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आगे की राह

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दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद आम आदमी पार्टी की पहली रैली. फोटो: विकास कुमार

आगे क्या? दिल्ली विधानसभा चुनाव में ऐतिहासिक प्रदर्शन के बाद आम आदमी पार्टी (आप) को लेकर सभी के मन में यही सवाल है. पार्टी कहती है कि वह लोकसभा और देश के दूसरे राज्यों की विधानसभा के लिए चुनावी किस्मत आजमाने को तैयार है. वह तमाम मंचों से ईमानदार लोगों को एक मंच पर लाने यानी उन्हें खुद से जोड़ने की बात कह रही है. पार्टी नेता अजीत झा कहते हैं,  ‘हम चाहते हैं कि जो लोग भी वर्तमान व्यवस्था से त्रस्त हंै और इसे बदलना चाहते हैं वे हमसे जुड़ें. ’ इसी योजना के तहत पार्टी ने हरियाणा की कांग्रेस सरकार की आंखों की किरकिरी बन चुके आईएएस अफसर अशोक खेमका को पार्टी से जुड़ने का आमंत्रण भेजा. दूसरी तरफ यूपी में रेत माफियाओं के खिलाफ कार्रवाई करने और उसके कारण राज्य की सपा सरकार से नाराजगी मोल लेकर चर्चा में आई दुर्गाशक्ति नागपाल से भी पार्टी ने जुड़ने की अपील की है.

आप से जुड़े लोगों के मुताबिक पार्टी लोकसभा चुनावों को देखते हुए देश भर से लोगों को आप से जोड़ने के लिए प्रचार अभियान चलाएगी. वह उद्योगपति, शिक्षाविद, युवा, महिलाएं और सामाजिक कार्यकर्ताओं से लेकर हर तबके के साफ-सुथरी छवि वाले लोगों का समर्थन हासिल करने की कोशिश करेगी. पार्टी नेता गोपाल राय बताते हैं कि पार्टी पूरे देश में अलग-अलग जनसमूहों और जनसंघर्षों को अपने से जोड़ने का प्रयास करेगी. आगामी चुनावी योजनाओं के बारे में आप से जुड़े अंकित लाल कहते हैं, ‘अभी पार्टी लोकसभा की 200-250 शहरी और अर्द्धशहरी सीटों पर चुनाव लड़ने के बारे में पार्टी सोच रही है. वहीं विधानसभा के लिए हरियाणा और महाराष्ट्र पर उसकी नजर है.

वैसे पार्टी कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक चुनावी बिगुल फूंकने का दम भर रही है. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या वह दिल्ली वाली सफलता देश के दूसरे राज्यों में दोहरा पाएगी.

दिल्ली में पार्टी ने डोर टू डोर कैंपेन और सोशल मीडिया का जमकर प्रयोग किया. राज्य की लगभग हर सीट पर अरविंद केजरीवाल ने जाकर खुद चुनाव प्रचार किया. पार्टी ने दिल्ली चुनाव में 20 करोड़ रु खर्च किए. दिल्ली में यह प्रयोग सफल रहा.

लेकिन जानकार मानते हैं कि दिल्ली एक छोटा प्रदेश है. एक शहर जिसकी आबादी बेहद सीमित है. सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगौलिक, भाषाई आदि रूप से वह उतना विविध नहीं है जितने देश के कई राज्य हंै. ऐसे में पार्टी भविष्य में यूपी, एमपी, बिहार, गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में कैसे काम करेगी यह देखने वाली बात होगी. जिस देश में लगभग हर राज्य अपने आप में एक अलग देश जितनी विविधता लिए हो वहां पूरे देश में खुद को चुनावी रूप से क्या आप स्थापित कर पाएगी ? वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पड़गांवकर कहते हैं, ‘यह बहुत मुश्किल है. आप को देश की विविधता को ध्यान में रखकर खुद को तैयार करना होगा. अभी जो उसका स्वरुप है वो बेहद सीमित है.’

उनकी बात को आगे बढाते हुए जनसत्ता के संपादक ओम थानवी कहते हैं, ‘आप के पास लक्ष्य तो है, कार्यक्रम भी दिख रहा है लेकिन उसमें विचारधारा का अभाव है. दिल्ली के बाहर अगर उसे पहुंचना है तो इस दिशा में उसे काम करना होगा.’

ये देखना दिलचस्प होगा कि देश के विभिन्न हिस्सों में होने वाली वोट बैंक की राजनीति जिसमें जातिवाद, धर्मवाद, क्षेत्रवाद जैसी चीजें बेहद मजबूत रूप ले चुकी हैं, उससे आप कैसे निपटेगी. क्या देश की बाकी जनता सिर्फ भ्रष्टाचार के नाम पर आप को वोट देगी? क्षेत्रीय, जातीय, धार्मिक आदि प्रश्नों को पीछे रखकर किस तरह आप विभिन्न राज्यों में अपना स्थान बनाएगी ?

पार्टी कह चुकी है कि वह जाति और धर्म की राजनीति नहीं करेगी.लेकिन देश में जाति की राजनीति ने जो गहरी जड़ें जमा ली हैं उसका क्या विकल्प है आप के पास? महाराष्ट्र में मराठी मानुस वाली विचारधारा की क्या काट है उसके पास? दक्षिण में तमिलों को लेकर पार्टी की क्या रणनीति रहेगी? छत्तीसगढ़ के बस्तर में किस मुद्दे पर वह चुनाव लड़ेगी? कश्मीर पार्टी जाएगी तो क्या मुद्दा उठाएगी? इन सभी प्रश्नों से पार्टी को जूझना होगा. इनका हल ढूंढना होगा.

देश के हर राज्य की अपनी समस्याएं हैं, उनकी अपनी अलग किस्म की राजनीति है, अलग मुद्दे हैं. ऐसे में पार्टी क्या सिर्फ भ्रष्टाचार का नारा लेकर लोगों के पास जाएगी? अभी तक पार्टी की विचारधारा एक बेहद सीमित संदर्भ लिए हुए है. दिलीप पड़गांवकर कहते हैं, ‘पार्टी की अभी कोई विचारधारा नहीं है. अगर उसे पूरे देश में जाना है तो उसे अपनी विचारधारा बनानी होगी. किसी को नहीं पता कि आप की आर्थिक नीति क्या होगी, सुरक्षा नीति क्या होगी, नक्सल नीति क्या होगी. ये सारे चीजें हवा में हैं.’  ओम थानवी पार्टी के नेतृत्व का सवाल भी उठाते हैं. वे कहते हैं, ‘अभी तक तो पार्टी केजरीवाल को चेहरा बनाकर काम कर रही है लेकिन अगर उसे पूरे देश में जाना है तो वो अब वन मैन शो से काम नहीं चलेगा. उसे नेतृत्व के स्तर पर और लोगों को पार्टी से जोड़ना होगा.’

जेएनयू में प्रोफेसर विवेक कुमार आप की सीमित सोच का प्रश्न उठाते हैं. वे कहते हैं, ‘आप को ये समझना होगा कि भारत कोई एकांगी राष्ट्र नहीं है. यहां भारत है, इंडिया है, ट्राइबल भारत भी है. जितनी तरह की विविधता आप सोच सकते हैं उतनी इस देश में मौजूद हंै. जबकि ये लोग विविधता में विश्वास नहीं करते. इनके लिए जाति और धर्म कोई प्रश्न नहीं है. देश के यथार्थ  झुठलाने वाली आप जैसी पार्टी का राष्ट्रीय स्तर पर कोई खास भविष्य नहीं है. इन लोगों को लगता है कि जनता को बस बीएसपी (बिजली, सड़क, पानी) से मतलब है. इन्हें नहीं पता कि लोगों के लिए सम्मान और पहचान भी एक मुद्दा है.’

युवाओं के दम पर दिल्ली में शानदार प्रदर्शन कर चुकी आप को अगले लोकसभा चुनाव में जुड़ने वाले 12 करोड़ नए वोटरों से उम्मीद है. 2014 लोकसभा चुनाव में 12 करोड़ वोटर ऐसे होंगे जो पहली बार मतदान करेंगे. एक हालिया सर्वे बता रहा है कि अगले लोकसभा चुनाव में कुल 543 में से 160 सीटों पर सोशल मीडिया की भूमिका निर्णायक होगी. सर्वे में ये बात भी सामने आई कि पहली बार वोट का अधिकार प्राप्त करने वाले 12 करोड़ वोटरों में से नौ करोड़ सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं. अध्ययन के मुताबिक इस समय लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के खाते में 75 सीटें ऐसी हैं, जिनका भविष्य सोशल मीडिया के हाथों में है. भाजपा के कब्जे वाली 44 सीटें सोशल मीडिया की मुट्ठी में हैं. सोशल मीडिया पर अपनी मजबूत पकड़ होने के कारण आप को उम्मीद है कि इन सीटों पर वह कुछ खेल कर सकती है. पार्टी इस बात को लेकर आशावान है कि सोशल मीडिया पर सक्रिय मतदाता न केवल खुद बड़ी भूमिका निभाएंगे बल्कि वे अपने आसपास के मतदाताओं को भी आप के पक्ष में लामबंद करेंगे.  पार्टी से जुड़े अजीत झा कहते हैं, ‘हम पूरे देश में जाने को तैयार है. देश को एक साफ सुथरी, जन पक्षीय और खुद आम लोगों द्वारा संचालित राजनीति देना चाहते हैं. लोग अगर दिल्ली में बीजेपी और कांग्रेस से नाराज थे तो ऐसा नहीं है कि बाकी देश में अलग-अलग राज्य सरकारों से खुश हैं. हम जनविरोधी सरकारों का विकल्प बनने को पूरी तरह से तैयार हैं. ’

राज्यों में पार्टी के संगठन पर अगर नजर डालें तो आप ने देश के 15 राज्यों में अपनी राज्य  इकाई का निर्माण कर लिया है. देश के करीब 380 जिलों में उसका संगठन खड़ा हो चुका है. आने वाले समय में पार्टी कितनी सफलता अर्जित करती है, यह तो देखने वाली बात होगी लेकिन आप के आलोचक तक उसके राजनीति में प्रवेश को भी लोकतंत्र की मजबूती के रूप में देखते हैं. आंदोलन के समय से ही उसके आलोचक रहे विवेक कुमार कहते हैं, ‘आप का दिल्ली में जीतना लोकतंत्र की ताकत का प्रतीक है.’

दिल्ली चुनावों में शानदार प्रदर्शन के बाद भी पार्टी के लोगों का व्यवहार बेहद शालीन और विनम्र बना रहा. अरविंद केजरीवाल और पार्टी के दूसरे बड़े नेता लगातार अपने पार्टी कार्यकर्ताओं से जीत के अहंकार से दूर रहने की अपील कर रहे हैं. ऐसी ही एक नसीहत योगेंद्र यादव ने जंतर मंतर पर पार्टी कार्यकर्ताओं को दी. उन्होंने कहा, ‘ हम उस कलम की तरह हैं जिससे एक कवि ने कोई सुंदर कविता लिखी है. अब कलम को यह भ्रम हो जाए कि कविता कवि ने नहीं उसने लिखी है तो यह गलत होगा. हमें याद रखना होगा कि हम सिर्फ निमित्त मात्र हैं. ’

यानी फिलहाल आप  की गाड़ी ठीक रास्ते पर बढ़ रही है.

उपेक्षित उत्पीड़न

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14 मई, 2013 को उत्तर प्रदेश के एटा जिले में पुलिस ने चार लोगों को हिरासत में लिया. उन्हें महीने भर पुराने एक कत्ल के मामले में पकड़ा गया था. तीन दिन बाद उनमें से एक बलबीर सिंह की लखनऊ के एक अस्पताल में मौत हो गई. सिंह के रिश्तेदार सुनुल कुमार इसकी वजह पुलिस की थर्ड डिग्री को बताते हैं. वे कहते हैं, ‘पुलिस ने उन्हें बिजली के झटके दिए थे. उन्हें पेट्रोल और तेजाब के इंजेक्शन भी लगाए गए. पुलिस ने उन्हें जबरन बिजली के हीटर पर बैठाया जिससे वे बुरी तरह जल गए.’ कुमार के मुताबिक  बलबीर ने मरने से पहले उनसे बात की थी. वे कहते हैं, ‘उनका कहना था कि पुलिस उनसे हत्या में शामिल होने की बात कबूलवाना चाहती थी.’

बलबीर सिंह की हालत कितनी खराब हो चुकी थी इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पहले उन्हें जिला अस्पताल एटा में भर्ती कराया गया, यहां बात नहीं बनी तो उन्हें एसएन मेडिकल कॉलेज आगरा भेजा गया और आखिर में जीएमसी मेडिकल कॉलेज लखनऊ जहां आईसीयू में उनकी मौत हो गई. मरने से पहले मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए बयान में उन्होंने उन पुलिसवालों के नाम लिए जिन्होंने उन्हें यातनाएं दी थीं. इसके बाद पुलिस को हत्या का मामला दर्ज करने के लिए मजबूर होना पड़ा. इसके बाद निचले स्तर के पांच पुलिसकर्मियों को निलंबित कर दिया गया. खबर लिखे जाने तक इस मामले में कोई गिरफ्तारी नहीं हुई थी. एक सब-इंस्पेक्टर फरार है. संबंधित थाने के एसओ देवेंद्र पांडे को सिर्फ तबादला करके छोड़ दिया गया, जबकि कुमार के मुताबिक सिंह को बिजली के झटके पांडे ने ही दिए थे. सिंह का एक साल का बेटा है और उनकी पत्नी दूसरी संतान को जन्म देने वाली हैं.

ऐसा ही एक मामला चार अगस्त 2013 को भी सुर्खियों में आया. पंजाब में अमृतसर के सुल्तानविंड इलाके सतिंदरपाल सिंह नाम के एक युवक की पुलिस हिरासत में मौत के मुद्दे पर लोगों ने जमकर हंगामा किया. सतिंदर की पत्नी और मां का आरोप था कि पुलिस ने उसे पकड़कर गैर कानूनी हिरासत तरीके से हिरासत में रखा. उनका कहना था कि इस दौरान दी गई यातनाओं से जब उसकी मौत हो गई तो परिवार को सूचना दिए बिना आनन-फानन में पोस्टमाटर्म करवाकर उसका अंतिम संस्कार कर दिया. इस मुद्दे पर जब बवाल होने लगा तो  एक एएसआई और दो अन्य पुलिसकर्मियों को निलंबित कर दिया गया.

2010 में अपने एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था, ‘अगर रक्षक ही भक्षक बन जाए तो सभ्य समाज का अस्तित्व खत्म हो जाएगा….आपराधिक कृत्य करने वाले पुलिसकर्मियों को दूसरे लोगों के मुकाबले और भी कड़ी सजा दी जानी चाहिए, क्योंकि उनका कर्तव्य लोगों की सुरक्षा करना है न कि खुद ही कानून तोड़ना.’ यह फैसला उस मामले में आया था जिसमें थाने में एक व्यक्ति का जननांग काटने के दोषी बाड़मेर के एक कांस्टेबल किशोर सिंह को अदालत ने पांच साल कैद की सजा सुनाई थी. अदालत ने पुलिस की मानसिकता की निंदा करते हुए कहा था कि लोकतांत्रिक देश के कानून में थर्ड डिग्री जैसे गैरकानूनी तरीकों के इस्तेमाल की कोई जगह नहीं है.

लेकिन पुलिस या जेल अधिकारियों द्वारा उत्पीड़न और आम भाषा में कहें तो टॉर्चर के आरोपों का सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा. बीती 18 मई को ही फैजाबाद अदालत में पेशी के बाद लखनऊ जेल ले जाए जा रहे 32 साल के खालिद मुजाहिद ने दम तोड़ दिया. सात जून, 2012 को इस तरह का एक और मामला सामने आया. बदायूं के रहने वाले 23 वर्षीय रिंकू यादव की पुलिस हिरासत के दौरान खून की उल्टियां करने के बाद मौत हो गई.

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 2001 से 2010 के बीच देश 14 हजार से भी ज्यादा लोगों की पुलिस हिरासत और जेल में मौत की घटनाएं दर्ज की हैं. यानी औसतन देखा जाए तो चार मौतें रोज. आयोग के मुताबिक पिछले तीन साल में ही पुलिस हिरासत में 417 और न्यायिक हिरासत में 4,285 मौतें हुई हैं. इस दौरान पुलिस हिरासत में शारीरिक शोषण और यातना के 1,899 मामले देखे गए हैं, जबकि 75 मामले आयोग ने ऐसे दर्ज किए हैं जिनमें पुलिसकर्मियों पर ही बलात्कार का आरोप है.

पुलिसिया उत्पीड़न से जुड़ी इस तरह की ज्यादातर  घटनाओं पर कोई खास चर्चा नहीं होती. सवाल उठता है कि ऐसा क्यों होता है. दरअसल इसके दो कारण हैं. पहला कारण तो यह आम धारणा है कि उत्पीड़न उन्हीं का होता है जिनका होना चाहिए. दूसरा कारण भी एक धारणा ही है और वह यह है कि गैरकानूनी होने पर भी उत्पीड़न ही एक ऐसा तरीका है तो आतंकी घटनाओं या माफिया गतिविधियों के संदेह में गिरफ्तार लोगों से कुछ अहम जानकारियां उगलवा सकता है.

लेकिन जानकारों के मुताबिक ये दोनों ही धारणाएं सही नहीं हैं. ज्यादातर मामलों में उत्पीड़न से सटीक जानकारी नहीं मिलती. बल्कि एक लिहाज से यह सुरक्षा व्यवस्था के लिए संकट की बात ही होती है क्योंकि अक्सर इससे डरकर लोग वे अपराध कबूल लेते हैं जो उन्होंने किए ही नहीं जबकि असल अपराधी खुले घूमते रहते हैं. दूसरी बात यह है कि उत्पीड़न सिर्फ कुछ दुर्लभ मामलों तक ही सीमित नहीं है. अक्सर यह छोटे-मोटे अपराध में पकड़े गए आरोपितों के साथ होता है.

रतनजी वाघेला का मामला इसका एक उदाहरण है. उन्हें इस साल 27 अप्रैल को गुजरात पुलिस ने गिरफ्तार किया. डिप्रेशन और याद्दाश्त की कमी जैसी बीमारियों के मरीज वाघेला का कसूर यह था कि वे एक सरकारी काफिले के रास्ते में आ गए थे. उनके परिवार का आरोप है कि उन्हें प्रताड़ित किया गया जिसकी वजह से उन्हें बहुत चोटें आईं और उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा. नई दिल्ली में इस मुद्दे पर अभियान चला रहे सुहास चकमा कहते हैं, ‘दुनिया में बहुत कम देश ऐसे होंगे जहां उत्पीड़न इतना व्यवस्थित और व्यवस्थागत है. ‘ सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ कहती हैं, ‘भारत में उत्पीड़न अपवाद नहीं है. यह तो आम बात है.’

फिर भी वाघेला खुशकिस्मत हैं. उनके मामले में चकमा की शिकायत के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने गुजरात सरकार को आदेश दिया है कि वह वाघेला को तीन लाख रु का अंतरिम मुआवजा दे. यही नहीं, उससे चकमा को प्रताड़ित किए जाने के आरोप की जांच करने के लिए भी कहा गया है. लेकिन उन लाखों लोगों के लिए उम्मीद की कोई किरण नहीं है जो भारत के थानों और जेलों में बर्बर यातना के शिकार हो रहे हैं.

छत्तीसगढ़ में दो साल जेल में बिताने वाले सामाजिक कार्यकर्ता बिनायक सेन कहते हैं, ‘मैंने देखा है कि लोगों को तब तक पीटा जाता है जब तक वे ढेर नहीं हो जाते. और ऐसा करने वालों को सजा का कोई डर नहीं होता. भारतीय जेलों में यह रोज की हकीकत है.’ सेन को 2010 में राष्ट्रद्रोह के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी और उनका मामला अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां बन गया था. ऊपरी अदालत में इस फैसले के खिलाफ अपील करने के बाद वे फिलहाल जमानत पर बाहर हैं. सेन कहते है कि जब उन्होंने साथी कैदियों के उत्पीड़न का विरोध किया तो उनका मजाक उड़ाया गया. उनके मुताबिक उन्होंने उत्पीड़न से पीड़ित एक भी व्यक्ति नहीं देखा जो इसके खिलाफ न्याय चाहता हो.

वैसे तो सरकारी एजेंसियों द्वारा उत्पीड़न के मामले बाकी दुनिया में भी सामने आते रहते हैं, लेकिन भारत का जिक्र इस मायने में उल्लेखनीय है कि कमोरेस या गिनी-बिसाऊ जैसे छोटे-छोटे पांच-छह देशों की लिस्ट में वह अकेला बड़ा देश है जो उत्पीड़न के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के साथ समझौता करने के बावजूद इसे अपने यहां लागू नहीं कर पाया है. हिरासत में यातना, अमानवीय व्यवहार और सजा के खिलाफ 1997 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र के साथ समझौता किया था. इसे लागू करने के लिए मौजूदा कानूनी प्रावधानों में संशोधन कर नया कानून बनाना जरूरी था. हालांकि हिरासत में उत्पीड़न के खिलाफ कुछ प्रावधान भारतीय दंड संहिता में हैं, लेकिन उनमें न उत्पीड़न की व्याख्या है और न इसे आपराधिक माना गया है. इस बर्बरता को रोकने के लिए जरूरी है कि इसे गैरकानूनी घाेषित करते हुए इसके लिए सजा का प्रावधान हो. 2010 में प्रिवेंशन ऑफ टॉर्चर बिल के साथ ऐसी एक कोशिश हुई तो थी मगर बिल के मसौदे में कई गड़बड़ियां थीं जिन पर ध्यान दिलाए जाने पर उनकी जांच के लिए एक संसदीय समिति बनाई गई और तब से मामला ठंडे बस्ते में ही है.

नतीजा यह है कि भारत में कानून का पालन सुनिश्चित होने की जो प्रक्रिया है उत्पीड़न इसका एक अभिन्न हिस्सा बना हुआ है और न्यायपालिका भी इससे आंखें फेरे रहती है. इस मुद्दे पर लंबे समय से अभियान चला रही उच्चतम न्यायालय की अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर कहती हैं, ‘ज्यादातर मामलों में उत्पीड़न पर न्यायपालिका सिर्फ जुबानी गुस्सा दिखाती है. इसे अंजाम देने वालों के खिलाफ प्रभावी कार्रवाई नहीं होती.’ कभी किसी मामले पर हल्ला हो जाता है तो ज्यादा से ज्यादा पीड़ित को मुआवजा दे दिया जाता है. लेकिन जहां तक दोषी पर कार्रवाई का सवाल है तो मामला हमेशा के लिए घिसटता रह जाता है. हैरानी की बात है कि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़े ही बता रहे हैं कि हिरासत में उत्पीड़न के आरोप में पुलिस और जेल अधिकारियों के खिलाफ इतने मामलों के बावजूद आज तक एक भी उदाहरण ऐसा नहीं जहां आरोप सिद्ध हो गए हों.

सामाजिक कार्यकर्ता आरोप लगाते हैं कि हिरासत के दौरान होने वाली मौतों में से ज्यादातर उत्पीड़न के चलते होती हैं. हालांकि स्वाभाविक ही है कि अधिकारी हमेशा इससे इनकार करते हैं. अधिकांश ऐसी मौतें खुदकुशी के तौर पर दर्ज होती हैं तो कइयों के पीछे की वजह बीमारी बताई जाती है.

‘जब वे पैर के तलवे पर डंडे बरसाते थे तो दर्द यहां तक जाता था. तीन दिन बाद मैंने मान लिया कि बम रखने वाला मैं था’ नरेश कुजूरी (कुजूरी पर गढ़चिरौली में वह बम रखने का आरोप था जिससे हुए धमाके में 12 लोग मारे गए)
‘जब वे पैर के तलवे पर डंडे बरसाते थे तो दर्द यहां तक जाता था. तीन दिन बाद मैंने मान लिया कि बम रखने वाला मैं था’
नरेश कुजूरी
(कुजूरी पर गढ़चिरौली में वह बम रखने का आरोप था जिससे हुए धमाके में 12 लोग मारे गए)

और जो इस बर्बरता के बावजूद बच जाते हैं उनके लिए कभी न खत्म होने वाले एक बुरे सपने की शुरुआत हो जाती है. 24 जनवरी, 2012 को बिहार के शेखपुरा जिले में पुलिस ने मुकेश कुमार नाम के एक व्यक्ति को अवैध शराब बनाने के आरोप में गिरफ्तार किया था. बाद में राज्य मानवाधिकार आयोग में दर्ज एक शिकायत के मुताबिक 21 साल के कुमार को जिले के एसपी बाबू राम के सरकारी आवास पर ले जाया गया और वहां बुरी तरह पीटा गया. उसके मल द्वार में डंडा घुसेड़ दिया गया. (हालांकि पुलिस इससे इनकार करती है). चार दिन बाद जब उसे अस्पताल लाया गया तो डॉक्टरों ने पाया कि उसकी आंत बुरी तरह फट चुकी है. हालत बिगड़ने पर उसे दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान लाना पड़ा जहां उसके ऑपरेशनों पर अब तक करीब दो लाख रु खर्च हो चुके हैं. डॉक्टरों के मुताबिक उसकी चोट शायद ही कभी ठीक हो.

कुमार के मामा धीरज सिंह बताते हैं, ‘जब कानून के रखवाले ही ऐसा अपराध करेंगे तो आदमी कहां जाए?’ मामला सुर्खियों में आया तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एसपी के तबादले के आदेश दिए. शेखपुरा की नई एसपी मीनू कुमारी कहती हैं, ‘एसपी सहित मामले में शामिल सभी पुलिसकर्मियों का

तबादला कर दिया गया है. मैं इस मामले पर कोई और टिप्पणी नहीं कर सकती.’

हिरासत से होने वाली मौतों के मामले में महाराष्ट्र ने जनसंख्या के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश को भी पीछे छोड़ दिया है. आरोप लग रहे हैं कि बार-बार हो रहे बम धमाकों, जिनके बारे में माना जाता है कि उनमें देश में ही मौजूद इस्लामिक कट्टरपंथियों का भी हाथ है, और राज्य के कुछ हिस्सों में फैले नक्सलवाद ने उत्पीड़न के लिए कानूनी एजेंसियों की भूख बढ़ा दी है.

26 मार्च, 2012 को गढ़चिरौली जिले में एक बम धमाका हुआ. इसमें अर्धसैन्य बल केंद्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स के 12 लोग मारे गए. इसकी प्रतिक्रिया में पुलिस ने घटनास्थल के आस-पास वाले गांवों में छापे मारे और 11 लोगों को गिरफ्तार किया. इन्हीं में से एक 28 वर्षीय एनसी बापरा बताते हैं, ‘रोज सुबह-शाम हमें उल्टा लटकाया जाता और हमारे पैरों और कमर पर डंडे बरसाए जाते.’ 18 साल के शत्रुघ्न राजनेताम आगे बताते हैं, ‘चार दिन बाद पुलिस ने यह तो बंद कर दिया मगर हमें छोड़ा नहीं.’ इन सभी पर राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने का आरोप लगाया गया. तीन महीने बाद जाकर उनकी जमानत हो सकी.

उनके वकील जगदीश मेश्राम कहते हैं, ‘उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं है, लेकिन उन्हें इसलिए उठाया गया कि यह आसान था.’ 26 साल के नरेश कुजूरी अपने माथे की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, ‘जब वे पैर के तलवे पर डंडे बरसाते थे तो दर्द यहां तक जाता था. जब झेलना बर्दाश्त से बाहर हो गया तो तीन दिन बाद मैंने मान लिया कि बम रखने वाला मैं था.’ कानूनी और स्वास्थ्य संबंधी खर्चों पर इन सभी गरीब किसानों के परिवारों के लाखों रुपये खर्च हो चुके हैं. पुलिस इस आरोप का खंडन करती है. गढ़चिरौली के एसपी सुवेज हक तहलका से कहते हैं, ‘इनमें से किसी का भी उत्पीड़न नहीं किया गया है. और हमने उन्हें सबूतों के आधार पर गिरफ्तार किया है.’

नागपुर में टेलर 46 साल के बंधु मेश्राम को उत्पीड़न के मामले में तजुर्बेकार कहा सकता है. उन्हें पहली बार 1984 में गिरफ्तार किया गया था. 1996 और 2010 में उन्हें फिर गिरफ्तार किया गया. मेश्राम बताते हैं कि शुरुआती सालों में उन्हें ट्रेड यूनियन में उनकी सक्रियता और अलग विदर्भ राज्य की मांग करने के कारण निशाना बनाया गया. 2010 में पुलिस ने उन्हें माओवादी करार देकर गिरफ्तार किया. मेश्राम कहते हैं, ‘जब उन्हें आपसे कुछ कबूलवाना होता है तो वे आपको पूरी तरह तोड़ देते हैं. वे जानते हैं कि आदमी को कैसे चोट पहुंचानी है और उसे डराना है.’ मेश्राम के मुताबिक उन्हें एक टायर के बीच उल्टा लटकाया गया और एक घंटे तक उन पर डंडे बरसाए गए. उन्हें यकीन दिलाया गया कि दूसरे कमरे में उनकी पत्नी और मां के साथ बलात्कार हो रहा है. कई घंटों तक वे चीखें सुनते रहे जबकि पुलिसवाले हंसते रहे. एक दूसरे कैदी ने उन्हें बताया कि उनकी पत्नी की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई है. और यह भी कि उनका शव काटकर कहीं फेंक दिया गया है. वे बताते हैं, ‘मैं अपनी जिंदगी खत्म करना चाहता था. शुक्र है कि अगले दिन मैंने अपनी पत्नी को कोर्ट में देख लिया.’ तीन महीने जेल में गुजारने के बाद मेश्राम को जमानत मिल गई. 2012 में उन्हें सभी आरोपों से बरी कर दिया गया. अब उन्होंने खुद को यातना देने वाले पुलिसवालों के खिलाफ याचिका दायर की है.

क्या भारतीय कानून हिरासत में उत्पीड़न को वैधता देता है? कानून के मुताबिक इसका जवाब ‘नहीं’ है. सामाजिक कार्यकर्ता अरुण फेरेरा जनवरी, 2012 में अपनी रिहाई के पहले चार साल तक जेल में रह चुके हैं. उन्हें गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून (यूएपीए) के तहत हिरासत में लिया गया था. जेल में कई साथी कैदियों को उत्पीड़न का शिकार होते देख चुके फेरेरा कहते हैं, ‘ वैसे तो एकांत कारावास भी हमारे यहां गैरकानूनी है लेकिन देश की सभी जेलों में एकांत कारावास के लिए सेल बनी हुई हैं.’ वे सरकार के दोहरे रवये की तरफ इशारा करते हुए बताते हैं कि सरकार 2008 में उत्पीड़न निरोधक विधेयक पास कराने की जल्दबाजी में थी, लेकिन बाद में कार्यकर्ताओं ने पाया कि इसमें भी कुछ मामलों में उत्पीड़न को वैध बताया गया था.

पुलिस ने मेरे और मेरी मां के कपड़े उतरवाए और हमें शारीरिक संबंध बनाने के लिए मजबूर किया सरफराज (सरफराज के साथ यह तब हुआ जब वे अपनी पत्नी की खुदकुशी की रिपोर्ट करवाने गए)
पुलिस ने मेरे और मेरी मां के कपड़े उतरवाए और हमें शारीरिक संबंध बनाने के लिए मजबूर किया
सरफराज
(सरफराज के साथ यह तब हुआ जब वे अपनी पत्नी की खुदकुशी की रिपोर्ट करवाने गए)

लखनऊ में रहने वाले भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता एसआर दारापुरी हिरासत में उत्पीड़न पर एक अलग और महत्वपूर्ण बात बताते हैं. वे कहते हैं, ‘ सबसे बुरा पक्ष यह है कि अदालतें ऐसी शिकायतों को कोई तवज्जो नहीं देतीं. जब ये पीड़ित अदालत के सामने आते हैं तो अपने साथ हुए उत्पीड़न की शिकायत करते हैं, लेकिन अदालत इन बातों को दरकिनार कर देती है. हमारा पूरा तंत्र इस बीमारी से ग्रस्त है.’ जहां तक अदालतों का संबंध है तो अब कुछ हद तक वे पुलिस और जेल कर्मियों द्वारा उत्पीड़न पर गंभीर रुख दिखाने लगी हैं फिर भी ऐसे संकेत नहीं हैं कि वे इस प्रथा को पूरी तरह रोकने के लिए बड़ी कोशिश कर रही हों.

हिरासत में उत्पीड़न के मामलों पर वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका गोंजाल्विज और विजय हीरेमथ ने बंबई उच्च न्यायालय में 2003  में एक जनहित याचिका दाखिल की थी. यह मामला भी तब से धूल फांक रहा है. यही नहीं, छह साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्यों को एक ऐसा सुरक्षा आयोग गठित करने का निर्देश दिया था जो कानून के क्रियान्वयन पर निगरानी रखे ताकि यह पूरी प्रक्रिया राजनीतिक दबावों से मुक्त रहे. हैरानी की बात है कि यह भी अब तक नहीं हुआ है. इस मामले में एक याचिकाकर्ता रहे उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह कहते हैं, ‘ हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हमारा क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम पूरी तरह ढह चुका है. छोटे-मोटे मामले सुलझने में भी हमारे यहां तीन से पांच साल का वक्त लगता है.’ उधर, समाज उम्मीद करता है कि नतीजे जल्द निकलें. ‘ अच्छे-अच्छे लोग भी मुझसे पूछते हैं हम अपराधियों और आतंकवादियों को फौरन क्यों नहीं पकड़ते. उन्हें लगता है कि उत्पीड़न ठीक है क्योंकि इसके बिना कानून नहीं चल पाएगा. ‘

सिंह कहते हैं कि पुलिस सुधार ही एकमात्र तरीका है जो हमारे पुलिसतंत्र को ज्यादा लोकतांत्रिक और जवाबदेह बना सकता है और यही उन्हें अपने राजनीतिक आकाओं की कठपुतली बनने से रोक सकता है. हालांकि वृंदा ग्रोवर इससे पूरी तरह सहमत नहीं. वे कहती हैं, ‘ सुधारों से ज्यादा हमें जवाबदेही की जरूरत है. पुलिस की सोच दलित, महिला, गरीब तबके और अल्पसंख्यकों के प्रति पूर्वाग्रहों से भरी हुई है. इसके ऊपर हमारा राजनीतिक तबका अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने में उसका इस्तेमाल करता है. इससे वह और असंवेदनशील होती है. ‘ मुंबई के एक वकील युग मोहित चौधरी पुलिस हिरासत में उत्पीड़न के कई मामलों में पीड़ितों की तरफ से पैरवी कर चुके हैं. कर्मचारियों की कमी, संसाधनों का अभाव, कम तनख्वाह और काम के बोझ तले दबे पुलिसबल की दिक्कतों की तरफ ध्यान खींचते हुए चौधरी कहते हैं, ‘ उन्हें कानून और प्रशासन से लेकर घरेलू विवादों तक से जूझना पड़ता है. हम उनसे जानवरों की तरह काम लेते हैं. ऐसे में वे जानवरों की तरह व्यवहार भी करते हैं.’

पर शायद ज्यादातर मामलों में जानवर बेहतर व्यवहार करते हैं.

यह इसी साल 16 मार्च की घटना है. नवी मुंबई की एक जेल में 45 साल के नौशाद शेख की मौत हो गई थी. उन पर चोरी का आरोप था. पुलिस का कहना है कि नौशाद ने लोहे की ग्रिल पर अपना सिर पटककर आत्महत्या की है. जबकि ऑटोप्सी की रिपोर्ट बताती है कि उनके पूरे शरीर में अलग-अलग जगह घाव के निशान थे. नौशाद के साथ रहे सहअभियुक्त ने महाराष्ट्र सीआईडी को पूछताछ के दौरान बताया कि शेख के साथ ‘बाजीराव’ किया गया था, यानी उन्हें पुलिस बेल्ट से बेतहाशा पीटा गया था. नौशाद के सिर पर बेल्ट के बकलस से बने घाव थे. इस आरोपित ने यह भी बताया कि नौशाद को उल्टा लटकाकर क्रिकेट के बैट से पीटा गया था. मुंबई पुलिस के अतिरिक्त पुलिस आयुक्त कैसर खालिद इस मामले पर तहलका से बात करते हुए कहते हैं, ‘ हिरासत में मौत अमानवीय है. किसी के साथ उत्पीड़न नहीं होना चाहिए. हमें सीआईडी की जांच का इंतजार करना चाहिए. ‘ लेकिन क्या निष्पक्ष जांच हो पाएगी? रफीक शेख का उदाहरण लें तो यह काफी मुश्किल दिखता है. एक कॉस्मेटिक कंपनी में बतौर एग्जीक्यूटिव काम करने वाले 35 साल के रफीक को फर्जी नोट रैकेट चलाने के मामले में 28 नवंबर, 2012 को हिरासत में लिया गया था. जब उनके भाई मझल दो दिसंबर को उनसे मिलने जेल पहुंचे तो रफीक की मौत हो चुकी थी. मझल बताते हैं, ‘उनके पैरों में काफी गहरे घाव थे. पैर के तलवे पिटाई की वजह से काले पड़ चुके थे. मैं चाहता हूं कि जिन पुलिसवालों ने उनके साथ यह किया है उन्हें इसकी सजा मिलनी चाहिए.’

इस मामले में भी एक सहअभियुक्त का कहना था कि पुलिसवालों ने बेल्ट और डंडे से घंटों तक रफीक को पीटा था. बंबई उच्च न्यायालय के एक जज ने भी माना था कि मृतक के शरीर पर घावों के निशान पिटाई से बने हैं. रफीक के परिवारवालों ने जब इस मामले में एक आपराधिक प्रकरण दर्ज करवाया तब पुलिस ने मामले की जांच सीआईडी की एक टीम को सौंप दी. इस टीम में सहायक पुलिस आयुक्त प्रफुल्ल भोंसले भी शामिल हैं और विडंबना यह है कि भोंसले खुद ख्वाजा यूनुस नाम के एक व्यक्ति की हिरासत में मौत के आरोपित हैं. एनकाउंटर स्पेशलिस्ट और कथित 74 अपराधियों को मारने वाले भोंसले 2003 के इस मामले में चार साल तक निलंबित रहे और 2010 में उनकी वापस नियुक्ति हुई है.

‘चार दिन तक हमारे साथ ऐसा हुआ कि रोज सुबह- शाम हमें उल्टा लटकाया जाता और हमारी पीठ और पैरों पर डंडे बरसाए जाते’ शत्रुघ्न राजनेताम (गढ़चिरौली निवासी राजनेताम पर देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने का आरोप था)
‘चार दिन तक हमारे साथ ऐसा हुआ कि रोज सुबह- शाम हमें उल्टा लटकाया जाता और हमारी पीठ और पैरों पर डंडे बरसाए जाते’
शत्रुघ्न राजनेताम
(गढ़चिरौली निवासी राजनेताम पर देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने का आरोप था)

हिरासत में उत्पीड़न की कहानियां पूरे भारत में एक जैसी हैं. 15 अप्रैल, 2011 को उत्तर-पूर्वी राज्य त्रिपुरा में पुलिस ने 32 साल के एक युवा आदिवासी हरक चंद्र चकमा को एक आदिवासी त्योहार में शामिल होने के बाद हिरासत में लिया था. हरक का दावा है कि पुलिस ने उन पर एक भोंथरे हथियार से हमला किया था. हरक की उस समय की तस्वीरें देखने से पता चलता है कि उनकी जांघों, पीठ और घुटनों के नीचे घाव के निशान हैं. उन्हें दस दिन तक अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा था. पुलिस उत्पीड़न के चार दिन बाद आदिवासियों के लिए काम करने वाला एक गैरसरकारी संगठन (एनजीओ) यह मामला मानवाधिकार आयोग ले गया. जांच में यह साबित भी हो गया कि इस आदिवासी युवा को प्रताड़ित किया गया था. तो जाहिर है दोषियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. रिपोर्ट में जिन तीन दोषियों के नाम थे, उनमें से सिर्फ एक को निलंबित किया गया. बाकियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई.

हिरासत में उत्पीड़न की रोंगटे खड़े कर देने वाली घटनाएं हमें बेंगलरु के पत्रकार मुथी-उर-रहमान सिद्दीकी से सुनने को मिलती हैं. सिद्दीकी को छह महीने जेल में रहने के बाद इसी फरवरी में रिहा किया गया है. उन पर आतंकी साजिश में शामिल होने का आरोप था. कुल मिलाकर इस मामले में 14 आरोपित थे. सिद्दीकी बताते हैं, ‘ एक को उल्टा लटकाकर काफी मारा पीटा गया, उसके गुप्तांगों में पेट्रोल डाल दिया गया.’ एक अन्य आरोपित हैदराबाद के ओबेद-उर-रहमान की मारपीट के दौरान उंगली टूट गई. वे तहलका को बताते हैं, ‘ ज्यादातर को गुप्तांगों में बिजली के झटके दिए जाते थे. ‘

आम तौर पर ऐसे उत्पीड़न के शिकार रहे लोगों को न्याय पाने में लंबा वक्त लग जाता है. नवी मुंबई में 1989 का यह मामला यही बताता है. घरेलू नौकर के रूप में काम करके आजीविका कमाने वाले सरफराज स्थानीय पुलिस थाने में यह रिपोर्ट लिखाने गए थे कि उनकी पत्नी ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली है. पुलिस ने इस मामले में तुरंत ही कार्रवाई करते हुए सबसे पहले सरफराज को ही गिरफ्तार किया और पत्नी की मौत के मामले में उन्हें जिम्मेदार ठहरा दिया. उसके बाद पुलिस ने कथित तौर पर सरफराज की मां को भी थाने बुलवाया. सरफराज उस दिन की घटनाओं का वर्णन ऐसे करते हैं जैसे सब कुछ उनके साथ कल ही घटा हो. वे बताते हैं कि हजारों मिन्नतें करने के बाद भी पुलिस ने उनकी मां और उनके कपड़े उतरवाए और दोनों को सबके सामने शारीरिक संबंध बनाने के लिए मजबूर किया. पुलिस ने बाद में सरफराज की बिना कपड़ों के उनके मोहल्ले में परेड भी करवाई थी. वे 1991 में सभी आरोपों से बरी कर दिए गए, इसके बाद उन्होंने उन तीन पुलिसवालों के खिलाफ केस किया जो उनके उत्पीड़न के लिए जिम्मेदार थे. यह मामला आखिरकार पिछले साल फास्ट ट्रैक कोर्ट में आया है.

हमारी पुलिस हिरासत में उत्पीड़न के मामलों में खुद को सुरक्षित पाती है. दरअसल 1973 में बनाई गई आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धाराएं उसे यह सुरक्षा देती हैं. इनके मुताबिक अधिकारियों पर उनके कर्तव्यपालन के दौरान किए गए कामों के लिए मुकदमा नहीं चलाया जा सकता.  हालांकि 1860 की भारतीय दंड संहिता में यह प्रावधान था कि उत्पीड़न जैसे मामलों में दोषियों को सात साल की सजा दी जा सके. लेकिन पुलिसवालों पर इन प्रावधानों के तहत कार्रवाई लगभग नामुमकिन होती है. कुछ गिने-चुने मामलों में ही पीड़ितों की फॉरेंसिक जांच हो पाती है. इसके अलावा अहम बात यह भी है कि गवाहों के लिए सुरक्षातंत्र का अभाव दोषियों के खिलाफ कार्रवाई में पीड़ित के सामने एक बड़ा अवरोध पैदा करता है. इन मामलों में हर्जाना अभी तक बुनियादी अधिकार नहीं है. अदालतों ने भी इस पर अभी तक गंभीर रवैया नहीं अपनाया है. इसलिए ऐसे मामलों में देश भर में अलग-अलग तरह के फैसले सुनने को मिलते हैं.

2005 में सीआरपीसी में संशोधन केे जरिए यह प्रावधान कर दिया गया कि हिरासत में मौत, व्यक्ति के गायब होने या महिला से बलात्कार होने की दशा में न्यायिक जांच की जाए. लेकिन हिरासत में उत्पीड़न के मामलों पर शायद ही इसका कोई असर पड़ा हो. ऐसे ज्यादातर मामलों में मौत होने पर उसे तुरंत ही आत्महत्या की तरह दिखाया जाता है. मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले एक गैरसरकारी संगठन एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स की एक रिपोर्ट कहती है, ‘ आखिर किस वजह से पीड़ित इतना बड़ा कदम उठाने के लिए मजबूर होते हैं और कैसे वे जूतों के फीतों, चादरों, जींस इत्यादि से आत्महत्या कर लेते हैं. कैसे हिरासत में रहते हुए उनकी पहुंच जहर, नशीली दवाएं, बिजली के तार आदि तक आसानी से होती है. ये सवाल अभी तक अनुत्तरित हैं.’ कई आरोपित तो हिरासत के पहल तो स्वस्थ रहते हैं, जेल में जाने के बाद उन्हें स्वास्थ्य संबंधी कई जटिल समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है. रिपोर्ट आगे कहती है, ‘ उनका उत्पीड़न किया जाता है और हत्या कर दी जाती है. डॉक्टरों की मिलीभगत से पुलिस ऐसे मामलों को बीमारी की वजह से मौत होने की बात साबित करने में सफल रहती है. ‘

आए दिन हो रही इन घटनाओं से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि पर बट्टा लग रहा है. 1997 में ही संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति भारत में कानून लागू करने वाली एजेंसियों द्वारा उत्पीड़न की घटनाओं पर आवाज उठा चुकी थी. नस्लभेद उन्मूलन समिति ने 2007 में और आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों से जुड़ी समिति ने 2008 में भारत में पुलिस को उत्पीड़न के मामलों में मिली सुरक्षा पर भारी चिंता जाहिर की थी. लेकिन अंतरराष्ट्रीय और घरेलू आवाजों पर सरकार अभी तक बहरी दिखाई दे रही है. जब तक उसकी नींद नहीं टूटती, दसियों हजार लोगों को हमारे यहां हिरासत में उत्पीड़न की बर्बर संस्कृति का शिकार होते रहना पड़ेगा.

नरेंद्र मोदी: लहर में कितना असर?

फ़ोटो: पीटीआई
फ़ोटो: पीटीआई

पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में से जिन चार राज्यों के चुनावी नतीजों को अगले लोकसभा चुनाव के लिहाज से बेहद अहम माना जा रहा था उनमें से तीन में भारतीय जनता पार्टी की स्पष्ट जीत और एक में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभार को पार्टी ने प्रधानमंत्री पद के अपने उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के बढ़ते असर का नतीजा बताया. अगर इन राज्यों की सीटों को मिला दें तो पता चलता है कि जिन 589 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव हुए उनमें से 407 पर भारतीय जनता पार्टी की जीत हासिल हुई. इसका मतलब यह हुआ कि तकरीबन 70 फीसदी सीटों पर भाजपा जीती. अब ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या विधानसभा चुनावों में भाजपा की यह जीत वाकई नरेंद्र मोदी की जीत है? इसे समझने के लिए यह जरूरी है कि राज्यवार चुनाव परिणामों को समझा जाए.

इन विधानसभा चुनावों में भाजपा को सबसे बड़ी जीत राजस्थान में मिली है. राजस्थान में जिन 199 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव हुआ उनमें से भाजपा को 162 सीटों पर जीत हासिल हुई है. यानी भाजपा को तीन चौथाई बहुमत मिला. जो लोग राजस्थान के विधानसभा चुनावों को करीब से देख रहे थे उनमें से ज्यादातर लोगों का यह मानना था कि प्रदेश में माहौल भाजपा के पक्ष में है लेकिन वे यह भी देख रहे थे कि कांग्रेस और खास तौर पर प्रदेश की अशोक गहलोत सरकार के खिलाफ कोई खास गुस्सा नहीं है. ऐसे में बराबरी या 19-20 के मुकाबले की उम्मीद जग रही थी. लेकिन अब राजस्थान के राजनीतिक जानकारों का कहना है कि जैसे-जैसे नरेंद्र मोदी की रैलियां प्रदेश में हुईं, वैसे-वैसे भाजपा के पक्ष में तेजी से माहौल बनता गया. खुद राजस्थान की नई मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने भी यह माना कि राजस्थान में उन्हें जो भारी बहुमत मिला है उसका श्रेय नरेंद्र मोदी को जाता है.

राजस्थान में मोदी का सबसे ज्यादा असर दिखने की एक वजह यह भी बताई जा रही है कि यह राज्य गुजरात से लगा हुआ है और यहां प्रदेश भाजपा नेताओं ने यह कहकर प्रचार किया कि अगर राजस्थान में उनकी सरकार बनती है कि यह प्रदेश भी गुजरात की तरह बन जाएगा. राजस्थान में जिन 21 सीटों पर नरेंद्र मोदी ने सभाएं की उनमें से 17 पर भाजपा को जीत हासिल हुई. लेकिन एक आंकड़ा यह भी है कि पूरे प्रदेश में भाजपा की जीत का जो प्रतिशत है वह मोदी की सभाओं वाली विधानसभा सीटों पर भाजपा की जीत के प्रतिशत से कम नहीं बल्कि ज्यादा ही है. लेकिन जैसा कि ऊपर लिखा है कुछ जानकार मानते हैं कि यह भी मोदी के प्रभाव से ही संभव हो सका है.

मध्य प्रदेश में भाजपा को दो तिहाई बहुमत हासिल हुआ. ज्यादातर लोगों का यह मानना है कि इस जीत के लिए मोदी को श्रेय देना मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ बेईमानी होगी. इन लोगों का यह तर्क है कि शिवराज सिंह चौहान ने प्रदेश में जिस तरह का काम किया था उसके चलते मोदी के बगैर भी वे इतनी सीटें हासिल करने में सफल होते. लेकिन खुद शिवराज सिंह चौहान ने अपनी जीत में मोदी के योगदान के लिए उनका आभार व्यक्त किया है. ऊपरी तौर पर अगर देखा जाए तो किसी को भी शिवराज सिंह द्वारा मोदी को श्रेय दिया जाना समझ में आ सकता है. नरेंद्र मोदी ने मध्य प्रदेश की जिन 15 विधानसभाओं में चुनाव प्रचार किया उनमें से 14 पर भाजपा को जीत हासिल हुई. मगर 230 सीटों वाली मध्य प्रदेश विधानसभा में जिस तरह से चौहान को दो-तिहाई से ज्यादा बहुमत मिला है उस हिसाब से 15 में से 14 विधानसभा की जीतें कुछ खास मायने नहीं रखतीं. यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि मध्यप्रदेश में मोदी की जनसभाओं में से ज्यादातर में बहुत कम जनता उन्हें देखने-सुनने के लिए आई. और शिवराज उन इलाकों में भी विजयी रहे जिनमें मुस्लिम मतदाताओं की संख्या बहुत ज्यादा थी.

छत्तीसगढ़ में भाजपा ने रमन सिंह की अगुवाई में वापसी करने में सफलता हासिल की. यहां की राजनीति जानने वालों की मानें तो यहां के बारे में पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि यहां मोदी का जादू चला है. इसके पीछे सबसे बड़ा तर्क तो यह दिया जा रहा है कि यहां भाजपा को उतनी बड़ी जीत हासिल नहीं हुई जितनी बड़ी जीत उसे मध्य प्रदेश और राजस्थान में मिली. लेकिन इस बात पर भी ध्यान देना जरूरी है कि 90 सदस्यों वाली विधानसभा में भाजपा और कांग्रेस के बीच 10 सीटों का अंतर भी कम नहीं है. यहां भाजपा को 49 और कांग्रेस को 39 सीटें मिली हैं. यहां भाजपा ने एक ऐसे माहौल में वापसी करने में सफलता हासिल की जब उसके खिलाफ 10 साल की सत्ता विरोधी लहर थी, उसके कई बागी चुनावी मैदान में थे और कांग्रेस के नंदकुमार पटेल जैसे नेताओं की नक्सलियों द्वारा हुई हत्या के बाद यहां कांग्रेस के प्रति लोगों में थोड़ी सहानुभूति भी थी.

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विचित्र किंतु सत्य

मुखिया जीते लेकिन मंत्री हारे

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा की हैट्रिक के बावजूद शिवराज सिंह चौहान के 11 और रमन सिंह के पांच मंत्रियों को जनता ने नकार दिया. मध्य प्रदेश में मंत्रियों की हार इसलिए भी हैरान करने वाली है क्योंकि पिछली बार के मुकाबले भाजपा ने यहां इस बार अधिक सीटें हासिल की हैं. छत्तीसगढ़ में विधानसभा अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष समेत दोनों पार्टियों के 48 विधायक इस बार अपनी कुर्सी नहीं बचा पाए. ऐसा ही हाल दिल्ली और राजस्थान के कांग्रेसी विधायकों का भी रहा. इन दोनों राज्यों में पार्टी के अधिकतर विधायकों को हार मिली.

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लेकिन इसके साथ यह भी एक तथ्य है कि यही वे नेता भी थे जिनके दम पर कांग्रेस दस साल बाद सत्ता में आने के सपने देख रही थी. भाजपा के लोग यहां की जीत को भी नरेंद्र मोदी के असर का नतीजा बता रहे हैं लेकिन अगर जमीनी हालत जानने वाले लोगों से बात करें तो उनमें से कई इसे रमन सिंह का अपना प्रभाव मानते हैं. लेकिन यहां मोदी के असर को सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता. क्योंकि जिन छह सीटों पर मोदी ने यहां चुनाव प्रचार किया उनमें से चार पर भाजपा जीती है जोकि भाजपा की जीत के प्रतिशत से 12 फीसदी ज्यादा है. मगर उतना ज्यादा भी नहीं.

दिल्ली में भले ही भाजपा सरकार बनाने लायक संख्या हासिल नहीं कर पाई हो लेकिन 31 सीटों के साथ वह दिल्ली विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. दिल्ली प्रदेश और पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व की मानें तो आम आदमी पार्टी की जिस तरह की लहर दिल्ली में थी उसमें अगर भाजपा को इतनी सीटें भी मिलीं तो इसके लिए मोदी और हर्षवर्धन ही जिम्मेदार हैं. जानकारों की मानें तो अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की लड़ाई को ईमानदारी बनाम बेईमानी की लड़ाई में तब्दील कर दिया था. यहां एक छोर पर केजरीवाल थे तो दूसरे पर शीला दीक्षित और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष विजय गोयल. गोयल ने खुद को भाजपा की तरफ से मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कराने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था. लेकिन पार्टी नेताओं की मानें तो नरेंद्र मोदी को इस बात का अंदाजा हो गया था कि केजरीवाल जिस तरह की राजनीति कर रहे हैं उसमें गोयल के बूते चुनाव नहीं जीता जा सकता. इसलिए अंतिम समय में हर्षवर्धन की उम्मीदवारी की घोषणा भाजपा ने की.

इसके बाद मोदी ने लगातार दिल्ली में सभाएं कीं. मोदी ने दिल्ली की जिन छह सीटों पर चुनाव प्रचार किया उनमें से दो पर भाजपा ने जीत हासिल की. ये सीटें हैं- द्वारका और शाहदरा. भले ही यह सफलता कम दिखती हो लेकिन जिस तरह के चौंकाने वाले नतीजे दिल्ली विधानसभा चुनाव के आए हैं उसमें पार्टी के लोग इस बात में ही खुश हैं कि भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी और इसके लिए वे सबसे ज्यादा अगर किसी को श्रेय दे रहे हैं तो वे हैं नरेंद्र मोदी.

समलैंगिकता की विषमता

उच्च्तम न्यायालय के फैल्ले के खिलाफ प्रदर्श
उच्च्तम न्यायालय के फैल्ले के खिलाफ प्रदर्शन. फोटो:विजय पांडे

समलैंगिकों की इस मांग को कि वे जो अपने दोस्तों के साथ करते हैं वह कानूनी अपराध नहीं माना जाए, समझा जा सकता है. लेकिन अत्याचार से पीड़ित होने का उनका त्रास कानूनी उतना नहीं है जितना सामाजिक और सांस्कृतिक. वे कानूनी रूप से लगातार तंग किए जा रहे हों इसके कोई असंख्य उदाहरण तो कहीं नहीं हैं.

लॉड मैकॉले की अध्यक्षता में चले विधि आयोग द्वारा कोई एक सौ उनचास साल पहले बनाए गए इस कानून के तहत अब तक जो कार्रवाई हुई है उसके आंकड़ों से इतना तो साफ है कि अपने देश की पुलिस समलैंगिकों पर सख्त कानूनी कार्रवाई करने में कोई बहुत सक्रिय नहीं रही है. उन अंग्रेजों के जमाने में भी नहीं जिनने अपने विक्टोरियन युग की नैतिकता के चलते भारत में यह कानून बनाया. और आजाद भारत में भी नहीं जिसने हिजड़ों की चली आ रही पुरानी संस्था और अनैसर्गिक मैथुन व्यवहार को सम्मान नहीं तो एक तरह की सामाजिकता जरूर दी है. चूंकि यह कानून सख्ती से और व्यापक रूप से कभी लागू ही नहीं किया गया इसलिए कानूनी उत्पीड़न की शिकायत नहीं की जा सकती.

हां, यह हो सकता है कि कुछ लोगों के लिए कानून यानी धारा 377 का होना ही उत्पीड़न का पर्याप्त कारण हो. लेकिन यह भी उत्पीड़न तभी बन सकता है जब सामाजिक और पारंपरिक मान्यताओं का दबाव भी बहुत ज्यादा हो. मेरा निवेदन है कि न्यायालय के ऐतिहासिक और क्रांतिकारी बताए जाने वाले फैसलों से समाज की पारंपरिक मान्यताएं नहीं बदलती. समलैंगिकता पर अदालती फैसला तो भारत के बहुत छोटे से छोटे वर्ग को प्रभावित करता. शारदा एक्ट और दहेज विरोधी कानून तो लगभग हर परिवार को प्रभावित करता है. फिर भी न दहेज प्रथा रुकी है व बाल विवाह.

यह दलील कानून और अदालती फैसलों को अप्रभावी बताने के लिए नहीं है. कहना बस यही है कि कानून और अदालती फैसलों से सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यताएं और पूर्वाग्रह नहीं बदलते. जो कानून सामाजिक चलन को कानूनी मंजूरी देता है वही सचमुच और बिना बड़ी कोशिश के लागू हो जाता है. कानून को समाज के पीछे चलना चाहिए. कानून के जरिए समाज को बदलने की कोशिशें सफल नहीं होती. साम्राज्य चलाने वाले कानून से तब ही समाज को बदलने की कोशिश करते हैं जब वे उसे नहीं जानते और या उसमें बदलाव लाने के आंतरिक उपाय उनकी समझ से बाहर होते हैं.

धारा 377 से सहमति की निजी समलैंगिकता को अपराध मुक्त करने की कोशिशों में लगे लोग समाज के रवैये और पूर्वाग्रह को बदलने का बुनियादी सामाजिक कार्य नहीं कर रहे. अगर उनके ध्यान में ऐसा बुनियादी बदलाव लाना होता तो वे अपने समर्थन में आए अदालत के फैसले पर इतना जश्न नहीं मनाते. आप सच पूछें तो उनका जश्न समाज की संवेदनशीलता पर चोट ही करता है. चोट करना भी बदलाव लाने का एक तरीका है. लेकिन वह तभी असर करता है जब उसकी प्रेरणा अंदर से आती है.

समलैंगिकता को कुल समाज स्वीकार करे इसकी प्रेरणा भारतीय समाज से निकल कर नहीं आई है. समलैंगिक लॉबी के व्यवहार और तौर-तरीके से ही साफ दिखता है कि इसकी प्रेरणा यूरोपीय या पश्चिमी समाज से आई है. उनके व्यवहार से साफ लगता है कि यह एक ऐसे समाज से आई है जिसमें विषमता और असमानता के ज्यादा बुनियादी आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक पहलू लगभग हल कर लिए गए हैं. यह एक ऐसे समाज की समस्या लगती है जो सहज उपभोग से अघाया हुआ समाज है और स्वाभाविक संवेदनों से इतना ऊब गया है कि उसे नित नए और सनसनीखेज उपायों की जरूरत होती है. यूरोप का विकसित और परमिसिव समाज समलैंगिकों की समानता की लड़ाई लड़ सकता है. लेकिन भुखमरी, बेरोजगारी और सब तरह की वंचनाओं में किसी प्रकार जीते हुए रोटी, कपड़ा और मकान की लड़ाई लड़ने वाले अधिसंख्य भारतीय समाज में समलैंगिकों की समानता तो कोई बड़ा मुद्दा नहीं बनती. भारत के अंदर से अगर यह लड़ाई निकली होती तो हिजड़ों की दयनीय हालत पर ध्यान गया होता. अदालतों में जाने वाले और हवाई यात्राओं से प्रदर्शनों में भाग लेने वाले भारत के समलैंगिक कौन हैं यह सच्चाई किसी से छुपी नहीं है.

इस मामले पर अंग्रेजी टीवी चैनलों पर हुई बहस को आपने सुना है? वहां सवाल कुछ ऐसे बनाए जा रहे थे जैसे समलैंगिकों और समलैंगिकता का समर्थन करना प्रगतिशीलता और विकसित होने का सबूत हो और जो लोग सहज प्राकृतिक स्त्री-पुरुष लैंगिकता का आग्रह कर रहे हैं वे पुराणपंथी और पारंपरिक किस्म के घटिया लोग हों. इससे बड़ी मानसिक विकृति कोई हो नहीं सकती. किसी भी सभ्यता-संस्कृति ने समलैंगिकता को प्राकृतिक मान कर उसका उत्सव नहीं मनाया. ईसाइयत ने भी पश्चिमी समाज में व्याप्त मान्यताओं को ही धार्मिक वर्जनाओं में शामिल किया. पश्चिम में भी ईसाइयत ने अगर लैंगिक और मैथुनिक संबंधों पर इतना कट्टर रवैया नहीं अपनाया होता तो वहां भी समलैंगिकों को ऐसा संघर्ष नहीं करना पड़ता. अब शरीर विज्ञान और मनोविज्ञान में इतना काम हो जाने के बाद भी यही फर्क आया है कि समलैंगिकता को व्यक्त करने का एक तरीका है भले ही यह प्रजनन की सहज स्वाभाविक प्रक्रिया से जुड़ी न हो. कोई भी समाज इसे सहज-स्वस्थ प्रक्रिया मान कर मान्यता और सम्मान नहीं देता. यह बीमारी नहीं तो विचलन तो है ही.

लेकिन हमारा अंग्रेजी मीडिया इसे कुछ ऐसे पेश करता है जैसे समलैंगिकता को स्वीकार करना विकसित होना है. पश्चिम में यूरोप के विकसित समाज ने इसे मंजूर किया है तो यह निश्चित ही तरक्की की निशानी है. ये बेचारे नहीं समझते कि ईसाइयत ने जो कि यूरोपीय समाज का धर्म है वहां के लोगों के मन में समलैंगिकता पर कैसी वितृष्णा भर रखी है और वहां इस वर्जना से मुक्त हो पाना कैसी स्वतंत्रता है. भारत में पहले तो धर्म ही संगठित नहीं है फिर स्थानीयता और व्यक्तिमत्तता को बहुलता और विविधता ने खूब अच्छी तरह समो रखा है. महाभारत के महावीर अर्जुन को जब पांडवों के वनवास में छद्म रूप में रहना था तो वे बृहन्नला बन कर रहे. हिजड़ों को हमारे समाज में जो एक सांस्थानिकता दी गई है वह इसीलिए कि उन्हें भी समाज में उपयोगिता की एक भूमिका मिले. वे आम स्त्री-पुरुष से भिन्न और विचल तो माने गए लेकिन उन्हें भी जगह दी गई.

लेकिन हमारा अंग्रेजी मीडिया भारतीयता को भी पश्चिमी और अंग्रेजी रास्ते से ही स्वीकार करता है. हमारा यह दृष्टि दोष ही हमें यूरोप के सेकुलरज्म और भारत की सर्वधर्म समानता का अंतर नहीं समझने देता. ऊपर मैंने कहा है कि समलैंगिक समानता की भारतीय लड़ाई की प्रेरणा यूरोप में है तो इसीलिए कि अंग्रेजी मीडिया में भारतीय समलैंगिकता-नपुंसकलिंगता की समझ नहीं है. इसीलिए दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के बाद ऐसे वाक्य लिखे गए कि भारत का भूमंडलीकरण हो गया और हम उन विकसित देशों की सूची में आ गए जो समलैंगिकता को अपराध नहीं मानते.

समलैंगिकता के रुझान पर किसी से भेद करना तो अन्याय है ही. लेकिन इसमें भी कोई संदेह नहीं कि ब्रिटेन के विक्टोरियन युग की ईसाई नैतिकता भारतीय समाज की नैतिकता नहीं है. यह कहने का मतलब यह भी नहीं कि भारतीय समाज तो शुरू से ही बहुत उदार है और समलैंगिकता को स्वीकार करता है. भारतीय समाज में भी इसका सहज निषेध है. इसलिए वह ‘गे लोगों’ के प्रदर्शन को सहज आक्रोश की अभिव्यक्ति नहीं मानता. अंग्रेजी मीडिया ने भारत के मध्य और उच्च मध्यवर्ग के कुछ लोगों की लड़ाई को भारत में न्याय की लड़ाई बना कर पेश करने की कोशिश की है.

यह एक अल्पसंख्यक – बहुत ही अल्पसंख्यक – वर्ग की लड़ाई को एक अल्पसंख्यक मीडिया का प्रोजेक्शन है. हमारा अंग्रेजी मीडिया भारत के अल्पसंख्यक अंग्रेजी समुदाय की राय बताने वाला मीडिया है.

और भारत के लोगों की न्याय की लड़ाई कहीं बड़ी और व्यापक है. समझे कि नहीं?

सहमति से आगे के सवाल

संयुक्त राष्ट्र का यह 19वां जलवायु सम्मेलन था. यह11 नवंबर को शुरू हुआ था. पौलेंड की राजधानी वार्सा में हो रहे इस आयोजन को दो सप्ताह चलना था. दो वर्ष बाद पेरिस में अगला जलवायु शिखर सम्मेलन होने वाला है. वहां 1997 के क्योटो प्रोटोकोल का स्थान लेने वाली एक नई जलवायु-रक्षा संधि को अंतिम रूप दिया जाना है. वार्सा सम्मेलन को इस नई संधि का आधारभूत खाका तैयार करना था.

संसार भर के 194 छोटे-बड़े देशों के मंत्री या अन्य वरिष्ठ सरकारी प्रतिनिधि वार्सा में जमा हुए थे. अपना काम पूरा करके वास्तव में उन्हें 22 नवंबर को ही विदा हो जाना चाहिए था. लेकिन तब तक वे किसी सर्वमान्य सहमति पर पहुंच ही नहीं पाए. एकता की जगह उनमें आपस में रस्साकशी करते तीन गुट बन गए थे–विकसित, विकासशील और नवविकसित देश. जलवायु परिवर्तन के कारण ‘क्षति और हानि’ (लॉस ऐंड डैमेज) की भरपाई के मुद्दे पर अपनी नाराजगी दिखाने के लिए विकासशील देशों के गुट ‘जी- 77’ ने सम्मेलन के पहले ही सप्ताह में जब बहिर्गमन (वॉक-आउट) किया, तब भारत और चीन ने भी उसका साथ दिया. दूसरे सप्ताह में भी गतिरोध बना रहा. तंग आ कर दुनिया भर की गैरसरकारी संस्थाओं (एनजीओ) और नागरिक संघर्ष समितियों के कार्यकर्ता भी सम्मेलन की औपचारिक समाप्ति से एक दिन पहले ही, उठ खड़े हुए और बाहर चले गए.

अंतिम क्षण में नाटकीयता
ऐसा इससे पहले किसी जलवायु सम्मेलन में नहीं हुआ था, इसलिए सम्मेलन को पूरी तरह विफल होने से बचाने के लिए उसकी अवधि एक और दिन के लिए बढ़ा दी गई. ऐसा करते ही सम्मेलन में एक नाटकीय जान आ गई. हड़बड़ी और आपाधापी पराकाष्ठा पर पहुंच गई. किसी छोटे-बड़े नतीजे पर पहुंचने के लिए वार्ताएं और भी सघन हो गईं. अंततः शनिवार, 23 नवंबर की रात, विवादग्रस्त भावी कदमों की शब्दावली व रूपरेखा पर सहमति बन ही गई.

वास्तव में इस सम्मेलन का श्रीगणेश ही इतना ग्रहण-ग्रस्त था कि लगता नहीं था कि कोई शुभ परिणाम निकल पाएगा. पोलैंड एक ऐसा देश है जिसके 90 प्रतिशत बिजलीघर कोयले पर निर्भर हैं. कोयला जला कर काला धुंआ उगलने वाले यूरोपीय देशों में वह सबसे अगली पांत में बैठता है. जलवायु सम्मेलन के साथ ही वहां ‘विश्व कोयला संघ’ का भी एक उच्चस्तरीय सम्मलेन चल रहा था. यही नहीं, देश के प्रधानमंत्री दोनाल्द तुस्क ने जलवायु सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे अपने पर्यावरण मंत्री मार्त्सिन कोरोलेत्स को सम्मेलन शुरू होने के दो ही दिन बाद मंत्रिमंडल से ही निकाल बाहर कर दिया. गनीमत इतनी ही रही कि कोरोलेत्स को जलवायु सम्मेलन की अध्यक्षता करने से मना नहीं किया गया.

एक ऐसे सम्मेलन से,कोई विशेष अपेक्षा नहीं की जा सकती थी जिसका मेजबान ही उस पर मेहरबान न हो. सम्मेलन को मुख्य रूप से दो प्रकार के फैसले लेने थेः पहला यह कि जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कैसे घटाया जाए. दूसरा यह कि इस परिवर्तन से वर्तमान और भावी पीड़ितों को राहत पहुंचाने के क्या उपाय एवं कार्यविधियां होनी चाहिए.

2015 में नई जलवायु-रक्षा संधि
विशेषज्ञों की राय है कि क्योटो प्रोटोकोल का स्थान लेने के लिए दिसंबर, 2015 में होने वाले पेरिस शिखर सम्मेलन तक जो नया संधिपत्र तैयार किया जाना है उसे यथासंभव ऐसा होना चाहिए कि औसत वैश्विक तापमान में अब दो डिग्री सेल्सियस से अधिक की वृद्धि न होने पाए. दो डिग्री से अधिक की वृद्धि का खतरा यह तो है ही कि इससे प्राकृतिक आपदाएं और भी भयंकर हो जाएंगी, लेकिन इससे भी अहम यह है कि इसी सीमा कोे एक ऐसी लक्ष्मणरेखा भी माना जाता है जिसके परे जाने पर जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण पाना और उसे वर्तमान स्तर पर वापस लाना हजारों वर्षों तक के लिए संभव नहीं रह जाएगा.

साफ है कि यदि अभी ही कारगर उपाय नहीं हो पाए तो विश्व जलवायु परिवर्तन परिषद (आईपीसीसी) के नवीनतम अनुमान के अनुसार इस सदी के अंत तक औसत वैश्विक तापमान 3.7 डिग्री बढ़ जाएगा. ध्रुवों पर की बर्फ और तेजी से पिघलेगी. कहीं सूखा तो कहीं आंधी-तूफान छोड़िए, महासागारों का जलस्तर 81 सेंटीमीटर तक ऊपर उठने से भारत सहित न जाने कितने देशों के तटवर्ती शहर और इलाके डूब जाएंगे जिससे करोड़ों लोग बेघर हो जाएंगे. मालदीव जैसे द्वीप देश तो पूरी तरह समुद्र में समा जाएंगे. वहां के नागरिकों को दूसरे देशों में शरण मांगनी पड़ेगी.

जड़ है कार्बन डाइऑक्साइड
पृथ्वी पर तापमान लगातार बढ़ने से हो रहे वैश्विक जलवायु परिवर्तन के पीछे सबसे बड़ा कारण कार्बन डाइऑक्साइड गैस का बढ़ता हुआ उत्सर्जन है. पिछले 20 वर्षों से उसे घटाने के सारे प्रयास अब तक व्यर्थ रहे हैं. यह गैस कोयले, प्राकृतिक गैस और तेल जैसे ईंधनों के जलने से बनती है. अनुमान है कि अकेले वर्ष 2013 में ही पृथ्वी के गर्भ से निकाले जा रहे इन ईंधनों के जलने से 36 अरब टन नई कार्बन डाइऑक्साइड बनेगी और वायुमंडल में पहुंच कर समस्या को और बढ़ाएगी. 1990 की तुलना में — जो जलवायु नियंत्रण के क्योटो प्रोटोकोल के पहले चरण का आधार-वर्ष रहा है — कार्बन डाइऑक्साइड की यह मात्रा 61 प्रतिशत अधिक है. छोटे पैमाने पर देखें तो डीजल या पेट्रोल से चलने वाला हर वाहन प्रति किलोमीटर दूरी के पीछे कम से कम 120 ग्राम कार्बन डाइऑक्साइड हवा में छोड़ता है.

आशा की जा रही थी कि वार्सा सम्मेलन में हर देश के लिए कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को घटाने का एक कोटा तय किया जाएगा. पर ऐसा नहीं हो पाया. तय यह हुआ है कि किसी तरह की कटौती से अब तक बचे रहे भारत और चीन जैसे नवविकसित देश भी अगले वर्ष मार्च तक अपनी तरफ से बताएंगे कि 2020 के बाद से वे अपने यहां कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में कटौती का क्या लक्ष्य रखने जा रहे हैं. संसार के सबसे निर्धन देश आगे भी किसी कटौती के लिए बाध्य नहीं होंगे.

भारत और चीन कोई वचन देने से अब तक यह कह कर बच रहे थे कि पर्यावरण और जलवायु का वर्तमान संकट उन विकसित औद्योगिक देशों की देन है जो उनसे कहीं आगे हैं और कहीं पहले से अरबों टन कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते रहे हैं इसलिए पहले वे अपने यहां कटौती करें. लेकिन इस बीच संसार के सबसे बड़े कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जक देशों में चीन पहले, अमेरिका दूसरे और भारत तीसरे नंबर पर पहुंच गया है. रूस, जापान और जर्मनी क्रमशः बाद में आते हैं. भारत में प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष केवल 1.8 टन कार्बन डाइऑक्साइड का औसत यद्यपि इन देशों से कहीं कम है. तब भी, उत्सर्जन की सकल मात्रा की दृष्टि से सबसे बड़े उत्सर्जक देशों की सूची में तीसरे नंबर पर पहुंच जाना भारत पर एक ऐसे चौतरफा दबाव को निमंत्रण देने लगा है जिसके आगे झुकने से बचना कठिन होता जाएगा.

विकासशील देशों के बीच दरार
अब तक के जलवायु सम्मेलनों में एक तरफ विश्व के कुछेक दर्जन धनी-मानी विकसित देश हुआ करते थे, तो दूसरी तरफ उनका विरोध कर रहे गरीब एवं विकासशील देशों की अच्छी-खासी भीड़ होती थी, जिसमें भारत और चीन जैसे नवविकसित देश भी शामिल रहते थे. नवविकसित और गरीब देशों की यह एकजुटता यूरोप और अमेरिका के मन को रत्ती भर भी रास नहीं आती. वार्सा में वे पहली बार इस एकता में दरार पैदा करने में सफल हो गए. जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसानों से बचाव या राहत देने के नाम पर संयुक्त राष्ट्र की ओर से कई सहायता कोष बने हुए हैं. यूरोपीय संघ ने संसार के 48 सबसे गरीब देशों के लिए 60 करोड़ डॉलर वाले एक अलग ‘सहायता कोष ‘ को बड़ी रकम देने का प्रलोभन दे कर इन देशों को तोड़ लिया. यह जर्मनी की चाल थी. वही इस कोष के लिए सबसे अधिक धन भी देगा. चाल चल गई. इन देशों ने सम्मेलन की समापन घोषणा के प्रति अपना विरोध त्याग दिया. सम्मेलन दो के बदले तीन गुटों में बंट गया और धनी देशों के अनुकूल घोषणा भी पारित हो गई.

Floodजलवायु परिवर्तन से कमाई
जलवायु परिवर्तन की रोकथाम हो या न हो, जो भी देश उससे पीड़ित है या भविष्य में पीड़ित हो सकता है वह पहले अपने लिए पैसा देखना चाहता है. पैसे के लेन-देन ने ही वार्सा सम्मेलन को सबसे अधिक व्यस्त रखा. सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि 2015 में होने वाली पेरिस संधि जब 2020 से लागू होगी, तब, अब तक के, या नए बनने वाले सहायता कोषों में कौन-सा औद्योगिक देश कितना पैसा देगा.  इस समय इस तरह के छह अलग-अलग कोष हैं. उनकी अवधारणाएं इतनी भ्रामक हैं कि स्वयं वार्ताकार भी कई बार ठीक से नहीं जानते कि वे जिस कोष के बारे में बोल रहे हैं, क्या उसी के बारे में सोच भी रहे हैं.

संयुक्त राष्ट्र की शब्दावली में ‘लॉस ऐंड डैमेज’ (क्षति और हानि) कोष एक ऐसा कोष है जो बहुत ही घातक किस्म की मौसमी घटनाओं के परिणामस्वरूप हुई भौतिक क्षतियों और आर्थिक हानियों के ममालों में राहत पहुंचाने के लिए बना है. अफ्रीकी देश लगभग दो दशक से इसकी मांग कर रहे थे. उनकी यह भी मांग है कि इस कोष के संचालन के लिए संयुक्त राष्ट्र के अधीन एक नई संस्था बने. यह भी कि उपलब्ध धनराशि बढ़ाई जाए. अमेरिका तथा अन्य औद्योगिक देश ऐसा बिल्कुल नहीं चाहते. उनका कहना था कि वे पहले ही कई तरह के सहायता कोषों के लिए काफी धन दे रहे हैं. क्षति और हानि के मामलों को भी उन्हीं के साथ मिला कर देखना होगा. वैसे, इस बहानेबाजी का मूल कारण औद्योगिक देशों का यह डर है कि भविष्य में मौसमी या प्राकृतिक आपदाएं बढ़ना चूंकि तय है इसलिए यह भी तय है कि उनके कारण क्षतिपूर्ति का आयाम भी लगातार बढ़ता ही जाएगा और साथ ही उनकी देनदारी भी. वे यह भी नहीं चाहते कि मौसमी आपदाओं के लिए क्षतिपूर्ति कोई ऐसा स्वाभाविक अधिकार बन जाए जो अंतरराष्ट्रीय कानून का रूप धारण कर ले और उनके लिए बाध्यकारी हो जाए. अमेरिकी वार्ताकार टॉड स्टर्न का कहना था, ‘हम जलवायु रक्षा को क्षतिपूर्ति वितरण नहीं मानते.’

मौसमी आपदाओं का आयाम
इन्हीं दिनों प्रकाशित विश्व बैंक की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि मौसमी आपदाओं से नुकसानों का आयाम कितना बढ़ता गया है. इस रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 30 वर्षों में बाढ़ और तूफान जैसी मौसमी आपदाओं से विश्व भर में 25 लाख लोगों ने जान गंवाई और चार खरब डॉलर के बराबर भौतिक क्षति हुई. 1980 में 50 अरब डॉलर की हानि से बढ़ कर 2012 में 200 अरब डॉलर की सीमा पार कर गई.

प्रश्न यह भी है कि क्या जीने-मरने की भी कीमत  आंकी जा सकती है.  लुप्त हो गए किसी जीव-जंतु या पेड़-पौधे की प्रजाति का क्या मोल लगाया जा सकता है?  इसी प्रकार, कई बार यह भेद करना भी कठिन हो सकता है कि किसे जलवायुगत आपदा और किसे दुर्भाग्यजनित दुर्घटना माना जाए. चीन में कार्बन डाइऑक्साइड का प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन अभी से यूरोपीय संघ वाले औसत के बराबर हो गया है. क्या वह भी यूरोप और अमेरिका की तरह क्षतिपूर्ति देने के लिए तैयार होगा? भारत भी विकास के आकाश में जिस तरह उठ रहा है, उसे देखते हुए उसे भी तो एक दिन इस जमीनी वास्तविकता का उत्तर देना पड़ सकता है. अभी स्थिति यह है कि जलवायु परिवर्तन की रोकथाम या उसके दुष्प्रभावों से निपटने के पुनर्वनरोपण कोष, समंजन कोष, हरित जलवायु (ग्रीन क्लाइमेट) कोष, क्षति और हानि कोष आदि कुल छह प्रकार के कोषों के लिए 2020 से औद्योगिक देशों को कुल मिलाकर 100 अरब डॉलर हर साल देने होंगे. कौन देश कितना देगा और किस पीड़ित देश को किन शर्तों पर कितना पैसा मिलेगा, अभी कोई नहीं जानता. 2010 से औद्योगिक देश हर साल कुल मिला कर 10 अरब डॉलर दे रहे हैं. जी-77 वाले गुट के विकासशील देशों की मांग थी कि इस धनसंग्रह को अंतरिम तौर पर बढ़ा कर 2016 तक हर साल 70 अरब डॉलर कर देना चाहिए. लेकिन औद्योगिक देश फिलहाल ऐसा कोई वादा करने के मूड में नहीं हैं.

पर उपदेश कुशल बहुतेरे
औद्योगिक देश कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन घटाने के उपदेश तो बहुत देते हैं, पर स्वयं अमल कम ही करते हैं. वार्सा सम्मेलन के पहले ही दिन जापान ने कहा कि उत्सर्जन में कटौती का अपना लक्ष्य वह फुकूशीमा परमाणु दुर्घटना के कारण पूरा नहीं कर पाएगा. लक्ष्य था 1990 की तुलना में 25 प्रतिशत कम उत्सर्जन. नया लक्ष्य है 2005 की तुलना में 3.8 प्रतिशत की कमी जो 1990 की तुलना में तीन प्रतिशत की वृद्धि के बराबर है.

ऑस्ट्रेलिया और कनाडा के पास तो किसी दुर्घटना का भी बहाना नहीं है, तब भी वे अपने पिछले लक्ष्यों से पीछे हट रहे हैं. भारत की पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने इन देशों के निर्णय पर निराशा प्रकट करते हुए कहा , ‘यदि अब तक की वार्ताओं से कोई ठोस परिणाम नहीं निकलता, तो संपन्न देशों को ही आगे आना पड़ेगा… आगे के रास्ते और उसके जोखिमों को जाने बिना हम केवल विश्वास के भरोसे पर छलांग नहीं लगा सकते.’ भारत का यह भी आग्रह था कि औद्योगिक देश जलवायु परिवर्तन को अपनी कंपनियों के लिए फायदेमंद बाजार न बनाएं.

जर्मनी ने 1995 में डंके की चोट पर कहा था कि तापमानवर्धक गैसों का उत्सर्जन 2005 तक 25 प्रतिशत घट जाएगा. लेकिन 1997 की क्योटो संधि के बाद इस लक्ष्य को घटा कर 21 प्रतिशत और समय-सीमा को बढ़ाकर 2012 कर दिया गाया. नया लक्ष्य कहने को 2012 में पूरा जरूर हुआ, किंतु इसलिए कि इस दौरान पू्र्वी जर्मनी की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई, बहुत-सी जर्मन कंपनियां स्वदेश के बदले सस्ती मजदूरी वाले अन्य देशों में उत्पादन करने लगी हैं और पिछले कुछ वर्षों की आर्थिक मंदी का भी असर पड़ा है. वित्तीय संकट और आर्थिक मंदी की ही बलिहारी से कुछ दूसरे औद्योगिक देश भी अपने यहां कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन घटने का दावा कर सकते हैं, भले ही वह उनके आरंभिक वादों की तुलना में कहीं कम ही क्यों न हो. यूरोपीय संघ का नया उत्सर्जन-कटौती लक्ष्य, 1990 के स्तर की तुलना में, 2020 तक सिर्फ 20 प्रतिशत कमी लाना है. अमेरिका ने, जिसने क्योतो संधि का अनुमोदन ही नहीं किया है, 2005 की तुलना में केवल 17 प्रतिशत कमी का लक्ष्य रखा है.

‘विकसित देश अपनी वचनबद्धता दिखाएं ’
भारतीय वार्ताकार रविशंकर प्रसाद ने औद्योगिक देशों के इस अनमनेपन पर निशाना भी साधा. उनका कहना था कि तापमानवर्धक गैसों के उत्सर्जन को 1990 वाले स्तर की तुलना में 40 प्रतिशत घटाने की ‘संयुक्त राष्ट्र अंतरशासकीय पैनल’ (आईपीसीसी) ने जो सलाह दी थी उसे पूरा करने में उन्नत देशों द्वारा छोड़ी गई कमी को पूरा करना भारत जैसे विकासशील देशों का काम नहीं हो सकता. लेकिन, 2015 में होने जा रही पेरिस संधि के अनुसार 2020 से भारत को भी अपना ‘योगदान’ देना होगा. पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन से जब यह पूछा गया कि भारत अपने योगदान को औद्योगिक देशों जैसी ‘वचनबद्धता’ (कमिटमेन्ट) में कब बदलेगा, तो उनका उत्तर था, ‘उसे वचवबद्धता में बदला ही क्यों जाए? विकसित देश पहले अपनी वचनबद्धता तो दिखाएं.’

भारत किसी समझौते में बंधकर वचनबद्धता भले ही न बनना चाहे, तथ्य यह है कि कार्बन डाइऑक्साइड के उसके अपने ही उत्सर्जन से उसका अपना ही आकाश पटता जा रहा है. अंतरिक्षयात्रियों का कहना है कि भारत अंतरिक्ष से पहचान में तो आता है पर उसका अधिकांश भूभाग धुएं और धुंध से ढका रहता है. कहीं ऐसा न हो कि इस धुंध व धुंए से चीन की तरह एक दिन भारत के लोगों का भी दम घुटने लगे.

धन और बल के दलदल में!

यदि देश का नक्शा उठाया जाए तो हिंदीभाषी पट्टी के केंद्र में स्थित मध्य प्रदेश की चुनावी राजनीति का इतिहास काफी शांत और साफ-सुथरा माना जाता रहा है. किंतु बीते एक दशक से इस सूबे को ऐसी नजर लगी है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसे सभी प्रमुख दल यहां अब बाहुबल और धनबल के दलदल में धंसते जा रहे हैं. काबिले गौर है कि 25 नवंबर को संपन्न हुए विधानसभा चुनाव के मतदान के साथ ही यहां सभी उम्मीदवारों का भविष्य फिलहाल मतपेटियों में बंद हो चुका है. मगर इसी से जुड़ी एक बड़ी चिंता की बात यह है कि इनमें से करीब एक तिहाई उम्मीदवार ऐसे हैं जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं. ध्यान देने वाली बात यह भी है कि 2008 के मुकाबले आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों की संख्या में इस बार अप्रत्याशित तरीके से इजाफा हुआ है.

मप्र का विधानसभा चुनाव इस मामले में अभूतपूर्व कहा जाएगा कि यहां इस बार कांग्रेस, भाजपा और बसपा द्वारा खड़े किए गए कुल 683 उम्मीदवारों में से 206 के खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज हैं. इनमें भी विशेष बात है कि 120 यानी करीब एक तिहाई उम्मीदवारों के खिलाफ तो हत्या, अपहरण और महिला-अपराध जैसे संगीन प्रकरण दर्ज हैं. इस मामले में जहां तक अलग-अलग दलों की स्थिति की बात है तो सूबे के विपक्षी दल कांग्रेस ने कुल 228 में से 91 यानी सबसे ज्यादा 40 प्रतिशत आपराधिक प्रवृत्ति के उम्मीदवारों को मैदान में उतारा. इसी तर्ज पर सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा ने 229 में से 61 यानी 27 प्रतिशत आपराधिक प्रवृत्ति के उम्मीदवारों को मौका दिया तो वहीं बसपा ने भी 226 में से 54 यानी 24 प्रतिशत दागियों पर अपना दांव आजमाया है. 2008 के विधानसभा चुनाव को देखें तो इन तीनों दलों के 170 यानी 25 प्रतिशत उम्मीदवार दागी थे. यदि तब और अब के चुनाव में खड़े दागी उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि की पड़ताल की जाए तो इस मामले में कांग्रेस का ग्राफ 31 प्रतिशत से बढ़कर 40 प्रतिशत तक आ गया है. वहीं भाजपा का ग्राफ 22 प्रतिशत से बढ़कर 27 प्रतिशत और बसपा का 20 प्रतिशत से बढ़कर 24 प्रतिशत तक आ गया है. 2013 के चुनाव में करीब एक दर्जन उम्मीदवार ऐसे हैं जो किसी न किसी अपराध के चलते जेल की सजा तक काट चुके हैं. वहीं कांग्रेस के टिकट पर लड़ रहे ब्रजेंद्र सिंह (पृथ्वीपुर) और बसपा की टिकट पर चुनावी मैदान में सुखलाल प्रसाद (नागौद) सरीखे कई उम्मीदवार भी हैं जिनके ऊपर हत्या के प्रकरण चल रहे हैं. भाजपा के रुस्तम सिंह (मुरैना), बहादुर सिंह (मेहंदीपुर) और कांग्रेस के चौधरी गंभीर सिंह (चुरई) जैसे कई उम्मीदवारों पर महिलाओं के खिलाफ गंभीर अपराधों में लिप्त होने के आरोप हैं.

दूसरी तरफ, 2013 के विधानसभा चुनाव में करोड़पति उम्मीदवारों की तादाद भी बीते चुनाव के मुकाबले करीब दुगनी हो गई है. इस बार तीनों प्रमुख दलों के कुल 683 उम्मीदवारों में से 350 यानी आधे से अधिक उम्मीदवार करोड़पति हैं. जबकि 2008 में तीनों दलों के 639 उम्मीदवारों में से 184 उम्मीदवार करोड़पति थे. तब इन प्रत्याशियों की औसत संपत्ति 1.07 करोड़ रुपये प्रति उम्मीदवार थी. दिलचस्प है कि अब इनकी औसत संपत्ति बढ़कर 3.38 करोड़ रुपये प्रति उम्मीदवार हो चुकी है और इस बार इसका असर भी चुनाव में देखा गया. मध्य प्रदेश में दर्जनों जगह खुलेआम मतदाताओं को नोट बांटने की बात सामने आई. भाजपा सरकार में उद्योगमंत्री कैलाश विजयवर्गीय द्वारा अपने चुनावक्षेत्र महू में नोट बांटने की बात तो राष्ट्रीय स्तर तक सुर्खियों में रही है.

वरिष्ठ पत्रकार विजयदत्त श्रीधर मप्र की राजनीति के बलपिशाच और धनपिशाच की गिरफ्त में आने की वजह बताते हुए कहते हैं कि बीते कई सालों के दौरान राजनीति अब लाभ का धंधा बन चुकी है. चुनाव जीतकर अब कई कारोबारी उत्खनन, निर्माण और परिवहन में काली कमाई कर रहे हैं. श्रीधर के मुताबिक, ‘मप्र की राजनीति में चंदे का धंधा इस हद तक हावी हो गया है कि कभी स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ने वाले राजनीतिक कार्यकर्ताओं का रास्ता अब बंद हो गया है.’ दूसरी तरफ, कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष रामेश्वर नीखरा का मानना है कि उनकी पार्टी ने नेक लोगों को ही प्रत्याशी बनाया है. उनके मुताबिक, ‘अपराध सिद्ध हुए बिना किसी को साफ-सुथरा न कहना ठीक नहीं है.’ वहीं भाजपा इस बात पर खुश है कि कांग्रेस के मुकाबले उसने दागी नेताओं का कम तवज्जो दी है. भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रभात झा के मुताबिक, ‘अपराधियों को शरण देने के मामले में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है.’ लेकिन आरोप-प्रत्यारोप के बीच यह सवाल अहम है कि धनबल और बाहुबल की बैसाखियों के सहारे आगे बढ़ने वाले दल कहीं मप्र के राजनीतिक हितों पर डाका न डाल दें.

लोकतंत्र के ‘नायक’

मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी सुनील कुजूर और और उनकी टीम

छत्तीसगढ़ में 2013 का विधानसभा चुनाव ऐतिहासिक रूप से याद किया जाएगा. इसकी दो वजहें हैं. पहली तो यह कि चुनाव आयोग के नए नियम और कई मामलों में बरती गई सख्ती ने इसे अब तक का सबसे अनुशासित चुनाव बना दिया तो दूसरी यह कि सुरक्षाबलों की रणनीति के चलते राज्य के इतिहास में इसे अब तक का सबसे रक्तहीन चुनाव कहा जा सकता है.

इन दिनों हुए पांच राज्यों के चुनाव में अकेला छत्तीसगढ़ ही ऐसा था जहां चुनाव आयोग ने दो चरणों में चुनाव करवाने का फैसला लिया था.  इसके साथ ही वोटिंग मशीन में पहली बार नोटा (नन ऑफ द अबव) का प्रयोग यहीं से शुरू हो रहा था. इस बीच आयोग के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी कि कैसे माओवादियों के बहिष्कार के बीच उनके संभावित हमले को रोका जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि मतदाता बेखौफ होकर मतदान का प्रयोग कर पाएं. राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों के खर्चों और आचार-व्यवहार में नकेल कसना भी आयोग के सामने किसी चुनौती से कम नहीं था. अब चुनाव संपन्न होने के बाद साफ हो रहा है कि आयोग की इन चुनौतियों को इसबार सूबे के प्रशासनिक, पुलिस और अर्धसैनिक बलों के अफसरों ने सर-आंखों पर लिया. न केवल सारे प्रयोगों को सफलता से लागू किया गया बल्कि माओवाद को ठेंगा दिखाते हुए उनकी मांद में घुसकर मतदाताओं को सुरक्षा भी दी.

इस पूरी प्रक्रिया में पहली भूमिका छत्तीसगढ़ के मुख्य निर्वाचन अधिकारी सुनील कुजूर और उनकी टीम में शामिल निधि छिब्बर, एलेक्स पॉल मेनन जैसे आईएएस अफसरों की थी. उन्होंने राजनीतिक दलों और उनके प्रत्याशियों को चुनाव के पहले ही सख्ती से याद दिला दिया था कि आयोग की उनपर पूरी नजर है. इस कड़ी में निर्वाचन आयोग ने स्वतंत्र एवं निष्पक्ष मतदान के लिए 3,000 सीसीटीवी कैमरे भी लगाए थे. नतीजा, इसबार राज्य में आचार संहिता उल्लंघन की कोई बड़ी घटना सामने नहीं आई. छत्तीसगढ़ के मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी सुनील कुजूर बताते हैं, ‘ हमारे प्रेक्षकों की पूरे समय प्रत्याशियों पर नजर थी और प्रचार के दौरान इसका असर भी दिखा. इसके अलावा स्वीप प्लान (सिस्टेमैटिक वोटर्स एजुकेशन ऐंड इलेक्टोरल पार्टीसिपेशन) ने भी मतदाताओं को जागरूक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.’

छत्तीसगढ़ के अतीत के देखते हुए जहां तक संभव हो सके चुनाव को रक्तहीन बनाना दूसरा बड़ा मोर्चा था. इसके लिए सीआरपीएफ के आईजी हरप्रीत सिंह सिद्धू, अन्य अर्धसैनिक बल, छत्तीसगढ़ पुलिस के महानिदेशक रामनिवास और उनकी टीम में शामिल रायपुर आईजी जीपी सिंह, बस्तर आईजी अरुणदेव गौतम की चुस्ती व सतर्क रणनीति काफी कारगर रही. पहले चरण में ही धुर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की 18 सीटों पर संपन्न चुनाव में 67 फीसदी मतदान दर्ज किया गया. दोनों चरणों के मतदान के आधार पर पूरे प्रदेश में कुल 77 फीसदी मतदान दर्ज हुआ जो वर्ष 2008 (71.09) की तुलना में छह फीसदी ज्यादा था. सुरक्षा को लेकर चुनाव आयोग कितना संवेदनशील था यह इसी बात से समझा जा सकता है कि चुनाव में एक लाख से ज्यादा सुरक्षाकर्मी तैनात किए गए थे. इसमें अलग से बुलाई गई अर्धसैनिक बलों की 566 कंपनियां, छत्तीसगढ़ आर्म्ड फोर्स की 60 कंपनियां और डिस्ट्रिक्ट फोर्स की 100 कंपनिया भी शामिल थीं. सीआरपीएफ, बीएसएफ, सीआईएसएफ, इंडियन रिजर्व फोर्स, आईटीबीपी समेत अर्धसैनिक बलों के अलग-अलग दल बनाकर उन्हें जीपीएस से लैस किया गया था. राज्य चुनाव आयोग ने इस बार राज्य के नक्सल प्रभावित बस्तर क्षेत्र के सात जिलों तथा राजनांदगांव जिले में आने वाले 167 मतदान केंद्रों के स्थान को भी परिवर्तित किया था. इनमें वे मतदान केंद्र शामिल हैं जो अंदरूनी क्षेत्रों में आबादी से दूर थे. इन्हें साप्ताहिक बाजार, पुलिस थानों के करीब तथा स्कूल जैसी जगहों पर स्थानांतरित किया गया.

सुरक्षा के लिए उठाए गए इन कदमों की वजह से 2008 के मुकाबले में 2013 में अर्धसैनिक बलों के जवानों ने माओवादियों को कोई बड़ी वारदात करने का मौका नहीं दिया. वह भी ऐसे वक्त में जब ऐन चुनाव के पहले दंडकारण्य जोनल कमेटी के सचिव रमन्ना ने एक पत्र जारी करके विधानसभा चुनाव का बहिष्कार करने का एलान किया था. 2008 के विधानसभा चुनाव में जहां माओवादियों ने 35 एवीएम लूट ली थीं. वहीं चुनाव के दौरान हुई नक्सल हिंसा में 28 लोगों की मौत हो गई थी. जबकि इसबार नक्सली एक भी ईवीएम नहीं लूट पाए. हालांकि अलग-अलग घटनाओं में चार लोगों की मौत जरूर हुई. जो लोग शहीद हुए उनमें दंतेवाड़ा के नयानार में बीएसएफ का एक और सुकमा में सीआरपीएफ के तीन जवान शामिल हैं. इसके साथ ही दूसरे चरण के मतदान के दौरान बेमेतरा जिले के साजा विधानसभा क्षेत्र के भेंडरवानी मतदान केंद्र पर सीआरपीएफ के एक जवान की गोली से भी एक व्यक्ति की मौत हुई. बावजूद इसके अपनी सफलता को लेकर चुनाव आयोग और पुलिस के आला अफसर उत्साहित हैं. सीआरपीएफ के आईजी हरप्रीत सिद्धू कहते हैं, ‘ हमारे जवानों ने उस आखिरी मतदान केंद्र तक मतदाताओं को सुरक्षा मुहैया करवाई, जहां पहुंचना बेहद मुश्किल होता है. जवानों ने लगातार सर्चिंग कर हर बड़ी वारदात को ना केवल नाकाम किया, बल्कि जान माल को नुकसान से भी बचाया.’ वहीं छत्तीसगढ़ पुलिस महानिदेशक रामनिवास बताते हैं कि पुलिस व अर्धसैन्य बलों के साथ सहयोग करके सकारात्मक माहौल बनाने की उन्होंने पूरी कोशिश की थी. वे कहते हैं, ‘ और इसके बाद मतदाताओं को बढ़चढ़कर मतदान में भाग लेना ही था. ‘

पूरे देश की नजरें छत्तीसगढ़ के चुनाव पर ही ज्यादा लगी हुई थीं क्योंकि इसी साल के मई में माओवादियों ने जीरम घाटी में कांग्रेस के 30 नेताओं को मौत की नींद सुला दिया था. यह पहला मौका था जब सरकारी तंत्र पर निशाना साधने वाले नक्सलियों ने सामूहिक रूप से किसी राजनीतिक दल को निशाना बनाया था. ऐसे में सबकी चिंता यही थी कि प्रदेश में विधानसभा चुनाव कैसे शांतिपूर्वक संपन्न हो पाएगा. क्या नेता चिंतामुक्त प्रचार कर पाएंगे? क्या मतदाता सुरक्षित मतदान कर पाएंगे? लेकिन चुनाव आयोग, सीआरपीएफ समेत अन्य सुरक्षा बलों और पुलिस मुख्यालय की कुशल रणनीति और साहसी जज्बे ने इन सारे सवालों के जवाबों को ‘हां’ में बदल दिया.

विलक्षण विराट

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12 नवंबर, 2013. दो दिन बाद क्रिकेट के महानायक सचिन तेंदुलकर को अपना 200वां और आखिरी टेस्ट मैच खेलना था. देश-दुनिया में उनकी विदाई पर बात हो रही थी. सचिन का आखिरी मैच उनके अपने शहर मुंबई में था, इसलिए दूसरे बहुत-से लोगों की तरह मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन (एमसीए) ने भी इस मौके को यादगार बनाने के लिए एक खास कवायद की. उसने वानखेड़े स्टेडियम में अलग-अलग जगहों पर 51 पोस्टर लगाए. टेस्ट मैचों में तेंदुलकर के कुल 51 शतकों की याद दिलाते इन पोस्टरों में तेंदुलकर की तस्वीरें थीं और यह जिक्र भी कि यह शतक उन्होंने किस टीम के खिलाफ लगाया. अपनी इस अनूठी कवायद पर एमसीए को तारीफ की उम्मीद रही होगी.

लेकिन हुआ उलट. ऐन वक्त पर पता चला कि उसी वानखेड़े में एक दूसरे खिलाड़ी के पोस्टरों की इतनी जबरदस्त भीड़ हो गई है कि उसमें तेंदुलकर के लिए खास तौर से बनाए गए 51 पोस्टर खो-से गए हैं. इसकी एक वजह तो यह थी कि ये पोस्टर बहुत ही ऊंचाई पर लगे थे और दूसरी यह कि इनके लिए तेंदुलकर की तस्वीरों को अखबार या पत्रिका जैसे दूसरे स्रोतों से लेकर बड़ा किया गया था जिससे वे साफ नहीं दिख रही थीं. उधर, इस दूसरे खिलाड़ी की तस्वीर खास तौर पर इन्हीं पोस्टरनुमा विज्ञापनों के लिए ली गई थी इसलिए पहली नजर तेंदुलकर के बजाय उसके पोस्टरों पर ही जा रही थी. इस पर एमसीए का असहज होना स्वाभाविक था और यह भी कि तुरंत ही इस दूसरे खिलाड़ी के ज्यादातर पोस्टर हट गए.

तेंदुलकर ने मैच में 74 रन बनाए तो उस खिलाड़ी का स्कोर रहा 57 और मैच के बाद तेंदुलकर जब दर्शकों को धन्यवाद कहने के लिए मैदान का चक्कर लगाने निकले तो इसी खिलाड़ी ने कप्तान महेंद्र सिंह धोनी के साथ मिलकर तेंदुलकर को अपने कंधे पर उठा लिया.

ये खिलाड़ी हैं विराट कोहली.

कोहली कहते हैं कि उनके क्रिकेटर बनने की सबसे बड़ी वजह तेंदुलकर हैं. तेंदुलकर कहते हैं कि उन्हें कोहली की बल्लेबाजी में अपनी छाया दिखती है. डॉन ब्रैडमैन को इसी तरह तेंदुलकर के खेल में अपने खेल की झलक दिखती थी. सुनील गावस्कर, दिलीप वेंगसरकर, इयान चैपल जैसे क्रिकेट के दिग्गज जो कहते हैं उसका लब्बोलुआब यह है कि कोहली अगले सचिन हो सकते हैं. उधर, बिशन सिंह बेदी, मुथैय्या मुरलीधरन जैसे दूसरे दिग्गजों का भी एक वर्ग है जिसका मानना है कि कोहली सचिन तो नहीं हो सकते क्योंकि दो लोगों का एक जैसा होना नामुमकिन है लेकिन यही प्रतिभा, अनुशासन और समर्पण अगर वे अगले 15 साल भी बरकरार रख पाए तो वे क्रिकेट के अगले युग के महानायक जरूर हो सकते हैं.

इन सब बातों पर विचार करने और घटनाओं के जिस सिलसिले से हमने बात शुरू की थी उसे उल्टे क्रम में देखने पर एक दिलचस्प संभावना जताई जा सकती है. सचिन तेंदुलकर की विरासत का बोझ उठाने के लिए विराट कोहली के कंधे पर्याप्त मजबूत हैं, यह उनके प्रदर्शन से लगता है. इस संभावना को यह हालिया खबर और वजन देती है कि विज्ञापन अनुबंधों से होने वाली कमाई के मामले में वे अब तक शीर्ष पर चल रहे अपने कप्तान महेंद्र सिंह धोनी से भी आगे निकल गए हैं. उधर, धोनी कह चुके हैं कि कोहली भविष्य के कप्तान हैं.

तो क्या विराट कोहली भारत के पहले सर्वगुणसंपन्न क्रिकेटर हैं?

इस सवाल के सही-सही जवाब के लिए विस्तार से यह देखना होगा कि क्रिकेट में सर्वगुणसंपन्न होने की क्या शर्तें हो सकती हैं और कोहली उन पर खरे उतरते हैं या नहीं.

क्रिकेट एक ऐसा खेल है जिसमें तीन अलग-अलग विधाएं आपस में टकराती हैं. बल्लेबाजी, गेंदबाजी और क्षेत्ररक्षण. अगर आप ऑलराउंडर नहीं हैं, जो कि ज्यादातर खिलाड़ी नहीं होते, तो फिर आपकी श्रेष्ठता बल्लेबाजी या गेंदबाजी में से किसी एक विधा में आपके स्तर पर तय होती है. तिस पर आप अच्छे फील्डर भी हों तो सोने पर सुहागा.

यह तो हुई एक कसौटी. क्रिकेट एक ऐसा खेल भी है जो टीम के साथ खेला जाता है. तो बाकी टीम के साथ सामंजस्य का गुण भी जरूरी है और यहां सोने पर सुहागा जैसी बात यह हो सकती है कि आपमें टीम की अगुवाई करने की क्षमता भी हो.

इसके अलावा एक तीसरी कसौटी भी है. क्रिकेट को भारत में दूसरा धर्म कहा जाता है, इसलिए स्वाभाविक ही है कि इसका असर मैदान से परे भी जाता है. अच्छे खिलाड़ी पर बहुतों की नजरें रहती हैं. अपने प्रचार के लिए जरिया ढूंढ़ती कंपनियों की, उनमें कोई खबर तलाशती मीडिया की और उन्हें अपने प्रेरणास्रोत की तरह देखने वाले आम लोगों की भी.

पहले पहली कसौटी की बात करते हैं. बल्लेबाजी और गेंदबाजी में से कोहली पहली विधा से ताल्लुक रखते हैं. दिल्ली के पश्चिम विहार इलाके से ताल्लुक रखने वाले कोहली ने भारतीय क्रिकेट टीम में 2008 में पदार्पण किया. लेकिन होनहार बिरवान के होत चिकने पात वाली कहावत की तरह वे इससे पहले ही सुर्खियों में आ चुके थे. 2005 में दिल्ली की अंडर-17 टीम की तरफ से खेलते हुए पंजाब और हिमाचल के खिलाफ दोहरे शतक लगाकर उन्होंने लोगों का ध्यान खींचा. इसके बाद दिसंबर, 2006 में हुई एक असाधारण घटना से वे अचानक राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आ गए. कर्नाटक और दिल्ली के बीच रणजी ट्रॉफी मैच हो रहा था. मैच के दूसरे दिन कोहली के पिता का निधन हो गया. अगले दिन उनका अंतिम संस्कार होना था. उधर, मैच में दिल्ली की हालत पतली थी. पहली पारी में कर्नाटक ने 446 रन बनाए थे. जवाब में दिल्ली की टीम 59 रनों पर अपने पांच बल्लेबाज खो चुकी थी. दूसरे दिन का खेल खत्म होने तक विराट कोहली और पुनीत बिष्ट क्रीज पर थे और दिल्ली का स्कोर था 103 रन. फॉलोऑन का खतरा सिर पर था. कोच चेतन चौहान और कप्तान मिथुन मन्हास सहित टीम के बाकी लोगों ने कोहली से कहा कि वे मैच छोड़कर घर जाएं. लेकिन कोहली ने कहा कि वे टीम के साथ रहेंगे. उन्होंने कुल 90 रन बनाए और पुनीत बिष्ट के साथ छठे विकेट के लिए 152 रनों की साझेदारी करके दिल्ली को फॉलोऑन से बचा लिया. इसके बाद वे पिता के अंतिम संस्कार में गए. अपने इस फैसले के बारे में तब कोहली ने जो कहा उसका सार यह था कि यही उनकी अपने पिता को श्रद्धांजलि थी. टीम के प्रति अपने दायित्व को उन्होंने अपने व्यक्तिगत दुख से ऊपर रखा और दिखाया कि जब इम्तिहान का वक्त आता है तो सच्चे खिलाड़ी और मजबूत हो जाते हैं.

क्या यह संयोग है कि ऐसी ही एक घटना सचिन तेंदुलकर के जीवन से भी जुड़ी है? 1999 के विश्व कप के दौरान सचिन के पिता का निधन हो गया था. लेकिन इस दुख को पीछे छोड़कर उन्होंने शतक जमाते हुए अगले मैच में भारत को जीत दिलाई थी.

इसके बाद कोहली 2008 में फिर सुर्खियों में आए जब उनकी कप्तानी में भारत ने मलेशिया में खेले गए अंडर 19 क्रिकेट वर्ल्ड कप का खिताब अपने नाम किया. इस टूर्नामेंट के छह मैचों में 47 की औसत से उन्होंने कुल 235 रन बनाए. यह आंकड़ा तब और बड़ा लगने लगता है जब पता चलता है कि वे चौथे नंबर पर बल्लेबाजी करने आते हैं.

सचिन तेंदुलकर से विराट कोहली की तुलना करने की स्वाभाविक वजहें बनती हैं. पूर्व क्रिकेटर रवि शास्त्री को लगता है कि करियर के इस मोड़ पर तो सचिन और वेस्टइंडीज के महान क्रिकेटर विवियन रिचर्ड्स भी इतना बढ़िया नहीं खेल रहे थे. सुनील गावस्कर और पूर्व आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज डीन जोंस सहित कई लोग कह चुके हैं कि क्रिकेट के एकदिनी संस्करण के मोर्चे पर कोहली तेंदुलकर के रिकॉर्ड तोड़ सकते हैं. कोहली का प्रदर्शन भी इसकी झलक देता है. सचिन ने अपना पहला वनडे शतक 79 पारियां खेलने के बाद लगाया था. इन 79 पारियों में उन्होंने 32.41 की औसत से 2,236 रन बनाए थे और उनका स्ट्राइक रेट था 78.48. उधर, विराट कोहली 79 पारियों के बाद 47.57 की औसत से कुल 3,233 रन बना चुके थे. उनके शतकों की संख्या नौ हो चुकी थी और स्ट्राइक रेट था 84.88.

कोहली बीते महीने ही 25 साल के हुए हैं और एकदिवसीय मैचों में उनका रिकॉर्ड बता रहा है कि अभी ही वे खेल के इस प्रारूप में शतकों की संख्या के मामले में तीसरे नंबर पर पहुंच गए हैं. उनसे आगे बस तेंदुलकर और गांगुली हैं. 120 मैचों की 114 पारियों में वे कुल 17 शतक और 27 अर्धशतक जमा चुके हैं. इससे पहले सबसे तेजी से 17 शतकों के आंकड़े तक पहुंचने वाले सौरव गांगुली थे जिन्होंने यहां तक पहुंचने के लिए कोहली से 58 पारियां ज्यादा खेली थीं. 5000 रनों के आंकड़े तक सबसे तेजी से पहुंचने का रिकॉर्ड भी पिछले ही दिनों उनके नाम हो गया है. कोहली का औसत 52 से ज्यादा है और 52 गेंदों पर शतक ठोककर भारत की तरफ से एकदिवसीय क्रिकेट में सबसे तेज सैकड़ा ठोकने का रिकॉर्ड भी उनकी झोली में आ चुका है. बीते अक्टूबर में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ उन्होंने यह कारनामा किया. अब तक यह रिकॉर्ड सहवाग के नाम था. फिलहाल वे एकदिवसीय क्रिकेट में बल्लेबाजों के लिए बनी आईसीसी की सूची में शीर्ष पर हैं और बहुत-से लोग मानते हैं कि अगर वे तेंदुलकर जितने मैच खेल गए तो अपने प्रेरणास्रोत के तमाम रिकॉर्ड पीछे छोड़ देंगे. हाल ही में जब ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ एकदिवसीय शृंखला में उन्होंने दो शानदार शतक जड़े तो इयान चैपल ने कहा कि उन्हें 1998 में शारजाह में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ ही जड़े गए तेंदुलकर के दो शतकों की याद आ गई.

टेस्ट मैचों में भी कोहली की प्रगति असाधारण है. खेल के इस प्रारूप को वे अपनी पहली पसंद भी बताते हैं. 2011 में पहला टेस्ट खेलने वाले कोहली अब तक कुल 18 मैचों में करीब 42 की औसत से 1,178 रन बना चुके हैं. इस दौरान उन्होंने चार शतक और छह अर्धशतक लगाए हैं. क्रिकेट के सबसे नए संस्करण टी20 में भी उनकी प्रतिभा दिखी है. अब तक 21 मैचों में 34.50 की औसत से वे कुल 587 रन बना चुके हैं. आईपीएल और चैंपियंस लीग में भी उनका प्रदर्शन असरदार रहा है.

यह सब कुछ इतनी जल्दी हुआ है कि अविश्वसनीय लगता है. कोहली भी कई बार कह चुके हैं कि कभी-कभी वे भी अचानक यह सोचने लगते हैं कि क्या यह सब उन्होंने ही किया है. बल्लेबाजी की उनकी शैली भी अनोखी है. अपनी आक्रामक बल्लेबाजी के लिए विख्यात वीरेंद्र सहवाग जोखिम की बिल्कुल भी परवाह न करने के लिए जाने जाते रहे हैं. जानकार मानते हैं कि इस गुण की वजह से उन्होंने बड़े स्कोर तो बनाए लेकिन उनकी फॉर्म में निरंतरता का अभाव दिखता रहा. उधर, एक और विध्वसंक बल्लेबाज धोनी की शैली दूसरी है. वे भी आक्रामक हैं, लेकिन वे अपनी ताकत आखिरी समय के लिए बचाकर रखते हैं. वे जिस नंबर पर खेलते हैं उसमें संकट की स्थिति यही होती है कि शुरुआती चार खिलाड़ी जल्द ही आउट हो जाएं. ऐसे में धोनी आउट न होकर स्थिति के स्थिर होने का इंतजार करते हैं, धीरे-धीरे गेंदबाज की घबराहट बढ़ाते हैं और फिर आखिरी वक्त में एक्सीलेटर दबा देते हैं. लेकिन कोहली इसके उलट हैं. वे हालात के बदलने का इंतजार नहीं करते. वे खुद ही हालात को बदल देते हैं. वे पहली ही गेंद से विध्वंसक हो जाते हैं और ऐसा करते हुए वे कहीं भी जोखिम लेते हुए नहीं दिखते. क्रिकेट की शास्त्रीय परंपरा से परिपूर्ण शॉट लगाते कोहली का विध्वंस बहुत शांति भरा दिखता है. उन्हें खेलते हुए देखकर शायद ही दर्शकों की सांस कभी हलक में अटकी हो. ठोस तकनीक उनके खेल को बहुत आश्वस्तकारी बनाती है. आंकड़े बताते हैं कि भारत ने लक्ष्य का पीछा करते हुए जो सबसे बड़ी 10 जीतें हासिल की हैं उनमें से पांच कोहली के टीम में आने के बाद आई हैं और इनमें से चार में कोहली ने अहम भूमिका अदा की है. उनके रहते हुए भारत ने जो मैच जीते हैं उनमें कोहली का औसत करीब 68 रहा है जो धोनी के करीब 74 के औसत से थोड़ा ही कम है. लक्ष्य का पीछा करते हुए उन्होंने 11 शतक बनाए हैं और उन सभी मैचों में भारत जीता है. शायद इसीलिए वे सबसे अच्छे ‘फिनिशरों’ की लिस्ट में शामिल हो गए हैं.

यह तो हुई बल्लेबाजी की बात. इसके अलावा कोहली एक बहुत अच्छे फील्डर भी हैं. क्रिकेट में एक कहावत है कि रन बचाए यानी रन बनाए. 30 यार्ड के घेरे में कोहली की मौजूदगी एक आश्वस्ति जगाती है. कई मौकों पर उनके सीधे थ्रो या असाधारण कैच ने जमे हुए बल्लेबाज को वापस पवेलियन भेजा है.

साफ है कि बल्लेबाजी और फील्डिंग की कसौटी पर कोहली पूरी तरह खरे उतरते हैं. अब बाकी खिलाड़ियों से सामंजस्य और नेतृत्व क्षमता की बात. भारतीय क्रिकेट का इतिहास बताता है कि यहां गुटबाजी और खिलाड़ियों का आपसी टकराव कोई नई बात नहीं है. दो बड़े खिलाड़ियों में न पटने के कई किस्से हैं. कभी सुनील गावस्कर और कपिल देव की आपसी खुन्नस के चर्चे हुआ करते थे. हाल के दिनों में धोनी और वीरेंद्र सहवाग के बीच टकराव की खबरें भी आम हो गई थीं. लेकिन कोहली और धोनी में कहीं से ऐसा नहीं लगता. धोनी खुलकर कोहली की तारीफ करते हैं और कोहली धोनी की. एक हालिया साक्षात्कार में कोहली का कहना था, ‘धोनी से मैं बहुत कुछ सीख रहा हूं और वे सबक मैदान पर भी आजमा रहा हूं.’ उधर एक दूसरे साक्षात्कार में धोनी का कहना था, ‘कोहली एक असाधारण खिलाड़ी हैं. उनकी शैली देखकर लगता है कि कैसी भी परिस्थिति हो, बल्लेबाजी बहुत आसान होती है.’ दूसरे खिलाड़ियों के साथ उनका सामंजस्य भी ऐसा ही है. ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ हालिया एकदिवसीय सीरीज के आखिरी मैच में रोहित शर्मा के साथ हुई एक संवादहीनता की वजह से कोहली बिना खाता खोले ही आउट हो गए थे. उन्हीं रोहित शर्मा ने जब मैच में दोहरा शतक ठोका तो सबसे ज्यादा खुशी कोहली के चेहरे पर ही दिख रही थी.

फिलहाल वे भारतीय टीम के उपकप्तान हैं. बीती जून-जुलाई में पहले वेस्टइंडीज में हुई त्रिकोणीय श्रृंखलीय और फिर जिंबाब्वे दौरे में धोनी की गैरमौजूदगी में उन्होंने कप्तानी भी संभाली. टीम ने श्रृंखला भी जीती और जिंबाब्वे को 5-0 से भी धोया. 2008 में अंडर 19 विश्व कप भारत ने उनकी ही कप्तानी में जीता था. ज्यादातर लोग मानते हैं कि वे भविष्य के कप्तान हैं. धोनी भी उनकी तारीफ करते हुए कई बार कह चुके हैं कि विराट कोहली कप्तान बनने की राह पर हैं.
लेकिन कई बार भविष्यवाणियां भी धरी रह जाती हैं. बहुत-से उदाहरण हैं जो बताते हैं कि करियर के शुरुआती दौर में बहुत प्रतिभाशाली दिखने वाले खिलाड़ी आगे जाकर वह ताल कायम नहीं रख पाए. दस साल पहले तक अमेरिका के ब्रायन बेकर के बारे में माना जा रहा था कि वे लॉन टेनिस की दुनिया में अगला बड़ा नाम होने वाले हैं. अपने वक्त में अजित अगरकर एकदिवसीय क्रिकेट में 50 विकेटों के आंकड़े तक सबसे तेजी से पहुंचने वाले गेंदबाज बन गए थे. इरफान पठान की तुलना वसीम अकरम से होने लगी थी. विनोद कांबली भी असाधारण प्रतिभा के धनी माने जाते थे. लेकिन ये सारे नाम आगे चलकर उन उम्मीदों पर खरे नहीं उतर सके जो उनसे लगाई गई थीं.

इसके कई कारण होते हैं. चोटें, अभ्यास या फिटनेस की उपेक्षा और अनुशासनहीनता भी. ब्रायन बेकर पर कूल्हे और कोहनी की सर्जरियों ने ऐसा कहर ढाया कि बीच में वे छह साल तक एक भी मैच न खेल सके. इरफान पठान को भी चोटों ने काफी परेशान किया. उधर, शोएब अख्तर और एस श्रीसंत जैसे प्रतिभाशाली खिलाड़ियों पर अनुशासनहीनता का ग्रहण लगा.

विराट कोहली इस मोर्चे पर काबू में दिखते हैं. उनकी फिटनेस का ही नतीजा है कि वे इस दौर के सबसे अच्छे फील्डरों में शुमार होते हैं. वैसे इस मामले में खुद से भी बेहतर वे सचिन तेंदुलकर को बताते हैं. कोहली का मानना है कि तेंदुलकर फिटनेस का प्रतिमान हैं और उन्होंने 40 की उम्र तक भी फिटनेस का जो स्तर बनाकर रखा है, उसी से उन्हें प्रेरणा मिलती है. यानी वे बिल्कुल सही राह पर हैं. शुरुआत में कोहली के आक्रामक रवैये और देर रात तक चलने वाली आईपीएल पार्टियों में उनकी मौजूदगी पर भी सवाल खड़े किए गए थे. 2012 में ऑस्ट्रेलिया में एक मैच के दौरान हूटिंग करते दर्शकों को उंगली दिखाने के लिए भी उनकी आलोचना हुई और जुर्माने के तौर पर उनकी मैच फीस भी कटी. लेकिन बीते कुछ समय के दौरान उनके साक्षात्कार गौर से देखें तो अब वे काफी बदले हुए नजर आते हैं. वक्त के साथ उनमें आई परिपक्वता साफ दिखती है. वे मानते हैं कि जब उम्र कम होती है तो आदमी को बहुत-सी चीजों की समझ नहीं होती लेकिन धीरे-धीरे उन्हें समझ में आ गया है कि मर्यादा में रहना महत्वपूर्ण है. हालांकि वे अपनी आक्रामकता को सही ठहराते हैं. उनके मुताबिक हर इंसान की अपनी कुछ विशेषताएं होती हैं. रिकी पॉन्टिंग या विव रिचर्ड्स भी अपने दौर में विरोधी टीम पर बैट और व्यवहार दोनों तरह से हमलावर रहते थे और ये दोनों ही क्रिकेट के महान खिलाड़ियों की सूची में शामिल हैं. कोहली यह भी कहते हैं कि उनका एक साधारण परिवार से ताल्लुक रखना उनके पांव जमीन पर रखने में उनकी मदद करता है. वे मानते हैं कि अतीत में उनसे गलतियां हुईं लेकिन वे उनसे सबक सीखकर आगे बढ़ना चाहते हैं.

उन्होंने ऐसा किया भी है. वक्त के साथ उनसे ज्यादा उनका प्रदर्शन उनके बारे में बोलने लगा है. बचपन के दिनों से कोहली के कोच राजकुमार शर्मा मानते हैं कि सहज आत्मविश्वास और असाधारण प्रतिभा उनमें शुरू से ही रही है. पूर्व क्रिकेटर कृष्णामाचारी श्रीकांत के मुताबिक इन गुणों में परिपक्वता के मेल ने कोहली के खेल को एक अलग ही स्तर पर पहुंचा दिया है.

इसलिए आश्चर्य नहीं कि दुनिया उनके पीछे है. खेल से जुड़े सामान बनाने वाली मशहूर कंपनी एडिडास के साथ उन्होंने हाल ही में तीन साल के लिए 10 करोड़ रु सालाना फीस के साथ एक अनुबंध किया है और खबरों के मुताबिक विज्ञापनों से होने वाली कमाई के मामले में अब वे तेंदुलकर और धोनी से भी आगे निकल गए हैं. कोहली 13 उत्पादों के ब्रांड एंबेसडर हैं. डियोड्रेंट से लेकर सीमा सुरक्षा बल तक तमाम विज्ञापनों में उनका चेहरा दिखता है. इसका एक कारण मैदान पर उनका प्रदर्शन है और दूसरा यह माना जाता है कि वे किसी पेशेवर मॉडल और अभिनेता से कम नहीं लगते. दरअसल विज्ञापन किसी चॉकलेट का हो या शैंपू का, कोहली की मौजूदगी के अलावा उनका अभिनय भी उसे प्रभावशाली बनाता है. इसके बारे में पूछने पर वे चुटकी लेते हुए कहते हैं कि उन्हें शूटिंग के सिलसिले में सेट पर लंबा वक्त बिताना अच्छा नहीं लगता इसलिए वे पूरी कोशिश करते हैं कि रीटेक न हो और शायद यही चीज उनकी एक्टिंग को सहज बना देती है. हालांकि उनकी नजर में विज्ञापनों का उतना महत्व नहीं है. एक हालिया साक्षात्कार में वे कहते हैं, ‘मैं जानता हूं कि यह सब मेरे प्रदर्शन की बदौलत है, इसलिए मैं उस पर ज्यादा ध्यान देता हूं. विज्ञापन मेरे लिए बोनस की तरह हैं.’

कहें वे कुछ भी, बाजार उनके पीछे भाग रहा है. क्रिकेट के कारोबारी पहलुओं पर अपने आकलन के लिए चर्चित ब्रिटिश पत्रिका स्पोर्ट्सप्रो ने साल 2013 के लिए ऐसे 50 खिलाड़ियों की सूची बनाई है जो प्रचार के लिए सबसे मुफीद हैं. कोहली इसमें 13वें स्थान पर हैं और वे रफेल नाडाल और मारिया शारापोवा जैसे दिग्गजों से भी आगे हैं. कुछ समय पहले विख्यात अंतरराष्ट्रीय फैशन पत्रिका जीक्यू ने उन पुरुषों की सूची में उन्हें दुनिया में तीसरे नंबर पर रखा था जिनका वस्त्र विन्यास बहुत आकर्षक माना जाता है. पत्रिका का कहना है कि कोहली भारत में जितना अपनी बल्लेबाजी के लिए जाने जाते हैं उतना ही अपनी स्टाइल के लिए भी. इस सूची में अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा भी हैं.

लेकिन क्या यह सर्वगुणसंपन्नता उन्हें सचिन तेंदुलकर के पार ले जा सकती है?

दरअसल नायकों के उभरने में उनकी योग्यता के साथ-साथ परिस्थितियों का भी योगदान होता है. योग्यता पर किसी शक-शुबह की गुंजाइश रही नहीं, इसलिए इस सवाल का ठीक-ठीक जवाब पाने के लिए इसे दूसरी तरह से पूछा जाना चाहिए. क्या आज हमारे देश में ऐसी परिस्थितियां हैं जो सचिन जैसे किसी दूसरे महानायक के उभार को मदद दे सकें?

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कीर्तिमानों का सिलसिला

एकदिवसीय क्रिकेट में सबसे तेजी से 5000 रन

एकदिवसीय क्रिकेट में सबसे तेजी से 17 शतक के आंकड़े तक पहुंचने वाले बल्लेबाज

पिछले तीन साल के दौरान एकदिवसीय मैचों में सबसे ज्यादा रन बनाने वाले भारतीय बल्लेबाज

2012 में टेस्ट मैचों में सबसे ज्यादा रन बनाने वाले भारतीय बल्लेबाज

पाकिस्तान के खिलाफ एकदिवसीय मैचों में सबसे बड़ा स्कोर (183) बनाने वाले बल्लेबाज

एकदिवसीय मैचों में दो बार लगातार पांच मैचों में 50 या उससे ज्यादा रन बनाने वाले एकमात्र खिलाड़ी[/box]

1990 के पूर्वार्ध में जब सचिन का उदय हुआ तो परिस्थितियां भी जैसे एक महानायक का इंतजार ही कर रही थीं. 1983 में भारत के विश्वकप जीतने के बाद देश में एकदिवसीय क्रिकेट की लोकप्रियता बहुत बढ़ गई थी. यह ऐसा समय भी था जब सार्वजनिक उपलब्धियों के नाम पर गर्व करने लायक चीजें या तो खत्म हो चुकी थीं या हो रही थीं. हॉकी का स्वर्णिम काल बीत चुका था और अब वह पतन की ओर जा रही थी. 1980 में बैडमिंटन के शिखर पर पहुंचे प्रकाश पादुकोन ढलान पर थे. टेनिस में विजय अमृतराज काफी उम्मीदें पैदा करने के बाद हाशिये पर जा रहे थे. शतरंज में विश्वनाथन आनंद का तब तक उदय नहीं हुआ था. खुद क्रिकेट में ही दिग्गज बल्लेबाज सुनील गावस्कर रिटायर हो चुके थे और दूसरे दिग्गज कपिल देव अपने करियर के आखिरी और सूखे दौर में थे. राजनीति लोगों का विश्वास खो चुकी थी, साहित्य, कला, संगीत, नृत्य जैसी विधाओं की लोकप्रियता बहुत सीमित थी और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में भारतीय प्रतिभा का कोई बड़ा दखल नहीं दिख रहा था. उस दौर में बड़ी हो रही पीढ़ी के सामने कोई नायक उपलब्ध था तो वह या तो सिनेमा का हीरो था या क्रिकेटर. ऐसे समय में तेंदुलकर आए. उनकी प्रतिभा ने उस समय की पीढ़ी में एक नया आत्मविश्वास भरा. उसे यकीन दिलाया कि वह बेहिचक पश्चिम से लोहा ले सकती है. एक शिक्षक पिता की इस संतान की सफलता में मध्यवर्गीय भारत ने अपनी सफलता देखी. अपने समय की पीढ़ी को क्रिकेटरों ने अंतरराष्ट्रीय पहचान का भरोसा दिलाया और सचिन तेंदुलकर इस चलन के अगुवा बने.

इत्तेफाक से यह वही दौर था जब देश का बाजार दुनिया के लिए खुल रहा था. अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को यहां पैठ और पहचान बनाने के लिए अपने नायकों और प्रतीकों की जरूरत थी. सचिन के रूप में उन्हें ऐसा आदर्श मिला. बाजार ने क्रिकेट को हाथों-हाथ लिया और उसे अपनी जरूरतों के हिसाब से बदला भी. क्रिकेट देश का दूसरा धर्म बन गया और सचिन इसके देवता. 24 साल के करियर में वे लगभग विवादमुक्त रहकर क्रिकेट खेलते रहे. वे मैदान में हों या उससे बाहर, उनका प्रदर्शन और व्यवहार सबके लिए आदर्श बना रहा. मशहूर पत्रकार प्रभाष जोशी ने एक बार सचिन के बारे में कहा था, ‘देश चाहता है कि सपूत हो तो तेंदुलकर जैसा, टीम चाहती है कि खिलाड़ी हो तो सचिन जैसा, माता-पिता चाहते हैं कि बेटा हो तो तेंदुलकर जैसा, गुरु चाहते हैं कि शिष्य हो तो तेंदुलकर जैसा और अब तो बेटा-बेटी चाहते हैं कि पापा हों तो तेंदुलकर जैसे.’

लेकिन आज हालात बदल गए हैं. उसी बाजार का क्रिकेट में हद से ज्यादा दखल हो गया है. नतीजा यह है कि अब बहुत-से लोग क्रिकेट को खेल की तरह नहीं बल्कि किसी तमाशे की तरह देख रहे हैं. उन्हें जैसे बस कुछ ओवरों की सनसनी और आइटम गर्ल्स की तरह आने-जाने वाली चीयरलीडर्स से मतलब है. एक खेल के रूप में क्रिकेट की शास्त्रीयता और नैतिकता पीछे छूट गई है. इसी दौर में क्रिकेट ने टीमों के मालिक देखे हैं और खिलाड़ी जैसे उनके जरखरीद गुलाम दिखते हैं. तिस पर आईपीएल जैसे आयोजनों में फिक्सिंग की घटनाएं कोढ़ में खाज बनकर आई हैं. बहुत-से लोग मानने लगे हैं कि खिलाड़ी गेंद और बल्ले से कविता रचने वाले देवता नहीं, महज पैसे के पीछे भागने वाले इंसान हैं. और यहीं क्रिकेट का वह जादू टूट रहा है जो इसे जुनून और धर्म में बदलता है. यह बात सिर्फ खेल विशेषज्ञ नहीं कह रहे. अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) भी इसे मानती है. 2011 में आई उसकी एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता में लगातार गिरावट आ रही है, खासकर वनडे और टेस्ट क्रिकेट की. टी-ट्वेंटी का हाल भी खास जुदा नहीं है. इस गिरावट की गवाही खाली स्टेडियम और ओवरों के बीच में आते बगैर विज्ञापन वाले ब्रेक भी दे रहे हैं. यह कुछ साल पहले सोचा भी नहीं जा सकता था. यानी निश्चित तौर पर लोगों का धर्म और उसके देवताओं पर से भरोसा उठ रहा है.

ऐसे में क्या विराट कोहली तेंदुलकर जैसा नायकत्व हासिल कर पाएंगे?

दिग्गज क्रिकेटर ब्रायन लारा सहित तमाम लोग मानते हैं कि जीनियस जो खाली जगह छोड़ते हैं उसे कभी नहीं भरा जा सकता. हाल ही में लारा का कहना था कि विराट कोहली भले ही एकदिवसीय क्रिकेट में असाधारण रूप से खेल रहे हैं लेकिन उनसे आप जब भी क्रिकेट की बात करेंगे तो वे सबसे पहले सचिन की बात करेंगे. सचिन जब आए थे तो जिन दूसरे नायकों, यानी राहुल द्रविड़ और सचिन गांगुली के साथ उनकी तिकड़ी बननी थी, उन्हें आने में छह-सात साल बाकी थे. यानी उनके सामने खाली मैदान था. विराट कोहली के साथ टीम में धोनी जैसे कप्तान हैं और रोहित शर्मा, शिखर धवन और चेतेश्वर पुजारा जैसे साथी भी जो पिछले कुछ समय से लगभग उन जैसा ही खेल रहे हैं.

और मसला सिर्फ यही नहीं है. एक खेल के रूप में क्रिकेट का संतुलन भी डगमगाया है. महेंद्र सिंह धोनी सहित तमाम लोग चिंता जता चुके हैं कि यह संतुलन अब बल्लेबाजों के पक्ष में झुका दिखता है. यही वजह है कि एकदिवसीय क्रिकेट में 300 या 350 जैसे स्कोर बनना और उनका सफलता से पीछा अब मुश्किल नहीं बल्कि आम हो चुका है. विराट कोहली से जुड़ी एक खबर पर टिप्पणी करते हुए ठाणे के इम्तियाज लिखते हैं, ‘मुझे विराट कोहली की योग्यता पर शक नहीं, लेकिन फैब फोर (तेंदुलकर, गांगुली, द्रविड़ और लक्ष्मण) से उनकी तुलना न करें. वे उनके नजदीक भी नहीं ठहरते. मेरा मतलब यह है कि अब वैसे गेंदबाज कहां हैं? क्या आज मैकग्राथ, वसीम अकरम या वकार यूनुस के मुकाबले का कोई गेंदबाज है? फैब फोर के जमाने की तुलना में रन बनाना आज ज्यादा आसान है.’

तो क्या विराट कोहली कभी सचिन तेंदुलकर जैसे महानायक नहीं बन सकते?

आधुनिक सांस्कृतिक इतिहास के संस्थापकों में से एक माने जाने वाले जॉन ह्यूजिंगा ने कहा था कि खेल मानव समाज के लिए इसलिए अहम है क्योंकि उसमें एक सीख छिपी है. खेल के कुछ नियम होते हैं और उन नियमों की सीमा में रहकर खिलाड़ियों को अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना होता है. नियमों में ही खेल का जादू छिपा है कि ये नियम खेल को जीवन जैसा बनाते हैं. इनसे जो बाधाएं पैदा होती हैं उनमें आम इंसान अपने जीवन की मुश्किलें देखता है. और जब खिलाड़ी इन मुश्किलों से लोहा लेते हुए विजयी होता है तो रोज की जिंदगी में कई पराजयें झेलते आदमी को उसमें अपनी भी जीत दिखती है. इसीलिए अच्छे खिलाड़ी समाज के नायक बनते हैं और नियम तोड़ने वाले खिलाड़ी खलनायक भी. इंसानी समाज भी नियमों से चलता है जिन्हें मूल्य कहते हैं. लोग इनकी मर्यादा में रहकर अपना सबसे अच्छा प्रयास करें तो जीवन जादू बन जाता है. जब तक इंसानी सभ्यता है तब तक खेल की महत्ता रहेगी और इसलिए महानायकों के उभरने की संभावना भी.

यानी कोहली अगले और अपनी तरह के महानायक तो हो ही सकते हैं. अपने खांटी दिल्ली वाले अंदाज में वे कहते भी हैं कि वे बस अच्छा खेलना चाहते हैं, इतना अच्छा कि जब क्रिकेट छोड़ें तो लोग कहें कि खेलो तो इस बंदे जैसा.

 

हमने तहलका क्यों नहीं छोड़ा

तहलका के पूर्व संपादक तरुण तेजपाल अब अपने खिलाफ लगे आरोपों का कानूनी तरीके से सामना कर रहे हैं. शोमा चौधरी, जिन पर तरुण को बचाने की कोशिशों के आरोप हैं अब तहलका की अंग्रेजी पत्रिका छोड़ चुकी हैं. तो क्या तहलका को छोड़कर जाने का अब भी कोई औचित्य है, जैसा कि कई लोग हमें करने को कह रहे हैं. कुछ उकसा भी रहे हैं.

लेकिन हमने तहलका तब भी तो नहीं छोड़ा जब तरुण के खिलाफ कानूनी मामला चलना शुरू नहीं हुआ था और शोमा भी तहलका में थीं.

इसकी वजह थी कि तहलका की हिंदी पत्रिका का बाकी तहलका, शोमा, यहां तक कि तरुण से भी नाममात्र से भी कम का लेना-देना था. तरुण ने कुछ नितांत गैर-अनुभवी लोगों के भरोसे, उनकी जिद पर इसे शुरू करने का फैसला लेने के बाद न तो इसमें कभी हस्तक्षेप किया, न ही इसके लिए ज्यादा कुछ किया. जब हिंदी पत्रिका इसमें काम करने वालों के अनथक प्रयासों की वजह से शुरू हुई, उन सबके असीमित उद्यम से यहां तक पहुंची तो उसे किसी एक या दो व्यक्तियों के कथित निजी कृत्यों की भेंट क्यों चढ़ा दिया जाना चाहिए? जिस पत्रिका के लिए हमने दिन-रात, शनिवार-इतवार, घर-बार और बाहर से लगातार मिलते रहे प्रलोभनों को नहीं देखा, उसे इतना गैर-महत्वपूर्ण कैसे मान लें कि जैसे ही मुसीबत का पहला बादल मंडराए हम उसे अपने दिलों से निकालकर अलग कर दें?

लेकिन तहलका से गलती भी तो हुई थी. उसकी गलती वह नहीं थी जिसके आरोप तरुण तेजपाल पर लग रहे हैं. वह एक व्यक्ति की गलती हो सकती है. तहलका की गलती थी कि तरुण पर लगे आरोपों के बाद उसकी आधिकारिक प्रतिक्रिया वैसी नहीं थी जैसी होनी चाहिए थी – न तो उचित-अनुचित के पैमाने पर, और न ही विचारों की ऐसी परिपक्वता के हिसाब से जिसकी तहलका जैसी पत्रिका से उम्मीद की जाती है.

तहलका की अंग्रेजी पत्रिका की पीड़ित पत्रकार ने अपनी संपादक से दो मांगें की थीं: एक विशाखा दिशानिर्देशों के मुताबिक कमेटी बनाकर मामले की जांच की जाए और दूसरी, तरुण ऑफिस के सभी लोगों की जानकारी में उनसे माफी मांगें. यदि ये मांगे नहीं की जातीं तब भी होना यह चाहिए था कि तुरंत एक कमेटी का गठन किया जाता और तरुण को तहलका से पूरी तरह से हटने को कहा जाता. इसके अलावा पीड़ित पत्रकार से पूछकर या खुद ही, मामले को पुलिस के हवाले भी किया जा सकता था. लेकिन शायद तब कमेटी का कोई मतलब नहीं रह जाता. जांच और माफी एक साथ तार्किक नहीं कहे जा सकते थे. क्योंकि न तो माफी इतने बड़े अपराध की पर्याप्त सजा हो सकती है और न ही जांच से पहले ही किसी व्यक्ति पर माफी मांगकर अपना अपराध कबूल करने का दबाव डाला जा सकता है.

इस दौरान हमने सामूहिक इस्तीफे तक पर विचार करने के बाद इस प्रकरण से संबंधित जो भी गलत था, है उसका हर उपलब्ध माध्यम से विरोध करने और दुनिया के सामने लाने का फैसला किया. हमने तहलका की हिंदी पत्रिका में बहुमूल्य योगदान देने वाले लेखकों से अनुरोध किया कि वे पत्रकारीय मर्यादा के मुताबिक जैसा चाहें तहलका, तरुण, शोमा, हम पर या हमसे जुड़ी चीजों पर लिखें. हमने जो तहलका में गलत हुआ था उसे पुरजोर तरीके से शोमा चौधरी और अंग्रेजी पत्रिका के वरिष्ठ लोगों के सामने रखा. इस प्रकरण की जांच के लिए जो कमेटी तहलका द्वारा बनाई गई है उसका एक सदस्य मैं भी हूं.

हमने कितनी भी कोशिश क्यों न की हो तहलका की सभी शाखाएं – जिसमें तहलका हिंदी भी शामिल है – आज अपने अस्तित्व के सबसे बड़े संकट में हैं. यह संकट और गहराए या कम हो, एक बात बिल्कुल साफ है कि इसके लिए हम अपने पत्रकारीय और अन्य मूल्यों से समझौता नहीं करेंगे.

अगर कभी ऐसा करने की मजबूरी आन पड़े या हमें लगे कि हमारे पाठक अब हमारी नीयत और पत्रकारिता पर विश्वास नहीं कर पा रहे हैं तो हम समझ जाएंगे कि कम से कम हमारे लिए तहलका हिंदी का वक्त पूरा हो गया है.

‘शराफत गली में मुड़ गई, मैं देखता रह गया…’

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‘भइया, कहां तक जाओगे? धर्मशिला अस्पताल से होते हुए जाओगे क्या?’ कार सर्विसिंग के लिए गई थी, इसलिए दफ्तर जाने के लिए मैंने ऑटो कर लिया था. घर के पास वाले तिराहे पर बत्ती लाल हुई तो ऑटो थोड़ी देर के लिए रुक गया. तभी सड़क पर पैदल चल रहा यह शख्स अचानक ऑटोवाले से मुखातिब हुआ था.

मैंने उसे गौर से देखा. धूल सनी पैंट-शर्ट और हवाई चप्पल पहने हुए करीब 35-40 साल का एक आदमी. उसका बायां हाथ एक डोरी के सहारे कंधे से लटका हुआ था.

मैं कुछ कहता उससे पहले ऑटोवाला रूखे स्वर में बोला, ‘नहीं, दूसरी तरफ से जाना है.’

वह बोला, ‘भइया जी, मुझे भी थोड़ा आगे तक ले चलो, धर्मशिला के आस-पास कहीं भी मुझे उतार देना. हाथ में थोड़ी दिक्कत हो गई है. गरीब आदमी हूं. बसों में बड़ी भीड़ है. हाथ किसी से जरा सा भी छू जाए तो बहुत दर्द होता है.’

मेरे मन में अचानक कुछ पुरानी स्मृतियां उभरीं. दिल्ली आए मुझे कुछ ही दिन हुए थे जब एक दिन घर के पास वाली सरकारी डिस्पेंसरी के बाहर एक बुजुर्ग महिला मुझसे टकरा गई थी. उसका कहना था कि हिसार से इलाज के लिए यहां आई है, सारे पैसे खत्म हो गए इसलिए अब वापस जाने के लिए किराये की समस्या है. मैं थोड़ा भावुक हो गया था. पढ़ाई के दिन थे, इसलिए जेब में ज्यादा पैसे तो नहीं थे, लेकिन 65-70 जितने भी रुपये निकले उसे दे दिए.

लेकिन ऐसी भावुकता को किस तरह पेशेवर तरीके से भुनाया जा सकता है, यह मुझे चार दिन बाद ही मालूम हो गया जब वह बुढ़िया मुझसे फिर किसी दूसरी जगह पर टकरा गई. इस बार उसके पास एक नई कहानी थी.

इसके कुछ महीने बाद मैं एक नए तरीके से ठगा गया. कुछ अपने इन दो तजुर्बों और बाकी दूसरे दोस्तों के ऐसे ही अनुभवों से धीरे-धीरे समझ में आ गया कि दिल्ली में यह भी ठगी का एक चोखा तरीका है. शायद उस ऑटोवाले का वास्ता भी ऐसी कुछ घटनाओं से पड़ा ही होगा इसलिए वह भी चेहरे पर बिना कोई भाव लाए आगे देखे जा रहा था. बत्ती हरी होने में कुछ सेकंड ही बचे थे. उसकी रूखाई देखकर वह आदमी बोला, ‘भइया, हम भी कंडक्टरी करते हैं 511 के रूट पे. सच में दिक्कत है, थोड़ा आगे ही उतर जाऊंगा. बड़ी मेहरबानी होगी. कोई दूसरा ऑटो इतनी पास तक जाने को तैयार ही नहीं हो रहा.’

जाने क्या सोचकर मैंने कहा, ‘ठीक है, बैठ जाओ, जहां उतरना हो बता देना.’ इतना सुनना था कि वह लपककर मेरी ही बगल में बैठ गया. मैंने भी मानसिक रूप से खुद को तैयार करना शुरू कर दिया कि थोड़ी देर में जब यह पैसे मांगेगा तो कैसे इससे पिंड छुड़ाना है.

जैसा कि अपेक्षित था, उसने आते ही अपनी रामकहानी शुरू कर दी. ‘क्या बताएं भइया. बहुत मुसीबत में हैं. तीन महीने पहले एक एक्सीडेंट हो गया था. हाथ में फ्रैक्चर हो गया. ईएसआई अस्पताल गए थे. वहां डॉक्टरों ने लापरवाही कर दी. हाथ में वह रॉड लगा दी जो पांव में लगती है. केस बिगड़ गया. फिर एक प्राइवेट अस्पताल गए. वहां दोबारा ऑपरेशन हुआ. 30 हजार रुपया लग गया. लेकिन अब भी आराम नहीं है. हाथ में जरा छू जाए तो ऐसा दर्द उठता है कि पूछो मत. अब डॉक्टर कह रहे हैं कि फिर ऑपरेशन करना पड़ सकता है.’

मैं और ऑटोवाला दोनों इस दौरान सपाट चेहरे और अनमने भाव के साथ हूं-हां करते रहे. उधर, वह बोलता जा रहा था, ‘घर में और कोई नहीं है. सिर्फ बूढ़ी मां है. मेरी ही कमाई से घर चल रहा था.’ मैं पूरी कोशिश कर रहा था कि चेहरे पर कोई नरमाहट न दिखे. मन में यही उत्सुकता, भूमिका तो बढ़िया बना रहे हो बच्चू, अब देखते हैं प्वाइंट पर कब आते हो?

इस बीच धर्मशिला अस्पताल आ गया. ऑटोवाला बोला, ‘आ गया तुम्हारा अस्पताल.’ वह बोला, ‘भइया, इससे बस थोड़ा ही आगे जाना है, आप चलते रहो. मैं बता दूंगा.’ अब तो मुझे पक्का यकीन हो गया. ये उन्हीं में से एक है.

उसकी कहानी जारी थी. ‘अब इलाज कराने का तो बूता रहा नहीं, भइया. सुना है यहां पास में एक वैद्य जी रहते हैं जिनकी दवा से कैसा भी दर्द हो आराम हो जाता है. सोचा, यहां भी किस्मत आजमा लें. बस भैया, यहीं रोक लेना.’

वह ऑटो से उतरकर कुछ कहने की मुद्रा में खड़ा हो गया. मैंने भी आखिरी हमले के लिए खुद को तैयार कर लिया.

‘मेहरबानी भइया. आपका बड़ा सहारा हो गया. नहीं तो इस धूप में तीन-चार किलोमीटर पैदल आना पड़ता. मेरे पास ज्यादा तो नहीं हैं फिर भी…’, यह कहते हुए उसने सकुचाते हुए 10 रुपये का एक नोट ऑटोवाले की तरफ बढ़ा दिया.

मुझे झटका लगा. आशंका के उलट हुई इस बात से ऑटोवाला भी अचकचा गया और बोला, ‘अरे क्या कर रहे हो यार, कोई बात नहीं.’

आंखों से आभार झलकाते हुए वह मुड़ा और सड़क पार करते हुए एक गली में दाखिल हो गया.