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हिंदी पट्टी से पत्ता साफ

फोटो:विकास कुमार

आंकड़े अक्सर बेहद बोझिल और उबाऊ होते हैं. लेकिन कभी-कभी उनसे कुछ दिलचस्प तस्वीरें भी उभर जाती हैं. एक आंकड़ा यह है कि हालिया चार विधानसभा के चुनावों में कुल 589 विधानसभा सीटें दांव पर लगी हुई थी. कांग्रेस को इनमें से महज 126 सीटें हाथ लगी हैं. प्रतिशत में यह 22 के आस पास बैठता है. देश की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी पार्टी के बारे में यह आंकड़ा क्या कहता है? इसका मतलब यह है कि कांग्रेस देश के उत्तर और मध्य से लगभग विलुप्त हो चुकी है.

जिन चार राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए हैं उनमें राजस्थान को छोड़ दें तो बाकी तीन, दिल्ली, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ पूरी तरह से ‘लैंड लॉक्ड’ प्रदेश हैं. न तो इनकी सीमाएं किसी देश से लगती हैं न ही ये समुद्र को छूती हैं. कहने का अर्थ है कि नक्शे के बिल्कुल बीचो-बीच मौजूद ये राज्य देश का हृदयस्थल बनाते हैं. यह भूगोल तो लगभग सबको पता ही है तो फिर इसका यहां जिक्र क्यों? दरअसल इस भूगोल मेंे ही कांग्रेस का इतिहास और नागरिक शास्त्र दोनों चौपट हो गया है. इतिहास इस लिहाज से कि इतनी दुर्गति कांग्रेस को एकाध बार ही देखनी पड़ी है और नागरिक शास्त्र इसलिए कि आज यहां कांग्रेस के पास कहने को अपना कोई भी समर्पित वोटबैंक नहीं बचा है. इन चार राज्यों के अलावा उत्तर भारत (हिंदी हृदय प्रदेश) के दो अन्य महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार से कांग्रेस का सूपड़ा साफ हुए एक अर्सा हो चुका है. 2012 में हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों को अगर संकेत मानें तो यहां 2014 में भी पार्टी के दिन बहुरने नहीं जा रहे. यही बात बिहार के बारे में भी कही जा सकती है. झारखंड में भी कांग्रेस की जोड़-तोड़ वाली सरकार है. यानी उत्तर भारत में पार्टी साफ हो चुकी है.

हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. अतीत में दो मौके ऐसे आए हैं जब कांग्रेस हिंदी पट्टी से लगभग लापता हो गई थी. पहला मौका था आपातकाल के बाद सन 77 में हुए लोकसभा चुनाव और दूसरा 1989 के आम चुनाव जब वीपी सिंह भ्रष्टाचार के खिलाफ मशाल लेकर चले थे. हालांकि 1989 में कांग्रेस की असफलता अल्पकालिक और सिर्फ लोकसभा तक सीमित थी और उत्तर के कई राज्यों की सत्ता फिर भी पार्टी के हाथ में थी. लेकिन 1977 और उसके कुछ समय बाद तो वह केंद्र और उत्तर के राज्यों, दोनों में बुरी तरह ढेर हो गई थी. जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल वापस लेकर लोकसभा चुनाव करवाने की घोषणा की तो उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान में कुल मिलाकर कांग्रेस को दो लोकसभा सीटें मिली थीं. इन राज्यों में लोकसभा की कुल सीटों का आंकड़ा था 196. 1989 में यह आंकड़ा 25 पर सिमटा था. कह सकते हैं कि आपातकाल के बाद हिंदी पट्टी में कांग्रेस के सामने पहली बार इतना बड़ा संकट खड़ा हुआ है.

सवाल है कि यह संकट क्यों खड़ा हुआ है. आज कांग्रेस के सामने आपातकाल जैसी कोई आसाधारण स्थिति नहीं थी. जनता ने दो बार लगातार कांग्रेस के पक्ष में नतीजे दिए थे. उसके पास काम करने का पर्याप्त मौका था. पर सरकार की जो छवि बनी वह एक भ्रष्टाचारी, दंभी, कॉर्पोरेट समर्थित और गरीब विरोधी की बनी. वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई बताते हैं, ‘राजनीतिक दलों का हाई और लो फेज आता है. कांग्रेस पार्टी आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान जैसे राज्यों में अपने हाई प्वाइंट को छू चुकी है, अब उसका लो फेज चल रहा है. इस स्थिति को राजनीतिक पार्टियां अपने गुड गवर्नेेेेंस के जरिए संभालती रहती हैं. पर यूपीए की सरकार गवर्नेंस के मोर्चे पर पूरी तरह से असफल रही है. कहीं पर राजनीतिक ताकत और कहीं पर कार्यकारी ताकत का फार्मूला एक कार्यकाल में तो सफलतापूर्वक चल गया, लेकिन इसे इतना लंबे समय तक खींचना संभव नहीं है. कांग्रेस इस गड़बड़ी को पहचान नहीं सकी.

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विचित्र किंतु सत्य

दिल्ली में पहली बार खंडित जनादेश

दिल्ली में भाजपा और कांग्रेस आसानी से बहुमत हासिल करने में कामयाब होते रहे हैं. लेकिन इस बार अपना पहला चुनाव लड़ रही आम आदमी पार्टी का प्रदर्शन बाकियों के लिए ऐसा विध्वंसक रहा कि किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया. पहली बार दिल्ली में त्रिशंकु हालात बन गए. यही वजह है कि सरकार बनाने को लेकर यहां पहली बार इतनी अधिक माथा पच्ची चल रही है. 1993 में दिल्ली की पहली विधानसभा का गठन हुआ था. 1993 के पहले चुनाव में यहां भारतीय जनता पार्टी को जीत मिली थी. उसके बाद 1998, 2003 और 2008 में कांग्रेस ने तीन बार दिल्ली की सत्ता संभाली. अब दिल्ली पहली बार त्रिशंकु विधानसभा देख रही है.

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आज हालत यह है कि कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट गया है, पार्टी में नेतृत्व का कोई विकल्प बचा नहीं है. शीर्ष पर नेतृत्व का जो संकट है वह पूरी पार्टी से बड़ी कीमत वसूल रहा है.’ कांग्रेस की स्थिति आज उस सेना के जैसी हो गई है जिसका सेनापति युद्धभूमि से लापता हो गया है और सैनिक दिशाहीन होकर अफरा-तफरी में फंस गए हैं.

आपातकाल के बाद कांग्रेस हिंदी पट्टी से इसी तरह साफ हो गई थी, लेकिन तब उसके पास इंदिरा गांधी के रूप में मजूबत और करिश्माई नेतृत्व था. कांग्रेस के लिए संकट का दौर 1996 से 1998 के बीच भी रहा लेकिन तब सोनिया गांधी ने सफलतापूर्वक पार्टी को संभाला था. आज की स्थितियां थोड़ी जटिल हैं. आज सोनिया और राहुल दोनों ही शीर्ष पर आकर नेतृत्व देने के लिए अनिच्छुक दिख रहे हैं और वैकल्पिक नेतृत्व उन्होंने अब तक खड़ा नहीं किया है. इसकी वजह से जनता में भी कांग्रेस के प्रति किसी तरह का जोश नहीं पैदा हो पा रहा है. किदवई की मानें तो पार्टी के भीतर ढांचागत समस्याएं भी बहुत ज्यादा हैं. इतने लंबे राजनीतिक जीवन के बावजूद भी सोनिया गांधी और राहुल गांधी आज तक जवाबदेही का तंत्र तक खड़ा नहीं कर पाए हैं. बिहार में पार्टी की इतनी बड़ी हार हुई पर किसी नेता की कोई जवाबदेही तय नहीं हुई, यही हाल उत्तर प्रदेश का रहा. लगभग सारे बड़े राज्य उनके हाथ से निकलते गए और कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि पार्टी अपनी गलतियों से कोई सीख लेते हुए सुधारवादी कदम उठा रही हो.

उत्तर प्रदेश का उदाहरण लेते हैं. यहां 2012 के विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी के गहन प्रचार अभियान के बावजूद कांग्रेस 28 सीटों पर सिमट गई. इसके बाद राहुल गांधी ने घोषणा की थी कि वे पूरे संगठन में आमूल-चूल परिवर्तन लाएंगे, और वे खुद उत्तर प्रदेश आते रहेंगे. उन्होंने कहा था कि वे भागने वालों में से नहीं हंै. लेकिन उनका आचरण इसके बिल्कुल विपरीत दिखा. उत्तर प्रदेश के नाम पर वे इन डेढ़ सालों के दौरान यदाकदा अमेठी आते-जाते रहे. संगठन में बदलाव के नाम पर आज तक सिर्फ उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष के पद पर निर्मल खत्री की ताजपोशी कर दी और विधानसभा में नेता विपक्ष की कुर्सी प्रदीप माथुर को सौंप दी. इन दो प्रतीकात्मक बदलावों के अलावा और कुछ नहीं हुआ है. प्रदेश कांग्रेस कमेटी के पूर्व सचिव इमरान खान बताते हैं, ‘सिर्फ खत्री जी को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के अलावा और कुछ नहीं हुआ है. निर्मलजी आज अध्यक्ष बनने के डेढ़ साल बाद भी अपनी टीम का गठन नहीं कर पाए हैं. ऊपर से एक नई दुविधा और पैदा हो गई है. पूरे प्रदेश को 12 जोन में बांट कर सबके अलग-अलग जोनल कोऑर्डिनेटर बना दिए गए  हैं. यह व्यवस्था दिल्ली से थोपी गई है और दिल्ली को ही जवाबदेह है. उम्मीदवार चुनने से लेकर और तमाम फैसले का अधिकार इन जोनल कमेटियों को दे दिया गया है. अब प्रदेश कमेटी की भूमिका क्या होगी, इसे लेकर ही एक दुविधा पैदा हो गई है.’

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यूं होता तो क्या होता

यदि नंद कुमार पटेल जिंदा होते

छत्तीसगढ़ कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष नंदकुमार पटेल यदि जीवित होते तो विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत के आसार बढ़ सकते थे. माना जाता है कि पटेल होते तो पार्टी की गुटबाजी पर लगाम रहती. दूसरा, केंद्रीय राज्य मंत्री चरणदास महंत को प्रदेश कांग्रेस का सर्वेसर्वा नहीं बनाया जाता. महंत के पीसीसी अध्यक्ष बनने से पटेल के किए सारे प्रयोग फेल हो गए. पटेल सभी दिग्गज नेताओं को तो एक मंच पर लाए ही थे, खाली बैठे कार्यकर्ताओं को भी उन्होंने पार्टी के काम में लगा दिया था. लेकिन उनके आकस्मिक निधन से पीसीसी में गुटबाजी फिर चरम पर पहुंच गई. वैसे भी महंत सर्वमान्य नेता नहीं हंै, ऐसे में महज छह माह में न तो वे कोई चमत्कार कर पाए, न ही उनकी ऐसी कोई क्षमता ही है.

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दिल्ली विधानसभा के नतीजों का एक और संदेश है. कांग्रेस के पास आज अपना कोई समर्पित वोटबैंक नहीं बचा है. शहरी झुग्गियों और मध्यवर्ग पर भाजपा और आम आदमी पार्टी ने कब्जा जमा लिया है. इसी तरह की समस्याएं कांग्रेस के सामने हिंदी पट्टी के ज्यादातर राज्यों में आ रही हैं. आजादी के बाद से लेकर 90 के दशक के शुरुआती दिनों तक जो दलित, ब्राह्मण और मुसलमान एक साथ कांग्रेसी छाते के नीचे इकट्ठा हो जाता था उसने अब अपने नए-नए ठिकाने ढूंढ़ लिए हैं. सपा, बसपा, आप, भाजपा जैसे विकल्पों ने कांग्रेस को विकल्पहीन बना दिया है.

यह स्थितियां बताती हैं कि पार्टी में समस्या इकहरी नहीं बहुपरतीय है. न तो इंदिरा-राजीव जैसा नेतृत्व है, न समर्पित वोटबैंक बचा है और न संगठन है. ले देकर उनके पास एकमात्र उम्मीद है सत्ता विरोधी लहर. पर मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों ने कांग्रेस की उस उम्मीद को भी चोट पहुंचाई है.

बड़े बदलाव

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आम आदमी पार्टी के समर्थक. फोटो :विकास कुमार

दिल्ली विधानसभा चुनाव का परिणाम आने के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का कहना था, ‘ आज राजनीतिक दल सड़क पर चलते आम आदमी की आवाज को जगह नहीं दे रहे हैं. आम आदमी पार्टी ने ऐसे लोगों को सुना, उन्हें स्थान दिया. हम ऐसा नहीं कर पाए. हमें आम आदमी पार्टी से सीखने की जरूरत है.’

यह 13 माह पहले बनी हुई एक नई नवेली पार्टी की ऐतिहासिक सफलता पर भारत की सबसे पुरानी पार्टी की प्रतिक्रिया है. वह राजनीतिक नौसिखियों से बनी इस साल भर पुरानी पार्टी से न सिर्फ हार स्वीकार कर रही है बल्कि उससे सीखने की भी जरूरत बता रही है. कभी इसी पार्टी के एक नेता ने आप के नेताओं को गटर के कीड़े तक कह दिया था. आप ने भारतीय लोकतंत्र और राजनीति पर क्या असर किया है, यह प्रतिक्रिया इसका सबसे बड़ा उदाहरण है.

जानकारों से लेकर आम जनमानस भी मानता है कि आप की चुनावी सफलता भारतीय राजनीति में कई दीर्घकालिक बदलावों का संकेत है. सबसे बड़ी बात यह है कि इस पार्टी ने भारतीय लोकतंत्र को मजबूत किया है. इसने राजनीति में मतदाताओं के सामने एक नया विकल्प पेश किया है. एक ऐसा विकल्प जिसने देश की पारंपरिक राजनीति को न सिर्फ चुनौती दी है बल्कि एक नए वर्ग का निर्माण भी किया है–एक ऐसा वर्ग जो आज तक मुख्यधारा की राजनीति से कटा हुआ था, जो परंपरागत राजनीति से नाराज था, जिसने आज तक न किसी राजनीतिक दल का न झंडा-डंडा उठाया था और न ही किसी के लिए नारे लगाए थे, जो व्यवस्था परिवर्तन की इच्छा रखता था लेकिन राजनीति से दूर ही रहना चाहता था. ऐसे लोगों के बीच आम आदमी पार्टी ने राजनीति को एक सम्मानित शब्द बनाया है. इस वर्ग के लिए वह एक ऐसा मंच या विकल्प बनकर भी आई जहां वह अपनी बात कर सकता था. ऐसे लोगों को आप के रूप में प्रतिनिधित्व मिला. आप ने सबसे अधिक चुनौती उसी पारंपरिक राजनीति के लिए पेश की है जो जाति, धर्म, क्षेत्र और संप्रदाय जैसे कारकों पर आधारित है.

पार्टी नेता योगेंद्र यादव कहते हैं, ‘आप की सबसे बडी सफलता उन सीटों की नहीं है जो उसने दिल्ली चुनाव में जीती हैं बल्कि उसकी सबसे बड़ी सफलता है कि उसने राजनीति में लोगों की आस्था जगाई है. लोगों को राजनीति से जोड़ा है. उनमें भरोसा पैदा किया है कि बदलाव हो सकता है. साथ में उसकी वजह से ही नेताओं की आंखों में कुछ शर्म आ पाई है जिसकी वजह से वे पहले जहां सरकार बनाने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते थे लेकिन आज खुद की जगह दूसरे को सरकार बनाने के लिए कह रहे हैं.’  आप ने देश भर में चल रहे तमाम जनआंदोलनों के लिए भी उम्मीद जगाने का काम किया है. जनसत्ता के संपादक ओम थानवी कहते हैं, ‘आप की सफलता के बाद तमाम जनसंघर्षों से जुड़े लोगों में सोच पनपेगी कि लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष के साथ ही चुनावी राजनीति को भी आजमाया जा सकता है. ’

भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को न्याय दिलाने लिए पिछले तीन दशकों से संघर्ष कर रहे भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के अध्यक्ष अब्दुल जब्बार कहते हैं, ‘हम आप की सफलता से बेहद खुश और उत्साहित हैं. जो सरकारें जनसंघर्षों को नजरअंदाज करती है, उन्हें कुचलती हैं उनके मुंह पर यह तमाचा है. लोग सड़क पर संघर्ष करने के साथ ही अब राजनीतिक विकल्प के बारे में भी सोचेंगे. हम भी इस दिशा में सोच रहे हैं.’

वरिष्ट पत्रकार दिलीप पड़गांवकर कहते हैं, ‘किसी आंदोलन को राजनीतिक दल में परिवर्तित कर सफल बना पाना आसान काम नहीं है. लेकिन आम आदमी पार्टी ने यह करके दिखाया है. ऐसे में आप की सफलता में तमाम जनसंघर्षों के लिए ये मजबूत संदेश छिपा है कि वे भी चुनावी राजनीति में सफल हो सकते हैं.’   पार्टी से जुड़े अजीत झा बताते हैं कि दिल्ली विधानसभा का चुनाव परिणाम आने के बाद तमाम जनसंघर्षों से जुडे लोगों ने पार्टी से संपर्क किया है. वे चुनावी राजनीति में उतरने के लिए तैयार हैं. इनमें से बड़ी तादाद उन लोगों की भी है जो पहले आंदोलन के राजनीतिक होने के विरोध में थे.

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यूं होता तो क्या होता

अगर केजरीवाल शीला के खिलाफ न लड़ते तो

जानकारों की मानें तो केजरीवाल के लिए दिल्ली की किसी अन्य सीट पर चुनाव जीतना ज्यादा आसान था लेकिन शीला दीक्षित के खिलाफ उतर कर उन्होंने अपने इरादों की ऊंचाई का एक और उदाहरण पेश किया. आम तौर पर प्रमुख विपक्षी नेता आमने-सामने आने से हमेशा परहेज ही करते रहे हैं. इस तरह देखा जाए तो केजरीवाल ने ऐसा करके गजब का राजनीतिक साहस दिखाया जिसे जनता ने हाथों-हाथ लिया. केजरीवाल के इस कदम से भाजपा को भी नए सिरे से अपनी रणनीति बनानी पड़ी और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष विजेंद्ग गुप्ता को मुकाबले में लाना पड़ा. इससे पहले शायद ही ऐसा हुआ होगा कि  भाजपा और कांग्रेस ने अपने दिग्गजों को इस तरह आमने सामने किया हो. केजरीवाल के इस कदम ने लोक सभा चुनावों को लेकर ‘आप’ के प्रति लोगों के सकारात्मक सहयोग की उम्मीदें बढ़ा दी हैं.

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आप को दिल्ली में मिली सफलता का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि पार्टी ने विविध मतदाताओं के बीच अपनी पैठ बनाई है. एक तरफ पार्टी ग्रेटर कैलाश जैसे पॉश इलाके में विजयी हुई है तो दूसरी तरफ झुग्गी और पिछड़े इलाकों में भी उसे सफलता हासिल हुई है. अगर युवा पार्टी से बड़ी संख्या में जुड़े हुए हैं तो दूसरी तरफ वरिष्ठ नागरिकों की एक भारी तादाद भी उससे जुड़ी है. एक तरफ जहां पार्टी ने सोशल मीडिया का क्रांतिकारी प्रयोग करके राजनीति में सोशल मीडिया के महत्व को स्थापित किया है और उसकी देखादेखी बाकी दल भी सोशल मीडिया पर अपनी पहुंच बढ़ाने के लिए लगातार जोर लगा रहे हैं तो वहीं पार्टी झुग्गी झोपड़ियों में भी अपना एक मजबूत नेटवर्क स्थापित कर चुकी है. दिल्ली के परिप्रक्ष्य में अगर हम देखें तो पाएंगे कि पार्टी ने समाज के हर वर्ग को खुद से जोड़ने की कोशिश की है.

आप ने जो चुनावी आगाज किया है वह ऐतिहासिक है.  1980 के दशक में आंध्र प्रदेश में उभरी टीडीपी को छोड़ दें तो देश ने शायद ही कोई ऐसी सियासी शुरुआत देखी है. जानकार मानते हैं कि आप ने खुद को विश्वसनीय विकल्प के रूप में उस जनता के सामने पेश किया जो भ्रष्टाचार, भ्रष्ट नेता-राजनीति और अत्यधिक महंगाई से तंग आ चुकी थी.

यह आप के लोकतंत्र और चुनावी राजनीति का प्रभाव ही कहा जाएगा कि उसकी वजह से दूसरी पार्टियों पर आचरण की शुचिता का दबाव बढ़ा. भाजपा जैसी पार्टी को चुनाव के ऐन पहले अपना मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बदलना पड़ा, 70 अलग-अलग विधानसभाओं के लिए अलग-अलग घोषणापत्र तैयार करने पड़े. देश में आम आदमी पार्टी पहली ऐसी पार्टी बनी जिसने सियासत में तकनीक के महत्व को रेखांकित किया. इंटरनेट पर उसके प्रभावी अभियान का नतीजा है कि दूसरे भी अब सोशल मीडिया को गंभीरता से ले रहे हैं.

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विचित्र किंतु सत्य

निर्दलीयों तथा अन्य दलों की जमीन सिमटी

इस बार के विधान सभा चुनाव कांग्रेस भाजपा तथा आम आदमी पार्टी के अलावा निर्दलीयों एवं अन्य दलों के लिए पिछले चुनाव के मुकाबले घाटे का सौदा रहे. दिल्ली में आम आदमी पार्टी को छोड़ दिया जाए तो शेष राज्यों में कोई भी अन्य दल ठीक-ठाक प्रदर्शन नहीं कर पाया. पिछले विधान सभा चुनावों के परिणामों पर गौर करें तो इन पांच राज्यों में चुनाव जीते निर्दलीयों तथा अन्यों की संख्या 52 थी जबकि इस बार यह आंकड़ा 29 पर सिमट गया.  इन परिणामों से एक निष्कर्ष यह भी निकाला जा सकता है कि ठोस विकल्प न होने की स्थिति में मतदाता बड़े राजनीतिक दलों पर ही भरोसा जताते हैं.

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आप ने देश की राजनीति को उसका चेहरा दिखाने का काम भी किया है जो पहचान, धर्म, जाति, चापलूसी, और काले धन आदि से घिरी हुई थी. उसने राजनीति दलों और नेताओं के सामने चुनावी खर्च का एक ऐसा मॉडल स्थापित किया है जो पारदर्शी और जनता से मिले दान पर आधारित था, जिसमें एक एक रुपये का हिसाब था, जिसे कोई भी देख जान सकता था. एक सीमित चंदे से चुनाव लड़कर और जीत कर उसने दिखाया. कोई भी इससे इनकार नहीं कर सकता कि ये सारे कारक राजनीति में कुछ सकारात्मक और स्थायी बदलावों के उत्प्रेरक बनेंगे.

कई जानकार ऐसा मानते हैं कि आप का आगाज भारत की राजनीतिक पार्टियों को एक चेतावनी है जो कहती है कि अब उन्हें अपने राजनीतिक तौर तरीके और संस्कृति में बदलाव लाना होगा. उन्हें आम जनता को और अधिक खुद से जोड़ना होगा. उसकी सुननी होगी क्योंकि उस आम जनता के पास अब एक और विकल्प है. सिर्फ ईमानदारी की बातों से काम नहीं चलेगा. ईमानदार होना भी पड़ेगा. पड़गांवकर कहते हैं, ‘जिस तरह की राजनीति पार्टी और नेता पहले किया करते थे उससे काम नहीं चले वाला. उन्हें बदलना होगा. युवा मतदाताओं की भूमिका निर्णायक होती जा रही है. उनकी महात्वाकांक्षाओं पर आपको ध्यान देना होगा. परंपरागत नेताओं और पार्टियों को नई राजनीतिक भाषा सीखनी होगी.’

दिल्ली विधानसभा परिणाम आने के दो दिन बाद जंतर मंतर पर पार्टी समर्थकों को संबोधित करते हुए योगेंद्र यादव का कहना था ‘ हम खेल (राजनीति) के नियम बदलेंगे.’ आने वाला समय ही बताएगा कि नियमों में यह बदलाव दीर्घकालिक होगा या फिर वह भी आखिरकार उन्हीं नियमों के शिकंजे में फंस जाएगी.

2013 के आइने से 2014

इलस्टेशन: मनीषा यादव

क्या 2013 में आए नतीजे 2014 का ट्रेलर हो सकते हैं? एक प्रचलित धारणा है कि जनता विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में अलग-अलग मानकों पर वोट देती है. अमूमन हारने वाली पार्टियों की इस धारणा में गंभीर आस्था होती है. पर क्या वास्तव में ऐसा है?

इस सवाल का जवाब भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए महत्वपूर्ण है. अगर ऐसा है तो 2014 के चुनावों में कांग्रेस फिर भी अपने लिए कुछ उम्मीद पाल सकती है वरना भाजपा के पास लूटने को पूरा आसमान पड़ा है.

वैसे कुछ हद तक इस सवाल का जवाब हमें थोड़ा अतीत में झांकने पर मिल जाता है. 2003 में इन्हीं चार राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए थे. उसके बाद 2004 में लोकसभा चुनाव हुए. इसी तरह 2008 में भी इन चारों राज्यों ने विधानसभा चुनाव देखा और छह महीने के भीतर ये लोकसभा के चुनाव में गए थे. दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा के चुनावी नतीजों के बरक्स  अगर हम लोकसभा के नतीजों को तौलें तो एक बात साफ तौर पर उभरती है कि इन राज्यों ने विधानसभा में जिस दल को समर्थन दिया था उसी समर्थन को उन्होंने लोकसभा के चुनावों में भी बनाए रखा. 2003 और 2008 में हुए दिल्ली विधानसभा के चुनावों में जनता ने कांग्रेस को बहुमत दिया था. और इनके ठीक छह महीने बाद हुए लोकसभा के चुनावों में कांग्रेस को पांच और सात सीटें मिली थी. राजस्थान में 2008 में कांग्रेस के अशोक गहलोत ने सरकार बनाई तो अगले साल लोकसभा चुनाव में यहां की 25 में से 20 सीटें पार्टी को मिलीं. 2003 में राजस्थान ने वसुंधरा राजे को बहुमत दिया था तो लोकसभा चुनाव में यहां से भाजपा को 21 सीटें मिली थीं. यही चलन मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का भी है.  तो इस दलील पर यकीन करने की कोई खास वजह नहीं बनती कि जनता लोकसभा और विधानसभाओं में अलग-अलग मानकों पर वोट करती है. बल्कि अतीत का यह चलन देखें तो मौजूदा चार राज्यों में मिली बड़ी हार को देखते हुए लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस की दुर्गति होनी तय है.

इस दलील में इसलिए भी खास दम नहीं क्योंकि हाल के सालों में मुद्दों का भी राष्ट्रीयकरण हुआ है इसलिए जनता को दो अलग मानकों पर वोट करने की कोई वजह नहीं बची है. दशक-डेढ़ दशक पहले तक बिजली-सड़क-पानी जैसी बुनियादी समस्याएं चुनावों में छाई रहती थीं. पर आज या तो ये मुद्दे घिस चुके हैं या कुछ हद तक हल हो चुके हैं या फिर कुछ ऐसे मुद्दे पैदा हो गए हैं जो इन सब पर भारी पड़ रहे हैं. आज की तारीख में महंगाई और भ्रष्टाचार दो मुख्य मुद्दे हैं. ये दोनों ही मुद्दे राष्ट्रव्यापी हैं. द्रास-बटालिक से लेकर विवेकानंद रॉक तक जनता इन दोनों मुद्दों से एकसमान पीड़ित है.

जानकारों की मानें तो लोकसभा चुनावों के मद्देनजर इन नतीजों का भाजपा और कांग्रेस पर अलग-अलग असर होना है. कांग्रेस के लिए ये नतीजे चला-चली की बेला का इशारा कर रहे हैं. बुरे और आखिरी समय में अच्छे और शुरुआती दिनों के साथी उसका साथ छोड़ने की हड़बड़ी में आ सकते हैं. पहले शरद पवार और फिर करुणानिधि का रुख इसकी झलक देता है. शरद पवार ने कांग्रेस नेतृत्व और राहुल गांधी पर अब तक का सबसे तीखा हमला बोला है तो करुणानिधि ने लोकसभा चुनावों में कांग्रेस से गठबंधन न बनाने का ऐलान कर दिया है. दरअसल बाकी घटक दलों को लगने लगा है कि कांग्रेस डूबता हुआ जहाज है. यूपीए के साथियों के जाने की सूरत में कांग्रेस अकेली रह जाएगी.

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ये होता तो क्या होता

अगर नोटा नहीं होता तो

राइट टू रिजेक्ट के अधिकार को कानूनी मान्यता मिलने के बाद इन चुनावों में पहली बार मतदाताओं ने नोटा का बटन दबाया था. छत्तीसगढ़ में तो नोटा का प्रदर्शन यह रहा कि प्रदेश की कुल 90 में से 35 सीटों पर भाजपा, कांग्रेस और बसपा के बाद सबसे अधिक वोट नोटा को ही पड़े. इनमें से चार सीटें ऐसी थी जहां हार-जीत के अंतर से अधिक वोट नोटा के पक्ष में गए. इन चारों सीटों पर कांग्रेस की हार हुई. ऐसे में कहा जा सकता है कि अगर नोटा का विकल्प नहीं होता तो यहां कांग्रेस पार्टी सत्ता के और करीब पहुंच सकती थी. राजस्थान में कुल 11 सीटों में नोटा को पड़े वोट हार-जीत के अंतर से कहीं अधिक रहे. दिल्ली की आरके पुरम की सीट भी नोटा के न होने की स्थिति में आम आदमी पार्टी के हिस्से जा सकती थी.

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यूपीए के एक दूरस्थ सहयोगी हैं मुलायम सिंह यादव. दूरस्थ इसलिए क्योंकि वे सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे हैं. वे सरकार को सीधे तो निशाने पर नहीं ले रहे हैं लेकिन कांग्रेस को नीचा दिखाने के लिए उन्होंने एक दूसरा रास्ता अख्तियार किया है.  उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के दिग्गज नेता प्रमोद तिवारी को उन्होंने कांग्रेस से अलग कर राज्यसभा भेज दिया है. तिवारी नौ बार से लगातार विधानसभा पहुंचते रहे थे और कांग्रेस का सबसे विश्वस्त चेहरा थे. यह चोट बहुत भारी है क्योंकि उत्तर प्रदेश गांधी परिवार का गृहराज्य है. इस घटना से अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले समय में कांग्रेस पार्टी के भीतर उछाड़-पछाड़ की घटनाएं तेज हो सकती हैं.

कांग्रेस पार्टी के साथ मौजूद सरकार के भीतर यह चिंता पहले से ही घर कर गई थी कि यदि चार राज्यों में से एक भी उनके हाथ नहीं लगता है तो इसका असर लोकसभा चुनावों के साथ-साथ मौजूदा संसद सत्र पर भी पड़ेगा. वह दुस्वप्न सच साबित हुआ है. विपक्ष ने अपना रुख हमलावर कर दिया है. इसका दुष्प्रभाव इस सत्र में पास होने वाले उन तमाम महत्वपूर्ण बिलों पर पड़ेगा जिन्हें पास करवा कर कांग्रेस अपनी लुटी-पिटी इज्जत बचाने की कोशिश कर सकती थी. इनमें सबसे ऊपर तो लोकपाल बिल ही है जिसे अब सरकार अपनी प्राथमिकता में बता रही है. लेकिन सत्र के एजेंडे में यह अभी भी शामिल नहीं है. इसके अलावा सरकार की सूची में दंगा निरोधक बिल, व्हिसिल ब्लोअर बिल के अलावा अति महत्वपूर्ण तेलंगाना बिल भी हंै.

कांग्रेस के विपरीत भाजपा पर इन नतीजों का बड़ा खुशनुमा असर है. पार्टी और कैडर में ऐन लोकसभा चुनावों से पहले जरूरी जोश भर गया है. उसे ‘मोदी दांव’ 2014 तक आगे बढ़ाने की ऊर्जा मिल गई है. साथ ही इन नतीजों ने पुराने छिटके हुए साथियों को साथ लाने का एक लालच भी पैदा कर दिया है. इनमें से कुछ चुनाव से पहले आ सकते हैं और कुछ बाद में. नतीजों ने यह तो बता ही दिया है कि देश में कांग्रेस के खिलाफ भावना प्रबल है. लेकिन यह आंधी भाजपा समर्थक नहीं है. इसलिए अगर हम इन नतीजों को भाजपा और लोकसभा के संदर्भ में देखना चाहते हैं तो इन्हें दो हिस्सों में बांटकर देखना होगा- उत्तर भारत और दक्षिण भारत. चार राज्यों ने इस बात को स्थापित कर दिया है कि उत्तर भारत में भाजपा की स्थिति मजबूत हुई है. फिलहाल कांग्रेस उत्तर में हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और झारखंड जैसे छोटे राज्यों में सीमित है. लेकिन यहां भी कांग्रेस के पक्ष में जनमत बहुत कमजोर है और लोकसभा चुनाव में मौजूदा चार राज्यों के नतीजों का असर पड़ना तय है. काफी हद तक यह असर भाजपा के पक्ष में हो सकता है क्योंकि इन राज्यों में भाजपा और कांग्रेस ही दो मुख्य पार्टियां हैं. बिहार में भाजपा मुख्य विपक्षी पार्टी है. उत्तर में भाजपा की सबसे बड़ी चिंता उत्तर प्रदेश है जहां 80 लोकसभा सीटों में से उसके पास सिर्फ नौ सीटें हैं. राजनीतिक पंडितों की मानंे तो भाजपा इस आंकड़े को सुधारेगी. उत्तर प्रदेश के जरिए मोदी प्रभाव की भी बड़ी परीक्षा होगी.

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विचित्र किंतु सत्य

कांग्रेस की हार तो तय थी लेकिन इतनी बुरी तरह !

महंगाई पर केंद्र सरकार की लगातार हो रही किरकिरी के अलावा राज्यों के स्थानीय मुद्दों को देखते हुए कांग्रेस पार्टी की हार को लेकर पहले से ही प्रबल संभावनाएं बन रही थीं. लेकिन दिल्ली और राजस्थान में पार्टी की इस कदर दुर्गति का शायद ही किसी को अंदाजा रहा होगा. दिल्ली में 41 विधायकों वाली कांग्रेस आठ पर सिमट गई. राजस्थान में भी भाजपा की 162 के मुकाबले वह 21 सीटों पर सिमट कर रह गई. इस तरह उसके खाते में सबसे बुरी हार का अनचाहा रिकॉर्ड दर्ज हो गया. पिछली बार कांग्रेस के राजस्थान में 96 विधायक थे. यहां परांपरागत वोट माने जाने वाले मुस्लिम मतदाता ने भी उसे झटका दिया. उसके सभी 16 मुस्लिम उम्मीदवार बुरी तरह हार गए.

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दूसरी तरफ दक्षिण भारत में कर्नाटक को छोड़कर भाजपा कहीं भी मजबूत नहीं रही है. लेकिन मौजूदा समीकरणों में उसके समर्थन के लिए स्थितियां सबसे माकूल हैं. भाजपा को इस जीत से दो बड़े फायदे हुए हैं. पहला यह कि सूत्रों के मुताबिक अब तक एनडीए में एक पार्टी के तौर पर घुसपैठ की फिराक में लगे कर्नाटक के घाघ नेता बीएस येदियुरप्पा अपनी पार्टी कर्नाटक जनता पक्ष के भाजपा में विलय के लिए तैयार हंै. जानकार मानते हैं कि इससे कर्नाटक की 29 में से 10-15 तक सीटें आने भाजपा को मिल सकती हैं. उसके लिए यह बड़ी उपलब्धि होगी क्योंकि हाल ही के विधानसभा चुनाव में वह अपना सब कुछ गंवा चुकी है. मोदी से नजदीकियों के बावजूद अब तक भाजपा से जुड़ने को लेकर संशय में रही तमिलनाडु की मुख्यमंत्री और अन्नाद्रमुक नेता जयललिता का संशय भी काफी हद तक इन नतीजों से दूर हो सकता है. आंध्र प्रदेश पिछले चुनाव तक कांग्रेस को सबसे ज्यादा सुकून देता था. लेकिन तेलंगाना के प्रति कांग्रेस की अधकचरी नीति ने उस सुकून को खत्म कर दिया है. यहां अब कांग्रेस, टीडीपी के अलावा, वाईएसआर कांग्रेस, टीआरएस और भाजपा भी दावेदार हैं. भाजपा यहां खुद भले ही कमजोर हो लेकिन उसे लोकसभा में एक दो सहचर मिल जाएंगे.

इनके अलावा कुछ ऐसे भी राज्य हैं जहां कांग्रेस और भाजपा के ऊपर क्षेत्रीय क्षत्रपों की भूमिका ज्यादा बड़ी है. इनमें उड़ीसा, बंगाल और जम्मू कश्मीर आदि आते हैं. देश में कांग्रेस के खिलाफ आंधी मानकर चलें तो कहा जा सकता है कि आगामी लोकसभा चुनावों में इलाकाई लंबरदारों के सामने मुख्य चनौती भाजपा होगी न कि कांग्रेस.

मौजूदा विधानसभा के नतीजों से लेकर आगमी लोकसभा के चुनावों को अगर 100 मीटर की दौड़ के रूप में देखें तो हम कह सकते हैं कि भाजपा ने 20 मीटर की दूरी तय कर ली है जबकि कांग्रेस अभी स्टार्टिंग प्वाइंट पर ही खड़ी है. छह महीनों में कांग्रेस इस अंतराल को कैसे पाटेगी, पाट भी पाएगी या नहीं और भाजपा इस जोश को मई 2014 तक बिना कोई गलती किए बनाए रख सकेगी या नहीं, ये सब ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब कुछ ही महीनों में इतिहास का हिस्सा बन जाएंगे.

पूर्वानुमानों के ‘चाणक्य’

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4 दिसंबर, 2013. दिल्ली विधानसभा के मतदान का दिन. मतदान निपटते ही एग्जिट पोल जारी करने वाली एजेंसियों ने अपने-अपने आंकड़े प्रस्तुत किए. इन आंकड़ों में मुख्यतः आम आदमी पार्टी को 6 से 16 सीटें तक दी गईं. अगले तीन दिन तक राजनीतिक विश्लेषण इन्हीं आंकड़ों के आधार पर होता रहा. लेकिन आठ दिसंबर को जब अंतिम परिणाम घोषित हुए तो आम आदमी पार्टी के खास प्रदर्शन ने सभी को चौंका दिया. पार्टी ने कुल 28 सीटें हासिल कीं और पूरे भारत में यह चर्चा का केंद्र बन गई.

इन नतीजों ने आम आदमी पार्टी (आप) के साथ ही ‘टुडेज चाणक्य’ की तरफ भी लोगों का ध्यान खींचा. इसकी वजह यह थी कि इन चुनावों में यही एकमात्र ऐसी सर्वे एजेंसी थी जिसने अपने एग्जिट पोल में आप को 31 सीटें दी थीं. नतीजों से पहले सभी राजनीतिक विश्लेषक इन आंकड़ों को भी उतने ही हल्के में ले रहे थे जितना कि खुद आम आदमी पार्टी को. लेकिन नतीजों के बाद  आप के साथ-साथ ‘टुडेज चाणक्य’ भी विजेता की तरह उभरी. आप की कामयाबी ही नहीं बल्कि दिल्ली में कांग्रेस की दुर्गति को भी सबसे पहले इसी एजेंसी ने भांपा था. जहां अन्य एजेंसियों ने कांग्रेस को कम से कम 16 सीटें हासिल करते हुए दिखाया था वहीं ‘टुडेज चाणक्य’ ने कांग्रेस को मात्र 10 सीटें दी थीं. दिल्ली के साथ ही मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों के लिए भी इस एजेंसी के एग्जिट पोल ही सबसे सटीक साबित हुए हैं (सारणी देखें).

‘टुडेज चाणक्य’ मूल रूप से ‘आरएनबी रिसर्च’ नाम की कंपनी का एक हिस्सा है. पिछले 15 साल से यह एजेंसी राजनीतिक रुझान जारी कर रही है. ‘टुडेज चाणक्य’ के प्रवक्ता बताते हैं कि हालिया विधान सभा चुनाव समेत एजेंसी ने अब तक कुल 247 चुनावों में एग्जिट पोल जारी किए हैं. इनमें से 243 बार रुझान इस बार की तरह ही सही साबित हुए हैं. ‘टुडेज चाणक्य’ का पिछला रिकॉर्ड भी इसके सटीक रुझानों के बारे में कई संकेत देता है. इसी साल हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव में सिर्फ इसी एजेंसी ने  कांग्रेस को पूर्ण बहुमत हासिल करते हुए दिखाया था. साथ ही 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और 2009 के लोकसभा चुनावों में भी इसके रुझान बाकियों के मुकाबले सटीक साबित हुए हैं. एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में होने वाले चुनावों में भी ‘टुडेज चाणक्य’ के रुझान नतीजों के ज्यादा करीब रहे हैं. ब्रिटेन में 2010 में हुए चुनावों में एजेंसी के एग्जिट पोल वहां की सर्वे एजेंसियों के मुकाबले ज्यादा सही साबित हुए थे.

चुनावी नतीजों के पूर्वानुमानों के बारे में अपनी इन सटीक भविष्यवाणियों पर  ‘टुडेज चाणक्य’ की टीम के सदस्य बताते हैं, ‘हमारे पास हर क्षेत्र का अलग डेटा होता है. इसमें वोटर की वह जानकारी होती है जो जनगणना से या कहीं और से प्राप्त नहीं हो सकती. हम कई सामाजिक-आर्थिक आधारों पर यह डेटा तैयार करते हैं.’ एजेंसी के फील्ड वर्कर जमीनी स्तर पर हो रही राजनीतिक गतिविधियों पर भी लगातार नजर रखते हैं. पहली बार चुनावों में उतरी आम आदमी पार्टी के बारे में एजेंसी के लोग बताते हैं, ‘हम लगभग पिछले छह महीने से  पार्टी की गतिविधियों पर नजर बनाए हुए थे. आप की मतदाताओें पर मजबूत पकड़ बन रही थी.  20 से 24 नवंबर को हमने ओपिनियन पोल किए थे लेकिन परिणाम हमने जारी नहीं किए. वह हमारे आतंरिक प्रयोग के लिए ही थे. तब भी आप काफी मजबूत स्थिति में थी.’

जनता की राय समझने का ‘टुडेज चाणक्य’ का तरीका भी काफी विस्तृत है. एजेंसी के एक सदस्य बताते हैं कि इसके लिए मुख्य रूप से तीन तरीके अपनाए जाते हैं. पहला है पेन ऐंड पेपर. इसमें लोगों को एक फॉर्म भरने को दिया जाता है. इस फॉर्म में लोगों द्वारा दिए गए जवाबों के आधार पर उनका मत समझा जाता है. दूसरा तरीका है फेस टु फेस. इसमें आम लोगों से सीधे बातचीत के आधार पर उनका मत जानने की कोशिश की जाती है. और तीसरा तरीका है मिस्ट्री शॉपिंग. इसमें सर्वे करने वाले लोग जनता को यह एहसास नहीं होने देते कि वे उनका मत जानना चाहते हैं. किसी दुकान पर ग्राहक बन कर या किसी मोहल्ले में स्वयंसेवी संस्था का प्रतिनिधि बनकर ‘टुडेज चाणक्य’ के फील्ड वर्कर जनता से बात करते हैं और अप्रत्यक्ष सवालों के जरिए उनकी राय समझने की कोशिश करते हैं.

हालिया चुनावों में ‘टुडेज चाणक्य’ ने दिल्ली में 4,595, मध्य प्रदेश में 13,890, छत्तीसगढ़ में 6,520 और राजस्थान में कुल 11,280 लोगों को अपने रुझानों का आधार बनाया था. लाखों मतदाताओं की तुलना में यह संख्या रुझान जारी करने के लिए काफी कम लगती है. लेकिन ‘टुडेज चाणक्य’ के सीईओ वीके बजाज इसे स्पष्ट करते हैं, ‘भारत में लोग संख्या पर बहुत जोर देते हैं. रिसर्च में गुणवत्ता ज्यादा मायने रखती है. हम जिन आधारों पर अपना डेटा तैयार करते हैं उनमें संख्या से ज्यादा गुणवत्ता पर ही ध्यान दिया जाता है.’

कारण चाहे जो भी हों लेकिन आंकड़े तो यही बताते हैं कि आज के इस चाणक्य की हर नीति सही साबित हो रही है.

आप की छाप

फोटो:विकास कुमार

अन्ना हजारे की अगुवाई वाले जनलोकपाल आंदोलन को बगैर किसी तार्किक नतीजे पर पहुंचाए जब अरविंद केजरीवाल ने सीधे तौर पर राजनीतिक दल बनाकर व्यवस्था में शामिल होकर बदलाव की लड़ाई लड़ने की घोषणा की तो बहुत लोगों ने उनकी आलोचना की. कहा गया कि ऐसे प्रयोग पहले भी हुए हैं और चुनावी राजनीति में केजरीवाल टिक नहीं पाएंगे. यह भी कहा गया कि इससे जनलोकपाल की लड़ाई पूरी नहीं होगी. अन्ना हजारे भी सीधे सियासी दल बनाकर राजनीति में उतरने के खिलाफ थे. फिर भी केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाकर सियासी मैदान में ताल ठोकने का फैसला किया. दिल्ली के चुनावी नतीजों ने बता दिया है कि केजरीवाल का फैसला सही था. भले ही उनकी पार्टी को दिल्ली में सरकार बनाने के लिहाज से कुछ कम सीटें मिली हों लेकिन इतने कम समय में ही अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की राजनीति में सालों से स्थापित कई नियमों को बदल दिया है और सियासत की एक नई लीक गढ़ी है. केजरीवाल का असर चुनाव से पहले भी दिख रहा था और चुनाव के बाद भी दिख रहा है. मौजूदा सियासी परिस्थिति में इन बदलावों को एक-एक कर समझना जरूरी है.

साफ-सुथरी छवि
पिछले दो दशक में सियासत का चरित्र कुछ इस कदर बदला है कि राजनीति का दूसरा नाम गुंडागर्दी हो चला था. लोग यह मानने लगे थे कि ईमानदार और सज्जन आदमी के लिए तो राजनीति है ही नहीं. कहा जाने लगा था कि राजनीति में सफल होना है तो कोई संगीन अपराध करके जेल जाना एक अनिवार्यता है. जो लोग चुनकर आ रहे थे उनके बारे में हुए अध्ययन भी यह बता रहे थे कि जीतने वालों में आपराधिक रिकाॅर्ड वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है. लेकिन अरविंद केजरीवाल ने खुद अपना उदाहरण पेश करते हुए यह दिखाया कि ईमानदार और मेहनती लोग भी राजनीति कर सकते हैं. उन्होंने बेहद आक्रामक ढंग से शीला दीक्षित सरकार के भ्रष्टाचार को उजागर किया और भाजपा को मजबूर किया कि वह अपनी ओर से मुख्यमंत्री पद का एक ऐसा उम्मीदवार दे जिसकी छवि साफ-सुथरी हो. यह केजरीवाल का ही असर था कि भाजपा ने अंतिम समय पर विजय गोयल को पीछे करके हर्षवर्धन को आगे किया और उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया.

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यूं होता तो क्या होता

यदि ‘आप’ दिल्ली के  बजाय दूसरे राज्य से लड़ती

आप के नेता और चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव कहते हैं कि देश भर में राजनीतिक विकल्प का संदेश पहुंचाने के लिए दिल्ली सबसे मुफीद जमीन थी. साफ है कि आप ने खुद अपनी सफलता को लेकर दूसरे राज्यों को दिल्ली के मुकाबले कम आंका था. इसकी दो प्रमुख वजहें हो सकती हैं. पहली यह कि आप का संगठन दूसरे राज्यों में दिल्ली के मुकाबले उतना मजबूत नहीं है और दूसरा कारक यह कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में इस बार स्थानीय सरकारों की उपलब्धियों और नाकामियों के साथ ही मोदी फैक्टर को लेकर भी जबर्दस्त हवाबाजी मचाई जा रही थी. इस सबको जानते हुए अरविंद केजरीवाल की टीम ने पायलट प्रोजेक्ट के तहत दिल्ली को चुना जो कि उनके पक्ष में गया. दूसरे राज्य में ‘आप’ को शायद ही इतना समर्थन हासिल होता.

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अलग-अलग घोषणापत्र
पहली बार ऐसा हुआ कि हर विधानसभा क्षेत्र के लिए अलग-अलग घोषणापत्र जारी किए गए हों. अब तक होता यह था कि एक घोषणापत्र जारी हो गया और उसी पर चुनाव हो जाता था. सच्चाई तो यह है कि घोषणापत्र एक औपचारिकता भर रह गया था. जबकि यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि हर क्षेत्र की अपनी समस्याएं हैं और इसलिए उनके समाधान का रास्ता भी अलग-अलग होगा. इस बात को अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने समझा और उसने हर विधानसभा क्षेत्र के लिए अलग-अलग घोषणापत्र जारी किया. इसके बाद भाजपा भी हर क्षेत्र के लिए अलग-अलग घोषणापत्र जारी करने के लिए बाध्य हुई.

लोकप्रिय घोषणाएं
आम आदमी पार्टी ने अपने घोषणापत्र में लोकप्रिय घोषणाओं की झड़ी लगा दी. उसने यह कहा कि अगर उसकी सरकार बनी तो बिजली की कीमतों में 50 फीसदी की कटौती होगी. एक निश्चित सीमा तक पानी भी मुफ्त में देने की बात आम आदमी पार्टी के घोषणापत्र में की गई. इन घोषणाओं की इस आधार पर आलोचना तो हुई कि सरकार की माली हालत ऐसी लोकप्रिय घोषणाओं के क्रियान्वयन में सबसे बड़ा रोड़ा है, लेकिन सच्चाई यह है कि भाजपा और कांग्रेस ने भी दिल्ली के चुनावों में ऐसी घोषणाओं की झड़ी लगा दी. आम आदमी पार्टी की तर्ज पर भाजपा ने भी यह घोषणा कर दी कि अगर उसकी सरकार बनेगी तो बिजली की कीमतों में वह 30 फीसदी की कमी करेगी. वहीं सत्ता पर काबिज कांग्रेस भी केजरीवाल की तरह यह बात करने लगी कि अगर वह फिर से सत्ता में आई तो पानी पर मिलने वाली रियायत बढ़ाई जाएगी.

जनता की भागीदारी
अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों के चयन से लेकर घोषणापत्र बनाने और चंदा वसूलने तक में जिस तरह से आम लोगों को शामिल किया उससे भाजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों पर भी यह दबाव बढ़ा कि वे भी अपनी गतिविधियों में जनता की भागीदारी बढ़ाएं. हालांकि, कई लोगों का यह कहना है कि उम्मीदवारों के चयन में जिस लोकतांत्रिकता का दावा केजरीवाल करते हैं, सच्चाई उससे काफी अलग है. लेकिन इसके बावजूद आम आदमी पार्टी की विभिन्न गतिविधियों में आम लोगों की भागीदारी दिख रही थी. जबकि दूसरी पार्टियों के साथ ऐसा नहीं था. वहीं घोषणापत्र तैयार करने की प्रक्रिया में आम आदमी पार्टी ने आम लोगों को शामिल किया. इसका असर इस रूप में हुआ कि कांग्रेस 2014 लोकसभा चुनाव के लिए घोषणापत्र तैयार करने की प्रक्रिया में आम लोगों को शामिल करने के लिए अभी से बाकायदा एक वेबसाइट चला रही है. उम्मीद की जा रही है कि केजरीवाल की सफलता के बाद अब अन्य पार्टियां भी अपनी गतिविधियों में आम लोगों को शामिल करने की कोशिश करेंगी.

पहले आप
अगर कहीं चुनाव हो और कोई दल बहुमत से दो-चार सीट पीछे हो तो आम तौर पर जोड़-तोड़ की राजनीति शुरू हो जाती थी ताकि किसी भी तरह से सरकार बन सके. यह इतना आम हो चुका था कि लोगों को भी इस पर कोई आश्चर्य होना बंद हो गया था. लेकिन इस बार जब दिल्ली के चुनावी नतीजे आए और एक निर्दलीय के समर्थन के बाद भाजपा को सरकार बनाने के लिए जब सिर्फ तीन विधायकों का बंदोबस्त करना था तब भी पार्टी ने साफ तौर पर यह कह दिया कि उसे स्पष्ट जनादेश नहीं है इसलिए वह विपक्ष में बैठेगी. भाजपा ने यह भी कहा कि आम आदमी पार्टी को सरकार बनानी चाहिए. वहीं आम आदमी पार्टी कह रही है कि भाजपा सरकार बनाए.

भाजपा के सूत्रों का कहना है कि संसदीय दल की बैठक में खुद नरेंद्र मोदी ने आप की लोकप्रियता को देखते हुए यह कहा कि जोड़-तोड़ करके सरकार बनाने की कोशिश दिल्ली में नहीं होनी चाहिए. भाजपा में यह राय बनी कि अगर जोड़-तोड़ से सरकार बनाई तो इसका खामियाजा पार्टी को लोकसभा चुनावों में भुगतना पड़ेगा.

सिकंदर कौन?

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नरेंद्र मोदी: लहर में कितना असर?

पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में से जिन चार राज्यों के चुनावी नतीजों को अगले लोकसभा चुनाव के लिहाज से बेहद अहम माना जा रहा था उनमें से तीन में भारतीय जनता पार्टी की स्पष्ट जीत और एक में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभार को पार्टी ने प्रधानमंत्री पद के अपने उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के बढ़ते असर का नतीजा बताया.  Read more>>

 

shivraj_shingशिवराज सिंह चौहान: बड़े मायनों वाली जीत

मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की अभूतपूर्व जीत के एक दिन बाद यानी 10 दिसंबर को प्रदेश के सभी मुख्य अखबारों के पहले पन्ने पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का एक बड़ा विज्ञापन छपा. इसमें शिवराज की आंखों में जीत की चमक तो थी ही, चेहरे पर आत्मविश्वास की हल्की मुसकान भी थी.  Read More>>

 

60अरविंद केजरीवाल: नवाचार का नायक

अरविंद केजरीवाल के यह घोषणा करते ही कि जहां से शीला दीक्षित चुनाव लड़ेंगी वहीं से वे भी लड़ेंगे, लोग कहने लगे कि वे राजनीतिक आत्महत्या पर आमादा हैं. मीडिया और आम लोगों के साथ ही आम आदमी पार्टी से जुड़े लोग भी दबी जुबान में उनके इस निर्णय को किंतु-परंतु की नजर से ही देख रहे थे. Read More>>

 

2013 के आइने से 2014

क्या 2013 में आए नतीजे 2014 का ट्रेलर हो सकते हैं? एक प्रचलित धारणा है कि जनता विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में अलग-अलग मानकों पर वोट देती है. अमूमन हारने वाली पार्टियों की इस धारणा में गंभीर आस्था होती है. पर क्या वास्तव में ऐसा है? Read Moro>>

 

Sumit-dayalहार के पार

किसी ने सोचा नहीं था कि 15 साल तक दिल्ली पर राज करने वाली शीला दीक्षित का सियासी सितारा इस तरह डूबेगा. लोगों को यह तो जरूर लगता था कि कांग्रेस के प्रति लोगों में गुस्सा है, लेकिन साथ ही यह बात भी थी कि  दीक्षित ने दिल्ली में काफी काम किए हैं और हो सकता है कि एक बार फिर से दिल्ली की सत्ता में उनकी वापसी हो जाए. Read More>>

 

After-election-first-raillyआगे की राह

आगे क्या? दिल्ली विधानसभा चुनाव में ऐतिहासिक प्रदर्शन के बाद आम आदमी पार्टी (आप) को लेकर सभी के मन में यही सवाल है. पार्टी कहती है कि वह लोकसभा और देश के दूसरे राज्यों की विधानसभा के लिए चुनावी किस्मत आजमाने को तैयार है. वह तमाम मंचों से ईमानदार लोगों को एक मंच पर लाने यानी उन्हें खुद से जोड़ने की बात कह रही है. Read More>>

 

rahulसुनो प्रियंका बढ़ो आगे

प्रियंका गांधी आज कांग्रेस की जरूरत हैं. और मजबूरी भी. जरूरत वे कई सालों से थीं, खासकर उन सालों में जब राहुल गांधी हर फ्रंट पर असफलता की तहरीर लिख रहे थे. लेकिन राहुल के प्रति उनकी मां की आसक्ति, कांग्रेसियों की अंधभक्ति और पार्टी द्वारा एक कमजोर नेता को क्षितिज पर टांगने की लगातार आत्ममुग्ध कोशिशों के बीच अब कहीं कोई जंग लगी कील भी नहीं बची जिसपर टंगकर राजकुंवर गांधी चकमक-चकमक चमक सकें. Read More>>

43आप की छाप

अन्ना हजारे की अगुवाई वाले जनलोकपाल आंदोलन को बगैर किसी तार्किक नतीजे पर पहुंचाए जब अरविंद केजरीवाल ने सीधे तौर पर राजनीतिक दल बनाकर व्यवस्था में शामिल होकर बदलाव की लड़ाई लड़ने की घोषणा की तो बहुत लोगों ने उनकी आलोचना की. कहा गया कि ऐसे प्रयोग पहले भी हुए हैं और चुनावी राजनीति में केजरीवाल टिक नहीं पाएंगे.  Read More>>

 

21बड़े बदलाव

दिल्ली विधानसभा चुनाव का परिणाम आने के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का कहना था, ‘ आज राजनीतिक दल सड़क पर चलते आम आदमी की आवाज को जगह नहीं दे रहे हैं. आम आदमी पार्टी ने ऐसे लोगों को सुना, उन्हें स्थान दिया. हम ऐसा नहीं कर पाए. हमें आम आदमी पार्टी से सीखने की जरूरत है.’  Read More>>

 

IMG_7954हिंदी पट्टी से पत्ता साफ

आंकड़े अक्सर बेहद बोझिल और उबाऊ होते हैं. लेकिन कभी-कभी उनसे कुछ दिलचस्प तस्वीरें भी उभर जाती हैं. एक आंकड़ा यह है कि हालिया चार विधानसभा के चुनावों में कुल 589 विधानसभा सीटें दांव पर लगी हुई थी. कांग्रेस को इनमें से महज 126 सीटें हाथ लगी हैं. प्रतिशत में यह 22 के आस पास बैठता है. Read More>>

शिवराज सिंह चौहान: बड़े मायनों वाली जीत

मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की अभूतपूर्व जीत के एक दिन बाद यानी 10 दिसंबर को प्रदेश के सभी मुख्य अखबारों के पहले पन्ने पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का एक बड़ा विज्ञापन छपा. इसमें शिवराज की आंखों में जीत की चमक तो थी ही, चेहरे पर आत्मविश्वास की हल्की मुसकान भी थी. पर उनका सिर गर्व से तनने की बजाय विनम्रता से झुका हुआ था. और उनकी इस फोटो के ऊपर बड़े अक्षरों में साफ लिखा था- ‘हम नतमस्तक हैं.’ दरअसल शिवराज और उनके योजनाकारों ने उनकी विनम्रता और सहजता की जो छवि गढ़ी है वही उनकी सबसे बड़ी ताकत बन चुकी है.

मप्र विधानसभा के नतीजों से यह जाहिर है कि शिवराज ने सूबे के चुनावी इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा है. मप्र में लगातार तीन बार मुख्यमंत्री का पद संभालने वाले वे एकमात्र राजनेता बन गए हैं. दूसरी अहम बात यह है कि मप्र चुनाव में गए सभी राज्यों में सर्वाधिक सीटों (230) वाला प्रदेश है और यहां शिवराज के नेतृत्व में भाजपा ने बीते चुनाव के मुकाबले 22 सीटों का इजाफा करते हुए कुल 165 सीटें जीती हैं.

भाजपा की इस धमाकेदार जीत का श्रेय शिवराज को ही जाता है. वजह यह है कि यहां भाजपा की हार और जीत का पूरा दारोमदार सिर्फ और सिर्फ शिवराज के कंधों पर ही था. उन्होंने अपनी लोकप्रिय योजनाओं और मिलनसारिता के दम पर अब अपना एक अलग वोट बंैक बना लिया है जिसे अपनी तरफ खींचने की कोई रणनीति कांग्रेस के पास नहीं थी.

नवंबर, 1952 में मप्र के गठन के बाद 1958, 62 और 67 के चुनाव यहां ऐसे रहे जब कांग्रेस लगातार जीती थी. लेकिन तब कांग्रेस लगभग चुनौती-विहीन थी. आज समय का पहिया ऐसा घूमा है कि 2003 से 2013 तक लगातार तीन बार भाजपा की ही सरकार बनी है और कांग्रेस अब सिर्फ 58 सीटों पर सिमटकर कोई चुनौती देती नहीं दिखती. इतिहास गवाह है कि 2003 से 2008 के बीच मप्र ने उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान के रूप में तीन-तीन भाजपाई मुख्यमंत्रियों को देखा-परखा. किंतु नवंबर, 2005 में सूबे की बागडोर संभालने के बाद शिवराज ने इस मिथक को चूर-चूर कर डाला कि मप्र में कोई भी गैर-कांग्रेसी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकती. काबिलेगौर है कि एक दशक पहले तक मप्र में सत्ता की चाबी एक से साढ़े तीन प्रतिशत मतों के मामूली बढ़त के अंतर से निकलती थी, लेकिन 2013 में यह रुझान उलट गया है. भाजपा ने पिछली बार के मुकाबले इस बार अपने मतों में साढ़े आठ प्रतिशत का इजाफा किया है. यही वजह है कि वह कांग्रेस को 107 सीटों के बड़े अंतर से हराने में कामयाब रही.

शिवराज की कामयाबी के पीछे उनकी सामाजिक सरोकार वाली उन योजनाओं का बड़ा महत्व है जिनमें जाति, धर्म का भेदभाव नहीं है. लाड़ली लक्ष्मी और तीर्थ दर्शन जैसी योजनाओं में उन्होंने सूबे के अल्पसंख्यकों को भी बराबरी का भागीदार बनाया. भोपाल, इंदौर और बुरहानपुर जैसे मुस्लिम बहुल इलाकों में भाजपा की भारी मतों से जीत बताती है कि शिवराज ने नरेंद्र मोदी के उलट मप्र के मुसलमानों में भरोसा कायम करके उनका दिल भी जीता है. चुनाव विश्लेषक विनय दीक्षित के मुताबिक, ‘मोदी के उलट शिवराज ने सहज, सरल प्रक्रिया के तहत ही प्रशासन से भी सहयोग लेनी की कोशिश की है.’ चौहान ने मुख्यमंत्री आवास पर गरीब समुदाय के विभिन्न वर्गों की जो पंचायतें लगाईं वे उनके लिए वरदान सिद्ध हुईं. इनमें उन्होंने पहली बार घरेलू कामगारों, बुनकरों और चर्मकारों जैसे थोकबंद मतदाता समूहों की समस्याओं को लेकर जो संवाद किया उससे उनका समाज में राजनीतिक प्रभाव और प्रभुत्व स्थापित हुआ.

यह भी एक विरोधाभासी सत्य ही है कि शिवराज की जितनी अच्छी छवि गढ़ी गई उतनी ही नाराजगी उनके मंत्रियों के खिलाफ जनता और कार्यकर्ताओं में देखने को मिली. लोकायुक्त में 13 मंत्रियों के खिलाफ दर्ज मामलों के चलते भी भाजपा संगठन को बार-बार सफाई देनी पड़ रही थी. यही वजह है कि चुनाव के पहले भाजपा ने जहां दो मंत्रियों को टिकट नहीं दिया वहीं इस चुनाव में दस मंत्रियों को हार का मुंह देखना पड़ा. शिवराज को इस स्थिति का भान बहुत पहले ही हो चुका था इसीलिए उन्होंने हर चुनावी सभा में अपील की, ‘हमारा एक ही उम्मीदवार है-कमल. उसे देखो और मुझे देखो.’ क्या यह कम ताज्जुब की बात है कि कार्यकर्ताओं और मतदाताओं ने ऐसा ही किया. वरिष्ठ पत्रकार विजयदत्त श्रीधर के मुताबिक, ‘शिवराज पूरे कार्यकाल में सिंहासन पर बैठने के बजाय प्रदेश की परिक्रमा करते रहे. प्रदेश के किसी मुख्यमंत्री ने इससे पहले कभी इतनी सघनता से सूबे का भूगोल नहीं नापा.’ पांच सालों तक उनके सतत जनसंपर्क का नतीजा यह हुआ कि सूबे के पचास में से 17 जिलों में कांग्रेस का सफाया हो गया और कांग्रेस के दस प्रत्याशियों की तो जमानत ही जब्त हो गई. इसी से जुड़ा एक अहम तथ्य यह भी है कि जिन क्षेत्रों में शिवराज ने विशाल जनसैलाब को संबोधित किया वहां भाजपा भारी बहुमत से जीती. पार्टी की झोली में 26 सीटें ऐसी हैं जो उसने 30 हजार से 91 हजार से अधिक मतों के बड़े अंतर से जीती हैं.

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यूं होता तो क्या होता

यदि ज्योतिरादित्य सिंधिया को कमान पहले सौंपी जाती

विधानसभा चुनाव के महज दो महीने पूर्व ही कांग्रेस ने केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव में प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपी थी. अब कहा जा रहा है कि यदि सिंधिया और पहले आ जाते तो शायद कांग्रेस को इसका फायदा मिल सकता था. यह बात एक लिहाज से सही है क्योंकि यदि ऐसा होता तो जनता में साफ हो जाता कि कांग्रेस की तरफ से कौन मुख्यमंत्री बनेगा. लेकिन फिर यह भी है कि युवाओं में मोदी के नाम की लहर और महिलाओं में मुख्यमंत्री शिवराज की पकड़ मजबूत थी. ऊपर से प्रदेश में कांग्रेस का संगठन सालों से अप्रभावी है. ऐसे में सिर्फ सिंधिया के नाम पर अप्रत्याशित सफलता नहीं दिलाई जा सकती थी. [/box]

मप्र में विधानसभा चुनाव नतीजों का सार यह है कि शिवराज जहां पांच साल तक तैयारी करने वाले विद्यार्थी की भूमिका में रहे वहीं कांग्रेस इस मामले में चुनाव की परीक्षा से ठीक पहले जागी. वरिष्ठ पत्रकार आत्मदीप के मुताबिक, ‘शिवराज ने सरकार और संगठन के बीच ऐसा तालमेल बैठाया कि चुनाव की तारीख घोषित होने से करीब दो महीने पहले ही उन्होंने डेढ़ सौ प्रत्याशियों के नाम तय कर लिए और जनआशीर्वाद यात्रा के जरिये चुनाव अभियान की सामग्री भी कार्यकर्ताओं तक पहुंचा दी थी.’ यह भी दिलचस्प है कि चौहान ने अपनी उपलब्धियों को भाषणों में इतनी बार दोहराया कि लोगों को उनका भाषण मुंहजुबानी याद हो गया. दूसरी तरफ निचले स्तर पर प्रदेश में कांग्रेस का संगठन इतना कमजोर था कि वह मैदानी संघर्ष करते दिखी ही नहीं. कांग्रेस की करारी हार के बाद नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह का कहना था, ‘पार्टी की जिस तरीके से चुनाव में हार हुई है उसके बाद संगठन में भी बदलाव की जरूरत है.’

यह भी दिलचस्प है कि मप्र की जनता ने पहली बार भाजपा के किसी मुख्यमंत्री को ऐसा समर्थन दिया है कि चौहान ने कांग्रेस के सभी कथित क्षत्रप नेताओं के गढ़ में भी कमल खिला दिया. केंद्रीय मंत्री कमलनाथ (महाकौशल) के क्षेत्र में भाजपा ने 38 में से 25 सीटें जीतीं. इसी तरह, केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया (ग्वालियर-चंबल) के क्षेत्र में 34 में से भाजपा ने 22 सीटों पर कांग्रेस को शिकस्त दी. मालवा के कुछ क्षेत्रों में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह तो निमाड़ के कुछ क्षेत्रों में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया का वर्चस्व बताया जाता था. किंतु मालवा-निमाड़ की कुल 66 सीटों में से 56 पर भाजपा विजयी साबित हुई. मध्य क्षेत्र (भोपाल और आसपास) में कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुरेश पचौरी समर्थकों को टिकट बांटी गई थी, पर यहां भी 36 में से 29 सीटों पर कांग्रेस हार गई. खुद पचौरी अपने गृह-क्षेत्र भोजपुर में ही बाहरी कहे जा रहे सुरेंद्र पटवा के हाथों बुरी तरह पराजित हुए.

संक्षेप में कहा जाए तो शिवराज सिंह चौहान की जीत अकेली उनकी है, हर समुदाय के समर्थन से निकली है और पिछली जीत से बहुत ज्यादा बड़ी है. अगर हम इसमें यह भी जोड़ दें कि वे नरेंद्र मोदी के गुजरात से बड़े प्रदेश के (विधान सभा और लोकसभा दोनों की सीटों के हिसाब से), उनसे बड़ी जीत के साथ तीसरी बार मुख्यमंत्री बने हैं तो उनकी पहले से ही बड़ी जीत और भी बड़ी और चमकदार हो जाती है.

अरविंद केजरीवाल: नवाचार का नायक

अरविंद केजरीवाल
अरविंद केजरीवाल
अरविंद केजरीवाल. फोटो:विकास कुमार

अरविंद केजरीवाल के यह घोषणा करते ही कि जहां से शीला दीक्षित चुनाव लड़ेंगी वहीं से वे भी लड़ेंगे, लोग कहने लगे कि वे राजनीतिक आत्महत्या पर आमादा हैं. मीडिया और आम लोगों के साथ ही आम आदमी पार्टी से जुड़े लोग भी दबी जुबान में उनके इस निर्णय को किंतु-परंतु की नजर से ही देख रहे थे.  इसके स्वाभाविक कारण भी थे. वे 15 साल से दिल्ली में मुख्यमंत्री पद पर काबिज शीला दीक्षित से भिड़ने जा रहे थे जिनका राजनीतिक अनुभव कमोबेश केजरीवाल की उम्र के बराबर था. जब उनसे पूछा जाता कि क्यों वे शीला के खिलाफ लड़कर अपना राजनीतिक करियर शुरू होने से पहले ही खत्म करने पर आमादा हैं, तो उनका जवाब होता, ‘ मैं यहां करियर बनाने नहीं आया. मैं करियर छोड़कर आया हूं. मैं व्यवस्था परिवर्तन करने आया हूं ‘ इस जवाब में कुछ लोगों को घमंड, पाखंड और मूर्खता दिखती तो किसी को यह कोरा आदर्शवाद दिखता जिसका यथार्थ से कोई संबंध न था.

खैर, चुनाव हुआ. केजरीवाल शीला के खिलाफ लड़े और जीत गए. वह भी 25 हजार से ज्यादा मतों से. इस जीत ने देश के राजनीतिक इतिहास में एक नया सुनहरा अध्याय जोड़ दिया.

इस लिहाज से देखें तो हालिया चुनावों में सबसे आश्चर्यजनक और अनूठी जीत केजरीवाल की है. चुनाव में जाति, धर्म और ऐसे तमाम दूसरे समीकरणों की प्रधानता वाले वाले इस दौर में उन्होंने न सिर्फ आदर्शवाद को अपना हथियार बनाया, बल्कि इसके सहारे पहली बार में ही बड़े-बड़े दिग्गजों को पटखनी दे दी.   शीला के खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला अगर कुछ लोगों की नजरों में केजरीवाल का दुस्साहस था तो उन्होंने यह दुस्साहस कोई पहली पहली बार नहीं किया था. केजरीवाल के साथी और पार्टी के एक प्रमुख नेता गोपाल राय कहते हैं, ‘इस व्यक्ति के अंदर असंभव को आजमाने की जिद है.’ कुछ ऐसा ही उन्होंने तब किया था जब अपने गुरु अन्ना हजारे से अलग होते हुए उन्होंने राजनीति में उतरने का फैसला किया. अन्ना और किरण बेदी समेत टीम के कई सदस्यों के मना करने के बावजूद केजरीवाल ने चुनावी राजनीति में उतरने का फैसला किया. वे यह तय कर चुके थे कि अब आगे व्यवस्था परिवर्तन का रास्ता उन्हें चुनावी राजनीति के सहारे ही तय करना है. अन्ना की टीम टूट गई. किसी ने आंदोलन की राह पकड़ी तो कुछ केजरीवाल के फैसले पर अपनी सहमति देते हुए उनके साथ आ गए. तब कई लोग यह कहकर उनका मजाक उड़ाते भी नजर आए कि चार दिन का नशा है. राजनीतिक थपेड़ों से सामना होते ही उतर जाएगा या एनजीओ चलाने और राजनीति करने में बहुत अंतर है. फिर भी केजरीवाल डटे रहे. उनकी जिजीविषा, दृढ़ इच्छाशक्ति और दुस्साहसिक व्यक्तित्व ने लाखों की संख्या में पार्टी कार्यकर्ताओं-समर्थकों खासकर युवाओं की अपनी तरफ आकर्षित किया. उनके सामने एक ऐसा नेता था जो बड़े सपने देखने की न सिर्फ हिम्मत कर रहा था बल्कि उसे उनके सच होने का भी पूरी उम्मीद थी क्योंकि वह ईमानदारी से इसके लिए मेहनत कर रहा था. आखिर में उनके नेतृत्व में आप ने सफलता का परचम लहराया.

दिल्ली विधानसभा में आम आदमी पार्टी की ऐतिहासिक जीत कई मायनों में केजरीवाल की व्यक्तिगत जीत भी है. एक पार्टी जो चुनाव से कुछ महीने पहले ही अस्तित्व में आती है, चुनाव में उसकी तरफ से कुछ ऐसे लोग खड़े होते हैं जिनका अपना न तो कोई राजनैतिक इतिहास है और न ही जनाधार. लेकिन वे भारी मतों से जीतते हैं. पार्टी विधानसभा में 28 सीटें जीत जाती है. बाकी 20 सीटों पर वह दूसरे नंबर पर रहती है. चुनाव परिणामों का अगर विश्लेषण करें तो पाएंगे कि लोगों ने अधिकांश सीटों पर प्रत्याशी की जगह पार्टी को वोट दिया. ऑटो चालक राधेश्याम यादव मंगोलपुरी विधानसभा क्षेत्र में मतदाता हैं. वे कहते हैं, ‘ मुझे नहीं पता था राखी बिरला कौन हैं. मुझे बस यह पता था कि ये अरविंद केजरीवाल की पार्टी से हैं जिनका चुनाव चिन्ह झाड़ू है. बस ये देखकर मैंने उन्हें वोट दिया. उनकी जगह कोई दूसरा होता तो उसे देता.’ मुनीरका में रहने वाले धीरज वर्मा कहते हैं, ‘ कोई एक नेता ऐसा दिल्ली में नहीं था जिसकी तुलना केजरीवाल से की जा सके. . वह कुछ अच्छा करने निकला है इसलिए मैंने उसको वोट दिया.’यही स्थिति कमोबेश हर विधानसभा में रही है.  वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पड़गांवकर कहते हैं, ‘ केजरीवाल की व्यक्तिगत ईमानदारी पर किसी को संदेह नहीं है. यही कारण है कि आज के समय में जब चारों तरफ भ्रष्टाचार का बोलबाला है और एक ईमानदार आदमी सिस्टम बदलने और देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने की अपील करता है तो लोग उसकी बात सुनते हैं. उन्हें उसकी बातों पर भरोसा होता है.’ केजरीवाल की ईमानदारी पर उनके राजनीतिक विरोधियों को भी संदेह नहीं है. दिल्ली की पूर्व मेयर और भाजपा नेता आरती मेहरा कहती हैं, ‘केजरीवाल की ईमानदारी पर किसी को संदेह नहीं हो सकता. ये आदमी बोलता भी अच्छा है. समाज सेवा के क्षेत्र में अच्छा काम किया है. मैं खुद उसके पार्टी बनाने से पहले तक उसकी प्रशंसक रही हूं. दिल्ली के चुनाव ने उसे हीरो के रूप में स्थापित किया है.’

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यूं होता तो क्या होता

अगर अन्ना ‘आप’ के साथ होते

अगर इन चुनावों में आम आदमी पार्टी को अन्ना हजारे का खुला समर्थन मिल जाता तो क्या तब भी इसकी सीटों की संख्या 28 पर रुक जाती? लोगों का साफ मानना है कि अगर अन्ना हजारे आप के पक्ष में वोट करने की एक अपील भी जारी कर देते तो दिल्ली में पार्टी बहुमत हासिल कर सकती थी. इस संदर्भ में एक तथ्य यह भी है कि चुनाव लड़ने का ऐलान करने के बाद अरविंद केजरीवाल से लेकर आप के दूसरे नेताओं ने भी इस बात को स्वीकार किया था कि अन्ना का साथ न होने से उनकी ताकत कमजोर हुई है. आम आदमी पार्टी के प्रमुख रणनीतिकार योगेंद्र यादव भी मानते हैं कि अन्ना हजारे का समर्थन होने की स्थिति में आप बहुमत हासिल कर सकती थी.

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केजरीवाल के प्रशंसकों की एक बड़ी तादाद एक अन्य कारण से भी है. वह कारण है केजरीवाल का पूर्व आईआईटी छात्र और आईआरएस अधिकारी होना. लोगों से बातचीत करने पर पता चलता है कि वे केजरीवाल को इस कारण से भी पसंद करते हैं कि उन्होंने नौकरी छोड़ दी. एक ऐसी नौकरी जिसमें वे चाहते तो खूब पैसे बना सकते थे. आप के एक समर्थक जो बनारस से दिल्ली पार्टी के प्रचार के लिए आए थे कहते हैं,  ‘आम आदमी के लिए ये बात चौंकाने वाली है कि कोई आदमी जो चाहता तो खूब पैसे छाप सकता था, लेकिन उसने देश सेवा के लिए अपनी मलाईदार नौकरी छोड़ दी. अब ऐसे आदमी पर भरोसा नहीं करेंगे तो किस पर करेंगे. आजकल तो लोग चपरासी तक की नौकरी नहीं छोड़ते.’

केजरीवाल के अब तक के इतिहास ने भी उन्हें लोगों के बीच स्वीकार्य और विश्वसनीय बनाया. सूचना के अधिकार से लेकर बिजली, साफ सफाई, राशन तथा अन्य कई क्षेत्रों में अपनी परिवर्तन नामक संस्था के माध्यम से केजरीवाल के काम ने लोगों को उन पर भरोसा करने का आधार दिया. केजरीवाल दिल्ली के लिए नए नहीं थे. इस शहर में वे पिछले 15  सालों से सक्रियतापूर्वक काम कर रहे थे. दिल्ली की उन तमाम झुग्गियों से केजरीवाल का संबंध सालों पुराना है जहां नेता सिर्फ चुनाव के समय जाया करते हैं. केजरीवाल अपनी नींव बहुत पहले से तैयार कर रहे थे जिस पर बनी इमारत पर वे आज खड़े दिखाई दे रहे हैं. केजरीवाल के साथ जुड़े लोगों में एक बड़ा तबका वह है जो उनके साथ अन्ना आंदोलन के समय से नहीं बल्कि तब से जुड़ा है जब से उन्होंने अपनी सामाजिक सक्रियता की शुरुआत की.

हालांकि जिस तरह से पार्टी पूरे देश में अपना विस्तार करने की बात कर रही है उसके लिए जरूरी है कि उसमें सत्ता और प्रतिनिधित्व का और अधिक विकेंद्रीकरण हो. यानी आने वाले समय में पार्टी सिर्फ केजरीवाल के भरोसे न रहे. दिलीप पड़गांवकर कहते हैं, ‘आप को अपने नेतृत्व का दायरा और अधिक बढ़ाना होगा. अगर पार्टी को पूरे देश में जाना है तो वह सिर्फ केजरीवाल के सहारे नहीं हो सकता.’

हार के पार

किसी ने सोचा नहीं था कि 15 साल तक दिल्ली पर राज करने वाली शीला दीक्षित का सियासी सितारा इस तरह डूबेगा. लोगों को यह तो जरूर लगता था कि कांग्रेस के प्रति लोगों में गुस्सा है, लेकिन साथ ही यह बात भी थी कि  दीक्षित ने दिल्ली में काफी काम किए हैं और हो सकता है कि एक बार फिर से दिल्ली की सत्ता में उनकी वापसी हो जाए.

लेकिन 70 सदस्यों वाली विधानसभा में उनकी पार्टी आठ पर सिमट गई. और दीक्षित के लिए सबसे ज्यादा झटका देने वाली बात तो यह हुई कि वे अपना चुनाव उस अरविंद केजरीवाल से हार गईं जिसके बारे में उन्होंने चुनाव के दिन यह पूछा था कि यह कौन है. वे जिस नई दिल्ली सीट से चुनाव लड़ती हैं वहां सरकारी कर्मचारियों की बड़ी संख्या में मौजूदगी की वजह से भी यह लग रहा था कि कम से कम शीला दीक्षित अपनी सीट तो निकाल ही लेंगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और वे बड़े अंतर से पराजित हुईं.

अब हर तरफ यह सवाल उठने लगा है कि लगातार 15 साल तक देश की राजधानी में कांग्रेस का झंडा बुलंद रखने वाली दीक्षित का सियासी सफर अब यहां से आगे किधर जाएगा.

जानकारों की मानें तो यहां से दीक्षित के लिए तीन रास्ते हैं. इसमें सबसे पहला तो यह है कि उनकी उम्र को देखते हुए कांग्रेस पार्टी उन्हें घर बैठा दे और अगला विधानसभा चुनाव किसी नए नेता के नेतृत्व में लड़ने की योजना बनाए. दूसरा रास्ता यह है कि उनको पार्टी के केंद्रीय ढांचे में कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दे दी जाए और लोकसभा चुनावों में उनके अनुभव का इस्तेमाल किया जाए. लेकिन शीला दीक्षित के लिए व्यक्तिगत तौर पर इसमें दिक्कत यह है कि केंद्र में कांग्रेस की वापसी की संभावना बेहद कम है और ऐसे में उनके लिए कुछ खास करने को बचेगा नहीं. इसमें कांग्रेस की मुश्किल भी यह है कि वह बुरी तरह से हारे हुए नेता को आगे रखकर कोई योजना नहीं बना सकती.

एक विकल्प यह भी है कि शीला दीक्षित को कांग्रेस में राष्ट्रीय स्तर का कोई पद दे दिया जाए और किसी राज्य का प्रभारी बना दिया जाए और धीरे-धीरे वे अपने राजनीतिक जीवन के अवसान की ओर बढ़ चलें. जो लोग दीक्षित को जानते हैं, उनका यह मानना है कि दीक्षित इन विकल्पों में से किसी के लिए भी स्वेच्छा से तो तैयार नहीं होंगी. अगर कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व या यों कहें कि सोनिया गांधी उन पर दबाव डालती हैं तब ही वे ऐसा करेंगी.

तो फिर ऐसे में यह सवाल उठता है कि आखिर शीला दीक्षित करेंगी क्या. यहीं से तीसरे और सबसे महत्वपूर्ण रास्ते की जमीन तैयार होती है. एक ऐसे समय में जब दिल्ली विधानसभा में सबसे अधिक सीटें पानी वाली दोनों पार्टियों में से कोई भी सरकार बनाने के लिए तैयार नहीं है तो दोबारा चुनाव ही एकमात्र रास्ता बचता है. राजनीतिक जानकारों का मानना है कि ऐसी स्थिति में शीला दीक्षित सोनिया गांधी को इस बात के लिए तैयार करने की कोशिश करेंगी कि उन्हें दिल्ली प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया जाए और कांग्रेस अगला चुनाव उनकी अगुवाई में ही पूरा जोर लगाकर लड़े. हो सकता है कि शीर्ष नेतृत्व के सामने और कोई विकल्प नहीं होने की स्थिति में शीला दीक्षित की यह बात मान ली जाए ताकि अगली बार उनकी यह शिकायत नहीं रहे कि कांग्रेस संगठन ने चुनाव में उनका साथ नहीं दिया. ऐसा करके दीक्षित का लक्ष्य यह नहीं होगा कि वे फिर से दिल्ली की मुख्यमंत्री बन जाएं बल्कि उनकी कोशिश यह होगी कि पार्टी को दिल्ली में एक सम्मानजनक स्तर पर पहुंचाया जाए.

जानकारों के मुताबिक इससे शीला दीक्षित के दो मकसद सधेंगे. पहला तो अगर वे ऐसा करने में सफल रहती हैं और कांग्रेस 2014 में केंद्र की सत्ता से बेदखल हो जाती है तो फिर ऐसे में उन्हें पार्टी के केंद्रीय ढांचे में निश्चित तौर पर कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिलेगी. ऐसा होने पर उनके लिए खुद को राजनीतिक तौर पर प्रासंगिक रखना आसान हो जाएगा और राज्यसभा में पहुंचकर सियासत में वे अपना दखल बनाए भी रख सकती हैं. दिल्ली में कांग्रेस को सम्मानजनक स्थिति में लाने का सबसे बड़ा लाभ शीला दीक्षित को यह होगा कि अगर अगले लोकसभा चुनाव में उनके बेटे संदीप दीक्षित चुनाव हार भी जाते हैं तो उनके राजनीतिक भविष्य पर ग्रहण नहीं लगेगा बल्कि खुद केंद्रीय नेतृत्व में रहकर शीला दीक्षित उन्हें कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दिलाने की कोशिश करेंगी. और अगर संदीप दीक्षित अपनी पूर्वी दिल्ली की लोकसभा सीट बरकरार रखने में सफल हो जाते हैं तो भी शीला दीक्षित की मौजूदगी से उन्हें मजबूती ही मिलेगी.

सुनो प्रियंका बढ़ो आगे

rahulप्रियंका गांधी आज कांग्रेस की जरूरत हैं. और मजबूरी भी. जरूरत वे कई सालों से थीं, खासकर उन सालों में जब राहुल गांधी हर फ्रंट पर असफलता की तहरीर लिख रहे थे. लेकिन राहुल के प्रति उनकी मां की आसक्ति, कांग्रेसियों की अंधभक्ति और पार्टी द्वारा एक कमजोर नेता को क्षितिज पर टांगने की लगातार आत्ममुग्ध कोशिशों के बीच अब कहीं कोई जंग लगी कील भी नहीं बची जिसपर टंगकर राजकुंवर गांधी चकमक-चकमक चमक सकें. तो अब 127 साल पुराने गर्व से फूली कांग्रेस इस कड़वे यथार्थ को स्वीकार कर प्रियंका को राहुल से आगे खड़ा करने की कोशिश कर सकती है. प्रियंका गांधी को आगे लाने की मजबूरी अगर पार्टी ने अभी भी नहीं समझी तो कांग्रेस सिर्फ 2014 के आम चुनावों की ही नहीं उसके बाद के कई सालों के लिए भी अपनी जमीन बंजर कर लेगी. जैसा कि गांधी परिवार पर लगातार लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं, ‘पार्टी के अंदर इस तरह की बातें होना कि प्रियंका को 2019 में आगे लाएंगे, बेमानी है. अगर एक बार कांग्रेस पार्टी टूट गई, उसका बिखराव हो गया तो कोई भी गांधी उसे 2019 में नहीं बचा पाएगा.’

प्रियंका के बड़े भाई राहुल गांधी अब एक असफल नेता हैं, यह स्वीकार करने के लिए 2014 के आम चुनावों का इंतजार नहीं किया जा सकता. उन सालों को गिनना, जब से राहुल गांधी राजनीति में सक्रिय हैं, भी अब पूरी तरह से बेमानी है. मीलों का सफर गिनने में मजा तब आता है जब आप मंजिल की ओर हों. राहुल तो राजनीति के पहाड़गंज की अंधेरी गलियों में दशक भर से भटक रहे हैं. चेहरे की सजावट से सज्जन दिखता यह ‘रिलक्टेंट राजनेता’ कई सालों से सिर्फ एक काम अच्छा कर रहा है. आज जब सभी नेता अर्बन इंडिया से चिपके रहना चाहते हैं, वह गांवों में जाता है, पगडंडियों पर लौटता है. पगडंडियों पर चलना अच्छा है, पर वहां बैठ कर आराम फरमाना कहां का शऊर है. क्या कहीं पहुंचना राहुल के लिए इतना निरर्थक है कि वे हमेशा ‘मैं अभी भी सफर में हूं’ का ही बचाव सभी सवालों के जवाब में सामने रख देते हैं. पब्लिक स्पेस में उनकी राजनीतिक निरर्थकता एक ऐसा ‘कल्ट’ हासिल कर चुकी हैं जिसके बाद अब उनकी जनसभाओं में भीड़ भी नहीं आती, सोशल मीडिया में उनकी हर बात का मजाक उड़ता है, भारत का युवा उन्हें अब सबसे ज्यादा नापसंद करता है, उनका आधे पेज का भी इंटरव्यू कहीं पढ़ने को नहीं मिलता, राष्ट्रीय मुद्दों पर उनकी राय गुप्तकाल के गुप्त दस्तावेजों से बाहर नहीं निकलती, और वे दिल्ली विश्वविद्यालय के विवादित ग्रैजुएशन प्रोग्राम जैसे ‘छोटे’ इश्यू को जानते भी हैं कि नहीं, यह लोग नहीं जानते.

ऐसा नहीं है कि प्रियंका गांधी का आगे आना ‘राजनीति की देवी’ के अवतरित होने जैसी कोई घटना होगी और वे कांग्रेस के सारे पाप धोने के अलावा जनता के भी कष्ट हर लेंगी. अभी तो यह भी नहीं कहा जा सकता कि वे एक बेहतर राजनेता भी बनेंगी. लेकिन यह जरूर है कि हर मौसम राजनीति नहीं करने के बावजूद भी वे एक बेहतर जननेता हैं. राहुल गांधी से कई गुना बेहतर. और कांग्रेस को अभी सबसे ज्यादा जरूरत एक कुशल जननेता की ही है जो जनता से संवाद बना सके, क्योंकि पार्टी की मौजूदा लीडरशिप तो सोशल मीडिया नाम के वर्चुअल वर्ल्ड में भी ठीक से संवाद नहीं कर पाती. अमेठी-रायबरेली में प्रियंका का राहुल से ज्यादा प्रसिद्ध होना हो, लोगों की समस्या के प्रति ज्यादा जागरूक और पार्टी कार्यकर्ताओं को परिवार समझना हो या रैलियों में ज्यादा भीड़ खींचना, वे अब कांग्रेस के सत्ता में बने रहने का अकेला ब्रह्मास्त्र हैं. उनकी पार्टी पर और उनके पति पर भले ही कितने भी आरोप हों, उनकी फिर भी एक ईमानदार छवि है. वे समझदार हैं, चेहरे पर निश्छलता है, सुलझी होने का प्रमाण भी है. अच्छी वक्ता हैं और करिश्माई व्यक्तित्व लिए हैं. हाशिए पर धकेल दिए गए कांग्रेस के कई पुराने दिग्गज नेता उन्हें पसंद करते हैं. विपक्ष की उमा भारती और सुषमा स्वराज जानती हैं कि प्रियंका उनका आकर्षण खत्म करने की प्रतिभा रखती हैं. नेता, वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक प्रियंका और इंदिरा गांधी के बीच समानता की बातें खुले दिल से करते हैं. और वे नेता, जो चाहते हैं कि आज कांग्रेस देश को इंदिरा जैसा नेतृत्व दे, भी शायद ऐसा कह कर प्रियंका की ही तरफ इशारा करना चाहते हैं. बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक संजीव श्रीवास्तव कहते भी हैं, ‘उनके जैसी करिश्माई और स्वाभाविक नेत्री हमारी राजनीति में कम ही है.’

उधर राहुल गांधी की कांग्रेस में अभी भी कई घाघ कांग्रेसी हैं और वे हमेशा से ऐसे ही रहे हैं. भ्रष्टाचार के प्रति इन कांग्रेसियों की अफीमी लत और टिकट बंटवारे में भी उनका भ्रष्ट होना जितना कांग्रेस का नुकसान करता है उससे ज्यादा राहुल गांधी का इन मुद्दों पर खामोश या उदासीन रहना उनका खुद का नुकसान करता है. सच यह है कि ‘भ्रष्टाचार मुक्त देश’ एक मिथक है. सच्चाई नहीं. दुनिया का कोई भी देश पूरी तरह से भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं है और न होगा. न भाजपा सरकारें भ्रष्टाचार मुक्त रहीं हैं न कांग्रेस सरकारें. लेकिन बात कोशिश की है. और राहुल गांधी यह कोशिश करते नहीं हैं. वे सामाजिक संरचना के जोड़ों में भ्रष्टाचार को भरने से नहीं रोकते, बस क्रांतिकारी बातों का कागजी पैरहन पहन अपनी जिम्मेदारी पूरी मान लेते हैं. वे संगठन के तौर-तरीकों को बदलने की क्रांतिकारी बातें तो डेढ-सौ डेसीबल के शोर में करते हैं, लेकिन जब टिकिट बंटवारे की बात आती है तब गहरी जड़ों वाले सभी पुराने कांग्रेसियों को उनका कोटा पहले की तरह ही आसानी से मिल जाता है. और पीछे रह जाती हैं हर प्रदेश में वे कहानियां जिसमें एक फलां नेता या कई नेता अपने बेटे-रिश्तेदारों को टिकिट देकर चुनाव में खड़ा करते हैं, बाकी के टिकिट बेचते हैं, और जब इसकी शिकायत करने कोई सोनिया-राहुल से मिलने दिल्ली जाता है तो राहुल गांधी उन्हें मिलने का वक्त भी नहीं देते हैं.

राहुल के संगठन, उनकी युवा कांग्रेस, उनकी सरकार सभी में 127 साल पुरानी जड़ता है जिसे दूर करने की काव्य में रची-बसी ढेर सारी बातें तो राहुल खूब करते हैं, लेकिन उन्हें दूर नहीं करते. या करने में असफल हो जाते हैं. चार विधानसभा चुनावों में हारने के बाद वे एक छोटी सी मीडिया बाइट में कह तो देते हैं कि ‘आप’ से हमको सीखना चाहिए, लेकिन उसी रात टीवी के पैनल डिस्कशन में उनके सत्यव्रत चतुर्वेदी यह कहना परम आवश्यक मानते हैं कि हमारी संस्कृति में तो पशु-पक्षियों से भी सीखा जाता है. राहुल गांधी चाहते तो वे कांग्रेस को आज की ‘आप’ बना सकते थे. वे चाहते तो उनकी पार्टी में से चुनाव जीतने वालों के नाम राखी बिरला, कमांडो सुरेंद्र सिंह, प्रकाश और संजीव झा हो सकते थे. लेकिन पार्टी और संगठन में युवाओं को आगे लाने के नाम पर राहुल ने अपने जैसे ही विचारधारा वाले सियासी परिवारों से निकल कर आने वाले रईस नौजवानों को ही आगे किया.

आशीष नंदी ने एक बार कहा था, ‘कांग्रेसी नेहरु-गांधी परिवार और उनके वंशवाद को सिर्फ इसलिए पसंद करते हैं क्योंकि यह परिवार उन्हें वोट दिलवाता है. जिस दिन इसने उन्हें वोट दिलवाना बंद कर दिया उस दिन कांग्रेसी इन्हें भूल जाएंगे.’ राहुल की वोट दिलाने की क्षमता सबके सामने है. ऐसे में प्रियंका ही वह आखिरी बचा गांधी चेहरा है जो अब कांग्रेस को वोट दिला सकता है. रशीद किदवई भी दावा करते हैं, ‘अभी सबसे ज्यादा जरूरत पार्टी को प्रियंका गांधी की ही है. उनके राजनीति में आने का यही सही समय है. अभी कांग्रेस बीमार है और उसकी दवा सिर्फ और सिर्फ प्रियंका है.’ एक वाजिब बात मणिशंकर अय्यर भी करते हैं, ‘फासीवादी ताकतों से लड़ने के लिए देश को प्रियंका की जरूरत है और यह बात वे भी जानती हैं. लेकिन उन्हें खुद तय करना होगा कि वे राजनीति में अभी आना चाहती हैं या नहीं.’

आज जब हिन्दुस्तान ‘मोदीचूर’ के लड्डू खाने के लिए इतना बेचैन है कि उसे मोदी का फासीवादी चेहरा भी याद नहीं रहता, इस देश को एक ऐसी पार्टी और उसका ऐसा मजबूत चेहरा चाहिए जो फासीवादी ताकतों के सामने तगड़ी चुनौती पेश करने की हिम्मत रखता हो. और यह दुखद है कि राष्ट्रीय स्तर पर अभी ‘आप’ वह पार्टी नहीं है. ऐसे में हमें लौटना कांग्रेस पर ही पड़ता है. हालांकि प्रियंका गांधी को आगे लाने की बातें करना है तो वंशवाद को बढ़ावा देना है, लेकिन हमारे देश की राजनीति बरसों से ऐसी ही है. हमें कुछ साधारण विकल्पों में से चुनाव करना पड़ता है. ऐसे में प्रियंका गांधी को भी आजमा लेने में कोई हर्ज नहीं है. अरस्तू ने अपने विख्यात ग्रंथ ‘पॉलिटिक्स’ में लिखा भी था, ‘जो मुमकिन है लेकिन श्रेष्ठ नहीं, से बेहतर वह नामुमकिन होता है जो श्रेष्ठतर होता है.’ सही लिखा था. प्रियंका वही नामुमकिन हैं.