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अपराध और दंड


तहलका के संपादक रहे तरुण तेजपाल पर जिस तरह के आरोप लग रहे हैं उनके बारे में सोचते हुए बार-बार अफसोस और शर्म में डूब जाता हूं. उनके दो उपन्यासों ‘द स्टोरी ऑफ माई असासिन्स’ और ‘द वैली ऑफ मास्क्स’ का मुरीद रहा. ‘द स्टोरी ऑफ माई असासिन्स’ पर लिखा भी. तहलका की निर्भीक पत्रकारिता का कायल रहा और जब स्तंभकार के तौर पर इस पत्रिका से जुड़ने का मौका मिला तो लगा कि एक मजबूत परंपरा का हिस्सा हूं.

लेकिन आज वह गर्व जैसे चूर-चूर है. खुद से पूछता हूं कि अगर ये आरोप सही हैं तो हमारे लिखते रहने का क्या मतलब है. यह सारा साहित्य-विचार-दर्शन क्या सिर्फ बुद्धिविलास है? जीवनपर्यंत हम जिन विश्वासों को जीते हैं, जिन शब्दों से जीने का संबल और सार्थकता पाते हैं, उन्हीं को एक दिन इतनी बुरी तरह क्यों कुचल डालते हैं कि सारे शब्द निरर्थक लगने लगें, सारी आस्था पाखंड जान पड़े?

ये सवाल सिर्फ तरुण तेजपाल से नहीं, अपने-आप से भी पूछे जाने के लिए हैं. बेशक, तरुण तेजपाल ने अगर यह किया है तो उसकी सजा तहलका को नहीं मिलनी चाहिए. लेकिन क्या यह संभव है? अगर तरुण तेजपाल के कृतित्व से हम गौरवान्वित और लाभान्वित होते रहे तो उन पर लगी कालिख से पीड़ित और लांछित क्यों नहीं होंगे? कई बार व्यक्ति और संस्थान एक-दूसरे के पर्याय हो जाते हैं. तरुण तेजपाल और तहलका भी हैं. एक की करनी से दूसरा बेअसर नहीं रह सकता.

सवाल है, अब क्या हो? इस मामले के दो पक्ष हैं- एक कानूनी और दूसरा नैतिक. कानून को अपना काम करना चाहिए और तेजपाल पर लगे आरोप अगर साबित हो जाते हैं तो उनके अपराध के हिसाब से उन्हें सजा मिलनी चाहिए. मगर पहले दौर की बिना शर्त माफी के बाद अब तरुण का दावा है कि घटनाएं उस तरह नहीं घटीं जिस तरह बताई जा रही हैं. अब यह अदालत पर है कि वह तेजपाल पर लगे आरोप का क्या करती है. अभी तो अदालत और अदालत से बाहर तथ्य जिस तरह दलीलों में बदले जा रहे हैं, वह भी तेजपाल के प्रशंसकों को धक्का पहुंचाने वाला है. पीड़ित लड़की के आरोप में राजनीतिक साजिश खोजना शायद ऐसी ही तकलीफदेह दलील है. फिलहाल तेजपाल कठघरे में हैं. अगर कोई कनिष्ठ सहयोगी अपने बॉस पर इतने गंभीर इल्जाम लगा रही है तो मेरी तरह कई लोग मान सकते हैं कि कुछ तो ऐसा है जो तरुण तेजपाल द्वारा स्थापित पेशेवर मानदंडों के विरुद्ध गया है. यह बहुत सारे लोगों की निगाह में एक छल है, विश्वासघात है. देखें तो इस छल की सजा शुरू भी हो गई है. संस्थाएं, सम्मान, समारोह, सब उनसे मुंह मोड़ रहे हैं.  लेकिन तरुण तेजपाल की यह सजा तहलका की सजा भी बन रही है. कई सहयोगी उनका साथ छोड़ गए. जो नहीं छोड़ पाए, उन्हें कहीं ज्यादा मुश्किल सवालों का सामना करना पड़ रहा है- अपने से भी और दूसरों से भी. जाहिर है, यह चोट जितनी तेजपाल पर है, उससे कम तहलका पर नहीं. यह सवाल पूछा जा रहा है कि तहलका बचा रहेगा या नहीं.

मगर तरुण तेजपाल पर लगे आरोप अगर सही हैं तो क्या यह सिर्फ उनकी निजी विफलता है? यह इत्तिफाक नहीं कि मीडिया से ठीक पहले यौन उत्पीड़न का यह शर्मनाक आरोप सुप्रीम कोर्ट के एक जज पर लगा और उसके भी पहले एक धर्मगुरु पर. इससे भी बड़ी सच्चाई यह है कि यौन उत्पीड़न की ऐसी शिकायतें आम तौर पर अनदेखी रह जाती हैं या फिर की नहीं जातीं- बल्कि इस उत्पीड़न के कई स्तर इतने सूक्ष्म और सांकेतिक होते हैं, इतने सयाने कि उनकी शिकायत भी मुमकिन नहीं लगती. फिर इन शिकायतों की जांच का जो तंत्र है- दफ्तरी कमेटियों से लेकर पुलिस-कचहरी तक- वह पुरुष वर्चस्व और मानसिकता का इस कदर मारा है कि वह सबसे पहले शिकायतकर्ता को दंडित करता है.

निस्संदेह, हाल के वर्षों में बने कई कानून लड़की के पक्ष में खड़े हैं. विशाखा निर्देशिकाएं हों या  कार्यस्थलों में यौन-उत्पीड़न विरोधी कानून- वे महिलाओं को बचाव के जरूरी औजार मुहैया कराते हैं. यह एक बड़े बदलाव की सूचना है, लेकिन आधी-अधूरी. क्योंकि जिन लोगों को इस बदलाव का वाहक होना चाहिए, वे या तो इसके प्रति लापरवाह हैं या खुद को बदलने को तैयार नहीं.

तरुण तेजपाल और तहलका के मामले में असली पीड़ा यही है. अपनी आधुनिकता और प्रगतिशीलता से आश्वस्त शायद वहां किसी ने यह सोचने की जरूरत भी महसूस नहीं की कि यहां भी विशाखा निर्देशिकाओं के मुताबिक एक यौन उत्पीड़न कमेटी होनी चाहिए. अगर यह कमेटी होती तो तरुण तेजपाल के मामले में संस्थान शायद इतना किंकर्तव्यविमूढ़ नहीं दिखता, शोमा चौधरी को अपने से और अपनों से लड़ना नहीं पड़ता और तहलका पर मामले को रफा-दफा करने का आरोप नहीं लगता. लेकिन ऐसी कमेटी शायद देश के 90 फीसदी दफ्तरों में न हो. दरअसल इस कमेटी का न होना भी बताता है कि हम स्त्री अधिकारों और बराबरी को लेकर भले ही सदाशय और संवेदनशील हों, पर बिल्कुल निर्णायक ढंग से इस बराबरी की शर्तें लागू करने को तैयार नहीं हैं.

अब भी तरुण तेजपाल के विरुद्ध जैसी प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, जिस तरह उनका मुकदमा बढ़ाया जा रहा है, उससे यह दिखता है कि इसे स्त्री अधिकार की संवेदनशील लड़ाई की तरह नहीं लड़ा जा रहा, बल्कि पीड़ित लड़की की दैहिक आजादी और सहमति के सवाल को युद्ध का मैदान बनाकर वही मर्दाना लड़ाई लड़ी जा रही है जिसमें तेजपाल के खिलाफ पुराने हिसाब चुकता करने का छिपा हुआ उल्लास भी है और खुद को पाक-साफ बताने की चालाक बेताबी भी.

सच्चाई यह है कि एक हिंसक और जंगली पशु हम सबके भीतर बैठा होता है. चुनौती वह वातावरण बनाने की है जिसमें यह पाशविकता मनुष्यता में अनुकूलित हो सके, ढल सके. जब तक यह अभ्यास विकसित नहीं हो जाता कि हम स्त्री को समझें, उसकी निजता और स्वतंत्रता का सम्मान करें, उसे एक व्यक्तित्व की तरह देखें, तब तक हमें अपने सार्वजनिक परिसरों में स्त्री की उपस्थिति को मजबूत कानूनी कवच देना होगा, पुरुष के रूप में अपने कुछ अघोषित विशेषाधिकार छोड़ने होंगे. इसी में हमारे हिस्से की सजा होगी, हमारा प्रायश्चित होगा और इसी में स्त्री के विरुद्ध अपराध का उचित दंड और प्रतिकार संभव हो सकेगा.

तेजपाल से आगे

tamashaइस बार यह स्तंभ बहुत तकलीफ और मुश्किल से लिख पा रहा हूं. कारण, तहलका के प्रधान संपादक तरुण तेजपाल खुद अपनी ही एक महिला सहकर्मी पत्रकार के बलात्कार के गंभीर आरोपों से घिरे हैं. तहलका के संपादकीय नेतृत्व और प्रबंधन पर इस मामले को दबाने और तरुण तेजपाल का बचाव करने के आरोप लग रहे हैं.

इस बीच, तहलका के कुछ पत्रकारों ने इस्तीफा दे दिया है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि पीड़ित पत्रकार की शिकायत न सिर्फ बहुत गंभीर है बल्कि गोवा पुलिस के मामला दर्ज कर लेने के बाद तेजपाल को कानून का सामना करना ही पड़ेगा. कानून सही तरह से काम करे इसके लिए जरूरी है कि न्यूज मीडिया इस मामले की नियमित, तथ्यपूर्ण और संवेदनशील रिपोर्टिंग करे. यही नहीं, यह मामला समूचे न्यूज मीडिया के लिए भी एक टेस्ट केस है क्योंकि जो न्यूज मीडिया (तहलका समेत) यौन हिंसा से जुड़े मामलों को, जोर-शोर से उठाता रहा है, उसे तेजपाल के मामले में भी उसी साफगोई से रिपोर्टिंग करनी चाहिए.

निश्चय ही, इस रिपोर्टिंग का उद्देश्य यह होना चाहिए कि सच सामने आए, यौन हिंसा की पीड़िता को न्याय मिले और अपराधी चाहे जितना बड़ा और रसूखदार हो, वह बच न पाए. लेकिन इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि यौन हिंसा के मामलों की रिपोर्टिंग में पूरी संवेदनशीलता बरती जाए. जैसे पीड़िता की पहचान गोपनीय रखी जाए और बलात्कार के चटखारे भरे विवरण और चित्रीकरण से हर हाल में बचा जाए. उसे सनसनीखेज बनाने के लोभ से बचा जाए. लेकिन अफसोस की बात यह है कि न्यूज मीडिया में ठीक इसका उल्टा हो रहा है. इस मामले को जिस तरह से सनसनीखेज तरीके से पेश किया जा रहा है और ‘भीड़ का न्याय’ (लिंच मॉब) वाली मानसिकता को हवा दी जा रही है, उससे सबसे ज्यादा नुकसान न्याय का ही हो रहा है.

यही नहीं, न्यूज मीडिया की रिपोर्टिंग और चैनलों की प्राइम टाइम बहसों से ऐसा लग रहा है कि यौन उत्पीड़न और हिंसा के मामले में खुद न्यूज मीडिया के अन्तःपुर में सब कुछ ठीक-ठाक है और एकमात्र ‘सड़ी मछली’ तेजपाल हैं. हालांकि सच यह नहीं है.

सच पूछिए तो तेजपाल प्रकरण इस मामले में भी एक टेस्ट केस है कि कितने अखबारों और चैनलों में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न और हिंसा के मामलों से तुरंत और सक्षम तरीके से निपटने और पीडि़तों को संरक्षण और न्याय दिलाने की सांस्थानिक व्यवस्था है. क्या न्यूज मीडिया ने इसकी कभी ऑडिट की?

सच यह है कि इस मामले में पहले सुप्रीम कोर्ट के विशाखा निर्देशों और बाद में कानून बनने के बावजूद ज्यादातर अखबारों और चैनलों में कोई स्वतंत्र, सक्रिय और प्रभावी यौन उत्पीड़न जांच और कार्रवाई समिति नहीं हैै. क्या तेजपाल प्रकरण से सबक लेते हुए न्यूज मीडिया अपने यहां यौन उत्पीड़न के मामलों से ज्यादा तत्परता, संवेदनशीलता और सख्ती से निपटना शुरू करेगा और अपने संस्थानों में प्रभावी और विश्वसनीय व्यवस्था बनाएगा? इस पर सबकी नजर रहनी चाहिए.

दूसरे, तेजपाल के बहाने खुद तहलका पर भी हमले शुरू हो गए हैं. उसकी फंडिंग से लेकर राजनीतिक संपर्कों पर सवाल उठाए जा रहे हैं. लेकिन सवाल यह है कि क्या तेजपाल के अपराध की सजा तहलका और उसमें काम करने वाले कई जुझारू और निर्भीक पत्रकारों को दी जा सकती है. यह भी कि क्या वे सभी अखबारों और चैनलों की फंडिंग और राजनीतिक संपर्कों की ऐसी ही छानबीन करेंगे? निश्चय ही, ऐसी छानबीन का स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन यह चुनिंदा नहीं होनी चाहिए.

एक मायने में यह मौका भी है जब कॉरपोरेट न्यूज मीडिया के अंदर बढ़ती हुई सड़न सामने आ रही है. उसका घाव फूट पड़ा है. जरूरत उसे और दबाकर उसके अंदर के मवाद को बाहर निकालने की है. इसके बिना उसके स्वस्थ होने की उम्मीद नहीं की जा सकती है.

क्या शिवराज, अटल जैसे होकर उनके जितना हासिल करने की राह पर हैं?

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नौ मार्च, 2013 का दिन मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए वह सुखद क्षण लेकर आया जिसे दुहराने की उनके मन में बार-बार इच्छा होती होगी. ऐसा नहीं था कि उस दिन लालकृष्ण आडवाणी पहली बार मध्य प्रदेश आए थे. ऐसा भी नहीं था कि उन्होंने राज्य की शिवराज सरकार की प्रशंसा पहले नहीं की थी. लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी से शिवराज की तुलना उन्होंने पहले कभी नहीं की थी. शहडोल की उस जनसभा में जहां आडवाणी जिले में 24 घंटे बिजली देने की योजना का शुभारंभ करने आए थे शिवराज की अटल से तुलना करते हुए आडवाणी ने कहा कि जिस तरह अटल बिहारी वाजपेयी राजनीति और विकास के रोल मॉडल रहे हैं, उसी प्रकार शिवराज सिंह चौहान भी मध्य प्रदेश के रोल मॉडल बन चुके हैं.

हाल ही में दिल्ली में संपन्न हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठक में भी नरेंद्र मोदी के इतर कोई और नेता जो राष्ट्रीय पटल पर चर्चा के केंद्र में आया तो वे शिवराज सिंह चौहान ही थे. पूरी परिषद की चर्चा में भाजपा के तमाम बड़े नेताओं ने विकास, सुशासन और लोकप्रियता की जब भी चर्चा की मोदी के साथ ही चौहान का नाम भी उन्होंने प्रमुखता से लिया.

हाल ही में संघ के मुखपत्र पांचजन्य ने पूरी बैठक को कवर करते हुए जो लेख प्रकाशित किया उसने भी मोदी और शिवराज के बीच एक बराबरी की रेखा खींचने की कोशिश की है. लेख जहां एक तरफ मोदी की तारीफ करता है वहीं दूसरी तरफ वह शिवराज के राजनीतिक कद को भी मोदी के बराबर लाकर खड़ा करता है. ऊपर दिए गए ये उदाहरण सबसे बड़ा प्रश्न यह खड़ा करते हैं कि आखिर मोदी-मोदी और नमो-नमो के इस माहौल में शिवराज सिंह चौहान में ऐसा क्या है कि आडवाणी अटल से उनकी तुलना कर रहे हैं, तो संघ का मुखपत्र उन्हें मोदी के बराबर लाकर खड़ा कर रहा है. पिछले कुछ समय में विभिन्न स्रोतों से ऐसी भी कई खबरें सामने आई हैं जो बता रही हैं कि यह शख्स 2014 में डार्क हॉर्स साबित हो सकता है. मध्य प्रदेश में पिछले आठ साल से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को एक बेहतर बैकअप मैन के तौर पर देखा जाता है. अर्थात संकट या विकल्पहीनता की स्थिति में यह व्यक्ति हर उस जिम्मेदारी को बेहतर ढंग से निभा सकता है जो उसे सौंपी जाए. ऐसा सोचने के पीछे मजबूत कारण है.

[box]आज भाजपा का कोई नेता है जिस पर संघ आंख बंद करके विश्वास करता है और जिसने संघ को पूरी तरह साधा हुआ है तो वह शिवराज सिंह चौहान ही हैं[/box]

जब 2003 में मध्य प्रदेश विधानसभा के चुनाव होने वाले थे तो उस समय शिवराज सिंह चौहान कहीं सीन में ही नहीं थे. उस वक्त प्रदेश भाजपा का चेहरा उमा भारती थीं. शिवराज की स्थिति उस समय यह थी कि उन्हें टिकट पाने तक के लिए संघर्ष करना पड़ा. टिकट मिला भी तो राघौगढ़ से दिग्विजय सिंह के खिलाफ. शिवराज चुनाव हार गए. लेकिन पार्टी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को धूल चटाने में सफल रही. उमा ने दिग्विजय सिंह को हराकर मध्य प्रदेश में भाजपा का लंबे समय से चल रहा राजनीतिक वनवास समाप्त किया. नौ महीने के अपने छोटे-से कार्यकाल के बाद उमा को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा. पार्टी ने उनके बाद बाबूलाल गौर को सीएम बनाया लेकिन पता नहीं सत्ता को क्या मंजूर था, वह  कुछ समय बाद ही गौर के तमाम जतन के बावजूद उनके हाथों से भी फिसल गई. पार्टी ने तब तमाम शंकाओं के साथ तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री पद पर बैठा दिया.

पार्टी शिवराज को लेकर संशय में थी कि पता नहीं वे पार्टी को एकजुट रखने के साथ ही सही ढंग से सरकार चला भी पाएंगे या नहीं. शिवराज सिंह चौहान खुद इस बात को कई बार सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि उस समय शायद ही कोई था जिसे उनकी नेतृत्व क्षमता पर विश्वास था. लेकिन तमाम आशंकाओं को गलत साबित करते हुए शिवराज ने पार्टी और सरकार को बेहतर तरीके से संभाल लिया. उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद बिना किसी अस्थिरता का शिकार हुए सरकार ने पांच साल पूरे किए. 2008 के विधानसभा चुनाव में पार्टी शिवराज के नेतृत्व में ही चुनाव मैदान में गई और भारी बहुमत के साथ जीत दर्ज की. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई कहते हैं, ‘2003 में किसे उम्मीद थी कि यह आदमी सीएम बन जाएगा. जिस तरह से हाथी के खाने और दिखाने वाले दांत अलग-अलग होते हैं, उसी तरह से यह आदमी भाजपा का दिखाने वाला नहीं बल्कि खाने वाला दांत है. जरूरत पड़ने पर यह आदमी कोई भी जिम्मेदारी बेहतर तरीके से संभाल सकता है. भले ही वो पीएम पद की जिम्मेदारी ही क्यों न हो. ’

शिवराज की एक बड़ी विशेषता उनकी वह उदार छवि है जो प्रायः भाजपा की पारंपरिक छवि के उलट जाती है. उदार राजनेता के रूप में पहचाने जाने वाले शिवराज ने मध्य प्रदेश के अपने आठ साल के कार्यकाल में राज्य के हर वर्ग को अपने से जोड़ने का पूरा प्रयास किया है. चाहे वह दलित, आदिवासी हों या फिर मुस्लिम एवं अन्य अल्पसंख्यक. ऐसे दृश्य बहुत कम देखने को मिलते हैं जहां भाजपा का कोई नेता अल्पसंख्यकों के कार्यक्रमों में शामिल होता हो. अल्पसंख्यकों का सम्मेलन करने, हज यात्रा के लिए छोड़ने जाने, नमाज़ी टोपी पहनकर मुस्लिम समुदाय के लोगों से मिलने-जुलने, ईद पर उन्हें बधाई देने जैसी चीजें भाजपा के नेताओं में आम नहीं हैं. लेकिन शिवराज ये सब कुछ करते हैं. यही कारण है कि अल्पसंख्यकों के बीच शिवराज शायद अन्य भाजपा नेताओं से कहीं ज्यादा लोकप्रिय और स्वीकार्य हैं. या यह कहें कि राज्य के अल्पसंख्यक उनकी तरफ संदेह की नजरों से नहीं देखते हैं.

भोजशाला विवाद एक बड़ा उदाहरण है जो इस बात को स्थापित करता  दिखता है कि कैसे संघ की वैचारिक फैक्टरी में तैयार हुए स्वयंसेवक मुख्यमंत्री ने बिना किसी दबाव में आए हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के साथ न्याय करने की कोशिश की. धार स्थित भोजशाला में हर शुक्रवार को नमाज पढ़ी जाती है और मंगलवार को पूजा होती है. इस बार बसंत पंचमी शुक्रवार को ही पड़ गई. ऐसे में कई हिंदू धर्मगुरुओं ने वहां पूरे दिन पूजा की मांग की. दोनों पक्षों में तनाव बढ़ता गया. तमाम दबावों के बावजूद प्रदेश सरकार ने कड़ा फैसला लेते हुए उस दिन नमाज और पूजा दोनों कराने का निर्णय लिया. इसका हिंदू धर्मगुरुओं ने कड़ा विरोध किया और सरकार को कठोर परिणाम भुगतने की चेतावनी तक दी लेकिन सरकार नहीं झुकी. प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं भाजपा के वयोवृद्ध नेता कैलाश जोशी इस घटना से निपटने के शिवराज सिंह चौहान के तरीके को उनकी राजनीतिक परिपक्वता का उदाहरण बताते हुए कहते हैं, ‘अगर धार का मामला सही से नहीं सुलझा होता तो प्रदेश में भाजपा के राजनीतिक भविष्य पर एक गंभीर प्रश्न खड़ा हो जाता.’

जानकार बताते हैं कि दो बार ऐसे मौके पूर्व में भी आए हैं जो शिवराज की अल्पसंख्यकों के प्रति सोच को काफी हद तक स्पष्ट करते हैं. पहला मामला तब आया जब सरकार ने कन्यादान योजना शुरू की थी. योजना के शुरू होने के बाद कुछ मुस्लिम संगठनों ने इसका यह कहकर विरोध किया कि यह हिंदू धर्म की विवाह पद्धति को सबके ऊपर थोपने का प्रयास है. सरकार ने तुरंत मुस्लिम समुदाय के लिए निकाह योजना शुरू कर दी. दूसरा मामला तब का है जब सरकार ने तीर्थ दर्शन योजना शुरू की. चयनित किए गए 17 तीर्थस्थलों में अजमेर शरीफ, वेलांगणी चर्च, सम्मेद-शिखर, और अमृतसर को भी शामिल किया गया. मध्य प्रदेश सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘देखिए, राज्य में अल्पसंख्यक मतदाताओं का कोई खास प्रभाव नहीं है. लेकिन फिर भी मैंने देखा है कि मुख्यमंत्री योजनाएं बनाते समय उनका भी खयाल रखते हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो फिर आप बताइए तीर्थ दर्शन में अजमेर शरीफ शामिल नहीं करने से सरकार की सेहत पर क्या फर्क पड़ता.’

शिवराज के पक्ष में सबसे बड़ी बात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से बेहतर संबंध होना भी है. भाजपा के सूत्र बताते हैं कि आज भाजपा का कोई नेता है जिस पर संघ आंख बंद करके विश्वास करता है और जिसने संघ को पूरी तरह साधा हुआ है तो वह शिवराज सिंह चौहान ही हैं. संघ से जुड़े सूत्र इस बात की तस्दीक करते हुए बताते हैं कि जब गडकरी को अध्यक्ष पद पर दूसरा टर्म मिलने की संभावना पर ग्रहण लगता दिखा तो संघ ने बैकअप प्लान के तौर पर शिवराज को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने की प्लानिंग कर ली थी. संघ ने यह तय किया था कि गडकरी को मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव होने तक अध्यक्ष बना रहने दिया जाएगा. उसके बाद शिवराज को दिल्ली बतौर भाजपा अध्यक्ष भेजा जाएगा. अचानक ही गडकरी को लेकर पार्टी में विरोध चरम पर पहुंच गया और संघ ने  मन मसोसकर गडकरी को हटाए जाने का ग्रीन सिग्नल दे दिया. चूंकि शिवराज को दिल्ली लाना मध्य प्रदेश के चुनाव में नुकसानदेह साबित हो सकता था इसलिए संघ ने अध्यक्ष पद के लिए दूसरे नामों पर विचार करना शुरू किया.

इस पूरी कहानी का सार सिर्फ इतना बताना है कि संघ शिवराज से किस कदर प्रेम करता है. लेकिन क्या संघ का शिवराज के प्रति प्रेम ऐसे ही मुफ्त में उपजा है? वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘बिना कोई विवाद पैदा किए जिस सफाई से शिवराज ने संघ के एजेंडे को पूरे राज्य में लागू किया है वो अपने आप में ऐतिहासिक है. शायद ही भाजपा शासित कोई राज्य ऐसा रहा है जहां संघ को इस कदर स्पेस मिला हो.’
पिछले कुछ सालों के रिकॉर्ड को उठाकर देखा जा सकता है कि कैसे संघ की कोई योजना अगर सबसे पहले किसी राज्य में लागू हुई तो वह मध्य प्रदेश ही था. जयपुर में हाल ही में आयोजित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में आए संघ के एक नेता कहते हैं, ‘मोदी को भले ही हिंदुत्व का पोस्टर ब्वॉय समझा जाता हो लेकिन ये बता पाना मुश्किल है कि पिछले 10 साल में उन्होंने अपने राज्य में संघ की किस योजना को लागू करने का काम किया है. उन्होंने संघ की विचारधारा को गुजरात में मजबूत करने या उसे फैलाने के लिए क्या किया है?’

मध्य प्रदेश में शिवराज ने बिना किसी बड़े विवाद और शोर-शराबे के संघ के मन मुताबिक अनेक काम किए हैं. सूर्य नमस्कार को ही लें. इसको लेकर मुस्लिम समाज की तरफ से कड़ा विरोध दर्ज कराया गया था लेकिन सरकार नहीं मानी. इसे सभी सरकारी स्कूलों में अनिवार्य घोषित कर दिया गया. ऐसे ही शिवराज सरकार ने सालों से चले आ रहे उस बैन को हटाया जिसमें सरकारी कर्मचारियों के संघ की शाखाओं में जाने पर पाबंदी थी. राज्य सरकार ने एक समय पर गीता को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने का भी निर्णय लिया. जब इसका विरोध हुआ तो इसमें बच्चों को अन्य धर्म ग्रंथों को भी पढ़ाने का सरकार ने आश्वासन दिया, लेकिन वह गीता पढ़ाने के अपने निर्णय से पीछे नहीं हटी. इनके अतिरिक्त योजनाओं के नामकरण से लेकर बौद्ध विश्वविद्यालय स्थापित करने, गौ-अभयारण्य बनाने समेत तमाम ऐसे कदम राज्य सरकार ने उठाए जो संघ की विचारधारा के मुताबिक थे. लेकिन अगर यह पढ़कर आपको ऐसा लगता है कि शिवराज संघ की कठपुतली हैं और संघ जो चाहता है मध्य प्रदेश में करता है तो आप बिल्कुल गलत दिशा में जा रहे हैं. यहीं पर आपका सामना चतुर और कूटनीतिज्ञ राजनेता शिवराज से होता है.

मध्य प्रदेश सरकार के बेहद करीबी रहे एक व्यक्ति हमें बताते हैं कि कैसे शिवराज ने एक हाथ से संघ को साधने के साथ ही दूसरे हाथ से उस पर लगाम भी लगाई है. वे बताते हैं कि शिवराज इस बात को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि बिना संघ को साधे मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री क्या आप भाजपा में चपरासी तक नहीं बन सकते. लेकिन दूसरी तरफ उन्हें यह भी पता है कि लंबी रेस का घोड़ा बनने के लिए और देश के बदले राजनीतिक माहौल में खुद को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए सिर्फ संघ का समर्थन नाकाफी है. ऐसे में उन्होंने तीसरा रास्ता निकाला. समझौते के तहत शिवराज ने कुछ संस्थान संघ को सौंप दिए. अर्थात इन संस्थानों में क्या होगा, किन लोगों की नियुक्ति इसमें की जाएगी, पाठ्यक्रम आदि क्या होगा – यह तय करने का पूरा अधिकार एक प्रकार से संघ को दे दिया गया. समझौते के दूसरे हिस्से में शिवराज ने संघ से कहा कि इन चुनिंदा संस्थानों को छोड़कर संघ राज्य के अन्य  संस्थानों एवं प्रदेश के शासन और प्रशासन में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं करेगा. शिवराज के इस फॉर्मूले पर संघ ने अपनी सहमति दे दी. इस तरह की व्यवस्था न पहले किसी भाजपा शासित राज्य में रही है और न अभी ही किसी राज्य में है. यही कारण है कि संघ मध्य प्रदेश में सबसे अधिक दिखता तो है लेकिन कभी सरकार या मुख्यमंत्री के रास्ते में आड़ा-तिरछा आता नहीं दिखता.

[box]विधानसभा से लेकर सड़क तक अगर कांग्रेस के नेता शिवराज सरकार को घेरते भी हैं तो उनके निशाने पर मुख्यमंत्री नहीं बल्कि उनकी सरकार या मंत्री होते हैं[/box]

कहा जाता है कि राजनीतिक क्षेत्र में सफलता काफी हद तक इस बात पर भी निर्भर करती है कि आप अपने विरोधियों को भी साधने, उन्हें साथ लेकर चलने की कितनी क्षमता रखते हैं या फिर उन्हें ऐसा भ्रम दिला पाने में कितने सफल होते हैं. शिवराज ने इस मामले में भी महारत हासिल कर ली है.

अपने आठ साल के कार्यकाल में शिवराज ने राज्य के सभी महत्वपूर्ण नेताओं को साधने और उनके बीच अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने में सफलता पाई है. आज सीधे तौर पर भाजपा में उनका कोई दुश्मन नहीं है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण उमा भारती हैं. वे उमा भारती जो चौहान को लंबे समय तक ‘बच्चा चोर’ कहा करती थीं. उन्हें लगता था कि भाजपा को सत्ता तो उन्होंने दिलाई लेकिन शिवराज ने छल-कपट से उसे उनसे छीन लिया. स्थिति यह थी कि उमा शिवराज को फूटी आंख तक नहीं देखना चाहती थीं. लेकिन इन आठ साल में शिवराज ने उमा भारती के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर कभी कोई टिप्पणी नहीं की. वे उमा से  लगातार अपने संबंध सुधारने की कोशिश करते रहे. 2012 में जब उमा ने उत्तर प्रदेश के चरखारी से विधानसभा चुनाव लड़ा तो वे उनके लिए वहां चुनाव प्रचार करने भी गए. इसके अतिरिक्त जब भी कोई उनसे उमा के साथ मनमुटाव की बात करता वे कहते, ‘भाई और बहन में क्या कभी मनमुटाव हो सकता है? उमा मेरी बहन हैं. मैं उनका बहुत सम्मान करता हूं.’

उमा का मामला महत्वपूर्ण इसलिए है कि अगर सबसे ज्यादा तनाव और संघर्ष शिवराज का किसी से रहा है तो वे उमा भारती ही थीं. वे जानते थे कि उन्हें चुनौती देने और उखाड़ फेंकने की क्षमता मध्य प्रदेश में अगर किसी के पास है तो उमा में ही है. यही कारण है कि शिवराज ने उमा को साधने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी.

हाल ही में उमा भारती के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनने को कुछ लोगों शिवराज के लिए एक बड़ा सेटबैक बताया. अभी इस दिशा में चर्चा चल ही रही थी कि उमा ने सभी को चौंकाते हुए एकाएक कुछ ऐसा ऐतिहासिक किया जिसने इस पूरी चर्चा की हवा ही निकाल दी. वे उमा जो पिछले आठ साल से कभी भाजपा कार्यालय नहीं गई थीं उपाध्यक्ष बनने के बाद प्रदेश भाजपा के बुलावे पर भोपाल स्थित भाजपा कार्यालय पहुंच गईं. वहां भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह की टीम में शामिल किए गए मध्य प्रदेश के सभी नेताओं का स्वागत किया जाना था. उमा के कार्यालय पहुंचने की घटना से लोग हैरान थे कि उन्होंने वहां शिवराज सरकार की तारीफ करके सभी को अचरज में डाल दिया. 2013 में शिवराज के नेतृत्व में फिर से भाजपा के सत्ता में आने की बात करते हुए उमा ने न सिर्फ शिवराज की खुल कर तारीफ की बल्कि मध्य प्रदेश को गुजरात से बेहतर भी बता डाला.

बीते कुछ सालों में शिवराज ने राज्य के अन्य कई नेताओं को साधने की आक्रामक कोशिशें की हैं. इनमें से कई उमा भारती के वफादार थे, कुछ वरिष्ठ थे तो कई ऐसे थे जो इस बात से परेशान थे कि यह सीएम कैसे बन गया हम कहां किसी चीज में इससे कम थे. आखिरी श्रेणी में काफी समय तक प्रदेश के कद्दावर मंत्री कैलाश विजयवर्गीय भी थे. आज वे यह कहते हुए सुनाई देते हैं कि शिवराज प्रधानमंत्री पद के लिए बिल्कुल योग्य उम्मीदवार हैं. शिवराज के सबको साथ लेकर चलने के गुण का जिक्र करते हुए कैलाश जोशी कहते हैं, ‘शिवराज सभी का सम्मान करता है. मेरे जैसे ही राज्य में और भी कई वरिष्ठ नेता हैं. उसने कभी किसी को सम्मान देने में कोई कमी नहीं रखी. ऐसे अब बहुत कम नेता बचे हैं जो लोकप्रिय और विनम्र एक साथ बने रहें.’

जानकारों का मानना है कि पिछले आठ साल में खुद को बेहतर तरीके से राज्य में स्थापित करने के साथ ही शिवराज ने जनता के बीच अपनी एक लोकप्रिय छवि भी गढ़ी है. शिवराज की लोकप्रियता को भाजपा के साथ ही राज्य में विपक्षी दल कांग्रेस के नेता भी स्वीकार करते दिखते हैं. मध्य प्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह की बहन वीणा सिंह, जो अभी हाल ही में वापस कांग्रेस में शामिल हुई हैं, का हाल ही में यह बयान आया कि शिवराज पूरे राज्य में लोकप्रिय भी हैं और गांवों तक सरकार की विकास योजनाएं भी पहुंची हैं, ऐसे में भाजपा को हराना बहुत मुश्किल होने वाला है. इस संबंध में जब तहलका ने प्रदेश कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता से बात की तो वे कुछ चिढ़ते हुए कहते हैं, ‘ऐसा आदमी क्यों नहीं लोकप्रिय होगा जो अपने भाषण में मामा से लेकर मुर्गा-मुर्गी तक की बात करता हो. भले ही करता कुछ न हो लेकिन बातें तो मीठी करता ही है.’ राज्य में शिवराज पिछले कुछ समय में कितने ताकतवर होकर उभरे हैं इसे प्रमुख रूप से तीन घटनाओं से समझा जा सकता है.

पहला मामला उमा भारती से जुड़ा है. जब पार्टी में उमा की वापसी के समय शिवराज ने हाईकमान के सामने यह शर्त रखी कि वे मध्य प्रदेश की राजनीति और यहां के शासन-प्रशासन में किसी तरह का हस्तेक्षप नहीं करेंगी तो पार्टी ने शिवराज की यह शर्त स्वीकार कर ली. उमा को पार्टी में आए दो साल से ऊपर हो गए, वे भोपाल नियमित आती भी हैं लेकिन दो वर्षों में एक भी ऐसा मौका नहीं आया जब उन्हें किसी ने कोई राजनीतिक सभा संबोधित करते, राज्य की राजनीति और शासन-प्रशासन में हस्तक्षेप या कोई नकारात्मक टिप्पणी करते सुना हो. उल्टे आज वे शिवराज की तारीफ करते दिखाई दे रही हैं.

दूसरा बड़ा मामला पूर्व प्रदेशाध्यक्ष प्रभात झा से जुड़ा है. उनके पहले कार्यकाल की समाप्ति के बाद सभी को लग रहा था कि झा फिर से प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाएंगे. यहां तक कि झा भी इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त थे. लेकिन रातों रात संघ के सक्रिय कार्यकर्ता रहे प्रभात जा का पत्ता कट गया और मुख्यमंत्री ने अपने विश्वासपात्र और मित्र नरेंद्र तोमर को प्रदेश अध्यक्ष बनवा दिया. झा ने इस घटना के बाद कहा, ‘मुझे हटाने का फैसला पोखरण विस्फोट की तरह गुप्त रखा गया.’ झा की इस बात से स्पष्ट होता है कि वे शिवराज से कितने नाराज रहे होंगे. लेकिन कुछ दिनों की नाराजगी के बाद कोई और ठौर न मिलता देख उन्होंने भी शिवराज की प्रशंसा करने में ही अपनी राजनीतिक भलाई समझी.

तीसरा मामला भोजशाला से जुड़ा है. धार्मिक रूप से अतिसंवेदनशील इस मामले में शिवराज ने पूरी तरह अपनी मर्जी चलाई. विवाद सुलझाने के लिए प्रदेश के तमाम नेताओं और मंत्रियों को किनारे करते हुए शिवराज ने प्रशासन को मामला सुलझाने की जिम्मेवारी सौंप दी. यहां तक कि पुलिस की कार्रवाई में तमाम हिंदूवादी नेता पीटे गए लेकिन उसके बाद भी शिवराज प्रशासन की तारीफ करते नजर आए. गिरिजांशकर कहते हैं, ‘यह मामला अपने आप में बेहद अहम है. आप सोचिए हिंदू-मुस्लिमों के बीच के संघर्ष में पुलिस के हाथों हिंदू नेता पीटे गए और शिवराज को किसी ने कुछ कहा नहीं. ये अपने आप में शिवराज की मजबूत स्थिति की ओर इशारा करता है.’

एक तरफ शिवराज ने राज्य में अपने आप को धीरे-धीरे सबसे ताकतवर और लोकप्रिय बनाया तो दूसरी तरफ दिल्ली दरबार के लोगों की आंखों का भी वे तारा बने हुए हैं. नियमित माथा टेक कर दिल्ली के भाजपा नेताओं को खुश रखने का जितना आक्रामक प्रयास शिवराज ने किया है वैसा शायद ही आज तक भाजपा के किसी और नेता या मुख्यमंत्री ने किया होगा. यही कारण है कि शिवराज के दिल्ली दरबार के सभी लोगों से बेहद मधुर संबंध है. वहां भी कोई इनका विरोधी नहीं है. सबसे पहले आडवाणी को लें. पिछले दो-चार साल का अगर हिसाब लगाया जाए तो शायद मध्य प्रदेश ही वह राज्य है जहां भाजपा के ‘लौह पुरुष’ सर्वाधिक बार गए होंगे. चाहे प्रदेश में कोई सरकारी कार्यक्रम हो या आडवाणी का खुद का कोई निजी कार्यक्रम. हर दो-चार महीने में आडवाणी प्रदेश का एक चक्कर लगा ही आते हैं. आवभगत की स्थिति यह है कि मुख्यमंत्री शिवराज सहित पूरी सरकार आडवाणी के लिए एक पांव पर खड़ी रहती है. कांग्रेस के एक नेता चुटकी लेते हुए कहते हैं, ‘आडवाणी जी प्रधानमंत्री तो नहीं बन पाए. लेकिन एमपी आकर उन्हें सुपर प्रधानमंत्री टाइप फीलिंग होती है.’

सुषमा स्वराज की बात करें तो जब उनके सामने इस बात का संकट खड़ा हुआ कि कहां से चुनाव लड़ें तो उनकी नजर मध्य प्रदेश पर पड़ी. एमपी में लड़ तो वे कहीं से भी सकती थीं लेकिन प्रश्न जीतने का था. शिवराज ने अपनी लोकसभा सीट विदिशा सुषमा के हवाले कर दी. सीट देने के साथ जीत की बधाई भी दे दी. आज शायद ही कोई ऐसा मंच है जहां उन्हें शिवराज की प्रशंसा करने का मौका मिले और वे ना करें. इन उदाहरणों से अगर आपको लगता है कि दिल्ली को साधने के शिवराज के प्रयास चरम पर हैं तो रुकिए. आडवाणी और सुषमा के बारे में कहा जा सकता है कि उनका एक कद है, बड़े नेता है इसलिए ऐसा किया होगा. सबसे मजेदार मामला तो भाजपा के पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी से जुड़ा हुआ है. हुआ यूं कि गडकरी के अध्यक्ष बनने के बाद से ही विरोधी उन्हें घेरने के लिए कहते कि जो आदमी आज तक पंचायत का चुनाव तक नहीं लड़ा उसको अध्यक्ष बना दिया. तंज कसने वालों में कांग्रेस वाले तो थे ही कुछ भाजपा वाले भी शामिल थे जो इस बात से नाराज थे कि पता नहीं संघ ने किसको उठाकर अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठा दिया है. न कोई नाम जानता है न चेहरा पहचानता है.

खैर, गडकरी ने इस बात को दिल पर ले लिया. दूसरी ओर शायद उनके मन में भी पीएम बनने के सपने उमड़ने-घुमड़ने लगे थे. लेकिन फिर वही यक्ष प्रश्न था, कहां से लड़ेंगे तो जीतेंगे. अब अध्यक्ष महोदय के लिए कोई अपनी सीट 2014 में खाली करने वाला दिख नहीं रहा था. दूसरी तरफ नागपुर की सीट संघ मुख्यालय के बावजूद जीतना मुश्किल था. सूत्र बताते हैं कि शिवराज ने गडकरी का मन भांपते हुए उनके कुछ कहने से पहले ही ऑफर दे दिया, ‘मध्य प्रदेश से लड़िए. जीत की गांरटी मैं लूंगा.’ तय हो गया गडकरी को इंदौर से 2014 लोकसभा का चुनाव लड़वाया जाएगा. गडकरी के बाद राजनाथ सिंह अध्यक्ष बने. नए अध्यक्ष से बेहतर संबंध बनाने का प्रयास शिवराज ने पहले दिन से ही शुरू कर दिया. जिस दिन राजनाथ सिंह की राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर ताजपोशी हुई, उस कार्यक्रम में शिवराज ही एकमात्र भाजपा मुख्यमंत्री थे जो शामिल हुए थे.

शिवराज की सबको साधने की कला का ही परिणाम है कि आज राष्ट्रीय स्तर पर हर नेता उनकी तारीफ करता हुआ दिखाई देता है. एक तरफ सुषमा गुजरात से मध्य प्रदेश की तुलना करते हुए कहती हैं कि गुजरात सुशासन का मॉडल हो सकता है लेकिन एमपी संवेदनशीलता का मॉडल है तो राजनाथ शिवराज को एक काबिल और ईमानदार मुख्यमंत्री ठहराते हैं. खैर, यह तो भाजपा के नेताओं को साधने की बात थी. शिवराज ने तो राज्य में प्रदेश कांग्रेस और केंद्र की यूपीए सरकार को भी साधने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी है. उसके परिणाम भी दिखाई दे रहे हैं. पिछले साल गुजरात, तमिलनाडु और मध्य प्रदेश सरकारों ने प्रधानमंत्री कार्यालय से अपने-अपने राज्यों के प्रमुख सचिवों को सेवा विस्तार देने संबंधी अनुरोध किया. गुजरात और तमिलनाडु का अनुरोध नामंजूर कर दिया गया. मध्य प्रदेश के प्रमुख सचिव को सेवा विस्तार मिल गया. जिस तरह से कांग्रेस के नेता भाजपा शासित अन्य राज्यों और नेताओं पर हमलावर रहते हैं, उस अनुपात में शायद ही कोई राष्ट्रीय नेता शिवराज शासित मध्य प्रदेश सरकार की आलोचना करता हुआ आपको दिखाई देगा. केंद्र सरकार के कई मंत्री प्रदेश सरकार की समय-समय पर प्रशंसा करते देखे जा सकते हैं.

राज्य की स्थिति यह है कि प्रदेश कांग्रेस के गिने-चुने नेताओं को छोड़कर बाकी नेता शिवराज को कोई खास घेरते हुए दिखाई नहीं देते हैं. कांतिलाल भूरिया के पहले सुरेश पचौरी जब प्रदेश अध्यक्ष थे तो  कहा जाता था कि शिवराज ने पचौरी को ‘पटा’ लिया है. अनेक राज्यों में जहां स्थिति यह रहती है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष एक-दूसरे को फूटी आंख भी देखना नहीं चाहते वहीं मध्य प्रदेश में स्थिति इसके बिल्कुल उलट है. तीन साल पहले जब पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता अर्जुन सिंह का देहांत हुआ था तो शिवराज और पचौरी भी वहां पहुंचे थे. वापसी में शिवराज ने पचौरी से कहा कि कहां आप सड़क के रास्ते से होते हुए भोपाल जाएंगे. मेरे हेलिकॉप्टर में साथ चलिए. तब पचौरी को शिवराज के साथ हंसते-बोलते उड़नखटोले में बैठकर जाते देखकर प्रदेश कांग्रेस के वहां मौजूद कई नेताओं के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा था. जब 2010 में मध्य प्रदेश कांग्रेस की वरिष्ठ नेता और नेता प्रतिपक्ष जमुना देवी की मृत्यु के बाद भोपाल स्थित कांग्रेस भवन में प्रार्थना सभा का आयोजन किया गया था तो अचानक शिवराज सिंह चौहान वहां पहुंच गए. भाजपा के किसी नेता के कांग्रेस मुख्यालय आने की यह पहली घटना थी और इसलिए भी कि चौहान बिना बुलाए ही वहां पहुंच गए थे. और तो और, तब तक कांग्रेस का भी कोई वरिष्ठ नेता वहां नहीं पहुंचा था.

पिछले साल टाइम पत्रिका ने अपनी कवर स्टोरी में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अंडरअचीवर कहा था. इसके बाद भाजपा की पूरी लीडरशीप मनमोहन पर हमलावर हो गई थी. प्रधानमंत्री पर हमलावर भाजपा और उनका बचाव करने में जुटे कांग्रेसी उस समय चकित रह गए जब भाजपा का ही नेता मनमोहन के बचाव में आ गया. शिवराज सिंह चौहान ने मनमोहन सिंह का बचाव करते हुए कहा, ‘हम अचीवर हैं या अंडरअचीवर इसके लिए हमें किसी विदेशी प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं है. मनमोहन सिंह पूरे देश के प्रधानमंत्री हैं, इसलिए सभी को उनका सम्मान करना चाहिए.’ समय-समय पर जहां भाजपा के नेता गांधी-नेहरू परिवार पर लगातार हमले करते रहते हैं वहीं शिवराज ने इससे परहेज किया है. आज तक सोनिया गांधी या राहुल गांधी के खिलाफ उन्होंने कभी कोई अप्रिय टिप्पणी नहीं की है. प्रदेश कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, ‘कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं का काम शिवराज सरकार में जितनी तेजी से होता है उतनी तेजी से तो कांग्रेस के जमाने में भी नहीं होता था. इस आदमी ने कांग्रेस के सभी वरिष्ठ नेताओं को अच्छी तरह से पटा लिया है. वो इनके काम करता है, बदले में ये लोग चुप रहते हैं.’

[box]भाजपा के पास दिल्ली में जो नेता हैं उनमें चुनाव जीतने और जिताने की क्षमता रखने वालों का अभाव है. ऐसी स्थिति में शिवराज वहां मजबूती से उभरेंगे[/box]

विधानसभा से लेकर सड़क तक अगर कांग्रेस के नेता शिवराज सरकार को घेरते भी हैं तो उनके निशाने पर मुख्यमंत्री नहीं बल्कि उनकी सरकार या उसके मंत्री होते हैं. सदन के अंदर कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ नेता कई बार इस बात को दोहराते हुए पाए गए हैं कि शिवराज तो ईमानदार हैं लेकिन उनकी सरकार भ्रष्ट है. 2011 में जब कांग्रेस ने सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया था तो उस समय नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने विधानसभा में सरकार को घेरते हुए जो भाषण दिया उसकी शुरुआत ही उन्होंने शिवराज की अच्छाइयां गिनाते हुए की. उनके शुरुआती भाषण को सुनकर ऐसा लगा मानो एक दोस्त दूसरे दोस्त को संबोधित कर रहा हो. इस तरह की स्थिति शायद ही आपको कहीं दिखाई दे जब विपक्ष सरकार पर हमला करते समय यह ध्यान भी रखता हो कि कहीं सीएम को चोट न लग जाए.

भले ही मोदी ने बहुत तेजी से कॉरपोरेट जगत को अपना मुरीद बना लिया है लेकिन इस मामले में शिवराज ने भी काफी प्रयास किया है. राज्य में हर साल होने वाली निवेश बैठकों से राज्य में कितना निवेश, विकास और रोजगार सृजन होता है यह अध्ययन का मामला है लेकिन इनसे शिवराज ने अपनी छवि उद्योग जगत में चमकाने की कोशिश जरूर की है. यही कारण है कि जब प्रदेश भाजपा के नेताओं से इस संबंध में बात होती है तो वे अनिल अंबानी की उस बात का जिक्र करने के बाद अपनी बात शुरू करते हैं जिसमें उन्होंने कहा था, ‘मुझे शिवराज सिंह चौहान में अपने पिता जैसी दूरदृष्टि दिखाई देती है.’ शिवराज के इन्हीं व्यक्तिगत, राजनीतिक और कूटनीतिक गुणों के कारण उस संभावना और चर्चा का जन्म होता है कि वे 2014 में भाजपा के सत्ता में आने पर उसके नेतृत्व वाली सरकार में प्रधानमंत्री बन सकते हैं.

राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह से गठबंधन की राजनीति का आज दौर है उसमें शिवराज सबसे फिट नजर आते हैं. वे कुछ उसी तरह के सेक्युलर और लिबरल हैं जिस तरह संघ के स्वयंसेवक होने के बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी हुआ करते थे. जिस तरह की समस्या मोदी को प्रोजेक्ट करने में आ रही है या आ सकती है, वह शिवराज के साथ नहीं है. वे सभी को स्वीकार्य होंगे. और दूसरी तरफ आडवाणी जिस एनडीए के विस्तार की बात कर रहे हैं वह शिवराज जैसे व्यक्ति के टॉप पर होने के कारण संभव हो सकता है. रशीद कहते हैं, ‘ देखिए, इसे दो तरह से देखे जाने की जरूरत है. मान लीजिए अगर पार्टी मोदी को आगे लाती है तो ये संभव है कि वो उसकी कुछ सीटें बढ़वा दें. लेकिन वो बढ़ी हुई सीटें इतनी नहीं होंगी कि उनके दम पर 272 के पार पहुंचा जा सकता हो. वहीं दूसरी तरफ अगर शिवराज सामने आते हैं तो ये बिल्कुल संभव है कि पार्टी की अपनी सीटें ना बढ़ें लेकिन शिवराज के नेतृत्व के कारण उसे 272 के पार पहुंचाने के लिए अनेक राजनीतिक दल अपना हाथ भाजपा की ओर बढ़ाने के लिए जरूर तैयार दिखाई देंगे.’

जानकार मानते हैं कि शिवराज नवीन, नीतीश, जयललिता, ममता आदि समेत सभी गैर भाजपाई और गैर कांग्रेसी नेताओं को स्वीकार्य होंगे. मोदी की तरह किसी को शिवराज से आपत्ति नहीं होगी. वे किसी के लिए अछूत नहीं हैं. कैलाश जोशी भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि पार्टी ऐसे ही व्यक्ति को बतौर पीएम आगे बढ़ाएगी जिस पर घटक दलों की भी सहमति हो. शिवराज के पक्ष में दूसरी बात यह जा सकती है कि मध्य प्रदेश भाजपा के उन गिने-चुने राज्यों में शुमार हो गया है जहां सरकार बिना किसी अस्थिरता के चल रही है. राज्य में ऐसा नहीं कि विकास का कोई आंदोलन खड़ा हो गया हो. अब भी यहां पिछड़ापन है, भुखमरी है, कुपोषण है, महिलाओं के प्रति हिंसा की घटनाएं आए दिन अखबारों में आती रहती हैं, भ्रष्टाचार के कई गंभीर मामले पिछले कुछ समय में सामने आए हैं लेकिन इसके बाद भी शिवराज को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने पूर्व की कांग्रेस सरकार से कई गुना बेहतर काम किया है. गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘चाहे रोड, बिजली, पानी का मामला हो या कृषि का, शिवराज के शासन में हर क्षेत्र में क्रांतिकारी सुधार हुआ है. यही कारण है कि आज कांग्रेस का प्रधानमंत्री भी एमपी को बीमारू राज्य नहीं मानता.’ हाल ही में राष्ट्रपति की तरफ से मध्य प्रदेश को कृषि क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के लिए कृषि कर्मण अवॉर्ड दिया गया. राज्य के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि एमपी में सब कुछ अच्छा हो गया है, लेकिन हां आपको शिवराज सिंह की इस बात के लिए प्रशंसा जरूर करनी होगी कि उन्होंने एक शुरुआत की है, जो धीरे-धीरे रंग ला रही है.’

राज्य में चलाई जा रही दर्जनों योजनाओं को दूसरे राज्यों ने कॉपी किया है. ऐसे में भाजपा के लिए मध्य प्रदेश भी एक मॉडल के रूप में उभर रहा है. एक ऐसा मॉडल जो गांव और गरीबों से मिलकर बना है. इस तरह से भाजपा के पास गुजरात के बाद दूसरा मॉडल मध्य प्रदेश का हो सकता है. शिवराज को लेकर संघ का रुख भी उनका सबसे मजबूत पक्ष है. जानकार कहते हैं कि शिवराज के साथ संघ का समर्थन इस कारण तो रहेगा ही कि वे उसके एजेंडे को लगातार आगे बढ़ाते हैं, उसे शिवराज इसलिए भी प्रिय हैं क्योंकि संघ को पता है यह आदमी बहुत आगे बढ़ जाने पर भी कभी अकड़ नहीं दिखाएगा. उनकी हमेशा सुनता रहेगा. संघ से जुड़े सूत्र बताते हैं कि संघ शिवराज सिंह चौहान को दूसरे वाजपेयी के रूप में तैयार करना चाहता है. इससे संघ अपने दो हित साधने की सोच रहा है. पहला- शिवराज के रूप में उसे मोदी की एक काट मिल जाएगी. जिनके बढ़ते कद से संघ खुद परेशान है. दूसरा शिवराज संघ का स्वयंसेवक और उसका आज्ञाकारी होने के साथ ही चुनावी राजनीति में घटक दलों को भी स्वीकार्य रहेंगे जिससे सत्ता में आने की संभावना बनी रहेगी.

इन्हीं वजहों से भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं को भी शिवराज स्वीकार्य हो सकते हैं. भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं,  ‘मोदी जी का व्यक्तित्व और काम करने का तरीका ऐसा है जिससे सभी भयभीत रहते हैं. सबको लगता है कि अगर ये आदमी टॉप पर आया तो किसी की नहीं सुनेगा. अगर वो पीएम बने तो सब कुछ वहीं रहेंगे. ऐसे में बाकी नेताओं का हाल गुजरात के मंत्रियों और वहां के अन्य नेताओं जैसा ही हो जाएगा. लेकिन शिवराज जी के साथ ऐसा नहीं है.’ शिवराज के पीएम रेस में सफल होने की एक और परिस्थिति का उदाहरण देते हुए रशीद कहते हैं, ‘ये बिलकुल संभव और स्वाभाविक है कि भाजपा के दिल्ली वाले नेता शुरुआत में तो खुद को पीएम बनवाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दें, लेकिन अगर वो अपने मंसूबों में सफल नहीं हो पाते हैं तो उनके बीच सोनिया गांधी बनने की होड़ लग जाएगी. सब त्याग की मूर्ति बन किंगमेकर बनना चाहेंगे. और ऐसी स्थिति में शिवराज उनकी पहली पसंद होंगे.’

शिवराज के डार्क हॉर्स साबित होने संबंधी प्रश्न के जवाब में मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं वर्तमान मंत्रिमंडल में सबसे वरिष्ठ बाबूलाल गौर कहते है, ‘सबसे पहला अधिकार पीएम पद पर आडवाणी जी का है. वो बाकी लोगों से हर मामले में बेहतर हैं. राज्य में हमारी सरकार बहुत अच्छी चल रही है. अगली बार भी हम शिवराज जी के नेतृत्व में विधानसभा जीतेंगे. उसके बाद ही बाकी चीजें देखी जाएंगी.’ जानकार भी मानते हैं कि शिवराज सिंह के पीएम पद का दावेदार होने या न होने का मामला आगामी प्रदेश विधानसभा परिणामों पर काफी हद तक निर्भर करेगा. दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक मनीष दीक्षित कहते हैं, ‘अगर मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह अगली बार फिर से जीत कर आ जाते हैं तो ऐसी स्थिति में मोदी की बराबरी में खड़े हो जाएंगे. फिर इनके पीएम पद का दावेदार बनने से इनकार नहीं किया जा सकता.’

राजनीतिक पंडितों का ऐसा भी आकलन है कि शिवराज के दिल्ली आने की स्थिति में उनका मजबूत होना तय है क्योंकि भाजपा के पास दिल्ली में जो राष्ट्रीय नेता हैं उनमें चुनाव जीतने और जिताने की क्षमता रखने वालों का बेहद अभाव है. ऐसी स्थिति में शिवराज वहां मजबूती से उभरेंगे. गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘आडवाणी और सुषमा की जो भी सभाएं आजकल होती हैं वो भाजपा शासित राज्यों में ही होती हैं. आडवाणी का पहले वाला करिश्मा रहा नहीं. ये उन्हें खुद भी अपनी पिछली रथ यात्रा से पता चल गया होगा. दूसरी तरफ सुषमा की स्थिति ये है कि उन्हें अपने आप को लोकसभा पहुंचाने में बेहद मशक्कत करनी पड़ रही है. पूरी पार्टी को वो कैसे लोकसभा पहुंचाएंगी. जेटली राज्य सभा वाले हैं और राजनाथ का अपने ही राज्य में कोई जनाधार नहीं रहा. मोदी आज सिर्फ इस कारण से दबाव बना पा रहे हैं क्योंकि वो लगातार चुनाव जीत कर आ रहे हैं. यही ताकत शिवराज भी आगामी विधानसभा जीत कर हासिल कर लेंगे.’

खैर, शिवराज प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी बनते हैं या नहीं यह तो समय बताएगा लेकिन एक चीज स्पष्ट है कि अगर उन्होंने अपनी राजनीति और व्यवहार की गति और दिशा यही बनाए रखी तो निश्चित तौर पर वे आने वाले समय में भाजपा के उन-गिने चुने चेहरों में शामिल होंगे जिन पर भाजपा का भविष्य निर्भर होगा.

ऑपरेशन फाल्कनः अरुणाचल प्रदेश

huaभारत और चीन के बीच 1962 के युद्ध के बाद लंबे अरसे तक द्विपक्षीय संबंध शून्य रहे हैं. आपसी संबंधों पर जमी बर्फ 1980 के बाद पिघलनी शुरू हुई जब चीन ने भारतीयों को मानसरोवर यात्रा की अनुमति दे दी. चीन के नेता इस बात पर भी सहमत हुए कि दोनों देशों के बीच सीमा विवाद को प्राथमिकता के स्तर पर सुलझाया जाएगा.

1981 में चीन के विदेशमंत्री हुआंग हुआ भारत आए और उसके बाद आधिकारिक स्तर पर सीमा निर्धारण पर बातचीत शुरू हुई. लेकिन 1986 में सातवें दौर की बातचीत के दौरान ही चीन ने भारत के सामने एक ऐसा प्रस्ताव रख दिया जो भारत के लिए स्वीकार्य नहीं था. वह इसपर अड़ गया और आखिरकार बातचीत टूट गई. इसके बाद चीन ने अरुणाचल प्रदेश में तवांग के आस-पास सेना की कई टुकड़ियां तैनात कर दीं.

1962 के युद्ध के बाद दूसरी बार चीन की सेना ने इतना आक्रामक रुख अपनाया था. इन्हीं हालात में फरवरी, 1987 में भारत सरकार ने अरुणाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया. सालों से प्रदेश पर अपना दावा जता रहे चीन ने तुरंत ही भारत को इस फैसले के नतीजे भुगतने की चेतावनी दे दी. इस चेतावनी और चीन की बढ़ती सैनिक गतिविधियों का जवाब देने के लिए ही भारतीय सेना ने इस समय एक विशेष सैन्य अभियान चलाया. इसे ही ऑपरेशन फाल्कन कहा जाता है. इस आक्रामक सैन्य रणनीति के तहत तुरंत ही भारतीय सेना ने भारवाहक एमआई-26  हेलिकॉप्टर के इस्तेमाल से कुछ ही दिनों में उत्तरी सिक्किम से लेकर लेह के डोमचोक सेक्टर तक सैनिक टुकड़ियां तैनात कर दीं. इन क्षेत्रों के नजदीक भारतीय वायु सेना की टुकड़ियां भी तैनात की गईं. भारत ने युद्ध के अलावा इन क्षेत्रों में कभी सेना तैनात नहीं की थी. चीन के हिसाब से भारतीय सेना युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार हो गई थी. यहां तक कि पश्चिमी विश्लेषकों ने भी यह मान लिया था कि इस क्षेत्र में एक और युद्ध होगा. हालांकि भारत सरकार इसके पक्ष में नहीं थी और इसी समय तत्कालीन विदेशमंत्री एनडी तिवारी बीजिंग पहुंचे. उन्होंने चीन के नेताओं को संदेश दिया कि सरकार सीमा विवाद को बातचीत के माध्यम से हल करने के पक्ष में है. इस तरह सैन्य रणनीति और राजनीतिक कोशिशों के बाद चीन भी बातचीत के लिए तैयार हो गया और बाद में दोनों देशों के बीच पूर्व की स्थिति में सेना तैनात करने पर सहमति बन गई.

‘मुझे अफसोस है कि मैंने भारत के विकास की कहानी दुनिया भर में साझा की’

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आपने बहुत ही कम उम्र में अपने पिता की कंपनी संभाल ली थी. तब शायद आप 25-26 साल के रहे होंगे और इसके बाद आपने यूबी ग्रुप को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ी कंपनी बना दिया. सबसे पहले आप उस समय की चुनौतियों के बारे में बताएं और यह भी कि कैसे इसे इतने बड़े मुकाम पर पहुंचाया?
मैंने सीनियर कैंब्रिज स्कूल (ब्रिटेन) की परीक्षा दिसंबर के महीने में दी थी और उसका रिजल्ट जून में आना था. ज्यादातर बच्चे इस समय छुट्टियां मनाते हैं या मनपसंद काम करते हैं. लेकिन मुझे उसी समय से पिता जी के साथ कारोबार में हाथ बंटाना पड़ा. उनका मानना था कि जितनी जल्दी हो सके मुझे उनके साथ काम शुरू कर देना चाहिए. स्कूल के बाद मैं कलकत्ता के सेंट जेवियर्स कॉलेज से बी.कॉम. करने लगा. यहां मैं सुबह साढ़े छह बजे से लेकर साढ़े दस बजे तक कॉलेज में रहता था. उसके बाद पूरे दिन पिता जी के साथ कंपनी में काम करता. मैंने बहुत कम उम्र से ही कारोबार संभालना शुरू कर दिया था. इससे बिजनेस की कुछ बुनियादी बातें मुझे पहले ही समझ में आ गईं. 1976 के आस-पास मैं अमेरिका चला गया और 1980 में वहां से लौटा. पिता जी की सेहत तब तक ज्यादा खराब रहने लगी. इस बीच उन्हें दूसरी बार हार्ट अटैक भी हो गया. इसके बाद मेरे ऊपर जिम्मेदारी बढ़ती गई. मुझे ये जिम्मेदारियां अच्छी लगती थीं और मैं काफी कुछ सीख रहा था. मैंने अमेरिका में एक दवा कंपनी के लिए काफी वक्त तक सेल्समैन का काम किया था. तब वहां मार्केटिंग रिसर्च और कंज्यूमर रिसर्च जैसे कई मार्केटिंग टूल प्रचलन में थे, जबकि भारत में ऐसा कुछ नहीं था. पिता जी की मृत्यु के बाद लोगों को लगा कि मैं अचानक निराश हो जाऊंगा. मुझे स्थिरता की जरूरत होगी. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. मेरे पास पहले ही अपने पैर जमाने के लिए सब कुछ था. मैं बिजनेस संभालने के लिए तैयार था.

आपके पिता जी उस समय के ज्यादातर उद्योगपतियों की तरह बहुत ही शांत और तड़क-भड़क से दूर रहने वाले व्यक्ति थे पर आपकी छवि इसके उलट है. क्या यह इसलिए कि आपकी कंपनी के लिए यह छवि एक मार्केटिंग टूल है या फिर आप ऐसे ही हैं?
यूनाइटेड ब्रेवरीज कंपनी ब्रिटेन की कंपनी थी. मेरे पिता जी ने सबसे पहले यही कंपनी खरीदी थी. यह पहले सिर्फ बीयर बनाती थी, 1956 में यह स्प्रिट के कारोबार में आई. उस समय कंपनी यूबी ब्रांड के तहत कई उत्पाद बेचा करती थी, लेकिन इनसे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती थी. उस समय तक हम किंगफिशर नाम से कोई उत्पाद नहीं बनाते थे. यूबी का इतिहास देखते हुए मुझे किंगफिशर ब्रांड का पता चला. 1855 के आस-पास कंपनी इस नाम से बीयर बेचा करती थी. पहली बार में ही यह नाम देखकर मुझे लगा कि यह तो बहुत अलग है. तड़क-भड़क वाला, कलरफुल और एक्साइटिंग ब्रांड है. इसके बाद मैं अपने पिता जी के पास गया और उनसे कहा कि मैं इसे रीलॉन्च करना चाहता हूं. मैंने इसके लिए उनसे दस लाख रुपये मांगे. जाहिर है उन्होंने तुरंत ही मुझे दरवाजे का रास्ता दिखा दिया. खैर, आखिर में मुझे एक लाख रुपये मिले. इस समय कर्नाटक की आबकारी नीति कुछ ऐसी थी कि बैंगलोर में पब कल्चर आ चुका था और बहुत अच्छे से फल-फुल रहा था. इसलिए मैंने किंगफिशर बीयर वहीं लॉन्च की. फिर धीरे-धीरे हम इस ब्रांड को आगे बढ़ाते गए. इस सबमें मार्केटिंग टूल्स का बहुत महत्व रहा. मैं खुद इस दौरान शहर के कॉलेजों में गया. वहां कई युवाओं से बात की. उनमें भी जो युवा मोटरसाइकिल से कॉलेज आते थे, वे मेरे ग्राहक थे. इनसे बात करके मुझे पता चला कि युवा एक्साइटमेंट चाहते हैं. इतने सालों तक बिजनेस करते हुए मुझे यह भी समझ आया है कि हम भारतीय बहुत महत्वाकांक्षी होते हैं. हम जैसे ही सफल होते हैं, पैसा कमाना शुरू करते हैं तो यह दिखाना भी चाहते हैं.

यह आपको कब समझ में आया कि हमारे देश में भी पश्चिम की तरह युवाओं की महत्वाकांक्षाओं और अपेक्षाओं का विस्तार विस्फोटक तरीके से होगा?
मुझे 90 के दशक के शुरुआत में ही इसका एहसास हो गया था. इसलिए हमने फैसला किया कि यूबी के सभी उत्पाद लाइफस्टाइल से जुड़े होंगे. अपनी ब्रांड इक्विटी बढ़ाने के लिए हमने म्यूजिक, घुड़दौड़, खेलों या फैशन जैसे क्षेत्रों को चुना. उस समय की एक बड़ी चुनौती जो आज भी है कि हम शराब से जुड़े उत्पादों का मीडिया में सीधा विज्ञापन नहीं कर सकते.

इसके लिए हमें सरोगेट एडवर्टाइजिंग (उत्पाद को प्रोमोट करने के बजाय सिर्फ उसके ब्रांड का छद्म तरीके से विज्ञापन करना) सहारा लेना पड़ा.

vijaymaliyaकिंगफिशर एयरलाइंस भी क्या सरोगेट एडवर्टाइजिंग के लिए बनाई गई थी?
दुर्भाग्य से मीडिया का एक बड़ा हिस्सा ऐसा मानता है लेकिन मैं दुनिया का सबसे बड़ा बेवकूफ कहलाता यदि मैंने इस तरह की सरोगेट एडवर्टाइजिंग के लिए 5, 000 करोड़ रुपये खर्च किए होते (हंसते हुए).  बड़े ब्रांड बनाने के लिए कंपनियों को ब्रांड एंबेसडर चुनने पड़ते हैं. लेकिन अपनी कंपनी के लिए मैं खुद ही ब्रांड एंबेसडर हूं. और इसमें कुछ गलत भी नहीं है. सबसे अच्छी बात है कि मैं अपनी कंपनी के लिए फ्री हूं (हंसते हुए). किंगफिशर ब्रांड के विज्ञापन में एक लाइन थी, ‘किंगफिशर किंग ऑफ गुड टाइम्स ‘. इसके चलते मीडिया ने भी मुझे ऐसे प्रचारित किया कि मैं ‘किंग ऑफ गुड टाइम’ हूं. मैंने जब कंपनी संभाली तब मेरी उम्र 26 साल थी. मैं युवा था और मेरे शौक भी वही थे. किस युवा को फेरारी चलाना, डिजाइनर कपड़े पहनना या महंगी घड़ियां पहनना पसंद नहीं है. मैं भी यह सब करता था. तब के मेरे समकालीन उद्योगपति राम प्रसाद गोयनका और धीरूभाई अंबानी जैसे लोग मुझसे दोगुनी उम्र के थे. अब आप उनसे तो मेरे जैसी जीवनशैली की उम्मीद नहीं कर सकते थे. मैं उस समय बस अपनी उम्र के हिसाब से जिंदगी जी रहा था और मीडिया ने मेरी तड़कीली-भड़कीली छवि बना दी. हालांकि आज मैं 56 साल का हुं फिर भी युवा की तरह ही जीना पसंद करता हूं. इस उम्र में मुझे 76 साल के व्यक्ति की तरह जीवन जीने की जरूरत नहीं है.

बिजनेस के इतर बात करें तो आप संसद सदस्य भी रह चुके हैं. यह एक ‘ एक्सक्लूसिव क्लब ‘ सरीखी जगह है, जहां देश के भविष्य और उसकी आकांक्षा-अपेक्षाओं का निर्धारण होता है. संसद सदस्य बनने के बाद आपके नजरिये में क्या बदलाव आया?
मैं 2002 में पहली बार संसद के लिए चुना गया तो मुझे लगा कि यह देश को कुछ वापस लौटाने का समय है. मैंने संसद को ऐसे मंच की तरह देखा जिसके माध्यम से मैं अपने विचार, जो मुझे लगता है देश के लिए फायदेमंद हैं, व्यक्त कर सकता था. मुझे लगता है कि इस समय देश की सबसे बड़ी संपत्ति उसकी युवा जनसंख्या है. यह बात मुझे देश के भविष्य के बारे में ज्यादा आशावान बनाती है. हां, लेकिन इसके लिए जरूरी है कि उनको आगे बढ़ने के लिए माहौल मिले. जहां तक ‘एक्सक्लूसिव क्लब’ वाली बात आपने कही तो मैं कहना चाहूंगा मैं बाकी सदस्यों की तरह एक और हिप्पोक्रेट या ढोंगी सांसद बनकर नहीं रहना चाहता था. मुझे जिस दिन शपथ लेनी थी, उसके पहले मैंने अपने दोस्त रोहित बल (फैशन डिजाइनर) से कहा कि मेरे लिए सफेद लेनिन से बनी ड्रेस तैयार करना, मैं उसी में शपथ लेना चाहता हूं. मैंने ऐसा किया भी. इसमें मुझे कोई दिक्कत नहीं लगती. आखिर मैंने किसी का पैसा नहीं चुराया. किसी से रिश्वत नहीं ली. उसी समय मैंने सरकार के उत्तरदायित्व पर एक भाषण दिया था. लेकिन यह उत्तरदायित्व वाली बात मुझे आज भी कहीं नजर नहीं आती. उस समय अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे. तब संसद में जो बहस होती थी उसमें मेरी बहुत दिलचस्पी थी. उनसे मुझे देश की समस्याओं और अर्थव्यवस्था के बारे में काफी कुछ जानने का मौका मिला. लेकिन आज संसद में बहस का माहौल पूरी तरह खत्म हो चुका है.

भारत में इस बात को लेकर एक गर्व की भावना रहती है कि आपके पास धन-संपत्ति होने के बाद भी उसका दिखावा न करें. इसके पीछे विचार है कि हम एक गरीब देश हैं और ऐसा करना गरीबों के जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा है. जब आपकी उम्र 26 साल थी तब की बात और है लेकिन अब आप इस बारे में क्या सोचते हैं?
देखिए, मैं किसी तरह के पाखंड में विश्वास नहीं करता. मैं संसद के अपने कई साथियों को जानता हूं जो खादी में दिखते हैं, एंबेसडर में चलते हैं लेकिन उनके घरों में इतना ज्यादा पैसा है जितना मेरे पास भी नहीं है.

अच्छा चलिए, किंगफिशर एयरलाइंस की बात करते हैं. लोग कहते हैं कि विजय माल्या अपनी छवि से काफी अलग हैं. मुझे किसी ने एक वाकये के बारे में बताया था कि एक बार आपने यॉट में पार्टी आयोजित की थी. इसमें काफी बड़े-बड़े लोग शामिल हुए थे. जब सभी लोग पार्टी का मजा ले रहे थे तब नीचे डेक में आप अगले सप्ताह होने वाले किसी कारोबारी सौदे की तैयारी कर रहे थे. किसी ने मुझे यह भी बताया है कि आप अपने बिजनेस से जुड़े हर पहलू की बारीकियों को बखूबी समझते हैं. ऐसे में क्या किंगफिशर एयरलाइंस शुरू करना कारोबारी चूक थी?
मैं अपने काम को लेकर जुनूनी हूं. मैंने अपने पिता जी से सीखा है कि कारोबार के हर पहलू की आपको पूरी समझ होनी चाहिए. मैं बढ़ा-चढ़ाकर नहीं कह रहा हूं लेकिन पिता जी के समय हर फैक्टरी से जो लेन देन होता था उसका हर एक बिल चेयरमैन के ऑफिस तक आता था. वह व्यक्ति केंद्रित प्रबंधन का श्रेष्ठ उदाहरण था. मैं जब अमेरिका गया तो मैंने वहां से टीम बनाने और टीम से काम कराने की कला सीखी. आज यूनाइटेड स्प्रिट अपने क्षेत्र की दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी है वहीं युनाइटेड ब्रेवरीज बाजार के 50 फीसदी से ज्यादा हिस्से पर काबिज है. और इस उपलब्धि का पूरा श्रेय उन लोगों को है जिन्हें मैंने विभिन्न कामों की जिम्मेदारी सौंपी और वे समूह को आगे ले गए.

अब हम किंगफिशर एयरलाइंस पर आते हैं. यदि हमें इस क्षेत्र से इतनी उम्मीद नहीं होती तो हम कभी इस क्षेत्र में कदम नहीं रखते. मैंने इस कंपनी में खुद के 3,000 करोड़ रुपये लगाए थे. मुझे इसमें जोखिम समझ में आता तो मैं ऐसा बिल्कुल नहीं करता.

तो आखिर गड़बड़ कहां हुई?
हां, मैं उसी पर बात कर रहा हूं. किंगफिशर एक समय भारत की सबसे बड़ी एयरलाइन कंपनी बन गई थी. प्रतिदिन इसकी 490 उड़ानें होती थीं. लेकिन 2008 के बाद अचानक कच्चे तेल के दाम बढ़ गए. इसकी कीमत 60 डॉलर प्रति बैरल से बढ़कर 140 डॉलर प्रति बैरल तक हो गई. किसी भी एयरलाइन कंपनी के लिए ईंधन सबसे बड़ा खर्च होता है. यहां हमारा खर्च सौ फीसदी बढ़ गया. ऐसे में मैंने कुछ राज्य सरकारों से तेल पर लगाया जाने वाला एड वेलोरम टैक्स (मूल्यवर्धित कर) कम करने की बात कही लेकिन इसके लिए सरकारों ने मना कर दिया. मैं उनसे बस यह कह रहा था कि आप अपना टैक्स लो लेकिन जो कीमत अचानक बढ़ गई है उस पर तो कर मत लगाओ. लेकिन हमारे यहां सरकारों को अपना खजाना भरने से मतलब है चाहे इस वजह से कारोबारियों की हालत जो हो. हमने केंद्र सरकार से रियायत देने की बात की लेकिन इसके लिए भी हमें मना कर दिया गया. फिर हमने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति मांगी लेकिन वह भी नहीं मिली. तो कुल मिलाकर सरकार ने उड्डयन क्षेत्र को बचाने के लिए कुछ नहीं किया. सबसे बड़ी एयरलाइन होने की वजह से किंगफिशर एयरलाइंस पर सबसे बुरा असर पड़ा. लेकिन समय बीतने के साथ हालात में कुछ सुधार हुआ और क्षेत्र में कुछ स्थिरता आ गई. फिर मुंबई पर आतंकवादी हमला हो गया. इससे भी एयरलाइंस क्षेत्र की दिक्कतें बढ़ गईं. हम सरकार के पास मदद मांगने गए लेकिन एक बार फिर हमें निराशा हाथ लगी. धीरे-धीरे कच्चे तेल की कीमतें सौ डॉलर प्रति बैरल हो गईं और संकेत मिलने लगे कि कीमत इससे नीचे नहीं आएगी. इस समय हमारी कंपनी का वित्तीय संकट काफी बढ़ गया. हमने सरकार से कहा कि कंपनी के कर्ज की शर्तों पर रियायत दी जाए लेकिन वह भी हमें नहीं मिली. हम रिजर्व बैंक द्वारा बनाए गए तंत्र ‘कॉरपोरेट डेट रिस्ट्रक्चरिंग’ में गए लेकिन चूंकि एयरलाइन विजय माल्या की थी इसलिए कंपनी को इसकी सुविधा नहीं मिली. हम और भी सरकारी विभागों में गए लेकिन हर जगह हमारे लिए दरवाजे बंद थे. किंगफिशर एयरलाइंस भारत की सबसे बड़ी एयरलाइन कंपनी थी जो देश के कई शहरों को जोड़ती थी. इसका फायदा भी आखिर देश के आर्थिक विकास में था, लेकिन इसके लिए किसी ने हमें श्रेय नहीं दिया. एक दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि मैंने कभी भी सरकार से कर्ज माफ करने की बात नहीं कही और न भविष्य में कहूंगा. आज आप देखिए देश में बड़े औद्योगिक समूहों को कोई महत्व नहीं दिया जा रहा है. मेरे कई उद्योगपति दोस्त हैं और यह कहते हुए मुझे दुख है कि उनमें से ज्यादातर देश में निवेश करना नहीं चाहते. यह भी देखिए किस तरह से हमारा टैक्स डिपार्टमेंट मल्टीनेशनल कंपनियों के पीछे पड़ा है. चाहे बात माइक्रोसॉफ्ट की हो या वोडाफोन की, कई बड़ी कंपनियों के साथ यह हो रहा है. ऐसा माहौल देश में निवेश को हतोत्साहित करता है. यह अच्छी बात है कि आप खाद्य सुरक्षा कानून पास करें. भूमि अधिग्रहण कानून पारित करके किसानों से कहें कि अब आपकी जमीन कोई जबरदस्ती नहीं ले सकता. लेकिन बिना उद्योग के, विकास के,  बड़े औद्योगिक समूह जो लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाते हैं और कई दूसरी चीजों में योगदान देते हैं, इसके बिना क्या हम अपना लक्ष्य हासिल कर सकते हैं. मेरे विचार से बिल्कुल नहीं. यदि सरकार के पास कोई दूसरा तरीका है तो ठीक है. हम चुपचाप उसके दर्शक बनने के अलावा कुछ नहीं कर सकते.

तो क्या हम आने वाले समय में किंगफिशर एयरलाइंस को फिर पहले की तरह उड्डयन क्षेत्र में उड़ानें भरते हुए देखेंगे?
हां, इसकी पूरी संभावना है.

भारत के आर्थिक विकास की कहानी के पीछे सोच है कि यदि भारतीय कारोबारियों को अनुकूल माहौल मिले तो वे असाधारण सफलता हासिल करते हैं. आपसे पूछना चाहता हूं क्या आज भी आप देश के बारे में आशान्वित हैं?
आज से कुछ साल पहले मैं अपने कारोबारी दोस्तों के साथ जहां-जहां अंतरराष्ट्रीय मंचों पर गया वहां मैंने अपने साथियों के साथ भारत के विकास की कहानी को दुनिया से साझा किया. मुझे याद है कि आज से तकरीबन पांच साल पहले अमेरिका के सांटा क्लारा में अमेरिका में रह रहे भारतीयों के सामने अपनी बात रखते हुए मैंने कहा था कि जिस वजह से आपके पुरखों ने भारत छोड़ा था आज उसी वजह से आपको भारत जाने की जरूरत है. लेकिन आज मुझे अपनी उस बात पर अफसोस होता है.

सबसे आखिरी सवाल आपसे यह कि पिछले दस साल से आप संसद सदस्य हैं. इस बीच आपने किंगफिशर एयरलाइंस शुरू की. उसके बाद इससे जुड़ी कई चुनौतियों का भी सामना किया. मैं यह जानना चाहता हूं कि क्या इस सबने आपको एक अधिक समझदार व्यक्ति बनाया है.
इसके जवाब में मैं बस इतना कहना चाहता हूं कि हर एक चीज आपकी समझ बढ़ाने का काम करती है और दूसरी बात यह है कि बिना गलतियां किए आप अपना जीवन पूरा नहीं कर सकते.

थप्पड़ों ने लौटाया आत्मविश्वास

aap-beti.सुनने में थोड़ा अजीब लगेगा, भला कहीं अध्यापक का थप्पड़ खाने या साथी विद्यार्थी को थप्पड़ मारने से भी किसी का आत्मविश्वास लौटता है क्या? वह भी ऐसे वक्त में तो यह बात सोचनी भी मुश्किल है जब शिक्षक और छात्र के बीच का रिश्ता एक तनी रस्सी जैसा हो गया है. जराे-सा झटका और डोर टूटी.

बात थोड़ी पुरानी है, गांव के सरकारी स्कूल से प्राथमिक शिक्षा लेकर मैं एक महीने पहले ही नए स्कूल में छठी कक्षा में आया था. वहां मेरी कोशिश यह होती कि मैं सबसे आगे वाली पंक्ति में बैठूं क्योंकि मां कहती थी कि आगे की पंक्ति में बैठने से चीजें ज्यादा समझ में आती हैं. पीछे की लाइन में बैठे दो लड़के इंग्लिश मीडियम स्कूल से आए थे. वो एलकेजी-यूकेजी भी पढ़े थे, इसलिए वे उम्र में और दिखने में हम सरकारी स्कूल वालों से बड़े थे. मजबूत कदकाठी के होने के कारण वे ज्यादातर हमको छेड़ते रहते थे. उनमें से एक का नाम अमित था और वह मेरे पीछे की लाइन में बैठा मेरे बाल खींच-खींचकर परेशान करता रहता था. दोनों मुझसे ताकतवर थे, इसलिए लड़ भी नहीं सकता था. वैसे भी मैं उससे पहले घर पर बहनों के अलावा किसी से नहीं लड़ा था.

एक दिन की बात है. भोजनावकाश खत्म हुए 15 मिनट से अधिक वक्त बीत चुका था. गुरु जी अभी तक कक्षा में नहीं आए थे. वह पीरियड हमारे शारीरिक शिक्षा वाले गुरु जी का था जो हमें कृषि भी पढ़ाया करते थे. गुरु जी भरे-पूरे और सुगठित शरीर के मालिक थे. यही वजह थी कि सभी बच्चे उनसे बहुत घबराते थे. वे प्रार्थना के समय उन बच्चों के नाम पुकारते जो पिछले दिन छुट्टी होने के पहले ही स्कूल से भाग गए थे. इसके बाद वे अपने मूड के मुताबिक कभी डंडे तो कभी किसी और चीज से उनकी पिटाई करते. बजाज चेतक स्कूटर और काला चश्मा ही उनकी पहचान थे जो ज्यादातर समय उनकी आंखों पर ही टिका रहता था. यूं तो बच्चों ने मजाक उड़ाने के लिए हर शिक्षक का कोई न कोई नाम रखा था लेकिन यह उनका रोब या कहें खौफ ही था जो उन्हें इससे बचाए हुए था.

खैर, उस दिन भी जब गुरु जी कक्षा में आए तो बच्चों का सारा शोरगुल सन्नाटे में बदल गया. लेकिन मेरे अंदर हद से ज्यादा उथल-पुथल थी. मैं अमित नामक परेशानी से निजात चाहता था. गुरु जी कुर्सी बैठे ही थे कि मैंने कहा, ‘गुरु जी, यह अमित मुझे परेशान कर रहा है.’

उन्होंने पूछा कि अमित ने क्या किया. मैंने उन्हें बता दिया कि वह पीछे बैठ कर बार-बार मेरे बाल खींच रहा है. उन्होंने हम दोनों को आगे बुलाया और एक-दूसरे के सामने खड़ा करके कहा कि हम एक-दूसरे को थप्पड़ मारें. वह तगड़ा था. उसका हाथ जोर से पड़ता ही था. मैं दिखने में बहुत ही पतला था. जब हम एक-दूसरे को करीब दस थप्पड़ मार चुके तो गुरु जी ने मुझे अपने पास बुलाया. गुरु जी ने मुझे एक जोर का थप्पड़ जड़ा, यह अमित के दसों थप्पड़ों से कहीं ज्यादा जोर का था. उन्होंने कहा कि मैं अमित को अब जो थप्पड़ मारूं वह कम से कम इतनी जोर का होना चाहिए- गाल के बीचो-बीच पूरी ताकत से लगाया गया थप्पड़. मैंने उनकी बात का पालन किया. लेकिन इस बीच एक बात हुई. मैंने थप्पड़ मारने के अलावा पहली बार अमित की आंखों में आंखें डालकर देखा. आश्चर्य वहां गुस्से या आक्रामकता का कोइ चिह्न नहीं था. शायद गुरु जी की दी सलाह के बाद मैंने जो सख्ती दिखाई थी थप्पड़ मारने में, उससे अमित को यह संदेश मिला था कि मैं उतना भी कमजोर नहीं हूं जितना दिखता हूं. मुझे भी पहली बार लगा कि हिम्मत और ताकत का एक बहुत बड़ा हिस्सा हमारे शरीर में नहीं हमारे मन में बसता है.

आज मैं और अमित एक ही शहर में रहते हैं. हमारी अच्छी दोस्ती है. दीवाली पर हम साथ-साथ घर गए थे और टिकट भी उसी ने बुक करवाए थे. गुरु जी आज भी उसी विद्यालय में हैं. कक्षा छह की उस घटना के बाद जाने क्या हुआ कि धीरे-धीरे मैं उनके प्रिय छात्रों में शुमार हो गया. पता नहीं आज गुरु जी और अमित को वह थप्पड़ वाली घटना याद भी है या नहीं लेकिन मैं तो उसे कभी नहीं भूल सकता. वह एक ऐसी घटना है जिसने मुझे हीनभावना से उबारा. मेरा खोया हुआ आत्मविश्वास लौटाया. उसे भूलूं भी तो कैसे?

‘पांच साल में पूरी तरह बदल जाएगा हमारा सिनेमा’

sudherदूसरे विषयों की तरह सिनेमा की पढ़ाई का क्या महत्व है?
अगर आप किसी संस्थान में हैं तो वहां आपको अपने व्यक्तित्व को स्थापित करने के अवसर अधिक हैं. सिनेमा को प्रभावी बनाने के लिए आपको शिल्प और अनुशासन दोनों की आवश्यकता होती है. मैंने फिल्म बनाना अपने भाई से सीखा जो एफटीआईआई में थे. मैंने उनके साथ एक समझौता किया था कि उन्हें वहां जो कुछ सिखाया जाएगा वह सब वे मुझे बताएंगे. मैंने खुद एफटीआईआई परिसर के खूब चक्कर लगाए और अप्रत्यक्ष तरीके से प्रशिक्षण हासिल किया.

आपका अपने महिला पात्रों के साथ क्या रवैया रहता है?
मैं उन्हें बहुत प्रोत्साहित करता हूं और उनकी गलतियों का भी सम्मान करता हूं. यह उनका अधिकार है. मैं हमेशा मजबूत महिलाओं से जुड़ा रहा हूं. उदाहरण के लिए, मेरी दादी जो अपने पति से अलग होकर अकेले रहती थीं. मैं कोशिश करता हूं कि महिलाओं की अंतहीन क्षमताओं को उजागर कर सकूं. महिलाओं ने मुझे दुख भी पहुंचाया और प्यार भी किया लेकिन एक पुरुष के रूप में मैंने हमेशा उन्हें जटिल लेकिन आकर्षित करने वाला पाया है. मैं कोई फैसला नहीं सुना रहा. महिलाओं को भी आजादी का हक ह,ै वहीं अगर वे चाहें तो घरेलू कामकाज करते रहने का भी उनको उतना ही हक है. उन्हें रूढ़िवादी छवियों क गुलाम बनने की जरूरत नहीं है.

आपकी राजनीतिक विचारधारा क्या है?
मेरे दादा द्वारका प्रसाद मिश्र मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. बेहद ताकतवर, लोकप्रिय और इंदिरा गांधी के करीबी. लेकिन मैं उनसे दूर चला आया. मैंने कभी किसी को यह बताकर लाभ हासिल करने की कोशिश नहीं की कि वे मेरे संबंधी हैं. मैंने चुपचाप चपरासी तक का काम करना मंजूर किया. आखिर ऐसी ताकत भी बहुत कम समय के लिए होती है. मैं एक अध्यापक का बेटा हूं. मेरे पिता गणितज्ञ थे और वामपंथी झुकाव वाले नेहरूवादी थे. मैं भी राजनीतिक रूप से सजग हूं लेकिन पारंपरिक राजनीति में नहीं पड़ना चाहता. मेरी राजनीतिक विचारधाराएं अस्थायी हैं क्योंकि जिंदगी में हमेशा शोरगुल मचा रहता है.

देश में छोटे बजट की स्वतंत्र रूप से बन रही फिल्मों की क्या स्थिति है?
अब दर्शकों की समझ बढ़ रही है. पांच साल बाद आपको एक क्रांति देखने को मिलेगी. भारतीय सिनेमा अब परिपक्व हो रहा है. युवा अब बुजुर्गों के पांव नहीं छू रहे हैं और न ही पुरानी मठाधीशी को तवज्जो दे रहे हैं. आपने देखा कि किस तरह उन्होंने बिना किसी नेता के दिल्ली की सड़कों पर निकल कर सवाल पूछे. यह सब सिनेमा के परदे पर भी दिखेगा. पांच सालों में हमें एक नया और महत्वपूर्ण सिनेमा देखने को मिलेगा.

बुलेट राजा

एलबमः बुलेट राजा गीतकार » कौसर मुनीर, संदीप नाथ संगीतकार » साजिद-वाजिद, आरडीबी
एलबमः बुलेट राजा गीतकार  » कौसर मुनीर, संदीप नाथ      संगीतकार  » साजिद-वाजिद, आरडीबी
एलबमः बुलेट राजा
गीतकार » कौसर मुनीर, संदीप नाथ
संगीतकार » साजिद-वाजिद, आरडीबी

संगीत छपाई का स्तर इन दिनों लुगदी साहित्य की छपाई के स्तर का हो गया है. केंद्रीय नामकरण आयोग जैसा कुछ होता लुटियन में, तो नाम दे देते ‘चूरन संगीत’. क्योंकि जिस तरह दशक भर से राम गोपाल वर्मा फिल्में छाप रहे हैं उसी तरह आजकल साजिद-वाजिद छपा-छप गाने छाप रहे हैं. और ‘दबंग’ तो जैसे साजिद-वाजिद की ‘प्यासा’ हो गई है, बेहिचक अपनी हर फिल्म में दबंग के गीतों का ‘एक्सटेंशन’ रखना वे रचनात्मकता का आखिरी नियामक समझते हैं शायद. दिन लेकिन, इससे भी बुरे चल रहे हैं. तिग्मांशु धूलिया जैसा फिल्मकार जो बाजार के लिए फिल्में नहीं बनाता है (अभी तक), अपनी फिल्मों में बाजार के लिए गीत-संगीत रखते वक्त कसमसाता क्यों नहीं है? आइटम गीतों के प्रति उनकी नई आसक्ति एक और चुभती कील है.

‘बुलेट राजा’ के गीतों के पास वैसे तो कुछ अच्छी हुक-लाइनें थीं, मगर उतने अच्छे गीत नहीं. ‘तमंचे पे डिस्को’ जैसी मजेदार हुक-लाइन के साथ आरडीबी कुछ भी नया नहीं कर पाते और गाने को अपने पुराने गीतों जैसा ही बना देते हैं. बेकार. बाकी के सभी गीत साजिद-वाजिद के हैं और आपको बताने की जरूरत ही नहीं है कि कौन-सा गाना दबंग के किस गीत की याद दिलाता है. वीरता की चौड़ाई लिए इनमें से दो गीतों के पास भी बेहतर हुक-लाइन थी, ‘बुलेट राजा’ और ‘सटा के ठोको’ के नाम से, लेकिन कौसर मुनीर और संदीप नाथ से बासी संगीत पर थोड़ा-सा भी नया लिखने की कोशिश नहीं हुई. हालांकि साजिद-वाजिद ने एक नई कोशिश जरूर की है. प्रीतम की भूल भुलैया के एक गीत की हूबहू नकल की कोशिश. और आने वाले वक्त में शायद यही कोशिश उनके संगीत को एक नया आयाम दे देगी. फिल्मों में इसी को रचनात्मकता कहने का चलन है.

‘हिंदी में या तो अश्लीलता बिक रही है या सनसनी’

IMG_2591आपने पुरुषों के वर्चस्व वाली विधा आलोचना को अपनाया. क्या स्त्री होने के नाते इसमें परेशानियां उठानी पड़ीं आपको?
ऐसा तो नहीं है लेकिन हां, जितना काम मैंने किया है, अगर किसी पुरुष ने किया होता तो उसे बहुत प्रसिद्धि मिली होती. पुरुषों की एक-दो किताब आते ही उन पर व्यापक चर्चा आरंभ हो जाती है लेकिन इतना काम करने के बाद भी मुझे उतनी मान्यता नहीं मिली. मेरे स्त्री होने का जो सबसे बड़ा नुकसान हुआ है, वो यही है. वैसे अधिकांश पुरुष मानते हैं कि महिलाओं की बुद्धि घुटने में होती है. बाद में ऐसा होने लगा कि जब सभा-सम्मेलनों में मैं उनके समकक्ष बोलती या चीजों की व्याख्या करती थी तब जाकर बड़ी मुश्किल से लोगों ने मानना शुरू किया कि मैं जानती हूं. हालांकि मुझे अपने परिवार से काफी सहयोग मिला. मेरे पति ने भी मुझे काफी सहयोग दिया. अमूमन लड़कियों को जो दिक्कतें आती हैं, मुझे वो कभी नहीं आईं. वैसे उनकी साहित्य में बिल्कुल रुचि नहीं थी. उन्हें हिंदी भी ठीक से नहीं आती थी, सिर्फ अंग्रेजी ही बोलते थे. वो ये समझ भी नहीं पाते थे कि मैं क्या काम कर रही हूं, फिर भी मेरे काम को हमेशा सराहते थे. इसलिए मैं हमेशा कहती हूं कि केवल सफेद और काला नहीं होता बीच में एक ग्रे एरिया भी होता है. कुछ पुरुष ऐसे भी होते हैं जो आपको बढ़ावा दें मदद करें.

आपका परिवार व्यापार-कारोबार वाला रहा, फिर आपकी रुचि साहित्य में कैसे जगी?
पढ़ने में मेरी रुचि शुरू से थी, लेकिन जब स्नातक में आई तो साहित्य में रुचि जगी. कॉलेज में साहित्यिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेने लगी तो प्रशंसा मिलने लगी. इस तरह भागीदारी भी बढ़ने लगी. मैंने जब पढ़ाना शुरू किया तो मेरी पहली ही नियुक्ति लेडी श्रीराम कॉलेज में सीधे विभागाध्यक्ष के पद पर हुई. 14 साल तक उस कॉलेज में रहने के बाद यूनिवर्सिटी में आ गई और यहां भी शीर्ष पर रही. मेरे विभाग में 18 पुरुष थे और उनके बीच मैं अकेली स्त्री. 18 पुरुषों के बीच मैं लगातार रहती थी, काम करती थी. मैं वहां लगभग पुरुषवत ही रहती थी, मतलब मुझे कभी ऐसा लगता ही नहीं था कि मैं स्त्री हूं और इतने पुरुषों के बीच अकेली रहती हूं.

क्या तब से अब तक पुरुषों के नजरिये में बदलाव आया है?
पूरे समाज के बारे में एक सामान्य धारणा बनाना सही नहीं है. अलग-अलग वर्गों-समुदायों के पुरुषों में उनकी शिक्षा के अनुसार फर्क तो निश्चित रूप से आया है. अब स्त्रियों की क्षमता को पुरुष पहचानने लगे हैं. दूसरा, स्त्री को अपने अधीनस्थ मानने की प्रवृत्ति जो थी, उसमें भी फर्क आया है. एक तीसरा पक्ष भी है जो स्याह है. वो ये की अब पुरुषों की रुचि स्त्री की कमाई में होने लगी है. देखिए, शादी के लिए लड़की खोजने निकलते हैं तो उन्हें कामकाजी लड़की चाहिए. इसके पीछे सोच ये नहीं होती कि लड़की आत्मनिर्भर होगी, समझदार होगी बल्कि ये कि वह पैसे कमाएगी. वे कामकाजी लड़की इसलिए नहीं खोजते कि एक पढ़ी-लिखी, समझदार व बराबर की भागीदारी निभाने वाली लड़की घर में आएगी, बल्कि वे स्त्रियों से दोहरा काम लेने की कोशिश करते हैं.

आलोचक की पाठक और रचनाकार के बीच में क्या भूमिका है?
आलोचक की ऐसी कोई भूमिका नहीं होती है. वह बस रचना को जैसा समझता है, उसका विश्लेषण कर देता है. अब ये पाठक पर है कि वो चाहे तो विश्लेषण को पढ़ कर कोई दृष्टि विकसित कर ले रचना को समझने की. कभी-कभी हम समीक्षा को पढ़ कर उपन्यास या कहानी या कोई रचना पढ़ते है किंतु कभी-कभी सीधे रचना को ही पढ़ना पसंद करते हैं. विजय नारायण साही कहा करते थे कि जैसे रेडियो में कांटा घुमा-घुमा कर सही जगह पर टिका देते हैं और संगीत सुनाई देने लगता है, उसी तरह सही आलोचक का काम भी यही है कि वह पाठक की सुई को सही रचना पर टिका दे. पाठक की रुचि को सही दिशा प्रदान करने में स्वरूप प्रदान करे. लेकिन अगर समझदार पाठक है तो अपनी समझ और सोच के अनुसार रचना को पढ़ेगा.

विमर्शों की बात करें तो एक खेमा कहता है- दलित की बात दलित ही लिख सकता है, आदिवासी की बात आदिवासी और महिला की बात महिला ही लिख सकती है…!
इस मसले पर मेरी राय शुरू से स्पष्ट है. मेरा मानना है कि कोई भी अपनी बात खुद लिख ही नहीं सकता. क्योंकि वो बड़ा सब्जेक्टिव लिखेगा. आपको ये फैसला करना है कि साहित्य को आप नितांत निजी तौर पर लिखते हैं या खुद को विषय से अलग करके लिखते हैं. अगर आप दलित हो कर दलित साहित्य लिख रहे हैं तो आपके अंदर जो दलित तत्व है उससे हटना होगा, बचना होगा. हटेंगे तभी आप निरपेक्ष होकर उसकी बात करेंगे. आप अपनी बात जब भी कहेंगे, बढ़ा-चढ़ा कर कहेंगे. आप को अपना दुख सारे संसार से ज्यादा बड़ा लगेगा. जब तक आप इससे ऊपर नहीं उठेंगे, अपनी बड़ी बात नहीं कह सकते. दलित रचनाकारों की रचना उठा के देखो, एक ही तरह की बातें लिखी मिलेंगी. स्त्रियों को ले लो, सब की रचना में एक ही तरह की बात पढ़ने को मिलेगी. ऐसा नहीं है कि दुख सिर्फ दलितों, आदिवासियों या महिलाओं के हिस्से में ही आए हैं, दुखों के अपने-अपने अलग रूप होते हैं. मैं इस समस्या को इस नजरिये से देखती हूं कि दो हिस्से की लड़ाई है ये. जिसमें एक को तरक्की के ज्यादा अवसर मिले और एक को कम.

आपके पसंदीदा कवि कौन हैं?
कोई एक पसंद हो तो बताऊं. मुझे अलग-अलग कारणों से कई कवि पसंद हैं. रचनाकारों में रेणु मुझे मुकम्मल तौर पर पसंद हैं. अज्ञेय जी की भी कई कविताएं काफी पसंद हैं. कुछ रचनाकार कुछ खास चीजों के लिए पसंद होते हैं. मुक्तिबोध अपनी गहरी वैचारिकता के लिए पसंद हैं. अज्ञेय विषयों को बड़ी पैनी नजर से पकड़ते हैं, उसके लिए पसंद हैं. अज्ञेय के अंदर एक आलोचक बैठा रहता है. अज्ञेय ने हिंदी की शब्दावली को काफी समृद्ध किया है. आलोचना को कई नए शब्द अज्ञेय ने दिए हैं. कई मारक सूक्तियों की रचना की है एवं बड़े ही सलीकेदार इंसान रहे हैं. आपके पूरे भाषण को अपने एक वाक्य से ध्वस्त करने की कला अज्ञेय में लाजवाब है.

नंदकिशोर नवल ने अपने एक साक्षात्कार में कहा कि धूमिल के बाद कोई मुकम्मल कवि नहीं हुआ. आप क्या कहेंगी?
ये तो पराकाष्ठा है. वे स्पष्ट करें मुकम्मल होना क्या होता है. कवि तो कवि होता है. धूमिल के बाद तो नागार्जुन भी हुए हैं. धूमिल ने तो एक ही ढर्रे की कविताएं लिखी हैं. पर धूमिल का प्रोपेगेंडा के तहत प्रचार बहुत किया गया. अगर आप किसी वाद से जुड़े होते हैं तो बहुत तारीफ की जाती है और कम उम्र में मृत्यु हो जाए तो उसे शहादत का दर्जा दे दिया जाता है. इस कारण से भी उन्हंे प्रसिद्धि मिली. बहुत-से कवियों ने उनके बराबर की कविताएं लिखी हैं.

हिंदी में साहित्यकार बनकर आप जीवन की गाड़ी नहीं खींच सकते, जबकि भारत में ही दूसरी भाषाओं के रचनाकारों के साथ ऐसी स्थिति नहीं?
यह समस्या लेखक की नहीं है. यह समस्या खरीदारों की है. अन्य भाषाओं की रचनाओं के खरीदार सोच से समृद्ध हैं, जबकि हिंदी के पाठक उधार की किताब लेकर पढ़ लेंगे पर खरीदकर नहीं. पटना के पुस्तक मेले में मैंने देखा है कि मैले-कुचैले कपड़े पहनने वाला व्यक्ति भी एक-दो किताबें खरीद कर ही निकलता है. बड़े शहरों के पाठक पुस्तक मेले को एक पिकनिक की तरह लेते हैं. जाते हैं, घूम-फिर कर, खा-पीकर और मौज-मस्ती कर वापस हो लेते हैं. हां! कोई सनसनीखेज किताब आए तो खरीद लेते हैं. तस्लीमा नसरीन की ‘लज्जा’ को ही ले लो, एक दिन में तीन हजार प्रतियां तक बिकी हैं. अश्लील या सनसनीखेज लिखो तो खरीदार मिल जाएंगे.

आलोचना दो कसौटियों पर कसी जाती है, एक सौंदर्यशास्त्र पर और दूसरी रस सिद्धांत पर. आपको क्या लगता है, नई विमर्श और नए अस्मिताओं के उभार के दौर में कसौटी बदलने की जरूरत है?
कसौटी तो इस बात से तय होती है कि रचना किस तरह की मांग करती है. अगर रचना सौंदर्यशास्त्र की है तो आप उसे कसौटी पर कस सकते हैं. पर नागार्जुन की रचना को किस कसौटी पर कसेंगे? मैंने लिखा भी है कि आलोचना के प्रतिमान रचना की प्रकृति से तय होते हैं. आलोचना की कसौटी पर बिना किसी हथियार के रचना में प्रवेश करना चाहिए. अगर पहले से ही आप तय कर और कसौटी पर कसने कि कोशिश करेंगे तो आप उस रचना के साथ न्याय नहीं कर सकते. जिसमें परंपरागत सौंदर्य है ही नहीं, उसमें सौंदर्य तलाशने लगें तो कहां से मिलेगा? बताइए.

वर्तमान का दस्तावेजीकरण

पुस्तक: जी हां लिख रहा हूं…
लेखक : निशान्त
मूल्य : 150 रुपये
प्रकाशनः राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

आलोचक भले ही कहते हों कि यह कविता का नहीं कहानियों का युग है लेकिन फिर भी कुछ कवियों ने हमें चौंकाना नहीं छोड़ा है यह शुभ संकेत है. कविताएं लिखी जा रही हैं और खूब लिखी जा रही हैं. फेसबुक आदि माध्यमों ने तुरंत कवियों की एक पूरी पीढ़ी को ही जन्म दिया है लेकिन इन सबके बीच निशान्त जैसे कवियों की मौजूदगी बहुत आश्वस्त करती है. एक बानगी देखिए ‘इस समय एक युवा कवि कह रहा है/ अभी नहीं लिख पाया अपने समय की कविता/ तो बाद में कुछ भी नहीं लिख पाऊंगा/ चूक जाऊंगा.’ कवि यहां वक्त के असर और उन दबावों को रेखांकित कर रहा है जो सब कुछ बदल देने का माद्दा रखते हैं. निशान्त न केवल लंबी कविताओं को साधने में महारत रखते हैं बल्कि उनकी कविताएं निहायत निजी अनुभवों के व्यापक सामाजिक असर को भी साथ-साथ रेखांकित करती चलती हैं. उनका कविता संग्रह ‘जी हां लिख रहा हूं’ में मुख्य रूप से उनकी पांच लंबी कविताएं शामिल हैं.

निशान्त की कविताओं में ‘मैं’ की गूंज इतनी ज्यादा है कि सरसरी निगाह डालने वाले बहुत आसानी से उनकी कविताओं को व्यक्तिकेंद्रित कविता करार दे देंगे लेकिन हकीकत में निशांत की कविताओं का ‘मैं’ दरअसल एक पूरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता है. उनकी कविताओं में जिन बिंबों का इस्तेमाल है वे अनूठे और गूढ़ हैं. ये पंक्तियां, ‘यह बड़ा गड़बड़ समय था/ एक लड़का हलाल हो गया था और मुस्कुरा रहा था/ दूसरा अपनी बारी का इंतजार कर रहा था.’ इनमें वह समय का सच तो सामने ला ही रहे हैं साथ ही एक विडंबना को भी उजागर कर रहे हैं. दिल्ली आने वाला कोई ऐसा युवा शायद ही होगा जो मुखर्जी नगर व बत्रा सिनेमा से अपरिचित होगा. सिंगल स्क्रीन थिएटर को आधार बनाकर निशान्त ने जड़ों से कटकर दिल्ली पहुंचे युवाओं के स्वप्नभंग को बेहद खूबसूरत ढंग से रचा है.

‘मैं में हम हम में मैं’ कविता दरअसल महानगरीय जीवन की त्रासदियों का आख्यान है. छोटे गांव-कस्बों से महानगर आने वाले युवाओं को बाहरी और अंतर्मन के स्तर पर दोहरी समस्याओं का सामना करना पड़ता है. निशान्त की कविताएं इस अंतर्द्वंद्व को बखूबी प्रकट करती हैं. हिंदी की युवा कविता में इस समय एक ही तरह की कविताएं लिखी जा रही हैं. उनकी चिंताएं एक सी हैं. ऐसे में निशान्त की कविताओं में कोलकाता का विक्टोरिया मेमोरियल है और सूजा और विसेंट वॉन गॉग से लेकर तमाम चित्रकार तक उनके विषय हैं.

‘फिलहाल सांप कविता’ के जरिए वे बताते हैं कि उत्साह से भरे एक युवा का कथित अनुभवी लोग क्या हश्र करते हैं. यह दुनिया जो बहुत खूबसूरत हो सकती थी वह किन लोगों के चलते इतनी कुरूप हो गई है इसका यह कविता पूरा हिसाब करती है. अगर हमें अपने समय के युवा मन को समझना है तो निशान्त की कविताओं को पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि ये हमारे वक्त का दस्तावेज हैं.