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दिखावे का बैर!

Mulayam_Singh

उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा प्रभाव रखने वाली समाजवादी पार्टी खुद को धर्मनिरपेक्ष और अल्पसंख्यकों का सबसे बड़ा हितैषी बताती है. एक समय यहां सबसे ज्यादा प्रभाव रखने वाली भारतीय जनता पार्टी को सपा धुर-सांप्रदायिक और अल्पसंख्यकों के साथ पूर्वाग्रह रखने वाली पार्टी मानती है. तहलका की खोजबीन में इस तरह के तमाम उदाहरण सामने आते हैं जो बताते हैं कि ये दोनों पार्टियां प्रदेश में कई स्तरों पर जैसे भी संभव हो एक-दूसरे का सहयोग करने को तैयार रहती हैं. यह सहयोग पार्टी की घोषित मूल विचारधारा के साथ समझौता करके भी किया जा सकता है. इस मिलीभगत का एक उदाहरण तहलका की हालिया तहकीकात में भी दिखा था. तहलका ने पिछले माह खुलासा किया था कि कैसे सपा ने भाजपा महासचिव वरुण गांधी को 2009 के लोकसभा चुनाव में दिए गए उनके भड़काऊ भाषण से संबंधित मामलों में बरी करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. खुद समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने बयान देकर वरुण गांधी पर दर्ज तीनों मामले वापस लेने की बात कही थी.

हालांकि ऐसा हो नहीं सका क्योंकि जिन मुसलमानों के हित की राजनीति वे करते हैं उन्हें ही यह बात रास नहीं आई. इसके बाद उनकी पार्टी के एक नेता और उत्तर प्रदेश सरकार में खादी एवं ग्रामोद्योग मंत्री रियाज अहमद इस काम में लग गए. तहलका की तहकीकात में कुछ महत्वपूर्ण लोगों ने बताया कि रियाज अहमद ने वरुण गांधी के खिलाफ गवाही देने वाले मुसलिम गवाहों को मुकरने के लिए तैयार किया. ऐसा नहीं है कि सिर्फ सपा ही वरुण का साथ दे रही थी. 2012 के विधानसभा चुनावों के दौरान वरुण गांधी ने भी पीलीभीत से अपनी ही पार्टी के उम्मीदवार सतपाल गंगवार को हराकर सपा के इन्हीं उम्मीदवार रियाज अहमद को जिताने के निर्देश दिए थे. इसकी पुष्टि करते ऑडियो टेप तहलका ने जारी किए थे. भड़काऊ भाषण से संबंधित मामलों में वरुण गांधी की रिहाई हो गई. सरकार इस मामले में वादी थी, मामला मुसलमानों के खिलाफ घृणा फैलाने का था. इसके बावजूद खुद को मुसलमानों की हितैषी कहने वाली सपा सरकार ने आखिरी तारीख बीत जाने दी और ऊपरी अदालत में अपील नहीं की. तहलका की रिपोर्ट के बाद मचे शोर के दबाव में सरकार ने अब सेशन कोर्ट में अपील दायर की है. जीवविज्ञान का एक शब्द है सहजीवन. भिन्न-भिन्न जीव-जंतु या पेड़-पौधे अपनी जरूरतों के लिए एक दूसरे पर निर्भर रहते हैं. सपा-भाजपा की आपसी निर्भरता इसी सहजीवन का आदर्श उदाहरण है. वरुण गांधी रिहाई का मामला इसे साबित करती अकेली कहानी नहीं है. तहलका की खोजबीन में इस तरह के तमाम उदाहरण सामने आए.

मोदी और राजगणित

भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अपनी चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बना दिया है. यानी वे 2014 में होने वाले 16वें आम चुनाव में भारत की मुख्य विपक्षी पार्टी की कमान संभालेंगे. अक्टूबर, 2001 में मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री बनने से पहले शायद ही किसी ने सोचा होगा कि मोदी एक दिन इतने बड़े हो जाएंगे कि उन्हें देश की सबसे बड़ी गद्दी के दावेदार के तौर पर देखा जाएगा. तब तक वे भाजपा के उन नेताओं में हुआ करते थे जो परदे के पीछे रहकर अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं.

इसमें कोई शक नहीं कि यह एक दुर्लभ विशेषाधिकार है जो पार्टी के 33 साल के इतिहास में सिर्फ दो लोगों को मिला है. पहले अटल बिहारी वाजपेयी जो इस दावेदारी के बाद प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने में सफल भी हुए और दूसरे लाल कृष्ण आडवाणी, जो उपप्रधानमंत्री रहे और 2009 के आम चुनावों में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बने. 33 साल की इस अवधि में भाजपा के कई अध्यक्ष हुए, लेकिन इनमें सिर्फ वाजपेयी और आडवाणी थे जिन्हें प्रधानमंत्री पद के योग्य समझा गया. मोदी इस सूची में तीसरा नाम बन गए हैं. आम चुनाव में अब एक साल से भी कम का वक्त बचा है. इस लिहाज से देखें तो जीत के लिए टीम और रणनीति बनाने या 2002 के गुजरात दंगों के चलते बनी विभाजनकारी नेता की अपनी छवि बदलने के लिए उनके पास ज्यादा समय नहीं है.

पिछले आम चुनाव में आडवाणी के नेतृत्व के साथ मैदान में उतरी भाजपा को पराजय मिली थी. सवाल उठता है कि क्या मोदी पार्टी को विजय दिला पाएंगे. क्या वे उन मोर्चों पर सफल हो पाएंगे जहां आडवाणी नाकामयाब रहे थे? क्या 2009 के आडवाणी के मुकाबले वोटरों में मोदी का ज्यादा आकर्षण है? क्या भाजपा के मौजूदा या संभावित सहयोगी प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी को स्वीकार कर पाएंगे? मोदी के समर्थकों और विरोधियों, दोनों में उनकी मुस्लिमविरोधी छवि है. इसके चलते गठबंधन सहयोगी जनता दल यूनाइटेड के साथ भाजपा की तनातनी हुई. मोदी उन कुछ राजनेताओं में से हैं जिन्हें भारत की बहुलतावादी राजनीति के लिए खतरे के तौर पर देखा जाता है. क्या उनकी मुस्लिम विरोधी छवि भारत की 80 फीसदी हिंदू जनसंख्या में भाजपा के समर्थन का तूफान पैदा कर सकेगी? या फिर इसके चलते भाजपा को एक बार फिर पराजय का सामना करना पड़ेगा?

मोदी की एक दूसरी छवि भी है. एक ऐसे नेता की छवि जिसने तेज आर्थिक विकास के बूते अपने राज्य में खुशहाली पैदी की. वे अपनी इस उपलब्धि का जिक्र जमकर करते भी हैं. सवाल उठता है कि गुजरात में सुशासन का मोदी का दावा क्या भारत के 80 करोड़ वोटरों का उतना हिस्सा अपनी तरफ खींच पाएगा जिसके बल पर उनकी पार्टी की सरकार बन सके. 2004 में भाजपा ने भारत उदय और इंडिया शाइनिंग के नारों के साथ ऐसा ही दावा किया था जिसका लोगों पर इतना असर नहीं हो पाया कि भाजपा सत्ता में वापसी कर पाती. और आखिरी सवाल यह है कि विधानसभा चुनाव में लगातार तीन बार जीत क्या संसदीय चुनाव में पहली बार विजय पताका फहराने की उनकी कोशिश में उनके काम आएगी.

राज्यों में भाजपा का हाल
2009 के मुकाबले इस वक्त भाजपा की हालत पतली है. इसका मतलब यह हुआ कि मोदी की राह 2009 के आडवाणी से कहीं ज्यादा मुश्किल है. आडवाणी उस समय तुलनात्मक रूप से फायदे की स्थिति में थे. पांच साल पहले भाजपा के पास सात राज्यों की सत्ता थी. आज उसके पास सिर्फ चार राज्य हैं- मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़ और गोवा. इसमें राजनीतिक प्रासंगिकता के हिसाब से गोवा न के बराबर है. बिहार में वह जदयू के साथ गठबंधन के सहारे सत्ता में है. 2005 से यह गठबंधन वहां अटूट रहा है. 2009 में बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से भाजपा ने 12 जीती थीं और 1999 में अपने सबसे बढ़िया प्रदर्शन की बराबरी की थी. 2010 के विधानसभा चुनाव में भी इसने बढ़िया प्रदर्शन किया. लेकिन आज भाजपा-जदयू गठबंधन टूट के कगार पर है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को चिंता है कि मोदी के साथ दिखने से बिहार के 17 फीसदी मुस्लिम मतदाता उनसे दूर जा सकते हैं. पड़ोसी राज्य झारखंड में अवसरवादी राजनीति के चलते इस साल जनवरी में ही भाजपा ने सरकार गंवाई है. राज्य में अब राष्ट्रपति शासन है. पिछले साल उत्तराखंड और हिमाचल में हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी सत्ता से बाहर हुई है.

जनसंख्या और राजनीतिक असर के हिसाब से देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश में भी पार्टी का हाल बुरा है. पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी 403 में से सिर्फ 48 सीटें जीत पाई थी और तीसरे स्थान पर रही थी. उसका यह प्रदर्शन 2007 के मुकाबले तो खराब ही था जब उसने 51 सीटें जीती थीं 2002 की तुलना में तो यह कोसों दूर था जब उसने 88 सीटों पर विजय हासिल की थी. यह दिखाता है कि भाजपा 2002 से राज्य की सत्ता में रही सपा और बसपा सरकारों की असफलताओं का फायदा उठाने में नाकामयाब रही है. उसके लिए चिंता की बात यह भी है कि 2007 के मुकाबले 2012 में जहां सपा और कांग्रेस का वोट प्रतिशत बढ़ा वहीं भाजपा का वोट प्रतिशत 17 फीसदी के मुकाबले 15 फीसदी रह गया. वैसे देखा जाए तो उत्तर प्रदेश में पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से पार्टी का लगातार पतन हुआ है. 1996 से अब तक हुए चार विधानसभा चुनावों में उसकी सीटों की संख्या और वोट प्रतिशत दोनों में गिरावट आई है. 1996 में पार्टी ने 32.5 फीसदी वोटों के साथ 425 में से 174 सीटें जीती थीं.

महाराष्ट्र का हाल भी कुछ ऐसा ही है. 1999 से अब तक हुए तीन विधानसभा चुनावों में वहां भाजपा-शिवसेना गठबंधन हर बार हारा है. सीट संख्या और वोट प्रतिशत दोनों लिहाज से भाजपा का प्रदर्शन लगातार गिरा है. यानी जनसंख्या के मामले में इस दूसरे सबसे बड़े राज्य में भी वह अपने सबसे बुरे दौर में है. उड़ीसा में जब बीजू जनता दल नेता और राज्य के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने 2009 में इससे गठबंधन तोड़ा तो इसकी नैया ही डूब गई थी. भाजपा को कुछ राहत पिछले साल पंजाब में मिली जहां शिरोमणि अकाली दल के साथ इसके गठबंधन ने विधानसभा चुनाव में अपनी सत्ता कायम रखी थी. बड़े लाभ की उम्मीद भाजपा को सिर्फ राजस्थान में है जहां वह नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनावों में सत्ता विरोधी लहर के सहारे सत्तासीन कांग्रेस को हराने के सपने देख रही है.

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पार्टी ने 2003 से लगातार दो बार सरकार बनाई है. यहां भी विधानसभा चुनाव छह महीने दूर हैं. हालांकि वहां की भाजपा सरकारें खुद को लोकप्रिय बता रही हैं, लेकिन कांग्रेस को उम्मीद है कि दस साल से सत्ता में बैठी इन सरकारों के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर बनेगी और वहां वह वापसी करेगी. अगर भाजपा ने इन दो में से एक भी राज्य गंवा दिया तो वोटरों और पार्टी दोनों में मोदी की अपील बुरी तरह घट सकती है.

लोकसभा में भाजपा
केंद्र में भाजपा की पहली सरकार सिर्फ 13 दिन चली थी. 1996 में तब उसे बहुमत के आंकड़े यानी 272 सीटों तक पहुंचने के लिए पर्याप्त दलों का समर्थन नहीं मिल पाया था. 1998 में बनी पार्टी की दूसरी सरकार 13 महीने चली. 1999 में बनी इसकी तीसरी सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया. 1998 में भाजपा ने 182 सीटें जीती थीं. 1999 में यह आंकड़ा 183 हुआ. दोनों बार दूसरे दलों के समर्थन से उसकी सरकार बनी.
माना जा सकता है कि अगर भाजपा अगले आम चुनाव में 185 सीटों के आस-पास पहुंच जाती है तो वह केंद्र में सरकार बनाने की दावेदार होगी. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए मोदी के रास्ते में जो अड़चनें हैं वे उन अड़चनों से कहीं बड़ी हैं जो 2009 में आडवाणी के सामने थीं. 2009 में जब भाजपा आडवाणी के नेतृत्व में मैदान में उतरी थी तो उसके खाते में 2004 के आम चुनावों में मिली 137 लोकसभा सीटों की पूंजी थी. यानी पार्टी को करीब 45 सीटों की खाई पाटनी थी. अभी भाजपा के पास 116 लोकसभा सीटें हैं. यानी मोदी को दूसरी पार्टियों से 70 के करीब सीटें छीननी होंगी. जिस तरह से 2009 के बाद हुए विधानसभा चुनावों और लोकसभा उपचुनावों में भाजपा का प्रदर्शन गिरा है, उसे देखते हुए उनके सामने बहुत बड़ी चुनौती है. खासकर तब तो बहुत ही बड़ी अगर पिछली बार की तरह इस बार भी भाजपा 543 में से 365 लोकसभा सीटों पर लड़ी और बाकी सीटें उसे गठबंधन सहयोगियों के लिए छोड़नी पड़ीं.

उत्तर प्रदेश
अपनी पार्टी को सत्ता में लाने और खुद प्रधानमंत्री बनने का जो सपना मोदी देख रहे हैं वह तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक वे उत्तर प्रदेश में पार्टी की किस्मत नहीं बदल देते. उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें हैं जो किसी भी राज्य की तुलना में सबसे ज्यादा हैं. इनमें से सिर्फ नौ ही आज भाजपा के पास हैं. 1996, 1998 और 1999 के तीन लोकसभा चुनावों में भाजपा लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में आई थी. इन चुनावों में उसने क्रमश: 52, 59 और 29 सीटें जीती थीं. 2004 में जब वाजपेयी सरकार सत्ता से बाहर हुई तब भाजपा सिर्फ 10सीटें जीत पाई थी.

यह रिकॉर्ड इशारा करता है कि दिल्ली की सत्ता में वापसी करने के लिए भाजपा को उत्तर प्रदेश में कम से कम 25 सीटें तो जीतनी ही होंगी. यानी मौजूदा सीटों से 16 सीट ज्यादा. अगले साल 25 सीटें जीतना भाजपा के लिए 1999 की स्थिति की तुलना में कहीं ज्यादा मुश्किल है. 1999 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने कुल 30 प्रतिशत वोट हासिल करके 25 सीटें जीती थीं. दरअसल 1991 से 1999 का दौर उत्तर प्रदेश में भाजपा का स्वर्णिम दौर रहा था. इस दौरान हुए चारों लोकसभा चुनावों में पार्टी ने 30 प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल किए. 1998 में तो यह आंकड़ा 37.5 प्रतिशत तक भी पहुंचा. लेकिन 2004 में यह घटकर 22 प्रतिशत पर आ गया और 2009 में तो पार्टी को कुल 17.5 प्रतिशत वोट ही हासिल हुए. कोढ़ में खाज यह कि 14 साल में सपा और बसपा जैसे क्षेत्रीय दल उत्तर प्रदेश में मजबूत ही हुए हैं. 90 के दशक में हुए विधानसभा और लोकसभा चुनावों में भाजपा का वोट प्रतिशत या तो सबसे ज्यादा होता था या फिर वह इस मामले में दूसरे स्थान पर रहती थी. लेकिन अब स्थिति ऐसी नहीं है. अपवाद के रूप में 2009 के लोकसभा चुनाव को छोड़ दें जब कांग्रेस ने बसपा से एक ज्यादा यानी 21 सीटें हासिल की थीं, तो वोट प्रतिशत का सबसे बड़ा हिस्सा अब सपा और बसपा में बंटता है.

आखिरी उतार

Untitled_1_436756225कार्ल मार्क्स का एक चर्चित कथन है कि इतिहास खुद को दुहराता है, पहले यह त्रासदी के रूप में घटित होता है और बाद में तमाशे में तब्दील हो जाता है. यह कथन राजनीतिक आकलनों में न जाने कितनी बार इस्तेमाल हो चुका है. फिर भी पिछले हफ्ते भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने जो छोटा-सा विद्रोह किया उसका आकलन करते हुए इस कथन के इस्तेमाल से खुद को रोक पाना मुश्किल है. विद्रोह की इस कहानी का पटाक्षेप नायक की हार के रूप में हुआ. नरेंद्र मोदी को 2014 के चुनाव अभियान का चेहरा घोषित किए जाने के विरोध में आडवाणी ने पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया था. लेकिन पार्टी की तीखी प्रतिक्रिया के बाद 24 घंटे के भीतर उन्होंने चुपचाप अपना इस्तीफा वापस ले लिया. आडवाणी की इस आखिरी कोशिश ने सिर्फ एक बात स्थापित की कि वे भाजपा के लिए कितने महत्वहीन हो चुके हैं.

आडवाणी की हैसियत में आई इस गिरावट और इस सदी की शुरुआत तक संघ में रहे उनके प्रभाव का इतना क्षरण समझने के लिए जरूरी है कि हम उस घटना की तरफ लौटें जब उन्होंने पहली बार पार्टी से अपनी नाराजगी सार्वजनिक रूप से जाहिर की थी. यह 2005 के जिन्ना प्रकरण की बात है. जो 2005 में हुआ और जो 2013 में हुआ, उसका अंतर इन सालों के दौरान भाजपा की अंदरूनी राजनीति और सत्ता समीकरण में आए बदलाव की कहानी खुद-ब-खुद बयान करता है.

2005 में आडवाणी पाकिस्तान की यात्रा पर गए थे. वहां उन्होंने पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना को धर्म निरपेक्षता का प्रमाणपत्र दे दिया. जिन्ना की प्रशंसा के जरिए वे एक राजनेता के रूप में अपनी छवि बदलना चाह रहे थे. उनकी कोशिश थी कि कट्टरवादी के बजाय वे एक उदारवादी नेता के रूप में दिखें जिससे मुसलमान वोटर भी उनके करीब आएं.

लेकिन यह उनके लिए बड़ी गलती साबित हुई. भाजपा के भीतर इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई. आडवाणी के एक सहयोगी ने पाकिस्तान से उनका जिन्ना वाला बयान पार्टी की मीडिया सेल को फैक्स करके उसे जारी करने को कहा था. उस समय पार्टी कार्यालय में मौजूद प्रवक्ता ने फैक्स की प्रतियां सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और प्रमोद महाजन को भेज दीं. तीनों आडवाणी के शिष्य थे. तीनों ने इस बयान को यह कहकर खारिज कर दिया कि इसे पार्टी के आधिकारिक बयान के रूप में जारी नहीं किया जा सकता. इसके बाद तूफान खड़ा हो गया. पार्टी, कैडर, कार्यकर्ता से लेकर संघ तक कोई भी आडवाणी के साथ नहीं था.

ताव खाए आडवाणी ने पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया. पार्टी की दूसरी पीढ़ी के नेताओं के लिए यह परीक्षा की घड़ी थी. उन्हें अपने उस गुरु के साथ असहमत होने के लिए मजबूर होना पड़ रहा था जिसने उन्हें राजनीति का ककहरा सिखाया था. फिर भी उन्होंने कई तरीकों से गुरु का बचाव करने की कोशिश की. इसकी कई वजहें थीं और इनमें सबसे बड़ी थी आडवाणी के प्रति उनका आदर भाव. वे चाहते थे कि बात संभल जाए और आडवाणी के खिलाफ कोई निर्णायक कदम न उठाया जाए . कुछ समय तक उन्हें पार्टी अध्यक्ष पद पर बने रहने के लिए संघ को मना लिया गया. जिन्ना प्रकरण पर आडवाणी की हर आलोचना को उनकी व्यापक भूमिका की दुहाई देकर और एक अपवाद बताकर दबा दिया गया.

आडवाणी इस मामले में भी भाग्यशाली रहे कि उन्हें मीडिया के एक हिस्से का साथ मिल गया. उसने यह मान लिया कि जिन्ना की तारीफ आडवाणी की एक ईमानदार कोशिश है और वे संघ के साथ दो-दो हाथ करने को तैयार हैं. भारत में दक्षिणपंथ को एक नई दिशा देने के लिए उनकी जमकर तारीफ हुई. इंडिया टुडे पत्रिका ने उन्हें ‘न्यूजमेकर ऑफ द ईयर’ का खिताब दिया और इन शब्दों में उनकी प्रशंसा की, ‘एक हिंदू राष्ट्रवादी जिसने शत्रु की प्रशंसा की हिम्मत की.’

लेकिन इस विवाद ने अंतत: आडवाणी के प्रभाव और उनकी राजनीतिक हैसियत दोनों को खत्म कर दिया था. फिर भी चूंकि पार्टी की दूसरी पांत के नेता उनके साथ कोई निर्णायक लड़ाई नहीं लड़ना चाहते थे इसलिए आडवाणी का इतना रसूख बना रहा कि इसके बूते वे वापसी कर सकें. ऐसा हुआ भी. धीरे-धीरे उन्होंने पार्टी में पुरानी धमक हासिल कर ली, यहां तक कि उन्होंने संघ को भी फिर साध लिया. इस प्रक्रिया में उन्होंने दूसरी पांत के नेताओं के मन में अपने प्रति आदर भाव को जितना हो सकता था, भुनाया. पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारी जानते थे कि आडवाणी सबसे अच्छे विकल्प नहीं हैं क्योंकि उनका सर्वश्रेष्ठ दौर बीत चुका है. लेकिन 2009 में उन्हें कमान देकर उन्होंने अपनी गुरुदक्षिणा चुकाई.

बीते पखवाड़े भी आडवाणी ने 2009 की यही रणनीति दोहराने की कोशिश की. मोदी के मनोनयन पर अपने विरोध को उन्होंने भाजपा में संघ की दखलअंदाजी से अपनी सैद्धांतिक असहमति के चोले में ढकने की कोशिश की. मीडिया का एक हिस्सा इस काम में उनका हथियार बन गया. आडवाणी और उनके सलाहकारों ने चुनिंदा पत्रकारों और मीडिया हाउसों को यह खबर दी. आडवाणी परिवार के सबसे पुराने अंग्रेजीभाषी स्वयंसेवक हैं और दिल्ली में मीडिया से उनका बेहद पुराना और गहरा रिश्ता हैं. वे मानकर चल रहे थे कि उनके इस्तीफे पर मीडिया तूफान खड़ा कर देगा जिससे भाजपा और संघ बचाव की मुद्रा में आ जाएंगे. उनको विश्वास था कि एक बार फिर से अपनी चिर-परिचित इमोशनल अत्याचार वाली रणनीति के जरिए दूसरी पांत के अपने शिष्यों को वैसे ही मजबूर कर देंगे. यहीं वे चूक गए. मीडिया का शोर तो हुआ लेकिन यह खाली शोर ही था. इस बात से शायद ही किसी को इनकार होगा कि भाजपा के लिए मोदी एक दमदार चुनावी उम्मीदवार और तर्कसंगत विकल्प हैं.

इसके अलावा दूसरी पीढ़ी भी अब आडवाणी की नौटंकी वाली राजनीति से ऊब चुकी थी. उनके इस्तीफे के अगले दिन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह राजस्थान में पार्टी के एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए निकल गए. नरेंद्र मोदी भी तुरंत दिल्ली नहीं दौड़े बल्कि ट्वीट करके काम चला लिया. अरुण जेटली परिवार से मिलने के लिए विदेश रवाना हो गए. 2005 में जिन्ना विवाद के दौरान वे विदेश यात्रा बीच में रद्द करके वापस दौड़े थे. असल में जिस तरह से आडवाणी और उनके कुछ खास लोगों ने गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का बहिष्कार किया था उससे पार्टी के सब्र का बांध टूट चुका था. दूसरी पांत पर अपने अहसानों की कीमत वे 2005 वाले प्रकरण के बाद ही वसूल चुके थे.

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उनके एक प्रबंधक तो कुछ ज्यादा ही आगे चले गए जिससे हालात और खराब हुए. आडवाणी को मनाने में राजनाथ सिंह ने बेहद विनम्रता दिखाई थी लेकिन आडवाणी के एक करीबी किसी पत्रकार से कथित तौर पर यह कहते पाए गए कि ‘भाजपा अध्यक्ष उत्तर प्रदेश की ठाकुर राजनीति को भाजपा में घुसा रहे हैं’. इससे राजनाथ सिंह बेहद नाराज हो गए. इस नाराजगी ने राजनाथ और दूसरे नेताओं को गोवा में किए गए निर्णय पर दृढ़ रहने के लिए उकसाया और साथ ही इसके लिए भी कि कोई दूसरी चुनाव समिति नहीं बनेगी. इसके बाद आडवाणी समर्थक नेताओं का समूह, जो उनके अलगाव से अपना भविष्य खतरे में पा रहा था, भूल सुधार की कोशिश में लग गया. आडवाणी के घर से संघ प्रमुख मोहन भागवत को फोन किया गया और उनकी संघ प्रमुख से बात करवाई गई. इसने आडवाणी को शांति बहाली की घोषणा करने का बहाना दिया.

इस बीच भी मीडिया प्रबंधन जारी रहा. पहले खबर लीक हुई कि भागवत ने आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार तय करने का आश्वासन दिया है. जब इसका खंडन हुआ तब नई चर्चा छिड़ गई कि आडवाणी जदयू को एनडीए में बनाए रखने के लिए अहम हैं और उन्होंने एनडीए से अलग न होने के लिए नीतीश से अपील की है. जबकि देखा जाए तो हाल के सालों में आडवाणी बमुश्किल ही गठबंधन प्रबंधन का हिस्सा रहे हैं. बल्कि अगर उनकी चलती तो नीतीश कभी बिहार के मुख्यमंत्री नहीं बनते. 2005 में मुख्यमंत्री पद के लिए उनकी पहली पसंद शत्रुघ्न सिन्हा थे. मान-मनौव्वल के बाद आधे मन से वे नीतीश के नाम पर सहमत हुए थे.
भागवत से बातचीत के बाद आडवाणी के झंडा झुकाने से एक सवाल पैदा हुआ है- क्या यह भाजपा के रोजमर्रा के कामकाज में उसके नियंत्रण का सबूत है? यह सवाल बेहद जटिल है, इसका जवाब सीधे ‘हां’ या ‘ना’ में नहीं दिया जा सकता. संघ और भाजपा का रिश्ता बेहद घुमावदार और बहुपरतीय है. इसे आसानी से समझा नहीं जा सकता. कई मौकों पर संघ के  पदाधिकारी राजनीतिक मसलों पर पार्टी में हद से ज्यादा हस्तक्षेप करते हैं तो कई मामलों में भाजपा के नेताओं को पर्याप्त स्वायत्तता प्राप्त है.

यह सच है कि आडवाणी साल 2000 (जिन्ना प्रकरण से काफी पहले) से ही कह रहे थे कि व्यापक पहुंच वाली पार्टी के रूप में भाजपा संघ द्वारा बनाए गए अपने घोंसले के आकार से कहीं ज्यादा बड़ी हो चुकी है, उसे अब अपना सारा ध्यान सुशासन और नए लोगों को अपने साथ जोड़ने पर लगाना चाहिए. ज्यादातर लोग उनसे सहमत भी थे. पर आडवाणी के साथ समस्या यह थी कि वे इस दूरगामी विचार का अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के साथ घालमेल कर रहे थे.

यहां यह याद कर लेना भी महत्वपूर्ण है कि 2005 में आडवाणी को तत्काल पार्टी अध्यक्ष पद से हटाने का नरेंद्र मोदी ने विरोध किया था. उनकी चिंता थी कि इस तरह की प्रतिक्रिया से पार्टी में एक बड़ा खालीपन आ जाएगा जिसका फायदा संघ को होगा जो भाजपा नेताओं के लिए अच्छी स्थिति नहीं होगी. हालांकि आखिर में ऐसा ही हुआ. अध्यक्ष के रूप में राजनाथ सिंह का पहला कार्यकाल (2006-09) और उसके बाद नितिन गडकरी का दौर पूरी तरह से संघ की पकड़ को ही मजबूत करता रहा. हालांकि पिछले कुछ महीनों के दौरान हवा का रुख दूसरी तरफ पलटा है. दिसंबर, 2012 में मोदी की गुजरात में जीत और गडकरी को पार्टी अध्यक्ष का दूसरा कार्यकाल दिला पाने में भागवत की असफलता यह बताती है. फिर भी राजनाथ संघ की ही पसंद हैं और यह बताता है कि इसके भाजपा के मामलों में वीटो पावर होने की बजाय पार्टी के लिए सिर्फ एक महत्वपूर्ण हिस्सेदार के रूप में सीमित होने की ऐतिहासिक प्रक्रिया को अभी लंबा वक्त लगना है.

आडवाणी से गलती यह हुई कि उन्होंने भाजपा पर नियंत्रण रखने की संघ की कोशिशों को मोदी के उभार से जोड़ने की कोशिश की. उनके खेमे ने यह दिखाने की कोशिश की कि मोदी को भाजपा पर थोपा जा रहा है. यह हकीकत के उलट और मूर्खतापूर्ण बात थी. हकीकत यह है कि मोदी साफ तौर पर भाजपा कार्यकर्ताओं और पार्टी की राज्य इकाइयों के लिए सबसे पसंदीदा नेता और उम्मीदवार बन चुके थे. इस तरह से वे लोकप्रिय राजनीतिक पसंद हैं और इस फैसले में संघ की राय का महत्व न के बराबर है. आडवाणी ने इस यथार्थ को उलझाने और मोदी की लोकप्रियता को चुनौती देने की कोशिश की. इसके नतीजे में लोगों ने उनकी त्रासदी देखी और उनकी पार्टी का तमाशा.

एक और गुडि़या

पांच साल की खुशी अपने मम्मी और पापा के साथ; फोटो-विकास कुमार
पांच साल की खुशी अपने मम्मी और पापा के साथ; फोटो-विकास कुमार

दिसंबर, 2012 में हुए दिल्ली गैंग रेप के मुद्दे पर विरोध प्रदर्शन अभी थम ही रहे थे कि नए साल के चौथे ही महीने में दिल्ली में पांच साल की बच्ची के साथ हुए बलात्कार की बर्बरता ने पूरे देश को फिर से हिला दिया. जंतर-मंतर और इंडिया गेट पर सैकड़ों प्रदर्शनकारियों के महीनों तक चले प्रदर्शन और जस्टिस वर्मा कमेटी की रिपोर्ट में दर्ज सिफारिशों के आधार पर नए ‘आपराधिक संशोधन अधिनियम- 2013’ के पारित होने के बाद उम्मीद जगी थी कि बलात्कार के मामलों में दिल्ली पुलिस की कुख्यात संवेदनहीनता में कुछ सुधार तो होगा ही. लेकिन पांच साल की खुशी (बदला हुआ नाम) की यह कहानी एक तरफ जहां बलात्कार के मामलों में लगातार जारी दिल्ली पुलिस की आपराधिक लापरवाही और उदासीन रवैये को स्पष्ट करती है वहीं ‘महिलाओं के लिए सुरक्षित दिल्ली’ जैसे सरकारी दावों की पोल भी खोलती है.

हरियाणा बॉर्डर से सटा कापसहेड़ा दक्षिण-पश्चिमी दिल्ली के आखिरी छोर पर बसा अंतिम रिहायशी इलाका है. आलीशान बंगलों, बहु-मंजिला इमारतों और घने बाजारों वाले इस इलाके के सेक्टर 21 में बने अय्यप्पा मंदिर के पास इन बंगलों और इमारतों में काम करने वाले मजदूरों की एक बस्ती है. यहीं रहने वाले पप्पू कुमार को दिसंबर, 2012 के दिल्ली गैंग रेप और उसके बाद अप्रैल, 2013 में गुड़िया बलात्कार कांड का पूरा घटनाक्रम लगभग जबानी  याद है. अपनी पत्नी और छह बच्चों के साथ अपनी एक कमरे की खोली में बैठकर बात करते हुए वे हर दूसरी बात पर पूर्वी दिल्ली में हुए चर्चित गुड़िया बलात्कार कांड का जिक्र करते हुए कहते हैं, ‘मेरी खुशी भी तो गुड़िया की ही तरह सिर्फ पांच साल की ही है. लेकिन उसका केस मीडिया के सामने आ गया. हमें पुलिसवालों ने मीडियावालों से बात करने से सख्त मना कर दिया था. बस वाले मामले के साथ-साथ गुड़िया के मामले पर भी इतना हंगामा हुआ और सारे आरोपी तुरंत गिरफ्तार कर लिए गए. लेकिन मेरी बच्ची के साथ ऐसी घिनौनी हरकत करने वाले आजाद घूम रहे हैं. वह भी तब जब वह खुद उनके बारे में बता रही है.’

10 फरवरी, 2013 को पप्पू कुमार की पांच वर्षीया बेटी खुशी का बलात्कार हुआ था. अपराधियों ने खून से लथपथ और बेहोश खुशी को मरा हुआ समझ कर उसे कापसहेड़ा बॉर्डर के पास मौजूद सूर्या विहार के जंगलों में छोड़ दिया था. एक महीने के सघन इलाज और चौदह टांकों वाली सर्जरी के बाद अब खुशी घर तो वापस आ चुकी है, लेकिन खामोश है.  दुबली-पतली काया वाली करीब डेढ़ फुट की यह बच्ची अब अक्सर कमरे के किसी कोने में बैठकर एक दिशा में ताकती रहती है.

लेकिन खुशी की मां प्रीति बताती हैं कि वह हमेशा से ऐसी नहीं थी. तहलका से बातचीत में अपनी बेटी के साथ हुए आपराधिक घटनाक्रम को याद करते हुए वे कहती हैं, ‘मेरे पति तब स्कूल में चपरासी का काम करते थे और मैं पास की कोठियों में बर्तन धोने और खाना बनाने जाती थी. 10 फरवरी को भी रोज की ही तरह मैं शाम को सात बजे खाना बनाने गई. वापस आई तो खुशी घर पर नहीं थी. मैंने सोचा यहीं खेल रही होगी. मैं खाना बनाने लगी. खाना बनाकर मैंने रोज की तरह अपने सारे बच्चों को आवाज दी.  खुशी को छोड़कर सब आ गए. जब खुशी रात को आठ बजे तक नहीं लौटी तो हमने उसे ढूंढ़ना शुरू किया लेकिन वह कहीं नहीं मिली.’

प्रीति आगे बताती हैं कि पूरी रात बेटी को ढूंढ़ने के बाद उन्होंने कापसहेड़ा पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट लिखवाई. वहीं उन्हें पता चला कि खुशी सफदरजंग अस्पताल में भर्ती है. अस्पताल में पता चला कि उसकी सर्जरी होने वाली है. प्रीति याद करती हैं, ‘उसकी हालत बहुत खराब थी. पिछली रात वह पुलिसवालों को सूर्या विहार के पास से मिली थी. बाद में पूछने पर उसने बताया कि हमारे घर के पास रहने वाला सुनील उसे ले गया था. उसे सब साफ याद है. उसने पुलिसवालों के सामने भी बताया कि सुनील ने उससे कहा कि तेरी मां कोठी पे बुला रही है. फिर वह उसे समोसे खिलाने के बहाने बस्ती से बाहर ले गया. चार महीने हो गए, मेरी लड़की आज भी साफ-साफ बताती है कि सुनील अंकल उसे सूर्या विहार के जंगल ले गए थे. फिर वह सो गई थी. उन लोगों ने मेरी लड़की का बलात्कार किया और फिर उसे मरा समझ कर छोड़ गए थे. लेकिन मेरी लड़की न जाने कैसे हिम्मत करके कुछ घंटों बाद उठी और रोती हुई सड़क तक आ गई. इतनी सर्दी में उसके पूरे कपड़े उतार लिए थे. ऊपर सिर्फ एक हाफ स्वेटर पहने थी और नीचे दोनों पैरों से खून लगातार बह रहा था.

‘आलोचक बेपेंदी के लोटे की तरह होते हैं’

इन दिनों क्या लिखना-पढ़ना चल रहा है?
संस्मरण लिख रहा हूं. इसके पहले अपनी ही कहानी मृगतृष्णा की स्क्रिप्ट लिखने में व्यस्त था. उस पर टेलीफिल्म बनाई जा रही है.

आपकी रचनाओं का दूसरी भाषाओं में अनुवाद भी हो रहा है और अब आप हिंदी के चंद महंगे लेखकों में शामिल होने वाले हैं!
मेरी रचनाओं का अनुवाद तो पहले भी होता रहा है, अभी भी हो रहा है लेकिन मैं क्या महंगे लेखकों में शामिल होऊंगा. जर्मनी में जर्मन एकेडमी के जस्ट फिक्शन सीरिज में मेरे उपन्यास ‘नदी’ का अनुवाद ‘रिवर’ नाम से हुआ है. उसके एवज में करीब 25 हजार डॉलर की रॉयल्टी शायद मुझे मिलेगी. यह इतनी बड़ी राशि तो नहीं हुई कि मैं सबसे महंगा लेखक माना जाऊं.

कहानी और उपन्यास आपकी पहचान रहे हैं. संस्मरण लिखना अनायास शुरू किया आपने या यह ज्यादा महत्वपूर्ण विधा लगी?
सच कहूं तो इसकी प्रेरणा अपने युवा साहित्यकार मित्र अरुण नारायण से मिली. वैसे मुझे भी लगता रहा है कि किसी फनकार के जीवन में आवारापन बना रहना चाहिए. संस्मरण लिखना एक तरीके से आवारापन ही है. इससे आप यथास्थिति के खिलाफ खड़े होने की कोशिश करते हैं. अगर आप लेखन में ईमानदार हैं तो संस्मरण लिखने के लिए साहस चाहिए. लेखक को अपना आकलन करना चाहिए और संस्मरण लेखन एक तरीके से अपना आकलन करना भी है. इस विधा में आपको सब कुछ स्वीकार करना पड़ता है.

आप इंजीनियर रहे. बाद में कथाकार बने, उपन्यासकार हुए, ज्योतिष केंद्र भी चलाते रहे हैं और एक बड़ी पहचान एक साथ अनेक प्रेम करने वाले की भी रही. कौन-सी पहचान ज्यादा पसंद है?
पूरी दुनिया में सब कुछ खंडित हो रहा है तो एक पहचान के साथ क्यों रहा जाए? पहले कहानीकारों पर एक सामाजिक दायित्व व दबाव होता था, वह टूट गया. सबसे पहले गरीबी को अभिशाप माना गया, उसे हटाने का नारा चला, वह बीच में ही खंडित हो गया. समाजवाद का सपना दिखाया गया, वह सपना ही चोरी हो गया. धर्मनिरपेक्षता का सपना दिखाया जाता है, वह भी टूट चुका है. रही बात इंजीनियर और कथाकार बनने की तो मैं आपको एक बात बताता हूं. जब दस साल का था तो मेरी पहली कहानी अखबार में प्रकाशित हुई. इंजीनियरिंग की डिग्री मैंने ली तो इंजीनियर की नौकरी मैंने की और मुख्य अभियंता के पद तक पहुंचा लेकिन मैं ईमानदारी से कह रहा हूं, मैं कभी इंजीनियर था ही नहीं.

आपकी रचनाओं में सेक्सुअल फैंटेसी ज्यादा होती है, इसलिए कुछ लोग आपको सेक्स का लेखक भी कहते हैं.
अब लोगों का क्या? लोगों ने तो अपने स्तर से हरसंभव कोशिश की कि सेक्स को जहर देकर मार दिया जाए. सेक्स मरा तो नहीं लेकिन और जहरीला जरूर हो गया. इसलिए मैं अब ज्यादा लोगों की बातों पर ध्यान ही नहीं देता. हाल में मुझे फरोग-ए-उर्दू सम्मान मिला. नसीरुद्दीन शाह भी साथ में थे. मैं पटना लौटा तो फेसबुक पर मेरे खिलाफ एक अभियान चला. किसी ने ‘नगमा बानो’ नाम से फेक आईडी बनाकर लिखा कि शमोएल अहमद बेहद ही कमीना इंसान है, उसे कैसे इतना बड़ा सम्मान मिल गया. उस फेक आईडी ने लिखा कि उसके पति दुबई में रहते हैं, वह मेरे घर आया-जाया करता था. उसने मेरे साथ बदसलूकी की है, मेरा यौन शोषण किया है. इसके बाद तो मुझे गालियां ही गालियां दी जाती रहीं. मैं हैरत में था, मेरा ऐसी घटनाओं से कभी कोई वास्ता नहीं रहा लेकिन मैं बचाव की मुद्रा में नहीं आया. मैंने जवाब दिया- मोहतरमा, जो कह रही हैं, वह बिल्कुल सही है. सिर्फ हमारा संबंध ही नहीं बना है बल्कि उनके जो दो बच्चे हैं, उसमें एक मेरा है, यकीन न हो तो उस बच्चे का डीएनए टेस्ट करवा लिया जाए. इसके बाद वह अभियान बंद हुआ.

आप हिंदी और उर्दू, दोनों भाषाओं में लिखते हैं. सेक्स को लेकर ज्यादा वर्जनाएं किस भाषा में हैं?
उर्दू में तो सेक्स तरक्की पसंद विषय माना जाने लगा है. इसके लिए मैं मंटो का शुक्रगुजार हूं जिन्होंने अपने समय में ही इसे आजादी दिला दी थी. कुछ उसी तरह से जैसे अंग्रेजी में डीएच लॉरेंस ने. हिंदी में यह आजादी अब तक नहीं मिल सकी है, हालांकि तेजी से बदलाव हुए हैं. करीब तीन दशक पहले मैंने राजेंद्र यादव के पास ‘हंस’ में छापने के लिए अपनी कहानी ‘बगोले’ भेजी थी. उस कहानी में एक ब्वॉय हंटर अभिजात महिला की कहानी है, जो अपने जाल में मर्दों को फांसती है. एक रोज वह एक 17 साल के लड़के को फांसती है और अपने पास लड़के के आने के पहले तमाम तरह की कल्पनाओं में डूबी रहती है. सोचती है कि वह उस लड़के को धीरे-धीरे सभी तरीके बताएगी लेकिन जब वह किशोर आता है तो महिला को ही कायदे समझाने-सिखाने लगता है. महिला को सदमा लगता है, वह उसे भगा देती है. राजेंद्र यादव ने जवाब में लिखा कि शमोएल, कहानी को नहीं छाप सकता, पाठक नाराज हो जाएंगे. उसके बाद इंटरनेट युग आया तो मैंने इस पर कहानी लिखने की सोची. मैंने चैटिंग को जाना. इंटरनेट पर बिखरे कई सेक्स ग्रुप से जुड़ा और बाद में ‘सेक्सुअल चैटिंग’ पर एक कहानी ‘अनकबूत’ लिखी. मैं दावे के साथ कह रहा हूं कि अनकबूत में बगोले से ज्यादा सेक्सुअल फैंटेसी थी और तमाम तरह के वर्जित शब्द भी लेकिन राजेंद्र यादव ने उसे सहर्ष छापा और कहा भी कि मजेदार और बेजोड़ कहानी है. कहने का मतलब यह कि वक्त के बदलाव के साथ मन-मिजाज बदलता है.

हिंदीवाले अनुवाद में तो लॉरेंस की कृति  ‘लेडी चैटर्ली का प्रेमी’  ब्लादीमीर नाबाकोव की  ‘लोलिता’  पढ़ना चाहते हैं लेकिन कोई हिंदी लेखक ऐसा ही लिखे तो फिर हाय-तौबा क्यों?
दरअसल इसमें सबसे बड़ा पेंच तो आलोचक फंसाते हैं. दुर्भाग्य से हिंदी आलोचना में एक प्रेमचंदी घेरा बना हुआ है, उस घेरे से बाहर निकलने ही नहीं देना चाहते किसी को. हालांकि उदय प्रकाश, अखिलेश जैसे रचनाकारों ने उस घेरे को तोड़ा है. अब हिंदी के समाज को कौन समझाए कि अपने यहां जिन रचनाओं में हुस्न का बखान दिल खोलकर हुआ है उन्हें ही क्लासिकल माना जाता है. कुमार संभव, गीत गोविंद, अलिफ लैला आदि में क्या है. बेहद ही खूबसूरत तरीके से हुस्न का बखान.

आप आलोचकों को दोष दे रहे हैं. आपकी बातों से लगता है कि हिंदी साहित्य में आलोचक एक गैरजरूरी तत्व की तरह हैं.
बेशक. सच कहूं तो आलोचक बेपेंदी के लोटे होते हैं. आलोचक को माली की भूमिका में होना चाहिए लेकिन अधिकांश आलोचक लकड़हारे की भूमिका में रहना चाहते हैं. मेरे हिसाब से तो रचनाकारों को ही आलोचक भी होना चाहिए. अब बताइए कि राजेंद्र यादव कहानी की आलोचना करेंगे तो बेहतर होगा या नामवर सिंह कहानी की आलोचना करेंगे! वैसे मैं तो यही मानता हूं कि जिनकी रचनाओं में दम होता है, उन्हें आलोचक की दरकार नहीं.

भारत जैसे मुल्क में सबसे बड़ी समस्या रोटी की है लेकिन लेखक और कवि सबसे ज्यादा प्रेम के पीछे भागते हैं. आप जैसे लेखक प्रेम के साथ सेक्स के पीछे भी भागते हैं.
ऐसा नहीं है कि रोटी को महत्व नहीं मिला या नहीं मिल रहा. खूब लिखा गया है और लिखा भी जा रहा है लेकिन प्रेम की रचनाएं जल्दी लोकप्रिय हो जाती हैं. और वैसे भी प्रेम तो आत्मा की भूख है न, इस पर हमेशा ही लिखा जाता रहेगा. सेक्स के पीछे भागने का जो सवाल आप पूछ रहे हैं तो उसका जवाब यह है कि सेक्स तो प्रेम का एक जरिया भर होता है. शुरू में शरीर आता है, सेक्स आता है लेकिन प्रेम करने वाला बाद में उससे ऊपर उठ जाता है. जैसे अध्यात्म में आत्मा की परिकल्पना है लेकिन आत्मा को वास करने के लिए एक शरीर की जरूरत तो होती है न.

आपकी अपनी प्रिय रचना कौन-सी है और लेखकों में कौन पसंद हैं?
सिंगारदान. अपनी इस कहानी से मुझे बेपनाह मोहब्बत है. यह मेरे इलाके भागलपुर की कहानी है. भागलपुर दंगे के समय एक कैंप में मैं तवायफ से मिला था. दंगाइयों ने उसका सब कुछ लूट लिया था, इसका अफसोस नहीं था उसे, वह बार-बार मुझसे कह रही थी कि मेरा सिंगारदान भी ले गए सब. वह पीढ़ियों से मेरे पास था, मेरी पहचान था. मुझे तभी लगा था कि इस तवायफ की तरफ से मुझे भी एक विरोध दर्ज कराना चाहिए. विरासत को ही खत्म कर देने, पहचान पर ही प्रहार कर देने की जो परंपरा चली है, उसके खिलाफ. जहां तक पसंदीदा लेखकों की बात है तो हिंदी में उदय प्रकाश, अंग्रेजी में मिलान कुंदरा और उर्दू में इंतजार हुसैन मेरे प्रिय लेखक हैं.

ह्त्याग्रही गांधी!

फोटो- विजय पांडेय

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वरुण गांधी बीते दिनों दो कारणों से चर्चा में रहे. एक, उनके खिलाफ चल रहे भड़काऊ भाषण के मुकदमों में उन्हें बरी कर दिया गया और दूसरा उन्हें भाजपा का राष्ट्रीय महासचिव भी बना दिया गया. तहलका की इस रिपोर्ट में ऐसी तमाम सच्चाइयां सामने आई हैं जिनसे साफ होता है कि वरुण इन दोनों में से किसी के भी हकदार नहीं हैं. तहलका के खुफिया कैमरों और इन मामलों से जुड़े दस्तावेजों में कैद तथ्यों से साबित होता है कि वरुण ने असल में वे सारे अपराध किए थे जिनके आरोपों में उन पर मुकदमे चल रहे थे. इतना ही नहीं, इस पड़ताल से यह भी साफ होता है कि कैसे भड़काऊ भाषणों के इन आपराधिक मामलों को निपटाने के फेर में भी कई अपराध किए गए. तहलका की यह रिपोर्ट आपको यह भी बताएगी कि भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव बनाए गए वरुण गांधी क्यों इस पद के लायक नहीं हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि वे अपनी ही पार्टी के खिलाफ गतिविधियों में भी शामिल रहे हैं.

इस कहानी की शुरुआत साल 2009 से होती है. उस साल हुए लोकसभा के आम चुनावों ने गांधी परिवार के एक और सदस्य वरुण गांधी को राष्ट्रीय राजनीति के पटल पर ला खड़ा किया था. इससे पहले वरुण की पहचान सामान्य ज्ञान के उस प्रश्न से ज्यादा नहीं थी कि ‘इंदिरा गांधी के दूसरे पोते का नाम क्या है’? उनके चचेरे भाई-बहन राहुल-प्रियंका सालों पहले देश भर में चर्चित हो चुके थे, जबकि वरुण को उस वक्त लोग ठीक से जानते तक नहीं थे. सालों से गुमनामी में रहे वरुण अचानक ही मार्च 2009 में सारे देश में चर्चा का केंद्र बन गए. वह नाम और चर्चा, जो हमारे देश में नेहरू-गांधी परिवार के ज्यादातर वारिसों को एक प्रकार से मुफ्त में मिलती रही है, वह उन्होंने भी एक झटके में हासिल कर ली. लेकिन वरुण का यह रूप नया था. गांधी-नेहरू परिवार की परंपरा के विपरीत. इन सबसे ज्यादा भारत के उस विचार के तो बिल्कुल ही उलट जिसे स्थापित करने में उनके परनाना जवाहरलाल नेहरू की भूमिका बहुत बड़ी थी.

फोटो- विजय पांडेय
फोटो- विजय पांडेय

वरुण अपने चुनावी मंच से मुसलमानों के खिलाफ आग उगल रहे थे और सारा देश स्तब्ध था. कई दिनों तक उनके भड़काऊ भाषण टीवी पर छाए रहे. उनकी अलग-अलग सभाओं की नई-नई सीडी सामने आती गईं और वे हर बार पहले से भी ज्यादा जहर बुझे नजर आए. गांधी उपनाम वाले किसी शख्स को इस रूप में देखना सारे देश के लिए ही चौंकाने वाला था. उन पर एक समुदाय के खिलाफ नफरत से भरे भाषण देने और सांप्रदायिक हिंसा का माहौल तैयार करने के आरोप में दो मुकदमे दर्ज किए गए. उन्हें बीस दिन के लिए जेल भी जाना पड़ा. मगर पीलीभीत में विवादों से वरुण का यह कोई पहला सामना नहीं था और न ही आखिरी. अगस्त, 2008 में अपनी पीलीभीत यात्रा के दौरान ही उन पर मारपीट और जान से मारने की धमकी देने का एक मुकदमा दर्ज हो चुका था. और वरुण गांधी ने जब पीलीभीत की अदालत में अपने भड़काऊ भाषणों के मामले में आत्मसमर्पण किया था उस वक्त वहां हुई हिंसा के चलते भी उन पर एक और मामला दर्ज किया गया था. इसमें उन पर दंगा-फसाद करवाने, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने और हत्या के प्रयास जैसे संगीन आरोप थे.

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      एक नजर में

  • 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान वरुण गांधी पीलीभीत में अपनी चुनावी रैली के दौरान मुस्लिम समुदाय के खिलाफ भड़काऊ भाषण देते हुए कैमरे पर कैद हुए.
  • उनके खिलाफ कुल तीन मामले दर्ज हुए. बरखेड़ा और डालचंद में भड़काऊ भाषण देने के दो मामले और पीलीभीत कोर्ट मंे समर्पण के दौरान दंगा भड़काने, पुलिस पर हमला करने और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का एक मामला दर्ज हुआ.
  • इस साल चार मई तक वरुण गांधी इन सभी मामलों से बरी हो गए. चमत्कारिक रूप से इन मामलों में गवाह बनाए गए सभी 88 गवाह अदालत में अपने बयान से मुकर गए. शायद यह आपराधिक मामलों के इतिहास में पहला मामला होगा जिसमें इतनी बड़ी संख्या में गवाह पक्षद्रोही सिद्ध हुए.
  • तहलका की तहकीकात में कई विस्फोटक सच्चाइयां सामने आई हैं. न्यायिक प्रक्रिया को तोड़ा-मरोड़ा गया. खोजबीन करने पर गवाह, पुलिस, अभियोजन, जज, समेत हर व्यक्ति की भूमिका संदेह के घेरे में दिखी.
  • गवाही बदलने के लिए पुलिस द्वारा कुछ गवाहों को धमकाया गया, वरुण गांधी द्वारा कुछ गवाहों को रिश्वत दी गई. इसके अलावा जज की अनुपस्थिति में ही गवाहों की गवाही हो गई. उनके अंगूठे के निशान  लेकर उन्हें वापस भेज दिया गया. अभियोजन पक्ष ने फोरेंसिक विशेषज्ञ जैसे कई अहम गवाहों को गवाही के लिए समन तक जारी नहीं किया. कईयों से सवाल जवाब तक नहीं किया गया. ये बातें गवाहों ने तहलका के खुफिया कैमरे पर स्वीकार की हैं.
  • वरुण गांधी को हाल ही में भाजपा का महासचिव बनाया गया है. लेकिन तहलका की तहकीकात इस बात को भी साबित करती है कि उन्होंने अपनी ही पार्टी के प्रत्याशी को चुनाव में हरवाने का काम किया. उन्होंने अपने उम्मीदवार को हराकर समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी रियाज अहमद को जिताने के निर्देश दिए. बदले में रियाज अहमद ने मुस्लिम गवाहों के बयान बदलवाने में मदद की.
  • तहलका के पास पीलीभीत भाजपा के दो महत्वपूर्ण पदाधिकारियों की बातचीत का ऑडियो मौजूद है जिसमें वे इस बात की चर्चा कर रहे हैं कि वरुण गांधी ने उनसे कहा है कि विधान सभा चुनाव लड़ रहे भाजपा प्रत्याशी सतपाल गंगवार को हराना है. सतपाल गंगवार भी तहलका के सामने यह स्वीकार करते हैं कि वरुण गांधी ने ही उन्हें विधानसभा चुनाव हरवाने का निर्देश दिया.
  • वरुण गांधी के काफी करीबी और पीलीभीत जिले के भाजपा उपाध्यक्ष परमेश्वरी गंगवार ने तहलका के खुफिया कैमरे पर कुछ बेहद चिंताजनक और गंभीर राज उगले. उन्होने विस्तार से बताया कि वरुण गांधी ने वे सारे नफरत से भरे भाषण दिए थे जिनकी चर्चा हुई थी. उन्होंने समाजवादी पार्टी के विधायक रियाज अहमद के बारे में भी बताया कि मुस्लिम गवाहों के बयान बदलने में उन्होंने भूमिका निभाई. इसके अलावा गवाहों को धमकाने और उनके बयान बदलवाने में तत्कालीन एसपी अमित वर्मा की सबसे बड़ी भूमिका सामने आ रही है.
  • वरुण गांधी के भड़काऊ भाषण को रिकॉर्ड करने वाले और इस मामले के सबसे महत्वपूर्ण गवाह थे तीन मीडियाकर्मी. ये तीनों भी अपनी गवाही के दौरान मुकर गए. तारिक अहमद ने कहा कि उन्होंने भाषण रिकॉर्ड जरूर किया था लेकिन उन्होंने वरुण गांधी का भाषण नहीं सुना था. कोर्ट ने इस हास्यास्पद बयान पर कोई सवाल खड़ा नहीं किया. रामवीर सिंह ने स्वीकार किया कि उसने और तारिक दोनों ने वह भाषण सुना था और उन्होंने तहलका को बताया, ‘इस मामले में अभियोजन पक्ष समेत हर कोई बिका हुआ था.’ तीसरे मीडियाकर्मी शारिक परवेज ने इसकी पुष्टि करते हुए यह भी कहा कि रामवीर और तारिक भी इस मामले में बिके हुए थे.
  • पीलीभीत से विधायक और सपा सरकार में मंत्री रियाज अहमद के वरुण गांधी की मां मेनका गांधी के साथ पुराने राजनीतिक रिश्ते हैं. रियाज अहमद ने भी तहलका के कैमरे पर इस बात की पुष्टि की है कि इस मामले में नियम-कानूनों को जमकर तोड़ा-मरोड़ा गया और वरुण गांधी को लाभ पहुंचाया गया.
  • महज अपने राजनीतिक फायदे के लिए और भड़काऊ भाषण के अपराध से बचने के फेर में वरुण गांधी ने शर्मनाक तरीके से तमाम कानूनी प्रक्रियाओं को ध्वस्त किया.

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वरुण गांधी अब एक बार फिर से चर्चा में हैं . इस बार मामला और भी ज्यादा चौंकाने वाला है. जिन वरुण गांधी को सारे देश ने टीवी चैनलों पर सांप्रदायिक और भड़काऊ भाषण देते सुना था, उन्हें एक-एक कर सभी मामलों में दोषमुक्त किया जा चुका है. हज़ारों की भीड़ के सामने उन्होंने जो भड़काऊ भाषण दिए थे और जिन्हें करोड़ों लोगों ने टीवी पर देखा था उनसे जुड़े दोनों मामलों में वे इसलिए बरी कर दिए गए कि कोर्ट को उनके खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं मिले. मारपीट का मुकदमा कहां गायब हो गया इसकी किसी को खबर भी नहीं हुई. वरुण के आत्मसमर्पण के वक्त हुई हिंसा के मामले में भी चार मई को पीलीभीत की सत्र अदालत ने उन्हें सभी आरोपों से बरी कर दिया.

तहलका ने जब वरुण को दोषमुक्त करने वाले न्यायालय के फैसलों और अन्य दस्तावेजों पर नजर डाली तो उनमें कई ऐसी खामियां सामने आईं जिनसे यह साफ था कि वरुण को एकतरफा फायदा पहुंचाया गया है. वरुण गांधी के भाषण और आत्मसमर्पण से जुड़े तीन मामले शायद भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में एक रिकॉर्ड होंगे जिनमें कुल मिलाकर सभी 88 गवाह पक्षद्रोही हो गए. वरुण से जुड़े एक मामले में दो ही दिन में अदालत में 18 गवाहों को पेश किया गया और इन गवाहों के विरोधाभासी बयानों पर सरकारी वकील और कोर्ट ने कोई सवाल खड़ा नहीं किया. इस मामले की जांच के दौरान वरुण गांधी ने अपनी आवाज का नमूना देने से ही इनकार कर दिया और अभियोजन पक्ष ने बिना किसी विरोध के इस बात को स्वीकार कर लिया. मामले के ट्रायल के दौरान कई अहम गवाहों को कोर्ट में पेश ही नहीं किया गया और इसकी अर्जी खुद सरकारी वकील ने यह कहकर दी कि उन गवाहों को कोर्ट में बुलाने की कोई आवश्यकता नहीं है. ऊपरी तौर पर मुआयना करने से ही पता चल जाता है कि वरुण गांधी से जुड़े मामलों को कदम-कदम पर कमजोर करने का प्रयास सिर्फ बचाव पक्ष ने ही नहीं किया, बल्कि अभियोजन ने भी इसमें उसका पूरा साथ दिया.

इसके बाद जब तहलका ने वरुण गांधी से जुड़े मामलों की तहकीकात शुरू की तो परत दर परत ऐसी सच्चाइयां सामने आईं जिनमें पीलीभीत के वर्तमान एसपी अमित वर्मा, सरकारी वकील, भाजपा के नेता और प्रदेश सरकार सबके हाथ रंगे मिले. इन मामलों में गवाह बनाए गए लोगों और खुद जिले के भाजपा उपाध्यक्ष परमेश्वरी गंगवार ने तहलका को बताया कि किस तरह से पीलीभीत के पुलिस अधीक्षक और अन्य पुलिस अधिकारियों ने गवाहों को धमकाया और कम से कम एक गवाह के यहां स्वयं वरुण गांधी के यहां से गवाही बदलने के लिए फोन किया गया. इसके अलावा इन गवाहों ने जो सनसनीखेज सच उजागर किया उसके मुताबिक कोर्ट में न्यायिक प्रक्रियाओं का जमकर मखौल उड़ाया गया, जज की नामौजूदगी में ही उन सबकी गवाहियां हो गईं, उनके बयान खुद वकील ने लिखे और उनसे सिर्फ अंगूठा लगवाया गया या दस्तखत करवाए गए. इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश की सपा सरकार और उनके एक मंत्री तक ने वरुण को बरी करवाने में सक्रिय भूमिका निभाई.

पहले शुरुआत वहां से जहां से वरुण की विवादित राजनीतिक यात्रा शुरू हुई.

वरुण गांधी का राजनीतिक सफर साल 2008 में शुरू हुआ. अपने पहले चुनाव के लिए उन्होंने पीलीभीत संसदीय सीट को चुना जहां से पिछली कई लोकसभाओं में उनकी मां मेनका गांधी सांसद रही थीं. जब उन्होंने अपने होने वाले चुनाव क्षेत्र का भ्रमण शुरू किया तो शुरू में उनके साथ उनके दिल्ली के ही ज्यादातर साथी होते थे. एक अगस्त, 2008 को वरुण अपने इन्ही साथियों के साथ पीलीभीत से 22 किलोमीटर दूर बरखेड़ा नाम के कस्बे की ओर जा रहे थे. इसी रास्ते पर एक गांव पड़ता है ज्योरह कल्यानपुर. इस गांव की सड़क उस वक्त काफी खराब थी जिस कारण वरुण की गाड़ी एक गड्ढे में फंस गई. वरुण अपने साथियों के साथ गाड़ी से उतर गए और उन्होंने लोगों से बात करनी चाही. इस गांव में ज्यादातर स्थानों पर किसान मजदूर संगठन एवं कांग्रेस पार्टी के झंडे लगे थे. यह बात वरुण को पसंद नहीं आई. उन्होंने गांववालों से पूछा कि यहां ये झंडे क्यों लगे हैं? भरतवीर गंगवार नाम के एक स्थानीय दुकानदार ने जवाब में कहा कि ‘किसान मजदूर संगठन ने यहां के किसानों के लिए काम किया है इसलिए उनके झंडे लगे हैं.’

भरतवीर के गांव के निवासी और इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी फूल चंद ‘आचार्य जी’ यह पूरा किस्सा सुनाते हुए कहते हैं, ‘वरुण ने भरतवीर से गुस्से में कहा कि यहां किसानों के लिए जो कुछ भी किया है वह मेरी मां ने किया है. भरतवीर ने उन्हें जवाब दिया कि किसान नेता वीएम सिंह ने गन्ना किसानों के हितों की लड़ाई लड़ी है इसलिए यहां लोग उनका समर्थन करते हैं. यह बात वरुण को नागवार गुजरी और उन्होंने भरतवीर को थप्पड़ मार दिया. बस, वरुण के हाथ छोड़ते ही उनके अन्य साथी भी भरतवीर को पीटने लगे. गांव के लोगों ने छुड़ाने की कोशिश की लेकिन उन लोगों के पास हथियार भी थे और वरुण गांधी के सामने किसी की हिम्मत भी नहीं पड़ रही थी.’

एक अगस्त को ही शाम 6.30 बजे भरतवीर ने थाना बरखेड़ा में वरुण गांधी और उनके सहयोगियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाई जिसमें फूल चंद का नाम भी बतौर गवाह दर्ज था. उधर, वरुण की ओर से भी तत्कालीन भाजपा जिलाध्यक्ष योगेंद्र गंगवार ने रात को लगभग 9.10 बजे एक एफआईआर दर्ज करवा दी. जहां पहली रिपोर्ट में वही लिखा था जो फूलचंद ने हमें बताया था, दूसरी रिपोर्ट में कहा गया था कि भरतवीर ने देसी तमंचे से वरुण गांधी पर गोली चलाई, उनसे दस हजार रुपये लूट लिए और अपने साथियों के साथ तमंचे लहराता हुआ फरार हो गया. पुलिस ने दोनों मामलों की जांच की, भरतवीर के खिलाफ दर्ज किए गए मामले को झूठा पाया और 22 अक्टूबर, 2008 को अंतिम रिपोर्ट दाखिल करते हुए इसे बंद कर दिया. वहीं वरुण गांधी के खिलाफ दर्ज हुए मामले को पुलिस जांच में सही पाया गया और 24 दिसंबर को पुलिस ने इस मामले में आरोप पत्र दाखिल कर दिया. केस नंबर 2362/08 के रूप में दर्ज हुआ यह मामला पीलीभीत जिले में वरुण गांधी के खिलाफ दर्ज हुआ पहला आपराधिक मामला था.

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अब तक वरुण अपने संभावित संसदीय क्षेत्र में अपना जनाधार देख चुके थे. उन्हें अंदाजा हो चुका था कि इस क्षेत्र में सिर्फ गांधी परिवार का नाम उनकी जीत सुनिश्चित नहीं करवा सकता. ऐसा सोचने के उनके पास और भी कारण थे. हाल ही में हुए परिसीमन के चलते इस संसदीय क्षेत्र से कुछ ऐसे इलाके बाहर हो गए थे जहां से मेनका गांधी को एकतरफा वोट पड़ा करते थे. इसके अलावा हिंदू-मुसलमानों की मिली-जुली आबादी वाला बहेड़ी अब पीलीभीत संसदीय क्षेत्र में आ चुका था. पीलीभीत संसदीय क्षेत्र की पांच विधानसभाओं में से तीन पर मुस्लिम विधायक थे जबकि क्षेत्र में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या लगभग 35 प्रतिशत ही थी. वरुण गांधी को इन्हीं समीकरणों में अपनी जीत का रास्ता नजर आया और उन्होंने पूरे चुनाव को हिंदू बनाम मुस्लिम में तब्दील कर दिया.

चुनावों को सांप्रदायिक रंग देने का उनका यह खेल शुरू हुआ फरवरी, 2009 से. स्थानीय लोगों के मुताबिक सबसे पहले 22 फरवरी को उन्होंने पीलीभीत के ललोरी खेडा इलाके के ‘राम मनोहर लोहिया बालिका इंटर कॉलेज’ में खुद को देश का एकमात्र हिंदुओं का रखवाला घोषित किया और मुसलमानों के खिलाफ बोलना शुरू किया. ललोरी खेड़ा में हुई वरुण की इस सभा में भड़काऊ भाषण दिए जाने का जिक्र उस चुनाव याचिका में भी किया गया है जो वरुण के खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दाखिल की गई थी. पिछले करीब डेढ़ महीने के दौरान तहलका ने पीलीभीत जिले में जिनसे भी बात की उनमें से ज्यादातर लोगों ने हमें यह बताया कि 2009 के आम चुनावों से पहले वरुण जहां भी सभाएं कर रहे थे,  हर जगह गीता की कसमें खाते हुए मुसलमानों के हाथ और गले काटने की बातें कर रहे थे.

छह मार्च, 2009 को वरुण को पीलीभीत के देशनगर मोहल्ले में एक सभा को संबोधित करना था. तब तक पीलीभीत में ज्यादातर लोगों को यह मालूम हो गया था कि वरुण गांधी के भाषणों का विषय क्या होता है. वरुण के समर्थक सभा में आए किसी भी व्यक्ति को वीडियो रिकॉर्डिंग की अनुमति नहीं देते थे और इस बात का ख़ास ध्यान रखा जाता था कि कोई भी वीडियो कैमरा लेकर सभा में न पहुंच पाए. रात को लगभग नौ बजे वरुण देशनगर में सभा को संबोधित करने पहुंचे. स्थानीय पत्रकार शारिक परवेज के मुताबिक जब उन्होंने इस सभा की वीडियो रिकॉर्डिंग करनी चाही तो वरुण के समर्थकों ने उनका कैमरा बंद करवा दिया. शारिक सिर्फ कुछ मिनट ही वरुण के भाषण को रिकॉर्ड कर पाए. वरुण देशनगर के निवासियों को हिंदू धर्म का वास्ता देते हुए चेतावनी दे रहे थे कि ‘यदि हिंदू धर्म को बचाना है तो मुझे वोट देने जरूर जाना और जो हिंदू वोट नहीं डालेगा वो अपने धर्म से गद्दारी कर रहा होगा.’ वरुण इस भाषण में लोगों को यह भी चेतावनी दे रहे थे, ‘देखिए! ये मुसलमान चाहें जो भी बोलें .. उनका एक-एक वोट जाना है उस कटुवे के लिए .. समझे? तो आपका एक-एक वोट जाना चाहिए हिंदुस्तान के लिए…’

इस बीच इस मोहल्ले के ही एक स्थानीय युवा शैलेंद्र सिंह ने वरुण गांधी का यह पूरा भाषण अपने मोबाइल फोन में रिकॉर्ड कर लिया. शैलेंद्र बताते हैं, ‘मैं कई लोगों से ये बात सुन चुका था कि वरुण गांधी सांप्रदायिक हिंसा भड़काने वाले भाषण लगातार दिए जा रहे हैं. इसलिए मैं सोच कर गया था कि उनका भाषण रिकॉर्ड कर लूंगा. वीडियो तो वहां कोई भी बना नहीं पा रहा था लेकिन मैंने अपने फोन की रिकॉर्डिंग ऑन करके उसे अपनी जेब में रख लिया और उनका पूरा ऑडियो रिकॉर्ड कर लिया.’ (लगभग 28 मिनट का यह ऑडियो और बाकी ज्यादातर वीडियो जिनका जिक्र इस स्टोरी में किया गया है, तहलका के पास हैं).

अगले दिन यानी सात मार्च को वरुण पहुंचे पीलीभीत के मोहल्ला डालचंद में और यहां भी उन्होंने उसी तरह के मुस्लिम विरोधी भाषण दिए. वरुण अपने इन भाषणों में कई ऐसे आंकड़े भी लोगों को बताते थे जिनका हकीकत से तो कोई भी वास्ता नहीं था लेकिन इनसे जनता का ध्रुवीकरण आसानी से हो जाता था. उदाहरण के तौर पर, उन्होंने लोगों से कहा कि ‘पिछले कुछ समय में 13 हिंदू औरतों का बलात्कार हुआ और जिन मुसलमानों ने ये बलात्कार किए वो आज भी खुले घूम रहे हैं.’ तहलका ने इन तथाकथित बलात्कारों के बारे में जानकारी हासिल करने की कोशिश की मगर उसे ऐसा कोई मामला थाने में दर्ज नहीं मिला. मगर चुनाव के दौरान इस तरह की अफवाहें जंगल की आग की तरह फैलकर दो समुदायों के बीच गहरे तनाव की वजह बन रही थीं.

अब तक उनके भड़काऊ भाषणों की चर्चा सारे पीलीभीत में हो चुकी थी. आठ मार्च को जब वे बरखेड़ा नाम के कस्बे पहुंचे तो वहां कुछ पत्रकार उनका वीडियो बनाने में सफल हो गए. उनकी यही सभा थी जिसमें दिया हुआ उनका जहर बुझा भाषण सबसे पहले सारे देश ने 2009 में देखा था. बरखेड़ा के इस मंच पर कई साधु भी बैठाए गए थे. चूंकि उनकी यह सभा दोपहर में आयोजित की गई थी, इसलिए पत्रकारों को उनका वीडियो बनाने में उस तरह की परेशानी नहीं हुई जैसी कि इससे पहले की सभाओं में हो रही थी. इसके बाद वरुण गांधी के पहले बरखेड़ा और बाद में डालचंद में दिए भड़काऊ भाषण सभी राष्ट्रीय समाचार चैनलों पर प्रसारित होने लगे. वरुण के सांप्रदायिक चेहरे को सारे देश ने देखा. मामले को गंभीरता से लेते हुए चुनाव आयोग ने तत्कालीन एसपी और जिलाधिकारी पीलीभीत का तबादला कर दिया और जिला प्रशासन को वरुण के खिलाफ सख्त कदम उठाने के निर्देश दिए.

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17 तथा 18 मार्च को वरुण गांधी के खिलाफ भड़काऊ भाषण देने के आरोप में दो आपराधिक मुकदमे दर्ज किए गए. इनमें से एक डालचंद मुहल्ले से संबंधित था और दूसरा बरखेड़ा से. हालांकि वरुण के खिलाफ चुनाव लड़ रहे कांग्रेस प्रत्याशी और रिश्ते में उनके दूर के मामा वीएम सिंह ने देशनगर वाला ऑडियो चुनाव आयोग को भेजा था. साथ ही सिंह ने 16 अप्रैल, 2009 को घटना के चार प्रत्यक्षदर्शियों – प्रशांत कुमार रवि, मुख्तार अहमद, कादिर अहमद एवं शैलेंद्र सिंह – के शपथपत्र भी चुनाव आयोग को भेजे थे जिनमें इन चारों ने कहा था कि वरुण गांधी ने देशनगर में भी मुस्लिम समुदाय के विरोध में अपशब्द कहे थे और वे घटना की गवाही देने को तैयार हैं, लेकिन इस मामले को पुलिस द्वारा दर्ज नहीं किया गया.

कई दिनों तक राष्ट्रीय चैनलों पर वरुण के सांप्रदायिक भाषण ही चुनावी कवरेज का मुख्य मुद्दा बने रहे . उस वक्त मुख्य चुनाव आयुक्त सहित तीनों चुनाव आयुक्तों ने बरखेड़ा की सीडी को देखने के बाद 22 मार्च को एक आदेश जारी किया था. इस आदेश में आयोग द्वारा कहा गया था, ‘आयोग ने एक बार नहीं बल्कि कई बार इस सीडी को देखा है. हम इस तथ्य से पूरी तरह सहमत और आश्वस्त हैं कि इस सीडी से कोई भी छेड़छाड़ नहीं की गई है.’ चुनाव में वरुण गांधी को किसी अदालत द्वारा प्रतिबंधित किए जाने से पहले ऐसा न कर पाने की मजबूरी तो आयोग ने इस आदेश में जताई मगर यह भी कहा, ‘आयोग की सुविचारित राय में प्रतिवादी मौजूदा चुनाव में प्रत्याशी बनने के योग्य नहीं है…’

आरटीआई के दायरे में होंगी राजनैतिक पार्टियां

क्या है सूचना आयोग का फैसला ?
केंद्रीय सूचना आयोग ने राजनीतिक दलों को सार्वजनिक संस्था मानते हुए उन्हे सूचना के अधिकार के दायरे में लाने की घोषणा की है. अपने फैसले में सूचना आयोग ने छह राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को छह सप्ताह के अंदर जन सूचना अधिकारी नियुक्त करने और सूचना मांगे जाने पर चार सप्ताह के भीतर जानकारी उपलब्ध करवाने को कहा है. इस फैसले से पार्टियों के खर्च और चंदे आदि के हिसाब-किताब में पारदर्शिता आएगी. सूचना आयोग ने इस आधार पर फैसला दिया है कि राजनीतिक दल सरकार से वित्तीय मदद और रियायती दर पर भूमि आदि लेते रहते हैं लिहाजा वे जनता के प्रति जवाबदेह हैं. फिलहाल राजनीतिक दलों के अंदरूनी लेन-देन की जानकारी सिर्फ उनके द्वारा भरे जाने वाले आयकर रिटर्न के आधार पर ही मिल पाती है.

सूचना आयोग में क्या अपील की गई थी ?
आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल और अनिल बैरवाल ने सूचना आयोग के समक्ष सभी राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार में लाने की मांग की थी. अपनी शिकायत में सुभाष अग्रवाल का कहना था कि कांग्रेस और भाजपा को दिल्ली में बेहद रियायती दर पर सरकारी जमीन मुहैया कराई गई है इसलिए ये दल जनता के प्रति जवाबदेह हैं. वहीं अनिल बैरवाल का तर्क था कि माकपा, भाकपा, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और बसपा जैसे दलों पर जनता का पैसा खर्च होता है लिहाजा ये आरटीआई की धारा 2 (एच) के तहत आते हैं. दोनों शिकायतों पर सुनवाई करते हुए तीन सदस्यों की पीठ ने तीन जून, 2013 को यह फैसला दिया.

फैसले पर राजनीतिक पार्टियों की प्रतिक्रिया क्या है ?
राजनीतिक दलों को सूचना आयोग का यह फरमान गले नहीं उतर रहा है. कांग्रेस, भाजपा और वाम पार्टियों समेत अन्य क्षेत्रीय दलों ने भी खुद को आरटीआई कानून के दायरे में लाने का विरोध किया है. लगभग सभी दलों की एक ही राय है कि वे सरकारी संस्था नहीं हैं. कांग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी का तर्क है कि पार्टियां किसी कानून से नहीं बनी हैं और वे सरकारी धन पर नहीं चलतीं. सीपीएम का भी कहना है कि वह इस आदेश को नहीं मान सकती. इस हिसाब से तमाम गैरसरकारी संस्थाओं को भी आरटीआई के तहत लाना चाहिए, वे भी सरकार से रियायत पाते हैं.
-प्रदीप सती

बुजुर्ग का बाल हठ

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  • मैं छठी यात्रा पर निकला हूं. रामरथ यात्रा मेरी पहली यात्रा थी. उसका मेरे राजनीतिक जीवन में सबसे अहम स्थान है. इस हिन्दुस्थान में रामरथ यात्रा का आध्यात्मिक महत्व था.
  •  जयप्रकाश नारायण जी से हमारे बेहद आत्मीय संबंध थे. वे जनसंघ के अधिवेशन में गए थे. तब कई लोगों ने कहा था कि जनसंघ फासीवादी पार्टी है, उसके सम्मेलन में नहीं जाइए. जयप्रकाश जी ने कहा कि जिन्हें यह लगता है कि ‘जनसंघ फासीवादी पार्टी है उन्हें यह भी मानना चाहिए कि जयप्रकाश फासीवादी है.’
  • यह एक विशुद्ध राजनीतिक यात्रा है, जिसमें मैं भ्रष्टाचार की बात करूंगा. सभी जगह एक ही बात कहूंगा कि भ्रष्टाचार को हर स्तर पर देखिए. सिर्फ राजनीति का भ्रष्टाचार नहीं दिखे. सबको अपना काम ईमानदारी से करना चाहिए.
  • डॉ राममनोहर लोहिया ने जनसंघ के संस्थापक पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अखंड भारत की कल्पना का जोरदार समर्थन किया था. डॉ लोहिया और जयप्रकाश, दो ही नेता हुए जिन्होंने जनसंघ को पहचाना.
  •  1990 में इसी बिहार में मेरी रामरथ यात्रा रोकी गई थी. 21 साल बाद अब 2011 का समय है, जब उसी बिहार में एक मुख्यमंत्री मेरी यात्रा को हरी झंडी दिखा रहे हैं. यह बड़ा बदलाव है.
  •  दो साल पहले मैंने काले धन के मामले पर प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी थी. भ्रष्टाचार का मसला उठाया था. आज साफ दिख रहा है. यूपीए-2 का भ्रष्टाचार सामने आ रहा है.
  • हम केंद्र सरकार से मांग करते हैं कि वह काले धन के मामले पर आगामी शीतकालीन सत्र में श्वेतपत्र जारी करे और मजबूत लोकपाल बिल लाए.
  •  प्रधानमंत्री कौन होगा, यह पार्टी तय करेगी. मैंने 2009 में भी अपना नाम खुद से तय नहीं किया था. नीतीश कुमार पीएम बनेंगे या नहीं, यह एनडीए के साथी आपस में तय करेंगे. नरेंद्र मोदी ने बिहार से यात्रा शुरू करने पर बधाई दी है और अपने ब्लॉग पर मोदी ने लिखा है कि वे गुजरात में यात्रा का स्वागत करेंगे. वैसे नरेंद्र मोदी का कुछ कहना या लिखना इतना जरूरी क्यों है?

11 अक्तूबर को बिहार के सिताबदियारा से चलकर उसी शाम पटना पहुंचने और 12 अक्तूबर को पटना से रवाना होने के पहले करीबन 24 घंटे के अंदर लालकृष्ण आडवाणी द्वारा अलग-अलग सभाओं व सम्मेलनों में दिए गए बयान कुछ ऐसे ही थे. आडवाणी अपनी तरह से अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग बातें कहने की कोशिश करते रहे. कभी अभिभावक की भूमिका में भ्रष्टाचार पर पाठ पढ़ाते दिखे तो कभी रामदेव और अन्ना के आंदोलन में उठे मसलों को मिलाकर कॉकटेल बनाते. लेकिन भ्रष्टाचार पर भाषण देते हुए गलती से भी अन्ना हजारे का नाम लेने की गलती उन्होंने नहीं की. न ही काला धन वापसी के प्रसंग में रामदेव के आंदोलन की चर्चा की. हां, इस एक बात पर बार-बार जोर देते रहे कि दो साल पहले हमने काला धन और भ्रष्टाचार के सवाल पर प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी थी. शायद यह बताने की जुगत में कि रामदेव और अन्ना के आंदोलन के बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ बने माहौल का फायदा उठाने की कोशिश में मैं नहीं हूं बल्कि पहले मैंने ही भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोला था. भ्रष्टाचार की मुखालफत का नायक मैं ही हूं, कोई और नहीं.

आडवाणी यह सब बताकर यह समझाने की कोशिश करते हैं कि वक्त के प्रवाह में सब बदल रहा है. मैं बदल गया हूं

आडवाणी अपने भाषणों में कभी सत्ता परिवर्तन, कभी व्यवस्था परिवर्तन तो कभी-कभी सत्ता परिवर्तन के जरिए व्यवस्था परिवर्तन का पाठ पढ़ाते हैं लेकिन कर्नाटक और उत्तराखंड में भाजपाई मुख्यमंत्री बदल दिए जाने के सवाल पर कुछ नहीं कहते. वे नीतीश कुमार के विकास की जमकर तारीफ करते हैं, उनके साथी अनंत कुमार मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार के विकास मॉडल को भी रखते हैं. मगर नरेंद्र मोदी का नाम गलती से एक बार भी नहीं लिया जाता. नीतीश की प्रशंसा करने के साथ ही वे यह भी जरूर बताते हैं कि दो दशक पहले इसी बिहार में सांप्रदायिक कहकर मुझे जेपी के ही एक शिष्य ने गिरफ्तार किया था. आज उसी बिहार में जेपी के ही दूसरे शिष्य मुझे गले लगा रहे हैं. आडवाणी यह सब बताकर यह समझाने की कोशिश करते हैं कि वक्त के प्रवाह में सब बदल रहा है. मैं बदल गया हूं. मेरी छवि ग्राह्य हो गई है. कुछ-कुछ धर्मनिरपेक्ष जैसी.

वे अलग-अलग सभाओं में अलग-अलग बातें बोलते हैं. कभी भटकाव, द्वंद्व और दुविधा जैसी स्थिति के साथ तो कई बार सामान्य भारतीय बुजुर्ग की तरह एकरागी हो जाते हैं. जैसे कि 11 अक्टूबर की शाम पटना की सभा में हुए. बचपन से फिल्म देखने का जो उनका शौक रहा है, उसे साझा करते रहे और फिर एक फिल्म और एक गीत पर ही आधा घंटा बोल गए. आडवाणी उस समय भी एकरागी बुजुर्ग से हो जाते हैं जब पहले संवाददाता सम्मेलन में ग्लोबल फाइनैंशियल इंटेग्रिटी रिपोर्ट व एक किताब को हाथ में लेकर अपनी धुन में बोलते जाते हैं. वे और बोलते लेकिन बीच में ही रविशंकर प्रसाद इशारे में रोकते हैं कि बस, हो गया, अब बात बदलिए. लेकिन तमाम भटकाव-द्वंद्व-दुविधा और एकरागी होने के बावजूद सभी सभाओं में आडवाणी 90 के दशक की अपनी रामरथ यात्रा का स्मरण जरूर करते हैं. गर्व के साथ.

कांग्रेस, लोजपा, राजद जैसी पार्टियां भी आडवाणी की इस यात्रा में अपने लिए संभावना के सूत्र तलाशने में लगी हुई हैं

आडवाणी के बोलने से पहले इस जनचेतना यात्रा की कमान संभाल रहे यात्रा संयोजक व भाजपा के महामंत्री अनंत कुमार सभी जगह विस्तार से बताते हैं कि यह यात्रा 38 दिनों की है. 23 प्रांतों से गुजरेगी. 7600 किलोमीटर का सफर होगा. आडवाणी सभी जगह जनचेतना फैलाएंगे और फिर दिल्ली में संसद के शीतकालीन सत्र से पहले विराट सभा करेंगे. अनंत कुमार साफ-साफ कहते हैं कि दिल्ली में सत्ता बदलना जरूरी है. अलग-अलग सभाओं में पहुंच रहे दूसरे भाजपा नेता भी खुलकर इस यात्रा का मकसद सत्ता परिवर्तन बताते हैं, लेकिन आडवाणी खुद ऐसा नहीं कहते. आडवाणी खुद स्पष्ट नहीं कर रहे कि 84 साल की उम्र में 7600 किलोमीटर की यात्रा पर वे क्यों निकले हैं. अपनी पत्नी कमला आडवाणी, बेटी प्रतिभा आडवाणी के साथ इस यात्रा में ही आठ नवंबर को वे अपना जन्मदिन मनाएंगे, उम्र के 85वें साल में प्रवेश करेंगे. परिवार के सभी सदस्यों को साथ लेकर बुजुर्ग आडवाणी किससे लड़ने निकले हैं, यह भी नहीं बता रहे. क्या खुद की उम्र को चुनौती देने और उसके जरिए यह दिखाने-बताने कि अभी वे अपनी पारी जारी रखने में सक्षम हैं! पहले पार्टी के अध्यक्ष पद से हटाए जाने, फिर प्रतिपक्ष के नेता का पद भी ले लिए जाने के बाद वे भाजपा के अंतर्द्वंद्व से निपटने, संघ की छाया से बाहर निकलकर आखिरी पारी में अपनी ताकत दिखाने के अभियान में निकले हैं. या फिर सीधे-सरल शब्दों में वही एक बात कि वे अपनी चिरप्रतीक्षित मुराद को पूरा करने यानी एक बार किसी तरह से प्रधानमंत्री बनने के लिए माहौल तैयार करने निकले हैं.

‘लौह पुरुष’ का दुविधाग्रस्त मौन

सिताबदियारा हो, छपरा या बिहार की राजधानी पटना, आम जनों के बीच संदेश स्पष्ट है कि यह अभियान भ्रष्टाचार के खिलाफ जनचेतना तो नहीं ही है क्योंकि अगर ऐसा होता तो यह बिहार की बजाय कहीं और से शुरू होना चाहिए था. बिहार में तो आडवाणी खुद बता रहे हैं कि यहां सुशासन है, भ्रष्टाचारियों पर नकेल कसने की कोशिश एनडीए की सरकार कर रही है. तो फिर यहां अलग से जनचेतना की क्या जरूरत थी? यह यात्रा कर्नाटक से शुरू होती तो भ्रष्टाचार के मसले पर जनचेतना जैसी बात हजम होती. पड़ोस के झारखंड से शुरू होती तो भी बात हजम होती. उत्तर प्रदेश से भी शुरू होती तो बात हजम होती.

कभी अपने दम पर पार्टी को खड़ा कर चुके आडवाणी में यह साहस नहीं कि वे अपनी खुली मंशा भी खुलकर बता सकें

सिताबदियारा, जहां से यह यात्रा शुरू हुई, वहां जनता दल यूनाइटेड के उपाध्यक्ष विकल जैसे कुछ नेताओं ने मंच से गला फाड़-फाड़कर कहा कि आडवाणी जी के नेतृत्व में केंद्र सरकार को बदलने की जरूरत है, लेकिन सिताबदियारा में विकल जैसे नेताओं की बात दबकर रह गई. सिताबदियारा से हवाई मार्ग से छपरा पहुंचने पर आडवाणी के सामने ही भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव प्रताप रूढ़ी जैसे नेता खुलकर बोलते रहे कि केंद्र की सरकार बदलने के लिए यह यात्रा है. पटना की सभा में शत्रुघ्न सिन्हा भी आडवाणी के सामने ही हुंकार भरने वाली आवाज में सबको सुनाते रहे कि उम्र पर मत जाइए, जेपी भी बुजुर्ग ही थे, जब उन्होंने युवाओं के आंदोलन की अगुवाई की और बाबू कुंवर सिंह भी 80 पार के ही थे, जब अंग्रेजों से लड़ने निकल पड़े थे. शत्रुघ्न सिन्हा आरएसएस के नागपुर मुख्यालय तक अपनी बात पहुंचाना चाह रहे थे या पटना के गांधी मैदान में उपस्थित जनता को सुनाना चाहते थे, लेकिन वे खुलकर कह रहे थे कि आडवाणी के नेतृत्व में ही सत्ता परिवर्तन होगा और फिर व्यवस्था परिवर्तन. और फिर इतने के बाद जब आडवाणी से भी पूछा जाता है तो वे साफ-साफ कहने की बजाय बात घुमाते हैं. यह पूछने पर कि आप पीएम बनना चाहते हैं- आडवाणी साफ-साफ ना या हां कहने की बजाय यह कहते हैं कि यह पार्टी तय करेगी. आडवाणी पीएम पद के लिए ना नहीं कह रहे इससे यह साफ है कि उनकी उम्मीदें अभी टूटी नहीं हैं, लेकिन यह जनचेतना यात्रा उन्हीं उम्मीदों को पंख लगाने के लिए है यह बताने का साहस भी नहीं जुटा पा रहे. कभी अपने दम पर पार्टी को खड़ा करने और सत्ता तक पहुंचाने वाले आडवाणी में यह साहस नहीं है कि वे अपनी एक खुली मंशा को भी खुलकर बता सकें. या ये एक बुजुर्ग नेता के पारंपरिक मूल्य हैं, उस नेता के जो खुद के बारे में खुद कहने की बजाय दूसरों से कहलवाना-सुनना चाहता है.

किसके आडवाणी

पटना के मौर्य होटल में प्रेसवार्ता के दौरान एक दृश्य देखने लायक था. आडवाणी के पास एक सवाल गया कि आपके दायें-बायें प्रधानमंत्री पद के दोनों उम्मीदवार बैठे हुए हैं…अभी सवाल पूरा होता कि बायीं ओर बैठी लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज किसी शरमाती हुई गंवई महिला की तरह मुंह पर हाथ रखकर इशारे में कहती रहीं, क्या कह रहे हैं, मैं नहीं हूं उम्मीदवार. उस समय आडवाणी की दायीं ओर बैठे राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता अरुण जेतली मौन साधकर मंद-मंद मुस्कुराते रहे. उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. जेतली के मौन और सुषमा के दबे हुए इनकार के अपने-अपने मायने हैं.

आडवाणी की यात्रा के आरंभ में, आडवाणी के बाद इन्हीं दोनों वरिष्ठ नेताओं की उपस्थिति थी. रविशंकर प्रसाद भी थे, शाहनवाज हुसैन भी थे, राजीव प्रताप रूढ़ी भी थे लेकिन ये तीनों बिहार के ही हैं, इसलिए इनका होना कोई बहुत अहम नहीं है. अनंत कुमार यात्रा के संयोजक हैं, इसलिए उनका रहना स्वाभाविक माना गया. सिताबदियारा में, जहां से आडवाणी की यात्रा की शुरुआत हुई, वह बिहार और उत्तर प्रदेश की सीमा पर है. वहां बिहार के भाजपाइयों के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के कुछ नेता ही दिखे जिनमें मिर्जापुर के पूर्व सांसद बिरेंद्र सिंह मस्त, उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री भरत सिंह और प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही ही थे. राजनाथ सिंह उत्तर प्रदेश के हैं, उनका नहीं रहना सवाल बना रहा. कलराज मिश्र सिताबदियारा में नहीं थे, यह भी सवाल बना रहा. भाजपा के मुख्यमंत्री कई प्रदेशों में है. पास के झारखंड में, मध्य प्रदेश में, छत्तीसगढ़ में, कर्नाटक में, उत्तराखंड में. गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नहीं आने का कारण तो साफ है कि तब नीतीश कुमार यात्रा का स्वागत करने और हरी झंडी दिखाने को नहीं रहते और शायद यह यात्रा भी बिहार से शुरू नहीं हो पाती. छोटे मोदी यानी बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी सांकेतिक तौर पर यह कहकर नरेंद्र मोदी को चुनौती देते हैं कि विकसित प्रदेश की कमान संभालकर उसे विकसित बनाने का दावा करना कोई उपलब्धि नहीं होती, बिहार जैसे राज्य में कोई कुछ करके दिखाए, उसका महत्व ज्यादा है. लेकिन मोदी के अलावा दूसरे भाजपाई मुख्यमंत्री क्यों आडवाणी की इस संभावित आखिरी राजनीतिक यात्रा में नहीं पहुंच सके? जबकि नरेंद्र मोदी ने सिर्फ उपवास किया तो वहां हाजिरी लगाने पहुंचे नेताओं की फौज थी. और तो और, पड़ोसी राज्य झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा तक इसमें शामिल हुए थे. मगर वे आडवाणी की यात्रा के शुरुआती उत्सव में शामिल नहीं हुए. इन सबके बीच सवालों का सवाल यह रहा कि इस यात्रा के आरंभ में ही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी उपस्थिति से लेकर औपचारिक चर्चा तक में क्यों गायब किए जा रहे हैं. यदि यह भाजपा के पवित्र उद्देश्यों को लेकर की जा रही राष्ट्रव्यापी यात्रा है तो इस आयोजन के आरंभ में पार्टी अध्यक्ष गडकरी आखिर कुछ देर के लिए भी क्यों नहीं आ सके? उत्तर प्रदेश की सीमा से भी यात्रा की शुरुआत होने के बावजूद राजनाथ सिंह क्यों नहीं दिखे? दिखने के लिए भी दिखते तो ये सवाल नहीं उठते. एक भाजपा नेता कहते हैं, ‘राजनाथ सिंह कभी नहीं चाहते कि आडवाणी का कद बढ़े और गडकरी पहले ही घोषणा कर चुके हैं कि यह यात्रा प्रधानमंत्री पद के लिए नहीं है.’

उत्तराधिकार अभियान वाया प्रतिभा की प्रतिभा

मंच पर बैठे-बैठे आडवाणी जब पसीने से तर-ब-तर हो जाते हैं तो बगैर मांगे ही पीछे से उन्हें नैपकिन पकड़ाया जाता है. आडवाणी चेहरे को पोंछते हैं और फिर पीछे हाथ बढ़ा देते हैं. उनके हाथ से नैपकिन ले लिया जाता है. आडवाणी सिर्फ पीछे मुड़कर देखते भर हैं, बगैर उनके कुछ बोले ही समझ लिया जाता है कि उन्हें पानी चाहिए. उनके हाथों में पानी का ग्लास दे दिया जाता है. आडवाणी की दैहिक भाषा से ही उनकी जरूरतों को समझने की समझ कोई अर्दली नहीं बल्कि उनकी 33 वर्षीया बेटी प्रतिभा आडवाणी रखती हैं. प्रतिभा इस यात्रा में अपने पिता के साथ परछाईं की तरह दिख रही हैं. यात्रा के पहले दिन से ही. खुद कहीं कुछ नहीं बोलतीं लेकिन उनके बारे में हर सभा में बोला जाता है. सिताबदियारा के मंच पर आडवाणी के आगमन के पहले मंच से उद्घोषक बार-बार बताते रहे कि आज लालकृष्ण आडवाणी की धर्मपत्नी कमला आडवाणी और पुत्री प्रतिभा आडवाणी भी यहां आ रही हैं. कमला आडवाणी नहीं आ सकीं, 33 वर्षीय प्रतिभा जरूर दिखीं. सिताबदियारा में प्रतिभा सिर्फ दिखीं, थोड़ी देर बार छपरा पहुंची तो जनचेतना यात्रा के लिए तैयार थीम साॅन्ग ‘अब बस…’ को सुनाने-बजाने के पहले प्रतिभा को दिखाया गया. छपरा में मंच का संचालन कर रहे भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव प्रताप रूढ़ी ने प्रतिभा से आग्रह किया कि वे खड़ी होकर सबका अभिवादन स्वीकार करें. और फिर छपरा से पटना आते-आते यात्रा के पहले दिन की आखिरी सभा में आडवाणी ने खुद अपनी बेटी के बारे में बोला-बताया. उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने अपनी बेटी प्रतिभा के साथ मिलकर अपनी यात्रा का यह थीम सॉन्ग तैयार किया है.

प्रतिभा अपने पिता की सभाओं और यात्राओं में पहले भी जाती रही हैं लेकिन टीवी एेंकरिंग से अपनी पहचान बनाने के बावजूद इनमें मौन गुड़िया की तरह ही दिखती रही हैं. इस बार भी मौन ही साधे हुए हैं लेकिन हर सभा में उनके नाम की चर्चा जरूर हो रही है. सभा-सम्मेलन क्या, संवाददाता सम्मेलन में भी एक बार वे जरूर दिखती हैं. कुछ बोलती नहीं, कभी-कभी तसवीर लेती हैं, वीडियो रिकाॅर्डिंग करती हैं और फिर आडवाणी की कुरसी के पीछे बैठी रहती हैं. कहा जा रहा है कि आडवाणी संभवतः अपनी आखिरी राजनीतिक यात्रा में निकले हैं तो उनके साथ उनकी पत्नी और बेटी का होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं क्योंकि वे लगभग 40 दिन तक यात्रा में रहेंगे. यात्रा के दौरान ही आडवाणी का जन्मदिन भी आएगा. उम्र के हिसाब से यात्रा में आडवाणी का खयाल रखने वाला कोई अपना उनके साथ जरूर चाहिए. लेकिन जिस तरह से प्रतिभा मंचों पर दिख रही हैं, उनकी उपस्थिति दर्ज करवाई जा रही है, उससे यह सुगबुगाहट भी हो रही है कि कहीं आडवाणी आखिरी जोर लगाकर अपनी बेटी को राजनीति का पाठ तो नहीं पढ़ा रहे. भाजपा प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन कहते हैं, ‘प्रतिभा पहले भी कई यात्राओं में हमेशा साथ रही हैं इसलिए इसके राजनीतिक मायने नहीं निकाले जाने चाहिए.’ लेकिन भाजपा के ही एक दूसरे नेता कहते हैं, ‘हो सकता है, आडवाणी जी की यह कामना भी हो. ‘

और अंत में, संभावनाओं के सूत्र की तलाश

आडवाणी की यह यात्रा अखिल भारतीय राजनीतिक पार्टी भाजपा की है या आडवाणी में आस्था रखने वाले और आडवाणी से राजनीतिक ककहरा सीखने वाले चंद भाजपाइयों की, यह देखा जाना अभी बाकी है. इस यात्रा के परोक्ष और प्रत्यक्ष एजेंडे का आकलन शुरू हो गया है और बाद में भी होगा. लेकिन इस यात्रा के आरंभ से ही इसमें संभावनाओं के सूत्र भी तलाशे जाने लगे हैं. पहली संभावना राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के मजबूत होने की देखी जा रही है. आडवाणी की इस यात्रा के आरंभ में सिताबदियारा में नीतीश कुमार मौजूद रहे. वे छपरा में भी थे. उन्होंने ही हरी झंडी भी दिखाई. पटना की सभा में जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव भी मौजूद रहे. नीतीश की मौजूदगी और सहयोग का आडवाणी ने जमकर बखान किया. सहयोग के लिए तहेदिल से धन्यवाद दिया. शरद यादव पटना की सभा में बोलकर जब निकल गए तो मंच से सफाई भी दी गई कि शरद जी को कहीं जाना था इसलिए चले गए.

कांग्रेस, लोजपा, राजद जैसी पार्टियां भी आडवाणी की इस यात्रा में अपने लिए संभावना के सूत्र तलाशने में लगी हुई हैं. राजद के लालू प्रसाद यादव अचानक से अपनी ताकत बढ़ी हुई महसूस कर रहे हैं. लालू आडवाणी की यात्रा को 21 साल पुरानी यात्रा से जोड़कर खुद को फिर से सांप्रदायिकता विरोधी राजनीति का केंद्र बताने-बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं. रामविलास पासवान भी अपना राग अलाप रहे हैं. आडवाणी की यात्रा का विरोध कर रहे ये दोनों नेता आडवाणी के खिलाफ बोलकर तुरंत केंद्र की ओर टकटकी लगा देते हैं. किसी बच्चे की तरह कि देखो हमने आज यह कोशिश की है, अब तो एक चॉकलेट का हक बनता है. हिंदी प्रदेशों में संभावनाओं की तलाश में लगी कांग्रेस भी अपनी संभावना तलाशने में लगी हुई है. पटना में यात्रा के पहले ही कांग्रेस के तेजतर्रार नेता संजय निरूपम यहां पहुंचे और काला झंडा वगैरह दिखाने की बात मीडिया में कहते रहे. आडवाणी की यात्रा से किस-किसको फायदा होगा, यह देखा जाना अभी बाकी है. आडवाणी को, भाजपा को, विरोधियों को या सब कुछ टांय-टांय फिस्स हो जाएगा.

जब कलंकित हुआ क्रिकेट

मैच फिक्सिंग कांड (1999-2000)
पिछले कुछ सालों में क्रिकेट की छवि को सबसे ज्यादा धक्का मैच-फिक्सिंग कांडों का खुलासा होने से ही लगा है. 1999-2000 में मैच फिक्सिंग के खुलासे ने विश्व क्रिकेट को हिलाकर रख दिया था. इस कांड का खुलासा होने के बाद पूर्व कप्तान अजहरुद्दीन, अजय जडेजा और मनोज प्रभाकर आदि पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. इसके बाद भारत में क्रिकेट-प्रेम कुछ समय के लिए मृतप्राय-सा हो गया था.

गांगुली-चैपल विवाद (2005-2006)
पूर्व कप्तान सौरव गांगुली और तत्कालीन कोच ग्रेग चैपल के बीच अहं और वर्चस्व की लड़ाई ने भी भारतीय क्रिकेट को शर्मसार किया. 2005 में जिम्बाब्वे दौरे के वक्त चैपल ने मीडिया से कहा कि गांगुली खेलने से बचने के लिए इंजरी का बहाना करते हैं. जवाब में गांगुली ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि चैपल समेत टीम प्रबंधन उनपर कप्तानी और टीम छोड़ने का दबाव बना रहा है. इसके बाद चैपल ने गांगुली की जबरदस्त आलोचना करने वाला ईमेल बीसीसीआई को भेजा जो लीक हो गया. इस विवाद ने चैपल की विदाई करवाई तो गांगुली के करियर के अंत की शुरूआत भी की.

स्लेजिंग विवाद (2007-2008)
क्रिकेट जिसे भद्रजनों का खेल कहा जाता है 2007-08 के ऑस्ट्रेलिया दौरे पर तब शर्मसार हो गया जब भारतीय स्पिनर हरभजन सिंह पर ऑस्ट्रेलियाई बल्लेबाज एंड्रयू साइमंड्स को जातिसूचक अपशब्द कहने का आरोप लगा. इस मामले में अपना फैसला सुनाते हुए आईसीसी मैच रेफरी माइक प्रॉक्टर ने हरभजन पर तीन टेस्ट मैचों की पाबंदी लगा दी साथ ही उन्हें कड़ी फटकार भी लगाई.

श्रीसंत-हरभजन थप्पड़ कांड (2008)
अप्रैल, 2008 में पहले आईपीएल में ही खेल भावना तब कलंकित हुई जब मोहाली में एक मैच के दौरान हरभजन सिंह ने साथी खिलाड़ी एस श्रीसंत को थप्पड़ रसीद कर दिया. इसके बाद पूरे देश में एक बखेड़ा खड़ा हो गया था जिसके बाद बीसीसीआई ने हरभजन सिंह पर आईपीएल के बाकी बचे 11 मैचों के लिए प्रतिबंध लगा दिया था.

शशि थरूर-ललित मोदी विवाद (2010)
अप्रैल 2010 में तत्कालीन आईपीएल कमिश्नर ललित मोदी ने खुलासा किया कि कोच्चि टीम के मालिकों को लेकर स्थिति साफ नहीं है, ऐसा लगता है कि इसमें एक से ज्यादा लोगों ने गलत तरीके से पैसा लगाया है. इसके मालिकों में एक शशि थरूर (तत्कालीन विदेश राज्य मंत्री) की दोस्त सुनंदा पुष्कर भी हैं जिन्हें टीम में 70 करोड़ रूपए के शेयर मुफ्त दिए गए हैं. मोदी ने कहा कि इस टीम को लेकर शशि थरूर लगातार उनपर दबाव बना कर उन्हें प्रताड़ित कर रहे हैं. इसके बाद थरूर ने मोदी पर वित्तीय घोटालों का आरोप लगाया साथ ही सुनंदा ने अपनी हिस्सेदारी छोड़ने की पेशकश की. लेकिन यह विवाद थरूर और मोदी दोनों की कुर्सी जाने के बाद ही थमा.

देहव्यापार, छेड़-छाड़ और रेव पार्टी (2012)
2012 में पुणे वारियर्स के दो खिलाड़ी राहुल शर्मा और वेन पार्नेल मुम्बई में हुई एक रेव पार्टी में आपत्तिजनक हालत में गिरफ्तार किए गए. इसी साल आस्ट्रेलियाई खिलाड़ी ल्यूक पाम्शबाक पर एक अमेरिकी महिला जोहल हमीद ने छेड़छाड़ और उनके मंगेतर से मारपीट करने का आरोप लगाया. 2012 में ही पुणे क्राइमब्रांच ने दो आईपीएल चीयरलीडर्स को छापा मारकर देह व्यापार के आरोप में गिरफ्तार किया.

स्पॉट फिक्सिंग(2012)
आईपीएल-5 के दौरान एक टीवी चैनल के स्टिंग आपरेशन में स्पॉट फिक्सिंग का खुलासा हुआ. इसके बाद मोहनीश मिश्र, शलभ श्रीवास्तव, टीपी सुधीन्द्र, अभिनव बाली और अमित यादव को फिक्सिंग के आरोप में निलंबित कर दिया गया. इसके अलावा पाकिस्तान के नदीम गौरी समेत कुछ अन्य अंपायर भी फिक्सिंग के आरोप में निलंबित हुए.

स्पॉट फिक्सिंग(2013)
इसी साल यानी आईपीएल-6 में स्पॉट फिक्सिंग को लेकर सबसे ज्यादा विवाद हुआ. 16 मई को दिल्ली पुलिस ने राजस्थान रॉयल्स के तीन खिलाड़ियों श्रीसंत, अजीत चंदीला और अंकित चव्हाण को स्पॉट फिक्सिंग के आरोपों में गिरफ्तार कर लिया. साथ ही पुलिस ने अलग-अलग जगहों से दस से ज्यादा सटोरियों, अभिनेता विंदू दारा सिंह और बीसीसीआई प्रमुख श्रीनिवासन के दामाद मयप्पन को फिक्सिंग  के आरोप में गिरफ्तार किया.

मोहभंग की ओर

दशकों तक भारत में यह लगभग सर्वमान्य तथ्य रहा है कि यहां क्रिकेट धर्म की तरह है और सचिन तेंदुलकर इस धर्म के आराध्य. लेकिन पिछले दिनों घटी एक घटना हमें इस बात का इशारा देती है कि अब हमें सालों पुराने इस तथ्य को फिर से जांचना होगा. दिसंबर के आखिरी दिन थे. दिल्ली बलात्कार कांड से पूरा देश आहत और आक्रोशित था. ऐसे माहौल में यकायक खबर आती है कि क्रिकेट के खुदा सचिन तेंदुलकर ने वन-डे से संन्यास ले लिया है, खबरों को थोड़ा भी करीब से समझने वाला जानता है कि यह कितनी बड़ी खबर थी.

इसलिए यह अंदेशा जताया जाने लगा कि मीडिया अब रेप-कांड की खबर को किनारे कर देगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. सभी चैनलों ने सचिन के संन्यास की खबर को तरजीह ही नहीं दी. यह दिखाता है कि क्रिकेट अब धर्म नहीं रह गया है और सचिन के देवत्व का मोह भी कम हुआ है. मशहूर खेल पत्रकार दारेन शाहिदी तहलका से बातचीत में कहते हैं- ‘पिछले कुछ सालों से इस मुल्क में क्रिकेट तभी खबर है जब रियल न्यूज का अभाव है. अब जनता असल खबरों के स्थान पर क्रिकेट नहीं देखना चाहती. हाल में छत्तीसगढ़ में नक्सली हमला होने के ठीक पहले तक मीडिया आईपीएल से जुड़ी खबरें दिखा रहा था लेकिन इस हमले के बाद चैनल्स से आईपीएल मुकाबले किनारे हो गए. अगर क्रिकेट की खबरें थीं भी तो इसके भ्रष्टाचार से जुड़ी हुई थीं. साफ है कि जनता के लिए क्रिकेट अब इतनी अहमियत नहीं रखता कि सब कुछ भूल-भाल कर उसे देखा जाए. हालिया मैच-फिक्सिंग कांड क्रिकेट की लोकप्रियता को और कम करेगा.’

दारेन की बात में सच्चाई है. 18 मई को मैच फिक्सिंग के खुलासे के दूसरे ही दिन बीसीसीआई प्रमुख श्रीनिवासन ने एक बयान जारी किया- ‘मै विश्वास दिलाता हूं, आईपीएल फिक्स बिल्कुल नहीं है, दोषी खिलाड़ियों को सज़ा मिलेगी.’ साफ है कि श्रीनिवासन को चिंता थी कि जनता में आईपीएल के फिक्स होने की धारणा बनने से इसकी लोकप्रियता पर असर पड़ रहा है. कई शहरों में आईपीएल के खिलाफ प्रदर्शन भी हो रहे थे. फिक्सिंग वैसे भी क्रिकेट की लोकप्रियता में हमेशा ग्रहण लगाती रही है. सन 2000 में भी मैच-फिक्सिंग के खुलासों के बाद लंबे वक्त तक क्रिकेट प्रेमियों का भरोसा इस खेल पर से उठ गया था और इसके मुकाबलों को को दर्शक ढूंढ़े नहीं मिल रहे थे. खेल पत्रकार हेमंत सिंह फिक्सिंग के प्रभाव को एक नई तरह से समझाते हुए कहते हैं, ‘नब्बे के दशक में डब्ल्यूडब्ल्यूई की फाइट बेहद पॉपुलर थी लेकिन जैसे ही यह खुलासा हुआ कि ये कुश्तियां न केवल फिक्स होती हैं बल्कि झूठी भी होती हैं तो यकायक इन कुश्तियों का ग्राफ जमीन पर आ गया. अगर आईपीएल के हर सीजन में ऐसे ही फिक्सिंग के खुलासे होते रहे तो इसका हश्र भी रेसलिंग जैसा हो सकता है.’

क्रिकेट की लोकप्रियता कम हो रही है, यह सिर्फ खेल विशेषज्ञ या चंद घटनाएं ही नहीं कह रहीं. बल्कि अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद भी इसे मानती है. 2011 में आईसीसी के एक अध्ययन की रिपोर्ट में यह बात साफ शब्दों में कही गई थी कि भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता लगातार घट रही है, खासकर वनडे और टेस्ट क्रिकेट को लोकप्रिय बनाए रखने के लिए खास कोशिशों की जरूरत है. यह सच है कि टी-ट्वेंटी के तमाशे वाले इस दौर में टेस्ट और वनडे के दर्शक सबसे ज्यादा कम हुए हैं. लेकिन गहरी बात यह है कि टी-ट्वेंटी की लोकप्रियता भी लगातार गिर रही है.

खासकर आईपीएल की. टैम के मुताबिक आईपीएल की टीआरपी लगातार कम होती जा रही है. 2008 में पहले आईपीएल की टीआरपी सबसे ज्यादा 5.59 रही थी तो पिछले यानी आईपीएल-5 और हाल ही में समाप्त हुए आईपीएल-6 की टीआरपी सबसे कम क्रमश: 3.9 और 3.8 रही. आईपीएल-6 के पहले हफ्ते की टीआरपी 3.8 थी जो कि आपीएल पांच की पहले हफ्ते की टीआरपी से एक अंक कम थी. आईपीएल-5 के ओपनिंग मैच की टीआरपी 5.5 थी जो कि आईपीएल-6 के ओपनिंग मैच में घटकर सिर्फ 4.1 रह गई. टीआरपी के इन आंकड़ों से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आईपीएल की लोकप्रियता लगातार घट रही है. वह भी तब जबकि यह क्रिकेट का सबसे तेज़ मायावी और चमकीला स्वरूप है. निश्चित तौर पर लोगों का धर्म और उसके खुदाओं पर से भरोसा उठ रहा है.

-हिमांशु बाजपेयी