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खूब बिक रहा है मुफ्त वाला राशन

– कोटे से मुफ्त में मिलने वाले सरकारी राशन की हो रही कालाबाजारी

इंट्रो-भारत में घोटाले सिर्फ नेताओं और अधिकारियों तक ही सीमित नहीं हैं; और न ही सुविधाओं का दुरुपयोग सिर्फ उच्च पदों पर बैठे लोग ही करते हैं। आम लोगों को भी जब मौका मिलता है, तो उनमें भी बहुत-से लोग भी सुविधाओं का दुरुपयोग करने लगते हैं। ‘तहलका’ ने अपनी इस पड़ताल में पता लगाया है कि कुछ लोग पीएमजीकेएवाई के तहत उन्हें मिलने वाले मुफ्त-राशन को बेच रहे हैं। इस अवैध धंधे में कई दुकानदार और कथित रूप से राशन वितरक भी शामिल हैं। हालांकि संभव है कि कुछ लोग गरीबी के चलते मजबूरी में ऐसा कर रहे हों; लेकिन ज्यादातर मुफ्त-राशन के लाभार्थी राशन में मिले चावल को पैसे और अच्छी क्वालिटी का चावल खाने के लिए बेच रहे हैं। इसके चलते गरीबों की जीवन-रेखा कहा जाने वाला यह राशन एक भूमिगत व्यापार में बदल रहा है। पढ़िए, तहलका एसआईटी की यह खास रिपोर्ट :-

किराना दुकानदार सरकार द्वारा दिये जाने वाले मुफ्त चावल को अपनी दुकानों में खुलेआम न रखकर दूसरी जगह पर छिपाकर रखते हैं, जिससे वे सरकारी छापेमारी और जुर्माने से बच सकें। अगर वे अपनी दुकानों में चावल रखेंगे, तो यह जोखिम रहता है कि कोई व्यक्ति अधिकारियों को इसकी सूचना दे देगा, जिससे दुकान मालिक को परेशानी हो सकती है।’ -यह बात उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के मोहनपुर गांव के रहने वाले अफसर अली नाम के एक दलाल ने ‘तहलका’ रिपोर्टर से कही।

‘या तो आप हम पर स्टिंग कर रहे हैं, या आप पुलिस विभाग से हैं। मैं अपना राशन कार्ड नहीं खोना चाहती। इसलिए मैं अपना मुफ्त चावल आपको नहीं बेचूंगी।’ यह बात उत्तर प्रदेश के नोएडा के सेक्टर-81 में रहने वाली रिहाना नाम की एक महिला ने ‘तहलका’ रिपोर्टर से कही, जो कि मुफ्त-राशन योजना की एक लाभार्थी है।

‘अभी मेरे पास 7 क्विंटल (700 किलोग्राम) राशन वाले चावल हैं, जो मैंने सरकारी राशन के लाभार्थियों से खरीदे हैं। वे लोग हर महीने राशन की दुकानों से मिलने वाले मुफ्त-राशन में से चावल मुझे बेच जाते हैं।’- यह बात उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के मोहनपुर गांव के ही एक निजी किराना दुकान मालिक मोहम्मद रफी ने ‘तहलका’ रिपोर्टर से फोन पर कही।

‘चिंता मत करो। मैंने अपने इलाके के राशन डीलर से बात कर ली है। अगर आपको हर महीने 50 क्विंटल (5,000 किलो) राशन चावल की भी जरूरत है, तो हम मुहैया करा देंगे।’ -रफी ने ‘तहलका’ रिपोर्टर से कहा। ‘हम लाभार्थियों से मुफ्त-राशन योजना के तहत मिलने वाला चावल 27-28 रुपये प्रति किलो की दर से खरीदते हैं, इसलिए हम इसे आपको 32 रुपये में नहीं बेच सकते। हमें कम-से-कम 38 रुपये प्रति किलो चाहिए।’ -रफी ने ‘तहलका’ रिपोर्टर के सामने सौदा रखा। मोहम्मद रफी ने आगे यह भी कहा- ‘मेरी दुकान पर नियमित रूप से मुफ्त-राशन का चावल आता है। हर महीने लाभार्थी अपने कोटे का चावल लेकर आते हैं, जिसे वे या तो बेच देते हैं या बेहतर गुणवत्ता वाले चावल के बदले दे जाते हैं।’

भारत में प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) के तहत अप्रैल, 2020 में शुरू की गयी मुफ्त-राशन योजना का उद्देश्य शुरू में तीन महीने के लिए कोरोना महामारी के दौरान गरीबों की सहायता करना था; लेकिन बाद में इसे बढ़ा दिया गया। इस योजना के माध्यम से 81 करोड़ से अधिक परिवारों को, जो आयकर नहीं देते हैं; हर महीने प्रति व्यक्ति पांच किलोग्राम राशन मिलता है। इस योजना को अब केंद्र सरकार द्वारा पांच वर्षों के लिए अर्थात् दिसंबर, 2028 तक बढ़ा दिया गया है। पीएमजीकेएवाई में भाग लेने के लिए कोई अलग पंजीकरण प्रक्रिया नहीं है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनयेफएसए) के अंतर्गत लाभार्थी, जिनमें अंत्योदय अन्न योजना (एएवाई) या प्राथमिकता वाले घरेलू (पीएचएच) राशन कार्डधारक भी शामिल हैं; स्थानीय राशन वितरण की दुकानों पर अपने मौजूदा राशन कार्ड का उपयोग करके पीएमजीकेएवाई लाभ प्राप्त कर सकते हैं। इस योजना के शुभारंभ के बाद से सरकार को विभिन्न राज्यों और जिलों से कई शिकायतें प्राप्त हुई हैं, जिनमें आरोप लगाया गया है कि राशन डीलर और किराना की दुकान चलाने वाले खुले बाजार में इस सरकारी राशन को बेच रहे हैं। इस तरह ये अपात्र लोग जरूरतमंदों को दिये जाने वाले इस सरकारी राशन को हड़पने में कामयाब हो रहे हैं।

गरीबों और जरूरतमंदों को मिलने वाले इस राशन की कालाबाजारी करने वालों में पैसे वाले (करदाता, दुकानदार, अच्छी-खासी संपत्ति वाले और कार मालिक) तक शामिल हैं, जो इस योजना का अनुचित लाभ उठा रहे हैं। रिपोर्ट्स के अनुसार, ऐसे व्यक्तियों को जल्द ही कार्यक्रम से बाहर कर दिया जाएगा। धोखाधड़ी की शिकायतें लगातार सामने आने के कारण ही ‘तहलका’ ने पीएमजीकेएवाई योजना के तहत चल रहे इस घपले की पड़ताल करने का निर्णय लिया। सरकार द्वारा उपलब्ध कराये गये मुफ्त चावल की अवैध बिक्री के बारे में ‘तहलका’ एसआईटी की यह पड़ताल उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के मोहनपुर गांव के निवासी अफसर अली से बातचीत से शुरू होती है। सरकारी राशन के एक नकली खरीदार बनकर ‘तहलका’ रिपोर्टर ने ऐसे लोगों से संपर्क किया, जो सरकार से मिलने वाले मुफ्त-राशन को बेचने का काम करते हैं, जिनमें सबसे पहले अफसर अली से मुलाकात की गयी। इस बातचीत में पता चला कि अफसर, जिसे पीएमजीकेएवाई योजना के तहत 5 किलो चावल मिलता है; 16 से 18 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से ये राशन दुकानदार को बेच रहा है। यह चौंकाने वाली स्वीकारोक्ति एक व्यापक मुद्दे को उजागर करती है, जहां लाभार्थी न केवल निजी लाभ के लिए प्रणाली का शोषण करते हैं, बल्कि गरीबों के लिए आवश्यक वस्तुओं के लिए भूमिगत बाजार को भी बढ़ावा देते हैं।

रिपोर्टर : क्या-क्या मिलता है?

अफसर : हां, मिलता है चावल, गेहूं और चीनी।

रिपोर्टर : चीनी कितनी मिलती है?

अफसर : 3-3.5 केजी (तीन-साढ़े तीन किलो) मिलती है हर महीने।

रिपोर्टर : ये तो फ्री (मुफ्त) मिलता होगा, …सरकार की तरफ से मिलता है?

अफसर : हां; हर महीने मिलता है।

रिपोर्टर : इस महीने का मिल गया?

अफसर : भतीजा हमारा ले गया।

रिपोर्टर : कुछ लोग बेच भी तो देते हैं चावल को?

अफसर : हां।

रिपोर्टर : किस रेट (भाव) में बेचते हैं?

अफसर : 18-16 रुपए किलो दुकान वाले को देते हैं।

रिपोर्टर : कुछ बेचना चाह रहे हो दिल्ली में, तो बताओ; किस रेट में बेचते हो?

अफसर : चावल : तो मोटा वाला 17-18 में बिकता है।

रिपोर्टर : जो सरकार तुम्हें फ्री में दे रही है?

अफसर : वो तो पांच किलो मिलता है।

रिपोर्टर : वो कितने में बेच देते हो?

अफसर : 16-17 रुपए दुकान वाला लेता है।

अब अफसर ने ‘तहलका’ रिपोर्टर को बताया कि उसके परिवार के पास दो राशन कार्ड हैं। एक लाल रंग का और दूसरा पीले रंग का। उसने कहा कि लाल रंग के राशन कार्ड पर उन्हें मुफ्त-राशन नहीं मिलता, इसके लिए उन्हें कुछ पैसे देने पड़ते हैं। लेकिन पीले रंग के राशन कार्ड पर उन्हें मुफ्त-राशन मिलता है। उसके अनुसार पीले रंग का राशन कार्ड उसकी मां के नाम पर है, जिस पर उसके परिवार को मुफ्त-राशन मिलता है।

रिपोर्टर : और कितने लोग बेचते हैं गेहूं?

अफसर : कुछ लोग आपस में बदल लेते हैं, जिनका परिवार बड़ा है।

रिपोर्टर : आपको तो फ्री (मुफ्त) में मिल रहा है सरकार से कोई पैसा नहीं देना पड़ता। इस महीने का मिल गया अप्रैल का?

अफसर : हां; चार-पांच दिन पहले।

रिपोर्टर : राशन कार्ड में किस-किस का नाम है?

अफसर : हम पांच भाइयों का। फ्री वाला तो एक ही कार्ड पर आता है चावल, बाक़ी जो है, दो कार्ड होते हैं। एक लाल वाला होता है, उसमें पैसे देने पड़ते हैं और पीले में नहीं देने पड़ते। और जो फ्री अनाज मिलता है, वो पीले वाले में मिलता है। …हमारे पास एक लाल वाला है, एक पीले वाला। पीला वाला मां के नाम पर है और लाल वाले में पांच भाइयों का नाम है।

रिपोर्टर : मां को मिलता होगा राशन फ्री वाला?

अफसर : हां।

रिपोर्टर : क्या-क्या मिलता है?

अफसर : लगभग 13 किलो अनाज मिलता है; …गेहूं, चावल सब मिलाकर 13 किलो। और लाल वाले में 33 किलो, मगर उसमें पैसे देने पड़ते हैं।

रिपोर्टर : कितने पैसे?

अफसर : 170 रुपए, …जितने हैं।

‘तहलका’ रिपोर्टर ने सरकारी मुफ्त-राशन का ग्राहक बनकर अफसर से जब ये कहा कि दिल्ली में एक निजी डीलर को देश के 80 करोड़ से अधिक लोगों को वितरित किये जाने वाले सरकारी मुफ्त चावल की भारी मात्रा में जरूरत है। तब अफसर रिपोर्टर को एक ग्राहक समझकर उनके लिए दलाल के रूप में काम करने के लिए सहमत हो गया और उसने रिपोर्टर को बताया कि वह उनके लिए हर महीने आठ से  नौ क्विंटल (800 से 900 किलोग्राम) सरकार से राशन कार्ड धारकों के मुफ्त में मिलने वाले चावल की व्यवस्था कर सकता है। उसने कहा कि वह हमारे (‘तहलका’ रिपोर्टर के) लिए बरेली से दिल्ली तक चावल ले जाने के लिए एक पिकअप वैन की व्यवस्था भी कर देगा। अफसर के अनुसार, उसके गांव में करीब 250-300 लोगों को सरकारी योजना के तहत मुफ्त-राशन मिल रहा है। वह उन लोगों से बात करेगा और उचित दाम पर हमारे (नकली ग्राहक बने ‘तहलका’ रिपोर्टर के लिए चावल का प्रबंध करेगा। उसने कहा कि वह रिपोर्टर को सरकारी चावल उपलब्ध कराने के लिए राशन डीलर से भी बात करेगा।

रिपोर्टर : यहां पर किसी को जरूरत है। …वो बहुत सारा अनाज चावल खरीदना चाहते हैं, जो सरकार देती है। आप 16-17 रुपये में बेचते हो ना! मैं आपको दिल्ली में उसके 30 रुपये दिलवा दूंगा।

अफसर : जैसे हम पिकअप भरके लेकर आये, तो कोई दिक्कत तो न आयेगी रास्ते में? …जैसे बॉर्डर पे चेक करे….!

रिपोर्टर : तो आप बता देना, …आप व्यापारी हो चावल देने आये हो।

अफसर : अच्छा।

रिपोर्टर : वो हमारी जिम्मेदारी है उसकी टेंशन मत लो आप।

अफसर : आप 30 रुपये किलो ले लोगे?

रिपोर्टर : कितना चावल हो जाएगा आपके गांव से?

अफसर : फिर तो मैं कोटे (सरकारी राशन वितरक) से ही बात करूँगा डायरेक्ट (सीधे)।

रिपोर्टर : हमको फ्री वाला चाहिए, जो सरकार देती है; …वही लेना है, पैसे वाला नहीं। तो गांव से आप लोग 17-18 में बेच रहे हो, मैं 30 दिलवा दूंगा।

अफसर : अच्छा; बात करके बताता हूं।

रिपोर्टर : आप भरके ले आओगे गांव से?

अफसर : हां; हो तो जाएगा सर!

रिपोर्टर : कितने लोग हैं, जिनको फ्री में अनाज मिल रहा है?

अफसर : 200-250 लोग होंगे, …300 से ज्यादा ही होंगे।

रिपोर्टर : 300 से ज्यादा होंगे, जिनको फ्री अनाज मिल रहा है 5 केजी (पांच किलो)? …कौन-सा गांव है तुम्हारा?

अफसर : मोहनपुर तरिया।

रिपोर्टर : ये बरेली से कितनी दूर है?

अफसर : लखनऊ रोड से लेफ्ट (बाएं) बाईपास से छ: किलोमीटर दूर है, जिला बरेली।

रिपोर्टर : आप भी मोहनपुर गांव में रहते हो? …सारे मुस्लिम हैं?

अफसर : पूरा पाकिस्तानी एरिया (इलाका) है।

रिपोर्टर : पाकिस्तानी एरिया क्यों बोल रहे हो?

अफसर : टोटल मुस्लिम है।

रिपोर्टर : तो उससे बात करके बताओ।

अफसर : बताता हूं मैं। …हर महीने कम-से-कम 6-7 क्विंटल तो हो ही जाएगा चावल।

रिपोर्टर : 6-7 क्विंटल? …एक गाड़ी में कितना आ जाएगा? …एक पिकअप में?

अफसर : कम-से-कम 8-9 क्विंटल तो ले ही जाता है।

रिपोर्टर : बरेली से दिल्ली लाने की जिम्मेदारी तुम्हारी होगी?

अफसर : वो कम-से-कम 4-5 के (हजार) लेगा।

रिपोर्टर : वो हम दे देंगे, पिकअप वाले का खर्चा अलग है। …आपका काम है चावल से पिकअप भरवाकर दिल्ली लाना।

अफसर : अच्छा।

रिपोर्टर : 8-9 क्विंटल दिलवा दोगे हर महीने?

अफसर : हां।

रिपोर्टर : पक्का?

अफसर : पक्का सर!

रिपोर्टर : फ्री वाला चाहिए।

अफसर : मैं पूरी बात करवा दूंगा, कोटे वाले से।

‘तहलका’ रिपोर्टर से बात करने के बाद अफसर ने उन्हें एक व्यापारी मानकर उनके लिए दिल्ली में आपूर्ति के लिए सरकारी मुफ्त चावल की व्यवस्था के लिए बातचीत शुरू कर दी। उसने अपने गांव के एक किराना दुकान मालिक से बात की, जिसने अफसर को बताया कि उसके पास कई क्विंटल सरकार से लोगों के लिए मुफ्त बांटने के लिए आने वाला चावल है, जो लाभार्थियों ने उसे बेचा है। अफसर ने ‘तहलका’ रिपोर्टर को बताया कि किराना दुकान का मालिक सरकारी मुफ्त चावल अपनी दुकान पर नहीं रखता है, क्योंकि उसे डर है कि कहीं इसके लिए अधिकारियों द्वारा छापा न मारा जाए। अफसर ने कहा कि वह उन ग्रामीणों से चावल का प्रबंध करेगा, जो बेचने में इच्छुक हैं और कुछ चावल वह किराना दुकान के मालिक से भी मंगवाएगा। कुल मिलाकर उसने दिल्ली में बड़ी मात्रा में सरकारी योजना के तहत राशन कार्ड धारकों को मुफ्त मिलने वाले चावल की आपूर्ति करने की प्रतिबद्धता जतायी।

अफसर : मैं ये कह रहा था, दुकानदार है जैसे जगह-जगह दुकान है गांव वाले जमा करते हैं चावल, तो ये ऐसे इकट्ठा करना पड़ेगा चावल; …ये दुकान में नहीं रखते हैं। कहीं और रखते हैं चावल।

रिपोर्टर : ऐसा क्यूं?

अफसर : मुखबिरी कर दी किसी ने, …कहां से आया, कैसे आया…?

रिपोर्टर : कभी छापा पड़ा है किसी के यहां? …क्या होता है?

अफसर : चालान काट देते हैं 10 के (हजार) का, 15 के (हजार) का। …मुखबिरी कर देते हैं लोग। चावल वालों के भी लाइसेंस बन रहे हैं आजकल। …वो किसी भी वैरायटी का चावल बेच सकते हैं।

रिपोर्टर : तुम अपना भी तो चावल बेचोगे हमें? …तुम्हारे दो राशन कार्ड हैं; एक लाल, एक पीला? लाल में पैसे देने पड़ते हैं, पीला वाला मुफ्त मिलता है चावल?

अफसर : हां। …दुकानदार के पास दो-तीन क्विंटल है चावल और बाक़ी मैंने और लोगों से बात की है; …वो कह रहे हैं- बेचते रहेंगे, व्यवस्था देखते रहेंगे; …28 रुपये किलो।

अब अफसर ने दावा किया कि उसने हमारे (‘तहलका’ रिपोर्टर के) लिए चावल की व्यवस्था करने के लिए अपने गांव से एक निजी किराना दुकानदार मोहम्मद रफी से बात की है। रफी ने ‘तहलका’ रिपोर्टर से बातचीत के दौरान बताया कि उसे दो-तीन महीने में मुफ्त-राशन पाने वालों से चार से पांच क्विंटल (400-500 किलोग्राम) चावल मिल जाता है। उसने कहा कि राशन लाभार्थी या तो सरकार से मुफ्त में मिलने वाले चावल को बेच देते हैं या अपने चावल के बदले में उससे अच्छी गुणवत्ता वाला चावल ले लेते हैं। उसने कहा कि वह हमारे (‘तहलका’ रिपोर्टर के) लिए सरकार द्वारा मुफ्त में वितरित किया जाने वाले चावल की व्यवस्था करेगा और इसके लिए उसने राशन डीलर से भी बात की है, जो सरकारी राशन वाले चावल आपूर्ति की व्यवस्था करेगा।

रिपोर्टर : हमें रफी साहब वो चावल चाहिए, जो सरकार दे रही है फ्री में, राशन में?

रफी : मेरे पास कोटे का ही चावल आता है। …लोग आते हैं मुझसे बदल ले जाते हैं। कुछ मोटा चावल नहीं खाते, वो बदल ले जाते हैं या पैसे ले जाते हैं।

रिपोर्टर : तो ऐसे कितने लोग आ जाते हैं आपके पास?

रफी : समझ लो दो-तीन महीने में हमारे पास चार-पांच क्विंटल चावल इकट्ठे हुए हैं।

रिपोर्टर : हमें तो बड़ी तादाद में चावल चाहिए, वो कैसे दोगे?

रफी : आपके लिए मैंने बड़े डीलर से बात कर ली है। …अभी तो जो मेरे पास है, मुझसे ले लो। मैं बड़े डीलर से भी दिलवा दूंगा। ये है थोड़ी मेहनत हम भी लेंगे, …एक-दो रुपया हमारा भी बन जाएगा।

जब ‘तहलका’ रिपोर्टर ने रफी से पूछा कि वह जो चावल हमें दिल्ली में देगा, वो सरकार द्वारा राशन के रूप में लोगों को मुफ्त वितरित होने वाला चावल होगा? तो रफी ने रिपोर्टर को बताया कि विश्वास बढ़ाने के लिए वह उन्हें वीडियो कॉल के जरिये अपने यहां रखे सरकारी राशन वाले चावल को दिखाएगा, जो कि राशन कार्ड (गरीबी रेखा से नीचे वाले कार्ड) धारकों को मुफ्त मिलता है। उसने कहा कि फिलहाल उसके पास सात क्विंटल (700 किलोग्राम) सरकार राशन वाला चावल है, जो उसने सरकार से मुफ्त-राशन पाने वाले लाभार्थियों से खरीदा है। रफी ने आगे कहा कि वह हमारे (रिपोर्टर के) लिए 50 क्विंटल (5,000 किलोग्राम) चावल की व्यवस्था भी कर सकता है, वह भी प्रति दिन।

रिपोर्टर : नहीं, मुझे वो ही चावल चाहिए, जो सरकार देती है फ्री में।

रफी : नहीं तो आपको भरोसा कैसे दिलाया जाए, वीडियो कॉल परे …बिलकुल वही चावल हैं कच्चे, लगे हुए हैं हमारे पास। …अभी तो हमने ऐसे ही रखे हुए हैं, जब किसी को देना होता है, तो 50-50 किलो बना देते हैं।

रिपोर्टर : अच्छा; जो चावल आपको लोग दे जाते हैं, वो आप इकट्ठा करते रहते हो? …अभी कितना होगा आपके पास?

रफी : करीब सात क्विंटल।

रिपोर्टर : मतलब, 700 किलो, और हमें हर महीने चाहिए 10-12 क्विंटल।

रफी : अरे तुम बात कर लो, हम महीने के महीने 15 क्विंटल दिलवाएंगे; …ऐसी बात नहीं है, 50 क्विंटल भी दिलवाएंगे।

रिपोर्टर : आप कहां से लोगे अगर 50 क्विंटल हमें दोगे भी?

रफी : अब दिलवा देंगे रोज की गाड़ी आएगी-जाएगी तो…।

अब रफी ने ‘तहलका’ रिपोर्टर से चावल के दाम पर बातचीत की। रिपोर्टर ने रफी से कहा कि वह 32 रुपये प्रति किलो की दर से भी उससे सरकारी राशन का चावल खरीदने को तैयार हैं। लेकिन रफी ने इस दर पर अपना चावल बेचने से इनकार कर दिया। उसने कम-से-कम 38 रुपये प्रति किलोग्राम के भाव की मांग की। रफी ने कहा कि उसने राशन डीलर से सरकार द्वारा लोगों को मुफ्त में वितरित होने वाले चावल के उपलब्ध कराने के लिए बात की है।

रिपोर्टर : क्या रेट होगा चावल का, आप जो दोगे हमें?

रफी : क्या तय हुई थी आपकी?

रिपोर्टर : यो तो कह रहे थे 16, 17, 18 (रुपये) में बेचता हूं।

रफी : यहां तो 27-28 रुपये खरीदते हैं वो, डीलर ले लेता है हमसे 30-32 का रेट। …हम पैसे नहीं लेकर आते, बदले में चावल ही लेकर आते हैं।

रिपोर्टर : एरिया कौन-सा है?

रफी : तरिया मोहनपुर, बरेली जिला।

रिपोर्टर : हमसे कितना लोगे?

रफी : बरेली के अंदर मोटा चावल की कीमत 40 रुपये है।

रिपोर्टर : हम सरकारी चावल की बात कर रहे हैं, फ्री वाली…।

रफी : पौना चावल भी समझ लो 50 का रेट है, तो मोटा चावल कितने का होगा?

रिपोर्टर : हमको कितने में दोगे चावल?

रफी : आप कितना दोगे? …पहले बताओ।

रिपोर्टर : दे दो 32 रुपये में, पर किलो।

रफी : नहीं, इतना तो नहीं हो सकता। …कम-से-कम 38 रुपये तो हो।

रिपोर्टर : चलो मैं शाम को बताता हूं।

रफी : हां बता दो हमने डीलर के भी कानों में बात डाल दी है। …एक-दो रुपये की बात होगी, तो इधर-उधर हो जाएगा। हां, भरोसे वाले आदमी हो, …आप वीडियो कॉल करके पूरा माल देखिए; पूरी तसल्ली हो, तभी आगे बढ़ना।

बरेली से नि:शुल्क राशन योजना वाले चावल बेचने वालों की पड़ताल करते हुए ‘तहलका’ रिपोर्टर ने उत्तर प्रदेश के एक अन्य शहर नोएडा में कुछ ऐसे लोगों की जानकारी जुटायी। ‘तहलका’ रिपोर्टर ने नोएडा के सेक्टर-81 में रिहाना से मुलाकात की, जो क्षेत्र की अन्य महिलाओं के साथ मुफ्त-राशन लाभार्थी होने का दावा करती है। ‘तहलका’ रिपोर्टर एक स्थानीय दलाल के माध्यम से रिहाना और अन्य महिलाओं से मिले। ‘तहलका’ रिपोर्टर से मिलते ही रिहाना ने कहा कि वह अपना मुफ्त-राशन के तहत मिलने वाले चावल 35 रुपये प्रति किलोग्राम से कम भाव में नहीं बेचेगी, जो उसके अनुसार खुले बाजार भाव से सस्ता है। रिपोर्टर ने रिहाना से यह भी कहा कि हमें हर महीने मुफ्त-राशन योजना के तहत मिलने वाले चावल की आपूर्ति की आवश्यकता है।

रिहाना : किस रेट (भाव) में लेते हो?

रिपोर्टर : आप किस रेट में लेंगी?

रिहाना : 35 रुपये।

रिपोर्टर : 35 रुपये किलो? …ज्यादा नहीं है?

रिहाना : कम हैं। …दुकान के रेट से तो कम ही हैं।

रिपोर्टर : चावल कौन-से हैं? …दिखा देंगी आप?

रिहाना : अभी तो नहीं हैं।

रिपोर्टर : ये वही हैं ना, जो सरकार फ्री में देती है?

रिहाना : हां; …पांच किलो मिलते हैं, एक आदमी को।

रिपोर्टर : मुझे दिखा दो आप।

रिहाना : चावल कहां है अभी?

रिपोर्टर : मिले नहीं हैं?

रिहाना : ना! …5 तारीख तक मिलते हैं, इस बार मिले नहीं हैं। 10 तक मिलेंगे।

रिपोर्टर : तो हमें हर महीने चाहिए।

रिहाना : हां।

रिपोर्टर : चावल कितना मिलता है?

रिहाना : 10 मिलता है।

रिपोर्टर : गेहूं 10 किलो? …कितना लोग हो आप घर में?

रिहाना : 25 किलो मिलता है। …जैसे हम चाहें, तो पूरा चावल भी ले सकते हैं।

रिपोर्टर : अच्छा; चाहो पूरा चावल ले लो, चाहो तो पूरा गेहूं?

रिहाना : हां; और कुछ नहीं मिलता।

जब ‘तहलका’ रिपोर्टर की महिलाओं के समूह में रिहाना से बात हो रही थी, तब किसी ने शोर मचाया कि हम (रिपोर्टर) मीडिया से हैं और उनका स्टिंग कर रहे हैं। समूह में खड़े एक लड़के ने रिपोर्टर को पुलिस वाला कहा। इसके बाद रिहाना ने अपना रुख बदल लिया और उन्हें (रिपोर्टर को) अपना मुफ्त-राशन बेचने से इनकार कर दिया और यहां तक कह दिया कि उसके पास राशन कार्ड भी नहीं है। लेकिन रिपोर्टर के साथ पहले हो चुकी रिहाना की बातचीत उसके इस दावे का समर्थन नहीं करती कि उनके पास राशन कार्ड नहीं है।

रिहाना : अभी हमारे बने नहीं हैं राशन कार्ड।

रिपोर्टर : अभी तो आप कह रही हो बना हुआ है?

रिहाना : मेरे छ: तो बच्चे हैं खाने वाले। …दो जानें (लोग) हम हो गये, आठ जानें (लोग), तो 25 किलो क्यूं, कम-से-कम 40 किलो मिलन चाहिए। …यहां तो मैं ले नहीं रही हूं, गांव में मिलता है हमारा।

एक अन्य महिला : दो किलो गेहूं, तीन किलो चावल, ऐसे मिलता है।

रिपोर्टर : दो किलो गेहूं, तीन किलो चावल? …एक आदमी पर?

महिला : हां।

रिपोर्टर : तो क्या रेट? बताएं आप! …20 रुपये किलो?

रिहाना : कैसी बात कर रहे हो?

रिपोर्टर : ये तो मना कर रही हैं।

रिहाना : इतने खाने वाले हैं, फिर भी मैं बेच रही हूं। हमारे तो चावल भी अच्छे ना हैं, मोटे चावल हैं।

एक दूसरी महिला : ये  मीडिया वाले हैं।

रिपोर्टर : मीडिया वाले हैं? …मेरे तो बचते ही ना हैं चावल। मीडिया वाले की बात ना है। …वैसे भी इतने मोटे चावल देख लेंगे, तो मीडिया वाले क्या करेंगे?

एक लड़का : इनके दिल में धक-धक हो रही है, ये पुलिस वाले तो नहीं हैं?

रिपोर्टर : अरे, पुलिस वाले नहीं हैं।

रिहाना : नहीं-नहीं। मैं आपको जानती हूं, चाचा हैं हमारे। …10 साल से मिल रहा है बराबर।

रिहाना के बाद ‘तहलका’ रिपोर्टर की मुलाकात नोएडा के उसी सेक्टर की दूसरी गली में एक अन्य महिला से हुई। मुफ्त-राशन का लाभार्थी होने का दावा करने वाली महिला ने अपना नाम बताने से इनकार कर दिया; लेकिन उसने कबूल किया कि वह खुले बाजार में 25 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से मुफ्त चावल बेच रही है।

महिला : अभी नहीं मिला है चावल।

रिपोर्टर : क्या रेट देती हो? …25 रुपये?

महिला : हां।

रिपोर्टर : जो फ्री राशन सरकार दे रही है, हमको वो चाहिए पांच किलो; …वो चाहिए हमको।

महिला : दे तो देते आपको, पर वो अभी मिले नहीं हैं। पिछले महीने मिले। कभी 7 को (7 तारीख को) मिले, कभी 8 को। …इस बार मिला ही नहीं, 9 तारीख हो गयी।

रिपोर्टर : अप्रैल में अभी नहीं मिला?

महिला : अभी नहीं मिला।

रिपोर्टर : कितना मिलता है?

महिला : एक आदमी पर पांच किलो।

रिपोर्टर : दो आदमी पर 10 किलो, दो केजी (किलो) चावल, तीन केजी गेहूं?

महिला : चावल लो या अनाज लो, हम तो चावल ले लेते हैं।

रिपोर्टर : वो क्या रेट दे देंगी आप? …हमें चाहिए खरीदना है हमको?

महिला : अभी तो मिले नहीं हैं।

रिपोर्टर : नहीं, जब मिलेंगे, तब?

महिला : जब मिलेंगे, तब ले लेना।

रिपोर्टर : किस रेट में?

महिला : हम तो 20 भी दे देवें हैं। …हम हैं हिन्दू, हम तो अपना खाने के लिए ही कर लेते हैं। जैसे कोई आता है, तो दे देते हैं. …दो केजी, 2.5 केजी; …वैसे कोई जरूरत नहीं है।

उसी गली में ‘तहलका’ रिपोर्टर की मुलाकात एक अन्य महिला से हुई। उसने भी दावा किया कि वह मुफ्त-राशन की लाभार्थी है; लेकिन उसने अपना नाम बताने से इनकार कर दिया। उसने कबूल किया कि वह सरकार से मुफ्त-राशन योजना के तहत मिलने वाले चावल खुले बाजार में 25 रुपये प्रति किलोग्राम के भाव से बेच देती है। वह ‘तहलका’ रिपोर्टर को ग्राहक समझकर 30 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से चावल बेचने को तैयार हो गयी। हालांकि उसने गेहूं बेचने से इनकार कर दिया।

रिपोर्टर : आप क्या लेती हो फ्री में?

महिला : चावल भी, राशन भी।

रिपोर्टर : चावल और गेहूं दोनों मिलते हैं?

महिला : हां; हमारे चार-पांच लोग हैं। 15 गेहूं, 15 चालल आता है।

रिपोर्टर : फ्री में आता होगा ये तो?

महिला : हां।

रिपोर्टर : हमें चावल-गेहूं दोनों चाहिए।

महिला : दोनों नहीं देंगे।

रिपोर्टर : एक दे दोगी?

महिला : हां; हम चावल बेचे, …25 रुपये किलो।

रिपोर्टर : चावल बेचते हो, 25 किलो? …ठीक है, हमको हर महीने चाहिए होगा।

महिला : मिलेगा तो दे देंगे।

रिपोर्टर : ठीक है, वही 25 रुपये पर केजी (25 रुपये प्रति किलो)?

दलाल : ज्यादा दे देना, गरीब आदमी है।

रिपोर्टर : चलो ठीक है, 30 रुपये पर केजी ले लेंगे।

उसी गली में ‘तहलका’ रिपोर्टर की मुलाकात एक अन्य महिला से हुई। उसने भी खुद को मुफ्त-राशन की लाभार्थी होने का दावा किया। उसने भी अपना नाम बताने से इनकार कर दिया। लेकिन उसने कबूल किया कि वह सरकार से मुफ्त मिलने वाला चावल 25 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से खुले बाजार में बेच रही है। महिला ने बताया कि उसने पिछले महीने का चावल स्थानीय दुकानदार को बेचा था। उसने बताया कि लोग उससे चावल खरीदने के लिए उनके दरवाज़े पर आते हैं। यह महिला भी ‘तहलका’ रिपोर्टर को 30 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से अपना चावल बेचने के लिए भी सहमत हो गयी।

रिपोर्टर : क्या रेट बेचती हो आप चावल?

महिला : दुकानदार तो 25 ही (25 रुपये प्रति किलो) ही देवे है।

रिपोर्टर : दुकानदार 25? …लेकिन हम लगातार लेंगे आपसे।

महिला : ठीक है।

रिपोर्टर : हर महीने 30 रुपये (किलो का) रेट ले लेना आप हमसे। …आप कहां बेचती हो? …दुकान पर?

महिला : नहीं-नहीं, आप घर से ले लेना।

रिपोर्टर : घर से?

महिला : घर से भी ले जावे है, …दुकान से भी। …अब पता लग गया, अब तुम्हें दे दिया करेंगे।

रिपोर्टर : चावल देखने को मिल सकता है, क्वालिटी कैसी है?

महिला : अब तो बेच दिये, …साथ-के-साथ बेच देते है। हमारे बच्चे खाते नहीं हैं, इसलिए हम हाथ-के-हाथ बेच दें, चून (आटा) ले लें दुकान से।

प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) के तहत देश भर में 80 करोड़ से ज्यादा लोगों को पांच किलोग्राम प्रति व्यक्ति के हिसाब से मुफ्त-राशन मिल रहा है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य गरीब एवं जरूरतमंद परिवारों को आवश्यक खाद्य सामग्री उपलब्ध कराना है। हालांकि यह बात सामने आयी है कि कई लाभार्थी उन्हें मिलने वाले इस मुफ्त-राशन को, खासतौर पर चावलों को खुले बाजार में बेच रहे हैं और बड़ी संख्या में अपात्र लोग भी इस कल्याणकारी योजना का लाभ उठा रहे हैं।

पीएमजीकेएवाई के सम्बन्ध में ‘तहलका’ एसआईटी ने अपने गुप्त कैमरे में लाभार्थियों को उन्हें मिलने वाले मुफ्त सरकारी राशन को बेचने की बात करते हुए कैमरे में क़ैद किया है, जो कि चौंकाने वाली बात है। जरूरतमंदों को वितरित किये जाने वाले राशन के इस व्यापक दुरुपयोग को देखते हुए सरकार से तत्काल कार्रवाई की मांग की गयी है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि इस योजना से उन लोगों को ही लाभ मिले, जिन्हें वास्तव में इसकी आवश्यकता है, और इस राशन की बढ़ती कालाबाजारी पर अंकुश लगाया जा सके। अब यह कार्रवाई का समय है।

पहलगाम का असली संदेश और सीख?

पूर्व सैन्य कमांडरों ने पहलगाम में हुए हालिया आतंकवादी हमले का कारण ख़ुफ़िया जानकारी और सुरक्षा तैयारियों में भारी विफलता बताया है। जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद एक चिन्ताजनक रूप से परिचित पैटर्न का अनुसरण करता है; लेकिन बैसरन में हमला एक ख़तरनाक इरादे का प्रतिनिधित्व करता है। इससे कई गंभीर प्रश्न उठते हैं; ऐसे संवेदनशील क्षेत्र में सेना क्यों नहीं तैनात की गयी? ख़ुफ़िया एजेंसियाँ क्या कर रही थीं? आतंकवादी इतनी आसानी से हमारे सुरक्षा तंत्र में सेंध लगाने में कामयाब कैसे हो गये?

मोदी सरकार ने अनुच्छेद-370 को निरस्त करने के बाद से अपनी पीठ थपथपायी है और अब कश्मीर में इस कहानी को नया रूप देने की कोशिश की है। लेकिन यह हमला, जिसकी ज़िम्मेदारी प्रतिबंधित लश्कर-ए-तैयबा के प्रतिनिधि ‘द रेजिस्टेंस फ्रंट’ ने ली है; एक कड़वी सच्चाई को रेखांकित करता है। यह महज़ संयोग नहीं है; क्योंकि यह नरसंहार अमेरिका द्वारा 26/11 के आरोपी तहव्वुर राणा के प्रत्यर्पण को मंज़ूरी दिये जाने के कुछ ही समय बाद हुआ। वह भी ऐसे समय में, जब पाकिस्तान में अशान्ति बढ़ रही है। वहाँ बलूच विद्रोह तेज़ हो रहा है और सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर भारत-विरोधी बयानबाज़ी कर रहे हैं। पहलगाम, जो अपेक्षाकृत सुरक्षित माना जाता है और जिसके बारे में कोई पूर्व ख़ुफ़िया चेतावनी नहीं थी; में हुए हमले की निर्लज्जता ने जनता के ग़ुस्से को फिर से भड़का दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अपनी विदेश यात्रा को छोटा करने का निर्णय और गृह मंत्री अमित शाह का घायलों से मिलने जाना स्थिति की गंभीरता को रेखांकित करता है।

इस बीच पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ ने हमले की एक तटस्थ, पारदर्शी और विश्वसनीय जाँच का प्रस्ताव दिया है। हालाँकि यह एक खोखला प्रस्ताव है; क्योंकि इस्लामाबाद ने उरी और पुलवामा से सम्बन्धित जाँचों सहित पिछली कई जाँचों में भारत के साथ सहयोग करने से लगातार इनकार किया है। यह कूटनीति और छल के बीच एक स्पष्ट रेखा है। इस त्रासदी के बाद चीन की चुप्पी, विशेष रूप से भारत और अमेरिका के बीच बढ़ती नज़दीकियों के बीच बहुत कुछ कह रही है। बीजिंग ने अभी तक इस हमले की निंदा नहीं की है। यद्यपि भारत अक्सर बड़े आतंकवादी हमलों का जवाब कूटनीतिक तरीक़े से सुरक्षा उपायों के साथ देता है; लेकिन पूर्ण पैमाने पर सैन्य जवाबी कार्रवाई शायद ही कभी की जाती है। आतंकवाद में पाकिस्तान की राज्य सहभागिता इस्लामाबाद पर एकीकृत अंतरराष्ट्रीय दबाव की माँग करती है। फिर भी दु:ख की घड़ी के बीच बैसरन का संदेश एक नये अध्याय की शुरुआत का संकेत हो सकता है। जैसा कि वरिष्ठ पत्रकार राकेश रॉकी ने अपनी आवरण कथा- ‘आत्मघाती चूक’ में कहा है। हालाँकि हमले की निराशा के बीच लचीलेपन और आशा की झलकियाँ भी हैं। हमले के ठीक एक सप्ताह बाद पर्यटक, जिनमें विदेशी भी शामिल हैं; एक बार फिर श्रीनगर की डल झील पर शिकारा की सवारी का आनंद ले रहे हैं और सोशल मीडिया पर शान्तिपूर्ण दृश्य साझा कर रहे हैं। सामान्य स्थिति की ओर यह तीव्र वापसी कश्मीर की शान्ति और स्थिरता की गहरी चाहत को उजागर करती है।

कश्मीरी लोग इस अत्याचार की निंदा करने के लिए एकजुट हैं; उमर अब्दुल्ला जैसे राजनीतिक नेताओं से लेकर सैयद आदिल हुसैन शाह के परिवार तक, जो एक बहादुर टट्टू सवार था, जिसने बहादुरी से एक आतंकवादी से हथियार छीनने की कोशिश की थी और आतंकियों की गोलियों का निशाना बना। पाकिस्तान के लिए जम्मू-कश्मीर के निवासियों का संदेश स्पष्ट है- बाहर रहो। कश्मीर को ठीक होने दो और आगे का रास्ता तय करने दो। इस अंतहीन संघर्ष के सबसे मार्मिक परिणामों में से एक सीमा-पार विवाहों से पैदा हुए बच्चों की दुर्दशा है, जो किसी निर्जन क्षेत्र में पहचान, राजनीति और दर्द के बीच फँसे हुए हैं। कश्मीर के लोग शोक मना रहे हैं; लेकिन वे स्पष्टता, साहस और करुणा के साथ अपनी बात भी कह रहे हैं। शायद यही पहलगाम का असली संदेश है।   

आत्मघाती चूक- पहलगाम आतंकी हमले से उठ खड़े हुए कई सवाल

इंट्रो- पहलगाम में आतंकी हमले में 26 लोगों के नरसंहार ने भारत में ग़ुस्सा पैदा किया है। यह ग़ुस्सा आतंकियों और पाकिस्तान के ख़िलाफ़ तो है ही, केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ भी है, जिस पर सुरक्षा में लापरवाही का आरोप लगाया जा रहा है। सीमा पर इस बड़ी घटना के बाद तनाव है। इस घटना के बाद मोदी सरकार की कश्मीर नीति पर भी सवाल उठे हैं। बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार राकेश रॉकी :-

क्या कश्मीर में सब कुछ सामान्य है? क्या ऐसा दिखाने की केंद्र सरकार की ज़िद ने कश्मीर में नरसंहार की बड़ी घटना को अंजाम देने के आतंकवादियों के मंसूबों को बल दिया? जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 निरस्त करने के बाद सूबे में कई पर्यटन स्थलों को सैलानियों के लिए खोलने का फ़ैसला केंद्रीय गृह मंत्रालय ने लिया था, जिनमें 60 ऐसे थे, जहाँ उचित सुरक्षा व्यवस्था नहीं थी या वे सुरक्षा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील थे। पहलगाम के जिस बैसरन पिकनिक स्पॉट पर आतंकियों ने 25 सैलानियों और एक स्थानीय नागरिक की हत्या का ख़ूनी खेल खेला, वहाँ से कुछ समय पहले सीआरपीएफ को हटा लिया गया था। इसका फ़ैसला किस स्तर पर किसने किया? यह भी एक बड़ा सवाल है। घाटी के मुसलमान भी आतंक की इस घटना के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए। निश्चित ही पहलगाम का बैसरन आतंकी हमला सुरक्षा और रणनीति की बड़ी चूक का नतीजा है, जहाँ घटना के बाद सुरक्षा बलों को पहुँचने में ही डेढ़ से दो घंटे का लम्बा वक़्त लग गया। यह घटना ऐसे समय में हुई है, जब अमेरिका के उप राष्ट्रपति जेडी वेन्स भारत के दौरे पर थे। इस घटना ने न सिर्फ़ भारत-पाकिस्तान सीमा पर तनाव बना दिया है, बल्कि चीन ने पाकिस्तान को जे-10सी और जेएफ-17 लड़ाकू विमान देने की घोषणा कर तनाव को और हवा दे दी है। तनाव की स्थिति यह है कि भारत ने सिंधु जल समझौता निलंबित करने सहित कुछ फ़ैसले किये हैं, तो पाकिस्तान ने शिमला समझौते को रद्द करने की घोषणा की है।

जानकारी के मुताबिक, पहलगाम आतंकी नरसंहार के बाद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह जब श्रीनगर पहुँचे थे, तो एक बैठक में उच्चाधिकारियों ने उन्हें बताया था कि कश्मीर में अनुच्छेद-370 ख़त्म होने के बाद पर्यटकों के लिए खोले गये 63 ऐसे स्थल हैं, जो असुरक्षित हैं और वहाँ सुरक्षा के पुख़्ता इंतज़ाम नहीं। शाह को अधिकारियों ने बैठक में सुझाव दिया कि पहलगाम हमले को देखते हुए इन स्थलों को पर्यटकों की आवाजाही के लिए बंद कर देना चाहिए। सूत्रों के मुताबिक, घाटी में आतंकी हमले के ख़तरे को लेकर भी इनपुट्स केंद्र को भेजे गये थे। हालाँकि यह माना जाता है कि मोदी सरकार ऐसा करने में हिचक रही थी; क्योंकि वह लम्बे समय से यह दावा कर रही है कि कश्मीर में अब स्थिति सुधर चुकी है और इस दु:ख की घड़ी में बैसरन का संदेश एक नये अध्याय की शुरुआत का संकेत हो सकता है।

निश्चित ही पहलगाम आतंकी हमले ने देश को हिलाकर रख दिया है। आतंकवादियों और उनके आकाओं के ख़िलाफ़ देश की जनता में जबरदस्त ग़ुस्सा है। पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कार्रवाई का दबाव बन रहा है। बहुत-से उग्र गुटों ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया है। इस दु:खद घटना का सबसे शर्मनाक पहलू यह रहा कि इसमें देश के ही एक पक्ष की तरफ़ से हिन्दू-मुस्लिम का नैरेटिव बनाने की भरपूर कोशिश हो रही है। कहा यह गया कि आतंकवादियों ने पर्यटकों की हत्या करने से पहले सभी का धर्म पूछा था। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि किसी ख़ास मक़सद से जब ऐसा ख़ूनी खेल खेला जाता है, तब इन घटनाओं के पीछे खड़े लोग एक रणनीति बनाकर यह नापाक तरीक़े अपनाते हैं, जिससे समाज में अफ़रा-तफ़री मचे।

जनता में मोदी सरकार के ख़िलाफ़ भी बहुत नाराज़गी है; क्योंकि यह ज़ाहिर हो गया है कि जहाँ सैलानियों की इतनी भीड़ जुट रही थी, वहाँ एक भी जवान सुरक्षा में तैनात नहीं था। आतंकी हमले में जान गँवाने वालों के रिश्तेदारों के जो वीडियो सामने आये हैं, उनसे भी ज़ाहिर होता है कि घटनास्थल पर सुरक्षा के नाम पर कुछ भी नहीं था। ऐसा क्यों हुआ, इसके लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय की ज़िम्मेदारी बनती है। जम्मू-कश्मीर एक केंद्र शासित प्रदेश है और वहाँ सुरक्षा की सारी ज़िम्मेदारी सीधे गृह मंत्रालय की है। यह घटना केंद्र सरकार के सबसे बड़े सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल की रणनीति की नाकामी की तरफ़ भी इशारा करती है, जो मोदी सरकार में देश और देश से बाहर की सुरक्षा नीति में बड़ा रोल निभा रहे हैं।

हाल के महीनों में जम्मू के सीमान्त ज़िलों राजौरी, पुंछ, किश्तवाड़ आदि में आतंकियों की घुसपैठ और हमलों की कई घटनाएँ हुई थीं जिससे सुरक्षा इंतज़ाम और चौकस करने की सख़्त ज़रूरत थी। यहीं से आतंकी कश्मीर पहुँचते हैं। यह रिपोर्ट्स सामने आ रही थीं कि इन इलाक़ों के घने जंगलों में आतंकियों ने अपने ठिकाने बना लिये हैं। पीरपंजाल का यह इलाक़ा बहुत सघन है और कश्मीर को यहीं से रास्ता भी जाता है। हाल में यह जानकारी भी सामने आयी है कि पाकिस्तान सेना और आईएसआई के सहयोग से आतंकियों को अब गुरिल्ला ट्रेनिंग दी जा रही है। स्थानीय युवाओं की आतंकी घटनाओं में भागीदारी कम हुई है और विदेशी आतंकी यह काम ज़्यादा कर रहे हैं।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, सरकार के जम्मू-कश्मीर में आतंकियों की कमर तोड़ने के दावों के विपरीत और अनुच्छेद-370 ख़त्म करने के फ़ैसले को इसका श्रेय देने के बावजूद इस सरहदी सूबे में अभी भी 100 से 125 के बीच आतंकी सक्रिय हैं, जिनमें 85 फ़ीसदी विदशी आतंकी हैं। यह स्थिति तब है, जब अभी भी कश्मीर में सामान्य से कहीं अधिक सैन्य बल मौज़ूद हैं। ऐसे में यह गंभीर सवाल उठता है कि पहलगाम के जिस पिकनिक स्पॉट पर आतंकियों ने ख़ूनी खेल खेला वहाँ सुरक्षा के लिए एक भी जवान तैनात नहीं था। क्यों? सरकार को इसका जवाब देना चाहिए।

कहना होगा कि आतंकवादी और उनके आका अपने मक़सद में सफल रहे, क्योंकि पहलगाम की घटना के बाद टीवी चैनलों से लेकर सोशल मीडिया तक में सुरक्षा तंत्र की बड़ी चूक और नाकामी पर सवाल उठाने की जगह हिन्दू-मुस्लिम वाला नैरेटिव चला दिया गया। इस घटना के बाद चुनावी राज्य बिहार पहुँचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान और हमले के ज़िम्मेदार आतंकियों को चेताया, तो नेता प्रतिपक्ष राहुल गाँधी आतंकवादी घटना में घायल लोगों के हाल जानने कश्मीर पहुँचे। गृह मंत्री अमित शाह ने घटना वाले दिन ही श्रीनगर में अधिकारियों से स्थिति की जानकारी ली। दिल्ली में इसके बाद सर्वदलीय बैठक भी इस घटना को लेकर हुई, जिसमें कांग्रेस सहित पूरी विपक्ष ने सुरक्षा में लापरवाही का सवाल खड़ा किया साथ ही सरकार को आश्वस्त किया कि विपक्ष उसके साथ खड़ा है और वह जो भी फ़ैसला करेगी, उसका समर्थन रहेगा।

रोज़गार पर हमला– इसमें कोई दो-राय नहीं कि कश्मीर घाटी में सैलानियों की संख्या बढ़ने से यदि कोई सबसे ज़्यादा ख़ुश थे, तो वे स्थानीय कश्मीरी मुस्लिम थे, जिनकी रोज़ी-रोटी का सबसे बड़ा ज़रिया ही पर्यटक हैं। ऐसे में इस घटना ने इन कश्मीरी मुसलमानों को भी गहरा ज़$ख्म दिया है। यही कारण रहा कि यह मुस्लिम खुलकर दहशतगर्दों के ख़िलाफ़ आये हैं और अपना ग़ुस्सा ज़ाहिर कर रहे हैं। घटना वाले दिन भी कश्मीरी मुसलामानों ने आतंकी हमले के दौरान कई पर्यटकों की जान बचाने में बड़ी भूमिका अदा की और ख़ुद की जान ख़तरे में डाली। आतंकियों ने पर्यटकों की जान बचाने की कोशिश करने पर ऐसे ही एक स्थानीय मुस्लिम सईद आदिल हुसैन शाह पर गोलियों की बोछार कर दी, जिससे आदिल की मौत हो गयी।

इस हमले से लम्बे समय से आतंकवाद की मार झेल रहे कश्मीर में फिर से पर्यटकों के आने से रोज़गार के जो रास्ते खुले थे, फ़िलहाल उन पर संकट के बादल छाये हुए समझो। यह घटना स्थानीय लोगों के लिए आर्थिक रूप से बहुत नुक़सानदेह साबित हुई है। यही कारण रहा कि उन्होंने खुलकर दहशतगर्दी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी शुरू कर दी है। कश्मीर में इस घटना के बाद पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भी जबरदस्त माहौल बना है, जो कश्मीरियों के हक़ के लिए लड़ने का ढोंग करता रहता है। कश्मीर में लोग समझ चुके हैं कि पाकिस्तान कभी भी उनका हितेषी नहीं था, न कभी होगा। कश्मीर के नाम पर उसके नेता सिर्फ़ यहाँ के लोगों को बरगलाने की कोशिश करते हैं।

हाल के महीनों में कश्मीर में पर्यटकों की संख्या बढ़ी थी; क्योंकि केंद्र सरकार लगातार दावे कर रही थी कि वहाँ माहौल अब सुधर चुका है, आतंकवाद की कमर तोड़ी जा चुकी है और शान्ति लौट चुकी है। लेकिन जम्मू रीज़न में जिस तरह हाल के महीनों में आतंकी हमले हुए थे, उन्हें देखकर साफ़ लग रहा था कि सरकार का दावा सही नहीं है। दुनिया को दिखाने के लिए भले सरकार ने शान्ति का ढोल पीटा हो, ज़मीनी हक़ीक़त वैसी नहीं थी। इस बड़ी घटना से पहले कश्मीर के भीतर भी आतंकी घटनाएँ हो रही थीं। भले छोटे स्तर पर थीं। ऐसे में कश्मीर के पर्यटन स्थलों को आतंकियों की चरागाह के रूप में खुला छोड़ देना बहुत नासमझी भरा क़दम था। जिन जगहों को सैलानियों के लिए खोला गया, उनमें 60 को संवेदनशील माना गया था। लेकिन वहाँ सुरक्षा का इंतज़ाम न करना केंद्र सरकार की भयंकर भूल थी, जिसकी क़ीमत 26 भारतीयों को अपनी जान गँवा कर चुकानी पड़ी।

पहलगाम की घटना के बाद कश्मीर जाने की रफ़्तार एकदम ढीली पड़ गयी। हज़ारों लोगों ने अपनी बुकिंग रद्द कर दी है, जबकि जिन्हें कुछ और दिन कश्मीर में रुकना था, वे तुरंत कश्मीर वापस चले गये हैं। एयरलाइन्स सूत्रों के मुताबिक, पहलगाम घटना के बाद आनन-फ़ानन में सैकड़ों पर्यटकों ने वापसी के लिए टिकट ख़रीदे हैं। जानकारों के मुताबिक, इस एक घटना ने कश्मीर में जाने वालों का भरोसा डिगा दिया है और इसे बहाल करने में लम्बा वक़्त लग जाएगा।

सूत्रों के मुताबिक, पहलगाम हमले के बाद ख़तरे को देखते हुए केंद्र सरकार ने 29 अप्रैल को ज़्यादा संवेदनशील 48 पर्यटक स्थलों को सैलानियों के लिए बंद कर दिया है। इनमें श्रीनगर की मशहूर डल झील भी है।

हिन्दू-मुस्लिम नैरेटिव– इस दु:खद घटना का सबसे शर्मनाक पहलू यह रहा कि इसमें देश के ही एक पक्ष की तरफ़ से हिन्दू-मुस्लिम का नैरेटिव बनाने की भरपूर कोशिश हुई। कहा यह गया कि आतंकवादियों ने पर्यटकों की हत्या करने से पहले सभी का धर्म पूछा था। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि किसी ख़ास मक़सद से जब ऐसा ख़ूनी खेल खेला जाता है तब इन घटनाओं के पीछे खड़े लोग एक रणनीति बनाकर यह नापाक तरीक़े अपनाते हैं, ताकि समाज में अफ़रा-तफ़री मचे। कहना होगा कि आतंकवादी और उनके आका अपने मक़सद में सफल रहे। क्योंकि पहलगाम की घटना के बाद गोदी पत्रकारों ने टीवी चैनलों, अख़बारों से लेकर सोशल मीडिया तक पर सवाल उठाने और यह बताने की जगह कि यह सुरक्षा तंत्र की बड़ी चूक और नाकामी है; धर्म वाला नैरेटिव चला दिया। इस घटना के बाद चुनावी राज्य बिहार पहुँचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान को चेताया, तो नेता प्रतिपक्ष राहुल गाँधी अमेरिका की यात्रा अधूरी छोड़ आतंकवादी घटना में घायल हुए लोगों से मिलने कश्मीर के अस्पतालों में पहुँचे।

यह बहुत आश्चर्यजनक है कि कश्मीर में आतंकवाद की कोई भी वारदात होने के बाद उसमें धर्म खोजने वाले बहुत-से नफ़रती तत्त्व सामने आ जाते हैं। सच यह है कि कश्मीर में सन् 1989 में जबसे आतंकवाद शुरू हुआ, वहाँ सरकारी आँकड़ों के मुताबिक 2025 तक क़रीब 43,000 लोगों (ग़ैर-सरकारी आँकड़ों के मुताबिक 60,000) लोगों की मौत हुई है। इस दौरान छितिसिंह पुरा में सिखों के नरसंहार की घटना हुई और घाटी से बड़े पैमाने पर कश्मीरी पंडितों का पलायन भी हुआ। इस दौरान जो लोग मारे गये उनमें 85 फ़ीसदी संख्या मुसलमानों की है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि आतंकवाद में सबसे ज़्यादा पीड़ित कश्मीर रहा, जिसने वहाँ शिक्षा, स्वास्थ्य के ढाँचे को ख़त्म कर दिया। असंख्या लोगों की बलि ले ली और रोज़गार के रास्ते बंद कर दिये। जान के क़ीमत सभी इंसानों की सामान है; लेकिन इस तथ्य को कैसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता है कि सूबे में आतंकवाद के सबसे बड़ी क़ीमत मुसलमानों ने चुकायी है।

पहलगाम की घटना के बाद भी हिन्दू-मुस्लिम नैरेटिव बनाने की कोशिश हुई। बनाया भी गया। लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा कि इस घटिया राजनीतिक एजेंडे से हासिल क्या हुआ? आतंकवादियों ने पर्यटकों को मारने के लिए हिन्दुओं को निशाना बनाया यह उनकी और उनके आकाओं की चाल थी। जानबूझकर धर्म पूछा गया और महिलाओं से कहा गया कि जाकर मोदी को बता देना, ताकि स्थानीय लोगों और अन्य के बीच धर्म के नाम पर विभाजन पैदा किया जाए। कहा जाता है कि यदि आप लोगों को हज़ार कोशिश करके भी बाँट नहीं पा रहे हों, तो उनके बीच धर्म को लेकर आ जाओ। फिर देखो कैसे चिंगारी भड़कती है। पहलगाम के घटना के बाद भी यह कोशिश हुई और इसके पीछे राजनीति करने वाले भी कम नहीं थे।

लापरवाही कहाँ– कश्मीर में सैलानियों के लिए ख़तरा होने के बावजूद उन्हें ऐसी जगह जाने से किसी ने नहीं रोका जहाँ जाना ख़तरनाक हो सकता था। महाराष्ट्र से लेकर दूसरे राज्यों तक के टूर ऑपरेटरों को यह पता था कि पहलगाम की बैसरन घाटी में सैलानियों को भेजकर पैसा बनाया जा सकता है। प्रशासन और सुरक्षा व्यवस्था में बैठे लोगों को क्यों नहीं जानकारी थी कि एक ऐसे इलाक़े में रोज़ सैकड़ों पर्यटक आ रहे हैं, जहाँ जाने में ख़तरा है। एक ऐसी जगह जहाँ एक भी सुरक्षाकर्मी नहीं था, वहाँ सुरक्षा एजेंसियों और प्रशासन की नाक के नीचे रोज़ सैकड़ों पर्यटक जुट रहे थे। बैसरन में एक भी सुरक्षाकर्मी का न होना इसलिए भी आश्चर्यजनक है; क्योंकि हमले से कुछ दिन पहले ही भाजपा सांसद निशिकांत दुबे गुलमर्ग में अपने जन्मदिन पर पारिवारिक पार्टी का आयोजन कर रहे थे और उस समय वहाँ निजी पार्टी होने के बावजूद बड़ी संख्या में सुरक्षाकर्मियों को तैनात किया गया था। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, पिछले कुछ हफ़्तों से बैसरन पिकनिक स्पॉट पर हर रोज़ 1800 से 2100 पर्यटक पहुँच रहे थे। लेकिन इसके बावजूद किसी ने यह चिन्ता नहीं की, कि वहाँ सुरक्षा के इंतज़ाम किये जाएँ।

जिस पिकनिक स्पॉट पर यह घटना हुई घास का वह मैदान कंटीली बाड़ से घिरा है। यही नहीं, भीतर जाने के लिए 30 रुपये का शुल्क अदा करना होता है, तभी कोई लोहे के गेट से भीतर जा सकता है। सवाल है कि जब आतंकी गेट से भीतर गये होंगे, तो क्या वहाँ बैठे लोगों को शक नहीं हुआ होगा? घटना के बाद इस मैदान में सैलानियों के शव ख़ून से लथपथ पड़े थे। आतंकियों की गोलियों का शिकार सभी पुरुष हुए। ख़ूनी खेल खेलकर आतंकी भागने में सफल हो गये; क्योंकि वहाँ सुरक्षा दस्ते का एक भी जवान नहीं था। घायल सुरक्षा और मदद की गुहार लगा रहे थे। स्थानीय लोगों, जिनमें ज़्यादातर दुकानदार या टट्टू वाले थे; ने घायलों को पीठ पर लादकर पहाड़ी से नीचे सुरक्षित जगहों पर पहुँचाया। घटनास्थल पर सेना या सुरक्षा जवान डेढ़ घंटे बाद पहुँचे। तब तक जिन घायलों के बचने की कोई सम्भावना थी भी, उनकी भी साँसें उखड़ चुकी थीं।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, जहाँ इतनी बड़ी वारदात हुई, वहाँ से केंद्रीय रिज़र्व पुलिस फोर्स (सीआरपीएफ) का शिविर छ: किलोमीटर दूर है। पुलिस स्टेशन तो और भी दूर लिद्दर में है, जबकि सेना का शिविर तो पहलगाम बाज़ार के नज़दीक है; जो घटनास्थल से काफ़ी दूर है। यही कारण रहा कि सुरक्षा से जुड़े जवानों को घटना के बाद वहाँ पहुँचाने में ज़्यादा वक़्त लगा। घटनास्थल पर कहें कोई सीसीटीवी है; इसकी पुष्टि नहीं होती।

सवाल यह है कि गृह मंत्रालय और इन मामलों में इनपुट देने वाली उसकी एजेंसी आईबी (गुप्तचर ब्यूरो) क्यों यह मान बैठे थे कि इस इलाक़े में आतंकी ख़तरा नहीं है? सच तो यह है कि किश्तवाड़ और पीरपंचाल से घाटी में जाने पर यही इलाक़ा सबसे पहले आता है। बेशक केंद्र सरकार ने ढके छिपे शब्दों में लापरवाही होने की बात स्वीकार की है; लेकिन सवाल यह है कि क्या इससे उन लोगों की ज़िन्दगी वापस लायी जा सकती है? जो आपके सुरक्षा इंतज़ामों के दावों पर भरोसा करके वहाँ घूमने गये? ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, कोकरनाग के पास घने जंगलों के बाद मैदानी इलाक़ा पड़ता है, जो किश्तवाड़ की तरफ़ फैला हुआ है। चूँकि इन जंगलों में अप्रैल में ही एक मुठभेड़ में जेईएम के तीन विदेशी आतंकी मरे गये थे, वहाँ सतर्कता की सख़्त ज़रूरत थी। लेकिन यह मान लिया गया कि अब कोई ख़तरा नहीं।

सुरक्षा एजेंसियों को इस बात की जानकारी थे, हाल के चार-पाँच वर्षों में इन इलाक़ों में आतंकियों ने अपनी स्थिति मज़बूत की है। ऐसे में पहलगाम हमले को साफ़तौर पर सुरक्षा की गंभीर चूक के रूप में देखा जाना चाहिए। पाकिस्तान आतंकियों की मदद करता है; यह किसी से छिपी बात नहीं है। लिहाज़ा उसको कोसने के साथ साथ अपना सुरक्षा तंत्र मज़बूत करना ज़रूरी नहीं है क्या? पर्यटकों की सामूहिक हत्या की यह घटना निश्चित ही पहली बड़ी घटना है। सन् 1995 से लेकर अब तक इन इलाक़ों में 68 पर्यटक आतंकियों की गोलियों का शिकार हुए हैं।

राजनीतिक असर– पहलगाम में हमले के बाद बेशक कांग्रेस सहित विपक्ष ने सरकार के साथ हर क़दम पर खड़ा होने की बात कही है। हालाँकि साथ ही उसे सरकार की कश्मीर नीति और वहाँ सुरक्षा रणनीति पर सवाल उठाने का भी मौक़ा मिल गया है। सर्वदलीय बैठक में नेता प्रतिपक्ष राहुल गाँधी ने इसे लेकर सवाल भी उठाये। उन्होंने इस बात पर हैरानी जतायी कि इतनी महत्त्वपूर्ण बैठक में शामिल होने की जगह प्रधानमंत्री मोदी ने बिहार जाने को तरजीह दी। उधर पहलगाम हमले से भाजपा के भीतर चल रही उठापटक पर फ़िलहाल विराम लग गया है। यह माना जा रहा है कि आरएसएस लगातार दबाव बनाये हुए है कि भाजपा अध्यक्ष उसकी पसंद का बनेगा। पिछले लम्बे समय से इस पर आरएसएस और भाजपा नेतृत्व के बीच खींचतान चली हुई है। फ़िलहाल अब नया भाजपा अध्यक्ष बनाने में देरी हो सकती है। यही नहीं, यह कयास भी लगाये जा रहे हैं कि आरएसएस केंद्र सरकार में नेतृत्व परिवर्तन पर ज़ोर दे रहा है और चाहता है कि सितंबर तक नया प्रधानमंत्री बने। फ़िलहाल इन सभी चीज़ों पर विराम लग गया है। ये आरोप लग रहे हैं कि पहलगाम हमले को हिन्दू-मुस्लिम रंग देने के पीछे वास्तव में भाजपा के ही लोग थे, ताकि बिहार चुनाव में इसका फ़ायदा लिया जाए। लेकिन जनता में इस घटना के बाद मोदी सरकार के ख़िलाफ़ भी ग़ुस्सा उभरा है, जिससे दावा नहीं किया जा सकता कि आतंकी हमले का लाभ ही मिलेगा; नुक़सान भी हो सकता है।

मोदी सरकार में हुए बड़े आतंकी हमले

उड़ी हमला : 18 सितंबर, 2016 को कश्मीर के उड़ी सेक्टर में एलओसी के पास भारतीय सेना के शिविर पर हमला। इसमें 19 जवान शहीद हो गये।

पठानकोट हमला : 02 जनवरी, 2016 को पंजाब के पठानकोट एयरबेस पर हमला। इसमें सात सुरक्षाकर्मी शहीद और 20 अन्य घायल हुए। चार आतंकी मारे गये।

अमरनाथ यात्रियों पर हमला : 10 जुलाई, 2017 को अमरनाथ जा रहे श्रद्धालुओं पर अनंतनाग ज़िले में आतंकी हमले में सात लोगों की मौत।

पुलवामा हमला : आतंकियों ने 14 फरवरी, 2019 को आईईडी धमाका कर सीआरपीएफ़ की बस को उड़ा दिया जिसमें 40 सैनिक शहीद हो गये।

रियासी हमला : रियासी में 09 जून, 2024 को शिव खोदी से लौट रहे नौ श्रद्धालुओं की हत्या।

उधमपुर हमला : उधमपुर में 16 सितंबर, 2015 को बीएसएफ क़ाफ़िले पर हमले में दो जवान शहीद।

कठुआ हमला : कठुआ में 8 जुलाई, 2024 को जवान शहीद।

डोडा हमला : डोडा में 16 जुलाई, 2024 को 5 जवान शहीद।

गुलमर्ग हमला : गुलमर्ग में 24 अक्टूबर, 2024 को 2 जवान, दो पोर्टर की हत्या।

गान्धरवाल हमला : श्रीनगर के गान्धरवाल में 20 अक्टूबर, 2024 को सात मजदूरों की हत्या।

पहलगाम हमला : 22 अप्रैल, 2025 में पर्यटकों सहित 26 लोगों की हत्या।

भारत ने उठाये ये क़दम

  1. सिंधु जल संधि निलंबित

2- पाकिस्तान का जल प्रवाह नियंत्रित करने की योजना

3- पाकिस्तान नागरिकों का वीजा रद्द

    4- पाकिस्तानी सैन्य सलाहकारों को भारत छोड़ने के निर्देश

    5- अटारी सीमा चौकी बंद

पाकिस्तान ने उठाये ये क़दम

  1.  शिमला समझौता रद्द
  2.  द्विपक्षीय समझौते स्थगित
  3.  वाघा बॉर्डर बंद करने का ऐलान
  4.  भारत के लिए एयरस्पेस बंद करने का फ़ैसला

क्या भारत करेगा हमला?

पहलगाम में आतंकी हमले के बाद भारत के तेवर देखते हुए पाकिस्तान ने पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) में आपात स्थिति मानते हुए वहाँ स्वास्थ्य कर्मियों की छुट्टियों और तबादलों पर तत्काल रोक लगा दी है। सेना को सतर्क रहने के लिए कहा गया है। जानकारों के मुताबिक, भारत आतंकी ठिकानों को निशाना बना सकता है। जैसा उसने 2019 के पुलवामा हमले के बाद किया था। पाकिस्तान सेना प्रमुख आसिम मुनीर, जिन्हें भारत के प्रति आक्रामक सोच रखने वाला जनरल माना जाता है; सेना की तैयारी पर काम कर रहे हैं। यह माना जाता है कि भारत में होने वाले आतंकी हमलों के पीछे सेना और आईएसआई का हाथ होता है, जबकि निर्वाचित सरकार को इसके बार इसकी जानकारी दी ही नहीं जाती। घटना के बाद भारत की प्रतिक्रिया का जवाब देने के लिए सरकार को बाध्य कर दिया जाता है। फ़िलहाल भारत की तरफ़ से कोई संकेत नहीं दिये गये हैं, सिवाय भाषणों में कड़ी कार्रवाई की बात कहने के। हाँ, सेना को तैयार रखा गया है और यह निश्चित है कि भारत, चाहे सीमित ही; सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कार्रवाई ज़रूर करेगा। सीमा पर जिस तरह तनाव बना है और पाकिस्तान सीजफायर का उल्लंघन कर रहा है, उससे स्थिति गंभीर हुई है। ऊपर से चीन ने पाकिस्तान को सैन्य-हथियार देने की घोषणा करके तनाव को और बढ़ा दिया है।

—ट्विट—-

”पहलगाम की घटना ने देशवासियों को पीड़ा पहुँचायी है। लोग पीड़ित परिजनों के दर्द को महसूस कर सकते हैं। हर भारतीय का ख़ून आतंक की तस्वीरों को देखकर खौल रहा है। ऐसे समय में जब कश्मीर में शान्ति लौट रही थी और लोकतंत्र मज़बूत हो रहा था। पर्यटकों की संख्या में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हो रही थी और लोगों की कमायी बढ़ रही थी; लेकिन देश के दुश्मनों को और जम्मू-कश्मीर के दुश्मनों को ये रास नहीं आया। आतंकी चाहते हैं कि कश्मीर फिर से तबाह हो जाए। इस मुश्किल वक़्त में 140 करोड़ देशवासियों की एकता सबसे बड़ा आधार है।’’

       – प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (मन की बात में)

”यह एक दु:खद घटना है। जम्मू-कश्मीर के सभी लोगों ने इस आतंकी हमले की निंदा की है। इस परिस्थिति में कश्मीर के लोग पूर्ण रूप से भारत के साथ हैं। मैं सभी को कहना चाहता हूँ कि आज सारा देश एक साथ खड़ा है। जो कुछ हुआ है, उसके पीछे समाज को बाँटने, भाई को भाई से लड़ाने का विचार है। सरकार को सख़्त क़दम उठाने चाहिए।’’’

      – राहुल गाँधी, नेता प्रतिपक्ष (श्रीनगर में)

हाथों से काम छीन रही रोबोटिक साइंस

अंतरराष्ट्रीय श्रमिक दिवस पर विशेष

01 मई को अंतरराष्ट्रीय श्रमिक दिवस है। इसे मज़दूर दिवस और मई दिवस भी कहते हैं। इस दिन पूरी दुनिया में मज़दूरों और शारीरिक श्रम करने वालों के लिए काम करने का दावा करने वाले बड़े-बड़े दावेदार राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इकट्ठे होंगे और सभी श्रमिकों के साथ खड़े होने का ड्रामा करके बड़ी-बड़ी बातें करेंगे। लेकिन क्या श्रमिकों, ख़ासकर मज़दूरों के लिए कोई सच में लड़ाई लड़कर उनके हितों और अधिकारों के लिए ईमानदारी से काम करता है? हक़ीक़त यह है कि मज़दूर और श्रमिक 100 साल से पहले की हज़ारों साल की ग़ुलामी से आज़ाद होकर मज़दूरी यानी तनख़्वाह भले ही पाने लगे हों; लेकिन वे असल में ग़ुलामी से आज़ाद नहीं हो सके हैं। आज भी गार्ड और कम्पनियों में काम करने वाली लेबर को 9 से 12 घंटे की ड्यूटी करनी पड़ती है और तनख़्वाह 8 घंटे की भी नहीं मिलती है। गुजरात की कई कपड़ा मिलों में काम करने वाले गार्ड, मज़दूर और दूसरे श्रमिक मजबूरन 9 से 12 घंटे ड्यूटी करते हैं और इसके बदले में 6-7 हज़ार रुपये से लेकर 10-12 हज़ार रुपये महीने की तनख़्वाह मिलती है। ठेकेदारों के अंडर में काम करने वालों की हालत से इससे भी ख़राब है। इस शोषण के ख़िलाफ़ कोई आवाज़ नहीं उठा पाता। क्योंकि अगर कोई आवाज़ उठाता है, तो उसे नौकरी छोड़नी पड़ती है और उसकी जगह उससे भी कम तनख़्वाह में काम करने के लिए कई और लोग तैयार हो जाते हैं।

आज भारत में जहाँ एक नौकरी को पाने की होड़ सैकड़ों लोगों में लग जाती है, वहीं जिन हाथों को काम मिला हुआ है, उनके हाथों से भी काम छिनने के आसार बढ़ते जा रहे हैं। भारत में हाथ से काम करने वाले मज़दूरों और श्रमिकों के हाथों से काम छीनने में जहाँ बेरोज़गारी, ग़रीबी और महँगाई है, वहीं विदेशों में इसकी वजह भारतीय श्रमिकों की घटती माँग और रोबोट के ज़रिये काम कराने के चलन का बढ़ना है। भारत में बेरोज़गारी, ग़रीबी और क़र्ज़ की वजह से हर साल 40 हज़ार से ज़्यादा मज़दूर और क़रीब 1,200 से ज़्यादा बेरोज़गार छात्र आत्महत्या कर लेते हैं। बेरोज़गारी का आलम ये है कि 16 प्रतिशत 12वीं से ज़्यादा पढ़े-लिखे युवा छोटे-छोटे काम और मज़दूरी करने को मजबूर हैं। एक तरफ़ हाथों से रोज़गार छिनने की वजह महँगाई, बेरोज़गारी, मशीनीकरण है, तो दूसरी तरफ़ अब रोबोट हाथों से काम छीनने में अहम भूमिका निभा रहा है। जानकारों के मुताबिक, दुनिया में जैसे-जैसे रोबोट की माँग बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे श्रमिकों की माँग घटती जा रही है। दुनिया के कई रेस्तरां में, घरों में और कम्पनियों में रोबोट से काम लिया जा रहा है। एआई तकनीक के बढ़ते क़दम रोबोट को बिलकुल इंसानों की तरह संवेदनशील और काम करने में इंसानों से भी ज़्यादा परफेक्ट बनाने की कोशिश में हैं।

साल 2024 में अंतरराष्ट्रीय श्रमिक दिवस की थीम जलवायु परिवर्तन के बीच कार्यस्थल सुरक्षा और स्वास्थ्य सुनिश्चित करना थी। इस साल मेहनतकश लोगों के अधिकारों का सम्मान मक़सद है। लेकिन क्या इससे दुनिया के इस वर्ग का सच में भला हो सकेगा? दुनिया भर में एक दिन के लिए किसी दिवस को मनाने भर से हालात नहीं सुधर सकते। क्योंकि ये दिवस अरबों रुपये ख़र्च करके सिर्फ़ बड़ी-बड़ी बातें करने का खोखला आधार बन चुके हैं, जिनके बहाने मज़दूर हितों की बात करने वाले बहुत-से दलालों की जेब गर्म हो जाती है। मज़दूरों पर काम करने वाली संस्थाएँ इस एक दिन में करोड़ों रुपये बनाकर फिर साल भर के लिए मज़दूरों और दूसरे श्रमिकों की समस्याओं से अनजान हो जाती हैं। दुनिया भर में करोड़ों मज़दूर संगठनों, मज़दूरों के लिए काम करने वाले एनजीओ और मज़दूरों के लिए काम करने वाली दूसरी संस्थाओं की चौखट पर उनके साथ हुए अन्याय की फ़रियाद लेकर माथा टेकने जाते हैं; लेकिन ये सब 80 प्रतिशत से ज़्यादा पीड़ित मज़दूरों और श्रमिकों को न्याय नहीं दिला पाते। उलटा मज़दूरों और श्रमिकों से न्याय की लड़ाई लड़ने के नाम पर पैसा ऐंठ लेते हैं। कई संगठनों, एनजीओ और संस्थाओं के लोग तो मज़दूरों की लड़ाई हाथ में लेकर मज़दूरों का शोषण करने वाली संस्थाओं, कम्पनियों से ही दलाली लेकर मज़दूरों को धोखा देते रहते हैं।

कार्यबल में इंसानों से ज़्यादा पॉवरफुल और लगातार बिना थके बिना तनख़्वाह के काम करने के चलते दुनिया भर में रोबोट की माँग बढ़ती जा रही है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) और रोबोटिक साइंस की तेज़ी से हो रही प्रगति ने दुनिया भर के ह्यूमन फ्रेंडली लोगों को चिन्ता में डाल दिया है। लेकिन जो लोग इंसानों से ज़्यादा मशीनों को महत्त्व देते हैं और व्यापार भी किसी भी हाल में ज़्यादा-से-ज़्यादा लाभ कमाने का ज़रिया मानते हैं, वे लोग नयी तकनीक के इन बढ़ते आविष्कारों से बहुत ख़ुश हैं कि उन्हें रोबोट के रूप में बिना तनख़्वाह के ज़्यादा तेज़ी से काम करने वाली तकनीक एक बार में पैसा ख़र्च करने पर मिल रही है, जिसकी वजह से वे कई मज़दूरों और श्रमिकों का काम एक ही रोबोट से करा सकते हैं। हाल ही में रोबोट और एआई के सफल प्रयोगों के बाद ऐसे लोगों को भरोसा होने लगा है कि रोबोट और एआई इंसानों से ज़्यादा स्मार्ट, ज़्यादा मेहनत, ज़्यादा काम और ज़्यादा सटीक तरीक़े से काम करने के लिए इन तकनीकी यंत्रों पर भरोसा किया जा सकता है। इन लोगों का मानना है कि रोबोट और एआई से किसी भी प्रकार की बेईमानी का कोई ख़तरा नहीं है, जो इंसानों से अक्सर होता है। अमेरिका, चीन, जापान, ब्रिटेन, दुबई, क़ुवैत और दूसरे कई विकसित देशों की कई बड़ी-बड़ी कम्पनियों में रोबोट काम कर रहे हैं और उनकी क्षमता, कम लागत और काम में सफ़ाई के मामले में ज़्यादातर कम्पनियों ने संतुष्टिपूर्ण जवाब दिये हैं।

लेकिन इस सबके बावजूद रोबोट और एआई के कई बड़े ख़तरे भी हैं, जिनको लेकर लोग चिन्तित हैं। दरअसल एआई और इंटरनेट के बढ़ते उपयोग ने कम्पनियों और पूँजीपतियों को एक सेकेंड में भी बर्बाद करने की चिन्ता को बढ़ाया है। क्योंकि इससे सभी लोग और कम्पनियाँ चौबीसों घंटे अंतरराष्ट्रीय साइबर अपराधियों और ठगों के निशाने पर रहती हैं। दूसरी तरफ़ रोबोट किसी भी इंसान या चीज़ को तोड़फोड़ करके नुक़सान पहुँचा सकता है, चाहे वो रोबोट को ख़रीदने या चलाने वाला उसका मालिक ही क्यों न हो। इसी वजह से रोबोट को संवेदनशील और आज्ञाकारी बनाने की दिशा में वैज्ञानिक लगातार काम कर रहे हैं। अभी हाल ही में ऐसे कई रोबोट तैयार किये गये हैं, जो इंसानों की तरह ही प्यार, जज़्बात को महसूस कर सकें और इंसानों की तरह देख-सुनकर उनकी बातों का सही जवाब दे सकें या समस्याओं का समाधान कर सकें।

अब तो ऐसे-ऐसे रोबोट बनाये जा रहे हैं, जो हर काम कर सकें। ख़ाना बनाने और साफ-सफ़ाई करने से लेकर युद्ध करने तक में काम आ सकें। ई-कॉमर्स कम्पनियों के लिए रोबोट वरदान साबित हो रहे हैं। इन कम्पनियों में मैन्युफैक्चरिंग से लेकर ऑर्डर के मुताबिक, सामान निकालकर पैक करने और डिलीवरी देने तक में रोबोट की डिमांड बढ़ती जा रही है। लेकिन इससे दुनिया भर में श्रमिकों की माँग घटती जा रही है। हालाँकि जानकार कह रहे हैं कि इससे किसी को घबराने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि अपना स्किल डेवलप करने की ज़रूरत है। लेकिन आज दुनिया की क़रीब 8.5 अरब आबादी में अनपढ़ और ग़ैर-प्रशिक्षित श्रमिकों की संख्या 2.1 अरब से भी ज़्यादा है, तो वे क्या करें? आज के आधुनिक युग में भी भारत और दूसरे विकासशील देशों में 8.6 प्रतिशत से ज़्यादा मासूम स्कूल का मुँह नहीं देख पा रहे हैं और 16.4 प्रतिशत से ज़्यादा बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़कर मज़दूर बन रहे हैं। पैसे के अभाव में अनपढ़, कम पढ़े-लिखे और यहाँ तक कि बहुत-से ग्रेजुएट बच्चों तक को किसी हुनर का प्रशिक्षण भी नहीं मिल पाता है। प्रशिक्षण या स्किल डेवलप करने के लिए 24 प्रतिशत से ज़्यादा भारतीय बच्चे नौकरी के सहारे हैं, जहाँ वे बिलकुल निचले स्तर से कम तनख़्वाह में काम शुरू करते हैं। ऐसे में अगर रोबोट ने श्रम के क्षेत्र में क़दम रख दिया, तो उनकी नौकरी और ख़तरे में पड़ जाएगी।

जानकार ही ऐसा मान रहे हैं कि आने वाले 10 वर्षों में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, रोबोटिक्स और बायोटेक्नोलॉजी के नाम से दस्तक दे चुकी चौथी औद्योगिक क्रांति के दौर में मशीनों और नयी तकनीक के चलते करोड़ों लोग बेरोज़गार होंगे और बहुत-से लोग नौकरियों से हाथ धो बैठेंगे। फ्यूचर ऑफ जॉब्स की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अगले पाँच साल में ही दुनिया भर में सिर्फ़ रोबोट ही 50 लाख से ज़्यादा लोगों को बेरोज़गार कर देगा। विश्व आर्थिक मंच (वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम) की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि आने वाले निकट समय में ही दुनिया भर में 800 से ज़्यादा सेक्टर्स में रोबोट, एआई और नयी तकनीक के चलते 80 प्रतिशत नौकरियाँ लोगों के हाथों से छिन जाएँगी। एक रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2030 तक दुनिया में 80 करोड़ नौकरियाँ लोगों के हाथों से छिन जाएँगी। ये दावे ऐसे ही नहीं किये जा रहे हैं। लोगों के हाथों से काम मशीनीकरण ने छीना है और आगे भी छीना जाएगा; लेकिन मशीनीकरण के इस बढ़ते युग में हैंडीक्राफ्ट और शारीरिक श्रम से बनी चीज़ों की माँग भी बढ़ रही है, बशर्ते वे चीज़ें यूनिक और अच्छी गुणवत्ता वाली हों। इसलिए श्रमिक वर्ग से, ख़ासकर मज़दूरों से यही कहना पड़ेगा कि वे अपने हाथों और दिमाग़ का इस्तेमाल करके कुछ ऐसी चीज़ें बनाएँ, जिससे उन्हें आमदनी भी हो और दुनिया उनके हुनर का लोहा भी माने। तभी श्रमिक दिवस को मनाना सफल हो सकेगा।

मई दिवस 2025 पर- क्या आज के दौर में ट्रेड यूनियनों का अस्तित्व खतरे में?

अप्रासंगिक हो चुके श्रमिक संगठन, कभी वामपंथी क्रांति के शैक्षिक शिविर होते थे

बृज खंडेलवाल  द्वारा

पहली मई को जब दुनिया भर में मई दिवस मनाया जाएगा, भारत समेत कई देशों में ट्रेड यूनियनों की प्रासंगिकता पर गंभीर सवाल भी उठेंगे।

श्रम मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में वर्तमान में 16,000 से अधिक पंजीकृत ट्रेड यूनियनें हैं, जिनमें से केवल 12 राष्ट्रीय स्तर की यूनियनें हैं। यह संख्या पिछले एक दशक में 20% कम हुई है, जबकि देश का कार्यबल 50 करोड़ से अधिक हो चुका है।  

श्रम ब्यूरो के 2024 के सर्वे के अनुसार: 

– केवल 7% भारतीय श्रमिक (लगभग 3.5 करोड़) संगठित क्षेत्र में काम करते हैं , – ट्रेड यूनियनों की सदस्यता पिछले 10 वर्षों में 35% घटी है ,-_- 83% कार्यबल असंगठित क्षेत्र में है जहां यूनियनों की पहुंच नगण्य है।  

1886 के शिकागो हेमार्केट घटना से प्रेरित मई दिवस ने भारत में 1923 में चेन्नई से शुरुआत की थी। आजादी के बाद के दशकों में यूनियनों ने कई बड़ी उपलब्धियां हासिल कीं:  – 8 घंटे कार्यदिवस  -न्यूनतम मजदूरी कानून  – कार्यस्थल सुरक्षा मानक, लेकिन   1991 के उदारीकरण के बाद से स्थिति बदलने लगी। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के आंकड़े बताते हैं कि:  – 2000-2025 के बीच हड़तालों की संख्या में 60% की कमी आई,   – 75% से अधिक निजी कंपनियों में यूनियन गतिविधियां प्रतिबंधित हैं ।

गिग इकॉनमी के उभार ने स्थिति और जटिल बना दी है:  – ज़ोमैटो, स्विगी जैसे प्लेटफॉर्म पर 50 लाख से अधिक डिलीवरी पार्टनर्स  – ओला/उबर ड्राइवर्स की संख्या 25 लाख से अधिक  – इनमें से 95% कर्मचारी किसी यूनियन से नहीं जुड़े हैं।

एक पूर्व यूनियन नेता कहते हैं, “आज की अर्थव्यवस्था में, यूनियनें सिर्फ 5% कर्मचारियों की आवाज बनकर रह गई हैं। हमें गिग वर्कर्स, फ्रीलांसर्स और अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों तक पहुंचना होगा।” 

ट्रेड यूनियनों के सामने स्पष्ट विकल्प है – या तो नए आर्थिक युग के अनुकूल खुद को बदलें, या फिर धीरे-धीरे अप्रासंगिक होते चले जाएं। श्रमिक अधिकारों की यह लड़ाई अब सिर्फ कारखानों तक सीमित नहीं, बल्कि डिजिटल प्लेटफॉर्म्स और होम-बेस्ड वर्कर्स तक पहुंचनी होगी। एक वैश्विक, खुली हुई अर्थव्यवस्था के दौर में ट्रेड यूनियनों की अहमियत का सवाल बड़ा होता जा रहा है। कभी क्रांतिकारी बदलाव की पेशवाई करने वाली ट्रेड यूनियनें, भारत और दूसरी जगहों पर, अपनी धार खोती हुई दिख रही हैं, एक ऐसी आज़ाद बाज़ार व्यवस्था में अपनी पहचान के संकट से जूझ रही हैं जहाँ उनकी पारंपरिक भूमिकाओं पर लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं। निजीकरण, आउटसोर्सिंग और बढ़ती हुई गैर-संगठित कार्यबल वाली सोसाइटी में, क्या ट्रेड यूनियनें अब भी परिवर्तनकारी बदलाव के लिए इकट्ठा होने की जगह हैं, या उन्हें सिर्फ कानूनी कार्रवाई करने वाली कमेटियों तक सीमित कर दिया गया है?

दशकों में, मई दिवस वामपंथी विचारधाराओं के लिए एक मंच के रूप में विकसित हुआ, ट्रेड यूनियनों ने व्यवस्थागत असमानताओं के खिलाफ working class के मज़लूमों के हक में आवाज़ उठाई। फिर भी, आज की दुनिया में, उन शुरुआती आंदोलनों का जोश कम होता दिख रहा है।

भारत में, जहाँ ज़्यादातर कार्यबल गैर-संगठित क्षेत्र में काम करता है—किसान, विक्रेता और गिग वर्कर—पारंपरिक ट्रेड यूनियनों की अहमियत पर सवाल उठ रहे हैं। श्रम अदालतों में याचिकाओं की लंबी कतारें सीधी कार्रवाई से लंबी कानूनी लड़ाइयों की ओर बदलाव का संकेत देती हैं। हकीकत यह है कि इस खुली अर्थव्यवस्था के दौर में, मज़दूर उन नियोक्ताओं की मर्ज़ी पर हैं जो कभी भी निकाल सकते हैं। नौकरी की सुरक्षा पुरानी बात हो गई है। सरकारी विभागों द्वारा सेवाओं को आउटसोर्स करने और गिग इकोनॉमी के तेज़ी से बढ़ने के साथ, यूनियनों की सौदेबाजी की ताकत काफी कम हो गई है।

एक पूर्व ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता, इस संदर्भ में मई दिवस के मकसद पर ही सवाल उठाते हैं। “कौन किससे लड़ रहा है? ‘क्रांति के स्कूल’ के रूप में ट्रेड यूनियनें एक पुरानी अवधारणा हैं। वामपंथी एक ऐसी व्यवस्था में खुद को किनारे महसूस करते हैं जहाँ आर्थिक वर्ग अब मार्क्स की कल्पना के अनुसार स्पष्ट रूप से अलग नहीं हैं,” वे कहते हैं।

स्व-नियोजित श्रमिकों के उदय ने शोषण की रेखाओं को और धुंधला कर दिया है, कई विक्रेता पारंपरिक नियोक्ताओं के बजाय सरकारी एजेंसियों और पुलिस को अपने मुख्य ज़ालिम के रूप में बताते हैं।

एक फैक्ट्री वर्कर कहता है, “हमारी लड़ाई सिर्फ निजी नियोक्ताओं के खिलाफ नहीं, बल्कि अधिकारियों द्वारा की जाने वाली तकलीफ के खिलाफ भी है।”

क्रांतिकारी जोश जिसने कभी ट्रेड यूनियनों को परिभाषित किया था, अब व्यावहारिकता में बदल गया है। समाजवादी टिप्पणीकार पारस नाथ चौधरी कहते हैं, “यूनियनें अपना क्रांतिकारी चरित्र खो रही हैं, प्रबंधन के साथ सौदेबाजी करने वाली कानूनी कार्रवाई समितियों में बदल रही हैं।” हड़तालें, जो कभी श्रम सक्रियता की पहचान थीं, अब दुर्लभ हैं। यूनियन नेता अक्सर प्रबंधन बोर्डों में बैठते हैं, जिन्हें औद्योगिक चक्र की रफ्तार सुनिश्चित करने का काम सौंपा जाता है, न कि उसे बाधित करने का।

कार्ल मार्क्स ने ट्रेड यूनियनों को एक समाजवादी क्रांति के लिए आयोजन केंद्रों के रूप में कल्पना की थी, जो श्रमिकों को एकजुट करते थे और उनकी वर्ग चेतना को तेज़ करते थे। हालाँकि, आज, यूनियनें पूंजीवादी ढांचे को चुनौती देने के बजाय छोटे-छोटे रियायतों को हासिल करने पर ज़्यादा ध्यान केंद्रित करती हुई दिखती हैं। यह बदलाव वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक व्यापक परिवर्तन को दर्शाता है। ट्रेड यूनियनों का क्लासिकल मॉडल—स्पष्ट वर्ग विभाजनों और सामूहिक सौदेबाजी की धारणा पर निर्मित—एक खंडित कार्यबल और सिकुड़ते नौकरी बाज़ार के अनुकूल होने के लिए संघर्ष कर रहा है।

कार्यकर्ता अजय कुमार आर्थिक अनिश्चितताओं की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, “जब विकल्प कम हों तो श्रमिक वर्ग लड़ने की हैसियत नहीं रखता,” जो सामूहिक कार्रवाई को हतोत्साहित करते हैं। राजनीतिक संस्थाओं के रूप में, ट्रेड यूनियनों का प्रभाव कम हो गया है, नेताओं ने टकराव के बजाय प्रतिष्ठान के साथ समन्वय करना पसंद किया है।

1990 के दशक तक लंबी हड़तालें आम बात थी। 1974 की जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में 18 दिनों तक चलनेवाली चक्का जाम रेलवे स्ट्राइक से इंदिरा गांधी दबाव में आई और जून 1975 में इमरजेंसी लगी। लेकिन अब पूंजीवाद खूंखार रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है। पत्रकार संगठन भी खामोश हैं। अमेरिकी हायर एंड फायर सिस्टम चल चुका है। पक्की नौकरियां घट रही हैं। शोषण, अन्याय और गैर बराबरी के इस दौर में श्रमिक संगठनों को नई दिशा परिभाषित करनी होगी।

पूरे देश में होगी जाति जनगणना, कैबिनेट बैठक में लिया फैसला

बिहार विधानसभा चुनावों के पहले सरकार ने राजनीतिक महत्व का एक बड़ा कदम उठाते हुए देश में आम जनगणना में जातियों की गणना कराने का फैसला किया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में बुधवार को यहां हुई केन्द्रीय मंत्रिमंडल की राजनीतिक मामलों की समिति की बैठक में यह फैसला लिया गया।

रेल, सूचना प्रसारण, इलैक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने यहां एक संवाददाता सम्मेलन में कैबिनेट के फैसलों की जानकारी दी। उन्होंने कहा, “राजनीतिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने आज फैसला किया है कि जाति गणना को आगामी जनगणना में शामिल किया जाना चाहिए।” वैष्णव ने कहा, “कांग्रेस की सरकारों ने आज तक जाति जनगणना का विरोध किया है। आजादी के बाद की सभी जनगणनाओं में जातियों की गणना नहीं की गयी। वर्ष 2010 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री दिवंगत डॉ. मनमोहन सिंह ने लोकसभा में आश्वासन दिया था कि जाति जनगणना पर केबिनेट में विचार किया जाएगा। तत्पश्चात एक मंत्रिमण्डल समूह का भी गठन किया गया था जिसमें अधिकांश राजनीतिक दलों ने जाति आधारित जनगणना की संस्तुति की थी। इसके बावजूद कांग्रेस की सरकार ने जाति जनगणना के बजाए, एक सर्वे कराना ही उचित समझा जिसे एसईसीसी के नाम से जाना जाता है।

इस सब के बावजूद कांग्रेस और इंडी गठबंधन के दलों ने जाति जनगणना के विषय को केवल अपने राजनीतिक लाभ के लिए उपयोग किया।” सूचना प्रसारण मंत्री ने कहा कि जनगणना का विषय संविधान के अनुच्छेद 246 की केंद्रीय सूची की क्रम संख्या 69 पर अंकित है और यह केंद्र का विषय है। हालांकि, कई राज्यों ने सर्वे के माध्यम से जातियों की जनगणना की है। जहां कुछ राज्यो में यह कार्य सूचारू रूप से संपन्न हुआ है वहीं कुछ अन्य राज्यों ने राजनीतिक दृष्टि से और गैरपारदर्शी ढंग से सर्वे किया है। इस प्रकार के सर्वें से समाज में भ्रांति फैली है। इन सभी स्थितियों को ध्यान में रखते हुए और यह सुनिश्चित करते हुए कि हमारा सामाजिक ताना बाना राजनीति के दबाव मे न आये, जातियों की गणना एक सर्वें के स्थान पर मूल जनगणना में ही सम्मिलित होनी चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होगा कि समाज आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से मजबूत होगा और देश की भी प्रगति निर्बाध होती रहेगी। वैष्णव ने कहा, “आज दिनांक 30 अप्रैल 2025 के दिन प्रधानमंत्री श्री मोदी के नेतृत्व में राजनीतिक विषयों की कैबिनेट समिति ने यह निर्णय लिया है कि जातियों की गणना को आने वाली जनगणना में सम्मिलित किया जाए। यह इस बात को दर्शाता है कि वर्तमान सरकार देश और समाज के सर्वांगीण हितों और मूल्यों के लिए प्रतिबद्ध है।” उन्होंने यह भी कहा कि इसके पहले भी जब समाज के गरीब वर्गों को 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया था तो समाज के किसी घटक में कोई तनाव उत्पन्न नहीं हुआ था। उल्लेखनीय है कि सरकार के इस फैसले का बिहार विधानसभा के सितंबर अक्टूबर में होने वाले चुनाव की दृष्टि से देखा जा रहा है जहां विपक्षी इंडी गठबंधन द्वारा उठायी गयी जातीय जनगणना कराने की मांग जोर पकड़ रही है। केन्द्र की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार के इस फैसले को बिहार की राजनीति में उलटफेर करने वाला निर्णय माना जा रहा है।

पहलगाम में हुए आतंकी हमले में शहीद हुए शुभम द्विवेदी के परिजनों से मिले राहुल

कानपुर: पहलगाम में हुए कायरतापूर्ण आतंकी हमले में शहीद हुए शुभम द्विवेदी के परिजनों से कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने आज मुलाक़ात कर उन्हें सांत्वना दी। शुभम उन लोगों में से एक थे जो 22 अप्रैल को पहलगाम आतंकी हमले में मारे गए थे।

उत्तर प्रदेश कानपुर के 31 वर्षीय व्यवसायी शुभम द्विवेदी का महज दो महीने पहले 12 फरवरी को विवाह हुआ था। कश्मीर के पहलगाम में पत्नी के सामने ही आतंकवादियों ने शुभम की गोली मारकर हत्या कर दी थी। शुभम अपनी पत्नी और नौ अन्य परिजनों के साथ एक सप्ताह की छुट्टी पर 16 अप्रैल को कश्मीर गए थे।

शुभम द्विवेदी

इस दुःखद घड़ी में पूरा देश शोकाकुल परिवारों के साथ खड़ा है। आतंकियों के ख़िलाफ़ सख्त और ठोस कार्रवाई होनी चाहिए और पीड़ित परिवारों को न्याय मिलना चाहिए।

इसी उद्देश्य से संयुक्त विपक्ष ने सरकार को पूरा समर्थन दिया है और संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग की है।

राहुल गांधी ने एक्स पर लिखा, “पहलगाम में हुए कायरतापूर्ण आतंकी हमले में शहीद हुए शुभम द्विवेदी के परिजनों से आज मुलाक़ात कर उन्हें सांत्वना दी। इस दुःखद घड़ी में पूरा देश शोकाकुल परिवारों के साथ खड़ा है। आतंकियों के ख़िलाफ़ सख्त और ठोस कार्रवाई होनी चाहिए और पीड़ित परिवारों को न्याय मिलना चाहिए। इसी उद्देश्य से संयुक्त विपक्ष ने सरकार को पूरा समर्थन दिया है और संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग की है।

अपना अमेठी दौरा पूरा करने के बाद राहुल गांधी ने शुभम के घर जाकर उन्हें श्रद्धांजलि दी और उनके परिजनों से मुलाकात की। गांधी के साथ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय भी थे। राय 23 अप्रैल को शुभम के अंतिम संस्कार में शामिल हुए थे।

कश्मीर के अनंतनाग जिले के लोकप्रिय पर्यटन शहर पहलगाम के पास बैसरन में 22 अप्रैल को आतंकवादियों द्वारा की गई गोलीबारी में 26 लोग मारे गए थे और कई अन्य घायल हो गए। इनमें ज्यादातर पर्यटक थे।

सीबीआई की जांच का स्टेशन डेवलपमेंट के काम पर नहीं पड़ेगा असर

बिलासपुर- 32 लाख रुपए की रिश्वत कांड मामले में रेलवे के चीफ इंजीनियर के साथ रेलवे ठेकेदार झांझरिया निर्माण कंपनी भी फंसी है, जिनके खिलाफ सीबीआई की जांच चल रही है। झांझरिया निर्माण कंपनी लिमिटेड का बिलासपुर रेलवे स्टेशन में 392 करोड़ रुपए की लागत से स्टेशन डेवलपमेंट का काम चल रहा है, जिसपर इस जांच से किसी तरह का कोई असर नहीं पड़ेगा।

मालूम हो कि पांच दिन पहले बिलासपुर रेलवे जोन मुख्यालय के कंस्ट्रक्शन में सीबीआई की एक बड़ी कार्रवाई की गई थी। इसमें रोड सेफ्टी ओपन लाइन के चीफ इंजीनियर विशाल आनंद काे झांझरिया निर्माण कंपनी से 32 लाख रुपए की रिश्वत लेने के आरोप में पकड़ा गया था। सीबीआई की टीम ने चीफ इंजीनियर और ठेकेदार के आफिस में दस्तावेज को खंगाला। इस दौरान रेलवे के चीफ इंजीनियर विशाल आनंद, भाई कुणाल आनंद, झांझरिया निर्माण कंपनी लिमिटेड के एमडी सुशील झांझरिया और कर्मचारी मनोज पाठक के खिलाफ कार्रवाई करते हुए गिरफ्तार कर अपने साथ लेकर चली गई। इस कार्रवाई के बाद रेलवे के जोन व डिवीजन कार्यालय में हड़कंप मचा हुआ है। वहीं रेल अफसर भी अब पूरी तरह से सतर्क होकर अपना काम निपटारा करने में लगे हैं। सीबीआई की कार्रवाई में शामिल झांझरिया निर्माण कंपनी लिमिटेड का बिलासपुर जोनल रेलवे स्टेशन में 392 करोड़ रुपए की लागत से पुनर्विकसित करने का काम एक साल पहले ही शुरु किया गया था। इसका ठेका मिलने के बाद कंपनी ने अपने कर्मचारियों को पूरे स्टेशन में काम के लिए लगा दिया, जिसमें मजदूरों के साथ जेसीबी भी स्टेशन एरिया के बाहर तोड़फोड़ करने में लग गई थी। गेट नम्बर चार से लेकर गेट नम्बर तीन और जनआहार के बाहर एरिया तक काम कम्पलीट नहीं हो सका था, कि झांझरिया की कंपनी सीबीआई के हत्थे चढ़ गई। सीबीआई की जांच और कार्रवाई के बाद स्टेशन का काम कंपनी ने पूरी तरह से बंद कर है, जिसके कारण काम समय पर कम्पलीट होने के कोई भी आसार नहीं नजर आ रहे हैं। वहीं अधिकारियों ने इस जांच के बावजूद काम चलते रहने की बात कही है, ताकि यात्रियों को किसी तरह की परेशानी का सामना न करना पड़े।

बिलासपुर जोनल रेलवे स्टेशन में पिछले एक साल से अब तक केवल गेट नम्बर चार के सामने बने रैंप, उसके ऊपर लगे शेड को तोड़ने के बाद रनिंग लॉबी और गेट नम्बर तीन के सामने की दो पहिया और चार पहिया पार्किंग को पूरी तरह से तोड़ने का काम किया गया है। इस काम की वजह से जनआहार से लेकर रनिंग लॉबी और गेट नम्बर चार तक चारों ओर से शेड की तरह दीवार बना दिया गया है, ताकि कोई भी यात्री उस स्थान पर आना-जाना न कर सकें।

कनाडा चुनाव में जस्टिन ट्रूडो की पार्टी फिर जीती, कॉर्नी फिर बनेंगे प्रधानमंत्री

कनाडा में हुए आम चुनावों के नतीजों में जस्टिन ट्रूडो की लिबरल पार्टी ने फिर से सत्ता में वापसी कर ली है। लिबरल पार्टी को 166 सीटों पर जीत मिलती नजर आ रही है। हालांकि बहुमत के लिए 170 सीटों की जरूरत होती है, लेकिन लिबरल पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है और सरकार बनाने की स्थिति में है। इस बार प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारी जस्टिन ट्रूडो के स्थान पर मार्क कार्नी संभालेंगे, जिन्हें पार्टी ने आंतरिक रूप से अपना नया नेता घोषित किया है। वहीं मुख्य विपक्षी कंजरवेटिव पार्टी को लगभग 145 सीटें मिली हैं, जिससे वे सत्ता से फिर बाहर रह गई है।

जगमीत सिंह और एनडीपी को बड़ा झटका खालिस्तान समर्थक नेता जगमीत सिंह को इस चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा है। उनकी न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी (एनडीपी) को केवल 7 सीटें जीतने में सफल रही। जगमीत सिंह खुद भी अपनी सीट गंवा बैठे और तीसरे स्थान पर खिसक गए। हार के बाद उन्होंने अपने पद से इस्तीफा देने की घोषणा कर दी।

भावुक होते हुए जगमीत ने अपने समर्थकों से कहा, “मैंने मूवमेंट को कमजोर नहीं पड़ने दिया, लेकिन जनता ने इसे स्वीकार नहीं किया। मैं निराश हूं, लेकिन हार नहीं मानूंगा।” 2021 के चुनावों में एनडीपी को 25 सीटें मिली थीं और जगमीत की पार्टी ने सरकार में किंगमेकर की भूमिका निभाई थी। लेकिन इस बार जनता ने उन्हें पूरी तरह से नकार दिया।

जम्मू-कश्मीर में बड़ा फैसला, 48 पर्यटक स्थलों को किया गया बंद

जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद प्रदेश भर में सुरक्षा एजेंसियों का बड़ा एक्शन जारी है। आतंकवादियों के खिलाफ चल रहे व्यापक तलाशी अभियानों के बीच जम्मू-कश्मीर सरकार ने घाटी के 48 पर्यटक स्थलों को अस्थायी रूप से बंद करने का बड़ा फैसला लिया है।

सरकारी आदेश के मुताबिक, इन स्थलों को सुरक्षा समीक्षा और आतंकवाद विरोधी अभियानों के चलते बंद किया गया है। अधिकारियों ने बताया कि घाटी के 87 पर्यटन स्थलों में से 48 पर फिलहाल पर्यटकों की आवाजाही पर रोक रहेगी। यह कदम संवेदनशील इलाकों में पर्यटकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उठाया गया है।