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इशरत जहां मुठभेड़ मामला: मोदी को मालूम था

इशरत जहां मुठभेड़ मामले की आंच गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी तक पहुंचती दिख रही है. सीबीआई जल्द ही अदालत में एक शपथपत्र दाखिल करने जा रही है. इसके मुताबिक गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को पुलिस के उस षड़यंत्र की पूरी जानकारी थी जिसमें वह इशरत जहां समेत चार लोगों की हत्या करके उन्हें आतंकवादी घोषित करने वाली थी. जिस पुलिस अधिकारी की यह स्वीकारोक्ति है, उसका दावा है कि उसने उस समय दो अधिकारियों को इस बारे में बातचीत करते सुना था. इनमें से एक अधिकारी खुफिया ब्यूरो (आईबी) का है और दूसरा पुलिस का. दोनों के बारे में कहा जाता है कि वे मोदी के बेहद करीबी हैं.

संभावना है कि चार जुलाई को सीबीआई आरोपपत्र के साथ ही इस स्वीकारोक्ति को भी अदालत  के सामने रखेगी. यह बयान देने वाला पुलिस अधिकारी खुद इस कथित मुठभेड़ में हुई हत्या का आरोपित है. इस कथित मुठभेड़ को 15 जून, 2004 को अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के अधिकारियों ने अंजाम दिया था जिसमें इशरत जहां (19 वर्ष) समेत चार कथित आतंकवादी मारे गए थे. पुलिस का दावा था कि वे सभी मोदी की हत्या करने आए थे.
जिस कथित बातचीत का जिक्र सीबीआई कर रही है, उसमें दोनों अधिकारियों ने कहीं मोदी का नाम नहीं लिया है. सूत्रों के मुताबिक बातचीत आईबी में विशेष निदेशक राजेंद्र कुमार और क्राइम ब्रांच अधिकारी डीजी वंजारा के बीच है. जिस अधिकारी द्वारा यह शपथपत्र दिया जा रहा है, वह खुद आईपीएस कैडर से है. अधिकारी के मुताबिक वंजारा ने कुमार को उसकी मौजूदगी में बताया था कि चारों की हत्या के लिए सफेद दाढ़ी और काली दाढ़ी ने हरी झंडी दे दी है. सीबीआई का मानना है कि सफेद दाढ़ी शब्द मोदी और काली दाढ़ी अमित शाह के लिए इस्तेमाल किया था. शाह उस वक्त मोदी मंत्रिमंडल में गृह राज्यमंत्री थे और राज्य की पुलिस उनके अधीन थी. मोदी ने गृह मंत्रालय अपने हाथ में रखा था. सीबीआई इस अधिकारी की स्वीकारोक्ति के आधार पर इशरत जहां मुठभेड़ में मोदी की भूमिका की जांच करना चाहती है. यह बयान सीपीसी की धारा 164 के तहत मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज हुआ है और अदालत में इसे बतौर सबूत इस्तेमाल किया जा सकता है. एक सीबीआई अधिकारी बताते हैं कि वे इस मामले में आईबी अधिकारी कुमार को आरोपित बनाने जा रहे हैं.

सीबीआई द्वारा दाखिल होने वाले आरोपपत्र में यह दावा भी किया जाएगा कि मारे गए चार कथित आतंकियों का सरगना जावेद अहमद शेख असल में कुमार का मुखबिर था और कुमार उस समय खुफिया ब्यूरो की गुजरात इकाई के प्रमुख थे. सबूत इशारा करते हैं कि कुमार ने जावेद को यह कह कर अहमदाबाद बुलाया था कि उसके लिए कुछ काम है और फिर उन्होंने जावेद समेत चारों की हत्या करवा दी जिनमें इशरत जहां भी शामिल थी. 18 जून को सीबीआई ने कुमार से पूछताछ की थी. कुमार इस समय गांधीनगर में खुफिया ब्यूरो के विशेष निदेशक पद पर तैनात हैं. सीबीआई अगले कुछ दिनों में कुमार को गिरफ्तार कर सकती है. तहलका की एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार सीबीआई के पास एक से ज्यादा पुलिस अधिकारियों की स्वीकारोक्तियां हैं जिनमें उन्होंने कुमार को हत्याकांड का कर्ताधर्ता बताया है.

सीबीआई के पास एक गोपनीय ऑडियो टेप है. यह टेप इस मामले के एक आरोपित पुलिस अधिकारी जीएल सिंघल ने नवंबर, 2011 में रिकॉर्ड किया था. टेप में सिंघल की मोदी सरकार के महत्वपूर्ण लोगों के साथ बातचीत है. ये लोग चर्चा कर रहे हैं कि कैसे मामले को कमजोर किया जाए और आरोपित पुलिस अधिकारियों को बचाया जाए. तहलका के पास बातचीत में शामिल कुछ लोगों की जानकारी है. इनके नाम हैं प्रदीप सिंह जडेजा (संसदीय कार्यमंत्री) और भुपिंदर चुडास्मा (शिक्षा मंत्री). बातचीत में शामिल अन्य लोग हैं तत्कालीन गृह राज्यमंत्री प्रफुल पटेल जो पिछले  दिसंबर में विधानसभा चुनाव में हारकर सरकार से बाहर हो गए, सीजी मुर्मू जो मोदी के नजदीकी आईपीएस अधिकारी हैं, एडवोकेट जनरल कमल त्रिवेदी और एडिशनल एडवोकेट जनरल तुषार मेहता. यह बैठक गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा स्थापित एसआईटी द्वारा अपनी जांच रिपोर्ट जमा करने से एक दिन पहले हुई थी. टेप में त्रिवेदी को कहते सुना जा सकता है कि अगर कल एसआईटी इशरत जहां मुठभेड़ को फर्जी करार देती है तो हम सबको मिलकर कहना होगा कि एसआईटी ही फर्जी है. मुर्मू कहते हैं कि राज्य अथवा उसके अधिकारियों को कोई नुकसान नहीं होना चाहिए. अगले दिन पेश की गई रिपोर्ट में एसआईटी ने कहा कि पुलिस ने इन चार लोगों का अपहरण करके उनकी हत्या कर दी.

मोदी सरकार लगातार कहती रही कि शेख, मुंबई के निकट एक कॉलेज की छात्रा इशरत जहां तथा दो अन्य व्यक्ति जो कथित तौर पर पाकिस्तानी थे, सभी आतंकवादी थे. उसका दावा है कि पुलिस ने अहमदाबाद के बाहर उनको रोकने की कोशिश की जिसके बाद हुई गोलीबारी में वे मारे गए. खुफिया ब्यूरो ने जानकारी दी थी कि पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा ने गुजरात में 2002 में मुस्लिमों के नरसंहार का बदला लेने के लिए चार आतंकियों को भेजा है. सीबीआई के पास अधिकारियों की ऐसी स्वीकारोक्तियां हैं जिनमें कहा गया है कि कथित तौर पर कुमार ने इशरत जहां से उस वक्त मुलाकात की थी जब मारे जाने से पहले वह अवैध पुलिस हिरासत में थी. गवाहियों के मुताबिक मृतकों के पास मिली एके 47 राइफल भी कुमार के खुफिया ब्यूरो के कार्यालय से लाकर कथित आतंकियों के शवों के साथ रखी गई थी.

[box]पुलिस अधिकारी सिंघल के बारे में बताया जाता है कि उन्होंने इकलौते बेटे की आत्महत्या के बाद आखिरकार सच बोलने का फैसला किया[/box]

आरोपपत्र से यह भी पता चलता है कि मारे गए दो अन्य व्यक्ति जीशान जौहर और अमजद अली राणा पाकिस्तानी नहीं थे. वे संभवत: जम्मू और कश्मीर के रहने वाले थे व आतंकी समूहों से ताल्लुक रखते थे. आरोपपत्र के अनुसार कुमार ने पहले दोनों को अपने मुखबिर शेख से मिलवाया और उसे ‘प्रोत्साहित’ किया कि वह उनके संपर्क में रहे. सीबीआई सूत्रों के मुताबिक हत्या के पहले कुमार ने शेख से कहा कि वह दोनों को अहमदाबाद ले जाए, शेख ने ऐसा ही किया. सीबीआई न्यायालय से और वक्त मांगेगी ताकि यह जांच हो सके कि आखिर उन चारों को कुमार से कैसे मिलवाया गया.

सीबीआई का कहना है कि कुमार ने तीनों व्यक्तियों को पाकिस्तान में अपने लोगों को फोन करने को कहा और उनकी बातचीत रिकॉर्ड की. स्रोतों के मुताबिक यही वह बातचीत है जिसे एक समाचार चैनल ने पिछले दिनों प्रसारित किया और कहा कि वे आतंकवादी थे और मोदी को मारने जा रहे थे. बातचीत में इस्तेमाल मोबाइल उनके शवों के पास रख दिए गए थे. सीबीआई का कहना है कि कुमार ने शेख के अहमदाबाद आने से पहले ही पूरी तैयारी कर ली थी जिसके बाद हत्याओं को अंजाम दिया गया. कुमार ने ही शेख के लखनऊ जाने और एक देसी कट्टा खरीदने का इंतजाम करवाया. उनके आदेश पर ही वह महाराष्ट्र में औरंगाबाद गया. वह जिन होटलों में रुका हर जगह उसने कुमार के निर्देश के मुताबिक ही काल्पनिक नाम का इस्तेमाल किया.

isharat

मुठभेड़ की कड़ियां 
वंजारा और गृह राज्यमंत्री शाह दोनों पर एक अन्य हत्याकांड का आरोप भी है. यह मामला है वर्ष 2005 में हुए सोहराबुद्दीन शेख और उसकी पत्नी कौसर बी की हत्या का. इन्हें भी आतंकवादी बताकर एक मुठभेड़ में मार दिया गया था. वंजारा को इन हत्याओं के लिए2004 और 2005 में गिरफ्तार भी किया गया. शाह को 2010 में इसी हत्याकांड के लिए गिरफ्तार किया गया और उनको तीन महीने बाद जमानत मिल गई. दो महीने पहले भाजपा ने शाह को उत्तर प्रदेश में पार्टी का प्रभारी बनाया था. लेकिन उनके लिए अब एक नई मुसीबत भी खड़ी हो सकती है. सीबीआई एक दूसरे मामले में उनको पूछताछ के लिए तलब करने की योजना बना रही है. यह सादिक जमाल मुठभेड़ मामला है. यह घटना 2003 में हुई थी जब अहमदाबाद में पुलिस ने जमाल को आतंकी करार देते हुए उसे एक मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया था.

सीबीआई के मुताबिक शाह, जमाल की हत्या के दिन कुमार के संपर्क में थे. कुमार उन अधिकारियों में शामिल हैं जिनकी इस मामले में अहम भूमिका रही थी.  सीबीआई इस समय उन चार मामलों की जांच कर रही है जिनमें गुजरात पुलिस पर लोगों को मार कर उनको आतंकवादी बताने का आरोप है. सीबीआई का कहना है कि जमाल की हत्या के मामले में कुमार पर साफ आरोप हैं. महाराष्ट्र के पूर्व और वर्तमान खुफिया अधिकारियों ने उनके खिलाफ गवाही भी दी है.

जांच एजेंसी ने इस राज्य के दो वरिष्ठ खुफिया अधिकारियों दत्ता पल्सागिकर और गुरुराज सवागत्ती से पूछताछ की है. सीबीआई के मुताबिक इन अधिकारियों ने जमाल के आतंकवादी होने के बारे में गलत खुफिया जानकारी दी और इस तरह हत्या के इस षड़यंत्र में शामिल हुए. जांच एजेंसी ने मुंबई पुलिस के निलंबित अधिकारी प्रदीप शर्मा से भी पूछताछ की जिन्हें कभी 100 से भी अधिक कथित अपराधियों को मुठभेड़ में मारने की वजह से ‘एनकाउंटर स्पेशलिस्ट’ के तौर पर जाना जाता था. जमाल गुजरात पुलिस को सौंपे जाने के पहले शर्मा की हिरासत में था. शर्मा इसी तरह के फर्जी मुठभेड़ मामले में हत्या के आरोप में मुंबई में सजा काट रहे हैं.

सीबीआई ने गुजरात में जमाल की हत्या के मामले में डीएसपी तरुण बारोट को पहले ही गिरफ्तार कर लिया है जिन्होंने कथित तौर पर मुंबई से जमाल की हिरासत हासिल की थी. बारोट 2004 की एक मुठभेड़ के मामले में भी आरोपित हैं. कुमार के खिलाफ सीबीआई की जांच काफी समय से लंबित रही है. एक साल तक खुफिया ब्यूरो कुमार से सीबीआई की पूछताछ की राह में रोड़ा बना रहा.

लेकिन जब जमाल और इशरत जहां दोनों हत्याकांडों में कुमार की भूमिका स्पष्ट होने लगी तो खुफिया ब्यूरो के प्रमुख आसिफ इब्राहीम, सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा और केंद्रीय गृह सचिव आर के सिंह ने कई दिन तक मुलाकात के बाद आगे की राह निकाली. जानकारी के मुतबिक कुमार जून में सीबीआई से मुलाकात के लिए गांधीनगर तब पहुंचे जब उनके आला अधिकारियों ने आश्वस्त किया कि उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जाएगा. इसके विरोधस्वरूप सतीश वर्मा नामक सीबीआई अधिकारी ने जांच में शामिल होने से इनकार कर दिया. वर्मा वही अधिकारी हैं जिन पर गुजरात सरकार ने अपने खिलाफ पक्षपाती होने का आरोप लगाया है.

सिंघल के बयान को सीबीआई बहुत अहम मानकर चल रही है. एक समय के जाने-माने पुलिस अधिकारी रहे सिंघल की छवि अब धूमिल हो चुकी है. कहा जाता है कि इस साल उनके 17 साल के इकलौते बेटे द्वारा आत्महत्या किए जाने के बाद उन्होंने सच बोलने का फैसला किया. उन्होंने सीबीआई अधिकारी से कहा, ‘यह ऊपर वाले का इंसाफ है सर, मैंने एक निर्दोष को मारा और मुझे उसकी सजा मिली.’

बेपटरी रेल

जब भी झारखंड और रेल का जिक्र आता है तो यह विडंबना सबसे पहले दिमाग पर दस्तक देती है कि आनुपातिक तौर पर रेल विभाग को सर्वाधिक राजस्व दिलाने के बावजूद झारखंड में रेल सुविधाएं सबसे प्रतिकूल स्थिति में हैं. आंकड़ों के मुताबिक रेल मंत्रालय को होने वाली कुल राजस्व प्राप्ति में 40 प्रतिशत हिस्सा झारखंड से आता है जबकि इस राज्य में उन अधूरी रेल परियोजनाओं की भी पूरी फेहरिस्त है जिनकी घोषणा हुए एक दशक से ज्यादा वक्त बीत गया है.

आजादी के छह दशक बाद भी रेलवे झारखंड में सवारियों की सुविधाओं पर माल ढुलाई को तरजीह देता नजर आता है. हम चाईबासा में रहने वाले प्रो. अशोक सेन की बातों को याद करते हैं जिन्होंने कहा था, ‘अगर आपको पूरे झारखंड में रेल का हाल जानना हो तो सिर्फ हमारे इलाके से जान सकती हैं. चाईबासा कोल्हान का एक प्रमुख स्थान है. यहां से जमशेदपुर के बीच अंग्रेजों के जमाने में भी एक ही सवारी गाड़ी चलती थी, विगत वर्ष तक भी एक ही चलती रही. बहुत आंदोलन के बाद एक और गाड़ी का ठहराव हुआ है. अंग्रेजों ने इसे मालगाड़ी के लिए बनाया था, अब के शासक भी इंसानों की बजाय माल को ही ज्यादा तरजीह देते हैं.’ प्रो. अशोक सेन की बातों को अगर पूरे झारखंड के संदर्भ में देखें तो भी स्थितियां कुछ वैसी ही दिखती हैं. सवारी गाड़ियों का टोटा और मालगाड़ियों की भरमार. झारखंड की रेल लाइन उन इलाकों से ही गुजरती हुई ज्यादा दिखेगी जहां से माल की ढुलाई ज्यादा होनी है. वहीं जिन इलाकों में नागरिक सेवाओं के लिए रेलवे की सेवा बहाल होनी है, वह पिछले कई सालों से या तो अधर में लटकी हुई है या जिन योजनाओं के सपने दिखाए भी गए हैं, अधिकांश कछुआ गति से चल रही हैं.

झारखंड में रांची-कोडरमा रेल लाइन सबसे चर्चित है. पिछले 12 साल से यह अधूरी पड़ी है. जब यह योजना बनी थी, तब इसमें 491.19 करोड़ रु. की लागत आने की बात थी, जो अब बढ़कर 1,099.20 करोड़ रु. तक जा पहुंची है लेकिन काम 75 प्रतिशत ही पूरा हो सका है. जब बिहार-झारखंड एक हुआ करते थे, तब दक्षिण बिहार यानी अब के झारखंड के लिए कई योजनाओं का खाका तैयार हुआ था, जिनके निर्माण की गति करीब एक दशक पीछे है. हालांकि जब झारखंड का निर्माण हुआ तो यह उम्मीद जगी कि अब तक बिहार के कई रेलमंत्रियों के सत्ता में रहने के बावजूद बिहार का जो हिस्सा रेलवे सुविधाओं से वंचित रहा है, उसके लिए कुछ काम होगा. इस उम्मीद को राज्य बनने के दो साल बाद ही फरवरी, 2002 में पंख भी लगे, जब रेल मंत्रालय और झारखंड सरकार के बीच 545 किलोमीटर लंबी छह रेल परियोजनाओं के लिए समझौते पर हस्ताक्षर हुए. समझौते के अनुसार इन परियोजनाओं को फरवरी, 2007 तक पूरा कर लिया जाना था लेकिन ऐसा नहीं हुआ. फिर यह तय हुआ कि किसी भी तरह मार्च, 2012 तक इसे पूरा कर लिया जाए लेकिन दो साल का अतिरिक्त समय लेने के बाद किसी तरह एक-दो परियोजनाओं पर रेल का परिचालन शुरू हो सका.

इनमें से एक तो देवघर से दुमका रेल लाइन है, जिस पर 12 जुलाई, 2011 से रेल परिचालन शुरू हुआ और दूसरी मंदारहिल-दुमका-रामपुरहाट परियोजना है, जिसके एक हिस्से मंदारहिल से हंसडीहा के बीच 24 दिसंबर, 2012 को रेल परिचालन शुरू हो सका है. अब यदि नमूने के तौर पर देवघर-दुमका रेलवे लाइन के शुरू हो जाने में आए खर्च का आकलन करें तो इसे 178.24 करोड़ रु. में पूरा कर लिया जाना था लेकिन पांच वर्षों का विलंब हुआ तो इस पर 249.45 करोड़ रु. खर्च करने पड़े. यह तो सिर्फ एक योजना में खर्च की बढ़ोतरी की बात है, जाहिर है जिन शेष परियोजनाओं में देरी हुई है, उनमें भी अब खर्च की राशि काफी बढ़ गई है. शेष परियोजनाओं को आरंभिक समझौते के अनुसार 1,997.00 करोड़ रु में पूरा हो जाना था, जिसकी लागत बढ़कर अब 3,771.00 करोड़ रु पहुंच चुकी है. विलंब की वजह पूछने पर आधिकारिक तौर पर कोई कुछ नहीं कहता.

रेल परियोजनाओं में विलंब होने से झारखंड वासियों को जो नुकसान हो रहा है वह तो हो ही रहा है, राज्य को भी जोरदार चपत लग रही है क्योंकि जिन परियोजनाओं का काम झारखंड में चल रहा है, उनमें समझौते के अनुसार राज्य सरकार को आधी राशि देनी है. पहले जब समझौते पर हस्ताक्षर हुए तो केंद्र और राज्य सरकार के अंशदान का हिस्सा क्रमश: 66.66 और 33.33 तय हुआ था, जिसे बाद में आधा-आधा कर दिया गया. रेल की बदहाली के बारे में राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा कहते हैं, ‘हालिया रेल बजट से ही समझा जा सकता है कि राज्य को रेलवे कितनी तवज्जो दे रहा है. रेल बजट में 67 एक्सप्रेस और 26 नए पैसेंजर ट्रेनों को चलाने की घोषणा हुई, इनमें से एक भी झारखंड से होकर नहीं गुजरने वाली है.’ झारखंड में प्रतिपक्ष के नेता और वरिष्ठ कांग्रेसी राजेंद्र सिंह की दलील थोड़ी अजीब है. वे कहते हैं, ‘पिछले 16 सालों से कांग्रेस का कोई रेल मंत्री बना ही नहीं. अब कांग्रेसी रेल मंत्री बने हैं तो स्थिति सुधरेगी.’ नेता इस मसले पर अपनी पार्टी का बचाव करते हैं, दूसरे को दोष देते हैं लेकिन वे झारखंड में रेल की स्थिति कैसे सुधरे और कैसे परियोजनाएं सही समय पर पूरी हों, इसकी बात नहीं करते.

झारखंड में रेल परियोजनाओं में विलंब होने से बढ़ती असुविधाएं तथा लोगों की उम्मीदों पर लगता ग्रहण एक पक्ष तो है ही, लेकिन बढ़ती परियोजना लागत के कारण राज्य को लगने वाली चपत भी एक समस्या है. संथाल परगना में मंदारहिल-दुमका-रामपुरहाट परियोजना 130 किलोमीटर की परियोजना है. इसे 1995 में मंजूरी मिली थी. शुरुआती लागत 184 करोड़ रुपये तय हुई थी जो वर्तमान में 675 करोड़ रुपये हो चुकी है. स्थिति यह है कि इतने वर्षों बाद लगभग 75 किलोमीटर काम ही पूरा हो सका है. इसी तरह एक रेल लाइन झारखंड के लोहरदगा से टोरी के बीच का है, जिसके बीच की दूरी 44 किलोमीटर है. इस परियोजना को भी 2007 में ही मंजूरी मिली थी. तब इसे 216 करोड़ रु. में पूरा किया जाना था जबकि अब लागत का खाका 347 करोड़ रु. का हो गया है और निर्माण कार्य की बात करें तो विगत माह तक 14-15 किलोमीटर काम ही पूरा होने की बात बताई गई थी.

इसी तरह एक रेल लाइन देवघर-सुलतानगंज के बीच की है. देवघर-सुलतानगंज के बीच का संबंध गहरा है. सावन के महीने में कांवरिए सुलतानगंज से जल लेते हैं, देवघर में शिवमंदिर में चढ़ाते हैं. लाखों लोगों का आना-जाना होता है. इन दोनों स्थानों के बीच रेल लाइन की मंजूरी 2000 में ही मिली थी. लगभग 114 किलोमीटर की दूरी है और जब इस योजना को मंजूरी मिली थी, तब 138 करोड़ रु. लागत की बात थी, अब यह लागत बढ़कर 469 करोड़ रु. तक पहुंच चुकी है लेकिन भूमि के पेंच में अभी यह तय नहीं कि काम कब तक पूरी तरह शुरू होगा और सपना कब हकीकत में बदलेगा.

कुछ ऐसा ही हाल कोडरमा से जुड़ने वाले तीन रेल परियोजनाओं का भी है. कोडरमा से तिलैया के बीच की परियोजना मात्र 64.76 किमी की है. इसकी मंजूरी 2002 में ही मिली हुई है. मंजूरी के समय इस योजना में 418 करोड़ रुपया लागत आने की बात थी, अब यह लागत 479 करोड़ रुपया तक पहुंच चुकी है. तीन नई परियोजनाओं पर भी काम चल रहा है. इसके तहत क्रमश: हंसडीहा-गोड्डा, साहेबगंज-पीरपैंती और साहेबगंज-तीनपहाड़ के बीच रेलवे का दोहरीकरण करना है.

राज्य के नागरिक भी इस गुणाभाग को अच्छी तरह समझते हैं. जिले हंटरगंज के रहने वाले बबलू कहते हैं, ‘राजधानी रांची में ही देखिए न कि इतने सालों में भी वहां से कहां-कहां के लिए ट्रेनें चलती हैं. क्या वहां से ट्रेन के जरिए देश के प्रमुख शहरों में भी सीधे जाना संभव है.’ बबलू की बातें गलत नहीं हैं. झारखंड रेल यात्री संघ के मानद सचिव प्रेम कटारूका कहते हैं, ‘रेल परियोजनाओं में विलंब के लिए केंद्र और राज्य एक-दूसरे को दोष दे सकते हैं लेकिन जो राज्य विभाग को सबसे ज्यादा राजस्व देता है, वहां के नागरिकों का भी रेल सुविधाओं पर कोई हक तो बनता है लेकिन झारखंड की ओर तो रेल मंत्रालय कभी ध्यान ही नहीं देता.’

जहां तक रेलवे के कुल राजस्व में झारखंड के 40 प्रतिशत योगदान की बात है तो उसका हवाला कई संदर्भों से लिया गया है. झारखंड में ट्रेनों का संचालन पूर्व रेलवे, पूर्व मध्य रेलवे और दक्षिण पूर्व रेलवे के अंतर्गत होता है, जिनमें से किसी का जोनल ऑफिस यहां नहीं है. हटिया रेल डिवीजन, रांची के मंडल रेल प्रबंधक गजानन मलय्या कहते हैं, ‘हमारा डिवीजन औसतन 35 करोड़ रुपये प्रति माह राजस्व देता है.’ धनबाद रेल मंडल के वाणिज्यक कर महाप्रबंधक दयानंद कहते हैं कि हमारे मंडल से औसतन प्रति वर्ष करीब 6000 करोड़ रुपये राजस्व दिया जाता है. वैसे धनबाद रेल मंडल के बारे में जानकारी यह है कि इसे देश के 60 रेल मंडलों में दूसरे नंबर का राजस्व मंडल माना जाता है. इस मामले में केवल बिलासपुर मंडल इससे आगे है.

यह हाल तब है जब बिहार के नेताओं का रेलमंत्री बनने का इतिहास रहा है. बिहार के नेताओं की पहली पसंद रेल मंत्रालय रहती है. हालिया वर्षों में ही बिहार के कोटे से जॉर्ज फर्नांडिस, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार रेलमंत्री रहे हैं. लंदन से प्रकाशित होने वाले अखबार ‘द इलस्ट्रेटेड लंदन न्यूज’ की कुछ पुरानी कतरनें बताती हैं कि संथालों ने क्षेत्र में रेल लाइन बिछाए जाने का विरोध किया था. इसके लिए जंग भी हुई थी. शायद संथाली तभी जान गए होंगे कि रेल के जरिए माल की ढुलाई तो दिन-रात होगी लेकिन ट्रेनें उनके लिए नहीं चलेंगी. आज भी झारखंड के कई हिस्से में लोगों की ऐसी ही धारणा है. यह धारणा शायद गलत भी नहीं है.

यूपी वाया गुजरात

2014 के आम चुनाव के लिए कांग्रेस और भाजपा के मुद्दे भले ही अलग-अलग हों, लेकिन उत्तर प्रदेश में चुनावी नैया के लिए खेवनहार चुनने में दोनों पार्टियों ने एक विशेष तरह का एका दिखाया है. दोनों दलों ने यह जिम्मा गुजरात से ताल्लुक रखने वाले नेताओं को सौंपा है. कांग्रेस ने जहां मधुसूदन मिस्त्री को प्रदेश चुनाव प्रभारी बनाया है वहीं भारतीय जनता पार्टी ने नरेंद्र मोदी के खास सिपहसालार अमित शाह को चुनावी कमान सौंपी है. गुजरात के पूर्व गृहराज्य मंत्री शाह जहां अपने आक्रामक तेवरों के लिए जाने जाते हैं वहीं साबरकांठा से पूर्व सांसद मिस्त्री शांत रह कर संगठन को धार देने में माहिर माने जाते हैं. चुनावी प्रेक्षक चुटकी ले रहे हैं कि सियासी लड़ाई भले ही दो राजनीतिक पार्टियों के बीच हो, लेकिन साख गुजरातियों की दांव पर लगी है. वैसे यह भी संयोग ही है कि दोनों ही दलों ने पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश के नेताओं के हाथ से प्रदेश का प्रभार लेकर गुजरात के नेताओं को सौंपा है.

कांग्रेस हो चाहे भाजपा, दोनों ही पार्टियों के पास प्रदेश से कई बड़े राष्ट्रीय नेता मौजूद हैं, इसके बावजूद चुनाव की कमान गुजरात के लोगों के हाथ क्यों सौंपी गई? जानकार इसके पीछे एक ही मजबूत कारण बताते हैं और वह है दोनों पार्टियों में पैर पसार चुका आंतरिक कलह. सबसे पहले बात कांग्रेस की. 2009 के लोकसभा चुनाव के समय पार्टी हाई कमान की ओर से गांधी परिवार के खास दिग्विजय सिंह को प्रदेश का प्रभारी बना कर भेजा गया. उस चुनाव में पार्टी के खाते में 80 में से 22 सीटें आईं. इस अप्रत्याशित जीत से कांग्रेस को तीन साल बाद उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में आशा की एक किरण दिखाई दी. 2012 के विधानसभा चुनाव में भी दिग्विजय सिंह को ही हाईकमान ने प्रदेश का चुनाव प्रभारी बनाया. लेकिन इस बार स्थितियां 2009 वाली नहीं थीं. विधानसभा चुनाव में टिकटों के बंटवारे को लेकर पार्टी कई खेमों में बंट चुकी थी.

पार्टी का संगठनात्मक ढ़ांचा तहस-नहस हो चुका था. स्थितियां यहां तक पहुंच गई थीं कि तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी व दिग्विजय सिंह के बीच भी रिश्ते बहुत अच्छे नहीं रह गए थे. सिंह पर सर्वमान्य होने के बजाय जाति विशेष का नेता होने के आरोप लग रहे थे  लिहाजा गुटबाजी अपने चरम पर आ गई थी. इसका खामियाजा पार्टी को प्रदेश में उठाना पड़ा. लोकसभा चुनाव में पार्टी ने जहां 80 सीटों में से 22 सीटों पर जीत हासिल की थी वहीं 2012 के विधानसभा चुनाव में 403 में से उसके खाते में महज 21 सीटें ही आईं. आलम यह था कि गांधी परिवार की सीटें अमेठी व रायबरेली भी गुटबाजी की भेंट चढ़ गईं. इस हार से कांग्रेस हाईकमान के सामने साफ हो गया था कि लचर संगठन और गुटबाजी के कारण ही लाख प्रयासों के बावजूद पार्टी को उत्तर प्रदेश में ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा.

जानकार बताते हैं कि पार्टी के संगठनात्मक ढ़ांचे को मजबूत न कर पाने और गुटबाजी को रोकने में नाकाम रहने के कारण ही गांधी परिवार के करीबी माने जाने वाले दिग्विजय सिंह को हाईकमान ने उत्तर प्रदेश से बाहर का रास्ता दिखा दिया. पार्टी की गुटबाजी पर एक कांग्रेसी नेता कहते हैं, ‘समस्या यह है कि जिनके पास पद है उनका कोई कद नहीं है और जिनका कद है उनके पास कोई पद नहीं है.’ प्रदेश में पार्टी को इस समस्या से उबारने और 2009 के लोकसभा चुनाव में मिली 22 सीटों को कम से कम सहेज कर रखने के लिए एक ऐसे चेहरे की जरूरत थी जो संगठन को मजबूत करके गुटबाजी को कम करवाने का प्रयास कर सके.

पार्टी के ही एक दूसरे नेता बताते हैं, ‘मिस्त्री को संगठनात्मक ढांचे की तैयारी का जादूगर माना जाता है. इसका उदाहरण कर्नाटक विधानसभा चुनाव में हाल ही में देखने को मिला है. कर्नाटक कांग्रेस की स्थिति भी उत्तर प्रदेश जैसी ही थी. वहां के संगठन को मजबूत करने के साथ ही प्रत्याशियों के चयन में मिस्त्री ने जमीनी स्तर पर काम किया, जिसका परिणाम रहा कि कांग्रेस को वहां सफलता मिली.’  प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता वीरेन्द्र मदान कहते हैं, ’28 जून को प्रदेश प्रभारी मधुसूदन मिस्त्री के लखनऊ आने के बाद सबसे पहले काम संगठनात्मक ढांचे पर होगा ताकि पार्टी लोकसभा चुनाव में अच्छे परिणाम दे सके.’

भाजपा की स्थिति भी कांग्रेस जैसी ही दिखती है. बसपा व सपा जैसी क्षेत्रीय पार्टियां जहां प्रत्याशियों के टिकट बांटकर लोकसभा चुनाव के प्रचार में जुट गई हैं वहीं भाजपा में अभी संगठन स्तर पर ही काम चल रहा है. राजनाथ सिंह के अध्यक्ष बनने के बाद इस बात के कयास लगाए जा रहे थे कि पार्टी में गुटबाजी पर कुछ विराम लगेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. पार्टी आज भी खेमों में बंटी हुई है. हर गुट अपने-अपने लोगों को लोकसभा टिकट दिलवाने के लिए आतुर है. 2009 के लोकसभा चुनाव में पार्टी के खाते में 80 में से मात्र 10 सीटें आई थीं. इस बार मोदी फैक्टर के चलते जब सुगबुगाहट बढ़ी तो पार्टी से टिकट के दावेदारों की संख्या भी अचानक बढ़ गई है. पार्टी के एक एमएलसी बताते हैं, ‘टिकट के दावेदारों में मौजूदा सांसदों के अतिरिक्त वे विधायक भी हैं जो 2012 का विधानसभा चुनाव जीते हैं. इसके अतिरिक्त टिकट चाहने वालों की फेहरिस्त में कई पूर्व विधायकों व सांसदों के नाम भी शामिल हैं. ऐसे में सबको टिकट देकर खुश करना संभव नहीं है.’ सूत्रों की मानें तो पार्टी को डर है कि टिकट बंटवारे के बाद कहीं गुटबाजी खुल कर सामने न आ जाए जिसका खामियाजा चुनाव में पार्टी को उठाना पड़े. इसे ही ध्यान में रखते हुए प्रदेश के किसी बड़े चेहरे को चुनाव प्रभारी न बना कर गुजरात के अमित शाह को यह जिम्मा सौंपा गया है. मकसद यह है कि स्थानीय नेताओं के इर्द-गिर्द होने वाली गणेश परिक्रमा पर विराम लगाया जा सके.

जानकारों की मानें तो इस सबके अलावा पिछले कुछ समय से मोदी फैक्टर के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए भी शाह को प्रदेश का प्रभारी बनाया गया है. पार्टी सूत्रों के अनुसार 80 लोकसभा वाले उत्तर प्रदेश से भाजपा को काफी उम्मीद दिख रही है इसलिए आक्रामक तेवरों वाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी जल्द ही उत्तर प्रदेश को अपनी कर्मस्थली चुनते हुए लखनऊ, वाराणसी या किसी अन्य सीट से चुनाव लड़ने का एलान कर सकते हैं. ऐसे में मोदी के खास सिपहसालार शाह जहां शहरी तबके को गुजरात के विकास का एजेंडा बता कर प्रभावित करने का प्रयास करेंगे वहीं पर्दे के पीछे से हिंदुत्व की हवा को तेज करके एक खास वर्ग को पार्टी से जोड़े रखने के फॉर्मूले को बरकरार रखेंगे.

उधर, पार्टी का एक गुट मोदी व शाह के फॉर्मूले में कम यकीन रखता है. उसका तर्क है कि विधानसभा चुनाव में भी फायर ब्रांड उमा भारती को प्रदेश की कमान सौंपी गई थी, लेकिन चुनाव के बाद जो नतीजे आए वे बदतर थे. ऐसे में पार्टी जब तक गुटों में बंट कर चुनाव लड़ेगी तब तक परिणाम 2012 के विधानसभा चुनाव वाले ही निकलेंगे. इस वर्ग का मानना है कि मोदी या शाह कोई जादूगर नहीं हैं जिनसे अचानक किसी चमत्कार की उम्मीद की जा सके. शाह के प्रदेश प्रभारी बनाए जाने पर पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी कहते हैं, ‘ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि किसी बाहरी व्यक्ति को उत्तर प्रदेश का चुनाव प्रभारी बनाया गया है. पिछले 15 सालों से ऐसा होता आ रहा है. जिस तरह यूपी के दूसरे नेताओं को बाहरी राज्यों का प्रभारी बनाया गया है उसी तरह शाह को उत्तर प्रदेश का.’

दोनों प्रभारियों का राज्य एक है लेकिन कार्यशैली अलग. अमित शाह को अपने आक्रामक तेवरों के लिए जाना जाता है तो मधुसूदन मिस्त्री को अपने शांत स्वभाव के लिए. ऐसे में देखना यह है कि लोकसभा चुनाव में प्रदेश की जनता पर किस गुजराती का जादू चलेगा.

कांग्रेस के ‘छत्तीस’गढ़

चरणदास महंत और प्रिय दत्त नक्सलवादी हमले में मारे गए नेताओं की श्रद्धांजलि सभा में; फोटो-अशोक साहू
चरणदास महंत और प्रिय दत्त नक्सलवादी हमले में मारे गए नेताओं की श्रद्धांजलि सभा में; फोटो-अशोक साहू

छत्तीसगढ़ में 2008 के विधानसभा चुनाव में आदिवासी नेता महेंद्र कर्मा, भूपेश बघेल, मोतीलाल वोरा के बेटे अरुण वोरा समेत कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता सत्यनारायण शर्मा अपनी-अपनी सीटें हार गए थे. ये राज्य के दिग्गज नेता थे. इनकी हार के साथ ही कांग्रेस में सिरफुटौव्वल मच गई. तमाम नेता एक-दूसरे पर भीतरघात का आरोप लगाने लगे. यह पार्टी में गुटबाजी के सतह पर आने का दौर था. वोरा गुट, जोगी गुट (अजीत जोगी), शुक्ल गुट (विद्याचरण शुक्ल) और महंत गुट (चरणदास महंत) खुलेआम एक-दूसरे पर आरोप लगाने लगे. इसके बाद तीन साल में कांग्रेस की हालत यह हो गई कि विपक्ष की भूमिका निभाना तो दूर कांग्रेस के नेता खुद एक-दूसरे पर सरकार से सांठ-गांठ का आरोप लगाने लगे. यहां तक कि कांग्रेस के पूर्व नेता प्रतिपक्ष महेंद्र सिंह कर्मा को भाजपा की रमन सिंह सरकार का कैबिनेट मंत्री कहा जाने लगा. पार्टी की इसी हालत के बीच अप्रैल, 2011 में नंदकुमार पटेल को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया. पटेल को राज्य में एक हद तक गुटनिरपेक्ष कांग्रेसी नेता माना जाता था. यही वजह रही कि अध्यक्ष बनने के बाद से कांग्रेस के धरने-प्रदर्शन सफल होने लगे. इसका पहला नजारा जून, 2011 में कांग्रेस की भ्रष्टाचार विरोधी महारैली में देखने को मिला जब रायपुर में तकरीबन 70-80 हजार लोगों की भीड़ जुट गई. इसे कांग्रेस के लगभग सभी बड़े नेताओं का समर्थन मिला और इसके साथ पार्टी में एकजुटता दिखाई देने लगी.

यह सिलसिला हाल की परिवर्तन यात्रा तक जारी रहा. लेकिन बीती मई इसी परिवर्तन यात्रा में नक्सलवादी हमले और नंदकुमार पटेल, महेंद्र कर्मा और विद्याचरण शुक्ल की हत्या के बाद कांग्रेस फिर 2008 की हालत में लौटती दिख रही है. इसी जून में चरणदास महंत के कार्यवाहक अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस में एक बार फिर गुटबाजी होने लगी है. इसकी वजह बताते हुए वरिष्ठ पत्रकार नारायण शर्मा कहते हैं, ‘चरणदास महंत की अपनी कोई मौलिक राजनीतिक शैली नहीं है. उनके बारे में विख्यात है कि वे दिग्विजय सिंह से संचालित होते रहे हैं. केंद्र में कृषि राज्य मंत्री बनने के बाद भी उनकी ऐसी कोई उपलब्धि नहीं दिखी जिसे रेखांकित किया जा सके. जहां तक संगठन का सवाल है तो उन्होंने अपने पूर्व के कार्यकाल में ही कभी यह साबित नहीं किया कि वे कार्यकर्ताओं को उत्साह से लबरेज करने के लिए कुछ कर सकते हैं. उनका और उनके समर्थकों का अधिकांश समय अजीत जोगी के शक्तिशाली खेमे से निपटने में ही जाया होता रहा है.’

महंत के बारे में नारायण की राय एक हद तक सही मालूम पड़ती है. बस्तर के कोंडागांव जिले में केशकाल नगर पंचायत के अध्यक्ष पद के लिए इसी जून में हुए चुनाव में इस बात के स्पष्ट संकेत मिले. इनमें पहले कांग्रेस ने अजीत जोगी के समर्थक अमीन मेमन की भाभी शाहिना मेमन को अपना प्रत्याशी बनाया था. लेकिन महंत के कार्यवाहक अध्यक्ष बनने के साथ ही शाहिदा के स्थान पर ममता चंद्राकर नाम की एक महिला को टिकट दे दिया गया. टिकट कटने से नाराज शाहिदा ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और वे चुनाव जीत गईं. इसके बाद से महंत गुट लगातार आरोप लगा रहा है कि यहां अजीत जोगी के समर्थकों ने कांग्रेस प्रत्याशी के खिलाफ काम किया है. हारी हुई कांग्रेस प्रत्याशी तो आधिकारिक रूप से प्रदेश कांग्रेस कमेटी में इसकी शिकायत दर्ज करवा चुकी हैं.

गौरतलब है कि वर्ष 2003 में जोगी के सत्ता से हटने के बाद महंत को संगठन में कई मौके मिल चुके हैं. (राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि यह मौके उन्हें दिग्विजय सिंह के करीबी होने की वजह से हासिल होते रहे) कभी उन्हें कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया है, कभी कार्यवाहक तो कभी पूर्णकालिक. वर्ष 2006 और 2007 में वे पूर्णकालिक अध्यक्ष बनाए गए थे लेकिन संगठन में उनकी निष्क्रियता को लेकर सवाल उठते ही उनसे अध्यक्ष पद की जवाबदारी वापस ले ली गई. इस बार जब चरणदास महंत को दोबारा प्रदेश राज्य कांग्रेस की कमान सौंपी गई तो छत्तीसगढ़ के राजनीतिक प्रेक्षकों के लिए यह चौंकाने वाली घटना थी. दरअसल इसके साथ ही कांग्रेस हाईकमान ने राज्य में पार्टी के सबसे प्रभावी नेता अजीत जोगी को एक तरह से किनारे कर दिया. और अब महंत और जोगी गुट आमने-सामने दिख रहे हैं. हालांकि महंत किसी तरह की राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता से इनकार करते हैं. संगठन में अपनी बार-बार की पदस्थापना को लेकर सफाई देते हुए वे बस इतना कहते हैं, ‘ मैं तो कांग्रेस का एक अदना-सा सिपाही हूं. संगठन जब-जब जिम्मेदारी सौंपता है, मैं उसका निर्वाह पूरी ईमानदारी के साथ करता हूं.’

दिग्विजय यहां भी
मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को छत्तीसगढ़ में सीधे तौर पर कभी कोई जिम्मेदारी नहीं मिली. लेकिन राज्य कांग्रेस में उनकी दिलचस्पी और कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव होने के नाते दखल हमेशा बना रहा है. सिंह पर कांग्रेस के सबसे पुराने और ताकतवर शुक्ल खेमे को तबाह करने का आरोप भी काफी पुराना है. प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक रमेश नैय्यर बताते हैं, ‘दिग्विजय सिंह ने एक समय शुक्ल बंधुओं के लिए ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी थीं जिनमें वे सांसद और विधायकों के टिकट वितरण में राय-मश्विरा दिए जाने के काम से भी वंचित कर दिए गए.’ जहां तक जोगी और दिग्विजय सिंह के बीच तनातनी की बात है तो इसकी जड़ें 1992 की एक घटनाक्रम में खोजी जा सकती हैं. उस समय मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए सिंह ने छत्तीसगढ़ के मैनपुर इलाकों में स्थित हीरा खदानों को डी-बियर्स कंपनी को सौंपने का फैसला लिया था.

इस पर जोगी सहमत नहीं थे. उन्होंने पदयात्रा निकालकर इसका विरोध किया और राज्य सरकार का फैसला खटाई में पड़ गया. तब से शुरू हुई राजनीतिक दुश्मनी इन दोनों के बीच अभी तक जारी है. इसकी एक बानगी अभी हाल के दिनों में तब देखने को मिली जब दिग्विजय सिंह नक्सली हमले में मृत नेताओं को श्रद्धांजलि देने छत्तीसगढ़ पहुंचे.

यहां कांग्रेस भवन में आयोजित एक कार्यक्रम में जोगी ने सिंह को बाहरी नेता बताकर उनके इलाके राघोगढ़ को तुकबंदी में जोड़ते हुए कहा कि छत्तीसगढ़ का भला छत्तीसगढ़ के नेता ही कर सकते हैं, प्रतापगढ़ और फतेहगढ़ के नेता नहीं. सिंह ने भी पलटवार करते हुए जवाब दिया कि उनका विरोध वे लोग ही कर सकते हैं जो भाजपाई हैं या नक्सली. गौरतलब है कि चरणदास महंत दिग्विजय सिंह के करीबी माने जाते हैं. ऐसे में संभावना जताई जा रही है कि महंत के कार्यवाहक अध्यक्ष रहते हुए जोगी गुट को राज्य कांग्रेस में महत्वपूर्ण भूमिका से दूर ही रखा जाएगा.

G2जोगी पर नजर
छत्तीसगढ़ के राजनीतिक गलियारों में इस बात की चर्चा है कि जोगी पर उनके समर्थक नई पार्टी गठित करने के लिए दबाव बनाए हुए हैं. जबकि बदले हुए राजनीतिक समीकरण के मद्देनजर जोगी के एक करीबी नेता का दावा है कि उनसे बहुजन समाज पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच के आला नेता लगातार संपर्क बनाए हुए हैं. हालांकि तमाम चर्चाओं पर पूर्व मुख्यमंत्री तहलका से बात करते हुए साफ कहते हैं, ‘मेरा कांग्रेस छोड़ने का कोई इरादा नहीं है. लेकिन सक्रिय राजनीति में जब उतार-चढ़ाव का दौर आता है तो समर्थकों के बीच सही और गलत फैसलों को लेकर मंथन चलता ही है.’ क्या महंत की नियुक्ति से कांग्रेसियों में असंतोष है, यह पूछे जाने पर जोगी वर्तमान अध्यक्ष के बजाय नंदकुमार पटेल की तारीफ करते हुए कहते हैं, ‘पटेल के भीतर संघर्ष का माद्दा सिर्फ इसलिए था क्योंकि उन्होंने अपने आस पास कभी व्यापारी और बदनाम लोगों को भीड़ एकत्रित नहीं की. वे जितने सरल और सहज थे उनके आस पास भी उतने ही सरल-सहज और जुझारू लोग मौजूद रहते थे.’

दरअसल पिछले दिनों कांग्रेस पार्टी के काफिले पर नक्सलवादी हमले के बाद राज्य में ऐसी अफवाहें उड़ी थीं कि इसमें जोगी का हाथ है. दिलचस्प बात थी कि इस बारे में सबसे ज्यादा सवाल कांग्रेस पार्टी की ओर से ही उठाए गए. जोगी के एक विश्वासपात्र बताते हैं, ‘यह पार्टी के सामने जोगी को खलनायक दिखाने का खेल था. कांग्रेस के बाकी गुटों का मानना था कि पटेल के बाद जोगी या उनके किसी समर्थक को अध्यक्ष बनाया जा सकता है इसलिए उन्हें बदनाम करके पार्टी से बाहर कर दिया जाए.’ तो क्या इस गुटीय लड़ाई में जोगी का पार्टी से बाहर होना कांग्रेस के लिए सामान्य घटना होगी? वरिष्ठ पत्रकार विक्रम जनबंधु कहते हैं, ‘छत्तीसगढ़ में जोगी का व्यापक जनाधार है, यह बात उनके राजनीतिक विरोधी भी स्वीकारते हैं. उनके पार्टी छोड़ने या अन्य संभावनाओं को तलाशने से कांग्रेस को निर्णायक नुकसान उठाना पड़ सकता है.’

दरअसल अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े और आदिवासी वर्ग के कुछ फीसदी वोटों पर जोगी की अपनी पकड़ आज भी  कायम है. ऐसे ही कुछ फीसदी वोटों के चलते महंत और वोरा गुट से जुड़े लोगों के भीतर जोगी के हस्तक्षेप का एक डर बना हुआ है. इन गुटों के कई नेताओं का विचार है कि जोगी चुनाव में जीत तो नहीं दिलवा सकते लेकिन उनके समर्थकों की परोक्ष अथवा अपरोक्ष कोशिश किसी जीत को हार में जरूर बदल सकती है.

नेताओं की हार के बारे में जोगी का अपना नजरिया है. वे कहते हैं, ‘भीतरघात जैसा शब्द उन लोगों का गढ़ा हुआ है जिनका अपना कोई जनाधार नहीं होता.’ जोगी आगे कहते हैं, ‘प्रदेश अध्यक्ष रहे धनेंद्र साहू चुनाव हारे. हाल में ही कार्यक्रम समन्वयक बनाए गए भूपेश बघेल को पहले विधानसभा और लोकसभा चुनाव में पराजय का सामना करना पड़ा. यहां तक कांग्रेस के कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा अपने पुत्र अरुण वोरा की जीत सुनिश्चित नहीं कर सके तो इन नेताओं को समझ लेना चाहिए कि जनता के बीच उनका जनाधार कितना कमजोर है.’ नंदकुमार पटेल के नेतृत्व में कांग्रेस यह साबित कर चुकी है कि वह यहां दमदार विपक्ष है. लेकिन हाल की गुटबाजी से यह भी साबित हो रहा है कि राज्य में अपने अतीत की तरफ कांग्रेस कभी भी लौट सकती है.

यह कैसी हरकत है सरकार!

इलस्ट्रेशन:मनीषा यादव
इलस्ट्रेशन: मनीषा यादव

एक खबर- सरकार हरकत में आई. हरकत… शब्द बहुत दिलचस्प है. जब यह सरकार के साथ जुड़ता है, तो अलग अर्थ देता है और जब आम आदमी के साथ चस्पा होता है, तो सर्वथा अलग. भला यह कैसी हरकत!   बचपन में जब कभी हम हरकत करते थे मास्साब की छड़ी हरकत करती थी. वो भी हमारे बदन पर. कई बार तो ऐसा होता था कि हम हरकत कम करते थे और मास्साब की छड़ी हमसे ज्यादा. मगर यहां क्या हो रहा है!

सरकार विधिवतरूप से हरकत कर भी नहीं रही है, खरामा-खरामा अभी तो वह हरकत में बस आई है कि पहले पेज की मुख्य खबर बन गई. हरकत में उसके आने का स्वागत हो रहा है. खबर सुनकर एकबारगी ऐसा लगता है जैसे सरकार आईसीयू में भर्ती हो, अचानक से उसके बदन में हरकत हुई हो. और लोग खुश.

देखो! देखो! हरकत कर रही है! हरकत हो रही है! नहीं, नहीं, अभी मरी नहीं, अभी जिंदा है हमारी सरकार. सरकार हरकत में आई! जाहिर-सी बात है अब तक वह शांत थी. अगर सरकार सोई हुई होती, तो कहा जाता सरकार जागी. इसका मतलब यह हुआ कि सरकार सोई हुई नहीं होती, सब देखती-समझती है, मगर हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है. अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि सरकार सही समय पर हरकत में नहीं आती. प्राय: लोग सरकार का मुंह जोहते रहते हंै कि सरकार कब हरकत में आएगी. जनता की तरह सरकार की भी याददाश्त थोड़ी कमजोर होती है. सरकार को याद दिलाना पड़ता है कि वह सरकार है. उसकी कुछ जिम्मेदारी है. इत्ती सी बात याद दिलाने के लिए बस जलाना, ट्रेन रोकना, भारत बंद जैसे पावन कृत्य करने पड़ते हैं. तब जाकर सरकार हरकत में आती है.

इतने दिनों में सरकार की एक पहचान बहुत पुख्ता हुई है. वह यह कि वह लगातार हरकत करने में असमर्थ रहती है. तब सरकार हरकत में कब आती है! किसान मर जाते हैं. मजदूर का पूरा परिवार आत्महत्या कर लेता है. बस्तियां जला दी जाती हैं. ट्रेन पलट जाती है. बाढ़ आती है. सूखा पड़ता है. तब भी नहीं. तब सरकार हरकत में कब आती है! शायद जब वोटबैंक में से अपना खाता बंद होने की आंशका उसे घेरती है. तब!

लोग कहते हैं कि सरकार तुरत-फुरत में हरकत में क्यों नहीं आती! देखा जाए तो इसमें सरकार का कोई दोष नहीं. वह क्या करे. अब इतनी बड़ी सरकार. उसके इतने हाथ तो इतने पैर. इनको हिलाने-डुलाने में काफी ऊर्जा खर्च करनी पड़ती होगी, लिहाजा वह लेटी (पड़ी) रहती है. सरकार बहुत ठस्स चीज होती है. भारी भरकम. कितने तो पुरजे उसके, कितने तो जोड़ उसके. वह एकदम से हरकत में आ भी जाए तो कैसे. सरकार की मजबूरी है. कुछ तो मजबूरी है, कुछ उसकी रूढ़ हो चुकी छवि का भी सवाल है. बात-बात पर हरकत में आ जाएगी, जरूरत के वक्त हरकत में आ जाएगी, तो उसे सरकार कहेगा कौन!

अब यह हरकत देखिए! सरकार के चलते रहने को हरकत नहीं माना जाता. न ही तो सरकार के गिरने को ही. जबकि ये दोनों भी क्रियाएं हैं. यह सरकार के साथ ज्यादती है. चलिए इसे हरकत न मानिए जैसी आपकी मर्जी. चलिए मगर यह मानिए, सरकार किसी भी तरह से हरकत में आ तो गई! तो पहले पहल तो विपक्ष के ऊपर ठीकरा फोड़ेगी. वर्तमान चुनौतियों को भूतपूर्व सरकार के पहलू से नत्थी  करेगी. जब इतनी हरकत से बात नहीं बनेगी तो सरकार और हरकत करेगी और उसके बदन से आयोग, बयान, खंडन, जांच कमीशन! पैकेज! आदि झड़ेंगे. फिर! फिर क्या! फिर सरकार शांत, ठस्स, क्रियाविहीन, लगभग मरणासन्न हो जाती है. तब तक, जब तक कोई होनी अनहोनी में, घटना दुर्घटना में, खबर त्रासदी में न बदल जाए.

-अनूप मणि त्रिपाठी

तिरस्कार की मार

बात सितंबर, 1893 की है. उत्तराखंड के चमोली में बहने वाली बिरही नदी में एक पहाड़ गिर गया. बिरही आगे जाकर अलकनंदा में मिलती है जिसके भागीरथी में मेल के बाद बनी धारा को गंगा कहा जाता है. बिरही में पहाड़ गिरने से एक विशाल झील बन गई. ताल के एक छोर पर गौणा गांव था और दूसरे पर दुर्मी तो कोई इसे गौणा ताल कहता और कोई दुर्मी ताल. तब के शासकों यानी अंग्रेजों ने उस ताल से पैदा हुआ खतरा भांपते हुए दुर्मी में एक तारघर खोल दिया. तारघर से एक अंग्रेज कर्मचारी हर रोज पानी के स्तर की जानकारी नीचे बसे गांवों में भेजता. आशंका गलत नहीं थी. एक साल बाद 16 अगस्त 1894 को भारी बारिश और पहाड़ धसकने से ताल का एक हिस्सा टूट गया. कुछ सालों बाद इस ताल का अध्ययन करने आए स्विस भूगर्भ वैज्ञानिकों के मुताबिक इस चार किमी लंबे, एक किमी चौड़े और 300 मीटर गहरे गौणा ताल में करीब 15 करोड़ घन मीटर पानी था. अनुमान है कि ताल टूटने के बाद भारी मात्रा में पानी बिरही की संकरी घाटी से होते हुए चमोली, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग, श्रीनगर, ऋषिकेश और हरिद्वार की ओर बढ़ा होगा. दस्तावेजों के मुताबिक उस भारी जल प्रवाह से भले ही अलकनंदा घाटी में खेती और संपत्ति को भारी नुकसान हुआ, लेकिन मौत सिर्फ एक हुई थी. वह भी उस साधु की जो लाख समझाने के बावजूद जलसमाधि लेने पर अड़ा हुआ था.

यानी नुकसान इसलिए बहुत कम हुआ कि संकट को समझने और उससे बचने के लिए समय पर सटीक उपाय करने की अंतर्दृष्टि दिखाई गई थी. ताल बनते ही बचाव के उपाय शुरू हो गए थे. अंग्रेज तुरंत सूचना भेजने और लोगों को चौकन्ना करने की व्यवस्था की अहमियत समझते थे इसलिए उन्होंने तब दुर्लभ मानी जाने वाली लगभग 100 मील लंबी तार लाइन भी बना ली थी. कई दशक बाद 20 जुलाई, 1970 को ताल पूरी तरह से टूट गया. बेलाकूची नाम का एक गांव इस जल प्रलय में बह गया. उस समय भी कई यात्री गाड़ियों के बहने और कुल 70 मौतें होने की बात रिकॉर्ड में दर्ज है. यह आजाद भारत का किस्सा है.

आज देश को आजाद हुए करीब 66 साल हो चुके हैं. उत्तराखंड को अलग राज्य बने भी 13 साल हो गए. लेकिन लगता है कि ऐसी आपदाओं को संभालने के मामले में हम एक मायने में 1893 से भी पीछे चले गए हैं. केदारनाथ में आए जलप्रलय का कारण बना गांधी सरोवर यानी चौरबाड़ी ताल केवल 400 मीटर लंबा और 100 मीटर चौड़ा था. इसकी गहराई अधिकतम दो मीटर थी. यानी गौणा ताल की तुलना में इसका आकार एक तलैया से अधिक नहीं था. फिर भी इससे हुई तबाही ने करीब सवा सदी पहले हुई उस तबाही को कहीं पीछे छोड़ दिया. अब तक 1000 से अधिक मौतों और कई हजार करोड़ रु के नुकसान की पुष्टि हो चुकी है.

वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिक डॉ मनीश मेहता के शोध पत्र के अनुसार चौरबाड़ी ताल 3000 साल पुराना था. इसके किनारे थामने वाला मौरेन (हिमनदों का चट्टानरूपी अवक्षेप) 100 मीटर मोटाई का था, लेकिन यह कुछ सालों से रिस भी रहा था. ताल के नीचे रोज हजारों यात्री आते थे फिर भी सरकार ने न तो इसके टूटने की संभावनाओं को परखा और न बचाव के उपाय किए. उत्तरकाशी में दो साल से तबाही का कारण बन रही असिगंगा का मूल स्रोत भी डोडीताल नाम का एक तालाब ही है.

आज सूचना और आवागमन के साधन हर जगह मौजूद हैं. लेकिन उनका प्रयोग करके भी इस आपदा के असर को कम नहीं किया जा सका. दरअसल आपदा के पहले और बाद में जो हुआ उसे गहराई से देखें तो इसका सीधा कारण व्यवस्था थामने वालों में जिम्मेदारी की भावना और संवेदनशीलता का अभाव दिखता है. वहीं, आम जनता भी परंपरागत ज्ञान और जीवन पद्धति को याद रखती तो नुकसान इतना ज्यादा नहीं होता. आगे जो दर्ज है वह बताता है कि परंपरागत ज्ञान और आधुनिक कानून का उत्तराखंड में जो तिरस्कार हुआ है, एक समाज के रूप में उसकी कीमत चुकाने के लिए हम अभिशप्त हैं.

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भारी बारिश ने उत्तराखंड में कहर बरपाया

सपनों की दौड़

मिल्खा सिंहगर्मी की यह एक आम सुबह है लेकिन हवाएं चलने से मौसम खुशनुमा बना हुआ है. इस बीच चंडीगढ़ का गोल्फ क्लब दर्शकों से भर चुका है. क्लब के इस वार्षिक आयोजन के शुरू होने के पहले इसके आयोजक दिगराज सिंह औपचारिक रूप से खेल के नियम बताते हैं. टूर्नामेंट में भाग लेने आए गोल्फरों के लिए ये हजारों बार सुनी गई बातें है, सो वे हर नियम पर चुहल करते दिख रहे हैं. इनके बीच में एक ऐसा व्यक्ति भी है जो इन बातों से बेपरवाह एक किनारे पर शांति से खड़ा है. उसकी नजरें टूर्नामेंट में विजेता को दिए जाने वाले कप पर टिकी हैं. कोई और होता तो शायद उसके लिए ज्यादा समय तक अपने एकांत का आनंद लेना आसान होता.

पर भारत के उड़न सिख मिल्खा सिंह के लिए यह मुमकिन नहीं है. स्थानीय रिपोर्टरों की नजरों से वे बच नहीं पाते. थोड़े देर में ही वे खुद को मीडियाकर्मियों से घिरा पाते हैं. पत्रकार चुनावों से लेकर पंजाब की युवा पीढ़ी में नशे की लत जैसे तमाम मुद्दों पर उनकी राय जानना चाहते हैं. मिल्खा इन पत्रकारों से अनुरोध करते हैं कि वे खेल के बाद सभी सवालों के जवाब देंगे. इस बीच फोटोग्राफर गोल्फरों को ट्रॉफी के आसपास खड़ा होने के लिए कहते हैं. इस मौके पर की गई एक टिप्पणी आपको इस इकहरे बदन वाले सिख के जादुई असर के बारे में और गहराई से बताती है. पंजाब क्रिकेट असोसिएशन के चीफ सेक्रेटरी आईएस बिंद्रा दोस्ताना लहजे में शिकायत करते हैं, ‘मुझे इस आदमी (मिल्खा सिंह) के साथ एक ही फ्रेम में खड़ा होना नापसंद है. उसके रहते हुए मुझ पर कोई ध्यान ही नहीं देता.’

बेशक मिल्खा सिंह के लिए चमक-दमक का दौर नया नहीं है लेकिन बिंद्रा की टिप्पणी आज से तकरीबन पांच दशक पहले के माहौल में ज्यादा सटीक बैठती है. आजादी के बाद हुए दंगों में पाकिस्तान से किसी तरह जान बचाकर भारत आने और 1960 के ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले इस सिख युवक की  कहानी में वे सारे तत्व हैं जो उसे नायक बनाते हैं. हालांकि बीते दशकों के दौरान चंडीगढ़ शहर अपने इस नायक की आभा का अभ्यस्त हो चुका है. वहीं दूसरी ओर पिछले कुछ सालों में ही सेक्टर आठ ने शहर को एक नया सेलेब्रिटी दिया है. ये हैं जीव मिल्खा सिंह. मिल्खा सिंह के बेटे जीव ने दुनिया में किसी भारतीय द्वारा अब तक की सबसे ऊंची रैंकिंग हासिल की है.

आज मिल्खा सिंह की उपलब्धियां समय के साथ कुछ धुंधली पड़ गई हैं. लेकिन हो सकता है राकेश ओम प्रकाश मेहरा द्वारा उनके जीवन पर बनाई जा रही फिल्म- भाग मिल्खा भाग से इस उड़न सिख का चमकदार अतीत एक बार फिर लोगों को आकर्षित करे. हालांकि ऐसी फिल्मों का जीवनकाल उस दौर के मुकाबले कहीं नहीं ठहरता जिसमें से निकलकर ऐसे नायकों की कहानियां बनती हैं. इस फिल्म में 1946 से 1960 के बीच मिल्खा सिंह की जिंदगी दिखाई गई है. ओलंपिक से जुड़े भारतीय खेल इतिहास की शायद यह सबसे प्रेरणादायक कहानी होगी. आज की पीढ़ी के लिए इस कहानी की प्रेरणा धुंधली पड़ चुकी है, लेकिन खुद इसके सूत्रधार के लिए ऐसा नहीं है. चंडीगढ़ में गोल्फ टूर्नामेंट शुरू होने के चार घंटे बाद घोषणा होती है कि इसके विजेता मिल्खा सिंह हैं. इस समय तक वे गोल्फ क्लब से जा चुके हैं. शायद एक और कहानी रचने. उनके पारिवारिक दोस्त और पत्रकार डॉन बनर्जी हंसते हुए बताते हैं,  ‘उन्हें हमेशा नई चुनौती की तलाश रहती है. जब जीव ने पहली बार एशिया कप जीता था और हम सब इसका जश्न मना रहे थे, तब मिल्खा सिंह अपने बेटे से कह रहे थे- वैलडन, लेकिन अब तुम्हें समझ आ रहा होगा कि यूरोप टूर के लिए तुम्हें कितनी कड़ी मेहनत करनी होगी.

‘मिल्खा जब’ नई चुनौतियों’ की तलाश में नहीं होते तब वे अमूमन अपने दोस्तों के साथ होते हैं और यह उनके हंसी-मजाक का समय होता है. उनके साथी मिल्खा के बारे में कई चटपटी बातें करते हैं और इस उड़न सिख के पास इन किस्से-कहानियों में जोड़ने के लिए और नई बातें होती हैं. जब एक गोल्फर उन्हें चिढ़ाते हुए कहते हैं कि एक दूसरे एथलीट पान सिंह तोमर पर बनी फिल्म बहुत अच्छी थी तो मिल्खा गुस्सा दिखाते हुए जवाब देते हैं कि वे तोमर के कैप्टन रह चुके हैं और एक बार उन्होंने लंबी दूरी की दौड़ में उसे हराया भी था जबकि वे खुद स्प्रिंटर (100 मीटर की दौड़) के चैंपियन थे. इसके साथ ही सभी लोगों की हंसी छूट जाती है.

खेल का इतिहास बताता है कि मिल्खा भारत को एक ओलंपिक मेडल दिलाते-दिलाते चूक गए थे. उस ऐतिहासिक दौड़ के अंतिम क्षणों में उन्होंने अपनी दाईं ओर दौड़ रहे दक्षिण अफ्रीका के मैलकॉम स्पेंस को देखा और उन्हीं के साथ वे फिनिश लाइन पार कर गए. स्पेंस तीसरे स्थान पर रहे और मिल्खा ओलंपिक मेडल से चूक गए. वे बताते हैं, ‘1958 के राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीतने के बाद सभी को लगने लगा था कि मैं ओलंपिक में मेडल जीतूंगा. लेकिन मेरे हाथ से मेडल फिसल गया.’

फिल्म की स्क्रिप्ट लिखने के सिलसिले में प्रसून जोशी जब मिल्खा सिंह से मिले तो उन्होंने जोशी को एक पतली–सी किताब भेंट की. इसने उन्हें हैरान कर दिया. इस किताब में मिल्खा की जिंदगी से जुड़ी घटनाओं का समयवार ब्योरा है. उनके साथ तकरीबन सौ घंटे बिताने वाले जोशी याद करते हैं कि वे जो कहानी कहना चाहते थे उसके लिए यह किताब  मार्गदर्शक बन गई. वे कहते हैं, ‘यह कुछ ऐसा है जैसे एक ब्रांड और एक आदमी दोनों एक हो गए हैं.’

बस्तर: मुश्किल चुनावी डगर

बस्तर के कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां पहुंचने के लिए चुनावकर्मियों को दो से तीन दिन की पैदल यात्रा करनी पड़ती है. फोटो-ईशान तन्खा
बस्तर के कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां पहुंचने के लिए चुनावकर्मियों को दो से तीन दिन की पैदल यात्रा करनी पड़ती है. फोटो-ईशान तन्खा
बस्तर के कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां पहुंचने के लिए चुनावकर्मियों को दो से तीन दिन की पैदल यात्रा करनी पड़ती है. फोटो-ईशान तन्खा
बस्तर के कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां पहुंचने के लिए चुनावकर्मियों को दो से तीन दिन की पैदल यात्रा करनी पड़ती है. फोटो-ईशान तन्खा

दक्षिण छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल अंदरूनी क्षेत्रों में चुनाव करवाना सुरक्षा और यहां तक कि चुनाव सामग्री पहुंचाने के लिहाज से हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा है. हर बार माओवादियों का चुनाव विरोधी आक्रामक प्रचार मतदाताओं व चुनाव अधिकारियों के लिए सबसे बड़ा खतरा बनकर उपस्थित होता है. बीते सालों में यहां हजारों मतदान केंद्र पुलिस स्टेशनों के नजदीक तथाकथित सुरक्षित स्थानों पर स्थानांतरित किए गए हैं. 2008 के विधानसभा चुनाव में राज्य के ऐसे कई केंद्रों पर 90 फीसदी मतदान की खबरें आई थीं और इस आंकड़े की वजह से बड़े पैमाने पर फर्जी मतदान की आशंका जताई गई. हाल ही में छत्तीसगढ़ कांग्रेस के नवनियुक्त अध्यक्ष चरणदास महंत ने चुनाव आयोग को पत्र लिखकर मांग की है कि आगामी नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव के दौरान सभी मतदान केंद्रों पर छिपे हुए कैमरे से वीडियो रिकॉर्डिंग की जाए. कांग्रेस की मांग यह भी है कि चुनावकर्मियों को जीपीएस डिवाइसें दी जाएं जिससे उनकी लोकेशन का पता चलता रहे.

यहां जंगल के बीच ऐसे सुदूर क्षेत्रों में आबादी बसी हैं जहां पहुंचने के लिए लिए चुनावकर्मियों को चुनाव के कई दिन पहले निकलना पड़ता है. उनकी जिम्मेदारी सिर्फ वहां पहुंचने की नहीं होती बल्कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) और अन्य सामग्री को सुरक्षित उस जगह ले जाने की भी होती है. कई बार ऐसा हुआ है कि माओवादियों के कैडर ने इनसे ईवीएम और चुनाव सामग्री छीन ली और धमकी देकर उन्हें वापस लौटा दिया. कुछ क्षेत्रों में तो माओवादियों का प्रभाव इतना ज्यादा है कि उनसे होकर मतदान केंद्रों पर पहुंचना लगभग नामुमकिन होता है. ऐसे में हेलिकॉप्टर के जरिए चुनावकर्मियों को वहां पहुंचाया जाता है. खतरा यहां भी कम नहीं होता. नवंबर, 2008 में जब बीजापुर जिले के पेडिया गांव से चुनावकर्मियों को लेकर एक हेलिकॉप्टर वापस लौट रहा था तब माओवादियों ने उस पर फायरिंग की थी. इसमें एक फ्लाइट इंजीनियर की मौत हो गई थी.

इसी चुनाव की एक और घटना है. माओवादियों ने दंतेवाड़ा विधानसभा सीट के हांदावाड़ा मतदान केंद्र से ईवीएम मशीनें लूट ली थीं. इस केंद्र पर दोबारा मतदान की तारीख तय हुई. चुनावकर्मी 25 किमी का सफर तय करके यहां तक पहुंच गए. रातभर इन लोगों काे आसपास से माओवादियों की आवाजें और चुनाव बहिष्कार के गीत सुनने को मिले और वे डरते रहे. अगले दिन यहां बमुश्किल 19 फीसदी मतदान हो पाया. हालांकि कोंटा विधानसभा क्षेत्र के गौगुंडा बूथ पर पुनर्मतदान की कहानी बहुत अलग है. माओवादियों से डरे हुए चुनावकर्मी यहां पहुंचे ही नहीं और खुद ही तमाम पार्टियों की तरफ से एक निश्चित अनुपात में ईवीएम मशीनों में मत डालकर बीच रास्ते से वापस आ गए. बाद में यह बात उजागर हो गई और इन चुनावकर्मियों को जेल जाना पड़ा. एक राजनीतिक पार्टी का एजेंट जो इस टीम के साथ था, हमें बताता है, ‘माओवादी हमारे रास्ते के आस-पास ही थे. हम आगे बढ़ते तो हमारी हत्या कर दी जाती. हमारे साथ जो पुलिसवाला था वो खुद डरा हुआ था.

आखिर में हमने तय किया कि सभी पार्टियों के लिए हम खुद ही वोट डालेंगे. ‘बाद में यहां चुनाव के लिए एक और टीम भेजी गई और मतदान केंद्र एक गांव के नजदीक अपेक्षाकृत सुरक्षित जगह पर स्थानांतरित कर दिया गया. इसके बावजूद यहां सिर्फ 10 लोगों ने मत डाले जबकि 700 मतदाता यहां पंजीकृत हैं. बस्तर में अपेक्षाकृत सुरक्षित समझे जाने वाले ऐसे कई मतदान केंद्र बनाए जाते हैं लेकिन इसके बाद भी यहां पर्याप्त मतदान सुनिश्चित नहीं हो पाता. इसी चुनाव में राष्ट्रीय राजमार्ग (क्रमांक 30) के नजदीक बनाए गए गोरखा मतदान केंद्र से माओवादियों ने ईवीएम मशीनें लूट ली थीं, जबकि इससे 10 किमी दूर ही इंजारम में सलवा जुडूम कार्यकर्ताओं का शिविर था. इस मतदान केंद्र पर जब पुनर्मतदान हुआ तो कहा जाता है कि चुनावकर्मी मतदान करवाने के लिए अपने साथ सलवा जुडूम कार्यकर्ताओं को ले गए. इनमें से सिर्फ एक व्यक्ति का नाम उनकी मतदाता सूची में था. नतीजतन 938 मतदाता वाले केंद्र पर सिर्फ एक मत डाला गया.

माओवाद प्रभावित सुकमा जिले के एक पत्रकार लीलाधर राठी कहते हैं, ‘बस्तर में ठीक-ठाक चुनाव करवाना युद्ध लड़ने से कम नहीं है. इन इलाकों में आए चुनावकर्मियों के परिवारों के लिए ये दिन सबसे भारी चिंता वाले होते हैं.’ बीजापुर शहर के एक शिक्षक मोहम्मद जाकिर खान इस बात पर सहमति जताते हुए कहते हैं, ‘ जंगल जाने वाले चुनावकर्मियों का जाना ऐसा होता है जैसे वे परिवार से अंतिम विदा ले रहे हों और उन्होंने अपनी वसीयत तैयार कर दी हो. ‘ दंतेवाड़ा में तो यह परंपरा ही बन गई है कि कई चुनावकर्मी जंगल में जाने से पहले दंतेश्वरी मंदिर में जाकर पूजा करते हैं.

[box]‘चुनावकर्मियों की जो टोलियां जंगल में रास्ता भटक जाती हैं वे अक्सर खुद ही ईवीएम में फर्जी मत डालकर लौट आती हैं’[/box]

बस्तर में सैकड़ों ऐसे मतदान केंद्र हैं जहां पहुंचने के लिए कई स्तर पर समन्वय की जरूरत पड़ती है. चुनाव के सिलसिले में माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में तीन बार जा चुके एक चुनावकर्मी हमें बताते हैं, ‘ कहीं-कहीं पहुंचने के लिए तो आपको दो दिन तक लगातार चलना पड़ता है. बहुत बार ऐसा होता है कि चुनावकर्मियों के दल जंगल में खो जाते हैं. ऐसे में अक्सर यह होता है कि वे सुरक्षित जगह की तलाश करते हैं और नजदीकी गांव के लोगों को बुलाकर मतदान करवा लेते हैं या फिर खुद ही मतदान करके औपचारिकता पूरी कर देते हैं. ये वोट किसी एक पार्टी को नहीं जाते फिर भी कुछ हद तक सत्ताधारी पार्टी को इसका फायदा मिलता है.’

2009 के लोकसभा चुनावों में माओवाद प्रभावित इलाके के तकरीबन 50 मतदान केंद्र तथाकथित ‘सुरक्षित’ जगहों पर स्थानांतरित किए गए थे. दिलचस्प बात है कि इन चुनावों के ठीक छह महीने पहले विधानसभा चुनावों में इन्हीं केंद्रों पर मतदान हुआ था. उन केंद्रों पर भी मतदान दर्ज किया गया था जहां पहुंचना एक चुनाव अधिकारी के मुताबिक लगभग नामुमकिन है. आंकडों के मुताबिक इनमें से ज्यादातर मत भाजपा के पक्ष में पड़े थे. 2008 के चुनावों में भाजपा ने बस्तर क्षेत्र की 12 में से 11 सीटों पर जीत हासिल की थी. कांग्रेस को यहां महज एक सीट मिल पाई थी. जबकि 2003 के चुनावों में कांग्रेस के पास यहां की तीन सीटें थीं.

माओवाद प्रभावित इलाकों में चुनाव कराने की मुश्किल और खतरों की वजह से फर्जी मतदान के आरोपों को बल मिलता है. पिछले विधानसभा चुनाव में कुछ मतदान केंद्रों पर जहां शून्य मतदान हुआ था वहीं उसके नजदीकी केंद्रों पर भारी मतदान हुआ. भाजपा का दावा है कि कांग्रेस के फर्जी मतदान के आरोप झूठे हैं. नारायणपुर से विधायक और अनुसूचित जाति-जनजाति विकास मंत्री केदार कश्यप कहते हैं, ‘हमारी पार्टी ने आदिवासी क्षेत्रों के विकास के लिए बहुत काम किया है. ऐसे में हम वहां क्यों नहीं जीतेंगे? ‘ हालांकि सीपीआई के नेता मनीष कुंजाम बस्तर में फर्जी मतदान के आरोपों को सही मानते हैं. उनके मुताबिक, ‘ कांग्रेस के पास जब मौका था तब उसने भी यही किया. ‘

दरअसल 90 सीटों वाली छत्तीसगढ़ विधानसभा में इस समय भाजपा के पास 49 सीटें हैं और 37 सीटें कांग्रेस के पास हैं. दो विधायक बसपा के हैं. इस लिहाज से बस्तर क्षेत्र की 12 सीटें राज्य में सरकार बनाने में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. इस समय इनमें से 11 सीटों पर भाजपा के विधायक काबिज हैं. कांग्रेस के पास सिर्फ एक सीट है. ऐसे में यदि चुनाव आयोग कांग्रेस की मांग मानते हुए मतदान की निगरानी के लिए छिपे हुए कैमरे और जीपीएस डिवाइसों की मांग मान लेता है तो अगले विधानसभा चुनाव में यह क्षेत्र ऐसे नतीजे दे सकता है जिनमें आदिवासियों की पसंदगी ईमानदारी से जाहिर हो.

आपदा का खनन

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उत्तराखंड में आई आपदा से हुए नुकसान का आकलन अब भी जारी है. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि इस हादसे में मरने वालों की संख्या लगभग एक हजार के आस-पास है. लेकिन स्थानीय नागरिकों और इस हादसे से बचकर आए लोगों की मानें तो यह दस हजार से अधिक हो सकती है. मारे गए लोगों की संख्या की ही तरह इस हादसे ने एक और विवादास्पद बहस को जन्म दे दिया है. क्या यह हादसा पूरी तरह से प्राकृतिक था जिसे रोक पाना नामुमकिन हो? या फिर यह एक मानव निर्मित आपदा थी? भू-वैज्ञानिकों का मानना है कि बाढ़ और भूस्खलन जैसी समस्याएं तो प्राकृतिक ही हैं लेकिन इनके चलते जो नुकसान उत्तराखंड में हुआ वह पूरी तरह से मानव निर्मित था. विशेषज्ञों के अनुसार नदियों के फ्लड जोन में अतिक्रमण, संवेदनशील इलाकों में खनन और मोटर रोड या विद्युत परियोजनाओं आदि को बनाने के लिए ब्लास्टिंग करना ऐसे हादसों के  महत्वपूर्ण कारणों में से हैं.

ऐसे ही किसी बड़े हादसे को आमंत्रित करने की नींव इन दिनों उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में रखी जा रही है. जिला प्रशासन के संरक्षण में यहां लंबे समय से अवैध खनन और स्टोन क्रशर चलाए जा रहे हैं. हथनीकुंड बैराज जैसा संवेदनशील इलाका भी इससे अछूता नहीं है. इस बैराज के आस-पास कई स्टोन क्रशर काम कर रहे हैं. इन क्रशरों के लिए खनन सामग्री भी अवैध रूप से इसी इलाके से निकाली जा रही है जिससे यह इलाका असुरक्षित होता जा रहा है. स्थानीय नागरिकों के लगातार विरोध के बावजूद जिले में कभी भी अवैध खनन पर रोक नहीं लग सकी. 2011 में स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता आशीष सैनी ने प्रदेश एवं केंद्र सरकार के संबंधित विभागों के साथ-साथ सर्वोच्च न्यायालय को सहारनपुर में हो रहे अवैध खनन के संबंध में पत्र लिखा. आशीष के पत्र का सर्वोच्च न्यायालय ने संज्ञान लिया और 25 सितंबर, 2011 को इसकी जांच के आदेश दिए.

सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर सेंट्रल एंपावर्ड कमेटी द्वारा इस मामले की जांच की गई. यह समिति विशेष तौर से पर्यावरण से संबंधित मुद्दों की जांच के लिए ही गठित की गई है. समिति ने चार जनवरी, 2012 को अपनी जांच रिपोर्ट न्यायालय में पेश की. इसमें कहा गया कि सहारनपुर जिले में कई खनन पट्टे अवैध तरीकों से आवंटित किए गए हैं और इनकी आड़ में पट्टा धारकों द्वारा अवैध खनन भी किया जा रहा है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि अवैध खनन का यह काम जिला प्रशासन के संरक्षण में हो रहा है. जांच में यह भी पाया गया कि यमुना के आस-पास 70 स्टोन क्रशर अवैध तरीकों से चलाए जा रहे हैं जिनमें से कइयों को जिला प्रशासन द्वारा ध्वस्त या सील किया हुआ दिखाया गया है. इस रिपोर्ट के आधार पर न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार को गैरकानूनी तरीके से चल रहे खनन कार्यों एवं स्टोन क्रशरों पर तुरंत रोक लगाने के आदेश दिए. सहारनपुर स्टोन क्रशर्स वेलफेयर एसोसिएशन के सचिव महेंद्र सिंह बताते हैं, ‘कोर्ट के आदेशों के बाद सहारनपुर के तत्कालीन जिलाधिकारी द्वारा सभी स्टोन क्रशर्स की जांच की गई जिसमें सिर्फ 90 स्टोन क्रशरों को ही वैध पाया गया. बाकी सभी क्रशरों पर रोक लगाते हुए उन्हें तोड़ने के आदेश जिला प्रशासन ने दे दिए थे. कई अवैध स्टोन क्रशरों को आंशिक तौर से तोड़ा भी गया था.’ महेंद्र सिंह आगे बताते हैं कि उस वक्त उन सभी खनन पट्टों पर भी रोक लगा दी गई थी जिनके पास पर्यावरण मंत्रालय की अनुमति नहीं थी.

मगर थोड़े ही दिनों में स्थिति जस-की-तस हो गई. 2012 का अंत होते-होते सहारनपुर जिला प्रशासन द्वारा कुल 16 खनन पट्टे फिर से आवंटित कर दिए गए. इनमें से तीन पट्टों को बाधित अवधि (17 अप्रैल 2013 से 21 जनवरी 2014 तक) के लिए और बाकियों को पूरे तीन साल के लिए आवंटित किया गया. नवीनीकरण की इस प्रक्रिया में नियम-कानूनों से जमकर खिलवाड़ हुआ. नियमानुसार पट्टों के नवीनीकरण और आवंटन के लिए नीलामी प्रक्रिया का अपनाया जाना आवश्यक है. इसके साथ ही ई-टेंडरिंग और ई-ऑक्शन की शर्त भी कानून में है. लेकिन ये सभी पट्टे बिना नीलामी के ही आवंटित कर दिए गए. ऊपर से आवंटित भी उन्हीं लोगों को किए गए जो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कराई गई जांच में अवैध खनन के दोषी पाए गए थे और जिनसे जुर्माना वसूलने की बात कही गई थी.

जिला प्रशासन इन पट्टा धारकों पर क्यों मेहरबान हुआ इसका अंदाजा जिलाधिकारी कार्यालय के खनन अनुभाग से मिली पट्टा धारकों की सूची जांचने पर हो जाता है. आवंटित किए गए ये सभी खनन पट्टे लगभग एक ही समूह के पास हैं. इस समूह में बहुजन समाज पार्टी के विधान परिषद सदस्य मोहम्मद इकबाल के भाई, उनके पुत्र, एवं अन्य नजदीकी लोग शामिल हैं. आवंटित किए गए 16 खनन पट्टों में से आठ मोहम्मद इकबाल के भाई महमूद अली के नाम पर हैं, एक उनके बेटे मोहम्मद वाजिद अली के और चार पट्टे उन जैन भाइयों के नाम पर हैं, जो एक पट्टे में महमूद अली के पार्टनर हैं.

एक स्थानीय जानकार बताते हैं, ‘बसपा नेता मोहम्मद इकबाल के लोगों के पास ही सारे खनन पट्टे हैं. इसलिए पूरे जिले के खनन कार्यों में उनका एकाधिकार हो गया है. अपने पट्टों की आड़ में ये लोग निजी भूमि से लेकर सरकारी भूमि तक में अवैध खनन कर रहे हैं. इन खनन माफियाओं का रसूख इतना है कि ये किसी और को खनन पट्टा आवंटित ही नहीं होने देते. अवैध खनन से अब तक ये लोग प्रदेश को हजारों-करोड़ का नुकसान कर चुके हैं. जाहिर है इस कमाई का एक हिस्सा जिला प्रशासन को भी पहुंच रहा है.’ खनन सामग्री बेचने के लिए पट्टा धारकों को प्रशासन द्वारा एम-एम-11 फॉर्म जारी किए जाते हैं. बोलचाल की भाषा में इन्हें रवाना कहा जाता है. नियमानुसार पट्टाधारक को कोई भी खनिज अपने पट्टे से बाहर भेजने से पहले उसके लिए एक रवाना जारी करना होता है. इसमें खनिज के प्रकार व मात्रा के बारे में जानकारी होती है. इस तरह से एक पट्टे से उत्पादित कुल खनिज भी वहां दर्ज हो जाता है. खनिज की निर्धारित मात्रा खत्म होने पर खनन पर रोक लगा देने का प्रावधान है. पर ये नियम-कानून सिर्फ किताबों तक सीमित हैं. जो धरातल पर होता है वह कुछ इस तरह हैः

सहारनपुर में खनन माफियाओं द्वारा नुनियारी, गंदेवड, रायपुर, बादशाही बाग, सुन्दरपुर, ताजेवाला, जसमौर, नानौली और लांडा पुल पर कुल नौ चौकियां बनाई गई हैं. तहलका की पड़ताल के मुताबिक यमुना और उसके आस-पास वाली किसी भी जगह से निकाला गया अवैध खनिज इन चौकियां में से ही किसी एक से  होकर सहारनपुर से बाहर ले जाया जा सकता है. कहीं से भी अवैध खनिजों के ट्रक इन चौकियों पर आ जाते हैं और पैसे देकर इनसे रवाना हासिल कर लेते हैं. इस तरह से अवैध माल वैध बन जाता है और खनन माफियाओं को बिना हींग और फिटकरी के मोटी रकम मिल जाती है. तहलका ने जब इन अवैध चौकियों के संबंध में इलाके के खान अधिकारी हवलदार सिंह यादव से बात की तो उनका जवाब था, ‘मुझे यहां आए अभी एक महीना भी पूरा नहीं हुआ है. मेरे संज्ञान में अभी यह मामला नहीं है.’

इसके अलावा जो खनिज प्रशासन द्वारा आवंटित पट्टों से बाहर जाता है उसको लेकर भी तमाम तरह की गड़बड़ियां देखने को मिलती हैं. सहारनपुर के सामाजिक संगठन, सैनी युवा चेतना मंच के एक कार्यकर्ता हमें बताते हैं, ‘इन पट्टों से बड़े-बड़े ट्रकों में माल ले जाया जाता है लेकिन कागजों (एम-एम-11 फॉर्म) पर जितना माल दिखाते हैं उससे ज्यादा तो बैलगाड़ी में ही आ जाता है, प्रशासन बिना आपत्ति के खनन माफियाओं के इस झूठ को स्वीकार करके उन्हें नए रवाने जारी कर देता है. महीने में एक-दो बार किसी ट्रक का चालान भी हो जाता है जिससे जिला प्रशासन की जिम्मेदारी पूरी हो जाती है.’ रवाने में माल को कम दिखाने वाली बात की पुष्टि करते हुए स्टोन क्रशर्स वेलफेयर एसोसिएशन के सचिव महेंद्र सिंह कहते हैं, ‘जितने खनिजों की बिक्री के लिए इन पट्टाधारकों को तीन साल का पट्टा दिया जाता है उतना तो ये लोग सिर्फ 15 दिन में ही बेच देते हैं. खुले-आम जेसीबी मशीनों से खुदाई की जाती है जो कि नियमानुसार प्रतिबंधित है.’

रवाने में ज्यादा माल को कम दिखाने से न केवल पट्टाधारक सरकार को रॉयल्टी की एक बड़ी रकम देने से बच जाते हैं बल्कि उनके पट्टे के लिए निर्धारित खनिज की मात्रा भी कागजों पर समाप्त नहीं होती. इस वजह से उन्हें प्रशासन से लगातार रवाने मिलते रहते हैं और वे खुद और दूसरों के किए अवैध खनन को वैध बनाने के खेल में लगे रहते हैं. जिला प्रशासन द्वारा खनन माफियाओं को गलत तरीकों से अधिक रवाने जारी करने की बात सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर हुई जांच में भी सामने आई थी. इसमें कहा गया था कि ‘सहारनपुर जिले में सिर्फ तीन महीने के दौरान ही 60,176 अतिरिक्त रवाने जारी किए गए हैं. इन रवानों के जरिए 2,40,704 क्यूबिक मीटर अवैध खनिज बेचा गया है. और असल में तो बेचे गए अवैध खनिज की मात्रा इससे भी कहीं ज्यादा होगी क्योंकि ये रवाने ट्रैक्टर ट्राली के हिसाब से जारी किए जाते हैं. जबकि इन खनिजों को अधिकतर बड़े ट्रकों में ले जाया जाता है.’

सहारनपुर जिले में खनन का काम इसलिए भी खूब फल-फूल रहा है कि यह उत्तर प्रदेश का ऐसा जिला है जिसकी सीमा तीन राज्यों से मिलती हैं. इस कारण उत्तर प्रदेश के साथ ही यहां से उत्तराखंड, हरियाणा और हिमाचल में भी खनिज बेचा जाता है. सहारनपुर और हरियाणा की सीमा को वही यमुना नदी अलग करती है जिसको नोंच-नोंच कर यह खनन किया जा रहा है. जानकारों के मुताबिक हरियाणा में इन दिनों खनन बंद होने से वहां खनिज की मांग बहुत ज्यादा हो गई है. ऐसे में हरियाणा के लोग यमुना के दूसरी ओर खनन करने के बाद उसे कानूनी रूप देने के लिए खनन माफियाओं से रवाना हासिल कर लेते हैं.

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खनन पट्टे पाने वाले समूह में बहुजन समाज पार्टी के विधान परिषद सदस्य मोहम्मद इकबाल के भाई, उनके पुत्र एवं अन्य नजदीकी लोग शामिल हैं

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एक तरफ इस क्षेत्र में अवैध खनन का खेल जारी है तो दूसरी तरफ अवैध स्टोन क्रशर इसके पूरक का काम कर रहे हैं. सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद कई स्टोन क्रशरों पर रोक लगाई गई थी लेकिन इनमें से ज्यादातर कभी बंद ही नहीं हुए. स्थानीय अखबारों में लगातार सील किए गए क्रशरों के चलते रहने की खबरें छपती रही हैं. इससे भी ज्यादा गंभीर बात यह है कि कई स्टोन क्रशर यमुना नदी में ही लगा दिए गए हैं. नियमानुसार किसी भी स्टोन क्रशर की नदी तट से दूरी कम से कम पांच सौ मीटर होनी चाहिए. लेकिन सहारनपुर में दर्जनों स्टोन क्रशर इन मानकों का खुले आम उल्लंघन करते हैं. यहां तक कि हथनीकुंड बैराज से महज दो किलोमीटर से भी कम दूरी पर एक-दो नहीं बल्कि सात स्टोन क्रशर स्थापित किए जा चुके हैं. ईमानदारी से स्टोन क्रशर चलाने की इच्छा रखने वालों की परेशानियों के बारे में बताते हुए महेंद्र सिंह कहते हैं, ‘ऐसे स्टोन क्रशरों ने उन सभी का काम मुश्किल कर दिया है जो वैध तरीके से क्रशर चला रहे हैं. हमें कच्चा माल नदी से अपने क्रशर तक लाना पड़ता है. इसमें काफी खर्च आता है. जबकि जो स्टोन क्रशर नदी में ही बने हैं वे वहीं से कच्चा माल उठा रहे हैं.’

ऐसे अवैध क्रशरों से होने वाले खतरों के बारे में आशीष सैनी बताते हैं, ‘बैराज के इतने नजदीक बने ये क्रशर वहां खनन भी खुलेआम कर रहे हैं. कुछ समय बाद यह बैराज टूटने के कगार पर होगा. हजारों की जिंदगी को दांव पर लगाकर यह खनन हो रहा है. इन अवैध स्टोन क्रशरों में से एक उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री असलम खान का है और एक हरियाणा के यमुनानगर से विधायक दिलबाग सिंह का. जब इतने प्रभावशाली लोग ऐसे अवैध धंधे में हैं तो कोई क्या करे ?’

नमक में कुछ काला है !

annpurna
नमक हरामी, नमक हलाली,
 जले पर नमक छिड़कना, नमक बजाना जैसी बातें आपने खूब कही और सुनी हैं. अब इसी तर्ज पर मध्य प्रदेश में भाजपा सरकार की नौकरशाही एक और नई इबारत-नमक से चूना लगाना, गढ़ने की राह पर है. इस मुहावरे का मूल प्रदेश के नागरिक आपूर्ति निगम की उस कवायद से निकलता है जिसके तहत उसने गरीबों के लिए नमक खरीद में कई तरह से हेराफेरी की पृष्ठभूमि तैयार कर दी है. फिलहाल यह मामला इस साल खरीद के पहले ही चर्चा में आ गया. लेकिन पिछले साल के आंकड़े बताते हैं कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के लिए नमक खरीद में हेराफेरी का यह खेल बीते सालों में भी खूब चला है.

इस मामले को समझने से पहले हम उस प्रक्रिया पर जाते हैं जिससे प्रदेश में नमक खरीदा जाता है. मध्य प्रदेश की सरकार भी बाकी राज्यों की तरह राशन की दुकानों के मार्फत गरीबों को रियायती दर पर नमक बांटती है. इसके लिए खरीद गुजरात के कच्छ (गांधीधाम) से होती है. प्रदेश का नागरिक आपूर्ति निगम निविदाओं के आधार पर कच्छ की किसी एक कंपनी  का चयन करता है और फिर उसे करोड़ों रुपये के नमक की आपूर्ति का ठेका दिया जाता है. कहने को यह संक्षिप्त और साफ-सुथरी प्रक्रिया लगती है लेकिन जब हम तथ्यों पर जाते हैं तो तुरंत ही निगम की कार्यप्रणाली संदिग्ध लगने लगती है.

पिछले साल के आंकड़े बताते हैं कि गुजरात ने जिस नमक को 3,300 रुपये प्रति मेट्रिक टन के भाव से खरीदा था वही नमक पड़ोसी राज्य मप्र ने 6,700 प्रति रुपये मेट्रिक टन में खरीदा. जबकि गुजरात से काफी दूर और पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश 5,600 रुपये मेट्रिक टन के भाव में नमक खरीदता है. और तो और, गुजरात से कई राज्यों को पार कर पहुंचने वाला नमक आंध्र प्रदेश में 5,900 रुपये मेट्रिक टन के भाव से खरीदा जाता है. जाहिर है कि बाकी राज्यों के मुकाबले मप्र ने नमक खरीदने के लिए हर मेट्रिक टन पर डेढ़ हजार रुपये से ज्यादा पैसा खर्च किया था. सरकारी अधिकारियों के मुताबिक यह कोई पहली बार नहीं है जब मध्य प्रदेश ने महंगा नमक खरीदा हो. ऐसे में आपूर्तिकर्ताओं से लेकर महकमे के अधिकारियों और मंत्री तक की ईमानदारी पर सवाल उठना लाजिमी है.

दरअसल इस गड़बड़झाले की बुनियाद उन नियमों में है जिनके तहत नमक खरीद होती है. आरोप है कि नमक खरीदने के लिए जारी निविदा सूचना में जानबूझकर ऐसे पेंच डाले गए हैं जिससे सिर्फ दो-तीन कंपनियां ही निविदा भरने के योग्य  रह पाती हैं. जैसे कि निगम की निविदा सूचना में यह शर्त जोड़ी गई है कि ठेका उसी कंपनी को दिया जाएगा जिसने सालाना दस हजार मेट्रिक टन नमक की आपूर्ति सरकार या बहुराष्ट्रीय कंपनी के लिए की हो. इस वजह से अच्छी उत्पादन क्षमता व बाजार में अच्छी साख रखने के बावजूद कई कंपनियां प्रतिस्पर्धा से बाहर हो जाती हैं.

काबिले गौर है कि इस साल मप्र सरकार सूबे के लगभग 72 लाख गरीब परिवारों के लिए लगभग एक लाख मेट्रिक टन नमक खरीदेगी. लेकिन आश्चर्य कि निगम की निविदा में नमक आपूर्ति का ठेका उन कंपनियों को भी देने की छूट दे दी गई है जिनकी उत्पादन क्षमता न्यूनतम 75 हजार मेट्रिक टन हो. सरकार हर साल एक ही कंपनी को नमक आपूर्ति का ठेका देती है. अब सवाल है कि जिन कंपनियों की उत्पादन क्षमता ही 75 हजार मेट्रिक टन होगी तो वे कैसे एक लाख मेट्रिक टन नमक की आपूर्ति करेंगी. गुजरात की आधा दर्जन नमक कंपनियां आरोप लगा रही हैं कि निगम के अधिकारियों की कुछ चहेती कंपनियों की उत्पादन क्षमता 75 हजार मेट्रिक टन से ज्यादा नहीं है इसीलिए निविदा में जान-बूझकर यह शर्त जोड़ी गई है.

निविदा की तीसरी बड़ी शर्त है कि नमक आपूर्ति का ठेका उसी कंपनी को मिल सकता है जिसका आईएसआई चिह्न वाले आयोडीनयुक्त नमक का सालाना टर्नओवर कम से कम 20 करोड़ रुपये है. नमक कारोबार से जुड़े गुजरात के कई व्यापारियों का कहना है कि निगम की यह शर्त व्यावहारिक नहीं है. नमक कारोबार करने वाली एक कंपनी कच्छ ब्राइन (अहमदाबाद) के मुख्य प्रबंधक राजीव गुप्ता के मुताबिक, ‘सरकार के पास इस बात की जांच का कोई तरीका या व्यवस्था नहीं है कि किसी कंपनी ने यदि 20 करोड़ रुपये का नमक बेचा है तो पूरे का पूरा नमक आईएसआई चिह्न वाला आयोडीनयुक्त नमक ही होगा.’ गुप्ता का आरोप है कि निगम ने सारा खेल इस ढंग से खेला है कि बीते सालों की तरह इस साल भी चुनी हुई दो-तीन कंपनियों को क्वालीफाई करवाकर उनमें से किसी एक को नमक आपूर्ति का ठेका दिया जा सके.

गुजरात के नमक कारोबारी बताते हैं कि हिमाचल या आंध्र प्रदेश जैसे दूसरे राज्यों की नमक खरीद निविदाओं में ऐसी शर्तें नहीं हैं. इसके चलते कहीं ज्यादा संख्या में कंपनियां वहां निविदा भर पाती हैं. जाहिर है जब मध्य प्रदेश में गिनी-चुनी कंपनियां ही स्पर्धा में रहेंगी तो सरकार को नमक के लिए ज्यादा दाम चुकाने पड़ेंगे और इस बात की संभावना भी ज्यादा होगी कि अधिकारी कंपनियों से सांठ-गांठ करके आसानी से हेराफेरी कर पाएं.
नमक आपूर्ति के टेंडर को लेकर नमक कंपनियों ने मप्र सरकार को अब अदालत में घसीटा है. बीती 5 मई को कच्छ ब्राइन सहित कई कंपनियों ने निगम की शर्तों के खिलाफ जबलपुर हाई कोर्ट में याचिका दायर की. और इसके एक दिन बाद यानी 7 मई को कोर्ट ने स्थगत आदेश देते हुए निगम के नमक आपूर्ति के वर्क ऑर्डर (कार्य आदेश) पर रोक लगा दी है.

दूसरी तरफ मप्र नागरिक आपूर्ति निगम के अधिकारी नाम न बताने की शर्त पर (चूंकि मामला न्यायालय में है) बात करते हुए कहते हैं, ‘निगम तो बीते कई सालों से महंगी कीमत पर नमक खरीदता रहा है लेकिन किसी कंपनी ने पहले आपत्ति नहीं की. इस साल पहले के मुकाबले तीन गुना अधिक नमक खरीदा जाना है इस वजह से हर कंपनी आपूर्ति का ठेका लेना चाहती है.’

इस चुनावी साल में राज्य की शिवराज सरकार ने लाखों गरीब परिवारों को एक रुपये में एक किलो नमक देने का वादा किया है. सरकारी अनुमान के मुताबिक सरकार इसके लिए तकरीबन 65 करोड़ रुपये खर्च करेगी. लिहाजा गुजरात की कई नमक कंपनियों के बीच प्रदेश में नमक आपूर्ति का ठेका लेने की होड़ लग गई है. और इसी के चलते निगम की कई अनियमितताएं भी अब बाहर आ रही हैं. वहीं सबसे दिलचस्प बात यह है कि इस पूरे मामले में भाजपा के पूर्व विधायक और निगम के चेयरमैन रमेश शर्मा को अंधेरे में रखा गया है. तहलका से बातचीत में शर्मा कहते हैं, ‘मुझसे न तो टेंडर की स्वीकृति ली गई है और न ही किसी अधिकारी ने मुझे कुछ बताया है.’

गेहूं, बारदाने जैसी चीजों की खरीद से जुड़े घोटाले नए नहीं हैं. मगर नमक जैसी सस्ती चीज की खरीद में हेराफेरी का यह मामला दुर्लभ हो सकता है. कहानी सीधी है कि महंगाई के इस जमाने में भले ही गरीब लोग नमक-रोटी खाने के लिए तरस रहे हैं लेकिन नौकरशाही उनके लिए आए नमक के पैसे पर भी गिद्ध झपट्टा मारने से नहीं चूक रही.