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गिरते मूल्य, बढ़ती बेशर्मी: समाज की नई तस्वीर

“नंगे हैं तो क्या हुआ, दम वाले हैं”

बृज खंडेलवाल द्वारा

व्हाइट हाउस में डोनाल्ड ट्रंप और ज़ेलेंस्की के बीच हुई जुबानी जंग को देखकर लोगों ने कहा, “समरथ को नहीं दोष गुसाईं”। यह कहावत आज के दौर में सच साबित होती दिख रही है। ज़ेलेंस्की को एक ऐसे कुत्ते की तरह देखा गया, जो न घर का रहा न घाट का, और ट्रंप को उस चालाक बंदर की तरह, जो दो लड़ती बिल्लियों को न्याय दिलाने के बहाने पूरी रोटी हड़प जाता है। यह नज़ारा सिर्फ अमेरिका तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया में साहित्य, संस्कृति, डिप्लोमेसी और शिष्टाचार की धज्जियाँ उड़ती दिख रही हैं। 

भारत में भी हालात कुछ अलग नहीं हैं। एक राजनीतिक रैली में एक नेता ने अपने प्रतिद्वंद्वी के निजी जीवन पर इतनी अभद्र टिप्पणी की कि सुनने वालों के कान पक गए। टीवी चैनलों पर बहस के नाम पर होने वाली चीख-पुकार और मारपीट ने दर्शकों को निराश कर दिया। सार्वजनिक स्थानों पर लड़के-लड़कियों के बीच गाली-गलौज का युद्ध छिड़ जाता है। सोशल मीडिया पर अलग राय रखने वालों को अपमानित करना आम बात हो गई है। पहले शादी-ब्याह में महिलाएं गालियों के रूप में मज़ाक करती थीं, लेकिन आज लैंगिक समता के नाम पर गर्ल स्टूडेंट्स भी इस मामले में पीछे नहीं हैं। उनके शब्दकोश में भी चटपटी गालियों का भरपूर स्टॉक है। 

पुरानी पीढ़ी के लोग कहते हैं कि आधुनिक समाज में मर्यादा और शिष्टाचार की सीमाएं धुंधली होती जा रही हैं। “नंगई” शब्द, जो पहले दिखावे और बेशर्मी का प्रतीक था, आज एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है। यह प्रतिस्पर्धा, जिसमें हर कोई एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लगा है, न केवल भौतिकता से जुड़ी है, बल्कि हमारे सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक मूल्यों पर भी एक गहरा सवाल खड़ा करती है। 

राजनीति, जो कभी समाज का मार्गदर्शन करती थी, आज नंगई का अखाड़ा बन गई है। नेता और सार्वजनिक व्यक्ति अपनी गरिमा को ताक पर रखकर एक-दूसरे को नीचा दिखाने में लगे हैं। हाल ही में एक राजनीतिक बहस में एक नेता ने दूसरे नेता पर इतने व्यक्तिगत हमले किए कि उनकी राजनीतिक मंशा की बजाय उनका व्यक्तिगत द्वेष सामने आ गया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी डिप्लोमेसी का मज़ाक बनते देखा गया है। 

मीडिया, जो समाज का दर्पण माना जाता है, भी इस नंगई की होड़ में शामिल हो गया है। टीवी चैनल खबरें दिखाने की बजाय तमाशा बन गए हैं। बहसों में हंगामा, चीख-पुकार और व्यक्तिगत हमले आम हो गए हैं। भाषा की गरिमा कहीं खो गई है। 

रिश्तों का लिहाज़ भी पूरी तरह से ख़त्म हो चुका है। नेता और अफसरों के बीच का संबंध अब केवल भूमिका तक सीमित नहीं रहा। आज, अफसर अपने नेता को सम्मान देने की बजाय उन्हें डाँटते हुए नज़र आते हैं। यह अराजकता सरकारी दफ़्तरों से लेकर सड़कों तक देखी जा सकती है। 

साधु-संत भी इस नंगई से अछूते नहीं हैं। आध्यात्मिकता के प्रतीक अब बेशर्मी की बातें करने लगे हैं। उनके शिष्टाचार और संयम का कोई महत्व नहीं रह गया है। 

इस तरह, आज का समाज एक “बेशर्म समाज” में बदल गया है, जहाँ नैतिकता, मूल्य और गरिमा का कोई स्थान नहीं रहा है। सब कुछ व्यक्तिगत स्वार्थ और दिखावे के इर्द-गिर्द घूमता है। चाहे राजनीति हो, मीडिया हो या समाज, हर जगह नंगई की एक नई परिभाषा गढ़ी जा रही है। 

यह समझना ज़रूरी है कि इस नंगई की प्रतिस्पर्धा से न केवल हमारी पहचान प्रभावित होती है, बल्कि यह भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी एक ग़लत उदाहरण पेश करती है। हमें इस प्रवृत्ति का सामना करने और इसे समाप्त करने का प्रयास करना चाहिए। नैतिक शिक्षा को बढ़ावा देना होगा, मीडिया को अपनी ज़िम्मेदारी समझनी होगी और समाज के हर वर्ग को मर्यादा और शिष्टाचार का पालन करना होगा। तभी हम एक स्वस्थ और संस्कारित समाज की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।

विकसित दिल्ली : भाजपा सरकार की कठिन परीक्षा

प्रियंका तंवर

लगभग पौने तीन दशक बाद राष्ट्रीय राजधानी पर दोबारा क़ब्ज़ा करने वाली भाजपा के लिए दिल्ली की सत्ता पर क़ाबिज़ रहना इसे सुरक्षित करने से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होगा। इस उद्देश्य से पार्टी ने आने वाले वर्षों में शहर को विकसित करने के लक्ष्य के साथ ‘विकसित दिल्ली’ नाम की योजना शुरू की है। भाजपा ने शहर की सार्वजनिक सेवाओं में सुधार के लिए एक महत्त्वाकांक्षी रोडमैप तैयार किया है; क्योंकि 20 मिलियन से अधिक निवासियों के साथ दिल्ली के बुनियादी ढाँचे में भारी कमियाँ हैं और भाजपा ने इन मुद्दों को सुलझाने का वादा किया है। केंद्र में पार्टी की सरकार नि:संदेह इन आवश्यक परियोजनाओं के लिए धन और समर्थन सुरक्षित करना आसान बना देगी।

भाजपा के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता में यमुना नदी की सफ़ाई है, जो विवादों की वजह से लंबित थी, जिसने मतदाताओं के समर्थन का आधार एक सही विकल्प के रूप में प्रदान किया। भाजपा का ध्यान शहर के बुनियादी ढाँचे को विकसित करने और उस प्रदूषण को दूर करने पर भी है, जिसके कारण हर साल सर्दियों में शहर का दम घुटने लगता है। केंद्र में भाजपा के मज़बूत नियंत्रण के साथ अब उसके पास उन नीतियों को लागू करने का अवसर है, जो स्थानीय और राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के अनुरूप हैं और भगवा पार्टी का बहुप्रचारित डबल इंजन मॉडल भी है। स्थानीय और केंद्र की सरकारों के बीच इस सामंजस्य से परियोजनाओं की तेज़ी से मंज़ूरी और उन महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं के कार्यान्वयन का मार्ग प्रशस्त होने की उम्मीद है, जो लंबे समय से लंबित हैं या राजनीतिक गतिरोध के कारण बाधित हैं।

जीत हासिल करने के तुरंत बाद दिल्ली भाजपा प्रमुख वीरेंद्र सचदेवा ने कहा कि नयी सरकार अगले पाँच वर्षों में दिल्ली को विकसित राजधानी बनाने पर ध्यान केंद्रित करेगी। उन्होंने कहा कि ‘बैठक में सभी विधायकों ने अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों में विकास कार्यों को कैसे आगे बढ़ाया जाए, इस पर चर्चा की। हमारी सरकार सभी परियोजनाओं को पूरा करेगी और लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करेगी। झूठ फैलाकर भाजपा को बदनाम करने की आप की कोशिशों का मुक़ाबला हमारे विधायकों के काम से किया जाएगा।’

विकसित दिल्ली प्रदान करने पर भाजपा के फोकस ने कई लोगों का ध्यान आकर्षित किया है; ख़ासकर युवाओं और परिवारों का, जो देश की राजधानी में जीवन की बेहतर गुणवत्ता के लिए तरस रहे हैं। बेहतर शासन, बेहतर सुरक्षा और स्वच्छ सार्वजनिक स्थानों के पार्टी के वादे निश्चित रूप से उन निवासियों को पसंद आये हैं, जो ठोस बदलाव की आवश्यकता महसूस करते हैं। लेकिन पार्टी स्मार्ट शहरों के निर्माण और शहरी बुनियादी ढाँचे के आधुनिकीकरण के अपने व्यापक राष्ट्रीय एजेंडे के अनुरूप नागरिकों के लिए उच्च गुणवत्ता वाला जीवन प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित करना होगा, जो शायद है भी। इसके अतिरिक्त अपने पास मौज़ूद राष्ट्रीय संसाधनों के साथ भाजपा का लक्ष्य दिल्ली को सरकार की विकासात्मक नीतियों का एक चमकदार उदाहरण बनाना है। उदाहरण के लिए, मंत्रिमंडल की पहली बैठक में दिल्ली सरकार ने राष्ट्रीय राजधानी में बहुत विलंबित आयुष्मान भारत योजना के कार्यान्वयन को मंज़ूरी दे दी।

हालाँकि यह सिर्फ़ शासन के वादे नहीं हैं, जो दिल्ली के मतदाताओं को आकर्षित कर रहे हैं। भाजपा ने मुफ़्त उपहार देने की रणनीति भी अपनायी है। यह एक ऐसा उपकरण है, जिसका उपयोग भारत में कई राजनीतिक पार्टियाँ चुनाव जीतने के लिए करती रही हैं। बढ़ती महँगाई के चलते जीवनयापन करने में आने वाली मुश्किलों और शहर की दूसरी चुनौतियों के साथ उपयोगिताओं पर सब्सिडी, वंचितों के लिए मुफ़्त शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल तक बेहतर पहुँच जैसे कल्याणकारी उपायों के प्रति पार्टी की प्रतिबद्धता ने दिल्ली के कामकाजी वर्ग और मध्यम वर्ग के मतदाताओं को प्रभावित किया, जो चुनाव परिणामों में परिलक्षित हुआ।

दिल्ली की दो सत्ताओं में से एक दिल्ली नगर निगम अभी भी आम आदमी पार्टी के पास है। नयी सरकार को शहर में आवश्यक स्वच्छता सुधार लाने में चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा की ऐतिहासिक जीत के साथ पार्टी ने अब ख़ुद को राजधानी के राजनीतिक क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण खिलाड़ी के रूप में स्थापित कर लिया है। हालाँकि वादों को पूरा करना उसके लिए कठिन चुनौतियों से भरा काम होगा। दिल्ली सरकार और केंद्र की सरकार के बीच तालमेल बनने में अब सुगमता रहेगी और यह भाजपा को अपने महत्त्वाकांक्षी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए एक शक्तिशाली मंच प्रदान करेगा। जैसे-जैसे दिल्ली आगे बढ़ रही है, देश की निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि भाजपा आने वाले वर्षों में एक सुरक्षित, स्वच्छ और अधिक समृद्ध शहर बनाने के अपने वादों को कैसे पूरा करेगी?

संघ के दम पर दिल्ली जीती भाजपा?

हर चुनाव में भाजपा के लिए ज़मीन तैयार करते हैं संघ के पदाधिकारी और कार्यकर्ता

इंट्रो– नरेंद्र मोदी के चेहरे और गुजरात मॉडल के नाम पर सन् 2014 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद भाजपा की सत्ता न सिर्फ़ केंद्र में क़ायम है, बल्कि कई ऐसे राज्यों में भी उसने सत्ता हासिल की है, जहाँ जीत हासिल कर पाना उसके लिए दूर की कौड़ी थी। लेकिन उसकी इस जीत में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। दिल्ली में भी वह 27 साल के अंतराल के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के रणनीतिक समर्थन के चलते दिल्ली में सत्ता हासिल कर सकी है। दिल्ली में भी भाजपा ने हर राज्य की तरह दिल्ली में भी लोगों के अनुमान के विपरीत कई दिनों के असमंजस के बाद मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा की और रेखा गुप्ता को इस पद पर बैठाया। लेकिन आंतरिक मतभेदों से उभरना भी भाजपा के लिए राजधानी पर शासन करने जितना ही महत्त्वपूर्ण होगा। दिल्ली में भाजपा की जीत में संघ की भूमिका और रणनीतियों को लेकर नितिन महाजन की रिपोर्ट :-

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पिछले 11 वर्षों से केंद्र में और देश भर के 20 से अधिक राज्यों में राजनीतिक शक्ति का इस्तेमाल कर रही है। लेकिन दिल्ली में सरकार बनाना लगभग तीन दशकों से भगवा पार्टी के लिए एक मायावी सपना बना हुआ था; क्योंकि दिल्ली में उसकी अंतिम मुख्यमंत्री के रूप में दिवंगत सुषमा स्वराज ने 03 दिसंबर, 1998 तक शासन किया, जिसके बाद हुए चुनाव में कांग्रेस को दिल्ली की जनता ने सत्ता सौंपी थी। इस वर्ष 20 फरवरी को अपने छ: कैबिनेट सहयोगियों के साथ राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की मुख्यमंत्री के रूप में रेखा गुप्ता के शपथ लेने के बाद दिल्ली सरकार के मुख्यालय, प्लेयर्स बिल्डिंग से भाजपा का वनवास समाप्त हो गया। अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी को हराकर राष्ट्रीय राजधानी में राजनीतिक जीत हासिल करने का मिशन आसान नहीं था और भाजपा नेतृत्व इस दुविधा से अवगत था। दिल्ली में सफलता हासिल करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पार्टी प्रमुख जे.पी. नड्डा और गृहमंत्री अमित शाह सहित भाजपा नेतृत्व ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के समर्थन पर ज़्यादा निर्भर रहने का फ़ैसला किया और पार्टी के लिए समर्थन बढ़ाने के लिए अपने कार्यकर्ताओं की सक्रिय भागीदारी की तलाश की; जैसा कि पार्टी नेतृत्व ने कुछ महीने पहले महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों में किया था।

फोटो: नवीन बंसल

शीर्ष भगवा नेतृत्व से हरी झंडी मिलने के बाद आरएसएस ने पिछले कई महीनों से दिल्ली के आम लोगों का दिल जीतने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया। यह मिशन आसान नहीं था; क्योंकि अरविंद केजरीवाल की अगुवाई वाली आम आदमी पार्टी दिल्ली सरकार ने दिल्ली में मज़बूत पकड़ बना रखी थी और उनकी दो बार रही सरकारों द्वारा पैदा की गयी मुफ़्त सुविधाओं की संस्कृति, जिसे भाजपा ने मुफ़्त की रेवड़ी-संस्कृति क़रार दिया था; के कारण आम आदमी पार्टी ने बड़े पैमाने पर लोकप्रियता हासिल की थी। आम आदमी पार्टी की सरकार को सफलतापूर्वक हटाने के लिए कार्ययोजना तैयार करने में भगवा नेतृत्व महीनों पहले ही योजना और राजनीतिक रणनीति बनाने में लग गया था।

प्रारंभिक प्रक्रिया 2022 से शुरू हुई, जिसमें कथित भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर सबसे पहले आम आदमी पार्टी के सत्येंद्र जैन, फिर क्रमश: मनीष सिसोदिया, संजय सिंह, अरविंद केजरीवाल जैसे वरिष्ठ नेताओं के अलावा कई अन्य वरिष्ठ नेताओं को लगातार निशाना बनाया गया। भाजपा ने यह सुनिश्चित किया कि आम आदमी पार्टी का नेतृत्व, जो भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के दम पर राष्ट्रीय राजधानी के सत्ता गलियारों तक पहुँचने में गर्व महसूस करता है; इतनी आसानी से इन आरोपों से बच नहीं सकता। इन नेताओं की लगातार खोज और उन पर आरोप लगाने से यह सुनिश्चित हो गया कि जाँच एजेंसियों द्वारा अभियोग (चार्जशीट किये जाने) के बाद जैन, सिसोदिया और केजरीवाल को जेल में डाल दिया गया। इससे यह सुनिश्चित हो गया कि आम आदमी पार्टी के नेतृत्व की स्वच्छ छवि धूमिल हो गयी और आम लोगों के मन में संदेह पैदा हो गया।

दिलचस्प बात यह है कि दिल्ली की चुनावी राजनीति में पहली बार भाजपा को भी इन विधानसभा चुनावों में केजरीवाल द्वारा बेहद लोकप्रिय मुफ़्त की योजनाओं का ऐलान करने का फ़ैसला करना पड़ा। भाजपा दिल्ली में पिछले कुछ चुनावों में ऐसे किसी भी वादे से दूर रही है। हालाँकि शीर्ष नेताओं के परामर्श से स्थानीय नेतृत्व ने सत्ता में आने पर महिलाओं की मुफ़्त बस यात्रा, रियायती बिजली और पीने योग्य पानी सहित पहले से लागू सब्सिडी को जारी रखने के पार्टी के फ़ैसले की घोषणा की। इसके अलावा भाजपा ने भी आगे बढ़कर अतिरिक्त वोट हासिल करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय राजधानी में आर्थिक रूप से कमज़ोर, योग्य महिलाओं को 2,500 रुपये की मासिक सहायता देने का वादा किया।

फोटो: नवीन बंसल

इस बीच चुनावों के दौरान भगवा सहयोगियों द्वारा दिल्ली नेतृत्व के बीच किसी भी गुटबाज़ी से बचने का भी प्रयास किया गया। स्थानीय नेताओं से कहा गया कि अगर वे राष्ट्रीय राजधानी में सत्ता में लौटना चाहते हैं, तो केंद्रीय नेताओं द्वारा तैयार की गयी रणनीति का पालन करें और स्थानीय काडर को साथ लें। दिल्ली भाजपा ऐतिहासिक रूप से आंतरिक प्रतिद्वंद्विता से जूझती रही है। विजेंदर गुप्ता, मनोज तिवारी और प्रवेश वर्मा जैसे नेता अक्सर प्रभाव डालने की होड़ में एक-दूसरे से भिड़ते रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की केंद्रीकृत निर्णय प्रक्रिया ने गुटबाज़ी को दबाने में काफ़ी मदद की।

इन राजनीतिक रणनीतियों के कार्यान्वयन के लिए संघ, जो कि भाजपा का वैचारिक अभिभावक है; ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। दिल्ली विधानसभा चुनावों से पहले संघ काडर द्वारा एक व्यापक आउटरीच कार्यक्रम लागू किया गया था, जहाँ राष्ट्रीय राजधानी भर में 60,000 से अधिक बैठकें आयोजित की गयीं, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि 27 वर्षों के बाद राष्ट्रीय राजधानी में भाजपा की सत्ता में वापसी के लिए ज़मीन तैयार हो गयी है। विभिन्न नामों पर अटकलों के बावजूद यह समझा जाता है कि चुनाव के नतीजे घोषित होने के बाद से रेखा गुप्ता को संघ का मज़बूत समर्थन प्राप्त था। संघ ने उन पर पूरा भरोसा जताया था और यह बात भाजपा नेतृत्व को भी बता दी गयी थी। कथित तौर पर संघ और भाजपा आलाकमान ने स्वच्छ छवि और व्यापक अपील वाले उम्मीदवार का समर्थन किया।

2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा के हल्के प्रदर्शन के बाद से संघ चुनावी रणनीति को आकार देने और अपने राजनीतिक सहयोगी के लिए समर्थन बढ़ाने में अधिक सक्रिय हो गया है। यह तथ्य पहले भी हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों के दौरान ही स्पष्ट हो गया था, जहाँ संघ काडर ने यह सुनिश्चित किया था कि भाजपा के समर्थक मतदान के दिन मतदान करने के लिए बाहर आएँ और यह इन राज्यों के अनिर्णीत और युवा मतदाताओं से जुड़ें और इस रणनीति से भगवा मोर्चे की प्रभावशाली जीत सुनिश्चित हुई। लोकसभा चुनावों के बाद से संघ काडर ने अपनी पहुँच बढ़ा दी थी, जहाँ पहली बार मतदाताओं, युवाओं और महिलाओं के साथ राष्ट्रवाद और नरेंद्र मोदी सरकार के लोक कल्याण उपायों से सम्बन्धित मुद्दों पर चर्चा की गयी थी। संघ कार्यकर्ताओं की इन आउटरीच बैठकों के परिणाम हाल के हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली विधानसभा चुनावों में देखे गये हैं, इस तथ्य को भाजपा नेतृत्व ने स्वीकार किया है।

पिछले साल हरियाणा में भाजपा ने लगातार तीसरी बार 90 में से 48 सीटें जीतीं, जबकि महाराष्ट्र में महायुति गठबंधन- जिसमें भाजपा, शिवसेना (शिंदे गुट) और एनसीपी (अजित पवार) शामिल थे; ने 288 में से 228 सीटें जीतने का दावा किया। इन दोनों राज्यों में भगवा जीत का श्रेय पार्टी के पक्ष में संघ की प्रभावी पहुँच को दिया गया। दिल्ली में संघ द्वारा अभियान महाराष्ट्र चुनाव के तुरंत बाद शुरू किया गया था और शहर को 30 ज़िलों और 173 नगरों को पूरा करते हुए आठ क्षेत्रों में विभाजित किया गया था। दिल्ली में आउटरीच कार्यक्रम में संघ प्रचारकों के अलावा विभिन्न सहयोगी संगठनों के कार्यकर्ताओं ने भी हिस्सा लिया।

गुप्ता मंत्रिमंडल पर संघ की छाप

दिल्ली में सुषमा स्वराज (भाजपा), शीला दीक्षित (कांग्रेस) और आतिशी (आम आदमी पार्टी) के बाद महिला मुख्यमंत्री के रूप में रेखा गुप्ता का नामांकन हुआ है। वह दिल्ली की चौथी महिला मुख्यमंत्री हैं और स्पष्ट रूप से संघ के अनुमोदन की मुहर लगने पर बनी हैं। वरिष्ठ नेता संघ की युवा शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) से आती हैं और उन्हें भगवा संगठनों का पूरा भरोसा प्राप्त है। उन्हें संघ सरकार्यवाह (महासचिव) दत्तात्रेय होसबले का वफ़ादार माना जाता है।

समझा जाता है कि हाल के दिल्ली विधानसभा चुनावों में संघ के मज़बूत समर्थन के बाद भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने मुख्यमंत्री पद के लिए संघ की उम्मीदवार को समायोजित किया है, जो कि भाजपा द्वारा मुख्यमंत्री चेहरों के चयन में संघ के प्रभाव की एक और स्वीकारोक्ति है। ऐसा माना जाता है कि संघ से जुड़े संगठनों के ठोस और अटूट समर्थन के कारण अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी को हराकर भाजपा दिल्ली विधानसभा की 70 में से 48 सीटें हासिल करने में सफल रही। किसी भी राज्य में भाजपा के शासन में पहली महिला मुख्यमंत्री के रूप में रेखा गुप्ता की नियुक्ति पार्टी के महिला मतदाताओं का समर्थन हासिल करने के उद्देश्य से मेल खाती है, जिन्होंने दिल्ली की जीत में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी।

भाजपा ने यह भी सुनिश्चित करने की कोशिश की है कि दिल्ली सरकार के मंत्रिमंडल में नियुक्तियों में जातिगत समीकरणों और सामुदायिक आकांक्षाओं का ध्यान रखा जाए। गुप्ता की नियुक्ति को संभावित रूप से ऐतिहासिक माना जा रहा है; क्योंकि जिन 21 राज्यों में भाजपा सत्ता में है, उनमें से किसी में भी भाजपा की कोई महिला मुख्यमंत्री नहीं रही है। उनकी स्वच्छ छवि, ज़मीनी स्तर पर जुड़ाव, संगठनात्मक कौशल और शालीमार बाग़ में उनकी ठोस जीत को शीर्ष पद के लिए उनके चयन के कारणों के रूप में उद्धृत किया गया है। रेखा गुप्ता को दिल्ली की मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने एक साथ कई समीकरण बना दिये हैं। उन्होंने आम आदमी पार्टी के कार्यकाल के दौरान मुख्यमंत्री रहे अरविंद केजरीवाल (बनिया) और आतिशी मार्लेना (महिला) से कमान सँभाली और इन समुदायों की आकांक्षाओं को पूरा किया। इससे भगवा कार्यकर्ताओं को एक सकारात्मक संदेश जाता है कि अगर कोई संगठन के लिए लगातार काम करता है, तो एक साधारण एबीवीपी कार्यकर्ता भी मुख्यमंत्री बन सकता है।

प्रवेश वर्मा (जाट), आशीष सूद (पंजाबी, बनिया), मनजिंदर सिंह सिरसा (सिख, अल्पसंख्यक), कपिल मिश्रा (ब्राह्मण), रविंदर इंद्राज सिंह (दलित) और पंकज कुमार सिंह (पूर्वांचली) को मंत्री बनाकर उनकी क्षेत्रीय, जातीय और सामुदायिक आकांक्षाओं को पूरा किया गया है। इसके अलावा बनिया समुदाय से आने वाले वरिष्ठ नेता विजेंद्र गुप्ता को सदन के अध्यक्ष के रूप में समायोजित किया गया है। इन समुदायों के नेताओं को शामिल करके भाजपा ने उन सभी प्रमुख समुदायों और जातियों के लिए प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया है, जिन्होंने राष्ट्रीय राजधानी में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी को सत्ता से बाहर करने में मदद की है।

सोशल इंजीनियरिंग से यह सुनिश्चित करने की उम्मीद है कि हाल के विधानसभा चुनावों और पिछले साल लोकसभा चुनावों में भाजपा का समर्थन करने वाले वोटिंग ब्लॉक और समुदायों को दिल्ली कैबिनेट में पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिले। भाजपा को उम्मीद है कि यह आवास राष्ट्रीय राजधानी में भगवा मोर्चे की राजनीतिक स्थिति को बढ़ावा देगा। अन्य राज्यों में विधानसभा सदस्य संख्या का 15 प्रतिशत मंत्री बनाया जा सकता है। हालाँकि दिल्ली में विधानसभा की 10 प्रतिशत सीटें यानी कुल सात मंत्री ही बनाये जा सकते हैं। दिल्ली विधानसभा में 70 सदस्य हैं। दिल्ली के फॉर्मूले के मुताबिक, मुख्यमंत्री समेत कुल सात मंत्री कैबिनेट में हो सकते हैं। यानी एक मुख्यमंत्री और छ: कैबिनेट मंत्री।

जीतना और इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि राष्ट्रीय राजधानी में सत्ता पर बने रहना। भाजपा के लिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि वह इसे एक विश्व स्तरीय शहर के रूप में प्रदर्शित और विकसित करना चाहती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहले कहा था कि वह राजधानी को एक आधुनिक महानगर के रूप में विकसित करना चाहते हैं, जिसे भारत के गौरव के रूप में प्रदर्शित किया जा सके। भगवा पार्टी को लगता है कि उसकी डबल इंजन अवधारणा प्रधानमंत्री के दृष्टिकोण को साकार करने के लिए आदर्श होगी। भाजपा में यह धारणा बन गयी थी कि जब तक दिल्ली में एक मित्रवत् सरकार सत्ता में नहीं आएगी, प्रधानमंत्री मोदी द्वारा निर्धारित लक्ष्य को हासिल करना बहुत मुश्किल होगा। अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी के नेतृत्व में भगवा इकाई को राष्ट्रीय राजधानी में निराशाजनक समय का सामना करना पड़ रहा था; क्योंकि इसकी कई विकासात्मक पहल शहर में लागू नहीं की गयी थीं। जैसा कि भगवा पार्टी लगभग तीन दशकों में दिल्ली में अपना पहला कार्यकाल शुरू कर रही है, आंतरिक दरारों को प्रबंधित करना शहर पर शासन करने जितना ही महत्त्वपूर्ण होगा।

माना जा रहा है कि राज्य नेतृत्व का एक धड़ा रेखा गुप्ता को मुख्यमंत्री बनाये जाने से नाख़ुश है और भविष्य में परेशानी खड़ी कर सकता है। दिल्ली में भाजपा की जीत उल्लास का क्षण है; लेकिन इसकी आंतरिक गतिशीलता पर असंतोष की छाया बड़ी है। केवल समय ही बतायेगा कि क्या इस आंतरिक कलह को सुलह की भावना से शान्त किया जा सकता है? या भगवा मोर्चे के भीतर विद्रोह भड़का सकता है? दिल्ली इकाई के विघटनकारी अतीत का मतलब है कि सतह के नीचे तनाव बढ़ सकता है। अगर नयी सरकार लड़खड़ाती है, तो भड़कने के लिए तैयार है। भगवा मोर्चे के भीतर कोई भी आंतरिक कलह केंद्रीय भाजपा नेतृत्व द्वारा निर्धारित लक्ष्यों और राष्ट्रीय राजधानी में राजनीतिक सत्ता बनाये रखने की उसकी दीर्घकालिक योजना को ख़तरे में डाल सकता है। ख़ासकर तब, जब घायल; लेकिन लचीले अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी भाजपा के किसी भी ग़लत क़दम का फ़ायदा उठाने की प्रतीक्षा कर रही है। जैसा कि भगवा पार्टी लगभग पौने तीन दशक बाद दिल्ली में अपना पहला कार्यकाल शुरू कर रही है, उसके लिए आंतरिक दरारों को प्रबंधित करना भी महत्त्वपूर्ण होगा।

दिल्ली सरकार को अपने वोट बैंक का विश्वास बनाये रखने के लिए भाजपा के महत्त्वाकांक्षी वादों, जैसे- प्रदूषण से निपटना, बुनियादी ढाँचे में सुधार, परिवहन और आर्थिक राहत प्रदान करने की ज़रूरत है। ऐसा लगता है कि कुछ ही दिन पहले शपथ ग्रहण करने वाली नयी सरकार ने सत्ता सँभालने के बाद से विभिन्न परियोजनाओं की समीक्षा और नये विकास कार्यों की शुरुआत के लिए सरकारी अधिकारियों के साथ कई दौर की बैठकें की हैं।

भारत का पहला हाथी मोबाइल क्लिनिक ‘हाथी सेवा’ हुआ लांच, करेगा देशभर में हाथियों की आवश्यक चिकित्सा एवं देखभाल

वन्य जीव संरक्षण संस्था वाइल्डलाइफ एसओएस ने हाथियों के संरक्षण के अपने प्रयासों को और मजबूत करते हुए ‘हाथी सेवा’ नामक भारत की पहली हाथी मोबाइल क्लिनिक का उद्घाटन किया है। हाथी सेवा का औपचारिक शुभारंभ असम के काज़ीरंगा नेशनल पार्क में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय हाथी स्वास्थ्य एवं उपचार शिविर के दौरान किया गया, जो असम वन विभाग के सहयोग से आयोजित किया गया था।

हाथियों को त्वरित और आवश्यक चिकित्सा प्रदान करने के उद्देश्य से, वाइल्डलाइफ एसओएस ने यह पहल की है। संस्था लंबे समय से भारत में एशियाई हाथियों के कल्याण और उनके बेहतर जीवन की दिशा में कार्यरत है। ‘हाथी सेवा’ नामक यह मोबाइल क्लिनिक देशभर में हाथियों को आवश्यक चिकित्सा देखभाल प्रदान करने के लिए समर्पित है।

इस मोबाइल क्लिनिक के माध्यम से नेत्रहीन और अपंग हाथियों को प्राथमिकता के आधार पर चिकित्सा सहायता दी जाएगी। इनमें लंगड़ापन, पैरों में संक्रमण, जोड़ों में सूजन और दर्द जैसी समस्याओं का इलाज किया जाएगा। हाथी सेवा का उद्देश्य वाइल्डलाइफ एसओएस के ‘भिक्षा मांगने वाले हाथियों’ के संरक्षण अभियान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसके तहत पूरे भारतवर्ष में सड़कों पर भीख मांगने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले हाथियों को चिकित्सा सहायता प्रदान की जाएगी।

हाथी मोबाइल क्लिनिक का शुभारंभ असम में चल रहे एक अंतरराष्ट्रीय हाथी स्वास्थ्य शिविर के दौरान किया गया, जिसमें अभी तक 50 से अधिक हाथियों का सफलता पूर्वक स्वास्थ्य परीक्षण किया गया है। यह शिविर काज़ीरंगा नेशनल पार्क एवं टाइगर रिज़र्व, और मेरापानी फॉरेस्ट डिवीजन में गश्त और वन्यजीव संरक्षण कार्यों में शामिल हाथियों के लिए विशेष रूप से आयोजित किया गया था। इस स्वास्थ्य शिविर का अंतिम चरण मानस नेशनल पार्क में आयोजित किया जाएगा।

वाइल्डलाइफ एसओएस के सह-संस्थापक और सीईओ, कार्तिक सत्यनारायण ने कहा:“हम भारत का पहला हाथी मोबाइल क्लिनिक शुरू कर बेहद गर्व महसूस कर रहे हैं। हमारा लक्ष्य पूरे देश में उन हाथियों तक चिकित्सा एवं सहायता पहुंचाना है जो गंभीर रूप से बीमार हैं और जिन्हें तत्काल उपचार की आवश्यकता में हैं।”

वाइल्डलाइफ एसओएस की सह-संस्थापक और सचिव, गीता शेषमणि ने कहा:“अधिकांश कैद में रखे गए हाथियों को सही चिकित्सा और देखभाल नहीं मिलती, इसी कारण देश में हाथियों की स्थिति काफी दयनीय है। हमारे मोबाइल क्लिनिक की पहल का उद्देश्य ऐसे हाथियों को तत्काल चिकित्सा उपचार प्रदान करना है।”

काज़ीरंगा नेशनल पार्क और टाइगर रिज़र्व की फील्ड डायरेक्टर एवं एपीसीसीएफ, डॉ. सोनाली घोष, आईएफएस ने कहा:“यह बहुत गर्व की बात है कि भारत की पहली हाथी मोबाइल क्लिनिक, हाथी सेवा को काज़ीरंगा से शुरू किया गया है। यह पहल निश्चित रूप से हाथियों के संरक्षण और कल्याण में एक मील का पत्थर साबित होगी।”

वाइल्डलाइफ एसओएस के डायरेक्टर- कंज़र्वेशन प्रोजेक्ट्स, बैजूराज एम.वी. ने कहा:“यह मोबाइल हेल्थ क्लिनिक उन कार्यरत हाथियों को चिकित्सा सहायता प्रदान करेगा, जिनकी भलाई और देखभाल अत्यंत आवश्यक है।”

क्या दिल्ली का भला कर सकेंगी मुख्यमंत्री रेखा?

हाल के वर्षों में भाजपा ने मुख्यमंत्रियों की अपनी पसंद से राजनीतिक पर्यवेक्षकों को आश्चर्यचकित करने की आदत विकसित कर ली है। चाहे वो छत्तीसगढ़ हो, राजस्थान हो, मध्य प्रदेश हो, गुजरात हो या हरियाणा हो; और अब राष्ट्रीय राजधानी भी इसका अपवाद नहीं है। पहली बार विधायक और पूर्व पार्षद रेखा गुप्ता के चयन ने पूर्व सांसद प्रवेश वर्मा और तीन बार के विधायक विजेंद्र गुप्ता जैसे प्रमुख दावेदारों को निराश किया है। रेखा गुप्ता की नियुक्ति से संघ परिवार के मज़बूत प्रभाव का पता चलता है। उन्होंने संघ की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) के भीतर अपने राजनीतिक कौशल को निखारा था।

‘तहलका’ की इस बार की आवरण कथा- ‘संघ के दम पर दिल्ली जीती भाजपा?’ शहर पर प्रभावी ढंग से शासन करने के साथ-साथ पार्टी के आंतरिक मतभेदों को प्रबंधित करने की चुनौतियों पर प्रकाश डालती है। 27 साल के अंतराल के बाद भाजपा ने दिल्ली में सत्ता हासिल कर ली है। भाजपा के लिए यह एक उपलब्धि है, जिसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पिछले 11 वर्षों से केंद्र में और 20 से अधिक राज्यों में सत्ता में रहने के बावजूद उन्हें संघ का सहारा लेते हुए पूरे संगठन के साथ कड़ा संघर्ष करना पड़ा। दिल्ली की अंतिम भाजपा मुख्यमंत्री दिवंगत सुषमा स्वराज ने 03 दिसंबर, 1998 तक पदभार सँभाला था। इसके बाद से इस विधानसभा चुनाव से पहले तक भाजपा दिल्ली विधानसभा को सुरक्षित करने में विफल रही थी, जिससे यह जीत एक महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर बन गयी है।

भाजपा के लिए राष्ट्रीय राजधानी में राजनीतिक प्रभुत्व हासिल करना कोई आसान उपलब्धि नहीं है। सफलता सुनिश्चित करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी, पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा और गृहमंत्री अमित शाह सहित भाजपा नेतृत्व ने रणनीतिक रूप से संघ और उसके समर्पित काडर पर भरोसा किया, जो हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में उनके दृष्टिकोण को दर्शाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस रणनीतिक क़दम ने भाजपा मशीनरी को फिर से जीवंत कर दिया है, जिसने 2024 के लोकसभा चुनावों में अपने जबरदस्त प्रदर्शन के बाद भी थकान के संकेत दिखाये थे। अब पार्टी फिर से अपनी रफ़्तार पकड़ती नज़र आ रही है।

जीत और अपनी नियुक्ति से उत्साहित रेखा गुप्ता ने अपने पहले भाषण में दिल्ली को नयी ऊँचाइयों पर ले जाने का वादा किया है। दिल्ली की चौथी महिला मुख्यमंत्री के रूप में उन्हें विधानसभा में दो-तिहाई बहुमत और केंद्र का पूर्ण समर्थन प्राप्त है। हालाँकि इस वादे को पूरा करने के लिए बयानबाज़ी से कहीं अधिक काम करने की आवश्यकता होगी। वायु और जल प्रदूषण जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों के समाधान के लिए तत्काल कार्यवाही की आवश्यकता है। इसके साथ ही पिछली आम आदमी पार्टी की सरकार द्वारा शुरू की गयी कल्याणकारी योजनाओं सहित उन्हें पार्टी के चुनावी वादों को पूरा करने की भी ज़रूरत है। भाजपा की डबल इंजन की सरकार क़ानून और व्यवस्था और स्थानीय प्रशासन दोनों की देख-रेख करती है; इन अपेक्षाओं को पूरा करना उसकी शासन क्षमताओं की सच्ची परीक्षा होगी।

इस बीच राजनीतिक परिदृश्य में एक महत्त्वपूर्ण खिलाड़ी दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल के लिए अटकलें तेज़ हैं कि पार्टी आगामी पंजाब विधानसभा उपचुनाव में अपने एक राज्यसभा सांसद को मैदान में उतार सकती है, ताकि संभावित रूप से उच्च सदन में उनके स्थानांतरण का मार्ग प्रशस्त हो सके। वर्तमान में आम आदमी पार्टी के पास 10 राज्यसभा सीटें हैं- तीन दिल्ली से और सात पंजाब से। इसलिए पार्टी उसके प्रवेश के लिए सबसे व्यवहार्य मार्ग प्रस्तुत करती है। चूँकि आम आदमी पार्टी ने हाल ही में एक राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल किया है, इसलिए राज्यसभा सीट हासिल करने से केजरीवाल का राष्ट्रीय प्रभाव बढ़ सकता है। हालाँकि यह देखना अभी बाक़ी है कि क्या वह यह रणनीतिक क़दम उठाएँगे?

केरल विधान सभा चुनाव की तैयारियां शुरू: सियासी सन्नाटे के पीछे गहमागहमी, भाजपा की महत्वाकांक्षा और कांग्रेस की उलझनें

बृज खंडेलवाल द्वारा

गुरुवायूर (केरल), 28 फरवरी 2025

बिहार के बाद केरल में विधानसभा चुनाव की तैयारियाँ जोरों पर हैं, लेकिन राजनीतिक माहौल अभी भी उम्मीद के मुताबिक गर्म नहीं हुआ है। हालांकि, लाल झंडों की मौजूदगी और छोटे कस्बों में हो रही सभाओं के बावजूद चुनावी चर्चा अभी शुरू नहीं हुई है। गुरुवायूर मंदिर के बाहर कॉफी स्टॉल पर राजनीति के बजाय फुटबॉल और खाड़ी देशों में घटते रोज़गार की चिंता लोगों की बातचीत का मुख्य विषय था। 

केरल की विधानसभा में कुल 140 सीटें हैं, और यहाँ की राजनीति में तीन प्रमुख गठबंधन सक्रिय हैं: वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (LDF), संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा (UDF), और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा)। वर्तमान में, मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन के नेतृत्व वाली LDF सरकार सत्ता में है, जिसमें मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) प्रमुख भूमिका निभा रही है। UDF का नेतृत्व कांग्रेस के वरिष्ठ नेता वी.डी. सत्यसंग कर रहे हैं, जबकि भाजपा की अगुवाई राज्य अध्यक्ष के. सुरेन्द्रन कर रहे हैं। 

त्रिशूर, गुरुवायूर, पलक्कड़ और तिरुवनंतपुरम जैसे प्रमुख क्षेत्रों में भाजपा ने हिंदू वोट बैंक को मजबूत करने के लिए  ताकत झोंक दी है। इसका सीधा निशाना मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन की LDF सरकार है। भाजपा की रणनीति 2024 के आम चुनाव में त्रिशूर संसदीय सीट पर एक्टर सुरेश गोपी की ऐतिहासिक जीत के बाद और तेज़ हो गई है। यह केरल में भाजपा की पहली लोकसभा सीट थी, जिसे पार्टी अब विधानसभा चुनाव में भी दोहराने की कोशिश कर रही है। 

केरल में हिंदू आबादी 52% से अधिक है, और भाजपा इसका पूरा फायदा उठाने की कोशिश कर रही है। इसके अलावा, पार्टी ईसाई समुदाय में भी अपनी पकड़ बढ़ाने में जुटी है। कई प्रभावशाली ईसाई गुट भाजपा की ओर झुकते दिख रहे हैं, जो पार्टी के लिए एक बड़ी उपलब्धि हो सकती है। 

केरल कांग्रेस इस बार मुश्किल दौर से गुज़र रही है। वरिष्ठ नेता शशि थरूर ने हाल ही में अपने बयानों से पार्टी के अंदर खलबली मचा दी है। राज्य कांग्रेस में नेतृत्व की कमी पर उनके खुले विचार और केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल के साथ उनकी चर्चित सेल्फी ने अटकलों को हवा दे दी है। थरूर के मुख्यमंत्री पद की ओर बढ़ते कदम कांग्रेस के लिए अंदरूनी असंतोष का कारण बन रहे हैं, जिससे भाजपा को अप्रत्यक्ष रूप से फायदा मिल सकता है। 

कांग्रेस के भीतर नेतृत्व को लेकर यह संघर्ष पार्टी की एकता के लिए चुनौती बन गया है। शशि थरूर की शहरी और युवा मतदाताओं में लोकप्रियता उन्हें मुख्यमंत्री पद के लिए एक मजबूत दावेदार बनाती है। अगर कांग्रेस उन्हें किनारे करती है, तो भाजपा के साथ उनके संभावित तालमेल के कयास राजनीतिक समीकरण को पूरी तरह बदल सकते हैं। 

एलडीएफ सरकार, जो केरल की राजनीति में दशकों से मज़बूत रही है, इस बार कई चुनौतियों का सामना कर रही है। राज्य में बढ़ती बेरोज़गारी, आर्थिक विकास की धीमी रफ्तार और सामाजिक न्याय से जुड़े सवालों के कारण जनता में बदलाव की मांग तेज़ होती जा रही है। केरल की 96% साक्षरता दर और राजनीतिक रूप से सजग जनता पारंपरिक निष्ठा के बावजूद इस बार परिवर्तन के लिए तैयार है। 

केरल की राजनीति में मुस्लिम और ईसाई समुदाय हमेशा से निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं। सामाजिक समानता, स्वास्थ्य सेवाओं और सांस्कृतिक संरक्षण जैसे मुद्दों को प्राथमिकता देने वाले ये समुदाय अब राजनीतिक ध्रुवीकरण के बीच अपने हितों को लेकर सतर्क हो गए हैं। भाजपा की ओर झुकते कुछ ईसाई गुटों के अलावा वामपंथ के लिए अब तक मज़बूत माने जाने वाले मुस्लिम वोट बैंक में भी हलचल देखी जा रही है। 

केरल के आगामी विधानसभा चुनावों को लेकर सियासी गर्मी भले ही अभी महसूस न हो रही हो, लेकिन पर्दे के पीछे की चालें इसे बेहद दिलचस्प बना रही हैं। भाजपा की बढ़ती महत्वाकांक्षा, कांग्रेस की अंदरूनी कलह और वाम मोर्चे के सामने बढ़ती चुनौतियाँ राज्य में एक नए सियासी अध्याय की भूमिका लिख रही हैं। देखना होगा कि मतदाता इस बार किस करवट बैठते हैं।

दिल्ली विधानसभा में आम आदमी पार्टी विधायकों की एंट्री पर रोक

नई दिल्ली: दिल्ली विधानसभा में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की ओर से आबकारी नीति पर पेश की गई रिपोर्ट पर चर्चा होने जा रही है। इससे पहले सदन में डिप्टी स्पीकर का चुनाव किया जाएगा। वहीं, विपक्ष की नेता और पूर्व मुख्यमंत्री आतिशी, विधानसभा परिसर के बाहर गांधी की प्रतिमा के नीचे अपनी पार्टी के विधायकों के साथ प्रदर्शन कर रही हैं। उनका आरोप है कि स्पीकर के आदेश पर पुलिस विपक्षी विधायकों को सदन परिसर में प्रवेश करने से रोक रही है। आतिशी ने बताया, “पुलिस अधिकारी कह रहे हैं कि आप विधायकों को सदन से निलंबित कर दिया गया है, इसलिए उन्हें परिसर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी जा रही। यह अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक है। हमने स्पीकर से बात करने की कोशिश की, लेकिन कोई असर नहीं हुआ।”

पूर्व सीएम ने एक्स पर पोस्ट करते हुए आरोप लगाया कि बीजेपी सरकार ने सत्ता में आते ही तानाशाही की हदें पार कर दीं। उन्होंने कहा कि ‘जय भीम’ के नारे लगाने पर आम आदमी पार्टी (AAP) के विधायकों को तीन दिन के लिए निलंबित कर दिया गया और आज उन्हें विधानसभा परिसर में भी प्रवेश नहीं मिलने दिया जा रहा है। उन्होंने इसे दिल्ली विधानसभा के इतिहास में एक अभूतपूर्व कदम बताया।

बीजेपी विधायक सतीश उपाध्याय ने कहा कि सीएजी रिपोर्ट में भ्रष्टाचार की जो घटनाएँ सामने आई हैं, उनसे यह सिद्ध होता है कि आम आदमी पार्टी ने अपने करीबी लोगों को अनुचित लाभ पहुँचाया है। उपाध्याय ने आरोप लगाया कि दिल्ली की जनता के कल्याण के लिए खर्च होना चाहिए थे वो राशि बेईमान लोगों की जेब में चली गई। उन्होंने कहा, “AAP को सदन में चर्चा के माध्यम से दिल्ली को हुए 2000 करोड़ रुपये से अधिक के राजस्व नुकसान का जवाब देना होगा।”

कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष देवेंद्र यादव ने कहा कि सीएजी रिपोर्ट के निष्कर्ष में ‘लूट, झूठ और फूट’ का साफ उल्लेख है। उन्होंने दावा किया कि पहले सरकार यह बताती थी कि आबकारी नीति से राजस्व में वृद्धि हो रही है, लेकिन रिपोर्ट से स्पष्ट है कि दिल्ली सरकार को 2002 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान हुआ है। यादव ने शराब घोटाले की जांच का दायरा बढ़ाने और सितंबर 2022 में कांग्रेस द्वारा पुलिस आयुक्त को दी गई शिकायत को शामिल करने की मांग की।

बिहार की राजनीति में नया मोड़: क्या नीतीश को हटाना भाजपा के लिए फायदे का सौदा होगा ?

बृज खंडेलवाल द्वारा

बिहार की सियासत में इन दिनों जबरदस्त हलचल है। साल के आखिर में होने वाले विधानसभा चुनावों ने माहौल को गर्मा दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भागलपुर से अपने चुनावी अभियान की शुरूआत करके मुकाबले को और भी दिलचस्प बना दिया है। मोदी  की तक़रीर में जहाँ लालू यादव के नेतृत्व वाले विपक्ष पर ताबड़तोड़ हमले थे, वहीं चमकदार वादों की झड़ी भी लगी थी। इस अंदाज़ से साफ़ ज़ाहिर है कि भाजपा इस बार भी तरक्की के अफसाने और समाजी-राजनीतिक ध्रुवीकरण — यानी पोलराइज़ेशन — दोनों को मिलाकर एक बड़ी जीत की तैयारी में है।

हालिया केंद्रीय बजट में घोषित मेगा प्रोजेक्ट्स पर भाजपा ने पूरा ज़ोर दिया है, लेकिन बिहार की सियासी हकीकत कुछ और ही बयां करती है। बिहार में भाजपा की अब तक की कामयाबी बताती है कि हुकूमत की कारगुज़ारियों से ज़्यादा अहमियत जज़्बात और पहचान को दी जाती है। यही वजह है कि पोलराइज़ेशन की सियासत यहाँ ज़्यादा असरदार साबित  होगी।

अब सवाल ये उठता है — क्या भाजपा को इस सियासी ध्रुवीकरण का पूरा फ़ायदा उठाने के लिए नीतीश कुमार को हटाकर यूपी के योगी आदित्यनाथ जैसे किसी हिंदू राष्ट्रवादी नेता को बिहार की कमान सौंपनी चाहिए?

बिहार के अवाम ने हमेशा उन नीतियों को तस्लीम किया है, जो उनकी तहज़ीब और मज़हबी पहचान से जुड़े हों। भाजपा की अब तक की चुनावी कामयाबी भी अक्सर इन्हीं बुनियादों पर टिकी रही है। सांप्रदायिक और जज़्बाती मसलों ने यहाँ पार्टी के कोर वोटर्स को भरपूर मोबाइलाइज किया है।

इसके बरअक्स, तरक्की के लिए लाए गए मेगा प्रोजेक्ट्स और बजट स्कीमें अक्सर लोगों को इतना प्रभावित नहीं कर पातीं जितना कि पहचान और आस्था से जुड़े मुद्दे करते हैं। यही वजह है कि भाजपा के लिए पोलराइज़ेशन को अपनी सियासी रणनीति में शामिल करना एक अनिवार्यता बन गया है।

हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली के हालिया चुनावी नतीजों ने ये साबित कर दिया है कि जज़्बातों को प्रेरित करने वाली राजनीति  भाजपा के लिए ज़्यादा मुफीद साबित होती है। इस सूरत-ए-हाल में नीतीश कुमार का सेक्युलर और नरम रवैया भाजपा के हिंदुत्व एजेंडे से मेल नहीं खाता।

नीतीश कुमार हमेशा एक सुलह-सफ़ाई वाली सियासत करते आए हैं, जहाँ वो तमाम तबक़ों को साथ लेकर चलने की कोशिश करते हैं। लेकिन आज की भाजपा की सियासी ज़रूरतें इस रवैये से आगे निकल चुकी हैं।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस मामले में एक मिसाली लीडर साबित हुए हैं। उन्होंने न सिर्फ कानून-व्यवस्था को बेहतर किया, बल्कि इंवेस्टमेंट और तरक्की के दरवाज़े भी खोले हैं। इसके साथ-साथ, उन्होंने हिंदुत्व के एजेंडे को जिस मज़बूती से पेश किया, वो भाजपा के वोट बैंक को और भी सशक्त और व्यापकता  देता रहा है।

बिहार की मौजूदा सियासत को देखते हुए योगी मॉडल एक बेहतरीन खाका पेश करता है। योगी आदित्यनाथ की सियासी शैली तेज़, सख्त और नतीजामुखी है। इसके मुकाबले, नीतीश कुमार की सियासत अक्सर ढीली,  कमज़ोर और बिखरी हुई नज़र आती है।

नीतीश कुमार की नीतियाँ — जैसे जातिगत जनगणना और शराबबंदी — को अक्सर बिहार की तरक्की में रुकावट माना गया है। उन पर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के इल्ज़ामात भी लगते रहे हैं, जिसने उन्हें भाजपा के कोर वोटर्स से और भी दूर कर दिया है।

बिहार में भाजपा की बढ़ती सियासी ज़रूरतों को देखते हुए, अब एक ऐसे लीडर की दरकार है, जो हिंदुत्व नैरेटिव को पुरज़ोर तरीके से पेश कर सके और समाजी ध्रुवीकरण को भाजपा की कामयाबी का ज़रिया बना सके।

प्रो. पारसनाथ चौधरी, जो बिहार की सियासत पर गहरी नज़र रखते हैं, कहते हैं: “भाजपा, जेडीयू और लोजपा का गठबंधन फिलहाल एक मज़बूत समाजी बुनियाद पर खड़ा है। मगर एनडीए की कामयाबी इसी में है कि भाजपा पोलराइज़ेशन के मसले पर अपनी पकड़ को मज़बूत बनाए रखे। नीतीश कुमार का उदार रवैया भाजपा के सख्त हिंदुत्व नैरेटिव को कमजोर कर सकता है।”

वहीं समाजशास्त्री टीपी श्रीवास्तव का मानना है: “बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे रियासतें हिन्दुस्तानी सियासत में मरकज़ी किरदार निभाती हैं। योगी आदित्यनाथ जहाँ एक मज़बूत हिंदुत्व और तरक्क़ीपसंद लीडर के तौर पर उभरे हैं, वहीं नीतीश कुमार का लीडरशिप मॉडल अब पिछड़ा और नाकामयाब नज़र आता है। बिहार में भाजपा को अब ऐसे ही एक मज़बूत और जज़्बाती लीडर की ज़रूरत है।”

जैसे-जैसे बिहार का सियासी पारा चढ़ रहा है, भाजपा के सामने ये खुलासा हो चुका है कि सिर्फ तरक्क़ी के वादे इस बार काफी नहीं होंगे। सियासी कामयाबी के लिए जज़्बात, पहचान और हिंदुत्व के नैरेटिव को पेश करना भी उतना ही ज़रूरी है। इस सूरत में भाजपा के लिए ये सिर्फ एक रणनीतिक फैसला नहीं, बल्कि सियासी ज़रूरत बन चुकी है कि वो नीतीश कुमार की जगह एक नए और बुलंद हौसले वाले लीडर को लाए। आने वाले महीनों में बिहार की सियासत का ये रूख किस करवट बैठता है, ये देखने लायक होगा। मगर एक बात तो तय है — इस बार का मुकाबला सिर्फ वोटों का नहीं, बल्के आइडियोलॉजी और लीडरशिप का भी है, क्योंकि जनता बेताब है परिवर्तन के लिए। बिहार के लोग जो पूरे देश और विदेशों में रह रहे हैं, अपने प्रदेश में बदलाव की बहार देखना चाहते हैं।

महाशिवरात्रि पर काशी विश्वनाथ मंदिर में वीआईपी दर्शन बंद

भोलेनाथ के भक्तों के लिए विशेष नियम लागू

वाराणसी: काशी विश्वनाथ मंदिर में 25 से 27 फरवरी तक वीआईपी दर्शन की सुविधा नहीं मिलेगी। मंदिर प्रशासन ने महाशिवरात्रि पर भक्तों की भारी भीड़ की आशंका के चलते ये फैसला लिया है। काशी विश्वनाथ ट्रस्ट ने इसकी जानकारी सोशल मीडिया प्लेटफार्म एक्स पर दी। लिखा, “महाशिवरात्रि पर मंगलवार से तीन दिनों तक प्रोटोकॉल दर्शन व्यवस्था पर पूरी तरह से रोक रहेगी। मंदिर न्यास के अधिकारियों ने महाशिवरात्रि के लिए बनाई गई व्यवस्था में सहयोग की काशीवासियों से अपील की है। काशीवासियों ने श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए मंदिर न्यास की व्यवस्था में पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया है।”

दरअसल, पारंपरिक रूप से पर्व या किसी विशेष तिथि पर काशी विश्वनाथ धाम में पांच से छह लाख श्रद्धालु दर्शन के लिए पहुंचते थे, लेकिन महाकुंभ शुरू होने के बाद से प्रतिदिन सात लाख या उससे अधिक भक्त मंदिर में दर्शन करने आते हैं। इस अवसर पर 26 फरवरी को श्रद्धालुओं की संख्या 14 से 15 लाख के बीच हो सकती है, जिससे भीड़ प्रबंधन में कई चुनौतियां उत्पन्न हो सकती हैं।

मंदिर प्रशासन ने भीड़ को नियंत्रित करने के लिए विशेष तैयारियां शुरू कर दी हैं। मंदिर प्रशासन ने भक्तों से अपील की है कि वे अपनी सुविधानुसार समय लेकर दर्शन करें, क्योंकि कतार में विलंब हो सकता है। साथ ही, सलाह दी गई है कि पेन, कंघा, मोबाइल, बेल्ट, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, चाबी आदि सामान घर या होटल में छोड़कर आएं ताकि सुरक्षा व्यवस्था में किसी प्रकार की अड़चन न आए।

महाशिवरात्रि के दिन, भक्तों को केवल झांकी दर्शन की सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी और मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश पर रोक लगा दी गई है। सुरक्षा प्रबंध में कड़ी इंतजाम किए गए हैं जिससे किसी भी अप्रिय घटना से बचा जा सके।

विशेष व्यवस्था के तहत वृद्धजनों और दिव्यांगों के लिए व्हीलचेयर की सुविधा रखी गई है। गोदौलिया और मैदागिन से गोल्फ कार्ट या ई-रिक्शा द्वारा भी भक्त बाबा दरबार तक पहुंच सकते हैं। इसके अलावा, मंदिर के कर्मचारियों की सहायता से वृद्धजनों का जल्दी दर्शन कराकर उन्हें धाम क्षेत्र से बाहर निकालने का भी प्रबंध किया गया है।

सिम खरीदने से पहले जरूर जाने, नहीं तो लगेगा 2 लाख का जुर्माना

नई दिल्ली: साइबर फ्रॉड पर लगाम लगाने के लिए टेलीकॉम इंडस्ट्री ने सिम कार्ड से जुड़े कई बदलाव किए हैं। जो कि लागू भी कर दिए गए है। नियमों के मुताबिक अगर आप अपने आधार कार्ड से कई सिम लेते है तो आपकों लाखों रुपए का जुर्माना भी लग सकता है।

सिम कार्ड को बेचने के लिए सरकार ने रिटेलर्स के लिए नए नियम जारी कर दिए हैं। अब रिटेलर्स को इस प्रक्रिया का पालन कर ही सिम कार्ड बेचना होगा। ग्राहक के नाम पर कितने सिम कार्ड कनेक्शन हैं, इसकी जांच करनी होगी। साथ ही अगर ग्राहक ने अलग-अलग नाम से कनेक्शन लिए हैं, तो उसकी भी जांच अब की जाएगी। इसके साथ ही ग्राहक की फोटो भी अब 10 अलग-अलग एंगल से लेनी होगी। नियमों के अनुसार, एक व्यक्ति अपने आधार से सिर्फ 9 सिम खरीद सकता है। 9 से ज्यादा सिम कार्ड रखने पर पहली बार उल्लंघन करने वाले पर 50,000 रुपये और बार-बार उल्लंघन करने वालों के लिए 2 लाख रुपये का जुर्माना लगाया जाएगा। इसी के साथ गलत तरीके से सिम कार्ड लेने पर 50 लाख रुपये तक का जुर्माना और तीन साल की जेल का प्रावधान है