कहानियां तीन हैं. तीसरी में एक मारवाड़ी लड़का, जो बकौल अपनी नानी बस पैसे के बारे में सोचता है, और बकौल खुद अच्छी जिंदगी जीता है क्योंकि अच्छा खाता-पीता है, दोस्तों के बीच उसकी इज्जत है और उसमें दया है, मानवता है. तो वह लड़का और उस जैसी पृष्ठभूमि वाला उसका दोस्त इस बारे में बात करते हैं कि एक आदमी के सारे पुर्जे दूसरे लोगों में लगा देते हैं तो फिर वह आदमी जिंदा है या मर गया, या वह कौन है. क्या आदमी में कुछ है उसके पुर्जों से अलग? और वह दोस्त, जो अब तक की फिल्म में ना सोचने वाला ही लगता आया है, कहता है कि कुछ तो होगा यार पुर्जों से अलग. यही थीसियस के जहाज की दुविधा है. और यहीं फिल्म वह बात कहती है जो उसका शीर्षक है. कि एक-एक कर एक जहाज के सारे पुर्जों की जगह दूसरे जहाज के सारे पुर्जे लगा दिए जाएं और उसी तरह एक-एक कर दूसरे जहाज में पहले के, तो कौनसा जहाज कौन-सा होगा?
फिल्म (या उसका अधिकांश) इस बारे में नहीं है. वह दार्शनिक सवालों पर बात करती है, कभी-कभी अपनी राय भी रखती है और कभी-कभी नहीं भी रखती. एक लड़की है, जो देख नहीं सकती और सुनकर तस्वीरें खींचती है. और अपने साथी से उसकी बहस का एक कमाल का किचन सीन है. वैसे तर्क जिनकी उम्मीद शायद मुझे पूरी फिल्म में थी लेकिन जो कम जगह आ सके. फिल्म विचार के स्तर पर दिलचस्प है, उसकी सिनेमेटोग्राफी और बैकग्राउंड म्यूजिक कमाल है, उसके सभी ऐक्टर इतने नैचुरल हैं कि जैसे उनकी जिंदगियों पर कोई डॉक्युमेंट्री बन रही हो.
लेकिन अपने तर्कों में फिल्म उतनी नई, रोचक और उत्तेजक नहीं है जैसी आप दार्शनिक प्रश्नों के बीच में खड़ी किसी फिल्म से उम्मीद करते हैं. तीसरी कहानी में घटनाएं हैं, इसलिए वह ज्यादा जोड़ती भी है और जो कहती है, ज्यादा स्पष्टता से कहती है. पहली दोनों कहानियां सुंदर और कवितामयी लगती हैं और जिस स्टैंड पर वे खड़ी हैं, वहां से तर्क करना शुरू तो करती हैं लेकिन ज्यादा खुलने या स्वीकार करने को तैयार नहीं. पहली कहानी की नायिका की तरह किसी भीतरी परत में ही सही, फिल्म को अपनी राय के सही होने का गुमान बीच-बीच में दिखता है और यह अच्छी ही बात होती, अगर उसे भी फिल्म कह पाती. लेकिन उसका अनकहा बौद्धिक दिखता हिस्सा दिखावा ज्यादा लगता है.
स्क्रिप्ट में अपनी तीनों कहानियों के अंत में फिल्म शायद एक पैराडॉक्स (या सिर्फ सवाल) पर खड़ी है और मेरे खयाल से वह थीसियस का पैराडॉक्स नहीं है. पहली में शायद वह यह है कि कला क्या है और मैं उससे अलग हूं क्या (और उसकी मुख्य पात्र अच्छी फोटोग्राफर बताई जाती है लेकिन वह किसी एमच्योर की तरह आत्ममुग्ध और जिद्दी है), दूसरी में यह कि क्या मैं अपने विचार से अलग हूं और मेरा चुनाव कितना मेरा है, और तीसरी में यह कि कुछ करने की मेरी हद कितनी है. क्राफ्ट के लेवल पर कमाल की फिल्म होने के बावजूद शिप ऑफ थीसियस की कमी यह है कि उसे खुद के अपनी हद से आगे होने का भ्रम है.
अलग-अलग राजनीतिक विचार के लोगों में विरोध हो सकता है. लेकिन अपने आंतरिक मामले को दूसरे देश की सरकार के सामने ले जाना क्या बाहरी दखल को आमंत्रित करना नहीं है?
हमने यह पत्र इस मकसद से नहीं लिखा. दरअसल, यह पत्र तब लिखा गया था जब गुजरात में विधानसभा चुनाव चल रहे थे. आपको याद होगा कि उस वक्त यूरोपीय संघ और अमेरिका के कुछ अधिकारी भी नरेंद्र मोदी से मिलने आए थे. इसके बाद मोदी, उनकी पीआर एजेंसी एप्को और अमेरिका ने मिलकर लोगों के बीच यह संदेश देने की कोशिश की कि अगर मोदी एक बार फिर से चुनाव जीत जाते हैं तो उन्हें अमेरिका और यूरोप का पूरा समर्थन मिलेगा. इसलिए हमने पत्र के जरिए अमेरिका से स्पष्टीकरण मांगा था कि अगर आप अपनी वीजा नीति में कोई बदलाव कर रहे हैं तो यह काम पारदर्शी तरीके से होना चाहिए. भ्रम बनाकर लोगों को ठगा नहीं जाना चाहिए.
लेकिन आप लोगों ने जो पत्र लिखा है उसमें तो स्पष्ट मांग है कि अमेरिका मोदी को अमेरिकी वीजा न देने की नीति को कायम रखे.
देखिए, यह उनका मामला है कि वे किसे अपने यहां आने देना चाहते हैं और किसे नहीं. हमने तो सिर्फ अपनी स्थिति स्पष्ट की है. हमने उन्हें बताया है कि 2002 दंगों के दौरान स्थितियां काफी भयावह थीं. अब भी हालात अच्छे नहीं हैं. आज नरेंद्र मोदी के 14 पुलिस अधिकारी जेल में हैं.
मोदी लोकतांत्रिक और संवैधानिक तरीके से चुने गए मुख्यमंत्री हैं. बतौर सांसद आपने भी संविधान की रक्षा की शपथ ली है. ऐसे में क्या संवैधानिक तौर पर चुने गए मुख्यमंत्री के खिलाफ विदेशी मंच पर मोर्चा खोलना संविधान की भावना के खिलाफ नहीं है?
संवैधानिक तौर पर चुने जाने का मतलब यह नहीं है कि कोई लोगों को बांटने और नरसंहार की राजनीति करे. नरेंद्र मोदी को अगर इस देश के संविधान का खयाल होता तो वे अपनी सभाओं में मुसलमानों को मियां मुशर्रफ कहकर नहीं चिढ़ाते. वे ऐसा कहकर हमें पाकिस्तानियों के साथ खड़ा कर देते हैं. तो क्या देश में रहने वाले सभी मुसलमानों को अपनी देशभक्ति साबित करनी होगी. संवैधानिक व्यवस्था में किसी महत्वपूर्ण पद पर बैठे व्यक्ति द्वारा भारत के प्रति मुसलमानों की निष्ठा पर सवाल खड़ा किया जाना बेहद अपमानजनक है और इसका विरोध जताने का हक हमसे छीना नहीं जा सकता.
कुछ जानकारों का कहना है कि अपने आंतरिक मामले को दूसरे देश के सामने ले जाने से हमारी विदेश नीति को झटका लगेगा.
दुनिया में जहां भी नाइंसाफी हुई है, उसका विरोध मैंने किया है. दुनिया के अलग-अलग देशों में हो रहे अत्याचारों को लेकर मैंने संसद में कई बार बोला है. इसमें मैंने किसी खास मजहब के लोगों का खयाल नहीं रखा. ऐसे में अगर गुजरात में हुए अत्याचारों को मैं उठा रहा हूं तो इसमें गलत क्या है. मंच चाहे जो भी हो मेरी लड़ाई नाइंसाफी के खिलाफ है. नरेंद्र मोदी के बारे में खुद अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि 2002 में गुजरात में जो हुआ उसके बाद मैं दूसरे देशों में मुंह दिखाने लायक नहीं हूं. इसका मतलब तो यही हुआ न कि देश में जो होता है उसका विदेश नीति पर असर पड़ता है.
अमेरिका की छवि मु्स्लिम विरोधी देश की है और आप उसी के सामने भारत के एक तथाकथित मुस्लिम विरोधी नेता का विरोध जता रहे हैं. क्या यह दोहरापन नहीं है?
हमने कहीं भी यह नहीं कहा कि अमेरिका मानवाधिकारों का सबसे बड़ा हितैषी है. अपने पत्र में भी नहीं. हमारा तो यह मानना है कि पूरी दुनिया में जितना आतंकवाद है, उसका जिम्मेदार अमेरिका है. हमने इस पत्र के जरिए एक तरह से अमेरिका को आईना दिखाने की कोशिश की है. मोदी को वीजा का मामला अमेरिका से जुड़ा हुआ है. इसलिए स्वाभाविक है कि पत्र भी अमेरिका को ही लिखना पड़ा.
आपके पत्र में माकपा सांसद सीताराम येचुरी के दस्तखत भी हैं, लेकिन उन्होंने ऐसे किसी पत्र पर दस्तखत से इनकार किया है.
सीताराम येचुरी बेहत प्रतिष्ठित सांसद हैं और मेरे अच्छे मित्र भी हैं. इस बारे में मैंने पहले भी कहा था कि उन्होंने दस्तखत किए हैं. उन्होंने इस खत को कोई दूसरा खत समझ कर गलतफहमी में बयान दे दिया है.
क्या आपकी उनसे इस बारे में कोई बातचीत हुई?
वे अभी देश से बाहर हैं. जैसे ही वे लौटेंगे, मैं उनसे मिलूंगा और मुझे यकीन है कि वे इस पत्र और अपने दस्तखत को देखकर यथास्थिति लोगों के सामने रखेंगे.
भाजपा का भी आरोप है कि आपने सांसदों के फर्जी दस्तखत करवाए.
मैं इन आरोपों से आहत हूं. अमेरिका की एक फोरेंसिक लैब ने यह बात प्रमाणित कर दी है कि सारे दस्तखत असली हैं. मेरे ऊपर फर्जीवाड़े का आरोप लगाने वाले भाजपा प्रवक्ताओं को माफी मांगनी चाहिए. मैं अपने उस बयान पर कायम हूं कि अगर कोई यह साबित कर दे कि दस्तखत फर्जी हैं तो मैं राज्यसभा से इस्तीफा दे दूंगा.
झारखंड की राजधानी रांची के प्रसिद्ध जगन्नाथपुर मंदिर के पास मजमा जुटा हुआ है. दूर से यह नजारा देखकर कुतूहल होता है. ढेर सारे लोग गोल घेरे में बैठे हुए हैं और सीटी बजा रहे हैं. सीटियों के बजने की आवाज निरंतर तेज… होती जा रही है. इस बीच तालियों की गड़गड़ाहट शोर में बदलने लगती है. धीरे-धीरे रोमांच पर उन्माद का गाढ़ा रंग चढ़ने लगता है. नजदीक जाकर देखने पर पता चलता है कि 15-20 फुट के गोल घेरे में दो मुर्गों के बीच लड़ाई चल रही है. उनके पैरों में चाकू बंधे हैं और उनकी पैंतरेबाजी पहलवानों को मात दे रही है. बिजली की चमक जैसी तेजी से वे अपने दांव बदलते हैं और एक-दूसरे पर वार करते हैं. लेकिन किसी एक की हार तो होनी ही है. करीब सात-आठ मिनट बाद एक मुर्गा लहूलुहान होकर गिर जाता है. उसके पेट में चाकू लगा है. उसे इलाज के लिए बाहर ले जाया जाता है और विजेता मुर्गे को उस छोटे-से मैदान में इस अंदाज में घुमाया जाता है मानो वह मुर्गा न होकर डब्ल्यूडब्ल्यूएफ का कोई लड़ाका हो.
यहां आकर इस खेल में मुर्गों की भूमिका खत्म हो जाती है. इसके बाद शुरू होता है एक दूसरा खेल. यह पैसे का खेल है. पांच मिनट के भीतर ही यहां लाखों रुपये के वारे न्यारे हो जाते हैं. यह पैसा उस सट्टे का है जो मुर्गों पर लड़ाई के पहले लगाया गया था. इसके बाद फिर मुर्गों की लड़ाई चालू हो जाती है. पारंपरिक तौर पर आदिवासियों के मनोरंजन का यह खेल अब सट्टेबाजी का जरिया बन गया है.
यह खेल देखकर दो सवाल अपने आप ही मन में उठते हैं. पहला यह कि ये मुर्गे इतने खतरनाक खेल के लिए तैयार कैसे किए जाते होंगे, क्या इनकी कोई खास नस्ल होती है. दूसरा यह कि गरीब आदिवासियों के मनोरंजन का यह खेल पैसेवालों के शगल और सट्टे का खेल कैसे बन गया. यह जिज्ञासा भी सर उठाती है कि आखिर यह कितना बड़ा कारोबार है.
पहले सवाल का जवाब हम भोला महली से पूछते हैं. भोला पहले रांची स्थित हैवी इंजीनियरिंग कॉरपोरेशन लिमिटेड के कर्मी थे, लेकिन 1962 से मुर्गेबाज भी हैं यानी मुर्गा लड़ाने का काम भी करते हैं. भोला बताते हैं, ‘यह खेल झारखंड और दक्षिण भारत में पीढ़ियों से मशहूर रहा है. दक्षिण में इसे कुडू पूंजू और राज पूंजू भी कहते हैं. हालांकि वहां मुर्गे के पैर में हथियार बांधने की जगह दूसरा तरीका अपनाया जाता था. चाकू के बजाय मुर्गे के पांव को ही धारदार बनाया जाता था. मुर्गे के पांव के पिछले वाले हिस्से (पंजों के ऊपर का हिस्सा) में सुअर के मल और रीठे के छिलके को पीस कर उसे बांध दिया जाता था.
इसे लगातार सात दिन और 24 घंटे पानी डालकर भिगोया जाता था. एक सप्ताह बाद जब इसे खोला जाता तो मुर्गों के पैर में गांठें कांटे की तरह बाहर निकल आतीं और यही उनका हथियार होता.’ भोला कहते हैं कि लड़ाई के लिए तैयार किए जाने वाले मुर्गे को संतान की तरह पाला जाता है. बीमारी में उसका इलाज कराया जाता है और अंधेरे में रखकर उसे गुस्सैल और चिड़चिड़ा बनाया जाता है. उसे मुर्गियों से दूर रखा जाता है. इन मुर्गों को ताकतवर बनाने के लिए उन्हें सूखी मछली का घोल, किशमिश, उबला हुआ मक्का और विटामिन के इंजेक्शन तक दिए जाते हैं.
भोला बताते हैं, ‘अगर मुर्गा लड़ते-लड़ते घायल हो जाए तो इलाज के बाद वह लड़ाई के लिए दोबारा तैयार हो जाता है.’ उनके मुताबिक सुनहरे बालों वाले मुर्गे की लड़ाई में मांग ज्यादा होती है, क्योंकि वह ज्यादा मजबूत होता है और मुर्गा लड़वाने वाले लोग इसकी खरीदारी चटगांव और विजयनगरम से करते हैं. इन मुर्गों की कीमत कई बार एक लाख रुपये तक होती है.
[box]प्राय: जहां मुर्गा लड़ाई का खेल होता हैं वहां दारू के अड्डे भी चोरी-छिपे चलाए जाते हैं और मटके का खेल यानी लोकल लॉटरी (जुआ) भी जमकर होता है.[/box]
सुनकर बड़ी हैरत होती है कि आखिर एक मुर्गे के लिए इतनी बड़ी रकम कौन लगाता होगा और क्यों. जवाब तलाशने के लिए हम रांची के आस पास के इलाके में होने वाले मुर्गा लड़ाई में पहुंचते हैं. लड़ाई का दिन तय है. सोमवार और शुक्रवार को अनीटोला, बुधवार और गुरुवार को कटहल मोड़, शनिवार को रातू बगीचा… यहां और कई जानकारियां मिलती हैं. ओरमांझी के कुच्चू गांव के रहने वाले मनराज बताते हैं, ‘मुर्गे के पैरों में जो अंग्रेजी के यू आकार का हथियार देख रही हैं, उसे चाकू-तलवार नहीं कत्थी कहा जाता है और उसे हर कोई भी नहीं बांध सकता. उसे बांधने की भी एक कला है. जो बांधना जानते हैं उन्हें कातकीर कहा जाता है. एक कातकीर एक मुर्गे के पैर में कत्थी बांधने का तीन सौ रुपये लेता है और अगर वह मुर्गा जीत गया तो दो सौ रुपये ऊपर से भी उसे मिल जाते हैं.’ मनराज के मुताबिक कत्थी भी कई तरह की होती है.
वे बताते हैं, ‘बांकी, बांकड़ी, सुल्फी, छुरिया चार तरह के हथियारों का इस्तेमाल मुर्गे के पांव में बांधने के लिए होता है, जिसमें बांकड़ी सबसे खतरनाक होती है. ये सब ठोस इस्पात के बने होते हैं, जिसे बनाने वाले कारीगर भी अलग होते हैं. अलग-अलग नामों वाले हथियारों का इस्तेमाल भी अलग-अलग मौके के हिसाब से किया जाता है. यानी खतरनाक तरीके से लड़ना है तो खतरनाक हथियार, सामान्य से लड़ना है तो सामान्य हथियार.’
यह जानकारी भी मिलती है कि यह खेल पूरे झारखंड में खेला जाता है. कटहल मोड़ पर मुर्गा लड़ाने वाले विजय बताते हैं कि यह खेल पहले राजा-महाराजाओं के सौजन्य से लगने वाले हाट-मेले में होता था जहां गांव के
आदिवासी लोग अपने-अपने मुर्गे को लेकर पहुंचते थे और फिर मनोरंजन के लिए ग्रामीण पसंद के मुर्गे पर कभी-कभार कुछ बोली भी लगा देते थे. लेकिन अधिकांशतः बार बाजी सिर्फ मुर्गे की जीत-हार पर लगती थी. यानी जो मुर्गा हार जाएगा उस मुर्गे को जीतने वाले मुर्गे का मालिक लेकर चला जाएगा. अब उसकी मर्जी पर है कि वह उस मुर्गे को पाले-पोसे या फिर खा जाए.
मुर्गा लड़ाई में दिलचस्पी रखने वाले विजय टेटे हमें इस लड़ाई के आर्थिक समीकरण समझाने की कोशिश करते हैं. विजय कहते हैं, ‘गांव से तो मुर्गा पालने वाले अब भी मुर्गा लड़ाई के दौरान अपने-अपने मुर्गे को लेकर आते हैं लेकिन मैदान में पहुंचने के पहले ही उस पर सट्टेबाजों का कब्जा हो जाता है. जिसके पास हाजरा मुर्गा (मुर्गे का एक प्रकार) होता है, उसके पीछे सट्टेबाज सबसे ज्यादा चलते हैं.’ टेटे आगे कहते हैं, ‘पहले हो सकता है यह खेल मनोरंजन के लिए होता होगा और घंटे-दो घंटे में सब समाप्त हो जाता होगा लेकिन अब तो सिर्फ रांची में ही हर रोज किसी न किसी इलाके में यह खेल होता है और एक-एक दिन में 40-50 लड़ाइयां हो जाती हैं. एक लड़ाई पर 20-25 हजार से लेकर लाख-दो लाख तक की बोली लगती है. ऐसा नहीं है कि सिर्फ सट्टेबाज ही इसमें कमाई करते हैं.
सट्टेबाज तो खैर लाखों में खेलते हैं लेकिन मुर्गा लड़ाई का यह खेल एक धंधे की तरह होता है. आप सोचिए कि एक बार हथियार बांधने वाला कम से कम 300 रुपये लेता है. अगर उसने दिन भर में 20-30 के हथियार भी बांध दिए तो पांच-छह हजार तो उसकी जेब में आ ही जाते हैं.’ इसी तरह मुर्गों के डॉक्टर अलग होते हैं, जो मौके पर इलाज भी करते हैं. उनकी कमाई भी अलग होती है और गांव के जो लोग अपने घरों में मुर्गा पालते हैं उनकी आमदनी भी अब इतनी होने लगी है कि वे घर बना लें, गाड़ी खरीद लें. कई मुर्गेबाज अब इस स्थिति में दिखते हैं. मुर्गे के खेल का समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र कम लोग समझाते हैं, उसके अर्थशास्त्र को समझाने वाले बहुतेरे मिलते हैं. बहरहाल, हमें उसका एक अपराधशास्त्र भी दिखाई पड़ता है.
प्राय: जहां मुर्गा लड़ाई का खेल होता है वहां दारू के अड्डे भी चोरी-छिपे चलाए जाते हैं और मटके का खेल यानी लोकल लॉटरी (जुआ) भी जमकर होता है. मशहूर पत्रकार पी साईनाथ अपनी पुस्तक तीसरी फसल में मलकानगिरी की मुर्गे की लड़ाई पर लिखते हैं, ‘जब से हथियारों का इस्तेमाल मुर्गे के पैर में होने लगा है, तब से यह परंपरागत खेल खतरनाक हो गया है और पहले जो खेल आनंद के लिए घंटों चलता था, वह चंद मिनटों में खत्म हो जाता है, क्योंकि इतनी ही देर में बिजली की तरह झपटकर एक-दूसरे पर वार करने वाले दो मुर्गों में से कोई एक घायल हो जाता है.’
साफ है कि हथियारों का चलन भी सट्टेबाजों ने ही बढ़ाया होगा क्योंकि मुर्गे हथियार से लड़ेंगे तो खेल जल्द खत्म होगा. अगर एक खेल जल्द खत्म होगा तब तो दूसरे, तीसरे, चौथे… यानी एक दिन में 40-50 लड़ाइयों की गुंजाइश बनेगी. और जितनी ज्यादा लड़ाइयां, उतना ही ज्यादा दांव पर लगने वाला पैसा.
ब्रह्मपुत्र और सुबनसिरी जैसी विशाल नदियों के बीच बसा असम का लखीमपुर जिला पहली नजर में खुशहाल इलाका दिखता है. ढलानों पर पसरे चाय-बागान, दूर तक फैले धान के खेत और पानी से लबालब सैकड़ों तालाब. लेकिन सतह को थोड़ा ही कुरेदने पर इस खुशनुमा तस्वीर के पीछे की भयावह सच्चाई दिखती है. पता चलता है कि बागानों में चाय की पत्तियां तोड़ते मजदूरों और पानी में डूबे खेतों में धान रोपते किसानों की मौजूदगी के बीच ही यहां स्थानीय लड़कियों की तस्करी का कारोबार फल-फूल रहा है. नई दिल्ली से 2,100 किलोमीटर दूर, भारत की उत्तर-पूर्वी सीमा पर बसे असम के इस जिले से हर महीने लगभग 40 लड़कियां गायब हो रही हैं. पिछले आठ साल से लखीमपुर के ही निवासी दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में मौजूद प्लेसमेंट एजेंसियों के दलाल बनकर यहां की मासूम लड़कियों को अपराध और शोषण के दलदल में धकेल रहे हैं.
अपनी पड़ताल में तहलका ने पाया कि पांच से दस हजार रुपये के कमीशन के लिए ये दलाल उन्हें रोजगार, पैसे, प्रेमविवाह, शहरी जीवन के साथ-साथ ‘दिल्ली घुमाने’ का लालच देकर शोषण के दुश्चक्र में धकेलते हैं. महत्वपूर्ण यह भी है कि अपने ही लोगों द्वारा ठगे जाने वालों में सैकड़ों नाबालिग लड़कियों के साथ-साथ कुछ नाबालिग लड़के भी शामिल हैं. लगभग दस लाख की आबादी वाले लखीमपुर जिले में बीते आठ साल से लगातार बढ़ रहा महिला तस्करों का यह नेटवर्क कानून और व्यवस्था का मखौल तो उड़ाता ही है, राज्य सरकार की लोगों के प्रति घोर उदासीनता और उपेक्षा भी दिखाता है.
तहलका ने लखीमपुर के नौ स्थानीय तस्करों से बातचीत की. इन दलालों ने 2005 से अब तक कुल 187 लड़कियों की तस्करी की बात मानी. इनमें से कई लड़कियां दिल्ली, चंडीगढ़, सूरत, हैदराबाद और मुंबई जैसे शहरों में बिना पैसे के घरेलू नौकरानी का काम करती रहीं. कुछ वेश्यावृत्ति में धकेल दी गईं तो कुछ के साथ उनकी प्लेसमेंट एजेंसियों के मालिकों या कोठी मालिकों ने बलात्कार किया, ऐसे भी उदाहरण हैं जहां लड़कियां खुद पर हुई शारीरिक और मानसिक हिंसा को सहन नहीं कर पाईं और उन्होंने दम तोड़ दिया. उधर, कुछ लड़कियां ऐसी भी हैं जो अपने घर कभी लौट कर नहीं आईं.
लखीमपुर मानव तस्करी के नए केंद्र के रूप में उभर रहा है. तहलका जिले के 10 गांवों में गया. इस दौरान हमने बलात्कार की शिकार, और सालों तक शहरों की बड़ी-बड़ी कोठियों में मजदूरी करने के बाद खाली हाथ गांव वापस लौटी लड़कियों से बात की. हमने उन लड़कियों के परिवारों से भी बात की जो अब तक अपने घर नहीं लौटी हैं और उनके परिजनों से भी जो अपनी जान गंवा बैठीं. इसके अलावा 30 से ज्यादा परिवारों ने तहलका से बातचीत की.
चाय बागानों के बंद होने से पैदा हुए आजीविका के संकट ने भी लखीमपुर से हो रही लड़कियों की तस्करी को बढ़ावा दिया है
आगे के पन्नों पर दर्ज पड़ताल में इन पीड़ित लड़कियों और कई सालों से अपने बच्चों की वापसी की राह देख रहे परिवारों की व्यथा तो है ही, इन परिवारों को हिंसा और अनवरत इंतजार के दुश्चक्र में धकेलने वाले नौ स्थानीय तस्करों के बयान भी दर्ज हैं. तहकीकात के अंतिम हिस्से में राजधानी दिल्ली से असम के गांवों तक दलालों का जाल बिछाने वाली प्लेसमेंट एजेंसियों के मालिकों के बयान भी दर्ज हैं. यह सब लखीमपुर को भारत में मानव तस्करी की उभरती राजधानी के तौर पर स्थापित करता है. यह पड़ताल मानव तस्करी की इन घटनाओं को लगातार सिरे से नकार रहे प्रशासन की चिरनिद्रा सामने लाती है तो दूसरी तरफ महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर लगातार नई योजनाओं की बात करते फूले न समाने वाली केंद्र और राज्य सरकारों की जमीनी अक्षमता की पोल भी खोलती है.
45 साल की सेरोफेना बारला लखीमपुर जिले के दुलहत बागान गांव में रहती हैं. लालुक पुलिस थाने के तहत पड़ने वाले इस गांव में आने वाले हर बाहरी आदमी को दिल्ली से आया हुआ समझकर वे उससे अपनी बेटी का पता पूछने लगती हैं. मार्च, 2008 को सेरोफेना की 15 वर्षीया बेटी सोनाली बारला एक स्थानीय एजेंट सैमुएल टिर्की के साथ दिल्ली गई थी. तब से वह घर नहीं लौटी. हमें गांव में देखते ही अपनी झोपड़ी के सामने खामोश बैठी सेरोफेना बारला हमसे भी अपनी बेटी का पता पूछने लगती हैं. गांववाले बताते हैं कि बेटी के जाने के बाद सेरोफेना के पति की भी मौत हो गई. वक्त बीतने के साथ-साथ पति की मृत्यु और बेटी को खो देने का सदमा गहरा होता गया और अब हालत यह है कि वे हर किसी से अपनी बेटी का पता पूछती रहती हैं.
बातचीत के बाद थोड़ी सामान्य होने पर सेरोफेना अपनी बेटी के गुमशुदा होने की कहानी बताती हैं. वे कहती हैं, ‘चाय बागान के बंद होने के बाद से हमारी हालत बहुत खराब हो गई थी. तब गांव से कई आदमी लड़की लोग को बाहर काम के लिए ले जा रहा था. तभी सैमुएल भी आया यहां से सोनाली को ले जाने. वह यहीं हमारे गांव का ही रहने वाला था और दूसरी भी कई लड़की ले जा रहा था. उसने सोनाली को ले जाने के लिए कहा और बताया कि लड़की एक साल में काम करके वापस आ जाएगी और पैसा भी मिलेगा. हमने मना किया. लेकिन वह बहला-फुसला कर ‘दिल्ली घुमा के लाऊंगा’ ऐसा बोल कर ले गया मेरी बेटी को. तब से पांच साल हो गए. शुरू-शुरू में दो बार उससे मोबाइल पर बात हुई थी. लेकिन पिछले चार सालों से तो उसका कोई अता-पता नहीं.
सैमुएल से पूछो तो कहता है कि अब उसे भी पता नहीं कि लड़की कहां है.’ सोनाली के पिता चाय बागान में काम करते थे. अपनी बेटी की एक आखिरी तस्वीर दिखाते हुए सेरोफेना कहती हैं, ‘अब तो घर में कोई कमाने वाला भी नहीं रहा. हमें तो ये भी नहीं मालूम कि हमारी बेटी कहां है इतने सालों से. कहां काम कर रही है. जब उससे आखिरी बार बात हुई थी तब तक उसे एक भी पैसा नहीं मिला था. पता नहीं कहां बंधुआ बनवाकर काम करवा रहे हैं मेरी लड़की से. या कहीं मर तो नहीं गई. डरी हुई रहती हूं कि कहीं उसके साथ कुछ गलत तो नहीं हो गया!’
तहलका ने स्थानीय तस्करों और दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में फैली प्लेसमेंट एजेंसियों से जुड़े कई उलझे बिंदुओं को जोड़ने की कोशिश की. इससे आठ साल से लखीमपुर से लड़कियों को दिल्ली लाकर गैरकानूनी ढंग से चल रही प्लेसमेंट एजेंसियों के हवाले कर रहे तस्करों के एक बहुपरतीय नेटवर्क की तस्वीर साफ हुई. दरअसल दिल्ली जाकर कभी न लौटने वाली लड़कियों की कहानियां लखीमपुर के लगभग हर गांव में बिखरी हुई हैं. दुलहत बगान से कुछ ही दूरी पर दोलपा-पथार गांव में सफीरा खातून रहती हैं. उनकी बेटी शानू बेगम पिछले तीन साल से गुमशुदा है. अपनी बेटी को ढ़ूढ़ने की नाकाम कोशिशों के बारे में वे कहती हैं, ‘2010 की बात है. शानू तब सिर्फ 16 साल की थी. यहीं दुलहत गांव की 20 नंबर लाइन में एक हसीना बेगम रहती थी.
उसने मुझसे कहा कि मैं शानू को उसके साथ दिल्ली भेज दूं . उसने कहा कि वह शानू को अपने साथ रखेगी, अपने साथ काम पर ले जाएगी, उसे साथ ही खिलाएगी और उसके काम का पूरा पैसा घर भी भेज देगी. लेकिन हमारे यहां की ऐसी बहुत लड़कियां थीं जो दिल्ली गई थीं और फिर वापस नहीं आई थीं. इसलिए मैंने हसीना को सख्ती से मना कर दिया. लेकिन फिर उसने मेरी बेटी को फंसाया और उसे ले गई. हसीना की बहन शानू की सहेली थी. उसकी बहन ने मुझसे कहा कि वह शानू को अपने घर ऐसे ही घुमाने ले जा रही है और शाम तक वापस आ जाएगी. उनका घर पास में ही था, इसलिए मैंने जाने दिया. लेकिन उसके घर पहुंचते ही हसीना उसे वहां से दिल्ली ले गई. तब से आज तक उसका कुछ पता नहीं है.’
शानू के गुमशुदा होने के बाद सफीरा ने हसीना बेगम के घर जाकर अपनी बेटी का पता पूछने की बहुत कोशिश की. लेकिन उसके परिवारवालों ने कुछ भी बताने से इनकार कर दिया. अपनी बेटी की तलाश में पिछले तीन साल से उम्मीद का हर दरवाजा खटखटा रही सफीरा कहती हैं, ‘मैंने पुलिस में शिकायत करने की कोशिश भी की, लेकिन किसी ने मेरी शिकायत दर्ज नहीं की. मैंने कितनी बार हसीना के परिवार से कहा मुझे मेरी बेटी लौटा दो. लेकिन जब भी मैं हसीना के घर जाकर चिल्लाती, उसकी मां मुझे मारने दौड़ती. हसीना भी तब से दिल्ली से वापस नहीं आई है. मेरी बच्ची लौटा दो कहीं से. ‘शानू की एक आखिरी बची हुई तस्वीर दिखाते हुए सफीरा फूट-फूट कर रोने लगती हैं.
नाबालिग लड़कियों की तस्करी की ये त्रासद कहानियां सेरोफेना और सफीरा जैसी मांओं के कभी न खत्म होने वाले इंतजार पर ही नहीं रुकतीं. इलाके में दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, चंडीगढ़ और सूरत जैसे शहरों में बंधुआ मजदूर की तरह रही और फिर बलात्कार या शारीरिक शोषण का शिकार होने के बाद खाली हाथ वापस लौटी लड़कियां बड़ी तादाद में मौजूद हैं. सिंघरा पोस्ट में बसे लुकुमपुर गांव में रहने वाली राबिया खातून अपने साथ हुई वीभत्स हिंसा के बावजूद पांच साल बाद किसी तरह दिल्ली से अपने घर तो वापस पहुंच गई लेकिन आज भी वह सामाजिक बहिष्कार से जूझते हुए एक नई जिंदगी शुरू करने की जद्दोजहद से गुजर रही है.
‘सरकार की लापरवाही और पुलिस के उदासीन रवैये का ही नतीजा है कि लखीमपुर में एक बच्ची को आप गाय या भैंस से भी कम कीमत पर खरीद सकते हैं’
2009 में अनीता बैग नाम की एक स्थानीय एजेंट ने राबिया की मां जाहिदा खातून से राबिया को रोजगार के लिए दिल्ली भेजने का सुझाव दिया था. जाहिदा बताती हैं, ‘मेरे मना करने के बाद भी मेरे पीछे मेरी लड़की को दिल्ली ले गई. तब राबिया 15 खत्म करके 16 में लगी ही थी. बाद में पता चला कि अनीता चार और लड़कियों को भी दिल्ली ले गई है.’
दिल्ली पहुंचने के बाद राबिया शारीरिक हिंसा और आर्थिक व मानसिक शोषण के एक ऐसे दुश्चक्र में फंसी जहां से निकलने में उसे पांच साल लग गए.
पीली सलवार-कमीज में अपनी झोपड़ी के एक कोने में बैठी राबिया शुरुआत में खामोश रहती है और बार-बार बातचीत से इनकार करती है. लेकिन कुछ देर की कोशिशों के बाद वह इस संवाददाता से अकेले में बात करने को राजी हो जाती है. अब तक राबिया के घर में गांव के लोगों की भीड़ जमा हो चुकी है. राबिया हमें झोपड़ी के सबसे अंदर वाले कमरे में लाकर सभी दरवाजे बंद करती है. कुछ देर की खामोशी के बाद अपने गले की भर्राहट पर काबू करने की कोशिश करते हुए वह बताती है, ‘शुरू में आपको देखकर मैं बहुत डर गई थी.
मुझे लगा कि या तो वे गुंडे वापस आ गए हैं या शायद कोई पुलिसवाला है. मां ने तब पहले ही मना किया था जाने के लिए. लेकिन जब वह घर पर नहीं थी तो अनीता आकर मुझे ले गई. तब मैं बहुत छोटी थी. उसने कहा कि वह हमें दिल्ली घुमाकर वापस ले आएगी. उसके साथ और लड़कियां भी जा रही थीं और सबने कहा कि वहां थोड़ा-सा काम करने के भी बहुत सारे पैसे मिलते हैं. मैंने दिल्ली के बारे में बहुत सुना था, इसलिए सोचा कि घूम के वापस आ जाऊंगी.’
राबिया आगे बताती है, ‘दिल्ली पहुंचते ही वह हमें सुकूरपुर बस्ती ले गई. वहां हमें एक ऑफिस पर ले जाया गया जो महेश गुप्ता नाम के किसी आदमी का था. फिर मुझे पंजाबी बाग की एक कोठी में काम पर लगवा दिया गया. खाना-पीना बनाना, झाडू-पोछा, बर्तन सब कुछ करती थी मैं वहां. मैंने कई बार घर वापस जाने की जिद की तो मुझे कहा गया कि मैं एक साल से पहले कहीं नहीं जा सकती. एक साल बाद मुझे फिर से महेश गुप्ता के ऑफिस भेजा गया. इस बार उसने मुझे अहमदाबाद की एक कोठी में भेज दिया. मुझे पिछले साल के काम का कोई पैसा नहीं दिया गया था. लेकिन मेरा वहां काम करने का बिल्कुल मन नहीं करता था. मैंने अपने मालिक से कई बार घर जाने की जिद की और उन्हें यह भी बताया कि गुप्ता मुझे बिल्कुल पैसे नहीं देता है. उन्होंने मुझे 11 हजार रुपये देकर वापस महेश गुप्ता के ऑफिस भेज दिया. लेकिन दिल्ली आते ही महेश गुप्ता ने मुझसे वो पैसे ले लिए और सिर्फ 2000 रुपए देकर मुझे गुवाहाटी भेज दिया.’
2011 के अंत में राबिया आखिरकार वापस अपने घर तो पहुंची लेकिन कुछ ही दिनों में स्थानीय तस्करों ने उसे झांसा देकर दुबारा अपने शिकंजे में फंसा लिया. स्थानीय दलाल वालसन गोडरा ने उसे फुसलाया कि महेश गुप्ता से उसकी पहचान है और वह दिल्ली से राबिया के काम के पूरे पैसे दिलवा सकता है. अब राबिया दूसरी बार तस्करी का शिकार हो चुकी थी. वह कहती है, ‘मैं मना करती रही लेकिन वालसन पीछे ही पड़ गया कि एक दिन की बात है, दिल्ली से सिर्फ पैसे लेकर वापस आ जाएंगे. और भी बहुत सारी बातें बोलता रहा. फिर दिल्ली आते ही वह मुझे एक एजेंसी पर ले गया और मुझे वहां छोड़ कर भाग गया. यह एजेंसी इमरान और मिथुन नाम के दो लोगों की थी. मुझे ऑफिस में ही रखा गया.
मैंने वहीं से वालसन को फोन करवाया तो कहने लगा कि वह आसाम आ गया है और कुछ ही दिन में वापस आकर मुझे ले जाएगा. लेकिन अगले ही दिन वे मुझे काम पर भेजने लगे. मैंने मना किया तब इमरान ने मुझे बताया कि वालसन मुझे 10,000 रुपयों में बेच आया है और अब मुझे काम करना ही होगा. फिर मुझे रोहिणी की एक कोठी पर लगा दिया. मैं एक ही महीने में वहां से भाग आई और वापस ऑफिस वालों से मुझे घर भेजने के लिए कहने लगी. लेकिन मेरे आते ही इमरान मुझे गालियां देने लगा. वह बोला कि कोठी वालों से पच्चीस हजार रुपये लिए थे. अब वह कौन लौटाएगा? मुझे अच्छे से याद है कि यह बोलते हुए उसने मिथुन और तीन और लोगों को बुलाया और उनसे बोला कि इसे ले जाओ और इसके साथ जो भी करना है वह करो.’
शिकार और शिकारी : बलात्कार का शिकार होने के बाद किसी तरह घर लौटी राबिया
कहते-कहते राबिया अचानक खामोश हो जाती है. मालूम पड़ता है कि उसके परिवार की एक महिला कमरे की पिछली खिड़की से टिक कर राबिया का बयान सुन रही है. वह रोते हुए हाथ जोड़कर महिला से चले जाने को कहती है. कुछ देर की खामोशी के बाद थोड़ा ढ़ाढ़स बंधाने पर वह फिर आगे जोड़ते हुए कहती है, ‘सब प्रेत की तरह मुझसे चिपक गए हैं यहां….वह चारों मुझे पकड़ कर मिथुन की एजेंसी ले गए. वहां मिथुन मुझसे बोला कि चुपचाप काम कर ले वर्ना अलग जगह काम पर बैठा दूंगा तुझे. उस रात मुझे बहुत बुखार था और मैं बहुत डरी हुई थी.
फिर मिथुन मुझे डाक्टर के यहां ले जाने के नाम पर बाहर लाया. मुझे अंदर से पता था कि ये लोग मुझे डाक्टर के यहां नहीं ले जा रहे हैं. हुआ भी वही. वे लोग मुझे एक अजीब-सी जगह ले आए. थोड़ी ही देर में मुझे पता चल गया कि ये कोठे जैसा कुछ है. मैं रो-गिड़गिड़ाकर किसी तरह भाग कर वापस आई. इसके बाद वे लोग मुझे एक और जगह ले गए और बंधक बनाकर मुझसे एक हफ्ते तक गलत काम करते रहे. इसके बाद उन्होंने मुझे पुराने दिल्ली रेलवे स्टेशन छोड़ दिया.‘ एक ऑटो चालक ने उसे एक आश्रम पहुंचने में मदद की और आश्रम ने वापस असम आने में.
निकलने से पहले टूटती आवाज में राबिया बस इतना कहती है, ‘अब यहां सबको पता चल गया है. मेरी मां को यहां गांव में मेरी वजह से बहुत जिल्लत सहनी पड़ती है. मेरी शादी भी नहीं होगी शायद. मेरी तबीयत अभी तक ठीक नहीं हुई है. पेट में हमेशा दर्द रहता है. मुझे हमेशा बहुत डर लगता है. मेरे साथ जो हुआ, उसके बाद अब मैं कभी ठीक नहीं हो पाऊंगी.’
मार्च, 2013 में पहली बार भारतीय अपराध कानून के ‘आपराधिक कानून-संशोधन एक्ट-2013’ में मानव तस्करी को परिभाषित किया गया है. हालांकि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 23 इंसानों की तस्करी और बंधुआ मजदूरी को प्रतिबंधित करता है और ‘अनैतिक देहव्यापार निवारण अधिनियम-1986’ में भी तस्करी के खिलाफ सख्त प्रावधान मौजूद हैं, लेकिन इनमें से किसी भी कानून ने ‘मानव तस्करी’ को सीधे-सीधे परिभाषित नहीं किया है. दिल्ली गैंग रेप के बाद कानूनों में जरूरी फेरबदल के लिए बनाई गई जस्टिस वर्मा कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में पूरा एक अध्याय मानव तस्करी को समर्पित करते हुए साफ कहा है कि गुमशुदा लड़कियां या काम के लालच में ग्रामीण इलाकों से शहरों में तस्करी करके लाई जाने वाली ज्यादातर लड़कियां शारीरिक, मानसिक और आर्थिक शोषण का शिकार होती हैं.
जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफारिशों के आधार पर भारतीय दंड संहिता की धारा 370 को संशोधित करके इसमें 370-ए को जोड़ा गया. धारा 370 में तस्करी को परिभाषित करते हुए कानून कहता है कि अगर कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के शोषण की दृष्टि से उसकी नियुक्ति करता है, उसे स्थानांतरित करता है, शरण देता है या प्राप्त करता है और इसके लिए धमकियों, ताकत, अपहरण, धोखाधड़ी, जालसाजी, शक्ति के दुरुपयोग या सहमति और नियंत्रण प्राप्त करने के लिए पैसों का लालच दिखता है तो वह मानव तस्करी का अपराध कर रहा है. कानून यह भी स्पष्ट करता है कि शोषण के अंतर्गत किसी भी तरह का शारीरिक शोषण, बंधुआ मजदूरी, दासता या दासता जैसी परिस्थितियों में रखा जाना, जबरदस्ती काम करवाना या शरीर के अंग निकालना शामिल है.
मानव तस्करी दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा व्यवसाय है और भारत विश्व में मानव तस्करी का तीसरा सबसे बड़ा केंद्र. लेकिन देश में हर साल हजारों बच्चों का जीवन बर्बाद कर रहे इस अपराध के खिलाफ यह क्रांतिकारी कानून बनाने और मानव तस्करी को परिभाषित करने में 65 साल लग गए. लेकिन कानून बनने के बाद भी लखीमपुर जैसे उत्तर-पूर्व के दूरस्थ इलाकों में खुले आम मानव तस्करी जारी है. यूं तो लखीमपुर में शोनाली, शानू और राबिया की तरह बलात्कार और शोषण का शिकार होने वाली सैकड़ों लड़कियां हैं, लेकिन कुछ कहानियां मानव तस्करी के इस दुश्चक्र का सबसे डरावना चेहरा दिखाती हैं. सुमन नागसिया की कहानी कुछ ऐसी ही है.
सोनाली, शानू, राबिया और शिवांगी जैसी तमाम लड़कियों की कहानियों की पुष्टि राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग द्वारा जारी एक रिपोर्ट भी करती है
लखीमपुर के सिलोनीबाड़ी गांव की निर्जन बस्ती में रहने वाली सुमन नागसिया को स्टीफन नाम का एक स्थानीय दलाल सन 2009 में दिल्ली ले गया था. उस वक्त वह सिर्फ 15 साल की थी. अपनी झोपड़ी के आगे उदास बैठे हुए सुमन के 50 वर्षीय पिता महानंद नागसिया अपने बेटी के बारे में पूछने पर खामोश हो जाते हैं. फिर धीरे से उठकर अंदर पड़ी एक पेटी में रखे कुछ नए-पुराने कपड़ों के बीच छिपे कागज टटोलने लगते हैं. कुछ देर बाद महानंद एक पुराने-से कागज़ में लिपटी दो तस्वीरें लेकर बाहर आते हैं और कहते हैं, ‘ये मेरी लड़की की तस्वीरें हैं.
वह दो महीने पहले मर गई. दिल्ली से लौट कर आई तभी से बीमार थी. उसके साथ वहां पर कुछ हुआ था, किसी ने कुछ कर दिया था. वापस आकर सिर्फ एक महीना जिंदा रही. हम लोगों ने बहुत इलाज करवाया लेकिन एक महीने से ज्यादा नहीं जी पाई.’ कहते-कहते वे फिर खामोश हो जाते हैं. सुमन की मां शबीना नागसिया घर पर नहीं हैं. पड़ोस की महिलाएं तहलका को बताती हैं कि दिल्ली में सुमन शारीरिक शोषण और हिंसा का शिकार हुई थी. कुछ देर के बाद महानंद हमें अपनी बेटी के बारे में विस्तार से बताते हुए कहते हैं, ‘2009 की बात है. तब सुमन पास के स्कूल में पढ़ने भी जाया करती थी. अचानक एक दिन हमारे घर दुलहत बगान की बीस नंबर लाइन में रहने वाला स्टीफन आया. वह यहीं का एजेंट है और कई लड़कियां दिल्ली ले जा चुका है. उसने सुमन को भी ले जाने की बात कही लेकिन मैंने और सुमन की मां ने मना कर दिया.
फिर उसने सुमन को बहलाना-फुसलाना शुरू किया. उसने उससे कहा कि वह उसके स्कूल की तीन और लड़कियों को भी ले जा रहा है और सबको दिल्ली घुमा कर वापस ले आएगा. उसने यह भी कहा कि लड़कियों को वहां पैसा भी मिलेगा. वह तब बहुत छोटी थी, सिर्फ 15 साल की और उसने यहां गांव से बाहर की दुनिया भी नहीं देखी थी. बच्चे का मन तो मचल ही जाएगा जाने के लिए. वह भी जिद करने लगी. एक दिन अपनी सहेलियों से साथ घूमने निकली थी और फिर चार साल तक वापस नहीं आई. बाद में पता चला कि स्टीफन उसे दिल्ली ले गया है. चार साल तक उसकी कोई खोज-खबर नहीं मिली, बस इतना पता चला कि गुड़गांव की किसी कोठी में काम करती है’. आखिरकार फरवरी, 2013 के दौरान सुमन बीमारी की हालत में अपने घर वापस पहुंची.
महानंद उसके साथ हुए किसी भी तरह के बलात्कार या शारीरिक शोषण से जुड़े सवाल पर खामोश होकर पहले तो नजरें झुका लेते हैं फिर बस इतना जोड़ते हैं, ‘जब से लौटी थी उसे सिर्फ उल्टियां हो रही थीं. चार साल के काम के बाद जब वह दिल्ली में बीमार पड़ गई तो उसके मालिक ने उसे सिर्फ 15 हजार रुपये देकर गांव भेज दिया. पूरा पैसा उसके इलाज में लग गया लेकिन फिर भी उसे बचा नहीं पाए. बार- बार बस एक ही बात रटती थी कि बाबा पेट में दर्द हो रहा है, मैं उसके लिए बाजार से अंगूर, सेब और जलेबी लाता था ताकि कुछ खा ले. लेकिन उसे जलेबी भी कड़वी लगती थी. उल्टियां करते-करते धीरे-धीरे वह अपने आप मर गई. दिल्ली में उसके साथ कुछ गलत हुआ था, उसके साथ इतना बुरा हुआ था कि वह खड़ी तक नहीं हो पाती थी.’
शोकमग्न : सुमन नागसिया के पिता महानंद, सुमन की मौत हो चुकी है
बातचीत के दौरान ही सुमन के घर के आंगन में एक लड़का आकर रोने लगता है. पूछने पर मालूम पड़ता है कि बुनासु खड़िया नाम का यह लड़का पड़ोस में ही रहता है और उसकी 11 साल की बहन जूलिया खाड़ीया भी पिछले चार साल से लापता है. पता चलता है कि उसे भी स्टीफन ही दिल्ली ले गया था.
सुमन जिस निर्मम आपराधिक दुश्चक्र का सामना चार साल तक करती रही उसके बारे में बताने के लिए वह जिंदा नहीं है. 11 साल की उम्र में गुमशुदा हुई जूलिया भी अपनी आपबीती बताने के लिए मौजूद नहीं है. लेकिन आगे हमारी मुलाकात शिवांगी खुजूर और लालिन होरो से होती है जो अपने शारीरिक, मानसिक और आर्थिक शोषण की गवाही खुद दे रही हैं. सिलोनिबाड़ी गांव में एक छोटी-सी झोपड़ी में रहने वाली लालिन होरो 2010 में काम की तलाश में दिल्ली गई थी और मार्च, 2012 में वापस आई. वह बताती है, ‘मैं तब सिर्फ 16 साल की थी. चाय बागान में काम कम होने की वजह से घर में बहुत तंगी थी. आस-पास गांव की बहुत-सी लड़कियां काम करने दिल्ली जा रही थीं. एजेंट विजय टिर्की ने कहा कि पैसे कमाकर कुछ दिन में वापस आना हो जाएगा. आस-पास की सभी लड़कियों को जाते देखकर मैं भी चली गई. वह हम लोगों को ट्रेन से गुवाहाटी ले गया और फिर वहां से ट्रेन बदलकर दिल्ली. गाड़ी में हमारे ही गांव की दो और लड़कियां भी मौजूद थीं. हम लोग जब दिल्ली स्टेशन पर उतरे तो विजय ने फोन करके ऑफिस वालों की गाड़ी बुलाई. फिर वह हम लोगों को लेकर शकूरपुर बस्ती गया, उमेश राय के ऑफिस. पहले हम लोग ऑफिस में ही दो दिन तक रहे. तब मैंने देखा कि मेरे जैसी और भी कम से कम 10-12 लड़कियां थी वहां. फिर वहां से मुझे सलीमाबाग भेज दिया गया काम करने के लिए.’
लालिन प्रशिक्षित नहीं थी, इसलिए उसे सिर्फ दो हजार रु महीने पर लगाया गया. वहां लालिन ने दो साल तक खाना बनाने, बच्चों को स्कूल छोड़ने, बर्तन-कपड़े और झाडू-पोंछा सहित घर का पूरा काम किया लेकिन वापसी पर उसे कोई पैसा नहीं दिया गया. वह आगे बताती है, ‘अरे, ये लोग तो मुझे वापस ही नहीं आने देते. दो साल से मुझे मेरे घर पर बात नहीं करने दे रहे थे. जब भी कहती कि घर पर बात करवा दो, तो कहते नंबर नहीं लग रहा है. न ही मुझे कोई पैसा दिया. उमेश राय कोठी वालों से मेरी मेहनत का पूरा पैसा लेता रहा और मुझसे मुफ्त में काम करवाता रहा.
वह मुझे घर भी जाने नहीं देना चाहता था. बोलता था, अपने घर बात करने और घर जाने की जिद छोड़ दे और चुपचाप काम कर. अगर मेरे पिताजी मुझे ढ़ूंढ़ते हुए यहां दिल्ली नहीं आते और मुझे इन खराब लोगों से चंगुल से छुड़ा कर नहीं ले जाते तो मैं आज भी अपने गांव नहीं आ पाती. पिताजी को भी धक्के खाने पड़े. मेरे दो साल के पैसे अभी तक नहीं दिए इन लोगों ने. उमेश राय ने एक-दो चेक दिए थे लेकिन पिताजी ने बताया कि उनमें से पैसा बैंक में नहीं आया. खैर, मैं अपने घर वापस तो आ गई.’
बंधुआ मजदूरी और तस्करी के दो साल बाद लालिन होरो के पिता उसे घर वापस लाने में सफल रहे. शिवांगी खुजूर को भी अपनी वापसी के लिए बहुत-सी मुश्किलों से दो-चार होना पड़ा. दुलहत बगान की चार नंबर लाइन में रहने वाली शिवांगी तहलका से बातचीत में कहती है, ‘मैं और मेरी बड़ी बहन एलीमा खुजूर सन 2011 के शुरू में दिल्ली गए थे. तब मैं 16 साल की थी और एलेमा 17 की. हमें यहीं की एजेंट और हमारी रिश्तेदार कुसमा टिर्की ले गई थी. वहां पहुंचते ही पहले तो हम श्रीनिवास के ऑफिस पहुंचे–श्री साईं इंटरप्राइसेस.
एलीमा को वहीं पर काम पर रखवा लिया और फिर मुझे मालवीय नगर की एक कोठी में काम पर लगवा दिया. वहां मैंने चार महीने काम किया. इस बीच श्रीनिवास ने एलीमा के साथ गलत काम किया. वह वहां से चली गई. फिर मुझे बुलाकर श्रीनिवास के ऑफिस में काम के लिए रखवा लिया. इस बीच हमें कहीं फोन पर बात करने नहीं देते थे, इसलिए एलीमा के साथ हुई ज्यादती का मुझे बहुत बाद में पता चल पाया. मेरे साथ भी वह गलत हरकतें करने लगा था. फिर मैंने घर जाने के लिए रोना-पीटना शुरू कर दिया. भाग कर पुलिस को बताई पूरी बात. फिर मुझे घर तो भेज दिया लेकिन श्रीनिवास को नहीं पकड़ा पुलिस ने. वह आज भी आजाद है.’
सोनाली, शानू, राबिया, सुमन, लालिन और शिवांगी जैसी तमाम लड़कियों की कहानियों की पुष्टि राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग द्वारा जारी की गई एक गोपनीय रिपोर्ट भी करती है. जुलाई, 2012 में सूचना के अधिकार के तहत मांगी गयी यह रिपोर्ट लखीमपुर में पिछले एक दशक से जारी मानव तस्करी के कई स्याह पहलू उजागर करती है. आयोग की तहकीकात शाखा के छह उच्च अधिकारियों की पड़ताल के बाद बनाई गई यह रिपोर्ट कहती है कि 24 अगस्त, 2008 से लेकर 19 अप्रैल, 2010 के बीच लखीमपुर निवासी कुसमा टर्की अपने जिले से 53 बच्चों की तस्करी करके उन्हें काम के लालच में दिल्ली लेकर आई. रिपोर्ट यह भी साफ करती है कि उत्तर-पूर्व से बड़ी संख्या में 10-15 वर्ष की नाबालिग लड़कियों की तस्करी करके उन्हें दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में भेजा जा रहा है.
रिपोर्ट आगे कहती है, ‘ऐसा पाया गया है कि ज्यादातर लड़कियों से अंग्रेजी में लिखे कागजों पर हस्ताक्षर करवाए जाते हैं जो वे पढ़ नहीं सकतीं. उन्हें 2,200 से 4,500 रुपये के बीच तनख्वाह दी जाती है लकिन यह पूरा पैसा उनकी प्लेसमेंट एजेंसी ले लेती है. ये प्लेसमेंट एजेंसियां कानूनी तौर पर पंजीकृत नहीं होतीं और सिर्फ ‘पार्टनरशिप एक्ट’ के तहत बनाई जाती हैं. इन लड़कियों को अपने घर अपने माता-पिता से बात करने की इजाजत नहीं होती और न ही उन्हें दिल्ली में अपने रिश्तेदारों से मिलने दिया जाता है. इनमें से कई लड़कियां बलात्कार और शारीरक हिंसा का भी शिकार होती हैं. इकठ्ठा किए गए सबूत बताते हैं कि ज्यादातर मामलों में स्थानीय पुलिस अधिकारियों को लड़कियों की तस्करी और उनके साथ हो रहे दुर्व्यवहार की जानकारी होती है.’ लखीमपुर में बढ़ती तस्करी की घटनाओं के आधार पर बनाई गई यह रिपोर्ट पूरे उत्तर-पूर्व में फैल रहे मानव तस्करी के जाल की एक भयावह तस्वीर सामने रखती है.
भारत में मानव तस्करी की नई राजधानी के तौर पर उभर रहे लखीमपुर जिले में लगातार जारी लड़कियों की तस्करी को पिछले एक दशक के दौरान विकसित हुआ ट्रेंड बताते हुए गुवाहाटी स्थित नॉर्थ ईस्टर्न सोशल रिसर्च सेंटर के निदेशक वाल्टर फर्नांडिस कहते हैं, ‘सत्तर और अस्सी के दशकों के दौरान ज्यादातर लड़कियां ओडिशा और बंगाल से लाई जाती थीं. 90 के दशक के आखिर में तस्करों और दलालों का ध्यान उत्तर-पूर्व की ओर गया और 2000 के बाद से यहां से ले जाई जाने वाली लड़कियों की तादाद बढ़ती गई. यह मामला बहुत हद तक चाय बागानों के बंद होने से भी जुड़ा है. भारत के चाय उत्पादन 56 फीसदी हिस्सा असम से आता है. 2005 से 2010 के बीच कई चाय बागान एकदम से बंद हो गए. फिर यहां के बागानों में काम करने वाले लोगों को बहलाना-फुसलाना दलालों के लिए भी सबसे आसान है. यहां के चाय बागानों में काम करने वाले लोगों को कुली कहा जाता है. आज भी वहां औपनिवेशिक भारत जैसा माहौल है.’
ज्यादातर मामलों में स्थानीय पुलिस अधिकारियों को लड़कियों की तस्करी और उनके साथ हो रहे दुर्व्यवहार की जानकारी होती है
फर्नांडिस बताते हैं कि सैकड़ों सालों से यहीं काम करने के बावजूद चाय बागान कर्मचारियों को यहां का मूल निवासी नहीं माना जाता और न ही उनके पास अनुसूचित जाति/जनजाति का दर्जा है. वे कहते हैं, ‘उन्हें आज भी पिछड़ी जातियों में गिना जाता है. एक तरफ जहां बंगाल के चाय बागान वालों ने अपने संगठन बनाकर अपनी राजनीतिक चेतना के बल पर अनुसूचित जाति-जनजाति का दर्जा हासिल कर लिया, वहीं असम के चाय बागान नेतृत्व और राजनीतिक चेतना के अभाव में आज भी पीछे हैं. फिर लखीमपुर तो भारत के सबसे पिछड़े और गरीब इलाकों में आता है. यहां के लोगों ने एक तरह से अपने एक अधीन समाज होने के एहसास को स्वीकार कर लिया है.
चाय बागानों ने इन्हें सख्त मजदूरी नियमों में इस कदर बांध दिया है कि इन्हें बाहर की दुनिया में हो रहे बदलावों का पता ही नहीं चलता. गरीबी और बंधुआ मजदूरी की वजह से ही ये लोग कुछ पैसे की उम्मीद पर बाहर जाने के लिए राजी हो जाते हैं और हर किसी की बात पर भरोसा कर लेते हैं. पुलिस और सरकार को इनमें कोई रुचि नहीं है.’
पूरी पड़ताल के दौरान जिले में तेजी से फैल रहा स्थानीय दलालों का जाल जिले में लगातार बढ़ रही तस्करी की मुख्य वजह के रूप में उभर कर सामने आया. लखीमपुर के आम लोग भी जिले में बड़े दलालों के नेटवर्क को ही लगातार बढ़ती तस्करी के लिए जिम्मेदार बताते हैं. जिले के दुलहत बागान गांव की बंगाल लाइन के निवासी मैथिहास मूंगिया कहते हैं, ‘ये एजेंट हमारे जिले को खराब कर रहे हैं.’
तस्करी के चलते गुमशुदा हुई लड़कियों के मामले अदालत में उठाने वाले स्थानीय वकील जोसफ मिंज स्थानीय तस्करों के साथ-साथ लड़कियों को ले जाने के नए तरीकों को भी जिले में लगातार बढ़ रही महिला तस्करी के लिए जिम्मेदार मानते हैं. वे कहते हैं, ‘लगभग 2012 तक यहां के दलाल खुले आम लड़कियां ले जाते थे. लेकिन जब से बात थोड़ी-थोड़ी बाहर आनी शुरू हो गई है, तब से इन तस्करों ने लड़कियों को ले जाने का रूट बदल दिया है. अब ये ज्यादा लड़कियों को एक साथ नहीं ले जाते, छोटे-छोटे समूहों में जाते हैं. गुवाहाटी रेलवे स्टेशन पर थोड़ी सख्ती हो गई है, इसलिए सिलीगुड़ी का नया रास्ता इन्हें सुरक्षित लगता है. और फिर स्थानीय दलालों का मसला तो है ही. हर गांव में एक पक्का और पुराना दलाल होता है जिसे देखकर नए लोग आसानी से पैसा कमाने के चक्कर में अपने ही गांव की लड़कियों की तस्करी करने को तैयार हो जाते है.’
तहलका के पास मौजूद 30 से ज्यादा गुमशुदा लोगों के परिवारों के बयानों, शारीरिक, आर्थिक और मानसिक शोषण का शिकार हुई लड़कियों के बयानों और नौ स्थानीय तस्करों के विस्तृत बयानों को नकारते हुए लखीमपुर जिले के पुलिस अधीक्षक पीके भूयान कहते हैं कि उनके पास जिले में तस्करी या गुमशुदगी की कोई शिकायत मौजूद नहीं है. वे कहते हैं, ‘हमारे पास कोई डाटा नहीं है. गुमशुदगी की मात्र 2-3 शिकायतें आई थीं. अब लोग पुलिस में शिकायत ही दर्ज नहीं करवाते तो हम क्या करें? और अगर ऐसी शिकायतें हमारे पास आती हैं तब हम जरूर कार्रवाई करेंगे.’
हर साल सैकड़ों की तादाद में गुमशुदा हो रही लड़कियों के बढ़ते मामलों के प्रति पुलिस की इस आपराधिक उदासीनता को स्पष्ट करते हुए ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के निदेशक कैलाश सत्यार्थी कहते हैं, ‘लखीमपुर में एक बच्ची को आप गाय या भैंस से भी कम कीमत पर खरीद सकते हैं. सरकार की आपराधिक लापरवाही, अनदेखी और पुलिस के उदासीन रवैये की वजह से लखीमपुर जैसा यह छोटाए-सा उत्तर-पूर्वी जिला आज महिला तस्करी की नई राजधानी के तौर पर उभर रहा है. यहां कानून और व्यवस्था बस नाम के लिए है. खुलेआम स्थानीय दलाल लड़कियों को दिल्ली ले जाकर बंधुआ मजदूरी और शारीरिक शोषण के नर्क में धकेल रहे हैं और पुलिस कहती है उनके पास शिकायत नहीं आती. जहां लोगों के खाने-जीने का हिसाब नहीं, ज्यादातर लोग अनपढ़ हैं, वहां आम लोग अपनी शिकायत कैसे उन पुलिस थानों में दर्ज करवाएंगे जहां उनकी कभी सुनी ही नहीं गई?’
फरवरी, 2013 के दौरान बचपन बचाओ आंदोलन ने उत्तर-पूर्व में बढ़ रही मानव तस्करी के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी जागरूकता मार्च की शुरुआत भी की थी. लखीमपुर से लड़कियों के गुमशुदा होने के मसले पर मार्च, 2013 के बजट सत्र में जारी प्रश्न काल के दौरान उठे एक सवाल का जवाब देते हुए पूर्वोत्तर क्षेत्र के विकास राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) पवने सिंह घटोवार का कहना था, ‘हमारी सरकार गुमशुदा बच्चों की तलाश के लिए कड़े कदम उठा रही है. बच्चों को ढूंढ़ने के लिए हमने ‘ट्रैक चाइल्ड’ नामक राष्ट्रीय पोर्टल भी शुरू किया है. हमने सभी राज्य सरकारों से भी पोर्टल में भागीदारी सुनिश्चित करने का आग्रह किया है. यह बात सही है कि बच्चे बड़ी तादाद में खो रहे हैं लेकिन पुलिस बड़ी संख्या में बच्चों को वापस ट्रेस भी कर रही है. अब सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बाद हमने हर गुमशुदा बच्चे की रिपोर्ट दर्ज करवाने के सख्त निर्देश जारी किए हैं.’
जस्टिस वर्मा कमेटी की रिपोर्ट के बाद मानव तस्करी के मामलों में बरती जाने वाली अनिवार्य पुलिसिया सख्ती का हवाला देते हुए सत्यार्थी जोड़ते हैं, ‘अब तो नए क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट एक्ट के बाद जालसाजी, दबाव बनाकर, बहला-फुसला कर और पैसों का लालच देकर बंधुआ मजदूरी करवाने या लड़कियों को शारीरिक-आर्थिक शोषण के दलदल में धकेलने जैसे सभी अपराध भी ‘मानव तस्करी’ के अंतर्गत शामिल हो गए हैं. फिर हाल ही में माननीय न्यायधीश अल्तमश कबीर ने अपने एक निर्णय में ‘गुमशुदा बच्चों’ को तस्करी, बंधुआ मजदूरी और शारीरिक शोषण की जड़ मानते हुए सभी राज्यों की पुलिस के लिए ‘गुमशुदा बच्चों’ के मामलों में प्राथमिकी दर्ज करने को अनिवार्य कर दिया है.
अब इस नए कानून और सुप्रीम कोर्ट के इस हालिया निर्णय के बाद पुलिस के लिए यह अनिवार्य है कि वह न सिर्फ लड़कियों की गुमशुदगी के मामले दर्ज करे बल्कि स्थानीय दलालों और दिल्ली की प्लेसमेंट एजेंसियों पर धारा 370 और 370 (ए) के तहत मामले दर्ज कर तहकीकात करे. लेकिन जमीनी सच्चाई इसके बिल्कुल उलट है. लखीमपुर में तो यह सब पुलिस और सरकार के साथ-साथ राजनीतिक प्रश्रय की वजह से भी हो रहा है. यहां के राजनेताओं से लेकर पुलिस, सरकार और चाय बागान के मालिकों तक कोई नहीं चाहता कि यहां से जारी महिला तस्करी का यह धंधा खत्म हो, क्योंकि इसी में सबका फायदा है.’
अपनी तहकीकात के दौरान तहलका के पत्रकारों एक सामाजिक संस्था के कार्यकर्ता बनकर जिले के नौ प्रमुख तस्करों से विस्तृत बातचीत की. इस काम में एक स्थानीय सूत्र जुबान लोहार ने हमारी मदद की. स्थानीय बागानों में चौकीदार की नौकरी करने वाले लोहार कहते हैं, ‘लखीमपुर इतनी छोटी-सी जगह है कि यहां सब सबको जानते हैं. यहां का हर आदमी जानता है कि जिले से लड़कियों को दिल्ली भेजा जा रहा है और वे वापस नहीं आ रही हैं. हर गांव में आपको कई दलाल मिल जाएंगे.’
नए कानून में लड़कियों की गुमशुदगी के मामले दर्ज करना और दलालों व प्लेसमेंट एजेंसियों की जांच करना पुलिस के लिए अनिवार्य कर दिया गया है
सरकारों और क्षेत्रीय पुलिस के पास नॉर्थ-लखीमपुर (लखीमपुर) में जारी लड़कियों की तस्करी से संबंधित कोई ठोस आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. लेकिन अपनी पड़ताल के दौरान जब तहलका ने लड़कियों की तस्करी में सालों से शामिल नौ स्थानीय तस्करों से बात की तो जिले से हर महीने गायब होने वाली लड़कियों की संख्या 40 तक पहुंच गई. तहलका ने बच्चों पर काम करने वाली एक सामाजिक संस्था के प्रतिनिधि की तरह लखीमपुर के लगभग नौ गांवों का दौरा किया. इस दौरान हमने नौ प्रमुख तस्करों से विस्तृत बात की.
खुलकर बातचीत के लिए राजी करवाने के लिए हमें उनसे यह भी कहना पड़ा कि उनके गोरखधंधे की सच्चाई तो सामने आ ही जाएगी लेकिन अगर वे खुद अपने काम के बारे में विस्तार से बता दें तो यह बयान आगे उन्हें रियायत दिलाने में भी मदद करेगा. सामाजिक संस्था के कार्यकर्ताओं के रूप बताई गई काल्पनिक पहचान, मजबूत स्थानीय नेटवर्क, स्थानीय सूत्रों की मदद और थोड़ा दबाव बनाने के बाद ही ये तस्कर हमें लड़कियों को दिल्ली ले जाकर बंधुआ मजदूरी और शोषण के दंगल में धकेलने वाले अपने इस व्यवसाय के बारे में बताने के लिए तैयार हुए. इनमें सन 2005 की शुरुआत से लड़कियों को दिल्ली ले जाने वाले सबसे पुराने तस्करों के साथ-साथ तीन महीने पहले ही लड़कियों को भेजने वाले तस्कर भी शामिल हैं. पिछले सात साल के दौरान ये नौ तस्कर लखीमपुर से लगभग 184 लड़कियों को दिल्ली ले जाने की बात स्वीकारते हैं.
लड़कियों की तस्करी करने वाले स्थानीय दलाल
सिल्वेस्टर
लखीमपुर जिले के टूनीजान गांव में रहने वाला सिल्वेस्टर तीन दिन की कोशिशों के बाद हमसे बात करने को तैयार हो जाता है. पड़ोसी बताते हैं कि पिछले कुछ सालों से वह चौबीसों घंटे शराब के नशे में रहता है. सिल्वेस्टर पढ़ा-लिखा है और फर्राटेदार अंग्रेजी में हमें बताता है, ‘मैंने 2005 में इस काम की शुरुआत की थी और फिर 2010 तक लड़कियां दिल्ली ले जाता रहा. इस दौरान मैं कुल मिलाकर 45 लड़कियों को दिल्ली ले गया. इतने साल मैंने सिर्फ एक प्लेसमेंट एजेंसी के साथ काम किया और वह श्रीनिवास की श्री साईं प्लेसमेंट एजेंसी थी. मेरा एक हाथ खराब है, इसलिए मुझे यह सब करना पड़ा, मेरे पास कोई विकल्प नहीं था. यह बात सच है कि श्रीनिवास ने कई लड़कियों को पैसा नहीं दिया या उनके साथ खराब व्यवहार किया, लेकिन मेरे साथ वह हमेशा अच्छा था, ठीक था.
शुरू में मुझे एक लड़की को ले जाने के लिए 3,000 रुपये का कमीशन मिलता था. 2010 तक बढ़कर यह 6,000 रुपया हो गया था. आज का रेट 10,000 है. लेकिन इस सबकी असली शुरुआत 2005 में हुई थी. यहां, लखीमपुर में मार्टिन टर्की नाम का एक आदमी रहता था जो मेरा दोस्त था. मार्टिन का एक और दोस्त था, सैमुएल गिडी. सैमुएल की श्रीनिवास से पहचान थी. उसने मार्टिन को श्रीनिवास के बारे में बताया और मार्टिन ने मुझे. मुझे बताया गया कि काम के लिए यहां से लड़कियां ले जाने पर कमीशन मिलता है और मैंने लड़कियां ले जाना शुरू कर दिया. उनमें से कुछ वापस आ गईं, कुछ भाग गईं, और कुछ वापस नहीं आईं. जो भाग जाती, उसका पैसा भी मुझे ही भरना पड़ता.’
सूत्रों के अनुसार सिल्वेस्टर प्लेसमेंट एजेंसियों द्वारा लड़कियों के भारत से बाहर तस्करी किए जाने की प्रक्रिया के बारे में भी जानकारी रखता था. पूछने पर वह बताता है, ‘मैंने श्रीनिवास के साथ लगभग पांच सालों तक काम किया है, इसलिए मैं उसका सबसे विश्वासपात्र आदमी था. उसने मुझे बताया था कि अगर हम लड़कियों को देश के बाहर भी भेज पाएं तो काफी पैसा कमा सकते हैं. एक लड़की को देश के बाहर भेजने के उसे दो लाख रुपये मिलते थे. मैंने खुद तो लड़की बाहर नहीं भेजी लेकिन मुझे पता है कि लोकल एजेंट को एक लड़की बाहर के लिए लाने का 50 हजार रुपया मिलते थे. लड़कियों के लिए डिमांड ज्यादातर अरब देशों से आती है, इसलिए मुझे लगता है कि लड़कियां अरब देशों में ही भेजी जाती हैं. अब दिल्ली में तो सैकड़ों प्लेसमेंट एजेंसियां मौजूद हैं.
अकेले सुकूरपुर बस्ती में ही 200 से ज्यादा प्लेसमेंट एजेंसियां हैं.’ काम छोड़ने और लखीमपुर में तस्करों के लगातार फैलते जाल के बारे में वह आगे कहता है, ‘मैं लगातार काम करता रहा, लेकिन धीरे-धीरे मुझे लगने लगा कि इस काम में बहुत सरदर्द है. श्रीनिवास पैसे नहीं देता था तो लड़कियों के घरवाले कहते कि मैंने उनकी बेटी का पैसा खाया, फिर पुलिस-वुलिस का भी झंझट रहता था. जब मैंने शुरू किया था तब यहां पर ऐसे ज्यादा एजेंट नहीं थे. लेकिन मेरे देखते ही देखते यहां एजेंट ही एजेंट फैल गए. एक साल पहले तक तो हर 15 दिन में समझ लीजिए 40 लड़कियां चली जाती थीं. अब आज डर की वजह से थोड़ा छुपा-छुपा कर चुप-चाप लड़कियों को ले जाना शुरू कर दिया है. लेकिन आज भी 15 से 20 तो चली ही जाती हैं यहां से’.
विजय टिर्की
45 वर्षीय विजय टर्की लखीमपुर के उन सक्रिय दलालों में से एक है जिसके द्वारा भेजी गई कुछ लड़कियां आज भी दिल्ली की प्लेसमेंट एजेंसियों के मालिकों के चंगुल में फंसी हुई हैं जबकि कुछ को सालों बंधुआ मजदूरी करने के बाद खाली हाथ घर लौटना पड़ा. लखीमपुर के एक स्थानीय चर्च में हुई इस बातचीत के दौरान वह बताता है, ‘तीन साल पहले की बात है. हमारे यहां से बहुत सारे एजेंट लड़की दिल्ली ले जा रहे थे और उनको पैसा मिल रहा था. तो हमने भी सोचा कि ऐसे ही हम भी लड़की ले जाकर थोड़ा पैसा कमा लें. हमारे यहां के ही एजेंट लोगों ने मुझे कार्ड दिया था, श्रीनिवास का.
फिर उसी कार्ड के नंबर पर फोन करके मैं दिल्ली पहुंचा. उसने कहा कि लड़कियों का कागज बना के ले आओ, मां-बाप से अंगूठा लगवा कर. मैं ले जाता और वह शुरू में मुझे एक लड़की पर सात हजार रुपये देता था. अब रेट 10 हजार हो गया है. कुछ दिनों बाद मैं सुकूरपुर में उमेश राय के ऑफिस में लड़कियां देने लगा. वहां अभी भी मेरी एक लड़की है और श्रीनिवास के पास काम कर रही तीन लड़कियां अभी तक वापस नहीं आईं हैं. कुल मिलाकर मैं अभी तक 13 लड़कियों को दिल्ली ले गया हूं.’ प्लेसमेंट एजेंसियों के साथ अपना अनुभव के बारे में साझा करते हुए विजय बताता है, ‘लेकिन अब मुझे लगता है कि श्रीनिवास ठीक आदमी नहीं है. मेरी दो लड़कियों के पैसे भी नहीं दिए, बाकियों से बात नहीं हो पाती थी और एक लड़की को इन्होंने चंडीगढ़ भेज दिया था. उसे भी नहीं छोड़ रहे थे.’
अजंता
मात्र 23 साल की अजंता इन सभी तस्करों में सबसे कम उम्र की है. जनवरी 2013 में तीन लड़कियां दिल्ली भेजने वाली अजंता अभी सबसे सक्रिय तस्कर है. तहलका से बातचीत में अजंता कहती है, ‘जब मैं बहुत छोटी थी, 15-16 साल की, तब पहली बार काम करने दिल्ली गई थी.
एक स्थानीय दलाल ले गया था श्रीनिवास के यहां. मुझे एक कोठी पर काम लगवाया. वहां मुझे अच्छा नहीं लगा तो मैंने कहा कि मुझे घर जाना है. उन्होंने कहा कि एक साल काम करना पड़ेगा नहीं तो कोई पैसा नहीं मिलेगा. मैं हमारे यहां के मोमिन के साथ वापस आ गई गांव. वह भी दलाल था.
फिर वापस कुसमा के साथ गई दिल्ली और एक साल काम किया. इस बार थोड़े पैसे मिल गए तो मैंने लड़कियां ले जाना शुरू कर दिया. अब मैं काम नहीं करती. मुझे काम करना अच्छा नहीं लगता.
सिर्फ लड़कियां ले जाती हूं. दिल्ली के गोविंदपुरी में वह सुशांत है न, उसी के यहां देती हूं. अभी तीन महीने पहले ही तीन लड़कियां दे कर आई हूं. एक की उम्र 22-23 है, दूसरी की लगभग 15 और तीसरी की 18-19 के बीच.
सैमुएल टर्की
सन 2003 से लेकर 2012 तक लखीमपुर से लगभग 35 के आस-पास लड़कियां होंगी जिन्हें मैं दिल्ली ले गया हूं. देखिए, अगर एक एजेंट का एक महीने में एक लड़की भी लगा लो, कम से कम इतना तो हर एजेंट ले जाता ही है, तो भी हर एजेंट का एक साल में 12 लड़की हो जाती है. वैसे तो हर गांव में कई एजेंट हैं लेकिन अगर एक या दो भी पकड़ कर चलो, तो भी हर महीने पूरे लखीमपुर से 60-70 से ऊपर ही लड़कियां जाती हैं. और यह आंकड़ा लगातार बढ़ ही रहा है. मुझे यहीं के एक एजेंट ने श्रीनिवास का नंबर दिया था. तब वह हमें एक लड़की के छह हजार रुपये देता था जबकि आज 10 से 12 हजार मिल जाते हैं.
लखीमपुर के वे इलाके जहां से लड़कियां सबसे ज्यादा जाने लगी हैं और जहां बहुत एजेंट हैं उनमें दुलहत तेनाली, चौदह नंबर लाइन, दिरजू, हरमोती, बंदरदुआ शामिल हैं.’2012 तक लखीमपुर से लगभग 35 लड़कियों को दिल्ली लाने वाला सैमुएल टर्की लखीमपुर के सबसे प्रमुख और पुराने तस्करों में से एक है.तहलका से विस्तृत बातचीत में वह लखीमपुर में चल रही महिला तस्करी के उलझे हुए नेटवर्क की बारीकियां बताते हुए कहता है, ‘2003 में चाय बागान बंद होने से लेकर अब तक हर साल, हर गांव में एजेंट लगातार बढ़े हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि पिछले सात-आठ सालों से लड़कियों को खुले आम ले जाते थे और अब छिपा कर ले जाने लगे हैं. जब से पुलिस के चक्कर का डर फैला है, तब से चोरी-छिपे लड़कियों को ले जाते हैं. पुराने जितने भी एजेंट हैं, सबकी आपस में बात होती है इसलिए हमें मालूम है कि कौन कितनी लड़की कहां ले जा रहा है. लेकिन जो अब नए एजेंट बन रहे है, उनका पता नहीं होता.
कुसमा टर्की और ज्वेल खुजूर
जुलाई, 2012 में सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की एक गोपनीय रिपोर्ट बताती है कि 24 अगस्त, 2008 से लेकर 19 अप्रैल, 2010 के बीच लखीमपुर निवासी कुसमा टर्की अपने जिले से 53 बच्चों की तस्करी करके उन्हें काम के लालच में दिल्ली लाई थी. दुलहत बगान की चार नंबर लाइन स्थित अपने घर में तहलका से बात करते हुए कुसमा कहती है, ‘मैं अपने भाई ज्वेल खुजूर के साथ मिलकर इन बच्चों को दिल्ली काम के लिए ले गई थी. सबसे पहले तो मैं खुद काम करने श्रीनिवास के यहां गई थी. फिर मेरा बेटा बीमार हो गया और एक साल बाद मैंने घर जाने की बात कही. इस पर श्रीनिवास ने मुझे घर तो भेज दिया साल भर के काम के सिर्फ पांच हजार मिले. जाते वक्त उसने मुझसे कहा कि अगर मेरे गांव से कोई और आना चाहे तो मैं उसे लेकर आऊं, वह मुझे उसका कमीशन देगा. यहां लखीमपुर से बच्चे दो तरह से मंगवाए जाते हैं. एक तो जैसे मैं काम करने आई…मेरे जैसे और भी कई आते हैं, उन्हें काम का पूरा पैसा नहीं देकर उनसे कहना कि अपने गांव से बच्चे ले आओ, उसका कमीशन मिलेगा.
दूसरा तरीका यह है कि श्रीनिवास और दूसरी एजेंसी वाले एजेंटों को लखीमपुर के गांवों में भेजते हैं जो वहां से बच्चे ढ़ूंढ़कर लाते हैं. श्रीनिवास के कहने पर मैं अपने गांव से लड़कियों और लड़कों को भी लेकर जाने लगी. हर लड़की पर चार हजार रुपये मिलते थे. पहले तो सब ठीक चला लेकिन बाद में अचानक श्रीनिवास ने लड़कियों को पैसा देना बंद कर दिया.’ दिल्ली स्थित प्लेसमेंट एजेंसियों के काम करने के तरीके और लड़कियों को देश से बाहर भेजने के बारे में बताते हुए कुसुमा आगे कहती है, ‘कितने ही परिवार हैं यहां जिनकी लड़कियां लौट कर नहीं आई हैं. तीन-तीन साल हो गए और लड़कियां वापस नहीं आईं. शिवांगी और एलिमा के साथ इतनी ज्यादती भी हुई. वह वैसे ज्वेल खुजूर से बोलता था लड़कियों को बाहर भेजने के बारे में, लेकिन अब तो मुझे विश्वास हो गया है कि वह लड़कियों को देश के बाहर भेजता है, वर्ना हमारे घर के सामने की ही सोनाली बारला अभी तक घर वापस आ गई होती.’
ज्वेल खुजूर मूलतः कुसमा के साथ ही काम करता था और उसके साथ लखीमपुर से 53 बच्चों की तस्करी के मामले में दोषी है. तहलका से बातचीत में वह प्लेसमेंट एजेंसियों द्वारा लड़कियों को विदेश भेजने से जुड़े सिल्वेस्टर और कुसमा के बयानों को वजन देते हुए कहता है, ‘श्रीनिवास लड़कियों को विदेश भेजता था. उसने मेरे सामने 20-22 साल की एक लड़की को विदेश भेजा था. मैं उस समय दिल्ली में ही था. मेरे सामने टिकट-विकट सब हुआ था लड़की का और फिर शायद सिल्वेस्टर ही उसे छोड़ कर आया था. श्रीनिवास मुझसे भी कहता था कि अगर मैं विदेश ले जाने के लिए लड़की लाकर दूं तो वह मुझे 40 हजार रुपये का कमीशन देगा’.
स्टीफन
तीन दिन की कोशिश के बाद एक स्थानीय अस्पताल के बाहर हमारी मुलाकात स्टीफन से होती है. स्टीफन शुरुआत से ही उन सभी लड़कियों के दावों को झूठा बताता है जिन्होंने उस पर उन्हें शोषण के दलदल में धकेलने के आरोप लगाए. लेकिन लड़कियों की तस्करी को स्वीकार करते हुए वह कहता है, ‘मैंने यह काम तीन साल पहले शुरू किया था. सबसे पहले मैं दिल्ली के मुनीरका में सिस्टर जोसलीन और महेंद्र नायक के यहां गया था. वहां सेक्योरिटी गार्ड के लिए लड़के देता था.
फिर धीरे-धीरे लड़कियां भी ले जाने लगा. सुकूरपुर बस्ती में प्रवीण के बबीता एंटरप्राइजेज में भी लड़कियां देने लगा. अभी तक मैं कुल 22 लड़कियां लखीमपुर से दिल्ली ला चुका हूं. मैंने तो कुछ गलत काम नहीं किया. हो सकता है कि लड़कियों ने कहा हो कि मैंने पैसे खाए हैं लेकिन मैं सब गॉड के भरोसे करता हूं.’ (खबर लिखे जाने तक स्टीफन की हरियाणा के सोनीपत में मानव तस्करी के एक मामले में गिरफ्तारी हो चुकी थी)
विश्वजीत और अनीता
विश्वजीत और अनीता भी लड़कियों को लखीमपुर से दिल्ली लाया करते थे. 2010 में विश्वजीत दुलहत बागान की बंगला लाइन में रहने वाली 17 वर्षीया सुहानी लोहार को दिल्ली ले गया और उमेश राय की प्लेसमेंट एजेंसी ने उसे काम पर लगवा दिया. अचानक हुई एक पुलिस रेड के दौरान उमेश राय के दफ्तर से सुहानी के साथ छह और लड़कियां बरामद हुईं. पूछताछ के दौरान सुहासी ने बताया कि उमेश राय ने उसका शारीरिक शोषण किया था. पैसों के लिए सुहासी की तस्करी करने वाला विश्वजीत तीन महीने जेल में बिता चुका है . इसी तरह अपने गांव की 10 लड़कियों की तस्करी में शामिल अनीता श्रीनिवास के साथ-साथ सुकूरपुर के महेश गुप्ता की प्लेसमेंट एजेंसी पर लड़कियां पहुंचाती थी.
(रिपोर्ट में पीड़ितों के नाम बदल दिए गए हैं)
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‘अभी एजेंट लोग जो लाए थे उनमें से पांच हजार लड़कियां घर नहीं पहुंची हैं’
लखीमपुर से लड़कियों को दिल्ली लाने वाले नौ तस्करों के बयान दर्ज करने के बाद तहलका ने दिल्ली में फैली हुई प्लेसमेंट एजेंसियों की कार्य शैली और उनके नेटवर्क को टटोलने की कोशिश की. इस दौरान तहलका की टीम ने एक घरेलू सहायक की तलाश में परेशान एक सामान्य मध्यवर्गीय परिवार के सदस्यों की तरह शकूरपुर बस्ती की प्रमुख प्लेसमेंट एजेंसियों के साथ-साथ इस धंधे में शामिल प्रमुख दलालों से भी बात की. पड़ताल के दौरान हमारी मुलाकात शकूरपुर बस्ती के एम ब्लॉक में ‘उत्तरा प्लेसमेंट एजेंसी’ चलाने वाले राकेश कुमार से हुई. पांच साल से इस धंधे में सक्रिय राकेश के साथ तहलका के छिपे हुए कैमरे पर हुई इस बातचीत के ये अंश प्लेसमेंट एजेंसियों की कार्यप्रणाली और नौकरी के नाम पर असम, बंगाल, झारखंड और उड़ीसा से आई लड़कियों का शारीरिक, आर्थिक और मानसिक शोषण करने वाले आपराधिक समूहों के बारे में भी बताते हैं
तहलका: भैया, ठीक-ठीक बता दीजिए किसी ऐसे के यहां से जहां से कोई लफड़ा न हो और अच्छी लड़की मिल जाए और एक बार में मामला फिक्स हो जाए. बार-बार इतने पैसे ले लेते हैं ये प्लेसमेंट एजेंसी वाले और हम परेशान होते रहते हैं.
राकेश: हां, हां, पन्ना लाल के यहां से आपको बिल्कुल ठीक रिस्पांस मिल जाएगा. लड़की उन्नीस-बीस भी हो तो वो पैसे लौटा देता है. पैसे खाने वाले दूसरे लोग बहुत हैं शकूरपुर में. उनका काम ही यही है. लड़की लगाना, पैसे मंगाना और फिर लड़की भगा लेना. पन्नालाल के यहां ऐसा नहीं है.
तहलका: अच्छा, पन्नालाल का अड्रेस बताइए.
राकेश: ब्रिटैनिया चौक के लेफ्ट में श्मशान घाट है. श्मशान घाट से ही आप अंदर हो जाना, बिल्कुल बरात घर के सामने वहीं है. लड़कियां उसके पास हमेशा ही रहती हैं.
तहलका: तो वो कहां से लाते हैं ? झारखंड से?
राकेश: उनके पास आपको झारखंड की भी मिल जाएंगी, असम की भी और उड़ीसा की भी. आधे से ज्यादा प्लेसमेंट वालों से तो वो खुद ही लड़कियां लेता है. उसके पास हमेशा लड़कियां रहती हैं.
तहलका: तो वो कितने पैसे लेगा? फिर लड़की का कितना जाएगा? काम सारा करना होगा.
राकेश: रेट इनका थोड़ा हाई है. 35-40 हजार तक लेते हैं. फिर लड़की अगर सेमी-ट्रेंड हो तो पांच हजार तक लग जाते हैं.
तहलका: इनका रेट यहां पर सबसे ज्यादा है क्या?
राकेश: हां, और यही यहां का सबसे बड़ा सरगना भी है. आधे से ज्यादा प्लेसमेंट एजेंसी वालों से तो खुद खरीदता है लड़कियां ये.
तहलका: पहले हम चिराग दिल्ली से एक लड़की लाए थे. 30 हजार रुपए दिए थे लेकिन वो तुरंत तीन महीने में भाग गई. हम लोग बहुत परेशान हुए.
राकेश: ऐसे भाग जाने वाले और भगाने वाले लोग अलग हैं. उनका काम सर्फ यही होता है कि लड़की लगवाते हैं, पैसे लेते हैं और फिर तीन-चार दिन काम करके लड़की गायब. कभी केबल के तार से उतर के आ जाएगी, कभी दरवाजे से भाग जाएगी. ऐसा करवाने वाले फ्रॉड-चोर दलाल भरे पड़े हैं सुकूरपुर में. जो सबसे बड़े चोर हैं, जो पैसा लेकर लड़कियां लगवाते हैं और फिर भगवाते हैं, उनमें सबसे बड़े नाम हैं- सुबोध, मोंटू मिश्रा, आलम, अनिल और उमेश राय और प्रवीण भी हैं.
तहलका: अच्छा, उस चिराग दिल्ली वाले ने हमें उमेश राय और प्रवीण के बारे में भी बताया था. इनसे ले सकते हैं क्या?
राकेश: वो सब चोर हैं. और सुकूरपुर में सब चोर हैं.
तहलका: कहां है इनकी एजेंसी?
राकेश: उमेश तो मेरे ही ऊपर एम 680 में था. अब बंद करके कहीं और चला गया है और प्रवीण तो वहीं रहता है. लेकिन आपको मैं बता देता हूं , अगर 20 तारीख के बाद आओगे तो मुझसे ले लेना. मेरे पास 20 के बाद आना शुरू होंगी लड़की.
तहलका: आप तो उत्तर प्रदेश, मथुरा से हैं न? इस लाइन में कैसे आ गए?
राकेश: मैं हिमाचल में कबाड़ी का काम करता था. मेरे चाचा से पन्नालाल की पहचान थी. तो पन्नालाल मुझसे कई बार कहा कि वहां ऑफिस खोलना है वहां और कहा कि मैं उसके साथ काम कर लूं. बस मैं घुस गया.
तहलका: तो क्या हिमाचल भी जाती हैं इसकी लड़कियां?
राकेश: कहां तक नहीं जाती हैं ये पूछो. सबसे ज्यादा तो हिमाचल और श्रीनगर. देश के बाहर भेजने वाला शंभू है. दो-दो साल के अग्रीमेंट बना के भेजता है. बाकी पन्नालाल तो पूरे देश में भेजता है.
तहलका: मेरी एक बहन है, उसका छोटा बच्चा है. बहुत परेशान करता है. उसके लिए कोई बताओ जो बाहर भेज दे लड़की. पैसे की कोई दिक्कत नहीं.
राकेश: तुम्हें जो बताया है न वो खुदा है खुदा. पहले एक लड़की ले लो, सारे काम करवा देगा. उसकी बहुत पहुंच है. बाकी अभी देख लो. उसके सिवा बीस तारीख तक तो कहीं भी नहीं लड़कियां.
तहलका: क्यों? क्या हो गया?
राकेश: झारखंड से पुलिस आया, बंगाल से आया , असम से आया. अभी एजेंट लोग जो लाए थे उनमें से पांच हजार लड़कियां घर नहीं पहुंची हैं अभी तक. सब खो गई हैं. आज तक अपने घर नहीं पहुंची.
तहलका: ये लड़कियां जा कहां रही हैं ?
राकेश: अरे कुछ नहीं, ये एजेंट ले आते हैं, प्लेसमेंट वाले काम पे लगवा देते हैं. तीन-तीन साल हो जाते हैं, किसी को पता ही नहीं होता कि लड़कियां कहां हैं. क्या मालूम कहां चली जाती हैं.
जाफीस सिद्दकी और गुलशन आरा के बेटे कतील सिद्दकी की हाल ही में यरवदा जेल में हत्या हो गई थी. फोटो: शशि
जाफीस सिद्दकी और गुलशन आरा के बेटे कतील सिद्दकी की हाल ही में यरवदा जेल में हत्या हो गई थी. फोटो: शशि
नौ जुलाई. दोपहर से थोड़ा पहले का वक्त. बिहार के बोधगया में हुए धमाकों के बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे वहां का दौरा कर चुके हैं. हम दरभंगा से करीब 20 किलोमीटर दूर बाढ़ समैला गांव पहुंचे हैं. संकरी, ऊबड़-खाबड़ और पानी से भरी सड़क पार करते हुए. करीब 500 घरों की बसाहट वाली बस्ती है समैला पोखर, लेकिन माहौल में एक अजीब सन्नाटा पसरा है. घरों से झांकते लोगों की शंका भरी निगाहों से गुजरते हुए हम सीधे जमील अख्तर के दरवाजे तक पहुंचते हैं. शुरुआती परिचय के बाद पेशे से मदरसा शिक्षक जमील से आगे कुछ पूछें कि उसके पहले ही वे अपनी सुनाने लगते हैं. वे जो कहते हैं उसका भाव कुछ यह होता है, ‘अभी तो चार दिन से बोधगया विस्फोट की खबरें छाई हुई हैं. सूत्रों के हवाले से रोज नए निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं कि यह माओवादियों का कारनामा है, मंदिर प्रबंधन की आंतरिक लड़ाई का नतीजा है, बर्मा में चल रहे बौद्धों-मुसलमानों के टकराव का परिणाम है और यह भी कि इंडियन मुजाहिदीन का कारनामा है. लेकिन तय मानिए जब बोधगया, पटना और दिल्ली में अनुमानों का युद्ध खत्म हो जाएगा, बड़े नेताओं की वहां आवाजाही और बयान रुक जाएंगे तो हमारे गांव में अनजान चेहरों का आना शुरू होगा, हमारे गांव की चर्चा होगी और फिर कोई न कोई यहां से उठाकर ले जाया जाएगा.’
हम जमील से इसकी वजह पूछते हैं. जानने की कोशिश करते हैं कि क्यों पिछले कुछ साल से उनके गांव बाढ़ समैला, उनके जिले दरभंगा और इसके आस-पास के इलाके में देश भर की पुलिस पहुंचने लगी है, लोगों को उठाकर ले जाने लगी है, और पिछले कुछ समय के दौरान देश भर में हुए आतंकी धमाकों से उनका कनेक्शन जुड़ रहा है. क्यों गांव में यह डर पसरा हुआ है कि बोधगया में कुछ हुआ है तो उसकी गाज आज नहीं तो कल यहां गिर सकती है? जमील कहते हैं, ‘वजह हम लोग जानते तो बता नहीं देते. यह तो वे ही बताएंगे.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘इंडियन मुजाहिदीन का जो अटकल-भटकल है, उसे तो पकड़ नहीं पा रहे तो क्या करेंगे, किसी न किसी को तो पकड़ते ही रहेंगे न!’
जमील की गोद में एक छोटा बच्चा है जो उनके भाई कफील अख्तर का है. दरभंगा के एक स्कूल में पढ़ाने वाले कफील को फरवरी, 2012 की एक सुबह कर्नाटक पुलिस पकड़कर ले गई थी. जमील बताते हैं, ‘सुबह-सुबह तीन-चार लोग दरवाजे पर आकर खड़े हुए. अब्बा ने पूछा कि क्या है तो उनका जवाब था कि वे लोग टावर लगाने वाले हैं. बात हो ही रही थी कि इसी बीच दो लोग सीधे घर में घुसकर कफील के बेडरूम में पहुंच गए जहां वह अपनी पत्नी के साथ था और फिर उसे पकड़कर यह कहते हुए ले गए कि बस दो-चार घंटे में छोड़ देंगे. जाते-जाते एक नंबर दिया था उन्होंने. जब उस पर कॉल किया तो बताया गया कि अभी तो वे दरभंगा में हैं और कफील को रांची ले जा रहे हैं, फिर बेंगलुरु ले जाने का पता चला और उसके बाद एनआईए के हवाले कर देने की खबर आई.’ कफील पर चार्जशीट हो चुकी है, लेकिन जमील को साफ-साफ पता नहीं है कि किस मामले में.
जमील से बातें करने के बाद हम थोड़ी ही दूर जफीस सिद्दीकी के घर पहुंचते हैं. जफीस कतील सिद्दीकी के पिता हैं. कतील की पिछले महीने यरवदा जेल में हत्या हो गई थी. कतील की मां गुलशन आरा रोते हुए कहती हैं, ‘हमारे बेटे को यह कहकर उठाया गया था कि वह नकली नोटों का कारोबार करता है.
अगर मेरा बेटा नकली नोटों का कारोबार करता तो हमारा घर इस हाल में होता? हम साल-दर-साल खेत बेचकर बच्चों की पढ़ाई-लिखाई करवाते?’ जफीस सिद्दीकी कहते हैं, ‘हमारा बेटा आतंकवादी था, जाली नोटों का कारोबारी था या कुछ और, यह तो वही लोग बताते हैं लेकिन उसके मरने के बाद एक पिता के तौर पर मुझे उसकी मौत की खबर पाने का तो अधिकार था, लेकिन अब तक सरकार या प्रशासन की ओर से आधिकारिक सूचना नहीं दी गई है. पुणे से हम उसकी लाश भी अपने खर्च से लेकर आए. पैसा नहीं था तो लोगों ने चंदा किया.’
जफीस के कुछ सवाल हैं. वे कहते हैं, ‘पुलिस यह तो बताए कि जब मेरे बेटे को 19 नवंबर, 2011 को उठाया गया था तो फिर यह क्यों बताया गया कि उसे 23 नवंबर को दो लाख रुपये के नकली नोट और नौ पिस्टल के साथ पकड़ा गया है. उसे छह जून, 2012 को दिल्ली के कोर्ट में पेश किया जाना था तो क्यों नहीं ले जाया गया, क्यों उसे यरवदा जेल में ही रोके रखा गया और आठ जून को उसकी हत्या कैसे हो गई?’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘हमें तो बाद में किसी ने यह भी कहा कि मेरे बेटे ने 2003 में अपनी बेटी के इलाज के लिए किसी से एक लाख रुपये बतौर कर्ज लिए थे, उस चक्कर में भी उसकी दुश्मनी हुई होगी. हमारे बेटे की शादी ही 2005 में हुई तो 2003 में उसकी बेटी कहां से आ गई? हम बेटा खो चुके हैं. कहां-कहां कहें अपनी बात?’
जफीस से मिलने के बाद हम मोहम्मद फसीह के घरवालों से मिलने जाते हैं. संदेश भिजवाने पर फसीह के डॉक्टर पिता विनम्रता से बातचीत के लिए मना कर देते हैं. इस संदर्भ में मोहम्मद फसीह का नाम न सिर्फ बाढ़ समैला बल्कि पूरे इलाके में सबसे अधिक चर्चित हुआ है. पिछले साल फसीह को सऊदी अरब से प्रत्यर्पण करवाकर भारत लाया गया है. फसीह को इंडियन मुजाहिदीन के संस्थापक यासीन भटकल का खास आदमी और इंडियन मुजाहिदीन के संस्थापकों में से एक बताया जाता है. फसीह की पत्नी निखत परवीन फोन पर बताती हैं, ‘मुझे तो अब तक कुछ पता ही नहीं चल रहा है. मैंने तो डीजीपी से लेकर सरकार तक से संपर्क किया. डीजीपी कह रहे हैं कि उन्हें कुछ पता नहीं. नीतीश कुमार सिर्फ इतना कह रहे हैं कि गलत है. लालू या उनकी पार्टी वोट बैंक के लिए ही सही, कम से कम बोल तो रहे हैं लेकिन नीतीश तो बोल तक नहीं रहे.’
बाढ़ समैला में लंबे समय तक रुकने और इस दौरान कई लोगों से बात करने के बाद हम दरभंगा लौट आते हैं. वहीं इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश करते हैं कि जिस इलाके की पहचान अलग-अलग समय में अलग-अलग विभूतियों की वजह से रही वह क्यों हालिया वर्षों में आतंक के गढ़ के रूप में जाना जाने लगा है. क्यों सिर्फ पिछले तीन साल में देश से जिन 14 आतंकियों को पकड़ा गया है उनमें अधिकांश इसी जिले के या पास के मधुबनी जिले के हैं?
[box]‘जो दोषी हो उसे कठोर सजा दें, लेकिन पूरे इलाके को तो बदनाम न करें. फिर तो इलाके में मुसलमान होना और मुसलमानों का रहना ही गुनाह हो जाएगा!’[/box]
दरभंगा में कोई इस पर खुलकर बात करने को तैयार नहीं होता. कुछ लोग एक-एक कर बताते हैं कि कैसे 23 नवंबर, 2011 को सबसे पहले मधुबनी के सकरी गांव से कयूर जमाली को दिल्ली पुलिस के स्पेशल ब्रांच ने पकड़ा था और उसके बाद से यह सिलसिला ही चल निकला. बाद में बाढ़ समैला के कतील सिद्दीकी को पकड़ा गया और फिर वहीं के गौहर अजीज खुमैनी को. इसके बाद जिले के ही चकजोहरा गांव के अब्दुल रहमान और फिर देवराबंधौली गांव के नकी और नदीम को पुलिस ने गिरफ्तार किया. फिर मधुबनी जिले में बलहा के मोहम्मद कमाल, उसके बाद दरभंगा शहर में ही 55 वर्षीय साइकिल मिस्त्री मोहम्मद कफील, फिर दरभंगा के रजौरा से अब्दुल्ला दिलकश और बाढ़ समैला से कफील अख्तर की गिरफ्तारी हुई. इसी दौरान सऊदी अरब से फसी महमूद को भारत लाया गया.
इनमें से ज्यादातर गरीब घरों के नौजवान हैं सो एक वर्ग आशंका जता रहा है कि उनका बहकना आसान रहा होगा, लेकिन कुछ गिरफ्तारियों पर सवाल उठ रहे हैं. एक तो 55 वर्षीय साइकिल मिस्त्री मोहम्मद कफील की ही है. कफील ने ही कथित रूप से इंडियन मुजाहिदीन के संस्थापक यासीन भटकल को दरभंगा में पनाह दी थी जो डॉ इमरान के नाम से दरभंगा में रहते हुए हकीम बनकर अपने नेटवर्क का विस्तार कर रहा था. स्थानीय पत्रकार और इलाके की गहरी समझ रखने वाले विजय पूछते हैं, ‘जब करोड़पति और सऊदी अरब में रहने वाला फसी महमूद भटकल का दायां हाथ माना जा रहा है और वह संस्थापकों में से एक था तो भला भटकल को एक साइकिल वाले के सौजन्य से गंदी बस्ती में रहने की जरूरत क्या थी? वह बाढ़ समैला गांव में मजे से रहकर भी अपना काम कर सकता था! चलिए, मान लिया कि पकड़े गये सारे आतंकवादी ही साबित होंगे लेकिन अपने देश में एक विदेशी आतंकवादी कसाब के पकड़े जाने पर सरकार मुकदमा लड़ने से लेकर तमाम तरह के इंतजाम करती है तो इस इलाके के जो नौजवान पकड़कर ले जाए जाते रहे हैं उनका मुकदमा कैसे लड़ा जा रहा है, कौन लड़ रहा है और लड़ने के लिए पैसे कहां से आएंगे, इस पर किसी नेता ने कभी बात ही नहीं की!’
विजय के ये सवाल सही हैं लेकिन हम उनसे दूसरा सवाल करते हैं कि एकबारगी से तो ऐसा नहीं हुआ होगा कि देश भर से पुलिस यहां पहुंचने लगी और एक के बाद एक नौजवानों को उठाकर ले जाने लगी. इसकी आहट पहले भी तो सुनाई पड़ी होगी. इस बार जवाब सामाजिक कार्यकर्ता शकील सल्फी देते हैं. वे कहते हैं, ‘करीब एक दशक पहले फजलूर रहमान नामक एक आदमी पकड़ा गया था. उसका केस अभी भी दरभंगा की अदालत में चल रहा है. उस पर एक व्यवसायी के बेटे के अपहरण का मामला था. बाद में उसका कनेक्शन दाऊद इब्राहिम ग्रुप से बताया गया था. फिर यह भी कहा गया कि बॉलीवुड में भी उसके कारनामे रहे हैं. बहरहाल, बात आई-गई हो गई थी. 2009 में मधुबनी से उमैर मदनी को पकड़ा गया. तब इंडियन मुजाहिदीन नामक संस्था का नाम ताजातरीन था. फिर दो साल शांति रही, लेकिन 2011 के आखिर से तो जो सिलसिला शुरू हुआ उससे इस इलाके की पहचान ही बदल गई. कोई आतंक का दरभंगा मॉड्यूल कहने लगा तो कोई आतंकवादियों की नर्सरी.’ शकील कहते हैं, ‘जो दोषी हो, उसे सजा दें, कठोर सजा दें, लेकिन पूरे इलाके को तो बदनाम न करें. फिर तो इस इलाके में मुसलमान होना और मुसलमानों का रहना ही गुनाह हो जाएगा!’
शकील जो कहते हैं वह होना शुरू भी हो चुका है. दरभंगा के सल्फी मदरसा में मिले एहतेशाम कहते हैं, ‘दिल्ली में हमारे साथियों को हॉस्टल, लॉज और कमरा तक मिलने में परेशानी हो रही है. यहां के जो बच्चे पहले से कहीं पढ़ रहे हैं, उन्हें संदेह के नजरिये से देखा जा रहा है.’ दूसरे लोग यह भी कहते हैं कि अभी से ही इलाके में शादी-ब्याह करने में लोग सोचने लगे हैं और आने वाले दिनों में मुश्किलें और बढ़ने वाली हैं.
तमाम दलों के नेताओं ने बाढ़ समैला जैसे गांवों का दौरा तो किया है लेकिन रस्मी तौर पर. दरभंगा और मधुबनी का संसदीय क्षेत्र फिलहाल भाजपा के खाते में है और पास का समस्तीपुर संसदीय क्षेत्र जदयू के हवाले. इन दोनों दलों के लिए यह कभी मसला नहीं रहा. लालू प्रसाद इस मसले को हमेशा उठाते रहे हैं लेकिन एक सीमा के बाद उनका बोलना भी रस्मी लगता है. राजद के ही गुलाम गौस जैसे नेता कुछ ज्यादा सक्रिय दिखे लेकिन उनकी भी एक सीमा रही. कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता डॉ शकील अहमद भी पास के ही इलाके से आते हैं, वे भी इधर आए लेकिन गोल-मोल बातों के अलावा कुछ न कर सके. मुसलमानों को सबसे नाराजगी है लेकिन सबसे ज्यादा नाराजगी इस बात से है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कुछ क्यों नहीं बोलते, इलाका बदनाम हो रहा है.
एक वर्ग से यह सवाल भी उठ रहा है कि आग लगी तो धुआं उठा या धुआं उठाकर आग होने के संकेत दिए जाते रहे हैं. और यह भी कि आखिर कोई राज्य क्यों ऐसी छूट दिए हुए है कि दरभंगा-मधुबनी इलाके में किसी राज्य की पुलिस पहुंचे और किसी को उठाकर ले जाए. कुछ समय पहले पुलिस महानिदेशक अभयानंद ने इस पर जवाब दिया था, ‘हमें बताकर किसी राज्य के पुलिसवाले आएं, तब तो हम बताएं कि असल माजरा क्या है.’ दरभंगा के एक पुलिस अधिकारी कहते हैं, ‘यह धुआं ऐसे ही नहीं उठा है, आग लगी थी. कुछ और गिरफ्तारियां होंगी तो आजमगढ़ की तरह कमर टूट जाएगी. लोग ही तंग होकर तौबा करने लगेंगे तो फिर आतंकी संगठन इधर नजर नहीं उठा सकेंगे.’ यह सुनकर हमें बाढ़ समैला के जमील की बात याद आती है जिनका कहना था कि बोधगया में कोई सुराग नहीं मिलेगा तो लकीर पीटने के लिए इधर ही आवाजाही बढ़ेगी.
हमारे यहां से निकलते-निकलते खबरें आने लगी हैं कि बोधगया बम कांड के तार इंडियन मुजाहिदीन और दरभंगा से जुड़ने के संकेत मिल रहे हैं. खुफिया विभाग ने दरभंगा, मधुबनी इलाके पर नजर रखने को कहा है ताकि उधर से कोई नेपाल न निकल जाए. शकील सल्फी कहते हैं, ‘नेपाल के पास होना भी एक बड़ा गुनाह ही है इस इलाके के मुसलमानों के लिए.’
ऐसा तो कभी नहीं हुआ था. खून के एक नमूने का ब्लडग्रुप तय करने में भारी मशक्कत लग रही थी. कभी-कभी तो हद हो जाती, जब एक साथ कई ब्लडग्रुप निकल आते. आखिर यह कौन-सी पहेली है! लैब में डॉक्टर से लेकर टेक्नीशियन तक सब हलकान. अभी पहले वाले का ब्लडग्रुप निकालने में सभी पिले पड़े हैं जिसने सबका तेल निकाल रखा है जबकि दो सैंपल और पड़े हुए हैं.
खुलता रहस्य- कई बार अपने सहायक को भेजने के बाद वह व्यक्ति, जिसके खून के नमूने के कारण बवंडर मचा है, अपने लाव-लश्कर के साथ पैथोलॉजी में अपनी रिपोर्ट लेने आज खुद आ धमका है. दरअसल, उसका खून उसके घर में निकाला गया था, जिसे पैथोलॉजी उसका कोई ‘अपना आदमी’ लेकर आया था. आज जिस वेशभूषा में वह यहां खुद आया है, तो उससे इस समस्या के समाधान की राह खुलती-सी नजर आ रही है. कल हर हाल में रिपोर्ट देने की चेतावनी देकर वह चला गया.
लैब का दृश्य- ‘अबे, तभी तो कहे कि काहे एक से ज्यादा ब्लड ग्रुप शो हो रहा है.’ ‘काहे!’ ‘हर वर्ग का खून चूसा है न, इसलिए…’ ‘तो कौन-सा ब्लड ग्रुप दिया जाए! आखिर कोई न कोई तो देना पड़ेगा ही.’ ‘ऐसा करो, नेता जी का ब्लडग्रुप एबी रख दो!’ ‘ऐसा क्यों भई?’ ‘एबी यूनिवर्सल है ना! सबका खून ले सकता है भई… समझे कि नहीं!’ लैब में ठहाके गूंज उठे.
अब बारी दूसरे ब्लड सैंपल की…
इस ब्लड सैंपल का ब्लड ग्रुप निकालने में कोई कठिनाई नहीं हुई. जिस समय इसकी रिपोर्ट मालिक के हाथ लगी, उनके हाथ में मिठाई का टुकड़ा था. मिठाई खाते-खाते रिपोर्ट देखने लगे. देखा, सब नॉर्मल निकला. शुगर थोड़ी बढ़ी हुई जरूर थी. रिपोर्ट को किनारे रख मिठाई का एक और टुकड़ा उठा कर खाने लगे. बात यह थी कि वित्तीय अनियमितता के एक मामले में आज ही उन्हें ‘क्लीन चिट’ मिली है. क्लीन चिट उन्हें ऐसे ही नहीं मिली थी. जितना कमाया था, कम से कम उसका आधा तो उन्हें देना ही पड़ा था. जांच कमीशन से लेकर शासन तक. इस बीच वे बचे पैसे निवेश करने की योजना बनाते रहे. तभी उन्हें रिपोर्ट का ख्याल आया. उन्होंने उसे अलसाए ढंग से उठाया. उनकी नजर अपने ब्लडग्रुप पर पड़ी. देख कर मुस्कुरा दिए. रिपोर्ट में ब्लडग्रुप ‘बी पॉजिटिव’ लिखा था.
तीसरा ब्लड सैंपल और उसकी रिपोर्ट- खून देने वाला काउंटर पर खड़ा है. कर्मचारी ने उसकी ब्लड रिपोर्ट उसके हाथों में ऐसे थमाई जैसे दिहाड़ी मजदूर को फावड़ा थमाना. वह व्यक्ति सहायक की ओर लक्ष्य करते हुए बोला, ‘इया का आवा है?’ ‘तुम्हारे खून में हीमोग्लोबिन की कमी है.’ ‘हीमो…यू का है?’ कर्मचारी ने पहले उसे घूर कर देखा फिर बोला, ‘लोहे की कमी है तुम्हारे खून में.’ ‘लोहे की! अरे, हम ता जिंदगी में हर बखत ही लोहा लेत रहत है फिर हमरे खून में लोहा कैसे कम हो सकत है!’ कर्मचारी कुछ पिघला, ‘उदास मत हो! तुम्हारा ब्लडग्रुप बहुत अच्छा है…’ उस व्यक्ति ने अपनी गर्दन पर जोर दिया. उसका चेहरा थोड़ा उठा. कर्मचारी ने उसके चट्टान जैसे सख्त चेहरे को देखा. उसे ढाढ़स बंधाते हुए बोला, ‘बहुत अच्छा खून है तुम्हारा. तुम्हारा ब्लडग्रुप ओ पॉजिटिव है… ओ पॉजिटिव.’ वह व्यक्ति चुपचाप निष्प्राण सुने जा रहा था. कर्मचारी उसका उत्साहवर्धन करते हुए बोला, ‘जानते हो इसका मतलब ! अरे, तुम किसी को भी अपना खून दे सकते हो…’
1. 15 नवंबर, 2000 को बिहार से अलग होकर झारखंड बना. एनडीए की सरकार बनी. भाजपा नेता बाबूलाल मरांडी मुख्यमंत्री बने. भाजपा के 32 विधायक थे तो स्वाभाविक तौर पर उसका दावा था. पांच विधायक समता पार्टी के थे, तीन जदयू के, दो निर्दलीय. सबने मिलकर सरकार बनाई. लेकिन पार्टी में खिचखिच जारी रही और 17 मार्च, 2003 को मरांडी की सरकार चली गई. वजह रही समता पार्टी और जदयू के विधायकों का विरोध. उनमें से कोई बिजली बोर्ड के अध्यक्ष को हटाने की मांग कर रहा था तो कोई ट्रांसफर-पोस्टिंग में अपने अधिकार मांग रहा था. बात संभल न पाई. देखते ही देखते सत्ता पक्ष के सात विधायक विपक्ष की कुर्सी पर बैठ गए. तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी ने खुद ही मुख्यमंत्री बनने का दांव खेला, लेकिन वे सफल नहीं हो पाए. यूपीए अपने विधायकों और मरांडी से नाराज एनडीए विधायकों को लेकर पिकनिक मनाने चला गया. मरांडी परेशान रहे, मैनेज करने की कोशिश में लगे रहे, लेकिन बात बन न सकी और भाजपा भी सत्ता बचाने के फेर में अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री बनाने को राजी हो गई. मुंडा पुराने भाजपाई नहीं थे, झामुमो से राजनीति शुरू करने के बाद एक चुनाव पहले ही भाजपा में आए थे लेकिन उनकी किस्मत ने साथ दिया था तो भला कौन रोकता.
2. 18 मार्च, 2003 से दो मार्च, 2005 तक मुंडा सत्ता संभालते रहे. 2005 में चुनाव हुआ. भाजपा 30 सीटों पर विजयी हुई लेकिन सरकार बनाने का दावा झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता शिबू सोरेन ने पेश किया. सोरेन दो मार्च, 2005 को मुख्यमंत्री बने लेकिन दस दिन बाद ही उनकी कुर्सी चली गई. सोरेन ने झामुमो के 17, कांग्रेस के नौ, राजद के सात, सीपीआई के दो और निर्दलीयों के भरोसे सरकार बनाई थी. लेकिन जब सदन में बहुमत साबित करने की बात आई तो उसके पहले ही छह निर्दलीय विधायक राजस्थान देशाटन करने चले गए. सरकार गिर गई. 10 दिन की सरकार का एक रिकॉर्ड शिबू सोरेन के नाम बन गया.
3. सोरेन पूर्व मुख्यमंत्री बन गए तो फिर दांव भाजपा ने खेला. पार्टी के पास अपने 30 विधायकों सहित जदयू के छह, आजसू के दो और चार निर्दलीय विधायक भी आ गए. अर्जुन मुंडा फिर मुख्यमंत्री बने. लेकिन 12 मार्च, 2005 से शुरू हुआ मुख्यमंत्री पद का उनका सफर 14 सितंबर, 2006 को खत्म हो गया. इस बार मधु कोड़ा ने विरोध का बिगुल फूंका. कोड़ा पहले भाजपाई थे, लेकिन बाद में निर्दलीय हो गए थे. कोड़ा ने कोल्हान इलाके के हाट-गम्हरिया पथ के निर्माण कार्य में ठेकेदार बदलने की मांग की और यह मांग न माने जाने पर वे विपक्ष के पाले में बैठ गए. निर्दलीय विधायक एनोस एक्का, कमलेश सिंह और हरिनारायण राय भी उनके रास्ते पर चल निकले. अर्जुन मुंडा की सरकार के दिन पूरे हो गए.
4. कोड़ा ने मुंडा को पद से हटाया और इस बार नये प्रयोग की शुरुआत हुई. निर्दलीय कोड़ा को ही मुख्यमंत्री बना दिया गया. लेकिन उनकी सत्ता की पारी भी अधूरी रही. 14 सितंबर, 2006 से शुरू हुई मुख्यमंत्री पद की कोड़ा की यात्रा 27 अगस्त, 2008 को खत्म हो गई. इस तरह देखा जाए तो उनका सफर 709 दिन चला. समय का फेर देखिए कि इस सरकार को चलाने के लिए जो स्टीयरिंग कमेटी बनाई गई थी उसके प्रमुख और झामुमो मुखिया शिबू सोरेन के मन में ही फिर से मुख्यमंत्री बनने की इच्छा हिलोरें मारने लगी. शिबू सोरेन ने जिद की, कांग्रेस ने साथ दिया, सत्ता का हस्तांतरण कोड़ा से सोरेन को हो गया, बाकि निर्दलीय उसी तरह मलाईदार पदों पर बैठे रहे. मधु कोड़ा को शिबू सोरेन की जगह स्टीयरिंग कमेटी का प्रमुख बना दिया गया.
5. शिबू सोरेन अपने हठ से मुख्यमंत्री तो बन गए लेकिन तब वे सांसद थे. छह महीने के भीतर उन्हें विधायक बनना था. उसी दौरान नक्सलियों ने रांची से ही सटे तमाड़ के जदयू विधायक रमेश सिंह मुंडा की हत्या कर दी थी, वह सीट खाली हुई थी. मुख्यमंत्री सोरेन वहीं से चुनाव लड़े, लेकिन एक निर्दलीय गोपाल कृष्ण पातर उर्फ राजा पीटर से हार गए. न घर के रहे, न घाट के, 18 जनवरी, 2009 को उन्हें पद छोड़ना पड़ा. राज्य में राष्ट्रपति शासन लग गया.
6. 19 जनवरी, 2009 से 29 दिसंबर, 2009 तक राष्ट्रपति शासन चला. इसी बीच झारखंड में विधानसभा चुनाव हुए. सरकार बनाने की फिर कोशिश शुरू हुई. इस बार शिबू सोरेन ने पाला बदला और भाजपा से गलबहियां करके मुख्यमंत्री बन बैठे. 30 दिसंबर, 2009 को उनकी मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी हुई. इस बार सत्ता समीकरण साधने में उनके अपने यानी झामुमो के 18, भाजपा के 18, आजसू के पांच, जदयू के दो और दो निर्दलीय विधायक साथ थे. भाजपा के रघुवर दास उपमुख्यमंत्री बनेे. दूसरे उपमुख्यमंत्री के तौर पर आजसू के सुदेश महतो आए. इसी बीच लोकसभा में वोटिंग की बारी आई. सोरेन दिल्ली जाकर यूपीए के पक्ष में वोट दे आए. भाजपा ने समर्थन वापस ले लिया और 31 मई, 2010 को सोरेन की सरकार चली गई. इस बार महज 152 दिन का सत्ता सुख भोग सके सोरेन. राज्य में फिर राष्ट्रपति शासन लगा.
7. एक जून, 2010 से 11 सितंबर, 2010 तक झारखंड में राष्ट्रपति शासन रहा. भाजपा ने पिता शिबू सोरेन को सत्ता से बेदखल किया था, लेकिन राष्ट्रपति शासन के दौरान उनके बेटे हेमंत सोरेन सरकार बनाने के लिए सक्रिय हुए. उन्होंने गणित बिठाया और एक बार फिर भाजपा को नेतृत्व करने को कहा. 11 सितंबर को अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री बने. दो-दो उपमुख्यमंत्री बनाए गए. एक झामुमो के हेमंत सोरेन और दूसरे आजसू के सुदेश महतो. झामुमो के 18, भाजपा के 18, आजसू के पांच, जदयू के दो और दो निर्दलीय विधायकों से सरकार चल रही थी कि झामुमो ने बीच में ही लंगड़ी मार दी. कहा कि सत्ता का समझौता 28-28 माह का हुआ था, अर्जुन मुंडा अब सत्ता छोड़ दें. भाजपा तैयार नहीं हुई. नतीजतन आठ जनवरी, 2013 को झामुमो ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया और राज्य में एक बार फिर राष्ट्रपति शासन लग गया.
एक सभा में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी; फोटो: शैलेंद्र पांडेय
एक सभा में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी; फोटो: शैलेंद्र पांडेय
जब नगीचे चुनाव पास आवत है, भात मांगो तो पोलाव आवत है. अवधी कवि रफीक सादानी के ये शब्द गांधी परिवार के निर्वाचन क्षेत्र अमेठी व रायबरेली लोकसभा क्षेत्र के लोगों पर सटीक बैठते हैं. चुनाव करीब आते ही दोनों वीवीआइपी लोकसभा क्षेत्रों के लिए करोड़ों रु की योजनाओं की झड़ी लगा दी गई है. हालांकि कांग्रेस ने ऐसा कोई पहली बार नहीं किया है. 2009 के लोकसभा चुनाव की तैयारी के लिए 2007 से ही पार्टी ने अमेठी और रायबरेली के लिए योजनाओं का अंबार लगाना शुरू कर दिया था. लेकिन सारी योजनाएं 2009 के चुनाव तक ठंडे बस्ते में ही रहीं. कांग्रेस ने यह कहते हुए इसका सियासी फायदा उठाने का प्रयास किया था कि राज्य की तत्कालीन बसपा सरकार योजनाओं के लिए जमीन ही नहीं दे रही है. लेकिन इस बार स्थितियां अलग हैं. कांग्रेस जैसे-जैसे अमेठी व रायबरेली के लिए योजनाओं की घोषणा कर रही है राज्य सरकार उसे जमीन व अन्य संसाधन भी उपलब्ध कराती जा रही है. लिहाजा 2014 के लोकसभा चुनाव के लिहाज से कांग्रेस को राज्य सरकार पर आरोप लगाने का मौका ही नहीं मिल पा रहा.
गांधी परिवार 2014 के लिए रायबरेली व अमेठी को लेकर 2009 के मुकाबले अधिक गंभीर है. कारण 2012 का विधानसभा चुनाव है जिसमें कांग्रेस का गढ़ समझे जाने वाले इस इलाके की 10 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस के हिस्से में महज दो सीटें आईं. इस करारी हार के बाद लोकसभा चुनाव में भी कोई गड़बड़ न हो इसे ध्यान में रखते हुए गांधी परिवार ने अमेठी व रायबरेली के अपने किले को बचाए रखने के लिए एक बार फिर लोकलुभावन विकासरूपी चुनावी वादों का सहारा लिया है.
सबसे पहले बात कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के क्षेत्र रायबरेली की. यहां हाल ही में देश का पहला महिला केंद्रीय विश्वविद्यालय और उड्डयन विश्वविद्यालय खोले जाने की घोषणा की गई है. इसके अतिरिक्त सोनिया गांधी ने एक एफएम रेडियो स्टेशन, किलाबाजार में बालिका इंटर कॉलेज का शिलान्यास और एक डाकघर का उद्घाटन किया है. एक फूड मार्ट और एम्स की घोषणा भी हो चुकी है. एम्स के लिए प्रदेश सरकार की ओर से जमीन भी उपलब्ध करा दी गई है. नेशनल हाइवे अथॉरिटी आफ इंडिया ने राजधानी लखनऊ से रायबरेली तक फोरलेन रोड के लिए जमीन अधिग्रहण की अधिसूचना भी हाल में जारी की है.
इन योजनाओं के अतिरिक्त लोकसभा चुनाव में रायबरेली लोकसभा के कील-कांटे दुरुस्त करने का जिम्मा प्रियंका गांधी ने खुद संभाला है. पिछले तीन-चार महीने में प्रियंका खुद आधा दर्जन से अधिक बार रायबरेली का दौरा कर चुकी हैं. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार के बाद उन्होंने रायबरेली में पार्टी संगठन को कसने की कोशिश की है. वे लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले हर एक ब्लॉक के पदाधिकारियों के साथ बैठक करके रणनीति बना रही हैं. संगठन को मजबूती प्रदान करने के लिए पार्टी की ओर से ब्लॉक अध्यक्षों को 100 सीसी की बाइक तक दी गई है ताकि वे दौड़-धूप करके संगठन मजबूत कर सकें. प्रियंका महीने में एक बार रायबरेली लोकसभा क्षेत्र से जुड़े संगठन के लोगों की बैठक दिल्ली में भी कर रही हैं.
अब बात राहुल गांधी के लोकसभा क्षेत्र अमेठी की. राहुल ने जगदीशपुर औद्योगिक क्षेत्र में पेपर मिल लगाने का एलान किया है. इसके अतिरिक्त सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ होटल मैनेजमेंट, कैटरिंग टेक्नोलाजी ऐंड अप्लाइड न्यूट्रीशन इंस्टीट्यूट भी अमेठी लोकसभा में खोले जाने की घोषणा कांग्रेस की ओर से की गई है. ऐसा नहीं है कि अमेठी व रायबरेली पर सिर्फ गांधी परिवार के लोग ही मेहरबान हैं. कांग्रेस कोटे के केंद्रीय मंत्री भी इन क्षेत्रों में योजनाओं का एलान करने में पीछे नहीं हैं. दो-तीन महीने पहले केंद्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा भी जगदीशपुर में स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया के सहयोग से पावर प्लांट लगाए जाने की बात कह चुके हैं. रायबरेली की तरह ही नेशनल हाइवे अथॉरिटी आफ इंडिया लखनऊ से अमेठी तक फोर लेन रोड का निर्माण भी लोकसभा चुनाव से पूर्व करना चाहता है. इसकी अधिसूचना का काम भी शुरू हो चुका है. केंद्र की बहुप्रतीक्षित कैश फॉर सब्सिडी स्कीम के तहत उत्तर प्रदेश के छह जिले चुने गए हैं जिनमें अमेठी व रायबरेली दोनों शामिल हैं.
अब कांग्रेस के चुनावी वादों पर गौर करें तो पता चलता है कि 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले भी अमेठी में पेपर मिल बनाने का वादा किया गया था. लेकिन पांच साल तक योजना ठंडे बस्ते में ही रही. फिर जैसे ही 2014 के लोकसभा चुनाव की आहट सुनाई देने लगी, तो राहुल ने एक बार फिर से पेपर मिल खोले जाने का शगूफा जनता के बीच छोड़ दिया है. इसी तरह जगदीशपुर औद्योगिक क्षेत्र में बंद पड़ी माल्विका स्टील फैक्टरी को केंद्र सरकार ने 2009 के लोकसभा चुनाव से पूर्व स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया को सौंप दिया था. उस समय यहां एक बड़ा कार्यक्रम तक आयोजित किया गया.
इसमें राहुल सहित कई केंद्रीय मंत्री भी शामिल हुए लेकिन पांच साल का समय बीतने को आ रहा है और फैक्ट्ररी अब तक बंद है. इसी तरह रायबरेली के लालगंज में रेलकोच कारखाने के लिए किसानों की सैकड़ों एकड़ जमीन तो ले ली गई है लेकिन कारखाना चलने के नाम पर वहां सिर्फ कपूरथला से रेलकोच मंगवा कर फिनिशिंग का काम हो रहा है. लिहाजा कांग्रेस का यह दावा कि कारखाना लगने से स्थानीय लोगों को काफी संख्या में रोजगार मिलेगा सिर्फ बेमानी ही साबित हो रहा है. फिनिशिंग के काम में विभिन्न रेलकोच कारखानों से ही इंजीनियरों व टेक्नीनीशियनों को बुला कर काम चलाया जा रहा है. इसमें स्थानीय लोगों को काम पर लगाया ही नहीं गया.
अतीत बताता है कि कांग्रेस की पहल पर अमेठी व रायबरेली में वेस्पा और आरिफ सीमेंट जैसे बड़े कारखाने लगे तो लेकिन कुछ साल चल कर बंद भी हो गए. इसके चलते वहां के स्थानीय किसानों की सैकड़ों एकड़ उपजाऊ जमीन आज भी इन कारखाना मालिकों के पास ही बंधक पड़ी है. कारखाने बंद होने के कारण स्थानीय किसानों को न तो रोजगार मिला न ही काम लिहाजा आज वे भुखमरी के कगार पर हैं या कामकाज की तलाश में दिल्ली, मुंबई, सूरत या लुधियाना पलायन करने को विवश हैं.
उधर, प्रदेश की सपा सरकार कांग्रेस के इन चुनावी शगूफों की हवा बड़े ही शांतिपूर्ण ढंग से निकालती दिखती है. सचिवालय में तैनात एक सीनियर आईएएस कहते हैं, ‘कांग्रेस ने रायबरेली में एम्स के लिए जमीन की मांग की जिसे दे दिया गया. इसके अतिरिक्त कैटरिंग टेक्नोलोजी के लिए भी जमीन मांगी गई जिसे सरकार ने 13 दिन में ही मुहैया करा दिया. ऐसे में कांग्रेस के पास यह बहाना नहीं बचता है कि राज्य सरकार जमीन उपलब्ध नहीं करवा रही है.’ ये अधिकारी बताते हैं कि अमेठी व रायबरेली के लिए केंद्र से आने वाली योजनाओं की मॉनीटरिंग खुद सूबे के मुख्य सचिव समय समय पर कर रहे हैं ताकि पूर्ववर्ती बसपा सरकार पर जैसे जमीन उपलब्ध न कराने का आरोप लग रहा था वैसा आरोप सपा पर न लगने पाए. रायबरेली से सपा विधायक रामलाल अकेला कहते हैं, ‘चुनाव से पूर्व अमेठी व रायबरेली के लिए तमाम योजनाओं की घोषणा करना कांग्रेस का एजेंडा है. एम्स जैसी बड़ी योजनाओं के लिए हमारी सरकार ने जमीन उपलब्ध करवा दी है लेकिन केंद्र की ओर से ही काम शुरू नहीं कराया जा रहा है. अब स्थानीय लोग भी इनकी नीति को जान गए हैं जिसका परिणाम कांग्रेस को 2012 के विधानसभा चुनाव में मिल चुका है.’ वहीं अमेठी लोकसभा से कांग्रेस के विधायक डॉ मोहम्मद मुस्लिम बस इतना कहते हैं कि कांग्रेस जितने वादे कर रही है वे सब जल्द ही पूरे हो जाएंगे.
अगले साल होने वाले आम चुनाव को ध्यान में रखते हुए बिहार में कांग्रेस के सामने तीन रास्ते हैं. या तो वह जनता दल (यूनाइटेड) के साथ गठबंधन करे या फिर लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के साथ. तीसरा रास्ता है अपने बूते पर चुनाव लड़ना. हालांकि राज्य में पार्टी के नेता राजद और लोजपा के साथ गठबंधन के इच्छुक हैं, लेकिन जिस तरह पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी ‘पार्टी का संगठन तैयार करने’ पर जोर दे रहे हैं उससे लगता है कि केंद्रीय नेतृत्व अकेले चुनाव लड़ने को प्राथमिकता देगा.
2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान बिहार में कांग्रेस को अकेले मैदान में उतरने को मजबूर होना पड़ा था और उसे मुंह की खानी पड़ी थी. पार्टी को 40 लोकसभा सीटों में से महज दो पर जीत हासिल हुई. इससे पहले वर्ष 2004 में कांग्रेस, राजद और लोजपा के गठबंधन को 29 सीटें मिली थीं. उन चुनावों में झारखंड में भी यह गठजोड़ 14 में से आठ सीटें हासिल करने में कामयाब रहा था. जबकि 2009 में अकेले लड़ने वाली कांग्रेस एक सीट पर सिमट गई थी.
अब जबकि आगामी आम चुनाव को एक साल से भी कम वक्त बचा है कांग्रेस बिहार और झारखंड की कुल 54 सीटों पर अपना प्रदर्शन सुधारने के तौर-तरीके तलाश रही है. जदयू के भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) से बाहर निकल जाने के बाद अब वहां कांग्रेस के पास कई विकल्प हैं. पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व बिहार में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से लगातार चर्चा करके चुनावपूर्व गठबंधन की संभावनाएं तलाश रहा है.
जिन तीन विकल्पों का जिक्र अब तक हुआ है फिलहाल तो उनमें से किसी पर भी कोई फैसला नहीं हुआ है.
पहला विकल्प है जदयू के साथ गठबंधन. बिहार में जदयू-भाजपा गठबंधन टूटने के बाद हुए विश्वासमत के दौरान कांग्रेस ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का समर्थन किया था. बिहार के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बीच जो सार्वजनिक बयानबाजी हुई उसमें से भी सौहार्द छलक रहा था. इसके बावजूद पार्टी के अनेक नेता जदयू के साथ चुनावपूर्व गठबंधन को लेकर हिचकिचा रहे हैं. उन्हें लगता है कि नीतीश कुमार पर भरोसा नहीं किया जा सकता. दरअसल अपने गठन के बाद से ही जदयू की राजनीति पूरी तरह कांग्रेस विरोधी रही है. कांग्रेस के नेताओं को डर है कि जदयू के साथ समझौता करके भले ही बड़ी संख्या में सीटें हासिल हो जाएं लेकिन यह गठबंधन लंबा नहीं चलेगा.
कांग्रेस के समक्ष दूसरा विकल्प है लालू प्रसाद यादव के राजद और रामविलास पासवान की लोजपा के साथ गठबंधन. ये दोनों दल लंबे समय तक कांग्रेस के साझेदार रहे हैं और कांग्रेस के साथ उनका कोई विवाद कभी सार्वजनिक नहीं हुआ. कई बार जब सोनिया गांधी विपक्ष के निशाने पर थीं तो लालू प्रसाद यादव ने जमकर उनका बचाव भी किया. बिहार कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि राजद-लोजपा के साथ गठबंधन पार्टी के लिए लाभदायक साबित हो सकता है. लेकिन इसमें सबसे बड़ी बाधा बहुचर्चित चारा घोटाले में आने वाला फैसला हो सकता है.
इस मामले की सीबीआई जांच में अपना नाम आने के बाद ही लालू को 1997 में बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी थी. रांची स्थित सीबीआई अदालत इस मामले में 15 जुलाई को सजा सुनाने वाली थी. लेकिन खबर लिखे जाने तक सर्वोच्च न्यायालय ने अदालत के फैसले पर रोक लगा दी है. शीर्ष अदालत के सामने अपनी अर्जी में लालू ने कहा था कि इस मामले में सीबीआई अदालत के न्यायाधीश बिहार सरकार के एक मंत्री के रिश्तेदार हैं और उन्हें आशंका है कि वे पक्षपात कर सकते हैं. अदालत ने सीबीआई से 23 जुलाई तक जवाब मांगा है. अब देखना यह है कि सीबीआई अपने जवाब में क्या कहती है.
अगर उसे फैसला सुनाने की हरी झंडी मिल गई और लालू दोषी ठहराए गए तो गठबंधन की संभावनाएं धूमिल हो जाएंगी. कम से कम दो साल की सजा हुई तो लालू वैसे ही चुनाव नहीं लड़ सकेंगे. और सजा की अवधि कम भी हुई तो भी दोषी ठहराया जाना ही उनकी पार्टी के लिए एक बड़ा झटका होगा. ऐसे में कांग्रेस राजद से गठबंधन में हिचकिचाएगी. हालांकि, झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा की अगुवाई में बनी नई सरकार में कांग्रेस और राजद साथ-साथ हैं. लेकिन वहां भी शुरुआत में काफी असमंजस की स्थिति रही. एक बार तो यह भी लगने लगा था कि राजद अलग-थलग पड़ जाएगी.
अब आता है तीसरा विकल्प यानी अकेले अपने बूते पर चुनाव लड़ना. कांग्रेस ने बिहार में 2010 का विधानसभा चुनाव अकेले लड़ा था और उसने गठबंधन के बजाय ‘सांगठनिक ढांचा दोबारा तैयार करने’ पर जोर दिया था. लेकिन उसे 243 सीटों में से महज चार पर जीत हासिल हुई. उस वक्त भी राजद और लोजपा दोनों गठबंधन के इच्छुक थे लेकिन कांग्रेस ने अकेले ही चुनाव लड़ने का फैसला किया था.
2014 के आम चुनावों में भी कांग्रेस आलाकमान केंद्र में राजद और जदयू दोनों का समर्थन पाने का इच्छुक नजर आती है. ऐसे में संभव है वह चुनाव के पहले दोनों में से किसी से गठबंधन न करे. पार्टी के अंदरूनी सूत्र ‘उत्तर प्रदेश मॉडल’ की ओर संकेत कर रहे हैं जहां समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी धुर विरोधी होने के बावजूद केंद्र में संप्रग सरकार को समर्थन दे रही हैं. कांग्रेस लोकसभा के दो बचे सत्रों के दौरान जदयू से बेहतर ताल्लुकात रखना चाहती है ताकि विभिन्न लंबित विधेयकों को आसानी से पारित किया जा सके.
बीते जून के आखिर में जब असम में गुवाहाटी नगर निगम के नतीजे आए तो इन्होंने राज्य की राजनीति पर नजर रखने वालों को भी एकबारगी चौंका दिया. चुनावों में असम गण परिषद का सफाया हो गया था. 31 वार्डों में से वह केवल एक वार्ड जीत सकी. दो बार (1985-90 और 1996-2001) मुख्यमंत्री रहे प्रफुल्ल कुमार महंत की अगुवाई वाली यह पार्टी कभी असम में शीर्ष पर थी लेकिन पिछले एक दशक में इसका तेजी से पतन हुआ है. यही वजह है कि कभी असमिया राष्ट्रवाद के सहारे बुलंदी पर पहुंचे महंत को पार्टी अध्यक्ष से हटाने की मांग तेज हो रही है.
2001 में तरुन गोगोई की अगुवाई में कांग्रेस ने असम गण परिषद और महंत को सत्ता से बाहर कर दिया था. तब से लेकर पार्टी की लगातार दुर्गति हो रही है. 2001 के बाद हुए हर विधानसभा चुनाव में उसकी सीटों की संख्या गिरती गई है. पंचायत से लेकर नगर निकाय चुनावों तक उसे हार का मुंह देखना पड़ा है. हर हार के बाद इसके कई नेता पार्टी छोड़ते रहे हैं. नतीजा यह हुआ है कि पार्टी की जमीनी पकड़ लगातार कमजोर होती गई है. गुवाहाटी नगर निगम चुनाव के नतीजों के बाद भी ऐसा ही देखने को मिला. पार्टी की कार्यकारी समिति के नौ और इसकी गुवाहाटी शहर समिति के 15 सदस्यों ने पार्टी को अलविदा कह दिया. अब पार्टी में मांग हो रही है कि नेतृत्व में बदलाव हो. उधर, पार्टी छोड़ चुके नेताओं को मनाने में महंत जी जान से जुटे हैं, लेकिन माना जा रहा है कि इसका मकसद कम पार्टी को कम और अपनी कुर्सी बचाना ज्यादा है. पार्टी के ही एक नेता कहते हैं, ‘ऐसी ही आत्मकेंद्रित सोच की वजह से शायद दो बार मुख्यमंत्री रह चुके एक शख्स की यह हालत है कि वह अपने ही साथियों के लिए खलनायक जैसा हो गया है.’
वरिष्ठ नेता और पार्टी विधायक पद्म हजारिका कहते हैं, ‘इस स्थिति में बदलाव तब तक मुश्किल है जब तक हम पार्टी में नई जान नहीं फूंकते. हमें नौजवानों को इससे जोड़ना होगा.’ नेतृत्व में बदलाव की मांग के साथ हजारिका ने एलान किया है कि अगर महंत की तानाशाही जारी रही तो वे हमेशा के लिए पार्टी छोड़ देंगे. वे कहते हैं, ‘पार्टी ने उनकी वापसी के बाद उनके नेतृत्व में हर बार हार का ही मुंह देखा है.’ एक और वरिष्ठ नेता अपूर्व भट्टाचार्य ने तो पार्टी छोड़कर कांग्रेस से जुड़ने का एलान भी कर दिया है. पूर्व मंत्री और असम में बाहरी लोगों के खिलाफ 80 के दशक में चले आंदोलन के दिनों से महंत के साथी अतुल बोरा ने भी पार्टी छोड़कर भाजपा से नाता जोड़ लिया है. राज्य में भाजपा के वर्तमान अध्यक्ष सर्वानंद सोनोवाल खुद एक समय असम गण परिषद के फायरब्रांड नेता रह चुके हैं.
उन्होंने 2011 के विधानसभा चुनावों में पार्टी की बुरी गत के बाद इसे अलविदा कह दिया था. भट्टाचार्य कहते हैं, ‘महंत और पार्टी के भीतर लॉबी बनाने वाले उनके चाटुकारों ने हमेशा पार्टी को अपने निजी हितों के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश की है. इस संस्कृति ने पार्टी को बर्बाद किया है. हम पिछले 12 साल में एक भी चुनाव नहीं जीते हैं. लेकिन नेतृत्व में कोई बदलाव नहीं हुआ. असम संधि के अलावा उनके पास दिखाने के लिए कोई और उपलब्धि नहीं.’ भट्टाचार्य उस संधि की बात कर रहे हैं जो 1985 में भारत सरकार और महंत सहित कुछ अन्य नेताओं के बीच हुई थी जिसके बाद राज्य में बाहर से आए लोगों के खिलाफ छह साल तक चले आंदोलन का अंत हो गया था.
उधर, महंत जी-जान से कोशिश कर रहे हैं कि स्थिति संभल जाए. पार्टी छोड़ चुके नेताओं को मनाने के लिए कोशिशें हो रही हैं. उनसे कई दौर की बातचीत भी हुई है. गुवाहाटी में पत्रकारों से बात करते हुए महंत का कहना था, ‘सुधार होंगे. हम मानते हैं कि पिछले एक दशक के दौरान हमने सिर्फ असफलता देखी है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम सफलता के लिए कोशिशें करना छोड़ दें.’ हालांकि पार्टी नेताओं को मनाने की उनकी कवायद का नतीजा अब तक सिफर ही रहा है.
वैसे अतीत में कई बार ऐसा हुआ है जब महंत की नैया डूबती हुई लगी लेकिन वे उसे उबार लाए. 2001 में सचिवालय में कार्यरत एक सहायक भाषा अधिकारी संघमित्रा भराली ने आरोप लगाया था कि महंत ने उनसे शादी कर ली है. महंत पहले से ही शादीशुदा थे और इस आरोप के बाद राज्य की राजनीति में भूकंप आ गया. महंत की छवि पर ग्रहण लग गया और इतना हंगामा हुआ कि उन्हें पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी छोड़नी पड़ी. यह आरोप महंत के पतन की शुरुआत था. बतौर मुख्यमंत्री अपने दूसरे कार्यकाल में उन पर कुछ गुप्त हत्याएं करवाने के आरोप भी लगे. इन आरोपों ने उनका और उनकी पार्टी का भट्ठा बैठा दिया. संघमित्रा विवाद पर महंत का पार्टी के दूसरे नेताओं से टकराव हुआ था जिसके बाद पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में उनकी सदस्यता खत्म कर दी गई.
लोगों को लगा कि अब उनका करियर खत्म हो गया. लेकिन 2005 में महंत ने असम गण परिषद (प्रोग्रेसिव) के नाम से एक नई पार्टी बना ली. हालांकि 2008 में इसका अतुल बोरा की अगुवाई वाले पार्टी के दूसरे धड़े के साथ विलय हो गया. 2011 के विधानसभा चुनावों में हार के बाद पार्टी नेताओं के एक वर्ग को लगा कि महंत को फिर से पार्टी का चेहरा बनाना चाहिए. 27 अप्रैल, 2012 को महंत एक बार फिर पार्टी अध्यक्ष बन गए. लेकिन पार्टी की हालत सुधरना तो दूर, और बिगड़ती चली गई.
असम गण परिषद महंत ने बनाई थी. 32 साल की उम्र में वे मुख्यमंत्री बन गए थे जो आज भी एक रिकॉर्ड है. लेकिन आज हाल यह है कि लोग तो क्या पार्टी भी उन्हें बर्दाश्त करने को तैयार नहीं. सवाल यह है कि क्या वे इतनी आसानी से कमान किसी और के हाथ में देने को तैयार होंगे.