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खेमों का खामियाजा

haryana‘जितना दलित उत्पीड़न हुड्डा के कार्यकाल में हो रहा है, शायद ही कभी हुआ हो’ 
‘हुड्डा ने सिर्फ अपनी जाति के लोगों का ही भला किया है’ 
‘हरियाणा सरकार भ्रष्टाचार के रोज नए कीर्तिमान बनाती जा रही है. कांग्रेस हाईकमान को इन्हें हटाना ही होगा नहीं तो अगले चुनाव में कांग्रेस का हारना तय है’
‘वर्तमान हुड्डा सरकार से करोड़ों गुना बेहतर तो ओमप्रकाश चौटाला की सरकार थी’

हरियाणा की भूपिंदर सिंह हुड्डा सरकार पर यह प्रहार राज्य के विपक्षी दलों की तरफ से नहीं किया जा रहा. ये उदगार उस कांग्रेस के ही नेताओं के हैं जिसकी आठ साल से राज्य में सरकार है. 2005  से राज्य में कांग्रेस की सरकार है. तभी से हुड्डा मुख्यमंत्री हैं. इस साल फरवरी में जब कांग्रेस के धुर विरोधी और राज्य में विपक्ष की भूमिका निभा रहे इंडियन नेशनल लोकदल के प्रमुख ओमप्रकाश चौटाला और उनके बेटे अजय चौटाला को 10 साल की सजा मिली तो कहा गया कि अब प्रदेश कांग्रेस की चुनौतियां खत्म हो गई हैं. एक तरफ प्रदेश में कांग्रेस के मुख्य विपक्षी दल के कर्ताधर्ताओं को जेल हो चुकी थी तो दूसरी तरफ राज्य में हरियाणा जनहित कांग्रेस-भाजपा गठबंधन की राजनीतिक हैसियत ऐसी नहीं थी कि वह कांग्रेस को कोई खास चुनौती दे पाए. लेकिन बिना बाधा 2014 के विधानसभा और लोकसभा चुनावों में जीत का झंडा फहराने का सपना देख रहे हुड्डा और कांग्रेस को अब घर के चिराग ही आग लगाने को आतुर दिख रहे हैं. कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता हैं जो अपनी ही पार्टी और सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं. हुड्डा विरोध की मशाल जला रहे इन नेताओं में वरिष्ठ नेता और राज्य सभा सदस्य चौधरी वीरेंद्र सिंह, केंद्र में मंत्री कुमारी सैलजा, राज्य सभा सांसद ईश्वर सिंह, गुड़गांव से कांग्रेस सांसद राव इंद्रजीत सिंह और फरीदाबाद से सांसद अवतार सिंह भड़ाना प्रमुख हैं.

आखिर ये नेता अपनी ही सरकार, पार्टी और मुख्यमंत्री से क्यों नाराज हैं ? इसके कई कारण हैं. राज्यसभा सांसद ईश्वर सिंह के मुताबिक हुड्डा सरकार के इस कार्यकाल में दलितों पर अत्याचार लगातार बढ़ा है और प्रदेश सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही. इस मुद्दे को लेकर राज्य में कई दलित सम्मेलन कर चुके ईश्वर कहते हैं, ‘हरियाणा के बगल में ही पंजाब है, आप बताइए पिछली बार आपने कब सुना था कि दमन के कारण पूरा का पूरा गांव पलायन कर गया?’ कुमारी शैलजा जो दलित समाज से आती हैं उनकी लड़ाई प्रदेश शासन और मुख्यमंत्री हुड्डा से विकास के मामले में अंबाला को नजरअंदाज करने को लेकर है. उनका मानना है कि हुड्डा सरकार जान-बुझकर उनके संसदीय क्षेत्र अंबाला की अनदेखी कर रही है.

राव इंदरजीत सिंह की भी यही शिकायत है. वे भी हुड्डा सरकार पर विकास कार्यों के मामले में भेदभाव बरतने के आरोप लगाते हैं. उनके मुताबिक हुड्डा ने विकास कार्यों को सिर्फ अपने गृह क्षेत्र रोहतक तक सीमित रखा है. कुछ समय पहले ही आरटीआई के माध्यम से मिली जानकारी साझा करते हुए इंदरजीत ने दावा किया था कि 2007 से 2012 के बीच हुड्डा सरकार द्वारा की गई घोषणाओं में से 60 फीसदी अकेले रोहतक, झज्जर और पानीपत के लिए की गई थीं. फरीदाबाद से पार्टी के लोकसभा सांसद अवतार सिंह भड़ाना प्रदेश की सरकारी नौकरियों में हुड्डा सरकार द्वारा एक खास समुदाय को तवज्जो देने का आरोप लगाते रहे हैं. चौधरी बीरेंद्र सिंह इन नेताओं द्वारा उठाए गए सभी प्रश्नों से इत्तेफाक रखते हैं. वे इन नेताओं के साथ मिलकर उन्हें ‘न्याय’ दिलाने की अपनी ही सरकार से लड़ाई लड़ रहे हैं. ये तो रहे वे कारण जिन्हें ये नेता हुड्डा विरोध की असल वजह बताते हैं. लेकिन जानकारों का एक वर्ग ऐसा भी है जो इन नेताओं की नाराजगी के पीछे जनहित को सिर्फ एक बहाना मानता है. उसके मुताबिक असली लड़ाई अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति और प्रदेश में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए लड़ी जा रही है.

सूत्र बताते हैं कि वर्तमान संघर्ष की जड़ें 2005 के विधानसभा चुनाव में छिपी है. उस चुनाव में कांग्रेस को चमत्कारिक सफलता हासिल हुई थी. पार्टी को प्रदेश की 90 में से 67 सीटों पर जीत मिली थी. तब पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व में दो बार मुख्यमंत्री रह चुके भजनलाल को पूरी उम्मीद थी कि ताज उन्हीं के सिर सजेगा. लेकिन दूसरी तरफ एक धड़ा उन्हें राजनीतिक तौर पर निपटाने की स्क्रिप्ट लिख रहा था. जानकारों के मुताबिक ये नेता वही थे जो आज हुड्डा हटाओ का नारा बुलंद किए हुए हैं. इसमें वीरेंद्र सिंह, कुमारी शैलजा, राव इंदरजीत समेत तमाम नाम शामिल थे. तब इन सभी का एकमात्र मकसद भजनलाल को सीएम बनने से रोकना था. इन सबने मिलकर उस समय रोहतक सीट से पार्टी सांसद भूपेंद्र सिंह हुड्डा का नाम आगे बढ़ा दिया. वरिष्ठ पत्रकार नवीन एस ग्रेवाल कहते हैं, ‘ऐसा नहीं था कि इन लोगों के मन में हुड्डा के लिए कोई प्रेम उमड़ पड़ा था. कारण बस इतना था कि इन्हें किसी भी कीमत पर भजनलाल को रोकना था.

इसलिए सभी ने मिलकर हुड्डा का नाम आगे बढ़ा दिया.’ हुड्डा मुख्यमंत्री बन गए. जानकारों के मुताबिक भजनलाल विरोधी गुट को उम्मीद थी कि जिसे उन्होंने सीएम बनवाया है वह आने वाले समय में उनके कहे से चलेगा. ऐसा हुआ भी लेकिन सिर्फ अगले दो साल तक. उसके बाद इन नेताओं को महसूस होने लगा कि जिस व्यक्ति को राजनीतिक तख्तापलट के माध्यम से ये सीएम की कुर्सी पर ले आए थे वह अब उन्हीं की नहीं सुन रहा. हुड्डा ने इन नेताओं को सुनना बंद कर दिया था. बस यहीं से टकराव की शुरुआत हुई.

[box] ‘किसके पास अपनी बात रखने जाएंगे? हाईकमान को भी लगता है कि हुड्डा सब-कुछ अच्छा कर रहे हैं… हम हाईकमान की आंख की किरकिरी ही बनेंगे’[/box]

समय के साथ इधर हुड्डा लगातार मजबूत होते गए. उसी अनुपात में हुड्डा के प्रति नाराजगी और उनके विरोधियों की संख्या भी बढ़ती गई. 2009 में पार्टी हुड्डा के नेतृत्व में ही चुनाव में गई. लेकिन उसे 2005 के 67 सीटों के मुकाबले सिर्फ 40 सीटें मिलीं. चुनावों में कम हुई सीट संख्या से हुड्डा की राजनीतिक ताकत के कम होने की भी संभावना थी. इस मौके पर पार्टी का हुड्डा विरोधी गुट फिर सक्रिय हो उठा. लेकिन इस बार लड़ाई सिर्फ हुड्डा को सीएम बनने से रोकने की नहीं थी बल्कि इसके साथ ही खुद को मुख्यमंत्री बनवाने की भी इच्छा थी. इसमें कुमारी शैलजा से लेकर किरण चौधरी, राव इंदरजीत सिंह, चौधरी वीरेंद्र सिंह समेत अन्य कई कतार में थे. लेकिन ये नेता अपने अभियान में सफल नहीं हुए. हुड्डा फिर से सीएम बनाए गए.

इसके बाद तो लड़ाई अब पूरी तरह से सतह पर आ गई. नेताओं ने अपनी ही सरकार और मुख्यमंत्री को घेरना शुरू किया. अपने इस दूसरे कार्यकाल में हुड्डा भले ही कम सीटें लेकर आए थे लेकिन वे इस बार बेहद मजबूत होकर उभरे. हुड्डा ने बेहद आक्रामकता के साथ अपने विरोधियों का न सिर्फ मुकाबला करना शुरू किया बल्कि वे पूरी पार्टी को अपने नियंत्रण में लेने की तैयारी भी करने लगे.

2007 में ही फूलचंद मुलाना पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए थे. तब तक उनके अध्यक्ष बनने पर कोई खास हो-हल्ला नहीं मचा था. लेकिन जानकारों के मुताबिक आने वाले समय में जिस तरह से मुलाना ने हुड्डा के सुर में सुर मिलाना शुरू कर दिया उससे सरकार और पार्टी के बीच का अंतर खत्म हो गया. 2011 में हिसार लोकसभा उपचुनाव में पार्टी की करारी हार के बाद मुलाना ने इस्तीफा दे दिया था लेकिन उसके बाद भी आज तक वे प्रदेश अध्यक्ष के पद पर काबिज हैं. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘जब आपका सीएम आपकी बात नहीं सुनता तो आप पार्टी के पास जाते हैं लेकिन यहां तो पार्टी अध्यक्ष भी सीएम के इशारों पर नाचता है.’ राज्य की राजनीति के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार मुकेश भारद्वाज कहते हैं, ‘ मुलाना का अब तक का कार्यव्यवहार हुड्डा की कठपुतली जैसा रहा है.’ हालांकि मुलाना यह बात खारिज करते हैं. वे कहते हैं, ‘लोग झूठ बोल रहे हैं. मैंने अपनी भूमिका अच्छे से निभाई है. जो कह रहे हैं कि सरकार और पार्टी में उनकी सुनवाई नहीं हो रही है, वे झूठे हैं. असल में वे सब महत्वाकांक्षा के मरीज हैं.

हरियाणा कांग्रेस के प्रभारी शकील अहमद कहते हैं, ‘बड़ी विचित्र स्थिति है. कहीं से ये शिकायत आती है कि विधायक दल के नेता और प्रदेश अध्यक्ष एक-दूसरे को फूटी आंख भी नहीं देखना चाहते तो कहीं से ये खबर आ रही है कि प्रदेश अध्यक्ष सीएम की जेब में चला गया है. मुझे प्रभारी बने अभी कुछ ही दिन हुए हैं. थोड़ा इंतजार कीजिए, मैं स्थिति को देख-समझ रहा हूं. जल्द ही इस बारे में निर्णय होगा.’ शकील हरियाणा में कांग्रेसी नेताओं के बीच गुटबाजी और हुड्डा के विरोध को दबे शब्दों में स्वीकार तो करते हैं लेकिन इसका कारण समन्वय का अभाव बताते हैं.

BHUPENDRAहुड्डा के विरोधी मुख्यमंत्री को घेरने के पीछे किसी तरह की राजनीति से इनकार करते हैं. ईश्वर सिंह कहते हैं, ‘प्रदेश में दलितों के उत्पीड़न का मामला उठाना कहां से गलत है. इसमें क्या राजनीति है ?’ चौधरी वीरेंद्र सिंह भी कुछ ऐसी ही बात करते हैं. वे कहते हैं, ‘अगर नेता अपने लोगों पर हो रहे अत्याचार, विकास में अपने क्षेत्र के साथ हो रहे भेदभाव का मामला उठाते हैं तो ये कहां से गलत है. ये जनप्रतिनिधि हैं. कल के दिन जब ये वोट मांगने जाएंगे तो जनता नहीं पूछेगी कि विधायक और सांसद रहते तुमने हमारे लिए क्या किया जबकि तुम्हारी अपनी सरकार राज्य में थी.’ विकास के मामले में सरकारी भेदभाव का शिकार हुए क्षेत्रों के बारे में बताते हुए वे कहते हैं, ‘गुड़गांव के विकास को आप हरियाणा का विकास नहीं मान सकते. मध्य हरियाणा के हिस्से जैसे जिंद, हिसार समेत फतेहाबाद, कैथल, कुरुक्षेत्र, करनाल आदि इलाकों में तो विकास का कोई नामोनिशां नहीं है.’

सामाजिक कार्यकर्ता नवीन जयहिंद इसे एक अलग नजरिये से देखते हुए कहते हैं, ‘यह कोई नई बात नहीं है. हरियाणा की राजनीति जाति, क्षेत्र और सरकारी नौकरियों के आस-पास ही घूमती है. जो भी सीएम बनता है, वह सबसे पहले अपनी जाति और क्षेत्र को प्राथमिकता पर रखता है. उनका विकास और उनको सरकारी नौकरी ही उसकी प्राथमिकता में रहते हैं. उसी परंपरा को हुड्डा आगे बढ़ा रहे हैं.’

फिलहाल हुड्डा ने प्रदेश कांग्रेस और सरकार पर अपनी मजबूत पकड़ बना रखी है. हाल ही में जब चौधरी वीरेंद्र सिंह मंत्री बनते-बनते रह गए तो इसके पीछे हुड्डा का ही हाथ देखा गया. हुड्डा से नाराज कांग्रेसी नेताओं की कांग्रेस हाईकमान भी सुनवाई करता नहीं दिखता. सूत्रों के मुताबिक ये नेता कई बार राहुल गांधी के पास हुड्डा की शिकायत लेकर पहुंचे, लेकिन राहुल ने इनकी शिकायतों की लिस्ट को कचरे की पेटी में डाल दिया.

प्रदेश कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘किसके पास आप अपनी बात रखने जाएंगे. हाईकमान को भी लगता है कि हुड्डा सब कुछ अच्छा कर रहे हैं. वे उनकी आंखों का तारा बने हुए हैं. ऐसे में जो आवाज उठा रहा है वह हाईकमान की आंख की किरकिरी ही बनेगा.’ वरिष्ठ पत्रकार मीनाक्षी शर्मा कहती हैं, ‘हुड्डा के हाईकमान से मधुर संबंध की वजह से ही उनके विरोधी उन्हें कुछ खास नुकसान पहुंचा पाने में असफल रहे हैं.’

हालांकि हुड्डा पर हाईकमान की कृपा के तार उनके पुत्र दीपेंद्र हुड्डा की राहुल गांधी से नजदीकी समेत रॉबर्ट वाड्रा मामले से भी जुड़ते हैं जिसमें हुड्डा ने हरियाणा में हर तरह से सहयोग किया. इसके साथ पिछले साल चार नवंबर को दिल्ली में एफडीआई के समर्थन में हुई कांग्रेस की महारैली, जिसमें कांग्रेस शासित राज्यों में से सबसे ज्यादा लोग हरियाणा से हुड्डा ले आए थे, उससे भी हाईकमान की नजरों में हुड्डा की स्थिति मजबूत हुई. नवीन ग्रेवाल कहते हैं, ‘उस रैली में जुटाई भीड़ के माध्यम से हुड्डा ने हाईकमान के सामने काफी हद तक यह स्थापित कर दिया कि हरियाणा के वे सबसे बड़े नेता हैं.’

सैयद अहमद बुखारी: इमामत में ख़यानत!

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दिल्ली के चावड़ी बाजार में स्थित जामा मस्जिद हिंदुस्तान की सबसे बड़ी औ सुंदर मस्जिद है. सन 1656 में जब यह बनकर तैयार हुई तो कहा जाता है कि मुगल बादशाह शाहजहां प्रसन्न होने के साथ-साथ चिंतित भी थे. उन्हें समझ में नहीं आता था कि इस भव्य मस्जिद का इमाम किसे बनाया जाए. शाहजहां की इच्छा थी कि इस विशेष मस्जिद का इमाम भी विशेष हो. एक ऐसा इंसान जो पवित्र, ज्ञानी, और हर लिहाज़ से श्रेष्ठ हो. उज्बेकिस्तान के बुखारा शाह ने शाहजहां को एक ऐसे ही व्यक्ति के बारे में बताया. इसके बाद शाहजहां के बुलावे पर उज्बेकिस्तान के बुखारा से आए सैयद अब्दुल गफ्फूर शाह बुखारी जामा मस्जिद के पहले इमाम बने. उन्हें उस वक्त इमाम-उल-सल्तनत की उपाधि दी गई. आज उसी परिवार के सैयद अहमद बुखारी जामा मस्जिद के 13वें इमाम हैं.

सैयद अब्दुल गफ्फूर शाह बुखारी को जामा मस्जिद का पहला इमाम बनाते वक्त शाहजहां को जरा भी इल्म नहीं होगा कि उस पवित्र व्यक्ति की आने वाली किसी पीढ़ी और जामा मस्जिद के भावी इमाम पर इमामत छोड़कर सियासत करने, जामा मस्जिद का दुरुपयोग करने, इसके आस-पास के इलाके में लगभग समानांतर सरकार चलाने की कोशिश करने और कानून को अपनी जेब में रखकर घूमने जैसे आरोप लगाए जाएंगे.

18 मई, 2013 को दिल्ली की एक अदालत ने सन 2004 में सामाजिक कार्यकर्ता अरशद अली फहमी के घर पर जानलेवा हमला कराने के आरोप में इमाम अहमद बुखारी को गिरफ्तार करके पेश करने का आदेश जारी किया. हालांकि इमाम अहमद बुखारी के लिए यह कोई नई बात नहीं है. इससे पहले भी कई मौकों पर अदालतें उन्हें गिरफ्तार करने का आदेश दे चुकी हैं. मगर वे कभी अदालत में पेश नहीं हुए.

इससे जरा ही पहले जामा मस्जिद के बिजली बिल का विवाद भी सामने आया था. जामा मस्जिद पर चार करोड़ रुपये के करीब बिजली बिल बकाया है. इमाम का कहना है कि इस बिल को भरना वक्फ बोर्ड की जिम्मेदारी है. जबकि वक्फ बोर्ड का कहना था कि चूंकि मस्जिद और उसके सभी संसाधनों पर इमाम बुखारी का नियंत्रण है और इससे उन्हें जबरदस्त आमदनी होती है इसलिए बिजली बिल भी उन्हें ही भरना चाहिए.

बिल्कुल हाल ही की बात करें तो इमाम बुखारी उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और पिछले से पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा का साथ देने के बाद अब राष्ट्रीय लोक दल के शीर्ष नेताओं के साथ बैठकें कर रहे हैं. जानकारों के मुताबिक समाजवादी पार्टी से उनकी नाराजगी की वजह उनके निकट रिश्तेदारों को प्रदेश सरकार में महत्वपूर्ण ओहदे नहीं दिया जाना है.

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि बुखारी परिवार की यात्रा आज से करीब साढे़ तीन दशक पहले तक बिना किसी विवाद के चली आ रही थी. सैकड़ों सालों से. इस पवित्र परिवार के राजनीति में हस्तक्षेप करने की शुरुआत वर्तमान इमाम के पिता अब्दुल्ला बुखारी के कार्यकाल में हुई जिसने अहमद बुखारी तक आते-आते हर तरह की सीमाओं को लांघ दिया. आज हालत यह है कि इमाम अहमद बुखारी राजनीति में अवसरवादिता की हद तक जाने के अलावा और भी तमाम तरह के गंभीर आरोपों के दायरे में हैं.

बुखारी परिवार के वर्तमान को समझने के लिए करीब 36 साल पहले के उसके अतीत में चलते हैं. सन 1977 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के खिलाफ फतवा देकर मुसलमानों से जनता पार्टी को समर्थन देने की अपील वह पहली घटना थी जिसने जामा मस्जिद के इमाम का एक दूसरा पक्ष लोगों के सामने रखा. धार्मिक गुरु के इस राजनीतिक फतवे से भारतीय राजनीति में जो हलचल पैदा हुई वह आगे जाकर और बढ़ने वाली थी. इससे पहले तक इमाम और राजनीति के बीच सिर्फ दुआ-सलाम का ही रिश्ता हुआ करता था. सन 1977 की इस घटना के बाद जामा मस्जिद राजनीति का एक प्रमुख केंद्र बन गया. अब यहां राजनेता तत्कालीन इमाम से राजनीति के दांव-पेंचों पर चर्चा करते देखे जा सकते थे. जैसे-जैसे मस्जिद में राजनीतिक चर्चा के लिए आनेवाले नेताओं की संख्या बढ़ती गई वैसे-वैसे यहां शुक्रवार को होने वाले इमाम के संबोधनों का राजनीतिक रंग भी गाढ़ा होता गया. ‘कांग्रेस लाई फिल्मी मदारी, हम लाए इमाम बुखारी’ जैसे नारे 1977 की उस चुनावी फिजा में खूब गूंजे जो बुखारी की भूमिका और प्रभाव को स्पष्ट करने के लिए काफी थे.

[box]कई मौकों पर अदालतें बुखारी को गिरफ्तार करने का आदेश दे चुकी हैं. लेकिन पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने की कभी हिम्मत नहीं कर पाई[/box]

चुनाव में इंदिरा गांधी हार गईं और जनता पार्टी की सरकार बनी. इंदिरा की हार का कारण चाहे जो रहा हो लेकिन इसने इमाम को अपनी मजबूत राजनीतिक हैसियत के भाव से सराबोर कर दिया. 1977 के बाद अगले आम चुनावों में इमाम अब्दुल्ला बुखारी ने जनता पार्टी के बजाय इंदिरा के लिए समर्थन का फतवा जारी किया. उन्होंने कहा कि इंदिरा ने जामा मस्जिद से अपने किए की माफी मांग ली है इसलिए हम उनका समर्थन कर रहे हैं.

खैर चुनाव हुआ और उसमें इंदिरा विजयी रहीं. जानकार बताते हैं कि इन दो चुनावों के कारण इमाम अब्दुल्ला बुखारी की ऐसी छवि बन गई कि वे जिसे चाहें उसे जितवा सकते हैं. उस दौर के गवाह रहे लोग बताते हैं कि यहीं से मुसलमानों को रिझाने के लिए बड़े-बड़े राजनेता जामा मस्जिद शीश नवाने पहुंचने लगे.

जानकारों का एक वर्ग मानता है कि इमाम अब्दुल्ला बुखारी ने अधिकांश मौकों पर हवा का रुख देखकर फतवा जारी किया. मानवाधिकार कार्यकर्ता एवं वरिष्ठ पत्रकार सलीम अख़्तर सिद्दीकी कहते हैं, ’77 में आपातकाल में हुईं ज्यादतियों को लेकर कांग्रेस के प्रति लोगों में जबरदस्त रोष था. खासकर मुसलमान जबरन नसबंदी को लेकर बहुत ज्यादा नाराज थे. ऐसे में यदि अब्दुल्ला बुखारी कांग्रेस को वोट देने की अपील करते तो मुसलमान उनकी बात नहीं सुनते. ऐसा ही 1980 के चुनाव में भी हुआ. इस चुनाव में अब्दुल्ला बुखारी ने देखा कि आपातकाल की जांच के लिए गठित शाह आयोग द्वारा इंदिरा गांधी से घंटों पूछताछ की वजह से इंदिरा गांधी के प्रति देश की जनता में हमदर्दी पैदा हो रही है. उन्होंने मुसलमानों से कांग्रेस को वोट देने की अपील कर दी. यही बात 1989 के लोकसभा चुनावों में भी दोहराई गई.’

खैर, पार्टियों की जीत का कारण चाहे जो रहा हो लेकिन इन चुनाव परिणामों ने धीरे-धीरे इमाम के राजनीतिक प्रभुत्व को स्थापित किया और छोटे-बड़े राजनेता और राजनीतिक दल जामा मस्जिद के सामने कतारबंद होते चले गए. यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इमाम बनने के बाद एक लंबे समय तक सैय्यद अब्दुल्ला बुखारी राजनीति से जुड़ी हर चीज से दूर रहे थे. लंबे समय से बुखारी परिवार को देखने वाले और अब्दुल्ला बुखारी के बेहद नजदीक रहे उर्दू अखबार सेक्यूलर कयादत के संपादक कारी मुहम्मद मियां मजहरी कहते हैं, ‘अब्दुल्ला बुखारी राजनीतिक तबीयत वाले व्यक्ति हैं लेकिन उनके अब्बा सियासी आदमी नहीं थे. यही कारण है कि जब तक वे जिंदा रहे तब तक अब्दुल्ला बुखारी राजनीति से दूर रहे. लेकिन अब्बा के इंतकाल के बाद उन्होंने इमामत के साथ ही सियासत में भी हाथ आजमाना शुरू कर दिया.’

ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत के पूर्व अध्यक्ष एवं पूर्व सांसद सैयद शहाबुद्दीन कहते हैं, ‘यहीं से जामा मस्जिद का राजनीतिक स्वार्थ के लिए प्रयोग शुरू हुआ. अब्दुल्ला बुखारी के बाद उनके बेटे अहमद बुखारी ने इस नकारात्मक परंपरा को न सिर्फ आगे बढ़ाया बल्कि और मजबूत किया.’ अब्दुल्ला बुखारी द्वारा जामा मस्जिद के राजनीतिक दुरुपयोग का एक उदाहरण देते हुए शहाबुद्दीन कहते हैं, ‘इंदिरा गांधी के जमाने में जब वे बतौर प्रधानमंत्री 15 अगस्त को लालकिले से भाषण दिया करती थीं तो उसको कांउटर करते हुए जामा मस्जिद से अब्दुल्ला बुखारी ने भाषण देना शुरू कर दिया था. ये पहली बार था. जब लालकिले से पीएम के भाषण के खिलाफ कोई उसके सामने स्थित जामा मस्जिद से हुंकार भर रहा था.’

[box]बुखारी परिवार के राजनीति में हस्तक्षेप करने की शुरुआत वर्तमान इमाम के पिता अब्दुल्ला बुखारी के कार्यकाल में हुई[/box]

पिता के सामने राजनेताओं को रेंगते और हाथ जोड़कर आशीर्वाद देने की अपील करते नेताओं को देखकर अहमद बुखारी को भी धीरे-धीरे जामा मस्जिद और उसके इमाम की धार्मिक और राजनीतिक हैसियत का अहसास होता चला गया. ऐसे में अहमद बुखारी भी पिता की छत्रछाया में राजनीति को नियंत्रित करने की अपनी महत्वाकांक्षा के साथ सियासी मैदान में कूद पड़े. 1980 में अहमद बुखारी ने आदम सेना नामक एक संगठन बनाया. इसका प्रचार एक ऐसे संगठन के रूप में किया गया जो मुसलमानों की अपनी सेना थी और हर मुश्किल में, खासकर सांप्रदायिक शक्तियों के हमले की स्थिति में, उनकी रक्षा करेगी. लेकिन बुखारी के तमाम प्रयासों के बाद भी इस संगठन को आम मुसलमानों का समर्थन नहीं मिला. वरिष्ठ पत्रकार वदूद साजिद कहते हैं, ‘मुस्लिम समाज की तरफ से इस सेना को ना में जवाब मिला. समर्थन न मिलता देख अहमद बुखारी ने इस योजना को वहीं दफन कर दिया.’

जानकार बताते हैं कि बुखारी की यह सेना भले ही समर्थन के ऑक्सीजन के अभाव में चल बसी लेकिन उसने अन्य सांप्रदायिक शक्तियों के लिए खाद-पानी का काम जरूर किया. उस समय संघ परिवार के लोग यह कहते पाए गए कि देखिए, भारतीय मुसलमान अपनी अलग सेना बना रहा है. हिंदू धर्म और हिंदुओं पर खतरे की बात चारों तरफ प्रचारित की गई.  ऐसा कहते हैं कि बजरंग दल के गठन के पीछे की एक बड़ी वजह आदम सेना भी थी.

सन 2000 में अहमद बुखारी जामा मस्जिद के इमाम बने. एक भव्य समारोह में उनकी दस्तारबंदी की गई. तब अहमद बुखारी पर इस बात का भी आरोप लगा कि उन्होंने अपने पिता से जबरन अपनी दस्तारबंदी करवाई है. नाम न छापने की शर्त पर परिवार के एक करीबी व्यक्ति कहते हैं, ‘उन्हें अपनी दस्तारबंदी कराने की हड़बड़ी इसलिए थी कि उन्हें लगता था कि यदि इससे पहले उनके वालिद का इंतकाल हो जाता है तो कहीं उनके भाई भी इमाम बनने का सपना ना देखने लगें.’ दस्तारबंदी के कार्यक्रम में मौजूद लोग भी बताते हैं कि कैसे उस कार्यक्रम में बड़े इमाम अर्थात अब्दुल्ला बुखारी को जामा मस्जिद तक एंबुलेंस में लाया गया था. उन्हें स्ट्रेचर पर मस्जिद के अंदर ले जाया गया था.

खैर, अहमद बुखारी जामा मस्जिद के इमाम बन गए. इमाम बनने के बाद बुखारी ने पहली घोषणा एक राजनीतिक दल बनाने की की. बुखारी का उस समय बयान था, ‘हम इस देश में सिर्फ वोट देने के लिए नहीं हैं, कि वोट दें और अगले पांच साल तक प्रताड़ित होते रहें. हम मुसलमानों की एक अलग राजनीतिक पार्टी बनाएंगे.’ एक राजनेता कहते हैं, ‘बड़े इमाम साहब के समय में भी नेता उनके पास वोट मांगने जाते थे लेकिन वो वोट के बदले कौम की भलाई करने की बात करते थे. लेकिन इन इमाम साहब के समय में ये हुआ है कि नेता वोट के बदले क्या और कितना लोगे जैसी बातें करने लगे.’ बुखारी परिवार को बेहद करीब से जानने वाले वरिष्ठ स्तंभकार फिरोज बख्त अहमद कहते हैं, ‘वर्तमान इमाम के पिता बेहद निडर और ईमानदार आदमी हुआ करते थे. समाज में उनका प्रभाव था, स्वीकार्यता थी, विश्वसनीयता थी लेकिन इनके साथ ऐसा नहीं रहा.’

खैर, समय बढ़ने के साथ ही अहमद बुखारी के राजनीतिक हस्तक्षेप की कहानी और गहरी व विवादित होती गई. उन पर यह आरोप लगने लगा कि वे व्यक्तिगत फायदे के लिए किसी भी राजनीतिक दल का समर्थन कर सकते हैं. राजनीतिक-सामाजिक गलियारों में यह बात बहुत तेजी से फैल गई कि बुखारी के समर्थन की एक ‘कीमत’ है जिसे चुकाकर बेहद आराम से कोई भी उनका फतवा अपने पक्ष में जारी करा सकता है.

इसे समझने के लिए 2012 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में बुखारी की भूमिका को देखा जा सकता है. चुनाव में अहमद बुखारी ने समाजवादी पार्टी को समर्थन देने की बात की. यह भी उल्लेखनीय है कि प्रदेश में 2007 के  विधानसभा चुनावों और 2009 के लोकसभा चुनावों में बुखारी ने सपा का विरोध किया था. कुछ समय पहले तक सपा को सांप्रदायिक पार्टी बताने वाले इमाम साहब ने जब मुलायम को समर्थन का एलान किया तभी इस बात की चर्चा चारों ओर शुरू हो गई थी कि इसके बदले इमाम साहब क्या चाहते हैं? अभी लोग कयास लगा ही रहे थे कि पता चला कि इमाम साहब के दामाद उमर अली खान को सहारनपुर की बेहट विधानसभा सीट से सपा ने अपना उम्मीदवार बना दिया है.

लेकिन चुनाव के बाद जो परिणाम आया वह बेहद भयानक था. सपा ने जिन इमाम साहब से यह सोचकर समर्थन मांगा था कि इससे उप्र के मुसलमान पार्टी से जुड़ेंगे उन्हीं के दामाद चुनाव हार गए. और वह भी एक ऐसी सीट से जहां कुल वोटरों में से 80 फीसदी मुसलमान थे. और उस सीट से लड़ने वाले प्रत्याशियों में एकमात्र उमर ही मुसलमान थे. दामाद के हार जाने के बाद भी अहमद बुखारी ने हार नहीं मानी. उन्होंने उमर को विधान परिषद का सदस्य बनवा दिया. बाद में जब उन्होंने दामाद को मंत्री और भाई को राज्य सभा सीट देने की मांग की तो उसे मुलायम ने मानने से इनकार कर दिया. बस फिर क्या था. अहमद बुखारी और सपा का एक साल पुराना संबंध खत्म हो गया. बुखारी के दामाद ने विधान परिषद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया. मीडिया और आम लोगों ने जब इमाम साहब से इस संबंध विच्छेद का कारण पूछा तो वे यह कहते पाए गए कि यूपी में सपा सरकार मुसलमानों के साथ धोखा कर रही है. सरकार का एक साल का कार्यकाल पूरा हो चुका है लेकिन अभी तक उसने मुसलमानों के कल्याण के लिए कुछ नहीं किया. उल्टे मुसलमान सपा सरकार में और अधिक प्रताड़ित हो रहे हैं.

खैर, इधर इमाम साहब मुस्लिमों के साथ अन्याय करने का सपा पर आरोप लगा रहे थे तो दूसरी तरफ सपा के लोग उन्हें भाजपा का दलाल  तथा सरकार को ब्लैकमेल करने वाला करार दे रहे थे. मुसलमानों के साथ अन्याय के आरोप पर सपा के वरिष्ठ नेता आजम खान का तंज भरा बयान यह आया कि मुलायम सिंह यादव को अहमद बुखारी की बात मान लेनी चाहिए थी क्योंकि ‘भाई को राज्य सभा और दामाद को लाल बत्ती मिल जाती तो मुसलमानों की सारी परेशानियां दूर हो जातीं.’

सपा से अलग होने के कुछ समय बाद ही बुखारी ने मुलायम सिंह यादव के गृह जनपद इटावा में ‘अधिकार दो रैली’ की. उस रैली में इमाम साहब बहुजन समाजवादी पार्टी पर डोरे डालते नज़र आए. जिन मायावती में कुछ समय पहले तक उन्हें तमाम कमियां दिखाई देती थीं उनकी शान में कसीदे पढ़ते हुए उन्होंने कहा कि मुल्क में अगर कोई हुकूमत करना जानता है तो वह  मायावती ही हैं. सपा सरकार ने राज्य के मुसलमानों को न सिर्फ छला है बल्कि उन्हें असुरक्षा की भावना का शिकार भी बना दिया है. हम उम्मीद करते हैं कि उन्होंने (मायावती ने) जिस तरह से दलितों का वोट हासिल करके दलितों का उद्धार किया है उसी तरह अब मुसलमानों का भी भला करेंगी.’

यह कहानी हमें बताती है कि बुखारी किस तरह से क्षण में समर्थन और दूसरे ही पल में विरोध की राजनीति में पारंगत रहे हैं और यह सब मुस्लिम समाज के हितों के नाम पर किया जाता रहा है. अहमद बुखारी की इमामत का दौर ऐसे ढेरों उदाहरणों से भरा पड़ा है.

इमाम अहमद बुखारी की इमामत और सियासत के बीच आवाजाही उनके साथ बाकी लोगों के लिए भी काफी पहले ही एक सामान्य बात हो चुकी थी. लेकिन आम मुसलमानों के साथ ही बाकी लोगों में उस समय हड़कंप मच गया जब 2004 के लोकसभा चुनावों में इमाम साहब ने मुसलमानों से भाजपा को वोट देने की अपील कर डाली.

लोगों को वह समय याद आ रहा था जब 2002 में गुजरात दंगों के बाद बुखारी भाजपा के खिलाफ हुंकार भर रहे थे. तब तक के अपने तमाम भाषणों में वे बाबरी मस्जिद के टूटने और मुसलमानों के मन में समाए डर के लिए भाजपा और संघ को जिम्मेदार बताते रहते थे. वे बताते थे कि कैसे भाजपा और संघ परिवार भारत में मुसलमानों के अस्तित्व के ही खिलाफ हैं.

बुखारी से जब भाजपा को समर्थन देने का कारण पूछा गया था तो उनका कहना था, ‘भाजपा की नई सोच को हमारा समर्थन है. बाबरी मस्जिद की शहादत कांग्रेस के शासनकाल में हुई लेकिन क्या कांंग्रेस ने इसके लिए कभी माफी मांगी? गुजरात दंगों के मामले में भी क्या कांग्रेस ने दंगा प्रभावित मुसलमानों के पुनर्वास के लिए कुछ किया है? भाजपा ने तो कम से कम गुजरात दंगों के लिए दुख व्यक्त किया है और वो अयोध्या मामले में भी कानून का सामना कर रही है.’ उस समय इमाम बुखारी यह कहते भी पाए गए थे,  ‘हर गुजरात के लिए कांग्रेस के पास एक मुरादाबाद है, जहां ईद के दिन मुसलमानों को मारा गया और अगर उन्होंने भाजपा की तरफ से की गई इस शुरुआत का जवाब नहीं दिया होता तो बातचीत का दरवाजा हमेशा के लिए बंद हो जाता. मुसलमानों को जेहाद, हिजरत (पलायन) और सुलह के बीच चुनाव करना है. मुझे लगता है कि इस वक्त सुलह सबसे अच्छा विकल्प है.’

परिवार को करीब से जानने वाले बताते हैं कि इस 360 डिग्री वाले हृदय परिवर्तन के पीछे मुस्लिम समाज की चिंता और बेहतरी के बजाय परिवार का दबाव था. परिवार के एक सदस्य ने अहमद बुखारी के ऊपर चुनावों में भाजपा को समर्थन देने का दबाव बनाया था. इस शख्स का नाम है याह्या बुखारी.

याह्या अहमद बुखारी के छोटे भाई है. यहां यह उल्लेखनीय है कि जब इमाम अब्दुल्ला बुखारी ने अहमद बुखारी की दस्तारबंदी की उस समय याह्या चाहते थे कि नायब इमाम का जो पद अहमद बुखारी संभालते थे वह उन्हें दे दिया जाए. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. अहमद बुखारी ने इसके लिए मुगल परंपरा का हवाला दिया जिसके मुताबिक अभी तक इमाम के बेटे को ही नायब इमाम बनाने की पंरपरा चली आ रही थी. उस समय की अखबारी रिपोर्टों और परिवार से जुड़े सूत्रों के मुताबिक इस पर याह्या का कहना था कि उनके बड़े भाई ने दो शादियां की हैं. दूसरी शादी से जो बेटा है वह इस पद के योग्य नहीं है. ऐसे में नायब का पद उन्हें दिया जाना चाहिए.

खैर, याह्या नायब नहीं बन पाए. दोनों भाइयों के बीच तनाव बढ़ता गया. तनाव कम करने और भाई को मनाने के लिए अहमद बुखारी ने पारिवारिक संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा याह्या को देने की पेशकश की और मस्जिद के अंदर और अधिक सक्रिय भूमिका की उनकी मांग को भी मान लिया. भाई को मनाने के लिए अहमद हर तरह से लगे हुए थे कि एकाएक याह्या ने उनसे 2004 के चुनाव में भाजपा का समर्थन करने की मांग कर दी. याह्या की इस मांग पर इमाम बुखारी बेहद चिंतित हुए. उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि इससे वे कैसे निपटें. खैर तमाम सोचने विचारने के बाद वे इसके लिए मान गए. इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी हिमायत समिति बनाई गई और हिमायत कारवां नाम से यात्रा निकालकर मुसलमानों से भाजपा का समर्थन करने की अपील की गई.

मगर याह्या बुखारी ने अपने बड़े भाई को भाजपा का समर्थन करने लिए क्यों मजबूर किया? परिवार से जुड़े सूत्र बताते हैं कि याह्या 2004 से एक दशक पहले से ही भाजपा से जुड़े हुए थे. नब्बे के दशक में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में धीरे-धीरे भाजपा ने अल्पसंख्यकों को जोड़ने के लिए मन बनाना शुरू किया. उसी समय प्रमोद महाजन का संपर्क याह्या बुखारी से हुआ. प्रमोद ने याह्या से भाजपा की योजना के बारे में बताया और पार्टी को सपोर्ट करने का प्रस्ताव रखा. 1998 के लोकसभा चुनावों में खुद याह्या बुखारी मुंबई में प्रमोद महाजन के लिए प्रचार करने पहुंचे थे. उस चुनाव में भाजपा के लिए प्रचार करने गए एक मुस्लिम नेता कहते हैं, ‘याह्या को मैंने वहां देखा था. वो भाजपा के लिए वहां प्रचार करने आए थे. हम लोग एक ही होटल में रुके हुए थे.’

2004 में प्रमोद महाजन के कहने पर ही याह्या ने अपने भाई अहमद बुखारी को भाजपा का समर्थन करने के लिए बाध्य किया. अपने राजनीतिक व्यवहार के कारण विवादित रहे बुखारी पर सबसे बड़ा आरोप उस जामा मस्जिद के दुरुपयोग का लग रहा है जिसके वे इमाम हैं. आरोप लगाने वालों का कहना है कि बुखारी परिवार ने इमाम अहमद बुखारी के नेतृत्व में पूरी मस्जिद पर कब्जा कर लिया है और इसे अपनी निजी संपत्ति की तरह प्रयोग कर रहे हैं. वैसे तो कानूनी तौर पर जामा मस्जिद वक्फ की संपत्ति है लेकिन शायद सिर्फ कागजों पर. मस्जिद का पूरा प्रशासन आज सिर्फ बुखारी परिवार के हाथों में ही है.

मस्जिद पर बुखारी परिवार के कब्जे के विरोध में लंबे समय से संघर्ष कर रहे अरशद अली फहमी कहते हैं, ‘पूरी मस्जिद पर बुखारी और उनके भाइयों ने अंदर और बाहर चारों तरफ से कब्जा कर रखा है. मस्जिद का प्रयोग ये अपनी निजी संपत्ति के तौर पर कर रहे हैं. बुखारी जामा मस्जिद के इमाम हैं, जिनका काम नमाज पढ़ाना भर है लेकिन वो मस्जिद के मालिक बन बैठे हैं.’

बुखारी पर इन आरोपों की शुरुआत उस समय हुई जब मस्जिद के एक हिस्से में यात्रियों के लिए बने विश्रामगृह पर इमाम बुखारी ने कब्जा जमा लिया. बुखारी के खिलाफ कई मामलों में कोर्ट का दरवाजा खटखटा चुके सुहैल अहमद खान कहते हैं, ‘जामा मस्जिद में आने वाले यात्रियों के लिए सरकारी पैसे से जो विश्रामगृह बना था उस पर अहमद बुखारी ने अपना कब्जा कर उसे अपना विश्रामगृह बना डाला है. उस विश्रामगृह पर कब्जा करने के साथ ही बगल में उन्होंने अपने बेटे के लिए एक बड़ा घर भी बनवा लिया. बाद में जब मामले ने तूल पकड़ा तो उन्होंने उसे बाथरूम दिखा दिया.’

आरोपों की लिस्ट में सिर्फ ये दो मामले नहीं हैं. सुहैल बताते हैं, ‘डीडीए ने मस्जिद कैंपस में पांच नंबर गेट के पास जन्नतनिशां नाम से एक बड़ा मीटिंग हॉल बनाया था, जो आम लोगों के प्रयोग के लिए था. कुछ समय बाद अहमद बुखारी के छोटे भाई याह्या ने उस पर अपना कब्जा जमा लिया. आज भी उनका उस पर कब्जा है. इसके साथ ही गेट नंबर नौ पर स्थित सरकारी डिस्पेंसरी पर बुखारी के छोटे भाई हसन बुखारी ने कब्जा कर रखा है.
जिस जन्नतनिशां पर याह्या बुखारी के कब्जे की बात सुहैल कर रहे हैं उसी जन्नतनिशां में कुछ समय पहले दुर्लभ वन्य जीवों ब्लैक बक और हॉग डियर के मौजूद होने की खबर और तस्वीरें सामने आईं थी.

2012 में जामा मस्जिद के ऐतिहासिक स्वरूप को कथित अवैध निर्माण से बिगाड़ने संबंधी आरोपों को लेकर अहमद बुखारी के खिलाफ सुहैल कोर्ट गए थे. उन्होंने अपनी याचिका में यह आरोप लगाया कि इमाम व उनके दोनों भाइयों ने जामा मस्जिद में अवैध निर्माण कराया है और वे आसपास अवैध कब्जों के लिए भी जिम्मेदार हैं. आरोपों की जांच के लिए हाई कोर्ट ने एक टीम का गठन किया. बाद में उस टीम ने कोर्ट के समक्ष पेश की गई अपनी रिपोर्ट में इस बात को स्वीकार किया कि हां, मस्जिद में अवैध निर्माण कराया गया है.

‘जामा मस्जिद प्रांगण में तो इस परिवार ने अपना कब्जा जमाया ही है, इसके बाहर भी इस परिवार ने कब्जा कर रखा है. ‘मस्जिद के बाहर उससे सटे हुए सरकारी पार्कों के बारे में बताते हुए अरशद कहते हैं, ‘मस्जिद के चारों तरफ स्थित इन पार्कों पर बुखारी परिवार ने कब्जा कर रखा है. किसी को उन्होंने अपनी पर्सनल पार्किंग बना रखा है तो किसी को उन्होंने यात्रियों के लिए पार्किंग बना रखा है. इससे होने वाली आमदमी सरकारी खाते में नहीं बल्कि बुखारी परिवार के खाते में जाती है.’

[box]2000 में जामा मस्जिद के इमाम बने अहमद बुखारी पर आरोप लगा कि उन्होंने अपने पिता से जबरन अपनी दस्तारबंदी करवाई[/box]

अवैध कब्जे की ऐसी ही एक कहानी बताते हुए जामा मस्जिद के बाहर मोटर मार्केट में दुकान लगाने वाले तनवीर अख्तर कहते हैं, ‘मस्जिद के गेट नंबर एक के पास कॉर्पोरेशन का एक ग्राउंड है. वो शादी-ब्याह के लिए लंबे समय से इस्तेमाल होता था. लेकिन आज उस पर अहमद बुखारी के भाइयों का कब्जा है. किसी को अगर उस पार्क को शादी आदि के लिए बुक कराना है तो उसे बुखारी परिवार के आदमी को मोटी रकम देनी पड़ती है.’
नाम न छापने की शर्त पर मीना बाजार के एक दुकानदार कहते है, ‘चारों भाइयों ने चारों तरफ से मस्जिद पर कब्जा कर रखा है. इसके अलावा मस्जिद के गेट नंबर दो से लेकर लालकिला तक और गेट नंबर दो से ही उर्दू बाजार तक जितनी रेहड़ी पटरी की दुकानें हैं वो सभी इमाम के आशीर्वाद से ही चल रही हैं. इनकी कमाई का एक हिस्सा उन तक भेजा जाता है.’

मस्जिद प्रांगण के दुरुपयोग का एक उदाहरण देते हुए सैयद शहाबुद्दीन कहते हैं, ‘कुछ समय पहले इमाम अहमद बुखारी के छोटे भाई याह्या ने मस्जिद में ही मूर्ति बेचने की दुकान खोल ली थी. जिसकी इस्लाम में सख्त मनाही है. बाद में इसका भारी विरोध होने पर उन्होंने उस दुकान को बंद किया.’

साल 2006 में उस समय भी इमाम बुखारी गंभीर आरोप के घेरे में आए जब सउदी अरब के प्रिंस अब्दुल्ला ने जामा मस्जिद की रिपेयरिंग के लिए आर्थिक मदद देने की पेशकश की. सउदी प्रिंस की इस पेशकश पर भारत सरकार हैरान रह गई थी. सरकार ने प्रिंस से कहा कि वह अपनी मस्जिद की खुद मरम्मत करा सकती है और धन्यवाद के साथ उसने आर्थिक मदद लेने से इनकार कर दिया. बाद में पता चला कि इस पैसे की मांग कुछ समय पहले जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी ने सऊदी सरकार से की थी. उन्होंने वहां की सरकार से मदद करने की अपील करते हुए कहा था, ‘मसजिद की दीवारें टूट रही हैं, मीनारें में दरारें पड़ रही हैं. ऐसे में उसे रिपेयर करने में आप हमारी आर्थिक मदद करें.’

बुखारी से जब पूछा गया तो उन्होंने सउदी सरकार से ऐसी कोई मदद मांगने की बात से साफ इनकार कर दिया. हालांकि उस समय बुखारी बगलें झांकते नजर आए जब भारत में सऊदी अरब के राजदूत सालेह मोहम्मद अल घमडी ने सार्वजनिक तौर पर कहा कि जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी ने ही सऊदी सरकार से मस्जिद की मरम्मत के लिए आर्थिक सहायता का अनुरोध किया था. जानकार बताते हैं कि बुखारी ने पैसे के लिए सऊदी सरकार से संपर्क तो किया था लेकिन उन्हें उम्मीद थी कि वह बिना भारत सरकार को बीच में लाए उन्हें मदद दे देगी.

कुछ अरसा पहले ही जामा मस्जिद इलाके की दीवारें कई ऐसी पोस्टर श्रृंखलाओं की गवाह बनीं जिसमें इमाम अहमद बुखारी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाने के साथ उनसे कुछ प्रश्नों के जवाब मांगे गए थे. मसलन-

  • जामा मस्जिद की मीनार का टिकट, कैमरे का टैक्स, वीडियोग्राफी का टैक्स वगैरह जो तकरीबन बीस हजार रुपये रोज या 6 लाख रुपये माहवार होता है वह किस खाते में जाता है ? जामा मस्जिद वीआईपी गेट की पार्किंग से आमदनी जो कि तकरीबन 4,500 रुपये रोज या एक लाख 35 हजार की बताई जाती है, जिसका न कभी टेंडर पास होता है, न ही यह एमसीडी के जरिए चलती है. ये रकम कहां जाती है.  
  • ऐतिहासिक धरोहर जामा मस्जिद के अंदर मुकीम डीडीए पार्क जो की कौम की अमानत है, पर आप ने अपना जाती रिहाइशी मकान किस की इजाजत से बनवाया.
  • आपने मीना बाजार की दो हजार दुकानें उजड़वाकर सात दुकानें (दुनं-225,226,227,228,229, 230,231) बतौर तोहफा हासिल कीं और इसे कौम की खिदमत का नाम दिया क्या सिर्फ अपने खासमखासों को फायदा पहुंचाना कौम की खिदमत होती है?

इन प्रश्नों के अलावा और भी ढेर सारे प्रश्न अहमद बुखारी को संबोधित करते हुए पूछे गए थे. इन पोस्टरों को लगाने के पीछे मकसद चाहे जो हो लेकिन इनसे अवैध कब्जे के साथ ही एक प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि आखिर मस्जिद से होने वाली आमदनी किसके खाते में जाती है. किसके ऊपर उसकी देखरेख का जिम्मा है और कौन उसकी व्यवस्था देखता है?

दिल्ली वक्फ बोर्ड जिसके क्षेत्राधिकार में यह मस्जिद आती है, उसके अध्यक्ष मतीन अहमद कहते हैं, ‘मस्जिद का पूरा काम इमाम साहब ही देखते हैं. जो भी वहां से आमदनी होती है वो उन्हीं के पास जाती है. जामा मस्जिद वक्फ की संपत्ति जरूर है लेकिन वक्फ का वहां कोई दखल नहीं है.’

हाल ही में जामा मस्जिद के बिजली बिल को लेकर विवाद सामने आया. जामा मस्जिद पर चार करोड़ रुपये के करीब का बिल था. इमाम ने कहा, ‘यह वक्फ की जिम्मेदारी है कि वह बिल भरे. हां, अगर वह चाहता है कि मैं बिल भरूं तो पहले उन्हें जामा मस्जिद मेरे नाम करनी होगी.’ वक्फ का कहना था कि चूंकि मस्जिद पर इमाम बुखारी का नियंत्रण है और उससे होने वाली पूरी आमदनी उनके पास जाती है इसलिए बिजली का बिल उन्हें ही भरना होगा.

final

ऐसा नहीं है कि इमाम और वक्फ के बीच संघर्ष का यह कोई पहला मौका था. वर्तमान इमाम अहमद बुखारी के पिता अब्दुल्ला बुखारी से भी वक्फ का छत्तीस का आंकड़ा रहा था. अब्दुल्ला बुखारी ने जब अपने बेटे अहमद बुखारी को इमाम बनाया तो वक्फ ने उसे मान्यता देने से इनकार कर दिया. मान्यता संबंधी अब्दुल्ला बुखारी का आवेदन लगभग पांच साल तक वक्फ के ऑफिस में पड़ा रहा था.

2005 में दिल्ली हाई कोर्ट ने जामा मस्जिद पर दावेदारी को लेकर वक्फ और बुखारी के बीच चल रही लड़ाई पर फैसला सुनाते हुए मस्जिद को न सिर्फ वक्फ की संपत्ति बताया था बल्कि बुखारी को कहा कि वे वक्फ के कर्मचारी मात्र हैं. इसके साथ ही बिना वक्फ की अनुमति के मस्जिद के स्वरूप के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ न करने की हिदायत भी कोर्ट ने बुखारी को दी थी. उसी समय वक्फ द्वारा जामा मस्जिद की आय-व्यय का प्रश्न छेड़ने पर कोर्ट ने बुखारी से पिछले 30 साल की आमदनी और खर्च का ब्यौरा बोर्ड के पास जमा कराने के लिए कहा था.

सुहैल कहते हैं, ‘आज अहमद बुखारी और उनके परिवार ने अथाह चल-अचल संपत्ति अर्जित कर ली है. ये सब कुछ पिछले 30 से 35 सालों में ही हुआ है. इसी परिवार के मुखिया अब्दुल्ला बुखारी ने 1976 में वक्फ बोर्ड के खिलाफ अपने महीने की पगार 130 से बढ़ाकर 840 रुपये करने के लिए प्रदर्शन किया था. आज जो अहमद बुखारी करोड़ों-अरबों के मालिक हैं. वो उस दौरान एक कमरे में प्रेस बनाने की एक छोटी दुकान चलाया करते थे. वही परिवार और आदमी आज पैसों से अटा पड़ा है.

सैयद शहाबुद्दीन भी सुहैल की बातों से इत्तेफाक रखते हुए कहते हैं, ‘ये समझने वाली बात है कि जो परिवार कुछ साल पहले तक अपनी तनख्वाह बढ़वाने की लड़ाई लड़ रहा था, जिससे ये स्थापित होता है कि वो वक्फ के मुलाजिम थे, वह आज कैसे मस्जिद का मालिक बन बैठा है ?’

जामा मस्जिद क्षेत्र में सक्रिय अपराधियों और वहां होने वाली अवैध गतिविधियों को भी इमाम अहमद बुखारी का संरक्षण प्राप्त होने का आरोप लगाया जाता रहा है. सुहैल कहते हैं, ‘उस क्षेत्र में जितनी अवैध गतिविधियां चल रही हैं उन सभी को बुखारी साहब का वरदहस्त प्राप्त है.’ इसका उदाहरण देते हुए सामाजिक कार्यकर्ता शीबा असलम फहमी कहती हैं, ‘करीब चार महीने पहले जामा मस्जिद के चूड़ीवालान इलाके में सात कारखानों पर छापा मार कर पुलिस ने लगभग 33 बाल मजदूरों को रिहा कराया था. इधर पुलिस ने कारखानों को सील और उनके मालिकों को गिरफ्तार किया ही था कि इमाम बुखारी ने जामा मस्जिद के लाउड स्पीकरों से पुलिस को ललकारते हुए इसे मुसलमानों पर जुल्म ठहरा दिया. बुखारी ने बच्चों को छुड़ाने की इस कार्यवाही को मुसलमानों के खिलाफ षड्यंत्र बताते हुए कहा कि ‘हमारे इलाके में घुस कर ये जालिमाना हरकत करने की जुर्रत कैसे की गई? ‘ बचपन बचाओ आंदोलन, जो इस बचाव अभियान में शामिल था, के सदस्य राकेश सेंगर कहते हैं, ‘इमाम बुखारी सील कर दिए गए उन कारखानों पर गए और वहां जाकर अपने हाथों से कारखानों पर लगाई सीलें तोड़ दीं.’

ऐसा नहीं है कि इमाम बुखारी ने इस तरह का हस्तक्षेप पहली बार किया था. राकेश कहते हैं, ‘2010 में भी कुछ ऐसा ही हुआ था. तहलका में मदरसों के माध्यम से हो रही बाल तस्करी पर छपी एक रिपोर्ट के बाद प्रशासन ने बचपन बचाओ आंदोलन के साथ मिलकर गीता कॉलोनी स्थित कुछ कारखानों पर छापा मारने का निर्णय किया.’ राकेश के मुताबिक वहां से उन्होंने लगभग 22 बच्चों को छुड़ाया. बच्चों को छुड़ाने के बाद जैसे ही ये लोग उन्हें लेकर बाहर आ रहे थे कि कुछ लोगों ने पूरी टीम पर हमला कर दिया. इस घटना के कुछ घंटे बाद ही अहमद बुखारी का बयान आया कि बाल मजदूरों को छुड़ाने के नाम पर मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है. यह मुसलमानों के खिलाफ षड़यंत्र है. इस तरह की कार्रवाई का सख्ती से जवाब दिया जाएगा. आइंदा ऐसी कार्रवाई भविष्य में इधर ना की जाए.

[box]2004 में तब हड़कंप मच गया जब लोकसभा चुनावों में इमाम साहब ने मुसलमानों से भाजपा को वोट देने की अपील कर डाली[/box]

बाल अधिकारों पर काम करने वाले लोग बताते हैं कि सबसे ज्यादा अगर बाल मजदूरी या बाल तस्करी दिल्ली के किसी क्षेत्र में है तो वह जामा मस्जिद के आस-पास के इलाके में ही है. राकेश कहते हैं, ‘जैसे ही उस इलाके में कोई रेस्क्यू ऑपरेशन शुरू होता है कि इमाम साहब की तरफ से उसे बंद करने का फरमान आ जाता है.’

इमाम अहमद बुखारी के अब तक के ट्रैक रिकॉर्ड को हम देखें तो पाएंगे कि उन्होंने कानून और पुलिस को हमेशा ठेंगे पर ही रखा है. वे जब जो चाहते हैं वही करते और कहते हैं लेकिन कानून और व्यवस्था का जिम्मा संभालने वालों के अंदर इतना साहस नहीं कि उन पर कोई कार्रवाई कर सकें. पुलिस ने बुखारी के खिलाफ उनके भाषणों की वजह से देशद्रोह जैसे गंभीर मामले तक दर्ज किए. लेकिन हुआ कुछ भी नहीं. कई बार न्यायालयों ने उनके खिलाफ गैरजमानती वारंट जारी किया, पुलिस को उन्हें गिरफ्तार करके कोर्ट में पेश करने के लिए कहा गया लेकिन कभी पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने की हिम्मत नहीं कर पाई. बुखारी का दबदबा इसी बात से समझा जा सकता है कि हाई कोर्ट से लेकर लोअर कोर्ट तक ने कई बार यह कमेंट किया है कि पुलिस के अधिकारियों में बुखारी को गिरफ्तार करने का साहस नहीं है.

ऐसे ही एक मामले में कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि यह बहुत चौंकाने और स्तब्ध करने वाली बात है कि पुलिस बुखारी के खिलाफ गैरजमानती वारंट की तामील कर पाने में सक्षम नहीं है. यह मामला तीन सितंबर, 2001 का है जब पुलिस और निगम के कर्मचारी लोधी कॉलोनी में अतिक्रमण हटाने गए थे. बुखारी पर आरोप लगा कि उनके नेतृत्व में भीड़ ने अतिक्रमण हटाने गए कर्मचारियों पर हमला कर दिया. इस मामले में दो लोगों को गिरफ्तार किया गया लेकिन बुखारी को यह कहते हुए पुलिस ने गिरफ्तार नहीं किया कि उनकी गिरफ्तारी से हालात खराब हो सकते थे. बाद में जब मामले में चार्जशीट दाखिल हुई तो उसमें बुखारी को भी अभियुक्त बनाया गया. जनवरी, 2004 में कोर्ट ने मामले की दोबारा जांच करने के लिए कहा. इस पर पुलिस का कहना था कि वह बुखारी को गिरफ्तार नहीं कर सकती क्योंकि ऐसा करने से सांप्रदायिक दंगा भड़क सकता है. इसी मामले में जुलाई, 2012 में कोर्ट का यह बयान आया, ‘रिकॉर्ड को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि दिल्ली में कमिश्नर रैंक तक के अधिकारी के पास बुखारी के खिलाफ वारंट तामील करने की हिम्मत नहीं है.’

बुखारी के दबदबे को इस बात से भी समझा जा सकता है कि जामा मस्जिद के इलाके में पुलिस उनके खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई तो दूर मामला तक दर्ज करने से परहेज करती है. अरशद कहते हैं, ‘मेरे घर पर बुखारी समर्थकों ने 2004 में पहली बार हमला किया था. लेकिन पुलिस ने एफआईआर दर्ज करने से मना कर दिया. जब मैंने उनसे कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि इमाम साहब का नाम निकाल दो. हम केस दर्ज कर लेंगे.’ खैर, पुलिस ने उनके खिलाफ मामला दर्ज नहीं किया और अरशद को कोर्ट जाना पड़ा. उसी मामले में अदालत ने मई में बुखारी को गिरफ्तार कर पेश करने का आदेश जारी किया है. अरशद कहते हंै, ‘पता नहीं पुलिस उन्हें कैसे गिरफ्तार करेगी क्योंकि अपने पिता के जैसे ही ये भी कई बार इस बात को कह चुके हैं कि इस देश की किसी अदालत में हम पेश नहीं होंगे.’

अहमद बुखारी तमाम अन्य तरह के विवादों के अलावा समय-समय पर दिए अपने विवादास्पद बयानों के कारण भी काफी चर्चा में रहे. कभी उन्होंने अमेरिका पर नौ सितंबर के हमले को बिल्कुल जरूरी और उचित ठहराया तो कभी ओसामा बिन लादेन को आतंकी की जगह नायक करार दिया. कभी अन्ना आंदोलन को मुस्लिम विरोधी ठहराते हुए मुसलमानों को उससे दूर रहने की नसीहत दी तो कभी शबाना आजमी को नाचने-गाने वाली औरत कहा. कभी अपने पिता के साथ खुद को आईएसआई एजेंट ठहराते हुए सरकार को चुनौती दी कि अगर हिम्मत है तो गिरफ्तार करके दिखाओ. अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले के बाद भारत के सारे मुसलमानों को अफगानिस्तान जाकर जेहाद में भाग लेने का आह्वान किया तो कभी तालिबान को मुसलमानों के लिए आदर्श ठहराया.

पिछले कुछ सालों में बुखारी अपनी तुनकमिजाजी के कारण भी चर्चा में रहे. 2007 में लखनऊ की एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक पत्रकार के सवाल पर इमाम बुखारी इतने नाराज हुए कि उन्होंने अपने लोगों के साथ मिलकर सरेआम उस पत्रकार को पीट डाला. कुछ इसी तरह की घटना 2006 में भी हुई थी. इमाम बुखारी प्रधानमंत्री को एक ज्ञापन सौंपने जा रहे थे. जी न्यूज़ के पत्रकार युसूफ अंसारी के एक सवाल पर वे इतना बिफर गए कि साथ के लोगों के साथ मिलकर अंसारी के साथ मारपीट करने लगे. अंसारी कहते हैं, ‘ मैंने बुखारी से सिर्फ इतना ही कहा था कि मंडल कमीशन के तहत मुस्लिमों को आरक्षण देने की मांग जो आप प्रधानमंत्री से करने जा रहे हैं उसमें कुछ भी नया नहीं है. मुस्लिमों को तो पहले से ही आरक्षण मिला हुआ है. बस फिर क्या था मेरा प्रश्न सुनते ही उन लोगों ने मुझ पर हमला कर दिया.’

जामा मस्जिद के इमाम की राजनीतिक हैसियत और मुस्लिम मतदाताओं पर उनके प्रभाव को लेकर बहुत पहले से ही बहस होती आ रही है. 2012 के उप्र विधानसभा चुनावों में मुस्लिम बहुल सीट पर दामाद की जमानत जब्त होना तो  अभी हाल की बात है. अगर जामा मस्जिद के आसपास के इलाकों से जुड़े बुखारी के पुराने फतवों पर नजर डालें तो चिराग तले अंधेरा छाने वाली कहावत चरितार्थ होती लगती है. एक सामान्य सोच कहती है कि इमाम साहब का सबसे ज्यादा कहीं प्रभाव होगा तो वह जामा मस्जिद के इलाके में होगा. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इस क्षेत्र में हुए चुनावों में उन्हें यहीं मुंह की खानी पड़ी है.

जामा मस्जिद दिल्ली की मुस्लिम बहुल मटिया महल विधानसभा क्षेत्र में स्थित है. यहां से शोएब इकबाल पिछले 20 साल से विधायक हैं. पिछले तीन चुनावों में इमाम बुखारी ने खुले तौर पर शोएब इकबाल का विरोध किया, उनके खिलाफ फतवा जारी किया. लेकिन हर बढ़ते चुनाव के साथ शोएब और अधिक मतों से जीतते चले गए.

विधायकी से भी नीचे आते हैं. जिस क्षेत्र में जामा मस्जिद  है, वह नगर निगम का जामा मस्जिद क्षेत्र कहलाता है. यहां से नगर निगम के चुनाव में पिछले दो बार से वही प्रत्याशी चुनाव जीत रहा है जिसका बुखारी विरोध कर रहे हैं. यहां के पार्षद खुर्रम इकबाल यहां के ही विधायक शोएब इकबाल के भतीजे हैं. शोएब कहते हैं, ‘आज अगर कोई सोचे कि उसके कहने पर मतदाता वोट करेगा तो ऐसा नहीं है. वोटर अब बहुत होशियार हो गया है. उसे पता है कि सुनना क्या है, चुनना क्या है.’

लंबे समय से मुसलमानों के लिए एक अलग पार्टी बनाने का मंसूबा पाले इमाम बुखारी ने अपनी यह इच्छा भी 2006 में पूरी कर ली. यह अलग बात है कि उन्हें मुस्लिमों से जिस तरह के समर्थन की उम्मीद थी उसका एक तिनका भी उन्हें नहीं मिला. जून, 2006 में जामा मस्जिद में एक प्रेस वार्ता को संबोधित करते हुए बुखारी ने उत्तर प्रदेश यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूपीडीयूएफ) के गठन का एलान किया. पार्टी के अध्यक्ष पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आने वाले हाजी याकूब कुरैशी बने और बुखारी संरक्षक. कुरैशी वही हैं जिन्होंने पैगंबर साहब का कार्टून बनाने के लिए डेनमार्क के कार्टूनिस्ट के सर पर 51 करोड़ का इनाम रखा था. मगर 2007 के उप्र के विधानसभा चुनावों में पार्टी बुरी तरह से हार गई. प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों में से 54 पर चुनाव लड़ने वाली इस पार्टी के 51 सदस्यों की जमानत जब्त हो गई. सिर्फ एक सीट पर हाजी याकूब कुरैशी जीते.

खैर, मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि बनने का बुखारी का सपना तो पूरा नहीं हुआ उल्टे कुरैशी उन पर 20 करोड़ रुपये लेकर पार्टी को मुलायम के हाथों बेचने का आरोप लगाते जरुर नजर आए. फिरोज अहमद बख्त कहते हैं, ‘अहमद बुखारी की अब जो भी सत्ता है, वो जामा मस्जिद की चहारदीवारी के भीतर ही है. उसके बाहर उनका कोई प्रभाव नहीं हैं. यही कारण है कि वो तमाम तरह के विवादास्पद बयान देकर चर्चा में बने रहने की कोशिश करते हैं.’

बुखारी परिवार इस बात पर गर्व करता है कि उसके पुरखे को खुद शाहजहां ने इमामत के लिए उज्बेकिस्तान से बुलाया था. जब तक मुगल साम्राज्य कायम रहा था तब तक यही व्यवस्था थी कि पिता के बाद बेटा और फिर उसके बाद उसका बेटा मस्जिद का इमाम बनेगा. अंग्रेजों के शासनकाल में लंबे समय तक इस व्यवस्था पर रोक लगी रही. अंग्रेजी राज में जामा मस्जिद में अंग्रेज सैनिक और घोड़े रहा करते थे. बाद में जब समाज के लोगों की तरफ से विरोध किया गया तो अंग्रेजों ने मस्जिद को खाली किया और इमाम और इमामत की परंपरा को 1862 में बहाल किया. हालांकि उन्होंने यह शर्त भी लगा दी कि मस्जिद का प्रयोग किसी तरह के राजनीतिक उद्देश्य के लिए नहीं किया जाएगा. इसके प्रशासन को भी एक एक्ट (धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम 1863) के तहत रेग्यूलेट किया गया और इमाम का शाही दर्जा खत्म कर दिया गया. हालांकि उस समय भी जामा मस्जिद के इमाम बुखारी परिवार से ही बनाए गए.

अब इसे अहमद बुखारी की कारगुजारियों का नतीजा मानें या इमाम के पद का निजी स्वार्थों के लिए दुरुपयोग या फिर दिनों-दिन मजबूत हो रही लोकतांत्रिक व्यवस्था कि ‘शाही’ जैसे शब्दों के इस्तेमाल पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं. जिस जामा मस्जिद के इमाम के पद पर बुखारी परिवार के कब्जे को लेकर कभी आवाज नहीं उठती थी उस पर भी अब धीरे-धीरे सवाल उठाए जाने लगे हैं.

पूछा जा रहा है कि ऐसा क्यों है कि एक ही परिवार की 13 पीढि़यों ने पिछले सैकड़ों सालों से इमाम के पद पर अपना कब्जा जमा रखा है. जब वर्तमान लोकतांत्रिक ढांचे के तहत मस्जिद को वक्फ की संपत्ति बताया गया है और इमाम को उसका मुलाजिम तो फिर कैसे आजादी के इतने साल बाद भी बुखारी परिवार मस्जिद के मालिक जैसा बर्ताव कर रहा है? अरशद कहते हैं, ‘असल मुद्दा ये है कि ये सब कुछ तब होता था जब मुगलों या अंग्रेजों का शासन था. अब जब भारत स्वतंत्र राष्ट्र है, ऐसे में उस मुगलिया व्यवस्था को बनाए रखने का क्या तुक है.’

पूर्व राज्य सभा सदस्य सैयद शहाबुद्दीन कहते हैं, ‘इस्लाम में आनुवंशिकता के आधार पर मस्जिद के इमाम के चयन की मनाही है. इमाम सिर्फ वही बन सकता है जिसे नमाज़ पढ़ाना आता हो और आम राय से नमाज पढ़ने वालों के बीच से उसका चुनाव किया जाए. जामा मस्जिद के संबंध में वक्फ बोर्ड नमाजियों से बात करके आम राय के आधार पर इमाम की नियुक्ति कर सकता है. लेकिन यहां बुखारी परिवार ने अपने लिए अलग नियम बना रखे हैं.’

उधर सेक्युलर कयादत के संपादक मजहरी कहते हैं, ‘75 के समय में भी ये मामला उठा था जब इंदिरा गांधी के दौर में वक्फ बोर्ड ने अब्दुल्ला बुखारी को इमाम के रूप में स्वीकार करने से इनकार कर दिया था. जबकि इस मामले में शाहजहां की विल स्पष्ट कहती है कि इमाम के परिवार का ही व्यक्ति जामा मस्जिद का अगला इमाम बनेगा.’ हालांकि वक्फ इससे इनकार करता है. मतीन अहमद कहते हैं, ‘हमारे पास न ऐसी कोई विल है और न ही कोई दस्तावेज जो कहता हो कि इस परिवार के ही लोग मस्जिद के इमाम बनेंगे. अगर भविष्य में परिवार में कोई इस लायक नहीं होगा जो इमाम बन सके तो बाहर का आदमी भी यहां का इमाम बन सकता है.’

बुखारी परिवार पर अपने व्यक्तिगत फायदे के लिए मुस्लिम समाज के हितों से समझौता करने के आरोप लगते रहे हैं. फिरोज कहते हैं, ‘जिस ओहदे पर आज अहमद बुखारी बैठे हैं अगर वो चाहते तो मुस्लिम समाज के लिए बहुत कुछ कर सकते थे. लेकिन वो कौम को तरक्की की तरफ ले जाने के बजाय छोटे-छोटे स्वार्थों में बंधे रह गए.’ फिरोज की बात को विस्तार देते हुए वदूद साजिद कहते हैं, ‘ऐसा कोई उदाहरण हमारे पास नहीं है कि बुखारी परिवार ने कभी समुदाय के लिए कुछ किया हो, कराया हो. जब आप अपने समुदाय से पहले अपने और अपने पारिवारिक हितों को आगे रखेंगे, दामाद के लिए पेट्रोल पंप मांगेंगे तो फिर आप उन निर्दोष युवाओं के लिए क्या बोलेंगे जिन्हें व्यवस्था ने आतंकी ठहराकर जेल में डाल रखा है.’

इसके बावजूद इमाम बुखारी कहीं न कहीं मुस्लिम समाज और उसकी राजनीति करने वालों के लिए प्रासंगिक क्यों बने हुए हैं? वदूद साजिद कहते हैं, ‘आम मुसलमानों की पिछले 60 सालों में क्या हालत रही है ये बताने की जरूरत नहीं. जिस आम मुसलमान को ये पता है कि इस व्यवस्था में उसकी सुनवाई नहीं है उसे उस वक्त बहुत राहत महसूस होती है जब बुखारी के चीखने पर सरकार थरथराने लगती है. यही चीज बुखारी को उसकी नजरों में हीरो बना देती है.’

बुखारी परिवार पर लग रहे तमाम आरोपों पर बात करने के लिए तहलका ने करीब एक माह तक इमाम बुखारी से बात करने की कोशिश की. मगर अपनी सफाई के लिए कभी कोर्ट तक के सामने न जाने वाले बुखारी से तहलका की भी बातचीत संभव नहीं हो सकी.

कमल में कीचड़

आरोपों के धेरे में पूर्व वित्त मंत्री राघवजी मीडियाकर्मियों से घिरे हुए, फोटो: प्रतुल दीक्षित
आरोपों के धेरे में पूर्व वित्त मंत्री राघवजी मीडियाकर्मियों से घिरे हुए, फोटो: प्रतुल दीक्षित

मध्य प्रदेश में गर्मियों के दिनों तक ठंडा रहा सियासत का पारा अचानक ऊपर चढ़ता जा रहा है. एक युवक के साथ यौन उत्पीड़न का मामला सामने आने के बाद प्रदेश के वित्त मंत्री राघवजी भाई सावला इस्तीफा दे चुके हैं. उनकी गिरफ्तारी भी हो चुकी है. लेकिन  इस घटना की सेक्स सीडी से आया सियासी भूचाल इतनी जल्दी शांत होता नहीं दिख रहा. मप्र में इस साल होने वाला विधानसभा का चुनाव सिर पर है और इसी के मद्देनजर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जनआशीर्वाद यात्रा की तैयारी कर ली थी. किंतु ऐन मौके पर राघवजी द्वारा एक युवक से दुष्कर्म का मामला जगजाहिर हो गया. फिर जिस तरीके से पार्टी संगठन के अहम ओहदे पर बैठे प्रदेश संगठन महामंत्री अरविंद मेनन के एक महिला के साथ यौनाचार के मामले की दोबारा राज्य में चर्चा शुरू हुई उसने चौहान के मंसूबों पर पानी फेर दिया. भाजपा की यात्रा शुरू तो हुई लेकिन एक रक्षात्मक रवैये के साथ.

बीते कुछ सालों में एक के बाद एक उजागर हुए भाजपा नेताओं के सेक्स स्कैंडलों ने मप्र की सियासत की रंगत बदल दी है. यही वजह है कि चुनाव के ठीक पहले अब जबकि कई और सेक्स सीडियों की चर्चा जोरों पर है तो भाजपा में हड़कंप मचा है. पार्टी के कई दिग्गज नेताओं की नींद उड़ी हुई है. हालांकि इसी कड़ी में राघवजी का ताजा सेक्स स्कैंडल बाकियों से काफी अलग है. सरकार के किसी मंत्री द्वारा अप्राकृतिक यौन संबंधों की सेक्स सीडी आने का अपनी तरह का यह पहला मामला है. राघवजी पर आरोप लगाने वाले राजकुमार दांगी का कहना है कि वह तीन साल से उनके चार इमली स्थित बंगले पर रह रहा था. पूर्व वित्त मंत्री सरकारी नौकरी दिलाने के नाम पर उसके साथ लगातार कुकर्म करते रहे. वह हर दुष्कर्म के बाद ग्लानि से भर जाता था. लेकिन अपने परिवार की गरीबी और राघवजी के रुतबे के चलते सब कुछ सहता रहा. बकौल दांगी, ‘एक दिन मैंने तय किया कि अब शोषण नहीं सहूंगा और उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करूंगा.’ अपनी बात को सच साबित करने के लिए दांगी ने अपने दोस्त घनश्याम कुशवाहा के साथ मिलकर राघवजी द्वारा उसके साथ किए जा रहे अप्राकृतिक कृत्य की मोबाइल रिकॉर्डिंग कर ली. घनश्याम राघवजी के यहां चपरासी है. उसने पुलिस में शपथपत्र देकर राघवजी पर राजकुमार के साथ अप्राकृतिक यौनाचार का आरोप लगाया है. तहलका के सूत्र बताते हैं कि करीब दो साल पहले भी राघवजी की एक और सेक्स सीडी सामने आई थी और सरकार को इसकी जानकारी थी. लेकिन तब कोई शिकायतकर्ता सामने न आ पाने के चलते वे बच गए. इस सीडी में कथित तौर पर उनके साथ एक महिला को दिख रही थी.

जहां तक इस ताजा सीडी की बात है तो इसके बारे में भी कहा जा रहा है कि यह 4 जून यानी सार्वजनिक होने की तारीख के एक दिन पहले सरकार के पास पहुंच गई थी. उस दिन प्रदेश भाजपा कार्यालय में मुख्यमंत्री की जनआशीर्वाद यात्रा की बैठक चल रही थी. इसमें पार्टी के तमाम बड़े नेताओं के साथ राघवजी भी उपस्थित थे. रात में पार्टी के एक आला नेता ने जब सीडी का संदर्भ बताते हुए उनसे इस्तीफा देने की बात की तो वे नाराज हो गए और बैठक छोड़कर चले गए. लेकिन अगली सुबह घटनाक्रम ऐसा घूमा कि 79 साल के इस नेता का 46 साल लंबा शिखरनुमा सियासी करियर देखते ही देखते ताश के पत्तों की तरह बिखर गया. सुबह करीब 10 बजे राजकुमार दांगी हबीबगंज (भोपाल) थाने पहुंचा और उसके चार घंटे बाद ही राघवजी को इस्तीफा देना पड़ा. सूत्र बताते हैं कि यह अश्लील सीडी मुख्यमंत्री तक पहले ही पहुंच चुकी थी. राज्य सरकार के खुफिया तंत्र ने बता दिया था कि सीडी कांग्रेस के पास भी पहुंच गई है और वह विधानसभा के मानसून सत्र में बड़ा धमाका करने जा रही है. ऐसी नौबत से बचने के लिए मुख्यमंत्री ने हर संभव कोशिश की. राघवजी से इस्तीफा लेने के बाद उन्होंने मंत्रियों में फैली बेचैनी को शांत करने के लिए अपने आवास पर एक मीटिंग रखी. मुख्यमंत्री ने उन्हें यह समझाने की कोशिश की कि अब राघवजी चैप्टर खत्म हो चुका है और वे इसकी चिंता करने के बजाय कांग्रेस के विधानसभा में उठाए जाने वाले सवालों का मुंहतोड़ जवाब देने की तैयारी करें.

लेकिन भाजपा के असंतुष्ट नेता और राज्य वन विकास निगम के पूर्व अध्यक्ष शिवशंकर पटेरिया ने जब राघवजी की सीडी के पर्दाफाश का जिम्मा लेते हुए ऐसी 22 सीडी होने का दावा किया तो भाजपा का संकट गहरा गया. अफरा-तफरी के इस माहौल में प्रदेश अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर ने घर (भाजपा) की सफाई का दावा करने वाले पटेरिया को भी पार्टी से निकाल दिया. वहीं इस पूरे प्रकरण में राघवजी को लगता है कि वे एक जनाधार वाले नेता हैं और इसीलिए इस तरह की साजिश रची गई है. वे कहते हैं, ‘पटेरिया तो सौदेबाज है. उसके पीछे पार्टी या उसके बाहर की किसी बड़ी ताकत का हाथ हो सकता है.’

[box]2004 में तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर के खिलाफ यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिला ने भाजपा कार्यालय के सामने धरना दिया था[/box]

भाजपा की एक और बड़ी दुविधा प्रदेश संगठन के दूसरे सबसे ताकतवर नेता यानी प्रदेश संगठन महामंत्री अरविंद मेनन को लेकर है. मेनन के खिलाफ एक महिला के यौन उत्पीड़न का मामला सवा दो साल से मप्र मानव अधिकार आयोग और जबलपुर पुलिस अधीक्षक के बीच जवाब तलब में उलझा है. दरअसल जबलपुर की सुशीला मिश्रा नाम की महिला ने सवा दो साल पहले राज्य मानव अधिकार आयोग को शपथ पत्र भेजकर शिकायत की थी जबलपुर पुलिस अरविंद मेनन के खिलाफ मामला दर्ज नहीं कर रही है. शपथपत्र में लिखा है कि मेनन ने उसे शादी का झांसा देकर उसका यौन शोषण किया था. महिला के मुताबिक मेनन उसे ‘मिसेज अरविंद मेनन’ कहकर बुलाता था. लेकिन बाद में उसे पता चला कि वह ऐसी पांच महिलाओं को ‘मिसेज अरविंद मेनन’ कहकर बुलाता था. कुछ समय बाद मेनन ने जब उससे दूरी बना ली तो वह अपने साथ हुए धोखे और दुराचार की शिकायत लेकर ओमती (जबलपुर) थाने पहुंची. लेकिन यहां उसे पुलिस अधिकारियों ने मार डालने की धमकी देकर भगा दिया. लंबे समय से यह महिला गायब है. इसी तरह,  इंदौर में पार्टी के संभागीय संगठन मंत्री रहते हुए भी मेनन को इसी तरह की बदनामी झेलनी पड़ी थी.

सूबे के भाजपा नेताओं पर लगे ऐसे दाग नए नहीं हैं. 2006 में भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव रहे संजय जोशी की अश्लील सीडी आने के बाद दिल्ली तक भाजपा की राजनीति गर्मा गई थी. उनके विरोधियों ने यह सीडी भोपाल में ही जारी की थी. तब उनके पास मप्र का प्रभार भी था. लेकिन खुलासे के बाद उन्हें मप्र के प्रभार के साथ ही राष्ट्रीय महासचिव का पद भी छोड़ना पड़ा था. 2004 में तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर का नाम भी महिलाओं से जोड़ा गया था. तब एक महिला इस मामले को लेकर भाजपा कार्यालय के सामने धरने पर बैठ गई थी. उसने दिल्ली जाकर भी यह मामला उठाया. इसके कुछ समय बाद ही गौर को मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी.

बीते साल बहुचर्चित शेहला मसूद हत्याकांड के समय भोपाल (मध्य) के भाजपा विधायक ध्रुव नारायण सिंह का नाम शेहला और इस हत्याकांड की मुख्य आरोपिता जाहिदा से सेक्स संबंधों को लेकर उछला था. कहा जाता है कि सीबीआई की कई दौर की पूछताछ में ध्रुव के कई महिलाओं के साथ संबंधों का खुलासा हुआ है. हाल ही में विजय शाह को आदिवासी छात्राओं के बीच द्विअर्थी संवाद बोलने और मुख्यमंत्री की पत्नी पर अश्लील टिप्पणी करने के बाद आदिम जाति कल्याण महकमे के मंत्री पद से हटना पड़ा था. शाह पर रंगरेलियां मनाने के आरोप लगने की शुरुआत  उनके गृह जिले खंडवा के मालेगांव मेले में कराए गए नृत्य के साथ हुई थी. शाह के मामले के साथ ही पशुपालन मंत्री अजय विश्नोई के खिलाफ भी एक मामला तूल पकड़ गया था. विश्नोई पर उनके मकहमे के ही पशुचिकित्सक डॉ एसएमएच जैदी ने आरोप लगाया था कि उनके तबादले के लिए मंत्री ने अपने करीबी शौकत अली के मार्फत उनकी पत्नी को मंत्री के पास भेजने को कहा था. जैदी के मुताबिक जब उन्होंने इसकी शिकायत विश्नोई से की तो जवाब मिला- कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है. यही नहीं बीते दो सालों में भाजपा के मंदसौर जिलाध्यक्ष कारूलाल सोनी और संघ के पदाधिकारी महेंद्र सिंह जैसे कई छोटे-बड़े नेताओं की अश्लील सीडियां आना पार्टी के लिए परेशानी का सबब बन चुकी हैं.

राघवजी प्रकरण ने यह साफ कर दिया है कि भाजपा में अंतर्कलह इस हद तक है कि भाजपाई एक-दूसरे को बेनकाब करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं. लेकिन चुनावी साल में भाजपा मर्ज की दवा ढ़ूंढ़ने के बजाय राघवजी मामले से अपना पल्ला झाड़ लेना चाहती है. वहीं कांग्रेस है कि इसे इतनी जल्दी छोड़ने को तैयार नहीं. पार्टी प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया ने तय किया है कि पार्टी राघवजी के अलावा मेनन, गौर, ध्रुव, विश्नोई और शाह से जुड़े मामले चुनाव में उठाएगी. भूरिया की सुनें तो, ‘यौन उत्पीड़न के मामले में मप्र बहुत आगे है और ऐसे में यदि मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों पर ही लगाम नहीं कसेंगे तो किस पर कसेंगे.’

अदालती एक्टिविज्म

क्या हैं अदालत द्वारा दिए गए राजनीतिक सुधारों के चर्चित फैसले?
सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसले के अनुसार आपराधिक मामलों में दोषी सिद्ध होते ही किसी भी सांसद या विधायक की सदस्यता निरस्त हो जाएगी. साथ ही ऐसे विधायक या सांसद चुनाव लड़ने से भी तब तक प्रतिबंधित हो जाएंगे जब तक उन्हें ऊपरी अदालत से दोषमुक्त नहीं किया जाता. अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने उन लोगों को भी चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित कर दिया है जो नामांकन के दौरान जेल में या पुलिस हिरासत में हों. एक अन्य निर्णय में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने प्रदेश में होने वाली जाति आधारित राजनीतिक रैलियों पर प्रतिबंध लगा दिया है.

अब तक क्या थे संबंधित प्रावधान?
लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8(4) के मुताबिक अब तक किसी विधायक या सांसद को सजा होने पर भी उसकी सदस्यता से निलंबित नहीं किया जा सकता था. दोषी सिद्ध होने के तीन महीने के भीतर यदि विधायक या सांसद ऊपरी अदालत में अपील या पुनर्विचार याचिका दाखिल कर दे तो उसे चुनाव लड़ने से भी प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता था. अब सर्वोच्च न्यायालय ने इस धारा को ही निरस्त कर दिया है. इसके साथ ही अब तक जेल में होते हुए भी कोई व्यक्ति चुनाव लड़ सकता था. इस पर लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 4, 5, और 62(5) की साथ में व्याख्या करते हुए कोर्ट ने माना कि जब जेल में या पुलिस हिरासत में होने के चलते व्यक्ति का मतदान का अधिकार निरस्त हो जाता है तो उसे चुनाव लड़ने का अधिकार कैसे दिया जा सकता है.

कोर्ट के फैसले में विवाद क्या है?
जेल या पुलिस हिरासत में बंद लोगों को चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित करने पर विवाद खड़ा हो गया है. राजनीतिक दलों का तर्क है कि न्यायालय द्वारा दोषी सिद्ध होने तक व्यक्ति को निर्दोष ही माना जाता है. ऐसे में किसी को भी पहले ही प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता. इस प्रावधान का दुरुपयोग होने की भी संभावना कुछ लोग जता रहे हैं. इनका मानना है कि सत्ता पक्ष में बैठे लोग अपने विरोधियों को नामांकन के दौरान झूठे मामलों में पुलिस से गिरफ्तार कराके कर ही चुनावी प्रक्रिया से बाहर करवा सकते हैं.
राहुल कोटियाल

‘मीडिया जरूरत से ज्यादा दिल्ली केंद्रित है’

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दिल्ली के विधानसभा चुनाव करीब हैं. पिछले पंद्रह साल में आपकी सफलताएं क्या रहीं और कौन-से काम करने अभी बाकी हैं? 
हम इस मामले में भाग्यशाली रहे हैं कि पिछले तीन चुनाव हमने जीते. हमने 15 साल यहां काम किया है, इसलिए हमें उम्मीद है कि जनता सही फैसला करेगी. इस समय हम जनता के ज्यादा से ज्यादा करीब पहुंचने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं. हम उन्हें अपने किए गए कामों की जानकारी दे रहे हैं. यह चुनाव आसान नहीं होगा लेकिन हमें अपनी जीत का विश्वास है.

इन सालों में आपकी असफलता क्या रही या किस चीज में आप बदलाव देखना चाहेंगी?
ईश्वर की कृपा से हमारे ऊपर किसी घोटाले का आरोप नहीं लगा है. राष्ट्रकुल खेलों के दौरान थोड़ा-बहुत हल्ला मचा था, लेकिन शुंगलू कमेटी और कैग की जांच में कुछ भी नहीं निकला. इस दौरान हमने तमाम रचनात्मक काम किए हैं. हमें घबराने की जरूरत नहीं है.

हाल के सालों में दिल्ली बड़े जनांदोलनों का गवाह बनी जैसे अरविंद केजरीवाल का आंदोलन. देश के दूसरे हिस्सों में इसकी ज्यादा धमक नहीं थी. इस लिहाज से जनता का गुस्सा दिल्ली सरकार के खिलाफ ही माना जाएगा. आपके घर के सामने भी तमाम विरोध प्रदर्शन हुए.
विरोध मेरे खिलाफ क्यों है? क्योंकि यहां कैमरे वाले इकट्ठा हो जाते हैं. अगर केजरीवाल के 10 लोग यहां इकट्ठा होते हैं तो 50 कैमरे वाले उनके पीछे भीड़ लगा देते हैं. यह कहने के लिए मुझे माफ कीजिएगा पर कैमरे देश के दूसरे हिस्सों में जाते ही नहीं हैं. सारे अखबार, पत्रिकाएं दिल्ली से ही प्रकाशित हो रही हैं, सारे न्यूज चैनल दिल्ली में सिमटे हैं. मीडिया दिल्ली केंद्रित होकर रह गया है. आपको बुरा लग सकता है पर यह सच है. हमंे इसकी आदत पड़ चुकी है.

पर 16 दिसंबर की घटना के बाद भी आपके खिलाफ व्यापक गुस्सा सड़कों पर दिखा था.
मैं जो कर सकती थी मैंने किया. कभी-कभी परिस्थितियां इतनी जटिल हो जाती हैं कि उन्हें सुलझाना आसान नहीं होता. यह सरकार के लिए झटका तो है ही. पर मेरी अंतरात्मा साफ है. मेरी आलोचना हुई जबकि पुलिस मेरे हाथ में नहीं है. मैं अकेली नेता थी जो बाहर निकली और जंतर मंतर पर प्रदर्शनकारियों के बीच गई थी. वहां बड़ी संख्या में केजरीवाल के समर्थक भी मौजूद थे. मैंने सोचा कोई बात नहीं, मैं यहां आई हूं एक मृतक आत्मा को श्रद्धांजलि देने जिसकी मौत एक दुखद और अमानवीय घटना में हो गई है.

अरविंद केजरीवाल ने आपके खिलाफ चुनाव लड़ने का एलान किया है. आप इसे कैसे देखती हैं?
पता नहीं. उन्होंने अपना आंदोलन शुरू किया था भ्रष्टाचार के खिलाफ. उनका दावा था कि उन्हें राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है. और अब उन्होंने अपनी राजनीतिक पार्टी बना ली है. अब वे अपने उम्मीदवार भी घोषित कर रहे हैं. देखते हैं आगे क्या होता है.

लोकायुक्त के साथ आपकी तकरार क्यों है? 
सच बात यह है कि भाजपा ने उनसे शिकायत की थी कि मैंने सरकारी पैसे की बर्बादी की है. उन्होंने 2008-09 का एक मामला लिया था. उनका आरोप है कि हमने अपने चुनावों में सरकारी धन का दुरुपयोग किया है. यह बिल्कुल गलत आरोप है क्योंकि जिस समय की बात वे कर रहे हैं उस दौरान आदर्श आचार संहिता लागू थी. हम सरकार में कुछ करने की स्थिति में ही नहीं थे. इसके बावजूद अगर मैंने या किसी और ने चुनाव आचार संहिता के दौरान एक भी कार का इस्तेमाल किया हो तो मैं जेल जाने को तैयार हूं. चुनाव आयोग ने कभी कुछ नहीं कहा. केवल राजनीतिक फायदे के लिए कुछ लोग मामले को तूल दे रहे हैं.

शहर की एक और बड़ी समस्या यमुना की बात करते हैं. क्या यमुना एक्शन प्लान पर आपका कोई वश है? 
नहीं, यमुना पर किसी का कोई अधिकार नहीं है. जापान ने बड़ी मात्रा में इसके लिए धनराशि दी है. यमुना कई राज्यों से होकर बहती है जैसे हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश. लिहाजा किसको किसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाए? यमुना में आने वाली गंदगी का एक बड़ा हिस्सा हरियाणा से आ रहा है. उत्तर प्रदेश का कहना है कि यमुना की गंदगी का एक बड़ा हिस्सा दिल्ली और हरियाणा से आ रहा है. मेरा व्यक्तिगत मत है कि नदियों के बारे में एक संपूर्ण नीति बनाने की जरूरत है. यमुना संकट में है. हमने कुछ इंटरसेप्टर की स्थापना की है. इनकी सहायता से गंदा पानी यमुना में मिलने से पहले साफ कर दिया जाता है. इन्हें शाहदरा, नजफगढ़ और एक सहायक नाले के लिए स्थापित किया गया है. इससे थोड़ा सुधार होगा लेकिन फिर भी मेरा विचार है कि नदियों के लिए हमें एक समग्र नीति की आवश्यकता है. यह समय है जब नदियां राष्ट्रीय चिंता का विषय होनी चाहिए.

कौन है यासीन भटकल?

yasin2_210125299बिहार के बोधगया में महोबोधि मंदिर परिसर में नौ बम धमाकों के बाद अंदेशा जताया जा रहा है कि इसके पीछे इंडियन मुजाहिदीन (आईएम) का हाथ है. राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने इस मामले में 12 आतंकवादियों की तस्वीरें जारी की हैं. इनमें आईएम संस्थापकों में से एक यासीन भटकल भी है. यासीन उन लोगों में से है जिनके पीछे कुछ सालों से खुफिया एजेंसियां लगी हुई हैं लेकिन आज भी वह उनके लिए एक गुत्थी बना हुआ है.
12 राज्यों की आतंक निरोधक एजेंसियों द्वारा यासीन के खिलाफ दायर आरोप पत्रों के मुताबिक वह 2008 से हुए कम से कम 10 बम धमाकों में प्रमुख सूत्रधार रहा है. ये बम धमाके अहमदाबाद (2008), सूरत (2008), जयपुर (2008), नई दिल्ली (2008), बनारस के दशाश्वमेध घाट (2010), बेंगलुरु के चिन्नास्वामी स्टेडियम (2010), पुणे के जर्मन बेकरी (2011), मुंबई (2011), हैदराबाद (2013) और बेंगलुरु (2013) में हुए थे.

आखिर यासीन भटकल कौन है और लगातार इतनी घटनाओं में सीधी भूमिका होने के बावजूद वह सुरक्षा एजेंसियों की पकड़ से बाहर कैसे है? 1973 में जन्मा यासीन मूल रूप से कर्नाटक के एक तटीय गांव भटकल का रहने वाला है. उसकी शुरुआती शिक्षा अंजुमन हमी ए मुसलीमीन नाम के मदरसे में हुई थी. 1980 के दशक की शुरुआत में वह पुणे आ गया था. बाद में यासीन शाहबंदरी भाइयों के नाम से कुख्यात- रियाज और इकबाल भटकल (इनसे यासीन का कोई पारिवारिक नाता नहीं है) के संपर्क में आया. इन्होंने ही इंडियन मुजाहिदीन की नींव रखी थी. माना जाता है कि इस समय दोनों भाई देश छोड़ चुके हैं.

यासीन के बारे में बात करते हुए खुफिया एजेंसियों के अधिकारी कहते हैं कि उसकी गतिविधियों पर नजर रख पाना बहुत मुश्किल है. एक अधिकारी के मुताबिक यासीन को तकनीक का प्रयोग करना पंसद नहीं है. इसके बजाय वह परंपरागत तरीकों जैसे भेष बदलने आदि में माहिर है. वे कहते हैं, ‘ एक ऐसा आदमी जो ईमेल नहीं करता, हर पखवाड़े ठिकाना बदलता हो, ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में रहता हो और मोबाइल फोन को कुछ ही सेकंड तक इस्तेमाल करके सिमकार्ड तुरंत नष्ट कर दे, उस पर आप नजर कैसे रखेंगे.’ महाराष्ट्र एटीएस के एक अधिकारी कहते हैं, ‘यहां तक कि उसके करीबी लोग भी उसकी असली पहचान नहीं जानते. उसके ससुर को भी यही पता था कि उसका नाम इमरान है.’

यह भी दिलचस्प है कि एक बार यासीन पुलिस गिरफ्त में आ चुका है. 2008 की बात है जब कोलकाता पुलिस ने उसे फर्जी नोटों के एक मामले में हिरासत  में लिया था. लेकिन एक माह जेल में रहने के बाद उसे जमानत मिल गई. पुलिस उस समय पूरी तरह अनभिज्ञ थी कि यह आदमी कौन है. यासीन ने खुद के बारे में जानकारी दी थी कि वह बिहार के दरभंगा में रहने वाला मोहम्मद अशरफ है.

इसी तरह नवंबर, 2011 में वह चेन्नई में खुफिया अधिकारियों को चकमा देकर बच निकला था. दिल्ली और चेन्नई में तैनात खुफिया अधिकारी एक सूचना के आधार पर जब उसके ठिकाने पर पहुंचे उसके कुछ घंटे पहले ही यासीन वहां से निकल चुका था. उसके ससुर इरशाद खान ने पुलिस को बताया था कि वह बाजार गया है. लेकिन यासीन वापस अपने ठिकाने पर कभी नहीं लौटा.

यासीन का इस तरह बार-बार पुलिस से बच निकलना कोई संयोग है या फिर साजिश. इस बारे में एक अफवाह यह है और जिसे उसकी पत्नी जाहिदा भी मानती हैं कि वह पिछली बार इंटेलीजेंस ब्यूरो (आईबी) की मिलीभगत से भागने में कामयाब हुआ था. अब यदि ऐसा नहीं है तो क्या यह खुफिया विभाग की नाकामी है? तहलका ने यह सवाल आईबी के पूर्व निदेशक अजीत डोवाल से पूछा तो उनका जवाब था, ‘क्या हम यह नहीं जानते कि दाउद इब्राहीम कहां है? हमें पता है. ठीक है न? लेकिन सब कुछ आईबी अधिकारियों के हाथ में नहीं होता. बाकी पक्षों में भी कार्रवाई करने की पूरी मंशा होनी चाहिए.’

यासीन के पकड़ में न आने पर दिल्ली, मुंबई और दूसरे राज्यों की खुफिया एजेंसियों के आरोप-प्रत्यारोप पिछले दिनों काफी चर्चा में रहे हैं. आईबी के एक अधिकारी बताते हैं, ‘एक बार यासीन पुणे की एक साइकिल दुकान में गया था. वहां से पुलिस को उसकी फुटेज मिल गई लेकिन उन्होंने उसे मुंबई पुलिस से साझा करना जरूरी नहीं समझा.’ जनवरी, 2012 में भी एक ऐसा उदाहरण देखने को मिला था. महाराष्ट्र एटीएस ने नकी अहमद नाम के एक व्यक्ति को मुंबई में हिरासत में लिया था. दिल्ली पुलिस की मानें तो अहमद उनका मुखबिर था और यासीन को फंसाने की जिम्मेदारी उसे सौंपी गई थी. लेकिन महाराष्ट्र एटीएस को इसकी सूचना नहीं थी और उसकी कार्रवाई ने पूरी योजना पर पानी फेर दिया. इसके बाद उठे विवाद को हल करने के लिए केंद्रीय गृह सचिव आरके सिंह को मध्यस्थता करनी पड़ी.

खुफिया एजेंसियों की क्षमता पर एक सवाल इस वजह से भी उठाया जा सकता है कि यासीन की कोई हालिया तस्वीर उनके पास उपलब्ध नहीं है. एक पुरानी तस्वीर के आधार पर ही वे पहचान की कोशिश करते हैं. हाल ही में इंडियन मुजाहिदीन के पकड़े गए एक आतंकवादी के मुताबिक अब उसका चेहरा मोहरा इतना बदल गया है कि इस तस्वीर से उसका मिलान आसान नहीं है.

हो सकता है बिहार में बम धमाकों की पूरी जांच के बाद सुरक्षा एजेंसियों को यासीन के बारे में कुछ और जानकारियां मिलें. तब इस व्यक्ति से जुड़ी गुत्थी कुछ हद तक सुलझ जाएगी. यदि ऐसा नहीं होता तो सुरक्षा एजेंसियों को आने वाले समय में और बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है.

मध्यप्रदेश: उलटा पड़ा अविश्वास

DSC_1620_58065753411 जुलाई को मध्य प्रदेश विधानसभा के हंगामेदार होने की सौ फीसदी संभावना तो थी लेकिन कौन जानता था कि यह दिन प्रदेश की राजनीति का अति नाटकीय दिन साबित होगा.

अविश्वास प्रस्ताव के जरिए विपक्षी दल कांग्रेस भाजपा सरकार को हिला देने की तैयारी से आई थी. किंतु विधानसभा के भीतर ही कांग्रेस विधायक दल के उपनेता चौधरी राकेश सिंह ने भाजपा से ऐसे हाथ मिलाया कि कांग्रेस का दांव उलटा पड़ गया.

इस घटनाक्रम पर सरसरी नजर डालें तो कांग्रेस से नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह जैसे ही बोलने के लिए खड़े हुए कि उनके पीछे उन्हीं के दल के उपनेता चौधरी राकेश सिंह ने यह कहते हुए हवा निकाल दी कि अविश्वास प्रस्ताव अधूरा है. इतना सुनना था कि भाजपा विधायकों ने नारेबाजी शुरू कर दी और थोड़ी देर बाद रोहाणी ने नेता प्रतिपक्ष के प्रस्ताव का उपनेता द्वारा विरोध करने पर शून्य मान लिया. इसके पहले कि कांग्रेस राकेश सिंह को पार्टी से निकालती, वे मुख्यमंत्री चौहान के साथ भाजपा कार्यालय पहुंचे और भाजपा में शामिल हो गए.

काबिले गौर है कि यह मप्र की 13वीं विधानसभा का आखिरी दिन था. और चुनावी सरगर्मियों के मद्देनजर नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह के बयानों से जाहिर था कि इस बार उनके द्वारा पेश अविश्वास प्रस्ताव हंगामेदार रहेगा. दरअसल सिंह ने एक हफ्ते पहले ही साफ कर दिया था कि इस बार वे मुख्यमंत्री के परिजनों और करीबियों के भ्रष्टाचार से जुड़े मामले उठाएंगे. जवाब में चौहान ने भी सार्वजनिक तौर पर अपने विधायकों को जता दिया था कि ऐसे हालात में उन्हें चुप नहीं बैठना हैं. लेकिन 11 जून को सदन में जो हुआ वह अप्रत्याशित था और अभूतपूर्व भी.

सवाल है कि शिवराज सरकार ने भारी बहुमत होने के बावजूद इस हद तक जाकर अविश्वास प्रस्ताव खारिज क्यों करवाया? राजनीतिक बिरादरी का एक तबका मानता है कि इस बार यदि सदन में चर्चा होती तो मुख्यमंत्री की पत्नी साधना सिंह, उनके साले संजय सिंह, भाई नरेन्द्र चौहान और रोहित चौहान आदि से जुड़े सवाल उठते. विधानसभा की प्रक्रिया संवैधानिक होती है और उसका डाक्यूमेंटेशन हमेशा संदर्भों के तौर पर उपलब्ध रहता है. वहीं इस दौरान लगाये जाने वाले आरोप-प्रत्यारोप अगली दिन मीडिया की सुर्खियां भी बनतें. यही वजह है कि चुनावी साल में चौहान ने ऐसे विवादों से किनारे होना ही ठीक समझा. वरिष्ठ पत्रकार अनुराग पटेरिया के मुताबिक, ‘चौहान को भलीभांति पता है कि सदन में यदि उनके परिवार पर अंगुलियां उठीं तो इसका असर उनकी उस छवि पर पड़ता जिसकी दम पर पूरी भाजपा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है.’

वहीं सूबे का कांग्रेस खेमा मानता है कि वह राकेश सिंह के मामले में बड़ी चूक कर गया. बड़े नेता बताते हैं कि पार्टी को इस बात की भनक थी कि राकेश सिंह और मुख्यमंत्री चौहान के बीच कुछ पक रहा है. लहार के कांग्रेस विधायक डॉ गोविंद सिंह की सुनें तो, ‘हम लोगों को यह तो भान था कि राकेश चुनाव से पहले भाजपा में चला जाएगा, लेकिन यह सोचा भी नहीं था कि वह ऐन मौके पर पीठ पर चुरा घोपेगा.’ वहीं कांग्रेस के अंदरखाने की मानें तो इस पूरे प्रकरण में प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सुरेश पचौरी के विरोधी धड़ों को फायदा पहुंचेगा. दरअसल सियासी गलियारों में यह बात किसी से छिपी नहीं है कि पार्टी से निकाले गए राकेश सिंह पचौरी गुट के रहे हैं. लंबे समय से पार्टी के अंदर पचौरी और उनकी मंडली हाशिए पर है.

असल में कांग्रेस आलाकमान उन पर लगे इन आरोपों से खफा है कि बीते विधानसभा चुनाव के समय जब वे प्रदेश अध्यक्ष थे तो उन्होंने पैसा लेकर टिकटें बांटी और इसके चलते पार्टी को काफी नुकसान उठाना पड़ा. हालांकि विधानसभा की दीर्घा में पचौरी न के बराबर ही दिखते हैं. लेकिन इस अविश्वास प्रस्ताव में उनकी भाजपा के दिग्गज नेता कैलाश सारंग के साथ उपस्थिति चर्चा के केंद्र में थी. इस दौरान पचौरी के दीर्घा में रहते हुए राकेश सिंह ने बगावती तेवर अपनाए और कांग्रेस के अविश्वास पर असहमति जता दी. ऐसे में कांग्रेस के राष्ट्रीय संगठन के एक नेता का मत है, ‘इस घटना के बाद पार्टी का पचौरी पर से विश्वास और उठ गया. है’

जानकार बताते हैं कि चुनावी साल में विधानसभा का आखिरी सत्र विरोधी पार्टी के लिए सबसे अहम इसलिए होता है कि इसमें वह सरकार को आखिरी बार घेर सकती है. और इसीलिए कांग्रेस के नेताओं ने इस बार मुख्यमंत्री चौहान पर निशाना साधने के लिए खासी तैयारी भी की थी. लेकिन इस सत्र में जो कुछ भी घटा उसने सिद्ध कर दिया कि सियासी चतुराई में सूबे की भाजपा कांग्रेस से कहीं आगे है. ऐसा इसलिए भी कि भाजपा सरकार ने सत्र की शुरूआत विधेयकों को पास कराने से की और सभी विधेयक पास हो जाने के बाद जब आखिरी में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा का मौका आया तो उसने कांग्रेस को अंगूठा दिखा दिया.

पुल तले पाठशाला

दिल्ली मेट्रो के यमुना बैंक स्टेशन के पास ऐसी ही एक अनूठी और प्रेरणादायी पाठशाला है. सभी फोटो: विकास कुमार
दिल्ली मेट्रो के यमुना बैंक स्टेशन के पास ऐसी ही एक अनूठी और प्रेरणादायी पाठशाला है. सभी फोटो: विकास कुमार

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मेट्रो के पुल के नीचे दुकानें सजना तो दिल्ली में आम है, लेकिन उसके तले कोई स्कूल चलता दिखे तो बात खास हो जाती है. दिल्ली मेट्रो के यमुना बैंक स्टेशन के पास ऐसी ही एक अनूठी और प्रेरणादायी पाठशाला है. मेट्रो ब्रिज इसे धूप और बारिश से बचाने वाली छत है. ब्लैकबोर्ड के लिए पुल की दीवार का एक हिस्सा काले रंग से रंग दिया गया है. बच्चों के बैठने के लिए कुछेक गत्ते और चटाइयां हैं. सप्ताह में पांच दिन और रोज दो घंटे चलने वाला यह स्कूल आस-पास रहने वाले मजदूरों, रिक्शाचालकों और उन जैसे तमाम लोगों की उम्मीद है जिनके बच्चे बस्ते में अपने सपने रखकर यहां आते हैं.

हमें कई बच्चे मिलते हैं जिनका जुनून और आत्मविश्वास किसी बड़े स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों जैसा दिखता है. करीब 10 साल का प्रवेश कहता है, ‘बड़ा होकर ट्रेन चलाऊंगा.’  स्कूल की शुरुआत से ही यहां आ रहा प्रवेश बताता है, ‘मेरा स्कूल सबसे अच्छा है. मास्टर तो अच्छे हैं ही, स्कूल भी ऐसा है जहां कोई बंधन नहीं. खुला-खुला.’ कई और बच्चे भी मिलते हैं जिन्हें अपना स्कूल बहुत प्यारा लगता है. सबको यह भी पता है िक पढ़-लिखकर उन्हें क्या बनना है.

उम्मीद और हौसले की इस पाठशाला की शुरुआत कुछ साल पहले राजेश कुमार शर्मा ने की थी. अलीगढ़ से ताल्लुक रखने वाले 40 साल के शर्मा 20 साल पहले बीएससी की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दिल्ली आ गए थे. आ क्या गए थे, मजबूरी में आना पड़ा था. वे बताते हैं, ‘मैं पढ़ने में अच्छा था, लेकिन परिवार बहुत गरीब था इसलिए पढ़ाई छोड़कर दिल्ली आ गया. रोजी-रोटी चलती रहे इसलिए मैंने किराने की एक दुकान खोल ली जिससे आज भी परिवार चलता है. जब अपने पैर जम गए, दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो गया तब मैंने सोचा कि अब कुछ ऐसे बच्चों को पढ़ाया जाए जिनके मां-बाप गरीब हैं  और जिनके पास इतने संसाधन नहीं है कि वे बच्चों को स्कूल भेज सकें या पढ़ा सकें. यह इलाका मेरे कमरे के पास है और यहां के लोग भी गरीब ही हैं सो मैंने यहीं से शुरुआत की. यह स्कूल तो दो साल से है लेकिन मैं तो पिछले चार-पांच साल से बच्चों को पढ़ा रहा हूं.’

स्कूल की शुरुआत सिर्फ तीन बच्चों से हुई थी. लेकिन देखते ही देखते बच्चों की संख्या140 तक पहुंच गई. राजेश घबराने लगे क्योंकि अकेले इतने बच्चों को संभालना उनके लिए मुश्किल हो रहा था. उन्होंने बच्चों के मां-बाप से बातचीत करके इस बात के लिए तैयार किया कि जिन बच्चों की उम्र पांच साल से ज्यादा हो चुकी है उन्हें सरकारी स्कूल में भेजा जाए. इस तरह 140 में से 60 बच्चे सरकारी स्कूल में दाखिला पा गए.

[box]‘देश में ऐसे बच्चों की संख्या बहुत है जो पढ़-लिख नहीं पाते, तो ऐसी हालत में अगर हम कुछेक बच्चों को थोड़ा-बहुत पढ़ा देते हैं तो इसमें कोई बड़ी बात नहीं है’[/box]

साल भर पहले स्कूल को एक और शिक्षक मिला. ये थे बिहार के नालंदा से दिल्ली आए लक्ष्मी चंद्रा. लक्ष्मी विज्ञान में स्नातकोत्तर हैं और दिल्ली में अपने परिवार के साथ रहते हैं. रोजी-रोटी के लिए वे प्राइवेट ट्यूशन लेते हैं. वे बताते हैं, ‘एक दिन  ट्यूशन के लिए जाते वक्त मैंने देखा कि पुल के नीचे बच्चे बैठे हैं और एक आदमी उन्हें पढ़ा रहा है. उस दिन तो मैं निकल गया क्योंकि मेरी क्लास का समय हो रहा था. अगली सुबह उत्सुकता के साथ जब मैं यहां पहुंचा तो पता चला कि राजेश गरीब बच्चों को फ्री में पढ़ाते हैं. मुझे लगा कि  इस नेक काम में इनका साथ देना चाहिए. बस तभी से मैं स्कूल से जुड़ गया.’

आगे की योजनाओं के बारे में पूछने पर राजेश कहते हैं, ‘देखिए, हमें यह मुगालता नहीं है कि हम कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं. इस देश में ऐसे बच्चों की संख्या बहुत है जो पढ़-लिख नहीं पाते तो ऐसी हालत में अगर हम कुछेक बच्चों को  थोड़ा-बहुत पढ़ा देते हैं तो इसमें कोई बड़ी बात नहीं है. दूसरी बात यह भी है कि हमारी सीमा भी यहीं तक है. लाख चाहकर भी हम दोनों इस देश के हर बच्चे को नहीं पढ़ा-लिखा सकते. रही बात भविष्य की तो जब तक बन सकेगा इसी तरह से पढ़ाते-लिखाते रहेंगे और एक समय के बाद इन्हें सरकारी स्कूल में भेजते रहेंगे. क्योंकि असल चीज जो है डिग्री, वह तो इन्हें वहीं से मिलेगी.’

इस अनूठे स्कूल की तरफ कई गैरसरकारी संगठनों ने भी हाथ बढ़ाया. लेकिन राजेश और लक्ष्मी चंद्रा कहते हैं कि वे अपने  मिशन को कमाई का जरिया नहीं बनाना चाहते. राजेश कहते हैं, ‘देखिए, ऐसा तो है नहीं कि हमारे परिवार का पेट नहीं पल रहा है. अपने लिए कमाई का जरिया है ही हमारे पास.’ इतना कहकर राजेश चुप हो जाते हैं और अपने छात्रों को कुछ बताने-समझाने में लग जाते हैं. स्कूल के भविष्य और इससे जुड़ी मुश्किलों से जुड़े सवालों का जवाब देते वक्त राजेश के चेहरे पर आत्मविश्वास की झलक दिखती है. मानो कह रहे हों कि अगर भविष्य और मुश्किलों के बारे में सोचा होता तो मेट्रो के पुल तले यह पाठशाला शुरू ही नहीं हो पाती.

2003 में नीतीश कुमार इन्हीं नरेंद्र मोदी की तारीफ कर रहे थे

बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री और भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी. फोटो:विकास कुमार
बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री और भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी. फोटो:विकास कुमार

भाजपा के साथ रहने से नीतीश कुमार को काफी मजबूती मिल रही थी. अब साथ छूटने के बाद आप सरकार के कामकाज पर किस तरह का दुष्प्रभाव देख रहे हैं?
निश्चित तौर पर गठबंधन टूटने से सरकार के कामकाज पर नकारात्मक असर पड़ेगा. प्रशासनिक स्तर पर इसका सबसे अधिक असर दिखेगा. हमने सरकार के कामकाज में कभी कोई अड़चन नहीं पैदा की बल्कि इसे सुचारू बनाए रखने में मदद की थी. लेकिन अब यह सरकार कमजोर हो गई है. यहां फिर से जोड़-तोड़ की राजनीति शुरू हो गई है. ऐसे में सरकार को निश्चित ही समझौते करने पड़ेंगे.

जदयू-भाजपा की सरकार ने बिहार में विकास की राजनीति को एक नई परिभाषा दी थी. विकास पर इस टूट का क्या असर होगा?
इस गठबंधन का टूटना बिहार के लिए अहितकर है. बिहार में विकास का जो माहौल बना था, वह कहीं न कहीं प्रभावित होगा. दूसरे कार्यकाल के बारे में वैसे ही लोगों में यह धारणा बन रही है कि इस बार कम काम हो रहा है. बड़ी मुश्किल से हम लोगों ने मिलकर बिहार में निवेश को लेकर एक सकारात्मक माहौल बनाने की कोशिश की थी. जिसका नतीजा धीरे-धीरे दिखने लगा था. बाहर की कंपनियां बिहार में निवेश करने लगी थीं और कई बड़ी कंपनियों ने दिलचस्पी दिखाई थी. लेकिन इस राजनीतिक अस्थिरता के माहौल से निवेश पर भी बुरा असर पड़ेगा. क्योंकि निवेशक वहीं निवेश करते हैं जहां राजनीतिक स्थिरता का माहौल होता है.

आगामी चुनावों को लेकर आपका अनुभव क्या कहता है?
इस बात से नीतीश कुमार भी सहमति व्यक्त करेंगे कि कांग्रेस के प्रति लोगों में जबरदस्त गुस्सा है और जनता चाहती है कि कांग्रेस केंद्र की सत्ता से बेदखल हो. नरेंद्र मोदी के तौर पर भाजपा एक बेहतर विकल्प देश की जनता के सामने रख रही है. वे आज देश के सबसे लोकप्रिय राजनीतिक चेहरे हैं. इसका फायदा भाजपा को देश भर में मिलेगा और बिहार में भी हम उम्मीद कर रहे हैं कि लोकसभा चुनावों में हमारी सीटों की संख्या में बढ़ोतरी होगी.

गठबंधन की टूट को भाजपा विश्वासघात करार दे रही है और जदयू गठबंधन धर्म की याद दिला रही है. आखिर गलती किससे हुई है?
जिन नरेंद्र मोदी को लेकर नीतीश जी को इतनी आपत्ति है, 2003 में तो वे उनकी तारीफ कर रहे थे. नरेंद्र मोदी को भाजपा ने प्रधानमंत्री का उम्मीदवार तो घोषित नहीं किया था, उन्हें तो सिर्फ चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाया गया था. इसलिए इस मामले को इतना तूल देना वाजिब नहीं था. गठबंधन धर्म की बात वे करते हैं लेकिन इसी गठबंधन धर्म का तकाजा यह है कि सहयोगियों के आंतरिक मामलों में दखल नहीं दिया जाए. वे तो भाजपा के ऊपर अपनी शर्तें थोप रहे थे. पार्टी के सबसे लोकप्रिय चेहरे के प्रति उनकी आपत्ति का मतलब तो यह हुआ कि वे नहीं चाहते कि भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरे. मुझे ऐसा लगता है कि नीतीश जी के मन में कहीं न कहीं प्रधानमंत्री बनने की इच्छा है.

बिहार को तथाकथित जंगल राज से मुक्त कराने का जनादेश मांगने के लिए नीतीश-सुशील की जोड़ी एक साथ जनता के बीच गई थी. अब यह जोड़ी जनता के बीच एक-दूसरे के खिलाफ दिखेगी. क्या यह लोगों को थोड़ा अटपटा नहीं लगेगा?
आप ठीक कह रहे हैं. एक टीम के तौर पर हमने बिहार को आगे ले जाने का सपना देखा था और हम उस पर काम कर रहे थे. इस सफर को बीच में छोड़ने का दुख न सिर्फ हमें है बल्कि बिहार की जनता और बिहार से बाहर रहने वाले प्रदेश के लोग भी इससे दुखी हैं. अब हम रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभाएंगे. आने वाले दिनों में हमारी कोशिश यह होगी कि प्रदेश में भाजपा को एक विकल्प के तौर पर पेश करें.

विश्वासमत के दौरान भाजपा के वॉकआउट का क्या मतलब है? कुछ लोग यह कह रहे हैं कि भाजपा के कुछ विधायक सदन में मौजूद नहीं थे इसलिए भाजपा ने अपने आंतरिक मतभेद को छिपाने के लिए वॉकआउट का सहारा लिया.
नहीं, ऐसा नहीं है. भाजपा पूरी तरह से एकजुट है. हमने कभी भी नीतीश जी के बहुमत को चुनौती नहीं दी. हमने वॉकआउट इसलिए किया कि जनादेश साझा था. हम कोई भी ऐसा काम नहीं करना चाहते जिससे यह सरकार अस्थिर हो. हां, अगर सरकार खुद गिरती है तो उसमें हम कुछ नहीं कर सकते. हम कोई भी ऐसा काम नहीं करेंगे जिससे बिहार की जनता पर मध्यावधि चुनाव का बोझ पड़े.

आदि चिकित्सा की वैद्यराज महिलाएं

10noa_JARI_BOOTI_KA_CLINICK__1__710110403पुरुषों के वर्चस्व वाले पेशे पर महिलाओं की बढ़ती धाक से जुड़ी यह सकारात्मक खबर झारखंड के कोल्हान इलाके की है. महिलाएं डॉक्टरी के पेशे में तो शुरू से ही पुरुषों से कदमताल करती रही हैं लेकिन वैद्यराज का पेशा अमूमन पुरुषों के ही हाथ में रहा. पुरूषों का ही आधिपत्य रहा इस पेशे पर. लेकिन पिछले कई सालों की मेहनत के बाद सिंहभूम के नोवामुंडी और जगन्नाथपुर इलाके में महिलाएं वैद्यगिरी कर एक नयी राह दिखा रही हैं.जटिया, जगन्नाथपुर, कोटगा आदि साप्ताहिक हाट से लेकर आसपास के करीब तीन दर्जन सुदूरवर्ती गांवों में ये महिलाएं स्वास्थ्य सलाह और दवाएं दे रही हैं. ये महिला वैद्यराज ‘होड़ोपैथी’ की विशेषज्ञ हैं. होड़ोपैथी यानि देसज और आदिवासी समुदाय की चिकित्सा पद्धति. इसी  के जरिये वैद्यराज बनी महिलाएं मलेरिया, ल्यूकोरिया, लकवा, सर्दी-बुखार, चर्मरोग, जोड़ों के दर्द से लेकर दूसरी तमाम बीमारियों का निदान जंगल की जड़ी-बूटियों से तैयार दवाओं से कर रही हैं. सिर्फ इलाज या दवा वितरण ही नहीं, इन महिलाओं द्वारा नोवामुंडी और जगन्नाथपुर इलाके के गांवों में स्वयंसहायता समूह बनाकर गांव की अन्य महिलाओं व लड़कियों को भी होड़ोपैथी पद्धति से अवगत कराया जा रहा है. पिछले 13 सालों के अथक प्रयास के बाद अब करीब 300 महिलाएं पेशेवर तौर पर वैद्य बन गयी हैं और उन्हीं के द्वारा अब दूसरी महिलाओं और लडकियों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है.

इस अभियान की सूत्रधार अजीता हैं लेकिन वे खुद पर बात करने को तैयार नहीं होती. सिर्फ यही बताती हैं कि काम महत्वपूर्ण है, नाम नहीं. अजीता मूलतः केरल की रहनेवाली हैं लेकिन अब झारखंड में ही रच-बस गई हैं. वे बताती हैं कि करीब डेढ़ दशक पहले 15 महिलाओं के साथ उन्होंने ओमन नामक एक संगठन बनाकर यह अभियान शुरू किया था. हो भाषा(हो समुदाय की भाषा) में ‘ओमन’ का मतलब अंकुर होता है. शुरुआत में कुछ महिलाएं झारखंड के ही मधुपुर के निकट महेशमुंडा गांव में रहने वाले होड़ोपैथी के प्रसिद्ध विशेषज्ञ डा. पीपी हेम्ब्रम के पास गईं और उन्हीं से यह गुर सीख कर लौटीं. फिर एक-एक कर महिलाओं और लडकियों को जोड़ने का काम शुरू हुआ.

शुरुआत में स्वाभाविक तौर पर बहुत कठिनाइयां आती रहीं क्योंकि इस पेशे में आने से पहले महिलाओं को कई बार सोचना पड़ रहा था और फिर घर-समाज से इजाजत लेने की बात भी थी. लेकिन धीरे-धीरे राह आसान होती गई. फिर नोवामुंडी में होड़ोपैथी दवाओं की दुकान भी खोली गयी.दवाओं का निर्माण महिलाओं द्वारा कुंदरीजूर गांव में होने लगा. दवा निर्माण के लिए जंगल से नीम, अजरुन, हरसिंगार, तुलसी, चिरैता तथा अन्य औषधीय सामग्री व जड़ी-बूटी जुटाने का काम भी ये महिलाएं स्वयं ही करती हैं.

शुरु में जिन गांवों में ये महिलाएं दवा देने जाती थीं, वहां की गंभीर समस्या मलेरिया है. इसे ध्यान में रखते हुए उन गांवों में इन महिलाओं द्वारा मलेरिया के कारण व उससे बचने के उपाय से संबंधित एक घंटे की फिल्म भी स्थानीय हो भाषा में तैयार की गयी. अपनी बोली में तैयार फिल्म को देखने में लोगों की रुचि जगी, फिर महिलाओं पर समाज का भरोसा बढता रहा और अब तो ये महिलाएं ही कई गांवों में पहली और आखिरी उम्मीद की तरह हैं. स्वास्थ्य में जो फायदा हुआ, वह तो हुआ ही, इसका सबसे बडा फायदा अंधविश्वास को दूर करने में हुआ. रश्मि बताती हैं, ‘डायन आदि के नाम पर प्रताड़ित करने का चलन कम हुआ है, क्योंकि डायन आदि बीमारियों से भी जुडा मामला रहा है. गांवों में होड़ोपैथी को बढावा देने, महिलाओं को वैद्यराज बनाने के साथ ही इस पद्धति के दस्तावेजीकरण यानी डॉक्यूमेंटेशन का काम भी इन महिलाओं द्वारा शुरू किया गया है क्योंकि होड़ोपैथी का लिखित डॉक्टयूमेंटेशन नहीं होने के कारण अगली पीढी में इसके खत्म हो जाने का भी डर है.