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जीवन की पाठशाला

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दृश्य -1: कॉलेज के मेन गेट पर खड़ी एक लड़की. उम्र करीब 18-19 साल. कॉलेज की ड्रेस पहने यह लड़की हाथों में किताब लिए हुए है. बाहर से कोई दरवाजा खटखटाता है. वह गेट के झरोखे से आने वाले का परिचय और

कॉलेज आने का कारण पूछती है? जवाबों से संतुष्ट होने के बाद वह लोहे का विशाल गेट खोलती है. व्यक्ति कॉलेज में प्रवेश करता है. लड़की फिर गेट बंद करके पास में लगी हुई कुर्सी पर बैठ जाती है. उसकी आंखें फिर से किताब के पन्नों में डूब जाती हैं.

दृश्य -2: लड़कों के हॉस्टल के ठीक सामने स्थित तबेले में करीब 20 गाय-भैंसें हैं. शाम के छह बज रहे हैं. हॉस्टल से पांच लड़कों का समूह बाहर आता है. सबके हाथ में एक बाल्टी है. सब दूध देने वाली गायों और भैंसों को तबेले के दूसरे हिस्से में ले जाकर बांधते हैं. वहां बांधकर उनके सामने चारा डालते हैं. फिर अपनी-अपनी बाल्टियों में दूध दुहने की शुरुआत करते हैं.

दृश्य –3:  बीए तृतीय वर्ष की राजनीति विज्ञान की क्लास चल रही है. सिमरनजीत कौर तल्लीनता से सामने पढ़ा रही अपनी हमउम्र शिक्षक को सुन रही हैं. क्लास खत्म होने की घंटी बजती है. सिमरनजीत फटाफट कक्षा से बाहर निकलकर पास ही स्थित बीए द्वितीय वर्ष की क्लास में दाखिल होती हैं. वहां पहुंचते ही वे छात्रा से शिक्षिका बन जाती हैं. सामने बैठी लड़कियां उनके कहे अनुसार अपनी राजनीति विज्ञान की किताबें निकालती हैं. कौर उन्हें पढ़ाना शुरू कर देती हैं.

दृश्य -4: पिछले साल कक्षा 12 में पंजाब बोर्ड की मेरिट लिस्ट में आई बीए प्रथम वर्ष की छात्रा गगनदीप गिल आज कोई क्लास नहीं करेंगी. लेकिन हॉस्टल की अन्य लड़कियों की तरह ही वे अलसुबह उठ कर कॉलेज ड्रेस पहनकर तैयार हो चुकी हैं. गगन के साथ 11 और लड़कियां भी हैं. वे भी आज कोई क्लास नहीं लेंगी. आज उनकी खाना बनाने की ड्यूटी है. हॉस्टल में रहने वाले सभी विद्यार्थियों के लिए ये 12 छात्राएं सुबह के नाश्ते से लेकर रात तक का खाना बनाएंगी.

ये सारे दृश्य उस बड़ी तस्वीर का सिर्फ एक छोटा-सा हिस्सा भर हैं, जो पंजाब में गुरदासपुर जिले के तुगलवाला गांव स्थित बाबा आया सिंह रियाड़की कॉलेज में जाने पर दिखती है. एक ऐसे समय में जब शिक्षा कारोबार बनकर साधारण आदमी की पहुंच से दूर निकल गई है, यह एक ऐसा अनोखा शिक्षण संस्थान है जो बताता है कि शिक्षा कारोबार नहीं बल्कि सरोकार है जिसका उद्देश्य एक नया मनुष्य रचना है.

बाबा आया सिंह रियाड़की कॉलेज की कहानी 1975 से शुरू होती है. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूरे देश में आपातकाल लगा दिया था. संयोग देखिए कि जिस समय एक महिला प्रधानमंत्री ने देश में आपातकाल लगाया वह साल महिला वर्ष के रूप में मनाया जा रहा था. देश के विभिन्न हिस्सों में महिलाओं पर केंद्रित कई कार्यक्रम हो रहे थे. एक ऐसा ही कार्यक्रम पंजाब के गुरदासपुर में भी हो रहा था. उस सभा में कई नेता मौजूद थे. उसी सभा के एक श्रोता स्वर्ण सिंह विर्क भी थे. वक्ताओं द्वारा महिलाओं के लिए ये करेंगे, वो करेंगे जैसे दावे किए जा रहे थे. अचानक विर्क की सहनशीलता जवाब दे गई. वे खड़े हुए और भरी सभा में नेताओं की तरफ इशारा करके कहा ‘ क्यों इतना झूठ बोल रहे हो. मुझे पता है तुम लोग कुछ नहीं करोगे. ’

उनका यह कहना था कि जवाब के रूप में उन पर तंज होने लगे जिनका लब्बोलुआब यह था कि अगर हम नहीं कर सकते तो तुम ही करके दिखाओ तो जानें. यही वह क्षण था जब विर्क ने एक ऐसा शिक्षण संस्थान बनाने की ठान ली जो आने वाले समय में पूरे देश के लिए एक आदर्श बनने वाला था.

लेकिन उस दौर में स्थितियां ऐसी थीं कि इलाके में कोई भी परिवार अपनी लड़कियों को स्कूल भेजने के लिए आसानी से तैयार नहीं होता था. विर्क गांव-गांव घूमे. लड़कियों की शिक्षा क्यों परिवार और देश के भविष्य के लिए जरूरी है, यह बात उन्होंने घर-घर जाकर लोगों को समझानी शुरू की. सैकड़ों गांवों की खाक छानने के बाद मात्र 34 लड़कियों के परिवारवाले अपनी बेटी को स्कूल भेजने के लिए राजी हुए. विर्क ने इन लड़कियों को लेकर 1976 में उस स्कूल की शुरुआत की जहां पढ़ने की कोई फीस नहीं थी. लेकिन कुछ समय बाद ही 20 लड़कियों के परिवारवालों ने अपनी बेटियों को स्कूल जाने से रोक दिया. अब स्कूल में केवल 14 लड़कियां बची रह गई थीं. विर्क अकेले शिक्षक थे. उस साल बोर्ड की परीक्षा में ये सभी लड़कियां प्रथम श्रेणी में पास हुईं. सिलसिला आगे बढ़ता गया. जिस स्कूल की शुरुआत 14 लड़कियों के एडमिशन से हुई थी, आज उसमें 3,500 विद्यार्थी पढ़ते हैं. इनमें 2,500 लड़कियां हैं. बिना किसी फीस के शुरू हुए इस स्कूल में आज फीस तो ली जाती है लेकिन उतनी ही जिससे कॉलेज का जरूरी खर्च निकल आए. पहली से लेकर एमए तक की यहां पढ़ाई होती है. अधिकतम ट्यूशन फीस 1,000 रुपये सालाना है तो हॉस्टल की सालाना फीस अधिकतम 7,500 रु  है.

कॉलेज के प्रिंसिपल स्वर्ण सिंह विर्क कहते हैं, ‘ ‘हमने एक ऐसा सिस्टम अपने यहां विकसित कर रखा है जिसकी वजह से हमें पैसों की बेहद कम जरूरत पड़ती है. पढ़ाई से लेकर प्रशासन तक हम पूरी तरह से आत्मनिर्भर हैं.’

दरअसल 15 एकड़ में फैले इस कॉलेज का अनूठापन और उसकी शक्ति आत्मनिर्भरता में ही छिपी है. कॉलेज का सब काम कॉलेज की छात्राएं ही करती हैं. यहां शिक्षक लगभग न के बराबर हैं. जो छात्राएं हैं वे ही शिक्षिका भी हैं. व्यवस्था यह है कि जो सीनियर कक्षा के विद्यार्थी हैं वे अपने से निचली कक्षा के विद्यार्थियों को पढ़ाते हैं. इस तरह बीए थर्ड ईयर की छात्रा बीए सेकंड ईयर वालों को पढ़ाती है. बीए सकेंड ईयर वाली बीए फर्स्ट ईयर वालों को. इस तरह यह व्यवस्था ऊपर से नीचे तक चलती जाती है. कॉलेज में ईच वन, टीच वन के नाम से एक और प्रयोग चलता है. इसके तहत हर छात्रा के ऊपर दूसरी छात्रा को पढ़ाने की जिम्मेदारी है. मान लीजिए एक लड़की अंग्रेजी में दूसरी लड़की से अच्छी है तो वह दूसरी लड़की की टीचर बन जाएगी और रोज एक घंटे उसे पढ़ाएगी.

कॉलेज के दूसरे काम भी विद्यार्थियों के ही जिम्मे हैं. हॉस्टल के सभी बच्चों के लिए तीनों समय का खाना छात्राएं ही बनाती हैं. इस काम के लिए 12 लड़कियों के कई ग्रुप हैं. हर लड़की किसी न किसी ग्रुप में शामिल है. हर ग्रुप का नंबर दो महीने के बाद आता है. कौन-सा ग्रुप किस दिन खाना बनाएगा, यह पहले से ही तय है. यही नहीं, खाना क्या बनेगा यह भी आम राय से ही तय होता है. विर्क कहते हैं, ‘छात्राएं मिलकर तय करती हैं. मेरी उसमें भी कोई भूमिका नहीं है.’

कॉलेज की अपनी खुद की खेती है. 15 एकड़ में फैले कॉलेज में 10 एकड़ में खेती होती है. अपनी जरूरत भर अनाज और सब्जियां कॉलेज अपने खेतों में ही उगा लेता है. खेती की भी लगभग पूरी जिम्मेदारी छात्राएं खुद संभालती हैं. सब्जी बोने से लेकर उन्हें खेत से लाने तक का पूरा काम उन्हीं के जिम्मे है.

अपनी ऊर्जा जरूरतों के मामले में भी संस्थान लगभग पूरी तरह आत्मनिर्भर है. कॉलेज का अपना सोलर पावर स्टेशन है, जिससे उसकी 90 फीसदी ऊर्जा जरूरतें पूरी हो जाती हैं. ईंधन के मामले में भी कॉलेज आत्मनिर्भर है. विर्क कहते हैं, ‘अपना गोबर गैस प्लांट है. इसी गैस पर पूरे कॉलेज का खाना और नाश्ता बनता है. गैस सिलेंडर और अन्य साधनों की हमें लगभग नाममात्र की जरूरत है.’ खाना बनाने के लिए सूखी हुई घास आदि का भी प्रयोग किया जाता है. विर्क कहते हैं, ‘छात्र-छात्राओं की सुबह घास काटने की भी 45 मिनट की क्लास लगती है. इस समय में जहां लड़के घास के साथ ही पशुओं के लिए चारा आदि काट लाते हैं वहीं लड़कियां भी कॉलेज कैंपस में घास काटती हैं. इसे सूखने के लिए डाल दिया जाता है और बाद में इसका प्रयोग जलावन के लिए किया जाता है.’ यही नहीं, कॉलेज के पास अपनी आटा चक्की, मसाला चक्की, तेल पिराई और गन्ने से रस निकालने की मशीन है. पूरे स्कूल में न कोई नौकर है, न चपरासी, न कपड़ा धोने वाला, न दरबान. विद्यार्थी अपना सारा काम खुद करते हैं. लड़कियां अपने हॉस्टल की वार्डन भी हैं और दरबान भी. यही नहीं, कॉलेज में जब भी कोई निर्माण कार्य चलता है तो लड़कियां बारी-बारी से मजदूरी का काम भी करती हैं.

कॉलेज में ही एक बड़ा-सा गोदाम भी है. यहां पंखे से लेकर चम्मच तक के कबाड़ रखे हुए हैं. हर साल कॉलेज साल भर के कबाड़ की बिक्री करके दो लाख रुपये करीब की आमदनी कर लेता है. विर्क कहते हैं, ‘हम इस बात का पूरा ख्याल रखते हैं कि कुछ भी बेकार नहीं जाए. हर साल कबाड़ बेचकर ही लगभग दो लाख रुपये इकट्ठा कर लेते हैं. इन पैसों से हम हर साल 150 के करीब बच्चों को मुफ्त में शिक्षा दे पाते हैं.’

कॉलेज का पूरा प्रशासन भी छात्राओं के हाथ में ही है. किसी भी निर्णय के लिए कॉलेज की स्टूडेंट कमिटी यहां सर्वोच्च इकाई है. कमेटी में पांच सदस्य होते हैं जिनका चुनाव लोकतांत्रिक तरीके से सभी छात्राओं के बीच से किया जाता है. ये पांच सदस्य अपने बीच से सचिव का चुनाव करते हैं. साल 2010-11 में कॉलेज की सचिव रही चनप्रीत कहती हैं, ‘सचिव का चुनाव होने के बाद हम 22 और समितियां बनाते हैं जिनमें एडमिशन कमिटी, गुरुद्वारा कमिटी, मेस कमिटी, लाइब्रेरी कमिटी, अनुशासन कमिटी आदि शामिल हैं.’ यानी कॉलेज में हर तरह के काम के लिए एक पांच सदस्यीय कमेटी है. यही संबंधित क्षेत्र से जुड़े सारे निर्णय करती है. कॉलेज की पूरी फीस इकट्ठा करने और उसका हिसाब रखने का पूरा काम भी छात्राओं की एक समिति ही करती है.

ऐसे में कॉलेज के प्रिंसिपल की क्या भूमिका है ?  विर्क कहते हैं, ‘मेरा कोई रोल नहीं है. पूरा कॉलेज छात्राएं खुद ही चलाती है. प्रिंसिपल भी वहीं है, प्यून भी वही. यह कॉलेज लड़कियों का, लड़कियों द्वारा, लड़कियों के लिए है. बच्चों पर भरोसा कीजिए, उन्हें प्रेरित कीजिए. वे सब कुछ कर सकते हैं.’

छात्राओं की यह कमेटी कितनी मजबूत है इसका अंदाजा इस बात से ही लगता है कि इसने एक बार प्रिंसिपल विर्क पर भी जुर्माना लगा दिया था. हुआ यूं था कि गुरदासपुर के डिप्टी कमिश्नर कॉलेज आए थे. कॉलेज देखकर वे बेहद प्रभावित हुए और उन्होंने विर्क से कहा कि वे कुछ सहयोग करना चाहते हैं. विर्क ने भी मांगों की एक लिस्ट कमिश्नर को सौंप दी. कुछ दिनों के बाद ही कॉलेज की स्टूडेंट कमेटी को इस बारे में पता चला. उसने विर्क के मदद मांगने की बात पर विरोध दर्ज कराया. विर्क कहते हैं, ‘स्टूडेंट कमेटी के सदस्य मेरे पास आए और उन्होंने मदद मांगने पर आपत्ति दर्ज की. मुझ पर उन्होंने न सिर्फ फाइन लगाया बल्कि भविष्य में ऐसा न करने की चेतावनी भी दी.’

पंजाब के शांति निकेतन नाम से चर्चित इस कॉलेज को सिखों की सर्वोच्च धार्मिक संस्था एसजीपीसी ने पहले सिख कॉलेज की संज्ञा दी है. कॉलेज में धर्म की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका है. गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ करने के लिए एक पूरा पीरियड है. लेकिन क्या इससे यह कॉलेज धार्मिक संस्थान के रूप में तब्दील नहीं हो गया है? विर्क कहते हैं, ‘हम बच्चों को धर्मग्रंथों में छिपी अच्छी बातों से रूबरू करवा रहे हैं. ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ सिख धर्म तक सीमित है. हम हर धर्म और उससे जुड़ी शिक्षा बच्चों तक पहुंचा रहे हैं. धर्म में जो अच्छा है उसे क्यों न स्वीकार किया जाए.’

कॉलेज पंजाब के गुरुनानक देव विश्वविद्यालय से जुड़ा है. अपनी तमाम विशेषताओं के साथ कॉलेज की यह भी खासियत है कि आज तक किसी ने यहां नकल नहीं की. यही कारण है कि गुरुनानक देव विश्वविद्यालय ने वार्षिक परीक्षाओं के लिए कॉलेज में ही परीक्षा केंद्र खोल दिया. परीक्षा के समय विश्वविद्यालय से कोई भी अधिकारी यहां नहीं आता. पूरी परीक्षा का संचालन कॉलेज की छात्राएं ही करती हैं. परीक्षा हॉल में कोई गार्ड नहीं रहता. प्रश्न पत्र बांटने से लेकर उत्तर पुस्तिका बांटने और उन्हें इकट्ठा करने का काम छात्राएं खुद करती हैं. विर्क कहते हैं,  ‘इस कॉलेज में आज तक किसी ने नकल नहीं की.’  परीक्षा हॉल की दीवार पर लिखा है, ‘जो कोई भी किसी को यहां नकल करते हुए पकड़ेगा, उसे 21 हजार रु का इनाम दिया जाएगा.’ आज तक यह इनाम किसी को नहीं मिला.

कॉलेज में कई ऐसी छात्राएं हैं जिनके परिवार के कई लोग पहले यहां पढ़ चुके हैं. ऐसी ही एक छात्रा है मनप्रीत कौर. मनप्रीत की बुआ ने यहां से पढ़ाई की उसके बाद तो परिवार की हर लड़की पढ़ने के लिए यहीं आती है. मनप्रीत अपने परिवार से पांचवीं ऐसी लड़की है. उसकी बहन भी यहां पढ़ाई कर रही है.

हरिंदर रियाड़ यहां से पढ़ी छात्राओं में से एक हैं. सन 76 से लेकर 94 तक वे यहां पढ़ाती भी रहीं. कुछ समय पहले तक वे अमृतसर के खालसा कॉलेज की प्रिंसिपल थीं. वे कहती हैं, ‘मैंने जो यहां सीखा उसे शब्दों में बयां कर पाना कठिन है. इस स्कूल ने अनगिनत छात्राओं को उस समय पढ़ाया जब उन्हें घर से बाहर निकलने की मनाही थी. स्कूल ने उन्हें अच्छा इंसान बनाया और अपने कदमों पर खड़ा होना भी सिखाया.’ गुरुनानक देव विश्वविद्यालय के शिक्षक जगरूप सिंह कहते हैं, ‘यह कॉलेज एक मॉडल है. नकल नहीं, अच्छी पढ़ाई, आत्मनिर्भरता जैसी चीजें इसे एक आदर्श बनाती हैं.’

कॉलेज सरकार से किसी तरह का आर्थिक सहयोग नहीं लेता. हम विर्क से इसकी वजह पूछते हैं. विर्क कहते हैं, ‘जिस दिन आप सरकार के सामने हाथ फैलाएंगे और जैसे ही उन्होंने आपको पैसा दिया, उसी दिन से वे कॉलेज में अपनी चलाने की शुरुआत कर देंगे. वह सब कुछ खत्म हो जाएगा जो सालों की कड़ी मेहनत से खड़ा हुआ है.’

युवाबल से युगपरिवर्तन

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ताराबाई मारुति कभी दिहाड़ी मजदूर थीं. आज उनके पास 17 गायें हैं और वे ढाई सौ से तीन सौ लीटर दूध रोज बेचती हैं. वे बताती हैं, ‘पहले मजदूरी करते थे. पांच-दस रुपये रोज मिलते थे तो खाना मिलता था. आज आमदनी बढ़ गई है.’

हिवड़े बाजार नाम के जिस गांव में ताराबाई रहती हैं वहां के ज्यादातर लोगों का अतीत कभी उनके जैसा ही था. वर्तमान भी उनके जैसा ही है. आज राजनीति से लेकर तमाम क्षेत्रों में जिस युवा शक्ति को अवसर देने की बात हो रही है वह युवा शक्ति कैसे समाज की तस्वीर बदल सकती है, इसका उदाहरण है हिवड़े बाजार.

दो दशक पहले तक महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में बसे इस गांव की आबादी का एक बड़ा हिस्सा मजदूरी करने आस-पास के शहरों में चला जाता था. यानी उन साढ़े छह करोड़ लोगों में शामिल हो जाता था जो 2011 की जनगणना के मुताबिक देश के 4000 शहरों और कस्बों में नारकीय हालात में जी रहे हैं. बहुत-से परिवार ऐसे भी थे जो पुणे या मुंबई जैसे शहरों में ही बस गए थे. जो गांव में बचे थे उनके लिए भी हालात विकट थे. जमीन पथरीली थी. बारिश काफी कम होती थी. सूखा सिर पर सवार रहता था. 90 फीसदी लोग गरीबी की रेखा के नीचे थे. शराब का बोलबाला था. झगड़ा, मार-पिटाई आम बात थी. मोहन छत्तर बताते हैं, ‘कॉलेज में पढ़ते थे तो बताने में शर्म आती थी कि हम हिवड़े बाजार के हैं.’

लेकिन आज शर्म की जगह गर्व ने ले ली है. हिवड़े बाजार आज अपनी खुशहाली के लिए देश और दुनिया में सुर्खियां बटोर रहा है. पलायन तो रुक ही गया है, जो लोग हमेशा के लिए शहर चले गए थे वे भी वापस आकर गांव में बसने लगे हैं. आज गांव की प्रति व्यक्ति आय औसतन 30 हजार रु सालाना है. 1995 में यह महज 830 रु थी. गांव के उपसरपंच पोपट राव पवार कहते हैं, ‘तब ज्वार-बाजरा भी मुश्किल से होता था. आज हम हर साल एक करोड़ रुपये की नगदी फसल उगाते हैं. डेयरी का काम भी फैला है. गांव में रोज 4000 लीटर दूध का कलेक्शन हो रहा है.’

हिवड़े बाजार जाने पर आपको तरतीब से बने गुलाबी मकान दिखेंगे. साफ और चौड़ी सड़कें भी. नालियां बंद हैं और जगह-जगह कूड़ेदान लगे हैं. हर जगह एक अनुशासित व्यवस्था के दर्शन होते हैं. शराब और तंबाकू के लिए अब गांव में कोई जगह नहीं रही. हर घर में पक्का शौचालय है. खेतों में मकई, ज्वार, बाजरा, प्याज और आलू की फसलें लहलहा रही हैं. सूखे से जूझते किसी इलाके में यह देखना किसी चमत्कार से कम नहीं. 235 परिवारों और 1,250 लोगों की आबादी वाले इस गांव में 60 करोड़पति हैं.

महात्मा गांधी ने कहा था, ‘सच्ची लोकशाही केंद्र में बैठे हुए 20 लोग नहीं चला सकते. वह तो नीचे से हर एक गांव के लोगों द्वारा चलाई जानी चाहिए.’ हिवड़े बाजार ने यही कर दिखाया है. युवा शक्ति कैसे ग्राम स्वराज ला सकती है यह सिखाता है हिवड़े बाजार.

85 साल के रावसाहेब राऊजी पवार याद करते हैं, ‘हमारे गांव में गरीबी थी. हालांकि हम अपनी सीधी-सादी जिंदगी से खुश थे. लेकिन 1972 के अकाल ने हमारे गांव की शांति छीन ली. जमीन पथरीली थी. पानी न होने से हालात और खराब हो गए. वह सामाजिक ताना-बाना बिखर गया जो गरीबी के बावजूद लोगों को एक रखता था. लोग शराब के चक्कर में पड़ गए. जरा-सी बात पर झगड़ा हो जाता. जिंदगी चलाना मुश्किल हो गया सो गांव के कई लोग मजदूरी करने पास के शहरों में जाने लगे.’

फिर एक दिन गांव के कुछ नौजवानों ने सोचा कि क्यों न हालात बदलने की एक कोशिश की जाए. किसी ऐसे युवा को सरपंच बनाकर देखा जाए जो एक जोश और नई सोच लेकर आए. पोपटराव पवार तब हिवड़े बाजार के अकेले युवा थे जो पोस्टग्रैजुएट थे. नौजवानों ने उनसे आग्रह किया कि वे सरपंच पद के लिए चुनाव लड़ें. यह 1989 की बात है. लेकिन पवार का परिवार यह मानने को तैयार नहीं था. उनके घरवाले चाहते थे कि वे शहर जाएं और कोई अच्छी नौकरी करें. पवार क्रिकेट के खिलाड़ी थे और वे इस खेल में करियर बनाना चाहते थे. लेकिन नौजवानों के बहुत आग्रह पर वे चुनाव लड़ने के लिए राजी हो गए. पहले तो बुजुर्गों का रवैया कुछ ऐसा रहा कि कल के लड़के हैं, ये क्या करेंगे. लेकिन फिर सहमति बनी कि चलो एक साल इन्हें भी देख लेते हैं. सरपंच पद पर पवार का चयन निर्विरोध हुआ. फिर शुरू हुआ बदलाव. पवार ने गांववालों से कहा कि अपना विकास उन्हें खुद करना होगा. गांव में शराब की 22 भट्टियां थीं. फसाद की यह जड़ खत्म की गई. पवार की कोशिशों से ग्राम सभा का बैंक ऑफ महाराष्ट्र के साथ तालमेल हुआ जिसने गरीब परिवारों को कर्ज देना शुरू किया. इनमें वे परिवार भी शामिल थे जो पहले शराब बना रहे थे. 71 साल के लक्ष्मण पवार कहते हैं, ‘पानी की कमी ने खेत बंजर कर दिए थे. हताश होकर लोगों ने शराब पीना, जुआ खेलना, लड़ना-झगड़ना शुरू कर दिया. शराब ने हमें बर्बाद कर दिया था, इसलिए जब भट्टियां बंद हुईं तो हमें लगा कि कुछ उम्मीद है.’

फिर पानी सहेजने और बरतने की व्यवस्था बनाने का काम शुरू हुआ. पवार का मंत्र था कि यह सबका काम है इसलिए सबको इसमें जुटना होगा. जल्द ही गांव में चेक डैमों और तालाबों का जाल बिछ गया. पवार कहते हैं, ‘हमने सरकारी योजनाओं के पैसे का सही इस्तेमाल किया. लोगों ने खुद मेहनत की तो इसके दो फायदे हुए–मजदूरी बची और काम की क्वालिटी भी बढ़िया हुई. और हम भी तो यह सब अपने और अपने बच्चों के लिए ही कर रहे थे.’  मकसद यह था कि बरसने वाले पानी की एक-एक बूंद सहेजी जाए. हिवड़े बाजार जिस भौगोलिक क्षेत्र में है उसे वृष्टि छाया क्षेत्र यानी रेन शैडो जोन कहा जाता है. यहां साल भर में 15 इंच से ज्यादा बरसात नहीं होती. तालाब बने तो बारिश का पानी ठहरा. धीरे-धीरे स्थिति सुधरने लगी. 1995 से पहले गांव में 90 खुले कुएं थे और पानी का स्तर 80-125 फुट नीचे था. आज गांव में 294 खुले कुएं हैं और पानी का स्तर 15-40 फुट तक आ गया है. इसी अहमदनगर जिले में दूसरे गांवों को पानी के लिए 200 फुट तक बोरिंग करनी पड़ती है. गांव के ही हबीब सैयद बताते हैं, ‘2010 में 190 मिमी ही बारिश हुई लेकिन पानी की व्यवस्था होने से हमें कोई दिक्कत नहीं हुई.’

पानी आया तो खुशहाली आने में ज्यादा देर नहीं लगी. पहले मानसून के बाद ही गांव में सिंचित क्षेत्र 20 हेक्टेयर से 70 हेक्टेयर हो गया. जहां ज्वार-बाजरा उगना भी मुश्किल था वहां कई फसलें होने लगीं. किसानी बढ़ी तो काम भी बढ़ा. मजदूरी महंगी थी तो पवार ने एक तरीका निकाला. उन्होंने सामूहिकता पर जोर देना शुरू किया. एक किसान की बुआई में पूरे गांव के लोग शामिल हो जाते. फिर मजदूरों की क्या जरूरत. मजदूरी तो बची ही, आपसदारी की भावना भी मजबूत हुई. पवार कहते हैं, ‘बदलाव पैसे से नहीं आया. यह आया क्योंकि लोग जाति और राजनीति की तमाम दीवारें तोड़कर एक साझा मकसद के लिए साथ आए.’

खेती के बाद पवार ने आजीविका के लिए एक और स्रोत पर ध्यान दिया. उन्होंने पशुओं की जंगल में मुक्त चराई बंद करवाई. क्योंकि इसका पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा था. उन्होंने किसानों को प्रोत्साहित किया कि वे चारे का उत्पादन बढ़ाएं. चारे का उत्पादन बढ़ा तो तो पशुओं की संख्या भी बढ़ी और धीरे-धीरे दुग्ध उत्पादन भी. 1990 में गांव में दुग्ध उत्पादन का आंकड़ा डेढ़ सौ लीटर प्रतिदिन था. आज यह चार हजार लीटर रोज पर पहुंच गया है. 1995 में गांव के 182 परिवारों में से 168 लोग गरीबी की रेखा से नीचे थे. आज सरकारी रिकॉर्ड यह संख्या तीन बताते हैं. पवार कहते हैं, ‘गांव को बीपीएल फ्री बनाने के लिए हमें बस एक साल और चाहिए.’

तो आश्चर्य क्या कि देश के दूसरे गांवों में जहां लोग पलायन करके शहर जा रहे हैं वहीं हिवड़े बाजार में उल्टी बल्कि कहा जाए तो सीधी गंगा बहने लगी है. 1997 से लेकर आज तक 93 परिवार अलग-अलग शहरों से गांव वापस लौट चुके हैं. इस उल्टे पलायन ने उन्हें सुखी बनाया है. चर्चित पर्यावरणविद अनुपम मिश्र कहते हैं, ‘पलायन इसलिए हो कि अपने यहां कुछ नहीं बचा और इसलिए पेट पालने के लिए दिल्ली, मुंबई या जयपुर चले जाते हैं तो यह उस व्यक्ति और मिट्टी दोनों का अपमान है. हिवड़े बाजार ने इस अपमान का कलंक अपने माथे से हटा दिया है.’ यह खुशहाली आगे भी चलती रहे इसके लिए भी बीज बोए गए हैं. यहां प्राथमिक विद्यालय के विद्यार्थियों के लिए जल प्रबंधन का अनिवार्य कोर्स रखा गया है. पानी जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल न हो इसके लिए जल बजट बनाया जाता है. कितना पानी उपलब्ध है इसके लिए हर महीने रीडिंग ली जाती है. वॉटरशेड कमेटी के साथ काम करने वाले शिवाजी थांगे कहते हैं, ‘वॉटर ऑडिट के जरिए फैसला किया जाता है कि किस मौसम में कौन-सी फसल बोनी है.’

अच्छी चीजें कई मोर्चों पर आई हैं. ग्राम पंचायत ने अब फैसला किया है कि परिवार की दूसरी लड़की की शिक्षा और शादी का खर्च पूरा गांव उठाएगा. सात सदस्यों वाली पंचायत में तीन महिलाएं हैं. सुनीता शंकर इस साल सरपंच बनी हैं और पवार ने उपसरपंच की जिम्मेदारी संभाली है. गांव में दहेज नहीं लिया जाता. किसी भी तरह का नशा बंद है. गांव का स्कूल एक वक्त सिर्फ नाम के लिए रह गया था. आज यह अच्छे से चल रहा है. यहां बच्चों की एक संसद है जो इस पर निगाह रखती है कि शिक्षक नियमित रूप से आ रहे हैं या नहीं और यह भी कि छात्रों की क्या शिकायतें हैं. ग्राम संसद भी है जहां सब लोग मिलबैठकर चर्चा करते हैं. स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद आगे पढ़ने का सिलसिला भी मजबूत हुआ है. गांव के 32 विद्यार्थी मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हैं. गांव में सिर्फ एक मुस्लिम परिवार है. उसके लिए कोई मस्जिद नहीं थी तो गांववालों ने खुद एक मस्जिद बना दी. परिवार के मुखिया बनाभाई सैयद अपने परिवार के साथ हिंदू त्योहारों में भी शामिल होते हैं और भजन गाते हैं.

भविष्य की सोचने में भी हिवड़े बाजार आगे रहा है. 2008 में ग्राम सभा ने एक प्रस्ताव पारित किया. इसके मुताबिक गांव के भीतर कार की जगह साइकिल के इस्तेमाल को कहा गया ताकि ईंधन की बचत हो सके. 17 किलोमीटर दूर अहमदनगर जाना हो तो गांव के लोग कारपूल कर लेते हैं.  पवार अब सौर ऊर्जा के इस्तेमाल की सोच रहे हैं. वे यह भी चाहते हैं कि गांव में पूरी तरह से जैविक खाद का इस्तेमाल हो. वे कहते हैं, ‘हालांकि अभी भी सिर्फ 20 फीसदी ही रासायनिक खाद का इस्तेमाल होता है. इसके बाद हम जैविक उत्पादों का अपना मार्केट बनाएंगे.’ युवा शक्ति से छह लाख गांवों या कहें तो देश की तस्वीर कैसे बदल सकती है, हिवड़े बाजार इसका सबक है.

-तहलका ब्यूरो 

लड़की है एक नाम रजिया है

दिल्ली से लगभग 80 किलोमीटर दूर स्थित मेरठ जिले का नांगला कुंभा गांव कुछ समय पहले तक आसपास के गांवों के लिए भी अंजान सा ही था. लेकिन इन दिनों देश, दुनिया में इस गांव की बड़ी चर्चा है. इस चर्चा का कारण बनी हैं गरीब परिवारों के बच्चों को बाल श्रम से मुक्त कराकर उन्हें स्कूलों में दाखिला दिलवाने वाली रजिया सुल्ताना. 16 साल की रजिया को उनके इस काम के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने हाल ही में ‘प्रथम मलाला पुरस्कार’ ( यूएन स्पेशल एनवाय फार ग्लोबल एजुकेशंस यूथ करेज अवार्ड फार एजुकेशन) के लिए चुना है. ग्रामीण परिवेश की विषम परिस्थितियों में रह कर इतनी कम उम्र में रजिया ने जो कारनामा किया है वह किसी कमाल से कम नहीं. रजिया की कहानी उन्हीं की जुबानी जानने के लिए यह संवाददाता उनके गांव पहुंचा और जो कुछ लेकर लौटा, उसका सार यही है कि अगर लक्ष्य को लेकर थोड़ी भी समझ और खुद पर ईमानदारी भरा यकीन हो तो तमाम दुश्वारियों के बावजूद उसे हासिल किया जा सकता है.

आज से सात साल पहले की बात है, मेरठ जिले के कई गांवों में कम आमदनी वाले परिवार दुनिया के सबसे लोकप्रिय खेल फुटबाल की गेंदें सिलने का काम करते थे. एक गेंद के एवज में सात से दस रुपये पाने वाले इन लोगों ने अपने बच्चों को भी इस काम में लगा रखा था ताकि आमदनी में कुछ और इजाफा हो सके. पढाई लिखाई से दूर रहते हुए बच्चे लगातार इस काम में अपने परिजनों का हाथ बंटाते और स्कूल, कालेज जैसी बातें उनके हिस्से से गायब होती जाती. इसी दौर में बच्चों के लिए काम करने वाले स्वयं सेवी संगठन ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के कुछ लोग इन गांवों में आए और लोगों को शिक्षा का महत्व समझाने लगे. इस संगठन ने अलग-अलग गांवों में बाल पंचायतों का गठन किया जिसके तहत रजिया, नांगला कुंभा गांव की बाल पंचायत की अध्यक्ष चुनी गईं. इसके बाद से वे गांव-गांव घूमकर उन लोगों को बच्चों को पढ़ाने की बातें समझाने लगीं जो गरीबी के चलते उनसे बाल मजदूरी करा रहे थे. देखते ही देखते गांव के दूससे बच्चे भी रजिया के साथ जुड़ गए और फिर इनकी टोली ने इस जागरूकता अभियान को अपने जुनून में तब्दील कर दिया. इसी का परिणाम है कि अब तक रजिया और उनके साथी इलाके के करीब 50 बच्चों का दाखिला विभिन्न स्कूलों में करवा चुके हैं.

रजिया से बात करते हुए सफलता और संतुष्टि का समवेत भाव उनके चेहरे पर साफ दिखाई देता है. वे बताती हैं, ‘गरीबी के चलते मजबूरी में अपने बच्चों को काम पर भेजने वाले लोगों को समझाना बहुत कठिन था. एक तो वे खुद शिक्षा न होने के चलते इसके महत्व से उतने वाकिफ नहीं थे और दूसरा उन्हें लगता था कि बच्चे अगर काम नहीं करेंगे तो आमदनी कम होने से घर चलाने में हो रही मुश्किलें और बढ़ जाएंगी.’ रजिया हमें बताती हैं कि धीरे-धीरे वे यह समझ गई थीं कि लोगों को जागरुक करने के लिए समस्या के साथ ही उन्हें इससे होने वाले नुकसान के बारे में समझाने की भी जरूरत है. उन्होंने लोगों को समझाया कि बाल श्रम करने वाले बच्चों को न पूरा पैसा मिलता है और न ही बड़े होने पर ये कुछ और करने के लायक रह जाते हैं. इसलिए उन्हें पढ़ाने में ही सबका भला छुपा हुआ है. धीरे-धीरे लोग उनकी बातों को समझने लगे और अपने बच्चों का दाखिला कराने को तैयार हो गए.

रजिया से बात करते वक्त कहीं से भी ऐसा नहीं लगता कि वे दूसरे बच्चों से बहुत अलग हैं. उनके हावभाव और पहनावे से लेकर उनमें तमाम बातें अन्य बच्चों जैसी ही हैं. लेकिन उनमें मौजूद गजब की विलक्षणता उस वक्त साफ-साफ महसूस की जा सकती है जब वे कहती हैं, ‘जिस फुटबाल को बनाने के एवज में एक बच्चा मुश्किल से पांच-सात रुपये कमाते हुए अपना पूरा भविष्य अंधेरे में धकेल रहा होता है, उसी फुटबाल पर एक किक मारने के बदले एक खिलाड़ी करोड़ों रुपये कमा कर अपनी आगे की कई पीढि़यों तक का भविष्य सुरक्षित कर देता है.’ बारहवीं कक्षा में पढ़ने वाली रजिया की ये बातें शिक्षा अभियानों की सफलता और असफलता की पड़ताल करने वाले उन शोधार्थियों के निष्कर्षों  को भी छोटा कर देने वाली प्रतीत होती हैं, जो अपने अध्ययन के जरिये दुनिया भर का दर्शन सामने लाकर रख देते हैं मगर बुनियादी बातों को समझ नहीं पाते.

पिछले छह-सात सालों से रजिया बाल मजदूरी के खिलाफ होने वाले जागरूकता अभियानों में लगातार भाग ले रही हैं. उनके घर की दीवारों पर मुस्कराती तस्वीरें, और मेज पर सजी ट्राफियां इसकी तस्दीक करती हैं. वे नेपाल में शिक्षा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से निकाली गई रैली में भाग लेते हुए महेंद्रगढ़ से काठमांडू तक की यात्रा भी कर चुकी हैं. उनके साथ इस यात्रा पर गए ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के मेरठ जिला प्रभारी शेर खान बताते हैं कि रजिया ने नेपाल में बच्चों की शिक्षा को जरूरी बताने को लेकर जिस तरह के तर्कों से लोगों को समझाया उसे सुन कर वहां के प्रधानमंत्री भी बहुत प्रभावित  हुए थे.

मलाला पुरस्कार के लिए रजिया का नाम संयुक्त राष्ट्र संघ में ब्रिटेन के पूर्व प्रधान मंत्री गार्डन ब्राउन ने प्रस्तावित किया. उन्हें रजिया के बारे में तब पता चला जब बच्चों के लिए आयोजित एक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए वे आठ महीने पहले भारत आए थे. रजिया को मलाला पुरस्कार से सम्मानित होने के लिए संयुक्त राष्ट्र के कार्यक्रम में भाग लेने अमेरिका जाना था लेकिन वीजा नहीं मिल पाने के चलते वे इस अवसर से वंचित रह गईं. शुरुआती अफसोस के बाद रजिया अब इस बात को भूल चुकी हैं. उनका पूरा ध्यान अब आगे के अभियान पर केंद्रित है. मलाला के बारे में पूछे जाने पर रजिया उनके काम को बेहद बहादुरी भरा बताते हुए कहती हैं कि मलाला के बारे में उन्हें तब पता चला जब उन पर तालिबानी हमला हुआ था. रजिया कहती हैं कि देश दुनिया में जो भी लोग समाज सेवा के काम में लगे हैं उन सबसे वे कुछ न कुछ जरूर सीखना चाहती हैं. लेकिन अपना असल प्रेरणास्रोत वे खुद को ही बताती हैं. इस बात के पीछे रजिया का तर्क भी उनकी दूसरी बातों जितना ही सरल है. वे कहती हैं कि,’जब तक किसी काम को करने को लेकर हम मन से तैयार नहीं होते तब तक चाहे कितने ही उदाहरण हमारे सामने आ जाएं हम उनका अनुकरण नहीं कर सकते.’

ऐसा नहीं है कि रजिया के आज इस मुकाम तक पहुंचने के सफर में अड़चनें न आई हों. ईंट सप्लायर का काम करने वाले उनके पिता फरमान, खुद इस बारे में बताते हुए कहते हैं कि शुरुआत में वे रजिया के रवैये से बेहद परेशान हो गए थे. वे कहते हैं, ‘सुबह से लेकर शाम तक रजिया गांव के दूसरे बच्चों के साथ गली मुहल्लों में नारे लगाती फिरती रहती थी जो मुझे बेहद अटपटा लगता था. लड़की का इस तरह घूमना इसलिए भी अखरता था क्योंकि मुझे डर था कि नाते-रिश्तेदार और दूसरे लोग इस पर न जानें क्या-क्या बातें करेंगे. लेकिन रजिया की जिद और उसकी सच्चाई ने मेरा दिल इस कदर जीत लिया कि अब मैं उसे सब कुछ करने देना चाहता हूं.’

डॉक्टर बन कर गरीबों की सेवा करने का इरादा रखने वाली रजिया इस साल बारहवीं की बोर्ड परीक्षा में बैठेगी. उनसे पूछने पर कि बोर्ड की तैयारी और बच्चों की शिक्षा को लेकर जागरूकता अभियान चलाने जैसे दो-दो महत्वपूर्ण काम एक साथ करने में मुश्किल नहीं आएगी, रजिया का मुस्कराते हुए यही कहना था, ‘आपके लिए मुश्किल होगा लेकिन मेरे लिए बिल्कुल नहीं, मुझे सारी उम्र अब यही सब करना है और अगर मुश्किलों से डरने लगी तो कुछ नहीं कर पाऊंगी.’ उन्होंने लोगों को समझाया कि बाल श्रम करने वाले बच्चों को न पूरा पैसा मिलता है और न ही बड़े होने पर ये कुछ और करने के लायक रह जाते हैं.

अच्छा डॉक्टर पहले एक अच्छा इंसान होता है

मैंने पिछली बार यह चर्चा शुरू की थी कि ‘अच्छे डॉक्टर’  कौन होते हैं. अच्छे डॉक्टर की जो फिलॉसफी हम मानते हैं वही डॉक्टरी की ABC भी है- अर्थात डॉक्टर की Availability (क्या वह सहजता से तथा नियमित रूप से उपलब्ध रहता है), उसका Behaviour (डॉक्टर किस तरह आपको सुनता- गुनता है, उसका व्यवहार मरीजों से कैसा है आदि) तथा Craft (उसे अपने विषय का ज्ञान है भी कि नहीं, या कि मात्र हमेशा उपलब्ध रह कर और मीठी-मीठी बातें करके ‘अच्छा डॉक्टर’ बना हुआ है).

हम अच्छे डॉक्टर की कुंडली में तनिक और गहरा उतरें. तो हम अच्छे डॉक्टर में ये बातें भी देखें- क्या वह चिकित्सा विज्ञान की सीमाएं स्वीकार करता है? कहीं वह बड़े-बड़े दावे तो नहीं करता? वह आपका ऑपरेशन. एंजियोप्लास्टी या अन्य कोई भी इलाज करता है तो कहीं यह दावा तो नहीं करता कि इससे सब कुछ, ‘सौ प्रतिशत’ ठीक हो जाएगा? वह ऑपरेशन के विफल होने की संभावनाओं पर भी खुलकर बताता है कि नहीं? वह बीमारी के ठीक होने की संभावनाओं, और न ठीक होने के आपके डर को ठीक से स्पष्ट करता है कि नहीं?  एक डॉक्टर में यह सब जानना, देखना, समझना बेहद जरूरी है.

चिकित्सा विज्ञान लाख दावे कर ले, मीडिया के जरिये यह मायावी भ्रम तैयार कर डाले कि अब तो शरीर का हर विकार ठीक करने की क्षमता डॉक्टरों के हाथ में आ गई है, पर वास्तव में ऐसा है नहीं. अच्छा डॉक्टर कभी भी हवाई दावे नहीं करेगा. वह बताएगा कि ‘बाईपास सर्जरी’ से आपकी उम्र नहीं बढ़ने वाली, एंजियोप्लास्टी (सफल एंजियोप्लास्टी) भी कुछ महीनों बाद काम करना बंद कर सकती है और ऐसा ही अनेक अन्य दवाओं तथा सर्जरी आदि का हाल है. अच्छा डॉक्टर ऊलजुलूल दावे नहीं करता.

क्या वह आपको आशा देता है? 

चिकित्सा विज्ञान के विख्यात पूर्वज डा. विलियम ऑसलर का वह कथन उन डाक्टरों को चेतावनीनुमा सलाह है जो खुद को भगवान मानने लगते हैं. वे कहते हैं, ‘जज बनकर फांसी की टोपी मत पहनाओ- किसी भी मरीज से आशा छुड़ाने का अधिकार आपको नहीं है.’ मरीज अंतिम सांसें भी गिन रहा हो तब भी, डॉक्टर के प्रयास न केवल उसे बचाने के होने चाहिए, उसे आशा और सांत्वना का संदेश भी मिलना चाहिए.

एक अच्छा डॉक्टर उसी हद तक आशावादी होता है जितना स्वयं मरीज. वह मरीज से बीमारी की गंभीरता छिपाए बिना भी आशा का संदेश देता है. कैसी भी गंभीर बीमारी हो, वह मरीज में भरोसा तथा आशा जगाता है. वह कभी हाथ खड़े नहीं करता.  वह मरीज देखने आता है तो मरीज और उसके रिश्तेदार भरोसे से भर जाते हैं. वह कभी झूठी बातें, दावे नहीं करता. झूठी आशाएं न जगाकर भी आशा जगाता है. वह मरीज को मानवीय, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक धरातलों पर समझने-समझाने की कोशिश करता है.

क्या वह मरीज की निजता का सम्मान करता है? 

डॉक्टर ऐसा न हो कि सुबह आपको भगंदर की डायग्नोसिस करे और शाम तक सारे शहर को खबर हो जाए. डॉक्टर से उम्मीद की जाती है कि वह आपकी अनुमति के बिना बीमारी के विषय में एक शब्द भी किसी अन्य आदमी को नहीं बताएगा. डॉक्टर पर भरोसा करके अनेक निजी तथा गोपनीय बातें भी आप उससे शेयर कर डालते हैं. इसीलिए डॉक्टर को अफवाह में रुचि नहीं लेनीे चाहिए. डॉक्टर का कर्तव्य और आपका अधिकार है कि डॉक्टर आपको उचित एकांत में देखे. यदि आउटडोर में साथ-साथ दस अन्य अपरिचित खड़े हैं तो वहां मरीज कैसे अपने कष्ट बयान कर सकता है? अच्छा डॉक्टर अपने चैंबर में, एक बार में एक ही मरीज को देखता है.

वह रिपोर्टों का इलाज करता है या मरीज का?

अच्छा डॉक्टर मरीज को पहले ठीक से जांचता, परखता है- वह फिर जांचें लिखता है. वह आपको दो मिनट में देखकर 20 जांचें नहीं लिख देता. उससे इन जांचों की आवश्यकता पर प्रश्न करो तो वह उखड़ नहीं जाता- आपको स्पष्टीकरण देता है कि अमुक जांच वह क्यों करा रहा है. इन जांचों पर भी वह आंख मूंदकर भरोसा नहीं करता. आधुनिक विज्ञान ने बेहद तरक्की की है. खासकर सीटी स्कैन तथा अल्ट्रासाउंड आदि द्वारा आज डॉक्टर शरीर के अंदर तक की तस्वीरें ले पाता है. अच्छा डॉक्टर यह जानता है कि ये सब तस्वीरें ही हैं- इनकी असलियत समझने के लिए उसे मरीज को समझना होगा. अल्ट्रासाउंड में लीवर में दिख रही कोई गांठ कैंसर की है, इन्फेक्शन है या बस यूं ही है- इसके लिए डॉक्टर अनावश्यक जांचें नहीं कराता. हां, वह आवश्यक जांचें अवश्य कराता है. मरीज के लिए प्राय: यह तय करना कठिन हो जाता है कि आवश्यक क्या है और अनावश्यक क्या है. लेकिन एक-दो बार में ही डॉक्टर की यह आदत आप पकड़ सकते हैं.

क्या वह साफ-सुथरा रहता है? 

यह पक्ष किंचित विवादास्पद हो सकता है फिर भी मुझे लगता है कि एक अच्छे डॉक्टर को स्वयं सफाई रखनी चाहिए. साफ- सुथरा रहने वाला डॉक्टर न केवल भरोसा जगाता है, वह मरीज को भी साफ-सुथरा रहने का संदेश देता है.

क्या आपकी हर तकलीफ या शिकायत पर वह एक नई गोली लिख देता है?

आप दस शिकायतें बताते हो और वह ग्यारह दवाइयां लिख देता है. यदि परचा दो-तीन तरह के विटामिनों, टॉनिकों, एसिडिटी की दवाइयों, कई एंटीबायोटिक्स से भरा है तो वह डॉक्टर खतरनाक है. ऐसा डॉक्टर आपका नहीं, दवाई कंपनियों का भला चाहता है. अच्छे डॉक्टर का परचा प्राय: कम ही दवाइयों वाला होता है. दरअसल, अच्छे डॉक्टर की खोज एक अच्छे इंसान की भी खोज है. घटिया इंसान कभी भी अच्छा डॉक्टर सिद्ध नहीं होगा. l

‘सरकार’ के सहारे बेड़ा पार!

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झारखंड में शिबू सोरेन की हैसियत से हर कोई वाकिफ है. उनका दल झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) राज्य का प्रमुख दल है. पिछले कुछ समय से वह ढलती उम्र और पार्टी पर घटते नियंत्रण को लेकर चिंतित थे. इस बीच बेटे हेमंत सोरेन को राज्य के मुख्यमंत्री की गद्दी मिलने से उनकी चिंता कुछ हद तक दूर हुई है, लेकिन यह राहत अस्थायी भी हो सकती है. उसकी पर्याप्त वजहें मौजूद हैं.

शिबू एक बार फिर सक्रिय हो गए हैं. हेमंत के मुख्यमंत्री बनने के बाद बंगाल के सिलिगुड़ी में एक सभा में उन्होंने कहा, ‘आदिवासियों के लिए एक अलग राज्य चाहिए, वैसा राज्य, जो आदिवासी बहुल हो और इसमें बंगाल, झारखंड, उड़ीसा आदि के आदिवासी इलाके शामिल हों.’ विश्लेषकों के मुताबिक शिबू के बेटे के मुख्यमंत्री बनने के बाद पार्टी की साख दांव पर लग गई है और इसीलिए वह आदिवासी राज्य का अपना राजनीतिक हथियार इस्तेमाल कर रहे हैं ताकि पार्टी के मूल मतदाताओं को जोड़े रख सकें.

अहम सवाल यह है कि क्या यह सरकार अपने कार्यकाल को पूरा करेगी. झामुमो के नेतृत्व में सरकार बनवाने और हेमंत को मुख्यमंत्री पद पर बिठाने के लिए कांग्रेस आगे आई है. उसका साथ लालू प्रसाद की पार्टी राजद और निर्दलीय विधायकों ने दिया है. सरकार को 43 विधायकों का समर्थन है. इसमें झामुमो के 18, कांग्रेस के 13, राजद के पांच, वाम विचारधारा आधारित पार्टी मार्क्सवादी समन्वय समिति के एक और छह निर्दलीय विधायक हैं. राज्य में निर्दलीय विधायकों के नखरे और कारनामे किसी से छिपे हुए नहीं हैं. इस बार हेमंत को पूर्व मंत्री हरिनारायण राय, एनोस एक्का जैसे वे निर्दलीय विधायक भी समर्थन दे रहे हैं जो पहले से खासे चर्चित हैं. हेमंत ने सरकार बनाने के लिए अब तक पुलिस की नजर में फरार चल रहे विधायकों सीता सोरेन, नलिन सोरेन और हत्या के आरोप में जेल की सजा काट रहे कांग्रेसी विधायक सावना लकड़ा के वोट का भी बंदोबस्त किया.

हालांकि सरकार का कुछ दिन चलना तय है क्योंकि कांग्रेस की मंशा लोकसभा चुनाव तक सरकार चलाने की होगी. लेकिन इससे झामुमो को क्या हासिल होगा? जानकारी के अनुसार कांग्रेस ने सरकार बनवाने के लिए यह शर्त भी रखी है कि वह 14 में से 10 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी. इससे असंतोष पनपना तय है. हेमंत को उम्मीद है कि लोकसभा चुनाव में वे कांग्रेस के छोटे भाई की भूमिका में होंगे तो विधानसभा चुनाव में कांग्रेस उन्हें बड़े भाई की भूमिका में आने देगी. लेकिन यह सब तब होगा, जब लोकसभा चुनाव में झामुमो के सहयोग से कांग्रेस कोई करिश्मा कर पाएगी, वरना पहली गाज सरकार पर ही गिरनी है. प्रदेश भाजपा अध्यक्ष रवींद्र राय कहते हैं, ‘हेमंत को सत्ता की भूख ज्यादा हो गई थी. इसका फायदा कांग्रेस ले रही है. पहली बार हो रहा है कि राष्ट्रपति शासन के बाद जोड़-तोड़ से सरकार बन रही है. कांग्रेस को लोकसभा तक जाना है. हेमंत मोहरा बने हैं, जिसका इस्तेमाल कांग्रेस करेगी लेकिन वह भी दस सीटों का सपना ही देख रही है’.

हेमंत की सरकार बनवाने में वाम विचारधारा की पार्टी मार्क्सवादी समन्वय समिति यानी मासस के इकलौते विधायक अरूप चटर्जी भी समर्थन कर रहे हैं. मासस धाकड़ वामपंथी एके राय द्वारा स्थापित पार्टी है. राय एक समय में शिबू के मार्गदर्शक हुआ करते थे और मूल्यों की राजनीति के लिए जाने जाते हैं. सूत्रों के मुताबिक राय सरकार को समर्थन देने के लिए कतई तैयार नहीं थे लेकिन अरूप इसके लिए सहर्ष तैयार हो गए. अरूप तर्क गढ़ते हैं कि लाल और हरे झंडे का झारखंड में पुराना इतिहास है तथा एके राय और शिबू सोरेन साथ-साथ ही राजनीति करते रहे हैं. हालांकि इसी सवाल पर भाकपा माले के विधायक विनोद सिंह कहते हैं कि यह सरकार अनैतिक तरीके से बन रही है और हमारी पार्टी इसके पक्ष में नहीं है.

इस बीच राज्य में सरकार बनने के दुष्प्रभाव नजर आने लगे हैं. साफ संकेत हैं कि कांग्रेस हेमंत को मुख्यमंत्री बनाकर दिल्ली से झारखंड की सत्ता चलाएगी और जो शेष हिस्सा झारखंड से संचालित होगा उसमें कई सुपर सीएम होंगे. निर्दलीय हमेशा सत्ता के केंद्र बनते हैं, इस बार नहीं बनेंगे, ऐसा नहीं कहा जा सकता. कांग्रेस नेता राजेंद्र सिंह के पुत्र अनूप सिंह महत्वाकांक्षी हैं और हालिया दिनों में प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में लाठी-डंडा चलाने की वजह से चर्चित रहे हैं. जाहिर है कि जब इन सबका वर्चस्व रहेगा तो झामुमो में बेचैनी बढ़ना तय है.

‘दीवानी’ हुई सियासत

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मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने में अब लगभग सौ दिन शेष हैं. उम्मीद के मुताबिक चुनाव के ठीक पहले यहां सत्तासीन भाजपा और कांग्रेस के नेताओं के बीच जुबानी जंग भी तेज हो चुकी है. किंतु जुबानी जंग से शुरू हुआ यह मुकाबला जिस तरीके से अब मुकदमेबाजी में तब्दील हो गया है उससे राज्य की राजनीति का रंग और ढंग बदला-बदला नजर आ रहा है. मध्य प्रदेश के लिए चुनाव की बेला में चला मुकदमेबाजी का यह खेल बिलकुल नया है. और पहली बार में ही यह इस हद तक परवान भी चढ़ा है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, उनकी धर्मपत्नी साधना सिंह, नेता प्रतिपक्ष कांग्रेस के अजय सिंह, कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया, भाजपा के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष प्रभात झा से लेकर मौजूदा भाजपा प्रदेशाध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर सरीखे तमाम बड़े नेता अपना-अपना दांव आजमा रहे हैं. और तो और, आप मप्र की सियासत के इस मुकदमा युग का प्रभाव देखिए कि अब यहां छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अजीत जोगी भी अपनी ताल ठोक रहे हैं.

आरोप-प्रत्यारोप से बढ़ी तल्खी के बीच इन दिनों मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और श्रीमती साधना सिंह का नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह पर मुकदमा ठोकने का मामला गर्माया हुआ है. चौहान का आरोप है कि अजय सिंह ने मई में आयोजित अपनी परिवर्तन यात्रा के दौरान उनके और उनकी पत्नी के बारे में झूठे आरोप लगाए. इन आरोपों के बदले में बीती 12 जून को चौहान दंपति ने मुख्य जिला मजिस्ट्रेट, भोपाल की अदालत में एक करोड़ रुपये की क्षतिपूर्ति मांगी है. वहीं अजय सिंह का कहना है कि उन्होंने इसके पहले दो पत्र लिखकर मुख्यमंत्री से 2003 से लेकर अब तक उनके परिजनों द्वारा अर्जित संपत्ति का ब्योरा मांगा था. लेकिन जवाब देने के बजाय मुख्यमंत्री ने उन्हें मानहानि का नोटिस थमा दिया. बकौल सिंह, ‘मुख्यमंत्री जी ने मानहानि के नोटिस में जिन आरोपों का जिक्र किया है वैसा मैंने कुछ नहीं कहा.’ किंतु मुख्यमंत्री चौहान के वकील दीपक जोशी ने सिंह के खिलाफ अदालत में एक सीडी और अखबारों की कुछ कतरनें पेश की हैं. जोशी का दावा है कि नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने बीती 9 मई को सागर की जनसभा में कहा था कि पहले गुटखे के पाउच दस रुपये में 6 आते थे, अब तीन आते हैं. इसमें करोड़ों रुपये की कालाबाजारी चल रही है. और ये रुपये साधना सिंह की नोट गिनने की मशीन में गिने जा रहे हैं. जोशी का यह भी दावा है कि अजय सिंह ने चार जून को खरगौन की जनसभा में कहा था कि जिन शिवराज ने राजनीति की शुरुआत में अविवाहित रहने की कसम खाई थी वे ही राजनीति में चमकने के बाद साधना सिंह के रूप में नोट गिनने की मशीन लाए हैं.

भोपाल में चौहान दंपति ने जिस दिन नेता प्रतिपक्ष सिंह पर मानहानि का मामला दाखिल किया ठीक उसी दिन यानी 12 जून को इंदौर की विशेष अदालत में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता केके मिश्रा ने मुख्यमंत्री सहित 17 लोगों पर कथित मैगनीज खनन घोटाले को लेकर याचिका दर्ज करके मुकदमे की सियासत को हवा दे दी. मिश्रा का आरोप है कि सूबे के विवादास्पद उद्योगपति सुधीर शर्मा और उनके भाई ब्रजेंद्र शर्मा का शिवराज सरकार से नजदीकी रिश्ता है. और इसी के चलते शर्मा बंधुओं की भागीदारी वाली एक फर्म को फर्जी दस्तावेजों के हवाले से बेशकीमती मैगनीज खदान का हस्तांतरण किया गया है. मिश्रा के मुताबिक शिवराज सरकार की मिलीभगत से ही शर्मा बंधुओं ने काजरी डोंगरी (झाबुआ) में फैली 30 हेक्टेयर की खदान को गैरकानूनी तरीके से अगस्त, 2018 तक के लिए हथिया लिया है. मिश्रा का दावा है कि इस फर्म द्वारा काजरी डोंगरी में सौ करोड़ से अधिक का अवैध उत्खनन किया जा चुका है. हालांकि इस याचिका के दाखिल होने के बाद मुख्यमंत्री चौहान की तरफ से कोई सीधी प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन इसके ठीक दो दिन बाद उन्होंने अपने विधानसभा क्षेत्र बुदनी में एक कार्यक्रम के दौरान विरोधियों को चुनौती देते हुए यह जरूर कहा, ‘मुझे बदनाम करने वालों में यदि दम है तो वे आरोपों को अदालत में सिद्ध करें.’

[box]इस समय ज्यादातर मुकदमों का निशाना नेता प्रतिपक्ष कांग्रेस के अजय सिंह रहे हैं और भाजपा ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत ऐसा किया है[/box]

बीती 25 मई को छत्तीसगढ़ के सुकमा पहाड़ी (बस्तर) इलाके में नक्सलियों के सबसे बड़े हमले में जब छत्तीसगढ़ के कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल सहित पार्टी के कई बड़े नेता मारे गए तब उससे भड़की सियासी आग में मप्र के नेताओं ने करीब सवा महीने तक रोटियां सेंकीं. इस दर्दनाक हादसे के फौरन बाद मप्र कांग्रेस अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया ने सुरक्षा व्यवस्था में हुई चूक के लिए छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार को जिम्मेदार ठहराया. इसी के साथ उन्होंने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह को आड़े हाथों लेते हुए यहां तक कह डाला कि इस नक्सली हमले की जानकारी रमन सिंह को पहले से ही थी और इस साजिश में वे भी शामिल हैं. वहीं भूरिया के इस बयान पर पलटवार करते हुए मप्र भाजपा अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर ने इस हादसे को छत्तीसगढ़ कांग्रेस में चल रही गुटबाजी का नतीजा बताया. इतना ही नहीं तोमर ने दो कदम आगे जाकर यह सनसनीखेज बयान भी दे डाला कि इस घटना के बाद जोगी का रुदन देखकर लगता है इसके पीछे जोगी का ही हाथ है. नतीजा यह कि इस बयान से उठे बवाल के बाद गुस्साए जोगी ने 11 जून को रायपुर में तोमर पर मानहानि का आपराधिक मुकदमा ठोक दिया. और इसके चंद रोज बाद ही छत्तीसगढ़ में भाजपा प्रवक्ता संजय श्रीवास्तव ने रमन सिंह के खिलाफ अनर्गल बयानबाजी को लेकर भूरिया को भी उनके भोपाल के पते पर मानहानि का नोटिस पहुंचा दिया.

चुनावी समर में मची इस उथल-पुथल के बीच 21 जून को मानहानि का ही एक और नोटिस हरदा के भाजपा विधायक और पूर्व राजस्व मंत्री कमल पटेल ने नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह को थमाया. दरअसल 15 मार्च को सिंह ने हरदा जिले के एक किसान सम्मेलन में पटेल पर बेहिसाब संपत्ति बटोरने और इंदौर में आलीशान होटल खरीदने का आरोप लगाया था. पटेल के वकील प्रवीण सोनी के मुताबिक, ‘अजय सिंह ने कहा था कि मप्र का बजट यदि छह गुना बढ़ा है तो पटेल की माली हैसियत सौ गुना सुधरी है. हरदा से लेकर भोपाल तक पटेल की हजार एकड़ से कम जमीन नहीं है. सिंह ने यहां तक कहा था कि पटेल ने चंडीगढ़ में जमीन ले ली है और रिटायरमेंट के बाद वे वहीं रहेंगे.’ वहीं सिंह के आरोपों को लेकर पटेल का मानना है कि इससे जनता के बीच उनकी बड़ी किरकिरी हुई है.

मप्र में चल रही मानहानि की इस सियासी बिसात पर गौर करें तो अब तक मुख्य रुप से नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ही निशाने पर रहे हैं. राजनीतिक प्रेक्षकों की राय में ऐसा इसलिए है कि चुनाव नजदीक देख सिंह ने सत्ता विरोधी हवा बढ़ाने के लिए बीते साल से ही हमलावर रुख अख्तियार कर लिया था. लिहाजा सत्तारूढ़ भाजपा ने उन पर चौतरफा हमले करके लगाम कसने की कवायद शुरू कर दी और सिंह के ही बयानों के आधार पर उन्हें घेरने की यह रणनीति अपनाई है.

काबिले गौर है कि मप्र में भाजपा और कांग्रेस के शीर्ष पदों पर बैठे नेता अब तक पत्रकार वार्ताओं, बयानों और पत्रों के जरिए एक-दूसरे को घेरते रहे हैं. लेकिन प्रदेश की सियासत में इन दिनों जारी मुकदमेबाजी का यह दौर नया है. शीर्ष नेताओं के स्तर पर इसकी शुरुआत आज से ठीक एक साल पहले तब हुई थी जब नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने भाजपा के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा पर मानहानि का मुकदमा ठोका था. दरअसल तब झा ने अजय सिंह पर उनके राजनीतिक क्षेत्र चुरहट में आदिवासियों की जमीन हथियाने का आरोप लगाया था. इसके बाद 5 जून, 2012 को सिंह ने झूठे कागजात पेश करने के मामले में झा सहित चार लोगों के खिलाफ प्रथम श्रेणी न्यायिक दंडाधिकारी, भोपाल के सामने आपराधिक प्रकरण दर्ज कर दिया था. हालांकि अब यह मामला ठंडा पड़ गया है. लेकिन इसके साथ शुरू हुआ मुकदमेबाजी का सिलसिला हाल-फिलहाल मप्र की सियासत का तापमान बढ़ा रहा है.

दागियों से दोस्ती

उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव राज्य के बाहुवली नेता मुख्तार अंसारी और अभय सिंह के साथ
उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव राज्य के बाहुवली नेता मुख्तार अंसारी और अभय सिंह के साथ
उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव राज्य के बाहुवली नेता मुख्तार अंसारी और अभय सिंह के साथ
उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव राज्य के बाहुवली नेता मुख्तार अंसारी और अभय सिंह के साथ

उत्तर प्रदेश में पूर्ववर्ती बसपा सरकार में मंत्री रहे बाबू सिंह कुशवाहा की पत्नी शिवकन्या व भाई शिवसरन कुशवाहा ने हाल ही में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिया. कुशवाहा नेशनल रूरल हेल्थ मिशन में हुए सैकड़ों करोड़ रुपये के घोटाले के मुख्य आरोपी हैं और फिलहाल गाजियाबाद की डासना जेल में बंद हैं. कुशवाहा परिवार की ताजपोशी गुपचुप तरीके से नहीं बल्कि सपा के प्रदेश मुख्यालय में कार्यक्रम आयोजित करके की गई. इस पर विपक्ष ने पार्टी पर हमला बोल दिया लेकिन चुनावी साल में जातीय समीकरणों को ध्यान में रखते हुए सपा ने विपक्ष के हमलों को नजरंदाज कर दिया. दरअसल लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए सपा ही नहीं बल्कि दूसरी पार्टियां भी दागी व आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को अपने पास बैठाने से परहेज नहीं कर रही हैं.

सबसे पहले बात सत्तासीन समाजवादी पार्टी की. करीब डेढ़ साल पहले 2012 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव हुए थे. उस समय वर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष की हैसियत से बाहुबली डीपी यादव सहित कई ऐसे लोगों का टिकट यह कहते हुए काट दिया था कि सपा में दागी व आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के लिए कोई जगह नहीं है. लेकिन डेढ़ साल का समय बीतते-बीतते ही लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी सब भूल गई. अब पार्टी में दागी और आपराधिक छवि वाले लोगों का स्वागत है. जब ऐसे लोगों ने सत्ता का दामन थामा है तो उनके उपर सत्ता का करम होना भी लाजिमी है. जेल में बंद बाबू सिंह कुशवाहा को ही लीजिए.

कुशवाहा की पत्नी शिवकन्या व भाई शिवसरन ने जैसे ही सत्ता का दामन थामा वैसे ही जेल प्रशासन ने उन्हें गाजियाबाद की डासना जेल से बाहर निकालकर उन्हें उपचार के लिए लखनऊ के पीजीआई में भर्ती करवा दिया. वे कार्डियालोजी विभाग के प्राइवेट वार्ड में भर्ती हुए. डाक्टरों ने जांच के बाद उनको स्वस्थ बताया और उन्हें अस्पताल छुट्टी दे दी. लेकिन कुशवाहा ने अपना प्राइवेट वार्ड नहीं छोड़ा. सूत्र बताते हैं कि पीजीआई के रवैये को देखते हुए शासन की ओर से मामले में हस्तक्षेप किया गया. कुछ घंटे में ही स्थितियां फिर से कुशवाहा के पक्ष में हो गईं और डाक्टरों ने उन्हें कार्डियालॉजी से यूरोलॉजी विभाग में कर दिया. सपा के कई नेता पीजीआई में कुशवाहा से मिलने भी गए. परिवार की सत्ता में घुसपैठ का लाभ यहीं नहीं थमा. सरकार की ओर से कुशवाहा के खिलाफ कथित घोटालों की जांच का जो शिकंजा लगातार कसता जा रहा था वह भी थोड़ा कमजोर हुआ है. पुलिस विभाग के एक बड़े अधिकारी बताते हैं, ‘कुशवाहा के खिलाफ झांसी व इलाहाबाद में दर्ज मामलों की जांच विजिलेंस से कराए जाने की मांग की गई थी जिसे अब वापस लेकर उन्हें कुछ राहत दी गई है.’

बसपा से निकाले जाने के बाद विधानसभा चुनाव से ठीक पहले जब कुशवाहा ने भाजपा का दामन थामा तो इसी सपा ने काफी शोर-शराबा करते हुए इसे बड़ी डील करार दिया था. आखिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि उसी कुशवाहा के परिजनों को सपा ने अपना दामन ही नहीं पकड़ाया बल्कि बाबू सिंह की पत्नी शिवकन्या को पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसी जिले से टिकट देने की बात तक अंदर खाने चल रही है? दरअसल यह सारी कवायद एक दिन की नहीं है. तीन-चार माह पूर्व सपा के एक बड़े नेता ने डासना जेल जाकर कुशवाहा से भेंट की थी. उसके बाद से ही ये समीकरण बनने लगे थे. सपा के बड़े नेता की कुशवाहा से मुलाकात की बात जेल प्रशासन ने भी गोपनीय रखी. सवाल उठता है कि जब सपा दागियों व आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों से चुनाव में दूरी की बात करती आ रही थी तो अचानक ऐसी कौन सी मजबूरी बन गई कि बाबू सिंह कुशवाहा के परिवार को पार्टी में शामिल किया गया. इस पर सपा के ही एक नेता कहते हैं, ‘जैसे बसपा ब्राह्मणों और दलितों पर अपना ध्यान केन्द्रित कर रही है उसी तरह सपा भी अल्पसंख्यकों और पिछड़े वर्ग के वोट बैंक में अपनी पैठ मजबूत करने के इरादे से ऐसा कर रही है. बाबू सिंह कुशवाहा अभी जेल में हैं, ऐसे में सपा के टिकट पर यदि उनकी पत्नी किसी लोकसभा सीट से चुनाव लड़ती हैं तो कुशवाहा की सिंपैथी में एक सीट निकलना कोई बड़ी बात नहीं है. क्योंकि लोकसभा चुनाव में एक-एक सीट काफी मायने रखती है.’

दागी कुशवाहा ही नहीं, कई संगीन मामलों में आरोपी गुड्डू पंडित को बसपा ने जब विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया तो सपा ने उन्हें अपना सहारा दिया. सपा के टिकट पर गुड्डू बुलंदशहर जिले से विधायक ही नहीं बने बल्कि 2014 के लोकसभा चुनाव में अपनी पत्नी को पड़ोसी जिले अलीगढ़ से टिकट दिलवाने में भी सफल रहे. लेकिन अलीगढ़ में सपा की जिला कार्यकारिणी के सदस्यों का खुलकर विरोध देखते हुए टिकट कुछ दिन पहले काट दिया गया. बसपा के मंत्री रहे नंद गोपाल नंदी पर इलाहाबाद में हुए बमों से हमले के आरोपी सपा विधायक विजय मिश्र की बेटी सीमा मिश्र को भी सपा ने भदोही से लोकसभा का उम्मीदवार बनाया है.

यदि बात बसपा की करें तो आम दिनों में उसे भले ही दागियों और दबंगों से पहरेज हो लेकिन चुनाव में इन सब को मिला कर चलना ही उसकी भी आदत में शुमार है. कांग्रेस की पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी का घर जलाए जाने  सहित कई मामलों के आरोपी फैजाबाद के बाहुबली नेता बबलू सिंह को विधानसभा चुनाव से पहले बसपा ने पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था. इसके बाद बबलू पीस पार्टी के बैनर तले विधानसभा का चुनाव लड़े और हार गए. लेकिन चुनाव बाद स्थितियां बदली और बसपा ने बबलू को फिर से घर वापसी का मौका ही नहीं दिया बल्कि फैजाबाद लोकसभा सीट से उन्हें प्रत्याशी भी बनाया है. इसी तरह जौनपुर के बाहुबली सांसद धनंजय सिंह पर एनआरएचएम की आंच आई तो विधानसभा चुनाव में बसपा सुप्रीमो मायावती ने उनके पिता का टिकट ही नहीं काटा बल्कि धनंजय को भी कुछ दिनों बाद बाहर का रास्ता दिखा दिया. बसपा प्रमुख की यह सख्ती दागियों और दबंगों के लिए कुछ दिन ही रही. कुछ माह पूर्व धनंजय भी धीरे से बसपा में फिर से सक्रिय हो गए. धनंजय को फिर से जौनपुर लोकसभा सीट से पार्टी ने अपना प्रत्याशी बनाया है.

नैतिकता व आदर्श की बात करने वाली भारतीय जनता पार्टी भी इस चुनावी मौसम में आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के प्रेम से अछूती नहीं है. वरूण गांधी की नई लोकसभा सीट सुल्तानपुर जिले की इसौली विधानसभा से पूर्व विधायक सोनू सिंह ने भाजपा का दामन थामा है. 2010 के पंचायत चुनाव के समय सोनू सिंह बसपा के विधायक थे. उसी समय उनके गांव मायंग निवासी लेखपाल की हत्या हो गई थी. लेखपाल के परिजनों ने सोनू सिंह व उनके ब्लाक प्रमुख भाई मोनू सिंह को नामजद किया था. सोनू सिंह पर लेखपाल की हत्या सहित कई अन्य संगीन मामले भी हैं. हत्या में अपने विधायक का नाम आने पर बसपा ने सोनू सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था. 2012 का विधानसभा चुनाव सोनू सिंह पीस पार्टी से लड़े और हार गए. सुल्तानपुर लोकसभा सीट पर जातीय समीकरणों को देखते हुए सोनू सिंह पर लगने वाले सभी आरोपों को दर किनार करते हुए भाजपा ने उन्हें शरण दे दी है. ऐसा नहीं कि सोनू सिंह भाजपा में गुपचुप तरीके से षामिल हुए हैं. वरूण की सुल्तानपुर में हुई रैली में पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी की उपस्थिति में सोनू सिंह ने भाजपा का दामन थामा.

दागियों और दबंगों की इस फेहरिस्त में शामिल जेल में बंद माफिया बृजेश सिंह, मुन्ना बजरंगी और मुख्तार अंसारी भी लोकसभा चुनाव में ताल ठोकने की तैयारी कर रहे हैं. इनमें से मुख्तार अंसारी 2009 का लोकसभा चुनाव बनारस से बीएसपी के टिकट पर लड़ चुके हैं. मुख्तार के बड़े भाई अफजाल अंसारी 2004 का लोकसभा चुनाव सपा के टिकट पर लड़े और जीते भी. लेकिन अंसारी भाइयों ने अब अपनी पार्टी कौमी एकता दल बनाया है. बृजेश और मुन्ना को चुनाव से पहले किस पार्टी का दामन मिलेगा, अब यह देखना बाकी है. फिलहाल दोनों ही जेल से राजनीति का आनंद लेने के लिए तैयार हैं.

जातिवाद का विषविद्यालय!

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की कल्पना इसके संस्थापक मदन मोहन मालवीय ने कभी शिक्षा के उत्कृष्ट केंद्र के रूप में की होगी लेकिन बीते कुछ समय से यह शिक्षा के इतर कारणों से चर्चा में रहा है. नया मामला विश्वविद्यालय के कुलपति लालजी सिंह और एक असिस्टेंट प्रोफेसर के बीच चल रहे टकराव का है  जिससे अनुसूचित जाति आयोग के तार भी जुड़ गए हैं. दरअसल सिंह पर अनुसूचित जाति (एससी) आयोग में कुल पांच मामले लंबित हैं. आयोग एक साल के भीतर उन्हें नौ समन भेज चुका है. ये मामले बीएचयू के अंग्रेजी विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर इंदु चौधरी और कुछ अन्य लोगों की शिकायत पर दर्ज हुए हैं. इन सभी का आरोप है कि दलित होने की वजह से कुलपति द्वारा उनका उत्पीड़न किया जा रहा है. इस पूरे मामले को एससी आयोग और उसके चेयरमैन कांग्रेस सांसद पीएल पुनिया की भूमिका और ज्यादा जटिल बनाती है जिसमें हितों का टकराव साफ दिखता है.

इस मामले में कई पेंच हैं, इसलिए इसे समझने के लिए इसकी शुरुआत में जाना होगा. मई, 2007 में इंदु चौधरी की बीएचयू के अंग्रेजी विभाग में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर नियुक्ति हुई. उस समय उनके पास परिसर में रहने के लिए कोई आवास नहीं था लिहाजा उन्होंने कुछ दिनों के लिए फैकल्टी गेस्ट हाउस में रहने की अनुमति मांगी. उन्हें यह मिल गई. फैकल्टी गेस्ट हाउस ट्रांजिट व्यवस्था के तहत मिलता है. यह अवधि एक से लेकर छह महीने तक कुछ भी हो सकती है. इसे बीएचयू प्रशासन आगे भी बढ़ा सकता है, लेकिन विश्वविद्यालय का कोई कर्मचारी आजीवन यहां नहीं रह सकता. कर्मचारियों के  लिए परिसर के भीतर ही आवास बने हुए हैं. समस्या तब शुरू हुई जब इंदु चौधरी ने अलग-अलग कारणों से गेस्ट हाउस खाली करने से इनकार करना शुरू किया. विश्वविद्यालय प्रशासन उन्हें बार-बार गेस्ट हाउस खाली करने का नोटिस भेजता रहा पर गेस्ट हाउस खाली नहीं हुआ. इस बीच दिसंबर 2009 में विश्वविद्यालय प्रशासन त्यागराज कॉलोनी में इंदु चौधरी को आवास आवंटित कर चुका था. लेकिन चौधरी फैकल्टी गेस्ट हाउस में जमी रहीं और खुद ही मामला हाई कोर्ट में लेकर चली गईं. लेकिन उन्हें निराशा हाथ लगी. मार्च, 2010 में हाई कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा, ‘याचिकाकर्ता ने अपने दावे के समर्थन में ऐसा कोई पुख्ता प्रमाण नहीं दिया जिससे माना जा सके कि फैकल्टी गेस्ट हाउस में उनका रहना जायज है. फैकल्टी की सुविधा किसी का अधिकार नहीं है. याचिकाकर्ता को एक महीने में आवंटित आवास में जाने का आदेश दिया जाता है और यह याचिका निरस्त की जाती है.’

इसके बावजूद चौधरी गेस्ट हाउस में डटी रहीं और उन्होंने हाई कोर्ट के फैसले पर पुनर्विचार याचिका दायर कर दी. विश्वविद्यालय उन्हें इस बीच बार-बार गेस्ट हाउस खाली करने का नोटिस भेजता रहा. अंतत: जून, 2011 में प्रशासन ने उनके वेतन से गेस्ट हाउस का किराया काट लिया. यह रकम 27 हजार रु थी. दिसंबर, 2011 में चौधरी ने गेस्ट हाउस खुद ही खाली कर दिया. वे कहती हैं, ‘मुझे इस दौरान विश्वविद्यालय ने न तो वेतन काटे जाने का कोई नोटिस दिया न ही गेस्ट हाउस खाली करने का.’ हालांकि इस बयान पर यकीन कर पाना थोड़ा मुश्किल है क्योंकि तहलका के पास विश्वविद्यालय द्वारा अप्रैल, 2010 से जनवरी, 2011 के बीच जारी किए गए कुल चार नोटिस हैं. चौधरी कहती हैं, ‘विश्वविद्यालय दलितों के उत्पीड़न का केंद्र है. जिस फैकल्टी गेस्ट हाउस में मैं रहती थी, वहां का किराया 50 रुपया प्रतिदिन का तय है जबकि मुझसे प्रशासन ने शुरुआत के नौ महीने 100 रुपये प्रतिमाह वसूला और उसके बाद किराया बढ़ाकर 200 रुपये प्रतिमाह कर दिया.’ हालांकि प्रशासन का कहना है कि किराया 200 रुपया प्रतिदिन ही है. उसके मुताबिक चौधरी को शुरुआत में रियायत दी गई थी लेकिन जब वे तय समय से अधिक वहां रुकीं तो उनसे वास्तविक किराया वसूला गया.

खैर, यह लड़ाई यहीं खत्म नहीं हुई. इंदु चौधरी ने अपने आवास का मामला इतना बड़ा बना दिया कि वे इसे लेकर अनुसूचित जाति आयोग के पास पहुंच गईं. यहां से इस मामले में कांग्रेस सांसद और एससी आयोग के अध्यक्ष पीएल पुनिया की भूमिका शुरू होती है. दिसंबर, 2011 में गेस्ट हाउस खाली करते हुए चौधरी ने कुलपति के खिलाफ आयोग में शिकायत कर दी. अपने उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए यह शिकायत उन्होंने अपने पति महेंद्र प्रताप सिंह की एक गैरसरकारी संस्था के जरिए की थी. इस मामले में कुलपति ने अपना पक्ष आयोग के सामने रखवा दिया था.

[box]इस पूरे विवाद का विश्वविद्यालय के अकादमिक माहौल पर काफी नकारात्मक असर पड़ा है[/box]

मई, 2012 में इंदु चौधरी ने एक और काम किया. उन्होंने अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति कर्मचारी कल्याण समिति, बीएचयू, वाराणसी के नाम से एक संस्था का पंजीकरण करवाया. यह संस्था बीएचयू परिसर के भीतर स्थित एल-27, तुलसीदास कॉलोनी से चलती है. संस्था के लेटरहेड पर भी यही पता दर्ज है. लालजी सिंह कहते हैं, ‘विश्वविद्यालय के भीतर इस तरह की कोई समानांतर संस्था संचालित नहीं हो सकती. यह भारत सरकार द्वारा संचालित संस्थान है, यहां पहले से ही एसटी-एससी ग्रीवांस रिड्रेसल सेल है. इसके समांतर कोई दूसरी संस्था काम नहीं कर सकती.’ उधर, चौधरी अपनी संस्था के पक्ष में कुछ दूसरे तर्क और प्रमाण रखती हैं. वे कहती हैं, ‘परिसर के भीतर कुल पांच समितियां रजिस्टर्ड हैं. इनमें दुर्गोत्सव समिति भी है जो हर साल परिसर के भीतर दुर्गा पूजा करवाती है. एक सरकारी संस्थान किस अधिकार से परिसर के भीतर सालों से धार्मिक आयोजन करवा रहा है? कुलपति को सिर्फ दलितों की समिति से ही दिक्कत है.’ विश्वविद्यालय प्रशासन के पास इसका सिर्फ इतना-सा जवाब है कि वह दुर्गोत्सव समिति का पंजीकरण रद्द कर रहा है, बाकी समितियों के लिए उसके पास कोई योजना नहीं है.

बहरहाल इस समिति के गठन के बाद अगले कुछ दिनों के दौरान कुलपति लालजी सिंह के खिलाफ कुल पांच शिकायतें एससी आयोग में दर्ज करवाई गईं. हर मामले में आयोग ने सीधे कुलपति को आयोग के सामने प्रस्तुत होने का समन जारी किया. उनके खिलाफ आयोग ने कुल आठ समन जारी किए जिसमें हर तारीख पर विश्वविद्यालय की तरफ से रजिस्ट्रार अपना पक्ष रखने के लिए आयोग के समझ प्रस्तुत हुए. रजिस्ट्रार जीएस यादव कहते हैं, ‘हर बार पुनिया विवाद के बारे में बात करने के बजाय यही पूछते हैं कि वीसी क्यों नहीं आए और फिर वे अगली तारीख तय कर देते हैं. पिछली बार तो पुनिया जी ने यहां तक कह दिया कि तुमसे तो बात करना भी तौहीन है.’ आयोग और कुलपति की रस्साकशी यहां तक पहुंच गई कि आयोग ने 19 जून, 2013 को लालजी सिंह को गिरफ्तार करके आयोग के सामने प्रस्तुत करने का आदेश जारी कर दिया. यह वारंट इंदु चौधरी और उनके पति महेंद्र प्रताप सिंह द्वारा दायर की गई शिकायत के संदर्भ में जारी हुआ था.

इसमें जमानत का भी प्रावधान नहीं था लिहाजा लालजी सिंह ने हाई कोर्ट में इस वारंट को खारिज करने की याचिका दायर की. कोर्ट ने वारंट पर रोक लगाते हुए लालजी सिंह को सुनवाई में खुद उपस्थित होने से यह कहकर मुक्त कर दिया कि आयोग प्रारंभिक जांच पूरी कर ले इसके बाद उपयुक्त समय पर कुलपति आयोग के सामने अपना पक्ष रखने के लिए प्रस्तुत होंगे. खुद लालजी सिंह कहते हैं, ‘किसी ने भी शिकायत की और पुनिया सीधे मुझे हाजिर होने का समन जारी कर देते हैं. मामलों की जांच किए बिना ही. हमने हर समन का पूरा जवाब रजिस्ट्रार के माध्यम से हर सुनवाई के दौरान आयोग के सामने रखा है.’ लालजी सिंह का यह भी कहना है कि जो मामला हाई कोर्ट में लंबित है उसमें एससी आयोग को कार्रवाई करने का अधिकार ही नहीं है. उधर, पुनिया कहते हैं, ‘लालजी सिंह हर बार सुनवाई से बचते हंै और सिर्फ यही बताते रहते हैं कि वे क्यों नहीं आ सकते. आयोग के सामने आने से उन्हें डर क्यों लगता है?’

एससी आयोग के अध्यक्ष पीएल पुनिया इस मामले का बेहद दिलचस्प पहलू हैं. इंदु चौधरी ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति कल्याण समिति नामक जो संस्था बीएचयू में पंजीकृत करवा रखी है उसकी महासचिव चौधरी खुद हैं और पुनिया दो महीने पहले यानी 16 मई, 2013 तक उसके चीफ पैट्रन (मुख्य संरक्षक) हुआ करते थे. एससी आयोग के समक्ष की गई सारी शिकायतें इसी संस्था के लेटरहेड पर आयोग को भेजी गईं और पीएल पुनिया का नाम इस पर मुख्य संरक्षक के तौर पर अंकित है. उनके मुख्य संरक्षक रहते हुए ही सारी शिकायतें आयोग में आई हैं. लालजी सिंह को पुनिया की तरफ से सम्मन भी इन्हीं शिकायतों के आधार पर भेजा गया. पहली नजर में ही यह हितों के टकराव का मामला नजर आता है. तहलका ने जब पुनिया के सामने यह बात रखी तो उनका कहना था, ‘मुझे इस संबंध में और कुछ नहीं कहना है, फिलहाल मैं इसका संरक्षक नहीं हूं.’ इतना कहने के बाद उन्होंने फोन काट दिया.

चौधरी और पुनिया की मिलीभगत का इशारा एक दस्तावेज भी करता है. इंदु चौधरी ने 30 मार्च, 2013 को अपनी संस्था के माध्यम से एक शिकायत (संख्या 2013/SEWA /03/05)  आयोग के पास भेजी थी. एक अप्रैल, 2013 को इसे संज्ञान में लेते हुए आयोग ने इस मामले में 15 अप्रैल की तारीख तय करते हुए आरोपितों को नोटिस भेजने की नोटिंग इसी शिकायत पत्र में लिखी है. लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि आयोग के अध्यक्ष के कार्यालय में इस शिकायत की रिसीविंग तारीख दो अप्रैल दर्ज  है. सवाल उठता है कि आयोग को शिकायत दो अप्रैल को मिली तो उसने एक अप्रैल को ही इस पर अपना फैसला कैसे ले लिया.

सवाल यह भी है कि इंदु चौधरी या उनकी संस्था के माध्यम से बाकियों ने अपनी शिकायतें विश्वविद्यालय के एससी-एसटी सेल के माध्यम से क्यों नहीं उठाईं या उन्हें आयोग के पास विश्वविद्यालय के माध्यम से क्यों नहीं भेजा. विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर और वरिष्ठ दलित अध्यापक महेश प्रसाद अहिरवार कहते हैं, ‘अपने राजनीतिक मकसद के लिए इंदु चौधरी ने विश्वविद्यालय के एससी-एसटी कर्मचारियों के व्यापक हितों को दांव पर लगा दिया है. अव्वल तो जब मामला हाई कोर्ट में था तो पीएल पुनिया को इसमें पड़ना ही नहीं चाहिए था क्योंकि यह आयोग के दायरे में ही नहीं आता. चौधरी ने विश्वविद्यालय के एससी-एसटी कर्मियों को बांट कर उन्हें कमजोर करने का काम किया है. जो संस्था उन्होंने बनाई है, वह कर्मचारियों के बजाय उनके हित पूरे कर रही है. साल भर में एससी-एसटी सेल विश्वविद्यालय में आठ कार्यक्रम करवाती है. इतने सालों में आज तक चौधरी किसी भी कार्यक्रम में नजर नहीं आई हैं. उन्हें अपनी राजनीति से फुर्सत नहीं है और वे पूरे समाज के हित की बात कर रही हैं.’

विश्वविद्यालय के अकादमिक माहौल पर इस विवाद का बुरा असर पड़ा है. दलित और गैरदलित कर्मचारियों के बीच पूरे परिसर में एक गांठ-सी बंध गई है. इससे परेशान कुलपति ने विश्वविद्यालय के एससी और एसटी कर्मचारियों के साथ खुली बातचीत की पहल की. इससे दोनों पक्षों के बीच समझ विकसित हुई है और एससी-एसटी कर्मचारियों की सुनवाई कुछ हद तक बढ़ी है. लेकिन सारी समस्याएं सुलझ गई हों ऐसा नहीं है. अहिरवार बताते हैं, ‘समस्याएं तो हैं ही लेकिन इंदू चौधरी की तरह हम अपनी जायज लड़ाई गलत हथियार से नहीं लड़ेंगे. टीचिंग सेक्टर में यूनिवर्सिटी आरक्षण मानकों की अनदेखी अभी भी कर रही है लेकिन नान टीचिंग में स्थिति सुधरी है. हमने वीसी से सीधे संवाद में एससी-एसटी समुदाय की ओर से पंद्रह सूत्रीय मांग पत्र सौंपा है जिनमें से अधिकतर मांगें उन्होंने मान ली हैं. इसके अलावा एससी एसटी ग्रीवांस रिड्रेसल सेल को मजबूत करने के लिए इसे तीन स्तरीय बनाया गया है.’

चुनौती और चुप्पी

फोटो: प्रशांत रवि

देश के देहात में एक किस्सा सुनाया जाता है. एक पंडित के घर अमावस की रात चोर आए. पंडिताइन ने उन्हें देख लिया. उसने पंडित को जगाया. बताया कि घर में चोर घुस आए हैं. पंडित ने दबी से आंख चोर को देखा और बोला कि अभी चिल्लाना नहीं,  चोर आराम से चोरी करके चलते बने. सारा गांव जान गया कि पंडित के यहां चोरी हुई है लेकिन पंडित ने चुप्पी साधे रखी. कुछ दिनों बाद पूर्णिमा की रात आई. अचानक पंडित-पंडिताइन चोर-चोर का शोर मचाने लगे. गांववाले पंडित के घर दौड़े. पंडित ने कहा-अभी थोड़े न आए हैं चोर! वे तो अमावस की रात ही चोरी कर गए थे. आज तो शोर मचाने का साइत बन रहा था.

नहीं मालूम कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यह किस्सा सुना है या नहीं. साइत-संजोग को वे मानते हैं या नहीं, यह भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता. लेकिन कभी-कभी वे इस किस्से वाले पंडित की राह जरूर पकड़ लेते हैं. सब कुछ देखने और उस पर चहुंओर शोर मचने के बाद भी चुप्पी साध लेते हैं. वे चुप होते हैं तो पंडिताइन की तर्ज पर उनके सिपहसालार भी मौन साध लेते हैं और तब तक कुछ नहीं बोलते जब तक स्थिति अनुकूल न दिखे.

दो साल पहले फारबिसगंज में पुलिस गोलीकांड में पांच अल्पसंख्यकों के मारे जाने के बाद भी नीतीश ने ऐसी ही चुप्पी साधी थी. हाल के समय में बिहार में लगातार संघ परिवार की बढ़ती गतिविधियों पर भी उनकी रहस्यमयी चुप्पी नहीं टूटी. करीब एक साल पहले रणबीर सेना सुप्रीमो ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद पटना की सड़कों पर मची गुंडागर्दी पर भी वे कई दिनों तक मौन ही साधे रहे थे और तीन महीने पहले पूर्णिया में आदिवासियों के मार दिए जाने पर भी वे चुप्पी धारण किए रहे. फिलहाल उनकी चर्चित चुप्पी छपरा के धर्मासती गांव में मिड डे मील कांड के बाद की है. इस हृदयविदारक घटना के बाद देश भर में शोर मचता रहा,  लेकिन नीतीश कुमार ने चुप्पी नहीं तोड़ी. विरोधी कहते रह गए कि मुख्यमंत्री पटना से करीब 90 किलोमीटर दूर धर्मासती जाने की बात छोड़िए, अपने सरकारी आवास से कुछ किलोमीटर ही दूर बने पटना मेडिकल कॉलेज तक नहीं गए जहां उस गांव से आए कई बच्चों का इलाज चल रहा था.

घटना के नौवें दिन नीतीश की यह चुप्पी टूटी. उन्होंने कहा कि छपरा की यह घटना महज इत्तेफाक या हादसा नहीं बल्कि विरोधियों की सोची-समझी साजिश का परिणाम थी. यानी नौवें दिन भी उन्होंने वही बात दोहराई जो राज्य के शिक्षा मंत्री पीके शाही घटना वाले दिन ही कह चुके थे. नीतीश के चुप्पी तोड़ने के बाद आगे की कमान उनके सिपहसालारों ने थाम ली है. जदयू के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह कहते हैं, ‘धर्मासती कांड विरोधियों की साजिश का हिस्सा है. राजद और भाजपा के लोग आपस में तालमेल बिठाकर सरकार को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं. बोधगया बम ब्लास्ट के बाद एक ही दिन दोनों दलों द्वारा बंदी का आह्वान कोई इत्तेफाक नहीं हो सकता.’

जदयू के कई नेता इसी तरह नीतीश के कहे को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं. लेकिन कोई यह नहीं बता रहा कि मुख्यमंत्री इतने दिनों तक चुप क्यों रहे. वे छपरा या  पटना मेडिकल कॉलेज क्यों नहीं गए? जदयू नेताओं के पास फिलहाल इस सवाल का जवाब नहीं. कुछ कह रहे हैं कि मुख्यमंत्री के पांव में मोच थी. वे चल नहीं सकते थे,  सो नहीं गए. कुछ का जवाब है कि नीतीश अपने दौरे से इलाज के काम में बाधा नहीं डालना चाहते थे. आलोचकों का तर्क है कि पांव में मोच के बावजूद नीतीश कुमार अपने सरकारी आवास पर लगातार मिलने-जुलने से लेकर दूसरे काम करते रहे. मोच के तीसरे दिन वे अपने लोकप्रिय कार्यक्रम जनता दरबार में शामिल हुए. चौथे दिन कैबिनेट की बैठक में शामिल हुए. शिक्षा मंत्री पीके शाही के साथ अलग से बैठक भी की. पांचवें दिन यूनिसेफ के कंट्री डायरेक्टर लुईस जॉर्ज से भी मिले और स्वास्थ्य विभाग की समीक्षा बैठक में भी हिस्सा लिया. लेकिन धर्मासती कांड को लेकर वे न बोलने का समय निकाल सके और न ही कहीं निकलने का.

जदयू के विधानपार्षद देवेशचंद्र ठाकुर कहते हैं, ‘नीतीश कुमार धर्मासती कांड से बेहद दुखी थे और परेशान भी लेकिन वे जांच रिपोर्ट आने के पहले कुछ नहीं बोलना चाहते थे, इसलिए चुप रहे.’ नीतीश कुमार या उनकी जगह कोई भी मुख्यमंत्री होता तो इतने बड़े हादसे से दुखी तो जरूर होता, लेकिन जानकारों के मुताबिक इसके पीछे एक दूसरी बात भी है. मुख्यमंत्री के सामने हाल में इतनी तेजी से एक के बाद एक लगातार चुनौतियां पैदा हो रही हैं कि उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि इस पर कैसे प्रतिक्रिया की जाए. बीते जून के पहले पखवाड़े जब भाजपा और जदयू के बीच अलगाव की प्रक्रिया चल रही थी तो बिहार के जमुई इलाके में नक्सलियों ने दिन-दहाड़े एक ट्रेन को घेरकर अंधाधुंध फायरिंग की और तीन लोगों की हत्या करने के साथ-साथ रेलवे पुलिस बल के जवानों से हथियार लूट लिए. उसके कुछ दिनों बाद ही पश्चिम चंपारण के बगहा में पुलिस फायरिंग हुई, जिसमें छह थारू आदिवासियों की मौत हो गई. भाजपा ताजा-ताजा विपक्ष में गई थी, लालू प्रसाद सक्रिय थे ही, यह गोलीकांड भी नीतीश के लिए परेशानी का सबब बना. उन्होंने जांच का आदेश देकर मौन साध लिया. कुछ ही दिन बीते थे कि बोधगया बम ब्लास्ट की घटना हो गई.

इस पर चाहकर भी नीतीश न तो मौन साध सकते थे, न टालू रवैया अपना सकते थे. उन्हें आनन-फानन में सुबह ही बोधगया निकलना पड़ा. लेकिन मामला शांत नहीं हुआ. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, केंद्रीय गृह मंत्री सुशील शिंदे, भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह और पार्टी के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली बोधगया पहुंचकर मुद्दे की गरमी बढ़ाते रहे. कुछ दिनों पहले तक जो शिंदे नीतीश कुमार के लिए कसीदे पढ़कर गए थे वे बोधगया से राज्य सरकार को निकम्मा बता कर निकल लिए. ये सब परेशानियां एक-एक कर इतनी तेजी से आती रहीं कि नीतीश को सोचने का वक्त तक नहीं मिला. और ऊपर से मिड डे मील हादसे ने तो बिहार की पूरे देश में किरकिरी कर दी. राज्य सरकार बैकफुट पर आ गई. उसी दरमियान औरंगाबाद में माओवादियों ने पांच हत्याएं करके अलग परेशानी खड़ी कर दी. जदयू के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘किस-किस मामले को संभालते नीतीश कुमार. किस-किस पर बोलते!’

बात सही है. पिछले साढ़े सात साल के राज-काज चलाने के अनुभव में एक साथ नीतीश कुमार इतनी परेशानियों से कभी घिरे भी नहीं थे. और बात इतने पर खत्म भी तो नहीं होती. इन सभी घटनाओं के बीच ही कांग्रेस ने पड़ोसी राज्य झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ सरकार बनाने के लिए बने गठबंधन में लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद को खासी तवज्जो देकर नीतीश को अलग से मायूसी का संदेश दे दिया.

तिस पर परेशानियां घर के भीतर भी हैं. आम तौर पर नीतीश के संकटमोचक बनकर उभरने वाले और भाजपा से अलगाव करवाने में दिन-रात बोल-बोलकर माहौल तैयार करवाने वाले राज्यसभा सांसद शिवानंद तिवारी भी इस पूरे मामले में अलग रहकर लगभग चुप्पी ही साधे रहे. दूसरों की बात कौन कहे, जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव भी मिड डे मील मसले पर या समानांतर रूप से हुई कई घटनाओं पर नीतीश के बचाव में बयान देते नजर नहीं आए. सूत्र बता रहे हैं कि जदयू में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा. यही वजह है कि भाजपा से अलगाव के बाद डेढ़ माह से भी ज्यादा वक्त गुजर जाने के बाद नीतीश कुमार चाहकर भी मंत्रिमंडल का विस्तार नहीं कर पा रहे. पार्टी के अंदर एक चिंगारी है जो कभी भी आग का रूप ले सकती है. सूत्र बताते हैं कि जदयू के 20 में से करीब एक दर्जन सांसद ऐसे हैं जो भाजपा से अलगाव की वजह से नाखुश हैं. वे अपनी सीट भाजपा के सहयोग के बगैर निकाल पाएंगे इसे लेकर आश्वस्त नहीं. उधर, बताया जा रहा है कि भाजपा से अलगाव के बाद शरद यादव अलग नाराज चल रहे हैं, क्योंकि अब राष्ट्रीय अध्यक्ष होते हुए भी पार्टी में उनकी हैसियत शो-पीस की हो गई है. जब तक राजग के संयोजक थे तब तक सक्रियता और कुछ बोलने की वजह भी बनी रहती थी. अब वे जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष भर हैं और पार्टी के विधायक और सांसद नीतीश कुमार का कहा मानते हैं. शरद को सुनने वालों की संख्या कम है. आगे क्या होगा, अभी से कहना जल्दबाजी है लेकिन फिलहाल यह साफ दिख रहा है कि मुश्किल में चल रहे नीतीश कुमार बाहरी और आंतरिक, दोनों किस्म की परेशानियों में घिरकर अकेले-से पड़ गए हैं.
लेकिन जानकारों के मुताबिक नीतीश के घिरते जाने या अकेले और अलग-थलग पड़ जाने का मतलब यह भी नहीं कि इसमें लालू प्रसाद को संजीवनी मिलने या भाजपा के मजबूत होने के संकेत हैं. प्रदेश में भाजपा खुद बगावत का दंश झेल रही है और डेढ़ माह में सरकार के राज-काज और उपलब्धियों पर सवाल उठाकर खुद को हास्यास्पद बनाने में लगी हुई है. और रही बात लालू प्रसाद की तो वे चारा घोटाले के आखिरी फैसले में जेल जाने से बचने के लिए आरजू-मिन्नत और भक्ति-भाव के साथ बिहार छोड़कर उत्तर प्रदेश में विंध्याचल के आस-पास बाबाओं से आशीर्वाद लेने में मशगूल हैं.    l

साफ दिख रहा है कि मुश्किल में चल रहे नीतीश कुमार बाहरी और आंतरिक, दोनों किस्म की परेशानियों में घिरकर अकेले-से पड़ गए हैं

बुनियाद तो बुनियादी ही बदल दे, बशर्ते…!

फोटो:विकास कुमार
फोटो:विकास कुमार

वृंदावन का नाम लेते ही स्वाभाविक तौर पर उत्तर प्रदेश में बसा राधा-कृष्ण वाले वृंदावन का ही नजारा सामने होता है. लेकिन एक वृंदावन बिहार में भी है.  पश्चिमी चंपारण के चनपटिया ब्लॉक में. यह वृंदावन भी कुछ मंदिरों की वजह से खास है. शिक्षा के वे मंदिर जो आजादी के पहले ही एक नायाब प्रयोग के तौर पर यहां बने थे. महात्मा गांधी की प्रेरणा से दो दर्जन से अधिक बुनियादी विद्यालय यहां खोले गए थे. 1917 के बाद 1939 में जब गांधी दोबारा बिहार आये थे तो इसी इलाके में पांच दिनों तक रुके थे. बुनियादी विद्यालय यानी ज्ञान और कर्म,  श्रम और विद्यार्जन के बीच के भेद को मिटानेवाला संस्थान. ऐसा स्कूल, जहां बच्चों को किताबी शिक्षा के साथ ही बढ़ईगिरी, लुहारगिरी, किसानी, सब्जी खेती, डेयरी आदि विषयों का भी प्रशिक्षण मिले. जहां बच्चे किताबी पढ़ाई के बाद अपना हुनर भी विकसित करते रहें, जो कमाई हो उससे वे अपने स्लेट-पेंसिल-कॉपी खरीद सकें.

1935 में वर्धा में हुए कांग्रेस सम्मेलन में जब इस तरह के स्कूल की परिकल्पना उभरी थी तो बिहार के लोगों ने इसका तहे दिल से स्वागत किया था. बिहार के ग्रामीणों ने भू और श्रमदान करके ऐसे स्कूल खुलवाए. चंपारण के वृंदावन में ऐसे 28 स्कूल खुले और पूरे बिहार में 391 ऐसे बुनियादी विद्यालय अब भी मौजूद हैं. ज्ञान, कर्म और श्रम का सामंजस्य बिठाने के लिए खोले जा रहे इन स्कूलों के लिए दी गयी अच्छी-खासी जमीनें भी हैं,  लेकिन स्कूल बेहाल हैं.

इन स्कूलों के जरिये ज्ञान के साथ ही स्वावलंबन को बढ़ाने के उद्देश्य 60 के दशक में ही दफन होने शुरू हो गये थे. अब ये विद्यालय भी एक सामान्य विद्यालय भर बनकर रह गये हैं. नाम के आगे पीछे अब भी बुनियादी जरूर दिखता है लेकिन न उस तरह की शिक्षा देनेवाले या उसमें रुचि रखनेवाले शिक्षक हैं और न व्यवस्था. जमीनों पर अवैध कब्जा हो रहा है. इन बुनियादी विद्यालयों वाले गांव में ही सरकार ने सामान्य प्राथमिक, माध्यमिक विद्यालय खोल दिये हैं, जहां स्लेट की जगह प्लेट उठाए बच्चों की फौज जुटती है.

चंपारण के सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ता पंकज कहते हैं, ‘उम्मीदें अब भी मरी नहीं है. वृंदावन इलाके के एक गांव में आज भी एक बुनियादी विद्यालय का संचालन गांव वाले करवा रहे हैं, जहां 900 बच्चे पढ़ते हैं. गांव वाले ही चंदा जुटाकर चलाते हैं. उस स्कूल में हेडमास्टर भी है और आठ शिक्षक भी. गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति, नई दिल्ली से भी वित्तीय मदद मिलती है.’

पंकज जिस एक स्कूल का हवाला देते हैं, वह एक उम्मीद की लौ की तरह जला हुआ है. लेकिन उसकी एक सीमा है. बिहार के सब गांव इतने संपन्न नहीं कि खुद के बूते इस तरह के स्कूल चला लें. पंकज कहते हैं, ‘सपना तो यह था कि बाद में बुनियादी विश्वविद्यालय भी स्थापित होगा. ठोस खाका भी तैयार हुआ था लेकिन अब तो स्वेच्छा से जो जमीनें बुनियादी विद्यालय के लिए ही दान में मिली थी, उन जमीनों पर कहीं नवोदय विद्यालय खुल चुका है तो कहीं सामान्य विद्यालय और कहीं कुछ और.’

प्राथमिक शिक्षा की स्थिति सुधारने के लिए तमाम किस्म की कवायदों में लगी बिहार सरकार के सामने बुनियादी विद्यालयों को जिंदा करके शिक्षा को पटरी पर लाने का एक बेहतर विकल्प है. संयोग से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसमें रुचि भी दिखायी थी. लेकिन 2010 से शुरु हुई यह पहल बैठकों, सेमिनारों और फाइलों से आगे नहीं बढ़ पा रही. गांधीवादी शिक्षा के दर्शन पर आधारित कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए मई 2009 में नई तालीम केंद्र की स्थापना हुई थी. 2010  में दिल्ली में नई तालीम की बैठक हुई. अगली बैठक 2011 में बिहार में हुई. देश भर से 500 के करीब प्रतिनिधि आये. नीतीश भी इस बैठक में पहुंचे. प्रयोग के तौर पर कुछ बुनियादी विद्यालयों को फिर से शुरू करने की सलाह दी गई. उत्साहित नीतीश ने सभी 391 विद्यालयों को वापस पटरी पर लाने का ऐलान किया. मुख्यमंत्री के आदेश से तीन वरिष्ठ आइएएस अधिकारियों अंजनी कुमार सिंह, अमरजीत सिन्हा और व्यासजी की कमिटी बनी कि वे आज की स्थिति और भावी योजनाओं की रिपोर्ट दिसंबर 2012 तक दें. दिसंबर 2012 तक तो नहीं, लेकिन इससे दो-तीन माह के विलंब से एक रिपोर्ट तैयार हो गई. जो रिपोर्ट आई है वह घालमेल के पुलिंदे जैसी है. कमिटी की रिपोर्ट में सभी 391 बुनियादी विद्यालयों को सुदृढ़ करने, सभी जिलों में एक बुनियादी विद्यालय को मॉडल स्कूल के रूप में विकसित करने, बुनियादी विद्यालयों के शिक्षकों का मानदेय अन्य सरकारी विद्यालयों के बराबर करने, बुनियादी विद्यालय की डिग्री को सरकारी मान्यता देने, विद्यालयों को आवासीय बनाने, शिल्पी एवं कलाकारों को भी शिक्षक बनाने, बुनियादी शिक्षा बोर्ड का पुनर्गठन करने आदि जैसी बातें कही गई हैं.

एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस के निदेशक डीएम दिवाकर का मानना है कि बुनियादी शिक्षा बोर्ड को अलग करने की जरूरत है. वे यह भी मानते हैं कि शिक्षकों की बहाली में प्रमुखता से ध्यान दिया जाए तो तभी बात बनेगी. वे कहते हैं, ‘फिलहाल जो स्कूल चल रहे हैं, वे माइग्रेटरी बर्ड पैदा कर रहे हैं. जो गांव छोड़ दे, वह होशियार, जो जिला और राज्य छोड़ दे वह थोड़ा और ज्यादा होशियार और जो देश ही छोड़ दे, वह सबसे काबिल माना जाता है. बुनियादी विद्यालयों को ऐसी शिक्षा प्रणाली की परछाईं से भी बचाकर रखना होगा.’ उनके मुताबिक शिक्षकों की बहाली में सिर्फ शैक्षणिक योग्यता को आधार बनाने से बात नहीं बनेगी. इन विद्यालयों में जो शिक्षक बहाल हों, उनके प्रशिक्षण के पहले केरल के ज्ञानशाला, गुजरात विद्यापीठ, उदयपुर के सेवा मंदिर आदि में जाकर देख लेने की जरूरत है. उससे सहूलियत होगी. बुनियादी विद्यालय कैसे विकसित होंगे, होंगे भी या नहीं, यह देखा जाना अभी बाकी है.

तीन सदस्यीय कमिटी में शामिल रहे आइएएस अधिकारी व फिलवक्त मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव अंजनी कुमार सिंह कहते हैं, ‘हमारी कोशिश होगी कि जल्द से जल्द इस पर काम आगे बढ़े और हम इन विद्यालयों में आज की जरूरत के अनुरूप कौशल को बढ़ायेंगे. मोबाइल, कंप्यूटर, आइटी आदि का भी प्रशिक्षण देंगे.’ कमिटी के दूसरे सदस्य व्यासजी कहते हैं, ‘आज के समय के अनुसार तो शिक्षण-प्रशिक्षण तो हो ही लेकिन सबसे पहली जरूरत यह है कि सरकारी स्कूलों में पढ़नेवाले बच्चे के बीच जो हीन भावना आयी है, उसे दूर किया जाए. योग्य शिक्षकों की बहाली जरूरी होगी, जिनमें एक नैतिकता हो और समाज जिनका मान-सम्मान करने को तैयार हो.’ उनका मानना है कि जहां बुनियादी विद्यालय चलेंगे, वहां अगर दूसरे स्कूल भी रहेंगे तो फिर बुनियादी विद्यालय हाशिये की जातियों और समुदायों का स्कूल बनकर रह जाएगा, इसे भी ध्यान में रखने की जरूरत है.

सबके अपने सुझाव हैं, अपनी सहमति-असहमति है. सामाजिक कार्यकर्ता पंकज कहते हैं, ‘बुनियादी विद्यालय केंद्र और राज्य सरकार के बीच फंस गया है. केंद्र सरकार ने 300 करोड़ रुपये इसके नाम पर देकर कह दिया कि यह आपकी जिम्मेवारी है, राज्य सरकार कहती है कि उनकी जिम्मेवारी. नीयत और नीति साफ नहीं लेकिन देर-सबेर ही सही, इसे चलाना तो होगा ही, क्योंकि केंद्र से पैसा मिल चुका है और जो जमीन इन विद्यालयों के नाम पर है, उसके एग्रीमेंट में यह साफ लिखा हुआ है कि अगर बुनियादी विद्यालय नहीं चल सकेंगे तो जमीनें रैयतों को वापस मिल जाएगी. अब अगर राज्य सरकार नहीं चला सकेगी तो उन जमीनों को वापस लेने की मुहिम भी शुरू होगी.’