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काले कर्मों वाले बाबा

फोटोः त्रिलोचन कालरा
फोटोः त्रिलोचन कालरा

साल 2004 की बात है. बाबा रामदेव योगगुरु के रूप में मशहूर हुए ही थे. चारों तरफ उनकी चर्चा हो रही थी. टीवी चैनलों पर उनकी धूम थी. देश के अलग-अलग शहरों में चलने वाले उनके योग शिविरों में पांव रखने की जगह नहीं मिल रही थी और बाबा के औद्योगिक प्रतिष्ठान दिव्य फार्मेसी की दवाओं पर लोग टूटे पड़ रहे थे.

लेकिन फार्मेसी ने उस वित्तीय वर्ष में सिर्फ छह लाख 73 हजार मूल्य की दवाओं की बिक्री दिखाई और इस पर करीब 54 हजार रुपये बिक्री कर दिया गया. यह तब था जब रामदेव के हरिद्वार स्थित आश्रम में रोगियों का तांता लगा था और हरिद्वार के बाहर लगने वाले शिविरों में भी उनकी दवाओं की खूब बिक्री हो रही थी. इसके अलावा डाक से भी दवाइयां भेजी जा रही थीं.

रामदेव के चहुंओर प्रचार और देश भर में उनकी दवाओं की मांग को देखकर उत्तराखंड के वाणिज्य कर विभाग को संदेह हुआ कि बिक्री का आंकड़ा इतना कम नहीं हो सकता. उसने हरिद्वार के डाकघरों  से सूचनाएं मंगवाईं. पता चला कि दिव्य फार्मेसी ने उस साल 3353 पार्सलों के जरिए 2509.256 किग्रा माल बाहर भेजा था. इन पार्सलों के अलावा 13 लाख 13 हजार मूल्य के वीपीपी पार्सल भेजे गए थे. इसी साल फार्मेसी को 17 लाख 50 हजार के मनीआॅर्डर भी आए थे.

सभी सूचनाओं के आधार पर राज्य के वाणिज्य कर विभाग की विशेष जांच सेल (एसआईबी) ने दिव्य फार्मेसी पर छापा मारा. इसमें बिक्रीकर की बड़ी चोरी पकड़ी गई. छापे को अंजाम देने वाले तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर जगदीश राणा बताते हैं, ‘तब तक हम भी रामदेव जी के अच्छे कार्यों के लिए उनकी इज्जत करते थे. लेकिन कर प्रशासक के रूप में हमें मामला साफ-साफ कर चोरी का दिखा.’ राणा आगे बताते हैं कि मामला कम से कम पांच करोड़ रु के बिक्रीकर की चोरी का था.

भ्रष्टाचार और काले धन की जिस सरिता के खिलाफ रामदेव अभियान छेड़े हुए हैं उसी में अगर वे खुद भी आचमन कर रहे हैं तो यह ऐसा ही है कि औरों को नसीहत, खुद मियां फजीहत. तहलका की पड़ताल कुछ ऐसा ही इशारा करती है.

सबसे पहले तो यह सवाल कि काला धन बनता कैसे है. आयकर विभाग के एक पूर्व वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, ‘करों से बचाई गई रकम और ट्रस्टों में दान के नाम पर मिले पैसे से काला धन बनता है. काले धन को दान का पैसा दिखाकर, उस पर टैक्स बचाकर उसे फिर से उद्योगों में निवेश किया जाता है. इससे पैदा होने वाली रकम को पहले देश में जमीनों और जेवरात पर लगाया जाता है. इसके बाद भी वह पूरा न खप सके तो उसे चोरी-छुपे विदेश भेजा जाता है. यह एक अंतहीन श्रृंखला है जिसमें बहुत-से ताकतवर लोगों की हिस्सेदारी होती है.’

दिव्य फार्मेसी पर छापे की कार्रवाई को अंजाम देने वाले तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर जगदीश राणा बताते हैं कि उनकी टीम ने छापे से पहले काफी होमवर्क किया था. राणा कहतेे हैं, ‘तब लगभग पांच करोड़ रु के राज्य और केंद्रीय बिक्री कर की चोरी का मामला बन रहा था.’ टीम के एक अन्य सदस्य बताते हैं, ‘पुख्ता सबूतों के साथ 2000 किलो कागज सबूत के तौर पर इकट्ठा किए गए थे.’

छापे की इस कार्रवाई पर उत्तराखंड के तत्कालीन राज्यपाल सुदर्शन अग्रवाल बड़े नाराज हुए थे. उन्होंने इस छापे की पूरी कार्रवाई की रिपोर्ट सरकार से तलब की थी. उस दौर में प्रदेश के प्रमुख सचिव (वित्त) इंदु कुमार पांडे ने राज्यपाल को भेजी रिपोर्ट में छापे की कार्रवाई को निष्पक्ष और जरूरी बताया था. तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने भी इस रिपोर्ट के साथ अपना विशेष नोट लिख कर भेजा था जिसमें उन्होंने प्रमुख सचिव की बात दोहराई थी. रामदेव ने अधिकारियों पर छापे के दौरान बदसलूकी का आरोप लगाया था जिसे राज्य सरकार ने निराधार बताया था.

विभाग के कुछ अधिकारियों का मानना है कि रामदेव के मामले में अनुचित दबाव पड़ने के बाद डिप्टी कमिश्नर जगदीश राणा ने समय से चार साल पहले ही सेवानिवृत्ति ले ली थी. राणा को तब विभाग के उन उम्दा अधिकारियों में गिना जाता था जो किसी दबाव से डिगते नहीं थे. एसआईबी के इस छापे के बाद राज्य या केंद्र की किसी एजेंसी ने रामदेव के प्रतिष्ठानों पर छापा मारने की हिम्मत नहीं की. इसी के साथ रामदेव का आर्थिक साम्राज्य भी दिनदूनी रात चौगुनी गति से बढ़ने लगा.

लेकिन बिक्री कम दिखाना तो कर चोरी का सिर्फ एक तरीका था. दिव्य फार्मेसी एक और तरीके से भी कर की चोरी कर रही थी. तहलका को मिले दस्तावेज बताते हैं कि उस साल फार्मेसी ने वाणिज्य कर विभाग को दिखाई गई कर योग्य बिक्री से पांच गुना अधिक मूल्य की दवाओं (30 लाख 17 हजार रु) का ‘स्टाॅक हस्तांतरण’ बाबा द्वारा धर्मार्थ चलाए जा रहे ‘दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट’ को किया. रिटर्न में फार्मेसी ने बताया कि ये दवाएं गरीबों और जरूरतमंदों को मुफ्त में बांटी गई हैं. लेकिन वाणिज्य कर विभाग के तत्कालीन अधिकारी बताते हैं कि दिव्य फार्मेसी इन दवाओं को कनखल स्थित दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट से बेच रही थी. दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट के पास में ही रहने वाले भारत पाल कहते हैं, ‘पिछले 16 सालों के दौरान मैंने बाबा के कनखल आश्रम में कभी मुफ्त में दवाएं बंटती नहीं देखीं.’

इसी तर्ज पर आज भी दिव्य फार्मेसी रामदेव द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न ट्रस्टों को गरीबों को मुफ्त दवाएं बांटने के नाम पर मोटा स्टाॅक ट्रांसफर कर रही है. अभी तक दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट और पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट का उत्तराखंड राज्य में वाणिज्य कर में पंजीयन तक नहीं है. नियमानुसार बिना पंजीयन के ये ट्रस्ट किसी सामान की बिक्री नहीं कर सकते, लेकिन हैरानी की बात यह है कि इन ट्रस्टों में स्थित केंद्रों से हर दिन लाखों की दवाएं और अन्य माल बिकता है. पिछले कुछ सालों के दौरान दिव्य फार्मेसी से दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट, पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट और अन्य स्थानों में अरबों रुपये मूल्य का स्टाॅक ट्रांसफर हुआ है जिसकी बिक्री पर नियमानुसार बिक्री कर देना जरूरी है. ट्रस्टों के अलावा देश भर में रामदेव के शिविरों में दवाओं के मुफ्त बंटने के दावे की जांच करना मुश्किल है, परंतु इन शिविरों में हिस्सा लेने वाले श्रद्धालु जानते और बताते हैं कि यहां दवाएं मुफ्त में नहीं बांटी जातीं. अब दिव्य फार्मेसी द्वारा बनाई जा रही 285 तरह की दवाएं और अन्य उत्पाद इंटरनेट से भी भेजे जाने लगे हैं. इंटरनेट पर बिकने वाली दवाओं पर कैसे बिक्री कर लगे, यह उत्तराखंड का वाणिज्य कर विभाग नहीं जानता. इन दिनों नोएडा में रह रहे जगदीश राणा कहते हैं, ‘रामदेव को जितना बिक्री कर देना चाहिए, वे उसका एक अंश भी नहीं दे रहे.’

उत्तराखंड में बिक्री कर ही राजस्व का सबसे बड़ा हिस्सा है. उत्तराखंड सरकार के कर सलाहकार चंद्रशेखर सेमवाल बताते हैं, ‘पिछले साल राज्य में बिक्री कर से कुल 2940 करोड़ रु की कर राशि इकट्ठा हुई थी, यह राशि राज्य के कुल राजस्व का 60 प्रतिशत है.’ इसी पैसे से सरकार राज्य में सड़कें बनाती है , गांवों में पीने का पानी पहुंचाया जाता है, अस्पतालों में दवाएं जाती हैं , सरकारी स्कूल खुलते हैं और ऐसे ही जनकल्याण के दूसरे काम चलाए जाते हैं. रामदेव नेताओं पर आरोप लगाते हैं कि उन्हें देश के विकास से कोई मतलब नहीं है, वे बस अपनी झोली भरना चाहते हैं. लेकिन जब रामदेव का अपना ही ट्रस्ट इतने बड़े पैमाने पर करों की चोरी कर रहा हो तो क्या यह सवाल उनसे नहीं पूछा जाना चाहिए?

केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के एक पूर्व सदस्य बताते हैं, ‘करों को बचा कर ही काला धन पैदा होता है और इस काले धन का सबसे अधिक निवेश जमीनों में किया जाता है.’ पिछले सात-आठ साल के दौरान हरिद्वार जिले में रामदेव के ट्रस्टों ने हरिद्वार और रुड़की तहसील के कई गांवों, नगर क्षेत्र और औद्योगिक क्षेत्र में जमकर जमीनें और संपत्तियां ली हैं. अखाड़ा परिषद के प्रवक्ता बाबा हठयोगी कहते हैं, ‘रामदेव ने इन जमीनों के अलावा बेनामी जमीनों और महंगे आवासीय प्रोजेक्टों में भी भारी निवेश किया है.’ हठयोगी आरोप लगाते हैं कि हरिद्वार के अलावा रामदेव ने उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में भी जमकर जमीनें खरीदी हैं. तहलका ने इन आरोपों की भी पड़ताल की. जो सच सामने आया वह चौंकाने वाला था.

जमीन का फेर
योग और आयुर्वेद का कारोबार बढ़ने  के बाद रामदेव ने वर्ष 2005 में पतंजलि योग पीठ ट्रस्ट के नाम से एक और ट्रस्ट शुरू किया. रामदेव तब तक देश की सीमाओं को लांघ कर अंतरराष्ट्रीय हस्ती हो गए थे. 15 अक्टूबर, 2006 को गरीबी हटाओ पर हुए मिलेनियम अभियान में रामदेव ने विशेष अतिथि के रूप में संयुक्त राष्ट्र को संबोधित किया. अपने वैश्विक विचारों को मूर्त रुप देने के लिए अब उन्हें हरिद्वार में और ज्यादा जमीन की जरूरत थी. इस जरूरत को पूरा करने के लिए आचार्य बालकृष्ण, दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट और पतंजलि ट्रस्ट के नाम से दिल्ली-माणा राष्ट्रीय राजमार्ग पर हरिद्वार और रुड़की के बीच शांतरशाह नगर, बढ़ेड़ी राजपूताना और बोंगला में खूब जमीनें खरीदी गईं. राजस्व अभिलेखों के अनुसार शांतरशाह नगर की खाता संख्या 87, 103, 120 और 150 में दर्ज भूमि रामदेव के ट्रस्टों के नाम पर है. यह भूमि कुल 23.798 हेक्टेयर (360 बीघा) के लगभग बैठती है और इसी पर पतंजलि फेज-1, पतंजलि फेज- 2 और पतंजलि विश्वविद्यालय बने हैं. बढेड़ी राजपूताना के पूर्व प्रधान शकील अहमद बताते हैं कि शांतरशाह नगर और उसके आसपास रामदेव के पास 1000 बीघा से अधिक जमीन है. लेकिन बाबा के सहयोगियों और ट्रस्टों के नाम पर खातों में केवल 360 बीघा जमीन ही दर्ज है. इसमें से रामदेव ने 20.08 हेक्टेयर भूमि को अकृषित घोषित कराया है. राज्य में कृषि भूमि को अकृषित घोषित कराने के बाद ही कानूनन उस पर निर्माण कार्य हो सकता है.

तहलका ने राजस्व अभिलेखों की गहन पड़ताल की. पता चला कि रामदेव, उनके रिश्तेदारों और आचार्य बालकृष्ण ने शांतरशाह नगर के आसपास कई गांवों में बेनामी जमीनों पर पैसा लगाया है. उदाहरण के तौर पर, शांतरशाह नगर की राजस्व खाता संख्या 229 में जिन गगन कुमार का नाम दर्ज है वे कई वर्षों से आचार्य बालकृष्ण के पीए हैं. 8000 रु महीना पगार वाले गगन आयकर रिटर्न भी नहीं भरते. गगन ने 15 जनवरी, 2011 को शांतरशाह नगर में 1.446 हेक्टेयर भूमि अपने नाम खरीदी. रजिस्ट्री में इस जमीन का बाजार भाव 35 लाख रु दिखाया गया है, परंतु हरिद्वार के भू-व्यवसायियों के अनुसार किसी भी हाल में यह जमीन पांच करोड़  रुपये से कम की नहीं है. यह जमीन अनुसूचित जाति के किसान की थी जिसे उपजिलाधिकारी की विशेष इजाजत से खरीदा गया है. इससे पहले गगन ने 14 मई, 2010 को रुड़की तहसील के बाबली-कलन्जरी गांव में एक करोड़ 37 लाख रु बाजार मूल्य दिखा कर जमीन की रजिस्ट्री कराई थी. यह जमीन भी 15 करोड़  रु से अधिक की बताई जा रही है. स्थानीय पत्रकार अहसान अंसारी का दावा है कि बाबा ने और भी दसियों लोगों के नाम पर हरिद्वार में अरबों की जमीनें खरीदी हैं. बाबा हठयोगी सवाल करते हैं, ‘देश भर में काले धन को लेकर मुहिम चला रहे रामदेव के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि आखिर महज आठ हजार रुपये महीना पाने वाले गगन कुमार जैसे इन दसियों लोगों के पास अरबों की जमीनें खरीदने के लिए पैसे कहां से आए.’

शांतरशाह नगर, बढ़ेड़ी राजपूताना और बोंगला में अपना साम्राज्य स्थापित करने के बाद बाबा की नजर हरिद्वार की औरंगाबाद न्याय पंचायत पर पड़ी. इसी न्याय पंचायत में राजाजी राष्ट्रीय पार्क की सीमा पर लगे औरंगाबाद और शिवदासपुर उर्फ तेलीवाला गांव हैं. उत्तराखंड में भू-कानूनों के अनुसार राज्य से बाहर का कोई भी व्यक्ति या ट्रस्ट राज्य में 250 वर्ग मीटर से अधिक कृषि भूमि नहीं खरीद सकता. विशेष परिस्थितियों और प्रयोजन के लिए ही  इससे अधिक भूमि खरीदी जा सकती है, लेकिन इसके लिए शासन की अनुमति जरूरी होती है.

रामदेव के पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट को 16 जुलाई, 2008 को उत्तराखंड सरकार से औरंगाबाद, शिवदासपुर उर्फ तेलीवाला आदि गांवों में पंचकर्म व्यवस्था, औषधि उत्पादन, औषधि निर्माणशाला एवं प्रयोगशाला स्थापना के लिए 75 हेक्टेयर जमीन खरीदने की इजाजत मिली थी. शर्तों के अनुसार खरीदी गई भूमि का प्रयोग भी उसी कार्य के लिए किया जाना चाहिए जिस कार्य के लिए बताकर उसे खरीदने की इजाजत ली गई है. पहले बगीचा रही इस कृषि-भूमि पर रामदेव ने योग ग्राम की स्थापना की है. श्रद्धालुओं को बाबा के इस रिजॉर्टनुमा ग्राम में बनी कॉटेजों में रहकर पंचकर्म कराने के लिए 1000 रु से लेकर 3500 रु तक प्रतिदिन देना होता है.

औरंगाबाद गांव के पूर्व प्रधान अजब सिंह चौहान दावा करते हैं कि उनके गांव में बाबा के ट्रस्ट और उनके लोगों के कब्जे में 2000 बीघे के लगभग भूमि है. लेकिन राजस्व अभिलेखों में रामदेव, आचार्य बालकृष्ण या उनके ट्रस्टों के नाम पर एक बीघा भूमि भी दर्ज नहीं है. क्षेत्र के लेखपाल सुभाश जैन्मी इस बात की पुष्टि करते हुए बताते हैं, ‘राजस्व रिकाॅर्डों में भले ही रामदेव के ट्रस्ट के नाम एक भी बीघा जमीन दर्ज नहीं हुई है परंतु उत्तराखंड शासन से इजाजत मिलने के बाद पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट ने औरंगाबाद और तेलीवाला गांव में काफी जमीनों की रजिस्ट्रियां कराई हैं.’ राजस्व अभिलेखों में दाखिल-खारिज न होने का नतीजा यह है कि किसानों की सैकड़ों बीघा जमीनें बिकने के बाद भी अभी तक उनके ही नाम पर दर्ज हैं. इन सभी भूमियों पर रामदेव के ट्रस्टों का कब्जा है. राजस्व अभिलेखों में अभी भी औरंगाबाद ग्राम सभा की सारी जमीन कृषि भूमि है. नियमों के अनुसार कृषि भूमि पर भवन निर्माण करने से पहले उस भूमि को उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश अधिनियम की धारा 143 के अनुसार अकृषित घोषित करके उसे आबादी में बदलने की अनुमति लेनी होती है. इसके लिए आवेदक के नाम खतौनी में जमीन दर्ज होना आवश्यक है. रामदेव के ट्रस्टों के नाम पर इन गांवों में एक इंच भूमि भी दर्ज नहीं है, लेकिन गजब देखिए कि नियम-कायदों को ताक पर रखकर यहां योग ग्राम के रूप में पूरा शहर बसा दिया गया है.

औरंगाबाद गांव के बहुत बड़े हिस्से को कब्जे में लेने के बाद रामदेव के भूविस्तार अभियान की चपेट में उससे लगा गांव तेलीवाला आया. योग ग्राम स्थापित करने के डेढ़ साल बाद फिर उत्तराखंड शासन ने पतंजलि योग पीठ ट्रस्ट को 26 फरवरी, 2010 को हरिद्वार के औरंगाबाद और शिवदासपुर उर्फ तेलीवाला गांव में और 155 हेक्टेयर (2325 बीघा) जमीन खरीदने की इजाजत दी. यह इजाजत पतंजलि विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए दी गई थी. इस तरह उत्तराखंड शासन से बाबा के पतंजलि योगपीठ को औरंगाबाद और तेलीवाला गांव की कुल 230 हेक्टेयर (3450 बीघा) जमीन खरीदने की अनुमति मिली जो इन दोनों गांवों की खेती वाली भूमि का बड़ा भाग है. इसके अलावा बाबा ने इन गांवों में सैकड़ों बीघा बेनामी जमीनें कई लोगों के नाम पर ली हैं जिन्हें वे धीरे-धीरे कानूनी प्रक्रिया पूरी करके अपने ट्रस्टों के नाम कराएंगे.

कई गांववाले दावा करते हैं कि तेलीवाला और औरंगाबाद गांव में रामदेव के ट्रस्ट के कब्जे में 4000 बीघा से अधिक जमीन है. प्रशासन द्वारा मिली इतनी अधिक भूमि खरीदने की इजाजत और बेनामी व कब्जे वाली जमीनों को देखने के बाद इस दावे में सत्यता लगती है. लेकिन राजस्व अभिलेख देखें तो औरंगाबाद की ही तरह तेलीवाला गांव में भी रामदेव के ट्रस्टों के नाम पर एक इंच भूमि दर्ज नहीं है.

आखिर ऐसा क्यों?  यह जानने से पहले कुछ और सच्चाइयां जानते हैं. तेलीवाला गांव में 2116 खातेदारों के पास कुल 9300 बीघा जमीन है. गांव के 330 गरीब भूमिहीनों के नाम सरकार से कभी पट्टों पर मिली 750 बीघा कृषि-भूमि या घर बनाने योग्य भूमि है. लेखपाल जैन्मी बताते हैं कि जमीनें बेचने के बाद गांव के खातेदारों में से सैकड़ों किसान भूमिहीन हो गए हैं. गांववालों के अनुसार गांव की कुल भूमि का बड़ा हिस्सा रामदेव के पतंजलि योगपीठ के कब्जे में है. इसकी पुष्टि बालकृष्ण का एक पत्र भी करता है. बालकृष्ण ने सात सितंबर, 2007 को ही हरिद्वार के जिलाधिकारी को पत्र लिखकर स्वीकारा था कि तेलीवाला गांव की 80 प्रतिशत भूमि के उन्होंने बैनामे करा लिए हैं इसलिए गांव की फिर चकबंदी की जाए. यानी सब कुछ पहले से तय था और प्रशासन से बाद में जमीन खरीदने की विशेष अनुमति मिलना महज एक औपचारिकता थी.  प्रस्ताव में किए गए बालकृष्ण के दावे को सच माना जाए तो रामदेव के पास अकेले तेलीवाला गांव में ही करीब 8000 बीघा जमीन होनी चाहिए. गांववालों ने समयपूर्व, नियम विरुद्ध हो रही इस चकबंदी का विरोध किया है. उन्हें आशंका है कि चकबंदी करा कर बालकृष्ण अपनी दोयम भूमि को किसानों की उपजाऊ भूमि से बदल देंगे.

हरिद्वार में रामदेव के आर्थिक साम्राज्य का तीसरा बड़ा भाग पदार्था-धनपुरा ग्राम सभा के आसपास है. बाबा ने यहां के मुस्तफाबाद, धनपुरा, घिस्सुपुरा, रानीमाजरा और फेरुपुरा मौजों में जमीनें खरीदी हैं. ये जमीनें पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड के नाम पर शासन की अनुमति से खरीदी गई हैं. आठ जुलाई, 2008 को बाबा को मिली अनुमति में बृहत स्तर पर औषधि निर्माण और आयुर्वेदिक अनुसंधान के उद्देश्य की बात है. पर बाद में यहां फूड पार्क लिमिटेड की स्थापना की गई है. ग्रामीणों के अनुसार पतंजलि फूड पार्क लिमिटेड लगभग 700 बीघा जमीन पर है. 98 करोड़ के इस प्रोजेक्ट पर केंद्र के फूड प्रोसेसिंग मंत्रालय से 50 करोड़ रु की सब्सिडी (सहायता) मिली है. नौ कंपनियों के इस समूह में अधिकांश कंपनियां रामदेव के नजदीकियों द्वारा बनाई गई हैं. मां कामाख्या हर्बल लिमिटेड में रामदेव के जीजा यशदेव आर्य, योगी फार्मेसी के निदेशक सुनील कुमार चतुर्वेदी और संजय शर्मा जैसे रामदेव के करीबी ही निदेशक हैं. रामदेव के पतंजलि फूड पार्क व झारखंड फूड पार्क को स्वीकृति दिलाने में कांग्रेस के एक केंद्रीय मंत्री का आशीर्वाद साफ-साफ झलकता है. फूड पार्क के उद्घाटन के समय रामदेव ने केंद्रीय मंत्रियों और मुख्यमंत्री के सामने घोषणा की थी कि वे हर साल उत्तराखंड से 1000 करोड़ की जड़ी-बूटियां या कृषि उत्पाद खरीदेंगे. परंतु बाबा ने सरकार से करोड़ों रुपये की सब्सिडी खा कर भी वादा नहीं निभाया. चमोली जिले में जड़ी-बूटी के क्षेत्र में काम करने वाली एक संस्था अंकुर संस्था के जड़ी-बूटी उत्पादक सुदर्शन कठैत का आरोप है कि बाबा ने उत्तराखंड में अभी एक लाख रुपये की जड़ी-बूटियां भी नहीं खरीदी हैं.

पदार्था के राजस्व अभिलेखों को देखने से पता चलता है कि यहां पतंजलि फूड पार्क लिमिटेड, रामदेव, आचार्य बालकृष्ण या उनके किसी नजदीकी व्यक्ति के नाम पर कोई जमीन दर्ज नहीं है. सवाल उठता है कि बिना राजस्व खातों में जमीन दर्ज हुए बाबा को कैसे फूड पार्क के नाम पर बने इस प्रोजेक्ट के लिए सब्सिडी मिली. यह सवाल जब हम राज्य सरकार के सचिव स्तर के  संबंधित अधिकारी से पूछते हैं तो वे बताते हैं, ‘हमारे पास कभी फूड पार्क की फाइल नहीं आई, संभवतया यह फाइल सीधे केंद्र सरकार को भेज दी गई हो.’

रामदेव ने हरिद्वार के दौलतपुर और उसके पास के गांवों जैसे बहाद्दरपुर सैनी, जमालपुर सैनीबाग, रामखेड़ा, हजारा और कलियर जैसे कई गांवों में भी बड़ी मात्रा में नामी- बेनामी जमीनें खरीदी हैं. हरिद्वार के एक महंत आचार्य बालकृष्ण के साथ एक बार उनकी जमीनों को देखने गए. नाम न छापने की शर्त पर वे बताते हैं, ‘दिन भर घूमकर भी हम बाबा की सारी जमीनें नहीं देख पाए.’ प्राॅपर्टी बाजार के दिग्गज दावा करते हैं कि हरिद्वार में कम से कम 20 हजार बीघा जमीन बाबा के कब्जे में है.

लेकिन रामदेव के ट्रस्टों के नाम पर राजस्व अभिलेखों में हरिद्वार में लगभग 400 बीघा भूमि ही दर्ज है. सवाल उठता है कि सभी तरह से ताकतवर रामदेव ने आखिर इतनी बड़ी मात्रा में जमीन खरीदने के बाद अपने ट्रस्टों या लोगों के नाम पर जमीन का दाखिल-खारिज क्यों नहीं कराया. इसका जवाब देते हुए कर विशेषज्ञ बताते हैं कि जमीनों का दाखिल-खारिज कराते ही बाबा की जमीनें आयकर विभाग की नजरों में आ सकती थीं इसलिए विभाग की संभावित जांचों से बचने के लिए इन जमीनों को दाखिल-खारिज करा कर राजस्व अभिलेखों में दर्ज नहीं कराया गया है.

तहलका ने इन जमीनों के लेन-देन में लगे धन पर भी नजर डाली. पता चला कि बाबा से जुड़े लोग या ट्रस्ट इन जमीनों की रजिस्ट्री तो सर्कल रेट पर करते थे परंतु बाबा ने किसानों को जमीन का मूल्य उसके सर्कल रेट से कई गुना अधिक दिया. उत्तराखंड का औद्योगिक शहर बनने के बाद हरिद्वार में जमीनों के भाव आसमान छू रहे थे. ग्रामीणों की मानें तो बाबा के मैनेजरों ने दलालों को भी गांव में जमीन इकट्ठा करने के एवज में मोटा कमीशन दिया.

जमीनों की खरीद-फरोख्त के सिलसिले में हरिद्वार के उपजिलाधिकारी के न्यायालय में वर्ष 2009 और 2010 में हुए दर्जन भर से अधिक स्टांप अधिनियम के मामले चल रहे हैं. ये मामले पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड द्वारा पदार्था-धनपुरा गांव के मुस्तफाबाद मौजे में खरीदी गई जमीनों पर स्टांप शुल्क चोरी से संबंधित हैं. इन मामलों में न्यायालय ने पाया कि रजिस्ट्री करते समय स्टांप शुल्क बचाने की नीयत से इन जमीनों का प्रयोजन जड़ी-बूटी रोपण यानी कृषि और बागबानी दिखाया गया. बाबा के लोग रजिस्ट्री कराते हुए यह भी भूल गए कि उन्हें शासनादेश में इस भूमि को खरीदने की अनुमति औषधि निर्माण व अनुसंधान के लिए मिली थी जो कृषि कार्य से हटकर उद्योग की श्रेणी में आता है. ऊपर से पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड ने इस जमीन को अकृषित घोषित कराए बिना ही इस पर औद्योगिक परिसर स्थापित कर दिया है. कम स्टाम्प शुल्क लगाने में पकड़े गए इन मामलों में हरिद्वार के उपजिलाधिकारी ने पतंजलि योगपीठ पर स्टाम्प चोरी और अर्थदंड के रूप में करीब 55 लाख रु का जुर्माना भी लगाया. पूर्व प्रधान अजब सिंह चौहान का मानना है कि रामदेव के ट्रस्टों और कंपनियों ने हरिद्वार में हजारों रजिस्ट्रियां की हैं और यदि सारे मामलों की जांच की जाए तो उन पर स्टांप चोरी के रूप में करोड़ों रु निकलेंगे.

उपजिलाधिकारी के इन निर्णयों को ध्यान से देखने पर साफ दिखता है कि किस तरह झूठे तथ्यों के आधार पर जमीन के सौदों में 90 फीसदी से भी ज्यादा स्टांप शुल्क की चोरी की गई. प्राॅपर्टी बाजार के सूत्रों के अनुसार इन सौदों में किसानों को उपजिलाधिकारी के मूल्यांकन से भी कई गुना अधिक कीमत मिली थी. प्राॅपर्टी बाजार के दिग्गजों के अनुसार पतंजलि फूड पार्क वाले इलाके में बाबा के जमीन खरीदते समय जमीन का सर्किल रेट 35000 रु प्रति बीघा के लगभग था जबकि बाबा ने आठ से 10 लाख रु बीघा तक जमीनें खरीदी हैं. इस तरह कई किसानों को जमीन के एवज में पतंजलि फूड लिमिटेड से पांच से छह करोड़ रुपये तक काला धन मिला है. पतंजलि फेज -1 और फेज-2 के लिए रामदेव ने जमीन सर्कल रेट (10 हजार से लेकर 40 हजार) पर खरीदी गई दिखाई है, लेकिन वास्तव में जमीनें 12 लाख रु बीघा तक में खरीदी हैं. यही तेलीवाला में भी हुआ है. पतंजलि योगपीठ के पास बन रहे महंगे फ्लैटों में भी लोग बाबा की साझेदारी बताते हैं.

इनमें से कई सीधे-सादे गांववालों ने पतंजलि से मिला जमीन का सारा पैसा बैंकों में जमा करा दिया. अब ये ग्रामीण आयकर विभाग की जांच की जद में आ गए हैं. पतंजलि को अपनी जमीन बेचने के एवज में सर्किल भाव से कई गुना कीमत मिलने के बाद आयकर की जांचों से इन गांववालों की जानें सूख गई हैं. आचार्य प्रमोद कृष्ण कहते हैं, ‘यदि गरीब लोगों पर फेमा के मामले दर्ज होते तो अब तक उनके खाते सील कर उन्हें जेल भेज दिया जाता, लेकिन रामदेव पर केंद्र सरकार कोई कार्रवाई नहीं कर रही.’ प्रमोद कृष्ण की शिकायतों पर ही रामदेव के विरुद्ध फेमा के मामले दर्ज हुए हैं और बालकृष्ण के विरुद्ध सीबीआई जांच शुरू हुई है. उनका मानना है कि देश और विदेश में जमकर काला धन लगाने वाले रामदेव केंद्र सरकार को ब्लैकमेल करके अपने विरुद्ध कार्रवाई न होने देने का दबाव बनाने के लिए देश भर में काले धन का विरोध करते घूम रहे हैं.

काले धन का इस्तेमाल करके रामदेव ने सारी जमीनें उसी तरह खरीदी हैं जैसे एक भू-व्यवसायी या उद्योगपति खरीदता है. हरिद्वार की कई महंगी बेनामी संपत्तियों से बाबा का संबंध बताया जाता है. यहां प्राॅपर्टी बाजार के एक दिग्गज कहते हैं, ‘हर बीघा पर दो लाख रुपये भी सर्कल रेट से अधिक दिए गए होंगे तो रामदेव ने हरिद्वार में ही जमीनों पर कम से कम 400 करोड़ रु का काला धन लगाया है.’

फर्जीवाड़े दुनिया भर के
तेलीवाला गांव में रामदेव की जमीनों के लगभग 20 बीघा वाले हिस्से में एक भव्य भवन वाला बड़ा आवासीय परिसर बना है. परिसर में ट्रैक्टर सहित कई कृषि यंत्र दिखते हैं.पास ही ‘पतंजलि धर्मकांटा’ भी लगाया गया है जहां से गन्ना तुल कर परिसर में बने गुड़ के कोल्हू पर पिराई के लिए जाता है. कोल्हू दो हैं जिन्हें चलाने के लिए रामदेव के लोग आसपास के गांवों के किसानों से गन्ना खरीदते हैं.  विजयपाल सैनी बताते हैं, ‘बाबा की इन चरखियों में हर दिन लगभग 300 क्विंटल गन्ना पिरोया जाता है.’

तेलीवाला में बिजली के दो कनेक्शन भी आचार्य बालकृष्ण के नाम व दिव्य योग मंदिर, कनखल के पते पर लिए गए हैं. बिजली के एक कनेक्शन की उपभोक्ता संख्या 711205 है. 35 हार्स पावर का एक कनेक्शन ट्यूब-वेल के नाम पर लिया गया है. उत्तराखंड पावर काॅरपोरेशन के उपमहाप्रबंधक एमसी गुप्ता से जब हम रामदेव का जिक्र किए बिना पूछते हैं तो वे बताते हैं कि कृषि कार्य हेतु बोरिंग के लिए किसी भी उपभोक्ता को जमीन का मालिकाना हक सिद्ध करना होता है. इसके लिए जरूरी है कि वह जमीन की खतौनी पेश करे. आचार्य बालकृष्ण के नाम पर तेलीवाला गांव में एक भी बीघा जमीन खतौनी में दर्ज नहीं है. यह पूछने पर कि बिना जमीन के किस आधार पर बालकृष्ण को बोरिंग हेतु बिजली का कनेक्शन दिया गया तो गुप्ता कहते हैं, ‘जांच करके ही कुछ बता सकते हैं. जांच में किसी भी किस्म की अनियमितता पाए जाने पर तुरंत कार्रवाई करेंगे. ‘

गौर करने वाली बात यह है कि ये कोल्हू बिजली से चलाए जाते हैं. इसके लिए कोई अलग व्यावसायिक कनेक्शन नहीं लिया गया है. कृषि कार्य के लिए सिंचाई हेतु बालकृष्ण के नाम लिए गए कनेक्शन पर  केवल 80 पैसा प्रति यूनिट की दर से बिल लिया जाता है. जबकि कोल्हू चलाने के लिए लगाए जाने वाले व्यावसायिक कनेक्शन पर चार रुपये 25 पैसा प्रतियूनिट के हिसाब से बिल वसूला जाना चाहिए था. हर दिन इस हिसाब से सरकार को हजारों रुपये के राजस्व का नुकसान हो रहा है. व्यवासायिक कार्यों से होने वाली कमाई से ही सरकार किसी गरीब किसान के घर में लगने वाले जनता कनेक्शन का एक बल्ब जलाती है. रामदेव यदि व्यवासायिक कार्य का बिल देते तो कुछ गरीबों के घर साल भर बिजली जलती रहती.

नये जमाने के जमींदार
आजादी के बाद वर्ष 1950 में जमींदारी प्रथा को खत्म करने के मकसद से एक कानून बनाया गया था जो 1952 में पूरी तरह से लागू हुआ. असल में तब समस्या यह थी कि चंद लोगों के पास जमीनें ही जमीनें थीं जबकि बाकी भूमिहीन थे. कानून का मकसद था कि यह असंतुलन दूर हो और दलित व गरीब भूमिहीनों को भी खेती के लिए जमीन मिले.  लेकिन रामदेव जो कर रहे हैं वह एक झलक है कि किस तरह वही क्रूर जमींदारी प्रथा एक नयी शक्ल में फिर से सिर उठा रही है.

महबूबन 80 साल की हैं. हरिद्वार जिले के एक गांव तेलीवाला में अपनी एक विधवा बहू और दो बेटों के परिवारों के साथ रहने वाली इस बुजुर्ग की जिंदगी की शाम दुश्वारियों में कट रही है. उनके पति अनवर और जवान बेटे अमीर बेग की मौत हो चुकी है. कई साल पहले ग्राम प्रबंध समिति ने महबूबन के भूमिहीन पति और बेटे को खेती करने के लिए गांव में 3.3 तीन बीघा सरकारी जमीन पट्टे पर दी थी. अनवर और उसके बेटे की मौत के बाद जमीन महबूबन और उनकी बहू रुखसाना के नाम पर आ गई. जमीन  के कुछ हिस्से पर उन्होंने पेड़ लगा रखे थे, कुछ पर वे खेती करते थे. रुखसाना बताती हैं, ‘फसल के अलावा चरी बोकर हम एक-दो जानवर भी पाल लेते थे. बच्चों को दूध नसीब हो जाता था.’

26 दिसंबर, 2007 को हरिद्वार के उपजिलाधिकारी ने महबूबन और उनकी बहू रुखसाना सहित तेलीवाला गांव के अन्य 27 भूमिहीनों को दिए गए पट्टे निरस्त कर दिए. वजह बताई गई कि पट्टेदार इन जमीनों पर खेती नहीं करते और उन्होंने जमीन का लगान भी जमा नहीं किया है. इस एक आदेश से निरस्त हुए भूमिहीनों के पट्टों की जमीन लगभग 100 बीघा (8,10,000 वर्ग फुट) थी. इन गरीबों के खिलाफ शिकायत गांव के ही कुछ लोगों ने की थी. शिकायत में इन पट्टेधारकों को ट्रैक्टर और जीपों का मालिक दिखाया गया था. ऊपर से देखने में इस शिकायत का मकसद भला दिख रहा था. शिकायत में मांग की गई थी, ‘पट्टे में मिली जमीन पर स्वयं खेती न करने वाले लोगों के पट्टों को निरस्त कर गांव के अन्य अनुसूचित जाति के भूमिहीनों को नये पट्टे दिए जाएं.’ तहलका को मिली जानकारियां बताती हैं कि ये शिकायतकर्ता प्रॉपर्टी डीलर थे जो तेलीवाला और उसके बगल के गांव औरंगाबाद में रामदेव के ट्रस्टों के लिए जमीनें इकट्ठा करने के काम पर लगे थे.

उपजिलाधिकारी को शिकायत मिलने के तीसरे दिन ही लेखपाल ने लगभग 100 बीघा भूमि की स्थलीय जांच की और तथ्यों की पड़ताल करके अपनी रिपोर्ट दे दी कि वास्तव में इन पट्टों की जमीनों पर खेती नहीं हो रही है और ग्रामीणों ने लगान भी नहीं दिया है. पट्टों पर लगभग नौ रुपये सालाना लगान तय था. रिपोर्ट आने के दूसरे ही दिन हरिद्वार के तहसीलदार ने भी लेखपाल की जांच को सही मानते हुए इन 29 भूमिहीनों के पट्टों को निरस्त करने की आख्या उपजिलाधिकारी को भेज दी.  शिकायत मिलने के नौ दिन बाद हरिद्वार के तहसीलदार की अदालत के एक निर्णय के बाद ये अभागे पट्टाधारक फिर भूमिहीन बन गए.

गौर से देखने पर यह फैसला हास्यास्पद लगता है. इनमें से हर गरीब पर उस समय 10 रु के लगभग लगान बकाया था. महबूबन कहती हैं, ’10 रु की हैसियत आज होती ही क्या है? उसे तो गरीब भी कभी भी दे सकता है.’ महबूबन के अलावा गांव की ही एक और विधवा शकीला का भी पट्टा निरस्त हुआ है. शकीला और गांव के अन्य भूमिहीन अब नदी के किनारे बरसात में आई बालू पर मौसमी सब्जी उगा रहे हैं. शकीला कहती हैं, ‘गरीब लोग जमीन पर खेती नहीं करेंगे तो क्या करेंगे?’

अमूमन इस तरह की शिकायतें मिलने के बाद होने वाली जांचों में महीने गुजर जाते हैं. स्थलीय निरीक्षण और दो स्तर की जांचों के बाद पट्टाधारकों की आपत्तियां सुनी जाती हैं. इस प्रक्रिया के बाद उपजिलाधिकारी के न्यायालय में न्यायिक निर्णय होता है. भारत में राजस्व न्यायालयों के निर्णय आने में सामान्यतः सालों लग जाते हैं. लेकिन इन गरीबों के मामले में सब कुछ शताब्दी एक्सप्रेस वाली रफ्तार से हो गया. पूर्व आईएएस अधिकारी चंद्र सिंह कहते हैं, ‘जांच रिपोर्ट देने से पहले ग्राम सभा की खुली आम बैठक करानी थी ताकि शिकायतों की सत्यता की परख सबके सामने होती.’ सिंह आपातकाल के समय हरिद्वार में बतौर उपजिलाधिकारी सीलिंग की जमीनें भूमिहीनों को बांटने के लिए चर्चित रहे हैं.

वे कहते हैं, ‘एक गरीब को फिर भूमिहीन बनाने के दर्द का अहसास शायद इन कर्मचारियों को भी हो पर अमूमन ऐसे निर्णय मोटे लालच या ऊपरी दबाव में होते हैं.’ हरिद्वार में ही तैनात रहे एक अन्य उपजिलाधिकारी बताते हैं कि उनके तीन साल के कार्यकाल में उनके सामने पट्टे निरस्त करने का कोई मामला नहीं आया था. वे कहते हैं, ‘लगान की रकम अब इतनी कम होती है कि कोई भी गरीब उसे चुका सकता है.’

तो आखिर इन 29 पट्टों को निरस्त करने के मामले में तेजी क्यों दिखाई गई? इसका जवाब तलाशने जब हम तेलीवाला गांव पहुंचे तो पता चला कि हरिद्वार के  तत्कालीन उपजिलाधिकारी ने यह निर्णय जमीनी सच्चाइयों और हकीकतों को नकारते हुए सीधा-सीधा रामदेव को फायदा पहुंचाने के लिए दिया था.

इन भूमिहीन गरीबों के पट्टे निरस्त होने के केवल 15 दिन बाद 12 फरवरी, 2008 को रामदेव के पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट के महामंत्री आचार्य बालकृष्ण ने हरिद्वार  के जिलाधिकारी को एक पत्र लिखा. इसमें उन्होंने पतंजलि विश्वविद्यालय और पतंजलि ट्रस्ट के लिए औरंगाबाद और तेलीवाला ग्रामसभा में 325 हेक्टेयर (4875 बीघा) सरकारी जमीन मांगी. आचार्य बालकृष्ण का कहना था कि इस जमीन का इस्तेमाल लोकोपकारी कार्यों को करने के लिए होगा. आवंटन के लिए भेजे गए प्रस्ताव में जिस भूमि की मांग की गई थी उसमें वह 100 बीघा जमीन भी शामिल थी जो भूमिहीनों के पट्टे निरस्त करने के बाद फिर से सरकारी हो गई थी. प्रस्ताव में आचार्य बालकृष्ण ने इस 4875 बीघा जमीन का विस्तार से वर्णन किया है. इन भूमियों में भूमिहीनों के पट्टों की जमीन, पहाड़नुमा भूमि, चौड़े पाट वाली बरसाती नदी का हिस्सा तो था ही, गांव के पशुओं के चरने का गौचर, गांव का पनघट, श्मशान घाट और कब्रिस्तान भी था. ट्रस्टों और स्वयंसेवी संगठनों के मामले में अक्सर देखने को मिलता है कि जब वे सरकार से जमीन मांगते हैं तो इसके पीछे की वजह जनकल्याण का कोई काम बताते हैं. बालकृष्ण ने भी बृहत स्तर पर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे कामों के लिए भूमि मांगते हुए औरंगाबाद गांव के अन्य 12 गरीब किसानों को पट्टों में मिली 60 बीघा भूमि को भी पतंजलि योग पीठ को आवंटित करने का प्रस्ताव भेजा था. ये जमीनें भी पतंजलि को तभी मिल सकती थीं जब इनके पट्टे निरस्त हो जाते. कुल मिलाकर देखा जाए तो वे सरकार से हरिद्वार जिले की दो न्याय पंचायतों-  तेलीवाला और औरंगाबाद में सामूहिक उपयोग की सारी भूमि, निरस्त हुए पट्टों की भूमि और कुछ अन्य पट्टों के निरस्त होने के बाद मिलने वाली भूमि मांग रहे थे.

रामदेव की पहुंच और आचार्य बालकृष्ण के प्रबंधकीय कौशल के आगे नतमस्तक तेलीवाला गांव के तत्कालीन ग्राम प्रधान अशोक कुमार ने भी हरिद्वार  के जिलाधिकारी को पत्र लिखकर पतंजलि योगपीठ को जमीन आवंटित करने के लिए अपनी लिखित सहमति दे दी. प्रधान ने जिलाधिकारी को सिफारिश करते हुए लिखा कि पतंजलि योग पीठ के कामों से गांव के बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध होगा.

सरकारी दस्तावेजों में दर्ज तारीखें बताती हैं कि जिस तेजी के साथ भूमिहीनों के पट्टे निरस्त हुए थे वही फुर्ती अधिकारी रामदेव को सरकारी जमीन आवंटित करने में भी दिखा रहे थे. बाबा को जमीन आवंटित करने के प्रस्ताव में लेखपाल और तहसीलदार की रिपोर्ट हाथों-हाथ लग गई जबकि कायदे से प्रस्ताव जिलाधिकारी को भेजने से पहले सारी जमीन का स्थलीय निरीक्षण और ग्राम सभा की आपत्तियों का निराकरण होना चाहिए. तेलीवाला के विजयपाल सैनी कहते हैं, ‘सब कागजों में हो रहा था ताकि गांववालों को आवंटन की खबर न लग पाए.’ आचार्य का पत्र मिलने के एक महीने से भी कम समय में हरिद्वार के तत्कालीन जिलाधिकारी आनंद वर्द्धन ने पांच मार्च, 2008 को उत्तराखंड शासन को पत्र लिखकर पतंजलि योगपीठ को सरकारी भूमि आवंटित करने की आख्या उत्तराखंड शासन को भेज दी. जिलाधिकारी ने पतंजलि द्वारा मांगी गई जमीन की लगभग आधी (140 हेक्टेयर) जमीन आवंटित करने की संस्तुति की थी.

हैरत की बात यह थी कि बालकृष्ण ने जमीन शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे जनकल्याण कार्य के लिए मांगी थी जबकि जिलाधिकारी ने संस्तुति में लिखा कि प्रस्तावित जमीन पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट को कृषि संबंधी अनुसंधान करने के लिए दी जानी चाहिए. जिलाधिकारी के पत्र में वर्णित आवंटन के लिए प्रस्तावित भूमि में वह 100 बीघा भूमि भी थी जो 29 भूमिहीनों के पट्टे निरस्त करके ग्राम समाज में मिला दी गई थी.

इस बीच रामदेव के भूमि हड़पो अभियान की भनक गांववालों को लग गई. विरोधस्वरूप गांव के जागरूक लोगों ने प्रशासन को कई पत्र लिखे, लेकिन कुछ नहीं हुआ. थक-हार कर सैनी ने इस प्रस्तावित आवंटन के विरोध में नैनीताल उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर कर दी. न्यायालय ने ट्रस्ट को भूमि आवंटित करने पर रोक लगा दी. लेकिन इससे भी महबूबन, रुखसाना और शकीला जैसी विधवाओं को न्याय नहीं मिला. इन 29 पट्टाधारकों में से करीब आधों ने कमिश्नर के राजस्व न्यायालय में अपील करके अपनी जमीन पर कब्जा बना कर रखा है. परंतु विधवाओं और गरीबों को न तो कानून की समझ थी और न ही अदालत जाने की हिम्मत इसलिए आधे गरीबों की जमीनें सरकारी हो गईं जिन पर रामदेव के लोगों ने कब्जा कर लिया है. तेलीवाला के मीर आलम का आरोप है कि इन विधवाओं के अलावा गांव के कुछ और भूमिहीन किसानों की भूमियां भी बाबा के कब्जे में हैं. दरअसल ये जमीनें रामदेव द्वारा खरीदी गई सैकड़ों बीघा जमीनों के बीच में या पास में पड़ती हैं. सैनी का आरोप है कि बाबा इन दोनों गांवों की एक-एक इंच जमीन खरीद कर या आवंटित करा कर अपनी सल्तनत कायम करना चाहते थे. वे कहते हैं, ‘यह मकसद पूरा करने के लिए उन्होंने भूमाफियाओं, राजस्व कर्मचारियों और अपने राजनीतिक सरपरस्तों का गठबंधन बना रखा था जो हर कानूनी तिकड़म जानता था. बाबा का साथ दे रहे गांव के ये लोग गरीबों को धमका कर गैरकानूनी तरीकों से भी जमीनों को हड़पने की दबंगई भी रखते थे.’

शांतरशाह नगर, बहेड़ी राजपूताना और बोंगला में भी अनुसूचित जाति के किसानों की जमीनें खरीद कर उन्हें भूमिहीन किया गया. तहलका ने बाबा के ट्रस्टों द्वारा खरीदी गई भूमियों में से एक (खाता संख्या 120) की जांच की तो पाया कि रामदेव ने जमीनों को खरीदने के लिए कानून के उन्हीं छेदों का सहारा लिया है जिनका इस्तेमाल भूमाफिया अनुसूचित जाति के गरीब किसानों की जमीन छीनने में करते हैं. बढेड़ी राजपूतान गांव निवासी कल्लू के चार पुत्रों में से तीन ने वर्ष 2007 से लेकर 2009 के बीच जमीन को बंधक रख बैंक से ऋण लेना दिखाया है. बाद में ऋण अदायगी के नाम पर इन किसानों को भूमि बेचने की इजाजत उपजिलाधिकारी से दिलाई गयी और यह भूमि पतंजलि योगपीठ ने ले ली. अब ये परिवार भूमिहीन हैं.

पट्टे में मिली खेती की तीन बीघा जमीन पर बाबा के लोगों द्वारा कब्जा करने के बाद शकीला अब अपने बेटे गुलजार के साथ नदी की रेत में पसीना बहा कर किसी तरह दो जून की रोटी का इंतजाम करेगी. आचार्य बालकृष्ण ने सरकार को इस नदी को भी उनके ट्रस्ट को आवंटित करने का प्रस्ताव भेजा है. फिर भूमिहीन हो गए सैकड़ों ग्रामीण कहां जाएंगे, इसका जवाब किसी के पास नहीं है. हाल ही में रामदेव ने फिर उत्तराखंड सरकार से हरिद्वार जिले के तेलीवाला, औरंगाबाद, हजारा ग्रांट, अन्यगी आदि गांवों में 125 हेक्टेयर (1875 बीघा) भूमि खरीदने की अनुमति मांगी है. वास्तव में ये जमीनें बाबा ने अपने लिए इकट्ठा करवा कर कब्जे में ले रखी हैं. अब उन्हें खरीद का वैधानिक रूप देना है. इनमें से ज्यादातर अनुसूचित जाति के किसानों की हैं जो बाबा को जमीन बेच कर एक बार फिर भूमिहीन हो गए हैं. ये लोग कहां जाएंगे, इसके बारे में सोचने की फुरसत किसी को नहीं. शकीला के पास टीवी भी तो नहीं है. कम से कम वह उस पर रोज आ रहे बाबा रामदेव के प्रवचनों को सुन कर यह संतोष तो कर लेती कि उसकी थोड़ी-सी जमीन काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ किए जा रहे बाबा के संघर्ष में कुर्बान हुई है.

(महिपाल कुंवर के सहयोग के साथ)

(15 दिसंबर 2013)

होना ही जिनका अपराध है

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वो लड़की जो धूप सी खिलकर उठती थी हर सुबह…
इक रोज़ कुछ ऐसा उसके साथ हुआ…
आदमी जानवर, गांव सारा जंगल हुआ…
जानवर के जिस्म की भूख और आग में…सब राख हुआ
‘उन्होंने मेरी बेटी को जला दिया, वो मेरे सामने तड़प-तड़पकर मर गई.’
‘वो मेरी लड़की को खा गए, उसके साथ खराब काम किया और उसे जला कर मार डाला.’
‘अरे, मेरी फूल सी बच्ची के साथ जबरजस्ती करी और उसे जला दिया, मार डाला उसे.’

बुंदेलखंड के पथरीले सूखे गांवों में रहने वाले कई परिवारों का दिल दहला देने वाला यह रुदन चट्टान पर उकेरी गई किसी बदसूरत लकीर की तरह जेहन में बस जाता है. हालांकि मध्य प्रदेश का यह क्षेत्र महिलाओं के खिलाफ हिंसा की आपराधिक परंपरा के लिए हमेशा से बदनाम रहा है, लेकिन पिछले एक साल में इन अपराधों ने यहां हिंसा और बदसूरती के चरम को छू लिया. इस दौरान यहां कम से कम 15 लड़कियां बलात्कार या बलात्कार के प्रयास के बाद जिंदा जला दी गईं.

बुंदेलखंड के सामाजिक हालात देखकर महसूस होता है कि जैसे औरत होना ही यहां अपने आप में सबसे बड़ा अपराध है. पिछले पांच वर्षों से भीषण सूखे की मार झेल रहे यहां के ग्रामीण क्षेत्रों में बसे और धूल में लिपटे छोटे-छोटे गांव, औरतों की गूंगी चीख में डूबी एक रहस्यमयी चुप्पी में लिपटे हुए भी प्रतीत होते हैं. यहां के बाशिंदे उनके आसपास बेरहमी से जलाई गई औरतों के बारे में पूछने पर खामोशी का चुनाव कर लेते हैं. उनकी यह खामोशी ऐसे हत्याकांडों को समाज से  मिलने वाली मौन स्वीकृति की पुष्टि कर देती है. तभी अचानक एक नौजवान कहता है, ‘इस इलाके में औरतों के साथ ऐसी घटनाएं होना आम बात है, आप लोग क्यों परेशान हो रहे हैं?’  इस तरह बुंदेलखंड में महिलाओं के साथ हो रहे जघन्य अपराधों की स्याह तसवीर सामने आ जाती है.

‘औरत होने की सजा’ यह बात जेहन में आते ही दिमाग 900 साल पीछे चला जाता है. नौ शताब्दियों पहले दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाली इकलौती महिला शासक रजिया सुलतान को हटाकर उसकी हत्या करवा दी गई थी. तब उस वक्त के मशहूर इतिहासकार मिन्हाज-उस-सिराज ने अपनी किताब ‘तबकात-ए-नासिरी’  में लिखा था, ‘रजिया में शासक होने के सारे गुण थे और वह अपने सभी भाइयों से ज्यादा काबिल थी. पर उसकी सिर्फ एक ही कमजोरी थी. वह औरत थी.’ तकरीबन हजार साल के भी बाद मिन्हाज के ये शब्द बुंदेलखंड की धूलभरी, सूखी बसाहटों में आज भी प्रासंगिक है. यहां सदियों पुरानी परंपराएं और रूढ़ियां आज भी रोजमर्रा के जीवन से मजबूती से जुड़ी हैं.

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हालिया वक्त की बात करें तो महिलाओं के साथ बलात्कार या ऐसा करने के प्रयास के बाद उन्हें जला दिए जाने की सबसे ज्यादा घटनाएं बुंदेलखंड के दमोह और छतरपुर जिलों में हुई हैं. इन जिलों के दूर-दराज के हिस्सों में बसे गांवों के पीड़ित परिवारों की रोंगटे खड़े कर देने वाली दास्तानें प्रदेश में महिलाओं की स्थिति की काली सच्चाई सामने रख देती हैं. एक ओर जहां ये घटनाएं राज्य सरकार की बहुप्रचारित ‘महिला सशक्तीकरण, ‘बेटी बचाओ’ और ‘स्त्री सुरक्षा’ सरीखी तमाम खोखली नीतियों की पोल खोलती हैं वहीं दूसरी ओर दुनिया के इस हिस्से में महिलाओं की कमजोर और दोयम स्थिति की ओर भी इशारा करती हैं. बुंदेलखंड के इन उजाड़ पठारी क्षेत्रों का दौरा करने पर कई सवाल जेहन में उभरते हैं. आखिर क्यों लड़कियों का बलात्कार करने के बाद उन्हें जलाने जैसे अपराध का यह खास पैटर्न यहां उभर रहा है? ज्यादातर मामलों में बहुत लंबा समय बीत जाने के बाद भी अपराधी खुले क्यों घूम रहे हैं? एक बड़ा सवाल यह भी है कि आखिर वे कौन-सी सामाजिक परिस्थितियां हैं जो एक समाज को अपने आधे हिस्से के साथ इस बर्बरता से पेश आने की वजह बन रही हैं.

इन तमाम हत्याओं के पीछे ‘पुरुष अहंकार’ को एक प्रमुख कारण माना जा सकता है. दमोह जिले के मुख्य सरकारी वकील राकेश शुक्ला के अनुसार बुंदेलखंड में ठाकुरों और राजपूतों का बड़ा दबदबा है. ‘कोई उनका विरोध नहीं करता. अगर कोई उनके अत्याचारों के खिलाफ शिकायत करे तो वे उसे जला देते हैं. उस पर औरतों का शिकायत करना तो खासतौर पर उनके तथाकथित सम्मान को गहरी ठेस पहुंचाता है. यहां के समाज का घोर रूढ़िवादी और अशिक्षित होना भी इसका एक कारण है.’

पर पुलिस प्रशासन कुछ करता क्यों नहीं और अपराधी कोर्ट से कैसे बरी हो जाते हैं?. करीब दो दशक से इस क्षेत्र में वकालत कर रहे शुक्ला का मानना है कि ज़्यादातर मामलों में पुलिस परोक्ष रूप से अपराधी की ही मदद करती है. ‘जैसे वे एफआईआर ठीक से नहीं बनाते हैं तो केस वहीं ख़त्म हो जाता है. फिर अपराधी को पुलिस की तरफ से पूरा मौका दिया जाता है कि वह अग्रिम ज़मानत ले ले. तीन-तीन महीने चार्जशीट ही दाखिल नहीं होती और आरोपी को ज़मानत मिल जाती है. परिस्थितिजन्य साक्ष्यों की तो बात ही न कीजिये. सामान्य जांच पड़ताल में ही इतनी गलतियां करते हैं कि आरोपी के खिलाफ सबूत ही नहीं बचते. डॉक्टर मेडिकल ठीक से नहीं बनाते. गवाहों को पक्षद्रोही बना दिया जाता है, बयानों में इतना विरोधाभास पैदा कर दिया जाता है कि उनका कोई मतलब ही नहीं रह जाता. सब के सब ‘बेनिफिट आफ डाउट’ के चलते बरी कर दिए जाते हैं. और यह सब इसलिए क्योंकि ज्यादातर मामलों में अपराधी किसी बड़े ठाकुर या अमीर जमीदार का बेटा-भतीजा होता है’, शुक्ला कहते हैं. पर दमोह जिले के पुलिस अधीक्षक डीके आर्य शुक्ला की बातों से जरा भी सहमत नहीं. वे मानते हैं कि पुलिस पूरी मुस्तैदी से अपना काम कर रही है, ‘यह बात सच है कि लड़कियों को बलात्कार के बाद जला दिए जाने की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है पर उसके कई दूसरे सामाजिक-आर्थिक कारण हैं. पुलिस के काम में कोई कमी नहीं है. हम अपनी जांच-पड़ताल उचित तरीके से करते हैं.’

वहीं राज्य में अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की अध्यक्ष संध्या शैली का मानना है कि बुंदेलखंड में औरतों की इस बदतर स्थिति के लिए पूरी तरह से सरकार और ठप पड़ा पुलिस प्रशासन जिम्मेदार है. वे कहती हैं, ‘असल में बुदेलखंड में राजनीतिक भ्रष्टाचार, ठप पुलिस प्रशासन और उदासीनता की हदें पार करने वाली नौकरशाही की तिकड़ी काम कर रही है. न वहां शिक्षा है और न रोज़गार के साधन. वहां का समाज दो हिस्सों में बंटा है, बहुत ज्यादा अमीर और बहुत ज्यादा गरीब. इन जिलों का महिला लिंग अनुपात भी बहुत कम है. जाहिर है, जब प्रशासन सोता रहेगा तो दबंग जमींदार गरीब औरतों को अपने पैरों की धूल समझ कर जलाते ही रहेंगे.’ यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि पूरे भारत में महिलाओं के खिलाफ सबसे ज्यादा अपराध दर्ज करने वाले इस प्रदेश में महिला आयोग के अध्यक्ष का दफ्तर पिछले 6 महीनों से सूना है.

दमोह में लंबे समय तक काम कर चुके एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर तहलका से अपने विचार साझा करते हुए कहते हैं कि बुंदेलखंड ऐतिहासिक रूप से रियासती और सामंती इलाका रहा है. सामाजिक विषमता बहुत ज्यादा होने के साथ-साथ यहां औद्योगीकरण और रोजगार के अवसर बिलकुल भी नहीं हैं. ‘यहां के सामाजिक पिछड़ेपन का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि यहां यातायात के साधन तक नहीं हैं. छतरपुर में खजुराहो के पास अभी-अभी रेल लाइन डाली है. यहां के परंपरावादी समाज में जाति वैमनस्य भी बहुत ज्यादा है. आप खुद ही देखिए कि भैया राजा से लेकर आशा रानी और जीतेंद्र सिंह बुंदेला जैसे आपराधिक छवि वाले लोग यहां के बड़े नेता हैं. यहां के राजनीतिक परिदृश्य पर पूरी तरह गुंडों का राज है. इसी राजनीतिक हस्तक्षेप की वजह से पुलिस भी निरंकुश हो गई है.’

राज्य में महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों की पुलिस महानिरीक्षक अरुणा मोहन राव तहलका को बताती हैं कि कई बार पुलिस हिंसा की शुरुआती घटनाओं को गंभीरता से नहीं लेती. ‘आम तौर पर पुलिस महिलाओं के विरुद्ध हो रहे अपराधों के प्रति उतनी संवेदनशील नहीं होती जितना होने की जरुरत है. यह प्रवृत्ति जिला और ब्लाक स्तर के थानों में और अधिक देखने को मिलती है. अगर शुरुआती अपराधों, जैसे बलात्कार, के बाद ही अपराधी को पकड़ लिया जाए तो कई लड़कियों की जानें बचाई जा सकती हैं. हम इस दिशा में लगातार प्रयास कर रहे हैं और जल्दी ही बेहतर नतीजों की उम्मीद करते हैं’ वे कहती हैं.

अरुणा कम से कम पुलिस की लापरवाही को स्वीकार तो करती हैं. प्रमुख  गृह सचिव, अशोक दास इन घटनाओं पर आश्चर्य जाहिर करते हुए कहते हैं, ‘आप जो कह रही हैं, वह बहुत खतरनाक है. मैं मालूम करता हूं, इस पर तुरंत कार्रवाई की जाएगी. वैसे राज्य सरकार इस तरह के जघन्य अपराधों से निपटने के लिए एक खास तरह का तंत्र विकसित कर रही है. इसके तहत हर जिले में एक “सनसनीखेज और जघन्य अपराध सेल” बनाया गया है. इस सेल की समिति में जिला कलेक्टर, पुलिस अधीक्षक और जिला न्यायाधीश, सब शामिल होंगे. इस सेल में इसी तरह के जघन्य अपराधों को दर्ज किया जायेगा और उनकी फास्ट ट्रैक जांच और सुनवाई होगी. मुख्यमंत्री खुद इस सेल का तिमाही निरीक्षण करेंगे.’ पर राजधानी के इन प्रमुख अधिकारियों को शायद यह अंदाजा नहीं है कि जिला स्तर पर किसी को भी इस तरह की किसी योजना के बारे में पता ही नहीं है.

बुंदेली लोक गीतों में डूबा बुंदेलखंड आज भी पुरातन हर्ष और भय के भावों में जकड़ा हुआ है. गावं के लोग मानते हैं कि औरतें मर्यादा को लांघ रही हैं, इसलिए जलाई जा रही हैं. पर परंपराओं के पैरोकार यह भूल रहे हैं कि वे मानवता की सीमाओं को लांघ रहे हैं. बदलते सामाजिक प्रतिमानों की तुलना में यहां का समाज उजाड़ बंजर भूमि सा कठोर बना हुआ है. अपने एक प्रसिद्ध वक्तव्य में स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि किसी भी समाज में अच्छाई और मानवता की स्थिति का अंदाजा इस बात से ही हो जाता है कि वह समाज अपनी स्त्रियों के साथ कैसा व्यवहार करता है. गांधी के ग्राम राज्य में, राम राज्य के प्रकाश में और दिन के उजाले में लड़कियां जलाई जा रही हैं. सरकार, प्रशासन और न्याय…..रात सी गहरी नींद में सोया हुआ है.

01 : ‘किसी ने हमारी मोड़ी को हाथ न लगाया. हम्हीं उसे लेकर अस्पताल गए’

अपनी फूल-सी बच्ची की मौत के निशान गेंदाबाई गोंड ने आज तक अपनी जर्जर झोपड़ी की दीवार से नहीं मिटाए. दीवार पर जमी काली राख और धुएं के ये निशान दिखाते हुए उनके हाथ कांपने लगते हैं. लड़खड़ाती आवाज में वे कहती हैं, ‘जहीं पर जलाया था उसे. मिट्टी का तेल डालकर मारी मोड़ी को जला दिया बा ने’. कहते-कहते उनकी आंखों के कोर भीग जाते हैं और फिर वे रोने लगती हैं.

20 मार्च, 2010 की तारीख गेंदाबाई के लिए जिंदगी भर तकलीफ देने वाला एक घाव बन गई है. इसी दिन उनकी बड़ी बेटी लीलाबाई उनसे हमेशा के लिए बिछड़ गई. गांव के ही एक युवक गोविंद सिंह ठाकुर ने बलात्कार की कोशिश के बाद उसे जलाकर मार डाला.

गेंदाबाई गोंड की छोटी-सी झोपड़ी दमोह जिले के बटियागढ़ थाने की सडारा ग्राम पंचायत में है. वे और उनके पति चंदू आदिवासी भूमिहीन मजदूर हैं. 14 साल की लीलाबाई की हत्या के बाद उनके परिवार में अब दो बेटे और एक बेटी है. वे बताती हैं, ‘पिछले साल चैत का महीना चल रहा था, सोमवार का दिन था. शाम के पांच बज रहे थे. मैं और लीला के बापू खेतों में कटाई कर रहे थे कि तभी गोलू चिल्लाते हुए आया. वह कह रहा था कि तुम्हारी मोड़ी को जला दिया, लीला को जला दिया. मैं और लीला के बापू भागे-भागे घर पहुंचे तो देखा कि मेरी लड़की आंगन में जली पड़ी थी, छटपटा रही थी.’

अपनी लाड़ली को आग में झुलसा देखकर एक पल को गेंदाबाई बेहोश हो गई थीं. वे बताती हैं, ‘फिर मैंने खुद को संभाला और लड़की को गोद में सुलाया. उसके बापू ने मुन्ना सरपंच को बताया और उसी की गाड़ी में हम तुरंत अस्पताल दौड़े. पूरा गांव इकठ्ठा हो गया था पर किसी ने हमारी मोड़ी को हाथ न लगाया. हम दोई उसे लेकर अस्पताल गए.’

दमोह जिला अस्पताल में कुछ घंटों तक लीलाबाई 95 फीसदी जल चुके अपने शरीर के साथ मौत से लड़ती रही. 21 मार्च को रात आठ बजे उसकी सांसों ने जवाब दे दिया. जिंदगी के आखिरी घंटों में गेंदाबाई अपनी बेटी को सीने से चिपकाए अस्पताल में बैठी रहीं. वे बताती हैं कि उनकी बेटी ने मरने से पहले चिल्ला-चिल्ला सबके सामने कहा था कि दरोगा के बेटे गोविंद सिंह ठाकुर ने उसके साथ जबर्दस्ती की और उसे मिट्टी का तेल डालकर जला दिया. वे कहती हैं, ‘वो लड़का न जाने क्यों मेरी मोड़ी के पीछे पड़ा था. उस दिन जब हम खेत पर गए थे, तब वह जबर्दस्ती हमारे घर में घुस आया. लीला ने मरने से पहले डाक्टरों और अधिकारियों, सबके सामने कई बार कहा कि गोविंद उसका हाथ पकड़ कर घसीटता हुआ उसे घर में ले गया और उसके साथ जबरजस्ती करने लगा. जब मोड़ी ने खुद को छुड़ाने की कोशिश में हाथ-पांव मारना शुरू किए तो उसे गुस्सा आ गया. उसने मिट्टी के तेल से भरी कुप्पी मेरी लड़की पर उड़ेल दी और उसे माचिस लगाकर भाग गया. मोड़ी जल गयी…मारी मोड़ी जल गयी.’

स्थानीय थाना बटियागड़ में मामला दर्ज होने के तीन महीने बाद किसी तरह आरोपित को गिरफ्तार तो किया गया पर एक साल बीतने के बाद भी अदालत में सुनवाई शुरू नहीं हुई है. थाने में मौजूद इकलौते अधिकारी नरेंद्र तिवारी यही बता पाते हैं कि गोविंद सिंह ठाकुर पर कौन-सी धाराओं में मामला दर्ज हुआ है. तफ्तीश की कछुआ चाल के सवाल पर अलसाए और उनींदे-से थाना पुलिसकर्मी सारा दारोमदार अपने बड़े अधिकारियों पर डालते हुए कहते हैं, ‘मैडम, एसटी/एससी वाले केसों की जांच तो बड़े अधिकारी ही करते हैं. हमें इस मामले में ज़्यादा जानकारी नहीं है.’

गेंदाबाई का कहना है कि पुलिस एक बार भी उनके घर जांच करने नहीं आई. मौत से पूर्व लीलाबाई के अहम बयान की प्रति तो दूर की बात है, पीड़ित परिवार के पास मामले की एफआईआर की प्रति तक नहीं है. गेंदाबाई और उनके पति को यह भी पता नहीं कि सरकारी वकील कौन है, कोई है भी या नहीं. वे कहती हैं, ‘एक भी बार हमारी पेशी नहीं हुई. हमें तो कुछ नहीं पता कि कचहरी में क्या चल रहा है. लीला के बापू तो मजूरी करने के लिए बाहर रहते हैं. काम नहीं करेंगे तो बच्चों का पेट कैसे पालेंगे? क्या बताएं साहिब, वो पैसे वाले ताकतवर लोग हैं. हम गरीबों की कौन सुनेगा? डर है मेरी लड़की को मारने के बाद भी वो छूट जाएगा.’

जब पुलिस का जांच दल मौका-ए-वारदात पर गया ही नहीं तो परिस्थितिजन्य साक्ष्यों का क्या हाल होगा, इसका अनुमान लगाया जा सकता है. लचर प्रशासन और पुलिस के मनमाने उदासीन रवैये की वजह से बुंदेलखंड के इन पिछड़े इलाकों में कई अशिक्षित और गरीब आदिवासी परिवारों को कभी न्याय नहीं मिल पाता. हम जब गेंदाबाई से विदा लेते है तो अचानक दुनिया की सारी संकल्प शक्ति अपनी आंखों में समेटते हुए वे कहती हैं, ‘मैंने अपनी लड़की की शादी के लिए पीतल की बड़ी परात खरीदी थी. उसकी शादी तो सपना ही रह गई. पर हम हार नहीं मानेंगे. कुछ भी करेंगे, कर्जा लेंगे, मजूरी करेंगे…पर केस ज़रूर लड़ेंगे. मैं उसके हत्यारे को सजा दिलाए बिना नहीं मरूंगी.’

 02 : ‘मम्मी पानी पिला दो. मम्मी हमें चार जनन ने जला दिया’

‘मैं और संध्या के बापू खेत से घर लौट रहे थे. हम गांव में घुस ही रहे थे कि रास्ते में मीना बढ़ई ने चिल्लाते हुए बताया – संध्या जल गई, संध्या जल गई. हम दोनों दौड़ते हुए घर पहुंचे तो देखा कि हमारी मोड़ी आंगन में पड़ी-पड़ी तड़प रही थी, पूरी जल चुकी थी. मुझसे बार-बार एक ही बात कह रही थी, ‘मम्मी, पानी पिला दो. मम्मी, हमें चार जनन ने जला दिया. मम्मी पानी पिला दो, मम्मी हमें चार जनन ने जला दिया’ कहते कहते रमादेवी रिछारिया दहाड़ें मार-मार कर रोने लगती हैं. उनकी 18 वर्षीया बेटी संध्या रिछारिया को उनके पड़ोस में रहने वाले चार लड़कों ने 4 मार्च, 2010 को बलात्कार के प्रयास के बाद मिट्टी का तेल डालकर जला दिया था. बलात्कार के बाद लड़कियों को जलाने के हालिया मामलों में यह एकमात्र ऐसा मामला है जिसमें निचली अदालत ने फैसला सुना कर सारे अभियुक्तों को बरी कर दिया है.

संध्या छतरपुर जिले के हमा गांव में अपने माता-पिता और दो भाई-बहनों के साथ रहती थी. पांचवी कक्षा तक पढ़ाई करने के बाद उसने स्कूल छोड़ दिया और घर के कामों में मां का हाथ बंटाने लगी. संध्या के पिता सूरजपाल रिछारिया और मां मजदूरी करके अपना परिवार चलाते हैं. उन्होंने बड़ी मुश्किल से अपने बच्चों के रहने के लिए एक कच्चा घर बनाया था. गांव में ज़्यादातर घर राजपूतों के हैं और संध्या का परिवार गांव के मुट्ठी भर ब्राह्मण परिवारों में से एक है. संध्या के घर के ठीक सामने चंद्रपाल नायक का परिवार रहता है. नायक परिवार अपने बेटे से संध्या की शादी के लिए सूरजपाल पर दबाव बना रहा था. ‘वो हमसे पांच महीनों से कह रहे थे कि तुम लोग अपनी लड़की की शादी हमारे लड़के दीपक से कर दो जबकि हम उसकी शादी अलीपुरा के चौबे परिवार में तय कर चुके थे’ संध्या की मां कहती हैं, ‘चंद्रपाल अकसर कहता था कि अपनी लड़की की शादी हमारे लड़के से कर दो, वरना किसी के साथ भाग जाएगी और गांव की बदनामी हो जाएगी.’

इसी बात पर संध्या की हत्या के कुछ दिन पहले ही, संध्या के पिता का चन्द्रपाल से झगड़ा भी हो गया था. ‘हमने साफ मना कर दिया. हम अपनी बेटी की शादी अपने कुल के ही किसी अच्छे घर में करना चाहते थे. यही बात उनको बुरी लग गयी’, रमादेवी आगे बताती हैं. संध्या के परिवार को आशंका तो थी कि इस झगड़े से नाराज होकर चंद्रपाल कुछ करेगा पर उनकी बेटी के साथ जो कुछ भी हुआ, उसकी उन्हें सपने में भी उम्मीद नहीं थी.

4 मार्च, 2010 को रमादेवी संध्या को घर पर अकेला छोड़ अपने पति के साथ मजदूरी करने खेत पर गई थीं. लगभग शाम चार बजे, संध्या घर के पीछे वाले कमरे में खटिया पर आराम कर रही थी. तभी आंगन की दीवार फांद कर चार लोग उसके घर में घुस आए और उसके साथ बलात्कार का प्रयास किया. ‘पहले तो उन्होंने मेरी लड़की के साथ जबरजस्ती करी और जब उसने विरोध किया तो उसे हमारे ही घर के एक स्टूल पर बैठा दिया. दो लोगों ने उसे पकड़ा, तीसरे ने मिट्टी का तेल डाला और चौथे ने माचिस से उसे जला दिया. संध्या ने चिल्ला चिल्लाकर चारों के नाम सबको बताए. उसने कहा था कि उसे दीपक, रमाकांत, अशोक और हीरालाल ने जला दिया. पर फिर भी सबको छोड़ दिया साहेब.’ दर्द भरी आवाज में रमादेवी बताती हैं. दीपक के अलावा बाकी तीनों आरोपित भी चंद्रपाल नायक के ही रिश्तेदार हैं. घटना की खबर मिलते ही संध्या के माता-पिता उसे छतरपुर जिला अस्पताल ले गए. वहां तहसीलदार, टाउन इंस्पेक्टर और डॉक्टरों ने उसके बयान लिए. संध्या ने अपने मृत्यु पूर्व बयान में चारों अभियुक्तों के नाम लेकर दस्तखत भी किए थे.

छतरपुर जिला अदालत ने दीपक,अशोक और हीरालाल को ‘संदेह का लाभ’ देते हुए बरी कर दिया जबकि चौथा आरोपित रमाकांत आज तक फरार है. असल में संध्या के बयान में जिला अस्पताल के डॉक्टर ने यह टीप नहीं लगाई थी कि संध्या बयान देने के लिए मानसिक रूप से स्वस्थ है या नहीं. इसलिए कोर्ट ने उसे वैध मानने से इनकार कर दिया. रमादेवी के अनुसार पुलिस और डॉक्टरों ने उनकी बेटी के बयान को गंभीरता से लिया ही नहीं. ‘वो सब वहीं खड़े थे और मेरी लड़की चिल्ला-चिल्ला के कह रही थी कि उसे किसने जलाया. पर न तो पुलिस ने ध्यान दिया और न डाक्टरों ने. सब पैसे का कमाल है. हमारे गवाह भी अदालत में पेश नहीं होने दिए गए. सिर्फ उन्हीं के गवाह आए. वो बहुत पैसे वाले लोग है इसलिए डाक्टर, पुलिस , वकील…सब उन्ही के हाथ में है.’ एडिशनल सेशन जज पीके शर्मा का निर्णय पढ़ने पर मालूम होता है कि पुलिस ने जांच और उसके दस्तावेजीकरण में कई गलतियां कीं, जैसे मृत्युपूर्व बयान जैसे निर्णायक सबूत को सावधानी से नहीं बनवाना. डॉक्टरों के पक्ष की भी कई विरोधाभासी बातें इस निर्णय से पता चलती हैं. अस्पताल प्रभारी डॉक्टर लखन तिवारी ने संध्या का कथन लेते समय उसकी मानसिक स्थिति पर नोट नहीं लगाया था. इसी वजह से कोर्ट में विरोधी पक्ष ने यह साबित कर दिया कि संध्या सौ प्रतिशत जल चुकी थी और ‘डेलेरियम’ की स्थिति में थी. इस स्थिति में रक्त का सीरम जलकर बाहर आ जाता है और दिमाग तक ऑक्सीजन नहीं पहुंच पाती. ऐसे में मरीज अपने पूरे होश में नहीं रहता. इसीलिए ऐसी मानसिक अवस्था में दिए गए बयान को मान्य नहीं किया जा सकता.

अदालत से अपनी बेटी को न्याय न दिलवा पाने के बाद, अब रमादेवी की निराशा की कोई सीमा नहीं है. ‘पहले उसे जला दिया और फिर उसके बयान को इसलिए नहीं माना, क्यूंकि वह जल चुकी थी? यह कहां का इंसाफ हुआ. जिसने हमारी बेटी को मारा, वो हमारे सामने ही रहता है. हम गरीब लोग क्या कर सकते हैं? दूसरे बच्चों के लिए भी डर लगता है की कहीं उन्हें भी न मार डालें ये लोग’ निराशा और दुख में डूबी रमादेवी तहलका को बताती हैं.

उधर गांव वाले उनके परिवार का हुक्का पानी बंद करने की धमकी देते हैं. ‘वो कहते हैं कि हम पर हत्या लग गई है. जब तक अपनी बेटी के नाम पर सारे गांव को खाना नहीं खिलाएंगे, हम उनके साथ उठ-बैठ नहीं सकते.’ अदालत की पेचीदगियां रमादेवी की समझ से परे हैं. मगर वे यह नहीं समझ पा रही हैं कि आखिर कैसे उनकी बेटी को जलाने वाले बाहर घूम रहे हैं और वे पीड़ित होकर भी समाज से बहिष्कृत हैं.

03 : ‘पूरा गांव राजीनामा करवाने पर जोर दे रहा है’

करीब छह महीने पहले तक दमोह की नोहाटा तहसील स्थित मुग्दापुरा गांव के नौनिलाल पटेल, आम लोगों की तरह हंसते-मुस्कुराते थे. लेकिन 19 अक्टूबर, 2010 की सुबह उनकी भूरी आंखों वाली मासूम बच्ची वसुंधरा को उसी के गांव के पांच लोगों ने मिट्टी का तेल डालकर जला दिया. वजह सिर्फ यह थी कि नौनिलाल अपनी बेटी के साथ हुए बलात्कार की शिकायत दर्ज कराने घटना की रात को ही उसे लेकर स्थानीय थाने गए थे. उनकी इस ‘जुर्रत’ से गुस्साया बलात्कार का आरोपित सौरभ पटेल, अपने परिवार के अन्य सदस्यों के साथ उनके घर जा पहुंचा और वसुंधरा को आग के हवाले कर दिया. तब से नौनिलाल मुस्कुराना भूल गए हैं. वे कहते हैं, ‘पूरा गांव राजीनामा करवाने पर जोर दे रहा है. हमारी बच्ची के साथ खराब काम किया. उसे हमारे ही घर में जला दिया. वे बड़े लोग हैं. उनकी भोपाल तक में बहुत पहुंच है इसलिए सारा गांव उन्हीं के साथ है.’

17 वर्षीया वसुंधरा, नौनिलाल की इकलौती बेटी थी और वे उसके भविष्य के लिए बड़े सपने देख रहे थे. बुंदेलखंड के एक पिछड़े गांव में रहते हुए भी उन्होंने वसुंधरा का दाखिला गांव से सात किलोमीटर दूर स्थित उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में करवाया था. वसुंधरा होनहार थी. नौनिलाल नहीं चाहते थे कि उनकी बिटिया सिर्फ लड़की होने की वजह से पीछे रहे. लेकिन परंपराओं के नाम पर चल रही पाशविक सामाजिक प्रवृत्तियों के सामने वसुंधरा और उसका परिवार हार गया.

18 अक्टूबर, 2010 को नौनिलाल के गांव में भंडारा था. गांव के ज्यादातर लोग भंडारे में व्यस्त थे. त्योहार की वजह से वसुंधरा के स्कूल की भी छुट्टी थी. शाम करीब पांच बजे वह अपने घर के सामने वाले अरहर के खेत की तरफ टहलने के लिए निकली थी. तभी सौरभ पटेल ने उसे अकेला पाकर उसके साथ बलात्कार किया. वसुंधरा की मां ज्ञानवती बताती हैं, ‘लड़की की चीख-पुकार सुनकर उसका भाई गगन खेतों की ओर दौड़ा. पर तब तक सौरभ भाग निकला. हम लड़की को घर ले आए.’ नौनिलाल कहते हैं, ‘पर मोड़ी चुप ही नहीं हो रही थी. रोए-चिल्लाए जा रही थी. फिर रात करीब आठ बजे हम उसे गाड़ी में बिठाकर तेजगड़ थाने ले गए. पर थानेवालों ने रिपोर्ट लिखने के लिए हमसे 1000 रु मांगे. हमारे पास 300 ही थे सो हमने उन्हें दे दिए. फिर उन्होंने मुझे और मेरे भाई को बाहर बिठा दिया और मेरी रोती लड़की से रात के ढाई बजे तक पूछताछ करी. रिपोर्ट लिखी या नहीं, यह तो पता नहीं पर हम रात ढाई बजे अपनी लड़की को लेकर गांव वापस आ गए.’

पीड़ित परिवार के मुताबिक रात को ही गांव में यह बात फैल गई थी कि वसुंधरा के बापू पुलिस में रिपोर्ट करने गए हैं. सिसकियों के साथ वसुंधरा की मां ज्ञानवती बताती हैं, ‘सौरभ पटेल का परिवार बहुत संपन्न और शक्तिशाली है. उन्हें यह बात गवारा नहीं हुई होगी कि कोई उनके लड़के की शिकायत दर्ज कराने जाए. अगले दिन लगभग सुबह सात बजे की बात है. मैं खेत पर गई थी और वसुंधरा के बापू दालान में बैठे थे. लड़की भीतर थी. तभी सौरभ अपने परिवार के चार अन्य लोगों के साथ बीच वाले दरवाज़े से घुसकर अंदर आया और मेरी लड़की का मुंह दबाकर उस पर मिट्टी का तेल डाल दिया. फिर उस पर आग लगाकर वे लोग भाग गए. जब तक हम लोग पहुंचे, मोड़ी बहुत जल गई थी.’

अपनी तड़पती बच्ची को लेकर वसुंधरा के माता-पिता सीधा दमोह जिला अस्पताल पहुंचे. जिले के पुलिस अधीक्षक और स्थानीय मीडियाकर्मी भी सूचना मिलने पर अस्पताल पहुंचे. पर तब तक वसुंधरा की हालत बिगड़ चुकी थी. वह 95 फीसदी से भी अधिक जल चुकी थी. मौत से पहले उसने बयान दिया और उस पर दस्तखत भी किए. ज्ञानवती कहती हैं, ‘उसने नाम भी गिनवाए थे. नन्नू, पुरुषोत्तम, सीताराम, टीकाराम और सौरभ पटेल. उसने पुलिस वाले साहेब को भी बताया था कि इन पांचों ने उस पर मिट्टी का तेल डाला और उसे जला दिया. मीडियावालों ने भी देखा. फिर भी आज तक उन लोगों को सजा नहीं हुई.’

जिला अस्पताल से तुरंत वसुंधरा को जबलपुर रेफर कर दिया गया, पर उसने रास्ते में ही दम तोड़ दिया. घटना के लगभग 45 दिन बाद पुलिस ने पांच में से चार मुख्य आरोपितों को गिरफ्तार तो कर लिया पर उन्हें ज्यादा दिन जेल में नहीं रख सकी. नन्नू पटेल जमानत पर रिहा हो चुका है. दो अन्य आरोपितों की भी जमानत होने वाली है जबकि मुख्य आरोपित सौरभ पटेल का मामा टीकाराम, आज भी फरार है. सुनवाई शुरू होने से पहले ही आरोपित को जमानत मिल जाने से वसुंधरा के परिवार की निराशा और बढ़ गई है. नौनिलाल कहते हैं, ‘उसके परिवारवाले हमसे बार-बार कहते हैं कि केस वापस ले लो. हम तो करोड़ों रु खर्च करके भी सबको बचा ले जाएंगे. बोलते हैं कि सागवान के ट्रक में लदवाकर तुझे भी जंगल में मरवा देंगे, किसी को पता नहीं चलेगा. मेरा एक लड़का बचा है, उसे भी मारने की धमकी देते हैं. उनके पास  पैसा और ताकत है. पुलिस, प्रशासन, डाक्टर और न्याय, सब उन्हीं के पक्ष में हैं.’

अदालत में जारी मामले के बारे में नौनिलाल पटेल और उसके परिवार को ज्यादा जानकारी नहीं है. पुलिस ने पीड़ित परिवार को एफआईआर की एक प्रति देने की भी जहमत नहीं उठाई. मौत से पूर्व दिए गए बयान की प्रति तो दूर की बात है. स्थानीय थाने में मामले पर बात करने के लिए कोई अधिकारी मौजूद नहीं था. बहुत पूछताछ करने पर तेजगड़ थाने के एक सिपाही ने एफआईआर की प्रति दिखाई. आरोपित इतनी देर से क्यों पकड़े गए, परिस्थितिजन्य साक्ष्यों का क्या हुआ, इन सवालों के जवाब पुलिस के पास नहीं हंै.

वसुंधरा पटेल हत्याकांड के सरकारी वकील को ढूंढ़ने पर देवी सिंह का नाम सामने आया. उनसे जानकारी मिली कि एडिशनल सेशन जज की अदालत में मामला लंबित है. वे कहते हैं, ‘अभी चार्जशीट कमिट करी जाएगी और फिर आरोप पर बहस के बाद आरोप की धाराएं तय होंगी. तब केस आगे बढे़गा.’ सिंह  का मानना है कि ऐसे मामलों में अकसर पैसे या सामाजिक दबाव के कारण गवाह बयान से मुकर जाते हैं. टूट चुकी उम्मीदों का अंधेरा आंखों में लिए वसुंधरा के माता-पिता कहते हैं कि वे आगे केस नहीं लड़ेंगे. ज्ञानवती कहती हैं, ‘बस फैसला हो जाए. हम वैसे ही बहुत परेशान हैं. एक तो हमारी पाली-पोसी लड़की को जलाकर मार डाला और अब बेटे को भी मारने की धमकियां मिलती हैं. हम किसके लिए लड़ें? फैसला तो उन्हीं के पक्ष में हो रहा है जिनके पास पैसा और ताकत है. गरीबों के बच्चों तो ऐसे ही जलाकर मार दिए जाते हैं.’

04 : ‘आरोपित रिहा होने लगे तो लड़की की मां भी अपना दिमागी संतुलन खो बैठी’

अप्रैल की एक गर्म दोपहर में मई-जून सा तपता, दमोह जिले की नोहाटा तहसील में बसा ‘छोटी बडाऊ’ गांव. पहली नजर की तहकीकात से ही पता लग जाता है कि जिस तरह इस गांव की जमीन पर सूखे की वजह से दरारें पड़ गई हैं, ठीक उसी तरह यहां के समाज में भी सामंतवाद की गहरी दरारें मौजूद हैं. खुश्क चेहरे वाले यहां के ज्यादातर गांववालों का दिल अपने पड़ोस में जलाई गई एक लड़की के प्रति सूखी जमीन की तरह कठोर है.

गांव से गुजरने वाली मुख्य सड़क पर एक उजाड़ झोपड़ी है जिसका पता बताने को गांववाले तैयार ही नहीं. इस झोपड़ी के दरवाजे को ईंटों और पत्थरों से ढक दिया गया है. कुंडे पर एक मोटा ताला भी जड़ा है. यह घर रविता उर्फ फरजाना का है जिसकी मौत जलने की वजह से हुई थी. 26 सितंबर, 2009 को रविता को उसी के घर में उसी के रिश्तेदारों ने मिट्टी का तेल डाल कर जला दिया.

17 साल की रविता अपने पिता सलीम उर्फ़ मुन्ना और मां तुलाई की अकेली संतान थी. रविता की मौत के कुछ ही दिन बाद उसके पिता अपनी बच्ची के गम में गुज़र गए. इसके बाद उसकी मां पागल हो गई. अब वह सड़कों पर भीख मांगती है. गांव के लोग इस हादसे को लगभग भूल चुके हैं. आश्चर्य की बात है कि गांव की एकमात्र मस्जिद में मौजूद तमाम लोगों में से किसी को भी अपने ही गांव में हुई एक मुसलमान बच्ची की हत्या की घटना याद नहीं. वहां मौजूद एक बुजुर्ग कहते हैं, ‘हमें तो ऐसी कोई रविता या फरजाना याद नहीं पड़ती. आप आगे की दुकान पर पूछ लीजिए.’

थोड़ा भटकने पर घर का पता चल जाता है. थोड़ी मेहनत पड़ोसियों को बात करने के लिए राजी करने के लिए भी करनी पड़ती है. रविता के पड़ोसी राम सिंह लोधी बताते हैं, ‘कोई झगड़ा और मार-पीट हुई थी इनके घर. फिर लड़की जल गई और अगले ही दिन उसने दम तोड़ दिया. पर उसे किसने जलाया, ये हमें नहीं पता’. पास में रहने वाले मुन्ना सिंह बताते हैं कि इस घटना के बाद पूरा परिवार उजड़ गया. बड़ा खुशहाल परिवार था. पर रविता को जलाकर मार दिया गया. पिता तो लड़की के गम में पहले ही मर गया था. जब आरोपित रिहा होने लगे तो लड़की की मां भी अपना मानसिक संतुलन खो बैठी. घर पर ताला पड़ गया और उसकी मां ने गांव छोड़ दिया. हमने कई बार उसे पास के कस्बों में भीख मांगते देखा है.’ रविता के घर के पुराने टूटे दरवाजे पर करीने से रखी ईंटों को देखकर महसूस होता है जैसे आहिस्ता-अहिस्ता, ईंट-दर-ईंट इस हत्याकांड की सच्चाई को छिपाया गया हो और एक खुशहाल परिवार को अपने ही समाज की चुप्पी ने बर्बाद कर दिया हो.

रविता की हत्या कैसे हुई, यह गुत्थी आज तक पुलिस भी सुलझा नहीं पाई है. स्थानीय नोहटा थाने के टाउन इंस्पेक्टर केसी तिवारी तहलका को बताते हैं कि रविता का उसकी चची जिंदी के साथ झगड़ा हुआ था. इसी झगडे़ में रविता और उसके चाचा मुनीर के परिवार के बीच मारपीट हुई. ‘रविता की मौत जलने की वजह से हुई थी. उसकी मां का आरोप था कि रविता को उसके चाचा मुनीर, चाची जिंदी और चचेरे भाइयों (इकबाल और शाहिद अली) ने मिलकर जलाया है. रविता ने अपने मृत्युपूर्व बयान में भी यह कहा था कि उसके इन चार रिश्तेदारों ने उसे जलाया. पुलिस ने भारतीय दंड संहिता की धारा 323, 302 और 34 के तहत मामला दर्ज कर लिया था. पर रविता की मां के आरोप को साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं थे. इसीलिए चार में से तीन आरोपित बरी हो गए जबकि चौथे पर सुनवाई चल रही है’, तिवारी कहते हैं.

सबूत होते भी कैसे जब पुलिस का मानना है कि रविता ने स्वयं अपने ऊपर मिट्टी का तेल डालकर खुद को आग लगाई थी. कारण पूछने पर एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी एक बड़ा ही अतार्किक-सा जवाब देते हैं, ‘पहले की महिलाएं अलग थीं. आज कल की लड़कियों में जरा भी सहन शक्ति नहीं है. जरा कुछ हुआ नहीं कि गुस्से में खुद को आग लगा लेती हैं. अरे, औरतों को तो समुंदर की तरह सहनशील होना चाहिए. पर खैर, उन्हें प्रताडि़त तो किया ही जाता है.’

इस मामले का एक दूसरा पहलू भी है. स्थानीय पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है  कि रविता की हत्या की गई थी. एक स्थानीय पत्रकार नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर बताते हैं कि घटना वाले दिन रविता की मां और रविता चिल्ला-चिल्लाकर कह रही थीं कि उसके रिश्तेदारों ने ही उसे जलाया है. ‘मैंने तो खुद इस केस को कवर किया था. ज्यादातर मामलों में आदमी मरने से पहले झूठ नहीं बोलता है. अगर हम एक पल को पुलिस की यह बात मान भी लें कि रविता ने आत्महत्या की थी तो बड़ा सवाल यह है कि आखिर उसने ऐसा क्यों किया. असल में स्थानीय पुलिस प्रशासन औरतों को जलाकर मार दिए जाने की ऐसी घटनाओं को छिपाना चाहता है. इसलिए हत्या को आत्महत्या में बदलकर दिखा देना सबसे आसान रास्ता है.’ रविता की हत्या की गुत्थी आज तक सुलझ नहीं पाई है. उसके पिता अपनी बेटी की बर्बर मृत्यु के सदमे को सह नहीं पाए और मां सड़कों पर एक पागल भिखारी की तरह घूम रही है. उसकी मां ने जिन लोगों को अपनी बेटी की हत्या का दोषी ठहराया था, सभी एक-एक कर छूट गए. और एक खुशहाल परिवार अपनी ही जमीन पर खत्म हो गया.

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साल 2009 से 2010 के बीच लड़कियों को जलाने के कुछ मामले

• 11 जुलाई, 2009 को दमोह जिले के पिटराऊधा गांव (थाना हाटा) में एक पुजारी ने एक महिला से बलात्कार करके उसे जिंदा जलाया.
• 26 जून, 2009 को दमोह जिले के छोटी बडाऊ गांव में रविता उर्फ़ फरजाना को संदिग्ध परिस्थितियों में जिंदा जलाया गया.
• 18 अगस्त, 2009 को दमोह जिले के कुम्भारी गांव (थाना मंझौली) में कल्पना नामक लड़की को जिंदा जलाया गया.
• 18 सितम्बर, 2009 को दमोह जिले के छपवारा गांव (थाना नोहटा) में गेंदा बाई नामक महिला को बलात्कार के बाद जिंदा जलाया गया.
• 3 मार्च, 2010 को दमोह जिले के रसीलपुर थाने क्षेत्र में देवी बाई नामक महिला को जिंदा जलाया गया.
• 20 मार्च, 2010 को दमोह जिले के सडारा गांव (थाना बटियागढ़) में लीलाबाई को बलात्कार के प्रयास के बाद जिंदा जलाया गया.
• 19 अक्टूबर, 2010 को दमोह जिले के मुग्दापुरा गांव (तहसील नोहटा) में वसुंधरा पटेल को बलात्कार के बाद जलाया गया.
• 19 अक्टूबर, 2010 को दमोह जिले के कुम्भारी गांव (थाना पटेरा) में एक महिला को बलात्कार के बाद जिंदा जलाया गया.
• 26 नवम्बर, 2010 को दमोह जिले के चिरौला गांव (थाना पटेरा ) में तुलसी बाई लोधी को जिंदा जलाया गया.
• 4 मार्च, 2010 को छतरपुर जिले के हमा गांव (थाना ओरछा रोड) में संध्या रिछारिया को बलात्कार के प्रयास के बाद जिंदा जलाया गया.

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वर्दी चाहे हमदर्दी

imgभारत नेपाल सीमा पर स्थित एक थाने के इंस्पेक्टर सुरेंद्र सिंह (बदला हुआ नाम) हाल ही में काफी परेशान थे. मामला एक बच्चे की हत्या का था. वैसे तो हत्या, लूट, डकैती आदि जैसे मामलों से पुलिसवालों को आए दिन ही दो-चार होना पड़ता है. लेकिन सिंह इसलिए मुश्किल में थे कि मामले ने राजनीतिक रंग ले लिया था और जिस अपराधी पर हत्या का आरोप था वह नेपाल भाग गया था. वे बताते हैं, ‘नेताओं का दबाव एसपी पर पड़ा तो मुझे चेतावनी मिली कि एक सप्ताह में हत्यारे को पकड़ो या सस्पेंड होने के लिए तैयार रहो. कुर्सी बचानी थी लिहाजा नेपाल में कुछ लोगों से संपर्क कर अपराधी को भारत की सीमा तक लाने की व्यवस्था करवाई जिसमें करीब 70 हजार रुपए लग गए. इस काम में विभाग की ओर से एक पैसे की भी मदद नहीं मिली, पूरा पैसा मैंने खर्च किया. जो रुपया घर से खर्च किया है उसे किसी न किसी तरह नौकरी से ही पूरा करूंगा.’

इससे आगे सिंह की आवाज का लहजा धीमा और तल्ख हो जाता है. वे कहते हैं, ‘इन्ही वजहों से आम आदमी की नजर में हमारे विभाग के कर्मचारी सबसे भ्रष्ट हैं. लेकिन आप ही बताएं कि हम इधर-उधर हाथ न मारें तो पूरा वेतन सरकारी कामों में ही खर्च हो जाएगा और बच्चे भीख मांगने को मजबूर होंगे.’

यह पुलिस का वह चेहरा है जिसकी तरफ आम निगाह अमूमन नहीं जाती. दरअसल पुलिस शब्द जिन सुर्खियों में होता है उनके विस्तार में जाने पर भ्रष्टाचार, उत्पीड़न, ज्यादती, धौंस, शोषण आदि जैसे शब्द ही पढ़ने को मिलते हैं. लेकिन पुलिस के पाले में खड़े होकर देखा जाए तो पता चलता है कि कुछ और पहलू भी हैं जिनकी उतनी चर्चा नहीं होती जितनी होनी चाहिए, ऐसे पहलू जो बताते हैं कि वर्दी को सिर्फ आलोचना की ही नहीं, कई अन्य चीजों के साथ हमारी हमदर्दी की भी जरूरत है.

इनमें पहली जरूरत है संसाधनों की. जैसा कि आगरा में तैनात रहे एक थानेदार नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘हमारे यहां से एक बच्चे का अपहरण हो गया. सर्विलांस से पता चला कि अपहरणकर्ता बच्चे को राजस्थान लेकर गए हैं. बदमाशों का पता लगाने के लिए कई टीमों को लगाया गया. सभी टीमें निजी वाहनों से राजस्थान के शहरों की खाक छानती रहीं. सफलता भी मिली. लेकिन पूरे ऑपरेशन में 50 हजार से ऊपर का खर्च हुआ. गाड़ियों में डीजल डलवाने से लेकर टीम के खाने-पीने तक का जिम्मा थाने के मत्थे रहा. इसमें कुछ दरोगाओं ने भी अपने पास से सहयोग किया. आप ही बताइए, जिस पुलिस विभाग के कंधों पर सरकार ने गांव से लेकर शहर तक शांति, अपराध रोकने और लोगों के जानमाल की सुरक्षा का जिम्मा दे रखा है उसे क्यों इतना भी बजट और अन्य संसाधन नहीं दिए जाते कि वह किसी अपराधी को पकड़ने के लिए बाहर जा सके?’

यह अकेला उदाहरण नहीं. सब इंस्पेक्टर अजय राज पांडे के मुताबिक संसाधनों से जुड़ी दिक्कतें कई मोर्चों पर हैं. वे कहते हैं, ‘यदि कोई दरोगा या सिपाही किसी मुल्जिम को पकड़कर थाने लाता है तो मुल्जिम की खुराक का जिम्मा थाने का होता है. पूछताछ के बाद 24 घंटे में उसे न्यायालय में पेश करना होता है.  24 घंटे यदि मुल्जिम को थाने में रखा गया तो दो बार खाना तो खिलाना ही पड़ेगा. इसमें एक मुल्जिम पर कम से कम 40-50 रुपये खर्च हो जाते हैं. जबकि सरकार की ओर से हवालात में बंद होने वाले मुल्जिम की एक समय की खुराक पांच रुपये ही निर्धारित है. ऐसे में पुलिसकर्मी या तो अपनी जेब से 30-35 रुपये एक मुल्जिम पर खर्च करें या थाने के आसपास के किसी ढाबेवाले पर रौब गालिब कर फ्री में खाना मंगवा कर मुल्जिम को खिलाएं. पुलिस यदि फ्री में खाना मंगवाती है तो कहा जाता है कि वह वसूली कर रही है.  लेकिन अपने पास से खाना खिलाएंगे तो कितना वेतन घर जा पाएगा? इसके अलावा सब इंस्पेक्टर को गश्त के लिए सरकार की ओर से मात्र 350 रुपये महीना ही भत्ते के रूप में मिलता है. जिससे सिर्फ सवा छह लीटर तेल ही आ सकता है. जबकि एक सब इंस्पेक्टर प्रतिदिन गश्त में कम से कम डेढ़ लीटर तेल खर्च करता है.’

विभाग का जो कर्मचारी (सिपाही) सबसे अधिक भागदौड़ करता है उसे ईंधन के लिए एक रुपया भी नहीं मिलता. जैसा कि पांडे कहते हैं, ‘सिपाही को आज भी साइकिल एलाउंस ही मिलता है. यह हास्यास्पद है कि अपराधी एक ओर हवा से बातें करने वाली तेज रफ्तार गाड़ियों का इस्तेमाल कर रहे हैं और दूसरी ओर अधिकारी व सरकार इस बात की उम्मीद करते हैं कि सिपाही साइकिल से दौड़ कर हाइटेक अपराधियों को पकड़े. नाम न छापने की शर्त पर पुलिस के स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप (एसओजी) में तैनात एक कांस्टेबल बताते हैं कि अधिकारियों से लेकर दरोगा तक का दबाव होता है कि सिपाही भी ‘गुडवर्क’ लाकर दे. वे कहते हैं, ‘गुडवर्क के लिए गली-मोहल्लों की खाक छाननी पड़ती है जो साइकिल से संभव नहीं है. थाने में तैनात एक सिपाही भी गश्त के दौरान करीब 45 लीटर तेल महीने में खर्च कर देता है, जबकि उसे मिलता एक धेला भी नहीं. थानों में तैनात कुछ सरकारी मोटरसाइकलों को ही महीने में विभाग की ओर से तेल मिलता है. लेकिन इनसे केवल 8-10 सिपाही ही गश्त कर सकते हैं, शेष को अपने साधन से ही गश्त पर निकलना पड़ता है. ऐसे में नौकरी करनी है तो जेब से तेल भरवाना मजबूरी है.’ इसके अलावा पुलिस विभाग का सूचना-तंत्र काफी हद तक स्थानीय मुखबिरों पर ही निर्भर होता था. लेकिन चूंकि मुखबिरों को देने के लिए विभाग के पास अपना कोई फंड नहीं होता इसलिए अच्छे मुखबिर मिलना अब मुश्किल होता है. वही व्यक्ति अब पुलिस को सूचना देने में रुचि रखता है जिसका अपना कोई स्वार्थ हो.

पिछले वर्ष पुलिस विभाग से रिटायर हुए इंस्पेक्टर नरसिंह पाल बताते हैं, ‘कोई भी भ्रष्टाचार का आरोप बड़ी आसानी से लगा देता है, लेकिन भ्रष्टाचार के पीछे कारण क्या है, इसे जानने की कोशिश न तो अधिकारियों ने कभी की और न ही किसी सरकार ने. चाहे जिसका शासन हो, सबकी मंशा यही होती है कि अधिक से अधिक अपराधियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई हो. ठीकठाक अपराधियों पर एनएसए लगाने के लिए अधिकारियों का दबाव भी होता है. एक एनएसए लगाने में थानेदार का करीब तीन चार हजार रुपये खर्च हो जाता है. इस खर्च में 100-150 पेज की कंप्यूटर टाइपिंग, उसकी फोटो कॉपी, कोर्ट अप्रूवल और डीएम के यहां की संस्तुति तक शामिल होती है. पुलिस विभाग तक की फाइल जब सरकारी कार्यालयों में जाती है तो बिना खर्चा-पानी दिए काम नहीं होता. यह खर्च भी थानेदार को अपनी जेब से देना पड़ता है.’

पूर्वी उत्तर प्रदेश में तैनात एक डीआईजी कहते हैं, ‘विभाग में हर कदम पर कमियां हैं. योजनाओं को ही लीजिए. सरकार योजना शुरू तो कर देती है लेकिन उसे चलाने के लिए भविष्य में धन की व्यवस्था कहां से होगी इस बारे में नहीं सोचती.’ उक्त डीआईजी एक उदाहरण देते हुए बताते हैं कि सरकार की ओर से प्रदेश भर के थानों को कंप्यूटराइज्ड कराने के लिए बड़ी तेजी से काम हुआ. जिन थानों में ठीक-ठाक कमरों की व्यवस्था तक नहीं थी उन जगहों पर थाना प्रभारी ने अधिकारियों के दबाव में किसी तरह व्यवस्था कर कंप्यूटर लगवाने के लिए कमरे दुरुस्त कराए. लेकिन कंप्यूटरों के रखरखाव के लिए कोई बजट नहीं मिला. मतलब साफ है, यदि कंप्यूटर में कोई खराबी आती है तो थानेदार या मुंशी अपनी जेब से उसे सही करा कर सरकारी काम करें. उक्त डीआईजी कहते हैं, ‘सूचना क्रांति का दौर है, हर अधिकारी चाहता है कि उसके क्षेत्र में कोई भी घटना हो, सिपाही या दारोगा उसे तत्काल मोबाइल से अवगत कराएं. लेकिन समस्या यह है कि पुलिस कर्मियों को मोबाइल का बिल अदा करने के लिए एक रुपया भी नहीं मिलता. थानों में स्टेशनरी का बजट इतना कम होता है कि यदि कोई लिखित शिकायत थाने में देना चाहता है तो मजबूरी में मुंशी पीड़ित से ही कागज मंगवाता है और उसी से फोटोस्टेट भी करवाता है. कभी-कभी मुंशी यह सुविधाएं अपने पास से शिकायती को दे देते हैं तो सुविधा शुल्क वसूल करते हैं. ऐसे में आम आदमी के दिमाग में पुलिस के प्रति गलत सोच पनपना लाजिमी है.’

यह तो हुई उन खर्चों की बात जिनके लिए पैसा ही नहीं मिलता. लेकिन जो पैसा पुलिसकर्मियों को अपनी सेवाओं के लिए मिलता है उसकी भी तुलना दूसरे क्षेत्रों से करने पर साफ नजर आ जाता है कि स्थिति कितनी गंभीर है. पाल कहते हैं, ‘तीसरे वेतन आयोग में प्राइमरी स्कूल के अध्यापक का वेतनमान 365 रु तथा कांस्टेबल का 364 रु था. दोनों के वेतन में मात्र एक रुपए का अंतर था. चौथे वेतन आयोग में यह अंतर 200 तथा पांचवें वेतनमान में 1450 रु का हो गया. छठे वेतनमान में पुलिस विभाग का सिपाही प्राइमरी स्कूल के अध्यापक से 4100 रु पीछे रह गया.’

और यह हाल तब है जब पुलिस विभाग का सिपाही हमेशा ड्यूटी पर माना जाता है और अध्यापक महज 10 से चार बजे तक ही स्कूल में रहते हैं. पुलिस कर्मचारियों को किसी त्योहार या अन्य मौकों पर भी ड्यूटी करनी पड़ती है. जबकि अन्य विभाग के कर्मचारियों को साल में 109 छुट्टियां मिलती हैं. पुलिस कर्मचारियों को 109 सरकारी छुट्टियों का नगद भुगतान भी नहीं होता. थाने में तैनात सिपाही व दरोगा की ड्यूटी कम से कम 12 घंटे की हो जाती है. चौकी प्रभारी, एसओ व इंस्पेक्टर की ड्यूटी 24 घंटे की होती है. इसके बावजूद कर्मचारियों को ओवर टाइम की कोई सुविधा नहीं है. जबकि मानवाधिकार आयोग व सुप्रीम कोर्ट भी आठ घंटे की ड्यूटी की बात कहते हैं.

काम ज्यादा, वेतन कम और ऊपर से छुट्टियों का टोटा. ऐसे में कर्मचारियों में तनाव व कुंठा आना स्वाभाविक है. लेकिन उनकी शिकायतों की कहीं सुनवाई नहीं. पाल कहते हैं, ‘. थाने की जीप को महीने में मात्र 150 लीटर डीजल मिलता है जबकि जरूरत 350 लीटर डीजल की होती है. ऐसे में यदि कोई थानेदार एसपी के पास जाकर अतिरिक्त डीजल की मांग कर बैठता है तो यही जवाब मिलता है कि थाना चलाना है तो अपने पास से मैनेज करना सीखो.’  पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘मुख्यमंत्री मायावती को अपने हाथों से केक खिलाते तत्कालीन डीजीपी विक्रम सिंह की तस्वीर पुलिस की व्यवस्था में आई विकृति का सबसे शक्तिशाली प्रतीक है. जब पुलिस का सबसे बड़ा अधिकारी ही इस तरह नतमस्तक नजर आए तो क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि कोई कांस्टेबल या सब इंस्पेक्टर किसी छुटभैये नेता की बात न मानने की हिम्मत करेगा?’ एक दूसरे वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कहते हैं, ‘ऐसे में खुद ही सोचिए कि क्या फोर्स के मन में अपने मुखिया के लिए आदर का भाव होगा. जब डीजीपी ही यह करते दिखें तो किसी कांस्टेबल या सब इंस्पेक्टर को यही लगता है कि उसकी सुनवाई कहीं नहीं होने वाली और उसे अपना मोर्चा खुद ही संभालना है. इससे फोर्स का मनोबल टूटता है.’ पूर्व डीजीपी और सुप्रीम कोर्ट में पुलिस सुधारों के लिए याचिका दायर करने वाले प्रकाश सिंह कहते हैं, ‘जब एडीजी, आईजी और डीआईजी रैंक के अधिकारी अपने राजनीतिक आकाओं की जीहुजूरी करते दिखें तो एसआई और इंस्पेक्टर रैंक के कर्मचारियों को लगता है कि  खुद को बचाना है तो सत्ताधारी पार्टी के स्थानीय एमएलए या एमपी के साथ रिश्ते बनाकर रखे जाएं. और यही असुरक्षा उन्हें अपने स्थानीय संरक्षकों के हित में काम करने के लिए मजबूर करती है.’

लखनऊ के एक थाने में तैनात कांस्टेबल रमेश कहते हैं, ‘एक पॉश कालोनी में गश्त करते हुए मैंने देखा कि चार लड़के एक कार में बैठे शराब पी रहे थे. मैंने उन्हें मना किया तो उनमें से एक कार से उतरा और उसने मुझे तीन-चार झापड़ रसीद कर दिए. मैंने पुलिस स्टेशन फोन कर और फोर्स भेजने को कहा. लेकिन कार्रवाई करने की बजाय एसओ ने मुझसे कहा कि वे उन लड़कों को जानते हैं और मैं भविष्य में सावधानी बरतूं. मैं उसी दिन मर गया था. आत्महत्या इसलिए नहीं की क्योंकि 12 साल की एक बेटी है. अब तो मेरे सामने बुरे से बुरा भी हो जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता. मैं किसी रोबोट जैसा हो गया हूं जो तभी कुछ करता है जब अधिकारी करने को कहे.’

रमेश हमें अपने आवास में ले जाते हैं. किसी दड़बे जैसी नजर आती यह जगह बहुत छोटी है और लोग बहुत ज्यादा. रमेश कहते हैं, ‘हमारे इस घर से ज्यादा जगह तो हमारी जेल में है. मगर किसे परवाह है.’ पूर्व आईजी एसएस दारापुरी कहते हैं, ‘किसी इलाके में प्रशासन कैसे काम कर रहा है इसका संकेत इससे मिल जाता है कि वहां पुलिस का क्या हाल है.’

और जो तमाम मुश्किलों के बावजूद अपना कर्तव्य निभाने की जिद पर डटे रहते हैं उनके साथ क्या होता है यह जानना हो तो शैलेंद्र सिंह एक उदाहरण हैं जिन्होंने 2004 में डिप्टी एसपी के पद से इस्तीफा दे दिया. चंदौली में जन्मे सिंह प्रदेश में नियुक्ति पाने वाले सबसे कम उम्र के सर्कल अफसरों में से एक थे. लेकिन उन्हें यह समझते देर नहीं लगी कि उत्तर प्रदेश में एक पुलिस अधिकारी होना बड़ा मुश्किल काम है. सिंह बताते हैं, ‘एक बार मुझे खबर मिली कि दो लोग अवैध रूप से 10 लाख 50 हजार रु लेकर जा रहे हैं. पूछताछ के दौरान उन्होंने माना कि वे बेसिक शिक्षा अधिकारी रमेश कुमार की तरफ से यह पैसा ले जा रहे थे जो शिक्षा मंत्री राम अचल राजभर के जरिए पार्टी फंड में जाना था. रमेश कुमार ने मुझे फोन किया और कहा कि आप गलत जगह हाथ डाल रहे हैं. खबर पुलिस मुख्यालय पहुंची तो आईजी स्तर से नीचे तक हड़कंप मच गया. उन्होंने मेरे इंस्पेक्टर को खूब लताड़ा मगर मुझसे सीधे कुछ नहीं कहा. मायावती जी उस समय

देश से बाहर थीं. मेरा एक हफ्ते में पांच बार ट्रांसफर हुआ. शाम को मैं सीबी-सीआईडी का चार्ज लेता और सुबह पता चलता कि मेरा तबादला भ्रष्टाचार निरोधक शाखा में कर दिया गया है.’

सजा देने, डर बिठाने और इस तरह पुलिस को अपने इशारों पर नचाने के लिए ऐसे तबादलों का किस खूबी से इस्तेमाल होता है यह आंकड़ों पर नजर डालने से भी साफ हो जाता है. 2007 के मध्य से 2009 के मध्य तक 95 आईपीएस अफसर ऐसे थे जिनका पांच से लेकर 11 बार तक तबादला हुआ. बरेली शहर ने इस दरम्यान 12 एसएसपी देखे. नोएडा का यह हाल है कि कोई एसपी छह महीने टिक जाए तो हैरत होने लगती है. गृह सचिव जीके पिल्लई ने कुछ समय पहले ही एक इंटरव्यू में माना था कि उत्तर प्रदेश में एक एसपी का एक जगह औसत कार्यकाल दो महीने होता है. जब शीर्ष स्तर पर ही यह हाल है तो एसएचओ और सब इंस्पेक्टरों  की स्थिति क्या होगी, अंदाजा लगाया जा सकता है. आईजीपी रैंक के एक अधिकारी व्यंग्यात्मक लहजे में कहते भी हैं, ‘सब इंस्पेक्टर, एएसआई या फिर हेड कांस्टेबल को जो एक वाक्य सबसे ज्यादा सुनने को मिलता है वह यही है कि तेरा ट्रांस्फर करवा दूंगा.’

एक पुलिसकर्मी की समस्याएं रिटायर होने के बाद भी कम नहीं होती. नौकरी के दौरान जिन जिन जगहों पर दरोगा की तैनाती रही है यदि वहां के न्यायालय में उसके द्वारा दाखिल की गई चार्जशीट या गवाही से संबंधित कोई मामला चल रहा हो तो उसे वहां जाना पड़ता है. इस काम के लिए उसे महज 15 रुपये ही खाने का सरकारी खर्च मिलता है. वह भी तब जब न्यायालय में तय तारीख पर गवाही हो जाए. कई बार गवाही किन्हीं कारणों से नहीं हो पाती. ऐसे में खाने का खर्च रिटायर पुलिसकर्मी को अपने पास से उठाना पड़ता है. यदि दारोगा न्यायालय में गवाही के लिए उपस्थित नहीं हो पाता तो उसके खिलाफ वारंट जारी हो जाता है. ऐसे में नौकरी के दौरान ये खर्चे नहीं खलते, लेकिन रिटायरमेंट के बाद यह खासा मुश्किल होता है.

प्रदेश के पूर्व डीजीपी केएल गुप्ता का आरोप है कि पूरा विभाग ही गैर योजनाबद्ध तरीके से चलता आ रहा है. वे खुलकर कहते हैं, ‘हर सरकार चाहती है कि क्राइम का ग्राफ उसके शासन में कम रहे. इसका फायदा पुलिस विभाग बखूबी उठाता है. अब सीएम का फरमान है कि क्राइम 15 परसेंट कम हो. आप बताइए उनके पास ऐसा करने के लिए कोई जादू की छड़ी तो है नहीं. इसलिए वे अपने तरीके निकालते हैं. मसलन पीड़ित की रिपोर्ट ही नहीं दर्ज की जाती. इससे पुलिसकर्मियों को दोहरी राहत मिलती है. एक तो क्राइम का ग्राफ नहीं बढ़ता, दूसरा रिपोर्ट दर्ज होने के बाद होने वाली भागदौड़ से भी राहत मिलती है क्योंकि भागदौड़ में हजारों रु खर्च होते हैं, जिसके लिए थानों के पास कोई बजट नहीं होता.’

पूर्व डीजीपी उदाहरण देते हैं कि वर्ष 1973 में प्रदेश भर के थानों में 2 लाख 75 हजार मुकदमे दर्ज हुए थे जबकि उन दिनों अपराध आज की तुलना में काफी कम था. लेकिन अब यह आंकड़ा डेढ़ लाख के आसपास सिमट गया है. यही कारण है कि थानों में सुनवाई न होने की दशा में पीड़ितों की फरियाद विभिन्न आयोगों, न्यायालयों सहित पुलिस के आला अधिकारियों के यहां बढ़ रही है. आंकड़े देख कर अधिकारी से लेकर सरकार तक खुश होती है कि अपराध कम हो रहा है, लेकिन इस तरह अपराध कम करने से अपराधियों को ही बढ़ावा मिल रहा है. अधिकारी नेताओं के कृपापात्र हैं, लिहाजा वे कर्मचारियों की मांग सरकार तक नहीं ले जा पाते. दोनों ही यह उम्मीद करते हैं कि थाने में तैनात लोग ही अपने पास से सबकुछ मैनेज करें. नौकरी बचाने के लिए थाने के लोग सबकुछ करने को मजबूर होते हैं. ऐसा नहीं कि अधिकारी उनकी हरकतों से अनभिज्ञ हैं लेकिन जानबूझकर वे भी आंखें बंद किए परंपरा को आगे बढ़ाते रहते हैं. गुप्ता कहते हैं, ‘यह सब कुछ तभी सुधरेगा जब सरकार जैसे विकास योजनाओं पर रुपये खर्च करती है उसी तरह पुलिस विभाग के सभी कामों के लिए सरकारी धन उपलब्ध कराया जाए.’

जानकारों के मुताबिक पुलिस कर्मचारियों पर लगने वाले भ्रष्टाचार के आरोपों को कम करने के लिए आईपीएस असीम अरुण ने शासन को एक प्रस्ताव भी बना कर भेजा है. जिसमें थानों की जीप का डीजल, वर्दी भत्ता, मोबाइल खर्च, मुल्जिम खुराक बढ़ाने से लेकर भवनों के मरम्मत, गुप्त व्यय सहित करीब 27 बिन्दु हैं. महीनों हो गए लेकिन यह प्रस्ताव भी अभी ठंडे बस्ते में ही है.

(बृजेश पांडे के सहयोग के साथ)

(31 अक्टूबर 2010)

क्या मनमोहन सिंह उतने ही मासूम हैं जितने दिखते हैं?

फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय
फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय

हाल ही में लीक हुई कैग की रिपोर्ट से पता चला कि रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आरआईएल) ने केजी (कृष्णा-गोदावरी) बेसिन परियोजना में गैस निकालने की लागत को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया और जमकर मुनाफा कमाने का रास्ता साफ किया. इससे सरकार को राजस्व का भारी नुकसान हुआ. लाखों करोड़ रुपयों के घोटाले के जमाने में एक और बड़े घोटाले का उजागर होना उतना आश्चर्यजनक नहीं है जितना इस बात की जानकारी होते हुए भी ‘ईमानदार’ प्रधानमंत्री का चुप रह जाना है. तहलका को मिले दस्तावेज बताते हैं कि सीएजी की रिपोर्ट में सरकार और जनता को होने वाले नुकसान की जो बात अब सामने आ रही है इसकी जानकारी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को तब भी थी जब इस नुकसान की नींव रखी जा रही थी.

सवाल यह उठता है कि क्या भ्रष्टाचार को संरक्षण देने और सब कुछ जानते हुए भी उसे रोकने के लिए कदम न उठाना ही वह ईमानदारी है जिसका प्रधानमंत्री की पार्टी और उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी रात-दिन गुणगान करते रहते हैं. आपका जवाब चाहे जो हो लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ईमानदारी की नयी परिभाषा गढ़ी है. राष्ट्रमंडल खेलों में हुए घोटाले से लेकर स्पेक्ट्रम घोटालों तक हर बार संकेत मिले कि प्रधानमंत्री को अनियमितता और उससे सरकारी खजाने को होने वाले नुकसान के बारे में अंदेशा था. लेकिन प्रधानमंत्री ने अपनी कार्यशैली की पहचान बन चुकी ‘चुप्पी’ को सबसे कारगर हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और चारों ओर से जमकर लूटे जा रहे खजाने को लुटने दिया. अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री या तो आर्थिक नुकसानों को समझ नहीं सके या फिर उन्होंने इस ओर ध्यान देना ही उचित नहीं समझा.

गैस की आड़ में सरकारी खजाने को लूटने का यह खेल तब शुरू हुआ जब कुछ साल पहले देश में तेल और गैस की खोज के लिए केंद्र सरकार ने देश-विदेश की कंपनियों से आवेदन आमंत्रित किए. इसके बाद कुल 162 ब्लॉकों में तेल और गैस खोजने का ठेका कंपनियों को दिया गया जिनमें आरआईएल भी शामिल थी. आरआईएल ने कनाडा की कंपनी निको रिसोर्सेज लिमिटेड के साथ मिलकर केजी बेसिन के डी-6 ब्लॉक में गैस की खोज करके उत्पादन शुरू कर दिया.

गैस उत्पादन और इसे बेचने की शर्तों को तय करने के लिए आरआईएल और केंद्र सरकार के बीच एक समझौता भी हुआ. इस समझौते के मुताबिक कंपनी को 2.47 अरब डॉलर की लागत लगाकर डी-6 से 40 एमएमएससीएमडी गैस का उत्पादन करना था. इसी समझौते में एक प्रावधान यह भी था कि गैस बेचने से होने वाली आमदनी में सरकार को तब तक हिस्सा नहीं मिलेगा जब तक आरआईएल इस पर होने वाले खर्च को पूरी तरह वसूल नहीं कर लेगी. इससे एक बात स्पष्ट थी कि आरआईएल की लागत जितनी ज्यादा होगी सरकार की आमदनी उतनी ही कम हो जाएगी. अगर कंपनी अपने खर्चे को कृत्रिम रूप से बढ़ा सकती हो तो सरकार का नुकसान उसका फायदा बन जाएगा. इसके बाद गैस के अकूत भंडार को देखते हुए कंपनी ने साल 2006 में सरकार के पास एक संशोधित प्रस्ताव भेजा. इस प्रस्ताव में उत्पादन को तो सिर्फ दोगुना (80 एमएमएससीएमडी) करने की बात थी लेकिन लागत को बढ़ा कर तकरीबन साढ़े तीन गुना यानी 8.84 अरब डॉलर कर दिया गया था. खर्चे साढ़े तीन गुना बढ़ाने के इस प्रस्ताव पर कोई भी सवाल उठाए बिना सरकार ने इसे दो महीने से भी कम समय में 12 दिसंबर, 2006 को मंजूरी दे दी.

संशोधित प्रस्ताव में लागत बढ़ाकर 8.84 अरब डॉलर करने का मतलब यह हुआ कि आरआईएल-निको पहले डी-6 से इतना रकम कमाएगी और उसके बाद होने वाले मुनाफे में से सरकार को हिस्सेदारी देगी. यदि उत्पादन क्षमता बढ़ने के अनुपात में ही खर्च में भी सिर्फ दोगुने की बढ़ोतरी होती तो आरआईएल को 4.94 अरब डॉलर की कमाई के बाद से ही रॉयल्टी देनी पड़ती. बनावटी तौर पर लागत बढ़ाने से सरकार को हुए आर्थिक नुकसान के बारे में कैग ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है, ‘संशोधित प्रस्ताव के जरिए लागत में की गई बढ़ोतरी से भारत सरकार को आर्थिक नुकसान हुआ है. हालांकि, अब तक उपलब्ध जानकारियों के आधार पर हम नुकसान का आकलन नहीं कर पा रहे हैं. कंपनियों के 2008-09 के आंकड़ों के आधार पर आगे जो ऑडिट होगी उससे नुकसान का अंदाजा लग पाएगा.’ यानी कैग का इशारा स्पष्ट है कि घोटाला बड़ा है.

आरआईएल-निको द्वारा बनावटी तौर पर लागत में की गई बढ़ोतरी से और भी कई नुकसान हुए. आरआईएल और सरकारी कंपनी एनटीपीसी के बीच 2.34 डॉलर प्रति यूनिट की दर से गैस आपूर्ति का समझौता हुआ था. मगर वैश्विक बाजार में बढ़ी कीमतों और बढ़ी लागत का वास्ता देकर आरआईएल ने ऐसा करने से मना कर दिया. बाद में यह मामला अदालत और अधिकार प्राप्त मंत्रिसमूह तक पहुंचा. आरआईएल की अर्जी पर सुनवाई करते हुए इस समूह ने यह व्यवस्था दी कि कंपनी 4.2 डॉलर प्रति यूनिट की दर पर एनटीपीसी को गैस बेचेगी. इससे एनटीपीसी को बिजली उत्पादन के लिए जरूरी गैस की करीब दोगुनी रकम चुकानी पड़ेगी. इसका नुकसान देश के आम लोगों को भी उठाना पड़ेगा

क्योंकि यदि एनटीपीसी के बिजली उत्पादन की लागत बढ़ेगी तो वह उसकी कीमतें भी बढ़ाएगी.

लागत में कृत्रिम बढ़ोतरी के परिणामस्वरूप गैस की कीमतें बढ़ने के कई दूरगामी परिणाम भी हैं. इसका खामियाजा आम बिजली उपभोक्ताओं के साथ-साथ औद्योगिक कंपनियों को भी भुगतना पड़ेगा. ऐसे में बिजली के इस्तेमाल से चलने वाली औद्योगिक गतिविधियों की लागत बढ़ेगी और यहां बनने वाले उत्पाद महंगे होंगे जिसका सीधा असर महंगाई दर पर दिखेगा जिसे नियंत्रण में करने के लिए हमारे देश के प्रधानमंत्री पिछले कई महीनों से दिन-रात एक

किए हुए हैं.

डी-6 परियोजना में लागत बढ़ाने और इस वजह से गैस कीमतों में बढ़ोतरी की वजह से उर्वरकों की कीमतों में बढ़ोतरी भी तय है. कैबिनेट सचिव रहे केएम चंद्रशेखर ने गैस की कीमत तय करने के लिए बनी मंत्रियों की अधिकार प्राप्त समिति (जीओएम) को 31 पन्ने की एक रिपोर्ट भेजी थी. यह रिपोर्ट जुलाई, 2007 में सचिवों की समिति से चर्चा के बाद तैयार की गई थी. इसमें कहा गया था कि गैस की कीमतों में प्रति यूनिट एक डॉलर की बढ़ोतरी से सरकार को सब्सिडी के मद में 2,000 करोड़ रुपये अतिरिक्त खर्च करने पड़ते हैं. इसके बावजूद सरकार ने लागत में बनावटी बढ़ोतरी के आरआईएल-निको के खेल को नहीं रोका.

कैग की ड्राफ्ट रिपोर्ट तो जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है अभी हाल ही में लीक हुई है. मगर इस मामले की पड़ताल के दौरान ‘तहलका’ को जो दस्तावेज मिले हैं वे यह साबित करते हैं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को आरआईएल द्वारा सरकारी खजाने को चूना लगाने की तैयारी की जानकारी साल 2007 के मध्य में ही दे दी गई थी. लेकिन उन्होंने इस मामले में कुछ नहीं किया. तेल और प्राकृतिक गैस पर स्थायी संसदीय समिति के सदस्य और माकपा के राज्यसभा सांसद तपन सेन ने 4 जुलाई, 2007 को प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर यह बताया था कि आरआईएल केजी बेसिन से गैस निकालने की लागत कृत्रिम तौर पर बढ़ा रही है. उन्होंने अपने पत्र में लिखा, ‘आरआईएल-निको ने संशोधित प्रस्ताव में कृत्रिम तौर पर लागत बढ़ाई है. गैस की कीमतों में हो रहे उतार-चढ़ाव के मूल में यही है. इसकी जांच होनी चाहिए.’ इसी पत्र में आगे लिखा गया है, ‘आरआईएल-निको द्वारा कृत्रिम तौर पर डी-6 परियोजना की लागत बढ़ाने का सीधा असर गैस की कीमतों पर पड़ेगा. आप इस बात से सहमत होंगे कि ऐसा होने से ऊर्जा और उर्वरक क्षेत्र के लिए गैस का इस्तेमाल करना आसान नहीं रहेगा.’ सेन ने लिखा, ‘मूल प्रस्ताव को 163 दिन में डीजीएच ने मंजूरी दी, जबकि बढ़ी लागत वाले संशोधित प्रस्ताव को डीजीएच ने 53 दिन में ही मंजूरी दे दी. इससे लगता है कि मंजूरी देने में काफी जल्दबाजी की गई.’

यह महत्वपूर्ण है कि सेन महज राज्य सभा सांसद ही नहीं, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस पर संसद की स्थायी समिति के सदस्य भी हैं. इस आधार पर कहा जा सकता है कि वे पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस के मामलों में विशेषज्ञता रखते हैं.

13 जुलाई, 2007 को सेन ने प्रधानमंत्री को भेजे एक और पत्र में लिखा, ‘मेरी पिछली चिट्ठी के जवाब में प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रधान सचिव ने मुझे बताया कि मेरे द्वारा उठाए गए मामलों को पेट्रोलियम मंत्रालय के पास भेज दिया गया है. आपको मालूम हो कि 2006 के दिसंबर से ही मैं मंत्रालय के सामने आरआईएल द्वारा लागत में बनावटी बढ़ोतरी का मामला उठाता रहा हूं लेकिन इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. इसलिए मैंने आपसे तत्काल हस्तक्षेप का अनुरोध किया था. मेरी मांग है कि इस मामले की स्वतंत्र जांच कराई जाए.’ मगर प्रधानमंत्री कार्यालय ने सेन के पत्र को एक बार फिर पेट्रोलियम मंत्रालय के पास भेज दिया.

कैग की ड्राफ्ट रिपोर्ट में पूरी गड़बड़ी के लिए पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय को दोषी ठहराया गया है. प्रधानमंत्री को पत्र लिखने से पहले सेन ने पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री मुरली देवरा को पांच पत्र लिखे थे. देवरा ने सेन को दो जवाबी पत्र भी लिखे. इसके बाद सेन के पास हाइड्रोकार्बन महानिदेशक (डीजीएच) को भेजा गया. सेन बताते हैं, ‘डीजीएच की तरफ से परियोजना लागत में बढ़ोतरी को सही ठहराने की भरसक कोशिश की गई. उन्होंने कहा कि डीजल आदि की कीमतों में काफी बढ़ोतरी हो गई है, इसलिए परियोजना की लागत काफी बढ़ गई है.’ सेन और डीजीएच की मुलाकात के बाद देवरा ने एक और पत्र लिखकर सेन को बताया कि डी-6 परियोजना की जांच का काम सक्षम एजेंसी को सौंप दिया गया है. डीजीएच की तरफ से जांच का काम पेट्रोलियम और गैस मामलों के जानकार पी. गोपालकृष्णन और इंजीनियरिंग कंसल्टेंट मुस्तांग इंटरनेशनल का सौंपा गया. इन्होंने भी सरकार की हां में हां मिलाते हुए कहा कि डी-6 परियोजना पर होने वाला खर्च वाजिब है.

12 दिसंबर, 2006 को राज्य सभा में आरआईएल द्वारा खर्च बढ़ाए जाने के मामले को सेन ने सबसे पहले उठाया था. इसके जवाब में केंद्रीय पेट्रोलियम राज्य मंत्री दिनशा पटेल का कहना था, ‘डी-6 से गैस निकालने वाली कंपनियों के समूह यानी आरआईएल और निको ने सरकार को संशोधित योजना का प्रारूप सौंपा है. इसके मुताबिक उत्पादन क्षमता को दोगुना किया जाना है और लागत 2.47 अरब डॉलर से बढ़कर 8.84 अरब डॉलर होने की बात कही गई है.’ 21 दिसंबर, 2006 को मुरली देवरा को लिखे पत्र में सेन ने कहा, ‘राज्य सभा में मेरे सवाल के जवाब में जो जानकारी दी गई उससे ऐसा लग रहा है कि परियोजना लागत को कृत्रिम रूप से बढ़ाने (गोल्ड प्लेटिंग) का काम चल रहा है. समझौते के मुताबिक कंपनी मुनाफा सरकार के साथ साझा करने से पहले अपनी लागत वसूलेगी.’ उन्होंने इसी पत्र में आगे लिखा, ‘अगर लागत को कृत्रिम रूप से बढ़ाने की बात सही निकलती है तो इससे सरकार को काफी घाटा होगा. इसलिए इस मामले की जांच करवाई जाए.’ मगर इसी दौरान

डीजीएच ने आरआईएल-निको की परियोजना की लागत बढ़ाने वाले प्रस्ताव को मंजूरी दे दी.

25 जनवरी, 2007 को सेन ने देवरा को फिर से एक पत्र लिखा. इसमें उन्होंने पूछा, ‘आखिर बगैर जांच कराए आरआईएल-निको के प्रस्ताव को कैसे मंजूरी मिल गई? मैंने अपने पिछले पत्र में ही संशोधित प्रस्ताव की खामियों की बात उठाई थी. मेरी मांग है कि इस मामले में कोई और फैसला लेने से पहले सरकार मामले की जांच करे और डीजीएच के फैसले पर पुनर्विचार करे.’

इसके बाद सेन ने एक के बाद एक तीन पत्र प्रधानमंत्री को लिखे जिनका क्या हश्र हुआ, हम पहले ही जान चुके हैं. ये पत्र उन्हीं मुरली देवरा के पास भेज दिए गए जिनके मंत्रालय के बारे में कैग की ड्राफ्ट रिपोर्ट में कहा गया है कि पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस मंत्रालय और डीजीएच ने निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाया.

हाल ही में अखबारों के संपादकों के साथ बातचीत में प्रणब मुखर्जी के दफ्तर की जासूसी कराए जाने के बारे में प्रधानमंत्री का कहना था, ‘मुखर्जी की तरफ से मुझे शिकायत मिली थी. इसके बाद मैंने इंटेलीजेंस ब्यूरो (आईबी) को जांच के लिए कहा था. जांच के बाद आईबी ने बताया कि जासूसी का कोई प्रमाण नहीं है. जांच के आदेश की जानकारी गृहमंत्री को नहीं थी.’ अजब बात है. एक तरफ तो वित्त मंत्रालय में जासूसी से जुड़े मामले की जानकारी प्रधानमंत्री जांच करने वाले विभाग के मुखिया यानी गृहमंत्री चिदंबरम तक को नहीं देते हैं. वहीं दूसरी तरफ पेट्रोलियम मंत्रालय की मिलीभगत से लूटे जा रहे खजाने की

लगातार खबर देने वाली चिट्ठियों को वे उचित कार्रवाई के लिए उसी मंत्रालय को भेज देते हैं.

जाहिर है, प्रधानमंत्री जी इतने मासूम नहीं हैं. अपनी तमाम शिकायतों का हश्र सेन ‘तहलका’ को कुछ इस तरह बताते हैं, ‘प्रधानमंत्री को मैंने तीन चिट्ठी लिखी. उन्हें पूरी स्थिति से अवगत कराया. पर कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला. प्रधानमंत्री चुप्पी साधे रहे.’ इससे लगता है कि अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को आरआईएल द्वारा देश को पहुंचाए जाने वाला आर्थिक नुकसान या तो दिखा नहीं या फिर उन्होंने आंखें मूंद लीं. इसका नतीजा यह हुआ कि लूट जारी रही और शायद आगे भी जारी रहने वाली है.

मुरली देवरा को मंत्रिमंडल से हटाए जाने की मांग के संदर्भ में सेन कहते हैं, ‘सिर्फ देवरा क्यों? मैंने प्रधानमंत्री को तीन पत्र लिखे. उन्होंने भी कुछ नहीं किया. इसलिए गड़बड़ी की जिम्मेदारी तो प्रधानमंत्री को भी लेनी पड़ेगी.’ सेन के वक्तव्य के आधार पर एक वाजिब सवाल यह उठता है कि भारतीय कानून के तहत अपराधियों को संरक्षण देने वाले को भी अपराध का दोषी माना जाता है. ऐसे में आरआईएल को भ्रष्टाचार करने देने के लिए मुरली देवरा समेत प्रधानमंत्री को भी क्यों नहीं दोषी माना जाना चाहिए?

अब अगर इससे थोड़ा पहले जाएं तो जब 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला उजागर हुआ था तब भी पहले तो सरकार ने इसे घोटाला ही मानने से इनकार कर दिया था. बाद में कैग की रिपोर्ट आई जिसमें कहा गया कि स्पेक्ट्रम आवंटन में दूरसंचार मंत्री रहे ए राजा के फैसलों की वजह से सरकार को 1.76 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है. काफी हो-हल्ले के बाद प्रधानमंत्री ने मुंह खोला और कहा कि उन्हें इतनी बड़ी गड़बड़ी के बारे में पता नहीं था. पर जनता पार्टी के नेता सुब्रमण्यम स्वामी समेत कुछ और लोगों ने उन पत्रों को सार्वजनिक कर दिया जो प्रधानमंत्री को इस गड़बड़ी के बारे में आगाह करते हुए लिखे गए थे. धीरे-धीरे सार्वजनिक होती सूचनाओं ने यह साबित कर दिया कि स्पेक्ट्रम आवंटन के नाम पर जो लूट हुई उसे प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री समय रहते रोक सकते थे.

स्पेक्ट्रम घोटाला उजागर होने पर सरकार ने कहा कि पहले आओ और पहले पाओ के आधार पर स्पेक्ट्रम आवंटित करके सरकार ने कोई गलती नहीं की. यह नीति तो अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने लागू की थी. हमने तो सिर्फ इस नीति का पालन किया. गैस मामले में भी पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी का कहना है कि जिस नीति के तहत आरआईएल को गैस की खोज और उत्पादन का ठेका मिला वह भाजपा की अगुवाई वाली सरकार ने 1999 में तैयार की थी. जाहिर है, उन नीतियों का पालन करने की बात कहकर सरकार पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रही है. अगर सरकार को यह लगा कि पुरानी नीति में कोई

गड़बड़ी है तो उसके पास उन नीतियों की खामियों को दूर करने का विकल्प था. पर ऐसा नहीं किया गया. साफ है कि मामला नीति में खामी का नहीं बल्कि नीयत में खोट का है.

ए राजा के इस्तीफे के बाद दूरसंचार मंत्रालय संभालने वाले कपिल सिब्बल ने कहा था कि कैग ने अपनी रिपोर्ट में आर्थिक नुकसान की गलत व्याख्या की है और सही मायने में सरकार को स्पेक्ट्रम आवंटन में कोई नुकसान ही नहीं हुआ. पर जैसे-जैसे मामला उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर आगे बढ़ा, वैसे-वैसे घोटाले की परतें एक-एक कर खुलती गईं. अब केजी बेसिन मामले में भी वही कहानी दोहराई जा रही है. केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी को इस मामले में कोई गड़बड़ी ही नहीं दिख रही. कपिल सिब्बल कैग के औचित्य पर ही सवाल उठा रहे हैं. वहीं प्रधानमंत्री केजी बेसिन मामले में कैग की ड्राफ्ट रिपोर्ट पर कहते हैं, ‘मैंने पूरी रिपोर्ट नहीं पढ़ी है. इससे पहले कभी कैग ने किसी नीतिगत मामले में टिप्पणी नहीं की थी. कैग को संविधान के तहत तय दायरे में ही काम करना चाहिए.’ प्रधानमंत्री ने कहा कि निर्णय लेते वक्त हमें बहुत कुछ पता नहीं होता और अगर देश को प्रगति करनी है तो इस बात को संसद, कैग और मीडिया को समझना चाहिए.’ क्या इसका मतलब यह है कि प्रगति के लिए लूट जरूरी है और इसके खिलाफ किसी को भी नहीं बोलना चाहिए, चाहे वह कैग ही क्यों न हो.

2जी मामले में प्रधानमंत्री ने गठबंधन की मजबूरियों का हवाला देकर जानते-बूझते की गई देरी को जायज ठहराने की कोशिश की थी. यही बात दयानिधि मारन के बारे में भी कही जा सकती है. लेकिन देवरा के मामले में तो प्रधानमंत्री के पास यह बहाना भी नहीं है. वे कांग्रेस के ही मंत्री हैं. हां, इसमें प्रधानमंत्री की दूसरी तरह की मजबूरी हो सकती है. विकीलीक्स की मानें तो अमेरिका को खुश करने के लिए देवरा को पेट्रोलियम मंत्रालय दिया गया था. अब प्रधानमंत्री यह जरूर कह सकते हैं कि यदि देवरा के खिलाफ कार्रवाई की गई तो इससे अमेरिका के साथ हमारे रिश्तों पर असर पड़ेगा. यह विडंबना ही है कि देश का मुखिया लुटेरों और उनके सहयोगियों के ‘ईमानदार’ मुखिया में तब्दील हो गया है. तपन सेन कहते हैं, ‘इस सरकार को कॉरपोरेट ताकतों ने बंधक बना लिया है और उन्हीं के हितों के पोषण के लिए यह सरकार काम कर रही है. हम इस मसले को संसद के मानसून सत्र में जोर-शोर से उठाने जा रहे हैं. प्राकृतिक संसाधनों की लूट हर हाल में बंद होनी चाहिए.’

इस बीच खबर है कि कैग की ड्राफ्ट रिपोर्ट को आधार बनाकर सीबीआई ने इस मामले की जांच शुरू कर दी है. कहा जा रहा है कि जल्द ही सीबीआई पूर्व डीजीएच वीके सिब्बल, पेट्रोलियम मंत्रालय के अधिकारियों और इस मामले में संदेह के घेरे में आ रहे लोगों को तलब करने वाली है. जाहिर है कि इसमें आरआईएल के अधिकारी भी शामिल होंगे. सीबीआई से जो जानकारी मिल रही है उसके मुताबिक वह इन लोगों को तलब करने से पहले उस जवाब का इंतजार कर रही है जो तेल मंत्रालय द्वारा कैग को दिया जाना है. सीबीआई ने तेल मंत्रालय और डीजीएच से वे सारे दस्तावेज मांगे हैं जिनके आधार पर डी-6 के संशोधित प्रस्ताव को मंजूरी दी गई. तेल मंत्रालय जवाब देने में जितनी देर लगाएगी उतना ही समय कैग को अंतिम रिपोर्ट तैयार करने में लगेगा.

कहा तो यह भी जा रहा है कि तेल मंत्रालय देरी इसलिए लगा रही है ताकि कैग की अंतिम रिपोर्ट संसद का सत्र चलने के दौरान न आ पाए और सरकार की किरकिरी कम हो.

(15 जुलाई 2011)

महान लोकतंत्र की सौतेली संतानें

फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय
फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय

सोनभद्र को देखकर पहली नजर में ही लगता  है मानो यहां कोई लूट मची हो. वाराणसी-शक्तिनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर ट्रकों का तांता कभी नहीं टूटता. मन में सवाल उठता है कि आखिर सोनभद्र में यह आपाधापी मची क्यों है? जवाब सीधा है. सोनभद्र का वरदान ही उसका अभिशाप बन गया है. यहां असीमित मात्रा में कोयला था, पानी था, बॉक्साइट था. जैसे ही इन संसाधनों की हवा दुनिया को लगी यही ­­­खजाना पूरे इलाके के जंगल, जमीन, जानवर और जनजीवन के लिए  विनाश का सबब बन गया.

1970 के आस-पास इलाके में काले सोने की प्रचुर मात्रा की भनक लगते ही सोनभद्र में रिहंद बांध के बाद रुक चुके विस्थापन ने एक बार फिर से गति पकड़ ली. उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड (यूपीआरवीयूएनएल), एनटीपीसी, हिंडाल्को की रेणुसागर ऊर्जा परियोजना, लैंको अनपरा पॉवर प्राइवेट लिमिटेड समेत तमाम छोटी-बड़ी कंपनियों ने यहां कोयले से बनने वाली तापीय ऊर्जा इकाइयां स्थापित करनी शुरू कीं. इसी के साथ विस्थापन के मानकों की अनदेखी, पुनर्वास में हीला-हवाली और पर्यावरण की धज्जियां उड़ाने का एक ऐसा कुचक्र भी शुरू हुआ जिसका अंत निकट भविष्य में तो दिखाई नहीं देता.

भारत सरकार के एक आकलन के मुताबिक सोनभद्र और इससे सटे मध्य प्रदेश के सिंगरौली इलाके में चल रहे, निर्माणाधीन और प्रस्तावित 20 से भी ज्यादा तापीय ऊर्जा संयंत्रों के लिए यहां अगले 100 वर्षों तक के लिए पर्याप्त मात्रा में कोयला मौजूद है. यही वजह है कि इस साल के अंत तक लैंको की अनपरा इकाई उत्पादन शुरू कर देगी, यूपीआरवीयूएनएल के तहत आने वाले अनपरा थर्मल पॉवर स्टेशन (एटीपीएस) की ‘डी’ इकाई निर्माणाधीन है, ‘ई’ के लिए सरकार ने हरी झंडी दे दी है. सिंगरौली में भी अगले कुछ सालों में  रिलायंस, एस्सार और जेपी समेत कई निजी कंपनियों के ऊर्जा संयंत्र अस्तित्व में आ जाएंगे.

इसका खामियाजा यहां का आम आदमी उठा रहा है. वह आम आदमी जिसके घरों और खेतों पर ये परियोजनाएं खड़ी हैं या खड़ी होने वाली हैं. विस्थापन दर विस्थापन झेल रहे इन लोगों की चिंता न तो सरकारों को है और न ही यहां की हवा, पानी में जहर घोल रही कंपनियों को. अगर ये लोग इसके खिलाफ विरोध का मोर्चा बुलंद करते हैं तो इन्हें सरकारी दमन झेलना पड़ता है. एटीपीएस की निर्माणाधीन ‘डी’ इकाई के पास 17 मार्च से अनशन कर रहे विस्थापितों से अब तक किसी अधिकारी ने बात तक  नहीं की है. यहां हमारी बड़ी संख्या में ऐसे अदिवासी और दलितों से मुलाकात होती है जिन्हें फर्जी या फिर छोटे-मोटे मामलों (मसलन जंगल से लकड़ी बीनना) में गंभीर धाराएं लगाकर फंसा दिया गया है. परशुराम, नौघाई, बिरजू बैगा,रामदुलारे, देवकुमार, पूरन समेत ऐसे तमाम लोग हैं जो गुंडा एक्ट जैसी संगीन धाराओं में फंसे कोर्ट-कचहरी के चक्कर काट रहे हैं. धरना-स्थल पर मौजूद रामबली जो खुद भी ऐसे ही एक मामले में आरोपित हैं, बेहद गुस्से में कहते हैं, ‘जमाने से हम लोग इन्हीं जंगलों से अपना गुजारा चला रहे थे. आज एक दातून तोड़ लेने पर भी हमारे ऊपर गुंडा एक्ट लगा दिया जाता है. सरकार इलाके के नक्सलियों के पुनर्वास पर तो करोड़ों रुपया  खर्च कर रही है और हमें नक्सली बनने के लिए मजबूर किया जा रहा है.’ 22 वर्षीय अरविंद गुप्ता का मामला इसकी एक मिसाल है. एटीपीएस में मजदूरी करने वाले अरविंद 27 जून, 2008 को अपनी ड्यूटी पर गए थे. शाम को लौटे तो पुलिस ने उन्हें यह कहते हुए गिरफ्तार कर लिया कि एटीपीएस के ठेकेदारों और अनपरा डिबुलगंज के ग्रामीणों के बीच हुई मारपीट की एक घटना में वे भी शामिल थे. अरविंद पर अब कई गैर जमानती धाराओं के तहत मामला चल रहा है.

विस्थापन
सोनभद्र में विस्थापन की शुरुआत 1958 में रेणु नदी पर प्रस्तावित रिहंद बांध के चलते शुरू हुई. उस परियोजना में कुल 116 गांवों को रिहंद के डूब क्षेत्र में घोषित किया गया था. इसके बाद देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों में वर्णित रहस्य, तिलिस्म और तंत्रमंत्र वाले इस इलाके में विस्थापन की जो काली छाया पड़ी वह आज तक लोगों की जिंदगी को नर्क बनाए हुए है. रिहंद बांध की स्थापना के वक्त देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने विकास के  नाम पर लोगों से बलिदान की अपील की थी. उस समय सभी किसानों की जमीन का लगान एक रुपया सालाना मानकर उन्हें तीस गुना मुआवजा यानी 30 रुपए दिए गए साथ ही हर परिवार को सोन के ऊपरी जंगलों में 10 बीघा तक जंगल काटकर खेती करने की छूट भी दी गई.

लोग नई जगहों पर अपनी जड़ें जमा ही रहे थे कि 70 के दशक में यहां तापीय ऊर्जा कंपनियों ने दस्तक दी. 1975 में एनटीपीसी ने शक्तिनगर में 2,000 मेगावॉट का संयंत्र लगाना शुरू किया. 1980 आते-आते यूपीआरवीयूएनएल ने अनपरा में 1,630 मेगावाट की योजना शुरू कर दी जिसके तहत इलाके में कई चरणों में ऊर्जा संयंत्र लगने थे. इसके बाद तो परियोजनाओं का जैसे तांता-सा लग गया.

एक तरफ परियोजनाएं स्थापित हो रही हैं और दूसरी तरफ स्थानीय लोग बार-बार अपनी जड़ों से उखड़ रहे हैं. और ऐसा भी नहीं कि उन्हें इस विस्थापन का कोई अतिरिक्त फायदा पहुंच रहा हो. ज्यादातर लोगों का न तो ठीक से पुनर्वास हो रहा है न ही उन्हें नौकरियों में मौका दिया जा रहा है. बेलवादाह, ममुआर, निमियाडाढ़, पिपरी, चिल्काडाढ़, औड़ी आदि पुनर्वास बस्तियों में कोई भी परिवार ऐसा नहीं है जिसने कम से कम दो बार विस्थापन की त्रासदी न झेली हो. रिहंद से विस्थापित होकर कोटा, अनपरा में जमने की कोशिश कर रहे लोगों को एनटीपीसी और यूपीआरवीयूएनएल ने फिर से विस्थापित किया तो ये लोग अनपरा, चिल्काडाढ़ जैसे इलाकों में बस गए. इन इलाकों में बसीं बस्तियां हिटलर के यातना शिविरों की तरह एक सीधी रेखा में बसी हैं जहां जनसुविधाएं तो दूर तमाम मूलभूत तकनीकी पहलुओं की भी घोर उपेक्षा नजर आती है.

डिबुलगंज विस्थापन बस्ती को ही लें. यहां घुसते ही नाक सड़ांध से भर उठती है. बस्ती और अनपरा पॉवर प्लांट के बीच में सिर्फ एक चहारदीवारी है. मानकों के मुताबिक कोई भी रिहाइशी क्षेत्र संयंत्र से कम से कम दो किलोमीटर दूर होना चाहिए. खुद अनपरा पॉवर की अपनी रिहाइशी कॉलोनी संयंत्र से दो किलोमीटर दूर स्थित है. यह एहतियात इसलिए ताकि संयंत्र से निकलने वाली भयंकर आवाज और चिमनियों से निकलने वाले धुएं के दुष्प्रभाव से लोगों को दूर रखा जा सके. लेकिन जिन लोगों की जमीनों पर यह परियोजना खड़ी है, लगता है उनके जीवन से कंपनी को कोई वास्ता नहीं है. इसी बस्ती में झारखंड और उड़ीसा से आए 3,000 के करीब दिहाड़ी मजदूर भी दड़बेनुमा कमरों में रहते हैं.

पिपरी, बेलवादाह जैसे गांवों के जो लोग इस विस्थापन से बच गए थे उन्हें एक दूसरी भयानक मुसीबत का सामना करना पड़ा. इन गांवों की जमीन को अनपरा और लैंको ने अपने संयंत्रों में कोयले के दहन से पैदा होने वाली राख यानी फ्लाइएश को ठिकाने लगाने के लिए चुन लिया. आज आधे से ज्यादा ऐसे गांव इस राख में डूब चुके हैं. टापू बन चुकीं पहाड़ियों पर जिन लोगों के घर और खेत हैं वे आज भूरे रंग के दलदल में पांव धंसाते हुए उन तक पहुंचते हैं. राख के इस अथाह सागर के किनारे 2-3 फुट गहरे गड्ढे खोदकर लोग पीने के लिए जहरीला पानी निकालते हैं. अनपढ़  आदिवासियों को कोई यह बताने वाला भी नहीं है कि जिस इलाके में 100 फुट की गहराई तक पानी उपलब्ध नहीं है वहां 3-4 फुट के गड्ढे से पानी कैसे आ रहा है?

अनपरा थर्मल पॉवर स्टेशन (एटीपीएस) ने यहां के पीड़ितों को एक लाख रुपए का नगद मुआवजा और नौ सदस्यों पर एक प्लॉट देने का वादा किया था. लेकिन बेलवादाह के ग्राम प्रधान हरदेव सिंह बताते हैं, ‘शुरुआत में इन्होंने 423 लोगों को प्लॉट देने की घोषणा की थी. इसमें हेराफेरी की गई थी. हम लोगों ने जब विरोध किया तो कंपनी ने 1996 में इसमें 272 और नाम शामिल किए. लेकिन अब तक सिर्फ 84 लोगों को ही प्लॉट मिले हैं.’

एनटीपीसी द्वारा बसाई गई विस्थापन बस्ती चिल्काडाढ़ की हालत और भी बदतर है. इस बस्ती से महज 500 मीटर की दूरी पर एनसीएल की बीना कोयला खदान स्थित है. एनसीएल चिल्काडाढ़ को बसाने का विरोध कर रही थी लेकिन एनटीपीसी ने उनकी एक न सुनते हुए वहां 16 गांवों के करीब 500 परिवारों को बसा दिया. मुसीबत तब शुरू हुई जब एनसीएल ने इस गांव के चारों तरफ अपना ओबी (ओवर बर्डेन यानी कोयला खदानों की ऊपरी परत) डालना शुरू कर दिया. देखते ही देखते गांव के चारों तरफ नकली पहाड़ खड़े हो गए. इनसे चौबीसों घंटे धूल उड़-उड़ कर चिल्काडाढ़ बस्ती पर गिरती रहती है. और बीना कोयला खदान में हर दिन होने वाले विस्फोट से यह पूरा इलाका थर्रा उठता है.

चिल्काडाढ़वासियों पर विस्थापन की तलवार लगातार लटक रही है. एनसीएल का कहना है कि उनकी जमीन के नीचे भारी मात्रा में कोयले और गैस का भंडार है. सोनभद्र और सिंगरौली इलाके में लंबे समय से सृजन लोकहित समिति नाम का एक संगठन चला रहे अवधेश कुमार एक पुरानी घटना याद करते हुए कहते हैं, ‘1986 में एनसीएल के बुलडोजरों ने पूरे गांव को घेर लिया था. एनसीएल किसी भी कीमत पर इस जमीन पर कब्जा करना चाहती थी. उस वक्त गांव के सभी पुरुष फरार हो गए थे. महिलाओं ने आकर मोर्चा संभाल लिया था. वे बुलडोजर के सामने अपने बच्चों के साथ लेट गईं. इस तरह से एक और विस्थापन टल गया था.’ पर सवाल है कब तक?

विस्थापन का एक सच यह भी है कि जिस भूमि पर विस्थापितों को बसाया जाता है उसका मालिकाना हक संबंधित कंपनी के पास ही रहता है. विस्थापितों की बस्ती भी परियोजना की भूमि के दायरे में आती है. लंबे समय से विस्थापितों की लड़ाई लड़ रहे यूपीटीयूवीएन (ऊर्जांचल पंचायत ट्रेड यूनियन एंड वॉलंटरी एक्शन नेटवर्क) के सदस्य जगदीश बैसवार बताते हैं, ‘जमीन पाने वाला विस्थापित न तो कहीं जा सकता है और न ही जमीन बेच सकता है. परियोजना की भूमि होने के नाते इस जमीन के आधार पर कोई  बैंक  कर्ज भी नहीं देता.’

ताक पर पर्यावरण
अनपरा और इसके आस पास स्थित लगभग सभी थर्मल पॉवर प्लांट पर्यावरणीय मानकों की खुलेआम धज्जी उड़ाने में लगे हुए हैं. अनपरा थर्मल पॉवर स्टेशन के राख निस्तारण क्षेत्र बेलवादाह और पिपरी गांव के किनारे-किनारे घूमते हुए हम उस हिस्से में पहुंचते हैं जहां इस फ्लाइएश साइट को रिहंद जलाशय से अलग करने के लिए बांध बना हुआ है. बांध के आखिरी छोर पर पहुंचने पर हमें प्रवेश निषेध का बोर्ड दिखता है और उसके पीछे झाड़ियां नजर आती हैं. सरसरी तौर पर यह प्रतीत होता है कि इसके आगे कुछ भी नहीं है. लेकिन थोड़ा और आगे बढ़ने पर लगभग 50 मीटर चौड़ा कंक्रीट का एक विशाल नाला नजर आता है. यह नाला फ्लाइएश साइट को रिहंद के जलाशय से सीधा जोड़ देता है. एटीपीएस ने फ्लाइएश साइट के स्तर की जो अधिकतम सीमा तय की है वह वर्तमान स्तर से कम से कम 20 मीटर ऊपर है जबकि इस नाले के स्तर से फ्लाइएश का मौजूदा स्तर सिर्फ 8-9 फीट नीचे होगा. यानी साइट की अधिकतम ऊंचाई तक पहुंचने से काफी पहले ही फ्लाइएश बरास्ता इस नाले सीधे रिहंद जलाशय में जाने लगेगी. ऐसा बहुत जल्दी ही होने वाला है क्योंकि कुछ ही दिनों में लैंको पॉवर का कचरा भी इसी फ्लाइएश साइट पर गिरने वाला है?

बांध के दूसरे छोर पर जाने पर एक और ही गोरखधंधा सामने आता है. एक अंडरग्राउंड नाले के जरिए सीधे-सीधे फ्लाइएश का पानी रिहंद में डाला जा रहा है. रिहंद में जिस जगह पर यह गिर रहा है वहां पर पटी हुई फ्लाइएश साफ-साफ देखी जा सकती है. लेकिन इसके लिए पैदल ही एक पहाड़ी का चक्कर लगाकर वहां तक जाना होगा जहां यह नाला रिहंद जलाशय में खुलता है. जब हम एटीपीएस के प्रशासनिक महानिदेशक पीके गर्ग से इस संबंध में पूछते हैं तो वे ऐसे किसी नाले की जानकारी न होने की बात करते हैं. ज्यादा पूछने पर वे उस स्थान पर एक वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाए जाने की बात करते हैं और बताते हैं कि ‘ट्रीटमेंट प्लांट के लिए लखनऊ प्रस्ताव भेजा गया है. लेकिन ऐसा करने में पैसे की कमी आड़े आ रही है’ यानी जब तक प्रस्ताव पास नहीं हो जाता तब तक यूं ही ज़हरीली राख रिहंद में गिरकर लोगों की जिंदगियों से खेलती रहेगी. विडंबना यह है कि सरकार के पास ‘डी’ और ‘ई’ संयंत्र का विस्तार करने के लिए तो पैसा है पर वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट के लिए नहीं.

एटीपीएस जो काम चोरी छिपे कर रहा है वही काम हिंडाल्को की ऊर्जा उत्पादन इकाई रेणुसागर थर्मल पॉवर कंपनी लिमिटेड खुलेआम कर रही है. बिड़ला की रेणुसागर थर्मल पॉवर परियोजना भी रिहंद के जलग्रहण क्षेत्र के ठीक किनारे पर स्थित है. यहां पहुंचने पर एक और नंगा सच दिखता है. रेणुसागर संयंत्र से निकलने वाली राख का एक बड़ा हिस्सा सीधे ही रिहंद के जलग्रहण क्षेत्र में पाटा जा रहा है. इस स्थिति का संज्ञान क्यों नहीं लिया जा रहा? जब यह सवाल हम सोनभद्र के जिलाधिकारी पंधारी यादव के सामने रखते हैं तो वे तर्क देते हैं, ‘पुराने बने प्लांट अपने कचरे का निपटारा इसी तरह से करते आए हैं. प्रदूषण क्लियरेंस जैसी चीजें तो 10-15 साल पुरानी हैं. इससे पहले ऐसे ही राख का प्रबंधन होता था. अब हमने मानकों को काफी कड़ा कर दिया है. चीजें रातों-रात तो बदलेंगी नहीं.’

इसके दूसरे छोर पर गरबंधा गांव है जो कोयले की धूल में ही सांस लेने को विवश है. इस गांव के बारे में हमें कुसमहा गांव के पास स्थित वनवासी सेवा आश्रम चलाने वाली शुभा बहन बताती हैं. वहां हमने पाया कि रेणुसागर ने इस गांव की चारदीवारी पर ही अपना कोल हैंडलिंग प्लांट लगा रखा है. 24 घंटे कोयला लादते-उतारते ट्रक इस इलाके में दौड़ते रहते हैं और कोयले की धूल उड़-उड़ कर गरबंधा पर अपनी काली छाया डालती रहती है.

इसी तरह रेणुकूट के समीप जंगल में रिहंद के किनारे-किनारे करीब 2 किलोमीटर पैदल चलकर डोंगियानाला पहुंचा जा सकता है. वहां की हवा में दूर-दूर तक रासायनिक तत्वों की महक घुली हुई है. किनारों पर जमी हुई सफेद रंग की तलछट इस बात का इशारा कर रही है कि यहां का पानी साफ तो कतई नहीं है. नाले के मुहाने पर पहुंचने पर दृश्य और भी भयानक हो जाता है. रिहंद के जलग्रहण वाले क्षेत्र में रासायनिक कचरे की मोटी-मोटी परतें जमी हुई दिखती हैं. रासायनिक कचरे वाला यह पानी कनोरिया केमिकल्स लिमिटेड से आ रहा है. वहीं मुहाने पर बैठी कुछ महिलाएं उसी प्रदूषित पानी को अपनी बाल्टियों में भरकर घरेलू इस्तेमाल के लिए ले जा रही हैं. जिस पहाड़ी रास्ते से यह रासायनिक कचरे वाला पानी आता है उस रास्ते के पत्थर भी ब्लीचिंग सोडा के चलते कट-छंट गए हैं. ऐसे विषाक्त पानी में जलीयजीवन की कल्पना करना भी मूर्खता है. शुभा बहन एक बड़े खतरे का जिक्र करते हुए कहती हैं, ‘इस पूरे इलाके में जितना प्रदूषण एटीपीएस और कनोरिया कैमिकल्स फैला रहे हैं उतना ही योगदान हिंडाल्को एलुमिनियम का भी है. रिहंद से आगे जाने वाली नदी की धारा में हिंडाल्को का रेडमड (यानी लालरंग का कचरा) प्रदूषण फैला रहा है. लेकिन राजनैतिक प्रभाव के चलते जब भी प्रदूषण की बात होती है कनोरिया के कान ऐंठ कर मामला खत्म कर दिया जाता है. हिंडाल्को का नाम तक नहीं लिया जाता.’

महामारी बनती बीमारी
पर्यावरणीय मानकों की इतनी खुलेआम अनदेखी का दुष्प्रभाव मानवजीवन पर पड़ना लाजिमी है. अंतत: यही वह पैमाना है जिस पर सरकारें और व्यवस्थाएं इस बात का फैसला करती हैं कि किसी स्थान विशेष पर वास्तव में कुछ गड़बड़ है. सोनभद्र के अतिशय औद्योगीकरण वाले इलाकों में हवा, भूस्तरीय और भूगर्भीय जल बुरी तरह से प्रदूषित हो चुका है. इस इलाके में पानी का सबसे बड़ा स्रोत रहा रिहंद जलग्रहण क्षेत्र आज इस कदर प्रदूषित है कि इसका पानी पीकर बीते तीन-चार महीनों के दौरान ही 25 के करीब बच्चों की मृत्यु हो चुकी है. म्योरपुर ब्लॉक स्थित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के चिकित्सा अधीक्षक डॉ उदयनाथ गौतम बताते हैं, ‘रिहंद का पानी पीने वाले गांवों में बीते कुछ महीनों के दौरान असमय मौतों का सिलसिला शुरू हो गया है. कमरी डाढ़ गांव में अब तक 12 बच्चों की मौत हो चुकी है इसी तरह से एक गांव लबरी गाढ़ा है जहां 13 बच्चों की मृत्यु हुई है. इस संबंध में विस्तृत रिकॉर्ड सोनभद्र के मुख्य चिकित्सा अधिकारी (सीएमओ) के पास भेजा जा चुका है.’

बच्चों की मृत्यु के संबंध में सोनभद्र के सीएमओ ने हाल ही में रिहंद जलाशय के पानी का नमूना जांच के लिए उत्तर प्रदेश राज्य स्वास्थ्य संस्थान, लखनऊ भेजा था. इसकी रिपोर्ट में कहा गया कि नमूने में घातक कोलीफॉर्म बैक्टीरिया की मात्रा 180 गुना तक ज्यादा पाई गई जो हैजा, पेचिश और टाइफाइड फैलाता है यह बैक्टीरिया प्रदूषित पानी में ही होता है. इस बाबत जिलाधिकारी पंधारी यादव का कहना था, ‘गांवों में मौतें हुई हैं, लेकिन पानी की जांच में हमें किसी हेवी मेटल के संकेत नहीं मिले हैं. इस इलाके में वायरल डायरिया का गंभीर प्रकोप है. लोग डॉक्टरों से इलाज करवाने के बजाय ओझाओं के चक्कर में पड़ जाते हैं. शायद बच्चों की मौतें इसी वजह से हुई हों.’ रिहंद के किनारे बसे 21 गांवों में फ्लोरोसिस की समस्या आज महामारी का रूप ले चुकी है. नई बस्ती गांव में विंध्याचल शर्मा, सीताराम, शीला, रमेश, राम प्रसाद पटेल, कुंज बिहारी पटेल, लल्लू पटेल, कुसमहा गांव में रामप्यारी, कबूतरी देवी, चंपादेवी, सोनू, पार्वती देवी, बीनाकुमारी, उत्तम,संगम आदि फ्लोरोसिस की अपंगता से पीड़ित लोग हैं. इसके अलावा ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जिनमें फ्लोरोसिस के प्राथमिक लक्षण मौजूद हैं. पिछले 10 सालों के दौरान इस रोग ने अपना दायरा बहुत तेजी से फैलाया है. डॉ गौतम कहते हैं, ‘पहले फ्लोरोसिस की समस्या इतनी गंभीर नहीं थी. लेकिन जब से कनोरिया केमिकल्स व हाईटेक कार्बन की इकाइयां यहां शुरू हुई हैं तब से ये मामले बहुत बढ़ गए हैं.’ स्थिति की गंभीरता का अंदाजा आप इससे भी लगा सकते हैं कि हाल ही में देहरादून स्थित पीपुल साइंस इंस्टिट्यूट ने जब सोनभद्र के 147 गांवों के 3,588 बच्चों में फ्लोराइड के असर की जांच की थी तो 2,219 बच्चे इससे प्रभावित पाए गए थे.

रिहंद के चोपन और म्योरपुर ब्लॉक में फ्लोरोसिस और विषाक्त पानी की समस्या है तो अनपरा में स्थितियां और भी गंभीर हैं. फ्लाइएश के चलते इस पूरे इलाके का भूगर्भीय जल बुरी तरह प्रदूषित हो चुका है. लेड, आर्सेनिक और पारा जैसे खतरनाक रसायन फ्लाइएश से रिस-रिस कर भूगर्भीय जल को विषाक्त कर रहे हैं. इसके अलावा सूखी हुई फ्लाइएश के महीन कण हमेशा हवा में उड़ते रहते हैं जिससे यहां  पेट और सांस संबंधी बीमारियों की बाढ़ सी आ गई है. वाराणसी स्थित हेरिटेज हॉस्पिटल की अच्छी खासी नौकरी छोड़कर साल भर पहले ही अनपरा में आकर अपना क्लीनिक खोलने वाले डॉ राज नारायण सिंह बताते हैं, ‘दिन भर में मेरे यहां आठ से दस मरीज जोड़ों के दर्द और ऑस्टियोपोरोसिस के आते हैं. इसका सीधा संबंध लेड और पारे से प्रदूषित पानी से है. लोगों में असमय ही बुढ़ापे के लक्षण दिखने लगते हैं. इसके अलावा दमे के काफी मरीज आते हैं. हर तीन में दो आदमी यहां पेट की बीमारी से पीड़ित हैं.’

डिबुलगंज के आस पास स्थित बैगा आदिवासियों की बस्ती में टीबी की बीमारी छुआछूत की तरह फैली हुई है. गौरतलब है कि यह वही गांव है जो फ्लाइएश के सागर से घिर चुके  हैं और इसी के इर्द-गिर्द बने गड्ढों से पानी पीते हैं. इसी बस्ती में 28 वर्षीय सुनील बैगा रहते हैं जिन्हें टीबी है. इलाज के बारे में पूछने पर सुनील कहते हैं, ‘दो-तीन महीने तक दवा खाई फिर बंद कर दिया. पैसा नहीं था.’

नियुक्तियों में वादाखिलाफी
रिहंद बांध को पार करके जैसे-जैसे हम शक्तिनगर की तरफ बढ़ते हैं एक के बाद एक डिबुलगंज,पिपरी, बेलवादर, निमियाडाढ़, परसवार राजा, जवाहरनगर, खड़िया मर्रक, चिल्काडाढ़ आदि गांव आते-जाते हैं. इनमें से किसी भी गांव में घुसने पर इनकी बनावट और बसावट में एक खास तरह की एकरूपता नजर आती है. ठीक मुंबई की किसी झुग्गी बस्ती की तरह.

इन बस्तियों में बेरोजगारों की बहुतायत है. 1980 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा अनपरा में थर्मल पॉवर संयंत्र लगाने की घोषणा के साथ ही जब एक बार फिर से यहां बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हुए थे तो उस वक्त सरकार ने सभी विस्थापितों का पुनर्वास और योग्यता के हिसाब से सभी परिवारों के एक सदस्य को नौकरी देने का वादा किया था. लेकिन इतने साल बीतने के बाद भी सरकारों और यहां स्थापित कंपनियों में यहां के निवासियों का किसी भी तरह से नियोजन करने की नीयत ही नहीं दिखती. 1980 के बाद से प्रदेश में एक के बाद एक सरकार बदलती रही,अनपरा इकाई अपना दायरा ए, बी, सी से फैलाकर डी तक पहुंच गई लेकिन विस्थापितों की समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं. अनपरा इकाई में तैनात एक वरिष्ठ अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘पुनर्वास को लेकर उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड (यूपीआरवीयूएनएल) न तो गंभीर है न इस मामले में उसकी नीयत साफ है.’

अपनी पहली सूची में एपीटीएस ने 1,307 लोगों को नौकरी के लिए पात्र माना था. आज 30 साल बाद कंपनी के सेवायोजन का आंकड़ा है 304 यानी 30 फीसदी के करीब. असल में यहां स्थित यूपीआरवीयूएनएल हो या फिर लैंको या फिर एनटीपीसी, सभी कंपनियों ने अब स्थानीय लोगों को नौकरी नहीं देने की अलिखित नीति अपना रखी है. कुशल कर्मियों के लिए देश या प्रदेशस्तरीय परीक्षाएं होती हैं और अकुशल कामगार, कंपनियां ठेके पर रखती हैं. ये दैनिक मजदूर झारखंड,उड़ीसा आदि के आदिवासी क्षेत्रों से आते हैं. स्थानीय लोगों को नौकरी न दिए जाने के सवाल पर लैंको पॉवर के कार्यकारी निदेशक आनंद कुमार सिंह बहुत दिलचस्प उत्तर देते हैं, ‘शुरुआत में ही स्थानीय लोगों ने हमारा विश्वास तोड़ दिया. ये लोग स्थानीय नेताओं के इशारे पर कंपनी में काम रोक देते थे.’

जल्दी ही इन कंपनियों ने दैनिक मजदूरों को ठेके पर रखना शुरू कर दिया. अकेले अनपरा की ए,बी इकाइयों और लैंको में इस वक्त कुल मिलाकर 3,000 के करीब दैनिक मजदूर काम करते हैं. यानी कि विस्थापितों के पुनर्वास और समायोजन की समस्या काफी हद तक हल हो सकती है. 2007 में उत्तर प्रदेश विद्युत मजदूर संगठन के अध्यक्ष आरएस राय और यूपीआरवीयूएनएल के तत्कालीन अध्यक्ष अवनीश कुमार अवस्थी के बीच इस संबंध में एक समझौता भी हुआ था जिसमें ठेका मजदूरी में 50 फीसदी स्थानीय लोगों को समायोजित करने पर सहमति हुई थीं लेकिन आज तक इसे लागू नहीं किया गया है. आखिर कंपनियां ऐसा क्यों कर रही हैं? पहली नजर में तो मामला नीयत का दिखता है लेकिन किसी मजदूर से और स्थानीय लोगों को थोड़ा विश्वास में लेकर बात करने पर इसकी कुछ नई परतें उघड़ती हैं. ठेका आधारित दैनिक मजदूर असल में कंपनी के अधिकारियों और ठेकेदारों के आपसी गठजोड़ और करोड़ों रुपए की अवैध कमाई का साधन है.

दरअसल, कंपनी के अधिकारी ठेकेदार को मजदूरों की व्यवस्था करने और उनके लेनदेन का जिम्मा संभालने का आदेश दे देते हैं. एक दैनिक मजदूर की प्रतिदिन की दिहाड़ी होती है 138 रुपए. मजदूर महीने में 26 दिन काम करता है और महीने के अंत में उसे लगभग 2,500 रुपए का भुगतान ठेकेदार करता है जबकि उसे मिलना चाहिए 3,588 रुपया. इस तरह से प्रति मजदूर करीब 1000 रुपया कंपनी के अधिकारियों और ठेकेदारों की जेबों में चला जाता है. पर कोई भी मजदूर इस बात को स्वीकार नहीं करता क्योंकि अगले ही दिन ठेकेदार उन्हें चलता कर देगा.

नौकरियों पर रखे जाने के सवाल पर अनपरा इकाई के प्रशासनिक महानिदेशक पीके गर्ग के बयान विरोधाभासी हैं. कभी तो वे कहते हैं कि हम डी इकाई में अस्थाई पदों पर स्थानीय लोगों को समायोजित करने पर विचार करेंगे. और फिर अपनी ही बातों को काटते हुए कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश सरकार ने 1994 में एक शासनादेश पारित किया था जिसके मुताबिक अधिग्रहण के सात साल बाद किसी को भी समायोजन का अधिकार नहीं रह जाता है, सिर्फ मुआवजा दिया जाएगा.’ यह पक्ष उत्तर प्रदेश सरकार ने पहली बार हाई कोर्ट में साल 2007 में रखा जबकि स्वयं कंपनी ने लोगों को 1998 तक इस आशय के पत्र दिए हैं कि जब भी कंपनी में रिक्तियां होंगी उन्हें अर्हता के आधार पर समायोजित किया जाएगा. तहलका के पास ऐसे कई पत्रों की प्रतियां हैं. सवाल है,आखिर 1994 में शासनादेश पारित हो जाने के बाद भी अधिकारियों ने लोगों को इस तरह के पत्र किस आधार पर दिए? मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है और उत्तर प्रदेश सरकार आज तक इस शासनादेश की कॉपी न तो सुप्रीम कोर्ट को सौंप सकी है न ही आरटीआई दाखिल करने वाले गैर सरकारी संगठनों को. कमोबेश यही स्थितियां एनटीपीसी के विस्थापितों की भी है. यहां लोगों के पुनर्वास का स्तर तो कुछ हद तक संतोषजनक है लेकिन नौकरियों में सेवायोजन का प्रतिशत महज 33 फीसदी है. स्थानीय लोगों को दरकिनार करके ठेके पर मजदूरों से काम करवाने की प्रथा यहां भी धड़ल्ले से जारी है. स्थानीय लोगों ने भी कमाई का दूसरा जरिया निकाल लिया है. अपने घरों के आधे हिस्सों में लोगों ने दड़बेनुमा कमरे बनवा रखे हैं जिनमें 10-10, 15-15 की संख्या में बाहर से आए मजदूर अमानवीय स्थितियों में किराए पर रहते हैं. अनपरा शक्तिनगर के इलाके में दो पीढ़ियां नौकरी और काम की आस में बैठी रहीं, उन्होंने न तो बाहर का रुख किया न ही वैकल्पिक उपायों को अपनाया क्योंकि उन्हें विश्वास था कि जिस आधुनिक भारत के तीर्थ को बनाने के लिए वे अपने घर, बाग-बगीचे, खेत-खलिहान और जीविका का बलिदान कर रहे थे वह अपनी संतानों को इतनी आसानी से नहीं दुत्कारेगा. वे गलत थे.

बेमानी जनसुनवाइयां
नई परियोजना को हरी झंडी देने से पहले इसके प्रभाव क्षेत्र में आने वाली जनता के बीच जनसुनवाई आयोजित की जाती है. ऊपरी तौर पर तो यह व्यवस्था एक स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया का आभास देती है मगर असलियत में यह सिर्फ औपचारिकता भर है. उदाहरण के तौर पर लैंको अनपरा पॉवर प्रा. लि. को ही लेते हैं. श्याम किशोर जायसवाल बताते हैं, ‘हमने 10 अगस्त, 2007 को लैंको परियोजना की जन सुनवाई के दौरान छह बिंदुओं वाली एक मांग सूची जिलाधिकारी को सौंपी थी, लेकिन सरकार ने एक महीने पहले ही लैंको का भूमिपूजन करके वहां  निर्माण कार्य शुरू करवा दिया था.’ यही रवैया अनपरा की ‘बी’ यूनिट के निर्माण के दौरान भी रहा था. जनसुनवाई की प्रक्रिया को पूरा करने के लिए जनता के हस्ताक्षर वाला सहमति पत्र अनिवार्य होता है. मगर प्रशासन ने इसका भी एक रास्ता निकाल लिया है. कार्यक्रम स्थल पर उपस्थिति रजिस्टर में दस्तखत करना अनिवार्य होता है. और बाद में प्रशासन इसी को सहमति हस्ताक्षर के रूप में पेश कर देता है.

बनारस जाते समय रास्ते भर सड़कों के किनारे बड़े-बड़े होर्डिंग दिखते हैं. लिखा है, ‘राष्ट्र की सेवा में सतत् समर्पित अ, ब, स ऊर्जा परियोजना.’ मन में एक सवाल उठा, ‘क्या इस देश में भी कई देश हैं?’

(15 अप्रैल 2010)

सुर अविनाशी: लता मंगेशकर

lataनाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा
मेरी आवाज ही पहचान है—गर याद रहे
(फिल्म : किनारा, गीतकार : गुलजार)

असीम श्रद्धा और भावुकता के साथ ही लता मंगेशकर के बारे में कोई बात शुरू की जा सकती है. पिछली कई सदियों से संगीत की जो महान परंपरा हम मीराबाई, बैजू बावरा, स्वामी हरिदास और तानसेन के माध्यम से सुनते-गुनते आ रहे हैं, उसमें लता मंगेशकर का नाम बिना किसी हीला-हवाली के जोड़ा जा सकता है. कहा जा सकता है कि इस देश में चारों ओर रहने वाले सवा अरब लोग जिस समानता की डोर से कहीं न कहीं जुड़े दिखाई देते हैं वह लता मंगेशकर की आवाज के रेशमी धागे के कारण भी संभव हुआ है.

‘महल’ फिल्म के इतिहास बन चुके गीत ‘आएगा आने वाला’ से लता जी का हिंदी फिल्म संगीत में कुछ-कुछ वैसा ही प्रादुर्भाव हुआ जैसा इस फिल्म का सनसनीखेज कथानक था. इस गीत के मुखड़े की शुरुआती पंक्तियां हैं – ‘खामोश है जमाना चुपचाप हैं सितारे/आराम से है दुनिया बेकल हैं दिल के मारे/ऐसे में कोई आहट इस तरह आ रही है/जैसे कि चल रहा हो मन में कोई हमारे /या दिल धड़क रहा है इस आस के सहारे…’ आज जब उन्हें एक किंवदंती बने लगभग सत्तर साल बीत चुके हैं तो लगता है कि जैसे ये पंक्तियां फिल्म संगीत के आंगन में उनके लिए बिछाया गया लाल गलीचा हों. जैसे सबको उनके आने की आहट सुनाई दे रही थी और उनके आने से पहले सारा जमाना खामोश था.

लता जी मात्र छह साल की रही होंगी जब उनके पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर ने उनकी संगीत शिक्षा का विधिवत आरंभ उन्हें पूरिया धनाश्री राग सिखाते हुए किया था. उन्होंने उस समय नन्ही लता से कहा था – ‘जिस तरह कविता में शब्दों का अर्थ होता है, वैसे ही गीत में सुरों का भी अर्थ होता है. गाते समय दोनों अर्थ उभरने चाहिए.’ इसे आज तक अपने सुर संसार में जस का तस निभाते हुए लता मंगेशकर पिता को अपनी सच्ची श्रद्धांजलि दिए जा रही हैं. आज के दौर के युवाओं से लेकर तीन पीढ़ी ऊपर तक के बुजुर्गों में लता मंगेशकर की आवाज का साम्राज्य कुछ इस कदर पसरा हुआ है कि उसके प्रभाव का आकलन पूरी तरह कर पाना शायद किसी के लिए संभव नहीं है. कई बार ऐसा लगता है कि वे एक ऐसी जीवंत उपस्थिति हैं जिनके लिये कहा जा सकता है कि वे पुराणों व मिथकीय अवधारणाओं के किसी गंधर्व लोक से निकलकर आई हैं. एक ऐसी स्वप्निल और जादुई दुनिया से जिसमें सिर्फ देवदूतों और गंधर्वों को आने-जाने की आजादी है. लता मंगेशकर जैसी अदम्य उपस्थिति के लिए प्रख्यात गीतकार जावेद अख्तर का यह कथन बहुत दुरुस्त लगता है – ‘हमारे पास एक चांद है, एक सूरज है, तो एक लता मंगेशकर भी हैं.’

लता मंगेशकर ने अपनी आवाज की चिरदैवीय उपस्थिति से पिछले करीब छह दशकों को इतने खुशनुमा ढंग से रोशन किया है कि हम आज अंदाजा तक नहीं लगा सकते कि यदि उनकी 1947 में आमद न होती तो भारतीय फिल्म संगीत कैसा होता. संगीत जगत में लता मंगेशकर के आगमन का समय भारतीय राजनीतिक इतिहास के भी नवजागरण का काल था. स्वाधीनता के बाद जैसे-जैसे भारतीय जनमानस अपनी नयी सोच और उत्साह के साथ आगे बढ़ता जा रहा था, लता जी की मौजूदगी में हिंदी फिल्म संगीत भी आनंद और स्फूर्ति के साथ उसी रास्ते जा रहा था. यह अकारण नहीं है कि 1948 में गुलाम हैदर के संगीत से सजी मजबूर फिल्म का लता-मुकेश का गाया हुआ गीत ‘अब डरने की बात नहीं अंग्रेजी छोरा चला गया’ उस वक्त जैसे हर भारतीय की सबसे मनचाही अभिव्यक्ति बन गया था. उन्हीं मास्टर गुलाम हैदर ने भारत में अपने संगीत कॅरियर का अंतिम गाना (‘बेदर्द तेरे दर्द को सीने से लगा के’) 1948 में लता से पद्मिनी में गवाया. वे उसी दिन भारत छोड़कर पाकिस्तान चले गए. लता जी के संगीत जीवन के साथ इस तरह की न जाने कितनी ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में बदल चुकी तिथियां भी जुड़ी हुई हैं, जो आज भारतीय समाज में अपना कुछ दूसरा ही मुकाम रखती हैं.

उनके संगीत के दृश्यपटल पर आने वाले साल में ही केएल सहगल का इंतकाल हो चुका था और मलका-ए-तरन्नुम नूरजहां विभाजन के बाद पाकिस्तान जा चुकी थीं. यह एक प्रकार से फिल्म इतिहास का ऐसा नाजुक दौर था जिसमें इन दो मूर्धन्यों की भरपाई का अकेला जिम्मा जिन लोगों के कंधे पर आया उनमें से सबसे प्रमुख लता मंगेशकर हैं. जाहिर है, संक्रमण के इस काल में लता के भीतर छिपी हुई किसी बड़ी प्रतिभा की पहचान खेमचंद प्रकाश, हुस्नलाल-भगतराम, नौशाद और शंकर-जयकिशन जैसे दिग्गज संगीत निर्देशकों ने की और 1948-49 के दौरान ही उनकी चार बेहद महत्वपूर्ण फिल्में हिंदी सिनेमा के संगीत परिदृश्य को एकाएक बदलने के लिए आ गईं. ये फिल्में थीं महल, बड़ी बहन, अंदाज और बरसात.

इसके बाद पुरानी मान्यताओं, स्थापित शीर्षस्थ गायिकाओं एवं संगीतप्रधान फिल्मों के स्टीरियोटाइप में बड़ा परिवर्तन दिखने लगता है. लता खुशनुमा आजादी की तरह ही एक नये ढंग की ऊर्जा, आवाज के नये-नये प्रयोग एवं शास्त्रीय संगीत की सूक्ष्म पकड़ के साथ हिंदी फिल्म संगीत के लिए सबसे प्रभावी व असरकारी उपस्थिति बनने लगती हैं. ‘हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का’ (बरसात) जैसा गीत उसी बहाव, दिशा और नये क्षितिज की ओर फिल्म संगीत को उड़ा ले जाता है, जो अभी तक भारी-भरकम आवाजों के घूंघट में पल रहा था.

लता मंगेशकर आवाज की दुनिया की एक ऐसी घटना हैं जिसके घटने से इस धारणा को प्रतिष्ठा मिली कि गायन का क्षेत्र सिर्फ मठ-मंदिरों, हवेलियों और नाचघरों तक सीमित न रहकर एक चायवाले या बाल काटने वाले की दुकान में भी अपने सबसे उज्जवल अर्थों में अपने पंख फैला सकता है. उनके आने के बाद से ही लोगों की बेपनाह प्रतिक्रियाओं से तंग आकर रिकॉर्ड कंपनियों ने पहली बार फिल्मों के तवों पर पार्श्वगायकों एवं गायिकाओं के नाम देना शुरू किया. वे भारत में फिल्म संगीत का उसी तरह कायाकल्प करती दिखाई देती हैं, जिस तरह पारंपरिक नृत्य-कलाओं में क्रांतिकारी बदलाव ढूंढ़ने का काम रुक्मिणी देवी अरुंडेल, बालासरस्वती एवं इंद्राणी रहमान जैसी नर्तकियों ने अपने समय में किया. स्वाधीनता के बाद उनकी आवाज संघर्षशील तबके से आने वाली उस स्त्री की आवाज बन गई जिसे तब का समाज बिल्कुल नए संदर्भों में देख-परख रहा था.

लता जी से पहले स्थापित गायिकाओं कानन देवी, अमीरबाई कर्नाटकी, जोहराबाई अंबालेवाली, सुरैया, राजकुमारी, शमशाद बेगम के विपरीत लता मंगेशकर का स्वर एक ऐसे उन्मुक्त माहौल को रचने में सफल होता दिखाई पड़ा जिसकी हिंदी फिल्म जगत को भी बरसों से दरकार थी. उनके गायन की विविधता में स्त्री किरदारों के बहुत-से ऐसे प्रसंगों को पहली बार अभिव्यक्ति मिली जो शायद सुरैया या जोहराबाई जैसी आवाज में संभव नहीं थी. उस दौर की अनगिनत फिल्मों में एकाएक उभर आए औरत के प्रगतिशील चेहरे के पीछे लता जी की आवाज ही प्रमुखता से सुनाई पड़ती है. 1952 में आई जिया सरहदी की ‘हम लोग’ का ‘चली जा चली जा छोड़ के दुनिया, आहों की दुनिया’ से लेकर ‘मिट्टी से खेलते हो बार-बार किसलिए’ (पतिता), ‘औरत ने जनम दिया मरदों को’ (साधना), ‘सुनो छोटी-सी गुडि़या की लंबी कहानी’ (सीमा), ‘वंदे मातरम्’ (आनंद मठ), ‘फैली हुई है सपनों की बांहें’ (हाउस नं- 44), ‘जागो मोहन प्यारे’ (जागते रहो), ‘सैंया झूठों का बड़ा सरताज निकला’ (दो आंखें बारह हाथ), ‘तेरे सब गम मिलें मुझको’ (हमदर्द), ‘हमारे बाद महफिल में अफसाने बयां होंगे’ (बागी) ऐसे ही कुछ गीत हैं.

यह स्थिति दिनोंदिन सुदृढ़ ही होती गई. साठ के दशक तक आते-आते तो इस बात की होड़-सी मच गई कि किस फिल्म का स्त्री किरदार दूसरी फिल्मों की तुलना में कितना मजबूत, केंद्रीय और भावप्रवण है. जिन फिल्मों में सीधे ही औरत की कोई ऐसी भूमिका नहीं थी, वहां ऐसी गुंजाइश गीतों के बहाने निकाली जाने लगी. ऐसे में लता मंगेशकर एक जरूरत या जरूरी तत्व की तरह भारतीय सिनेमा जगत पर छा गईं. शायद इसी वजह से साठ का दशक सिनेमा के अधिकांश अध्येताओं को लता जी का स्वर्णिम दौर लगता है. इस दौर की कुछ फिल्में इस संदर्भ में भी याद करने लायक हैं कि इनमें लता मंगेशकर की मौजूदगी अकेले ही इतिहास रचने में सक्षम नजर आती है. ऐसे में आसानी से हम गजरे, परख, अनुपमा, छाया, ममता, बंदिनी, दिल एक मंदिर, मधुमती, गाइड, माया, चित्रलेखा, डॉ. विद्या, अनुराधा, आरती, मान, अनारकली, यास्मीन, दुल्हन एक रात की, अदालत, गंगा-जमुना, सरस्वतीचंद्र, वो कौन थी, आजाद, संजोग, घूंघट, भीगी रात, बेनजीर, कठपुतली, पटरानी, काली टोपी लाल रुमाल एवं मदर इंडिया जैसी फिल्मों के नाम ले सकते हैं. इस दौर में बहुत सारे संगीतकारों के साथ बनने वाली उनकी कला की ज्यामिति ने जैसे कीर्तिमानों का एक अध्याय ही रच डाला. आज भी उनका नाम मदन मोहन के साथ अमर गजलों, नौशाद के साथ विशुद्ध लोक-संगीत, एसडी बर्मन के साथ राग आश्रित नृत्यपरक गीतों, सी रामचंद्र के साथ बेहतर आर्केस्ट्रेशन पर आधुनिक ढंग की मेलोडी, सलिल चौधरी के साथ बांग्ला एवं असमिया लोक संगीत और विदेशी सिंफनीज पर आधारित कुछ मौलिक प्रयोगों, रोशन के साथ शास्त्रीयता एवं रागदारी, खय्याम के साथ प्रयोगधर्मी धुनों तथा लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के साथ सदाबहार लोकप्रिय एकल गीतों के लिए असाधारण ढंग से याद किया जाता है.

यह देखना भी दिलचस्प है कि पिछले साठ-सत्तर सालों में बनने वाली ढेरों ऐतिहासिक एवं पौराणिक फिल्मों में लता मंगेशकर एक स्थायी तत्व की तरह शामिल रही हैं. उनकी यह उपस्थिति, सामाजिक सरोकारों वाली फिल्मों से अलग, एक दूसरे ही किस्म का मायालोक रचने में सफल साबित हुई है. यह लीक बैजू बावरा, अनारकली, नागिन, रानी रूपमती जैसी फिल्मों से शुरू होकर, मुगले आजम, शबाब, सोहनी महिवाल, कवि कालिदास, झनक-झनक पायल बाजे, संगीत सम्राट तानसेन, ताजमहल से होती हुई बहुत बाद में आम्रपाली, नूरजहां, हरिश्चंद्र तारामती, सती-सावित्री, पाकीजा और अस्सी के दशक तक आते-आते रजिया सुल्तान एवं उत्सव तक फैली हुई है. इन फिल्मों के गीतों का उल्लेख होने भर से तमाम अमर धुनों और लता जी की आवाज का जादू मन-मस्तिष्क में घुलने लगता है. इस तरह की पीरियड फिल्मों के संदर्भ में एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इनके गीतों को सुनते हुए यह ध्यान ही नहीं आता कि इनकी पृष्ठभूमि में कोई पौराणिक, मिथकीय या ऐतिहासिक कथा आकार ले रही है. वहां सिर्फ गीत की अपनी स्नेहिल मौजूदगी में वही जादू घटता है जो किसी दूसरे और निहायत अलग विषय-वस्तु के सिनेमा में भी महसूस किया जाता रहा है. मसलन, ‘आजा भंवर सूनी डगर’ (रानी रूपमती), ‘शाम भई घनश्याम न आए’ (कवि कालिदास), ‘खुदा निगहबान हो तुम्हारा’ (मुगले आजम), ‘जुर्मे उल्फत पे हमें लोग सजा’ (ताजमहल), ‘तड़प ये दिन रात की’ (आम्रपाली), ‘ऐ दिले नादां’ (रजिया सुल्तान), ‘नीलम के नभ छाई’ (उत्सव) जैसे गाने सिर्फ किरदारों की जद में कैद नहीं रहते. इस तरह की कोई स्थिति या संभावना तक पहुंचने की प्रतिष्ठा शायद किसी कलाकार के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है. यहां प्रसिद्ध नाटककार विजय तेंदुलकर की यह उक्ति ध्यान देने योग्य है, ‘लड़की एक रोज गाती है. गाती रहती है अनवरत. यह जगत व्यावहारिकता पर चलता है, तेरे गीतों से किसी का पेट नहीं भरता. फिर भी लोग सुनते जा रहे हैं पागलों की तरह.’

शायद इसीलिए एक से बढ़कर एक कालजयी फिल्में, बड़े नामचीन कलाकार, सिल्वर व गोल्डन जुबलियां, गीतकार, संगीत निर्देशक, सभी लता मंगेशकर के खाते में आने वाली उनकी अचूक प्रसिद्धि की चमक को फीका नहीं कर पाते. उन सफल फिल्मों में शायद लता ही एक ऐसी स्थायी सच्चाई हैं, जिसका कोई दूसरा पर्याय नहीं उभर पाता. अब इतिहास बन चुका राजकपूर के साथ उनका रॉयल्टी का झगड़ा, और बाद में इस सोच के चलते कि लता का रिप्लेसमेंट नहीं हो सकता, उन्हें अपने कैंप में वापस लाना या दादा एसडी बर्मन का यह सोचना कि लता अगर गाएगी, तो हम सेफ हैं; बेहद अनुशासनप्रिय संगीतज्ञ मास्टर गुलाम हैदर का यह कथन ‘अगर उसका दिमाग संतुलित रहा तो वह आसमान को छू जाएगी’ या फिर वायलिन वादक यहूदी मेन्यूहिन की स्वीकारोक्ति ‘शायद मेरी वायलिन आपकी गायिकी की तरह बज सके’ और उस्ताद बड़े गुलाम अली खां की जगप्रसिद्ध सूक्ति ‘कमबख्त, कभी बेसुरी नहीं होती’ आवाज की सत्ता का एहतराम करने जैसे हैं.

लता मंगेशकर पर अक्सर नुक्ताचीनी करने वाले यह आरोप लगाते रहे हैं कि उनका गायन फिल्मों तक सीमित है, उसमें शास्त्रीयता के लिए कोई जगह नहीं है. उनके लिए, जिन्होंने कभी भी फिल्म संगीत को स्तरीय न मानने की जबरन एक गलतफहमी पाल रखी है, लता एक चुनौती से कम नहीं हैं. भेंडी बाजार घराने के मशहूर उस्ताद अमान अली ख़ां तथा उस्ताद अमानत ख़ां देवास वाले से बकायदा गंडा बंधवाकर लता जी ने संगीत की शिक्षा ली है. बाद में उस्ताद बड़े गुलाम अली खां के शागिर्द पं तुलसीदास शर्मा ने भी उन्हें शास्त्रीय संगीत की तालीम दी. लता मंगेशकर की ख्याति भले ही फिल्म संगीत की वजह से रही हो, पर इससे कौन इनकार कर सकता है कि उन्होंने फिल्मी गीतों में उसी तरह शास्त्रीयता का उदात्त रंग भरा है, जिस तरह देवालयों, नौबतखानों एवं राजदरबारों में बजने वाली शगुन की शहनाई में उस्ताद बिस्मिल्ला खां ने राग और आलापचारी भरे.

लता जी की संगीत यात्रा को देखने पर यह महसूस होता है कि उनके गायन की खूबियों के साथ चहलकदमी करने में सितार प्रमुखता से उनके साथ मौजूद रहा है. सितार की हरकतों, जमजमों और मींड़ों का काम देखने के लिए लता के गाए ढेरों सुंदर गीत याद किए जा सकते हैं. ‘ओ सजना बरखा बहार आई’ (परख), ‘हाय रे वो दिन क्यूं न आए’ (अनुराधा), ‘मेरी आंखों से कोई नींद लिए जाता है’ (पूजा के फूल), ‘हम तेरे प्यार में सारा आलम खो बैठे’ (दिल एक मंदिर), ‘मैं तो पी की नगरिया जाने लगी’ (एक कली मुस्काई), ‘आज सोचा तो आंसू भर आए’ (हंसते जख्म) जैसे तमाम गीतों में सितार की हरकतों के साथ उनकी आवाज को पकड़ना एक बेहद मनोहारी खेल बन जाता है. शास्त्रीय संगीत की रागदारी, तालों, मात्राओं और लयकारी के अलावा प्रमुख भारतीय वाद्यों सितार, सरोद, बांसुरी, शहनाई और वीणा ने भी उनके गले के साथ जबर्दस्त संगत की है. इस तरह के ढेरों गीत याद किए जा सकते हैं जिनमें पन्नालाल घोष की बांसुरी, उस्ताद बिस्मिल्ला खां की शहनाई, उस्ताद अली अकबर खां का सरोद, उस्ताद अल्लारक्खा का तबला, पं रामनारायण की सारंगी, उस्ताद अब्दुल हलीम जाफर खां एवं रईस खां का सितार लता मंगेशकर की आवाज के सहोदर बनकर फिल्म संगीत को शास्त्रीयता के बड़े फलक पर ले जाते हैं. बांसुरी के साथ आत्मीय जुगलबंदी के लिए मैं पिया तेरी तू माने या न माने (बसंत बहार), सरोद की लय पर आवाज की कशिश के लिए ‘सुनो छोटी-सी गुडि़या की लंबी कहानी’ (सीमा) एवं शहनाई के छंद को समझने के लिए ‘दिल का खिलौना हाय टूट गया’ (गूंज उठी शहनाई) सुने और महसूस किए जा सकते हैं. हम चकित होते हुए यह सोचते रह जाते हैं कि आवाज के विस्तार और उसकी लोचदार बढ़त में वाद्य किस तरह सहधर्मी बन सकता है.

यदि लता जी के संगीत में शास्त्रीयता की नुमाइंदगी खोजनी हो, तब बहुतेरे ऐसे गीतों को याद किया जा सकता है, जिनमें रागदारी और आलापचारी, तानें और मुरकियां, मींड़ और गमक अपने सर्वोत्तम रूपों में मिलती हैं – ‘घायल हिरनिया मैं बन-बन डोलूं’ (मुनीम जी) में सरगम की तानें अपने शुद्ध रूप में मौजूद पाई जा सकती हैं. मींड़ के बारीक काम के लिए ‘रसिक बलमा’ (चोरी-चोरी) को बार-बार सुना जा सकता है. आलाप के एकतान सौंदर्य के लिए ‘डर लागे चमके बिजुरिया’ (रामराज्य) को कोई कैसे भूल सकता है. लयदार तानों और गमक का एहसास लिए हुए ‘सैंया बेईमान’ (गाइड) अनायास ही याद आते हैं. उनके असंख्य गीत ऐसे हैं जिनमें रागदारी अपने शुद्धतम एवं मधुर रूप में व्यक्त हुई है. मसलन ‘ज्योति कलश छलके’ – ‘भाभी की चूडि़यां’ (राग भूपाली), ‘अल्लाह तेरो नाम’ – हम दोनों (राग मिश्र खमाज), ‘मनमोहना बड़े झूठे’ – सीमा (राग जयजयवंती), ‘मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे – मुगले आजम (राग मिश्र गारा),  ‘कान्हा-कान्हा आन पड़ी मैं तेरे द्वार’ – शागिर्द (राग मांझ खमाज), ‘नदिया किनारे’-अभिमान (राग पीलू) तथा ‘मेघा छाए आधी रात’ – शर्मीली (राग पटदीप). यह अंतहीन सूची है, जिसमें अभी  हजारों ऐसे ही उत्कृष्ट गीतों को बड़ी आसानी से शामिल किया जा सकता है.

पिछले साठ साल में उनकी आवाज में शंकर-जयकिशन की अनगिनत भैरवियों, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की ढेरों पूरिया धनाश्रियों और शिवरंजनियों, एसडी बर्मन की अधिसंख्य बिहाग, तोड़ी और बहारों के साथ मदन मोहन की तमाम छायानटों एवं भीमपलासियों ने आकार लिया है. तमाम सारे दिग्गज एवं अगली पंक्ति के इन बड़े संगीतकारों के साथ-साथ लता की आवाज ने चित्रगुप्त, दत्ताराम, एसएन त्रिपाठी, रामलाल, रवि, स्नेहल भाटकर, हंसराज बहल, जीएस कोहली, सुधीर फड़के, पंडित अमरनाथ और एन दत्ता जैसे संगीतकारों के साथ भी शास्त्रीय ढंग के कुछ बेहद अविस्मरणीय गीत गाए हैं. शायद इसीलिए सालों पहले शास्त्रीय गायक पं कुमार गंधर्व ने लता जी पर पूरा एक लेख उनकी गायकी की खूबी बखानने के उद्देश्य से लिखा था. उनका मानना था, ‘जिस कण या मुरकी को कंठ से निकालने में अन्य गायक और गायिकाएं आकाश-पाताल एक कर देते हैं, उस कण, मुरकी, तान या लयकारी का सूक्ष्म भेद वह सहज ही करके फेंक देती है.’

लता जी के जीवन में एक दौर ऐसा भी आया जब जिस फिल्म में उनका गाना न होता, समझा जाता कि वह पिट गई अगर एक गाना भी उन्होंने गाया, तो सबसे ज्यादा लोकप्रिय वही होता. लता के गानों की वजह से कई बार ऊलजलूल और अति साधारण फिल्मों तक का बाजार चल पड़ता था. बहुतेरी फिल्में दूसरे-तीसरे दरजे की भी हों, तो भी गाने ऐसे होते कि जी करता सुनते रहें और वे रेडियो पर बार-बार फरमाइशों के दौर तले ऐतिहासिक बनते जाते. जिस जमाने में नयी फिल्मों के गानों को रेडियो पर सुनने की होड़ लगी रहती थी, उनमें भी सबसे ज्यादा दीवाने लता की आवाज के ही होते थे. सबसे मजेदार बात तो यह है कि जिन प्रणय गीतों पर हमारे दादा-दादी के जमाने के लोग आनंदित और तरंगित हो जाते थे, आज बरसों बाद हम भी उन्हीं गीतों को सुनकर उतने ही रोमांचित हो उठते हैं.  ‘आजा सनम मधुर चांदनी में हम’ (चोरी-चोरी), ‘गाता रहे मेरा दिल’ (गाइड), ‘आसमां के नीचे’ (ज्वैलथीफ,  ‘कोरा कागज था ये मन मेरा’ (आराधना), ‘तेरे मेरे मिलन की ये रैना’ (अभिमान) या ‘देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए’ (सिलसिला) जैसे शाश्वत अमर प्रेम गीतों को याद करने के लिए भी क्या किसी उम्र, दौर, शहर की जरूरत है?

लता मंगेशकर के संगीत जीवन के ब्यौरों को खंगालने पर ढेरों ऐसी बातों से भी हम रूबरू होते हैं, जो उनके अडिग चरित्र की एक सादगी भरी बानगी व्यक्त करती हैं. कुछ सिद्धांतों से पिछले साठ-सत्तर साल में कोई भी व्यक्ति उन्हें डिगा नहीं सका. उन्होंने यह तय कर रखा था कि फूहड़ व अश्लील शब्दों के प्रयोग वाले गीत वे नहीं गाएंगी. इसका परिणाम यह हुआ कि सिचुएशन के लिहाज से जरूरी ऐसे गीतों में भी गरिमापूर्ण शब्द इस्तेमाल किए जाने लगे. यह भी लता मंगेशकर के फिल्मी सफर का एक महत्वपूर्ण पहलू रहा कि जिस मर्यादा और गरिमा को चुनते हुए उन्होंने अपनी निराली राह बनाई, उसमें संगीत का सफरनामा उनकी तयशुदा शर्तों पर ही संभव होता रहा. किसी संगीत निर्देशक की यह हिम्मत ही नहीं होती थी कि वह कुछ सस्ते जुमले वाले गीतों को लेकर उनके पास जाए. राजकपूर निर्देशित ‘संगम’ फिल्म का गीत ‘मैं का करूं राम मुझे बुढ्ढा मिल गया’, जैसे इक्का-दुक्का गीतों के गाने को वे आज भी अपनी भारी भूल मानती हैं. उन्होंने अपने पूरे संगीत कॅरियर में केवल तीन कैबरे गीत गाए, जो उनके शालीन ढंग के गायन के चलते, ठीक से कैबरे भी नहीं माने जा सकते. ये थे ‘मेरा नाम रीटा क्रिस्टीना’ (अप्रैल फूल, 1964), ‘मेरा नाम है जमीला’-(नाइट इन लंदन, 1967) एवं ‘आ जाने जां’-(इंतकाम, 1969). इस एक बात का जिक्र भी बेहद जरूरी है कि फिल्मों में प्रयुक्त होने वाले मुजरा गीतों को गाने में वे कभी सहजता महसूस नहीं करती थीं, बावजूद इसके सबसे ज्यादा लोकप्रिय एवं स्तरीय मुजरा गीत उन्हीं के खाते में दर्ज हैं. नौशाद से लेकर एसडी बर्मन, रोशन, मदन मोहन, शंकर-जयकिशन, गुलाम मोहम्मद एवं एन दत्ता जैसे प्रमुख संगीतकारों ने लता से बेहद मेलोडीयुक्त, संवेदनशील एवं साहित्यिक किस्म के मुजरा और महफिल गीत गवाए. इस तरह के गीतों में, जिनसे लता की एक अलग ही और गंभीर किस्म की छवि बनती है, कुछ गीत हैं, ‘यहां तो हर चीज बिकती है कहो जी तुम क्या-क्या खरीदोगे’ (साधना), ‘उनको ये शिकायत है’ (अदालत), ‘रहते थे कभी जिनके दिल में’ (ममता), ‘कभी ऐ हकीकते मुंतजर’ (दुल्हन एक रात की), ‘ठाढे़ रहियो ओ बांके यार’ (पाकीजा), ‘राम करे कहीं नैना न उलझे’ (गुनाहों का देवता), ‘सलामे इश्क’ (मुकद्दर का सिकंदर) आदि. इन गीतों को जिसने भी सुना होगा वे सहमत होंगे कि फिल्म संगीत से हटकर बैठकी महफिल में गाई जाने वाली ठुमरी और दादरों की तरह की अदायगी का लता मंगेशकर ने इन मुजरा गीतों में पुनर्वास किया है. इनमें कई तो बरबस रसूलनबाई, बड़ी मोतीबाई, विद्याधरी एवं सिद्धेश्वरी देवी के बोलबनाव के दादरों एवं ठुमरियों की याद दिलाते हैं.

लता की आवाज की चरम उपलब्धि के रूप में अधिकांश वे दर्द भरे गीत भी गिने जा सकते हैं जिन्हें पूरी शास्त्रीय गरिमा, मंदिर की सी निश्छल पवित्रता एवं मन की उन्मुक्त गहराई से उन्होंने गाया है. ऐसे गीत एक हद तक मनुष्य जीवन की तमाम त्रासदियों, विपदाओं, दुख, वेदना और पीड़ा को कलाओं के आंगन में जगह देते से प्रतीत होते हैं. उनकी इस तरह की गायिकी की एक बिल्कुल अलग और व्यापक रेंज रही है, जिसमें कई बार भक्ति संगीत भी स्वयं को शामिल पाता है. यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि हृदयनाथ मंगेशकर के बेहद प्रयोगधर्मी संगीत पर गाए हुए उनके मीरा भजन, वेदना और टीस की उतनी ही सफल अभिव्यक्ति करते हैं जितना कि सिनेमा में पीड़ा के अवसरों पर गाए गए उनके मार्मिक गीत. ‘जो तुम तोड़ो पिया’ (झनक-झनक पायल बाजे), ‘जोगिया से प्रीत किए दुख होए’ (गरम कोट), ‘पिया ते कहां गए नेहरा लगाय’ (तूफान और दीया), ‘हे री मैं तो प्रेम दीवानी’ (नौबहार), ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ (राजरानी मीरा) जैसे अद्भुत मीरा-भजनों के बरक्स हम बड़ी सहजता से वे गीत याद कर सकते हैं, जहां नायिका का गम लता की आवाज में बहुत ऊपर उठकर अलौकिक धरातल को स्पर्श कर जाता है. ऐसे में ‘न मिलता गम तो बरबादी के अफसाने’ (अमर), ‘तुम न जाने किस जहां में खो गए’ (सजा), ‘हम प्यार में जलने वालों को’ (जेलर), ‘वो दिल कहां से लाऊं’ (भरोसा),  ‘दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें’ (बहू बेगम) जैसे गीत याद करना भक्ति और पीड़ा के समवेत भाव को एक ही मनोदशा में याद करना है. यह लता मंगेशकर के यहां ही संभव है कि एक ही आवाज का सुर संसार इतना विस्तृत हो सका कि उसमें जीवन के तमाम पक्षों की अप्रतिम अदायगी भजन, लोरी, गजल, कव्वाली, हीर, जन्म, सोहर, ब्याह, विदाई, प्रार्थना, प्रणय, मुजरा, लोक-संगीत, देश-प्रेम, होली, विरह, नात, नृत्य आदि के माध्यम से श्रेष्ठतम रूपों में अभिव्यक्त होती रही.

यह लता मंगेशकर के जीवन का ही सुनहरा पन्ना है कि तमाम सारे कर्णप्रिय सफलतम गीतों के बीच कुछ ऐसी अभिव्यक्तियों में भी वे समय-समय पर मुब्तिला रहीं जिन्होंने उन्हें एक अलग ही प्रकार की गरिमा और सम्मान का अधिकारी बना दिया. इस बात को कौन भूला होगा कि भारत-चीन युद्ध के उपरांत शहीदों के प्रति आभार जताने के क्रम में पंडित प्रदीप का लिखा और सी रामचंद्र का संगीतबद्ध ऐतिहासिक गीत ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ को गाने का सौभाग्य न सिर्फ लता के खाते में आया बल्कि पंडित नेहरू का उसे सुनकर रो पड़ना, उनके कद को बहुत गरिमा के साथ कई गुना बढ़ा गया. यह लता ही थीं कि जब पहली बार क्रिकेट का विश्वकप जीतकर कपिल देव भारत आए, टीम की हौसला अफजाई करने एवं उसके सदस्यों को आर्थिक सहायता पहुंचाने के उद्देश्य से उन्होंने एक चैरिटी कार्यक्रम आयोजित करके उसमें स्वयं गाया. उन्होंने विदेश में पहली बार 1974 में लंदन के रॉयल अल्बर्ट हॉल में अपनी प्रस्तुति मात्र इस कारण दी कि विदेशों में नेहरू सेंटर की गतिविधियों की खातिर धन एकत्र किया जा सके. एक ओर वे बीमार महबूब खान को पूरे हफ्ते भर फोन पर ‘रसिक बलमा’ सुनाती रहीं, तो दूसरी ओर लंदन में नूरजहां के घर में उनके अनुरोध पर लिफ्ट में ही ‘ऐ दिले नादां’ गाकर उन्हें प्रसन्न किया. यह लता के गायन की विविधता ही है कि साहिर लुधियानवी की जनवादी कलम से निकली शाहकार रचना ‘अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम’ में उन्होंने उतने ही लय, गमक और प्राण डाले जितने कि भक्त कवि तुलसीदास के पद ‘ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनियां’ में आस्था के सुर. एक तरफ वे हृदय को चीर देने वाला बेधक नात ‘मेरा बिछड़ा यार मिला दे सदका रसूल का’(सोहनी महीवाल) गाकर दुख के सात आसमान रच देती हैं, तो ठीक उसी क्षण कुछ शोख, कुछ नटखट ढंग से ‘सायोनारा’ (लव इन टोकियो) कहती हुई बहुतेरे युवाओं को घायल कर डालती हैं. जयदेव के संगीत पर एक बार फिर से शहीदों को नमन करते हुए बेहद श्रुतिमधुर ‘जो समर में हो गए अमर मैं उनकी याद में’ जैसा गीत गाकर एक बार फिर से देशप्रेम का जज्बा उकेरने में सफल रहती हैं, तो पंडित भीमसेन जोशी के सुर में सुर मिलाते हुए ‘राम का गुन गान करिए’ जैसा मनोहारी भजन रचने में व्यस्त हो जाती हैं. सबसे शानदार क्षण तो उनके सांगीतिक संसार में तब दिखता है, जब भारत की विविधवर्णी सांस्कृतिक छवि को दिखाने वाली एक प्रस्तुति के अंत में ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ गाते हुए वे अपने बायें कंधे पर तिरंगा आंचल की तरह पसारती हैं. तब ऐसा लगता है कि शायद यही उनकी सबसे महत्वपूर्ण और मुकम्मल पहचान है.

यह अकारण नहीं है कि जीवन भर संगीत, रिकॉर्डिंग स्टूडियो एवं मंचों को मंदिर मानने वाली इस गायिका के यहां गुरु से सीखा हुआ वही भूपाली राग सर्वाधिक प्रिय रहा जिसमें घर-आंगन और मंदिर को पवित्र करने वाला प्रार्थना गीत रचा गया है. ‘ज्योति कलश छलके, हुए गुलाबी लाल रुपहले रंग-दल बादल के, ज्योति यशोदा धरती मैया नील गगन गोपाल कन्हैया, श्यामल छवि झलके’ की अद्भुत अलौकिक सृष्टि के धरातल में घर-आंगन को धोते हुए रंगोली सजाने, तुलसी के बिरवे पर जल चढ़ाने के साथ जिस दीपदान की कल्पना रची गई है, शायद वह भारतीय समाज की सबसे प्रासंगिक सांस्कृतिक छवि है.

अनगिनत मानद उपाधियां, फिल्म ट्रॉफियां, देश-विदेश के तमाम नागरिक सम्मान सहित ‘भारत रत्न’ जैसे अलंकरण चाहे कितने भी बड़े क्यों न हों उनकी एक सुरीली आहट पर फीके पड़ जाते हैं. लता जी बारे में एक बार उस्ताद बिस्मिल्ला खां ने कहा था कि अगर सरस्वती होंगी तब वह उतनी ही सुरीली होंगी जितनी कि लता मंगेशकर हैं. हम सभी गर्व कर सकते हैं कि हम उस हवा में सांस ले सकते हैं जिसमें साक्षात सरस्वती की आवाज भी सुर लगाते हुए सांस ले रही है.

(30 सितंबर 2011)

क्या इस्लाम में बदलाव और आधुनिकता के लिए कोई स्थान नहीं है?

फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय
फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय

इस्लाम में सुधारों और बदलाव से जुड़े सवाल का जवाब दो हिस्सों में दिया जाना चाहिए. एक हिस्सा इस्लाम के बुनियादी सिद्धांतों से जुड़े बदलावों से संबंधित होगा और दूसरा अन्य बदलावों से.

जहां तक धर्म के उन सिद्धांतों का सवाल है जो कुरान के मुताबिक बुनियादी या शाश्वत हैं और सभी धार्मिक परंपराओं में एक समान हैं उनमें बदलाव की न तो कोई आवश्यकता है और न ही ऐसा करना जरूरी है. कुरान कहता है, ‘अल्लाह ने तुम्हारे लिए वही दीन (धर्म) मुकर्रर किया है जिसका उसने नूह (पैगंबर) को हुक्म दिया था और जिसकी वाही (आकाशवाणी) हमने तुम्हारी तरफ की है, और जिसका हुक्म हमने इब्राहिम (पैगंबर), मूसा (पैगंबर और यहूदी धर्म के प्रवर्तक) और ईसा (पैगंबर और ईसाई धर्म के प्रवर्तक) को दिया था कि दीन को कायम रखो और उसमें बिखराव न डालो.’ (कुरान 42.13)

धर्म की इस कल्पना के बारे में मौलाना आजाद अपनी किताब ‘तर्जुमानुल कुरान’ में लिखते हैं,  ‘सत्य एक है और सभी परंपराओं में समान है. परंतु उसके आवरण अलग-अलग हैं. हमारा दुर्भाग्य यह है कि दुनिया शब्दों की पुजारी है और अर्थ को अनदेखा कर देती है. सभी लोग एक परमेश्वर की उपासना करते हैं लेकिन उस परमेश्वर के अलग-अलग नामों को लेकर झगड़ते हैं.’  मौलाना आजाद इस साझी आध्यात्मिकता को मुश्तरक हक (साझा सत्य) कहते हैं. वे कहते हैं कि धर्म का उद्देश्य ऐसा मानस निर्मित करना है जिससे दैविक करुणा और सुंदरता प्रतिबिंबित हो सके. वे इस बात पर अफसोस जाहिर करते हैं कि धर्म, जो कि मानवीय एकता पैदा करने का माध्यम है उसका इस्तेमाल एकता को तोड़ने के लिए किया जाता रहा है. मौलाना आजाद जिस साझा सत्य और धर्म के उद्देश्य की बात करते हैं उन्हें कैसे बदला जा सकता है?

इन बुनियादी सिद्धांतों के बाद जो दूसरी बातें हैं उनका संबंध समय से है जोकि निरंतर बदल रहा है. कुरान निरंतर होने वाले परिवर्तनों-जैसे रात और दिन का बदलना, समंदर के ज्वार-भाटे, नदियों का सैलाब, बढ़ती हुई उम्र, इंसानों के अलग-अलग रंग और भाषाएं, विभिन्न सभ्यताओं के उत्कर्ष और पतन आदि – को अल्लाह की निशानियां कह कर पुकारता है और इनका गंभीर अध्ययन करने का आह्वान करता है.

परिवर्तनों के अध्ययन के इस आह्वान से एक बात स्पष्ट होती है. कुरान यह चाहता है कि हमें न सिर्फ परिवर्तनों का बोध रहे बल्कि हम इनके कारण पैदा हुई नई परिस्थितियों और चुनौतियों का सामना करने के लायक भी बन सकें. कुरान की आयत है- ‘अगर तुम आगे नहीं बढ़ोगे तो अल्लाह तुम्हें दर्दनाक सजा देगा और तुम्हारी जगह दूसरे लोगों को ले आएगा.’ (कुरान 9.39)

निरंतर परिवर्तन हमारे जीवन की सच्चाई है. अगर किसी बेजान वस्तु जैसे किसी पत्थर को पर्यावरण के प्रभावों से बचाकर सुरक्षित रख दिया जाए तो संभव है कि वह हजार साल बाद भी वैसी ही मिल जाए. लेकिन कोई भी ऐसी वस्तु जिसमें जीवन है, वह चाहे मानव हो या पशु या पेड़-पौधे, वह हर दिन के साथ या तो बढ़ेगी या घटेगी. वह एक सी हालत में रह ही नहीं सकती. प्रसिद्ध मुस्लिम विद्वान इब्ने खल्दून ने अपनी किताब ‘मुकद्दिमा’ में लिखा है, ‘दुनिया के हालात और विभिन्न देशों की आदतें हमेशा एक जैसी नहीं रहती हैं.  दुनिया परिवर्तन और संक्रांतियों की कहानी का नाम है. जिस तरह से ये परिवर्तन व्यक्तियों, समय और शहरों में होते हैं, उसी तरह दुनिया के तमाम हिस्सों, अलग-अलग दौर और हुकूमतों में होते रहते हैं. खुदा का यही तरीका है जो उसके बंदों में हमेशा से जारी है.’

इस्लामी कानून के विशेषज्ञ डॉ. सिबही मेहमसानी ने इब्ने खल्दून के विचारों के आधार पर अपनी किताब ‘फलसफा शरियते इस्लाम’ में लिखा है, ‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि दुनिया की इस परिवर्तनशीलता का नतीजा यह है कि मानव समाज का जीवन स्तर बदलने से उसके कल्याण के पैमाने भी बदल जाते हैं. चूंकि मानव की बेहतरी ही कानून की बुनियाद है, इसलिए अक्ल का फतवा यही है कि समय और समाज में तब्दीलियों के साथ-साथ कानून में भी मुनासिब और जरूरी परिवर्तन होते रहें और वह अपने पास-पड़ोस से भी प्रभावित होता रहे.’

एक अन्य इस्लामी विद्वान इब्ने कय्यिम अल जौज़ी ने जोरदार शब्दों में इस बात को रेखांकित किया है, ‘कानून की तब्दीली, समय और काल के परिवर्तन, बदलते हुए हालात और इंसानों के बदलते हुए व्यवहार के साथ जुड़ी है.’ इसी बात को इब्ने कय्यिम ने आगे बढ़ाते हुए कहा है कि मानव समाज और कानून का एक रिश्ता है और इस रिश्ते को न जानने के कारण एक गलतफहमी पैदा हो गई है. इसने इस्लामी कानूनों के क्षेत्र को सीमित कर दिया है. इस्लामी कानूनों के दायरे को सीमित करने वालों के बारे में इब्ने कय्यिम लिखते हैं कि जिस कानून में मसालेह इंसानी (लोक कल्याण) का सबसे ज्यादा लिहाज रखा गया हो उसमें ऐसे तंग नजरियों की कोई गुंजाइश नहीं है. यह बात अपने आप में महत्वपूर्ण है कि आज से 800

साल पहले इब्ने खल्दून ने और 400 साल पहले इब्ने कय्यिम ने इस बात को स्पष्ट कर दिया था कि कानून का उद्देश्य केवल और केवल लोक कल्याण है.

इस स्थिति को मुजल्लातुल अहकामुल अदालिया (इस्लामी कानून नियमावली) के अनुच्छेद 39 में और ज्यादा साफ कर दिया गया है. वहां कहा गया है, ‘ला युंकिर तघइय्युरिल अहकाम बित तघाय्युरुज्जमन’, अर्थात इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि जमाना बदलने के साथ-साथ कानून भी बदल जाते हैं. इस संदर्भ में मौलाना अलाई की बात भी बहुत महत्वपूर्ण है, ‘कानून का प्रावधान किसी विशेष कारक पर आधारित होता है. उस कारक के समाप्त हो जाने पर वह प्रावधान भी स्वतः समाप्त हो जाता है.’

जब हम इस्लामी कानून के इतिहास पर नजर डालते हैं तो हमें ऐसे अनेक मामले मिलते हैं जहां विभिन्न कारकों के परिवर्तनों के साथ कानून के प्रावधानों में भी जरूरी परिवर्तन किए गए हैं. इसकी कुछ मोटी-मोटी मिसालें हैंः

  • खिराज वह टैक्स है जो खेती करने वालों को देना होता था. इसकी दरें हजरत उमर (इस्लाम धर्म के दूसरे खलीफा या शासक) के जमाने में तय कर दी गई थीं, लेकिन इमाम अबू यूसुफ ने समय बदलने के साथ इन दरों को कम कर दिया.
  • इमाम शाफई उन चार इमामों में से हैं जिनके नाम चारों सुन्नी न्याय व्यवस्थाओं के साथ जुड़े हैं. उन्होंने बहुत-सी यात्राएं कीं और वे अपनी विद्वता के लिए प्रसिद्ध हैं. अपनी यात्राओं के बाद इमाम शाफई ने अपनी बहुत -सी मान्यताओं, जिनको इतिहास में इराकी मजहब कहा गया है, को छोड़कर नया मिस्री मजहब इख्तियार कर लिया.
  • मुस्लिम हुकूमत के पहले दौर में स्कूल में पढ़ाने वाले उलेमा के लिए बड़े-बड़े वजीफे मुकर्रर थे. इस आधार पर इमाम अबू हनीफा और उनके साथियों ने कुरान और दूसरे धार्मिक ग्रंथों को पढ़ाने के लिए उन्हें मेहनताने देने पर पाबंदी लगा दी थी. बाद में जब वजीफे बंद हो गए तो उस समय के उलेमा ने फतवे देकर इस प्रकार की तनख्वाह को जायज करार दे दिया.काल और समय के परिवर्तन के साथ कानून में परिवर्तन के सिद्धांत को इस्लामी न्यायसंहिता में पूरी मान्यता है. लेकिन ऊपर जितने उदाहरण दिए गए हैं वे उन कानूनों से संबंधित हैं जो मुस्लिम विधि शास्त्रियों की राय और फतवों के आधार पर बनाए गए थे. इनके अतिरिक्त वे कानून भी हैं जिनका आधार कुरान और सुन्नत (परंपराएं) है. इनकी महत्ता इस्लामी कानूनों में सबसे ज्यादा है. हालांकि यह माना जाता है कि कुरान और सुन्नत पर आधारित किसी भी कानून को बदला नहीं जा सकता, लेकिन इतिहास में ऐसी कई मिसालें मिलती हैं. खास तौर से हजरत उमर की खिलाफत के दौर में जहां उन्होंने समय और परिस्थितियों में बदलाव के कारण उन कानूनों और नियमों में परिवर्तन किए जिनका संबंध सीधे कुरान और सुन्नत से था. ऐसे कुछ उदाहरण हैं:
  • कुरान में खैरात और सदकात (दान-दक्षिणा) के लिए स्पष्ट प्रावधान है: “सदकात दरअसल फकीरों और मिसकीनों (वंचितों) के लिए है, नेक काम में लगे लोगों के लिए, उनके लिए जिनको तकलीफ-ए-कल्ब (दिल भराई) की जरूरत है, गुलामों को आजाद कराने और दूसरों के कर्जे अदा करने के लिए और अल्लाह के रास्ते पर चलने वाले मुसाफिरों की मदद के लिए. (कुरान 9.60)यहां दिल भराई से मतलब वे लोग या नए मुसलमान थे जिनको पैगंबर साहब कुछ रकम दिया करते थे. इस्लामी टीकाकार बैहक्की ने लिखा है कि कुरान के इस प्रावधान के बावजूद हजरत उमर ने दिल भराई वालों का हिस्सा देना बंद कर दिया और कहा कि पैगंबर साहब यह रकम तुम्हें इसलिए दिया करते थे कि तुम्हारी दिल भराई करके तुम्हें इस्लाम पर कायम रख सकें. लेकिन अब ऐसा करने की जरूरत नहीं है.
  • हदीस (हजरत मुहम्मद साहब के वचनों का संकलन) की प्रसिद्द किताब ‘सही मुस्लिम’ के मुताबिक पैगंबर साहब, हजरत अबू बक्र (इस्लाम धर्म के पहले खलीफा) और हजरत उमर की खिलाफत के आरंभिक दौर में एक साथ तीन बार कहे गए तलाक को एक ही माना जाता था बाद में जब लोग तलाक में जल्दी करने लगे तो हजरत उमर ने उन्हें एक ही बार में तीन तलाक देने की इजाजत दे दी. (मुस्लिम किताब 009, हदीस नंबर 3493)हजरत उमर ने अपने जमाने के लिहाज से जिस राय को बेहतर समझा उसको लागू किया लेकिन यह भी सही है कि बहुत-से उलमा ने हजरत उमर की इस राय से सहमत नहीं थे और आज भी इस्लामी कानून की कई धाराओं में एक वक्त के तीन तलाक को एक तलाक ही माना जाता है. शेख अहमद मोहम्मद शाकिर ने अपनी किताब ‘निजामे तलाक फी इस्लाम’ में लिखा है कि हजरत उमर का यह फैसला एक हंगामी हुकुम की हैसियत रखता है जो उन्होंने सियासती जरूरत के चलते दिया था.
  • इस्लामी कानून में चोरी की सजा हाथ काटना है और इसका प्रावधान कुरान में है – ‘और चोर मर्द और चोर औरत दोनों के हाथ काट दो, यह उनकी कमाई का बदला है’ (कुरान 5.38)खुद पैगंबर साहब ने इस प्रावधान के तहत चोरी करने वालों को यही सजा दी थी, लेकिन हजरत उमर ने अकाल के समय जनहित में इस सजा को निलंबित कर दिया और इस को आम तौर पर स्वीकार कर लिया गया.
  • किसी अविवाहित व्यक्ति द्वारा अवैध यौन संबंध की सजा इस्लामी कानून के अनुसार 100 कोड़े और एक साल के लिए उस स्थान से बाहर भेज देना है. लेकिन हजरत उमर के बारे में आया है कि जब उन्होंने राबिया बिन उमय्या को शहर से निकाला तो वह जा कर रोमन लोगों से मिल गया जिनके साथ उस समय जंग चल रही थी. इस पर हजरत उमर ने कहा कि अब मैं कभी किसी को शहर से बाहर नहीं निकालूंगा. हजरत उमर का यह फैसला भी वक्त और हालात के हिसाब से राज्य के हित में लिया गया फैसला था जो साफ तौर पर इस्लामी कानून के प्रावधानों से अलग था.
  • इस्लामी कानून उन अपराधों के मामले में शासक को सजा तय करने का अधिकार देते हैं जहां साफ तौर पर किसी सजा का प्रावधान नहीं है. लेकिन एक हदीस में यह साफ कर दिया गया है कि यह सजा 10 कोड़ों से ज्यादा नहीं हो सकती. मगर हजरत उमर ने एक मामले में, जहां एक आदमी ने सरकारी खजाने की जाली मोहर बना ली थी, 100 कोड़ों की सजा सुनाई. इमाम मालिक जो हदीस के पहले संकलनकर्ता हैं उन्होंने इस मामले में कहा है कि 10 कोड़ों की सजा पैगंबर साहब के समय के हिसाब से सही थी. यह हर दौर में लागू नहीं होती है.
  • हत्या के मामले में इस्लामी कानून में ‘खून बहा’ का प्रावधान है. इसके अनुसार हत्या करने वाले या उसके कबीले पर यह जिम्मेदारी आती है कि वह एक निर्धारित रकम मारे गए व्यक्ति के परिजनों को दे. लेकिन हजरत उमर ने इस तरीके को बदल दिया. इसका कारण यह था कि उन्होंने पहली बार शासन और फौज को संगठित किया तो सामूहिक सत्ता कबीलों के हाथ से निकलकर सरकार के पास आ गई

इमाम सरखासी ने इस फैसले की तारीफ करते हुए कहा कि यह नहीं कहा जा सकता कि हजरत उमर का यह फैसला पैगंबर साहब की परंपरा से हट जाना था. वास्तव में यह उसी परंपरा के अनुसार था क्योंकि वे यह जानते थे कि पैगंबर साहब ने यह जिम्मेदारी कबीले पर इसलिए डाली थी कि उनके समय कबीला ही शासन और सत्ता की बुनियादी इकाई था. लेकिन सरकारी फौज के संगठित होने के बाद सत्ता फौज के हाथ में आ गई और बहुत बार फौजी होने के नाते आदमी कभी-कभी अपने ही कबीले के खिलाफ जंग करने के लिए मजबूर होता था. दूसरी तरफ इमाम शाफई ने इस तर्क को पैगंबरी परंपरा के खिलाफ कह कर रद्द कर दिया.

इस बहस से इतना तो साफ है कि इस्लामी परंपरा में कानून कोई जड़ संस्था नहीं है बल्कि हर प्रसंग के प्रति अत्यंत संवेदनशील है. ऐतिहासिक दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि इस्लामी कानून में इतनी जीवंतता और लोच है कि यह बदलते हुए वक्त के हर तकाजों और चुनौतियों का सकारात्मक उत्तर दे सके. इस सिलसिले में सबसे मजबूत और दिलचस्प तर्क सर सैयद अहमद खान (1817-1898) ने दिया है. उन्होंने कहा कि कुरान खुदा का शब्द है और जो कुछ हम दुनिया में देखते हैं वह खुदा का कर्म है. उन्होंने कहा कि यह असंभव है कि खुदा की कथनी और करनी में विरोधाभास हो. अगर हमें दोनों में अंतर नजर आता है तो इसका एक ही मतलब है कि हमने खुदा के कहे को सही तरह से समझा नहीं है. इसलिए हमें उस प्रावधान विशेष के बारे में अपनी समझ की पुनर्समीक्षा करनी होगी और शब्द और कर्म के बीच सामंजस्य स्थापित करना होगा.

सामंजस्य स्थापित करने और नई परिस्थितियों व चुनौतियों के बीच रास्ता तलाश करने के प्रयासों को कुरान बहुत प्रशंसनीय निगाहों से देखता है और कहता है, ‘और जो हमारे लिए अथक प्रयास करेंगे उन्हें हम अपने रास्ते दिखाएंगे. निस्संदेह अल्लाह अच्छे काम करने वालों के साथ है.’ (कुरान 30.69)

आरिफ मोहम्मद खान की अतुल चौरसिया से बातचीत के आधार पर इस आलेख से जुड़े कुछ और बिंदु आगे हैं.

तो फिर कट्टरपंथ का भ्रम क्यों?
मैंने अपने लेख में जितने उदाहरण दिए हैं वे सब पहली सदी हिजरी अर्थात सातवीं शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी तक के हैं. इन्हीं में वे तीन शताब्दियां भी हैं जिनको इस्लाम का स्वर्णिम काल कहा जाता है, खास तौर से आठवीं और नौवीं शताब्दी जब भारतीय और यूनानी किताबों के अनुवाद किए गए. पहली भारतीय पुस्तक ‘सूर्य सिद्धांत’ का अनुवाद फजारी ने 771 में अरबी में किया जिसको “सिंधहिंद” का नाम दिया गया. यह पुस्तक बाद में स्पेन के जरिए पूरे यूरोप में गई और फजारी को अरब खगोलशास्त्र के पिता के तौर पर जाना गया.

लेकिन यह भी सत्य है कि दसवीं शताब्दी से ऐसी प्रवृत्तियां खड़ी हो गईं विशेषकर अशअरी आंदोलन के नतीजे में जिनकी वजह से बौद्धिक वातावरण पर कुप्रभाव पड़ा और नई सोच व अनुसंधान एक तरह से गंदे शब्द बन गए. यह माहौल बगदाद पर मंगोल आक्रमण के बाद और अधिक संकुचित हो गया और सिर्फ पुरानी परंपराओं के पालन को धार्मिक आस्थाओं का अभिन्न अंग मान लिया गया. जस्टिस अमीर अली ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘स्पिरिट ऑफ इस्लाम’ में एक अरब संपादक की टिप्पणी उद्धृत की है, ‘अगर अशअरी और गजाली न हुए होते तो अरबों का समाज गेलिलियो, केल्पेर और न्यूटन का समाज होता. उन्होंने विज्ञान और दर्शन के अध्ययन की निंदा की और यह आह्वान किया कि धर्मशास्त्र और धार्मिक कानून के अध्ययन के अलावा किसी और विषय की पढ़ाई समय की बर्बादी है.’ अरब संपादक के अनुसार इस आह्वान से मुस्लिम दुनिया का विकास अवरुद्ध हो गया और अज्ञानता और रूढ़िवाद की जड़ें गहरी होती चली गई.’

लेकिन यह नहीं मानना चाहिए कि गतिशीलता पूरी तरह समाप्त हो गई है. पूरी दुनिया में जो प्रगति और परिवर्तन हो रहे हैं मुस्लिम उससे कटे हुए नहीं हंै. मगर वे ज्यादातर उस परिवर्तन का लाभ उठाने वालों में शामिल हैं परिवर्तन लाने वालों में नहीं. शैक्षिक विकास के साथ यह स्थिति बदल रही है. मगर उलमा (पेशेवर धर्मगुरु) का एक वर्ग अब भी पुरानी लीक पर जमा हुआ है. इससे इस तर्क को बल मिल जाता है कि पूरा मुस्लिम समाज कट्टरपंथी है.

मुस्लिम उलमा में हमेशा से दो वर्ग रहे हैं. एक, जिनको उलमा-ए-हक कहा गया है जिनमें वे महान सूफी भी हैं जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी किसी संप्रदाय विशेष के लिए नहीं बल्कि अल्लाह की इबादत के लिए समर्पित कर दी. उसी के साथ दूसरा वर्ग भी रहा है जिन्होंने दीन को पेशे के तौर पर इस्तेमाल किया. उन्होंने बादशाहों और हुकूमतों की नौकरियां की और उनकी मर्जी के अनुसार ठकुर-सुहाती फतवे देकर बादशाहों के हर सही और गलत काम को जायज ठहराया. इन्हीं उलमा के फतवों के नतीजे में सरमद जैसे अल्लाह के बंदे को फांसी की सजा दी गई, हजरत निजामुद्दीन औलिया पर दिल्ली के दरबार में मुकदमा चलाया गया. यह भी छोडिए, कर्बला के मामले में जहां पैगंबर साहब के पूरे परिवार को बेदर्दी के साथ शहीद किया गया था – सिर्फ इस जुर्म में कि उन्होंने खानदानी बादशाहत को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था – फतवे देकर इस जुल्म को जायज ठहराया गया. मौलाना आजाद ने अपने एक इंटरव्यू में इन्हीं उलमा के लिए कहा है, ‘इस्लाम की पूरी तारीख उन उलमा से भरी पड़ी है जिनके कारण इस्लाम हर दौर में सिसकियां लेता रहा है.’

राजनीति की भूमिका
मुसलमान और इस्लाम की छवि हिंदुस्तान में अगर आज ऐसी बन गई है कि यह अतीत में ठहरा हुआ है, तो इसे समझने के लिए हिंदुस्तान के राजनीतिक पक्ष को भी समझना होगा. यहां जो लोग मुसलमानों का नेता होने का दावा करते हैं उनकी व्यक्तिगत आस्था तो कुछ और होती है लेकिन अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की वजह से वे इसके बिल्कुल विपरीत आचरण करते हैं. इसके चलते कई कट्टरपंथी आम लोगों की आस्थाओं को भड़काने में कामयाब हो जाते हैं. एक जमाने से ऐसे लोग बहुत व्यवस्थित तरीके से यह काम कर रहे हैं. जिन्ना से इसकी शुरुआत हुई थी. उनकी व्यक्तिगत आस्था कुछ और थी. वे पैदा तो एक मुसलमान के घर में हुए लेकिन सबका यह मानना है कि वे जीवन भर नॉन-प्रैक्टिसिंग मुसलमान रहे. उन्होंने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए मुसलमानों का जमकर इस्तेमाल किया. हमने देखा कि शाहबानो के मामले में कई आधुनिक मुस्लिम राजनेताओं ने कट्टरपंथियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया और हमारी राजनीतिक व्यवस्था ने उन्हें इसके लिए जमकर पुरस्कृत किया. ऐसे में मुस्लिम समाज किस तरफ बढ़ेगा और इसके लिए जिम्मेदार कौन होगा? व्यवस्था बार-बार एक ही संदेश दे रही है कि अगर किसी मुसलमान को हिंदुस्तान की राजनीति में आगे बढ़ना है तो आप कट्टरपंथियों के साथ खड़े होइए, बंद दिमागों को आगे बढ़ाइए. जब यह संदेश एक पढ़े-लिखे मुसलमान को मिलेगा तो हालात कैसे बदलेंगे. 1986 में शाहबानो के मामले के बाद से ही तो इस देश की राजनीति में कट्टरपंथियों का असर बढ़ा है, उसके पहले कहां था यह. यह स्थिति इसलिए भी पैदा हुई क्योंकि आम आदमी को अशिक्षित रखा गया, और इस हद तक कि उसे कुरान को अनुवाद के साथ पढ़ने पर भी पाबंदी लगा दी गई. जबकि इस्लाम में हर मर्द और औरत को इल्म हासिल करना जरूरी है. अगर हम  शिक्षा का विस्तार करने में सफल हो सकें और साधारण व्यक्ति शिक्षित होकर अपने फैसले खुद करने की स्थिति में आ सके तो पेशेवर उलमा पर उनकी निर्भरता ख़त्म हो जाएगी और स्थितियां खुद-ब-खुद सुधरने लगेंगी. यह काम हो रहा है क्योंकि मुसलमानों में शिक्षा का विस्तार बहुत तेज़ी से हो रहा है, खास तौर से महिलाओं में.

कश्मीर के मुफ्ती-ए-आजम और ओवैसी
यह सही है कि संगीत के संदर्भ में उलमा के बीच शुरू से मतभेद रहा है. हज़रत निजामुद्दीन पर चलने वाले जिस मुक़दमे का जिक्र मैंने किया है उसका संबंध संगीत ही से था. उलमा के एक वर्ग की मजबूत राय रही है कि संगीत जायज़ नहीं है. वहीं दूसरी तरफ हमें वे उलमा नजर आते हैं (खास तौर से सूफी परंपरा से संबंध रखने वाले) जो संगीत को आध्यात्मिक विकास का माध्यम मानते थे. हमारी अपनी परम्परा में अमीर खुसरो न सिर्फ कवि थे बल्कि संगीत के कई आले (वाद्ययंत्र) खुद उनकी अपनी ईजाद हैं.

इस्लामी अरब में गाने और संगीत का इतिहास प्रसिद्ध किताब ‘किताबुल अगना’ में मिलता है जो अबुल फराज इस्फहानी (897-966) ने लिखी है. इस किताब में विस्तार से पुरुष और महिला संगीतकारों का विवरण दिया गया है. महिला संगीतकारों में प्रमुख नाम ‘अज्जा अल्मैला’ और ‘जमीला’ के हैं. ये दोनों महिला संगीतकार अपनी कला में निपुण थीं और मदीने में रहती थीं.

कश्मीर के मुफ्ती-ए-आजम बशीरुद्दीन अहमद के फतवे के संदर्भ में इतना ही कहा जा सकता है कि यह फतवा मुसलमानों के एक हिस्से की राय तो हो सकता है लेकिन इसे इस्लामी नहीं कहा जा सकता. कश्मीर, जो मशहूर सूफी लल्ला आरिफा और शेख नूरुद्दीन (नन्द ऋषि) की सरजमीन है वहां से अगर ऐसा फतवा आता है तो यह अपने आप में विरोधाभास है. पूरी दुनिया में कहीं भी किसी भी मस्जिद में इबादत के समय स्थानीय भाषा में सामूहिक गान नहीं होता है लेकिन कश्मीर की मस्जिदों में नमाज़ के बाद ‘औरादे फतहिया’ का सामूहिक गान होता है. यह गाना कश्मीरियों की इबादत का हिस्सा है. ऐसे कश्मीर में लड़कियों के गाने पर पाबंदी दुर्भाग्यपूर्ण है.

जहां तक अकबरुद्दीन ओवैसी के भाषण से जुड़ा विवाद है तो उस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. ओवैसी का संबंध मजलिस से है जो पुराने हैदराबाद के रजाकार संगठन का राजनीतिक मंच था. यह वही संगठन है जो हैदराबाद के भारत में विलय के विरुद्ध था, जिसके नतीजे में पुलिस एक्शन हुआ और हैदराबाद के लोगों को एक बड़ी त्रासदी से गुजरना पड़ा. जिस पार्टी का लीडर कासिम रिजवी हैदराबाद के नौजवानों को कलमा पढ़ कर भारतीय टैंकों के सामने कूदने का आह्वान करके खुद कराची भागने में संकोच महसूस नहीं करता, उस पार्टी का एक नातजुर्बेकार कारकुन अगर अपने भाषणों में दूसरी धार्मिक परम्पराओं का अपमान करता है तो मुझे कोई ताज्जुब नहीं है. इस मामले में सवाल ओवैसी से नहीं बल्कि कांग्रेस पार्टी से पूछा जाना चाहिए कि आखिर उन्होंने मजलिस को यूपीए में शामिल क्यों किया. ओवैैसी को तो शायद यह भी नहीं मालूम है कि कुरान हकीम सख्ती के साथ यह कहता है , ‘और जो लोग अल्लाह के सिवा किसी और को पूजते हैं उन्हें गाली न दो वर्ना वे लोग अज्ञानता की बुनियाद पर अल्लाह को गाली देने लगेंगे. ऐसा करने से उनके कर्म लोगों को जायज लगने लगेंगे.’ (कुरान 6.108)

मजलिस ही नहीं मुझे तो मुस्लिम लीग का भी यूपीए में रहना अटपटा लगता है. मुस्लिम लीग ने देश का विभाजन कराया, लाखों लोगों का खून बहा, परिवार विस्थापित हुए और आज वही मुस्लिम लीग कांग्रेस के साथ सरकार में हिस्सेदार है. मैं मानता हूं कि केरल की मुस्लिम लीग पुरानी मुस्लिम लीग से भिन्न है लेकिन मुस्लिम लीग नाम अपने आप में अस्वीकार्य है और केरल मुस्लिम लीग पर दबाव डाला जा सकता था कि वे अपना नाम तो बदल लें. मौलाना आज़ाद ने 23 अक्टूबर, 1947 को दिल्ली में जामा मस्जिद के सामने अपने भाषण में कहा था, ‘अब हिंदुस्तान की सियासत का रुख बदल चुका है, मुस्लिम लीग के लिए यहां कोई जगह नहीं है.’

(28 फरवरी 2013)

इंद्रधनुषी पत्रकारिता के पांच साल

coverअगर हिंदी के किसी मीडिया संस्थान को निष्पक्ष पत्रकारिता करते हुए अपने पाठकों में वैसा ही विश्वास भी जमाना हो तो उसे कम से कम दो छवियों से जूझना पड़ेगा. आज समाज के अन्य क्षेत्रों की तरह समूची पत्रकारिता पर ही अविश्वास करने वालों की कमी नहीं और दूसरा हिंदी पत्रकारिता, खुद को रसातल में पहुंचाने के लिए लगातार की गई कोशिशों के चलते खास तौर पर सवालों के घेरे में है.

तहलका की हिंदी पत्रिका के सामने संकट इससे कहीं बड़े थे. एक संस्थान के रूप में तहलका को कई लोग सिर्फ छुपे हुए कैमरों के जरिये लोगों को फंसाने की पत्रकारिता करने वाला मानते थे तो कई बार उस पर एक पार्टी और एक धर्म से जुड़े लोगों के प्रति सहानुभूति रखने के भी आरोप लगाए जाते रहे. कुछ समय से, हमेशा अपना बिलकुल अलग अस्तित्व रखने के बावजूद हिंदी पत्रिका को कुछ और भी अवांछित छवियों से मुठभेड़ करने के लिए विवश होना पड़ रहा है.

तहलका की हिंदी पत्रिका की शुरुआत अंग्रेजी पत्रिका के अनुवाद के तौर पर हुई थी. लेकिन ऐसे में भी शुरुआत से ही हमने किताबों में पढ़ी पत्रकारिता की परिभाषा के मुताबिक काम करने की कोशिशें शुरू कर दीं. हमने पत्रकारिता और हिंदी की जरूरतों की अपनी समझ की कसौटी पर अच्छी तरह से कसने के बाद ही अंग्रेजी पत्रिका में से समाचार-कथाओं को अपनी पत्रिका में लिया.

धीरे-धीरे हिंदी तहलका इसकी सामग्री और पहचान के मामले में अपने पैरों पर खड़ा होने के बाद कुलांचें भरने लगी. पिछले दो सालों में कुछ ऐसा हुआ जो पहले शायद हुआ नहीं था. तहलका की हिंदी पत्रिका में अंग्रेजी से अनुवादित कथाओं का लिया जाना लगभग बंद हो गया और पत्रिका की गुणवत्ता के चलते इसका उलटा (यानी हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद होना) एक वृहद स्तर पर शुरू हो गया. इसके अलावा पिछले एक साल में तहलका की हिंदी पत्रिका को जितने और जैसे देश-विदेश के पुरस्कार मिले उतने और वैसे इससे दसियों गुना बड़े भी किसी संस्थान को शायद नहीं मिले.

लेकिन तहलका की हिंदी पत्रिका की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि इसने अपनी कोशिशों से एक आम पाठक के मन में समूची पत्रिकारिता के प्रति विश्वास को गहरा करने का काम किया. हम गर्व से कह सकते हैं कि अपने पांच साल के इतिहास में हमने कोई भी ऐसा काम नहीं किया जिससे हमारी नीयत पर उंगली उठाई जा सके.

इस विशेषांक में तहलका हिंदी द्वारा समय-समय पर की गईं उत्कृष्ट कथाओं में से कुछ हैं. हमारे ज्यादातर पाठक इनमें से कुछ को पढ़ चुके होंगे, कुछ ने हो सकता है इनमें से सभी को अलग-अलग अंकों में पढ़ा हो. लेकिन अपने संपादित स्वरूप में इतनी सारी उत्कृष्ट समाचार-कथाओं को एक साथ पढ़ना भी एक अनुभव है, ऐसा इन्हें संकलित करते हुए हमें लगा है और विश्वास है कि इन्हें पढ़ने के बाद आप भी ऐसा अनुभव करेंगे. इन्हें पढ़कर आपका और हमारा भी हममें विश्वास थोड़ा और मजबूत होगा, इस विश्वास के साथ आपके लिए ही समय-समय पर की गईं कथाओं का यह अंक आपको समर्पित है.


Atul Chaursia1 महान लोकतंत्र की सौतेली संतानें

नर्मदा और टिहरी की जो वर्तमान त्रासदी है उससे उत्तर प्रदेश का सोनभद्र पिछली आधी सदी में बार-बार गुजरा है. लेकिन इसका दुर्भाग्य कि विनाश के कई गुना ज्यादा करीब होने के बावजूद यह आज कहीं मुद्दा ही नहीं है

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 JP वर्दी चाहे हमदर्दी

खाकी वर्दी का रौब हम सभी ने देखा है और कभी-कभी शायद झेला भी है मगर उसे पहनने से उपजी कुंठा और कांटेदार पीड़ा के बारे में हम कुछ नहीं जानते

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 Priyanka होना ही जिनका अपराध है

पहले बलात्कार और फिर उन्हें जिंदा जला देना. बुंदेलखंड में पिछले एक साल में ही 15 से ज्यादा लड़कियों के साथ ऐसा हो चुका है

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 Himanshu Shekhar क्या मनमोहन सिंह उतने ही मासूम हैं जितने दिखते हैं?

कैग की रिपोर्ट बताती है कि तेल मंत्रालय और रिलायंस इंडस्ट्रीज की सांठ-गांठ से देश को अरबों रुपये का नुकसान हुआ. तहलका को मिले दस्तावेज बताते हैं कि इस घोटाले की जानकारी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को तब से ही थी जब इसकी नींव पड़ रही थी

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 riter12 सुर अविनाशी

मामूली आदमी से लेकर अपने क्षेत्र के शिखर पर बैठे व्यक्ति तक कोई भी ऐसा नहीं जिसकी भावनाओं को लता मंगेशकर की आवाज न मिली हो.

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 Manoj-rawat काले कर्मों वाले बाबा

काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले बाबा रामदेव का खुद का हाल पर उपदेश कुशल बहुतेरे जैसा है

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 Manoj rawat यह शहर नहीं दिल्ली है

100 साल की अल्हड़ राजधानी दिल्ली आज भी दिलवालों का शहर है या दिल के बीमारों का या फिर कुछ और?

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 Brijesh Singh अनेक हैं टाइगर: लेकिन वैसे नहीं जैसे सलमान खान

भारतीय जासूसों के साथ जैसा बर्ताव हो रहा है उसके बाद कैसे कोई देश पर अपनी जान और जवानी लुटाने की सोच भी सकता है?

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 Atul Chaursia1 ‘राजनीतिक पार्टी बनाने का विचार अन्ना जी का था लेकिन बाद में वे ही पीछे हट गए’

अरविंद केजरीवाल से खास बातचीत.

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 Nirala गली-गली में शंकराचार्य

कहते हैं कि आदि गुरू शंकराचार्य ने चार दिशाओं में चार मठ बनाकर इतने ही शंकराचार्यों की व्यवस्था दी थी. लेकिन आज उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक खुद को शंकराचार्य कहने वालों की पूरी फौज मौजूद है

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 Arif Khan by Dijeshwar Singh क्या इस्लाम में बदलाव और आधुनिकता के लिए कोई स्थान नहीं है?

कश्मीरी लड़कियों के बैंड के खिलाफ फतवा, विश्वरूपम फिल्म पर हुआ विवाद और अकबरुद्दीन ओवैसी का भड़काऊ भाषण, इन हालिया घटनाओं ने लोगों के मन में कई सवाल पैदा कर दिए हैं

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 Rahul Kotiyal हरेक बात पे कहते हो तुम कि…

जस्टिस मार्कंडेय काटजू आज देश में हो रही ज्यादातर बहसों में शामिल हैं जिनमें से कई उनसे ही शुरू होती हैं

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आसान शिकार

Asan-Shikar
इलेस्ट्रेशन: मनीषा यादव

मनुष्य की मेरी देह ताकत
के लिए एक आसान शिकार है
ताकत के सामने वह इतनी दुर्बल है
और लाचार है
कि कभी भी कुचली जा सकती है
ताकत के सामने कमजोर और
भयभीत हैं मेरे बाल और नाखून
जो मेरे शरीर के दरवाजे पर ही
दिखाई दे जाते हैं
मेरी त्वचा भी इस कदर पतली
और सिमटी हुई है
कि उसे पीटना बहुत आसान है
और सबसे अधिक नाजुक और
जद में आया हुआ है मेरा हृदय
जो इतना आहिस्ता धड़कता है
कि उसकी आवाज भी शरीर से
बाहर नहीं सुनाई देती
ताकत का शरीर इतना
बड़ा इतना स्थूल है
कि उसके सामने मेरा अस्तित्व
सिर्फ एक सांस की तरह है

मिट्टी हवा पानी जरा सी आग
थोड़े से आकाश से बनी है मेरी
देह
उसे फिर से मिट्टी हवा पानी और
आकाश में मिलाना है आसान
पूरी तरह भंगुर है मेरा वजूद
उसे बिना मेहनत के मिटाया जा
सकता है
उसके लिए किसी अतिरिक्त
हरबे-हथियार की जरूरत नहीं
होगी
यह तय है कि किसी ताकतवर
की एक फूंक ही
मुझे उड़ाने के लिए काफी होगी
मैं उड़ जाऊंगा सूखे हुए पत्ते नुचे
हुए पंख टूटे हुए तिनके की तरह

कभी-कभी कोई ताकतवर थोड़ी
देर के लिए सही
अपने मातहतों को सौंप देता है
अपने अधिकार
उनसे भी डरती है मेरी मनुष्य देह
जानता हूं वे उड़ा देंगे मुझे अपनी
उधार की फूंक से.

मैं हर जगह था वैसा ही

मैं बम्बई में था
तलवारों और लाठियों से बचता-बचाता भागता-चीखता
जानवरों की तरह पिटा और उन्हीं की तरह ट्रेन के डब्बों में लदा-फदा
सन साठ में मद्रासी था, नब्बे में मुसलमान
और उसके बाद से बिहारी हुआ

मैं कश्मीर में था
कोड़ों के निशान लिए अपनी पीठ पर
बेघर, बेआसरा, मज़बूर, मज़लूम
सन तीस में मुसलमान था
नब्बे में हिन्दू हुआ

मैं दिल्ली में था
भालों से गुदा, आग में भुना, अपने ही लहू से धोता हुआ अपना चेहरा
सैंतालीस में मुसलमान था
चौरासी में सिख हुआ

मैं भागलपुर में था
मैं बड़ौदा में था
मैं नरोड़ा पाटिया में था
मैं फलस्तीन में था अब तक हूं वहीं अपनी कब्र में साँसें गिनता
मैं ग्वाटेमाला में हूं
मैं ईराक में हूं
पाकिस्तान पहुँचा तो हिन्दू हुआ

जगहें बदलती हैं
वजूहात बदल जाते हैं
और मज़हब भी, मैं वही का वही!