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‘झारखंड को सिर्फ दुहते रहने से स्थिति ऐसी भयावह और अराजक होगी कि संभालना मुश्किल हो जाएगा’

झारखंड के सामने चुनौतियों का ढेर है और आपके पास उससे निपटने के लिए युवा मन की ऊर्जा. आपकी प्राथमिकताएं क्या हैं?
मैं पहले भी सरकार में रहा हूं. मैंने यह महसूस किया है कि झारखंड में जो व्यवस्था है वह खुद को ही संभालने और संचालित करने में पूरी ऊर्जा को लगाए रहती है. इसका असर यह होता है कि शासन का लाभ आम आदमी तक पहुंच ही नहीं पाता. मेरे सामने सबसे बड़ी और पहली चुनौती है इस व्यवस्था को दुरुस्त करना. यही मेरी पहली प्राथमिकता भी होगी.

गठबंधन सरकार चलाने के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय हुआ है. आपने कहा है कि उसके अलावा भी आपकी प्राथमिकताएं हैं. इसका क्या आशय है?
आशय कुछ खास नहीं. यह जो न्यूनतम साझा कार्यक्रम बना है, वह तो महज एक रूपरेखा है लेकिन उसमें कई चीजें अनछुई रह गई हैं, उन्हें भी हम प्राथमिकता देंगे.

मसलन!
कोई खास एक-दो काम बता पाना अभी तो संभव नहीं लेकिन समय के साथ जो भी समस्याएं सामने आएंगी, उनको भी हम देखेंगे.

पिछले 13 साल में झारखंड के सामने सबसे बड़ी दिक्कत क्या रही, जिसकी वजह से झारखंड प्रहसन वाला एक नमूना राज्य बन गया?
मैं पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहता. पीछे देखेंगे तो कई खामियां दिखती हैं. मैं आगे देखना चाहता हूं. अतीत की गलतियों को तो ठीक करना ही है. उम्मीद करता हूं कि समय के साथ सब ठीक होगा.

फिर भी इन खामियों की कोई तो वजह होगी? नौकरशाही का रवैया, राजनेताओं की अदूरदर्शिता या जनता से मिला खंडित जनादेश, किसे प्रमुख मानते हैं?
मैं कह रहा हूं कि मुझे पीछे देखने को मत कहिए. वैसे आम तौर पर तो यही कहा जाता है कि राजनीतिक खामियों का नतीजा है लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता. मुझे लगता है कि यदि शासन व्यवस्था दुरुस्त रहे तो इसका बहुत असर नहीं पड़ता. एक पाइप लाइन से पानी किसी सही जगह पर पहुंचाना है, और पाइप में सौ छेद कर दिए गए हैं तो कितनी भी ताकत से पानी डालेंगे वह जगह तक पहुंचेगा क्या? वही होता रहा है झारखंड में. यही वजह है कि मैं बार-बार कह रहा हूं कि व्यवस्था को सुधारना हमारी पहली प्राथमिकता है. थोड़ा वक्त दीजिए, ऐसे सवाल फिर नहीं रहेंगे.

सियासत हासिल करने की कोशिश में झामुमो खुद को भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों के साथ आजमाती रही है?
कांग्रेस के साथ हम पहले भी गठबंधन में रहे हैं लेकिन साथ में सरकार चलाने का यह पहला अनुभव होगा. उम्मीद है कि ठीक होगा. किसी भी दल के साथ जब मामला व्यक्तिगत राजनीति पर आ जाता है तभी दिक्कत आती है. भाजपा के साथ का अनुभव तो बताने की जरूरत नहीं है, अभी हाल ही में तो उससे अलग हुए हैं. इस राज्य के निर्माण में राजग की भी भूमिका रही है और संप्रग का भी सहयोग मिला है. हमने हमेशा राज्य की जनता के भले के लिए ही इस दल या उस दल से गठबंधन किया है. इसकी वजह से हमारी पार्टी को काफी उतार-चढ़ाव भी देखने पड़े हैं.

भाजपा के साथ सरकार चलाने में दिक्कत किस बात पर हुई, यह अब तक रहस्य ही बना हुआ है.
भाजपा राज्यहित के मसले को तरजीह नहीं दे रही थी. बस यही.

सरकार बनाने के एवज में बने गठबंधन में आपकी पार्टी अगले लोकसभा चुनाव में 14 में से दस सीटें कांग्रेस को देने को राजी हो गई है. यह बड़ा दांव खेला है आपने. आपने यह भी कहा था कि राष्ट्रीय राजनीति आपकी रुचि का विषय नहीं.
ऐसा नहीं है कि राष्ट्रीय राजनीति हमारी रुचि का विषय नहीं. हम उसमें अपनी सहभागिता निभाते रहे हैं, लेकिन हमारी प्राथमिकता राज्य है इसलिए हमने कांग्रेस को इतनी सीटें दी हैं. हम राज्य को ही ठीक करेंगे. राज्य ठीक रहेंगे, दुरुस्त होंगे तो देश अपने आप मजबूत होगा.

वैसे यह देखा गया है कि जो आदिवासी नेता रहे हैं वे राष्ट्रीय राजनीति में ज्यादा दिनों तक रुचि नहीं रख पाते. जयपाल सिंह मुंडा से लेकर शिबू सोरेन, बाबूलाल मरांडी तक. क्या उन्हें टिकने नहीं दिया जाता या अपनी जमीन का लगाव उन्हें वहां रहने नहीं देता?
हमें नहीं लगता कि ऐसा है. हमारी सहभागिता तो रही ही है. वैसे इस सवाल पर गौर करूंगा. अभी जवाब नहीं दूंगा.

आपकी पार्टी एक बार फिर से बृहत झारखंड की मांग उठा रही है. झारखंड के साथ-साथ बंगाल, उड़ीसा आदि निकटवर्ती राज्यों के आदिवासी इलाकों को मिलाकर एक बृहत झारखंड. आप क्या कहेंगे इस पर?
यह हमारी पुरानी मांग रही है. अलग-अलग राज्यों में रहने वाले लोगों की भी ऐसी इच्छा और आकांक्षा है तो यह हमारी पार्टी के एजेंडे में आगे भी रहेगा.

देश के मानचित्र पर तेलंगाना भी अब एक नए राज्य के रूप में सामने आने वाला है. छोटे राज्यों के निर्माण से विकास होता है या…!
बड़े राज्य जो हैं, वे कौन सा विकसित हो गए हैं. वैसे यह हमेशा चर्चा होती है कि छोटे राज्यों के निर्माण से कोई फायदा है या नहीं. छोटे राज्य भी विकसित हुए हैं. हम तो झारखंड के लिए प्रयास करेंगे. छोटे राज्यों के निर्माण से कितना भला होता है, कितना नहीं, इस विषय पर अभी चर्चा करना ठीक नहीं.

झारखंड के खान-खनिज से देश को बहुत फायदा होता है, लेकिन उसका उचित राजस्व राज्य को नहीं मिल पाता. क्या इसके लिए अलग से आवाज उठाएंगे?
अब तो संप्रग के साथ हैं तो आवाज क्या उठानी है, हम नीति बनवाएंगे. राजस्व को लेकर अपना अधिकार चाहिए. चाहे वह भागीदारी के रूप में हो, हिस्सेदारी के रूप में हो या दोनों ही रूपों में हो. हमें जमीन का जो नुकसान हो रहा है उसकी कीमत तो चाहिए न. उपजाऊ जमीन के भीतर से जब खनिज निकाला जाता है, फिर वह जमीन उपजाऊ नहीं रह जाती. पूरी दुनिया में जमीन और मिट्टी की ही तो लड़ाई चल रही है. हम भी अपना उचित अधिकार लेंगे.

झारखंड को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग आपके पूर्ववर्ती अर्जुन मुंडा ने उठाई थी. बगल के बिहार में यह सबसे बड़ी राजनीतिक मांग है. आप भी क्या इस मांग को जारी रखेंगे?
विशेष राज्य का दर्जा मतलब क्या? विशेष आर्थिक सहायता ही न. वह तो हमें चाहिए ही, चाहे विशेष पैकेज के रूप में हो या विशेष दर्जे के रूप में.

[box]हमारी प्राथमिकता राज्य है, इसलिए हमने कांग्रेस को इतनी सीटें दी हैं. हम राज्य को ही ठीक करेंगे. राज्य ठीक रहेंगे तो देश अपने आप मजबूत होगा[/box]

दोनों में फर्क है, आप किसके पक्षधर होंगे?
विशेष राज्य दर्जे की मांग तो जारी रखनी ही चाहिए. झारखंड से सबसे ज्यादा संसाधन देश को जाता है. उसमें केवल उचित हिस्सेदारी ही हमें शुरू से मिली होती तो यह सब मांग उठाने की आज नौबत ही नहीं आती. लेकिन झारखंड से सिर्फ लेने की परंपरा बनी रही. यह तो सामान्य तौर पर समझना चाहिए. किसी गाय को पालते हैं तो उसे सही मात्रा में चारा देंगे, दाना-पानी देंगे तभी दूध दुहने के भी हकदार होंगे, वह दूध भी देगी लेकिन झारखंड को सिर्फ दुहा जाता रहा है. झारखंड को अगर उचित खाना-दाना-पानी नहीं मिला और दुहते रहने की कोशिश जारी रही तो भविष्य में स्थिति इस तरह भयावह और अराजक होगी कि उसे संभालना मुश्किल हो जाएगा.

झारखंड की राजनीति में स्थानीयता को लेकर समय-समय पर सवाल उठते रहते हैं. आप भी कभी 1932 के खतियान के आधार पर बात कहते हैं तो कभी उससे पलट जाते हैं. साफ-साफ बताएं कि आखिर स्थानीय होने का आधार क्या होना चाहिए.
मैं तो साफ मानता हूं कि जो झारखंडी हैं उनकी कोई विशिष्ट पहचान तो होनी ही चाहिए न. ताकि वे अपना विशेष हक जता सकें और उन्हें सुविधा भी दी जा सके. उसके लिए तो जमीन का खतियान (मालिकाना हक) एक सबसे मजबूत और कारगर आधार है. मैं यह नहीं कह रहा कि 1932 का ही खतियान हो, 2000 का भी हो लेकिन खतियान जरूर हो.

सिर्फ 2000 तक. उसके बाद के लोगों के लिए…
आज का भी खतियान हो तो माना जाएगा लेकिन वही आधार होगा.

चलिए, झारखंड से इतर दूसरे सवालों पर बात करते हैं. हाल ही में कोर्ट का एक आदेश आया है कि जो सजायफ्ता होंगे वे चुनाव लड़ने के अधिकारी नहीं होंगे. क्या सोचते हैं आप इस पर?
इसका मतलब तो यही हुआ कि जो गुनहगार है उसे समाज से भी बहिष्कृत कर देना चाहिए. इससे तो आम आदमी भी प्रभावित होगा. इससे तो व्यक्ति के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन होगा. आज हमारे देश का सामाजिक ढांचा ही चरमराया हुआ है. बिना उसे ठीक किए, ऐसी बातों पर सिर्फ चर्चा भर ही होती रहेगी.

राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के दायरे में लाने पर भी विवाद हो रहा है. पार्टियां तैयार नहीं हो रहीं. आपकी राय?
दुनिया भर के कानून बना देना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है. वैसे कोई भी कानून हो, वह सब पर समान रूप से ही लागू होना चाहिए. चाहे वह नागरिक समूह हो, राजनीतिक समूह अथवा अराजनीतिक समूह. मैं तो यह मानता हूं कि पहले से ही जितने कानून हैं, अगर उनका सही ढंग से पालन हो तो सूचना के अधिकार की जरूरत ही नहीं पड़ेगी.

आजकल पीएम पद पर रोज बात होती है. कोई नरेंद्र मोदी में पीएम की संभावनाएं तलाश रहा है तो कोई नीतीश कुमार में. आपको किसमें ज्यादा संभावना दिखती है?
मीडिया पीएम मैटेरियल की तलाश में अपनी ऊर्जा लगाए हुए है तो वही बताता रहे. हम तो एक सामान्य राजनीतिक योद्धा हैं. कल कौन जीतेगा, कौन हारेगा, तब आगे की बात आगे देखी जाएगी.

रीढ पर चोट

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एक-हरिद्वार में गंगोत्री टूर ऐंड ट्रैवल्स के नाम से कंपनी चलाने वाले अर्जुन सैनी ने लोन पर खरीदी गई अपनी तीन गाड़ियां सरेंडर कर दी हैं. चार धाम यात्रा बंद है और काम बस नाम भर का ही बचा है. जब खाने के ही लाले हों तो गाड़ियों की किस्त चुकाना तो दूर की बात है. लगातार बढ़ते कारोबार के बाद सैनी ने इस साल गाड़ियों की संख्या बढ़ा कर 12 कर ली थी जिनकी अक्टूबर तक की एडवास बुकिंग भी हो चुकी थी. लेकिन 18 जून को एक ही दिन उनकी सात गाड़ियों की बुकिंग कैंसिल हो गई. तब से शुरू हुआ यह सिलसिला रुका नहीं है.

दो- टूरिस्ट गाइड प्रकाश इन दिनों ऋषिकेश स्थित अपने दफ्तर में खाली बैठे रहते हैं. दो साल से इस कारोबार में सक्रिय 29 साल के इस युवक के पास अब कोई काम नहीं है. केदारनाथ में आपदा के बाद उन्हें दिल्ली के एक 40 सदस्यीय पर्यटक दल के साथ रुद्रप्रयाग से वापस ऋषिकेश लौटना पड़ा था. इस अंतिम टूर के जरिए उन्होंने सात हजार रुपये कमाए. पिछले सीजन में  डेढ़ लाख रुपये की कमाई से उत्साहित होकर इस बार उन्होंने चार धाम यात्रा मार्ग पर बने कुछ छोटे होटलों के साथ पार्टनरशिप करते हुए 50 हजार रुपये का निवेश किया था. लेकिन इस रकम के साथ प्रकाश की आगे की योजनाएं भी आपदा के सैलाब में डूब गई हैं.

तीन- चमोली जिले के सुदूरवर्ती गांव माणा के लोग पारंपरिक तौर पर भेड़ की ऊन से गर्म कपड़े, चटाइयां और कालीन बुनने का काम करते हैं. ये लोग चारधाम यात्रा शुरू होते ही बदरीनाथ और आस-पास के इलाकों में इनकी बिक्री करते थे. छह महीने के दौरान यहां का हर परिवार हर महीने 15 से 20 हजार रु तक कमा लेता था. इससे लोगों की साल भर की रोटी का इंतजाम हो जाता था. लेकिन अब यह आमदनी लगभग ठप है.

चार- मसूरी की माल रोड पर रिक्शा चलाने वाले 45साल के जयलाल सवारी के इंतजार में टकटकी लगाए बैठे हैं. यहां कुल 125 रिक्शा चालक हैं. यात्रियों की बेहद कम आवाजाही से इस बार बमुश्किल तीन दिन बाद उनका नंबर लग पा रहा है. पिछले साल इन दिनों एक ही दिन में वे कई-कई चक्कर लगा लेते थे और शाम तक पांच से छह सौ रुपये तक की कमाई कर लेते थे. लेकिन इस बार स्थिति इतनी खराब है कि हफ्ते भर के बाद तीन-चार सौ रुपये से अधिक आमदनी नहीं हो पा रही है.

जून के दूसरे पखवाड़े उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा ने सैकड़ों मकानों,  दुकानों, सड़कों और पुलों को बहा कर पहाड़ का भूगोल ही नहीं बदला बल्कि यहां रहने वाले तमाम लोगों के वर्तमान को बदहाली और भविष्य को अनिश्चितता के भंवर में धकेल दिया है. वर्षों से राज्य के लोगों के लिए रोजगार का सबसे बड़ा जरिया रही चार धाम यात्रा आपदा के बाद से पूरी तरह बंद है. इसके चलते बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, और यमुनोत्री जाने वाले राजमार्गों पर बसे उन कस्बों की जैसे रौनक ही खत्म हो गई है जो साल के इस समय यात्रियों और पर्यटकों से गुलजार रहते थे. सड़क किनारे बने ढाबों में खाना बनाने, गाड़ियों में पंक्चर लगाने और पालकियों और खच्चरों पर यात्रियों को ढोने वाले हजारों लोग बेरोजगार हो गए हैं. आपदा से बने डर के माहौल ने राज्य के बाकी हिस्सों को भी नहीं छोड़ा जबकि वहां तबाही का कोई असर नहीं था. जानकार बताते हैं कि आपदा के बाद से अब तक मसूरी, नैनीताल, रानीखेत, हरिद्वार और ऋषिकेश जैसे पर्यटन एबं तीर्थ स्थलों में सैलानियों की संख्या पिछले सीजन के मुकाबले 70 फीसदी तक गिर चुकी है. नतीजतन होटल व्यवसाय से लेकर टूर ब ट्रैवल समेत दूसरे कारोबारों में भी जबरदस्त गिरावट आई है.

पिछले बारह साल में पहली बार ऐसा हुआ कि पहाड़ों की रानी कहलाने वाली मसूरी और सरोवर नगरी के नाम से प्रसिद्ध  नैनीताल के कुछ  होटलों में सोलह जून के बाद तीन-चार दिन तक एक भी पर्यटक नहीं ठहरा. इसका सीधा फर्क आमदनी पर पड़ा जिससे छोटे होटलों को अपने यहां काम करने वालों की संख्या में कटौती करनी पड़ी. उत्तराखंड होटल ऐसोसिएशन के प्रदेश अध्यक्ष एसके कोचर  कहते हैं, ‘बड़े होटल तो फिर भी कुछ वक्त तक अपने कर्मचारियों को वेतन दे सकते हैं, लेकिन छोटे होटलों की आमदनी हैंड टू माउथ जैसी होती है लिहाजा कटौती करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं बचता है.’ अलग-अलग आंकड़े बताते हैं कि राज्य के मसूरी, नैनीताल, रामनगर जैसे शहरों के अलावा बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री जैसे धार्मिक स्थलों और इन तक पहुंचने वाले हाइवे पर बने छोटे-बड़े होटलों की कुल संख्या तकरीबन पांच हजार  है. इनके अलावा 20 हजार ढाबे और अन्य दुकानें भी इन जगहों पर हैं. इस आधार पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितने बड़े पैमाने पर लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा होगा. ऋषिकेश में होटल व्यवसायी बचन पोखरियाल कहते हैं, ’आपदा के बाद ऋषिकेश-हरिद्वार आने वाले पर्यटकों की संख्या आधी से भी कम रह गई है. अधिकांश होटलों की बुकिंग रद्द हो चुकी है.’ उनके मुताबिक अकेले ऋषिकेश में ही टूर ब ट्रैवल से लेकर गाइड का काम करने वाले लोगों की संख्या सैकड़ों में है ज आपदा के बाद पूरी तरह बेकार हो चुके हैं. चारधाम यात्रा मार्गों पर बस सेवा देने वाली कंपनी गढ़वाल मोटर्स आनर्स यूनियन का भी यही हाल है. कंपनी में पंजीकृत लगभग साढ़े छह सौ बसों में से फिलहाल पचास-साठ ही चल रही हैं. अब तक मुनाफे में चल रही कंपनी घाटे में आने के कगार पर पहुंच चुकी है. दूसरे क्षेत्रों के लोगों का भी यही दुखड़ा है. खुद सरकार भी पर्यटन उद्योग को हुए भारी-भरकम नुकसान की बात स्वीकार कर चुकी है. अब तक हुए नुकसान का साफ-साफ आंकड़ा अब तक उसके पास भी नहीं है, लेकिन इतना तय है कि इसकी भरपाई होने में लंबा वक्त लगेगा. हालांकि सरकार 30 सितंबर तक यात्रा मार्गों को खोल देने का दावा करते हुए केदारनाथ को छोड़ कर बाकी तीनों तीर्थ स्थलों की यात्रा जल्द शुरू करने की बात कह चुकी है, मगर तब तक यात्रा पर आधारित कारोबार की संभावनाएं कितनी बची रह पाएंगी, कहना मुश्किल है.

उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद अलग-अलग सरकारों ने राजस्व जुटाने के लिए यहां तीन प्रमुख क्षेत्रों उद्योग, पनबिजली परियोजना और पर्यटन इंडस्ट्री पर विशेष ध्यान देने की बात कही थी. लेकिन 15-16 जून की आपदा इन तीनों क्षेत्रों पर बिजली की तरह गिरी है. भारी  बारिश से प्रदेश की दर्जन भर पनबिजली परियोजनाओं को बड़ा नुकसान होने से बिजली का उत्पादन न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया. बिजली संकट गहराने से मैदानी इलाकों में लगे उद्योगों के उत्पादन में भी गिरावट आई. इस तरह देखें तो आमदनी के दो प्रमुख जरिये सीधे-सीधे आपदा की चपेट में आ गए.

लेकिन हजारों जिंदगियां लीलने वाली इस आपदा ने सबसे बड़ी चोट राज्य के पर्यटन और तीर्थाटन को पहुंचाई है.  उत्तराखंड इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के मुताबिक आपदा के बाद प्रदेश में पंजीकृत लगभग 19 हजार छोटे उद्यमों मंे काम करने वाले 40 हजार से ज्यादा लोग बेरोजगार हो चुके हैं. इनमें वे असंगठित कामगार शामिल नहीं हैं जो पीपलकोटी, तिलवाड़ा, जोशीमठ और गौरीकुंड जैसी जगहों पर बने होटलों और ढाबों में नौकरी करने, चाय की दुकान चलाने, फूल मालाएं बनाने, गाड़ियों में हवा भरने और भुट्टा बेचने जैसे छुटपुट काम के जरिए गुजारा करते हैं. इन लोगों को भी जोड़ देने के बाद प्रभावितों का आंकड़ा एक लाख से ऊपर पहुंच जाता है.

तहलका से बात करते हुए मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा कहते हैं, ‘बेरोजगार हो चुके इन लोगों को सरकार बेरोजगारी भत्ते से इतर हर माह पांच सौ से लेकर एक हजार रुपये की मदद देगी.’ लेकिन ऊंट के मुंह में जीरे जैसी यह मदद भी सही हाथों तक कैसे पहुंचेगी, यह एक अहम सवाल है. दरअसल सरकार ने आपदा प्रभावितों के चिह्नीकरण की प्रक्रिया में इन लोगों के लिए कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं बनाया है. वह प्रभावितों के हितों को लेकर पूरी तरह प्रतिबद्ध होने की बात भले ही कहती रहे, लेकिन चार धाम यात्रा पर आने वाले यात्रियों की तरह इन कामगारों का भी उसके पास कोई व्यवस्थित रिकॉर्ड नहीं है.

जानकारों के मुताबिक बेहतर तो यह होता कि इन लोगों के लिए रोजगार के नए विकल्प तलाशने की दिशा में प्रयास होते. लेकिन राहत और पुनर्वास कार्यों को लेकर पहले दिन से ही किरकिरी झेल रही सरकार ने पूरा ध्यान आपदाग्रस्त इलाकों में ही लगा दिया और इस तरह एक बड़ा तबका राहत के एजेंडे से ही बाहर हो गया. विपक्ष ने भी इस मुद्दे पर सरकार का ध्यान खींचने की कोई प्रभावी कोशिश नहीं की, जबकि नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट और पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूरी समेत भाजपा के कई नेता इस दौरान आपदाग्रस्त इलाकों का दौरा भी कर चुके हैं. वैसे आपदाग्रस्त इलाकों में राहत अभियान पर पूरा ध्यान लगाने का सरकार क दावा भी खोखला नजर आता है. खुद मुख्यमंत्री बहुगुणा का चमोली जिले के सुदूरवर्ती विकासखंड नारायणबगड़ के आपदा प्रभाविक इलाकों का दौरा पांच बार रद्द हो चुका है. दूसरे प्रभावित इलाकों में भी सरकारी राहत अभियान की असफलताएं आए दिन सामने आ रही हैं और यही वजह है कि सामाजिक मंचों से लेकर सोशल मीडिया तक राहत कार्यों को लेकर सरकार की खूब खिंचाई हो रही है.

यह पूरी स्थिति एक दूसरे पहलू की तरफ भी ध्यान खींचती है. राज्य बनने के 13 साल बाद भी इतनी बड़ी आबादी का आमदनी के लिए चार धाम यात्रा पर ही निर्भर रहना बताता है कि पर्यटन की असीम संभावनाओं वाले प्रदेश में रोजगार सृजन के लिए सरकारों ने किस तरह के प्रयास किए हैं. सरकारों द्वारा वैकल्पिक रोजगार की दिशा में रत्ती भर भी नहीं सोच पाने की अदूरदर्शिता का दंश झेलने को मजबूर प्रदेश के लगभग हर हिस्से में रहने वाले बेरोजगार चार-धाम यात्रा के दौरान यात्रा मार्गों से जुड़े छोटे-बड़े रोजगार से ही अपनी आमदनी चलाते रहे हैं. राज्य के पर्यटन उद्योग की रीढ़ मानी जाने वाली इस यात्रा के दौरान होने वाले कारोबार ने राज्य निर्माण के बाद तेजी से तरक्की भी की है. जनगणना विभाग के आंकड़े बताते हैं कि 2001 से 2011 के दौरान राज्य में 31.8 फीसदी सालाना की दर से नए भवनों का निर्माण हुआ. इन भवनों में 70 फीसदी होटल थे. हालिया आपदा के दौरान जो इमारतें ध्वस्त या क्षतिग्रस्त हुईं उनमें एक बड़ी संख्या होटलों और ढाबों की ही थी. ऐसे भवनों के मालिकों के लिए पचास हजार से लेकर एक लाख तक का मुआवजा घोषित करते हुए सरकार ने इन्हें कुछ राहत जरूर दी है, लेकिन माना जा रहा है कि जब तक चार धाम यात्रा बहाल नहीं होती या फिर आमदनी के दूसरे विकल्प नहीं ढूंढे जाते तब तक लोगों की असल मुश्किलें दूर नहीं होने वाली हैं.

परंपरागत ढर्रे पर चल रहे पर्यटन व्यवसाय से इतर रोजगार के दूसरे विकल्प ढूंढ़ने में राज्य सरकारें तेरह साल बाद भी नाकाम क्यों रही हैं, यह सवाल इसलिए भी अहम है कि सरकारें उत्तराखंड को हमेशा से पर्यटन प्रदेश बताती रही हैं. राज्य बनने के बाद से लगभग हर साल प्रदेश के पर्यटन मंत्री और अधिकारी पर्यटन विकास के गुर सीखने के नाम पर कई विदेश यात्राएं कर चुके हैं. बर्लिन में प्रतिवर्ष होने वाले टूरिज्म मार्ट में हिस्सा लेने के नाम पर तो प्रदेश के नेता और नौकरशाह अब तक लाखों रुपये भी फूंक चुके हैं. लेकिन जनता की गाढ़ी कमाई खर्च करके हासिल किए गए ऐसे तजुर्बों से राज्य को क्या फायदा हुआ यह कोई नहीं जानता. पर्यटन रोजगार को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली स्वरोजगार योजना को भले ही सरकारों की तरफ से एक कारगर प्रयास बताया जाता रहा है, लेकिन इस योजना के तहत लोन लेकर होटल, ढाबे खोलने और गाड़ियां खरीदने वाले अधिकांश लोग यात्रा ठप होने के बाद किस्त चुकाने तक के मोहताज रह गए हैं. पर्यटन से जुड़े सवालों को लेकर तहलका ने जब वर्तमान पर्यटन मंत्री अमृता रावत से संपर्क करने की कोशिश की तो बताया गया कि वे ‘आउट ऑफ स्टेशन’ हैं.

इस बार की आपदा ने तो प्रदेश के प्रति पर्यटकों के विमोह के लिए सरकारी उदासीनता का बड़ा प्रमाण सामने रखा है. लंबे समय तक देश भर का मीडिया समूचे उत्तराखंड में भयंकर तबाही की खबरें दे रहा था, लेकिन इस दौरान कई दिनों तक सरकार की तरफ से एक भी बयान ऐसा नहीं आया जो यह बताता कि मसूरी, नैनीताल जैसे हिल स्टेशन पूरी तरह सुरक्षित हैं. जहां एक तरफ मुख्यमंत्री कहते रहे कि आपदा से सेना ही निपट सकती है वहीं कुछ जनप्रतिनिधि टीवी चैलनों पर दहाड़ें मार कर रोते दिखे और आपदा को नियंत्रण से बाहर बताते रहे. ऐसे में पर्यटकों का प्रदेश की तरफ रुख न करना कहीं से भी अप्रत्याशित नजर नहीं आता. हालांकि देर से जागी सरकार ने कुछ दिन पहले विज्ञापन जारी करके पर्यटकों को लुभाने की कोशिश जरूर की है जिसके परिणाम अब थोड़ा-बहुत दिखने भी लगे हैं. मसूरी और नैनीताल में हफ्ते भर से पर्यटकों की आवाजाही में कुछ बढ़ोतरी दर्ज की गई है.

आपदा के बाद सरकार के इस रवैये को लेकर नाराजगी भी अब खुल कर सामने आने लगी है. मसूरी स्थित होटल पैराडाइस कौंटिनेंटल के मैनेजर सूरज थपलियाल कहते हैं, ‘मीडिया और सरकार ने इस आपदा को इस तरह से दिखाया कि पर्यटकों को केदारनाथ और मसूरी के हालात एक जैसे लगे.’ वे शिकायती लहजे में कहते हैं, ’क्या सरकार के नुमाइंदों को आपदा के बाद मसूरी नैनीताल जैसे शहरों के सुरक्षित होने की बात नहीं कहनी चाहिए थी ?’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘सरकार अब भले ही कितने भी विज्ञापन जारी कर पर्यटकों को मसूरी, नैनीताल बुला ले लेकिन जो नुकसान हो चुका है उसकी पूर्ति नहीं हो सकती.’ एक अनुमान के मुताबिक  मसूरी के पर्यटन व्यवसाय को अब तक लगभग 50 करोड़ रु की चपत लग चुकी है. उत्तराखंड होटल एसोसिएशन के प्रदेश अध्यक्ष एसके कोचर भी थपलियाल की बातों से  सहमति जताते हैं. वे कहते हैं, ‘राज्य गठन के बाद पर्यटन और होटल इंडस्ट्री ने तेजी से तरक्की की और इसकी विकास दर 30 फीसदी सालाना से भी ज्यादा थी. लेकिन इस बार आपदा की भयावहता व्यापक तौर पर इस कदर प्रचारित हुई कि लोगों ने करोड़ों रुपये की बुकिंग एक ही झटके में कैंसिल कर दी. इससे कारोबार में अब तक 80 से 90 फीसदी की गिरावट आ चुकी है.’

कोचर की बातों में एकबारगी दम भी नजर आता है क्योंकि आपदा के बाद मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने मीडिया के जरिए लोगों से उत्तराखंड का रुख न करने की अपील की थी. हालांकि जब तहलका ने उनसे इस अपील का कारण पूछा तो उनका कहना था, ‘उस वक्त सरकार का पूरा ध्यान आपदाग्रस्त इलाकों में राहत पहुंचाने पर था. हम कोई जोखिम नहीं लेना चाहते थे.’

दो महीने बाद भी उत्तराखंड में हाल यह है कि इस असाधारण आपदा के वास्तविक कारणों तक की पड़ताल नहीं हो सकी है. मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा कहते हैं कि ऐसा अप्रत्याशित बारिश के चलते हुआ जो बहुत आम-सी बात है. उधर राहत और पुनर्वास के काम पर भी आरोप लग रहे हैं कि वह ढंग से नहीं चल रहा है. चार धाम यात्रा और आमदनी के दूसरे विकल्पों को लेकर सरकार के रवैये का जिक्र पहले ही किया जा चुका है. ऐसे में सबसे तगड़ी चोट प्रदेश की रीढ़ मानी जाने वाली जिस पर्यटन इंडस्ट्री के हिस्से में आई है उस पर सरकार पर्याप्त ध्यान दे पा रही होगी, इस पर यकीन करना मुश्किल नजर आता है.

नवादा के निहितार्थ

वैसे तो बिहार में घटनाओं के घटित होने का सिलसिला पिछले डेढ़-दो माह से अनवरत जारी है लेकिन पिछले एक सप्ताह के अंदर हुई घटनाओं ने पूरी राजनीति को दूसरी दिशा में मोड़कर रख दिया है. एक घटना नवादा की और दूसरी पश्चिम चंपारण के जिला मुख्यालय बेतिया की. दोनों जगहों पर मामला एक जैसा. दो समुदाय के लोगों का आपस में टकरा जाना. बेतिया में अखाड़ा जुलूस पर पत्थरबाजी करने के बाद दोनों ओर से ईंट-रोड़े चलाने, गाली देने, कुछ गाड़ियों को आग के हवाले करने, एक-दूसरे को देख लेने की धमकी देने और पुलिस-प्रशासन को कुछ देर तक दुबक जाने को मजबूर करने के बाद बात आयी-गयी होने की राह पर है. नवादा ने दो हत्याओं, दो-तीन दिनों के कर्फ्यू, दर्जन भर दुकानों की लूट और आगजनी-फायरिंग में कुछ के घायल होने के रूप में कीमत चुकायी है. दोनों शहर अब भी भय के माहौल में है, नवादा में भय की परछाईं ज्यादा गहरी है. ईद के दिन मामला एक ढाबा मालिक और कुछ नवयुवकों के बीच पैसे के लेन-देन को लेकर गाली-गलौज, हाथापाई और तोड़-फोड़ से शुरू हुई थी और अब बात नेताओं की मिलीभगत तक पहुंच गयी.

पिछली घटनाओं में जाने के पहले इस बार ईद के दिन से मचे बवाल की वजह को ही जानते हैं. बताया जा रहा है कि ईद के दिन पांच लड़के नवादा के बाबा ढाबा में पहुंचे. खाने-पीने के बाद होटल मालिक ने पैसे मांगे. नशे में धुत लड़के पैसे देने को राजी नहीं हुए. दोनों ओर से बकझक हुई, हाथापाई हुई. लड़के वहां से भाग गये. अगले दिन 20-25  लड़के होटल पर फिर पहुंचे. तोड़फोड़-मारपीट की शुरुआत हुई. ढाबा के सामने गोंदापुर नामक एक बस्ती है. वहां के लोग होटलवाले के पक्ष में आ गये. फिर जमकर मारपीट हुई. लपट नवादा शहर तक पहुंची. रोड जाम  हुआ. नारेबाजी शुरु हुई. तीन दुकानों में आग लगी, एक दुकान की लूट हुई. पुलिस ने गोली चलायी. कुंदन रजक, रामवृक्ष, मनोज, अतुल नामक चार नौजवानों को गोली लगी.

थोड़ी देर के लिए नवादा में कफ्र्यू का एलान हुआ. फिर कफ्र्यू खत्म. कुंदन की हालत गंभीर थी. उसे पटना लाया गया, नहीं बचाया जा सका. अगले दिन शाम छह बजे कुंदन की लाश नवादा पहुंची. नवादा फिर से उसी आग में समाने लगा. थोड़ा बदलाव हुआ. इस बार कहीं-कहीं नीतीश कुमार मुर्दाबाद- नरेंद्र मोदी जिंदाबाद के नारे भी लगने लगे. अगले दिन तक खबर फैली कि मो. इकबाल नामक युवक की हत्या हो गयी. नवादा फिर से कफ्र्यू के आगोश में गया. पुलिस हवाई फायरिंग कर लोगों को चैकन्ना करती रही. हवाई फायरिंग में ही वकील श्रीकांत सिंह को गोली लग गयी. लेकिन कर्फ्यू होने की वजह से कोई सड़क पर निकलने की हिम्मत नहीं जुटा सका. खबरें उड़ती रही, अफवाहें टकराती रही. बयान भी आते रहे. सरकार की ओर से सीआईडी जांच के आदेश दिये गये. सूत्र बता रहे हैं कि दो नेताओं की मिलीभगत इसमें हो सकती है.

क्या होगा, क्या नहीं, यह आगे की बात है लेकिन नवादा की पड़ताल करने पर यह साफ पता चलता है कि न तो यह एक दिन में उपजी स्थितियों से उभरा आक्रोश और उसका परिणाम है न ही अब सिर्फ दो समुदायों के आपस में टकरा जाने भर का मामला रह गया है. इसके सामाजिक-राजनीतिक निहितार्थ हैं, जिसकी पृष्ठभूमि लगभग एक साल पहले से नवादा में लिखी जा रही थी.

नवादा में एक साल पहले अप्रैल माह में एक ही दिन दो हत्याएं हुई थी. तौफिक इकबाल और छोटे यादव की. मामला रामनवमी के चंदे से जोड़कर बताया जाता है. करीब डेढ़ माह पहले नवादा के ही मस्तानगंज में अफजल अंसारी की हत्या भी रहस्यों के घेरे में आयी थी. उसके बाद मेस्कोर प्रखंड के अकरी गांव में एक कब्रिस्तान में झंडा गाड़ देने की खबर आई, जिसे प्रशासन ने हटाया. लेकिन आग सुलगती रही. 22 जुलाई को पकरी बरामा के कब्रिस्तान के दायरे में वर्षों पहले से स्थिच एक हिंदू आराधना स्थल को तोड़ देने की बात हवा में फैली और तनाव बढ़ता गया. बहुत दिनों में यह मामला सुलझ सका. अभी वह मामला सुलझा ही था कि ईद के बाद से नवादा भय-दहशत-जान लेने-देने की जिद और आगोश में समाया हुआ है.

कुछ दिनों में नवादा भी उपरी तौर पर शांत हो जाएगा. लेकिन कुछ सवालों को छोड़ते हुए. पहला सवाल तो यही कि नवादा जैसे छोटे से शहर को संभालने में भी क्या बिहार की पुलिस सक्षम नहीं है. क्या कभी किसी बड़े हादसे को टालने-संभालने की क्षमता नहीं है. आखिर क्यों इतने दिनों से तैयार पृष्ठभूमि के बाद एक चिंगारी से भड़की आग को प्रशासन संभाल नहीं सका. जब मामला बिगड़ा ही हुआ था तो पहली बार कर्फ्यू लगाने के बाद तुरंत हटा लेने का निर्णय क्यों लिया गया था. क्या इस वजह से कि कहीं देश-दुनिया में यह बात न फैले कि बिहार की स्थिति इतनी नाजुक है कि वहां कर्फ्यू लगाना पड़ा है. नवादा जिला सुन्नी वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष इकबाल हैदर खान मेजर कहते हैं- कर्फ्यू को हटा लेना बड़ी भूल थी और अब यह राजनीतिक रंग ले चुका है. वरना सिर्फ दो संप्रदायों के टकराने का मामला भर रहता तो नेताओं के नाम से नारेबाजी इतनी जल्दी क्यों होती? जदयू के नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं कि पिछले सात साल से जब सब ठीक चल रहा था तो डेढ़ माह बाद भाजपा के अलग होने के बाद से ही सब जगह स्थिति क्यों गड़बड़ानी शुरू हुई है.

सबके अपने बयान हैं. इसमें किसी दल की भूमिका रही है या नहीं, यह जांच के बाद साफ होगा लेकिन विपक्षियों की चटकारेबाजी वाली राजनीति और सत्ता पक्ष का लगातार चूकना, बिहार के लिए खतरनाक संकेत दे रहा है. विश्लेषक बता रहे हैं कि पिछले सात सालों में बिहार में शासन-प्रशासन पर जदयू से ज्यादा भाजपा की पकड़ मजबूत होने का भी नतीजा है कि शासन उतनी चुस्ती नहीं दिखा रहा. वैसे नवादा में यह चर्चा भी है कि वहां के स्थानीय सांसद, जो भाजपा से हैं, वे इस अराजक माहौल के बीच में भी नवादा के दायरे में आये, एक उद्घाटन समारोह में भाग लेकर वापस भी चले गये. उधर, चर्चा यह भी हो रही है कि कहीं यह अब हिंदू-मुसलमान की बजाय यादव-मुसलमान का संघर्ष न बन जाये.

क्या होगा लालू का?

राजनीतिक तौर पर लालू प्रसाद के लिए अभी खुशी में मगन रहने जैसा माहौल था. कुछ माह पहले महाराजगंज में प्रभुनाथ सिंह की जीत के रूप में लगातार हताशा-निराशा के गर्त में जाने के बाद उन्हें और उनकी पार्टी को ऑक्सीजन जैसा कुछ मिला था. इस जीत के बाद हुए कुछ सर्वेक्षणों में उन्हें बढ़त मिलने की उम्मीद भी जतायी जा रही थी.  एक के बाद एक आ रही सुखद खबरों से लालू को नई ऊर्जा मिल रही थी. और वे इस ऊर्जा से लबलबाए हुए मीडिया के सामने बोलने-बतियाने भी लगे थे. बिहार में लगातार घट रही घटनाएं और नीतीश कुमार द्वारा समय पर सही कदम न उठा सकने से राज्य में बनता माहौल, उपजता आक्रोश भी उनके लिए एक राजनीतिक उम्मीद सरीखा ही था.

लेकिन 13 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने लालू प्रसाद को एक बार फिर निराशा-हताशा में ढकेल दिया है. चारा घोटाले की सुनवाई आखिरी दौर में है और लालू प्रसाद ने सुप्रीम कोर्ट में यह अर्जी लगा रखी थी कि सीबीआई के विशेष न्यायाधीश को हटाया जाए, वे बिहार के शिक्षा मंत्री पीके शाही के रिश्तेदार हैं, इसलिए फैसला आग्रहों-पूर्वाग्रहों से भरा हो सकता है. उच्चतम न्यायालय ने उनकी सिर्फ अर्जी ही खारिज नहीं की बल्कि अगले माह तक फैसले सुनाने का संकेत भी दे दिया. लालू प्रसाद और उनके समर्थक परेशान हैं.

अदालती और कानूनी पेंच में मामले को फंसाये जाने की कोशिशें जारी है विशेषज्ञ कह रहे हैं कि लालू प्रसाद को जेल हो सकती है. लालू प्रसाद और उनके समर्थकों को जेल जाने से डर नहीं, क्योंकि उससे तो एक माहौल ही बनेगा कि देश में कितने बड़े-बड़े घोटाले हो रहे हैं, होते रहे हैं, उसमें दोषियों का कुछ नहीं हो रहा लेकिन लालू प्रसाद को फंसाकर भेजा गया है. डर अब दूसरा है. एक बार सजा सुनायी गयी और लालू प्रसाद जेल गये तो फिर चुनाव लड़ने के अधिकारी नहीं रहेंगे. लालू प्रसाद यादव की मुश्किल यह है कि वो बाल ठाकरे की तरह अपने संगठन को नहीं चलाते कि चुनाव लड़े या नहीं लड़े, उनके राजनीति पर कोई फर्क नहीं पड़ता. लालू प्रसाद को खुद चुनाव नहीं लड़ने की स्थिति में किसी को सामने करना होगा. दूसरे किसी नेता पर उनका भरोसा नहीं रहता, यह बिहार में बार-बार वे दिखा चुके हैं.

अपनी पत्नी, अपने दोनों सालों के बाद कुछ माह पहले अपने दोनों बेटों को राजनीति में उतारकर वे बताते रहे हैं कि वो पार्टी को घरेलू तरीके से चलाने में ज्यादा भरोसा रखते हैं. तेजप्रताप और तेजस्वी भले राजनीति में आ चुके हैं लेकिन इनके नेतृत्व में राजद के कई नेता चुनाव लड़ने को तैयार नहीं होंगे, ऐसी प्रबल संभावना है.  लालू की बेटी मीसा भारती भी आगामी लोकसभा चुनाव में दस्तक देनेवाली है लेकिन अब तक लालू प्रसाद ने मीसा को राजनीति में उताड़ने की घोषना नहीं की है,  इसलिए यह थोड़ा मुश्किल होगा कि कि बेटी को राजनीति में लाने की घोषणा करने के तुरंत बाद उसे पार्टी का नेतृत्व भी सौंप दें, रामकृपाल यादव, जयप्रकाश यादव जैसे लालू के खास सिपहसलार तो किसी भी नेतृत्व को स्वीकार कर लेंगे लेकिन रघुवंश प्रसाद सिंह, जगतानंद सिंह, राजद कोटे से नए-नए सांसद बने प्रभुनाथ सिंह जैसे नेता इसके लिए तैयार नहीं होंगे. लालू प्रसाद जानते हैं कि अगर वे अपने परिवार के ही सदस्य को अपनी जगह आगे नहीं लाएंगे तो उनका जो कोर वोट बैंक यादवों का है, दरक भी सकता है.

आखिरी में एक विकल्प राबड़ी देवी बचेंगी. राबड़ी देवी पिछले विधानसभा चुनाव में दो सीटों पर परास्त हो चुकी हैं. सामने विधानसभा चुनाव का मामला होता तो राबड़ी को फिर भी आगे कर लालू प्रसाद यादव सब मैनेज कर सकते थे लेकिन सामने लोकसभा चुनाव है. और लोकसभा में राबड़ी देवी को नेतृत्व सौंपकर लालू कोई चांस नहीं लेना चाहेंगे. सूचनाएं दूसरे किस्म की बहुत दिनों से हवा में फैली हुई हैं. वे सूचनाएं पहले से ही रह-रहकर लालू प्रसाद यादव को परेशान करते रहती हैं. कहा जाता है कि लालू प्रसाद यादव के दल से कुछ वरिष्ठ नेता लोकसभा चुनाव आते-आते नीतीश के पाले में जा सकते हैं. लालू प्रसाद का साथ छोड़कर नीतीश के खेमे में जानेवाले नेताओं की फेहरिश्त काफी लंबी रही है, इसलिए इसे कोई अनहोनी भी नहीं माना जा सकता. लालू प्रसाद दुविधा में हैं. 13 अगस्त के फैसले से पटना के राजद कार्यालय में दूसरे किस्म का माहौल बना दिया है. बिहार सरकार की नाकामी पर राजनीति करने की तैयारी में लगी राष्ट्रीय जनतादल पार्टी का खुद का क्या भविष्य होगा? निश्चिततौर पर आज यह सवाल लालू प्रसाद यादव को परेशान कर रहा होगा.

छत्तीसगढ़: संकट में उद्योग

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इन दिनों छत्तीसगढ़ में मिनी स्टील प्लांट सरकार से जीवनदान की याचना कर रहे हैं. राज्य सरकार से विशेष राहत पैकेज की मांग कर रहे मिनी स्टील प्लांट दोहरे संकट से जूझ रहे हैं. लेकिन इनसे भी ज्यादा विकट स्थिति वर्षों से इन प्लाटों में काम करने वाले 50 हजार मजदूर और उन पर आश्रित परिवार की है. 3 अगस्त 2013 से राजधानी रायपुर के उरला और सिलतरा इंडस्ट्रियल इलाके के तकरीबन 80 मिनी स्टील प्लांट हड़ताल पर हैं. इससे इन प्लांटों में उत्पादन ठप हो गया है. प्लांटों में ताला लगने से वहां काम करने वाले मजदूरों के घरों में मातम सा छाया हुआ है. प्लांट के मालिकों की मांग सस्ती बिजली को लेकर है, लेकिन प्रदेश के मिनी स्टील प्लांट मंहगे स्पॉन्ज आयरन की मार भी झेल रहे हैं. प्लांट मालिकों का कहना है कि जब तक राज्य सरकार बिजली की दरों में कमी नहीं करती, तब तक मिनी स्टील प्लांट यूं ही बंद रखे जाएंगे. एमएसपी की हड़ताल से केंद्रीय वित्त मंत्रालय के तहत काम करने वाला केंद्रीय उत्पाद और सीमा शुल्क बोर्ड भी परेशान है. इसका कारण मिनी स्टील प्लांट की हड़ताल से केंद्र को संभावित राजस्व की हानि है. छत्तीसगढ़ के लोहा उद्योग से केंद्र सरकार को सालाना छह हजार करोड़ का राजस्व मिलता है. इस साल राजस्व वसूली का लक्ष्य छह हजार आठ सौ करोड़ रुपए रखा गया था. लेकिन हड़ताल के बाद अनुमान है कि अब राजस्व के रूप में मिलने वाली सालाना राशि में दस से बीस फीसदी की कमी आएगी. ऐसे में केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने केंद्रीय उत्पाद और सीमा शुल्क बोर्ड के अफसरों को ताकीद दी है कि वे उद्योगपतियों से बात कर हड़ताल खत्म करवाने में भूमिका निभाएं.

मिनी स्टील प्लांट चला रहे उद्योगपतियों का आरोप है कि राज्य में स्टील प्लांटों के लिए तीन तरह की विद्युत दर प्रचलित है. मिनी स्टील प्लांट एसोसिएशन के अध्यक्ष अशोक सुराना कहते हैं, ‘रायगढ़ में 2000 हेक्टेयर इलाके में फैले जिंदल पार्क में स्थापित मिनी स्टील प्लांटों को केवल 3.18 रुपए प्रति यूनिट की दर से बिजली मिल रही है. (जिंदल पार्क में स्थित मिनी स्टील प्लांटों को जिंदल स्टील एंड पॉवर बिजली सप्लाई करता है). सिलतरा और बोरई के इंटीग्रेटेड स्टील प्लाटों को तीन रुपए से भी कम दर पर बिजली दी जा रही है. लेकिन उरला और सिलतरा औद्योगिक क्षेत्र के 80 मिनी स्टील प्लांट बिजली के लिए छत्तीसगढ़ राज्य विद्युत मंडल पर निर्भर हैं. विद्युत मंडल इन प्लांटों को 4.97 रुपए प्रति यूनिट की दर से बिजली सप्लाई कर रहा है. इस दर में 360 रुपए प्रति केवीए पर लगने वाला डिमांड चार्ज और मिनी स्टील प्लाटों पर लगने वाला 6 प्रतिशत विद्युत शुल्क भी शामिल है.’ अब स्टील प्लांट एसोसिएसन राज्य सरकार से मांग कर रही है कि डिमांड चार्ज को घटाकर 360 रुपए प्रति केवीए से 180 रुपए किया जाए. मिनी स्टील प्लांटों पर लगने वाला छह प्रतिशत विद्युत शुल्क भी खत्म किया जाए. साथ ही रात 10 बजे से सुबह छह बजे तक विद्युत दरों में 30 प्रतिशत की अतिरिक्त छूट दी जाए.

[box] ऐसे में मिनी स्टील प्लाटों में वर्षों से अपनी सेवाएं दे रहे श्रमिक एक झटके में सड़क पर आने की स्थिति में पहुंच गए हैं.[/box]

सरकार और उद्योगपतियों की इस लड़ाई में असल खामियाजा इन मिनी स्टील प्लांटों में काम करने वाले मजदूर भुगत रहे हैं. भले ही हड़ताल के बाद भी अभी इन मजदूरों को घर पर रहने को नहीं कहा गया है. लेकिन आने वाले दिनों को वे संकट के रूप में देख रहे हैं. हड़ताल पर चल रहे 80 मिनी प्लाटों में इस वक्त 50 हजार मजदूरों की रोजी रोटी निर्भर है. अगर समय रहते राज्य सरकार और उद्योगपतियों का झगड़ा नहीं सुलझ पाया तो इन मजदूरों के परिवार भूखों मरने पर मजबूर हो जाएंगे. दरअसल इन मजदूरों के लिए रोजगार के दूसरे विकल्प मौजूद नहीं है. ऐसे में मिनी स्टील प्लाटों में वर्षों से अपनी सेवाएं दे रहे श्रमिक एक झटके में सड़क पर आने की स्थिति में पहुंच गए हैं.

छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के तहत काम कर रहे प्रगतिशील इंजीनियरिंग परमिट संघ के शेख अंसार बताते हैं, ‘ उद्योगपतियों की बात पर भरोसा नहीं किया जा सकता. मिनी स्टील प्लांटों की हड़ताल से उद्योगपतियों को भले ही ज्यादा फर्क ना पड़े. लेकिन मजदूरों की आफत हो जाएगी. प्लांटों में पहले भी हुई ऐसी हड़तालों का हवाला देते हुए अंसार कहते हैं कि मजदूरों को बगैर काम किए उनकी मजदूरी ना पहले कभी मिली है ना ही अभी मिलेगी. जितने दिन मिनी स्टील प्लांट बंद रहेंगे, उतने दिन की रोजी मारी जाएगी और अगर प्लांट पूरी तरह बंद हो गए तो भी मारा तो मजदूर ही जाएगा.’

मजदूरों की चिंता से दूर उद्योगपति अपनी मजबूरियों को ही गिनाने में लगे हुए हैं. सही मायने में मिनी स्टील प्लांट के सामने दूसरा गंभीर संकट मंहगे स्पॉन्ज आयरन का भी है. एसोसिएसन के उपाध्यक्ष रविंद्र जैन की मानें तो, ‘नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन यानि एनएमडीसी ने आयरन ओर की दरें 20 से 25 फीसदी कम कर दी हैं. पहले आयरन ओर की कीमत 6200 रुपए प्रति मीट्रिक टन थी. अब कीमत घटने के बाद ये 4600 रुपए प्रति मीट्रिक टन मिल रहा है. ऐसे में बड़े उद्योगों को सस्ता आयरन ओर मिलने लगा है. लेकिन इसके बावजूद स्पाँज आयरन की कीमतें कम नहीं हुई.’  इस वक्त प्रति मीट्रिक टन स्पॉन्ज आयरन की कीमत 18 हजार 700 रुपए है. जैन और दूसरे उद्योगपतियों की मानें तो स्पॉन्ज आयरन से उत्पाद बनाने में 10 हजार रुपए प्रति मीट्रिक टन लागत आती है.

ऐसे में स्पॉन्ज आयरन से बनने वाले उत्पाद में प्रति मीट्रिक टन तकरीबन 28 हजार 700 रुपया खर्च होता है. अब मिनी स्टील प्लांटों के सामने संकट ये है कि रोलिंग मिलों में लगने वाले इंगट की कीमत फिलहाल 26 हजार 700 रुपए प्रति मीट्रिक टन है. वहीं तैयार माल 31000 रुपए (प्रति मीट्रिक टन) की कीमत में बाजार में उपलब्ध है. बाजार में तय कीमतों के कारण मिनी स्टील प्लाटों को लागत से कम मूल्य पर माल बाजार को देना पड़ रहा है. दरअसल असल मुद्दा बड़े और छोटे उद्योगों की खींचतान का भी है. अधिकांश बड़े स्टील प्लांटों के पास खुद की आयरन ओर खदानें और पॉवर प्लांट हैं. ऐसे में उन्हें उत्पाद तैयार करने में अपेक्षाकृत कम लागत आती है. लेकिन मिनी स्टील प्लाटों को कच्चे माल और बिजली के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है. ऐसे में मिनी स्टील प्लांट बाजार में बड़े उद्योगों का सामना नहीं कर पा रहे हैं. यही कारण है कि 2007 से 2013 तक करीब 85 मिनी स्टील प्लांट पूरी तरह बंद हो चुके हैं.

अब इस पूरे मामले में राज्य सरकार का नज़रिया बिलकुल अलग है. पहले बिजली की बात करें तो छत्तीसगढ़ विद्युत वितरण कंपनी के प्रबंध संचालक सुबोध सिंह कहते हैं, ‘ एमएसपी (मिनी स्टील प्लांट) को हम दूसरे राज्यों की तुलना में सस्ती बिजली दे रहे हैं. अव्वल तो सिंह मानते ही नहीं कि एमएसपी हड़ताल पर हैं. वे कहते हैं कि जाकर देख लीजिए..कई प्लांट चल रहे हैं. सुबोध सिंह कहते हैं कि विश्वव्यापी आर्थिक मंदी के असर के कारण मिनी स्टील प्लांटों को घाटा हो रहा है और उसका दोष विद्युत मंडल के सर मढ़ा जा रहा है. विशेष राहत पैकेज की मांग पर सिंह तर्क देते हैं कि राज्य सरकार अपनी तरफ से पहले से ही उन्हें राहत दे रही है. सरकार ने मिनी स्टील प्लांट पर लगने वाले 8 प्रतिशत विद्युत शुल्क घटाकर 6 प्रतिशत कर दिया है. उद्योगों के आग्रह पर ही सरकार ने विद्युत की दरें नहीं बढ़ाई हैं. सिंह सवाल करते हैं कि हम इससे ज्यादा और क्या राहत दे सकते हैं.’

[box]बाजार में तय कीमतों के कारण मिनी स्टील प्लाटों को लागत से कम मूल्य पर माल बाजार को देना पड़ रहा है. दरअसल असल मुद्दा बड़े और छोटे उद्योगों की खींचतान का भी है.[/box]

वरिष्ठ कांग्रेस नेता सत्यनारायण शर्मा कहते हैं, ‘मिनी स्टील प्लांट की मांगे जायज हैं. छत्तीसगढ़ सरकार सरप्लस बिजली का दावा करती है तो ऐसे में छोटे उद्योगों की मांग पर बिजली की दरें कम क्यों नहीं कर सकती. वे आगे कहते हैं कि इन उद्योंगों से ढाई लाख लोगों का रोजगार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से जुडा हुआ है. साथ ही मिनी स्टील प्लांट ही विद्युत मंडल के सबसे बड़े उपभोक्ता भी हैं. जो बिजली के बिल के रूप में लाखों रुपए चुकाकर सरकार का राजस्व बढ़ा रहे हैं. शर्मा आरोप लगाते हैं कि ऊर्जा और खनिज दोनों ही महत्वपूर्ण विभाग मुख्यमंत्री रमन सिंह के पास हैं. ऐसे में उन्हें उद्योगपतियों की मांगों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए.’

छत्तीसगढ़ में उद्योगपतियों पर लगने वाला डिमांड चार्ज की देश के दूसरे राज्यों से तुलना करें तो ये ज्यादा नज़र आता है. केवल एक मध्य प्रदेश को छोड़ दें (मप्र में भी ज्यादा डिमांड चार्ज वसूला जा रहा है. 380 रुपए प्रति केवीए) तो हरियाणा में 130 रुपए मांग प्रभार लिया जाता है तो ओडिशा में 250 रुपए डिमांड चार्ज लिया जा रहा है. आंध्रप्रदेश में 350, गुजरात में 270 और महाराष्ट्र में 190 रुपए प्रति केवीए डिमांड चार्ज वसूला जाता है. लेकिन इन राज्यों में बिजली की दर प्रति यूनिट महंगी है. मसलन हरियाणा में मिनी स्टील प्लांटों से 4.60 रुपए प्रति यूनिट बिजली बिल वसूला जाता है. डिमांड चार्ज जुड़ने के बाद ये 5.11 रुपए प्रति यूनिट हो जाता है. यही हाल दूसरे राज्यों का भी है. दरअसल सरकार एक और तो अन्य राज्यों की तुलना में सस्ती बिजली देने का दावा करती है लेकिन डिमांड चार्ज ज्यादा लगाती है.

छत्तीसगढ़ सरकार के ऊर्जा सचिव अमन कुमार कहते हैं, ‘राज्य सरकार हर स्तर पर उद्योगों को राहत देने का काम कर रही है. चाहे बिजली की बात हो या स्पॉन्ज आयरन की. एनएमडीसी से मिनी स्टील प्लांटों को सस्ता स्पाँज आयरन मिल सके, इसके लिए खुद मुख्यमंत्री रमन सिंह कई बार केंद्रीय इस्पात मंत्रालय को पत्र लिख चुके हैं. इसमें राज्य की भूमिका बेहद सीमित है. हम सिवाए केंद्र सरकार से गुहार लगाने के और कुछ नहीं कर सकते.’ अब स्थानीय उद्योगपतियों और सरकार की खींचतान में नुकसान आखिरकार प्रदेश का ही हो रहा है. तेजी से औद्योगिक केंद्र के रूप में उभरते छत्तीसगढ़ के लिए ये अच्छे संकेत नहीं हैं. वो भी ऐसे समय जब राज्य सरकार देश-विदेश के बड़े उद्योगपतियों को प्रदेश में निवेश के लिए बार-बार न्यौता भेज रही हो.

जनता का जायका

मनीषा यादव
मनीषा यादव

इस बार भी वही हुआ! देखा गया, उठाया गया, छुआ गया, फिर रख दिया गया. अब उसका धैर्य जवाब दे चुका था. वह बोला, ‘हे ईश्वर, और कितना अपमानित करवाएगा!’ सुनकर आलू कसमसाया. अभी-अभी जिसने ऊपर वाले से फरियाद की वह टमाटर है. आलू शांत था, जबकि ऐसा ही व्यवहार उसके साथ भी हो रहा था. कारण यह कि वह अनुभवी है. उसे लोगों के व्यवहार का भलीभांति ज्ञान हो चुका है. पहले-पहल उसे भी अखरा था लेकिन अब यह सब सामान्य-सी बात है.

लेकिन ऐसा हो क्यों रहा है, भाई साहब? सारा किया-धरा निगोड़े मौसम का है. उसने जरा-सी करवट क्या ली, दोनों की नींदें उड़ गईं. चलिए, सब्जीमंडी चल कर देखते हैं कि आगे क्या हुआ!

टमाटर के बार-बार अपमानित होने का एक कारण और भी है. जब-जब लाल टमाटर की अवहेलना होती, लाल टमाटर गुस्से से लाल हो जाता. लिहाजा लोग उसके प्रति और आकर्षित होते. मगर पास जाकर जब देखते कि वह दागी है, तो उनका आकर्षण उंहू… कहते हुए तिरस्कार में बदल जाता.

मगर आलू का क्या हाल है, भाई साहब! अनुभवी आलू! मस्त, मंलग है. उसने तो खुद को समझा-बहला लिया था मगर टमाटर को कैसे समझाया जाए. वह मन ही मन टमाटर की तबीयत हरी करने की युक्ति सोचने लगा. कुछ देर बाद वह बोला, ‘मेरे प्यारे टमाटर, ताजी-ताजी एक गजल सुन- दियासलाई और पानी साथ-साथ रखते हैं/ सियासत में वे ऊंचा मुकाम रखते हैं. कैसा लगा!’ ‘सुनकर मतली आ रही है.’ टमाटर मुंह बनाकर बोला. आलू जारी रहा, ‘लंबी होती ही जा रही है यहां पतझड़ों की मियाद/ हमारी खाली सुबहों में वे अपनी रंगीन शाम रखते हैं.’ अब बोल!’, आलू बोला. ‘यह शेर नहीं चूहा है.’ टमाटर ने कहा. ‘अबे! सब्जीधर्म निभाते हुए कम से कम सियार कह देता, निर्दयी.’ यह कहकर आलू एक सांस में अपनी तथाकथित अधूरी गजल को पूरी सुनाने लगा, ‘फासला हो गया कितना अमीरी और गरीबी में/ अपने काम से वे बस अपना काम रखते हैं/सूखे में उजड़ गए गांव कई सारे/ तकिये के पास वे छलकता जाम रखते हैं/ बिलबिला कर भूख से मर गया किसान कोई/ मरने वाले का वे अन्नदाता नाम रखते हैं.’ लेकिन टमाटर पर कोई असर नहीं.

अब आलू क्या करेगा, भाई साहब! आलू ने एक बार फिर टमाटर की टीस कम करने की कोशिश की. ‘अच्छा हमारे यहां का सबसे बड़ा लतीफा कौन-सा है?’ टमाटर चुप. आलू ने कहा, ‘जब कोई नेता नैतिकता के नाम पर दूसरे नेता का इस्तीफा मांगता है’. फिर भी टमाटर पर कोई असर न हुआ. आगे आलू ने कहा, ‘दुनिया का सबसे बड़ा अचरज- जब कोई भारतीय नेता नैतिकता के नाम पर इस्तीफा दे.’ मगर टमाटर का मूड अब भी उखड़ा रहा. उसके मूड को ठीक करने की कोई तरकीब नहीं बैठ रही थी.

इसी बीच एक बात हुई. टमाटर बस चुने जाने वाला ही था कि उसके दागी होने का पता चल गया, और एक झटके से उसे बाहर पटक दिया गया. वह दोबारा वहीं आ गिरा, जहां से उठा था.

अरे..रेरे… बहुत बुरा हुआ. मगर अब टमाटर क्या करेगा, भाई साहब! इस बार आलू ने सोचा दो टूक बात करते हैं भले ही टमाटर का दिल टूट जाए, घुट-घुट के जीने से तो अच्छा ही होगा.

आलू ने हौल जमाते हुए टमाटर से कहा, ‘देख, ये न चुने जाने की अपनी टेक छोड़! जो हमें-तुम्हें चुनने में सौ नखरे कर रहे हैं न, इनकी सच्चाई मैं बताता हूं. जो जनता घंटों बाद भी अपने लिए दागी फल-सब्जी तक नहीं चुनती, वही जनता यहां अपने और अपने देश के लिए झट से दागी प्रतिनिधि चुन लेती है. और तू इनसे अपने चुने जाने की उम्मीद कर रहा है, बेवकूफ!’

अनूप मणि त्रिपाठी

एक सीडी की एबीसीडी

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रायपुर के इंदिरा प्रियदर्शिनी सहकारी बैंक में छह साल पहले हुए घोटाले की जांच से जुड़ी एक सीडी सार्वजनिक होने के बाद छत्तीसगढ़ में चुनावी सरगर्मियां अचानक बढ़ गई हैं. यह सीडी बैंक के पूर्व मैनेजर उमेश सिन्हा के नार्को टेस्ट की है. रायपुर के जिला सत्र न्यायालय ने 2007 में उमेश के नार्को टेस्ट का आदेश दिया था. हालांकि सीडी कभी अदालत में पेश नहीं की गई. तब से राज्य में इस बात की चर्चा थी कि इसमें कुछ प्रभावशाली लोगों के नाम हैं इसलिए इसे दबा दिया गया. यह बात बीती 20 जुलाई को उस समय साबित हो गई जब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता भूपेश बघेल और प्रवक्ता शैलेष नितिन त्रिवेदी ने राजधानी स्थित पार्टी कार्यालय में यह सीडी सार्वजनिक की. इसमें उमेश को यह कहते हुए देखा जा सकता है कि उसने मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह और उनकी कैबिनेट के चार मंत्रियों ब्रजमोहन अग्रवाल, अमर अग्रवाल, राजेश मूणत और रामविचार नेताम को एक-एक करोड़ रुपये की घूस दी है. साथ में उमेश ने राज्य के पूर्व डीजीपी को भी एक करोड़ रुपये देने की बात कबूली है.

सीडी उजागर होने के बाद कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने मुख्यमंत्री और संबंधित चार मंत्रियों के इस्तीफे की मांग को लेकर राज्य भर में आक्रामक प्रदर्शन शुरू कर दिया. लेकिन उस प्रदर्शन की धमक उस समय कुछ कम हो गई जब सीडी खुलासे के दो दिन बाद ही बैंक की पूर्व अध्यक्ष रीता तिवारी खुद सरकार के बचाव में आ गईं. उन्होंने मीडिया में जारी अपने बयान में दावा किया कि नार्को टेस्ट में उमेश ने फर्जी बयान दिया है. यह बयान आने के बाद कांग्रेस और आक्रामक हो गई. शैलेष कहते हैं, ‘ यह तो हद हो गई कि अब सरकार खुद को बचाने के लिए घोटाले की प्रमुख सूत्रधार से प्रमाणपत्र ले रही है.’ इस पूरे मामले का सबसे दिलचस्प पक्ष यह है घोटाले में मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों पर भले ही आरोप लग रहे हों लेकिन इस सहकारी बैंक के सभी प्रमुख पदों पर कांग्रेस से संबंधित व्यक्ति काबिज थे और सभी आरोपित पार्टी से जुड़े हुए हैं. कांग्रेस की खीज की एक बड़ी वजह यह है कि बैंक की पूर्व अध्यक्ष रीता तिवारी भी पार्टी से ही संबंधित हैं. उनके ससुर पूर्व सांसद रामगोपाल तिवारी एक समय राज्य के दिग्गज कांग्रेसी नेता रहे हैं. कहा जा रहा है कि रीता तिवारी के पति हर्षवर्धन तिवारी को सरकार ने किसी सरकारी विभाग के प्रमुख का पद देने का वादा किया है और इसी वजह से वे भाजपा के पाले में आ गई हैं.

इस मामले में चूंकि पूर्व डीजीपी का नाम भी आया था इसलिए पुलिस ने भी तुरत-फुरत सफाई दे दी. छत्तीसगढ़ के पुलिस प्रवक्ता जीपी सिंह कहते हैं कि मामले में गिरफ्तार 13 अभियुक्तों में से किसी ने उमेश की बात की पुष्टि नहीं की थी इसलिए सीडी को अदालत में बतौर सबूत पेश नहीं किया गया. इधर सीडी मसले पर राज्य के शिक्षा मंत्री ब्रजमोहन अग्रवाल कहते हैं,  ‘यह सीडी फर्जी है. चुनावी साल में कांग्रेस के पास कोई मुद्दा नहीं है इसलिए वह झूठे मामले उठा रही है.’

रीता तिवारी के सरकार के बचाव में आने के बाद भी इस पूरे मामले में कांग्रेस का पलड़ा कुछ भारी है. उसके नेताओं का दावा है कि झीरम घाटी में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं पर हमले की संभावित वजह भी यह खुलासा हो सकता है. पार्टी नेताओं का कहना है कि परिवर्तन यात्रा में शामिल कुछ वरिष्ठ नेता इस मामले से जुड़े खुलासे करने वाले थे इसलिए एक साजिश के तहत उनकी हत्या करवा दी गई. शैलेष बताते हैं, ‘झीरम घाटी में कांग्रेस के काफिले पर नक्सली हमले के दो दिन पहले हमारी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नंद कुमार पटेल के बेटे दिनेश ने मुझे एसएमएस करके बताया था कि वे 15 जून को एक बड़ा खुलासा करने वाले हैं. वे यही खुलासा करने वाले थे लेकिन एक साजिश के तहत उनकी हत्या कर दी गई.’ यह मामला इस समय राजनीतिक दांवपेचों के कारण दोबारा से चर्चा में आ गया है लेकिन बीते सालों में हुई इसकी जांच अपने आप में कई सवालों के घेरे में है.

घोटाला और मनमर्जी की पुलिस जांच

महिलाओं की सहकारी समिति द्वारा संचालित इंदिरा प्रियदर्शिनी सहकारी बैंक के संचालक मंडल में 12 महिलाएं थीं.  2003 से 2005 के दौरान यह बैंक रायपुर में सहकारी क्षेत्र का सबसे बढ़िया बैंक माना जाता था. 2003 में ही उमेश सिन्हा बैंक का मैनेजर बना. इस समय तक बैंक की अध्यक्ष लीला पारेख थीं. वे अकाउंटिंग जानती थीं इसलिए गड़बड़ियों की गुंजाइश नहीं थी. पारेख के निधन के बाद उसी साल रीता तिवारी अध्यक्ष बनीं. बैंक घोटाले के एक आरोपित नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘ रीता तिवारी को बैंक के कामकाज के बारे में कुछ पता नहीं था इसलिए उनके अध्यक्ष बनते ही लूट का सिलसिला शुरू हो गया. उमेश उनसे जहां दस्तखत करने को कहता वे कर देतीं.’ कहा जाता है कि रीता तिवारी सहित संचालक मंडल के बाकी सदस्यों के लिए उमेश अपनी तरफ से यहां-वहां आने जाने के लिए अपनी तरफ से एयर टिकट और होटल का किराया आदि देने लगा. इसके एवज में उसने एक तरह से बैंक पर पूरी तरह कब्जा कर लिया. उसने कई एफडीआर (फिक्स्ड डिपॉजिट रिसीप्ट), पे ऑर्डर और डिमांड ड्राफ्ट जारी किए साथ ही कई कंपनियों को बिना सिक्युरिटी के कैश क्रेडिट लिमिट दे दी. इस पूरी प्रक्रिया में उमेश ने बैंक के रिकॉर्ड में पैसों की कहीं एंट्री नहीं की.

[box]सबसे दिलचस्प बात है कि कांग्रेस भाजपा सरकार पर बैंक घोटाले में शामिल होने का आरोप लगा रही है लेकिन इस सहकारी बैंक पर कांग्रेस का ही कब्जा था[/box]

इस तरह से उसने बैंक को तकरीबन 13 करोड़ रुपये की चपत लगा दी. यह घोटाला अगस्त, 2006 में तब सामने आया जब अचानक एक दिन ग्राहकों को कहा गया कि बैंक में पैसा खत्म हो गया है और उन्हें भुगतान नहीं किया जा सकता. इसके बाद पुलिस ने मामला दर्ज किया और जांच शुरू हुई. लेकिन इस मामले में पुलिस की भूमिका पर पहले दिन से ही सवाल उठने शुरू हो गए थे. संचालक मंडल में शामिल रीता तिवारी जैसी कांग्रेस से जुड़ी महिलाओं को पुलिस गिरफ्तार करने से बचती रही. रीता तिवारी को जहां 2009 में हिरासत में लिया गया वहीं संचालक मंडल की एक और सदस्य सविता शुक्ला की गिरफ्तारी 2010  में हो पाई. उमेश सिन्हा की गिरफ्तारी इस मामले में दस दिन बाद हो गई थी. 2007 में इस मामले में एक और एफआईआर दर्ज हुई. यह एफआईआर बैंक के सीईओ चंदूलाल ठाकुर ने करवाई थी. इसी के बाद अदालत ने उमेश के नार्को टेस्ट के आदेश दिए थे.

इस मामले में पुलिस ने पहले 19 लोगों को संलिप्त मानकर उनके खिलाफ मामला बनाया था लेकिन बाद में पांच लोगों को गिरफ्तार करने के बाद उन्हें अपने आप ही छोड़ दिया. इन पांच लोगों के खिलाफ अदालत में आरोपपत्र दाखिल न करने की वजह से पुलिस जांच पर सवाल उठाए जा रहे हैं. इन लोगों में सहकारिता विभाग के वे तीन ऑडिटर शामिल थे जिन पर बैंक के कामकाज के देखरेख की जिम्मेदारी थी. तहलका के पास उपलब्ध दस्तावेज बताते हैं कि इस मामले में पुलिस ने सहकारिता विभाग के ऑडिटरों आनंद मुखर्जी, कैलाश नाथ और पुष्पा शर्मा को हिरासत में लिया था. इनके अलावा एक सीए मनीष अग्रवाल और व्यवसायी प्रमोद कापसे को भी गिरफ्तार किया गया था पर इन्हें बिना अदालत में पेश किए पुलिस ने अपनी मर्जी से छोड़ दिया.

प्रमोद कापसे के पास से 1 करोड़ 86 लाख रुपये की एफडीआर जब्त की गई थी जो उसने उमेश सिन्हा से सांठ-गांठ करके जारी करवाई थीं. इसी तरह मनीष अग्रवाल के पास से 15 लाख रुपये की एफडीआर जब्त की गई थीं. इस मामले में सहअभियुक्त नीरज जैन के वकील राजेश भदौरिया कहते हैं, ‘ किसी भी मामले में पुलिस को यह अधिकार नहीं होता कि वह गिरफ्तार व्यक्ति को खुद ही केस से बरी कर दे लेकिन यहां तो पुलिस खुद जज की तरह काम कर रही थी.’ जगदलपुर के व्यवसायी नीरज जैन पर फर्जी कंपनियां बनाकर बिना सिक्युरिटी के लगभग तीन करोड़ रुपये की कैश क्रेडिट लिमिट लेने का आरोप है.

पुलिस ने नीरज के खिलाफ मामला उन 13 कंपनियों के निदेशकों के बयान के आधार पर बनाया है जिसमें उन्होंने बैंक के पैसे का गबन नीरज के कहने पर करने की बात कही है. नीरज अपनी सफाई में कहते हैं कि एफडीआर निदेशकों के पास से ही बरामद हुई हैं और सभी वाउचरों में उन्हीं के दस्तखत हैं. लेकिन पुलिस ने उन्हें गवाह बना दिया. पुलिस पर अपनी मर्जी से कुछ और लोगों को भी गवाह बनाने के आरोप लग रहे हैं. राजेश भदौरिया बताते हैं, ‘  इस मामले में बैंक के कर्मचारियों को पुलिस ने आरोपित नहीं बल्कि गवाह बनाया है जबकि कैश रजिस्टर में उनके दस्तखत हैं. ‘ यह भी बड़ी विचित्र बात है कि पुलिस ने उमेश सिन्हा के ड्राइवर और उसके एक दोस्त को आरोपित बना दिया है. इस समय चुनावी माहौल में सीडी कांड का राजनीति पर क्या असर होगा इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता. लेकिन जहां तक इस मामले की जांच की बात है इस पर उठ रहे सवाल अब-भी अनुत्तरित ही हैं.

दुराग्रह के दुश्चक्र में?

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इन दिनों उत्तर प्रदेश की गाजियाबाद स्थित एक सीबीआई अदालत में जो हो रहा है वह हो सकता है कि भारत के कानूनी इतिहास की सबसे शर्मनाक घटनाओं में से एक के रूप में याद किया जाए. यह एक ऐसी कहानी है जिससे हर एक को डर लगना चाहिए. एक ऐसी कहानी जिसमें भयानक अक्षमता और पूर्वाग्रह दिखता है. जिसमें जान-बूझकर न्याय की धज्जियां उड़ाई जाती नजर आती हैं. यह एक ऐसी कहानी है जिसका केंद्रीय पात्र इस देश में कोई भी हो सकता है.

15 जून, 2008 की रात तक राजेश और नूपुर तलवार एक आम मध्यवर्गीय दंपत्ति थे. वे दोनों ही दांतों के डॉक्टर थे और 13 साल की अपनी बेटी आरुषि के साथ नोएडा में रहते थे. दिल्ली पब्लिक स्कूल, नोएडा में नवीं क्लास में पढ़ने वाली आरुषि अपनी उम्र की बाकी लड़कियों की तरह ही थी. प्यारी और नटखट. रिश्तों में मजबूती से गुंथा यह परिवार हर तरह से खुशहाल था. 15 मई को डॉ राजेश तलवार ने अपनी बेटी के लिए एक कैमरा खरीदा था. 24 तारीख को उसका जन्मदिन आने वाला था. दोस्तों के साथ इसका जश्न मनाने के लिए एक आयोजन स्थल भी बुक कर लिया गया था. तोहफे के रूप में मिले कैमरे से खुश आरुषि ने इससे अपनी और मम्मी-पापा की ढेर सारी तस्वीरें खींचीं.

अगली सुबह, यानी 16 मई तक खुशहाली की यह तस्वीर पूरी तरह से बदल चुकी थी. आरुषि की खून से लथपथ लाश उसके बिस्तर पर मिली. उसके सिर पर भयानक वार किया गया था और उसका गला रेत दिया गया था. पहले-पहल शक तलवार के घरेलू नौकर हेमराज की तरफ गया जो घर से गायब था. लेकिन एक दिन बाद ही 17 मई को हेमराज की लाश छत पर मिली. उसके सिर पर भी वार हुआ था और गला रेत दिया गया था.

तब से लेकर आरुषि-हेमराज डबल मर्डर केस की कई बातें सबको जुबानी याद हो चुकी हैं. सभी को इसके बारे में मालूम है और सभी का इसके बारे में कोई-न-कोई मत है. स्थिति कुछ ऐसी है कि जो धारणाएं बन गई हैं उन पर तथ्यों से अब कोई फर्क नहीं पड़ता.

हेमराज की लाश मिलने का इस मामले पर एक और असर पड़ा.  जल्द ही नोएडा पुलिस ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और इसमें एक कहानी पेश की. गौर करें कि तब तक पड़ताल खत्म नहीं हुई थी. यह कहानी विस्तार पाती गई. इतना कि आज इसे खारिज करना नामुमकिन लगता है. अखबारों और टीवी पर यह कहानी छा गई और ऐसा करने में पत्रकारीय मर्यादा और तथ्यों की पड़ताल जैसी चीजें किनारे कर दी गईं.

[box]नई सीबीआई टीम के आने के बाद जहां एक पक्ष के खिलाफ जांच ठंडे बस्ते में चली गई वहीं तलवार दंपति के खिलाफ इसने तेज रफ्तार अख्तियार कर ली हेमराज की लाश मिलने के बाद तलवार दंपति स्वाभाविक रूप से शक के घेरे में आ गया क्योंकि घर में जबरन घुसने का कोई संकेत नहीं था[/box]

अचानक ही राजेश और नूपुर तलवार इंसान नहीं रह गए. वे ऐसे माता-पिता नहीं रह गए जिन्होंने अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा हादसा झेला था. तथ्यों की पड़ताल के बिना ही वे अपनी बेटी के कातिल हो गए. पिछले पांच साल में उनके बारे में मीडिया में हर तरह की खबरें आई हैं. अब उनकी हालत यह है कि उन पर कोई भी खबर चलाई जा सकती है. इसके लिए किसी तथ्य, तर्क और पड़ताल की जरूरत नहीं: वे अपनी ही बेटी के हत्यारे हैं. वे बीवियों की अदला-बदली वाले नेटवर्क का हिस्सा हैं. बेटी की मौत का गम उनके चेहरे पर नहीं दिखा. उन्होंने अपराध स्थल को साफ कर दिया था. आवेश में आकर उन्होंने अपनी बेटी को मारा. उनकी 13 साल की बेटी 45 साल के नौकर के साथ आपत्तिजनक अवस्था में पाई गई थी. गर्दन पर चोट के निशान सर्जरी में काम आने वाले चाकू के हैं और बहुत नफासत से गला रेता गया है. राजेश तलवार ने अपनी बेटी और नौकर के सिर पर गोल्फ क्लब से वार किया. उस रात घर में और कोई नहीं था. घर में किसी के जबरन घुसने के प्रमाण नहीं मिले हैं. पुलिस आई तो राजेश तलवार छत का दरवाजा नहीं खोलना चाह रहे थे. उन्होंने पोस्टमार्टम रिपोर्ट में गड़बड़ी करवाई है.

समाचार चैनलों पर चीखती हेडलाइनें, नाटकीय रूपांतरण और पुलिस व सीबीआई के हवाले से आई तरह-तरह की खबरों ने अपना काम कर दिया. राजेश और नूपुर तलवार अदालत में दोषी साबित होने से पहले ही लोगों की निगाह में दोषी हो गए.

इस मामले में परिजनों और मित्रों में से कई बताते हैं कि कैसे इस हादसे के बाद दुख के मारे राजेश अपना सिर दीवारों पर पटकते थे और नूपुर फोन पर बात करते हुए पागलों की तरह रोने लगती थीं. उन्हें जानने वाले यह भी बताते हैं कि उन अभागे दिनों में कैसे उनके चारों तरफ रहने वाले लोग ही उनसे जुड़े सारे फैसले कर रहे थे. लेकिन मीडिया की शिकायत थी कि उनका यह रोना और सिर पटकना कैमरों के आगे और बयान देते हुए क्यों नहीं हुआ. वे हमेशा इतने शांत कैसे दिखते हैं?

फिर भी यह सार्वजनिक मुकदमा अप्रासंगिक होता अगर न्यायिक प्रक्रिया पटरी पर चलती रहती. लेकिन इससे पहले कि आप यह जानें कि गाजियाबाद स्थित ट्रायल कोर्ट में क्या हो रहा है, और यह जानें कि तलवार दंपति के खिलाफ या समर्थन में क्या सबूत हैं, कुछ और बातें जानना जरूरी है.

हेमराज की लाश मिलने के बाद थोड़े समय के लिए शक की सुई हेमराज के दोस्तों की तरफ घूमी. कृष्णा, जो राजेश तलवार के क्लीनिक में हेल्पर था. राजकुमार, जो तलवार दंपति के मित्रों डॉ प्रफुल्ल और अनीता दुर्रानी के यहां नौकर था और एक पड़ोसी के घर में काम करने वाला विजय मंडल. इस दौरान तलवार दंपति और इन तीनों लोगों के पॉलीग्राफ, ब्रेन मैपिंग और लाई डिटेक्टर टेस्ट हुए. एक नहीं दो-दो बार.

और सच यह है कि राजेश और नूपुर तलवार, दोनों ही इन जांचों में साफ पाए गए. बाकी तीनों लोग, खासकर कृष्णा और राजकुमार, लाई डिटेक्टर टेस्ट में झूठ बोलते पाए गए. इससे भी अहम यह है कि नार्को टेस्ट से ये संकेत मिले कि अपराध में उनकी भागीदारी थी. इसमें उन्होंने माना कि वे उस रात घर में थे, उन्होंने अपराध कैसे हुआ, यह भी बताया. हत्या किस हथियार से की गई, इसके बारे में भी जानकारी दी और यह भी कि कैसे आरुषि और हेमराज के फोन ठिकाने लगाए गए. इस मामले की जांच कर रही सीबीआई टीम के तत्कालीन मुखिया अरुण कुमार ने 11 जुलाई, 2008 को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और मीडिया के साथ इन परीक्षणों की जानकारी साझा की. हालांकि ये परीक्षण अदालत में सबूत के तौर पर स्वीकार्य नहीं हैं, लेकिन उस ओर इशारा तो करते ही हैं जिधर जांच को जाना चाहिए. भारतीय साक्ष्य कानून की धारा 27 के मुताबिक अगर नार्को टेस्ट के आधार पर कोई खोज होती है तो वह कानूनन-सम्मत साक्ष्य है. जैसे-जैसे मामला आगे बढ़ा, कृष्णा के नार्को टेस्ट से दो बड़ी अहम जानकारियां मिलीं. इनमें से एक तो विस्फोटक थी. लेकिन इनकी चर्चा बाद में.

इसके बावजूद आरुषि मर्डर केस की जांच किसी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सकी. सितंबर, 2009 में जांच अधिकारी अरुण कुमार को इस मामले से हटा दिया गया. अब जिम्मा सीबीआई की एक नई टीम ने संभाला. इसकी कमान एजीएल कौल के हाथ में थी. इस बदलाव के साथ ही मामले ने अचानक एक नया और दुर्भावनापूर्ण मोड़ ले लिया. निष्पक्ष जांच का तरीका यह होना चाहिए था कि शक के दायरे में आए दोनों पक्षों, तलवार दंपति और घरेलू नौकरों, के खिलाफ जांच जारी रखी जाती. नई टीम के आने के बाद जहां एक पक्ष के खिलाफ जांच ठंडे बस्ते में चली गई वहीं तलवार दंपत्ति के खिलाफ इसने तेज रफ्तार अख्तियार कर ली.

इसके बावजूद दिसंबर, 2010 में सीबीआई को मामले में क्लोजर रिपोर्ट दाखिल करनी पड़ी. इसमें उसका कहना था कि तलवार दंपति के खिलाफ सबूतों में कई अहम और पर्याप्त झोल हैं. उसका यह भी कहना था कि उसे आरुषि की हत्या का कोई स्पष्ट उद्देश्य नहीं मिला और यह भी कि घटनाएं जिस क्रम में घटीं उसे वह पूरी तरह से नहीं समझ सकी है.

कोई साधारण आदमी भी सोच सकता है कि पर्याप्त सबूतों और उद्देश्य—जो हत्या के मामले के दो अहम पहलू होते हैं—का अभाव राजेश और नूपुर तलवार को अपनी ही बेटी की हत्या के आरोप से मुक्ति देने के लिए पर्याप्त होता. इसके बावजूद नौकरों को क्लीन चिट देते हुए सीबीआई का कहना था कि उसे शक मुख्य तौर पर तलवार दंपति पर ही है. क्लोजर रिपोर्ट में हेमराज और आरुषि के अनैतिक संबंध की बात भी थी. राजेश और नूपुर तलवार इससे भौचक्के थे. यह उनकी बेटी की स्मृति के खिलाफ शब्दों से की गई हिंसा थी. उन्हें लग रहा था कि दोषी अब कभी पकड़े नहीं जाएंगे. वे इससे भी हैरान थे कि उन पर अपनी बेटी के संभावित हत्यारे जैसा लेबल चिपका दिया गया था. उन्होंने क्लोजर रिपोर्ट का विरोध करते हुए इस मामले की जांच फिर से करने की मांग की.  जिसने अपराध किया हो, वह स्वाभाविक रूप से ऐसा नहीं करता. लेकिन हैरानी की बात है कि जिला मजिस्ट्रेट प्रीति सिंह ने उनकी याचिका खारिज करते हुए आदेश दिया कि सीबीआई द्वारा दाखिल की गई क्लोजर रिपोर्ट के आधार पर ही सुनवाई शुरू की जाए. वही रिपोर्ट जो कहती थी कि तलवार दंपति के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं मिल पाए. अब तलवार दंपति संदिग्ध से मुख्य आरोपित बन गए. दूसरे संदिग्ध मामले के दायरे से ही बाहर हो गए. सीबीआई अदालत में क्या हो रहा है यह जानने से पहले जरा इस तथ्य पर गौर करें और फिर खुद फैसला करें कि क्या यह सुनवाई निष्पक्ष तरीके से हो रही है.

अब तक सीबीआई 39 गवाह पेश कर चुकी है. उनमें से कुछ तलवार दंपति के हिसाब से बेहद लचर और गलत थे, इसलिए वे चाहते थे कि अभियोजन पक्ष 14 अन्य गवाह भी पेश करे जिनसे वे भी सवाल-जवाब (क्रॉस इग्जामिन) कर सकें और घटना का सही सिलसिला स्थापित करने के अलावा सीबीआई की दूसरी टीम की दुर्भावना भी साबित कर सकें. इन 14 संभावित गवाहों में से अधिकतर गवाह सीबीआई की पहली टीम में शामिल अरुण कुमार जैसे अहम अधिकारी थे. नोएडा पुलिस के भी कुछ अधिकारी. अदालत ने इसकी इजाजत नहीं दी. तलवार दंपति इलाहाबाद उच्च न्यायालय गया. वहां भी उन्हें यह इजाजत नहीं मिली. इसके बाद वे सर्वोच्च न्यायालय गए. यहां भी नतीजा वही रहा.

इसके बाद तलवार दंपति ने अपने यानी बचाव पक्ष के 13 गवाहों को पेश करने की इजाजत मांगी. उन्होंने यह भी अनुरोध किया कि इस मामले से जुड़े अहम दस्तावेजों तक उनकी भी पहुंच हो. इनमें उनके और घरेलू नौकरों के नार्को टेस्ट, कॉल रिकॉर्ड, पोस्टमॉर्टम रिपोर्टें आदि शामिल थे जिनकी वे भी पड़ताल कर सकें. इसके खिलाफ दलील देते हुए अभियोजन पक्ष के वकील आरके सैनी ने कहा कि उन्हें किसी भी गवाह को पेश करने की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए. सैनी का कहना था तलवार दंपति सिर्फ अदालत का वक्त बर्बाद करने की कोशिश कर रहे है.

इस तरह दो व्यक्तियों को – जिनका गुस्से में पागल होकर किसी तरह का अपराध करने का कोई इतिहास नहीं है -अपनी इकलौती संतान की गुस्से में बर्बर हत्या का आरोपि बना दिया गया. उनके खिलाफ कोई मजबूत साक्ष्य नहीं है. फिर भी अभियोजन पक्ष को 39 गवाह बुलाने की इजाजत मिलती है. तलवार दंपति को एक भी गवाह बुलाने की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए.

क्या यह सुनवाई निष्पक्ष लगती है? ये वही आरके सैनी हैं जिन्होंने जुलाई, 2008 में यह दलील देते हुए राजेश तलवार को जमानत पर छोड़ने की गुजारिश की थी कि अपराध में उनकी भूमिका की पूरी तरह जांच कर ली गई है और उनके टेस्ट में कुछ भी असामान्य नहीं पाया गया है. यह भी कि अपराध स्थल पर जो भी संकेत मिले हैं वे उनकी तरफ इशारा नहीं करते और न्याय के हित में उन्हें हिरासत में रखना जरूरी नहीं है.

पिछले महीने इस स्टोरी के लिखे जाने के वक्त अदालत का एक फैसला आया था जिसमें तलवार दंपति को मामले से संबंधित और कागजात देने से मना किया गया था और 13 के बजाय केवल सात लोगों को गवाह बनाने की इजाजत दी गई थी. इनमें परिवार के सदस्य और मित्र थे, केस से जुड़ा कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति नहीं. तलवार दंपति कितने भयानक पूर्वाग्रह का सामना कर रहा है यह जानना तब तक संभव नहीं जब तक आप इस मामले के विस्तार में न जाएं. प्राकृतिक न्याय का बुनियादी तकाजा होता है कि आरोपित को ठीक से अपना बचाव करने की इजाजत मिलनी चाहिए. लेकिन यहां वह तक नहीं हो रहा. और यह तो इस पूर्वाग्रह का एक छोटा-सा हिस्सा भर है.

इस सबके केंद्र में एक सवाल है जिसका जवाब देने में सबको मुश्किल हो रही है. आखिर क्यों सीबीआई तलवार दंपति को फंसाने में एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है?  न तो उन्हें और न ही दूसरे पक्ष यानी घरेलू नौकरों को ‘बड़े लोग’ कहा जा सकता है. तो ऐसा क्यों है कि एक के पीछे वह हाथ धोकर पड़ी है जबकि दूसरे की तरफ देख तक नहीं रही. आखिर न्याय की तलाश में वह निष्पक्ष दिखने वाले रास्ते पर क्यों नहीं बढ़ रही?

इसके जवाब में बस कुछ अनुमान ही लगाए जा सकते हैं. अभी तक जो कुछ भी हुआ है उससे दो चीजें साफ होती हैं. पहली तो यह कि पुलिस और सीबीआई दोनों की ही जांच शुरुआत से ही भयावह रूप से घटिया रही है. दूसरा यह कि ऐसा लगता है जैसे सीबीआई की दूसरी टीम के मुखिया एजीएल कौल तलवार दंपति के खिलाफ लगने वाले आरोपों पर बहुत गहराई और उत्साह से यकीन कर चुके हैं. यही मानकर यह बात समझी जा सकती है कि क्यों उनकी क्लोजर रिपोर्ट खामियों से भरी पड़ी है.

और मजिस्ट्रेट प्रीति सिंह ने जब इसी रिपोर्ट के आधार पर सुनवाई का आदेश दिया तो चीजें और भी जटिल हो गईं. इस सुनवाई में नियमित रूप से जाने वाले और मुंबई मिरर से जुड़े पत्रकार अविरुक सेन कहते हैं, ‘सीबीआई नहीं चाहती थी कि मामला सुनवाई तक जाए. लेकिन जब इसी रिपोर्ट के आधार पर सुनवाई का आदेश हो गया तो उन पर उसी तरह के सबूत जुटाने का दबाव बढ़ गया. अब कोर्ट में हर सुनवाई के बाद उन्हें अपनी ही कहानी में और गहरे जाना पड़ रहा है.’

[box]कृष्णा के कमरे से बरामद इस कवर पर हेमराज का खून होने का एक ही मतलब था और वह यह कि कृष्णा उस रात हेमराज के कमरे में मौजूद था[/box]

जावेद अहमद सीबीआई में संयुक्त निदेशक हैं और कौल व उनकी टीम अहमद के तहत ही अपना काम कर रही है. जब हम उनसे पूछते हैं कि आखिर तलवार दंपति द्वारा अपने बचाव के लिए गवाह पेश करने का सीबीआई क्यों विरोध कर रही है तो वे कहते हैं, ‘ऐसा हम अपने अधिकारों के तहत ही कर रहे हैं. इसमें कुछ भी गैरकानूनी नहीं है.’

वे आगे कहते हैं, ‘यह आरोप गलत है कि हम उनके खिलाफ जान बूझकर निष्पक्षता से हट रहे हैं. वे जितने चाहें उतने गवाहों को बुलाने की इजाजत मांग सकते हैं. हम इस पर अपना एतराज जता सकते हैं. इसके बाद तो फैसला कोर्ट को करना है. हमारा फर्ज यह है कि सुनवाई तेजी से हो और कोई भी इसे लंबा खींचने की कोशिश न करे.’ इसके बाद अहमद हैरानी में डालने वाली एक बात कहते हैं, ‘अगर तलवार दंपति ने अपने बचाव में 2,432 गवाह पेश करने की इजाजत मांगी होती तो आप क्या कहतीं?’ हम उन्हें याद दिलाते हैं कि उन्होंने दो हजार नहीं 13 गवाह पेश करने की इजाजत मांगी थी. उनका जवाब आता है, ‘मैं तो बस उदाहरण दे रहा था.’

हम सीबीआई के संयुक्त निदेशक से पूछते हैं कि क्या यह अजीब नहीं कि सीबीआई अपनी आखिरी रिपोर्ट में यह कहे कि उसके पास किसी के खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं हैं, फिर सुझाव दे कि केस बंद कर दिया जाना चाहिए और फिर उसे उसी रिपोर्ट के आधार पर किसी के खिलाफ मुकदमा लड़ना पड़ेे.

अहमद कहते हैं, ‘आपकी बात बिल्कुल सही है. यह तो रिकॉर्ड में है कि हमारे पास पूरे सबूत नहीं थे. लेकिन जब एक बार जज ने सुनवाई का आदेश दे दिया तो इस फैसले का विरोध करने वाला मैं कौन होता हूं? इसके बाद तो हमारा कर्तव्य है कि हम अदालत की मदद करें और हमें जिस तरह से भी हो सके अपना काम करना होता है.’

दुर्भाग्य से, आगे हम देखेंगे कि ‘अदालत की इस मदद’ में सबूतों के साथ छेड़छाड़ और फर्जी सबूत गढ़ना भी शामिल है.

जज का विरोध करने वाला मैं कौन होता हूं, सुनकर भी निराशा होती है. आप खुद को देश की शीर्ष जांच एजेंसी बताते हैं और आप जानते हैं कि आपके पास सबूत नहीं हैं. न्याय के हित में क्या यह ठीक नहीं होता कि आप कम से कम जज से क्लोजर रिपोर्ट के आधार पर सुनवाई के बजाय आगे और जांच की मांग करते?

अब राजेश और नूपुर तलवार की स्थिति देखिए. वे एक ऐसे मामले में अकेले आरोपित हैं जिसमें उनके खिलाफ कोई वास्तविक सबूत नहीं है. इसके बावजूद जब वे यह अपील करते हुए उच्च और सर्वोच्च न्यायालय गए कि इस मामले की गहराई से पड़ताल हो जो किसी बाहरी व्यक्ति की संभावित भूमिका का पता लगा सके और साथ ही टच डीएनए (जिसमें उनका खुद का दोष भी साबित हो सकता है) जैसी आधुनिक फॉरेंसिक जांचों का आदेश दिया जाए तो दोनों ही जगह उनकी याचिका ठुकरा दी गई. सर्वोच्च न्यायालय ने तो उनकी इस कोशिश को अपने बचने की आखिरी कोशिश करार दिया और नूपुर तलवार से कहा कि अगर वे ट्रायल कोर्ट के हर आदेश से असहमति जताते हुए शीर्ष अदालत आएंगी तो उन्हें इसकी बड़ी कीमत चुकानी होगी.

कानून कहता है कि जब तक दोष साबित नहीं होता, तब तक व्यक्ति निर्दोष माना जाए. इस मामले में तो तलवार दंपति के लिए ऊंची अदालतों में जाने का संवैधानिक अधिकार तक खत्म कर दिया गया है. जावेद अहमद और आरके सैनी इस मामले से सीधे जुड़े सवालों का जवाब देने से इनकार करते हैं. अहमद कहते हैं, ‘आप मेरी स्थिति समझेंगी.’ आरुषि-हेमराज की हत्या के इस मामले की पड़ताल दो दिशाओं की तरफ जाती है. एक, यह माना जाए कि इसके तार हेमराज के दोस्तों और घरेलू नौकरों से जुड़ते हैं. दूसरा, यह माना जाए कि इसमें राजेश और नूपुर तलवार की भूमिका थी. अब एक-एक कर इस मामले की पड़ताल की दोनों दिशाओं और सीबीआई ने इनमें क्या किया और क्या नहीं, के बारे में जानने की कोशिश करते हैं.

हेमराज की लाश मिलने के बाद तलवार दंपति स्वाभाविक रूप से शक के घेरे में आ गया क्योंकि घर में जबरन घुसने का कोई संकेत नहीं था. तो धारणा यह बनी कि घर में चार लोग थे. दो की हत्या हो गई. बाहर से कोई आया नहीं तो जो दो लोग बचे उन्हें यह साबित करना होगा कि वे बेकसूर हैं.

लेकिन अगर उस रात घर में इन चार के अलावा भी कुछ लोग रहे हों जिन्हें घर में जबरन घुसने की जरूरत नहीं थी तो? सीबीआई अधिकारी अरुण कुमार की प्रेस कॉन्फ्रेंस के मुताबिक कृष्णा, राजकुमार और विजय मंडल ने नार्को टेस्ट में और सीबीआई के सामने पूछताछ में माना था कि उस रात हेमराज ने उन्हें बुलाया था और वे देर रात उसके कमरे में इकट्ठा हुए थे. कृष्णा (जिसकी हाल ही में तलवार दंपति से तकरार हुई थी) पहले आया और उसने शराब पी. उसके बाद राजकुमार और विजय मंडल आए और सबने शराब का सेवन किया. इसके बाद आरुषि की चर्चा हुई. ये लोग उसके कमरे में घुसे. आरुषि ने चिल्लाने की कोशिश की लेकिन उसका मुंह बंद कर दिया गया और उसके सिर पर किसी कठोर चीज से वार किया गया. इसके बाद उसके साथ गलत हरकत करने की कोशिश की गई जिसके चलते इन सबमें झगड़ा हुआ. झगड़े के बाद ये लोग छत पर गए और काफी संघर्ष के बाद हेमराज की हत्या कर दी गई. इसके बाद उन्होंने छत पर ताला लगाया, आरुषि के कमरे में वापस आए (शायद यह देखने के लिए कि वह जिंदा तो नहीं) और भाग गए.

नार्को टेस्ट और पुलिस को दिए गए बयान भले ही कानूनी रूप से सबूत न माने जाएं लेकिन इसका समर्थन करते दूसरे सबूत हैं जो तहकीकात की एक तार्किक दिशा बनाते हैं. जैसे हेमराज के कमरे में तीन बोतलें पाई गई थीं. एक स्प्राइट, दूसरी किंगफिशर बीयर और तीसरी सुला वाइन की. हेमराज खुद शराब नहीं पीता था. यह साफ तौर पर संकेत है कि उस रात उसके कमरे में दो या इससे ज्यादा लोग मौजूद थे. घर की चाबियां उसके पास रहती थीं और उसका खुद का कमरा घर में खुलता था. तो घर में बेरोक-टोक प्रवेश पूरी तरह से संभव था.

इन लोगों द्वारा बताया गया घटनाओं का क्रम आरुषि और हेमराज की शुरुआती पोस्टमॉर्टम रिपोर्टों से भी मेल खाता था. रिपोर्टों के मुताबिक शायद आरुषि और हेमराज दोनों ही सिर पर हुए पहले वार से खत्म हो गए थे. उनका गला बाद में रेता गया. वैज्ञानिकों और दिल्ली स्थित एम्स के डॉक्टरों से बनी सात सदस्यीय समिति जिसने अपराध स्थल का विश्लेषण किया था, उसका भी यह निष्कर्ष था कि आरुषि को उसके बेड पर ही मारा गया जबकि हेमराज की हत्या छत पर की गई.

इसके अलावा कृष्णा की स्वीकारोक्ति और नार्को टेस्ट के बाद उसके कमरे से एक खुखरी बरामद की गई. उस पर खून के बारीक धब्बे जैसे कुछ निशान भी थे. 31 अगस्त, 2008 को पोस्टमॉर्टम करने वाले डॉक्टरों ने कहा कि निश्चित रूप से यह वह हथियार हो सकता है जिससे हमला करके घातक चोट पहुंचाई गई. उनके मुताबिक यह भी संभव था कि गर्दन पर मिले घाव भी खुखरी की धार से हुए हों और यह भी हो सकता है कि ऐसा किसी और ज्यादा धारदार हथियार से किया गया हो. एम्स की समिति ने भी इस बात का समर्थन किया. सीबीआई सूत्र बताते हैं कि राजकुमार ने एक दूसरी खुखरी का भी जिक्र किया था जो उसने नोएडा के एक मॉल के पास फेंक दी थी. हालांकि इस दिशा में कभी आगे नहीं बढ़ा गया.

नार्को टेस्ट के दौरान तीनों ने यह भी बताया कि उस समय हेमराज के कमरे में मौजूद टीवी सेट पर चल रहे नेपाली भाषा के चैनल पर कौन-से गाने चल रहे थे. सीबीआई ने यह चैनल चलाने वालीं पत्रकार और निर्माता नलिनी सिंह सहित अन्य स्रोतों से इसकी पुष्टि के लिए पूछताछ की और पाया कि चैनल पर उस समय वही गाने चल रहे थे.

हालांकि सबसे अहम सबूत तो वह तकिया था जो 14 जून, 2008 को कृष्णा के कमरे से बरामद किया गया. बैंगनी रंग के इस तकिये पर खून जैसे कुछ धब्बे थे. इस अहम सबूत के साथ जो हुआ वह न सिर्फ डरावना है बल्कि इस मामले की सुनवाई का एक और स्याह पहलू भी है. यह हमारी जांच और फॉरेंसिक संस्थाओं की कुव्यवस्था तो दिखाता ही है, साथ यह भी बताता है कि वे किसी को फंसाने या अपनी गर्दन बचाने के लिए किस हद तक जा सकती हैं.

[box]सामान्य स्थिति में इस रिपोर्ट से हंगामा मच जाना चाहिए था. यह इस केस के रहस्य पर से पर्दा उठाती दिखती थी[/box]

लेकिन पहले यह जानते हैं कि खुखरी के साथ क्या हुआ. 17 जून, 2008 को दिल्ली स्थित सेंट्रल फॉरेंसिक साइंस लैबोरेट्री (सीएफएसएल) में सेरोलॉजिस्ट एसके सिंघला ने कहा कि वे खुखरी पर मानव रक्त की पहचान करने में असमर्थ रहे हैं. इसके बाद यह हथियार सीएफएसएल में डीएनए विशेषज्ञ बीके महापात्र के पास भेजा गया. महापात्र ने कहा कि वे इससे किसी भी डीएनए तक नहीं पहुंच सके. प्राथमिक रूप से इसी खुखरी को कत्ल का हथियार माना जा रहा था. इसके बावजूद सीबीआई ने इस सबूत को और भी पड़ताल के लिए हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर डीएनए फिंगरप्रिंटिंग ऐंड डायग्नोस्टिक्स (सीडीएफडी) नहीं भेजा. सुनवाई के दौरान जब तलवार के वकील ने सिंघला से खुखरी पर मौजूद खून के निशानों पर सवाल किए तो सिंघला ने फिर कहा कि यह इंसान का खून नहीं था. जब उनसे और सवाल किए गए तो उन्होंने कहा कि यह मुर्गे, कुत्ते, गाय या भैंस का भी खून नहीं था. वे खून के धब्बों का कोई और संभावित स्रोत भी नहीं बता पाए और खुखरी की कहानी तब से वहीं पर अटकी पड़ी है.

अब यह जानते हैं कि बैंगनी रंग के उस तकिये के कवर का क्या हुआ. यह बेहद डरावना है. कृष्णा के कमरे से बरामद यह कवर सीडीएफडी, हैदराबाद भेजा गया. छह नवंबर, 2008 को वहां से जो रिपोर्ट आई उसमें एक विस्फोटक जानकारी थी. इस पर लगा खून हेमराज के खून से मेल खाता था.

सामान्य स्थिति में इस रिपोर्ट से हंगामा मच जाना चाहिए था. यह इस केस के रहस्य पर से पर्दा उठाती दिखती थी. तार्किक रूप से देखें तो कृष्णा के कमरे से बरामद इस कवर पर हेमराज का खून होने का एक ही मतलब था और वह यह था कि कृष्णा उस रात हेमराज के कमरे में मौजूद था. इसे खुखरी की बरामदगी, नार्को टेस्ट की स्वीकारोक्तियों,  हेमराज के कमरे में मिली शराब की बोतलों के साथ जोड़कर देखें तो निश्चित रूप से मामला कुछ आकार लेता सा लगता है.

लेकिन सावधानी को हैरतअंगेज रूप से ताक पर रखते हुए करीब ढाई साल तक सीबीआई की इस रिपोर्ट पर नजर नहीं गई. तब भी जब इस केस का जिम्मा अरुण कुमार वाली टीम के पास था. हैरानी की बात यह भी है कि जब सुनवाई के दौरान सितंबर, 2008 से लेकर मार्च, 2009 तक जांच अधिकारी रहे एमएस फर्त्याल से इस बारे में सवाल किया गया तो उनका कहना था, ‘मैंने यह रिपोर्ट नहीं देखी क्योंकि मैं जांच में व्यस्त था.’

इस जानकारी के साथ कि कृष्णा के तकिये का अब तक पता नहीं चला है, दिसंबर, 2010 में सीबीआई ने अपनी क्लोजर रिपोर्ट दाखिल की. इस तरह उसने कृष्णा और अन्य को दोषमुक्ति दे दी. उसकी यह चूक तो बुरी थी ही, लेकिन जब उसे इस अहम सबूत के बारे में पता भी चला तो भी उसकी जो प्रतिक्रिया थी उसे सुनकर कोई भी सिहर जाए.

लेकिन उससे पहले क्लोजर रिपोर्ट अपनी कहानी कहती है. एजीएल कौल के नेतृत्व में सीबीआई ने अपनी क्लोजर रिपोर्ट में कई कारणों का जिक्र किया जिनके चलते कृष्णा आदि को इस मामले का संदिग्ध नहीं माना जा सकता. कृष्णा और अन्य को भी दोषी साबित न होने तक निर्दोष कहलाने का अधिकार है. लेकिन अक्सर गंभीर तर्कों के खिलाफ तलवार दंपति के पीछे पड़ जाने वाली सीबीआई क्लोजर रिपोर्ट में कृष्णा और अन्य की दोषमुक्ति कितनी आसानी से मनवाना चाहती है, यह देखना दिलचस्प हैः

सीबीआई की दलील नौकरों के नार्को टेस्ट अविश्वसनीय थे

जवाबी दलील– रिपोर्ट बता ही चुकी है कि क्यों उन्हें भी उतना ही विश्वसनीय माना जा सकता था.

सीबीआई की दलील कृष्णा और राजकुमार की नार्को रिपोर्ट में जिक्र किया गया था कि आरुषि का मोबाइल नेपाल भेजा गया था जबकि हेमराज का फोन तोड़ दिया गया था. लेकिन ये बातें सही नहीं पाई गईं क्योंकि आरुषि का मोबाइल नोएडा से बरामद हुआ जबकि हेमराज का फोन पंजाब में सक्रिय था.

जवाबी दलील यह हैरत की बात है कि दो इतने अहम सबूतों की सीबीआई ने पूरी तरह से जांच नहीं की है. क्रॉस एग्जामिनेशन के दौरान अभियोजन पक्ष के एक गवाह और टाटा टेल्कॉम से जुड़े एमएन विजयन का कहना था कि उन्हें याद नहीं कि सीबीआई द्वारा कभी हेमराज का नंबर निगरानी पर लगाया भी गया था. अगर यह सही है तो जांच अधिकारी एजीएल कौल को कैसे पता चला कि यह फोन पंजाब में इस्तेमाल किया जा रहा था? अगर यह सही है भी तो इस बात की जांच क्यों नहीं की गई कि उस फोन को वहां कौन इस्तेमाल कर रहा है?

यही बात आरुषि के फोन के बारे में कही जा सकती है. कुसुम नाम की एक घरेलू नौकरानी का दावा था कि यह फोन उसे फुटपाथ पर पड़ा मिला जिसे उसने अपने एक रिश्तेदार रामभूल को दे दिया. कौल के जांच का जिम्मा संभालने के बाद ही सीबीआई को यह फोन मिला. कौल का दावा है कि फोन के डाटा कार्ड की मेमोरी फॉर्मैट कर दी गई और वे इसका आरोप तलवार दंपति पर लगाते हैं. हालांकि उन्होंने रामभूल को कभी अदालत में पेश नहीं किया. कौल ने यह भी माना कि उन्होंने उस पुलिस अधिकारी से कोई बयान नहीं लिया था जिसने यह फोन उन्हें दिया था. वे यह भी नहीं बता पाए कि अपराध के बाद आरुषि का फोन पहली बार कब और कहां इस्तेमाल हुआ.

अपराध की अगली सुबह कृष्णा को गैराज के कमरे में उसके परिवार के साथ पाया गया, इसलिए वह संदिग्ध नहीं हो सकता. उसके परिवार का कहना है कि वह पूरी रात उनके साथ ही था. न तो उसके पास कोई फोन आया और न ही उस दिन किसी अन्य नौकर ने उससे संपर्क किया.

जवाबी दलील– केवल घर पर होने से ही यह तय नहीं हो जाता है कि वह संदिग्ध नहीं हो सकता. दिल्ली के कुख्यात गैंगरेप मामले में भी कई संदिग्धों को उनके घरों से गिरफ्तार किया गया. परिवार का यह दावा जिसमें कहा गया है कि कृष्णा सारी रात घर पर ही था, उसके बचाव की कोशिश भी हो सकता है. इस बात का कोई सबूत नहीं है कि घटना के दिन उसकी फोन पर किसी से बात नहीं हुई. दरअसल तलवार दंपति ने अपनी हालिया याचिका में यह अनुरोध भी किया है कि उन्हें नौकरों के उस दिन के कॉल रिकॉर्ड मुहैया कराए जाएं.

सीबीआई की दलील नौकरों में इतना  ‘साहस’ नहीं हो सकता है कि वे उस समय घर में घुसें जबकि तलवार दंपति घर पर मौजूद हों.

जवाबी दलील अजीब बात है. एक तरफ सीबीआई ने अपनी क्लोजर रिपोर्ट में कहा था कि हेमराज ने आरुषि की सहमति से उसके साथ तब यौन संबंध बनाए जबकि ठीक बगल के कमरे में उसके मां-बाप सो रहे थे. दूसरी तरफ वह कह रही है कि नौकरों में इतना साहस नहीं था कि तलवार दंपति की मौजूदगी में वे हेमराज के कमरे में भी एकत्रित हो पाते.

सीबीआई की दलील राजकुमार प्रफुल्ल दुर्रानी के साथ उनकी पत्नी अनीता को लेने रेलवे स्टेशन गया हुआ था. वे रात तकरीबन 10.30 बजे घर पहुंचे जिसके बाद राजकुमार ने अनीता के लिए खाना पकाया. अनीता ने रात तकरीबन 12 बजे खाना खाया. करीब साढ़े बारह बजे दुर्रानी दंपति सोने चला गया. दुर्रानी के घर से तलवार के घर तक साइकिल से जाने में करीब 20 मिनट लगते हैं. सीबीआई का कहना है कि ऐसे में राजकुमार का घटना के वक्त तक तलवार दंपति के घर पहुंच पाना असंभव है. पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक आरुषि की हत्या रात 12 से एक बजे के बीच हुई. डॉ दुर्रानी ने भी अपना घर भीतर से बंद कर दिया था, इसलिए राजकुमार के लिए बाहर निकल पाना आसान नहीं था.

जवाबी दलील इस दलील में उस शाम घटी हर घटना को घड़ी की सुइयों के सहारे आंका गया है. इस मामले में फोरेंसिक्स की हालत जितनी खस्ता रही है उसके आधार पर यह कल्पना करना गलत नहीं होगा कि आरुषि की हत्या रात एक बजे के कुछ देर बाद भी की गई हो सकती है या फिर दुर्रानी परिवार के आने-खाने और सोने को लेकर सीबीआई ने जिस समय का अनुमान जताया है उसमें कुछ हेरफेर संभव है. राजकुमार के पास घर की चाबी थी, इसलिए वह दुर्रानी दंपति के सोने के बाद घर से बाहर जा सकता था.

जब मजिस्ट्रेट प्रीति सिंह ने जांच का आदेश दिया था तब नूपुर तलवार को अचानक राजेश तलवार के साथ सहअभियुक्त बना दिया गया. फरवरी, 2011 में नूपुर ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इस आदेश को चुनौती दी. अभी यह प्रक्रिया चल ही रही थी कि तलवार दंपति को छह नवंबर, 2008 की रिपोर्ट केस की सामग्री के रूप में दी गई. इसमें कृष्णा के तकिये पर हेमराज के खून के निशान मिलने की सनसनीखेज जानकारी थी. इसे पढ़कर नूपुर ने अनुपूरक याचिका दायर करते हुए दलील दी कि यह नया प्रमाण स्पष्ट संकेत करता है कि अपराध में कोई अन्य व्यक्ति शरीक था, ऐसे में मामले की नए सिरे से जांच की जाए.

सीबीआई अगर निष्पक्ष थी तो उसे नए और मजबूत सबूतों का स्वागत करना चाहिए था. इसके बजाय 8 मार्च, 2011 को जांच अधिकारी एजीएल कौल ने उच्च न्यायालय में कहा कि कृष्णा के तकिये के बारे में जो तथ्य दिए गए हैं वे दरअसल हैदराबाद के सीडीएफडी विशेषज्ञ द्वारा की गई ‘टाइपिंग की त्रुटि’ थी. उनके मुताबिक हेमराज के तकिये और कृष्णा के तकिये का ब्योरा आपस में बदल गया था. 18 मार्च को उच्च न्यायालय ने नूपुर की याचिका खारिज कर दी.

कोई भी यदि छह नवंबर की रिपोर्ट पढे़ तो उसे पता चलेगा कि कृष्णा के तकिये के बारे में लिखे विवरण में ‘टाइपिंग की गलती’ की गुंजाइश बिल्कुल नहीं है. तकिये का विवरण इस रिपोर्ट में लगातार कई पृष्ठों में आता है. हर बार इसका जिक्र सबूत संख्या की तरह किया गया है और उसके आगे कोष्ठक में दर्ज है कि यह बैंगनी कवर वाला तकिया है. इस बात पर कोई असहमति नहीं है कि बैंगनी तकिया कृष्णा का है. इसे कौल भी मानते हैं. इसके बाद भी सबसे विचित्र बात है कि कौल के मुताबिक विशेषज्ञ जब यह कह रहे थे कि हेमराज का खून कृष्णा के तकिये के कवर पर पाया गया है तब असल में वे हेमराज के तकिये का जिक्र कर रहे थे.

एक बार के लिए हम यह मान लेते हैं कि कौल की बात सही है. पर एक अनुत्तरित सवाल यह है कि कैसे सिर्फ रिपोर्ट पढ़कर और बिना सीडीएफडी अधिकारियों से बात किए कौल रिपोर्ट में ‘टाइपिंग की गलती’ वाले निष्कर्ष पर पहुंच गए? क्या इसलिए कि रिपोर्ट को सही मानने पर तलवार दंपति को हत्यारा मानने वाली उनकी धारणा गलत साबित हो जाती. सीडीएफडी विशेषज्ञ एसपीआर प्रसाद से जिरह के दौरान मिली जानकारी साफ तौर पर कौल के दुराग्रह को उजागर करती है. प्रसाद के मुताबिक सीडीएफडी को इस बाबत कौल का एक पत्र 17 मार्च को मिला था. यानी उस तारीख के ठीक दस दिन बाद जब वे उच्च न्यायालय में ‘टाइपिंग की गलती’ वाला तर्क दे चुके थे. पत्र की भाषा भी अपने आप में संदेह पैदा करती है. प्रसाद के मुताबिक कौल ने पत्र में लिखा था कि तकिये के विवरण में कुछ गलती प्रतीत होती है इसलिए सीडीएफडी अपने दस्तावेजों में जांच करे कि क्या ऐसी गलती है.

प्रसाद यह भी मानते हैं कि कौल का पत्र मिलने के ढाई साल पहले तक सीडीएफडी में किसी को पता नहीं था कि इस तरह की कोई गलती है. उन्होंने न्यायालय में एक और चौंकाने वाली बात मानी. जब प्रसाद ने सीबीआई को तकियों के कवर दिए थे तो उन पर सीडीएफडी की मोहर थी और वे सीलबंद थे. लेकिन जब वे वापस किए गए तब सील टूटी हुई थी. प्रसाद को नहीं पता कि सील कब व क्यों तोड़ी गई और यह काम किसका था. कौल के पत्र के जवाब में 28 मार्च, 2011 को सीडीएफडी ने सीबीआई को जवाबी पत्र लिखा था. इसमें कहा गया था कि विवरण में टाइपिंग संबंधी गलती की गई है.

पत्र मिलने के बाद कौल ने सर्वोच्च न्यायालय में एक शपथपत्र के साथ तकियों के कवर के ऐसे फोटो जमा किए थे जिन पर इस तरह के लेबल लगे थे जिनसे सीबीआई का  पक्ष मजबूत होता था. यहां तलवार दंपति की अपील फिर खारिज हो गई. इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि कौल ट्रायल कोर्ट में लगातार इन तस्वीरों को जमा करने और इन पर जिरह से बचते रहे. यहां तक कि जब बचाव पक्ष के वकील ने उनके सर्वोच्च न्यायालय में तस्वीरों के बारे में जमा किए गए शपथ पत्र की प्रमाणित कॉपी पेश की तो उन्होंने उसे पहचानने तक से इनकार कर दिया. ‘यह मेरा नहीं है’, कौल ने अपने शपथ पत्र से मुकरते हुए कहा, ‘मैं इस विषय पर कुछ नहीं कह सकता.’ इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि ट्रायल जज ने भी इस एफिडेविट का संज्ञान लेने से इनकार कर दिया.

इस दौरान ट्रायल कोर्ट में कौल ने कई बेतुके तर्क दिए. टाइपिंग की गलती के बारे में उनका कहना था कि 2009 में जैसे ही उन्हें इस मामले की जांच का जिम्मा सौंपा गया था, टाइपिंग की गलती वाली बात उनकी पकड़ में आ गई थी. मगर ढाई साल के दौरान उन्होंने इसका जिक्र न तो केस डायरी में किया न ही सीडीएफडी से इस बारे में जानकारी लेने की कोशिश की. उन्होंने अपने साथियों से भी इस बात की चर्चा करना जरूरी नहीं समझा और न ही क्लोजर रिपोर्ट में इसका जिक्र किया. इसकी वजह पूछने पर वे कहते हैं कि उन्होंने सोचा कि जब जरूरत होगी या कभी मामला ट्रायल के लिए आएगा तब वे विशेषज्ञों को इस बारे में बताएंगे.

रिपोर्ट के अगले भाग में: आरुषि मामले में जहां नौकरों की भूमिका की जांच में सीबीआई ने बेहद लापरवाही बरती वहीं तलवार दंपति की भूमिका की जांच और सुनवाई के दौरान वह संतुलन की हर सीमा लांघती नजर आई

परंपरा का पुन: प्रयोग

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किस्सा 17वीं शताब्दी का है. बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल के बेटे जगतराज को एक गड़े हुए खजाने की खबर मिली. जगतराज ने यह खजाना खुदवा कर निकाल लिया. छत्रसाल इस पर बहुत नाराज हुए और उन्होंने इस खजाने को जन हित में खर्च करने के आदेश दिए. जगतराज को आदेश मिला कि इस खजाने से पुराने तालाबों की मरम्मत की जाए और नए तालाब बनवाए जाएं. उस दौर में बनाए गए कई विशालकाय तालाब आज भी बुंदेलखंड में मौजूद हैं. सदियों तक ये तालाब किसानों के साथी रहे. कहा जाता है कि बुंदेलखंड में जातीय पंचायतें भी अपने किसी सदस्य को गलती करने पर दंड के रूप में तालाब बनाने को ही कहती थीं. सिंचाई से लेकर पानी की हर आवश्यकता को पूरा करने की जिम्मेदारी तालाबों की होती थी. तालाबों के रख-रखाव की जिम्मेदारी सभी की होती थी.

समय और शासन बदला तो खेती और सिंचाई के तरीके भी बदल गए. पानी की पूर्ति बांधों और नहरों से होने लगी. बुंदेलखंड के अधिकतर तालाब या तो सूख गए या फिर उन्हें भर कर निर्माण कार्य किए जाने लगे. किसान भी इस नई व्यवस्था पर आश्रित होते गए. तालाब बीते जमाने की बात हो गया.

लेकिन जहां तालाब हर क्षेत्र की जरूरतें पूरी करते थे वहीं बांधों और नहरों का दायरा सीमित था. इसलिए कई किसान सिर्फ बारिश के पानी पर निर्भर हो गए. जिन किसानों तक नहरों से पानी पहुंच रहा था, वे भी ज्यादा समय तक खुशहाल नहीं रहे. बांधों और नहरों में गाद भरने के कारण सिंचाई का दायरा सिकुड़ता गया और खेती का रकबा भी धीरे-धीरे कम होता गया. बुंदेलखंड के लगभग सभी किसान अब पूरी तरह से सिर्फ बरसात के भरोसे रह गए. लेकिन वह भी धोखा देने लगी. 1999 के बाद से यहां होने वाली वार्षिक बरसात के औसत दिन 52 से घटकर 21 रह गए. जिस क्षेत्र के लगभग 86 प्रतिशत लोग सीधे तौर से खेती पर और खेती के लिए सिर्फ बरसात पर निर्भर हों, उस क्षेत्र के लिए यह स्थिति भयावह साबित हुई. नतीजा यह हुआ कि पिछले दस साल के दौरान तीन हजार से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली और लगभग 40 प्रतिशत किसान खेती और बुंदेलखंड छोड़ कर पलायन कर गए. गांव के गांव खाली पड़ने लगे. सैकड़ों एकड़ जमीन बंजर हो गई.

पानी की समस्या सिर्फ खेती तक सीमित नहीं रही. यहां सूखे का ऐसा प्रभाव हुआ कि पीने और घर की अन्य जरूरतों के लिए भी पानी मिलना बंद हो गया. बुंदेलखंड के लोग पानी की समस्या के विकल्प तलाश रहे थे. तभी 2008 में यहां के स्थानीय अखबार में एक खबर छपी. इस खबर के अनुसार महोबा जिले के एक गांव की महिला को पानी के लिए अपनी आबरू का सौदा करना पड़ रहा था. ‘आबरू के मोल पानी’  नाम से छपी इस खबर ने सभी को झकझोर दिया. स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता पुष्पेंद्र भाई ने इस खबर के बाद अपने कुछ साथियों को जोड़ा और पानी की इस विकराल होती समस्या से निपटने की ठानी. 21 युवाओं ने मिलकर महोबा के सदियों पुराने तालाब को पुनर्जीवित करने का फैसला किया.

[box]फायदा सिर्फ खेती में नहीं हुआ. तालाब बनने से असिंचित जमीन सिंचित हो गई. उसके दाम बढ़ गए. पलायन पर रोक लग गई[/box]

लोगों से इस अभियान में शामिल होने की अपील की गई. ‘इत सूखत जल स्रोत सब, बूंद चली पाताल. पानी मोले आबरू उठो बुंदेली लाल’ का नारा दिया गया और लगभग चार हजार लोग फावड़ों और कुदालों के साथ खुद ही तालाब की सफाई के लिए कूद पड़े. इतने लोगों ने मिलकर सिर्फ दो घंटे में ही तालाब की अच्छी-खासी खुदाई कर डाली. यह देख कर सभी के हौसले और मजबूत हुए. पूरे 46 दिन तक काम चला जिसमें सैकड़ों लोग रोज शामिल हुए और आखिरकार लगभग हजार एकड़ का जयसागर तालाब फिर से जीवित हो उठा. इस पूरे अभियान में सिर्फ 30-35 हजार रु नकद खर्च हुए. यह खर्च स्थानीय नगर पालिका अध्यक्ष ने उठाया. इस पूरे काम का जब सरकारी आकलन किया गया तो पता चला कि लगभग 80 लाख रु का काम लोगों ने खुद ही कर दिया था.

इसके बाद बुंदेलखंड के लोग तालाबों की अहमियत समझने लगे थे. स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता इस पर विचार कर रहे थे कि कैसे जन-जन को तालाबों से जोड़ा जाए. बड़े तालाब बनाने के लिए बड़ी पूंजी की जरूरत थी और इसके लिए कोई सरकारी योजना भी नहीं थी.

फिर एक दिन उन्हें मध्य प्रदेश के देवास जिले में हुए एक सफल प्रयोग की जानकारी मिली. दरअसल मालवा क्षेत्र का देवास जिला भी एक समय में पानी की समस्या से त्रस्त था. 60 -70 के दशक से ही यहां नलकूपों और पानी खींचने की मोटरों के लिए लोन की व्यवस्था कर दी गई थी. इसके चलते देवास और आस-पास के सभी इलाकों में किसानों ने कई नलकूप खोद दिए. शुरुआती दौर में तो नलकूपों से मिले पानी के कारण खेती में बढ़ोतरी भी हुई लेकिन ज्यादा नलकूप लग जाने से कुछ ही सालों में पानी का स्तर बहुत नीचे चला गया. जहां पहले 60-70 फुट पर ही पानी मिल जाया करता था, वहीं अब पानी 400-500 फुट पर जा पहुंचा. इतने गहरे नलकूप खोदने पर पानी में खनिज आने लगे और खेती बर्बाद होने लगी. साथ ही इन नलकूपों का खर्च भी बहुत बढ़ गया और किसान लगातार कर्ज में डूबते चले गए. जलस्तर भी धीरे-धीरे इतना कम हो गया कि सात इंच के नलकूप में मुश्किल से एक इंच की धार का पानी निकलता था. इतने कम पानी से खेती संभव नहीं थी. लिहाजा कई किसान अपनी खेती छोड़ कर जमीन बेचने को मजबूर हो गए. 90 के दशक तक आते-आते स्थिति इतनी विकट हो गई कि देवास में पानी की पूर्ति के लिए ट्रेन लगानी पड़ी. पानी का स्थायी उपाय खोजने के बजाय यहां 25 अप्रैल, 1990 को पहली बार 50 टैंकर पानी लेकर इंदौर से ट्रेन आई. कई सालों तक देवास में इसी तरह से पानी पहुंचाया गया.

फिर 2006 में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी उमाकांत उमराव देवास के कलेक्टर नियुक्त हुए. उन्होंने यहां आते ही पानी की समस्या का हल तलाशने की कोशिशें शुरू कीं. पानी और बरसात के पिछले दस साल के रिकॉर्ड जांचकर उन्होंने पाया कि यहां इतना पानी तो हर साल बरसता है कि उसे संरक्षित करने पर पानी की समस्या खत्म की जा सकती है. उन्होंने एक बैठक बुलवाई और देवास के सहायक संचालक (कृषि) मोहम्मद अब्बास को जिले के बड़े किसानों की सूची बनाने को कहा. वे बताते हैं, ‘शुरुआत में बड़े किसानों को ही जोड़ने के दो कारण थे. छोटे किसान अक्सर बड़े किसानों की ही राह पर चलते हैं. अगर बड़े किसान तालाब बना लेते तो छोटे किसान भी देखा-देखी वही करते. बड़े किसान इतने संपन्न भी थे कि एक ऐसी योजना पर पैसा लगाने का जोखिम उठा सकें जिसके परिणाम अभी किसी ने नहीं देखे थे. दूसरा कारण यह था कि भूमिगत पानी का सबसे ज्यादा दोहन बड़े किसानों ने ही किया था जिस कारण जलस्तर इतना नीचे जा पहुंचा था इसलिए इसकी भरपाई भी उन्हीं को करनी थी.’

बड़े किसानों की सूची तैयार की गई. अधिकारियों ने उनके साथ एक सभा आयोजित की. इनमें से कुछ किसान ऐसे भी मिल गए जो पहले ही तालाब बना चुके थे और इसके लाभ जानते थे. इन्ही में से एक थे हरनावदा गांव के किसान रघुनाथ सिंह तोमर. तोमर 2005 में ही तालाब बना चुके थे. उमराव ऐसे ही किसी किसान की तलाश में थे जिसे उदाहरण के तौर पर पेश किया जा सके. किसान ही किसान को बेहतर तरीके से समझा सकते थे, इसलिए ऐसे ही कुछ अनुभवी किसानों को मास्टर ट्रेनर बनाया गया और अभियान की शुरुआत हुई. उमाकांत उमराव और मोहम्मद अब्बास जैसे अधिकारियों ने भी गांव-गांव जाकर लोगों को अपनी जमीन के दसवें हिस्से में तालाब बनाने के लाभ बताए. लेकिन किसानों के मन में अब भी यह संदेह था कि दसवें हिस्से में तालाब बनाने का मतलब है इतनी जमीन का कम हो जाना. किसानों के इस संदेह को दूर करने के लिए उमराव ने उनसे बस एक सवाल किया. यह सवाल था, ‘मान लो तुम्हारे पास कुल दस बीघा जमीन है.

तुम अपने बच्चों को ये दस बीघा असिंचित जमीन सौंपना पसंद करोगे या फिर नौ बीघा सिंचित जमीन?’ पानी के अर्थशास्त्र की यह बात किसानों को समझ में आ गई. उमराव ने खुद किसानों के खेत में तालाब खोदने के लिए फावड़ा चलाया. जहां आम तौर पर कलेक्टर से मिल पाना भी किसानों के लिए मुश्किल रहता हो, वहां एक कलेक्टर का किसान के खेत में फावड़ा चलाना उन्हें प्रेरित करने के लिए काफी था. कुछ ही महीनों में सैकड़ों तालाब बन कर तैयार हो गए. इन तालाबों को ‘रेवा सागर’ नाम दिया गया और तालाब बनाने वाले किसान को ‘भागीरथ कृषक’ कहा गया. 2007 में मध्य प्रदेश सरकार ने इस अभियान की सफलता को देखते हुए ‘बलराम तालाब योजना’ भी बना दी. इसके तहत किसानों को तालाब बनाने के लिए 80 हजार से एक लाख रु तक का अनुदान दिया जाता है. फिर तो देवास की किस्मत ही बदल गई .

आज देवास जिले में कुल दस हजार से भी ज्यादा तालाब बन चुके हैं. धतूरिया, टोंककला, गोरवा, हरनावदा और चिडावत जैसे कई गांव तो ऐसे हैं जहां 100 से भी ज्यादा तालाब हैं. लोगों ने कुछ साल पहले नलकूपों की अरथी निकलकर कभी नलकूप न खोदने का भी प्रण कर लिया है.

निपनिया गांव के पोप सिंह राजपूत को तालाब बनाने के लिए उमराव ने अपनी व्यक्तिगत गारंटी पर 14 लाख रु का लोन दिलवाया था. लोन मिलने के बाद पोप सिंह ने 10 बीघे का विशाल तालाब बनवाया. पोप सिंह बताते हैं, ‘पहले तो साल में बस एक ही फसल हो पाती थी. वो भी सोयाबीन जैसी जिसमें पानी कम लगता है. आज हम साल में दो फसल कर लेते हैं. तालाब का पानी नलकूपों की तुलना में ज्यादा उपजाऊ भी है, इसलिए फसल भी अच्छी होती है.’ बैंक से लिए गए लोन के बारे में वे बताते हैं, ‘लोन तो मैंने दो साल पहले ही चुका दिया है. उसके बाद तो मैं 10 बीघा जमीन और खरीद चुका हूं. जितनी जमीन पर मैंने तालाब बनाया था, उतनी ही जमीन मुझे इस तालाब ने कमाकर दे दी है.’

[box]‘जितनी जमीन पर मैंने तालाब बनाया था, उतनी ही जमीन मुझे इस तालाब ने कमाकर दे दी है[/box]

इस अभियान से शुरुआत से जुड़े रहे कृषि विभाग के मोहम्मद अब्बास बताते हैं कि तालाबों से किसानों को खेती के अलावा कई फायदे हुए. असिंचित जमीन अब सिंचित हो गई है और उसकी कीमत लगभग डेढ़ गुना तक बढ़ गई है. साथ ही यहां पलायन पर भी रोक लगी है.

टोंक कला में हमारी मुलाकात देवेंद्र सिंह खिंची से होती है.वे कुछ साल पहले इंदौर से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके लौटे हैं और अब पूरा समय खेती को देते हैं. वे बताते हैं, ‘अगर अच्छा पानी मिले तो किसानी से बढ़कर कोई अन्य व्यवसाय हो ही नहीं सकता.’ देवेंद्र हमें अपना खूबसूरत तालाब दिखाते हैं. इस तालाब की पाल पर चारों तरफ पेड़ लगे हैं और कुछ ही दूरी पर कई गायें बंधी हैं. वे अपनी जैविक खेती के बारे में बताते हैं, ‘बरसात में खेतों की उपजाऊ मिट्टी पानी के साथ बह जाती है. यह सारा पानी बहकर तालाब में आता है तो तालाब उस मिट्टी को रोक लेते हैं. साथ ही हम इन गायों का गोबर भी तालाब में डाल देते हैं. इस कारण तालाब का पानी अपने आप में बहुत उपजाऊ हो जाता है और गोबर मछलियों के लिए चारे का काम करता है. इसके बाद जब फरवरी-मार्च में हम तालाब का सारा पानी निकाल लेते हैं तो इसकी सफाई करते हैं. इसमें जो खेतों से बहकर आई मिट्टी और गोबर जमा हुआ होता है उसे हम वापस खेतों में डाल देते हैं. यह जमीन के लिए बेहतरीन खाद का काम करता है.’ अब्बास कहते हैं, ‘यही हमारी सबसे बड़ी सफलता है कि आज किसान खुद आपको तालाबों के फायदे अपने अनुभव के साथ बता रहे हैं.’ देवेंद्र लगभग 75 बीघा जमीन पर खेती करते हैं. इसमें से काफी जमीन पर उन्होंने मिर्च की खेती की है जिसके बारे में वे बताते हैं कि इससे एक ही मौसम में लगभग डेढ़ लाख रु प्रति बीघे का मुनाफा हो जाता है. तालाबों में पाली गई मछलियों से भी देवेंद्र साल भर में लगभग दो लाख रु कमा रहे हैं.

अब हम चिड़ावद गांव की तरफ बढ़ते हैं. यहां हमारी मुलाकात विक्रम सिंह पटेल से होती है. उन्होंने अपने घर से लगभग चार सौ फुट दूर एक गोबर गैस प्लांट भी लगाया है. वे बताते हैं कि उनके परिवार को साल भर इसी प्लांट से गैस मिल जाता है और उन्हें बाजार से गैस नहीं खरीदना पड़ता. गोबर गैस अकसर सर्दियों में जम जाया करता है. लेकिन पटेल ने अपने प्लांट के ऊपर ही गोबर से खाद बनाने के लिए ‘चार-चकरी’ बनाई है. इस कारण नीचे प्लांट में इतनी गर्मी रहती है कि सर्दियों में भी गैस जमता नहीं.

देवास के हर गांव में आज सफलताओं की ऐसी कई छोटी-बड़ी कहानियां मौजूद हैं. पानी और चारा होने के कारण लोगों ने दोबारा गाय-भैंस पालना शुरू कर दिया है और अकेले धतूरिया गांव से ही एक हजार लीटर दूध प्रतिदिन बेचा जा रहा है. पर्यावरण पर भी इन तालाबों का सकारात्मक असर हुआ है. आज विदेशी पक्षियों और हिरनों के झुंड इन तालाबों के पास आसानी से देखे जा सकते हैं. किसानों ने भी पक्षियों की चिंता करते हुए अपने तालाबों के बीच में टापू बनाए हैं. इन टापुओं पर पक्षी अपने घोंसलें बनाते हैं और चारों तरफ से पानी से घिरे रहने के कारण अन्य जानवर इन घोंसलों को नुकसान भी नहीं पहुंचा पाते. यहां के विजयपुर गांव में तो एक किसान ने सेब के पेड़ तक उगाए हैं. सिर्फ ठंडी जगहों पर उगने वाले सेब के पेड़ को मालवा के इस क्षेत्र में हरा-भरा देखना किसी आश्चर्य से कम नहीं.

जो देवास कभी इसलिए चर्चित था कि वहां रोज ट्रेन से पानी पहुंचाया जाता है आज वही देवास पानी से सराबोर है और देश भर से लोग यहां पानी सहेजने के तरीके सीखने आ रहे हैं. यह सफल मॉडल अब महोबा में भी तैयार हो रहा है. इसकी शुरुआत तब हुई जब पुष्पेन्द्र भाई, इंडियावॉटरपोर्टल के सिराज केसर और गांधी शांति प्रतिष्ठान के प्रभात झा अपने कुछ अन्य साथियों के साथ मिलकर महोबा के जिलाधिकारी के पास पहुंचे. युवा जिलाधिकारी अनुज झा खुद भी पानी की समस्या का हल तलाश रहे थे. देवास के प्रयोग से उत्साहित झा ने इस काम में हर संभव मदद करने का वादा किया. इसके बाद उन्होंने किसानों का एक प्रतिनिधि मंडल महोबा से देवास भेजा. वहां से किसान बस इसी संकल्प के साथ लौटे कि कुछ ही सालों में महोबा को भी देवास बनाना है.

पुष्पेन्द्र भाई और उनके साथियों ने मिलकर जिलाधिकारी अनुज झा की सहायता से यहां एक कृषक गोष्ठी आयोजित की. देवास में तालाबों की नींव रखने वाले उमाकांत उमराव को बतौर मुख्य अतिथि बुलाया गया और महोबा में भी तालाब बनाने का अभियान चल पड़ा. एक ही महीने के भीतर महोबा में लगभग 40 तालाब बन चुके हैं. बरबई गांव के किसान देवेंद्र शुक्ला ने लगभग एक लाख रु से आधे बीघे का तालाब बनवाया है. तालाब को खोद कर निकाली गई मिट्टी बेचकर उन्हें 30 हजार रुपये तो तालाब बनने के दौरान ही वापस भी मिल गए हैं. महोबा के जिलाधिकारी कहते हैं, ‘अभी तो हम बहुत शुरुआती दौर में हैं. लेकिन देवास की सफलता देखते हुए हम निश्चिन्त हैं कि यह महज एक प्रयोग नहीं बल्कि पानी का सबसे सटीक उपाय है.’ बुंदेलखंड का जो महोबा जिला कभी किसान आत्महत्याओं का गढ़ बनता जा रहा था आज वहां उम्मीद और उत्साह की एक लहर दौड़ पड़ी है.

बटला हाउस मुठभेड़ में शहजाद को उम्रकैद

batala_house_269302522क्या है अदालत का फैसला?

बहुचर्चित बटला हाउस मुठभेड़ मामले में दोषी ठहराए गए शहजाद अहमद को उम्र कैद की सजा सुनाई गई है. दिल्ली के साकेत कोर्ट ने यह फैसला देते हुए उस पर 50 हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया है. कोर्ट ने मामले को रेयरेस्ट ऑफ रेयर न मानते हुए शहजाद को मृत्युदंड देने से इनकार कर दिया. अदालत ने 25 जुलाई को इस मामले में शहजाद अहमद को इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा की हत्या का दोषी माना था. इसके साथ ही उसे दो अन्य पुलिसकर्मियों की हत्या के प्रयास का दोषी भी करार दिया गया था.

क्या था बाटला हाउस एनकाउंटर का पूरा मामला ?

19 सितंबर, 2008 को दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल 13 सितंबर को दिल्ली में हुए धमाकों के सिलसिले में दक्षिणी दिल्ली के बटला हाउस इलाके में दबिश देने पहुंची थी. इन धमाकों में 26 लोगों की जान गई थी. पुलिस को खुफिया सूचना मिली थी कि इलाके की एल-18 बिल्डिंग में धमाके के आरोपित छिपे हुए हैं. दबिश के दौरान हुई मुठभेड़ में इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा शहीद हो गए थे. इस दौरान साजिद व आतिफ नाम के दो आतंकी भी मारे गए थे जबकि शहजाद और जुनैद नाम के दो आतंकी अफरातफरी का फायदा उठाकर फरार हो गए थे. बाद में शहजाद को पुलिस ने आजमगढ़ से गिरफ्तार किया, जबकि जुनैद अभी फरार चल रहा है.

मुठभेड़ पर  क्यों उठा विवाद ?

इस मुठभेड़ पर शुरू से ही सियासत होने लगी थी. पहले सपा नेता अमर सिंह और मुलायम सिंह ने मुठभेेड़ की सत्यता पर सवाल खड़े किए और न्यायिक जांच की मांग की. बाद में कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी आजमगढ़ जाकर बटला हाउस मुठभेड़ को फर्जी करार दिया. हालांकि उनकी सरकार इसे नकारती रही. खुद गृहमंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि मुठभेड़ वास्तविक थी और कोई जांच नहीं होगी. 2009 में मानवाधिकार आयोग ने भी मुठभेड़ की सत्यता पर मुहर लगाई थी. इस घटना के बाद आजमगढ़, जहां से सारे आरोपित ताल्लुक रखते थे, में विरोध की लहर फैल गई. अल्पसंख्यकों के एक गुट ने वहां उलेमा काउंसिल नाम से एक राजनीतिक मंच का गठन किया, लेकिन चुनावों में यह प्रयोग असफल रहा.

– प्रदीप सती