घोषणावीर मुख्यमंत्री

यह वाकया 25 साल पहले का है. मध्य प्रदेश की जीवनरेखा नर्मदा नदी के नीलकंठ (सीहोर) घाट में एक नवयुवक गले तक डूबा हुआ था. गांव के सारे लोग इस नौजवान को देखने के लिए जुटे थे. अचानक गांव के लोगों में हलचल बढ़ती है और यह नवयुवक मां नर्मदा को साक्षी मानते हुए घोषणा करता है कि इस क्षेत्र की सेवा के लिए आजीवन अविवाहित रहेगा. ठीक तीन साल बाद वह भाजपा के टिकट से इस क्षेत्र का विधायक चुना जाता है. इस दौरान वह अपनी पहली ही सार्वजनिक घोषणा भूलकर गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर जाता है. आज यही नवयुवक प्रदेश में में मुख्यमंत्री की गद्दी पर आसीन है. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के बारे में यह कहानी कितनी सच्ची है इसकी पुष्टि तो तभी हो सकती है जब वे खुद स्वीकार करें लेकिन मध्य प्रदेश में उनके कुछ साथी विधायक इस घटना के साक्षी रहे हैं.

हालांकि आजीवन कुंवारे रहने की कसम खाकर शादी कर लेना कोई अपराध नहीं है. लेकिन घोषणा करके उसे भुला देने की जो नजीर चौहान ने राजनीति में प्रवेश के समय बनाई थी वह अब उनके शासनकाल में और पक्की हो गई दिखती है. यदि चौहान के कार्यकाल पर निगाह डाली जाए तो बतौर मुख्यमंत्री प्रदेश के इतिहास में घोषणा करने के मामले में वे सबसे आगे हैं. पिछले सात साल का उनका रिकॉर्ड बताता है कि उन्होंने एक दिन में औसतन तीन से अधिक घोषणाएं की हैं. यह और बात है कि उनकी ज्यादातर घोषणाएं हवाई सिद्ध हुईं.

दरअसल चौहान की एक दिक्कत यह है कि वे जिस गति से घोषणाएं कर रहे हैं उससे उन्हें ही याद नहीं रहता कि उन्होंने कहां और कौन-सी घोषणा की है. इसी का एक नजारा महेश्वर उपचुनाव (2012) में तब देखने को मिला जब उन्होंने प्रदेश में पहला हिंदी विश्वविद्यालय खोलने की घोषणा कर दी. मगर लोगों ने जब चौहान को याद दिलाया तो उन्हें याद आया कि यह घोषणा तो वे पहले ही कर चुके हैं. इसी तरह उन्होंने चार साल पहले श्योपुर जिले के दौरे के दौरान विजयपुर में पेयजल योजना के लिए एक करोड़ रुपये देने की घोषणा कर दी. जनसंपर्क विभाग ने बाकायदा उसकी प्रेस विज्ञप्ति भी जारी की. मगर विधानसभा के पटल पर चौहान का जवाब था कि उन्होंने ऐसी कोई घोषणा ही नहीं की है. 

मुख्यमंत्री चौहान ने जिस ढंग से घोषणाओं के हवाई किले खड़े किए हैं उससे उनकी ही पार्टी भाजपा के कई बड़े नेता अब तंग आ चुके हैं. पार्टी सांसद रघुनंदन शर्मा ने पिछले साल उज्जैन में एक कार्यक्रम के दौरान कहा भी था, ‘राज्य सरकार के कई मंत्री इसलिए बेलगाम घोषणाएं कर रहे हैं क्योंकि उनके मुखिया भी ऐसा ही कर रहे हैं.’ शर्मा के मुताबिक घोषणाएं महज अखबारों में छपने और वाहवाही लूटने के काम आ रही हैं. विधानसभा में ही मंत्रियों द्वारा विधायकों के सवाल पर दिए गए आश्वासनों की संख्या बताती है कि करीब ढाई हजार आश्वासन अब तक पूरे नहीं हो पाए. वहीं चौहान भी सदन के भीतर यह मान चुके हैं कि वे घोषणावीर हैं. उनकी मानें तो, ‘वीर ही घोषणाएं करते हैं. यदि कुछ घोषणाएं पूरी नहीं हुईं तो इसलिए कि उनमें तकनीकी गड़बडि़यां थीं.’ चौहान का दावा है कि उन्होंने 80 फीसदी घोषणाएं पूरी भी कर दीं.

लेकिन मुख्यमंत्री की समीक्षा बैठक की हालिया रिपोर्ट खुद ही उनके दावे की कलई खोल देती है. इसके मुताबिक मुख्यमंत्री ने सात साल में कुल 7,334 घोषणाएं की हैं. मगर इनमें से 3,513 यानी आधे से अधिक घोषणाएं अटकी हुई हैं. वहीं करीब एक हजार घोषणाएं ऐसी हैं जो या तो शुरू नहीं हो सकीं या जिन्हें शुरू करा पाना अब संभव नहीं हो पाया है. अधर में फंसी इन घोषणाओं  तक में से भी अधिकतर पंचायत व ग्रामीण विकास (485), जल संसाधन (426), राजस्व (231) और स्वास्थ्य (193) जैसे आम आदमी से सीधे ताल्लुक रखने वाले महकमों से जुड़ी हैं.

मुख्यमंत्री ने 2008 में जारी जनसंकल्प पत्र में किसानों के लिए सबसे अधिक 62 घोषणाएं की थीं. लेकिन चार साल बाद भी उनमें से 61 घोषणाएं अधर में हैं

विशेषज्ञों की राय में किसी भी राज्य का बजट घोषणाओं के बजाय योजनाओं के आधार पर तैयार किया जाता है. ऐसे में चौहान जिस अनुपात में घोषणाओं की झड़ी लगा रहे हैं उससे बजट पूरी तरह से गड़बड़ा गया है. खुद राज्य के वित्त मंत्री राघवजी को मुख्यमंत्री की घोषणाओं को साकार कर पाना संभव नहीं लगता. वे पहले ही मीडिया में साफ कर चुके हैं, ‘यदि भाजपा सत्ता में लौटी भी तो पांच साल तक इन घोषणाओं को अमली जामा पहनाना असंभव है.’  उनके मुताबिक यदि आपात कोष का खजाना भी खोल दिया जाए तो सौ करोड़ रुपये से अधिक रकम नहीं जुटाई जा सकती. जबकि चौहान की घोषणाओं को पूरा करने के लिए बारह हजार करोड़ रुपये की दरकार है. सरकार की माली हालत इतनी खराब है कि उसे अपने सभी महकमों का बजट कम करना पड़ा है. वहीं चौहान सरकार के कार्यकाल में यह प्रदेश 85 हजार करोड़ रुपये का कर्जदार बन चुका है. बावजूद इसके मुख्यमंत्री द्वारा नित नई-नई घोषणाएं करना ‘कर्ज लेकर घी पीने’ जैसा लग रहा हैं.

सवाल यह है कि जब राज्य का खजाना खाली है तो मुख्यमंत्री अलग-अलग वर्ग की पंचायतों और महापंचायतों का भव्य आयोजन करके उनमें करोड़ों रुपये क्यों खर्च कर रहे हैं. गौरतलब है कि मुख्यमंत्री अपने आवास पर अब तक 25 से अधिक पंचायतें करा चुके हैं. इस बारे में प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया का कहना है, ‘चौहान बताएं कि उन्होंने अपने आवास पर अब तक जितनी भी पंचायतें कराई हैं उनमें की गई घोषणाओं की स्थिति क्या है. साथ ही वे यह भी बताएं कि इस पूरे तामझाम में सरकार का अब तक कुल कितना पैसा खर्च हो चुका है.’

जानकार बताते हैं कि मुख्यमंत्री की कोई भी घोषणा शासन की योजना मानी जाती है. इसलिए चौहान को चाहिए कि वे ऐसी घोषणा न करें जिससे शासन को व्यर्थ की माथापच्ची करनी पड़े. प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव केएस शर्मा के मुताबिक, ‘मुख्यमंत्री की कोई घोषणा यदि बहुत लंबे समय से अधूरी पड़ी है तो इसका सीधा अर्थ है कि उसमें वित्त या विधि की ऐसी अड़चन है जिसे दूर करना मुश्किल है.’ उदाहरण के लिए, पांच साल पहले मुख्यमंत्री ने अनुसूचित जाति पंचायत में इस वर्ग के साहित्यकारों और कलाकारों को पुरस्कार देने की घोषणा की थी. इस घोषणा पर संस्कृति मंत्रालय ने शासन को बताया कि उसने पुरस्कारों का किसी वर्ग विशेष से संबंधित कोई दायरा तय नहीं किया है.

लिहाजा इस घोषणा को पूरा करने का काम अनुसूचित जाति कल्याण मंत्रालय को सौंपा जाए. तब से दोनों मंत्रालयों के बीच यह घोषणा अटकी पड़ी है. इसी तरह, चार साल पहले मुख्यमंत्री ने प्रदेश में बीस हजार आंगनबाड़ी खोलने की घोषणा की थी. तब तक सरकार ने बेरोजगारों को भर्ती करने की कोई तैयारी नहीं की थी. बावजूद इसके मुख्यमंत्री ने आंगनबाडि़यों में बेरोजगारों को भर्ती करने की घोषणा कर दी. जनसंपर्क विभाग ने भी अखबारों में विज्ञापन जारी कर दिया. उसमें पांच लाख से अधिक आवेदन आए. मगर सरकार ने यह पूरी प्रक्रिया रद्द कर दी. इस दौरान सरकार के विज्ञापन में तीन करोड़ रुपये तो खर्च हुए ही, बेरोजगारों के भी आवेदन भरने में एक करोड़ रुपये खर्च हो गए. 

मुख्यमंत्री ने 2008 में जारी जनसंकल्प पत्र में किसानों के लिए सबसे अधिक 62 घोषणाएं की थीं. लेकिन चार साल बाद भी उनमें से 61 घोषणाएं अधर में हैं. इसमें वह घोषणा भी शुमार है जिसमें उन्होंने किसानों का पचास हजार रुपये तक का कर्ज माफ करने की घोषणा की थी. भाजपा कर्णधारों का मानना है कि चौहान की इस घोषणा ने पार्टी की सत्ता में वापसी कराने में अहम भूमिका अदा की थी.

मुख्यमंत्री ने 2008 में जारी जनसंकल्प पत्र में किसानों के लिए सबसे अधिक 62 घोषणाएं की थीं. लेकिन चार साल बाद भी उनमें से 61 घोषणाएं अधर में हैं.

गौरतलब है कि 2003 में कांग्रेस को इसी बीएसपी (बिजली, सड़क और पानी) फैक्टर के चलते सत्ता गंवानी पड़ी थी. चुनावी वर्ष में अब यही फैक्टर यहां फिर जोर पकड़ रहा है. हालत यह है कि भाजपा विधायक दल की बैठक में विधायकों ने कहना शुरू कर दिया है कि चुनाव में बिजली और सड़क की बदहाली भारी पड़ सकती है. 13 दिसंबर, 2012 को विधानसभा सत्र के आखिरी दिन पार्टी विधायक दल की बैठक में विधायकों ने मुख्यमंत्री से साफ-साफ कहा कि यदि इन क्षेत्रों में जल्द ही कुछ काम नहीं किया गया तो चुनावी मैदान में मोर्चा संभालना मुश्किल हो जाएगा. दरअसल 2008 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की सौ दिन के भीतर हर घर में 24 घंटे बिजली पहुंचाने की घोषणा दम तोड़ चुकी है.

हकीकत यह है कि यहां बिजली का उत्पादन मांग के मुकाबले आधा भी नहीं हो पा रहा है. चौहान सरकार का दूसरा बड़ा सिरदर्द राजकीय राजमार्गों को लेकर है. राज्य में लोक निर्माण विभाग की कुल 25 हजार किलोमीटर सड़कें हैं. मगर विभागीय रिपोर्ट के मुताबिक इसमें भी 9,500 किलोमीटर सड़कें खस्ताहाल हैं. वहीं मुख्यमंत्री की 31 दिसंबर तक 15 हजार किलोमीटर सड़कें बनाने की घोषणा मखौल बनकर रह गई है. खुद मुख्यमंत्री के विधानसभा क्षेत्र बुधनी से राजधानी तक 80 किमी का फासला सड़क मार्ग से तय करने में साढ़े तीन घंटे का समय लगता है.

मजेदार यह भी है कि मुख्यमंत्री चौहान खुद अपने लिए की गई घोषणाओं पर भी कायम नहीं रहते. इनमें न तो वित्त और न ही प्रशासन का ही कोई पेंच फंसता है. मसलन, 2008 में जब केंद्र ने पेट्रोल की कीमत में बढ़ोतरी की तो उसके बाद चौहान की वह घोषणा सिर्फ घोषणा ही बनी हुई है जिसमें उन्होंने सप्ताह में एक दिन साइकिल से मंत्रालय जाने की बात की थी. बेशक चौहान ने इन सालों में घोषणाओं के बूते लोकप्रिय नेता की छवि बना ली है लेकिन अब इनकी जमीनी हकीकत सामने आने के साथ-साथ राज्य भाजपा की पेशानी पर बल पड़ना शुरू हो गए हैं.