Home Blog Page 1450

कोडनानी-बजरंगी को फांसी पर गुजरात सरकार का यू-टर्न

क्या है सरकार का निर्णय?
2002 में हुए गुजरात दंगों के नरोदा पाटिया मामले में गुजरात की पूर्व मंत्री मायाबेन कोडनानी और बाबू बजरंगी के लिए एक महीने पहले तक फांसी चाहने वाली गुजरात सरकार ने यू-टर्न ले लिया है. उसने इनकी फांसी की मांग को लेकर ऊपरी अदालत में अपील करने संबंधी एसआईटी को दी गई इजाजत रद्द कर दी है. राज्य के विधि विभाग ने मुख्य सरकारी वकील को इस बाबत पत्र लिख कर सूचित किया है. राज्य के वित्त मंत्री नितिन पटेल का कहना है कि इस बाबत आगे कोई भी फैसला महाधिवक्ता की राय लेने के बाद किया जाएगा.

क्या रहा पूरा घटनाक्रम?
गुजरात दंगों के दौरान मोदी सरकार में मंत्री रही माया कोडनानी को विशेष अदालत ने नरोदा पाटिया दंगों के लिए दोषी मानते हुए अगस्त, 2012 में 28 साल कैद की सजा सुनाई थी. दंगों की जांच को लेकर उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित विशेष जांच दल (एसआईटी) ने गुजरात सरकार से  कोडनानी समेत दस दोषियों की सजा बढ़ा कर फांसी की मांग के लिए ऊपरी अदालत में अपील करने की इजाजत मांगी थी. 16 अप्रैल को उसे इसकी इजाजत मिल भी गई. लेकिन अब सरकार इस फैसले से पीछे हट गई है. बताया जा रहा है कि उस पर हिंदूवादी संगठनों का जबरदस्त दबाव था. गौरतलब है कि 27 फरवरी, 2002 को हुए गोधरा कांड के अगले दिन नरोदा पाटिया इलाके में हुई हिंसा में 97 लोग मारे गए थे. अगस्त, 2009 में इस मामले में मुकदमा शुरू हुआ था.

अब क्या करेगी एसआईटी?
अचानक हुए इस घटनाक्रम से एसआईटी अधिकारी असमंजस में हैं. बताते हैं कि एसआईटी ने अपील को लेकर तैयारियां शुरू कर दी थीं, लेकिन अब सरकार के फैसले ने उसे परेशानी में डाल दिया है. सूत्रों के मुताबिक जांच दल के अधिकारी गुजरात सरकार के इस कदम को कानूनी दायरे से बाहर का बता रहे हैं और इसका विरोध करने का मन बना चुके हैं. संभावना है कि गुजरात सरकार के इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है.
-प्रदीप सती

दुर्गति न कर दे यह ‘गति’

इलस्ट्रेशन: मनीषा यादव
इलस्ट्रेशन: मनीषा यादव

यह कैसी बयार बह रही है! किस दिशा से बह रही है! वह उतावली है या हम! वह उड़ा रही है हमें या हम स्वयं उड़ रहे हैं! देश का कारवां किस भरोसे बढ़ रहा है! कहां से चले थे, कहां पहुंचे ! न ठहर रहे हैं, न स्वयं को टटोल रहे. बस आगे (!) बढ़ने की धुन, मगर दिशा क्या हो, पता नहीं. पहले चिंता सताए जाती थी कि चुनरी में लगे दाग को छुड़ाया कैसे जाए, फिर होड़ पैदा हुई कि उसकी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद कैसे. आगे बढ़े, दाग ढ़ूंढ़ते रह जाओगे, तक पहुंचे. और आगे बढ़े, दाग अच्छे हैं, तक आ पहुंचे. कल को अगर दागपना ही उम्मीदवारी की एकमात्र योग्यता-पात्रता बने तो अचरज कैसा. बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय, पुराने जमाने की बात हो गई.

(कुछ कहेंगे कि घिसी-पिटी बात हो गई.)

जिस ढंग से हम आगे बढ़ रहे हैं उसमें कथनी-करनी, कार्य-कारण परस्पर समानांतर नजर आते हैं. जो आजीवन स्वदेशी की बात करते रहे, सुना है कि कल वो विदेशी जब्तशुदा दुकान में नजर आए. ऐसा भक्तिपूर्ण माहौल बना कि श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ी, मगर दयालु कम हो गए. जो मानवीय नहीं थे, वे माननीय हो गए. रंगदारी वसूलने वाला रंगबाजी में जीने लगा और शरीफ आदमी सिर झुकाए. जिन्हें शिकायत थी कि सामूहिकता-सामाजिकता समाज से रीत रही है उन्हें सामूहिक बलात्कार की घटनाओं ने गलत साबित किया. जहां आंदोलन चलना चाहिए था, वहां बैठक चली. और जहां बैठक होनी चाहिए थी, वहां ताले लटके रहे. जहां हल चलना चाहिए था वहां कारें चल रही हैं. हरित क्रांति के बाद भी कुपोषण को भगा नहीं पाए हम, हां मगर यह जरूर है कि सोना आयातक देशों में पहले नंबर पर आ गए (हथियारों की खरीद में भी).

आम आदमी का नारा लगा, जो राजनीति के घाट उतरे, वे कुबेर बन अंगरक्षकों के घेरे में रहने लगे और आम आदमी के बदन से कपड़ा उतरता गया. देश के भाल पर तिरंगे से ज्यादा राजनीतिक दलों के झंडे दिखने लगे. जिनके हवाले वतन किया, वे हवाला कर बैठे. आने-जाने वाली सरकारें किसान की बात करती रहीं और बिल्डर पनपते रहे. संसद, विधानसभा की शुचिता गिरती गई और हमारे प्रतिनिधियों का जीवन स्तर ऊंचा होता गया. ‘विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र’ का दंभ हम भरते रहे और मानवाधिकारों की कसौटी पर बार-बार फेल होते रहे.

हम आगे बढ़े, विचार कपड़ों में कैद होकर रह गए. हमारा सौंदर्य बोध-संस्कार खूब विकसित हुआ. हमें काली त्वचा से परेशानी हुई, मगर काले धन का दोनों हाथों से स्वागत किया. गरीब को हिकारत से देखा और रिश्वतखोर को इज्जत बख्शी. शुचिता की दुहाई देने वालों के खाते विदेशों में खुल गए. जिनके पास ईमान नहीं था, वे विमान से सैर करने लगे. समाज सेवा करने वालों का परिवार संपन्न हुआ. देश को पिछड़ा कहने वाले खुद विकसित हो गए. ईमानदारों की हालत अनाथों जैसी हो गई. नए घोटाले अपने जन्मते ही बूढ़े होने लगे. इतने वर्षों में तिहाड़ देश की आधुनिक पहचान बन गई (किसी विदेशी को देश घूमना है, तो केवल तिहाड़ जेल घूमना ही सुभीता होगा. कम पैसे में, कम मेहनत से, कम परेशान होकर वह अच्छे से एकबारगी ही पूरा देश जान जाएगा).

जब-जब दंगे-जातिगत उत्पीड़न हुए, तो जिम्मेदारों ने इसे कानून-व्यवस्था से जोड़कर देखा और मानस परिवर्तन, समाज सुधार का जिम्मा एनजीओ से जोड़ दिया. इत्ते दिनों में खादी-खाकी इन दो शब्दों को सुनते ही मुंह का स्वत: बिचकना इस बात का प्रमाण है कि हमारे आगे बढ़ने की रफ्तार बहुत ज्यादा (पढ़ें बेलगाम) है. अब तक की हमारे आगे बढ़ने की दिशा दर्शाती है कि आर्थिक प्रगति को ही सभी दर्दों का बाम समझ हम बमबम हैं. हम कब रुक कर सांस लेंगे कहना मुश्किल है. फिलहाल तो हम बढ़े जा रहे हैं… बढ़े जा रहे हैं…

-अनूप मणि त्रिपाठी

उत्तर प्रदेश: एक शहर का कहर

रसूखदार और ताकतवर के लिए उत्तर प्रदेश में नियम-कानून कोई मायने नहीं रखते, यह हाल के समय में कई बार दिखा है. इस सिलसिले में नई कड़ी है राज्य की राजधानी लखनऊ में हाईटेक टाउनशिप बनाने में हो रहा गड़बड़झाला. यह टाउनशिप बना रही रियल एस्टेट क्षेत्र की चर्चित कंपनी अंसल एपीआई कई अनियमितताओं को लेकर सवालों के घेरे में है. तहलका की पड़ताल बताती है कि 3,530 एकड़ क्षेत्रफल में फैली इस विशाल टाउनशिप के बीच में जो भी जमीन आई उस पर अंसल एपीआई का कब्जा हो गया चाहे वह कब्रिस्तान की जमीन रही हो या तालाब-पोखर की. नियमों के अनुसार ऐसी जमीनों को बिल्डर के नाम हस्तांतरित करने का अधिकार सरकार के पास भी नहीं है. फिर भी टाउनशिप के बीच में आने वाले गांवों के तालाब और पोखर पाट कर कहीं गगनचुंबी इमारतें बन रही हैं तो कहीं सड़क और गोल्फ क्लब. कहीं जमीन पर जबरन कब्जा करने के उदाहरण हैं तो कहीं फर्जी रजिस्ट्री करके जमीन हड़पने के. इस सबके चलते टाउनशिप के बीच में आने वाले गांवों के हजारों किसान परेशान हैं. नियम-कानून तोड़ने का यह खेल समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी, दोनों के कार्यकाल में हुआ है. ये दोनों ही पार्टियां खुद को दलितों, पिछड़ों और किसानों की हितैषी कहती हैं. लेकिन इस मुद्दे पर वे खामोश ही रहीं, जबकि यह गड़बड़ी प्रदेश के किसी दूर-दराज के इलाके में नहीं बल्कि राजधानी लखनऊ में हो रही थी. ठीक उनकी नाक के नीचे.

अंसल हाईटेक टाउनशिप की आड़ में यह भ्रष्टाचार कैसे हुआ यह समझने के लिए करीब 13 साल पीछे जाना पड़ेगा. साल 2000 में उत्तर प्रदेश आवास विकास परिषद ने सुल्तानपुर रोड पर 2,700 एकड़ जमीन पर आवास बनाने के लिए कई गांवों की जमीन अधिग्रहण करने के लिए नोटिस जारी किया था. इसका मकसद था राजधानी में बढ़ रही जनसंख्या को देखते हुए लोगों को सस्ते व सुलभ आवास मुहैया कराना. आवास विकास परिषद इन गांवों की जमीनों का अधिग्रहण करके अपनी योजना को अमली जामा पहनाती इससे पहले ही इसमें से 1,527 एकड़ जमीन हाईटेक टाउनशिप के नाम पर अंसल एपीआई को दे दी गई. यह 2004 की बात है. तब प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी. अब आवास विकास परिषद के पास करीब 1200 एकड़ जमीन ही बची थी. इसके बाद उसने अपनी इस योजना से हाथ खींच लिया. 1,200 एकड़ बेशकीमती जमीन कई सालों तक ऐसे ही पड़ी रही. मार्च, 2012 में समाजवादी पार्टी की सत्ता में वापसी के बाद आवास विकास परिषद को अपनी इस जमीन की याद आई और 26 जनवरी, 2013 को  इस 1,200 एकड़ जमीन पर अवध विहार नाम की एक योजना शुरू कर दी गई.

सवाल उठता है कि आम लोगों को सस्ते एवं सुलभ आवास देने के लिए सन 2000 में जिस जमीन के अधिग्रहण का नोटिस जारी कर दिया गया था वह जमीन सरकार ने निजी बिल्डर को क्यों दे दी. वह भी यह जानते हुए कि आवास विकास परिषद जितनी सस्ती दरों पर आवास उपलब्ध करा सकती है निजी बिल्डर उससे कहीं ज्यादा मूल्य वसूलेगा. सूत्रों की मानें तो सरकार और अंसल एपीआई के बीच तालमेल बैठाने में एक रिटायर आईएएस रमेश यादव की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही. यादव को अंसल एपीआई ने अपने यहां अधिशासी निदेशक (ऑपरेशंस) के पद पर रखा है. सपा सरकार के ही एक करीबी आईएएस बताते हैं कि रमेश यादव सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के काफी करीबी हैं.

[box]‘बिल्डर की यह मनमानी प्रशासन की उदासीनता का नतीजा है. यदि वह नियमों को अमल में लाने का प्रयास करता तो हजारों परिवारों की बदतर स्थिति न होती’[/box]

जिस विक्रमादित्य मार्ग पर सपा का प्रदेश कार्यालय और मुलायम सिंह सहित उनके परिवार के अन्य लोगों की कोठियां हैं, उसी विक्रमादित्य मार्ग पर सपा कार्यालय के सामने रमेश यादव की भी विशाल कोठी है. उक्त आईएएस कहते हैं, ‘रमेश यादव जैसे रिटायर अधिकारियों को बड़े बिल्डर अपने यहां मोटी पगार पर इसीलिए रखते हैं कि सरकार चाहे जिसकी हो, ये अधिकारी सरकार में नीतिगत निर्णय लेने की क्षमता रखने वाले पदों पर बैठे दूसरे अधिकारियों से कंपनी प्रबंधन का काम आसानी से करा लेते हैं. आज जो आईएएस अधिकारी नीतिगत निर्णय लेने वाले पद पर बैठा होगा वह कभी न कभी रिटायर आईएएस अधिकारी के साथ या उसके अंडर में काम जरूर कर चुका होगा, जिसके चलते अपने निजी संबंधों का फायदा उठा कर रमेश यादव जैसे रिटायर आईएएस अधिकारी कंपनी के पक्ष में हर तरह का काम कराने में सक्षम होते हैं.’

अंसल की इस हाईटेक टाउनशिप की शुरुआत भले ही समाजवादी पार्टी के शासनकाल में हुई हो लेकिन इसके विस्तार का क्रम बसपा सरकार में भी लगातार जारी रहा. 2004 में सपा सरकार की ओर से हाईटेक टाउनशिप के लिए 1,527 एकड़ जमीन दी गई थी. मई, 2007 में प्रदेश में सत्ता परिवर्तन हुआ और सपा की सरकार चली गई. सूबे में बहुजन समाज पार्टी की पूर्ण बहुमत से सरकार बनी. बसपा सरकार में भी जल्द ही कंपनी की घुसपैठ हो गई और योजना 1,527 एकड़ से बढ़ते हुए धीरे- धीरे 3,530 एकड़ की हो गई. यानी योजना के विस्तार के लिए राजधानी से सटी किसानों की कृषि योग्य बेशकीमती जमीन निजी बिल्डर को देने में खूब दरियादिली दिखाई गई. सूत्र बताते हैं कि अंसल पर सरकार की दरियादिली थी लिहाजा जिला प्रशासन के अधिकारियों ने भी उसके सभी कामों की ओर से आंखें मूंदे रखीं.

अंसल एपीआई पर सरकारी मेहरबानी के बाद बात उसके कारनामों की. कुछ समय पहले तक राजधानी से निकल रहे हाइवे शहीद पथ के किनारे मकदूमपुर ग्राम सभा के भुसवल गांव का कब्रिस्तान होता था. पिछले साल जैसे ही सपा की सरकार बनी, टाउनशिप के पास बने इस कब्रिस्तान पर अंसल एपीआई का कब्जा हो गया. गांववालों के विरोध से कोई फर्क नहीं पड़ा. कंपनी ने डेढ़ बीघा (करीब 4,000 वर्ग फुट) कब्रिस्तान की जमीन पर कब्जा करके वहां चौड़ी सड़क बना दी. इतना ही नहीं, कब्रिस्तान के पास ही अस्पताल बनाने का एक बोर्ड भी लगा दिया गया. मौके पर कोई कब्रिस्तान भी था इसके सारे सबूत मिटा दिए गए. बस तीन पक्की कब्र हैं जो अब बची हैं. भारतीय किसान यूनियन के जिला अध्यक्ष हरनाम सिंह कहते हैं, ‘ग्राम सभा के नक्शे पर वह जमीन आज भी कब्रिस्तान के रूप में ही दर्ज हैं.

मकदूमपुर ग्राम सभा के अंतर्गत ही 10 बीघे का एक श्मशान भी है. इस जमीन पर भी अंसल एपीआई की ओर से कब्जे का प्रयास शुरू किया गया. जमीन पर निर्माण कार्य कराने के लिए बिल्डर की ओर से उसे समतल करके मिट्टी डलवाने का काम किया जाने लगा. जब गांववालों को इसकी भनक लगी तो उनका सब्र जवाब दे गया. जिला प्रशासन में सुनवाई न होते देख गांववाले खुद ही लाठी-डंडा लेकर मौके पर डट गए तब कहीं जाकर बिल्डर ने काम रुकवाया. बीती मार्च में बिल्डर की करतूत से तंग आकर आत्महत्या करने वाले दलित किसान नौमी लाल का भी अंतिम संस्कार गांववालों ने इसी जमीन पर किया है.

कब्रिस्तान और श्मशान की जमीन कब्जा करने के बाद बिल्डर का अगला निशाना तालाब व पोखर हैं. गांव मुजफ्फरनगर के किसानों के लिए अपने पशुओं को चराने और पानी पिलाने का एक आसरा गांव के बाहर स्थित करीब चार बीघे का तालाब था. लेकिन अंसल एपीआई ने तालाब का अधिकांश हिस्सा पाट दिया है. इस पूरे तालाब की जमीन में से एक बड़े हिस्से पर तीन बहुमंजिला इमारतें बनाई जा रही हैं. इसी तालाब के एक हिस्से को सड़क बनाने के लिए पाटा जा रहा है और जो भाग बचा हुआ है उसमें गोल्फ क्लब का विस्तार किया जा रहा है. बिल्डर ने अपनी ओर से तालाब का अस्तित्व मिटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. इसके बावजूद एक ओर तालाब का कुछ भाग बचा हुआ है जिसमें पानी होने के कारण बड़ी-बड़ी जलकुंभी उगी हुई हैं. गांव के अजय यादव बताते हैं कि यदि कभी वे अपने जानवरों को पानी पिलाने के लिए तालाब के बचे हिस्से की तरफ ले जाएं तो बिल्डर की ओर से लगाए गए गार्ड भगा देते हैं. उनके मुताबिक गार्ड कहते हैं कि जानवरों को पानी पिलाने की आड़ में गांववाले यहां चोरी करने आते हैं. अजय कहते हैं, ‘आज हम अपने ही गांव के तालाब पर जाते हैं तो चोर कहलाते हैं.’ पोखर-तालाब  व कब्रिस्तान के लिए सख्त नियम है कि विकास के नाम पर ऐसी जमीनों पर कब्जा नहीं किया जा सकता. यदि टाउनशिप के बीच में तालाब या पोखर आते हैं तो इन्हें पाटने के बजाय इनका सौंदर्यकरण कर विकसित किया जाएगा. इसी तरह कब्रिस्तान के संबंध में नियम है कि उस पर निर्माण करने की बजाय उसके चारों ओर दीवार बनाकर छोड़ दिया जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हो रहा.

ग्रामीणों की मुश्किलें यहीं खत्म नहीं होतीं. 3,530 एकड़ क्षेत्रफल में फैली हाईटेक टाउनशिप के बीच में बसे कई गांवों के किसान आज भी अपनी आजीविका खेतीबाड़ी करके चलाते हैं. लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि खेती की सिंचाई के लिए उनके खेतों तक पानी पहुंचाने के लिए जो नहर बनी हुई थी उसे बिल्डर ने पाट दिया है. किसान आशीष यादव बताते हैं कि निजामपुर, महमूदपुर  घुसवल, मजगंवा, बगियामउ, अहमामउ, हसनपुर खेवली आदि गांवों को पानी पहुंचाने के लिए सरकार की ओर से नहर खुदवाई गई थी जिससे किसान अपनी फसलों की सिंचाई करते थे. यह नहर अब समाप्त हो गई है. वे कहते हैं, ‘नहर को पाट कर कहीं टाउनशिप की सड़क बन गई है तो कहीं उसकी शोभा बढ़ाने के लिए पार्क. नहर पाट दिए जाने के कारण किसानों के खेत तो बीच-बीच में बचे हैं लेकिन उसमें लहलहाती फसलें अब नहीं दिखाई देतीं. लिहाजा किसान दो जून की रोटी को भी मोहताज हो गए हैं.’

गड़बड़ी की झड़ी

  • हाईटेक टाउनशिप के निर्माण के दौरान कब्रिस्तान, श्मशान या तालाब की जमीन पर कब्जा किया जा रहा है जो गैरकानूनी है
  • हाईटेक टाउनशिप नीति के अनुसार बिल्डर को योजना के बीच में आने वाले गांवों का विकास भी करना होता है, लेकिन ऐसा नहीं हुआ है
  • अपनी जमीन पर बिल्डर द्वारा कब्जा किए जाने और इसकी कहीं सुनवाई न होने से व्यथित एक दलित किसान ने हाल ही में आत्मदाह कर लिया
  • ऐसे भी मामले हैं जहां जमीन का भूउपयोग बदलवाए बिना ही बिल्डर ने जमीन बेच दी है और उस पर निर्माण कार्य भी हो चुका है
  • फर्जीवाड़े से एक ऐसे आदमी की जमीन की भी अंसल एपीआई के नाम रजिस्ट्री हो गई जो 1997 से ही लापता है
  • एक मामले में तो बिल्डर ने वह 150 एकड़ जमीन भी गांववालों से खरीद ली जिसके अधिग्रहण का नोटिस सरकार दे चुकी थी

हाईटेक टाउनशिप नीति के अनुसार बिल्डर को योजना के बीच में आने वाले गांवों का विकास भी करना होता है. लेकिन यहां भी रसूखदार बिल्डर ने किसानों के साथ छलावा ही किया है. महमूदपुर गांव में अंसल एपीआई की ओर से कई जगह बोर्ड लगाया गया है जिस पर लिखा है कि ग्राम सभा महमूदपुर की पेयजल व्यवस्था हेतु इंडियामार्का  हैंडपंप के अधिष्ठापन का कार्य चार मई, 2008 को आरंभ किया गया है. बोर्ड के अनुसार पांच साल पूर्व गांव में साफ पानी मुहैया कराने के लिए हैंडपंप लगा दिए गए हैं. लेकिन जहां बोर्ड लगा है वहां एक भी हैंडपंप दिखाई नहीं देता. इसी तरह का एक बोर्ड खुशीराम यादव के घर के बाहर भी लगा हुआ है. यादव परिवार की एक महिला बताती हैं कि नल लगवाने के लिए कंपनी की ओर से एक दिन बोरिंग करने के लिए सामान तो लाया गया लेकिन अगले ही दिन सारा सामान चला गया. उसके बाद किसी ने खबर नहीं ली. नतीजा यह है कि आज भी पूरा गांव कुएं का गंदा पानी पीने को मजबूर है. ऐसा हाल किसी एक गांव का नहीं बल्कि योजना के अंतर्गत आने वाले हर एक गांव का है. किसानों की बदतर स्थिति का आलम यह है कि गांवों को कंटीले तारों या पक्की दीवारों से घेर दिया गया है. गांवों के एकदम बाहर से ही बिल्डर अपनी योजना को अमली जामा पहना रहा है जिसके कारण गांवों के पानी की ठीक से निकासी तक नहीं हो पा रही है.

भारतीय किसान यूनियन के जिला अध्यक्ष हरनाम सिंह कहते हैं, ‘बिल्डर की यह मनमानी प्रशासन की उदासीनता का नतीजा है. यदि जिला प्रशासन हाईटेक टाउनशिप के नियमों को जरा भी अमल में लाने का प्रयास करता तो गांव में रहने वाले हजारों परिवारों की बदतर स्थिति न होती. यह किसानों का दुर्भाग्य है कि उनकी ही जमीन पर हाईटेक टाउनशिप बन रही है जहां उनकी चारदीवारी के बाहर चौबीसों घंटे बिजली-पानी की सुविधा सरकार की ओर से मुहैया कराई जा रही है वहीं उनके गांवों में कुल छह से सात घंटे ही बिजली मिल रही है.’

अंसल एपीआई की सरकार में पकड़ का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह जब चाहे जहां चाहे अपनी योजना के आस-पास की सरकारी जमीनों पर भी कब्जे से नहीं हिचकता. इसका उदाहरण हाईटेक टाउनशिप के पास ही स्थित बरौना गांव में देखने को मिला. गांव के खसरा संख्या एक से 116 तक की करीब 150 एकड़ जमीन आवास विकास परिषद की ओर से अंसल एपीआई को स्थानांतरित नहीं की गई थी. इस जमीन के अपने पक्ष में अधिग्रहण के लिए आवास विकास परिषद साल 2000 में ही नोटिस जारी कर चुकी थी. इसके बावजूद बिल्डर ने आवास विकास परिषद की अनुमति के बगैर बरौना गांव की करीब 80 प्रतिशत जमीन किसानों से सीधे खरीद ली. आवास विकास परिषद को जब इसकी भनक लगी तो आनन-फानन में अधिकारी अपने बचाव के लिए हाई कोर्ट गए. कोर्ट ने कुछ समय पूर्व अपने निर्णय में खसरा संख्या एक से 116 तक की जमीन का फैसला आवास विकास परिषद के पक्ष में सुनाया. उधर, अंसल एपीआई किसानों को मुआवजा दे चुका है लिहाजा पूरा मामला फंस चुका है. गौरतलब है कि 2004 में अंसल को जो 1,527 एकड़ जमीन सरकार की ओर से दी गई थी वह भी आवास विकास परिषद की ही थी. बरौना गांव की जमीन भी आवास विकास परिषद के पास ही थी जो अंसल एपीआई को नहीं दी गई थी.

अंसल एपीआई के रुतबे का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जो अधिकारी इसकी योजना के बीच में आता है उसका तबादला होने में भी देर नहीं लगती. इसका ताजा उदाहरण लखनऊ के पूर्व कमिश्नर संजीव दुबे हैं. सूत्र बताते हैं कि अप्रैल महीने में लखनऊ विकास प्राधिकरण बोर्ड की बैठक होनी थी, जिसमें कुछ ऐसे प्रस्तावों को भी मंजूरी दिलाए जाने की बात थी जो अंसल एपीआई को सीधे लाभ पहुंचा रहे थे. इसमें बरौना गांव की जमीन से जुड़ा मामला भी था. सूत्रों के मुताबिक यह जानकारी जब कमिश्नर को हुई तो उन्होंने मना कर दिया. जिसका नतीजा यह रहा कि दुबे का तत्काल तबादला कर दिया गया. इसके बाद इलाहाबाद के कमिश्नर देवेश चतुर्वेदी को लखनऊ का कमिश्नर बनाया गया. चतुर्वेदी को जब पूरा प्रकरण पता चला तो उन्होंने भी इस पद पर आने से मना कर दिया. लिहाजा थक-हार कर शासन को चतुर्वेदी का स्थानांतरण आदेश निरस्त करना पड़ा. सीनियर आईएएस अधिकारियों के बीच अब इस बात की चर्चा जोरों पर है कि सरकार एक ऐसे आईएएस अधिकारी की खोज कर रही है जो आसानी से अंसल के सारे फंसे हुए पेंच निकाल सके.

इस काम के लिए कोई अधिकारी तैयार नहीं हो रहा लिहाजा पिछले करीब डेढ़ सप्ताह से लखनऊ कमिश्नर का पद रिक्त चल रहा है. सूत्र बताते हैं कि बोर्ड की बैठक में जो निर्णय होने थे उनमें से कुछ भूउपयोग परिवर्तन किए जाने के बारे में भी थे. सूत्रों के मुताबिक दरअसल बिल्डर ने कुछ मामलों में जमीन का भू-उपयोग बदलवाए बिना ही उसे बेच दिया है. इसमें से एक बड़ी जमीन पर वॉलमार्ट का स्टोर काफी दिनों से चल रहा है तो उससे कुछ ही दूरी पर एक पांच सितारा होटल भी बन रहा है. कागजों में जिस जमीन का बिना भूउपयोग बदलवाए निर्माण कार्य हो गया है उसमें से 15.071 हेक्टेयर जमीन वाहन क्रय विक्रय केंद्र एवं 87.47 हेक्टेयर जमीन सामाजिक शोध संस्थाओं एवं सेवाओं के नाम दर्ज है. ऐसे में जो अधिकारी इस काम को अंजाम देता, आज नहीं तो कल जांच में उसकी गर्दन फंसना तय है.

उधर, इस पूरे मामले में किसान हर कदम पर अपने आप को छला महसूस कर रहा है. बिल्डर की कारगुजारी से तंग आकर इसी साल 21 मार्च को दलित किसान नौमीलाल ने आत्मदाह कर लिया. नौमीलाल की पत्नी सुंदरा देवी बताती हैं कि नौ मार्च को उनकी जमीन पर कब्जा करके अंसल ने सड़क बनाने का काम शुरू किया. नौमीलाल ने पहले अंसल एपीआई के अधिकारियों से मिल कर इसकी शिकायत करने का प्रयास किया लेकिन सुनवाई नहीं हुई तो 11 मार्च को नौमीलाल की ओर से पीजीआई थाने में एक लिखित शिकायत की गई. थाने वालों ने भी प्रार्थना पत्र तो रख लिया लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की. 14 मार्च को भाकियू कार्यकर्ताओं ने नौमीलाल के समर्थन में अंसल के कार्यालय के बाहर धरना भी दिया लेकिन कोई असर नहीं हुआ. हर जगह से निराशा मिलते देख नौमीलाल ने 21 मार्च की सुबह खुद को आग के हवाले कर दिया. राजधानी में ही बिल्डर के उत्पीड़न से त्रस्त किसान द्वारा अत्महत्या किए जाने की घटना से प्रशासन का चिंतित होना स्वाभाविक  स्वाभाविक था.  इसके बाद कार्रवाई के नाम पर अंसल प्रबंधन पर गोसाईगंज थाने में मुकदमा लिखा गया. नौमीलाल छह दिन जिंदगी और मौत से जूझते रहे. अंत में 26 मार्च को उनकी मृत्यु हो गई. नौमीलाल की मृत्यु के बाद अंसल एपीआई ने जिला प्रशासन के माध्यम से उसके परिजनों को 15 लाख का मुआवजा दिया.

उधर, कंपनी के अधिशासी निदेशक (ऑपरेशंस) रमेश यादव कहते हैं, ‘नौमीलाल की जिस जमीन पर सड़क बनाई जा रही थी उसका मुआवजा उसे 2004 में ही दिया जा चुका था.’  लेकिन नौमी के परिजन इस बात को सिरे से नकारते हैं. नौमी की बेटी संगीता बताती है, ‘पिता जी के नाम एक ही एकाउंट था. उसमें यदि कोई रकम 2004 में आई होती तो उसका रिकार्ड जरूर होता.’ भाकियू नेता हरनाम सिंह कहते हैं, ‘अंसल एक बार नौमी की जमीन का मुआवजा दे चुका था तो उसने नौमीलाल की मौत के बाद 15 लाख रुपये क्यों दिए. कहीं कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है जिसके कारण कंपनी प्रबंधन को खुद के फंसने का डर सता रहा था. परिवार शांत हो जाए और मामला दब जाए, इसीलिए 15 लाख रुपये दिए गए.’

[box]150 एकड़ जमीन के लिए आवास विकास परिषद साल 2000 में ही नोटिस दे चुकी थी. इसके बावजूद बिल्डर ने  इसमें से 80 फीसदी जमीन किसानों से सीधे खरीद ली[/box]

उदाहरण जमीन पर कब्जा करने के ही नहीं फर्जी तरीके से जमीन की रजिस्ट्री करने के भी हैं. बगियामउ गांव का किसान राम सागर यादव जुलाई, 1997 में घर से बाजार दवा लेने के लिए निकला था, लेकिन वापस नहीं लौटा. परिजनों ने काफी दिनों तक उसकी खोजबीन की. जब कहीं भी उसका पता नहीं चला तो छह अगस्त, 1997 को गोसाईगंज थाने में राम सागर के लापता होने की रिपोर्ट दर्ज कराई गई. राम सागर के भाई राम रूप बताते हैं कि तीन भाइयों के पास 10 बीघा जमीन थी. पूरी जमीन की रजिस्ट्री तीन जून, 2006 को अंसल एपीआई के नाम हो गई. हैरानी की बात यह है कि रजिस्ट्री में तीनों भाइयों राम सागर, राम रूप और रामदेव की फोटो लगी हुईं हैं.

सवाल उठता है कि जो राम सागर 1997 से अब तक गायब है उसके हिस्से की भी जमीन अंसल एपीआई के नाम कैसे रजिस्ट्री हो गई. राम रूप बताते हैं, ‘जिस समय रजिस्ट्री हुई उस समय मेरी और मेरे भाई रामदेव की ही फोटो कागज पर लगी थी. राम सागर की फोटो उस पर नहीं थी. लिहाजा हम दो भाइयों के हिस्से की ही जमीन अंसल को बेची जानी थी लेकिन बाद में पता चला कि अंसल ने पूरी दस बीघा जमीन ले ली है. जब दौड़-भाग कर तहसील से कागजात निकलवाए गए तो सभी अवाक रह गए. दो भाइयों के साथ-साथ राम सागर के हिस्से की जमीन भी अंसल के नाम दर्ज हो चुकी थी और कागजों में दो के स्थान पर तीन फोटो लगी थीं. जिस तीसरे व्यक्ति की फोटो लगी थी उसे राम सागर बना कर जमीन ली गई है. रजिस्ट्री में राम सागर के स्थान पर जिस व्यक्ति की फोटो लगी है उसकी उम्र 50 से 55 साल के बीच की मालूम होती है, जबकि राम सागर की उम्र महज 30 साल थी. ‘

और उदाहरण सिर्फ बड़ी जमीनों के ही नहीं हैं. मेहनत-मजदूरी करके परिवार का पेट पालने वाले ग्रामीणों की छोटी-छोटी जमीनें भी उनसे छिन गईं. राम गोपाल लोधी बताते हैं कि उनके पास कुछ 13 बिस्वा (20 बिस्वा में एक बीघा होता है) जमीन थी. वे कहते हैं, ‘आठ बिस्वा जमीन पर दो भाई मकान बनाकर रहते हैं, पांच बिस्वा जमीन घर के एकदम बाहर तीसरे भाई के हिस्से की बची थी. अंसल एपीआई ने पांच बिस्वा जमीन पर कंटीला तार लगा कर उसे टाउनशिप में ले लिया.’ इस जमीन का न तो राम गोपाल के परिजनों को मुआवजा मिला और न ही कोई लिखा पढ़ी हुई. अकेले राम गोपाल ही नहीं बल्कि मदन, जानकी, प्रेम कुमार, अशोक सहित दर्जनों ऐसे ग्रामीण हैं जिनकी घर के बाहर जो थोड़ी-बहुत जमीन थी उस पर आज बिल्डर का कब्जा हो चुका है.

महमूदपुर निवासी राजपती की तीन बीघा जमीन अंसल एपीआई ने ले तो 2006 में ली थी लेकिन उसका जो चेक दिया गया वह बाउंस हो गया. राजपती बताती हैं कि जमीन उनके पति केसन के नाम थी. तीन बीघा जमीन के बदले उन्हें 3,86, 545 रुपये का बैंक ऑफ इंडिया का चेक दिया गया. चेक पर किसी संजीव नाम के व्यक्ति के हस्ताक्षर थे. राजपती के परिजनों ने जब चेक को गोसाईगंज स्थित विजया बैंक में लगाया तो वह बाउंस हो कर वापस आ गया. राजपती बताती हैं, ‘चेक को लेकर काफी भागदौड़ की गई लेकिन कोई सफलता नहीं मिली.’ परिवार के लोग आज भी चेक को संभाल कर रखे हुए हैं.

नौमीलाल, रामगोपाल, राम सागर और राजपती तो एक उदाहरण भर हैं. हाईटेक टाउनशिप के बीच में आने वाले दर्जनों गांवों के सैकड़ों ऐसे परिवार हैं जिनकी गिनती कल तक अच्छे किसानों में होती थी लेकिन बिल्डर की कारगुजारी के चलते आज वे परिवार का पेट पालने को भी मोहताज हैं. राजपती, राम सागर और राम गोपाल के मामलों में अंसल के अधिशासी निदेशक (ऑपरेशंस) रमेश यादव कहते हैं कि उन्हें इस तरह की कोई जानकारी ही नहीं है. धन-बल के आगे राजधानी लखनऊ में जब किसानों का यह हाल है तो दूर-दराज के इलाकों में विकास के नाम पर जमीन अधिग्रहण के चलते किसानों की क्या दशा होगी, अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं.

मध्यप्रदेश:आधी आबादी, पूरी दावेदारी

धारणाएं बनने में, खास तौर पर जब वे नकारात्मक और महिलाओं से जुड़ी हों, ज्यादा वक्त नहीं लगता. आज से दो दशक पहले जब मध्य प्रदेश में पंचायती राज के चुनाव में महिलाओं को एक तिहाई हिस्सेदारी दी गई तब कई तरह की बातें कही गई थीं. इनमें से ज्यादातर का लब्बोलुआब था कि यह महिलाओं को आरक्षण देने के नाम पर अप्रत्यक्ष रूप से पंचायतों पर पुरुषों का कब्जा बरकरार रखने की ही कोशिश है. उसी समय यह बताने के लिए कि महिलाएं राजनीति नहीं कर सकतीं ‘सरपंच पति’ जैसे जुमले गढ़े गए. इस बीच पंचायतों में महिलाओं को पचास फीसदी आरक्षण भी दे दिया गया. ऐसे में इस धारणा की पड़ताल जरूरी है कि क्या सच में ग्रामीण स्तर पर महिलाओं के बीच से नेतृत्व उभारने की कोशिश कहीं पहुंची है?

मप्र में पंचायत का चुनाव हुए दो साल से भी अधिक का वक्त गुजर चुका है. मगर पंचायत चुनाव के आंकड़े एक जगह नहीं मिलने से राजनीति में महिलाओं की वजनदारी का पता नहीं चल पाता है. लिहाजा यह जानने के लिए तहलका ने पंचायती राज विभाग और चुनाव आयोग से मिले आंकड़ों को इकट्ठा करके जब छानबीन शुरू की तो कई चौंकानेवाले नतीजे सामने आए. सबसे पहला और सुखद निष्कर्ष तो यही मिला कि सालों से पंचायती राज में नेतृत्व की एक प्रभावशाली कड़ी बनी रही इन महिला सरपंचों और पंचों ने सियासत के कई पुरुषों व प्रतीकों को बदल दिया है. कई जगहों पर वे नेता बनने की परिभाषा और भाषा भी बदल रही हैं. यदि 1993 से लेकर अब तक की उनकी इस राजनीतिक यात्रा में जाएं तो उन्होंने इस बीच दो बड़ी पारियां खेली हैं. एक तो मप्र की इन महिलाओं ने सामान्य सीटों पर भी खासी संख्या में मर्दों को पटकनी देकर उनके भीतर से राजनीतिक श्रेष्ठता का भ्रम तोड़ा है.

उनकी दूसरी बड़ी उपलब्धि यह रही कि आरक्षित सीटों पर भी चुनाव दर चुनाव महिला उम्मीदवारों की संख्या बढ़ती रही. कम उम्र और अलग-अलग क्षेत्रों की महिलाएं मैदान में उतरीं, सामान्य महिला सीटों पर दलित या आदिवासी महिला सरपंच बनीं, उनमें से कई दूसरी और तीसरी बार जीतीं और उनमें भी कई जनपद सदस्य और जिला अध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंचीं. इससे जहां काफी हद तक सूबे का सियासी परिदृश्य बदला, काम-काज के तौर-तरीके भी बदले और कई जगह वे आम लोगों को यह एहसास दिलाने में कामयाब रहीं कि उनका नेतृत्व मर्दों से बेहतर हो सकता है.

गौर करने लायक तथ्य यह है कि राजनीति की पहली सीढ़ी कहे जाने वाले पंचायती चुनाव में कुल 3 लाख 96 हजार जन प्रतिनिधि चुने गए और जिनमें से 2 लाख 5 हजार महिलाएं हैं. इनमें भी आधे से अधिक महिलाएं या तो आदिवासी तबके की हैं या दलित और पिछड़े वर्ग की. मप्र में एक सरपंच 1,695 लोगों का प्रतिनिधित्व करता है और इस लिहाज से यहां की करीब 12 हजार महिला सरपंच पौने तीन करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करती हैं. इसका प्रभाव पंचायत के ऊपरी स्तर पर पड़ा है और पचास जिला पंचायत अध्यक्षों में से 30 यानी 60 फीसदी महिलाएं हैं. लेकिन इससे भी अधिक सुखद बात यह है कि यहां छह हजार से अधिक महिला जनप्रतिनिधि ऐसी हैं जिन्होंने सामान्य सीट पर मर्दों को मात दी. यह हाल तब है जब सामान्य सीट को पुरुष आरक्षित सीट बताकर गलत तरीके से महिलाओं को चुनाव लड़ने से रोकने की कोशिश की जाती है.

वहीं महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों के आंकड़े गवाह हैं कि चुनाव में महिला भागीदारिता का ग्राफ तेजी से बढ़ा है. यह सच है कि प्रदेश में जब पंचायती राज कायम हुआ था तब प्रभावशाली लोगों को महिला आरक्षण से काफी खुशी हुई. उन्होंने अपने घर या अपने खेतों में काम करने वाले मजदूर के घर की महिला को आगे करके न केवल राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी की बल्कि उनके नाम पर विकास का पैसा भी हड़पा. हालांकि एक तबका मानता है कि ऐसी बात केवल महिलाओं पर ही नहीं बल्कि उन मर्दों पर भी लागू होती हैं जिनके पद का फायदा कोई दूसरा उठाता है.

बावजूद इसके राज्य की महिलाओं में घूंघट खोलने की राजनीति का चलन बढ़ा है और चुनाव आयोग के कागजात देखें तो पहले सरपंच के चुनाव में महिला आरक्षित सीट पर महिला उम्मीदवार ढूंढ़े से नहीं मिलती थीं और 2010 के चुनाव में सरपंच के एक पद के लिए औसतन दस महिलाएं मैदान में उतरीं. तहलका ने दस जिलों की 1,760 महिला जनप्रतिनिधियों की पड़ताल की तो पाया कि इनमें से आठ सौ से अधिक महिलाओं की उम्र 35 साल से कम है. इनमें गैर आदिवासी इलाके के निजी स्कूलों और अस्पतालों में नौकरी करने वाली कई महिलाएं भी हैं. वहीं इस चुनाव में विदिशा की हिनौतिया और नरसिंहपुर की मड़ेसुर ऐसी पंचायतें हैं जिनमें सभी पदों के लिए महिलाओं को सर्वसम्मति से चुना गया है.

आम तौर पर महिला पंच-सरपंचों को यह कहकर खारिज कर दिया जाता है कि उन्हें राजनीति का तजुर्बा नहीं होता. लेकिन जो जमीनी हकीकत से वाकिफ हैं वे जानते हैं कि राजनीति में महिलाओं का काम करना कितना मुश्किल है. मप्र के बुंदेलखंड और बघेलखंड जैसे महिला हिंसा के लिए बदनाम इलाकों में पंचायती राज के बाद खास तौर से महिला सरपंचों पर जानलेवा हमलों और यौन हिंसा की वारदातों में इजाफा हुआ है. बीते कुछ सालों की वारदातों पर नजर दौड़ाएं तो बुंदेलखंड के छतरपुर जिले की महोई कला पंचायत की दलित महिला सरपंच ने जब विकास के लिए आया पैसा दबंगों को देने से मना किया तो उन्हें निर्वस्त्र कर गांव में दौड़ाया और पीटा गया. इसी तरह, शिवपुरी जिले की सिनावल कला की दलित महिला सरपंच के साथ कई दबंगों ने सामूहिक बलात्कार किया.

[box]जहां दलित या आदिवासी महिलाएं सरपंच बनीं, उन्होंने चुनावी राजनीति समझते हुए क्षेत्र की मतदाता सूची में अपने वर्ग के मतदाताओं के नाम जुड़वाए[/box]

वहीं टीकमगढ़ के पीपराबिलारी की सरपंच गुदीया बाई को दलित होने के चलते स्वतंत्रता दिवस के मौके पर झंडा नहीं फहराने दिया गया. हालांकि ऐसा ही सलूक होशांगाबाद की जिला पंचायत अध्यक्ष उमा आरसे के साथ भी हुआ लेकिन उन्होंने गणतंत्र दिवस पर झंडा फहरा ही दिया. वरिष्ठ पत्रकार विजयदत्त श्रीधर के मुताबिक, ‘ऐसे माहौल में सरकार को चाहिए कि वह विपरीत स्थितियों में काम करने वाली इन जनप्रतिनिधियों के लिए सहयोग और सुरक्षा का एक ढांचा बनाए.’

जाहिर है ऐसी चुनौतियों के बीच यदि कोई वंचित तबके की महिला कामयाब होती है तो उसके नेतृत्व की कीमत का कोई मुकाबला नहीं किया जा सकता. उदाहरण के लिए सागर जिले की पथरिया की दलित फूल बाई सामान्य महिला सीट पर दो सवर्ण महिला उम्मीदवारों को हराकर सरपंच बनीं और उसके बाद उन्होंने न केवल पुलिस के भ्रष्टाचार का एक मामला उजागर किया बल्कि पुलिस से पैसा और अनाज भी वापस लिया. इसी तरह विदिशा जिले के गंजबासौदा की दलित सरपंच नब्बी बाई ने दबंगों से पंचायत की जमीन खाली कराई और वहां दाह संस्कार का बंदोबस्त किया. इसी कड़ी में इन महिला पंच-सरपंचों ने अपने संगठन बनाकर कई सामूहिक लड़ाइयां भी लड़ीं और कानूनों को बदलवाने के साथ ही उन्होंने व्यवस्था को दुरुस्त बनाया. जैसे कि 2010 के चुनाव में महिलाओं के लिए आधा आरक्षण तय करने के बाद बड़े पैमाने पर उन पर हिंसा की आशंका जताई गई थी. ऐसे में महिला जनप्रतिनिधियों के सामूहिक दबाव के चलते राज्य सरकार ने 24 घंटे की ऐसी हेल्पलाइन सेवा शुरू की जिसमें चुनाव के दौरान कोई भी महिला शिकायत कर सकती थी.

इसी तरह, पंचायती राज का एक नियम यह था कि जिनके दो से अधिक बच्चे हैं वे पंचायत का चुनाव नहीं लड़ सकते. इसका सबसे बुरा असर महिलाओं पर ही पड़ा. कई महिलाओं के गर्भपात कराए जाने से उनके शरीर पर इसके दुष्प्रभाव पड़े. साथ ही इस नियम के चलते कई महिलाओं के लिए आरक्षण का कोई मतलब नहीं रह गया. लिहाजा महिला जनप्रतिनिधियों ने जब विरोध किया तो बीते चुनाव में सरकार को यह नियम हटाना पड़ा. जानकारों की राय में मप्र सरकार इन महिला सरपंचों को इसलिए अनदेखा नहीं कर सकती है कि गांव में रहने वाली 70 फीसदी आबादी की दुख और तकलीफों से वे रोज ही दो-चार हो रही हैं. लिहाजा सियासी समीकरणों के चलते राज्य सरकार की नजर में इनकी अहमियत बढ़ गई है.

घर से लेकर सरकारी दफ्तरों की अड़चनों के बीच यदि इन नई सरपंचों ने अपनी मंजिल तय की है तो इसलिए कि इस दौरान उन्हें चुनाव जीतना ही नहीं बल्कि अपनी तरह से पंचायत चलाना भी आ गया. राज्य सरकार में पंचायत एवं सामाजिक न्याय की प्रमुख शासन सचिव अरुणा शर्मा को इन महिला पंच-सरपंचों में जो खास बात नजर आती है वह है पर्यावरण और विकास के प्रति उनका नजरिया. शर्मा के मुताबिक, ‘स्वच्छता के बिना विकास अधूरा है और जिन पंचायतों में सफाई दिखाई देती है वहां पारदर्शिता भी दिखाई देती है.’ तहलका ने जब कई पंचायतों का मुआयना किया तो पाया कि पुरुष सरपंचों ने जहां निर्माण कार्यों को वरीयता दी है वहीं महिला पंच-सरपंचों ने मानवीय मुद्दों को अपने विकास का एजेंडा बनाया है. आम तौर पर शराबबंदी, बालिका शिक्षा, पानी, वृद्धावस्था पेंशन और राशन वितरण पर महिलाओं का अधिक ध्यान होता है और यही वजह है कि उन्होंने ऐसे कामों को सलीके से करते हुए यह साबित किया है कि वे किसी से कम नहीं. इस पूरी जद्दोजहद में जहां महिलाओं के भीतर मौजूद गुणों के चलते उनमें एक नई तरह का नेतृत्व  उभरा है वहीं जिस शैली में उन्होंने वंचितों के विकास की राजनीति की है उससे एक नया रुझान भी आया है.

[box]महिला सरपंच बताती हैं कि वे सरकारी कर्मचारियों से बात करती हैं तो अकेली नहीं बल्कि औरतों के समूह के साथ जाती हैं ताकि सामने वाला उन्हें कमजोर न समझे[/box]

सतना जिले में मिरौवा पंचायत की सरपंच मुन्नी साकेत बताती हैं, ‘पंचायत में ऊंची जाति के लोगों का कब्जा होने के चलते हम लोगों की बात ही नहीं सुनी जाती थी. एक बार मेरा राशन कार्ड बनाने से मना कर दिया गया तब मैंने सरपंच बनने के बारे में सोचा. फिर जब चुनाव की तैयारी की तो पता चला मेरे साथ बहुत लोग हैं. सो आखिर मैं जीत ही गई.’ मुन्नी साकेत का नेतृत्व  इसलिए अहम है कि जिस व्यवस्था में एक दलित महिला का राजनीति में प्रवेश वर्जित है वहां उनके वर्ग के लोगों ने उनके संघर्षों को सफलता दिलाई. यदि मुन्नी साकेत जैसी महिलाएं बदल रही हैं तो इसलिए कि उन्होंने चुनाव की मुहिम में भागीदारी से लेकर जीत की माला पहनने तक यह जान लिया है कि उनमें कुछ है जो उनके लोगों ने उन्हें चुना है. सरपंच बनने के बाद मुन्नी साकेत ने मतदाता सूची में कई दलित मतदाताओं के नाम जुड़वाकर अपने चुनावी क्षेत्र को और मजबूत बनाया है. वहीं पंच से सरपंच की कुर्सी तक पहुंचने वाली रीवा जिले की मउहरा पंचायत की कुसुमकली को वोटों का खेल समझ में आ गया है. वे बताती हैं कि किस तरह से जब इस पंचायत में 16 पंचों में से 9 महिलाएं जीतीं तो उन्होंने आपस में तय करके एक महिला को ही उपसरपंच बनाया.

सीधी जिले में पोस्ता पंचायत की आदिवासी महिला श्याम बाई का मामला दिलचस्प इसलिए है कि उन्हें जैसे ही पता चला कि पंचायत चुनाव की घोषणा हो चुकी है उन्होंने अपनी बकरियां बेचीं और प्रचार के पर्चे बंटवा दिए. उन्होंने तीन ट्रैक्ट्ररों से सैकड़ों लोगों को लेकर सरपंच पद के लिए अपना नामांकन दाखिल किया. इससे पूरे क्षेत्र में चुनावी माहौल गर्माया और श्याम बाई ने इस सामान्य महिला आरक्षित सीट पर भारी बहुमत से जीत हासिल की. पंचायत के चुनाव को लेकर श्यामबाई जैसी आदिवासी महिलाओं का जोश महिला नेतृत्व के नजरिये से एक शुभ संकेत है. वहीं रीवा जिले में देवगांव कला की सरपंच बेटी चौधरी ने रोजाना आठ घंटे पंचायत कार्यालय खोलकर जहां लोगों के सामने अपनी सहज हाजिरी दर्ज कराई है वहीं ग्राम सभा में सभी वंचित वर्गों की सुनवाई सबसे पहले करने की परंपरा शुरू की और राजनीतिक पकड़ बनाई. बेटी चौधरी की रणनीति बताती है कि वे हाशिये की राजनीति करके वापस लौटना चाहती हैं. यही नहीं जिस तरीके से झाबुआ जिले के बीस वार्डों वाली सारंगी पंचायत में आदिवासी महिला फुंदीबाई बीते डेढ़ दशक में तीन चुनाव लड़कर दो बार सरपंच बनीं और जिस शान से मंडला जिले की खापा पंचायत की सरपंच शिवकली बाई ने चौथी बार पंचायत का चुनाव जीतीं और जिला पंचायत सदस्य बनीं उसने जता दिया कि बात चाहे विकास के नारे की हो या सियासत में नाम कमाने की,  वंचित तबके की महिलाएं किसी भी मामले में कमजोर नहीं हैं.

दरअसल इस तबके की महिलाएं काम-काज के चलते खेत-खलिहान से लेकर हाट-बाजारों तक खुली घूमती हैं और उनके सामने घूंघट, पर्दा या चारदीवारी नहीं है. ऐसी स्थिति में मौका मिलने के बाद जब  सवर्णों द्वारा उन्हें जितना दबाया जा रहा है वे उतनी ही मुखर होकर उभर रही हैं. तहलका ने ऐसी कई महिला सरपंचों से बात की तो उन्होंने बताया कि जब वे दबंगों या सरकारी कर्मचारी से बात करती हैं तो अकेली नहीं बल्कि औरतों के समूह के साथ जाती हैं. इससे जहां सबको यह पता लगता है कि वे अकेली नहीं हैं वहीं उनके आसपास भी सुरक्षा का घेरा बना रहता है. वहीं कुछ महिला सरपंचों ने बताया कि वे ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए अपने साथ महिला पंचों और सरपंचों को जोड़कर एक निकाय की तरह काम करती हैं. जाहिर है यदि पंचायत राजनीति की बुनियाद है तो मप्र में महिलाएं पंचायत का चेहरा-मोहरा बन रही हैं. और नेतृत्व  की लगाम जैसे-जैसे मर्दों से महिलाओं के हाथों में आ रही है वैसे-वैसे यहां नेतृत्व  के मायने बदल रहे हैं. खुशी की बात यह है कि इस बदलाव की कड़ी में मर्दों का अहम ही नहीं टूट रहा है बल्कि कई जगहों पर वे उदार भी बन रहे हैं.

भले ही प्रेमचंद की मशहूर कहानी ‘पंच परमेश्वर’ के जरिए हमारी आंखों के सामने न्याय की बेदी पर अलगू चौधरी के रूप में एक पुरुष ही विराजता है. किंतु मप्र में पंचायत की इस आदर्श अवधारणा की पीठ पर आधे से अधिक महिलाओं के सवार होने के साथ ही तस्वीर बदलती हुई नजर आ रही है.

गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज

आईपीएल में मैच फिक्सिंग और सट्टेबाजी के खुलासे के बाद से भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के अध्यक्ष और आईपीएल टीम- चेन्नई सुपर किंग्स के मालिक एन श्रीनिवासन मीडिया से बहुत नाराज हैं. उन्हें लगता है कि मैच फिक्सिंग मामले में ‘मीडिया ट्रायल’ हो रहा है. उनकी नाराजगी की वजह किसी से छिपी नहीं है. श्रीनिवासन के दामाद और चेन्नई सुपर किंग्स के प्रिंसिपल (सीईओ) रहे गुरुनाथ मयप्पन सट्टेबाजी और मैच फिक्सिंग रैकेट में शामिल होने के आरोपों में पुलिस के हत्थे चढ़ चुके हैं. जाहिर है कि श्रीनिवासन पर इस्तीफा देने और बीसीसीआई पर चेन्नई सुपर किंग्स का लाइसेंस खत्म करने का दबाव बढ़ता जा रहा है.

लेकिन श्रीनिवासन को लगता है कि यह मांग सिर्फ मीडिया से आ रही है. उन्होंने एलान कर दिया है कि मीडिया उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर नहीं कर सकता. लेकिन वे भूल रहे हैं कि यही मीडिया है जिसने आईपीएल को आईपीएल बनाया है. न्यूज चैनलों और अखबारों ने शुरू से आईपीएल को जिस तरह हाथों-हाथ लिया, उसे जितनी कवरेज दी और सबसे बढ़कर उसकी चमक के पीछे के अंधेरे को अनदेखा किया, उससे आइपीएल को एक विश्वसनीयता मिली. यह मीडिया ही था जिसने आईपीएल को भारत के अपने पहले सफल लीग की तरह प्रचारित और प्रतिष्ठित किया.

इसलिए आइपीएल को मिले ‘मीडिया हाइप’ का मजा ले चुके श्रीनिवासन अब ‘मीडिया ट्रायल’ की शिकायत किस मुंह से कर रहे हैं? मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू, यह कैसे चलेगा? यह सही है कि जब से श्रीसंथ सहित तीन खिलाड़ियों और विंदू दारा सिंह और मयप्पन की ‘स्पॉट फिक्सिंग’ और सट्टेबाजी के आरोपों में गिरफ्तारी हुई है, मीडिया ने ऐसे आसमान सिर पर उठा रखा है जैसे उसे आईपीएल की चमक के पीछे छिपी बजबजाहट के बारे में आज पता चला है. सवाल यह है कि आज जो चैनल या अखबार आईपीएल की चीरफाड़ में जुटे हुए हैं वे कल तक उस गलाजत से आंखें क्यों मूंदे हुए थे.

क्या चैनलों को यह पता नहीं था कि जैसे हर चमकती चीज सोना नहीं होती, आइपीएल भी शुरू से ही क्रिकेट से ज्यादा पैसे और ग्लैमर के कारण चमक रहा था? सच यह है कि मीडिया को यह सब मालूम था. लेकिन चैनल खुद भी इसी ‘चमक’ से अभिभूत थे. यहां तक कि अधिकांश चैनलों पर क्रिकेट के एक्सपर्ट वे पूर्व खिलाड़ी हैं जिन पर फिक्सिंग के आरोप लग चुके हैं. मजे की बात यह है कि वे अब खिलाड़ियों के लालच और उनमें नैतिकता की बढ़ती कमी पर ‘ज्ञान’ देते हैं. यही नहीं, आईपीएल में सट्टेबाजी की पोस्टमार्टम कर रहे चैनल या अखबार कल तक खुद मैच से पहले सट्टा बाजार में टीमों के भाव बताया करते थे.

इसे कहते हैं, गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज. इसका सबूत यह है कि आईपीएल में फिक्सिंग के आरोपों में एन श्रीनिवासन का सिर मांग रहे अखबार या चैनल उस आईपीएल पर कोई सवाल नहीं उठा रहे हैं जिसे काले धन को सफेद करने के लिए ही खड़ा किया गया है. सट्टेबाजी और नतीजे में फिक्सिंग उसके मूल चरित्र में है. सवाल है कि अगर आईपीएल को खत्म कर दिया जाए तो क्रिकेट का क्या नुकसान होगा. लेकिन यह सवाल कोई चैनल या अखबार नहीं उठाएगा क्योंकि आईपीएल को टेलीविजन यानी मनोरंजन उद्योग के लिए ही बनाया गया है. उसमें बड़े टीवी समूहों (जिनमें न्यूज चैनल भी शामिल हैं) के हजारों करोड़ रुपये लगे हुए हैं और सभी को विज्ञापनों से भारी कमाई हो रही है.

जाहिर है कि चैनल बेवकूफ नहीं हैं कि अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारें. वे तो सिर्फ श्रीनिवासन का सिर दिखाकर दर्शकों को भरोसा दिलाना चाहते हैं कि आईपीएल में अब सब ठीक-ठाक है. वैसे ही जैसे ललित मोदी के बाद राजीव शुक्ल को आईपीएल कमिश्नर और श्रीनिवासन को बोर्ड अध्यक्ष बनाने के बाद हो गया था.

झारखंड:फरारी का खेल!

पिछले कुछ वक्त से झारखंड में सियासी नौटंकी पूरे शबाब पर है. वहां सरकार गिरने, राष्ट्रपति शासन लागू होने, फिर सरकार बनने की संभावना पैदा होने व उस पर विराम लगने की घटनाएं एक के बाद एक हो रही हैं. लेकिन इस किरकिरी से इतर एक और बात राज्य की छवि को धूमिल कर रही है. वह है जनप्रतिनिधियों की फरारी. मजेदार बात यह है कि तीनों फरार प्रतिनिधि खासे नामचीन हैं लेकिन पता नहीं उनकी तलाश कैसे की जा रही है कि वे पकड़ में ही नहीं आ रहे हैं.

पहला नाम सीता सोरेन का है, जो झारखंड मुक्ति मोर्चा प्रमुख शिबू सोरेन की बहू होने के अलावा संथाल परगना के जामा विधानसभा क्षेत्र से विधायक भी हैं. इन्हें लेकर अदालत ने तमाम आदेश जारी किए. कभी गिरफ्तारी का आदेश, कभी कुर्की का तो कभी गिरफ्तारी पर रोक का और अब जमानत का आदेश. उनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट 19 फरवरी को जारी हुआ था. सीता अपने सहयोगी रहे विकास पांडेय नामक शख्स को अपहृत करके बंधक बनाने, मारने-पीटने के आरोप में पिछले ढाई महीने से फरार रहीं. जब सीता पर नोट फॉर वोट मामले में सीबीआई की जांच शुरू हुई थी, उनका सहयोगी विकास पांडेय सरकारी गवाह बन गया था. दर्ज मामले के अनुसार सीता के लोगों ने विकास पांडेय को घर से उठाया और सीता सोरेन के घर ले जाकर उसके साथ मारपीट की. इतना सब होने पर जब  पुलिस और कुछ मीडियावाले उनके आवास पहुंचे तो विकास को विधायक के घर से छुड़वाया जा सका था. हालांकि अब सीता सोरेन को जमानत मिल गई है इसलिए तकनीकी तौर पर अब वह फरार नहीं कही जा सकतीं लेकिन बीच की पूरी अवधि वह फरार रहीं.

दूसरी चर्चित फरार प्रतिनिधि हैं रमा खलखो. रमा राजधानी रांची की महापौर रह चुकी हैं. गत माह जब महापौर चुनाव की प्रक्रिया शुरू हुई तो चुनाव के ठीक एक दिन पहले यानी सात अप्रैल को रांची के एक होटल से 21 लाख 90 हजार रुपये की जब्ती हुई. इस सिलसिले में रमा के दो सहयोगियों को गिरफ्तार भी किया गया. इस मामले में पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत के भाई सुनील सहाय का भी नाम आया. अगले दिन रमा फरार हो गईं, तब से लेकर अब तक उनका कोई अता-पता नहीं है. चार मई को उनके रांची आवास पर कुर्की- जब्ती का इश्तहार भी लगाया जा चुका है.

दो फरार महिला प्रतिनिधियों के बीच एक चर्चित पुरुष नेता भी फरार चल रहे हैं. इनका ताल्लुक भी झारखंड मुक्ति मोर्चा से ही है. ये हैं संथाल परगना के शिकारीपाड़ा विधानसभा क्षेत्र के विधायक नलिन सोरेन. वे मंत्री भी रह चुके हैं. नलिन को साढ़े बारह करोड़ रुपये के बीज घोटाले का आरोपित मानकर उनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया है. इसके बाद खाद घोटाले में भी उनका नाम आया है.

[box]तीनों फरार प्रतिनिधि खासे नामचीन हैं लेकिन पता नहीं उनकी तलाश कैसे की जा रही है कि वे पकड़ में ही नहीं आ रहे हैं[/box]

बहरहाल, इन प्रमुख प्रतिनिधियों के फरार होने की घटना से राज्य के राजनीतिक प्रहसन में एक नया अध्याय जरूर जुड़ा है. कहा जा रहा है कि राज्यसभा चुनाव में नोट फॉर वोट मामले में कुछ और प्रतिनिधि फरारी को तैयार हैं. वे प्रतीक्षा में हैं कि उनके खिलाफ मुकदमा खुले और वे अदृश्य हो जाएं.

झारखंड की राजनीति में यह कोई नई बात नहीं है. गत वर्ष कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सावना लकड़ा भी एक हत्याकांड में कई माह फरार थे. भाजपा के नेता व पूर्व मंत्री सत्यानंद भोक्ता की फरारी भी चर्चा में रही है. स्वास्थ्य मंत्री रह चुके भानुप्रताप देहाती भी एक वक्त फरार होकर खूब चर्चित हुए थे.

भाकपा माले विधायक विनोद सिंह कहते हैं, ‘न्यायालय ने भले ही राहत की बात की हो लेकिन जहां तक सरकार की बात है तो वह इतनी कमजोर नहीं है कि विधायक या किसी अन्य को गिरफ्तार न कर सके. यह सब सरकार और पुलिस की मिलीभगत से हो रहा है. सरकार सख्त हो तो वारंट निकलने के बाद लोगों को दुनिया के किसी कोने से खोजा जा सकता है. रमा खलखो के यहां जब छापा पड़ा तो रमा और सुबोधकांत भी थे पर उन्हें भगा दिया गया.’

वहीं विधायक बंधु तिर्की कहते हैं, ‘ये सब फरार कहां हैं? नलिन सोरेन रोज चश्मा लगाकर घूमते दिखते हैं. रमा भी घर के पास ही रहती हैं और रोज सुबह घर आती हैं. यह कहना सही होगा कि सरकार इन्हें गिरफ्तार नहीं करना चाहती.’

आशा थी कि पुलिस अधिकारी इन मामलों पर कुछ रोशनी डालेंगे लेकिन वे कुछ भी स्पष्ट कहने से कतराते नजर आए, आईजी (प्रोविजन) आरके मल्लिक ने प्रक्रिया की जानकारी देते हुए कहा कि जो भी व्यक्ति फरार होता है उसके घर एक माह का नोटिस लगाकर एक माह के अंदर कुर्की होती है. फिर उसकी समीक्षा होती है और उसके बाद उनकी संपत्ति को जब्त किया जाता है या कानूनी कार्रवाई की जाती है. उन्होंने भी इन मामलों के बारे में कोई खास मालूमात होने से इनकार किया. वहीं पुलिस प्रवक्ता रिचर्ड लाकड़ा से तमाम कोशिशों के बावजूद संपर्क नहीं हो सका.

उत्तराखंड: ‘ठंडे’ पर सरगर्मी

उत्तराखंड में जमीन से शुरू होने वाले विवादों का सिलसिला थमता नहीं दिख रहा. ताजा विवाद ‘कोका कोला’ कंपनी को जमीन आवंटित करने का है. इस पर गहराई से नजर डाली जाए तो साफ दिखता है कि राज्य सरकार न सिर्फ निवेश की हड़बड़ी में स्थानीय हितों की उपेक्षा कर रही है बल्कि वह अतीत से कोई सबक सीखने को भी तैयार नहीं.

बीती 17 अप्रैल को राज्य सरकार ने हिंदुस्तान कोका कोला बेवरेज प्राइवेट लिमिटेड के साथ एक करार किया था. इसके मुताबिक कंपनी उत्तराखंड में 600 करोड़ रुपये का पूंजी निवेश करके प्लांट लगाएगी. मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की उपस्थिति में हुए इस करार को सरकार ने बड़ी उपलब्धि के रूप में प्रचारित किया. कोका कोला से हुए समझौते के अनुसार राज्य सरकार कंपनी को देहरादून जिले की विकास नगर तहसील के छरबा गांव में लगभग 70 एकड़ (368 बीघा) जमीन 95 लाख रुपये प्रति एकड़ (19 लाख रुपये प्रति बीघा) के भाव पर देगी. प्रस्तावित प्लांट में नान अल्कोहलिक कार्बोनेटेड बेवरेज और जूस बनेगा जिससे 1,000 लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिलने की संभावना है.

कोका कोला का यह निवेश औद्योगिक क्षेत्र सिडकुल फेज-2 की शुरुआत होने के आठ महीने बाद उत्तराखंड में पहला बड़ा औद्योगिक पूंजी निवेश था. पिछले कुछ सालों से बड़े उद्योग उत्तराखंड की ओर रुख नहीं कर रहे थे. उल्टे औद्योगिक पैकेज में मिलने वाली छूट में हुई कटौती के कारण कई कंपनियां यहां से काम समेटने की फिराक में थीं. ऐसे में सरकार ने कोका कोला के निवेश को बड़ी उपलब्धि बताया. लेकिन इस बड़े पूंजी निवेश की खुशी ज्यादा दिन नहीं टिकी. करार के चार दिन बाद ही चर्चित पर्यावरणविद वंदना शिवा ने इस पर सवाल उठा दिए. 21 अप्रैल को देहरादून में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने सरकार के इस फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण बताया. वंदना शिवा ने कोका कोला कंपनी को ‘पानी का लुटेरा’ बताते हुए आरोप लगाया कि देश में जहां भी कंपनी के प्लांट लगे हैं वहां पानी आम आदमी की पहुंच से बाहर चला गया है. उन्होंने सरकार को सुझाव दिया कि उसे पहले केरल के प्लाचीमाड़ा और उत्तर प्रदेश में बनारस के पास मेहंदीगंज जाकर वहां की हालत देखनी चाहिए और तब कोका कोला को छरबा में प्लांट स्थापित करने की इजाजत देनी चाहिए.

वैसे इस पूरे विवाद की पड़ताल की जाए तो सरकार की अदूरदर्शिता साफ दिखती है. देहरादून से लगभग 32 किमी दूर सहसपुर कस्बे से थोड़ा आगे बढ़ते ही छरबा गांव शुरू हो जाता है. सड़क पर ही राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता ग्राम सभा छरबा का बोर्ड लगा है. ग्राम प्रधान रोमी राम जायसवाल बताते हैं कि पिछले साल ही उनकी ग्राम सभा छरबा को राष्ट्रीय स्तर पर शराबबंदी के लिए प्रथम पुरस्कार मिला था. वे बताते हैं कि छरबा को जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर अनेक पुरस्कार मिले हैं. 80 के दशक में भी इसे उत्तर प्रदेश में सबसे अच्छे वृक्षारोपण के लिए पुरस्कार मिला था. गांव के पश्चिम में आसन और उत्तर में शीतला नदी बहती है. आसन में साल भर पानी रहता है लेकिन शीतला बरसाती नदी है. गांव छह किमी लंबाई और छह किमी चौड़ाई में बसा है, इसीलिए इसका नाम छरबा पड़ा. 1,659 परिवारों का यह गांव कई मायनों में आदर्श है. करीब 10 हजार की आबादी में 40 फीसदी मुसलमान हैं और 60 फीसदी हिंदू. गांव में छोटे बच्चों के लिए 18 आंगनबाड़ी केंद्र चल रहे हैं.

[box]‘जिस भूमि का चयन सरकार ने कोका कोला प्लांट लगाने के लिए किया है उस पर ग्रामीण कृषि विकास के लिए अनुसंधान केंद्र स्थापित करना चाहते थे’[/box]

ग्राम सभा ने 120 आवारा गायों के लिए शेल्टर बनाया है. ये गायें ग्रामीणों ने समय-समय पर कसाइयों से छुड़वाई थीं. गांव के पूर्व प्रधान मुन्ना खां बताते हैं, ‘कसाइयों से गायों को छुड़वाने वालों में मुस्लिम भाई आगे रहते हैं.’ गांव के 70 साल के बुजुर्ग मोर सिंह बताते हैं, ‘गांव के लोग 40 साल पहले पानी के लिए दो कुओं, तालाब या तीन किलोमीटर दूर आसन नदी के पानी पर निर्भर थे.’ पानी न होने से तब गांव के अधिकांश खेत बंजर ही रहते थे. वे बताते हैं, ‘हालत इतनी बदतर थी कि पानी की कमी के चलते आस-पास के गांवों के लोग छरबा में अपनी बेटियों को ब्याहने से कतराते थे.’ सरकारें हैंडपंप लगाने की कोशिश करती थीं, लेकिन जल स्तर बहुत नीचे होने के कारण पानी नहीं आ पाता था. मोर सिंह बताते हैं, ‘तब गांववालों ने इस समस्या का हल खुद निकालने की सोची. आज 40 साल की मेहनत के बाद गांव में 68 एकड़ (520 बीघा) भूमि पर खैर, शीशम और पेड़ों की अन्य प्रजातियों का घना जंगल है. इससे जल स्तर 150 फुट के लगभग आ गया है. जहां कभी खराब भू जल स्तर के कारण हैंडपंप नहीं चल पाते थे, वहां आज 14 ट्यूब वेल और 22 हैंडपंप काम कर रहे हैं. ‘प्रधान रोमी राम जायसवाल बताते हैं, ‘गांव के बुजुर्गों की मेहनत से आज छरबा में अन्न और जल की कोई कमी नहीं है.’

लेकिन 18 अप्रैल की सुबह जब गांववालों को गांव की लगभग 70 एकड़ (368 बीघा) भूमि कोका कोला कंपनी को देने की खबर अखबारों के माध्यम से मिली तो उनके पांवों तले जमीन खिसक गई. कोका कोला को दी जाने वाली भूमि में गांव के लोगों द्वारा पाला-पोसा गया गांव का जंगल तो था ही पास बहने वाली शीतला नदी का बड़ा हिस्सा भी इसकी जद में आ रहा था. लोगों में रोष है कि जिनके जीवन पर इस फैसले का सबसे ज्यादा असर होना है उन्हें सरकार ने पूछा तक नहीं. प्रधान जायसवाल कहते हैं, ‘हमारी ग्राम सभा से कभी भी कोका कोला प्लांट स्थापित कराने का प्रस्ताव पारित नहीं कराया गया.  न ही सरकार ने इस विषय में हमसे कभी कोई राय या सहमति ली.’ गांव के लोग बताते हैं कि 2006 में तत्कालीन जिलाधिकारी ने गांव की भूमि दून विश्वविद्यालय को देने के लिए एक बैठक बुलाई थी.

ग्रामीणों ने शिक्षा के पवित्र उद्देश्य के लिए भूमि कुछ शर्तों पर देने पर सहमति जताई थी. उनकी पहली शर्त थी कि दो साल की समय सीमा के भीतर विश्वविद्यालय के भवन का निर्माण होना चाहिए. दूसरी शर्त के अनुसार ग्राम पंचायत की जमीन को लीज पर लिए जाने पर सरकार को ग्राम पंचायत के खाते में कुछ पैसा डालना था. सरकार ने 27 मार्च, 2006 को शासनादेश जारी करके छरबा गांव की लगभग 40 हेक्टेयर (520 बीघा) भूमि दून विश्वविद्यालय को सेंटर ऑफ एक्सिलेंस बनाने के लिए आवंटित कर दी थी. लेकिन सात साल बीत गए और कुछ नहीं हुआ. हाल ही में गांववालों को राजस्व दस्तावेजों से पता चला कि लगभग छह महीने पहले सरकार ने ग्राम सभा की 520 बीघा भूमि ग्राम सभा के नाम से निकाल कर पहले तो दून विश्वविद्यालय के नाम स्थानांतरित कर दी और फिर गुपचुप तरीके से इसे सिडकुल के नाम दर्ज कर दिया. इसी जमीन में से 368 बीघा जमीन कोका कोला कंपनी को बेची जा रही है.

वैसे ग्रामीणों को बहुत पहले से इसकी आशंका थी. इसीलिए जिस भूमि का चयन सरकार ने हाल में कोका कोला प्लांट लगाने के लिए किया है उस पर ग्रामीण कृषि विकास के लिए अनुसंधान केंद्र स्थापित करना चाहते थे. दो साल पहले छरबा के ग्रामीणों ने विधानसभा के सामने इस जमीन पर कृषि अनुसंधान केंद्र स्थापित करने के लिए धरना भी दिया था. एक बैंक इस जमीन के 60 बीघा हिस्से में कृषि अनुसंधान केंद्र स्थापित करने के लिए ग्राम पंचायत की मदद करने के लिए तैयार था. पूर्ववर्ती निशंक सरकार ने तब इस जमीन को कृषि अनुसंधान संस्थान के बजाय जड़ी-बूटी शोध संस्थान को आवंटित करने का प्रस्ताव मंगवाया था. लेकिन यह प्रस्ताव भी रद्दी की टोकरी में चला गया. छरबा गांव की जमीन के विषय में यह भी दिलचस्प तथ्य है कि कुछ समय पहले जब प्रधान रोमी राम जायसवाल के नेतृत्व में ग्रामीण विधानसभा के सामने धरने पर बैठे थे तो मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा, जो उस समय टिहरी के सांसद थे, ने ग्रामीणों का समर्थन करते हुए धरना स्थल पर आकर वादा किया था कि छरबा गांव की इस जमीन का अधिग्रहण नहीं होने दिया जाएगा. ग्रामीणों का आरोप है कि पहले अधिग्रहण तक न होने देने का वादा करने वाले बहुगुणा मुख्यमंत्री बनने के बाद इस जमीन को औने-पौने दामों में बहुराष्ट्रीय कंपनी को बेचने पर आमादा हैं.

कोका कोला कंपनी कई दूसरी जगहों पर अपने प्लांटों को लेकर विवादों में रही है. भयानक जल दोहन किए जाने से जल स्तर नीचे जाने से स्थानीय खेती चौपट होने का उदाहरण हो या उसके प्लांट से निकलने वाले कचरे में मौजूद कैडमियम, क्रोमियम और लेड जैसे जहरीले रसायनों से स्थानीय जन-जीवन और पर्यावरण को होने वाला नुकसान, कंपनी लगातार सवालों के घेरे में रही है. सरकार को पता था कि कंपनी के लिए भूजल दोहन पर बवाल मचेगा, इसलिए अधिकारियों ने कोका कोला के साथ एमओयू करते समय ही यह घोषणा कर दी कि कंपनी भूजल का उपयोग नहीं करेगी. लेकिन सरकार ने अभी तक अधिकारिक रूप से यह नहीं बताया है कि पूरी तरह से साफ पानी पर आधारित कोका कोला कंपनी भूजल नहीं लेगी तो पानी आएगा कहां से. सरकारी अधिकारी अपुष्ट रूप से बताते हैं कि कंपनी को पानी यमुना पर बने डाकपत्थर बैराज या आसन बैराज से दिया जाएगा. इन बैराजों में इकट्ठा पानी से उत्तराखंड की तीन और उत्तर प्रदेश की दो जल विद्युत परियोजनाएं चलती हैं. पहले ही पानी की किल्लत के कारण ये परियोजनाएं पूरी क्षमता से नहीं चल पा रहीं. जानकारों के मुताबिक कोका कोला को पानी देने पर इन परियोजनाओं का भी ठप पड़ना तय है. यानी बिजली उत्पादन में कटौती.

सामाजिक कार्यकर्ता और जल बचाओ आंदोलन के सूत्रधार सुरेश भाई कहते हैं, ‘पानी राज्य सरकार की संपत्ति नहीं है, और न ही इस पानी के उपयोग के लिए राज्य सरकार अकेले कोई फैसला ले सकती है.’ सुरेश भाई का मानना है कि राज्य सरकार कोका कोला कंपनी को देने के लिए डाकपत्थर या आसन बैराज से पानी नहीं ले सकती. इससे पहले उसे हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली की सरकारों के अलावा केंद्र की भी सहमति लेनी पड़ेगी. जायसवाल कहते हैं, ‘सरकार गांववालों को धोखे में रखने के लिए बैराज से पानी लेने की बात प्रचारित कर रही है. वास्तव में कंपनी को पानी के लिए भूजल ही लेना होगा जिसके लिए गांववाले कभी राजी नहीं होंगे.’ छरबा के लोग अपने गांव के पानी और जंगल को बचाने के लिए हर हद तक जाने को तैयार हैं.

ग्रामीणों और पर्यावरणविदों की दूसरी आशंका प्लांट से निकलने वाले दूषित जल को लेकर है. इस गांव से निकलने वाला यह जल ढलान से होते हुए आसन नदी और आसन बैराज में मिलेगा. 4,440.40 हेक्टेयर में फैले आसन बैराज में हर साल करीब 250 से अधिक प्रजाति के विदेशी पक्षी आते हैं. पक्षी विशेषज्ञों का आकलन है कि इससे पक्षियों का यह बसेरा उजड़ जाएगा. छबरा गांव में दिख रहे गिद्धों की अच्छी-खासी संख्या भी इस क्षेत्र की जैव विविधता को सिद्ध करती है. कोका कोला विवाद के कारण सरकार की निकाय चुनावों से पहले फजीहत तो हुई ही, लेकिन दूसरी ओर छबरा गांव द्वारा सालों से किए जा रहे क्रांतिकारी कार्यों पर भी सबकी नजर पड़ी. गांववालों को आशंका है कि कोका कोला के कारण कहीं वे 40 साल पहले की पेयजल की किल्लत की स्थिति में न पहुंच जाएं जिससे उबरने के लिए उनके बुजुर्गों ने 40 साल तक तपस्या की है. यानी एक तरफ अदूरदर्शी तरीके से जमीन को बेचने का फैसला करने वाली राज्य सरकार है और दूसरी तरफ उसे मां की तरह पालने और बचाने के लिए संघर्ष करने वाले लोग. अब सवाल यह है कि उनके संघर्ष की परिणति क्या होगी.

मुश्किल में टाइटलर

क्या है कोर्ट का हालिया आदेश?

1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के सिख विरोधी दंगे के साये एक बार फिर से कांग्रेस नेता जगदीश टाइटलर पर पड़ने लगे हैं. दिल्ली की एक अदालत ने सीबीआई को एक बार फिर से आदेश दिया है कि वह 1984 के दंगों में टाइटलर की संलिप्तता की फिर से जांच करे. कोर्ट ने यह फैसला दंगों के पीड़ित एक व्यक्ति की याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया. 10 अप्रैल को आए इस आदेश के बाद एक बार फिर से जगदीश टाइटलर के राजनीतिक भविष्य और सीबीआई की संदिग्ध भूमिका पर बहस छिड़ गई है. सीबीआई ने सबूतों के अभाव का हवाला देते हुए 2009 में इस मामले में क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर दी थी.

टाइटलर पर क्या आरोप हैं? 
टाइटलर उन तीन बड़े कांग्रेसी नेताओं में से एक हैं जिन पर आरोप है कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए सिख विरोधी दंगों के दौरान उन्होंने लोगों को भड़काया और उस हिंसक भीड़ की अगुवाई की जिसने एक नवंबर, 1984 को तीन सिखों की हत्या कर दी थी. इसके अलावा उनके भड़कावे के कारण दिल्ली में कई और जगहों पर सिखों का कत्लेआम हुआ. 1984 के इन दंगों में तीन हजार से भी ज्यादा लोगों की जानें गई थीं. इन दंगों में टाइटलर के अलावा दो और बड़े कांग्रेसी नेताओं एचकेएल भगत और सज्जन कुमार का नाम सामने आया था. एचकेएल भगत की मृत्यु हो चुकी है, जबकि सज्जन कुमार के खिलाफ अदालत में मामला लंबित है.

मामला फिर से क्यों सामने आया है? 
टाइटलर के खिलाफ सीबीआई द्वारा क्लोजर रिपोर्ट दाखिल करने के बाद मामला खत्म हो गया था. इसके फैसले के विरोध में कोर्ट में अपील दायर की गई थी जिसमें यह दलील दी गई है कि सीबीआई ने इस मामले में कई अहम गवाहों से पूछताछ नहीं की. इन्हीं दंगों में अपने पति को खो चुकी एक महिला लखविंदर कौर के मुताबिक जांच एजेंसी ने दो ऐसे गवाहों से बातचीत ही नहीं की जो इस घटना के चश्मदीद थे और महत्वपूर्ण जानकारियां दे सकते थे. अदालत ने सीबीआई को आदेश दिया है कि वह इन गवाहों से पूछताछ करने के बाद फिर से जांच रिपोर्ट दाखिल करे. अदालत के इस फैसले से टाइटलर की मुश्किलें बढ़ सकती हैं. उनका राजनीतिक भविष्य भी अधर में लटक गया है.
-प्रदीप सती

उल्टा पड़ता दांव

जांच आयोग की रिपोर्ट पर राज्य की विपक्षी पार्टी भाजपा विरोध जता रही है. फोटो: वीरेंद्र नेगी
जांच आयोग की रिपोर्ट पर राज्य की विपक्षी पार्टी भाजपा विरोध जता रही है. फोटो: वीरेंद्र नेगी
जांच आयोग की रिपोर्ट पर राज्य की विपक्षी पार्टी भाजपा विरोध जता रही है. फोटो: वीरेंद्र नेगी
जांच आयोग की रिपोर्ट पर राज्य की विपक्षी पार्टी भाजपा विरोध जता रही है. फोटो: वीरेंद्र नेगी

भाजपा सरकार के पिछले कार्यकाल में हुई कथित अनियमितताओं की जांच के लिए गठित भाटी आयोग की रिपोर्ट आने के बाद उत्तराखंड में पक्ष-विपक्ष के बीच शुरू हुआ घात-प्रतिघात का दौर थमता नहीं दिख रहा. भाजपा को साधने के लिए जांच रिपोर्ट को हथियार की तरह इस्तेमाल करती दिख रही कांग्रेस अब रिपोर्ट के खुलासे के बाद नित बदलते घटनाक्रम से खुद फंसती नजर आ रही है.

अतीत बताता है कि उत्तराखंड में हर नई सरकार अपने से पहली सरकार के कार्यों की जांच कराने के लिए जांच आयोगों का गठन करती रही है. 13 साल में अलग-अलग सरकारों ने उत्तराखंड में दर्जन भर से अधिक जांच आयोग बनाए. इन आयोगों पर जनता की गाढ़ी कमाई के करोड़ों रुपये खर्च हो चुके हैं. इनमें से अधिकांश की जांच पूरी ही नहीं हो पाई. जिनकी जांच पूरी हुई भी तो उन्हें गठित करने वाली सरकारों ने जांच रिपोर्ट विधानसभा के पटल पर नहीं रखी. ऐसे में यह आरोप लगना अस्वाभाविक नहीं कि ऐसे आयोग बस दो दलों की नूराकुश्ती होते हैं.

खैर, जांच आयोगों के गठन की परंपरा आगे बढ़ाते हुए कांग्रेस की विजय बहुगुणा सरकार ने भी सरकार बनने के लगभग छह महीने बाद एक सदस्यीय भाटी आयोग के गठन की अधिसूचना जारी कर दी थी. इसका काम था पिछली भाजपा सरकार में हुई कथित अनियमितताओं की जांच. पूर्व नौकरशाह केआर भाटी को पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के छह विवादास्पद मामलों की जांच करनी थी. इनमें ऋषिकेश में सिटजुरिया कंपनी को औद्योगिक भूमि में दी गई छूट, लद्यु और सूक्ष्म जल विद्युत परियोजनाओं के आवंटन में हुई अनियमितता, कुंभ मेला-2010 में हुए कथित घोटाले, उत्तराखंड बीज और तराई विकास निगम में 2007 से 2012 के बीच हुई गड़बड़ी जैसे  मामले शामिल थे.

पांच मार्च, 2013  को भाटी आयोग ने तराई बीज विकास निगम की जांच रिपोर्ट मुख्यमंत्री बहुगुणा को सौंप दी. उस समय बजट सत्र और जल्दी होने वाले शहरी निकाय चुनावों को देखते हुए भाजपा राज्य की कांग्रेस सरकार पर खासी आक्रामक थी. सड़कों पर और मीडिया में गरीब मजदूरों के घरों के लिए आरक्षित सिडकुल की जमीन बिल्डरों को देने और टिहरी बांध के विस्थापितों को आवंटित जमीन में हुए खेल की गूंज थी. कैबिनेट में भू-कानून की कुछ धाराओं में बदलाव करने के मुद्दे पर भी इतना बवाल हो रहा था कि मुख्यमंत्री को खुद सफाई देने के लिए प्रेस के सामने आना पड़ रहा था.

भाटी आयोग की रिपोर्ट विधानसभा में पेश होने से पहले लीक हो गई. साथ ही इस जांच में एक पूर्व मुख्यमंत्री के दोषी पाए जाने की अफवाह उड़ गई. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि रिपोर्ट के अंश लीक करके कांग्रेस सरकार भाजपा को डराना चाहती थी.

[box]भाटी आयोग की जांच रिपोर्ट से उपजा विवाद उत्तराखंड के कृषि मंत्री हरक सिंह की विधानसभा सदस्यता के लिए भी खतरा बन गया है[/box]

लेकिन बात नहीं बनी. बजट सत्र में भाजपा के आक्रामक तेवरों में कोई कमी नहीं आई. उधर, कांग्रेस भी पीछे हटने को तैयार नहीं थी. सत्र के दौरान ही कृषि मंत्री हरक सिंह ने भाटी द्वारा सौंपी गई तराई बीज विकास निगम की जांच रिपोर्ट विधानसभा में रखने का ऐलान कर दिया और सरकार ने लीक होकर सभी महत्वपूर्ण हाथों तक पहुंच चुकी आयोग की रिपोर्ट को रस्मी तौर पर बजट सत्र में रखकर सार्वजनिक कर दिया.

तहलका ने 15 अप्रैल, 2011 के अंक में तराई बीज विकास निगम के अध्यक्ष हेमंत द्विवेदी की अनुचित नियुक्ति, बोरों की खरीद में धांधली, बिना प्रमाणीकरण के कहीं से भी बीज खरीद कर निगम के प्रतिष्ठित बीज ब्रांड को समाप्त करने के षड्यंत्र जैसी अनियमितताएं उजागर की थीं. भाटी आयोग ने भी इन्हीं बिंदुओं को जांच का आधार बनाया. तहलका ने उस समय उपलब्ध सरकारी दस्तावेजों के तथ्यों से जिन गड़बड़ियों का खुलासा किया था उन सभी की भाटी आयोग की जांच में पुष्टि हो गई. आयोग की रिपोर्ट पर मंत्रिमंडल के निर्णय को आगे बढ़ाते हुए कृषि मंत्री हरक सिंह ने इन सभी मामलों में ‘निहित आपराधिक कृत्यों’ के संबंध में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने का निर्णय ले लिया.

दरअसल भाटी आयोग ने इस मामले में पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’, तराई बीज विकास निगम के अध्यक्ष हेमंत द्विवेदी और कुछ आईएएस अधिकारियों को दोषी पाया है. कृषि मंत्री हरक सिंह ने एक ओर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करके पूर्व मुख्यमंत्री निशंक और हेमंत द्विवेदी के लिए परेशानी खड़ी कर दी है तो दूसरी ओर उनके आदेश में तराई बीज विकास निगम के निर्णयों में शामिल अधिकारियों के संबंध में आयोग की सिफारिशों के अनुसार शासन स्तर पर कार्रवाई की बात है. सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी दर्शन भारती कहते हैं, ‘इससे सिद्ध हो जाता है कि उत्तराखंड में भले ही नेताओं को उनके असंवैधानिक कार्यों के लिए घेरा जा सकता हो, लेकिन दागी अधिकारियों पर उंगली उठाने की हिम्मत यहां के राजनेताओं में नहीं है.’

उधर, भाजपा ने भाटी आयोग की जांच रिपोर्ट को एकतरफा बताया. पूर्व मुख्यमंत्री निशंक ने आरोप लगाया कि उनके बयान तक नहीं लिए गए तो हेमंत द्विवेदी ने उच्च न्यायालय की शरण ली. रिपोर्ट के सार्वजनिक होने के बाद सरकार की विपक्ष को बैकफुट पर लाने की रणनीति कामयाब होती नजर आ रही थी. इस बीच पूर्व मंत्री त्रिवेंद्र रावत ने भाटी और मुख्यमंत्री के करीबी कांग्रेस विधायक के नजदीकी संबंधों की बात सार्वजनिक कर दी. भाजपा के आक्रामक रुख को देखते हुए केआर भाटी ने जांच आयोग से इस्तीफा दे दिया. सरकार ने भी सुशील त्रिपाठी को जांच आयोग का अध्यक्ष बना दिया. साथ ही उसने भाटी आयोग की जांच रिपोर्ट के आधार पर आनन-फानन में प्रथम सूचना रिपोर्ट भी दर्ज करा दी.

लेकिन पुख्ता तथ्यों के बावजूद यह रिपोर्ट भाजपा के बजाय उल्टे सरकार पर भारी पड़ने लगी. तत्कालीन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ने इस पर सवाल उठाया. उनका कहना था, ‘यदि तराई बीज विकास निगम के अध्यक्ष पद पर हेमंत द्विवेदी की नियुक्ति असंवैधानिक थी तो फिर मुख्यमंत्री बहुगुणा ने कृषि मंत्री हरक सिंह को कैसे इस पद पर नियुक्त किया है?’ दरअसल निगम के आर्टिकिल ऑफ एसोसिएशन की धारा 111, धारा 147 और पूर्व बैठकों में पारित निर्णयों के अनुसार इस संस्था के अध्यक्ष पद पर किसी  गैरसरकारी व्यक्ति की नियुक्ति नहीं हो सकती. ऐसे में पूर्व मुख्यमंत्री निशंक के फंसने का आधार बनने वाली धारा 147 से कांग्रेस भी घिर रही थी. उधर, सरकार का यह तर्क था कि मंत्री अपने अधीन किसी भी विभाग या निगम का मुखिया हो सकता है. यह तर्क किसी को पचा नहीं.

भाटी आयोग की रिपोर्ट से उपजा विवाद हरक सिंह की विधानसभा सदस्यता के लिए भी खतरा बन गया है. भाजपा ने अप्रैल के पहले सप्ताह में राज्यपाल से मुलाकात करके उनसे कृषि मंत्री की विधानसभा सदस्यता समाप्त करने के लिए चुनाव आयोग को पत्र लिखने की मांग की. भाजपा नेताओं ने राज्यपाल को दिए ज्ञापन में आरोप लगाया है कि हरक सिंह को कृषि मंत्री के साथ-साथ तराई बीज विकास निगम के अध्यक्ष पद पर नामित किया गया है. साथ ही वे सैनिक कल्याण मंत्री के साथ उत्तराखंड पूर्व सैनिक कल्याण निगम (उपनल) के अध्यक्ष पद पर आसीन हैं.

भाजपा नेताओं ने राज्यपाल से मांग की कि ये दोनों पद लाभ के पदों के दायरे में आते हैं. इसलिए संविधान के अनुसार हरक सिंह रावत की विधानसभा सदस्यता समाप्त कर देनी चाहिए. इसके जवाब में हरक सिंह और सरकार ने कई तर्क दिए. लेकिन जानकारों की मानें तो संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार इस मामले में सरकार का पक्ष कमजोर और संविधान के  विपरीत था. ऐसे में कल तक भाजपा नेताओं के बयानों को भाटी आयोग की रिपोर्ट से उपजी बौखलाहट बताने वाली सरकार ने डैमेज कंट्रोल के लिए तुरत-फुरत एक नया उपाय ढूंढ़ने की कोशिश की. उसने तराई बीज विकास निगम और उपनल के अध्यक्ष पदों को पूर्व तिथि से लाभ के पदों के दायरे से बाहर निकालने का अध्यादेश राज्यपाल को भेज दिया.

[box]भाजपा ने अप्रैल के पहले सप्ताह में राज्यपाल से मुलाकात करके उनसे कृषि मंत्री की विधानसभा सदस्यता समाप्त करने के लिए चुनाव आयोग को पत्र लिखने की मांग की.[/box]

लेकिन भाजपा इस मामले में चुप बैठने को तैयार नहीं है. भाजपा नेताओं के प्रतिनिधि मंडल ने राज्यपाल से फिर मिलकर मांग रख दी है कि सरकार द्वारा पूर्व तिथि से इन दोनों पदों को लाभ के पदों के दायरे से बाहर रखने का अध्यादेश नियम और संसदीय परंपरा के विरुद्ध है. उनका कहना है कि पूर्व तिथि या आगे की तारीखों से प्रभावी होने वाले अध्यादेश राज्य हित में लाए जाने की परंपरा है इसलिए व्यक्ति हित में  अध्यादेश लाने की अनुमति राज्यपाल को नहीं देनी चाहिए. राज्यपाल द्वारा यह अध्यादेश लाने की अनुमति देने की स्थिति में भाजपा राज्यपाल का विरोध करने के मूड में भी दिख रही है.

उत्तराखंड में ताकतवर लोगों के लिए जमीन के सौदे जल्द कमाई का सबसे बड़ा साधन हैं. जमीन के हर विवादित सौदे में लाभ पाने वालों में सत्ता-विपक्ष के ताकतवर लोग प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर जुड़े रहते हैं. इन सौदों का अच्छा लाभ नौकरशाह और जांच का मौका हाथ में आने पर पुलिस अधिकारी भी लेते ही रहते हैं. यह विवाद भी सरकार द्वारा जमीन को औने-पौने दामों में दिए जाने से शुरू हुआ था. तहलका ने मई, 2011 के अंक में हल्द्वानी में 300 करोड़ रुपये की लगभग 99 एकड़ जमीन के एक सौदे का खुलासा किया था. अब इस जमीन का बाजार भाव 700 करोड़ रुपये बताया जाता है. इस सौदे का सीधा संबध हेमंत द्विवेदी से था. यदि कांग्रेस सरकार चाहती तो कायदे और नियमों से यह जमीन राज्य सरकार में समाहित हो जानी चाहिए थी. लेकिन सरकार बनने के एक साल बाद भी ऐसा नहीं हुआ. सामाजिक संगठन कुमाऊं न्याय मंच के बलवंत सिंह कहते हैं, ‘इस तरह के सौदों से लाभ लेने वालों में सभी दलों के प्रमुख नेता होते हैं, इसलिए सरकार ऐसे मामलों की प्रभावी जांच नहीं करती.’ उनका आरोप है कि सभी सरकारें या दलों के नेता नूरा-कुश्ती करके जनता को भरमाने में लगे हैं और उत्तराखंड की बेशकीमती जमीनों का सौदा कर रहे हैं.

बहुगुणा सरकार ने भाटी जांच आयोग की रिपोर्ट सार्वजनिक करके यह सिद्ध करने की कोशिश की थी कि सरकार में जांच आयोग की रिपोर्ट सार्वजनिक करने और उस पर कार्रवाई करने की पूरी हिम्मत है. लेकिन रिपोर्ट को सामने लाने का समय और तरीका उसे सवालों के कटघरे में खड़ा कर रहा है. वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र जोशी कहते हैं, ‘ऐसे उदाहरण लोकतंत्र की सेहत के लिए शुभ संकेत नहीं.’

कुछ साल पहले सपा सांसद जया बच्चन ने लाभ के पद से जुड़े विवाद के चलते अपनी राज्य सभा सदस्यता गंवाई थी. इससे उपजे विवाद में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी उस समय लोकसभा से इस्तीफा देना पड़ा था. भाटी आयोग से स्वयं को सुरक्षित करने की कोशिश करती दिखने वाली उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार के सामने भी अब बड़ा संकट खड़ा हो गया है कि वह भाजपा द्वारा इस मुद्दे पर छोड़े जा रहे तीखे तीरों से अपने मंत्री हरक सिंह रावत की विधानसभा सदस्यता कैसे बचाए.

बेकाबू बेनी बाबू

मुलायम सिंह यादव के खिलाफ हाल ही में दिए अपने बयानों से फिर चर्चा में आए केंद्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा के लिए विवाद कोई नई बात नहीं है. बेनी के राजनीतिक जीवन के कैसेट को अगर हम थोड़ा रिवाइंड करें तो पाएंगे कि बेनी बाबू अपनी इस प्रतिभा का प्रदर्शन काफी पहले से करते आए हैं.
जिन मुलायम को बेनी ने हाल ही में आतंकवादियों का साथी, भ्रष्टाचारी, गुंडा और बदमाश जैसे विशेषणों से नवाजा है, उन्हीं के साथ उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन के तीन दशक गुजारे हैं. बेनी न सिर्फ समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्य रहे बल्कि वे लंबे समय तक सपा में नंबर दो की हैसियत भी रखते थे.
कुछ समय तक आर्य समाज और गन्ना संगठनों से जुड़े रहने वाले बेनी को जाने-माने समाजवादी नेता रामसेवक यादव राजनीति में लाए. संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर उन्होंने पहली बार 1974 में बारांबकी के दरियाबाद से विधानसभा चुनाव लड़ा और जीते. बाद में मुलायम सिंह यादव के साथ चौधरी चरण सिंह के संरक्षण में कुर्मी समुदाय से आने वाले बेनी ने अपनी पहचान एक मजबूत और जुझारु नेता के रूप बना ली.

इंदिरा गांधी ने सन 1975 में जब आपातकाल लगाया तो कहा जाता है कि उस समय बेनी ही एकमात्र समाजवादी नेता थे जिन्हें जेल नहीं हुई. वरिष्ठ समाजवादी चिंतक और बेनी के करीबी रहे राजनाथ शर्मा कहते हैं, ‘ये आदमी छल-कपट की राजनीति में पारंगत रहा है. आपातकाल के समय इसने कांग्रेस से भी हाथ मिला लिया था. यही कारण है कि जब 77 में रामनरेश यादव की सरकार बनी तब इसे मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया.’

खैर उत्तर प्रदेश में समाजवादी छतरी के तले बेनी और मुलायम कंधे से कंधा मिलाकर काम करते रहे. दोनों के बीच बेहद मधुर और करीबी संबंध थे, जिसकी झलक उस समय भी दिखी जब 89 में प्रदेश में जनता दल की सरकार बनने का मौका आया. मुख्यमंत्री पद के लिए अजीत सिंह और मुलायम दोनों ने अपनी दावेदारी ठोकी. कोई हल निकलता न देख विधायकों की वोटिंग कराई गई जिसमें बेनी ने मुलायम के समर्थन में बड़ी संख्या में विधायकों को लामबंद किया. इंडियन एक्सप्रेस के फैसल फरीद कहते हैं, ‘उस समय मुलायम बिना बेनी के समर्थन के सीएम नहीं बन सकते थे. अजीत के लिए यह बड़ा झटका था, जिसके बाद वे फिर कभी पनप ही नहीं पाए.’

रायबरेली में प्रचार करते हुए मुसलमानों से उन्होंने कहा कि उनका एक ईसाई को वोट देना इस्लाम की परंपरा के खिलाफ है

बेनी और मुलायम के मधुर संबंधों पर तनाव के बादल उस समय उमड़ते दिखाई दिए जब 1992 में मुलायम सिंह ने समाजवादी पार्टी नामक एक नए दल के गठन की बात की. बेनी का मानना था कि एक नई पार्टी के लिए राज्य में कोई जगह नहीं है इसलिए उन्हें कांग्रेस में शामिल हो जाना चाहिए. मगर मुलायम अडिग रहे. उनके इस निर्णय से बेनी कितने नाराज थे यह तब दिखा जब पार्टी का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ. चार दिन के उस अधिवेशन में बेनी तीन दिन तक पहुंचे ही नहीं. काफी मान-मनौव्वल के बाद वे अंतिम दिन समारोह में पहुंचे.

राजनीतिक हैसियत के मामले में खुद को मुलायम से कमतर नहीं आंकने वाले बेनी के राजनीतिक जीवन में एक बड़ा मोड़ तब आया जब 1996 में संयुक्त मोर्चे की सरकार में मुलायम के साथ उन्हें भी केंद्र में मंत्री बनने का मौका मिला. देवगौड़ा के नेतृत्व वाली उस सरकार में मुलायम रक्षा मंत्री बने तो बेनी संचार राज्य मंत्री थे. बाद में आईके गुजराल की सरकार में बेनी को कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिला. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक शरत प्रधान कहते हैं, ‘बेनी अपने आप को हमेशा मुलायम सिंह के बराबर ही समझते रहे लेकिन मुलायम ने कभी उन्हें अपने बराबरी का नहीं समझा.’ इस संदर्भ में 1997 का वाकया बहुत दिलचस्प है जब विधानसभा चुनाव के वक्त दोनों ने अपना पर्चा दाखिल किया था. उस समय एक अखबार की खबर थी कि दोनों दिग्गज नेता अब विधानसभा जाने की तैयारी में हैं. मुलायम इस खबर को लिखने वाले पत्रकार से बेहद नाराज हुए. उन्होंने कहा, ‘बेनी कब से दिग्गज नेता हो गए.’

समय के साथ मुलायम की नजर में बेनी की पहचान राजनीतिक साथी से ज्यादा उस कुर्मी नेता की बनती गई जिसके सहारे वे अपनी राजनीतिक जीत सुनिश्चित कर सकते थे. प्रदेश में संख्या बल के हिसाब से पिछड़ी जातियों में यादवों के बाद आने वाली कुर्मी जाति का यह नेता उनके बहुत काम का था.
दोनों के बीच सत्ता संघर्ष भले ही बहुत पहले से चलता रहा हो लेकिन न तो बेनी ने मुलायम के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर कभी ज्यादा कुछ कहा और न ही मुलायम ने. सब कुछ तब बदल गया जब 1996 में अमर सिंह का सपा में प्रवेश हुआ. अमर सिंह के तौर-तरीकों से बेनी न सिर्फ असहमत थे बल्कि बेहद चिढ़ते भी थे. सपा में आने के बाद सिंह जिस तेजी से मुलायम के नजदीकी होते गए उसी अनुपात में बेनी और अन्य पुराने नेता पार्टी में हाशिये की तरफ खिसकते चले गए.

2003 में जब राज्य में सपा की सरकार बनी उस समय बेनी सांसद थे. तब तक प्रदेश, पार्टी और सरकार में बेनी का प्रभाव बेहद सीमित हो गया था. बेटा राकेश भले ही सरकार में जेल मंत्री था लेकिन इससे बेनी संतुष्ट नहीं थे. मुलायम सिंह को इस बात का आभास हो गया था कि वे देर-सबेर कांग्रेस की तरफ हाथ बढ़ा सकते हैं. 2006 में सोनिया गांधी ने अपनी संसदीय सीट रायबरेली से इस्तीफा दे दिया था और वहां से उपचुनाव होने वाला था. सपा ने सोनिया गांधी के खिलाफ वर्मा के भाई के दामाद राजकुमार चौधरी को टिकट दे दिया. अब बेनी भी दामाद के पक्ष में प्रचार करने पर मजबूर हो गए. उस वक्त प्रचार करते हुए मुसलमानों से उन्होंने कहा कि उनका एक ईसाई को वोट देना इस्लाम की परंपरा के खिलाफ है.

सपा को लगा कि बेनी के ये बोल भविष्य में कांग्रेस और उनके बीच किसी तरह के मधुर संबंधों की संभावना पर पूर्ण विराम लगा देंगे. मगर 2006 का अंत आते-आते बेनी ने मुलायम के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. बेनी समर्थक उस समय मुलायम को एहसानफरामोश ठहराते हुए यह उदाहरण दिया करते थे कि कैसे उनके लिए बेनी ने 1993 में भाजपा के उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था जिसमें उन्हें मुख्यमंत्री पद की पेशकश की गई थी. 2007 में बेनी सपा से अलग हो गए और समाजवादी क्रांति दल नामक एक पार्टी बनाई. चुनाव में गए. लेकिन अपने प्रत्याशियों को वे क्या जिताते, पिता और पुत्र खुद चुनाव हार गए. राजनीतिक अप्रासंगिकता और अंधकारमय भविष्य की तरफ बढ़ रहे बेनी के लिए कांग्रेस संजीवनी बन कर आई. वे 2009 के लोकसभा चुनावों से पहले कांग्रेस में शामिल हो गए.

बेनी को पार्टी से जोड़ने का फैसला खुद राहुल गांधी का था जिनका आकलन था कि यह आदमी यूपी में मरणासन्न कांग्रेस में जान फूंकने में बड़ी भूमिका निभा सकता है. 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने बेनी को गोंडा से टिकट दिया. बेनी जीतकर लोकसभा पहुंच गए. पहले राज्य मंत्री और बाद में केंद्रीय मंत्री बने. कांग्रेस को भी उस चुनाव में उसके अपने आकलन से बहुत अधिक -21- सीटें हासिल हुईं. कांग्रेस और राहुल गांधी को यूपी में अब बड़ी उम्मीदें दिखने लगीं. बस राहुल गांधी के यूपी प्लान में बेनी उनके खास सिपहसालार बन गए.

बाहर से आए बेनी को इतना महत्व मिलता देख कांग्रेस के अपने नेता नाराज हो गए. लेकिन इसके बाद भी राहुल गांधी ने उनके प्रति अपना ‘प्रेम’ बनाए रखा. एक सार्वजनिक सभा को संबोधित करते हुए राहुल ने बेनी को अपना राजनीतिक गुरु तक कह डाला. अब उनके खिलाफ बोलने की हिम्मत कौन कर सकता था? राहुल गांधी से मिली शायद इसी राजनीतिक ताकत की खुराक ने बेनी के भीतर एक ऐसे नेता को जन्म दिया जो कभी भी, किसी के भी खिलाफ, कुछ भी बोल सकता है. 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में पार्टी भले ही बुरी तरह हार गई हो लेकिन उससे बेनी के कद पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा. वे दिन प्रति दिन और बेकाबू होते चले गए.

बेनी के जुबानी हमले का राष्ट्रीय स्तर पर संभवतः सबसे पहला शिकार अटल बिहारी बाजपेयी हुए थे. आठ दिसंबर, 2009 को संसद में लिब्राहन आयोग पर चर्चा के दौरान तब हंगामा मच गया जब बेनी ने  बाजपेयी पर टिप्पणी करते हुए उन्हें ‘नीच’ कह डाला. बाद में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इसके लिए माफी मांगनी पड़ी. पिछले साल जब अन्ना आंदोलन चरम पर था और कांग्रेस अन्ना नामक समस्या का राजनीतिक हल ढूंढ़ने की दिमागी कसरत कर रही थी उस समय बेनी का बयान आया कि ‘अन्ना सन 1965 के भारत-पाक युद्ध का भगोड़ा सिपाही है. इसके गांव रालेगण सिद्धि में सरपंच इसके खिलाफ जीता है. अपने घर में इस आदमी का कोई वजूद नहीं है और दिल्ली आकर नौटंकी करता रहता है.’ बेनी की अर्थशास्त्रीय समझ ने उस समय भी हंगामा मचाया जब महंगाई को बेनी ने किसानों के लिए फायदेमंद बता दिया. विभिन्न हलकों में उनके इस बयान की तीखी आलोचना हुई, लेकिन इसका बेनी बाबू पर कोई असर नहीं हुआ. उल्टे कांग्रेस के नेता बेनी के बयान में छिपी गहरी बात को लोगों को समझाते नजर आए.

जब कांग्रेस के राजनीतिक विरोधियों पर बेनी बाबू हमला करने के लिए पूरी तरह कमर कस चुके हों तो फिर भला नरेंद्र मोदी उनसे कैसे बच पाते. एक प्रश्न के जवाब में मोदी को राज्य का एक अदना-सा नेता बताते हुए बेनी ने कहा, ‘यूपी आएं तो हम उनको बताते हैं. बाप हैं हम मोदी के’. सलमान खुर्शीद पर 71 लाख रुपये के घपले के आरोप का यह कहते हुए बेनी ने बचाव किया कि इतनी कम रकम के लिए कोई केंद्रीय मंत्री भ्रष्टाचार नहीं कर सकता. संसद पर हमले के दोषी अफजल को फांसी की जगह उम्रकैद देने की उनकी मांग पर भी काफी बवाल हुआ.

बेनी के ये बोल भले ही लोगों को अजीबोगरीब लगें लेकिन राकेश वर्मा इसे अपने पिता की विशेषता मानते हैं. वे कहते हैं, ‘हमारे पिता जी कभी झूठ नहीं  बोलते और न ही किसी से वो डरते हैं. वो जो भी कहते हैं उस पर अडिग रहते हैं.’ ऐसा नहीं है कि बेनी की बेलगाम जुबान की जद में सिर्फ कांग्रेस के विरोधी आए हैं. कभी-कभी ऐसे मौके भी आए जब बेनी की जुबानी तोप ने पीएल पुनिया, रीता बहुगुणा जोशी और श्री प्रकाश जायसवाल को भी अपने निशाने पर ले लिया. हाल ही में जब केंद्र सरकार के लिए पहले से ही महत्वपूर्ण मुलायम सिंह और भी महत्वपूर्ण होने जा रहे थे तो बेनी ने मुलायम सिंह को जो जमकर खरी-खोटी सुनाई उससे कांग्रेस को बेहद फजीहत का सामना करना पड़ा. बेनी राहुल को यूपी की राजनीति के लिए जरूरी लगते हैं यह सही है लेकिन वे भी राहुल गांधी को लगातार खुश करने का आक्रामक प्रयास करते दिखाई देते हैं. राहुल को खुश करने की इससे बड़ी कोशिश क्या हो सकती है जब बेनी कहते है, ‘अभी मैं 20 साल और जिंदा रहूंगा और राहुल गांधी को देश की बागडोर सौंपे बिना दुनिया से नहीं जाऊंगा.’

बेनी की इस रणनीति पर शरत कहते हैं, ‘बेनी ने चाटुकारिता को एक नया आयाम दिया है. राहुल को खुश करने के लिए वो लगातार इस तरह की बयानबाजी कर रहे हैं.’ लेकिन क्या सिर्फ चाटुकारिता के दम पर बेनी राहुल या कहें कांग्रेस हाईकमान के प्रिय बने हुए हैं? शरत कहते हैं, ‘राहुल गांधी ने बेनी प्रसाद वर्मा को बहुत बड़ा नेता समझ लिया है. उन्हें लगता है कि यूपी में बेनी से उन्हें बहुत फायदा हो सकता है.’ प्रधान की बात का समर्थन करते हुए राजनाथ शर्मा भी कहते हैं, ‘राहुल गांधी अपनी राजनीतिक अपरिपक्वता के कारण बेनी प्रसाद वर्मा को बड़ा नेता समझ बैठे हैं.’ लेकिन क्या राहुल को नहीं पता कि 2012 के विधानसभा चुनाव में बेनी के कहने पर लगभग 150 लोगों को टिकट दिया गया था और उनमें से एक भी नहीं जीत सका. फैसल के मुताबिक यह सही है कि बेनी के चुने हुए लोग चुनाव हार गए लेकिन जिन सीटों पर ये लोग हारे वहां पहले कांग्रेस को मात्र 1,000-1,500 वोट मिलते थे जबकि पिछले चुनाव में उसे 25 से 30 हजार तक वोट मिले.

सिनेमा के शौकीन बेनी के हालिया बयानों के पीछे आगामी लोकसभा चुनाव को भी एक प्रमुख कारण के तौर पर देखा जा रहा है. जानकार बताते हैं कि इसी वजह से बेनी मुलायम को लेकर सख्त हुए जा रहे हैं. वे इस तरह के बयान इसलिए दे रहे हैं ताकि यादव बनाम कुर्मी का माहौल बन सके.­