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बलराज साहनी

Balra-Sahani.
इलेस्ट्रेशन: मनीषा यादव

‘गरम हवा’ में आखिरी बार देखा
बलराज साहनी को
जिसे खुद बलराज साहनी नहीं देख पाए

जब मैंने पढ़ी किताब
भीष्म साहनी की लिखी
‘मेरा भाई बलराज’
तो यह जाना कि
हमारे इस महान अभिनेता के मन में
कितना अवसाद था

वे शांतिनिकेतन में
प्रोफेसर भी रहे
और गांधी के
वर्धा आश्रम में भी रहे
गांधी के कहने पर
उन्होंने बीबीसी लंदन
में भी काम किया

लेकिन उनके मन की अशांति
उनके रास्तों को बदलती रही

जब वे बंबई के पृथ्वी थियेटर में आए
इप्टा के नाटकों में काम करने
जहां उनकी मुलाकात हुई
ए.के. हंगल और दूसरे
कई बड़े अभिनेताओं और पटकथा लेखकों और शायरों से

दो बीघा जमीन में
काम करते हुए
बलराज साहनी ने देखा
फिल्मों और समाज के किरदारों
के जटिल रिश्तों को
धीरे-धीरे वे
अपने भीतर की दुनिया से
बाहर बन रहे नए समाज
के बीच आने-जाने लगे

वे अक्सर
पाकिस्तान में मौजूद
अपने घर के बारे में
सोचते थे
और एक बार गए भी वहां
लेकिन लौटकर
बंबई आना ही था

अपने आखिरी दिनों में वे
फिल्मों के आर्क लाइट से बचते
और ज्यादा से ज्यादा अपना समय
जुहू के तट पर
अकेले घूमते हुए बिताते

हजारों लोग हैं
सीमा के दोनों ओर
जो गहरे तनावों के बीच
जीते हैं
और एक
बहुत धीमी मौत
मरते हुए जाते हैं

श्याम बेनेगल की फिल्म
‘ममो’ में
बार-बार भागती है
और छुपती है ममो
वह भारत में ही रहना चाहती है
लेकिन अंततः
भारत की पुलिस उसे पकड़ लेती है
और वह धकेल दी जाती है
पाकिस्तान के नक्शे में
भारत के समाज में
और पाकिस्तान के समाज में
कितने-कितने लोग हैं
जिन्होंने आज तक कबूल नहीं किया
इस विभाजन को

कहते हैं कि
एक बार जब
सत्यजीत राय और ऋत्विक घटक
हवाई जहाज से
कलकत्ता से ढाका जा रहे थे
हवाई जहाज की खिड़की से नीचे देखा
ऋत्विक घटक ने
बहती हुई पद्मा को
डबडबाई आंखों और भारी गले से
उन्होंने कहा पास बैठे
सत्यजीत राय से
मार्णिक वह देखो
बह रही है
हमारी पद्मा
दोनों आगे कुछ बोल नहीं पाए
सिर्फ देखा दोनों ने
बहती पद्मा को
बंगाल के विभाजन को
कभी कबूल नहीं किया दोनों ने

स्वाधीनता की लड़ाई से
हमारी कौम ने जो हासिल किया
उसे विभाजन में कितना खोया
यह हिसाब
बेहद तकलीफदेह है
जो आज भी जारी है.

बांसुरी

बांसुरी के इतिहास में
उन कीड़ों का कोई जिक्र नहीं
जिन्होंने भूख मिटाने के लिए
बांसों में छेद कर दिए थे.

और जब-जब हवा उन छेदों से गुजरती
तो बांसों का रोना सुनायी देता

कीड़ों को तो पता ही नहीं था
कि वे संगीत के इतिहास में हस्तक्षेप
कर रहे हैं
और एक ऐसे वाद्य का आविष्कार
जिसमें बजाने वाले की सांसें बजती हैं.

मैंने कभी लिखा था
कि बांसुरी में सांस नहीं बजती
बांस नहीं बजता
बजाने वाला बजता है

अब
जब-जब बजाता हूं बांसुरी
तो राग चाहे जो हो
उसमें थोड़ों की भूख
और बांसों का रोना भी सुनायी देता है.

कामरेड, मैं तुम से प्यार करती हूं

Congrats-cut-out
इलेस्ट्रेशन: मनीषा यादव

उस दिन
तुम्हारे चेहरे पर उदासी थी,
कामरेड.

आज भी
वही उदासी
मुझे तुम्हारे नजदीक
लाती है.

मैंने हमेशा
उदास लोगों को देखा है
अपने आस-पास
पर तुम्हारी उदासी
गोबर से लिप दिए हुए
हमारे गांव के
उस बड़े से घर की तरह
है
सुंदर और बड़ा घर
खाली घर
सायं-सायं करता हुआ
एक नया घर
सुंदरता मेरे पास भी है
पर उदासी उससे हजार-हजार गुनी ज्यादा
जबकि लोग कहते हैं- ‘मैं
बहुत बातूनी हूं.
चुप नहीं रह सकती एक
भी मिनट.’

तुम्हारे जवान चेहरे पर
उदासी
एक धीर गंभीर परिपक्व
प्रौढ़ युवा की तरह
साथ-साथ रहती है
और तुम्हारी आंखंे
दो कुओं की तरह पाताल
से खींच कर लाती है
करुणा
समुद्र सी पर पीली
करुणा
एक हिम्मत सी मुस्कान
के साथ

कैसे हो?
कहां से हो?
नाम क्या है तुम्हारा?
ये सब बेमानी हो गया
था
जब तुम कहे थे- नाम
में क्या रखा है?
और उतर गए थे बस
से एक मिनट ही बाद

कितने दिन
कितने साल
कितनी सदियां बीती
फिर तुम मिले
तुम्हारी पहचान मिली
मिली वही उदासी
जो तुम्हारा स्थायी भाव था

मैं
पिता से प्यार नहीं करती
मां से भी नहीं
किताबों से करती हूं
कविताओं से करती हूं
और पढ़ना मुझे
यात्रा करने जैसा आनंददायक लगता है

तुम ह्वेनसांग को जानते हो
तुम रूस को जानते हो
तुम इतिहास-भू-गोल
और संसार को जानते हो
तुम कितने-कितने लोगों
को जानते हो
तुम कितने-कितने लोगों
से अच्छे से मिलते हो
तुम कितने-कितने लोगों
के नजदीक रहकर भी
दूर हो
तुम आंखों में कितनी-
कितनी बातें छिपाये हो

मुझे तुम से प्यार हो गया
है.
मैं तुम से छह साल छोटी
हूं.
तुम्हारी भांजी और
भतीजी मेरी जितनी बड़ी है.
तुम्हारी आंखें कितनी
पवित्र और भोली हंै.
तुम से मैं कितना डरती हूं.
तुम्हारा सम्मान भी
करती हूं.
तुम्हारी भांजी और
भतीजी की तरह झगड़ा
भी करती हूं.

तुम्हारी कविताओं वाली
पत्रिकाएं भी पढ़ती हूं
उन पर बहस करती हूं
तुम्हारे कामों में हाथ
बंटाती हूं
सुझाव देती हूं
पर तुम से कैसे कहूं,
कामरेड.
जबकि दुनिया की तमाम
बातें करती हूं तुम से
उस वक्त तुम्हारी आंखें मुझे
दुनिया में सब
से खूबसूरत और प्यारी
लगती हंै

मैं किसी से नहीं डरती
पिता से नहीं
मां से नहीं
भाई और चाचा से नहीं
किसी से भी नहीं
तुम से भी नहीं

तुम भगवान को नहीं मानते
मैं भी नहीं मानती
(मैं तुम्हें मानती हूं)

तुम्हारे इतनी नजदीक हूं
कि हाथ बढ़ाऊं तो
मुट्ठी में बंद कर लूं तुम्हें
पर मैं भी अजीब हूं
अजीब हूं बोलकर ही
तुम्हारे करीब हूं
करीब हूं बोलकर यह बोल नहीं पाती
इसलिए आज यह पत्र
लिखकर कहती हूं-
कामरेड, मैं तुम से प्यार
करती हूं.

कुछ न कुछ गल जाता है इस जीवन का

Congrats-poem
इलेस्ट्रेशन: मनीषा यादव

खत किया पूरा
अपूर्ण टुकड़े के नीचे अपना नाम रखकर
अंत में लिख दिया
जहां-जहां काट-कूट उसे भी खत का
हिस्सा मानना
अनंत लकीरें, असंख्य काट-कूट और
अगनित अक्षर हैं बचे हुए जो
साथ-साथ हजार साल गुजारो तो जान
सकती हो
लिफाफे के ऊपर उसका नाम लिखा
सुंदर लिखना अपनी ताकत के उस पार
था
थोड़ा बेहतर लिख सकता था मगर अंगुलियां थीं रात के नाखूनों से आहत
उबाऊ है अपना पता लिखना
इसे लेकर क्या करूंगा जब लौटा ही देगी
और नहीं भी पहुंचे तो एक खत कम ही
सही
रोज कोई न कोई पत्र गल ही रहा इस
जीवन का.

पांव की नस

Panv-ke-nasपांव की कोई नस अचानक चढ़ जाती है
इतना तेज दर्द कि पांव की मामूली सी जुम्बिश भी
इस नामुराद को बर्दाश्त नहीं

सोचता हूं और भी तो तमाम नसें हैं शरीर में
सलीके से जो रही आती हैं हमेशा अपनी अपनी जगह
एक यही कमज़र्फ़ क्यों वक्त बेवक्त ऐंठ कर
मेरा सुख चैन छीन लेती है

पैरों के साथ बरती गई न जाने कौन-सी लापरवाही का
बदला ले रही थी वह नस
मुझे लगा अपनी अकड़ती आवाज़ में कह रही हो जैसे
कि दिनभर बेरहम जल्लादों की तरह थकाया तुमने पैरों को
और बदले में क्या दिया?
दिनभर हम्मालों की तरह भार ढोया पैरों ने तुम्हारे शरीर का
कितनी सड़कें नापीं,
खाक झानी कितनी आड़ी टेढ़ी गलियों की
कितनी भटकनों की स्मृतियां दर्ज इनके खाते में

इन्होंने जहां चाहा वहां पहुंचाया तुमको
घंटों जूतों में कैद रखा तुमने इन्हें
थकान से चूर तुम तो सोते समय भी
पैरों को ठंडे पानी से धोना भूल गये
और पड़ गये बिस्तर पर

खींच कर अपना हाथ उंगलियों से टोता हूं नस को
धीरे धीरे सहलाता हूं, दबाता हूं
जातियों के जन्म की कोई मनुवादी धारणा
कौंधती है दिमाग में
इतनी पीड़ा कि फूट पड़ती है हंसी और कराह एक साथ
ओह! पिण्डली की एक नस ने हिला कर रख दिया है
मेरे पूरे वजूद को
कितना असमर्थ कर दिया है इसने
पांव को उतार कर ज़मीन पर टिकाना भी नामुमकिन
कमबख़्त एक नस ने जरा सा ऐंठकर
हर मुमकिन को कर दिया
नामुमकिन!

तुम्हारी गति और समय का अंतराल

Extra-work
इलेस्ट्रेशन: मनीषा यादव

ओ मेरी बेटी तुतरू !
मां से क्यों झगड़ती हो?
लो तुम्हारा खिलौना
तुम्हारा मिट्टी का घोड़ा
लो इस पर बैठो और जाओ
जंगल से जंगली सुअर का शिकार कर लाओ
ये लो धनुष अपने पिता का….,

ओ..ओ… तो तुम अब जा रही हो
घोड़े पर बैठ कर शिकार के लिए
तुम्हें पता है शिकार कैसे किया जाता है?
कैसे की जाती है छापामारी?
रुको…! अपने घोड़े को यहां रखो
बगल में रखो धनुष
और लो ये पेन्सिल और कागज़
पहले इससे लिखो अपना नाम
अपने साथी पेड़, पक्षी, फूल, गीत
और नदियों की आकृति बनाओ
फिर उस पर जंगल की पगडंडियों का नक्शा खींचो
अपने घर से घाट की दूरी का ठीक–ठीक अनुमान करो

और तब गांव के सीमांत पर खड़े पत्थरों के पास जाओ
उनसे बात करो, वे तुमसे कहेंगे तुम्हारे पुरखों की बातें
कि उन्हें अपने बारे में लिखने के लिए
कम पड़ गए थे कागज़
कि इतनी लम्बी थी उनकी कहानी
कि इतना पुराना था उनका इतिहास
कि इतना व्यापक और सहजीवी था उनका विज्ञान
तुम लिखो इन सबके बारे में
कि चांद, तारे, सूरज और आसमान की
गवाही नहीं समझ सके हत्यारे,
और तब हवा के बहाव और घड़ी का पता लगते ही
तुम दौड़ती हुई जाओ उस ओर
जहां जाड़े में जंगल का तापमान ज्यादा है
जहां तुम्हें तुमसे अलग गंध महसूस हो, शिकार वहीं है,

ओ मेरी बच्ची!
अब तुम्हारी गति और समय में अंतराल नहीं होगा
तुम्हारा निशाना अचूक होगा और दावेदारी अकाट्य.

चोरी

Asan-Shikar
इलेस्ट्रेशन: मनीषा यादव

जब भी बहनें आतीं ससुराल से
वे दो चार दिनों तक सोती रहतीं
उलांकते हुए उनके कान में जोर की
कूंक मारते
एक बार तो लंगड़ी भी खेली हमने उन
पर
वे हमें मारने दौड़ीं
हम भागकर पिता से चिपक गए
नींद से भरी वे
फिर सो गईं वहीं पिता के पास…

पिता के न होने पर
नहीं सोईं एक भी भरी दोपहरी में
क्या उनकी नींद जाग गई पिता के
सोते ही…?
सब घेरकर बैठी रहीं उसी जगह को
जहां अक्सर बैठते थे पिता और लेटे थे
अपने अंतिम दिनों में…
पिता का तकिया जिस पर सर रखने
को लेकर
पूरे तेरह दिन रुआंसे हुए हम सब कई
बार
बांटते भी कैसे
एक दो तीन नहीं हम तो पूरे नौ हैं…

इसी बीच सबकी आंख बचाकर
मैंने पिता की छड़ी पार कर दी
उन्होंने देख लिया शायद मुझे
मारे डर के वैसे ही लिपटी छड़ी से
लिपटी थी जैसे पहली बार
पिता की सुपारी चुराने पर पिता से…

सृष्टि पर पहरा

kavita-tree-wala
इलेस्ट्रेशन: मनीषा यादव

जड़ों की डगमग खड़ाऊं पहने
वह सामने खड़ा था
सिवान का प्रहरी
जैसे मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस-
एक सूखता हुआ लंबा झरनाठ वृक्ष
जिसके शीर्ष पर हिल रहे
तीन-चार पत्ते

कितना भव्य था
एक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी पर
महज तीन-चार पत्तों का हिलना

उस विकट सुखाड़ में
सृष्टि पर पहरा दे रहे थे
तीन-चार पत्ते

———————————————————————————————————–

विद्रोह

आज घर में घुसा
तो वहां अजब दृश्य था
सुनिये- मेरे बिस्तर ने कहा-
यह रहा मेरा इस्तीफ़ा
मैं अपने कपास के भीतर
वापस जाना चाहता हूं

उधर कुर्सी और मेज़ का
एक संयुक्त मोर्चा था
दोनों तड़पकर बोले-
जी- अब बहुत हो चुका
आपको सहते-सहते
हमें बेतरह याद आ रहे हैं
हमारे पेड़
और उनके भीतर का वह
ज़िंदा द्रव
जिसकी हत्या कर दी है
आपने

उधर आलमारी में बंद
किताबें चिल्ला रही थीं
खोल दो-हमें खोल दो
हम जाना चाहती हैं अपने
बांस के जंगल
और मिलना चाहती हैं
अपने बिच्छुओं के डंक
और सांपों के चुंबन से

पर सबसे अधिक नाराज़ थी
वह शॉल
जिसे अभी कुछ दिन पहले कुल्लू से ख़रीद लाया था
बोली- साहब!
आप तो बड़े साहब निकले
मेरा दुम्बा भेड़ा मुझे कब से
पुकार रहा है
और आप हैं कि अपनी देह
की क़ैद में
लपेटे हुए हैं मुझे

उधर टी.वी. और फोन का
बुरा हाल था
ज़ोर-ज़ोर से कुछ कह रहे थे
वे
पर उनकी भाषा
मेरी समझ से परे थी
-कि तभी
नल से टपकता पानी तड़पा-
अब तो हद हो गई साहब!
अगर सुन सकें तो सुन
लीजिए
इन बूंदों की आवाज़-
कि अब हम
यानी आपके सारे के सारे
क़ैदी
आदमी की जेल से
मुक्त होना चाहते हैं

अब जा कहां रहे हैं-
मेरा दरवाज़ा कड़का
जब मैं बाहर निकल रहा था.

(कविता संग्रह ‘सृष्टि पर पहरा’ राजकमल प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य)

‘मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि कैसे च्यूइंगम का रिश्ता जंजीर से जुड़ सकता है’

फोटो:अरुण सहरावत
फोटो: अरुण सहरावत

शुरू से ही शुरू करते हैं. आप हरिवंश राय बच्चन के बेटे हैं जो हिंदी के महान कवियों में से एक थे. लेकिन जीवन के लिए जो रास्ता आपने चुना वह पिता के रास्ते से बिल्कुल ही अलग था. 1969 में जब आप फिल्मों में आए तो तब सिनेमा का स्वरूप आज जैसा नहीं था. आज सिनेमा करियर है जो तब नहीं था. तो आपने कैसे तय किया कि फिल्मों में ही जाना है?

मेरे पिता की वजह से हमारे परिवार में माहौल साहित्य और कविता का ही था. मेरी मां से बहुत से लोग पूछते थे कि आपके पति कवि हैं तो आपका बेटा फिल्मों में कैसे चला गया. उनका जवाब होता था कि परिवार में एक कवि ही काफी है. (हंसते हुए). 1962 में जब मैं कॉलेज में था तो उस समय के युवाओं के लिए ग्रेजुएट होना सबसे अहम उपलब्धियों में से एक हुआ करता था. ग्रेजुएट होने के लिए बड़ा सामाजिक दबाव होता था. लेकिन फिर सवाल यही होता था कि इसके बाद क्या करें. मैंने और मेरे दोस्तों ने नौकरियों के लिए कई जगहों पर कोशिशें कीं, लेकिन नाकाम रहे. फिर किसी ने सुझाव दिया कि तुम आल इंडिया रेडियो में न्यूजरीडर बनने के लिए कोशिश करो. मैंने आवेदन भी किया था, लेकिन वह रिजेक्ट हो गया.

ऐसी आवाज के बावजूद आप नहीं चुने गए?
ये तो खैर आप आल इंडिया रेडियो वालों से ही पूछें. इसके बाद किसी ने कहा कि कलकत्ता जाओ. तो मैं कलकत्ता चला गया और मुझे नौकरी भी मिल गई. अगले सात साल वहीं गुजरे. फिर एक दिन मेरे भाई ने मुझे एक विज्ञापन के बारे में बताया. यह फिल्म पत्रिका फिल्मफेयर-माधुरी में आया था और इसका मजमून यह था कि नए अभिनेताओं की तलाश है जिनका इंटरव्यू के जरिये चयन किया जाएगा. यह विज्ञापन उस समय के प्रमुख पांच-छह निर्देशकों द्वारा जारी किया गया था. मुझे लगा कि यह फिल्म इंडस्ट्री में दाखिल होने का सबसे सही तरीका है. मुझे और कोई तरीका मालूम भी नहीं था. तो मैंने आवेदन कर दिया, लेकिन वहां भी मैं पहले ही दौर में खारिज हो गया. खैर, मैं मुंबई में था और मेरे पास ड्राइविंग लाइसेंस था. तो मैंने सोचा कि कुछ नहीं हुआ तो मैं ड्राइवर तो बन ही सकता हूं.

आपके माता और पिता दोनों की अपनी तरह की शख्सियत थी. किसका आप पर ज्यादा प्रभाव पड़ा और यह किस तरह का था?
मुझे लगता है कि मैं पूरब और पश्चिम का एक सुंदर मेल हूं. पश्चिम के तौर पर आप मेरी मां को देख सकते हैं जो बहुत ही संपन्न सिख परिवार से ताल्लुक रखती थीं. उनकी जिंदगी अंग्रेजीभाषी नौकरों और महंगी कारों के बीच गुजरी थी. उधर, मेरे पिता एक निम्नमध्यवर्गीय परिवार से थे जिनका जीवन खपरैल वाले कच्चे घर में बीता था और जिन्होंने ढिबरी की रोशनी में पढ़ाई की थी. एक दोस्त के यहां वे दोनों मिले और मिलने के कुछ घंटों बाद ही उन्होंने पूरा जीवन साथ बिताने का फैसला कर लिया.

क्या आपकी शख्सियत पर कुछ अपनी मां का यानी सिख-पंजाबी असर है? आपके पिता की छाप तो आप पर साफ दिखती है. आपका हिंदी उच्चारण, हिंदी के साथ आपकी सहजता…
मेरी पंजाबी भी उतनी ही अच्छी है. मेरी मां का दूसरा असर शायद मेरी लंबाई है. मिजाज की गर्मजोशी और हार न मानने वाली प्रवृत्ति भी ऐसी चीजें हैं जिन्हें आमतौर पर सिखों के साथ जोड़कर देखा जाता है. एक और चीज मैं आपको बताना चाहूंगा. इलाहाबाद जहां मैं पैदा हुआ, वहां यह शायद पहला अंतर्जातीय विवाह था. तब जाति प्रथा आज की तुलना में बहुत सख्त थी और मेरे माता-पिता को इस वजह से काफी सामाजिक बहिष्कार का सामना भी करना पड़ा.

आप घर में कौन सी भाषा में बात किया करते थे. हिंदी, अंग्रेजी या पंजाबी?
थोड़ा-थोड़ा सबमें ही. पंजाबी में मैंने ज्यादा बोलना तब शुरू किया जब मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी आया.

दिल्ली में अपने कॉलेज के दिनों के बारे में बताएं. क्या आप तब भी थियेटर किया करते थे?
पता नहीं क्यों पर मंच पर जाने के लिए मैं हमेशा से तैयार रहता था. किंडर गार्डन से ही. मेरा पहला रोल एक चूजे का था जिसमें मैं पंख पहनकर स्टेज पर आया था. हालांकि यह सब शौकिया ही था. फिर जब मैं नैनीताल के शेरवुड कालेज गया तो मैंने कुछ महत्वपूर्ण नाटकों में हिस्सा लिया. इनमें शेक्सपियर और कुछ और बड़े लेखकों के नाटक शामिल थे. कलकत्ता में भी मैंने एक थियेटर ग्रुप ज्वाइन किया था. वहां भी मैंने काफी नाटक किए, तब भी यह सब बस शौकिया था.

कहा जाता है कि पहली फिल्म आपको इंदिरा गांधी की वजह से मिली. उन्होंने आपके लिए सिफारिशी चिट्ठी लिखी थी. इस बात में कितनी सच्चाई है?
मैं भी यह सुनता रहता हूं. मैंने अब तक वह चिट्ठी नहीं देखी और न ही कोई ऐसा व्यक्ति अब तक मेरी जानकारी में आया है जिसने कहा हो कि उसे यह चिट्ठी मिली थी. मुझे लगता है कि भगवान की चिट्ठी भी आपको फिल्मों में कोई रोल नहीं दिला सकती.

अपने पहले ब्रेक, अपनी पहली फिल्म के बारे में बताएं.
उसका नाम था सात हिंदुस्तानी और वह ख्वाजा अहमद अब्बास ने बनाई थी. यह सात लोगों की कहानी थी जो गोवा को पुर्तगालियों से आजाद करवाने वहां जाते हैं. ये सात लोग हिंदुस्तान के सात अलग-अलग हिस्सों से थे. ख्वाजा अहमद अब्बास समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे और उनका गांधी और नेहरू के सिद्धांतों में गहरा यकीन था. उन्होंने देश के अलग-अलग हिस्सों से कलाकारों को चुना और उनसे बिलकुल उलट भूमिकाएं करवाईं. जैसे मैं हिंदू हूं तो उन्होंने मुझे मुसलमान का किरदार दिया. उत्पल दत्त बंगाली थे तो उनसे सिख की भूमिका करवाई. तो यह मेरी पहली फिल्म थी. यह फिल्म मुझे मिली तो इसका संबंध भी मेरे भाई अजिताभ से जुड़ता है जो उस समय मुंबई में थे. उन्हें अपने किसी दोस्त से पता चला कि अब्बास साहब ऐसी कोई फिल्म बना रहे हैं और उन्हें नए लोगों की जरूरत है. अजिताभ ने मेरा फोटो उन्हें भेजा. उन्हें पसंद आया. उन्होंने मुझे बुलाया और इस भूमिका के लिए चुन लिया.

इसके बाद बॉंबे टु गोवा आई और कई और फिल्में भी जो असफल रहीं. एक परवाना भी थी जिसमें हीरो नवीन निश्चल थे और आप विलेन?
जी. दरअसल वह ऐसा समय था जब इस बात की बहुत परवाह नहीं रहती थी कि लीड रोल मिल रहा है या कुछ और. तब तो यह था कि कोई भी रोल मिले बस किसी तरह सिनेमा से जुड़े रहना है.

1969 से 1973 के दौरान जब आपकी फिल्में एक के बाद एक करके ढेर हो रही थीं तो आपकी मनस्थिति किस तरह की होती थी? क्या कभी यह नहीं लगा कि गलत फैसला ले लिया? क्या कभी घरवालों ने नहीं कहा कि छोड़ दो, वापस आ जाओ?
नहीं, उन्होंने कभी ऐसा नहीं कहा. मैं भी बस कोशिश करता रहा कि किसी तरह टिका रहूं. वे बहुत निराशा वाले दिन थे. मुझे लगता था कि शायद मुझमें ही कुछ कमी है जो मेरी फिल्में नहीं चल रहीं और दूसरों की चल रही हैं.

1973 वह साल था जब आपकी सफलता का सिलसिला शुरू हुआ. उस साल आपकी दो अलग-अलग मिजाज वाली फिल्में आई थीं. पहली जंजीर और दूसरी अभिमान. दोनों में आपने बिल्कुल अलग तरह के किरदार निभाए. पहली फिल्म ने आपका एंग्री यंग मैन वाला किरदार गढ़ा जो अगले सात साल भारतीय सिनेमा पर छाया रहा. एक छवि का ऐसा प्रभुत्व उससे पहले और उसके बाद आज तक हिंदी सिनेमा में नहीं देखा गया. 1973 में आपके सामने दो धाराएं थीं. पहली अभिमान के किरदार जैसी शांत और गंभीर धारा. दूसरी जंजीर के किरदार जैसी लार्जर दैन लाइफ जैसी जिसमें नाटकीयता और एक्शन कूट-कूटकर भरा हुआ था. ऐसा लगता है कि आपने दूसरे विकल्प के साथ बढ़ने का फैसला किया. आप ऐसे अमिताभ बने जो अजेय था. जिसे कोई नहीं हरा सकता था. जो अभिमान के अमिताभ से बिल्कुल अलग था.
देखिए, मैं बस अपना काम कर रहा था. आपने पहले बांबे टु गोवा का जिक्र किया. सलीम-जावेद निर्देशक प्रकाश मेहरा के साथ मेरे पास आए थे. उन्होंने कहा कि उनके पास स्क्रिप्ट है और वे मुझे यह सुनाना चाहते हैं. मैंने स्क्रिप्ट सुनी और मुझे पसंद आई. उन दिनों मुझ जैसी हालत वाले किस अभिनेता को पसंद नहीं आती? तो मैं फिल्म में काम करने के लिए राजी हो गया. कई महीनों बाद जब हम जंजीर की शूटिंग कर रहे थे तो मैंने जावेद साहब से पूछा कि एक नये आदमी में, जिसकी कई फिल्में फ्लाप हो चुकी थीं, जिसे शायद ही कोई अपनी फिल्म में लेना चाहता, उसमें आपको क्या पसंद आया. उन्होंने कहा कि तुम्हारी एक फिल्म थी, बांबे टु गोवा. उसमें एक एक्शन सीन था. जिसमें तुम रेस्टोरेंट में हो, तुम्हारे चेहरे पर एक घूंसा पड़ता है, तुम पलटियां खाते हुए गिरते हो, और जब तुम उठते हो तो तब भी तुम च्यूइंगम चबा रहे होते हो. वही लम्हा था जब हमने यह फैसला किया कि जंजीर के हीरो तुम होगे. मैं आज तक नहीं समझ पाया कि कैसे च्यूइंगम का रिश्ता जंजीर में मेरी भूमिका से जुड़ सकता है. लेकिन यह ऐसे ही शुरू हुआ था. मैंने सलीम जावेद से यह भी पूछा कि वे इस तरह की स्क्रिप्टें क्यों लिखते हैं. उनका जवाब था कि देश एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जब लोग सिस्टम से खुश नहीं हैं. उन्हें लगता है कि समय आ गया है कि कोई आदमी खड़ा हो और अकेले अपने दम पर सिस्टम से लोहा ले. और सौभाग्य से उन्होंने जो स्क्रिप्टें मेरे लिए लिखीं वे इसी भावना का मूर्त रूप थीं. एक ऐसा आदमी जो अकेले ही सिस्टम से लड़ रहा था और आखिर में जीत रहा था. तो शायद इसलिए उस समय के युवाओं ने, देश के लोगों ने मुझे खुद से जोड़कर देखा. यानी मैं खुशनसीब था आदमी था जो स्टॉप पर तब खड़ा था जब स्क्रिप्ट वहां से गुजरी.

अभिमान के बारे में भी कुछ बताएं
अभिमान से पहले एक और फिल्म थी. गुड्डी. ऋषिकेश मुखर्जी उसे बना रहे थे. जया भादुड़ी तब एक टॉपर के रूप में एफटीआईआई से निकली ही थीं. ऋषि दा दो ऐसे कलाकारों को लेना चाहते थे जो मशहूर न हों. जया और मेरा चयन हुआ. लेकिन तभी आनंद रिलीज हो गई और लोग मुझे थोड़ा-थोड़ा जानने लगे. इसके बाद ऋषिकेश मुखर्जी ने मुझे गुड्डी में न लेने का फैसला किया. उन्होंने कहा कि चिंता मत करो, मैं तुम्हें किसी दूसरी फिल्म में ले लूंगा, लेकिन यह छोड़ दो. आप कह सकते हैं कि अभिमान मेरा सांत्वना पुरस्कार थी. यह एक पति-पत्नी की कहानी थी. दोनों ही गायक होते हैं, लेकिन पत्नी पति से ज्यादा मशहूर हो जाती है और उससे जो तनाव उपजता है वही फिल्म का केंद्रीय विषय है. मुझे लगता है कि एक ही पेशे में काम करने वाले पति-पत्नी में पत्नी पति से आगे निकल गई है, इस विषय ने भारत जैसे पुरुषप्रधान माने जाने वाले समाज में दर्शकों को को छुआ और शायद इसीलिए उन्होंने फिल्म को पसंद किया.

73 से 82 तक आपकी एक के बाद एक धड़ाधड़ हिट फिल्में आती रहीं. आप मेगास्टार बन गए. इस दौरान अपने निजी जीवन के बारे में कुछ बताएं. जया भादुड़ी के बहुत से प्रशंसकों की यह शिकायत है कि आपने उन्हें घर-परिवार तक सीमित कर दिया.
यह हम दोनों की सहमति से हुआ फैसला था. गुड्डी के बाद जल्द ही जब हमारी शादी हुई तो उसके बाद जया का ही फैसला था कि मैं फिल्मों में काम करूंगा और घर और बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी वे संभालेंगी. लेकिन वे हमेशा अपने फैसले लेने के लिए आजाद रहीं. बच्चे बड़े हो गए तो हमने फिर से एक साथ काम भी किया. वे आज भी फिल्मों में काम करती हैं.

70 के दशक से आज की तुलना करें तो क्या आपके किसी सीन की तैयारी करने में कोई फर्क आया है.
उन दिनों तैयारी का स्कोप नहीं होता था. अक्सर आप सेट पर आते थे और वहीं सीन लिखे जाते थे. सलीम-जावेद पहली बार हार्ड बाउंड स्क्रिप्ट लेकर आए जिसमें किसी बदलाव की गुंजाइश नहीं होती थी. इससे काफी राहत हो गई क्योंकि तब आप सीन देखकर उसकी रिहर्सल कर सकते थे. उन दिनों मुंबई में एक स्टूडियो हुआ करता था चांदीवली स्टूडियो. यह एक विशाल जगह थी जिसमें हर तरह के पेड़-पौधों से लेकर झोपड़ियां आदि तक तमाम चीजें होती थीं. गर्मियों के महीने पूरा फिल्म उद्योग कश्मीर पहुंच जाता था. वहां 12-13 यूनिटें शूटिंग कर रही होती थीं. अक्सर यह होता था कि कोई सीन किसी वजह से अटक गया तो असिस्टेंट डायरेक्टर आकर कहता था कि सर, सीन चांदीवली स्टूडियो शिफ्ट हो गया है. तो उस चांदीवली स्टूडियो ने दुनिया की तमाम मशहूर लोकेशनों के विकल्प के तौर पर काम किया. उन दिनों हम कुछ ऐसे ही काम करते थे. अब तो सब कुछ बहुत अत्याधुनिक है. हम यहीं बैठे रहकर पीछे न्यूयॉर्क का विजुअल इफेक्ट दे सकते हैं.

क्या अमिताभ बच्चन का कोई रूप ऐसा भी है जो अभिनय से मुक्त है?  पिता का, पति का, ससुर का, दादा का. या फिर आप हर क्षण एक अभिनेता ही होते हैं? क्या कुछ ऐसे लम्हे होते हैं जब अमिताभ बच्चन अभिनय नहीं कर रहे होते?
पता नहीं, कैमरे के सामने हमें कई बार उन क्षणों से गुजरना पड़ता है जिनमें हम अपने भीतर बहुत गहरे उतरने की कोशिश करते हैं. मान लीजिए एक सीन है जिसमें आपकी मां की मौत हो गई है. अब आपको अभिनय करना है. तो आप वैसे भाव कैसे लाएंगे? औरों की तो नहीं जानता पर मुझे लगता है कि उस चीज को आपको अपनी निजी जिंदगी से जोड़ना पड़ता है. यह कल्पना करती पड़ती है कि आपकी अपनी मां की मौत हो गई है और तब आप वह भाव पैदा करते हैं कि उस समय आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी. क्योंकि दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में भारत में ही बनती हैं तो कम-से-कम 10 बार ऐसा हुआ होगा जब मेरी मां नहीं रहीं. अब 10 बार उस प्रियजन की मृत्यु पर शोक का अभिनय करने के बाद भगवान न करे आपका वही प्रियजन वास्तव में गुजर जाता है तो उस त्रासदी से पैदा होने वाले भाव या आंसू कहां से आ रहे हैं? क्या मैंने वह वास्तविकता 10 साल पहले उस भूमिका को निभाने में खर्च कर दी? यह सवाल मेरे लिए एक बड़ा असमंजस रहा है. ईमानदारी से कहूं तो जब मेरे माता-पिता गुजरे तो मुझे पता नहीं था कि जो भावनाएं महसूस हो रही हैं, जो आंसू उमड़ रहे हैं वह सिर्फ एक परफॉरमेंस है या कुछ और.

कितने कमलेश्वर!

Article-kamlesh
इलेस्ट्रेशन:मनीषा यादव

कमलेश्वर जी से मेरी पहली मुलाकात 1957 में इलाहाबाद में प्रगतिशील लेखक संघ के एक बड़े आयोजन में हुई थी. मैं तब कलकत्ता में रहती थी और लेखन में बस कदम ही रखा था. राजकमल प्रकाशन से मेरा एक कहानी संग्रह छप चुका था, लेकिन तब भी मैं खुद को साहित्यकारों में शुमार कर पाने की न हिम्मत रखती थी न हैसियत. जब इस आयोजन में शामिल होने के लिए मुझे अमृत राय जी का निमंत्रण मिला तो मैं चकित तो हुई लेकिन चकित से ज्यादा उल्लसित भी. लगा जिन लेखकों को आज तक पढ़ती आई उनसे मिलना होगा, उन्हें देखूंगी-सुनूंगी. जब राजेन्द्र ने बताया कि वे इस आयोजन में भाग लेने जा रहे हैं तो मैं भी उनके साथ लटक ली. वहीं मैंने हजारी प्रसाद द्विवेदी और महादेवी वर्मा के अविस्मरणीय भाषण सुने. वहीं मैं मोहन राकेश, कमलेश्वर जी, नामवर जी, फणीश्वरनाथ रेणु से मिली और उनसे बात की, लेकिन निकटता बनी तो केवल कमलेश्वर जी, राकेश जी और बाद में नामवर जी से.

कमलेश्वर जी उन दिनों इलाहाबाद में ही रहते थे और इस आयोजन में व्यवस्थापक की भूमिका में थे. उन्होंने मुझे अपनी एक मित्र दीपा के यहां ठहराया. वे आयोजन में भूत की तरह काम कर रहे थे. कभी रात को एक बजे तो कभी दो बजे खाना खाने आते. दीपा उनकी प्रतीक्षा में जगती रहती थी और खाना गरम करके खिलाती. अगर कमलेश्वर जी उस आयोजन की व्यवस्था में लगे हुए थे तो दीपा उनकी देखभाल में! मुझे लेकर वह दीपा को आदेश देते रहते कि वह मेरी सुख-सुविधा और जरूरतों का पूरा ध्यान रखे, मुझे किसी तरह की असुविधा न हो. उन तीन दिनों में मैं इतना तो समझ ही गई कि दीपा उनकी मित्र से अधिक बढ़कर ‘कुछ’ है. कलकत्ता लौटकर कमलेश्वर जी और राकेश जी से मेरा पत्र-व्यवहार भी शुरू हो गया. कुछ समय बाद कमलेश्वर जी ने दीपा के साथ मिलकर ‘श्रमजीवी प्रकाशन’ खोला और उसके लिए पुस्तकें मांगीं तो मैंने ‘तीन निगाहों की एक तस्वीर’ नाम से अपने दूसरे कहानी-संग्रह की पाण्डुलिपि भेज दी और राजेंद्र ने ‘कुलटा’ नाम की उपन्यासिका. दोनों पुस्तकें उन्होंने छापीं भी.

गर्मी की छुट्टियों में मैं अजमेर चली गई थी. वहीं कमलेश्वर जी का पत्र मिला कि दीपा आपके पास आ रही है आप उसे राजस्थान के तीन-चार शहरों के प्रमुख पुस्तक-विक्रेताओं से मिलवा दीजिए और श्रमजीवी प्रकाशन की पुस्तकों के अधिक से अधिक ग्राहक बनवाने की कोशिश कीजिए, प्रकाशन के लिए मित्रों का सहयोग बहुत-बहुत जरूरी है! काफी गर्मी थी और मैं चर्म रोग से पीड़ित थी लेकिन दीपा आई तो उसे लेकर मैं जोधपुर और जयपुर तो गई – इससे अधिक मेरे लिए संभव नहीं था. बात दीपा ही करती थी और जमकर करती थी पर बहुत कोशिश के बावजूद दोनों शहरों से पांच-पांच प्रतियों की व्यवस्था ही हो पाई. वह जब बात करती थी तो मैं सिर्फ दीपा को देखती रहती थी उत्साह से भरी श्रमजीवी को सफल बनाने के लिए कृत-संकल्प. मेरे मन में एक ही बात उभरती कि सह-जीवन की पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए कितना उत्साह भरा है यह सह-आयोजन. पर कोई साल-सवा साल बाद मुझे कमलेश्वर जी की शादी का कार्ड मिला- शादी हो रही थी गायत्री सक्सेना से. मैं हैरान-परेशान. यह क्या किया कमलेश्वर जी ने, क्यों किया, कैसे किया? क्या बीत रही होगी दीपा पर? उस समय तक कमलेश्वर जी से संबंध केवल पत्रों तक ही सीमित था. इतनी अनौपचारिक नहीं हो पाई थी कि उनसे कुछ पूछती या फटकारती सो बिना कुछ पूछे-कहे जो भी हुआ, उसे स्वीकार कर लिया. बहुत बाद में जब सारी स्थितियां खुलीं तो जो दुख उस समय दीपा के लिए उभरा था, वह गायत्री भाभी के लिए भी उभर आया! पता नहीं गायत्री भाभी को इस प्रसंग के बारे में कुछ मालूम भी था या नहीं!

कमलेश्वर जी से दूसरी मुलाकात दिल्ली में उनके नाई वालान गली के मकान में हुई जहां वे गायत्री भाभी के साथ रहते थे. कलकत्ता से मैं अकेली ही दिल्ली आई थी. उनसे मिलना तो था ही साथ ही अपने द्वारा संपादित ‘नई कहानियां’ के लिए कहानी भी लेनी थी. मैंने कोई पंद्रह दिन पहले ही लिख दिया था कि मैं दिल्ली आ रही हूं कहानी तैयार रखियेगा. जिंदगी में पहली और अंतिम बार संपादन का काम कर रही थी सो पूरी लगन से जुटी थी. उनके बताए पते पर पहुंची. शुरू की कुछ औपचारिक बातों के बाद मैंने अपनी मांग रख दी. बेहद निश्चिंत भाव से हंसते हुए उन्होंने कहा, ‘ठीक है कल ले लेना कहानी.’

‘लिख ली है क्या जो कल दे देंगे?’ उनके हाव-भाव व्यवहार से ही लग रहा था कि उन्होंने कहानी लिखी ही नहीं है!

‘लिखी तो नहीं, पर चलो अभी शुरू कर देते हैं.’

‘मजाक मत करिए कमलेश्वर जी, मैंने आपको कितने दिन पहले लिख दिया था और आप हैं कि…’ इस बार मेरी आवाज में मनुहार की जगह गुस्सा था.

मेरी पीठ थपथपाते हुए उन्होंने मुझे तसल्ली दी, ‘कहा न तुम्हें कल मिल जाएगी तो समझो कि बस कल मिल जाएगी.’

कमलेश्वर जी ने दरी बिछाई, कागज-कलम लिया और पेट के नीचे तकिया रखकर उल्टे लेट गए.

‘देखो मैं कहानी शुरू करता हूं, तब तक तुम गायत्री के पास एक प्याला कॉफी पियो.’ और भाभी को कॉफी बनाने को कहकर वे सचमुच लिखने बैठ गए.

पत्रों में हम चाहे अब तक बहुत अनौपचारिक हो गए थे पर मात्र दूसरी मुलाकात में ही इस तरह का नाटक मैं गले नहीं उतार पा रही थी. मैं मिलने आई हूं और ये कहानी लिखने बैठे हैं. इस तरह तो न बातचीत होगी, न कहानी. मन मारकर उठी और मैं रसोई में चली गई. वहीं मैं भाभी से पहली बार मिली थी. उन्होंने नमस्ते किया और कॉफी बनाने लगीं. एक चुपचुप उदास चेहरा. खयाल आया कि इस उदासी के पीछे कहीं दीपा-प्रसंग तो नहीं छिपा. मैं आई और कमलेश्वर जी ने भाभी को मुझसे मिलने के लिए बाहर भी नहीं बुलाया, न ही वे खुद आईं. सब कुछ बड़ा असहज, असामान्य सा लगा. मन हुआ कि इस बारे में अब कमलेश्वर जी से बात की जाए पर वह न घर में संभव था, न कॉफी हाउस में सो फिर टल गया.

आधे घंटे बाद कमलेश्वर जी ने आवाज दी. बाहर निकली तो देखा कि बहुत खूबसूरत लिखाई से भरा कोई पौन पेज लिखा था. न कहीं कोई काट-छांट, न कोई बदलाव! मैं तो हैरान.

‘देखो, शुरू कर ही दी न, अब कल पूरी करके शाम को जब कॉफी हाउस में मिलेंगे तो तुम्हें सौंप दूंगा, अब गुस्सा थूको और हो जाए गपशप’, उनकी इस अदाकारी पर मैं हंसे बिना नहीं रह सकी.

दूसरे दिन शाम को कॉफी हाउस में राकेश जी और कमलेश्वर जी मिले तो उन्होंने कहानी सौंप दी. कहानी खोलकर मैंने अपने विश्वास को पुख्ता करना चाहा कि कहानी ही है और पूरी है. शुरू का पेज कल वाला ही था. जस का तस. मैं तो हैरान. हंस-हंस कर मैंने राकेश जी को पिछले दिन वाला किस्सा सुनाया तो कमलेश्वर जी का कमेंट आया, ‘देखो मन्नू, मैं कोई मोहन राकेश तो हूं नहीं कि लिखने के लिए टाइपराइटर चाहिए ही…कमरे में ए.सी. भी चाहिए. बड़ी चीज लिखनी है तो पहाड़ पर गए बिना लिख ही नहीं सकते… या वो तुम्हारा राजेंद्र यादव… कॉफी के प्याले पर प्याले गटके जा रहा है… सिगरेट पे सिगरेट फूंके जा रहा है… लोट लगा रहा है, टहल रहा है पर शब्द हैं कि कलम से झरते ही नहीं! अब शब्द हों तो झरें. बस, लिखने के नाम पर ये चोंचलेबाजी किए जाओ.’ और फिर राकेश जी का छत-फोड़ ठहाका और कमलेश्वर जी की पीठ पर एक धप्प. और मैं सोच रही थी कि इतना आसान है कमलेश्वर जी के लिए लिखना? अपनी आंखों से देखा. कोई तामझाम नहीं. लिखा और बिना किसी काट-छांट, बदलाव-दोहराव के लिखते चले गए! मेरे लिए चाहे यह अविश्वसनीय हो, पर हकीकत थी यह उनके लेखन की! ऐसी ही एक और याद है.