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रिश्तेदारों और दागियों के सहारे

बात कोई पांच महीने पुरानी है. अक्टूबर, 2012 में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की सुप्रीमो व उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने लखनऊ में एक रैली की थी. रमाबाई मैदान में हुई इस रैली में देश भर से पार्टी कार्यकर्ताओं का हुजूम उमड़ा. विशाल भीड़ देखकर मायावती उत्साहित हो गईं और उन्होंने कार्यकर्ताओं से 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए तैयारी शुरू करने को कहा. इस मायने में बसपा के लिए यह रैली एक तरह से चुनावी शंखनाद थी. मायावती ने अपने भाषण में दो और बातों पर जोर दिया था. उनका कहना था कि पार्टी के किसी भी नेता के रिश्तेदार को चुनाव लड़ने के लिए टिकट नहीं मिलेगा चाहे वह खुद उनका सगा-संबंधी क्यों न हो. उनका दूसरा एलान यह था कि बाहुबलियों और दागी छवि के लोगों के लिए पार्टी में कोई जगह नहीं है, उनका चुनाव लड़ना तो दूर की बात है.

वैसे यह पहला मौका नहीं था जब मायावती ने सार्वजनिक रूप से ये दो बातें कही हों. 2010 में हुए पंचायत चुनाव के पहले भी उन्होंने यह कहा था. फिर भी पार्टी के छोटे-बड़े सभी नेताओं ने अपने-अपने रिश्तेदारों को पंचायत चुनाव के मैदान में उतारा और कई ने जीत भी हासिल की. बाहुबली भी मैदान में पीछे नहीं थे. अब लोकसभा चुनाव के लिए उनके शंखनाद के पांच महीने के भीतर ही एक बार फिर यह समझ में आने लगा है कि बसपा अपने नेताओं के रिश्तेदारों, बाहुबलियों और दागी छवि के लोगों से पीछा नहीं छुड़ा पा रही. मौका कोई भी हो, समाजवादी पार्टी पर परिवारवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाने वाली बसपा भी परिवारवाद का लबादा ओढ़े नजर आ रही है. आधिकारिक तौर पर पार्टी की ओर से भले ही अभी तक प्रत्याशियों की कोई सूची जारी न की गई हो लेकिन पार्टी हाईकमान की ओर से लोकसभा प्रभारी बना कर प्रत्याशियों को उनके क्षेत्रों में भेज दिया गया है. जो लोग ताल ठोककर लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुटे हैं, उनमें से करीब आधा दर्जन ऐसे नाम हैं जो किसी न किसी बड़े नेता के परिजन हैं या उनके करीबी रिश्तेदार.

उदाहरण के लिए, पार्टी की पहली पंक्ति के नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी के बेटे अफजल को हाईकमान की ओर से चुनाव लड़ने का संकेत हो गया है. अफजल ने फतेहपुर सीट से अपनी तैयारी भी शुरू कर दी है.  सिद्दीकी तो सिर्फ अपने बेटे को ही टिकट दिलाने में सफल हुए हैं लेकिन बसपा सरकार में ऊर्जा मंत्री रहे रामवीर उपाध्याय ने अपनी सांसद पत्नी के साथ छोटे भाई को भी टिकट दिलवाने में कामयाबी पाई है.  उपाध्याय की पत्नी सीमा उपाध्याय ने 2009 के चुनाव में फतेहपुर सीकरी से चुनाव लड़ा और सांसद बनीं. निवर्तमान सांसद होने के कारण उनके टिकट को काटना असंभव था लिहाजा 2014 के लिए उनके टिकट पर तो मुहर लगी ही, उपाध्याय के छोटे भाई मुकुल उपाध्याय ने भी गाजियाबाद से चुनावी तैयारी शुरू कर दी है. पार्टी सूत्र बताते हैं कि हाथरस जिले के निवासी पूर्व मंत्री उपाध्याय ने सियासी समीकरणों को ध्यान में रखते हुए पहले से ही आस-पास के जिलों में राजनीतिक गतिविधियां शुरू कर दी थीं ताकि मौका पड़ने पर सियासी फसल काटी जा सके.

[box]नेताओं के रिश्तेदारों और दागियों पर दांव लगाने के अलावा बसपा 2007 के विधानसभा चुनाव में प्रयोग की गई सोशल इंजीनियरिंग भी फिर से आजमाने जा रही है[/box]

परिवार में अधिक से अधिक लाल बत्तियों का मोह पार्टी के दूसरे बड़े नेता स्वामी प्रसाद मौर्य भी नहीं छोड़ पा रहे. मौर्य की अपनी बेटी संघमित्रा को मैनपुरी से चुनाव लड़वाने की योजना है. हालांकि पार्टी के सूत्र बताते हैं कि उनके चुनावी क्षेत्र में अभी बदलाव किया जा सकता है क्योंकि मैनपुरी सपा का गढ़ माना जाता है और इसलिए चुनाव में कोई गड़बड़ न हो, यह बात ध्यान में रखते हुए संघमित्रा को किसी ऐसी सीट से चुनाव लड़ाया जा सकता है जहां से उनकी जीत आसानी से हो सके. लेकिन इतना जरूर तय है कि मौर्या अपनी बेटी को लोकसभा चुनाव जरूर लड़ाएंगे. पार्टी का ब्राह्मण चेहरा कहे जाने वाले सतीश चंद्र मिश्रा के करीबी रिश्तेदार रमेश शर्मा भी झांसी से चुनाव मैदान में हैं. रमेश शर्मा मिश्रा के समधी हैं. कभी बसपा सुप्रीमो मायावती का चुनावी क्षेत्र रहे अंबेडकर नगर से बसपा सांसद राकेश पांडे भी अपने छोटे भाई पवन पांडे को चुनावी मैदान में उतार चुके हैं. उन्होंने अपने छोटे भाई के लिए अंबेडकर नगर से सटी सुल्तानपुर लोकसभा सीट को चुना है. पवन ने कुछ माह पूर्व सुल्तानपुर से अपना प्रचार भी शुरू कर दिया है. पवन इससे पहले भी सुल्तानपुर से विधानसभा का चुनाव लड़ चुके हैं.

रामवीर उपाध्याय के पैतृक जिले हाथरस से सटी अलीगढ़ लोकसभा सीट पर पार्टी ने वर्तमान सांसद राजकुमारी सिंह के पति जयवीर सिंह को टिकट दिया है. 2009 के लोकसभा चुनाव में जब राजकुमारी सांसद बनी थीं उस समय जयवीर सिंह बसपा सरकार में मंत्री थे. 2012 के विधानसभा चुनाव में जयवीर सिंह को हार का मुंह देखना पड़ा. मायावती के साथ हर मंच पर दिखने वाले सिंह को पार्टी ने ठाकुर चेहरा होने का लाभ दिया और चुनाव हारने के बाद भी एमएलसी बना दिया. सूत्रों के मुताबिक वे एमएलसी बनने भर से नहीं माने हैं इसलिए उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव की तैयारी भी शुरू कर दी है. पूर्व मुख्यमंत्री मायावती भले ही मंचों से पार्टी में परिवारवाद न होने का दम भरती हों लेकिन ये चंद आंकड़े बताते हैं कि किस तरह पार्टी का हर बड़ा नेता अपने भाई, पत्नी या बेटे के मोह में फंसा हुआ है.

अब यदि पार्टी में बाहुबलियों की बात करें तो सबसे पहला नाम सांसद धनंजय सिंह और सांसद प्रत्याशी बबलू सिंह का आता है. जौनपुर से सांसद धनंजय सिंह पर बसपा के शासनकाल में ही प्रदेश में हुए एनआरएचएम घोटाले के साथ सीएमओ की हत्या का आरोप लग चुका है. इन आरोपों से घिरे धनंजय सिंह को पार्टी ने विधानसभा चुनाव से पहले इसलिए बाहर निकाल दिया था कि उन्होंने बिना पार्टी अनुमति के अमर सिंह से मुलाकात कर ली थी. पार्टी के सूत्र बताते हैं कि अमर सिंह से मुलाकात के बाद धनंजय को पार्टी से निकाला जाना महज दिखावा था और ऐसा सीएमओ मर्डर केस और एनआरएचएम के आरोप के कारण किया गया था. विधानसभा चुनाव की वजह से मायावती कोई जोखिम नहीं लेना चाहती थीं. पार्टी से निकाले जाने के बाद धनंजय सिंह पर मायावती की सख्ती का आलम यह था कि अमर सिंह से मुलाकात के बाद जब धनंजय वापस हवाई जहाज से बनारस आए तो उनके सैकड़ों समर्थक वाहनों से उनको लेने गए थे. इन वाहनों को पुलिस ने सूजे से पंचर करने के साथ ही समर्थकों को लाठी मार कर खदेड़ दिया था. मायावती और धनंजय सिंह के बीच कड़वाहट इतनी बढ़ गई थी कि सिंह के पिता का जौनपुर से विधानसभा का टिकट भी कट गया था. लेकिन मायावती की यह सख्ती विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद गायब हो गई. अक्टूबर में राजधानी में बसपा की हुई विशाल रैली के दौरान कई जगह होर्डिंगों पर मायावती की फोटो के साथ सिंह की भी फोटो दिखी. रैली स्थल पर भी सिंह सिर पर पगड़ी बांधे अपने समर्थकों के साथ पार्टी के बड़े नेताओं से मिलते-जुलते रहे. धीरे-धीरे स्थितियां सुधरीं और धनंजय को पार्टी ने फिर जौनपुर से अपना प्रत्याशी बना दिया.

ऐसा ही फैजाबाद के पूर्व विधायक बबलू सिंह के मामले में भी हुआ. दबंग विधायक बबलू सिंह पर 2009 में कांग्रेस की पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी का घर जलाने का आरोप है. इसके अतिरिक्त बसपा के कार्यकाल में ही राजधानी लखनऊ में जमीन हड़पने और अवैध रूप से कॉम्पलेक्स बनवाने का भी आरोप उन पर लग चुका है. 2012 के विधानसभा चुनाव से पूर्व पार्टी विरोधी गतिविधियों में लिप्त रहने का आरोप लगाते हुए मायावती ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया था. इसके बाद बबलू ने पीस पार्टी का दामन थाम लिया और बीकापुर से चुनाव लड़ा. लेकिन उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा. मार्च, 2012 में सत्ता से बाहर जाने के बाद बसपा को एक बार फिर बबलू सिंह की याद आई और वे कब पार्टी में आ गए किसी को खबर तक नहीं हुई. सार्वजनिक तौर पर लोगों को इसका पता तब चला जब पार्टी ने उन्हें फैजाबाद से लोकसभा प्रत्याशी घोषित कर दिया.

दागियों की इस लिस्ट में बसपा के पूर्व मंत्री अनीस अहमद खां उर्फ फूल बाबू का नाम भी शामिल है. फूलबाबू पर लैकफेड के लाखों रुपये के घोटाले का आरोप तो है ही, आम जनता के लिए सरकार की ओर से मिलने वाली विधायक निधि को निकाल कर अपने ही शिक्षण संस्थान को दिए जाने का आरोप भी है. इस आरोप के चलते बसपा ने अनीस का विधानसभा टिकट काट दिया था. इससे नाराज अनीस ने विधानसभा का चुनाव कांग्रेस के टिकट पर लड़ा, लेकिन हार गए. अनीस के साथ भी वही हुआ जो धनंजय सिंह और बबलू सिंह के साथ हुआ था. विधानसभा चुनाव का परिणाम आने के बाद अनीस की भी कमियां बसपा को दिखना बंद हो गया और पार्टी ने 2014 के लिए उन्हें पीलीभीत से उम्मीदवार घोषित कर दिया. नेताओं के रिश्तेदारों और दागियों पर लोकसभा चुनाव में दांव लगाए जाने के बारे में पार्टी कोऑर्डिनेटर त्रिभुवन दत्त कहते हैं, ‘टिकट किसको देना है किसको नहीं यह पालिसी मैटर है, जिसका निर्धारण खुद बहन जी करती हैं. नेताओं के रिश्तेदारों और दागियों को टिकट कैसे मिल गया हम लोगों का इससे कोई मतलब नहीं है.’

नेताओं के रिश्तेदारों और दागियों पर दांव लगाने के अलावा बसपा 2007 के विधानसभा चुनाव में इस्तेमाल की गई सोशल इंजीनियरिंग भी फिर से आजमाने जा रही है. एक बार फिर ब्राह्मण और दलित वोटों के सियासी गठजोड़ के लिए पार्टी ने तैयारी भी शुरू कर दी है. पार्टी के एक सांसद बताते हैं, ‘2009 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने जहां 15 ब्राह्मण प्रत्याशियों को टिकट दिया था वहीं इस बार यह आंकड़ा 20 के करीब पहुंच रहा है.’ मतलब साफ है. 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में बसपा 20 ब्राह्मणों और 17 रिजर्व सीटों पर दलितों को टिकट देकर आधी के करीब सीटों पर ब्राह्मण व दलित गठजोड़ आजमाना चाह रही है. सांसद बताते हैं, ‘ब्राह्मण व दलित गठजोड़ को हर सीट पर मजबूत करने के लिए ब्राह्मण भाईचारा कमेटी को सक्रिय कर दिया गया है. इसके लिए हर बूथ स्तर पर नौ ब्राह्मण कार्यकर्ताओं व एक दलित कार्यकर्ता की नियुक्ति की जा रही है.’ 2007 के चुनाव के बाद ब्राह्मणों पर अचानक मायावती की खास मेहरबानी की वजह पार्टी नेता सपा सरकार से ब्राह्मणों की नाराजगी बता रहे हैं. बसपा नेताओं का तर्क है कि सपा ने ब्राह्मणों को दरकिनार कर दिया है. जिन लोगों को मंत्री बनाया भी है, उन्हें महत्वहीन विभाग दे दिया गया है जिसके चलते ब्राह्मणों में खासी नाराजगी है. वे बताते हैं कि इटावा में ब्राह्मण परिवार के लोगों को यादवों ने हाल ही में निर्वस्त्र करके पीटा जो ब्राह्मणों की उपेक्षा का जीता-जागता प्रमाण है. बसपा के एक एमएलसी कहते हैं, ‘दलितों की स्थिति भी सपा सरकार में गई-गुजरी हो गई है, जिससे दलितों में नाराजगी है. इस नाराजगी का फायदा पार्टी को लोकसभा चुनाव में मिलेगा.’ उनका तर्क है कि 85 सुरक्षित विधानसभा सीटों में से 58 दलित विधायक सपा में जीते हैं. इसके बाद भी मंत्रिमंडल में मंत्रियों की संख्या मात्र छह है. जबकि मुस्लिम विधायकों की संख्या सपा में मात्र 39 है इसके बावजूद 10 मुस्लिम विधायकों को सरकार ने मंत्रिमंडल में शामिल किया है.

यानी बसपा लोकसभा चुनाव के लिए हर वह सियासी तिकड़म आजमाने जा रही है जिससे उसे ज्यादा से ज्यादा सीटें मिल सकें. इसके लिए उसे न तो दागियों से परहेज है और न ही जाति आधारित राजनीति से.

यह फिल्म समीक्षा नहीं है

himmatwala

कभी-कभी मैं चाहता हूं कि किसी शाम आपको चाय पर बुलाऊं और हम किस्लोस्की की कोई फिल्म देखें. शायद ‘अ शॉर्ट फिल्म अबाउट किलिंग’. हम देखें कि खामोशी में कैसे जीवन बसता है,और कैसे मृत्यु. मुझे ‘द रिटर्न’ अक्सर याद आती है, एक रूसी फिल्म, जिसकी ‘घटनाविहीनता’ से ऊबकर मैं उसे बीच में ही छोड़ देने वाला था मगर वह कोई अच्छा दिन था कि मैंने ऐसा नहीं किया. एक पिता, बरसों से छूटे हुए दो बेटे. वह लौटता है एक दिन और उन्हें घुमाने ले जाता है, और जीवन सिखाने. वह सख्त दिखता है और दोनों बच्चे नहीं जाना चाहते. वह उनका पिता है, यह एक सूचना जैसा है उनके लिए. लेकिन फिल्म के उन एक सौ पांच मिनटों के बाद नहीं.

जापानी फिल्म ‘स्टिल वॉकिंग’ में ऐसे ही अपनी पत्नी के साथ एक जवान बेटा लौटता है कस्बे में माता-पिता के पास. और एक दिन बिताता है. उस एक दिन में आपकी आत्मा की कुछ बूंदें छूट जाती हैं. वे जो रंग होते हैं फिल्म के परदे पर, या समंदर की लहरें बस. या बस, उसमें से पीछे झांकते दो लोग या ना भी झांकते, क्या फर्क पड़ता है.

ईरानी फिल्मकार जफर पनाही की फिल्म ‘दायरे’ बहती हुई एक औरत से दूसरी औरत तक जाती है,इस्लामिक शासन वाले ईरान में उन्हें दिखाती हुई. कोई बड़े शब्दों वाली बौद्धिकता नहीं, लेकिन बात बड़ी. यही’क्रिमसन गोल्ड’ करती है जब उसका मुख्य पात्र शुरुआत में ही खुद को गोली मार लेता है. जफर को ईरान सरकार ने छह साल की सजा सुनाई है, सरकार विरोधी फिल्में बनाने के जुर्म में. और बीस साल तक कुछ भी लिखने या फिल्म बनाने पर प्रतिबंध भी लगाया है. कोई इंटरव्यू देने पर भी.

साजिद खान जब किसी इंटरव्यू में ‘फिल्म’ शब्द बोलते हैं तो क्या उसका वही अर्थ होता है, जो जफर पनाही बोलते तो होता, अगर उन्हें बोलने दिया जाता? कभी साजिद खान और जफर पनाही कहीं मिले तो क्या बातें करेंगे? और अजय देवगन और ‘रेजिंग बुल’ के रॉबर्ट डी नीरो? नहीं, नहीं, वह दूर की बात है. अजय देवगन मनोज वाजपेयी या नवजुद्दीन सिद्दीकी से मिलेंगे, तो? या खुद से भी. जख्म और ओमकारा वाले खुद से.’हिम्मतवाला’ का शेर कभी ‘लाइफ ऑफ पाई’ के शेर से मिलेगा तो शेरांवाली मां और गुलशन कुमार के बारे में बात करेगा क्या?

एक सुंदर स्पैनिश प्रेमकहानी है, ‘लवर्स ऑफ द आर्कटिक सर्कल’. संयोगों और दुर्योगों के बीच, याद में कल्पना के रास्ते घुसते दो प्रेमी. उसे हम रात के खाने के वक्त देखेंगे. कभी हम ‘अबाउट ऐली’ के असगर फरहदी की सी बेचैनी से अपनी दुनिया की किसी ऐली को जाते देखेंगे और कोई बच्चा उसे ऐसे खोजेगा जैसे’बाल (शहद)’ नाम की एक तुर्की फिल्म में एक गांव का बच्चा अपने पिता को जंगल में खोजता है. एक-एक पत्ती की आवाज वहां आप साफ सुन सकते हैं.

दुनिया अच्छी है. नहीं है तो हमें उसे अच्छा बनाना है. पर इसके लिए जरूरी है कि हम ‘हिम्मतवाला’ के बारे में कोई बात ना करें.

– गौरव सोलंकी

प्रतिरोध का प्रारब्ध

बात कुछ माह पहले की है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पाकिस्तान की यात्रा पर गए थे. पाकिस्तान में उनकी गतिविधियां अखबारों में छप रही थीं. वैसे नीतीश के जाने के पहले और बिहार से पाकिस्तान के लिए रवाना होते ही हवा में बात तैरने लगी थी कि बिहार की मुस्लिम राजनीति साधने वे पाकिस्तान गए हैं. मीडिया की छौंक ने इसे थोड़ा बल दिया. खबरें छपीं कि नीतीश को इस दौरे से बिहार में अपने मुस्लिम वोट बैंक के मजबूत होने की उम्मीद है और शायद यही वजह है कि वे गृह सचिव आमिर सुब्हानी और राज्य अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष नौशाद अहमद को भी साथ ले जा रहे हैं. खबरें यह भी छपीं कि नीतीश पाकिस्तान में भी बहुत लोकप्रिय हैं. फिर जिस दिन नीतीश की भारत वापसी थी उस दिन पाकिस्तान की संसद में लालू प्रसाद यादव का नाम उछल गया. वहां एक सांसद ने कहा कि पाकिस्तान में रेल की हालत खराब है और अगर यह नहीं संभल पा रही तो दुरुस्त करने के लिए लालू प्रसाद यादव को बुलाकर इसे सौंप देना चाहिए. फिर क्या था- राजद और जदयू के छुटभैये नेता आपस में भिड़ंत करने लगे. जदयू नेताओं ने कहा, ‘देखिए हमारे नीतीश पाकिस्तान में कितने लोकप्रिय हैं.’ राजद की ओर से महासचिव व राज्यसभा सांसद रामकृपाल यादव जैसे नेता बोले, ‘यह तो पता ही चल गया कि नीतीश के वहां रहते ही हमारे नेता लालू प्रसाद की जयकार हुई.’

पता नहीं पाकिस्तान में बिहार के इन दोनों दिग्गज नेताओं में कौन ज्यादा लोकप्रिय है, वहां किसकी ज्यादा मांग है, कोई मांग है भी या नहीं, लेकिन बिहार के राजनीतिक अखाड़े में इस बात पर भी बे-सिर-पैर वाली बहस संकेत देती है कि मुस्लिम राजनीति को लेकर द्वंद्व के दौर से गुजर रहे बिहार के नेता 16.5 प्रतिशत वाले गणित को जितना संभव हो अपनी ओर आकर्षित करने में लगे हुए हैं.

बिहार की राजनीति में यह 16.5 प्रतिशत वाला गणित मुस्लिम आबादी का है जिसे लेकर इन दिनों क्या नीतीश, क्या लालू, क्या भाजपा और क्या दूसरे दल, तरह-तरह के खेल खेलने की कोशिश में लगे दिखते हैं. लालू प्रसाद मुस्लिम-यादव यानी माई समीकरण को साधकर राजनीति करने वाले सबसे चतुर नेता माने जाते थे लेकिन पिछले दो चुनावों से नीतीश कुमार ने इस समीकरण को दरकाकर मुस्लिम मतदाताओं को अपनी ओर खींचने में सफलता पाई है. नीतीश ने मुस्लिमों में से भी पसमांदा राजनीति को थोड़ा खाद-पानी देकर एक बड़े हिस्से को साधा और दो चुनावों में भाजपा के साथ रहते हुए भी मुस्लिम मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने में कामयाब रहे. लालू अब दुविधा में हैं कि वे क्या करें. वे जानते हैं कि अगर वे पसमांदा मुस्लिमों के पक्ष में बात करेंगे तो माना जाएगा कि वे नीतीश की नकल कर रहे हैं और यदि वे इस राजनीति को खारिज करेंगे तो एक बड़े समूह का एक बड़ा हिस्सा उनसे छिटका रह सकता है क्योंकि मुस्लिमों में भी पसमांदा समूह की आबादी करीब 80 प्रतिशत है. यह समूह अब अपने हक की बात करता है और उसके मन में यह चेतना विकसित हो चुकी है कि मुसलमानों के नाम पर अब तक हुई राजनीति का सारा फायदा अगड़े मुसलमानों को मिला. दुविधा के दौर से गुजर रहे लालू प्रसाद इसलिए बार-बार नीतीश कुमार की तुलना संघ परिवार और भाजपा की गोद में खेलने वाले बच्चे से करते हैं और जब पसमांदा का सवाल आता है तो धीरे से यह कहकर निकल जाना चाहते हैं कि मुस्लिम एक हैं.

लेकिन यह दुविधा अकेले लालू की नहीं है. नीतीश कुमार खुद भी मुस्लिम राजनीति को लेकर अपने ही बुने ताने-बाने में फंसते दिखते हैं. बिहार में नीतीश ने मुस्लिम समुदाय को सत्ता में जो हिस्सेदारी दी है उसमें से अधिकांश अब भी अगड़े मुसलमानों के हाथों में ही है. नीतीश कुमार के मंत्रिमंडल में दो मंत्री परवीन अमानुल्लाह और शाहीद अली खान मुस्लिम कोटे से हैं और दोनों ही अगड़े समूह से आते हैं. इसी तरह हज कमिटी का चेयरमैन भी इमारत-ए-शरिया के सचिव मौलाना अनिसुर रहमान कासमी को बनाया गया जो अगड़े समूह से ही आते हैं. और भी कई पद हैं जिन पर अगड़े मुसलमानों का ही प्रतिनिधित्व है. हालांकि इसकी भरपाई के लिए नीतीश ने दूसरे पासे भी फेंके हैं. उनकी पार्टी में राज्यसभा से दो मुस्लिम सांसद अली अनवर और साबिर अली हैं जो पिछड़े समूह से आते हैं. लेकिन जानकारों के मुताबिक यह काफी नहीं और इनका असर विधानसभा चुनावों में नहीं होगा, यह नीतीश भी जानते हैं और उनके दल के दूसरे नेता भी.

[box]नेशनल डेवलपमेंट काउंसिल की बैठक में हर बार नीतीश कुमार से हाथ मिलाते हुए तस्वीर खिंचवाने वाले मोदी ने इस बार नीतीश से दूरी बनाकर ही रखी[/box]

इसके लिए नीतीश कुमार ने पिछले कुछ सालों से एक तीसरा रास्ता भी तलाश लिया है. यह रास्ता है गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोध का. इससे गाहे-बगाहे ऐसी स्थिति भी बनती है जिससे लगता है कि अब भाजपा-जदयू की यारी ही टूट जाएगी और नरेंद्र मोदी के नाम पर नीतीश सच में अलग राह अपना लेंगे. अब सवाल उठता है कि क्या नीतीश कुमार को यह भरोसा है कि यदि वे नरेंद्र मोदी के नाम पर भाजपा से अलग होने तक का दांव खेलें तो वे मुस्लिम राजनीति को पूरी तरह साध लेने में सफल हो जाएंगे. और यह भी कि भाजपा से अलग होने पर उनका जो नुकसान होगा उसकी भरपाई उनके इस दांव से हो जाएगी?

यह खुद नीतीश कुमार और उनके संगी-साथी भी जानते हैं कि यह इतना आसान नहीं कि सिर्फ मोदी के नाम पर भाजपा से कुट्टी कर लेने से पूरा मुस्लिम मत उनके पाले में आ जाए. इसकी वजह यह है कि तमाम विडंबनाओं के बावजूद लालू प्रसाद मुस्लिमों के एक हिस्से के लिए संभावनाओं का केंद्र बने हुए हैं. तो सवाल उठता है कि आखिर क्यों नीतीश कुमार अपने ही राजनीतिक समूह के एक नेता नरेंद्र मोदी से इस कदर भड़के नजर आते हैं. क्यों वे उनके नाम पर भाजपा से नाता तोड़ देने तक का संकेत बार-बार देते रहते हैं? क्या इसलिए कि मोदी पर गुजरात दंगे का दाग है? अगर एक बड़ी वजह यह है तो नीतीश कुमार का यह तर्क सबको सीधे-सीधे हजम नहीं होता. नीतीश कुमार के संगी साथी प्रेम कुमार मणि समेत कई नेता पूछते हैं कि जब गुजरात दंगा हुआ था तो केंद्र में नीतीश कुमार ही रेल मंत्री थे. गुजरात का दंगा रेल के जरिए ही भड़का था. लेकिन तब नीतीश कुमार न तो गुजरात झांकने गए थे और न ही उन्होंने खुलकर नरेंद्र मोदी की आलोचना की थी. कुछ लोग यह भी पूछते हैं कि यदि मोदी ने एक बार भी गुजरात दंगों के लिए आज तक माफी भी नहीं मांगी तो नीतीश कुमार भी क्यों उसी राह के राही बने.

2011 में फारबिसगंज में पुलिस फायरिंग में पांच अल्पसंख्यकों के मारे जाने की घटना के बाद वे भी एक बार भी वहां झांकने तक नहीं गए और न कभी किसी ठोस कार्रवाई की कोशिश करते हुए दिखे. वरिष्ठ पत्रकार सरूर अली कहते हैं, ‘ नीतीश  को न तो भाजपा से परहेज रहा है, न ही उन्हें अकाली दल, शिव सेना जैसे दलों के साथ गठबंधन बनाने में कभी कोई हिचक रही है और वे खुद को धर्मनिरपेक्ष नेता भी बनाए रखने की जिद में लगे हुए हैं, यह बात किसे समझ में नहीं आती.’ नीतीश कुमार जब-जब नरेंद्र मोदी का विरोध करते हैं, एक खेमे से ये सवाल उठते हैं और जवाब जदयू के नेता भी नहीं दे पाते.

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तब सवाल घूम-फिरकर फिर वहीं आ जाता है कि आखिर क्यों नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी को राजनीतिक तौर पर दुश्मन नंबर एक बनाए रखना चाहते हैं. नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी की समानता गिनाते हुए पूर्व सांसद व वरिष्ठ समाजवादी नेता डॉ रामजी सिंह कहते हैं, ‘दोनों पिछड़े वर्ग से आते हैं, दोनों राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की छतरी तले ही राजनीति कर रहे हैं, दोनों अपने-अपने राज्य में विकास पुरुष के रूप में जाने जाते हैं. फिर क्यों दोनों में इस कदर दूरी बरतने की राजनीति होती है, समझ में नहीं आता.’

दूरी बरतने की राजनीति पर जो बात डॉ रामजी सिंह कहते हैं लोग उसका नमूना बार-बार देख चुके हैं. चुनाव प्रचार के लिए भी नरेंद्र मोदी को बिहार न आने देने की जिद, नरेंद्र मोदी के साथ वाला पोस्टर लगने पर भाजपा नेताओं के साथ प्रस्तावित भोज टाल देना या कोसी राहत कोष में गुजरात से मिले पैसे को लौटा देने वाली बात तो पुरानी हो चली है. हाल ही में जब नरेंद्र मोदी गुजरात में फिर से विजयी हुए तो देश भर के नेताओं ने औपचारिकता निभाते हुए उन्हें शुभकामनाएं दीं, लेकिन नीतीश कुमार ने खुद को इस औपचारिकता से दूर रखा. हालांकि इसका बदला मोदी ने भी लगे हाथ ही लिया. बीते महीने जब दिल्ली में नेशनल डेवलपमेंट काउंसिल की बैठक हुई तो नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार दोनों ही वहां पहुंचे, लेकिन हर बार नीतीश कुमार से हाथ मिलाते हुए तसवीर खिंचवाने वाले नरेंद्र मोदी ने इस बार उनसे दूरी बनाकर ही रखी. बात यहीं खत्म नहीं हुई. जब नीतीश ने बहुत पहले से ही 17 मार्च को दिल्ली में अधिकार रैली की घोषणा कर रखी थी तो मोदी ने भी उसी रोज मुंबई में युवाओं की एक रैली रख दी है. जानकार बताते हैं कि यह मीडिया स्पेस मारने की कोशिश है. मोदी मीडिया के लिए ज्यादा आकर्षण का केंद्र होते हैं. जाहिर-सी बात है कि जब दोनों नेताओं का संबोधन एक ही दिन, दो बड़े शहरों में होगा तो एक हद तक मीडिया में कवरेज से भी तय होगा कि राजनीतिक हस्ती के तौर पर किसका वजन ज्यादा है. हालांकि खबर लिखे जाने तक मोदी की मुंबई रैली रद्द हो चुकी थी. इसके पीछे की वजह बताई गई कि महाराष्ट्र सूखे की चपेट में है इसलिए पार्टी ने रैली रद्द करने का फैसला लिया गया है. लेकिन खबरें आईं कि नीतीश ने इसके लिए आग्रह किया था ताकि जदयू की रैली का रंग फीका न पड़े.

बिहार में नीतीश कुमार सबसे बड़े नेता हैं इसमें संदेह नहीं, लेकिन हालिया दिनों में या यूं कहें कि वर्तमान सरकार की दूसरी पारी में जब से भाजपा पहले से ज्यादा मजबूत होकर उभरी है तब से नरेंद्र मोदी की उपस्थिति भी राज्य में तेजी से बढ़ती जा रही है. कुछ माह पहले वे वरिष्ठ भाजपाई नेता कैलाशपति मिश्र की मृत्यु के बाद उन्हें श्रद्धांजलि देने बिहार आए थे और उस मातमी माहौल में भी कुछ भाजपाइयों ने नारे लगा दिये थे कि देश का पीएम कैसा हो, नरेंद्र मोदी जैसा हो…! शोकपूर्ण आयोजन में कुछ भाजपाई नेताओं द्वारा छेड़े गए इस राग को खुराफाती मगज की उपज माना गया. लेकिन बिहार में रहने वाले लोग जानते हैं कि बिहार में कुछ भाजपाई नेताओं द्वारा नरेंद्र मोदी की जय-जयकार यदि खुराफाती मगज की उपज भर है तो इसे बार-बार दुहराया जा रहा है. और जो दुहराते रहे हैं वे सरकार में मजबूती से मंत्री के ओहदे के साथ विराजमान भी हैं. इससे साफ होता है कि यह सब भाजपा बहुत ही सोच-समझकर कर रही है.

नरेंद्र मोदी की उपस्थिति कुछ भाजपाई नेताओं की बयानबाजी के जरिए ही बिहार में नहीं दिखती बल्कि अब तो राजधानी पटना की सड़कों पर मोदी के पोस्टर भी मौके-बेमौके लगाए जाने लगे हैं. इस बार तो मोदी का जन्मदिन भी बिहार में सार्वजनिक समारोह करके मनाया गया. अब यह भी कहा जा रहा है कि अप्रैल में पटना में भाजपा की ओर से प्रस्तावित हुंकार रैली में भी मोदी आएंगे. हालांकि कुछ माह पहले जब बिहार में डॉ सीपी ठाकुर को हटाकर मंगल पांडेय को भाजपा अध्यक्ष के पद पर बिठाया गया तो कयास लगे कि इसमें नीतीश कुमार की भी भूमिका रही है, क्योंकि भाजपा अध्यक्ष रहते हुए ठाकुर जब-तब नीतीश पर वाक्प्रहार  करते रहते थे. और मोदी का गुणगान तो वे नियमित तौर पर करते ही रहते थे. राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव कहते हैं, ‘नीतीश ने ही बदलवाया है भाजपा प्रदेश अध्यक्ष को ताकि मोदी-मोदी का जाप न होता रहे. लेकिन एक मोदी से बचकर और संघ परिवार की गोदी में बैठकर नीतीश कुमार दोहरी राजनीति कर रहे हैं.’

कुछ लोग कह सकते हैं कि लालू प्रसाद यह बात विरोधी राजनीति के तहत कह रहे हैं, लेकिन इसमें एक हद तक सच्चाई भी है. जब से नीतीश नरेंद्र मोदी से नफरत की राजनीति कर रहे हैं तब से समानांतर रूप से संघ परिवार की बिहार में गतिविधियां भी बढ़ती जा रही हैं. जानकारों के मुताबिक भाजपा भी शातिर चाल चलते हुए नीतीश के दांव से ही उन्हें मात देने की तैयारी में लगी हुई है. छोटी-मोटी और जिला स्तरीय गतिविधियों को छोड़ भी दें तो संघ परिवार के कुछ बड़े और चर्चित आयोजन भी पिछले कुछ साल में बिहार में ही हुए. नागरिक अभिनंदन के तहत पटना के गांधी मैदान में संघ का बड़ा आयोजन हो चुका है. बीते साल राजगीर में संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हो चुकी है. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का 58वां राष्ट्रीय अधिवेशन भी पटना में ही हुआ. सिमरिया में अर्धकुंभ कराने में संघ परिवार की ही परोक्ष भूमिका रही. पिछले ही साल पटना में एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट के सभागार में तीन दिन तक सांस्कृतिक सम्मेलन के नाम पर अशोक सिंघल, उमा भारती, सुब्रमण्यम स्वामी जैसे दिग्गज नेताओं की मौजूदगी में नरेंद्रानंद जैसे संत पहुंचे और खुलेआम सांप्रदायिक और भड़काऊ भाषण देते रहे. कुछ समय पहले सूर्य नमस्कार का आयोजन भी पटना में डंके की चोट पर हुआ, जिस पर बाद में नीतीश कुमार यह दिखाने की कोशिश में लगे रहे कि इसकी जानकारी उन्हें नहीं थी. ऐसे ही कई आयोजन संघ परिवार की ओर से निरंतर बिहार में हो रहे हैं और यह सब जानते हैं कि यह सब छिप-छिपाकर नहीं बल्कि सरेआम हो रहा है.

[box]पसमांदा मुस्लिमों के एक बड़े हिस्से को साधकर नीतीश दो चुनावों में भाजपा के साथ रहते हुए भी मुस्लिम मतदाताओं को खींचने में कामयाब रहे[/box]

यानी नीतीश कुमार भले ही नरेंद्र मोदी से परहेज करें लेकिन संघ परिवार की इन गतिविधियों से उन्हें कोई  परहेज नहीं. नीतीश के पुराने संगी रहे और पूर्व चर्चित सांसद डॉ एजाज अली कहते हैं, ‘भाजपा के साथ रहेंगे और कहेंगे  कि वे धर्मनिरपेक्ष हैं तो यह कैसे मानें. अब मुसलमान उनके साथ इतनी आसानी से नहीं जाने वाले. मसला एक मोदी का नहीं बल्कि और भी कई हैं.’ वे आगे कहते हैं, ‘संघ परिवार की इकाइयों को अपने आयोजन करने की छूट देकर उसकी भरपाई करने के लिए नीतीश इन दिनों खानकाहों (मुसलमान फकीरों या धर्म-प्रचारकों के ठहरने या रहने का स्थान) पर चादरपोशी करने और दरियादिली के साथ उन्हें पैसा बांटने में लगे हुए हैं. लेकिन इसके पीछे की सच्चाई सब जानने लगे हैं.’

यह सच भी है. नीतीश कुमार अलग-अलग तरीके से बिहार की मुस्लिम राजनीति को साधे रहने की जुगत में लगे हुए हैं जिनमें से एक प्रमुख अभियान नरेंद्र मोदी का विरोध है. लेकिन अब इस एक जरिए से पूरी राजनीति को साधना इतना आसान नहीं रह गया है. नीतीश, मोदी का जितना विरोध कर रहे हैं, मोदी बिहार के गैर मुस्लिम समूह में उतनी ही तेजी से मजबूत होते दिख रहे हैं. जानकारों के मुताबिक परोक्ष तौर पर ही सही, भाजपा इस तैयारी में भी है कि नरेंद्र मोदी को वह बार-बार पिछड़े-अतिपिछड़े समूह का नेता बनाकर भी पेश करे.

उधर, सस्ती लोकप्रियता की इस राजनीति के बीच बिहार के मुसलमानों के अपने सवाल हैं जिनके जवाब वे चाहते हैं. पसमांदा मुस्लिम महाज के महासचिव नूर हसन आजाद कहते हैं, ‘बिहार के मुस्लिम सिर्फ नरेंद्र मोदी के फेरे में फंसे हुए नहीं हैं. वे जानना चाहते हैं कि जिस बिहार में करीब सवा लाख करघे चला करते थे, उसमें अब 17 हजार ही क्यों चालू हालत में रह गए हैं. इस पेशे से सबसे ज्यादा तो मुसलमान ही जुड़े हुए थे. करघों के लिए जो सस्ती बिजली दिये जाने का वादा था वह क्यों पूरा नहीं हुआ. क्यों बच्चे-बच्चियों को प्रशिक्षित करने के लिए शुरू हुईं हुनर, औजार जैसी योजनाओं की दुर्गति हो रही है? मकतब खोले जाने का प्रस्ताव था, वह क्यों गति नहीं पकड़ पा रहा? कई जगहों पर मुस्लिमों की हत्या हो रही है. उस पर सरकार कोई ठोस कार्रवाई क्यों नहीं कर रही? क्यों दरभंगा, मधुबनी से निर्दोष नौजवानों को आतंकवाद के नाम पर पकड़कर ले जाए जाने पर भी नीतीश वैसी उफानी राजनीति नहीं करते जैसी दूसरे मसलों पर करते हैं.’

नूर हसन ऐसे ही कई सवाल करते हैं. ये सवाल बताते हैं कि नरेंद्र मोदी के विरोध की जो राजनीति नीतीश परवान चढ़ाने में लगे हुए हैं, वह शायद उनके लिए कारगर फॉर्मूला साबित न हो. मुस्लिम रिसर्च फाउंडेशन के चेयरमैन डॉ फिरोज मंसूरी कहते हैं, ‘नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी का विरोध कर दिखावे की राजनीति करते हैं लेकिन उनके राज में मुसलमानों की जान, जबान और नान, तीनों पर हमला बढ़ा है. फारबिसगंज से लेकर तमाम घटनाएं इसकी गवाही दे चुकी हैं. उनकी नई नीति की वजह से उर्दू शिक्षकों का पद खाली रह गया.’ सामाजिक कार्यकर्ता नैयर फातमी के मुताबिक कुछ समय तक तो बिहार के मुसलमानों को मुगालता रहा कि नीतीश कुमार सच में नरेंद्र मोदी और सांप्रदायिक राजनीति के विरोधी हैं लेकिन अब वह दूर हो गया है. वे कहते हैं, ‘नीतिगत स्तर पर भाजपा से ही शिकायत है तो उसके साथ सत्ता में रहकर और उसी दौरान मोदी विरोध की राजनीति कर वे क्या कहना चाहते हैं, समझ नहीं आता.’ उर्दू के प्राध्यापक प्रो. सफदर इमाम कहते हैं कि मुसलमान को सामाजिक-आर्थिक विकास में हिस्सेदारी चाहिए, लेकिन नीतीश कुमार के राज में मुसलमानों के साथ लोकप्रिय राजनीति की कवायद ज्यादा हो रही है.’ पटना में मोटरसाइकिल मैकेनिक व कारोबारी अब्दुल रशीद भी कुछ ऐसी ही राय रखते हैं. संकेत साफ है कि सिर्फ मोदी विरोध का कार्ड खेलकर नीतीश मुस्लिम वोटों के प्रति आश्वस्त नहीं हो सकते. बल्कि हो सकता है इससे उन्हें नुकसान ही हो जाए. पत्रकार सरूर अहमद कहते हैं, ‘मोदी विरोध से नीतीश का अपना भला हो न हो, भाजपा के पक्ष में गैर-मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण तेजी से होगा.’

किडनी फेल या पास

ज्ञान चतुर्वेदी; व्यंग्यकार व चिकित्सा विशेषज्ञ
ज्ञान चतुर्वेदी; व्यंग्यकार व चिकित्सा विशेषज्ञ

डॉक्टरी विज्ञान है तो विज्ञान ही परंतु इस मामले में वह रहस्यमय तथा जादुनुमा हो जाता है कि यहां दो और दो को जोड़ने पर प्राय: चार नहीं बनते. डॉक्टरी में प्राय: गणित गलत ही साबित होता है पर यह बात सामान्यजन के गले नहीं उतरती. वह मान तथा जान ही नहीं पाता है कि यदि डॉक्टर ने ईसीजी ठीक बताया था तो फिर मरीज एक घंटे बाद ही हार्ट अटैक से कैसे मर गया या कि यदि खून की रिपोर्ट में मलेरिया नेगेटिव बताया गया है तो फिर भी डॉक्टर ने मलेरिया का इलाज क्यों दिया. ऐसा तमाशा किडनी की बीमारियों के केस में सबसे ज्यादा है. विशेष तौर पर किडनी फेल्योर के मामले में. किडनी या गुर्दे के विषय में बताने को इतनी सारी बातें हैं कि एक कॉलम में तो नहीं समाई जा सकती. अगले एक-दो अंकों में हम इस विषय पर पूरी बातें करने का प्रयास करेंगे.

किडनी एक बेहद स्पेशियलाइज्ड अंग है. इसकी रचना में लगभग तीस तरह की विभिन्न कोशिकाएं लगती हैं. यह बेहद ही पतली नलियों का अत्यंत जटिल फिल्टर है जो हमारे रक्त से निरंतर ही पानी, सोडियम, पोटैशियम तथा ऐसे अनगिनत पदार्थों को साफ करके पेशाब के जरिए बाहर करता रहता है.

यह फिल्टर इस मामले में अद्भुत है कि यहां से जो भी छनकर नली में नीचे आता है उसे किडनी आवश्यकतानुसार वापस रक्त में खींचता भी रहता है, और ऐसी पतली फिल्ट्रेशन नलियों की तादाद होती है? एक गुर्दे में ढाई लाख से लगाकर नौ लाख तक नेफ्रान या नलियां रहती हैं. हर मिनट लगभग एक लीटर खून इनसे प्रभावित होता है ताकि किडनी इस खून को साफ कर सके. दिन में लगभग डेढ़ हजार लीटर खून की सफाई चल रही है. और गुर्दे केवल यही काम नहीं करते बल्कि यह तो उसके काम का केवल एक पक्ष है, जिसके बारे में थोड़ा-थोड़ा पता सामान्यजनों को भी है परंतु क्या आपको ज्ञात है कि किडनी का बहुत बड़ा रोल प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेड (शक्कर आदि) तथा फैट (चर्बी) की मेटाबोलिज्म (पाचन/ चय-अपचय) में भी है. इसलिए किडनी खराब होने पर कुपोषण के लक्षण हो सकते हैं बल्कि वे ही प्रमुख लक्षण बनकर सामने आ सकते हैं. हार्मोंस के प्रभाव में भी गुर्दों का अहम रोल है. इंसुलिन, विटामिन डी, पेराथायरायड आदि के प्रभाव को गुर्दे की बीमारी बिगाड़ सकती है.

शरीर में रक्त बनाने की सारी प्रक्रिया में गुर्दों का बेहद अहम किरदार है. गुर्दे में बनने वाला इरिथ्रोपोइरिन नामक पदार्थ खून बनाने वाली बोनमैरो को (बोनमैरो को आप हड्डियों में खून पैदा करने वाली फैक्टरी कह सकते हैं) खून बनाने के लिए स्टीम्यूलेट करता है. यह न हो तो शरीर में खून बनना बंद या कम हो जाता है. इनमें बहुत-सी बातों से स्वयं डॉक्टर भी परिचित नहीं होंगे या उन्होंने कभी पढ़ा तो था पर अब याद नहीं. नतीजा कई डाक्टरों का भी इस महत्वपूर्ण तथ्य की ओर ध्यान नहीं जाता है कि किडनी फेल होने वाला मरीज पेशाब की शिकायत या सूजन आदि के अलावा और भी कई तरह से सामने आ सकता है.

सवाल यह है कि हमें कब सतर्क होकर किडनी का टेस्ट कराना चाहिए. कौन-से लक्षण हैं जो किडनी फेल्योर की ओर इंगित कर सकते हैं?

निम्नलिखित स्थितियों में किडनी की बीमारी (क्रॉनिक किडनी डिजीज) या किडनी के ठीक से काम न करने (किडनी फेल्योर) की आशंका रहती है:

1. यदि शरीर में सूजन रहने लगे. विशेष तौर पर यह सूजन चेहरे से शुरू हो रही हो. आंखों के नीचे हल्की सूजन को भी नजरअंदाज न करें. यदि चेहरे पर न होकर मात्र पांवों पर हो या चेहरे और पांव दोनों पर हो तब भी तुरंत ही डॉक्टर से मिलकर अपना संदेह बताएं. खास तौर पर यदि आप पहले ही मधुमेह, उच्च रक्तचाप, प्रोस्टेट आदि के रोगी हों या आपकी उम्र साठ-सत्तर वर्ष हो रही है तो सूजन होते ही जांच करा लें.

2. तो क्या सूजन न हो तो किडनी डिजीज की आशंका समाप्त हो जाती है? सूजन का न होना कोई गारंटी नहीं है. किडनी की बहुत-सी अन्य भूमिकाएं भी हैं. सो इनकी तकलीफें भी हो सकती हैं. इनमें सबसे महत्वपूर्ण है खून का बनना. यदि आपको खून की कमी (अनीमिया) के लक्षण हैं, जांच में हीमोग्लोबिन भी कम है तो सतर्क हो जाएं. विशेष तौर पर तब तो जरूर जब पूरे इलाज के बाद भी लौट-लौट कर पुन: अनीमिया हो जाता हो. ऐसे में किडनी की जांच की आवश्यकता है. कितने ही ऐसे मरीज आते हैं जो बड़ी कमजोरी लगती है डाक्टर साहब, मेहनत करने पर हांफ जाता हूंकहते हुए आते हैं और जब डॉक्टर जांच करके उनको बताता है कि यह सब आपकी किडनी खराब हो जाने के कारण हो रहा है तो मरीज को विश्वास ही नहीं होता.

3. यदि भूख खत्म हो गई हो, वजन गिर रहा हो, बेहद थकान लगी रहती हो तो यह किडनी फेल्योर से भी हो सकता है.

4. भूख एकदम गायब, बार-बार उल्टियां हो जाती हैं तो यह गैस्ट्रिक या पीलिया के कारण ही नहीं, गुर्दों की बीमारी से भी हो सकता है.

5. यदि आपको उच्च रक्तचाप की बीमारी हो, आजकल ब्लड प्रेशर भी बहुत बढ़ा रहता हो और डॉक्टर द्वारा दवाइयां बढ़ा-बढ़ा कर देने के बाद भी कंट्रोल न हो रहा हो तो ऐसा किडनी के काम न करने के कारण भी हो सकता है.

6. यदि बहुत छोटी-सी चोट या मामूली स्ट्रेस से ही आपकी हड्डी चटक या टूट जाए, यदि हड्डियों में बहुत दर्द रहता हो तो भी यह किडनी की बीमारी का लक्षण हो सकता है. किडनी विटामिन डी तथा कैल्शियम की मेटाबोलिज्म में महत्वपूर्ण रोल अदा करती है.

7. यदि पेशाब की मात्रा पानी पीने के बावजूद बहुत कम होने लगे तो भी जांच करा लें. पेशाब की मात्रा नापने का सीधा तरीका है पूरे चौबीस घंटे में पेशाब को किसी बर्तन में इकट्ठा करते जाना. यदि इसकी मात्रा आधा लीटर से कम हो तो जांच की जरूरत है. जब भी पेशाब का ऐसा हिसाब रखें तो उस दौरान पिए गए पानी, दूध, चाय आदि द्रव्य की मात्रा का भी हिसाब लिखकर डॉक्टर के पास ले जाएं, इससे बीमारी को समझने में मदद मिलेगी.

तो किडनी के फेल्योर की आशंका के प्रति हमेशा सतर्क रहें. जितनी जल्दी पता लगे उतना ही इसे बढ़ने से रोका जा सकता है.

‘कोई स्त्री को कमजोर कहता है तो मुझे आंटी का वह चेहरा याद आता है’

इलेस्ट्रेशन:मनीषा यादव
इलेस्ट्रेशन:मनीषा यादव

पटना की यह मेरी दूसरी यात्रा थी. तब मैं रांची के सेंट जेवियर्स कालेज में पढ़ता था. मुझे जानकारी मिली थी कि मशहूर आलोचक नामवर सिंह व्याख्यान देने पटना आने वाले हैं. उन दिनों साहित्य और नामवर सिंह मुझ पर नशे की तरह सवार थे. मैं नामवर सिंह को दूरदर्शन पर नियमित देखा करता और कभी उन्हें सामने देखते हुए सुनने की कल्पना करता. कॉलेज की लंबी छुट्टी होने वाली थी. मैंने तय किया कि रांची से पटना सीधा चला जाता हूं, नामवर सिंह को सुनना भी हो जाएगा और साहित्यिक किताबों की खरीदारी भी. उन दिनों रांची में साहित्य की किताबें बहुत कम मिला करतीं. कुछ दोस्तों ने बताया था कि पटना में गांधी मैदान के ठीक सामने पुरानी किताबों की ढेर सारी दुकानें हैं. वहीं अशोक राजपथ से नई किताबें खरीदने का विकल्प भी था.

शाम को मैं कांटाटोली बस स्टैंड पहुंचा और बस में बैठ गया. बगल की सीट खाली थी. मैं सोच ही रहा था कि पता नहीं कौन आएगा तभी करीब 45 साल का एक व्यक्ति उस पर आकर बैठ गया. उसने मुस्कुराते हुए पूछा, ‘कहां जा रहे हो?’ मैंने कहा,- ‘पटना.’ ‘वहां पढ़ाई करते हो?’ मैंने कहा,- ‘नहीं, पढ़ाई यहां करता हूं, वहां किताबें खरीदने और व्याख्यान सुनने जा रहा हूं.उसने तीन बार कहा- गुड, गुड, गुड.

जरा सी देर में इस व्यक्ति ने मुझसे पढ़ाई-लिखाई के बारे में काफी कुछ पूछ लिया था. उसे भी पता था कि प्रेमचंद कौन हैं, रेणु ने क्या लिखा है. हम इंजीनियरिंग, मेडिकल की पढ़ाई नहीं कर रहे हैं, इसे लेकर हम दोस्तों-रिश्तेदारों के बीच मजाक के पात्र बनते थे. यह व्यक्ति मेरी पढ़ाई में दिलचस्पी ले रहा है, देखकर अच्छा लगा. 

फिर बस चल दी. थोड़ी देर में लाइटें ऑफ कर दी गईं. रांची छूटे कुछ ही समय हुआ था कि उस व्यक्ति ने मुझे छूना शुरू कर दिया. पहले तो मुझे कुछ समझ में नहीं आया, लेकिन उसके हाथों की हरकतें बढ़ने लगीं तो मुझे बड़ा अजीब लगा. मैंने उसके हाथ पकड़ लिए. थोड़ी देर वह शांत रहा. फिर उसने मेरी पैंट के बटन खोलकर अपना हाथ भीतर डाल दिया. अब मैं बुरी तरह घबरा गया था. मैं उठकर जाने लगा तो उसने मेरे हाथ पकड़ लिए और बोला, ‘बैठो न, कुछ नहीं करूंगा.मैं चुप था और पटना जाने के फैसले पर अफसोस कर रहा था. आधे घंटे तक उसने कुछ नहीं किया. फिर अचानक उसने मेरा हाथ पकड़ा और अपने पैंट में डाल दिया. मैंने प्रतिरोध में हाथ पीछे खींचने की कोशिश की. लेकिन वह इस ताकत से मेरा हाथ वापस वहीं ले गया कि मैं एकदम से रो पड़ा. एक बार रुलाई छूटी तो फिर मैं रोता ही रहा.

चलती बस की आवाज में पहले तो किसी को कुछ समझ में नहीं आया, लेकिन फिर एक महिला की आवाज गूंजी, ‘कंडक्टर साहब, लाइट जलाइए, कोई रो रहा है.लाइट जली. एक महिला जो मेरी सीट के ठीक सामने बैठी थी, मेरे पास खड़ी थी. मैंने उस व्यक्ति की तरफ देखा. वह निढाल पड़ा था. उस महिला ने बिना मुझसे कुछ पूछे उस व्यक्ति को दनादन तीन-चार थप्पड़ जड़ दिए तो बाकी लोग भी मेरी सीट के पास जमा होने लगे. शोर-शराबे की वजह से कंडक्टर ने गाड़ी रुकवा दी.

‘उस महिला ने बिना मुझसे कुछ पूछे, उसको दनादन तीन-चार थप्पड़ जड़ दिए तो बाकी लोग भी मेरी सीट के पास जमा होने लगे’

अब उस व्यक्ति को बाकी लोग बुरी तरह पीटने लगे थे और धक्के देकर गेट की तरफ ले जा रहे थे. तय हुआ कि उसे ड्राइवर के बगल की सीट पर बिठाया जाए और आगे उतार दिया जाए. अब वह महिला मेरे बगल में थी. खिड़की की तरफ सिर टिकाकर मैं लगातार सिसक रहा था और वह मेरे सिर पर लगातार हाथ फेर रही थी.

सुबह के साढ़े छह बजे पटना पहुंचते-पहुंचते मेरी हालत बहुत खराब हो गई थी. बस से उतरकर मैं जमीन पर पैर रखता उससे पहले मैं अचेत होकर गिर पड़ा. आंखें खोलीं तो मैं एक प्रसूति घर में पड़ा था. चारों तरफ से बच्चों के रोने और महिलाओं के दर्द से चीखने की आवाजें आ रही थीं. मैं कुछ पूछता कि इससे पहले बगल में बैठी उन आंटी ने धीरे से पूछा, ‘अब बताओ, तुम्हें पटना में कहां जाना है? मेरे घर चलोगे?’ मैंने न में सिर हिलाया. दोपहर में मुझे वहां से डिस्चार्ज कर दिया गया. आंटी मुझे लेकर बाहर आ गई. दोबारा पूछा, ‘घर चलोगे ?’ मैंने कहा, ‘नहीं आंटी, अब कहीं नहीं जाऊंगा, वापस रांची.मुझे अब न तो नामवर सिंह को सुनना था और न ही साहित्य की किताबें खरीदनी थीं.

आंटी करीब डेढ़ घंटे और मेरे साथ रहीं. उन्होंने खाना भी मेरे साथ खाया. फिर बोलीं, ‘अब तुम पक्का ठीक हो न?’ ‘हां आंटी, आप प्लीज जाइए’, मैंने कहा. उन्होंने फिर मेरे सिर पर हाथ फेरा और कागज पर घर का पता लिखकर मुझे देते हुए बोलीं, ‘पटना आना तो मेरे पास आना मत भूलना. मैं रांची आई तो तुमसे मिलूंगी.

13 साल गुजर चुके हैं. इसके बाद मेरा पटना कभी जाना नहीं हुआ. एक-दो मौके आए भी तो मैंने टाल दिया. लेकिन अब भी जब मेरे दोस्त मेरे बनाए खाने या मेरे साफ-सुथरे घर की तारीफ में कहते हैं, ‘तुम्हारे नाम के अंत में आ लगा होता तो तुमसे शादी कर लेता’, मुझे उस आदमी का चेहरा याद आ जाता है. टीवी चैनलों पर जब भी स्त्री की सुरक्षा के लिए किसी की मां किसी की बहन बनाकर एक तरह से कमतर और पुरुषों के साये में रहने की दलील दी जाती है तो आंटी का वह आत्मविश्वास से भरा चेहरा याद आता है, उनकी बांहें याद आती हैं जिनमें 18 साल का एक युवा सुरक्षित था.        ­                                       लेखक:विनीत कुमार; लेखन व अध्यापन के क्षेत्र में सक्रिय विनीत दिल्ली में रहते हैं.

अपनी कहानी अपनी जबानी

उम्र का सातवां दशक पार कर चुके डॉ बीपी केशरी का सारा वक्त बीते कुछ महीनों से रांची से करीब 25-30 किलोमीटर दूर पिठोरिया स्थित ‘नागपुरी संस्थान’ के कमरे में ही बीत रहा है. वे 16वीं सदी से लेकर अब तक नागपुरी भाषा के करीब 700 कवियों द्वारा रचित 35 हजार गीतों का संकलन और कुछ कवियों के जीवन परिचय वाली किताब लाने की तैयारी में हैं. उधर, रांची में अश्विनी कुमार पंकज और उनकी पत्नी वंदना टेटे सुबह आठ बजे से लेकर रात के आठ-दस बजे तक व्यस्त रहते हैं. वे तकरीबन हर माह आदिवासी भाषा में एक किताब प्रकाशित करते हैं. इसके अलावा वे आदिवासी भाषाओं में कई पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के अभियान में भी लगे हुए हैं.

बोकारो के निमाईचंद महतो की दिन भर की चिंता यही होती है कि जहां-जहां खोरठा भाषा को बोलने-जानने-समझने वाले लोग रहते हैं वहां कैसे इस भाषा की पत्रिका ‘लुआठी’ के प्रसार का विस्तार हो. रांची में रहने वाले विरेंद्र कुमार सोय मुंडारी भाषा में ‘कुपुल’ नाम से चार पन्ने की एक पत्रिका निकालकर इसे पाठकों के बीच पहुंचाने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं. साथ ही वे इसी भाषा में ‘संगोम’ नाम की त्रैमासिक पत्रिका  भी अपने लोगों के बीच पहुंचाने का अभियान चला रहे हैं.

कुछ इसे वर्षों से दबी आकांक्षाओं को अपनी भाषा के जरिए स्वर देने की कोशिशों का नतीजा बताते हैं, कुछ खत्म हो रही अपनी भाषाओं को बचाए रखने की ललक और कुछ हिंदी द्वारा आदिवासी और देशज समुदाय को उपेक्षित किए जाने के बाद संघर्ष और सृजन की अपनी कहानी बताने की बेताबी. वजह जो भी हो, यह सच है कि झारखंड के आदिवासी और देशज समाज में भाषा, संस्कृति और अस्मिता को बचाने और बढ़ाने का एक अभियान चल रहा है. तमाम मुश्किलों के बीच अपनी राह खुद बनाने की कहानी बयान करता यह अभियान रोचक भी है और बहुतों के लिए प्रेरक भी.

इतिहास में झांकने पर पता चलता है कि झारखंड की आदिवासी पत्र-पत्रिकाओं में सबसे पहला नाम ‘झारखंडी सकम’ का है. इस साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन 1940 में आरंभ हुआ था. जमशेदपुर से निकलने वाली ‘झारखंडी सकम’ में मुंडारी, नागपुरी, हिंदी और अंग्रेजी भाषा में समाचार व लेख होते थे. इस पत्रिका के संपादक जयपाल सिंह मुंडा थे और यह झारखंड पार्टी का प्रकाशन था. इस लिहाज से आदिवासी भाषाओं में प्रकाशन का सिलसिला ज्यादा पुराना नहीं. इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि इस काम में चुनौतियां बहुत हैं. डॉ बीपी केशरी जिस नागपुरी भाषा में इतने बड़े काम को अंजाम दे रहे हैं, वह झारखंड के छोटानागपुर इलाके में भी सिर्फ एक खास हिस्से की भाषा है. एक छोटे-से दायरे में बोली जाने वाली बोली को लेकर होने वाला काम बहुत श्रमसाध्य है. लेकिन वे अकेले नहीं. झारखंड के कई इलाकों में कई बुजुर्ग, नौजवान, जानकार, कम-पढ़े लिखे अपने-अपने दायरे की भाषाओं में इस तरह का साहित्यिक अभियान चला रहे हैं. सबके सामने प्रकाशन का संकट है लेकिन आर्थिक मुश्किलों के बावजूद वे अपनी आकांक्षाओं के स्वर को मूर्त रूप दे रहे हैं. किताबें छपवा रहे हैं और नियमित-अनियमित पत्र-पत्रिकाएं भी प्रकाशित कर रहे हैं.

[box]‘यदि अस्मिताओं को बचाए रखना है तो अपनी अपनी भाषाओं में रचना कार्य निरंतर करते रहना होगा क्योंकि कई आदिवासी भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं’[/box]

भाषा, संस्कृति और अस्मिता के इस अनोखे, प्रेरक अभियान के बारे में पता करने पर कई जानकारियां सामने आती हैं जिनसे मुख्यधारा की दुनिया बहुत हद तक अनजान है. झारखंड की प्रमुख आदिवासी भाषा संथाली में ही जब इसकी पड़ताल शुरू करते हैं तो चांदो मामो, चेचिक, देबान तेनगुन, दिशोम बेउरा, फागुन, हेंदे अरसी, जिवी, मानभूम संवाद, मार्सल ताबोन, रापज सावंत बेवरा, संदेश सकम, सिली, द संघायनी, तोरी सुतम जैसी दर्जन भर से अधिक दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक और त्रैमासिक पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन की जानकारी मिलती है. इनका प्रकाशन नियमित तौर पर भले न हो रहा हो लेकिन जैसे ही संसाधन जुटते हैं इनके अंक छापे जाते हैं और इन्हें संबंधित पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश होती है. डाक से भेजकर, हाथों-हाथ पहुंचाकर, पत्र-पत्रिकाओं के स्टॉल में उपलब्ध करवाकर या फिर किसी देशज आयोजन में अलग से स्टॉल लगाकर.

रांची में विरेंद्र कुमार महतो ‘गोतिया’ नाम से त्रैमासिक पत्रिका और ‘छोटानागपुर एक्सप्रेस’ नाम से पाक्षिक अखबार प्रकाशित कर रहे हैं. बोकारो में रहनेवाले निमाई चंद महतो खोरठा भाषा में ‘लुआठी’ नाम से पत्रिका प्रकाशित कर रहे हैं. वे कहते हैं, ‘हमारे यहां बातों को सहेजने की मौखिक परंपरा रही है, इसलिए स्थानीय भाषाओं में पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशित होने से लोगों की रुचि बढ़ी है.’

महतो जो कहते हैं वह बात सही भी है. मुंडारी भाषा में ही कुपुल, संगोम, सेंगा सेतेंग आदि कई पत्रिकाओं के प्रकाशन की जानकारी मिलती है. इन पत्र-पत्रिकाओं का प्रसार चाहे जितना कम हो, इनके सामने मुश्किलों का पहाड़ चाहे जितना बड़ा हो लेकिन एक असर तो साफ तौर पर दिख रहा है कि जो अपनी जुबान छोड़कर दूसरी भाषा में लिख-पढ़ नहीं सकते, उन्हें अपनी बातें रखने का मंच मिल रहा है. वे अपनी बात लिख रहे हैं, कह रहे हैं और अपने समुदाय के बीच लेखक-पत्रकार-रचनाकार के तौर पर जाने भी जा रहे हैं.

इस कड़ी में एक बेहद महत्वपूर्ण अभियान वंदना टेटे और उनके पति अश्विनी कुमार पंकज का है. दोनों मिलकर आदिवासी भाषाओं में कई लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन कर रहे हैं. साथ ही वे विभिन्न आदिवासी भाषाओं में उन लेखकों की किताबें प्रकाशित करने के अभियान में लगे हुए हैं जिन्हें मुख्यधारा में कहीं कोई ठौर नहीं मिलता. वे अब तक कुल मिलाकर तीस किताबों का प्रकाशन कर चुके हैं.
वंदना टेटे और अश्विनी कुमार पंकज सिर्फ किताबें नहीं छापते बल्कि अथक परिश्रम से एक नेटवर्क खड़ा करके वे उनके वितरण और बिक्री के भी इंतजाम में लगे हुए हैं. वे बताते हैं कि इसमें उन्हें धीरे-धीरे ही सही पर सफलता मिल रही है. वंदना पिछले कई सालों से त्रैमासिक पत्रिका ‘अखड़ा’ का प्रकाशन कर रही हैं जिसकी पहुंच अब झारखंड के अलावा छत्तीसगढ़, उड़ीसा, असम, पश्चिम बंगाल समेत उन तमाम इलाकों में हैं जहां आदिवासियों की बसाहट है. वंदना साथ में सोरी नानीन नाम से खड़िया पत्रिका भी निकाल रही हैं. वंदना की पत्रिकाएं साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषायी और सामुदायिक अस्मिता के इर्द-गिर्द हैं. उनके पति अश्विनी कुमार पंकज स्थानीय और आदिवासी भाषाओं में एक अखबार ‘जोहार दिशुम खबर’ तो छाप ही रहे हैं, समसामयिक व मनोरंजन के मिश्रण वाली पत्रिका ‘जोहार सहिया’ का प्रकाशन भी कर रहे हैं जिसमें स्थानीय भाषाओं में ही मोबाइल इंटरटेनमेंट, सिनेमा सहित तमाम समसामयिक हलचलों से संबंधित सामग्री होती है. इस पत्रिका में दुनिया की क्लासिक रचनाओं का स्थानीय भाषाओं में अनुवाद भी नियमित तौर पर प्रकाशित होता है जिसके लिए ‘दुनिया आपन भासा में’ जैसा कॉलम निर्धारित है.

‘जोहार दिसुम खबर’ बहुभाषी पाक्षिक अखबार है, जिसमें पंचपरगनिया, खोरठा, कुरमाली, नागपुरी, हो, मुंडारी, संथाली, खड़िया, कुड़ुख, बिरहोरी, असुरी और मालतो भाषाओं में खबरें प्रकाशित होती हैं. अश्विनी कुमार पंकज का कहना है कि जोहार दिसुम खबर संभवतः आदिवासी भाषाओं का पहला अखबार है, जिसे दिल्ली में डीएवीपी प्राप्त हुआ है.

अश्विनी कहते हैं, ‘झारखंड बनने के बाद से ही हम लोगों ने यहां की भाषा, संस्कृति और साहित्य को एक स्वर देने के लिए एक मंच तैयार करने की कोशिश की. अब हम इसके तले इन पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों का प्रकाशन कर रहे हैं.’ उनका मानना है कि जिन चीजों को खत्म करना हो उन्हें विशिष्ट बनाकर-बताकर आत्ममुग्धता की ओर मोड़ा जाता है. आदिवासी भाषाओं के साथ भी ऐसा ही होता रहा है. इसीलिए यह कोशिश की गई. उनके मुताबिक इस काम में मुश्किलें तो बहुत आ रही हैं लेकिन मुश्किलों के बीच कोशिश भी जारी है.’

[box]लेखकों और प्रकाशकों के सामने नयी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में अपनी संस्कृति को बचाए रखने की चुनौती है.[/box]

अलग-अलग भाषाओं में निकल रही इन पत्रिकाओं में कई आरएनआई में सूचीबद्ध हैं. कई पत्र-पत्रिकाएं ऐसी भी हैं, जिनका आरएनआई में निबंधन नहीं है, लेकिन उनका प्रकाशन नियमित तौर पर हो रहा है.

अश्विनी की बातें बहुत हद तक ठीक भी हैं. दरअसल आदिवासी समुदाय की शिकायत और पीड़ा अकारण नहीं है. मुख्यधारा की रचनाधर्मी दुनिया के प्रति उसकी एक हद तक नाराजगी का भाव इस आधार पर रहा है कि उनके समाज को सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास में वह स्थान या महत्व नहीं दिया जा सका जिसका वह असल में हकदार था. भारत भूषण अग्रवाल सम्मान से सम्मानित चर्चित युवा कवि अनुज लुगुन कहते हैं, ‘आदिवासी भाषाओं में रचना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हिंदी भाषाओं में रचित आदिवासी विषय पर साहित्य और लेखन का बर्ताव हम देखते रहे हैं.’ हालांकि संथाली में साहित्य अकादेमी पुरस्कार विजेता भोगला सोरेन ऐसे अभियान की महत्ता को दूसरे नजरिये से देखते हैं. वे कहते हैं, ‘लोकभाषाओं का भविष्य उज्जवल है, ऐसा तो दावा नहीं कर सकता लेकिन यदि अस्मिताओं को बचाए रखना है तो अपनी अपनी भाषाओं में रचना कार्य निरंतर करते रहना होगा. आदिवासी भाषाओं में तो यह और जरूरी है, क्योंकि कई आदिवासी भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं, कई विलुप्ति के कगार पर हैं, निरंतर रचनाधर्मिता इन्हें बचाने में मददगार साबित होगी.’

 

इसी बीच अब सुषमा असुर नाम की एक महिला भी झारखंड में असुर समुदाय के लिए बेहद सक्रिय होकर सामने आ रही हैं. सुषमा अपने समुदाय के लोगों की बातों को उनकी ही जुबान में संकलित और प्रकाशित करने के अभियान में लगी हुई हैं, जिसके लिए वे चंदा इकट्ठा कर रही हैं. उनके इस प्रयास को व्यक्तिगत तौर पर लोगों का सहयोग भी मिल रहा है. गुमला जिले के नेतरहाट इलाके की रहनेवाली सुषमा अपने समुदाय के लोगों की कथा-कहानियों, कविताओं और गीतों को लिपिबद्ध करना चाहती हैं.

पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन और तमाम आदिवासी भाषाओं मंे किताबों को छापने के इस अनोखे अभियान की कड़ी में जनमाध्यम नामक संस्था भी आदिवासी भाषाओं में तरह-तरह के प्रयोग से पुस्तकें व अन्य सामग्री लाने की कोशिश में है. जनमाध्यम की ओर से अब तक 23 किताबें प्रकाशित हुई हैं जिनके जरिए सनिका मुंडा, डोमरो बिरूली, उदयचंद्र बोदरा, लोकेंद्र देवगम, रमेश हेंब्रम जैसे विविध आदिवासी भाषाओं के लेखकों का उभार हुआ है. सनिका मुंडा कहते हैं, ‘ऐसे लेखन का हमारे समुदाय के लिए बेहद महत्व है, क्योंकि इससे सीधे तौर पर गांव-घर के लोग जुड़ते हैं.’  जनमाध्यम के सचिव फैसल अनुराग बताते हैं कि हुलगुलान रेन बार शहीद, कोल्हान दिसुम होड़ दुरंग, हासा सकम आदि किताबों की मांग बहुत है. बकौल फैसल, ‘इन भाषाओं के अल्फाबेट और कैलेंडर भी प्रकाशित कर लोगों तक पहुंचाए जा रहे हैं.’

इन भाषाओं में छप रहे पत्र-पत्रिकाओं या पुस्तकों के सामने आर्थिक मोर्चे से लेकर वितरण-बिक्री तक का संकट तो है ही, एक सवाल यह भी है कि ऐसे प्रकाशनों का संबंधित समाज पर कितनी दूर तक असर पड़ रहा है. संथाल की चर्चित कवयित्री निर्मला पुतुल कहती हैं, ‘स्थानीय भाषाओं में लेखन और प्रकाशन का दायरा मुट्ठी भर लोगों तक सीमित है. और यदि वह ओलचिकी जैसी स्थानीय लिपि में लिखी जा रही हो तो वह और सिमट जाता है, ऐसे में यह जरूरी है कि इसका अनुवाद भी देवनागरी और दूसरी अन्य भाषाओं में होते रहना चाहिए, ताकि दायरा बढ़ सके.’ उनका मानना है कि अपनी भाषा में लिखनेवाले आत्ममुग्धता के शिकार होते जा रहे हैं और अधिकांश सिर्फ गीत, कहानी, उपन्यास, सौंदर्यबोध में ही फंस गए हैं जबकि समस्याओं, कुरीतियों आदि पर ज्यादा लिखा जाना चाहिए. उधर, रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय भाषा विभाग के पूर्व अध्यक्ष गिरिधारी राम गौंझू कहते हैं कि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से देशज भाषा में लिखने वाले लोग लगातार बेहतरी की कोशिश में लगे हुए हैं. उनके मुताबिक इससे नई चीजें सामने आ रही हैं और लोगों को समझने का मौका मिल रहा है.

[box]लेखकों और प्रकाशकों के सामने नयी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में अपनी संस्कृति को बचाए रखने की चुनौती है.[/box]

तमाम संभावनाओं और विडंबनाओं के बीच एक वर्ग का आरोप है कि स्थानीय भाषाओं में इतनी पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के उभार की कहानी के पीछे बड़े हिस्से का मकसद सरकार से विज्ञापन प्राप्त कके अपनी दुकान चलाना है. लेकिन ज्यादातर लोगों को यह तर्क सही नहीं लगता इसका एक कारण तो यह है कि सरकार से इन पत्रिकाओं को इतना विज्ञापन नहीं मिलता जिससे सालों भर एक रोजगार की जरूरत को पूरा किया जा सके. और यदि यह मान भी लें कि ऐसे अभियान से प्रकाशक औसतन तीन-चार हजार रुपये मासिक आमदनी भी कर लेते होंगे तो यह बेहतर नजरिये से ही देखा जाना चाहिए. आखिर इस बहाने ही सही, वर्षों से दबी एक बड़ी जमात की आकांक्षा उभार ले पा रही है और इतिहास को मौखिक तौर पर सहेजकर रखने की परंपरा अब छपकर सदा-सदा के लिए संकलित हो रही है. कई नये लेखक तैयार हो रहे हैं. जो लेखक थे, वे छपकर सामने आ रहे हैं.

निर्मला पुतुल का मानना है कि आदिवासी साहित्य के उतरोत्तर विकास की राह में कई नई चुनौतियां भी हैं जिनसे रचनाशीलता के पहले चरण में ही लेखकों को जूझना पड़ रहा है मसलन भाषा के मानकीकरण का सवाल, अनेक लिपियों का इस्तेमाल आदि. उनके मुताबिक इन लेखकों और प्रकाशकों के सामने नई सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में अपनी संस्कृति को बचाये रखने की चुनौती है. अपने एक लेख में वे कहती हैं, ‘ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में भाषा-साहित्य बाजार के पहलू में बैठी राजनीतिक व्यवस्था की दयादृष्टि पर निर्भर हो गया है. आर्थिक मंदी की मजबूरी में पूंजी और साम्राज्यवाद ने दुनिया को एक छोटे-से गांव में बदलने की योजना बनाई है. जाहिर है कि जब एक ही गांव होगा तो भाषा-साहित्य भी एक ही होगा. इसलिए विश्व पूंजी बाजार दुनिया की सभी भाषाओं को लील जाने की तैयारी में है. उसके पहले निशाने पर आदिवासी साहित्य और भाषाएं हैं क्योंकि आदिवासी इलाकों में ही धरती की विशाल धन-संपदा, खनिज, जमीन, पानी और अन्य दूसरे संसाधन हैं.’ उम्मीद है कि आदिवासी भाषाओं में लेखन और प्रकाशन की यह नई बयार इस चुनौती के सामने मजबूती से खड़ी होगी.

मर्ज कुछ इलाज कुछ

बीते महीने के पहले पखवाड़े झारखंड की राजधानी रांची से 125 किलोमीटर दूर लातेहार जिले में माओवादियों ने तीन ग्रामीणों समेत 10 जवानों को मार डाला. यह घटना प्रमंडल जोन के जिस इलाके में घटी वह घने जंगलों के फैलाव वाला दुरूह इलाका है जहां गरीबी-बेरोजगारी चरम पर है. पिछले कुछ समय में माओवादियों ने यहां कई बड़ी घटनाओं को अंजाम दिया है. इस बार माओवादियों ने न सिर्फ पुलिस को निशाने पर लिया बल्कि ग्रामीणों को भी उड़ाया और एक पुलिसकर्मी के शव को पेट से चीरकर उसमें बम लगा दिया. फिर महीना खत्म होते-होते 28 जनवरी को उन्होंने लातेहार जिले के ही पल्हैया गांव में दिन दहाड़े हथियार लूटने की कोशिश की. हथियारों से लैस करीब 60 माओवादियों का इरादा भाजपा विधायक हरिकृष्ण सिंह और उनके अंगरक्षकों से हथियार लूटने का था, लेकिन विधायक के सही समय पर वहां से निकल जाने के चलते वे कामयाब नहीं हो सके. 20 दिन के अंदर एक ही इलाके में हुई दो घटनाएं बताती हैं कि माओवादियों के मन में पुलिस का खौफ नहीं है और वे उसकी चेतावनियों को जरा भी गंभीरता से नहीं ले रहे.

अब सवाल यह है कि झारखंड में माओवादी क्यों पुलिस से बेखौफ हैं. पुलिस क्यों पूरी तैयारी के बाद भी लातेहार में उनसे मात खा गई? झारखंड के पुलिस महानिदेशक जीएस रथ कहते हैं, ‘माओवादियों को बाहर से समर्थन मिल रहा है, इसलिए वे मजबूत हो रहे हैं और उनके पास अत्याधुनिक हथियार पहुंच रहे हैं.’

हो सकता है रथ सही कह रहे हों, लेकिन यह भी सच है कि माओवादियों को जितनी मजबूती बाहरी समर्थन से मिल रही है, उतनी ही पुलिस की रणनीतिक चूक से भी. पहला सवाल तो यही है कि यदि माओवादी अत्याधुनिक हथियारों से मजबूत होकर पुलिस से मोर्चा लेने को तैयार बैठे हैं तो इसकी सूचना पुलिस को पहले क्यों नहीं मिल पाती. आखिर माओवादियों की सूचनाएं जुटाने के लिए तो पुलिस ने अपने खुफिया विभाग के पदाधिकारियों के अलावा पूरे राज्य में करीब 3,500 से ज्यादा विशेष पुलिस अधिकारी नियुक्त कर रखे हैं. राज्य के पूर्व सुरक्षा सलाहकार और सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी डीएन गौतम कहते हैं, ‘कई बार सूचनाएं मिल भी जाती हैं तो वक्त रहते कदम नहीं उठाया जाता, क्योंकि पुलिस में ऊपरी स्तर पर संवादहीनता ज्यादा है.’

खुफिया तंत्र की चूक और संवादहीनता का फायदा माओवादी उठाते हैं लेकिन कुछ और वजहें भी साफ दिखती हैं जो माओवादियों को दुस्साहसी बना रही हैं. दरअसल झारखंड में माओवादियों से पार पाने के लिए पुलिस अक्सर मर्ज कुछ, इलाज कुछ की तर्ज पर चलती दिखती है. हाल का ही उदाहरण लें. दस जवानों-ग्रामीणों के मारे जाने के तुरंत बाद समीक्षा बैठक हुई. दो-तीन दिन बाद ही रांची में जर्मन शेपर्ड कुत्तों की ट्रेनिंग शुरू हो गई. कहा गया कि ये कुत्ते बम तक पहुंचेंगे, माओवादियों तक पहुंचेंगे. यह सच है कि माओवादियों से लड़ने के लिए और पुलिस को सहयोग करने के लिए खुफिया व खोजी कुत्तों की दरकार है, लेकिन सच यह भी है कि उन्हें अपने लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए उसके पास ड्राइवर नहीं हैं.

पुलिस में ऊपर के स्तर पर संवाद, समन्वय व सहयोग का अभाव राज्य में माओवादियों को भारी पड़ने का मौका दे रहा है

उल्लेखनीय है कि पिछले 12 साल में राज्य में 4,100 से ज्यादा नक्सली घटनाएं घटी हैं. इन घटनाओं में 417 पुलिसवाले शहीद हुए हैं, जबकि कुल 1,076 लोगों की जान गई है. राज्य में 17 उग्रवादी संगठन सक्रिय हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक राज्य में करीब 2700 नक्सली हैं. पिछले कुछ समय की बात करें तो तीन दिसंबर, 2011 को लोकसभा सांसद इंदर सिंह नामधारी के काफिले पर लातेहार के ही गारू इलाके में माओवादियों ने हमला किया था. नामधारी तो बच गए थे लेकिन 11 जवानों को जान गंवानी पड़ी थी. कुछ दिनों बाद जनवरी, 2012 में गढ़वा जिले के भंडरिया में माओवादियों ने उतने ही जवानों को घेरकर मार डाला था, एक बीडीओ को जिंदा जला दिया था और पुलिस के सारे हथियार भी अपने कब्जे में कर लिए थे. लातेहार में ही चार मार्च को जब जवानों की रसद पहुंचाने के लिए पुलिस हेलिकॉप्टर पहुंचा तो माओवादियों ने उस पर भी गोलीबारी की थी. इन घटनाओं के जिक्र का आशय यह है कि पलामू के अलग-अलग हिस्से में माओवादी इतनी बड़ी घटनाओं को अंजाम देते रहे लेकिन पुलिस की तैयारी उस स्तर पर नहीं हो सकी.

अब भी जिस ढर्रे पर काम हो रहा है उससे खास उम्मीदें नहीं जगतीं. पुलिस ने जब इस बार की घटना के बाद जर्मन शेपर्ड कुत्तों की ट्रेनिंग शुरू करवाई तो सवाल उठा कि कुत्ते गंतव्य का पता तो पुलिसवालों को बता देंगे लेकिन वहां तक पहुंचाने के लिए प्रशिक्षित ड्राइवरों की राज्य में जो कमी है उसका क्या होगा. पुलिस सूत्र बताते हैं कि झारखंड में एनएसजी यानी नेशनल सिक्योरिटी गार्ड से प्रशिक्षण प्राप्त ड्राइवरों की संख्या 10 से भी कम है. इनमें से एक तो हमेशा मुख्यमंत्री के काफिले में ही शामिल रहता है. शेष की ड्यूटी कहां लगाई गई है, यह बताने को कोई तैयार नहीं होता. झारखंड के 24 जिलों में से 18 जिले नक्सल प्रभावित हैं और यहां तकरीबन 500 प्रशिक्षित ड्राइवरों की दरकार है लेकिन ड्राइवरों की कमी झेल रहा राज्य अपने चालकों को एनएसजी कैंप में ट्रेनिंग के लिए नहीं भेज पाता. एनएसजी का ट्रेनिंग कैंप हरियाणा के मानेसर में है और वहां ड्राइवरों को तीन सप्ताह का विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है. लेकिन राज्य अपने यहां के ड्राइवरों को तीन सप्ताह के प्रशिक्षण के लिए भेजने की स्थिति में नहीं है. प्रशिक्षण आईजी प्रशांत कुमार का कहना है, ‘ड्राइवरों को एनएसजी ट्रेनिंग सेंटर, मानेसर के मानदंडों के अनुसार उनके सहयोग से राज्य में ही कैसे प्रशिक्षण दिया जाए, इस पर विचार चल रहा है.’

समस्या सिर्फ ड्राइवरों के प्रशिक्षण की नहीं है.  लातेहार में हुई मुठभेड़ के दौरान यह बात उभरी कि जो जवान माओवादियों के खिलाफ अभियान में गए थे वे सुरक्षा उपकरणों से लैस नहीं थे. उनके पास बुलेट प्रूफ जैकेट और हेडगेयर (इससे सिर चोट से बचा रहता है) भी पर्याप्त संख्या में नहीं थे. पुलिस प्रवक्ता आईजी एसएन प्रधान कहते हैं कि इस वक्त राज्य में 40 हजार पुलिसकर्मी नक्सल विरोधी अभियान में अलग-अलग जगहों पर लगे हुए हैं, जबकि बुलेट प्रूफ जैकेट महज पांच हजार हैं. जानकारी के मुताबिक 2010 के बाद से बुलेट प्रूफ जैकेटों की खरीदारी राज्य में बंद है. जो जैकेट हैं, उनमें से अधिकतर एनआइजे थ्री श्रेणी के हैं  जो एके-47 की गोली और 7.62 कैलिबर की गोली को झेल सकने में सक्षम नहीं होते. इसका वजन भी आठ किलोग्राम तक होता है जिसे पहनकर लड़ना सुविधाजनक नहीं होता. इस बारे में बात करने पर आईजी प्रोवीजन आरके मलिक कहते हैं, ‘फंड तो है लेकिन ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट (बीपीआरडी) के गाइडलाइन नहीं मिलने के कारण खरीद नहीं हो पा रही.’

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एक मूल समस्या पुलिस बल की भारी कमी भी है. खुद राज्य के पुलिस महानिदेशक जीएस रथ कह चुके हैं कि राज्य में करीब 16 हजार पुलिसकर्मियों की कमी है. यह संख्या कांस्टेबल से लेकर आईपीएस अधिकारियों तक की है. राज्य में 35 आईपीएस अधिकारियों, चार हजार असिस्टेंट सब इंस्पेक्टरों, दो हजार सब इंस्पेक्टरों, उपाधीक्षकों और करीब 10 हजार कांस्टेबलों की कमी है.

हालांकि इसके बावजूद राज्य में पुलिस ने माओवादियों से लड़ने के लिए समय-समय पर खुद को तैयार भी किया है. फिलहाल झारखंड में 25 जगुआर मारक दस्ते माओवादियों के खिलाफ लड़ने के लिए कार्यरत हैं. ये दस्ते पहले एसटीएफ यानी स्पेशल टास्क फोर्स के रूप में जाने जाते थे. माओवादियों से लड़ने में राज्य में सीआरपीएफ की 17 बटालियनें, इंडियन रिजर्व बटालियन की पांच कंपनियां और स्पेशल ऑक्जिलरी फोर्स की दो बटालियनें लगी हुई हैं. पुलिस ट्रेनिंग सेंटर, हजारीबाग और कमांडो ट्रेनिंग सेंटर, पदमा में पुलिसकर्मियों का प्रशिक्षण भी जारी है और पुलिस एसोसिएशन के अध्यक्ष अखिलेश पांडेय की मानें तो बेसिक और एडवांस मिलाकर कुल 17 ट्रेनिंग स्थल  अलग हैं, जहां पुलिसवालों को प्रशिक्षित किया जा रहा है.

खुद राज्य के पुलिस महानिदेशक जीएस रथ कह चुके हैं कि राज्य में करीब 16 हजार पुलिसकर्मियों की कमी है.

फिर भी यह सच है कि अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है. पुलिस में ऊपरी स्तर पर संवाद, समन्वय और सहयोग का अभाव माओवादियों को भारी पड़ने का मौका दे रहा है. झारखंड के पूर्व पुलिस महानिदेशक जेबी महापात्रा बताते हैं, ‘झारखंड में पुलिस और माओवादियों के बीच एक्सिडेंटल एनकाउंटर हो तो दूसरी बात है. यहां तो तैयारियों के साथ ऑपरेशन चलाया जाता है. कई बार कहा जाता है कि चीजों की कमी है लेकिन ऐसा नहीं है. जो भी जवान लड़ने जाते हैं, उन्हें सारी सुविधाओं से लैस कर भेजा जाता है लेकिन अधिकारियों में संवादहीनता और खींचतान इतनी है कि पुलिस चूक जाती है.’ सीआरपीएफ के एक बड़े अधिकारी कहते हैं, ‘ऑपरेशन के समय जिला पुलिस, पुलिस मुख्यालय, विशेष शाखा, आईजी लॉ ऐंड ऑर्डर, आईजी ऑपरेशन ऐंड प्लानिंग और सीआरपीएफ के बीच गहरा समन्वय होना चाहिए और निरंतर संवाद भी, लेकिन समन्वय की लय बीच में ही टूट जाती है और संवाद बीच में ही विवाद का रूप ले लेता है.’

माओवादियों से लड़ने के लिए झारखंड पुलिस ने दो उग्रवादी संगठनों को फलने-फूलने में मदद की और उससे मदद भी लेती है. ये उग्रवादी संगठन तृतीय प्रस्तुति कमिटी और झारखंड प्रस्तुति कमिटी हैं. दोनों प्रतिबंधित हैं लेकिन इनका इस्तेमाल झारखंड पुलिस खुलेआम करती है. इन दोनों संगठनों का राज्य के छह जिलों गढ़वा, पलामू, लातेहार, चतरा, हजारीबाग और रामगढ़ इलाके में प्रभाव है. संगठन के उग्रवादी पुलिस के लिए पेट्रोलिंग करते हैं और माओवादियों से मुठभेड़ भी. झारखंड पुलिस ने इन दोनों उग्रवादी संगठनों पर न तो कोई इनाम घोषित किया है और न ही कभी वह इनके खिलाफ कोई अभियान चलाती है. नतीजा यह कि दोनों उग्रवादी संगठन मुखबिरी करने के साथ-साथ दहशत, अपराध और वसूली अभियान चलाते हैं. हालांकि पुलिस महानिदेशक जीएस रथ इससे इनकार करते हैं.

बहरहाल, एक बार फिर पुलिस माओवादियों के खिलाफ नए ऑपरेशन की तैयारी में जुट गई है. पुलिस को सूचना मिली है कि लातेहार के कटेया जंगल में आतंक मचाने के बाद माओवादी लोहरदगा-गुमला जिले के जंगलों में हैं, सो इस बार वहीं ऑपरेशन होगा. 28 जनवरी को पलामू पुलिस अधीक्षक अनूप टी मैथ्यू ने एक बार फिर अखबारों में बड़े विज्ञापन देकर पुनर्वास पैकेज की घोषणा कर दी है. इस बार उन्होंने 30 हजार रुपये से लेकर 12 लाख रुपये तक की राशि देने का वादा किया है. दूसरी ओर केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश झारखंड में माओवादियों के सफाये के लिए लंबी योजना की बात करते हैं. सारंडा में गणतंत्र दिवस पर झंडा फहराने के बाद रांची पहुंचे रमेश कहते हैं, ‘सारंडा में लोकतंत्र रास्ते पर आ गया है. लोग अब अपने अधिकार के लिए आंदोलन कर रहे हैं. वन विभाग एक रोड़े की तरह पेंच फंसाता है. छह हजार से अधिक आदिवासियों पर वन विभाग ने मुकदमा ठोककर जेल में बंद कर रखा है, इससे पार पाना होगा.’ रमेश कहते हैं कि वे झारखंड में सब कुछ करने को तैयार हैं लेकिन प्रशासन की सुस्ती और राजनीति की उथल-पुथल अड़चन बन जाती है.

राज्य में फिलहाल राष्ट्रपति शासन है, इसलिए किसी ठोस कार्रवाई की उम्मीद दिखती है. राष्ट्रपति शासन में राज्यपाल के सलाहकार नियुक्त हुए के विजय कुमार कहते हैं, ‘झारखंड में उग्रवादियों से आंध्र के पैटर्न पर लड़ना होगा. सारंडा की तरह पलामू के इलाके में भी एक्शन प्लान चलाएंगे. माओवादियों से लड़ने के लिए बनाई गई इंडियन रिजर्व बटालियन की तरह एक इंजीनियरिंग बटालियन भी बनेगी, जो माओवादी प्रभावित इलाके में विकास कार्यों को गति दे सके.’ अब देखना यह है कि इन बातों पर कितना अमल होता है.

भ्रष्टाचार का ‘राजमार्ग’

देश में कई सालों से सड़क निर्माण के लिए बड़ी कंपनियों को नियमों के विपरीत ठेके देने या सड़क निर्माण में घटिया किस्म की सामग्री इस्तेमाल करके भ्रष्टाचार करने के मामले सामने आते रहे हैं. पर इन दिनों छत्तीसगढ़ में सड़क निर्माण में भ्रष्टाचार का एक ‘अभिनव’ मामला देखने को मिला है. यहां डेढ़ सौ किलोमीटर लंबी एक सड़क के चौड़ीकरण और कुछ हिस्सों में बायपास बनाने के लिए जो जमीन अधिगृहीत की गई है या की जानी है, उसका कई जगह भू-उपयोग बदल दिया गया है ताकि ज्यादा से ज्यादा मुआवजा हासिल किया जा सके.

आज से तकरीबन डेढ़ साल पहले केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्रालय के अधीन कार्यरत नेशनल हाइवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया ने छत्तीसगढ़ के आरंग एवं सरायपाली मार्ग (डेढ़ सौ किलोमीटर) में चौड़ीकरण एवं बायपास के निर्माण का फैसला किया था. उसी समय 11 मई, 2011 को छत्तीसगढ़ शासन के राजस्व एवं आपदा प्रबंधन विभाग की ओर से एक राजपत्र प्रकाशित किया गया. इसमें उल्लेख था कि चौड़ीकरण एवं बायपास निर्माण के प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए उपखंड अधिकारी (अनुविभागीय अधिकारी) के स्थान पर सक्षम प्राधिकारी की तैनाती की जाएगी.  राजपत्र का प्रकाशन होने के बाद नियमानुसार यह भी तय हो चुका था कि सक्षम प्राधिकारी की तैनाती के बिना भूमि का मूल स्वभाव यानी भू-उपयोग किसी भी प्रयोजन के लिए बदला नहीं जा सकेगा. यानी जमीन के अभिलेख में यदि कहीं यह उल्लिखित है कि अमुक खसरा नंबर पर चट्टान है या बड़े झाड़ का जंगल तो फिर वहां चट्टान और बड़े झाड़ के जंगल का होना अनिवार्य है.

इसी तरह जो खेती की जमीन है वह खेती की ही रहेगी और जो घर या व्यावसायिक भूमि है उसका भू-उपयोग भी जमीन अधिग्रहण से पहले बदला नहीं जा सकता. आरंग से सरायपाली मार्ग के चौड़ीकरण के मामले में उजागर होने वाली गड़बड़ी यही है कि शासन ने 11 मई, 2011 को सक्षम प्राधिकारी तैनात करने की सूचना प्रकाशित तो की लेकिन प्राधिकारी नियुक्त नहीं किया. वहीं 23 दिसंबर, 2011 को जारी किए गए एक दूसरे राजपत्र में भू-व्यपवर्तन (भू-उपयोग में परिवर्तन) के लिए अनुज्ञा (आदेश) जारी करने का अधिकार भू-अभिलेख अधीक्षक, तहसीलदार, अनुविभागीय अधिकारी (राजस्व ) एवं कलेक्टर को सौंपा गया. इस तरह से 11 मई से 23 दिसंबर की अवधि भू-व्यपवर्तन के लिए प्रतिबंधित थी. इस मामले में भ्रष्टाचार का मामला इसी समयावधि का है. दरअसल इस दौरान महासमुंद जिले की पिथौरा तहसील में पदस्थ रहे अनुविभागीय अधिकारी बीबी पंचभाई ने 40 से ज्यादा लोगों की जमीन के भू-उपयोग को बदल दिया और सरकार को करोड़ों रुपये की चपत लगाने की पृष्ठभूमि तैयार कर दी.

सामान्य तौर पर नियम है कि यदि कोई आवेदक अपनी जमीन के भू-उपयोग में  परिवर्तन करवाना चाहता है तो इसके लिए वह सबसे पहले भू-अभिलेख कार्यालय की डायवर्जन शाखा में आवेदन लगाएगा. शाखा में कार्यरत अधिकारी आवेदन की जांच-पड़ताल के बाद उसे अनुविभागीय अधिकारी (राजस्व) के पास भेजेंगे, लेकिन यहां चालीस से ज्यादा आवेदन सीधे पिथौरा तहसील के तत्कालीन अनुविभागीय अधिकारी बीबी पंचभाई के समक्ष लगाए गए.

भू-उपयोग में परिवर्तन के दौरान कृषि भूमि को टिन नंबर, बैंक लोन के कागजात या उद्योग पंजीयन देखे बिना ही व्यावसायिक भूमि में बदलने के कई मामले हैं

हमने जब राजस्व विभाग की दायरा पंजी ( इसमें जमीन के व्यपवर्तन से संबंधित सूचना यथा मामले के प्रारंभ होने की तारीख, गांव का नाम, रकबा, खसरा, भूमि स्वामी का नाम, निराकरण की तारीख आदि दर्ज की जाती है) का अवलोकन किया तो कई चौंकाने वाले तथ्य मिले. दायरा पंजी के क्रमांक 43 में उल्लिखित है कि ग्राम लहरौद के चतुर्भुज अग्रवाल ने अपनी 0.20 हेक्टेयर कृषि भूमि को व्यावसायिक प्रयोजन में बदलने के लिए 28 मई, 2011 को आवेदन लगाया था (जबकि 11 मई, 2011 की प्रतिबंधित अवधि के बाद किसी भी आवेदन पर विचार नहीं हो सकता था), चतुर्भुज अग्रवाल के इस आवेदन पर कार्रवाई करते हुए महज 15 दिन में  उनकी खेती की जमीन व्यावसायिक घोषित कर दी गई. ऐसे ही कई प्रकरण दायरा पंजी में दर्ज हैं.  पिथौरा तहसील के ग्राम राजा सेवैया में खसरा क्रमांक 246 /1 एवं 246/2 पर सरकारी जमीन का होना दिखता है लेकिन अब यह मालती और दयामती के नाम पर चढ़ चुकी है. इसी तरह दायरा पंजी के क्रमांक 59 में 0.66 हेक्टेयर परती भूमि मोहनलाल अग्रवाल पिता रामअवतार अग्रवाल निवासी पिथौरा की बताई गई है. उल्लेखनीय है कि मोहन भाजपा के जिलाध्यक्ष शंकरलाल अग्रवाल के भाई हैं. उनका प्रकरण कब शुरू हुआ इसका जिक्र भी दायरा पंजी में नहीं है, अलबत्ता यह जरूर उल्लिखित है कि उनकी जमीन 22 जून, 2011 को व्यावसायिक कर दी गई.

इस क्षेत्र में कार्यरत सामाजिक कार्यकर्ता अमरजीत चावला तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘चौड़ीकरण एवं बायपास के निर्माण की जद में आने वाली जमीनों के प्रभावितों को उनकी जमीन के स्वभाव के हिसाब से मुआवजा मिलता सो आनन-फानन में पड़त और कृषि भूमि को आवासीय अथवा व्यावसायिक कर दिया गया वह भी यह जाने बगैर कि जहां की जमीन व्यावसायिक बताई जा रही है वहां पहुंच मार्ग अथवा बिजली-पानी की सुविधा है भी या नहीं.’ चावला आगे यह भी आरोप लगाते हैं कि इस पूरी कवायद में सरकार और भाजपा से जुड़े प्रभावशाली लोगों को फायदा पहुंचाया गया है.

वैसे तो दायरा पंजी में गड़बड़ी के अनेक बिंदु हैं लेकिन दो ऐसे हैं जो बताते हैं कि पिथौरा के अनुविभागीय अधिकारी बीबी पंचभाई ने आवेदनों के निराकरण की जल्दबाजी में कई गड़बड़ियां की हैं.  अनुविभागीय अधिकारी ने यह जांचने-पखरने की कोशिश भी नहीं की कि जो लोग अपनी जमीन का व्यपवर्तन करवा रहे हैं वास्तव में जमीन का स्वभाव उस रूप में है अथवा नहीं. पड़त या कृषि भूमि को व्यावसायिक बनाने वालों ने अपने उद्योग के पंजीयन, टिन नंबर, बैंक से लिए गए ऋण आदि के दस्तावेज जमा किए हैं या नहीं. महासमुंद जिले के भू-अभिलेख शाखा के प्रभारी केआर देवांगन कहते हैं, ‘वैसे तो भू- व्यपवर्तन करवाने वाले आवेदकों को अपना पहला आवेदन भू-अभिलेख कार्यालय की डायवर्जन शाखा में ही देना था. नियमानुसार कुछ आवेदन तो डायवर्जन शाखा में लगे थे लेकिन वे आवेदन जो सीधे अनुविभागीय अधिकारी के समक्ष लगाए गए थे उन पर डायवर्जन शाखा की ओर से किसी तरह की जांच- पड़ताल नहीं की गई सो कृषि या आवासीय भूमि को व्यावसायिक किए जाने के संबंध में किसी भी तरह का दस्तावेज भू-अभिलेख कार्यालय में मौजूद नहीं है.’

गड़बड़ी का दूसरा बिंदु मामलों के प्रारंभ होने की तारीख से जुड़ा हुआ है. दायरा पंजी के प्रकरण क्रमांक 44 से लेकर 70 तक में किसी भी मामले के प्रारंभ होने की तारीख ही नहीं डाली गई है. अर्थात यह स्पष्ट नहीं है कि जमीनों के व्यपवर्तन के लिए आवेदकों ने किस तारीख को आवेदन लगाया.

पिथौरा के तत्कालीन अनुविभागीय अधिकारी (वर्तमान में महासमुंद ) बीबी पंचभाई से  जब तहलका ने दायरा पंजी में अंकित किए गए विवरणों में गड़बड़ी की सच्चाई जानने की कोशिश की तो उन्होंने किसी भी तरह की गड़बड़ी से इनकार करते हुए कहा, ‘लिपकीय त्रुटियों के चलते विवरण को व्यवस्थित करने की प्रक्रिया कभी-कभी गड़बड़ा जाती है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं निकाला जा सकता कि भू-व्यपवर्तन के लिए रिकार्डों में हेराफेरी हुई है.’ क्या राजपत्र के प्रकाशन के बाद प्रतिबंधित अवधि में भू-व्यपवर्तन की कार्रवाई की जा सकती है, इस सवाल पर पंचभाई सिर्फ इतना कहते हैं, ‘यदि शासन चाहे तो क्या नहीं हो सकता.’ जबकि नई दिल्ली स्थित नेशनल हाइवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया के चीफ जनरल मैनेजर एवं भू- अधिग्रहण समन्वयक वीके शर्मा तहलका से बातचीत में साफ कहते हैं, ‘यदि राजपत्र के प्रकाशन से पहले कोई आवेदक राज्य के राजस्व महकमे के अधिकारियों को इस बात की ताकीद करता है कि उसकी भूमि को गलती से पड़त या कृषि भूमि बताया जा रहा है तो वह अपनी भूमि को अन्य प्रयोजन के लिए परिवर्तित करवा सकता है, लेकिन इस परिवर्तन के लिए भी आवेदक को आवश्यक दस्तावेजों के जरिए यह साबित करना होता है कि व्यावसायिक भूमि किस लिहाज से व्यावसायिक है.’ पिथौरा के वर्तमान अनुविभागीय अधिकारी कृष्णदास वैष्णव राजपत्र प्रकाशन के बाद भू-उपयोग में बदलाव पर प्रतिबंध की बात का समर्थन करते हुए कहते हैं, ‘यदि राजपत्र में प्रकाशन की प्रक्रिया के बाद भू-व्यपवर्तन की कार्रवाई को प्रतिबंधित नहीं माना जाएगा तो हर कोई अपनी जमीन के स्वभाव को बदलने की जुगत में लगा रहेगा और सरकारी पैसों को चूना लगाता रहेगा.’

वैसे मार्ग के चौड़ीकरण एवं बायपास निर्माण के लिए आरंग-सरायपाली और बसना इलाके के कुल 96 गांवों की जमीन का अधिग्रहण किया जाना है. अधिग्रहण के लिए फिलहाल 71 करोड़ 40 लाख 38 हजार 73 रुपये जारी किए जा चुके हैं. जिला प्रशासन ने  लगभग 900 प्रभावितों को इस रकम में से करबी 28 करोड़ रुपये बांट भी दिए हैं. अभी 43 करोड़ से भी ज्यादा रकम का वितरण शेष है. मुआवजे के लिए फर्जीवाड़ा किए जाने की भनक लगने के बाद जिला कलेक्टर आर संगीता ने मामले की छानबीन के आदेश दे दिए हैं. लेकिन अभी तक यह साफ नहीं है कि बाकी रकम असली प्रभावितों को मिल पाएगी या नहीं.

कटघरे में शिवराज

मध्य प्रदेश में इस साल हो रहे विधानसभा चुनाव में जीत की हैट्रिक बनाने के लिए भाजपा मुख्यमंत्री चौहान की छवि को लेकर मैदान में उतरने जा रही है. किंतु गेमन इंडिया लिमिटेड कंपनी (मुंबई) को राजधानी भोपाल के बीचोबीच आवंटित 15 एकड़ सरकारी जमीन चौहान के लिए गले की हड्डी बन सकती है. आरोप है कि जमीन का यह आवंटन एक ऐसा महाघोटाला है जिसमें राज्य के कई मंत्रियों और आला अधिकारियों ने चुपचाप और बड़ी चालाकी से एक नहीं दर्जनों नियम तोड़े और कई सौ करोड़ रुपये की इस अमानत को कौडि़यों के भाव बेच दिया. किंतु इसी कड़ी में अब जो नए दस्तावेज आए हैं उनमें मुख्यमंत्री कार्यालय की भूमिका साफ दिखाई दे रही है. बहरहाल इस मामले की एक याचिका हाई कोर्ट में लंबित है, लिहाजा चौहान की उम्मीद और नाउम्मीदी का फैसला अब न्यायालय की चौखट पर ही तय होने वाला है.

यह मामला 2005 में राज्य की भाजपा सरकार की उस पुनर्घनत्वीकरण (रिडेंसीफिकेशन) नाम की योजना से जुड़ा है जिसका मकसद भोपाल के मुख्य बाजार इलाके, दक्षिण टीटी नगर की सरकारी कॉलोनी तोड़कर इसे नए सिरे से बसाना था. इसी के चलते सरकार ने पहले तो यहां के सरकारी मकानों और एक स्कूल को तोड़कर जमीन को खाली कराया. फिर 17 अप्रैल, 2008 को यह बेशकीमती जमीन गेमन कंपनी को 337 करोड़ रुपये में बेच दी. मगर इस पूरे सौदे में जिस तरीके से कंपनी के पक्ष में नीलामी करने, औने-पौने दाम पर कंपनी को जमीन बेचने, लीज रेंट माफ करने,  फ्री-होल्ड (जमीन का


मालिकाना हक) देने और उसे वापस लेने के अलावा कंपनी को विशेष रियायत देने जैसी कई अनियमितताएं सामने आईं उससे सरकार की नीयत पर ही सवाल खड़े हो गए. राज्य सरकार की इन्हीं अनियमितताओं को लेकर एडवोकेट देवेंद्र प्रकाश मिश्र ने हाई कोर्ट में जनहित याचिका लगाई है. मिश्र के मुताबिक इस योजना की आड़ में राज्य सरकार के नुमाइंदों ने मामला कुछ ऐसा जमाया कि हजारों करोड़ रुपये का लाभ कंपनी के पाले में जाए और उससे होने वाला घाटा शासन की झोली में. इस सौदे में कंपनी के लिए जो लीज रेंट माफ किया गया है उससे उसे तकरीबन 5 हजार 276 करोड़ रुपये का लाभ होगा. याचिका में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनके काबीना मंत्रियों (बाबूलाल गौर, जयंत मलैया और राजेंद्र शुक्ल आदि) पर आरोप है कि उन्होंने निजी कंपनी को उपकृत करने के लिए अधिकारियों पर दबाव बनाया और सारे नियमों को ताक पर रखकर जमीन के एक बड़े घोटाले को अंजाम दिया.

क्यों मुख्यमंत्री सवालों के घेरे में हैं.

पुनर्घनत्वीकरण की एक ऐसी ही योजना के तहत ग्वालियर (थाटीपुर) में भी काम किया जाना था. किंतु ग्वालियर में छह साल बीत जाने के बाद भी जहां यह प्रक्रिया शुरू नहीं की गई वहीं भोपाल में सरकार ने गेमन की तमाम अड़चनों को महज 24 घंटे में दूर कर दिया. 17 अप्रैल, 2008 का दिन राज्य के लिए मिसाल है जब 337 करोड़ रुपये की यह प्रक्रिया मुंबई (कंपनी कार्यालय) से भोपाल (कई सरकारी विभाग) तक बेरोकटोक अपने मुकाम पर पहुंच गई. और इसी दिन गेमन ने दीपमाला इन्फ्रास्ट्रक्चर को योजना की सहायक कंपनी बनाते हुए सरकार के साथ एक त्रिपक्षीय समझौता किया और योजना का सारा काम दीपमाला कंपनी को सौंप दिया. तहलका को मिले कागजात में दीपमाला कंपनी द्वारा सीधे मुख्यमंत्री को लिखे गए पत्र और उसके बाद कंपनी के पक्ष में आधिकारिक तौर पर अधीनस्थ विभागों को जारी किए गए निर्देश बताते हैं कि मुख्यमंत्री कार्यालय ने दीपमाला कंपनी को किस हद तक तरजीह दी है. इस कड़ी में 27 अप्रैल, 2008 का वह पत्र भी है जिसमें दीपमाला कंपनी के प्रबंधकों की मुख्यमंत्री से हुई पुरानी मुलाकात का हवाला देते हुए उनसे यह अपेक्षा की गई है कि वे हस्तक्षेप करके इस काम के लिए आधिकारिक अनुमतियां दिलवाएं. इसी पत्र में आधिकारिक तौर पर एक टीप लिखी गई है जिसमें ठीक एक दिन बाद यानी 29 अप्रैल, 2008 को मुख्यमंत्री की बैठक की सूचना देते हुए अधीनस्थ विभागों के आला अधिकारियों को हाजिर रहने का आदेश दिया गया है. और इस तारीख से एक महीने के भीतर दीपमाला कंपनी को कई आवश्यक अनुमतियां मिल जाती हैं.

वहीं 27 सितंबर, 2008 की नोटशीट मुख्यमंत्री कार्यालय की कार्यशैली पर ही प्रश्नचिह्न लगा देती है. इस योजना की नोडल एजेंसी आवास एवं पर्यावरण विभाग को जारी इस नोटशीट पर लिखा है- ‘नोटशीट की प्रतिलिपि करा लें और प्रकरणों में लगा लें. पुनः कोई कार्रवाई आवश्यक हो तो की जाए.’  जानकारों की राय में यह एक ऐसी नोटशीट है जो जरूरत पड़ने पर कहीं भी उपयोग में लाई जा सकती है. जांच का विषय यह है कि यह नोटशीट अब तक किन-किन प्रकरणों में लगाई जा चुकी है.

इसी की अगली कड़ी में इस योजना की पर्यवेक्षक एजेंसी मप्र हाउसिंग बोर्ड द्वारा 2 फरवरी, 2009 को जारी की गई एक नोटशीट है जिसमें उसने मुख्यमंत्री कार्यालय द्वारा भेजी

गई सौ दिन की कार्य योजना और इस संबंध में बताए गए दिशानिर्देशों का जिक्र किया है. हम साथ ही यह भी बताते चलें कि इस मामले में मुख्यमंत्री की दिलचस्पी केवल पत्रों तक सीमित नहीं रही बल्कि उन्होंने कई बार आधिकारिक और अनाधिकारिक तौर पर निर्माण-स्थल का निरीक्षण करके यह जताने की कोशिश भी की है कि योजना सरकारी है. मगर जब तहलका ने दीपमाला कंपनी के महाप्रबंधक रमेश शाह से बातचीत की तो उन्होंने बताया, ‘यह योजना प्राइवेट है और इससे होने वाले लाभ में सरकार की कोई हिस्सेदारी नहीं है.’

मेहरबानियों का सिलसिला
गौरतलब है कि इस आवंटन में हुए गोलमोल की पोल खुलने की शुरुआत बीते साल जून में तब हुई जब सरकार ने कंपनी के पक्ष में जमीन फ्री-होल्ड (मालिकाना हक) कर दी. हालांकि विधानसभा के शीतकालीन सत्र में संसदीय मंत्री नरोत्तम मिश्र का कहना था कि सरकार ने जमीन फ्री-होल्ड नहीं की है, मगर इस बीच जब मामला हाई कोर्ट में  पहुंचा तो सरकार ने 2 नवंबर, 2012 का अपना फैसला वापस ले लिया. सरकार के इस कदम ने जहां खुद ही सिद्ध कर दिया कि वह गलत थी वहीं यह पूरा सौदा ही संदेहास्पद हो गया.

कहा जा रहा है कि कंपनी को लाभ पहुंचाने की भूमिका काफी पहले बना ली गई थी. इसके लिए सरकार ने शहरी इलाके को बेहतर ढंग से बसाने के लिए 2003 में बनाई गई गाइडलाइन को जिस तरह से बदला है उससे सरकार को 5 हजार 250 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ सकता है. पुरानी गाइडलाइन में साफ लिखा था कि जब तक कंपनी निर्माण पूरा नहीं करती तब तक उससे हर साल लीज रेंट लिया जाएगा. मगर 2005 की गाइडलाइन में कंपनी की पक्ष में लीज रेंट माफ कर दिया गया. भारतीय स्टांप की धारा 33 के मुताबिक हर लीज डील में व्यावसायिक उपयोग पर साढ़े सात प्रतिशत और आवासीय उपयोग पर पांच प्रतिशत सालाना लीज रेंट लिया जाना चाहिए. याचिकाकर्ता के मुताबिक इस योजना में कंपनी को यह जमीन तीस साल के लिए लीज पर दी गई है और उसकी प्रीमियम राशि 335 करोड़ रुपये है. इस हिसाब से राज्य को कंपनी से हर साल 25.12 करोड़ रुपये मिलते.

यानी तीस साल में जनता के खजाने में 753 करोड़ रुपये आते. मगर योजना में लीज रेंट नहीं रखने से यह पैसा कंपनी के खाते में जाएगा. वहीं राजस्व के ही नियमों के मुताबिक तीस साल बाद जब लीज का नवीनीकरण किया जाता तो लीज रेंट छह गुना बढ़ जाता और अगले तीस साल तक राज्य को सालाना 150 करोड़ रुपये मिलते. मगर इस पूरी योजना के लिए किए गए अनुबंध में नवीनीकरण करने के बाद भी लीज रेंट शून्य ही रखा गया, लिहाजा यहां भी जनता के खजाने को 4 हजार 522 करोड़ रुपये का चूना लगेगा.  दूसरी तरफ पुरानी गाइडलाइन में तोड़े जाने वाले मकानों को उसी स्थान पर बनाने की बात भी थी. मगर नई गाइडलाइन में पर्यावरण और यातायात के नजरिये से उक्त मकानों को यहां बनाना अनुचित बताया गया. सवाल है कि यदि रहवास के लिए यह स्थान अनुचित है तो दीपमाला कंपनी को रहवासी परिसर बनाने की मंजूरी क्यों दी गई है.

नीलामी के दौरान सरकार द्वारा पारदर्शिता न बरतते हुए जिस तरह से गेमन की तरफदारी की गई उसके चलते नीलामी  की प्रक्रिया भी विवादों के घेरे में है. मई, 2007 में जब नीलामी का विज्ञापन प्रकाशित किया गया तब 28 कंपनियों ने आवेदन दिए. सरकार ने 17 कंपनियों को इस योजना के योग्य मानते हुए उनसे जमीन की प्रस्तावित कीमत मांगी. सरकार का दावा है कि 17 कंपनियों में से केवल गेमन ने ही अंतिम तारीख यानी 30 नवंबर, 2007 तक 337 करोड़ रुपये की प्रस्तावित कीमत भेजी थी. जबकि याचिकाकर्ता का दावा है कि उनके पास रिलायंस इनर्जी प्राइवेट लिमिटेड द्वारा 23 नवंबर, 2007 को शासन को लिखा वह पत्र है जिसमें रिलायंस ने अंतिम तारीख बढ़ाने की मांग की थी. मगर सरकार ने इसमें कोई रुचि न लेते हुए गेमन के साथ करार किया. नई गाइडलाइन में यह साफ लिखा है कि अच्छी बोली की संभावना होने पर नीलामी दोबारा की जा सकती है. सवाल है कि सरकार ने गेमन के साथ करार करने में इतनी हड़बड़ी क्यों की. विशेषज्ञों का मानना है कि नीलामी में गेमन के ब्रांड की बड़ी भूमिका थी. किंतु गेमन को आगे करके बाद में जिस दीपमाला कंपनी को सारा काम सौंप दिया गया वह इस योजना के योग्य नहीं है. रजिस्ट्रार ऑफ कंपनी (मुंबई) के मुताबिक इस योजना में दीपमाला की खुद की पूंजी सिर्फ एक लाख रूपये है.

Gammon

नीलामी के दौरान सरकार द्वारा पारदर्शिता न बरतते हुए जिस तरह से गेमन की तरफदारी की गई उसके चलते नीलामी  की प्रक्रिया भी विवादों के घेरे में है. मई, 2007 में जब नीलामी का विज्ञापन प्रकाशित किया गया तब 28 कंपनियों ने आवेदन दिएगेमन को सस्ते में जमीन देने का मामला भी सरकार के लिए बड़ी मुसीबत बन सकता है. ऐसा इसलिए भी कि उसने यह जमीन उसकी वास्तविक कीमत से काफी कम में बेची. दरअसल जब एक आम आदमी लीज डीड (रजिस्ट्रेशन) में देरी करता है तो उस पर तत्काल अधिभार लगा दिया जाता है मगर दीपमाला कंपनी ने 22 सिंतबर, 2011 यानी जमीन का सौदा होने के तीन साल बाद लीज डीड की. इस समय तक कलेक्टर की गाइडलाइन के मुताबिक जमीन 747 करोड़ रुपये की हो चुकी थी. मगर कंपनी ने 335 करोड़ रुपये ही जमा किए. इस पर भी उसने 335 करोड़ रुपये तीन साल और तीन किश्तों में चुकाए.

इसके लिए सरकार ने उससे न अतिरिक्त ब्याज की मांग की और न ही कंपनी ने यह ब्याज दिया. वहीं इस पूरे प्रकरण का दिलचस्प पहलू यह है कि इन विवादों के बावजूद सरकार द्वारा दीपमाला कंपनी पर की जा रही मेहरबानियों का सिलसिला है कि थमने का नाम नहीं लेता. इसी कड़ी में कंपनी ने नगर निगम को नर्मदा उपकर (पेयजल टैक्स) के रूप में 3.41 करोड़ रुपये की जगह 1.41 करोड़ रुपये जमा किए.

इस संबंध में तत्कालीन नगर निगम आयुक्त रजनीश श्रीवास्तव ने 13 दिसंबर को जब इस कंपनी को नोटिस थमाते हुए बकाया रकम जमा करने को कहा तो मामला तूल पकड़ गया. हालांकि बाद में दीपमाला कंपनी ने नर्मदा उपकर जमा किया लेकिन इसी के साथ श्रीवास्तव को उनके पद से हटा दिया गया. ऐसा ही एक और वाकया है जिसमें सरकार ने कंपनी के साथ मिलकर यहां के सैकड़ों पेड़ों को उखाड़कर कहीं दूसरी जगह स्थापित करने की अनोखी योजना बनाई थी. किंतु उनकी यह अनूठी और विचित्र योजना परवान नहीं चढ़ सकी और सारे पेड़ों को रातोंरात काट दिया गया.

तहलका ने इस बारे में जब मुख्यमंत्री चौहान से बात करनी चाही तो उनके निजी स्टाफ ने कोई रुचि नहीं दिखाई. वहीं राज्य की भाजपा सरकार ने गेमन मुद्दे को चुनावी हथकंडा बताते हुए हाई कोर्ट में इस प्रकरण से चौहान का नाम हटाने की गुहार लगाई है. दूसरी तरफ चौहान को पटखनी देने के लिए मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के हाथ एक बड़ा मुद्दा तो लगा लेकिन उसने भी इस मुद्दे पर विधानसभा में साधारण से सवाल पूछकर पल्ला झाड़ लिया. दरअसल इन दिनों राज्य में होने वाले बड़े घोटालों पर दोनों पार्टी के नेताओं ने एक-दूसरे को छेड़ना बंद-सा कर दिया है. इस बारे में नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह से बात करने पर उन्होंने कहा, ‘हमारे पास इसके पुख्ता सबूत हैं कि गेमन घोटाले में सीएम का सीधा हाथ है. पर यह बात हम आपको क्यों बताएं? सही मंच और सही समय पर बताएंगे.’ मध्य प्रदेश में विधानसभा का चुनाव सिर पर है लेकिन कांग्रेस का सही समय पता नहीं कब आएगा?

‘अफसोस है कि मुसलमान इस्लाम से बहुत दूर होते जा रहे हैं’

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क्या इस्लाम की छवि एक कट्टरपंथी धर्म की बनती जा रही है जिसमें आधुनिकता और सुधारों के लिए कोई जगह नहीं ?

मै सबसे पहले इस बातचीत के माध्यम से सभी लोगों से ये कह देना चाहता हूं कि क़पया वे इस्लाम को मुसलमानों के कामों से और उनकी बातों से न समझें. बहुत अफसोस की बात है कि मुसलमान इस्लाम से बहुत दूर होते जा रहे हैं. मै इस्लाम के बारे में जो भी बात करूंगा वो कुरआन और हदीस के आधार पर करूंगा. इस्लाम समाज में सुधार के लिए ही आया था, फिर ये कैसे हो सकता है कि उसमें सुधार की गुंजाइश न हो. सुधार तो हमेशा जारी रहता है और रहना चाहिए. समय आगे बढ़ता है और इसके अनुसार रीफार्म भी होता रहता है. इस्लाम में सुधार के लिए ही शरीयत में इज्तेहाद की प्रक्रिया मौजूद है. इज्तेहाद के माने ही हैं री एप्लीकेशन ऑफ शरिया. शरीयत के बारे में भी लोगों में बहुत सी ग़लतफहमियां हैं. इस्लामी शरीयत पूरी तरह व्यवस्थित है. और दो बुनियादी उसूलों पर निर्भर है. शरीयत में रीज़निंग के खिलाफ कोई बात नहीं रखी जा सकती. अगर कोई बात हमको रीज़निंग के खिलाफ दिखाई देती है तो उसे हमें शरीयत से निकाल फेंकने का अधिकार है, उस पर बहस करने का अधिकार है. इस्लाम आस्था पर नहीं, विश्वास पर आधारित है. विश्वास रीज़निंग (तर्क) के बाद ही आता है. दूसरा बुनियादी उसूल ये है कि शरीयत में अन्याय के लिए कोई जगह नहीं है. याने इस्लाम में सिर्फ मुसलमान ही नहीं बल्कि किसी भी व्यक्ति के खिलाफ अन्याय नहीं किया जा सकता. तो एक ऐसा धर्म जिसकी बुनियाद ही रीज़निंग और न्याय पर है, मुसलमानों का रवैया उससे बिल्कुल अलग जा पड़ा है. इसका हमें बहुत खेद है इसीलिए मै कहता हूं कि इस्लाम को कुरआन और हदीस की बुनियाद पर ही जाना जाए. किसी मुसलमान के कामों के आधार पर नहीं.

विज्ञान और तकनीक से भी इस्लाम का टकराव आए दिन होता रहता है. इनको भी कई मुसलमान गैर-इस्लामी मानते हैं. ऐसी सोच बन गई है कि इस्लाम विज्ञान और तकनीक को तरक्की को अंगीकृत नहीं कर पाता  ?

ऐसा उन मुसलमानों की वजह से हुआ है जो शरीयत को बिना समझे शरीयत के बारे में बात करना शुरू कर देते हैं. बिना इस्लाम को जाने किसी चीज़ को गैर-इस्लामी करार दे देते हैं. अफसोस कि ऐसे लोगों की तादाद बहुत ज्यादा है. लेकिन इनमें से ज्यादातर लोगों को अज्ञानतावश सही तथ्य नहीं मालूम. किसी भी काम को करने का अगर साधन बदल जाए तो वह काम या साधन गैर इस्लामी कतई नहीं होता. इस्लाम ज़माने के आगे बढ़ने के साथ तकनीक और साधनों के बदलाव को स्वीकार करता है. क्योंकि विज्ञान और तकनीक से गुरेज़ करके तरक्की कैसे होगी ? अफसोस कि ज्यादातर मदरसों में भी ये चीज़ें नहीं सिखाईं पढ़ाईं जा रहीं. वहां भी एक दूसरे के खिलाफ नफरतें ही पढ़ाई जाती हैं. ज्यादातर मदरसों का अप्रोच ठीक नहीं है.उसमें आधुनिकता नाम की कोई चीज़ नहीं है. मदरसों को अपनी अप्रोच पूरी तरह बदलनी होगी.

परिवार नियोजन के बारे में मुसलमानों की एक बड़ी आबादी में कई पूर्वाग्रह हैं, आप इसको किस तरह देखते हैं ?

इस्लाम में परिवार नियोजन की अनुमति नहीं, ये बहुत बड़ा भ्रम है जिसका सर्वाधिक नुकसान खुद मुसलमानों को ही उठाना पड़ता है. अस्ल में इस्लाम में गर्भपात (एबॉर्शन) करवाने के लिए सख्ती से मनाही है. कुरआन में आया है कि मुफलिसी के डर से अपने बच्चे का कत्ल न करो. जब तक गर्भ में जान ही नहीं आई, वो बच्चा बना ही नहीं तो परिवार नियोजन करने से उसका कत्ल कैसे हो सकता है. इस्लाम में ये भी आता है कि विवाह अपने से अच्छी संतान छोड़कर जाने के लिए किया जाता है न कि अपने से ज्यादा संतान छोड़ कर जाने के लिए. एक ही बच्चा हो लेकिन हीरा हो. इस्लाम में क्वांटिटी पर नहीं क्वालिटी पर ज़ोर है. ईरान ने परिवार नियोजन के ज़रिए ही अपनी आबादी में वृद्धि को एकदम नियंत्रित कर दिया है. अगर इस्लाम में परिवार नियोजन की अनुमति न होती तो ईरान जैसे देश में ये कैसे हो पाता ?

मुस्लिम संगठनों और धर्मगुरूओं के द्वारा जिस तरह फिल्म और साहित्य का विरोध किया जाता है उसके बाद इस्लाम में अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए कितनी गुंजाइश बचती है ?

देखिए अगर आपका इशारा सलमान रूश्दी सेटनिक वर्सेज़ की तरफ है तो मै आपको बता दूं बहुत पहले जब मैं लंदन में था तो मैने खुद वो किताब पढ़ने की कोशिश की थी लेकिन उस किताब की भाषा इतनी अभद्र और आपत्ति जनक है कि वह मुझसे नहीं पढ़ी गई. इस किताब में उन पैगम्बरों के बारे में भी इतनी घटिया गालियों के साथ बातें की गईं हैं जो कि इस्लाम ही नहीं दूसरे धर्मों के लिए भी सम्माननीय हैं. ऐसे में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इस हरकत को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.  अभिव्यक्ति की आज़ादी ज़रूरी चीज़ है और देश का संविधान और इस्लाम दोनों इसे मानते हैं. लेकिन ये बात भी याद रखने लायक है कि आपकी स्वतंत्रता तब तक जायज है जब तक दूसरों की स्वतंत्रता में व्यवधान न पड़े. अपनी आज़ादी के नाम पर आप मेरी नाक नहीं तोड़ सकते. आप किसी समुदाय की धार्मिक भावनाओं का इस तरह अपमान नहीं कर सकते.

अगर किसी चीज़ पर आपको ऐतराज़ है तो उसका विरोध करने के लोकतांत्रिक तरीके हैं, अगर आपको लगता है कि किसी ने कोई अपराध किया है तो आप उसे सजा दिलाने के लिए न्यायपालिका की शरण में जा सकते हैं. लेखक को मार डालने का फतवा जारी कर देना अथवा जान लेने पर उतारू हो जाना कहां तक उचित है ?

यहां मै आपसे सहमत हूं. सही तरीका यही है कि अगर किसी से शिकायत है तो उसके खिलाफ कोर्ट में जाकर न्याय के लिए लड़ाई लड़नी चाहिए न कि खुद ही उसे मार डालने पर आमादा हो जाना चाहिए. सज़ा कोर्ट देगी. मुझे या आपको अधिकार नहीं है सजा देने का. इस तरीके का विरोध भी इस्लाम के बारे में लोगों को ग़लत धारणा बनाने पर मजबूर करता है. पैगम्बर मुहम्मद साहब तो सिर्फ अपने विरोधियों को ही नहीं बल्कि उन लोगों को भी माफ कर दिया करते थे जो उन्हे गालियां देते थे. ऐसी कई मिसालें हमें मिलती हैं.

इस्लाम में कई फिरके और विचारधाराएं हैं, और सभी अपने आप को ही सही बताते हैं. अक्सर वैचारिक मतभेद खूनी संघर्ष में बदल जाता है, ऐसे में किसको सही और किसको ग़लत माना जाए ?

मैने आपको बताया कि इस्लाम के दो बुनियादी उसूल हैं. रीज़निंग के खिलाफ कुछ भी स्वीकार्य नहीं और न्याय के खिलाफ कुछ भी स्वीकार्य नहीं. जो भी फिरका इस पर अमल कर रहा हो, वही सही है. रही बात खून खराबे की तो जो लोग ये कर रहे हैं वे मुसलमान बिल्कुल नहीं हैं. तालिबान जो कुछ कर रहे हैं, वे अपराधी हैं मुसलमान नहीं. इस्लाम में या तो आप मुसलमान हो सकते हैं या क्रिमिनल हो सकते हैं. दोनो एक साथ नहीं हो सकते.

आप जो कह रहे हैं वे आदर्शवादी बाते हैं, लेकिन हो तो इसका उल्टा ही रहा है ?

मैने आपसे इंटरव्यू की शुरूआत में सबसे पहली बात ही ये कही थी कि मुसलमान इस्लाम से बहुत दूर हो गया है. कृपया उसकी बातों और कामों से इस्लाम को न जानें. मै वही बातें कर रहा हूं जो कुरआन और हदीस में हैं. लेकिन अफसोस कि मुसलमान इन्हे जानते समझते नहीं.

आपने कहा कि मुसलमान इस्लाम से बहुत दूर आ पड़ा है, ऐसा क्यों हो रहा है ?

हमारे यहां मौलवियों ने आम मुसलमानों के सामने इस्लाम की एक बिल्कुल ग़लत तस्वीर रखी है. ये जाहिल लोग हैं, इस्लाम जानते ही नहीं. साथ ही ज्यादातर मौलवी खुद ही बहुत तंगनज़र हैं. बहुत कम ही मौलवी हैं जो विज़नरी हैं. इसीलिए कई बार मै गुस्सा होकर अपने स्टूडेंट्स से कह देता हूं अगर आगे बढ़ना है तो मुफ्ती से मुक्ति पाओ. धर्म अपने आप में अमृत है लेकिन जब उसमें जहालत (अज्ञान) और सियासत जैसी चीज़ें घुल जाती हैं तो वह ज़हर बन जाता है. हमारे यहां धर्म में बहुत पहले ही ये चीज़ें आ चुकी हैं. मुसलमानों को चाहिए कि वे इल्म हासिल करें और दुनिया में अपना मुकाम हासिल करें. साथ ही किसी भ्रम की स्थिति में दूसरों के बहकावे में आने के बजाए अपनी अक्ल पर भरोसा करें.