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धर्म नहीं है खेल!

cricket15 मई को इंडियन प्रीमियर लीग में मुंबई इंडियंस और राजस्थान रॉयल्स के बीच मैच था. पहले मुंबई इंडियंस ने बैटिंग की और मैच के तीसरे ही ओवर में मैक्सवेल ने अंकित चव्हाण की गेंदों पर दो छक्के जड़ दिए. राजस्थान की दमदार गेंदबाज़ी और सचिन तेंदुलकर की अनुपस्थिति के बावजूद मुंबई इंडियंस 166 रन बनाने में कामयाब रहा और स्टुअर्ट बिन्नी और ब्रैड हॉज के संघर्ष के बाद भी राजस्थान मैच हार गया.

अगली सुबह देश का स्वागत चौंकाने वाली ब्रेकिंग न्यूज़ की पट्टियों ने किया. दिल्ली पुलिस ने राजस्थान रॉयल्स के तीन खिलाड़ियों, श्रीसंत, अजीत चंदीला और अंकित चव्हाण को मुंबई से गिरफ़्तार किया था. इन पर स्पॉट फिक्सिंग, यानी सटोरियों के इशारों पर किन्हीं खास ओवरों में खास रन देने का आरोप था. शाम को जब दिल्ली के पुलिस कमिश्नर नीरज कुमार ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की तब तस्वीर और साफ हो गई. पता चला कि मुंबई इंडियंस की पारी के तीसरे ओवर के जिन छक्कों को सभी मैक्सवेल की शानदार बैटिंग मान रहे थे, वे सटोरियों के इशारे पर की गई स्पॉट फिक्सिंग का नतीजा थे. इस एक ओवर की कीमत सटोरियों ने 60 लाख रुपये लगाई थी. क्रिकेट से प्यार करने वालों में से कई मानते हैं कि अगर अंकित चव्हाण ने जान-बूझ कर 15 रन वाला यह महंगा ओवर न फेंका होता तो मैच का नतीजा राजस्थान रॉयल्स के हक में भी जा सकता था. आखिर राजस्थान रॉयल्स की टीम 14 रन से ही तो यह मैच हारी थी.

लेकिन स्पॉट फिक्सिंग का यह खेल इसी मैच और ओवर तक सीमित नहीं था. दिल्ली पुलिस ने बाकायदा सटोरियों और खिलाड़ियों की बातचीत सुनाते हुए और मैच के फुटेज दिखाते हुए साबित किया कि टूर्नामेंट के दो और मैच फिक्स थे. पांच मई को पुणे वॉरियर्स और राजस्थान रॉयल्स के मैच में अजीत चंदीला ने 20 लाख की पेशगी लेकर और कुल 40 लाख का सौदा करके एक ख़राब ओवर फेंका था और नौ मई के मैच में श्रीसंत ने पैसे लेकर ख़राब गेंदबाज़ी की थी. दिल्ली पुलिस का दावा है कि सटोरियों ने श्रीसंत से एक करोड़ का सौदा किया था. क्रिकेट का दीवाना देश माय़ूस था. जिन चौकों-छक्कों के लिए, क्रिकेट के जिस रोमांच के लिए लोग देर रात तक अपनी आंखें फोड़ा करते थे, उनके पीछे खेल का हुनर नहीं, तौलियों और रिस्ट बैंड के इशारे थे, यह खयाल अपने आप में काफी चोट पहुंचाने वाला था.

धीरे-धीरे दिल तोड़ने वाले और भी ख़ुलासे सामने आए. पता चला कि मामला सिर्फ तीन खिलाडि़यों और उनके साथ गिरफ्तार किए गए सात सटोरियों का नहीं है, इसमें दूसरे खिलाड़ी भी शामिल हैं और इनकी जद में पुराने मुक़ाबले भी आते हैं. दिल्ली पुलिस ने यहां तक दावा किया कि सटोरियों के चार अलग-अलग गैंग इस खेल में शामिल थे और अजीत चंदीला उनकी तरफ से काम कर रहा था. सटोरियों और अजीत चंदीला की बातचीत से यह भी शक होता रहा कि आईपीएल-5 के मुकाबलों में भी स्पॉट फिक्सिंग चल रही थी. धीरे-धीरे और नाम भी सामने आने लगे. राजस्थान रॉयल्स के ही एक और पुराने खिलाड़ी अमित सिंह को पुलिस ने गिरफ़्तार किया. रेलवे का एक और क्रिकेटर बाबूराव यादव पकड़ा गया. उसके बयान से यह बात सामने आई कि सिर्फ आईपीएल नहीं, बल्कि आईसीएल, यानी इंडियन क्रिकेट लीग पर भी सटोरियों की नज़र थी और आईसीएल बंद होने के बाद उन्होंने बांग्लादेश प्रीमियर लीग की तरफ रुख़ करने की कोशिश की थी. वहां भ्रष्टाचार निरोधी ब्यूरो ने उन्हें पहचान लिया तो भागना पड़ा.

यहां तक गनीमत बस इतनी थी कि इसमें श्रीसंत को छोड़कर अंतरराष्ट्रीय ख्याति वाला कोई दूसरा खिलाड़ी शामिल नहीं था. किसी कप्तान या टीम के प्रबंधन के भी शामिल होने की ख़बर नहीं थी. लेकिन सटोरियों की सांठगांठ की एक अलग जांच में जुटी मुंबई पुलिस ने दारा सिंह के बेटे विंदू दारा सिंह को गिरफ़्तार करके पूछताछ शुरू की तो यह दिलासा भी हाथ से निकल गई. अगली गिरफ़्तारी सट्टा लगाने और सटोरियों से रिश्ते रखने के मामले में सीधे चेन्नई सुपरकिंग्स के टीम प्रिंसिपल और सीईओ माने जाते रहे गुरुनाथ मयप्पन की हुई.

मयप्पन बीसीसीआई प्रमुख और चेन्नई सुपरकिंग्स के मालिक एन श्रीनिवासन के दामाद हैं और अपनी  गिरफ्तारी से पहले श्रीनिवासन के कुडईकनाल वाले रेस्ट हाउस में उनके साथ ही ठहरे हुए थे. अब श्रीनिवासन अपना और अपनी टीम का बचाव यह कहते हुए कर रहे हैं कि मयप्पन का कभी उनकी टीम से रिश्ता ही नहीं रहा. इस पूरे मामले में श्रीनिवासन, चेन्नई सुपरकिंग्स और बीसीसीआई की जबर्दस्त किरकिरी हो रही है, मगर श्रीनिवासन अपना पद छोड़ने को तैयार ही नहीं. सच तो यह है कि वे अगर बचे हुए हैं तो बीसीसीआई के कुछ बेशर्म नियमों और अपनी रणनीतिक ताकत के दम पर, किसी नैतिक साख के सहारे नहीं. आईपीएल पर यह एक बड़ी चोट इसलिए भी है कि आरोपों की धूल सीधे आईपीएल की सबसे कामयाब टीम चेन्नई सुपरकिंग्स पर है और उसके कप्तान महेंद्र सिंह धोनी भारतीय क्रिकेट टीम के भी कप्तान हैं.

क्या इतना सबकुछ होने के बाद भी किसी का क्रिकेट देखने का मन करेगा?  क्रिकेट की लोकप्रियता, और उसको लेकर दीवानगी ने इसे भारत का दूसरा धर्म बना डाला था और क्रिकेटर बिल्कुल भगवान की तरह पूजे जा रहे थे. क्या खंड-खंड हो रहे इन देवताओं की पूजा जारी रहेगी और पाखंड-पाखंड हो रहा यह धर्म बचा रहेगा? बहरहाल, इस मामले को स्प़ॉट फिक्सिंग या सट्टेबाज़ी तक सीमित रखेंगे तो वह जटिल और उलझी हुई सच्चाई ठीक से समझ में नहीं आएगी, जिसके एक सिरे पर यह राय­­ है कि क्रिकेट इस देश में धर्म जैसी हैसियत हासिल कर चुका है और दूसरे पर यह तथ्य कि आईपीएल ने इस धर्म को धंधे में बदल डाला है.

सबसे पहले यह समझने की कोशिश करें कि वह कौन सी चीज़ है जिसने क्रिकेट को लेकर भारत में इस क़दर दीवानगी पैदा की है और क्रिकेटरों को देवता बना दिया है. 1983 में जब भारत ने क्रिकेट का विश्व कप जीता, तब तक सार्वजनिक उपलब्धियों के नाम पर गर्व करने लायक चीज़ें या तो बेहद कम बची थीं या तिरोहित हो रही थीं. हॉकी का बेहतरीन दौर बीत चुका था और बदतरीन शुरू हो चुका था. 1980 में बैडमिंटन के शिखर पर पहुंचे प्रकाश पादुकोन ढलान पर थे. टेनिस में विजय अमृतराज काफी उम्मीद पैदा करने के बाद थके हुए दिख रहे थे. शतरंज के चैंपियन विश्वनाथन आनंद का तब तक उदय नहीं हुआ था. ऐसे में क्रिकेट ने हमें विश्व विजेता बनाया. आने वाले वर्षों में हमें फिर से चैंपियन बनने में काफी वक़्त लगा, लेकिन यह इकलौता खेल रहा जिसमें भारत को कामयाबी की उम्मीद बनी रही. सुनील गावसकर और कपिलदेव के बाद अजहरुद्दीन, सचिन तेंदुलकर, सौरव गांगुली, राहुल द्रविड़, अनिल कुंबले, युवराज सिंह, वीरेंद्र सहवाग, वीवीएस लक्ष्मण और महेंद्र सिंह धोनी वे सितारे थे जिनके आगे दुनिया नतमस्तक हो रही थी.

अस्सी और नब्बे के दशकों में भारत के दूर-दराज के शहरों में बड़ी हो रही पीढ़ी को कायदे से या तो बॉलीवुड के हीरो मिले या फिर यही नायक मिले. राजनीति भरोसा खो चुकी थी, साहित्य-कला और संगीत-नृत्य लोकप्रिय विमर्श से बाहर थे और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में भारतीय मेधा का कोई बड़ा दखल नहीं दिख रहा था. ऐसे में ये क्रिकेटर ही थे जिन्होंने इस पीढ़ी को अंतरराष्ट्रीय पहचान का भरोसा दिलाया.

शायद इन्हीं वजहों से क्रिकेट अचानक मुंबई, दिल्ली और चेन्नई जैसे बड़े केंद्रों तक सीमित न रह कर छोटे शहरों और कस्बों तक फैल गया. भद्रजन अंग्रेजों का खेल रातों-रात भारतीय मध्यवर्ग के खेल में बदल चुका था. इक्कीसवीं सदी आते-आते दूर-दराज के शहरों और कस्बों से खिलाड़ी आने लगे. रांची से महेंद्र सिंह धोनी, गाज़ियाबाद से सुरेश रैना, मुरादाबाद से पीयुष चावला, केरल से श्रीसंत, जालंधर से हरभजन सिंह, बड़ौदा से इरफ़ान पठान, भड़ूच से मुनाफ पटेल और ऐसे ढेर सारे दूसरे नामों ने एक नई पहचान बनाई. ये भारतीय मध्य वर्ग के नए देवता थे जो सफलता और पराक्रम के नए मिथ रच रहे थे.

इत्तेफाक से यह वही दौर था जब भारतीय बाज़ार अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के लिए खुल रहा था और उन्हें यहां पैठ और पहचान बनाने के लिए अपने नायक और प्रतीक चाहिए था. बाज़ार ने क्रिकेट को हाथों-हाथ लिया और उसे अपनी जरूरतों के हिसाब से बदला भी. टेस्ट मैचों की ऊब कम करने के लिए वनडे मैचों की शुरुआत हुई और वनडे मैचों में भी नई रफ़्तार भरने के लिए 20-20 के ओवरों का मुकाबला सामने आया. यह एक नई शुरुआत थी जिसने खेल और खिलाड़ियों दोनों को बदला. क्रिकेट का व्याकरण कहीं पीछे छूट गया. खिलाडि़यों ने स्ट्रोक प्ले के नए अंदाज़ विकसित किए. एक इंटरव्यू में राहुल द्रविड़ ने कहा भी कि जिन स्ट्रोक्स के लिए कभी उन्हें डांट पड़ती थी, आज वे सबसे ज्यादा इस्तेमाल किए जाने वाले शॉट हैं. बल्लेबाज़ बाहर जाती गेंदों को मारने लगे. उछल कर शॉट लगाने की नई तकनीकें दिखने लगीं. पुरानी शास्त्रीयता की जगह दुस्साहस और जोखिम का एक नया तत्व दाखिल हो गया. इन सबके बीच रनों की बरसात होने लगी और विकेटों का पतझर भी दिखने लगा. क्रिकेट अचानक नया हो उठा. 2007 के टी-20 वर्ल्ड कप में भारत की जीत के साथ जैसे भारतीय क्रिकेट का एक नया अध्याय शुरू हुआ.

दरअसल बाज़ार के लिए यह एक आदर्श घड़ी थी जब वह क्रिकेट को लगभग गोद ले लेता. 2008 में इंडियन प्रीमियर लीग शुरू हुई. अचानक आठ नई टीमें वजूद में आ गईं. भारत के शहरों और राज्यों के साथ डेयरडेविल्स, चार्जर्स, सुपरकिंग्स, रॉयल्स, चैलेंजर्स जैसे शब्द जोड़े गए और उन्हें बड़े पूंजीपतियों के हाथों बेच दिया गया. इसके बाद ज़्यादा हैरान करने वाले दृश्य आए. क्रिकेट के देवता पहली बार नीलाम होते देखे गए. तेंदुलकर, द्रविड़, गांगुली जैसे कुछ सीनियर खिलाडि़यों को आइकॉन बताकर कहा गया कि ये नीलाम नहीं होंगे, लेकिन आने वाले दौर में सचिन को छोड़कर बाकी सभी महानायकों को अपनी टीमें छोड़नी पडीं और कप्तानी भी. यह भारतीय क्रिकेट में एक बड़े बदलाव की सूचना थी जो बताती थी कि क्रिकेटर अब सिर्फ देश के लिए नहीं, पैसे वालों के इशारों पर भी खेलते हैं. यह सत्तर के दशक से ठीक उलट स्थिति थी जब भारतीय क्रिकेटरों ने कैरी पैकर के पैसे को ठोकर मार दी थी और पैकर सर्कस में जाने से इनकार कर दिया था. चाहें तो याद कर सकते हैं कि यह वह दौर था जब भारतीय क्रिकेट में बहुत पैसा नहीं था और क्रिकेटरों को भविष्य के लिए अलग से सोचना पड़ता था. लेकिन जो स्वाभिमान तब भारतीय खिलाड़ियों ने दिखाया था, वह अब पहले से ही करोड़ों में खेल रहे क्रिकेटर नहीं दिखा सके – किसी एक क्रिकेटर ने भी अपवाद के तौर पर नहीं कहा कि वह अपनी बोली लगवाने से इनकार करता है, कि उसे ऐसा पैसा, ऐसा खेल नहीं चाहिए.

लेकिन शायद इस पूरी प्रक्रिया में इस तरह की बहस की गुंजाइश नहीं थी. यह पूंजी का खेल था जो क्रिकेट के रनों के साथ-साथ पैसा बरसने का भी इंतज़ाम कर रहा था. इसलिए क्रिकेट की रंगीनी में नया ताम-झाम जोड़ने, नई उत्तेजना पैदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई. इसके लिए रंग-बिरंगे स्टेडियम तैयार किए गए, मैचों के भव्य प्रसारण की व्यवस्था हुई और हर चौके-छक्के या विकेट पर थिरकने वाली चीयरलीडर्स जुटाई गईं. क्रिकेट का रोमांच अब झागदार मादकता वाले नशे में तब्दील हो रहा था. ध्यान से देखें तो यह क्रिकेट को बिल्कुल तीन घंटे के फिल्मी शो में बदलने का उद्यम था. पहले सिर्फ बॉलीवुड की मार्फत दिखने वाली चालू किस्म की मनोरंजन संस्कृति को अब एक नया वाहन मिल गया था. क्रिकेट अब पूंजीवालों का खेल है जिसमें हजारों के टिकट हुआ करते हैं, देर रात की पार्टियां हुआ करती हैं. ग्लैमर की छौंक हुआ करती है और इन सबके पीछे खड़ा संदिग्ध पैसा भी.

आईपीएल को नापसंद करने वालों के लिए नए-नए तर्क भी जुटाए जाते रहे. पहले आईपीएल में जब दुनिया भर के खिलाड़ी जुटे तो कहा गया कि यह राष्ट्रवादी संकीर्णताओं पर क्रिकेट की जीत है. एक हद तक यह बात सही थी कि आईपीएल ने नकली राष्ट्रवाद की सरहदों को मिटाया. आईपीएल में हरभजन और रिकी प़ॉन्टिंग एक साथ खेलते दिखे और माइकल हसी और शेन वाटसन आमने-सामने नज़र आए. कोलकाता सौरव गांगुली के लिए नहीं, शोएब अख़्तर के लिए तालियां बजाता नज़र आया.

लेकिन यह राष्ट्रवाद पर क्रिकेट की नहीं, बाजार की, पैसे की जीत थी- इस बाज़ार के लिए मलिंगा ने श्रीलंका के लिए खेलना छोड़ दिया, लेकिन आईपीएल के लिए खेलना जारी रखा. क्रिस गेल बीच के दौर में वेस्ट इंडीज़ की टीम से बाहर रहे, लेकिन आईपीएल खेलते रहे. कई दूसरे खिलाड़ियों ने अपने मुल्कों की जगह आईपीएल को तरजीह दी. कई भारतीय खिलाड़ी भी अंतरराष्ट्रीय मुक़ाबलों में चोटिल हो जाने पर या होने के डर से नहीं खेले, लेकिन आईपीएल में खेलने के लिए हमेशा तैयार दिखे. वीरेंद्र सहवाग ने मार्च 2012 में राष्ट्रीय टीम से अपना नाम वापस ले लिया था. लेकिन पूरी तरह ठीक न होने के बावजूद आईपीएल में खेलने से वे खुद को नहीं रोक पाए. इससे उनकी चोट इतनी गंभीर हो गई कि बाद में उन्हें तीन महीने तक आराम करना पड़ा.

एक उदाहरण सचिन तेंदुलकर का भी है. वे कभी देश की तरफ से 20-20 के वर्ल्ड कप तक के लिए नहीं खेले, पिछले कुछ सालों से वनडे मैच भी गिने-चुने ही खेल रहे थे और छह महीने हुए उससे भी संन्यास ले चुके हैं मगर आईपीएल में लगातार डेढ़ महीने तक खेलने के लिए जहां तक संभव हो वे तैयार दिखते रहे. राष्ट्रवाद की चमक फीकी पड़ने के बाद कुछ दूसरे पूर्वाग्रह सर उठाने लगे. दूसरे आईपीएल में कोलकाता की टीम के भीतर नस्लवाद से जुड़े आरोप लगे. तीसरे आईपीएल में पाकिस्तान के खिलाड़ियों को अपमानित होना पड़ा. धीरे-धीरे घरेलू टीमों को मिलने वाले फायदों का सवाल भी खड़ा हो गया और एक दौर में इस पर भी विचार हुआ कि मैच तटस्थ जगहों पर कराए जाएं.

लेकिन अंतत: सारा कुछ इस बात से तय होता रहा कि किस फैसले से कितना पैसा आना है. जब पैसा इतना अहम हो जाए तो खेल पीछे छूट जाता है या उसके भीतर और भी खेल चलने लगते हैं. ऐसा नहीं कि इस तरह के खेलों की भनक लोगों को बाहर नहीं थी. उल्टे, बिल्कुल पहले ही आईपीएल से टीमों का और उनके मुनाफ़े का सवाल खड़ा हो गया था और यह इल्ज़ाम लगने लगा था कि आईपीएल के कामकाज में बहुत कुछ ऐसा है जो पारदर्शी नहीं है. दूसरा आईपीएल देश से बाहर हुआ और इस पर फेमा के उल्लंघन और मनी लान्डरिंग के गंभीर आरोप लगे. यह साफ नज़र आता रहा कि आईपीएल पूंजी, ग्लैमर और सत्ता के गठजोड़ से तैयार हो रहा एक ऐसा आयोजन है जो कानूनों की ज्यादा परवाह नहीं करता. इस आयोजन में और इससे जुड़ी टीमों में किस-किस का पैसा किन-किन जरियों से लगा है, इसको लेकर कयास चलते रहते हैं. एक दौर में आयकर महकमे के सूत्र कहा करते थे कि तीन टीमों में आईपीएल के कमिश्नर रहे ललित मोदी का पैसा लगा है. 2010 में जब आईपीएल की दो नई टीमें तैयार हो रही थीं, तभी कोच्चि की टीम की नीलामी को लेकर ललित मोदी के एक ट्वीट से पैदा हुए बवंडर ने उन दिनों विदेश राज्य मंत्री रहे शशि थरूर को इस्तीफा देने पर मजबूर किया. इसकी क़ीमत ललित मोदी को भी चुकानी पड़ी- अचानक उनकी कारस्तानियां खुलने लगीं और उन पर तरह-तरह के इल्ज़ाम लगे. आखिरकार उन्हें देश छोड़कर भागना पड़ा.

जहां तक सट्टेबाज़ी और मैच फिक्सिंग का सवाल है, पहले ही आईपीएल से इस तरह के झूठे-सच्चे आरोप चलने लगे थे. ललित मोदी ने ही एक ट्वीट करके न्यूजीलैंड के खिलाड़ी क्रिस केंस पर मैच फिक्सिंग का आरोप लगाया था. केंस ने इसके ख़िलाफ़ अदालत की शरण ली और फ़ैसला मोदी के ख़िलाफ़ आया. दूसरे और खिलाड़ियों पर भी आईपीएल के मैचों में फिक्सिग के आरोप लगे, वे आईपीएल से निलंबित हुए. यहां तक कि कुछ अंपायरों पर भी इस तरह की उंगलियां उठती रहीं.

दरअसल यह साफ़ दिखता है कि आईपीएल भारतीय खेल और मनोरंजन की दुनिया में जिस तरह की संस्कृति को बढ़ावा दे रहा है, सट्टेबाज़ी या फिक्सिंग उसकी सहज परिणतियां हैं. यह अलग बात है कि यह अदालत में साबित हो पाएगा या नहीं. लेकिन सवाल अदालत का नहीं, उस जनता की अदालत का है जो क्रिकेट को अपना धर्म और क्रिकेटरों को अपना ख़ुदा मानती है. बेशक, धर्म भी हमारे यहां धंधे में बदल चुका है और देवताओं के नाम पर बड़े-बड़े फ़र्जी कारोबार होते हैं, लेकिन क्या क्रिकेट के भक्त क्रिकेट के नाम पर ख़ुद को छला जाना इतनी आसानी से गवारा कर लेंगे?

कल्पना या कामना की जा सकती है कि शायद ऐसा न हो. स्पॉट फिक्सिंग के इस आरोप के बाद शायद लोगों को आईपीएल का गोरखधंधा ज़्यादा समझ में आए. हालांकि अभी तो ऐसा नहीं लगता. स्पॉट फिक्सिंग के आरोपों के बावजूद कोलकाता में मुंबई इंडियंस और चेन्नई सुपरकिंग्स के बीच खेले गए फाइनल के सारे टिकट बिक गए और स्टेडियम खचाखच भरा नज़र आया. इससे हम क्या नतीजा निकालें? क्या क्रिकेट नाम का धर्म अब वह अफीम हो चुका है जिसे चाटकर बेसुध लोग बाकी सब भूल मैच देखते रहते हैं? क्या जैसे नशे की लत बची रहती है, वैसे ही यह आईपीएल बचा रहेगा?

इन सवालों के जवाब खोजते हुए एक नई तरह की दुविधा से हमारा सामना होता है. अचानक हम पाते हैं कि लोग क्रिकेट को खेल की तरह नहीं, तमाशे की तरह देख रहे हैं, किसी सर्कस की तरह देख रहे हैं. उन्हें जैसे बस कुछ ओवरों की सनसनी से मतलब है, रोमांच के झाग से मतलब है, आइटम गर्ल्स की तरह आने-जाने वाली चीयरलीडर्स से मतलब है, क्रिकेट के खेल से नहीं, उसकी शास्त्रीयता से नहीं, उसकी नैतिकता से नहीं. हालांकि पूंजीवाद का एक पहलू यह भी है कि चूंकि यहां पैसा इकलौता तर्क हुआ करता है. इसलिए यहां जिस चीज से नुकसान हो सकता है वह नाजायज़ होती है. बाज़ार को मालूम है कि आईपीएल के नाम पर जो कीचड़ उछली है, वह आईपीएल की साख और खुद उसके लिए नुकसानदेह है. इसलिए वह कुछ ऐसा करने की कोशिश जरूर करेगा जिससे कि उसके हितों को नुकसान नहीं पहुंचे.

खैर आईपीएल का जो भी हो, इससे क्रिकेट का और वास्तविक क्रिकेट प्रेमियों का नुकसान होगा. उन खिलाड़ियों का भी, जो फिलहाल बड़े नायकों की तरह दिखाई पड़ रहे है. सच तो यह है कि अभी ही उनके नायकत्व में काफी दरार आ गई है. आइकॉन खिलाड़ियों की ऐसी-तैसी हो चुकी है. करीब दो साल पहले नीलामी के दौरान मोहम्मद कैफ़ को लेकर ठहाकों के बीच जिस तरह 10,000 की बोली बढ़ाई जा रही थी, उससे पता चल रहा था कि मालिकान अब खिलाड़ियों को अपना जरख़रीद गुलाम समझने लगे हैं. अगर लोगों के दिमाग में एक बार बैठ गया कि ये गेंद और बल्ले की कविता लिखने वाले, क्रिकेट का जादू रचने वाले देवता नहीं, महज पैसे के पीछे भागने वाले खिलाड़ी हैं तो शायद क्रिकेट का वह मिथ टूट जाएगा जो इसे जुनून और धर्म में बदलता है. भारतीय जनता अपने देवताओं से एक तरह के शील, एक तरह की संपूर्णता की अपेक्षा करती है, वह खंडित मूर्तियों की पूजा नहीं करती, यह बात याद रखनी होगी.


क्या करेगा कानून ?
आईपीएल का फाइनल खेले जाने से पहले एन श्रीनिवासन ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में दो-टूक कह दिया कि उनके इस्तीफे का सवाल ही पैदा नहीं होता. सूत्रों के मुताबिक उन्हें नहीं लगता कि उनके दामाद गुरुनाथ मयप्पन के ख़िलाफ़ मामला अदालत में टिकेगा. यही नहीं, फ्रेंचाइज़ी सीएसके पर भी आईपीएल का कोई क़ायदा तोड़ने का आरोप साबित करना आसान नहीं होगा. उधर दिल्ली में श्रीसंत ने जेल से ही प्रेस रिलीज जारी कर बताया कि उन्हें अपने बेगुनाह छूट आने का पूरा भरोसा है. उनके वकील ने याद दिलाया कि पुलिस के पास न तो श्रीसंत की आवाज़ का कोई टेप है, न ही श्रीसंत और सटोरियों के बीच सांठगांठ के सबूत और न ही पैसे के लेन-देन  का कोई दस्तावेज़ जिससे वह मामला अदालत में साबित कर सके. इस पूरे मामले में अब तक जो कुछ आया है. वह खिलाड़ियों और सटोरियों की पूछताछ से ही सामने आया है. यह पूछताछ अदालत में सबूत की तरह नहीं टिकेगी. साथ ही फोन के ब्योरे भी सबूत के तौर पर पर्याप्त नहीं हैं.

कानून के जानकार बताते हैं कि सट्टेबाज़ी या स्पॉट फिक्सिंग को लेकर भारत में कोई विशेष कानून भी नहीं है जो इन खिलाडि़यों पर लगाया जाए. ऐसे में धारा 420 या 409 के सहारे पुलिस कहां तक जा पाएगी, कहना मुश्किल है. इन धाराओं की परिभाषाएं सीमित हैं और उनमें स्पॉट फिक्सिंग जैसे अपराध को साबित करना बहुत ही मुश्किल है. यहां याद किया जा सकता है कि करीब 13 साल पहले मैच फिक्सिंग की जो बड़ी कालिख भारतीय क्रिकेट पर लगी थी, उसका अब तक कानूनी निपटारा नहीं हुआ है.

उस मामले में अजहरुद्दीन, अजय जडेजा, मनोज प्रभाकर जैसे बड़े खिलाड़ी घिरे थे, हैंसी क्रोनिए जैसे कप्तान ने माना था कि वे फिक्सिंग में शामिल रहे. इन लोगों के ख़िलाफ़ क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने कार्रवाई की, लेकिन जिस दिल्ली पुलिस ने यह मामला उजागर किया था, वह इस मामले में अब तक चार्जशीट तक पेश नहीं कर पाई. अब सरकार बता रही है कि स्पॉट फिक्सिंग के ख़िलाफ ब्रिटेन के बेटिंग लॉ या न्यूजीलैंड के ऐसे ही मिलते-जुलते कानून की तर्ज पर यहां भी कानून बनाया जाएगा. लेकिन जब तक वह बनेगा, क्या इन खिलाडियों और सट्टेबाज़ों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई हो पाएगी?

सट्टे का सवाल
इस पूरे मामले में सट्टेबाज़ी और मैच फिक्सिंग को जैसे बिल्कुल एक कर दिया गया है, जबकि दोनों दो अलग-अलग चीज़ें हैं. कई लोग मानते हैं कि सट्टेबाज़ी को भारत में जायज बना देना चाहिए. इस पक्ष में सबसे अहम दलील यह दी जाती है कि इससे कम से कम सट्टेबाज़ी पर नज़र रखी जा सकेगी. फिलहाल सट्टे का सारा खेल काले पैसे का खेल है जो परदे के पीछे छिप कर चलाया जाता है. इस वजह से इसमें अंडरवर्ल्ड की भूमिका बहुत बड़ी है. चूंकि ऐसे कुछ गिने-चुने लोगों का सैकड़ों करोड़ रुपया दांव पर लगे होते हैं इसलिए खेल में मैच फिक्सिंग या स्पॉट फिक्सिंग जैसी चीजों की गुंजाइशें ज्यादा होती हैं.

अगर भारत में बेटिंग को वैध बना दिया जाए तो कम से कम यह ज़रूर होगा कि सट्टे का नेटवर्क सरकार की नज़र में रहेगा और इसमें काले पैसे और मनी लांडरिंग की भूमिका कम होगी. यही नहीं, सट्टेबाज़ी को वैध बनाते हुए मिलीभगत और फिक्सिंग के ख़िलाफ़ सज़ाएं भी तय की जा सकेंगी. लेकिन क्या इससे वाकई समस्या हल हो जाएगी? 15 बरस पहले संयुक्त मोर्चा सरकार में वित्त मंत्री रहते हुए पी चिदंबरम ने काले पैसे को सफेद बनाने की एक बड़ी योजना पेश की थी जिससे शायद 10,000 करोड़ रुपये आए भी थे. तब से अब तक काला पैसा ख़त्म नहीं हुआ, बढ़ ही गया है. जब खेलों पर इतनी बड़ी रकम दांव पर होगी तो कानूनी सट्टा भी गैरकानूनी राह पकड़ कर आगे बढ़ सकता है.

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Pandukeshwarउत्तराखंड में इन दिनों चार धाम यात्रा चरम पर है. हर साल गर्मियां शुरू होते ही लाखों श्रद्धालु सपरिवार बद्रीनाथ, केदारनाथ,गंगोत्री एवं यमुनोत्री की यात्रा पर निकल पड़ते हैं, वहीं ठंड के दिनों में ये धाम सूने पड़े रहते हैं. यहां मौजूद ज्यादातर मंदिरों की व्यवस्था पीढ़ियों से कुछ खास पुजारी और पुरोहित आदि देख रहे हैं. लेकिन वे कौन लोग हैं जिनकी बदौलत ये स्थान इतनी बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं को संभाल पाते हैं?

बद्रीनाथ में मुख्य पुजारी दक्षिण के नंबूदरीपाद ब्राह्मण हैं जो सुदूर केरल से आकर यहां पूजा-अर्चना करते हैं तो केदारनाथ में भोले-भंडारी के पुजारी कर्नाटक-महाराष्ट्र तथा उसके आस-पास के राज्यों के रहने वाले हैं. गंगोत्री और यमुनोत्री में भी उत्तरकाशी के निचले इलाकों से पुरोहित पूजा के लिए जाते हैं. इन तीर्थों से जुड़ा एक वर्ग ऐसा भी है जिसके बिना इन स्थानों पर एक पल के लिए रहना मुश्किल होगा. लेकिन उनकी उपेक्षा का आलम यह है कि कोई इनको न तो याद करता है न ही जानता है. अस्तित्वहीन-से ये अपने काम में लगे रहते हैं. यह वर्ग है हर साल यात्रा के समय आने वाले सफाई कर्मचारियों का. तीर्थयात्रा के दौरान हजारों लोग रास्ते के तमाम गांवों और कस्बों से गुजरते हैं. इन स्थानों को साफ-सुथरा रखने के लिए यात्रा काल में अस्थायी सफाईकर्मी नियुक्त किए जाते हैं. ये कर्मी प्राय: उत्तर प्रदेश के बिजनौर, मुरादाबाद और बरेली आदि जिलों से आते हैं. दुखद बात यह है कि इतना महत्वपूर्ण काम करने वाले लोगों को न तो सामाजिक मान्यता हासिल है और न ही स्थायी रोजगार.

राज्य सफाई कर्मचारी आयोग के अध्यक्ष भगवत प्रसाद मकवाना बताते हैं, ‘पुजारियों, तीर्थ पुरोहितों और अन्य सभी वर्गों को भले ही बदलती जा रही हर व्यवस्था में बेहतर सुविधाएं, वेतन व स्थायित्व मिला और सम्मान बढ़ा, लेकिन सबकी गंदगी साफ कर देव-भूमि को निर्मल और पवित्र रखने वाले ये सफाई कर्मी हर साल काम  मिलने की अनिश्चितता में समय काट रहे हैं. अल्प काल के लिए यात्रा पर आने वाले यात्रियों का सामूहिक बीमा हो रहा है, लेकिन विकट भौगोलिक परिस्थितियों में रहने वाले सफाई कर्मियों को यह सुविधा नहीं मिल रही है.’ इसके चलते दुर्घटना या ठंड के कारण जान गंवाने वाले अस्थायी सफाई कर्मियों को कुछ भी नहीं मिल पाता है.

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उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले की नगीना तहसील के हकीकतपुर गांव के 62 साल के महावीर सिंह बद्रीनाथ से 20 किमी पहले स्थित यात्रा पड़ाव, पांडुकेश्वर में मुख्य सफाई कर्मी हैं. वे 12 सफाई कर्मियों के मुखिया हैं जो गोविंदघाट से लेकर देश के अंतिम गांव माणा तक छोटे-छोटे पांच स्थानों पर सफाई के लिए तैनात किए गए हैं. पांडुकेश्वर की आबादी तकरीबन 1,000 है, लेकिन यात्रा के दिनों में हर दिन यहां से लगभग 20 हजार यात्री गुजरते और ठहरते हैं. इन यात्रियों द्वारा फैलाई जाने वाली गंदगी साफ करने का जिम्मा महावीर सिंह और उनके पांच साथियों पर है. उनका 22 साल का बेटा सुनील भी इस साल मुख्य सफाई कर्मी के रूप में पांडुकेश्वर के पास के पड़ाव गोविंदघाट में अपनी सेवाएं देगा. गोविंदघाट से सिखो के प्रसिद्ध गुरुद्वारे हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी का पैदल मार्ग शुरू होता है. महावीर बताते हैं कि उनके पिता के अलावा दादा कन्हैया लाल और परदादा ने भी पूरी उम्र यही काम करते बिता दी. यह लगभग 150 साल का इतिहास है. यात्रा में लगे अभिजात वर्गों और पेशों का भी इतना ही लंबा इतिहास उपलब्ध और ज्ञात है. 300 रुपये महीने के वेतन पर काम शुरू करने वाले महावीर का वेतन पिछले साल जाकर 3,000 रुपये हुआ है. यह राशि राज्य में दैनिक मजदूरों के तय वेतन से भी कम है. मकवाना बताते हैं, ‘प्रदेश में मजदूरों की मजदूरी 210 रुपये प्रतिदिन तय की गई है,परंतु इन सफाई कर्मियों को 100 रुपये प्रतिदिन में टरका दिया जा रहा है.’

आजादी के पहले तक ऋषिकेश से ऊपर सारी यात्रा पैदल होती थी. यात्री खुले में ही शौच आदि करते थे. उस दौर में गर्मियों में गंदगी से हैजा आदि बीमारियां फैल जाती थीं. आए दिन यात्रियों तथा स्थानीय लोगों के मरने की खबरें आती थीं. सन 1901 में चमोली के डॉ. पातीराम इंग्लैंड में भारतीय उपमहाद्वीप के चिकित्सा अधीक्षक बने. स्थानीय होने के कारण वे इन सब समस्याओं से परिचित थे. इतिहासकार योगंबर बत्र्वाल‘तुंगनाथी’ बताते हैं, ‘उन्होंने टिहरी रियासत और ब्रिटिश गढ़वाल के अधिकारियों को स्वच्छता समितियों के गठन की सलाह दी थी.’ बाद में जब डॉ. पातीराम पौड़ी के जिला परिषद अध्यक्ष बने तो उन्होंने हर नौ मील पर एक डिस्पेंसरी बनाई और जिले की स्वच्छता समितियां सुचारू रूप से सफाई का काम करने लगीं. इन समितियों के निर्माण के बाद यात्रा मार्ग पर शौचालयों का प्रचलन हुआ और मैदानी क्षेत्रों से सफाईकर्मी वहां आने लगे.

जनसंख्या बढ़ी और यात्रा से जुड़े चार जिलों चमोली, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी और टिहरी के कई कस्बों में 1970 के बाद नगरपालिकाएं या पंचायतें बनने लगीं. इन नगरपालिकाओं या नगर पंचायतों में भले ही सफाई के व्यवस्थित इंतजाम हो गए हों, लेकिन यात्रा के अधिकांश छोटे स्थानों और पैदल मार्गों पर हर दिन पहुंचने वाले हजारों यात्रियों द्वारा पैदा की गई गंदगी और कूड़े के निस्तारण का जिम्मा उत्तर प्रदेश से आने वाले तकरीबन एक हजार सफाई कर्मियों पर ही रहा. आज भी मोटर मार्ग के इन छोटे स्थानों के अलावा केदारनाथ और यमुनोत्री के पैदल मार्ग में हर दिन चलने वाले हजारों यात्रियों द्वारा फैलाई गई गंदगी को साफ रखना एक चुनौती पूर्ण कार्य है.

[box]प्रदेश में मजदूरों की मजदूरी 210 रुपये प्रतिदिन तय की गई है, परंतु चार धाम यात्रा में लगे सफाई कर्मियों को 100 रुपये में टरका दिया जाता है[/box]

यात्रा मार्ग में तमाम कस्बों या पड़ावों मसलन पीपलकोटी,पांडुकेश्वर, पातालगंगा, गुप्तकाशी, रामपुर, सीतापुर टिहरी का नैनबाग, नौगांव, ब्रह्मखाल, डामटा जैसे स्थानों में अब भी नगर पंचायतें नहीं हैं. इन जगहों पर सफाई का जिम्मा इन्हीं सफाई कर्मियों पर रहता है. रुद्रप्रयाग जिले के स्वच्छता निरीक्षक बृजेश नैथानी बताते हैं, ‘पिछले कई सालों से यात्रा मार्ग पर कहीं महामारी का प्रकोप नहीं फैला है जो यह सिद्ध करता है कि सीमित संसाधनों के बाद भी इन सफाई कर्मियों की मदद से चलाई जा रही व्यवस्था ने सुचारू काम किया है.’ इस साल उत्तरकाशी में ये अस्थायी कर्मी जिला पंचायत के अधीन, रुद्रप्रयाग में स्वास्थ्य विभाग, जिला पंचायत और सुलभ इंटरनेशनल के साथ और चमोली में स्वास्थ्य विभाग व ईको विकास समिति के माध्यम से काम कर रहे हैं. इस व्यवस्था में ऊपर पर्यवेक्षण करने वाला चाहे कोई भी हो लेकिन सफाई का काम करने वाले घूम-फिर कर वही लोग होते हैं.

अन्य वर्गों की तरह मंदिरों के कपाट बंद होने के बाद यात्रा समाप्त होने पर ये सफाई कर्मी भी वापस अपने-अपने गांव चले जाते हैं. ये सफाई कर्मी भूमिहीन और गरीब हैं. इनमें से कोई भी 8वीं से अधिक नहीं पढ़ा है. जाड़ों में महावीर अपने गांव जाकर सूअर पालने का काम करता है जिससे उसे हजार-दो हजार रुपये महीने की आमदनी हो जाती है. कुछ सफाई कर्मी मजदूरी करके पेट पालते हैं. हर साल उत्तराखंड आने वाले एक हजार सफाई कर्मियों में से केवल दो सफाई कर्मियों को उत्तरकाशी जिला पंचायत में अस्थायी रूप से साल भर की नौकरी पर रखा जाता है, इनके अलावा किसी भी कर्मचारी को स्थायी रोजगार नहीं मिला है.

बिजनौर जिले की धामपुर तहसील के ताइड़ापुर ग्राम पंचायत के 62 साल के प्रधान भट्टल 30 साल तक केदारनाथ यात्रा मार्गों पर अनेक स्थानों पर सफाई कर्मी और उनके हेड के पद पर रहे हैं. बाबा केदारनाथ के भक्त भट्टल से ‘तहलका’ के यह पूछने पर कि भगवान ने उन पर क्या कृपा की है, वे खुद के प्रधान बनने का श्रेय भगवान को देते हैं. बहरहाल, भट्टल पर बाबा की इस कृपा के बाद भी उनकी परेशानियां कम नहीं हुईं. भट्टल के तीनों बेटे बेरोजगार हैं. गांव की राजनीतिक हस्ती और जाना-माना नाम होने के बाद भी बेरोजगारी और गरीबी की मार इतनी है कि भट्टल अपने तीनों बेटों को खुशी-खुशी सफाई कर्मी के रूप में भेजना चाहते हैं. पूरी कोशिश के बाद भी इस साल उनका एक भी बेटा इस काम के लिए नहीं लिया गया. वे कहते हैं, ‘अब इस  काम पर लगाने के भी सरकारी कर्मचारी पैसे मांगते हैं.’ दिक्कतें केवल इतनी नहीं हैं. महावीर बताते हैं, ‘सवर्ण तो छोड़िए पहाड़ों के अनुसूचित जाति के लोग भी हमें रहने के लिए घर नहीं देते हैं. मजबूरन हमें झोपड़े बना कर कस्बे या पहाड़ों के कोनों में दिन काटने पड़ते हैं.’ केदारनाथ, हेमकुंड साहिब और यमुनोत्री मार्ग की ठंडक में यह खासे जोखिम का काम है. यात्रा मार्गों पर अधिकांश जगहों पर कच्चे शौचालय बने हैं,जिन्हें सफाई कर्मियों को हाथ से ही साफ करना पड़ता है. मकवाना बताते हैं, ‘देश में मैला हाथ से साफ करने से रोकने के लिए भले ही कानून बन गए हों लेकिन यात्रा मार्ग की व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं आया है,जबकि इस काम पर हर साल करोड़ों रुपये खर्च किए जा रहे हैं.’

सफाई कर्मियों का वेतन और सुविधाएं भले ही बेहद कम हों लेकिन यात्रा काल में सफाई के नाम पर पर्यटन,स्वास्थ्य विभाग व जिला पंचायत हर साल करोड़ों के वारे-न्यारे कर देते हैं.  कुछ साल पहले सुलभ इंटरनेशनल को जिस पर्यटन विभाग ने करोड़ों की अनियमितता करने के कारण काली सूची में डाल दिया था इस साल उसी संस्था को पर्यटन विभाग ने चार धामों की सफाई का काम देने का निर्णय लिया है. यह संस्था चार साल पहले केदारनाथ यात्रा मार्ग से अस्थायी सफाई कर्मियों के भुगतान के लाखों रुपये लेकर चंपत हो गई थी. तमाम परेशानियों के बावजूद भट्टल और महावीर के बेटे उनकी ही तरह यात्रा काल में सफाई कर्मी के रूप में आते रहेंगे. भट्टल का कहना है, ‘भले ही पुजारी, तीर्थ पुरोहित और अन्य लोग पीढ़ियों से समाज में मिल रही इज्जत के कारण यहां आते हों परंतु हम तो गरीबी और भूख के कारण इस काम को करते हैं.’सफाई कर्मचारी इस निचले दर्जे के काम को भगवान का आशीर्वाद मानकर कर रहे हैं क्योंकि यही उनका पेट पाल रहा है.

पत्रकारिता का जंतर-मंतर

001-Sapreक्या कोई कार्टून इतना कहर ढा सकता है कि अखबार का समूचा संपादक मंडल जेल में डाल दिया जाए और मुद्रक से लेकर हॉकरों तक को न बख्शा जाए? जवाब है-हां. भोपाल से शाकिर अली खां के संपादन में निकलने वाले उर्दू साप्ताहिक सुबहे वतन में एक कार्टून छपने के बाद ऐसा ही हुआ. यह घटना कोई किंवदंती नहीं बल्कि ऐसी सच्चाई है जो जिसका प्रमाण भोपाल के माधवराव सप्रे समाचार पत्र संग्रहालय में रखी है. वाकया 1934 का है जब भोपाल कौंसिल के चुनाव में निजाम के उम्मीदवार को आवाम के उम्मीदवार ने हराया था. और उसके बाद एम इरफान ने ऐसा कार्टून बनाया जिसमें इकहरी हड्डी का एक आदमी मस्तमौला पहलवान को धोबी पछाड़ लगाते हुए दिखाया गया था.

यदि संग्रहालय किसी शहर की खिड़की है तो यकीन मानिए भोपाल का सप्रे संग्रहालय ऐसा दरवाजा है जिससे होकर आप एक सौ पचास वर्ष की भारतीय पत्रकारिता के ऐसे ही कई रोचक किस्सों के बीच टहलकदमी कर सकते हैं. कहने को भारत सरकार के दिल्ली सहित कई नामी शहरों में आलीशान अभिलेखागार हैं. लेकिन जहां तक समाचार पत्रों के संग्रहालय की बात है तो गैरसरकारी स्तर पर चलने वाला सप्रे संग्रहालय देश में अपनी तरह का एकमात्र संग्रहालय है. यहां भारत के पहले अखबार से लेकर अब तक की सभी मुख्य पत्र-पत्रिकाओं को पूरी शिद्दत के साथ फाइलों में दर्ज किया जाता है. संग्रहालय की 29 साल की इस अनथक यात्रा से जुड़ी एक अच्छी खबर यह है कि यहां बीस हजार पत्र-पत्रिकाओं की फाइलों सहित गजेटियरों, जांच प्रतिवेदनों, हस्तलिखित पांडुलिपियों और कई दस्तावेजों को मिलाकर अब तक 27 लाख पन्नों की संदर्भ सामग्री तैयार की जा चुकी है.
भोपाल के हबीबगंज रेलवे स्टेशन से न्यू मार्केट की ओर जाने वाले लिंक नंबर-3 पर बना माधवराव सप्रे संग्रहालय बाहर से जितना साधारण दिखता है भीतर से उतना ही अनूठा है.

इसका एहसास संग्रहालय में प्रवेश करते ही तब होता है जब तमाम अखबारों के पीले पन्नों में से कहीं आपको ऐसी इबारत पढ़ने को मिल जाती है जिसके किस्से आपने अकादमिक संस्थानों में सुने थे या फिर जिनका जिक्र किसी किताब में मिला था. और फिर आप बीते काल खंडों में जाए बिना रह नहीं पाते. भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में जिस हिकीज गजट (1780 में प्रकाशित हुआ भारत का पहला अखबार) के बारे में हम सबने पढ़ा-सुना है उसे चाहें तो आप छूकर देख सकते हैं. इक्कीसवीं सदी के सेल्फ पर खड़े झांक सकते हैं कि हिंदी का पहला अखबार उदंत मार्तंड (1826) आखिर दिखता कैसा था. यहीं रखा है लंदन का सबसे पुराना अखबार स्फियर (1764) और इसी के साथ आपको मध्य प्रदेश का प्राचीन मालवा अखबार (1849) भी मिल जाएगा. अगली कड़ी में देहली उर्दू अखबार (1836), मराठी भाषा के प्रभाकर (1841) और पहले दैनिक अखबार सुधा वर्षण जैसे कई अखबारों को जब आप उनके पहले अंकों के साथ पलटेंगे तो जानेंगे कि लिथो प्रिंटिंग के जमाने में आखिर अखबार कैसे निकलता था. इसी खजाने में भारतेंदु हरिश्चंद्र की हरिशचंद्र पत्रिका, बालकृष्ण भट्ट की हिंदी प्रदीप के अलावा नागरी प्रचारणी सभा, सरस्वती स्वराज्य और कर्मवीर को पढ़ते हुए आप पाएंगे कि उन दिनों उनकी विषय-वस्तु और भाषा-शैली कैसी हुआ करती थी.

[box]‘यदि इस छत के नीचे पांच सौ साल का इतिहास आ गया है तो इसलिए कि कई परिवारों ने इसे बचाने के लिए हम पर भरोसा किया’[/box]

समाचार पत्रों के झरोखे में आजादी की लड़ाई (1857-1947) की ऐसी आंखों देखी झांकी भी नजर आती है जिसमें किसी जगह तात्या टोपे जैसे किसी आदमी के दिखाई पड़ने की अफवाह भी है तो भगत सिंह की फांसी की खबर भी. हालांकि इतिहास की कई बड़ी घटनाओं को हम इतनी दफा सुन चुके हैं कि उन्हें सुनकर रूखापन छा जाता है. मगर अब आप द्वितीय विश्वयुद्ध, देश विभाजन, भारत की आजादी, और गांधीजी की हत्या की तारीख वाली सुर्खियों के सामने आइए. यहां 15 अगस्त, 1947 को हिंदुस्तान की आजादी का जीवंत इतिहास पढ़कर कौन रोमांचित नहीं हो जाएगा. या ‘मां की छाती पर घोर वज्रघात’ (भारत अखबार) गांधीजी की हत्या के दिन बनी यह खबर आपके भीतर वह तड़प भरती है जो 30 जनवरी, 1948 को 35 करोड़ भारतीयों को हुई होगी. अखबार इतिहास को दर्ज करते हैं. मगर सप्रे संग्रहालय में समाचार-पत्रों का इतिहास दर्ज है और इसी के साथ मीडिया का विकासक्रम भी. आजकल अखबार में आठ कॉलम का चलन है.

एक जमाना था जब नौ कॉलम वाला लंबा-चौड़ा अखबार छपता था. 1905 में छपा नौ कॉलम वाला श्रीवेंकटेश्वर अखबार संग्रहालय में सुरक्षित रखा है. वहीं 1894 में छपा 74×54 सेंटीमीटर के आकार का टाइम्स ऑफ इंडिया (आज के अखबारों से लगभग दोगुना) भी आकर्षण का केंद्र है. दूसरी तरफ, 1884 में छपा पोस्टकार्ड साइज का मौजे नरबदा भी आप देख सकते हैं. मौजे नरबदा हुकूमत के दमन का शिकार होने वाला मप्र का पहला अखबार है. सदाकत अखबार के संपादक अब्दुल करीम को भोपाल रियासत के खिलाफ टिप्पणी करने के बाद रियासत से बाहर निकाला गया था. इसके बाद उन्होंने होशंगाबाद से मौजे नरबदा निकालना शुरू कर दिया. भ्रष्टाचार के खिलाफ पहली आवाज कोलकाता के अंग्रेजी अखबार हिकीज गजट ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ उठाई थी. तब संपादक जेम्स आगस्टस हिकी को अपने इस दुस्साहस का अंजाम भारत छोड़ने के फरमान के तौर पर भुगतना पड़ा था. और इंग्लैंड पहुंचने से पहले ही उनकी मौत की खबर मिली थी. जाहिर है यहां रखे अखबार इस बात के गवाह हैं कि हमारी समकालीन समस्याएं नई नहीं हैं और न ही मीडिया के सामने चुनौतियां ही.

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भले ही अखबार की जिंदगी को सुबह की चाय की चुस्कियों के साथ खत्म मान लिया जाए और अगले रोज वह रद्दी की टोकरी में नजर आए. यहां ऐसे ही रद्दी समझे जाने वाले कई टुकड़े अब इतिहास की धरोहर बन गए हैं. इन्हीं में नील आर्मस्ट्रांग के चंद्रमा पर पहुंचने के बाद जुलाई, 1969 के अखबार की एक कतरन का शीर्षक है- ‘मानव ने चांद पर कदम रखा.’ या 16 दिसंबर, 1971 के अखबार की सुर्खी ‘जनरल नियाजी ने लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा के सामने घुटने टेके’.

यह संयोग है कि जिस वर्ष भोपाल गैस कांड हुआ था उसी साल यानी 1984 में माधवराव सप्रे संग्रहालय भी वजूद में आया. यहां इस त्रासदी की खबरों से जुड़े कई पृष्ठ भी आप देख सकते हैं. उस समय के कई अखबारों के कार्यालयों में भी इस कांड पर प्रकाशित खबरों के पृष्ठ नहीं हैं लिहाजा कई पत्रकार इस हादसे से जुड़ी खबरों को देखने के लिए यहां आते रहते हैं. दरअसल संग्रहालय में हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी के अलावा दूसरी भाषाओं की कई पत्र-पत्रिकाओं की फाइलें अपने पहले अंक के साथ सहेजी जाती हैं. कुछेक अखबारों के तो ऐसे अंक भी हैं जो अब उनके प्रकाशकों के पास भी नहीं हैं. जैसे, मराठी भाषा के अखबार विदूषक और सकाल के कई दुर्लभ अंक महाराष्ट्र में भी नहीं मिलेंगे. 19 जून, 1984 को हिंदी के पत्रकार माधवराव सप्रे के नाम पर स्थापित इस अभिलेखागार की स्थापना के समय से इससे जुड़े वरिष्ठ पत्रकार संपादक विजयदत्त श्रीधर बताते हैं कि 1982-83 में मप्र पत्रकारिता के इतिहास पर किताब लिखने के लिए जब जगह-जगह जाना हुआ तो यह चिंता हुई कि जर्जर पृष्ठों में पड़ी बुजुर्गों की यह जायदाद कहीं नष्ट न हो जाए. इसके बाद श्रीधर ने पुराने अखबारों को घर-घर जाकर तलाशना शुरू किया. श्रीधर ने समाचार पत्रों के इतिहास को न केवल समेटा बल्कि लिखा भी है. और उन्होंने इतिहास के महत्वपूर्ण लेखों को एक किताब के तौर पर तीन खंडों (1780-1947) में शामिल किया है. श्रीधर के मुताबिक, ‘यदि इस छत के नीचे पांच सौ साल का इतिहास आ गया है तो इसलिए कि कई परिवारों ने इसे बचाने के लिए हम पर भरोसा किया.’ माखनलाल चतुर्वेदी और धर्मवीर भारती के परिवार के सदस्यों ने निजी पुस्तकालय ससम्मान सप्रे संग्रहालय को सौंप दिए. संग्रहालय ने भी दानदाताओं की सामग्री को उनके नाम के साथ प्रदर्शित करने में जरा भी संकोच नहीं किया. शायद यही वे खूबियां हैं जिनकी वजह से सप्रे संग्रहालय की रजत जयंती (2008) पर खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसकी तारीफ की थी.

इतिहास के सूत्र
सुर्खियों में केवल समाचार भर नहीं होते. ये उस कालखंड की समाज-संस्कृति का जीवंत दृश्य भी होती हैं. इसी कड़ी में यहां महत्वपूर्ण साक्ष्यों के तौर पर माने जाने वाले अंग्रेजी और हिंदी के कई गजेटियर हैं. 1905 में अंग्रेजी का पहला गजेटियर बना था और उसके एक दशक बाद राय बहादुर हीरालाल ने हिंदी वालों के लिए छोटे-छोटे और जिलावार गजेटियर शुरू किए. उन्हें अनुप्रास अलंकार में नाम दिए गए. जैसे, नरसिंहपुर जिले के गजेटियर का नाम रखा- नरसिंह नयन. इसी तरह, जबलपुर ज्योति, होशंगाबाद हुंकार, सागर सरोज और रायपुर रश्मि आदि चलन में आए. इनमें आप अपने समय के सूखे और अकाल के ब्यौरे सहित कई प्रसंग खंगाल सकते हैं.

संग्रहालय का दूसरा बड़ा काम 1509 से 1925 तक की दुर्लभ पांडुलिपियों की खोज है. यहां मनुस्मृति से लेकर झांसी की रासो तक की हजारों पांडुलिपियां हैं. हाल ही में संग्रहालय को गोस्वामी तुलसीदास की श्री रामविवाह की हस्तलिखित पांडुलिपि मिली है. इसके अलावा हिंदी के ख्यातिनाम साहित्यकार सुमित्रानंदन पंत, सुभद्राकुमारी चौहान, हजारी प्रसाद द्विवेदी और भवानी प्रसाद मिश्र के पत्राचार संकलन संग्रहालय की नई उपलब्धि हैं. इन पत्रों में अपने समय के अहम मुद्दों पर चला विमर्श है. यही वजह है कि पटना से प्रकाशित होने वाले अखबार के प्रभात खबर के संपादक हरिवंश सप्रे संग्रहालय को शब्दों और विचारों की विपुल संपदा का रक्षक बताते हैं. वे कहते हैं, ‘हिंदी में ऐसी दूसरी संस्था नहीं. हिंदी इलाकों में संस्थाओं के क्षय का रोना चलता रहता है पर विपरीत परिस्थितियों में ऐतिहासिक महत्व की संस्था बनाना कोई यहां से सीखे.’ 25-30 साल का अरसा कुछ नहीं होता. मगर इतने कम समय में ही यह शोधार्थियों का नया ठिकाना बन गया है. सप्रे संग्रहालय में देश के कई विश्वविद्यालयों के हजारों शोधार्थियों ने शोध पूरे किए हैं. वहीं कई साहित्यकारों को जब कोई जरूरी दस्तावेज कहीं नहीं मिला तो उन्हें यहां आकर कामयाबी मिली. इन्हीं में अपनी मौत से ठीक पहले यहां आए कमलेश्वर भी हैं. वे हिंदी-उर्दू पर काम करने वाले थे और यहां आकर उन्हें उनके काम की किताब मिल गई. संग्रहालय में हिंदी के बाद सबसे बड़ा जखीरा उर्दू का दिखता है. यहां भोपाल सहित, लाहौर, हैदराबाद, लखनऊ, बरेली और दिल्ली के कई पुराने अखबार हैं.

[box]यहां मनुस्मृति सहित हजारों पांडुलिपियां हैं. हाल ही में संग्रहालय को गोस्वामी तुलसीदास की श्री रामविवाह की हस्तलिखित पांडुलिपि मिली है[/box]

देश के विभाजन से पहले भोपाल उर्दू का बड़ा गढ़ था और इसलिए पाकिस्तान के कौकब जमील जैसे मशहूर पत्रकार-लेखक अपने शोध के लिए भोपाल आते हैं. संग्रहालय की निदेशक मंगला अनुजा बताती हैं, ‘जब दुनिया भर की खाक छानकर कोई यहां आए और उन्हें उनके काम की सामग्री मिल जाए तो आत्मसंतुष्टि मिलती है.’ अनुजा विदेश के अनेक शोधार्थियों के लिए कई बार दुर्लभ सामग्री जुटा चुकी हैं. जापान की शोधार्थी हिसाए कोमात्सु का ही किस्सा लें. वे चार साल पहले दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से ‘हिंदी क्षेत्र में स्त्री का स्त्री विमर्श’ विषय पर शोध कर रही थीं. और उन्हें 1857 से 1947 के अखबारों की तलाश थी. कोमात्सु ने एक दिन कहीं सप्रे संग्रहालय से जुड़ी खबर पढ़ी और भोपाल आ गईं. तीन साल दिल्ली में भटकने के बाद आखिर उन्हें यहां अपने शोध के लिए जरूरी जानकारी का भंडार मिल गया.

इन दिनों यहां पहले दिन से आज तक उपयोग में लाए गए कैमरों और रेडियो को खोजने का काम चल रहा है. फिलहाल यदि आपको देखना है तो द्वितीय विश्वयुद्ध के जमाने में सेना के उपयोग के लिए लाया गया ट्रांसमीटर देख सकते हैं. आप चाहें तो यहां 1948 में बापू की हत्या का समाचार सुनाने वाले रेडियो की तस्वीर भी खींच सकते हैं. भारतीय पत्रकारिता की तकरीबन डेढ़ सौ साल की झलकियां देखकर जब आप फिर से संग्रहालय के प्रवेशद्वार पर आते हैं तो यहां रखी तोप आपको चौंकाती नहीं है.  इस तोप के नीचे अकबर इलाहाबादी का सबसे ज्यादा दोहराया जाने वाला वह शेर लिखा है, ‘…जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो.’  इसे देखकर सहसा आप महसूस करते हैं कि प्रतीक के तौर पर ही सही भेलसा (विदिशा) से आई 17वीं सदी की तोप शायद पत्रकारिता के इतिहास की रक्षा के लिए ही यहां तैनात है.

पत्रकार और सूत्रधार
‘जाके पांव न फटी बिवाई, सो का जाने पीर पराई.’ मध्य प्रदेश में यह कहावत खूब कही-सुनी जाती है. और नरसिंहपुर जिले के बोहानी गांव से मीडिया की दुनिया के संवेदनशील रिपोर्टर, संपादक, पत्रकारिता के उम्दा लेखक तथा सप्रे समाचार पत्र संग्रहालय की नींव डालने वाले विजयदत्त श्रीधर पर तो यह सटीक बैठती है. दरअसल अस्सी के दशक में मप्र की पत्रकारिता के इतिहास पर किताब लिखने के लिए जब श्रीधर को इधर से उधर भटकना पड़ा तो उन्हें लगा कि लेखकों के लिए संदर्भ सामग्री को एक छत पर लाना कितना जरूरी है. उन्हें यह एहसास भी हुआ कि समाचार पत्र-पत्रिकाएं केवल पत्रकारों और प्रकाशकों का ब्योरा ही नहीं देतीं बल्कि उनमें समसामयिक घटनाक्रम के साक्ष्य भी होते हैं और इसीलिए राष्ट्र की इस बौद्धिक धरोहर को बचाना चाहिए. मगर सामग्री संकलन का काम कोई आसान नहीं होता.

श्रीधर बताते हैं कि जब तक सामग्रीदाता को यह भरोसा न हो जाए कि आप उनकी अमानत को बचाकर रख पाएंगे तब तक कोई आपके हाथों कुछ सौंपता भी नहीं है. ऐसा कई बार हुआ कि किन्हीं ने पहले सामग्री देने के लिए हां कह दी और बाद में वहां से खाली हाथ ही लौटना पड़ा. लेकिन बुजुर्गों ने हमेशा समझाया कि जब झोली फैलाई है तो अहं को सिर नहीं उठाने देना. बकौल श्रीधर, ‘जबलपुर में सामग्री संकलन अभियान के अहम सहयोगी शंकर भाई ने हमारे लिए एक संबोधन गढ़ा- ‘कबाड़ी.’ जब कभी जबलपुर जाना होता, वे संदर्भ सामग्री देने वालों से कहते भोपाल से कबाड़ी आएं हैं, अपना कबाड़ खाली कर दो. जिस अदांज में शंकर भाई कबाड़ी कहते वह किसी बड़े सम्मान से कम नहीं था.’ दरअसल ऐसी सामग्री श्रीधर को हमेशा अपने कंधों पर ढोनी पड़ी है. ऐसी ही मशक्कत के चलते सबका उन पर भरोसा बढ़ता गया. वहीं सप्रे संग्रहालय ने अपने पहले पड़ाव से ‘मैं’ की जगह ‘हम’ को अपनाया और इसीलिए पहले प्रदेश और फिर देश भर में संग्रहालय का एक कुटुंब बन गया.

कला अनमोल, मिट्टी के मोल

जागुड़ी गांव में हम हाकिम जादुपेटिया के घर पहुंच तो गए हैं लेकिन उनकी व्यस्तता में कोई कमी नहीं आई है. हाकिम इशारे से हमें बैठने को कहते हैं. उनकी पत्नी लालमुनी जादुपेटिया तो इतनी तल्लीन हैं कि वे हमारी ओर देखती भी नहीं. हम खाट पर बैठ जाते हैं. हमें थोड़ी-सी हैरानी और चिढ़ हो रही है कि वे हमें थोड़ा वक्त देकर भी तो अपना काम कर सकते थे, लेकिन तभी हमारी नजर फिर जादुपेटिया दंपति पर जाती है और हमारा गुस्सा काफूर हो जाता है. वे किसी ध्यानमग्न योगी की तरह अपने काम में लगे हैं, दीन-दुनिया से बेखबर. तकरीबन 10 मिनट बाद काम से निपटकर वे कहते हैं, ‘माफ कीजिएगा, बीच में काम छोड़ नहीं सकता था नहीं तो गड़बड़ हो जाता.’ हाकिम आगे बताते हैं कि वे घुंघरू बना रहे थे और एक घुंघरू तैयार करने में उस पर 17 बार हाथ लगाना पड़ता है. एक बार भी हाथ गलत तरीके से लगा तो वह घुंघरू बेकार हो जाता है.

कुल 17 बार हाथ फेरने के बाद बनी कलाकृति की कीमत मात्र 10 रुपये है. इतनी कम कीमत क्यों? जवाब मिलता है, ‘ऐसा क्यों, यह तो नहीं जानता. लेकिन इतना जरूर जानता हूं कि हमारी कला की मांग और कीमत तो दुनिया में दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, यहां तक कि कच्चे माल का मूल्य भी दिन दोगुना-रात चौगुना बढ़ रहा है, लेकिन हमारे हुनर का मूल्य एक जगह ठहरा हुआ है.’ हम फिर पूछते हैं कि यह स्थिति है तो यह काम करते ही क्यों हैं. उनकी गर्वीली आवाज गूंजती है, ‘बुनियादी पेशा है, इसे छोड़ नहीं सकते. इसे छोड़कर और करेंगे भी क्या? वैसे हमें यह उम्मीद भी लगी रहती है कि आज अगर दुनिया में हमारी कला के दीवाने बढ़ रहे हैं, इसकी मांग बढ़ रही है, कीमत बढ़ रही है तो कल को शायद हमारे हुनर का मूल्य भी बढ़ जाए.’

जागुड़ी गांव में इस समुदाय के 22 घर हैं. यहां हमारी मुलाकात पैगंबर, मकबूल, अरजीना और प्रहलाद जादुपेटिया से होती है. कोई नाक-कान और गले के आभूषण बनाने में व्यस्त है तो कोई घुंघरू व मूर्ति बना रहा है. हम प्रहलाद से पूछते हैं कि कला को जिंदा रखने की जिद तो ठीक है लेकिन एक साल में वे इससे कितना कमा पाते हैं. जवाब में प्रहलाद हंसते हैं. उनका जवाब थोड़ा दार्शनिक है, ‘यह तो हमें आज तक समझ में नहीं आया. दरअसल हम पता करना भी नहीं चाहते.’

जागुड़ी झारखंड के संथाल परगना इलाके में दुमका से केवल 35 किलोमीटर दूर है. खस्ताहाल सड़क इस सफर को तीन घंटे में बदल देती है. जादुपेटिया समुदाय के लोग कई पीढ़ियों से पीतल, मिट्टी, मोम, धूमन (साल के पेड़ से निकलने वाला चिपचिपा पदार्थ), सरसों के तेल आदि के मेल से नायाब कलाकृतियां बनाते हैं. कला को मूल धर्म मानने वाला यह समुदाय हिंदू-मुसलमान-ईसाई आदि धर्मों के सम्मिलित स्वरूप वाला है. यह समुदाय कला की जो शैली अपनाए हुए है उसे डोकरा आर्ट कहते हैं जिसकी चमकती हुई मूर्तियां और कलाकृतियां बड़े लोगों के ड्रॉइंग रूम में, बड़े समारोहों में स्मृति चिह्न के रूप में और बड़े शहरों के कला घरों में महंगी कृतियों की श्रेणी में देखी जा सकती हैं.

जागुड़ी से हम करीब पंद्रह किलोमीटर दूर बसे जबरदाहा गांव में पहुंचते हैं. वहां अलीम अली से मुलाकात होती है. अलीम युवा कलाकार हैं. पिछले साल झारखंड में हुए 34वें राष्ट्रीय खेल के दौरान अलीम और उनके साथियों ने ही प्रतिभागियों को देने के लिए राष्ट्रीय खेल के शुभंकर की अनुकृति और डोकरा आर्ट की कलाकृतियां तैयार की थीं. सरकार के बुलावे पर अलीम अपने गांव और आस-पास के गांव के जादुपेटिया समुदाय के करीब 50 लोगों को लेकर रांची पहुंचे थे. नईमुद्दीन, रतनी, शंभू, ढुबरी, हारिज, निजाम, ख्वाजामुद्दीन, मुमताज, मदीना, नियामन, ललन, सुखचांद, हिरामन, भानु, खुदीमन, सहिजन, नवाज अली, अबेदीन आदि सब दो माह तक कलाकृतियां बनाते रहे. बाद में इनकी मजदूरी का भुगतान करके सरकारी विभाग ने इन्हें अपने-अपने गांव तक पहुंचा दिया.

साथ लौटा तो केवल काम का आश्वासन. लेकिन आज अलीम और उनके साथी अपने गांव के पास के ही सरसडंगाल खदान में पत्थर तोड़ने का काम करते हैं. अलीम कहते हैं कि इस पेशे से परिवार चलना बहुत मुश्किल है. वे एक पुराना अलबम उठा लाते हैं और दिखाते हुए कहते हैं, ‘देखिए, हम शिमला, गुवाहाटी, शिलांग, चेन्नई, गोवा, कोलकाता आदि सभी जगह जाकर प्रदर्शनी लगा चुके हैं. इसके लिए सरकार हमें मदद देती थी. लेकिन अब सरकार और सरकारी संस्थाओं ने हमें हमारे हाल पर छोड़ दिया है, इसलिए मजदूरी करने के सिवा हमारे पास और कोई विकल्प भी नहीं है. साल में एक बार शांति निकेतन में मेला लगता है तो वहां के लिए हम सारे लोग काम करते हैं. बाकी तो बस यूं ही कटती है.’

अलीम हमें इसका अर्थशास्त्र समझाने में कामयाब होते हैं. वे कहते हैं, ‘हम एक बार में 30-35 किलो पुराना पीतल बाजार से लाते हैं, जिसकी कीमत लगभग दस हजार रुपये होती है. इतना पैसा हमारे पास होता नहीं, इसलिए हमारे लोग डेढ़ गुना भुगतान के वायदे पर घर के गहने गिरवी रखकर महाजनों से रुपये लेते हैं. दस हजार के पीतल से 20 हजार का माल तैयार होकर आढ़त में बिकता है. महाजन 100 का 150 रुपये लेता है. तो 15 हजार रुपये हमें महाजन को ही देने पड़ते हैं, शेष जो पांच हजार बचते हैं उसी में हमारी मजदूरी भी होती है, भट्टी जलाने के लिए कोयला, डिजाइन तैयार करने के लिए मोम, धूमन, सरसों तेल आदि का खर्च भी इसी में शामिल है. समझ सकते हैं कि क्या अनुपात है हमारी कलाकारी में बचत का!’

अलीम हमें यह भी बताते हैं कि ये कलाकृतियां कैसे बनती हैं. पहले पुराने पीतल को लाकर उसे भट्टी में डाला जाता है. फिर उसे तोड़कर उसके छोटे टुकड़े या चूर्ण बनाया जाता है. उसके बाद धूमन, सरसों का तेल और मोम को मिलाकर एक खास किस्म का धागा बनता है. ऐसे धागों से मिट्टी पर डिजाइन तैयार किया जाता है. फिर मिट्टी के सांचे पर बने डिजाइन के ऊपर मिट्टी की एक और तह चढ़ाई जाती है. फिर उसके ऊपरी भाग पर एक छोटा-सा छेद छोड़कर उसके ऊपर पीतल को एक कटोरेनुमा मिट्टी के पात्र में डालकर उसे भी मिट्टी में ही बंद कर दिया जाता है. ऐसा आकार बनाया जाता है कि पीतल पिघलकर मोम वाले भाग में स्वत: पहुंच जाए. फिर उसे भट्टी में डाल दिया जाता है. गर्मी से पिघलकर पीतल मोम वाले हिस्से से डिजाइन के चारों ओर फैल जाता है. तैयार डिजाइन वाला धागा गल जाता है और उसकी जगह पिघला हुआ पीतल ले लेता है. यह उस जमाने की तकनीक है जब कला विशुद्ध रूप से इंसानी हुनर थी, मशीन के हस्तक्षेप से पूरी तरह मुक्त.

सवाल उठता है कि आखिर क्यों इतनी मेहनत से बनी कलाकृतियों के लिए कलाकार को कम पैसे मिलते हैं जबकि बाजार में यह मुंहमांगे दामों पर बिकती है. अलीम बताते हैं कि इन्हें बनाने के बाद पॉलिश करनी होती है. गांव में बिजली नहीं होने के कारण बिना पॉलिश किए ही इनको बाजार में बेचना पड़ता है. ऐसी हालत में एक घुंघरू 10 रुपये में तो कान के फूल और गले के हार 25 से 30 रुपये में बिक पाते हैं. खरीदने वाले इसे मशीन से पॉलिश करवाते हैं और तत्काल इसकी कीमत में 10 से 20 गुना इजाफा हो जाता है. अगर बिजली का बंदोबस्त हो जाए तो पॉलिश करने वाली मशीन खरीदने के लिए भी काफी पैसों की जरूरत होगी.

इस समुदाय के लोगों की बसाहट जागुड़ी, जबरदाहा, बिसरियान, ढेबाडीह, ठाकुरपुरा, सापादाहा, बिसनपुर, खेजुरडंगल, देबापाड़ा, मुजराबाड़ी, नावाडीह जैसे 12 गांवों में है, लेकिन जागुड़ी और जबरडाहा को छोड़ बाकी गांव इस पारंपरिक पेशे से तौबा कर चुके हैं.

इस समुदाय और कला का कोई लिखित इतिहास नहीं मिलता लेकिन माना जाता है कि जब से मानव में शृंगार की भावना आई तब से इसका अस्तित्व है. चूंकि वे आदिवासी समुदाय के बीच बसे हैं, इसलिए इनकी कला में भी आदिवासी पुट है. सिद्धू कान्हु विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ सुरेंद्र झा कहते हैं कि इस समुदाय का लिखित इतिहास तो कहीं नहीं मिलता लेकिन यह तय है कि ये घुमंतू लोग हैं और इनकी कलाकृतियों को क्लासिकल ट्राइबल आर्ट की श्रेणी में रखा जाता है.

[box]जादुपेटिया समुदाय के लोगों की बसाहट करीब 12 गांवों में हैं, लेकिन जागुड़ी और जबरडाहा को छोड़ बाकी गांव इस पारंपरिक पेशे से तौबा कर चुके हैं[/box]

जादुपेटिया समुदाय का कलाकर्म तो क्लासिकल है ही, उनकी जीवनशैली भी खास और विचित्र है. जागुड़ी और जबरदाहा गांव में जादुपेटिया परिवारों के बीच जाने के बाद कई दिलचस्प बातें जानकारी में आती हैं. पता चलता है कि पैगंबर जादुपेटिया के बेटे का नाम प्रहलाद जादुपेटिया है. प्रहलाद जादुपेटिया ने अपने बेटे का नाम अहमद जादुपेटिया रखा है. एक ही घर परिवार में निजाम, मदीना, भानु, शंभू जैसे सदस्य मिलेंगे. नाजिर जादुपेटिया ने अपनी बेटी का नाम मरियम रखा है और फिर उसकी शादी एक अंसारी परिवार में की है. वे किस समुदाय से आते हैं, हिंदू हैं या मुसलमान इसका सीधा जवाब कोई नहीं दे पाता. हालांकि अलीम कहते हैं कि वे लोग मुसलमान समुदाय से आते हैं. यह पूछने पर कि कौन-से मुसलमान, अलीम कहते हैं कि पता नहीं.

इस खास समुदाय की खास कला को लेकर सरकार चिंतित क्यों नहीं है?  हम दुमका के उपायुक्त हर्ष मंगला से पूछते हैं कि क्यों सरकार इस विशेष समुदाय को अपने हाल पर छोड़कर आधुनिक समय में भी पसंद की जाने वाली विधा को सदा-सदा के लिए खत्म कर देना चाहती है. हर्ष मंगला कहते हैं, ‘इस समुदाय के 250 परिवारों में से जो बेहतर हैं उन्हें झारक्राफ्ट (कला एवं संस्कृति मंत्रालय की शाखा) से सहयोग मिल रहा है.’ यह पूछने पर कि क्या इस विकट स्थिति में उनकी सहयता के लिए कोई योजना बन सकती है, हर्ष मंगला कहते हैं, ‘फिलहाल तो कोई योजना नहीं है, जब कोई योजना आएगी तो उसका लाभ उन्हें दिया जाएगा.’

वे यह बात ऐसे कहते हैं जैसे इस कलाकर्म में लगने वाली नई पीढ़ी भी अपने उद्धार के लिए योजना के इंतजार में विरासत का बोझ ढोने की गारंटी दे रही हो! रही बात राजनीतिक दलों की तो संख्या बल में यह समुदाय मुठ्ठी भर है इसलिए शायद इसकी विडंबनाएं राजनीति के गलियारे में कभी मसला नहीं बनने वालीं. और तब यह तय-सा लगता है कि शायद कुछ सालों बाद 12 में से बचे दो गांवों के जादुपेटिया समाज के लोग भी अपने इस आदि-बुनियादी पेशे से तौबा करके दिहाड़ी मजदूरी करने परदेश जाकर बस जाएंगे जिसके लिए संथाल परगना का इलाका लंबे समय से जाना जाता रहा है.

मौत पर सियासत

उल जेहाद अल इस्लामी (हुजी) के कथित आतंकवादी खालिद मुजाहिद की पुलिस हिरासत में मौत हो गई है.
उल जेहाद अल इस्लामी (हुजी) के कथित आतंकवादी खालिद मुजाहिद की पुलिस हिरासत में मौत हो गई है.

उत्तर प्रदेश में हरकत उल जेहाद अल इस्लामी (हुजी) के कथित आतंकवादी खालिद मुजाहिद की पुलिस हिरासत में हुई मौत के बाद एक तरफ अनसुलझे सवाल हैं और दूसरी तरफ अनवरत राजनीति. पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी खालिद की मौत की कोई साफ वजह पता नहीं चल पाई है. उधर, प्रदेश की कमान संभाल रही समाजवादी सरकार ने खालिद के परिजनों की छह लाख रु. की आर्थिक सहायता का एलान किया है तो भारतीय जनता पार्टी ने इस कदम को आतंक का सरकारी महिमामंडन बताते हुए इसका विरोध किया है.

खालिद की मौत ऐसे समय पर हुई है जब प्रदेश सरकार उसके मुकदमों की वापसी की प्रक्रिया शुरू कर चुकी थी. लोकसभा चुनाव भी सिर पर हैं. सपा सरकार मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ रही है. खालिद आतंकी था कि नहीं, उसकी गिरफ्तारी सही थी कि नहीं, इन मुद्दों पर भी शुरू से ही विवाद था. लिहाजा पुलिस हिरासत में उसकी मौत ने प्रदेश सरकार को राजनीतिक तौर पर एक झटका जरूर दिया है. सरकार ने भी अपने बचाव में आनन-फानन में खालिद की गिरफ्तारी के समय उत्तर प्रदेश के डीजीपी रहे विक्रम सिंह, एडीजी ब्रज लाल सहित 42 पुलिस कर्मियों पर हत्या का मुकदमा दर्ज करने का निर्देश देते हुए मामले की सीबीआई जांच का आदेश देकर डैमेज कंट्रोल करने की कोशिश की है.

2007 में उत्तर प्रदेश के लखनऊ, फैजाबाद व गोरखपुर कोर्ट में हुए धमाकों के मामले में खालिद मुजाहिद लखनऊ जेल में बंद था. उसके तीन अन्य साथी तारिक कासमी, सज्जादुर्र-हमान तथा अख्तर भी इसी जेल में हैं. 18 मई, 2013 को चारों आरोपितों की फैजाबाद जिला जेल में पेशी थी. इसके लिए लखनऊ पुलिस की निगरानी में चारों को सरकारी वाहन से फैजाबाद भेजा गया था. जिला जेल फैजाबाद में ही मामले की सुनवाई के बाद शाम करीब पौने चार बजे चारों आरोपितों को लेकर पुलिस वैन लखनऊ जेल के लिए निकली थी.

खालिद की मौत के बाद लखनऊ जेल में बंद उसके साथी तारिक कासमी से मिलकर आए उनके वकील मोहम्मद शुएब बताते हैं, ‘फैजाबाद की जिला जेल से निकलने के बाद वाहन रामसनेही घाट पहुंचने ही वाला था कि खालिद के पड़ोस में बैठे तारिक को अपने शरीर पर किसी भार का अहसास हुआ. उसने पलट कर देखा कि खालिद उसके कंधे पर झुका हुआ है.’ शुएब आगे बताते हैं, ‘तारिक को पहले लगा कि खालिद सो गया है लिहाजा उसने उसे हिलाकर जगाने की कोशिश की. लेकिन खालिद का शरीर ढीला पड़ गया था और उसकी आंखें चढ़ने लगी थीं. इस पर तारिक और उसके साथियों ने शोर मचाना शुरू कर दिया. शोर सुन कर पुलिस ने वाहन रुकवाया.’ इसके बाद शाम करीब सवा पांच बजे पुलिस वाहन खालिद को लेकर बाराबंकी के जिला अस्पताल पहुंचा. शुएब के मुताबिक तारिक ने उन्हें बताया कि छह पुलिसकर्मी खालिद को स्टेचर पर लाद कर अस्पताल के भीतर ले गए जबकि तारिक व तीन अन्य आरोपितों को वैन में ही बंद करके दो पुलिसकर्मी उनकी सुरक्षा में बाहर ही रहे.

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करीब 15-20 मिनट बाद बाहर आए पुलिसवालों से जब तारिक ने खालिद का हाल-चाल जानना चाहा तो बताया गया कि आईसीयू में डॉक्टर उपचार कर रहे हैं. इसके बाद तारिक सहित तीनों आरोपितों को लखनऊ जेल रवाना कर दिया गया. उसके बाद क्या हुआ तारिक और उसके साथियों को कुछ भी नहीं पता चल पाया. बाराबंकी की अदालत में खालिद और उसके साथियों का मामला देख रहे वकील रणधीर सिंह सुमन बताते हैं, ‘सूचना मिलते ही जब जिला अस्पताल पहुंचा तो मालूम हुआ कि खालिद का शव मोर्चरी में भेज दिया गया है. वहां जाकर देखा तो खालिद के शरीर पर टी शर्ट तथा लोअर था. लखनऊ जेल से फैजाबाद पेशी के दौरान और पेशी से वापस आते समय तक खालिद कुर्ता-पायजामा व टोपी पहने था. आखिर खालिद के कपड़े क्यों बदल दिए गए?’

खालिद की मौत पर बवाल खड़ा होते ही सरकार तुरंत हरकत में आ गई. मौत की सूचना पर खालिद के चाचा जहीर आलम फलाही भी जौनपुर के मड़ियाहू स्थित पैतृक आवास से 18 मई की रात बाराबंकी पहुंच गए थे. भारी आक्रोश को देखते हुए प्रदेश सरकार ने फलाही के प्रार्थना पत्र के आधार पर खालिद की गिरफ्तारी के समय उत्तर प्रदेश के डीजीपी रहे विक्रम सिंह, एडीजी ब्रज लाल, एएसपी मनोज कुमार झा, डिप्टी एसपी चिरंजीव नाथ सिन्हा तथा आईबी के अज्ञात लोगों सहित 42 लोगों के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज कराया. फलाही ने  कोतवाली बाराबंकी के प्रभारी निरीक्षक को दिए प्रार्थना पत्र में आरोप लगाया है कि 16 दिसंबर, 2007 को उनके भतीजे का स्पेशल टास्क फोर्स उत्तर प्रदेश द्वारा जौनपुर के मड़ियाहू बाजार से अपहरण कर लिया गया था और बाद में एक साजिश के तहत 22 दिसंबर, 2007 को रेलवे स्टेशन बाराबंकी पर फर्जी विस्फोटकों की बरामदगी के साथ उसकी गिरफ्तारी दिखा दी गई. वे कहते हैं कि सोची समझी रणनीति के तहत एटीएस के गठन के बाद फर्जी जांच करके  इस मामले में आरोप पत्र दाखिल कर दिया गया. प्रार्थना पत्र में फलाही ने यह भी लिखा है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने  इस गिरफ्तारी व फर्जी बरामदगी को लेकर आरडी निमेश आयोग गठित किया था. आयोग ने जांच करके अपनी रिपोर्ट 31 अगस्त, 2012 को उत्तर प्रदेश सरकार को दे दी थी. सरकार ने राज्यपाल की आज्ञा के बाद मुकदमा वापसी का प्रार्थना पत्र भी न्यायालय में दिया था. फलाही ने अपने प्रार्थना पत्र में लिखा है, ‘यदि मुकदमा पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कायम होता तो उस मुकदमे का मुख्य गवाह मेरा भतीजा खालिद मुजाहिद होता जिससे पुलिस के उच्च अधिकारियों को सजा होती. इसलिए सोची-समझी रणनीति के तहत उसकी हत्या कर दी गई.’

पुलिस अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा कायम करवाने के बाद सरकार की ओर से पोस्टमार्टम के लिए एक पैनल का गठन किया गया था. लेकिन इसमें मौत का कोई निश्चित कारण नहीं निकला लिहाजा पैनल ने हृदय और दोनों फेफड़ों के हिस्से बिसरा जांच के लिए भेजे हैं. पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत का कारण भले ही साफ न हुआ हो लेकिन खालिद के वकील रणधीर सिंह सुमन व मोहम्मद शुएब शव की स्थिति को देख कर कोई जहरीला पदार्थ खिलाए जाने की आशंका व्यक्त कर रहे हैं. शुएब कहते हैं, ‘पोस्टमार्टम रिपोर्ट ही यह बताती है कि खालिद की नाक से खून आया था. शरीर का ऊपरी हिस्सा भी नीला पड़ गया था, कार्निया भी धुंधला था. ये सारे लक्षण जहरीले पदार्थ के सेवन के बाद होने वाली मौत के ही हैं.’

[box]लोकसभा चुनाव नजदीक हैं और ऐसे में पुलिस हिरासत में खालिद की मौत ने मुस्लिमों को रिझाने की कवायद में लगी सपा सरकार को झटका देने का काम किया है[/box]

दिसंबर, 2007 में हुई खालिद की गिरफ्तारी शुरू से ही विवादों में घिरी रही. गिरफ्तारी के विरोध में जौनपुर सहित प्रदेश के कई हिस्सों में विरोध प्रदर्शन भी शुरू हो गए थे. लिहाजा तत्कालीन बसपा सरकार ने 2008 में रिटायर जिला एवं सत्र न्यायाधीश आरडी निमेश की अगुवाई में एकल सदस्यीय जांच आयोग का गठन कर दिया था. जांच रिपोर्ट 31 अगस्त, 2012 को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की सरकार को सौंपी गई. रिपोर्ट में कहा गया है कि खालिद मुजाहिद को 16 दिसंबर, 2007 को कस्बा मड़ियाहू जिला जौनपुर से उठाने की खबर दूसरे दिन यानी 17 दिसंबर, 2007 के अखबारों में छपी है. रिपोर्ट में पूछा गया है कि सूचना का संज्ञान क्यों नहीं लिया गया और उस पर कार्यवाई क्यों नहीं की गई. रिपोर्ट आगे कहती है कि इसी तरह 20 दिसंबर, 2007 को खबर छपी कि एसटीएफ ने युवक को उठाया, उक्त सूचना पर कोई कार्यवाई क्यों नहीं की गई और यह जानने की कोशिश क्यों नहीं की गई कि उसे किस तरह और किसने उठाया और यह सूचना गलत छपी है या सत्य. रिपोर्ट यह भी कहती है, ‘18 दिसंबर, 2007 को अखबार में यह छपा कि एसटीएफ ने पूर्वांचल के जौनपुर व इलाहाबाद में छापा मार कर हुजी के दो सदस्यों को हिरासत में लिया है व मड़ियाहू में भी छापा मारने वाली बात छपी है. इसी तरह 21 दिसंबर, 2007 को एक अखबार में ‘मड़ियाहू का खालिद जा चुका है तीन बार पाक’ इस शीर्षक के साथ खबर छपी. यदि खालिद पुलिस अभिरक्षा में नहीं था तो ऐसी खबरें कहां से छपीं? इस पर भी न कोई संज्ञान लिया गया और न ही कोई कार्यवाई की गई.’ आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि सभी तथ्यों से आरोपित खालिद मुजाहिद की दिनांक 22 दिसंबर, 2007 को सुबह 6.20 बजे आपत्तिजनक वस्तुओं के साथ गिरफ्तारी संदेहजनक प्रतीत होती है.

दूसरी ओर खालिद की गिरफ्तारी के बाद एसटीएफ ने उसका जो बयान दर्ज किया वह चौंकाने वाला है. इसके मुताबिक खालिद ने कहा था, ‘मैं 2001 में अमरोहा से आलिम की पढ़ाई कर रहा था, वहीं मेरी अब्दुल रकीब से मुलाकात हुई जो असम का रहने वाला था. उसने मुझे जेहाद के बारे में काफी समझाया और 2003 में मुझे प्रशिक्षण के लिए जम्मू-कश्मीर में किश्तवाड़ ले गया जहां हुजी के कैंप में मैंने 15 दिन का प्रशिक्षण लिया.’ बयान के मुताबिक खालिद ने खुद को तंजीम के फौजी दस्ते का कमांडर बताया है. निमेश आयोग की रिपोर्ट में खालिद की गिरफ्तारी पर जहां संदेह जताया गया है वहीं एसटीएफ व एटीएस का खुलासा कुछ और ही कहानी बयान करता है. इस पर जस्टिस आरडी निमेश तहलका से बात करते हुए कहते हैं, ‘मैंने सिर्फ खालिद की गिरफ्तारी वाले मामले की जांच की है क्योंकि इसको लेकर काफी विवाद हुआ था जिस पर सरकार ने आयोग का गठन किया था. खालिद का हाथ दूसरी घटनाओं में था या नहीं इस मामले की जांच मेरी ओर से नहीं की गई है.’

उधर, पुलिसकर्मियों पर मुकदमा लिखे जाने से नाराज पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह कहते हैं, ‘मेरी टीम ने एक आतंकी को गिरफ्तार किया था, जिसका कोई पछतावा नहीं है. यह देश का दुर्भाग्य है कि एक आतंकी के मरने पर पुलिसवालों के खिलाफ ही मुकदमा दर्ज कर दिया जाता है.’ सिंह के मुताबिक पुलिस के पास इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि आतंकी घटनाओं को अंजाम देने के लिए खालिद के पास हवाला के जरिए धन आता था.
फिलहाल खालिद की मौत के साथ ही एसटीएफ व एटीएस के सारे दावे भी दफन हो गए हैं जो उसे आतंकी बताते थे क्योंकि मौत के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने सीबीआई जांच की जो सिफारिश की है वह सिर्फ इसलिए है कि खालिद की मौत आखिर हुई कैसे.

मासूम गिरोहों की दिल्ली

गर्मियों की एक दोपहर. नई दिल्ली रेलवे स्टेशन. नई-दिल्ली-गुवाहाटी राजधानी एक्सप्रेस अपनी यात्रा पूरी कर चुकी है. यात्रियों को प्लेटफॉर्म पर उतारने के बाद खाली हो चुकी ट्रेन धुलाई-सफाई के लिए रेलवे स्टेशन के पीछे बने यार्ड की तरफ बढ़ रही है. अचानक एक कोच के दरवाजे पर 14-15 साल का एक लड़का लटकता नजर आता है. हमें देखते ही वह जोर से हाथ हिलाता है और लहराते हुए चलती ट्रेन से उतर जाता है. उसके हाथ में फटी पन्नियों और प्लास्टिक की बोतलों से भरा एक मटमैला बोरा है. बुरी तरह घिस चुकी हाफ पैंट और लगभग चीथड़ों में तब्दील एक बदरंग टी-शर्ट पहने इस लड़के के शरीर के लगभग हर हिस्से पर चोटों के निशान दिखते हैं. खास चमड़ी के कटने से बनने वाले ये निशान उसके शरीर पर जमी मिट्टी, धूल और गंदगी की परतों को चीरते हुए बाहर झांक रहे हैं. अपने कान पर जमे खून के ताजा थक्कों से बेखबर वह लड़का मुस्कुराते हुए हमारे सामने आकर खड़ा हो जाता है. थोड़ी कोशिशों के बाद वह थोड़ा और सहज होता है और सबसे पहले अपना मौजूदा नाम रोहन बताता है.

रोहन से यह हमारी दूसरी मुलाकात है. पहली मुलाकात बस नाम के लिए हुई थी. हमें देखते ही वह भागने लगा था. फिर जब हमने उसे आश्वस्त करते हुए बुलाया तो वह आया तो जरूर, लेकिन काफी कोशिशों के बाद भी हमसे बात करने के लिए तैयार नहीं हुआ. इस बार लगता है कि उसका हम पर कुछ भरोसा जमा है. साथ-साथ लोहे की पटरियां पार करते हुए हम स्टेशन के आखिरी छोर पर बने प्लेटफॉर्म पर बैठ जाते हैं. अपने बारे में बताते हुए रोहन कहता है, ‘मुझे नहीं पता मेरा घर कहां है. मुझे नहीं मालूम मैं कहां से आया हूं. पहले तो मेरा कोई नाम भी नहीं था. स्टेशन पर लोग मुझे लूला, पगला या गंजा कहते थे. ये नाम तो स्टेशन पर काम करने आने वाले भैया ने दिया है. मुझे आज तक घर से कभी कोई लेने नहीं आया. जब से याद पड़ता है, तब से मैं स्टेशन पर ही रहता हूं.’

रोहन बताता है कि वह नशा करता है, उसने कई चोरियां भी की हैं और गाहे-बगाहे लोगों को ब्लेड या चाकू भी मार चुका है. अपराध की दुनिया में अपने सफर के बारे में वह कहता है, ‘सब सीख जाते हैं, दीदी. जब मैं छोटा था तो बड़े लड़कों ने सिखाया. चलती ट्रेन में चढ़ना, पॉकेट मारना, पर्स उड़ाना, चाकू मारना सब. यहां के गैंगों में बड़े लड़के छोटे बच्चों को सब सिखाते हैं. मैं तो फिर भी ठीक हूं. स्टेशन के दूसरे लड़कों और कबाड़ी वालों ने तो काम के टाइम कइयों को निपटाया है. फिर यही नए बच्चे भी सीख जाते हैं.’ आती गर्मियों के आसमान में धूप ढलान की ओर बढ़ती है. शाम होने तक रोहन हमें अपनी रहस्यमयी दुनिया के कई किस्से सुनाता है. बातचीत के दौरान साफ होता है कि अनजाने में यह मासूम बच्चा लगभग संगठित तरीके से चलने वाले बच्चों के एक ऐसे आपराधिक गिरोह का हिस्सा बन चुका है जिसकी कमान वयस्क अपराधियों के हाथों में है. इस कहानी का सबसे स्याह पहलू यह है कि वह अकेला नहीं है. अपराध के जाल में फंस कर अपना बचपन गंवा रहे रोहन जैसे सैकड़ों अन्य बच्चों की कहानियां दिल्ली के अलग-अलग हिस्सों में बिखरी पड़ी हैं.

अपनी दो महीने लंबी तहकीकात के दौरान तहलका ने इस मसले से जुड़ी कई छोटी-बड़ी जानकारियों और उलझे हुए बिंदुओं को जोड़ा. इससे अलग-अलग जगह, परिस्थितियों आदि में काम करने वाले बच्चों के करीब पांच प्रमुख आपराधिक गैंगों की एक चौंकाने वाली तस्वीर उभरी. दिल्ली में एक तरफ जहां तमाम बच्चे रेलवे स्टेशनों पर होने वाली लूटपाट और चाकूबाजी में शामिल, आपस में होड़ करते समूहों के तौर पर मौजूद हैं, वहीं शहर की लाल बत्तियों पर कार पंक्चर करके सामान चुराने वाले गिरोहों के रूप में भी इनकी सक्रियता देखी जा सकती है. एक तरफ राजधानी के सभी प्रमुख कबाड़ बाजारों में कबाड़ व्यापारियों की शह और मुश्किल परिस्थितियों का गठजोड़ कबाड़ बीनने वाले ज्यादातर बच्चों को अपराध के अंध-कूप में धकेल रहा है, तो बीड़ी और सिगरेट से शुरू होने वाले नशे को स्मैक और कोकीन तक पहुंचा कर बच्चों से चोरियां, डकैतियां और हत्याएं तक करवाने वाले अपराधियों का भी एक पूरा नेटवर्क शहर में सक्रिय है. नशा और चोरी-चकारी करते-करते कई बच्चे खुद भी मासूम बच्चों को नशे का आदी और अपराधी बनाने वाले कारोबार का हिस्सा बन जाते हैं.

मासूम बच्चों को अपराध की दुनिया में धकेलने वाले अपराधी घर से भाग कर आने वाले और गुमशुदा बच्चों के साथ-साथ तस्करी के शिकार बच्चों को अपना पहला शिकार बनाते हैं. साथ ही, काम की तलाश में छोटे शहरों और कस्बों से पलायन करके दिल्ली का रुख करने वाले मजदूरों के बच्चे भी जाने-अनजाने इन गिरोहों के जाल में फंस रहे हैं. बच्चों के नियोजित अपराधीकरण को लेकर अगस्त, 2012 में दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर करने वाले युवा अधिवक्ता अनंत अस्थाना कहते हैं, ‘बात चाहे किसी भी तरह के अपराध में शामिल बच्चों की हो, वयस्क अपराधी अपने फायदे के लिए इनका इस्तेमाल करते हैं. धीरे-धीरे ये बच्चे भी अपराध की अंधेरी दुनिया का हिस्सा बन जाते हैं. हालांकि इन बच्चों को अपराध में झोंकने वाले वयस्क अपराधियों के साथ-साथ तेजी से पनप रहे बच्चों के इन आपराधिक गिरोहों के बारे में जानकारी अभी भी सीमित ही है.’ आगे दिल्ली में सक्रिय संगठित अपराधियों के जाल में फंसे उन बच्चों की कहानियां हैं जिन्हें इन अपराधियों के लालच और सभ्य समाज व व्यवस्था की आपराधिक उदासीनता ने अपराध की अंधेरी गलियों में धकेल कर उनके वापस आने वाले रास्ते बंद कर दिए हैं. बिना एक बार भी यह सोचे कि इस प्रक्रिया में हम भविष्य में उनके बड़े खूंखार अपराधियों में तब्दील होने की पूरी पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं. और उसके बाद शायद उनसे पीड़ित होने की भी.

1. कबाड़ी गैंग
दिल्ली के ओल्ड-सीमापुरी इलाके में बसी एफ ब्लाक झुग्गी बस्ती से लगभग 100 मीटर पहले ही रिक्शावाला हमें उतार देता है. पूछने पर बताया जाता है कि आगे दिल्ली की सबसे बड़ी और आपराधिक गतिविधियों के लिए बदनाम कबाड़ी बस्ती है. ज्यादातर रिक्शेवाले वहां तक सीधे जाना पसंद नहीं करते. मोहल्ले की ओर जाती सड़क पर आगे बढ़ते ही धूप और धूल भरी जमीन पर मुर्गों के कटे हुए लहूलुहान पंख, जहां-तहां पड़े बालों के गुच्छे और कतार में रखी कबाड़े से भरी बड़ी-बड़ी बदरंग बोरियां नजर आती हैं. जिंदा तत्वों के धीरे-धीरे नष्ट होने से पैदा होने वाली एक तीखी सड़ांध हमें झकझोरते हुए बताती है कि हम दिल्ली की सबसे पुरानी कबाड़ी बस्ती में दाखिल होने वाले हैं. अंदर छोटी-छोटी गलियों के किनारे बनी दड़बेनुमा खोलियों में बच्चे कभी कबाड़ साफ करते हुए तो कभी नशे के इंजेक्शन लेते नजर आते हैं. सिर्फ छह-सात फुट लंबे-चौड़े कमरे में छज्जा-सा डालकर उसमें 6-7 लोगों का परिवार गुजारा करता है. आगे बढ़कर जब हम पहला दरवाजा खटखटाते हैं तो पीली रोशनी में डूबे हुए कमरे में दो लड़के ड्रग्स का इंजेक्शन लगाते हुए दिखते हैं. उनके पीछे बैठी दो लड़कियां अपना नाम रजिया और फरहा बताती हैं. अपने हाथों में खाने की जूठी थालियां उठाए वे यह भी बताती हैं कि आज का कबाड़ साफ करने के बाद उन्होंने अभी-अभी अपना खाना खत्म किया है. रजिया और फरहा एक कमरे के अपने इसी घर में खाना खाती हैं, नशे में डूबे अपने भाइयों की लाल आंखों को बर्दाश्त करती हैं और सारी दिल्ली से आए कबाड़ को इसी के एक कोने में बैठकर साफ भी करती हैं.

कुछ दूर और आगे बढ़ने पर गली में हमें कबाड़ बीनने वाले बच्चों का एक झुंड ताश खेलता हुआ नज़र आता है.  झुंड में लगभग 15 साल का एक लड़का सफेदी (स्याही मिटाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला व्हाइटनर) में भीगा रूमाल सूंघ रहा है, जबकि बाकी पत्ते बांटने में व्यस्त हैं. हमें देखते ही सब पहले कुछ फुसफुसाते हैं, फिर हंसने लगते हैं. कुछ देर की कोशिशों के बाद वे बातचीत के लिए राजी हो जाते हैं. ताश खेल रहे ये सभी बच्चे 12-16 वर्ष के हैं और इन सभी ने छोटी उम्र से ही कबाड़ बीनने का काम शुरू कर दिया था. नशे और मारपीट की आदतों के बारे में बताते हुए 16 साल का रफीक कहता है, ‘हम सभी नशा करते हैं, इंजेक्शन, दारू, फ्लूइड, गांजा, पाउडर…सब कुछ. सबसे पहले तो नशा कबाड़ी वाले ही देना शुरू करते हैं.’ तभी अचानक 14 साल का रवि बीच में ही चिल्लाते हुए कहता हैं, “अरे मैं बताऊं, जब हम कबाड़ बीनने जाते हैं तो थकान होती है. फिर वहां गुटका खाना तो अपने आप सीख जाते हैं. फिर सिगरेट की हुड़क लगती है. सिगरेट से दारू, दारू से गांजा और गांजे से फ्लूइड. जब कबाड़ बेचने जाते हैं तो वहां सेठ फ्लूइड देता है. फिर पाउडर…सुई. यही है एक कबाड़ी बच्चे की सच्चाई! जान ली, अब जाओ यहां से.’

अपनी बात खत्म करते हुए रवि लगभग हमें गली के बाहर धक्का देने लगता है. हमें बताया जाता है कि फिलहाल ये बच्चे नशे में हैं और कुछ भी कर सकते हैं. वहां से निकलते ही बस्ती के दूसरे छोर पर हमारी मुलाकात 12-13 साल के अफजल और सुरेश से होती है. दोनों सुबह-शाम कबाड़ बीनने जाते हैं. अपने काम में नशे और अपराध की मिलावट के बारे में बताते हुए वे कहते हैं, ‘सबसे पहले तो कबाड़ीवाले खुद ही हम लोगों को फ्लूइड दे देते हैं. वे हम लोगों से चोरियां करवाते हैं और फिर हमें पुलिस से भी बचाते हैं. कबाड़ीवाले हमारे लिए सब कुछ करते हैं इसलिए मेरे साथ के सारे बच्चे उनकी बात मानते हैं. फिर छिनैती, लड़ाई, चाकूबाजी और चोरी-चकारी…यहां कुछ सब चलता है.’

सीमापुरी की कबाड़ी बस्ती से निकलते-निकलते यह साफ हो जाता है कि कबाड़ बीनने वाले बच्चे अपने आस-पास के माहौल और अपने कबाड़ी सेठों के संरक्षण में अपराध और नशे की कभी न खत्म होने वाली अंधी गलियों में विचर रहे हैं. इस बस्ती के बच्चों की शिक्षा और पुनर्वास के लिए काम कर रही गैरसरकारी संस्था आशादीप फाउंडेशन से जुड़े एचके चेट्टी बताते हैं, ‘यहां कबाड़ा बीनने वाले लगभग 2,500 परिवार रहते हैं. ज्यादातर लोग बांग्लादेश से आए हैं, लेकिन इन्हें शरणार्थी होने तक का दर्जा हासिल नहीं है. पहचान नहीं होने की वजह से इन्हें कोई काम नहीं देता. इसलिए सबने कबाड़ा चुनना शुरू कर दिया. लेकिन ये लोग अपने बच्चों को कबाड़ मालिकों के यहां पनपने वाले नशे और अपराध की संस्कृति से बचा नहीं पाए.’

सीमापुरी की ही तरह दिल्ली के जहांगीरपुरी और सराय काले खां इलाकों में ऐसी ही कहानियों से पटी हुईं राजधानी की सबसे बड़ी कबाड़ी बस्तियां मौजूद हैं. इस स्टोरी के दौरान तहलका ने शहर के अगल-अलग हिस्सों में मौजूद इन कबाड़ा बस्तियों के बच्चों और कबाड़ा व्यापारियों से बात की तो अपने मुनाफे के लिए बच्चों को अपराध की दुनियां में धकेल रहे अपराधियों की तस्वीर और पुख्ता होने लगी. निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के पीछे बसी सराय काले खां झुग्गी बस्ती में मौजूद कबाड़ा व्यापारियों के यहां काम कर चुका 17 वर्षीय विवेक बताता है, ‘सराय काले खां की झुग्गी बस्तियों में तकरीबन सात कबाड़ा व्यापारी हैं, लेकिन फारूख, खाला और शाहिद ही बड़े कबाड़ी वाले हैं. कभी कबाड़ के बदले पैसा मिलता है तो कभी नशा. फिर धीरे-धीरे हम खुद ही खरीदने लगते हैं. निजामुद्दीन दरगाह के पीछे और भोगल में सड़कों पर ही मिल जाता ह.ै’ विवेक आगे कहता है, ‘यहां बच्चों को सबसे ज्यादा फ्लूइड की लत है. कुछ महीने पहले तक मैं खुद लगभग 20 डबल रोज पी जाता था. एक सेट में फ्लूइड की दो बोतल होती हैं इसलिए उसे डबल कहते हैं. कबाड़ीवाले हमें नशे के लिए चोरियां करने को भी कहते हैं. मेरे कई दोस्तों ने तो इनके कहने पर स्टेशन से बाइक चुराई और दरगाह से कितनों के पर्स उड़ाये. अगर पुलिस का मामला होता है तो कबाड़ी-वाले ही हमें बचाते हैं.’

बच्चों की इन बातों को अपने मामले में खारिज और दूसरों के मामले में स्वीकार करती, सराय काले खां की प्रमुख कबाड़ा व्यापारी रीना उर्फ खाला कहती हैं, ‘यह सब मेरे यहां नहीं होता. बाजू में वे दूसरे कबाड़ीवाले हैं न, वे सब बच्चों से चोरियां करवाते हैं और उन्हें ब्लेडबाजी, चाकूबाजी सब सिखाते हैं. उनके बच्चे सब नशा करते हैं. वे खुद उन्हें नशा देते हैं और फिर उन्हीं से बाकी बच्चे भी सीख जाते हैं.’ कबाड़ा बीनने वाले बच्चों और कबाड़ा व्यापारियों के साथ लंबे समय से काम रही गैर सरकारी संस्था चेतना से जुड़े डॉ संजय गुप्ता बताते हैं कि पहले कबाड़ा व्यापारी बच्चों को एक सुरक्षा घेरा देते हैं और फिर उनका शोषण करते हैं. वे कहते हैं, ‘पहले ये लोग सड़क पर रहने वाले बच्चों को काम देते हैं, रहने की जगह और नशा भी देते हैं. इससे बच्चों को इन पर विश्वास हो जाता है. बच्चे इनके लिए सबसे अच्छे होते हैं. वे अपनी मेहनत का पूरा पैसा नहीं मांगते, वफादार होते हैं और नशे की लत की वजह से इनके कहने पर धीरे-धीरे चोरियां भी करने लगते हैं.’

ऐसा नहीं है कि इन बच्चों के लिए कुछ कर सकने वाले लोगों को इनके साथ और इनके द्वारा जो कुछ हो रहा है उसके बारे में पता नहीं. 20 अगस्त, 2010 को किंग्सवे कैंप स्थित जूवेनाइल जस्टिस बोर्ड (बाल न्यायालय) के एक आदेश में प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट अनुराधा शुक्ल भारद्वाज का कहना था कि राजधानी के कबाड़ा व्यापारी अपने मुनाफे के लिए प्रतिकूल परिस्थितियों में फंसे बच्चों का शोषण कर रहे हैं. किशोर मामलों के अधिवक्ता अनंत अस्थाना की एक विस्तृत रिपोर्ट के आधार पर दिए गए इस फैसले में ऐसे बच्चों के लिए एक नई बाल कल्याण समिति बनाने का आदेश देते हुए उनका कहना था, ‘…यह देखा जा रहा है कि इन कबाड़ा व्यापारियों की वजह से सड़कों पर रहने वाले बच्चों, झुग्गी-बस्तियों में रहने वाले बच्चों या फिर गरीबी, असाक्षरता या किसी प्राकृतिक प्रकोप की वजह से पोषण और देखभाल से दूर रहे बच्चों में नशे और अपराध की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है. ये कबाड़ीवाले बहुत सुनियोजित तरीके से छोटे बच्चों को कबाड़ा बीनने का काम देते हैं, फिर उनसे चोरियां और डकैतियां करवाई जाती हैं. यह सब बच्चों को ड्रग्स, शराब और फ्लूइड के नशे का आदी बनवाकर करवाया जाता है जो उन्हें सबसे पहले इन्हीं कबाड़ा व्यापारियों के पास से मिलता है. यह पूरा माहौल भविष्य में बच्चों के एक खूंखार अपराधी बनने का रास्ता साफ कर देता है…’

अपने फैसले में बोर्ड ने पुलिस और संबंधित संस्थाओं को बच्चों के इस सुनियोजित अपराधीकरण पर तुरंत कार्रवाई करने और इस चुनौती से निपटने के लिए सख्त निर्देश तो जारी कर दिए लेकिन जमीन स्तर पर कोई कार्रवाई नहीं हो सकी. आज भी सैकड़ों असहाय बच्चे कबाड़ा व्यापारियों में अपने जिंदा रहने की आस देखकर कबाड़ बीनने का काम करते हुए नशे और अपराध के बीच झूल रहे हैं.

2. ठक-ठक और टायर ‘पंचर’ गैंग
15 फरवरी, 2013 को दिल्ली पुलिस ने राजधानी के पुष्प विहार इलाके में बने दिल्ली विकास प्राधिकरण के एक पार्क में छापा मारकर तीन लोगों को गिरफ्तार किया था. प्राथमिक पड़ताल के बाद ही यह पता चल गया कि ये तीनों आरोपित नाबालिग हैं और शहर के अलग-अलग इलाकों में सक्रिय ‘टायर पंचर गैंग’ के सदस्य हैं. मुखबिरों से मिली सूचना के आधार पर दिल्ली पुलिस के सहायक पुलिस आयुक्त (ऑपरेशंस) कुलवंत सिंह के नेतृत्व में एक विशेष टीम ने इन किशोरों को अपने संरक्षण में लेकर उनसे लगभग एक करोड़ रुपये के गहने बरामद किए. तहलका से बातचीत के दौरान नाबालिग बच्चों के इस आपराधिक गैंग के बारे में जानकारी देते हुए कुलवंत सिंह कहते हैं, ‘किशोर बच्चों का यह गिरोह रेड लाइट पर खड़ी कारों के टायरों में सुआ (लोहे की बड़ी सुई) घुसाकर उनके टायर पंक्चर कर देता है. कुछ दूर जाने पर जब टायर में से हवा निकलने लगती है तो वे गाड़ी चालक को उसकी गाड़ी के टायर के बारे में बताते हैं. जब गाड़ी चालक अपने पंक्चर हो चुके टायर को देखने या बदलने में व्यस्त हो जाता है तब ये बच्चे गाड़ी से सामान चुराकर भाग जाते हैं. इन चोरियों को अंजाम देने के लिए ये बच्चे स्कूटरों और मोटर-बाइकों का भी इस्तेमाल करते हैं. यह गिरोह लैपटॉप और मोबाइल के साथ-साथ नगदी, सोने के बिस्कुट और गहनों की बड़ी चोरियां भी करता है. अक्टूबर, 2012 में भी हमने चांदनी चौक के एक व्यापारी से साढ़े तीन किलो सोना चुराने वाले इसी गिरोह के बच्चों को पकड़ा था.’

किशोरों के संगठित गिरोहों द्वारा लाल बत्तियों पर गाड़ियां लूटने के मामले 2009 से ही सामने आने लगे थे. शुरुआत में बच्चे लाल बत्तियों पर खड़ी गाडि़यों के शीशों पर हाथ मारकर ठक-ठक की आवाज करते और गाड़ी चालक के शीशा नीचे करते ही उसका ध्यान बंटाकर गाड़ी में रखा सामान लेकर चंपत हो जाते. दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में हो रही ऐसी तमाम घटनाओं में मौजूद समानता की वजह से इन सभी बच्चों को सामूहिक तौर पर ‘ठक-ठक गिरोह’ के तौर पर पहचाना जाने लगा. इसके बाद इन बच्चों ने गाड़ी के टायर पंक्चर करके गाड़ी चालकों को लूटना शुरू किया और एक नया टायर पंक्चर गैंग सामने आया.

बच्चों के संगठित अपराधीकरण के इन लगातार बढ़ रहे मामलों को देखते हुए किशोर मामलों के सरकारी वकील भूपेश समद द्वारा अदालत के आदेश पर एक रिपोर्ट तैयार की गई. 20 नवंबर, 2010 को सेवा कुटीर किंग्सवे कैंप स्थित बाल न्यायालय को सौंपी गई इस रिपोर्ट में भूपेश लिखते हैं, ‘…ये बच्चे सीधे-सीधे अपराध में शामिल नहीं हैं बल्कि वयस्क अपराधियों का एक समूह इनको बहला-फुसला कर इन्हें अपराध की दुनिया में धकेल रहा है. ये बच्चे राष्ट्र की धरोहर हैं और इन्हें बचाना राज्य की जिम्मेदारी है. ये बच्चे गिरोहों में शामिल अपराधी नहीं बल्कि स्वयं मुश्किल परिस्थितियों के शिकार हैं. तहकीकात करने पर यह साफ़ हो जाता है कि अपराध का स्वभाव संगठित है और इन अपराधों के पीछे छिपे मुख्य वयस्क अपराधी अपने फायदे के लिए बच्चों का दुरुपयोग कर रहे है.’

अदालती दस्तावेजों, थानों में दर्ज विवरणों और कानूनी आवेदनों को खंगालने पर तहलका को ठक-ठक गिरोह में शामिल रहे कुछ बच्चों की महत्वपूर्ण कहानियां मिलती हैं. बच्चों की पारिवारिक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और उनके इस आपराधिक दुश्चक्र में फंसने का विस्तृत विवरण देती ये कहानियां ऊपर की पंक्तियों में दर्ज भूपेश समद के आकलन को और पुख्ता करती हैं.

उदाहरण के लिए, नौ सितंबर 2010 को सेवा कुटीर किंग्सवे कैंप स्थित जुविनाइल जस्टिस बोर्ड के सामने पेश होने वाले रोहन और सुमित भी कुछ वयस्क अपराधियों की वजह से ठक-ठक गिरोह का हिस्सा बन गए थे. वे लाल बत्ती पर खड़े कार चालकों से कहते कि उनकी गाड़ी से पेट्रोल निकल रहा है और गाड़ी चालक का ध्यान बंटते ही उनकी गाड़ी में रखा सामान लेकर चंपत हो जाते. पुलिस द्वारा पकड़े जाने और उन्हें अपने संरक्षण में लेने के बाद भी बच्चे अपना पता और पहचान बताने से लगातार इनकार करते रहे. ठीक इसी तरह 11 नवंबर,  2010 को विजय का मामला बाल न्यायालय के सामने आया. विजय को लाल बत्ती पर खड़ी एक कार के शीशे तोड़कर उसमें रखा एक बैग चुराने की वजह से पकड़ा गया था. लेकिन जांच अधिकारी विजय से कोई बैग बरामद नहीं कर पाए. इस मामले में भी बच्चे ने अपना पता और परिवार की सही जानकारी नहीं बताई.

अपनी विस्तृत जांच रिपोर्ट में किशोर पुलिस अधिकारी बताते हैं कि कैसे बैग चुराते ही बच्चे का एक पहले से छिपा हुआ साथी बड़ी फुर्ती से उससे चोरी का सामान लेकर भाग जाता है. बच्चे के पकड़े जाते ही उसका वकील जांच अधिकारी से संपर्क करता है और उसकी ज़मानत की अर्जी तुरंत आगे बढ़ा दी जाती है. बच्चे की मां यह नहीं बता पाती कि उसकी अपने वकील से मुलाकात कैसे हुई थी. रोहन और सुमित की मां की तरह विजय की मां भी बार-बार यही कहती रही कि उसे कुछ नहीं पता. और मजे की बात तो यह है कि रोहन और सुमित की जमानती अर्जी देने वाले वकील ही विजय के बचाव के लिए भी आगे आते हैं. इन दोनों ही मामलों में महिलाओं ने अपने असली पते छिपाते हुए बोर्ड के सामने एक ही तरह के बयान दिए और इन बच्चों के परिवार का कोई पुरुष सदस्य कभी सामने नहीं आया.

ठीक इसी तरह तीन जनवरी, 2011 को बोर्ड के सामने हाजिर हुए नौ साल के कमल और 10 साल के वसीम के मामलों में भी उनके पकड़े जाते ही उनके वकीलों ने उनकी जमानत के लिए जांच अधिकारियों को फोन करना शुरू कर दिया था. बच्चों के अभिभावक के नाम पर आए व्यक्ति ने फर्जी कागज़ात दिखाकर अपनी और बच्चों की पहचान छिपाने का भरसक प्रयास किया. जांच अधिकारियों द्वारा पूछने पर दोनों बच्चे और उनका तथाकथित अभिभावक अपने पते-ठिकाने और वकील के बारे में पूछे गए आसान सवालों के जवाब तक नहीं दे सके.

ठक-ठक गैंग के मामले में वयस्कों के एक पूरे नेटवर्क की मौजूदगी पर अब तक की एकमात्र रिपोर्ट तैयार करने वाले भूपेश समद तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘एक 9-10 साल का बच्चा, जिसे पढ़ना-लिखना तक नहीं आता, लैपटॉप या गहने चुराकर क्या करेगा? अगर कोई तुरंत उससे उसका चोरी किया माल ले जाता है, कोई उसे बचाने के लिए मां-बाप बनकर आ जाता है और सभी मामलों में एक ही वकील बेल करवाने आ रहा है तो इससे साफ जाहिर है कि इस लूटपाट में बच्चों का कोई दोष नहीं है. वयस्क अपराधियों का एक बड़ा नेटवर्क है जो जल्दी और आसानी से पैसा कमाने के लिए बच्चों का इस्तेमाल कर रहा है.’

चोरी करने वाले बच्चे के पकड़े जाते ही उसका वकील जांच अधिकारी से संपर्क करता है और इसके बाद उसकी ज़मानत की अर्जी तुरंत आगे बढ़ा दी जाती हैभूपेश समद की इस रिपोर्ट का संज्ञान लेते हुए किंग्सवे कैंप स्थित बाल न्यायालय की प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट अनुराधा शुक्ला ने 25 जनवरी, 2011 को एक आदेश जारी करते हुए कहा, ‘…बोर्ड ने सभी मामलों में बहुत-सी समानताएं देखी हैं. जैसे बोर्ड के सामने लाया गया हर बच्चा कहता है कि उसकी मां ने उसकी पिटाई की इसलिए उसने घर छोड़ दिया, जबकि किसी भी मां ने अपने बच्चे के गुमशुदा होने की कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं करवाई. अपने सही नाम और पते के साथ-साथ बच्चे यह भी नहीं बता पा रहे थे कि पेट्रोल की टंकी खोलने का, ड्राइवर को पेट्रोल लीक होने की सूचना देने और फिर चोरी करने का विचार उनके दिमाग में कैसे आया. ये सभी समानताएं स्पष्ट तौर पर यह बताती हैं कि कुछ संगठित आपराधिक गिरोह इन बच्चों का कितने सुनियोजित तरीके से दुरूपयोग और शोषण कर रहे हैं. इस बात की भी पूरी संभावना है कि यह सब बच्चों के माता-पिता की सहमति से हो रहा है.’

ठक-ठक गैंग के सभी मामलों में दिल्ली पुलिस को विशेष पड़ताल शुरू करने के निर्देश देते हुए बोर्ड ने आगे कहा, ‘इन गिरोहों में शामिल सभी वयस्कों के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र के मामले दर्ज होने चाहिए क्योंकि ये लोग अपने आर्थिक फायदे के लिए बच्चों को उन आपराधिक गतिविधियों में शामिल कर रहे हैं जिनके दूरगामी परिणाम समझ पाने की भी उनमें क्षमता नहीं. बच्चों से अपराध करवाकर ये लोग उनके भागने और पकड़े जाने पर उनकी कानूनी सहायता की भी व्यवस्था कर रहे हैं. इससे भी बड़ा षड्यंत्र अपने फायदे के लिए बच्चों को लगातार इस्तेमाल करते रहने की मानसिकता है. यह बच्चों के बचपन के खिलाफ एक षड्यंत्र है. इसलिए इन मामलों में वयस्कों के साथ-साथ बच्चों के माता-पिता पर भी मामले दर्ज होने चाहिए…’

लेकिन इन तमाम कड़े अदालती निर्देशों के बावजूद ठक-ठक गिरोह आज भी टायर पंक्चर गिरोह जैसे अपने नए रूपों में दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में सक्रिय है. दिल्ली सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग के सहायक निदेशक पी खाखा इस मामले में पुलिसिया लापरवाही की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, ‘जब तक पुलिस इन बच्चों का शोषण करने वाले असली अपराधियों को नहीं पकड़ेगी, तब तक इन गिरोहों का खत्म होना मुश्किल है.’

3. रेलवे स्टेशन गैंग
सिर्फ कबाड़ के व्यापार में लगे अपराधी और शहर के लाल-बत्ती चौराहों पर चोरियां कराने वाला आपराधिक नेटवर्क ही राजधानी के बच्चों को अपराध के दुश्चक्र में धकेलने के लिए जिम्मेदार है. दिल्ली के रेलवे स्टेशनों पर रोजाना उतरने वाले दर्जनों मासूम बच्चे कब और कैसे यहां रोज पनपने और टूटने वाले आपराधिक गिरोहों का हिस्सा बन जाते हैं, उन्हें भी पता नहीं चल पाता. राजधानी के प्रमुख रेलवे स्टेशनों पर रहने वाले बच्चों की जिंदगियों में फैले अपराध की जड़ें टटोलने के लिए जब तहलका ने ऐसे तमाम बच्चों से बात की तो अंदर तक झकझोर देने वाली एक बेहद स्याह तस्वीर उभर कर सामने आई.

एक उमस भरी दोपहर को हमारी मुलाकात शादाब से होती है. 14 साल का शादाब राजधानी के निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के पीछे मौजूद निजामुद्दीन दरगाह के सामने बने फुटपाथ पर बैठा है. वह अपने कान, नाक और होठों पर मौजूद मवाद भरे घावों को खुजाकर खुद को थोड़ा आराम देने की कोशिश कर रहा है. कुछ देर कोशिश करने के बाद वह हमसे बात करने को राजी हो जाता है. शादाब सात साल की उम्र में पश्चिम बंगाल के 24 परगना क्षेत्र से दिल्ली आया था. अपने घर से दिल्ली आने और नशाखोरी, ब्लेडबाजी और चोरियों में शामिल एक आपराधिक गिरोह का हिस्सा बनने तक की यात्रा के बारे में वह कहता है ,”हम अपने मामा के संग गांव से पढ़ने दिल्ली आए थे. लेकिन मामा ने पंचर बनाने की दुकान पर लगवा दिया. कुछ दिन वहां काम किया फिर दिल नहीं लगा तो भाग के स्टेशन आ गया. फिर यहां दूसरे लड़के मिल गए और मैं यहीं रहने लगा. हम फेरी मारकर और चोरी करके अपना काम निकालते और पैसा मिलते ही नशा खरीदते. फिर यहां से मैं बटरफ्लाई (स्टेशन पर रहने वाले बच्चों पर काम करने वाली एक सामाजिक संस्था) गया. वहां कुछ दिन रहा लेकिन अच्छा नहीं लगा तो वापस भाग कर स्टेशन आ गया.’ अपने आपराधिक गिरोहों के बारे में बताते हुए वह आगे जोड़ता हैं, ‘दीदी, स्टेशन पर हम किसी का पर्स मार लेते हैं, सामान छीन कर भाग जाते हैं और कभी-कभी मोबाइल, गहने या छोटी गाडि़यां भी चुराते हैं. बाकी लड़के इस पैसे से नशा करते हैं. मैं तो सिर्फ फ्लूइड पीता हूं, बाकी सब मैंने छोड़ दिया.’

शादाब आगे बताता है कि स्टेशन पर मौजूद आपराधिक गिरोह बच्चों का यौन शोषण भी करते हैं. ‘यहां पर बड़े लड़के, जो पहले से स्टेशन पर रहते हैं वो छोटी लड़कियों और लड़कों के साथ भी गलत काम करते हैं. कई बार पीछे आखिर में खड़ी ट्रेनों के खाली डब्बों में बने टॉयलेट्स में ले जाकर ये लड़के छोटे बच्चों के साथ गलत काम करते हैं. कई बार तो गुम होकर स्टेशन पर भटक जाने वाले छोटे-छोटे लड़कों के साथ पहले ही दिन बड़े लड़के गलत काम करते हैं. फिर वे छोटे बच्चे उन्ही लड़कों की गैंग में शामिल हो जाते हैं. स्टेशन पर लड़कों के गैंग बंटे होते हैं न. हर गैंग का चोरी करने और बोतल बीनने का एरिया अलग होता है और नए बच्चों को किसी न किसी गैंग का हिस्सा तो बनना ही पड़ता है वर्ना वो यहां नहीं रह सकता.’ फिर अपने दोस्तों के साथ स्टेशन वापस जाने की जल्दी में हमसे विदा लेते हुए शादाब सिर्फ इतना कहता है, ‘मेरे घरवालों ने इतने सालों मेरे कोई पूछ-परख नहीं ली. तो अब स्टेशन पर ही अच्छा लगने लगा है. यहीं रहता हूं और सोचता हूं शायद यहीं रह जाऊंगा.’

‘कई बार गुम होकर स्टेशन पर भटक जाने वाले छोटे-छोटे लड़कों के साथ पहले ही दिन बड़े लड़के गलत काम करते हैं. फिर वे बच्चे उन्हीं लड़कों की गैंग में शामिल हो जाते हैं’नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर छह और सात के आखिरी छोर से लगभग 50 मीटर की दूरी पर लोहे की एक जालीनुमा दीवार के दूसरी तरफ स्टेशन पर रहने वाले लगभग 10 बच्चों से हमारी मुलाकात होती है. फरीदाबाद, लखनऊ, पश्चिम बंगाल, मुजफ्फरनगर से लेकर बिहार के मोतिहारी और दरभंगा जिले से दिल्ली आए ये बच्चे 12 से 17 साल की उम्र के हैं. इनमें से ज्यादातर गरीबी, भुखमरी और परिवारवालों की पिटाई के चलते अपने-अपने घरों से भाग कर दिल्ली आए थे. कुछ को उनके रिश्तेदार बहला-फुसला कर मजदूरी करवाने दिल्ली लाए थे तो कुछ अपने ही परिचितों के हाथों बेचे गए थे. मजदूरी करवाने वाले दुकानदारों और अपनी गिरफ्त में रखने वाले तस्करों के चंगुल से भागकर जब बच्चे स्टेशन पहुंचते तो यहां पहले से मौजूद आपराधिक गिरोह उन्हें अपने अपराध के दलदल में धकेल देते.

तहलका से विस्तृत बातचीत के दौरान 14 वर्षीय किशन नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर मौजूद आपराधिक गिरोहों के बारे में जानकारी देते हुए कहता है, ‘दीदी, छुटुआ के जाने के बाद यहां रंजीत और सोनू बिहारी के गिरोह काम करते हैं. यही लोग नए और छोटे बच्चों को चोरी-चकारी सिखाते हैं. चलती ट्रेन पर चढ़ना, सामान उड़ाना और फिर बड़ी चोरियां करना भी. सोनू बिहारी वाले बड़े बच्चों का गिरोह शीलापुल के नीचे रहता है और उसके पीछे वाले एरिया में ही चोरी करता है. जबकि दूसरा ग्रुप 13-14 और 6-7 नंबर पर रहकर काम करता है.’ लगभग दो घंटे की बातचीत के बाद बच्चे धीरे से शादाब की तरह ही हमें यह भी बताते हैं कि नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर रहने वाले बड़े उम्र के बच्चे छोटे बच्चों का शारीरिक शोषण भी करते हैं. 11 साल का धीरज और 16 वर्षीय जतिन बताते हैं, ‘यहां बच्चों के साथ बहुत गलत काम भी होता है. बड़े बच्चे छोटे बच्चों के साथ करते हैं. लड़के और लड़कियों दोनों के साथ. वहीं उन्हें अपने साथ रखते हैं. उन्हें बोतल बीनना और चोरी करना सिखाते हैं, उनसे भीख भी मंगवाते हैं और उनकी कमाई भी रख लेते हैं. अभी भी स्टेशन पर जो मेंटल नाम का आदमी रहता है, वह अपने साथ रहने वाले दो छोटे लड़कों के साथ रोज गलत काम करता है.’

अगर निजामुद्दीन स्टेशन की बात करें तो स्टेशन पर लंबे समय तक रहने के बाद अभी एक सामाजिक संस्था से जुड़े अंकित के शब्दों में, ‘यहां एक गैंग सूर्या और उसके लड़कों का है जो स्टेशन के पीछे बनी पानी की टंकी के पास रहता है. उसके गिरोह में लगभग 20 लड़के हैं. वो बच्चों को बोतल बीनने के साथ-साथ लोहा, कबाड़ी और यात्रियों के सामान चोरी करना भी सिखाता है. जो नए बच्चे जरा भी समझदार या तेज होते हैं, उन्हें वह अपने साथ ही रखता है. दूसरा गिरोह गोलू और अनिल का है. ये लोग सराय काले खां से सटे प्लेटफार्मों के आखिरी छोर पर रहते हैं. अनिल और गोलू के लड़के 7, 8 और 5 नंबर प्लेटफार्म के साथ-साथ सराय काले खां की बस्ती में सक्रिय रहते हैं जबकि 4, 3, 2 और 1 नंबर सूर्या का इलाका है. इसके साथ ही सूर्या का गैंग दरगाह और टैक्सी स्टैंड के पूरे क्षेत्र में भी सक्रिय रहता है. साथ ही इन बच्चों के लिए यहां सराय काले खां के पीछे बने बाजार में छोटी-छोटी चाय की दुकानें हैं. रेलवे पुलिस को भी सब पता है लेकिन कोई कुछ नहीं करता.’

‘यहां भी जो सबसे शक्तिशाली है वही जीवित रह सकता है. ऐसे में छोटे और नए बच्चे यहां पहले से सक्रिय गिरोहों को अपने सुरक्षा तंत्र के तौर पर इस्तेमाल करते हैं’दिल्ली के रेलवे स्टेशनों पर रहने वाले बच्चों के साथ लंबे समय से काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संजय गुप्ता राजधानी के स्टेशनों पर सक्रिय बच्चों के गिरोहों को स्टेशन के जीवन का अभिन्न हिस्सा बताते हुए कहते हैं, ‘बच्चे अक्सर रेलवे स्टेशनों पर इसलिए रुक जाते हैं क्योंकि यह शहर का सबसे जीवंत स्थान होता है जहां बच्चों को पीने का पानी, सोने की जगह और बचा-खुचा खाना मिल जाता है. लेकिन जाहिर है, यहां भी जो सबसे शक्तिशाली है वही जीवित रह सकता है. ऐसे में छोटे और नए बच्चे यहां पहले से सक्रिय गिरोहों को अपने सुरक्षा तंत्र के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. आप इन स्टेशनों पर वहां पहले से स्थापित और सक्रिय गिरोहों को नकार कर रह ही नहीं सकते. इसलिए छोटे बच्चे वयस्कों के इन आपराधिक गिरोहों में शामिल हो जाते हैं. फिर यहीं उन्हें चोरी करना, बोतल बीनना, ब्लेडबाजी करना और नशा करना सिखाया जाता है. इन गिरोहों में छोटे लड़कों का बहुत व्यापक स्तर पर शारीरिक शोषण होता है. बड़े लड़के छोटे लड़के-लड़कियों का लगातार शारीरिक शोषण करते हैं, उन्हें खाना और नशा भी देते हैं, अपने साथ रखते हैं और पुलिस से भी बचाते हैं. जब वो बड़े हो जाते हैं तो वो भी नए बच्चों के साथ वही सब कुछ दोहराते हैं जो उनके साथ हुआ था.’

स्टेशन पर रहने वाले सैकड़ों मासूम बच्चों का बचपन इन आपराधिक गिरोहों के कभी न खत्म होने वाले दुश्चक्र में तो खत्म होता ही है कभी-कभी तेज रफ्तार ट्रेनों से कटकर भी खत्म हो जाता है. 11 अप्रैल, 2011 को 10 वर्षीय पेटू पटरियों पर बोतलें बीनते-बीनते अचानक एक ट्रेन के नीचे आ गया था. स्टेशन पर रहने वाले बच्चों के योजनाबद्ध पुनर्वास के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर करने वाली समाजशास्त्री खुशबू जैन बच्चों के साथ जारी सख्त पुलिसिया रवैये को खारिज करते हुए कहती हैं, ‘इस मामले को जब भी उठाया जाता है पुलिस तुरंत अपनी ताकत का इस्तेमाल करके बच्चों को स्टेशनों से मारकर भगा देती है. यह तरीका बिल्कुल गलत है क्योंकि पहले तो बच्चों के साथ किसी भी तरह की हिंसक जोर-जबरदस्ती कानून के खिलाफ है. दूसरी बात बच्चों को स्टेशनों से भगाना कोई समाधान नहीं है क्योंकि वे कुछ दिनों बाद यहां वापस आ जाते हैं. उनको धीरे-धीरे स्टेशनों के आस-पास ही पुनर्वासित करना होगा. उन्हें आसपास ही रोज़गार और शिक्षा के विकल्प देकर धीरे-धीरे मुख्यधारा में लाना होगा.’

4. कड़िया सांसी गैंग
मध्य प्रदेश के राजगढ़ जिले से दिल्ली, मथुरा और आगरा जैसे उत्तर भारतीय शहरों में छोटे बच्चों को चोरियां करने के लिए भेजने वाला एक अंतरराज्जीय आपराधिक गिरोह सक्रिय है. राजगढ़ के नरसिंहगढ़ ब्लाक की कड़िया चौरसिया ग्राम पंचायत का एक गांव है कड़िया सांसी. इस गांव के कई बच्चे दिल्ली के संभ्रांत इलाकों में होने वाली शादियों और अन्य पारिवारिक समारोहों में चोरियां करते पाए गए हैं. नवंबर, 2012 में यहीं के दो बच्चे अशोक और वरुण दिल्ली में एक निजी समारोह में चोरी करने के बाद पकड़े गए थे. फरवरी, 2013 में कड़िया सांसी के नजदीकी गांव जतखेरी के दो बच्चों-सावन और फूलन–को भी पुलिस ने पकड़ा था. ये बच्चे राजधानी के केशवपुरम इलाके में चल रहे एक विवाह समारोह से लगभग 50 लाख रुपये के गहने और नकदी चुराते पकड़े गए थे. इन बच्चों से संबंधित दस्तावेज तहलका के पास मौजूद हैं.

सात जुलाई, 2012 को परमजीत सिंह दिल्ली के लारेंस रोड स्थित सेवन बैंक्वेट हाल में अपनी बेटी का जन्मदिन मना रहे थे. रात के लगभग 12 बजे केक कटने के बाद सोने के जेवरों और तोहफों से भरा एक बैग वहां से गायब हो गया. पार्टी के दौरान खींची गई तस्वीरों की मदद से शुरुआती तहकीकात के बाद केशवपुरम पुलिस ने वरुण और अशोक को उनकी मां के साथ पकड़ लिया. कड़िया सांसी गांव के मकान नंबर 81 में रहने वाले इन बच्चों ने पूछताछ के दौरान बताया कि समारोह के दौरान उन्होंने तोहफों के बैग के पास बैठी एक महिला की साड़ी पर चटनी गिरा दी. जैसे ही वह महिला अपनी साड़ी साफ करने में व्यस्त हुई, बच्चे बैग लेकर वहां से चंपत हो गए. बच्चों को सुधार गृह भेजने के निर्देश देते हुए दिल्ली गेट स्थित बाल न्यायालय की प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट गीतांजली गोयल का कहना था, ‘…परिवारवालों की मदद से चोरियां करने वाले छोटे बच्चों से जुड़े कई मामले सामने आ रहे हैं. ज्यादातर घटनाओं में बच्चे मध्य प्रदेश के राजगढ़ या खंडवा जिले से हैं. सभी मामलों में बच्चे अपनी मांओं के साथ दिल्ली कपड़े बेचने आते हैं और बाद में बड़े समारोहों में चोरियां करते हुए पकड़े जाते हैं.’

‘पकड़े जाने पर ये सिर्फ यही कहते हैं कि ये तो खाना खाने के लिए शादी में आ गए थे.   इन्हें लेने भी हमेशा इनके मामा, चाची, मौसी या कोई दूसरा रिश्तेदार ही आता है’इस अंतरराज्यीय नेटवर्क पर काम कर रही सामाजिक संस्था हक से जुड़े शाबाज खान बताते हैं, ‘इन गांवों की सारी आबादी कंजर बंजारों की है. इनके छोटे-छोटे बच्चे दिल्ली के संभ्रांत इलाकों में होने वाली शादियों में तैयार होकर पहुंच जाते हैं और मौका मिलते ही लाखों के जेवर लेकर फरार हो जाते हैं. आम तौर पर शादियों में दुल्हन या कुछ खास लोगों के कमरों में काफी सामान रखा रहता है जिसे ये बच्चे आसानी से चुरा लेते हैं. बाहर इन्हें ले जाने या भगाने के पूरे इंतजाम होते हैं. पकड़े जाने पर ये सिर्फ यही कहते हैं कि ये तो खाना खाने के लिए शादी में आ गए थे. ये बच्चे कभी भी अपने माता-पिता या घर का पता नहीं बताते और इन्हें लेने भी हमेशा इनके मामा, चाची, मौसी या कोई दूसरा रिश्तेदार ही आता है.’

‘सांसियों का यह गिरोह पुश्तैनी तौर पर अपने ही परिवार के बच्चों को अपराध में धकेलता है. ये लोग बहुत छोटी उम्र से ही अपने बच्चों को चोरियां करने का प्रशिक्षण देने लगते हैं’ सांसी समुदाय के बारे में बताते हुए राजगढ़ जिले की पुलिस अधीक्षक रुचि वर्धन मिश्रा कहती हैं, ‘हम लोग इस विषय पर पिछले दो सालों से काम कर रहे हैं और कई कैंप लगवाने के बाद भी आज तक सांसियों को पुनर्वासित नहीं कर पाए हैं. क्योंकि ये लोग अपनी आसान कमाई के रास्ते को नहीं छोड़ना चाहते. एक शादी में की गई चोरी ही इन्हें कई महीनों के लिए भरपूर पैसा दे देती है. मेरे पास दिल्ली, आगरा और मथुरा के साथ-साथ देश के अन्य हिस्सों से भी शिकायत के फोन आते हैं. लेकिन जब माता-पिता ही बच्चों को सुनियोजित चोरियों में धकेल रहे हों तो उन्हें बचाना बहुत मुश्किल हो जाता है. हमारे पास जिस भी राज्य से फोन आता है, हम संबंधित बाल सुधार गृहों या स्पेशल होम वालों को इस बात के सख्त निर्देश दे देते हैं कि वे किसी भी कीमत पर बच्चों को उनके परिवारएवालों को न सौंपें वर्ना वो बहुत जल्दी किसी दूसरी शादी में चोरी करते नजर आएंगे.’

5. ड्रग पैडलर्स गैंग
नशा बच्चों को अपराध की दुनिया में धकेलने का सबसे आसान तरीका रहा है. अपनी तहकीकात के दौरान तहलका की टीम ऐसे दर्जनों बच्चों से मिली जो नशे के लिए चोरी और डकैती से लेकर हत्या तक की कोशिशों को अंजाम दे चुके हैं. हम इस दौरान 17 वर्षीय सौरभ से मिले जो अभी एक नशा मुक्ति केंद्र में है. सौरभ एक आपराधिक गिरोह और नशे के चंगुल में फंसकर पैसे और नशे के लिए हिंसा की हर सीमा लांघ जाता था. 16 वर्षीय शाहबाज नशे में और नशे के लिए अपने और दूसरों के घरों में चोरियां करता था.

दिल्ली के तमाम इलाके ऐसे अपराधियों से पटे पड़े हैं जो पहले तो मुफ्त का नशा मुहैया कराते हैं और फिर मासूम बच्चों को इसकी लत लगवाकर उसी नशे के लिए उनसे अपराध करवाते हैं. एक बार नशे की लत लग जाने के बाद ये बच्चे नशे की खुराक के लिए खुद ही चोरियां करना शुरू कर देते हैं. इसके बाद इनमें से कई बच्चे खुद भी नशा बेचने वाले नेटवर्क में शामिल होकर वही सब करने लग जाते हैं जो उनके साथ किया गया था. सड़कों, चौराहों और स्टेशनों पर रहने वाले बेघर बच्चों के साथ-साथ नशे के व्यवसाय में शामिल आपराधिक गिरोहों ने कई सामान्य परिवारों के स्कूल जाने वाले बच्चों की भी जिंदगियां चौपट की हैं.

राजधानी के किशनगढ़ इलाके में स्थित एक नशा मुक्ति केंद्र में हमारी मुलाकात सौरभ से होती है. सौरभ उन बच्चों में से नहीं है जो गरीबी, भुखमरी और पारिवारिक समस्याओं के चलते नशे के दुश्चक्र में फंस जाते हैं. वह माता-पिता के साथ जहांगीरपुरी के अपने छोटे-से घर में रहता था और रोज स्कूल भी जाता था. लेकिन उसके मोहल्ले में ड्रग्स का धंधा करने वाले अपराधियों ने उसे चोरी, डकैती और हिंसा के दलदल में धकेल दिया. तहलका से बातचीत में वह बताता है, ‘मुझे सबसे पहले नशा मेरे स्कूल के ही लड़कों ने दिया था. पहले हम लोग गुटका और सिगरेट ही लेते थे.

फिर उन्होंने मुझे स्मैक दिया. कुछ ही दिनों में मुझे इतनी आदत हो गई कि मैं सबसे ज्यादा स्मैक लेने लगा. फिर धीरे-धीरे उस गिरोह तक पहुंच गया जो हमारे एरिया में स्मैक बंटवाता था. पहले तो उन्होंने फ्री में दिया बाद में घर से पैसे चोरी करके नशा खरीदना पड़ा. फिर जब घर में सबको पता चल गया तो मैंने घर ही छोड़ दिया और बाहर चोरियां करने लगा.’ वह आगे कहता है, ‘मैं उन्हें चोरियां करके सामान देता और वे मुझे नशा देते. फिर धीरे-धीरे मैंने इंजेक्शन लेना भी शुरू कर दिया. नशे के लिए मैं इतना पागल हो जाता था कि कई बार फ्लाई-ओवर पर गाड़ियों को रोककर उनका सामान चुरा लेता. कई बार मैंने लोगों को फ्लाई-ओवर से नीचे भी फेंका है. मैं नशे के लिए कुछ भी कर सकता था.’

सौरभ की ही तरह मध्यवर्गीय परिवारों के स्कूल जाने वाले विनय और योगेंद्र  भी अपने मोहल्लों में मौजूद स्थानीय गिरोहों के संपर्क में आकर चोरियां और मारपीट करने लगे थे. ‘मैं सुबह उठता था और नशा ढ़ूंढ़ने लगता था. अगर स्मैक या सुई नहीं होती तो कहीं से भी पैसे का जुगाड़ करके अपने गिरोह के लड़कों के पास जाता और खरीदता. मुझे हर रोज़ 400-400 रुपये की तीन खुराकें चाहिए होती थीं. यानी एक दिन में कुल 1200 रुपये का नशा. हमारे मोहल्ले में लड़कों का एक गिरोह था जो नशा करता और बेचता भी था. शुरू में उन्होंने मुझे मुफ्त में नशा दिया फिर बाद में मुझसे अपने फायदे के लिए चोरियां करवाने लगे. इसके बाद मैंने उनका साथ छोड़ दिया और खुद ही चोरी करके नशा खरीदने लगा. मैंने नशे के लिए अपने घर का गैस का सिलेंडर तक बेच दिया था जिसके बाद मेरे घरवालों ने मुझे घर से निकाल दिया. मैं सड़क पर रहकर ही चोरियां करता और नशा खरीदता.’

मुफ्त में नशा बांटकर छोटे बच्चों को अपने आपराधिक गिरोहों में शामिल करने वाले अपराधी गिरोहों के लिए सड़कों पर रहने वाले बेघर बच्चों को अपना निशाना बनाना बेहद आसान होता है. राजधानी के चांदनी चौक मेट्रो स्टेशन के पीछे हमारी मुलाकात नशे के इस गोरखधंधे में फंसे लगभग दर्जन भर बच्चों से होती है. चांदनी चौक के मुख्य बाजारों की सड़कों पर रहने वाले ये बच्चे तहलका को नशे के इस व्यापार की बारीकियां तफसील से बताते हैं. 15 वर्षीय असलम पिछले चार साल से लगातार नशा करने की वजह से 12 साल के एक कमजोर और कुपोषित बच्चे की तरह दिखाई देता है. अपनी नशे की आदतों और इलाके में नशे के व्यवसाय के बारे में बताते हुए कहता है, ‘मैं एक दिन में लगभग 20 फ्लूइड पी जाता हूं. यहां पर रहने वाले सारे बच्चे नशा करते हैं, लड़के-लड़कियां सब. नशा हमें सड़कों पर ही रहने वाले बड़े लड़कों ने दिया था. पहले तो ऐसे ही, बिना पैसे के दे देते थे. फिर हमें नशे के लिए चोरियां करनी पड़ती थी. कभी-कभी हम पुराना सामान बेच कर भी पैसे इकठ्ठा करते और फिर अपने यहां के गैंग वाले लड़कों से नशा मांगते. यमुना मार्केट के पेटी बाजार से, निजामुद्दीन की दरगाह से और लाल किले के पीछे वाले मीना बाज़ार से भी आसानी से नशा मिल जाता है. वहां लड़के होते हैं हमारी पहचान के.’

नशे की लत लगवाकर बच्चों को अपराध में घसीट रहे इन आपराधिक गिरोहों और नशे की लत से जूझ रहे बच्चों के साथ लंबे समय से काम कर रहे सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ यूथ एंड मासेस के निदेशक डॉ राजेश कुमार इन गिरोहों को सरकारी व्यवस्था के पूरी तरह असफल होने का नतीजा बताते हुए कहते हैं, ‘अगर 14 साल से कम उम्र के इतने सारे बच्चे सड़कों पर नशा कर रहे हैं तो इससे साफ समझ में आता है कि हमारा शिक्षा के अधिकार से जुड़ा कानून कितनी बुरी तरह असफल है. हम इतनी कोशिश करते हैं, लेकिन स्कूल इन बच्चों को लेना ही नहीं चाहते. कोई सड़कों पर नशे में धुत बच्चों के लिए कुछ नहीं करना चाहता और देखते ही देखते वे कब बड़े अपराधी बन जाते हैं, उन्हें भी पता नहीं चलता. जब तक हम उन्हें मुख्यधारा से नहीं जोड़ेंगे तब तक कुछ भी नहीं बदलेगा. और कोई भी उन्हें मुख्यधारा में नहीं देखना चाहता. प्रशासन, पुलिस और सरकार सबको यही अच्छा लगता है कि सड़क के बच्चे सड़कों पर ही रहें.’

‘अगर हम अपराध की दुनिया का हिस्सा बन चुके बच्चों के लिए कुछ करना चाहते हैं तो इन गिरोहों के अस्तित्व को स्वीकारने से ही हमें शुरुआत करनी होगीदिल्ली की बाल कल्याण समिति के पूर्व अध्यक्ष राज मंगल प्रसाद का मानना है कि अगर हम अपराध की दुनिया का हिस्सा बन चुके या बनने जा रहे बच्चों के लिए कुछ करना चाहते हैं तो किशोरों के इन गिरोहों के अस्तित्व को स्वीकारने से ही हमें शुरुआत करनी होगी. वे कहते हैं, ‘दिक्कत यह है कि पुलिस यह मानती ही नहीं कि वयस्क अपराधी बच्चों को बहला-फुसला कर उन्हें अपराध की दुनिया में धकेल रहे हैं . इस प्रक्रिया में बच्चों के कुछ नए गिरोह पनप रहे हैं और राजधानी में सक्रिय हैं. अपने कार्यकाल के दौरान मुझे तो यहां तक पता चला कि खुद माता-पिता भी अपने बच्चों को चोरी-डकैती जैसे अपराधों में धकेल रहे हैं. अपराध के दंगल में फंस रहे इन सैकड़ों बच्चों के जीवन को बचाने के लिए ज़रूरी है कि सबसे पहले पुलिस इन्हें सड़क पर घूम रहे बच्चों के बजाय आपराधिक गिरोहों में फंसे बच्चों के तौर पर स्वीकार करे और इनका जीवन बर्बाद कर रहे वयस्कों को पकड़े.’

किशोरों के लिए बनाई गई दिल्ली पुलिस की विशेष इकाई का लंबे समय तक नेतृत्व करने वाले राजधानी के वर्तमान विशेष आयुक्त सुधीर यादव से बात करने पर राज मंगल प्रसाद की बात सही लगने लगती है. वे बच्चों के ऐसे आपराधिक गिरोहों के संगठित अस्तित्व को नकारते हुए से कहते हैं, ‘यह बात सही है कि बच्चों के ऐसे कुछ गिरोह सक्रिय हैं, लेकिन इस अवस्था में उन्हें संगठित नहीं कहा जा सकता. इनकी गतिविधियां छिटपुट और बिखरी हुई हैं.  क्षेत्र में पहले से सक्रिय वयस्क अपराधी इन बच्चों को सिर्फ अपने प्यादों की तरह इस्तेमाल करते हैं. उन्हें भी यह मालूम होता है कि अगर ये बच्चे पकड़े भी गए तो भी किशोर न्याय अधिनियम की वजह से आसानी से छूट जाएंगे. इसलिए वयस्क गिरोह और कई मामलों में तो माता-पिता भी बच्चों को अपराधों में धकेल देते हैं. दिल्ली हाई कोर्ट ने भी बच्चों के इस बढ़ते अपराधीकरण को संज्ञान में लेते हुए निर्देश जारी किए थे और हमने भी इस दिशा में प्रयास करना शुरू कर दिया है. हम ‘युवा’ नामक योजना के तहत ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में फंसे बच्चों को बचाने और उनके पुनर्वास के लिए विशेष प्रयास कर रहे हैं.’

दिल्ली सरकार के महिला और बाल विकास विभाग के सहायक निदेशक पी खाखा कहते हैं, ‘यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोर्ट के सख्त निर्देशों के बाद भी पुलिस इस मामले में गंभीर नहीं है और ऐसे मामलों की गहन पड़ताल कर बच्चों को अपराध में धकेल रहे वयस्क अपराधियों की धर-पकड़ पर ध्यान नहीं दे रही है. जब तक हम बच्चों के खो जाने की स्थिति में उन्हें शुरुआती 24 घंटे में ही बरामद कर सुरक्षित होम में नहीं डालेंगे, दूसरे राज्यों से आने वाले बच्चों का सही-सही आंकड़ा इकठ्ठा कर प्रतिकूल परिस्थितियों में फंसे बच्चों का पुर्नवास नहीं करेंगे तब तक शहरों में पहले से मौजूद अपराधी उन्हें ऐसे ही अपना निशाना बनाते रहेंगे और इस तरह खुद हिंसा और शोषण के शिकार इन बच्चों के नए आपराधिक गिरोह पनपते रहेंगे.’

(सभी बच्चों के नाम बदल दिए गए हैं)   

दिल्ली विश्वविद्यालय के चार वर्षीय पाठ्यक्रम विवाद

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क्या है चार वर्षीय ग्रैजुएशन पाठ्यक्रम?
दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा प्रस्तावित चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम को उसकी अकादमिक परिषद और कार्यकारी परिषद से हरी झंडी मिल जाने के बाद जुलाई से शुरू हो रहे नए सत्र में इसके लागू होने का रास्ता लगभग साफ हो गया है. इस योजना के लागू होने के बाद डीयू में स्नातक पाठ्यक्रम चार वर्ष का हो जाएगा. विश्वविद्यालय ने इस चार वर्षीय पाठ्यक्रम को कई हिस्सों में बांटा है.  इस चार वर्षीय कोर्स में दो साल की पढ़ाई करने पर डिप्लोमा, तीन साल की पढ़ाई पर बैचलर डिग्री और चार साल पूरे करने पर बैचलर विद ऑनर्स की डिग्री दी जाएगी. जो छात्र चार वर्षीय पाठ्यक्रम के तहत स्नातक करेंगे, उन्हें परास्तनातक की डिग्री सिर्फ एक वर्ष में मिल जाएगी.

नए पाठ्यक्रम को लेकर मुख्य आपत्तियां क्या हैं? 
डीयू के इस फैसले से शिक्षकों के समूह और विद्यार्थियों के एक बड़े तबके में नराजगी है. विरोधियों की प्रमुख आपत्ति फाउंडेशन कोर्सों को लेकर है. नए प्रावधान के तहत गणितीय क्षमता, विज्ञान तथा मानविकी समेत दर्जन भर ऐसे पाठ्यक्रम हैं जिन्हें विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने वाले हर विद्यार्थी को अनिवार्य रूप से पढ़ना होगा. दृष्टिहीन छात्रों को इससे सबसे अधिक आपत्ति थी. इन छात्रों को आठवीं या दसवीं के बाद से ही गणित और विज्ञान जैसे विषयों को पढ़ने से छूट दी जाती है. इसकी वजह से दृष्टिहीन छात्रों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी. इसके अलावा अधिकांश अभिभावक अपने ऊपर बढ़ने वाले आर्थिक बोझ को लेकर भी नाखुश हैं. लेकिन मानव संसाधन विकास मंत्री पल्लम राजू इस व्यवस्था के पक्ष में हैं.

दृष्टिहीन छात्रों की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का क्या कहना है?
दृष्टिहीन छात्रों की ओर से दायर की गई याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने लिखित सुझाव मांगा है. इसके अलावा शीर्ष कोर्ट ने उन्हें विश्वविद्यालय की समिति के समक्ष अपनी शिकायतें दर्ज करवाने की छूट भी दे दी है. इस सबके बीच केंद्र सरकार ने यह कहकर इस विवाद से पल्ला झाड़ लिया कि वह बीच में नहीं आएगी क्योंकि डीयू एक स्वायत्त संस्थान है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश से दृष्टिहीन छात्रों को राहत जरूर मिली है.
-प्रदीप सती

सबै भूमि ‘सरकार’ की

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह के मकान भी एकरंग रेवेरा टाउन में हैं.
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह के मकान भी एकरंग रेवेरा टाउन में हैं.
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह के मकान भी एकरंग रेवेरा टाउन में हैं.
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह के मकान भी एकरंग रेवेरा टाउन में हैं.

आपने जिंदगी भर हाड़तोड़ मेहनत करके एक मकान बनाने के लिए पूंजी जमा की है. जाहिर है आप इस पैसे से मकान खरीदने में काफी सावधानी बरतेंगे. निजी बिल्डरों से यदि आप मकान खरीद रहे हैं और वह कुछ गड़बड़ करता है तो आप अपने हक और गड़बड़ी के विरुद्ध हर स्तर तक लड़ने को तैयार रहेंगे. पर यही काम कम कीमत पर मकान उपलब्ध कराने वाली सरकारी संस्थाएं करने लगें तो आप क्या करेंगे? और खास तौर पर जब आम लोगों के हिस्से के मकान मुख्यमंत्री और उनकी राजनीतिक बिरादरी को परोस दिए जाएं तो आप कहां जाएंगे?

मध्य प्रदेश में पिछले कई सालों से ऐसा ही चल रहा है. यहां सरकारी संस्था मध्य प्रदेश गृहनिर्माण मंडल आम आदमी के बजाय राजनीतिक रसूखदारों के लिए माटी मोल जमीन तो बांट ही रहा है, औने-पौने भाव में आलीशान बंगले भी बना रहा है. 1972 में बनी इस सरकारी संस्था का पहला मकसद ही यही था कि संस्था आम लोगों को कम कीमत पर आवास उपलब्ध कराएगी. लेकिन बीते सालों में इसके काम-काज पर नजर डालें तो पता चलता है कि क्या सत्ता पक्ष, क्या विपक्ष, दोनों तरफ से लोगों ने मंडल की योजनाओं से भरपूर फायदा उठाया है. इनमें खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह, आवास मंत्री नरोत्तम मिश्र, गृहनिर्माण मंडल के अध्यक्ष रामपाल सिंह राजपूत और विधानसभा अध्यक्ष ईश्वरदास रोहाणी जैसे कई नेता शामिल हैं.

कोई तीन साल पहले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने राजधानी भोपाल की बैरसिया रोड पर बने हाउसिंग पार्क का शिलान्यास करते हुए घोषणा की थी कि महंगाई के इस जमाने में वे गरीबों के लिए उचित मूल्य के घर बनाएंगे. किंतु भोपाल की ही रिवेरा टाउन जैसी विशेष कॉलोनियां उनकी अपनी ही घोषणा को पलीता लगाती दिख रही हैं. यदि हमें ऐसी कॉलोनियों के पीछे छिपे राजनेताओं के गोरखधंधे को समझना है तो इसकी बुनियाद में जाना पड़ेगा. गौर करने लायक बात यह है कि मध्य प्रदेश में सभी विधायकों और सांसदों को सरकारी योजनाओं के तहत मिलने वाले भूखंडों और मकानों में 20 प्रतिशत का आरक्षण पहले ही मिला हुआ है. उन्हें सरकारी आवास भी मिलता है. इसके बावजूद राज्य की भाजपा सरकार आम आदमी के नुमाइंदों के लिए अलग से और जगह-जगह कई लंबी-चौड़ी कॉलोनियां और गगनचुंबी इमारतें बनवा रही है. इसी कड़ी में उसने राजधानी भोपाल के बीचोबीच और शहर के पॉश इलाके न्यू मार्केट के पास 14 एकड़ की रिवेरा टाउन कॉलोनी में 146 बंगले बनवाए हैं. रिवेरा टाउन 2003 में मध्य प्रदेश गृहनिर्माण मंडल की बनी ऐसी कॉलोनी है जिसकी शुरुआत सरकारी कर्मचारियों और आम आदमियों को मकान देने से हुई थी. लेकिन 2006 में राज्य की शिवराज सरकार ने इसके दूसरे हिस्से को सिर्फ विधायकों और सांसदों के लिए तैयार करवाया. साथ ही उसने इसे गृहनिर्माण मंडल के सभी कायदे-कानूनों से अलग रखते हुए कई तरह की छूट भी ले लीं.

लेकिन प्रदेश की राजनीतिक बिरादरी की भूख यहीं शांत होती तो क्या बात थी. इन दिनों राजधानी भोपाल के दूसरे पॉश इलाके महाराणा प्रताप नगर से सटे रचना नगर में भी राज्य के ही विधायक और सांसदों के लिए गृहनिर्माण मंडल और एक ग्यारह मंजिला इमारत बना रहा है. एक तरह से यह कॉलोनियां बना-बनाकर मनमर्जी की जगह और मनमर्जी की कीमतों पर आवास हथियाने का खेल है. विडंबना यह है कि इस खेल में कोई विरोधी टीम भी नहीं है. विधानसभा में कांग्रेस के नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह और उनकी मित्र मंडली भी इसी खेल का हिस्सा है. (देखें बॉक्स)

दूसरी तरफ, सुप्रीम कोर्ट का साफ आदेश है कि सरकार किसी भी सरकारी योजना में भूखंड और मकान पाने के लिए 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण नहीं दे सकती. मध्य प्रदेश में विभिन्न वर्गों (अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ा, विकलांग आदि) के लिए 50 प्रतिशत का आरक्षण पहले से ही था. बावजूद इसके मध्य प्रदेश ऐसा राज्य है जहां सरकार ने आरक्षण की सीमा बढ़ाते हुए विधायकों और सांसदों को 20 प्रतिशत आरक्षण दिया है. यानी आरक्षण की सीमा 70 प्रतिशत तक बढ़ना जहां सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन है वहीं इतना अधिक आरक्षण देने से सामान्य लोगों के पास सरकारी लाभ उठाने का मौका घटकर एक तिहाई से भी कम रह गया है.

रिवेरा टाउन का दूसरा बड़ा गड़बड़झाला यह है कि एक ही कॉलोनी में विधायकों और सांसदों को दिए जाने वाले मकानों की कीमत सरकारी कर्मचारियों और सामान्य लोगों को दिए गए मकानों की कीमत से कई गुना कम रखी गई है. यहां मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह और राज्य की सियासी मंडली को महज 28 लाख रु. में मकान बांटे गए. इनमें से ऐसों को भी मकान बांटे गए जिनके पास पहले ही एक से लेकर पांच-पांच मकान और अकूत संपत्ति है. वहीं सरकारी कर्मचारियों के लिए इन मकानों की कीमत 90 लाख रु. से एक करोड़ 20 लाख रु. तक रखी गई. सवाल है कि इस कीमत का मकान किस स्तर का सरकारी कर्मचारी खरीद सकता है. राज्य के एक प्रमुख सचिव का वेतन भी इतना नहीं होता कि वह एक करोड़ रुपये से अधिक का लोन ले सके. सवाल यह भी है कि जब गृहनिर्माण मंडल सरकार की ही संस्था है और यह गरीबों को आवास देने के नाम पर सस्ते दाम पर सरकार से जमीन खरीदता है तो कैसे सत्ता के शीर्ष पर बैठे चंद लोगों को सस्ती और सामान्य लोगों को उससे कई गुना महंगी जमीन बेच सकता है.

रिवेरा 36 आवंटी वेलफेयर सोसाइटी उन लोगों को संगठन है जिन्हें रिवेरा टाउन में लॉटरी के जरिए एक तयशुदा कीमत पर मकान आवंटित हुआ था लेकिन स्वामित्व के लिए सोसाइटी अधिक कीमत मांग रही है. इसके अध्यक्ष जयंत यादव के मुताबिक, ‘ऐसा संविधान की मूल भावना के खिलाफ है. जिस तरह मंडल ने सरकार से रियायती दर पर जमीन का लाभ लिया और विधायक व सांसदों को दिया है, उसी तरह यह लाभ सरकारी कर्मचारियों और आम जनता को पाने का हक है.’ सोसाइटी के तीन अलग-अलग समूहों ने सरकार के इस निर्णय के खिलाफ इसी साल मध्य प्रदेश हाई कोर्ट में एक याचिका लगाई है.

filesइस तरह की ज्यादती रिवेरा टाउन के सामान्य लोगों के साथ ही नहीं हुई. मध्य प्रदेश में 30 कॉलोनियां हैं जिनमें गृहनिर्माण मंडल ने भूखंड की रजिस्ट्री के समय बताई गई मकान की कीमत आखिरी मूल्य निर्धारण से कई गुना बढ़ाई है. इस ज्यादती के खिलाफ कई लोग अदालत का दरवाजा खटखटा रहे हैं और यही वजह है कि मंडल को अपनी आमदनी का एक तिहाई हिस्सा अदालती केसों और वकीलों पर खर्च करना पड़ रहा है. मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के वकील हेमंत श्रीवास्तव के मुताबिक, ‘यही काम यदि किसी बिल्डर ने किया होता तो वह जेल में होता. लेकिन सरकार में होने से कई अधिकारी बचे हुए हैं.’

जब तहलका ने रिवेरा टाउन के मामले में सरकार से जवाब जानना चाहा तो सभी से परस्पर विरोधी और गोलमोल बातें सुनने को मिलीं. गृहनिर्माण मंडल के आयुक्त मुकेश गुप्ता ने इस मामले से पल्ला झाड़ते हुए कहा कि केस हाई कोर्ट में है और इसलिए उनका कुछ बोलना ठीक नहीं. वहीं आवास विभाग के प्रमुख सचिव इकबाल सिंह बैंस का कहना था कि यह योजना गृहनिर्माण मंडल की है ही नहीं. उनके मुताबिक, ‘विधानसभा कमेटी के निर्देश पर मंडल ने यह कॉलोनी विधायक और सांसदों के लिए बनाई थी.’ लेकिन जब उनसे पूछा गया कि क्या ऐसा कोई प्रस्ताव विधानसभा की कमेटी ने पास किया था तो उन्होंने कहा कि उनके पास विधानसभा कमेटी की बैठक के मिनिट्स (बिंदुवार चर्चा) ही हैं. इस बारे में मध्य प्रदेश सरकार की तरफ से चर्चा करते हुए मुख्यमंत्री के सचिव एसके मिश्र ने बताया कि विधानसभा को इतनी छूट है कि वह किसी भी सरकारी नियम के ऊपर अपना आदेश जारी कर सकता है. बकौल मिश्र, ‘मुझे नहीं लगता कि एक विशेष वर्ग के लिए रिवेरा टाउन कॉलोनी जैसा बड़ा प्रस्ताव विधानसभा कैबिनेट की मंजूरी के बिना संभव है.’ मगर जब उनसे कैबिनेट के इस निर्णय की लिखित जानकारी मांगी गई तो उन्होंने कहा कि उन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं है. बाद में मध्य प्रदेश जनसंपर्क विभाग के आयुक्त राकेश श्रीवास्तव ने आश्वासन दिया कि यदि ऐसा कोई प्रस्ताव कैबिनेट ने पास किया है तो वे इसकी एक कॉपी तहलका को उपलब्ध कराएंगे. किंतु एक हफ्ते की खोजबीन के बाद उन्हें भी विधानसभा से ऐसा कोई कागज नहीं मिला.

गृहनिर्माण मंडल की उद्देशिका में साफ लिखा है कि इसका उद्देश्य राज्य के आवासहीनों को आवास मुहैया कराना है. जबकि उसने रिवेरा टाउन में विधानसभा के निर्देश पर राजनेताओं के लिए जो कॉलोनी बनाई है उसमें लगभग सभी के पास एक से अधिक आवास हैं. मंडल की उद्देशिका में कहीं नहीं लिखा कि उसका काम मुख्यमंत्री, नेता प्रतिपक्ष, विधायक और सांसद के लिए विशेष कॉलोनियां बनाना भी है. इस बारे में मंडल के अध्यक्ष रामपाल सिंह राजपूत का कहना है, ‘व्यावसायिक हितों को ध्यान में रखते हुए हमने नियमों में कई फेरबदल किए हैं. रिवेरा को इन्हीं नियमों के तहत बनाया गया है.’

[box]तहलका ने जब रिवेरा टाउन के निर्माण से जुड़े फैसले का कथित दस्तावेज जनसंपर्क विभाग से मांगा तो हमें एक हफ्ते के बाद भी उसकी कोई प्रति नहीं दी गई[/box]

रिवेरा कॉलोनी प्रदेश में अपनी तरह का अकेला मामला नहीं है जहां रसूखदार नेताओं ने आरक्षण के तहत मिलने वाले मकानों को भी हथियाने के लिए मनमुताबिक नियमों को बदलवाया हो. 2011 में भी ऐसा मामला सामने आया था जिसमें इन माननीयों ने एक से अधिक मकान होने पर भी आरक्षण के नियमों को ताक पर रखा और भोपाल के महादेव और कीलनदेवी अपार्टमेंट में सरकारी आवास हथियाए थे. इस सूची में भाजपा सांसद सुमित्रा महाजन, राज्यसभा सांसद अनुसुईया उईके और विधायक अरविंद भदौरिया के नाम हैं. वहीं कांग्रेस विधायक सुनील जायसवाल और एनपी प्रजापति ने भी मकान होने के बावजूद आवास लिए. इस पर कांग्रेस विधायक एनपी प्रजापति ने उल्टा चोर कोतवाल को डांटे के अंदाज में हमसे बात करते हुए कहा, ‘आजकल पत्रकारों के लिए राजनेता सबसे आसान निशाना हो गए हैं. क्या किसी पत्रकार ने कभी अन्य आरक्षित वर्गों को मिलने वाले मकानों से जुड़ी अनियमितताओं की पड़ताल की है?’

वहीं दिल्ली से कांग्रेस के सांसद संदीप दीक्षित ने भी सांसद कोटे से भोपाल के ग्रीन मैडोस कॉलोनी में सात साल पहले एक बंगला लिया था. नियम के मुताबिक केवल मध्य प्रदेश के विधायक या सांसद को ही मध्य प्रदेश गृहनिर्माण मंडल की कॉलोनी में कोटे से आवास मिल सकता है. लेकिन दीक्षित की दलील है, ‘विधायक प्रदेश का हो सकता है लेकिन सांसद तो पूरे देश का होता है.’ आखिर में सरकार, नेताओं और प्रशासन के स्पष्टीकरण के बाद हम घूम-फिरकर फिर उसी सवाल पर पहुंचते हैं कि जब आम लोगों के कोटे के मकान माननीयों के हिस्से में आने लगेंगे तो उनकी सुनवाई कहां होगी.

चरखे से चर-खा तक

इलस्ट्रेशन: मनीषा यादव
इलस्ट्रेशन: मनीषा यादव
इलस्ट्रेशन: मनीषा यादव

राजनीति में कई लोग इन्हें दिग्गज मानते हैं, मगर मेरे लिए वे मात्र गज हैं. नापने वाला नहीं चरने वाला गज. उन्हें अपनी तरफ देखते हुए मैंने एक सवाल फेंका, ‘आखिर कितना खाएंगे?’ वे मुस्कुराए. बोले, ‘यह सवाल ही अप्रासंगिक है. जिसका जो काम है, वो तो करेगा ही. यह तुम जैसों की अज्ञानता है कि इसे स्वाभाविक नहीं मानते. और जब अस्वाभाविक लगेगा, तो हो-हल्ला मचाओगे ही.’

‘तो आपका दिन-रात चरते रहना अस्वाभाविक नहीं है? आपके चरने की कोई सीमा है कि नहीं!’ ‘चरना! खाने से तुम चरने पर आ गए! बहुत खूब! यह शब्द मुझे व्यक्तिगत रूप से भी पसंद है. देखो तो सृष्टि में मानव की उत्पत्ति ही चरने के लिए हुई है. श्रेष्ठ मानव वही है, जो भी मिले उसे झट कचर-कचर चर जाए.’ यह कहते हुए उन्होंने कचौड़ी की दुकान की तरफ देखा. ‘अब ऐसा भी क्या चरना कि हाजमे के साथ पूरा सिस्टम ही चरमरा जाए!’ ‘तुम्हारे अंदर अज्ञानता का सिंधु जान पड़ता है! चलो, आज तुम्हारी अज्ञानता दूर करता हूं.’ ‘लगता है चर चुके हैं… आज का कोटा पूरा हो गया!’ वे ठठाकर हंसे. ‘ठीक पकड़ा, अभी चर के ही आ रहा हूं. सृष्टि इसलिए ही है कि चरा जाए. वरना चराचर जगत नहीं कहा जाता. चराचर मतलब चरा कर… चर… चर… पगले! पूरे जगत को चर.’

‘अपने खेत को छोड़कर दूसरों की फसल चर जाना क्या अत्याचार नहीं है? इसे क्या कहेंगे आप?’ ‘इसे भी तुम्हारी अज्ञानता कहूंगा. थलचर, जलचर, नभचर, उभयचर, निशाचर… इनके बाद में यह चर क्यों लगा है! कहने का मतलब है कि जो जहां हो वहीं चरे.’ उनके चर… चर… से मेरा भेजा पंच्चर हो गया. मन में आया कि उन्हें सनीचर! से संबोधित करूं. इस बीच वे कुछ सोचने लगे. ‘क्या सोच रहे हैं? क्या कभी चरते वक्त या चरने से पहले सोचा है आपने? कभी आप और आपके सहचर-अनुचर बंधुओं ने सोचा है कि इस देश को आप सबने चरखा से चर-खा तक पहुंचा दिया है!’ वे बोले, ‘चरने के लिए क्या सोचना! चरो! कचर-कचर! पचर-पचर! जो लचर होते है, वे ही चर नहीं पाते, उनके घर में फर्नीचर तक नहीं होता और वे ही तुम्हारे चरखे वाले देश में फटीचर कहलाते हैं.’ मुझे लगा कि ‘चर’ को लेकर मैं जीत नहीं पाऊंगा. मुझे ‘चर’ छोड़कर ‘खाना’ पर भी आना होगा.

‘आप सब कुछ खाते है!’ मैं उन्हें बाड़े में लाने के लिए कुछ नए सवाल सोचने लगा. वे बोले, ‘अबोध हो. भारतीय राजनीति का इतिहास देखो. अगर इतिहास नहीं तो वर्तमान देखो. सारे प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे.’
‘आपकी भूख असीमित क्यों है? जीने के लिए खाइए न! मगर आप इतना खाते हैं कि विदेशी बैंकों तक में आपके खाते हैं!’ ‘देखो मंगलग्रह के प्राणी! आमजन जीने के लिए खाता है, मगर हम जीतने के लिए खाते हैं. हमें चुनाव जीतना होता है इसलिए जो मिल जाता है, खाते हैं. बिना खाए, बिना खिलाए चुनाव नहीं जीते जाते. हमारा खाना प्राकृतिक है… वोट मांगा तो कसमें खाईं, जब भाषण दिया, तो भेजा खाया, कुर्सी मिली तो शपथ खाई, कुर्सी पर बैठे तो घूस खाई, कुर्सी से उतरे तो फिर सिर खाने आ गए…

तुम बस यह समझ लो कि हमारा खाने से रिश्ता कुछ ऐसा है जैसे कि सरकारी विभाग का एप्लीकेशन से और चापलूसी का प्रमोशन से.’ मैं मुंह की खा चुका था. अब उनसे शास्त्रार्थ करने की शक्ति शेष नहीं थी. मैंने अपनी बची-खुची शक्तियों को समेटा और पूछा, ‘भगवान के लिए आप यह बताइए, आप क्या नहीं खाते?’ ‘तरस’, यह कहकर वे पान चबाते आगे बढ़ लिए और मैं अपने साथ-साथ भारतीय वोटरों पर तरस खाने लगा.

-अनूप मणि त्रिपाठी

गोडसेवादी गांधी

पीलीभीत शहर एक दौर में ‘बांसुरी नगरी’ के नाम से भी जाना जाता था. एक अनुमान के अनुसार देश में बनने वाली कुल बांसुरियों का लगभग 95 प्रतिशत निर्माण इसी शहर में हुआ करता था. इस उपलब्धि के बावजूद पीलीभीत को कभी राष्ट्रीय स्तर पर कोई खास पहचान नहीं मिली. रोनू मजूमदार और पंडित हरि प्रसाद चौरसिया जैसे दिग्गज भी पीलीभीत की बनी बांसुरी बजाते रहे लेकिन इस शहर का नाम हमेशा गुमनाम ही रहा. यह शहर चर्चा में तब आया जब 2009 में वरुण गांधी यहां से चुनाव लड़ने पहुंचे. भड़काऊ भाषण देकर उन्होंने यहां नफरत की ऐसी बांसुरी बजाई कि उसकी बेसुरी गूंज ने एक ही दिन में पीलीभीत को देश भर में चर्चा का केंद्र बना दिया.

2009 के लोकसभा चुनाव में वरुण गांधी ने अपने भाषणों से पीलीभीत के पूरे माहौल को सांप्रदायिक रंग दे दिया था. इस सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में उनकी पार्टी भाजपा ने भी अपना हरसंभव समर्थन दिया था. भड़काऊ भाषणों के आरोप में वरुण गांधी पर दो मुकदमे दर्ज किए गए थे. इन मुकदमों के चलते वरुण 28 मार्च, 2009 को पीलीभीत कोर्ट में आत्मसमर्पण करने पहुंचे. उस दिन सुबह से ही पीलीभीत कोर्ट के बाहर लोग हाथों में भगवा झंडे और त्रिशूल लिए पहुंचने लगे थे. वरुण गांधी के कोर्ट पहुंचने तक यहां हजारों लोग इक्ट्ठा हो गए. भाजपा के स्टार प्रचारक और 2009  में प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी की उस दिन उत्तर प्रदेश में दो-दो जनसभाएं थीं. इसके बावजूद भाजपा के उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रभारी कलराज मिश्र, आडवाणी की सभाओं में जाने के बजाय वरुण गांधी के साथ पीलीभीत पहुंचे. आत्मसमर्पण के दौरान वरुण गांधी के समर्थक हिंसा पर उतर आए. कई गाडि़यों को तोड़ दिया गया, भवनों की दीवारें गिरा दी गईं और ईंट-पत्थरों की ऐसी बरसात हुई कि कई पुलिसकर्मी एवं अन्य लोग घायल हो गए.

राजनीतिक फायदे के लिए आत्मसमर्पण का यह खेल कैसे सुनियोजित तरीके से खेला गया था इसका जिक्र हम ‘हत्याग्रही गांधी!’ में भी कर चुके हैं. स्वयं पीलीभीत के भाजपा उपाध्यक्ष और वरुण गांधी के बेहद करीबी परमेश्वरी गंगवार ने तहलका के स्टिंग में बताया था कि वरुण के आत्मसमर्पण वाले दिन उन्हें ज्यादा से ज्यादा भीड़ जुटाने के आदेश दिए गए थे. इसके अलावा कोर्ट द्वारा उन्हें गिरफ्तार करने से इनकार करने पर एक हलफनामा दायर करके वरुण ने अपनी गिरफ्तारी सुनिश्चित कराई ताकि इससे उपजी सहानुभूति और भड़की भावनाओं का वे आगामी चुनाव में फायदा उठा सकें. आत्मसमर्पण के दिन हुए उपद्रव के आरोप में वरुण गांधी पर कई गंभीर आपराधिक धाराओं के अंतर्गत एक और मुकदमा दर्ज किया गया था.

भड़काऊ भाषण के दोनों मुकदमों की तरह वरुण गांधी बीती तीन मई को आत्मसमर्पण वाले मामले में भी बरी हो गए. हमने पिछले अंक में उन तमाम बातों का खुलासा किया था जिनके चलते वरुण गांधी को पीलीभीत के बरखेड़ा कस्बे और डालचंद मोहल्ले में दिए भड़काऊ भाषण के आरोपों से मुक्त कर दिया गया. तहलका की तहकीकात में सामने आया था कि कैसे पुलिस ने इन मामलों में जांच के नाम पर कुछ भी वैसा नहीं किया जैसा होना चाहिए था, कैसे गवाहों को पैसों के दम पर या डरा-धमका कर पक्षद्रोही बना दिया गया, कैसे अभियोजन पक्ष ने ही वरुण को बचाने के लिए हर मर्यादा का उल्लंघन किया, कैसे उत्तर प्रदेश के एक मंत्री को गवाहों के बयान बदलवाने का जिम्मा सौंपा गया, कैसे न्यायपालिका में न्याय का मखौल उड़ाया गया और कैसे एक प्रकार से पीलीभीत जिले का समूचा प्रशासन ही वरुण को बचाने में लगा रहा. इन सबके चलते भड़काऊ भाषण के मुकदमों के सारे गवाह अपने बयानों से मुकर गए.

आत्मसमर्पण के दिन हुए उपद्रव वाले मामले का फैसला आने तक हमारी पिछले अंक की रिपोर्ट लिखी जा चुकी थी. बाद में तहलका को मिले अदालती दस्तावेज बताते हैं कि इस मामले में भी बाकी दोनों मामलों की तरह ही पैतरे अपनाकर वरुण को दोषमुक्त किया गया. बल्कि इस बार तो गड़बड़ियों का स्तर और भी ऊंचा नजर आता है. वरुण गांधी के खिलाफ सबसे ज्यादा गवाह – 39 – इसी मामले में थे और सभी कोर्ट में अपने बयानों से पलट गए. संबंधित दस्तावेजों से यह साफ हो जाता है कि कैसे इस केस के दौरान भी पीलीभीत में कानून का तराजू एकतरफा वरुण की तरफ झुका हुआ था.

28 मार्च, 2009 को दर्ज हुए इस मामले में वरुण गांधी सहित कुल 13 लोगों को आरोपित बनाया गया था. लेकिन आश्चर्य की बात है कि वरुण का मामला बाकी आरोपितों से अलग करके सिर्फ उन्हीं को दोषमुक्त किया गया है. अन्य आरोपितों पर अभी मुकदमा चलाया जाना है. कानून के जानकार बताते हैं कि ऐसा सिर्फ तभी किया जाता है जब अन्य आरोपित फरार हों और कई प्रयत्नों के बाद भी कोर्ट में उपस्थित न हो रहे हों. सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता कामिनी जायसवाल बताती हैं, ‘यदि अन्य आरोपित कोर्ट में पेश न हो रहे हों तो उनके खिलाफ वारंट जारी किए जाते हैं. तब भी यदि आरोपित फरार रहें तो उनकी कुर्की के आदेश दिए जा सकते हैं या फिर उनके जमानतियों को भी नोटिस जारी किए जा सकते हैं. इसके बावजूद जब आरोपित कोर्ट में न आएं तब ही उनके मुकदमे को अन्य आरोपितों से अलग किया जाता है.’

मगर वरुण की दोषमुक्ति के इस तीसरे मामले में कोई भी आरोपित फरार नहीं था. इन 13 आरोपितों में से अधिकतर पीलीभीत के ही रहने वाले हैं और स्थानीय लोगों के अनुसार ये सभी आरोपित वरुण के साथ ही कोर्ट में भी उपस्थित रहते थे. इसलिए वरुण गांधी का मामला अन्य आरोपितों से अलग करने का कोई भी वाजिब कारण नहीं था. लेकिन वरुण गांधी ने कोर्ट में एक प्रार्थना पत्र दाखिल करके अपना मुकदमा अलग किए जाने की प्रार्थना की. इस प्रार्थना पत्र को स्वीकार करते हुए पीलीभीत के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट अब्दुल कय्यूम ने वरुण का केस अलग करके इसी साल फरवरी में सत्र न्यायाधीश के पास भेज दिया. वरुण को जिन अन्य दो मामलों में पहले ही बरी किया जा चुका था उन पर फैसला देने वाले जज भी अब्दुल कय्यूम ही थे. उन्होंने इस मामले को सत्र अदालत में इसलिए भेजा कि आम तौर पर सात साल से ज्यादा की सजा वाले मामलों का ट्रायल वहीं होता है.