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साहित्य विशेष: अंक धूप में छाया-सा

पिछला साल तहलका की हिंदी पत्रिका के लिए बेहद संतोष देने वाला था. हमने बड़ी-बड़ी स्टोरियां कीं, हमारे रिपोर्टरों को देश और दुनिया के सबसे बड़े, सबसे ज्यादा पुरस्कार मिले और उथली व गुदगुदी करने वाली ज्यादातर हिंदी पत्रकारिता वाले इस दौर में पाठकों ने हमारे प्रयासों की गंभीरता को उतनी ही गंभीरता से लिया. हालांकि साल का अंत हमारे लिए बेहद कष्टकारी रहा- खासकर उन नए-पुराने पत्रकारों के लिए जो हमेशा अपने काम को बहुत महत्वपूर्ण और पवित्र मानते हुए तहलका में काम करते रहे.

साल भर की भागदौड़, दिमागी माथापच्ची और भूसे में से सुई खोजने जैसे प्रयासों की थकावट के बीच यह संस्कृति विशेषांक कुछ-कुछ वैसा ही है जैसा कि कुछ अलग संदर्भ में मन्नू जी ने अपने लेख में कमलेश्वर जी के हवाले से लिखा है- आदमी जिंदगी के टेढ़े-मेढ़े, ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलते-चलते जब थक जाता है तो सुस्ताने के लिए हरे-भरे पेड़ की छाया में बैठ जाता है.

मन्नू जी ने विशेष तौर पर तहलका के लिए जो लिखा है वह इस विशेषांक की उपलब्धि है. उनका चर्चित उपन्यास ‘आपका बंटी’ पहला उपन्यास था जिसे मैंने पढ़ा था. इसलिए उनके इस विशेषांक में लिखने के मायने मेरे लिए कहीं गहरे और बड़े हैं.

छाया में सुस्ताने की बात अपनी जगह है लेकिन कुछ अलग करना भी तो तहलका की प्रकृति में है. इस अंक में एक विशेष तरह का सर्वेक्षण है जिसमें वरिष्ठ साहित्यकारों ने अपनी पसंद के भावी साहित्याक्षरों को चुना है और इन चुने गए कवियों-लेखकों ने अपनी पसंद के मूर्धन्यों का चयन किया है. ऐसे चुनिंदा साहित्यकारों की रचनाएं- जिनमें सर्वश्री केदारनाथ सिंह, उदय प्रकाश, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, आलोक धन्वा जैसे कवि-लेखक शामिल हैं- इस अंक की विशेषता हैं.

साथ ही शालिनी माथुर का स्त्री लेखन पर लिखा लेख इतने और ऐसे तथ्यों के आधार पर साहित्य के इस क्षेत्र का आकलन करता है कि वह इस विशेषांक के बजाय हमारे किसी भी सामान्य अंक का एक विशेष हिस्सा हो सकता था.

इस अंक को जैसा है वैसा बनाने में दो अन्य महिलाओं का सबसे बड़ा योगदान है – मेरी सहयोगी पत्रकार पूजा सिंह और तहलका की शिशुमना इलस्ट्रेटर मनीषा यादव. एक ने इस अंक की संकल्पना से लेकर इसके लिए सामग्री जुटाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तो दूसरी ने इसे अपने चित्रों के माध्यम से सजीव बनाने में.

तहलका के अधिकतर महत्वपूर्ण साहित्यिक आयोजनों की तरह इस अंक में भी युवा आलोचक दिनेश कुमार की महत्वपूर्ण भूमिका रही. उनका हृदय से आभार.

एक महत्वपूर्ण बात और. हमने इसे साहित्य के बजाय संस्कृति विशेषांक इसलिए कहा कि इसमें कला और फिल्म जगत आदि से जुड़े आलेख भले ही ज्यादा न हों, लेकिन हैं.

अंत में, हमेशा की तरह इस अंक की आलोचना आपका अधिकार है और उसे सर माथे पर लेना हमारा कर्तव्य.


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‘जज साहब’

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नॉरम आशीष

नौ साल हो गए, उत्तरी दिल्ली के रोहिणी इलाके में तेरह साल तक रहने के बाद, अपना घर छोड़ कर, वैशाली की इस जज कॉलोनी में आए हुए. यह वैशाली का ‘पॉश’ इलाका माना जाता है. उत्तर प्रदेश की सरकार ने न्यायाधीशों के लिए यहां प्लाट आवंटित किए थे. ऐसे ही एक प्लॉट पर बने एक घर में मैं रहता हूं.

जिस सड़क पर यह अपार्टमेंट बना है, उसका नाम है- ‘न्याय मार्ग’. हालांकि इस सड़क में जगह-जगह गड्ढे हैं, हर तीन कदम पर यह सड़क उखड़ी-पुखड़ी है और कई जगह से ‘वन वे’ हो गई है, क्योंकि बिल्डर्स ने सड़क के ऊपर ही रेत, ईंटें, रोड़ी-गिट्टी, सीरिया-पाइप के ढेर लगा रखे हैं. नतीजा यह कि हर रोज यहां ‘वन वे’ की वजह से एक्सीडेंट होते रहते हैं और कोई कार्रवाई इसलिए नहीं होती कि बिल्डर्स और ठेकेदारों के पास बहुत रुपया और ऊपर तक पहुंच है.

इसी कॉलोनी में रहने वाले एक रिटायर्ड न्यायाधीश का पोता इसी ‘वन वे’ पर एक डंपर के नीचे आ गया था और तीन महीने तक अस्पताल में रहने के बाद उसकी मौत हो गई थी.

लेकिन वे बिल्डिंगें अभी भी बन रही हैं. डंपर और ट्रक अभी भी चल रहे हैं. वैशाली का ‘न्याय मार्ग’ अभी भी गड्ढों-हादसों से भरा हुआ ‘वन वे’ है.

वी.आई.पी. जज कॉलोनी बहुत तेजी से ‘डेवलप’ होती कॉलोनी है. नौ साल पहले जब मैं यहां आया था तो दो किलोमीटर की दूरी तक सिर्फ दो शॉपिंग माल थे. अब इक्कीस बड़े-बड़े बहुमंजिला माल, दो इंटरनेशनल फाइव स्टार होटल और शेवरले से लेकर ह्युंडेई और सुजुकी कार कंपनियों के जगमगाते शो रूम हैं, हल्दी राम, मक्डॉनल्ड्स, डोमिनोज पिज्जा, कैंटुकी फ्राइड चिकन, बीकानेर वाला जैसी सैकड़ों खाने-पीने की जगहें हैं. रेस्टोरेंट और बार तो हर कदम पर हैं.

अपने साठ साल के जीवन में मैंने इतना पीने-खाने वाला समय पहले कभी नहीं देखा.

नौ साल पहले जब मैं यहां आया था, तब यहां जंगल और खेत हुआ करते थे. सरसों और गेहूं-बासमती के खेत. कभी यह सरसों के पीले फूलों के रंग और बासमती धान की खुशबू से भरा इलाका था. मोहल्लों में रहने वाले रुई धुनकने वाले धुनकिये, गोबर के उपले पाथती औरतें, लोहे की कड़ाहियां, चिमटे, खुरपी बनाने वाले लोहार और उनकी कोयले की आग से सुलगती धौंकनियां, सबेरे-सबेरे सुअर का शिकार करने वाले लोगों के जत्थे, खुले में दिशा-फराकत करती हुई गरीब औरतें चारों ओर थीं. सुबह मैं जल्दी अपनी बालकनी में इसलिए नहीं निकलता था क्योंकि सामने के खाली पड़े मैदान में औरतें और पुरुष, सुअरों के साथ उसी मैदान में नित्यक्रिया करते आंखों के सामने आते थे. पास में ही, नहर के किनारे-किनारे उगी झाड़ियों से लगी सुनसान जगहें यहां ‘एनकाउंटर ग्राउंड’ हुआ करती थीं, जहां ‘अपराधियों’ को पकड़ कर रात में पुलिस गोली मारती थी और अगली सुबह अखबार में डाकुओं या आतंकवादियों के साथ हुई पुलिस की साहसिक मुठभेड़ की खबरें छपा करतीं थीं.

लेकिन अब तो इन बीते नौ वर्षों में सब कुछ बदल गया है. जैसे किसी लंबी फिल्म का कोई बिल्कुल दूसरा शॉट परदे पर अचानक आ गया हो.

इस कॉलोनी में बहुत से न्यायाधीश रहते हैं. कुछ रिटायर्ड और कुछ अभी भी अलग-अलग अदालतों में न्याय देने की अपनी-अपनी नौकरियां करते हुए.

बगल में ही एक पार्क है. सुंदर-सा. सुबह-सुबह जब कभी वहां घूमने जाता हूं, तो हर सुबह कई जजों से मुलाकात होती है. इनमें से जो बूढ़े हो चुके हैं, वे अधिक देर और दूर तक चल नहीं पाते या फिर धीरे-धीरे छड़ी के सहारे चलते हैं. एक-दो के साथ उनका कोई सहायक भी होता है, उन्हें गिरने से बचाने के लिए या अचानक दिल का दौरा पड़ने या सांस रुक जाने पर तुरंत उन्हें अस्पताल पहुंचाने के लिए. ये जज अब अपनी कोठियों में अकेले रहते हैं. कुछ अपनी पत्नियों के साथ और कुछ बिल्कुल अकेले. उनके बच्चे बड़े होकर दूसरे शहरों या देशों में चले गए हैं, जो साल-दो साल में कभी-कभार कुछ दिनों की छुट्टियों में यहां आगरा, शिमला, नैनीताल, दार्जीलिंग वगैरह घूमने आते हैं. एक अकेले रह गए बूढ़े जज का कहना है कि पता नहीं उनकी अमेरिकी बहू और उनके बेटे को इंडियन चिड़ियों का इतना क्रेज क्यों है कि जब भी दो-चार साल में वे आते हैं तो दो-चार दिन उनके साथ रह कर भरतपुर और राजस्थान की बर्ड्स सैंक्चुअरी देखने निकल जाते हैं. वे धीरे से कहते हैं, ‘पता नहीं क्या ऐसा है इन चिड़ियों में कि मैं अपनी जिंदगी, नौकरी, न्याय और अदालत से ऊब गया, लेकिन वे लोग चिड़ियों से नहीं ऊबे.’ इसके बाद एक लंबी उदास सांस भर कर वे कहते हैं, ‘मुझे अच्छी तरह से पता है कि मेरा बेटा और उसकी फैमिली मुझे नहीं, इंडिया में चिड़िया और पुरानी इमारतें देखने आती है.’

इन बूढ़े जजों का इस तरह चलना देख कर लगता है जैसे उनका पूरा शरीर अतीत की असंख्य स्मृतियों के वजन से लदा हुआ है और यह उनका बुढ़ापा नहीं, स्मृतियों का भार ही है, जिसे वे संभाल नहीं पा रहे हैं और किसी कदर ढो रहे हैं. मैंने देखा है, अक्सर वे बहुत जल्दी थककर पार्क में बनी किसी बेंच पर बैठ जाते हैं. वहां भी उनका माथा किसी बोझ से नीचे की ओर गिरता हुआ दिखता है.

बहुत भार होगा जरूर गहरी लकीरों से भरे उनके बहुत पुराने माथे के ऊपर. उनके भीतर की ‘हार्डडिस्क’ भर चुकी होगी.

क्या वे अपने पिछले दिनों में किए गए किसी फैसले के बारे में इस समय दुबारा सोच रहे होते हैं? पछतावे से भरे हुए.

कई बार उनकी मिचमिचाती बूढ़ी हो चुकी आंखों से आंसू की कुछ बूंदें लकीर बनाती हुई उनका चेहरा भिगा देती हैं. वे जेब में रखा हुआ कोई बहुत पुराना, मटमैला हो चुका रूमाल निकाल कर झुर्रियों से भरा अपना चेहरा और चश्मा धीरे-धीरे पोंछते हैं.

लेकिन जो न्यायाधीश अभी भी उतने जर्जर और बूढ़े नहीं हुए हैं, वे पार्क में अपने जॉगिंग सूट और स्पोर्ट्स शू के साथ तेज कदमों से टहलते हैं. वे किसी न किसी जल्दबाजी में हैं. उन्हें शायद कोई फैसला सुनाना है. कोई न कोई मामला उनकी अदालत में विचाराधीन है और उसकी गुत्थियां वे अपने टहलने की बेचैन रफ्तार में सुलझा रहे होते हैं.

इन सभी जजों के पास बहुत से किस्से हैं. सैकड़ों-हजारों. अनंत. सच और झूठ के उलझे हुए ऐसे मामले, जिनके बारे में अपने दिए गए फैसलों को लेकर उन्हें अभी भी असमंजस है. अगर मैं आपको उन सारे किस्सों को अलग-अलग सुनाना शुरू करूं तो एक तो कोई ऐसा उपन्यास बन जाएगा, जिसे पढ़ने के बाद आपका विश्वास सच, झूठ, न्याय, अन्याय सबसे उठ जाएगा.

मेरा तो उठ चुका है इसीलिए दरगाहों, जंगलों, बच्चों और मंदिरों में ज्यादा समय बिताता हूं. न्यायाधीश मुझे असहाय और न्यायालय एक खास तरह का रोजगार और वेतन देने वाले किसी बहुत पुराने माल या स्मारक जैसे लगते हैं.

ओह! लेकिन मैं किस्सा तो जज सा’ब का सुनाने जा रहा था, जिनका हमारी जज काॅलोनी में तो अपार्टमेंट ही नहीं था. वे कहीं दूसरी जगह, किसी दूसरे सेक्टर में रहते थे, लेकिन नौ साल पहले जब मैं यहां आया था, तब से उनसे मुलाकात होती रहती थी. उनका असली, औपचारिक नाम जो भी रहा हो, सब लोग उन्हें ‘जज सा’ब’ ही कहते हैं.

उनसे मेरी मुलाकात हमेशा सुनील यादव की पान की दुकान पर होती थी. पान और खैनी, ये दो ऐसी चीजें थी जिनकी लत हमें एक-दूसरे से जोड़ती थी.

इसके अलावा एक एडिक्शन या लत और थी. (उसके बारे में मैं कहानी के बिल्कुल अंत में बताऊंगा. …और यह कहानी, जिसका ‘डिस्क्लेमर’ मैं यहीं रख देना जरूरी समझता हूं कि इसका संबंध किसी वास्तविक व्यक्ति, स्थान या समय से नहीं है. अगर ऐसा पाया जाता है, तो वह फकत संयोग है और इस पर कोई मुकदमा उन्हीं ‘जज सा’ब’ की अदालत में चलेगा, जहां वे उस समय नियुक्त होंगे.)

तो, अब असली किस्से पर आएं. यह बहुत छोटा-सा और कुछ-कुछ सेंसेशनल जैसा है.

हर सुबह ठीक नौ बजे, जज सा’ब सुनील की पान की दुकान पर मिलते थे. हमेशा ताजगी से भरे और मुस्कुराते हुए. पचास के कुछ पार रही होगी उनकी उम्र, लेकिन चश्मा नहीं लगाते थे.

‘नमस्कार ! कैसे हैं सर जी ?’ यह उनका पहला वाक्य होता था. ‘मैं ठीक हूं, जज सा’ब. आप कैसे हैं ?’ यह हमेशा मेरा पहला जवाब होता था. ‘मैं वैसा ही हूं, राइटर जी, जैसा कल था.’ यह भी उनका हर बार

का उत्तर था.

‘हम सब भी वैसे ही हैं, जैसे कल थे !’ मेरे यह कहने पर जज सा’ब ही नहीं, सुनील की दुकान पर खड़े सारे लोग हंसने लगते थे. यह भी हर बार का उत्तर था और सब का हंसना भी हर बार का

हंसना था.

यह सच था. चारों ओर सब कुछ तेजी से बदल रहा था, लेकिन हम सब, कल या परसों या और उसके पहले के दिनों जैसे ही थे. लगभग ज्यों के त्यों.

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नॉरम आशीष

सुनील पानवाले की दुकान में हम सब के हर रोज इकट्ठा होने की वजह भी यही थी कि सुनील भी हर रोज पिछले रोज की तरह ही होता था. उसकी पत्नी को क्रोनिक दमा था और एलोपैथी, आयुर्वेद से लेकर जादू-टोना और जड़ी-बूटियों तक का सहारा वह ले रहा था. पांच बच्चे थे जिनमें से तीन स्कूल जाते थे. दो लड़कियां, तीन लड़के. हर रोज वह स्कूल को गालियां देता था जो किताब-कापियों के अलावा, जूते, मोजे, बस्ता-वर्दी किसी खास तरह की, किसी खास ब्रांड और क्वालिटी की मांग करता था और अगर वह अपने बच्चों को यह सब जल्दी, किसी एक खास नियत तारीख तक खरीद कर नहीं दे पाता था, तो बच्चे स्कूल नहीं जाते थे. इस डर से क्योंकि वहां की मैडम उन्हें क्लास से भगा देती थी. वह उस बस को भी गालियां देता था जो उसके बच्चों को स्कूल ले जाती थी और हर दूसरे-तीसरे महीने उसका किराया बढ़ जाता था. वह सरकार और पेट्रोल कंपनियों को गालियां देता था जिनकी वजह से हर महीने पेट्रोल के दाम बढ़ जाते थे, जिससे उसकी पुरानी मोटर साइकिल का खर्च बढ़ जाता था. वह अपने बच्चों और पत्नी को गालियां देता था जिनकी वजह से वह दिन-रात खटता रहता था और कभी अपने पहनने के लिए ठीक कपड़ा और पीने के लिए दारू का पउआ नहीं खरीद पाता था. वह पुलिस और म्युनिसपैलिटी को गालियां देता था, जो उसके पान के खोखे को हफ्ता-वसूली के बाद भी, महीने-दो महीने में हटा देते थे और फिर उसे अदालत में जाकर जुर्माना भरना पड़ता था.

लेकिन उसने अपने साठ साल के पिता की बीमारी में सत्तर हजार खर्च कर के और उनकी दिन-रात सेवा करके, उनके स्पाइनल के रोग को ठीक करा डाला था और वे फिर से चलने फिरने लगे थे. लेकिन अब वह अपने पिता जी को भी मां-बहन की गालियां देता था क्योंकि उन्होंने गांव में जो जमीन बेची थी, उसमें उसको एक पैसा नहीं दिया था और सारी जायदाद उसके निकम्मे, गंजेड़ी भाई के नाम कर दी थी, जो बड़ी चालू चीज था.

सुनील यादव पानवाले की भाषा में इतनी अधिक गालियां थीं कि मैं अचंभे में आ जाता था. लेकिन अफसोस यह होता था कि ऐसी भाषा में राजभाषा ‘हिंदी’ का कोई साहित्य नहीं रचा जा सकता था. ‘हिंदी’ के शब्दकोशों और शब्द-सागरों में सुनील पनवाड़ी की भाषा के शब्द नहीं थे.

उसकी गालियां सुन कर हम सब हंसते थे क्योंकि हम सब अपनी-अपनी गालियों को अपनी-अपनी हंसी में हुनर के साथ छुपाते थे.

जज सा’ब तो सबसे ज्यादा हंसते थे. ठहाका लगा कर. कई बार, जब उनका मुंह पान से भरा रहता था और सुनील गालियां देने लगता था, जिसे सुन कर सब हंसते थे और जज सा’ब ठहाका मारते थे, तो पान की पीक उनके कपड़ों पर गिर जाती थी और तब वे भी बहुत गाली देते थे और फिर सुनील से चूना मांग कर पान की पीक के ऊपर रगड़ते थे क्योंकि इससे दाग छूट जाता था.

ऐसा ही कोई दिन था, जब वे अपनी सफेद शर्ट के ऊपर पड़ी पान की पीक के दाग के ऊपर चूना रगड़ रहे थे, और तब पहली बार मैंने

अचानक पाया कि पिछले दस महीने से हर रोज, हर सुबह वे हमेशा वही एक सूट पहन कर वहां आते थे. शायद उनके पास कोई दूसरा सूट या कोट पैंट नहीं था.

सुबह वे इस तरह तैयार हो कर आते थे जैसे किसी कोर्ट में जाने वाले हों और अभी कुछ ही देर में कोई चार्टर्ड बस आएगी और उसमें बैठ कर वे चले जाएंगे.

लेकिन जज सा’ब हमेशा पैदल ही लौट जाते थे. सुनील ने बताया कि वे अभी इंतजार कर रहे हैं. पिछली बार जब वे जज थे तो उनकी मियाद बढ़ाई नहीं गई. जिस मंत्री की सिफारिश पर वे किसी अदालत में जज बने थे, वह मंत्री किसी बलात्कार के केस में जेल जा चुका है और अभी तक वे कोई नया कांटेक्ट नहीं बना पाये हैं, जो उन्हें दुबारा जज बना दे.

उस दिन के बाद से मुझे उनसे सहानुभूति होने लगी थी और कई बार मैं उन्हें पास के ही पंडिज्जी के ढाबे में चाय पिलाने लगा था.

एक दिन वे सुबह नहीं, शाम तीन बजे सुनील की दुकान पर बहुत परेशानी की हालत में मिले. उन्होंने बताया कि उनका बेटा घर से भाग गया है और कहीं मिल नहीं रहा है. दो दिन से वे उसे खोज रहे हैं. थाने में भी उन्होंने गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाई है लेकिन ऐसा लगता है कि पुलिस वाले उनके सात साल के बेटे को जिंदा खोजने के बजाय कहीं उसकी लाश की इत्तिला पाने के इंतजार में हैं. यही अक्सर होता था. गुमशुदा बच्चे मुश्किल से ही दुबारा कभी मिलते थे. अक्सर उनकी लाश ही मिला करती थी.

गनीमत थी कि उस समय तक गैस आ चुकी थी और मेरी कार सीएनजी से चलने लगी थी. मैं भी चिंतित हुआ और जज सा’ब के बेटे को खोजने के लिए, उनके साथ वैशाली के सारे इलाकों में, उसकी जानी-अनजानी सड़कों, गलियों, मोहल्लों-बस्तियों में निकल पड़ा.

जज सा’ब कृतज्ञ थे और बार-बार उनकी आंखों में आंसू छलक आते थे. वे भावुकता में कभी मेरा हाथ थाम लेते थे, कभी कंधों पर झूल जाते थे. उन्होंने बताया कि पार्थिव को उन्होंने डांटा था क्योंकि वह पढ़ने के बजाय क्रिकेट का ट्वेंटी-ट्वेंटी मैच देख रहा था, जबकि सुबह उसका इम्तहान था. उन्होंने टीवी बंद कर दिया था, ठीक उस समय, जब डेल्ही डेयर डेविल्स को राजस्थान रॉयल्स से जीतने के लिए आखिरी चार ओवरों में पैंतीस रन बनाने थे और सुरेश रैना चौके छक्के लगा रहा था.

सुबह पार्थिव स्कूल के लिए निकला था और तब से लौट कर नहीं आया था. स्कूल से पता चला कि वह इम्तहान में भी नहीं बैठा था.

तो वह कहां गया ?

हम तीन घंटे से उसे हर जगह खोज रहे थे. कोई कोना नहीं छोड़ रहे थे. तकरीबन छह बज चुके थे और डर था कि अगर अंधेरा हो गया तो आज का एक दिन और व्यर्थ चला जाएगा. दूसरी बात यह थी कि जज सा’ब अपने घर में अपने बेटे के साथ अकेले ही इन दिनों रह रहे थे क्योंकि उनकी पत्नी उनके घर, झांसी जा चुकी थी. वे दो वजहों से यहां रुके हुए थे. एक तो बेटे पार्थिव की पढ़ाई और परीक्षा और दूसरे, उन्हें पिछले दस महीने से हर रोज, हर सुबह, यह उम्मीद लगी रहती थी कि शायद आज उनका काम कहीं बन जाए और वे दुबारा किसी जगह, लेबर कोर्ट ही सही, जज बन जाएं. हर सुबह वे अखबार में राशिफल देख कर निकलते थे. मंत्रों का जाप करते थे.

शनिदेव के मंदिर में तेल और सिक्के चढ़ाते थे. लेकिन हर रोज हर रोज जैसा ही होता था.

अब तक कार से और पैदल चलकर हमने सारी समझ में आ सकने वाली जगहें खोज डाली थीं. हर जगह निराशा. वैशाली के चप्पे-चप्पे से हारी हुई चार खाली सूनी आंखें. अनगिनत लोगों से पार्थिव का हुलिया, उम्र, नाक-नक्श बता कर पूछे गए सवालों के जवाबों से हताशा.

और तब, जब लगने लगा कि अंधेरा अब बढ़ जाएगा और रात उतर आएगी, तब मुझे एक डरावना खयाल आया. नहर के किनारे-किनारे उगी झाड़ियों में पार्थिव की खोज. जीवित न सही, जीवन के बाद का शरीर.

लेकिन समस्या यह थी कि मैं यह जज सा’ब से कहता कैसे? इसलिए, बिना उन्हें बताए मैं कार नहर की ओर ले गया. यह हमारी आज की आखिरी कोशिश थी.

और वहां, जहां सरकारी जमीनों पर तमाम देवी देवताओं के मंदिर अनधिकृत ढंग से बने हुए थे, जिस जगह पर वैशाली की हरित पट्टी घोषित थी और जो अब ‘मंदिर मार्ग’ में बदल चुकी थी और जहां पहले पुलिस का ‘एनकाउंटर ग्राउंड’ हुआ करता था, वहीं नहर के किनारे की एक छोटी-सी खाली जगह में कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे.

जज सा’ब अचानक चीख पड़े, ‘राइटर जी, वो रहा पार्थिव!’

मैंने कार में ब्रेक लगाया. उसे सड़क के किनारे खड़ा किया और तेजी से भागते हुए जज सा’ब के साथ दौड़ पड़ा.

जज सा’ब अपने सात साल के बेटे पार्थिव के सामने खड़े थे, उसे अपनी ओर खींच रहे थे, उनकी आंखों से आंसू बह रहे थे लेकिन पार्थिव उनकी पकड़ से छूटने के लिए छटपटा रहा था.

उसके साथ खेलने वाले सारे बच्चे सहमे हुए चुपचाप जज सा’ब और पार्थिव की पकड़ा-धकड़ी देख रहे थे. मैं पांच कदम दूर खड़ा देख रहा था. तभी अचानक सारे बच्चों ने चिल्लाना शुरू कर दिया.

बच्चे डर गए थे. उन्हें लगा था कि पार्थिव का अपहरण हो रहा है. वे चीख रहे थे और कुछ ने जज सा’ब को ढेले मारना शुरू कर दिया था. एक लगभग नौ साल का बच्चा दौड़ता हुआ आया और उसने क्रिकेट के बैट से जज सा’ब को मारा. निशाना सिर का था, उधर जिधर दिमाग हुआ करता है लेकिन ठीक उसी पल जज सा’ब झुके और बैट उनकी पीठ पर लगा.

शोर सुन कर आसपास लोग इकट्ठा होने लगे थे. मंदिर के कुछ पुजारी और साधु-भिखारी भी आ गए थे.

पार्थिव चिल्ला रहा था, ‘मुझे इस आदमी से बचाओ! प्लीज …प्लीज …हेल्प मी!’

शायद किसी ने फोन किया होगा क्योंकि हमेशा देर से पहुंचने के लिए बदनाम पुलिस की पी.सी.आर. वैन सायरन बजाती हुई वहां उस रोज ठीक वक्त पर पहुंच गई.

पार्थिव बार-बार कह रहा था. ‘मैं इन अंकल को नहीं जानता’ और जज सा’ब रोते हुए, उसे अपनी ओर खींचते हुए बार-बार लोगों की भीड़ और पुलिस को समझाते हुए कह रहे थे कि ‘ये पार्थिव है. मेरा बेटा.’

पुलिस के साथ, मैं और जज सा’ब थाने गए और फिर वहां से पार्थिव को घर ले जाया गया.

मैं भीतर से हिल गया था.

इसके बाद, अगली सुबह से जज सा’ब मुझे सुनील पानवाले की दुकान पर नहीं दिखे. आज तक वे नहीं दिख रहे हैं.

अब वे कभी नहीं दिखेंगे.

सोचता हूं काश यह इस किस्से का अंत होता. इसी असमंजस जगह पर आकर कहानी खत्म हो गई होती.

लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जज सा’ब की कहानी अभी बाकी है, जिसके बारे में पहले ही यह डिस्क्लेमर लगा हुआ है कि इसका किसी जिंदा या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है. यह पूरी तरह काल्पनिक जगहों और पात्रों पर आधारित कथा है. और इसे पढ़ने से कोई कर्क रोग नहीं हो सकता.

यह संयोग ही था कि तीन दिन बाद मुझे विदेश जाना पड़ गया. पूरे तीन महीने के लिए और जब मैं वहां से लौट कर आया तो सुनील की दुकान उस जगह पर नहीं थी. उसके खोखे को वहां से म्युनिसपैलिटी वालों ने हटा दिया था. उस जगह एल.पी.जी. का पाइप डालने के लिए गड्ढे खोद दिए गए थे और बाहर कंटीले तारों की फेंसिंग तान दी गई थी. सड़क के पार जो एक लंबा-चौड़ा प्लाट खाली पड़ा था, और जहां कॉलोनी का कूड़ा-कचरा फेंका जाता था, जहां लावारिस गायें, सड़क के कुत्ते, सुअर और कौओं की भीड़ जुटी रहती थी, वहां ‘शुभ-स्वागतम बैंक्वेट हाल’ का बड़ा-सा बैनर लग गया था.

जज सा’ब के बारे में मेरी स्मृति कुछ धुंधली होने लगी थी. इतने दिनों तक दूसरे देश के दूसरे शहरों की यात्राएं और बिल्कुल दूसरी तरह की जिंदगी. फिर यह भी एक संयोग ही था कि मुश्किल से पांच दिनों के बाद मुझे अपने गांव जाना पड़ गया.

तीन महीने बाद मैं वापस लौटा और लौटने के एक हफ्ते बाद फिर से मुझे सुनील पानवाले की याद आई. याद आने की दो वजहें थीं, एक तो मेरे भीतर यह जानने की उत्सुकता थी कि उसकी पत्नी की तबीयत कैसी है और बच्चों की पढ़ाई कैसी चल रही है. दूसरी वजह ज्यादा महत्वपूर्ण और निर्णायक थी. वह यह कि मुझे किसी दूसरे पनवाड़ी के हाथ का लगाया पान खाने में वह स्वाद ही नहीं मिल रहा था जो सुनील यादव के हाथ के पान का था.

पान खिलाने के पहले सुनील दुकान के नीचे रखी बोतल से पहले पानी पिलाता था. ‘ल्यौ, पहले कुल्ला करके बिरादरी का पानी पियो फिर पान खाओ’ और फिर शुरू होती थीं उसकी धुआंधार गालियां.

वह भाषा मुझे सम्मोहित करती थी और मैं हमेशा सोचता रहता था कि कैसे इन गालियों को राष्ट्र-राज नव-संस्कृत भाषा ‘हिंदी’ के शब्दकोश और उसके साहित्य में सम्मिलित करूं. यह एक विकट-गजब की बेचैनी थी, जिससे मैं पिछले तीन दशकों से गुजर रहा था. जब भी कभी मैं ऐसी कोई कोशिश करता और अपनी किसी कहानी या कविता में, सतह के ऊपर के वाक्यों में या उनके भीतर के तहखानों में छुपे अर्थों में किसी गाली का प्रयोग करता, मुझ पर हमले शुरू हो जाते. हाथ आए काम छीन लिए जाते. अफवाहें फैला दी जातीं और मैं फिर सही समय का इंतजार करने लगता.

उस समय और उस मौके का इंतजार जब मैं खुल कर इन गालियों को अपनी रचनाओं में, एड़ी से चोटी तक बेतहाशा इस्तेमाल कर सकूं.

यही वह कारण था कि मैंने फिर से सुनील का नया ठिकाना खोज निकाला और उसके पास जा पहुंचा. वह अब सेक्टर तेरह में जा चुका था और म्युनिसपैलिटी तथा पुलिसवालों को कुछ घूस-घास देकर उसने पटरी पर इस नई जगह का जुगाड़ कर लिया था.

मुझे इतने समय के बाद देख कर वह बहुत खुश हुआ. मैंने उसकी बोतल का पानी पीकर कुल्ला किया. उसके हाथ का लगाया हुआ पान खाया. हमारा मजमा फिर जुड़ा. सब पहले की तरह ही थे. कुछ भी नहीं बदला था. सुनील की पत्नी को अब भी दमा था. उसे ठीक करने के लिए सुनील अब भी एलोपैथी, आयुर्वेद, जड़ी-बूटी, झाड़-फूंक, जादू-टोना, तंत्र-मंत्र का सहारा ले रहा था. उसके बच्चे अब भी स्कूल जा रहे थे. वह अब भी उसी तरह स्कूल, बस, पेट्रोल कंपनियों, सरकार, पुलिस सबको गालियां दे रहा था. इसी बीच कोई चुनाव हुआ था, जिसमें उसने अपनी जात के एक उम्मीदवार को वोट दिया था लेकिन अब उसे भी गालियां दे रहा था कि दुकान के लिए जब पटरी के ‘लाइसेंस’ की सिफारिश के लिए वह गया तो उस नेता के पीए ने उससे बीस हजार की घूस मांगी. वह गालियां देते हुए कसम खा रहा था कि अब आइंदा वह अपने किसी जात-बिरादरी के नेता को वोट नहीं देगा. सब साले चुनाव जीत कर चोट्टे हो जाते हैं.

उसकी गालियों पर हम सब अपने-अपने भीतर की गालियां, अपने-अपने हुनर से छुपा कर हंसते थे.

और तभी एक सुबह, जब सब हंस रहे थे मुझे जज सा’ब की अचानक याद आई. उनकी याद आने की वजह थी सुनील की गालियां सुन कर उनके ठहाके के साथ उनकी शर्ट पर पड़ने वाली पीक के लाल धब्बे और उस पर उनका चूना रगड़ना.

फिर मुझे उस रोज उनके गुमशुदा बेटे पार्थिव और उसे खोज निकालने की घटना की याद आयी. और तब मैंने सुनील से जज सा’ब के बारे में पूछा.

सुनील ने जो बताया, वही इस किस्से का आखिरी हिस्सा है.

मेरे विदेश चले जाने के बाद, यानी पार्थिव की बरामदगी के लगभग छह-सात दिनों के बाद, एक सुबह जज सा’ब सुनील के पास अपना वही पुराना सूट पहन कर आये थे और उन्होंने उससे कहा था कि अब उनकी जज वाली नौकरी फिर बहाल होने वाली है, जिसके लिए उन्हें कुछ रुपयों का इंतज़ाम करने झांसी जाना है. वे बहुत खुश थे और उन्होंने कहा था कि दस-पंद्रह दिनों में वे झांसी से रुपयों का इंतजाम करके लौट आएंगे.

उन्होंने सुनील पानवाले से छह हजार रुपये उधार मांगे थे.

सुनील के पास रुपये नहीं थे तो उसने कहीं किसी कमेटी से उठा कर, महीने भर के ब्याज की शर्त पर रुपये लेकर उन्हें छह हजार रुपये दिए थे.

जज सा’ब पंद्रह दिन तो क्या ढाई महीने तक नहीं लौटे थे. कमेटी वाला हर रोज ब्याज बढ़ाता जा रहा था और अब सुनील की गालियां जज सा’ब के लिए निकलने लगी थीं. जज सा’ब उसे अपना मोबाइल नंबर और झांसी के घर का पता लिख कर दे गए थे. लेकिन सुनील जब-जब उस मोबाइल नंबर पर फोन करता, उसका ‘स्विच आॅफ’ मिलता.

जज सा’ब भी चोट्टा था, साला. पनवाड़ी को ही चूना लगा गया. वह कहता, तो सारे लोग उसी तरह हंसते. अपने-अपने हुनर के भीतर अपनी-अपनी गालियों को छुपाते हुए.

फिर ब्याज पर ब्याज की राशि जब ज्यादा बढ़ गई और कमेटी वाले ने थाने में शिकायत कर दी और पुलिसवाले आकर उसका खोखा उठा कर थाने ले गए तो जज सा’ब की खोज में सुनील झांसी गया.

झांसी में जज सा’ब का घर खोजने में सुनील को आठ घंटे लग गए. बीच-बीच में उसे लोगों ने भी बताया कि यह पता शायद नकली है, जिसे सुन कर सुनील एकाध बार झांसी जैसे अनजान शहर में, जहां वह पहली बार ही गया था, रोया भी था और वहां भी उसने अकेले में भरपूर गालियां आंसुओं के साथ दी थीं.

झांसी में वैशाली का मजमा नहीं था, जो हंसता.

आखिरकार शहर से सात किलोमीटर दूर वह मोहल्ला मिला और वह घर, जिसका नंबर जज सा’ब ने सुनील को अपने पुराने लेटरहेड पर लिख कर दिया था. वह लेटरहेड पुराना था. उस समय का, जब वे जज हुआ करते थे. उस पर तीन मुंह वाले शेर का छापा ऊपर लगा था.

लेकिन उस घर में ताला लटका हुआ था. सीलबंद, सरकारी ताला.

सुनील के होश उड़ गए.

बहुत मुश्किल से एक पड़ोसी ने जो बताया, वह कुछ बहुत ही मामूली से वाक्यों के भीतर था. उसे बताते हुए पड़ोसी का चेहरा लकड़ी जैसा सपाट था. जैसे वह किसी कठपुतले का चेहरा हो.

‘यहां रहने वाले ने फेमिली के साथ सुसाइड कर लिया. दो महीने पहले. पुलिस ताला लगा गई है. अभी तक यहां उसका कोई रिश्तेदार नहीं आया.’

सुनील पहले तो स्तब्ध हुआ, फिर रोया और फिर उसने खूब गालियां बकीं, जिन्हें सुन कर उस सपाट चेहरे वाले कठपुतले को भी खूब हंसी आई, जिसे उसने अपने किसी हुनर के भीतर नहीं छुपाया.

सुनील ने अपने गांव जा कर अपने पिता जी, जिनके स्पाइनल के इलाज में उसने सत्तर हजार खर्च किए थे और जिनकी उसने आठ महीने दिन रात सेवा की थी, उनसे ड्योढ़े ब्याज की दर पर दस हजार का कर्ज, रोटरी के स्टैम्प वाले कागज पर हलफनामा लिख कर उठाया. उसमें से उसने साढ़े सात हजार कमेटी वाले को और दो हजार पुलिस और म्युनिसपैलिटी वाले को दे कर अपना खोखा फिर से पटरी पर लगाया.

यह बात बता कर सुनील ने फिर से अपनी गालियां शुरू कीं, जिन्हें सुन कर मैं हंसा और हमारे मजमे के सारे लोग हंसे लेकिन इस बार पान की पीक मेरी शर्ट पर गिरी और मैं सुनील से मांग कर वहां चूना रगड़ने लगा, जिससे वहां पीक के धब्बे न रहें.

अचानक मैंने देखा कि मेरी शर्ट भी, जिसे मैंने पहन रखा है, वह लगभग अट्ठाइस साल पुरानी है.

आपको याद होगा कि मैंने अपने और जज सा’ब की दो एडिक्शंस या लतों के बारे में बताया था, जिसकी वजह से हम एक-दूसरे से जुड़े हुए थे. एक पान और दूसरी खैनी. और तब मैंने कहा था कि अपनी और उनकी तीसरी लत के बारे में मैं कहानी के बिल्कुल अंत में बताऊंगा.

तो वह तीसरी लत या एडिक्शन थी जिंदगी.

हर हाल में जिंदा रहे आने की लत.

सुनील, वहां इकट्ठे होते लोग, सारा मजमा इसी ‘एडिक्शन’ का शिकार था, लेकिन जिस लत के कारण कोई कर्क रोग नहीं होता. यह खैनी-सिगरेट-गुटके की तरह जानलेवा नहीं है.

कामयाब

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इलेस्ट्रेशन:मनीषा यादव

हमारा घर उनके घर से सटा हुआ था. दोनों घरों के बीच दीवार थी जिसमें कोई खिड़की नहीं थी. काफी दिन सियासत में पापड़ बेल कर अब वे विधान परिषद के सदस्य बन गए थे. उनका एक पैर लखनऊ और एक इलाहाबाद रहता. दोस्ताना तबीयत पाई थी. अगर एक दिन को भी घर आते, हमसे जरूर मिलते. कई बार ऐसा भी हुआ कि दोपहर में हमारे ही घर पर एक लंबी झपकी मार कर आराम कर लिया.

दरअसल उनके ऊपर लखनऊ की बेगम कुछ इस कदर मेहरबान थी कि हाफिज भाई की अपनी बेगम हर दम तिनतिनाई रहतीं. बेगम लखनपुर ने पैसा खर्च कर उन्हें लखनपुर से विधायक बनवा दिया. हाफिज भाई लखनपुर खास से एक छोटा सा रिसाला ‘आवाज’ निकालते थे जिसकी बिना पर उन्हें पत्रकार मान लिया गया. बेगम लखनपुर जानती थीं कि दो चार नेता जेब में रख कर ही वे नाम कमा सकती हैं. उनके शौहर, नवाब लखनपुर, लंबे अरसे से, बाईं तरफ के फालिज की चपेट में थे. वे अपने कमरे में पड़े रहते या सुबह के वक्त पहिया कुर्सी में अपने बगीचे की सैर करते दिखाई देते. उनके शरीर का दायां हिस्सा ठीक था पर वे दिन भर में अपने दायें पांव और हाथ पर जोर डाल कर उस हिस्से को भी थका डालते. मालिशवाला दिन में दो बार आकर उनकी मालिश कर जाता लेकिन उनके अंग अंग में हर वक्त दर्द रहता. बेगम लखनपुर शौकीन महिला थीं. उन्हें किस्से, कहानियां, लतीफे और पुराने गाने सुनने का शौक था. हाफिज भाई ने उनकी यह नब्ज पकड़ रखी थी. आलम यह था कि अगर बेगम लखनपुर को रात में नींद न आती तो वे फौरन हुक्म करतीं, ‘हाफिज साहब को बुलाया जाय.’ नवाब बिस्तर पर लेटे लेटे कान खड़े कर लेते. उन्हें नींद बहुत कम आती और जब आती तो नींद से ज्यादा खर्राटे आते. जैसे ही खर्राटे टूटते, उनकी नींद भी खुल जाती. उन्हें घर में मेहमानों का या बाहरी आदमियों का आना पसंद नहीं था पर हाफिज भाई के आने पर वे नहीं भड़कते. हाफिज थे भी बड़े व्यवहार कुशल. सबसे पहले वे नवाब साहब के पास बैठ कर उनकी खैरियत पूछते, फिर मुहब्बत से कहते, ‘नवाब साहब क्या लीजिएगा, पानडली या सिगरेट?

हाफिज के पास चांदी की डिब्बी में मगही पान के बीड़े, जोड़े में लगे होते और जेब में 120 नंबर का जर्दा. जोड़ा पान मुंह में रखते ही नवाब साहब की तबीयत मस्त हो आती. इसके बाद दीवानखाने में हाफिज, बेगम लखनपुर के लिए, किस्सों की पिटारी खोल कर बैठ जाते. बेगम लखनपुर हंसते हंसते लोट पोट हो जातीं. कई बार के सुने हुए किस्से भी वे उसी शिद्दत से सुनतीं. आखिरकार हाफिज की आंखें झपकने लगतीं. वे उठ जाते, ‘चलते हैं बेगम साहिबा, शब्बा खैर’.

हमने भी हाफिज भाई से बेशुमार लतीफे सुन रखे थे. सुनाते वक्त वे खुद भी अपनी बात का खूब लुत्फ उठाते. उनकी बुलंद आवाज में मामूली बातें भी गैरमामूली लगतीं. शाम के वक्त कभी-कभी वे हमारे घर में व्हिस्की के दो एक पैग भी ले लेते. ऐसे दिन में वे अपने किस्सों में खुद को शहसवार बना लेते. वे भूल जाते कि एक बार पहले भी यह किस्सा दूसरी तरह से सुना चुके हैं. इंदिरा गांधी को लोकनाथ की जलेबी पसंद थी. यह किस्सा वे एक बार फिर शुरू कर देते जिसका अंत इस तरह होता,  ‘और आप यकीन करेंगे मैंने सुबह आठ बजे, अपने लोकनाथ भैरव जलेबीवाले को सात रेसकोर्स रोड पहुंचा दिया, कढ़ाई, पौनी, कनस्तर समेत.’ मैडम भौचक्की रह गईं, उन्होंने कहा, ‘हाफिज भाई आपका भी जवाब नहीं.’

ऐसे ही किसी लम्हे में उनके घर से बुलावा आ जाता. उनका मूड उखड़ जाता. वे झुंझला कर अपने होठों से हटा कर सिगरेट कुचल देते. वे कहते, ‘पता नहीं क्यों बेगम के सामने जाकर मेरी सारी शराब पानी बन जाती है.’

हाफिज की बेगम उनका विलोम थीं. कहने को तहमीना हमारी पड़ोसन थीं, उनसे हमारा मिलना जुलना नहीं के बराबर था. उनका ज्यादा वक्त अपनी बेटियों की या अपने रक्तचाप की देखभाल में कटता. बगल की घोबी गली में उनकी बहन सईदा रहती थी. खाली वक्त वे वहां काटतीं. हम इस मुहल्ले में नये आए थे. अल्पसंख्यकों से भरी इस बस्ती में हमारा ज्यादा जोर इस बात पर था कि हम सबको बता दें कि हम छाप-तिलक वाले हिंदू नहीं हैं और हमारा सबसे पसंदीदा शायर गालिब है तो सबसे अजीज गायक मुहम्मद रफी और तलत महमूद. दिलीप और मीना कुमारी हमारे दिल पर राज करते रहे हैं और इन दिनों हम कुरान पाक का हिंदी तर्जुमा पढ़ रहे हैं.

हाफिज हमसे कहते, ‘अमां तुम कट्टर नहीं हो यह साबित करने में अपनी जान क्यों हलकान करते हो. यह क्यों नहीं साबित करते कि तुम भी हम जैसे इंसान हो.’  हम उनकी बातों के कायल हो जाते.

इधर जब से मुल्क में आतंकवाद बढ़ा, हर विधायक को एक-एक अंगरक्षक मिल गया था. उसका काम था, परछाई की तरह विधायक के पीछे-पीछे रहना. हाफिज को भी शैडो मिला. जब वे इलाहाबाद आते, शैडो उनके साथ आता.

सुबह के वक्त हाफिज अपनी भारी भरकम आवाज में पुकारते, ‘शैडो भई अंदर जाकर देखो, चाय बन गई हो तो हमें भी ला दो और खुद भी पी लो.’

सभी विधायक अपने शैडो से खाना भी बनवाते. हाफिज कहते, ‘अरे ये पंडत हमें दाल भात के सिवा क्या पका कर खिलाएगा? खाना तो हम अपनी बेगम के हाथ का ही खाएंगे.’

उनकी प्यारी बेगम तहमीना के माथे की त्योरियां इस बात से जरा भी सीधी न होतीं. वह बावर्ची खाने में पसीना पोंछती हुई बड़बड़ातीं, ‘मुफ्त की नानबाई मिली हुई है इन्हें. खुद दुनिया जहां में घूमें, हमें बेटियों की आया बना कर डाल दिया है. ‘ उनके घर में पैसों की खींचतान नहीं थी. अक्सर तहमीना रानी मंडी के सुनारों की दुकानों पर दिख जातीं. अगर कभी हमारी नजर पड़ जाती वे फौरन कहतीं, ‘दो बेटियां ब्याहनी हैं, इनके लिए तो दो टोकरी जेवर भी कम पड़ेंगे.’

हाफिज दो एक दिन से ज्यादा घर में न टिकते. जाते हुए हमसे कहते, ‘घर के बिस्तर पर नींद नहीं आती. रेल की ऐसी आदत पड़ गई है कि गाड़ी में सवार होते ही सो जाता हूं.’

हाफिज की दोनों बेटियां, सना और सुबूही बेहद शोख और खूबसूरत थीं. सना इतनी गोरी थी कि उसके माथे की नीली नस हमेशा झलक मारती रहती. सुबूही भी आकर्षक थी लेकिन कुछ कम गोरी. सना चुप्पा थी तो सुबूही बातूनी. वह कहती, ‘पापा ममी सना आपा की चाहे जितनी तारीफ करते रहें, दुनिया की दौड़ में अव्वल तो मैं ही आऊंगी.’

उसकी इस तेजी का थोड़ा अंदाज हमें भी था क्योंकि वह अपने दोस्तों से बातचीत, अपने घर के फोन से न कर, हमारे घर के फोन से करती.

उसने मुझसे कहा,’आंटी अगर पूनम का फोन आए तो मुझे जरूर बुला दीजिएगा. बस छत पर से आवाज दे दीजिए, मैं फौरन आ जाऊंगी.’

कुछ दिनों की बातचीत सुनने के बाद मुझे यह अहसास हुआ कि जिसे वह पूनम का फोनकाल बताती थी, दरअसल वह पूनम के भाई का फोनकाल था. पूनम फोन मिला कर, अपनी आवाज मुझे सुना कर फोन अपने भाई क्षितिज को दे देती.

मेरा खयाल था हमें यह राज सुबही के मां-बाप को बता देना चाहिए. कुल दसवीं कक्षा में पढ़ने वाली बच्ची अपना भला-बुरा कैसे पहचान सकती है. लेकिन राजेश ने मुझे बरज दिया.

‘दूसरों की जिंदगी में झांकना गलत काम है. 16 साल की लड़की अपना भला-बुरा समझ सकती है. फिर हम पर भरोसा करती है जो टूट जाएगा.’ राजेश का तर्क था. मन ही मन कसमसाकर रह गई मैं.

अपनी तरफ से बस इतना किया कि कई बार जब पूनम का फोन आया तो झूठ ही कह दिया, ‘मैं अभी नहा रही हूं या बाजार जा रही हूं.’

घर से दूर और अलग रहते-रहते हाफिज आजाद परिंदे हो गए थे. वे बाहर खूब खुश रहते. उन्हें दारूलशफा में एक फ्लैट मिला हुआ था. लखनपुर में ‘आवाज’ दफ्तर के पीछे ही दो कमरों में उनकी रिहाइश का इंतजाम था. वे लगातार दौरा करते. बीच-बीच में इलाहाबाद आते लेकिन घर में मेहमान बने रहते.

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मनीषा यादव

उनसे मिलने वालों की तादाद काफी थी. सभी का सरकार में कोई न कोई काम फंसा रहता. हाफिज सबके साथ मुहब्बत से बोलते. काम हो न हो, फरियादी उनके पास खुश होकर लौटता. उनकी लोकप्रियता तहमीना के गले न उतरती. वह बेटियों को सुना कर कहती, ‘तुम्हारे पापा सारी दुनिया से प्यार से बोलते हैं, बस बीवी के ऊपर तोप ताने रहते हैं.’

सना, सुबूही चुप मार जातीं. उन्हें अपने पिता से कोई शिकायत नहीं थी. पिता के सिर पर उनके सारे ऐश-ओ-आराम थे. दोनों लड़कियां अपने हेयरकट के लिए लखनऊ के ‘शीलाज’ पार्लर में जातीं. हाफिज तरक्की करते-करते विधायक से सांसद बन गए और दिल्ली पहुंच गए. उन्हें फीरोजशाह रोड पर एक शानदार बंगला मिल गया. हमारे पड़ोस का उनका छोटा सा घर मंजिल दर मंजिल ऊंचा होता गया. उनकी बीवी अधेड़ होती गई, उनकी बेटियां जवान होती गईं.

हाफिज भाई की कामयाबी का चर्चा जिस वक्त चलता लोग पहले उनकी तारीफों के पुल बांधते, फिर आवाज दबा कर कहते, ‘उनकी पीठ पर लखनऊ की बेगम सलमा का हाथ रहा. उन्हीं की बदौलत उनका यह टूटा-फूटा खपरैला मकान आज तिमंजिली इमारत बन गया. लखनपुर खास की हवेली, सलमा बेगम ने पूरी तुड़वाकर नये सिरे से बनवाई. हाफिज भाई ने रातों-रात ट्रकों में भरवा कर सारा संगमरमर, फर्नीचर, यहां तक कि बाथरूम के हौज और टंकियां भी रानी मंडी पहुंचवा दीं. अंदर किसी को जाने की इजाजत नहीं है पर सुना है कि उनका मकान एकदम महल बन गया है.’

जितना यह सच था, उतना यह भी सच था कि इस महल में रानी और दो राजकुमारियां कैद में पड़ी बुलबुलें थीं.

तहमीना का अपनी बड़ी बहन सईदा के घर उठना बैठना था. सईदा के शौहर की तीन साल पहले तपेदिक से मौत हो चुकी थी. उसके दोनों बेटे मिल कर, धोबी गली में ही पतंगें बेचने का काम करते. इस काम में कमाई खास नहीं थी पर उनका दिल लगा रहता. सईदा को वहम था कि ज्यादा मेहनत वाले कामों में फंस कर कहीं नदीम और फहीम भी अपने बाप की तरह तपेदिक के मरीज न हो जाएं. नदीम और फहीम अपने हाल पर खुश थे. मुहल्ले के लड़के उन्हें छोटे मियां बड़े मियां कह कर इज्जत बख्शते और सलाम करते. शाम के वक्त वे अपनी दुकान पर कैरम के जवाबी मैच करवाते. मुहल्ले की लड़कियों की जासूसी करना, लखन पानवाले के अड्डे पर खड़े रहना और नये लड़कों को पतंग के दांव पेंच समझाना उनके अहम काम थे. उनकी पढ़ाई नवीं क्लास से आगे नहीं बढ़ पाई क्योंकि तभी प्रदेश भर में नकल विरोधी अध्यादेश जारी हो गया. नदीम और फहीम ने खत्री पाठशाला से दसवीं का परीक्षा फार्म तो जरूर भरा लेकिन ऐन इम्तिहान के दिन दोनों घर पर बैठ गए. मां को समझा दिया कि, ‘बड़ा खराब कानून पास हुआ है इस बार. हाल में बैठ कर जो दायें से बायें देखा तो हथकड़ी पड़ जाएगी. जमानत भी नहीं होगी, सीधे हवालात.’ सईदा आपा घबरा गईं. उन्होंने दोनों बेटों की बलायें उतारीं और कहा, ‘चलो हमें कौन सी नौकरी करवानी है, हमारे चिराग सलामत रहें.’

सईदा की हार्दिक अभिलाषा थी कि नदीम का ब्याह हाफिज की बड़ी बेटी सना से हो जाए. लेकिन एक तो सना नदीम से आठ माह बड़ी थी, दूसरे बीए के आखिरी साल में बैठने वाली थी. फिर तहमीना भी इस रिश्ते को नकार चुकी थी. उसका खयाल था सना का रिश्ता किसी शाही खानदान में होगा.

सना इस बार हमारे घर आई तो तिनतिना रही थी. उसने कहा, ‘आंटी, नदीम भाई ने हमारे ऊपर फतवा जारी किया है कि हम खुले मुंह यूनिवर्सिटी नहीं जा सकती. उनके हिसाब से हमारा हिजाब पहनना जरूरी है. दूसरे जींस पहनने पर भी पाबंदी लगाई है. आप बताइए आंटी आज के जमाने में इन दकियानूसी हिदायतों का क्या मतलब है. मैंने अम्मी से कह दिया जींस इतने मोटे कपड़े की होती है कि आराम से निकल जाते हैं. सबसे बड़ी बात ये, पाबंदियां लगाने वाले नदीम भाई आखिर होते कौन हैं? ‘

‘तुम्हारे रिश्तेदार हैं और तुम्हारी अम्मी इस रिश्ते को निभाती भी हैं.’

‘तो फिर अम्मी पर लगाएं न पाबंदी. पापा ने हमें कभी नहीं रोका. पापा कहते हैं चाहे जो करो बस पढ़ाई में अव्वल आओ.’

इन लड़कियों के पापा को कभी इतनी फुर्सत न मिली कि उनकी शादी की फिक्र करें. उनका बहुत सा वक्त संसद के सत्रों में बंधा रहता. बाकी वक्त उन्होंने बेगम लखनपुर के हवाले कर दिया.

सना और सुबूही और उनकी मां तहमीना के अपने-अपने  तहखाने बनते गए.

पहले मुहर्रम और चेहल्लुम पर ये मां बेटियां खाली वक्त में मर्सिये और नौहों का रियाज किया करती थीं. इन्हीं के इमामबाड़े से जुलूस उठा करता. जुलूस अब भी उठता लेकिन अब वे स्टीरियो पर मर्सिये का कैसेट लगा कर, खुद अंदर वाले कमरे में इकट्ठी बैठ कर पाकिस्तानी धारावाहिक देखती रहतीं.

हाफिज के आने पर तहमीना फिर पांच वक्त की नमाज पढ़ने लगतीं. हालांकि जांनमाज कहां पड़ा है यह ढूंढ़ने में काफी मशक्कत पड़ती.

अगर लड़कियों को यूनिवर्सिटी में देर हो जाती तो तहमीना घर आए शौहर को सफाई देतीं, ‘आजकल दोनों बहनें लायब्रेरी में बैठ कर पढ़ाई करती हैं. आप ही सोचिये, ऐसी मोटी-मोटी किताबें कैसे तो उठा कर लाएं?’

हाफिज भाई के आगे की खबर अक्सर पहले ही अखबारों में छप जाती. तरह-तरह के फरियादी घर के चक्कर काटने लगते.  फल, मेवा, मिठाई की डालियां पहुंचने लगतीं. लड़कियां अपने रंगबिरंगे कपड़े और जींस जैकेट, सब उठा कर रख देतीं और एकदम दकियानूसी सलवार कमीज धारण कर लेतीं.  तहमीना अपने बाल मेंहदी से रंग लेतीं. नसीबन और हाजरा तीनों ड्योढि़यों का रगड़-रगड़ कर पोंछा लगातीं.  दो दिन की मेहनत में उनका मकान इंस्पेक्शन बंगलों जैसा संवर जाता.

हम भी अपने कमरे के तख्त की चादर बदल लेते, बिखरे हुए एलपी समेट कर एक जगह चिन देते और स्टीरियो को झाड़ पोंछ कर चमका देते.

कभी कभी हाफिज भाई राजेश को समझाते, ‘अमा तुम अदीब हो, पत्रकार हो यह सब तो ठीक है. पर तुम्हें थोड़ा प्रैक्टिकल भी होना चाहिए.  अफसाने लिखने से पेट नहीं भरता, तुम्हें कोई रोजगार करना चाहिए. कल को घर में बाल बच्चे होंगे तो खर्चे बढ़ेंगे, जिम्मेदारियां बढ़ेंगी.’

राजेश के अंदर अपनी आलोचना सुनने की बरदाश्त बिल्कुल नहीं थी.  वह पलट कर कहता, ‘हाफिज भाई आप पैसे को बहुत बड़ी ताकत समझते हैं और कामयाबी को दौलत. मैं कलम की ताकत को इस सब से ऊपर मानता हूं.’

‘तुम्हारी उम्र में मेरे भी ऐसे खयालात थे पर हालात ने मुझे काफी सबक सिखाए. जब मैं सिर्फ खबरनवीसी करता था, मेरी बच्चियां दूध को तरस जाती थीं.  मैंने तभी तय कर लिया कि कामयाबी हासिल कर के रहूंगा.’  हाफिज हमें कामयाबी का ककहरा सिखाते.  राजेश तुनक कर कहता, ‘कामयाबी और तसल्ली के बीच मैंने तसल्ली चुनी है.’

‘तसल्ली बड़ी तकलीफदेह होती है.  आप पत्थर की तरह एक ही जगह में पड़े रह जाते हैं. बरखुरदार अपनी पिटारी से बाहर निकल कर देखो, दुनिया किस रफ्तार से बढ़ रही है.  ‘ऐसे बहस वाले दिन हमें नागवार लगते.  हाफिज अपने आप को बेहद कामयाब इंसान मानते. उनकी नसीहत पर तहमीना ने यह टोटका अपना रखा था कि जब भी वे घर आते, वह तेल का भरा, चौड़ा कटोरा उनके सामने पेश करती. वे तेल के कटोरे में झांक कर अपना चेहरा निहारते और आंख बंद कर एक दुआ बुदबुदाते. उसके बाद कटोरे का तेल किसी फकीर को दे दिया जाता. अगर कभी हाफिज भाई को खांसी भी हो जाती, उनकी बेटियां कहतीं, ‘हमारे पापा को दूसरों की नजर झट से लग जाती है.’

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मनीषा यादव

सना और सुबूही लखनऊ जाकर शीलाज ब्यूटी पार्लर में अपने बाल सेट करवातीं. उनकी सलीके से तराशी गई भवें और रोमरहित रेशमी बांहें जता देतीं कि वे अपने रखरखाव पर काफी धन और समय खर्च करती हैं. दो एक बार उनके शैक्षिक प्रमाणपत्र और अन्य कागजात सत्यापित करते समय मैंने देखा था कि पिता की मासिक आय के कॉलम में वे मात्र 1000 रु लिखतीं, विधायक की यही निर्धारित आय होती होगी. इतनी आय में हाफिज दो घरों और दो बेटियों का खर्च कैसे उठा रहे थे जबकि इतने पैसों में एक घर चलाना भी आसान नहीं था. ये और कुछ अन्य सवाल ऐसे थे जो हमेशा हवा में लटके रहते.  ये पूछे नहीं जा सकते थे. इनमें लोगों के दिमागी मिर्च-मसाले मिल जाने पर तरह-तरह की अफवाहें पैदा होतीं. एक अफवाह थी कि लखनपुर खास की हवेली टूटने के वक्त वहां का शाही खजाना हाफिज के हाथ लग गया, उसी के जलवे नजर आते हैं. दूसरी अफवाह थी कि हाफिज की बेगम तहमीना की मां ने अपने गाने-बजाने की तमाम कमाई अशर्फियों की शक्ल में अपनी दोनों बेटियों को बांट दी, उसी की बरकत दिखाई दे रही है. रानी मंडी की खासियत यह थी कि वहां मकान और परिवार के साथ कोई न कोई पुराना किस्सा नत्थी था. यहां के बाशिंदे अपने बाप-दादा की शान बान के किस्सों के सहारे अपनी मौजूदा बदहाली काट लेते. बहुतों को यहां नवाब कह कर पुकारा जाता जबकि इस गली में कोई नवाब परचून की दुकान चलाता तो कोई चाय बिस्कुट की.

अच्छे भले हम यहां रह रहे थे कि एक दिन हमें खबर मिली कि हमारे मकान का मालिक बदल गया है. हमारे मौजूदा मकान-मालिक ने यह मकान मय किरायेदार अपने एक दत्तक-पुत्र ओमप्रकाश के नाम कर दिया. उन्होंने अपने बीवी-बच्चों को उपेक्षित कर यह वसीयत कर डाली क्योंकि उनकी बीमारी में बीवी-बच्चे उनके काम नहीं आए जबकि ओमप्रकाश उन्हें हर पल हाजिर मिला. वसीयत के चंद महीनों बाद ही मकान-मालिक की मौत हो गई.

अगले ही हफ्ते ओमप्रकाश ने हमें मकान खाली करने का नोटिस दे डाला.  अच्छा नहीं लगा. हमने तय कर लिया कि हम यहां नहीं रहेंगे. कुछ ही दिनों की दौड़धूप से शहर की घिचपिच से हटकर एक बेहतर मकान हमें मिल गया.  यह घर बड़ा और हवादार था. सामने पब्लिक पार्क था और पीछे गंगा का कछार. बाजार कुछ फासले पर था पर फेरीवाले और ठेलेवाले भी दिन भर गुजरते. कुछ एक आदतें हमारी ऐसी थीं जो हमें पुराने घर की याद दिला देतीं. नये बाजार में मिलने वाले मसाले हमारे मुंह नहीं लग रहे थे. हमें अपने पुराने बाजार का गरम मसाला और पिसा जीरा याद आ जाता, कभी वहां के पापड़ और बड़ी की हुड़क उठती. हम तय करते एक दिन चौक जाकर यह सब लाया जाय.

ऐसे ही एक दिन जब हम चौक में खरीदारी कर रहे थे हमारा मन हुआ हाफिज भाई के यहां चला जाए. अपना पुराना घर देखने की भी ललक थी.  राजेश बोले, ‘आजकल संसद का सत्र नहीं है, हो सकता है हाफिज भाई आए हुए हों. ‘

मेरी मुखमुद्रा ताड़ कर उन्होंने जोड़ा, ‘नहीं हुए तो बस दुआ सलाम कर खिसक लेंगे. ‘

हम बड़े चाव में अपने मुहल्ले की तरफ मुड़े. नुक्कड़ के पानवाले लखन के यहां ही हमें नवाब दिख गए.  वे पान की गिलौरियां अपनी डिब्बी में सजा रहे थे.

‘आज कैसे रास्ता भूल पड़े” उन्होंने कहा.

‘कई बार सोचा, आना ही नहीं होता. सब खैरियत तो है न?’

‘मत पूछिए, आपका मकान तो बिजलीघर वाले कबाड़ी ने खरीद लिया. आजकल उसे पूरा गिरवा कर वहां मार्केट बनवा रहा है.’

हमारा जी धक से रह गया. पता नहीं क्यों हम सोच रहे थे वह वैसा का वैसा हमें मिलेगा, बस उसके छज्जे पर किसी और के कपड़े सूखते होंगे.

इसका मतलब यह हुआ कि हमारे खाली करते ही हमारे मकान मालिक के दत्तक पुत्र ने इसे हाथोंहाथ बेच डाला.

मन उखड़ गया. सोचा वापस चले जाएं, लेकिन नवाब हमें इसरार के साथ गली में ले आये, ‘हाफिज भाई भी आये हुए हैं आजकल, उनसे तो मिलते जाइए.’

जहां हमारा घर था वहां मशीनों से बहुत गहरा गड्ढा बनाया हुआ था. गली में चारों तरफ मलबा और गंदगी दिखा रही थी. हाफिज भाई की ड्योढ़ी पर एक सुरक्षाकर्मी कार्बाइन लिए तैनात था.

हम अंदर घुसने लगे ही थे कि उसने रोका. साथ का सामान अपने पास के रैक पर रखवाया तब आगे बढ़ने का इशारा किया.

अगली ड्योढ़ी में वही शैडो खड़ा मिला. उसने हमें पहचान कर नमस्ते की और कमरे के द्वार तक ले आया.

हाफिज, तीन-चार आगंतुकों से घिरे हुए थे. दिन के वक्त भी कमरे में तीन ट्यूबलाइट जल रही थीं. इतने रोशन कमरे में हाफिज भाई बुझे हुए लग रहे थे.

‘आइए भाभी, आइए राजेश भाई’ कह कर उन्होंने इस्तेकबाल तो किया लेकिन उनके चेहरे पर कोई चमक नहीं आई. आगंतुकों से वे गर्दन की हरकत से बतियाते रहे.

उनके चले जाने तक हमारा भी इरादा उठने का हो गया.

मैंने कहा, ‘मैं जरा अंदर जाकर बहनजी और बच्चों से मिल लूं.’

हाफिज ने जल्दबाजी में कहा, ‘लड़कियां तो मुंबई चली गई हैं. पढ़ाई करने और बेगम सईदा आपा के यहां गई हैं.

अरे सना-सुबूही दोनों चली गईं. कौन सा कोर्स पढ़ रही हैं वहां?

‘हमें कहां, याद रहता है. इतने मसले याद रखने पड़ते हैं. आप बताइये, कैसे आना हुआ? हाफिज भाई ने थोड़ी अधीरता दिखाई.

‘कुछ नहीं बस यहां से गुजर रहे थे तो आपका ख्याल आ गया.’  ‘बताइये साहब, दो साल में आपको एक बार हमारा ध्यान नहीं आया और आज आप चले आ रहे हैं कि हमारा खयाल आ गया.’

अब तक राजेश भी थोड़े खिंच गए, ‘मैं भी हैरान हूं कि मुझे कैसे खयाल आया.’

हाफिज भाई ने अपनी कुर्सी से उठाने की कोशिश की. वे उठ नहीं पाए. उन्होंने आवाज लगाई, ‘शैडो.’

शैडो ने अंदर आकर उन्हें खड़ा किया. उन्होंने शैडो से पूछा, ‘और कोई फरियादी है बाहर?’

‘जी नहीं.’

शैडो की मौजूदगी में ही हाफिज ने हमसे कहा, ‘कहिये आपकी क्या खिदमत करें. आपको अपना तबादला या तरक्की करवानी है तो कागज दे जाइए. बच्चे का दाखिला  हो तो अगली बार मिलना मुनासिब होगा. और भी दो एक केसेज हैं.’

राजेश का मूड पूरी तरह उखड़ चला.

‘हमें अफसोस है हम अपने पुराने दोस्त से मिलने चले आए. आप तो कोटा, परमिट, तबादला, तरक्की के दलदल में फंस गए हैं’

‘मियां देखना पड़ता है, हर तरफ देखना पड़ता है.’ हाफिज शैडो की तरफ मुखातिब हुए,  ‘हम आराम करने जा रहे हैं, कोई आए तो कहना हम घर पर नहीं हैं.’

खिन्न मन से हम बाहर आए. ‘बड़े बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले’ जैसे शेर की चोट समझ आ गई. पुराने घर के खुदे हुए गड्ढे की तरफ जरा भी न देख कर हम गंदगी से बचते-बचाते चलने लगे.

धर्मशाला के सामने वाले घर से नवाब साहब की आवाज आई, ‘हमारे गरीबखाने को भी रौशन करें भाईजान’

हम ठिठक गए. नवाब बड़े इसरार से हमें अंदर ले गए. शरारा कुरती के ऊपर शोख सुर्ख दुपट्टा ओढ़े उनकी बेगम, बारां ने हमें आदाब किया और चाय बनाने चली गईं.

नवाब साब ने हमारी नस पर उंगली रख दी, ‘एमपी साहब से मुलाकात हो गई?’

राजेश के मुंह से निकाला, ‘एमपी होकर क्या इंसान इंसान नहीं रहता! वे तो पहचान में नहीं आए.’

‘उनके ऊपर जलजला हो कुछ ऐसा आया. आपको पता है राजेश भाई, उनकी दोनों बेटियां घर छोड़ कर चली गईं.’

अब चौंकने की बारी हमारी थी, ‘अरे, कब, कैसे, कहां?

सुबूही का तो किसी से अफेयर था, ‘मेरा इतना बोलना था कि राजेश ने मुझे घुड़का, ‘तुम्हे बीच में जरूर बोलना है. नवाब साब, बड़ी हैरानी की बात है, इतने पहरे के बीच से लड़कियां चली गईं. हाफिज भाई कह रहे थे वे पढ़ाई करने मुंबई गई हैं.’

‘और क्या कहें. उनकी इज्जत का तकाजा है चुप रहें. उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट तक नहीं लिखवाई.’

तभी बारां चाय की ट्रे लेकर आ गईं. साथ में वेबे, मिठाई और नमकीन था.

बारां ने कहा, ‘सना तो संजीदा लगती थी, सुबूही के रंग-ढंग अजीब थे. मैंने तो एक बार तहमीना आपा से कहा भी था पर वे उलटे मुझ पर ही बिगड़ने लगीं.’

‘हमारे यहां भी उसके फोन आया करते थे’, मैंने कहा. ‘फोन आने से कोई भाग नहीं जाता’,  राजेश ने टोका. ‘उसकी अलग दास्तान होगी.’

नवाब साब ने कहा, ‘देखिये भाईजान जब बाप घर से दूर रहे और मां बावर्चीखाने में, तो बच्चों के भटकने में देर नहीं लगती. कई बार हमारे घर भी ये लड़कियां आतीं. बेगम से कहतीं, ‘आप कितनी खुशकिस्मत हैं बिना पर्दे आती-जाती हैं. हमारे ऊपर तो बंदिशें ही बंदिशें हैं.’

‘लेकिन बंदिशें उन्होंने मानी कहां. सना का तो पता नहीं पर सुबूही-’ जैसे ही मैंने इतना कहा राजेश फिर बमक गए, ‘तुम बीच में फतवे क्यों दे रही हो, क्या जानती हो तुम उनके बारे में?’

बारां ने कहा, ‘आपा तो अपना खयाल बता रही हैं. हम सब हैरान हुए. मुश्किल यह है कि हाफिज भाई इस हादसे की पूरी जिम्मेवारी आंटी पर डाल रहे हैं.’

‘एक तरह से बनती तो है. आखिर बेटियां उन्हीं के पास रहती थीं.’

‘आंटी की तबीयत बड़ी खराब रहती थी. वे बेचारी रात को नींद की गोली लेकर सो जातीं. उन्हें क्या पता बेटियां क्या कर रही हैं?’

‘क्या हो गया उन्हें?’

‘एंग्जायटी न्यूरोसिस,’ बारां ने बताया, ‘उन्हें हर वक्त दो फिक्रें खाए जातीं. पहली यह कि उनके शौहर दूसरी शादी न कर लें, दूसरी यह कि इन लड़कियों की शादी कैसे होगी.’

‘इतनी खूबसूरत और जहीन लड़कियों की शादी में क्या दिक्कत थी?’

‘आप नहीं जानते, हमारे सैयदों में पढ़े लिखे, नई रौशनी वाले लड़के ढूंढ़ना आसान नहीं, ऊपर से हाफिज भाई की मसरूफियत. भाभी साहब को हर वक्त तनाव रहता.’

‘मुंबई कोई इतनी दूर भी नहीं, वहां जाकर पता किया जा सकता है’.

सब किया राजेश भाई पर कोई सुराग नहीं मिला फिर मुंबई तो लड़कियों के मामले में मगरमच्छ है.’

बारां ने धीरे से कहां, ‘यह भी पक्का नहीं पता कि सन्ना और सुबूही मुंबई गईं या कहीं और?’

बड़े भारी मन से हम वहां से वापस आए. मेरे मन में रह-रहकर यही सवाल टक्कर मारता रहा, हाफिज भाई अपने को क्या समझते होंगे, कामयाब या गैर- कामयाब इंसान!

बाशिंदा/तीसरी दुनिया

इलेस्ट्रेशन:मनीषा यादव

वह जब हमारी क्लास में पहली बार आया था तो उसे हमने किसी दूसरी दुनिया का बाशिंदा समझा था. मतलब एलियन जैसा कुछ- हमउम्र बच्चों में सबसे छोटा कद, काला रंग (हालांकि इससे हमें एतराज नहीं था क्योंकि क्लास में कई बच्चों का रंग काला था, मगर उसका काला कुछ अलग था, चिक-चिक करता-सा, जैसे करैत सांप अचानक गुजर गया हो आपके सामने से और बस जरा-सी झलक देख ली हो आपने) पर सबसे ज्यादा एतराज जिस चीज से हमें था और जो सबसे ज्यादा लुभावनी भी लगती थी वह थी उसकी मोटी-सी चुटिया. उस जमाने में भी जबकि बच्चे कैसे-कैसे बालों की डिजाइन बनवाने लगे थे उसमें वो उसकी चुटिया बड़ी आकर्षक लगती थी हमें. कभी कलम उठाने, कभी पैसा उठाने और कभी कॉपी लेने के बहाने हम उसकी चुटिया खींच लेते थे. पर उसने कभी प्रतिवाद नहीं किया- सिर्फ उह! करता और मुलुर-मुलुर देखता था.

दूसरी दुनिया का बाशिंदा होने की धारणा और पुख्ता तब हो गई जब संस्कृत टीचर (जिन्हें वह गुरुजी कहता था) को संस्कृत के श्लोकों का सस्वर पाठ करके चमत्कृत कर दिया था और वह बोल पड़े थे – वाह बटुक! वाह! और हम लोगों की तरफ हिकारत से देखते हुए बोले- सीखो कुछ! इसे कहते हैं संस्कार! डेहंडल सब कहीं का! इस पर बटुक और उत्साहित हो गया और संस्कृत टीचर के पैरों को छूकर प्रणाम किया उसने. इस पर गुरुजी और गदगद! – आह ह! शतं जीवेत ! कहकर पूरे मन से आशीर्वाद दिया और हमारी ओर जहर बुझी नजरों से देखा जैसे कि वह हमेशा देखते ही रहते थे. उसी दिन से बटुक से (ये नाम नहीं था उसका जबकि हम शुरू से यही समझते थे. नाम तो आत्मप्रकाश झा जैसा कुछ था पर हम ‘करेला झा’ बुलाते थे जिसके लिए हमारे पास युक्तिसंगत कारण थे) हमारी स्थायी दुश्मनी हो गई थी. वैसे यह दुश्मनी एकतरफा ही थी क्योंकि वह तो बस निरीह भाव से मुस्कुराता रहता था. हम कुछ भी, कैसे भी बोलें बस वही मुस्कान, और इससे हम और चिढ़ जाते थे. फुटबॉल खेलने के दौरान जो हमारे लिए दुश्मनी निकालने का एक बड़ा अवसर था वैसे लड़कों से जिन्हें हम पीटना चाहते थे, हमें कभी मौका नहीं मिला क्योंकि वह खेलता ही नहीं था, बस मैदान के चारों ओर ‘इवनिंग वॉक’ जैसा कुछ करता रहता था. निशाना लगाकर उसकी तरफ मारे गए फुटबॉल से कभी चोट लग भी गई तो बस मुस्कुराकर बॉल हमारी तरफ फेंक देता था और फिर ‘इवनिंग वॉक’ करने लगता. हद तो तब हो जाती थी जब कभी वह मेरे घर पहुंच जाता शाम को. मेरे पिता उस वक्त घर पर होते थे और हम पढ़ने की तैयारी (झूठमूठ ही) करते होते थे. मेरे पिता का प्रिय शगल था ट्रांसलेशन पूछना – तो बताओ तो बाबू – ‘मैं जाने को हूं’, का क्या होगा? हमारे सोचने-बोलने से पहले ही वह गोल-आंखें करके टप से बोल देता. ‘देखो कितना अच्छा लड़का है एक तुम हो, ऐं-ऐं करते रह गए.’ हम जलती नजरों से उसको धमकाते मगर वह नजरें झुकाए मुस्कुराता रहता. अब आप ही सोचिए ऐसे में गुस्सा भला किसे नहीं आएगा.

उसका टिफिन देखता तो हमें उल्टी आ जाती थी. हर दिन वही रोटी और करेले की भुजिया, जिसकी पौष्टिकता एवं रोग विनाशी गुणों के बारे में बाकायदा हमें समझाने की भी कोशिश करता था. उसी करेला खाने की प्रतिभा से पूरे क्लास को चमत्कृत कर दिया था- एक दिन जब एक कच्चे करेले को बिना एक बार भी मुंह बिचकाए कचर-कचर करके खा गया था वह. हमें तो सोचकर ही उल्टी आ रही थी. ऐसी विकट प्रतिभा के कारण ही हमने उसे ‘करेला झा’ बुलाना शुरू कर दिया. अब आप ही बताइए नाम का कारण युक्तिसंगत था या नहीं. तो करेला झा तीन भाइयों में बीचवाला था. बड़े और छोटे के नाम भी लंबे-लंबे थे हमें याद नहीं रहते थे तो हम उन्हें बड़ा करेला और छोटा करेला कहते थे.  तीनों लेकिन पढ़ाई-लिखाई में जिसे कहते हैं ‘बिक्ख’. हम लोग पता करने की कोशिश करते थे कब कैसे पढ़ते हैं लेकिन एजी कॉलोनी की दीवारें-खिड़कियां-दरवाजे कुछ बताने को तैयार ही नहीं. करेला झा के पिता भी एजी ऑफिस में ही थे और हमारे पिताओं की बातचीत से पता चला था हमें कि  ‘बड़ा काबिल बनता है झाजीवा पूरा माहौल खराब कर दे रहा है. जादे हरिशचंदर है तो बैठे घर में, एजी में क्या कर रहा है. आजकल सूखल तनखा में चलता है कहीं?’ हमें लगा था कि शायद झा परिवार की प्रतिभा का स्त्रोत करेले में हो. एकाध बार कोशिश भी की परीक्षा के समय करेला-भक्षण की मगर बेकार. लेकिन उस दिन भ्रम टूटा हमारा जब खिड़की से हमने झा परिवार की बातें सुनीं. करेला झा के पिता करेले के अनश्वर-अविनाशी-अविकारी गुणों के बारे में बता रहे थे. मगर बड़ा करेला और छोटा करेला इससे इत्तेफाक नहीं रख रहे थे,  ‘घर में होता है तो रोज खाएंगे?’ दूसरी सब्जियों के अवगुणों पर रोशनी डाल रहे थे कि गोभी वायुविकार देता है और आलू चर्बी बढ़ाता है, दिमाग को भोथर करता है वगैरह-वगैरह. मगर दोनों के प्रतिरोधी स्वर हवा में थे. नहीं था तो सिर्फ हमारे करेला झा का स्वर. उत्सुकतावश रसोईघर की खिड़की से हमने झांका तो बरामदे पर हमारा करेला झा निर्विकार भाव से करेले की सब्जी के साथ चावल खा रहा था. उसी भुवन मोहिनी मुस्कान के साथ और बाहर किचन गार्डन में बहुत-सी करेले की लतरें हंस रही थीं जोर-जोर से. अद्भुत प्रतिभा वाले उसके पिता को साइकिल पर दफ्तर जाते देख हम खिसक लिए थे. अद्भुत प्रतिभा इसलिए कि उसके पिता को बहुत सारे कामों में महारत हासिल थी. जैसे कभी भी हमने उसके घर में टूथपेस्ट-ब्रश का इस्तेमाल होते नहीं देखा. नीम के दतवनों का एक छोटा गट्ठर हमेशा पड़ा रहता उसके यहां जो उसके पिता एकदम समान साइज में काटकर बनाते थे. नाई कभी नहीं आता था, वो लोग नाई के यहां भी नहीं जाते, सारे बच्चों के बाल उसके पिता खुद सफाई से काटते थे. कॉपी के बचे हुए पन्नों से एक सुंदर कॉपी तैयार कर देना, डिग-डिग, ढब-ढब बोलने वाले खिलौने बना देना जिसमें कोई प्लास्टिक या टीन का डब्बा, थोड़ी रस्सी और लकड़ी के टुकड़ों का इस्तेमाल होता था. बिना साबुन-क्रीम की ही दाढ़ी बना लेना, एक ही थान कपडे़ से खुद के एवं बच्चों के कपड़े बनवा लेना (सारे कपड़े अंत में हमारे करेला झा के ही हिस्से में आते थे क्योंकि बड़े करेले और छोटे करेले की उम्र एवं कद दोनों बढ़ जाते थे बस हमारे करेले की सिर्फ उम्र बढ़ती थी). पायजामा रूपांतरित होकर झोले में बदल जाता था. पैकिंग बक्सों से बुकशेल्फ, पढ़ने की मेज-कुर्सी बना लेना सब उसके पिता कर लेते थे – खुद अपने हाथों से. साबुन वगैरह को फिजूलखर्ची समझते हुए गंगा मिट्टी जिसे वे मृत्तिका कहते थे, रगड़-रगड़कर खूब नहाते थे. एजी कॉलोनी मे उन दिनों खूब पानी आता था और निःशुल्क था. गंगा-मिट्टी (मृत्तिका) का एक बड़ा ढेर बगीचे के एक किनारे पड़ा रहता था जिसमें समय-समय पर उसके पिता, घर मतलब अपने गांव से लाकर ढेर की वृद्धि करते रहते. एक दिन अलसुबह कॉलोनी के सारे डेहंडल लड़कों की नींद अपने-अपने पिता की फटकार से खुली जो पानी पी-पीकर कोस रहे थे अपने पुत्रों को ‘सात बजे तक सोया रहेगा तो का करेगा जिनगी में, ’ ‘सीखों झा जी के बेटा लोग से,’ ‘बिना एक भी ट्यूशन के आईआईटी में निकल गया,’ ‘यहां हर सब्जेक्ट का ट्यूशन …नालायक सब !’ ओह हो ! तो हमारे इस सामूहिक अपमान की जड़ में करेला झा का परिवार था. हर मां-बाप के स्वप्नद्वीप का रास्ता जो ढूंढ़ लिया था बड़े करेले ने. करेला झा और छोटा करेला क्लासों में फर्स्ट करते हुए बढ़ते रहे और कॉलोनी में नालायकों को डांट सुनवाते रहे. यहां तक कि एक दिन छोटा करेला भी युगधर्म वाली नौकरी मतलब मैनेजमेंट की तरफ निकल लिया. इसके बाद से हमारा करेला झा थोड़ा कम मुस्कुराने लगा. बड़ा करेला एक स्वनामधन्य कंपनी में बड़े पद पर पहुंच गया और छोटा करेला भी विदेश मुखी हुआ पर हमारा करेला हमारे साथ रहा और इसका हमें घोर आश्चर्य भी था. बैंकिग, यूपीएससी, बीपीएससी, एसएससी तरह-तरह के ठीहे थे, हमारी गर्दन कई बार कट चुकी थी. वो एजी मोड़ की चाय दुकान पर चाय -सिगरेट के दिन थे और ज्योतिषियों के यहां सलाह लेने के. ऐसी ही एक निकम्मी दोपहरी को हमारे करेला ने कहा, ‘जानते हो, मेरी कुंडली में केमद्रुम योग है. ‘अच्छा ! क्या होता है इससे?’ –प्रश्न कुंडली थी मंडली की – ‘सब कुछ रहते हुए भी आदमी खूब सफल नहीं होता’. हमने सामूहिक रूप से मान लिया हम सबकी कुंडली में भी केमद्रुम योग जरूर होगा. सिर्फ झूलन नहीं माना. उसने कहा, ‘तुम्हारा तो आलरेडी करेलाद्रुम योग है ही.’ पांचू की चाय-सिगरेट फिर उधार में पी गई. वह भी हमारे आश्वासन पर यकीन करता था कि नौकरी लगते ही दस गुना चुकाया जाएगा. वैसे कभी-कभी हाथ आने पर कुछ दे भी दिया जाता था. ऐसा कोई कमिटमेंट न तो हमारे करेला ने किया था न उसके हाथ में कुछ रहता था जो देता. अलिखित समझौता यह भी था कि वह हमारे पिताओं को हमारी चाय-सिगरेट के बारे में नहीं बताएगा और हम भी एजी के किसी कर्मचारी को उसके संध्याकालीन गांजे के धंधे के बारे में नहीं बताएंगे. करेला खूब सुड़क-सुड़क कर पूरे चालीस मिनट में एक गिलासिया चाय पीता जैसे पूरा रस चूस ले रहा हो और हम जब नौकरियों में खूब पैसा कमाने की बात करते तब वह हमें प्रवचन देता -‘ पैसे की आवश्यकता आदमी को एक सीमा तक ही पड़ती है. यह सिर्फ एक मानसिक आवश्यकता है. असल चीज है आत्मा का उन्नयन.’ अपने भाइयों का उदाहरण देता – ‘बड़े भैया को देखो, देसी कारपोरेट की नौकरी कर रहे हैं. भगवान ने सब कुछ दिया मगर अपने पिता को ही नहीं देख पा रहे. दिन रात बस भी मीटिंग-पैसा और छोटा- विदेशी कारपोरेट का दास – बस लैपटॉप और मीटिंग.’

‘तुम भी तो नौकरी करना चाहते हो, बथुआ कबाड़ना?’ झूलन ने

प्रश्न जड़ा.

‘सरकार और देश की सेवा और आत्मसंतुष्टि’, भुवनमोहिनी मुस्कान के साथ कहा करेले ने.

‘भोरे से कोय मिला नै है? आत्मसंतुष्टि! – जय हो आत्मा बाबा!’ झूलन बोला .

‘शॉर्ट में – एटीएम बाबा की जय,’ मेरी टीप थी.

एटीएम में एक ‘ए’ जुड़ता है यानी आत्मा का आलोक तभी आत्मा …. हम सबने एक साथ मिलकर करेले को धकिया दिया था पांचू की दुकान से.

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मनीषा यादव

आखिर केमद्रुम योग भी कितने दिन पीछा करता हमारा. उसकी नजर जरा-सी इधर-उधर हुई कि हम अंतिम सवारी की तरह नौकरियों के पायदान पर लटक गए. झूलन और करेला ग्रामीण बैंक में और मैं एक ऐसे विभाग में जहां हवा में शब्दों और आवाजों की खेती होती थी. हम लोग स्ट्राइकर लगने पर कैरमबोर्ड की गोटियों की तरह बिखर चुके थे और अपने-अपने पाकेट्स के गड्ढ़ों में गिर चुके थे लंबे समय के लिए.

कई बरस बाद फेसबुक पर झूलन का अता-पता ढूंढ़ते हुए जब एक फोटो पर नजर पड़ी तो – ये तो अपना करेला लग रहा है लेकिन बाल ऐसे सन की तरह सफेद! चेहरा तो वही है जिसे देखकर स्कूल के ही शिक्षक रामसिंगार झा कहते थे, ‘कियो झा जी! करिया बामन गोरा शूद्र, तकरा सॅ कॉपे ब्रहमा- रूद्र.’ सभी हंस पड़ते थे मगर हमारे करेला के चेहरे पर वही भुवनमोहिनी मुस्कान रहती. मगर इस फोटो में मुस्कान गायब थी. आंखें थोड़ी जलती-सी थीं, कुछ असामान्य. क्या हुआ होगा ? झूलन से ही पता लगेगा. कुछ चैट कुछ फोन, कुछ एसएमएस के जरिए जो मालूम हुआ वह … साथ में झूलन की टीपें भी…

‘वहां तक तो तुमको मालूम ही है. हम लोग ग्रामीण बैंक में लग गए थे अगल-बगल के गांव के ब्रांच में. शुरू में एक साथ ही खूंटी तक जाते थे. फिर वह अपने ब्रांच हम अपने. लेकिन कुछ ही दिन में करेला गायब -मतलब मालूम हुआ वह वहीं रहने लगा. शादी हो गई थी. एक बच्चा भी – इसमें भी कंजूसी की  (झूलन की टीप). पत्नी से कहा – बाबूजी मां की सेवा के लिए तुम वहीं रहो हम यहां सरकार की सेवा करते हैं. एक बार भेंट हुई थी भाभी जी से. बड़ी उखड़ी-उखड़ी थी – ‘महीना में भी एक बार नहीं आते. कितना दूर है रांची से खूंटी? कहते हैं खर्च करने से क्या फायदा? क्या-क्या जोड़ते रहते हैं – एफडी, आरडी, पैसा भी कभी-कभार ही… मतलब बाबूजी के पेंशन से ही समझिए घर चलता है. जमा करने का हवस हो गया है. हेड ऑफिस जाता रहता हूं तो मालूम है – हमारे करेला झा के नाम से ही लोग मुस्कुराने लगा – पूरा सैलरी एफडी, आरडी..’

‘और दाना-पानी ?’ मेरा स्वाभाविक सवाल था.

‘अरे गांव में ही किसी लोनी के यहां सुबह पहुंच गया. कभी अमरूद, कभी पपीता, कभी कटहले. दिन भर निश्चिंत. रात में भात डभका लिया आलू के साथ. ब्रांचे में दू टेबल जोड़ के सो जाता है – भोरे निकल जाता है खेत के तरफ फिर नहा धो के ड्यूटी.’

‘करेलवा पगला गया क्या?’ फोटो से तो ऐसा ही लगता है.

झूलन कुछ निश्चित जवाब तो नहीं दे पाया लेकिन कुछ हद तक सहमत था मेरे सवाल से.

‘हमको भी लगा था, इसलिए मोबाइल से फोटो खींच लिए उसका. जानते हो सहम- सहम कर बाजार में चल रहा था. दुकान सब के तरफ देख के. लड़कन को मालूम हो गया है उसकी हालत के बारे में तो कोई टोक देता है.’

‘ क्या अंकल ! करेला साठ रूपया हो गया, बताइए.’

‘हां देखो न बाबू ! कैसा समय आ गया चारों तरफ लुटेरा घूम रहा है. खर्च नहीं करोगे तो सीधे (गरदन पर चाकू चलाने की भंगिमा) प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री सब बोल रहा है खर्चा कर, खर्चा कर. पता नहीं देश का वित्तमंत्री है कि अंबानी का.’ सहमी नजर से चारों तरफ देख के, ‘बताना मत किसी को. ई दुकानदार सब को, सब लूट लेगा समझे. हम तो खरीदना ही छोड़ दिए हैं.’

‘हां!’ लड़के आश्चर्य से तो- करेला झा के चेहरे पर चालाकी का भाव. लड़का मुंह दबा कर हंसते हुए निकल जाता है. तब जाकर झा को समझ में आता है कि उसका मजाक उड़ाया जा रहा है और जलती-सी निगाह डालता है. कई रातों से न सोने की वजह से आंखें टेसू हो रही हंै. हेड ऑफिस में कुछ लोग कंसीडरेट हैं तो नौकरी बचा हुआ है.

‘काम-वाम कर लेता है, मतलब कंप्यूटर वगैरह’ मेरी उत्सुकता थी.

‘नहीं ! लेजर लिखता है. हैंडराइटिंग बना-बनाकर. कहता है जब एकदम जरूरी हो जाएगा तो एक आदमी रख लेगा, बताओ ?’

क्या बताता मैं ? बड़ी इच्छा थी इस नए करेले को देखने की. शाम का तय किया. घर पर पहुंचे हम, मतलब मैं और झूलन. मालूम हुआ आया नहीं है, शायद कल आएगा. भाभी जी थीं. चाचा थे – बीमार, करीब-करीब मरणासन्न. बड़ा ही धूसर-सा माहौल था. गमगीन हवा. अलबत्ता घर के सामने एक खटारा काइनेटिक होंडा स्कूटी और एक पुरानी फिएट कार खड़ी थी जिसकी हालत चूहों ने खराब कर रखी थी.

‘कैसी हैं भाभी जी? झा ने क्या हालत बना रखी है घर की?’  मैंने बहुत दिनों के बाद भेंट होने का फायदा उठाते हुए कहा हालांकि हम भाभी के सामने उसे करेला नहीं कहते थे. भाभी आंसू पोंछने लगी. हम अप्रतिभ हो गए थे.

‘क्या कहूं, देख ही रहे हैं. अमीर आदमी का गरीब घर …’

‘कहां है हमारा नन्हा?’ करेला कहने की इच्छा मर चुकी थी. खुशनुमा माहौल होता तो कह भी देता.

‘अंदर लैपटॉप पर कुछ कर रहा होगा’ अनमनेपन से भाभी बोलीं.

‘लैपटॉप!’ हम कुछ कहने की हालत में न रहे. तो जो हम लोगों ने करेले के बारे में सुन रखा था या झूलन ने देखा था सब झूठ था.

‘बाहर ये स्कूटी, कार?’  हमारी उत्सुकता चरम पर थी.

‘सब कबाड़ जमा कर लिए हैं.’

‘मतलब?’

‘बड़े भैया का ट्रांसफर हुआ तो अपना पुराना सामान दे दिए. एकाध शीशी पेट्रोल डालके चलाते हैं यहां से चाैक तक जाते-जाते बंद, फिर घुड़का के लाते हैं.’

‘और कार?’ झूलन ने पूछ ही डाला.

‘उ नहीं चलता है. दान का बैल है मतलब भैया का ही. भैया होंडा सिटी ले लिए तो रखने का जगह नहीं बचा. कबाड़ी में बेच दें, उ नहीं हो रहा हिम्मत. थोड़ा चाय बनाते हैं इतना दिन बाद आए हैं.’

हम किसी तरह ना-ना करके निकले, ‘कल फिर आके झा से मिलेंगे’ तभी करेला का बेटा कमरे से निकला, ‘मां! चाचू का लैपटॉप काम नहीं कर रहा है. कब से बोल रहे हैं पापा को ठीक करवाइए, सुनते ही नहीं.’ जाते-जाते सुना हमने, ‘नहीं सुनेंगे. पहले कंजूस थे अब काइयां भी हो गए हैं.’ झा चा की आवाज दूसरे कमरे से आई – ‘बहू! आत्मा आया?’

‘नहीं, बाबूजी’ भाभीजी ने कहा था.

दूसरी शाम फिर पहुंचे हम. हमारे करेले से मिलने की भी इच्छा बहुत बढ़ी हुई थी. जाड़ों की शाम थी, करेला कहीं से आया. टह-टह लाल रंग की जर्सीनुमा चीज पहने जैसी आम तौर पर दिखती नहीं. ‘तो भाइ लोग, आप लोगों ने दर्शन दिया?’ वही भुवनमोहिनी मुस्कान, सिर्फ सन से सफेद बालों की वजह से करेला अपनी उम्र से ज्यादा बुद्धिमान लग रहा था.

‘तो आत्मा बाबू !’ करेला कहना संभव नहीं था, भाभी जी थीं बेटा था. जर्सी उतार रहा था. अंदर से उल्टी पहनी गई शर्ट नमूदार हुई. हमारी आंखों में आश्चर्य देखकर मुस्कुराया करेला. ‘गंदा हो गया था उधर तो इधर से पहन लिया, जाड़े में कुछ तो ऊपर रहता ही है.’ ‘जर्सी बड़ा जंच रहा है तुम्हारे पर. मतलब लग रहा है कोयला खान में आग लग गया है.’  झूलन चूकने वाला नहीं था. ‘हांग-कांग से छोटका भेज दिया है. अनुदान के रूप में.’

तभी करेला का बेटा लैपटॉप लिए प्रकट हुआ. पुराना तोशिबा का लैपटॉप जिससे दीवार में कांटी भी ठोकी जा सकती थी.

‘कब ठीक करवाएंगे इसको?’ प्रश्न था सीधा.

‘होगा- होगा सब होगा बेटा. अंकल लोग को प्रणाम किया?’  उत्तर था टेढ़ा-मेढ़ा.

‘इ सब क्या है आत्मा बाबू?’  मैंने घर की खस्ता हालत के बारे में सवाल पूछा था. पर जवाब दूसरी चीज का आया.

‘टेक्नॉलाजी ट्रांस्फर टू थर्ड वर्ल्ड कंट्री!’ चबा-चबाकर करेला बोला उसी भुवनमोहिनी मुस्कान के साथ.

‘चाचाजी का इलाज वगैरह?’ झूलन ने घेरने की कोशिश की.

‘सब चल रहा है अनुदान पर,’ करेला निकल गया घेरे से.

फिर बोला सरगोशी में हमारे एकदम नजदीक आकर, आंखों में वही तस्वीर वाली असामान्यता, ‘जानते हो एटीएम में ‘ए’ लगाने का भी जरूरत नहीं है. एटीएम का आलोक ही प्रकाशित कर देता है आत्मा को’ काईयांपन से मुस्कुराने लगा हमारा करेला.

‘आत्मा! आ गए क्या?’

‘हां बाबूजी.’

‘करेला कैसे मिला आज? लाए क्या?’

‘अभी लाते हैं बाड़ी से,’ कहकर करेला झा बगीचे में हंसती हुई लतरों से करेला तोड़ने चला गया बिना हमारी तरफ देखे. आत्मा का मतलब ‘एटीएम’ का आलोक फैला था उसके चेहरे पर. एक अशरीरी आलोक, जैसा शायद किसी और दुनिया के बाशिंदे के चेहरे पर होता होगा.

शुभकामना का शव

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इलेस्ट्रेशन: नीलाकाश क्षेत्रीमयूम

तैंतीस वर्षीय कामना खुद के लिए तो मर चुकी थी पर आए दिन कोई न कोई उसे बताता कि वो अभी जीवित है. यह सुन कर वो उठती. खुद को समेटती, जैसे उसके जिम्मे काम बहुत हों या कुछ कदम चलती और फिर अपनी परछाईं पर ढह जाती. उन दिनों लू तेज थी या उसे एड्स होने की अफवाह, बता पाना कठिन है पर वो दस-पचास कदम चलते ही निढाल पड़ जाती, जैसे आज ही वो दक्खिन दिशा वाले पीपल की जड़ों पर मरणासन्न पड़ी हुई थी. दलसिंगार चरवाहे ने उसे अपनी लाठी से कोंच कर बताया कि वो अभी जीवित है और उसे अपने घर जाना चाहिए. कहे तो वो मदद करे. मदद की बात पर कामना ने अपनी समूची शक्ति बटोर कर दलसिंगार के लिए दो तीन गालियां फुसफुसाईं और फिर वहीं निढाल हो गई.

दिन-ब-दिन कामना का वजन घटता जा रहा था. वह इतनी कमजोर और पस्तहाल हो गई थी कि अपने ही खर्राटों से उसकी जाग खुल जाती. गांववासियों की राय थी: ऐसा उसके लड़ाकूपन की वजह से है. हर दूसरे-तीसरे दिन अपने ब्लाउज की सिलाई चुस्त करते हुए वह भी सोचती थी, आखिर उसके शरीर का वजन जा कहां रहा है. सौ कदम की दूरी तय करने में दो-दो या तीन बार सुस्ताती थी फिर भी जवाब हर किसी का देती थी.

पहले उस पर वैधव्य गहराया. दो वर्ष बाद ससुराल वालों ने उसके लड़ने झगड़ने से आजिज आकर उसे नईहर भेज दिया. छोटा हाथी ( टाटा एस नामक छोटी ट्रॉली ) में पीछे बैठ कर विदा हुई. ड्राईवर के साथ उसका भतीजा उसे छोड़ने आ रहा था. विदा से ठीक पहले, सास और दोनों जेठानियों ने खोईंछा भरा. सास ने सारा प्रयोजन बाएं हाथ से निबेरा. दाहिने हाथ में खटिया का पाया पकड़कर, कल रात, कामना को पीटने से उनका हाथ भी सूज गया था. तो भी आज अपने भाव में वो बोसीदा लग रही थीं. उन्होंने दूब, हल्दी, सिंदूर, खड़े दाने का पसेरी भर चावल और इक्कीस रुपये, कामना की कुचैली साड़ी में रखे.

इनमें कोई संवाद संभव नहीं था. सास ‘घर दुआर धरती अकास’ को बता रही थी, मनई के दुख मनई ही जाने. हम तो चाहत रहे पतोहू यही रहे पर भगवान तहार लीला अपरंपार. जेठानियों ने मुट्ठी खड़ा चावल और ग्यारह ग्यारह रुपये खोईंछा में डाले और छोटी जेठानी ने कामना के सूजे गालों पर चिकोटी मसला और छेड़ चलाया: जा छिनरो, काट मजा. कामना की गर्दन पर, पीछे की तरफ से ही, अगर कल रात खटिए के पाए न मारे गए होते तो वह जवाब जरूर देती, पर पहली बार किसी को जवाब दिए बिना जाने दिया.

नईहर तक के अधूरे रास्ते तय करते हुए उसे तकलीफ उठानी पड़ी. पर अपने गांव का सीमाना देखते ही जाने उसमें कौन सी लहर व्याप गई कि उससे ससुराल वालों को सरापना (श्राप देना) शुरू किया. फूहड़-फूहड़ गालियों की बौछार ऐसी कि छोटा हाथी के इंजन का शोर भी कामना की आवाज को पी नहीं पा रहा था. छोड़ने वाले उसे मय सामान गांव के सीवान पर ही उतार कर चले गए.

आठ वर्ष बाद नईहर – देश आकर वो भूलभूलैयां में पड़ गई थी. पहचाने लोगों की शक्ल-ओ-सीरत सब बदल गई थी. नए निहोरे लौंडे लपाड़े घूमते दीखते जो कामना की मौजूदगी कुछ इस तरह स्वीकारते थे, ‘यही है झगड़हिनिया कमिनिया.’ गांव की गलियां लोगों के ख्यालों से भी तंग हो गई थीं. गालियों और झगड़े वाले अपने शब्द भंडार में वो अर्थ भर नहीं पाती जो उसके भाव उकेरते थे, फिर भी उन्हीं किन्हीं दिनों इस आशय का कुछ सोचा: अब उसका इस दुनिया में जीने का मन नहीं करता. भौजाइयां उसे बतातीं कि कौन-सा कमरा किसका है तब भी वह मुस्कराती, यह सोचते हुए कि अपने ही घर में पता पूछना पड़ रहा है.

पहली दफा कचहरी जाने के दिन उसकी भौजाईयां उसे तैयार करा रही थीं. मंझली ने पाया कामना को बुखार है. किसी और को इत्तला करने से पहले पति को बता आई. बहन के मानस में सम्मान छेंकने की लड़ाई में हल्की बढ़त बनाते हुए मंझले ने बात बढ़ाई, ‘बहिनी को लेकर पहले वैद्य से मिलते हैं फिर कोई कोर्ट कचहरी होगी.’

कमजर्फ वैद्य ने मुस्की काटते हुए सबको सुनाया,  ‘दुल्हिन को प्रेम ज्वर है.’ वैद्य के शब्द चयन पर लोग अमूमन शर्म और हैरानी व्यक्त कर रह जाते हैं. अपनी वैद्यकी पर लोगों के यकीन के नाते वो सार्वजनिक दिल्लगियां करते रहता था. पर इधर तो लड़ाई ही दूसरी थी. दो मानसिक गरीब पर शारीरिक मजबूत घराने लड़ रहे थे और फिर आपस का बांट बखरा वाला अंदेशा भी भाइयों में व्यापने लगा था. इसलिए छोटे ने मंझले की बढ़त कुचलते हुए वैद्य को चिल्ला कर हड़काया. कहना कठिन है बहन कितनी चैतन्य थी और कितनी तरजीह इन बातों को दे रही थी.

दवा दारू लेकर वो सब तहसील कचहरी पहुंचे. कचहरी की जगह सीली थी. बाहर तिरपाल ताने उंघते अनमने से टाइपिस्ट, कचहरी की दीवार फाड़कर झांकने के अंदाज में उगे पीपल के कुछ पौधे. अधिकतर कमरों में बंद ताले. गाली-गुफ्तार से हहराता कचहरी का अहाता. कामना का अंदेशा सच साबित हुआ. ससुराल वाले भी आए थे. इन सबके बीच पायलगी देर तक चली. यह सब उम्र के मुताबिक नहीं, रिश्ते के मुताबिक हुआ. जैसे, उम्र में छोटे जेठ का पैर कामना के बड़े भाई ने छुआ. ऐसे मिल रहे थे मानो किसी और के झगड़े में आए हों. कामना किसी टाइपिस्ट की चौकी पर नीम तले बैठी रही. बिना घूंघट किए. दोनों पक्ष के वकील, वकालत छोड़कर सब कुछ जानते थे. समझौते को दुनियादारी की संज्ञा से पुकारते और चाहते थे कि इन दोनों पक्षों की सुलह भी कचहरी के बाहर हो जाए. यही तरीका है. पहले जायदाद के फायदे दिखा कर अदालती मामला दर्ज करा दो, कई दफे फीस और खर्चे तमाम वसूल लो फिर सुलहा-सुलुफ करा दो. कामना के भाई सब, बहन को उसका, सोलह बीघे वाला, अधिकार दिलाना चाहते थे.

न्यायाधीश की टुटही कुर्सी के सामने ही दोनों पक्ष आपस में भिड़ गए. ससुराल वालों में से एक ने बंदूक निकाल ली. बंदूक के दरस पाकर सबसे पहले सिपहिया सब कचहरी से फरार हो गए. ससुराल वाले अपने वकील तक को बोलने नहीं दे रहे थे. सबसे बड़ा जेठ गुस्से में बोलते-बोलते अपनी ही जीभ दांतों से काट बैठा तो संझले ने मोर्चा संभाला, जिसके पास बंदूक थी, ‘मलिकार ( न्यायाधीश को संबोधित ), मौली गांव के कुबाभन सब बहन की कमाई खाना चाहते हैं. धंधा कर लो, बहिंचो. बड़का, बहिनी को अधिकार दिलाने आए. मलिकार, अभी से हमारी पुश्तैनी जमीन के ग्राहक चक्कर लगाने लगे हैं. बहन के हिस्से की जमीन मिलते ही ये सब बेच खाएंगे.’

लंबा एकालाप चला, उसने कामना को भी खूब सुनाया, लेकिन एक गलती कर दी. गर्मा-गर्मी के दौरान कामना को एक गाली दे दी, जिसपर वह फूट कर रो पड़ी. गाली थी, भतरकाटी ( पति की हत्यारन ). इतना सुनना था कि उन बहादुरों की बंदूकें धरी की धरी रह गईं. कामना के भाइयों ने उसके जेठों और देवरों को कुर्सियों से मार-मार कर कुर्सियां तोड़ डाली. कूटने के बाद छोटे भाई ने हांफते कहा, ‘बहिन का हिस्सा तो तोर बाप भी लिखेगा रे, दोगलासन.’

ये लोग ससुराल वालों को कूंचकांचकर और बहन रुलाई रुकवाकर लौट रहे थे तब सिपहिया लोग आते दिखे. वही सब सिपाही जो दोनाली देख कर भाग गए थे. बिना किसी दरयाफ्त के उन सबों ने सफाई पेश की, ‘खैनी चूना वास्ते टहलने निकल आए थे. सब निबट गया ? पांड़े बाबा, बोहनी कराओ.’ मंझले भाई ने सौ-सौ के चार नोट अपनी जांघ पर रखे और कहा, ‘ले जाओ दरोगा जी, तेल लगाने के काम आएगा.’ बड़के ने आंख तरेर कर बात घुमाई, कहा, ‘लड़बक, और पैसे उठा कर नायब के पैंट और जांघिए में कहीं खोंस दिए.’

पुलिसवाले सोच नहीं पा रहे थे कि दरोगा वाले संबोधन से खुश हो लें या बाकी बातों का बुरा मान जाएं. बड़े भाई ने फिर कहा, ‘दरोगा बाबू, गांव की ओर कभी आओ.’ इस तरह पुलिसवाले अपनी आबरू को लेकर आश्वस्त हुए. दरअसल, इस इलाके में पुलिस इतनी बदनाम थी कि अगर ये दो-चार की संख्या में हुए और कोई गलती कर दी तो बड़ी मार पिटाई खाते थे. हां अगर दलबल के साथ हों तो फिर मामला उल्टा हो जाता था. यहां इन्हें डर था कि कुछ भी उल्टा सीधा हुआ नहीं कि सारी कचहरी मिल कर मारेगी.

भारत से दूर-देश के इस हरे भरे फिर भी अधमरे इलाके में वकीलों का बोलबाला था. अदालतों के आ जाने से जायदाद और मिल्कीयत के मामलों में पंचायती या बाहुबली फैसले अवैध हो गए थे. वकील थे कि वकालत से अलग सब करते थे. वो कोई भी राय दे सकते थे और मौके बेमौके उसे सही साबित कर सकते थे. कामना के ही मामले में जब दोनों तरफ के वकीलों ने सलाह दी, तारीखों पर आया करो, सब आते रहे. कचहरी में ही झगड़ते रहे. फिर सलाह दी, कामना जिस घर अधिक समय गुजारेगी, उसकी दावेदारी अधिक होगी. इस मशविरे पर कामना के अपहरण का सिलसिला शुरू हुआ, जो तब तक चला जब तक कामना बीमार न पड़ गई.

दोनों तरफ के लोग जब झल्लाते, ऊबते, अदालती खर्चों से चिहुंकते तो कामना की पिटाई करते थे. ऐसे तो उसका बड़ा मान-जान था पर परेशान होते ही लोग उसे ऊंच-नीच कहना शुरू करते थे, जिसके जवाब में वो गरियाती और फिर पिटती. कभी कभी वो गाली न भी दे, तब भी लोग उसे पीट बैठते. इसका पता कामना की रुलाई से चलता.

जब वो मार के बरक्स गाली दे-दे कर लड़ती और अपने ऊपर के वार बचा-बचा कर लड़ती तो उसकी रुलाई में शोर हुआ करता. चिल्लाहट. रूखी सी कर्कश रुलाई. चोट उसे फिर भी आई होती पर उसके रोने से आप समझ जाते कि यह रुलाई मुकाबले में पराजित की रुलाई है. लेकिन जब वो बेकसूर पिट जाती, बिना गाली गलौज किए, तब उसकी रुलाई राहगीरों तक के मर्म को भेद देती.

कभी-कभी तो उसका रोना इतना विह्वल कर देता कि खुद पीटने वाला भी रोने लगता, वो चाहे उसके जेठ-देवर हों या सगे भाई. भौजाईयां भी चाहती कि वो खूब पिटे पर पिटाई शुरू होते ही वो ननद के पक्ष में रोने लगतीं. ऐसे में पीट चुके लोगों का तर्क होता था – क्या हुआ जो उसने मुंह से गाली नहीं दी, पर उन्होंने गाली को उसके गले में ही देख लिया था. कामना जिससे भी पिटती, उससे बातचीत बंद कर देती थी. धीरे-धीरे नईहर गांव के दर्जी से अलग कोई उससे बात करने वाला नहीं बचा. सबको इसका दु:ख था कि क्यों नहीं कामना खुद से अपनी जायदाद उनके नाम कर देती है.

ससुराल वालों को कामना का व्यवहार इतना अखरा कि उन्होंने कामना के पति वाली बीमारी का हल्ला कामना के नाम पर फूंक दिया. भाइयों का भी यही हाल लेकिन वे इस उम्मीद में चुप थे कि आज नहीं तो कल, सब मिलना ही है. कामना के सातों भाइयों में बंटवारा हो चुका था और सिवाय कामना की जायदाद के वो किसी मुद्दे पर एकमत नहीं हो सकते थे.

दर्जी की बात दूसरी थी. जब से कामना नईहर लौटी, उसका स्वास्थ्य गिरता चला जा रहा था. आए दिन, कपड़े चुस्त कराने या पुराने कपड़ों को उघड़वा कर नया बनवाने के लिए कामना दर्जी तक जाया करती.

दर्जी का नाम मियां जी पड़ चुका था और उन्होंने अपने डरे सहमेपन के नाते गांव में अच्छा खासा सम्मान  कमा रखा था. जब भी कामना वहां जाती, देर तक बैठती. लोग आते, अक्सर औरतें और दर्जी से बातचीत के बीच कामना को ऐसे देख लेते जैसे वो किसी परिचित गांव की अपरिचित है. वो वहीं बैठी रहती, जब लोग चले जाते तो कुछ न कुछ बतियाती. होशियारों का शुबहा था कि दर्जी ही कामना का वकील बना है.

जबकि कामना मियां जी से जो बातें करती उसका कुल लक्ष्य होता था, जैसे वह दर्जी के माध्यम से अपने जीवन को जानना समझना चाहती हो. कामना का एकमात्र अपराध अकेला पड़ जाना था. इतना वो समझती थी. इसका दुख भी उसे था. वो दर्जी से अपने बारे में. अपनी शादी के बारे में पूछती. अपने पिता का चेहरा वो भूलने लगी थी. पिता उसे खास कोई प्यार भी नहीं करते थे. फिर भी खोई हुई उम्मीद की रोशनी की तरह उनके बारे में पूछती. मियां जी सिलाई मशीन की धुन पर उसे बहुत कुछ सुनाते. कुछ स्मृतियों के आसरे, कुछ गढ़कर, कुछ अपने जीवन का मिलाकर.. कामना के जीवन के किस्से पूरते.

मियां जी के किस्सों पर सवार कामना अपना जीवन देखती. पलटती और पाती कि उसे सब हूबहू याद आ रहा है. मसलन बचपन से ही उसके झगड़ालू होने को उसके खिलाफ इस्तेमाल किया गया. गांव में लड़ाका के नाम से वह मशहूर थी. कोई नहीं जानता, पंद्रह बीस सगे-चचेरे भाई-बहनों के बीच कब क्या हुआ कि कामना झगड़ालू दर झगड़ालू होती गई. लोग उसके इस स्वभाव का फायदा उठाते थे. किसी भी गलती के लिए उसे दोषी ठहराते हुए जैसे सब यही मान कर चलते थे कि झगड़ालू है तो भूल गलती इसी की होगी.

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नीलाकाश क्षेत्रीमयूम

कामना के ब्याह में भी यह आरोप इस्तेमाल हुआ. ब्याह तय होने के तीन-चार महीने तक लोग यही बातें करते रहे कि खेतिहर के घर जा रही है– भाग्यशाली है, दूल्हे के पिता का नाम काम बड़ा है, बरसों-बरस से दोनों पहर का चूल्हा इनके घर जलता रहा है, दूल्हे का बड़ा भाई कचहरी में चपरास लगा है.

शादी तय तपाड़ होने के पांच महीने बाद कामना की मां को यह ख्याल आया, दूल्हा कैसा होगा ? किसी ने देखा भी है या नहीं ? कामना के पिता से पूछा. उनका कहना था, लड़का क्या देखना, यह नसीब की बात है. कामना के भाई ने बताया, ‘लड़का ट्रक चलाता है, जल्द ही अपना ट्रक खरीद लेगा, अभी ट्रक लेकर निकला हुआ है, ब्याह के दिनों ही आएगा.’ किसी ने पूछा, ‘लड़के का नाम ?’ दरअसल लड़के के पिता, घर बार का नाम इतना बड़ा और व्यापक था कि दूल्हे का नाम किसी को मालूम ही नहीं था.

मां को शायद पसंद न आया. सोचा, दामाद ट्रक घुमाता है, ऐबी होगा. जब तक वो शिकायत कर पाती उससे पहले ही कामना के सात भाई, सात भाभियां, तीन बहनें, तीन जीजा और पिता, सब ने समवेत स्वर में कहा- ऐसी झगड़ालू के लिए और भला कैसा लड़का चाहिए. भाइयों ने चूंकि मिलकर अभी कुछ ही दिनों पहले इसे मारा पीटा था इसलिए उनसे और उनके परिवारों से बातचीत बंद थी. वजह, चुरा कर दूध पीना, बतलाई गई थी.

कामना के बड़े भाई रामआसरे को कुछ एहसास हुआ और उन्होंने हजाम को बुलावा भेजा. हजाम आया, बख्शीश में ग्यारह रुपये पाकर नायगांव की राह चल पड़ा, जहां दूल्हे का नाम मिल सकता था.

कामना बिहंसते हुए कहती थी, ‘वहां भी सबको पानी पिला दूंगी.’ लोग मजे लेते थे. वो जानती थी, लोग आनंद ले रहे हैं इसलिए वो बढ़-चढ़ के दावे करती थी. उसका सोचना बड़ा प्यारा और जिद भरा था. वो अकेले पड़कर थक चुकी थी. हर झगड़े-झंझट के बाद वो पाती थी कि तमाम मारपीट गाली गलौज खत्म होते ही वो अकेले पड़ गई है. जिसके लिए लड़ रही होती, वो ही, पता नहीं किस मुकाम पर कामना का साथ छोड़ विरोधियों से मिल जाता. बहाना वही, ‘बहुत लहजबान है.’ कई बार तो ऐसे बद्तर मौके भी आए जब उसे अपना भोजन अलग पका कर खाना पड़ा.

कामना ने तय कर रखा था कि नए घर में प्रवेश करते ही वो अपने आप को बदल लेगी. कोई जवाबा –जवाबी नहीं. कोई झंझट नहीं. ‘कुछ भी ऐसा नहीं करना कामना’ खुद से ही कहती, ‘कि सब तुम्हें अलग-थलग कर दें.’

उम्रवान और दुनिया देखे पति के लिए शादी की रस्म ही महत्वपूर्ण थी. सो, दो से तीन दिन ही में चलता बना. ख्याल उसके भी नेक थे पर विवाह के रोमांच से वह भिज्ञ था इसलिए शुरू दिन से ही एक प्रेमिल निस्पृहता उसने पत्नी के लिए बना ली थी. कामना ने भी अपने गांव में नवेली ब्याहताओं की जो गति देखी, सुनी थी इसलिए उसे किसी बात का आश्चर्य नहीं हुआ. दुख भी नहीं. एक तो उसके साथ उसका दृढ़ निश्चय था जिसमें उसके ऊपर लगे झगड़ालू का निशान उतारना था, दूसरे गांव का उसका अनुभव कि उसने चुप-चुप रहते हुए जीना शुरू किया.

लोगों की निगाह पर वो तब चढ़ी जब उसका पति सवा साल बाद बीमार, मरणासन्न, लौटा. साथ लौटे खलासी ने बीमारी का नाम एड्स बताया और यह भी कि डॉक्टर ने कहा है, अब चलने-चलाने का वक्त आ पहुंचा है.

बीमार पति को कामना के कमरे में डाल दिया गया. कामना को उसके आगम की खबर हो चुकी थी, फिर भी सारा काम निबटा कर, घर बुहारना, चौका लीपना, बर्तन मांजना, दिया बाती करना, मसाला पीसना, खाना पकाना, ठाकुर जी को भोग लगाना,  सबको खिलाना, सास का बिस्तर लगाना, भैंस का भात चढ़ाना, खली भिगोना ..सब निबटाकर अपने कमरे में लौटी. ढिबरी की नीम रौशनी में पति को आधा-अधूरा देखा. इच्छा और अनिच्छा के बीच के किसी भाव से ही सही, पैर छुए. अशक्त पति फुसफुसाया. न मालूम कहां का चोर उसके मन में समाया कि बच्चों के लिए रखे दूध में से पसर भर निकाल पर पति के लिए लेने गई. ला ही रही थी कि पकड़ी गई. ससुराल में उसकी यह पहली पिटाई थी.

दो महीने तक स्वरूप जीवित रहा. इस बीच का उनका जीवन कामना की खातिर सर्वोत्तम साबित हुआ. ऐसा नहीं कि साथ खूब मिला. न. दरअसल साथ होने के एहसास को वह पहली मर्तबा जी रही थी. सुबह जल्द उठ कर कामना स्वरूप का बिस्तर बाहर लगा देती, यह विदाई समूचे दिन की होती थी.

एक रात स्वरूप ने हाजत की बात बताई. किसी को बताये बिना कामना खुद स्वरूप के साथ बाहर चली आई. निबटान तक वो वहीं मेड़ पर बैठी रही. यह उसके लिए पहला मौका था जब वो पति के साथ घर से बाहर निकली थी. चांद से भरी भारी रात में उसने पहल कर कहा, बैठते हैं.

अशक्त स्वरूप कामना के लिए कुछ करना चाहता था, इसलिए बैठ गया. जब बैठना मुश्किल लगने लगा तब उसने अपना सारा वजन कामना की गोद में डाल दिया. दोनों चुप थे. स्वरूप ने एक बात जरूर कही, ‘कोई भी मरना नहीं चाहता है.’ कामना आसमान देख रही थी. उसे बाबर का किस्सा मालूम नहीं था और न ही वह गीत लेकिन वह जो कुछ भी सोच रही थी कि काश पति को उसकी उम्र मिल जाए. सुबह होने तक वो दोनों वहीं रहे.

गलती भी की कि प्रेम किया.

कामना का जीवन कचहरी, वैद्य, डांट फटकार झगड़े, और बचे-खुचे आत्मसम्मान की लड़ाई में गुजर रहा था पर एक दिन ऐसा आया जब उसने बिस्तर पकड़ लिया. पहली दफा देख कर ही कम्पाउंडर या कह लीजिए डॉक्टर ने जवाब दे दिया. जिला अस्पताल ले जाने को कहा पर फुर्सत किसे थी? सब अपने अपने अंदाज से बीमारी का अनुमान लगाए बैठे थे, लाइलाज वगैरह के विशेषण जोड़े बैठे थे लेकिन कामना का व्यक्तिश: जो अनुभव था, दीगर था – वह पहला दिन जब कामना का भरोसा जीवन मात्र से दरक गया.

दर्जी वैसे साथी में तब्दील हो रहा था जो तब आपका साथ देते हैं जब आप पर फैले इल्जाम आपको लाचार बना दें: सुख दुख का साझा, गांव गिरांव की उलटबासियां. ऐसा अकुंठ अनुराग उपज आया था जो सहज सम्भाव्य होते हुए भी मर्यादितों के लिए वर्जना है. पर उस दिन दर्जी ने शरारत कर दी. इरादतन.

इस गांव की दुपहरी में सुनसान भी शोर करता है. दर्जी ने झोंक में आकर कामना को दीवार से टिका दिया. वह व्यवहार से इच्छाहीन और शरीर से अशक्त जान पड़ता था. कामना माजरे से अनजान न थी. उसकी अपनी कामनाएं होते हुए भी जैसे बंद किसी पोटली में ढंकी रह गई हों कि वो अवाक पड़ गई. निर्जोर विरोध किया. दर्जी के हाथ पांव चल रहे थे पर जाने क्यों आंखें मुंद गई थीं.

अपराध का बोध गहरा रहा हो शायद. कामना को सिलाई मशीन के पायदान तक खींचने लगा तभी कामना को अपने पति का रोग और खुद के बारे में फैली बीमारी की अफवाह याद आई. वह बिफर पड़ी. दर्जी को यह बिन बताए कि उसके भले के लिए वह यह सब कर रही है, उसने जोर का धक्का दिया. दर्जी खुली आंखों के संग दूर जा गिरा. यह सब जैसे कम हो कि बचे हुए विश्वास पर मिट्टी डालने के लिए दर्जी को दो चार तमाचे भी जड़ दिए.

कामना ठीक उसी दिन से मरणासन्न हुई. घरऊ लोगों को लगा, मर जाएगी. इसलिए पुरोहित को बुलाकर ‘बछिया दान’ कराई गई. सभी घरों सें एक या दो लोग आते, डलिए में लाया आटा दाल और दो तीन आलू कामना के शरीर से छुला कर पुरोहित को दान देते गए. पुरोहित कामना के एड्स होने के हल्ले से परिचित था इसलिए उसने तथ्य को जाहिर किए बगैर, सदाशयता के नाम पर, सारा का सारा चढ़ावा चमटोले में बांट दिया. सबसे अच्छी पोटली बाबूलाल के हाथ लगी – दाल. पांच किलो जिंदा दाल निकली. एक किलो दाल बाबूलाल ने खुद के खाने के लिए रख लिया बाकी की दाल बाजार के बनिए के हाथ बेच दिया. इसी बनिए से पुरोहित के घर का सामान खरीदा जाता था.

अनुमानों के उलट जब कामना जीवित बच गई तब सबकी उम्मीदों और जान में जान आई. वकीलों के मशविरों और उन पर अमल का दौर शुरू हुआ. नईहर पक्ष के वकील की फीस कम पड़ने लगी तो तय हुआ कि जब जमीन हिस्से में आ जाएगी तो चौथाई वकील साहब के नाम कर दिया जाएगा, जिसे सभी अधिकारियों से मिल बांट लेंगे. यह भी तय हुआ कि इस चौथाई जमीन की लिखाई, रजिस्ट्री और खारिज दाखिल का सारा काम बड़े भाई को देखना होगा. वकील ने सलाह दी, ‘कामना को ससुराल भेजो. जल्द से भी जल्द. वहां मरी तो मामला अपने पक्ष में झुकेगा.’

किस्मत या वकीलों का सीमित ज्ञान, जो कहिए, ससुराल पक्ष के वकील ने भी यही सुनाया, ‘बहू को नईहर में ही मरने दो, अपना पक्ष मजबूत होगा.’ बाबूलाल वकील को भी वकील तरण मिश्रा की डील पता पड़ चुकी थी इसलिए उसने भी चौथाई जमीन का सौदा करना चाहा. लेकिन ससुराल वाले उलटे इनकी बची-खुची फीस लूटने पर आमादा हो गए इसलिए बाबूलाल वकील को यह ख्याल तज देना पड़ा.

कामना की मृत्यु, सबके मूल में यही था. कब्जा उसकी लाश पर होना था इसलिए पहली बार बहन की निगाह में गिरने से बचने की खातिर भाइयों ने कामना का अपहरण करा दिया. वो, अशक्त बीमार खुद से ही रूठी हमारी नायिका, शाम के समय ‘लौटने’ गई थी कि कुछ लोगों ने उसकी गर्दन पर चोट पहुंचा कर उसका अपहरण कर लिया.

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नीलाकाश क्षेत्रीमयूम

गांव में शोर. सबकी एक राय; जरूर यह ससुराल वालों की चाल है. वो कामना को अपने पास रखना चाहते हैं. सच ही सुबह-सुबह यह खबर आई कि कामना ससुराल के सीमाने पर भौंकते हुए कुछ कुत्तों के बीच पाई गई. इस गुमान में कुत्ते भूंके जा रहे थे कि उन्हें पहली बार किसी इंसान ने तरजीह दी है. नईहर में तैयारी चल रही थी कि अपहरण का यह मामला थाने में दर्ज हो. कोई सामान्य दिन होता तो केवल पट्टीदारी के लोग साथ जाते पर यह सोलह बीघे जमीन का मामला था और समूचा गांव चाह कर भी यह सोचने से खुद को मना नहीं कर पा रहा था कि काश एक टुकड़ा उसके हिस्से आ जाए.

इसके कई प्रयास हो चुके थे. कभी कचहरी के मारपीट वाले मुकदमे के बहाने अपना नाम डालने की कोशिशें, कभी सीधे सीधे अपना नाम डालने की धौंस. आज भी थाने चलने के लिए कामना के घर के बाहर लोग जमा होने लगे थे. दोपहर ढलने को आ रही थी और अभी भी लोगों का इंतजार हो रहा था. पुलिस थाने का अतिरिक्त भय न होता तो कामना के भाई इनमें से किसी को साथ न ले जाते. उन्हें भय था. पुलिस का नहीं. इस बात का कि कहीं इन लालचियों में से किसी का नाम मुकदमे में न डल जाए.

इन्हीं तैयारियों के बीच गांव के इकलौते छोटा हाथी के ड्राईवर ने आकर सूचना दी, ‘गांव के बगीचे में किसी महिला को लिटा दिया गया है.’ पंच वहीं चले. शायदा कामना है या उसका शव. थाने जाने वालों का उत्साह पानी हो गया. परिवार वाले, अलबत्ता, बागीचे तक जरूर गए. कामना जीवित और मृत के बीच कुछ थी. बड़े भाई की रुलाई फूट पड़ी. ललकार में. जैसे कोई बांध टूटता हो. यह देख सातों भाई सुबकने लगे. वो कानून और इच्छाओं के आगे मजबूर थे वरना बहन की यह दुर्दशा उनसे देखी नहीं जा रही थी.

अगर कानूनी पचड़े न होते तो सोलह बार क्या एक बार भी कामना को ससुराल भेजने की जरूरत नहीं थी. वहां उसका था भी क्या. स्मृतियां जाले का शक्ल ले चुकी थीं और परिचित खूंखार हो चुके थे. मां ने, लेकिन, विरोध किया. वो उस खटिये पर बैठ गई जिस पर कामना को लिटाया गया था. तकलीफ में कामना करवट तक नहीं बदल पा रही थी. वरना उसकी चाहत हो रही थी कि वो किसी ऐसे करवट घूम जाए जहां से इन सबका चेहरा न दिखे.

कामना को खटिये पर लिटा कर इसलिए नारियल की रस्सी से बांध दिया गया था कि गाड़ी के हिलने डुलने से वो गिर न पड़े. यह ससुराल वालों ने किया था. इसलिए नईहर वालों ने, ख्याल की खातिर, प्लास्टिक की रस्सी भी चारपाई पर बांध आए. अगर कानूनी पचड़े न होते तो सोलह बार क्या एक बार भी कामना को ससुराल भेजने की जरूरत नहीं थी.

वहां उसका था भी क्या. स्मृतियां जाले का शक्ल ले चुकीं थी और परिचित खूंखार हो चुके थे. मां ने, लेकिन, विरोध किया. वो उस खटिए पर बैठ गई जिस पर कामना को लिटाया गया था. तकलीफ में कामना करवट तक नहीं बदल पा रही थी. वरना उसकी चाहत हो रही थी कि वो किसी ऐसे करवट घूम जाए जहां से इन सबका चेहरा न दिखे.

मां को मशक्कत से मनाना पड़ा. उसे खुद को यह यकीन दिलाना पड़ा कि बेटी के जीवन से घर का कुछ भला हो सकता है. इस तरह दो दिनों में नईहर से ससुराल और ससुराल से वापस नईहर के कुल सोलह चक्कर लगे. दोनों तरफ, इत्तेफाक कि, गाड़ियां भी एक जैसी ही थीं- छोटा हाथी. बारी बारी से गाड़ियां कामना को या क्या पता कामना के शव को नईहर और ससुराल के सीमाने पर छोड़ कर चली आ रही थीं. यह सब वकीलों और गांव के बुजुर्गों की देखरेख में हो रहा था.

तीसरे दिन यानी सोलहवें चक्कर की बारी, कामना की मां ने ही पूछा, ‘देख तो लो, क्या पता कुछ खाना पीना चाहती हो?’ मां तटस्थ दिखने की कोशिश कर रही थी, उसे लग रहा था कि बेटी के लिए उमगते भय और स्नेह का पता घर वालों को चलेगा तो कहीं बुरा न मान जाएं. एक भौजाई गाड़ी के पास गई. यहां उसे अनजाने ही बढ़त हासिल हुई. कामना जिस चारपाई से बंधी पड़ी थी उस पर समय खर्चा, नब्ज टटोलती रही और मारे अचरज और खुशी के, रोने लगी.

मृतक के घर में ऐसा कोई न कोई निकल आता है जिसे शोक के सभी भाव स्थगित करने पड़ते हैं और लोहार, हजाम, पुरोहित आदि को बारंबार बुलाने जाना पड़ता है. कामना के भतीजे के जिम्मे यह काम आया. पुरोहित ने घर बैठे ही कफन-दफन के सामानों की सूची लिखा दी. कफन पहनाने से पूर्व पानी के गलबल छींटे मारकर कामना के शव को नहलाने की रस्म निभाई गई. पूरे शरीर में घी मलने की बारी आई. मां ने अपना संताप परे रख यह काम लिया पर बेटी का चेहरा देख वहीं बैठ गईं और बिन आवाज रोती रही. मंझली भौजाइयों ने घी मलने का काम पूरा किया.

टिकठी ( अर्थी का सामान ) के लिए बांस की जरूरत थी. सतऊ लोहार खुद न आकर अपने बेटे अयोध्या को भेज दिया. अब सतऊ के बड़े बेटे अयोध्या ही इस गांव की लोहारी देखते हैं. बंटवारे में अयोध्या के हिस्से दो गांव आए हैं और बाकी के दो बेटों के हिस्से एक एक गांव. वो दोनों बेटे शहर जाकर बढ़ईगिरी करते हैं. अयोध्या इस पेशे में नए हैं फिर भी भिज्ञ हैं. टिकठी के लिए हमेशा तीन बांस उसी घर की ‘बंसवाड़ी’ से काटते हैं जिनके यहां मृत्यु आई होती है.

इस बार गांव के तीन बड़े घरों की बंसकोठी से एक एक बांस लिया. अयोध्या चूंकि मृतका के उम्र भर से वाकिफ थे इसलिए उनका कहना था, बांस मजबूत चाहिए. अयोध्या बांस काटते गए और मृत कामना के तीन भाई उसे बंसकोठी से खींचकर निकालते और फिर अपने दरवाजे पर लाकर रखते गए. टिकठी तैयार होने में एक घड़ी का समय लगा.

कामना के घर का मजाक बनते-बनते तब बचा जब भावनाओं के उछाह में बड़ी भाभी ने सिन्होरा ( सिंदूरदान ) भेजकर टिकठी के पास रखवा दिया. रोहू हजाम ने बताया, ‘विधवाओं के साथ कुछ नहीं जाता.’ चुपके से उस सिनहोरे को अंदर भेज दिया गया. वैसे, वहां मौजूद वकील ने इसे अपनी पराजय माना. अगर सिन्होरा भेजने की परंपरा होती तो अदालत में एक मौका यह भी कहने को मिलता, ससुराल पक्ष ने निर्दयतापूर्वक सिन्होरा दबा लिया इसलिए कामना के शव का संस्कार भी अधूरा हुआ. वकील का मानना था कि न्यायाधीश अधूरे संस्कार के इस तर्क पर विह्वल हो जाते और अगर नईहर के पक्ष में फैसला न सुनाते तो कम से कम सुनाने का मन तो बना ही लेते.

कामना का शव-दाह सरयू किनारे होना था. घर से आठ कोस दूर. अर्थी लेकर इतनी दूर पैदल चलना कठिन है, फिर भी लोग जाते हैं. इस बार लगभग सारा गांव, नंगे पांव, कामना की शवयात्रा में निकल पड़ा था. दर्जी गांव में ही रह गया. लोगों ने पूछा भी पर वो आने से इंकार कर गया. समूचे रास्ते बारी बारी से लोग कांधा बदलते गए.

शव को घर से उठाकर और घाट पर फूकने के बीच पांच दफे ही जमीन पर रखा जा सकता है, जिसमें एक बार गांव के सीमाने पर रखने का भी चलन है. इसलिए बाकी के रास्ते में हर दो कोस पर अर्थी रखी जाती और लोग सुस्ताते. यहां से नए लोगों का समूह अर्थी उठाते हुए आगे बढ़ रहा था. कोशिश यही थी कि एकसमान ऊंचाई के लोग ही एक बार कंधा दें ताकि शव इधर-उधर न खिसक जाए और वजन किसी एक तरफ ही न बढ़ जाए पर घाट पहुंचते पहुंचते कामना का शव पीछे की ओर लुढ़क आया था.

छलगलैया गांव के बूढ़े बरगद के नीचे, जहां अंतिम दफा शव को जमीन पर रखा गया, साईकिलहा और पैदल शवयात्री आराम फरमा रहे थे कि किसी ने खबर सुनाई- नायगांव ( ससुराल ) वाले घाट पर दल बल के साथ इंतजार कर रहे हैं. सबका कलेजा सूख आया. वकील ने बताया, जरूर वो लोग लाश छीनने की कोशिश करेंगे. उन लोगो के पास बंदूकें थीं जो वो लेकर आए होंगे. नईहर के लोग इस आशंका से अनभिज्ञ थे इसलिए कुछेक के हाथ में टेक वाली लाठी के अलावा कुछ न था.

शवयात्रा को विराम दिया गया. लोग साईकिलों से वापस लौटे और जिस भी हालत में उनके पास जो भी हथियार मिले, लेकर आए. टॉगी और कुदाल से लेकर कट्टा-बंदूक सब लेकर आए और शवयात्रा आगे बढ़ी. दोपहर सबके कलेजे पर चढ़कर बोल रही थी. नदी का किनारा और उसकी तपती रेत का विस्तार इतना खुला था कि कोस भर दूर से ही लोगों के पांव जलने शुरू हुए. कूदते फांदते, रेत और सरयू नदी को गाली देते हुए लोग शव लेकर नदी की ही ओर भाग रहे थे.

नदी धूप की तरह चमक रही थी और उस खुले में इतनी रोशनी थी कि चौंध से सभी अंधे हुए जा रहे थे. डोम बुलाया गया. लकड़ी और गोईठा गांव से ही आया था. डोम से दो किलो नीम की लकड़ी रस्म पूरी करने के लिए ली गई.

चिता सजाने के लिए लोग आम की मोटी बल्लियां नीचे बिछा रहे थे तो डोम ने टोका. आम की लकड़ी जल्द जलती है इसलिए उसे ऊपर रखिए. नीचे जामुन और खैर की लकड़ी रखी गई. लाश को तुरंत ही उस पर रख देना चाहिए था पर इस बात के फैसले में देर हो गई कि मुखाग्नि कौन देगा? सभी भाई अपनी विनम्र और अश्रुपूरित दावेदारी पेश कर रहे थे पर बड़े भाई ने अपने बेटे नरेश , यानी कामना के भतीजे को, आगे कर निर्णायक बढ़त ले ली. मंझले ने अपने बेटे की बात चलाई पर सभी ने एक स्वर में कहा, ‘उसका उपनयन संस्कार (जनेऊ) नहीं हुआ है इसलिए वो अयोग्य है.’

इधर चिता पर शव रखा जा रहा था और उधर पुरोहित नरेश को नदी स्नान के लिए तैयार कर रहा था. स्नान के बाद हजाम ने किनारे के कुछ बाल उतार लिए. अब आग जलाने की बारी थी जिसे डोम से लेना था. डोम को भनक पड़ चुकी थी कि मोटी जायदाद का मामला है इसलिए वो आग देने से पहले हजार रुपये की दक्षिणा पर अड़ गया. जबकि नईहर पक्ष ने ग्यारह रुपये की तैयारी कर रखी थी. गांव के बिचवान आगे आए. डोम चिता स्थान छोड़ कर अपने डीह पर चला आया, पीछे-पीछे कामना के भाई तथा कुछ लोग भी आए.

ऐन उसी पल शोर का वह सैलाब उठा. यात्री अतीत के कंधे पर बैठकर देखें तो कह सकते हैं सब कुछ कितना सोचा समझा था पर उस वक्त किसी को यह समझ में नहीं आया कि हो क्या रहा है. ससुराल वाले ने एक साथ छ या सात ‘फायर’कर कामना की चिता का अपहरण करने आ गए. पहले उनका इरादा सिर्फ शव लूटने का था. चिता वो खुद ही सजाना चाहते थे पर शव लूटना संभव होते न देख उन लोगों ने  चिता पर ही धावा बोल दिया. जवाब में इधर से भी धुआंधार हवाई फायरिंग हुई. कुल्हाडियां, कुदाल और लाठी की लड़ाई शुरू हुई.

सबके हाथ सिर्फ इसलिए बंधे थे कि उन्हें कर्मकांड सहित शवदाह करना था वरना अदालत में उनका पक्ष कमजोर पड़ जाता, वरना अब तक चिता आग पकड़ चुकी होती. इस तरह, खून खराबे वाली मारपीट में चिता बिखरने लगी और सबसे तेज चीख तब मची जब किसी की कुल्हाड़ी का भारी वार शव पर पड़ा. फिर तो इतने टुकड़े हुए कि चिता का वह क्षेत्रफल लकड़ियों के बजाय खून से भर गया. लोगों को खोज-खोज कर पीटा जा रहा था. सरे बाजार ऐसा दंगा कभी नहीं देखा गया.

देर रात जब उन्माद थमा तो नदी का वह किनारा गिरे हुए पुरुषों से पटा पड़ा था. वकील जो भाग चुके थे वो नए तरकीबों के साथ वापस आए. तय हुआ कि जो भी यह साबित कर देगा, शवदाह उसके जरिए हुआ है, उसकी दावेदारी मजबूत होगी.

कामना के कुल एक सौ छप्पन शव उस रात जले. दोनों मुद्दई पक्ष पीछे छूट गए. दोनों गांवों के ताकतवर लोगों ने लाश के टुकड़े चुन-चुन कर नदी के किनारे सौ से उपर चिताएं जलाईं. कामना के भाईयों को होश आया तो वे भी चिता सजाने में लग गए. लकड़ियां खरीदने का धन नहीं था, इसलिए वहीं तय हुआ कि जायदाद का दसवां हिस्सा लकड़ी वाले को देना होगा. डोम भी दसवें हिस्से में मान जाता पर उसकी पत्नी ने भर मुंह गाली देते हुए उसे आग देने से मना कर दिया. सबने खुद ही आग जलाई और सब ऐसे किस्से गढ़ने लगे- कामना के जीवन में उनके घर परिवार का कितना बड़ा योगदान रहा है. बड़े भाई को चिता के लिए कामना का कटा हुआ पंजा मिला. दूसरे भाई ने कुहनी को लाश बनाकर जलाया. पुरोहित ने कितनों को कुश का शव बना कर दिया, उसे याद नहीं. पहले उसने गिनना शुरू किया पर दसवें हिस्से के उन्माद में गिनना ही भूल गया. मान बैठा कि जो ईमानदार होगा वो खुद ब खुद हिस्सा दे देगा.

मंझले भाइयों में से एक को जब कुछ न मिला तो उसने अपनी कमीज मूल चिता के पास फैले रक्त में डूबो कर चिता सजाई. कामना के जेठ और देवर भी कुछ खून उधार मांग कर ले गए. भाइयों ने अब जाकर सोचा, ‘जायदाद, किसी तीसरे को मिले इससे अच्छा है कि जिनका था उनके ही पास रह जाए. इसलिए उन लोगों ने उधार में नहीं बल्कि सहयोग भावना से खून तथा कामना के शरीर के कुछ टुकड़े खोज कर ससुराल वालों को दिए.

कस्बे के सारे हज्जाम बुला लिए गए. एक सौ छप्पन मुंडन में करते-कराते सुबह हो आई.  सबसे जल्द और विधि-विधान के अनुसार, ग्राम प्रधान समेत आठ घर वालों ने शवदाह के कार्यक्रम निपटाए. कचहरी में भी इन सबने जो खेल खेला वह सराहनीय था. उन्होंने दोनों पक्षों के वकीलों को तोड़कर खुद के लिए रख लिया. फिर भी कचहरी में एक सौ छप्पन आवेदन पहुंचे, जिनमें से कामना के दो भाइयों को छोड़ दें  तो किसी भी महत्वपूर्ण परिवार का आवेदन खारिज नहीं हुआ. फिर भी कामना के बड़े भाई ने बड़प्पन और दुलार में कहा, ‘अगर हम मुकदमा जीते तो सभी भाइयों में बराबर का हिस्सा बंटेगा.’

कामना की तस्वीर हर घर में मिल जाएगी. दालान या ओसारे में, ससम्मान टंगी इस तस्वीर से जुड़े अलग-अलग किस्से हर घर में मिल जाएंगे.

सुनयना! तेरे नैन बड़े बेचैन!

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इलेस्ट्रेशन:मनीषा यादव

आदरणीया दी,

कब से यह पत्र लिखना चाह रही थी. बार-बार कुछ स्मृतियां, बचपन की स्मृतियां कौंधती थीं. उन्हें आपसे पूछने का, सही-सही जानने का मन होता था. बहुत समय से सोचती रही, लिखना बस टल रहा था, सोच बराबर रही थी. टलते-टलते बीस वर्ष हो गए. आप भी कहेंगी, हद है यह तो! आपकी बड़ी-बड़ी आंखें हैरानी से खुल जाएंगी. सचमुच ऐसा भी क्या टालना! हमें अपने को स्थगित करना छोड़ना होगा, बड़ी खराब आदत है हमारी. अपने को टालते हैं, अपने आप को मारते हैं इसी तरह. आप ही कहेंगी, मैं जानती हूं. मेरे कारण भी सब घरेलू कहे जाएंगे. जानती हूं. हालांकि मैं इसे घरेलू नहीं मानती, निहायत राजनीतिक और सामाजिक मानती हूं आप भी मानती हैं. यह भी जानती हूं.

खैर, इन सैद्धांतिक बातों से अलग मैं आप से बात कर रही थी बचपन की. आपको मुझसे कुछ ज्यादा याद होगा. उस दिन की बात. मैं थी शायद छठी या सातवीं में. शहर का यह सरकारी कन्या इंटर  कॉलेज तब भी मुझे नया ही लगता था. स्कूल के तमाम कोने तब भी ठीक से नहीं जान पाई थी. याद है वो होमसाइंस की तरफ जाने वाला रास्ता! बीच में कैसी तो झाड़-झंखाड़ उगी थी. डर लगता था उधर जाते हुए. और बाथरूम, जिसमें अचानक, दिन में कभी भी सफाई होने लगती थी, पर लगता कभी नहीं था कि सफाई हुई है. कुछ मेहतर होने चाहिए थे, नहीं थे. इसी से शायद सफाई होने का कुछ भ्रम बना रहता था. लड़कियों के लिए क्रम से बने इन आठ दस टॉयलेट में न जाने कौन सुबह सुबह गंदा कर जाता था. जब कक्षा छह में मेरा भी प्रवेश इस स्कूल में हो गया तब मुझे पता चला कि कैसे मेरे देश में लड़कियां आठ-आठ घंटे तक पेशाब रोके रखना सीख जाती हैं! आपने मुझे मना किया था कि मैं तब तक उधर न जाऊं जब तक कि बहुत जरूरत न हो और अगर बहुत जरूरत हो तो दो चार लड़कियों के साथ जाओ. क्या था उधर? आपने कहा कि सब कहते हैं भूत है. कभी किसी ने देखा है, इस पर आपको भी संशय था. आपने ही कहा कि शायद कुछ गड़बड़ है उधर, बचना ही ठीक है. आपने मुझे बचाने के लिए पहले ही बता दिया था. आप मुझे बचाना चाहती थीं. उससे पहले कोई और लड़की थी ही, जिसने आपको बताया था, वह आपको बचाना चाहती थी. इस तरह एक-दूसरे को बचाने का क्रम बनता था. इसे हमें याद रखना था. पर हमीं में से तमाम लोग भूल जाते थे. यही कि एक- दूसरे को बचा लेने के प्रयत्न की एक जिम्मेदारी भी हमसे जुड़ती थी.

उधर मैं गई थी. अपनी एक सहेली को साथ लेकर. जरूरत बहुत दिन तक टाली नहीं जा सकती थी. एक रोज टालना मुश्किल हुआ था. तब जाना पड़ा था. यह मैंने आपको नहीं बताया था. बस, इंटरवल की घंटी बजते ही अपनी सहेली के साथ तीर की तरह भागी थी. इस भाग कर पहुंचने में इतना सा भी डर नहीं लगा था. बल्कि उस वक्त मैं भूत वाली बात एकदम भूल गई थी. लपक कर मैं और मेरी सहेली उस टॉयलेट के क्रमदार दरवाजों वाले बरामदे में घुसे थे और फिर क्या? एक-एक दरवाजा खोलते और वह गंदा मिलता, दूसरा, तीसरा… आखिर कौन इतना गंदा कर गया है? यह प्रश्न हमने एक-दूसरे से पूछा था. मेरी सहेली के पास भी कोई जवाब नहीं था. हैरानी से वह रोने को थी. अब क्या करें? हम टॉयलेट के उस क्रमदार बरामदे से बाहर निकल आए. तब समझ आया कि इतनी भयानक दुर्गंध इसी से उठ रही थी. इससे पहले जल्दी में हम दुर्गंध को भी लांघने की कोशिश कर गए थे. अब नहीं लांघ सकते थे. चारों तरफ खाली था. कुछ दूर पर एक तरफ अध्यापिकाओं के लिए एक-एक कमरे वाले घर थे. कभी तैयार किए गए होंगे. बड़े पुराने थे. उनमें कोई रहता नहीं था. वे भी डरावने और भुतहे लगते थे. उनके सामने भी झाड़-झंखाड़ उग गई थी जैसे कि टॉयलेट के आस-पास, सामने भी. ये सब टॉयलेट स्कूल के अहाते में एकदम पीछे, कुछ छिपे हुए से बने थे. तब भी अगर इनके सामने या अगल-बगल कोई बैठ जाए तो किसी भी क्षण, किसी भी अध्यापिका के गुजरने का एक खतरा भी बना रहता था. तमाम लोग, माली, चपरासी वगैरह इसी तरफ से हो कर गुजरते थे. कुछ लड़कियां छिप कर इधर के पत्थरों पर बैठ कर स्वेटर बुनती थीं. या लच्छी वाले उन का गोला बनाने आ जाती थीं. माली का लड़का चौबीस घंटे खुर्पी हाथ में पकड़े इधर ही कहीं रहता था. सुनसान किंतु किसी के भी आ जाने की संभावना लिए यह जगह थी. इतना भय था, न जाने बिना कुछ देखे ही अब भय से टांगें भी हल्का हल्का कांप रही थीं. हिम्मत बनाए रखने के हजार तरीके याद नहीं आ पा रहे थे. फिर भी, फिर भी, क्या करें, हमने वह रिस्क लिया और वहीं आस-पास, एक की निगरानी में दूसरा और दूसरे की निगरानी में पहला, कुछ इसी तरह काम चला पाए और संकल्प धरे कि सचमुच कभी इधर नहीं आएंगे. इस तरह हमने भी सीखा, घंटों अपनी जरूरत को स्थगित रखना.

देखिए, यह बात मैंने आपसे छिपा ली थी. सिर्फ यही कहा था कि उधर ऐसा भी कुछ नहीं है, जिससे इतना डरा जाए. किसी ने ऐसे ही डर फैला दिया है. बस, गंदा बहुत है. गंदगी और झाड़-झंखाड़ में तमाम अदृश्य चीजों का डर हो सकता है. जो हो भी सकती थीं और नहीं भी. यह आखिरी बात मैंने नहीं कही. बल्कि एक मस्ती दिखाई. डर से मुक्ति की मस्ती जैसी मस्ती. आप कुछ कुछ जान गई थीं. चिंता आपके माथे पर उभरी थी, पर आपने मुझ पर भरोसा कर लिया था. आप मुझसे थीं ही कितनी बड़ी. मात्र तीन वर्ष! पर ऐसा लगता कि दुनिया जहान की जितनी प्रमाणिक जानकारी आपको है, वह हमें कभी हो ही नहीं सकती. सारा ज्ञान आपसे हमें सीखना होगा. गुरुदक्षिणा की भी कितनी ही बार बात उठती थी. आप कुछ अपने काम की जरूरी चीजें इसी मद में डाल देती थीं. लेकिन हम असमर्थ शिष्य थे. मां की हिसाब कॉपी में आपकी गुरुदक्षिणा वाली लिस्ट लिखवा देते थे. यह सबसे ठीक जगह लगती थी, जहां से किसी चीज को लंबे समय तक याद किया जा सके. उतने लंबे समय तक, जब तक कि हम समर्थ न हो जाएं. हम याद रख लेंगे, इसका हमें भरोसा था. लेकिन कहां? हममें से कोई भी तो आपकी गुरुदक्षिणा नहीं दे पाया! शादी के बाद सब के सब पितृसत्ता के सांचे में जबरन बैठा दिए गए. हांफते कांपते उसी में अपने को अंटाते रहे. वहां कुछ अपने जैसी ही औरतें थी, सब भूल गई थीं कि औरतों को कैसा होना चाहिए. उन्हें कभी बताया ही नहीं गया था. उनकी तरफ उम्मीद से देखी हमारी सारी नजरें वापस लौट आती थीं. उन्हें अपने आकाओं के आगे लगातार अपनी ईमानदार भूमिकाओं को प्रमाणित करना पड़ता था. वे जुटी रहती थीं दिन रात. वे भूल गई थीं कि वे नींद भर नहीं सोती हैं, चैन भर नहीं देखती हैं, पेट भर नहीं खाती हैं, घ्राण भर नहीं सूंघती हैं, मन भर नहीं जीती हैं. वे अपनी महानता में बिलबिलाती हुई न जाने किसकी बाट जोहती रहती थीं. उनके पाले लड़के भी उन्हें छोड़ कर उनके आकाओं की ओर जा मिलते थे. उन्हें याद दिलाने की कोशिश में वे कोशिश करने वाले को अपना शत्रु समझ लेती थीं. मामला उतना सीधा नहीं था दी, जितना कि मैं अभी कह पा रही हूं.

ये कौन सी मनतोरूआ बातों में फंस गई मैं भी! देखिए, जब लंबे दिनों तक आदमी नहीं बोलता तो अचानक बोलने का मौका पाने पर सब एक ही बार में बोल देना चाहता है. मैं भी यही करने लगी. मुझे माफ करिएगा. कहने के इस उतावलेपन में कुशल समाचारों का औपचारिक तरीका भी भूल गई. जरूरत थी क्या इसकी? मैं आपसे सच में पूछती हूं? नहीं न. जाने दीजिए. अपनी इस बहन को आप जानती ही हैं. आप जितनी जिद्दी थीं, उससे एक कदम कम नहीं.

आपकी जिद वाली बात ही थी, जिसमें पूछना था. तभी से पूछना चाहती थी कि क्यों आप, छोटी सी आप, कोई सात-आठ बरस की, आठ कोस पैदल चल कर अपने लक्ष्य तक पहुंच भी गईं तो वहां से लौट क्यों आईं? वापस. बात आपके बचपन की थी.  हमारे सामने बार बार बताने से साक्षात हो गई थी. हम उसके गवाह नहीं थे. आप खुद ही उसकी गवाह थीं. सात-आठ बरस की नन्ही सी गुडि़या आप उस दिन स्कूल नहीं जाना चाहती थीं. आपने साफ साफ कह दिया था. पर मां बाप, बच्चों की साफ कही हुई बातों को भी साफ देखना नहीं चाहते. वे अड़े रहे कि स्कूल जाना पड़ेगा. आपको मेरी तरह स्कूल जाने से नफरत नहीं थी. आप अच्छे से तैयार हो कर जाती थीं. आपका अनुशासन अक्सर हमें उलझन में डाल देता था. पर आपके भीतर एक जिद्दी गुडि़या भी थी. आप स्कूल के रिक्शे पर बैठ गईं और स्कूल पहुंच कर रिक्शे से उतर भी गईं. रिक्शे पर और भी कई बच्चे बैठ कर जाते थे. वे सभी उतर कर स्कूल के भीतर चले गए. आप नहीं गईं. रिक्शा मुड़ कर जब वापस लौटते हुए दृश्य से खो गया तब आप मुड़ीं और वापस चल पड़ीं. जब आपने ‘न’ कहा था तो उसका मतलब ‘न’ ही था. यह हम लोगों ने तभी जाना था. वापस लौट कर आप मां के स्कूल के लिए चल दीं. लोग कहते हैं कि आप आठ कोस चलीं लेकिन मां का स्कूल ढाई तीन किलोमीटर की दूरी पर था. आप इतना पैदल चल कर पहुंचीं. मां के स्कूल तक. पता नहीं फिर क्या सूझा कि आप स्कूल के अंदर जा कर मां को ढूंढ कर पा लेने के बजाय लौट पड़ीं. लौटतीं कहां? घर पर तो ताला था. पिता जी अपने काम पर निकल चुके थे. इस तरह घर जाना भी व्यर्थ हुआ होगा! तब क्या हुआ? कितनी देर आप सड़क पर चलती रहीं? पता नहीं पिता जी को किसी ने खबर की थी कि वे अकस्मात ही साइकिल चलाते उधर से गुजरे थे? यह मुझे आज तक ठीक ठीक पता नहीं चल पाया. आप पकड़ी गईं और साइकिल पर, आगे के डंडे पर, अपनी तौलिया तहा कर रख कर, पिता जी ने उसी पर आप को बैठाया. थोड़ा-थोड़ा डांटते और डराते कि इस तरह अकेले घूमने से क्या क्या हो सकता है. साधु पकड़ कर ले जा सकता है. कुआनो नदी पर बनने वाले पुल में गाड़ सकता है. पता नहीं कितने बच्चों की बलि वह दे चुका है. और जो कोई अजनबी आदमी पकड़ ले जाए तो पता नहीं क्या क्या करवाए, भीख मंगवाए, हाथ-गोड़ तोड़ कर नचवाए, आंख अंधा कर के लाठी थमा दे और चौराहे पर छोड़ दे… आप बैठ गईं, कोई और उपाय जो नहीं रहा होगा! लेकिन घर भी नहीं जाना है, घर जाने का मलतब पहले पिता जी की डांट फिर स्कूल से लौट कर आई मां की फटकार. कहां जाएं? यही तो तय नहीं है? यही तो सब परेशानी है? आप भी कुछ देर चुपचाप बैठी रहीं. फिर साइकिल के चक्र में अपना पैर डाल दिया. पैर डालने से आपकी एड़ी छिल, कट गयी. खून टपकने लगा. पिता जी चौंक कर उतरे और आप को ले कर डॉक्टर के यहां भागे. फिर क्या? वही मलहम पट्टी शुरू और आपको पिता जी की देख रेख का अतिरिक्त सुख! मां डांटना भूल भाल कर आप पर प्यार जताएं, पैर सहला कर पूछें कि रानी, अभी दर्द कर रहा है? अच्छा तरीका था इतने सारे भाई बहनों के बीच प्यार छीन झपट कर अपनी तरफ कर लेने का! पर सच सच बताइए कि क्या यही जो मैं समझ पाई, सच था? या कि आप, जो इतनी अनुशासित थीं, घर के इसी अनुशासन को नापसंद कर रही थीं? मुझे यही लगता था.

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इलेस्ट्रेशन:मनीषा यादव

और उस दिन, उस दिन तो मैं खुद ही हैरान रह गयी. हुआ यह था कि मैं अपनी सहेलियों के साथ स्कूल में इधर उधर घूम रही थी. कक्षा न जाने किस वजह से नहीं चल रही थी. मैं थी आठवीं में और आप ग्यारहवीं में. थोड़ा छिप छिप कर घूम रहे थे. मेरी सहेली अनुराधा भी जानती थी कि अगर आप -ने हमें फालतू में घूमते देखा तो रोक कर प्रवचन पिला सकती हैं. वही आदर्श जीवन वाला प्रवचन. हमें इससे बड़ी कोफ्त होती थी. बेवजह अपने को हीन दिखाना पड़ता था. अपनी नहीं की गई गलती के लिए आंखें नीची रखनी पड़ती थीं. अपनी सहेलियों के आगे शर्मिंदा होना पड़ता था. बेवजह, एकदम बेवजह! बाद में कभी अवसर देख कर मैंने आपको यह जता भी दिया था. तब आपने कहा कि बड़े ऐसा कर सकते हैं. उन्हें अधिकार है. पर आपने यह भी कहा कि खुद आपको कोई लेक्चर पिलाए तो बड़ा बुरा लगेगा. फिर हमें क्यों? आप हंस पड़ीं. जिसका मतलब था कि इसमें मजा बहुत है. हम रूठ गए. तब आप मनाने लगीं. कहने लगीं कि अपने आप ही मुंह से सब अच्छी बातें छोटों के लिए निकल जाती हैं. यह अभ्यास है. उपर से चली आती एक चेन है. इसे आप तोड़ देंगी. आपने तोड़ दिया. पर फिर भी हम जानते थे कि आप हमारे अच्छे के लिए यह सब कहती थीं. आप क्यों इतनी अच्छी बन जाती थीं?

इस तरह आपसे ही बचते हुए हम घूम रहे थे. देखा कि मैदान में एक जगह लड़कियों की भीड़ लगी है. नजदीक गए तो पता चला कि कोई लड़की गाना गा रही है. पर भीड़ इतनी थी कि मैं गाने वाली लड़की का चेहरा नहीं देख पाई. हम सब सहेलियां इसे समय का सार्थक उपयोग मानते हुए भीड़ के पीछे ही खड़े गाना सुनने लगीं. मुलायम सी मधुर स्वर लहरियां तैर रही थीं. गीत के बोल थे  ‘अजीब दास्तां है ये, कहां शुरू कहां खतम…..’  उस दिन से पहले मैंने कभी इस गीत पर गहराई से सोचने की जरूरत नहीं समझी थी, पर उस दिन यह गीत मानो आत्मा से बह रहा था. एक आत्मा से बहता हुआ दूसरी आत्माओं को भिगोता चला जा रहा था. मैं तो डूब ही गई. मेरी सहेली अनुराधा उत्सुक हो उठी कि कौन लड़की गा रही है. वह भी इतना सुंदर, जिससे हम अब तक अनजान बने रहे! हमें अपने अनजान बने रह जाने पर गहरा अफसोस हो रहा था. अनुराधा उझक उझक कर देखने की कोशिश करती थी पर दिख नहीं रहा था. किसी सीनियर लड़की ने उसे डांट दिया तो उसने उझक कर देखना छोड़ दिया और बोल कर पूछने लगी. आखिरकार मेरी ही कक्षा की एक लड़की ने कहा कि कोई ग्यारहवीं क्लास की दीदी गा रही हैं. मैं खुश हो गई. मैंने आत्मविश्वास से भर कर कहा कि मुझे पता चल जाएगा, क्योंकि मेरी बहन ग्यारहवीं में तो हैं. तभी एक बड़ी लड़की ने पीछे मुड़कर कहा-‘अरे वही, जिसकी बड़ी बड़ी आंखें हैं. बाप रे, इतनी बेचैन आंखें मैंने कभी नहीं देखीं.’ मुझे यह टिप्पणी समझ में नहीं आई. ‘बड़ी बड़ी आंखें पर बेचैन आंखें’ यह क्या माजरा था? मैंने तभी सोचा था कि आपसे पूछूंगी. फिर क्या खबर आई कि भीड़ छंटने लगी. हम भी लौटने को थे कि किसी ने आप- का नाम पुकारा. मैंने तुरंत ही रुक कर देखना चाहा कि आप कहां हैं. तभी अनुराधा को भी यह मौका मिल गया कि वह झांक कर गोल घेरा बना कर बैठी उन लड़कियों में आज की मनमोहिनी गायिका को देख ले. अनुराधा ने तब मुझे हिला कर कहा, ‘हाय राम! अर्चना दी हैं.’ मुझे बिल्कुल यकीन नहीं हुआ. मैंने अपनी खुली आंखों से तब आपको देखा. घुटने मोड़ कर मगन भाव से पलकें नीचे किए हल्का हल्का मुस्कुराती आप- को मैंने देखा. यह आप नहीं थीं! घर वाली आप नहीं थीं. यह तो आपके भीतर कोई और ही छिपा बैठा था. आज उसे देख रही थी! सफेद सलवार और आसमानी कुर्ते पर सफेद दुपट्टा इतना खिल रहा था, यह भी आज ही देखा! इस तरह मगन मन बैठी हुई आपका यह चित्र मेरे दिमाग के कंप्यूटर में आज भी सुरक्षित बना हुआ है. मन होता था कि नाचूं, गाऊं, चिल्लाऊं कि मैंने आज क्या देखा, कि यह गाने वाली बड़ी-बड़ी आंखों वाली, यह बेचैन आंखों वाली और कोई नहीं मेरी है. मेरी अपनी. मेरा होना कितना बड़ा होना हो गया था उस वक्त. मैंने अनुराधा का हाथ ऐसे जोर से ऊपर उठा उठा कर नचाया कि वह खिलखिला कर हंसने लगी, फिर हाथ छुड़ाने लगी कि बस, अब छोड़ भी! ‘खुशी से मर ही न जाते, अगर एतबार होता!’ कुछ ऐसी ही हैरानी से खुली और प्रसन्नता से सिहरती आंखें लिए मैं चारों तरफ देख रही थी. और वही गीत मेरे मन में बज रहा था. हमेशा बजता रहा. वही गीत ‘अजीब दास्तां है ये….’

सचमुच अजीब दास्तां ही है समूची हमारी जिंदगी! इतने पहले आपको यही गाना पसंद आया था!

और तब कहीं जा कर आपने पलकें उठा कर भीड़ को देखा था. ‘बेचैन आंखें’ तब मुझे दिखी थीं. थिरकती हुई काली पुतलियां सारे जमाने को अपने में समेटे थीं. आप देख रही थीं कि लगता था कुछ खोज रही हैं! मैं आपको ताके जा रही थी कि मैं भी कुछ खोज रही थी, अपनी पहचान के निशान तलाश रही थी आपकी ढूंढ़ती निगाहों में! और आप थीं कि सबके कहीं पार निकल जाती थीं. आपसे तब से कितनी ही बार पूछा कि क्या आपने मुझे देख लिया था?

‘बहुत लोग थे, तुम भी थी.’ यह आप कह देती थीं. बहुत लोगों में अपने को मिला देना या अपनों को घुला देना या बहुतों में अपनों के निशान ढूंढ़ लेना, यह आपने समझाया था, पर मैं तब नहीं समझ पाई थी! अब जब समझ रही हूं तो आपको नहीं समझा पा रही हूं, वक्त मेरे हाथ से चिडि़या की तरह उड़ गया है. कहां चली गई आपकी आंखों की वह बेचैनी? कुछ तलाशती हुई वह अकुलाहट?

दुनिया को दु्रुस्त करने की सारी हहराती इच्छाएं…..

शादी क्या हुई, सब कुछ इस तरह बदल गया आपका!

भावहीन सूनी आंखें लिए कहां देखी जा रही हैं आप?

हम कब से, बीस सालों से उन्हीं में अपनी पहचान के चिह्न तलाश कर ले जाने की कोशिश में लगे हैं.

हम चूक गए हैं, यह जानते हुए भी.

आपकी अपनी बहन

अल्पना

नोटआप कहेंगी कि नोट लिखने की आदत नहीं गई. बस, एक बात और, पत्र के नीचे आपकी शिष्या भी लिखना चाहती थी, पर हिम्मत ही नहीं हुई.

हथियार

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इलेस्ट्रेशन:मनीषा यादव

अब भी उनकी निगाह मेन्यू से लिपटी हुई है.

उसकी आंखें उनकी ऊपर-नीचे टोहती, सरकती नजर को छूकर अनमनी- सी इधर-उधर उचकती, अपनी बढ़ाती ऊब को नियंत्रित नहीं कर पा रही हैं.

बूढ़े होने को आए, जाने इतना समय क्यों लगाते हैं चीजें चुनने में कि उनके स्वाद की ललक ही क्षीण हो जाए? मेन्यू में दर्ज खाद्य वस्तुओं की सूची इतनी लंबी-चौड़ी भी नहीं कि चुनने में भ्रम की स्थिति गह ले! जानते हैं वह और खूब अच्छी तरह से जानते हैं, कितनी मुश्किल से वह उनका साथ पाने के लिए अपने गहरे गुंथे समय में से कुछ समय झटक पाती है. सुबह नींद टूटते ही वह सोचना शुरू कर देती है-आज उसे क्या कुछ निबटाना है और सांझ को उनसे कैसे मिलना है. बीच में कई-कई रोज समय न हथिया पाने के चलते उनसे मिलना संभव नहीं हो पाता. फोन पर बातें करके ही संतुष्ट हो लेना पड़ता है. फोन पर बतियाकर उन्हें संतुष्टि नहीं होती. उन्हें उसकी नौकरी पर खीझ होने लगती है. काम निबटाकर वह क्यों नहीं अपने बॉस से कह पाती कि उसे उनसे मिलने पहुंचना है? कौन-सा कानून उसे मिलने से रोक सकता है? जाने कैसा दफ्तर है उसका! उनके दफ्तर में तो लड़कियां रजिस्टर साइन करने के बाद दिखतीं ही नहीं.

बातें सुनते-सुनते वह उनका ध्यान दूसरी ओर मोड़ना चाहती है- उनके जुकाम का मुद्दा उठाकर या उनके साइटिका पेन का हाल पूछ कर. नयी किताब कौन-सी पढ़ रहे हैं वे ?

‘ क्या करूं जुकाम के लिए? ‘ उसके आड़े हाथों लेते ही वे समर्पण की मुद्रा की ओट हो लेते हैं.

वह सयानों-सी समझाने लगती है. केमिस्ट की दुकान से फौरन विटामिन-सी की गोलियां मंगवाएं. सिर पर तौलिया डालकर सुबह-शाम भाप लें. उनकी आवाज से लग रहा है, उन्हें हरारत है.

उनका जवाब उसे तनिक आश्वस्त कर देता है. उसे अधिक चिन्तित होने की जरूरत नहीं. बुखार लगता जरूर है कि उन्हें, मगर थर्मामीटर उनके इस लगने को सिरे से झुठला देता है. कितने अकेले हैं!  वह भी इस उम्र में.

जहां तक उसे याद है, छह महीने-भर शेष हैं उनके अवकाश प्राप्त करने में. एकाध वर्ष का एक्सटेंशन मिल सकता है उन्हें.एक्सटेंशन पाने के लिए वह विशेष जुगाड़ करने के पक्षधर नहीं हैं. अपने आप मिल जाए तो उन्हें काम करने में कोई आपत्ति भी नहीं. उन्हें पूरी उम्मीद है कि उनके काम की संजीदगी पहचानी जाएगी.

वैसे आज भी उनसे मिलना मुश्किल ही था.

उसकी मेज पर से निबटी फाइलें उठाकर ले जाने आए चपरासी मांदले ने सहसा ही उसे सुखद सूचना दी, ‘कपूर साहब लंच के बाद ही चले गए, मैडम! साढ़े चार की उनकी फ्लाइट थी. कोलकाता गए. परसों लौटेंगे, यानी शेष फाइलें वह कल निबटा सकती है. प्रसन्नता की उमड़न दबाते हुए उसने मांदले से जानना चाहा था- अचानक कपूर साहब कोलकाता क्यों चले गये? मांदले रहस्यमयी हंसी हंसा था- उनकी बीवी ने उनके ऊपर तलाक का मुकदमा ठोक रखा है और कल उसकी सुनवाई की तारीख है. बीवी कपूर साहब के साथ रहना नहीं चाहती. बोलती है कि कपूर साहब मर्द नहीं हैं.

उसकी प्रसन्नता काफूर हो गयी. मांदले से पूछना चाहती थी, ‘कपूर साहब के बच्चे हैं ?’

उनका फोन नंबर मुंह जबानी याद है उसे. सहसा उंगलियां नंबर डायल करने लगीं.

संयोग से फोन उन्होंने ही उठाया. उसने उन्हें बताया कि वह चार के करीब दफ्तर छोड़ सकती है. आजाद मैदान क्रॉस कर वह चार बीस तक चर्च गेट ‘गेलार्ड’ पहुंच जाएगी. उनका क्या कार्यक्रम है?

‘सक्सेना के पितियाउत बड़े भाई को हृदयाघात हुआ है आज सुबह. सक्सेना छुट्टी लेकर उन्हें देखने बांबे हॉस्पिटल गया हुआ है. उसका काम भी जिम्मे आ पड़ा है.’

‘ठीक है’ निचला होंठ ऊपरी दंतपंक्ति के नीचे आ दबा.

‘ दुखी मत होओ. अच्छा सुनो, तुम पहुंचो गेलार्ड. अपना और श्रीवास्तव का काम पाठक के जिम्मे टिकाकर पहुंचता हूं चार बीस तक. ‘

उसे उनकी यही विशेषता भाती है. उसके आग्रह को वे टाल नहीं पाते. काम बहुत महत्वपूर्ण है उनके लिए मगर उससे अधिक नहीं.

सबसे अच्छी बात जो उनकी उसे लगती है, वह है- मां के विषय में वह उससे कभी कुछ नहीं जानना चाहते हैं. जितना समय वह उसके संग व्यतीत करते हैं, उसके बचपन के दिनों में टहलते रहते हैं. दूसरी शादी क्यों नहीं की उन्होंने? शादी वह करे, जिसे अकेलापन काटे. उस घर में रहते प्रतिपल वह उनके पास बनी रहती है. घर के प्रत्येक कोने में उसकी तस्वीरें सजी हुई हैं. घर की कड़ी खोलते ही वह किसी भी तस्वीर से बाहर छलांग लगा, उनके स्वागत में दौड़कर उनकी टांगों से लिपट जाती है, ‘ दिखाइए, मेरे लिए क्या लाए हैं? ‘ जेब से उसकी पसंद की चॉकलेट निकालकर वह बैठक में रखे डिवाइडर पर रखी चॉकलेट खाती उसकी तस्वीर के सामने रख देते हैं. चॉकलेट इकट्ठी होती रहती है. मिलने पर इकट्ठी चॉकलेट वे उसे थमा देते हैं. उनके सामने ही वह चॉकलेट के रैपर हटाकर एक के बाद एक खाना शुरू कर देती है और खाते-खाते हंसी से दोहरी होती हुई उस किस्से पर चमत्कृत हो उठती है, जिसे सुनाते हुए वह बताते हैं कि पिछली रात उन्होंने उसके साथ घर की बैठक में जमकर क्रिकेट खेली. बॉलिंग वह इतनी जोरदार करती है कि उसकी गेंद से रसोई की दो खिड़कियों के शीशे चटख गए. ट्रे में रखी कॉन्टेसा रम की भरी बोतल उलट गई.

जब तक वह रसोई से कांच की किरचें बुहारते, कूदकर वह अपने कद से बड़ा क्रिकेट का बल्ला संभाले उसी तस्वीर में जा छिपी, जो उनके बिस्तर की साइड टेबल पर सुनहरे फ्रेम में जड़ी रखी हुई है. दुष्ट डर गई थी. कहीं मां से उसे डांट न पड़ जाए कि तुम इतनी आक्रामक गेंदबाजी क्यों करती हो भला?

अब बताए, वह अकेले कहां हैं?

उनसे मिलकर घर देरी से पहुंचने पर उसका एक ही बहाना होता है- जाने क्यों, अंबरनाथ लोकल अचानक रद्द कर दी गई.

लोकल गाड़ियों का बहाना खासा कारगर बहाना है और विलंब से पहुंचने वालों के लिए अचूक रक्षाकवच.

सौतेले पिता, डाबीवली के एक छोटे-से जूता कारखाने में मामूली अधिकारी हैं, जिनकी घर में उपस्थिति घर को चमड़े की असहनीय बू से भर देती है. शायद घर को उस बू से बचाने के लिए ही मां रसोई में टंगे छोटे-से मंदिर के अगरबत्ती स्टैंड की अगरबत्तियों को कभी बुझने नहीं देती. अक्सर घर देरी से लौटने पर सौतेले पिता भी वही बहाना गढ़ते हैं, जो बहाना वह गढ़ती है. उसे विस्मय इस बात पर होता है कि मां उसके बहाने पर कभी उग्र नहीं होतीं, जबकि सौतेले पिता का बहाना उन्हें बहाना लगता है.

मां के सिटकनी-चढ़े बंद कमरे में आती उनकी सिसकियां उसे उदास करती हैं.

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मनीषा यादव

दीवारों को भेदने वाले उनके आर्त बोल भी, कि कारखाने में किसी स्त्री के साथ चल रही प्रेमपींगों के चलते ही वे घर विलंब से लौटते हैं. लोकल ट्रेन उनकी सुविधानुसार रद्द होती रहती है. सब समझ रही हैं वे. पछता रही हैं. जाने क्यों, उन जैसे रंडुवे के प्रेम के झांसे में आकर वे पसीज उठीं और अपनी बसी-बसाई गृहस्थी उजाड़ ली जबकि पहली पत्नी की ताई (दीदी) ने उन्हें फोन करके सतर्क किया था- सुनीता की मृत्यु दुर्घटना नहीं थी, आत्मदाह था.

‘ चीज पकौड़ों के साथ कसाटा आइसक्रीम खाओगी तुम ?’

‘ इतनी देर में यही चुन पाए आप?’ वह खीझ दबा नहीं पाई.

‘ कसाटा तो तुम्हें बचपन से पसंद है.’

‘बचपन पीछे छूट चुका.’

‘ तुम्हारा नहीं.’ उनका स्वर संजीदा हो गया.

‘ पसंद बदल नहीं सकती?’

‘ बदल गई होती तो मैं फिर कुछ और चुनता तुम्हारी नई पसंद.’ उन्होंने संकेत से बेयरे को पास बुलाया.

‘किस बात से ऐसा लगता है आपको’

‘बैठते ही तुम मेन्यू मेरी ओर सरकार देती हो हमेशा, तुम्हें यकीन है, खाने की जो भी चीजें मैं चुनूंगा, तुम्हारी पसंद की होंगी.’

उसे हंसी आ गयी. मेज पर मोतिया बिछ गया.

उनकी तुनक कम नहीं हुई, ‘अगर यह सच नहीं है तो मेन्यू स्वयं देख लिया करो.’

हंसी रुक नहीं रही थी. उन्हें तुनकाने में उसे मजा आ रहा था, ‘अब ऑर्डर भी दीजिए. लिखवाइए बेयरे को.’

ऑर्डर लिखवाने के उपरांत वे मुड़े उसकी ओर, ‘हंसी क्यों तुम?’

‘मजाक नहीं उड़ा रही मैं आपका.’

‘फिर क्या उड़ा रही हो?’

‘हंसी इसलिए आ गई कि मैं फिजूल आपसे उलझ रही हूं. सच यही है, मैं चाहती हूं मैं वही खाऊं, जो आप मेरे लिए चुनें. यह भी जानती हूं, आप इतना वक्त इसीलिए लगाते हैं क्योंकि मेरी पसंद की दस-पंद्रह चीजें गड्डमड्ड होने लगती हैं आपके सामने और आप सोचने लगते हैं, पिछली बार जो कुछ खा चुकी हूं, इस बार उसे दोहराया न जाए. क्या मैं गलत हूं?’

उनके चेहरे पर गहरा उच्छ्वास संवला आया, ‘नहीं! लेकिन उसने कभी तुम्हारी तरह नहीं सोचा…’

‘जरूरी नहीं था कि सभी एक तरह से सोचें?’ यह अचानक मां बीच में कहां से आ गई, जो कभी नहीं आती.

वे लगभग उखड़ आए–’ पैरवी कर रही हो? ठीक है, मगर फिर अगले को भी किसी से यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए थी कि मैं उसी की भांति सोचूं, जो उसे पसंद है वही करूं?’

उसे लगा, वह घुमड़न से उलझ नहीं सकती.

उसे अगले पल यह भी लगा, उसे उठना चाहिए और काउंटर पर जाकर अपनी शिकायत दर्ज करानी चाहिए कि ऐसे क्यों हो रहा है. हफ्ते भर बाद वह यहां आई है और यहां लगातार ‘कम सेप्टेंबर’ की वही पुरानी धुन बज रही है, जिसे वह पिछले हफ्ते सुन चुकी है? क्या उनके संकलन में कुछ और अच्छी धुनें नहीं हैं, जिन्हें बदल-बदलकर बजाया जा सके? ऑर्डर आने में अभी देर है. धुनें बदलवाना जरूरी है. वह उठकर काउंटर की ओर बढ़ चली. उसे मालूम है, उसके अचानक उठने और काउंटर की ओर बढ़ने पर वह कोई सवाल नहीं करेंगे. ऐसा नहीं है कि वे सवाल नहीं करते हैं. सवाल करते हैं–कभी-कभी. उसे उनके तीन महीने पूर्व किए गए एक सवाल का जवाब अभी देना बाकी है. सवाल आसान नहीं है. न उसका जवाब इतनी आसानी से दिया जा सकता है. सवाल उसके होने से जुड़ा है. वह है, तो उसे उस ‘होने’ को महत्व देना ही पड़ेगा. जिम्मेदार व्यक्ति न अपने प्रति गैर-जिम्मेदार हो सकता है, न दूसरों के प्रति. यही उसकी अड़चन है, जिसने उसे ठिठका रखा है.

वह जानते हैं,वह उन्हें बहुत प्यार करती है. उन्होंने बहुत चिरौरी की थी मां से–उन्हें सब कुछ छोड़कर जाना है, जाएं. जैसा चाहेंगी, लिखकर दे देंगे. कोर्ट-कचहरी की फजीहत उन्हें पसंद नहीं. हां, बच्चे के बगैर जीना उनके लिए कठिन है. दुनिया में उसे आंखें खोलने के साथ ही उन्हें गहरे अहसास हो गया था कि वह उस आंखें मिलमिलाती नन्हीं जान के बिना नहीं रह सकते.

उन्होंने उसके जन्म के समय की अपनी भावनाओं को उससे आठ वर्ष की उम्र में बांटा था कि उसके जन्म के समय उसे पहली बार देखने पर उसकी दादी ने उनसे कहा था, ‘मुन्ना, छोरी बूबहू तेरे जैसी लगे है. अंगड़ाई तोड़ तू ऐसे ही आंखें मिलमिला रहा था, जब पहली दफे सौर में मैंने तुझे दाई की गोद में देखा था.’

उसके आग्रह पर धुन बदल गयी.

वातानुकूलित खुनक-भरे वातावरण में राजकपूर की ‘श्री420’ के गीत ‘प्यार हुआ इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यों डरता है दिल..’ की मद्धिम छूती-सहलाती-सिहराती धुन तैरने लगी.

बदली धुन ने उन्हें भी अपने साथ गुनगुनाने के लिए मजबूर कर दिया.

‘तन्वी’

‘बोलो, पा!’

‘पुराने गाने पुराने मूल्यों की तरह हैं, नहीं?’

‘पुराने गानों में बड़ा दम है. कविता हैं.’ ‘मूल्य’ शब्द से उसने स्वयं को बचाना चाहा.

उन्हें भी समझ में आ गया–वह माहौल को कड़ुवाहट में डुबाने से बच रही है.

बेयरा ऑर्डर ले आया.

चीज बाल्स, जिन्हें वह पकौड़े कहते हैं, बड़ी प्लेट में सजे भाप छोड़ रहे हैं. ‘कसाटा’ कलबत्ता दो अलग-अलग प्लेटों में है. उन्होंने एक प्लेट उसकी और खिसकाई और चीज पकौड़ा उठाकर दांतों से कुतरने लगे. उनके दांतों में उम्र मरोड़े लेने लगी है. पिछले महीने निचले जबड़े की दाहिनी एक दाढ़ को निकलवाया है उन्होंने.

‘अजीब चलन हो गया है. किसी भी रेस्तरां में चले जाओ, अंग्रेजी की धुनें ही बजती हुई मिलेगी वहां.’

‘रेस्तरां का चलन ही वहां से आया है.’

‘क्यों, हमारे यहां ढाबे और मिठाइयों की दुकानों नहीं हुआ करती हैं?’

‘हुआ करती हैं, मगर उन्हें कभी संगीत से नहीं जोड़ा गया.’

‘हो सकता है, वहां भी अंग्रेजी धुनें बजने लगी हों.’ वह हंस पड़े.

‘अगली बार हम लोग किसी हलवाई की दुकान पर मिलेंगे. उड़पी-सड़पी में तो बर्तनों की खनक ही सुनाई पड़ती है.’ उसने उनकी हंसी में साथ दिया.

चीज बाल्स खासे कुरकुरे और स्वादिष्ट बने हैं. ‘कसाटा’ में बर्फ की अकड़ है. उसने चम्मच से अकड़ को खूंदा. खूंदने से निश्चित ही उसकी अकड़ में कुछ नरमी आएगी. आइसक्रीम को पिघलाकर खाना उसे पसंद नहीं. फिर तो रबड़ी का दूध ही पीना चाहिए. उसकी देखा-देखी उन्होंने भी आइसक्रीम को खूंदकर नरम करना शुरू कर दिया. अपनी अकड़ को आदमी कभी खूंदता है?

आइसक्रीम खाते हुए वह उन्हें देख रही है. गले की चमड़ी तेजी-से ढीली हो रही है. वे अब कसरत-वसरत भी नहीं करते. पहले नियमित कसरत किया करते थे. भुजाओं की सख्त मछलियों पर उससे मुक्के मरवाया करते थे. फिर एकाध सांस छोड़ मछली को चिपकाकर, उसे बांह में भर चूमते हुए कहते थे- ‘तुम्हारी मार के डर से उठकर मछलियां भाग गईं.’

मां के संग वह सौतेले पिता के घर आ गई थी.

स्कूल जाने से पहले उन्होंने ही उसे घर का टेलीफोन नंबर और पता रटवाया था. बच्चों को घर का पता और फोन नंबर भली-भांति याद होना चाहिए. मुसीबत में काम आता है. तीसरी सांझ मां और सौतेले पिता के घर से बाहर जाते ही उसने फोन का नंबर डायल कर उनसे बात की थी. वह जैसे उसके फोन का इंतजार कर ही रहे थे. पिछले तीन दिनों से वे दफ्तर नहीं गए थे. बैठे पी रहे थे. उसकी आवाज सुनते ही वे प्रलाप करते हुए से बोले, ‘तुम्हें लेने कल मैं डोबीवली आ रहा हूं, तुम्हारे बिना मैं जी नहीं सकता, मेरी बच्ची!’

‘आपने तो कहा था, पा! मैं आपकी बेटी नहीं हूं.’

‘यह तुमसे किसने कह दिया?’

‘आपको झगड़े के बीच कहते हुए सुना था.’

‘वह तो मैंने, तुम्हारी मां को नीचा दिखाने की मंशा से कहा था. गुस्से में मैं अंधा हो जाता हूं.’

‘तब फिर मुझे मां के साथ क्यों आने दिया?’

‘मां की जिद के आगे हार गया. यह भी सोचा, इतनी छोटी बच्ची मां को छोड़कर कैसे रह पाएगी, रह सकती हो, बोलो?’

‘नहीं, रह सकती. मां को भी मेरे साथ वापस ले आइए.’

‘अब नहीं ला सकता. बाकायदा लिखा-पढ़ी हुई है. उस आदमी को अब वह नहीं छोड़ सकती. छोड़ना ही होता तो यहां से जाती ही क्यों?’

‘पर पा, वह आदमी मुझे अच्छा नहीं लगता.’

‘और उस आदमी को तुम?’

‘मैं भी उसे अच्छी नहीं लगती.’ वह सिसकने लगी थी.

‘रोओ मत, मेरी बच्ची. बताओ, तुम्हारी मां इस बात से परेशान नहीं है?’

‘है, पा.’

‘तब’

‘मुझे अलग कमरे में सुलाने लगी है. मुझे अकेले डर लगता है, पा.’

‘तेज होती सुबकियों के बीच उसने उन्हें सूचित किया था- घर की घंटी बजी है. उसका अनुमान है, मां और सौतेले पिता घर आए हैं. मौका मिलते ही वह उन्हें दोबारा फोन करेगी.’

तेरह वर्ष कैसे कट गए! कट नहीं गए, काटे गए. मां को उसने कभी भनक नहीं लगने दी- पा और वह कब, कहां, कैसे मिलते हैं. मां उसे प्रतिक्षण चेतावनियों से लादती रही- उनका मरा मुंह देखे, अगर कभी वह अपने पा से बात भी करे. उसे अचरज होता मां के मुंह से ऐसी भाषा सुनकर. आखिर उनके भीतर घृणा के कितने कुएं हैं. जो अब तलक उलीचते-उलीचते भी खाली नहीं हुए? उन्हें कभी यह भी खयाल नहीं आया कि किसी बच्चे के लिए कितना मुश्किल होता है, जो उसका पिता नहीं है, उसे पिता कह कर पुकारना! उस घर में रहते हुए उसने सौतेले पिता से कभी कोई बात नहीं की. पढ़ाई में डूबी रहती दिन-रात. कक्षा में सदैव अव्वल आती. अव्वल आने ने ही रेलवे में नौकरी पाने में उसकी मदद की.

उन्हें छींकता हुआ पाकर वह अनायास चिंतित हो आई.

‘क्या हुआ? ठंडा खाने का असर है?’

‘ए.सी. कुछ बढ़ा हुआ नहीं लग रहा?’

‘ठंडक जितनी थी, उतनी ही है, आइसक्रीम नुकसान कर गई. सर्दी आपको वैसे ही रहती है.’

चेहरे को लापरवाही से झटका उन्होंने, ‘छोड़ो, छींक के डर से मैं आइसक्रीम खाना नहीं बंद कर सकता.’

‘सुड़प-सुड़प’ आवाज निकालते हुए वे आइसक्रीम खा जरूर रहे हैं, मगर उनकी निर्निमेष दृष्टि सामने पड़े परदों की सांधों से उलझी जाने कहां गुम हो गई है. ऐसी मुद्रा में वे जब भी होते हैं, उसे लगता है, उसके साथ होते हुए भी वे कहीं स्वयं से जा भिड़े हैं. अपनी भिड़ंत से बाहर आ अक्सर वे उसके लिए अपरिचित हो उठते हैं. तनिक हिंसक, जबकि वे हिंसक नहीं हैं. प्रकृति नहीं है उनकी हिंसक.

‘तुम्हें मालूम है, तुम्हारी मां का शक गलत नहीं है उसके बारे में.’

उसने चम्मच चाटते हुए पूछा, “समझी नहीं, किसके बारे में?”

“उसके बारे में जो जूते के कारखाने से घर रोज देरी से लौटता है. है एक मराठी लड़की उसकी जिंदगी में.”

चकित हो उठी. पा को कैसे मालूम? उसने तो कभी कुछ कहा नहीं. उन्होंने कभी कुछ पूछा भी नहीं. फिर? यानी मां के बारे में सारी जानकारी है उन्हें! रास्ते अलग हो जाने के बावजूद जानकारी है तो उसे सच स्वीकार करना ही पड़ेगा. उन्हें मालूम है तो वह छिपा भी नहीं सकती. मां की सिसकियां घर की दीवारें फांद क्या उन तक दौड़ आती हैं?

‘हां, इन दिनों मां खासी परेशान रहती है.’ उसने स्वीकारा.

उनके स्वर में विद्रूप उतरा, “खामोशी से सह लेना चाहिए, जैसे मैं सह लिया करता था, जानते हुए कि वह चमड़ेवाले के साथ घूमती है.”

‘अब पता चल रहा होगा उसे, अकेला कर दिया जाना कितना खतरनाक होता है.’ उन्होंने आगे टिप्पणी की. जैसे उनके सामने वह नहीं, मां बैठी हुई हो और उन्होंने अपने पंजों में बाघनख पहन लिए हों.

वह भेद नहीं पा रही है उनके चेहरों को. मां की पीड़ा उनके नासूरों पर फाहा साबित हो रही है.

‘उम्र में भी चमड़ेवाला उससे छह साल छोटा है.’

अब नहीं सहा जा रहा है. यह हिंसक व्यक्ति उसके ‘पा’ नहीं हैं. हों भी तो उसे स्वीकार नहीं. वहीं ठहरे हुए हैं, पुश्तैनी दुश्मन की तरह.

बेयरा तश्तरी में बिल ले आया.

लपककर उसने बिल उठा लिया. उनकी छीना-झपटी के बावजूद पहली बार बिल उसने चुकाया. कमाने के बावजूद उनका बिल चुकाना उसे अभिभावक का संरक्षण लगता रहा है, जबकि घर में वह मां से अपने खर्च के लिए एक पैसा नहीं लेती, बल्कि हजार रुपया महीना उन्हें पकड़ा देती है. आठवीं कक्षा में आते ही उसने हिंदी पढ़ाने के दो ट्यूशन पकड़ लिए थे.

उसका बिल चुकाना उन्हें खिन्न कर गया.

स्वचालित दरवाजा खोलकर दोनों फुटपाथ

पर आ गए.

‘तुम घर रहने कब आ रही हो?’ उनका सवाल उसकी चुप्पी को खरोचने लगा. बाहर उमस बढ़ गई है. उमस ने उसे अनमना कर दिया था. उमस उससे झेली नहीं जाती. सबसे बुरे लगते हैं उसे उमस भरे दिन लेकिन यह भी सच है कि पा के साथ वह जब भी होती है, उमस उसके पास फटकने से कतराती है. जाने आज क्यों उलटा हो रहा है. लग रहा है, उमस उनके साथ के बावजूद बढ़ रही है और निरंतर बढ़ती ही जा रही है, यहां तक कि सांसों में घुलती उसकी खारी आर्द्रता, सांसों को सीने तक पहुंचने नहीं दे रही है.

उसे मालूम है, साथ चलते हुए वह उसकी चुप्पी बरदाश्त नहीं कर पाते. किसी भी क्षण वे इस हिमाकत के लिए उसे टोक सकते हैं. उन्हें कुछ क्षण पहले किए गए अपने सवाल का जवाब भी चाहिए. सवाल नया नहीं है. तीन-चार महीने पुराना है. उन्होंने कहा था- जल्दी तय कर लो कब तुम चमड़ेवाले के घर से अपना झोला-डंडा उठाओगी. अपनी वसीयत भी उन्होंने तैयार करवा ली है. दो कमरों वाले उनके सुंदर फ्लैट की एकमात्र मालकिन वह है, उनकी बच्ची- तन्वी गुप्ता. उनकी अंतिम इच्छा है, वह अपने घर लौट आए. बालिग हो चुकी है अब वह.

वह सोचती है- वह क्या है आखिर! अपने लिए, उनके लिए मां के लिए?

मां ने कहा था, ‘किसी भी हालत में मैं तन्वी को तुम्हारे पास नहीं छोड़ने वाली. जानती हूं- तुम तन्वी के लिए तरसोगे, रोओगे, दीवारों से माथा सिर कूटोगे, कूटते रहो, जीवन पर्यंत कूटते रहो…’

एक सांझ उन्होंने उससे कहा था, ‘जिस दिन तुम अपने घर लौट आओगी, उसके पास उसके आंसू पोंछने वाला कोई नहीं बचेगा.’

‘बोलो तन्वी कब घर आ रही हो तुम?’ उनका स्वर अधीर हो आया.

‘किसके?’ उसकी कनपटियों पर उमस पिघल रही है.

वे शायद मुस्कराए उसके सवाल पर, ‘अपने और किसके.’

‘वह तो आपका घर है, पा .’

वह चिढ़-से गए, ‘जहां रह रही हो, वह किसका घर है?’

‘मां का.’ कोई हिचक नहीं थी उसके स्वर में.

‘पगली, वही तो मैं कह रहा हूं, तुम अपने घर लौट आओ.’

‘निर्णय ले लिया है, अपने घर ही लौटना चाहती हूं, पा.’

‘तब दिक्कत क्या है?’

‘दिक्कत है, घर ढूंढ़ना.’

‘क्या मतलब?’ उनका स्वर गुर्राया.

‘मतलब, अब मैं बालिग हो चुकी हूं पा! और अपने घर में रहना चाहती हूं. आपके पास ही वन-रूम-किचन किराए पर लेकर.’

उन्हें माटूंगा उतरना है और उसे डोंबीवली. शार्टकट आजाद मैदान ही है बोरीबंदर यानी शिवाजी टर्मिनल पहुंचने के लिए. उसने उनकी बाईं कोहनी धर ली और उन्हें सड़क क्रास करवाने लगी. उसे अचरज हुआ- उसकी पकड़ से उन्होंने अपनी कोहनी नहीं छुड़ाई. हठी बच्चे की भांति घिसटते हुए ही सही, उसका अनुसरण करते हुए रोड क्रास करने लगे.

किरदार

Nila-Avinash
इलेस्टेशन:मनीषा यादव

अविनाश, पहुंचते ही फोन कर देना वरना तुम्हारी मां को चिंता हो जाएगी.’

‘ जी मामा जी.’ और बस चल पड़ी थी.

‘अविनाश, तू यह मत समझ कि तुझे शादी के लिए भेजा जा रहा है. वहां मेरे दोस्त ब्रिगेडियर सिन्हा का घर और बाग हैं, वहां तू बस उनके परिवार के साथ छुट्टियां बिताने जा रहा है.’ वह जानता है यह जाल शादी के लिए ही बिछाया जा रहा है.

बस चलते ही, अच्छा मौसम होने के बावजूद अविनाश के मन की कड़वी स्मृतियां धुआं देने लगीं. सात साल हो गए. मन के छाले हैं कि सूखते नहीं बल्कि बार बार फूट कर उसे आहत करते हैं. हर स्त्री अब एक छलावा लगती है, आखिर उसका क्या गुनाह था? यही कि उसने तयशुदा शादी की थी? मां तो बस घर-बार और उनकी शानदार मेहमाननवाजी पर रीझ गईं. लड़की की सुंदरता, मौन और सादगी मां को अटपटी नहीं लगी. देखने-दिखाने की रस्म के बाद सबके कहने पर एकांत में उसने बस संक्षिप्त में बात की और फौजी जीवन की दुश्वारियों पर बात चलाते ही वह अचानक उठ कर चली गई , तब उसे लगा था कि शरमा रही होगी.  उसने सोचा लिया था कि अब तो शादी हो ही रही है, जिंदगी भर बातें कर लेंगे, मां की पसंद, मां का इकलौता यही तो सुख होगा उनके जीवन में. शादी के ताम-झाम के बाद जब अपनी जीवन संगिनी से मिलने की, वो इत्मीनान की, एक-दूसरे को जानने की रात आई तो शादी के शानदार पलंग पर फूलों की सजावट के बीच उसे काली नाइटी में वह पैर सिकोड़े सोई मिली….जगाने पर बहुत ठंडी आवाज में उसने कहा था,  ‘यह शादी नहीं है, अविनाश, समझौता है. सो जाओ.’

‘किस तरह का समझौता? मना कर देना था तुम्हें.’

‘किया था बहुत, कोई माना नहीं.’

‘…अब?’

‘अब क्या! कुछ भी नहीं. मैं नहीं रहूंगी यहां.’

जब वह अगले दिन मायके गई तो उसकी जगह लौट कर विवाह को शून्य साबित करने के लिए उसके वकील का नोटिस आया, जिसमें आरोप था कि वह नपुंसक है और विवाह के योग्य नहीं. वह जड़ होकर रह गया. मां और मामाजी ने उसके घरवालों से कहासुनी की, कोर्ट का फैसला होने तक अपमान उसे जलाता रहा. हालांकि वह आरोप साबित न हो सका, पर अब उसका ही मन न था कि यह संबंध बना रहे. उसने तलाक मंजूर कर लिया.

उसने अपनी पोस्टिंग लेह करवा ली थी और मां की दूसरे विवाह की जिद को टाल गया था. पर अब मां के अकेलेपन और अस्वस्थता की वजह से उसे जोधपुर पोस्टिंग करवानी पड़ी और मां के साथ रह कर उनकी जिद न टाल सका. थक गया था, हर बार वही बहस!

‘मां, इस अगस्त में 35 का हो जाऊंगा.’

‘चुप कर! 35 की कोई उमर होती है आजकल.’

पिछले कई दिनों से मामा यह माऊंट आबू प्रकरण चलाए जा रहे थे. इस बार मामा छाछ भी फूंक-फूंक कर पीना चाहते थे सो वे उसे लड़की और उसके परिवार के साथ पूरे हफ्ते छोड़ना चाह रहे थे. ब्रिगेडियर सिन्हा मामा के बचपन के दोस्त हैं, उनकी एक बहन है अविवाहित. अविनाश के मन में किसी बात को लेकर कोई उत्साह नहीं बल्कि मलाल हो रहा है, उसने सोचा था कि इस बार सालाना छुट्टी लेकर मां के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताएगा और … वह माउंटआबू जा रहा है, किसी अजनबी परिवार में.

शाम का झुटपुटा रास्तों और पहाड़ियों पर उतर आया है, तोतों का एक झुंड शोर मचाते हुए अपने ठिकाने को लौट रहा है, हवा में सर्दी की खुनकी महसूस होने लगी है. वह खुली खिड़की जरा सा सरका देता है. बस के अंदर नजर डालता है. सामने वाली सीट पर एक विदेशी युवती बैठी है. उसे देख मुस्कुरा देती है. वह उस बेबाक निश्छल मुस्कान पर जवाब में मुस्कुराए बिना नहीं रह पाता. न जाने किस गुमान में उसके हाथ बाल संवारने लगते हैं. अपनी इस कॉलेज के लड़कों जैसी हरकत पर उसे हंसी आ जाती है. वैसे आजादी में कितना सुकून है. अब उम्र के 35 साल मुक्त रह कर विवाह के पक्ष में वह जरा भी नहीं पर यहां भारत में जिस तरह बड़ी उमर की लड़कियों का कुंवारा रहना संदिग्ध होता है वहीं बड़ी उम्र के कंुवारे भी संदेहों से अछूते नहीं रह पाते. समाज का इतना दबाव होता है कि आप को कोई चैन से नहीं बैठने दे सकता. शादी-वादी. बेकार का बवाल! उसकी नजर फिर उधर चली गई, वह भी इधर ही देख रही थी. दोनों ने फिर मुस्कान बांटी.

लड़ी आकर्षक है. उसने मां की जबरदस्ती रखी हुई जैकेट निकाल कर पहन ली. लड़की ने फिर उसे देखा इस बार उसकी आंखों में आमंत्रण था, वह मुस्कुराया नहीं इस बार. एक गहरी नजर डाल, खिड़की के बाहर फैलते अंधेरे में दृष्टि डालने लगा. पहाड़ों-पेड़ों की सब्ज आकृतियां धीरे-धीरे स्याही में बदल रही थीं, उसके मन पर अन्यमनस्कता घिर आई. कहां जा रहा है वह और क्यों बेवजह? क्या समझौते की तरह दो लोगों के बंधने से जरूरी काम कुछ और नहीं? बेकार है यह विवाह नामक संस्था. मामा क्यों कहते हैं कि शारीरिक जरूरतें तो हैं ही, एक साथी की मानसिक जरूरत भी होती है? शारीरिक जरूरतों का क्या है, उस जैसे आकर्षक पुरुष के लिए लड़कियों की कमी है क्या?  जैसे-जैसे अंधेरा गहरा रहा है, वह उस विदेशी युवती की नजरों को अपने चेहरे पर महसूस कर रहा है. उसने चेहरा घुमा लिया है खिड़की की तरफ फिर से, हालांकि इस एक मुद्रा में उसकी गर्दन दुखने लगी है पर वह नहीं चाहता कि लड़की किसी किस्म की गलतफहमी पाल ले.

पहाड़ी रास्तों से होकर ब्रिगेडियर सिन्हा के बंगले पर पहुंचने में 15 मिनट लग गए. सारे रास्ते वे बोलते रहे वह सुनता रहा, कि कैसे फौज छोड़कर वे यहां सेटल हुए, फार्मिंग में उनकी शुरू से रुचि रही है. वे स्ट्राबेरीज उगाना चाह रहे हैं इस बार. यहां वे बहुत लोकप्रिय हैं आदि-आदि. उनके बंगले के गेट से पोर्च तक एक मिनट की ड्राइव से लग रहा था कि खूब बड़ी जगह लेकर घर बनाया गया है. अंदर पहुंच कर, राम सिंह को उनका सामान गेस्टरूम में रखने का आदेश देकर, उसे हॉलनुमा ड्रॉइंगरूम  में बिठा कर वे अंदर कहीं गायब हो गए. हॉल की सज्जा कलात्मक थी. किसी के हाथ से बनी सुन्दर पंेटिग्स, जिनमें ज्यादातर राजस्थानी स्त्रियों के चेहरे थे, सांवला रंग लंबोतरे चेहरे, खिंची हुई काजल भरी आंखें और तीखी नाक वाली. पूरे हॉल पर नजर घूमती हुई एक जगह आ टिकी, एक लंबी आकृति स्टूल पर चढ़ी, एक पेंटिग के लिए कीलें ठोक रही थी. अचानक वह जीती जागती पेंटिंग धम्म से ड्रॉइंगरूम के गलीचे पर कूदी.

‘हलो’ कह कर वह खिसकने लगी….

‘अविनाश, ये मेरी बेटी है नीलांजना. बीएससी कर रही है.’

‘बेटा जाओ मम्मी को भेजो और किचन में चाय और स्नैक्स के

लिए कहना.’

चाय की औपचारिकता के बाद वह गेस्टरूम में आ गया, जो एक छोटा-मोटा सा समस्त सुविधाओं से युक्त फ्लैट ही था.

डिनर टेबल पर बहुत से अनजाने चेहरे थे.

‘अविनाश, ये रेवा है मेरी बहन, जेजे आर्टस में लैक्चरर है. मयंक मेरा बेटा, आईआईटी बॉम्बे से इलेक्ट्रॉनिक्स में इंजीनियरिंग कर रहा है , ये मयंक का दोस्त केतन है. तुम पहले आए होते, ये सब एक सप्ताह से यहीं थे, कल जा रहे हैं.  रेवा ! तुम तो रुकोगी ना! ‘

‘जी दादा, पर वो…एक एक्जीबीशन थी मेरे स्टूडेन्ट्स की’

‘बुआ! रुक जाओ ना! भाई को जाने दो कल, आप अभी तो आई थीं.’

‘ठीक है.’ उसने अविनाश पर उड़ती हुई निगाह डालते हुए कहा.

उसने पहली बार रेवा को गौर से देखा. तांबई रंग, बड़ी, काजल से लदी आंखें, भरे होंठ और थोड़ी चौड़ी नाक चेहरे पर परिपक्व, सधा हुआ भाव. भरे संतुलित जिस्म पर बाटिक प्रिंट का भूरा कुर्ता और जीन्स, घने काले लंबे बाल आकर्षक मगर बेतरतीब जूड़े में लपेटे हुए. एकाएक आप पर छा जाने वाला दृढ़ व्यक्तित्व. बात करने के ढंग और शब्दों के चयन से ही लगता है कोई बुद्धिजीवी कलाकार बात कर रहा है. फिर नजर घूमी तो नीला पर जा टिकी गंदुमी रंग, बुआ की सी ही बड़ी-बड़ी लंबी आंखें पर नाक और होंठ मां जैसे, नाजुक.

‘क्या देख रहे हैं आप, पापा ! आपके मेहमान खाना तो खा ही नहीं रहे.’ ‘ओह हां अविनाश लो न .’

सुबह वह देर से उठ सका. उठते ही खिड़की में आया तो देखा नीचे मयंक और उसका दोस्त जिप्सी में सामान रख रहे थे. मयंक ने वहीं से चिल्ला कर अलविदा ली और ब्रिगेडियर सिन्हा उन्हें छोड़ने चले गए. वह नहा धोकर नीचे उतर आया. नीलांजना जल्दी-जल्दी ब्रेकफास्ट कर कॉलेज जाने की तैयारी में थी.  उसके लिए भी वहीं चाय आ गई.

‘मेरा मन नहीं कर रहा कॉलेज जाने का पर आज मेरा प्रैक्टिकल पीरियड है, बाहर बुआ मेरे लिए एक पेटिंग बना रही है, देखते रहिएगा, बोर नहीं होंगे. शाम को मैं आऊंगी तब घूमने चलेंगे.’

वह हंस पड़ा. चाय पीकर वह बाहर आ गया. रेवा सचमुच एक पेंटिंग में व्यस्त थी. वह पीछे जाकर खड़ा हो गया.

‘छोड़ क्यूं दी? मैं तो…

‘कोई बात नहीं. वैसे भी यह पिछले साल से चल रही है पूरी हो ही नहीं पाती. इसके बीच न जाने कितनी पेटिंग्स बना डालीं. यह अटकी हुई है. दरअसल बॉम्बे होती तो पूरी हो जाती, इसे नीला ले ही नहीं जाने देती.’

हंसती हुई रेवा अच्छी लगती है. हंसी चेहरे पर से गंभीरता के मुखौटे को खिसका जाती है. उसने पेंटिंग को ध्यान से देखा, उसे वह नीला की ही पोर्ट्रेट लगी. चेहरा अभी अधूरा था, बड़ी आंखें, चेहरे पर बिखरे सुनहरे बालों का गुच्छा, लैस वाला गुलाबी टॉप, बाकी पीछे बैकग्राउंड अधूरा था. तस्वीर अधूरी होने की वजह से उदास सी लग रही थी. रेवा ने बालों से लकड़ी का मछली के सिर वाला कांटा निकाला, जो कि उसकी रुचि के अनुसार कलात्मक था और बाल कमर तक फैल गए और पहाड़ी बयार में उड़ने लगे. वह गौर से देखे बिना न रह सका. रेवा ने उसकी नजर को उपेक्षित कर दिया और ब्रेकफास्ट यहीं मंगवाने के लिए कह कर चली गई. ब्रेकफास्ट बाहर लॉन में लग गया और परिवार के बचे हुए सदस्य वहीं आ गए. ब्रिगेडियर सिन्हा ने कश्मीर मसले पर बात छेड़ दी तो वह चर्चा देर तक चलती रही. रेवा ज्यादा रुचि नहीं ले रही थी. वह उठ कर लाइब्रेरी में चली गई तो ब्रिगेडियर साहब मुद्दे पर आ गए. ‘तो अविनाश तुम्हारा रेवा को लेकर क्या ख्याल है?’

वह अचकचा गया. क्या कहे?

‘देखो बेटा, मुझे तुम्हारा अतीत मालूम है, रेवा को भी मैंने बताया है. अब तुम दोनों को ही विवाह को लेकर निर्णय ले लेना चाहिये. यह समझ लो यह आखिरी गाड़ी है, उसके बाद या तो सफर टाल दो, या इसी में चढ़ जाओ.’

लंच के बाद वह अपने कमरे में आने के बाद देर तक इस विषय पर सोच सोच कर उलझता रहा. रेवा आर्मी के माहौल में रही है, अच्छी लड़की है. क्या हां कह दे?

‘क्या सोच रहे थे? बुआ के बारे में?’

‘नीला, तुम कब आई?’

‘अरे कब से आकर खड़ी हूं, कॉफी लेकर. आप हैं कि गहरी सोच में

गुम हैं.’

सलवार कुर्ते में नीला बड़ी-बड़ी लगी. दोनों ने कॉफी पी ली तो नीला ने उसे खींच कर उठा दिया-

‘ जाइये, जल्दी कपड़े बदलिए ना. हम घूमने चलेंगे.’

‘हम कौन कौन?’

‘जाना तो मुझे भी था… पर मम्मी कहती है आप और बुआ ही जाएंगे. प्लीज अविनाश अंकल आप कहिए ना मम्मी से कि मैं भी चलूंगी.’

‘अंकल? क्या मैं इतना बड़ा लगता हूं.’

‘लगते तो नहीं पर …. तो क्या कहूं. फिलहाल अविनाश जी चलेगा!’

रेवा ने भी नीला की पैरवी की क्योंकि दोनों ही टाल रहे थे, एकांत. एक उमर के बाद कितना मुश्किल हो जाता है किसी से बंधना…. महज कुछ शारीरिक जरूरतों और सहारे के लिए. वह भी शायद यही सोच रही होगी. अपनी-अपनी आजादियों की लत लग गई है हमें. वह तो मुझसे भी दो साल बड़ी ही है. उम्र कोई मायने नहीं रखती, क्या उसके कई अच्छे दोस्त उससे बड़े नहीं? नहीं कर सकेगा अभी वह ‘हां’ जैसा ‘हां.’

‘कौन ड्राइव करेगा?’ नीला ने पूछा.

‘ऑफ कोर्स मैं नीलू, अविनाश जी को कहां इन पहाड़ी रास्तों का अंदाजा होगा! और तुम्हें दादा ने मना किया था न.’ रेवा साड़ी में थी, यहां भी वही कलात्मक स्पर्श.

नीला ही बोलती रही. सारे रास्ते दोनों खामोश थे, अपने अपने दायरों में. एक मंदिर की सीढ़ियों के पास जाकर रेवा ने गाड़ी रोक दी. ऊपर चढ़ते हुए उसने कहा-‘मैं अभी आई.’

‘क्या तुम्हारी बुआ जी बड़ी धार्मिक हैं?’

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मनीषा यादव

‘ऑ.. ज्यादा तो नहीं, अभी तो वह इस पुराने मंदिर में अपने एक स्केच के लिए फोटो लेने गई हैं. आपने क्या सोचा कि वे मन्नत मांगने गई हैं कि-हे भगवान इस हैंडसम फौजी से अब मेरी मंगनी हो ही जाए. गलतफहमी में मत रहियेगा. मेरी बुआ ही सबको रिजेक्ट करती है, वो तो मिस बॉम्बे भी रह चुकी है अपने जमाने में.’

‘अच्छा!’

‘बुरा तो नहीं लगा न.’

‘नहीं नीला, बच्चों की बात का बुरा मानते हैं क्या?’

‘अविनाश जी, मैं बच्ची नहीं हूं, एक बार अंकल क्या कह दिया आपने बच्चों में शुमार कर लिया.’

‘अच्छा मिस नीलांजना…..तो आप क्या कह रही थीं?’

‘श्शSS बुआ आ गई.’ कह कर उसने मेरा हाथ दबा दिया.

रेवा को बोटिंग में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी, सो वह शॉल लेकर

किनारे रखी एक बेंच पर बैठ गई, मैं न चाह कर भी नीला के साथ बोटिंग पर चला गया.

‘अविनाश जी, सनसेट के वक्त सबकी आंखों का रंग बदल जाता है, देखो आपकी और मेरी.’

नीलांजना की आंखों में समुद्र उफान पर था. उसके खुले सीधे सीधे भूरे बाल सोने के तार लग रहे थे. हवा में उड़ता उसका लेस वाला कॉलर.

‘अविनाश जी!  क्या देख रहे थे?’

‘यही कि तुम बहुत सुंदर हो.’

‘हां हूं तो. पर उससे क्या फर्क पड़ता है. प्रकृति में हर चीज सुंदर है. मुझे तो हर चीज सुंदर लगती है.’

‘हां तुम्हारी उम्र में मुझे भी सब कुछ सुंदर लगता था.’

‘अब.’

‘अब! अब नजरिया बदल गया है. वास्तविकताएं अलग होती हैं.’

‘सबका सोचने का ढंग है अपना अपना! क्या ये झील वास्तविक नहीं? वो तांबई ‘जैसाना’ जलपांखियों का झुंड रियल नहीं?’

‘है, नीला.’

‘अविनाश जी, पापा से सुना था आप कविताएं लिखते थे. फिर छोड़ क्यों दीं?’

‘तुम्हें रुचि है?’

‘हां. बहुत. पर आपने क्यों छोड़ा?’

‘वही.’

‘रियेलिटीज.’ नीला ने दोहराया और दोनों हंस पडे.

नीला, तुम्हें क्या मालूम जिंदगी कितनी बड़ी ग्रिम रियेलिटी है, जिसे तुम्हें बता कर डराना नहीं चाहता. ईश्वर करे तुम्हें जिंदगी उन्हीं सुंदर सत्यों के रूप में मिले. डरावने मुखौटे पहन कर नहीं. अविनाश ने दुआ की.

‘अविनाश जी, चलिए किनारा आ गया. आप क्या सोचते रहते हैं?’

‘कैसी रही बोटिंग?’ रेवा  चलकर पास आ गई थी.’

‘मजेदार.’

रेवा एक चांदी के जेवरों की दुकान में चली गई तो वह और नीला बाहर की ओर बैठ गए.

‘तुम्हें जेवरों में रुचि नहीं?’

‘बुआ जैसी ज्यूलरी में नहीं. कहां-कहां से आदिवासियों के डिजायन कॉपी करवा के, सिल्वर का ऑक्सीडाइज्ड करवा कर पहनती है. मेरा बस चले तो कानों में बबूल के गोल फूल पहनूं, बालों में रंगबिरंगे पंख लगा लूं. वनकन्या की तरह (दोनों हंस दिए).’

‘हमारे घर में किसी को हंसने का शौक ही नहीं है.’

‘नीलू.’

‘जी, बुआ.’

‘देख ये एमेथिस्ट जड़ा कड़ा पसंद है तुझे? तेरे नए परपल सूट के साथ मैच करेगा.’

‘अच्छा है बुआ.’

‘अविनाश जी, यह आपके लिए.’

‘मेरे लिए क्या?’

‘देख लीजिये.’

एक्वामेराईन स्टोन के बहुत सुंदर कफलिंक्स थे. पहली बार रेवा ने अपनी आंखों में आत्मीयता भर मुस्कुरा कर उसे देखा था. यानी?

फिर भी अभी भी वह वक्त लेगा. हां करने से पहले. ऐसे ही न जाने तीन दिन कब बीत गए. वो और नीला बहुत आत्मीय हो गए थे दो दोस्तों की तरह. एक दिन देर शाम –

‘मैं बुआ की जगह होती तो बहुत पहले आपसे शादी के लिए हां कह देती.’

‘मैं किस की जगह होता फिर?’ फिर एक हंसी.

‘आपके बारे में कुछ सुना था.’

‘सच ही सुना होगा.’

‘कैसी होगी वह लड़की, जिसने आपको बिना जाने .’

‘छोड़ो न नीला, शायद उसकी ही कोई विवशता हो.’

‘क्या वह किसी और से प्यार करती थी?’

‘शायद.’

‘ऐसा क्यों होता है, अविनाश जी? शादी जबरदस्ती का सौदा नहीं होनी चाहिए ना! ऐसे तो अधूरे रिश्तों की कतार लग जाएगी. आप से वह प्यार नहीं करती थी और शादी हुई, आप किसी को प्यार करें और शादी किसी से हो जाए, फिर उसकी जिससे शादी हो वह. ऐसे जाने कितनी प्यार की अधूरी तस्वीरें ही रह जाती होंगी न….!’

‘तुम अभी छोटी हो नीला, जिंदगी के सच समझने के लिए.’

‘अच्छा आप बुआ से शादी करेंगे?’

‘पता नहीं, नीला. दरअसल मैं यह सब सोच कर ही नहीं आया हूं. बस मामा की बात रखने के लिए चला आया.’

‘आप बहुत भावुक हैं और बुआ बहुत प्रैक्टिकल.’

‘ मैं भावुक हूं कैसे जाना?’

‘जिन्हें आप एडमायर करते हैं उन्हें आप जान भी लेते हैं.’

‘….. ‘

‘आप बहुत अच्छे हैं.’ नीला के नाइट सूट के ढीले कुर्ते में धड़कते सुकुमार नन्हे वक्षों की धड़कन खामोशी में मुखर हो गई थी.

‘.’

‘नीला! रात हो गई अब जाओ.’

‘ कॉफी!’

‘ नहीं.’

‘ गुडनाइट.’

अविनाश का मन अजानी आशंका और एक अजाने भाव से थरथरा रहा था. ठंडी रात में भी वह पसीने में डूब गया. सुबह देर से उठा, बाथरूम से मुंह हाथ धोकर निकला तो सामने रेवा चाय और ब्रेकफास्ट दोनों लेकर खड़ी थी.

‘देर तक सोए आज आप. लगता है यह नॉवेल पढ़ते रहे देर रात तक.’  रेवा  ने नॉवेल उठा कर देखा फिर रख दिया. मैं हतप्रभ था, नॉवेल? और मैं….?

‘आज आपके मामा जी का फोन आया था, रात को पहुंच रहे हैं.’

चुपचाप चाय पी गई. ब्रेकफास्ट भी हुआ. अचानक रेवा ने पूछा.

‘आज हम दोनों को पूछा जाएगा. आपने क्या सोचा है?’

‘मैंने तो कुछ सोचा ही नहीं.’

‘तो सोच लीजिये, जवाब तो देना ही है. यही प्रयोजन है कि आप यहां आए और मैं ने अपनी छुट्टियां बढ़वा लीं.’

‘रेवा …हम जानते ही क्या हैं अभी एक-दूसरे के बारे में?’

‘जानने की मुहलत बस इतनी ही थी अविनाश जी, फिर जिंदगी भर साथ रह कर भी लोग क्या जान लेते हैं.’

‘मेरे बारे में सुना होगा.’

‘हां, वह अतीत था अविनाश आपका, सबका कुछ न कुछ होता है. उसे छोडि़ये.’

‘क्या तुम्हें पसंद आएगा इतने दिनों की आजाद जिंदगी के बाद बंधना?’

‘उम्मीद है आप ऐसा नहीं करेंगे. मैं भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता में विश्वास करती हूं!’

‘तुम्हारी जॉब?’

‘जॉब तो मैं नहीं छोड़ सकती, अविनाश. लंबी छुट्टियां मीन्स विदाउट पे लीव्ज अफोर्ड कर सकती हूं. फिर देखते हैं.’

‘तो…रेवा, तुमने फैसला ले लिया है?’

‘हां अविनाश, थक गई हूं, लोगों की सहानुभूति और सवालों से.’

‘थक तो मैं भी गया था रेवा, पर क्या यह समझौता नहीं?’

‘शायद हम एक-दूसरे को पसंद करने लगें.’ मुस्कुरा कर रेवा प्लेट्स उठाने लगी.

‘तो शाम को डिनर टेबल पर आने तक अपना फैसला कर लेना. ‘ना’  हो या ‘हां’ मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं है.’ रेवा के जाते ही उसने नॉवेल उठाया,  ‘सेवेन्थ हेवेन’ एक रोमैंटिक नॉवेल था, उसके अंदर एक हाथ का लिखा पुरजा.

‘जब से आप आए हैं मुझे अपना होना और अच्छा लगने लगा है. आप बहुत बड़े हैं, यह खत पढ़कर जाने क्या प्रतिक्रिया करें. अगर मैंने न लिखा तो मैं घुटन से मर जाऊंगी. आप पहले पुरुष हैं और मैं खुद हैरान हूं कि क्यों खिंची जा रही हूं मैं आपकी ओर. कल रात न जाने क्यों लगा कि सौंप दूं अपने हाथों की नमी और स्पंदन आपको. लेकिन …’

उसे लगा कि वह चक्रवात में घिर गया है. यह पुरजा रेवा  के हाथ लग जाता तो? वह क्या सोचती? वह घबरा कर तैयार होकर बाहर निकल आया. रामसिंह ने पूछा भी गाड़ी के लिए पर वह मना करके पैदल तीन-चार किलोमीटर चला आया. पहाड़ी ढलवां रास्ते और पहाड़ी वनस्पति, बड़े पेड़ और उन पर उछलकूद मचाते बंदर. वह एक चट्टान पर सुस्ताने लगा और आंखें मूंदते ही नीला का चेहरा सामने आ गया. मासूम आंखें, सीधे रेशमी बालों में खुल-खुल जाती लाल साटिन के रिबन की गिरह, तिर्यक मुस्कान.

‘नीला, तुम मुझे प्रिय हो, तुम्हारी निश्छलता मुझे पसंद है. तुम वह अनगढ़ कोमल स्फटिक शिला हो जिसे मैं मनचाहा गढ़ सकता था. तुम्हारा समर्पण बहुत कीमती और नाजुक है, और नियति बहुत क्रूर है, नीला. जिस संभावना को हम सोचते डरते हैं, वह संभव तो हो ही नहीं सकती ना. मैं कल ही यहां से चला जाऊंगा. आज रात डिनर पर मामा जी से क्या कहूंगा. मना कर दूंगा.’

जब बहुत देर भटक कर वह ब्रिगेडियर सिन्हा के घर के जरा नीचे वाले मोड़ पर मुड़ा ही था कि नीला साइकल पर उतरती दिखाई दी. पास आई तो परेशान लगी.

‘आप यहां हो? और मैं…सॉरी मेरा इरादा कुछ नहीं… अविनाश जी बस, कनफेस किए बिना न रह सकी….’

‘और मैं किससे कनफेस करूं ?’

‘अविनाश, आय एम पजेस्ड बाय यू, मुझ पर छाया पड़ गई है आपकी.’

‘तुम पागल हो, नीला. मैं जा रहा हूं, यहां से, यही उचित होगा, मुझमें साहस नहीं है, एक साथ बहुत लोगों का विश्वास तोड़ने का!’

‘और बुआ.’

‘क्या बुआ! बेवकूफ लड़की वो खत जो छोड़ आई थी उसके हाथ पड़  जाता तो? मुझे नहीं करनी शादी-वादी. कहां फंस गया मैं.’  बुरी तरह झल्ला गया अविनाश और सर पकड़कर पुलिया पर बैठ गया. नीला सुबकने लगी. वह उसके पास उठ आया, उसके मुंह पर ढके हाथ हटा कर बोला,  ‘क्या करुं मैं, नीला?  अब आगे कोई भी रिश्ता हम दोनों के लिए ही घातक है. मुझे जाना ही होगा.’

नीला उसकी बांह पर टिक गई और रोते हुए बस इतना कह सकी, ‘आप बुआ से शादी कर लो, अविनाश जी. आज पहली बार वो खुश होकर पापा से कह रही थीं कि, दादा, अविनाश को देख कर पहली बार लगा कि शादी कर लेनी चाहिये.’

‘और तुम…’

‘ मैं…मेरा क्या, अविनाश जी?’

“ओह – ओह ये स्त्रियां! अजूबा हैं. नहीं समझ पाता मैं इन्हें. मुझे खुद नहीं पता शाम को क्या होना है. पर तुम अब कोई बेवकूफी नहीं करोगी.’

डिनर के समय नीला नदारद थी. मामा जी और ब्रिगेडियर साहब के घेरे में अविनाश  ‘ना’ नहीं कह सका. हां में सर हिला देने के बाद का समय उसके लिए यूं बीता कि जैसे वह दर्शक हो सारी प्रक्रिया का और अविनाश का किरदार निभाता कोई और ही है.

घर का वही हिस्सा जो गेस्टहाउस था, शादी के बाद अविनाश और रेवा  का हो गया. तीन दिन के बाद दोनों को अलग-अलग दिशाओं में जाना है. उसकी बांहों में अलसाती रेवा उसका हाथ खींच अपने वक्ष पर रख लेती है. दो बजे हैं और वह उठ कर सिगरेट जलाता है, खिड़की में उठ कर आता है. सामने नीला के कमरे की लाइट जली है, और रेवा की बनाई अधूरी तस्वीर सामने वाली दीवार पर लगी है.

श्रेय उस समय को है

इ्लेस्ट्रेशन:मनीषा यादव
tehelka hindi manisha yadav
इलेस्ट्रेशन:मनीषा यादव

अपनी कहानी चिट्ठी से मुझे गहरा लगाव है और गहरी विरक्ति. पहले विरक्ति के बारे में. इस कहानी को लिखे हुए 25 बरस हो रहे हैं और इस बीच मैंने इसकी उपेक्षा करने, इसे थोड़ा पीछे धकेल देने के पर्याप्त जतन किए लेकिन उसके बावजूद यह चुनौती देती हुई मेरे सामने है. आप पूछेंगे कि मैं ऐसा आत्महंता क्यों. बताता हूं: यह कहानी मेरी पहचान के साथ नत्थी हो गई. लंबे समय तक ऐसा हुआ कि कोई मुझे पहचानता या मेरा किसी से परिचय कराता तो यह वाक्य प्रकट होता, ‘चिट्ठी कहानी के लेखक!’ शुरुआत में ये लफ्ज शहद की तरह मिठास से भरपूर थे लेकिन बाद में कर्णकटु क्योंकि मैं एक लेखक के रूप में इस कहानी के ठप्पे से मुक्ति चाहता था. क्योंकि एक लेखक हमेशा किसी ठप्पे, किसी लेबल, किसी इकती शिनाख्त को घोर नापसंद करता है. लेकिन साहित्य में ऐसा अनेक बार घटित हुआ है कि कोई रचना अपने निर्माता के नियंत्रण, मूल्यांकन और आशयों से निर्बंध होकर खुदमुख्तार हो जाती है. यकीन मानिए ‘चिट्ठी’ लिखने के बाद मैं पूरी तरह आश्वस्त न था. एक तरह का अनिश्चय, संशय इसको लेकर मन में था क्योंकि तब हिंदी कहानी में जो दौर था उसमें इसकी समाई न थी. कम से कम इतना तय था कि यह मेरा कोई महत्वाकांक्षी प्रयत्न नहीं था. मेरा और मेरे दोस्तों का जो जीवन, दुख और संघर्ष था उसे एक किस्सा बनाकर मैंने लिख डाला था : बस इतना ही. लेकिन सन 1989 को ‘हंस’ में इसके प्रकाशित होने के बाद जो प्रतिक्रियाएं हुईं उससे मैं रोमांचित, प्रसन्न और भौचक्का था. प्रशंसाओं की ऐसी झड़ी इसके पहले मेरे जीवन में कभी नहीं आई थी. कोई कहता उसने इस कहानी की बीस बार पढ़ा कोई कहता पचीस. राजेंद्र यादव जी ने हंस के कार्यालय में एक युवा कहानीकार से मुलाकात कराई. वह बेहद खुश हुआ. उसने कहा, ‘बाइस बार ‘चिट्ठी’ कहानी पढ़ चुका हूं.’ मैंने कहा, ‘काफी ज्यादा है.’ उसने कहा, ‘मेरा एक दोस्त संैतीस बार पढ़ चुका है.’ सच कहूं यह मेरी उम्मीदों से बहुत अधिक और अप्रत्याशित था जबकि वस्तुस्थिति यह थी कि छपने के पहले मैं इसे लेकर निराश हो गया था कि सोचने लगा था- इसे इस रूप में छपाना ठीक नहीं होगा…

वह सन 1988 का उत्तरार्द्ध था. हम जैसे तत्कालीन युवा लेखकों की माली हालत इतनी खस्ता रहती थी कि हम अपनी रचनाओं की छायाप्रतियां तथा टाइपिंग कराने में भी हिचकते, डरते, कन्नी काटते थे. अतः जो मिलता उसे हम अपनी रचनाएं सुनाने लगते थे. यहां तक कि इलाहाबाद के दिनों में हमने भैरव प्रसाद गुप्त, अमरकांत, मार्कण्डेय, रवींद्र कालिया, ममता कालिया जी जैसे वरिष्ठ लेखकों को भी अपनी साधारण रचनाओं को सुनाकर सताया था. बहरहाल सन 1988 के उत्तरार्द्ध में आज के महत्वपूर्ण कवि, सामाजिक चिंतक, इतिहासकार बद्री नारायण सुल्तानपुर के मेरे घर पर रुके और रात को भोजन के बाद फिर शुरू हुआ उसका कवितापाठ और मेरा कहानी पाठ. उस रात चिट्ठी कहानी का पाठ खत्म करते-करते मैं गहरी निराशा से भर उठा था. मुझे लग रहा था कि एक मजबूत कहानी में जो मुहावरा, जो गांभीर्य, जो गुस्सा और उद्देश्य होना चाहिए वह मेरी कहानी में अनुपस्थित है अतः इसे न छपाया जाए. बद्री ने कहा, ‘इसी तरह का अहसास मुझे अपनी कविताओं को लेकर होता है. लगता है हम अपने राजनीतिक विचारों को रचना में सही ढंग से रूपांतरित नहीं कर रहे हैं. लेकिन सच कहता हूं तुम्हारी कहानी बहुत अच्छी है. तुम्हारी अब तक की सर्वश्रेष्ठ.’ मुझे भी उसकी निगाह में उसकी विफल कविताएं बहुत प्रभावकारी लग रही थीं जिनमें कुछ बाद में हिंदी की यादगार कविताएं साबित हुईं. उस रोज शायद हम दोनों दोस्त एक राज छिपा रहे थे कि हम अपने जिस रचना स्वरूप को लेकर संशयग्रस्त हैं वह अवचेतन में, एक अनकहे स्तर पर हमें बहुत प्रिय भी लग रहा था. तो यह द्वैत, यह विरोधाभास, यह अजूबा अपनी रचनात्मकता के प्रति क्यों था हममें? इस प्रश्न का उत्तर तलाशने के लिए थोड़ा पीछे के वक्त में चलना होगा.

हर पीढ़ी के स्मृतिकोश में एक बड़ी राजनीतिक घटना होती है जो पहले पहल उसके जीवन को घेरती है. इसी से उसकी राजनीतिक स्मृति की यात्रा शुरू होती है और इसका उसकी चेतना के निर्माण में अहम योगदान होता है. हमारी पीढ़ी जो साठ के आस-पास की थी, उसकी राजनीतिक स्मृति खुलती है ‘आपातकाल’ से. आपातकाल के दमन, उसके प्रतिरोध, उसकी पराजय और केंद्रीय सत्ता से पहली बार कांग्रेस पार्टी के निष्कासन से. हमारी निर्मिति में राजनीति के रेशे खूब थे. आैर व्यवस्था परिवर्तन की आकांक्षा के साथ सुंदर समाज बनाने का स्वप्न. लेकिन ये सब परिपक्व और गहराई में न था. एक युवकोचित शुरुआत थी. इसी धजा के साथ मैं उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर कस्बाई शहर से इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एमए की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद गया.

उन दिनों हिंदी कहानी में आपातकाल समाप्त होने के बाद प्रारंभ हुई जनवादी कहानी की धारा अपने प्रबल रूप में थी जो पक्षधरता, सर्वहारा शोषित, प्रताड़ित की विजय, क्रांति, विद्रोह आदि के तत्वों से बनी थी. इसमें शक्ति संरचनाएं हारती हुई और लाचार दिखाई देती थीं बावजूद अपने दमनकारी चरित्र के. हमसे ठीक पूर्ववर्ती पीढ़ी के अधिकतर वामपंथी लोग इस तरह लिख रहे थे. यह शायद आपातकाल की शिकस्त से उपजा उत्साह था. स्थिति यह थी कि कहानी बगैर हिंसा के, शोषक की प्रताड़ना के पूरी नहीं होती थी. सीधे-सीधे दो वर्गों का युद्ध होता था. लेकिन हमारी पीढ़ी के लोग नए थे. जीवन हममें उतरता जा रहा था और हम जीवन में. हम अपनी मां, पिता की तकलीफें देख रहे थे, हमारी बहनें, भाई अभी हमारे साथ थे. उनके सुख-दुख हमारे थे, हमारे उनके. हम सभी युवाओं को प्रेम पुकारता था. लड़कियां अच्छी लगती थीं. कहना यह है कि हमारे छोटे-छोटे अनुभव हममें रचे-बसे थे किंतु दिमाग हमारा राजनीतिक था. यहां तक कि हम अपनी प्रेमिकाओं को रिझाने, उनकी आत्मा पर छाप छोड़ने के लिए रोमांस नहीं क्रांति की चर्चा करते थे.

अब जरा इलाहाबाद विश्वविद्यालय और इलाहाबाद के बारे में. यहां हम कई दोस्तों का समुदाय था जो निश्चय ही अपने-अपने वामपंथी छात्र संगठनों में थे लेकिन सभी साहित्यिक, फक्कड़ और लापरवाही तथा बरबादी को प्यार करने वाले थे. यह हमारी मित्रता का समानबिंदु था और इलाहाबादी छात्र का आम चरित्र. उन दिनों जो इलाहाबाद की यात्रा करता था वह देखता था कि विश्वविद्यालय के चारों तरफ छात्र मुड़े-तुड़े कपड़े, हवाई चप्पलें पहले मार्क्सवाद, साम्यवाद, मार्क्स, लेनिन, चे ग्वारा, माओ, रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध, नामवर सिंह आदि को लेकर चाय के ढेलों पर चाय पीते हुए बहसें किया करते थे. हमारे विश्वविद्यालय. में हमारा प्रिय नारा था, ‘पढ़ाई लड़ाई साथ-साथ.’ बड़ा अजीब था विश्वविद्यालय. वहां के गुंडे भी साहित्य, राजनीतिक चिंतन की कमोबेश जानकारी रखते थे और बौद्धिक छात्र भी जरूरत पड़ने पर मारपीट से परहेज नहीं करते थे. हम किसी गरीब गुरबा को उसका हक दिलाने के लिए पिटाई-उटाई करने से कोई गुरेज नहीं करते थे तब. हम अच्छे महंगे कपड़े, चमकती घड़ी, खूबसूरत धूप चश्मा पहनने वाले छात्रों को, रईसजादों को दया, गुस्से और हिकारत से देखते थे. जिनकी कमीज के बटन साबूत और बंद हों, जिनके बाल संवरे हों, जो संपन्न हों उन लड़कों को मूर्ख मानते. हमें अपने दिमाग, दिल, फकीरी, विचारधारा और साहित्यिक विवेक पर बड़ा गुरूर रहता था. हम मानते थे कि हम दुनिया के सबसे अच्छे लोग हैं. हममंे से किसी के पास पर्स नहीं था, जेबें ठंडी रहती थीं पर दिल में बड़ी आग थी.

imgधीरे-धीरे वह समय आयाः हमने 1984 में हिंदू सिख दंगे देखे और देखा राजीव गांधी के नेतृत्व में नई आर्थिक नीति, नई शिक्षा नीति, इक्कीसवीं सदी में भारत को ले जाना है, संचार क्रांति आदि. और हमारे सान्निकट या समाजवाद के स्वप्न का ढहना. मार्क्सवाद के आत्मविश्वास का क्षीण होते जाना. सबसे ज्यादा हम पर आघात कर रही थी हमारी बेरोजगारी. हमारे पहले के जो लोग थे उनका जीवन अच्छा-बुरा जैसा था, स्थिर हो चुका था इसलिए वह वक्त उन पर उतना गहरा घाव नहीं कर रहा था जितना वह हमें चीर रहा था. हम सब इलाहाबाद छोड़ कर अपने-अपने गृह जनपद स्थित अपने-अपने घर चले गए थे. लेकिन बेरोजगारी का त्रास झेल रहे हम सबके लिए घर पनाहगाह था और यातनागृह भी था. ‘चिट्ठी’ कहानी जो हम दोस्तों और हमारी बेरोजगारी की कहानी थी उसमें आप देखेंगे कि उसमें काम न मिल पाने की व्यथा के स्वरूप में फर्क है. बेरोजगारी पर लगभग हर दौर में कहानियां रची गई हैं. इस थीम पर बेहतरीन कहानियां हमारी भाषा में हैं जिनके सामने मेरी कहानी कहीं नहीं ठहरती, लेकिन मैं यहां जो बात कहना चाहता हूं वह यह है कि बेरोजगारी पर लिखी कहानियों में आप देखें, वहां एक बेरोजगार नौजवान या नायक की पीड़ा और समस्या है जबकि ‘चिट्ठी’ की बेरोजगारी, उसकी मुश्किल, उसकी व्यथा वैयक्तिक जितनी है, उससे ज्यादा सामूहिक है. जोर देकर कहना होगा कि यह मेरी विशेषता और सामर्थ्य का परिणाम न था बल्कि इसका संपूर्ण श्रेय उस समय को दिया जाना चाहिए जिसमें हमारी पीढ़ी की निर्मिति हुई थी.

बहरहाल जैसा ऊपर बताया, हम सारे मित्र अपने-अपने घर आ गए थे. वह मोबाइल, इंटरनेट का जमाना न था. तब ‘पीसीओ क्रांति’ भी नहीं हुई थी. हमारे पास दोस्तों के हाल जानने का कोई ठोस जरिया न था सिवा पत्र लिखने के. पत्र हम लिखते नहीं थे. क्योंकि हम क्या लिखते चिट्ठियों में? हम तो अब अपने हर परिचित से मुंह छिपाने लगे थे. मैं खुद सुल्तानपुर में था. जाड़े की सुबह धूप खिलते ही बाहर कुर्सी निकाल कर बैठ जाता, पढ़ता रहता. शाम होने पर कुर्सी अंदर करके बाहर भटकने निकल जाता था. गर्मी में तो दिन में ही निकल लेता. देर रात आता जब सब सो गए होते. लेकिन मैं जानता था कि कोई नहीं सोया है. उसी तरह मां-बाबू का हाल था. रात वे समझते कि मैं सोया हूं जबकि मैं जाग रहा होता. बाबू मेरे नाकारा होने की चर्चा करते, मेरे बेरोजगार होने पर दुखी होते, मैं सुख पाऊं इसकी दुआ करते. पर मां थी, हमेशा मेरे पक्ष में बोलती. मैं सोया हुआ जाग्रत सुनता, मां कहती कि उसे पूरा विश्वास है कि मेरे ऐसे ही दिन नहीं रहेंगे. पिता भावुक हो जाते, कहते- मैं भी यही चाहता हूं. लेकिन हकीकत अपनी जगह थी. बहन की शादी के लिए मैं भी पिता के साथ लड़के वालों के यहां जाता तो पिता भाई का परिचय शान से देते पर मेरी आने पर उनकी जबान लड़खड़ाने लगती. उनकी क्या मैं खुद यह बताने में कांप उठता कि मैं कौन हूं. मेरी पहचान क्या है? मैं क्या करता हूं?

जबकि समानांतर वह दौर था जब देश में सत्ता केंद्र पर सबसे युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी काबिज थे. उनके साथी जो सत्ता के शिखर पर थे युवा थे. देश को नई ऊर्जा के साथ इक्कीसवीं सदी में ले जाने का लुभावना नारा था. सब कुछ पर ‘नया’ का वर्चस्व था. नई आर्थिक नीति, नई शिक्षा नीति. इन सबके पीछे असली मंतव्य थाः एक नए ढंग के युवा को बनाना है. करियर प्रेमी, भावावेश से मुक्त, विचारधारा से विच्छिन्न युवा. जबकि हम ऐसे युवक नहीं थे न बनना चाहते थे न बन सकते थे. अगर देखा जाए तो उस संक्रमणकालीन देश में सर्वाधिक निर्मम और हम पर पड़ रही थी. हमसे छोटे भावी वक्त के अनुसार ढलने लगे थे या उसके अनुरूप होना सीख रहे थे. हमसे बड़ों के पास फिलहाल एक निश्चित डगर थी, जबकि हमारा सब कुछ अधर में था.

दिलचस्प यह है कि बेरोजगार चरित्रों की कहानी ‘चिट्ठी’ को मैंने तब नहीं लिखा जब मेरी जिंदगी पर बेकारी की प्रत्यक्ष मार पड़ रही थी. इसे लिखने का समय वह हुआ जब करीब-करीब हम दोस्तों के पास कोई न कोई काम आ गया था. मैं उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान में काम चलाऊ, अनिश्चित, कम पगार वाली ही सही, नौकरी करने लगा था. कुछ दोस्त छोटे-बड़े अखबारों मे काम करने लगे थे. कोई कुछ और करने लगा था. लेकिन सबसे बड़ी, सबसे बुरी या शायद सबसे अच्छी बात थी जो हमारे संकट या दुखों का कारण थी कि हम किसी व्यवस्था में अनुकूल थे. मैं भी. एक तो नौकरी अच्छी नहीं थी दूसरे भीतर बरदाश्त की क्षमता नहीं थी. मन होता फाइल, पेन और नियुक्तिपत्र अधिकारी के मुंह पर फेंक दूं लेकिन बीते दिनों के अनुभव ने हौसला छीन लिया था. मेरा एक दोस्त त्रिलोकी बताता है कि वह उन दिनों अपने दफ्तर से निकल कर गालियां बकने लगता था. एक दूसरा दोस्त अपने बॉस संपादक को व्यभिचारी कहता था और रोज लंच के खाली वक्त में इस्तीफा लिखता था जिसे लंच खत्म होने तक फाड़ देता था. एक दोस्त को बंबई बुलाकर पैतृक व्यवसाय में लगा दिया गया था.  वह कहता: ‘मैं व्यवसाय नहीं यहां जनवादी लेखक संघ को मजबूत करूंगा और एक दिन सीपीएम का होलटाइमर हो जाऊंगा’. इस तरह हम अब भी अपनी-अपनी जगह दुखी थे और अपने-अपने परिवेश में मिसफिट थे. तो यह जो पटरी न बैठा पाना था और जो बहुत कम पैसों से जीवनयापन था इसने संत्रास और घुटन की लंबी ढलान पर धकेल दिया था. यही ‘चिट्ठी’ कहानी का प्रस्थानबिंदु था. दूसरे शब्दों में कहूं तो जो कहानी में अंत था- क्लाइमेक्स था- वह उसकी सृजन प्रक्रिया में प्रारंभ बन गया. रचे जाने की वजह.

‘चिट्ठी’ की अंतिम पंक्तियां हैं, ‘‘उस दिन अलग होने से पहले हमने तय किया, ‘हममें से यदि कोई कभी सुखी हुआ तो सारे दोस्तों को खत लिखेगा.’ लंबा समय बीत गया इंतजार करते, किसी दोस्त की चिट्ठी नहीं आई. मैंने भी दोस्तों को कोई चिट्ठी नहीं लिखी है.”

तो ऐसा नहीं था कि जब यह कहानी लिखी गई तो कहानी के समकक्ष उसके जीवन में कहानी के पात्र वैसे ही खाली थे. जैसा कि मैंने कहा मैं खुद काम (?) करने लगा था. लेकिन हम सभी असंतुष्ट, परेशान और क्षोभ से भरे हुए थे. इसलिए कहानी का अंत लिखते समय मेरे दिमाग में यह था कि जो नए युग का अंधड़ चल रहा है, जो ज्यादा पाने की, मुक्त अर्थव्यवस्था में बेहतरीन झपट लेने की दौड़ चल रही है उसमें ये युवा बेमेल हैं. अगर इन्होंने व्यवस्था को खारिज किया है तो व्यवस्था ने भी इनको हाशिये पर फेंक दिया है. इसलिए आखिर में लिखा गया: ‘हममंे से यदि कोई कभी सुखी हुआ तो सारे दोस्तों को खत लिखेगा.’ यह नहीं कहा गया कि यदि कोई कभी ‘नौकरी’ पाएगा तो दोस्तों को चिट्ठी भेजेगा. अधिक स्पष्ट करने के लिए मैं चिट्ठी को अपनी कहानी ‘शापग्रस्त’ से जोड़ना चाहूंगा जिसके नायक प्रमोद वर्मा की समस्या ही यही है कि वह ठीक-ठाक नौकरी और संतुष्ट गृहस्थी होने के बावजूद एक रोज महसूस करता है कि वह सुखी नहीं है.

मुझे लगता है कि अपनी रचना पर इससे अधिक बात करना नितांत अनुचित होगा. वैसे मैंने जितना कह दिया वह भी कम अशोभन नहीं माना जाएगा. पाठक मेरी इस गुस्ताखी को माफ कर दें तो भी अब ज्यादा कुछ कहना ठीक नहीं क्योंकि बतौर लेखक अपनी रचना के विषय में सारे खुलासे कर देने से उसका अर्थ, उसकी व्याख्या नजरबंद हो जाती है-महदूद हो जाती है. दूसरी तरफ कृति का रचयिता कुछ कहे, आलोचक जो भी बताएं, अध्यापक जैसी भी घोषणा करें, हर पढ़ने वाला रचना का अपने ढंग से पाठ करता है. उसके अपने ही नतीजे होते हैं.

मर्दों के खेला में औरत का नाच

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शिक्षा, सत्ता और संपत्ति से स्त्रियों को सदियों तक वंचित रखा गया. आज भारत की स्त्री के पास मुक्ति की जो भी चेतना है वह उसके लिए बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध ही ले कर आया है. स्त्री स्वातंत्र्य की इस चेतना ने हमारा जीवन बदल दिया. आज जिस जमीन पर हम खड़े हैं उसे तैयार करने में हमारी पूर्ववर्ती महिला आंदोलनकारियों,  समाजसेवियों और चिंतकों ने बहुत श्रम किया है. बाबा साहब आंबेडकर ने समानता के जिस अधिकार की बात संविधान में लिखी थी, उसमें से लिंगाधारित भेदभाव दूर करने के लिए बालिका शिक्षा अभियान, सर्व शिक्षा अभियान चलाया गया और कार्य स्थल पर यौन शोषण विरोधी अधिनियम, घरेलू हिंसा निवारण अधिनियम जैसे कानून बने.  दहेज प्रथा, कन्याभ्रूण हत्या और बाल विवाह आज भी मौजूद हैं और उनके खिलाफ आंदोलन जारी है. मुड़कर देखें तो पाएंगे कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की भारत दुर्दशा पर कविता और नाटकों से ले कर प्रेमचंद की कहानियों और महादेवी वर्मा के निबंधों ने मानवीय समकक्षता की चेतना जगा कर सामाजिक बदलाव के तमाम प्रयासों में साहित्य के माध्यम से महत्वपूर्ण योगदान किया था. आज देखें कि सामाजिक आंदोलनों ,कानून में बदलाव और सरकार के प्रयासों से आ रही स्त्रीमुक्ति की इस चेतना का समकालीन हिंदी लेखन, जिसे साहित्य कहने से परहेज करना उचित होगा, में कैसा इस्तेमाल किया जा रहा है.

स्त्री लेखन होता क्या है? क्या वह, जो कुछ भी स्त्री लिख दे, या वह, जो स्त्री के विषय में हो, या वह, जो स्त्रीवादी हो, या वह, जो स्त्री समर्थक हो? स्त्री लेखन के नाम पर आज जो कुछ परोसा जा रहा है, आखिर वह है क्या? आइए देखें.

कुछ समय पहले मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की नेत्री और वयोवृद्ध हिंदी लेखिका रमणिका गुप्ता का एक साक्षात्कार एक पत्रिका में छपा था. उसमें उनका कहना है कि सत्ता पाने के लिये हर एक को कुछ न कुछ देना पड़ता है. पुरुष धन देते हैं और स्त्रियां अपना शरीर. वे बताती हैं कि अपनी पार्टी के लिए जमीन आवंटित करवाने के लिए वे बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री केबी सहाय से मिलीं, जिन्होंने उन्हें एकांत में बुलाकर कहा कि जो चाहो मांग लो और तत्काल कागज़ पर हस्ताक्षर कर दिए. फिर मुख्यमंत्री ने लेखिका को आलिंगन में भर कर चूम लिया. रमणिका गुप्ता आह्लाद से भर उठीं और उन्हें लगा कि चुंबन द्वारा मुख्यमंत्री ने अपनी सत्ता उन्हें हस्तांतरित कर दी है. लेन-देन की यही अवधारणा उनकी कहानी ‘ओह ये नीली आंखें’ में भी दिखती है जिसमें एक स्त्री अपने पति व बच्चे के साथ ट्रेन में यात्रा कर रही है, साथ वाली बर्थ पर एक नीली आंखों वाला यात्री लेटा है और ऊपर की बर्थ पर पति और बच्चा. स्त्री सहयात्री के साथ ट्रेन में सहवास करती है क्योंकि उसे नीली आंखें पसंद हैं और उसे भी सौंदर्यपान करने का पूरा हक है. अपने साक्षात्कार में प्रगतिशील लेखिका बताती हैं कि वे अपनी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की ट्रेड यूनियन के काम से धनबाद की कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण के सिलसिले में केंद्र में कांग्रेस सरकार के तत्कालीन वित्तमंत्री नीलम संजीव रेड्डी से मिलने गईं जहां पर होटल के कमरे में वे एकदम निर्वस्त्र होकर उनके सामने आ खड़े हुए और लेखिका की मर्जी के विरुद्ध उनके साथ सहवास किया. जनवादी लेखिका ने शिकायत नहीं लिखवाई (अंग्रेजी आउटलुक 18 जनवरी 2010). ये हैं ‘युद्धरत आम आदमी’ की संपादक के आचार-विचार. आम आदमी युद्धरत है और आम औरत?

गीताश्री की एक कहानी ‘प्रगतिशील इरावती’ मार्च,  2013 के महिला विशेषांक में छपी है- ताप. एक युवा पुत्री की मां अपने बूढ़े पति की शारीरिक भूख से त्रस्त है. वह अपनी व्यथा पुत्री को बताती है. एक आधुनिक युवा पुत्री पिता को समझाने, किसी सलाहकार के पास भेजने या उनके आगे कोई अन्य विकल्प रखने के बजाय खुद उनके लिये एक युवा वेश्या खरीद लाती है जो घर पर ही आकर पिता को होमसर्विस देकर उनकी भूख शांत कर दे. यानी एक युवा स्त्री अपने वृद्ध पिता के लिए दूसरी युवा स्त्री को यौनदासी बनाती है. स्त्री सशक्तीकरण की चरम अवस्था को प्राप्त कर चुकी इस लेखिका की कहानी में एक ट्विस्ट है. कहानी के अंत में युवा वेश्या युवा पुत्री से कहती है- ‘ये किसी काम का नहीं है. तुम बेकार अपने पैसे बर्बाद कर रही हो. मैं ठरकी बुड्ढों को खूब जानती हूं. अंग्रेज़ी मुहावरा याद है न- ‘द डिजायर इज हाइ बट द फ़्लेश इज वीक.’ बोल्ड लेखिका के रूप में एक विशेष समूह द्वारा अति प्रशंसित गीताश्री इससे पूर्व ‘इंद्रधनुष के उस पार’ कहानी में दिखा चुकी हैं कि कॉरपोरेट दफ्तर में काम करने वाली युवती परेशान है कि उसका बॉस उसके कपडे-लत्तों पर हरदम रोक-टोक करवाता रहता है. युवती की चिंता सही भी है क्योंकि सभ्य समाज यही मानता है कि स्त्री को अपने वस्त्र स्वयं चुनने और पहनने का पूरा हक है . मगर इस कहानी में भी ट्विस्ट है. लड़की अपनी पोशाक स्वयं तय करने के अधिकार का प्रयोग करते हुए पूर्णतया निर्वस्त्र होकर न्यूड पार्टी में जाती है जहां पर सभी लोग निर्वस्त्र आए हैं, वह बॉस भी जो उसे स्लीवलेस टॉप पहनने पर टोकता था. ऐसी पार्टियां हमारे समाज में होती हैं या ‘इंद्रधनुष के उस पार’ यह कह पाना कठिन है.

जयश्री रॉय की ‘औरत जो एक नदी है’ नाम की कहानी भी है और इसी नाम का उपन्यास भी. पुरुष की ओर से लिखा पूरा उपन्यास शयनकक्ष, शराब, फेनी, बियर, बकार्डी, बिस्तर और उस पर केंद्रित लंबे उबाऊ संवादों से भरा है. कई दशक पूर्व के घोर मर्दवादी लेखक जैनेंद्र की धारणा थी, पत्नी घर में, प्रेयसी मन में. इस विषय पर शायद एक लंबी चर्चा भी चलाई गई थी. लेखिका इस धारणा के अनुरूप स्वयं को ढाल चुकी हैं. पुरुष के पास तीन औरतें हैं, एक पत्नी उमा, और दो प्रेयसियां-दामिनी और रेचल ,जो तलाकशुदा हैं. पुरुष को पत्नी की ‘साड़ी से रसोई की गंध’ आती है और प्रेमिका के शरीर से ‘परफ़्यूम’ की. कामना पुरुष की ही है और स्त्रियां अन्नपूर्णा नहीं, थाली में रखे हुए व्यंजन हैं, स्वयं को परोसती. दामिनी शादी को वेश्यावृत्ति बताती है जिसमें ‘स्त्री को आजन्म गुलामी करनी पड़ती है’,पर खुद क्या करती है? एक विवाहित आदमी की देह पर आइस क्यूब रगड़ते हुए कहती है, ‘अपनी वाइल्ड फैटेंसी पूरी कर लो. देह से ही मन का रास्ता जाता है.’ विवाहित आदमी कहता है ,  ‘तो क्या मैं तुम्हारी इस न जाने किस किस की जूठन बनी देह के पीछे था?’  शादी को वेश्यावृत्ति बताने वाले और अजनबियों के साथ यौनसंसर्ग करते ये नर-मादा क्या एक-दूसरे का सम्मान या एक-दूसरे से प्रेम कर पाते हैं?

इन्हीं लेखिका की ‘देह के पार’ कहानी में प्रौढ़ स्त्री नव्या अपनी बेटी को स्कूल छोड़ कर आने के बाद अपने से 10 वर्ष छोटे बेरोजगार युवक को खरीद लाती है. ‘इस साल यह उसकी चौथी नौकरी छूटी थी. ‘अब खाओगे क्या?’ ‘तुम हो न मेरी सेठानी’ कहते हुए उसने नव्या के पर्स में से 500 का नोट निकाल लिया जो नव्या को अच्छा नहीं लगा. युवक ने तीन तस्वीरें दिखाते हुए कहा ‘इनमें से एक तस्वीर चुनो मुझे इस साल शादी करनी पड़ेगी….’ मैं तो कहती हूं तीनों से कर लो, तुम तो हो ही कैसानोवा सौ को भी एक साथ संभाल लोगे.’… अय्याश अफसरों  की बूढ़ी-अधबूढ़ी सेठानियों को शरीर बेचने वाला युवक कहता है, ‘कोई अपना हुनर बेचता है कोई फन कोई अक्ल. मैं अपनी सुंदरता बेचता हूं.  इट्स दैट सिम्पल. बास. अगले हफ्ते दुबई जा रहा हूं, शेख़ साहब का मेहमान बन कर.’ जयश्री रॉय की अन्य अनेक कहानियों के अनेक पात्रों की तरह युवक भी विवाह को वेश्यावृत्ति मानता है. देह से ही मन का रास्ता जाता है, जयश्री रॉय के इस सिद्धांत के आधार पर उम्मीद की जानी चाहिए कि शायद युवक भी दुबई में शेख साहब की देह से ही शेख साहब के मन में दाखिल हो जाएगा.

जयश्री रॉय की कहानियों में से एक को दूसरी से अलग कर पाना कठिन है. एक-सा कथानक, एक-से संवाद ,एक-सी बनावटी भाषा यहां तक कि एक-से शीर्षक. उनके पात्र परस्पर देह संबंधी लंबी चर्चाएं करते हैं पर देह के पार नहीं पहुंच पाते. एक-दूसरे को खरीद कर दैहिक भूख पर विस्तृत विचार-विमर्श करने वालेे ये पात्र कहां के रहने वाले हैं? वे जो भाषा बोलते हैं वह कहां बोली जाती है? पुरुष वेश्या और पुरुष शरीर खरीदने वाली सेठानी क्या परस्पर जयशंकर प्रसाद की कामायनी या स्कन्दगुप्त वाली भाषा में बात करते होंगे?

नदी सीरीज में वरिष्ठ जया जादवानी भी शरीक हो गईं. उनकी ‘समंदर में सूखती नदी’ में ‘दोनों बच्चों के होस्टल चले जाने के बाद वे दोनों अकेले रह गए थे. अब उसे अपनी पत्नी की देह पका हुआ कद्दू लगती थी जिस पर वह अक्सर स्वयं को निष्प्राण लेटा हुआ पाता था…. उसे कुछ नया चाहिए था…. उसने सोचा था उसका सामना ऐसी लड़की से होगा जिसने अपनी देह को दुकान की तरह सजाया होगा. ‘प्रौढ़ पुरुष और युवा लड़की लांग ड्राइव पर जाते हैं और स्त्री-पुरुष संबंधों पर सात पृष्ठ लंबी चर्चा करते हैं, ‘तुम स्त्रियां ही ढिंढोरा पीटती हो कि तुम मात्र जिस्म नहीं हो. यही एक चीज ले कर खड़ी रहती हो तुम पुरुषों के सामने.’ यह कहानी शायद जादवानी ने कॉलगर्ल की गरीबी के बारे में लिखी है क्योंकि अंतिम पंक्ति में वह ‘बहुत जोर से रोना चाहती है पर आंसू कहीं घुट कर रह गए.’ (कथादेश, सितंबर 2012)

जयश्री रॉय की कहानी में एक प्रौढ़ स्त्री युवा पुरुष वेश्या को खरीदती है तो जया जादवानी की कहानी में एक प्रौढ़ पुरुष एक युवा स्त्री वेश्या को . स्त्री लेखन के नाम से परोसी गई यह सामग्री कोई अलग स्वीट डिश नहीं, अब इसे ही स्त्री लेखन का महाभोज माना जा रहा है. ये सच्ची कहानियां हैं या काल्पनिक? यह यथार्थ है या जादुई यथार्थ?

लेखिका मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास चाक की नायिका सारंग किशोरी बालिका के रूप में ‘सत्यार्थप्रकाश के बीच रखी ऋतुसंहार की पतली सी किताब पढ़ती है’ और बताती है ‘40 वर्ष की अवस्था के, गोरे रंग और लंबे कद के मुलायम मुख वाले शास्त्री जी की छवि बुरी तरह तंग किए थी. खादी के वस्त्र पहने हुए – काश महीन वस्त्र पहने होते. मैं भोग की इच्छा रखती हुई भी शास्त्री जी की बांहों में फिसल रही थी.’ (चाक,   पृ. 89-90). अधेड़ उम्र की भाभी रिश्ते के ननदोई की मालिश करती है, ‘ज्यादा ही सरमदार का घुसला बन रहा था, तैमद ऊपर को सरकावै ही न. लत्ता जितना ही ऊपर उठाऊं , उतना ही भींचता जाय तैमद को. मैंने कही, लुगाई है रे तू? जबरदस्ती तैमद खोल कर फेंक दिया बंजमारे का… मैंने ऐसी मालिश करी जैसे छः महीने का बालक हो और फिर खाट पर लोट गई उसके बरब्बर में. बोल दिया कि लल्लू कैलासी, भूल जाओ रिश्ते नाते… और फिर ये तो देह रहते के खेला हैं रे. पाप पुन्न मत सोचना’ (चाक, पृ.104). रंजीत की पत्नी सांरग श्रीधर के साथ आनंद में मग्न है,  ‘श्रीधर, अगर तुम्हारी आंखें इस देह को देख कर आनंद पाती हैं तो जी भर कर देखो मुझे. मेरी सुंदरता सार्थक हुई. भोग करने से तुम्हारे प्राण तृप्त हों तो आओ रात बाकी है अभी’ (पृ. 329 चाक)? जून, 2008 के संपादकीय में राजेंद्र यादव कहते हैं, ‘औरतों के पास उनकी देह है वरना योग्यता के नाम पर उनके पास रखा ही क्या है.’ मैत्रेयी पुष्पा की नायिका कहती है, ‘मेरे पास था ही क्या – हरी भरी देह.’ (चाक, पृ. 329 )
लेनिनवादी लेखिका रमणिका गुप्ता की एक अन्य कहानी में एक स्त्री एक आकर्षक अश्वेत पुरुष के शरीर का उपभोग करना चाहती है. वह रात को स्त्री के होटल के कमरे में आ पहुंचता है. आगे की गतिविधि का वर्णन लेखिका ने विस्तार से किया है. अजनबी अश्वेत पुरुष जाते वक्त एक गुड़िया छोड़ जाता है. गुड़िया शीर्षक कहानी में यह गुड़िया नायिका को संदूक में मिलती है.

जैसी गुड़िया रमणिका की नायिका को संदूक में मिली वैसी ही एक गुड़िया मैत्रेयी पुष्पा के भीतर भी है. वे किसी कार्यक्रम में आमंत्रित की गईं और गेस्ट हाउस में ठहराई गईं . लॉबी में उनके पीछे चल रहे राजेंद्र यादव कहीं ‘बुखार का ताप देखने के लिये उनकी कलाई न पकड़ लें’ इस डर से वे उनसे अधिक बात न बढ़ाकर जल्दी से अपने कमरे में चली गईं. मगर आधी रात को प्यास लगने पर रूमसर्विस से पानी न मंगा कर वे राजेंद्र यादव के कमरे का दरवाजा खटखटाती हैं और दरवाजा छूते समय उन्हें लगता है कि उन्होंने ‘राजेंद्र यादव को छू लिया’. (गुड़िया भीतर गुड़िया, पृ. 315-316 )

विचार का विषय है कि रिश्ते के ननदोई की लुंगी खींच कर उसे फुल बॉडी मसाज देने वाली अधेड़ भाभी के लल्लू कैलासी के साथ स्वच्छंद यौनाचार का विशद वर्णन करने वाली 1944 में जन्मी वयस्क लेखिका ने 2008 में एकाएक ‘गुड़िया’ बनकर लकड़ी के दरवाजे को छू कर राजेंद्र यादव कैसे समझा? यही नहीं, कैसे उन्होंने इस प्रसंग को इतना अधिक महत्वपूर्ण समझा कि उसे अपनी आत्मकथा का हिस्सा बनाया. यौन सक्रियता के वर्णन में सारे लेखकों को पीछे छोड़ कर इस क्षेत्र की पुरोधा के रूप में प्रतिष्ठा पा चुकी लेखिका मैत्रेयी पुष्पा संपादक के आगे चाइल्ड वुमन बन जाती हैं, उन्हें छूने को लालायित. क्यों?

बार्बी डॉल 1959 में बनाई गई थी. उसका चेहरा बच्चों जैसा था पर शरीर वयस्क. कम्युनिस्ट रूस ने इन गुड़ियों पर प्रतिबंध लगा दिया था क्योंकि इन्हें बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना गया (द ऑबजर्वर, नवंबर 2002). लेकिन हमारे हिंदी के जनवादी मठाधीशों ने अनेक बार्बी डॉल्स तैयार कर ली हैं जो वयस्क हैं, पर जो अपने हाव-भाव शिशुवत रखती हैं. चाइल्ड वुमन पोर्नोग्राफर का सबसे हसीन ख्वाब होती है. बालबुद्धि वाली इठलाती, तुतलाती, पलकें झपकाती वयस्क शरीर वाली स्त्री. विडंबना यह है कि यह सारा खेल स्वयं को जनपक्षधर, प्रगतिशील, सेक्युलर बताने वालों के दरबार में चल रहा है, न कि रूढि़वादियों के बीच. ये डॉल्स वृद्धवृंद की फरमाइश पर रचनाएं प्रस्तुत करती हैं, और उनके सुझाव पर रचना में परिवर्तन, परिवर्द्धन करते हुए उसे मनोरंजन का खजाना बना देती हैं.

इसी बीच एक युवा लेखिका ज्योति कुमारी की किताब को अचानक बेस्टसेलर घोषित कर दिया गया. इस किताब में शरीफ लड़की नामक कहानी में पाठकों को चौंकाने के लिए लड़की के 14 वर्ष की हो जाने का विस्तृत विवरण है. ऐसा और इससे भी अधिक विस्तृत विवरण पाठक आज से 40 साल पहले कमला दास की आत्मकथा में पढ़ चुके थे अतः वे चौंके ही नहीं. जुगुप्सा जगाने में कोई कसर न रह जाए इसलिए उसके तत्काल बाद लड़की के प्रेम प्रसंग का वर्णन है- ‘लड़की वीर्य से लिथड़ी है…ऊपर से नीचे तक…आगे से पीछे तक…अंदर से बाहर तक उसका रोम रोम लिथड़ा है.’(हंस). यह किशोर-किशोरी के प्रेम का वर्णन है या किसी सूनामी का? क्षमा कीजिएगा, मेरी जिज्ञासा है कि आखिर एक किशोर बालक के पास कितने लीटर वीर्य होता है? देश की प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी जेएनयू के साम्यवादी प्रोफेसर नामवर सिंह ने इसकी प्रशंसा में ‘इसे अनदेखा करना मुमकिन नहीं’ शीर्षक आलेख लिखा और स्त्री लेखन के क्षेत्र की इस ज्योति की शान में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता उद्धृत की. युवा लेखिका की क्रांति न केवल कथ्य में है बल्कि शिल्प में भी है. प्रतिष्ठित साहित्यकार महेंद्र राजा जैन ने हिंदी के विराम चिह्नों के उपयोग के बारे में एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है. ज्योति कुमारी ने अर्धविराम, अल्पविराम और पूर्णविराम को तिलांजलि देकर एक नई परंपरा का सूत्रपात किया. वे हर वाक्यांश के बाद तीन बिंदु लगाती हैं. कहानी में लगभग 595 बार तीन बिंदुओं का प्रयोग है. लगभग 1,785 बिंदुओं वाली इस रचना को देखकर निर्णय करना कठिन हो जाता है यह गद्य लिखा गया है या बूंदों वाली रंगोली.

असली जीवन में जमीनी काम करते हुए हमने सैकड़ों किशोर- किशोरियों के प्रेम प्रसंग देखे हैं. इनका प्रेम टूटते भी देखा, टूटते दिलों की कहानी भी सुनी, उन्हें सांत्वना दी और आत्महत्या करने से रोक कर फिर से जीने के लिए प्रेरित भी किया. मेरा विश्वास है कि कोई भी 18 वर्ष के किशोर-किशोरी अपने पहले प्यार का वर्णन उन शब्दों में नहीं कर सकते जिनमें ज्योति कुमारी ने किया. असली प्रेमी आज भी एक-दूसरे को खून से चिट्ठी लिख रहे हैं, मां-बाप का घर छोड़ कर भाग रहे हैं, नदी में कूद कर एक साथ जान देने को तैयार हैं. मेरा अनुभव है कि आज भी प्रेम में पड़ने वाले लोग प्रेम ही करते हैं. ज्योति कुमारी की प्रशस्ति नामवर सिंह के हस्तलेख में इंटरनेट पर भी उपलब्ध है. जाहिर है, ऐसा विशद वर्णन वृद्धजनों की खातिर ही किया जाता है.

यह सब यूं ही नहीं हुआ है. हंस संप्रदाय के सतत और अथक प्रयासों से पोर्नोग्राफी का जो अश्लील अनुष्ठान हिंदी लेखन में जनवाद के नाम से आयोजित किया गया है, उसमें उसी प्रकार की स्त्रियां भी शामिल कर ली गई हैं. यह मर्दों द्वारा चयनित स्त्रियों का नृत्य है जिसमें वयोवृद्ध रमणिका गुप्ता, मैत्रेयी पुष्पा, प्रौढ़ गीताश्री और जयश्री रॉय आदि तथा युवा ज्योति कुमारी जैसी अनेक स्त्रियां शरीक हैं. यह सूची बड़ी लंबी है.

imgदरअसल विगत कई दशकों से हंस संप्रदाय सारी स्त्रियों को यौनकर्मी साबित करने पर तुला हुआ है. हंस के स्तंभकार अभय कुमार दुबे के शब्दों में, ‘लेकिन क्या सेक्सवर्क के जरिये भी स्त्री सबलीकरण की राह पर चल सकती है? यौनकर्म में समाजसेवा या सेक्सुअल थेरेपी के पहलू अंतर्निहित होने का तो तर्क बनता है.’ दुबे नारीवाद से असहमत हैं, ‘नारीवाद की बौद्धिक दुनिया सेक्सवर्क को दो हिस्सों में बांट देती है. वह वेश्या के सेक्सवर्क को बिना पारिश्रमिक लिए सेक्सवर्क कर रही औरतों के बरक्स रखते हुए विभिन्न तर्कों के आधार पर उसे निकृष्ट और स्त्री की आजादी के लिए नुकसान देह मान लेती है. चाहे वह प्रेमिका द्वारा किया गया हो या विवाहिता पत्नी द्वारा, मुफ्त में किया गया सेक्सवर्क उच्चतर, उदात्त और एक हद तक मुक्तिकारक बन जाता है…. नारीवाद उसमें ज्यादा से ज्यादा दैहिक संतुष्टि की दावेदारी और प्रेम के तहत किए जाने वाले सेक्स को और जोड़ देता है. लेकिन प्रेम और प्रजनन से रहित, पारिश्रमिक की अपेक्षा में किया गया सेक्सवर्क इस विचारधारा की निगाह में जिंसीकरण कहलाता है या यौन दासता का पर्याय मानकर उसे कलंकित कर दिया जाता है.’ (हंस, जुलाई 2008)

दुबे इस प्रकार स्पष्ट करते हैं कि ‘स्त्री हमेशा सेक्सवर्क ही करती है भले ही वह अपनी दैहिक संतुष्टि के लिए करे, प्रेम के तहत करे, प्रजनन के लिए करे, विवाहिता के रूप में करे, चाहे प्रेमिका के रूप में, वह मुफ्त का वर्क है.’  दुबे जी के इतना विस्तार से समझाने पर अब तक इतना तो पाठकगण समझ ही चुके होंगे कि सारी स्त्रियां यौनकर्मी हैं, नाचने-गाने की तरह यौनकला भी स्त्री सबलीकरण का माध्यम है और स्त्री यौनकर्म द्वारा समाज सेवा या सेक्स थेरेपी करती है. मेरा सवाल यह है कि क्या उसी गतिविधि में संलग्न उनके साथी, प्रेमी, पति भी यौनकर्मी ही हैं या कुछ और एक ही खेल का एक प्रतिभागी ग्राहक-उपभोक्ता और दूसरा प्रतिभागी वर्कर किस आधार पर बनता है? क्या दुबे के लोकतंत्र में स्त्री-पुरुष समकक्ष नहीं हो सकते? कैसे एक क्रेता बनता है, दूसरा क्रीत? (नवरीतिकालीन, कथादेश, सितंबर 2008). हिंदी की जिन प्रवृत्तियों का उल्लेख मैंने उस लेख में किया था, वे आज अपनी पूरी कुरूपता में सबके सामने खड़ी हैं. स्वस्थ साहचर्य में अक्षम व्यक्ति अक्सर ब्लू फिल्में बनाते-देखते, अश्लील एसएमएस भेजते और फोन पर अश्लील वार्तालाप करते हुए धरे-पकडे़ जाते रहे हैं. यह उसी तरह का मानसिक व्यभिचार है.

मर्दों के इस खेला में पुरुषों को आनंद देने के लिए औरतों की एक ऐसी पोर्न छवि गढ़ी गई है जो पूर्णतया यौनीकृत है. उसमें न चेतना है, न हृदय, न मन और न भावना. यह पोर्न की क्लासिकल सेडोमेसोचिस्ट छवि है. इन औरतों को यौनिक वस्तु होने, कष्ट पाने और अपमानित होने में आनंद आता है. गीताश्री की नायिका के वस्त्र कोई बलात्कारी नहीं उतारता, वह स्वयं ही निर्वस्त्र होकर न्यूड पार्टी में जाती है. उनकी दूसरी कहानी में युवा वेश्या का शोषण कोई पुरुष नहीं करता, कहानी की नायिका ही दूसरी स्त्री का शरीर खरीद कर अपने वृद्ध पिता के आगे परोसती है. बोल्ड मानी जाने वाली मैत्रेयी की नायिका सारंग अपनी

हरी-भरी देह परोसती है, मास्टर श्रीधर भोग लगाता है. यह समकक्षता की भाषा नहीं है.
अखबार पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा की खाप पंचायतों के मनमाने निर्णयों से भरे हैं जिनमें प्रेम करने के अपराध में युवक-युवतियों के नाक-कान काटे जा रहे हैं. उन्हें खुलेआम पेड़ों पर लटकाया जा रहा है. उन्हें बिरादरी के बाहर भी प्रेम करना मना है और गोत्र के भीतर भी. महिलाओं का 33 प्रतिशत आरक्षण ग्राम पंचायतों में है, समाज के निर्णय ले रही खाप पंचायतों में कहां?

मगर ग्रामीण जीवन की चर्चित चितेरी मैत्रेयी पुष्पा की ग्रामीण स्त्री कहती है, ‘चल लुच्ची, हम जाटिनी तो जेब में बिछिया धरे फिरती हैं. मन आया ताके पहर लिए.’ (चाक, पृ.104).  ऐसी स्वयंसिद्धा-स्वयंवरा स्त्रियों वाले गांव पश्चिमी उत्तर प्रदेश या बुंदेलखंड के किस जिले में हैं? घर पर एक पत्नी के रहते दूसरी स्त्री को ले आने पर पत्नियां त्रस्त हो कर पति की शिकायत करती देखी जाती हैं. शिकायत लिखवाने पर भारतीय दंड संहिता की एडल्ट्री के विरुद्ध बनी धारा 497 के अंतर्गत पुरुष दंडित होता है. मगर अपनी ससुराल में ही एक पति के रहते हुए रंजीत की युवा पत्नी सारंग स्कूल के मास्टर श्रीधर के साथ भोगविलास में मग्न है. पति के प्रतिरोध करने पर उसका ससुर अपने बेटे को समझाता है कि पति का काम पत्नी के ‘लहंगे की चैकीदारी करना नहीं.’ क्यों न खाप के निर्णयों से त्रस्त जोड़ों को मैत्रेयी पुष्पा वाले उसी जिले में भेज दिया जाए जहां पर यौनक्रांति का ऐसा बिगुल बज चुका है कि स्त्री-पुरुष स्वेच्छा से जब चाहे जितने चाहे उतने यौन साथी चुन सकते हैं?

स्त्री विमर्श के नाम पर चल रहे अश्लीलता के इस यज्ञ में हवि डालने पर स्त्रियों को भी उनका यज्ञफल पर्याप्त मात्रा में मिला है. दैनिक अखबार नवभारत टाइम्स में अक्टूबर, 2013 में एक खबर छपी. इसके मुताबिक लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के पाठ्यक्रम में से महादेवी वर्मा की ‘श्रृंखला की कड़ियां’ हटा कर उसके स्थान पर मैत्रेयी पुष्पा की ‘चाक’ नहीं लगाई जा सकी इसलिए साम्यवादी विचारधारा वाले स्वैच्छिक संगठन ने विश्वविद्यालय की निंदा की है.
स्त्रीमुक्ति के नाम पर क्रांति के इस नए चलन में फेसबुक वाली नई तकनीक के भी दर्शन होते हैं. 75 वर्षीय लेखक प्रेमचन्द सहजवाला की फेसबुक वाली कहानी एक युवक की ओर से लिखी गई है, जो एक युवती के आमंत्रण पर उसके घर जाता है और उसके माता पिता के सामने ही युवती के साथ सहवास करके वापस अपने शहर लौट जाता है. गीताश्री ने भी एक युवा स्त्री के बारे में कहानी लिखी जिसमें नायिका अपने पार्टनर से उस समय रूठ जाती है जब वे दोनों बेड पर थे. ‘इंद्रजीत बिना किसी भूमिका के भड़क उठा था – ‘तुम्हें अपने बॉस के साथ अकेले बार में नहीं जाना चाहिए था. ….अर्पिता के मन में आया कह दे कि तुम्हारे पांव की जूती नहीं हूं. पति की तरह सामंत मत बनो पर कह न सकी…. अधखुली किताब की तरह अर्पिता को आतुर, अतृप्त और फड़फड़ाती छोड़ कर इंद्र जा चुका था.’ गीताश्री की नायिका सशक्त है. वह एक रात भी अकेली क्यों गुजारे? वह तत्काल ‘लैपटॉप लेकर बेड पर बैठ गई, फेसबुक ऑन किया. ‘क्या कर रही हो?’ .. ‘मर्द ढूंढ रही हूं, मिलेगा क्या?’.. ‘जोकिंग?’ .. ‘क्यों,  व्हाई जस्ट बिकॉज आई एम अ गर्ल इसलिए आपको जोक लग रहा है? बट आइ रियली नीड अ मैन फॉर टुनाइट.’ आमंत्रण देख कर कुछ बत्तियां इनविजिबिल हो गईं. ‘स्सालों, फट गई क्या? तुम औरतें ढूंढो, जाल फेंको तो ठीक, और कोई औरत वही करे तो जोक लगता है.’ आधी रात को आकाश नाम का एक अजनबी युवक आ भी पहुंचता है. लेखिका ने उन दोनों अजनबियों के ‘गोरिल्ला प्यार’ का पूरा वृत्तांत लिखा है- ‘देह देर तक एक दूसरे को मथती रही’ आदि. इसके बाद पार्टनर मोबाइल फोन से माफी मांगने लगता है और तब अजनबी के साथ क्रीड़ा कर चुकी नायिका का ‘गला रुंध गया. बमुश्किल उसने रुलाई रोकी.’ (हंस, सितंबर, 2012)

रुंधे गले से बमुश्किल रुलाई रोकते हुए गीताश्री ने बाजार में बेची जाती हुई औरतों की दशा पर भी पूरी एक किताब लिख डाली. इस किताब में एशिया में वेश्यावृत्ति मे झोंकी गई स्त्रियों की उपलब्धता तथा उनके रेट्स का वर्णन इस प्रकार किया गया है मानो किसी होटल के व्यंजनों का मेन्यू कार्ड हो. ‘औरत की बोली’  शीर्षक इस किताब के मुखपृष्ठ पर औरतों के आंसुओं की जगह औरतों की नंगी टांगें बनी हुई हैं. वृद्ध लेखक तथा प्रौढ़ लेखिका उत्तम पुरुष में 20 वर्ष के युवक-युवती बनकर फेसबुक के बहाने कितनी वीभत्स कल्पना को यथार्थ रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं. बढ़ती उम्र के साथ लोग बेशर्म होते चले जाते हैं पर क्या इतने बेरहम भी हो जाते हैं ?

‘भावना, प्रेम, चाहत रहित दैहिक प्रक्रियाओं का चित्रण पोर्नोग्राफी का विषय है. अध्ययन बताते हैं कि पोर्न आख्यानों में दो ऐसे व्यक्तियों का चित्रण होता है जो बस अभी-अभी मिले हैं, इस संसर्ग के बाद फिर मिलेंगे भी नहीं. ऐसा संसर्ग व्यक्ति को और भी अकेला कर देता है. ऐसे चित्रण पढ़ने और देखने के बाद व्यक्ति जीवन में लंबे और स्थायी प्रेम संबंधों तथा पारिवारिक जीवन जीने में अक्षम हो जाता है. ऐसी छवियों से मुखातिब रहने वाले लोगों के मन में प्रेम, एकनिष्ठता, प्रतिबद्धता और चाहत की भावना खत्म हो जाती है.’ (डॉल्फ जिल्मैन)

चाहे रमणिका गुप्ता का नीली आंखों वाला आदमी हो या अश्वेत पुरुष, चाहे गीताश्री का गोरिल्ला प्यार का यौन साथी हो या एक पुत्री द्वारा पिता के लिए खरीदी गई युवती, चाहे जया जादवानी की स्त्री वेश्या हो या जयश्री रॉय का पुरुष वेश्या, चाहे सहजवाला के फेसबुक वाले युवक-युवती हों और चाहे मैत्रेयी पुष्पा के लल्लू कैलासी और दूर के रिश्ते की भौजाई.  ये सारे पात्र अजनबियों के साथ यौन संसर्ग करते हुए निरूपित किए गए हैं. ये केवल शरीर हैं, हृदयविहीन शरीर. ये कहानियां पोर्न आख्यान हैं.  इन संसर्गों के लिये सेक्स या सहवास संज्ञा का प्रयोग करना इन शब्दों का अपमान करना है.

यूनान में साहित्य और कला की देवी म्यूज कहलाती है. म्यूज कलाकारों की प्रेरणा मानी जाती है. वह पूजनीय थी. भारत में प्रेरणा के लिए नवाबों-शायरों ने तवायफों को गढ़ा. तहजीब की रक्षा के नाम पर वहां केवल गाना-बजाना ही नहीं था, नाज-नखरा और अदाएं उसका प्रमुख हिस्सा थीं. उनका काम था रिझाना. नपुंसक तथा निकम्मे नवाबों को रिझाने के लिए नियुक्त तवायफों और उत्तेजित करने वाले पुरुष हिचकारों के रोचक वृत्तांत हमारे लखनऊ के ही प्रतिष्ठित इतिहासकार योगेश प्रवीण की पुस्तकों में उपलब्ध हैं. समकक्षता के इस युग में स्त्रियों का उद्देश्य स्वयं को अभिव्यक्त करना है या चुके हुए संपादकों-समीक्षकों को रिझाना?

महात्मा गांधी के नाम पर स्थापित वर्धा विश्वविद्यालय में अपना छद्म साम्यवाद लाने के लिए कटिबद्ध उम्र के छठे दशक में विद्यमान कुलपति विभूति नारायण राय ने एक लेखिका को यौन केंद्रित गाली दी. उम्र के सातवें दशक में चल रहे रवीन्द्र कालिया ने गाली को नया ज्ञानोदय के सुपर बेवफाई अंक में छापा. उम्र के आठवें दशक में विद्यमान राजेंद्र यादव ने राय को कुलपति पद से हटाने की मांग को तालिबानी बताते हुए कहा, ‘दोस्तों, लोकतंत्र का भी कुछ सम्मान करना सीखो. आखिर हम इक्कीसवीं सदी में रह रहे हैं. यह शुद्ध मर्दवादी अहंकार कब तक हुंकारता रहेगा कि हम अपनी महिलाओं का अपमान नहीं सहेंगे.’ (हंस, सितंबर 2010 ). और उम्र के नवें दशक में विद्यमान साम्यवादी प्रोफेसर नामवर सिंह ने मौन सहमति दी.

मैत्रेयी पुष्पा रिटायर्ड पुरुष पुलिस अधिकारी से यौन केंद्रित गाली खाने के बाद भी उन्हीं के साथ चर्चारत दिखाई दीं (पाखी). उस छिछली चर्चा में क्षमाप्रार्थी होने के बजाय राय ने बड़ी निर्लज्जता से वरिष्ठ मैत्रेयी पुष्पा की तुलना अत्यंत फूहड़ लेखन करने वाली कनिष्ठ ज्योति कुमारी से कर दी. कोई सैद्धांतिक प्रतिरोध करने की जगह वे ‘ऊंऽऽ, आप लोग तो बड़े वैसे हैं’ की तर्ज पर कुनमुनाती नजर आईं. यह सब कैसे संभव हुआ? मैत्रेयी पुष्पा के आचार-विचार से तमाम असहमतियों के बावजूद मेरा मत है कि वे एक समर्थ लेखिका हैं. यदि यौन सक्रियता के वृत्तांतों से उनका सशक्तीकरण हो चुका होता तो क्या यह संभव था कि एक औसत से भी बदतर कहानी-उपन्यास लिखने वाला पुरुष इतनी वरिष्ठ लेखिका को इस तरह अपमानित कर दे और वह निरुत्तर रह जाए? यह मर्दों के खेला में नाचने के लिए तैयार होने का ही प्रतिफल है कि साहित्य में और समाज में लेखिकाएं मखौल का पात्र बन रही हैं.  इस बीच कुछ बेहतर लेखन भी अवश्य हुआ होगा मगर इस खेल में शामिल न होने के कारण वह अचर्चित रहा.

हिंदी लेखन अब तक भयंकर रूप से पितृसत्तात्मक है. अपने पुरुषवर्चस्ववादी स्वत्व की रक्षा करते हुए पिछली पीढ़ी के दंभी वयोवृद्ध पुरुषों ने पूरी तरह नकली औरतें गढ़ ली हैं. हर आयु वर्ग और आकार-प्रकार की ये बार्बी डॉल्ज हिंदी लेखन के बाजार में उपलब्ध हैं. इन्हें पूंजीवादी विदेशियों ने नहीं देसी जनवादियों ने तैयार किया है. चाबी से चलने वाली चीनी गुडि़यों की तरह इनके भीतर एक प्रोग्राम भरा है. चाबी लगाने पर ये वही बोलती हैं जो इनके निर्माताओं ने इनके भीतर भरा है. ये गुडि़यां बच्चों के लिए नहीं, हिंदी के प्रगतिशील वयोवृद्धवृंद की क्रीड़ा के लिए हैं.

रमणिका गुप्ता की ट्रेन में अजनबी सहयात्री से सहवास करने वाली स्त्री कहती है, ‘वे आंखें भी तो अपनी नीलिमा से मेरी देह को सहला ही तो रही हैं. कल जो दिन चढ़ेगा उसमें यह विलक्षण क्षण अलग से जुड़ जाएगा. इजाफा हो जाएगा तुम्हारे अनुभवों की फेहरिस्त में.’

इन चर्चित लेखिकाओं ने अनुभवों की फेहरिस्त में इजाफा करते हुए स्त्री-पुरुषों के वेश्याओं और अजनबियों के साथ यौन संसर्गों को अपना विषय बनाया है ताकि उन्हें मन, बुद्धि, चेतना, आत्मा और सारे मानवीय संबंधों से रहित शरीर के वर्णन का वितान मिल जाए. यह हिंदी में साहित्य के नाम पर चल रहा देह व्यापार है, जहां स्त्री, और अब तो पुरुष भी मांस का टुकड़ा हैं, बेचेहरा और हृदयहीन.

छद्म विमर्शकार बड़ी बेहयाई से पूछ रहे हैं कि क्या स्त्री को वह लिखने का अधिकार नहीं जो पुरुष लिख रहे हैं. मगर मूल प्रश्न इससे गंभीर है- आखिर लिखा क्या जा रहा है? स्त्री कौन-सा हक मांग रही है? मानव शरीर के अपमानित और विमानवीकृत चित्रण का हक? भावना विहीन देह वृत्तांत कहने का हक? यदि स्त्री तथा पुरुष के रचे में भिन्नता है ही नहीं तो स्त्री लेखन को अलग से रेखांकित क्यों किया जाए? प्रियंवद की ‘गंदी’ कहानी में नायक की भूतपूर्व सखी उसके घर ठहरी. वह कहती है- ‘बस मैं नहा लूं फिर बैठते हैं….अंदर से नल की धार की आवाज आ रही थी. दो कदम आगे बढ़ कर मैं झुका और गुसलखाने की दरार से आंख लगा दी. उसकी पीठ मेरी तरफ थी. लपटें फेंकते हुए दो अग्निकुंडों की तरह उसके नितंब चमक रहे थे’ (कथादेश, दिसंबर 2012). नायक एक प्रौढ़ पुरुष है, कोई किशोर बालक नहीं.

‘छुट्टी का दिन’ कहानी भी जयश्री रॉय ने पुरुष की ओर से उत्तम पुरुष में लिखी है,’ सच पूछो तो भारी नितंबों वाली स्त्री के पीछे पीछे रोज एकाध घंटे चलना मुझे बुरा भी नहीं लगता था. वह आगे आगे बतख की तरह कूल्हे मटकाती नाजो अदा से चलती थी.’ पुरुष घर आ कर ‘नौकरानी कांता बाई के नितंब निहारता.’ प्रौढ़ दंपति में से पति रोशनदान से झांकता हुआ पड़ोस की अमला भाभी को नहाते हुए देखता है, और प्रौढ़ पत्नी पड़ोस के त्रिपाठी भाई साहब को.

सहज स्वाभाविक संबंधों का विवरण साहित्य में कभी समस्याप्रद नहीं रहा. यह स्वस्थ साहचर्य का चित्रण है ही नहीं, यह तो ‘वाइकेरियस प्लेजर’ देने वाला ‘की-होल जर्नलिज्म’ है. गुदगुदी और सनसनी पैदा करने के लिए लेखक-लेखिका दरारों से झांक रहे हैं. पोर्नोग्राफर स्त्री को अपने ही शरीर का अवयवीकरण और अपमान करना सिखाता है. जयश्री रॉय पुरुष बन कर मर्दों के खेला में नाचती हुई भारी नितंबों वाली स्त्री के पीछे-पीछे चल रही हैं , नौकरानी कांता बाई के नितंब निहार रही हैं, गुसलखाने के रोशनदान से पड़ोस की अमला भाभी को बिना टाट का पर्दा डाले ही नहाते हुए झांक रही हैं और उपहास की भाषा में स्त्री अवयव वर्णन कर रही हैं. बहुत खूब.

इंटरनेट पर चैट करने वाले, मॉर्निंग वाक करने वाले मध्यवर्गीय प्रौढ़ दंपति ऐसे किस मुहल्ले में रहते थे जहां पड़ोसी त्रिपाठी दंपति आंगन में टाट का पर्दा डाल कर और कभी कभी बिना पर्दा डाले ही नहाता होगा? गीताश्री की कहानी का परिवार, जहां होमसर्विस देने वाली वेश्या तक इंग्लिश बोलती है, ऐसी किस सोसाइटी के टावर्स में रहता होगा जहां फर्स्ट फ्लोर की बाल्कनी में ‘बताऊं क्या-क्या गिरते हैं?..यूज्ड कॉन्डम और सैनिटरी नैपकिन्स’ ( ताप ). जुगुप्सा जगाने की प्रतियोगिता में एक -दूसरे को पछाड़ती इन लेखिकाओं की कहानियों में पात्रों और पृष्ठभूमि की विश्वसनीयता की अपेक्षा करना धरती पर चांद मांगने जैसा है.

दशकों के प्रयासों से यह समूह साहित्य की मुख्यधारा को पोर्न आख्यानों से बदल चुका है. ऐसे आख्यान अब अपवाद नहीं नियम हैं जिनमें यौन संसर्ग आकस्मिक और भावना विहीन है और स्त्री एक पूर्णतः यौनीकृत वस्तु.

जयश्री रॉय की देह, नदी और रात सीरीज की एक अन्य कहानी ‘समन्दर, बारिश और एक रात’ (कथादेश) में ‘फुलमून नाइटडांस में डॉनी अपनी बांहों में दो लड़कियों को एक साथ भींचे झूम रहा था. स्कारलेट 14 वर्ष की ब्राजीलियन लड़की थी जो पिछले तीन महीनों से अपनी प्रेमिका नीकीबार्नो के साथ एक कमरा लेकर रह रही थी, कभी कभी अपना स्वाद बदलने के लिए पुरुषों के साथ भी हो लेती थी. आज की रात उसका डेट अफ्रीकन युवक था.’ वह बलिष्ठ अफ्रीकन युवक के कंधे पर से उतर कर जेनी नामकी लड़की का जबरदस्ती यौन शोषण करती है. जहां सभी लोग स्वेच्छा से एक साथ अनेक अजनबियों के साथ यौन संसर्ग में लिप्त थे वहां सामूहिक बलात्कार की गुंजाइश कहां थी? मगर जयश्री रॉय ने जगह निकाल ली और सामूहिक बलात्कार की पूरी प्रक्रिया का वर्णन इतने विस्तार और इतनी तटस्थता से किया मानो ‘सामूहिक बलात्कार कैसे करें’ की दिशानिर्देशक हैंडबुक तैयार कर रही हों. न स्त्री की यातना का लेशमात्र वर्णन, न पुरुष की दरिन्दगी के प्रति क्षोभ. 75 वर्षीय वृद्ध परमानन्द श्रीवास्तव ने लेखिका की ऐसी कहानियों को कविता बताते हुए कसीदे काढ़े हैं (पाखी, दिसम्बर 2011) दरिंदगी के ऐसे बढ़ते अपराधों से समाज दहल रहा है मगर हिंदी लेखन में उत्सव चल रहा है.

इस परंपरा में ज्योति कुमारी की ‘अनझिप आंखें’ में पति द्वारा उत्पीड़ित नायिका के आगे उसका मामा यौन संसर्ग का प्रस्ताव रखता है फिर कार्यस्थल पर अखबार का संपादक. वह एक समाज सेविका से मदद मांगती है जो उसका हौसला बढ़ाती है, ‘चल कल मूवी चलते हैं.’ मूवी चल रही है. इंग्लिश बोल्ड लव स्टोरी. बड़ी तेजी से मेरे पैरों पर फिसलता हुआ एक हाथ बढ़ा चला आता है-‘अरे यह तो मैम का हाथ है.’ मैं हकला कर रह गई…’ मैम मैं वैसी लड़की नहीं हूं…मैम आइ एम नाट लेस्बियन.’..’ओह’, अचानक ऊपर आता मैम का हाथ रुक गया..’अच्छा तो तुम मर्दख़ोर हो’ और आंख दबा कर मुस्करा दीं.’ (हंस, अगस्त 2012)
जिस तरह हिंदी की मसाला फिल्मों में लंबे रेप सीन स्त्री पर होने वाले अत्याचार के प्रति करुणा जगाने के लिए नहीं मर्दों को रेप करने का वाइकेरियस प्लेजर देने के लिए रखे जाते हैं, उसी तरह इन कहानियों में स्त्री शोषण के सारे आयाम एक ही स्थान पर उपलब्ध करा दिए गए हैं. यह बूढ़े मर्दों की फरमाइश पर पेश किया गया ‘मेड टु ऑर्डर’ व्यंजन है, इसीलिए उनके द्वारा प्रकाशित, प्रशंसित, अनुशंसित और पुरस्कृत है. यहां मर्दवादी लेस्बियन होमोफोबिया भी मौजूद है. पितृभाव दिखाते हुए पुरानी पीढ़ी के घोर पुरुषवादी लेखकों ने पिछले दो तीन दशकों में स्त्री की जो विमानवीकृत छवि गढ़ी उसी के अनुरूप स्वयं को ढालती हुई ये गुड़ियाएं खुद को अपने शरीर से अलग करके लेखन में स्त्री शरीर परोस रही हैं.

गीताश्री की कहानी ताप इस प्रवृत्ति का शास्त्रीय उदाहरण है. उसमें मां बेटी से कहती है, ‘मैं ठंडा गोश्त हूं जिसे गर्म नहीं किया जा सकता. अपने पापा के लिए किसी लड़की का इंतजाम कर दे.’ यही बात उसका सहकर्मी विप्लव उससे अपने पिता के विषय में कहता है, ‘बुड्ढा बहुत सेक्सी है. मिलवाऊंगा तो आफत आ जाएगी. फिर न कहना कि देखो तेरे पिता ने क्या कर दिया. नॉट जोकिंग यार सीरियसली. मेरी मां अब बहुत बूढ़ी हो गई है. पिता अब भी फफन रहे हैं. सोचता हूं उनके लिए किसी लड़की-वड़की का इंतजाम कर दूं. विप्लव हंसते हुए बता रहा था. न कोई संकोच न कोई शर्मिंदगी.’ (इरावती पृ.126)

वृद्धा मां और युवा विप्लव दोनों ‘लड़की-वड़की का इंतजाम’ की भाषा बोलते हैं. युवा बेटा अपने बाप के लिए लड़की का इंतजाम करता है और युवा बेटी अपने बाप के लिए. वृद्ध पिता कहता है’, ‘पांच-पांच हज़ार में एक से एक मिलती हैं.’ मां ‘ठंडा गोश्त’ है, पिता अब भी ‘फफन रहे हैं’ और लड़कियां बिक रही हैं. एग्रेसिव मेन और सब्मिसिव वुमन की सेडोमेसोचिस्ट छवि को अब पुरुष नहीं स्त्री पुख्ता कर रही है. ‘स्त्री आकांक्षा के मानचित्र’ की चितेरी इन गीताश्री की शान में राजेंद्र यादव संपादकीय लिख चुके हैं. मर्दों के खेला में यही स्त्री विमर्श है. वृद्ध पुरुष यौन बुभुक्षित हैं और युवा स्त्रियां उनका आहार. औरतों ने भी यही छवि आत्मसात कर ली है.

स्त्री की इस आत्मछवि के निर्माण में उन पुरस्कारों का भी हाथ है जो ऐसा लेखन प्रोत्साहित करने के लिए दिए जाते रहे. पुरस्कारों का अर्थ केवल 51 या 51 लाख रुपये, एक शॉल तथा नारियल, जिसे कविगण मंच से श्रीफल कहते सुने जाते हैं, ही नहीं होता. इसका मतलब यह भी है कि उन समयों में वैसा लेखन समाज में उत्कृष्ट माना जा रहा था. यही लेखन पीढ़ी के लिए नजीर बनता है और भावी पीढ़ी उसका अनुसरण करती है. लोकप्रियता ही श्रेष्ठता का आधार नहीं होती. इसी कारण उत्कृष्ट कला फिल्मों को राष्ट्रीय पुरस्कार दिया जाता है भले ही वे लोकप्रिय न भी हुई हों. हिंदी लेखन में कलावस्तु के स्थान पर पोर्न वस्तुओं का पुरस्कृत होना गहरी चिंता का विषय है.

आज सभी क्षेत्रों में स्त्रियां पुरुषों के बराबर खड़ी दिखाई दे रही हैं. आज वे केवल परीक्षाओं में सफल होकर डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापिका ही नहीं बन रहीं, राष्ट्रीय और निजी क्षेत्र के बैंकों की चेयरमैन कम मैनेजिंग डारेक्टर, कॉरपोरेट हाउसेज की मालकिन और अंतरिक्ष यात्री भी हैं. गांवों और शहरों में लाखों स्वास्थ्यकर्मी, एएनएम, आशा बहुएं, आंगनवाड़ी और प्राथमिक पाठशालाओं में काम करने वाली स्त्रियां खुद कमा रही हैं और घर चला रही हैं. अध्ययन बताते हैं कि एक तिहाई घरों की अकेली कमाने वाली सदस्य स्त्रियां हैं. परिवार के मुखिया के रूप में भले ही रजिस्टर में पुरुष का नाम लिखवा दिया जाए पर इन घरों में बच्चे अपने निखट्टू पिता की जगह कर्मठ मां की ही सत्ता मानते हैं.

खेद है कि हिंदी लेखन में सारी सत्ता ऐसे मर्दों के हाथ में है जिनके अपने निजी जीवन में स्त्रियों का न कोई आदर- सम्मान है न ही स्थान. वे प्रोफेसर हैं, संपादक और चयनकर्ता भी. इन मठाधीशों ने रमणिका गुप्ता जैसे लेखन को साहसिक बता कर अनुकरणीय बनाया और हिंदी लेखन में आलिंगन चुंबन द्वारा सत्ता हस्तांतरण की प्रणाली स्थापित होती चली गई. यह समकक्षता नहीं है. अवनतिशील वृद्धवृंद प्रगतिशीलता के प्रमाणपत्र बांट रहा है और  बार्बी डॉल्ज प्रमाणपत्र पाने को पंक्तिबद्ध खड़ी हैं.

इन हेय और उपेक्षणीय रचनाओं को उद्धृत करना मेरे लिए एक कष्टप्रद अनुभव रहा. मेरा उद्देश्य रचनाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा करना नहीं बल्कि पाठकों के सामने स्त्री लेखन के नाम पर चल रही दुर्भावनापूर्ण पोर्न परंपरा की बानगी प्रस्तुत करना है. अंतिम निर्णय तो पाठक करेंगे और आने वाला समय.

जनवादियों द्वारा अतिनिंदित वेदों में एक प्रार्थना है, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’. साहित्य को समाज के आगे मशाल ले कर चलते हुए समाज का पुरोधा होना चाहिए. आदिकाल, वीरगाथाकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिककाल के बाद छद्म जनवादियों द्वारा निर्मित यह नवरीतिकाल का अंधायुग है. इस अंधे युग के ‘हर पल गहरे होते जाते अंधियारे’ में आबाल-वृद्ध (छोटी-बड़ी) बार्बी डॉल्ज से प्रगतिशीलता के रैंप पर कैटवॉक करवाई जा रही है- उजाले से अंधेरे की ओर.

जो पोर्न छवियां पूंजीवाद के बाजार में इंटरनेट पर क्रेडिट कार्ड द्वारा पेमेंट करके खरीदी जाती हैं, प्रगतिशील जनवादियों के बाजार में वे ही छवियां मुफ्त में उपलब्ध हैं. इस बाजार को ही हिंदी साहित्य बताया जा रहा है. यह बाजार युवाओं द्वारा नहीं मर्दों के वृद्धवृंद द्वारा संचालित, पोषित और नियंत्रित है. इसमें वृद्ध, प्रौढ़ और युवा बार्बी डॉल्ज नृत्य में अव्वल आने के लिए एक-दूसरे से होड़ ले रही हैं. यह स्त्री विमर्श के नाम पर चल रहा उन्मादग्रस्त आनंदनृत्य है .

धार्मिक रूढि़वाद के विरुद्ध स्त्रीमुक्ति की आवाज उठाते बहुत समय हो गया. जनवादियों का यह पोर्न अनुष्ठान उससे ज्यादा खतरनाक है क्योंकि इसे प्रगतिशील स्त्री विमर्श के रूप में पेश किया जा रहा है. आज यह आवाज छद्म जनवाद के खिलाफ उठा रही हूं, इसलिए कि अब और चुप रह पाना मुमकिन नहीं और इसलिए भी कि मुझे पूरा यकीन है इस आवाज को जरूर सुना जाएगा.