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…और नहीं आया भेड़िया

देश के इस इकलौते भेड़िया अभयारण्य के कार्यालय में न तो भेड़िये की कोई तस्वीर है न ही कोई अन्य प्रतीक
देश के इस इकलौते भेड़िया अभयारण्य के कार्यालय में न तो भेड़िये की कोई तस्वीर है न ही कोई अन्य प्रतीक

हममें से शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने रुडयार्ड किपलिंग की लिखी मोगली की कहानी नहीं पढ़ी हो. हां, वही मोगली जिसे भेड़ियों ने पाला था. जाहिर है जब हम रांची से 200 किलोमीटर दूर लातेहार जिले में स्थित देश के एकमात्र भेड़िया अभयारण्य की ओर बढ़े तो हमारे मन में तमाम रोमांचक कल्पनाएं उमड़ती-घुमड़ती रहीं. हम महुआडांड़ स्थित वन विभाग के कार्यालय पहुंचते हैं जहां हमारी मुलाकात रामदेव बड़ाईक से होती है. बड़ाईक वहां के अतिथिगृह की देखभाल करने वाले दिहाड़ी कर्मचारी हैं. हम गौर करते हैं कि देश के इस इकलौते भेड़िया अभयारण्य के कार्यालय में न तो भेड़िये की कोई तस्वीर है न ही कोई अन्य प्रतीक. हमारी जिज्ञासा पर बड़ाईक हमें एक छोटा-सा बोर्ड दिखाते हैं जिस पर लिखा है, ‘महुआडांड़ भेड़िया आश्रयणी, वन्यप्राणी संरक्षण अधिनियम 1972 की धारा-18-1 के तहत अधिसूचित, अधिसूचना संख्या- 1062, दिनांक- 23/06/1976.’ इसके आगे कुछ जगहों के नाम लिखे हैं मसलन, चेतमा, सरनाडीह, पुरवा, उरुम्बी आदि. कुल 6,317 हेक्टेयर में फैले भेड़िया अभयारण्य का पूरा ब्योरा वहां दर्ज है. बड़ाईक चुनौतीपूर्ण अंदाज में कहते हैं, ‘अब यकीन हुआ न कि आप देश के इकलौते भेड़िया अभयारण्य के कार्यालय में हैं.’

बड़ाईक के सिवा वहां कोई नहीं मिलता और घंटे भर बाद जब हम भेड़ियों के आशियाने वाले इलाके में निकलने को होते हैं तो हमारे साथ पथ प्रदर्शक बनकर बड़ाईक ही चलते हैं. 10-15 किलोमीटर उबड़-खाबड़ रास्ता गाड़ी से तय करने के बाद पांच-छह किलोमीटर की पैदल यात्रा शुरू होती है. हम उनसे पूछते हैं, ‘रास्ते में भेड़िये हमला तो नहीं करेंगे न!’ बड़ाईक न हंसते हैं, न कुछ जवाब देते हैं. दुबारा पूछने पर कहते हैं, ‘अभी तो हम लोग तीन-चार की संख्या में हैं, अगर गलती से भेड़िये अकेले इंसान को भी देख लेंगे तो बेचारे अपनी जान बचाकर भागेंगे.’ दुरूह यात्रा के बाद हम सरनाडीह पहुंचते हैं. सरनाडीह यानी देश के इकलौते भेड़िया अभयारण्य का केंद्र स्थल और वर्षों से भेड़ियों का सबसे सुरक्षित ठिकाना. गांव से थोड़ी दूर पर पत्थरों के विशाल टीले दिखते हैं. बड़ाईक चिल्लाते हैं- मांद नंबर एक दिखने लगी है. मांद नंबर एक के पास पहुंचते ही वे उसके प्रवेश पर लेट जाते हैं. गर्दन घुसाकर गंध लेने की मुद्रा बनाए हुए कहते हैं, ‘आइए ना, गंध सुंघिए.

भेड़िये की गंध आ रही है, सड़े हुए मांस की भी. अंदर होंगे भेड़िये.’ वह काल्पनिक गंध सिर्फ बड़ाईक ही सूंघ पाते हैं. गंध पर हमारे यकीन नहीं करने पर बड़ाईक अपनी टी-शर्ट में सटे एक-दो बाल दिखाते हुए कहते हैं, ‘अच्छा इस बाल को देखिए, अब तो यकीन हो रहा है न कि भेड़िया रहता होगा.’  मांद नंबर दो पहुंचकर भी हमें कुछ नहीं दिखता. बड़ाईक सूखा मल दिखाते हुए कहते हैं, ‘देखिए, भेड़िये का मल है यह. पक्के तौर पर.’ हम समझ नहीं पाए कि वे उसकी पहचान कैसे कर रहे हैं. यहां कई प्राकृतिक मांद हैं, पर कहीं कोई भेड़िया नहीं दिखता, न उसकी कोई ठोस निशानी. बड़ाईक विभाग के वफादार कर्मी की तरह हमें यकीन दिलाने की कोशिश करते हैं कि भेड़िये यहां रहते हैं लेकिन वे भी जानते हैं कि देश के इस इकलौते भेड़िया अभयारण्य में भेड़िया दिखा देना अब इतना आसान नहीं है. रास्ते में हमें सरनाडीह अतिथिगृह दिखता है. कभी भेड़िया प्रेमियों का आशियाना अब खंडहर बन चुका है.

गांव में बने वन आरक्षी केंद्र को देखकर भी यही लगता है कि वर्षों से यहां कोई नहीं आया. रास्ते में ही भेड़ियों की प्यास बुझाने के लिए बनाए गए छोटे तालाब भी दिखते हैं. वहां पानी की एक बूंद भी नहीं है. सरनाडीह गांव में कई लोगों से हम सिर्फ एक सवाल पूछते हैं, ‘क्या हाल के दिनों में आपने किसी भेड़िये को देखा है?’ 78 वर्षीया बुजुर्ग मिलियान एक्का बताती हैं, ‘दो-तीन साल पहले भेड़िया मेरी मुर्गी को उठा ले गया था. पहले भेड़िये आते थे लेकिन अब नहीं दिखते.’ इसी गांव में तिनतुसिया कुजूर से बात होती है. वे भी इसी भेड़िया अभयारण्य से सेवानिवृत्त हुए हैं. वे बताते हैं कि पहले अलसुबह और शाम होते ही भेड़ियों की आवाज सुनाई देने लगती थी लेकिन अब नहीं. वे बताते हैं, ‘सरकार ने तो फिर भी 1976 में इसे, देश का इकलौता भेड़िया अभयारण्य घोषित किया लेकिन जिन मांदो को देखकर आप आ रही हैं, आदिवासी समाज के बीच वे पीढ़ियों से ‘हुंड़ार पारिस’ नाम से ही मशहूर रहे हैं.’ हुंड़ार का मतलब भेड़िया और पारिस का आशय है बंगला.

हमारे साथ सामाजिक कार्यकर्ता और इसी इलाके के बाशिंदे जेरोम जेराल्ड कुजूर भी हैं. वे कहते हैं, ‘हम तो बचपन से ही ‘हुंड़ार पारिस’ जानते हैं और यह भी सुनते रहे हैं कि कभी गांववालों और भेड़ियों में मुठभेड़ नहीं हुई बल्कि गांववाले स्वेच्छा से भेड़ियों के लिए बकरी-सुअर-मुर्गी आदि बाहर छोड़ दिया करते थे ताकि वो आएं तो अपना आहार लेकर लौट जाएं.’ हम यह समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर क्यों भेड़ियों का आदिवासी समाज से इतना गहरा रिश्ता रहा है और भेड़ियों की मांद के पास गांव बसाने में आदिवासियों को क्यों डर नहीं लगा. इसका जवाब भेड़िया संरक्षण अभियान से जुड़े डेबरा मैकॉन अपनी वेबसाइट ‘सेक्रेड वुल्फ ड्रीम्स स्पिरिट वर्ल्ड’ में लिखते हैं, ‘आदिवासियों और भेड़ियों के बीच गहरा संबंध रहा है और आदिवासी समाज भेड़ियों के साथ बहुत सहज महसूस करते रहे हैं. वे मानते हैं कि भेड़िये खतरनाक जंगली जानवरों से उनकी रक्षा करेंगे और फिर दोनों की जीवनशैली भी कुछ मायने में एक जैसी है. आदिवासी भी समूह में रहते हैं और भेड़िये भी.’

पुरानी कहानी का पुनर्पाठ

इलस्ट्रेशन: मनीषा यादव
इलस्ट्रेशन: मनीषा यादव
इलस्ट्रेशन: मनीषा यादव

हम किस शहर में रहते हैं? यह सवाल ही गलत है. सवाल यह होना चाहिए कि हम कैसे शहर में रहते हैं. आज हमारे शहर की पहचान क्या है? यह कि जहां शोर इस कदर बढ़ गया है कि सन्नाटे रात को भी नहीं आते! या यह कि यहां का रहवासी इतना सभ्य हुआ या यूं कहें कि शहर ही जंगल हुआ कि जंगल से अब आदमखोर नहीं आते! या फिर यह कि यहां कई अट्टालिकाएं गगनचुंबी हुईं कि बहुतेरी छतों पर अब रवि महाराज नहीं विराजते. कुछ पल के लिए भी नहीं. क्या इसी शहर पर हम इतराते हैं. क्या ऐसे ही शहर की कल्पना की थी हमने! जब कोई शहरी किसी गांववाले को धोती-कुरता पहने, गमछा डाले स्टेशन से बाहर निकलते हुए देखता है, तो सोचता है कि यह भी आ गया मरने. भीड़ बढ़ाने. ठीक वैसे ही जैसे किसी शहरी ने कभी इस वाले शहरी को स्टेशन से बाहर निकलते देख सोचा था. अभी इन्हीं खयालातों में डूब-उतरा रहा था कि शहर को मैंने अपने सामने से जाते देखा. सहसा विश्वास न हुआ. यह तो वही बात हो गई कि शैतान का नाम लो और शैतान हाजिर. मैंने शहर को रोककर कहावत सुना दी. शहर हंसा. मगर मैं गंभीर रहा. वजह थी अखबार में छपी एक खबर. उस खबर का हवाला अब हमारे बीच होने वाले संवादों में आने वाला था.

मैंने शहर से पूछा, ‘कल रात फुटपाथ पर बच्चा भूख से रोता रहा और तू घोड़ा बेचकर सोता रहा!’ शहर मुझे घूरने लगा. उसे इस बाबत कुछ भी पता नहीं था. मैंने अखबार उसके आगे बढ़ा दिया. शहर ने उड़ती नजरों से वह खबर पढ़ी. अखबार मुझे थमाते हुए लापरवाही से बोला, ‘यार, दिन भर का थका था. बिस्तर पर एक बार जो गिरा तो फिर कुछ नहीं पता. तू यह समझ जैसे कि मैं मरा था.’ ‘मैं जानता हूं कि कल रात भी तूने पी रखी होगी, नहीं तो रोना सुनकर झट खिड़कियां बंद कर ली होंगी.’ मेरी इस बात में दम था. वरना शहर अभी तक शोर मचाने लगता. शहर कुछ पल को शांत रहा. यकीन नहीं होता न! मगर वह हुआ, जैसे किसी भयानक विस्फोट के बाद कुछ पल की खामोशी. मनहूस. नितांत मनहूस.

शहर के शांत होने की वजह भी मुझे जल्द ही समझ में आ गई. शहर बोला, ‘मुझे ऐसी नजरों से मत देखो. इसमें मेरा कोई कसूर नहीं. अगर मुझे नींद से जगाना ही था, तो उस भूखे बच्चे को जोर से चीखना-चिल्लाना था न!’ शहर की सफाई सुनकर मैं सोच में पड़ गया. यह इसकी क्रूरता कही जाए या उसका भोलापन या कि हाजिरजवाबी! मैं अभी सोच रहा था कि शहर चलने को हुआ. शहर के पास इतना समय कहां! मैंने उसे रुकने का इशारा किया, मगर वह नहीं रुका. जाते हुए शहर को मैंने जोर से कहा, ‘लगता है कि तू संज्ञाशून्य हो गया है, तभी स्वत: संज्ञान को भूल गया है. अरे पगले, जोर लगाने के लिए भी तो जोर चाहिए. मैं समझ गया, तुझे सिसकियों की जगह शोर चाहिए.’

कह नहीं सकता शहर मेरी बात सुन पाया कि नहीं, क्योंकि मेरे देखते ही देखते शहर भागने लगा था. मित्रों, शहर की यह कहानी आज की नहीं, कल की नहीं बरसों पुरानी है. फुटपाथ पर भूख से व्याकुल बच्चा रोता है और शहर आराम से सोता है. मासूमों-मजलूमों की सिसकियां शहर के तेज खर्राटों में खो जाती हैं. अगली सुबह शहर जगता है, काम पर चलता है, दिन ढलता है, शाम होती है, रात आ जाती है और वही पुरानी कहानी एक बार फिर ताजा-तरीन होकर हमारे सामने आ जाती है. जानते हो कल रात शहर में क्या हुआ? कल रात भी भूख से व्याकुल बच्चा रोता रहा… रोता रहा… और शहर  सोता रहा… सोता रहा…
-अनूप मणि त्रिपाठी

हे भगवान प्लास्टिक

प्लास्टिक ही प्लास्टिक
प्लास्टिक ही प्लास्टिक

लगभग नब्बे बरस पहले हमारी दुनिया में प्लास्टिक नाम की कोई चीज नहीं थी. आज शहर में, गांव में, आस-पास, दूर-दूर जहां भी देखो प्लास्टिक ही प्लास्टिक अटा पड़ा है. गरीब, अमीर, अगड़ी-पिछड़ी पूरी दुनिया प्लास्टिकमय हो चुकी है. सचमुच यह तो अब कण-कण में व्याप्त है–शायद भगवान से भी ज्यादा!

मुझे पहली बार जब यह बात समझ में आई तो मैंने सोचा कि क्यों न मैं एक प्रयोग करके देखूं- क्या मैं अपना कोई एक दिन बिना प्लास्टिक छुए बिता सकूंगी. खूब सोच-समझकर मैंने यह संकल्प लिया था. दिन शुरू हुआ. नतीजा आपको क्या बताऊं, आपको तो पता चल ही गया होगा. मैं अपने उस दिन के कुछ ही क्षण बिता पाई थी कि प्लास्टिक ने मुझे छू लिया था! फिर मैं सोचती रही कि इस विचित्र चीज ने कैसे हम सबको, हमारे सारे जीवन को बुरी तरह से घेर लिया है. सब जानते हैं, या कुछ तो जानते ही हैं कि यह बड़ा विषैला है. पर इस विषैली प्रेम कहानी ने हमें जन्म से मृत्यु तक बांध लिया है. अब हम सब इस बात को भी भूल चुके हैं कि हमारा जीवन कभी बिना प्लास्टिक के भी चलता था, ठीक से चलता था. प्लास्टिक की थैली नहीं थी, प्लास्टिक की बोतल नहीं थी पर हम थे, हमारा जीवन तो था. यही सब सोचते-सोचते मैंने इस विचित्र पदार्थ की जानकारी एकत्र करने की शुरुआत किया. इसके बारे में सोचना-समझना, पढ़ना-लिखना शुरू किया.

तब मुझे यह जानकर बड़ा ही अचरज हुआ कि दुनिया में तेल की, पेट्रोल की खोज के बाद प्लास्टिक का उदय हुआ था. तेल और प्राकृतिक गैस की खुदाई के बाद उनकी सफाई की जाती है. उस सफाई में जो कचरा बच निकलता है–हमारा यह प्लास्टिक उसी का हिस्सा है. यों देखा जाए तो सिद्धांत तो अच्छा ही था. कचरे को यों ही कहीं फेंक देने के बदले उसमें से कोई और काम की चीज बन जाए तो कितनी अच्छी बात है. इस तरह पेट्रोल की सफाई से निकले कचरे से हमारा यह प्लास्टिक बन गया. पर शायद साध्य और साधन दोनों ही गड़बड़ थे. इसलिए सिद्धांत भले ही ठीक था, परिणाम भयानक ही निकला.

फिर धीरे-धीरे मुझे यह भी समझ में आने लगा कि ये प्लास्टिक महाराज एक नहीं हैं, उनके तो कई रूप हैं, कई अवतार हैं. और इनके हर रूप के जन्म की कहानी अलग-अलग है. फिर इन कहानियों में से और कहानियां निकलती हैं. उदाहरण के लिए, प्लास्टिक का पहला प्रकार सैलुलाइड नामक एक उत्पादन था. इससे तरह-तरह के कंघे, कंघियां और बटन आदि बने थे. इस उत्पादन के पहले ऐसी चीजें प्राय: कुछ जानवरों की हड्डियों से बनाई जाती थीं. उस काम के लिए ऐसे जानवरों को मारा जाता था. कच्चा माल आसानी से नहीं मिल पाता था तो पक्का माल भी कम ही बनता था. वह सबकी पहुंच से दूर ही रहता था. जैसे ही यह प्लास्टिक आया, ये सारी चीजें भी एकदम सस्ती हो गईं और खूब मात्रा में मिलने लगीं. हरेक की पहुंच में आ गईं. हर कमीज, कुरते, कुरती में करीने से बने रंग-बिरंगे लगने लगे और फिर कई जेबों में हल्की, मजबूत कंघियां भी रखी गईं. इस सरल-सी बात को कठिन बनाकर कहना हो तो बताया जा सकता है कि इस दौर में अचानक इन चीजों का ‘लोकतांत्रीकरण’ हो गया था.

फिर भी उस दौर में प्लास्टिक कण-कण में व्याप्त नहीं हो पाया था. इसकी शुरुआत तो सन 1920 के आस-पास हुई. इसके पीछे विश्व युद्ध का भी बड़ा हाथ था. अमेरिका और यूरोप के युद्धरत देशों ने अपने-अपने यहां के उद्योगों को इस बात के लिए बड़ा सहारा दिया, प्रोत्साहन दिया कि वे धातु आदि से बनने वाली भारी-भरकम चीजों के बदले उतनी ही मजबूत पर बेहद हल्की चीजों के उत्पादन की प्रक्रिया पर शोध करें. युद्ध में काम आने वाली चीजों का वजन ज्यादा होता था. इस कारण उनको यहां-वहां ले जाना कठिन और महंगा भी था. ऐसे विकल्प सामने आने लगे तो फिर उनका उत्पादन बढ़ाया जाने लगा. कहीं युद्ध में जरूरत की कोई चीज कम न पड़ जाए, किसी कमी की वजह से युद्ध ही न हार जाएं-इस भय से इन चीजों का उत्पादन बढ़ाकर रखा गया.

फिर जब युद्ध खत्म हुआ तो समझ में नहीं आया कि अब युद्ध के लिए लगातार सामान बना रहे इन कारखानों का क्या किया जाए. तब उन्हें एक दूसरे मोर्चे की तरफ मोड़ दिया–बाजार की तरफ. इस तरह प्लास्टिक से बन रही चीजों को युद्ध के मैदान से हटाकर बाजार की तरफ झोंक दिया गया. यही वह दौर है जिसमें अब तक तरह-तरह की धातुओं से, लकड़ी आदि से बन रही चीजें प्लास्टिक में ढलने लगीं. कुर्सी-मेज, कलम-दवात, खेल-खिलौने, चौके के डिब्बे-डिब्बी और तो और कपड़े-लत्ते भी प्लास्टिक से बनने लगे, बिकने लगे. इसके बाद तो प्लास्टिक उत्पादन की लहर पर लहर आती गई. दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद दुनिया के कई भागों में थोड़ी-बहुत शांति स्थापित हुई, कई देश नए-नए आजाद हुए और नागरिकों के मन में, जीवन में भी थोड़ी शांति, थोड़ा स्थायित्व आने लगा था. ठीक युद्ध की तरह ही इस शांति का भी प्लास्टिक उद्योग ने भरपूर लाभ उठाया. अब तक जम चुके व्यापार को उसने तेज गति दी.

अब उद्योग ने घर-गिरस्ती के दो-तीन पीढ़ी चल जाने वाले सामानों पर अपना निशाना साधा. थाली, कटोरी, बर्तन, कप-बशी, चम्मच, भगोने, बाल्टी-लोटे आदि न जाने कितनी चीजों को बस एक पीढ़ी के हाथ सौंपना और फिर छीन भी लेना उसने अपना लक्ष्य बनाया. वह पीढ़ी भी इस काम में, अभियान में खुशी-खुशी शामिल हो गई. फिर घर भी अब पहले से छोटे हो चले थे, संयुक्त परिवार भी टूटने के कगार पर थे. ऐसे में बाप-दादाओं-दादियों के भारी भरकम वजनी बर्तनों को कहां रखते. इनके बदले बेहद हल्के, शायद उतने ही मजबूत बताए गए रंग-बिरंगे प्लास्टिक के बर्तन आ गए. फिर तो जैसे एक-एक चीज चुनी जाने लगी. जहां-जहां प्लास्टिक नहीं है, वहां-वहां बस यही हो जाए–इस सधी हुई कोशिश ने फिर हमारे पढ़े-लिखे समाज का कोई भी कोना नहीं छोड़ा. हमारे कंधों पर टंगे जूट, कपड़े, कैनवस के थैलों से लेकर जूते-चप्पल- सब कुछ प्लास्टिकमय हो गया. प्लास्टिक की थैलियां सब जगह फैल गईं.

आज पूरी दुनिया, नई, पुरानी, पढ़ी-लिखी और अनपढ़ दुनिया भी इन्हीं प्लास्टिक की थैलियों को लेकर एक अंतहीन यात्रा पर निकल पड़ी है. छोटे-बड़े बाजार, देसी-विदेशी दुकानें हमारे हाथों में प्लास्टिक की थैली थमा देती हैं. हम इन थैलियों को लेकर घर आते हैं. कुछ घरों में ये आते ही कचरे में फेंक दी जाती हैं तो कुछ साधारण घरों में कुछ दिन लपेटकर संभाल कर रख दी जाती हैं, फिर किसी और दिन कचरे में डालने के लिए. इस तरह आज नहीं तो कल कचरे में फिंका गई इन थैलियों को फिर हवा ले उड़ती है, एक और अंतहीन यात्रा पर. फिर यह हल्का कचरा जमीन पर उड़ते हुए नदी-नालों में पहुंच कर बहने लगता है. और फिर वहां से बहते-बहते समुद्र में. यहां भी एक और अंतहीन यात्रा शुरू हो जाती है.

खोज करने वालों ने इस प्लास्टिक की समुद्री यात्रा को भी समझने की कोशिश की है. उन्हें यह जानकर अचरज हुआ कि हमारे घरों से निकला यह प्लास्टिक का कचरा अब समुद्रों में भी खूब बड़े-बड़े ढेर की तरह तैर रहा है. न वह जमीन पर गलता-सड़ता है न समुद्र में ही. यह प्लास्टिक तो आत्मा की तरह अजर-अमर है और प्रशांत महासागर में एक बड़े द्वीप की तरह धीरे-धीरे जमा हो चला है. जिन लोगों को आंकड़ों में ही ज्यादा दिलचस्पी रहती है, उन्हें तो इतना बताया ही जा सकता है कि अमेरिका में हर पांच सेकंड में प्लास्टिक की कोई 60 हजार थैलियां खप जाती हैं. इस तरह के आंकड़ों को किसी विशेषज्ञ ने पूरी दुनिया के हिसाब से भी देखकर बताया है कि हर 10 सेकंड में कोई दो लाख 40 हजार थैलियां हमारे हाथों में थमा दी जाती हैं. थोड़ी ही देर बाद फेंक दी जाने वाली ये थैलियां फिर गिनी नहीं जातीं. कचरा बन जाने पर गिनने के बदले इन्हें तोला जाता है. वह तोल हजारों टन होता है.

ऐसा भी नहीं है कि इस पर किसी का ध्यान न गया हो. प्लास्टिक के फैलते, पसरते व्यवहार को कई देशों ने, कई समाजों ने अपनी-अपनी तरह से रोकने के कई प्रयत्न किए हैं. कुछ देशों ने इस पर प्लास्टिक टैक्स लगाकर देखा है. ऐसा टैक्स लगते ही खपत में एकदम गिरावट भी देखी गई है.  कहीं-कहीं इन पर सीधे प्रतिबंध भी लगाया गया है. इसके बदले फिर अखबार, कागज, कपड़े की थैलियां, लिफाफे भी चलन में आए हैं. पर हमारा दिमाग इन चीजों को भी तुरंत कचरा बनाकर फेंक देता है. तब कचरे का ढेर, पहाड़ प्लास्टिक का न होकर कागज का बन जाता है. दुकानों से घर तक चीजें लाने का माध्यम इतनी कम उमर का क्यों हो, वह चिरंजीव क्यों न बने–प्लास्टिक के कारण अब ऐसे सवाल भी हमारे मन में नहीं उठ पाते. कुल मिलाकर हम सब प्लास्टिक के एक बड़े जाल में फंस गए हैं. यह जाल इतना बड़ा है और हम उसके मुकाबले इतने छोटे बन गए हैं कि हमें यह जाल दिखता ही नहीं. उसी में फंसे हैं. पर हम अपने को आजाद मानते रहते हैं. प्लास्टिक अब एक नया भगवान बन गया है. वह हमारे चारों ओर है. और शायद भगवान की तरह ही वह हमें दिखता नहीं.

(यह लेख जापान से प्रकाशित सोका गकाई इंटरनेशनल त्रैमासिक पत्रिका के जनवरी, 2013 के अंक में छपे एक लंबे इंटरव्यू पर आधारित है. हिंदी में इसे जाने-माने पर्यावरणविद और गांधीवादी अनुपम मिश्र ने प्रस्तुत किया है और यह गांधी मार्ग पत्रिका के मई-जून अंक में प्रकाशित हुआ है)

नाम का मनरेगा!

फोटो: साहिल मदान
फोटो: साहिल मदान

राजधानी भोपाल के सीहोर रोड पर बन रही एक गगनचुंबी इमारत के नीचे कुछ मजदूर परिवारों ने ईंटों की अस्थायी चारदीवारी बना ली है. इन्हें अंदाजा है कि वे कुछ महीनों तक यहीं रहेंगे. ठीक से हिंदी न बोल पाने वाले ये सभी लोग धार जिले की डही जनपद पंचायत के भिलाला आदिवासी हैं और अपने घर में भूखों मरने से बचने के लिए 500 किलोमीटर का सफर तय करके यहां तक पहुंचे हैं.

मार्च के बाद प्रदेश में खेतीबाड़ी के काम बंद हो जाते हैं. इसके बाद मजदूरों को काम की सबसे ज्यादा जरूरत पड़ती है. कुछ सालों पहले तक इन दिनों में निमाड़, मालवा सहित बाकी आदिवासी अंचल के लाखों लोग पड़ोसी राज्य गुजरात और महाराष्ट्र के बड़े शहरों की ओर कूच कर जाते थे. किंतु महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गांरटी योजना आने के बाद उनका हर साल का यह क्रम टूट गया. उन्हें गांव में ही काम मिलने लगा. इसीलिए पिछले छह साल में प्रदेश से अप्रैल, मई और जून के महीनों में होने वाला पलायन रुक-सा गया था. धार जिले के डही पंचायत के ही सुगरलाल बताते हैं कि उनके लिए यह योजना मुसीबत के दिनों में घर चलाने का अच्छा जरिया बन गई थी. मगर इस साल एक अप्रैल के बाद से उनकी पंचायत में किसी को एक दिन का भी काम नसीब नहीं हुआ. इसलिए एक बार फिर आस-पास के गांव के गांव खाली हो गए हैं.

दरअसल मध्य प्रदेश में सतपुड़ा और विंध्याचल की पहाड़ियों के बीच बसे लाखों लोगों के लिए काम की उम्मीद जगाने वाली मनरेगा इस वित्तीय वर्ष में अकाल मौत के मुंह में चली गई है. हालत यह है कि जिन महीनों में कई सौ करोड़ रुपये खर्च होने चाहिए थे, उनमें यह आंकड़ा अभी तक पचास करोड़ रुपये तक भी नहीं पहुंचा. नतीजा यह कि मनरेगा से बेदखल लोग जिंदा रहने के लिए सालों पुरानी परंपरा यानी पलायन पर लौट आए हैं.  आधे दशक के बाद प्रदेश के लाखों मजदूर काम की तलाश में अब फिर से इधर-उधर भटक रहे हैं.

मध्य प्रदेश पंचायत और ग्रामीण विकास विभाग के आंकड़े अभी सार्वजनिक नहीं हुए हैं. लेकिन तहलका के पास मौजूद विभाग की ताजा रिपोर्ट के आंकड़े काफी चौंकाने वाले हैं. बीते साल अप्रैल से जून तक मनरेगा में 12 सौ करोड़ रुपये खर्च हुए थे. इस साल सरकार ने इस अवधि के लिए अनुमानित राशि 16 सौ करोड़ रुपये रखी थी. पर हैरानी की बात है कि इस साल अप्रैल से अब तक मप्र के सभी 50 जिलों में 25 करोड़ रुपये भी खर्च नहीं हुए. दूसरे शब्दों में मनरेगा के तहत हर साल इन तीन महीनों में खर्च की जाने वाली राशि का यह दो प्रतिशत पैसा भी नहीं है. ऐसा तब है जब बीते साल धार और बालाघाट जैसे एक-एक आदिवासी जिले में सौ-सौ करोड़ रुपये का काम हुआ था. यही वजह है कि इस बार मनरेगा का पैसा गांवों तक नहीं पहुंचने से जहां गांवों में विकास का काम ठप पड़ा है वहीं जिस संख्या में ग्रामीण गांवों से पलायन कर रहे हैं उसे भांपते हुए विभाग के होश उड़ गए हैं. लिहाजा बीती 27 मई को विभाग आयुक्त ने सभी कलेक्टरों को यह फरमान भेजा है कि वे कैसे भी राज्य के 20 लाख मजदूरों को पलायन से रोकें.

सवाल उठता है कि बीते सालों तक जो योजना ठीक-ठाक चल रही थी वह यह साल शुरू होने से पहले ही ठप क्यों हो गई.  दरअसल ऐसा हुआ राजधानी भोपाल में बैठे चंद अदूरदर्शी नौकरशाहों के चलते. इन्होंने मनरेगा को हाईटेक बनाने के लिए इस साल जनवरी में बिना तैयारी के सभी जिलों में ई-वित्तीय प्रबंधन लागू कर दिया. इसके लिए उन्हें लाखों मजदूरों के खातों को न केवल राष्ट्रीयकृत बैंक से जुड़वाना था बल्कि उन खातों को ‘नरेगा सॉफ्ट’ नामक सॉफ्टवेयर में डलवाते हुए सभी का ई-मस्टर (कम्प्यूटर पर मजदूर की मजदूरी का ब्योरा) बनवाना था. प्रदेश में मनरेगा के 50 लाख से ज्यादा मजदूर हैं, इस लिहाज से एक जिले के एक लाख मजदूरों के खाते बैंकों में खुलवाना इतना बड़ा काम था जिसे कुछ दिनों में कर पाना संभव नहीं था. यह सारा काम मार्च तक हो जाना था, लेकिन नहीं हुआ. इस तरह योजना का सारा काम रुक गया और इसका खामियाजा बेकसूर मजदूरों को भुगतना पड़ा.

प्रदेश में इसके पहले 13वें वित्त आयोग और राज्य वित्त आयोग की राशि ग्राम पंचायतों को सौंपी जाती थी और पंचायतें ग्रामसभा के जरिए निर्माण कार्य कराती थीं. मगर अब जबकि मनरेगा सहित सभी कामों के वित्तीय अधिकार से सरपंचों को बेदखल किया जा चुका है तो उनमें असंतोष है और इसलिए उन्होंने मार्च के बाद से मनरेगा से खुद को अलग कर लिया है.

इसके पहले मनरेगा के मामले में मध्य प्रदेश अव्वल राज्यों में गिना जाता था. बालाघाट, बैतूल और अनूपपुर जैसे जिलों को प्रधानमंत्री ने उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए अवॉर्ड भी दिया था. आज इन्हीं जिलों के लाचार मजदूर अधिकारियों से काम की गुहार लगा रहे हैं. इस मुद्दे पर कोई भी आला अधिकारी आधिकारिक जवाब नहीं देना चाहता. पंचायत और ग्रामीण मंत्री गोपाल भार्गव इस बारे में विभाग की अतिरिक्त प्रमुख सचिव अरुणा शर्मा से संपर्क साधने को कहते हैं. शर्मा मानती हैं कि मनरेगा के मामले में प्रदेश पिछड़ गया है. वे कहती हैं, ‘आने वाले दिनों में इसकी भरपाई कर ली जाएगी.’ सवाल है कि भरपाई होगी कैसे. आने वाले तीन महीने बारिश में निकल जाएंगे और उसके बाद का समय चुनावी सरगर्मियों में जाएगा.

वहीं एक वर्ग की सोच है कि मनरेगा में मनमानी, कामचोरी और अनियमितताओं के चलते भी राज्य में यह योजना बैठ गई. दिल्ली में बहस चल रही है कि मनरेगा के चलते किसानों को खेती के लिए मजदूर नहीं मिलते. जबकि राज्य में मनरेगा इतना फटेहाल है कि मजदूर मनरेगा में काम करने के बजाय शहर जाना चाहता है. बड़वानी में काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता माधुरी कृष्णास्वामी बताती हैं कि मनरेगा में मजदूरों को एक तो आधा-अधूरा पैसा बांटा जाता है और उस पर भी यह उन तक छह महीने के बाद तक पहुंचता है. वे कहती हैं, ‘बीते कुछ सालों में ही मनरेगा में मजदूर आदिवासियों की तेजी से घटती संख्या उनका मोहभंग दिखाती है.’
मनरेगा के चलते बीते सालों तक मप्र के 52 हजार गांवों में सालाना साढ़े तीन हजार करोड़ रुपये आते थे. इसलिए यह योजना ग्रामीण अर्थव्यवस्था की अहम धुरी बन गई थी. भले ही यह पैसा मजदूरों के खातों से निकलकर छोटे-छोटे दुकानदारों तक पहुंचता था, लेकिन धनराशि का यह चक्र करीब दो करोड़ आबादी के बीच चलता था. इन दिनों यदि यह पैसा दिल्ली से प्रदेश के गांवों तक पहुंचता तो न केवल मजदूर परिवारों को काम मिलता बल्कि उनके खर्च की क्षमता भी बढ़ती. और इसका असर तीज-त्योहार और हाट बाजारों पर पड़े बिना नहीं रहता. लेकिन ऐसा नहीं होने से ग्रामीण इलाके के हाट बाजारों में जहां पिछले साल के मुकाबले लाखों रुपये की कम खरीदी हुई है वहीं इन बाजारों की रौनक भी उड़ी हुई है.

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आईपीएल में सट्टेबाजी और स्पॉट फिक्सिंग के ताज़ा विवाद का वास्ता सिर्फ क्रिकेट में चली आई गंदगी से नहीं, बल्कि एक ज्यादा बड़ी सड़ांध से है जो हमारी नई पूंजीपरस्त व्यवस्था में मौजूद है. इस व्यवस्था को पूंजी और सत्ता का एक गठजोड़ चलाता है जो तटस्थ होने का दिखावा करता है, लेकिन मूलतः भ्रष्ट है. जब कोई बड़ा खुलासा आता है तो उसकी तटस्थता तार-तार हो जाती है, उसका गठजोड़ उजागर हो जाता है.

आईपीएल में भी यही हुआ है. पहले बीसीसीआई प्रमुख श्रीनिवासन को बचाने की कोशिश हुई और जब लगा कि यह संभव नहीं होगा तो उस शख्स को लाकर बिठा दिया गया, जिस पर कभी बीसीसीआई ने ही गंभीर आरोप लगाए थे. अब जगमोहन डालमिया खेल की गंदगी दूर करने की बात कर रहे हैं. यह सब उस बीसीसीआई में हो रहा है जिसकी प्रशासकीय कमेटी में कांग्रेस के राजीव शुक्ला और ज्योतिरादित्य सिंधिया भी शामिल हैं और बीजेपी के अरुण जेटली और नरेंद्र मोदी भी, और जिसके अलग-अलग आयोजनों में किसी न किसी रूप से देश के कई बड़े औद्योगिक घराने जुड़े हुए हैं. शुचिता की खूब बात करने वाली बीजेपी के सबसे बड़े नेता यहां किसी का इस्तीफा नहीं मांग रहे, बीच का रास्ता खोज रहे हैं कि विवादों का सांप भी मर जाए और गठजोड़ की लाठी भी बची रहे.

दरअसल यह पूंजी का खेल है जो अपने नियम और अपनी संस्कृति गढ़ रही है. सिर्फ क्रिकेट ही नहीं, हमारी राजनीति, हमारे मनोरंजन, समूचे सामाजिक-सांस्कृतिक संबंधों के निर्धारण और नियमन में यह पूंजी सबसे बड़ी भूमिका निभा रही है. कभी कभी तो वह स्वयं नियामक भी हो जाती है और तर्क भी. बहुत सारे स्कूल, अस्पताल और कारखाने इसलिए बंद कर दिए जा रहे हैं कि वे मुनाफा नहीं दे रहे या पूंजी पैदा नहीं कर रहे. जिन दूसरे खेलों और उपक्रमों को पूंजी का यह आशीर्वाद हासिल नहीं है, वे विपन्न हैं, पीछे छूटे हुए हैं.

यह बस इतना याद दिलाने की कोशिश है कि धीरे-धीरे हम एक ऐसे समाज में बदलते जा रहे हैं जहां पूंजी ही इकलौती नैतिकता है, मुनाफा ही इकलौता तर्क है. इस पूंजीतंत्र में काले पैसे और हवाला से लेकर श्रम कानूनों की अवहेलना का एक पूरा जंजाल फैला हुआ है. लेकिन यही पूंजी तय करती है कि खेल किस तरह चलेगा, फिल्में कैसी बनेंगी, राजनीति किस तरह से होगी, पढ़ाई कैसे होगी, इलाज कैसे होगा, लोग सड़कों पर किस तरह चलेंगे, वे कहां रहेंगे, क्या खाएंगे, कैसे जिएंगे और कैसे मरेंगे. यह अनायास नहीं है कि हमारे समय के सबसे बड़े नायक लेखक या चिंतक या कलाकार नहीं हैं, बल्कि उद्योगपति और उनके इशारों पर बनाए जा रहे अभिनेता और क्रिकेटर हैं. हद तो यह है कि ये उद्योगपति सिर्फ पैसा कमाने के गुर नहीं सिखा रहे हैं, समाज को चलाने का ढंग भी बता रहे हैं. वे शिक्षा सुधार कमेटी में होते हैं, वे सामाजिक परिवर्तन की कमेटी में होते हैं, वे हुनर तय करने वाली कमेटी में हैं- वे बाजार में पैसा बनाने में सफल हैं, इसलिए हर जगह सफलता की गारंटी बने हुए हैं.

दुर्भाग्य से जिन संस्थाओं या प्रतिष्ठानों को पूंजी के इस आक्रमण या अतिक्रमण का प्रतिरोध करना है, वे या तो एक-एक कर खत्म की जा रही हैं या फिर पूंजी की जरूरतों के हिसाब से बदली जा रही हैं. स्कूलों से लेकर कॉलेजों तक में पढ़ाई इसलिए नहीं कराई जा रही कि देश को अच्छे इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक, प्रबंधक, लेखक या विचारक मिलें, बल्कि इसलिए कराई जा रही है कि उन्हें अच्छे पैसे वाली नौकरी मिले. विश्वविद्यालय ऐसी नौकरी दिलाने में नाकाम हैं तो वे अप्रासंगिक हैं, उन्हें बदला जा रहा है. स्कूल और अस्पताल भी इस तरह खोले जा रहे हैं कि वे फाइव स्टार होटल लगें और वहां किया जा रहा निवेश कई गुना बड़ा होकर वापस लौटे.यह पूंजी हमारे पूरे कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को ही क्षतिग्रस्त कर रही है. उसे अपने लिए सस्ते कर्ज चाहिए, रियायतें चाहिए, सस्ती ज़मीन चाहिए, लेकिन गरीबों को दी जाने वाली सब्सिडी उसे मंजूर नहीं, उन सरकारी अस्पतालों और स्कूलों में पैसा लगाना मंजूर नहीं जहां मुफ्त में पढ़ाई या इलाज का इंतजाम हो.

इस पूरी व्यवस्था में, अमीरों की इस आम सहमति में, हमारे लोकतंत्र की सबसे मुश्किल चुनौतियां छिपी है. सामाजिक बराबरी का या सबके लिए संसाधनों का सवाल बहुत पीछे छूट गया है. दलित, आदिवासी, पिछड़े सब जैसे हाशियों पर खोए हुए हैं. एक ताकत उनके पास उनके वोट की है जिसकी वजह से उनका एक तबका इस राजनीतिक लूटतंत्र में अपना हिस्सा वसूल लेता है, लेकिन कुल मिलाकर उनकी सुनवाई यहां नहीं है. ऐसे में इस लोकतंत्र से निराश या नाराज लोग, विकास के नाम पर उजाड़े जा रहे समुदाय तरह-तरह की हिंसा के जाल में घिरते दिखाई देते हैं.

आईपीएल या क्रिकेट को साफ करना निश्चय ही जरूरी है, लेकिन उससे जरूरी हमारे समय के इस आक्रामक, अराजक और वैश्विक पूंजीवाद के संदिग्ध कारोबार से निपटना है, जो भारत में तरह-तरह से बना हुआ है.पिछले दिनों सामने आए तमाम तरह के घपले-घोटालों में नेताओं, अफसरों और उद्योगपतियों का जो गठजोड़ फंसता दिखाई पड़ा, इत्तिफाक से वही गठजोड़ आईपीएल में भी नज़र आ रहा है. दरअसल असली घपला यही है कि हमारे यहां पूंजी के सामने समर्पण भाव बढ़ता जा रहा है. वह एक समाज के रूप में हमारी स्मृति, चेतना और नैतिकता पर लगातार हमला कर रही है, उसे बदल रही है ताकि यह समर्पण स्थायी हो सके, उसका दानवी विस्तार अवेध्य-अवध्य हो सके. सवाल है, क्या इस उग्र पूंजीवाद से लड़ने की क्षमता हम विकसित कर पाएंगे? इस सवाल का सीधा जवाब समझ में नहीं आता, लेकिन यह जरूर समझ में आता है कि अगर नहीं लड़ पाएंगे तो एक समाज के रूप में बने रहने की ताकत खो देंगे.

शुक्ल-कृष्ण के बीच

विद्याचरण शुक्ल कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के साथ सीधा संपर्क रखने और सक्रियता से काम करने वाले शायद ऐसे इक्का-दुक्का कांग्रेसी नेताओं में रहे होंगे जिन्होंने उनके परनाना नेहरू के साथ भी इतनी ही सक्रियता से काम किया था. यह 1956 की बात है जब मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल के निधन के बाद खुद नेहरू ने 27 साल के उनके बेटे विद्याचरण को लोकसभा चुनाव लड़ने की सलाह दी थी. 1957 में कांग्रेस ने उन्हें छत्तीसगढ़ की महासमंद सीट से टिकट दिया और वे 28 साल की उम्र में ही सांसद बन गए.

बीती 25 मई को नक्सली हमले में घायल होने के बाद गुड़गांव के मेदांता अस्पताल में अपने जीवन की अंतिम सांस (11 जून को) लेने वाले शुक्ल ऐसे राजनेता रहे जिनके लिए राजनीति का संगीत राजनीतिक विचार मंथन से नहीं, बल्कि भारी राजनीतिक सक्रियता से निकलता था. उन्हें अपने जीवन में कभी इसका रियाज नहीं करना पड़ा. विद्याचरण शुक्ल को राजनीति अपने पिता से विरासत में मिली थी. यह भी खास बात है कि जमीनी राजनीति के सबक उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में सीखे थे. उस दौरान जब उनके पिता पंडित रविशंकर शुक्ल के साथ घर के अन्य पुरुष सदस्य जेल में बंद रहते तो वे अपने साथियों के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ साइक्लोस्टाइल पैंफलेट तैयार करके उसे वितरित किया करते थे.

वैसे तो शुक्ल की पूरी जिंदगी कई बड़े राजनीतिक झंझावतों के दौर से गुजरी है, लेकिन उनके जीवन में पहला बड़ा राजनीतिक मोड़ तब आया था जब वे 1962 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के एक प्रभावशाली नेता खूबचंद बघेल को पराजित करके लोकसभा पहुंचे. तब विपक्ष ने उनके इस निर्वाचन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई और कोर्ट ने उनके निर्वाचन को अवैध मानते हुए उनके छह साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ जब शुक्ल ने चुनाव आयोग को एक आवेदन दिया तो आयोग ने अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करके उन्हें चुनाव लड़ने की अनुमति दे दी. राजनीति से जुड़े लेकिन उससे बाहर के दांव-पेंचों से शुक्ल का यह पहला वास्ता था और वे इसमें जीत चुके थे. इस जीत ने उनका आत्मविश्वास इतना बढ़ाया कि इस बूते वे नेहरू जी के बाद जल्द ही इंदिरा गांधी के करीबी हो गए.

शुक्ल के राजनीतिक जीवन का जो सबसे चर्चित और विवादित अध्याय है वह गांधी परिवार के नजदीक रहते हुए ही उनके हिस्से में आया. 25 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 के बीच आपातकाल के दौरान वे सूचना प्रसारण मंत्री थे. इस समय मीडिया पर जिस कड़ाई से उन्होंने सेंसरशिप लागू की वह आज तक लोगों को याद है. खबरों पर प्रतिबंध के अलावा अमृत नाहटा द्वारा बनाई गई फिल्म ‘ किस्सा कुर्सी का ‘ (कहा जाता है कि इस फिल्म की कहानी इंदिरा गांधी और आपातकाल से प्रेरित थी ) पर प्रतिबंध और उसकी रीलों को नष्ट करने का मामला, ऑल इंडिया रेडियो पर किशोर कुमार के गानों पर प्रतिबंध जैसी कई घटनाएं उनकी सत्ता केंद्र के प्रति कथित प्रतिबद्धता की मिसाल मानी जाती हैं.

आपातकाल की समाप्ति के बाद कांग्रेस के जो वरिष्ठ नेता चुनाव हारे उनमें शुक्ल भी शामिल थे. यह एक तरह से सत्ता केंद्र से उनके दूर हो जाने का समय था.  इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में वे थोड़े समय के लिए हाशिये पर चले गए. इसी दौर में पहली बार शुक्ल ने कांग्रेस छोड़ी थी. 1987 में उन्होंने वीपी सिंह, अरुण नेहरू और आरिफ मोहम्मद जैसे नेताओं के साथ मिलकर जनमोर्चा का गठन किया. वीपी सिंह के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही शुक्ल एक बार फिर कैबिनेट में मंत्री बन गए. इसके बाद चंद्रशेखर और पीवी नरसिंह राव की सरकारों में भी वे मंत्री रहे.

केंद्र की राजनीति में हमेशा खुद को दिग्गज साबित करते रहे विद्याचरण शुक्ल के लिए यह बड़ी विडंबना रही कि छत्तीसगढ़ में वे राज्य के क्षत्रपों से आगे नहीं बढ़ पाए. उन्होंने छत्तीसगढ़ के निर्माण के लिए लाखों कार्यकर्ताओं को लामबंद करके संघर्ष मोर्चा का गठन किया था. शुक्ल को उम्मीद थी कि वे राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री बनेंगे लेकिन कांग्रेस आलाकमान ने अजीत जोगी को मुख्यमंत्री बना दिया. वर्ष 2000 से 2003 तक का पूरा दौर उनके लिए राजनीतिक उठापटक से भरा रहा. इस दौरान शुक्ल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए. उस समय हुए विधानसभा चुनाव में  राकांपा को मात्र एक सीट मिली, लेकिन उसे मिले वोटों ने जोगी को सत्ता से बाहर कर दिया. वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में शुक्ल ने भाजपा का दामन थामा और अपने कट्टर प्रतिद्वंद्वी अजीत जोगी से पराजय के बाद बेहद खुले मन से यह भी माना कि वे सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली पार्टी के चक्कर में फंस गए थे.

उम्र के 84 पड़ाव देख चुके शुक्ल नवंबर, 2007 में अपनी मूल पार्टी कांग्रेस में लौटे थे. अपनी इस वापसी के साथ ही उन्होंने खुद को बेहद चुस्त-दुरुस्त और सक्रिय भी कर लिया था. उन्होंने इच्छा जाहिर की थी कि वे अंतिम बार महासमुंद सीट से चुनाव लड़ना चाहते हैं. हाल ही में वे जिस तरह से कांग्रेस की रैलियों में शामिल हो रहे थे उससे एक बार फिर लगने लगा था कि उनकी प्रासंगिकता राजनीति में अभी खत्म नहीं हुई है.

हिचक का सबब

शैलेश गांधी, पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त
शैलेश गांधी, पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त

केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) द्वारा हाल ही में राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार (आरटीआई) के दायरे में लाने का फैसला स्वागत योग्य है.

इस पर राजनीतिक दलों ने जिस तरह की प्रतिक्रिया दी है उस पर किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए. आखिर सत्ता में बैठा हुआ कौन व्यक्ति पारदर्शी होना चाहता है? यह स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति है.

दरअसल इस देश के राजनीतिक वर्ग को पूरी तरह से पता ही नहीं है कि आरटीआई है क्या. बल्कि इस कानून का इस्तेमाल करने वाला आम आदमी इसे नेताओं से ज्यादा अच्छी तरह समझता है. राजनीतिक वर्ग खुद को दूसरे लोगों की तुलना में विशेष समझता है. उसकी नकारात्मक प्रतिक्रिया इसी मानसिकता से उपजी है. ऐसे में राजनीतिक दलों से तीन सवाल आवश्यक तौर पर पूछे जाने चाहिए. पहली बात, क्या उन्हें सरकार से किसी तरह की वित्तीय मदद नहीं मिलती? अगर नहीं मिलती तो सीआईसी का फैसला गलत है. लेकिन अगर उन्हें मिलती है तो उन्हें आरटीआई के दायरे में आना चाहिए. आरटीआई अधिनियम स्पष्ट कहता है कि कोई भी गैरसरकारी संस्थान जिसे सरकार से अच्छा-खासा पैसा मिलता है वह जनता के प्रति जवाबदेह संस्था है और राजनीतिक दल इसी श्रेणी में आते हैं. इस फैसले में पीठ ने स्पष्ट किया है कि राजनीतिक दलों को टैक्स में भारी छूट के अलावा सरकारी भूमि आवंटन में भी जमकर सब्सिडी मिलती है.

दूसरी बात, क्या राजनीति दलों को करोड़ों रुपये का चंदा नहीं मिल रहा है? क्या यह राशि महत्वपूर्ण नहीं है? वे इससे इनकार नहीं कर सकते और इसलिए उनकी जनता के प्रति जवाबदेही बनती है. इस पर भी अगर वे आपत्ति करते हैं तो उन्हें यह बताना होगा कि उनको आरटीआई के दायरे में क्यों न रखा जाए. तीसरी बात, क्या राजनीतिक दल यह मानते हैं कि पारदर्शिता उनके हित में है? अगर उनको ऐसा नहीं लगता तो उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि पारदर्शिता से उनका क्या नुकसान होगा.

अगर आप सरकारी संस्था हैं तो आप आरटीआई के दायरे में आते हैं. लेकिन यह अधिनियम कुछ खास किस्म की सूचनाओं को जारी नहीं करने की रियायत भी देता है. इन रियायतों के साथ ही अनेक सरकारी प्रतिष्ठान पिछले सात साल से बिना किसी नुकसान के काम कर रहे हैं.

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राजनीतिक दलों का कहना है कि लोग उनसे अपने प्रत्याशियों की चयन प्रक्रिया के बारे में जानकारी देने के लिए कैसे कह सकते हैं. जवाब यही है कि वे नहीं कह सकते. जिस जानकारी का पार्टियां औपचारिक रिकॉर्ड नहीं रखती हैं वह सूचना नहीं है और इसलिए उसे उपलब्ध कराने की बाध्यता भी नहीं है. लेकिन नागरिकों को यह जानने का अधिकार है कि क्या ऐसी कोई प्रक्रिया है भी और अगर है तो उसके मानक क्या हैं. बस, यहीं तक यह कानून प्रभावी होगा. साफ है कि इसके जरिए कोई आम नागरिक किसी राजनीतिक दल के लिए शर्तें तय नहीं कर सकता.

अपने बचाव में राजनीतिक दलों का यह तर्क भी है कि निर्वाचन आयोग तो पहले से ही उनकी निगरानी कर रहा है तो फिर आरटीआई क्यों. क्या वे यह कह रहे हैं कि वे नहीं चाहते कि आम लोग उन पर निगरानी रखें या वे आम लोगों के प्रति जवाबदेह नहीं हैं? उनसे यह सवाल पूछा जाना चाहिए. कुछ राजनीतिक दलों ने तो खुद को निजी संस्थान तक घोषित कर दिया है. क्या वे वाकई यह मानते हैं कि वे कारोबारी संगठन हैं?
मुझे लगता है कि राजनीतिक दलों को डर है. इस बात का डर कि कौन जाने आरटीआई उनके लिए किस तरह की मुसीबत ले आए? राष्ट्रमंडल खेल घोटाले का खुलासा इस कानून के चलते ही हुआ था. यह एक अनजान ताकत की तरह है और यही वजह है कि राजनीतिक दल इससे दूर ही रहना चाहते हैं. उनके कुछ अवैध कारनामे, उनकी मनमानियां इसकी वजह से उजागर हो सकती हैं. उनके मन में यही डर है.

पारदर्शिता आपको बेहतर बनाती है. यह खुद में सुधार लाने का उपाय है. मेरा मानना है कि लंबी अवधि में इससे राजनीतिक दलों का भला ही होगा. आज राजनीतिक दलों के प्रति लोगों में जो अविश्वास भरा है वह पारदर्शिता से दूर हो सकता है. अगर भारतीय जनता पार्टी यह कह दे कि वह इसके लिए तैयार है तो कांग्रेस भी उसका अनुकरण करेगी. लेकिन अगर राजनीतिक दल सीआईसी के आदेश को न्यायालय में चुनौती देते हैं तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा और अगर न्यायालय ने स्थगन आदेश दे दिया तो यह मामला अनिश्चित काल के लिए लटक जाएगा. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स नामक संगठन ने दिल्ली उच्च न्यायालय में आपत्ति याचिका दायर करके कहा है कि किसी राजनीतिक दल द्वारा स्थगन आदेश लेने से पहले ही इस पर सुनवाई की जाए.

समाचार चैनलों पर लगातार इस तर्क को आधार बनाकर चर्चा की जा रही है कि क्या लोगों को जानने का अधिकार नहीं है.  यह एक कानूनसम्मत दलील नहीं है. कोई संस्थान इस आधार पर जनता के लिए जवाबदेह नहीं बनता कि लोगों को जानने का अधिकार है. हमारे पास पुख्ता सबूत हैं कि राजनीतिक दलों को सरकार से भारी-भरकम वित्तीय मदद मिलती है और इसलिए वे आरटीआई के दायरे में आते हैं.

मेरा आरटीआई में यकीन है. इसलिए मैं मानता हूं कि ‘आरटीआई नहीं तो वोट नहीं’ जैसा अभियान बहुत कारगर होगा. अगर हम इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर माहौल बना सके तो कुछ उम्मीद है कि इस आदेश का प्रभावी क्रियान्वयन हो सके. यह लोकतंत्र के लिए बेहद अहम कदम होगा.
(शोनाली घोषाल से बातचीत पर आधारित)

समय होत बलवान

संजय दुबे, कार्यकारी संपादक
संजय दुबे, कार्यकारी संपादक

कई या उससे भी ज्यादा बार असाधारण लगने वाले व्यक्तियों के ऐसा बनने के पीछे उनकी कम और असाधारण परिस्थितियों की भूमिका ज्यादा होती है.

मोदी जिस तरह के विकास और सुशासन आदि के दम पर – अपने खिलाफ लगते रहे तमाम आरोपों के बाद भी – यदि राजनीति में लगातार आगे बढ़ते दिख रहे हैं तो इसका श्रेय केंद्र की यूपीए सरकार को भी जाता है. अनिर्णय, अराजकता और भ्रष्टाचार की जो स्थिति आज देश में दिख रही है यदि वह नहीं होती तो शायद राजनीतिक जमात के बड़े हिस्से से लोगों का इस कदर मोहभंग भी नहीं होता और तब जबरदस्त प्रचार पर टिका मोदी का ‘राजसूय यज्ञ’ भी इतना आगे नहीं बढ़ा होता.

नरेंद्र मोदी को आगे बढ़ाने में जितनी उनकी, उनके प्रचार और जबरदस्त ब्रांड बिल्डिंग की भूमिका है उतनी ही राजनाथ सिंह की सीमित क्षमताओं और महत्वाकांक्षाओं की भी है. राजनाथ को पता है कि भाजपा में उनकी स्थिति मजबूत कर सकने वाले केवल दो ही घटक हैं- संघ परिवार और मोदी को उनके दिए सहारे के एवज में उन्हें मिलने वाला मोदी का सहारा. बस वे इन दोनों ताकतों का इस्तेमाल करके इतिहास को तिहराने की जुगत भिड़ा रहे हैं. उन्हें लगता है कि जिस तरह से वे दो बार अध्यक्ष बने, वक्त आने पर प्रधानमंत्री भी बन सकते हैं.

इसमें कोई शक नहीं कि मोदी आज देश के सबसे प्रभावशाली नेताओं में हैं. ऐसा मानने वालों की भी कमी नहीं कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा देश की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी. लेकिन अगर सब कुछ फिट भी बैठा तो भी मोदी भाजपा को सबसे बड़ी यानी 175-180 सासंदों वाली पार्टी तो बना सकते हैं मगर खुद या गठबंधन के बूते सरकार बना सकने वाली पार्टी नहीं. इसके लिए वाजपेयी या देवेगौड़ा या गुजराल सरीखे किसी व्यक्ति की जरूरत होगी. ऐसे में राजनाथ को अपना भविष्य उज्जवल लगने लगता है. उन्हें लगता है कि अभी मोदी के विश्वासपात्र होने या दिखने का इनाम उन्हें मौका आने पर प्रधानमंत्री पद के रूप में भी मिल सकता है.

नरेंद्र मोदी अगर आज यहां तक पहुंचे हैं तो इसमें 2002 में हुए गोधरा कांड के बाद गुजरात में हुए दंगों की बड़ी भूमिका है. एक ऐसे प्रदेश में, जिसमें अल्पसंख्यक 10 फीसदी से भी कम हों, बहुसंख्यक आबादी के ध्रुवीकरण का परिणाम जानने के लिए किसी गणितज्ञ की जरूरत नहीं. मोदी तीन बार यहां जबरदस्त बहुमत के साथ चुनाव जीतकर अपनी सरकार बना चुके हैं. हालांकि दंगों के बाद आडवाणी जी की कृपा से किसी तरह अपना मुख्यमंत्रित्व बचा पाए मोदी ने अपनी नई पहचान गढ़ने के फेर में गुजरात में ठीक-ठाक काम भी किया है. मगर यहां का विकास और मोदी का काम इतना और ऐसा भी नहीं है जैसा खुद मोदी, उनके संगी-साथी और जनसंपर्क संस्था एप्को प्रचारित करते रहते हैं. इसीलिए विकास के इतने हो-हल्ले के बाद भी पिछले दस साल में मोदी हमेशा बहुसंख्यकों के ही नेता रहे. उन्होंने कभी अल्पसंख्यकों के ज्यादा नजदीक दिखने की कोशिश तक नहीं की.

जिस तरह से 2002 के दंगों ने मोदी को गुजरात में मजबूत बनाने की भूमिका निभाई, कुछ-कुछ वैसी ही भूमिका भाजपा में मोदी की भी है. मोदी के राजनीतिक जीवन में 2002 के दंगों से उपजे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के फायदे केवल गुजरात तक सीमित है. इससे आगे की बड़ी राजनीति के लिए यह काफी नहीं है. ठीक इसी प्रकार भाजपा के लिए भी मोदी की भूमिका उसे सबसे बड़ी पार्टी बनाने तक ही सीमित है. सरकार बनाने के लिए उसे भी मोदी से आगे जाकर कोशिश करनी होगी.

हमारे या किसी भी अन्य लोकतंत्र के इतिहास को देखें तो एक क्षेत्र, जाति या संप्रदाय को लेकर चलने वाले व्यक्ति या पार्टी एक निश्चित दायरे से बाहर की सफलता हासिल नहीं कर सके हैं. आज जिन आडवाणी को नीतीश कुमार और कांग्रेस भी मोदी से ज्यादा या सहज रूप से स्वीकार्य मान रहे हैं वे खुद भी इस बात के उदाहरण हैं. सभी जानते हैं कि भाजपा को दो से 182 सासंदों की पार्टी बनाने में अटल जी से ज्यादा बड़ी भूमिका आडवाणी की थी. लेकिन इससे वे देश के सर्वोच्च पद के स्वाभाविक अधिकारी नहीं बन सके.

खुद भाजपा भी इस बात का उदाहरण है. अपनी राजनीति के स्वर्णिम दौर में भी वह अधिकतम 182 सीटें ही जीत सकी थी. सरकार बनाने के लिए उसने अपने सभी विवादित मुद्दे–राम मंदिर, धारा 370 और समान नागरिक संहिता–ठंडे बक्से में रख दिए. इसके बाद ही जैसे-तैसे उसे कुछ छोटी-बड़ी बैसाखियों का सहारा मिल सका था.

मुखिया से खुली बगावत

उत्तराखंड कांग्रेस में इन दिनों खुले आम असंतोष अभियान चल रहा है. असंतुष्ट कांग्रेसी विधायकों, मुख्यमंत्री और कांग्रेस संगठन के पदाधिकारियों के बीच फिल्मी अंदाज में डायलॉग बोले जा रहे हैं. इस राजनीतिक ड्रामे की शुरुआत धारचूला के विधायक हरीश धामी के बयान से हुई . नेपाल और चीन सीमा पर बसा धारचूला बहुत ही पिछड़ा हुआ इलाका है. पांच जून को धामी ने राजधानी देहरादून में आकर बयान दिया कि उनके विधानसभा क्षेत्र का विकास नहीं हो रहा है और अगर 15 दिन के भीतर इस दिशा में सरकार की ओर से सकारात्मक प्रयास नहीं हुए तो वे विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे देंगे. उन्होंने इस्तीफा देकर धारचूला से बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ने की बात तो कही ही, मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को भी अपने खिलाफ मैदान में उतरने की चुनौती दे डाली. उनका कहना था, ‘मुख्यमंत्री बेहद कमजोर हैं और उनमें निर्णय लेने की क्षमता नहीं है. इन दोनों कारणों से राज्य में नौकरशाही बेलगाम है और भ्रष्टाचार चरम पर है.’

जिस दिन धामी देहरादून में मीडिया के माध्यम से इस्तीफा देने की धमकी दे रहे थे, उसी दिन विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल ने भी नैनीताल से बयान दे डाला कि उत्तराखंड ने भ्रष्टाचार के मामले में उत्तर प्रदेश को भी पीछे छोड़ दिया है. खुद को सरकारी मशीनरी के कामकाज से व्यथित बताते हुए उनका कहना था, ‘प्रदेश में पैसा देने से मना करने पर शवों का पोस्टमार्टम तक नहीं किया जाता.’  पिछले महीने भी उन्होंने राज्य में बढ़ते भ्रष्टाचार पर सार्वजनिक बयान दिया था.

ये बयान बम फूटने के अगले ही दिन अपनी ही सरकार से नाखुश कांग्रेसी विधायकों और उन्हें समर्थन देने वाले निर्दलीय विधायकों के भी नाराजगी भरे बयान खुलकर आने लगे. चंपावत के विधायक हेमेश खर्कवाल, पिथौरागढ़ के मयूख महर, कफकोट के विधायक ललित फर्स्वाण और अल्मोड़ा के मनोज तिवारी धामी के आरोपों की पुष्टि करते हुए उनके समर्थन में आगे आए. उन्होंने भी अपने क्षेत्रों की दुर्दशा और राज्य में भ्रष्टाचार का रोना रोया.

सरकार के कामकाज पर उंगली उठाने वाले ये सारे विधायक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और केंद्र सरकार में मंत्री हरीश रावत खेमे के माने जाते हैं. धामी के बयान देने के अगले दिन रावत ने असंतुष्ट विधायकों की मांगों का समर्थन भी किया था. मुख्यमंत्री को नसीहत देते हुए उनका कहना था, ‘विकास के मामले में विधायकों की चिंताओं को दूर किया जाना चाहिए .’ लेकिन इसके दो दिन बाद मुख्यमंत्री बहुगुणा ने दिल्ली से देहरादून आते ही एक बयान देकर असंतोष की आग को और भड़का दिया. उनका कहना था कि उन्हें 41 विधायकों का समर्थन है और चार विधायकों के जाने से सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता. असंतुष्टों पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि वे टाइगर हैं और हिरनों की परवाह नहीं करते. मुख्यमंत्री के बयान पर हरीश रावत का कहना था, ‘मैं सालों से पहाड़ों की पगडंडियों पर हिरन की तरह भाग रहा हूं और हर बार कोई टाइगर झपट्टा मार कर मेरी मेहनत उड़ा कर ले जाता है.’

मुख्यमंत्री के टाइगर-हिरन वाले भड़काऊ बयान के बाद असंतुष्ट विधायकों की संख्या बढ़कर 10 तक हो गई. सुनवाई न होते देख धामी ने कांग्रेस विधायक दल की बैठक बुलाने की मांग कर दी. आखिर पांचवें दिन मुख्यमंत्री ने नाराज विधायकों को वार्ता के लिए सचिवालय बुलाया. इस बुलावे को असंतुष्ट विधायकों ने अस्वीकार कर दिया. इसके बाद मुख्यमंत्री के करीबी कांग्रेस प्रवक्ता धीरेंद्र प्रताप ने वार्ता निमंत्रण ठुकराने वाले विधायकों में से अलग-अलग जिम्मेदारियां संभाल रहे तीन विधायकों को इस्तीफा देने की चुनौती दे दी. इससे  माहौल और भड़क गया.

खुले आम असंतोष दिखाने वाले इन विधायकों में से सभी दुर्गम पर्वतीय जिलों से चुन कर आए हैं. उनका दर्द है कि मंत्री और नौकरशाह पहाड़ी क्षेत्र की समस्याओं और उनका निदान जानने की कोशिश तक नहीं करते हैं. हालांकि इस पूरे घटनाक्रम में हरीश रावत खेमे की भी भूमिका बताई जा रही है. पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेसी विधायकों की संख्या के हिसाब से सबसे अधिक विधायक रावत के साथ थे. लेकिन इसके बावजूद उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया. बताया जा रहा है कि रावत खेमा इस समय मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए जोर लगाने के बजाय पार्टी अध्यक्ष पद पर अपने खेमे के किसी नेता को बैठाना चाहता है. हर तरफ से हो रही नित नई बयान बाजी से यह लग रहा है कि असंतुष्टों का गुस्सा अब दिल्ली दरबार की मध्यस्थता से ही शांत होगा.

घुसपैठ का नुकसान

भारतीय जनता पार्टी का मीडिया खासकर न्यूज चैनलों से और न्यूज चैनलों का भाजपा से प्यार किसी से छिपा नहीं है. यह स्वाभाविक भी है क्योंकि भाजपा के कई नेताओं की ‘लोकप्रियता’ और उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में ‘चमकाने’ में टीवी की बड़ी भूमिका है. कई तो बिना किसी राजनीतिक जमीन के सिर्फ चैनलों के कारण भाजपा की राजनीति में चमकते हुए सितारे हैं. दूसरी ओर, मीडिया और न्यूज चैनल भी भाजपा को इसलिए पसंद करते हैं कि दोनों का दर्शक वर्ग एक है और दोनों तमाशा पसंद करते हैं. न्यूज चैनलों का कारोबार तमाशे से चलता है तो भाजपा की राजनीति तमाशे के बिना कुछ नहीं है.

आश्चर्य नहीं कि बीते सप्ताह गोवा में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में जब पार्टी में लंबे समय से जारी सत्ता संघर्ष अपने क्लाइमैक्स पर पहुंचा तो उस तमाशे को 24×7 और वाल-टू-वाल कवर करने के लिए मीडिया और चैनलों की भारी भीड़ मौजूद थी. जाहिर है कि वहां एक हाई-वोल्टेज तमाशे के सभी तत्व मौजूद थे. पार्टी में कथित तौर पर ‘सबसे लोकप्रिय’ नेता नरेंद्र मोदी को 2014 के आम चुनावों के लिए चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर कयास और कानाफूसियां तेज थीं. आडवाणी और कई दूसरे नेता इसे लेकर नाराज बताए जा रहे थे और बीमारी का बहाना बनाकर गोवा नहीं पहुंचे.

इसके बाद भारतीय झगड़ा पार्टी बनती जा रही भाजपा में गोवा और फिर दिल्ली में जो कुछ हुआ. उसका कुछ आंखों देखा और कुछ कानों सुना हाल पूरे देश ने चैनलों पर देखा और अहर्निश देख रहे हैं. एक धारावाहिक सोप आपेरा की तरह यह ड्रामा चैनलों पर जारी है जहां घटनाक्रम हर दिन और कई बार कुछ घंटों और मिनटों में नया मोड़ ले रहा है. इसमें एक पल उत्साह और खुशी के पटाखे हैं और दूसरे पल आंसू और बिछोह है और तीसरे पल साजिशों और कानाफूसी का रहस्य-रोमांच है

कहने की जरूरत नहीं है कि इस तमाशे में ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ और ‘पार्टी विथ डिफरेन्स’ का दावा करने वाली भाजपा की नैतिकता और अनुशासन की धोती सार्वजनिक तौर पर खुल रही है. लेकिन मुश्किल यह है कि पार्टी इसकी शिकायत किससे करे. आखिर चैनलों में भाजपा के अंदरूनी सत्ता संघर्ष के बारे में चल रहे किस्से-कहानियों, साजिशों, उठापटक और खेमेबंदी से जुड़ी ‘खबरों’ का स्रोत खुद भाजपा और संघ के नेता हैं. सच यह है कि ‘खबरों’ के नाम पर चल रहे इन किस्से-कहानियों में सबसे ज्यादा कथित ‘खबरें’ भाजपा और संघ के विभिन्न गुटों के नेताओं की ओर से एक-दूसरे के खिलाफ ‘प्लांटेड स्टोरीज’ हैं.

खास बात यह है कि इनमें से ज्यादातर ‘खबरें’ भाजपा बीट कवर करने वाले उन रिपोर्टरों के जरिए आ रही हैं जो खुद भी भाजपा के इस या उस खेमे के करीब माने जाते हैं. इन रिपोर्टरों की पहुंच भाजपा या संघ के अंत:पुर तक है और कुछ उनके किचन कैबिनेट तक में शामिल हैं. इनमें से कई रिपोर्टर चैनलों पर रिपोर्टिंग और विश्लेषण के नाम पर भाजपा के विभिन्न गुटों या खेमों के प्रवक्ता-से बन जाते हैं और संबंधित गुटों का बचाव करते दिखने लगते हैं. हालांकि यह कोई नई बात नहीं है. भाजपा और चुनिंदा पत्रकारों के बीच रिश्ता बहुत पुराना है. अतीत में इनमें से कई पत्रकार बाद में पार्टी में एमपी और मंत्री भी बने हैं.

सच पूछिए तो भाजपा या संघ में पत्रकारों की यह घुसपैठ काफी अंदर तक है. लेकिन इसके उलट मीडिया के अंदर भाजपा की घुसपैठ भी काफी दूर तक रही है. इस घुसपैठ के नतीजे राम जन्मभूमि अभियान के दौरान दिखे और इन दिनों नरेंद्र मोदी को लेकर मीडिया के एक बड़े हिस्से के उत्साह में भी दिखाई दे रहा है. लेकिन भाजपा-न्यूज मीडिया के इस ‘मुहब्बत’ की कीमत वे पाठक-दर्शक चुका रहे हैं जिन्हें देश के मुख्य विपक्षी दल के बारे में ‘खबरों’ के नाम पर ‘प्लांटेड स्टोरीज’ और कानाफूसियों-अफवाहों से काम चलाना पड़ रहा है.