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खेल, खिलाड़ी और प्यादे

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आजीवन प्रतिबंध किसी भी खिलाड़ी के लिए सबसे बड़ी सजा माना जाता है. भारतीय खेलों के इतिहास में ऐसे कम ही नाम हैं जिन्हें यह सजा भुगतनी पड़ी हो. यह प्रतिबंध उन्हीं खिलाड़ियों को झेलना पड़ा जिन्होंने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए खेल या देश से धोखा किया हो. मैच फिक्सिंग करना, चयनकर्ताओं को घूस देना या फिर डोपिंग जैसे गंभीर अपराधों के लिए ही किसी खिलाड़ी पर आजीवन प्रतिबंध लगाया जाता है. बीते दिनों मशहूर बैडमिंटन खिलाड़ी ज्वाला गुट्टा पर भी आजीवन प्रतिबंध लगाए जाने की घोषणा हुई. यह खबर सारे देश में चर्चा का विषय बनी. इस मामले में हैरान करने वाली बात यह थी कि ज्वाला पर मैच फिक्सिंग, डोपिंग या घूस देने जैसा कोई आरोप नहीं थे. उन पर यह प्रतिबंध भारतीय बैडमिंटन महासंघ (बीएआई) द्वारा अनुशासनहीनता के आरोप में लगाया गया था. यह शायद अपनी तरह का पहला ही मामला था जब इस तरह के आरोप में किसी खिलाड़ी पर आजीवन प्रतिबंध लगाए जाने की बात हुई हो. यही कारण था कि बीएआई के इस फैसले पर कई पूर्व खिलाड़ियों और केंद्रीय मंत्रियों तक ने आपत्ति जताई.

तहलका ने जब इस मामले की पड़ताल की तो कई तथ्य सामने आए. यह मामला सिर्फ एक खिलाड़ी की अनुशासनहीनता या उस पर की गई बीएआई की कार्रवाई का नहीं बल्कि उससे कहीं बड़ा है. इस पड़ताल से यह भी साफ होता है कि बीएआई में कुछ गिने-चुने लोगों का वर्चस्व है जिसका खामियाजा सिर्फ ज्वाला को ही नहीं बल्कि कई अन्य खिलाड़ियों को भी भुगतना पड़ रहा है. ज्वाला ने उसी वर्चस्व को चुनौती देने का साहस किया. नतीजा यह हुआ कि आज ज्वाला और बीएआई दो दुश्मनों की तरह आमने-सामने हैं. इन तमाम मुद्दों पर आगे चर्चा करेंगे, पहले जानते हैं उस मामले को जिसके चलते बीएआई ने ज्वाला पर आजीवन प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव किया.

आईपीएल की तर्ज पर बैडमिंटन में भी इस साल से इंडियन बैडमिंटन लीग (आईबीएल) शुरू की गई थी. आईपीएल की ही तरह यहां भी खिलाड़ियों की नीलामी हुई और कई टीमें बनाई गईं. ज्वाला ‘दिल्ली स्मैशर्स’ टीम की कप्तान बनाई गईं. 25 अगस्त को ज्वाला की टीम का मुकाबला ‘बंगा बीट्स’ नाम की टीम से होना था. बेंगलुरु में होने वाले इस मुकाबले से 40 मिनट पहले ज्वाला को पता चला कि सामने वाली टीम ने अंतिम समय पर अपना खिलाड़ी बदल दिया है. बंगा बीट्स ने अपने एक खिलाड़ी हू युन की जगह डेनमार्क से बुलाए गए खिलाड़ी जॉन जॉगरसन को टीम में खिलाने का फैसला कर लिया था. ज्वाला बताती हैं, ‘यह हमारे लिए चौंकाने वाला था क्योंकि हमें इसकी कोई जानकारी नहीं थी. हमारी तैयारी सामने वाले की टीम के अनुसार थी. मेरे साथ ही टीम के बाकी सभी खिलाड़ियों को भी इसकी कोई जानकारी नहीं थी. मैंने अपनी टीम के ओनर से इस बारे में बात की. उन्होंने बताया कि उन्हें भी इसकी कोई जानकारी नहीं है और वो अभी गवर्निंग काउंसिल से इस बारे में बात करेंगे.’

बैडमिंटन के जानकार बताते हैं कि टीम में खिलाड़ियों को बदलने की एक निर्धारित प्रक्रिया होती है. किसी भी खिलाड़ी को बदलने से पहले गवर्निंग बॉडी और सामने वाली टीम को सूचित करना होता है. साथ ही अंतिम समय में किसी भी बदलाव का ठोस कारण देना भी अनिवार्य होता है. यदि गवर्निंग बॉडी को कारण उचित लगे और वह इसकी अनुमति दे तभी कोई खिलाड़ी बदला जा सकता है. ज्वाला यह भी बताती हैं, ‘जिस खिलाड़ी को सामने वाली टीम ने अंतिम समय पर खिलाने का फैसला किया था उसे डेनमार्क से बुलाया गया था. डेनमार्क इतनी दूर है कि वहां से अचानक तो किसी को बुलाया नहीं जा सकता. साफ है कि सामने वाली टीम ने पहले से ही इसका मन बना लिया था. यह साफ तौर पर नियमों का उल्लंघन था.’ अपनी टीम के ओनर से बात करने के बाद ज्वाला और टीम के अन्य खिलाड़ियों ने यह तय किया कि जब तक यह मामला सुलझ नहीं जाता कोई भी खिलाड़ी मैदान में नहीं जाएगा.

ज्वाला की टीम के मैदान में न उतरने के कारण मैच अपने निर्धारित समय पर शुरू नहीं हो सका. अंततः सामने वाली टीम को खिलाड़ी बदलने के अपने फैसले को वापस लेना पड़ा और तभी मैच शुरू हुआ.

इस घटना के कुछ ही दिनों बाद, 31 अगस्त को बीएआई की मीटिंग में यह तय किया गया कि ज्वाला के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी. चार सितंबर को बीएआई की अनुशासन समिति के अध्यक्ष एस मुरलीधरन ने ज्वाला को एक नोटिस भेजा. इस नोटिस में कहा गया था, ‘मैच के रेफरी श्री गिरीश नातू ने ज्वाला को मैच में हुई देरी के लिए जिम्मेदार माना है. रेफरी ने यह भी कहा है कि ज्वाला ने अपनी टीम के खिलाड़ियों को मैदान में उतरने से रोका जिसके कारण प्रतियोगिता की छवि खराब हुई और बीएआई को सारे विश्व के सामने शर्मिंदा होना पड़ा.’ इस नोटिस में रेफरी के हवाले से यह भी कहा गया कि ज्वाला ने गवर्निंग काउंसिल के उन सदस्यों से भी अपमानजनक तरीके से बहस की जो मामले को सुलझाने की कोशिश कर रहे थे. इन आरोपों का स्पष्टीकरण मांगते हुए ज्वाला से 14 दिन के भीतर नोटिस का जवाब देने को कहा गया.

इस नोटिस के जवाब में ज्वाला ने 14 सितंबर को अपना स्पष्टीकरण पेश किया. इसमें उन्होंने बताया कि मैच में देरी गवर्निंग काउंसिल द्वारा उनकी आपत्ति पर फैसला लेने में समय लिए जाने के कारण हुई. साथ ही गवर्निंग काउंसिल के सदस्यों से अपमानजनक बहस करने के आरोप को ज्वाला ने सिरे से नकार दिया. इस स्पष्टीकरण को संतोषजनक न पाते हुए बीएआई की अनुशासन समिति ने सात अक्टूबर को एक आदेश जारी कर दिया. इस आदेश में ज्वाला को अनुशासनहीनता का दोषी करार देते हुए कड़ी सजा (बीएआई द्वारा आयोजित सभी खेलों से आजीवन प्रतिबंध अथवा देश में होने वाली किसी भी बैडमिंटन गतिविधि से छह साल के लिए निलंबन) प्रस्तावित की गई थी और उनसे एक बार फिर से स्पष्टीकरण मांगा गया था. इसके अलावा उनका नाम जापान ओपन से भी वापस ले लिया गया था और डेनमार्क तथा फ्रेंच ओपन के लिए उनसे कहा गया कि यदि वे उनमें खेलना चाहती हैं तो उन्हें अपने खर्चे पर ही जाना होगा.
ज्वाला ने इस आदेश को दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती दी. 10 अक्टूबर को उच्च न्यायालय ने इस आदेश पर अंतरिम रोक लगाते हुए बीएआई को निर्देश दिए कि आने वाले मैचों में ज्वाला को खेलने की अनुमति दी जाए. साथ ही न्यायालय ने ज्वाला को भी बीएआई को स्पष्टीकरण देने को कहा. न्यायालय के इस आदेश के बाद बीएआई ने एक तीन सदस्यीय समिति का गठन किया. इस समिति को इस मामले में अंतिम फैसला लेने का काम सौंपा गया. इस समिति के अध्यक्ष आनंदेश्वर पांडेय ने ज्वाला को एक और ‘कारण बताओ नोटिस’ जारी किया. इस नोटिस की भाषा से ही समिति के पूर्वाग्रह का अनुमान लगाया जा सकता है. नोटिस में लिखा है, ‘यह कारण बताओ नोटिस तुम्हें जारी किया जा रहा है ताकि न्याय के सिद्धांत की पूर्ति के लिए तुम्हें सुना जा सके और अनुशासन समिति द्वारा प्रस्तावित सजा पर अंतिम निर्णय लिया जा सके.’

अब सवाल उठता है कि आखिर बीएआई की ज्वाला से ऐसी क्या दुश्मनी है जो वह उन पर आजीवन प्रतिबंध तक लगाने को उतारू है. ज्वाला गुट्टा देश की सबसे बेहतरीन डबल्स खिलाड़ियों में से हैं. उन्होंने 2010 राष्ट्रमंडल खेलों के विमेंस डबल्स में स्वर्ण पदक और मिक्स्ड डबल्स में रजत पदक जीता है. 2011 में लंदन में हुई विश्व चैंपियनशिप में उन्होंने कांस्य पदक हासिल किया है और पिछले कुछ सालों में उन्होंने कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय खिताब अपनी झोली में डालते हुए देश को गौरवान्वित किया है. फिर बीएआई की उनसे दुश्मनी के क्या कारण हो सकते हैं?

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इनका जवाब ढूंढ़ने के लिए कुछ साल पहले के घटनाक्रमों को समझना जरूरी है. साल 2006 में ज्वाला मेलबर्न राष्ट्रमंडल खेलों से कांस्य पदक जीतकर लौटी थीं. लेकिन इसके तुरंत बाद ही उन्हें टीम से बाहर कर दिया गया. उनसे कहा गया कि अब वे बहुत सीनियर हो गई हैं और उन्हें नए खिलाड़ियों को मौका देना चाहिए. उस वक्त ज्वाला मात्र 22 साल की थीं और देश की सर्वश्रेष्ठ डबल्स खिलाड़ी थीं. वे विश्व रैंकिंग में भी सर्वोच्च 20 में शामिल थीं. उसी साल पुलेला गोपीचंद राष्ट्रीय टीम के कोच बने थे. नए खिलाड़ियों को मौका देने की बात गोपीचंद ने ही ज्वाला से कही थी. जबकि वे खुद 29 साल की उम्र में ऑल इंग्लैंड टूर्नामेंट जीते थे.

राष्ट्रीय टीम का कोच बनने के बाद से ही गोपीचंद पर कई गंभीर आरोप लगते रहे हैं. इनमें अपनी निजी अकादमी के खिलाड़ियों को ज्यादा मौका देने और खिलाड़ियों के बीच भेदभाव करने जैसे आरोप शामिल हैं. नाम न छापने की शर्त पर एक पूर्व बैडमिंटन खिलाड़ी बताते हैं, ‘आज गोपीचंद राष्ट्रीय टीम के कोच हैं. बीएआई और आईबीएल दोनों में उनका जबरदस्त दखल है. वो चयनकर्ताओं में भी हैं और उनकी अपनी निजी अकादमी भी है. वो रंगारेड्डी डिस्ट्रिक्ट बैडमिंटन एसोसिएशन के प्रमुख भी हैं और इंडियन आयल के कर्मचारी भी. इतने सारे पदों पर एक साथ काबिज होना साफ तौर से हितों के टकराव का मामला है. भारतीय टीम में सबसे ज्यादा खिलाड़ी उनकी ही अकादमी से हैं. जब वो निजी अकादमी चला रहे हैं तो एक चयनकर्ता और कोच के रूप में उनको निष्पक्ष कैसे माना जा सकता है?’ पूर्व खिलाड़ी आगे बताते हैं, ‘गोपीचंद पर वित्तीय गड़बडि़यों के भी मामले बनते हैं. जब वो अपनी निजी अकादमी से पैसा कमा रहे हैं तो फिर सरकारी नौकरी कैसे कर सकते हैं? भारतीय खेल प्राधिकरण के कैंप में गोपी को प्रत्येक खिलाड़ी हर दिन लगभग 3000 रुपये का भुगतान करता है. साथ ही वो अपनी अकादमी में बच्चों से बिना कोई रसीद दिए शुल्क लेते हैं. मेरी जानकारी के अनुसार वो प्रत्येक खिलाड़ी से 25 हजार रुपये प्रतिमाह तक लेते हैं.’

पुलेला गोपीचंद एक चयनकर्ता के रूप में भी विवादों से घिर चुके हैं. बीते महीने विमेंस डबल्स खिलाड़ी प्राजक्ता सावंत को राष्ट्रीय टीम में जगह नहीं दी गई थी. सावंत विमेंस डबल्स में देश की दूसरी वरीयता वाली खिलाड़ी हैं. उन्होंने गोपीचंद की अध्यक्षता वाली चयन समिति पर सवाल उठाते हुए अपने साथ भेदभाव करने का आरोप लगाया था. टीम में चयन न होने पर सावंत को मुंबई उच्च न्यायालय तक जाना पड़ा. न्यायालय ने इस संबंध में भारतीय खेल प्राधिकरण और केंद्र सरकार से जवाब तलब किया है. सावंत पहले भी गोपीचंद पर मानसिक प्रताड़ना का आरोप लगा चुकी हैं. उन्होंने यह भी आरोप लगाया था कि गोपीचंद अपनी अकादमी के खिलाड़ियों को मनमाने तरीके से बढ़ावा देते हैं. तहलका ने गोपीचंद से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं दिया गया.

सावंत ऐसी इकलौती खिलाड़ी नहीं हैं जिन्हें भेदभाव के कारण हाशिये पर धकेला जा रहा हो. देश की सर्वश्रेष्ठ सिंगल्स खिलाड़ी रह चुकी सयाली गोखले को इस आईबीएल की नीलामी में किसी ने नहीं खरीदा. जबकि सयाली वर्तमान चैंपियन पीवी सिंधु तक को हरा चुकी हैं. सयाली से कम रैंकिंग वाले और जूनियर खिलाड़ियों तक को भारी रकम देकर आईबीएल से जोड़ा गया लेकिन सयाली उपेक्षित ही रहीं. सयाली कहती हैं, ‘मेरा करियर खराब करने की साजिश की जा रही है. इसके लिए एक ही शख्स जिम्मेदार है. मैं किसी का नाम नहीं लूंगी वरना मेरी रही-सही उम्मीदें भी खत्म हो जाएंगी.’ जाहिर है उनका इशारा किस व्यक्ति की तरफ है.

आईबीएल में सिर्फ सयाली की ही उपेक्षा नहीं हुई बल्कि अन्य कई वरिष्ठ और जाने-माने खिलाड़ियों को भी इसमें बेइज्जत किया गया. ज्वाला गुट्टा को आईबीएल का आइकॉन खिलाड़ी और प्रचारक भी बनाया गया था. उनका बेस प्राइस 50 हजार डॉलर तय हुआ था. उनके अनुबंध में भी यही रकम दर्ज की गई थी. लेकिन अचानक ही यह रकम घटा कर बिल्कुल आधी कर दी गई. ज्वाला बताती हैं, ‘मुझे बिना बताए यह रकम आधी कर दी गई. मेरे पास अनुबंध है जिसमें दोनों पक्षों के हस्ताक्षर हैं. मैं चाहती तो अदालत जा सकती थी. लेकिन मैंने इसलिए ऐसा नहीं किया क्योंकि मुझे लगता था इस प्रतियोगिता से देश में बैडमिंटन को बढ़ावा और प्रचार मिलेगा. मैं इसकी प्रचारक भी थी. मैंने कई जगह इसके प्रमोशन्स किए और मेरी कई तस्वीरें भी इसके लिए इस्तेमाल की गईं.’ ज्वाला एकमात्र ऐसी खिलाड़ी थीं जिन्होंने खिलाड़ियों की रकम घटाए जाने का खुलकर विरोध किया था.

इंडोनेशियाई बैडमिंटन खिलाड़ी तौफीक अहमद वर्ल्ड और ओलंपिक चैंपियन रह चुके हैं. आईबीएल की बिडिंग प्रक्रिया के बाद वे खासे असंतुष्ट थे. इस पर जब साइना नेहवाल ने यह टिप्पणी की कि उन्हें ज्यादा पैसों की उम्मीद नहीं करनी चाहिए तो ज्वाला ने इसका विरोध किया. उस प्रकरण को याद करते हुए ज्वाला कहती हैं, ‘आईबीएल का आयोजन केवल देसी खिलाड़ियों के लिए नहीं किया गया था. उसमें विदेशी खिलाड़ियों को बुलाया गया था ताकि हमारे खिलाड़ियों को अपनी क्षमताओं का आकलन करने का अवसर मिले. तौफीक वर्ल्ड और ओलंपिक चैंपियन है. अपने देश में उन्हें सचिन तेंडुलकर जैसी ही लोकप्रियता हासिल है. कम से कम साइना जैसी सीनियर खिलाड़ी को उनका अपमान नहीं करना चाहिए था. आप बताओ सचिन तेंडुलकर के बारे में कोई ऐसे बात करेगा तो अच्छा लगेगा आपको?’

ज्वाला इसके अलावा भी कई बार खिलाड़ियों के पक्ष में खुलकर बीएआई का विरोध कर चुकी हैं जिसके कारण वे उन लोगों की आंखों में खटकने लगी थीं जो एक तरह से बीएआई के पर्यायवाची बन चुके हैं. अपने हालिया विवाद से जुड़े एक दिलचस्प तथ्य के बारे में ज्वाला बताती हैं, ‘अनुशासन समिति के अध्यक्ष एस मुरलीधरन मुझसे कहते हैं कि तुम बीएआई के अध्यक्ष अखिलेश दासगुप्ता से माफी मांग लो तो तुम पर लगा आजीवन प्रतिबंध खत्म किया जा सकता है. यह कैसा आजीवन प्रतिबंध है जो मेरी एक माफी से खत्म हो जाएगा?’

ज्वाला का सवाल सच में महत्वपूर्ण है. पहले एक खिलाड़ी पर आजीवन प्रतिबंध लगाया जाता है. फिर उसे कहा जाता है कि माफी मांगने से प्रतिबंध खत्म हो जाएगा. इससे इतना तो साफ होता है कि यह मामला खिलाड़ी की गलती का नहीं बल्कि किसी भी तरह उसे नियंत्रित करने का है. ज्वाला के विद्रोही तेवर इस बात को और भी मजबूती देते हैं.

ज्वाला के इस हालिया विवाद में यदि एक बार मान भी लिया जाए कि सारी गलती ज्वाला की ही है, उनके ही कारण खिलाड़ी मैदान में नहीं आए और मैच में देरी हुई, तो भी क्या इस गलती की सजा आजीवन प्रतिबंध हो सकती है? ज्वाला के इस प्रसंग से 1999 का एक क्रिकेट मैच याद आता है. 23 जनवरी 1999 को श्रीलंका और इंग्लैंड के बीच एक वन-डे मैच खेला जा रहा था. मैच के अंपायर रौस एमर्सन थे. उन्हें श्रीलंकाई गेंदबाज मुरलीधरन के गेंदबाजी करने के तरीके पर आपत्ति थी. जबकि मुरलीधरन की गेंदबाजी को आईसीसी की विशेषज्ञ समिति पहले ही सही ठहरा चुकी थी. इसके बावजूद भी अंपायर एमर्सन ने मुरलीधरन की गेंदबाजी को ‘नो बॉल’ करार दे दिया. उस वक्त श्रीलंका के कप्तान अर्जुन रणतुंगा थे. उन्होंने अंपायर के इस फैसले को मानने से इनकार किया और इसके विरोध में अपनी पूरी टीम को लेकर मैदान से बाहर आ गए.

इसे क्रिकेट के मुकाबले बैडमिंटन की उपेक्षा कहें या क्रिकेट खिलाड़ियों के मुकाबले बैडमिंटन खिलाड़ियों की. एक तरफ रणतुंगा के उस कदम को साहसिक मानते हुए आज भी याद किया जाता है तो दूसरी तरफ ज्वाला गुट्टा एक ऐसे ही कदम के लिए आजीवन प्रतिबंध की कार्रवाई झेल रही हैं.

बदले-बदले से‘सरकार…’

बात छह महीने पुरानी है. बीते 15 अगस्त की. स्वतंत्रता दिवस के मुख्य समारोह में झंडा फहराने के बाद हेमंत सोरेन बिना किसी पूर्व सूचना के राजधानी रांची के बड़ा तालाब इलाके में बने एक अनाथ आश्रम में पहुंच गए. सुरक्षाधिकारी चेताते रहे कि वहां जाने के लिए थोड़ा वक्त तो दें! लेकिन मुख्यमंत्री इसके मूड में नहीं थे. आंचल शिशु आश्रम नामक उस अनाथालय में उनके अचानक पहुंचने से बच्चे खुश थे और संचालक हैरत में. हेमंत वहां पहुंचते ही बच्चों से बात करने में खो गए. एक-एक कर सभी बच्चों से घंटों बतियाते रह गए. फिर उन्होंने आश्रम संचालक से पूछा कि क्या परेशानी है. बताया गया कि जगह कम है. बच्चों को रहने में परेशानी होती है. हेमंत ने कहा, ‘वादा नहीं करते हैं, कोशिश करेंगे.’ वर्षों से किसी तरह जुगाड़ तकनीक पर चलने वाले उस आश्रम को 20 दिन के अंदर एक नया भवन मिल गया. उसे नेत्रहीन विद्यालय के एक हिस्से में स्थानांतरित कर दिया गया. इस आश्रम से हेमंत का इतने तक का ही नाता नहीं रहा. कुछ दिनों बाद जब मुख्यमंत्री आवास में उनके बेटे के जन्मदिन पर छोटा-सा आयोजन हुआ तो उसमें शहर और राज्य के ‘गणमान्यों’ के बजाय आश्रम के ही बच्चों को प्राथमिकता के तौर पर बुलाया गया.

दूसरा वाकया सितंबर के पहले हफ्ते का है. मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन दो-तीन दिन के लिए मुंबई गए हुए थे. मुंबई से लौटते ही वे एयरपोर्ट से सीधे अपने कार्यालय पहुंचे. उन्होंने तुरंत आदेश दिया कि किसी भी हाल में आठ सितंबर को गुवा गोलीकांड में शहीद हुए आंदोलनकारियों के परिजनों को नौकरी देनी है. गुवा गोलीकांड आठ सितंबर,1980 को हुआ था. उसमें 11 आंदोलनकारी मारे गए थे. उसे झारखंड का जालियांवाला कांड कहा जाता है. हेमंत के निर्देश पर आठ आंदोलनकारियों के परिजनों का पता लगाया गया और उन्हें नौकरी दे दी गई. यह एक ऐसा मसला था जिस पर झारखंड बनने के बाद से ही सभी सरकारों द्वारा बातें तो होती थीं लेकिन बात आगे नहीं बढ़ पाती थी.

कहने-सुनने में ये दो घटनाएं सामान्य लग सकती हैं लेकिन कोई राजनेता बिना वोटबैंक मजबूत करने की मंशा से ऐसी कवायद करे तो इस पर हैरानी स्वाभाविक है. हैरान इस पर भी हुआ जा सकता है कि अपने निर्माण के समय से अक्सर गलत वजहों से चर्चा में आने वाले राज्य में पहली बार मुख्यमंत्री को कुछ ऐसे काम करते हुए भी देखा जा रहा है और चर्चित हो रहा है. झारखंड के 38 वर्षीय नौजवान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन राहुल गांधी, अखिलेश यादव जैसी राजनेताओं की उसी पीढ़ी से हैं जिसे राजनीति विरासत में मिली. लेकिन जैसा कि ऊपर की दो घटनाएं बताती हैं, कुछ मायनों में वे इस पीढ़ी से अलहदा भी दिख रहे हैं. सिर्फ यही नहीं. कभी-कभी तो प्रचलित राजनीति के लोकाचारों से विपरीत भी उनके कुछ काम अब चर्चा में आ रहे हैं. इसका एक और सटीक उदाहरण भी छह माह पहले का ही है. यह घटना उनके अपने क्षेत्र संथाल परगना की है. तब हेमंत सोरेन दुमका के मसलिया प्रखंड में बतौर मुख्यमंत्री एक अस्पताल भवन का उद्घाटन करने पहुंचे थे. वहां सारी तैयारियां पूरी थीं लेकिन मुख्यमंत्री ने वहां पहुंचकर भी अस्पताल भवन का उद्घाटन करने से मना कर दिया. अस्पताल भवन में भारी अनियमितता हुई थी. मुख्यमंत्री ने अस्पताल का उद्घाटन तो नहीं ही किया तुरंत वहां के उपायुक्त को संबंधित अधिकारियों पर एफआईआर दर्ज करके कार्रवाई करने का आदेश दे दिया.

इस साल जुलाई में जब हेमंत सोरेन राज्य के मुख्यमंत्री बने थे तो कहा जा रहा था कि अपने पिता शिबू सोरेन की विरासत की वजह से उन्हें कुर्सी मिली है और जैसे-तैसे सरकार चलाकर वे अपने मन की यह मुराद भी पूरी कर लेंगे. यदि छवि को राजनीति में सबसे बड़ी चुनौती मान लिया जाए तो हेमंत के लिए इसे बदलना सबसे बड़ा काम था. लेकिन बीते छह महीने में चाहे-अनचाहे उनकी कार्यशैली कुछ ऐसा जाहिर करती रही है कि अपनी, पार्टी की और राज्य की छवि बदलने के लिए वे कई स्तरों पर एक साथ काम कर रहे हैं. शायद उन्हें इस बात का अहसास है कि अगर बनी-बनाई लीक को वे तोड़ने में कामयाब नहीं हो सके तो फिर उनका आगे का राजनीतिक करियर भी भंवरजाल में फंस सकता है.

हेमंत कहते हैं, ‘ मैं जानता हूं कि मुझे कम समय मिला है और इतने दिनों में मैं कम से कम व्यवस्था में सुधार नहीं कर सका, कार्यसंस्कृति नहीं बदल सका तो फिर कोई मतलब नहीं होगा मेरे मुख्यमंत्री बनने का.’ हेमंत से हम उनकी प्राथमिकता के बारे में पूछते हैं तो उनका जवाब होता है, ‘ बिजली, सड़क, पानी को मैं सरकार की प्राथमिकता नहीं मानता. यह तो सरकारों का पहला काम है. मेरी प्राथमिकता है कि लोगों को अहसास हो कि झारखंड में सरकार भी काम कर सकती है और लोग अपनी बात सरकार के पास रख सकते हंै.’

हेमंत जब यह बात कह रहे होते हैं तो सिर्फ बड़ी-बड़ी बातों की तरह यह लगता भी नहीं क्योंकि छह माह के कार्यकाल में उन्होंने यह साबित करने की कोशिश भी की है. वे कभी पैदल ही बाहर निकल पड़ते हैं. कभी खुद गाड़ी चलाकर दफ्तर पहुंच जाते हैं और तो और अपनी ही सरकार में भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने में भी उन्हें कभी हिचक नहीं होती. मुख्यमंत्री सचिवालय से निकलते समय अपने प्रधान सचिव के दफ्तर में खुद पहुंचकर मीटिंग करने में भी उन्हें संकोच नहीं है. मुख्यमंत्री के साथ रहने वाले हिमांशु शेखर चौधरी बताते हैं, ‘ हेमंत यह सब सहज और स्वाभाविक रूप से करते हैं. पैदल चलने, अचानक कहीं जाने के पहले वे मीडिया को सूचित करने को कभी नहीं कहते. प्रचार की भूख नहीं है उनमें.’

हेमंत का ऐसा ही सहज व्यवहार उनसे बात-मुलाकात के दौरान भी दिखता है. हेमंत घंटों बतियाते हैं लेकिन जब तक राज्य के मसले पर बात होती है पूरी गंभीरता से जवाब देते हैं और जैसे ही सवाल-जवाब का सिलसिला खत्म होता है, चट हमसे कैमरा मांग हमारी ही तस्वीरें उतारने लगते हैं. चहकते हुए कहते हैं, ‘कैमरे का बहुत शौक है हमें.’  हम उनसे पूछते हैं और क्या-क्या शौक हंै. वे बताते हैं, ‘खुद से ड्राइव करने का. खाना बनाने का.’ पूछने का हमारा क्रम जारी रहता है और उनके बताने का भी,’ आगे नहीं बताऊंगा, आप सुनकर हंसेंगे.’ वे बोलने से रुकते नहीं, ‘कॉमिक्स पढ़ने का. समय एकदम नहीं मिलता लेकिन मौका मिलता है तो अपने बच्चों के कॉमिक्स को गायब कर पांच-दस मिनट में फटाफट एक निपटा देता हूं.’  इन्हीं बातों के बीच गंभीर होते हुए हेमंत बात आगे बढ़ाते हैं, ‘एकदम कॉमन मैन की तरह, स्वाभाविक अंदाज में रहने का मन करता है. जब जहां जी में आए, चला जाऊं. अगर कहीं जाने में देर हो रही हो तो खुद से गाड़ी निकालूं, चल दूं. बहुत कम दूरी पर जाना हो तो पैदल चल दूं…! हमेशा ही जनता की ओर से व्यवस्था के खिलाफ लड़ने की आदत रही है. अब खुद पर व्यवस्था बदलने की जिम्मेवारी है तो सोचता हूं कि जनता बनकर उनके ही नजरिये से चीजों को देखूं और बदलाव की कोशिश करूं.’

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हालांकि हेमंत के विरोधी उन्हें रोज-ब-रोज निशाने पर लेते हैं और कहते हैं कि सरकार ने छह महीने पूरे कर लिए हैं लेकिन कोई काम होता नहीं दिखता. राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड विकास मोर्चा के नेता बाबूलाल मरांडी कहते हैं कि यह सरकार खुद के ही शासन में कह रही है कि रजिस्ट्री ऑफिस में भ्रष्टाचार है. बिना पैसे का काम नहीं होता. चहुंओर भ्रष्टाचार है तो सरकार को खुद ही इस्तीफा दे देना चाहिए. हेमंत इसके जवाब में कहते हैं, ‘हां, जो गलत हो रहा है उसे गलत ही कहूंगा और सुधारने की कोशिश करूंगा. कौन क्या कहता है, मैं इस पर ध्यान देना नहीं चाहता. मैं भ्रष्टाचार के खिलाफ सिर्फ बात नहीं करता. सरकार को कार्यभार संभाले जब 100 दिन ही हुए थे उसी बीच 64 कर्मचारियों व अधिकारियों पर हमने कार्रवाई कर दी थी. 10 लोगों को निलंबित किया गया था. मैंने प्राथमिकताएं तय की हैं और उसके अनुसार काम करूंगा. मैं उन नेताओं में से नहीं हूं जो झारखंड को गरीब और पिछड़ा कहे जाने पर खुश होकर केंद्र से पैकेज बढ़वाने के लिए खुश हो जाऊं. केंद्र से हमें अपना हक चाहिए लेकिन मुझे इस बात का भी अफसोस होता है कि आखिर वह झारखंड जिसके संसाधन से पूरा देश अमीर हो रहा है, पिछड़े राज्यों की सूची में प्राथमिकता के साथ क्यों मौजूद है!’

हेमंत जब यह बात बता रहे होते हैं तो कुछ दिनों पहले की एक-दो और घटनाएं हमारी स्मृति में उभरती हैं. दरअसल उन्होंने करीब दो महीने पहले कोल इंडिया लिमिटेड को साफ-साफ चेताया था कि कंपनी की लीज खत्म हो चुकी है और दो दशक पहले झारखंड सरकार का तीन हजार करोड़ रुपये बकाया था. सूद जोड़कर कुल राशि12 हजार करोड़ रुपये की होती है. राज्य को  पहले वह मिले और कोल कंपनियां सुनिश्चित करें कि लीज पर जमीन लेने के बाद जनता के साथ मजाक नहीं होगा तभी बात आगे बढ़ेगी. हेमंत ने कोल इंडिया से जब यह जवाबतलब शुरू किया तो लोग हैरत में भी पड़े कि कांग्रेस के सहयोग से ही सरकार चला रहे हैं और केंद्र की कांग्रेसी सरकार से ही लड़ाई छेड़ने के मूड में हैं. हेमंत कहते हैं, ‘सरकार रहे न रहे, इसकी बहुत परवाह नहीं लेकिन जितने दिन रहूंगा, राज्य की बेहतरी के लिए कुछ करने की कोशिश करूंगा.’ यह मुख्यमंत्री की अपनी बात है जिसे उनके विरोधी मानने को तैयार नहीं. राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री भाजपा के अर्जुन मुंडा कहते हैं, ‘माफियाओं-भ्रष्टाचारियों के गठजोड़ के सहयोग से यह सरकार बनी है, इसलिए उन्हें संरक्षण भी मिल रहा है.’ सरकार के साथ ही हेमंत पर बीते दिनों में व्यक्तिगत आरोप भी लगे हैं. उनमें से एक यह है कि उप-मुख्यमंत्री बनते ही हेमंत सोरेन ने मैनहर्ट प्राइवेट लिमिटेड नाम की एक कंपनी के लिए 21.40 करोड़ रुपये की राशि स्वीकृत करके करीब 13 करोड़ रुपये का घोटाला किया था. झारखंड पीपुल्स पार्टी के केंद्रीय अध्यक्ष सूर्य सिंह बेसरा के मुताबिक रांची शहर के लिए सीवरेज-ड्रेनेज परियोजना के निर्माण के लिए मैनहर्ट प्राइवेट लिमिटेड की नियुक्ति की गई थी. परियोजना की प्राक्कलन राशि 9 करोड़ 25 लाख 80 हजार रुपये थी. योजना कई वर्ष से लंबित थी लेकिन उपमुख्यमंत्री बनते ही हेमंत सोरेन ने इस योजना के तहत 21 करोड़ 40 लाख रुपये की राशि सिंगापुर की कंपनी मैनहर्ट प्राइवेट लिमिटेड के लिए मंजूर कर दी. इस तरह उन्होंने 13 करोड़ रुपये का घोटाला किया. बेसरा ने हेमंत पर यह आरोप भी लगाया था कि उन्होंने रांची के अरगोड़ा प्रखंड में 44 लाख की लागत से एक प्लॉट अपनी पत्नी कल्पना मुमरू के नाम से खरीदा था. जमीन की डीड में कल्पना मुमरू के पति हेमंत सोरेन के स्थान पर पिता का नाम और उनके बारीपदा, उड़ीसा स्थित आवास का पता लिखा गया है. बकौल बेसरा, ‘उड़ीसा के आदिवासी ने रांची के आदिवासी की जमीन कैसे खरीदी. यह तो यहां के कानून का उल्लंघन है. साथ ही चुनाव आयोग को दिए गए शपथ पत्र में भी उन्होंने इस संपत्ति का उल्लेख नहीं किया है.’ बेसरा का कहना है कि वे चुनाव आयोग से हेमंत की सदस्यता रद्द करने की मांग करेंगे. अब ये आरोप सच हैं या नहीं लेकिन एक बात जरूर है कि किसी ने भी सरकार या मुख्यमंत्री को इन आरोपों के आधार पर अदालत में अब तक नहीं घसीटा है.

इन आरोपों से बचने और अपनी छवि बचाने-बनाने के अलावा हेमंत के सामने बाधाएं और भी हैं. एक मुश्किल तो आए दिन उन्हें उनके पिता की तरफ से झेलनी पड़ती है. झारखंड मुक्ति मोर्चा के सुप्रीमो शिबू सोरेन ही कभी-कभी ऐसे बयान दे देते हैं जिसकी सफाई हमेशा हेमंत को देनी पड़ती है. पिछले दिनों शिबू सोरेन ने अचानक ही कह दिया कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से सीटों को लेकर कोई समझौता नहीं हुआ है. यह सवाल बवाल खड़ा करने के लिए काफी था. कांग्रेस आक्रामक होने लगी. हेमंत को तुरंत सफाई देनी पड़ी कि कांग्रेस से दस-चार का समझौता हुआ है. कुल 14 सीटों में से दस पर कांग्रेस लड़ेगी और चार सीटों पर उनकी पार्टी झामुमो.

unnamedइसके अलावा सरकार के स्तर पर भी हेमंत को कुछ ऐसे फैसले लेने हैं जो उनके राजनीतिक भविष्य के लिए निर्णायक साबित होंगे. हेमंत झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता हैं और उनकी पार्टी की पहचान झारखंडी पहचान वाली रही है. राज्य में स्थानीय नीति को लेकर सालों से बहस चलती रही है. हर बार चुनाव में यह एक बड़ा मुद्दा होता है. हेमंत खुद इस पर बयान देकर, बयान बदलकर फेरे में फंस चुके हैं. हेमंत को साफ-साफ तय करना होगा कि आखिर स्थानीयता को लेकर झारखंड में नीति क्या होगी. यह करना इस नौजवान मुख्यमंत्री के लिए आसान नहीं होगा. हालांकि वे कहते हैं कि जिसके पास भी खतियान (जमीन के मालिकाना हक के दस्तावेज) होगा वह झारखंडी होगा. हेमंत को सरना कोड (धर्मांतरित आदिवासियों के बजाय अपने ही रीति-रिवाजों को मानने वाले आदिवासियों को कानूनी रूप से आदिवासी होने की मान्यता देना) लागू करने पर भी नीति तय करने का दबाव है और यह काफी विवादित मुद्दा है. उन पर आदिवासियों की जमीन खरीद से जुड़े कानूनों छोटानागपुर टीनेंसी एक्ट व संताल परगना टीनेंसी एक्ट के बाबत एक नीति तय करने का भी दबाव होगा. इन सभी मसलों पर हेमंत कहते हैं, ‘मेरे जेहन में सब बातें हैं. एक-एक कर सब पर बात करेंगे.’

जहां तक राजनीतिक चुनौतियों की बात है तो मुख्यमंत्री की राह यहां भी आसान नहीं है. हेमंत ने सरकार बनाने के लिए कांग्रेस से दस-चार का समझौता तो कर लिया है लेकिन इससे उनके दल में फूट पड़ने की संभावना पैदा हो सकती है. कई नेता ऐसे हैं जो लोकसभा चुनाव लड़ने की उम्मीद में थे. अब उनकी पार्टी चुनाव ही नहीं लड़ेगी तो वे किसी दूसरे दल में भी छलांग लगा सकते हैं. हेमंत को भी इस बात का अंदाजा है. हमारे इस सवाल पर कि इस समय जब लोकसभा चुनाव की लड़ाई  नरेंद्र मोदी बनाम अन्य जैसी होती जा रही है तो उनकी पार्टी की क्या रणनीति रहेगी,  हेमंत हंसते हुए जवाब देते हैं, ‘हम तो कांग्रेस के साथ ही लड़ेंगे. बाकि दूसरे मॉडलों की बात मत कीजिए जिनकी आजकल धूम है.  मेरे पास अभी उतना अनुभव नहीं है. मैं अभी देश की राजनीति में उतना दिमाग नहीं लगाता.’

तो इस समय उनके सामने जो चुनौतियां हैं वे अनुभव की कमी होने से हैं? इसके जवाब में हेमंत कहते हैं, ‘हां, अनुभव का अपना महत्व है लेकिन काम करने से ही तो अनुभव आता है. वैसे मैं अचानक राजनीति में नहीं आया हूं. विधायक रहा हूं.  राज्यसभा भी गया. चुनाव में हार का सामना किया. अपने पिता को बचपन से राजनीति करते हुए देखा है. मुझे याद है कि एक समय ऐसा भी था जब मेरे पिता को देखते ही गोली मारने का आदेश था. वे घर आते और रात में ही लालटेन-लाठी लेकर निकल जाते. हम लोग दरवाजे से खड़े होकर लालटेन की रोशनी खत्म होने तक उन्हें देखते रहते थे. यह सब भी हमारे राजनीति के अनुभव का हिस्सा है. हमने बहुत करीब से और संघर्ष करके राजनीति के सबक सीखे हैं.’

हेमंत के छह माह कार्यकाल के बाबत विरोधियों से बात होती है तो वे निशाने पर लेते ही हैं लेकिन कोई ठोस कारण नहीं गिना पाते. जहां तक हेमंत की बात है तो फिलहाल राज्य और उनकी पार्टी के अतीत को देखते हुए सकारात्मक बदलावों को स्थायी मानना मुश्किल है. फिर भी उनकी छह माह की सरकार उजली और बदली तो नजर आ ही रही है.
(निराला के सहयोग के साथ)

घर की लड़ाई सड़क पर आई

बिखराव (बाएं से) एक आयोजन में संजय ससंह, रीता बहुगुणा जोशी और प्रमोद सतवारी
बिखराव (बाएं से) एक आयोजन में संजय ससंह, रीता बहुगुणा जोशी और प्रमोद सतवारी

कोढ़ में खाज वाली कहावत को साकार करते हुए उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पुराने और बड़े नेता ही बगावती तेवर पर उतर आए हैं. हाल में चार राज्यों में पार्टी की करारी हार हो चुकी है. आम चुनाव नजदीक हैं. अपनी 80 लोकसभा सीटों के साथ जिस उत्तर प्रदेश को राजनीतिक लिहाज से देश का सबसे अहम सूबा माना जाता है वहां का हालिया घटनाक्रम कांग्रेस के लिए शुभ संकेत नहीं लगता.

पहले तो कांग्रेस के गढ़ समझे जाने वाले अमेठी के राजा व सुल्तानपुर से कांग्रेस के सांसद संजय सिंह ने अपने जन्मदिन पर भाजपा नेताओं को घर पर बुला कर पार्टी को दुविधा में डालने का काम किया. अब पार्टी के वरिष्ठ नेता और विधायक प्रमोद तिवारी सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी की मदद से राज्यसभा का रास्ता चुन चुके हैं. उत्तर प्रदेश विधानसभा में कांग्रेस की हैसियत राज्यसभा सीट के लिए उम्मीदवार उतारने की नहीं थी. लेकिन सारा खेल सपा की मदद से हुआ. यह अलग बात है कि तिवारी की जिद के आगे कांग्रेस को उन्हें पार्टी का चुनाव चिन्ह देना पड़ा. कांग्रेस के ही एक नेता सवाल करते हैं, ‘अब लोकसभा चुनाव से पहले यूपी में पार्टी के नेता किस मुंह से सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी या भाजपा को घेर पाएंगे?’ 2009 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में 22 लोकसभा सीटें जीतने वाली कांग्रेस को उत्तर प्रदेश से काफी उम्मीदें थीं. लेकिन ये 2012 के विधानसभा चुनाव में टूट गईं. उसके विधायक दहाई का भी आंकड़ा नहीं पार कर पाए. अब जब 2014 के लोकसभा चुनाव सिर पर हैं तो ऐन वक्त पर पार्टी के पुराने धुरंधर ही उसके लिए सिरदर्द बन रहे हैं.

सबसे पहले गांधी परिवार के गढ़ अमेठी की बात करते हैं. अमेठी राजघराने के राजा व सुल्तानपुर से सांसद संजय सिंह पार्टी से नाराज चल रहे हैं. उनकी यह नाराजगी कई बार खुले मंच से भी जाहिर हो चुकी है. राजा साहब की नाराजगी का सबसे बड़ा कारण अपनी कुर्सी से जुड़ा है. जिस सुल्तानपुर लोकसभा सीट से संजय सिंह सांसद हैं, वहां से 2014 में वरुण गांधी का लड़ना तय माना जा रहा है जो उनके पुराने मित्र संजय गांधी के बेटे हैं. इसके चलते संजय सिंह को अपनी सीट भाजपा के पाले में जाती दिख रही है. दूसरी ओर जिस अमेठी राजघराने के वे राजा हैं वहां से कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी खुद चुनाव लड़ते हैं. ऐसे में संजय सिंह के सामने अपनी कुर्सी को लेकर संशय बना हुआ है. सूत्र बताते हैं कि कुर्सी बचाने के लिए ही संजय सिंह आजकल भाजपा से नजदीकी बढ़ा रहे हैं. भाजपा से उनकी नजदीकियां पहले तो अंदरखाने थीं, लेकिन कुछ दिन पूर्व ये उस समय सार्वजनिक हुईं जब उनके घर पर भाजपा के नेताओं का जमावड़ा लगा. मौका था राजा साहब का जन्मदिन. जन्मदिन के बहाने राजमहल में जो राजनीतिक सरगर्मी थी उसमें वही चंद कांग्रेसी शामिल थे जिनसे राजा साहब के पारिवारिक रिश्ते थे. बाकी भीड़ भाजपा नेताओं की थी.

वैसे यह पहला मौका नहीं है जब संजय सिंह अपनी ही पार्टी से नाराज हैं. इससे पहले 2012 के विधानसभा चुनाव में उनकी पत्नी रानी अमिता सिंह कांग्रेस के टिकट पर अमेठी विधानसभा से कांग्रेस की प्रत्याशी थीं. चुनाव में वे खेत रहीं. उस समय भी संजय सिंह ने हार का ठीकरा राहुल व सोनिया के उन करीबी लोगों पर फोड़ा था जो अमेठी व रायबरेली का प्रबंधन देखते हैं. फिलहाल संजय सिंह तहलका से बातचीत में खुद के कांग्रेस के साथ ही रहने की बात कहते हैं, लेकिन सुल्तानपुर व अमेठी के दूसरे कांग्रेसियों को ऐसा नहीं लगता. कांग्रेस के टिकट पर विधायक रहे एक कांग्रेसी कहते हैं, ‘भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष उत्तर प्रदेश से ही हैं और ठाकुर बिरादरी से ताल्लुक रखते हैं. बीच में कुछ समय संजय सिंह भाजपा के साथ भी रहे हैं. ऐसे में चुनाव के समय ऊंट किस करवट बैठेगा अभी यह कहना जल्दबाजी होगी.’

उधर, यह सब चल ही रहा था कि नौ बार लगातार विधायक रह चुके प्रमोद तिवारी ने आलाकमान की मुश्किलंे बढ़ा दीं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश से कांग्रेस के कद्दावर राज्यसभा सांसद काजी रशीद मसूद के अयोग्य ठहराए जाने के बाद एक सीट खाली हुई थी. विधानसभा में विधायकों के संख्या बल के आधार पर कांग्रेस के पास इतनी क्षमता नहीं थी कि वह अपने किसी नेता को राज्यसभा तक पहुंचा सके. लिहाजा पार्टी शांत थी. इस सबके बीच प्रतापगढ़ जिले से कांग्रेस विधायक प्रमोद तिवारी ने खुद के राज्यसभा जाने का रास्ता चुन लिया. इस काम के लिए उन्होंने सपा से मदद लेने में भी कोई गुरेज नहीं किया. कांग्रेस के सूत्र बताते हैं कि खुद सोनिया गांधी नहीं चाहती थीं कि राज्यसभा के लिए उनकी पार्टी से कोई सपा की मदद से चुना जाए क्योंकि ऐसा करने से जनता के बीच चुनाव से ठीक पहले गलत संदेश जाता. सवाल उठे कि इसके बाद पार्टी कार्यकर्ता किस मुंह से चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ बिगुल फूंकने का काम करेगा. लेकिन प्रमोद तिवारी की जिद के आगे कांग्रेस हाईकमान को भी घुटने टेकने पड़ गए. ऐन वक्त पर पार्टी को तिवारी को अपना चुनाव चिह्न तक देना पड़ा.
वैसे देखा जाए तो उत्तर प्रदेश कांग्रेस में तिवारी की सपा से नजदीकियों पर किसी को कोई आश्चर्य नहीं है क्योंकि 1989 के बाद सूबे में सरकार चाहे जिसकी भी रही हो तिवारी के सभी पार्टियों से रिश्ते मधुर ही रहे हैं. यही कारण है कि कई बार कांग्रेस को असहज स्थिति का सामना भी करना पड़ा है. कांग्रेस के एक पुराने नेता कहते हैं, ‘1991 से 2012 तक लगातार 21 साल तक विधानमंडल दल का नेता रहने के बावजूद प्रमोद तिवारी को उनके इसी स्वभाव के कारण प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी नहीं दी गई.’

इसके बावजूद सभी हथकंडे अपना कर तिवारी खुद राज्यसभा पहुंच गए हैं. वहीं उनके जाने से खाली हुई उनकी सीट पर बेटी मोना तिवारी की दावेदारी मानी जा रही है. उत्तर प्रदेश कांग्रेस प्रभारी मधुसूदन मिस्त्री तहलका को बताते हैं कि प्रमोद तिवारी के सपा की मदद से राज्यसभा में जाने से कांग्रेस का कोई लेना-देना नहीं है. वे कहते हैं, ‘कांग्रेस ने पहले ही अपना रुख साफ कर दिया था कि कोई भी बड़ा नेता राज्यसभा सीट को लेकर सपा से बातचीत नहीं करेगा. तिवारी के नामांकन के समय भी वहां पार्टी का न तो महासचिव मौजूद था और न कोई सचिव. पार्टी की ओर से सपा से कोई सपोर्ट भी नहीं मांगा गया था.’ मिस्त्री की बातों से साफ हो जाता है कि पार्टी के न चाहते हुए भी तिवारी ने सपा का सहयोग लेकर एक तरह से पार्टी को खुलेआम चुनौती देने का काम किया है.

दूसरी ओर सपा ने भी इस बहाने एक तीर से दो निशाने साधने का काम किया है. एक ओर उसने तिवारी को राज्यसभा भेज कर कांग्रेस व बसपा के बीच बढ़ रही नजदीकियों पर विराम लगाने का काम किया है. दूसरी तरफ कांग्रेस की रैलियों व आंदोलनों में उसके नेता कानून व्यवस्था सहित कई मुद्दों पर राज्य सरकार को घेरने की जो रणनीति बनाए हुए थे सपा के इस दांव ने उसे भी कमजोर करने का काम किया है. सपा के सूत्र बताते हैं कि इन्हीं सब कारणों को देखते हुए सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह भी इस बात पर अड़े थे कि रशीद मसूद वाली सीट पर अगर कोई कांग्रेस से राज्यसभा जाएगा तो वे प्रमोद तिवारी ही होंगे.
हालांकि तिवारी को राज्यसभा भेज कर सपा भले ही अपना हित साधने का प्रयास कर रही है, लेकिन स्थितियां उसके लिए भी कम असहज नहीं हैं. आजमगढ़ से लेकर बरेली तक अपनी तमाम रैलियों में मुलायम सिंह यादव व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने महंगाई व भ्रष्टाचार के मुद्दे पर केंद्र की कांग्रेसनीत सरकार को घेरने की कोशिश की है. ऐसे में सपा के सामने भी समस्या है. एक ओर तो वह कांग्रेस को खुले मंच से भला-बुरा कह रही है और दूसरी ओर अपने नेताओं को दरकिनार करके उसी के नेता को पुरस्कार स्वरूप राज्यसभा भेज रही है.

उधर, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की चुनौतियां यहीं खत्म नहीं होतीं. चुनावी तैयारियों के लिहाज से देखें तो सपा व बसपा ने अपने प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं और वे प्रचार के मोर्चे पर भी डट गए हैं. उधर, कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा भी अभी खड़ा नहीं हो पाया है जबकि नया प्रदेश अध्यक्ष बने करीब एक साल हो रहा है. पार्टी सूत्र बताते हैं कि प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री खुद हाईकमान को बता चुके हैं कि स्वास्थ्य कारणों से वे पूरे प्रदेश का तूफानी दौरा नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे में पार्टी के सामने चुनाव से ठीक पहले एक ऐसा नया अध्यक्ष ढूंढ़ने की चुनौती भी है जो संगठन को बूथ स्तर तक खड़ा करने के साथ-साथ गुटबाजी से भी दूर रहे. प्रदेश में कांग्रेस की हालत का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि यहां पार्टी के स्टार प्रचारक राहुल गांधी की रैलियां फ्लॉप रही हैं. अलीगढ़ में उनकी चुनावी रैली हो चाहे हमीरपुर में, हर जगह सपा व भाजपा के मुकाबले कहीं कम लोग जुट रहे हैं. राहुल की रैलियों में भीड़ नदारद देख अब उनकी रैलियों पर ही विराम लगा दिया गया है.

2014 के लोकसभा चुनाव के लिए हाईकमान ने जिन मधुसूदन मिस्त्री को उत्तर प्रदेश की कमान सौंपते हुए प्रभारी बनाया है वही मिस्त्री मध्य प्रदेश में भी विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस की ओर से टिकट चयन समिति के चेयरमैन बनाए गए थे. वहां कांग्रेस की हालत सबके सामने है. अब देखना यह है कि 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा व भाजपा के सामने मिस्त्री का चुनाव प्रबंधन कितना कारगर होता है.

बुझती उम्मीद

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मुजफ्फरनगर में हुए भीषण दंगों को बीते तीन महीने हो गए हैं. इस घटना के बाद  जो हो रहा है उससे लगता है कि राजनीतिक और प्रशासनिक वर्ग का एक बड़ा हिस्सा अब न्याय और विश्वास बहाली के बजाय इस जुगत में लगा है कि मामले को कैसे रफा-दफा किया जाए. भारत में पिछले एक दशक के दौरान हुए सबसे भयानक इन दंगों में 59 लोगों की जान चली गई थी और 50 हजार से भी ज्यादा बेघर हो गए थे. दंगों के पीड़ित अब मुजफ्फरनगर, शामली और गाजियाबाद में बने अलग-अलग राहत शिविरों में रह रहे हैं. एक तरफ इन शिविरों में ठंड से निपटने के अपर्याप्त इतंजाम के चलते नवजात बच्चों की मौत की खबरें आ रही हैं तो दूसरी तरफ जांच एजेंसियां अब भी उन छह पीड़ितों का बयान नहीं ले सकी हैं जिनके साथ दंगों के दौरान कथित तौर पर बलात्कार हुआ था.

बलात्कार का एक भी आरोपित अब तक गिरफ्तार नहीं हुआ है. बल्कि मुजफ्फरनगर के जोगिया खेड़ा राहत शिविर में रह रहे एक पीड़ित का कहना है कि जिला अस्पताल के डॉक्टरों ने उसकी पत्नी का यह कहकर मजाक उड़ाया कि न तो वह जवान है और न खूबसूरत जो कोई उसके साथ बलात्कार जैसी हरकत करे. इस व्यक्ति का कहना था, ‘हमने यह बात अधिकारियों को भी बताई और पुलिस को भी, लेकिन हमें उम्मीद नहीं कि वे इसे गंभीरता से लेंगे. वे तो बलात्कार के ही आरोप की जांच करने में ऐसा ढीलापन दिखा रहे हैं.’

जांच में हो रही इस देरी पर जो तर्क दिए जा रहे हैं उनमें से कुछ तो बहुत अजीब हैं. दंगों की जांच करने के लिए बने विशेष जांच दल के इंचार्ज और एएसपी मनोज झा कहते हैं, ‘शुरुआत में हमारी टीम में कोई महिला अधिकारी नहीं थी जो इस तरह के मामलों से निपटती.’ जब हम उन्हें बताते हैं कि तहलका ने बलात्कार के ऐसे पांच आरोपित देखे हैं जो अपने गांवों में आज भी गिरफ्तारी के किसी डर के बिना आराम से घूम रहे हैं तो झा कहते हैं, ‘हमें उन शिकायतकर्ताओं तक पहुंचने में बहुत समय लगा जो अलग-अलग राहत शिविरों में रह रहे थे.’ झा यह भी कहते हैं कि जांच की दिशा क्या हो, यह तय करने से पहले उन पहाड़ सरीखी जानकारियों की ठीक से पड़ताल करनी थी जिनमें आपस में ही कई विरोधाभास थे. वे कहते हैं, ‘एक मामला तो ऐसा है जिसमें पीड़ित कुछ बता रही है और उसका एक रिश्तेदार कुछ और ही बता रहा है.’

हालांकि विशेष जांच दल की भी अपनी समस्याएं हैं. उदाहरण के तौर पर, जब यह बना तो इसके दो हफ्ते बाद तक तो अधिकारियों के पास इधर-उधर जाने के लिए वाहन तक नहीं थे. इस दल में दो टीमें हैं जिनमें दो एएसपी, चार डिप्टी एसपी और 54 इंस्पेक्टर व सब इंस्पेक्टर हैं.

विशेष जांच दल के पास अभी जो आंकड़े हैं उनके मुताबिक दंगों के दौरान हुए अपराधों के सिलसिले में कुल 568 प्राथमिकियां दर्ज की गई हैं जिनमें 6,405 लोगों को आरोपित बनाया गया है. ये दंगे मुजफ्फरनगर, शामली, बागपत, मेरठ और सहारनपुर जिलों में हुए थे जिनमें बलात्कार, हत्या, आगजनी, लूट, दंगे के लिए भड़काना जैसे अपराधों के लिए मामले दर्ज किए गए हैं. तहकीकात के दौरान अब तक आरोपितों में 225 नाम और जोड़े गए हैं, जबकि 216 लोगों के नाम प्राथमिकी से हटाए गए हैं. अब तक कुल 275 गिरफ्तारियां हो गई हैं, जबकि 392 और लोगों की गिरफ्तारी के लिए आदेश जारी हो चुके हैं. इनमें 45 गैरजमानती वारंट भी हैं.

विशेष जांच दल का दावा है कि तहकीकात जनवरी के आखिर तक खत्म हो जाएगी. लेकिन फिलहाल इसकी जो स्थिति है उसे देखकर यह मुमकिन नहीं लगता. मुजफ्फरनगर में एसएसपी के रूप में तैनात रह चुके एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी बताते हैं, ‘खतरा इस बात का है कि अब कहीं तय समय सीमा का पालन करने की जल्दी में जांच में कई झोल न छोड़ दिए जाएं जिससे कोर्ट में आरोपितों के खिलाफ मामला कमजोर हो जाए.’

इस बीच, दंगों के बाद मुजफ्फरनगर और इसके आस-पास के इलाकों में हत्या की छिटपुट घटनाएं बढ़ी हैं. इनमें से ज्यादातर मामलों में पीड़ितों को पहले घात लगाकर घेरा गया और फिर उन्हें पीट-पीटकर मार डाला गया. सितंबर से लेकर अब तक मुजफ्फरनगर में 24 से भी ज्यादा इस तरह की हत्याएं हो चुकी हैं. आशंकाएं जताई जा रही हैं कि ये हत्याएं चुपचाप चल रहे टकराव के एक अभियान का हिस्सा हो सकती हैं जिसके तार उस सामुदायिक नफरत से जुड़े हैं जिसकी चपेट में यह पूरा इलाका आया हुआ है. जाट और मुस्लिम समुदाय के बहुत-से नेता यह बात मानते हैं कि दोनों ही समुदायों के कुछ हिस्सों में अब भी गुस्सा उबल रहा है. उन्हें लग रहा है कि उनके साथ अन्याय हुआ है. स्थानीय लोग बताते हैं कि बदले की इसी भावना के चलते हाल ही में खामपुर गांव में जाट समुदाय के एक व्यक्ति और मोहम्मदपुर राय सिंह गांव में तीन मुस्लिम नौजवानों की हत्या कर दी गई. हालांकि स्थानीय प्रशासन इस बात से इनकार करता है कि इन हत्याओं का सांप्रदायिक तनाव से कोई लेना-देना था, लेकिन राज्य सरकार अब कोई चूक करते दिखना नहीं चाहती. अपनी गंभीरता दिखाने के लिए उसने आगरा के आईजी आशुतोष पांडे को आईजी (मेरठ) का भी अतिरिक्त प्रभार सौंप दिया है. काम के लिहाज से पांडे की छवि अच्छी मानी जाती है और 1998-2001 के दौरान मुजफ्फरनगर में बतौर एसपी के रूप में अपनी तैनाती में उन्होंने कानून और व्यवस्था को जिस तरह काबू में रखा उसके लिए अब भी उन्हें याद किया जाता है. उस दौरान दर्जनों कुख्यात अपराधी पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारे गए थे. सूत्र बताते हैं कि अपने असर का इस्तेमाल करते हुए पांडे पिछले कुछ समय से अलग-अलग समुदाय के नेताओं के साथ बैठकें कर रहे हैं ताकि आपसी विश्वास, सुरक्षा और एकता की बहाली हो सके. मुजफ्फरनगर में तैनात एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी बताते हैं, ‘पांडे गांववालों और समुदाय के नेताओं के साथ घंटों बैठकें कर रहे हैं. वे स्थानीय प्रेस के प्रतिनिधियों के साथ भी खूब वक्त गुजार रहे हैं और उनका भरोसा जीतने की कोशिश कर रहे हैं. इसका मकसद खबरों के ऐसे कवरेज से बचना है जिससे सांप्रदायिक सद्भाव और शांति के रास्ते में बाधा आए.’

हालांकि पांडे जैसे पुलिस अधिकारियों के ऐसे सराहनीय प्रयासों के बावजूद इस दिशा में राजनीतिक इच्छाशक्ति का पूरी तरह से अभाव दिखता है. उस सामाजिक ताने-बाने को फिर से बहाल करने में राजनीतिक नेतृत्व की कोई दिलचस्पी नहीं लगती जो दंगों से तार-तार हो गया है. नई दिल्ली स्थित एक संगठन सेंटर फॉर पॉलिसी एनालिसिस (सीपीए) की रिपोर्ट भी कुछ ऐसा ही कहती है. सीपीए की एक टीम ने मुजफ्फरनगर और शामली जिलों में बने राहत शिविरों का दौरा किया था. इस टीम में जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मांदर, पत्रकार सीमा मुस्तफा और सुकमार मुरलीधरन जैसे चर्चित लोग शामिल थे. टीम ने उत्तर प्रदेश सरकार की नीयत पर गंभीर सवाल उठाए हैं और उसका मानना है कि दंगों से पैदा हुई खाई पाटने में सरकार की कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखती. रिपोर्ट जारी करते हुए मांदर ने सरकार से मांग की कि वह उस नीति पर फिर से विचार करे जिसके तहत उन लोगों को पांच लाख रु का मुआवजा दिया जा रहा है जो शपथपत्र पर यह लिखकर देंगे कि वे अब अपने गांवों को नहीं लौटेंगे. हालांकि मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक दंगों में सिर्फ एक वर्ग को आर्थिक मदद दिए जाने पर सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रुख दिखाते हुए सरकार से यह फैसला वापस लेने को कहा था. अदालत ने राज्य सरकार से कहा था कि वह नई अधिसूचना जारी करके हिंसा प्रभावित सभी लोगों को समान मदद दे. प्रदेश सरकार ने भी इसे गलत माना था और इस अधिसूचना को वापस लेने का वादा किया है.
अब तक राहत कैंपों में रह रहे करीब 900 परिवारों ने ऐसे शपथपत्रों पर हस्ताक्षर कर दिए हैं. मांदर मानते हैं कि ऐसी पहल से ग्रामीणों के बीच एक स्थायी खाई खिंच जाएगी. उनका कहना था, ‘इसकी बजाय सरकार को इन परिवारों की मदद और समर्थन करना चाहिए और सुरक्षा का एक माहौल बनाने की कोशिश करनी चाहिए ताकि लोग आश्वस्त होकर अपने घरों को लौट सकें.’ उन्होंने सवाल किया कि आखिर सरकार को राहत शिविर बंद करने की इतनी जल्दी क्यों है. सीपीए की टीम के मुताबिक 2002 में हुए गुजरात दंगों के बाद लगाए गए राहत शिविर छह महीने बाद बंद किए गए थे जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लगाए गए ये कैंप दंगों के सिर्फ तीन महीने बाद समेटे जा रहे हैं.

टीम ने इन राहत कैंपों में व्याप्त नारकीय हालात की तरफ भी ध्यान खींचा. हमने भी पाया कि सच्चाई ऐसी ही है. उदाहरण के लिए, मुजफ्फरनगर के लोई गांव के एक शिविर में करीब 3,500 लोग इस ठंड में कपड़े के टेंटों में रह रहे हैं. कई महिलाओं ने अपने बच्चों को इन्हीं शिविरों में जन्म दिया है. मुजफ्फरनगर और शामली में इन शिविरों से बच्चों की मौत की खबरें आने के बाद बीते दिनों उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिए कि खबरों की सत्यता की जांच की जाए और इन शिविरों में ठंड से बचाव के लिए तत्काल समुचित प्रबंध किए जाएं. खासकर महिलाओं और बच्चों के लिए. अदालत ने 21 जनवरी तक सरकार से इस मामले में अपनी रिपोर्ट देने को कहा है.  उधर, पीड़ित आरोप लगाते हैं कि भले ही जिला प्रशासन दावा कर रहा हो कि डॉक्टर शिविरों में नियमित रूप से आ रहे हैं लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है.

लोई के पूर्व मुखिया अब्दुल जब्बार बताते हैं, ‘पिछले तीन महीने के दौरान करीब डेढ़ हजार नौजवान रोजगार की तलाश में शहरों की तरफ निकल गए हैं. हमारा भविष्य शांतिपूर्ण होगा इस बारे में सरकार कोई भी उम्मीद जगाने में नाकाम रही है. पांच लाख रुपये के मुआवजे की पेशकश के बाद यहां 280 परिवारों नेे ऐसे एफिडेविट पर दस्तखत कर दिए हैं कि वे अब अपने गांव नहीं लौटेंगे. सरकार कुछ नहीं कर रही. सिर्फ अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रही है. समुदाय के लोगों की मदद के बिना इन परिवारों का ऐसे मुश्किल हालात से निपटना बहुत मुश्किल होता.’

कुल मिलाकर देखें तो पीड़ितों ने मान लिया है कि पुरानी स्थिति की बहाली लगभग नामुमकिन है. दंगों के तीन महीने बाद हाल यह है कि फुगाना, लिसाड़, कुटवा और कुटवी के जो मुस्लिम परिवार राहत शिविरों में रह रहे हैं वे अब अपने गांव लौटने से इनकार करते हैं. जब्बार कहते हैं, ‘फुगाना गांव के जिन 350 परिवारों के घर दंगों में जल गए थे उनमें से कोई अब वापस नहीं लौटना चाहता. बल्कि मुआवजे का जो पैसा मिला है उससे वे मुस्लिम बहुल इलाकों में जमीन खरीदकर वहीं रहना चाहते हैं. दंगों की वजह से अब वे दूसरे समुदाय के लोगों के आसपास रहने से डरने लगे हैं.’ लोगों ने अपनी संपत्ति को भी बेचना शुरू कर दिया है. ऐसे एक मामले में बीते दिनों शामली जिले के लाख गांव में एक मुस्लिम परिवार ने अपना मकान और जमीन अपने पड़ोसी जाट परिवार को बेच दी. इस परीवार के तीन भाइयों, में से एक नवाब का कहना था, ‘हमने जो देखा उसके बाद मैं जानता हूं कि अब हम यहां कभी वापस नहीं आ सकते.’ नवाब का परिवार भी शामली के उन 680 परिवारों में से एक है जिन्होंने अपने गांव वापस न लौटने के बदले सरकार से पांच लाख रु का मुआवजा लिया है.
फुगाना उन इलाकों में से हैं जहां सबसे ज्यादा हिंसा हुई थी. यहां 16 लोग मारे गए थे और अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के सारे घर फूंक दिए गए थे. बलात्कार के जो छह मामले दर्ज हुए हैं वे सारे फुगाना पुलिस स्टेशन में ही दर्ज हुए हैं. इनमें से पांच कथित रूप से दंगों के दौरान हुए जबकि एक राहत शिविर में.

मनीष गुप्ता सामाजिक कार्यकर्ता हैं और मुजफ्फरनगर में रहते हैं. नेशनल एलायंस ऑफ पीपुल्स मूवमेंट्स से जुड़े गुप्ता कहते हैं कि प्रशासन ऐसे कदम उठा रहा है जिससे राहत शिविरों में रह रहे पीड़ित अपने गांवों में लौटकर न जाएं. यह बताता है कि उसमें दूरदृष्टि का अभाव है. वे कहते हैं, ‘इससे एक खतरनाक परंपरा स्थापित हो रही है. हम सब जानते हैं कि मुजफ्फरनगर दंगे का मुसलमानों और जाटों के बीच नफरत का उतना लेना-देना नहीं था जितना इस बात से कि इन्हें संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों को चलते जान-बूझकर भड़काया गया. ये दो समुदाय यहां लंबे समय से शांतिपूर्वक रह रहे थे. पड़ोसी जिले मेरठ में बड़े-बड़े सांप्रदायिक दंगे हुए, लेकिन मुजफ्फरनगर में तब भी कुछ नहीं हुआ.’

राष्ट्रीय लोक दल के नेता अरुण पुंडीर कहते हैं कि ये दोनों समुदाय लंबे समय से एक-दूसरे पर निर्भर रहे हैं और इलाके में गन्ने की खेती ने इस निर्भरता को और मजबूत किया था. वे कहते हैं, ‘जहां जाटों के पास गन्ने की बड़ी-बड़ी जोतें हैं वहीं काम करने वालों का एक बड़ा हिस्सा मुस्लिम समुदाय से आता है. दोनों समुदायों का इस तरह अलग-अलग इलाकों में बस जाना न सिर्फ सामाजिक ताना-बाना छिन्न करेगा बल्कि दीर्घकालिक रूप से देखा जाए तो इलाके की अर्थव्यवस्था के लिए भी नुकसानदेह होगा.’

आसान रास्ते खोजने की जगह राहत और पुनर्वास की ऐसी कोशिशें होनी चाहिए जो दोनों समुदायों के लोगों के बीच आई दरार को भर सकें.  लेकिन अलग-अलग कवायदें जिस तरह से चल रही हैं उनसे साफ है कि ऐसा नहीं हो रहा.

बिन धन, लोकलुभावन!

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने कामकाज संभालते ही अपने घोषणापत्र को अमलीजामा पहनाना शुरू कर दिया है. चूंकि वे खुद वित्तमंत्री का दायित्व भी निभाएंगे, ऐसे में बतौर वित्तमंत्री उनके लिए नई घोषणाओं के लिए फंड जुटाना बड़ी चुनौती होगी. संभावना जताई जा रही है कि राज्य में वित्तीय वर्ष 2013-14 के लिए 44,169 करोड़ रुपये का जो बजट अनुमान था वह 2014-15 में बढ़कर करीब 48 हजार करोड़ रुपये के पार पहुंच जाएगा.

रमन सिंह ने शपथ लेते ही निर्देश जारी कर दिए हैं कि 1 जनवरी, 2014 से 47 लाख परिवारों को एक रुपए प्रति किलो की दर से चावल दिया जाए. घोषणा पत्र के अपने वादे को पूरा करते हुए समर्थन मूल्य पर धान बेचने वाले किसानों को प्रति क्विंटल 300 रुपये बोनस देने का आदेश भी दे दिया गया है. साथ ही अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिवस यानी 25 दिसंबर, 2013 से अटल बीमा योजना लागू करने के निर्देश भी जारी कर दिए गए हैं. इसके तहत प्रदेश के लगभग 17 लाख खेतिहर मजदूरों का जीवन व दुर्घटना बीमा किया जाएगा. आदिवासियों और वनवासियों के लिए तेंदूपत्ता की तर्ज पर इमली, चिरौंजी, महुआ, लाख और कोसा को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने का फरमान भी जारी कर दिया गया. यह सब देखने-सुनने में सुखद जरूर लग सकता है लेकिन राज्य सरकार को इसके लिए मोटी कीमत चुकानी होगी. सरकार को पहले से जारी योजनाओं के लिए भी वित्त की पूर्ति करनी है, ऐसे में इन नई रियायतों के लिए राजकोष पर चार से पांच हजार करोड़ का अतिरिक्त भार पड़ने का अनुमान है.

रमन सिंह के अपने तीसरे कार्यकाल के पहले ही दिन लोकलुभावन योजनाओं के क्रियान्वयन की लंबी सूची को आम लोग भले ही सुशासन से जोड़कर देख रहे हैं लेकिन इसके लिए राज्य सरकार को बड़ी रकम जुटानी होगी जो अपने आप में एक बड़ी चुनौती है.

राज्य सरकार पर नई घोषणाओं को अमली जामा पहनाने में पड़ने वाले वित्तीय भार को हम पिछले बजट से समझ सकते हैं. वित्तीय वर्ष 2013-14 के लिए 44,169 करोड़ रुपये का बजट अनुमान प्रस्तुत किया गया था. इसमें खाद्यान्न सुरक्षा अधिनियम के तहत लगभग 42 लाख गरीब परिवारों को दो और तीन रुपये प्रति किलो की रियायती दर पर तथा आठ लाख सामान्य परिवारों को ए.पी.एल. (गरीबी रेखा से ऊपर) दर पर खाद्यान्न उपलब्ध कराने का प्रावधान था. इस पर लगभग 2,000 करोड़ रुपये का खर्च अनुमानित था अब नए निर्देशों के तहत प्रति परिवार 1 रुपए किलो की दर से चावल उपलब्ध करवाया जाना है यानि योजना पर खर्च तकरीबन दोगुना हो जाएगा.

वहीं वर्ष 2012-13 में खरीदे गए 70 लाख मीट्रिक टन धान के बदले 270 रुपये प्रति क्विंटल की दर से अकेले बोनस देने के लिए 17,50 करोड़ का प्रावधान किया गया था. अब नई घोषणा के तहत सरकार को प्रति क्विंटल 300 रुपये बोनस देना है यानी इस मद पर भी राशि में बढो़तरी होनी है. इसका एक कारण यह है कि हर साल धान खरीद का आंकड़ा बढ़ रहा है. राज्य सरकार ने वर्ष 2010-11 में ही 51 लाख  मीट्रिक टन धान खरीद कर  किसानों को 5,000 करोड़ रुपये धान की कीमत और बोनस के रूप में दिए थे. जबकि 2013 में धान खरीद का आंकड़ा 70 लाख मीट्रिक टन तक पहुंच गया है.

इस मसले पर मुख्यमंत्री रमन सिंह कहते हैं, ‘अपनी घोषणाओं को हम हर हाल में पूरा करेंगे. जहां तक बजट का सवाल है हम अपने वित्तीय अनुशासन से इसकी पूर्ति करेंगे.’ लेकिन मुख्यमंत्री यह नहीं बताते कि वे किस तरह के वित्तीय अनुशासन की बात कर रहे हैं.

वर्ष 2013-14 में बजट पेश करते हुए मुख्यमंत्री रमन सिंह ने कहा था, ‘राज्य की कुल प्राप्तियां 43,977 करोड़ रुपये तथा कुल व्यय 44,169  करोड़ रुपये अनुमानित की गयी हैं. इन वित्तीय प्राप्ति और व्यय में अंतर के कारण 192 करोड़ रुपये का घाटा अनुमानित है. साथ ही वर्ष 2012-13 के संभावित घाटे 1,485 करोड़ रुपये को शामिल करते हुए कुल बजटीय घाटा 1,677 करोड़ रुपये अनुमानित है. इस घाटे की पूर्ति वित्तीय अनुशासन तथा अतिरिक्त आय के संसाधन जुटाकर की जाएगी.’ इस हिसाब से देखा जाए तो 2013-14 में ही एक हजार 677 करोड़ रुपये का घाटा अनुमानित था.

प्रदेश के पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस नेता रामचंद्र सिंहदेव बताते हैं, ‘राज्य सरकार तो कंगाल हो चुकी है. पिछले ही साल सरकार ने कामकाज चलाने के लिए अब तक का सबसे बड़ा लोन यानी साढ़े तीन हजार करोड़ रुपये राष्ट्रीयकृत बैंकों से लिया था. इससे ही आप अंदाजा लगा सकते हैं कि सरकारी खजाना बिल्कुल खाली हो चुका है. अब कैसे योजनाओं को पूरा किया जाएगा यह तो मुख्यमंत्री ही जानें.’

वर्ष 2000 में जब छत्तीसगढ़ का गठन हुआ था तब अविभाजित मध्य प्रदेश के हिस्से के रूप में राज्य के भौगोलिक क्षेत्र के लिए कुल बजट प्रावधान केवल पांच हजार 704 करोड़ रुपये था. यह अलग राज्य बनने के बाद क्रमशः बढ़ता गया और अब 13 साल में 40 हजार करोड़ रुपये से अधिक हो गया है.

हालांकि सूबे के मुखिया को अपने घोषणा पत्र में किए गए वादों को पूरा करने की जल्दी शायद इसलिए भी है कि लोकसभा चुनाव सामने हैं या फिर रमन सिंह अपनी हैट्रिक से गदगद हैं और जनता का अहसान चुकाना चाहते हैं. हालांकि योजनाओं को लागू करने की जल्दबाजी चाहे किसी भी कारण से हो पर इस त्वरित क्रियान्वयन में मुख्यमंत्री एक बात भूल रहे हैं कि इन योजनाओं को लागू करने के लिए राज्य पर पड़ने वाले वित्तीय भार से वे कैसे निपटेंगे. सरकार का खर्च तो हर साल बढ़ रहा है लेकिन आय कैसे बढ़ेगी इसका जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है.

राजधानी का राज़

बात करीब एक साल पुरानी है. गैरसैंण में विधानसभा भवन बनाने की घोषणा करके उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने एकाएक सबको चौंका दिया था. इसकी वजह यह थी कि पहाड़ी राज्य की अवधारणा के प्रतीक इस कस्बे को लेकर इससे पहले किसी भी मुख्यमंत्री ने इस तरह की दिलचस्पी नहीं दिखाई थी. इसके बाद जब जनवरी के महीने सचमुच में गैरसैंण में विधानसभा भवन का शिलान्यास हो गया तो राजधानी के विचार को लेकर हल्की सुगबुगाहट होने लगी. इस शिलान्यास कार्यक्रम के दौरान गैरसैंण में भारी-भरकम जलसा भी हुआ था. बहुगुणा समेत तमाम दूसरे कांग्रेसियों ने तब उस शिलान्यास कार्यक्रम को राजधानी के संदर्भ में एक बड़ा कदम बताया था. विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल के शब्दों में ‘यह गैरसैंण को उत्तराखंड की राजधानी बनाने की शुरुआत’ थी. नवंबर मंे सरकार उसी गैरसैंण में विधानसभा भवन के लिए चुनी गई जमीन का भूमि पूजन भी कर आई है.

यहां तक का घटनाक्रम देखा जाए तो सब कुछ गैरसैंण के पक्ष में होता दिखता है. लेकिन ठीक इसी तरह का और घटनाक्रम पिछले दिनों देहरादून में भी दोहराया गया. सरकार ने फैसला किया कि गैरसैंण की तर्ज पर देहरादून में भी एक और विधानसभा भवन बनाया जाएगा. इस भवन के शिलान्यास की भी बाकायदा तैयारियां पूरी हो चुकी थीं, लेकिन ऐन मौके पर आंदोलनकारी संगठनों के कान खड़े हो गए और सरकार बैकफुट पर आ गई. इसके बाद उसने विधानसभा भवन बनाने के लिए चिह्नित की गई इस जमीन पर वन मंत्रालय की स्वीकृति के पेंच का बहाना बनाते हुए इस कार्यक्रम को फिलहाल अस्थायी विराम दे दिया है. लेकिन सूत्रों की मानें तो बहुत संभव है कि वन मंत्रालय से हरी झंडी मिलते ही यहां भी भूमि पूजन कर दिया जाए.

ऐसा होते ही उत्तराखंड देश का पहला राज्य होगा जिसके पास तीन-तीन विधानेसभा भवन होंगे, लेकिन स्थायी राजधानी कहां होगी इसको लेकर तब भी असमंजस बना रहेगा. गौरतलब है कि देहरादून में पहले से ही एक विधानसभा भवन मौजूद है. ऐसे में गैरसैंण को राजधानी बनाने को लेकर सरकार की मंशा तो संदेह के दायरे में आ ही गई है, साथ ही दो-दो जगहों पर तीन-तीन विधानसभा भवन बनाए जाने को लेकर भी बहस खड़ी होती दिख रही है.

इस बहस में बहुत सारे सवाल निकल रहे हैं जिनका लब्बोलुआब यह है कि क्या वजह है जो सरकार की प्राथमिकता स्थायी राजधानी तय करने के बजाय विधानसभा भवन बनाना रह गई है. सवाल यह भी है कि गैरसैंण में विधानसभा भवन बनाने के बाद सरकार ने राजधानी बनाने को लेकर जो संकेत दिए थे, क्या वे झूठे थे. और अगर सरकार गैरसैंण को लेकर वाकई गंभीर है तो फिर देहरादून में विधानसभा भवन बनाने की क्या जरूरत है, वह भी तब जब देहरादून में पहले से ही एक विधान भवन मौजूद है?

इस मुद्दे पर प्रदेश भर में अलग-अलग बातें हो रही हैं. कुछ लोग इसे स्थायी राजधानी के अहम सवाल से बचने का उपक्रम बता रहे हैं तो कुछ की नजर में यह आने वाले पंचायत चुनावों और फिर लोकसभा चुनाव को देखते हुए मैदानी वोटरों को साधने का पैंतरा है.

पहली वाली बात पर जाएं तो पता चलता है कि स्थायी राजधानी के सवाल को लेकर प्रदेश की अब तक की सभी सरकारों का रवैया टरकाऊ ही रहा है. सन 2000 में राज्य बनने के बाद केंद्र ने राज्य सरकार को स्थायी राजधानी तय करने के अधिकार के साथ ही विधानसभा भवन बनाने के लिए 88 करोड़ रुपये जारी किए थे. लेकिन तब से लेकर अब तक सरकार स्थायी राजधानी तय करने में नाकाम रही. इसकी एक बड़ी वजह स्थायी राजधानी के भावनात्मक मुद्दे का पहाड़ और मैदान की राजनीति की भेंट चढ़ जाना भी रही. कोई सरकार इस मुद्दे पर खुद फैसला नहीं लेना चाहती थी क्योंकि उसके मन में वोट बैंक खोने का डर पैदा हो चुका था. यही वजह है कि राजधानी का निर्धारण करने के लिए आयोग का सहारा लिया गया. लेकिन पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी द्वारा राजधानी का चयन करने के लिए बनाए गए दीक्षित आयोग की रिपोर्ट को पांचवें मुख्यमंत्री खंडूरी को सौंपे जाने के बाद भी इसकी अनुशंसाओं पर सरकार ने कोई फैसला नहीं लिया. बीसी खंडूरी के बाद आए रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ और विजय बहुगुणा ने भी इस रिपोर्ट को लेकर कोई कदम उठाने का संकेत नहीं दिया. सूचना अधिकार अधिनियम के जरिए इस रिपोर्ट के सार्वजनिक हो जाने के बाद भी सरकार इसको लेकर कभी गंभीर नहीं दिखी.

इस बीच केंद्र द्वारा विधानसभा भवन बनाने के लिए दिए गए 88 करोड़ रुपये की घनराशि के खर्च किए जाने की समय सीमा पूरी होने लगी तो सरकार को अचानक से विधानसभा भवन बनाने का ध्यान आ गया और उसने इसका निर्धारण करने के लिए उसने चार विधायकों की एक समिति बना दी. यह बात खंडूरी के दूसरे कार्यकाल के दौरान की है. इस समिति ने देहरादून और उसके आस-पास चार जगहों के नाम सरकार को सुझाते हुए अपना काम पूरा कर दिया (सरकार द्वारा देहरादून में प्रस्तावित विधानसभा भवन वाली जगह इन्हीं चार जगहों में से एक है). इस बीच समिति के फैसले की जानकारी जब सार्वजनिक हुई तो प्रदेश के तमाम सामाजिक और आंदोलनकारी संगठन इसके विरोध में आ गए. दरअसल इस समिति ने प्रदेश के दूसरे किसी भी हिस्से को लेकर कोई चर्चा नहीं की थी और खुद को सिर्फ देहरादून तक सिमटाए रखा. समिति के अध्यक्ष रहे और अब उत्तराखंड सरकार में मंत्री दिनेश अग्रवाल ने तब खुद स्वीकार किया था कि समिति ने सिर्फ देहरादून को ध्यान में रखते हुए अपना काम किया. इसके बाद सरकार की मंशा पर सबसे बड़ा सवाल यही किया गया कि स्थायी राजधानी का निर्धारण किए बगैर सरकार किस आधार पर विधानसभा भवन के लिए जगह तय कर सकती है.

भाकपा माले के प्रदेश सचिव इंद्रेश मैखुरी इसे गैरसैंण को सीधे-सीधे राजधानी की दौड़ से बाहर कराने का षडयंत्र बताते हैं. वे कहते हैं, ‘राज्य आंदोलन के दौर से ही स्थायी राजधानी को लेकर लोगों की भावनाएं गैरसैंण के पक्ष में रही हैं जिसे खुद सरकार के दो-दो आयोगों ने भी माना है. बावजूद इसके गैरसैंण के नाम पर इस समिति ने विचार तक नहीं किया. इस बीच मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने अचानक गैरसैंण में विधानसभा भवन बनाने की घोषणा कर दी. इसके बाद चार विधायकों वाली समिति की रिपोर्ट का कोई मतलब नहीं रह जाना चाहिए था. लेकिन अब सरकार ने फिर से देहरादून का राग छेड़ कर इतने गंभीर मामले को खिचड़ी कर दिया है.’

स्थायी राजधानी के सवाल को थोड़ी देर के लिए अलग रखते हुए अब उस दूसरी बात पर आते हैं जो देहरादून में विधानसभा भवन बनाने के पीछे के चुनावी गणित की ओर इशारा करती है. पिछले साल गैरसैंण में विधानसभा भवन का शिलान्यास करने के बाद पहले वहां का काम पूरा करने के बजाय सरकार के अचानक देहरादून का राग अलापने को सीधे-सीधे आगामी चुनावों से जोड़ कर देखा जा रहा है. जानकारों की नजर में देहरादून के पक्ष में हो रही इस ‘बेमौसम बरसात’ के बहुत बड़े मायने हैं. गैरसैंण में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार और आंदोलनकारी पुरुषोतम असनोड़ा कहते हैं कि पिछले लंबे वक्त से देश भर में कांग्रेस के खिलाफ लोगों का गुस्सा जिस तरह से सामने आ रहा है उसे देखते हुए कांग्रेस अपनी बची-खुची जमीन को किसी भी हाल में गंवाना नहीं चाहती. वे कहते हैं, ‘यही वजह है कि पहले गैरसैंण के बहाने पहाड़ी वोटरों को साध चुकी सरकार अब देहरादून में विधानसभा भवन के सहारे मैदानी वोटरों को साधना चाहती है.’ जनगणना के नए आंकड़ों के बाद प्रदेश के मैदानी वोटरों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है.

असनोड़ा का यह तर्क इसलिए भी सही मालूम पड़ता है कि प्रदेश में जल्द ही पंचायत चुनाव और फिर लोकसभा चुनाव होने हैं. इस लिहाज से देखा जाए तो ये दोनों ही चुनाव मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के राजनीतिक भविष्य के लिए जीवन-मरण का प्रश्न हैं. इससे पहले निकाय चुनावों में कांग्रेस की करारी हार के बाद से ही बहुगुणा विरोधी खेमा मुखर होकर उनके खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं. ऐसे में बहुगुणा नहीं चाहते कि उसके हाथ कोई और मौका लगे. एक और गौर करने वाली बात यह है कि देहरादून में जिस जगह पर विधानसभा भवन के लिए जमीन तय की गई है वह इलाका टिहरी संसदीय क्षेत्र के अधीन आता है. 2014 के आम चुनाव में इस सीट से कांग्रेस के संभावित उम्मीदवार मुख्यमंत्री बहुगुणा के बेटे साकेत बहुगुणा हैं. ऐसे में माना यह भी जा रहा है कि साकेत की जीत पक्की करने के लिए भी बहुगुणा विधानसभा भवन को लेकर गंभीर हैं. लेकिन इस सबके बीच एक गंभीर सवाल यह भी है कि त्वरित लाभ को ध्यान में जखते हुए लिए लिए जाने वाले इन फैसलों के चलते इतने अहम मुद्दे को लगातार टालते रहने के दुष्परिणाम क्या होंगे. संसाधनों के लिहाज से भी देखा जाए तो उत्तराखंड जैसे छोटे प्रदेश में दो-दो जगहों पर विधानसभा भवन का औचित्य व्यावहारिकता से परे नजर आता है.

इस सबके बीच स्थायी राजधानी के सवाल पर प्रमुख विपक्षी दल भाजपा का हाल भी सरकार जैसा ही है. पिछले साल गैरसैंण में शिलान्यास कार्यक्रम में पहुंचे प्रतिपक्ष के नेता अजय भट्ट ने सरकार से मांग की थी कि वह पहले स्थायी राजधानी तय करे. एक साल के बाद अब जब सरकार देहरादून में भी विधानसभा भवन बनाने का फैसला ले चुकी है तब भी विपक्ष की यही मांग है. दो-दो विधानसभा भवनों को लेकर विरोध जताते हुए भट्ट कहते हैं, ‘सरकार को यह बताना चाहिए कि उसका स्थायी राजधानी को लेकर क्या स्टैंड है?’ लेकिन खुद उनकी पार्टी के रुख को लेकर सवाल पूछे जाने पर भट्ट गेंद सरकार के पाले में ही डाल देते हैं. वरिष्ठ पत्रकार राजीव लोचन शाह इसे कांग्रेस भाजपा की जुगलबंदी का परांपरागत तरीका बताते हैं. वे कहते हैं, ‘भाजपा की सरकार के दौरान कांग्रेस भी यही सब करती थी जो भाजपा इस वक्त विपक्ष में रह कर कर रही है. स्थायी राजधानी को लेकर अगर भाजपा वाकई इतनी गंभीर है तो खुल कर क्यों सड़क पर नहीं आती?’

बहरहाल इतना साफ है कि पहले गैरसैंण और अब देहरादून में विधानसभा भवन बनाने का एलान कर चुकी सरकार वन मंत्रालय की मंजूरी मिलते ही इस प्रोजेक्ट को अमली जामा पहनाना शुरू कर देगी. पहाड़ और मैदान के संतुलन को साधने के चलते स्थायी राजधानी के मुद्दे पर दोनों ही प्रमुख दल अब तक पूरी तरह ‘साइलेंट मोड’ में हैं और जब तक संभव हो तक तब ऐसी ही स्थिति में बने रहना चाहते हैं. लेकिन जानकारों की मानें तो राज्य सरकार को यह भी ध्यान रखना होगा कि आखिर एक दिन तो स्थायी राजधानी के सवाल पर उसे स्थायी जवाब देना ही होगा. तब कहीं ऐसा न हो कि क्षेत्रीय संतुलन के जिन पैंतरों पर वह आज अपने हित साध रही है वही आने वाले वक्त में उसके लिए मुश्किल न पैदा कर दे. क्योंकि तब क्षेत्रवाद की आंधी जिस भी दिशा से बहेगी उसमें सरकार का तख्त उड़ना तय हो जाएगा.

ड्रग, बलात्कार, धोखा और सवाल

Khurshid Anwar

18 दिसंबर की सुबह फेसबुक की वाल पर अचानक ही एक मौत से जुड़ी खबरों की बाढ़ आ गई. शहर की एक प्रतिष्ठित गैर सरकारी संस्था द इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल डेमोक्रेसी के निदेशक खुर्शीद अनवर ने बसंत कुंज स्थित अपने घर की चौथी मंजिल से कूद कर आत्महत्या कर ली थी. फेसबुक पर छाई ये खबरें दो प्रकार की थीं. खुर्शीद के समर्थन और विरोध में लोग भाषा की सीमाओं को लांघकर अपनी भावनाएं व्यक्त करने में लगे हुए थे

खुर्शीद के ऊपर बलात्कार का आरोप था. उनके खिलाफ 17 दिसंबर को वसंत कुंज (उत्तरी) थाने में एक एफआईआर दर्ज हुई थी. यह एफआईआर पीड़िता ने दर्ज नहीं करवाई थी बल्कि महिला आयोग से मिली शिकायत के आधार पर दर्ज हुई थी. इस मामले को लेकर आज तक फेसबुक पर भावनात्मक बहाव की हालत यह है कि पीड़िता की पहचान तक उजागर करने में कोई संकोच नहीं बरता जा रहा है. पीड़िता एलीन (बदला हुआ नाम) पिछले साल 16 दिसंबर को दिल्ली में हुए बलात्कार कांड के बाद पैदा हुए आक्रोश के मुख्य चेहरों में से थी. आजकल उसका एक वीडियो आम हो चुका है. इसे सीएसडीएस(सेंटर फॉर द स्टडीज ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज) की प्रोफेसर मधु किश्वर ने बनवाया था. इस वीडियो में पीड़िता जो आरोप लगा रही है उसमें बलात्कार के अलावा भी कई अन्य अपराधों के सूत्र छिपे हुए हैं, मसलन पीड़िता को कथित बलात्कार के बाद उसके कुछ साथियों ने पुलिस के पास न जाने की सलाह देकर गर्भनिरोधक गोली खिलाई, लड़की को शराब में ड्रग मिलाकर पिलाया गया, महिला अधिकारों के क्षेत्र में काम करने वाली कार्यकर्ताओं ने भी पुलिस को इस बारे में जानकारी नहीं दी आदि.

हालांकि पीड़िता के बयान को अगर आधार माने तो वह स्वयं भी अपने घर की परिस्थितियों के चलते पुलिस के पास नहीं जाना चाहती थी. तो फिर सवाल उठता है कि वह किस उद्देश्य से तमाम नारीवादी कार्यकर्ताओं के यहां भटक रही थी. पीड़िता के एक साथी तपन कुमार, जो उसे लेकर मधु के पास पहुंचे थे, उनका कहना है, ‘हमारी कोई जान-पहचान नहीं थी दिल्ली में. हमारे एक साथी अहमर की मधु किश्वर से थोड़ी जान-पहचान थी. तो उनसे हम कानूनी सलाह लेने के लिए गए थे. एलीन शुरुआत में पुलिस के पास जाने से डर रही थी लेकिन बाद में उसने मन बना लिया था शिकायत करने का. वह इसलिए डर रही थी क्योंकि इला जोशी और मयंक सक्सेना उसे धमका रहे थे.’ इला जोशी और मयंक सक्सेना की भूमिका स्टोरी में आगे स्पष्ट हो जाएगी फिलहाल इस घटना को समझने के लिए इसके शुरुआती सिरों को पकड़ते हैं.

 कथित बलात्कार

12 सितंबर को अमन एकता के मंच तले चाणक्यपुरी स्थित उत्तर प्रदेश भवन के सामने एक विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया गया था. अमन एकता मंच में खुर्शीद अनवर, अपूर्वानंद, महताब आलम समेत तमाम सामाजिक कार्यकर्ता शामिल थे. यह प्रदर्शन मुजफ्फरनगर दंगो के खिलाफ आवाज उठाने के लिए किया गया था. इस विरोध में एक गैर पंजीकृत समाजसेवी संस्था ‘बूंद’ के कुछ सदस्यों ने भी हिस्सा लिया था. इला जोशी और मयंक सक्सेना इस संस्था के प्रमुख के तौर पर काम करते हैं. एलीन इसी संस्था में काम करती थी और इला जोशी के घर पर ही रहती थी. प्रदर्शन के बाद शाम को खुर्शीद अनवर ने बूंद के सदस्यों को अपने घर पर पार्टी के लिए बुलाया. इला, मयंक समेत बूंद के करीब दस सदस्य खुर्शीद अनवर के बसंत कुंज के बी ब्लॉक स्थित घर पहुंचे. पीड़िता और वहां मौजूद दूसरे साथियों के मुताबिक सिर्फ एलीन ने ही एक विशेष ब्रांड की ड्रिंक ली जिसे पीने के बाद उसकी हालत बिगड़ गई थी. एलीन रिकॉर्ड किए गए वीडियो में बताती है कि इस ड्रिंक के बाद क्या हुआ उसे कुछ याद नहीं. एलीन के साथी बताते है कि सिर्फ इतनी ड्रिंक से उसकी वैसी हालत पहले कभी नहीं हुई थी. उसे लगातार उल्टियां हो रही थी, वह चिल्ला रही थी. सबने उसे खुर्शीद के बेडरूम में ले जाकर सुला दिया. रात में जाते वक्त सबने एलीन को खुर्शीद के घर ही छोड़ने का फैसला किया. एलीन के मुताबिक रात को जब भी उसे होश आया उसने खुर्शीद को अपने आस पास ही पाया. सुबह जब एलीन सो कर उठी तब उसके शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं था, और खुर्शीद अनवर उसके ही बिस्तर पर लेटे हुए थे. उसने खुर्शीद के कहने पर जैसे-तैसे अपने कपड़े पहने और फिर सोफे पर जाकर सो गई. इस बीच काम वाली बाई आई और काम निपटाकर चली गई. एलीन बताती है कि बाई के जाने के बाद खुर्शीद ने एक बार फिर से उसके साथ जबर्दस्ती करने की कोशिश की लेकिन उसके विरोध के कारण वे कामयाब नहीं हुए. इसके बाद खुर्शीद ने एलीन को अपनी कार से इला जोशी के घर भेज दिया.

महत्वपूर्ण सवाल

  • लड़की और टीम बूंद के ज्यादातर सदस्य पहली बार खुर्शीद से मिले थे. इसके बावजूद वे एलीन को अकेला उनके घर छोड़कर क्यों गए. टीम का कोई अन्य सदस्य उसके साथ क्यों नहीं रुका.
  • पार्टी की रात दो कारें इन सदस्यों को छोड़ने के लिए बुलाई गई थीं. इसके बावलजूद टीम एलीन को अपने साथ क्यों नहीं ले गई?
  • वीडियो में एक अन्य लड़की स्वाती मिश्रा का बयान भी है. वह बताती है कि खुर्शीद पूरी पार्टी के दौरान उसे अपने घर पर रोकने के लिए दबाव डाल रहे थे. यहां तक कि उन्होंने स्वाती को अपनी गर्लफ्रेंड बनने का प्रस्ताव भी दिया. इसके बावजूद टीम के सदस्यों में खुर्शीद के प्रति कोई संशय पैदा क्यों नहीं हुआ.
  •  खुर्शीद सिर्फ लड़की को ही रुकने का प्रस्ताव दे रहे थे, किसी लड़के को नहीं. इसके बावजूद किसी को शंका क्यों नहीं हुई.

इन सवालों का जवाब टीम के सदस्यों के पास सिर्फ एक ही है- खुर्शीद की छवि को देखते हुए इस तरह की बात उनके दिमाग में नहीं आई थी. पार्टी में मौजूद टीम बूंद के एक सदस्य अभिनव सब्यसाची कहते हैं, ‘हमें खुर्शीद पर कोई शक नहीं था इसलिए हमने उसे छोड़ने का फैसला कर लिया. इला हमारी टीम लीडर थीं उनकी भी यही राय थी इसलिए हम सब राजी हो गए.’ तहलका से बातचीत में इला जोशी कहती हैं कि वे इस मामले में सिर्फ पुलिस से बात करेंगी. मयंक सक्सेना ने अपना फोन बंद कर रखा है.

धोखा

इला जोशी और मयंक सक्सेना
इला जोशी और मयंक सक्सेना

लाजपतनगर स्थित इला-मयंक के घर पहुंच कर एलीन ने किसी से बात नहीं की. वह इला से बात करना चाहती थी पर इला मौजूद नहीं थी. मधु किश्वर द्वारा बनवाये गए वीडियो के मुताबिक उसे इस बात का गुस्सा था कि सबने उसे अकेला खुर्शीद अनवर के घर क्यों छोड़ दिया था. शाम को इला लौटीं तो उसने सारी बात उन्हें बताई. इला ने पीड़िता से पूछा की अब क्या करना चाहती हो, पुलिस में शिकायत करनी है? एलीन ने अपने घर की स्थितियों का हवाला देते हुए पुलिस में शिकायत से मना कर दिया. लड़की के एक साथी नलिन के मुताबिक, ‘उस समय एलीन बहुत डरी हुई थी और साथ ही दवा के असर में उसकी तबियत भी ठीक नहीं थी. इसलिए उसने पुलिस में जाने से इनकार कर दिया. एक दिन बाद जब वो थोड़ी सामान्य हुई तब उसने पुलिस में शिकायत करने की हिम्मत जुटाई.’ लड़की के एक अन्य साथी तपन कुमार बताते हैं, ‘जब एलीन ने शिकायत का मन बनाया तब इला जोशी और मयंक सक्सेना उसे धमकाने लगे. उनकी खुर्शीद अनवर से बात हो गई थी. इला उससे कह रही थी कि पहले तुम हमें एक एफीडेविट दो कि एफआईआर में हमें किसी तरह से नहीं फंसाओगी तभी पुलिस से शिकायत कर सकती हो.’

खुद एलीन भी वीडियो में कहती है कि मयंक सक्सेना ने उससे कहा कि पुलिस के पास जाने से कोई फायदा नहीं है. उसमे चार-पांच साल लग जाएंगे और पैसा भी बहुत लगेगा. इस तरह से मामला चार-पांच दिनों तक खिंच गया. एलीन का कोई मेडिकल टेस्ट नहीं हुआ, जो कपड़े एलीन ने पहन रखे थे उसे इला जोशी ने तत्काल धुलवा दिया. एलीन के मुताबिक मयंक सक्सेना ने उसे गर्भनिरोधक गोली भी खिलाई.

इस बीच लड़की ने अपने कुछ दोस्तों को अपने साथ हुई घटना की जानकारी दी. यही दोस्त मिलकर एलीन के मामले को मधु किश्वर और नारीवादी कार्यकर्ता कविता कृष्णन के पास ले गए. इस बीच दो और घटनाएं हुईं. इला और मयंक जो कि न तो पुलिस के पास गए थे और न ही पीड़िता का मेडिकल टेस्ट करवाया था उन्होंने पहले फेसबुक पर गोल-मोल शब्दों में खुर्शीद के खिलाफ कुछ लिखा और बाद में खुर्शीद अनवर से मिलकर और फिर फेसबुक पर उनसे इस बात की माफी मांग ली कि उन्होंने उनके खिलाफ फेसबुक पर गलत आरोप लगाए थे. इस माफीनामे की ताकीद वरिष्ठ पत्रकार मनीषा पांडेय भी करती हैं जिनकी मौजूदगी में इला और मयंक ने माफी मांगी थी. एलीन के दोस्तों का कहना है कि इन लोगों ने खुर्शीद अनवर के साथ मिलीभगत कर ली थी.

महत्वपूर्ण सवाल

  • मयंक ने पीड़िता को गर्भ निरोधक गोली क्यों खिलाई.
  • पीड़िता से एफिडेविट की मांग क्यों की गई.
  • बिना पीड़िता की मौजूदगी के ही इला और मयंक ने अपनी तरफ से माफी क्यों मांगी, पीड़िता के कपड़े आनन फानन में क्यों धुलवाए गए.
  • ये सवाल पूछने पर एक बार फिर से इला जोशी अपना रटा-रटाया बयान देती हैं कि वे सिर्फ पुलिस को बयान देंगी और किसी से बात नहीं करेंगी.

 नारीवादी

घटना के ठीक एक हफ्ते बाद 19 सितंबर को पीड़िता के दोस्त उसे लेकर नारीवादी कार्यकर्ता मधु किश्वर के पास पहुंचे. एलीन ने वीडियो पर अपने साथ हुई घटना की रिकॉर्डिंग करवाई. यही रिकॉर्डिंग आज चारों तरफ घूम रही है. इसके बाद भी मामला न तो पुलिस के पास गया न ही उसका मेडिकल चेकअप हुआ. सवाल उठता है कि फिर ये लोग मधु किश्वर के दरवाजे पर क्यों गए थे. तपन कहते हैं, ‘एलीन ने एफआईआर का मन बना लिया था तभी हम मधु किश्वर और कविता कृष्णन के पास गए थे. पर पीछे से इला और मयंक उसे धमका रहे थे. इसलिए वह डरी हुई थी. वह पूर्वोत्तर की रहने वाली है. उसके घर में कोई भी पुरुष नहीं है सिर्फ मां और मौसी हैं जो की बीमार हैं.’

मधु किश्वर के यहां से आने के पांच दिन बाद 23 सितंबर को एलीन मणिपुर में अपने घर वापस चली गई. उसके दोस्तों का कहना है कि मयंक और इला ने उसे फिर से इस मामले में कुछ न करने के लिए हतोत्साहित किया था.

सिर्फ वीडियो रिकॉर्डिंग के अलावा कोई बात आगे बढ़ता न देखकर लड़की के दो दोस्त तपन और नलिन कविता कृष्णन के पास गए. जानकारों के मुताबिक कविता ने छह नवंबर को खुर्शीद की संस्था आईएसडी को पत्र लिखकर मामले में कार्रवाई करने की मांग की. सात नवंबर को इस मुद्दे पर आईएसडी के बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर्स की आपात मीटिंग बुलाई गई. मीटिंग में इस मामले पर आगे कार्रवाई की सहमति बनी. 27 नवंबर को बोर्ड की तीन महिला सदस्यों (कल्याणी मेनन सेन, पूर्वा भरद्वाज और जूही जैन) ने संतोषजनक कुछ न किए जाने पर विरोध स्वरूप बोर्ड से इस्तीफा दे दिया. हालांकि इस बाबत पूछे जाने पर कल्याणी मेनन सेन कोई भी टिप्पणी करने से इनकार कर देती हैं.

महत्वपूर्ण सवाल

सवाल उठता है कि मधु किश्वर की निगाह में जब मामला आया तब वे मामले को तीन महीने से दबा कर क्यों बैठी थीं. पूछने पर इस सवाल का जवाब देने की बजाय मधु किश्वर ने तहलका पर सवाल उठाने और नरेंद्र मोदी की वकालत करने में ज्यादा रुचि दिखाई. जोर देकर पूछने पर उन्होंने कहा, ‘मैं पीड़ित के पीछे-पीछे चलती हूं, उसके आगे-आगे नहीं. आगे आना पीड़िता का काम था. पर वह डरी हुई थी.’ तो फिर आपने उसके मन से डर निकालने की कोशिश क्यों नहीं की, इस पर किश्वर लगभग अपना आपा खोते हुए कहती हैं, ‘यह बेहूदा सवाल है. तुम्हें तमीज नहीं है.’

मधु किश्वर की भूमिका को एक अलग ही कोण से देखते हुए खुर्शीद के मित्र और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. अपूर्वानंद कहते हैं, ‘खुर्शीद के ऊपर एक आरोप था और हमने कहा था कि आप इसका सामना कीजिए. इसका कोई शॉर्टकट नहीं हो सकता. लेकिन मधु किश्वर जैसी अनुभवी एक्टिविस्ट ने किस नीयत से वीडियो तैयार करवाया और फिर उसे कुछ गैर अनुभवी युवाओं को सौंप दिया. जल्द ही यह वीडियो देश भर में फैल गया. फेसबुक से लेकर तमाम सोशल मीडिया में मॉब-लिंचिंग का एक माहौल तैयार हो गया. इसमें टीवी चैनल वाले भी कूद गए. और अंतत: खुर्शीद इसका शिकार हो गए. मधु किश्वर ने यह बहुत बड़ा अपराध किया है. जिसकी सजा उन्हें मिलनी चाहिए.’

कविता कृष्णन की कहानी और भी विचित्र है. पहले तो वे यह मामला लेकर आईएसडी की गवर्निंग बोर्ड में गईं. उनकी शिकायत पर ही आगे की कार्रवाई का संज्ञान लिया गया. और अब वे जाने किस डर से आईएसडी में अपनी तरफ से कोई भी शिकायत करने की बात से ही इनकार कर रही हैं. कविता के सामने मुकरने की कौन सी मजबूरी है? एक और अहम सवाल है कि जब उनकी नजर में बलात्कार का एक मामला था तब वे दो महीनों से इस मामले में चुप क्यों बैठी थी? कविता टका सा जवाब देती हैं, ‘मैं पीड़िता से मिलने की कोशिश कर रही थीं क्योंकि अब तक उसकी कोई सीधी शिकायत हमारे पास नहीं आई थी.’

 खुर्शीद अनवर

2002 से पहले तक खुर्शीद अनवर पीस नाम की संस्था में काम करते थे. उस साल गुजरात में हुए भयानक दंगों के बाद खुर्शीद और उनके कुछ साथियों ने मिलकर अमन एकता मंच का गठन किया. दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के प्रॉफेसर अपूर्वानंद उन्हें याद करते हुए कहते हैं, ‘खुर्शीद एक हाजिर जवाब, सेक्युलरिज्म के प्रति समर्पित, उर्दू स्कॉलर और एक्टिविस्ट होने के साथ ही ऊंचे दर्जे के इंटलेक्चुअल भी थे. जेएनयू से उन्होंने उर्दू भाषा में डॉक्टरेट किया हुआ था.’ गुजरात दंगों के बाद ही खुर्शीद ने पीस से अलग होकर अपनी स्वतंत्र संस्था बनाई. इसका नाम है इंस्टीट्यू फॉर सोशल डेमोक्रेसी.

मिलने जुलने वाले उन्हें एक समर्पित नास्तिक मानते हैं. उन्होंने अपनी इस पहचान को अंत तक कायम भी रखा. मौत के पश्चात मुसलिम पहचान के बावजूद उनका इलेक्ट्रिक क्रेमेटोरियम में दाह संस्कार किया गया. यह उनकी इच्छा थी. एक सच यह भी है कि खुर्शीद अपनी पत्नी मीनाक्षी और बेटे से लंबे समय से अलग रह रहे थे. पर उन्होंने अपने बीच हुए अलगाव की चर्चा या उसके कारणों पर कभी कोई बातचीत किसी से नहीं की. उनके दोस्त मानते हैं कि यह एक बड़ी ट्रेजडी थी और शायद उनके लगातार अवसाद में रहने की एक वजह भी यही थी. खुर्शीद की अभिन्न मित्र पत्रकार मनीषा पांडेय बताती हैं, ‘पिछले दो ढाई सालों से वे डिप्रेशन में थे. खूब सारी दवाइयां खाते थे, और अकेलेपन से पीछा छुड़ाते रहते थे.’

दो-ढाई सालों से अकेलापन खुर्शीद के जीवन का हिस्सा था. उनके एक साथी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि वे एक साथी की कमी हमेशा महसूस करते थे. हालांकि जिस तरह के आरोप उन पर लगे हैं ऐसा कोई आरोप उन पर पहले कभी नहीं लगा था. अपूर्वानंद कहते हैं, ‘यह बात महत्वपूर्ण नहीं है. किसी व्यक्ति की हजार लोगों ने तारीफ की हो और सिर्फ एक व्यक्ति ऐसा मिले जो उसे गड़बड़ कहे. तो इस गलती को दबाने के लिए उन हजार लोगों को बहाना नहीं बनाया जाना चाहिए. हमने खुर्शीद से कहा था कि अगर आरोप लगा है तो आपको सामना करना चाहिए. इसका कोई शॉर्टकट नहीं हो सकता. पर मधु किश्वर जैसे लोगों ने शॉर्टकट अपनाया और मॉब लिंचिग का माहौल बनाया.’

महत्वपूर्ण सवाल

  • कुछेक मीडिया खबरों के मुताबिक खुर्शीद के यहां से कोई सुसाइड नोट बरामद हुआ है. इसके मुताबिक उस रात एलीन और उनके बीच सहमति का संबंध बना था. जबकि एलीन और उसके साथियों का कहना है कि वह होश में ही नहीं थी. तहलका ने इस मामले के जांच अधिकारी कैलाश केन से बात की. उन्होंने खुर्शीद के यहां से कोई भी सुसाइड नोट मिलने से साफ इनकार किया है. कैलाश ने यह बात भी बताई कि एलीन ने अपने साथ बलात्कार की पुष्टि की है. बातचीत के दौरान कैलाश पीड़िता का बयान लेने इंफाल गए हुए थे.
  • अगर नोट को सच माने तो यह नतीजा निकाला जा सकता है कि उस रात कुछ तो हुआ था दोनों के बीच. लेकिन होशो-हवास में बिलकुल नहीं होने के बावजूद क्या वह किसी और कमरे में जाकर उस दिन पहली बार उससे मिले खुर्शीद के साथ फिर वापस अपने कमरे में आकर सहमति के संबंध बना सकती है?
  • जो लड़की लगातार सामाजिक कार्यकर्ताओं के घर-घर भटक रही थी वह अचानक से दिल्ली छोड़कर क्यों चली गई?

इस तरह के तमाम ऐसे सवाल हैं जिनका अब सिर्फ एकतरफा जवाब ही मिल सकता है क्योंकि आरोपित अब दुनिया में नहीं है. एक सच यह भी है कि इस मामले में अब तक जो एक मात्र कानूनी प्रक्रिया अपनाई गई है वह आरोपित खुर्शीद अनवर की तरफ से ही अपनाई गई है. उन्होंने 29 नवबंर को दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट में तीन लोगों (तपन कुमार उर्फ जहरीला तपन, नलिन मिश्रा और नीरज हरि पांडे) के खिलाफ मानहानि की याचिका  दायर की थी.

मंडेला का कर्ज

26-Shunya-Kal-new95 बरस की उम्र में देह छोड़ने वाले नेल्सन मंडेला शायद अपने अंतिम वर्षों में एक संतुष्ट शख्स रहे होंगे. उनके जीते-जी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी नीतियों का खात्मा हुआ, अश्वेत शासन की शुरुआत हुई और जातीय हिंसा व टकराव रोकने के कई अनूठे प्रयोग हुए. निस्संदेह, इसके बावजूद दक्षिण अफ्रीका में- जैसे बाकी दुनिया में भी- तरह-तरह के भेदभावों के खिलाफ कई लड़ाइयां लड़ी जानी शेष हैं. कहना मुश्किल है कि वह निर्णायक लड़ाई कब होगी जिसके बाद मनुष्यता सारे भेदभावों से ऊपर उठकर वैश्विक एकता के साझा माहौल में सांस ले पाएगी. शायद ऐसी लड़ाइयां हमेशा चलती रहेंगी- न्याय और बराबरी के मोर्चे हमेशा खुले रहेंगे. मनुष्यता और सभ्यता के वरदान और अभिशाप दोनों यही हैं कि हमें लगातार अपने ही विरुद्ध खुद को मांजना पड़ता है.

मंडेला के जाने से दुनिया को फिर महात्मा गांधी की याद आई. लेकिन महात्मा मंडेला के मुकाबले कुछ बदकिस्मत रहे कि भारत की आजादी की उनकी राजनीतिक लड़ाई अंततः बंटवारे के बाद ही सफल हुई और एक ऐसा गृहयुद्ध साथ लाई जो गांधी की पूरी नैतिक और मानवीय शिक्षा के विरुद्ध था. कभी अपने लिए सवा सौ साल की उम्र मांगने वाले गांधी अपने अंतिम दिनों में दुखी थे.

लेकिन गांधी हों या मंडेला-इनका होना क्या हमारे भीतर कोई वास्तविक प्रेरणा पैदा करता है और इनका जाना क्या किसी सच्चे शोक, किसी गहरी हूक की वजह बनता है? उनका होना-जाना प्रेरणा या शोक की वजह नहीं बनता, यह कहना उन लाखों-करोड़ों लोगों का अपमान होगा जिन्होंने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गांधी और मंडेला के जीवन और विचारों से काफी कुछ हासिल किया और उनकी शिक्षा के मुताबिक अपने जीवन को बदला. गांधी और मंडेला ने हमारे जीवन को, हमारी सामूहिकता को ज्यादा मानवीय बनाया है, हमारी चेतना को उसके अधूरेपन से परिचित कराया है, इसमें संदेह नहीं. मंडेला के निधन के बाद जैसी वैश्विक हूक दिखी और उन्हें श्रद्धांजलि देने सारी दुनिया के राष्ट्राध्यक्ष इकट्ठा हो गए, उससे पता चलता है कि उनके प्रति एक तरह का दाय सारी दुनिया महसूस करती रही.

फिर भी मंडेला के प्रति श्रद्धा भाव महसूस करना, उनसे प्रेरणा लेना, उनकी शिक्षा पर अमल करना और उनके मुताबिक अपने पूरे जीवन को बदलना- ये सब अलग-अलग बातें हैं. अपने संदर्भ में हम देखें तो नेल्सन मंडेला के अश्वेत संग्राम को लगातार सलाम करने के बावजूद हम अपने यहां के बहुत सारे भेदभाव मिटा नहीं पाए हैं. चूंकि हमारे संविधान निर्माताओं ने इन भेदभावों को नकारने की दूरंदेशी दिखाई, इसलिए निश्चय ही हमारे यहां राजनीतिक स्तर पर एक बराबरी दिखती है जो लगातार मजबूत हो रही है. लेकिन सामाजिक स्तर पर ये भेदभाव कहीं ज्यादा हिंसक और कुंठित तनावों की शक्ल में फूटते हैं. ताजा मिसाल मुजफ्फरनगर में हुई हिंसा है जिसमें अल्पसंख्यकों को बड़े पैमाने पर बेदखल होना पड़ा और इस हिंसा के जिम्मेदार तत्व अब तक आजाद घूम रहे हैं क्योंकि सामाजिक-राजनीतिक आधारों पर बंटे समुदाय उन्हें अपना पूरा संरक्षण दे रहे हैं. दक्षिण अफ्रीका में ऐसी जातिगत हिंसा के निपटारे के लिए अदालतों के बाहर सुलह-समझौते की वास्तविक कोशिशें चलीं जिन्होंने माहौल को सामान्य बनाने में मदद की. लेकिन हमारे यहां जैसे इंसाफ को पूरी तरह नकारने, अंगूठा दिखाने की एक प्रवृत्ति मजबूत हुई है. यह जैसे मान लिया गया है कि जो कमजोर होगा, वह अपनी पिटाई कुछ दिन बाद भूल कर फिर मुख्यधारा के खेल में शामिल हो जाएगा.

1984 की सिख विरोधी हिंसा हो या 2002 में गुजरात में हुए दंगे या फिर इन दोनों अंतरालों के बीच, और इनके पहले-बाद भी फूटते दंगे- हर जगह जैसे यही नीयत दिखाई देती है कि इंसाफ के तकाजों को तब तक नजरअंदाज किया जाए जब तक इसकी आवाज घुट कर दम न तोड़ दे और लोग नाइंसाफी को अपनी किस्मत मान कर इसे भूलने को मजबूर न हो जाएं. बल्कि गुजरात में जिन नरेंद्र मोदी को इस इंसाफ की जवाबदेही लेनी चाहिए थी, वे सीना ठोक कर कह रहे हैं कि उनके राज्य में 10 साल में दंगे नहीं हुए. वे अब भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी हैं.

जाहिर है, मंडेला हमारे आदर्श तो हैं, लेकिन हमारा यथार्थ नहीं. हमारा यथार्थ नरेंद्र मोदी हैं जो शायद यह मानते हैं कि जख्म पुराने पड़ कर सूख जाते हैं, उन पर विकास की पन्नी चिपकाई जा सकती है, उन्हें भूला जा सकता है.

जबकि सच्चाई यही है कि कोई जख्म दबाने से ठीक नहीं होता. ऐसी कई दवाएं होती हैं जो शारीरिक विकारों को शरीर के भीतर ही दफन करने का काम करती हैं. लेकिन ये विकार दूसरे- और कहीं ज्यादा खतरनाक- ढंग से बाहर आते हैं. 1984 की सिख विरोधी हिंसा हो, 1992 का बाबरी ध्वंस या 2002 की गुजरात हिंसा, ये सब किसी न किसी रूप में नई नफरत और नई विकृतियों की शक्ल लेकर सामने आते हैं. पिछले 20 बरस में ऐसे दंगों के समांतर जो आतंकवाद हमने झेला है वह इसी विकार की संतान है.

वैसे मंडेला को हमने सिर्फ सांप्रदायिक मोर्चे पर नहीं छला है, जातिगत भेदभावों के मोर्चे पर भी नाकाम किया है. भारतीय समाज में अल्पसंख्यकों के अलावा दलितों और आदिवासियों की जो हालत है वह बताती है कि हमारे संविधान ने भले गांधी के आदर्शों को अंगीकार किया, हमारे समाज में वह नैतिक और राजनीतिक दृढ़ता आनी बाकी है जो हर तरह की गैरबराबरी के विरुद्ध खड़ी हो सके. मंडेला ने कहा था कि भारत ने दक्षिण अफ्रीका को मोहनदास दिया, दक्षिण अफ्रीका ने उन्हें महात्मा बनाकर लौटाया. मंडेला का यह ऋण हम तभी चुका सकते हैं जब अपने समाज में कई महात्मा पैदा करें जो हमारे यहां हर तरह के भेदभाव के विरुद्ध लड़ने को तैयार हों.

चैनलों का इतिहासबोध

इलस्ट्रेशन: मनीषा यादव

यह प्रतीत होता है कि समाचारपत्र एक साइकिल दुर्घटना और एक सभ्यता के ध्वंस में फर्क करने में अक्षम होते हैं’

जार्ज बर्नार्ड शॉ का यह तंज चौबीस घंटे के न्यूज चैनलों पर कुछ ज्यादा ही सटीक बैठता है. चैनलों की एक खास बात यह है कि वे काफी हद तक क्षणजीवी हैं यानी उनके लिए उनका इतिहास उसी पल, मिनट, घंटे या प्राइम टाइम तक सीमित होता है. वे उस घंटे, दिन या प्राइम टाइम से न आगे देख पाते हैं और न पीछे का इतिहास याद रख पाते हैं. नतीजा यह कि चैनलों को लगता है कि हर पल-हर दिन नया इतिहास बन रहा है. गोया चैनल पर उस पल घट रहे कथित इतिहास से न पहले कुछ हुआ है और न आगे कुछ होगा. इस तरह चैनलों का इतिहासबोध प्राइम टाइम के साथ बंधा होता है.

हैरानी की बात नहीं है कि चैनल दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आप पार्टी के प्रदर्शन पर बिछे जा रहे हैं. उनकी रिपोर्टिंग और चर्चाओं से ऐसा लगता है कि जैसी सफलता आप को मिली है, वैसी न पहले किसी को मिली है और न आगे किसी को मिलेगी. न भूतो, न भविष्यति! यह भी कि जैसे देश की राजनीति इसी पल में ठहर गई है, जहां से वह आगे नहीं बढ़ेगी. जैसे कि विधानसभा में दूसरे नंबर की पार्टी के बावजूद आप की जीत के साथ इतिहास का अंत हो गया हो. जैसे देश को राजनीतिक मोक्ष मिल गया हो. मजे की बात यह है कि ये वही चैनल हैं जिनमें से कई मतगणना से पहले तक आप की चुनावी सफलता की संभावनाओं को बहुत महत्व देने को तैयार नहीं थे. कुछ उसे पूरी तरह खारिज कर रहे थे तो कुछ उसका मजाक भी उड़ा रहे थे. लेकिन नतीजे आने के साथ सभी के सुर बदल गए. हैरान-परेशान चैनलों के लिए देखते-देखते आप का प्रदर्शन न सिर्फ ऐतिहासिक बल्कि चमत्कारिक हो गया. उत्साही एंकर बहकने लगे. कई का इतिहासबोध जवाब देने लगा.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि आप ने उम्मीद से कहीं ज्यादा प्रभावशाली चुनावी प्रदर्शन किया है, कई मायनों में यह प्रदर्शन ऐतिहासिक भी है. लेकिन वह न तो इतिहास का अंत है और न ही इतिहास की शुरुआत. असल में, पत्रकारिता के मूल्यों में ‘संतुलन’ का चाहे जितना महत्व हो लेकिन ऐसा लगता है कि न्यूज चैनलों के शब्दकोश से ‘संतुलन’ शब्द को धकिया कर बाहर कर दिया गया हो. हालांकि यह नई प्रवृत्ति नहीं है, लेकिन इसके साथ ही चैनलों से अनुपात बोध भी गायब हो गया है. सच पूछिए तो संतुलन और अनुपातबोध के बीच सीधा संबंध है. अनुपातबोध नहीं होगा तो संतुलन बनाए रखना मुश्किल है और संतुलन खो देने पर पहला शिकार अनुपातबोध होता है.

लेकिन अनुपातबोध के लिए इतिहासबोध जरूरी है. अगर आपमें इतिहासबोध नहीं है तो आपके लिए छोटी-बड़ी घटनाओं के बीच अनुपातबोध के साथ संतुलन बनाए रखना संभव नहीं है. इतिहासबोध न हो तो वही असंतुलन दिखाई देगा जो दिल्ली में आप पार्टी की सफलता की प्रस्तुति में दिखाई पड़ रहा है. हैरानी की बात नहीं है कि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर चैनलों के लिए आप की चुनावी सफलता पहेली है जिसे एक ऐतिहासिक-राजनीतिक संदर्भों में देखने और समझने में नाकाम रहने की भरपाई वे उसे चमत्कार की तरह पेश करके और उस पर लहालोट होकर कर रहे हैं.

कहते हैं कि लोगों की स्मृति छोटी होती है लेकिन चैनलों की स्मृति तो प्राइम टाइम तक ही सीमित हो गई लगती है. वे प्राइम टाइम में ऐसे बात करते हैं जैसे कल सुबह नहीं होगी, फिर चुनाव नहीं होंगे, फिर कोई और जीतेगा-हारेगा नहीं और जैसे राजनीति और इतिहास उसी पल में ठहर गए हों. यह और बात है कि कल भी राजनीति और इतिहास उन्हें इसी तरह हैरान करते रहेंगे.

‘अन्ना भाजपा और कांग्रेस समर्थित लोगों से घिरे हुए हैं’

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अन्ना हजारे के साथ आप लोगों के रिश्ते इतने तल्ख क्यों हो गए हैं?

अन्ना को जाने कौन-कौन से लोग सलाह दे रहे हैं. कैसे-कैसे लोगों से घिरे हुए हैं. संतोष भारतीय हैं, वीके सिंह हैं, किरण बेदी के अलावा और जाने कौन-कौन से लोग उनके साथ लगे हुए हैं. भाजपा व कांग्रेस के लोग भी पीछे से उन्हें शह दे रहे हैं. यही लोग उन्हें समझा रहे हैं. जिन चीजों की मांग अन्ना हजारे ने 2011 में रामलीला मैदान से की थी, उन सभी को मौजूदा लोकपाल में जगह नहीं मिली है.

जन लोकपाल की कौन-कौन सी चीजें मौजूदा बिल में नहीं हैं?

तमाम चीजें थीं. लोकपाल को स्वतंत्र जांच एजेंसी देने की बात थी वो इस लोकपाल में कहीं नहीं है. इसके अलावा जून, 2011 में सिविल सोसाइटी ने जिस जन लोकपाल का मसौदा तैयार किया था उसमें तीन बातें प्रमुख थीं. सारे सरकारी कर्मचारी ऊपर से लेकर नीचे तक लोकपाल के दायरे में होने चाहिए. दूसरा बिंदु था कि सिटिजन चार्टर की निगरानी का अधिकार लोकपाल को दिया जाए. तीसरा मुद्दा था राज्यों में लोकायुक्तों की नियुक्ति का जिम्मा भी लोकपाल के हाथ में हो. ये सारी चीजें इस बिल से गायब हैं. तो ऐसे लोकपाल से क्या होगा. इसके अलावा लोकपाल को आर्थिक आजादी भी नहीं दी गई है. यही गड़बड़ी जांच एजेंसी को स्वतंत्रता देने के मामले में की गई है. इसी तरह से एक समस्या लोकपाल के चयन की भी है. चयन के सारे अधिकार सरकार और नेता विपक्ष के हाथ में हैं.

ऐसा लग रहा है कि जिस मुद्दे को लेकर आप और अन्ना साथ आए थे अब उसी मुद्दे को लेकर आप लोगों के बीच में दुश्मनी पैदा हो गई है.

अन्ना के साथ हमारी दुश्मनी जैसा कुछ नहीं है लेकिन लगता है कि अन्ना को कुछ ऐसे लोगों ने घेर रखा है जिनके भाजपा और कांग्रेस के साथ रिश्ते हैं. आजकल अन्ना उन्हीं लोगों के असर में हैं. वे अन्ना से कुछ भी कहलवाते रहते हैं.

तो आप कह रहे हैं कि अन्ना ऐसे लोगों के चंगुल में हैं जिनके हित कहीं और हैं और अन्ना उन्हीं की भाषा बोल रहे हैं.

अब आप ये देखिए कि उन्हें जबरदस्ती उपवास पर बैठा दिया गया जबकि सबको पता था कि इस सत्र में लोकपाल बिल पेश करना सरकार के एजेंडे में ही नहीं था. हमारा पुराना अनुभव भी यही था कि यह सरकार लोकपाल बिल नहीं लाने वाली है, इसीलिए तो हमें राजनीतिक पार्टी बनानी पड़ी थी. अब उन्हें इस आधे-अधूरे बिल को दिखाकर कहा जा रहा है कि आप उपवास तोड़ दीजिए. अन्ना इसके लिए तैयार भी हो गए हैं. यह साजिश है. अन्ना को यह बात समझ लेनी चाहिए थी. पर उनके अगल-बगल मौजूद लोगों ने उन्हें उपवास पर बैठा दिया. अन्ना को यह उपवास करना ही नहीं चाहिए था. पर वे बैठ गए तो सरकार ने तुरत-फुरत में दिखावे का बिल पास कर दिया.

शुरुआत में आपने कहा कि अन्ना, वीके सिंह, संतोष भारतीय और किरण बेदी के कहने पर बोल रहे हैं. वीके सिंह ने अन्ना के मंच से आप लोगों पर निशाना साधते हुए कहा कि आप लोगों ने अन्ना का फायदा उठाकर अपने राजनीतिक हित पूरे कर लिए. यह भी तो एक पक्ष है. आप कह रहे हैं कि उन लोगों के राजनीतिक रिश्ते हैं.

देखिए, वीके सिंह और किरण बेदी तो भाजपा के साथ हो गए हैं. यह खुली हुई बात है. तो इनका क्या विश्वास किया जाए.

आप कह रहे हैं कि वीके सिंह और किरण बेदी उनके साथ हो गए हैं तो क्या यह माना जाए कि इन लोगों के जरिए भाजपा और कांग्रेस मिल कर अन्ना को चला रहे हैं.

हां, बिल्कुल और इसीलिए भजपा और कांग्रेस मिलकर कोशिश कर रहे हैं कि आधा-अधूरा लोकपाल पारित हो जाए.

आज आप लोग लोकपाल को लेकर पूरी तरह से दो फाड़ हैं. तो क्या अन्ना के साथ फिर से जुड़ाव होने की कोई संभावना है?

बिल्कुल, हम चाहेंगे कि अन्ना ठीक बात करें और चीजों को समझें. हम लोगों का तो उनसे अब कोई संपर्क रह नहीं गया है. फिलहाल तो उन्हें गलत लोग घेरे हुए हैं.

अरविंद जाने वाले थे अन्ना से मिलने तो अब वे जाएंगे या नहीं?

अभी तो वे बीमार हैं. जब तबीयत ठीक हो जाएगी तब समय निकाल कर शायद वे जाएं. तब तक अन्ना का उपवास भी समाप्त हो जाएगा.

एक खबर यह भी आ रही है कि कांग्रेस ने वे सभी 18 शर्तें मान ली हैं जिन्हें आप ने सरकार बनाने के लिए समर्थन लेने के एवज में रखा था. क्या अब आप लोग सरकार बनाएंगे?

ठीक है, उनकी चिट्ठी आ जाए तो हम लोग इस पर विचार करेंगे. जनता के सामने सारी बातें रखेंगे.

जनता के बीच यह संदेश जा रहा है कि आप लोग सरकार बनाने से बच रहे हैं.

नहीं भाई, बच कहां रहे हैं. बच रहे होते तो हम सीधा कह देते कि हमारे पास बहुमत नहीं है, न ही हम विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी हैं, इसलिए हम सरकार नहीं बनाएंगे, खत्म बात. अगर उन्होंने सारी शर्तें मान ली हैं तो उसका स्वागत है. हम सारी बातें जनता के बीच रखेंगे और फिर उसके हिसाब से आगे बढ़ेंगे.