भी कोई ध्यान नहीं दे रही है। विजय प्रकाश जैन का कहना है कि आँकड़े बताते है कि सन् 2020 से ही देश में लगभग 20 करोड़ से ज़्यादा लोग ग़रीबी रेखा के नीचे चले गये हैं। ऐसे में सरकार को ठोस और कारगर क़दम उठाने की ज़रूरत है, ताकि को लोगों को रोज़गार मिल सके। साथ ही बढ़ती महँगाई पर क़ाबू पाने के लिए भी सरकार को बेहतर क़दम उठाने पड़ेंगे। सरकार को अपनी मनमानी को रोकना होगा। अन्यथा पड़ोसी देशों जैसे हालात बनने में देर नहीं लगेगी। क्योंकि देश का बड़ा तबक़ा महँगाई की चौतरफ़ा मार से कराह रहा है।

दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रो. एस. राज सुमन का कहना है कि जब कोरोना महामारी चरम पर थी, तब और जब देश में पाँच राज्यों में चुनाव चल रहे थे, तब महँगाई का मुद्दा दबा रहा। जैसे ही पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम घोषित हुए, महँगाई बढ़ी भी और लोगों का ध्यान भी इसने खींचा। अब यूक्रेन-रूस का युद्ध चल रहा था, तब भी महँगाई की चर्चा दबाने की कोशिश हो रही है। उन्होंने बताया कि हाल ही में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की रिपोर्ट में यूक्रेन संकट की वजह से चालू वित्त वर्ष 2022-23 में सारी दुनिया में व्यापारिक घाटा बढ़ा है। इसके मद्देनज़र वैश्विक व्यापार लगभग 4.7 से घटकर तीन फ़ीसदी तक रह गया है। ऐसे में भारत जैसे देश में आशंका जतायी जा रही है कि महँगाई अभी और बढ़ेगी। उनका कहना है कि हमारी सरकार को महँगाई पर क़ाबू पाने के लिए सही-सही आँकड़े सार्वजनिक करने होंगे। साथ ही कोरोना-काल में गयी युवाओं की नौकरी को वापस दिलाने का प्रयास करना होगा। जमाख़ोरी पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाना होगा और कर (टैक्स) कम करना होगा। अन्यथा महँगाई सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती ही जाएगी। उनका कहना है कि देश में महँगाई बढऩे के पीछे सबसे बड़ा कारण अगर कोई है, तो वो है देश में पूँजीपतियों की विस्तारवादी सोच। क्योंकि वे जमकर जमाख़ोरी करने और चीज़ों के मनमाने दाम वसूलने में लगे हैं। पूँजीपतियों ने अभी से जमाख़ोरी करके आटे-दाल के साथ-साथ खाद्य तेलों के दाम बढ़ा दिये हैं। किसानों की फ़सल को ख़रीदने वाले पूँजीपतियों द्वारा जमाख़ोरी करने की आदत पर रोक लगनी चाहिए। व्यवस्था की कमी और ख़ामी के चलते ये लोग मौक़े का फ़ायदा उठाते जा रहे हैं। कोरोना और युद्ध भी कारण हैं; लेकिन वो दूसरे और अलग कारण हैं। लेकिन आंतरिक कारण जमाख़ोरी और चीज़ों के मनमाने दाम वसूलने की आदत ही हैं।

दिल्ली के कई अन्य छोटे-बड़े व्यापारियों ने साफ़ कहा कि सरकार की नीयत में खोट है। उनका कहना है कि हमारी सरकार को भलीभाँति मालूम है कि कोरोना महामारी के चलते लोगों का रोज़गार छिना है और कामधंधा मंदा हुआ है। परिवार-के-परिवार कोरोना के चलते उजड़ गये हैं। ऐसे में पेट्रोल, डीजल, ट्रांसपोर्ट, गैस, खाद्य तेल, खाद्यान्न महँगे करना; कर (टैक्स) बढ़ाना और कई तरह की वसूली प्रथा को बढ़ावा देना ठीक नहीं है। कई राज्यों में तो गैस सिलेंडर 1,000 रुपये से ज़्यादा का मिल रहा है। देश का किसान गेहूँ, धान (चावल), सब्ज़ी, खाद्यान्न तेल की फ़सलें और दालें पैदा करता है; लेकिन उसे सही दाम कभी नहीं मिलते। उसे अधिकतर मुनाफ़े की जगह घाटा होता है; लेकिन बाज़ार में इन्हीं वस्तुओं के दाम में कई-कई गुना मुनाफ़े पर बिकती हैं। मतलब साफ़ है कि यह महँगाई सुनियोजित है; जबकि इस पर बड़े आराम से क़ाबू किया जा सकता है।

दिल्ली के छोटे व्यापारियों का कहना है कि उपभोक्ताओं को बड़े-बड़े व्यापारी ठगने में लगे हैं। वे कम तोल की पैकिंग करके पुराने रेट पर बेचकर मोटा मुनाफ़ा कमा रहे हैं। हाल यह है कि महँगाई हर रोज़ बढ़ रही है। विपक्षी पार्टियाँ विरोध तक नहीं कर रही हैं; जिसका नतीजा यह है कि सरकार चैन से है और महँगाई बेलगाम होती जा रही है।

ट्रांसपोर्टर रमेश अग्रवाल का कहना है कि पेट्रोल-डीजल के दाम 20 से 30 फ़ीसदी तक बढ़ गये; लेकिन भाड़ा ज्यों-का-त्यों है, या उस अनुपात में नहीं बढ़ा है। ऐसे में लोगों को महँगाई के नाम पर जो लूटा जा रहा है, वो वास्तविकता से दूर है। उनका कहना है कि केंद्र सरकार को जाँच करनी चाहिए कि वे लोग कौन हैं, जो मनमानी कर रहे हैं। छोटे से लेकर बड़ा व्यापारी तक ईंधन के बढ़े दामों का हवाला देकर उपभोक्ताओं को जमकर लूटने में लगा है। लेकिन जाँच कौन करे? सरकारी तंत्र बीमार है और जनता लाचार है।

दिल्ली के शकरपुर की बीना चौधरी कहती हैं कि महँगाई सारी कमायी खा रही है। अब पहले की तरह पति द्वारा दिये गये ख़र्च में से वह बचत नहीं कर पाती हैं। बल्कि अब तो जो ख़र्च मिलता है, वह भी कम पड़ जाता है। कमायी बढऩे के बजाय घटी है और ख़र्चे बढ़े हैं।

जम्मू-कश्मीर में परिसीमन के बाद चुनाव कब?

कश्मीर में रिपोर्ट को लेकर नाराज़गी और विरोध, जम्मू में ख़ुशी

रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच दक्षिण एशिया में उभरते तनावों और पाकिस्तान में शहबाज़ शरीफ़ के नेतृत्व में नयी सरकार बनने के बाद जम्मू-कश्मीर में विधानसभा और लोकसभा सीटों के परिसीमन वाली अन्तिम रिपोर्ट प्रकाशित हो गयी है। घाटी के राजनीतिक दलों ने इस रिपोर्ट की सिफ़ारिशों पर गहरा ऐतराज़ जताया है। यहाँ सवाल यह है कि क्या भारतीय लोकतंत्र जम्मू-कश्मीर को लेकर सामने खड़ी चुनौतियों को परिसीमन के इस तरीक़े से और मुश्किल नहीं कर रहा? घाटी के राजनीतिक दलों ने परिसीमन रिपोर्ट को सिरे से ख़ारिज़ कर दिया है और इसे लोगों से धोखा बताया है।

जून, 2018 में पीडीपी-भाजपा सरकार टूटने के बाद राज्य के लोग अपने मताधिकार का उपयोग नहीं कर पाये हैं। हालाँकि इस बीच 5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर का विभाजन करके दो केंद्र शासित प्रदेश बना दिये गये थे। केंद्र सरकार अब इस साल कुछ राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के साथ जम्मू-कश्मीर में भी चुनाव करवा सकती है। आरम्भ से चुनावी राजनीति में पले-बड़े जम्मू कश्मीर के लोग बहुत शिद्दत से महसूस कर रहे हैं कि जनता के चुने प्रतिनिधि सत्ता सँभालें। लोगों का कहना है कि केंद्र के नियुक्त लेफ्टिनेंट गवर्नर और अफ़सरशाही से जनता वैसा सीधा संवाद नहीं कर सकती, जैसा चुने प्रतिनिधियों के साथ हो सकता है। लिहाज़ा उनकी समस्यायों के निदान के लिए चुनाव होने ज़रूरी हैं। वैसे परिसीमन की रिपोर्ट में विधानसभा और लोकसभा हलक़ो को लेकर जो बदलाव किये गये हैं, उन्हें लेकर कश्मीर की राजनीतिक दलों में नाराज़गी है।

जम्मू-कश्मीर में पाँच लोकसभा सीटों बारामूला, श्रीनगर, अनंतनाग-राजौरी, उधमपुर और जम्मू को बरक़रार रखते हुए इनकी सीमाओं को पुनर्निर्धारित किया गया है। जम्मू के पीर पंजाल क्षेत्र को अब कश्मीर की अनंतनाग सीट में डाला गया है। पीर पंजाल में पुंछ और राजौरी ज़िले आते हैं, जो पहले जम्मू संसदीय सीट का हिस्सा थे। श्रीनगर संसदीय क्षेत्र के एक शिया बहुल क्षेत्र को बारामूला संसदीय सीट में जोड़ दिया गया है।

घाटी में नाराज़गी

धारा-370 हटाते समय जिस तरह जम्मू-कश्मीर के लोगों को भरोसे में नहीं लिया गया था, उससे उनमें नाराज़गी थी। अब परिसीमन में विधानसभा हलक़ो के बँटवारे पर भी ख़ासकर कश्मीर में नाराज़गी है और उनका आरोप है कि परिसीमन एकतरफ़ा है और इसमें राजनीति की गयी है।

‘तहल$का’ से फोन पर बातचीत में फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने कहा- ‘ऐसी चालबाज़ियाँ सूबे में ज़मीनी हक़ीक़त को नहीं बदल सकतीं। परिसीमन आयोग के सहारे तो बिलकुल भी नहीं। मरहम लगाने की जगह ज़ख़्म दिये जा रहे हैं। हम सब (कश्मीर के राजनीतिक दल) मिलकर बैठेंगे और इस मसले पर चर्चा करेंगे।’

कांग्रेस ने भी सवाल उठाया है कि जब पूरे देश के बाक़ी निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन पर साल 2026 तक रोक लगी है, तो फिर जम्मू-कश्मीर के लिए अलग से परिसीमन क्यों हो रहा है? देखा जाए, तो जम्मू-कश्मीर का परिसीमन और इसका विरोध दोनों ही राजनीतिक हैं। विरोध जनसंख्या के लिहाज़ से ज़्यादा आबादी वाले मुस्लिम बहुल कश्मीर में कम सीटें बढ़ाने और कम आबादी वाले हिन्दू बहुल जम्मू में ज़्यादा सीटें बढ़ाने का हो रहा है। पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) प्रमुख महबूबा मुफ़्ती ने इस मसले पर कहा- ‘यह बहुत फ़िक्र की बात है कि परिसीमन में जनसंख्या की पूरी तरह अनदेखी की और आयोग ने मनमर्ज़ी का फ़ैसला किया। हमें इस रिपोर्ट पर बिलकुल भरोसा नहीं। रिपोर्ट का मक़सद जम्मू-कश्मीर के लोगों को उनके अधिकारों से वंचित करना है। दिल्ली ने एक बार फिर हमारे संविधान की अनदेखी की है और चुनावी बहुमत को अल्पमत में बदल दिया।’

घाटी के राजनीतिक दलों का आरोप है कि परिसीमन के बहाने भाजपा हिन्दू बहुल जम्मू में अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकना चाहती है। जम्मू-कश्मीर के मुस्लिम बहुल कश्मीर में परिसीमन के बाद एक सीट बढ़कर 47 सीटें हुई हैं, जबकि हिन्दू बहुल जम्मू में छ: बढ़कर अब 43 हो गयी हैं। कुल 90 विधानसभा सीटों में बहुमत के लिए 46 सीटें चाहिए। यदि कश्मीरी पंडितों के दो नामित सदस्यों को पुडुचेरी की तर्ज पर वोट का अधिकार मिल जाता है, तो यह दो वोट अतिरिक्त हो जाएँगे।

उधर तीन साल पहले तक सत्ता में भाजपा की सहयोगी रही पीपुल्स कॉन्फ्रेंस (पीसी) के नेता सज्जाद लोन ने कहा- ‘अतीत से कोई सबक़ नहीं सीखते हुए उसे दोहराया गया है। कश्मीर के साथ भेदभाव हुआ है। आबादी के लिहाज़ से बदलाव नहीं हुए और यहाँ के आवाम को निराशा हुई है। भाजपा और उसके सहयोगी राजनीतिक फ़ायदे से ऊपर नहीं सोच रहे।’ इन बदलावों के बाद जम्मू की 44 फ़ीसदी आबादी 48 फ़ीसदी सीटों के लिए वोट डालेगी, जबकि कश्मीर की 56 फ़ीसदी आबादी 52 फ़ीसदी सीटों के लिए। परिसीमन से पहले कश्मीर के 56 फ़ीसदी लोग 55.4 फ़ीसदी सीटों के लिए, जबकि जम्मू के 43.8 फ़ीसदी लोग 44.5 फ़ीसदी सीटों के लिए वोट डालते थे। अविभाजित जम्मू-कश्मीर में लेह और कारगिल की सीटें भी शामिल थीं। कश्मीर के राजनीतिक दलों का आरोप है कि भाजपा जम्मू में परिसीमन के ज़रिये सीटें बढ़ाकर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करना चाहती है।

इस साल कश्मीर में पर्यटकों की शानदार आमद रही है। लोग उम्मीद कर रहे हैं कि विधानसभा चुनाव हों, तो उन्हें अपने कामों के लिए सरकारी दफ़्तरों में भटकना नहीं पड़ेगा। हालाँकि परिसीमन की इस सारी क़वायद में कई जानकार भविष्य के ख़तरे भी देखते हैं। उन्हें लगता है कि परिसीमन के बहाने कश्मीर की जनता में यह बात घर कर गयी है कि नई दिल्ली उनके साथ न्याय नहीं कर रही। धारा-370 से लेकर परिसीमन तक घाटी में यह निराशा और गहरी हुई है। फ़िलहाल अब जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव का इंतज़ार सभी को है। वहाँ राजनीतिक प्रक्रिया बहाल करने की माँग तमाम राजनीतिक दल कर रहे हैं। भले परिसीमन रिपोर्ट का कश्मीर में जबरदस्त विरोध है, जम्मू में भी लोग चुनाव चाहते हैं। कारण यह है कि राज्यपाल शासन में उनकी समस्याएँ बढ़ी हैं। बिजली की जितनी ख़राब हालत लोगों को जम्मू में अब झेलनी पड़ी है, उतनी पिछले वर्षों में नहीं रही। शायद जम्मू-कश्मीर में अक्टूबर तक चुनाव हों।

परिसीमन रिपोर्ट में क्या है? 

जम्मू-कश्मीर के लिए परिसीमन आयोग के अन्तिम आदेश में कश्मीरी प्रवासियों (केपी) और पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर से विस्थापित लोगों के लिए अतिरिक्त सीटों की सिफ़ारिश है। इसके लिए गजट अधिसूचना भी प्रकाशित कर दी गयी है और यह आदेश केंद्र सरकार द्वारा घोषित तारीख़ से प्रभावी होगा। केंद्र शासित प्रदेश की कुल 90 विधानसभा सीटों में से 43 जम्मू क्षेत्र और 47 कश्मीर क्षेत्र में होंगी। अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए पहली बार नौ सीटें आरक्षित की गयी हैं, जिनमें जम्मू में छ: और कश्मीर में तीन सीटें होंगी। सात सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित की गयी हैं। तत्कालीन जम्मू और कश्मीर राज्य के संविधान में विधानसभा में अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटों के आरक्षण का प्रावधान नहीं था। सभी पाँच लोकसभा सीटों में पहली बार समान संख्या में विधानसभा सीटें होंगी। परिसीमन के उद्देश्य से जम्मू और कश्मीर को एक इकाई के रूप में माना गया है।

एक संसदीय क्षेत्र कश्मीर के अनंतनाग और जम्मू के राजौरी और पुंछ को मिलाकर बनाया गया है। इस पुनर्गठन से प्रत्येक संसदीय क्षेत्र में 18 विधानसभा क्षेत्रों की समान संख्या होगी। माँग को देखते हुए कुछ विधानसभा हलक़ो के नाम बदले गये हैं। पटवार सर्कल में कोई फेरबदल नहीं किया गया है। सभी विधानसभा सीटें सम्बन्धित ज़िले की सीमा में रहेंगी। आयोग ने विधानसभा में कश्मीरी प्रवासियों (केपी समुदाय) के कम-से-कम दो सदस्यों (एक महिला) की सिफ़ारिश की है। ऐसे सदस्यों को केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी की विधानसभा के मनोनीत सदस्यों की तरह शक्ति देने की सिफ़ारिश की गयी है। आयोग ने कहा कि केंद्र सरकार पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले जम्मू-कश्मीर से विस्थापित लोगों को मनोनयन के ज़रिये जम्मू-कश्मीर विधानसभा में प्रतिनिधित्व देने पर विचार कर सकती है।

हिमाचल में कांग्रेस ने ठोकी ताल

वीरभद्र की विरासत पर उनकी पत्नी प्रतिभा ने दी भाजपा और आम आदमी पार्टी को चुनौती

क्या हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस आने वाले विधानसभा चुनाव में उत्तराखण्ड, पंजाब और गोवा के नतीजों को दोहरायेगी? या उसने कोई बेहतर रणनीति अपनायी है? हाल ही में पार्टी अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत वीरभद्र सिंह की सांसद पत्नी प्रतिभा सिंह को प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त करने के साथ-साथ कई और नियुक्तियाँ की हैं। नयी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रतिभा सिंह ने कांग्रेस में एकता होने और पार्टी को सत्ता में वापस लाने का भरोसा जताया है। उनसे बातचीत पर आधारित अनिल मनोचा की रिपोर्ट :-

प्रतिभा सिंह ने हाल के महीनों में इस बात को बहुत अच्छे से समझा है कि हिमाचल के लोग पूर्व मुख्यमंत्री और पहाड़ी राज्य के सबसे बड़े नेता दिवंगत वीरभद्र सिंह से आज भी प्यार करते हैं और उनका सम्मान करते हैं। प्रतिभा सिंह का दावा है कि हाल में एक संसदीय सीट और तीन विधानसभा सीटों के उपचुनाव में कांग्रेस की जीत जनता की तरफ़ से साफ़ संदेश था कि वीरभद्र सिंह आज भी उनके दिलों में बसे हैं।

बातचीत के दौरान प्रतिभा सिंह ने पूर्व प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी के साथ अपने जुड़ाव को याद किया, जिन्होंने उनके पति वीरभद्र सिंह को इस पहाड़ी राज्य के लोगों की सेवा के लिए चुना था। उन्होंने कहा कि वह भी वीरभद्र सिंह के पदचिह्नों पर चलकर जनता की सेवा करेंगी।

प्रदेश के चुनाव में दस्तक दे रही आम आदमी पार्टी (आप) को लेकर प्रतिभा सिंह ने कहा कि कांग्रेस और भाजपा के अलावा किसी अन्य दल के लिए प्रदेश की राजनीति में कोई जगह नहीं रही है, न जनता उसे अब स्वीकार करेगी। ध्यान रहे आम आदमी पार्टी ने पड़ोसी राज्य पंजाब में कांग्रेस को दूसरे स्थान पर धकेलकर दो महीने पहले ही सत्ता पायी है।

प्रतिभा कहती हैं- ‘हिमाचल अलग है। यहाँ लोग वीरभद्र सिंह की विरासत का सम्मान करते हैं। आम आदमी पार्टी की तरफ़ से कोई चुनौती नहीं है। पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की विरासत को आगे बढ़ाना एक चुनौती है; लेकिन लोगों ने उनका काम देखा है। मैं लोगों की आकांक्षाओं से वाक़िफ़ हूँ और हम सामूहिक रूप से यह सुनिश्चित करेंगे कि हिमाचल में कांग्रेस फिर सत्ता में आये।’

प्रदेश अध्यक्ष का ज़िम्मा सँभालने के बाद इस ख़ास बातचीत में प्रतिभा सिंह ने आम आदमी पार्टी की चुनौती को ख़ारिज़ करते हुए कहा कि किसी को यह लगता है कि वह (आप) हिमाचल में पैठ बना रही है, तो यह उसकी ग़लतफ़हमी है। इसका चुनाव पर कोई असर नहीं होगा। हमारा सीधा मुक़ाबला भाजपा से है। हिमाचल में तीसरे पक्ष की कभी मौज़ूदगी नहीं रही।

मुख्य प्रतिद्वंद्वी भाजपा पर उन्होंने यह कहकर आक्रमण किया कि सरकार लोगों का भरोसा जीतने में नाकाम रही है। सत्तारूढ़ भाजपा अपने प्रदर्शन को दोहरा नहीं पाएगी। प्रतिभा ने कहा- ‘ईंधन, एलपीजी और आम ज़रूरत की चीज़ों की क़ीमतें आसमान छू रही हैं। आम आदमी की हालत ख़राब है। केंद्र सरकार पूरी तरह नाकाम रही है। भाजपा ने उपचुनाव के नतीजों से कोई सबक़ नहीं सीखा। केंद्र सरकार भावनात्मक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करके लोगों के ज्वलंत मुद्दों से उनका ध्यान हटाने की कोशिश कर रही है।’

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ने पुलिस भर्ती परीक्षा रद्द करके 70,000 से अधिक उम्मीदवारों के भविष्य को ख़तरे में डालने के लिए जयराम ठाकुर सरकार को लताड़ा। उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार निष्पक्ष रूप से भर्ती परीक्षा आयोजित करने में विफल रही है।

पदभार सँभालने के बाद प्रतिभा सिंह ने राजीव गाँधी भवन में कांग्रेस कार्यकर्ताओं और नेताओं से आगामी विधानसभा चुनावों में भाजपा को सत्ता से बाहर करने के लिए तालमेल बनाने के लिए एक टीम के रूप में काम करने का आह्वान किया। उनके अलावा चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू और चार कार्यकारी अध्यक्षों ने भी ज़िम्मा सँभाला। मुकेश अग्निहोत्री पहले से ही नेता प्रतिपक्ष हैं। पार्टी नेताओं ने इस मौके पर एकजुटता दिखायी। सबके भाषणों में एक ही लक्ष्य दिखा- ‘भाजपा को सत्ता से बाहर करना।’

राज्य विधानसभा चुनाव से पहले जब प्रदेश कमेटी की नयी अध्यक्ष प्रतिभा सिंह और अभियान समिति के अध्यक्ष और पुनरुत्थान कांग्रेस के अन्य पदाधिकारियों ने कांग्रेस नेताओं की मौज़ूदगी में अपना नया कार्यभार सँभाला, उससे पहले पार्टी के नेताओं ने एक रैली के दौरान भाजपा पर हमला करते हुए एकजुटता का प्रदर्शन किया। चौड़ा मैदान में बीआर अंबेडकर की प्रतिमा के पास ‘अभिनंदन रैली’ में हिमाचल मामलों के प्रभारी राजीव शुक्ला, सह प्रभारी संजय दत्त, गुरकीरत सिंह कोहली और तजिंदर पाल सिंह हाथ में हाथ डाले यह सन्देश देने की कोशिश करते दिखे कि पार्टी में एकता है।

प्रतिभा सिंह ने औपचारिक रूप से जब पार्टी के नये राज्य प्रमुख के रूप में पदभार सँभाला, तो उनकी तरफ़ से भी ताक़त का प्रदर्शन किया गया। इससे ज़ाहिर हुआ कि वीरभद्र सिंह के समय की इस गुट की ताक़त अभी भी बनी हुई है। नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री, पार्टी विधानसभा चुनाव प्रचार समिति के प्रभारी सुखविंदर सिंह सुक्खू, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कौल सिंह ठाकुर और विधानसभा सदस्य वरिष्ठ नेता राम लाल ठाकुर जैसे तमाम बड़े नेता इस मौके पर उपस्थित थे। अभिनन्दन रैली को सम्बोधित करते हुए प्रतिभा सिंह ने कहा कि एआईसीसी प्रमुख सोनिया गाँधी ने हिमाचल की एक महिला को पार्टी प्रमुख बनाकर उसके प्रति सम्मान दिखाया है। उन्होंने कहा कि वह वीरभद्र सिंह की विरासत को जारी रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं। कांग्रेस वीरभद्र सिंह द्वारा फिर से सत्ता में आने के बाद शुरू किये गये रोडमैप और विकास कार्यक्रमों को आगे बढ़ाएगी।

हालाँकि आश्चर्य की बात यह है कि हिमाचल मामलों के प्रभारी राजीव शुक्ला ने पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं को सम्बोधित करते हुए कहा कि यह वीरभद्र सिंह का सपना था कि कांग्रेस हिमाचल में सत्ता में आये; लेकिन साथ ही कहा कि लड़ाई शीर्ष कुर्सी के लिए नहीं है। यह पार्टी आलाकमान को तय करना है कि अगर कांग्रेस सत्ता में आती है, तो अगला मुख्यमंत्री कौन होगा? शुक्ला ने कहा कि गाँधी परिवार ने प्रतिभा सिंह, सुक्खू और अग्निहोत्री की त्रिमूर्ति को हिमाचल में पार्टी को फिर से सत्ता में लाने की ज़िम्मेदारी दी है।

चार कार्यकारी अध्यक्षों हर्ष महाजन, राजेंद्र राणा, विनय कुमार और पवन काजल ने भी हिमाचल प्रदेश में पार्टी को सत्ता में वापस लाने के लिए नयी ज़िम्मेदारी सँभाली है। हालाँकि कुछ राजनीतिक प्रेक्षक सवाल करते हैं कि चार कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त करने का क्या औचित्य है? क्या केवल सभी को ख़ुश करने के लिए यह किया गया? क्या पदाधिकारियों का जमावड़ा बना देना चुनाव की पूर्व संध्या पर नवनियुक्त अध्यक्ष के अधिकार और प्रभाव को कम नहीं कर रहा?

वह कैसे सभी को साथ रख सकती हैं, जब उनका अधिकार ही सीमित कर दिया गया है। प्रतिभा सिंह के पद ग्रहण पर प्रदेश प्रभारी राजीव शुक्ला का क्या यह कहना कि कांग्रेस की त्रिमूर्ति प्रतिभा, अग्निहोत्री और सुक्खू नया हिमाचल बनाएँगे और वीरभद्र और सुखराम के सपनों को पूरा करेंगे; का क्या अर्थ है? क्या कांग्रेस को मुख्यमंत्री के के चेहरे के साथ चुनाव में जाना चाहिए, इस पर नयी अध्यक्ष प्रतिभा सिंह ने ख़ुद कहा कि हमारा पहला मक़सद चुनाव जीतना है। एक बार जब वह लक्ष्य हासिल कर लिया जाएगा, तो निर्वाचित विधायक अपने नेता का फैसला करेंगे।

राज्य इकाई के भीतर बड़ी लड़ाई से इन्कार करते हुए प्रतिभा सिंह कहती हैं- ‘हम सत्ताधारी पार्टी को हराने के लिए सभी पार्टी नेताओं को साथ ले जाने का प्रयास करेंगे। हम स्वीकार करते हैं कि हमारे पास बहुत कम समय है; लेकिन विश्वास है कि जल्द ही एक ठोस रणनीति तैयार करेंगे। बहुत कम समय बचा है और कांग्रेस को अपना काम मिलकर करना है और मतदाताओं तक पहुँचना है। मैं जल्द ही पार्टी के सभी वरिष्ठ नेताओं के साथ बैठूँगी और रणनीति बनाऊँगी कि भाजपा को सत्ता में आने से पहले लोगों से किये वादों को पूरा नहीं करने के लिए कैसे एक्सपोज किया जाए।’

दमन का क़ानून

सर्वोच्च न्यायालय के राजद्रोह क़ानून पर रोक के बाद गेंद केंद्र के पाले में

ठीक एक साल वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ ने हिमाचल प्रदेश के शिमला में उनके ख़िलाफ़ देशद्रोह के आरोप वाली प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) रद्द करने के लिए याचिका डाली थी। और सर्वोच्च न्यायालय ने जून में उनके हक़ में फ़ैसला सुनाया था। दुआ आज हमारे बीच नहीं हैं; लेकिन मई के पहले पखवाड़े सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए अंग्रेजों के ज़माने से चले आ रहे राजद्रोह क़ानून पर रोक लगाने और राजद्रोह के नये मामले दर्ज नहीं करने को कहा। राजद्रोह क़ानून को लेकर देश का एक बड़ा वर्ग सवाल उठाता रहा है। कांग्रेस ने तो सन् 2019 लोकसभा चुनाव के अपने घोषणा-पत्र में इसे ख़त्म करने का वादा किया था; लेकिन सत्ता उसे नसीब ही नहीं हुई। अब मोदी सरकार ने इस क़ानून के पुनरीक्षण की बात सर्वोच्च न्यायालय के सामने कही है। इस फ़ैसले से पहले ऐसा कई बार हुआ है कि न्यायालय इस क़ानून की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठा चुका है और इसके ग़लत इस्तेमाल पर सरकारों को लताड़ भी लगा चुका है।

हाल के वर्षों, ख़ासकर मोदी राज में देश में जिस तरह लोगों को राजद्रोह का क़ानून लगाकर गिरफ़्तार कर जेलों में डाला गया है; उसके ख़िलाफ़ मज़बूत आवाज़ उठी है। विनोद दुआ ने पिछले साल तब सर्वोच्च न्यायालय का रुख़ किया था, जब उनके ख़िलाफ़ शिमला में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ अपने यूट्यूब चैनल में कथित आरोप लगाने वाली टिप्पणियों के लिए देशद्रोह के तहत एफआईआर दर्ज की गयी थी।

बुद्धिजीवियों में इस बात पर गहरी चिन्ता थी कि अपने विचार व्यक्त करने के हर मामले को यदि राजद्रोह क़ानून के तहत डाल दिया जाएगा, तो इसके बहुत भयंकर नतीजे होंगे।

केंद्र सरकार ने अब सर्वोच्च न्यायालय से कहा है कि वह राजद्रोह क़ानून की समीक्षा के लिए तैयार है। सर्वोच्च न्यायालय ने इसके बाद आदेश दिया कि जब तक सरकार की तरफ़ से राजद्रोह क़ानून के भविष्य पर पुनरीक्षण नहीं होता, इस क़ानून पर रोक रहेगी। इस दौरान इसके आरोपी जमानत याचिका दायर कर सकते हैं। कोर्ट और केंद्र की तरफ़ से राजद्रोह क़ानून पर इस रुख़ के बाद क़ानून के औचित्य पर ही सवाल खड़े हो रहे हैं और लोग कह रहे हैं कि ऐसे क़ानून की ज़रूरत ही क्या है?

मामलों की बाढ़

सरकारी डाटा (एनसीआरबी) देखें, तो यह राजद्रोह के तहत दर्ज मामलों की संख्या अपेक्षाकृत कम दिखाता है। लेकिन एक ग़ैर-सरकारी संस्था की वेबसाइट, जो अनुच्छेद-14, के राजद्रोह क़ानून के मामलों पर पूरी नज़र रखती है; के मुताबिक, सन् 2010 से सन् 2021 तक राजद्रोह के 867 मामले दर्ज हुए।

एनसीआरबी, जिसने पहली बार राजद्रोह से जुड़े मामलों का डाटा सन् 2014 से ही जुटाना शुरू किया; के आँकड़ों के मुताबिक, सन् 2014 (मोदी सरकार आने के बाद) से सन् 2020 के बीच राजद्रोह के 399 मामले ही दर्ज हुए हैं। हालाँकि वेबसाइट अनुच्छेद-14 के मुताबिक, इस दौरान राजद्रोह के 557 मामले दर्ज हुए हैं। वेबसाइट के मुताबिक, आँकड़े ज़िला न्यायालय, उच्च न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय, पुलिस थानों, एनसीआरबी रिपोर्ट और अन्य माध्यमों के ज़रिये तैयार किये गये हैं।

अनुच्छेद-14 के मुताबिक, उसके आँकड़े वाले मामलों में 13,306 लोगों को आरोपी बनाया गया। हालाँकि जितने भी लोगों पर मामला दर्ज हुआ, डाटाबेस में उनमें सिर्फ़ 3,000 लोगों की ही पहचान हो पायी। अनुच्छेद-14 के मुताबिक, एनसीआरबी का डाटा राजद्रोह के सभी मामले कवर नहीं करता। कारण यह है कि ऐसे मामले, जिनमें कई और धाराओं का इस्तेमाल किया जाता है; एनसीआरबी उन्हें राजद्रोह के डाटा में शामिल नहीं करता।

वेबसाइट के मुताबिक, सन् 2014 में देश में मोदी सरकार के आने के बाद से सन् 2021 तक 595 राजद्रोह के मामले दर्ज हुए। यानी सन्  2010 से दर्ज हुए कुल मामलों में से 69 फ़ीसदी मामले मोदी सरकार के दौरान ही दर्ज हुए। इन मामलों का औसत देखें, तो जहाँ सन् 2010 के बाद से यूपीए (मनमोहन सिंह) सरकार में हर साल औसतन 68 मामले दर्ज हुए, वहीं एनडीए सरकार में हर साल औसतन 74.4 मामले दर्ज हुए।

दिलचस्प बात यह है कि राजद्रोह के 867 मामलों में सिर्फ़ 13 लोगों को ही दोषी ठहराया जा सका। इसका मतलब यह हुआ कि जिन 13,000 लोगों को आरोपी बनाया गया, उनमें से महज़ 0.1 फ़ीसदी ही राजद्रोह के दोषी पाये जा सके। शायद यही एक बड़ा कारण भी है कि इस क़ानून के ख़िलाफ़ लगातार आवाज़ उठती रही।

यहाँ यह ज़िक्र करना भी ज़रूरी है कि हमारे देश में बेलगाम सोशल मीडिया (ख़ासकर एक ख़ास तबक़ा) ऐसे मामले में फँसाये गये लोगों को लेकर जैसा दुष्प्रचार करता है, उससे वह व्यक्ति क़ानून की तरफ़ से दोषी पाये जाने या बेगुनाह साबित हो जाने से पहले ही  ग़लत तरीक़े से देशद्रोही ठहरा दिया जाता है। इस दौरान उसे किस परेशानी, जलालत और मानसिक गुज़रना पड़ता है, इसकी सिर्फ़ कल्पना ही की जा सकती है।

बता दें इस क़ानून के तहत पकड़े गये व्यक्ति (आरोपी) को जमानत मिलने तक क़रीब 45 से 50 दिन जेल में रहना पड़ता है। यदि वह व्यक्ति आरोप के ख़िलाफ़ जमानत मिलने से पहले किसी उच्च न्यायालय की शरण में चला जाता था, तो उसे राहत मिलने में 175 से 200 दिन लग जाते थे।

अब क्या होगा?

सर्वोच्च न्यायालय की राजद्रोह क़ानून पर रोक के बाद यह बड़ा सवाल है कि अब क्या होगा? सर्वोच्च न्यायालय ने सुनवाई के दौरान केंद्र और राज्य सरकारों को राजद्रोह के नये मामले दर्ज नहीं करने को कहा है। अगली सुनवाई जुलाई के तीसरे हफ़्ते होनी है। सवाल यह है कि जिन लोगों ओर राजद्रोह मामले चल रहे हैं, उनका क्या होगा? सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि जिन पर मामला चल रहा है और जो जेल में हैं, वे जमानत के लिए न्यायालय का दरवाज़ा खटखटा सकते हैं। उन पर कार्रवाई पहले की तरह चलती रहेगी।

सर्वोच्च न्यायालय ने नये मामले दर्ज करने पर रोक लगायी है। लेकिन फिर कोई मामला दर्ज भी होता है, तो आरोपी उसके (सर्वोच्च न्यायालय) के इस आदेश की कॉपी लेकर निम्न न्यायालय (निचली अदालत) में जा सकता है। इसमें जेएनयू के छात्र रहे उमर ख़ालिद भी शामिल हैं, जो विश्वविद्यालय परिसर में देश-विरोधी नारे लगाने के आरोप में राजद्रोह का मामला झेल रहे हैं। ख़ालिद जमानत के लिए निम्न न्यायालय में जा सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि यह उस पर निर्भर करेगा कि आरोपियों को जमानत दी जाती है या नहीं। चूँकि सर्वोच्च न्यायालय ने राजद्रोह क़ानून को स्थगित किया है, इसकी क़ानूनी वैधता अभी भी है। केंद्र को अब जुलाई के तीसरे हफ़्ते तक क़ानून पर विचार करने का वक़्त मिल गया है।

कहाँ, कितने मामले?

वेबसाइट के मुताबिक, अनुच्छेद-14 के तहत सन् 2010 से लेकर सन् 2021 तक देश भर में राजद्रोह के जो 867 मामले दर्ज हुए, वह उन राज्यों में ज़्यादा हुए, जिनमें या भाजपा की अपनी सरकारें थीं या उसके सहयोग वाली एनडीए की सरकारें थीं। सिर्फ़ एक में विपक्ष की पार्टी की सरकार थी। राजद्रोह के मामले दर्ज करने में सबसे पहले नंबर पर रहा बिहार, जहाँ इस दौरान 171 राजद्रोह मामले दर्ज हुए। वहीं दूसरे नंबर तमिलनाडु, तीसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश, उसके बाद झारखण्ड और कर्नाटक का नंबर रहा। जहाँ तक राजद्रोह के आरोपियों की बात है, तो सबसे ज़्यादा 4,641 आरोपी झारखण्ड में रहे; जबकि तमिलनाडु 3,601, बिहार 1,608, उत्तर प्रदेश 1,383 और हरियाणा 509 लोग राजद्रोह के मामले फँसे। सामाजिक कार्यकर्ताओं से लेकर पत्रकार तक जिन लोगों पर राजद्रोह के सबसे ज़्यादा मामले बने, उनमें सामाजिक कार्यकर्ता और सामाजिक समूह ज़्यादा निशाने पर रहे। उन पर इस दौरान कुल 99 मामले दर्ज हुए और कुल 492 आरोपी बनाये गये। वहीं अकादमिक और छात्र वर्ग के ख़िलाफ़ 69 मामले दर्ज हुए, जिसमें 144 आरोपी बनाये गये। राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर 66 मामले दर्ज हुए, जिनमें 117 आरोपी बनाये गये। आम कर्मचारियों और व्यापारियों के ख़िलाफ़ कुल 30 मामले दर्ज हुए, जिनमें 55 आरोपी बनाये गये। वहीं पत्रकारों के ख़िलाफ़ 21 मामले दर्ज हुए, जिनमें 40 आरोपी बनाये गये।

राजे के मंसूबों पर वज्रपात

बीती 8 मार्च को अपनी सालगिरह के जश्न का पासा फेंककर वसुंधरा राजे ने भाजपा आलाकमान को अपनी ताक़त का अहसास कराने का नया सियासी दाँव खेल दिया। बेशुमार मन्दिरों वाले क़स्बे के शेरायपाटन में आयोजित इस जश्न में 11 सांसदों और 42 विधायकों के अलावा भारी तादाद में कार्यकर्ताओं की मौज़ूदगी से राजे के चेहरे पर गर्वीली मुस्कान खिंचती नज़र आयी। नतीजतन राजे का ग़ुरूर शायराना अंदाज़ में उनके सर चढ़कर बोला- ‘बिजली जब चमकती है, तो आकाश बदल देती है; नारी जब गरजती है, तो इतिहास बदल देती है।’

सालगिरह के जश्न में राजे ने पूरे जोशीले अंदाज़ में आगामी विधानसभा चुनावों में नेतृत्व की कमान थमने की अभिलाशा का प्रदर्शन कर दिया। नतीजतन आतलाकमान की पेशानी पर सिलवटें पड़े बिना नहीं रहीं। उधर ख़ुशी से फूलकर कुप्पा हुईं वसुंधरा अपनी आस्था तर करने के लिए दिल्ली पहुँचीं; लेकिन उनसे मिलना तो दरकिनार प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने उन्हें ड्योढ़ी पर भी पाँव रखने की इजाज़त नहीं दी।

इससे पहले नेतृत्व की कमान सौंपने के लिए वसुंधरा समर्थकों का भाजपा आलाकमान को लिखा गया एक सौहार्दपूर्ण ख़त उनकी ख़ता बन चुका था। चिट्ठी में विधायकों ने वसुंधरा राजे को प्रदेश में मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने के लिए जो नया सियासी व्याकरण गढ़ा था, उसका सुर शीर्ष नेतृत्व को रास नहीं आया। मीडिया में चिट्ठी बम की किरचें उड़ीं, तो प्रदेश प्रभारी अरुण सिंह ने नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए राजे समर्थकों को क़ैफ़ियत के लिए जयपुर के एमएनआईटी गेस्ट हाऊस में तलब कर लिया। चिट्ठी में लोकतांत्रिक मूल्यों का हवाला देते हुए दलील दी गयी थी कि राजनीति में चेहरा बहुत मायने रखता है, जनता चेहरे को ही देखती है। अलबत्ता राजे समर्थक विधायकों ने राजनीतिक परिस्थितियों के अनुकूल कोई पटकथा तैयार नहीं की थी। नतीजतन अरुण सिंह के साथ बहस के दौरान मुद्दे को अलग मोड़ दे दिया कि व्यवस्था को जिस तरह चलाया जा रहा है, वह सही नहीं है।

 

विश्लेषकों का कहना है कि वसुंधरा राजे की मंशा को मोदी और शाह पूरी तरह भाँप चुके थे। नतीजतन ऐलानिया कह दिया कि इस बार नेतृत्व उनकी तरफ़ करवट नहीं लेगा। मोदी और शाह की चक्रवर्ती जोड़ी का हर गूढ़ फ़ैसला कोई बड़ा लक्ष्य और अपने आम आदमी पार्टी में एक सियासी मंसूबा संजोये रहता है, ताकि अपने विरोधियों और वंशवादी लोगों को बड़ा झटका दिया जा सके। सूत्रों का कहना है कि भले ही वसुंधरा नहीं समझ पायी; लेकिन इससे काफ़ी पहले ही बिरला की ताजपोशी झिंझोड़ कर बता गयी थी कि अब मोदी-शाह की जोड़ी राजस्थान की राजनीति को वसुंधरा मुक्त करने की जुगत में है। बेशक बिरला की ताजपोशी को अमित शाह की पर्सनल च्वाइस बताया जा रहा था। जबकि हक़ीक़त समझें, तो इसमें पूरी तरह सियासत का बघार लगा हुआ था। कोई ज़माना था, जब बिरला और वसुंधरा राजे के रिश्तों में आत्मीयता रही होगी? लेकिन इतनी भर कि बिरला वसुंधरा मंत्रिमंडल में संसदीय सचिव की दहलीज़ पर ही टिके रहे। इसके बाद रिश्ते कितने तल्ख़ हुए? कहने की ज़रूरत नहीं है। लोकसभा चुनावों में तो नौबत यहाँ तक आ गयी थी कि वसुंधरा राजे बिरला का टिकट कटवाने पर आमादा हो गयी थीं। वसुंधरा पूरी तरह कोटा राजपरिवार के इज्यराज सिंह को टिकट दिलवाने पर लामबंद थीं। लेकिन शाह के आगे राजे की एक नहीं चली और टिकट बिरला को मिलकर रहा। जबकि टिकट मिलने की आस में कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आये इज्यराज सिंह न घर के रहे, न घाट के। मोदी किस तरह आडवाणी और जसवंत सिंह को हाशिये पर धकेलने में कामयाब हुए; यह वसुंधरा समझतीं, तो विधानसभा चुनाव अपनी कमान में लडऩे का राजहठ नहीं करतीं। केंद्रीय मंत्रिमंडल में गजेंद्र सिंह शेखावत, अर्जुन मेघवाल, और कैलाश चौधरी सरी$खे अपने विरोधियों को शामिल किया जाना वसुंधरा राजे ने कितनी सूनी आँखों से तितर-बितर देखा होगा, यह कहने की ज़रूरत नहीं। सूत्रों का कहना है कि राजे की अंदरूनी तिलमिलाहट सबसे ज़्यादा इस बात को लेकर रही कि एक साल की सांसदी के बाद ही बिरला सर्वोच्च आसन पर जा बैठे, जबकि संसदीय कार्यकाल की चार पारियाँ खेल चुके उनके सांसद बेटे को राज्य मंत्री का पद भी नहीं मिला?

सूत्रों की मानें तो यह एक दिलचस्प हक़ीक़त है कि जब तक लालकृष्ण आडवाणी क़द्दावर रहे, वसुंधरा राजे निरंकुश बनी रहीं। राजमहलों की सामंती शैली की राजनीति करते हुए उन्होंने किसी की परवाह भी नहीं की। तब वह किस क़दर आँखें तरेरने में माहिर थीं, इसकी बानगी इसी बात से समझी जा सकती है कि जब सन् 2014 के चुनावी नतीजे आये, तो उन्होंने अहंकारी भाव में फ़िक़रा कसने में क़सर नहीं छोड़ी कि यह सिर्फ़ नरेन्द्र मोदी की जीत नहीं, बल्कि यह हमारी जतन से कमायी गयी जीत है। किसी और को इसका श्रेय क्यों लेने देना चाहेंगे? उनके राजनीतिक जीवन का इतिहास बाँच चुके विश्लेषकों का कहना है कि वसुंधरा राजे अपनी हथेलियों में राजयोग की लकीरें देखने की इस क़दर अभ्यस्त हो चुकी है कि प्रदेश की सियासत को लेकर किसी भी मुद्दे पर ख़ुदमुख़्तारी दिखाने से नहीं चूकती। विश्लेषकों का कहना है कि यही हठीलापन राजे के राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी रही है। मनमानी के इतने मौक़े उनकी पीठ पर लदे हैं, वह मौक़ापरस्त होने का कौशल ही भूल गयी हैं। इस वक़्त जबकि राजे केंद्रीय मंत्रिमंडल में उनके विरोधियों को तवज्जो देने और प्रदेश भाजपा में नया नेतृत्व तैयार किये जाने की धुन सुन रही है। बावजूद इसके महारानी इस सच को क़ुबूलने के लिए तैयार नहीं कि उन्हें अब राजनीतिक हाशिये पर डाल दिया गया है।

वसुंधरा के रोचक राजनीतिक रोज़नामचे को बाँच चुके विश्लेषकों का कहना है कि इन स्थितियों से राजे कहीं भी दुविधाग्रस्त नज़र नहीं आ रही हैं। आज भी उनकी ज़ुबान पर रटा-रटाया जुमला है कि ‘मैं कहीं नहीं जाने वाली। जीना यहाँ, मरना यहाँ…’

विश्लेषक उनकी बेफ़िक्री को नज़रअंदाज़ नहीं करते। उनका कहना है कि राजे भाजपा नेतृत्व को बेचैन करने की कोई नयी क़िस्सागोई की शुरुआत कर सकती हैं। मोदी-शाह में वसुंधरा को लेकर ग़ुस्से की खदबदाहट है, तो इसकी बड़ी वजह है चुनावी रैलियों में उस धुन की अनसुनी करना कि ‘वसुंधरा तेरी ख़ैर नहीं। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के निकटवर्ती सूत्रों का कहना है कि अगर तभी इस धुन के मर्म को समझ लिया जाता और वसुंधरा केा चुनावी मैदान से हटा लिया जाता, तो राजस्थान की सत्ता भाजपा के हाथों से फिसलने से रोकी जा सकती थी। उस दौरान प्रदेश में आरएसएस ने केंद्रीय नेतृत्व को आगाह किया था कि सरकार के प्रति लोगों में जबरदस्त नाराज़गी है। इसलिए चुनावी कमान वसुधरा के हाथों में सौंपना बहुत बड़ा जोखिम होगा। लेकिन अपनी होनहार नेता के प्रति संघ का यह नज़रिया राजे समर्थकों को हज़म नहीं हुआ।

जनवरी, 2016 में जब अमित शाह ने राजस्थान का दौरा किया था, तो उन्होंने न सिर्फ़ वसुंधरा राजे की प्रशंसा की थी, बल्कि यहाँ तक कह दिया था कि जब तक वसुंधरा राजे हैं, प्रदेश में नेतृत्व का मुद्दा नहीं है। राजे भी उसी तर्ज में शाह की शैदाई बनी नज़र आयीं कि उन्होंने पार्टी को फिर से जीवंत बना दिया है। शाह ने हमें चुनावी रंग में ला दिया है। लेकिन एक-दूसरे की ख़ूबियाँ गिनाने की ज़ुबानी रंगबाज़ी अब पूरी तरह ग़ायब है। अब शाह राजस्थान में नये नेतृत्व की बिसात बिछाने में जुटे हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि इस राजनीतिक क़वायद में लोकसभा अध्यक्ष बिरला की भूमिका किस हद तक होगी?

सूत्रों का कहना है कि अभी से पूरे देश को केसरिया में रंगने का लक्ष्य लेकर चल रही भाजपा का नया फार्मूला केंद्रीय मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत को मुख्यमंत्री पद के लिए गढऩे को लेकर होगा, तो राज्यवर्धन सिंह को प्रदेश अध्यक्ष के लिए तैयार किया जाना होगा। गजेन्द्र सिंह शेखावत मोदी के बेहद क़रीब माने जाते हैं। हालाँकि सूत्रों का कहना है कि संघ मॉडल पर प्रचारक और विस्तारक संघ विचारधारा के साथ प्रदेश की राजनीति में सक्रिय हो सकता है। सूत्रों का कहना है कि मोदी की तर्ज पर यह कहानी राजस्थान में दोहरायी जा सकती है। लेकिन क्या वसुंधरा के जोरावर रहते हुए इस कहानी की पटकथा को लिखना आसान होगा?

दरक चुका शीशा

 राजनीतिक धैर्य के अनोखे प्रदर्शन के बाद भाजपा आलाकमान ने वसुंधरा राजे से अपनी रहस्यमय दूरी का ख़ुलासा करने का फ़ैसला कर लिया है। बेशक वसुंधरा राजे ने विधानसभा चुनावों में नेतृत्व की पाग बाँधकर कृतज्ञ करने की गुज़ारिश में कोई कसर नहीं छोड़ी। आलाकमान ने वसुंधरा के प्रति लोगों के उत्साह बार-बार परखा; लेकिन हर बार उन्हें कोई सन्तोषपरक प्रतिक्रिया नहीं मिली। राजनीतिक विश्लेशक के.बी. शर्मा कहते हैं कि इस पर तो अटकलें भी नहीं लगायी जा सकतीं। दरअसल राजे समर्थकों का इस बात को हवा देना ही बेतुका लगता है। शर्मा कहते हैं कि अगर आलाकमान ने वसुंधरा को हरी झण्डी दे दी होती, तो अब तक आस्तीनें चढ़ाती नज़र आतीं। लेकिन वह तो ज़ाहिर चुप्पी की मांद में ही दुबककर बैठी हैं। शर्मा कहते हैं कि कोई ज़माना था, जब अमित शाह ने मोदी-वसुंधरा की जोड़ी को मणिकांचन योग बताया था; लेकिन अब तो शीशा दरक चुका है।

शर्मा का कहना है कि इतिहास कभी दफ़न नहीं होता, अलबत्ता जानबूझकर उसे भुलाना भय और भ्रान्ति की वजह से ही हो सकता है। यह एक दिलचस्प हक़ीक़त है कि पिछले चुनावी दंगल में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने मोदी-राजे मिलाप को मणिकांचन योग बताया; लेकिन वसुंधरा ने यह कहकर धृष्टता की सीमा लाँघ दी कि यह पार्टी मेरी माँ राजमाता विजया राजे सिंधिया ने बनायी और बढ़ायी है। उनके नाम और काम से ही आप यहाँ पहुँचे हैं। यह वही राजे हैं, उन्होंने आठ साल तक संघ कैडर के पदाधिकारी को संगठन मंत्री के पद पर मनोनीत नहीं होने दिया। सन् 2014 के चुनावी नतीजे आये तो राजे ने मोदी लहर को यह कहकर साफ़ नकार दिया ओर अहंकारी फ़िक़रा कसा कि यह हमारी अपने जतन से कमायी गयी जीत है और अपनी कमायी गयी जीत का श्रेय हम किसी और को क्यों देना चाहेंगे? संघ के दख़ल को भी राजे ने यह कहकर नकार दिया कि मुझे अपने परफॉर्मेंस पर अटूट भरोसा है। संघ प्रमुख की निगाहों से वसुंधरा की हठधर्मिता का नुमाइश चेहरा उस वक़्त भी गुज़रा जब इस तर्क के बावजूद कि मुख्यमंत्री आवास सत्ता और संगठन का साझा केंद्र नहीं होना चाहिए? लेकिन राजे ने तमाम नसीहतों को धता बताते हुए अपने भरोसेमंद अशोक परनामी की संगठन के अध्यक्ष पद पर दोबारा ताजपोशी करवा ली। मोदी-शाह की लाख कोशिशों के बावजूद उन्होंने एंटीइंकबेंसी के आदेशों को दुत्कार दिया और चुनावी नेतृत्व की कमान पूरी धौंस के साथ क़ब्ज़ा ली? शर्मा का कहना है कि अब जबकि इस बार के चुनाव भाजपा के भविष्य की नयी पटकथा लिखने जा रहे हैं, तो रथ का सारथी कौन बनना चाहिए? कम-से-कम वसुंधरा तो नहीं। वसुंधरा सरकार की योजनाओं को लेकर लोगों का नज़रिया कभी भी उत्साहवर्धक नहीं रहा। लेकिन आँकड़ों को लेकर नेताओं की मुख़्तलिफ़ बयानबाज़ी भी कोढ़ में खाज साबित हुई। रोज़गार के आँकड़े तो पतंग के माँझे की तरह उलझ गये।

फार्मा का कहना है कि पार्टी में वसुंधरा के गिर्द चौतरफ़ा असन्तोष इस क़दर भड़का हुआ है कि उनके लिए बचने की कोई राह ही कहाँ बची है? शर्मा कहते हैं कि 163 वोटों के एक-तिहाई बहुमत से सत्ता में आयी वसुंधरा सरकार ने मुसीबतों को बुलावा अपने अलोकतांत्रिक तरीक़ों से ही दिया। सामंती शैली में राजनीति और मोदी-शाह के साथ तल्ख़ रिश्तों ने वसुंधरा राजे के राजनीतिक जीवन के समापन की पटकथा लिख दी है। राजे का राजहठ और लोकतांत्रिक व्यवस्था से बदशगुनी छेड़छाड़ अब उनके लिए सियासत में वापसी के कपाट हमेशा के लिए बन्द कर चुकी है।

विश्व उच्च रक्तचाप दिवस

जागरूकता के अभाव में बढ़ रहे रोगी

उच्च रक्तचाप यानी हाइपरटेंशन एक ऐसी बीमारी है, जो शहरों में हर छठे इंसान को है। इसी बीमारी के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए दुनिया में हर साल 17 मई को विश्व उच्च रक्तचाप दिवस मनाया जाता है। आजकल 16 साल से लेकर 70-80 साल तक के लोग उच्च रक्तचाप के शिकार हैं। उच्च रक्तचाप की वजह अनियमित दिनचर्या, उल्टासीधा खानपान और तनाव है। उच्च रक्तचाप में लोगों को ग़ुस्सा जल्दी आता है। शुरू-शुरू में किसी-किसी बात पर आने वाला ग़ुस्सा बाद में बात-बात पर आने लगता है, क्योंकि ऐसे लोगों को पता नहीं होता कि उनका ब्लड प्रेशर बढ़ चुका है, जो कि एक बीमारी है। अगर इस बीमारी को समय रहते ख़त्म नहीं किया जाए, तो इससे कई बीमारियाँ और पैदा होती हैं, जिसमें हार्ट अटैक, कम्पन, मस्तिष्काघात, पाचनतंत्र का बिगडऩा, सोचने की क्षमता का नाश, याददाश्त का कमज़ोर होना आदि शामिल है।

उच्च रक्तचाप के रोगियों की संख्या

लोगों को इस बीमारी से बाहर लाने के लिए कई दवाओं की बिक्री दुनिया भर में हो रही है; लेकिन यह जागरूकता के अभाव में बीमारी घटने की जगह लगातार बढ़ती जा रही है। एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 30 वर्षों  में उच्च रक्तचाप के क़रीब 97 फ़ीसदी मामले बढ़े हैं। आज दुनिया भर में क़रीब 128 करोड़ लोग उच्च रक्तचाप के शिकार हैं।

एक शोध रिपोर्ट में कहा गया है कि सन् 1990 में 30 से 79 की उम्र की क़रीब 33.1 करोड़ महिलाएँ और क़रीब 31.7 करोड़ पुरुष उच्च रक्तचाप से पीडि़त थे। जबकि 29 साल बाद यानी साल 2019 में 62.6 करोड़ महिलाएँ और 65.2 करोड़ पुरुष उच्च रक्तचाप से पीडि़त हो चुके थे। हिन्दुस्तान में भी पिछले 30 वर्षों में उच्च रक्तचाप के मरीज़ बढ़े हैं। हिन्दुस्तान में सन् 1990 में 28 फ़ीसदी महिलाएँ और 29 फ़ीसदी पुरुष उच्च रक्तचाप का शिकार थे। जबकि साल 2019 में 32 फ़ीसदी महिलाएँ 38 फ़ीसदी पुरुष इसकी चपेट में आ चुके थे। हालाँकि दुनिया भर में बढ़ रहे उच्च रक्तचाप में बढ़ोतरी की अपेक्षा हिन्दुस्तान में धीमी गति से यह रोग बढ़ रहा है।

अहमदाबाद में निजी सेवाएँ देने वाले डॉक्टर विमल कहते हैं कि उच्च रक्तचाप कोई बीमारी नहीं है, इसलिए इसकी दबा देना तब तक ठीक नहीं, जब तक कि रोगी को कोई ख़तरा न हो। इस बीमारी में रोगी को दवा खाने से बेहतर रहेगा कि वो योग करें और मनोचिकित्सक से सलाह लें। ज़्यादा ज़रूरत हो, तो अपने खानपान को ठीक करें। अगर फिर भी कोई दिक़्क़त आ रही हो, तो ही दवा के लिए किसी अच्छे डॉक्टर के पास जाएँ। क्योंकि अगर शुरू में ही उच्च रक्तचाप वाले रोगी ध्यान दें, तो वो आसानी से ठीक हो सकते हैं। उच्च रक्तचाप को कम करने का सबसे अच्छा तरीक़ा है कूल और हैप्पी रहें। इसके साथ ही नमक और गर्म व स्पाइसी चीज़ों का सेवन कम करें।

अक्सर देखा जाता है कि लोग तनाव में आकर नशा करने लगते हैं, जो कि रक्तचाप को और तेज़ी से बढ़ाता है। इसलिए धूम्रपान और शराब आदि से दूर रहें। विश्व उच्च रक्तचाप दिवस पर लोगों को जागरूक करने का काम किया जाता है। लेकिन लोग इस बीमारी के प्रति जागरूक होने के बजाय शुरू में इसे हल्के में लेते रहते हैं और बाद में गम्भीर रूप से बीमार हो जाते हैं। जहाँ डॉक्टर और दवाओं की ज़रूरत पड़ती-ही-पड़ती है। आज दुनिया में क़रीब एक करोड़ लोग उच्च रक्तचाप की दवा का सेवन कर रहे हैं।

ललितपुर की घटना ने किया ख़ाकी को शर्मसार

उत्तर प्रदेश में आज से लगभग पाँच साल पहले महिलाओं की सुरक्षा के लिए 181 हेल्पलाइन सेवा शुरू हुई थी। यह सेवा दो साल भी ठीक से नहीं चली। अब स्थिति यह है कि पुलिस पर ही महिलाओं के उत्पीडऩ के आरोप लग रहे हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की राम राज्य की कल्पना को उन्हीं की पुलिस पलीता लगा रही है। आरोप लगने लगे हैं कि उत्तर प्रदेश पुलिस गुंडागर्दी में अग्रणी है।

कुछ दिन पहले पुलिस का शैतानी चेहरा उत्तर प्रदेश के ललितपुर की हृदयविदारक घटना के उजागर होने पर सामने आया। घटना के अनुसार ललितपुर जिले में एक 13 वर्षीय किशोरी सामूहिक दुष्कर्म की शिकार हुई। जब वह किशोरी रिपोर्ट दर्ज कराने अपने क्षेत्रीय थाने पाली में गयी, तो बयान दर्ज कराने के नाम पर वहाँ के थानाध्यक्ष तिलकधारी सरोज ने भी कथित रूप से उसके साथ दुष्कर्म किया।

मामला चाइल्ड लाइन एनजीओ के माध्यम से तब उजागर हुआ, जब एनजीओ की काउंसलिंग में पीडि़ता ने आप बीती बतायी। पीडि़ता ने कहा कि वह थानाध्यक्ष के आगे गिड़गिड़ाती रही, पर उसने ज़रा भी तरस नहीं खाया। मुद्दे के बारे में पता चलते ही लोगों में ग़ुस्सा फूट पड़ा और वे न्याय की माँग करने लगे। जैसे ही सरकार के कानों तक यह बात पहुँची, थानाध्यक्ष को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया गया और थाने के पुलिसकर्मियों को लाइन हाज़िर कर दिया गया। लोगों ने न्याय की माँग करते हुए पूरे थाने की पुलिस को निलंबित करके उन्हें जेल भेजने की माँग की। मगर इतने बड़े स्तर पर सरकार कार्रवाई करने से बच रही है। उप मुख्यमंत्री बृजेश पाठक ने दोषियों पर ठोस कार्रवाई का आश्वासन तो दिया है, मगर पीडि़ता का जीवन तबाह हो गया। इसके लिए सरकार क्या कर रही है? यह एक बड़ा प्रश्न है।

प्रश्न तो और भी कई हैं, जिनका उत्तर पाने के लिए सरकार का मुँह खुलवाना होगा, जो कि आसान नहीं है। मगर सम्भव है कि लोगों का ग़ुस्सा और उनके प्रश्न पहुँच जाएँ। किशोरी के साथ हुए दुराचार पर अधिवक्ता प्रवीन कहते हैं कि न्याय व्यवस्था के तीन ही स्तम्भ होते हैं, न्यायालय, पुलिस और पत्रकारिता। अगर इनमें से एक स्तम्भ भी अपराध को शरण देता है, तो जनता का विश्वास उस पर से उठता है। पुलिस न्याय व्यवस्था बनाये रखने वाला वह स्तम्भ है, जिसके द्वार पर निर्बल से निर्बल व्यक्ति स्वयं को सुरक्षित महसूस करता है। मगर अगर पुलिस वाले ही लोगों पर अत्याचार करेंगे, तो लोग थानों में न्याय की गुहार कैसे लगाएँगे? मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सरकार को इस मामले में अच्छी तरह जाँच करते हुए दोषियों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए और पीडि़त बच्ची को न्याय दिलाना चाहिए। ललितपुर में थाने में थानाध्यक्ष द्वारा ही पीडि़त किशोरी से दुष्कर्म करने के मामले में भाजपा नेता रामवीर का कहना है कि किशोरी के साथ जो भी हुआ सरकार उसके लिए गम्भीर है। दोषियों को सज़ा देने में योगी सरकार हमेशा अग्रणी भूमिका में रही है और रहेगी। योगी सरकार पक्षपात नहीं करती दोषी कोई भी हो, उसे छोड़ा नहीं जाता है। अत: आप निश्चिंत रहें, दोषियों पर कार्रवाई होगी।

इधर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक को नोटिस जारी करके पूरे मामले की रिपोर्ट माँगी, जिसके बाद प्रदेश के प्रशासन में हड़कंप मच गया।

छिड़ी राजनीतिक बहस

किशोरी के साथ थाने में दुष्कर्म को लेकर प्रदेश में राजनीति छिड़ गयी है। प्रदेश के मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी (सपा) के अध्यक्ष अखिलेश ने इसे योगी सरकार की नाकामी और पुलिस की गुंडागर्दी करार देते हुए न्याय की माँग की है। सपा के ट्वीटर हैंडल से एक ट्वीट किया गया कि ‘भाजपा सरकार में सबसे बड़ा सवाल यह है कि किस पर भरोसा किया जाए, किस पर नहीं? ललितपुर में रेप की शिकायत करने पहुँची नाबालिग़ से थाने में ही एसओ ने दरिंदगी की। अब मुख्यमंत्री बताएँ कि पीडि़त बेटियाँ जाएँ, तो जाएँ कहाँ? सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने पीडि़त बच्ची तथा उसके परिजनों से मुलाक़ात भी की।

वहीं कांग्रेस ने सीधे सरकार पर हमला बोला है। कांग्रेस महासचिव और पार्टी की उत्तर प्रदेश प्रभारी प्रियंका गाँधी वाड्रा ने कहा कि बुलडोजर के शोर में क़ानून व्यवस्था के असल सुधारों को कैसे दबाया जा रहा है। अगर महिलाएँ ही थाने में सुरक्षित नहीं होंगी, तो वे शिकायत लेकर कहाँ जाएँगी?

इस पर उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री बृजेश पाठक ने विपक्षी दलों से कहा कि वे आपराधिक मामलों का राजनीतिकरण न करें। उन्होंने कहा कि ‘पीडि़ता हमारी बेटी है और उसके साथ कुछ ग़लत हुआ है, तो सरकार सख़्त कार्रवाई करेगी और दोषी को किसी क़ीमत पर नहीं बख़्शेगी। सरकार इस मामले को फास्ट ट्रैक अदालत में ले जाएगी और घटना में शामिल पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ इतनी सख़्त कार्रवाई होगी कि उनकी अगली पीढिय़ाँ तक कराह उठेंगी। उनके ख़िलाफ़ राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के तहत कार्रवाई होगी और किसी को भी बख़्शा नहीं जाएगा।’

सही एजेंसी से जाँच हो : आरोपी

इधर पाली थाने के निलंबित थानाध्यक्ष तिलकधारी सरोज जब अधिवक्ता से मिलने प्रयागराज पहुँचे, तो उन्हें वहीं से गिरफ़्तार कर लिया गया। गिरफ़्तारी के बाद उन्होंने सफ़ाई दी फ़र्ज़ी जाँच होगी, तो अपराधी कहलाऊँगा। आरोपी निलंबित थानाध्यक्ष ने माँग की कि सही एजेंसी से जाँच होनी चाहिए। तिलकधारी की गिरफ़्तारी के बाद उनकी पत्नी ने एडीजी के कार्यालय पहुँचकर अपने पति को निर्दोष बताया और कहा कि उन्हें फँसाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि वह किशोरी पीडि़ता नहीं है, वह पहले भी कई लोगों को झूठे मुक़दमे में फँसाकर जेल भेज चुकी है।

29 पुलिसकर्मी किये लाइन हाज़िर

पाली थाने में हुई इस शर्मनाक घटना के बाद ललितपुर से लखनऊ तक पुलिस प्रशासन में हड़कंप मच गया। सूचना मिलते ही एडीडी जोन भानु भास्कर ने पाली थाने के सभी 29 पुलिसकर्मियों को तत्काल लाइन हाज़िर करते हुए जाँच के आदेश दिये। मामले की जाँच झाँसी रेंज के डीआईडी जोगेंद्र कुमार कर रहे हैं। पीडि़ता को अस्पताल में भर्ती कराकर उसका मेडिकल कराया गया। हालाँकि अदालत में पीडि़ता का 164 का बयान नहीं हुआ, जो कि आवश्यक था।

पहले भी शर्मसार हुई है वर्दी

यह कोई पहला मामला नहीं है, जब उत्तर प्रदेश की पुलिस का दामन दाग़दार और वर्दी शर्मसार हुई है। इससे पहले भी कई बार अनेक पुलिसकर्मी थाने में दुष्कर्म, मारपीट और अपराधियों को शरण देने के आरोप से कलंकित हो चुके हैं। कानपुर, उन्नाव से लेकर बदायूँ, नवाबाद थाना, उल्दन थाना तथा ललितपुर कोतवाली तक पुलिस ने वर्दी को शर्मसार किया है। योगी आदित्यनाथ सरकार में कई मामलों में पुलिस की गुंडागर्दी सामने आयी है। इसी बार की विधानसभा में योगी आदित्यनाथ की बड़ी जीत के बाद जगह-जगह लगे उनके जनता जनार्दन के धन्यवाद वाले होर्डिंग मुँह चिढ़ा रहे हैं, मानो कह रहे हों कि आपके राम राज्य में जनता सुरक्षित कहाँ है?

क्या है मामला?

बताया जा रहा है कि पीडि़त किशोरी का 22 अप्रैल को अपहरण करके चार लोग भोपाल ले गये थे, जहाँ कथित रूप से उसे तीन-चार दिन बंधक बनाकर सामूहिक दुष्कर्म किया। जब किशोरी की हालत बिगड़ी, तो अपराधी उसे पाली थाने के बाहर छोड़कर भाग गये। विदित हो कि 27 अप्रैल को एक 13 वर्षीय पीडि़ता अपने साथ हुए सामूहिक दुष्कर्म की रिपोर्ट दर्ज कराने पाली थाने में गयी थी, जहाँ बयान दर्ज करने के बहाने वहाँ के थानाध्यक्ष ने उसे कमरे में ले जाकर दुष्कर्म किया। जब मामला उजागर हुआ, तो हड़कंप मच गया। सरकार ने पाली के थानाध्यक्ष तिलकधारी सरोज को तत्काल प्रभाव से निलंबित किया और उसके विरुद्ध कड़ी कार्रवाई का आश्वासन पीडि़ता व उसके परिजनों को दिया। झाँसी के पुलिस उप महानिरीक्षक जोगेन्द्र कुमार ने इस मामले में कठोर क़दम उठाये हैं। मामले में बलात्कार, अपहरण, आपराधिक साज़िश के आरोपों, पोक्सो तथा एससी/एसटी एक्ट की धाराओं के तहत मुक़दमा दर्ज किया गया है। आरोपियों को गिरफ़्तार करने के लिए पुलिस के छ: दल गठित किये गये हैं।

दफ़्तर वापसी के आदेश से नौकरीपेशा महिलाएँ परेशान

Women work in a call center at Avise Techno Solutions LLP in Kolkata, India on December 24, 2017. Photograph: Taylor Weidman/Bloomberg

अपूर्वा पेशे से कम्प्यूटर इंजीनियर हैं। उम्र क़रीब 32 साल। 16 महीने पहले बेटे को जन्म दिया।  यह उनकी पहली संतान है। कोरोना महामारी के चलते वह भी दुनिया की लाखों कामकाजी महिलाओं की तरह घर से कार्य (वर्क फ्रॉम होम) कर रही थीं। घर में एक सहायिका थी, जिसका काम बच्चे की देखरेख करना था। लेकिन कुछ महीने पहले कम्पनी ने दफ़्तर में आकर काम करने का आदेश जारी कर दिया। वह दिल्ली में अपने पति के साथ अकेले रहती हैं। अब उसके सामने यह दुविधा पैदा हो गयी कि वह नौकरी जारी रखें या बेटे के पालन-पोषण के लिए नौकरी से इस्तीफ़ा दे दें। उसके सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि वह अपने बेटे को 12-14 घंटे के लिए अकेले कैसे सहायिका के साथ छोड़ दे। दरअसल अपूर्वा अकेली ऐसी पेशेवर महिला नहीं हैं, जो इस समस्या का सामना कर रही हैं, बल्कि दुनिया में लाखों ऐसी महिलाएँ हैं।

रात्रि-पारी में काम करने वाली एक महिला ने बताया कि माँ बनने के बाद उसके सामने नौकरी छोडऩे के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं था, क्योंकि बच्चे की देखरेख के लिए उसके पास परिवार का कोई भी सदस्य नहीं था। कोरोना महामारी ने हज़ारों महिलाओं को घर से कार्य करने दिया; लेकिन अब जब उन्हें दफ़्तर आने का आदेश मिलना शुरू हो गया है, तो उनके सामने कई चुनौतियाँ आकर खड़ी हो गयी हैं। कई जगह यह सुगबुगाहट भी ज़ोर पकडऩे लगी है कि जब घर से काम हो रहा है, तो फिर दफ़्तर आने के लिए दबाव क्यों? एपल कम्पनी के सीईओ टिम कुक ने हाल में एक आदेशात्मक सन्देश जारी किया कि 11 मई से एप्पल में घर से कार्य धीरे-धीरे ख़त्म होगा। आधार दिया कि पूरी दुनिया में कोरोना नियंत्रण के कारण दफ़्तर में आकर काम करने की व्यवस्था प्रभावी हो रही है। कई जगह मास्क लगाना भी ज़रूरी नहीं है। ग़ौर करने वाली बात यह है कि सीईओ टिम कुक की इस चिट्ठी का विरोध भी शुरू हो गया है। कम्पनी में ही काम करने वाले कर्मियों में से 200 कर्मियों के एक समूह ने सीईओ टिम कुक को चिट्ठी भेजी है, जिसमें लिखा है कि इस आदेश से कम्पनी पुरुष प्रधान हो जाएगी। इससे युवाओं, गोरे लोगों, पुरुषों और सक्षम लोगों को कम्पनी में तरजीह मिलेगी; क्योंकि इसके मुक़ाबले अधिक आयु वाले, अश्वेत, महिलाओं और दिव्यांगों को दफ़्तर आने में परेशानी होना तय है। इस सूची में महिलाओं को भी शामिल किया गया है, क्योंकि प्रतिकार करने वाले एप्पल टुगेदर नाम से बने इस समूह में संवेदनशील कर्मियों ने महिलाओं की समस्याओं, चुनौतियों को गम्भीरता से समझते हुए ही उन्हें इस सूची में रखा होगा।

ग़ौरतलब है कि अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के ग्लोबल सर्वे 2021 ने दर्ज किया कि घर से कार्य या जॉब फ्लेक्सिबिलिटी महिलाओं के लिए विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। आधी ज़मीं, आधा आसमाँ हमारा; लेकिन हक़ीक़त में तो बंदिशें पीछा छोड़ती नज़र नहीं आतीं। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान सरकार बनने के बाद वहाँ महिलाओं के हालात को लेकर राहत भरी ख़बरों का सबको इंतज़ार रहता है। हाल ही में एक ख़बर आयी है कि तुर्कमेनिस्तान में महिलाओं के पहनावे और कॉस्मेटिक्स के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। मध्य एशिया में सोवियत संघ का हिस्सा रहे तुर्कमेनिस्तान की सरकार ने सभी बयूटी सैलून बन्द कर ब्यूटी सर्विस पर भी प्रतिबंध लगा दिया है। महिलाओं के किसी संस्थान में दाख़िल होने से पहले उनके पहनावे की जाँच की जाती हैं। महिलाओं को नौकरी ज्वाइन करने से पहले नो मेकअप बॉन्ड भरना होता है। वहाँ की महिलाएँ मजबूरन ऐसा बॉन्ड भर देती हैं, क्योंकि नौकरी करना उनकी पारिवारिक व आर्थिक ज़िम्मेदारी है। कहीं कम्पनियों की नीतियाँ तो कहीं सामाजिक-धार्मिक कट्टरता महिलाओं को कार्यबल का सक्रिय हिस्सा बनने की राह में रोड़ा डालते हैं। दुनिया भर में बेरोज़गारी एक विकराल समस्या बन गयी है।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की इस साल जनवरी में जारी रिपोर्ट ‘वल्र्ड एम्प्लॉयमेंट एंड सोशल आउटलुक-ट्रेंड 2022’ के मुताबिक, इस साल यानी 2022 में दुनिया भर में क़रीब 20.7 करोड़ लोग बेरोज़गार होंगे। और यह संख्या सन् 2019 में 18.6 करोड़ थी। यानी इस दरमियान बेरोज़ग़ारों की संख्या में 11 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा होने की सम्भावना व्यक्त की गयी है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, 2022 के दौरान काम के जिन घंटों में कमी आने का अनुमान है, वो 5.2 करोड़ पूर्णकालिक नौकरियों के बराबर है। विश्व के सभी क्षेत्रों में श्रम बाज़ार पर इस महामारी का प्रभाव पड़ा है।

अब अर्थ-व्यवस्थाएँ उबर रही हैं; लेकिन उच्च आय वाले देशों में अच्छी रिकवरी हो रही है, जबकि निम्न-मध्यम आय वाले देशों में बुरा हाल है। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इस संकट का महिलाओं पर जो विषम प्रभाव पड़ा है, आने वाले कई वर्षों तक उसके बने रहने की सम्भावना है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के महानिदेशक गाय राइडर की राय है कि श्रम बाज़ार में व्यापक सुधार के बिना इस महामारी से उबरा नहीं जा सकता। इतना ही नहीं इन सुधारों के स्थायी होने के लिए इनका बेहतर काम के सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए, जिसका अर्थ है कि इसमें स्वास्थ्य, सुरक्षा, समानता, सामाजिक सुरक्षा और संवाद शामिल होने चाहिए। बेरोज़गारी की समस्या भारत में भी चिन्ता का विषय है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की एक हालिया रिपोर्ट बताती है कि काम नहीं मिलने से हताश होने वाले लोगों में महिलाओं की तादाद अधिक है। उन्हें योग्यता के अनुसार काम नहीं मिल रहा है। हर साल नौकरी पाने में असफल रहने के बाद 45 करोड़ से अधिक लोग ऐसे भी हैं, जिन्होंने अब काम की तालाश ही छोड़ दी है। सन् 2017 से 2022 के बीच कुल कामगारों की संख्या 46 फ़ीसदी से घटकर 40 फ़ीसदी रह गयी है। भारत में अभी 90 करोड़ लोग रोज़गार के योग्य हैं; लेकिन इसमें से क़रीब 45 करोड़ से अधिक लोगों ने अब काम की तलाश ही बन्द कर दी है। यह बात दीगर है कि केंद्रीय श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय ने इन दावों का खण्डन करते हुए कहा कि रोज़गार के योग्य आबादी में से आधी आबादी ने काम की तलाश की उम्मीद ही खो दी है, यह मानना तथ्यात्मक तौर पर ग़लत होगा; क्योंकि उनमें से अधिकतर उच्च शिक्षा हासिल कर रहे हैं या देखभाल जैसी अवैतनिक गतिविधियों से जुड़े हुए हैं। ग़ौरतलब है कि देश में महिलाओं की आबादी तो 49 फ़ीसदी है; लेकिन श्रम बल में हिस्सेदारी केवल 18 फ़ीसदी है, जो कि वैश्विक औसत से लगभग आधी है। श्रम बाज़ार में महिलाओं की भागीदारी में बीते दो दशकों में गिरावट जारी है। जबकि देश में उच्च शिक्षा हासिल करने वाली लड़कियों की संख्या बढ़ी है। देश में श्रम बल में महिला भागीदारी दर 2011-2012 में 31.2 फ़ीसदी से गिरकर सन् 2018-2019 में 24.5 फ़ीसदी रह गयी, जो कि अब 18 फ़ीसदी पर आ गयी है।

भारत में श्रम बाज़ार में महिलाओं की भागीदारी की दर ब्रिक्स देशों में सबसे कम है। यह दक्षिण एशिया में श्रीलंका और बांग्लादेश से भी कम है। श्रम बाज़ार में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की कम भागीदारी से श्रम बाज़ार में असमानता आती है और यह देश की तरक़्क़ी में बाधा है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का आकलन है कि भारत का सकल घरेलू उत्पाद 27 फ़ीसदी अधिक होगा, यदि आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं की भी पुरुषों के समान संख्या में भागीदारी होगी। दरअसल श्रम बल में लैंगिक समानता लाना एक बड़ी चुनौती है। वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक-2021 के अनुसार, भारत 156 देशों की सूची में 140वें स्थान पर है, जो वर्ष 2006 में इसके 98वें स्थान की तुलना में एक बड़ी गिरावट को दर्शाता है। भारत में घरेलू उत्तरदायित्व महिलाओं के वैतनिक कामकाजी होने की राह में एक बड़ी रुकावट है।

इसके अलावा निजी कम्पनियों के नियम-क़ायदे भी उन्हें किसी हद तक निरोत्साहित ही करते हैं। दिल्ली में एक निजी संस्था में काम करने वाली एक महिला ने बताया कि अगर वह दफ़्तर में 10 मिनट लेट पहुँचे या 30 मिनट, उसे दफ़्तर में उतनी ही देर अधिक बैठकर काम करना पड़ता है। सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था तक आसानी से पहुँच नहीं होना व ऐसे साधनों की कमी भी महिलाओं की गतिशीलता को बाधित करती है। लड़कियों व महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराध भी उनके व उनके परिजनों के मन में असुरक्षा के भाव के साथ कई तरह की आशंकाओं को जन्म देते हैं। परिवार / समाज की लगातार सपोर्ट न मिलना, बच्चों की देखभाल करने की ज़िम्मेदारी व उनकी सुरक्षा करना आदि कारक महत्त्वपूर्ण है। आख़िर एक कामकाजी महिला पार्ट टाइम नौकरी करने के लिए क्यों हामी भर्ती है? यह सोचना सरकार, समाज की ज़िम्मेदारी है। महिलाओं की श्रम बाज़ार में संख्या बढ़ाने व उन्हें वहाँ रोके रखने के लिए मज़बूत सपोर्ट ढाँचा खड़ा करना होगा।

विश्व दूरसंचार दिवस

चुनौतियों के बीच तरक़्क़ी की कोशिश

मोबाइल की दुनिया में हिन्दुस्तान 5जी की तरफ़ पहुँच रहा है। अभी जब दुनिया 53वाँ दूरसंचार दिवस मना रही है, तब पूरी दुनिया दूरसंचार के नेटवर्क जाल में क़ैद है। यानी दूरसंचार के बिना जीवन का संचार अब नहीं हो सकता, ऐसा माना जाता है। एक समय था, जब दुनिया में चीज़ों और बातों के आदान-प्रदान के लिए पत्र और यात्रा होती थी, जिसमें चिट्ठी, बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी, पैदल से लेकर जहाज़, मोटर, रेल आदि तक इंसान को पहुँचने में सदियाँ लग गयीं। टेलीफोन और रेडियो से संचार क्रान्ति का जन्म हुआ। लेकिन यहाँ से मोबाइल, सेटेलाइट, ड्रोन और रोबोट तक पहुँचने में वैज्ञानिकों ने एक सदी का भी समय नहीं लगाया। आज यही चीज़ें हर एक संचार का ज़रिया हैं।

इन दिनों संचार माध्यम इतनी तेज़ी से बदल रहे हैं, जिसकी आज से 50 साल पहले किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। आज इंसान दुनिया के चाहे किसी भी कोने में रहता हो, उसे अपनी बात दूसरों तक पहुँचाने में एक सेकेंड का समय भी नहीं लगता, यदि उसके पास इंटरनेट और मोबाइल है, तो। मोबाइल और इंटरनेट तकनीक से सूचना का आदान-प्रदान इतनी तेज़ी से हुआ है कि अनपढ़ इंसान भी इसका फ़ायदा उठा रहा है। वैज्ञानिक इस दूरसंचार तकनीक को और अधिक सुविधाजनक बनाने की कोशिश में लगे हैं, जिसे प्रोत्साहित करने के लिए हर साल विश्व दूरसंचार दिवस मनाया जाता है।

बता दें कि पहला विश्व दूरसंचार दिवस 17 मई, 1969 को मनाया गया। लेकिन इसे उतना महत्त्व नहीं मिला। अंतरराष्ट्रीय दूरसंचार संघ (आईटीयू) की स्थापना और सन् 1865 में पहले अंतरराष्ट्रीय टेलीग्राफ कन्वेंशन पर कई देशों के हस्ताक्षर करने के लिए सन् 1973 में  मलागा-टोरेमोलिनोस में प्लाइनापोटेंसिएरी सम्मेलन हुआ। यहीं पर साल 17 मई, 1973 को अंतरराष्ट्रीय दूरसंचार संघ की स्थापना हुई थी। दूरसंचार में बड़ी क्रान्ति आने के अवसर पर सूचना समाज पर सन् 2005 में विश्व शिखर सम्मेलन का आयोजन किया गया, जिसमें संयुक्त राष्ट्र महासभा से आग्रह किया गया कि वह 17 मई विश्व सूचना समाज दिवस के रूप में मनाये।

महासभा ने इसे स्वीकार किया और सन् 2006 से विश्व दूरसंचार दिवस के साथ विश्व सूचना समाज दिवस भी मनाया जाने लगा। आज करोड़ों लोगों के हाथ में मोबाइल फोन है। लाखों लोग इससे रोज़गार पा रहे हैं और दुनिया की कई बड़ी कम्पनियाँ इस क्षेत्र पर अपना आधिपत्य जमाने की कोशिश में लगी हैं। कई देश दूरसंचार में 8जी और 9जी जैसी तकनीक का इस्तेमाल कर कर रहे हैं, जबकि हिन्दुस्तान में अभी 4जी का ज़माना चल रहा है, जबकि 5जी के लाने की तैयारी चल रही है। इसके लिए रिलायंस कम्पनी बड़े पैमाने पर 5जी टॉवरों को लगाने और हिन्द महासागर में इंटरनेट नेटवर्क की तारें बिछाने के काम में लगी है।

दूरसंचार का महत्त्व

आज के आधुनिक दौर में टेलीविजन, रेडियो, मोबाइल, इंटरनेट, सोशल मीडिया आदि सब कुछ है। इनमें से मोबाइल, इंटरनेट, सोशल मीडिया को दूरसंचार की बेसिक ज़रूरतों में माना जाता है। इनके बिना जीवन की कल्पना अब नामुमकिन-सी लगती है। ये चीज़ें दूरसंचार की एक ऐसी क्रान्ति हैं, जिनका इस्तेमाल अब बच्चे भी करना जानते हैं और शिक्षा से लेकर करियर तक इनके बग़ैर उन्हें आगे बढ़ाना मुश्किल है। इससे पहले टेलिफोन को दूरसंचार का सबसे बेहतर माध्यम माना जाता था और उससे पहले चिट्ठी को। टेलिफोन सन् 1880 में ही शुरू हो गया था।

सन् 1881 में हिन्दुस्तान में औपचारिक टेलिफोन सेवा की स्थापना हो चुकी थी। उन दिनों यह बड़े लोगों के इस्तेमाल तक ही सीमित था, जिससे दुनिया के हर कोने में बात करना सम्भव नहीं था। धीरे-धीरे इसमें सुधार होता गया और क़रीब आधी सदी बीतते-बीतते नौकरशाहों के घरों तक टेलीफोन पहुँच गया और 100 साल बीतते-बीतते हर शहर में जगह-जगह टेलिफोन लगे पीसीओ खुलने लगे। इसके क़रीब 20 साल बीतने से पहले ही मोबाइल ने एंट्री ली और आज मोबाइल एक मिनी कम्प्यूटर की तरह इस्तेमाल में है। क़रीब 30 वर्षों से हर साल विश्व दूरसंचार दिवस दूरसंचार से सम्बन्धित नये-नये विषयों पर चर्चा होती है।

दूरसंचार के फ़ायदे

दूरसंचार के अनेक फ़ायदे हैं, जिन्हें हर कोई उठाना चाहता है। यह एक त्वरित और सुलभ संचार सुविधा है, जिससे सेकेंड से पहले दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाले से बात हो सकती है और कोई इंसान सेकेंडों में अपना सन्देश भेज सकता है। साथ ही कोई इंसान आसानी से अपनी बात करोड़ों लोगों तक भी पहुँच सकता है। इससे समय और ख़र्च की बड़ी बचत होती है। दूरसंचार के माध्यम से एक साथ दो से अधिक लोग भी अलग-अलग बैठकर बात कर सकते हैं।

मोबाइल और इंटरनेट उपभोक्ताओं की ज़रूरी चीज़ें आज के आधुनिक दूरसंचार के ज़रिये सेव रह सकती हैं। दूरसंचार के चलते व्यापार और आयात-निर्यात भी आसान हुआ है। आज दूरसंचार के माध्यम से लाखों लोग एक जगह बैठे-बैठे कुछ भी ख़रीद और बेच सकते हैं। इससे समय और पैसे दोनों की बचत सम्भव हो सकी है।

दूरसंचार के नुक़सान

दूरसंचार का सबसे बड़ा और ज़रूरी माध्यम बन चुका मोबाइल आज भले ही लोगों की जीवन से अलग न हो पाने वाली ज़रूरत बन गया है; लेकिन इसके अनेक नुक़सान भी इंसानों समेत दूसरे सभी जीवों को हो रहे हैं। इंटरनेट और मोबाइल टॉवरों से निकलने वाली किरणों के चलते आज कई तरह की बीमारियाँ पनप चुकी हैं, जिनके कारण हर साल लाखों मौतें हो रही हैं। जब भी संचार की उच्च क्षमता वाले नेटवर्क का परीक्षण होता है, लाखों जीव जान गँवा देते हैं। लेकिन दुनिया भर के देशों में बैठी सरकारें और दूरसंचार के माध्यम से मुनाफ़ा कमाने वाली कम्पनियाँ इसे लगातार नज़रअंदाज़ करती रही हैं। हाल ही में हिन्दुस्तान में 5जी के परीक्षण के दौरान पक्षियों और लोगों के मरने की ख़बरें भी मीडिया के माध्यम से सामने आयीं; लेकिन इस परीक्षण पर पाबंदी नहीं लगी। इससे पहले 4जी के परीक्षण के दौरान बहुत पक्षियों की मौत हुई थी।

प्राकृतिक आपदा के समय इंटरनेट काम नहीं करता, जिसके बात मोबाइल एक डब्बा ही रह जाता है। यदि कोई सरकार चाहे, तो इंटरनेट सेवाओं को बन्द करा सकती है, जिसके बाद इसका किसी भी आम नागरिक को कोई फ़ायदा नहीं मिलता। इसके अलावा सोशल मीडिया के माध्यम से कई बार साम्प्रदायिकता फैलाकर लोगों को भड़काया भी जा चुका है, जो कि दंगों का कारण बन चुकी है।

आज दुनिया का हर देश समुद्रों में इंटरनेट के तारों का जाल बिछाने में लगा है, जिससे लाखों जलीय जीव प्रभावित हो रहे हैं। मोबाइल टॉवरों से निकलने वाली विकिरणों से आसपास के लोगों पर बुरा असर पड़ रहा है। मोबाइल फोन से निकलने वाली विकिरणों से बच्चों और बड़ों दोनों में कई बीमारियाँ पैदा हो रही हैं, जिनमें नपुंसकता, दृष्टि दोष, उच्च रक्तचाप, कैंसर, धीमा बुद्धि विकास, शारीरिक कमज़ोरी, तनाव, ग़ुस्सा, चिड़चिड़ापन, सिर दर्द, भावनाओं की कमी आदि मुख्य हैं। डॉक्टर सलाह देते हैं कि मोबाइल का ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।

पंजाब पुलिस और मान की प्रतिष्ठा दाँव पर

पंजाब पुलिस का मखौल उड़े, छीछालेदर हो और वह किसी कॉमेडियन जैसी भूमिका अदा करे, तो कोई क्या करे? दिल्ली के भाजपा नेता तेजिंदर पाल बग्गा की गिरफ़्तारी प्रकरण में जिस तरह से हरियाणा के कुरुक्षेत्र में दिल्ली, पंजाब और हरियाणा पुलिस के बीच जो स्थिति पैदा हो गयी थी, वैसी अक्सर होती नहीं है। पंजाब पुलिस को ख़ाली हाथ आना पड़ा। इसकी मुख्य वजह पंजाब पुलिस की कार्रवाई ग़लत थी। बिना क़रीबी थाने में आमद किये पंजाब पुलिस ने जिस तरह काम किया, उससे ख़ाकी पर सवाल खड़े हुए।

पंजाब पुलिस यह जानते हुए कि दिल्ली में पुलिस आम आदमी पार्टी सरकार की नहीं, बल्कि केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है और फिर मोहाली (पंजाब) पहुँचने का रास्ता हरियाणा से होकर गुज़रता है। आरोपी भाजपा से जुड़ा नेता है, तो मामले में राजनीति भी होगी। दिल्ली और हरियाणा पुलिस ने जिस तरह से इस मामले में पंजाब पुलिस को बैंरग लौटा दिया, उससे उसकी छवि को और बट्टा लगा है। इतने बड़े मामले में मुख्यमंत्री (गृहमंत्री प्रभार) भगवंत मान की भी तुरन्त प्रतिक्रिया ज़रूर आनी चाहिए थी; पर नहीं आयी। आये भी कैसे? क्योंकि प्राथमिकी उनके राजनीतिक गुरु अरविंद केजरीवाल के ख़िलाफ़ थी और शिकायतकर्ता डॉ. सन्नी आहलूवालिया उनकी ही पार्टी के नेता हैं। पंजाब सरकार अभी तक अपनी कार्रवाई को जायज़ ठहरा रही है; लेकिन सभी जानते हैं कि उसने जो किया, वह सही नहीं था। अगर होता, तो बग्गा को वापस दिल्ली नहीं, बल्कि पंजाब पुलिस मोहाली साइबर थाने में पूछताछ के लिए लाने में सफल होती।

अब पंजाब पुलिस अपने डीएसपी स्तर के अधिकारी को थाने में जबरदस्ती रोके रखने जैसे आरोप लगा रही है। पुलिस पंजाब की और इस्तेमाल अपरोक्ष तौर पर कोई और करे, तो ख़ाकी पर सवाल उठेंगे ही। इससे पहले दिल्ली के कुमार विश्वास और अलका लांबा मामले में पंजाब पुलिस के इस्तेमाल करने के आरोप लगे हैं। ये मामले दिल्ली में भी दर्ज हो सकते थे, क्योंकि दोनों ने बयान पंजाब में नहीं, बल्कि दिल्ली में दिये थे। बग्गा भाजपा नेता हैं; लेकिन विवादास्पद और आक्रामक तेवर वाले बयान जारी करते हैं। कश्मीर फाइल्स नामक फ़िल्म पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की प्रतिकूल टिप्पणी के बाद बग्गा ने भाजयुमो का प्रदर्शन किया। यह लोकतंत्र में सामान्य बात है और हर किसी को इसका अधिकार भी है; लेकिन ट्वीटर पर केजरीवाल के माफ़ी न माँगने पर देख लेने जैसी धमकी पोस्ट करना सीधे-सीधे धमकी जैसा है। कुमार विश्वास, अलका लांबा और तेजिंदर बग्गा मामलों में  समानता यह कि तीनों ही मामले दिल्ली के और अरविंदर केजरीवाल से जुड़े हैं। आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता और नेता चाहते, तो दिल्ली में प्राथमिकी दर्ज करा सकते थे। ऐसा सम्भव होता, तो अब तक दिल्ली में ही न जाने कितने मामले दर्ज हो गये होते। ख़ुद केजरीवाल मीडिया के माध्यम से गम्भीर आरोप लगाते रहते हैं और उन पर भी न जाने कितने आरोप लगते हैं। बहुत-से मामलों को केजरीवाल हँसी में टाल देते रहे हैं। कुमार विश्वास के उनके ख़ालिस्तान समर्थकों से तार जुड़े होने के आरोप पर वह मुस्कुराते हुए कहते रहे हैं कि इस हिसाब से तो वह (मासूम आतंकवादी) हैं। गम्भीर आरोपों को हल्के में लेना और हल्के आरोपों पर गम्भीरता दिखाना उनकी आदत में शामिल है।

पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद राज्य पुलिस के दुरुपयोग के आरोप लगने लगे हैं; लेकिन सरकार इसे रुटीन की कार्रवाई बताती रही है। तीनों प्राथमिकी पंजाब में दर्ज हुई और पुलिस ने तत्परता से काम किया। काश राज्य की पुलिस अन्य मामलों में भी ऐसी त्वरित कार्रवाई करे, तो लोगों का भरोसा बढ़े। मौज़ूदा समय में इसकी ज़रूरत भी है, क्योंकि सरकार के संरक्षण में इस पर बहुत कुछ करने के आरोप लगते रहे हैं। बग्गा मामले में जिस तरह से राज्य पुलिस को मात खानी पड़ी है, उसे देखते हुए अब ऐसी कार्रवाई से पहले अच्छी तरह से सोचेगी ज़रूर। हैरानी की बात यह कि राज्य पुलिस की छवि पर बट्टा लगे और उसकी कार्रवाई को ग़लत ठहराया जा रहा हो और मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया न आये, तो हैरानी होती है। वह राज्य के गृह मंत्री भी हैं। पुलिस महानिदेशक सीधे उनको रिपोर्ट करते हैं।

01 अप्रैल को मोहाली के साइबर थाने में डॉ. सन्नी आहलूवालिया ने बग्गा के बयान को ख़तरनाक और पंजाब के हालात को बिगाडऩे वाला बताते हुए मामला दर्ज कराया था। मामला दर्ज होते ही पुलिस महानिदेशक के निर्देश पर बाक़ायदा तीन सदस्यीय विशेष जाँच समिति गठित कर दी गयी। समिति ने शिकायत को गम्भीर माना और बाक़ायदा तौर पर आरोपी बग्गा को जाँच में शामिल होने का नोटिस दिया।

चूँकि पुलिस को इस मामले में कार्रवाई को अंजाम देना था लिहाज़ा एक माह के दौरान ही चार से पाँच नोटिस बग्गा के पश्चिमी दिल्ली आवास पर दिये गये। बग्गा जाँच में कभी शामिल नहीं हुए इसलिए राज्य पुलिस उनको गिरफ़्तार करना चाहती थी।  पुलिस गिरफ़्तारी वारंट लेकर दूसरे राज्य में ऐसा कर सकती है; लेकिन इसके लिए कुछ प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। बग्गा के मामले में पंजाब पुलिस ने ऐसा कुछ नहीं किया। बग्गा का आवास जनकपुरी थाने के तहत आता है, इसलिए पंजाब पुलिस को पहले उसी थाने में जाकर अपनी आमद दर्ज करानी थी। थाने का स्टाफ राज्य पुलिस के साथ जाता और गिरफ़्तारी हो जाती; लेकिन राज्य पुलिस ने ऐसा नहीं किया, बल्कि सीधे ही नोटिस के बहाने घर में गयी और गिरफ़्तार कर लिया। आरोपी को पटका (पगड़ी का एक रूप) और चप्पल तक पहनने न देने का आरोप भी है।

अनहोनी की आशंका के चलते बग्गा के पिता प्रीतपाल ने बेटे के अपहरण की रिपोर्ट दर्ज करायी। इसके बाद तो दिल्ली पुलिस ने जिस तेज़ी से कार्रवाई की वह अपने में मिसाल है। दिल्ली पुलिस ने तुरन्त अपहरण और अन्य धाराओं के तहत न केवल मामला दर्ज कर लिया, बल्कि दो घंटे के अन्दर न्यायालय से सर्च वारंट भी हासिल कर लिया। पंजाब पुलिस बग्गा को मोहाली के साइबर थाने में पूछताछ के लिए ले गयी थी। पूरा रास्ता हरियाणा से होकर गुज़रता है, लिहाज़ा अलर्ट जारी कर दिया गया। हरियाणा पुलिस ने भी दिल्ली पुलिस जैसी तत्परता दिखायी और गाड़ी को करनाल-कुरुक्षेत्र राष्ट्रीय राजमार्ग पर (थानेसर) में रोक लिया। सूचना के बाद दिल्ली पुलिस पहुँची बग्गा को अपने क़ब्ज़े में ले लिया। बग्गा पंजाब पुलिस के आरोपी है, देर-सबेर पंजाब पुलिस पर मामले में फिर से कार्रवाई कर सकती है; लेकिन इस बार पहले जैसी नहीं होगी।

नवीन विश्वास, अलका लांबा और तेजिंदर बग्गा तीनों ही मामलों में मुख्यमंत्री भगवंत मान ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। वह अधरझूल में हैं। वह मामलों में पुलिस कार्रवाई को हरी झंडी तो देते हैं; लेकिन स्पष्ट तौर पर पुलिस कार्रवाई को क़ानून सम्मत ठहराने की हिम्मत नहीं रखते। राज्य पुलिस का इस्तेमाल राजनीतिक दुश्मनी निकालने के लिए हो तो न केवल पुलिस, बल्कि राज्य सरकार और ख़ुद भगवंत मान की छवि ख़राब होगी। सारे मामले केजरीवाल से जुड़े हैं। ऐसे में भगवंत मान दो पाटन के बीच फँस गये हैं। वह अपने राजनीतिक गुरु का ध्यान रखें या पुलिस की छवि का। लगता है उन्हें कुछ समझ ही नहीं आ रहा है। जिन वादों को पूरा कर मान सोच रहे हैं कि उनकी सरकार लोगों की उम्मीदों पर खरी उतर रही है, वह उनका वहम साबित होगा।

पंजाब से जुड़ा कोई मामला हो, तो पंजाब पुलिस की कार्रवाई समझ में आती है। लेकिन दिल्ली में की गयी बयानबाज़ी और मामले पंजाब में दर्ज हों और यहाँ की पुलिस कार्रवाई करे, तो सवाल तो खड़े होंगे ही। मान परीक्षा के दौर से गुज़र रहे हैं, उनके नेतृत्व को अभी कसौटी पर कसा जाना है। कॉमेडियन से गम्भीर नेता बने भगवंत मान को राज्य पुलिस की छवि कितना सुधार सकेंगे यह आना वाला समय ही बताएगा। विपक्ष को साथ लेकर चलने और राजनीतिक दुश्मनी भुलाने का दावा करने वाले भगवंत मान की चुप्पी बहुत कुछ कहती है।

आक्रामक तेवर

तेजिंदर बग्गा भगत सिंह क्रान्ति सेना संगठन के तौर पर राजनीति में आये। वर्ष 2011 में सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण की सरेआम पिटाई मामले से बग्गा चर्चा में आये। भारतीय जनता युवा मोर्चा के राष्ट्रीय सचिव बग्गा दिल्ली विधानसभा का चुनाव हरिनगर सीट से लड़ चुके हैं। वह पार्टी के प्रवक्ता हैं और सोशल मीडिया पर अपने आक्रामक बयानों से जाने पहचाने जाते हैं। मामला दर्ज होने के बाद वे खुले तौर पर कहते हैं कि उनके तेवरों में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। सोशल मीडिया पर वह बहुत बार पार्टी लाइन से हटकर बयानबाज़ी करते हैं, जो कभी उनके लिए संकट की वजह बन सकती है।

केजरीवाल आदर्श

बग्गा के ख़िलाफ़ मोहाली के साइबर थाने में प्राथमिकी दर्ज कराने वाले डॉ. सन्नी आहलूवालिया पेशे से डेंटिस्ट हैं। मोहाली निवासी सन्नी के लिए केजरीवाल आदर्श हैं। उनकी प्रेरणा से ही वह 2016 में आम आदमी पार्टी में शामिल हुए। पार्ट के विभिन्न पदों पर रहे सन्नी आनंदपुर लोकसभा क्षेत्र में पार्टी के प्रभारी भी रहे हैं। बग्गा अपने बयानों से पंजाब के सौहार्द को बिगाडऩे में लगे हैं; ऐसे में उन पर मामला दर्ज कराया गया।