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क्या अरविंद बनाम शीला में अरविंद की हार तय है?

आम आदमी पार्टी के जरिए उसके संयोजक अरविंद केजरीवाल अच्छा काम कर रहे हैं. उनकी नीयत अच्छी है. इससे राजनीति की सफाई हो सकती है. केजरीवाल के विरोधियों को छोड़ दें तो उनके और उनकी पार्टी के बारे में दिल्ली की एक बहुत बड़ी जनसंख्या की राय यही है. वह मानती है कि केजरीवाल की कोशिश अच्छी है और उन्हें एक मौका मिलना चाहिए. इनमें से कई लोग कांग्रेस और भाजपा दोनों को गाली देते हुए भी दिखते हैं. लेकिन जैसे ही इस बातचीत को आगे बढ़ाते हुए आप नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र में ले जाते हैं, एक अंतर्विरोध-सा सामने आने लगता है. यहां के लोगों के मन में भी केजरीवाल के लिए आदर का भाव तो नजर आता है लेकिन इसके बावजूद अरविंद के लिए इस सीट को निकालना कई कारणों से बेहद मुश्किल जान पड़ता है.

अन्ना हजारे की अगुवाई में जनलोकपाल को लेकर आंदोलन चलाने वाले केजरीवाल ने जब यह तय किया कि वे अब आगे की लड़ाई व्यवस्था के बाहर रहकर नहीं बल्कि उसमें शामिल होकर चुनावी राजनीति के जरिए लड़ेंगे और इसका पहला प्रयोग दिल्ली में होगा तो कई लोगों ने उन्हें कांग्रेस को फायदा पहुंचाने वाला कहा. आरोप लगाया गया कि दिल्ली में विपक्षी मतों में विभाजन करके अंततः केजरीवाल कांग्रेस की राह आसान करने का काम करने वाले हैं. लेकिन कांग्रेस और दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ घोटालों के आरोपों की झड़ी लगाकर केजरीवाल ने यह साबित करने की कोशिश की कि कांग्रेस के साथ उनकी सांठगांठ के आरोपों में सच्चाई कम और कयासबाजी ज्यादा है. इसी क्रम में केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा चुनावों के तकरीबन छह महीने पहले ही यह घोषणा कर दी कि शीला दीक्षित जहां से चुनाव लड़ेंगी वे खुद भी वहीं से चुनावी मैदान में उतरेंगे.

शीला दीक्षित गोल मार्केट सीट से चुनाव जीतती रही हैं. 1998 में उन्होंने यहां भाजपा नेता कीर्ति आजाद को 5,667 वोटों से हराया था. 2003 में शीला ने यहीं से कीर्ति आजाद की पत्नी और भाजपा उम्मीदवार पूनम आजाद को 12,935 वोटों से हराया. परिसीमन के बाद यह सीट नई दिल्ली हो गई है. नए परिसीमन के बाद इस सीट पर पहला चुनाव 2008 का था. उस चुनाव में दीक्षित ने इस सीट पर भाजपा के विजय जॉली को 13,982 मतों से परास्त किया था. इस बार भी इसी सीट से शीला दीक्षित चुनाव लड़ रही हैं और यहीं से केजरीवाल भी उन्हें चुनौती दे रहे हैं.

इस सीट पर हो रहे दिलचस्प मुकाबले और जमीनी माहौल के बारे में ठीक से जानने से पहले इस सीट से संबंधित कुछ अन्य बुनियादी बातों का जानना भी जरूरी है. नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र में कुल मतदाताओं की संख्या 1.18 लाख है. इनमें से 60 फीसदी ऐसे हैं जो सरकारी कर्मचारी या उनके परिजन हैं. इस क्षेत्र में कई ऐसी बस्तियां हैं जिनमें दलित मतदाताओं की संख्या अच्छी-खासी है. अगर आंकड़ों में देखें तो नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र में दलित मतदाता करीब 15 प्रतिशत हैं. अनुमान है कि इस विधानसभा क्षेत्र में अल्पसंख्यकों की संख्या भी तकरीबन 5,000 या चार फीसदी से थोड़ी ज्यादा है. इतनी ही संख्या वैसे लोगों की भी है जो झुग्गी बस्तियों में रहते हैं.

नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र में घूमने और यहां के लोगों से बातचीत करने पर जो तस्वीर उभरती है वह कुछ अजीब-सी है. यहां लोग केजरीवाल के बारे में अच्छी राय तो रखते हैं लेकिन जब उनसे यह सवाल पूछा जाता है कि वे वोट किसे देंगे तो बड़े जटिल-से समीकरण हमारे सामने आ जाते हैं.

बासु सिंह रावत अपनी पत्नी सरला रावत के साथ इस क्षेत्र में लंबे समय से रह रहे हैं. बासु निजी क्षेत्र में काम करते हैं और सरला सरकारी कर्मचारी हैं. उनके साथ उनके भांजे महेश कुमार भी रहते हैं. महेश भी निजी क्षेत्र में कार्यरत हैं. जब हम इस परिवार से पूछते हैं कि वह चुनाव में किसे वोट देगा तो इस परिवार के तीनों सदस्यों से जो जवाब मिलते हैं वे बिल्कुल ही अलग किस्म के होते हैं.

बासु कहते हैं, ‘केजरीवाल का पलड़ा भारी है इस इलाके में. लेकिन अभी कहना मुश्किल है कि कौन जीतेगा. भाजपा के भी काफी लोग हैं यहां. महंगाई वगैरह से भले लोग परेशान हों लेकिन शीला दीक्षित ने अपने क्षेत्र के लिए काफी काम किया है.’ सरला कहती हैं, ‘केजरीवाल की ईमानदारी पर किसी को संदेह नहीं है लेकिन वे जो बातें कर रहे हैं वे अव्यावहारिक हैं. वे कहते हैं कि जनलोकपाल सारी समस्याओं का समाधान है. लेकिन ये उन्हें भी मालूम होगा कि जनलोकपाल कोई जादू की छड़ी नहीं है. वे सरकारी कर्मचारियों की दिक्कतों पर कोई बात नहीं कर रहे हैं. उनके समर्थक भले ही झाड़ू लिए सड़कों पर दिख रहे हों लेकिन इस सीट पर तो कांग्रेस या भाजपा में से ही कोई एक जीतेगा.’ वहीं महेश पूरी तरह से केजरीवाल के पक्ष में दिखते हैं. वे कहते हैं, ‘भाजपा और कांग्रेस दोनों ने दिल्ली को बारी-बारी से लूटा है. ऐसे में केजरीवाल को एक मौका दिया जाना चाहिए. कम से कम यह आदमी उम्मीद तो जगा रहा है.’

एक ही परिवार के जिन तीन लोगों की बातें ऊपर दी गई हैं वे इस विधानसभा क्षेत्र के तीन वर्गों की नुमाइंदगी करते हैं. इनकी बातों पर अगर गौर किया जाए तो इनकी बातों के पीछे की बात साफ नजर आएगी. केजरीवाल के प्रति सम्मान के बावजूद सरकारी कर्मचारियों में केजरीवाल को लेकर एक तरह का भय है. उन्हें यह लगता है कि अगर वे दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए तो हर स्तर पर बदलाव करेंगे और इससे सबसे ज्यादा दिक्कत सरकारी कर्मचारियों को ही होगी. सरकारी कर्मचारियों को यह भय सताता है कि केजरीवाल व्यवस्था में जिस तरह के बदलाव की बात कर रहे हैं उसमें सबसे बड़े खलनायक के तौर पर सरकारी कर्मचारियों को पेश किया जाएगा और सरकारी कार्यालयों में कायम बाबूगीरी पर अंकुश लगेगा. यही भय नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र में रहने वाले सरकारी कर्मचारियों को अरविंद केजरीवाल को वोट देने से रोक सकता है. वहीं दूसरी तरफ निजी क्षेत्र में काम करने वालों और नई पीढ़ी के लोगों को अरविंद केजरीवाल में उम्मीद की किरण दिखाई देती है. क्योंकि केजरीवाल जिस व्यवस्था के खिलाफ लड़ने की बातें करते हैं उससे इसी वर्ग को सबसे ज्यादा परेशानी होती रही है.

मगर 60 फीसदी सरकारी कर्मचारियों के केजरीवाल में विश्वास न दिखाने जैसी आशंका के अलावा हाल ही में जो कुछ हुआ वह भी उनकी चिंता में कुछ वृद्धि कर सकता है. माना जा रहा था कि केजरीवाल के मैदान में उतरने की वजह से इस सीट पर मुकाबला उनके और शीला दीक्षित के बीच होगा. लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने विजेंद्र गुप्ता को यहां से चुनावी समर में उतारकर इस सीट के मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया है. विजेंद्र गुप्ता हाल तक भाजपा के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष थे. प्रदेश भाजपा में विजेंद्र गुप्ता का अपना एक कद है. उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता. माना जा रहा है कि शीला दीक्षित के खिलाफ एक मजबूत उम्मीदवार उतारने का फैसला भाजपा ने केजरीवाल के दबाव में ही किया है. क्योंकि केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी भाजपा पर यह आरोप लगाते रहे हैं कि भाजपा, शीला दीक्षित के खिलाफ जान-बूझकर कमजोर उम्मीदवार खड़ा करती है. ऐसे में नई दिल्ली सीट पर विजेंद्र गुप्ता के आने से यहां मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है. शुरू-शुरू में जो बात केजरीवाल के बारे में कही जाती थी कि वे भाजपा के वोट काट कर दिल्ली में कांग्रेस की मदद करने वाले है अब वही बात विजेंद्र गुप्ता के बारे में कही जा सकती है. वे आप के वोट काट कर शीला दीक्षित की मदद करने का काम कर सकते हैं.

हालांकि, इस विधानसभा क्षेत्र की झुग्गी बस्तियों में केजरीवाल के पक्ष में माहौल दिखता है. बातचीत में लोग बताते हैं कि इस बार वे झाड़ू को ही जिताएंगे. आप की ओर से इन बस्तियों में चुनाव प्रचार का काम कर रहे सुरिंदर सिंह बताते हैं, ‘इधर पूरी तरह से आम आदमी पार्टी के पक्ष में माहौल है. हमें उम्मीद है कि अरविंद यहां से चुनाव जीतने में सफल होंगे. दलित बस्तियों से भी हमें काफी वोट मिलने वाले हैं.’

लेकिन झुग्गी बस्तियों में रहने वालों की संख्या इस इलाके में उतनी नहीं है और दलित बस्तियों को लेकर कांग्रेस के भी अपने दावे हैं. कांग्रेस को यकीन है कि इन इलाकों के लोग तो शीला दीक्षित को ही वोट देंगे. कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष चतर सिंह कहते हैं, ‘शीला दीक्षित ने आम लोगों के कल्याण के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं. इनमें अन्नश्री योजना और पेंशन योजना प्रमुख हैं. लोगों को इसका सीधा फायदा मिल रहा है. उन्हें लग रहा है कि यह सरकार उनके लिए काम कर रही है. जाहिर है कि ऐसे में वे उसी के साथ खड़े होंगे जो उनके लिए काम कर रहा हो.’

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कांग्रेस की ओर से इस विधानसभा क्षेत्र में जो चुनाव प्रचार हो रहा है उसमें इस क्षेत्र के काम के बजाय पूरी दिल्ली में शीला दीक्षित सरकार ने जो काम किए हैं, उन्हें प्रमुखता से बताया जा रहा है. खुद शीला दीक्षित ने नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र के सरोजिनी नगर में आयोजित एक सभा में अपने कार्यों को गिनाते हुए बताया कि उनकी सरकार ने दिल्ली में शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का स्तर ऊंचा उठाने के लिए कई कदम उठाए हैं. मुख्यमंत्री ने सरकारी कर्मचारियों को अपने पाले में करने के मकसद से सातवें वेतन आयोग का मसला भी उठाया. उन्होंने कहा कि अगर सातवां वेतन आयोग आता है तो इससे सरकारी कर्मचारियों और उनके परिवारों को काफी फायदा होगा.

इस विधानसभा क्षेत्र में घूमने के दौरान यहां सबसे अधिक सक्रियता आम आदमी पार्टी की ही दिखती है. इसी पार्टी के पास चुनाव प्रचार की एक स्पष्ट और नई रणनीति भी दिखती है. भाजपा और कांग्रेस का चुनाव प्रचार अभी यहां जोर नहीं पकड़ पाया है और इन दोनों दलों के नेताओं से बातचीत में यह भी पता चलता है कि वे पारंपरिक ढंग से ही चुनाव प्रचार करेंगे. दोनों प्रमुख दलों की मानें तो उनका चुनाव प्रचार तो नामांकन प्रक्रिया पूरा होने के बाद ही जोर पकड़ेगा. माना जा रहा है कि चुनाव के 15 दिन पहले से इस इलाके में काफी सियासी सरगर्मी दिखेगी.

इस विधानसभा क्षेत्र में आम आदमी पार्टी की तैयारियों के बारे में सुरिंदर सिंह कहते हैं, ‘पार्टी इस इलाके में हर 15-20 परिवारों पर एक स्थानीय प्रभारी बना रही है. हमारी योजना बड़ी संख्या में ऐसे प्रभारी बनाने की है. पार्टी इन प्रभारियों का इस्तेमाल पुल की तरह करेगी. जो भी सूचना क्षेत्र के आम लोगों तक पहुंचानी होगी, वह इनके जरिए ही पहुंचाई जाएगी. पार्टी या पार्टी से जुड़े किसी व्यक्ति के बारे में जो भी आम लोगों के संदेह होंगे, उन्हें दूर करने का काम भी ये प्रभारी करेंगे. इसके अलावा ये लोग पार्टी द्वारा बनाए गए महिला सुरक्षा बल के साथ भी समन्वय करके काम करेंगे और उसे जरूरी सहयोग देंगे. इन प्रभारियों के घरों के बाहर बोर्ड लगा रहेगा ताकि पार्टी से संबंधित कोई बात क्षेत्र के आम लोग इनसे सीधे पूछ सकें. इसके अलावा इन प्रभारियों को पार्टी की ओर से प्रचार सामग्री मुहैया कराई जा रही है. ये प्रभारी और उनके साथ पार्टी के कार्यकर्ता घर-घर जाकर लोगों को यह समझा रहे हैं कि उन्हें आप को क्यों वोट देना चाहिए और अरविंद केजरीवाल को क्यों नई दिल्ली से जिताना चाहिए.’

आम आदमी पार्टी की तैयारियों के आधार पर उसके नेता और कार्यकर्ता दावा करते हैं कि यहां शीला दीक्षित और अरविंद केजरीवाल के बीच ही सीधा मुकाबला है. भाजपा प्रत्याशी विजेंद्र गुप्ता भी ठीक इसी अंदाज में आम आदमी पार्टी और केजरीवाल की मौजूदगी को खारिज करते हुए कहते हैं, ‘नई दिल्ली सीट पर केजरीवाल कोई फैक्टर नहीं हैं. यहां हमेशा से कांग्रेस और भाजपा का मुकाबला रहा है. इस बार भी ऐसा ही है.’ अपनी जीत पक्की मान रहे गुप्ता कहते हैं, ‘लोग प्रयोग के मूड में नहीं हैं. शीला दीक्षित के कामकाज से लोग त्रस्त हैं. लोग देख रहे हैं कि इस विधानसभा क्षेत्र में आने वाले कनॉट प्लेस की हालत मुख्यमंत्री ने क्या कर दी है. दिल्ली का दिल कहा जाने वाला कनॉट प्लेस आज गड्ढों से भरा हुआ है. महंगाई और बिजली की बढ़ी कीमतों ने आम लोगों का जीना मुहाल कर दिया है. ऐसे में मुझे पूरा यकीन है कि नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र के लोग भाजपा के पक्ष में मतदान करेंगे.’

विजेंद्र गुप्ता के दावे कैसे भी हों लेकिन नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र में भाजपा की समस्या यह है कि पिछले चार चुनावों में पार्टी चार अलग-अलग उम्मीदवारों के साथ मैदान में उतरी है. इनमें से भी सब ऐसे हैं जो इस विधानसभा क्षेत्र के नहीं है. विजेंद्र गुप्ता पर भी उनके विपक्षी बाहरी होने का आरोप लगा रहे हैं. गुप्ता रोहिणी के रहने वाले हैं और वे वहीं से टिकट भी चाहते थे. लेकिन पार्टी ने उन्हें शीला दीक्षित के खिलाफ उतारने का फैसला किया. बाहरी होने के आरोप को खारिज करते हुए गुप्ता कहते हैं, ‘मैं बाहरी नहीं हूं. यहां के लोगों ने देखा है कि मैंने भाजपा प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए शीला दीक्षित और उनकी सरकार के घोटालों को उजागर करने के लिए कितना काम किया है.’

इस सीट पर मुकाबला कर रही तीनों पार्टियों के अपने-अपने दावे हैं. हर पार्टी अपनी जीत को लेकर आश्वस्त दिखाई देने की कोशिश करती है. चुनावी मौसम में ऐसा होना स्वाभाविक भी है. लेकिन जानकारों की मानें तो इस सीट पर जीत या हार का खास तौर पर शीला दीक्षित और अरविंद केजरीवाल के लिए काफी महत्व है. ज्यादातर लोगों का यह मानना है कि अगर किसी वजह से शीला दीक्षित यह सीट हार गईं तो उनके राजनीतिक करियर पर पूर्ण विराम लग जाएगा. वहीं अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के लिए शीला दीक्षित को हराने से बड़ी कामयाबी कोई नहीं होगी. जानकारों की मानें तो यह एक जीत आम आदमी पार्टी को आगे बढ़ने के लिए एक साफ-सुथरा-पक्का रास्ता मुहैया कराने का काम कर सकती है. मगर यहां से हार जाने पर उसकी महत्वाकांक्षाओं को एक बड़ा झटका भी लग सकता है.

अरविंद केजरीवाल के लिए इस सीट की जीत-हार का मतलब समझाते हुए लंबे समय से दिल्ली की सियासत को देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार कुमार संजय सिंह कहते हैं, ‘कुछ लोग यह कह रहे हैं कि अगर केजरीवाल यहां से हार जाते हैं तो इससे उनकी पूरी मुहिम की हवा निकल जाएगी. लेकिन मेरी राय कुछ अलग है. केजरीवाल अगर चाहते तो किसी ऐसी सीट से लड़ सकते थे जहां से जीतना अपेक्षाकृत आसान होता. लेकिन उन्होंने शीला दीक्षित के खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला करके हिम्मत का परिचय दिया है. इसलिए अगर केजरीवाल कड़े मुकाबले में हारते भी हैं तो उनका कद बढ़ेगा ही.’

क्या 2014 में मुलायम सिंह प्रधानमंत्री बन सकते हैं?

मुलायम सिंह यादव भारत के प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं. जितना लंबा समय उन्होंने भारतीय राजनीति को दिया है उसके मद्देनजर इसमें कोई बुराई भी नहीं है. उनका लंबा-चौड़ा राजनीतिक अतीत है, तीन-तीन बार वे देश के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री रह चुके हैं, लोकसभा में उनके पास 22 सांसद हैं, उनका बेटा उत्तर प्रदेश के इतिहास में सबसे बड़े बहुमत की सरकार चला रहा है. अकेले मुलायम सिंह के परिवार में चार सांसद हैं. इस लिहाज से उनका प्रधानमंत्री पद के बारे में सोचना लाजिमी है.

लेकिन क्या सिर्फ इन आंकड़ों के सहारे उनका प्रधानमंत्री पद का दावा मजबूत माना जा सकता है? आंकड़े ये भी हैं कि 2004 में मुलायम सिंह के पास 35 सांसद थे. तब वे उत्तर प्रदेश की सत्ता में भी थे. इसके बावजूद यूपीए-एक की सरकार में अपने लिए एक सम्मानजनक जगह तक नहीं बना सके थे. 2004 में केंद्र की राजनीति में हाशिये पर धकेल दिए गए मुलायम सिंह यादव उस निराशा में पूर्व प्रधानमंत्री और वरिष्ठ समाजवादी नेता चंद्रशेखर से मिलने पहुंचे थे. चंद्रशेखर ने उन्हें सांत्वना के साथ यह कहकर साहस दिया कि हम तो इधर-उधर से चालीस सांसद जोड़कर प्रधानमंत्री बने थे आपके पास तो अपने चालीस सांसद हैं, निराश क्यों हो रहे हैं, आपका समय आएगा. मुलायम सिंह ने चंद्रशेखर की वह बात और प्रधानमंत्री पद की अपनी इच्छा, दोनों को गांठ में बांध लिया. पर उनके संघर्ष के दिन अभी खत्म नहीं हुए थे. 2009  का साल उनके लिए और बड़ी निराशा लेकर आया. यूपीए को 2004 से भी बड़ा जनमत मिला. मुलायम सिंह संसद में 22 सीटों पर सिमट गए. एक बार फिर उनकी इच्छा धरी रह गई. उनके पास यूपीए को मुद्दा-आधारित समर्थन देने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.

असल में मुलायम सिंह की आशा-निराशा के बीज साल 1996 में छिपे हुए हैं. उस साल बनी संयुक्त मोर्चे की सरकार में देवगौड़ा से पहले ज्योति बसु और मुलायम सिंह यादव प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे. लेकिन तब उनके सजातीयों (शरद, लालू) ने उनका खेल खराब कर दिया था. बिल्ली और बंदर वाली कहानी की तर्ज पर यादवों की लड़ाई में देवगौड़ा ने बाजी मार ली थी. इस चूक की टीस और चंद्रशेखर का भरोसा मुलायम सिंह के मन में कायम है. 2012 में हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव ने उनकी उम्मीदों को नई परवाज दी है. देश एक बार फिर से उसी मोड़ पर खड़ा है जहां से मुलायम सिंह के लिए सात रेसकोर्स की राह निकल सकती है, यानी लोकसभा चुनाव. यूपी के इस क्षत्रप की गतिविधियां एक बार फिर से बढ़ गई हैं. मुलायम को भी पता है कि वे अपनी आखिरी कोशिश कर रहे हैं. लेकिन 2012 में अखिलेश यादव के सत्ता में आने के बाद से उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य में काफी बदलाव आए हैं. 90 के दशक के पूर्वार्ध से थम चुके सांप्रदायिक दंगों की एक नई बाढ़ इस दौरान प्रदेश में देखने को मिली है और मोदी के रूप में एक नए फैक्टर का उदय हुआ है. उधर युवाओं के बीच टैबलेट, लैपटॉप और भत्ते की एक नई राजनीति भी इस दौरान चल रही है और पिछड़ा राजनीति का एक नया अध्याय इसी दौरान मुलायम सिंह ने शुरू किया है. मुलायम सिंह की प्रधानमंत्री पद की संभावनाओं को आंकने के लिए उनकी राजनीति के तमाम कलपुर्जों की पड़ताल करना जरूरी है. वे कलपुर्जे जो मुलायम सिंह की उम्मीदों को बड़े पंख देते रहे हैं.

मुसलमान
मुसलमान मुलायम सिंह की राजनीति की सबसे मजबूत धुरी है. 1992 में रामजन्मभूमि-बाबरी विवाद के बाद से ही यह तबका मुलायम सिंह के साथ रहा है. 2009 तक इसका समर्थन एकमुश्त मुलायम सिंह के साथ ही रहा था. लेकिन 2009 में हालात बदल गए. उस साल हुए लोकसभा चुनावों में सपा का एक भी मुस्लिम उम्मीदवार लोकसभा में नहीं पहुंच सका. इसकी कुछ वजहें थीं- कल्याण सिंह को सपा में शामिल करना, आजम खान को बाहर करना आदि. मुलायम सिंह यादव ने तत्काल ही इन खामियों को दूर करके एक बार फिर से मुसलमानों का विश्वास जीता. 2012 में उन्हें इसका नतीजा भी मिला. छिटका हुआ मुसलमान उनसे फिर से आ जुड़ा. पूर्व समाजवादी नेता और पत्रकार शाहिद सिद्दीकी के शब्दों में, ‘मुसलमान मुलायम से इसलिए नहीं जुड़ा है कि वे उसे बेहतर गवर्नेंस या तरक्की देते हैं, मुसलमान उनसे सिर्फ इसलिए जुड़ा क्योंकि वे उसे सुरक्षा का भरोसा देते थे.’

जिस बात से सिद्दीकी अपनी बात खत्म करते हैं, वहीं से मुलायम सिंह यादव की मुसीबतें शुरू होती हैं. जिस सुरक्षा के भरोसे मुसलमान मुलायम सिंह यादव के साथ जुड़ा था, वह बीते डेढ़ सालों के दौरान बुरी तरह से टूटा है. मुजफ्फरनगर के शाहपुर विस्थापित कैंप में रह रहे इमरान अहमद कहते हैं, ‘हम तो सोचते थे कि हमारी सरकार है. लेकिन ये भी भाजपा वालों की तरह ही हैं.’ मोहभंग की यही भावना सैकड़ों किलोमीटर दूर आजमगढ़ में रहने वाले शायर सलमान रिजवी की बातों से भी झलकती है, ‘कदम-कदम पर अपनी ही जमीन पर हमें शक की निगाहों से देखा जा रहा है और इसका सिलसिला बढ़ता जा रहा है. आज पूरी उस कौम के अंदर एक खौफ बैठ गया है जिसने आज़ादी के आंदोलन में अपने घरों को लुटवाया था. सिर्फ साठ सालों के अंदर देखते ही देखते उसको तोहमतों से ढक दिया गया है. पूरी कौम अपने को बेचारगी के आलम में फंसा महसूस कर रही है. लोगों के अंदर पुलिस और स्टेट का खौफ भर दिया गया है, अब हमें ऐसे राजनीतिक विकल्प को तलाशना और खड़ा करना होगा जो पूरी तरह सेक्युलर और ईमानदार हो.’

ये विचार अचानक से नहीं बदले हैं. उत्तर प्रदेश में 2012 में सपा की सरकार बनने के बाद से प्रदेश में सांप्रदायिक दंगों की बाढ़ आ गई है. मुजफ्फरनगर में हुए हालिया दंगों के बाद से हालात सपा के हाथ से एकदम निकले हुए दिखाई देते हैं. यहां करीब 60 लोगों की मौत हुई है जिनमें 40 के करीब मुसलमान हैं. इमरान अहमद जैसे हजारों लोग आज भी अपनी जड़ों से उखड़ कर विस्थापन शिविरों में रहने को मजबूर हैं. मीडिया और सोशल मीडिया में आ रही विस्थापन की तस्वीरें बार-बार समाज को ठेस पहुंचा रही हैं और उन्हें हर दिन के साथ मुलायम से दूर और दूर ले जा रही हैं. जो भरोसा सपा हमेशा मुसलमानों को देती आई थी, वह टूट गया है. हालांकि सपा नेता कमाल फारुखी का यकीन कुछ और है, ‘लोकसभा चुनावों में अभी काफी वक्त है. नेताजी इतनी आसानी से मुस्लिमों को नाराज नहीं छोड़ेंगे. जल्द ही वे कोई न कोई रास्ता खोज लेंगे.’

मुलायम सिंह यादव रास्ता खोजने में लगे हुए हैं. 1993 के बाद से वे अपने हर चुनावी अभियान का श्रीगणेश खासी मुस्लिम आबादी वाले आजमगढ़ से करते रहे हैं. 14 सितंबर,1993 को अपने चुनावी अभियान की शुरुआत के साथ ही उन्होंने इस जिले को एक यादगार तोहफा दिया था, इसे  मंडल (कमिश्नरी) बना कर. तब वे लखनऊ से कमिश्नर को अपने साथ हेलिकॉप्टर में लेकर आए थे. बदले में इस इलाके की बड़ी मुस्लिम और यादव आबादी ने भी लगातार मुलायम सिंह का साथ दिया. आज भी आजमगढ़ से उनके नौ विधायक और एक सांसद है. इस बार भी उन्होंने यहीं से अपने अभियान की शुरुआत की. लेकिन इस बार नजारा अलग था. मुलायम सिंह की चुनावी रैली में एक लाख के करीब लोग इकट्ठा हुए. लेकिन उनकी राजनीति के लिए सबसे अहम मुसलमान इस सभा से पूरी तरह नदारद थे. यह नदारदगी मुजफ्फरनगर की नाराजगी है. सिद्दीकी कहते हैं, ‘अब मुसलमान आंख बंद करके मुलायम को वोट नहीं देगा. वो स्ट्रैटेजिक वोटिंग करेगा. अब ये उम्मीदवार पर निर्भर करेगा. उसकी पहली पसंद बीएसपी या कांग्रेस होगी.’

अगर ऐसे हालात बनते हैं तो मुलायम सिंह का ख्वाब एक बार फिर से टूट जाएगा. उत्तर प्रदेश में देश की सबसे घनी मुस्लिम आबादी, लगभग 19 फीसदी, रहती है. बिना इनके शत-प्रतिशत सहयोग के मुलायम सिंह दिल्ली नहीं पहुंच सकते. वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान बताते हैं, ‘मुजफ्फरनगर और इस दौरान हुए तमाम दंगे सपा के लिए काउंटर प्रोडक्टिव हो गए हैं. ये तभी दिल्ली पहुंच सकते थे जब इन्हें मुसलमानों का पूरा वोट मिल जाता. आज की तारीख में इन्हें मुसलमान वोट नहीं दे रहा है. मुलायम सिंह को लग रहा है कि मुजफ्फरनगर का असर सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में होगा. यह उनकी गलतफहमी है.’

सरकती जमीन का अहसास नेताजी को भी है, इसीलिए उन्होंने आजमगढ़ की सभा में मंच पर पीछे की कतार में बैठे अबू हाशिम आजमी को एक अतिरिक्त कुर्सी लगवाकर आगे की कतार में अपने साथ बिठाया. अपने संबोधन में नेताजी ने बार-बार आजम खान का जिक्र किया. बदले में आजम खान ने भी एक बार फिर से मुलायम सिंह को रफीकुल मुल्क (देश की धरोहर) की उपाधि दी. लेकिन जिस तबके को लेकर यह सारी रस्साकशी चल रही थी वह तबका ही इस सभा से नदारद था.

यादव और अन्य पिछड़ा वर्ग
मुलायम सिंह की राजनीतिक सफलता के सूत्र उनकी जातीय और धार्मिक समीकरणों को गहराई से समझने और उन्हें साधने की चमत्कारिक प्रतिभा में छिपे हैं. मुसलमानों के छिटकने की हालत में भी यादव तबका काफी हद तक मुलायम सिंह के साथ बना रहेगा. पर इसमें भी कुछेक कारणों से सेंध लग सकती है. पहली वजह हो सकती है मोदी से मिलने वाली चुनौती और दूसरी हाल के कुछ सालों में तैयार हुआ युवा वोट बैंक. यादवों में युवा वोटरों की एक बड़ी संख्या आज ऐसी है जो जात-बिरादरी से ज्यादा मोदी के बहाव में है. गोरखपुर की पिपराइच विधानसभा से आजमगढ़ की सभा में आए 20 वर्षीय महाबली यादव से हुई छोटी-सी बातचीत पर ध्यान दीजिए-

तहलका– मुलायम सिंह का भाषण सुना आपने. कैसा लगा?
महाबली यादव– ठीक था.
तहलका– तो अगले चुनाव में इन्हें वोट देंगे या नहीं?
महाबली यादव– वोट के बारे में अभी सोचा नहीं है.
तहलका– किसी को देने का मन तो होगा?
महाबली यादव– मोदी को भी दे सकते हैं. इस समय तो वही सबसे बढ़िया नेता है जो देश को बचा सकता है.
तहलका– क्यों मुलायम सिंह क्यों नहीं…
महाबली यादव– मोदी के सामने ये लोग कुछ नहीं हैं.

यह विचार पूर्वी उत्तर प्रदेश के उस युवा यादव वोटर का है जिसे अब तक मुलायम सिंह का घनघोर सहयोगी माना जाता था. इन्हीं के सहारे मुलायम सिंह ने ‘माई’ का अकाट्य फॉर्मूला ईजाद किया था. यादवों के मन में सपा के प्रति आई नाराजगी की एक वजह शरत प्रधान और बताते हैं, ‘जिस तरह से उत्तर प्रदेश में सरकार बनने के बाद परिवार को आगे बढ़ाने की कोशिश हुई है उससे भी यादवों में एक तरह की निराशा है. आम यादवों के काम बिना पैसा दिए हो नहीं पा रहे. उनमें तेजी से यह भावना पैठ बना रही है कि यह सरकार कहने को उनकी सरकार है पर बिना पैसे दिए किसी की सुनवाई यहां नहीं हो रही. इसके बावजूद ये नहीं कह सकते कि यादव मुलायम सिंह से पूरी तरह विमुख हो जाएगा.’

यादवों की नाराजगी और इससे हो सकने वाले नुकसान का इल्म मुलायम सिंह और पार्टी को है. लिहाजा मुलायम सिंह ने सामाजिक न्याय के फॉर्मूले को एक नई धार देने की कोशिश की है. केंद्र सरकार को भेजे गए एक संस्तुति पत्र के माध्यम से उत्तर प्रदेश सरकार ने ओबीसी में शामिल 17 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की मांग की है. इन जातियों में कहार, कश्यप, केवट, मछुआ, मल्लाह, निषाद, कुम्हार, प्रजापति, धीवर, बिंद, भर, राजभर, बियार, बाथम, गोंड, तैरहा आदि शामिल हैं. स्वयं मुलायम सिंह यादव ने इस राजनीति को धार देने के लिए पूरे प्रदेश में दो रथयात्राओं की शुरुआत की है. यह उसी तर्ज की राजनीति है जिसका प्रयोग बिहार में नीतीश कुमार ने महादलित के रूप में एक नया वोटबैंक अपने पक्ष में खड़ा करने के लिए किया था. ये वे पिछड़ी जातियां हैं जो आम तौर पर सपा से दूर रही हैं और परंपरागत रूप से भाजपा-बसपा को वोट करती रही है. अगर मुलायम सिंह का यह दांव सफल रहता है तो निश्चित रूप से वे अपने और पार्टी के लिए एक नया वोटबैंक खड़ा करने में सफल रहेंगे. उत्तर प्रदेश की पिछड़ी जातियों में शामिल इन 17 जातियों की हिस्सेदारी 25 प्रतिशत से थोड़ा ज्यादा ही है.

अगड़ी जातियां
2012 के विधानसभा चुनाव में सपा को जो असाधारण सफलता मिली थी उसमें उसके परंपरागत वोटबैंक के अलावा अगड़ी जातियों के वोट की भी अहम भूमिका रही थी. इसको एक आंकड़े से समझा जा सकता है. 2007 के विधानसभा चुनाव में राजपूतों के कुल वोट का 20 फीसदी सपा को मिला था जबकि 2012 में यह आंकड़ा बढ़कर 26 फीसदी हो गया. इसी तरह से ब्राह्मण वोट 2007 में 10 फीसदी था जो 2012 में बढ़कर 19 फीसदी तक जा पहुंचा. सपा को मिली 224 सीटें भी इस बात की तस्दीक करती हैं कि सपा को लगभग सभी वर्गों के वोट मिले थे.

लेकिन सपा इस भरोसे नहीं बैठ सकती है. स्थितियां 2012 से काफी हद तक बदल चुकी हैं. ब्राह्मण कभी भी सपा का परंपरागत वोटर नहीं रहा है. उत्तर प्रदेश की राजनीति में सवर्ण वोटों की राजनीति करने वाली भाजपा और कांग्रेस के पतन के बाद से सूबे की दो महत्वपूर्ण ठाकुर और ब्राह्मण जातियों ने अपने लिए अलग ठिकाने ढूंढ़ लिए हैं. ब्राह्मण जहां बसपा के करीब हुआ वहीं ठाकुर सपा के साथ खड़ा हो गया. लेकिन 2012 में ब्राह्मणों ने बसपा के ऊपर सपा को तरजीह दी. उसकी कुछ वजहें थीं. प्रधान बताते हैं, ‘मायावती के शासन में सबको लगता था कि ब्राह्मणों की पूछ बढ़ गई है लेकिन सच्चाई ये थी कि सिर्फ सतीश मिश्रा के परिजनों और रिश्तेदारों को फायदा पहुंचाया जा रहा था.’ 2012 में जो ब्राह्मण वोट सपा को मिला वह असल में मायावती के खिलाफ दिया गया था न कि सपा के समर्थन में. इस बीच डेढ़ सालों के दौरान सपा की जो छवि बनी है उसने ब्राह्मणों को तेजी से सपा से दूर किया है. छवि यह कि सपा सरकार तुष्टीकरण की हद तक जाकर मुसलमानों को खुश करने में लगी हुई है बाकी किसी की सुनवाई नहीं हो रही.

दूसरी तरफ जो ठाकुर मतदाता पिछले काफी समय से सपा के साथ खड़ा था वह भी कुछ हद तक लोकसभा चुनावों में सपा से दूर हो सकता है. मुलायम सिंह ने ठाकुरों को अपने साथ जोड़ने के लिए राजा भैया समेत कुछ लोगों को सरकार में मंत्री बानाकर उन्हें खुश करने की कोशिश जरूर की है लेकिन उत्तर प्रदेश के ठाकुरों में इस समय एक दूसरी हवा चल रही है. उत्तर प्रदेश में क्षत्रियों के सबसे बड़े नेता राजनाथ सिंह इस समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और चुनाव बाद की कुछ परिस्थितियां ऐसी हैं जिनमें प्रधानमंत्री पद के लिए उनके नाम पर भी विचार हो सकता है. सो उत्तर प्रदेश में एक लहर भाजपा की तरफ से ऐसी बनाई जा रही है कि एक बार फिर से ठाकुर को प्रधानमंत्री बनाना है. स्वाभाविक है अगर भाजपा का यह दांव चल गया तो सपा को नुकसान हो जाएगा. इसकी एक बानगी कुछ दिन पहले लखनऊ की सड़कों पर लगे होर्डिगों में दिखी. भाजपा के ठाकुर नेताओं ने राजा भैया के समर्थन में पोस्टर लगवाए ‘सत्य परेशान हो सकता है किंतु पराजित नहीं’. इसके बाद आनन-फानन में अखिलेश यादव ने राजा भैया को उत्तर प्रदेश की कैबिनेट में फिर से शामिल कर लिया. शाहिद सिद्दीकी इसे इस तरह से देखते हैं कि पूरे के चक्कर में मुलायम सिंह के हाथ से आधा भी निकल गया है.

तीसरा मोर्चा
तीसरा मोर्चा भानुमति का वह कुनबा है जिसकी ईंट और रोड़े चुनाव के बाद तो जुड़ सकते हैं, चुनाव के पहले यह असंभव है. कमाल फारुखी को विश्वास है कि तीसरा मोर्चा जरूर बनेगा. उनके मुताबिक, ‘कांग्रेस आज की तारीख में अकेले तो सरकार बना नहीं सकती. भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए उसे किसी न किसी का समर्थन करना ही होगा.’ खुद मुलायम सिंह यादव भी चुनाव से पहले कोई गठजोड़ या मोर्चा खड़ा करने की इच्छा नहीं रखते. आजमगढ़ की चुनावी सभा में उन्होंने खुद सबसे कहा, ‘चुनाव के बाद तीसरा मोर्चा ही सत्ता में आएगा. अगर आप लोगों ने मुझे मजबूत करके दिल्ली भेजा तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि हम दिल्ली में इस बार चमत्कार कर देंगे.’

तीसरे मोर्चे के गठन और मुलायम सिंह को इसका नेता बनने की स्थितियों में थोड़ा फर्क है. इसलिए इस पर दो तरह से सोचने की जरूरत है. मुलायम सिंह यादव के अलावा वाममोर्चा, तृणमूल कांग्रेस, जेडीयू, बीजेडी, डीएमके, एडीएमके, टीडीपी, एनसीपी आदि तीसरे मोर्चे की संभावित पार्टियां हैं. इनमें से सबसे अहम हैं वामपंथ वाली पार्टियां. ले-देकर इनका राजनीतिक वजूद केरल और प. बंगाल में है. केरल में इतनी सीटें नहीं हैं कि कोई उसके दम पर केंद्र में आने की सोच सके. पश्चिम बंगाल में जो राजनीतिक स्थितियां हैं उनमें एक बार फिर से ममता बनर्जी के बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद है. कांग्रेस विरोध की राजनीति तो ममता बनर्जी भी करती हैं और इस लिहाज से वे तीसरे मोर्चे की स्वाभाविक साझेदार हो सकती हैं. लेकिन मुलायम सिंह के साथ उनका हालिया इतिहास इतना कड़वा है कि शायद ही वे मुलायम सिंह का कोई भी सपना साकार होने दें. राष्ट्रपति चुनाव के मुद्दे पर मुलायम सिंह ने 24 घंटे के अंदर ममता बनर्जी को गच्चा देकर कांग्रेस का हाथ थाम लिया था.

कर्नाटक में करुणानिधि के बजाय जयललिता के बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद है. पर उनकी नरेंद्र मोदी के लिए नरमाहट जगजाहिर है. इस लिहाज से अगर तीसरे मोर्चे की संभावित पार्टियों में से तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल की सबसे बड़ी पार्टियां अगर साथ न दें तो तीसरा मोर्चा और उसका नेता किस जमीन पर खड़ा होगा?

मुलायम सिंह को तीसरे मोर्चे का नेता बनने के लिए एक और लड़ाई लड़नी होगी सीटों की संख्या के स्तर पर. मुलायम सिंह तीसरे मोर्चे के नेता तभी बन सकते हैं जब वे ‘फर्स्ट अमंग ईक्वल’ हों यानी इसमें शामिल सभी पार्टियों में सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाले बन जाएं. मुलायम सिंह ऐसा सोच भी सकते हैं क्योंकि उत्तर प्रदेश में लोकसभा की सबसे ज्यादा 80 सीटें हैं. इस लिहाज से अगर वे 35-40 सीटें जीतने में कामयाब होते हैं तो वे तीसरे मोर्चे के नेता बन सकते हैं. यदि वे ‘वन अमंग ईक्वल’ रह जाते हैं यानी 20-22 सीटों तक सीमित रह जाते हैं तब शायद ही कोई उन्हें नेता मानने को तैयार होगा. मुलायम सिंह की दिक्कत यह है कि आज की हालत में वे अधिकतम 20-22 सीटों तक पहुंचते ही दिख रहे हैं. सपा के एक वरिष्ठ नेता के शब्दों में, ‘मुजफ्फरनगर के बाद हमारा मिशन 2014, मिशन 14 सीट पर सिमट कर रह गया है. मुजफ्फरनगर दंगे के बाद पूरा दृश्य बदल गया है. आज की तारीख में तीसरा मोर्चा नॉन स्टार्टर है.’

तीसरा मोर्चा यथार्थ से इसलिए भी दूर है कि जिन नेताओं के भरोसे इसके गठन की बात की जा रही है वे कभी भी एक-दूसरे की मुसीबत में साथ खड़े होते नहीं दिखते. आज यदि लालू प्रसाद यादव जेल में हैं तो मुलायम सिंह, चंद्रबाबू, नवीन पटनायक, करुणानिधि आदि किसी भी नेता की तरफ से संवेदना जताने वाला एक भी बयान देखने-सुनने को नहीं मिलता है. इसी तरह जब मुलायम सिंह को बार-बार यूपीए सरकार के दौरान सीबीआई के जरिए ब्लैकमेल किया गया तब भी इनमें से ज्यादातर ने थोड़े-बहुत मुंह-जबानी खर्च के अलावा ज्यादा कुछ करने की कोशिश नहीं की. कहने का अर्थ है कि बेहद सीमित सरोकारों वाले इस मोर्चे की नियति इसके बनने से पहले ही तय है.

उत्तर प्रदेश का अंकगणित
उत्तर प्रदेश को अमूमन तीन हिस्सों में बांटकर देखें तो इसके राजनीतिक यथार्थ को समझने में थोड़ी सहूलियत हो जाएगी – पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य और पश्चिमी उत्तर प्रदेश. इनमें से पूर्वी और मध्य वाले हिस्से परंपरागत रूप से मुलायम सिंह के मजबूत गढ़ रहे हैं जबकि पश्चिमी हिस्सा आम तौर पर उनसे रूठा ही रहा है. पूर्वी उत्तर प्रदेश में करीब 26 जिले आते हैं जिनमें कुल 27 लोकसभा सीटें हैं. मौजूदा समय में इनमें से नौ सपा के पास हैं. यह तब है जब सपा ने 2009 के लोकसभा चुनाव में बहुत बुरा प्रदर्शन किया था. अब हम मध्य यानी अवध वाले क्षेत्र पर नजर डालते हैं. इस इलाके में लोकसभा की करीब 21 सीटें आती हैं. यह इलाका भी मुलायम सिंह का परंपरागत समर्थक रहा है. फिलहाल यहां की 21 में से सपा के कब्जे में पांच सीटें हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 24 लोकसभा सीटें हैं. फिलहाल इनमें से सपा के पास सिर्फ पांच सीटें हैं. इसके अलावा छोटे-छोटे दो और इलाके हैं रुहेलखंड और बुंदेलखंड जहां लोकसभा की चार-चार सीटें हैं. बुंदेलखंड से सपा के दो सांसद हैं जबकि रुहेलखंड से एक सांसद है.

सीटों के ये आंकड़े 2009 के लोकसभा चुनाव के हैं. इसके बाद 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा ने अपनी स्थिति में चमत्कारिक सुधार किया था. कहें तो इस सुधार ने ही मुलायम सिंह को प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने की उम्मीद दी थी. लेकिन डेढ़ सालों के दौरान ही हालात हाथ से निकल गए लगते हैं. पश्चिम की 24 में से लगभग 20 सीटें ऐसी हैं जिन पर मुस्लिम आबादी 40 फीसदी के ऊपर है. इन सीटों पर सपा का वजूद पहले से भी ज्यादा डगमगाता दिख रहा है. इसी तरह से पूर्वी और मध्य उत्तर प्रदेश की करीब 15 सीटों पर मुसलमान 35 फीसदी या इससे ऊपर हैं. अगर आजमगढ़ की सभा को संकेत मानें तो यहां भी सपा की हालत पतली होनी तय है. अगर ऐसा होता है तो मुलायम सिंह की सीटों का आंकड़ा किसी सूरत में 20-22 के आगे नहीं पहुंच सकता, और 30-35 का आंकड़ा पार किए बिना वे तीसरे मोर्चे के नेता बन नहीं सकते.

लेकिन मुलायम सिंह यादव सिर से पैर तक विशुद्ध रूप से राजनीतिज्ञ हैं. उन्होंने पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में में शामिल कराने की कोशिश के जरिए जो दांव फेंका है वह अगर कामयाब रहा तो मुस्लिम वोटों की भरपाई के साथ ही वे सामाजिक न्याय का नया समीकरण भी खड़ा करने में कामयाब होंगे. पिछड़ी जातियों में इन जातियों की जनसंख्या एक चौथाई से भी ज्यादा है और ये परंपरागत रूप से भाजपा और बसपा को वोट करती आई हैं. मुलायम सिंह सियासत के पंडितों पर यकीन करने के बजाय अपने राजनीतिक कौशल पर यकीन रखते हैं. उनकी अगाध श्रद्धा भारतीय वोटरों की उस अल्पजीवी याददाश्त में भी है जिसने उन्हें 2007 के कुशासन के बावजूद 2012 में फिर से सत्ता तक पहुंचाया है. उन्हें फिर से विश्वास है कि जो वोटर 1984, मेरठ, मलियाना, भागलपुर, 1992 को भूल चुका है वह मुजफ्फरनगर को भी भूल जाएगा. इसी विश्वास के दम पर वे कहते हैं कि एक बार वे मुजफ्फरनगर जाएंगे तो सबकी शिकायतें दूर हो जाएगीं.

लेकिन यह समय दूसरा है. अखिलेश यादव और राहुल गांधी को मुजफ्फरनगर में लोगों ने काले झंडे दिखाए और आज तक मुलायम सिंह वहां जाने का साहस नहीं जुटा सके हैं. उन्हें भी समझना होगा कि यह समय दूसरा है. आज 2002 के गुनहगारों को जनता भूलने के लिए तैयार नहीं है.

मुलायम सिंह को 2012 ने 2014 में प्रधानमंत्री बनने का एक अवसर दिया था इससे इनकार नहीं किया जा सकता. मगर यह अवसर जिस तरह की जनाकांक्षाओं की बुनियाद से निकला था उसकी अनदेखी करके मुलायम ने न केवल अपने बल्कि कभी संभावनाओं के पुंज की तरह देखे जा रहे अखिलेश के भी भविष्य को अंधकार में डाल दिया. इसका नतीजा यह है कि फिलहाल मुलायम मार्का राजनीति का एक भी कलपुर्जा ठीक से काम नहीं कर रहा है. ऐसे में उनके सात रेसकोर्स पहुंचने की संभावना फिलहाल खत्म नहीं तो बेहद धूमिल जरूर दिखती है.

‘जिंदगी शतरंज से ज्यादा जटिल है’

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गैरी, अगर आपके जीवन की किसी विशेषता पर बात की जाए तो बचपन से ही उसमें आक्रामकता का पुट रहा है. क्या यह सच है? मैंने आपके बारे में पढ़ा है कि आप बचपन से वही करते आए हैं जो आपको सही लगता है.
मैं हमेशा अपने लक्ष्यों पर एकाग्र रहा. मैंने कभी भी केवल जीत पर ध्यान केंद्रित नहीं किया बल्कि मेरी कोशिश रही कि मैं कुछ फर्क पैदा कर पाऊं. अगर आप फर्क पैदा करना चाहते हैं तो आपको यथास्थिति के विरुद्ध आवाज उठानी होगी. यथास्थिति के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए आपको मौजूदा व्यवस्था से लड़ना होगा फिर चाहे वह शतरंज में अनातोली कारपोव हों या राजनीति में व्हादीमिर पुतिन.

आपका अतीत थोड़ा अलग है. आपकी मां आर्मेनिया की थीं और आपके पिता यहूदी. आपकी मां जहां यथार्थवादी थीं वहीं आपके पिता स्वप्नद्रष्टा थे. आपके खेल में भी इन दोनों का मिश्रण देखा जा सकता है जिसमें कड़ी मेहनत और प्रशिक्षण का तत्व भी है और सपनों की उड़ान का भी. क्या इसमें आपके बचपन की भूमिका रही?
मुझे दुख है कि मैं आपको अपने पिता के बारे में बहुत कुछ नहीं बता पाऊंगा. उनकी मौत के वक्त मैं महज सात साल का था. उनकी कुछ बिखरी-बिखरी सी यादें मेरे मन में हैं. लेकिन हां, वे स्वप्नदर्शी थे. मेरे भाई ने मुझे उनकी आकांक्षाओं के बारे में बताया. निश्चित रूप से मुझमें अपने माता-पिता दोनों के गुण हैं. जहां तक बात शतरंज की है तो मैं कहना चाहूंगा कि मेरी शैली रूमानी है. हालांकि बहुत ऊंचे स्तर के शतरंज के बारे में यह कह पाना खासा मुश्किल है कि उसमें कौन-सी शैली अपनाई जाती है. जब भी आप किसी बहुत बड़े खिलाड़ी के साथ खेल रहे होते हैं तो आपकी कोशिश यह होती है कि आप उसे अपने मजबूत क्षेत्र में खींच लाएं. एक खिलाड़ी के रूप में मुझे विविधतापूर्ण और जटिल खेल पसंद है क्योंकि मैं उसमें अधिक सहज महसूस करता हूं.

किस उम्र में आपको लगा कि अब आगे शतरंज ही आपकी जिंदगी होगा?
(हंसते हुए) दुर्भाग्यवश किसी ने उस क्षण को रिकॉर्ड नहीं किया. प्राचीन इतिहास पढ़ते हुए मैं हमेशा चौंक जाता हूं. कहीं पर आपको लिखा मिलेगा- और उस वक्त सिकंदर महान ने यह फैसला किया. मानो कोई ठीक उसी वक्त इस बात को ट्वीट कर रहा हो. मुझे केवल इतना याद आता है कि जब मैंने शतरंज खेलना सीखा तो मुझे इस खेल से जबरदस्त लगाव हो गया. मुझे शतरंज की जटिल चालें सुलझाने में बहुत मजा आता था. मैंने केवल 12 वर्ष की उम्र में तत्कालीन सोवियत संघ की 18 वर्ष तक की उम्र वाली प्रतिस्पर्धा जीत ली थी और शायद सबको यह पता चल गया था कि मेरा भविष्य क्या है. और हां, शायद 14 साल की उम्र में मैंने यह तय कर लिया था कि मुझे विश्व चैंपियन बनना है.

क्या यह वही प्रतिस्पर्धा थी जिसके बारे में कहा जाता है कि आप थोड़े नर्वस थे और आपकी मां ने आपसे कहा कि हर सुबह मैच के पहले पुश्किन की कविता यूजिन ओनेजिन की पंक्तियां दोहरानी चाहिए?
वह टूर्नामेंट बहुत महत्वपूर्ण था. यह जनवरी,1978 की बात है. एक वक्त आता है जब आपको परिणाम देना होता है. मैं वह मैच अपने घर से बहुत दूर खेल रहा था और वहां बहुत बड़े खिलाड़ी थे. जाहिर है मैं थोड़ा डरा हुआ था. कोई भी व्यक्ति जो कहता है उसे डर नहीं लगता, वह दरअसल झूठ बोलता है. डरता तो हर कोई है. बात केवल यह है कि आप अपने डर से किस तरह निपटते हैं. तो वह मेरी मां का एक मनोवैज्ञानिक तरीका था मुझे सहज बनाने का. और मैंने उस टूर्नामेंट में कई ग्रैंडमास्टर्स को हराते हुए जीत हासिल की. निश्चित रूप से मां की सलाह से मुझे अपना तनाव खत्म करने में मदद मिली थी.

शतरंज के खेल में मनोवैज्ञानिक पहलू बहुत महत्वपूर्ण होते हैं?
जी हां, जब आप लगातार एक प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ खेलते हैं. कई बार आपको सैकड़ों घंटे एक ही प्रतिद्वंदी के साथ खेलते हुए बिताने पड़ते हैं. जाहिर है आप अपने प्रतिस्पर्धी के बारे में काफी कुछ जान जाते हैं. कई बार आप कुछ चालें चलकर केवल यह देखना चाहते हैं कि उसकी प्रतिक्रिया क्या है. जहां तक मनोविज्ञानियों की मदद की बात है मुझे नहीं लगता कि दर्शकों के बीच बैठा कोई व्यक्ति तब तक आपकी कोई मानसिक मदद कर सकता है जब तक आप खुद ऐसा नहीं चाहें. विश्व चैंपियनशिप में एक चाल से हार और जीत हो सकती है. ऐसे में जाहिर है तनाव बहुत ज्यादा होता है. अब इस हालत में अगर आप मान बैठेंगे कि दर्शकों के बीच बैठा कोई व्यक्ति आपको मानसिक स्तर पर नुकसान पहुंचा सकता है तो फिर आप मुसीबत में हैं.

क्या आपको कभी ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा है?
नहीं. क्योंकि मैंने हमेशा से यह यकीन किया है कि मेरी हार या जीत केवल मेरी बुरी अथवा अच्छी चालों की वजह से होती है.

गैरी, एक बार आपने कहा था कि शतरंज बहुत हिंसक खेल है. क्या आप इस बात को थोड़ा और स्पष्ट करेंगे?
कोई भी खेल हो वह हिंसक होता है. शतरंज एक मानसिक खेल है. यह दो लोगों के बीच मनोवैज्ञानिक युद्ध की तरह होता है. कई लोग सोचेंगे कि मानसिक खेल हिंसक कैसे हो सकता है? यह कोई बॉक्सिंग या फुटबॉल तो नहीं है कि इसमें कोई शारीरिक नुकसान हो. लेकिन मैच हारने का मनोवैज्ञानिक झटका शारीरिक चोट से बहुत अधिक घातक होता है क्योंकि आपको लगता है कि आप अपने प्रतिद्वंद्वी से मानसिक रूप से कमजोर हैं. विश्व चैंपियनशिप जैसी बड़ी प्रतियोगिता में यह असर और भी ज्यादा होता है. इसलिए मैं कहता हूं कि शतरंज बहुत खतरनाक खेल है.

हालांकि आप ऐसी हालत में ज्यादा नहीं पड़े, लेकिन फिर भी कोई मैच हारने या खराब खेलने पर आपको कैसा लगता था.
मेरे लिए हार की वजह हमेशा मेरी गलती रही है और इसलिए मैंने कभी किसी को दोषी नहीं ठहराया. हार के बाद या खराब खेल के बाद मैं हमेशा अगले मैच की तैयारी में लग जाता था. किसी हार ने मुझे मेरे लक्ष्य से भटकने नहीं दिया.

उस शख्स की बात करते हैं जिसके साथ खेलते हुए आपने अपनी युवावस्था का काफी अरसा गुजारा. अनातोली कारपोव, शतरंज की दुनिया के एक और महान खिलाड़ी. कैसा अनुभव रहा उनके साथ खेलने का?
निश्चित रूप से उनके साथ खेलने का अनुभव अनूठा था क्योंकि हम दोनों के बीच जो लंबे मुकाबले चले वे केवल शतरंज ही नहीं बल्कि किसी भी खेल के इतिहास के सबसे कठिन मुकाबले थे. हमने 1984 से 1990 के बीच पांच बार विश्व चैंपियनशिप में मुकाबला किया. हमने 144 मैच तो केवल विश्व चैंपियनशिप में ही एक-दूसरे के खिलाफ खेले. इनमें से पहला मुकाबला मेरे लिए बहुत यादगार है. मैं तमाम लोगों को हराकर फाइनल में पहुंचा था और उसके बाद मेरे भीतर एक किस्म का घमंड आ गया था. मुझे लग रहा था कि विश्व चैंपियन बनना अब बस एक औपचारिकता है. लेकिन कारपोव के साथ पहले नौ मैच के बाद मैं 4-0 से पिछड़ गया. कारपोव ने एक मैच और जीता. वे 5-0 से आगे थे. एक और जीत के बाद वे चैंपियन बन जाते. लेकिन यह मुकाबला चलता ही गया, चलता ही गया और ढाई महीने बाद मुकाबला रोक देना पड़ा. इसकी कई वजहें थीं. यह भी कहा गया कि इसका हमारे स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ सकता था.

उस वक्त आपके और कारपोव के मैच को लेकर प्रचारित किया गया कि यह नए सोवयत संघ और पुराने कम्युनिस्ट सोवियत संघ के बीच का मुकाबला है. क्या यह सच है कि पुरानी व्यवस्था कारपोव की जीत सुनिश्चित करना चाहती थी?
इस सवाल का सीधा-सीधा जवाब देना मुश्किल है क्योंकि जिंदगी शतरंज से कहीं ज्यादा जटिल होती है. लेकिन हां, इसमें दो राय नहीं कि कारपोव व्यवस्था के बहुत प्रिय खिलाड़ी थे. वे उसी व्यवस्था में पैदा हुए और उसी सांचे में ढले थे. वे एक अच्छे सिपाही थे जबकि मुझे एक विद्रोही के रूप में देखा जाता था. व्यवस्था यह चाहती थी कि यथास्थिति बनी रहे और उनका वफादार सिपाही शीर्ष पर रहे. उन्हें मुझ पर विश्वास नहीं था. मैंने जीत हासिल की क्योंकि मेरे वक्त हालात उतने खराब नहीं थे जितने 1970 के दशक में. उस वक्त विक्टर कोर्चनॉय को देश छोड़ना पड़ा था क्योंकि वे व्यवस्था के प्रिय खिलाड़ी को चुनौती तक नहीं दे सकते थे. मेरे पास थोड़ा मौका था और मैंने उसका लाभ उठाया.

लेकिन 1990 में जब आप कारपोव के साथ खेल रहे थे उसके एक साल पहले आपके गृहराज्य अजरबैजान में हिंसा और नरसंहार हो रहा था. वह काफी मुश्किल वक्त रहा आपके लिए?
हां यकीनन, उन हत्याओं और नरसंहारों को उन्होंने जातीय सफाई का नाम दिया. आप ऐसी भयावह घटनाओं के लिए अलग-अलग नाम चुन सकते हैं लेकिन इससे सच नहीं बदल जाता. बकू में जो कुछ हुआ वह मेरे जीवन को पूरी तरह बदल देने वाला था. मैं बकू में पैदा हुआ और पला-बढ़ा. हमारा परिवार बहुत विविधतापूर्ण था उसमें अलग-अलग जगहों, अलग-अलग समुदायों के लोग थे.

बकू में आपके परिवार और आपके समुदाय के साथ क्या हुआ था? आप उन सब बातों से किस तरह निपटे?
अंतिम समय तक हमें यह लगता रहा कि हालात सुधर जाएंगे. लेकिन ऐसा नहीं हो सका. मुझे मॉस्को में अपने दोस्तों से मदद मांगनी पड़ी. हवाई जहाज किराए पर लेकर हमारा परिवार वहां से बाहर निकला. मैं आखिरी बार बकू में जनवरी, 1990 में रहा. उसके बाद मैं कभी वहां वापस नहीं गया.

क्या बकू में घट रही घटनाओं ने आपके भीतर राजनीतिक चेतना को इतना मुखर किया?
देखिए, बकू में जो कुछ हुआ वह सोवियत संघ के पतन की एक बड़ी वजह बनी. मैं यह स्वीकार करता हूं कि मुझ पर उन घटनाओं का उतना असर नहीं हुआ क्योंकि मैं अपने परिवार को वहां से हटाने और नई जगह बसाने में सक्षम था. मैं साधन संपन्न था. लेकिन वहां घट रही घटनाओं से मैं आंखें नहीं फेर सकता था. लाखों की संख्या में लोग बुरी तरह प्रभावित हो रहे थे. लोग यहां से वहां जा रहे थे और जहां सीमाओं को लेकर आपसी सहमति नहीं बनी थी.वहां खून खराबा भी हो रहा था. सोवियत संघ में विश्व चैंपियन का कद बहुत बड़ा था, उसे एक किस्म का बुद्धिजीवी माना जाता था. हालांकि मेरी उम्र महज 27 साल थी, लेकिन मुझे लगा कि मुझे तत्कालीन सोवियत संघ की राजनीति में अपने ढंग से हस्तक्षेप करना चाहिए.

आपके नाना कट्टर मार्क्सवादी थे. कम से कम 70 के दशक में खाद्यान्न की कमी होने तक तो ऐसा ही था. आपके भीतर क्या देश की मौजूदा व्यवस्था के प्रति यह अविश्वास एकदम शुरुआती दौर में ही पैदा हो गया था?
हां, मेरे नाना को इस व्यवस्था में गहरा विश्वास था हालांकि वर्ष 1981 में उनकी मौत होने से कुछ साल पहले उनके मन में एक किस्म का अविश्वास घर करने लगा था क्योंकि वे खाद्यान्न समस्या को करीब से देख रहे थे. घर में हमारी अच्छी-खासी बहस होती थीं क्योंकि मैं किताबें पढ़ता था, विदेशी रेडियो सुनता था और अपने चाचा के अलावा अन्य यहूदी रिश्तेदारों के साथ संपर्क में था. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि मैं 1976 से विदेश यात्राएं कर रहा था और दुनिया देख रहा था. मुझे पता चल चुका था कि सरकारी प्रचार से इतर जमीनी हकीकत कितनी अलग है. लेकिन इसके साथ ही मेरे मन में यह बात भी स्पष्ट थी कि मुझे इसी देश में रहना है और इन्हीं नियमों का पालन करते हुए जीत हासिल करनी है. इसीलिए 1985-86 के पहले मैंने कोई खास राजनीतिक रुझान नहीं दिखाया.

आपने कहा कि बकू में उन हादसों के वक्त आप महज 27 साल के थे. उन घटनाओं ने आपको राजनीतिक रूप से बहुत अधिक प्रभावित भी किया, लेकिन उसके बाद अगले 15 साल तक आप दुनिया में एकदम शीर्षस्तर पर शानदार शतरंज भी खेल रहे थे. इस दौरान आपने अपने भीतर की राजनीतिक इच्छाओं को कैसे दबाया?
इस अवधि में भी मैं तमाम चुनौतियों से जूझता रहा. अंतरराष्ट्रीय शतरंज महासंघ से मेरा लगातार झगड़ा होता रहा. मुझे लग रहा था कि सोवियत संघ के पतन के बाद कई अवसर गंवाए जा रहे थे. इस बीच शतरंज में मेरा मुकाबला अपेक्षाकृत नए खिलाड़ियों से होने लगा था. रूस में घट रही घटनाओं पर भी मेरी पूरी नजर थी. सन 1996 में बोरिस येल्तसिन के दोबारा राष्ट्रपति चुनाव लड़ने पर मैंने उनका खुलकर समर्थन किया था. हालांकि अब मुझे नहीं लगता कि वह पूरी तरह सही था क्योंकि उन चुनावों में धांधली हुई थी. उस वक्त कम्युनिस्ट शासन की वापसी का खतरा भी था. मैं पूरी तरह राजनीति में नहीं था बस कोशिश कर रहा था कि मैं भी कुछ भूमिका निभाऊं. 2000 में मैंने पुतिन के नकारात्मक प्रभाव को भांप लिया था, लेकिन इस बीच मैं उन सब कामों की तैयारी में लगा रहा जो मैंने बाद में किए.

शतरंज के सर्वकालिक महान खिलाड़ी होने का दर्जा रूस में आपको कितनी सुरक्षा देता है, खासतौर पर जब आप पुतिन का विरोध करते हैं?
अगर हम 2005 के बाद से देखें तो यह सुरक्षा लगातार घटती गई है. शुरुआत में शासन थोड़ा हिचकिचाया, दो सालों तक कुछ खास नहीं हुआ. 2007 में पहली बार मुझे गिरफ्तार किया गया, कुछ घंटों के लिए. उसी साल के अंत में मुझे पांच दिन के लिए गिरफ्तार किया गया. वह पहला मौका था जब किसी राजनीतिक कार्यकर्ता को शांतिपूर्ण प्रदर्शन के लिए गिरफ्तार किया गया. बाद में तो यह सब आम चलन में आ गया. यह दुखद है कि इस क्रम में एक के बाद एक कर रूसी संविधान तक का उल्लंघन किया जाने लगा. एक वक्तऐसा आया जब मेरे प्रदर्शन अथवा मेरे बड़ा खिलाड़ी होने के तथ्य का भी मुझे कोई फायदा नहीं मिला. मुझे सोचना पड़ा कि मैं अपनी जान तथा अपने चाहने वालों की आजीविका को जोखिम में डालूं अथवा नहीं.

और आपने जोखिम उठाने का फैसला किया क्योंकि आप 2007 के अंत में पुतिन के विरोध में बने  ‘अदर रशिया गठजोड़’  के उम्मीदवार भी बने?
देखिए, जब भी मुझसे रूस की राजनीतिक हालत की बात की जाती है तो मैं यही कहता हूं कि रूस में हमारी लड़ाई चुनाव जीतने की नहीं बल्कि सही मायनों में चुनाव कराने की लड़ाई है. एक ऐसे देश में रहने वाले लोग इसे नहीं समझ सकते जहां चुनाव की पूरी प्रक्रिया लोकतांत्रिक है. जहां लोग राजनीतिक दल बनाकर आसानी से चुनाव लड़ सकते हैं. एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा कि शतरंज की मेरी विशेषज्ञता किस तरह रूस की राजनीति मंे नई रणनीति बनाने में आपकी मदद करेगी. मैंने कहा कि मुझे नहीं लगता कि शतरंज मेरी मदद कर पाएगा क्योंकि शतरंज में तयशुदा नियम होते हैं और ऐसे परिणाम निकलते हैं जिनका अंदाजा लगाया जा सकता है. लेकिन रूस की राजनीति इसके एकदम उलट है.

आपको रूस में राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की अनुमति भी नहीं मिली थी.
चुनाव लड़ने का मतलब होता है कि आपको पूरी प्रक्रिया में शामिल होने दिया जाए. पार्टी गठित करना, फंड जुटाना, बहस करना. लेकिन रूस में ऐसा नहीं है, वहां का सत्ता प्रतिष्ठान अपनी पसंद के नियम बनाता है और उनको लागू करवाता है, अगर उनको कुछ पसंद नहीं आता है तो वे नए नियम-कानून थोप देते हैं. रूस में एक नियम यह भी है कि जब भी पुतिन चाहते हैं कानूनों में बदलाव कर दिया जाता है.

आपके हिसाब से यथास्थिति कैसे बदलेगी?
मुझे नहीं लगता है कि यह व्यवस्था हमेशा या कहें लंबे समय तक चलेगी. मेरे मन में केवल यही सवाल है कि रूस या बाकी दुनिया को इस व्यवस्था के पतन की क्या कीमत चुकानी पड़ेगी. पुतिन ने अपनी वापसी के बाद यह स्पष्ट कर दिया है कि वे आजीवन पद पर बने रहने वाले हैं. एकदम किसी तानाशाह की तरह. लेकिन उनकी अपनी योजना है. मुझे नहीं लगता है कि 21वीं सदी उनको ऐसा करने देगी. उनको जिन समस्याओं का सामना करना होगा उनमें से एक है अर्थव्यवस्था. रूस की अर्थव्यवस्था तेल एवं गैस पर आधारित है. भ्रष्टाचार भी वहां की व्यवस्था में गहरे तक जड़ जमा चुका है.

क्या पुतिन ने कभी आपसे संपर्क किया?
कभी नहीं. मैंने भी कभी उनसे बात करने की कोशिश नहीं की. मैं शुरू से कहता रहा हूं कि मैं क्रेमलिन (रूस की संसद) के साथ केवल एक मुद्दे पर बात करने का इच्छुक हूं कि वह इस मौजूदा व्यवस्था को कैसे खत्म करेगा. मौजूदा शासन किसी भी तरह की बातचीत के खिलाफ है. यह एक पार्टी की तानाशाही का मामला था जो अब एक व्यक्ति की तानाशाही में बदल चुका है. वहां अब वफादारी ही इकलौता मानक है. अगर आप वफादार हैं तो आपको संरक्षण मिलेगा अगर नहीं तो आपके साथ कुछ भी हो सकता है.

क्या आपकी जान को खतरा है?
इस वर्ष फरवरी में मैंने रूस छोड़ दिया है. अब मैं न्यूयॉर्क में हूं और वहां कोई खतरा नहीं है. लेकिन हम जानते हैं कि पुतिन का विरोध करने वाला कोई भी व्यक्ति सुरक्षित नहीं है. हालांकि हाल में शेष विश्व के नेताओं ने पुतिन के दबाव से निपटने में अक्षमता दिखाई है, लेकिन अभी भी मेरा यह मानना है कि दुनिया के देश पुतिन के विरोधियों को पर्याप्त सुरक्षा मुहैया करा सकते हैं.

वापस शतरंज पर लौटते हैं. यहां बहुत सारे लोग हैं जो आपके खेल के बारे में जानना चाहते हैं. बड़ी प्रतियोगिताओं के पहले किस तरह की कड़ी तैयारी करनी होती है? अनातोली कारपोव के साथ आपके मैच की बात करते हैं. कितनी और कैसी तैयारी करनी पड़ती थी?
यह एक बड़ा सवाल है. यह सवाल केवल शतरंज के बारे में नहीं है बल्कि इस बारे में भी है कि कैसे कंप्यूटरों और नई तकनीक ने हमारे जीवन में बदलाव लाए. कारपोव से खेलने के पहले जाहिर है मैं कागज पर नोट लेकर तैयारी करता था. अलग-अलग तरह की ओपनिंग की तैयारी. बाद में जब मैं कंप्यूटर पर खेल का विश्लेषण करने लगा तो मैं पुराने दिनों की तैयारी के बारे में सोच कर चकित रह जाता. लेकिन एक बात है, आप शुरुआती तैयारी में जितना समय देंगे, जितने समर्पण से काम करेंगे, आपको उतना ही अच्छा परिणाम मिलेगा. आज कंप्यूटर का हस्तक्षेप बढ़ गया है और मैच छोटे हो गए हैं. इस वक्त जब हम यहां बात कर रहे हैं चेन्नई में विश्वनाथन आनंद और मैगनस कार्लसन का मैच चल रहा है. उनका पहला मैच बहुत जल्दी ड्रॉ हो गया. बाहरी लोगों को केवल परिणाम दिखता है, जबकि उसके पीछे गहरी तैयारी शामिल होती है.

कारपोव से मैच में आपको किस तरह की तैयारी करनी होती थी? दिन में 12 घंटे, छह घंटे या छह घंटे, आप जॉगिंग करते थे? जिम जाते थे?
अगर मैं 80 के दशक में अपने रुटीन की बात करूं तो मैं रोजाना छह घंटे अभ्यास किया करता था. इसके साथ साथ मैं दो घंटे शारीरिक व्यायाम भी किया करता था और यही वजह थी कि 90 के दशक में मैं अपेक्षाकृत युवा प्रतिस्पर्धियों के साथ मुकाबला करने में कामयाब रहा. कारपोव के साथ विश्व चैंपियनशिप के मैचों के पहले मैं कुल मिलाकर दो महीने अभ्यास करता था. मैं उन मैचों से बहुत गहराई से जुड़ा था, मैं मैच खेलता और उनका विश्लेषण करता.

साख का सवाल

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छत्तीसगढ़ की फिजा में इस वक्त केवल राजनीति की खुमारी चढ़ी हुई है. राज्य के बाशिंदे उम्मीदवारों को अपनी कसौटी पर कस कर देख-परख रहे हैं. वहीं राजनीतिक दल हार-जीत के गुणाभाग में व्यस्त हैं. 90 विधानसभा सीटों वाले छत्तीसगढ़ में कुछ सीटें ऐसी हैं जो पूरे प्रदेश की दिशा निर्धारित करेंगी. इन बहुचर्चित और महत्वूपर्ण सीटों पर न केवल भाजपा और कांग्रेस का बल्कि कई राजनेताओं का भविष्य भी तय होगा. माओवाद प्रभावित 18 सीटों पर मतदान संपन्न होने के बाद अब दूसरे चरण की 72 सीटों पर 19 नवंबर को मतदान होना है. लेकिन इनमें से छह सीटों पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों की साख दांव पर लगी है या यूं कहें कि ये सीटें दोनों ही दलों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन गई हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. यहां हम इन्हीं छह विधानसभा सीटों पर प्रत्याशियों और उनकी राजनीतिक संभावनाओं का एक आकलन दे रहे हैं.

रायपुर दक्षिणः  दूसरे चरण के चुनाव की यह सबसे प्रतिष्ठापूर्ण सीट है. यहां से भाजपा ने पीडब्ल्यूडी मंत्री बृजमोहन अग्रवाल को फिर से टिकट दिया है. पांच बार लगातार विधानसभा चुनाव जीत चुके अग्रवाल चुनावी रणनीति बनाने में माहिर खिलाड़ी माने जाते हैं. बृजमोहन के मुकाबले कांग्रेस ने रायपुर की महापौर किरणमयी नायक को उतारा है. इस सीट से जुड़ा एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि यहां सबसे ज्यादा 38 प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं. लेकिन मुख्य मुकाबला इन दो उम्मीदवारों के बीच ही है. चालीस हजार मुस्लिम मतदाता वाली इस सीट पर जातिगत समीकरणों ने भी चुनाव को रोचक बना दिया है. आम तौर पर मुस्लिमों को कांग्रेस का परंपरागत मतदाता माना जाता है. लेकिन रायपुर दक्षिण में रहने वाले मुस्लिम भाजपा के प्रत्याशी बृजमोहन अग्रवाल को वोट देते आए हैं. इस सीट से मैदान में उतरे 38 उम्मीदवारों में से 24 प्रत्याशी मुस्लिम समुदाय से हैं. इनमें 23 प्रत्याशी निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं. थोक में इतने मुस्लिम प्रत्याशियों के मैदान होने को लेकर कई तरह की चर्चाएं भी हो रही हैं. राजनीतिक विश्लेषक इसे भाजपा की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा मान रहे हैं.  इस सीट पर रहने वाले पिछड़े वर्गों में साहू मतदाता ज्यादा संख्या में हैं. लेकिन महज चालीस हजार की आबादी वाले वैश्य मतदाता शत-प्रतिशत मतदान करके अपने अस्तित्व को सब पर भारी किए हुए हैं. जहां तक कांग्रेस की उम्मीदवार किरणमयी नायक की बात है तो वे पिछड़े वर्ग से हैं. लेकिन जिस कुर्मी वर्ग का वे प्रतिनिधित्व कर रही हैं उनकी संख्या रायपुर दक्षिण में बहुत ज्यादा नहीं है. पेशे से वकील नायक वर्ष 2009 में छत्तीसगढ़ के नगर निकाय चुनावों में राजधानी रायपुर जैसी अहम सीट को जीतकर धूमकेतु की तरह चमकी थीं. कांग्रेस के उच्चपदस्थ नेताओं की मानें तो किरणमयी नायक अगर इस सीट पर हार भी जाती हैं तब भी वे रायपुर लोकसभा सीट पर कांग्रेस की प्रबल दावेदार होंगी.

अंबिकापुरः  इस सीट पर दो अलग-अलग राजपरिवारों के उम्मीदवार टक्कर देने के लिए मैदान में हैं. कांग्रेस ने वर्तमान विधायक और सरगुजा राजपरिवार के सदस्य टीएस सिंहदेव को यहां से उम्मीदवार बनाया है. वे पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष भी हैं. वहीं भाजपा ने शंकरगढ़ राजघराने के सदस्य और भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष अनुराग सिंहदेव को मैदान में उतारा है. कांग्रेस ने समय रहते टीएस सिंहदेव को चुनाव की तैयारी में जुटने का संकेत दे दिया था. यही कारण था कि टीएस दूसरे कांग्रेस उम्मीदवारों के मुकाबले कुछ समय पहले से ही सक्रिय नजर आ रहे थे. अंबिकापुर एक ऐसी सीट है जहां कांग्रेस को भितरघात जैसी कोई परेशानी नहीं है. दूसरी ओर भाजपा के उम्मीदवार अनुराग सिंह देव तीन दावेदारों को किनारे करके  भाजपा का टिकट लाए हैं. इसलिए अनुराग सिंह देव के लिए भितरघात की आशंका भी जताई जा रही है. बुजुर्ग टीएस सिंहदेव और युवा अनुराग सिंहदेव की उम्र में फासला भी एक मुद्दे की तरह भुनाया जा रहा है. जहां युवाओं की बीच अनुराग सिंह काफी लोकप्रिय हैं  वहीं शहरी मतदाता टीएस सिंहदेव की तरफ रुझान लिए दिखाई दे रहा है. पिछले विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस के यही चेहरे आमने-सामने थे. लेकिन जीत कांग्रेस को मिली थी. इस क्षेत्र में रहने वाली कंवर, गौंड और उरांव जनजातियां भी चुनाव के नतीजों में खासा प्रभाव डालती हैं. अंबिकापुर में जीत के अंतर को बढ़ाने में इलाके में रहने वाले ईसाई मतदाता भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं. 2 लाख 3 हजार 256 मतदाता वाली इस सीट पर नगर निगम क्षेत्र में रहने वाले 90 हजार मतदाता प्रत्याशी की जीत-हार की दिशा तय करते हैं.

रायपुर पश्चिमः  दोनों ही दलों के लिए नाक का सवाल बनी इस सीट पर भाजपा की तरफ से उद्योग मंत्री राजेश मूणत मैदान में है. जबकि कांग्रेस ने रायपुर शहर कांग्रेस के अध्यक्ष विकास उपाध्याय को मौका दिया है. विकास एनएसयूआई के छत्तीसगढ़ अध्यक्ष और युवक कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव भी रह चुके हैं. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के करीबी माने जाने वाले इस युवा नेता ने 22  दावेदारों को पछाड़ कर कांग्रेस का टिकट हासिल किया है. ऐसे में उनके साथ भितरघात होने की आशंका ज्यादा बनी हुई है. जबकि भाजपा प्रत्याशी राजेश मूणत अपनी पार्टी से इस सीट पर एकमात्र दावेदार के रूप में सामने आए थे. हालांकि रायपुर पश्चिम सीट पर कांग्रेसी पार्षदों की ज्यादा संख्या और युवाओं के बीच लोकप्रियता को देखकर उपाध्याय आश्वस्त नजर आ रहे हैं. वहीं मूणत के पास कार्यकर्ताओं की लंबी-चौड़ी फौज है और उसे ही वे अपनी जीत का आधार मान रहे हैं. इस सीट के जातिगत समीकरण काफी विषम हैं. परिसीमन के पहले यह सीट रायपुर ग्रामीण के नाम से जानी जाती थी, लेकिन 2008 में हुए परिसीमन में इसमें कुछ शहरी बस्तियों को मिलाकर रायुपर पश्चिम बना दिया गया. इसलिए इस सीट पर साहू और अनुसूचित जाति जैसे सतनामी और बौद्ध पंथ का अनुसरण करने वाले मतदाता ज्यादा हैं. लेकिन भाजपा यह मानकर चल रही है कि मूणत यहां जीत-हार की नहीं बल्कि ‘लीड’ की लड़ाई लड़ रहे हैं.

मरवाहीः  आदिवासियों के लिए आरक्षित इस सीट पर कांग्रेस ने पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के बेटे अमित जोगी को लॉन्च किया है. मरवाही अजीत जोगी की पारंपरिक सीट रही है. अमित से मुकाबला करने के लिए भाजपा ने लगातार दो बार से जिला पंचायत सदस्य समीरा पैकरा को उम्मीदवार बनाया है. नर्मदा के उद्गम अमरकंटक के रास्ते पर स्थित कोटा (अमित की मां रेणु जोगी का विधानसभा क्षेत्र) और उससे सटा आदिवासियों के लिए सुरक्षित मरवाही विधानसभा क्षेत्र पिछले दस वर्षों से अजीत जोगी के अभेद किले की तरह है. सेंट स्टीफंस कॉलेज, दिल्ली से पढ़ाई करने वाले अमित की छवि कई बार आरोपों के चलते धूमिल होती रही है. उन पर एनसीपी नेता रामावतार जग्गी की हत्या का आरोप भी लग चुका है. हालांकि इस मामले में स्थानीय अदालत ने उन्हें बरी कर दिया है, लेकिन अभी उनके खिलाफ ऊपरी अदालत में अपील लंबित है. इसके अलावा पिता अजीत जोगी की तरह उनके भी आदिवासी होने पर सवाल उठाए जाते रहे हैं.

मरवाही में अमित जोगी के पक्ष में उनकी पत्नी ऋचा जोगी गांव-गांव में जनसंपर्क कर रही हैं. मरवाही क्षेत्र में जोगी का पुश्तैनी गांव जोगीसार है. यहां अधिकांश गांवों में भाजपा समेत किसी भी दूसरी पार्टी का झंडा और बैनर-पोस्टर तक नजर नहीं आ रहा है. मरवाही के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो वर्ष 1952 से हुए विधानसभा चुनावों में यहां से दस बार कांग्रेस और दो बार भाजपा विजयी हुई है. ऐसे में भाजपा यहां किसी चमत्कार की आशा कर रही है. लेकिन टीम जोगी अपनी जीत को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नजर आ रही है.

amit-jogi-congressबिलासपुरः  दूसरे नंबर पर सबसे अहम सीट बिलासपुर में भाजपा की तरफ से तीन बार जीत चुके स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल चुनाव मैदान में है. उन्हें टक्कर देने के लिए कांग्रेस ने बिलासपुर महापौर वाणी राव को मौका दिया है. दिलचस्प तथ्य यह भी है कि अमर अग्रवाल के पास नगरीय प्रशासन विभाग का भी प्रभार है. ऐसे में वाणी राव के महापौर बनने के बाद से लगातार दोनों के बीच बिलासपुर की शहरी विकास योजनाओं को लेकर कई बार तू-तू मैं-मैं की नौबत भी बनती रही है. पिछले आठ विधानसभा चुनावों के नतीजों पर नजर डालें तो लगता है कि बिलासपुर विधानसभा के मतदाताओं के मूड का अंदाजा लगाना मुश्किल  है. वर्ष 1977  से 1985 तक कांग्रेस से बीआर यादव ने यहां से जीत की हैट्रिक बनाई थी. 1990 में भाजपा के मूलचंद खंडेलवाल ने यहां से जीत हासिल की. वर्ष 1993 में फिर बीआर यादव यहां से विधायक बने. लेकिन उसके बाद लगातार 1998, 2003 और 2008 में भाजपा के अमर अग्रवाल यहां से जीत हासिल करते रहे हैं. बिलासपुर में सतनामी, सिंधी और दक्षिण भारतीय मतदाता बड़ी भूमिका निभाते हैं. कांग्रेस मानकर चल रही है कि उनकी दक्षिण भारतीय मूल की उम्मीदवार को दक्षिण भारतीय मत जरूर मिलेंगे. लेकिन भाजपा ने इन्हें रिझाने के लिए पार्टी के पूर्व अध्यक्ष वैंकेया नायडू की सभा आयोजित कराई है. सिंधी मतदाताओं के लिए जहां बिलासपुर सीट पर पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की सभाएं हुईं. वहीं सरकार से नाराज सतनामियों को मनाने के लिए पार्टी के कार्यकर्ताओं की फौज पूरे क्षेत्र में जनसंपर्क कर रही है.

दुर्गः  इस हाईप्रोफाइल सीट पर भाजपा ने पंचायत मंत्री हेमचंद यादव को मैदान में उतारा है. वहीं कांग्रेस ने पुराने चेहरे अरुण वोरा को एक मौका और दिया है. अरुण वोरा कांग्रेस के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा के सुपुत्र हैं. यही कारण है कि बार-बार हारने के बाद भी कांग्रेस दुर्ग से उम्मीदवार नहीं बदल रही है. कहा तो यह भी जा रहा है कि उन्हें टिकट मिल सके इसलिए राहुल फॉर्मूले को किनारे लगाया गया है.

दुर्ग शहर विधानसभा क्षेत्र में 1993 से लेकर 2013 तक पांचवीं बार कांग्रेस के अरुण वोरा और भाजपा के हेमचंद यादव आमने-सामने हैं. लेकिन इस बार स्वाभिमान मंच के प्रत्याशी राजेंद्र साहू की उपस्थिति ने मुकाबला और भी रोचक बना दिया है. 2008 के चुनाव में भाजपा के हेमचंद यादव को 0.61 प्रतिशत वोट ज्यादा मिले थे और वे 702 मतों से चुनाव जीत गए थे. हालांकि दुर्ग विधानसभा शुरू से कांग्रेस का गढ़ रहा है. 1972 में कांग्रेस के  मोतीलाल वोरा यहां विधायक बने थे. उसके बाद एक उपचुनाव को मिलाकर पांच चुनाव लगातार जीतने का रिकॉर्ड उनके नाम है. 1993 में कांग्रेस का टिकट उनके बेटे अरुण वोरा को मिला और वे विधायक निर्वाचित हुए. लेकिन 1998 में कांग्रेस के इस गढ़ पर भाजपा ने सेंध लगा दी और उसके बाद हेमचंद यादव जीत की हैट्रिक लगा चुके हैं. हालांकि इस बार स्वाभिमान मंच के राजेंद्र साहू कांग्रेस और भाजपा दोनों के ही गणित को बिगाड़ते नजर आ रहे हैं चूंकि इस चुनाव में त्रिकोणीय संघर्ष की स्थिति बन रही है, इसलिए भाजपा और कांग्रेस को मिलने वाले मतों में अंतर जरूर पड़ेगा.

‘राहुल गांधी को अहम मुद्दों पर बात करने की जरूरत है’

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अर्थव्यवस्था संकट में है और कहा जा रहा है कि अगले कुछ सालों तक इस संकट के जाने के आसार नहीं हैं. क्या आपको लगता है कि फैसले लेने में कुछ गलतियां हुई हैं?
दुनिया का हर देश इस स्थिति से गुजर रहा है. समूची विश्व अर्थव्यवस्था पर ही दबाव है. सितंबर 2008 में अमेरिका में लीमैन ब्रदर्स के ढहने के साथ जो संकट शुरू हुआ था उससे हम अब तक नहीं उबर पाए हैं. पिछली नौ तिमाहियों से हम विकास दर का घटना ही देख रहे हैं. अब मुझे इस वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही के आंकड़ों का इंतजार है. देखते हैं हालत सुधरती है या नहीं. लेकिन मुझे यकीन है कि अगर हमने सही कदम उठाए और धैर्य रखा तो हम इन हालात से उबर जाएंगे. इसलिए मैं इतना निराश नहीं हूं. हां, हमने कुछ गलतियां की हैं, लेकिन हालात सारी दुनिया के लिए ही खराब हैं.

आपने कहा कि अगर हम सही कदम उठाएंगे तो इस संकट से बाहर निकल आएंगे. क्या आप थोड़ा विस्तार से इस बारे में बताएंगे?
जी बिल्कुल और हम वे कदम उठा भी रहे हैं. मुझे लगता है कि कुछ बुनियादी मुद्दों पर हमारी सोच बिल्कुल साफ होनी चाहिए. जैसे वित्तीय घाटा. वित्तीय घाटे (आय से ज्यादा खर्च की स्थिति) को किसी भी तरह से काबू में रखना होगा. हमें कोशिश करनी होगी कि दुनिया भर में इसके लिए जो स्वीकार्य मानक है यानी तीन फीसदी, इससे आगे यह किसी हाल में न जाए. हमें चालू खाते के घाटे (वह स्थिति जहां आयात ज्यादा हो और निर्यात कम) को घटाकर उस स्तर पर लाना होगा जहां हम इसका बोझ उठा सकें. हमें अपने खर्च पर लगाम लगानी होगी ताकि यह मुद्रास्फीति में उछाल का कारण न बने. हमें घरेलू और विदेशी निवेश, दोनों के लिए दरवाजे खुले रखने होंगे. रुपया दुनिया की उन मुद्राओं में से एक है जिनका सबसे ज्यादा लेन-देन हो रहा है. रुपये का अंतरराष्ट्रीयकरण अवश्यंभावी है. इसलिए हमें अपने वित्तीय बाजार का भी उदारीकरण करना होगा. हमें अपने बैंकों को और मजबूत बनाना होगा. ऐसे कई कदम हैं और मैं विश्वास के साथ आपसे यह भी कह सकता हूं कि इनमें से कई कदम हमने पिछले 15 महीनों के दौरान उठाए भी हैं.

आपने कुछ गलतियों की भी बात की.
देखिए. कोई ऐसा देश नहीं है जो मंदी से न गुजर रहा हो. चीन का भी वही हाल है जो हमारा है. विकास दर के मामले में चीन 10 से घटकर 7.5 फीसदी पर आ गया है. हम आठ से घटकर 5.5 पर आ गए. तो मुझे लगता है कि हमारे यहां जो हुआ वह दुनिया से कोई अलग बात नहीं है. हां, लेकिन मुझे लगता है कि हालात के यहां तक पहुंचने में कुछ योगदान हमारा भी रहा क्योंकि हमें लगा कि हम खर्च बढ़ाकर इस संकट से निपट लेंगे. अब पीछे मुड़कर देखने पर लगता है कि हम कोई और विकल्प भी अपना सकते थे. यह एक सामूहिक निर्णय था जो कैबिनेट ने लिया था, लेकिन मैं भी उसके लिए बराबर का जिम्मेदार हूं. इस फैसले ने वित्तीय घाटे का जो स्वीकार्य मानक था उसे तोड़ दिया. वित्तीय घाटा छह फीसदी से भी आगे जाने का खतरा हो गया. इससे चालू खाते का घाटा इतना बढ़ गया कि उसके साथ आगे बढ़ना मुश्किल हो गया. अब आप ही बताइए, 88 अरब डॉलर के चालू खाते का जो घाटा है उसकी भरपाई मैं कहां से करूं? मैं क्या कोई भी नहीं कर सकता. पिछले साल तो हम इस कमी को किसी तरह पूरा कर गए. लेकिन साल दर साल ऐसा थोड़े ही हो सकता है. और तीसरी बात यह है कि इसने मुद्रास्फीति को बढ़ा दिया. मुद्रास्फीति जैसे स्थायी मेहमान बन गई. तो मुझे लगता है कि कुछ गलतियां हुईं. लेकिन ऐसा नहीं है कि हमें पता था कि इनके परिणाम अच्छे नहीं होंगे और फिर भी हमने ये फैसले किए. वह तो जब आज के संदर्भ में हम इनका विश्लेषण करते हैं तो लगता है कि नीतियां शायद कुछ अलग हो सकती थीं.

जब आप कह रहे हैं कि सरकार के खर्च पर अंकुश लगाना चाहिए तो क्या यह दोहरे मापदंडों वाली बात नहीं है? देश की 70-80 फीसदी आबादी आज भी विकास के दायरे से बाहर है. फिर भी जब उस पर खर्च करने की बात आती है तो आप चिंता जता रहे हैं.
हम गरीब पर खर्च कर तो रहे ही हैं. मेरा कहना यह है कि हम इस आर्थिक संकट से बाहर नहीं निकल पा रहे. कोई देश कितना खर्च करे, उसकी एक सीमा होती है. देखिए, अगर आपके पास पैसा है तो खर्च करिए. आप स्वास्थ्य पर खर्च करिए, सामाजिक कल्याण पर करिए. सुरक्षा पर करिए. लेकिन यहां मैं वित्तीय घाटे की बात कर रहा हूं. यानी आप उधार लेकर खर्च कर रहे हैं. आप अगली पीढ़ी से उधार ले रहे हैं और उसे आज अपने लिए खर्च कर रहे हैं. सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा..ये सब सरकार की प्राथमिकताएं होती हैं. हमारे यहां लोकतांत्रिक सरकार की व्यवस्था है जिसमें लोग चुनकर अपने प्रतिनिधि भेजते हैं. अगर चुने गए प्रतिनिधि आपकी कसौटी पर खरे नहीं उतरे तो उन्हें बाहर कर दीजिए. लेकिन जब तक हमारे पास सरकार चलाने की यह व्यवस्था है तो हमें चुने हुए प्रतिनिधियों को अपने फैसले लेने लायक आजादी तो देनी ही होगी. अगर वे अच्छा काम करेंगे तो फिर चुने जाएंगे. अगर नहीं तो जनता उन्हें बाहर कर देगी.

कारोबारी समुदाय को लगता है कि इन दिनों देश में उसके लिए माहौल बहुत प्रतिकूल है. उसे कई तरह की मंजूरियां लेनी पड़ती हैं, उसके लिए कई पेचीदगियां पैदा की जाती हैं और कई मायनों में अब भी लाइसेंस राज जैसी ही हालत है.
लाइसेंस राज तो बड़ी हद तक खत्म हो गया है. मुझे लगता है कि इस बात की मांग हो रही है कि एक तरह का नियमन हो, लोगों से संवाद हो, उनके सुझाव सुने जाएं. पानी, जमीन जैसे संसाधनों का इस्तेमाल कैसे हो, इसके नियम बनें. अब जब आप इन मसलों पर नियमन की बात करते हैं तो साफ है कि एक नियामक भी होगा. आपको उस नियामक से मंजूरी भी लेनी पड़ेगी. मतलब यह कि या तो एक चीज होगी या फिर दूसरी. दोनों साथ-साथ नहीं हो सकतीं. हम ऐसा देश नहीं हैं जहां सरकार के लिए यह प्रावधान हो कि वह आर्थिक मामलों में कम से कम दखल देगी. हम कम नियंत्रण लेकिन ज्यादा नियमन चाहते हैं.

कई मायनों में हम नीतिगत स्तर पर लाचारी की जो यह स्थिति देख रहे हैं क्या वह एक तरह से रूपरेखा बनाने में हुई कमी का नतीजा है? क्या आपको लगता है कि नेतृत्व के स्तर पर असफलता रही है? कंपनियों के निवेश और सौदों के फैसले बोर्डरूम में होते हैं–ज्यादातर उन चिंताओं को दरकिनार करते हुए जिनकी बात हमने अभी की और एक अर्थशात्री और वित्तमंत्री होने के नाते आप उनके साथ खड़े होते हैं. लेकिन फिर वोट के लिए आपको लोगों के पास जाना पड़ता है और वहां पर अच्छी राजनीति मायने रखती है. तब आप लाचार हो जाते हैं क्योंकि वे लोग अलग-अलग कारणों से इन परियोजनाओं का विरोध करते हैं. तो क्या यह एक तरह का डिजाइन डिफेक्ट है? यानी आप परियोजनाओं की रूपरेखा बनाते हुए सभी पहलुओं पर ठीक से विचार नहीं करते.
मेरा मानना है कि गरीबी हटाने से महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण कुछ नहीं है. मुझे उनसे कोई दिक्कत नहीं है जो सरकार के फैसलों का विरोध कर रहे हैं, लोगों को सरकार के फैसलों के खिलाफ संगठित कर रहे हैं. लेकिन मेरा सवाल यही है कि क्या इस सबसे उन लोगों का कुछ भला हो रहा है जिनके लिए वे लड़ रहे हैं. क्या उनकी जिंदगी पहले से बेहतर है. अगर वे वैसे ही गरीब हैं तो मैं उनका तर्क और मॉडल खारिज करता हूं. मुझे लगता है कि सबसे महत्वपूर्ण यह है कि लोगों को गरीबी के दुश्चक्र से बाहर निकाला जाए. गरीबी सबसे बड़ी प्रदूषक है, सबसे बड़ा श्राप है. इसलिए उन लोगों की तरफ मैं बहुत संदिग्ध नजर से देखता हूं जो ऊर्जा संयंत्रों को बंद करवाते हैं, कोयला खनन नहीं होने देते, छोटे-बड़े बांधों का विरोध करते हैं. मैं यही पूछता हूं कि इससे क्या होगा. आखिर में लोग वहीं रहेंगे जहां वे थे. वे गरीब के गरीब रहेंगे. मुझे खुशी है कि इस मुद्दे पर अलग-अलग राय है. यह लोकतंत्र है. लेकिन सवाल आखिर में वही है कि क्या आप चाहते हैं कि गरीब वैसा ही रहे जैसा वह आज है. उसके लिए सड़कें और स्कूल नहीं न बनें, अगर किसी को यह लगता है कि लोग उसी गरीबी में रहना चाहते हैं तो वह इन लोगों का बुरा कर रहा है. मुझे मेधा पाटकर या अरुंधती राय जैसे लोगों से कोई दिक्कत नहीं है अगर वे मुझे यह बता दें कि उनकी विचारधारा या विरोध लोगों को गरीबी से बाहर निकाल लाएगा. मैं कार्यपालिका की गलतियों का बचाव नहीं कर रहा. नेताओं, अफसरों पुलिस और कारपोरेट्स सेक्टर से गलतियां हुई हैं, आबादी का एक बड़ा हिस्सा अभी भी गरीबी में जी रहा है तो इसमें उनका भी हाथ रहा है, लेकिन उन गलतियों को सही किया जाना चाहिए.

लेकिन क्या ये सिर्फ अच्छी बातें करना नहीं है. इससे किसी को क्या एतराज होगा?
नहीं, यह अच्छी बातें करने जैसी बात नहीं है. हमें कोयला चाहिए. या तो हम खुद अपना कोयला खोदें या फिर इसे आयात करें या फिर इसके बिना रहें. यही तीन विकल्प हैं.

एक चौथा विकल्प भी है.
क्या है वह.

कि हम यह कैसे करना है, इसकी रूपरेखा ठीक से बनाएं.
ठीक बात है. मैं इससे सहमत हूं. तो जो यह रूपरेखा बेहतर तरीके से बना सकते हैं उन्हें संसद में आना चाहिए. आप आगे आइए. संसद में आइए और बेहतर व्यवस्था दीजिए. मैं यह मानने के लिए तैयार हूं कि कोई मुझसे अच्छी योजना बना सकता है लेकिन ऐसा करने के लिए उसे इस व्यवस्था में आना होगा.

मुझे लगता है कि प्रतिभा की कमी नहीं है. नई सोच की कमी है. अगर आप यह कह रहे हैं कि आप जैसी बुद्धिमत्ता वाला आदमी नए तरीकों से काम नहीं कर सकता तो हममें से किसी में ऐसा करने की योग्यता नहीं हो सकती.
मुझे अपनी इस प्रशंसा से खुशी हुई लेकिन मैं यह मानने को तैयार नहीं कि इन मुद्दों से कैसे निपटा जाए, यह तय करने के लिए मैं ही सबसे समझदार आदमी हूं. मुझसे समझदार बहुत-से लोग होंगे. मेरा कहना यह है कि अगर आपके पास बेहतर विकल्प है, नीति है, योजना है और आप देश को चलाने की इस व्यवस्था में, लोकतंत्र में यकीन रखते हैं तो आगे आइए, इस व्यवस्था का हिस्सा बनिए और तब फैसले लीजिए. आलोचना के आवरण में छिपकर वार मत कीजिए.

इससे कोई भी असहमत नहीं हो सकता. लेकिन सवा अरब लोग चुनाव नहीं लड़ सकते. इसलिए वे अपना नेता चुनते हैं. दिक्कत यह है कि ये चुने हुए प्रतिनिधि फिर उन्हीं लोगों से दूर हो जाते हैं. हमारे प्रधानमंत्री कारोबारियों की बैठकों में जाते हैं लेकिन जंतर-मंतर पर नहीं जाते जहां आम लोग अपनी शिकायतों को लेकर धरना देते हैं. आप निवेश लाने में, उसे जमीन पर उतारने में जितना समय देते हैं उतना वक्त उन लोगों को नहीं देते जो इस विकास में हिस्सेदारी की मांग करते हैं. हम योजना में इस कमी की बात कर रहे हैं. क्या यह खाई पाटना इतना मुश्किल है?
मुझे लगता है कि यह एकतरफा कथन है कि हम लोगों की नहीं सुनते, उनसे सुझाव नहीं लेते. जब मैं अपने निर्वाचन क्षेत्र में होता हूं तो कितने ही लोगों से रोज मिलता हूं. आपको ऐसा क्यों लगता है कि हम इतने असंवेदनशील हैं? कोई मूर्ख ही होगा जो लोग क्या सोचते हैं इससे अपनी आंखें मूंदकर रखेगा. आप यह कह रहे हैं कि लोगों की सुनने के बाद भी हम गलत फैसले ले रहे हैं और आपके पास बेहतर योजना है. तो मैं आपके कथन का सम्मान करता हूं. मैं आपको आमंत्रित करता हूं कि आप मेरी जगह आएं और बेहतर फैसले लें. आपको लगता है कि यह बहुत मुश्किल है? नहीं है. जब मैं 24-25 साल का था और राजनीति में आ रहा था तो मुझे भी लगता था कि जो लोग सरकार में इतनी ऊंची जगहों पर हैं, उनकी बराबरी करना, उनके पदों तक पहुंचना बहुत मुश्किल है. लेकिन ऐसा नहीं है. मुझे लगता है कि नई पीढ़ी में कई लोग होंगे जो मुझसे बेहतर होंगे और जो मेरी जगह ले सकते हैं.

क्या आपको नहीं लगता कि आपकी सरकार में बहुत-से मुद्दों को लेकर दो ध्रुवों वाली स्थिति है? प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को लगता है कि पर्यावरण मंत्रालय उनकी राह में कांटे जैसा है.
देखिए, हमारी सरकार एक गठबंधन की सरकार है…

लेकिन कांग्रेस के भी कई मंत्री एक-दूसरे के खिलाफ जाते दिखते हैं.
मैं मानता हूं कि सोच को लेकर मतभिन्नता है. मैं इससे इनकार नहीं करूंगा. मुझे लगता है कि भविष्य में जब मुद्दों पर बहुत हठी रुख रखने वाले लोग भी सरकार में आएंगे तो भी मतभिन्नता की यह स्थिति रहेगी. और मुझे इस स्थिति से कोई समस्या नहीं है. मैं सरकार में अपने साथियों से बात करने के लिए, उन्हें समझने की कोशिश करने के लिए तैयार हूं. चार लोगों के किसी मुद्दे पर चार विचार होंगे तो बहसें होंगी ही. मैं कई मंत्रिमंडलों में रहा हूं और पिछले तीन-चार साल के दौरान हमने कई बार बहुत तीखी बहसें की हैं. लेकिन मंत्रिमंडल वाली व्यवस्था में जब एक बार कोई फैसला होता है तो आपको इसका पालन करना होता है. और अगर आपकी अंतरात्मा इसे मानने के लिए तैयार नहीं तो आप सरकार से बाहर हो जाएं. पर मुझे इसमें कुछ गलत नहीं लगता कि अलग-अलग मंत्रियों के अलग-अलग विचार हों.

2009 में आप पहले से भी अधिक धमक के साथ सत्ता में लौटे थे. आपके हिसाब से तब से अब तक ऐसा क्या हो गया कि इस सरकार से लोगों का विश्वास उठता दिख रहा है? क्या आपको लगता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कमी रही है?
सरकार में रहते हुए प्रधानमंत्री पर कोई टिप्पणी करना मेरे लिए ठीक नहीं. यह नैतिक रूप से गलत है. वे प्रधानमंत्री हैं. मैं उनके मंत्रिमंडल में मंत्री हूं, इसलिए मुझे उनके नेतृत्व को स्वीकार करना चाहिए और उसका सम्मान करना चाहिए. इसलिए मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा.

2009 में कहा जा रहा था कि यूपीए सत्ता में नहीं आएगा. हर सर्वेक्षण बता रहा था कि हम सत्ता से बाहर होंगे. लेकिन लोग हमें फिर सत्ता में लाए. उन्होंने हमारी सीटों के आंकड़े में 61 की बढ़ोतरी की और मुख्य विपक्षी पार्टी का प्रतिनिधित्व घटाया. यानी हमारी सरकार के 10 में से पांच सालों में लोगों की राय हमारे बारे में अच्छी रही. हां, दूसरे पांच साल की बात करें तो मैं देख सकता हूं और महसूस कर सकता हूं कि वोट नकारात्मक है. इसकी वजहें हैं मंदी, कार्यपालिका का अपना काम ठीक से न करना, भ्रष्टाचार के मामले, जांचें, महंगाई और नए रोजगार पहले जैसी रफ्तार से पैदा न होना. इन सब चीजों के कॉकटेल ने नकारात्मकता का माहौल बनाया है. हो सकता है हम इससे उबर जाएं, हो सकता है न उबर पाएं, लेकिन इसका फैसला जनता करेगी और हमें यह फैसला स्वीकार करना होगा. लेकिन मंदी के बावजूद पिछले नौ साल में औसत विकास दर 7.5 फीसदी रही है. यह दुख का विषय है कि मंदी इन दस सालों के आखिरी चरण में आई. काश यह उलटा होता. मैं पूरी कोशिश कर रहा हूं कि यह स्थिति बदले और चुनावों में जाने से पहले माहौल सकारात्मकता की तरफ बढ़े.

आपने कार्यपालिका की कमी की बात की. अगर श्रीधरन मेट्रो की व्यवस्था इतनी सफलता से चला सकते हैं तो जिस सरकार में इतने सक्षम लोग हैं उसका प्रशासन के मोर्चे पर इतना बुरा हाल क्यों है?
यह फिर से वही प्रशंसा वाली बात है कि सरकार में इतने सक्षम लोग हैं. देखिए, सारी उंगलियां बराबर नहीं होतीं. सरकार में हर समुदाय, क्षेत्र आदि के लोग होते हैं. जरूरी नहीं कि सब के सब काम करने के मोर्चे पर उतने ही अच्छे हों. मुझे लगता है कि कार्यपालिका उतनी प्रभावी नहीं रही है जितना इसे होना चाहिए था. लेकिन कार्यपालिका का मतलब सिर्फ मंत्री नहीं हैं. मंत्री तो जिम्मेदार हैं ही, इसमें नौकरशाह भी शामिल हैं. कार्यपालिका के ज्यादातर फैसले तो सचिव जैसे नौकरशाह ही करते हैं.

आपको नहीं लगता कि इस दौर में सरकारें लोगों की नब्ज नहीं समझ पा रहीं. उन्हें नहीं लगता कि उन्हें अपने फैसलों को समझाने की जरूरत है? टूजी या कोयला आवंटन जैसे मसलों पर पीछे मुड़कर देखने क्या आपको नहीं लगता कि अगर आप यह समझाते कि इस फैसले को दूसरे विकल्पों पर इसलिए तरजीह दी गई तो आपकी सरकार के लिए स्थितियां इतनी खराब नहीं होतीं?
मुझे लगता है कि सूचना के अधिकार ने सरकारों को ऐसा करने के लिए मजबूर किया है. मैं खुद फाइलों पर विस्तृत टिप्पणियां लिखने के लिए जाना जाता हूं. हालिया कोयला घोटाले को ही लें. इस मामले में भी फैसला क्यों लिया गया यह साफ बताया गया है. इसके बावजूद कहा जाता है कि उसमें घोटाला हुआ. आप कार्यपालिका के फैसलों को भी समझें. छह महीने पहले मैंने किसी फाइल पर कोई नोट लिखा तो वह तब उपलब्ध जानकारी के आधार पर लिखा. छह महीने बाद जब मेरी जानकारी में कुछ और बातें जुड़ती हैं तो मैं उस फाइल पर कुछ और लिखता हूं. अब तीन साल बाद आप वह फैसला देखें और कहें कि एक ही फाइल पर छह महीने के फासले पर दो तरह के फैसले लिए गए और इसका मतलब यह है कि कुछ गड़बड़ है तो वह ठीक नहीं है. फैसले में यह बदलाव और तथ्यों के संज्ञान में आने के बाद हुआ. आप कार्यपालिका के फैसलों को न्यायपालिका के फैसलों की तरह नहीं देख सकते.

क्या आपको नरेंद्र मोदी का उभार देखकर किसी तरह की चिंता होती है? क्या आपको लगता है कि वे सत्ता में आ सकते हैं?
एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर हम मानते हैं कि वे हमारे लिए एक चुनौती हैं. हम उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते क्योंकि मुख्य विपक्षी पार्टी ने उन्हें एक चुनौती की तरह पेश किया है. एक व्यक्ति के तौर पर मैं उनकी विचारधारा से चिंतित हूं. जिस तरह की भाषा का वे इस्तेमाल करते हैं उससे भी मुझे चिंता होती है. अभी तक वे एक अपारदर्शी आवरण ओढ़े हुए हैं. उन्होंने ऐसे किसी बड़े मुद्दे पर नहीं बोला है जो इस समय देश को परेशान कर रहा है. उन्होंने बस वादे किए हैं. मैं मानता हूं कि यह करना पड़ता है क्योंकि चुनाव प्रचार का समय है. लेकिन उन्होंने अब तक कहीं यह नहीं कहा है कि इन वादों को पूरा करने के लिए उनके पास क्या विस्तृत कार्ययोजना है.

लेकिन आपका अपना नेतृत्व भी कई अहम मुद्दों पर कुछ नहीं बोल रहा?
नहीं, यह कहना गलत है. मैं अर्थव्यवस्था पर बोलता हूं. वित्त मंत्री होने के नाते आर्थिक मुद्दों पर मेरा क्या सोचना है मैं इस पर बोलता हूं. प्रधानमंत्री कई तरह के मुद्दों पर बात करते हैं. वे चुनाव रैलियों में उतना नहीं बोलते हों, उतने साक्षात्कार नहीं देते हों, जितना मैं चाहता हूं कि वे दें लेकिन वे अलग-अलग मुद्दों पर अलग-अलग मंचों से अपनी राय रखते हैं. इसके लिखित प्रमाण मौजूद हैं. इसलिए आप यह नहीं कह सकते कि मुद्दों पर अपनी राय नहीं रखते. आप उस राय से असहमत हो सकते हैं, उसकी आलोचना कर सकते हैं, लेकिन यह नहीं कह सकते कि मुद्दों पर प्रधानमंत्री बोलते नहीं.

आप अपने नये नेतृत्व, जैसे राहुल गांधी के बारे में क्या कहेंगे जिनके बारे में हम बिल्कुल ही नहीं जानते कि वे कैसे काम करेंगे.
राहुल गांधी पार्टी के उपाध्यक्ष हैं. वे चुनाव रैलियों में बोल रहे हैं. पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित कर रहे हैं. मुझे लगता है कि उन्होंने कुछ मुद्दों पर अपनी राय रखी है. मैं सहमत हूं कि कई मुद्दों पर अभी उन्होंने नहीं बोला है. अगर मैं उन्हें राय दे रहा होता तो मैं निश्चित रूप से यह सलाह देता कि वे अहम मुद्दों पर बहुत विस्तार से अपना रुख रखें.

भाजपा में नेतृत्व का बदलाव बहुत उठापटक वाला रहा. क्या कांग्रेस में नेतृत्व भी कुछ ऐसे ही बदलेगा?
नहीं, मुझे लगता है कि पार्टी में यह भावना है कि अगर कांग्रेस फिर सत्ता में आती है तो राहुल गांधी को पार्टी और सरकार का नेता बनना चाहिए. पार्टी में विभिन्न स्तरों पर लोगों से बात करने पर मुझे यह समझ में आता है. वे पार्टी के उपाध्यक्ष हैं. अब सत्ता में लौटने पर पार्टी किसे नेता के रूप में आगे करती है इस बारे में मैं अभी कुछ नहीं कह सकता. लेकिन नाम और लोगों की बात छोड़ दें तो मुझे लगता है कि समय आ चुका है कि अब हम कमान अगली पीढ़ी के हाथ सौंप दें.

इसका मतलब यह नहीं कि 60 साल से ज्यादा उम्र वाले लोगों को पूरी तरह से किनारे धकेल दिया जाए. लेकिन मुझे लगता है कि देश में बहुत से ऐसे युवा नेता हैं जो सरकार का हिस्सा बन सकते हैं और प्रभावी प्रशासन दे सकते हैं.

नातेदारी और मारामारी

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पिछले कुछ दिनों से मध्य प्रदेश की राजनीति में छाया सन्नाटा कुछ ऐसा था कि इसमें आने वाले तूफान की आहट साफ सुनी जा सकती थी. लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ. हर बार विधानसभा चुनाव में टिकट बंटवारे के साथ ही कुछ दिन तक यही माहौल रहता है फिर पार्टियों में कुछ लोग बागी तेवर अपनाते हैं और आखिरकार चुनाव निपट जाते हैं. लेकिन इस बार आठ नवंबर यानी मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में बतौर प्रत्याशी नामांकन भरने की आखिरी तारीख आते-आते जिस तरीके से सत्तारूढ़ भाजपा और कांग्रेस के भीतर कार्यकर्ताओं में असंतोष का लावा फूटा वह कई मायनों में अभूतपूर्व है. यह असंतोष पहले तो मुंह जुबानी विरोध के रूप में दिखा और उसके बाद बगावती तेवर अख्तियार करते हुए सड़कों से पार्टी कार्यालयों तक जा पहुंचा. अजीब संयोग यह भी रहा कि राजधानी भोपाल स्थित भाजपा कार्यालय के स्वागत कक्ष को पार्टी कार्यकर्ताओं ने जहां तोड़ा-फोड़ा वहीं कांग्रेसजनों ने भी प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया के कक्ष को नुकसान पहुंचाया. नौबत यहां तक आ गई कि इन कार्यकर्ताओं को खदेड़ने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा.

उज्जैन अंचल में तो टिकट न मिलने से आक्रोशित कांग्रेस के एक नेता नरसिंह मालवीय ने जहर पीकर आत्महत्या ही कर ली. इसके अलावा कई नेताओं ने इस बीच जान देने की धमकियां दीं वहीं सूबे की राजनीति में यह भी पहली बार ही सुनने को मिला कि कार्यकर्ताओं ने अपने दल के किसी प्रत्याशी पर जानलेवा हमला कर दिया. शुजालपुर विधानसभा सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे महेंद्र जोशी ऐसे ही हमले का शिकार हुए. दरअसल ऐसी अधिकतर सीटें जहां असंतोष फैल रहा है वहां एक बात समान है. दोनों ही दलों के दिग्गज नेताओं ने यहां अपने रिश्तेदारों को टिकट दिलवाया है. इसके चलते जमीनी और वरिष्ठ कार्यकर्ता हाशिये पर हो गए हैं. ताज्जुब की बात है कि इस बार ऐसा एक या दो दर्जन सीटों पर नहीं हुआ बल्कि प्रदेश की 230 में से करीब सवा सौ सीटों पर दोनों पार्टियों या किसी एक पार्टी के बड़े नेताओं के रिश्तेदार चुनाव मैदान में हैं.

भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी भले ही कांग्रेस पर नेहरू-गांधी परिवार को लेकर वंशवाद का आरोप लगाएं लेकिन प्रदेश की भाजपा खुद इस ‘बीमारी’ की चपेट में दिख रही है. इस चुनाव में भाजपा के चार पूर्व मुख्यमंत्रियों ने सियासी वारिस चुनते हुए अपने परिजनों को टिकट दिलाया है. हालांकि पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा की अपनी कोई संतान नहीं है. बावजूद इसके उन्होंने अपने भतीजे सुरेंद्र पटवा को भोजपुर (रायसेन) से टिकट दिलाया. वहीं पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी ने भी अपने उत्तराधिकारी के रूप में पुत्र दीपक जोशी को हाट-पीपल्या (देवास) से टिकट दिलाया. इसी कड़ी में ओमप्रकाश सकलेचा ने अपने पिता और पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत वीरेंद्र कुमार सकलेचा के पुत्र होने का लाभ उठाते हुए जाबद (नीमच) से टिकट पा लिया है. पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती अपने समर्थकों को भले ही टिकट न दिलवा सकी हों लेकिन खरगापुर (टीकमगढ़) से उन्होंने अपने भतीजे राहुल सिंह को पार्टी का प्रत्याशी बनवा दिया है. यह और बात है कि राजनीतिक घरानों से आने वाले इन नेतापुत्रों को अब अपने क्षेत्र में ही जबरदस्त विरोध झेलना पड़ रहा है. खरगापुर में तो कार्यकर्ताओं ने उमा के भतीजे के पुतले फूंकते हुए पूरा विधानसभा क्षेत्र ही एक दिन के लिए बंद कर दिया था.

Digvijay-Singh-with-his-son-Jaivardhan-Singhराजनीति में प्रभावशाली नेता के लिए अपनी पत्नी को टिकट दिलाना अब कोई नई बात नहीं लगती. किंतु मंत्री रंजना बघेल ने इसके ठीक उलट मनावर (धार) से अपने लिए तो टिकट निकाला ही, पड़ोसी सीट कुक्षी (धार) से अपने पति मुकाम सिंह किराड़े को भी भाजपा का टिकट दिलवा दिया. इसी कड़ी में दिवंगत विजयाराजे सिंधिया की भाभी और राज्यसभा में भाजपा सांसद माया सिंह ने पहले तो अपने पति ध्यानचंद सिंह के लिए टिकट चाहा, लेकिन जब बात बनी नहीं तो खुद ही अपनी मनपंसद सीट ग्वालियर (मध्य) से पार्टी के टिकट पर प्रत्याशी बन गईं.

दूसरी तरफ, कांग्रेस भी रिश्तों के बोझ तले पूरी तरह दब चुकी है. खास बात यह है कि राजनीति में अपने पुत्रों को लाने के लिए यहां पैंतरेबाजी भी खूब चली. इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह अपने पुत्र जयवर्धन सिंह को राघौगढ़ (गुना) से पार्टी का दावेदार बनाने के लिए इतने उतावले दिखे कि उन्होंने एक नवंबर यानी चुनाव की अधिसूचना के दिन ही अपने पुत्र का नामांकन भरवा दिया. जयवर्धन ने कांग्रेस सम्मेलन में कहा कि पिता ने उन्हें मना किया था लेकिन मां ने उन्हें सेवा के तौर पर राजनीति करने को कहा था. यही नजारा कसरावद (खरगौन) में भी देखने को मिला जब पूर्व उपमुख्यमंत्री दिवंगत सुभाष यादव के बेटे और सांसद अरुण यादव के भाई सचिन यादव को टिकट दे दिया गया. कुछ दिनों पहले ही कांग्रेस ने कहा था कि वह किसी सांसद के बेटे को टिकट नहीं देगी. लेकिन सांसद प्रेमचंद गुड्डू ने हाईकमान के निर्देशों को धता बताते हुए आलोट (रतलाम) से अपने बेटे अजीत बौरासी को पार्टी का उम्मीदवार बना ही दिया. इस सीट से प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता नूरी खान टिकट मांग रही थीं. उन्होंने अब सार्वजनिक रूप से आरोप लगाया है कि गुड्डू से उन्हें जान का खतरा है. रिश्तों के नाम पर कांग्रेस ने इस हद तक दरियादिली दिखाई है कि एक ही परिवार के दो-दो लोगों को पार्टी ने टिकट बांट दिया. उदाहरण के लिए, सिरमौर (रीवा) से विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी के नाती विवेक तिवारी को टिकट दिया गया तो वहीं पड़ोसी सीट गुढ़ (रीवा) पर भी श्रीनिवास के ही पुत्र सुंदरलाल तिवारी को टिकट दिया गया.

राजनीतिक दलों के भीतर प्रत्याशियों के चयन में जिस ढंग से रिश्तेदारियां निभाई गई हैं उससे इन दलों की न केवल बीते सालों की चुनावी तैयारियां धरी की धरी रह गई हैं बल्कि अनुशासन का तंत्र भी तार-तार हो गया है. सबसे पहले यदि हम सत्तारूढ़ भाजपा को देखें तो पार्टी ने लगभग साल भर पहले सर्वे कराके अपने मंत्रियों और विधायकों की मैदानी हकीकत का पता लगाया था. इस आधार पर पार्टी के सभी विधायकों का रिपोर्ट कार्ड तैयार हुआ. इसके मुताबिक लगभग एक दर्जन मंत्रियों सहित 70 से 75 विधायकों को हारने वाली स्थिति में बताया गया था. ऐसे में तैयारी थी कि योग्यता के आधार पर कई नए चेहरों को मौका दिया जाए. लेकिन हुआ इसके ठीक उलटा. और ज्यादातर उन्हीं विधायकों को टिकट दिया गया और जिनका टिकट कटा वहां नेताओं के रिश्तेदारों को मौका मिल गया.

कुछ दिनों पहले ही जबलपुर कैंट से भाजपा विधायक और विधानसभा अध्यक्ष रहे ईश्वरदास रोहाणी की मौत के बाद सहानुभूति की लहर का लाभ उठाने के लिए भाजपा ने इसी सीट पर उनके पुत्र अशोक रोहाणी को टिकट दिया है. इसी रणनीति के तहत पार्टी ने सुनील नायक की मौत के बाद उनकी बेटी अनीता नायक को भी पृथ्वीपुर (टीकमगढ़) से मैदान में उतारा है. वरिष्ठ पत्रकार एनडी शर्मा के मुताबिक, ‘राजनीतिक दलों का परिवारवाद को इस तरीके से समर्थन देना एक तरह से जागीरदारी प्रथा का ही नया रूप है. इससे जहां लोकतंत्र की नींव कमजोर हुई है वहीं राजनीति में योग्य लोगों के लिए दरवाजे भी बंद हुए हैं.’ जहां तक मप्र की राजनीति का सवाल है तो टिकटों को लेकर होने वाले असंतोष में परिवारवाद ने आग में घी डालने जैसा काम किया है. यही वजह है कि कई दावेदार अब ताल ठोककर पार्टी के खिलाफ ही खड़े हो गए हैं. इस बारे में भाजपा प्रदेश संगठन के मुखिया नरेंद्र तोमर का मानना है, ‘टिकट-वितरण के बाद विरोध होता ही है लेकिन बगावत की स्थिति में भी पार्टी का फैसला नहीं बदलेगा.’

दूसरी तरफ, सत्ता में वापसी की कवायद करने वाली कांग्रेस पर उन्हीं के बड़े नेताओं का भाई-भतीजावाद भारी पड़ गया. कांग्रेस में भी ऐसे नेताओं की संख्या अच्छी-खासी है जिन्होंने मैदानी कार्यकर्ताओं की कीमत पर अपने नातेदारों को टिकट दिलाने में कामयाबी हासिल की है. हालांकि बगावत का डर कांग्रेस को पहले से सता रहा था और यही वजह है कि उसने टिकटों की घोषणा नामांकन की तारीख के एक दिन पहले ही की. दिलचस्प है कि काफी अरसे से कर्नाटक विधानसभा चुनाव की तर्ज पर मप्र में भी राहुल गांधी फॉर्मूला चलाने की चर्चा जोरों पर थी. इसके तहत ग्राउंड रिपोर्ट के आधार पर जमीन से जुड़े योग्य नेताओं को वरीयता देने का दावा किया गया था. किंतु कांग्रेस के नेता मप्र में भाजपा की कड़ी चुनौती के बावजूद नातेदारी निभाने का मोह नहीं छोड़ सके.

इसी कड़ी में पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत अर्जुन सिंह के पुत्र और कांग्रेस से नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने चुरहट (सीधी) सीट पर पिता की विरासत को संभालते हुए खुद को स्थापित किया है. लेकिन चुरहट के आस-पास के इलाके पर नजर दौड़ाएं तो जाहिर होता है कि टिकट पाने वालों में हर तरफ अजय सिंह के नाते-रिश्तेदारों की पूछ-परख रही है. जैसे कि अर्जुन सिंह के साले सुरेंद्र सिंह मोहन के बेटे राजेंद्र सिंह को कांग्रेस ने अमरपाटन (सतना) और अर्जुन सिंह के दामाद भुवनेश्वर प्रसाद सिंह को सिंगरौली से टिकट दिया है. ऐसे में सालों से वंशवाद का आरोप झेल रही कांग्रेस ‘शहजादों की नई फसल’ से जुड़े सवालों पर मौन है. लेकिन पार्टी के एक पदाधिकारी का मानना है, ‘अब यह साफ हो चुका है कि क्षत्रप नेताओं के सामने दिल्ली का हाईकमान बहुत बौना है. पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र नाम की चीज नहीं है. और ऐसा लगता है कि बड़े नेता दिल्ली से टिकट छीनकर अपनों को चुनाव लड़वा रहे हैं.’

जाहिर है यह चुनाव मप्र में पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही वंशवाद की राजनीति के लिए अभूतपूर्व साबित होने जा रहा है और साथ में खतरनाक संकेत भी दे रहा है कि यदि यह प्रवृत्ति आगे बढ़ी तो राज्य में शासन की कमान कुछ परिवारों के हाथ में ही सिमट जाएगी.

सीमा, सुरक्षा और सियासत

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पहले 2008 के दिल्ली बम धमाकों का आरोपित सलमान, फिर पूर्व कश्मीरी आतंकवादी लियाकत, उसके बाद लश्कर का बम एक्सपर्ट अब्दुल करीम टुंडा और फिर इंडियन मुजाहिदीन का उपसंस्थापक यासीन भटकल और उसका साथी असदुल्ला अख्तर उर्फ हड्डी. इन सभी को भारतीय सुरक्षा एजेंसियों ने हाल के समय में भारत-नेपाल सीमा से गिरफ्तार किया है. दरअसल कुछ साल पहले तक सिर्फ तस्करी के लिए इस्तेमाल होने वाली भारत-नेपाल सीमा अब आतंकियों की भी पसंद बन गई है. इस खतरे को भांपते हुए भारतीय सुरक्षा एजेंसियों ने हाल-फिलहाल नेपाल में अपने संबंधों को पहले से बेहतर किया है. इसके नतीजे में उन्हें कई सफलताएं भी मिली हैं. यह अलग बात है कि वोटों की सियासत इस कवायद की हवा निकालने में लगी है.

नेपाल के साथ भारत के विशेष संबंध का अगर आतंकी फायदा उठा रहे हैं तो सुरक्षा एजेंसियों को भी इस खास रिश्ते का फायदा मिलता है. दरअसल यही इकलौता पड़ोसी मुल्क है जहां जाने के लिए सीमाएं पूरी तरह खुली हैं. न तो पासपोर्ट की जरूरत है और न वीजा की.  इसलिए आतंकियों के लिए नेपाल में आसानी से दाखिल होकर शरण लेना जितना सरल है उतना ही आसान भारतीय सुरक्षा एजेंसियों के लिए वहां से अपने शिकार को भारत लाना है.

नेपाल आतंकियों की पसंद क्यों बन गया है, इसका खुलासा खुद पकड़े गए आतंकवादियों ने ही किया है. उत्तर प्रदेश एटीएस ने इंडियन मुजाहिदीन यानी आईएम के आतंकवादी सलमान की गिरफ्तारी को उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर जिले से लगने वाली नेपाल की सीमा से दिखाया था. एटीएस के सूत्रों के मुताबिक पूछताछ के दौरान 21 साल के सलमान ने बताया कि 2008 में दिल्ली के बाटला हाउस कांड के बाद वह भाग कर मुंबई गया और वहां आजमगढ़ से ताल्लुक रखने वाले एक राजनीतिक पार्टी के नेता के घर पर रुका. इसके बाद वे सभी सीधे नेपाल पहुंचे. इसके बाद उन्होंने नेपाल का पासपोर्ट और नागरिकता हासिल करने का जुगाड़ किया. एटीएस सूत्रों के मुताबिक उनका यह काम 50 हजार रु में हो गया. 19 सितंबर, 2008 को दिल्ली के बाटला हाउस इलाके में दिल्ली पुलिस के साथ मुठभेड़ में उसी महीने हुए दिल्ली बम धमाकों के दो साजिशकर्ता मारे गए थे जबकि दो फरार हो गए थे जिन्हें बाद में गिरफ्तार किया गया. इस मुठभेड़ में पुलिस टीम की अगुवाई कर रहे इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा की भी मौत हुई थी.

नेपाल जाने वालों में सलमान इकलौता नहीं था. बाटला हाउस कांड के बाद जब आईएम नाम के आतंकवादी संगठन का चेहरा खुल कर सामने आया तो हाल ही में पकड़े गए असदुल्ला, डाक्टर शाहनवाज, मोहम्मद साजिद सहित कुछ और लोग जो आईएम से जुड़े थे, उन सभी ने नेपाल में शरण ली थी. एटीएस सूत्रों के मुताबिक सलमान ने खुलासा किया है कि सबके पासपोर्ट, नागरिकता और वीजा की व्यवस्था नेपाल में आसानी से हो गई. इन लोगों में से कुछ नेपाल से ही खाड़ी देशों की तरफ निकल गए और कुछ बांग्लादेश होते हुए पाकिस्तान चले गए.

जिस सलमान ने पकड़े जाने के बाद इन बातों का खुलासा किया, उसकी तलाश 2008 में दिल्ली में हुए सिलसिलेवार धमाकों के मामले में थी. बाटला हाउस कांड के बाद वह नेपाल होते हुए पाकिस्तान चला गया था. सूत्र बताते हैं कि 2010 में वह फिर से नेपाल लौटा था. 2008 से 2010 के बीच खुफिया एजेंसी आईबी लगातार कुछ संदिग्ध नंबरों की निगरानी कर रही थी. इसी में इस बात का खुलासा हुआ कि सलमान नेपाल के सुनसरी जिले में शरण लिए हुए है. सटीक सूचना के आधार पर आईबी ने नेपाल पुलिस को विश्वास में लिया और उसकी निगरानी शुरू कराई. इसके बाद ही आईबी और उत्तर प्रदेश की एटीएस ने उसे नेपाल सीमा से लगे बढ़नी कस्बे से पकड़ा.

सलमान की तरह ही डॉक्टर शहनवाज आलम का भी नाम बाटला हाउस कांड के बाद सामने आया था. बिहार के सिवान जिले से बीयूएमएस करने के बाद शहनवाज लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल में काम कर रहा था. अचानक बाटला हाउस के बाद वह गायब हो गया. सुरक्षा एजेंसियों से जुड़े सूत्र बताते हैं कि गायब होने के बाद शहनवाज भी सीधे नेपाल गया था जहां से वह दुबई चला गया था. आईबी के सूत्र बताते हैं कि इस बात की पूरी संभावना है कि डॉक्टर फिलहाल पाकिस्तान में ही हो.

मोहम्मद अहमद सिद्धिबप्पा उर्फ यासीन भटकल के बारे में आईबी के अधिकारियों का मानना है कि 2008 के बाद वह नेपाल के रास्ते खाड़ी और वहां से फिर पाकिस्तान कई बार जा चुका है. 2010 में पुणे ब्लास्ट के बाद वह लगातार पाकिस्तान में ही आईएसआई के संरक्षण में रह रहा था. एनआईए के एक बड़े अधिकारी बताते हैं कि यासीन भटकल पिछले करीब एक साल से नेपाल के पोखरा व उसके आस-पास के क्षेत्रों में रह रहा था. कुछ महीने पहले असदुल्ला भी नेपाल पहुंच गया. एटीएस सूत्रों के अनुसार असदुल्ला भी बाटला हाउस कांड के बाद नेपाल गया था जहां से वह बांग्लादेश होते हुए पाकिस्तान निकल गया. भारतीय सुरक्षा एजेंसियां इन पर नजर न रख सकें लिहाजा दोनों फोन का इस्तेमाल बिल्कुल ही नहीं करते थे. एनआईए के सूत्र बताते हैं कि इन्हें जब अपने लोगों से संपर्क करना होता था तो इंटरनेट का सहारा लेते थे. इंटरनेट पर भी इनकी चैटिंग छद्म नाम से होती थी. इस चैटिंग के सहारे इनका पता लगाने में एजेंसियों को कुछ समय लगा. घेराबंदी मजबूत करने के बाद नेपाल पुलिस की मदद से आईबी ने दोनों को पकड़ कर बिहार के रक्सौल में पुलिस के हवाले किया जहां से दिल्ली की एनआईए टीम उन्हें आगे की कार्रवाई के लिए लेकर गई.

भारत-नेपाल सीमा पर स्थित कुछ जिलों के एसपी रह चुके आईजी स्तर के एक आईपीएस अधिकारी बताते हैं कि 10-15 साल पहले भारत व नेपाल पुलिस के बीच तालमेल काफी अच्छा था. ये अधिकारी बताते हैं, ‘स्थितियां यहां तक थीं कि नेपाल के सीमावर्ती कस्बे कृष्णानगर में तैनात पुलिसकर्मी कई बार भारत के बढ़नी थाने में ही आकर सोते थे. सीमाएं खुली हैं लिहाजा भारत का अपराधी अपराध कर के नेपाल और नेपाल का अपराधी भारत में शरण ले लेता है. ऐसे में पहले दोनों देशों के सीमावर्ती जिलों के पुलिस अधिकारी आपसी तालमेल के साथ आसानी से अपराधियों को पकड़ कर एक-दूसरे को सौंप देते थे. लेकिन बीच में जब नेपाल में अस्थिरता का दौर आया तो नेपाल की पुलिस ने सहयोग करना बंद कर दिया. लेकिन पिछले कुछ समय से नेपाल में हालात फिर से सुधरे हैं लिहाजा वहां की पुलिस व सुरक्षा एजेंसियां फिर से भारत का सहयोग कर रही हैं. इसके अच्छे नतीजे भी आए हैं.’

लेकिन भटकल और असदुल्ला की गिरफ्तारी और उसके पीछे के घटनाक्रम पर नजर डालें तो सियासत का एक ऐसा चेहरा भी सामने आता है जो काफी डरावना है. दरअसल दिल्ली राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) का मुख्यालय है. इसकी एक यूनिट और उसका कार्यालय उत्तर प्रदेश के लखनऊ में भी है. लखनऊ यूनिट के अंतर्गत उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा जैसे राज्य हैं. ऐसे में जब भटकल और असदुल्ला की गिरफ्तारी बिहार से लगी नेपाल सीमा पर दिखाई गई तो उन्हें एनआईए की यूपी यूनिट के हवाले किया जाना था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उच्च पदस्थ सूत्रों की मानें तो इसके पीछे राजनीतिक कारण थे. दरअसल बिहार व उत्तर प्रदेश दोनों जगह की सरकारें लोकसभा चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं को लेकर काफी संवेदनशील हैं. उत्तर प्रदेश में सत्तासीन समाजवादी पार्टी की सरकार पहले ही जेल में बंद आतंकवाद के आरोपितों के मुकदमों की वापसी की बात कर रही है. एनआईए की यूपी यूनिट में जो आईपीएस व अन्य स्टाफ लगा है, वह सब राज्य सरकार का है. सूत्रों के मुताबिक ऐसे में जब एनआईए की उत्तर प्रदेश यूनिट भटकल और असदुल्ला को लेकर प्रदेश में आती तो सरकार इन अधिकारियों पर किसी न किसी तरह दबाव बनाने का प्रयास करती. सूत्र तो यहां तक कहते हैं कि इस पूरे ऑपरेशन में एटीएस यूपी के उच्चाधिकारियों ने भी इसीलिए हाथ खड़े कर दिए थे.

वैसे यह पहला मौका नहीं है जब सुरक्षा एजेंसियों की मोस्ट वांटेड लिस्ट में शामिल इन नामों को लेकर पर्दे के पीछे से सियासत हुई है. जिस असदुल्ला को आईबी सहित तमाम सुरक्षा एजेंसियां पिछले पांच साल से तलाश रही थीं उसे लेकर 2010 में भी राजनीतिक सरगर्मी हो चुकी है. 2012 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होना था. सभी राजनीतिक पार्टियां चुनावी तैयारी में लगी थीं. इसी बीच फरवरी, 2010 में कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह और तत्कालीन कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष डा. रीता बहुगुणा जोशी सहित तमाम कांग्रेसी आजमगढ़ के संजरपुर गांव गए. संजरपुर वही गांव है जहां के दो नौजवान बाटला हाउस कांड में मारे गए थे. गांव में बैठक के दौरान खुले मंच से दिग्विजय सिंह ने अपनी ही सरकार को कटघरे में खड़ा करते हुए पूरी मुठभेड़ पर ही सवालिया निशान लगा दिया था. वे तो यहां तक कह गए थे कि पूरे मामले की फिर से न्यायिक जांच होनी चाहिए. उसी समय असदुल्ला के पिता और उलेमा काउंसिल से जुड़े डॉ जावेद कांग्रेस में शामिल हो गए. कांग्रेस के सूत्रों की मानें तो उस समय डॉ जावेद दिग्विजय सिंह सहित अन्य नेताओं पर यही दबाव बना रहे थे कि उनके बेटे का नाम ही पूरे प्रकरण से निकाल दिया जाए. यह केंद्र से ही संभव था. लेकिन ऐसा मुमकिन नहीं हुआ. कांग्रेस को इस बात का डर था कि यदि एक को बख्शा जाएगा तो आजमगढ़ के दूसरे फरार नौजवानों का क्या होगा. एक को रियायत देने के बाद दूसरे मामलों में अन्य मुस्लिम मतदाताओं की नाराजगी झेलनी पड़ेगी. लिहाजा डॉ जावेद का समझौता परवान नहीं चढ़ सका और विधानसभा चुनाव से पहले ही उनका कांग्रेस से मोहभंग हो गया. वे फिर से उलेमा काउंसिल में चले गए.

बाटला हाउस कांड के बाद फरार हुए और आजमगढ़ के खालिसपुर निवासी शहजाद को लेकर भी 2009 के लोकसभा चुनाव में सियासी उठापटक हो चुकी है. एटीएस के सूत्र बताते हैं कि 2008 में बाटला हाउस कांड के बाद शहजाद भी सीधे नेपाल निकल गया था. लेकिन कुछ समय बाद शहजाद वापस भारत आ गया. लौटने के बाद वह उत्तर प्रदेश के बलिया, आजमगढ़ के मुबारकपुर, अपनी ननिहाल ककरेहटा आदि स्थानों पर छिप कर रह रहा था. पुख्ता खुफिया जानकारी के बाद एटीएस ने अप्रैल, 2009 में उसे दबोचने की पूरी योजना तैयार कर ली थी. लेकिन यह धरी की धरी रह गई. एटीएस सूत्र बताते हैं कि पूरे ऑपरेशन के कुछ घंटे पहले ही तत्कालीन सरकार की ओर से एटीएस अधिकारियों को निर्देश दिया गया कि आपरेशन चुनाव तक टाल दिया जाए क्योंकि लोकसभा चुनाव अपने अंतिम दौर में था और तत्कालीन बसपा सरकार मुस्लिम वोटों को अपनी ओर जोड़ने का हर संभव प्रयास कर रही थी. ऑपरेशन टलने के बाद शहजाद जो एक बार फिर भूमिगत हुआ तो एटीएस को उसे खोजने में फिर शून्य से काम शुरू करना पड़ा. जनवरी, 2010 में एटीएस को फिर सुराग लगा कि शहजाद अपने घर पर आया हुआ है. इस बार शहजाद की गिरफ्तारी के लिए फिर खाका तैयार हुआ. ऑपरेशन में शामिल रहे एटीएस के जवान बताते हैं कि उसे जिंदा पकड़ना महत्वपूर्ण था ताकि अन्य फरार आतंकवादियों के बारे में कुछ पता लग सके. इसलिए अधिकारियों ने उसे पकड़ने का नाटकीय तरीका अपनाया. पहले आजमगढ़ के सांसद कोटे से एक इंडिया मार्का हैंडपंप जारी करवाया गया और उसे खालिसपुर स्थित शहजाद के घर के बाहर लगवाने की कागजी प्रक्रिया शुरू की गई. इसमें क्षेत्र के लेखपाल व राजस्व विभाग के अन्य कर्मचारियों की मदद ली गई. लेकिन इन सबको ऑपरेशन के बारे में भनक तक नहीं थे. राजस्व कर्मचारी इस पूरी प्रक्रिया को एक सामान्य बात मान कर ही चल रहे थे. जनवरी, 2010 के अंतिम सप्ताह में एटीएस के जवान ठेकेदार व हैंडपंप की बोरिंग करने वाले बन कर खालिसपुर पहुंचे और तीन-चार दिन काम करने के बाद जैसे ही उन्हें शहजाद एक दिन घर के बाहर नजर आया, उन्होंने उसे धर लिया.

आतंकवाद पर पर्दे के पीछे से चल रही सियासत एक गंभीर समस्या की तरफ इशारा करती है. आंकड़ों पर नजर डालें तो 2008 के बाद उत्तर प्रदेश एटीएस ने सलमान, शहजाद, सरवर, हाकिम जैसे इनामी आईएम सदस्यों को पकड़ा है. लेकिन 2011 के मध्य से सितंबर, 2013 तक उत्तर प्रदेश एटीएस ने कोई भी आतंकी नहीं पकड़ा.

सूत्रों की मानें तो पिछले डेढ़ साल से एटीएस का पूरा ऑपरेशन ही ठप पड़ा है. इस समय एटीएस सिर्फ जाली नोटों व हथियारों की तस्करी करने वालों पर नजर रख रही है. आतंकवाद के खिलाफ एटीएस की ठप पड़ी रणनीति के पीछे अधिकारियों का तर्क है कि सरकार जब जेल में बंद कथित आतंकवादियों से मुकदमे वापस लेने की बात सोच रही है तो किसी नए ऑपरेशन में समय बर्बाद करने से क्या फायदा.

‘पक्षपात का करेगा, मीडिया तो यहां सरकारे चलाने में लगा हुआ है’

inबात 28 अक्टूबर की है. पटना में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों और नरेंद्र मोदी की रैली के ठीक अगले दिन की. शाम करीब चार बजे राष्ट्रीय जनता दल नेता राबड़ी देवी के आवास पर दो बसें पहुंचती हैं. इनमें पटना के अलग-अलग इलाकों की कुछ मुस्लिम महिलाएं हैं. राबड़ी इनसे गले मिलती हैं. महिलाएं बताती हैं कि वे अपने नेता लालू प्रसाद यादव की जल्द से जल्द रिहाई की दुआ मांग रही हैं और राबड़ी देवी को भरोसा दिलाने आई हैं कि अल्लाह की मेहरबानी होगी, लालू जी जेल से जल्द छूटेंगे.

ये महिलाएं आई थीं या लाई गई थीं, यह राजनीतिक गलियारों में बहसबाजी या चटकारे लेकर सुनने-सुनाने का मसला हो सकता है, लेकिन उन महिलाओं से मिलने पहुंची राबड़ी देवी में छलक रहा आत्मविश्वास कुछ अलग संदेश दे रहा था. इस छोटे से अवसर को कवर करने कुछ पत्रकार भी पहुंचे थे. उनके साथ राबड़ी का व्यवहार उनका एक नया रूप दिखा रहा था. वे राबड़ी जो धीरे-धीरे एक सधे हुए नेता की तरह बर्ताव करने लगी हैं. राबड़ी ने खुद कम बोला, और वहां पहुंची महिलाओं को सामने कर दिया. पत्रकार राबड़ी को घेरने की कोशिश करते रहे, राबड़ी जवाब के बजाय प्रतिप्रश्न करके उन्हें गच्चा देती रहीं. उनके हाव-भाव देख साफ लग रहा था कि उन्हें इतना तो अच्छे से मालूम हो गया है कि मीडिया के फेरे में फंसने के बजाय उसे अपने फेरे में फंसा देना या साध लेना ज्यादा महत्वपूर्ण होता है और एक चतुर नेता की यही पहचान भी होती है. वे मीडियावालों को नजरअंदाज करके, सबको छोड़कर अपने सरकारी आवास के बाहर तक उन महिलाओं को विदा करने चली गईं. विदा करते वक्त कइयों से गले भी मिलीं. बहुत देर तक पत्रकार भीतर ही उनका इंतजार करते रहे. फिर पता चला कि आज मीडिया से जो बात होनी थी हो गई. अब वे किसी से नहीं मिलेंगी.

हमारी ओर से बातचीत करने का आग्रह उनके बड़े बेटे तेजप्रताप करते हैं. राबड़ी देवी बातचीत को तैयार होती हैं तो फिर खुलकर बात करती हैं. अहाते में ही घूमते हुए उनसे लंबी बातचीत होती है. उनसे हुई बातचीत के अंश भरसक उनके ही अंदाज में :

आप नीतीश कुमार सरकार की सबसे बड़ी विफलता क्या मानती हैं?
ई तो आप भी देख ही रहे हैं. रोजे बलात्कार हो रहा है. हत्या हो रहा है. लोग केस लिखवावे थाना में जा रहा है तो भगा दिया जा रहा है. गरीब लोग के सुनवाइये नहीं है ई सरकार में. गरीब के तो समझिये नहीं रहा है सरकार. आजे जहानाबाद में हमरा पार्टी के नेता के दुनो हाथे काट दिया है. यही सब तो हो रहा है ई सरकार में.

आपकी पार्टी के नेताओं पर हमला क्या जान-बूझकर हो रहा है?
और का, एकदम जानबूझ के हो रहा है.

आपके नेता बनने से आपकी पार्टी में कुछ वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी की भी खबर आई. क्या अब भी नाराज हैं कुछ लोग?
कोई नाराज नहीं है. सब मनगढ़ंत बात है. हमारा पार्टी पहले से ज्यादा मजबूत हुआ है और एकजुट हुआ है. इसके पहले जो कार्यकर्ता-नेता थोड़ा बहुत बिखरल था, उ लोग भी एकजुट हो गया है. हर जिला में, हर क्षेत्र में पार्टी की मीटिंग हो रही है.

आप नहीं जा रही हैं कहीं पार्टी के सम्मेलन में?
जाएंगे, छठ पूजा के बाद से जाएंगे.

मुख्य मुद्दा क्या होगा पार्टी का चुनाव में?
मुद्दे-मुद्दा है. मुद्दा बताने की जरूरत नहीं है बिहार में. रोज-रोज तो दिखाइये पड़ रहा है. भ्रष्टाचार, गरीबों पर जुल्म-अत्याचार बढ़ा है. एक बड़ा मुद्दा तो लालू जी के जेल भेजे जाने का ही है. देखिएगा उ कितना बड़ा मुद्दा बनेगा और उसका असर भी देखिएगा.

मुद्दा तो महंगाई भी है. महंगाई का मसला उठाइएगा?
महंगाई हइये है बड़ा मुद्दा. उठाएंगे. गरीब लोग दिक्कत में है महंगाई से.

महंगाई मुद्दा उठाइएगा तो कांग्रेस के खिलाफ जाएगा. कांग्रेस का विरोध करेंगी?
महंगाई में खाली केंद्र सरकार के रोल नहीं होता है. राज्य सरकार के भी ओतने रोल होता है. केंद्र में अटल बिहारी जी का सरकार था तब निमक 100 रुपइये किलो बिका रहा था. हम लोगों का तब बिहार में राज था. कहां बिहार में 100 रुपइये हुआ था निमक? राज्य सरकार चाहेगी तो महंगाई रोक सकती है. बिहार में महंगाई नीतीश के देन है.

पटना में बम विस्फोट हुए, उस पर क्या कहिएगा?
उस पर हम क्या कहें. घटना निंदनीय है. केंद्र सरकार के एजेंसी जांच कर रही है. जो हुआ, वह गलत हुआ. आजादी के रैली में विस्फोट आज तक देश में कहीं नहीं हुआ था, देश का दुनिया में भी ऐसा कहीं नहीं होता लेकिन बिहार में हुआ. पूरा देश के लोग, पूरा बिहार के लोग सहमा हुआ है. राज्य सरकार की सुरक्षा व्यवस्था की पोल खुली. पूरी तरह राज्य सरकार की विफलता है.

भाजपा सरकार से इस्तीफा मांग रही है. लगातार हो रही घटनाओं के बहाने राष्ट्रपति शासन की मांग भी की जा रही है. आपकी पार्टी भी क्या इस मांग के समर्थन में है?
नहीं, हम इस्तीफा नहीं मांग रहे हैं, ना राष्ट्रपति शासन की मांग कर रहे हैं. हम तो यही मांग कर रहे हैं कि सरकार ईमानदारी से काम तो करे. काम करने के लिए ही सरकार बैठी है, स्थिति नियंत्रण में करे. हम सरकार से इस्तीफा नहीं मांगेंगे, जनता सब देख रही है.

नरेंद्र मोदी की रैली का बहुत शोर था. कुछ लोग कह रहे हैं कि बिहार में सब रैली का रिकॉर्ड टूट गया है.
मीडियावाले ही कह रहे हैं कि रैली बहुत सफल रहा. लालू जी की रैली से तुलना कर रहे हैं. लालू जी के रैली में जितना गरीब-गुरबा और गांव-देहात से लोग जुटता है, उतना कउनो पार्टी के रैली में कब्बो नहीं जुट सकेगा. हां, ई बात है कि नीतीश कुमार के अधिकार रैली से थोड़ा ज्यादा भीड़ था इसमें.

नरेंद्र मोदी ने कल लालू जी की तारीफ भी की है और कहा है कि जब लालू जी का एक्सीडेंट हुआ था तो उन्होंने प्रेम से हालचाल लिया था.
कर्टसी में कोई भी पूछ सकता है. दुश्मन से दुश्मन आदमी भी पूछता है. गांव में कहावत है कि दरवाजा पर दुश्मन भी आए तो उसको भी पीढ़ा देके बिठाया जाता है. एक बार तारीफ किए आउर फिर तुरंत जंगलराज बोलने लगे तो सब तारिफ के भैलुए खतम हो गया. बार-बार जंगलराज हमहीं लोग के शासन को न कह रहे थे. जंगलराज हमरा 15 साल के शासन में था कि नीतीश के आठ साल के शासन में है? सबको समझ में आ गया है अब.

नरेंद्र मोदी ने तो बिहार के यादवों को यदुवंशी बताकर द्वारका से रिश्ता जोड़कर उनकी चिंता करने की बात कही. बिहार के मुसलमानों पर भी पासा फेंका. यह तो आपके आधार वोट में ही सेंधमारी की कोशिश हुई न!
यदुवंशी के इयाद आ रहा है और आज उनकी चिंता करने आए हैं. तब कहां थे जब गुजरात में कांड हो रहा था. यदुवंशी हमरा साथे है, हमरा साथे रहेगा. पहिले से भी जादा मजबूती से. थोड़ा-बहुत बिखराव भी था तो अब तो एकजुट हो गया है. रही बात माइनोरिटी के तो सबको समझ में आ रहा है. इतना बुड़बक नहीं है माइनोरिटी लोग. गुजरात में दंगा कौन करवाया, ई जानता है लोग आउर दंगा के बाद रेल मंत्री ना वहां देखने गये थे, न कुछ बोले थे, न इस्तीफा दिए थे, ई सब जानता है लोग. उनके कुछ कहने से कुछो नहीं होता है. माइनोरिटी, यदुवंशी, सब गरीब-गुरबा लालूजी के साथ हमेशा रहा है, रहेगा.

नरेंद्र मोदी की आंधी का क्या हाल होगा?
नरेंद्र मोदी के आंधी मीडिया में है. मीडियेवाला लोग आंधी बता रहा है.

आप मीडिया से नाराज दिख रही हैं. क्या बिहार में मीडिया पक्षपात कर रहा है?
पक्षपात का करेगा, मीडिया तो यहां सरकारे चलाने में लगा हुआ है. मीडिया सरकार चला रहा है. हमारे समय में एक भी कुछ होता था तो 20-20 दिन तक उसको लाल किया जाता था. (अखबारों में घोटाले की खबर का शीर्षक लाल रंग में होने के चलन की तरफ संकेत) लाल-लाल रंगा रहता था. अब नीतीश के राज में उ ललका सियाहिये सुखा गया है मीडिया का. कुछ हो जाये, ललका सियाही का रंग कभियो दिखता है?

जगन्नाथ मिश्र को जमानत मिल गई. लालू जी को अब तक नहीं मिली.
बहुत को मिला है. अलग-अलग कारण रहे हैं सबके. हम लोगों को न्यायालय पर पूरा भरोसा है. न्याय मिलेगा, हम लोगों को विश्वास है.

नकली शोर

मनीषा यादव

tehelka-fulka-bak-bakपांच राज्यों (चैनलों के लिए चार राज्यों) के विधानसभा चुनावों की गहमागहमी तेज हो गई है. चैनल भी मैदान में कूद पड़े हैं. इसका असर न्यूज चैनलों पर भी दिखाई पड़ने लगा है. विधानसभा के साथ-साथ अगले आम चुनावों के लिए अभी से शुरू हो गए प्रचार की सबसे ज्यादा गर्मी चैनलों की स्क्रीन पर महसूस की जा सकती है जहां राजनीतिक दलों और नेताओं के भाषणों, वादों, दावों से लेकर आरोपों-प्रत्यारोपों का शोर-शराबा और ‘दुर-दुर, किट-किट’ लाइव चल रही है. चुनाव क्षेत्र के कस्बों और शहरों से नेताओं-प्रत्याशियों के बीच आयोजित/प्रायोजित टीवी बहसें दंगल में बदल गई हैं जहां फ्री-स्टाइल कुश्ती की तर्ज पर वाक् युद्ध से लेकर मल्लयुद्ध तक सब कुछ जायज है.

उधर, चैनलों के स्टूडियो में भी पारा काफी चढ़ चुका है. रोज एक नया मुद्दा उछलता है और फिर गुम हो जाता है. यही नहीं, चैनलों पर एक के बाद दूसरे और तीसरे दौर के चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में भावी विजेता पार्टी और मुख्यमंत्री/प्रधानमंत्री के एलान ने माहौल और गर्म कर दिया है. नतीजा, ओपिनियन पोल खुद एक बड़ा मुद्दा बन गए हैं और उन पर घमासान शुरू हो गया है. ओपिनियन पोल में हारती दिखाई गई कांग्रेस उस पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रही है जबकि पहले इस पर प्रतिबंध लगाने की तैयारी कर चुकी भाजपा को आज यह मांग अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला दिख रही है.

चैनलों पर जारी इस उठापटक से ऐसा आभास होता है कि जैसे ये चुनाव जितना जमीन पर नहीं लड़े जा रहे हैं, उससे ज्यादा चैनलों पर लड़े जा रहे हैं. इस अर्थ में, चैनल चुनाव के नए अखाड़े बन गए हैं. हालांकि चुनाव अब भी गांव के चौपालों, कस्बों और शहरों की गलियों-मुहल्लों में ही लड़े जा रहे हैं, लेकिन जमीनी लड़ाई में टिके रहने के लिए जरूरी हवा चैनलों और अख़बारों में ही बनाई जा रही है. इस हवा से अब गांव-गिरांव भी अछूते नहीं हैं. यही कारण है कि पार्टियों और नेताओं के लिए ‘चैनल या मीडिया प्रबंधन’ उनकी चुनावी रणनीति का बहुत अहम हिस्सा हो गया है.

आश्चर्य नहीं कि चैनलों को ध्यान में रखकर ही चुनावी रैलियों का दिन, समय और मंच तैयार हो रहा है. जाहिर है कि पार्टियों और नेताओं के साथ-साथ चैनलों के लिए भी दांव बहुत ऊंचे हैं. एक ओर दोनों बड़ी पार्टियां कांग्रेस व भाजपा और उनके प्रत्याशी पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं तो दूसरी ओर, चैनलों और अखबारों को यह मौजूदा आर्थिक मंदी से उबरने के एक लुभावने मौके की तरह दिखाई दे रहा है. हैरानी की बात नहीं है कि पेड न्यूज की शिकायतें फिर से आने लगी हैं. उन पर पक्षपात के भी आरोप लग रहे हैं.

खासकर भाजपा नेता नरेंद्र मोदी की रैलियों को जिस तरह की व्यापक और लाइव कवरेज दी जा रही है और उस पर ‘मुग्ध’ रिपोर्टर और स्टूडियो में बैठे ‘बावले’ एंकर और ‘ज्ञानी’ एक्सपर्ट जिस तरह का ‘स्पिन’ कर रहे हैं, वह चुनावी रिपोर्टिंग या चर्चा कम और ‘मीडिया प्रबंधन’ का एक और नमूना ज्यादा दिख रहा है. यही नहीं, चैनलों ने विधानसभा चुनावों को भी जिस तरह से ‘मोदी बनाम राहुल’ के बीच ‘व्यक्तित्वों की लड़ाई’ के खेल में बदल दिया है, उसमें आम लोगों के जमीनी मुद्दे और सवाल नेपथ्य में चले गए हैं और राजनीतिक विचारों, नीतियों और कार्यक्रमों की कहीं कोई बात नहीं हो रही है. गोया उनका कोई मतलब नहीं है और सभी मर्जों का इलाज इस या उस मसीहा को चुनने में है.

लेकिन चैनलों को कहां चिंता है कि छिछले आरोप-प्रत्यारोपों में उलझी व्यक्तित्वों की इस नकली लड़ाई के कानफोड़ू शोर-शराबे में जनतंत्र बहरा हुआ जा रहा है और आम लोग एक बार फिर ठगे जा रहे हैं.

जासूसी के हम्माम में सब..

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जर्मनी की चांसलर (प्रधानमंत्री) अंगेला मेर्कल अपने मन की बात मुंह पर आसानी से नहीं आने देतीं. लेकिन 24 अक्टूबर को उनकी नाराजगी छलक ही पड़ी. ब्रसेल्स में यूरोपीय संघ के देशों का शिखर सम्मेलन था. एक ही दिन पहले जर्मन पत्रिका ‘डेयर श्पीगल’ की इस खबर से सनसनी फैल गई थी कि अमेरिकी गुप्तचर सेवा एनएसए (नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी ) जर्मन नागरिकों के टेलीफोन तो सुनती ही है, चांसलर मेर्कल के मोबाइल फोन पर उसके कान लगे रहते हैं. शिखर सम्मेलन से ठीक पहले पत्रकारों ने जब उनसे पूछा कि इस खबर के बारे में उनका क्या कहना है तो उन्होंने बड़ी नाराजगी भरे स्वर में कहा, ‘दोस्तों के बीच जासूसी बिल्कुल नहीं चल सकती.’ इससे पिछली शाम को उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को फोन किया था और उनसे भी यही कहा था.

जर्मनी ही नहीं, सारे  यूरोप में इस समय खलबली मची हुई है. अमेरिका और ब्रिटेन बिरलों की ही नहीं, अदनों की भी और दूसरों की ही नहीं, अपनों की भी जासूसी कर रहे हैं. औचित्य है आतंकवाद की रोकथाम. लेकिन उनके लंबे हाथ दूर तक जा रहे हैं. उनकी गुप्तचर सेवाएं अन्य देशों की दूरसंचार कंपनियों के सर्वर-कंप्यूटरों में ही नहीं, दूरसंचार के समुद्री केबलों में भी सेंध लगा कर वह सब कुछ देख, पढ़ और सुन रही हैं, जो फोन पर कहा, ईमेल द्वारा लिखा या किसी भी कंप्यूटर द्वारा कहीं भी भेजा जा रहा है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि प्रेषक और ग्राहक राजा है या रंक. किसी देश का राष्ट्रपति है या आतंकवादी.

भरोसा ठीक, लेकिन निगरानी बेहतर
इस तरह की ‘संपू्र्ण जासूसी’ की बात इससे पहले स्टालिन के उस सोवियत संघ और उसके पिछलग्गू कम्युनिस्ट देशों के बारे में ही सुनी जाती थी जिनका अब अस्तित्व ही नहीं रहा. भूतपूर्व सोवियत संघ के संस्थापक लेनिन का ही यह भी कहना था कि ‘भरोसा करना अच्छी बात है, लेकिन निगरानी रखना उससे बेहतर है.’

अपने मित्रों और शत्रुओं पर अमेरिका और ब्रिटेन यह निगरानी कब से रख रहे हैं, कहना कठिन है. हां, इस निगरानी की कहानी दुनिया के सामने आनी तब शुरू हुई जब अमेरिका की ‘राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी’ एनएसए का एक तकनीकी कर्मचारी एडवर्ड स्नोडन इस साल मई में अपने दफ्तर से गायब हो गया. वह 2009 से ‘एनएसए’ द्वारा अनुबंधित ‘बूज़ एलन हैमिल्टन’ नाम की एक कंपनी में ‘कंप्यूटर सिस्टम एडिमिनिस्ट्रेटर’ के तौर पर काम कर रहा था. उसकी पहुंच इंटरनेट पर निगरानी रखने से जुड़े बहुत ही गोपनीय कंप्यूटर प्रोग्रामों ‘प्रिज्म’ और ‘बाउंडलेस इन्फोर्मैन्ट’ (असीमित सूचनादाता) तथा ब्रिटेन के जासूसी प्रोग्राम ‘टेम्पोरा’ तक भी थी. स्नोडन अपने हाथ लगी सारी जानकारियों को पहले यूएसबी स्टिक पर और बाद में घर जा कर लैपटॉप में कॉपी कर लिया करता था. 20 मई को लापता होने के साथ वह वे सारी गोपनीय जानकारियां अपने साथ लेता गया जिन्हें वह अपने लैपटॉप में छिपा सकता था.

दुस्साहसिक ‘देशद्रोही’
छरहरी कद-काठी वाले 30 वर्षीय एडवर्ड स्नोडन के दुस्साहसिक ‘देशद्रोह’ की भनक अमेरिका को तब मिली जब वह हांगकांग पहुंच गया था. वहां के एक होटल में एक जून, 2013 को वह ब्रिटिश अखबार ‘गार्डियन’ के पत्रकार ग्लेन ग्रीनवाल्ड से मिला और उसे इन गुप्त सूचनाओं की जानकारी दी. ‘गार्डियन’ ने स्नोडन का नाम बताए बिना इन सूचनाओं को छह जून से किस्तों में प्रकाशित करना शुरू कर दिया. अमेरिका की गुप्तचर सेवा एफबीआई इस बीच सक्रिय हो चुकी थी इसलिए नौ जून को स्नोडन ने हांगकांग में अपनी पहचान खुद ही सार्वजनिक कर दी. उसे लगा कि ऐसा करने से उसे दुनिया के किसी न किसी देश में शरण जरूर मिल जाएगी. फिलहाल उसे रूस में इस शर्त पर अस्थायी शरण मिली हुई है कि वह रूस से बाहर नहीं जाएगा और कोई नए दस्तावेज किसी को नहीं देगा.

स्नोडन ने अमेरिकी और ब्रिटिश गुप्तचर सेवाओं की गतिविधियों और उनकी मिलीभगत की कलई खोलने वाले दस्तावेजों का जखीरा हथिया लिया है. ब्रिटिश, जर्मन, फ्रांसीसी, इतालवी, स्पेनी और खुद अमेरिकी अखबारों ने खूब चटखारे लेकर उन्हें किस्तों में छापा है और वे अब भी लगातार इन्हें छापे जा रहे हैं. अमेरिका और ब्रिटेन की सरकारें बस दांत पीसकर रह जाती हैं.

घर का भेदी लंका ढाए
अमेरिका और ब्रिटेन अपनी कलई खुल जाने से ढह तो नहीं जाएंगे, पर दुनिया के सामने उनकी ऐसी किरकिरी पहले कभी नहीं हुई थी. ब्रिटिश सरकार ने तो ‘गार्डियन’ और ‘इंडिपेन्डेन्ट’ जैसे समाचारपत्रों को धौंस-धमकी भी दी. 16 अक्टूबर को प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन ने संसद में कहा, ‘यह एक तथ्य है कि राष्ट्र की सुरक्षा को क्षति पहुंची है. मेरे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के सविनय अनुरोध पर गार्डियन का यह मान लेना कि वह गोपनीय दस्तावेजों को नष्ट कर देगा, इस बात की स्वीकारोक्ति है.’ प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य से पहले ब्रिटेन के ‘डेली मेल’ और ‘द सन’ जैसे भारी बिक्री वाले समाचारपत्रों ने भी ‘गार्डियन’ पर हमला बोल दिया था. ‘डेली मेल’ ने लिखा था, ‘गार्डियन’ वह ‘समाचारपत्र है जो हमारे दुश्मनों की मदद कर रहा है.’ बाद में ‘टाइम्स’ और ‘डेली टेलीग्राफ’ ने भी प्रधानमंत्री के सुर में सुर मिलाया. यह भी एक असाधारण घटना रही कि ‘गार्डियन’ पर शाब्दिक हमले के बाद अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस और स्पेन के सबसे प्रतिष्ठित अखबार उस के बचाव में उतर आए. अपने लिखित वक्तव्यों में उनके प्रधान संपादकों ने एडवर्ड स्नोडन से मिले गोपनीय दस्तावेजों के प्रकाशन को ‘लोकतंत्र की सेवा’ करार दिया.

सहकर्मियों की शामत
इस बीच पता चला है कि लोकतंत्र की इस सेवा के लिए स्नोडन ने अपने देश की सरकार और अपनी कंपनी के साथ ही नहीं, अपने करीब दो दर्जन सहकर्मियों के साथ भी विश्वासघात किया है. शुरुआत जनवरी 2013 में दस्तावेजी फिल्मकार लाओरा पोइत्रास और फरवरी में ‘गार्डियन’ के पत्रकार ग्लेन ग्रीनवाल्ड के साथ गोपनीय मुलाकातों से हुई. इसके बाद ही उसने ‘एनएसए’ के कंप्यूटरों में बंद गोपनीय दस्तावेज़ों को यूएसबी स्टिक पर उतारना शुरू किया. कंप्यूटरों में सेंध लगाने के लिए जरूरी ‘पासवर्ड’ उसने अपने 20 से 25 ऐसे सहकर्मियों से प्राप्त किए जो ‘सिस्टम एडमिनिस्ट्रेटर’ होने के नाते उस पर पूरा विश्वास कर रहे थे. बताया जाता है कि स्नोडेन के ये सभी सहयोगी इस बीच नौकरी से हाथ धो बैठे हैं. ‘एनएसए’ के 61 वर्षों के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है.  और यह भी पहली बार ही हुआ है कि फ्रांस के राष्ट्रपति और जर्मनी के चांसलर जैसे यूरोप के ऐसे सबसे महत्वपूर्ण शीर्ष नेताओं के भी टेलीफोन सुने गए हैं, जो अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो सैन्य संगठन के प्रमुख स्तंभ हैं. इन देशों की सरकारों द्वारा अपने यहां के अमेरिकी और ब्रिटिश राजदूतों को बुला कर इसका विरोध करना भी पहले कभी नहीं हुआ था. इस जासूसी का आयाम कितना बड़ा एवं अभूतपूर्व है, इसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है.

सुरसामुखी जासूसी
स्नोडन द्वारा हथियाए गए दस्तावेजों से पता चला है कि 11 सितंबर 2001 को अमेरिका पर हुए आतंकवादी हमलों के बाद से वहां 16 अलग-अलग जासूसी विभाग और एजेंसियां काम कर रही हैं. इस भारी-भरकम जासूसी तंत्र का मंत्र यह है कि कुछ भी छूटना नहीं चाहिए. उसका बजट एक ही दशक में दोगुना हो गया है– 52 अरब 60 करोड़ डॉलर. तुलना के हिसाब से देखें तो भारत का चालू वर्ष का रक्षा-बजट 37 अरब डॉलर के करीब है. अमेरिकी जासूसी तंत्र में शामिल सीआईए का बजट 14 अरब 70 करोड़ और एनएसए का बजट 10 अरब 30 करोड़ डॉलर है. पूरे तंत्र के कर्मचारियों की कुल संख्या है एक लाख सात हजार.

दुनिया को जोड़ने वाले करीब 200 समुद्री ग्लासफाइबर केबल ब्रिटेन से हो कर जाते हैं. ब्रिटिश गुप्तचर सेवा ‘जीएचक्यू’ (गवर्नमेंट कम्यूनिकेशन हेडक्वार्टर्स)  और अमेरिका की ‘एसएनए’ के साझे कार्यक्रम ‘टेम्पोरा’ के तहत इन केबलों में सेंध लगाकर उन के जरिए होने वाले सारे दूरसंचार को स्वचालित ढंग से रिकॉर्ड किया जाता है. कही या लिखी गई बातें (कॉन्टेन्ट) तीन दिन तक और प्रेषक-ग्राहक फ़ोन या फैक्स नंबर तथा ईमेल-पते जैसी जानकारियां (मेटा डेटा) 30 दिन तक संग्रहीत रहती हैं. इस दौरान एक खास कंप्यूटर प्रोग्राम (सॉफ्टवेयर) ‘बाउंडलेस इन्फॉर्मैन्ट’ की सहायता से उन में छिपी उपयोगी जानकारियां स्वचालित ढंग से छांटी जाती हैं. सबसे अधिक तलाश रहती है मध्य-पूर्व के देशों, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और यूरोप में जर्मनी की तरफ आ-जा रही सूचनाओं की. अकेले जर्मनी संबंधी 50, फ्रांस संबंधी सात और स्पेन संबंधी छह करोड़ इंटरनेट और फोन डेटा हर महीने जमा किए जाते हैं.

imgगूगल और फेसबुक भी लपेटे में
अमेरिका के ‘प्रिज्म’ प्रोग्राम के तहत जो शायद 2007 से चल रहा है, इंटरनेट पर ईमेल, स्काइप चैट, आपसी चैट और फोटो प्रेषण जैसी सेवाओं से मिल सकने वाली जानकारियां जमा की जाती हैं. उन्हें पाने के लिए माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, याहू, एपल, फेसबुक, लिंक्डइन, स्काइप आदि कंपनियों के सर्वर-कंप्यूटरों में सेंध लगा कर घुसपैठ की जाती है. ‘प्रिज्म’ का सॉफ्टवेयर यह तक बता सकता है कि कोई व्यक्ति-विशेष ठीक इस क्षण अपने किस ईमेल या चैट-एकाउंट को खोल रहा है. ‘क्लाउड कंप्यूटिंग’ (किसी दूरस्थ कंप्यूटर में अपना डेटा रखना) को चीन से पहले अमेरिका ने ही असुरक्षित बना दिया है. औद्योगिक जगत इससे सबसे ज्यादा चिंतित है.

जर्मन चांसलर अंगेला मेर्कल सहित विश्व के 35 प्रमुख राजनेताओं के टेलीफोन वर्षों से सुने जा रहे हैं. बर्लिन स्थित अमेरिकी दूतावास में तैनात ‘स्पेशल कलेक्शन सर्विस’ (एससीएस) नाम की एक विशेष टीम चांसलर मेर्कल का मोबाइल फोन संभवतः पांच वर्षों से सुन रही थी. दूतावास भवन जर्मन संसद और चांसलर भवन से मुश्किल से आठ सौ मीटर ही दूर है. समझा जाता है कि संसार के लगभग सभी महत्वपूर्ण देशों के अमेरिकी दूतावासों में ‘एससीएस’ के कर्मी अपने उपकरणों के साथ सक्रिय हैं. भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस जाल में फंसने से बच गए, क्योंकि वे मोबाइल फोन इस्तेमाल ही नहीं करते.

राजनेताओं के ईमेल और टेलीफोन हफ्तों और कई बार महीनों संग्रहीत रहते हैं. ‘एनएसए’ के मुख्यालय में सैकड़ों कर्मचारी उन्हें पढ़ने, सुनने, उनका अनुवाद और विश्लेषण करने का काम करते हैं. बाद में उन्हें अमेरिकी विदेश, वित्त या रक्षा मंत्रालय अथवा सीआईए, एफबीआई जैसी गुप्तचर संस्थाओं या राष्ट्रपति के अधीनस्थ राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के पास भेज दिया जाता है. ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ का कहना है कि राष्ट्रपति ओबामा को पांच वर्षों तक पता नहीं था कि विदेशी राजनेताओं की भी जासूसी की जा रही है. न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय, वॉशिंगटन में भारत, फ्रांस, जापान, इटली, यूनान, मेक्सिको आिद 38 देशों के दूतावास और ब्रसेल्स में यूरोपीय संघ का मुख्यालय भी ‘एनएसए’ की जासूसी के शिकार हैं. जिन देशों की जासूसी में अमेरिका को सबसे अधिक रुचि है, उनमें भारत को पांचवें नंबर पर बताया जा रहा है.

जासूसी का भूत
इसमें कोई संदेह नहीं कि अमेरिका और ब्रिटेन के सिर पर विश्वव्यापी जासूसी का भूत सवार है. दोनों देश इस पर अंधाधुंध पैसा बहा रहे हैं. लेकिन, सच यह भी है कि दुनिया के सभी देश एक-दूसरे की जासूसी करते हैं. दरअसल सब ही राजनीतिक, औद्योगिक या आतंकवादी आशंकाओं से पीड़ित हैं और जानना चाहते हैं कि कौन कितने पानी में है. जहां तक आतंकवाद से लड़ने की बात है तो ‘एनएसए’ के प्रमुख कीथ अलेक्जैंडर ने अमेरिका की एक संसदीय जांच समिति से अक्टूबर में कहा कि उनकी संस्था की सक्रियता का ही फल है कि सितंबर 2001 के बाद से अमेरिका में कोई बड़ी आतंकवादी घटना नहीं हुई है. उनकी संस्था द्वारा दी गई जानकारियां दूसरे देशों में तीन दर्जन इस्लामी आतंकवादी हमलों को विफल बनाने में काम आईं. जर्मनी की वैदेशिक गुप्तचर सेवा ‘बीएनडी’ के प्रमुख ने भी सितंबर में स्वीकार किया था कि अमेरिका से मिली सूचनाओं के आधार पर जर्मनी में कम से कम आठ आतंकवादी हमलों को समय रहते विफल कर दिया गया.भारत को भी इस तरह की सूचनाएं मिलती रही हैं. भारतीय अधिकारियों को  तो अमेरिका में प्रशिक्षण भी मिलता है.

इसी तरह, सच्चाई यह भी है कि जर्मनी और फ्रांस जैसे यूरोप के जो देश आज अमेरिका और ब्रिटेन की असीमित जासूसी पर भौंहें टेढ़ी कर रहे हैं वे कल तक एक दूसरा ही राग अलाप रहे थे. वे खुद भी दूध के धुले नहीं हैं. विश्वव्यापी जासूसी के गोरखधंधे में वे भी अमेरिका और ब्रिटेन के घनिष्ठ सहयोगी रहे हैं, और अब भी हैं.

इसीलिए, ब्रिटेन व अमेरिका को नीचा दिखाने वाले एडवर्ड स्नोडन के जयजयकारी इस बीच खुद भी सकते में आ गए हैं. स्नोडन के दस्तावेजों से उनकी अपनी सरकारों की करतूतों का भी कच्चा चिट्ठा खुल गया है. इन दस्तावेजों के आधार पर ‘गार्डियन’ ने नवंबर की शुरुआत  में उजागर किया कि ग्लासफाइबर वाले केबलों में सेंध लगा कर टेलीफोन और इंटरनेट दूरसंचार पर जो निगरानी रखी जाती है, उसकी तकनीकी विधि ब्रिटेन के ‘जीसीएचक्यू’ ने जर्मनी, फ्रांस, स्पेन और स्वीडन की गुप्तचर सेवाओं के सहयोग से तैयार की है. ‘जीसीएचक्यू’ ने इन देशों की गुप्तचर सेवाओं को बताया कि वे संचार लाइनों की निगरानी संबंधी अपने देशों के कड़े नियमों की काट किस तरह निकाल सकती हैं. जर्मनी की वैदेशिक गुप्तचर सेवा ‘बीएनडी’ के बारे में ‘जीसीएचक्यू’ की टिप्पणी थी, ‘जर्मनी के निगरानी नियमों को बदलने या उनकी नई व्याख्या करने के बीएनडी प्रयासों में हमने उसे मदद दी.’

स्नोडन से मिले दस्तावेजों के आधार पर अमेरिकी पत्र ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ ने लिखा कि स्पेन और फ्रांस के नागरिकों के टेलीफोन उनकी अपनी ही गुप्तचर सेवाएं सुनती और ‘एनएसए’ को दिया करती थीं. यही बात ‘एनएसए’ के प्रमुख कीथ अलेक्जैंडर ने भी अमेरिका की संसदीय जांच समिति के सामने कही थी. उन्होंने कहा था कि ‘ये सूचनाएं हमने और हमारे सभी नाटो-मित्रों ने हम सभी देशों की सुरक्षा और सैनिक कार्रवाइयों में मदद के लिए जुटाईं.’  अलेक्जैंडर ने इस सुनवाई में यह भी कहा कि यूरोपीय देश भी अमेरिका में जासूसी करते हैं.

हैकिंग का कानूनी अधिकार
नवंबर के आरंभ में ‘गार्डियन’ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटिश ‘जीसीएचक्यू’ की नजर में फ्रांस की गुप्तचर सेवा ‘डीजीएसई’ भी सहयोग एवं आदान-प्रदान के लिए भारी तत्परता’ दिखाती है. जर्मनी की वैदेशिक गुप्तचर सेवा ‘बीएनडी’ के बारे में पहले से ही पता था कि उसके पास जर्मनी के भीतर इंटरनेट संचार के प्रमुख केंद्रों में घुसपैठ करने की कानूनी सुविधा है. उसे कानूनी अधिकार है कि वह विदेशों के साथ 20 प्रतिशत दूरसंचार की जांच-परख किया करे. कौन जान सकता है कि जांच-परख के नाम पर बीनएडी के भेदिये कब क्या कर रहे हैं और वे 20 प्रतिशत तक ही सीमित रहते हैं या इससे आगे भी जाते हैं.

जर्मन पत्रिका ‘डेयर श्पीगल’ ने जुलाई में रहस्योद्घाटन किया था कि जर्मनी की गुप्तचर सेवाएं अमेरिका की ‘एनएसए’ के जासूसी तौर-तरीकों और साधनों की सबसे उत्साही अनुगामी हैं. ‘एनएसए’ के अधिकारी बीएनडी को अपना अहम सहयोगी मानते रहे हैं. अमेरिकी सरकार जर्मनी के साथ जासूसी सहयोग को बढ़ाने में भारी दिलचस्पी रखती है. इसीलिए उसने जर्मनी की घरेलू गुप्तचर सेवा ‘संघीय संविधान सुरक्षा कार्यालय’को ‘एक्सकीस्कोर’ जैसा आधुनिक सॉफ्टवेयर तक दिया, जिससे कंप्यूटर हार्ड डिस्क जैसे कई प्रकार के डेटा-धारकों का तेजी से अध्ययन किया जा सकता है. ‘एनएसए’ के जनवरी 2013 के एक दस्तावेज में जर्मन सरकार की इस बात के लिए सराहना की गई है कि उसने ‘जी-10 कहलाने वाले कानून की व्याख्या में संशोधन किया है, ताकि गोपनीय किस्म की सूचनाएं अपने विदेशी सहयोगियों को भी देना बीएनडी के लिए आसान हो जाए.’

शिकार ही शिकारी भी
यानी यूरोप के जो देश अपने आप को अमेरिका और ब्रिटने के जासूसी हमले का शिकार बता कर आज विलाप कर रहे हैं, वे स्वयं भी कुछ कम शिकारी नहीं रहे हैं. यूरोप के लगभग सभी देशों के सभी नागरिक जानते हैं कि उनकी अपनी ही लोकतांत्रिक सरकारें हजार तरह से उनकी रग-रग पर नजर रखे हुए हैं. अब अमेरिका और ब्रिटेन भी यदि उन पर नजर रखने लगे हैं तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा?  इसी वजह से जनसाधारण के स्तर पर वैसी कोई खलबली नहीं दिखाई पड़ती, जैसी राजनीतिक मंचों पर हो रही नौटंकी में दिखाई पड़ती है. लोग यह भी कहते हैं कि इस सारी जासूसी से डरे वह जो कोई गलत काम कर रहा है. जो साफ-सुथरा है, वह भला हाय-तौबा क्यों मचाए?

जनता जितनी शांत है, नेता उतने ही अशांत हैं. अमेरिका की मुखर आलोचक जर्मनी की पर्यावरणवादी ग्रीन पार्टी कुछ ज्यादा ही अशांत है. उसके एक सांसद हान्स क्रिस्टियान श्ट्रौएबले एक टेलीविजन पत्रकार के साथ अक्टूबर के अंत में गुपचुप अचानक मॉस्को पहुंच गए. 31 अक्टूबर को वे एडवर्ड स्नोडन से मिले और उसी शाम बर्लिन वापस लौट कर घोषणा की कि यदि स्नोडन को किसी तरह की आंच नहीं पहुंचे, तो ‘वह बर्लिन आने या मॉस्को में ही प्रश्नों के जवाब देने के लिए तैयार है.’ श्ट्रौएबले ने जर्मन सरकार के नाम स्नोडन का लिखा एक पत्र भी दिखाया, जिस में उसने जर्मनी से बातचीत करने के प्रति सहमति जताई है.

जर्मन सरकार धर्मसंकट में
जर्मनी में अमेरिकी जासूसी के आयाम और खुद जर्मन गुप्तचर सेवाओं की भूमिका का पता लगाने के लिए एक संसदीय जांच समिति गठित करने की बात चल रही थी. श्ट्रौएबले शायद सोच रहे थे कि वे मॉस्को में स्नोडन से अपनी गुप्त मुलाकात के माध्यम से इस जांच का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं. लेकिन हो इसका उल्टा रहा है. जर्मन सरकार धर्मसंकट में पड़ गई है. वह एक ऐसे व्यक्ति से बात कैसे करे जिसने जर्मनी के परम मित्र अमेरिका के साथ विश्वासघात किया है? जिसके नाम अमेरिका ने गिरफ्तारी और प्रत्यर्पण का विधिवत आवेदन किया है? और, जिसने  अब तक की गोपनीयताओं पर से पर्दा उठा कर स्वयं जर्मन गुप्तचर सेवाओं के मुंह पर भी कालिख पोती है?

स्नोडन की अमेरिकी नागरिकता छिन गई है. उसके पास कोई पासपोर्ट नहीं है. उसे रूस में इस शर्त पर शरण मिली है (और वह भी एक साल के लिए) कि रूसी भूमि छोड़ते ही उस की शरण निरस्त हो जाएगी. ऐसे में उस का जर्मनी आना तभी संभव है, जब जर्मनी या उसकी पसंद का कोई दूसरा देश उसे शरण दे और अमेरिका से पंगा मोल ले. कौन करेगा यह सब?  1948 में रूसी नाकेबंदी से घिरे उस समय के पश्चिमी बर्लिन की रक्षा से लेकर 1990 में विभाजित जर्मनी का एकीकरण संभव बनाने तक अमेरिका के जर्मनी पर इतने सारे उपकार हैं कि वह तो अमेरिका को ललकारने की सोच भी नहीं सकता. और वह ऐसा करे तो विश्व महाशक्ति अमेरिका भी उसके कान ऐंठने का साहस दिखा सकता है.

जर्मन सरकार के नाम अपने पत्र में स्नोडन ने लिखा है, ‘सच बोलना कोई अपराध तो नहीं है.’ उसने गंभीरता से नहीं सोचा कि सच बोलना अपराध तो नहीं है, पर आफत को न्यौता देना तो हो ही सकता है. एक ऐसा सच, जिससे देशद्रोह और विश्वासघात की गंध आती हो, उसे सम्मान दे कर अपने यहां भी उसके अनुकरण का जोखिम उठाना भला कौन-सा देश चाहेगा? स्नोडन ने भारत से भी शरण मांगी थी. शायद इसीलिए भारत ने भी कान में तेल डाल लिया. हर देश के पास जासूसी संस्थाएं हैं. हर देश अपने जासूसों से यही अपेक्षा रखता है कि वे संखिया जहर खा लेंगे, पर मुंह नहीं खोलेंगे.

(लेखक जर्मन रेडियो डॉयचे वेले की हिंदी सेवा के प्रमुख रह चुके हैं)