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मंदी से मांझा कारीगर उदास

आप जब बरेली के सीबीगंज से क़िले की ओर बढ़ेंगे, तो जीटी रोड के दोनों ओर कुछ लोगों को बड़ी तेज़ी में हाथ में कुछ रंग-बिरंगा सा लिए हुए एक रगड़ के साथ आगे बढ़ते हुए पाएँगे। वास्तव में ये मांझा कारीगर हैं। इनके हाथ में काँच (शीशे) के बुरादे, रंग तथा साबूदाने या चावल की लुगदी होती है। ये लुगदी अत्यंत खुरदरी होती है, जिसे धागे पर रगड़ते समय हाथ कट जाते हैं। जो धागा मांझा बनाने के काम में लिया जाता है, उसे सद्दी कहते हैं। ये एक प्रकार से कच्चा धागा होता है। वैसे तो सद्दी उस धागे को कहते हैं, जो पतंग को बड़ी ऊँचाई तक आकाश में ले जाने के लिए मांझे के बाद बाँधी जाती है। इससे हाथ नहीं कटते और यह मांझे से सस्ती मिलती है। चर्खी में 90 से 95 फ़ीसदी यही सद्दी होती है। हालाँकि इस सद्दी में मोम लगा होता है, ताकि उलझे नहीं एवं आसानी से ऊँगलियों से पास हो सके यानी सरकता रहे।

सीबीगंज से क़िले तक जीटी रोड के दोनों ओर इसी सद्दी से मांझा बनाते हैं, जिसमें काँच युक्त लुगदी की रगड़ के कारण मांझा बनाने वाले इन कारीगरों के हाथ घायल ही रहते हैं। पूरा दिन ये लोग इसी तरह 100-200 मीटर की दूरी पर लगी बल्लियों के चारों ओर दौड़ते रहते हैं। इन बल्लियों को थूनी कहते हैं। इन थूनियों की संख्या 50-60 से अधिक होगी तथा हर थूनी पर एक से तीन कारीगर तक लगे होते हैं। इसी प्रकार बाकरगंज के हुसैन बाग़ में दर्ज़नों मांझा कारीगर हाथों में लुगदी लेकर सद्दी में लपेटकर सद्दी को रगड़ देते हुए दौड़ते दिखायी देंगे। एक कारीगर ने बताया कि 15-20 साल पहले बरेली में 1,000 से 1,500 कारीगर मांझा बनाने का काम करते थे। अब तो आधे भी नहीं रहे।

मांझे के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध बरेली में मांझा बनाने का यह कार्य वैसे तो पूरे वर्ष चलता है; मगर स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस तथा मकर संक्रांति के आने से दो-तीन महीने पहले से इसमें तेज़ी आ जाती है। मगर चीन का जानलेवा तथा स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से घातक मांझे की बाज़ार में भरमार होने से विश्व भर में प्रसिद्ध बरेली के मांझे की बिक्री पर विकट विपरीत प्रभाव पड़ा है। मगर बीते तीन वर्षों से मांझा बनाने वाले कुछ अन्य संकटों से जूझ रहे हैं।

चीनी मांझे ने किया निराश
बाकरगंज में मांझा मज़दूर कल्याण समिति के एक सदस्य ने बताया कि लगभग सात-आठ साल से उनके काम में लगातार मंदी आती जा रही है। इसकी सबसे बड़ा तथा पहला कारण बाज़ार में चीन के मांझे की आवक है। यह बात सब जानते हैं कि चीन का मांझा हर तरह से घटिया तथा नुक़सान पहुँचाने वाला होता है। मगर फिर भी अधिक लोग उसे ख़रीदते हैं, क्योंकि वो हमारे मांझे से सस्ता होता है। दुकानदारों को भी उसमें बचत अधिक है, सो वे भी उसे ही पहले तथा अधिक मात्रा में बेचने की कोशिश करते हैं। मगर वो मांझा पतंगबाज़ी में जल्दी कट जाता है, हाथ भी काट देता है। अगर किसी के गले में फँस जाए, तो जानलेवा साबित होता है। पहले बरेली में मांझे में फँसकर पक्षी नहीं मरते थे, मगर अब चीन का मांझा जबसे आया है, पक्षियों के मरने की घटनाएँ होने लगी हैं। दु:ख की बात यह है कि अब बरेली में भी चीन का मांझा धड़ल्ले से बिक रहा है। जिस बरेली का मांझा पूरे विश्व के लोग माँगते हैं, विदेशों में इस मांझे की विकट माँग रही है, उसी मांझे के शहर बरेली में आज दुकानदारों और सरकारों के निजी स्वार्थ के चलते धाक जमा ली है। मगर उन लोगों को सोचना चाहिए कि इससे शहर के आम लोगों को तो हानि हो ही रही है, हम कारीगरों का रोज़गार भी छिन रहा है। इससे किसी को क्या मिलेगा। यह तो कारीगरों के पेट पर लात मारना ही हुआ ना।

बरेली का बता बेच रहे चीनी मांझा
इस बातचीत के बीच एक कारीगर ने कहा कि भैया, आप बाज़ार में किसी मांझे की दुकान पर जाकर बरेली का मांझा माँगना, वो आपको चीन का मांझा पकड़ा देगा। अगर आपको जानकारी नहीं होगी, तो आप ठगे जाओगे। दुकानदार बरेली के मांझे के नाम पर ग्राहकों को चीन का मांझा बेच रहे हैं। हम लोग तथा मांझा मज़दूर कल्याण समिति इसका कई बार विरोध कर चुकी है, मगर कोई लाभ नहीं होता, क्योंकि प्रशासन इस ओर कोई ध्यान ही नहीं देता। चीन का अधिकतर मांझा नाइलोन का होता है, जिसे और मजबूत करने के लिए वो लोग घातक पदार्थों का उपयोग करते हैं।

सद्दी हुई महँगी
आरिफ़ नाम के एक कारीगर ने बताया कि जबसे कोरोना की बीमारी आयी है, तबसे सद्दी महँगी भी बहुत हुई है तथा उसकी आपूर्ति भी घटी है। हम लोग वर्धमान तथा कोड्स नाम की दो कम्पनियों से धागा ख़रीदते हैं। लॉकडाउन में दोनों कम्पनियों ने यह कहकर सद्दी की आपूर्ति बन्द कर दी थी कि उनके पास धागा नहीं है, क्योंकि चीन और पाकिस्तान से कपास नहीं आ रही है। इस दौरान 400 रुपये के भाव वाला धागा 600 से 700 रुपये का हो गया था। अब धागे का भाव और बढ़ गया है, जिससे हमारी बिक्री कम हुई है। कारीगरों और मज़दूरों तक की मेहनत इस काम से निकालना महँगा हो गया है। जबसे सद्दी महँगी हुई है तथा उसकी आपूर्ति प्रभावित हुई है, तबसे हम लोग और भी परेशान हैं। शासन, प्रशासन में कोई हमारी ओर ध्यान नहीं दे रहा है।

कम बिकता है अच्छा मांझा
सबसे बड़ी समस्या यह है कि कोई भी वस्तु अगर महँगी हो, तो उसके ग्राहक कम हो जाते हैं। बरेली में मांझा हाथ से बनाया जाता है तथा इसकी मानकता विश्वसनीय एवं गुणवत्ता उत्तम होती है, इसलिए इसे बनाने में लागत अधिक लगती है। यही कारण है कि यह चीन के मांझे की अपेक्षा तीन-चार गुना महँगा होता है। इससे इसके ग्राहक भी कम होते हैं। पहले जब चीन का मांझा और देश के दूसरे हिस्सों में बनने वाला घटिया मांझा बाज़ार में नहीं होता था, तब हमारे मांझे की माँग अधिक थी। एक समय था जब हम माँग पूरी करने के लिए कारीगरों को ढूँढते थे तथा दिन-रात काम कराते थे। अब कारीगर काम माँगने आते हैं, तो उन्हें न कहना पड़ता है, जिसका हमें विकट दु:ख होता है।

मशीन बनाम हाथ वाला मांझा
अब बाज़ार में दो तरह का मांझा देखने को मिलता है। एक तो वो मांझा है, जो चीन और हमारे देश में मशीनों से बनता है। दूसरा मांझा जो पूरे विश्व में प्रसिद्ध है, वो है बरेली का मांझा। अब बाज़ारों में बरेली के मांझे के सामने मशीनों वाला घटिया मांझा चुनौती बना हुआ है। इसका कारण इस मांझे का सस्ता होना है। बरेली के मांझे की एक चर्खी 500 से 1,000 रुपये है, जबकि मशीन के मांझे की एक चरखी 150 से 250, 300 रुपये है। इसके चलते लोग सस्ता तथा घटिया मांझा ले लेते हैं। मगर जो लोग मांझे के जानकार हैं और पतंगों के पेंच लड़ाने में माहिर हैं या सट्टा लगाते हैं, वो आज भी बरेली का ही मांझा ख़रीदते हैं। कई दुकानदार भी बरेली के मांझे की बिक्री को प्राथमिकता देते हैं।

इस बार जगी आस
इस बार बरेली के कारीगरों, मज़दूरों, थूनी मालिकों तथा दुकानदारों को भी उम्मीद है कि उनका काम पहले की तरह अच्छा चलेगा। इसका एक कारण तो यह है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ स्वदेशी वस्तुओं पर बल दे रहे हैं। दूसरा कारण स्वतंत्रता दिवस है, जो इस बार पूरे एक सप्ताह मनाया जाएग।

विदित हो कि इस बार उत्तर प्रदेश में हर व्यक्ति में राष्ट्रभक्ति का उत्साह देखने को मिल रहा है। यह सब अमृत महोत्सव के चलते किया जा रहा है। शासन व प्रशासन की ओर से दिशा निर्देश दे दिये गये हैं। प्रदेश के सभी 75 जनपदों के लगभग 418 लाख से अधिक घरों में ध्वजारोहण किया जाएगा। इसके अतिरिक्त 50 लाख सरकारी व निजी प्रतिष्ठानों में भी ध्वजारोहण के निर्देश हैं। राज्य में कुल 381.61 लाख से तिरंगों होना है। देश में हर वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर पतंगबाज़ी होती है। ऐसे में मांझा व्यापारियों व कारीगरों को विश्वास है कि इस बार मांझे की बिक्री अधिक होगी।

मुद्दों के संकट से जूझता विपक्ष

भारतीय राजनीति और संसदीय प्रणाली का विश्लेषण करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने कहा था- ‘यह देखकर अफ़सोस होता है कि समय बीतने के साथ संसदीय प्रणाली चलाने के लिए जो परिपक्वता आनी चाहिए, उसके बजाय संसदीय व्यवहार में निरंतर गिरावट आ रही है। आज राजनीति करने के दो ही उद्देश्य रह गये हैं- समाज में लोगों का समर्थन कैसे मिले? कुछ भी, कैसे भी करके; चाहे ग़लत करके, चाहे सही करके। दूसरा, पैसे कैसे मिलें?’ (रहबरी के सवाल, पेज-135 एवं 138 )।

यह भारतीय राजनीति का वह सत्य है, जिसे मुँह तो मोड़ा जा सकता है, किन्तु नकारा नहीं जा सकता। पक्ष-विपक्ष की कौन कहे, यहाँ कमोबेश सब एक जैसे ही हैं। लेकिन इस समय चर्चा का विषय विपक्ष है। एक सन्तुलित एवं जीवंत लोकतंत्र के लिए एक जागृत एवं सशक्त विपक्ष होना आवश्यक है। लेकिन भारतीय राजनीति का वर्तमान दौर ऐसा नहीं है। देश के लोकतांत्रिक इतिहास में यह कालखण्ड संघर्ष-हीन विपक्ष के दौर के तौर पर गिना जाएगा, जहाँ चुनाव-दर-चुनाव हार के बाद आज विपक्ष हताश-निराश और भ्रमित हैं। उसमें सत्ता पक्ष के समक्ष खड़े होने का जज़्बा नहीं दिखता। विपक्ष मुद्दों की राजनीति के बजाय अनर्गल विरोध प्रसंगों में लिप्त हैं, जिससे जनता में उसके प्रति लगाव एवं समर्थन न्यून स्तर पर पहुँच चुका है।

ताज़ा विवाद नये संसद भवन में लगे अशोक स्तम्भ को लेकर शुरू है। विपक्ष का आरोप इतिहास से छेड़छाड़ तथा अशोक स्तम्भ के शेरों को ज़्यादा आक्रामक प्रदर्शित करने का है। कोई इसे सत्यमेव जयते से सिंहमेव जयते कह रहा है। किसी के अनुसार यह राष्ट्र विरोधी है। इस पर एआईएमआईएम प्रमुख ओवैसी का विरोध है कि अनावरण कार्यक्रम के दौरान प्रधानमंत्री की मौज़ूदगी संवैधानिक मानदण्डों का उल्लंघन है। कांग्रेस नाराज़ है कि कार्यक्रम में उसे न्योता क्यों नहीं दिया गया? तो सी.पी.एम. का विरोध प्रधानमंत्री द्वारा कार्यक्रम में पूजा-पाठ करने को लेकर है। इन आरोपों पर सत्ता पक्ष भी कहाँ ख़ामोश रहने वाला था, सो जवाब देने के लिए केंद्रीय मंत्रियों से लेकर प्रवक्ताओं का पूरा समूह टूट पड़ा।

प्रतीत होता है कि देश की राजनीति में मुद्दों का संकट है। वास्तव में यह संकट उस चेतना की अनुपस्थिति का है, जो लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों को अंगीकार कर सके। विपक्ष को इस बात की चिन्ता है कि राष्ट्रीय चिह्न के शेर ख़तरनाक दिख रहे हैं, जो शान्त थे। यह अजीब-सा हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण विवाद है। शेर कैसे दिख रहे हैं? देश की 135 करोड़ से ज़्यादा आबादी को इससे कहीं ज़्यादा रुचि अपनी रोज़ी-रोटी और सिर पर छत पाने, अपराध से मुक्ति, मानवीय गरिमा से परिपूर्ण जीवन जीने जैसे मूलभूत मसलों में है। वास्तव में विपक्ष को जिन मुद्दों को लेकर आक्रोशित होना चाहिए, वे उसकी प्राथमिकता सूची में हैं ही नहीं।

राष्ट्रीय स्तर पर बेरोज़गारी की दर 7.80 फ़ीसदी है। इस वर्ष यह दर 0.68 फ़ीसदी बढ़ी है। साथ ही कुल श्रमबल में काम करने वालों की संख्या घटकर 39 करोड़ रह गयी है। सरकार इस दिशा में क्या प्रयास कर रही है? कब तक स्थितियाँ बेहतर होने की उम्मीद है? निजीकरण के कारण घटती नौकरियों की भरपाई सरकार कैसे करेंगी? केंद्र से लेकर राज्य सरकारों तक लाखों की संख्या में विभिन्न विभागों में उपलब्ध रिक्तियाँ अब तक क्यों नहीं भरी गयीं? इन्हें कब तक भरा जाएगा? संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में क्षेत्रीय भाषाओं के विद्यार्थियों के चयन के अवसर सिमटते क्यों जा रहे हैं? इसके लिए दोषी कौन है? अग्निपथ योजना के विरोध में उतरे लोगों को आतंकवादी एवं देशद्रोही कहने वाले पार्टी नेताओं से जवाब कब लिया जाएगा? हज़ारों करोड़ों रुपये ख़र्च करने के बाद नमामि गंगे परियोजना कितनी सफल रही? प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में पौराणिक महत्त्व की गंगा नदी की इतनी बुरी हालत क्यों है? मेक इन इंडिया योजना (2014) ने इतने वर्षों में अर्थ-व्यवस्था को कितना लाभ पहुँचाया, और कितने रोज़गार सृजित किये? सरकार के अन्दर प्रशासनिक अधिकारियों की मनमानी और भ्रष्टाचार पर कब तक अंकुश लगेगा? उत्तर प्रदेश सरकार में लोक निर्माण विभाग, पशुपालन विभाग, स्वास्थ्य विभाग एवं जल शक्ति विभाग में तबादलों में हुई धाँधली एवं पशुपालन विभाग में होने वाले 50 करोड़ रुपये के घोटाले के लिए दोषी लोगों पर कठोर कार्रवाई कब तक होगी? उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा परीक्षाओं में की जा रही मनमानी पर रोक कब तक लगेगी?

आयोग में नियुक्तियों में हुई धाँधली पर इतने वर्षों से चल रही जाँच कहाँ तक पहुँची? जाँच कब तक पूरी होगी? अब तक कितने लोगों पर कार्रवाई हुई? निकट में हुई कई भर्तियों में जैसे उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग द्वारा विज्ञापन संख्या-50 के अंतर्गत विभिन्न विषय में सहायक प्रोफेसर पर हुई नियुक्ति पर भ्रष्टाचार के लग रहे आरोपों का संज्ञान कब तक लिया जाएगा?

ऐसे ही और भी कई मूलभूत मसले हैं, जिन पर विपक्ष को आन्दोलित होना चाहिए। लेकिन उसे न इनसे कोई मतलब है और न सार्थक राजनीति से कोई सरोकार है। ले-देकर उसके पास सिर्फ़ धार्मिक, असहिष्णुता और अघोषित आपातकाल के नारे हैं, जिन्हें वह बार-बार दोहराता रहता है। विपक्ष की राजनीति को देखकर लगता है कि वह इस भरोसे बैठा है कि सत्ता पक्ष और ग़लतियाँ करें, और नाराज़ जनता विकल्प के रूप में उसे चुन ले। लेकिन वह भूल रहा है कि वास्तव में देश के मतदाताओं के लिए विकल्पहीनता की स्थिति पैदा हो चुकी है। मध्य प्रदेश के निकाय चुनाव में आम आदमी पार्टी की सशक्त उपस्थिति मतदाताओं की इसी कुंठा का प्रतिफल है। हालाँकि आम आदमी पार्टी से उम्मीद पालना ठीक नहीं। क्योंकि दिल्ली में जो इनकी हालत है और पंजाब में हत्याओं और भ्रष्टाचार का जो सिलसिला शुरू हुआ है, उससे इनकी कार्यशैली के प्रति निराशा ही उपजती है। हालाँकि छवि तो किसी भी दल की साफ़-सुथरी नहीं है।

पर इस समय देश की जनता की मन:स्थिति यह है कि वह कई मसलों पर सत्ता पक्ष से निराश और क्रोधित होने के बावजूद भी विपक्ष को अपना विकल्प नहीं समझ रही; क्योंकि विपक्ष को जो परिपक्वता दिखानी चाहिए, वह नहीं दिखा पा रहा है। रही-सही कसर विपक्ष के वाग्वीर पूरी कर रहे हैं। दरअसल उन्हें लगता है कि बहुसंख्यक समाज के विरुद्ध अनर्गल बोलकर वे अल्पसंख्यक और कुछ विशेष वर्गों का पुरज़ोर समर्थन पा पाएँगे। लेकिन इसके विपरीत होता यह है कि अल्पसंख्यक वर्ग उन्हें समर्थन दे दे, तो बहुसंख्यक वर्ग पूरे दमख़म से उससे घृणा करना शुरू कर देता है।

दरअसल विपक्षी दलों के नेता अपने परिजनों की राजनीतिक वृत्ति (करियर) से परे कुछ देख ही नहीं पा रहे हैं। उनकी प्राथमिकता अपनी राजनीतिक विरासत को बचाकर अपने बेटे-बेटियों के लिए सुरक्षित रखने में है। साथ में ईडी और सीबीआई की जाँच से बचने का दबाव है ही। वास्तव में विपक्ष अकर्मण्य वंशवादियों की जमात बन चुका है। राजनीति में अभिजनवाद का रोग बड़ा पुराना है। यह रोग एक बार किसी को जकड़ ले, तो बर्बाद करके ही छोड़ता है। वर्तमान में जो विपक्षी नेतृत्व दिख रहा है, उनमें ज़्यादातर ज़मीन से जुड़े हुए जुझारू नेताओं, जैसे- जवाहरलाल नेहरू, चौधरी चरण सिंह, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव आदि के राजनीतिक अवशेष मात्र की तरह हैं। उपरोक्त नेताओं के इन अभिजन (एलीट) उत्तराधिकारियों के पास न सत्ता के विरुद्ध संघर्ष की क्षमता है, न जनता को देने के लिए कोई परिकल्पना (विजन) है। अगर कुछ है, तो सिर्फ़ भावनात्मक कहानियाँ, जिनका जनता के लिए कोई विशेष जुड़ाव या मतलब नहीं है। इसके अतिरिक्त विपक्ष के पास जातिवाद और धर्म के परम्परागत मुद्दे तो हैं, किन्तु दिक़्क़त यह है कि इन मुद्दों से सम्बन्धित अधिक पैने हथियार सत्ता पक्ष के पास भरे पड़े हैं, जो विपक्ष से कहीं ज़्यादा कारगर भी साबित हो रहे हैं।

समस्या यह हैं कि इस राजनीतिक दुर्गति के पश्चात् आज भी कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल यह समझने को तैयार नहीं हैं कि वे क्यों पिछले 7-8 वर्षों से राज्य हो या केंद्र, हर जगह से सत्ता से बाहर धकेले जा रहे हैं? क्योंकि वे आम जनता के मुद्दों पर आधारित राजनीति नहीं कर पा रहे हैं। विपक्ष यह आरोप लगा रहा है कि सत्ता पक्ष मुद्दों से देश को भटका रहा है। लेकिन वह नहीं समझ रहा है कि वह ख़ुद भी सही मुद्दों पर बात नहीं करना चाहता। इसीलिए सत्ता पक्ष जिस चक्रव्यूह में विपक्षियों को फँसाना चाहता है, वे उसमें फँस रहे हैं। सम्भवत: विपक्ष समय की धारा को पहचानने में चूक कर रहा है। वह समझ नहीं पा रहा कि क्यों भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में जमी हुई है, और निरंतर आगे बढ़ती जा रही है? किसी भी व्यक्ति, संस्था या समाज की मृत्यु तब होती है, जब वह जिज्ञासा की भावना खो देता है। बेंजामिन फ्रैंकलिन लिखते हैं कि किसी बात की जानकारी न हो, तो उतना बुरा नहीं है, जितना कि जानने की इच्छा न होना।

विपक्ष को भाजपा और विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उभार को समझने की ज़रूरत है। संप्रग सरकार के कार्यकाल में सन् 2014 के लोकसभा चुनावों के कुछ महीने पहले तक सत्ता विरोधी लहर चरम पर पहुँच चुकी थी। देश में राजनीतिक वातावरण क्षुब्ध था। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में सरकार की गरिमा रसातल में पहुँच चुकी थी। ऐसे में मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने उन कमियों को ज़ोर-शोर से लोगों के बीच उठाया और साथ में अपने नेतृत्व का विकल्प सामने रखा। उस व$क्त मुख्यमंत्री के रूप में मोदी के सुशासन ब्रांड गुजरात मॉडल का ज़ोर-शोर से प्रचार-प्रसार हुआ। साथ ही ग़ैर-वंशवादी पृष्ठभूमि, स्वनिर्मित छवि एवं साफ़-सुथरी छवि ने नरेंद्र्र मोदी के क़द को बड़ा केंद्रीय फ़लक दिया। अब इस कसौटी पर विपक्ष को देखिए, जिसके लिए यह तसव्वुर की कंगाली का दौर है। वर्तमान राजनीति ऐसी स्थिति में पहुँच गयी है, जहाँ सत्ता पक्ष द्वारा खींची गयी लकीर पार करने का विपक्ष में साहस ही नहीं दिख रहा है। सत्ता पक्ष हावी है एवं अपने पक्ष में व्यापक जन-समर्थन को मोडऩे के साथ ही अपनी कार्यनीति को बहुत हद तक लागू करने में सफल भी हुआ है; क्योंकि वह ज़्यादा जागृत एवं गतिशील है। अब इसी के बरअक्स विपक्ष को स्व-मूल्यांकन कर लेना चाहिए।

फ़िराक़ गोरखपुरी का एक शे’र है :-
‘‘सुकूते-शाम मिटाओ बहुत अँधेरा है।
सुख़न की शम्अ जलाओ बहुत अँधेरा है।।’’
असल में देश के लोकतंत्र में विपक्ष की वर्तमान स्थिति यही है। परन्तु उसे सचेत होना पड़ेगा, अन्यथा यह अँधेरा हमेशा के लिए उसका प्रारब्ध बन जाएगा।
(लेखक राजनीति एवं इतिहास के जानकार हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)

अपनी मानसिकता बदलें बेरोज़गार युवा

आज देश में बेरोज़गारी और महँगाई अपने चरम पर है। युवाओं को कहीं से भी अपनी आजीविका के लिए उम्मीद की किरण नज़र नहीं आ रही है। इन मुश्किल भरी परिस्थितियों में ऐसे अवसर तलाश करने की आवश्यकता है, जिससे युवाओं का भविष्य उज्ज्वल हो सके। ऐसे में बेरोज़गार युवाओं को चाहिए कि वे हुनरमंद बनें और अपने हुनर को दूसरी तरफ़ यानी स्वरोज़गार में लगाएँ। जो युवा किसी हुनर से वाकिफ़ नहीं हैं, वे प्रशिक्षण लेकर उसे अपना पेशा बनाकर एक पेशेवर के रूप में अपने आपको स्थापित करें। इससे उन्हें तो मज़बूती मिलेगी ही, साथ ही वे दूसरे बेरोज़गार युवाओं को भी रोज़गार दे सकेंगे। कहने का मतलब यह है कि आज हमें अपने पूर्वजों से सीख लेते हुए अपने पुराने धंधों की तरफ़ मुडऩे की आवश्यकता है।

इसमें कोई दो-राय नहीं है कि लोग शहरीकरण और शहरों की अन्य पद्धतियों से ऊब चुके हैं। इनमें से अधिकतर लोग ग्रामीण क्षेत्रों की ओर रुख़ कर रहे हैं, और वे वहीं पर मौज़ूद संसाधनों के ज़रिये रोज़गार की तलाश में भी हैं।

पूर्व सरकारों की तरह मौज़ूदा केंद्र सरकार और राज्य सरकारें भी कई प्रकार के प्रशिक्षण बेरोज़गार युवाओं को दे रही हैं, जिसमें मुख्य योजना है प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना। इसमें जिन युवाओं ने अपनी आर्थिक स्थिति ख़राब होने के कारण अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी हो, उन युवाओं को मुफ़्त प्रशिक्षण का प्रावधान है। प्रशिक्षण के साथ-साथ युवाओं को बाद में एक प्रमाण-पत्र भी दिया जाता है, जिसमें वह एक कर्मचारी के तौर पर भी कहीं नौकरी के अवसर तलाश सकता है, और स्वरोज़गार भी कर सकता है।

केंद्र के अलावा राज्य सरकारों ने इस योजना का लाभ देने के लिए हर राज्य में अलग-अलग प्रशिक्षण केंद्र खोले हैं। $गौरतलब है कि प्रशिक्षित होने के बाद उम्मीदवारों को एक प्रमाण-पत्र और 8,000 रुपये सहायता राशि भी दी जाती है। सरकार द्वारा यह सुविधा बेरोज़गारी कम करके युवाओं को रोज़गार और स्वरोज़गार मुहैया कराने के लिए लायी गयी है। प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना के तहत युवा जिस क्षेत्र में प्रशिक्षण लेना चाहते हैं, उसमें पहले उनकी योग्यता मापी जाएगी, फिर उसी योग्यता के अनुसार प्रशिक्षण दिया जाएगा।

मेरा मानना है कि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले बेरोज़गार युवा छ: महीने से एक साल का प्रशिक्षण लेकर अपना निजी कारोबार शुरू कर सकते हैं, जिसमें बहुत ज़्यादा पूँजी भी नहीं लगती। जैसे युवा अपने आसपास गाँव क़स्बा या तहसीलों में आप स्कूटर, बाइक या कार के मैकेनिक बन सकते हैं। अगर आप मध्य या निम्न वर्गीय किसान परिवार से ताल्लुक़ रखते हैं, तो आप चंद महीनों के प्रशिक्षण के बाद गाय, भैंस, बकरी से लेकर भेड़, सूअर, मुर्ग़ी, मछली और मधुमक्खी पालन सीख सकते हैं। डेयरी फार्मिंग के अलावा अधिक माँग वाली सब्ज़ियाँ, जैसे- मशरूम, नारंगी गाजर और ब्रोकली और दूसरी मौसमी हरी सब्ज़ियाँ उगा सकते हैं, जिनकी माँग शहरों में बहुत अधिक है। इसके अलावा जूते, बेल्ट, कपड़े, लकड़ी और अचार-पापड़ आदि बनाकर भी अच्छी कमायी कर सकते हैं। ग्रामीण लोग आजकल अपने इन चीज़ों के लिए शहरों का रुख़ करते हैं। उनको छोटे क़स्बों और उनके गाँव में अगर यह सुविधा मिले, तो उन्हें शहर जाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

ऐसे ही शहरों में आज मिट्टी के बर्तनों की भी भारी माँग है। ऐसे में युवा मिट्टी के बर्तन बनाने का प्रशिक्षण लेकर इस बेहतरीन काम को उद्योग के रूप में स्थापित कर सकते हैं। आज हल्दीराम, अग्रवाल और बीकानेर आदि मिठाई और नमकीन बेचकर एक बड़ा मुकाम हासिल कर चुके हैं। अगर इस काम में महारत हासिल करके युवा अच्छी क्वालिटी की मिठाइयाँ बनाकर अपना कारोबार करते हैं, तो अपने जीवन स्तर में सुधार कर सकते हैं। इसी तरह आज शहरों के ही नहीं, बल्कि गाँवों के भी हर घर में बिजली से चलने वाले उपकरणों की भरमार है। ऐसे में बिजली उपकरणों को निर्मित करके या बिजली मैकेनिक यानी लाइनमैन बनकर युवा इसमें भी अच्छा पैसा कमा सकते हैं। ज़ाहिर है कि आज नये मकानों में वायरिंग करने से लेकर एसी, कूलर व पंखे फिट करने, उन्हें ठीक करने के अच्छे दाम मिलते हैं। इस काम में बिजली मैकेनिकों की बहुत माँग रहती है। इसी तरह कारपेंटर, फॉल सीलिंग और अन्य तमाम कार्यों के लिए भी कारीगरों की भारी माँग रहती है। ऐसे ही आजकल घर से लेकर भवन निर्माण तक में लकड़ी, स्टील, लोहे से बनी चीज़ों की विकट माँग रहती है। इसलिए इन चीज़ों से जुड़े कारीगरों की, जिनको बढ़ईगीरी, वेल्डिंग और प्लंबर आदि के कार्य करने होते हैं, बड़े पैमाने पर ज़रूरत रहती है। बड़े व्यवसायियों को भी इनकी तलाश रहती है।

इसके अलावा देश में जिस प्रकार से मोबाइल फोन, पैड, लैपटॉप, कम्प्यूटर और इंटरनेट से जुड़ी अन्य एसेसरी की भी भारी माँग है। इस क्षेत्र में भी युवा अपना छोटा-सा मैकेनिकल स्टोर खोलकर अच्छी कमायी कर सकते हैं। आज देश में जिस प्रकार अंग्रेजी और एलोपैथिक दवाइयों का चलन धीरे-धीरे कम हो रहा है और आयुर्वेद का चलन बढ़ता जा रहा है। इससे भी रोज़गार के अवसर बढ़े हैं।

बेरोज़गार युवाओं के लिए इसमें अच्छा अवसर है, क्योंकि आजकल नाड़ी देखकर बीमारी बताने और उसका जड़ से सही इलाज करने वाले सिद्ध वैद्यों का अभाव है। इसी प्रकार पिछले कुछ वर्षों से योग का बाज़ार बढ़ा है, जिसके लिए योगाचार्यों की पूरी दुनिया में बड़े पैमाने पर माँग है। जिन युवाओं के पास खेत हैं, वे जड़ी-बूटियों की खेती कर सकते हैं। भारतीय आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों की पूरी दुनिया में बहुत माँग है।

बहरहाल आज देश में सबसे अधिक परेशान वे लोग हैं, जो पढ़-लिखकर भी बेरोज़गार हैं। क्योंकि वे कोई छोटा-मोटा पेशेगत कार्य, कारीगरी या हुनरमंद कार्य न करके सिर्फ़ उच्च शिक्षा पाकर नौकरी की उम्मीद में बैठे रह जाते हैं। वे छोटे-मोटे काम, जैसे फल और सब्ज़ी बेचने, अन्य चीज़ों का ठेला लगाने से भी हिचकिचाते हैं। धीरे-धीरे उनकी उम्र और समय हाथ से निकल जाते हैं, उनकी शादी में भी देरी हो जाती है, जिससे बाद में उन्हें पछताना पड़ता है। आज देश में तक़रीबन में 80 फ़ीसदी छोटे स्वरोज़गार वे लोग कर रहे हैं, जो ज़्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं। केवल 15 से 20 फ़ीसदी ही पढ़े-लिखे युवा हैं, जिनके बीच ही नौकरी आदि को लेकर मारामारी मची हुई है।
हालाँकि यह सरकारों की कमी ही कही जाएगी कि इतने कम पढ़े-लिखे युवाओं में से 50 फ़ीसदी को भी वे रोज़गार मुहैया नहीं करा पा रही हैं। लेकिन ऐसे युवा अगर रोज़गार के रूप में केवल नौकरी पाने की राह में बैठे हैं, तो मेरे विचार में उनके शिक्षित होने का कोई अर्थ नहीं है; क्योंकि उनसे ज़्यादा पैसा तो अनपढ़ कमा रहे हैं।

आजकल केवल अधिक पढ़ा-लिखा होना मायने नहीं रखता, बल्कि आपने जीवन में क्या कमाया और आपका जीवन स्तर कितना ऊँचा है; ये बहुत मायने रखता है। यह केवल किसी की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह किसी का सेवादार या नौकर बनना पसन्द करता है अथवा स्वयं अपना कारोबार करके ख़ुद मालिक बनना।

केंद्र सरकार की प्रधानमंत्री रोज़गार योजना के तहत पात्रों को बैंक से 10 लाख तक के ऋण की योजना भी है। इसी तरह अन्य कई योजनाएँ भी ऋण के अनुदान वाली हैं, जो बेरोज़गार युवाओं को अपना व्यवसाय शुरू करने में मददगार साबित हो सकती हैं। इससे बेरोज़गारी भी दूर होगी और युवाओं व उनके माँ-बाप और बाकी परिवार वालों की चिन्ता भी। लिहाज़ा युवाओं को एक हौसले और प्रेरणा की आवश्यकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

मज़बूत हो रहे इमरान

पाकिस्तान में जल्दी आम चुनाव की माँग कर रहे पूर्व प्रधानमंत्री

इमरान ख़ान पाकिस्तान में जल्दी चुनाव की वकालत कर रहे हैं और सत्ता से बाहर होने के बाद लगातार जनता के बीच हैं, ताकि इसके लिए दबाव बन सके। इमरान देश में सेना की समानांतर सत्ता का सिलसिला कमज़ोर करने के लिए माहौल बनाने में लगे हैं। वह सेना के ताक़तवर होने को देश की तरक़्क़ी के ख़िलाफ़ बता रहे हैं और सत्ता में बैठे गठबंधन को भ्रष्ट बताकर इसे ख़ुद के ख़िलाफ़ विदेशी षड्यंत्र की बात कह रहे हैं। जनता उनकी बातों से प्रभावित दिख रही है और उनकी जनसभाओं में बड़ी संख्या में आ रही है। हाल में पाकिस्तान के पंजाब में हुए उपचुनाव में उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) की बड़ी जीत से ज़ाहिर होता है कि जनता उनसे प्रभावित है।

सत्ता से बाहर होने के बाद इमरान ख़ान ने देश के कई इलाक़ों में बड़ी रैलियाँ की हैं। इनमें बड़ी तादाद में जनता दिखी है। पाकिस्तान की राजनीति के जानकार मानते हैं कि इन रैलियों के ज़रिये इमरान ख़ान सरकार और चुनाव आयोग पर देश में जल्दी चुनाव करवाने का दबाव डाल रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि वह फिर सत्ता में आ सकते हैं। इमरान के भाषणों से उनका लक्ष्य साफ़ ज़ाहिर होता है। हाल ही में सत्तारूढ़ दल के एक मंत्री ख़ुर्रम दस्तगीर ने दावा किया था कि इमरान ख़ान पूरे तत्कालीन विपक्ष का सफ़ाया कर 15 साल तक सत्ता में रहने की योजना बना रहे हैं। पीटीआई इस आरोप को बकवास कह चुकी है। हालाँकि इसमें कोई दो-राय नहीं कि इमरान काफ़ी ज़्यादा महत्त्वाकांक्षी नेता हैं।

इमरान की राजनीति काफ़ी हद तक पाकिस्तान की परम्परागत राजनीति से हटकर है। वह ढके-छिपे अंदाज़ में तालिबान के भी समर्थन में दिखते हैं। प्रधानमंत्री के रूप में चार साल पहले अपने शपथ ग्रहण में जब उन्होंने भारत के प्रति दोस्ती की बात कही थी, तो उन पर भरोसा किया गया था; लेकिन उनके 1,332 दिन के शासन में भारत से बातचीत या दोनों देशों के बीच सम्बन्ध बेहतर करने के प्रति वह कभी भी गम्भीर नहीं दिखे। उलटे इस दौरान दोनों देशों की सीमा पर कई बार तनाव दिखा। आतंकवादियों की घुसपैठ भी बराबर जारी रही।

इमरान एक रणनीति के तहत राजनीति कर रहे हैं, जो उनकी तीसरी पत्नी बुशरा बीबी के लीक हुए एक ऑडियो से ज़ाहिर हो जाता है। इस ऑडियो में बुशरा पीटीआई के सोशल मीडिया विंग को निर्देश देती सुनी जा सकती हैं कि सोशल मीडिया पर वर्तमान सरकार देशद्रोह का नैरेटिव चलाया जाए।

बुशरा पीटीआई के डिजिटल मीडिया चेयरमैन अर्सलान ख़ालिद से कहती सुनायी देती हैं कि ट्रेंड चलाएँ और लोगों को बताएँ कि मुल्क (पाकिस्तान) और इमरान ख़ान के साथ ग़द्दारी की जा रही है। बुशरा सोशल मीडिया टीम को रूस से पाकिस्तान के तेल ख़रीदने के मुद्दे को ठण्डा न होने देने के लिए कहा। ऑडियो में बुशरा ने ख़ालिद से कहा कि आप इस मुद्दे को दबने नहीं दें। ऑडियो में बुशरा पार्टी छोडक़र जाने वाले असन्तुष्टों को भी विदेशी साज़िश से जोडऩे की बात करती हैं।

उपचुनाव में बड़ी जीत
पाकिस्तानी पंजाब की असेंबली की 20 सीटों के उपचुनाव में इमरान ख़ान की पार्टी पीटीआई को 15 सीटें मिलीं, जो इस बात का पुख़्ता प्रमाण है कि इमरान जनता के बीच लोकप्रियता हासिल कर रहे हैं। यह नतीजे इसलिए भी अहम हैं, क्योंकि प्रधानमंत्री का पद खोने के बाद यह पहला ऐसा चुनाव था, जिसमें इमरान की पार्टी पीटीआई और प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ (पीएमएल-एन) के बीच सीधी टक्कर थी।

इससे भी बड़ी बात यह है कि यह उपचुनाव शरीफ़ बंधुओं का गढ़ माना जाता है। फिर भी प्रधानमंत्री शहवाज़ शरीफ़ की पार्टी को महज़ चार सीटें ही मिलीं। एक सीट निर्दलीय उम्मीदवार के हिस्से में आयी। इसी साल अप्रैल में पीटीआई के मुख्यमंत्री उस्मान बुज़दार के इस्तीफ़े के बाद प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ के बेटे हमज़ा शाहबाज़ मुख्यमंत्री बन गये थे; क्योंकि पीटीआई के 25 विधायकों ने दलबदल कर लिया था। बाद में इमरान की याचिका पर चुनाव आयोग ने इन 25 विधायकों को अयोग्य ठहरा दिया था।

अब इन्हीं में से 20 ख़ाली सीटों पर उपचुनाव हुआ था, क्योंकि सरकार ने 5 विधायकों को रिजर्व सीटों पर मनोनीत कर दिया था। पीटीआई के 15 सीटें जीतने से पंजाब असेंबली में इमरान की पार्टी का बहुमत हो गया; लेकिन यहाँ डिप्टी स्पीकर दोस्त मोहम्मद मज़ारी ने पाकिस्तान मुस्लिम लीग-क़ायद (पीएमएल-क्यू) के 10 वोट (मत) रद्द करके खेल कर दिया। बहुमत के लिए ज़रूरी 186 वोटों के मुक़ाबले उसके पास 188 विधायक थे। पीटीआई / पीएमएल-क्यू के संयुक्त उम्मीदवार परवेज़ इलाही को 186 वोट मिले, जबकि हमज़ा शाहबाज़ को 179 वोट। इस पर इमरान ख़ान ने इसके बाद हमज़ा शाहबाज़ के ख़िलाफ़ इस्लामाबाद, कराची, मुल्तान, लाहौर, पेशावर में बड़े विरोध-प्रदर्शन किये। ख़ान ने इस मसले पर कहा कि पंजाब विधानसभा में हुई घटनाओं से मैं हैरान हूँ। संसद में नैतिकता की शक्ति है, सेना की नहीं, लोकतंत्र नैतिकता पर आधारित है। उन्होंने सत्तारूढ़ पीपीपी के नेता और पूर्व राष्ट्रपति आसिफ़ ज़रदारी पर पंजाब उपचुनाव से पहले ख़रीद-फ़रोख़्त का आरोप लगाते हुए कहा कि देश के प्रसिद्ध डाकू आसिफ़ ज़रदारी 30 साल से देश को लूट रहे हैं।

हालाँकि 27 जुलाई को पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय ने डिप्टी स्पीकर के फ़ैसले को असंवैधानिक क़रार देते हुए हमज़ा शरीफ़ की मुख्यमंत्री पद पर नियुक्ति को रद्द करके परवेज़ इलाही को फिर मुख्यमंत्री नियुक्त करने का अदेश दे दिया। यह फ़ैसला प्रधानमंत्री शहवाज़ शरीफ़ के लिए बड़ा झटका है।

सेना का विरोध
इमरान ख़ान के सेना से मतभेद प्रधानमंत्री रहते ही थे। वह अपनी पसन्द का सेनाध्यक्ष बनाना चाहते थे। वह सत्ता में सेना की दख़लंदाज़ी के सख़्त ख़िलाफ़ रहे हैं। हाल के महीनों में यह कई बार कहा गया है कि पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा और इमरान ख़ान के बीच तनाव है। इमरान का कहना है कि सियासी फ़ैसले जनता का हक़ हैं; लेकिन ये फ़ैसले सेना ले रही है। वहीं इमरान के क़रीबी पीटीआई नेता एवं पूर्व मंत्री फवाद चौधरी ने हाल ही में भी सख़्त लहज़े में सत्ता में दख़ल को लेकर सेना चेतावनी दी कि पाकिस्तान की कौम इंकलाब के लिए तैयार है। अब सेना को फ़ैसला करना है कि उसे यह इंकलाब वोटों के ज़रिये लाना है या फिर पाकिस्तान को श्रीलंका बनाना है। चौधरी ने कहा कि पाकिस्तान में इस्टैब्लिशमेंट (सेना) के मुँह लहू लगा हुआ है कि उन्हें सियासी फ़ैसले करने हैं; सियासत को आगे लेकर जाना है। दुर्भाग्य से यह पाकिस्तान की तारीख़ है, जो बदल जाएगी। पाकिस्तान की अवाम को फ़ैसलों का हक़ देना होगा। इमरान की पार्टी तो यहाँ तक दावा कर रही है कि आने वाले चुनाव में सत्तारूढ़ पीएमएल-एन और पीपीपी को फ़ायदा पहुँचाने के लिए सेना और ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई एक साथ मिलकर काम कर रहे हैं।

बलूचिस्तान में विद्रोह

पाकिस्तान की सेना, आईएसआई और कुछ हद तक राजनीतिक दल भले कश्मीर में चिंगारी भडक़ाने की कोशिश करते हों; लेकिन हक़ीक़त यह है कि ख़ुद उनके देश में बलूचिस्तान गृहयुद्ध जैसी स्थिति में पहुँच चुका है। हाल में भारत यात्रा पर आयीं बलोच नेता प्रोफेसर नायला क़ादरी ने बलोच जनता का दर्द बयाँ किया था।
दरअसल बलूचिस्तान में पाकिस्तान की सेना के ज़ुल्मों का जबरदस्त विरोध है और वे (बलूचिस्तान निवासी) उम्मीद करते हैं कि भारत उनकी मदद करे। कनाडा में निर्वासित रूप से रह रहीं नायला पाकिस्तान को आतंकवाद का केंद्र कहती हैं और चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (सीपीईसी) के ख़िलाफ़ अभियान में भी काफ़ी सक्रिय हैं।
वह इस कॉरिडोर को बलूचिस्तान की जनता के लिए मौत का फ़रमान बताती हैं। उनका कहना है कि यह वास्तव में कोई इकोनॉमिक प्रोजेक्ट नहीं, बल्कि सैन्य प्रोजेक्ट है। उनका आरोप है कि हुक्मरान पाकिस्तान की मदद से चीनी बस्तियों के निर्माण के लिए हमारी पुश्तैनी ज़मीन से बलोचों को विस्थापित कर रहे हैं। बलूचिस्तान की आज़ादी के लिए बलोच जनता वर्षों से संघर्ष कर रही है। वहाँ बाक़ायदा बलोच लिबरेशन आर्मी (बीएलए) का गठन किया गया है और उसके लड़ाके पाकिस्तानी सेना और उसकी एजेंसियों के ख़िलाफ़ हमले कर रहे हैं।

हाल ही में आयी मीडिया रिपोट्र्स के मुताबिक, बीएलए ने कुछ समय पहले मिलिट्री इंटेलीजेंस (एमआई) और पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी इंटर-सर्विस-इंटेलीजेंस के करन में स्थित दफ़्तरों पर रॉकेट दाग़े थे। कुछ वीडियोज में इस घटना के समय वहाँ एम्बुलेंस और पुलिस की सायरन बजाती गाडिय़ाँ देखी गयी थीं। नायला क़ादरी सन् 2016 में तब सुर्ख़ियों में आयी थीं, जब उन्होंने एक बयान में कहा था कि भारतीय प्रधानमंत्री मोदी बलोच जनता के हीरो हैं।

आरोप लगते रहे हैं कि पाकिस्तान, चीन के साथ मिलकर बलूचिस्तान में नरसंहार कर रहा है और बलोच नस्ल को ख़त्म करना चाहता है। नायला कहती हैं कि बलूचिस्तान आज़ाद होता है, तो वहाँ भारत के प्रधानमंत्री मोदी की प्रतिमा लगायी जाएगी।

नायला हाल में जब दिल्ली आयी थीं, तो उन्होंने पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर (पीओके) पर पाकिस्तान की ज़्यादतियों की करतूतें बयाँ की थीं। नायला ने बताया कि पीओके के अवैध क़ब्ज़े वाले बलूचिस्तान सूबे की आज़ादी के लिए आन्दोलन चलाने वाले नेताओं ने 21 मार्च को अपनी निर्वासित सरकार का गठन किया है, जिसकी वह अध्यक्ष हैं।

चुनौतियों के बीच कुम्हारों में जगी आस

पूरी तरह बन्द नहीं हुई सिंगल यूज प्लास्टिक, प्लास्टिक के हर सामान का विकल्प नहीं मिट्टी के बर्तन

देश भर में सिंगल यूज पॉलिथीन के बन्द होने से भारतीय परम्परा के सिंगल यूज मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों में आस जगी है कि अब उनकी बिक्री बढ़ेगी। लेकिन उनकी कई समस्याएँ ऐसी हैं, जिन पर अगर अभी भी ध्यान दिया जाए, तो उनके इस व्यवसाय में चार चाँद लग सकते हैं। हालाँकि यह करना आसान नहीं होगा; लेकिन सरकारों को इसमें सहयोग करना चाहिए। कुम्हार मिट्टी से जो बर्तन बनाते हैं, वह एक कला है, जिसने पिछले कुछ दशकों में बुरी तरह दम तोड़ा है।

इससे पहले एक बार अपने पुश्तैनी काम के उभरने की आस कुम्हारों में तब जगी थी, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क़रीब डेढ़ साल पहले स्वदेशी व आत्मनिर्भर भारत का नारा दिया था। हालाँकि स्वदेशी अपनाओ का नारा काफ़ी पुराना है और कई बार हमारे देश में इसे दोहराया जा चुका है; लेकिन आत्मनिर्भर भारत के नारे ने कई भारतीय कारीगरों को बल दिया। इससे हस्तशिल्प के कई कामों को बढ़ावा मिला। ख़ासकर कुम्हारों को इससे बल मिला है। अयोध्या में पिछले दो साल से दीपावली पर लाखों दीये जलाने की परम्परा ने कुम्हारों की इस बर्तन बनाने की कला को संबल प्रदान किया है।

हालाँकि कुम्हार कला को बढ़ावा देने के लिए माटी कला बोर्ड द्वारा देश भर की ग्राम पंचायतों में कुम्हारों को नि:शुल्क पट्टों के आवंटन की घोषणा भी की गयी थी। इसके अलावा कुम्हारों को ही विद्युत चाक, मिट्टी मिलाने वाली मशीनें और कुल्हड़ तैयार करने वाली मशीनें वितरित करने की बात माटी कला बोर्ड ने कही थी; लेकिन उसने इस दिशा में ज़मीनी स्तर पर कितना काम किया, इसके सही आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। आज देश के कई राज्यों में माटी कला बोर्ड काम करने का दावा कर रहा है; लेकिन ये आँकड़े सामने नहीं आ रहे हैं कि उसके सहयोग से अभी तक कितने लोगों को मिट्टी के बर्तन बनाने का रोज़गार नसीब हुआ है? वहीं फरवरी, 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खादी ग्रामोद्योग योजना के तहत वाराणसी के कुम्हारों को 1,000 इलेक्ट्रिक चाक वितरित किये थे। इसके अतिरिक्त मिट्टी गूँथने की मशीनें और मिश्रण मशीनें भी दी थीं। इससे वाराणसी के कुम्हारों में उत्साह जगा था कि उनका काम बढ़ेगा। लेकिन कई समस्याओं से वे अब भी जूझ रहे हैं।

मिट्टी की कमी
कुम्हारों के आगे सबसे बड़ी समस्या बर्तन बनाने लायक मिट्टी की कमी की है। इसकी सबसे बड़ी वजह तालाबों का कम होना है। इसके अलावा जो तालाब बचे हुए हैं, उनकी मिट्टी गन्दगी की वजह से बर्तन बनाने के लिए पहले की तरह उपयोगी नहीं रही। कई जगह मिट्टी निकालने पर भी पाबंदी है। हाल ही में देश भर के कई स्थानों के कुम्हारों की समस्याओं को लेकर मीडिया में ख़बरें वायरल हुई हैं, जिनमें उन्होंने अपनी सबसे बड़ी समस्या मिट्टी की कमी बतायी है।

अहमदाबाद में नारोल की सडक़ पर मिट्टी के बर्तन बेचने वाले एक कुम्हार ने बताया कि अब पूरी तरह मिट्टी के बर्तनों की काफ़ी कमी है, क्योंकि मिट्टी नहीं मिलती। इन बर्तनों में मिट्टी, रेत, काग़ज़ की लुग्दी, गोबर, फेविकोल जैसी चीज़ें मिलायी जा रही हैं। ख़ाली मिट्टी के बर्तन तो पुरानी परम्परा के हिसाब से ही बनते थे, जो हाथ से चलने वाली चाक पर ही बनाये जाते थे। अब उन चाकों पर कम ही बर्तन बनते हैं, क्योंकि अब इलेक्ट्रिक चाक भी आ गये हैं। लेकिन मिट्टी के बर्तनों के लिए चिकनी मिट्टी ही सबसे ज़्यादा उपयुक्त होती है, जिसकी बहुत कमी है।

एक सर्वे बताता है कि पिछले तीन दशक में मिट्टी के बर्तनों का काम 60 फ़ीसदी तक घटा है, जिसे 100 फ़ीसदी के स्तर तक लाना अब मुमकिन नहीं है। इसकी सबसे बड़ी वजह तो यही है कि अब हर घर में मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल नहीं होता। दूसरी वजह यह है कि मिट्टी के जिन बर्तनों का इस्तेमाल आज भी थोड़ा-बहुत चलन में है, उनमें दीये, हुक्के, घड़े, कुल्हड़, गमले इत्यादि गिने-चुने बर्तन ही हैं, जो कहीं-कहीं इस्तेमाल में देखने को मिलते हैं। जबकि भारतीय संस्कृति की नींव यानी सभ्यता के पन्ने पलटें, तो एक दौर में हर घर में खाना बनाने तक के बर्तन मिट्टी के ही हुआ करते थे। दुनिया की सबसे पुरानी परम्परा मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की ख़ुदाई में तो यही साबित हुआ है।

मिट्टी के बर्तन ही नहीं विकल्प

सिंगल यूज प्लास्टिक की चीज़ें बन्द होने से उसका पूरा बाज़ार सिर्फ़ मिट्टी के बर्तनों से नहीं घेरा जा सकता है, क्योंकि मिट्टी के बर्तन ही सभी चीज़ों का विकल्प नहीं हैं। अगर हम चाय की दुकानों पर ही देखें, तो वहाँ डिस्पोजल गिलास चलन में हैं, जिनमें काग़ज़ का ज़्यादा इस्तेमाल होता है। उन पर रोक भी नहीं लगी है, इसलिए कुल्हड़ों की बिक्री भी बढऩे की बहुत उम्मीद करना ठीक नहीं है।

बाक़ी चीज़ों के लिए मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल भी नहीं बढ़ेगा, क्योंकि पॉलिथीन की जगह कपड़े के बैग, काग़ज़ के लिफ़ाफ़े आदि के चलन में बढ़ोतरी हुई है। फिर भी कुम्हारों में आस जगी है कि घरों में होने वाली प्लास्टिक की कई चीज़ों की जगह एक बार फिर मिट्टी के बर्तन लेंगे; क्योंकि लोगों में भी प्लास्टिक की चीज़ों के प्रति हेय भावना पैदा हो रही है, जिसकी सबसे बड़ी वजह इन चीज़ों से उनकी सेहत को हो रहा नुक़सान है। अगर चीन द्वारा बनाये जाने वाले मिट्टी के विकल्पों पर रोक लग जाए, तो भले ही कुम्हारों के हाथों को कुछ ज़्यादा काम मिल सकता है।

पूरी तरह बन्द हो प्लास्टिक
केंद्र सरकार ने सिंगल यूज प्लास्टिक पर रोक तो लगा दी; लेकिन यह रोक सिर्फ़ एक ढकोसला ही साबित हो रही है। दरअसल दूध, नमकीन, बिस्कुट, चिप्स, चॉकलेट, टॉफी और अन्य खाने-पीने की चीज़ों की पैकिंग भी सिंगल यूज प्लास्टिक की पॉलिथीन में ही होती है, उन पर अभी तक कोई रोक नहीं लगी है और न ही खाने-पीने की चीज़ों की पैकिंग के लिए उनका कोई विकल्प कम्पनियों ने तलाश किया है।

इसके अलावा बाज़ार में सब्ज़ी बेचने वालों से लेकर दुकानदारों तक ने पॉलिथीन का इस्तेमाल पूरी तरह बन्द नहीं किया है। ये लोग आज भी ग्राहकों को चोरी-छिपे पॉलिथीन में ही सामान दे रहे हैं। बहुत कम दुकानदार हैं, जिन्होंने पॉलिथीन का इस्तेमाल बन्द किया है। अभी चंद रोज़ पहले एक सब्ज़ी बेचने वाला ग्राहकों को पॉलिथीन में ही सब्ज़ी दे रहा था। उसने पॉलिथीन छिपाकर रखी हुई थीं।

जब उससे मैंने पूछा कि भैया, पॉलिथीन तो बैन हो गयी हैं, फिर आप सब्ज़ी इसमें क्यों दे रहे हैं? तो उसने जवाब दिया मैडम! आप थैला लेकर आयी हैं। ऐसे ग्राहक 100 में से 5-10 ही होंगे। बाक़ी तो ख़ाली हाथ हिलाते हुए सब्ज़ी लेने आ जाते हैं। अब उन्हें लौटा तो नहीं सकते न! मैंने कहा, तो भैया! कपड़े के बैग रखिए। उसने झट से कहा, मैडम! इतनी कमायी सब्ज़ी में नहीं है। कपड़े के बैग अब भी पॉलिथीन से दोगुने रेट में मिल रहे हैं। पॉलिथीन थोड़ी महँगी हुई है, वो भी ब्लैक में मिलने की वजह से। पहले ये क्वालिटी के हिसाब से 30 से 40 रुपये पाव थी, और अब 50 से 60 रुपये पाव हुई है। एक पन्नी (पॉलिथीन) अब भी 1-1.5 रुपये की पड़ती है, जबकि कपड़े का बैग 2-2.5 रुपये का पड़ता है।

अब अगर प्लास्टिक की चीज़ों से छुटकारे की बात करें, तो यह तभी मुमकिन है, जब प्लास्टिक से बनने वाली हर चीज़ की जगह काग़ज़, मिट्टी, धातु से बनी चीज़ों को फिर से इस्तेमाल में लाया जाए। आज हर घर में भरपूर मात्रा में प्लास्टिक की चीज़ें मौज़ूद हैं, जिनमें टीवी, फ्रिज और वाहनों से लेकर खाने के बर्तन तक शामिल हैं। खाने-पीने की चीज़ों की पैकिंग तो 99 फ़ीसदी प्लास्टिक के बिना नहीं होती।

आज अगर किचन तक मिट्टी के बर्तनों को पहुँचाना है, तो इसके लिए लोगों को स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारी देनी होगी और मिट्टी के बर्तनों के फ़ायदे उन्हें बताने होंगे। इसके अलावा चीनी मिट्टी और शीशे के जार (बोट) बनाने होंगे, जो कि रसोई में खाद्य पदार्थ रखने का बेहतर विकल्प हैं। वहीं प्लास्टिक की चीज़ों के ख़िलाफ़ सरकार को सख़्ती से अभियान चलाना होगा।

राजस्थान में ड्रग तस्कर बेलगाम

मिलीभगत से नशे की तस्करी जारी, पुलिस महानिदेशक ने दिखायी सख़्ती

सरकार और अफ़सरों की लाख कोशिशों के बावजूद संगीन अपराध बेइंतहा फलने-फूलने लगता है, तो इस बात को पूरी तरह मुहरबंद करता है कि इसके पीछे किसी बड़ी राजनीतिक ताक़त या सरकारी विभागों के गठजोड़ का पहलू जुड़ा हुआ है। राजस्थान में मादक पदार्थों के ख़िलाफ़ अभियान चलाये जाने के बावजूद रोकथाम निरर्थक साबित हो रही है, तो इसकी भी यही वजह हो सकती है।

इस मामले में राजस्थान के पुलिस महानिरीक्षक (डीजीपी) एम.एल. लाठर की रेंज के महानिरीक्षकों से की गयी जवाब तलबी इस बात की पुष्टि करती है। लाठर द्वारा जारी चिट्ठी में ‘वर्दी में छिपे ब्लेक शिप्स’ की रिपोर्ट माँगते हुए बड़ी बेबाकी से कहा गया है कि लगातार सामने आ रही घटनाओं से लगता है कि संगठित अपराध का इतना हौसलामंद होना पुलिस और व्यवस्था से जुड़े व्यक्तियों की जानकारी और मौन स्वीकृति के बिना सम्भव नहीं है। भीलवाड़ा में तस्करों की फायरिंग में जिस तरह दो जवानों की मौत हुई, उसके बाद ही इस बात का ख़ुलासा हुआ है। इसमें सीमावर्ती और नज़दीकी ज़िलों के 13 थाने सन्देह के घेरे में आये हैं।

तस्करों के हौसले बुलंद
सवाल उठा कि जब तस्करों की गाडिय़ाँ इसी रूट से निकल रही थीं, तो पुलिस कैसे बेख़बर हो सकती थी? पिछले दिनों भीलवाड़ा से निकल रहे ड्रग (मादक पदार्थ) तस्करों को रोका, तो उन्होंने पुलिस पर फायरिंग कर दी। इसमें एक कांस्टेबल की मौत हो गयी। इसी गिरोह ने दूसरी जगह फायरिंग करके दूसरे कांस्टेबल की हत्या कर दी थी। पड़ताल में सामने आया कि गिरोह ने नया रूट पकड़ा था, जिससे उनकी मिलीभगत का खेल नहीं चल सका। सुनील डूडी और कुख्यात राजू फ़ौजी उर्फ़ राडू द्वारा गिरोह मिलकर पाँच वाहनों में मादक पदार्थ ले जा रहे थे। सुनील डूडी के पकड़े जाने पर मिलीभगत का खेल उजागर हुआ।

मादक पदार्थ तस्करी का रास्ता सीमावर्ती ज़िलों से शुरू होता है। प्रतापगढ़, चित्तौडग़ढ़, झालावाड़ कोटा ग्रामीण क्षेत्र में अफ़ीम की खेती हो रही है। यहाँ अफ़ीम को अवैध रूप से परिष्कृत कर ब्राउन शुगर और स्मैक बनाने का काम भी होता है। यहाँ से मादक पदार्थ दो हिस्सों में जाता है। इसमें एक हिस्सा मारवाड़ या अन्य इलाक़ों से होता हुआ पंजाब जा रहा है। भीलवाड़ा में मादक पदार्थ व पाली में तेल चोरी मामले की घटना में भयावह प्रमाण मिले हैं। गोपनीय जानकारियों से स्पष्ट हो गया है कि अपराधियों की घुसपैठ व पुलिस तंत्र के भीतर तक है। पुलिस महानिदेशक ने यहाँ तक कहा कि हम जब तक सफल नहीं हो सकते, तब तक कि वर्दी में छिपे अपराधियों की पहचानकर उनके ख़िलाफ़ कठोर कार्रवाई नहीं करेंगे। उन्होंने कहा कि ऐसे पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ तत्काल विभागीय कार्रवाई की जाए तथा पुलिसकर्मियों से सुपरवाइजरी अधिकारी के उत्तरदायित्व का निर्धारण भी करें।

जवानों पर फायरिंग करने वाले कुख्यात राजू फ़ौजी उर्फ़ डारा को कांस्टेबल ने ही फ़रार कराया था। उस पर 11 से अधिक आपराधिक मामले दर्ज हैं। सीआरपीएफ का पूर्व जवान डारा पहली बार सन् 2017 में चर्चा में आया था, जब बाड़मेर में टोल प्लाजा पर फायरिंग की थी। फ़रारी में ही वह चित्तौड़ से मारवाड़ तक तस्करी कर रहा था। भीलवाड़ा की घटना के बाद राजू फ़ौजी को जोधपुर रेंज के टॉप 10 अपराधियों में शामिल किया गया।

मिलीभगत का खेल
मादक पदार्थ तस्करों से 13 थानों में मिलीभगत का खेल उजागर हुआ है। यह केवल दो गिरोह की पड़ताल में सामने आया है। ऐसे कई गिरोह क्षेत्र में सक्रिय हैं। पड़ताल में पता चला है कि हर थाने में एक ट्रिप के 5,000 रुपये देते थे। बंधी (इस धंधे) के लिए सम्पर्क (लाइजनिंग) ख़ास सिपाही करते हैं, जिन्हें गिरोह अलग से भुगतान करते हैं। अब आला अधिकारी यह जानकारी जुटा रहे हैं कि इनमें थाना अधिकारियों की कितनी भूमिका है?

पड़ताल में यह भी सामने आया कि एस्कॉर्ट करने वाले ही थानों से साँठगाँठ करते हैं। वे पहले किसी पुलिसकर्मी को पकड़ते, उसके ज़रिये एक से दूसरे थाने में मिलीभगत के रिश्ते बढ़ाते हैं। चित्तौडग़ढ़ से जोधपुर जाते समय पकड़े 43 किलो कुंतल (क्विंटल) डोडा (अफ़ीम का पोस्त) पूरा मामले में बड़ा ख़ुलासा हुआ है। इसमें जोधपुर के सफ़ेदपोश भागीरथ जाणी का नाम सामने आया है।

भागीरथ जाणी ने ही खेप जोधपुर में आपूर्ति (सप्लाई) के लिए मँगायी थी। हालाँकि उससे पहले ही सीआइडी ने उसे चित्तौड़ के मंगलवाड़ में पकड़ लिया। पड़ताल में भागीराथ का नाम सामने आया, तो उसे दर्ज मामलों में नामज़द किया गया। तस्कर खेप जल्द पहुँचाने के लिए वाहनों को तेज़ गति से दौड़ाते हैं। वे ट्रक जैसे बड़े वाहनों के बजाय छोटे वाहनों का उपयोग कर रहे हैं। इनमें 14 कुंतल तक डोडा ले जाया जाता है। एक वाहन गंतव्य तक पहुँचाने में ये दो से तीन लाख रुपये कमाते हैं। ख़ास बात यह है कि ये अकसर चोरी के वाहन उपयोग में लेते हैं। ख़ुद का वाहन भी हो, तो पहचान छिपाने के लिए उसके चेचिस व रजिस्ट्रेशन नंबर बदल देते हैं।

जोधपुर पाली सीमावर्ती क्षेत्र में रविवार तडक़े डोडा तस्करी व पुलिस के बीच मुठभेड़ हो गयी। तस्करों ने क़रीब 15-20 राउण्ड गोलियाँ दाग़ीं, जिसका जवाब पुलिस ने पिस्तोल से छ: व एके-47 से चार राउण्ड फायरिंग करके दिया। पाली ज़िले के सोजत व शिवपुरा में तस्कर दो एससयूीव छोड़ भाग गये।

दरअसल तस्करी की सूचना पर डीएसटी ने 23 जुलाई देर रात पाली सीमा के पास बिलाड़ा थाना क्षेत्र में नाकाबंदी की थी। 24 जुलाई को तडक़े 5:00-6:00 बजे के बीच तेज़ रफ़्तार दो एसयूवी आती नज़र आयीं। पुलिस ने टायर बस्र्ट करने वाली लोहे की कीलों को सडक़ पर रखा और रुकने का इशारा किया; लेकिन तस्कर तेज़ रफ़्तार से गाड़ी भगा ले गये।

सरपरस्तों पर होगी कार्रवाई
राजस्थान के सिरोही ज़िले के आबूरोड बॉर्डर से गुजरात तक हरियाणा की शराब की तस्करी का रैकेट गिरोह के सरपरस्त तत्कालीन एसपी हिम्मत अभिलाष टांक चलवा रहे थे। इसमें सिरोही के ही चार थानों रोहड़ा, रीको, आबूरोड सदर व स्वरूपगंज थाने के पुलिसकर्मी भी शामिल थे। हिम्मत इतनी कि टांक ने तस्करी रोकने वालों को धमकी तक दे दी। नहीं माने, तो उन्हें झूठे आरोप लगाकर फँसाया। यह ख़ुलासा विजिलेंस और एसओजी की जाँच में सामने आया है।

दरअसल मामला तो 29 मई को ही उठ गया था, जब आबकारी विभाग ने रोहिड़ा एरिया में बने अवैध डंपिंग व कटिंग स्टेशन का भंडाफोड़ करके क़रीब पाँच करोड़ की अवैध शराब पकड़ी थी। फिर पुलिस महानिरीक्षक एम.एल. लाठर ने सत्यता जाँचने के लिए विजिलेंस व एसओजी से जाँच करायी और यह जाँच रिपोर्ट भी तैयार हो चुकी है। इसमें ही अभिलाष टांक की मिलीभगत के सुबूत मिले हैं। टांक ने पहले एक रिटायर्ड एएसआई और मौज़ूदा हैड कांस्टेबल के मार्फ़त तस्करों से साँठगाँठ की, फिर उन पुलिसकर्मियों को रास्ते से हटाया, जो रास्ते में शराब पकड़ रहे थे। यही नहीं, उन्होंने डीएसटी वथानों की पुलिस को भी हाईवे पर नाकाबंदी करने से रोका तथा एनडीपीएस की सूचनाएँ देकर रास्ते से भी हटाया; लेकिन उनकी एक भी सूचना पर एडीपीएस का माल कभी नहीं पकड़ा गया। एडीजी विजिलंस बीजू जॉर्ज जोसफ़ का कहना है कि एसओजी व विजिलेंस की कामॅन रिपोर्ट बनेगी। यह रिपोर्ट उच्च अधिकारी के समझ पेश होगी, उसके बाद दोषियों पर कार्रवाई होगी।

महिलाओं को मिली नयी रोशनी

सर्वोच्च न्यायालय ने गर्भ चिकित्सकीय समापन अधिनियम के दायरे को विस्तार देते हुए अविवाहित महिला को दी गर्भपात की अनुमति

हाल में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अविवाहित महिलाओं के गर्भपात के अधिकार पर बड़ा फ़ैसला दिया है। दरअसल न्यायालय ने मेडिकल टॅर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (एमटीपी) एक्ट यानी गर्भ चिकित्सकीय समापन अधिनियम के दायरे को विस्तार देते हुए एक अविवाहिता को 24 सप्ताह का गर्भ गिराने की अनुमति दे दी। न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि महिला शादीशुदा नहीं है, केवल इस वजह से उसे गर्भपात करवाने से नहीं रोका जा सकता। इस फ़ैसले ने ऐसी अविवाहित महिलाओं को रोशनी दिखायी है, जो ऐसे हालात से गुज़रती हैं और अपनी जान जोखिम में डालकर असुरक्षित गर्भपात के तरीक़े अपनाती हैं व कई मर्तबा जान भी गँवा बैठती हैं।

ग़ौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने यह आदेश देते वक़्त दिल्ली एम्स के निदेशक को एमटीपी अधिनियम की धारा-3(2)(डी) के तहत एक मेडिकल बोर्ड का गठन करने का भी निर्देश दिया है। बोर्ड को यह तय करना है कि महिला की जान को बिना जोखिम में डाले गर्भपात किया जा सकता है या नहीं। अगर उसके जीवन को कोई ख़तरा नहीं होगा, तो गर्भपात कराया जा सकता है। बेशक गर्भपात कराने से पहले चिकित्सक की राय लेना अनिवार्य है; लेकिन इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने साफ़ कर दिया है कि 20-24 सप्ताह के गर्भ का गर्भपात कराने की अधिकार ग़ैर-शादीशुदा महिलाएँ को भी है।

दरअसल इस एक्ट को सही तरह से समझने की ज़रूरत है। सर्वोच्च न्यायालय ने जो विस्तार दिया है, उसकी दरकार एक लम्बे समय से थी। उपरोक्त मामला मूल रूप से मणिपुर की रहने वाली एक 25 वर्षीय महिला, जो फ़िलहाल दिल्ली में रहती है; ने दिल्ली उच्च न्यायालय से अपने 23 सप्ताह 5 दिन के गर्भ को समाप्त करने की इजाज़त माँगी थी। महिला ने न्यायालय को बताया कि वह लिव-इन-रिलेशनशिप के दौरान सहमति से बने सम्बन्ध की वजह से गर्भवती हुई। वह गर्भपात करना चाहती है; क्योंकि उसके साथी ने शादी करने से मना कर दिया है। महिला ने न्यायालय को बताया कि उसके माता-पिता किसान हैं और वह पाँच बहन-भाई में सबसे बड़ी है। आय के साधन सीमित हैं। इस हालात में वह बच्चे का पालन-पोषण करने में समर्थ नहीं है। पहले युवती दिल्ली उच्च न्यायालय गयी थी, जहाँ 15 जुलाई को न्यायालय ने गर्भपात की इजाज़त देने से मना कर दिया था।

उच्च न्यायालय ने कहा था कि सहमति से गर्भवती होने वाली अविवाहित महिला एमटीपी रूल्स-2003 के तहत 20 सप्ताह के बाद गर्भपात नहीं करा सकती। याचिकाकर्ता ने इस बात पर बल दिया कि शादी के बिना बच्चे को जन्म देने से उस पर मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ेगा। उस पर सामाजिक कलंक भी लगेगा। युवती की ओर से दलील दी गयी कि वह इस बच्चे को जन्म देने की मन:स्थिति में नहीं है, इसलिए ऐसे गर्भ को समाप्त करने की अनुमति दी जाए। पर दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सतीश चंद्र शर्मा और न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद की पीठ ने कहा कि न्यायालय संविधान के अनुच्छेद-226 के तहत अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते हुए क़ानून के दायरे से आगे नहीं जा सकता। पीठ ने कहा कि तुम बच्चे को क्यों मार रही हो? बच्चे को गोद लेने की एक बड़ी कतार मौज़ूद है।

उच्च न्यायालय के इसी फ़ैसले के ख़िलाफ़ याचिकाकर्ता सर्वोच्च न्यायालय गयी। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायाधीष सूर्यकांत और न्यायाधीश ए.एस. बोपन्ना की पीठ ने दिल्ली उच्च न्यायालय के फ़ैसले में संशोधन करते हुए कहा कि उच्च न्यायालय ने इस मामले में अनुचित प्रतिबंधात्मक नज़रिया अपनाया। दिल्ली उच्च न्यायालय का यह कहना उचित नहीं है कि वह एक ग़ैर-शादीशुदा औरत है और सहमति से गर्भ हुआ है, लिहाज़ा उसका मामला एमटीपी क़ानून के तहत नहीं आता। न्यायाधीश डी.वाई. चद्रचूड़ ने साफ़ किया कि एमटीपी एक्ट की व्याख्या को केवल शादीशुदा महिलाओं के लिए 20 सप्ताह तक के गर्भ को ख़त्म करने तक ही सीमित नहीं किया जा सकता। अगर ऐसा होगा, तो ये ग़ैर-शादीशुदा महिलाओं के साथ भेदभाव होगा। क़ानून बनाते समय विधायिका की यह मंशा नहीं रही होगी कि गर्भपात क़ानून केवल विवाहित महिलाओं तक ही सीमित किया जाए। याचिकाकर्ता महिला को सिर्फ़ इसलिए गर्भपात से इनकार नहीं किया जाना चाहिए कि वह अविवाहित महिला है। याचिकाकर्ता को अवाछिंत गर्भधारण की अनुमति देना क़ानून के उद्देश्य और भावना के विपरीत होगा।

ग़ौरतलब है कि देश में असुरक्षित गर्भपात के कारण मातृ मृत्यु दर के आँकड़े भी बढ़ रहे थे। ऐसे में भारत सरकार मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट-1971 लायी और इस विधेयक को लाने का उद्देश्य महिलाओं को सुरक्षित गर्भपात कराना, गर्भपात सेवाओं तक पहुँच में वृद्धि करना, महिलाओं को स्वस्थ और बेहतर जीवन प्रदान करना, असुरक्षित गर्भपात के कारण होने वाली मातृ मृत्यु दर को कम करना और गर्भपात की जटिलताओं में कमी लाना आदि है। इसके तहत 12 सप्ताह यानी तीन महीने तक के भ्रूण का गर्भपात कराने के लिए एक डॉक्टर की सलाह की ज़रूरत होती थी, और 12 से 20 सप्ताह यानी तीन माह से पाँच माह के गर्भ के मेडिकल समापन के लिए दो डॉक्टरों की ज़रूरत होती थी। गर्भ अगर 20 सप्ताह से ऊपर हुआ, तो फिर न्यायालय की इजाज़त से ही गर्भपात कराया जा सकता है। इस एमटीपी एक्ट में कई बार नये नियम भी जोड़े गये।

एमटीपी (संशोधन) विधेयक-2021 में नये नियम जोड़े गये हैं। इस विधेयक के साथ संलग्न किये गये उद्देश्यों व कारणों के विवरण में इस प्रकार कहा गया है- ‘समय बीतने और सुरक्षित गर्भपात के लिए चिकित्सा प्रोद्याोगिकी की प्रगति के साथ, विशेष रूप से कमज़ोर महिलाओं और गर्भावस्था में देर से पता चलने वाले पर्याप्त भ्रूण विसंगतियों के मामले में गर्भधारण को ख़त्म करने के लिए ऊपरी गर्भकालीन सीमा को बढ़ाने की गुंजाइश है। इसके अलावा असुरक्षित गर्भपात और इसकी जटिलताओं के कारण होने वाली मृत्यु दर और रुग्णता को कम करने के लिए क़ानूनी और सुरक्षित गर्भपात सेवा तक महिलाओं की पहुँच बढ़ाने की आवश्यकता है।’

एमटीपी (संशोधन) विधेयक-2021 के नियमों के तहत कुछ विशेष श्रेणी की महिलाओं के मेडिकल गर्भपात के लिए गर्भ की समय सीमा 20 सप्ताह से बढ़ाकर 24 सप्ताह यानी पाँच महीने से बढ़ाकर छ: महीने कर दी गयी। विशेष श्रेणी की महिलाओं में यौन उत्पीडऩ या बलात्कार या घरेलू व्यभिचार की शिकार नाबालिग़ व ऐसी महिलाएँ हैं, जिनकी वैवाहिक स्थिति गर्भावस्था के दारौन बदल गयी हों (विधवा या तलाकशुदा हों) और दिव्यांग महिलाएँ शामिल हैं। इसके साथ ही इसमें मानसिक रूप से बीमार महिलाओं; भ्रूण में ऐसी कोई विकृति या बीमारी, जिसके कारण उसकी जान को ख़तरा हो या फिर जन्म लेने के बाद उसमें मानसिक या शारीरिक विकृति होने की आशंका की स्थिति में और सरकार द्वारा घोषित मानवीय संकट ग्रस्त क्षेत्र या आपदा या आपात स्थिति में गर्भवती महिलाओं को भी शामिल किया गया है। इसमें गर्भ निरोधक की विफलता के आधार को महिलाओं और उनके साथी के लिए बढ़ा दिया गया है। एक उल्लेखनीय बदलाव इसमें जो किया गया है, वह है पति के बजाय पार्टनर शब्द का इस्तेमाल। पार्टनर शब्द ने आधुनिक युग में गर्भपात कराने वाली महिलाओं की दिक़्क़तों को कम कर दिया है।

यह बदलते समय की माँग भी है। समाज के रूढिग़त ढाँचे से आगे बढऩा और क़ानून के ज़रिये ऐसे नज़रिये का विस्तार करने से महिलाएँ सशक्त होती हैं। जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने गर्भपात के इस मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि 2021 में संशोधन के बाद मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट में धारा-3 के स्पष्टीकरण में पति के बजाय पार्टनर शब्द का इस्तेमाल किया जाने लगा है। भारत दावा करता है कि देश में प्रगतिशील गर्भपात क़ानून है; लेकिन सच्चाई सह भी है कि यहाँ असुरक्षित गर्भपात को मातृ मृत्यु के तीसरे प्रमुख कारण के रूप में देखा जाता है।

यही नहीं, क़रीब 80 फ़ीसदी महिलाओं को यह जानकारी नहीं कि 20 सप्ताह के भीतर गर्भ को ख़त्म करना क़ानून के दायरे में आता है। इसके अलावा 1.4 अरब की आबादी वाले इस देश में प्रसूति व स्त्री रोग विशेषज्ञों की संख्या क़रीब 70,000 है। इनमें से अधिकांश बड़े शहरों या क़स्बों में हैं। ग्रामीण इलाक़ों में कोई जाकर राज़ी नहीं है। वहाँ ऐसे डॉक्टरों की कमी के साथ-साथ ज़रूरी चिकत्सकीय सुविधाओं की भी बहुत कमी है। सरकार के समक्ष यह बहुत बड़ी चुनौती है। सर्वोच्च न्यायालय ने तो बड़ा आदेश दे दिया, पर इसके बरअक्स सरकार को भी गर्भपात की सुरक्षित सेवाओं के विस्तार के लिए गम्भीर होना होगा।

कांवडिय़ों की भक्ति के अजब-ग़ज़ब रंग

श्रावण मास चल रहा है। हरिद्वार में लाखों लोगों की भीड़ उमड़ रही है, ज़्यादा संख्या कांवडिय़ों की है। हर की पैड़ी से लेकर बाज़ार की सडक़ें और हाईवे का कांवड़ पथ भगवा हो रहा है। हरिद्वार बोल बम और बम भोले के नारों से गूँज रहा है। कोरोना काल में दो साल तक कांवड़ यात्रा पर प्रतिबंध था, उसका असर यह हुआ कि इस वर्ष यात्रा की शुरुआत के पहले दिन ही यानी 14 जुलाई को चार लाख के क़रीब कांवडिय़े हरिद्वार आये। प्रशासनिक सूत्रों की मानें, तो 14 जुलाई से 27 जुलाई तक चलने वाली कावड़ यात्रा में चार करोड़ के क़रीब कांवडिय़ों के आने का अनुमान है। कांवड़ यात्रा आसान नहीं है; लेकिन शिव की आस्था में सराबोर कांवडिय़ों का उत्साह कम नज़र नहीं आता।

पवित्र भावना से शुरू हुई इस परम्परा में अब काफ़ी बदलाव आ चुका है। कांवड़ यात्रा में नये-नये शगल शामिल हो गये हैं। रंग-बिरंगी चीज़ों से सजायी गयीं कांवड़ अलग-अलग रूपों और रंगों में नज़र आती हैं। ज़्यादातर कांवडिय़ों ने तिरंगा अपनी-अपनी कांवड़ में लगा रखा है। हालाँकि भोले के नाम पर कांवडिय़े नशे के सेवन को सही ठहराते हैं; लेकिन कांवडिय़ों की आस्था पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं लगा सकते। अब कांवड़ यात्रा में पुरुष कांवडिय़ों के साथ महिला और बाल कांवडिय़े भी शामिल हो रहे हैं। कंधों पर भारी भरकम कांवड लेकर कई दिनों तक मीलों पैदल चलना। रास्ते में कहीं धूप, तो कहीं तेज़ बारिश का सामना करना। कभी-कभी या किसी-किसी कांवडिय़े द्वारा भूखे-प्यासे रहकर हरिद्वार की पग यात्रा करते हैं। जो भी हो, आस्था से भरे कांवडिय़े इन मुश्किलों के आगे हार नहीं मानते। हर कांवडिय़े यही मानते हैं कि भगवान शिव उनके दु:ख हरकर उनकी मन्नतें पूरी करते हैं।

ग़ाज़ियाबाद के कांवडिय़ा मिथुन पिछले 18 साल से कांवड़ ला रहे हैं। बचपन में उन्होंने कांवड़ उठायी थी। उन्हें अच्छा लगा, और वह हर साल कांवड़ लाने लगे। उनका मानना है कि भगवान शिव ने उसकी हर मनोकामना पूरी की है। मकान नहीं था, वह भी बना। शादी हुई और अब एक बेटी भी है, जिसकी उन्होंने मन्नत माँगी थी। बेटी ही माँगने के सवाल पर मिथुन कहते हैं कि बेटी कोई धैर्य वाला आदमी ही माँगता है। क्योंकि बेटी एक गिलास पानी दे देगी, मगर बेटा नहीं देगा। वह कहेगा उठकर ले लो। मिथुन की यह बात बेटों की चाहत में किसी भी हद तक गुज़रने वाले या बेटियों की हत्या करने वाले लोगों के लिए तमाचा है।

बहरहाल दिल्ली से शिवम, अजीत, पंकज और दीपक को भी कांवड़ उठाकर मीलों पैदल चलना अच्छा लगता है। उनकी आस्था है कि वे भोले से जो माँगते हैं, उनको मिल जाता है। वे कहते हैं कि रास्ते में कई दिक़्क़तें आती हैं, जैसे- अगर कहीं नहाने के लिए पानी नहीं मिलता, तो भूखे रहना पड़ता है। क्योंकि कांवड़ उठाने से पहले अगर खाना खाया हो, तो स्नान करना पड़ता है। कांवड़ को सजाने के लिए उन्होंने प्लास्टिक की कई चीज़ों का इस्तेमाल किया है।

प्लास्टिक का उपयोग क्यों? यह पूछने पर वे कहते हैं कि यह सब तो सरकार को देखना चाहिए। प्लास्टिक बनाना ही बन्द कर दे, तो लोग उसे क्यों इस्तेमाल करेंगे? आर्य नगर के दुकानदार अंकित पिछले 40 साल से कांवडिय़ों की इस यात्रा के गवाह रहे हैं। वह बताते हैं कि कांवड़ पहले सादे तरीक़े से लायी जाती थी; लेकिन अब काफ़ी तामझाम है। अब कांवडिय़े तिरंगा लगाते हैं। इससे लगता है कि उनमें राष्ट्रवाद का भाव है। लेकिन तीन-चार साल के बच्चे को साथ मीलों चलाना सही नहीं है।

कांवड़ में प्लास्टिक के इस्तेमाल पर अंकित का भी यही कहना है कि सरकार प्लास्टिक बनाने पर रोक लगा दे; ख़ासकर जो इसके उत्पादक हैं, उन्हें रोके। छोटे-छोटे दुकानदारों का चालान काट दिया जाता है, जबकि हरिद्वार में चार प्लास्टिक फैक्ट्रियाँ हैं; लेकिन उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती। हरिद्वार में कांवड़ यात्रा को शान्तिपूर्वक सम्पन्न कराने के लिए कांवड़ कंट्रोल रूम बनाया गया है, जिसमें प्रशासन और पुलिस व्यवस्था को देख रहे हैं। कांवडिय़ों के लिए कुछ दिशा-निर्देश जारी किये गये हैं। इनमें धार्मिक भावनाओं को भडक़ाने वाले गीत बजाने, सात फीट से अधिक ऊँची कांवड़ लेकर चलने, लाठी-डण्डे और भाले आदि लेकर चलने पर प्रतिबंध लगाया गया है।
ख़ासकर बिना पहचान-पत्र के किसी भी कांवडिय़ा को हरिद्वार में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है। एडीएम प्यारे लाल साहा ने बताया कि कांवड़ यात्रा वाले क्षेत्र को अलग-अलग क्षेत्र (जोन) में बाँटा गया है। इनमें 12 सुपर जोन, 31 जोन और 133 सेक्टर शामिल हैं। 9,000 से 10,000 तक सुरक्षाकर्मियों को तैनात किया गया है। कांवड़ क्षेत्रों में ड्रोन, पीएसी और सीसीटीवी कैमरे लगाये गये हैं।

नोडल अधिकारी डॉ. राजेश गुप्ता के अनुसार कांवडिय़ों के लिए अलग-अलग मेडिकल कैम्प भी लगाये गये हैं। इनमें एक्सीडेंटल इंजरी, मसल पेन, बुख़ार और डायरिया के केस ज़्यादा आ रहे हैं, जिनमें एक लाख के क़रीब कांवडिय़ों का उपचार किया गया है। कांवड़ यात्रा के अन्तिम दिन तक डेढ़ लाख का आँकड़ा पार कर सकता है।

शिव होने का अर्थ
शक्ति से युक्त अनादि देव को शिव कहा जाता है। त्रिदेवों में एक शिव ही भोले देवता माने गये हैं। हालाँकि वे संहार के देव हैं और क्रोधित हो जाने पर वे नटराज भी बन जाते हैं। वह संसार के कल्याण के लिए विष भी पी जाते हैं। पापों की अति हो जाने पर संहारकर्ता भी बन जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार, अपने बहुत सारे गुणों के कारण वे महादेव कहलाते हैं। प्रार्थना करने पर शीघ्र प्रसन्न होने वाले महादेव अपने भक्तों के दु:ख दूर करके उनकी मनोकामनाएँ पूरी करते हैं। शंकर, शिव, शम्भू, नीलकंठ, कैलाशपति, उमापति, महाकाल, जटाधारी, भूतनाथ, चंद्रशेखर आदि अनेक नामों के साथ विभूषित होने वाले महादेव शिव का एक नाम रुद्र भी है, जिसका अर्थ है- दु:ख दूर करने वाला। शिव कल्याणकारी हैं और कंद-मूल अर्पित कर देने मात्र से ही प्रसन्न हो जाते हैं।

हरियाणा में माफिया का आका कौन?

सरकार और पुलिस को सीधी चुनौती दे गये डीएसपी को डंपर से कुचलने वाले माफिया

हरियाणा के नूह ज़िले के पचगाँव में बेख़ौफ़ अवैध खनन माफिया ने डंपर से पुलिस उप अधीक्षक (डीएसपी) की कुचलकर कथित हत्या कर दी। नूह ज़िले के पचगाँव में अरावली पहाडिय़ों पर अवैध खनन की सूचना के बाद डीएसपी सुरेंद्र बिश्नोई तीन पुलिसकर्मियों के साथ दबिश देने गये थे। हत्या की इस कथित साज़िश में माफिया की वहशत का शिकार होने से तीन अन्य पुलिसकर्मी बाल-बाल बचे। डीएसपी सुरेंद्र सिंह बिश्नोई की डंपर से कुचलकर की जाने वाली इस कथित हत्या को क़ानून और पुलिस को सीधी चुनौती देने वाली घटना माना जा सकता है। इसी वर्ष अक्टूबर में सेवानिवृत्त होने जा रहे बिश्नोई की ड्यूटी के दौरान हत्या की वजह राज्य में अवैध खनन और बेख़ौफ़ खनन माफिया ही हैं। इसे राज्य सरकार की नाकामी और सर्वोच्च न्यायालय के कड़े आदेशों की पालना में कोताही माना जाना चाहिए।

मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने घटना की न्यायिक जाँच के आदेश दिये हैं। साथ ही परिवार को एक करोड़ रुपये की आर्थिक मदद और एक सदस्य को नौकरी देने की घोषणा की है। लेकिन क्या इससे सरकार अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो गयी? भविष्य में ऐसी घटना और न हो इसके लिए अवैध खनन पर पूरी तरह से रोक लगाने की ज़रूरत है। सरकारी दस्तावेज़ों में तो अरावली क्षेत्र में खनन का काम बन्द है; लेकिन आपसी मिलीभगत से यह धंधा धड़ल्ले से चल रहा है। ज़ाहिर है इस अवैध खनन को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है। पचगाँव में किसी सरकारी कर्मचारी की हत्या का चाहे यह पहला मामला हो; लेकिन इससे पहले अवैध खनन माफिया के लोगों ने सरकारी टीमों को मौक़े से भागने पर भी मजबूर किया है।

पहले भी इसी नूह ज़िले में जाँच के दौरान एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के क़ाफ़िले के वाहन पर डंपर से भारी पत्थर गिरा दिये थे। इस घटना में कोई हताहत नहीं हुआ; लेकिन सरकारी वाहन क्षतिग्रस्त हो गया था। पुलिस ने इस मामले में हत्या के प्रयास में मुक़दमा दर्ज किया है। यमुनानगर में वर्ष 2020 में एक ऐसा ही मामला हुआ, जिसमें जाँच करने गये प्रशासनिक अधिकारी की टीम पर खनन माफिया के लोगों ने हमला कर दिया।

अवैध खनन को रोकने का ज़िम्मा खनन और भूगर्भ विभाग का होता है। कई बार शिकायत मिलने पर इनका दल (टीम) मौक़े पर जाता है; लेकिन वहाँ उनका मुक़ाबला हथियारबंद लोगों से हो जाता है, और मजबूरन बिना कार्रवाई के आना पड़ता है। ऐसी घटनाओं के बाद विभाग पुलिस दल को साथ लेता है। पचगाँव की घटना निंदनीय है। लेकिन इसमें कहीं-न-कहीं पुलिस की भी चूक मानी जा सकती है। अवैध खनन की सूचना पक्की थी, तो डीएसपी सुरेंद्र बिश्नोई का केवल तीन लोगों के साथ वहाँ जाना ठीक नहीं था। पर्याप्त पुलिस बल होता, तो यह घटना नहीं होती। पुलिस टीम ने मामले को हल्के में लिया, जिसका बड़ा ख़ामियाज़ा सामने आया।

बिश्नोई ज़िले के तावड़ू में तैनात थे और अवैध खनन रोकने की समिति के सदस्य होने के नाते उनकी ज़िम्मेदारी भी थी। ज़िले के पंडाला, ककरोला, बड़ गुज्जर और तावड़ू के अरावली क्षेत्र में अवैध खनन ख़ूब होता है। डंपर का नंबर स्पष्ट तौर पर न दिखने या बिना नंबरों के डंपर और अन्य वाहन इस धंधे में लगे हैं। पत्थरों से लदे ये वाहन क्रशर जोन में या फिर सीधे निर्माण क्षेत्र में जाते हैं। जब मेवात के इलाक़े में खनन पर पूरी तरह से रोक के आदेश हैं, तो पत्थरों का अवैध खनन कैसे हो रहा है? देर रात या सुबह जल्दी ऐसे वाहनों की भरमार देखी जा सकती है। पुलिस ने पचगाँव के ही छ: डंपरों को ज़ब्त किया है, जो इसी काम में लगे हुए हैं।

खनन के लिए प्रतिबंधित अरावली क्षेत्र में यह काम क्या डंपर चालक, ख़लासी या मज़दूर टाइप के लोग नहीं कर रहे; बल्कि समाज के सफ़ेदपोश लोग करा रहे हैं। डंपर चालक, ख़लासी या मज़दूर तो काम के बदले वेतन पाते हैं। ज़्यादातर ऐसे लोग ग़ुरबत में ज़िन्दगी बिता रहे हैं। डीएसपी सुरेंद्र बिश्नोई को रौंदने वाले डंपर के चालक शब्बीर उर्फ़ मित्तर और ख़लासी इक्कर को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया है। घटना के दौरान डंपर पर चार और लोग भी थे। पुलिस उन्हें भी गिरफ़्तार कर लेगी। न्यायालय दोषियों को दण्डित भी करेगा; लेकिन क्या इससे अवैध खनन का यह काला कारोबार रुक जाएगा? हत्या की घटना के बाद इस क्षेत्र में भले कुछ समय के लिए काम थम जाए, पर बाद में यह फिर उसी तरह से जारी रहेगा; जैसा अब तक चलता आ रहा है।

वर्ष 2022-23 में अब तक इस क्षेत्र में अवैध खनन के आरोप में 123 एफआईआर दर्ज हो चुकी है। सैकड़ों वाहन ज़ब्त किये जा चुके हैं। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की पालना नहीं हो पा रही है। या पालना के लिए यह सब किया जा रहा है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने 01 जुलाई से 15 सितंबर तक हरियाणा में किसी भी तरह से अवैध खनन पर पूरी तरह से रोक लगा रखी है। पचगाँव की बड़ी घटना इसी दौरान हुई है। अरावली क्षेत्र में किसी तरह से निर्माण पर सर्वोच्च न्यायालय का रुख़ बेहद कड़ा है।

जून, 2021 में खनन के लिए प्रतिबंधित ज़िले फ़रीदाबाद के खोरी गाँव के 500 से ज़्यादा घरों को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद गिरा दिया गया था। हज़ारों लोग प्रभावित हुए थे; लेकिन राज्य सरकार ने न्यायालय के आदेश की पालना करायी। वह तो एक सीमित क्षेत्र की बात थी; लेकिन अरावली के बड़े और बीहड़ जैसे इलाक़े पर पूरी तरह से खनन गतिविधियों पर पूरी तरह से रोक लगाना असम्भव कैसे हो रहा है? हाँ, यह काम थोड़ा मुश्किल ज़रूर है; लेकिन सरकार की मंशा हो, तो यह किया जा सकता है। समस्या यह है कि अवैध खनन से जुड़े लोग किसी तरह राजनीतिक और सरकारी संरक्षण हासिल कर ही लेते हैं। अरावली क्षेत्र में फार्म हाउसेस के लिए बन रही पक्की सडक़ों के काम को भी न्यायालय के आदेश के बाद बन्द करना पड़ा था। इस धंधे के लोग किसी भी तरह के दुस्साहस कर जाते हैं, उन्हें ऊपर से संरक्षण मिला होता है। लाखों-करोड़ों रुपये के इस धंधे में डंपर चालक, ख़लासी, मज़दूर या अन्य छोटे मोटे लोग नहीं होते इन्हें चलाने वाले बड़े रसूख़ वाले होते हैं। यह भी जगज़ाहिर है कि ऐसे धंधे सरकारी संरक्षण में ही फलते-फूलते रहे हैं। अवैध खनन की एक सूचना पर वे पचगाँव डंपर चालक ने क़ानून से बचने के लिए यह दुस्साहस किया या फिर अवैध खनन माफिया के संरक्षण के चलते यह सब हुआ।

सबसे बड़ा सवाल यह कि हरियाणा में अरावली की पहाडिय़ों में अवैध खनन पर पूरी तरह से रोक के बावजूद मिलीभगत से यह धंधा चल रहा है। वर्ष 2009 में सर्वोच्च न्यायालय ने गुडग़ाँव, फ़रीदाबाद और नूह में अवैध खनन पर पूरी से रोक लगा दी थी। बावजूद इसके बड़े पैमाने पर अवैध खनन हो रहा है। पिछले एक दशक में अवैध खनन में लगे हज़ारों वाहन ज़ब्त हुए हैं। इनसे लाखों रुपये की वसूली भी हुई; लेकिन अवैध खनन बदस्तूर जारी रहा। नूह ज़िले के पचगाँव की घटना को देखते हुए राज्य सरकार को बेलगाम होते खनन माफिया पर लगाम लगानी पड़ेगी; नहीं तो फिर डीएसपी सुरेंद्र बिश्नोई की तरह कोई और अफ़सर इनका शिकार बनेगा।


“पचगाँव की घटना के दोषियों पर सख़्त कार्रवाई होगी। कोई भी दोषी क़ानून से नहीं बच पाएगा। सरकार ने न्यायिक जाँच के आदेश जारी कर दिये हैं। अवैध खनन पर जल्द ही कड़े क़दम उठाये जाएँगे।’’
अनिल विज
गृहमंत्री, हरियाणा


“डीएसपी सुरेद्र बिश्नोई को डंपर से कुचलने की घटना राज्य में बदहाल क़ानून व्यवस्था का नतीजा है। जब पुलिस अधिकारी ही सुरक्षित नहीं, तो आम लोगों की क्या बिसात है? राज्य में अवैध खनन का जारी रहना सरकार की नाकामी है।’’
भूपेंद्र सिंह हुड्डा
पूर्व मुख्यमंत्री

अरावली को नष्ट कर रहे माफिया
अरावली की पहाडिय़ाँ लगभग 700 किलोमीटर क्षेत्र में फैली हैं। इस पर्वत का तीन-तिहाई से ज़्यादा हिस्सा राजस्थान में है, तो एक-तिहाई से कम हिस्सा हरियाणा में है। दोनों ही राज्यों में अवैध खनन होता है। इस क्षेत्र में खनन से दिल्ली सीमा से जुड़े बड़े भूभाग के पर्यावरण सन्तुलन के बिगडऩे का ख़तरा है। दिल्ली सीमा क्षेत्र के साथ लगते फ़रीदाबाद, गुडग़ाँव और नूह में इन पहाडिय़ों के अवैध खनन पर सर्वोच्च न्यायालय रोक लगा चुका है। अवैध खनन न होने पाये, इसके लिए खनन और भूगर्भ विभाग, पुलिस, वन विभाग पर आधारित समितियाँ गठित की गयी हैं। अवैध खनन रोकने की इनकी सीधी ज़िम्मेदारी है। यह सब कुछ होते हुए भी अरावली क्षेत्र में अवैध तौर पर खनन हो रहा है। सरकारी तंत्र में लालची अफ़सरों, कर्मचारियों और सरकार में भ्रष्ट मंत्रियों, नेताओं और विधायकों पर लगाम कसकर सरकार को कड़े क़दम उठाने होंगे। लेकिन ये क़दम उठायेगा कौन? बड़ा सवाल यह है कि हरियाणा में अवैध खनन माफिया का आक़ा कौन है?

सम्मानजनक अन्तिम विदाई
हिसार ज़िले के सारंगपुर गाँव में डीएसपी सुरेंद्र बिश्नोई की पूरे राजकीय सम्मान के अन्तिम विदाई की गयी। सैकड़ों लोगों के अलावा इस मौक़े पर राज्य के पुलिस महानिदेशक भी मौज़ूद रहे। विश्नोई के परिवार में उनकी पत्नी के अलावा एक बेटा और बेटी हैं। परिवार में घटना से सदमे जैसी हालत है। सुरेंद्र बिश्नोई हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल के परिवार से रिश्तेदारी थे।

दोराहे पर झारखण्ड की राजनीति

हेमंत सरकार के गिरने की चर्चा के बीच बहने लगी उलटी गंगा

झारखण्ड की राजनीति को समझना आसान नहीं है। झामुमो, कांग्रेस और राजद के गठबंधन की सरकार है। झामुमो के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं। भाजपा विपक्ष में है। पिछले कुछ दिनों से हेमंत सरकार के गिरने की चर्चा झारखण्ड से लेकर दिल्ली तक हो रही है। चर्चा यहाँ तक है कि महाराष्ट्र की तरह झारखण्ड में भी सत्ता परिवर्तन की तैयारी है। इस सत्ता परिवर्तन में कांग्रेस टूट रही या झामुमो टूटेगा, यह फ़िलहाल साफ़ नहीं है। दिख यह भी रहा है कि हेमंत सोरेन महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से ज़्यादा समझदार हैं। वह स्थिति को भाँपकर सँभाल रहे हैं। क्योंकि इस दौरान राजनीतिक धरातल पर उल्टी ही गंगा बहती दिख रही है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भाजपा के साथ हैं, या भाजपा के ख़िलाफ़? यही साफ़ नहीं हो रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का देवघर दौरा हो या राष्ट्रपति चुनाव मुख्यमंत्री का व्यवहार कई सवाल खड़े कर रहे हैं। वहीं, सरकार में मुख्य सहयोगी दल कांग्रेस की अंदरूनी हालत समय-समय पर सार्वजनिक मंच पर दिख जाता है। हर समय कांग्रेस विधायकों के टूटने की चर्चा रहती है। यहाँ तक कि राष्ट्रपति चुनाव में जम कर क्रॉस वोटिंग भी हुई। जो पार्टी नेताओं के माथे पर बल ला दिया है।

हेमंत पर शिकंजा
हेमंत सोरेन की सरकार संकट में है। उनकी ख़ुद की विधानसभा की सदस्यता ख़तरे में है। चुनाव आयोग ने हेमंत सोरेन से खनन पट्टा लेने के मामले में जवाब तलब किया है। राज्यपाल ने संज्ञान लिया है। उधर, सोरेन के आसपास के लोग, उनके भाई विधायक बसंत सोरेन, सम्बन्धित अधिकारी सबके ख़िलाफ़ ईडी की कार्रवाई चल रही है। हेमंत सोरेन के विधायक प्रतिनिधि पंकज मिश्रा को ईडी ने मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में हिरासत में ले लिया है। पूछताछ चल रही है। हाईकोर्ट में मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ पीआईएल पर सुनवाई चल रही है। सीबीआई जाँच की भी कोर्ट से माँग की गयी है। चर्चा है देर सवेर क़ानूनी शिकंजा हेमंत सोरेन पर कसेगा। यानी हेमंत सोरेन चौतरफ़ा घिरे हैं और उनकी सदस्यता जानी तय मानी जा रही है।

मनमुटाव और खींचतान
पार्टी स्तर पर भी मनमुटाव और खींचतान की बात सामने आ रही है। विधायक लोबिन हेंब्रम जैसे झामुमो के कुछ वरिष्ठ नेता गुरुजी यानी शिबू सोरेन को अपना नेता मानते हैं; लेकिन हेमंत सोरेन को नहीं। लोबिन हेंब्रम ने यहाँ तक कह दिया कि हेमंत सोरेन सदन के नेता हैं, हमारे नहीं। हमारे नेता तो गुरुजी हैं। उन्होंने कई मुद्दों पर अपनी ही पार्टी के सरकार के विरोध में सार्वजनिक तौर पर मोर्चा खोल रखा है। वहीं हेमंत की भाभी सह विधायक सीता सोरेन ने भी मुख्यमंत्री और सरकार के कामकाज पर कई बार सार्वजनिक तौर पर नाराज़गी ज़ाहिर की है। वह भी कई मुद्दों पर लगातार सरकार के ख़िलाफ़ बोल रही हैं।
इसी तरह झामुमो के कई वरिष्ठ विधायक और नेता कई मुद्दों पर पार्टी लाइन से अलग सरकार के ख़िलाफ़ दिख रहे हैं।

मोदी की तारीफ़ में पढ़े क़सीदे
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के तेवर इन दिनों बदले-बदले से हैं। देवघर हवाई अड्डे के उद्घाटन मौक़े पर सार्वजनिक मंच से जिस तरह से उन्होंने भाषण दिया, वह तो यही दिखा रहा कि हेमंत महाराष्ट्र के उद्धव ठाकरे की तरह ग़लती करना नहीं चाहते हैं। क्योंकि अगर उनकी कुर्सी गयी, तो पार्टी (झामुमो) के जो हालात हैं, उसे भी बचा पाना कहीं मुश्किल न हो जाए। उन्होंने देवघर हवाई अड्डे के उद्घाटन मौक़े पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जमकर तारीफ़ की। उन्होंने कहा कि अगर इसी तरह से केंद्र और राज्य की सरकारें मिलकर काम करती रहीं, तो वह दिन दूर नहीं जब झारखण्ड देश के अग्रणी राज्यों में से एक होगा। इतना ही नहीं, देवघर के लोकसभा सांसद निशिकांत दुबे, जिनके साथ इन दिनों हेमंत का 36 का आँकड़ा है; की भी तारीफ़ करने से नहीं चूके।

राष्ट्रपति चुनाव में केंद्र के साथ

राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को समर्थन देने पर फ़ैसला करने से पहले हेमंत सोरेन अपनी पार्टी की बैठक में नहीं गये। पार्टी के नेताओं से मिलकर फ़ैसला नहीं हुआ। इस पर फ़ैसला करने के लिए वह दिल्ली आये। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मिले। अमित शाह से मिलने के बाद उनको अचानक याद आया या ज्ञान बोध हुआ कि द्रौपदी मुर्मू तो झारखण्ड की राज्यपाल रह चुकी हैं। आदिवासी समाज से आती हैं। हमारी पार्टी आदिवासी समाज का विरोध कैसे कर सकती है। आदिवासी समाज से एक महिला राष्ट्रपति भवन पहुँच रही है, तो उसका समर्थन हम कैसे नहीं करेंगे।
यशवंत सिन्हा को विपक्ष ने राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया था। राजग द्वारा राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए द्रौपदी मुर्मू के नाम की घोषणा के बाद भी सोरेन कांग्रेस, यूपीए और बाक़ी विपक्षी दलों के साथ थे। तब उन्हें याद नहीं आया कि द्रौपदी मुर्मू आदिवासी समाज से आती हैं। वह कह रहे थे कि इस पर विचार किया जाएगा। पार्टी फॉरोम पर बात होगी, फिर फ़ैसला लिया जाएगा। इससे तो यही लगता है कि केंद्रीय मंत्री अमित शाह से मुलाक़ात के बाद कुछ खिचड़ी पकी है।

कांग्रेस पड़ रही ढीली
कांग्रेस कमज़ोर होने के साथ ढीली पड़ रही है। पार्टी राज्य गठन के बाद सबसे अधिक सदस्यों के साथ विधानसभा में है, इसके बाद भी विधायकों और मंत्रियों का मतभेद समय-समय पर सार्वजनिक होता रहता है। जब भी हेमंत सोरेन सरकार गिरने की बात आती है, कांग्रेस विधायकों के ही टूटने की बात निकलती है। बीते वर्ष कांग्रेस के कुछ विधायकों पर सरकार गिराने की साज़िश का आरोप लगा। विधायकों के ख़रीद-फ़रोख़्त की चर्चा हुई। पुलिस ने मामला दर्ज किया।

हालाँकि वह मामला ठण्डे बस्ते में चला गया। कांग्रेस के विधायक अपनी सरकार होने के बाद भी जनता का काम नहीं करवा पाने का आरोप सार्वजनिक मंच से हमेशा लगाते हैं। इन सब के बीच कांग्रेस विधायक राष्ट्रपति चुनाव में एक और आरोप में घिर गये हैं। उन पर पार्टी लाइन से हटकर भाजपा का साथ देने और राष्ट्रपति चुनाव में द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में वोट करने के आरोप लग रहे हैं। यह हक़ीक़त भी है। क्योंकि जितने वोट झारखण्ड से द्रौपदी मुर्मू को मिले, वह उम्मीद से अधिक था। उधर, कांग्रेस कोटे के मंत्री आलमगीर आलम भी ईडी के निशाने पर आ गये हैं। अवैध खनन और मनी लॉन्ड्रिंग की जाँच कर रही ईडी ने आलमगीर के ख़िलाफ़ भी मामला दर्ज कर लिया है।

कांग्रेस नहीं कर सकती ऐतराज़
कांग्रेस की राज्य में स्थिति बड़ी विचित्र है। पार्टी सरकार में है। झामुमो के साथ गठबंधन में है; लेकिन खुलकर किसी मामले में ऐतराज़ जताने की स्थिति में भी नहीं है। राष्ट्रपति चुनाव में झारखण्ड की दलीय स्थिति के अनुसार भाजपा के 25 विधायकों के अलावा झामुमो के 30, आजसू पार्टी के दो सदस्यों के अलावा दो निर्दलीय का समर्थन पहले से ही द्रौपदी मुर्मू को था। इस तरह से द्रौपदी मुर्मू को 59 मत (वोट) मिलना पहले से ही तय था। इसमें से भाजपा के एक विधायक इंद्रजीत मेहता बीमार रहने के कारण अस्पताल में भर्ती हैं और वह मतदान करने नहीं पहुँचे थे। इस तरह से द्रौपदी मुर्मू को 58 मत मिलना तय था। लेकिन उन्हें झारखण्ड से 70 विधायकों का समर्थन मिला और एक मत निरस्त हो गया। इस तरह से 12 वोट अधिक मिले। कांग्रेस के 17 विधायक हैं। यानी निश्चित रूप से कांग्रेस विधायकों ने ही पार्टी लाइन से हटकर क्रॉस वोटिंग की है। कांग्रेस की एकजुटता पर ही सवालिया निशान है। ऐसे में मुख्यमंत्री के बदले तेवर पर ऐतराज़ करने की स्थिति में भी पार्टी नहीं है। लिहाज़ा पार्टी के नेता चुप्पी साधे हैं। कांग्रेस नेताओं का कहना है कि हमारा गठबंधन झामुमो के साथ सरकार में है राष्ट्रपति चुनाव में नहीं। वह स्वतंत्र थे जिसे वोट डालना चाहें। अपने विधायकों की एकजुटता पर कहते हैं, मामले को देख रहे हैं। किस-किस ने क्रॉस वोटिंग की है।

खिचड़ी पकने का है इंतज़ार
झारखण्ड की राजनीति में कुछ खिचड़ी तो पक रही है। इसके पकने का इंतज़ार है। तभी ऊँट किस तरफ़ करवट लेगी यानी कांग्रेस टूट रही या झामुमो बँटेगा। या फिर हेमंत सोरेन स्थिति को सँभाल लेंगे। इसकी सटीक जानकारी लगेगी। क्योंकि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को राष्ट्रपति चुनाव में अचानक दिल्ली दौरे के बाद आदिवासी हित का ख़याल आना, अतिथि देवो भव: की बात कहते हुए प्रधानमंत्री की प्रशंसा करना जैसे तमाम घटनाक्रम के रहस्य को फ़िलहाल साफ़-साफ़ समझना थोड़ा मुश्किल है। मुश्किल इसलिए क्योंकि जब किसी के सरकार जाने वाली हो, और पार्टी पर संकट हो, तो विरोधी पर हमले तेज़ हो जाते हैं। यह पहला मामला होगा, जब जहाँ सरकार जाने की चर्चा तेज़ हो। मुख्यमंत्री पर चौतरफ़ा हमला चल रहा हो। ख़ुद की पार्टी भी ख़तरे में है और बहुत से क़रीबी लोग जेल जाने की डगर पर हों। ऐसे में विरोधी पर किसी आक्रमण या आलोचना के बजाये प्रशंसा हो रही है।

इसका मतलब है कि हेमंत सोरेन और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की मुलाक़ात में कोई-न-कोई फ़ैसला हुआ है। कोई सौदेबाज़ी या समझौता हुआ है। इतना तय है कि झारखण्ड एक अलग ही राजनीति की ओर बढ़ रही है, जिसमें किसी भी सम्भावना को इन्कार नहीं किया जा सकता है। सम्भव है कि नयी सरकार बनने में गोवा और महाराष्ट्र मॉडल की जगह कोई तीसरा ही मॉडल निकल आये।

विधानभा में दलगत स्थिति
पार्टी सीटें
झामुमो 30
भाजपा 25
कांग्रेस 17
झाविमो 2
आजसू 2
सीपीआई(एमएल) 1
एनसीपी 1
निर्दलीय 2
मनोनीत 1
राजद 1
कुल 82

बता दें कि झाविमो का भाजपा में विलय हो चुका है। एक सदस्य बाबूलाल मरांडी भाजपा में शामिल हो चुके हैं। दूसरे प्रदीप यादव कांग्रेस में गये हैं। अभी इन पर सदन में दल-बदल का ममाल चल रहा और सदन में इन्हें झाविमो छोड़ दूसरे दल के सदस्य के रूप में मान्यता नहीं मिली है।