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उत्तराखंड में आज से यूनिफॉर्म सिविल कोड, बंद होगी हलाला प्रथा

नई दिल्ली : उत्तराखंड सोमवार को इतिहास रचने जा रहा है। यहां समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू किया जाएगा। इस तरह ऐसा करने वाला उत्तराखंड भारत का पहला राज्य बन जाएगा। समान नागरिक संहिता न केवल पूरे राज्य में लागू होगी, बल्कि यह राज्य से बाहर रहने वाले उत्तराखंड के लोगों पर भी लागू होगी। यह ऐतिहासिक विधेयक दोपहर करीब 12:30 बजे लागू किया जाएगा। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राज्य दौरे से ठीक पहले यूसीसी पोर्टल का अनावरण करेंगे।

यूनिफॉर्म सिविल कोड (UCC) का मतलब ये है कि देश में जो भी नागरिक रह रहे हैं, फिर चाहे वो किसी भी धर्म, जाति या लिंग के हों, उनके लिए एक ही कानून होगा। इसके लागू होते ही शादी, तलाक, लिव इन रिलेशनशिप, बच्चा गोद लेने का अधिकार समेत तमाम अधिकारों में एकरूपता नजर आती है। फिर धर्म के आधार पर नियम अलग नहीं हो सकते।

यूसीसी में बेटों और बेटियों दोनों के लिए संपत्ति में समान अधिकार सुनिश्चित करता है। यूसीसी के तहत बहुविवाह पर प्रतिबंध होगा, तथा इस ऐतिहासिक कानून के तहत एकविवाह को आदर्श माना जाएगा। यूसीसी के अनुसार विवाह के लिए न्यूनतम लड़कों की उम्र 21 वर्ष और लड़कियों की उम्र 18 वर्ष निर्धारित की गई है।

विवाह दंपती के धार्मिक रीति-रिवाजों के अनुसार संपन्न होगा और विवाह का पंजीकरण अनिवार्य होगा। यूसीसी लागू होने के बाद, वैध और नाजायज बच्चों के बीच कोई अंतर नहीं होगा क्योंकि कानून का उद्देश्य संपत्ति के अधिकारों पर इस अंतर को खत्म करना है। एक बार जब यूसीसी लागू हो जाएगी तो सभी बच्चों को जैविक संतान के रूप में मान्यता दी जाएगी।

युद्धविराम समझौते के 60 दिन पूरे, लेबनान पर इजरायल ने किया हमला, 22 की मौत

लेबनान के स्वास्थ्य मंत्रालय ने बताया कि दक्षिणी लेबनान में अपने घर लौटने की कोशिश कर रहे लोगों पर इजरायली हमले हुए, जिसमें 22 लोगों की मौत हो गई, जिनमें छह महिलाएं भी शामिल हैं। इसके अलावा, 124 लोग घायल हो गए हैं।

मंत्रालय ने एक बयान में कहा कि घायलों में 12 महिलाएं और इस्लामिक स्काउट एसोसिएशन का एक सदस्य भी था जो मानवीय बचाव मिशन का काम कर रहा था।

एक लेबनानी सैन्य सूत्र ने सिन्हुआ को बताया कि इजरायली सेना, मर्कवा टैंक और बुलडोजर के साथ मेस अल-जबल गांव में नागरिकों की भीड़ की ओर बढ़ी और “निवासियों को डराने और वहां से भगाने के लिए भारी गोलीबारी की।”

सूत्र ने कहा कि इजरायली सेना ने दक्षिणी लेबनान के नकौरा में स्थित संयुक्त राष्ट्र अंतरिम बल के मुख्यालय के प्रवेश द्वार पर मुख्य सड़क को भी बंद कर दिया। उन्होंने बताया कि सेना ने मेस अल-जबल और अरकोब हाइट्स पर कई बार फायरिंग की। सिन्हुआ समाचार एजेंसी के मुताबिक, पूर्वी लेबनान और दक्षिण-पूर्वी लेबनान के शेबा क्षेत्र के पश्चिम में माउंट सदानेह की ओर भी मशीन-गन से गोलियां दागी गईं।

रविवार को 60 दिनी युद्धविराम की समय सीमा खत्म हो गई। इजरायल और लेबनानी सशस्त्र समूह हिजबुल्लाह के बीच महीनों के संघर्ष के बाद नवंबर के अंत में युद्धविराम समझौता हुआ था। इसके तहत लेबनानी सेना को लितानी नदी के दक्षिण क्षेत्रों में रहने, वहां सुरक्षा सुनिश्चित करने और हथियारों या आतंकवादियों की मौजूदगी को रोकने की जिम्मेदारी थी।

युद्धविराम समझौते के बावजूद, इजरायली सेना ने लेबनान में हमले जारी रखे, जिनमें से कुछ हमलों में सीमावर्ती क्षेत्रों में लोग मारे गए और घायल हुए।

रविवार को लेबनान के स्वास्थ्य मंत्रालय ने बताया था कि दक्षिणी लेबनान में अपने घर लौटने की कोशिश कर रहे लोगों की भीड़ पर इजरायल ने गोलीबारी की, जिसमें 11 लोगों की मौत हो गई, जबकि 83 लोग घायल हो गए।

ग्यारह पीड़ितों में से दस नागरिक थे, जो इजरायल के साथ लेबनान की दक्षिणी सीमा पर अपने घर लौटने की कोशिश कर रहे थे, जबकि ग्यारहवां एक सैनिक था, जो दक्षिणी लेबनान के अल-धाहिरा में मारा गया था।

बाबा साहेब अंबेडकर की मूर्ति तोड़ना निंदनीय, पंजाब मुख्यमंत्री ने दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई के दिए निर्देश

अमृतसर में बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा तोड़े जाने की पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने कड़ी निंदा की है। उन्होंने प्रशासन को दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई के निर्देश दिए हैं।

पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने सोमवार को अपने एक्स अकाउंट पर एक पोस्ट में लिखा, “श्री अमृतसर साहिब की हेरिटेज स्ट्रीट पर बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की मूर्ति तोड़ने की घटना बेहद निंदनीय है और इस घटना के लिए किसी को भी माफ नहीं किया जाएगा। घटना को अंजाम देने वाला चाहे कोई भी हो, उसे सख्त से सख्त सजा मिलेगी। पंजाब के भाईचारे और एकता को तोड़ने की किसी को अनुमति नहीं दी जाएगी। प्रशासन को इसकी जांच और दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने के निर्देश जारी कर दिए गए हैं।”

वहीं, शिरोमणि अकाली दल के नेता सुखबीर सिंह बादल ने बाबा साहेब की प्रतिमा तोड़े जाने की घटना को साजिश बताया है। उन्होंने एक्स पोस्ट में लिखा, “गणतंत्र दिवस पर श्री अमृतसर साहिब में हेरिटेज स्ट्रीट पर डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा को अपवित्र करने के प्रयास की कड़ी निंदा करता हूं। इस जघन्य कृत्य ने लाखों लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाया है। मैं दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई और इस शर्मनाक घटना के पीछे की साजिश का पता लगाने के लिए गहन जांच की मांग करता हूं। आइए हम समाज में विभाजन पैदा करने के ऐसे घृणित प्रयासों के खिलाफ एकजुट हों।”

बता दें कि 26 जनवरी को अमृतसर के टाउन हॉल के पास स्थित बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा को अज्ञात लोगों ने खंडित कर दिया था। इस घटना का वीडियो वायरल होने के बाद विपक्ष लगातार राज्य सरकार पर सवाल खड़े कर रहा है।

इससे पहले कांग्रेस सांसद गुरजीत सिंह औजला ने राज्य सरकार पर निशाना साधा था। उन्होंने कहा कि एक तरफ 26 जनवरी को देश में गणतंत्र दिवस मनाया जा रहा है तो दूसरी तरफ जिन्होंने देश को बराबरी का अधिकार और संविधान दिया, उनका अपमान करना देश के हर नागरिक का अपमान है। बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा तोड़ने की घटना निंदनीय है।

गुरजीत सिंह औजला ने इस घटना की जांच की मांग की। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार को इस घटना की गंभीरता को देखते हुए हस्तक्षेप करना चाहिए और ऐसा करने वालों को कड़ी से कड़ी सजा देनी चाहिए।

टूट न जाए किसानों के सब्र का बाँध

योगेश

वर्ष 2020 में तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ शुरू हुए किसान आन्दोलन का केंद्र अब खनोरी बॉर्डर है। केंद्र सरकार ने 2021 में किसान आन्दोलन को स्थगित कराकर एक बाज़ी किसानों को तोड़ने की चली थी, जिसके बाद किसान एकजुट होकर दोबारा पहले जैसा आन्दोलन नहीं कर सके। जब दोबारा पंजाब और हरियाणा के किसान सिंघु बॉर्डर एवं खनोरी बॉर्डर पर दिल्ली कूच के लिए जुटे, तो हरियाणा की भाजपा सरकार ने उन्हें बल प्रयोग करके रोक दिया। इस बला प्रयोग में कई किसानों की मौत हो गयी और बड़ी संख्या में किसान घायल हुए थे। बीच में किसान आन्दोलन की ख़बरों को दबाया गया और किसानों को लगातार पुलिस तथा सेना के जवानों के द्वारा रोका गया। केंद्र सरकार द्वारा किसानों की मदद की ख़बरें चलायी गयीं। इस बीच आन्दोलन को मज़बूत करने और किसानों को न्याय दिलाने के लिए भारतीय किसान यूनियन (एकता सिद्धूपुर – ग़ैर राजनीतिक) के किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल 26 नवंबर से अनशन पर बैठ गये।

अब किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल इतने कमज़ोर हो चुके हैं कि देश के किसानों का दर्द समझने वाले लोगों का ध्यान उनकी तरफ़ है। अब खनोरी बॉर्डर किसान आन्दोलन का केंद्र बन चुका है। कहा जा रहा है कि अगर किसान नेता डल्लेवाल को कुछ हुआ, तो देश भर में केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ किसान मज़दूर आन्दोलन हो सकता है। याद होगा कि तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ क़रीब एक साल से ज़्यादा चले किसान किसान आन्दोलन में सरकारी कार्रवाई के चलते 750 से ज़्यादा किसान मारे गये थे। उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में किसानों के ऊपर कार बढ़ाकर कई की जान ले ली गयी थी। इस हत्याकांड में भाजपा के एक पूर्व सांसद का बेटा शामिल था। दिसंबर, 2021 में किसानों के आन्दोलन स्थगित करने के बाद जब उनकी माँगें पूरी नहीं की गयीं, तो पंजाब के किसानों ने फिर से आन्दोलन शुरू किया। उनके साथ देने के लिए बीच-बीच में हरियाणा, राजस्थान और पश्चिम उत्तर प्रदेश के कुछ किसान भी जाते रहे। लेकिन हरियाणा सरकार ने जो बॉर्डर पहले किसान आन्दोलन के दौरान तगड़े तरीक़े से सील किये थे उन्हें आन्दोलन स्थगित होने के बाद भी पूरी तरह नहीं खोला था। पंजाब के किसानों ने जब दोबारा आन्दोलन करना शुरू किया, तब हरियाणा सरकार ने फिर से बॉर्डर सील कर दिये। फरवरी, 2024 में पंजाब के किसान जब हरियाणा से होते हुए दिल्ली जाना चाहते थे, तो उन पर लाठीचार्ज, आँसू गैस, पानी को बोछार और छर्रे वाली गोलियों से हमला किया गया। कई ख़तरनाक हथियारों का इस्तेमाल भी पुलिस द्वारा करने के आरोप लगे। इस संघर्ष के बाद हरियाणा के किसान भी सड़कों पर उतरे जिनका विरोध कुचलने के लिए उनके ख़िलाफ़ एफआईआर की गयीं, गिरफ़्तारियाँ की गयीं और कई कड़े नियम धारा-144 लगाकर लागू किये गये। पुलिस के हमले में कई किसानों की मौत हुई। आन्दोलन फिर ठंडा कर दिया गया।

हरियाणा सरकार इसका श्रेय ले सकती है कि उसने किसान आन्दोलन को कमज़ोर कर दिया; लेकिन यह किसान आन्दोलन अब किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल के अनशन के बाद अंदर ज्वालामुखी की तरह दबा महसूस कर रहा है, जो कभी भी फट सकता है। किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल को पहले ही प्रोटेस्ट कैंसर है। उनके गिरते स्वास्थ्य की कोई चिन्ता भले ही केंद्र सरकार को बिलकुल न है; लेकिन देश के किसानों को है। सुप्रीम कोर्ट ने भी पिछले साल उनकी स्वास्थ्य रिपोर्ट माँगी थी और पंजाब सरकार से उन्हें स्वस्थ रखने के लिए निर्देश दिये थे। 02 जनवरी, 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने फिर से इस मामले पर सुनवाई करनी थी; लेकिन सुनवाई टल गयी। वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल का कहना है कि किसानों को आन्दोलन ख़त्म करने के लिए मनाने की कोशिश की जा रही है। उन्होंने उम्मीद जतायी थी कि किसान सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित की गयी कमेटी से बात करें, तो शायद कोई रास्ता निकल आये; लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

हरियाणा के ऊर्जा, परिवहन और श्रम मंत्री अनिल विज आरोप लगा रहे हैं कि आम आदमी पार्टी और पंजाब की सरकार किसी अनहोनी का इंतज़ार कर रही है। अनिल विज का अनहोनी से मतलब किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल से है। उनका आरोप है कि आम आदमी पार्टी का कोई नेता और पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने आन्दोलन कर रहे किसानों के पास जाकर उनका हाल तक नहीं पूछा है। यहाँ अनिल विज से सवाल यह है कि हरियाणा सरकार की किसानों के ख़िलाफ़ कार्रवाई पर उनका क्या कहना है? हरियाणा सरकार ने भी किसानों का हाल कब लिया? किसानों की सारी माँगें पूरी करने के लिए केंद्र सरकार ही उत्तरदायी है और केंद्र में भाजपा है।

अगर केंद्र सरकार के हिसाब से किसानों की माँगें जायज़ नहीं हैं, तो उसे कमेटी की रिपोर्ट आने का बहाना न बनाकर किसानों की माँगों को या तो सीधे ख़ारिज कर देना चाहिए या माँगे मान लेनी चाहिए। किसानों के साथ लुकाछिपी का खेल केंद्र सरकार ही तो खेल रही है। कई किसानों से बात करने पर उन्होंने सारे आरोप केंद्र सरकार, प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के सिर मढ़े।

किसानों का कहना है कि किसानों के साथ धोखा किया जा रहा है, जो केंद्र सरकार ही कर रही है। कुछ किसान तो यहाँ तक कह रहे हैं कि अगर उनके किसान नेता को कुछ हुआ, तो पूरे देश में 2020 से भी बड़ा आन्दोलन होगा। इस बीच खनोरी बॉर्डर पर आमरण अनशन करने वाले किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल से मिलने पहुँची सुप्रीम कोर्ट की हाई पॉवर कमेटी से उन्होंने साफ़ कहा है कि उनके लिए किसानी पहली प्राथमिकता है, स्वास्थ बाद में है। उन्होंने यह भी कहा है कि किसानों की माँगों से सुप्रीम कोर्ट भी किनारा कर रहा है। अगर केंद्र सरकार किसानों की माँगें मान लेगी, तो वह तुरंत अपना अनशन समाप्त कर देंगे और उन्हें किसी इलाज की ज़रूरत भी नहीं पड़ेगी। किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल से बातचीत के बाद जज नवाब सिंह ने कहा कि कमेटी के सदस्यों ने जगजीत सिंह डल्लेवाल को 10वें पातशाह गुरु गोबिंद सिंह जी के प्रकाशोत्सव पर बधाई दी और उनसे निवेदन किया कि मेडिकल ट्रीटमेंट लेना शुरू कर दें। इस पर किसान नेता ने कहा कि अगर सुप्रीम कोर्ट को उनके स्वास्थ का इतना ख़याल है, तो वह केंद्र सरकार को आदेश दे कि वह किसानों की माँगें तुरंत माने; लेकिन सुप्रीम कोर्ट किसानों की बात करने को तैयार नहीं है। पंजाब के एडवोकेट जनरल ने सुप्रीम कोर्ट में कहा भी है कि उसे किसानों की माँगों को लेकर केंद्र सरकार से तुरंत बात करनी चाहिए। बातचीत के बाद सुप्रीम कोर्ट की हाई पॉवर कमेटी किसान नेता डल्लेवाल से यह कहकर वापस लौट गयी कि आप जब भी बुलाओ, हम आएँगे।

खनौरी बॉर्डर पर अनशन कर रहे किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल का स्वास्थ लगातार गिरता जा रहा है। उनके बयान लेने वालों का कहना है कि उनकी आवाज़ बहुत धीमी और कमज़ोर हो चुकी है। उनके गंभीर स्वास्थ को लेकर उनकी देखरेख कर रहे डॉक्टर चिन्तित हैं और किसान घबराये हुए हैं। खनोरी बॉर्डर पर उपस्थित एक किसान ने बताया कि उनकी 24 घंटे निगरानी की जा रही है, जिससे किसी आकस्मिक समय पर उन्हें स्वास्थ लाभ दिया जा सके। इस धरने में हरियाणा के कई किसान नेता भी पहुँच रहे हैं। पंजाब के बहुत-से किसान परिवार में किसानों के लिए जान दाँव पर लगाने वाले अपने नेता डल्लेवाल के ठीक रहने के लिए अरदास कर रहे हैं। हरियाणा सरकार अब भी अपने राज्य के किसानों पर किसान आन्दोलन से दूरी बनाये रखने के लिए हथकंडे अपना रही है। पंजाब सरकार आन्दोलन को लेकर चुप है। पहले किसान आन्दोलन के दौरान सुप्रीम कोर्ट के दबाव के बाद केंद्र सरकार ने तीनों कृषि क़ानून वापस तो ले लिये; लेकिन किसानों को न्याय अभी तक नहीं मिला है। स्वामीनाथन आयोग के हिसाब से न्यूनतम समर्थन मूल्य न मिलने और कृषि लागत बढ़ने से किसानों पर लगातार क़ज़र् बढ़ रहा है। हर साल लाखों किसान इसी के चलते आत्महत्या कर रहे हैं। केंद्र सरकार के पदचिह्नों पर चलते हुए हरियाणा सरकार भी अपने राज्य के किसानों के लिए योजनाओं की घोषणा कर रही है। केंद्र सरकार की फ़सलों के नुक़सान पर बीमा कम्पनियों को पूरी भरपाई की योजना को भुनाने से लेकर किसानों को डीएपी की बिना क़ीमतें बढ़ाये उपलब्ध कराने का किसानों को तो दिलासा देकर किसान आन्दोलन को थोड़ा-बहुत समर्थन करने वाले किसानों को भी चुप करा दिया है। एक चर्चा यह छेड़ दी है कि केंद्र सरकार टैक्स न भरने वाले साढ़े नौ करोड़ किसानों को दी जाने वाली 500 रुपये महीने की प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि बढ़ाकर 1,000 रुपये महीना करने की सोच रही है। केंद्र सरकार बड़ी होशियारी से इस राशि को 500 रुपये महीने न बताकर हमेशा 6,000 रुपये की मुफ़्त सहायता राशि बताती है। केंद्र सरकार की इन होशियारियाँ का नतीजा ये हुआ है कि भारतीय किसान यूनियन (टिकैत), भारतीय किसान यूनियन (चढ़ूनी) और कई दूसरे किसान संगठन अब किसान आन्दोलन से दूर दिख रहे हैं।

किसानों ता समर्थन सोनम वांगचुक और लद्दाख़ के लोग कर रहे हैं। वहीं मध्य प्रदेश के बालाघाट ज़िले में नक्सली किसानों के समर्थन में उतरे हैं। उनके लाल रंगों के बैनरों और पोस्टरों पर किसानों के समर्थन वाली बातें लिखी हैं। हालाँकि किसानों ने नक्सलियों के समर्थन को लेकर कुछ नहीं कहा है। क्योंकि किसान किसी बदनाम संगठन का साथ नहीं चाहते। बिना किसी का साथ लिये ही किसानों को बदनाम करने का काम केंद्र सरकार के समर्थकों ने जिस तरह किया है, उससे यह समझा जा सकता है कि अगर किसानों ने नक्सलियों का समर्थन लिया, तो सरकार किस तरीक़े से किसानों के ख़िलाफ़ इसे एक हथियार की तरह इस्तेमाल करेगी।

भारतीयों की घट रही लंबाई

हाल के कुछ वर्षों में भारतीय लड़कियों की लंबाई घटने पर मेडिकल साइंस ने ग़ौर किया है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय लड़कियों की लंबाई औसत रूप से 0.63 सेंटीमीटर कम हो चुकी है। भारत में ज़्यादातर नाटी लड़कियों की औसत लंबाई 4.25 फुट तक होती थी; लेकिन अब ज़्यादातर नाटी लड़कियों की औसत लंबाई 3.75 फुट तक पहुँच चुकी है। भारत में लड़कियों की औसत लंबाई का कम होना एक चिन्ताजनक संकेत है, क्योंकि इससे उनकी कोख से पैदा होने वाले बच्चों की लंबाई घटेगी और इसी आने वाले 100 साल में सभी की औसत लंबाई तक़रीबन चार इंच कम हो जाएगी। पिछले 15 वर्षों में किये गये सभी सर्वे-रिपोर्ट्स के मुताबिक, लड़कियों के अलावा लड़के भी दिनोंदिन नाटेपन (डिसऑर्डर) के शिकार होते जा रहे हैं।

डीडब्ल्यू की रिपोर्ट के मुताबिक, कमज़ोर और गरीब तबके की लड़कियों और लड़कों की लंबाई कम हो रही है, जिसकी वजह कुपोषण, चिन्ता और कम भोजन का मिलना है। इस रिपोर्ट में यह कहा गया है कि अमीर घरों से आने वाली लड़कियों की औसत लंबाई 0.23 सेमी बढ़ी है। लेकिन ज़्यादातर लड़कियों की लंबाई कम होने के जो कारण मिले हैं, उनमें गलत खानपान, डिब्बाबंद पेय और खाने-पीने की चीज़ों में मिलावट प्रमुख हैं। इसके अलावा, तनाव, देर रात तक जगना, चिढ़चिढ़ापन, मोबाइल की लत, नशा और कम उम्र में शारीरिक रिश्ते बनाने के चलते भी लड़कियों और लड़कों की शारीरिक क्षमता और लंबाई पर बुरा असर पड़ रहा है। वैज्ञानिक ये किसी व्यक्ति की लंबाई कम रहने के पीछे सबसे बड़ा कारण पोषण की कमी मानते हैं।

डॉक्टरों का कहना है कि जिन लड़कियों को पीरिएड्स शुरू हो जाते हैं, उनकी लंबाई इसके बाद कम ही बढ़ती है। उनका कहना है कि पीरिएड्स शुरू होने के बाद 90 प्रतिशत लड़कियों की लंबाई क़रीब 2 इंच से 5 इंच तक ही बढ़ती है। लेकिन कुछ शोध और पुराने अध्ययन बताते हैं कि ऐसा नहीं है, क्योंकि लड़कियों को पीरिएड्स 11-12 साल की उम्र से 14 साल तक की उम्र में होने ही लगते हैं। इसके बावजूद उनकी लंबाई तक़रीबन आधा से एक फुट तक बढ़ जाती है। लड़कियों की लंबाई कम होने के पीछे की जो वजहें ऊपर बतायी गयी हैं, वे ही इसके लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं।

जनरल फिजिशियन डॉक्टर मनीष का कहना है कि किसी भी इंसान की लंबाई उसके जीन, पैरेंट्स, पालन-पोषण, हवा, पानी, खान-पान, बीमारियों और उसके जीने के तौर-तरीक़ों पर निर्भर करती है। इनमें से कोई एक कारण भी लंबाई कम रहने का कारण हो सकता है। उदाहरण के लिए एक बच्चे का जीवन हर तरह से सही है; लेकिन अगर उसे कोई बीमारी है, जिसका उसे और उसके माँ-बाप को पता नहीं है, तो भी उस बच्चे की लंबाई कम हो सकती है। बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. सुधा का कहना है कि आजकल जन्मने वाले ज़्यादातर बच्चों को माँ का दूध बहुत कम मिलता है या नहीं मिलता है। यह सबसे पहला कारण है किसी बच्चे की लंबाई कम होने का, क्योंकि उस समय न सिर्फ़ बच्चे के शरीर का तेज़ी से विकास होता है, बल्कि उसके शरीर में बिटामिन, कैल्सियम और दूसरे पोषक तत्त्वों की पूर्ति करने की बहुत ज़रूरत पड़ती है, जिसके लिए सबसे अच्छा बच्चे की माँ का दूध ही हो सकता है।

आजकल ज़्यादातर बच्चे ऊपरी दूध पीकर या डिब्बाबंद दूध का पाउडर पीकर बड़े होते हैं। इसके अलावा जब वो कुछ फूड खाने लायक होते हैं, तो उन्हें नेचुरल खान-पान न देकर अधिकांश माँएँ मल्टीविटामिन्स के नाम पर बाज़ार में मिलने वाले डिब्बाबंद फूड खिलाती हैं और अब तो नैक्स्ट लेवल का काम वो ये करने लगी हैं कि उन्हें फास्टफूड, डिब्बाबंद फूड, कोल्ड ड्रिंक्स और दूसरे पेय पकड़ा देती हैं, जिसका उनके शारीरिक विकास पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। कई डॉक्टर ही कमीशन के चक्कर में उन्हें डिब्बाबंद फूड देने की सलाह दे डालते हैं, जबकि एक डॉक्टर को चाहिए कि वो बच्चे के सही पालन-पोषण की सलाह उसके माता-पिता को दे। जो माँएँ अपने नवजात शिशुओं को दूध पिलाने से परहेज़ करती हैं, वे उन्हें शारीरिक रूप से कमज़ोर करने में सबसे बड़ी भूमिका निभाती हैं।

हैरानी की बात ये है कि लड़कियों की लंबाई में अचानक कमी की चिन्ता ज़्यादातर माँ-बाप को नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक, महज 12 प्रतिशत माँ-बाप को ही उनकी बेटियों की कम लंबाई को लेकर चिन्तित देखा गया है, और उसके पीछे भी ज़्यादातर माँ-बाप की चिन्ता उनकी शादी को लेकर देखी गयी है। जबकि लड़कों की लंबाई कम होने की चिन्ता 46 प्रतिशत माँ-बाप में देखी गयी है। लड़कियों की लंबाई बढ़ने को लेकर ज़्यादातर लोगों में ये धारणा देखी गयी है कि लड़कियाँ तो वैसे भी लड़कों से छोटी ही होती हैं। भारत में 76.4 प्रतिशत शादीशुदा जोड़ों में पुरुषों की लंबाई महिलाओं की लंबाई से कम मिलती है। इसके अलावा 15.7 प्रतिशत जोड़ों की लंबाई तक़रीबन बराबर, जबकि 7.9 प्रतिशत जोड़ों में महिलाओं की लंबाई ज़्यादा देखी गयी है। हालाँकि भारत में राज्यों के हिसाब से लोगों की लंबाई का कम और ज़्यादा होना भी निर्भर करता है। अगर हम भारत की बात करें, तो सबसे ज़्यादा लंबी लड़कियाँ जम्मू-कश्मीर की होती हैं। इसके अलावा पंजाब, राजस्थान, हरियाणा और केरल की लड़कियाँ भी लंबी होती हैं। यहाँ के पुरुष भी लंबे होते हैं।

कुछ सर्वे की रिपोर्ट्स के मुताबिक, भारत के अन्य राज्यों के मुक़ाबले मणिपुर, असम, मेघालय, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, बिहार और झारखण्ड में महिलाओं और पुरुषों की औसत लंबाई कम है। भारत में ज़्यादातर राज्यों की लड़कियों की औसत लंबाई सामान्य है; लेकिन भारत के ज़्यादातर राज्यों में कुछ लड़कियाँ ज़्यादा लंबी, कुछ सामान्य, तो कुछ लड़कियाँ नाटी पायी जाती हैं।

नाटी लड़कियों की बात करें, तो इनकी ज़्यादातर संख्या मिली-जुली ही है, जो हर राज्य में मिल जाएँगी। लेकिन एक बात जो नयी सामने आ रही है, वो ये है कि पिछले एक दशक तक नाटी लड़कियों का सम्बन्ध कुपोषण, काम का दबाव और चिन्ताग्रस्त जीवन से ज़्यादा माना जाता है, अब उसमें फास्ट फूड, ख़ासकर चाइनीज फूड और नशा आदि की वजह से भी लड़कियों में नाटापन बढ़ रहा है। चिन्ता की बात ये है कि आज भारत के 30 प्रतिशत बच्चे ग्रोथ नाटेपन के शिकार हैं।

पुराने समय की एक कहावत है कि लड़कियाँ लता की तरह बढ़ती हैं। और यह बात सही भी है कि शुरुआती दौर में लड़कियाँ लड़कों की अपेक्षा तेज़ी से बढ़ती हैं; लेकिन हाल में सामने आये कुछ शोधों के मुताबिक, पीरिएड्स शुरू होने के समय से उनकी लंबाई बढ़ने की प्रक्रिया धीमी हो जाती है। इन शोध रिपोर्ट्स का मानना है कि अमूमन लड़कियों की लंबाई 14-15 साल की उम्र तक ज़्यादा बढ़ती है। उसके बाद उनकी लंबाई बढ़ने की प्रक्रिया धीमी होने लगती है या रुक जाती है। वहीं लड़कों की लंबाई 18 से 20 साल तक भी बढ़ती है। लेकिन एक बात लड़कियों और लड़कों में कॉमन यह पायी गयी है कि दोनों की लंबाई 15 साल के बाद धीमी गति से बढ़ती है।

साल 2021 में साइंस जर्नल में प्रकाशित पीएलओएस वन नामक एक रिपोर्ट में भारत के लोगों की औसत लंबाई घटने दावा साल 2005 और साल 2015 में हुए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आँकड़ों की तुलना के आधार पर किया गया है। रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि लड़कियों में जहाँ पीरिएड्स शुरू होने के बाद उनकी लंबाई बढ़नी कम हो जाती है या बिलकुल रुक जाती है, वहीं उनके अंगों का विकास होने लगता है। सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल और प्रिवेंशन के मुताबिक, भारत की 20 साल से ज़्यादा उम्र की लड़कियों, महिलाओं की औसत लंबाई लगभग 5.4 फुट है।

रिपोर्ट्स के मुताबिक, दक्षिण देशों में लोगों की लंबाई बढ़ रही है और भारत के लोगों की लंबाई घट रही है, जो चिन्ता की बात है। अक्सर देखा जाता है कि बच्चों की लंबाई न बढ़ने पर जो लोग डॉक्टरों की सलाह लेते हैं, तो डॉक्टर बच्चों का इलाज कराने की सलाह देते हैं। वहीं वैज्ञानिकों के मुताबिक, किसी बच्चे की लंबाई उसके गर्भकाल से उसके माँ-बाप, ख़ासकर माँ के स्वास्थ्य, पोषण, पर्यावरण और प्रदूषण आदि के हिसाब से ही बढ़ती है। लेकिन किसी बच्चे की लंबाई कम रहने की सबसे बड़ी वजह माँ-बाप, ख़ासकर माँ का स्वास्थ्य, उनकी लंबाई और बच्चे के जन्म के बाद का पोषण ही है, क्योंकि देखा गया है कि एक ही जगह पर जन्म लेने वाले सभी बच्चे एक समान लंबाई के नहीं होते। इससे यह साफ़ होता है कि प्रदूषण और पर्यावरण किसी बच्चे की लंबाई पर बहुत ज़्यादा प्रभाव नहीं डालते, बल्कि इनके कारण बीमारियाँ ज़्यादा हो सकती हैं और लंबाई बढ़ने से रोकने में कोई बीमारी भी एक वजह होती है।

लंबाई बढ़ाने के बारे में पूछने पर डॉक्टर मनीष कहते हैं कि बच्चों का खान-पान सुधारने के अलावा उनके खाने-पीने के समय को भी ठीक करना होगा। इसके साथ ही उन्हें जंक फूड, बोतलबंद पेय, चाइनीज खान-पान और नशीली चीज़ों से दूर रखना बहुत ज़रूरी है। कुछ डॉक्टर नाटेपन को एक बीमारी मानते हैं। लेकिन डॉक्टर मनीष कहते हैं कि नाटापन एक समस्या है, जिसे निपटने के लिए सबसे पहले परिवार के बड़े लोगों, मुख्य रूप से माँ-बाप को आगे आना होगा।

पुष्पक एक्सप्रेस में आग की अफवाह से यात्रियों ने चलती ट्रेन से लगाई छलांग

जलगांव : महाराष्ट्र के जलगांव जिले के परांडा रेलवे स्टेशन के पास एक भीषण रेल हादसा हुआ है। पुष्पक एक्सप्रेस में आग लगने की अफवाह के चलते यात्रियों में अफरा-तफरी मच गई और वे चलती ट्रेन से कूदने लगे। इसी दौरान दूसरी तरफ से आ रही कर्नाटक एक्सप्रेस की चपेट में आने से कई यात्रियों की जान चली गई।

एक अधिकारी के अनुसार, चेन पुलिंग के बाद कुछ यात्री पटरी पर उतर आए थे, तभी दूसरी ट्रेन ने उन्हें कुचल दिया। मृतकों की संख्या को लेकर अभी आधिकारिक पुष्टि आनी बाकी है, लेकिन कुछ लोगों के मारे जाने की आशंका जताई जा रही है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, पुष्पक एक्सप्रेस के कई यात्री ट्रेन में आग लगने के संदेह में अपने कोच से बाहर खड़े थे, तभी वे कर्नाटक एक्सप्रेस की चपेट में आ गए।

हादसे की सूचना मिलते ही रेलवे के उच्च अधिकारी और कर्मचारी घटनास्थल पर पहुंच गए हैं और राहत एवं बचाव कार्य शुरू कर दिया गया है। फिलहाल, स्थिति को नियंत्रित करने और घायलों को अस्पताल पहुंचाने का काम जारी है। इस घटना से पूरे क्षेत्र में शोक का माहौल है और रेलवे प्रशासन द्वारा मामले की जांच शुरू कर दी गई है।

सुरक्षाबलों की बड़ी कार्रवाई, 19 नक्सली एनकाउंटर में मार गिराए

छत्तीसगढ़-ओडिशा सीमा के पास गरियाबंद जिले में सुरक्षा बलों और नक्सलियों के बीच मुठभेड़ में ओडिशा स्टेट कमेटी के प्रमुख एक करोड़ के इनामी जयराम उर्फ चलपति समेत 19 नक्सली मारे गये हैं। ओडिशा पुलिस मुख्यालय ने मंगलवार को यह जानकारी दी। घटनास्थल से भारी मात्रा में हथियार और गोला बारूद भी बरामद किए गए हैं। मौके पर तलाशी अभियान चलाया जा रहा है। ओडिशा स्टेट कमेटी के प्रमुख चलपति के मारे जाने से नक्सली आंदोलन को बड़ा झटका लगा है।

पुलिस ने कल जानकारी दी थी कि 20 जनवरी की सुबह सुरक्षा बलों ने कुल्हाड़ी घाट रिजर्व फॉरेस्ट में नक्सलियों के खिलाफ एक बड़ा अभियान शुरू किया था। इस ऑपरेशन में ओडिशा और छत्तीसगढ़ पुलिस की 10 टीमें शामिल हैं। जिनमें विशेष अभियान समूह (एसओजी) की तीन, छत्तीसगढ़ पुलिस की दो और केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) की पांच टीमें शामिल थीं। अभियान की शुरुआत के कुछ ही समय बाद नक्सलियों ने गोलीबारी शुरू कर दी, जिससे सुरक्षा बलों ने इलाके में तेजी से घेराबंदी की। कुल्हाड़ी घाट स्थित भालू डिग्गी जंगल में 1000 जवानों ने 60 नक्सलियों को घेर रखा है। मामला मैनपुर थाना इलाके का है। जवानों ने जिन 19 नक्सलियों को ढेर कर दिया है, सभी का शव बरामद कर लिया गया है। इसमें कई हार्डकोर नक्सली शामिल है। मिली जानकारी के अनुसार पुलिस की टीम को गरियाबंद के जंगलों में बड़े नक्सलियों की गतिविधि की सूचना मिली थी। सूचना के आधार पर करीब 700 जवानों की टीम को जंगल की ओर रवाना किया गया था। तलाश के दौरान जवानों के साथ नक्सलियों की मुठभेड़ हो गई। जवानों ने 14 नक्सलियों को ​मार गिराया। कहा जा रहा है कि मारे गए नक्सलियों की संख्या में इजाफा हो सकता है।

अकेली खड़ी कांग्रेस !

एक दिन पहले कांग्रेस ने कोटला रोड पर नये दफ़्तर को अपना ठिकाना बना लिया। यह तब हुआ है, जब कांग्रेस ने कहा है कि उसके नेतृत्व में बना इंडिया गठबंधन अब अस्तित्व में नहीं है; क्योंकि यह सिर्फ़ लोकसभा चुनाव के लिए बना था। आज से 47 साल पहले पार्टी सांसद वेंकटस्वामी ने कांग्रेस को 24 अकबर रोड वाला अपना बंग्ला दफ़्तर बनाने के लिए दे दिया था; जहाँ कल सुबह तक यह उसका दफ़्तर रहा। आपातकाल के बाद कांग्रेस 1977 में सत्ता से बाहर हो गयी थी और पार्टी में विभाजन के बाद कांग्रेस के पास अपना कोई दफ़्तर ही नहीं था। नये दफ़्तर में आने के दो साल बाद ही इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 1980 के लोकसभा चुनाव में 353 सीटें जीतकर जबरदस्त वापसी की थी। अब साढ़े चार दशक के बाद कांग्रेस फिर 1978 जैसी स्थिति में खड़ी है, अकेली। इंडिया गठबंधन के साथी उससे दूर चले गये हैं और कांग्रेस नेताओं के पास अवसर है कि वे पार्टी को नये सिरे से और अपने पैरों पर खड़ा करें।

कांग्रेस अब ख़ुद को मज़बूत करने के क़वायद कर सकती है, जिसमें सबसे पहला काम वो पार्टी संगठन में बड़े स्तर पर फेरबदल करेगी। पार्टी के सबसे असरदार नेता राहुल गाँधी एक और भारत यात्रा निकाल सकते हैं। अपने शासित राज्यों की सरकारों के काम की समीक्षा करके पार्टी नेतृत्व को जहाँ लगेगा, फेरबदल किया जाएगा। एक-दो राज्यों में मुख्यमंत्री बदले जाने की ज़मीन तैयार हो रही है। दिल्ली के चुनाव से निबटने के बाद यह सारा काम होगा, क्योंकि साल के आख़िर में बिहार विधानसभा का चुनाव भी होना है। पार्टी को हाल की घटनाओं से सबक़ सीखने की ज़रूरत है, क्योंकि राष्ट्रीय पार्टी होने और पूरे देश में जनाधार होने के बावजूद उसके सहयोगियों ने उसे न सिर्फ़ हल्के में लिया है, बल्कि कई मौक़ों पर उसे जलील करने में भी क़सर नहीं छोड़ी है।

कांग्रेस को यह समझने की ज़रूरत है कि उसके ज़्यादातर सहयोगी उसी के जनाधार से निकले दल हैं। वो किसी भी क़ीमत पर कांग्रेस को मज़बूत नहीं होने देना चाहेंगे। कांग्रेस के मज़बूत होने का मतलब है- क्षेत्रीय दलों का सिकुड़ जाना। यही कारण है कि इंडिया गठबंधन में सबसे ज़्यादा आधार वाला दल होने के बावजूद उसके क्षेत्रीय सहयोगी दलों ने कांग्रेस को सीटें देने के लिए भीख माँगने जैसी स्थिति में पहुँचा दिया। देश और कमोवेश सभी राज्यों में सत्ता चला चुकी कांग्रेस के लिए यह स्थिति अपमानजनक रही है। इसमें उसका ख़ुद का भी दोष है, क्योंकि उसने राज्यों में अपने संगठन को मज़बूत करने की जगह छिटपुट सीटें लेकर चुनावी गठबंधन किये। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में लोकसभा चुनाव में 17 सीटें लेने के लिए कांग्रेस को अखिलेश यादव ने कई हफ़्ते इंतज़ार करवाया।

देश के कई ऐसे राज्य हैं, जहाँ कांग्रेस का सांगठनिक ढाँचा शून्य हो गया है और उसके पास कार्यकर्ताओं की कमी है। इनमें उत्तर प्रदेश भी शामिल है, जहाँ उसे एक मज़बूत और चर्चित चेहरे को अध्यक्ष के रूप में आगे करके संगठन को मज़बूत करने की ज़िम्मेदारी दे देनी चाहिए। बल्कि कांग्रेस को संगठन मज़बूत करने की शुरुआत ही उत्तर प्रदेश जैसे महत्त्वपूर्ण राज्य से करनी चाहिए। इसका व्यापक संदेश जाएगा और कांग्रेस चर्चा में आएगी। ऐसा ही दूसरे राज्यों में करना होगा। संगठन में फेरबदल के नाम पर यदि कांग्रेस कुछ चेहरों को इधर-उधर करती है, तो उसका कोई लाभ नहीं होगा।

कांग्रेस को विरोधी दलों से वो सभी राज्य वापस लेने की ज़मीन भी तैयार करनी होगी, जहाँ उसकी सत्ता रही है। पिछले साल के लोकसभा चुनाव के वक़्त जब इंडिया गठबंधन बना था, तब किसी ने नहीं कहा था कि यह सिर्फ़ लोकसभा चुनाव के लिए बनाया गया है। गठबंधन भले सत्ता में नहीं आया था; लेकिन भाजपा की 63 सीटें कम करके उसे 240 सीटों पर ले आया था। गठबंधन की अपनी सीटें भी 234 हो गयी थीं, जिससे लोकसभा में एक मज़बूत विपक्ष का रास्ता साफ़ हो गया था। इसके बाद हुए हरियाणा, जम्मू कश्मीर, महाराष्ट्र और झारखण्ड विधानसभाओं के चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन कुछ ख़ास नहीं रहा। बेशक झारखण्ड में उसने जेएमएम के साथ सरकार बनायी; लेकिन हरियाणा में उसे अप्रत्याशित हार मिली और महाराष्ट्र में तो पूरे इंडिया गठबंधन का ही बिस्तर गोल हो गया। जम्मू-कश्मीर में भी कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद ख़राब रहा।

उत्तर प्रदेश की नौ सीटों के उपचुनाव में कांग्रेस के अखिलेश यादव के साथ नहीं जाने से समाजवादी पार्टी को नुक़सान झेलना पड़ा और उसे लोकसभा चुनाव जैसी सफलता उन उपचुनावों में नहीं मिल पायी। साल 2009 में जब कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में 21 लोकसभा सीटें जीत ली थीं, तब लगा था कि पार्टी राज्य में अपने पाँव जमा लेगी; लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। तब कांग्रेस के पास देश के सबसे बड़े राज्य में ख़ुद को एक बार फिर स्थापित करने का अवसर आया था; लेकिन उसने इसकी कोई पहल नहीं की। अब कांग्रेस को अपने अकेले होने का पहला इम्तिहान दिल्ली विधानसभा और उसके बाद महाराष्ट्र के स्थानीय निकायों के चुनाव में देना है।

कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में दो साल पूरे कर चुके मल्लिकार्जुन खड़गे 82 साल के हो चुके हैं और उनके स्वास्थ्य को देखते हुए उनकी जगह नया अध्यक्ष भी शायद कांग्रेस आने वाले महीनों में चुनेगी। पार्टी के भीतर काफ़ी नेताओं का मानना है कि प्रियंका गाँधी को यह ज़िम्मा सौंप दिया जाता है, तो पार्टी संगठन में नयी ऊर्जा आ जाएगी। इसमें कोई दो-राय नहीं कि प्रियंका गाँधी करिश्मा रखने वाली नेता हैं; लेकिन चूँकि राहुल गाँधी लोकसभा में विपक्ष के नेता हैं, गाँधी परिवार शायद ऐसा न करना चाहे। हालाँकि यह तय है कि प्रियंका गाँधी अध्यक्ष बनीं, तो वह इसे एक चुनौती के रूप में लेंगी और शायद वह सब कुछ कर पाएँ, जिसकी पार्टी को सख़्त ज़रूरत है। गाँधी परिवार को देश की राजनीति में एक अद्भुत बढ़त यह है कि इस परिवार के लोग हर जाति, धर्म और समुदायों में स्वीकार्य रहते हैं।

प्रियंका के अलावा राजस्थान के मुख्यमंत्री रहे अशोक गहलोत, जो 73 साल के हैं; भी कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में बेहतर करने के क्षमता रखते हैं। पिछड़े वर्ग से हैं और कांग्रेस की पुरानी संस्कृति से लेकर नयी पीढ़ी तक को समझते हैं। कई मौक़ों पर गाँधी परिवार और कांग्रेस के संकट मोचक रहे हैं। उनके पास संगठन से लेकर सरकार चलाने तक का ख़ूब अनुभव है और देश की राजनीति से बख़ूबी परिचित हैं। राजस्थान में ही उनके साथी सचिन पायलट को भी क्षमतावान नेता माना जाता है और पार्टी ने युवा नेता को अवसर देने की सोची, तो उनका नाम सबसे ऊपर होगा। यह भी हो सकता है कि पार्टी किसी को अध्यक्ष बनाकर तीन-चार कार्यकारी अध्यक्ष बना दे, जिनमें प्रियंका गाँधी और सचिन पायलट जैसे चेहरे हों। प्रियंका चूँकि केरल से सांसद हैं, उनके आने से संगठन को दक्षिण का प्रतिनिधित्व देने का अवसर भी मिल जाएगा।

हाल के दिनों में पश्चिम बंगाल की शक्तिशाली नेता ममता बनर्जी से लेकर अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, उद्धव ठाकरे, यहाँ तक कि शरद पवार जैसे कांग्रेस के पुराने सहयोगी ने भी कांग्रेस से विमुखता दिखायी है। यह सभी दिल्ली के चुनाव में कांग्रेस की जगह आम आदमी पार्टी को समर्थन का ऐलान कर चुके हैं, जिससे कांग्रेस अकेली पड़ गयी है। शिवसेना नेता संजय राउत कह रहे हैं कि कांग्रेस को इंडिया गठबंधन को सँभालना चाहिए था। कांग्रेस ख़ुद ही इसमें इच्छुक नहीं दिख रही। इसका कारण यही हो सकता है कि पार्टी अब ख़ुद को सांगठनिक रूप से खड़ा करना चाहती हो। उसके बाद वह राज्यों के हिसाब से गठबंधन कर सकती है और अपने पुराने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) को फिर ज़िन्दा कर सकती है; क्योंकि तामिलनाडु में डीएमके जैसे सहयोगी आज भी कांग्रेस के ही साथ खड़े हैं। कुछ और राज्यों में भी ऐसा ही है।

इस स्थिति में दिल्ली का नया दफ़्तर कांग्रेस के लिए एक संकल्प हो सकता है- अपने पैरों पर खड़ा होने का संकल्प। इसका नाम इंदिरा गाँधी के नाम पर इंदिरा भवन रखा गया है, जिन्होंने 1980 में इसी तरह के संकल्प के बूते सत्ता में ज़ोरदार वापसी की थी। कहते हैं कि कांग्रेस ने नये दफ़्तर का मुख वास्तु के लिहाज़ से कोटला मार्ग की तरफ़ कर दिया है, जबकि यह भवन अपने प्रवेश द्वार के कारण आरएसएस चिंतक दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर बने मार्ग पर पड़ता था। अब कांग्रेस के इस दफ़्तर का प्रवेश द्वार कोटला मार्ग की तरफ़ करने से इसका पता भी 9-ए, कोटला मार्ग हो गया है। कांग्रेस नये दफ़्तर में आकर शुभ फल देखना चाहती है। नया दफ़्तर उसे यह अवसर दे रहा है। कांग्रेस अकेली हुई है; लेकिन कभी-कभी अकेला होना ख़ुद के सामर्थ्य को जगा देने की राह खोल देता है।

प्रशासनिक निर्लज्जता

संघर्ष और परिवर्तन की भूमि बिहार छात्र आन्दोलन से हलकान हैं। वजह है- रोज़गार और इसकी प्रदाता संवैधानिक संस्थान का परम्परागत निर्लज्ज भ्रष्टाचार। विगत 13 दिसंबर, 2024 को प्रदेश के 925 परीक्षा केंद्रों पर 70वीं बीपीएससी की प्रारंभिक परीक्षा आयोजित की गयी। इस दौरान राजधानी पटना के बापू सेंटर पर परीक्षार्थियों को थोड़े समय के अंतराल पर दो बार में पर्चे बाँटे गये। विद्यालय प्रशासन के अनुसार, इसकी वजह यह थी कि उक्त सेंटर पर कुछ पेपर कम पड़ गये, तो अतिरिक्त पेपर दूसरे परीक्षा केंद्र के मँगवाने पड़े। इसी आधार पर पेपर लीक होने की सूचना फैली और विरोध शुरू हो गया। इसी गहमागहमी में पटना के डीएम चंद्रशेखर सिंह ने एक परीक्षार्थी को थप्पड़ भी मार दिया, जिसके बाद विवाद भड़क गया और छात्रों का विशाल समूह आन्दोलन पर उतर आया। हालाँकि परीक्षार्थी इससे पूर्व परीक्षा के नॉर्मलाइजेशन के लिए आयोग कार्यालय पर प्रदर्शन कर रहे थे।

वैसे वर्तमान कलह से इतर भी देखें, तो बिहार लोक सेवा आयोग का विवादों से सम्पन्धित पुराना रिकॉर्ड रहा है। अभी निकट ही 2023 की प्रारंभिक परीक्षा में भी पेपर लीक का मामला सामने आया था। वैसे उत्तर पुस्तिकाओं से छेड़छाड़, दस्तावेज़ मिटाने, साक्षात्कार में घूसख़ोरी प्रकार के आरोप लगना और ऐसे मामलों का सामने आना इस संवैधानिक संस्था के लिए कोई नयी बात नहीं है। जैसे ही सन् 1996 में एक भ्रष्टाचार का मामला खुलने पर तत्कालीन अध्यक्ष जेल चले गये। वर्ष 2003-05 के दौरान इसी प्रकार के अनियमितताओं और धाँधली के कारण आयोग के अध्यक्ष समेत 13 अधिकारियों पर आरोप तय हुए थे। सन् 2017 में लेक्चरर भर्ती के दौरान सार्वजनिक शुचिता के सारे मानक ही ध्वस्त हो गये। आयोग ने केवल ऐसे अभ्यर्थी ही नहीं चुने, जिनके पास निर्धारित मानक की योग्यता नहीं थी, बल्कि ऐसे ऐसे लोग भी चयनित हुए, जो इंटरव्यू में शामिल भी नहीं हुए थे। 56वीं और 59वीं परीक्षा के दौरान भी घूस लेकर पद दिलाने का मामला प्रकाश में आया, जिसमें मुक़दमा दर्ज हुआ, जिसमें एक राजनीतिक दल से जुड़े पूर्व विधान पार्षद घिरे थे। आयोग के कुकर्मों की यह गौरव-कथा इतनी व्यापक है कि इस पर एक विस्तृत ग्रन्थ लिखा जा सकता है।

असल में आयोग के इन ऐतिहासिक कारनामों के परिपेक्ष्य में बिहार लोक सेवा आयोग का अक्स सत्ता संरक्षण में नौकरियों की ख़रीद-फ़रोख्त और बिक्री में लिप्त एक संगठित आपराधिक संस्था के रूप प्रतीत होता है, जिसे न नैतिकता की लाज है, न जन-शुचिता की चिन्ता और न ही विधिक कार्यवाहियों का भय। ऐसे में चिह्नित रिकॉर्ड वाली संस्था के विरुद्ध रोज़गार के लिए आन्दोलनरत बच्चों के पेपर लीक के अंदेशे पर संदेह क्यों किया जाना चाहिए? तथा पुन: परीक्षा के लिए उनकी माँगों पर आपत्ति क्यों होनी चाहिए? लेकिन बावजूद इसके आयोग इस विवाद में ढीठ बना हुआ है। उसे छात्रों की माँग से कोई सरोकार नहीं है। ऊपर से प्रशासन की बर्बर प्रतिक्रिया। रोज़गार नहीं, बल्कि रोज़गार भर्ती की ईमानदार प्रक्रिया की माँग करते बच्चों की पीठ पर टूटती सरकारी लाठियाँ सत्ता के नैतिक पतन का निर्लज्ज प्रदर्शन था। किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र में वाजिब माँग और ग़लत के विरोध में प्रदर्शन का प्रत्युत्तर हिंसात्मक तरीक़े से देने के प्रयास को सत्ता-प्रशासन की बर्बर सोच ही कहना उचित होगा।

हो सकता है कि आयोग के पास पुन: परीक्षा के लिए बड़ा ख़र्च, प्रशासनिक तंत्र की व्यवस्था में अक्षमता जैसे कई तर्क होंगे; लेकिन जब मध्यावधि चुनाव कराने हों, नेताओं को प्रवास करना हो, सिनेमाई भाँडों के प्रोग्राम हों, तब सरकार के पास न ख़र्च की कमी और चिन्ता होती है, न ही पुलिस-प्रशासन की उपलब्धता की कमी। परन्तु परीक्षार्थियों के मामले सारे तर्क दिय जाने लगते हैं, क्योंकि ये आम मेहनतकश, ग़रीब-ग़ुरबे, किसान-मज़दूरों के बच्चे हैं, जो आधे पेट या भूखे रहकर अपनी और परिवार की तक़दीर बदलने के लिए ज्ञान तथा परिश्रम के बूते ठंडी रातों में अपनी उम्मीद के लिए संघर्षरत सड़कों पर खड़े हैं। दो-चार मर भी जाएँ, सैकड़ों लाठियाँ इनकी पीठ पर टूट भी जाएँ, इन्हें घसीट कर फेंक भी दिया जाए, तो सरकार को क्यों चिन्तित होना चाहिए? वैसे भी इस देश में आम आदमी की यही औक़ात है। इसलिए राष्ट्रीय समाज की अभिजनवादी मानसिकता भी चुप है।

धनिक, सत्ता के वरदहस्त प्राप्त, राजनीतिक लोगों के सामने आत्मसम्मानहीन होकर लेट जाने वाले वाली सरकारें और नौकरशाही आम लोगों के लिए तुरंत क़ायद-क़ानून के साथ कड़क हो जाती हैं। जिस तरह माननीय ज़िलाधिकारी ने प्रतियोगी छात्र को थप्पड़ मारा। एक बार ऐसी ही मर्दानगी वे बिहार के किसी बाहुबली जनप्रतिनिधि के सामने दिखाते, तो पूरा देश उनके रुआब के आगे लहालोट हो जाता कि हाँ ये हैं भइया असली वाले साहेब। लेकिन उनके सामने तो झुकी कमर सीधी नहीं होती है। अगर डीएम साहब को क़ानून व्यवस्था बाधित होने का इतना ग़ुस्सा था, तो उससे अधिक समाजद्रोही तो ये अपराधी बाहुबली हैं। लेकिन वहाँ गले से गिड़गिड़ाने के अलावा कोई शब्द नहीं फूटता।

अपने अधिकारों के लिए सत्याग्रह पर क़ायम प्रदर्शनकारी युवाओं के समूह पर बर्बरतापूर्ण पुलिस कार्यवाही लोकतांत्रिक मान्यताओं के लिए न केवल एक घृणात्मक अनुभव है, बल्कि प्राकृतिक नियमों के अनुसार भी पूर्णत: अस्वीकृत, अस्वीकार्य है। अधिकारों के संवैधानिक संघर्ष इन परीक्षार्थियों का अधिकार है। छात्रों ने तो विधानमण्डलों की जनवादी उपयोगिता में व्याप्त सुषुप्तावस्था को तोड़कर उसे जगाने का प्रशंसनीय प्रयास किया है, जिसके लिए जम्हूरियत की मूल भावना उनके लिए कृतज्ञ है। जैसा कि डॉ. लोहिया मानते थे कि ‘अगर सड़कें ख़ामोश हो जाएँ, तो संसद आवारा हो जाएगी।’ लेकिन पटना की सड़कों पर क्रूर तरीक़े से आन्दोलनकारी परीक्षार्थियों को लाठियों से पीटने और हाड़ कँपाने वाली ठंडी रात में उन पर निर्दयतापूर्वक पानी की बौछार करने वाले पुलिस-प्रशासन ने अपने इस कुकर्म के लिए उलटे परीक्षार्थियों को ज़िम्मेदार ठहराते हुए उन पर आरोप लगाया कि वे प्रदर्शन स्थल ख़ाली नहीं करने की ज़िद पर अड़े थे। हो सकता है कि ऐसा ही हुआ हो; लेकिन छात्र हठ का प्रत्युत्तर क्रूर राज हठ तो नहीं हो सकता है ना! और फिर वे क्यूँ हटते? क्या वे कोई सशस्त्र प्रतिरोध कर रहे थे? या भारत की संप्रभुता के विरुद्ध किसी राष्ट्र-विरोधी कार्य में लिप्त थे? नहीं। वे केवल अपने वाजिब अधिकारों, स्पष्ट कहें तो संविधान प्रदत्त अधिकारों की माँग के समर्थन में प्रदर्शनरत थे; वह भी संवैधानिकता के दायरे में।

यदि नौकरशाही यह तर्क दे कि वह सत्ता के आदेश और उसके मनोनुकूल निर्णयों से बँधी है, तब भी उसका आन्दोलनरत प्रतियोगी विद्यार्थियों के विरुद्ध आचरण अत्यंत निंदित कृत्य की श्रेणी में आता है। ह्यूगो ग्रोशियस कहते हैं- ‘ईश्वर ने प्रत्येक मनुष्य, कम-से-कम प्रत्येक सभ्य मनुष्य के हृदय में एक ऐसी शक्ति रख दी है, जो उसे बतलाती रहती है कि क्या उचित है और क्या अनुचित है। इस विवेक शक्ति या तर्क शक्ति के द्वारा जो नियम सिद्ध होते हैं, उनको प्राकृतिक विधि कहते हैं।’ (पाश्चात्य राजनीतिक चिन्तन का इतिहास (प्लेटो से मार्क्स), डॉ. बी.एल. फाड़िया, साहित्य भवन पब्लिकेशन्स, आगरा, 2008, पृष्ठ-395)। क्या बिहार की नौकरशाही की विवेक-शक्ति सत्ता के नशे में मृत हो चुकी है, जिसे अपनी व्यवहारिक क्रूरता का अर्थ नहीं समझ आ रहा है? परन्तु छोड़िए, भारतीय नौकरशाही तो अपने मूल चरित्र में ही अभिजनवादी एवं आमजन द्रोही है, ऐसे में जब उसे सत्ता का संरक्षण प्राप्त हो जाए, तो उसकी कार्यशैली में व्याप्त विकृत्ति को क्रूरता में बदलते देर नहीं लगती। लेकिन वाजिब सवाल ये हैं कि यदि विद्यार्थी विरोध कर रहे, तो सरकार का कोई भी ज़िम्मेदार नेता-मंत्री या कोई अन्य प्रतिनिधि उनसे बात करने क्यों नहीं आया? क्या सरकार इन्हें राष्ट्र का नागरिक नहीं मानती, जिनकी समस्या उसके लिए चिन्ता का विषय हो? अपनी तमाम राजनीतिक नौटंकियों के बावजूद सरकार और उसके नेता-मंत्री इस विवाद का ठीकरा आयोग के स्वतंत्र एवं ख़ुदमुख़्तार होने के नाम फोड़कर अपनी ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकते, जैसा कि वे इस मामले में कर भी रहे हैं। क्या बिहार आयोग इतना स्वतंत्र की वह व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की स्थापित संरचना से भी ऊपर है, जिसकी किसी के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है? आज प्रशासनिक और पुलिसिया बर्बरता में पिस रहे प्रदर्शनकारी छात्रों के संघर्ष को सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेता जमात के लोग अपने जीवन-संघर्ष का ज्ञान दे सकते हैं; लेकिन वे संघर्ष के असल निहितार्थ नहीं है। संघर्ष स्वाभिमान का आधार हो सकता है, अभिमान का नहीं। लेकिन सत्ता जनित यही अभिमान बिहार सरकार को अपने दुष्कृत्यों के प्रति दुराग्राही और हठी बना रही है।

हालाँकि न सत्ता सहज होती, न ही सत्ताधीश सहज होते हैं। सत्ता के अहंकार में एक उद्वेग होता है, जहाँ उसके अंदर बैठा सर्वाधिकारवाद उसे अहंकारी एवं जन-विमुख बना देता है। पिछले 18 वर्षों से बिना बहुमत के सत्ताधीश बने सुशासन बाबू सत्ता की अनधिकृत त्वरा में जनशक्ति की महत्ता को अनदेखा कर रहे हैं। संभवत: कथित रूप से सुशासन सरकार और उसका प्रशासन संविधान की मूलभूत अवधारणा को विस्मृत कर चुकी है कि लोकतंत्र में प्रभुसत्ता जनता में ही निहित रहती है। लोकतांत्रिक आदर्श में जनता ही स्वयं अपने ऊपर शासन करती है। जनता का समर्थन है, तभी राष्ट्र का तंत्र सुचारू रूप से संचालित होता है। जनता ही लोकतंत्र की मूल संप्रभु शक्ति है। जनता सत्ता में बैठाती है, तो पतन के अंधकार में गाड़ती भी इसलिए है कि सत्ता के ध्येय वालों को लोकतंत्र के नियम याद रहने चाहिए। यूँ भी बिहार परिवर्तन की भूमि है, जहाँ शिक्षा एवं रोज़गार का स्तर भले ही न्यून हो, किन्तु राजनीतिक जागरूकता का अभाव नहीं है। अगस्त क्रान्ति (1942) से लेकर 1975 के बिहार आन्दोलन (आपातकाल) तक बिहार की जनता और ज़मीन ने इसे सिद्ध भी किया है। युवाओं के व्यवस्था-विरोधी आन्दोलन हमेशा से सत्ता के लिए ख़तरे की घंटी रहे हैं। इसे बिहार की आत्मा से बेहतर कौन समझ सकता है। राज्य के हुक्मरान यह भूल गये हैं; लेकिन इतिहास को भलीभाँति याद है। इतिहास की सीख वर्तमान और भविष्य का पथ सुगम बनाती है। सार्थक रूप से मार्गदर्शन करती है। आसन्न विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र यह सीख सत्ता के लिए अत्यंत ज़रूरी है, ताकि उसका राजनीतिक अस्तित्व संकट में न पड़े। वरना अपनी अहमन्यता में पतन का मार्ग तो उसने चुन ही लिया है।

पूर्वोत्तर में प्रत्यक्ष बिक्री कारोबार 1,854 करोड़ रूपये के पार, असम 1009 करोड़ की हिस्सेदारी के साथ शीर्ष पर

देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र के राज्यों ने प्रत्यक्ष बिक्री में लम्बी छलांग भरते हुये करीब 16 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज कर वर्ष 2022-23 में 1854 करोड़ रूपये से अधिक का कारोबार किया जो न केवल गत वर्षावधि से 255 करोड़ रूपये अधिक है बल्कि ठोस भावी दिशा को भी परिलक्षित करता है। देश में प्रत्यक्ष बिक्री उद्योग की अग्रणी संस्था इंडियन डायरेक्ट सेलिंग एसोसिएशन (आईडीएसए) ने आज यहां आयोजित “द्वितीय पूर्वोत्तर प्रत्यक्ष बिक्री सम्मेलन और प्रदर्शनी“ कार्यक्रम में इसका खुलासा किया।

आईडीएसए ने बताया कि 21,282 रूपये के कुल राष्ट्रीय प्रत्यक्ष बिक्री बाजार में पूर्वोत्तर क्षेत्र की लगभग 8.7% की हिस्सेदारी है और यह 4.2 लाख से अधिक प्रत्यक्ष विक्रेताओं को स्वरोजगार के अवसर प्रदान करता है। इस क्षेत्र में असम 13 प्रतिशत की सालाना विकास दर के साथ 1009 करोड़ रूपये की बिक्री और 4.7% की बाजार हिस्सेदारी से देश का न केवल 9वां सबसे बड़ा प्रत्यक्ष बिक्री बाजार है बल्कि सहयोगी राज्यों में भी शीर्ष क्रम पर है और यह मुकाम उसे 2.4 लाख से अधिक प्रत्यक्ष विक्रेताओं की अथक मेहनत की बदौलत हासिल हुआ है।

आईडीएसए के अनुसार पूर्वोतर क्षेत्र के अन्य सात राज्य कुल बिक्री में लगभग 845 करोड़ का योगदान करते हैं जिनमें नागालैंड 227 करोड़, मिज़ोरम 156 करोड़, अरुणाचल प्रदेश 78 करोड़, त्रिपुरा 72 करोड़, मेघालय 19 करोड़ और सिक्किम की पांच करोड़ रूपये की हिस्सेदारी है। मिजोरम ने सर्वाधिक 31%, सिक्किम 25%, नागालैंड 22.7% और मणिपुर ने 20% की चौंकाने वाली विकास दर हासिल की है। उल्लेखनीय है कि प्रत्यक्ष विक्री उद्योग पूर्वोत्तर राज्यों के खजाने में करों के माध्यम से सालाना लगभग 300 करोड़ रूपये का भी योगदान करता है जो इस क्षेत्र के विकास में इसकी मजबूत भूमिका को दर्शाता है।

असम की उपभोक्ता मामले विभाग की सचिव सुश्री अनासुआ दत्ता बरुआ ने इस अवसर पर अपने सम्बोधन में कहा कि राज्य सरकार प्रत्यक्ष बिक्री उद्योग के लिए निर्धारित नियामक तंत्र के अंतर्गत अनुकूल माहौल सुनिश्चित करते हुये उपभोक्ताओं के हितों और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। उपभोक्ताओं के लिए उत्पादों की गुणवत्ता सुनिश्चित करने पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि प्रत्यक्ष बिक्री कम्पनियों की गतिविधियों पर नजर रखने तथा उपभोक्तओं की शिकायतों के निवारण हेतु राज्य सरकार ने उपभोक्ता संरक्षण (प्रत्यक्ष बिक्री) नियम 2021 के प्रावधानों के अनुरूप राज्य में निगरानी कमेटी का गठन किया है जिसके सदस्यों में विषय विशेषज्ञ के तौर पर आईडीएसए भी शामिल है। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार एक तंत्र बनाने पर काम कर रही है ताकि प्रत्यक्ष बिक्री कम्पनियां नियमों का पालन करें। 

प्राइड ईस्ट एंटरटेनमेंट की अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक रिनिकी भुयान शर्मा ने इस अवसर पर अपने सम्बोधन में समाज और राष्ट्रीय विकास में महिलाओं के योगदान की सराहना की। उन्होंने कहा कि महिलाओं ने घरों तक ही सीमित रहने की  पारम्परिक बेड़ियों से बाहर निकल कर विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय सफलताएं हासिल की हैं और यह सिलसिला बरकरार है।  उन्होंने कहा कि प्रत्यक्ष बिक्री क्षेत्र भी महिलाओं के सशक्तिकरण का माध्यम बन रहा है जहां इन्होंने अपनी उद्यमशीलता क्षमता साबित कर उपलब्धियों के माध्यम से ठोस मिसाल कायम की है। उन्होंने  कार्यक्रम में सम्मानित महिलाओं को बधाई दी और उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना की। उन्होंने अन्य महिलाओं से भी इनसे प्रेरणा लेने की अपील करते हुये इस तरह के कार्यक्रमों के आयोजन के लिए आईडीएसए की सराहना की।

आईडीएसए के अध्यक्ष विवेक कटोच ने देश में प्रत्यक्ष बिक्री परिदृश्य की जानकारी देते हुये कहा कि पूर्वोत्तर क्षेत्र प्रत्यक्ष बिक्री उद्योग के लिए प्रमुख और प्राथमिकता वाले बाजारों में शामिल है। 16% की विकास दर स्पष्ट रूप से दर्शाती हैं कि प्रत्यक्ष बिक्री उद्योग यहां नये आयाम छूने की ओर अग्रसर है जो इसके प्रत्यक्ष विक्रेताओं की अथक मेहनत का नतीजा है। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय स्तर 12% की सालाना और आठ प्रतिशत से अधिक की सीएजीआर के साथ बढ़ रहे इस उद्योग ने लगभग 86 लाख लोगों को स्वरोजगार प्रदान किया है। आईडीएसए सदस्य कम्पनियां उपभोक्ता हितों के साथ क्षेत्र के 4.2 लाख से अधिक प्रत्यक्ष विक्रेताओं के हितों की सफलतापूर्वक रक्षा करने का दावा आत्मविश्वास से कर सकती हैं। उन्होंने कहा कि असम समेत दस राज्यो ने केंद्र द्वारा अधिसूचित उपभोक्ता संरक्षण (प्रत्यक्ष बिक्री) नियम 2021 का पालन करते हुये अपने यहां निगरानी समितियों का गठन कर लिया है तथा आशा करते हैं कि अन्य राज्य भी यह काम जल्द पूरा कर लेंगे।

कार्यक्रम में प्रत्यक्ष बिक्री उद्योग के दिग्गजों और विशेषज्ञों ने उद्योग के विकास, नियामक तंत्र, उपभोक्ता जागरूकता, सुधाारों

और प्रत्यक्ष बिक्री में मौजूद अवसरों से महिलाओं और युवाओं के सशक्तिकरण आदि महत्वपूार् विषयों  पर भी विचार-मंथन किया। इस दौरान प्रत्यक्ष बिक्री में उत्कृष्ट उपलब्धियों के लिए पूर्वोत्तर क्षेत्र की 45 महिला उद्यमियों का सम्मान, पूर्वोत्तर की पारम्परिक वेशभूषा में मॉडल का उत्पादों के साथ रैंप वॉक तथा आईडीएसए की सदस्य प्रत्यक्ष बिक्री कम्पनियों की विभिन्न उत्पादों और नवाचारों को लेकर प्रदर्शनी जैसे कार्यक्रम आकर्षण का केंद्र बने1

इस अवसर पर आईडीएस के सचिव रजत बनर्जी, आईडीएसए की विभिन्न सदस्य कम्पनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारी,   न्यूट्रीशन एवं फिटनेस कोच रूचि भारद्वाज बरूआ समेत अन्य गणमान्य और बड़ी संख्या में प्रत्यक्ष विक्रेता मौजूद थे।

आईडीएसए के बारे में : आईडीएसए भारत में प्रत्यक्ष बिक्री उद्योग के लिये एक स्वायत् और स्व-नियमन संस्था है जो उद्योग के कारोबार को बढ़ावा देने के लिये अनुकूल माहौल बनाने, इसके हितों और इससे जुड़े मुद्दों को लेकर सरकार के नीति निर्धारण निकायों के बीच एक माध्यम और सेतु का काम करती है। इसके अलावा यह सरकार के साथ नीतिगत मुद्दों पर मिल कर काम करने और इसमें दक्षता बढ़ाने, प्रत्यक्ष बिक्री में वांछित विश्वसनीयता, स्पष्टता और विश्वास सुनिश्चित करने के लिये एक सलाहकार और परामर्शदाता की भूमिका भी अदा करती है।