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कैसे लौटे वह निश्छलता?

इलेस्ट्रेशन:मनीषा यादव

बच्चों के लेखकों की मुसीबत यह है कि वे आज के बच्चे को अपने समय के बच्चे की नजर से देखते हैं. जबकि हमारा सामना आज के स्पीड युग के बच्चे से है. हालांकि इस बच्चे को देखकर ट्रैफिक पुलिस का वह नारा याद आता है-स्पीड थ्रिल्स बट किल्स. हम लोग जो बच्चों के लिए लिखते हैं, अक्सर अपने पैमाने पर ही बच्चों को खरा उतारना चाहते हैं. जो हमें पसंद था या है वही बच्चों को पसंद आना चाहिए. एक तरफ बच्चों की आजादी की वकालत की जाती है तो दूसरी ओर हम बड़े उन पर अपनी ही सोच को लागू करना चाहते हैं. हमारे यहां शायद ही कोई बच्चों से पूछता हो कि वे क्या पढ़ना चाहते हैं? उनकी पसंद क्या है. बल्कि उन पर अपनी ही धारणाएं लाद दी जाती हैं कि बच्चे यह पढ़ना चाहते हैं वह पढ़ना चाहते हैं.

विज्ञान और उससे उपजी तकनीक बच्चों को अपनी उम्र से पहले बड़ा कर रही है. उनकी दुनिया में कई नई चीजें दाखिल हो चुकी हैं. तकनीक या टेक्नोलॉजी दुधारी तलवार की तरह है. बच्चे कितना जानें और किस प्रकार जानें? आज के दौर पर इस तरह की रोक भी संभव नहीं दिखती कि बच्चे किसी के कहने से मान जाएंगे कि यह देखो यह मत देखो, यह पढ़ो वह मत पढ़ो. टेक्नोलॉजी के बारे में जब बात होती है तो दो तरह के विचार सामने आते हैं. एक विचार कहता है कि टेक्नोलॉजी और आज का जमाना बच्चों को बिगाड़ रहा है. जब भी कोई बदलाव होता है एेसे विचार अक्सर सामने आते हैं. टीवी से लेकर कंप्यूटर तक के आने पर संस्कृति के नाश की बातें की जाती रही हैं. दूसरा विचार कहता है कि टेक्नोलॉजी के बिना जीवन नहीं है. आखिर आज किसी को कंप्यूटर, नेट या मोबाइल से कब तक दूर रखा जा सकता है. वैसे भी बच्चों को किसी बात के लिए मना नहीं करना चाहिए. एक बहस के दौरान चर्चित विज्ञापन निर्माता अलीक पदमसी ने कहा कि पश्चिम में आठ साल तक के बच्चे पोर्न मैगजीन और साइटें देखते हैं और इसका कोई बुरा भी नहीं मानता. हम जैसे लोगों के सामने सवाल ही यही है कि बच्चों को दोनों तरह की अतियों से कैसे बचाया जाए.

पिछले दिनों केरल की खबर छपी थी कि वहां 80 प्रतिशत लोगों के पास मोबाइल है. इनमें बच्चों के पास भी बड़ी संख्या में मोबाइल हैं और इन दिनों बच्चों में वहां एडल्ट साइटें बहुत लोकप्रिय हो रही हैं. नेट सर्फिंग के बारे में भी एेसी ही खबरें हैं. भारत में फेसबुक के सबसे ज्यादा उपयोगकर्ता बच्चे ही हैं. लेकिन क्या कच्ची उम्र में पोर्न साइटें देखना और सैक्सुअली एक्टिव होना अच्छी बात है? यूरोप में एक जमाने में टीन एज प्रेगनेंसी की जो समस्या रही है वह हमारे यहां भी बढ़ती जा रही है. यहां तक कि बच्चे सेक्स संबंधी अपराधों में लिप्त हो रहे हैं. नौ-नौ साल के बच्चों के रेप जैसे संगीन अपराध में लिप्त होने की खबरें आ रही हैं. पश्चिम में तो ऐसे भी उदाहरण हैं कि 12-12 साल के बच्चे बाप बन रहे हैं और उनके माता-पिता मीडिया के सामने उन्हें पेश करके पैसे बना रहे हैं. साफ है कि बच्चे अपनी उम्र से ज्यादा बड़े हो रहे हैं और चिंता की बात यह है कि इससे उपजने वाली समस्याओं का कहीं कोई समाधान दिखाई नहीं देता. बच्चों को ध्यान में रखकर कुछ अच्छे सर्वे भी नहीं किए जाते.

हाल ही में एक साथी ने अपने बच्चे का जन्मदिन मनाया. जन्म दिन पर उन्होंने अपने साथियों से पूछा कि रिटर्न गिफ्ट के रूप में क्या दिया जाए. चूंकि साथी पढ़ने-लिखने से ताल्लुक रखते थे इसलिए सोचा गया कि किताबें खरीदी जाएं. उन्होंने बच्चे के दोस्तों के लिए एक से बढ़कर एक रंग-बिरंगी सुंदर अंग्रेजी-हिंदी की किताबें खरीदीं. जब बच्चों को रिटर्न गिफ्ट दिया गया और उन्होंने उसे खोलकर देखा तो वे बहुत नाराज हुए. गिफ्ट के रूप में उन्हें किताबें कतई पसंद नहीं आईं. जिन बच्चों को हिंदी की किताबें दी गई थीं, वे और ज्यादा नाराज हुए.

अब सवाल यह है कि आखिर उनके ही लिए लिखी गई किताबों को बच्चे बोझ की तरह क्यों देख रहे हैं. इसका कारण कई बार यह भी लगता है कि लेखकों और बाल पाठकों के बीच में एक दूरी है जो बढ़ती ही जा रही है. बच्चों के लिए जानकारी और मनोरंजन दोनों जरूरी हैं. मनोरंजन पर जानकारी हावी होगी तो सम्भवत: कोई बच्चा एेेसी कहानियां या कविताएं नहीं पढ़ना चाहेगा. जानकारी के लिए तो आजकल उनके पास बहुत से माध्यम उपलब्ध हैं. शायद यही कारण है कि कब-क्यों-कहां-किसलिए से भरी फैंटेसीज उन्हें पसंद आती हैं.

बहुत से लोग समझते हैं कि फैंटेसी लिखना बहुत आसान है और उसमें कोई तर्क नहीं होता जबकि फैंटेसी लिखना, एेसी कथा कहना जिसमें बच्चों का कुतूहल और जिज्ञासा जग सके एक कठिन काम है. इसीलिए अक्सर लोग कहानी लिखने का एक आसान सा रास्ता अपनाते हैं. सरकार के जो नारे चल रहे होते हैं वे उन पर कहानियां कविताएं लिखते हैं. एेसी कहानियां हमें हजारों की संख्या में मिलती हैं जो बेहद अपठनीय होती हैं. इन दिनों पर्यावरण और ‘जेंडर सेंसिटाइजेशन’ पर लिखने वालों की भरमार है. ये कहानियां इतनी उबाऊ होती हैं कि इनके शुरुआती वाक्य पढ़ने के बाद सहज ही समझ में आ जाता है कि आगे क्या होगा. यों बच्चों के लिए इन दिनों बहुत ही सुंदर और कम दाम की किताबें भी छपती हैं. नेशनल बुक ट्रस्ट, प्रकाशन विभाग, प्रथम बुक्स, यात्रा बुक्स, एए बुक्स, सीबीटी आदि न जाने कितने प्रकाशक हैं जो बहुत अच्छी किताबें छापते हैं. लेकिन मुश्किल यह है कि बाल पाठकों की घटती संख्या से सब परेशान हैं.

बहुत-से लोग सभा-सेमिनारों में सवाल उठाते रहते हैं कि आखिर भारत में आज तक कोई हैरी पॉटर जैसी किताब क्यों नहीं छप सकी. इसे यदि भारतीय संदर्भ में देखा जाए तो हैरी पॉटर की जैसी मार्केटिंग की गई, क्या आज तक हमारे यहां बच्चों की तो छोडि़ए बड़ों की किसी किताब के लिए इतने योजनाबद्ध तरीके से मार्केटिंग की गई है? शुरुआती दौर में हैरी पॉटर की सफलता के लिए बुक स्टोरों को पांच हजार पार्टियां दी गई थीं. मीडिया को कैसे साधा गया था यह भी सबको पता है.

आज हमारे यहां टेक्नोलॉजी को बच्चों के लिए सफलता का मूल मंत्र बताया जा रहा है और उसे सब समस्याओं के निदान का अचूक नुस्खा करार दिया जा रहा है. सारी पार्टियां चुनाव जीतने के रामबाण नुस्खे की तरह बच्चों को लैपटॉप देने की बात करती हैं और लैपटॉप बनाने वाली कंपनियांं उन राज्यों की राजधानियों में डेरा डाल लेती हैं. अगर इस बात को हैरी पॉटर पर लागू करें तो एेसा लगता है कि पश्चिम का बच्चा आधुनिक खिलौनों यानी गिजमोज की अधिकता से ऊब गया था इसीलिए उसने टोने-टोटके और चमत्कार से भरे हैरी पॉटर को चुना. हमारे यहां के गणेश, शिव, काली, हनुमान, कृष्ण जैसे पौराणिक चरित्र पश्चिम में बहुत लोकप्रिय हो रहे हैं. अमीश त्रिपाठी की शिव पर लिखी किताब को पांच करोड़ रु का कान्ट्रेक्ट मिलना और एक अन्य लेखक की रावण पर लिखी किताब असुर की लोकप्रियता भी इसे साबित करती है. नंदन पत्रिका भी जब प्राचीन कथा विशेषांक निकालती है तो न केवल बच्चे बल्कि अध्यापक और माता-पिता भी इसे बहुत पसंद करते हैं. यही नहीं, बहुत से लोग कहते हैं कि दादी-नानियां बच्चों को बहुत अच्छी कहानियां सुनाती थीं. बच्चों को नित नई कल्पना की राह पर ले जाने के लिए वे अपने बचपन में गोते लगाती थीं.

पर संयुक्त परिवारों के जमाने की विदाई के चलते आज दादी-नानी बच्चों के पास नहीं होतीं और होती भी हैं तो न उन्हें कहानी सुनाने की फुरसत है और न बच्चों को सुनने की. आज के दौर की दादी-नानी को तो टीवी सीरियल देखने और उनमें दिखती महिलाओं के कपड़े, आई ब्रो, बाल, चूड़ियां, साड़ियां, लो कट ब्लाउज या षडयंत्रकारी ढंगों को देखने से ही फुरसत नहीं है. और एेसा सिर्फ महानगरों में ही नहीं, कस्बों और गांवों तक में हो रहा है.

संचार के तमाम माध्यमों का इस्तेमाल करके विज्ञापन उद्योग ने बच्चों की दुनिया के तीन मंत्र तय कर दिए हैं-मनी, मोबाइल और मॉल. मनी यानी पैसे के जरिए ब्रांड आते हैं. विज्ञापन बताते हैं कि यदि कोई बच्चा ब्रांड नहीं पहनता है या महंगा मोबाइल इस्तेमाल नहीं करता है, या वीकेंड पर मॉल में नहीं जाता तो वह दोयम-तीयम नहीं जेड ग्रेड का नागरिक है. जिन माता-पिता या गुरुओं पर उन्हें इस हमले से बचाने की जिम्मेदारी है, उनमें से ज्यादातर खुद इसकी गिरफ्त में हैं. बाजार से पैदा हुई आकांक्षाओं के दबाव में बच्चे कहीं अपराध करते दिख रहे हैं तो कहीं अवसाद यानी डिप्रेशन का शिकार होकर आत्महत्या तक करते.

बच्चे जो कुछ देख-सुन रहे हैं उसका उनके दिमाग पर गहरा असर पड़ता है. दिल्ली में जब बम ब्लास्ट हुआ था तो यह लेखिका नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में गई थी. वहां बच्चों से जब कहानी लिखने को कहा गया तो चाहे बच्चे ने चिड़िया पर कहानी लिखी या फूलों पर या स्कूल पर या फिर अपने घर पर, उसका अंत बम ब्लास्ट पर हुआ था.

इस लिहाज से देखें तो आज बच्चों के लिए लिखने वाले हमारे वर्ग के लिए बहुत चुनौती भरा समय है. हम लेखक हैं इसलिए बच्चों के गुरु हो सकते हैं या हम जो लिखेंगे बच्चा बिना सवाल पूछे उसे जस का तस स्वीकार कर लेगा,  ऐसा नहीं है. चुनौती तो यही है कि इस नए बच्चे तक हम कैसे पहुंचें. अति सूचना और ज्ञान ने बच्चों की निश्छलता खत्म कर दी है. क्या हम ऐसी कहानियां-कविताएं लिख सकते हैं जो इन बच्चों की निश्छलता  वापस ला सकें?

दर्द का दस्तावेज़ ‘गैस्ड’

चित्र: गैस्ड, चित्रकार: जॉन सिंगर सार्जेंट, सन:1918
चित्र: गैस्ड, चित्रकार: जॉन सिंगर सार्जेंट, सन:1918
चित्र: गैस्ड, चित्रकार: जॉन सिंगर सार्जेंट, सन:1918

विश्वकला के इतिहास में युद्ध चित्रों की एक लंबी परंपरा है. हजारों साल पहले बने गुफा चित्रों से लेकर पिछली सदी की कला में , हमें युद्ध को विषय बनाकर रचे गए असंख्य चित्र मिलते हैं. पश्चिमी देशों में युद्ध चित्रों की रचना के पीछे स्वदेश प्रेम , शौर्य , बलिदान आदि प्रेरक उद्देश्यों के साथ-साथ शत्रु राष्ट्र के प्रति घृणा भाव को लंबे समय तक जिंदा बनाए रखने का मकसद भी साफ दिखता है. इसलिए ऐसे अधिकांश युद्ध चित्र शासकों द्वारा प्रायोजित कहानी के साथ  उस राष्ट्र के गलत-सही इतिहास को कुछ हद तक प्रामाणिकता भी देते हैं. कपोल कल्पित किस्से-कहानियों और धार्मिक कथाओं के साथ जुड़े चित्रों की एक विशिष्ट परंपरा के जरिए ही विशाल अनपढ़ जन समूह को किसी धार्मिक-सामाजिक नियमों के साथ  बांधे रखना संभव रहा है. इस सच्चाई से शासक वर्ग सदियों से बखूबी परिचित रहा है, लिहाजा धार्मिक और सामंती विषयों के चित्रों को शासकों ने अपने संरक्षण में न केवल बनवाया बल्कि उनके सामूहिक प्रदर्शन का प्रबंध भी किया. दुनिया भर के संग्रहालयों और धर्मस्थानों की दीवारें इसके सबूत हैं. 

हमारे देश में युद्ध चित्रों का कुछ हद तक व्यवस्थित स्वरूप देवों-असुरों, राम-रावण या कौरव-पांडव के युद्धों के चित्रणों में दिखता है. जो बाद में अपने विकास क्रम में धार्मिक कथाओं के नायकों को विस्थापित कर विभिन्न शासकों को चित्रों के केंद्र में स्थापित करते रहे हैं. पर बावजूद इन सबके भारतीय चित्रकला और  साहित्य में स्वाभाविक कारणों से युद्धप्रसंगों का उल्लेख पाश्चात्य कला के ऐसे चित्रों की विशाल संख्या की तुलना में बहुत कम मिलता है. हालांकि, पिछली सदी के दो विश्व युद्धों की विभीषिका ने कई चित्रकारों को स्वतःस्फूर्त ढंग से चित्र रचने के लिए प्रेरित किया, पर लगभग हर युद्धरत राष्ट्र की ओर से बड़ी संख्या में कलाकारों को युद्धक्षेत्रों में युद्ध के चित्र बनाने भेजा गया.  यहां गौरतलब है कि प्रथम विश्व युद्ध के पहले फोटोग्राफी का आविष्कार हो चुका था और युद्ध-पत्रकारिता में इसका खूब उपयोग भी किया जा रहा था. पर यहां यह मान लेने में जरा भी हिचक नहीं होती कि प्रथम विश्व युद्ध के दौरान बनाए गए युद्ध चित्र अपने प्रभाव में युद्धों के फोटोग्राफों से कहीं ज्यादा प्रभावशाली थे. दरअसल , ये कैमरे से लिया गया यांत्रिक विवरण मात्र न होकर मनुष्य द्वारा दर्ज की गई मनुष्य के विनाश की गाथाएं थीं जहां असहाय इंसानियत की सिसक को सुना जा सकता था.  इसीलिए आज सौ साल बाद भी ये सभी चित्र अपने अंतिम अर्थों में सार्थक युद्ध विरोधी चित्र बनकर हमें अमन का एक संदेश देते है , जो इन चित्रों के बनवाने वालों की मंशा के बिल्कुल विपरीत है.

ऐसा ही एक मार्मिक चित्र है ‘ गैस्ड’!

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान रासायनिक हथियार के रूप में जर्मनी ने एक गैस का प्रयोग किया था जिसे आम भाषा में ‘ मस्टर्ड गैस ‘ कहा जाता था. इस गैस के गोले जब फूटते थे तो गैस एक भारी धुएं की तरह जमीन पर रेंगती हुई फैलने लगती थी. गैस में तेज सरसों की महक के कारण ही इसका नाम मस्टर्ड गैस पड़ा था. यह गैस शरीर के जिस भी हिस्से के संस्पर्श में आती थी, उस हिस्से की कोशिकाओं को नष्ट कर देती. शरीर पर तुरंत फफोले पड़ जाने के साथ-साथ इस गैस का असर आंखों पर पड़ता था और पीड़ित तुरंत अंधा हो जाता था. इस गैस का प्रभाव जल्द ही फेफड़ों तक पहुंचकर ऑक्सीजन तंत्र को नष्ट कर देता था. पीड़ित को खून की उल्टियां आती थीं और वह अंततः एक दर्दनाक मौत मरता था.  प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इस अमानवीय रासायनिक गैस के बारे में सबसे मार्मिक विवरण हमें विख्यात जर्मन साहित्यकार एरिक मारेया रेमार्क (1898 -1970 ) की कृति ‘ऑल क्वायट ऑन द वेस्टर्न फ्रंट ‘ में  मिलता है. जॉन सिंगर सार्जेंट द्वारा बनाए गए चित्र ‘ गैस्ड ‘ को देखकर हम रासायनिक युद्ध शस्त्रों की भयावहता और मौत का इंतजार करते असहाय सैनिकों की स्थिति के बारे में समझ सकते है.

अमेरिकी चित्रकार जॉन सिंगर सार्जेंट (1856-1925 ) अपने समय के जाने-माने चित्रकारों में थे जो धनी और अभिजात परिवारों की महिलाओं के आकर्षक पोर्ट्रेट बनाने के लिए प्रसिद्ध थे. प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इंग्लैंड-अमेरिका का एकजुट होकर जर्मनी के खिलाफ लड़ने की  ऐतिहासिकता को एक मूर्त रूप देने के उद्देश्य से जॉन सिंगर सार्जेंट को ब्रिटिश वार मेमोरियल कमेटी की ओर से विशेष रूप से नियुक्त किया गया था.  62 वर्षीय जॉन सिंगर सार्जेंट शौकीन मिजाज, आराम पसंद और खासे धनी चित्रकार थे पर उन्होंने इस दायित्व को एक चुनौती के रूप में  लिया.  उन्होंने इस चित्र को बनाने के लिए 1918 की जुलाई में अरास और येप्रेस के कठिन युद्ध क्षेत्रों का दौरा किया. जॉन सिंगर सार्जेंट को सूचना मंत्रालय की ओर से निर्देश दिया गया था कि चित्र का आकार बड़ा हो जिसमें अंग्रेजों और अमेरिकियों की मैत्री को भव्य महाकाव्य की तरह प्रस्तुत  किया जा सके. बिल्कुल भिन्न सामाजिक परिवेश से आए चित्रकार सार्जेंट के लिए यह बिल्कुल एक नया अनुभव था पर वे इतना तो समझ गए थे कि चित्र में महाकाव्य के गुणों को दिखाने के लिए एक बड़े जन समूह को दिखाना आवश्यक होगा.  इसी उद्देश्य से वे युद्ध क्षेत्रों के बीच जाकर चित्र के लिए मुकम्मल विषय तलाशते रहे. उन्हें तोपों को ढोते ट्रकों की कतार का दृश्य या फिर युद्ध  के दौरान सड़क पर फौजियों और आम लोगों की अफरातफरी जैसे दृश्य उन्हें आकर्षित तो करते रहे पर एक चित्र रचने के लिए प्रेरित नहीं कर सके.  संशय के ऐसे दौर में सार्जेंट यकायक उस भयावह हकीकत से रूबरू हुए जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी न की थी.  21 अगस्त, 1918 को अरास और डालिंस प्रांतों से सटी सैनिक छावनी पर जर्मन सेना ने मस्टर्ड गैस के गोलों से हमला किया था. इसकी खबर मिलते ही सार्जेंट घटना स्थल पर जा पहुंचे और उन्होंने वह ‘ खौफनाक दृश्य ‘ देखा जिसके चलते विश्व के युद्ध चित्रों के इतिहास की अन्यतम कृति ‘गैस्ड ‘ की रचना हो सकी.

जॉन सिंगर सार्जेंट की आंखों के सामने सैकड़ों  सैनिक मरे पड़े थे, सैकड़ों मर रहे थे और कुछ को उपचार के लिए चिकित्साकर्मियों द्वारा अस्पताल ले जाया जा रहा था. सभी पीड़ित सैनिकों की आंखों पर पट्टियां बंधी थीं  वे एक दूसरे के कंधों पर हाथ रख कर एक कतार बना कर चल रहे थे. कला इतिहास के बारे में सुशिक्षित जॉन सिंगर सार्जेंट को निश्चय ही पीटर ब्रुगेल का 1568 में बनाया हुआ  ‘अंधों की अगुआई करता अंधा ‘ चित्र याद आया होगा. सार्जेंट अपने स्केच बुक पर सधे हाथों से उन सैनिकों के चित्र बनाने लगे.  सार्जेंट के जिन हाथों ने कभी सैकड़ों महिलाओं के खूबसूरत चेहरों और उनके बेशकीमती वस्त्रों को अपने स्केच बुक में उतारा था आज वही हाथ युद्ध के खौफनाक चेहरे को चित्रित कर रहे थे. सार्जेंट के अध्ययन रेखांकनों से एक बात साफ समझ में  आती है कि वे इन रेखांकनों में किसी सैनिक के नाक -नक्श के आधार पर उसकी विशिष्टता नहीं दर्ज कर रहे थे (जो पोर्ट्रेट बनाते समय उन्हें अनिवार्य रूप से करना पड़ता था ) बल्कि इन रेखांकनों में दृष्टिहीन, पीड़ित, असहाय सैनिकों की भंगिमा समझने की एक ईमानदार कोशिश कर रहे थे.   सार्जेंट की यह कोशिश दरअसल चित्र को यांत्रिकता के परे ले जाकर उसे एक मर्मस्पर्शी ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में रचने के उद्देश्य से प्रेरित रही थी. प्रभाव के स्तर पर ‘गैस्ड ‘ चित्र कला को एक  कालजयी ऊंचाई तक ले जाती है.

‘गैस्ड ‘ चित्र अपने आकार में एक अति विशाल कृति है (ऊंचाईं 8.5 फुट और लंबाई 20 फुट).   इस चित्र में रंगों के सीमित प्रयोग के बावजूद आकृतियां  और उनकी भाव भंगिमाएं स्पष्ट हंै.  चित्र का मूल अंश 10 सैनिक और एक चिकित्साकर्मी द्वारा बनी एक कतार है जो चित्र के बाएं से दाहिने ओर बढ़ता दिखता है.  जमीन पर घायल और मृत सैनिकों को देखा जा सकता है. यूं तो चित्र में हर सैनिक के दर्द को अलग-अलग कर देखा जा सकता है पर चित्र के इस हिस्से के आठवें सैनिक को उल्टी करते हुए पाते हैं, आंखों पर पट्टी बंधे रहने के कारण  इस सैनिक को यह नहीं पता चल पा  रहा है कि दरअसल वह खून की उल्टियां  कर रहा है.  चित्र के तमाम अन्य विवरणों में  यह एक अत्यंत करुण वृत्तांत  है .

चित्र के दाहिने हिस्से में  एक दूसरा दल भी उसी दिशा की ओर एक कतार में बढ़ रहा है. इस चित्र का वक्त दिन के समाप्त हो जाने और रात के उतरने के ठीक पहले का है. गौर से देखने पर दूसरे दल के सैनिकों के चेहरों और कपड़ों पर ढलते  दिन की अंतिम किरणों द्वारा एक हाई-लाइट बना है  साथ ही इस दल के ठीक पीछे क्षितिज पर पूनम के चांद को निकलते देखा जा सकता है. सार्जेंट ने ,दिन के इस खास वक्त में प्रकाश और रंग का एक अपरिचित अंतर्सम्बंध तैयार किया है जो चित्र को विषयानुरूप बेहद गंभीर बनाता है. इस प्रयास को और अधिक प्रभावशाली बनाने में इस चित्र के  आकार की  भी अपनी विशिष्ट भूमिका है. चित्र की संरचना में एक अद्भुत संयम दिखाई देता है. जहां  चित्र के इतने विशाल आकार के होने के बावजूद पृष्ठभूमि में फैले आकाश को सीमित रख कर सैनिकों की आकृतियों और उनकी अलग-अलग गतिविधियों को ज्यादा महत्व दिया गया है. सार्जेंट ने इस (सतही तौर पर सरल लगने वाले ) जटिल संरचना के माध्यम से दर्शक की दृष्टि को किसी एक सैनिक पर टिकने नहीं दिया है  वे हर सैनिक और उसकी दुर्दशा से दर्शक को परिचित करना चाहते हैं.

चित्र की पृष्ठभूमि में फुटबॉल खेलते कुछ खिलाडि़यों की उपस्थिति निश्चय ही चित्र का एक चौंकाने वाला पक्ष है. चित्र में खिलाडि़यों की उपस्थिति के बारे में विभिन्न कला समीक्षकों ने अपने विचार रखे हैं. कइयों ने तो इसे प्रतीक के रूप में  भी देखा. वास्तव में चित्र के मूल विषय को आपस में जोड़ते हुए हम  परस्पर भिन्न रूपों और गुणों वाले चार तत्वों  को पाते हैं. चित्र के बाएं छोर पर कुछ तंबुओं की उपस्थिति, मूल सैनिकों के दल के बीच अस्पष्ट  दिख रहे फुटबॉल खिलाडि़यों का दल, सैनिकों के दूसरे दल के पीछे,  क्षितिज पर निकलता धुंधला चांद और चित्र के दाहिने छोर से अदृश्य तंबू की तनी रस्सियां ऐसे तत्व हैं जो चित्रकार की मौलिक रचनाशीलता के परिचायक हैं. पूरे चित्र को यदि इन गैरजरूरी या अप्रासंगिक से लगने वाले तत्व से काट कर देखा जाए तो इनकी अहमियत सहज ही समझ में आ सकती है.

जॉन सिंगर सार्जेंट को इतिहास शायद सैकड़ों में महज एक और पोर्ट्रेट चित्रकार के रूप में ही याद रखता पर ‘ गैस्ड ‘ जैसी कालजयी कृति ने सार्जेंट को चित्रकला इतिहास में अमर बना दिया.

सहज अर्थात अविस्मरणीय

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पोर्ट्रेट फोटोग्राफी एक ऐसी कला है जिसमें आधा तो आपके सहज ज्ञान का योगदान होता है और आधा इस बात का कि आप उस सहज ज्ञान को कितना पैना कर पाते हैं. किसी शख्सियत का सार किस तरह कैमरे में उतारा जा सकता है, इसके लिए कुछ सुझाव.

  • बोझ कम से कम हो. सिर्फ अपना कैमरा और जूम लेंस लेकर चलें. बड़े-बड़े बैग और ट्राइपोड से बच सकें तो बेहतर. मैं कभी नहीं चाहता कि मुझे देखकर लोगों को लगे कि कोई प्रोफेशनल आ गया है. बड़ा तामझाम देखकर लोग डर जाते हैं. इससे तस्वीरों की सहजता जाती रहती है.
  • आराम से तस्वीरें उतारें.  लगातार तस्वीरें लेना फोटोग्राफर और जिसकी तस्वीरें उतारी जा रही हैं, दोनों को परेशान कर देता है. पहले कुछ तस्वीरें लें, उसके बाद अपने सब्जेक्ट के साथ बातें करें, कुछ हंसी-मजाक करें ताकि माहौल हल्का हो जाए. जब आपको लगे कि सामने वाला कैमरे को लेकर सहज हो गया है तो तस्वीर खींचें. कैमरे और उस व्यक्ति के बीच सीधा और सहज संपर्क होना चाहिए.
  • सुनने से ज्यादा महसूस करें. अगर तस्वीरें पत्रकारिता के मकसद से ली जा रही हैं तो आप उन भावों को कैद करें जो आपने उस संक्षिप्त समय में उस व्यक्ति के बारे में समझे हैं. एक बार मैंने पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जिया-उल-हक की एक प्रेस कांफ्रेंस में तस्वीर ली थी. अगर आप तानाशाह हैं तो आप महान बातें जरूर कह सकते हैं लेकिन आपके हाव-भाव और आंखें कुछ और ही बयान करती हैं. मैं किसी व्यक्ति के आंतरिक भावों को पकड़ने की कोशिश करता हूं, बाहरी दिखावे को नहीं.
  • चौंकाने की कला. सत्यजीत रे के अनूठे भाव मैं इसके बूते ही कैद कर पाया. उनके साथ कुछ वक्त बिताने के बाद मैंने कहा, ‘मैं जा रहा हूं.’ चौंकते हुए रे ने मुझे देखने के लिए गर्दन घुमाई. मैं अपने कैमरे के साथ तैयार था. रोशनी और अंधेरे के अनोखे संगम का परिणाम बड़ा अनोखा रहा.
  • सोचने के लिए समय लें. आजकल बड़ी जल्दबाजी में तस्वीरें ली जाती हैं, लेकिन जरा सोचिए कि एक सेकंड के भी छोटे-से हिस्से में भला आप क्या पकड़ पाएंगे. थोड़ा समय लीजिए. पहले फोटोग्राफी में ठहराव का बड़ा महत्व होता था. तकनीक इतनी अच्छी नहीं थी, इसलिए जिसकी तस्वीर ली जा रही है उसे तब तक सांस रोककर रखनी पड़ती थी जब तक फोटोग्राफर तस्वीर न खींच ले. इस दौरान उसकी आंखों में कितने ही भाव आते और चले जाते थे जिन्हें कैमरा दर्ज कर लेता था.
  • कभी-कभी नियमों को भूल जाएं. हमारी सोच कुछ निश्चित सांचों में ढली होती है, इसलिए मेरा सुझाव है कि अपने दिमाग का कंप्यूटर बंद कर दें. सत्यजीत रे की शुरुआती फिल्मों में एक जादुई अध्यात्म दिखता है. उनकी बाद की फिल्में भी बहुत अच्छी थीं लेकिन उनमें एक योजनाबद्धता और बौद्धिकता नजर आती है. 100 फीसदी योजना से तस्वीर सिर्फ अच्छी आती है, लेकिन जब योजना के परे कोई अलौकिक चीज उसमें उतर जाती है तो वह असाधारण हो उठती है. यह ऐसा ही है जैसे प्रेम की सहज भावना और प्रेम पर बौद्धिक चर्चा के बीच फर्क.

(जैसा उन्होंने यामिनी दीनदयालन को बताया)

‘रूह जो महसूस करती है वही बयान करती है’

जानेमाने सूफी गायक आरिफ लोहार . फोटो:अरुण सहरावत
जानेमाने सूफी गायक आरिफ लोहार . फोटो:अरुण सहरावत
जानेमाने सूफी गायक आरिफ लोहार . फोटो:अरुण सहरावत
जानेमाने सूफी गायक आरिफ लोहार . फोटो:अरुण सहरावत

आरिफ, सबसे पहले थोड़ा सूफीवाद और सूफी संगीत के बारे में बताएं.
सूफी है क्या? इसका मतलब क्या है? इसका मतलब है कि अंदर से और बाहर से जो इंसान सूफी होता है वह रूह से पाक-साफ होता है. वो किसी को नुकसान नहीं पहुंचाता. सूफी लोगों को जिंदगी की वह राह दिखाता है जिस पर चलकर इंसान को अपनी जिंदगी बशर करने और उसे अर्थपूर्ण बनाने में मदद मिलती है. सूफी अल्लाह का वह नेक बंदा है जिससे हर चीज, परिंदा, जानवर, दरख्त.. हर चीज महफूज रहती है. सूफी के कलाम प्यार-अमन और मोहब्बत का पैगाम होते हैं. हमारे जो सूफी संत हैं उन्होंने इंसानों को जीने की राह दिखाई है और आने वाले समय में जिंदगी को कैसे जीना है इसकी राह भी दिखाई है. सूफी संगीत इसी संदेश को लोगों तक पहुंचाने का जरिया है.

आपने हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों जगहों पर काम किया है. दोनों जगहों पर सूफीवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं. आप दोनों देशों की सूफी परंपरा में कोई अंतर पाते हैं या फिर दोनों एक ही धारा है.
देखिए, ये सारा संदेश जो दरवेशों और सूफी संतों ने दिया है वह सब एक ही है. इंसान तो एक ऐसे जमघट में रह रहा है जहां लालच और पैसे की दौड़ ही सब कुछ है. इंसान उसी दौड़ में लगा हुआ है. फिर एक चीज होती है सुकून. यह सुकून जो है वह सिर्फ एक दरवेश की दरगाह में ही मिल सकता है. वहां जाकर इंसान महसूस करता है कि यहां ठहराव है, शांति है. सारे सूफीवाद का यही सार है. हिंद और पाक में ऐसे बेशुमार सूफी पैदा हुए हैं जिनके सूफियाना कलाम ने इंसानियत की बेहतरी के फलसफे दिए हैं.

तो इसको क्या माना जाए? यह इस्लाम से अलग कोई धारा है या इस्लाम की ही कोई उपधारा है?
सूफीवाद की बुनियाद इस्लाम है. सूफीवाद उसका एक पहलू है जो कि पूरी दुनिया में जाता है. इसका मूल इस्लाम से है. जो सूफी इकराम हैं जैसे कि बाबा बुल्ले शाह, बाबा फरीद सरकार, बाबा लतीफ बटाई, यहां हिंद में अजमेर शरीफ के कलाम या निजामुद्दीन औलिया आदि ने जो दरस लिए हैं वह इस्लाम से लिए हैं. बल्कि अगर आप देखें तो इस्लाम के अलावा भी बाकी जो मजहब हैं दुनिया में, वे सभी शांति और अमन का ही संदेश देते हैं.

एक धारणा है कि इस्लाम और संगीत साथ-साथ नहीं चल सकते. पर हमने पाकिस्तान में एक से बढ़कर एक महान संगीतकार देखे हैं. गुलाम अली खान हैं, आबिदा परवीन हैं, नुसरत फतेह अली खान आदि. तो ये विडंबना एक साथ कैसे चलती है पाकिस्तान में? क्या इसकी वजह से आपको कभी कोई मुश्किल पेश आई?
नहीं, हम तो अपने मुल्क में बेहतरीन परफॉरमेंस कर रहे हैं, और सारे लोग हमें दिलोजान से चाहते हैं. हम वहां पर हिट होते हैं. हम सूफी महफिलों में जाते हैं. हमें तो आज तक किसी ने रोका-टोका नहीं है. बात यह है कि जब आप कोई भी चीज हद से बढ़कर करते हैं जिससे कि अश्लीलता झलकती हो तो स्वाभाविक रूप से हर कोई इसे पसंद नहीं करेगा. कुछ लोग बेहद नर्मदिल और रूढ़िवादी होते हैं जिनको इन चीजों से चोट पहुंचती है. सूफी आदमी भी इस तरह की चीजें पसंद नहीं करता है.

भारत में भी हमने देखा है कि कई बार कोई राजनीतिक समस्या खड़ी होते ही पाकिस्तान से आने वाले कलाकारों को यहां से वापस जाने का दबाव बनाया जाता है. कभी आपका इस तरह की चीज से सामना हुआ?
कलाकार जो होता है वह दो देशों के बीच ब्रिज बनाने का काम करता है. वह फनकार कहीं का हो. देशों के बीच विवाद होते रहते हैं. लेकिन इस चीज को इतना दिल से नहीं लगाना चाहिए. कभी भी कलाकार को दरकिनार नहीं करना चाहिए. आप देखिए कि कितनी भी कड़वाहट पैदा हो जाए लेकिन मेंहदी हसन साहब, गुलाम अली साब, नुसरत साब की आवाज को आप रोक नहीं सकते. वो तो यहां लोगों के दिलों पर राज करते हैं. इसी तरह से आप देखिए कि लता जी वहां पाकिस्तानियों के दिलों पर राज करती हैं. तो आप उनकी आवाजों को तो रोक नहीं सकते. खूब सुनते हैं लोग उन्हें. रफी साब को, किशोर कुमार को सुनते हैं. तो कहने का मतलब है कि कलाकार जो होता है वह सीमाओं से बंधा नहीं होता है, वह इनसे ऊपर है. वह अमन का पुजारी होता है. मेरे दादा जी सुनाया करते थे कि एक जंगल में आग लग गई तो वहां पर एक चिड़िया चोंच में पानी भर के पानी फेंक रही थी. तो किसी ने कहा कि ऐ कमलिए, ऐ जलिए तू ये क्या काम कर रही है. तेरी चोंच भर पानी से इस जंगल की आग क्या बुझेगी. तो चिड़िया ने कहा–मैं ये तो नहीं जानती कि मेरे पानी से इस जंगल की आग बुझेगी या नहीं बुझेगी, लेकिन आग बुझाने वालों का नाम जब लिया जाएगा तब सबसे पहले मेरा नाम लिया जाएगा कि मैंने इस आग को बुझाने की शुरुआत की थी. तो कलाकार यही काम करता है.

हिंदुस्तान में आपकी पहचान कोक स्टूडियो के जरिए बनी. उससे पहले यहां आपके प्रशंसकों की संख्या इतनी बड़ी नहीं थी. तो आपको क्या लगता है कि कोक स्टूडियो जैसे प्लेटफॉर्म जरूरी हैं? क्या ये कलाकार को सामने लाने का बेहतर जरिया हैं?
पाकिस्तान में सबसे पहले मैं 90 में हिट हुआ था. यूट्यूब पर मेरे गाने पहले से ही मौजूद थे. कोक स्टूडियो के जरिए दुनिया से मेरा वास्ता पड़ा. यह तजुर्बा बड़ा अच्छा रहा और लोगों ने मुझे पसंद भी किया. यह निश्चित रूप से बेहतर शुरुआत है. इससे आप अपने फन को दुनिया के सामने रख पाने में कामयाब होते हैं.

एक चीज और, आपका पहनावा बड़ा शानदार होता है और बहुत पसंद किया जाता है. तो यह निराला पहनावा सिर्फ आपका शौक है या इसका आपके सूफीवाद और अध्यात्म से कोई लेना-देना है?
आप दोनों चीजें ले सकते हैं. इसका जो रंग है काला वह तो मेरा शौक है. इसके अलावा डिजाइन करना होता है तो हमारी लोक दास्तानों में बड़ी मिसाल दी जाती है हीर रांझे की. ये बाल उसी रांझे के कैरेक्टर से लिए गए हैं. ये ढोलना जो है मिर्जा साहिबा की स्टोरी से ली हैं. ये मिर्जा साहिबान पहनते थे. ये जूता है तो हमारी धरती पर सिर्फ मेरे इलाके में ही बनते हैं. तो आज के दौर में इन्हें सिर्फ मैं ही पहनता हूं. इसी तरह से लांचा कुर्ता जो हमारा पहनावा था जो आज भी हमारे यहां लोग पहनते हैं, तो यह उन्हीं से लिया गया है. लोक दास्तानों में जो चीजें मौजूद हैं उन्हें मैं इस्तेमाल करता हूं. एक लोक फनकार के ऊपर लोक दास्तानों का बहुत असर होता है. इस तरह से तमाम लोककथाओं का टोटल किया जाए तो एक आरिफ लोहार बनता है और एक आलम लोहार बनता है.

आलम लोहार यानी आपके वालिद साब..
जी, मेरे वालिद साब.

मैंने सुना है कि आपने तमाम पंजाबी फिल्मों में भी काम किया है. उसका अनुभव कैसा रहा…
जी हां, मैंने पंजाबी की 47 फिल्मों में काम किया है. ये लोगों की चाहत थी. ये मेरी मां की दुआ थी. वो कहती थी कि तू मैंनूं बड़ा सोंणां लगदा है आरिफ तो तैनूं फिल्मा नुं कोई नहीं लैंदा. मां की दुआ मुझे नसीब हुई और मैंने इतनी सारी पंजाबी फिल्मों में काम किया.

एक और गजब की चीज आपके बारे में हमने सुना है कि आपने नॉर्थ कोरिया के सैन्य शासकों के सामने भी परफॉर्मेंस दी है. वह कैसे हुआ?
जी हां, वहां पर काफी मुल्क गए हुए थे. वहां भारत से भी मौसिकी के लोग गए हुए थे. तो मैं भी उन्हीं में से था.

तो क्या वहां पर आपकी भाषा और सूफी संगीत को समझने वाले लोग थे?
नहीं, वहां ऐसा तो नहीं था. कुछ भाषाएं होती हैं जिनकी तर्जुमानी तो नहीं हो सकती है, लेकिन वहां मौजूद लोगों को ये जरूर लगा कि मैं जो गा रहा हूं वह उनके दिलों को छूता है. मुझे वहां पर अवॉर्ड भी मिला.

जुगनी जो कि आपकी सबसे बड़ी पहचान बन गई है, उसके बारे में कुछ बताएं.
जुगनी जो है वह हमारे घराने का एक लफ्ज है जिसे हमारे वालिद साब ने सबसे पहले लिखा था. उससे पहले अगर आप कोशिश करें और ढूंढें तो इसका कोई रिकॉर्ड नहीं मिलेगा. कुछ लोगों ने जुबली के साथ जुगनी की पैरोडी करने की कोशिश की. यह स्वाभाविक है कि जब कोई चीज लोकप्रिय हो जाती है तो उससे कंपेयर करने की कोशिश की जाती हैं. कुछ लोगों ने कोशिश की कि यह उनके नाम हो जाए. कुछ चीजें होती हैं जो एक घराने से जन्म लेती हैं. लफ्ज एक घराने से जन्म लेता है. किसी न किसी ने तो पहली बार लफ्ज को जन्म दिया होगा तो मेरे वालिद साब ने सबसे पहले जुगनी लफ्ज नाम दिया रूह को. जो रूह महसूस करती है वही बयान करती है. इसके बाद यह लफ्ज पॉपुलर हो गया. इसके बाद तो दुनिया भर के मुख्तलिफ लोक फनकारों ने इसे गाया. अलग -अलग लोगों ने इसमें अपना-अपना कलाम डालकर इसमें मिक्स कर दिया. इस तरह से यह एक फोक बन गया. तो इसने जन्म हमारे घर से लिया और फिर पूरी दुनिया में फैल गया. लेकिन हमने कभी इस पर दावा नहीं किया कि सिर्फ हम ही गाएंगे. सब गा रहे हैं.

एक निजी सवाल है. आपके बारे में मैंने सुना है कि आप बेहद रिजर्व रहते हैं. घंटों तक अकेले में बैठकर अपने में खोए रहते हैं, मेडिटेशन करते हैं. तनहाई में करते क्या हैं आप? यहां तक कि अपने शो के दौरान भी आप सीधे अपने कमरे से निकल कर स्टेज पर जाते हैं और फिर वापस कमरे में चले जाते हैं.
ऐसा जान-बूझकर नहीं होता है. ये लगन होती है. मुझे मेरी मौसिकी से लगन हो गई है, मेरे वालिद साब की यादों से लगन हो गई है, मुझे अपने कलामों से मुहब्बत है, दुनिया से है. और यह नहीं कि मैं अकेला रहना पसंद करता हूं. हां, तनहाई में मैं थोड़ा चिंतन करता हूं कि ज्यादा से ज्यादा अच्छी चीजें लिखूं ताकि मेरा जेहन नई-नई राहें तलाश सके. ये एक किस्म की जुस्तजू होती है. हर कलाकार के अंदर थोड़ी-सी दीवानगी होती है. वह अपने फन का दीवाना
होता है. सूफी का कोई ठिकाना नहीं होता. वह तो अपनी ही दुनिया में दीवाना होता है.

पाकिस्तान के अलावा हिंदुस्तान में आपके प्रंशसकों की बड़ी तादाद है. उन्हें कोई संदेश देना चाहेंगे?
मैं सिर्फ यही कहूंगा कि अल्ला आपको खुश रखे. जहां भी रहें अमन और मुहब्बत से रहें. जब हालात बिगड़ते हैं तब दिलों में कड़वाहट भी बढ़ती है. हम तो छोटे-मोटे फनकार हैं. यहां ऐसे बड़े-बड़े लोग मौजूद हैं जो दुनिया में आई बड़ी से बड़ी मुसीबत का इलाज खोजने में लगे हैं. हम दुनिया की बेहतरी के लिए सोच सकें, नई राहें निकाल सकें, अपने दिमागों को खोल सकें, अमन और भाईचारे को फैला सकें और पॉजिटिव सोच को बढ़ा सकें ताकि आने वाली नस्लों के लिए यह दुनिया और खूबसूरत हो सके और बेहतर हो सके. यही मेरा फलसफा है, यही मेरी चाहत है.

आपका एक ताजातरीन कलाम हम सब सुनना चाहेंगे.
आपने जो मुझसे पूछा था कि मैं तनहाई में क्या करता हूं तो मैं यही करता रहता हूं. अपनी दुनिया में रहता हूं तो कुछ नई सोचें मिल जाती हैं. एक वक्त में मैंने सफर बहुत किया है. ट्रकों-बसों में बैठकर मैंने लाखों किलोमीटर की यात्राएं की हैं. फिर अब अपनी दुनिया में कैद हो गया हूं. मैंने सूफी शायरों को पढ़ना शुरू किया. एक मेरा नया शेर है जो आपकी खिदमत में पेश करता हूं.

मिट्टी मिट्टी दुनिया सारी, मिट्टी दा संसार
मिट्टी मिट्टी दुनिया सारी, मिट्टी दा संसार
मिट्टी दे सन बादशाह ते मिट्टी दे दरबार

इंसान अपनी ‘मैं’ में रहता है. जो लोग बड़े-बड़े महलों में हजारों पहरेदारों और नौकरों की सुरक्षा में रहते थे, सोने के बिस्तरों पर सोते थे आज वे कहां हैं. कौन उन्हें पूछता है. तो कुछ भी नहीं है दुनिया. जो कभी दरबार थे वे भी मिट्टी थे. सिर्फ आपके अच्छे अल्फाज ही जिंदा रह जाएंगे. इंसान तो मिट्टी बन जाएंगे. आज सूफी दरवेश दुनिया छोड़कर जा चुके हैं, वे मिट्टी के ढेर में तब्दील हो चुके हैं लेकिन उनके कलाम आज भी जिंदा हैं. सिर्फ अल्फाज जिंदा रह जाते हैं.

राहत का अल्पविराम

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12 नवंबर, 2013 को सर्वोच्च न्यायालय से जमानत मिलने के बाद रिहा हुई 36 वर्षीया सोनी सोरी की कहानी जितनी माओवादियों और पुलिस के अत्याचारों के बीच फंसे एक आम आदिवासी की मुश्किलें दिखाती है उतनी ही ‘माओवादी या माओवादी समर्थक’ होने के धुंधले आरोपों के तहत छत्तीसगढ़ की जेलों में न जाने कितने लंबे समय के लिए धकेल दिए गए सैकड़ों निर्दोष आदिवासियों की त्रासदी भी. माओवादी संघर्ष के सबसे सघन गढ़ के तौर पर पहचाने जाने वाले छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले के घने जंगलों में बसे जलेबी गांव में एक प्राइमरी स्कूल शिक्षक के तौर पर लगभग 100 बच्चों को पढ़ाने वाली सोनी सोरी नई पीढ़ी के उन पढ़े-लिखे आदिवासियों में से हैं जिन्हें अपने राजनीतिक रूप से सचेत होने की भारी कीमत चुकानी पड़ी है.

बीते पखवाड़े सोनी अपनी गिरफ्तारी के बाद से शुरू हुई यंत्रणा भरी यात्रा के साक्षी और सह-यात्री रहे लिंगाराम कोडोपी के साथ राजधानी दिल्ली पहुंचीं. यह यात्रा चार अक्टूबर, 2011 को शुरू हुई थी. तहलका से विस्तृत बातचीत के दौरान सोनी छत्तीसगढ़ की जेलों में फंसे सैकड़ों आदिवासियों की वास्तविक स्थिति के साथ-साथ भविष्य को लेकर अपनी शंकाएं और आशाएं हमसे साझा करती हैं. राजधानी स्थित एक गैरसरकारी संगठन के दफ्तर में हुई इस मुलाकात के दौरान सोनी के साथ लिंगाराम और सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार भी मौजूद थे. सोनी की रिहाई पर खुशी जाहिर करते हुए हिमांशु कुमार कहते हैं, ‘पिछले दो सालों के संघर्ष के बाद आखिरकार सोनी सोरी और लिंगाराम कोडोपी को जमानत मिल गई. लेकिन मैं जब से इन्हें दिल्ली लेकर आया हूं दिल्ली पुलिस ने हमें परेशान करना शुरू कर दिया है. सोनी हमारे घर में रह रही हैं. जब से हम दिल्ली आए हैं, हमारे मकान मालिक को स्थानीय थाने से लगातार फोन आ रहे हैं. पुलिस घर भी आई और फिर हमें थाने बुलाया गया. खैर, यह तो अपेक्षित ही था पर अब हमारा पूरा ध्यान दिसंबर में सोनी की अगली सुनवाई पर है. सोनी पर दर्ज हुए कुल सात मामलों में से छह में वे बरी हो चुकी हैं और हमें विश्वास है कि जल्दी ही दोनों बचे हुए आखिरी केस में भी बरी कर दिए जाएंगे.’

दरअसल अक्टूबर 2011 में पुलिस ने सोनी को दंतेवाड़ा में गिरफ्तार किया था. उन पर माओवादी समर्थक होने, पुलिस-बल पर हमला करने, ट्रकों को उड़ाने का प्रयास करने के साथ-साथ उगाही की रकम वसूलने में माओवादियों की मदद करने जैसे गंभीर आरोप लगे. अपनी गिरफ्तारी से कुछ दिन पहले तहलका के दफ्तर में दिए अपने विस्तृत साक्षात्कार के दौरान सोनी बार-बार यह कहती रहीं  कि वे छत्तीसगढ़ के गांव में बच्चों को पढ़ाती थीं और उन्हें अपने क्षेत्र में आदिवासियों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाने की वजह से फंसाया गया है. सोनी के साथ-साथ लिंगाराम भी माओवादियों और स्थानीय पुलिस के बीच जारी तनावपूर्ण संघर्ष की भेंट चढ़े. अपनी गिरफ्तारी से पहले  लिंगाराम दिल्ली से पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करके दंतेवाड़ा के गांवों में माओवादी और पुलिसिया हिंसा का सामना कर रहे आदिवासी परिवारों के बयान दर्ज कर रहे थे. नौ सितंबर, 2011 की शाम अचानक उनको उनके घर से गिरफ्तार कर लिया गया. यहां से शुरू हुए हिंसा के दुश्चक्र को याद करते हुए लिंगाराम बताते हैं, ‘उन्होंने मुझ पर लाला से माओवादियों के लिए पैसे लेने का आरोप लगा दिया. थाने में मुझे टायलेट में बंद कर दिया गया. गालियां और पिटाई तो आम बात थी. फिर जेल पहुंचते ही पहले दिन जेलर ने मुझसे कहा कि मैं बहुत बोलता हूं  इसलिए मुझे इतना पीटा जाएगा कि मैं वापस खड़ा न हो पाऊं. शुरू-शुरू में तो मैं बाहर निकलने की पूरी उम्मीद खो चुका था. अब जब बाहर आया हूं तो सोच रहा हूं कि वापस गांव नहीं जाऊंगा. वहां वे लोग अब हमें रहने नहीं देंगे. लेकिन मैं अपनी जमीन और अपने लोगों के लिए कुछ करना चाहता हूं…सोचता हूं… जब पूरी तरह रिहा हो जाऊंगा तब दिल्ली या किसी दूसरे शहर में रहकर दंतेवाड़ा के लोगों की समस्याएं बाहर लाने के लिए काम करूंगा.’

लेकिन सोनी सोरी किसी भी कीमत पर दंतेवाड़ा से अलग नहीं होना चाहतीं. भयानक शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना और माओवादियों के साथ-साथ स्थानीय पुलिस के निशाने पर रहने जैसे खतरों के बावजूद वे अपना जीवन दंतेवाड़ा के जंगलों में बच्चों को पढ़ाते हुए बिताना चाहती हैं.

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‘सैकड़ों मासूम आदिवासियों को जेलों में रखा गया है, उन्हें न अपने जुर्म का कुछ पता है न भविष्य का’

लगभग दो साल बाद जगदलपुर जेल से जमानत पर रिहा हुई सोनी सोरी से बातचीत के प्रमुख अंश: 

 

क्या आपको लगता है कि आपको इसलिए फंसाया गया कि आप दंतेवाड़ा में माओवादियों और पुलिस सुरक्षा बलों के बीच यथास्थिति को बदलने का प्रयास कर रही थीं?
जी हां. मैं अपने स्कूल में बच्चों को पढ़ाती थी. मेरे पिता भी हमारे बड़े बदेमा गांव के सरपंच थे और उन्होंने मुझे उस दौर में पढ़ाया जब दंतेवाड़ा में लड़कियों को पढ़ाने का चलन ही नहीं था. लिंगाराम भी हमारे इलाके से गोंडी भाषा में लिख-पढ़ सकने वाला पहला पत्रकार था. वह स्थानीय लोगों की भाषा जानता था, इसलिए हमारे लोगों की बात और समस्याएं बाहर की दुनिया के सामने रख सकता था. वह इसी दिशा में काम भी कर रहा था. मैं भी एक-दो स्थानीय सामाजिक संस्थाओं से जुड़ी हुई थी. हमारा परिवार आम आदिवासी परिवारों के मुकाबले राजनीतिक रूप से थोड़ा-सा सचेत था और हम आम आदिवासियों के साथ हुए अत्याचारों का विरोध करते थे. इसलिए पहले तो माओवादी और पुलिस दोनों ही हमारा इस्तेमाल करने की कोशिश में जुट गए और जब हमने उनका किसी भी तरह से सहयोग नहीं किया तो उन्होंने हम पर झूठे आरोप लगाकर हमें फर्जी केसों में फंसा दिया. आज पीछे मुड़कर देखती हूं तो यह सोचकर कांप जाती हूं कि अगर हिमांशु जी हमारे साथ नहीं होते और मीडिया ने हमारा साथ नहीं दिया होता तो शायद आज भी हम छत्तीसगढ़ की किसी जेल में सड़ रहे होते. शायद जिंदा भी नहीं होते.

आपके पति अनिल फुटाने को भी जुलाई, 2010 में एक स्थानीय कांग्रेस नेता पर हमला करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. तीन साल बाद मई, 2013 में उन्हें रिहा तो कर दिया गया लेकिन अगस्त में ही उनकी मृत्यु हो गई. आपको उनके अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए जेल से बाहर जाने की अनुमति नहीं देने पर दंतेवाड़ा जिला अदालत की काफी आलोचना भी हुई थी. आप अपने पति को कैसे याद करती हैं ?
मेरी बेटी और घरवालों ने बताया कि रिहाई के बाद जब वे घर आए तो उनका शरीर लकवाग्रस्त हो चुका था. जब उन्हें गिरफ्तार किया गया था तब वे तीस के आस-पास के एक स्वस्थ आदमी थे लेकिन जब वापस आए तो बीमार और बहुत कमजोर हो चुके थे. मैं तो उन्हें आखरी बार देख भी नहीं सकी. अपील की थी, लेकिन अदालत ने अर्जी नहीं मानी. क्या कर सकते हैं? वे बहुत अच्छे आदमी थे और उन्होंने मुझे बच्चों को पढ़ाने के लिए बहुत प्रोत्साहित किया था. मुझे लगता है कि वे जेल में मर न जाएं इसलिए उन्हें लगभग अधमरा करके फेंक दिया गया. जब सुरक्षाबलों को यह विश्वास हो गया कि अब वे नहीं बचेंगे तो उन्हें छोड़ दिया गया.

अक्टूबर, 2011 के दौरान दंतेवाड़ा पुलिस स्टेशन में आप शारीरिक, मानसिक हिंसा और बलात्कार का शिकार हुईं लेकिन अभी तक संबंधित पुलिस अधिकारी अंकित गर्ग के खिलाफ एक प्राथमिकी तक दर्ज नहीं हुई है. इस मामले में आपने आगे क्या करने का मन बनाया है?
मुझे यह सोच कर बहुत दुख होता है कि अभी तक अंकित गर्ग के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई है. दंतेवाड़ा जेल के साथ -साथ जगदलपुर जेल में भी मुझे हिंसा का सामना करना पड़ा. दंतेवाड़ा में तो उन्होंने मेरे कपड़े उतार कर मेरे शरीर में पत्थर घुसा दिए थे. मैंने सोचा है कि आगे जाकर हम अदालत में एक पिटीशन फाइल करेंगे और अदालत के सामने मेरे साथ हुए अत्याचार का संज्ञान लेकर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने की प्रार्थना करेंगे. लेकिन अब पिछले दो साल जेल में बिताने के बाद मुझे लगता है कि मेरी जैसी सैकड़ों औरतें छत्तीसगढ़ की जेलों में बंद हैं जिनके साथ हर तरह के अत्याचार हो रहे हैं. मेरे साथ-साथ इन्हें भी न्याय मिलना चाहिए.

इन महिलाओं के बारे में थोड़ा विस्तार से बताएंगी? कौन-सी जेलों में बंद हैं और इनके साथ क्या हो रहा है?
छत्तीसगढ़ में मुझे रायपुर और जगदलपुर के साथ-साथ दंतेवाड़ा की जेलों में रखा गया. वहां मैंने देखा कि सभी जेलों में महिलाओं की हालत बहुत खराब है. खास तौर पर दंतेवाड़ा और जगदलपुर की जेलों में तो अक्सर बहुतों के कपड़े उतारे जाते हैं, उन्हें बिजली के झटके दिए जाते हैं और साथ ही महिलाओं के साथ बलात्कार होना… उनका जेलों में गर्भवती हो जाना बहुत ही आम बात है. जगदलपुर जेल में तो लोगों का बहुत बुरा हाल है. सैकड़ों मासूम आदिवासियों को जेलों में बंद करके रखा गया है और उन लोगों को अपने गुनाह के साथ-साथ अपने भविष्य के बारे में भी कुछ नहीं पता. जिसको चाहा उसे उठाकर फर्जी मामलों में जेल में बंद कर दिया और लोग सालों तक फंसे रहते हैं. कोई नाम लेने वाला नहीं, बाहर किसी को पता भी नहीं चलता कि अंदर किसके साथ बलात्कार हो रहा है और कौन मर चुका है. जेल के अंदर बंद आदिवासी हमेशा मुझसे यही कहते थे कि मैं तो लिखना-पढ़ना जानती हूं, अपनी बात लिखकर बता सकती हूं और इसलिए मैं बाहर आ जाऊंगी …लेकिन वे लोग बाहर कैसे आ पाएंगे? उन्हें अपनी बात लिखकर बताना नहीं आता और कोई उनसे उनके ऊपर हो रहे अत्याचारों के बारे में पूछने नहीं आने वाला.

अपनी रिहाई के बाद आपको दिल्ली आना पड़ा. आप अपने घर जाना चाहती हैं और नहीं जा सकती, इस बारे में क्या महसूस करती हैंे? 
शरणार्थी जैसा महसूस होता है. मुझे अपने घर, गांव और खेतों की बहुत याद आती है. मैं अपनी मिट्टी और अपनी जमीन को कभी नहीं भूल सकती. इस वक्त मेरे परिवार को, मेरे बच्चों, मेरे पिता को.. सबको मेरी बहुत जरूरत है. मेरे पति की मृत्यु हो चुकी है और मेरे तीनों बच्चे रिश्तेदारों के यहां बिखरे हुए हैं. पिता बहुत बीमार हैं. ऐसे में मुझे कहीं भी अच्छा नहीं लगता. जेलों और अलग-अलग शहरों में भटकते हुए लगता है जैसे मेरी जड़ों से मुझे काटा जा रहा है, जबरदस्ती. मुझे बिना वजह अपनी जन्मभूमि से दूर रखा जा रहा है…मुझे आजकल हमेशा ऐसा लगता है जैसे मैं अपने ही देश में एक शरणार्थी बनकर रह गई हूं.

दो साल के प्रयासों के बाद आपको जमानत मिली है. जीवन में आगे क्या करने की सोच रही हैं?
सब मुझसे कहते हैं कि अब दंतेवाड़ा में मैं आराम से नहीं जी सकती … जिंदा नहीं रह सकती क्योंकि हमेशा पुलिस और माओवादियों का खतरा बना रहेगा. लेकिन मैं आज भी सिर्फ अपनी जमीन पर लौटकर जाना चाहती हूं. अपने इलाके के आदिवासी बच्चों को पढ़ाना चाहती हूं. लोगों के लिए काम करना चाहती हूं. फिर इस रास्ते में चाहे जो मुसीबत आए. मैं बस अपने जंगलों और अपने परिवार से दूर नहीं रह सकती. वही मेरा घर है. मुझे वहीं वापस जाना है.

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चमक में छिपा अंधेरा

ताजमहल के बारे में कहा जाता है कि इसे बनवाने वाले मुख्य कारीगर के हाथ कटवा दिए गए थे ताकि वह फिर कोई ऐसी सुंदर इमारत न बना सके. ताजमहल से लेकर चीन की दीवार तक हुए बेहतरीन निर्माणों की जब भी बात होती है तो इन्हें बनाने वाले शिल्पियों के साथ हुए अन्याय के बहुत-से किस्से मिलते हैं. यह अन्याय 21वीं सदी तक भी जारी है. राजधानी दिल्ली की तस्वीर बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली दिल्ली मेट्रो के कामगारों की एक बड़ी संख्या भी अन्याय का शिकार है. मेट्रो की अहम सेवाओं का जिम्मा अपने कंधों पर ढोने वाले ये लोग अपने तमाम वाजिब हकों से वंचित हैं.

करीब दशक पहले तक दिल्ली की सूरत ऐसी नहीं थी जैसी आज दिखती है. रोजगार से लेकर दूसरे कामों के लिए देश भर से लोगों का हुजूम यहां जिस चक्रवृद्धि रफ्तार से उमड़ा उसके चलते दमघोंटू परिस्थितियां बनने लगीं. साल 2000 तक आते-आते दिल्ली में वाहनों की संख्या इस कदर बढ़ गई कि इन्हें समेटने के लिए दिल्ली की खासी चौड़ी सड़कें कम पड़ने लगीं. तब नए फ्लाइओवरों और अंडरपासों पर काम शुरू हुआ और ठीक इसी वक्त मेट्रो रेल सेवा भी इस शहर के लिए एक वरदान बन कर आई. इसने जैसे वेंटिलेटर पर पड़ी दिल्ली को उसकी सांसें लौटा दीं. मेट्रो ने अपनी बेहतरीन सेवा की बदौलत दिल्ली की लुंजपुंज पड़ चुकी यातायात व्यवस्था का नक्शा ही बदल दिया. इस सेवा को संचालित करने वाले डीएमआरसी का दावा है कि उसने प्रति दिन 90 हजार से अधिक गाड़ियों को दिल्ली की सड़कों से हटाकर उन्हें दबावमुक्त कर दिया है. उसका यह भी दावा है कि औसतन 20 लाख लोग रोजाना मेट्रो से ही आना-जाना करते हैं.

इन दो दावों में दर्ज आंकड़ों को लेकर भले ही कुछ ऊंच-नीच हो सकती है, फिर भी इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि मेट्रो ने दिल्ली के परिवहन की सूरत बदली है. स्टेशन के अंदर दाखिल होते ही वातानुकूलित हवाएं यात्रियों का स्वागत करती हैं और स्वचालित सीढियां उन्हें सामान सहित गाड़ी के डिब्बे तक पहुंचा जाती हैं. यात्रियों को बेहतरीन सेवा देने के चलते आज मेट्रो के मायने ये हैं कि इसे दिल्ली की लाइफलाइन भी कहा जाने लगा है. कई पुरस्कार और प्रशंसापत्र भी मेट्रो के चेहरे को लगातार उजला बनाते जा रहे हैं.

लेकिन दिल्ली मेट्रो के इस चमकीले चेहरे के पीछे एक ऐसी हकीकत भी है जिसका अंधेरा इसकी भूमिगत सुरंगों से भी घना है. यह हकीकत है मेट्रो में काम करने वाले उन ठेका कामगारों की जिनके जिम्मे इस सेवा को सफलतापूर्वक चलाने का अहम दारोमदार है. आठ घंटे के कागजी नियम से कहीं ज्यादा देर तक काम करने और करते रहने को मजबूर इन लोगों को इसके लिए न तो उचित मेहनताना मिलता है और न ही दूसरे वे अधिकार जिनकी बुनियाद पर श्रम कानूनों का ताना- बाना टिका है. तहलका ने दिल्ली मेट्रो में कांट्रैक्ट के जरिए नौकरी करने वाले तमाम कामगारों से मुलाकात की और पाया कि भले ही इनकी मेहनत से मेट्रो के डिब्बे दिल्ली के एक छोर से दूसरे छोर तक बेरोकटोक दनदना रहे हों लेकिन इनकी अपनी जीवनगाड़ी हिचकोले खा-खा कर घिसट भर पा रही है.

2011-12 का वित्तीय लेखा-जोखा जो बताता है कि डीएमआरसी की माली हालत काफी मजबूत है

कुल राजस्व– 2,247.77 करोड़ रु

विज्ञापनों पर खर्च- 391.92 लाख रु

पर्यावरणीय बचाव पर खर्च- 638.19 लाख रु

जनजागरण पर खर्च- 401.86 लाख रु

सुरक्षा पर खर्च- 422.14 लाख रु

छपाई तथा स्टेशनरी- 726.22 लाख रु

कानूनी खर्च- 81.69 लाख रु

अन्य खर्च- 646.34 लाख रु

सबसे पहले मेट्रो के तान-बाने को मोटे तौर पर समझ लेते हैं. मेट्रो के तहत अलग-अलग कामों के लिए कई विभाग होते हैं. इन कामों को निपटाने के लिए नीति नियोजन के संदर्भ में डीएमआरसी ने भारी-भरकम मेहनताने पर अधिकारियों और कर्मचारियों को रखा है जबकि मेट्रो ट्रैक बनवाने, यात्रियों को टिकट देने, उन्हें गाड़ियों में चढ़वाने और स्टेशन परिसर की सफाई करने जैसे तमाम कामों के लिए उसने अलग-अलग प्राइवेट कंपनियों के साथ कांट्रैक्ट किया है. कांट्रैक्ट पाने वाली कंपनियां इन कामों के लिए लोगों को ठेके पर रखती हैं. यहीं से शोषण की कहानी शुरू होती है .

डीएमआरसी से कांट्रैक्ट मिलते ही प्राइवेट कंपनियां सीधी भर्ती के अलावा ठेकेदारों की मार्फत भी कामगारों की नियुक्ति करती हंै. ये ठेकेदार उपठेकेदारों से संपर्क करते हैं जिन्हें जॉबर (नौकरी दिलाने वाला) भी कहा जाता है. इनकी भूमिका मुख्यत: कंपनी और कामगारों के बीच बिचौलिये की होती है जिसके लिए ये कंपनी और कामगार दोनों तरफ से पैसे पाते हैं. इस तरह कामगार को नौकरी पाने से पहले ही तीन चार लोगों से होकर गुजरना पड़ता है. इस तरह की स्थितियां निर्माण और सफाई का काम करने वाले कामगारों के मामलों में ज्यादा सामने आती हैं. हालांकि अब टॉम आपरेटर (टिकट काउंटर पर बैठने वाला कर्मचारी) के पद पर नियुक्ति देने वाली कंपनियां भी खुले तौर पर 25,000 रुपये बतौर सिक्योरिटी मांगने लगी हैं. झंडेवालान मेट्रो स्टेशन पर टिकट देने का काम करने वाले मयंक बताते हैं, ‘25,000 रु जमा कराने और फिर बिचौलियों की जेब गरम करने के बाद भी नौकरी जाने का खतरा बना रहता है. अगर नौकरी चली जाए तो सिक्योरिटी के रूप में जमा 25,000 रुपये वापस पाने को लेकर बहुत बड़ी महाभारत लड़नी पड़ती है.’

दिल्ली के नांगलोई इलाके में रहने वाली अनीता इस महाभारत की भुक्तभोगी रह चुकी हैं और लंबी जद्दोजहद के बाद हाल ही में इसके चक्रव्यूह से बाहर निकल पाई हैं. इसी साल मई में टॉम ऑपरेटर की नौकरी पाने वाली अनीता को लगभग तीन महीने बाद ही बिना अग्रिम नोटिस दिए नौकरी से हटा दिया गया. जब उन्होंने सिक्योरिटी के रूप में जमा अपने 25,000 रु वापस मांगे तो कंपनी की तरफ से उन्हें 10 दिन बाद पैसा लौटाने की बात कही गई. लेकिन दो महीने से भी ज्यादा लम्बे समय तक माथापच्ची करने के बाद उनका यह काम पिछले महीने किसी तरह पूरा हो पाया. अनीता की अगस्त माह की तनख्वाह भी अभी तक नहीं मिली है जिसके लिए उन्हें इंतजार करने को कहा गया है.

वे कहती हैं कि, ‘इस तरह के मामलों को समझने के लिए मैनें कुछ दूसरी प्राइवेट कंपनियों के अधिकारियों से भी बात की तो उनका कहना था कि इतना वक्त लगना मामूली बात है.’ उधर, मेट्रो मजदूरों के हितों को लेकर काम करने वाले स्वयंसेवी सुनील कुमार इसे कंपनियों का मुनाफा कमाने का उपक्रम बताते हैं. वे कहते हैं कि सिक्योरिटी मनी रखने के सवाल पर कंपनियों का तर्क होता है कि यात्रियों को टिकट देने वाले टॉम ऑपरेटरों का कामकाज सीधे-सीधे रुपये-पैसों से जुड़ा होता है, जिसमें हेराफेरी होने पर सिक्योरिटी मनी से रिकवरी की जा सकती है. लेकिन हकीकत यह है कि इन पैसों से ये कंपनियां भारी-भरकम ब्याज कमाती हैं. सुनील कुमार सवाल करते हैं, ‘रेलवे, परिवहन और तमाम दूसरे सरकारी विभागों में भी कई कर्मचारी इसी प्रकृति के काम से जुड़े होते हैं तो फिर उन सबसे सिक्योरिटी मनी क्यों नहीं ली जाती?’ यह तर्क ठीक भी लगता है क्योंकि सवाल अगर वाकई में पैसों की हेराफेरी होने की सूरत में रिकवरी का है तो कामगारों के वेतन से भी यह राशि काटी जा सकती है.

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यहां भी है अंधियारा

डीएमआरसी के लिए ठेके पर काम करने वाले कामगारों की एक बहुत बड़ी जमात निर्माणस्थल यानी कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करने वाले मजदूरों की भी है. पहचान के नाम पर हेलमेट और जैकेट पहने ये मजदूर हर रोज आठ से दस घंटे तक हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद मामूली पगार पाते हैं. अंधेरे गड्ढों को और गहरा करने या फिर ऊंचे-ऊंचे खंभों पर लटके रहने वाले इन कामगारों के लिए आजादी के यही मायने हैं कि अगर जिंदा रहे तो पगार मिल जाएगी. मरने के बाद इनके परिजनों का क्या होगा यह सब सोचने तक का इनके पास न ही वक्त है और न ही परिस्थितियां इसकी इजाजत इन्हें देती हैं क्योंकि इनमें से अधिकतर मजदूर वे हैं जिनके पास इस काम के अलावा और कुछ करने का विकल्प ही नहीं है. तीन महीने पहले मेट्रो की रोहिणी साइट पर काम पाने वाले बलिया जिले के संतोष कुमार पिछले साल फेज टू के निर्माण के दौरान भी डेढ़ साल तक अलग-अलग निर्माणस्थलों पर मजदूरी कर चुके हैं. वे बताते हैं कि रोजगार का कोई और साधन न होने की बेबसी उन्हें और उनके जैसे बहुत लोगों को इस शहर में खींच लाई है.

मामूली वेतन पाने वाले इन मजदूरों के लिए काम करने की परिस्थितियां बेहद असुरक्षित हैं जिनमें हादसे होते रहते हैं. 2010 तक मेट्रो की कंस्ट्रक्शन साइटों पर जान गंवाने वाले मजदूरों की संख्या 100 का आंकड़ा पार कर चुकी थी. यह बात डीएमआरसी ने हाईकोर्ट में दायर किये गए एक हलफनामे में मानी थी. तब से लेकर अब तक कई हादसे और भी हो चुके हैं. इन्होंने मजदूरों की जान तो ली ही है, घायल मजदूरों को हमेशा के लिए अपंग भी बना दिया है. भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में भी डीएमआरसी की कई लापरवाहियां उजागर हो चुकी हैं. कैग ने अपनी रिपोर्ट में मेट्रो रेल परियोजना के निर्माणाधीन स्थलों पर गुणवत्ता नियंत्रण में खामियां भी पाई थीं. निर्माण से जुड़े  मजदूरों के लिए काम की नारकीय परिस्थितियों का मुद्दा कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान भी सामने आया था. उस वक्त भीषण गर्मी के बीच दिन-रात काम करने वाले बहुत सारे मजदूर पूरी तरह से जॉबरों के रहमो करम पर रहने को मजबूर थे. आलम यह था कि इनके रहने के लिए टीन की चादरों वाले शेड बना दिए गये थे जिनमें रहना लगभग असंभव था.

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प्राइवेट कंपनियों द्वारा ठेके पर रखे जाने वाले कामगार मुख्य रूप से तीन तरह के होते हैं. पहले, जो यात्रियों को टिकट और मेट्रोपास जारी करते हैं. दूसरे वे जो यात्रियों को पंक्तिबद्ध तरीके से गाड़ी से उतरवाते और उसमें चढ़वाते हैं और तीसरे वे जो स्टेशन परिसर की सफाई करते हुए उसे साफ-सुथरा बनाए रखते हैं. क्रमश: टॉम ऑपरेटर, वॉच एंड वार्ड तथा हॉस्पिटैलिटी के नाम से जाने जाने वाले ये लोग सीधे तौर पर यात्री सुविधा से जुड़े और मेट्रोसेवा को संचालित करने के क्रम में बेहद महत्वपूर्ण हैं. लेकिन पिछले लंबे समय से ये कामगार अपनी सेवा प्रदाता कंपनियों और डीएमआरसी से कई बातों को लेकर नाखुश हैं.

यूं तो ठेके पर काम करने वाले सभी श्रेणियों के कामगार तमाम परेशानियों से जूझ रहे हैं, लेकिन सबसे बुरी हालत सफाई का काम करने वाले लोगों की है. साढ़े पांच हजार रु की पगार पाने वाले इन लोगों को कई बार 12-15 घंटे तक भी ड्यूटी करनी होती है. इन्हें न तो साप्ताहिक अवकाश दिया जाता है और न ही ओवरटाइम का पैसा. यहां तक कि इनकी ड्यूटी का कोई निश्चित समय भी नहीं होता. दिल्ली सरकार द्वारा कामगारों के लिए तय किए गए न्यूनतम वेतन के मुताबिक अकुशल श्रमिकों को 307, कुशल श्रमिकों को 377 और उच्च कुशल श्रमिकों को 410 रुपये रोज के हिसाब से मेहनताना मिलना चाहिए.  मजाक देखिए कि डीएमआरसी ने इस बाबत मेट्रो स्टेशनों पर बोर्ड भी लगाए हैं. यही नहीं, इनमें उसने अधिकारियों के नाम और पते भी लिखे हैं ताकि कम वेतन मिलने की स्थिति में कामगार डीएमआरसी तक अपनी शिकायत पहुंचा सके. लेकिन कामगारों की नजर में ऐसे बोर्ड लगाने का कोई मतलब नहीं है. उनकी मानें तो न्यूनतम वेतन की मांग करने पर पहले तो उनके काम के घंटे बढ़ा दिए जाते हैं और फिर उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाता है.

अजय स्वामी का मामला इसका उदाहरण है. अजय कहते हैं कि उन्हें कंपनी द्वारा इसलिए नौकरी से निकाल दिया गया था कि वे न्यूनतम मजदूरी, साप्ताहिक छुट्टी, बोनस और स्थायी नियुक्ति की मांगों को लेकर लगातार आवाज उठा रहे थे. अपनी कहानी बताते हुए अजय कहते हैं कि 2009 में उन्होंने 3,900 रुपये पगार पर नौकरी शुरू की थी. बाद में उन्हें मालूम हुआ कि न्यूनतम मजदूरी के हिसाब से यह राशि बहुत कम है. बकौल अजय, ‘मैंने न्यूनतम वेतन की मांग को लेकर डीएमआरसी की अधिकृत अधिकारी को चिट्ठी लिखी, लेकिन उन्होंने इस पत्र पर कार्रवाई करने के बजाय मुझे नियुक्ति देने वाली कंपनी को इसके बारे में बता दिया. इसके बाद मेरी कंपनी के लोगों ने मुझे धमकाया और हद में रहने की नसीहत दी. लेकिन मैंने अपना विरोध जारी रखा और चुपचाप दूसरे कामगारों को संगठित करने की मुहिम शुरू कर दी. इसकी भनक जब कंपनी को लगी तो उसने मुझे बिना कोई नोटिस दिए नौकरी से हटा दिया.’ नौकरी से निकाले जाने के बावजूद अजय कामगारों के अधिकारों को लेकर लगातार सक्रिय हैं. दिल्ली मेट्रो कामगार यूनियन के बैनर तले ठेका कामगारों को एकजुट करने की मुहिम में जुटे अजय इन दिनों कुछ और साथियों के साथ इसी नाम से एक मजदूर यूनियन का पंजीकरण करने की कवायद में जुटे हैं.

ठेका मजदूरों की मुख्य रूप से चार मांगें हैं. एक- न्यूनतम वेतन, दो- अन्य सुविधाएं, बोनस और भत्ते, तीन- ऐच्छिक छुट्टियां और चौथी स्थायी नियुक्ति. कामगारों का आरोप है कि कंपनियों द्वारा उन्हें न तो न्यूनतम वेतन दिया जाता है और न ही किसी तरह की अन्य सुविधाएं. यहां तक कि जितना पैसा उन्हें मिलता भी है उसके लिए दो से तीन महीने का इंतजार करना पड़ता है. इन मांगों को लेकर वे विरोध प्रदर्शनों, मांगपत्रों और तमाम दूसरे माध्यमों के जरिए डीएमआरसी से कई बार फरियाद भी लगा चुके हैं. इसी तरह का एक प्रदर्शन बीती मई में जंतर मंतर पर किया गया था जिसमें काफी संख्या में ठेका कामगारों ने भाग लिया था. दिल्ली मेट्रो कामगार यूनियन के बैनर तले हुए इस प्रदर्शन के बारे में संगठन के अध्यक्ष प्रवीण बताते हैं कि इसके जरिए उनकी सबसे प्रमुख मांग हास्पिटैलिटी का काम करने वाले मजदूरों की वेतन वृद्धि की थी. वे बताते हैं कि फिलहाल टॉम ऑपरेटरों और वॉच एंड वार्ड श्रेणी के कामगारों को ही न्यूनतम मजदूरी मिल रही है जबकि हॉस्पिटैलिटी का काम करने वाले लोग अब भी इससे वंचित हैं. अजय स्वामी कहते हैं कि टॉम ऑपरेटरों और वॉच एंड वार्ड का काम करने वाले लोगों को भी 2011 के बाद से तब न्यूनतम वेतन मिलना शुरू हुआ जब उन्होंने इसके लिए भारी-भरकम प्रदर्शन किया.

ठेका कर्मचारियों की अहम मांग यह भी है कि उन्हें स्थायी नौकरी पर रखा जाए. इसके पक्ष में वे तमाम तरह के तर्क भी रखते हैं. अजय स्वामी कहते हैं कि ठेका मजदूरों द्वारा किए जाने वाले टिकट वितरण से लेकर सफाई तक के सभी काम स्थायी प्रकृति के हैं. जब तक मेट्रो चलती रहेगी, ये सारे काम भी अनिवार्य रूप से चलते रहेंगे. इस तरह देखें तो इनके लिए स्थायी कर्मचारियों की नियुक्ति की जानी चाहिए. लेकिन एक दशक से भी ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी इस दिशा में कुछ नहीं किया गया और न ही आगे इसको लेकर कोई उम्मीद दिख रही है. अजय स्वामी आने वाले समय को लेकर जिस नाउम्मीदगी की ओर इशारा करते हैं उसके निशान डीएमआरसी के आगामी एजेंडे में साफ देखे जा सकते हैं. डीएमआरसी ने 2011-12 के सालाना प्रतिवेदन में भविष्य की योजनाओं के बारे में लिखा है कि 2021 तक लगभग पूरी दिल्ली को कवर करना मेट्रो का सबसे अहम लक्ष्य है, लेकिन कामगारों की नियुक्ति, उनके वेतन और अन्य हितों को लेकर इस वक्तव्य में कुछ भी नहीं कहा गया है. देखा जाए तो श्रमिक अधिकारों का सामान्य सिद्धांत भी स्थायी प्रकृति के काम के लिए स्थाई नियुक्ति की वकालत करता है. लेकिन दिल्ली मेट्रो में ठेके पर काम करने वाले मजदूरों के संबंध में यह कहीं नहीं दिखता.

आखिर इन कर्मचारियों का वेतन बढ़ाने, अन्य भत्ते-सुविधाएं देने और इन्हें स्थायी नौकरी देते हुए इन्हें ठेका कंपनियों के दुश्चक्र से बचाने में डीएमआरसी की दिलचस्पी क्यों नहीं है? क्या डीएमआरसी के पास वित्तीय संकट की समस्या है? आखिर क्यों इन कामगारों को खुद संभालने के बजाय वह ठेका कंपनियों पर ज्यादा भरोसा कर रही है?

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सवाल जिन पर खामोश है डीएमआरसी

  • क्या डीएमआरसी कांट्रैक्ट कंपनियों द्वारा रखे गए ठेका कामगारों को अपना कर्मचारी मानती है?
  • प्राइवेट कंपनियों द्वारा रखे जाने वाले ठेका कामगारों की नियुक्ति में डीएमआरसी की क्या भूमिका होती है ?
  •  डीएमआरसी द्वारा प्राइवेट कंपनियों को प्रति कामगार कितनी रकम का भुगतान किया जाता है?
  • ठेका कामगारों को दिए जाने वाले पीएफ, बोनस, मेडिकल सुविधाअओं एवं इंश्योरेंस की नीति क्या है?
  • ठेका कामगारों की शिकायतों के आधार पर कांट्रैक्ट कंपनियों के खिलाफ डीएमआरसी ने क्या कार्रवाइयां की हैं?

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इन दो सवालों का जवाब ढूंढने के लिए तहलका ने डीएमआरसी का सालाना लेखा-जोखा खंगाला. पता चला कि पैसे की डीएमआरसी के पास कोई कमी नहीं है. 2011-12 के अपने वार्षिक प्रतिवेदन में डीएमआरसी ने खुद स्वीकार किया है कि 31 मार्च, 2012 तक उसने कुल 2,247.77 करोड़ रुपए का राजस्व कमाया. यह राशि पिछले साल के मुकाबले 342.92 करोड़ रुपये ज्यादा थी. राजस्व में हुई इस शानदार बढ़ोतरी से उत्साहित डीएमआरसी पहले और दूसरे चरण के बाद अब तीसरे चरण का काम भी शुरू कर चुकी है. इसके लिए उसने समय सीमा और दूसरे महत्वपूर्ण लक्ष्य भी तय कर लिए हैं. इसके अलावा उसने इस साल अपनी उपलब्धियों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए भी खूब खर्च किया. डीएमआरसी द्वारा इस साल विज्ञापनों पर खर्च की गई राशि करीब चार करोड़ रुपये है जो पिछले साल के मुकाबले लगभग एक करोड़ रुपये ज्यादा है. पर्यावरण से जुड़ी अपनी जिम्मेदारियों पर भी डीएमआरसी ने पिछले साल के मुकाबले करीब पांच करोड़ रुपये ज्यादा खर्च किए. हालांकि जनजागरण और सुरक्षा पर होने वाला खर्च पिछले साल हुए खर्च से कम रहा, लेकिन अधिकतर क्षेत्रों में उसने पिछले साल के मुकाबले ज्यादा रकम लगाई (देखें बाक्स). इस सबसे साफ होता है कि डीएमआरसी की माली हालत ठीक-ठाक है.

अब दूसरी बात पर आते हैं. आखिर कामगारों को सीधे खुद के अधीन रखने के बजाय डीएमआरसी ने उन्हें कंपनियों के हवाले क्यों छोड़ा हुआ है? इसको लेकर कामगारों का आरोप है कि अपने हिस्से के काम कंपनियों को सौंप कर डीएमआरसी मुख्य रूप से दो तरीके से फायदे में रहती है–एक तो उसे सस्ता श्रम मिल जाता है और दूसरा श्रमिकों को हो रही दिक्कतों की जिम्मेदारी से वह काफी हद तक बच जाती है. कामगारों के इस आरोप में भले ही पूरी तरह से सच्चाई न हो इसके बावजूद यह तर्क काफी दमदार नजर आता है. क्योंकि स्थायी नियुक्ति देने को बाद डीएमआरसी को उन सभी कामगारों के वेतन और अन्य सुविधाओं पर अधिक खर्च करना पड़ेगा.

हमने डीएमआरसी से इन अहम सवालों के जवाब जानने की कोशिश की. लेकिन कई बार संपर्क करने के बाद भी हमें कोई जवाब नहीं मिला. इससे साफ हो जाता है कि इस मुद्दे में उसकी कितनी दिलचस्पी है. वैसे भी पूर्व में कई मौकों पर डीएमआरसी ठेका मजदूरों को अपना कर्मचारी मानने से इंकार कर चुकी है.

इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि दिल्ली में मेट्रोसेवा शुरू होने के बाद यात्रियों को आवागमन के दूसरे साधनों के मुकाबले बहुत अधिक राहत मिली है. कल तक सड़कों पर कछुए की चाल से यात्रा करने को मजबूर आम आदमी को मेट्रो ने रफ्तार दी है. डीएमआरसी भी अपनी इस सफलता पर फूला नहीं समाती और डंके की चोट पर इसे अपने लिए बहुत बड़ी उपलब्धि बताती है. उसके सालाना प्रतिवेदन पत्र में मेट्रो की सफल गाथा का बखान करते हुए लिखा गया है कि ‘प्रेरित, संतुष्ट तथा प्रसन्न कार्यबल संगठनात्मक लक्ष्यों की सफलतापूर्वक प्राप्ति के लिए चाबी है’. सरल भाषा में कहें तो कर्मचारियों की खुशी ही सफलता का मंत्र है. लेकिन डीएमआरसी के इस स्वमहिमामंडन पर तब सवाल खड़े होते हैं जब हम ठेके पर काम कर रहे मजदूरों की हालत देखते हैं. मेट्रो को दिल्ली की लाइफ लाइन से लेकर तरक्की के पैमाने तक न जाने क्या-क्या माना गया हो, लेकिन इन कामगारों की नजर में यह उनके शोषण और तिरस्कार के उपक्रम से ज्यादा कुछ नहीं है.

एक झुका हुआ फैसला!

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दो हत्याएं, तीन जांच टीमें, पांच संदिग्ध, दो आरोपित, 39 सरकारी गवाह, दर्जन भर बचाव पक्ष के गवाह, सबूत के तौर पर 247 नमूने, सैकड़ों रिपोर्टें और हजारों दस्तावेज. यही सब आरुषि-हेमराज हत्याकांड में न्यायालय के सामने था. न्यायालय से बाहर की बात करें तो ऑनर किलिंग, बीवियों की अदला-बदली, सौतेली संतान, अवैध शारीरिक संबंध और मृत बच्ची के मां-बाप का असामान्य व्यवहार जैसी बातें भी इस मामले से जुड़ती रही हैं. इन सब बातों ने मिलाकर ही पिछले पांच साल से इस मामले को देश का सबसे चर्चित और जटिल हत्याकांड बना दिया. यही कारण था कि 25 नवंबर को जब सीबीआई की विशेष अदालत में इस मामले का फैसला आना था तो सारे देश की निगाहें इस पर टिकी हुई थीं. हर व्यक्ति इस मामले में न्याय चाहता था, लेकिन हर किसी के लिए न्याय की परिभाषा अलग थी. कई लोगों का मानना था कि डॉक्टर दंपति ने अपनी 14 वर्षीया बेटी और घरेलू नौकर की हत्या की है तो उनके लिए कड़ी से कड़ी सजा भी कम है. लेकिन कई लोगों का यह भी तर्क था कि यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया तो इससे बड़ा अन्याय किसी भी माता-पिता के साथ नहीं हो सकता.

इस मामले को नजदीक से समझने वाले पत्रकारों और न्यायिक जानकारों की मानें तो इस मामले में अभियोजन पक्ष बहुत ही कमजोर था. आम तौर पर यह जिम्मेदारी अभियोजन पक्ष की ही होती है कि वह संदेह से परे आरोपित के दोष को सिद्ध करे. न्याय का सिद्धांत भी यही कहता है कि भले ही सौ दोषी छूट जाएं लेकिन एक भी निर्दोष को सजा न हो. बीती 25 नवंबर को जब न्यायालय का फैसला आया तो सीबीआई के विशेष न्यायाधीश एस लाल ने अपने 208 पन्नों के फैसले में इसी सिद्धांत पर विस्तार से चर्चा करते हुए आरोपित राजेश और नूपुर तलवार को दोषी करार दिया. उन्होंने दोनों आरोपितों को भारतीय दंड संहिता की धारा 302, 34 और 201 के अंतर्गत उम्रकैद की सजा सुनाई. साथ ही दोनों आरोपितों पर 15 हजार रुपए का आर्थिक दंड भी लगाया गया. इसके अलावा राजेश तलवार को धारा 203 के अंतर्गत भी दोषी पाया गया और उन्हें एक साल कैद और दो हजार रुपये आर्थिक दंड की अतिरिक्त सजा भी सुनाई गई.

इस फैसले में न्यायालय ने जिस नियम को केंद्र में रखा है वह है भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 106. यह धारा इस बात का अपवाद है कि अभियोजन अपना मामला संदेह से परे साबित करे. इस धारा के अनुसार यदि कोई तथ्य ‘विशेषतः’ किसी व्यक्ति के ज्ञान में है, तब उसे साबित करने का भार उसी व्यक्ति पर है.

इसी धारा को केंद्र में रखते हुए न्यायालय ने माना कि आरुषि के घर में हत्या वाली रात सिर्फ चार लोग मौजूद थे. रात को लगभग 9.30 बजे ड्राइवर उमेश ने चारों को घर पर देखा था. इसके बाद किसी भी बाहरी व्यक्ति के उस रात घर में आने का कोई भी साक्ष्य न्यायालय को नहीं मिला. इसके बाद सुबह छह बजे नौकरानी भारती सबसे पहले उस घर में आई. तब तक दोनों हत्याएं हो चुकी थीं और दोनों आरोपित घर में मौजूद थे. इन परिस्थितियों में आरोपितों को संदेह का लाभ नहीं दिया जा सकता. साथ ही न्यायालय द्वारा यह भी कहा गया कि इन परिस्थितियों में अभियोजन से अपेक्षा भी नहीं की जा सकती कि वह संदेह से परे और गणित के सूत्रों की तरह आरोपितों का दोष सिद्ध कर सके.

न्यायाधीश एस लाल ने ‘संदेह से परे सबूत’ के सिद्धांत की उत्पत्ति का जिक्र भी अपने फैसले में किया है. उन्होंने न्यायिक सुधारों के लिए बनाई गई समिति का हवाला देते हुए बताया है, ‘संदेह से परे सबूत के सिद्धांत की उत्पत्ति यूनाइटेड किंगडम के ‘पंच परीक्षण’ के संदर्भ में हुई थी. आरोपित के दोष पर सजा देना पंचों की जिम्मेदारी होती थी. चूंकि वे प्रशिक्षित न्यायाधीश नहीं होते थे, इसलिए आरोपित के अधिकारों का ध्यान रखे बिना ही किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकते थे. इसलिए संदेह से परे सबूत का सिद्धांत अस्तित्व में आया था.’ एस लाल ने यह भी माना कि यदि हर मामले में संदेह से परे सबूत के सिद्धांत को माना जाए तो दोषियों को सजा देना असंभव हो जाएगा. उन्होंने अपने इस फैसले के समर्थन में 1947 से लेकर 2013 तक के सर्वोच्च न्यायालय के अलग-अलग 29 फैसलों का हवाला दिया है.

दोष-सिद्धि के 26 कारण
न्यायाधीश एस लाल ने अपने फैसले में एक-एक कर बचाव पक्ष के हर तर्क को नकारा है और यह माना है कि सिर्फ आरोपित आरुषि और हेमराज के कातिल हैं. इस फैसले पर पहुंचने के उन्होंने 26 कारण बताए हैं जो इस प्रकार हैं:

1. राजेश तलवार के ड्राइवर उमेश शर्मा द्वारा 15-16 मई, 2008 की रात लगभग 9.30 बजे दोनों आरोपितों को ही अंतिम बार मृतकों के साथ देखा गया था.

2. 16 मई, 2008 की सुबह लगभग छह बजे आरुषि अपने कमरे में मृत पाई गई. यह कमरा आरोपितों के कमरे से बिल्कुल लगा हुआ था और बीच में सिर्फ एक दीवार थी.

3. हेमराज का खून से सना हुआ शव 17 मई, 2008 को फ्लैट संख्या 32 की छत पर पड़ा मिला और छत के दरवाजे का ताला भीतर से लगा हुआ था.

4. ‘आरोपितों को अंतिम बार मृतकों के साथ देखे जाने का समय’ और ‘हत्या का समय’ काफी नजदीक है. इतने कम समय में आरोपितों के अलावा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अपराध की संभावनाएं असंभव हो जाती हैं.

5. आरुषि के कमरे के दरवाजे पर ऑटोमैटिक ताला था. अभियोजन साक्षी नंबर 29 महेश कुमार मिश्रा (तत्कालीन एसपी) द्वारा बताया गया है कि 16 मई की सुबह उन्होंने राजेश तलवार से बात की थी. राजेश ने उन्हें बताया था कि ‘पिछली रात लगभग 11.30 बजे मैं आरुषि के कमरे को बाहर से बंद करने के बाद चाबी लेकर सोने चला गया था.’  दोनों आरोपितों ने माना है कि आरुषि का दरवाजा बाहर से बिना चाबी के नहीं खुल सकता लेकिन अंदर से खोला जा सकता है. आरोपित द्वारा इस बात का कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है कि आरुषि के कमरे का दरवाजा कैसे और किसने खोला.

6. घटना वाली रात को इंटरनेट चलता रहा जो यह बताता है कि दोनों में से एक आरोपित तो रात भर उठा हुआ था.

7. यह किसी भी तथ्य से पता नहीं चलता कि घटना वाली रात को 9.30 बजे के बाद कोई भी बाहरी व्यक्ति घर में आया हो.

8. उस रात को एक बार भी बिजली नहीं गई थी.

9. उस रात को घर के नजदीक कोई भी संदिग्ध व्यक्ति घूमते हुए नहीं देखा

गया था.

10. घटना वाली रात को घर में किसी के भी बलपूर्वक घुसने का कोई साक्ष्य

नहीं है.

11. घर में किसी भी तरह की चोरी का कोई साक्ष्य नहीं हैं.

12. 16 मई की सुबह जब कामवाली आई तो नूपुर तलवार द्वारा उससे झूठ कहा गया कि हेमराज द्वारा दरवाजा बाहर से बंद किया गया है, जबकि दरवाजा बंद नहीं था.

13. भारती ने कहीं भी यह बयान नहीं दिया है कि जब वह घर के अंदर आई तो आरोपित रो रहे थे.

14. भारती के बयान से यह साफ है कि जब वह घर में आई और उसने नूपुर तलवार से बात की तो नूपुर ने उसे अपनी बेटी की हत्या के बारे में नहीं बताया, बल्कि उसने जान-बूझ कर यह कहा कि हेमराज लकड़ी का दरवाजा बाहर से बंद करके शायद दूध लेने गया है. दोषी व्यक्ति का ऐसा व्यवहार भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 8 के अनुरूप है.

15. दोनों आरोपितों के कपड़े खून से सने हुए नहीं मिले. यह अप्राकृतिक है कि आरुषि के मां-बाप उसे मृत पाने पर भी उससे लिपट कर और उसे गले लगा कर रोएंगे नहीं.

16. कोई बाहरी व्यक्ति यह साहस नहीं कर सकता कि गंभीर रूप से घायल हेमराज को छत तक लेकर जाए और फिर ताला ढू़ढ़ कर छत के दरवाजे पर लगाए.

17. यह संभव नहीं है कि कोई भी बाहरी व्यक्ति दो हत्याएं करने के बाद घर में शराब पीने का साहस जुटा पाए जबकि तलवार दंपति बगल वाले कमरे में ही सो रहा हो. बाहरी व्यक्ति की प्राथमिकता होगी कि वह जल्द-से-जल्द हत्या वाली जगह से फरार हो जाए.

18. कोई भी बाहरी व्यक्ति हेमराज के शव को छत पर लेकर जाने की चिंता नहीं करेगा. और एक अकेला व्यक्ति शव को छत तक लेकर जा भी नहीं सकता.

19. घटना से पहले छत के दरवाजे पर कभी भी ताला नहीं होता था, लेकिन 16 मई की सुबह वहां ताला लगा हुआ था और आरोपितों ने उसकी चाबी पुलिस के मांगने के बावजूद नहीं दी.

20. आरोपितों ने खुद ही दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के अंतर्गत हुए बयानों में यह कहा है कि ‘घटना से लगभग आठ-दस दिन पहले पड़ोस में पुताई का काम चल रहा था. ऐसे में मजदूर घर की छत पर लगी टंकी में से पानी लेने आते थे. इसलिए हेमराज ने ही छत पर ताला लगाना शुरू किया और उस ताले की चाबी हेमराज के पास ही होती थी.’ यदि ऐसा है तो किसी बाहरी व्यक्ति के लिए उस चाबी को ढूंढ़ना आसानी से संभव नहीं है.

21. यदि यह अपराध किसी बाहरी व्यक्ति द्वारा छत पर ताला लगाने के बाद किया गया होता तो घर से बाहर जाने के बाद सबसे बाहर वाला या बीच वाला जाली का दरवाजा निश्चित रूप से बाहर से बंद मिलता.

22. अपराध का उद्देश्य स्थापित हो चुका है.

23. यह संभव नहीं है कि कोई भी बाहरी व्यक्ति अपराध के बाद घटनास्थल की सफाई करे.

24. गोल्फ क्लब नंबर पांच को हत्या करने के बाद परछत्ती पर फेंक दिया गया था और उसे कई महीनों बाद राजेश तलवार द्वारा प्रस्तुत किया गया.

25. दोनों मृतकों के सिर और गले में आई चोटें लगभग समान हैं और यह संभव है कि ये चोटें गोल्फ क्लब और स्कैल्पेल (सर्जिकल ब्लेड) से आई हों.

26. आरोपित राजेश तलवार नोएडा गोल्फ क्लब के सदस्य थे और गोल्फ क्लब उन्हीं के द्वारा सीबीआई को दिए गए थे. और स्कैल्पेल दंत चिकित्सक द्वारा इस्तेमाल किया जाता है. यहां दोनों आरोपित दंत चिकित्सक हैं.

अपवादों का अपवाद
ऊपर लिखे सभी बिंदुओं को न्यायाधीश एस लाल ने सभी गवाहों और सबूतों को देखने के बाद स्थापित पाया है. लेकिन कानून के जानकारों की मानें तो ऊपरी अदालत में यह फैसला पलटा जा सकता है. दरअसल एस लाल ने इस फैसले में एक साथ कई ऐसी बातों को अपराध सिद्ध करने के लिए इस्तेमाल किया है जो अपवादस्वरूप ही देखने को मिलती हैं. जैसे भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 को इस मामले में लागू किया गया है. सिर्फ परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर सजा दिया जाना भी कम ही देखने को मिलता है. साथ ही अपराध का स्पष्ट उद्देश्य स्थापित न होने पर, अपराध में इस्तेमाल किया जाने वाला हथियार बरामद न होने पर और जांच में भारी कमियां होने पर सामान्यतः आरोपित को ही फायदा होता है. लेकिन इस मामले में फिर भी आरोपित को दोषी करार दिया गया है.

एस लाल ने अपने फैसले में हर अपवाद को न्यायोचित ठहराने के लिए दर्जनों नजीरें तो पेश की हैं. लेकिन इन नजीरों में अलग-अलग सिर्फ एक या दो अपवाद ही नजर आते हैं. ऐसे में इतने अपवादों को एक साथ मिलाकर दिया गया यह फैसला शायद ही ऊपरी अदालतों में टिक पाए.

उलटफेर के तथ्य
तथ्यों की भी बात करें तो ऐसे तमाम तथ्य हैं जिनके आधार पर ऊपरी अदालतें तलवार दंपति के पक्ष में फैसला दे सकती हैं. इनमें मुख्य हैं:

1. नार्को टेस्ट में नौकरों ने अपराध करना स्वीकार किया.

2. सीबीआई के कई लोगों ने यह बयान दिया था कि नौकरों ने अपने बयानों में भी अपराध स्वीकार किया है.

3. तलवार दंपति के नार्को में कुछ भी ऐसा नहीं पाया गया जिससे उसकी अपराध में संलिप्तता स्थापित होती हो.

4. नौकर कृष्णा के तकिये से हेमराज का खून मिला था (हालांकि सीबीआई द्वारा कहा गया कि यह सिर्फ टाइपिंग की गलती के कारण हुआ है).

5. नार्को में नौकरों ने यह भी बताया कि घटना वाली रात वे सभी हेमराज के कमरे में शराब पी रहे थे और टीवी पर एक नेपाली गाना चल रहा था. इस बात की पुष्टि सीबीआई ने नेपाली चैनल से भी की थी और यह स्थापित हुआ था कि उस रात वही गाना चैनल पर चलाया गया था.

6. सीबीआई टीम द्वारा तलवार के घर पर एक साउंड टेस्ट किया गया था. इसमें पाया गया कि यदि दोनों कमरों में एसी चल रहे हों तो एक कमरे की आवाज दूसरे में नहीं सुनाई पड़ती.

7. आरुषि और हेमराज के पोस्टमार्टम में कुछ भी असामान्य नहीं पाया गया था. लेकिन पोस्टमार्टम करने वाले दोनों डॉक्टरों ने लगभग एक साल बाद नए तथ्य जोड़ते हुए बयान दिए. न्यायाधीश एस लाल ने यह तो माना कि आरुषि का पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर दोहरे ने यह भारी चूक की है लेकिन फिर भी उनके बयान को स्वीकार कर लिया.

8. इस बात का कोई भी सबूत नहीं है कि हेमराज की हत्या आरुषि के कमरे में

हुई हो.

9. राजेश और नूपुर तलवार के कपड़ों पर सिर्फ आरुषि का खून मिला. हेमराज का खून उनके कपड़ों पर नहीं था. जबकि उस रात आरुषि द्वारा खींची गई तस्वीरों में आरोपितों ने जो कपड़े पहने हैं वही उन्होंने अगली सुबह भी पहने हुए थे.

10. कई डॉक्टरों के पैनल ने यह बताया था कि हत्या खुखरी से किया जाना संभव है. पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर भी इस पैनल का हिस्सा थे. बाद में पोस्टमार्टम करने वाले दोनों डॉक्टरों ने अपने बयान और राय बदली.

इन तमाम पहलुओं के कारण ही तलवार दंपति इलाहाबाद हाई कोर्ट जाने की तैयारी कर रहा है. एस लाल के फैसले पर उनके वकील तनवीर अहमद मीर कहते हैं, ‘मैंने सीबीआई के केस को पूरी तरह से धराशायी कर दिया. लेकिन मैं एक जज को नहीं हरा सकता जब वो मेरे खिलाफ हो.’

तलवार दंपति के अन्य वकील भी आज यह दावा कर रहे हैं कि यह फैसला ऊपरी अदालतों में एक पल भी नहीं टिक सकता. लेकिन यदि यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच कर भी नहीं बदला तो यह एक ऐसी नजीर बन जाएगा जिसके चलते आरोपितों के बच निकलने की संभावनाएं बहुत कम हो जाएंगी. यह भी मुमकिन है कि ऐसा होने पर कुछ निर्दोषों को भी सजा हो जाए.

वैसे भी इस फैसले में न्यायालय ने माना है कि अब वह समय नहीं है जब सौ दोषियों के छूट जाने वाले सिद्धांत पर चला जाए.

मंजिल से आगे का रास्ता

फोटो: विकास कुमार
फोटो: विकास कुमार
फोटो: विकास कुमार

संभवतः देश के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है कि खुद को सामाजिक कार्यकर्ता कहने वाले कुछ लोग मिलकर कोई पार्टी बनाएं और साल भर के भीतर ही वह पार्टी चुनाव लड़कर सरकार भी बना ले. अरविंद केजरीवाल की अगुवाई में आम आदमी पार्टी ने ऐसा कर दिखाया है. इस लिहाज से कह सकते हैं कि 26 दिसंबर, 2013 को अरविंद केजरीवाल द्वारा दिल्ली के रामलीला मैदान में राष्ट्रीय राजधानी के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेना ऐतिहासिक है.

आज अरविंद केजरीवाल जहां खड़े हैं, वहां पहुंचने के लिए उन्होंने लंबी दूरी तय की है. सूचना के अधिकार से लेकर जनलोकपाल और इसके बीच न जाने कितने अन्य मुद्दों को समय-समय पर उठाते रहने, उन्हें जनता के बीच सही ढंग से पहुंचाते रहने और फिर इसे एक सफल अभियान के रूप में तब्दील कर देने से जो चीज निकलती है, वह है आम आदमी पार्टी की सरकार. लेकिन इस सरकार के गठन ने केजरीवाल को ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है जहां उनके पास पाने के लिए बहुत कुछ है और जनता के पास खोने के लिए बहुत कुछ है.

अरविंद केजरीवाल जिस तरह के वादों के सहारे सत्ता तक पहुंचे हैं, अगर वे उन्हें पूरा करने में कामयाब हो जाते हैं तो वे इतिहास पुरूष बन जाएंगे. उनके सामने खुद को एक ऐसे नेता के तौर पर स्थापित करने का अवसर है, जिनका इस समय पूरे देश में घोर अभाव हो चला है. वे अमर हो सकते हैं, अगर उन्होंने सिर्फ उन्हीं बातों को लागू कर दिया जिनका जिक्र उन्होंने अपने चुनावी घोषणा पत्र में किया है. यकीन मानिए, अगर वे ऐसा कर दिखाते हैं तो पूरे विश्व राजनीति में उन्हें एक अलग स्थान मिलेगा.

लेकिन संकट यही है. अगर आप आम आदमी पार्टी के घोषणा पत्र को देखेंगे तो पता चलेगा कि जो वादे उन्होंने किए हैं, उन्हें पूरा करना आसान नहीं है. यह भी कहा जा सकता है कि ये वादे यह मानकर किए गए थे कि वे सरकार नहीं बना पाएंगे. लेकिन अब उन्हें सरकार बनानी पड़ रही है. अब उनके काम का आकलन उनके घोषणा पत्र में दर्ज हर्फों के चश्मे से होगा, अब उन्हें हर पल परीक्षा से गुजरना होगा, उनके हर कदम पर टीका-टिप्पणी होगी.

अपने वादों को पूरा करने के लि केजरीवाल को बेहद ताकतवर कॉरपोरेट घरानों से टकराना पड़ेगा. बिजली की कीमतों की कमी के मामले में उनका सामना रिलायंस और टाटा जैसे औद्योगिक साम्राज्यों से होगा. इन्हीं दोनों कंपनियों के हाथ में दिल्ली की बिजली वितरण व्यवस्था है. हर रोज 700 लीटर पानी मुफ्त देना भी ऐसा ही दुश्कर लक्ष्य है क्योंकि दिल्ली में पानी की आपूर्ति का बड़ा हिस्सा उत्तर प्रदेश और हरियाणा की कृपा पर निर्भर है. इन हालात का सामना अरविंद कैसे करते हैं इस पर सबकी निगाहें ररहेंगी. अभी तक अरविंद केजरीवाल ने अपनी सूझबूझ से सबको चैंकाया है. अगर इन मसलों पर भी वे कोई चैंकाने वाला समाधान ले आएं तो वे भारतीय राजनीति पर गहरी छाप छोड़ेंगे.

कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने की वजह से अरविंद केजरीवाल पर अवसरवाद का आरोप लग रहा है. कहा जा रहा है कि उन्हें लोगों ने कांग्रेस के खिलाफ जनादेश दिया था और अब वे उसके साथ मिलकर सरकार बना रहे हैं. कुछ लोग इसे सुविधा की राजनीति कह रहे हैं. कुछ उसी तरह से जिस कांग्रेस, भाजपा, सपा और बसपा जैसी पार्टियां लंबे समय से करती आ रही हैं. अरविंद पर इस तरह के आरोप लगने स्वाभाविक हैं. अरविंद केजरीवाल इन दलों पर इसी तरह के आरोप लगाते आए हैं . अरविंद पर अवसरवाद के आरोप इसलिए भी लगाए जा रहे हैं क्योंकि चुनाव के दौरान उन्होंने बार-बार कहा था कि किसी भी कीमत पर वे भाजपा और कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करेंगे. लेकिन अब उनकी पार्टी कांग्रेस के बाहरी सहयोग से सरकार बनाने जा रही है. हालांकि इस मुकाम तक पहुंचने के दौरान घटी घटनाओं को समझना भी जरूरी है. दिल्ली के नतीजे किसी के पक्ष में नहीं थे. विधानसभा में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी थी इसके बावजूद उसने सरकार बनाने का दावा पेश नहीं किया. कांग्रेस ने आप को समर्थन की पेशकश की. इसके बाद भाजपा और कांग्रेस ने एक सुर से अरविंद की इस बात के लिए आलोचना शुरू कर दी कि वे सरकार बनाने से पीछे भाग रहे हैं. अरविंद ने इस आरोप का हल जनमत संग्रह के रूप में निकाला. जनता के साथ तमाम तरीकों से संवद के बाद आप ने पाया कि जनता कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने के पक्ष में थी. बावजूद इसके इतना तो तय है कि अरविंद ने अपने मौलिक सिद्धांत से समझौता कर लिया है.

केजरीवाल की यह सरकार कांग्रेस की बैसाखी पर टिकी है. दोनों पार्टियों की मानसिकता और आपसी रिश्तों को देखते हुए इस सरकार के दीर्घजीवी होनो की संभावना क्षीण है. जब तक कांग्रेस की राजनीति के हिसाब से इस सरकार का चलना ठीक रहेगा तब तक यह सरकार चलेगी.1989 में जब वीपी सिंह की सरकार भाजपा ने गिरा दी थी तब राजीव गांधी ने कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर की सरकार बनवाई थी. उस वक्त उनसे पत्रकार वार्ता में एक सवाल पूछा गया था. सवाल यह था कि आप चंद्रशेखर की सरकार कब तक चलाएंगे. जवाब में  राजीव गांधी ने कहा था कि वीपी सिंह की सरकार से एक महीने ज्यादा. लेकिन जब कथित जासूसी का आरोप चंद्रशेखर की सरकार पर लगा तो उन्होंने अपने सरकार की बलि चढ़ा दी. बहुत कम लोगों को मालूम है कि प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने से पहले जब चंद्रशेखर लोकसभा में बोल रहे थे तो उनके पास राजीव गांधी ने तीन बार पर्चा भेजकर इस्तीफा नहीं देने का आग्रह किया था. लेकिन चंद्रशेखर ने अपने मूल्यों के आगे प्रधानमंत्री पद पर बने रहने के लोभ को तरजीह नहीं दिया. आने वाले दिनों में केजरीवाल को भी ऐसी ही कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ेगा.

जिन लोगों के साथ अरविंद केजरीवाल ने अपने सामाजिक जीवन के शुरुआत में काम किया है, वे केजरीवाल को एक महत्वकांक्षी व्यक्ति के तौर पर देखते हैं. यही वजह है कि अमेरिकी नीतियों का विरोध करते-करते अरविंद केजरीवाल फोर्ड फाउंडेशन से आर्थिक मदद भी ले लेते हैं और मौका पड़ने पर अमेरिकी हितों को संवर्धित करने वाले कॉरपोरेट घरानों और सरकारों के खिलाफ हल्ला भी बोल देते हैं. दरअसल, आज अरविंद केजरीवाल एक ऐसी पहेली हैं जिसके बारे में पक्के तौर पर कुछ भी अनुमान नहीं लगाया जा सकता है. केजरीवाल समर्थकों को यह रोमांचक लग सकता है लेकिन अगर निष्पक्ष होकर सोचेंगे तो यह खतरनाक प्रवृत्ति है.

सुविधा के हिसाब से परिस्थितियों को मोड़ने की अपनी कला का नमूना अरविंद ने दिल्ली पुलिस को लिखे अपने उस पत्र में दिया है जिसमें उन्होंने पुलिस सुरक्षा से इनकार किया है. वे लिखते हैं, ‘उनका भरोसा भगवान पर है इसलिए उन्हें सुरक्षा नहीं चाहिए लेकिन हो सके तो कुछ स्थानों पर ‘भीड़’ से उन्हें बचाने के लिए बंदोबस्त किए जाएं. यह अरविंद केजरीवाल के शब्द हैं जो चुनाव से पहले तक इस भीड़ को जनसैलाब और आम आदमी कह रहे थे. अरविंद केजरीवाल के समर्थकों द्वारा सिरफिरा करार दिए जाने का जोखिम उठाते हुए कहना पड़ेगा कि संकेत ठीक नहीं हैं.

दरअसल, यह भारतीय राजनीति की त्रासदी है कि देश के सियासी फलक पर उन्हीं नेताओं का उभार दिखता है जो अच्छे से मुद्दों की मार्केटिंग करना जानते हैं. आज राजनीति में सबसे ज्यादा चर्चा दो नेताओं नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल की हो रही है. इन दोनों नेताओं के उभार को देखने पर पता चलता है कि दोनों मार्केटिंग के धुरंधर हैं. दोनों में कई स्तर पर समानता दिखती है. दोनों के समर्थक उन्मादी हैं. आलोचना इन्हें  रास नहीं आती. आलोचना करने पर ये तुरंत निजी हमले पर उतर जाते हैं. आम आदमी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में भी यह अवगुण दिखता है. जब मीडिया उनकी खबरों को न दिखाए तो वे इसे कॉरपोरेट जगत का दलाल कहने लगते हैं और जब दिखाए तो इसे बहुत बड़ी ताकत. कम्युनिस्ट इसी प्रवृत्ति को फासीवाद कहते हैं. जिस तरह से अरविंद केजरीवाल के आस-पास आम आदमी पार्टी की सारी गतिविधियां घूम रही हैं, उसे अधिनायकवाद भी कहा जाता है. इस लिहाज से देखा जाए तो आम आदमी पार्टी भी दूसरी राजनीतिक पार्टियों की तरह ही दिखती है लेकिन उनसे अपेक्षाकृत थोड़ी ज्यादा साफ-सुथरी.

केजरीवाल समर्थक कह सकते हैं कि आम आदमी पार्टी में सारे फैसले आम आदमी की राय पर होते हैं. सरकार बनाने को लेकर भी उनका तर्क होगा कि एसएमएस और ईमेल के आधार पर मिली राय के बाद ही सरकार बनाने का फैसला हुआ है. लेकिन राजनीति को गंभीरता से समझने वालों के लिए ये सब नए जमाने की राजनीति के नए सियासी स्टंट हैं. अरविंद केजरीवाल ने नए और पुराने स्टंट का ऐसा घालमेल तैयार किया है इसमें आम आदमी की नजरें चैंधिया गई हैं. सरकारी घर, सुरक्षा, लाल बत्ती जैसी चीजों से इनकार प्रतीकात्मक राजनीति मानी जा सकती है, लेकिन हमारे राजनीतिक जीवन में फैली वीआईपी संस्कृति को चोट पहुंचाती है तो इस प्रतीकात्मकता का स्वागत होना चाहिए. मौजूदा दौर में इस तरह की सुविधाएं लेने से इनकार करने वाले कई मुख्यमंत्री हैं- माणिक सरकार, ओमैन चांडी और मनोहर परिकर आदि. इनका क्षणिक प्रभाव हो सकता है लेकिन अरविंद की असली परीक्षा उन वादों को लेकर होगी जिन्हें पूरा करने का वादा उन्होंने अपने घोषणा पत्र में किया है.

अगर अरविंद केजरीवाल भी अन्य दलों की तरह ही सत्ता में रच-बस जाते हैं और घोषणा पत्र को सिर्फ चुनावी ही रहने देते हैं तो उनका कोई खास नुकसान तो नहीं होगा लेकिन आम आदमी एक बार फिर से ठगा हुआ महसूस करेगा. केजरीवाल की सरकार से जनता को कुछ उसी तरह की उम्मीदें है जिस तरह की उम्मीद आजादी के बाद बनी पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार और आपातकाल के बाद बनी मोरारजी देसाई की सरकार ने जगाई थी. लेकिन अगर आम आदमी पार्टी आम आदमी की स्थिति सुधारने में नाकाम रहती है तो देश का आम आदमी लगातार राजनीतिक छल झेलते-झेलते मजबूरी में ही सही इतना सहनशील तो हो ही गया है कि एक झटका और झेल ले.

आजादी के बाद उसे कांग्रेस के नाम पर ठगा गया.फिर जनता शब्द फैशन में आया तो जनता पार्टी बनाकर आम लोगों को ठगा गया. आजकल ‘आम आदमी’ फैशन में है. ऐसे में अगर आम आदमी पार्टी भी एक बार लोगों को ठग ले तो कुछ सालों बाद कोई नया शब्द आएगा और फिर जनता उससे इसी तरह की उम्मीदे लगाएगी. उम्मीद की जानी चाहिए कि ‘आम आदमी’ के नाम पर और यहां तक पहुंचने के लिए दिए गए अपने बयानों को याद करके अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बनने के बाद भी वैसे ही रहेंगे, जैसा वे दिखते हैं.

हज नोट: भारतीय रिजर्व बैंक

Huaभारी आयात की वजह से भारत में विदेशी मुद्रा की कमी का संकट हमेशा से बना रहा है. खास तौर पर आजादी के शुरुआती दशकों में तो यह संकट काफी गहरा था. तब हमें बड़े पैमाने पर खाद्यान्न भी आयात करना पड़ता था. इसके चलते अर्थव्यवस्था विदेशी ऋण पर निर्भर रहती थी. भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी हज नोट इसी दौर की घटना है.

1958-59 के आस-पास विदेशी मुद्रा संकट इतना गहरा गया था कि सरकार ने विदेश जाने वाले लोगों को विदेशी मुद्रा ले जाने की अधिकतम सीमा काफी घटा दी थी. इसका असर हज यात्रियों पर भी पड़ा. सरकार ने न सिर्फ उनकी संख्या में कटौती कर दी बल्कि विदेशी मुद्रा ले जाने की सीमा भी कम कर दी. सरकार का यह फैसला देश में असंतोष का कारण तो बना ही मुस्लिम बहुल देशों में भी इसकी काफी चर्चा हुई. इस दौरान सऊदी अरब ने भारत सरकार के सामने प्रस्ताव रखा कि यदि हज यात्री भारतीय रुपया लेकर वहां जाते हैं तो वहां के बैंक उसे स्वीकार करेंगे. लेकिन भारत सरकार के सामने दिक्कत यह थी कि इस व्यवस्था का दुरुपयोग काला धन बाहर भेजने के लिए हो सकता था और इसमें कई दूसरी जटिलताएं भी थीं. ऐसे में रिजर्व बैंक ने सरकार के सामने प्रस्ताव रखा कि वह हज यात्रियों के लिए विशेष रुपये जारी करेगा. सरकार ने इसके लिए अनुमति दे दी और 1958 में पहली बार हज नोट छापे गए. इन नोटों में HAJ लिखा गया था और नोट संख्या HA से शुरू होती थी. इसके बाद सरकार ने हज यात्रियों को विदेशी मुद्रा के बदले यही नोट दिए और यात्रियों की संख्या की सीमा भी बढ़ा दी गई. हालांकि यह व्यवस्था अगले एक साल और जारी रही और उसके बाद बंद कर दी गई. इस समय तक रिजर्व बैंक खाड़ी देशों के लिए भी अलग से मुद्रा छापने लगा था. इन्हें फारसी रुपया कहा जाता था. बाद में खाड़ी देशों के बीच इन रुपयों का लेन-देन होने से हज नोटों की छपाई बंद कर दी गई.

यौन शोषण विरोधी कानून

क्या है यौन शोषण विरोधी कानून?
पिछले साल 16 दिसंबर को दिल्ली में घटी गैंगरेप की घटना के बाद महिलाओं के खिलाफ होने वाले यौन अपराधों के खिलाफ कड़ी और प्रभावी सजा के लिए नया कानून ‘आपराधिक कानून (संशोधित) अधिनियम 2013’ अस्तित्व में आया. इस कानून के जरिए बलात्कार की परिभाषा को और विस्तृत करते हुए सजाओं को अधिक सख्त बनाया गया है. इसके मुताबिक दुष्कर्म के अलावा भी महिलाओं के साथ किसी तरह की शारीरिक छेड़छाड़ को बलात्कार माना जाएगा. इतना ही नहीं, महिलाओं के खिलाफ किसी भी तरह के यौन दुर्व्यवहार के लिए कड़ी सजा का प्रावधान इस कानून के जरिए किया गया है. नए कानून के मुताबिक अगर यौन शोषण के किसी मामले में पीड़िता की मौत हो जाती है तो दोषी को फांसी की सजा का भी प्रावधान है.

कैसे अस्तित्व में आया नया कानून?
पिछले साल 16 दिसंबर को हुई अमानवीय घटना के बाद पूरे देश में महिलाओं के यौन उत्पीड़न के खिलाफ एक आक्रोश पैदा हो गया था. लोगों के विरोध को देखते हुए सरकार ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जेएस वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था. इस कमेटी को महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों से कारगर तरीके से निपटने के उपायों के बारे में रिपोर्ट सौंपनी थी. कमेटी को देश भर से हजारों सुझाव मिले. विस्तृत सलाह और सुझावों के बाद समिति ने अपने सुझाव सरकार को सौंपा जिसमें तत्कालीन कानूनों को कड़ा करने की सिफारिश की गई थी. बाद में संसद ने भी थोड़े-बहुत संशोधनों के साथ इस प्रस्ताव को पारित कर दिया.

नया कानून आने के बाद क्या है स्थिति?
इस कानून के बनने के बाद भी महिलाओं के खिलाफ होने वाले  अपराध लगातार बढ़े हैं. पिछले 13 साल की तुलना में इस साल बलात्कार के सबसे ज्यादा मामले सामने आए. अकेले दिल्ली में ही 30 नवंबर तक बलात्कार के लगभग पंद्रह सौ मामले दर्ज किए गए जो कि 2012 में दर्ज मामलों की तुलना में दोगुने से अधिक हैं. जानकार इस पर एक और राय रखते हैं. उनके मुताबिक पहले ऐसे मामले दर्ज नहीं कराए जाते थे. लेकिन लोग अब जागरूक हो गए हैं और मामले दर्ज कराने लगे हैं.