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वनाधिकार पत्र के लिए अब जंगल-सत्याग्रह

DSCN9192कौन
‘राष्ट्रीय मानव’ का दर्जा प्राप्त बैगा जनजाति

कब
9 अगस्त, 2012 से

कहां
मसना गांव, जिला – मंडला (मध्य प्रदेश)

क्यों
देवालय के नाम पर यहां न कोई छत है, न कोई चारदीवारी. है तो देवालय नाम का एक वटवृक्ष और उसके नीचे रखी देवमूर्ति. यह है मध्य प्रदेश के बैगा जनजाति बहुल मंडला जिले का मसना गांव. यहां जंगल की जमीन पर अपना वनाधिकार पत्र पाने के लिए बैगा जनजाति के लोग 9 अगस्त, 2012 से लगातार जंगल-सत्याग्रह कर रहे हैं. हैरानी की बात है कि ऐसा बहुत कम ही लोगों को पता है कि यहां बीते 17 महीने से हर दिन सुबह-शाम बैगा महिला, पुरूष और बच्चे बारी-बारी से उपवास कर रहे हैं. इस जंगल-सत्याग्रह की खासियत यह है कि इसकी बागडोर बैगा महिलाओं ने संभाली हुई है.

काबिले गौर है कि राष्ट्रीय पशु ‘बाघ’ और राष्ट्रीय पुष्प ‘कमल’की तर्ज पर भारत सरकार ने बैगा को आदिम जाति मानकर राष्ट्रीय मानव का दर्जा दिया है. वहीं इनकी कम होती तादाद को देखते हुए मप्र सरकार ने ‘बैगा विकास प्राधिकरण’ बनाया है. 2006 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वनवासियों के साथ हुए पारंपरिक अन्याय को स्वीकारते हुए उनके लिए वनाधिकार कानून लागू किया था. इसी कानून के तहत बैगा जनजाति को भी उनकी पारंपरिक उपयोग की जमीन का हक दिया जाना था. किंतु आदिवासी एकता मंच के कार्यकर्ता ध्रुवदेव बताते हैं कि मसना गांव के सभी 41 बैगा परिवारों को उनकी जमीन से उजाड़ते हुए वन-विभाग ने अपना कब्जा जमाया है. उनके मुताबिक, ‘बैगा परिवारों ने अपनी जमीन के लिए वनाधिकार पत्र हासिल करने का दावा अगस्त, 2011 में ग्राम-सभा में पेश किया था. ग्राम-सभा ने भी उनके दावों को मान्य करते हुए आगे की कार्यवाही के लिए जिला प्रशासन को भेजा था. लेकिन प्रशासन ने उनके व्यक्तिगत वनाधिकार के दावों को नकार दिया.’

वनाधिकार कानून कहता है कि विवादास्पद जमीन पर जब तक अंतिम निर्णय नहीं हो जाता है तब तक सरकार किसी भी प्रकार का कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकती. लेकिन सत्याग्रही सुशीला बाई बताती हैं कि अधिकारियों ने 17 महीने पहले उनकी जमीन पर बनी झोंपड़ियों और फसलों को जला दिया. इसके खिलाफ जब सभी ग्रामीण शिकायत दर्ज कराने मंडला के दलित-आदिवासी थाने पहुंचे तो उनकी रिपोर्ट तक दर्ज नहीं की गई.

सत्याग्रहियों का कहना है कि 6 अगस्त, 2012 को उनके विरोध प्रदर्शन के खिलाफ पुलिस ने 24 पुरुषों और 8 महिलाओं को बिना सूचना के मंडला थाने में बंद रखा. बावजूद इसके जब विरोध नहीं थमा तो 3 मई, 2013 को 6 बैगाओं को तीन महीने के लिए जेल में डाल दिया गया. सत्याग्रही बजराहिन
बाई के मुताबिक, ‘हमारी जमीन पर लोहे के तार और खंबे लगाकर सरकार ने कब्जा जमा लिया. अधिकारियों ने झूठे मामले लादकर हमें
नक्सली बता दिया. हमें हर तरह से परेेशान करने की कोशिश की गई.’

अंग्रेजों ने अपनी हुकूमत के दौरान यहां की जमीन को हथियाने की कोशिश की थी. किंतु बैगा जनजाति ने अहिंसक सत्याग्रह से उन्हें नाकाम बना दिया था. विडंबना ही माना जाएगा कि आज जमीन का अधिकार पाने के लिए इन्हें अपनी ही सरकार के खिलाफ संघर्ष करना पड़ रहा है.
शिरीष खरे

अर्जुन सिंह |1930-2011|

अर्जुन सिंह |1930-2011|

घटना 23 जून, 1981 की है. अर्जुन सिंह को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बने एक पखवाड़ा भी नहीं बीता था कि उन्हें इस कुर्सी पर बैठाने वाला शख्स हमेशा के लिए दृश्य से ओझल हो गया. उस दिन संजय गांधी की हवाई दुर्घटना में मृत्यु हो गई. तब सिंह 100 विधायकों के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिले. उन्होंने श्रीमती गांधी से उनके पुत्र राजीव गांधी को राजनीति में लाने का निवेदन किया. दरअसल अर्जुन सिंह जानते थे कि कांग्रेस की राजनीति गांधी परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमेगी. लेकिन 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद उनकी पत्नी सोनिया गांधी को राजनीति में स्थापित कराने में अहम कड़ी बने सिंह के लिए यह अबूझ पहेली ही रहेगी कि उसी गांधी परिवार ने उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी से हमेशा दूर क्यों रखा. अपने 60 साल के सियासी जीवन में सिंह तीन बार मुख्यमंत्री, पंजाब के राज्यपाल, अखिल भारतीय कांग्रेस के उपाध्यक्ष और पांच बार केंद्रीय मंत्री रहे. किंतु प्रधानमंत्री की कुर्सी के काफी नजदीक होने के बावजूद वे चाहते हुए भी उस पर बैठ नहीं पाए. ‘ए ग्रेन ऑफ सैंड इन ऑवरग्लास ऑफ टाइम’ किताब में अर्जुन सिंह ने अपनी पीड़ा का खुलासा करते हुए बताया है कि 1987 में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह से राजीव गांधी के रिश्तों में इतनी तल्खी आ गई थी कि उन्होंने राजीव की सरकार को बर्खास्त करने की योजना बना ली थी. तब उन्होंने अर्जुन सिंह के सामने प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव भी रखा था. लेकिन सिंह की मानें तो उन्होंने उसे ठुकरा दिया था. जाहिर है कि अपने आखिरी दिनों में सिंह को मलाल था कि गांधी परिवार ने उन्हें वह ‘सम्मान’ नहीं दिया जिसके वे हकदार थे. अर्जुन सिंह की महत्वाकांक्षा पर बड़ा कुठाराघात तब हुआ जब राजीव गांधी की हत्या के बाद नरसिंह राव को प्रधानमंत्री बना दिया गया. हालांकि भाजपा द्वारा छेड़े गए राम मंदिर निर्माण आंदोलन के दौरान उनका नरसिंह राव से मनमुटाव सार्वजनिक था, लेकिन 6 दिसंबर, 1992 को जब बाबरी मस्जिद ढ़हाई गई तो राव की भूमिका के विरोध में उन्होंने धर्मनिरपेक्षता का झंडा ही उठा लिया. अर्जुन सिंह के शुभचिंतक मानते हैं कि यदि तभी सिंह राव के खिलाफ पार्टी में बगावत कर देते तो वे न केवल सांप्रदायिक राजनीति का विरोध करने वाले नायक बनकर उभरते बल्कि राव की रक्षात्मक मुद्रा को देखते हुए हो सकता था कि वे प्रधानमंत्री का पद ही छोड़ देते. लेकिन सिंह ने यह सुनहरा मौका जाने दिया और दिसंबर, 1994 में जब उन्होंने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया तब तक राव खुद को संभाल चुके थे. आखिरकार, पार्टी विरोधी गतिविधियों के चलते अर्जुन सिंह को कांग्रेस से निकाल दिया गया. मई, 1995 में उन्होंने एमएल फोतेदार, नटवर सिंह, मोहसिना किदवई, शीला दीक्षित और एनडी तिवारी की मौजूदगी में दिल्ली के तालकटोरा मैदान में एक नई पार्टी बना ली- तिवारी कांग्रेस. इस पार्टी का सबसे ज्यादा प्रभाव मप्र में पड़ा जहां करीब एक दर्जन मंत्री और सैकड़ों दिग्गज नेता इससे जुड़े. तब कांग्रेसनीत दिग्विजय सिंह सरकार संकट में पड़ गई. लेकिन दिग्विजय ने बड़ी होशियारी से दोनों पक्षों के बीच ऐसा संतुलन साधा कि धीरे-धीरे अपने ही राजनीतिक गुरु अर्जुन सिंह को हाशिए पर पहुंचा दिया. कालांतर में अर्जुन सिंह की कांग्रेस में वापसी हुई लेकिन पहले जैसे तेवरों के साथ नहीं. 2004 में जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद पर अपनी दावेदारी छोड़ते हुए मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया तो सिंह सार्वजनिक जीवन में अपने आंसू छिपा न सके. राजनीति में चाणक्य की छवि ही उनके रास्ते का रोड़ा बन गई थी. 1986 में जब उन्हें मप्र के मुख्यमंत्री से हटाकर आतंकवाद से निजात पाने के नाम पर पंजाब का राज्यपाल बनाया गया था तो उनकी कार्यकुशलता से तत्कालीन प्रधानमंत्री काफी प्रभावित हुए थे. तब राजीव ने सिंह के रूप में पहली दफा कांग्रेस में किसी को उपाध्यक्ष बनाया था. नंबर दो की स्थिति में आकर उनकी महत्वाकांक्षा हिलोरें मारने लगी. बताते हैं कि तब सिंह के नेतृत्व और व्यवहार को देखकर कई बड़े नेता उनके खिलाफ अंत तक एकजुट बने रहे. अर्जुन सिंह की दूसरी परेशानी यह थी कि प्रधानमंत्री बनाने के बाद उन्हें मनमोहन सिंह की तरह चलाया नहीं जा सकता था. दरअसल गांधी परिवार को अमरबेल चाहिए थी जो उनके सहारे आगे बढ़े. जबकि अर्जुन सिंह यदि प्रधानमंत्री बनते तो खुद के लिए अमरबेल तैयार करते.

मीडिया और ‘आप’

मनीषा यादव

आम आदमी पार्टी (आप) और उसके नेता अरविंद केजरीवाल इन दिनों न्यूज मीडिया से खासे नाराज और खिन्न-से दिख रहे हैं. उन्हें लगता है कि न्यूज चैनल और अखबार पूर्वाग्रह और एक एजेंडे के तहत उनकी सरकार की गैरजरूरी आलोचना कर रहे हैं और नकारात्मक खबरें दिखा रहे हैं. केजरीवाल के मुताबिक पत्रकार तो ईमानदार हैं लेकिन मीडिया के मालिक इस या उस पार्टी से जुड़े हैं और पत्रकारों पर दबाव डालकर आप के खिलाफ खबरें करवा रहे हैं.

दूसरी ओर, आरोपों से घिरे दिल्ली सरकार में कानून मंत्री सोमनाथ भारती की मीडिया से नाराजगी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि टीवी रिपोर्टरों के सवालों पर वे आपा खो बैठे और उल्टे रिपोर्टर पर सवाल दाग दिया कि सवाल पूछने के लिए (नरेंद्र) मोदी ने कितने पैसे दिए हैं.

हालांकि भारती ने बाद में माफी मांग ली, लेकिन आप पार्टी के दूसरे नेताओं और कार्यकर्ताओं की न्यूज मीडिया से नाराजगी खत्म नहीं हुई है. असल में, वे चैनलों और अखबारों के लगातार तीखे होते सवालों और आलोचनाओं को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं. आप पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं की बौखलाहट से ऐसा लगता है कि उनमें आलोचना सुनने की आदत नहीं है. गोया वे भगवान हों जो गलतियां नहीं कर सकता और किसी भी तरह की आलोचना से परे है. आलोचना के हर सुर को वे संदेह और साजिश की तरह देख रहे हैं. वे अपनी गलतियों और कमजोरियों को देखने के लिए तैयार नहीं हैं. उल्टे गलतियां और कमियां बताने वालों को निशाना बना रहे हैं.

लेकिन इसके लिए न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनल भी जिम्मेदार हैं. दिल्ली विधानसभा चुनावों में आप की कामयाबी के बाद चैनलों और अखबारों में जिस तरह से दिन-रात राग आप क्रांति बज रहा था और उसमें सिर्फ खूबियां ही खूबियां नजर आ रही थीं, वह किसी भी नेता, पार्टी और उसके समर्थकों का दिमाग खराब कर सकती है. यही हुआ. चैनलों और अखबारों की अहर्निश प्रशंसा का नशा आप पार्टी के कई मंत्रियों, नेताओं और कार्यकर्ताओं के सिर चढ़कर बोल रहा है. कानून मंत्री सोमनाथ भारती हों या कवि-नेता कुमार विश्वास या फिर आप के अन्य नेता- उनके क्रियाकलापों, हाव-भाव और बयानों में अहंकार और आक्रामकता के अलावा आलोचनाओं के प्रति उपहास का रवैया साफ देखा जा सकता है.

लेकिन इससे न्यूज मीडिया का नहीं बल्कि आप पार्टी को नुकसान हो रहा है. केजरीवाल और उनके साथी अपने अंदर झांकने और अपनी गलतियों व  कमियों को दूर करने के बजाय इसकी ओर इशारा करने वाले न्यूज मीडिया को निशाना बनाकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं. चैनलों और अखबारों से लड़कर उन्हें कुछ हासिल होने वाला नहीं है. आखिर केजरीवाल से बेहतर कौन जानता है कि न्यूज मीडिया की सकारात्मक कवरेज आप पार्टी की ऑक्सीजन है? आप को याद रखना चाहिए कि उन्होंने खुद सार्वजनिक जीवन में नैतिक आचार-विचार के इतने ऊंचे मानदंड तय किए हैं कि उन मानदंडों पर सबसे पहले उनकी ही परीक्षा होगी. वे इससे बच नहीं सकते हैं बल्कि उन पर कुछ ज्यादा ही कड़ी निगाह रहेगी या रहनी चाहिए. आखिर लोगों को उनसे बहुत उम्मीदें हैं.

लेकिन आप के प्रति न्यूज मीडिया के रवैये में अचानक आए बदलाव और तीखी होती आलोचनाओं के पीछे कोई एजेंडा या पूर्वाग्रह नहीं है? यह मानना भी थोड़ा मुश्किल है. क्या मीडिया के रुख में इस बदलाव के पीछे खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को अनुमति नहीं देने या निजी बिजली कंपनियों की ऑडिट करवाने जैसे फैसलों की भी कोई भूमिका है? क्या चैनलों या अखबारों पर मोदी को ज्यादा और सकारात्मक कवरेज देने का दबाव नहीं है? हाल में कुछ संपादक किस दबाव के कारण हटाए गए हैं? कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है.

सुविधा की रणनीति

फोटोः विजय पांडेय
फोटोः विजय पांडेय

बात गणतंत्र दिवस के दो दिन पहले की है. पटना में जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव पार्टी की तरफ से राज्यसभा में जाने वाले तीन नए सदस्यों के नाम का एलान कर रहे थे. घोषणा जब हो गई तो जदयू के एक नेता बोले, ‘आपने गौर नहीं किया. शरद यादव जब यह घोषणा कर रहे थे तो वे खुद ही तनाव में थे. इस वजह से नहीं कि वे अपनी पार्टी के जरिए किसी ऐसे व्यक्ति को राज्यसभा भेज रहे हैं जिससे पार्टी की साख को बट्टा लगेगा या नुकसान होगा बल्कि इसलिए क्योंकि शरद खुद चाहते थे कि वे इस बार राज्यसभा से सांसद बनकर छह साल के लिए गंगा नहाएं.’

राज्यसभा के लिए वरिष्ठ पत्रकार हरिवंश, महिला आयोग की अध्यक्ष कहकशां और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री व अतिपिछड़ा समूह के चर्चित नेता रहे स्व. कर्पूरी ठाकुर के बेटे रामनाथ ठाकुर की घोषणा हुई थी. इन नामों ने दूसरों को तो हैरान किया ही, नीतीश की अपनी ही पार्टी में भी कइयों के लिए यह चौंकाने वाला रहा. चर्चा हुई कि नीतीश कुमार के दांव समझना बिहार के दूसरे राजनीतिक दलों के लिए तो क्या, जदयू नेताओं के लिए भी इतना आसान नहीं है. शरद यादव द्वारा नामों की घोषणा के पहले तक इसकी रत्ती भर भनक भी जदयू के वरिष्ठ नेताओं तक को नहीं लग सकी. वैसे एक पत्रिका को दिए हालिया इंटरव्यू में नीतीश खुद भी बोल चुके हैं कि 2004 से अब तक कभी उनका कैलकुलेशन गलत नहीं हुआ. हालांकि अभी उनका कैलकुलेशन क्या है, इस पर उनका कहना था, ‘अभी तो कैंपेन (चुनावी) भी शुरू नहीं हुआ. बक्सा खुलने दीजिए.’

नीतीश कुमार की इस गुप्त तरीके वाली राजनीति से सबसे ज्यादा परेशानी जदयू के उन नेताओं के सामने आई जो यह छवि बनाए रहते हैं कि वे मुख्यमंत्री के करीबी हैं. इससे भी ज्यादा बड़ी चुनौती दूसरे राजनीतिक दलों के सामने आ गई. वजह सिर्फ वही है. नीतीश के बारे में पूर्वानुमान के आधार पर तय नहीं कर सकते कि आखिरी समय में वे कौन-सा दांव खेलकर दूसरे का खेल बिगाड़ देंगे. यह अलग बात है कि राज्यसभा का टिकट न मिलने से खुद उनकी अपनी पार्टी के कई नेता भी नाखुश हैं. पार्टी प्रवक्ता देवेश चंद्र ठाकुर ने इसके साफ संकेत देते हुए कहा भी कि वे सही समय आने पर फैसला करेंगे क्योंकि उन्हें लगता है कि पार्टी को उनकी क्षमताओं पर भरोसा नहीं है.

राज्यसभा के लिए तीन उम्मीदवारों के नामों की घोषणा भर से बिहार की सियासत में अलग तरीके से तैयारियां शुरू हो गई हैं. अब तक जो दिख रहा है, उसमें कुछ बातें मोटे तौर पर सबको पता चल चुकी हैं. उसी आधार पर अनुमान भी लगाए जाने लगे हैं. जैसे यह लगभग तय है कि नीतीश कुमार और उनकी पार्टी अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ने के मूड में नहीं हंै. मूड में जदयू नहीं है या कांग्रेस ने ही न के संकेत दिए, यह अभी तक साफ नहीं, लेकिन नीतीश कुमार और उनके दल के प्रमुख शरद यादव लगातार कांग्रेस को निशाने पर लेने की प्रक्रिया को रफ्तार देना शुरू कर चुके हैं.

दूसरी ओर यह साफ दिख रहा है कि चारा घोटाले में दोषी साबित होने के चलते खुद चुनाव लड़ने से वंचित हो चुके लालू प्रसाद यादव येन केन प्रकारेण अपनी पार्टी को आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ जोड़ देना चाहते हैं. मुख्य वजह यही है कि कांग्रेस को साथ रखकर किसी तरह मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण अपनी ओर हो सके और मुस्लिम-यादव नाम से दो दशक पहले जो नया सियासी समीकरण बना था, वह फिर खूब फायदा देने की स्थिति में आ जाए.

फोटोः पीटीआई
फोटोः पीटीआई

अभी यह साफ नहीं कि कांग्रेस किधर जाएगी. कुछ समय पहले तक तो बिहार आने वाले कांग्रेसी नेताओ ने साफ-साफ संकेत दिए थे कि वे नीतीश कुमार और लालू प्रसाद में पहले का ही साथ देना पसंद करेंगे. इस बात को कई बार कांग्रेस के खेमे से परोक्ष तौर पर कहा भी गया और भाजपा से अलगाव के बाद बिहार विधानसभा में जब नीतीश के बहुमत साबित करने की बारी आई तो कांग्रेसी विधायकों ने दिल खोलकर उनका साथ भी दिया. वह समर्थन अब तक जारी है, लेकिन अब सवाल उठ रहा है कि अगर लोकसभा में कांग्रेस ने राजद का साथ दिया तो फिर क्या विधानसभा में कांग्रेसी विधायकों का समर्थन नीतीश के पक्ष में ही जारी रहेगा. क्या कांग्रेस लोकसभा में नीतीश के खिलाफ और विधानसभा में नीतीश के साथ रहकर अपनी भद्द पिटवाएगी?

जवाब अभी साफ-साफ तौर पर किसी के पास नहीं लेकिन कुछ लोग दिल्ली में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच के रिश्ते का उदाहरण दे रहे हैं. विश्लेषक बता रहे हैं कि कांग्रेस ने जिस तरह से विचार व सरोकार नहीं मिलने के बावजूद दिल्ली में भाजपा को रोकने के लिए विधानसभा में आम आदमी पार्टी का साथ दिया है, कुछ वैसा ही वह बिहार में जदयू को समर्थन देकर कर सकती है. हालांकि इस बारे में बात करने पर जदयू नेता संजय झा कहते हैं, ‘अभी बिहार की सरकार ठीक से चल रही है तो आगे की बात अभी से ही क्यों करें?’ जदयू के ही एक और वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘राजनीति में पूर्वानुमान बहुत काम नहीं आते. स्थितियों के अनुसार निर्णय लिए जाते हैं.’

शिवानंद तिवारी ठीक कहते हैं. राजनीति में स्थितियों के अनुसार निर्णय लिए जाते हैं. और यह फॉर्मूला सिर्फ नीतीश कुमार पर ही नहीं बल्कि बिहार में सभी सियासी दलों पर लागू होता है. सभी ताक में हैं. आगे क्या होगा, अभी कहना मुश्किल है. उधर, भाजपा और जदयू के अलगाव के बाद नीतीश कुमार को समर्थन दे रहे निर्दलीय विधायकों की नजर इस गहमागहमी में भी लोकसभा चुनाव के बहाने विधानसभा पर है. वे उम्मीद लगाए हुए हैं कि कांग्रेस लोकसभा चुनाव के पहले नीतीश सरकार से समर्थन वापस ले ले तो उनकी स्थिति मजबूत होगी. उन्हें मंत्री बनने का मौका मिलेगा. वे नीतीश सरकार के लिए ऑक्सीजन पाइप बन जाएंगे जिसका फायदा उठाते हुए वे किसी तरह अगली बार भी विधानसभा पहुंचने का जुगाड़ कर सकेंगे.

यह तो जदयू और कांग्रेस के बनने या बिगड़ने वाले समीकरण की बात हुई. राज्य में दूसरे कई किस्म के सियासी समीकरण भी बनने-बिगड़ने की राह पर चल रहे हैं. भाजपा और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के बीच गठबंधन तय माना जा रहा है, जबकि दूसरी ओर जदयू के साथ आने के संकेत अब तक सिर्फ भाकपा की ओर से ही दिख रहे हैं. जदयू ने एक कोशिश झारखंड में सक्रिय व उस राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व में गठित झारखंड विकास मोर्चा के साथ तालमेल बनाने की भी की थी और यह बात तेजी से फैल भी गई थी, लेकिन बाद में मरांडी की पार्टी के नेताओं ने ही इसका खंडन कर दिया कि जदयू के साथ उनका कोई तालमेल होने जा रहा है.

सबसे विचित्र स्थिति रामविलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी की है. पासवान के बारे में कहा जा रहा है कि वे एक साथ कई दांव चल रहे हैं. वे कांग्रेस के साथ भी बने रहना चाहते हैं, लालू प्रसाद के साथ मौजूदा गठबंधन भी जारी रखना चाहते हैं और नीतीश के साथ तालमेल का विकल्प भी बनाए रखना चाहते हैं. पिछले दिनों इसकी झलक भी दिखी जब नीतीश और रामविलास ने अलग-अलग मंचों से एक-दूसरे की तारीफ की. नीतीश ने एक सभा में कहा कि रामविलास पासवान एक अच्छे नेता हैं और वे 2005 में ही चाहते थे कि पासवान इस राज्य के मुख्यमंत्री बनें. दूसरी ओर पासवान ने भी कहा कि नीतीश कुमार उनके पुराने साथी रहे हैं और दोनों ने साथ मिलकर काम भी किया है. पासवान यहीं नहीं रुके. उन्होंने यह कहकर राजद पर दबाव भी बना दिया कि यदि लालू प्रसाद यादव 31 जनवरी तक गठबंधन पर स्थिति साफ नहीं करते हैं तो फिर वे अलग राह अपनाने को स्वतंत्र हैं. लोजपा के प्रदेश प्रवक्ता रोहित कुमार सिंह कहते हैं, ‘अभी कुछ कहना मुश्किल है. लालू प्रसाद की पार्टी से हमारे दल का पुराना नाता रहा है. बिहार के हित में हम उस नातेदारी को जारी रखने के पक्ष में हैं.’ लोजपा के कई नेता इसके पक्ष में हैं, कई विपक्ष में.

लेकिन सबसे मुश्किल दौर में लालू प्रसाद यादव की पार्टी चल रही है. लालू की मजबूरी का लाभ उठाते हुए लोजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियां उन पर अधिक से अधिक सीटें छोड़ने का दबाव बना रही हैं. सूत्र बता रहे हैं कि लोजपा 10 सीटें चाहती है, कांग्रेस भी 10 सीटें चाहती है, अगर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी इस गठजोड़ में शामिल हुई तो तारिक अनवर को भी अपनी पत्नी के लिए एक सीट चाहिए. यानी बिहार की 40 सीटों में से 21 दूसरे दल चाहते हैं. लालू प्रसाद की स्थिति न उगलते, न निगलते जैसी बनने वाली है. देखना दिलचस्प होगा कि वे क्या करते हैं.

उधर, इस सबके बीच फुटकर टूट-फूट का दौर भी जारी है. चर्चा है कि जदयू के तीन लोकसभा सांसद पूर्णमासी राम, कैप्टन जयनारायण निषाद और सुशील कुमार सिंह लोकसभा चुनाव के पहले किसी तरह भाजपा का दामन थामने को लालायित हैं. इस बार राज्यसभा भेजे जाने से वंचित रहे जदयू नेता शिवानंद तिवारी के बारे में खबर आ रही है  कि वे लालू प्रसाद यादव की पार्टी के साथ अगली यात्रा शुरू कर सकते हैं.

ऐसी ही कई खबरें फिलहाल एक-दूसरे से टकरा रही हैं. सब कुछ साफ होने में थोड़ा वक्त लगेगा क्योंकि इन सबके बीच नीतीश कुमार अपनी पार्टी के लिए कौन- सा कदम उठाएंगे, यह उनके अलावा कोई नहीं जानता, उनके दल के दूसरे नेता तक नहीं. कई बार तो शरद यादव भी नहीं जिन्हें अध्यक्ष के बजाय प्रवक्ता की भूमिका में आकर घोषणा भर करनी होती है. दूसरे दलों की परेशानी यही है कि शांत-शांत चल रहे नीतीश आखिर कौन-सा कदम उठाएंगे.

गांधी और आंधी के बीच

फोटोः विकास कुमार

जिन लोगों को शिकायत थी कि भारतीय राजनीति कांग्रेस, बीजेपी और कई क्षत्रप दलों के बनाए हुए यथास्थितिवाद के दलदल में धंस गई है और उसमें कोई प्रेरणा-उत्तेजना नहीं बची है, उन्हें आम आदमी पार्टी को धन्यवाद देना चाहिए कि उसने बने-बनाए समीकरण तोड़-फोड़ कर एक अनिश्चित और उत्तेजक राजनीतिक माहौल बना दिया है. 2014 के लोकसभा चुनाव अचानक इसलिए दिलचस्प हो उठे हैं कि राजनीति के आकाश में अब एक नया गुब्बारा है- जिसके बारे में किसी को नहीं पता कि वह फूट जाएगा कि फैल जाएगा. 2014 को अपने लिए एक ऐतिहासिक राजनीतिक अवसर की तरह देख रही बीजेपी अचानक मायूस है क्योंकि उसे यह डर सताने लगा है कि भारतीय लोकतंत्र के सौरमंडल में बाहर से दाखिल हुआ ‘आप’ नाम का यह नया ग्रह कहीं उसके भावी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ग्रह-दशा न बदल डाले.

भारतीय राजनीति पर करीबी नजर रखने वालों के लिए दरअसल सबसे दिलचस्प सवाल यही है- क्या ‘आप’ का उभार बीजेपी और मोदी की धार को कुंद कर देगा? अगर पार्टी ने लोकसभा की 50 सीटों पर भी असर डाला तो इसका सीधा नुकसान बीजेपी को होगा, क्योंकि ये वही सीटें होंगी जो बीजेपी कांग्रेस से छीनने का मंसूबा पाले बैठी है. वस्तुतः कांग्रेस को लेकर पैदा हुई जो मध्यवर्गीय हताशा पहले बीजेपी और नरेंद्र मोदी में एक विकल्प देखती थी, वह अब आप की तरफ मुड़ती दिख रही है. इससे यह बात महसूस की जा सकती है कि बीजेपी और मोदी जिस व्यापक जनसमर्थन की उम्मीद और दावेदारी कर रहे हैं, वह दरअसल उनका कमाया हुआ नहीं, कांग्रेस का गंवाया हुआ है और इस जनसमर्थन का एक और दावेदार आते मोदी का हिस्सा और किस्सा दोनों कमजोर पड़े हैं.

लेकिन आप का जादू क्या है जो उसे भारतीय राजनीति की नई उम्मीद की तरह देखा जा रहा है? एक स्तर पर आप सादगी, ईमानदारी और त्याग के उसी गांधीवादी आदर्श को पुनर्जीवित करने की कोशिश में है जो आजादी की लड़ाई और गांधी के निधन के बाद भारत ने खो दिया था. यह अनायास नहीं है कि अरविंद केजरीवाल ने अपनी पार्टी के गठन की घोषणा के लिए दो अक्टूबर का दिन चुना, गांधी के हिंद स्वराज की तरह स्वराज के नाम से एक किताब लिख डाली और झाड़ू जैसा चुनावी निशान तय किया जो गांधी के हरिजनोद्धार कार्यक्रम की याद दिलाता है. इत्तिफाक से इन दिनों वे ईश्वर की बात भी करने लगे हैं. लेकिन आंधी होने और गांधी होने में फर्क है. गांधी का रास्ता जितनी निष्ठा और ईमानदारी की मांग करता है, उससे कहीं ज्यादा इस ठोस समझ की कि आपको निहायत मानवीय कसौटियों पर राष्ट्र, धर्म, न्याय, बराबरी के मतलब समझने होंगे और अपने को कोई छूट नहीं देनी होगी. तीन साल असहयोग आंदोलन चलाकर गांधी ने उसे बस इसलिए वापस ले लिया कि चौरीचौरा जैसे कांड के लिए उनके राजनीतिक विश्वासों में कोई जगह नहीं थी. गांधी को मालूम था कि मसीहा बनने वालों के इम्तिहान बेहद कड़े होते हैं.

केजरीवाल यह मसीहाई मुद्रा तो अख्तियार करते हैं लेकिन गांधी नहीं हो पाते. यहीं से उनकी और उनकी पार्टी की पूरी राजनीति सवालों में घिरने लगती है.  स्टिंग ऑपरेशन से लेकर खिड़की एक्सटेंशन की छापामारी और इसके बाद के धरने तक उनकी पार्टी का जो रवैया रहा है वह इस मायने में डरावना है कि वे अपने सिवा सब पर सवाल खड़े कर रहे हैं- पुलिस को उन्होंने खारिज कर दिया, महिला आयोग को राजनीतिक संस्था बता डाला, मीडिया पर बिकने का आरोप डाला, कल को हो सकता है कि वे अदालत को भी निशाने पर ले आएं.

इसमें संदेह नहीं कि ये सारी व्यवस्थाएं तरह-तरह के भ्रष्टाचार और राजनीतिक कलुष की मारी हैं. केजरीवाल जहां भी उंगली रख दें वहां बदबू देती अव्यवस्था निकलेगी. लेकिन इसकी साफ-सफाई का, इसके शुद्धीकरण का रास्ता यह नहीं है कि आप के कार्यकर्ता खुद लाठी-डंडे लेकर निकल पड़ें या खुद थाना-मुंसिफ-अदालत बन जाएं. ऐसे शुद्धीकरण अभियानों ने चीन और रूस में लाखों लोगों की बलि ली, उन्हें जेलों में सड़ाया. इस अभियान का दूसरा पहलू यह है कि खुद के लिए आप की सजाएं बहुत मामूली-सी हैं- अपने पुराने चुटकुलों के लिए कुमार विश्वास माफी मांग कर छूट जाते हैं और अपने नए बयानों के लिए सोमनाथ भारती थोड़ी-सी फटकार के साथ छोड़ दिए जाते हैं.

इन तौर-तरीकों से लोकप्रियतावाद तो शायद सध जाएगा, वह गांधीवाद नहीं सधेगा जो केजरीवाल की असली राजनीतिक ताकत और विरासत बन सकता है. आप में फिलहाल अलोकप्रिय होने का साहस नहीं है, यह कश्मीर पर प्रशांत भूषण के सही रुख से पार्टी की दूरी ने बताया है, और खाप के प्रति योगेंद्र यादव की नव-अर्जित उदारता ने साबित किया है. निस्संदेह इस राजनीतिक लचीलेपन की रणनीति से अलग योगेंद्र यादव के पास एक व्यापक समाजवादी दृष्टि और विरासत है जो पार्टी के लिए भविष्य का रास्ता बन सकती है. लेकिन वह भविष्य तब आएगा जब लगातार व्यक्तिवाद की तरफ मुड़ती वर्तमान की अराजकता को छोड़ पार्टी मुद्दों से जुड़ेगी. तब भी उसके सामने दो बड़ी चुनौतियां होंगी- सामाजिक समानता, समरसता व न्याय का माहौल बनाने की और भूमंडलीकरण के अपरिहार्य और अप्रतिरोध्य लग रहे विराट तंत्र से टकराने की. लेकिन इसके लिए जरूरी है कि उम्मीद की जो लहर उसने पैदा की है उसे अपने संगठन और विचार के जरिए वह एक बड़ी ऊर्जा में बदले, वरना यह लहर या तो तानाशाही का रास्ता खोलेगी या फिर जिस तेजी से उठी है, उसी तेजी से लौट जाएगी. यह आम आदमी पार्टी के लिए बुरा होगा और देश के लिए भी. क्योंकि बार-बार राजनीतिक उम्मीदों का यह गर्भपात लोग नहीं झेल सकते.

377 गिरहों वाली धारा

फोटो:विकास कुमार

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वैवाहिक बलात्कार. भारतीय कानून में अभी इसकी कोई सजा नहीं है. यानी अपनी ही पत्नी से यदि कोई पुरुष बलात्कार करता है तो कानून उसे बलात्कारी नहीं मानता. बलात्कार संबंधी भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अनुसार यदि पत्नी की उम्र 15 वर्ष से अधिक है तो उसके साथ जबरदस्ती के यौन संबंध को बलात्कार नहीं माना जा सकता. काफी समय से धारा 375 में मौजूद इस प्रावधान का विरोध होता रहा है. कई महिला अधिकार कार्यकर्ता वैवाहिक बलात्कार को दंडनीय घोषित करने की मांग करते रहे हैं. पिछले साल महिला संबंधी कानूनों में जब बदलाव हुए, तब भी यह मांग जोरों से उठी थी. लेकिन उल्टा ये बदलाव ही एक लिहाज से विवाहित महिलाओं के विरोध में चले गये.

पहले धारा 375 में मौजूद बलात्कार की परिभाषा सीमित थी. तब यदि कोई पुरुष किसी महिला के साथ जबर्दस्ती एनल या ओरल सेक्स करता था तो उसे प्रकृति विरुद्ध अपराध माना जाता था. हालांकि तब भी पत्नी के साथ बलात्कार दंडनीय नहीं था लेकिन वह इस तरह के जबरन सेक्स के लिए अपने पति को धारा 377 के तहत सजा दिलवा सकती थी. नए कानून में एनल और ओरल सेक्स को भी बलात्कार की परिभाषा में शामिल कर लिया गया. साथ ही इस परिभाषा में पत्नी के साथ जबर्दस्ती को बलात्कार न मानने वाले प्रावधान में भी कुछ मामूली बदलाव कर दिया गया. इसके बाद से पत्नी के साथ जबर्दस्ती के कैसे भी यौन संबंधों को बलात्कार नहीं माना जा सकता. ऐसे में धारा 377 की जो उपयोगिता पहले पीड़ित पत्नियों के लिए ‘अप्राकृतिक’ यौन उत्पीड़न को लेकर थी अब कानूनी विरोधाभास में उलझ कर रह गई है. दूसरी तरफ यह धारा सहमति से संबंध बनाने वाले समलैंगिकों को आजीवन कारावास तक की सजा दिलाने के लिए पर्याप्त है.

धारा 377 से जुड़ा यह विवाद तो ऐसा है जिस पर अभी चर्चा तक शुरू नहीं हुई है. इससे पहले ही यह धारा आज ऐसे विमर्श को जन्म दे चुकी है जिसके संवैधानिक, विधिक, धार्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक पहलू भी हैं. इन पहलुओं को टटोलने से पहले जानते हैं कि आखिर धारा 377 है क्या? भारतीय दंड संहिता की धारा 377 प्रकृति-विरुद्ध अपराध को परिभाषित करते हुए कहती है कि ‘जो कोई किसी पुरुष, स्त्री या जीव-जंतु के साथ प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध स्वेच्छया इंद्रिय-भोग करेगा, वह आजीवन कारावास से या दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा.’ इसी धारा में आगे एक स्पष्टीकरण भी है जो कहता है कि ‘इस धारा में वर्णित अपराध के लिए आवश्यक इंद्रिय भोग करने के लिए प्रवेशन(पेनिट्रेशन) पर्याप्त है.’

आम तौर पर यौन अपराध तभी अपराध माने जाते हैं जब वे किसी की सहमति के बिना किए जाएं. लेकिन धारा 377 में कहीं भी सहमति का जिक्र नहीं है. इस कारण यह धारा समलैंगिक पुरुषों के सहमति से बनाए गए यौन संबंधों को भी अपराध की श्रेणी में पहुंचा देती है. इस धारा के विवादस्पद होने का मुख्य कारण भी यही है. 2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस धारा को उस हद तक समाप्त कर दिया था, जहां तक यह सहमति से बनाए गए संबंधों पर रोक लगाती थी. लेकिन दिसंबर 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे दोबारा से इसके मूल स्वरुप में पहुंचा दिया है.

इस धारा के बनने, संशोधित होने और दोबारा से वही बन जाने के सफर को उसी क्रम में देखते हैं.

दिल्ली की एक संस्था है ‘नाज़ फाउंडेशन’. यह संस्था काफी समय से एड्स की रोकथाम और इसके प्रति जागरूकता फ़ैलाने का काम कर रही है. 2001 में इसी संस्था ने दिल्ली उच्च न्यायालय से धारा 377 को गैर-संवैधानिक घोषित करने की मांग की थी. इसके बारे में संस्था की संस्थापक अंजलि गोपालन बताती हैं, ‘समलैंगिक संबंध बनाने वाले पुरुष एड्स होने पर भी सामने नहीं आते. उन्हें डर होता है कि धारा 377 के तहत उन्हें सजा न हो जाए. ऐसे में एड्स की रोकथाम तो क्या संक्रमित लोगों की पहचान भी नहीं हो पाती.’ अंजलि आगे बताती हैं, ‘पुलिस अधिकारियों द्वारा समलैंगिक लोगों के उत्पीड़न के भी कई मामले हुए हैं. ऐसे में वे लोग सुरक्षित यौन संबंध बनाने के लिए चिकित्सकीय सामग्री खरीदते वक्त भी घबराते थे. हमारी संस्था के लोग यह सामग्री उन्हें बांटते थे. ऐसे में हम पर यह आरोप लगता था कि हम धारा 377 के अपराध को बढ़ावा दे रहे हैं. कई बार हमारे कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार भी किया गया.’

इन्हीं कारणों से नाज़ फाउंडेशन दिल्ली उच्च न्यायालय पहुंची. फाउंडेशन की ओर से दाखिल की गई याचिका में कहा गया कि धारा 377 कई लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन कर रही है. साथ ही यह भी कहा गया कि यह धारा समलैंगिक लोगों के एक समूह को ही निशाना बना रही है. इस समूह को अमूमन एलजीबीटी (लेस्बियन, गे, बाईसेक्शुअल, ट्रांसजेंडर) कहा जाता है. इस याचिका के समर्थन में कई अन्य लोग भी उच्च न्यायालय पहुंचे. इनमें एलजीबीटी समुदाय के लोग और उनके अभिभावकों का एक संगठन भी शामिल था. इसी मामले में समलैंगिक लोग पहली बार खुल कर अपने अधिकारों के लिए सामने आए. हालांकि इससे पहले भी एलजीबीटी छोटे-छोटे स्तर पर अपनी पहचान बना रहे थे. मुंबई में 1990 में ही ‘बॉम्बे दोस्त’ नाम से समलैंगिक लोगों का एक अखबार निकलने लगा था. इन लोगों ने 1994 में एलजीबीटी अधिकारों के लिए ‘हमसफ़र’ ट्रस्ट भी बनाया था. लेकिन इतने बड़े पैमाने पर कभी भी एलजीबीटी के अधिकारों की बात पहले नहीं हुई थी.

अब न्यायालय को यह तय करना था कि क्या धारा 377 संविधान के अनुच्छेद 21, 14 और 15 का अतिक्रमण करती है अथवा नहीं. यह फैसला करने में न्यायालय ने लगभग नौ साल का समय लिया. इस बीच धारा 377 के हर पहलू और उसकी संवैधानिक मान्यता पर बहस हुई. नाज़ फाउंडेशन ने अपनी याचिका में यह तर्क भी दिया कि विधि आयोग भी अपनी 172वीं रिपोर्ट में धारा 377 को हटाने की संस्तुति कर चुका है. दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस सन्दर्भ में केंद्र सरकार से जवाब मांगा. केंद्र की तरफ से दो विरोधाभासी जवाब दाखिल किए गए. केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने शपथपत्र दाखिल करते हुए कहा कि यह धारा एड्स की रोकथाम में बाधा उत्पन्न करती है लिहाजा इसे हट जाना चाहिए. दूसरी तरफ गृह मंत्रालय ने इसे बनाए रखने की बात कही. गृह मंत्रालय ने अपने शपथपत्र में कहा कि धारा 377 बच्चों पर होने वाले अपराध एवं बलात्कार संबंधी कानून की कमियों को भरने का काम करती है. हालांकि केंद्र सरकार के इस तर्क का आज कोई महत्व नहीं रह गया है. बच्चों के लिए 2012 में अलग से ‘बच्चों की सुरक्षा के लिए यौन अपराध अधिनियम, 2012’ बन चुका है. साथ ही बलात्कार की परिभाषा की जिन कमियों को धारा 377 पूरा करती थी उन कमियों को भी अब हटाया जा चुका है. जैसा कि जिक्र किया जा चुका है 2013 के संशोधन में बलात्कार की नई परिभाषा बन चुकी है.  बहरहाल, अभी लौटते हैं गृह मंत्रालय के शपथपत्र पर. गृह मंत्रालय ने इस धारा को बनाए रखने का दूसरा तर्क दिया, ‘भारतीय समाज इसकी अनुमति नहीं देता और यह कारण ही इस कानून को बनाए रखने के लिए काफी है. कानून समाज से अलग नहीं चल सकता.’

दूसरी तरफ याचिकाकर्ताओं का सबसे बड़ा तर्क था कि यह धारा संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन करती है. उन्होंने बताया कि अनुच्छेद 15 के अनुसार किसी भी व्यक्ति से ‘सेक्स’ के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता जिसमें उस व्यक्ति की ‘सेक्शुअल ओरिएंटेशन'(यौन अभिरुचि) भी शामिल है. लिहाजा किसी के यौन झुकाव के आधार पर भेदभाव करना भी मौलिक अधिकारों का हनन है. इस तर्क ने एक नई बहस को जन्म दिया कि क्या किसी व्यक्ति की यौन अभिरुचि जन्म से ही निर्धारित होती है और क्या उसे बदला जा सकता है अथवा नहीं. याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि समलैंगिक लोग प्राकृतिक रूप से समलैंगिक लोगों के प्रति ही आकर्षित होते हैं. इस तर्क के समर्थन में उन्होंने कई मनोवैज्ञानिकों, मनोचिकित्सकों और यौन-विज्ञानियों की रिपोर्टें पेश की. जिनके अनुसार समलैंगिकता को प्राकृतिक माना गया था. याचिकाकर्ताओं ने यह भी बताया कि दुनिया की सबसे बड़ी मनोचिकित्सक संस्थाएं भी अब समलैंगिकता को कोई मानसिक रोग नहीं बल्कि एक प्राकृतिक लक्षण मान चुकी हैं जिसे बदला या सुधारा नहीं जा सकता. दूसरी ओर प्रतिवादी पक्ष का कहना था कि समलैंगिकता प्राकृतिक नहीं बल्कि एक मानसिक बीमारी है और इसे सुधारा जा सकता है. हालांकि इसे सुधारे जाने के कोई भी वैज्ञानिक तथ्य प्रतिवादी पक्ष ने पेश नहीं किए.

याचिकाकर्ताओं का दूसरा बड़ा तर्क था कि धारा 377 संविधान के अनुच्छेद 21 का भी उल्लंघन करती है. अनुच्छेद 21 के अनुसार हर व्यक्ति को जीने का अधिकार है. इस अधिकार में सम्मान से जीवन जीना और गोपनीयता/ एकांतता का अधिकार भी शामिल है. इसी अनुच्छेद का सहारा लेते हुए याचिकर्ताओं ने कहा कि दो वयस्क व्यक्ति अपनी इच्छा से एकांत में जो भी करते हैं उसका उन्हें पूरा अधिकार है. साथ ही उन्होंने यह तर्क भी दिया कि इस अधिकार पर तभी रोक लगाई जा सकती है जब किसी व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य राष्ट्रहित के लिए नुकसानदेह हो.

संविधान के अनुच्छेद 14 के अतिक्रमण की बात भी याचिकाकर्ताओं द्वारा कही गई. उनके अनुसार हर व्यक्ति को बिना भेदभाव के पूरा कानूनी संरक्षण मिलने का अधिकार है. लेकिन समलैंगिक व्यक्ति एड्स जैसी जानलेवा बीमारी होने पर भी स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं ले पाते क्योंकि धारा 377 उन्हें अपराधी घोषित कर देती है. ऐसे में उन्हें स्वास्थ्य सुविधाएं लेने के अधिकार से भी वंचित किया जा रहा है. इस तर्क के विरोध में प्रतिवादी पक्ष ने कोर्ट को बताया कि समलैंगिकता स्वयं में भी एड्स जैसी बीमारी को न्योता देती है. लेकिन कोर्ट ने प्रतिवादी पक्ष के इस तर्क को नकारते हुए माना कि केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय भी धारा 377 को एड्स की रोकथाम में एक बाधा मानता है. साथ ही कोर्ट में ऐसे कोई भी वैज्ञानिक कारण प्रस्तुत नहीं किए गए थे जिनसे साबित होता हो कि समलैंगिकता के कारण एड्स को बढ़ावा मिलता हो.

इन तर्कों के साथ ही याचिकाकर्ता ने धारा 377 के मूल की भी बात कही. उन्होंने बताया कि इस धारा को 1860 में अंग्रेजों द्वारा भारतीय दंड संहिता में शामिल किया गया था. उस वक्त इसे ईसाई धर्म में भी अनैतिक माना जाता था. लेकिन 1967 में ब्रिटेन ने भी समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता दे दी है.

केंद्र सरकार ने उच्च न्यायालय में धारा 377 को बनाए रखने के तीन मुख्य कारण बताए थे. वह थे सार्वजनिक नैतिकता, सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वस्थ वातावरण. इस पर उच्च न्यायालय ने माना कि ‘समलैंगिकता, सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वस्थ वातावरण को कैसे नुकसान पहुंचाएगी इसके कोई भी तथ्य केंद्र ने पेश नहीं किए हैं. न कोई शपथपत्र ही दाखिल किया है. और यदि किसी तरह की नैतिकता व्यापक राष्ट्रहित के पैमानों पर खरी उतर सकती है तो वह ‘संवैधानिक नैतिकता’ है ‘सार्वजनिक नैतिकता’ नहीं.’ इसके साथ ही उच्च न्यायालय ने माना कि धारा 377 पहली नज़र में तो किसी विशेष समुदाय को नुकसान पहुंचाती नहीं दिखती लेकिन वास्तव में यह समलैंगिकों के उत्पीड़न का काम करती है.

दो जुलाई 2009 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला याचिकाकर्ता के पक्ष में दे दिया. 105 पन्नों के इस फैसले का सार बताते हुए न्यायालय ने कहा ‘हम घोषित करते हैं कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377, जिस हद तक वह वयस्क व्यक्तियों द्वारा एकांत में सहमति से बनाए गए यौन संबंधों का अपराधीकरण करती है, संविधान के अनुच्छेद 21, 14 और 15 का उल्लंघन है.’ इसके साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि इस धारा के प्रावधान बिना सहमति के बनाए गए यौन संबंधों पर पहले की तरह ही लागू होंगे.

यह फैसला पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया. एलजीबीटी अधिकारों का समर्थन करने वाले लाखों लोगों ने फैसले का स्वागत किया. समलैंगिकों को सामाजिक स्वीकार्यता दिए जाने के लिए कई शहरों में ‘गे (समलैंगिक) परेड’ आयोजित की गई. एलजीबीटी समुदाय में एक बड़ा हिस्सा किन्नर लोगों का भी है. उन्होंने भी खुल कर इस फैसले का स्वागत किया और इसे समाज में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने की दिशा में महत्वपूर्ण माना. लेकिन इस फैसले के सात दिन बाद ही दिल्ली के एक ज्योतिषाचार्य ने सर्वोच्च न्यायालय में इसे चुनौती दे दी. ज्योतिषाचार्य सुरेश कौशल इस फैसले को चुनौती देने के बारे में बताते हैं, ‘ऐसा मैंने दो कारणों से किया. एक तो नाज़ फाउंडेशन को विदेशी पैसा मिलता है. इसलिए वो विदेशियों के इशारे पर बहुत ही चुपके से इस मामले को उच्च न्यायालय ले गए थे. लोगों को तो तब पता चला जब फैसला आ गया. ये लोग खुशियां मनाने लगे. इन्होने मंदिरों और गुरद्वारों में समलैंगिक शादियां शुरू कर दी थी. दूसरा कारण था धर्म का. इन लोगों ने तर्क दिया कि इसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं है. लेकिन जिस देश में लगभग सभी सरकारी छुट्टियां धर्म के आधार पर ही होती हों, वहां आप धर्म को अनदेखा कैसे कर सकते हो.’

नौ जुलाई 2009 को सुरेश कौशल सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गए. यानी दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के ठीक सात दिन बाद. इन सात दिनों में कितने समलैंगिक लोग मंदिर-गुरुद्वारों में शादी के लिए पहुंचे होंगे सोचना मुश्किल नहीं हैं. लेकिन फिर भी इसने ज्योतिषाचार्य सुरेश कौशल को सर्वोच्च न्यायालय जाने को प्रेरित कर दिया था. सुरेश कौशल के साथ ही बाबा रामदेव के प्रवक्ता- एसके तिजारावाला, तमिलनाडु मुस्लिम मुनेत्र कषगम, आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, क्रांतिकारी मनुवादी मोर्चा पार्टी, अपोस्टोलिक चर्चेज अलायंस और सनातन धर्म प्रतिनिधि सभा भी इस फैसले के विरोध में सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गए. सभी धर्मों को एक साथ ला देने वाले समलैंगिकता के मुद्दे पर अब सर्वोच्च न्यायालय में बहस शुरू हुई. यहां एक दिलचस्प बात यह भी है कि जो केंद्र सरकार उच्च न्यायालय में याचिका का विरोध कर रही थी, उसने फैसले पर कोई आपत्ति नहीं जताई. बल्कि केंद्र ने सर्वोच्च न्यायालय में शपथपत्र दाखिल करते हुए कहा कि हमें दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले में कोई भी कमी नहीं नजर आती.

उच्च न्यायालय के 105 पन्नों के फैसले को पलटते हुए पिछले ही महीने सर्वोच्च न्यायालय ने भी लगभग सौ पन्नों का फैसला दिया. इस फैसले में सबसे पहले न्यायालय ने इस मुद्दे पर चर्चा की है कि न्यायालय को कानून बनाने का अधिकार है या नहीं. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई व्याख्या में कई विरोधाभास नजर आते हैं. न्यायालय ने कहा है, ‘हम यह मानते हैं कि उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय को धारा 377 की संवैधानिक मान्यता को जांचने का पूरा अधिकार है. न्यायालय को यह भी अधिकार है कि इस धारा को उस हद तक समाप्त कर दिया जाए जहां तक यह असंवैधानिक है. लेकिन हमें आत्मसंयम बरतना चाहिए.’ यानी एक लिहाज से न्यायालय ने यह माना है कि धारा 377 कुछ हद तक असंवैधानिक है लेकिन फिर भी उसे बदलने से परहेज किया है. इसी व्याख्या में सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि ‘1950 के बाद से भारतीय दंड संहिता में लगभग 30 बार संशोधन हो चुके हैं. 2013 में तो यौन अपराध संबंधी कानून में ही संशोधन हुए हैं. धारा 377 भी उसी का एक हिस्सा है. विधि आयोग की 172वीं रिपोर्ट में तो साफ़ तौर से धारा 377 को हटाने की बात भी कही गई है. लेकिन संसद ने फिर भी इस धारा को नहीं हटाया. इससे साफ़ है कि संसद इसे हटाना ही नहीं चाहती.’

कानूनी और संवैधानिक पहलुओं पर चर्चा करते हुए भी सर्वोच्च न्यायालय ने कई विरोधाभास छोड़ दिए हैं. न्यायालय ने यह तो माना है कि इस धारा का दुरुपयोग होता है और इसकी भाषा ऐसी है कि इसके दुरुपयोग की संभावनाएं भी काफी ज्यादा हैं. लेकिन साथ ही उसने यह भी कहा है कि सिर्फ दुरुपयोग की संभावना के कारण किसी कानून को समाप्त नहीं किया जा सकता. अपने इस अवलोकन को सही ठहराने के लिए न्यायालय ने अन्य ऐसे कानूनों का उदाहरण दिया है जिनकी भाषा स्पष्ट न होने के कारण दुरुपयोग होता है. जैसे कि राष्ट्रद्रोह का अपराध, जिसमें असीम त्रिवेदी को कार्टून बनाने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया था. लेकिन इस मामले में धारा 377 के दुरुपयोग को सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट नहीं किया. हालांकि उसने यह जरूर कहा कि धारा 377 मुख्यतः उन्हीं लोगों के लिए है जिनके साथ यह अपराध उनकी इच्छा के विरुद्ध हुआ हो. इस तरह से न्यायालय सहमति से संबंध बनाने वाले समलैंगिकों पर इस धारा के इस्तेमाल को एक प्रकार से दुरुपयोग मानता है. लेकिन दूसरी तरफ उसी का अंतिम फैसला पुलिस को सहमति से संबंध बनाने वाले समलैंगिकों को गिरफ्तार करने के लिए बाध्य करने वाला है.

उच्च न्यायालय के फैसले के विपरीत सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना है कि धारा 377 मौलिक अधिकारों का हनन नहीं करती. इसके पीछे न्यायालय ने यह तर्क लिया है कि मौलिक अधिकारों पर भी कुछ नियंत्रण लगाए जा सकते हैं. लेकिन यह नियंत्रण सिर्फ व्यापक राष्ट्रहित में ही लगाए जा सकते हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने कहीं भी इस बात का जिक्र नहीं किया है कि समलैंगिकों को यौन संबंध बनाने से रोकने में क्या राष्ट्रहित है. न्यायालय ने यह भी माना है कि धारा 377 किसी समुदाय विशेष को निशाना नहीं बनाती. बल्कि यह हर उस व्यक्ति को दंडित करने की बात करती है जो प्रकृति विरुद्ध यौन अपराध करता है. इस संबंध में नाज़ फाउंडेशन की संस्थापक अंजलि गोपालन बताती हैं, ‘एक महिला और एक पुरुष आपसी सहमति से एकांत में क्या करते हैं इसे जानने का हक किसी को नहीं है. इसलिए वो यदि 377 के अनुसार अपराध भी करते हैं तो उन्हें रोकने वाला कोई नहीं. लेकिन समलैंगिक लोग यदि साथ में होते हैं तो कोई भी पुलिस अधिकारी उन्हें उत्पीड़ित कर सकता है. पुलिस के पास यह बचाव होता है कि वो धारा 377 में दंडनीय गंभीर अपराध को होने से रोक रहे हैं.’

बहरहाल 11 दिसंबर 2013 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला दे दिया है. इसके साथ ही लगभग साढ़े चार साल तक समलैंगिक यौन संबंध कानूनी रहने के बाद फिर से गैर कानूनी हो गए हैं. साथ ही 377 में वर्णित अपराध भी साढ़े चार साल तक प्राकृतिक कृत्य बना रहने के बाद फिर से प्रकृति विरुद्ध अपराध बन चुका है. इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने देश-विदेश के मनोचिकित्सकों के तर्कों और शोध को नकार दिया, एड्स पर कार्य करने वाली संस्थाओं और स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट को नकार दिया, राम जेठमलानी और फली एस नरीमन जैसे वकीलों के तर्कों को नकार दिया और कानूनों में तार्किक बदलाव की जो परंपरा स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने ही स्थापित की थी उसे भी नकार दिया. इस मामले में जो फैसला न्यायालय ने दिया है उसमें धारा 377 को बनाए रखने का एक भी ठोस कारण मौजूद नहीं है. यही कारण है कि स्वयं केंद्र सरकार ने इस फैसले को कुल 76 बिंदुओं पर चुनौती देते हुए पुनर्विचार याचिका दाखिल की है. इस याचिका में कहा गया है कि ‘सर्वोच्च न्यायालय को 2009 में ही सुरेश कौशल की याचिका को ख़ारिज कर देना चाहिए था क्योंकि वह उच्च न्यायालय में पार्टी तक नहीं थे. कानून की संवैधानिकता का बचाव करना केंद्र का काम है किसी तीसरे व्यक्ति का नहीं.’ वैसे सुरेश कौशल स्वयं भी मानते हैं कि वे तो धर्म और भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय गए थे.

न्यायालय ने भले ही इस मामले में फैसला सुना दिया है लेकिन इस पर बहस आज भी जारी है. हर व्यक्ति के पास इस मुद्दे पर बोलने को कुछ है. एक तरफ एलजीबीटी समर्थक अपने अधिकारों की बात करते हुए धारा 377 का विरोध कर रहे हैं तो दूसरी तरफ धार्मिक संगठनों के लोग 377 के समर्थन में हैं. सर्वोच्च न्यायालय में सुरेश कौशल के साथ ही याचिकाकर्ता रहे बाबा रामदेव के प्रवक्ता एसके तिजारावाला कहते हैं, ‘सेक्स सिर्फ संतान की उत्पत्ति के लिए होता था जिसे हमारे पूर्वजों ने एक नैतिक रंग दिया था. हर मानव समाज ने इसे ऐसे ही स्वीकार भी किया था. लेकिन बाद में कुछ विकृत लोगों ने अपनी बीमार मानसिकता के कारण अप्राकृतिक सेक्स भी शुरू कर दिया. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर समलैंगिकता के नंगे नाच की अनुमति भारतीय समाज में कतई नहीं दी जाएगी.’

अंजलि गोपालन बताती हैं, ‘एलजीबीटी और उनके अधिकारों के प्रति समाज में बहुत ज्यादा अज्ञानता और भ्रम हैं. इसी भ्रम के कारण लोगों के मन में कई तरह के डर भी होते हैं. इसे होमोफोबिया कहते हैं. यानी समलैंगिक लोगों और समलैंगिकता के प्रति डर, पूर्वाग्रह या घृणा होना.’ अंजलि की बातों का समर्थन मशहूर लेखक विक्रम सेठ भी करते हैं. सेठ कहते हैं, ‘समलैंगिकता के खिलाफ कानून विदेशों की देन है. समलैंगिकता नहीं. यह कानून अपने साथ समलैंगिकता नहीं बल्कि होमोफोबिया लेकर आया है.’

समलैंगिकता के प्रति एक विवाद इसके प्राकृतिक या अप्राकृतिक होने का भी है. न्यायालय में भी इस पर काफी बहस हुई थी. दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह कहा था कि मनोविज्ञान और मनोचिकित्सा अब समलैंगिकता को कोई बीमारी नहीं मानता. यह प्राकृतिक होता है जिसे बदला नहीं जा सकता. 1992 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने भी समलैंगिकता को मानसिक बीमारी की सूची से हटा दिया है. लेकिन अधिकतर लोग आज भी इसे अपने दिमाग से नहीं हटा पा रहे और मानसिक बीमारी ही मान रहे हैं. लोगों के ऐसे विश्वास को तब और बल मिल जाता है जब बाबा रामदेव कहते हैं कि ‘समलैंगिकता एक मानसिक बीमारी है और हम इसे योग से ठीक कर सकते हैं’, या जब रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का बयान आता है, ‘समलैंगिकता बिलकुल पीडोफिलिया (बच्चों के प्रति यौन आकर्षण) की तरह है. याचिकाकर्ता सुरेश कौशल कहते हैं, ‘कौन जानता हैं समलैंगिकता को प्राकृतिक बताते वाले मनोचिकित्सक खुद समलैंगिक नहीं हैं? आज समलैंगिकता को प्राकृतिक बता कर कानूनी मान्यता दिए जाने की बात हो रही है. कल बच्चों के या जानवरों के प्रति यौन आकर्षण को भी कानूनी बनाने की मांग हुई तो आप क्या करेंगे?’ इस मामले में प्रतिवादी रहे अधिवक्ता अरविंद नारायण जवाब में कहते हैं, ‘पीडोफिलिया को समलैंगिकता से नहीं जोड़ा जा सकता. आपराधिक कानून नुकसान की बात करता है. आप प्राकृतिक या अप्राकृतिक किसी भी कारण से यदि किसी को नुकसान पहुंचाते हैं तो आपको सजा होगी. लेकिन समलैंगिक किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचा रहे.’

समलैंगिकता को लेकर एक धारणा यह भी है कि इससे एड्स को बढ़ावा मिलता है. सुरेश कौशल कहते हैं, ‘भारत में 25 प्रतिशत एड्स के रोगी समलैंगिक हैं. समलैंगिक ही एड्स को बढ़ावा देते हैं. मैं हिमाचल प्रदेश से हूं. वहां के अधिकतर लोग काम के लिए बड़े शहरों में जाते हैं. वहां वो समलैंगिक संबंध बनाते हैं और फिर वापस अपने गांव में आकर परिवार वालों को भी जानलेवा बीमारी दे देते हैं. हिमाचल में इसी कारण कई लोगों की मौत हो चुकी है.’ जवाब में अंजलि गोपालन बताती हैं, ‘किसी भी तरह के असुरक्षित यौन संबंध से एड्स हो सकता है. एक से ज्यादा व्यक्ति से यौन संबंध बनाने पर एड्स की संभावनाएं और भी बढ़ जाती हैं. ऐसा नहीं है कि समलैंगिक यौन संबंध से ही एड्स होता हो. भारत में एड्स के 75 प्रतिशत रोगी वो हैं जो समलैंगिक नहीं हैं.’

धारा 377 के विवाद में एक पहलू किन्नरों का भी है. सुरेश कौशल कहते हैं, ‘किन्नरों को समलैंगिक लोग अपनी ढाल की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं. किन्नर कितने पढ़े-लिखे हैं? उनको समाज में कितनी स्वीकार्यता मिलती है? उन्हें लगा कि समलैंगिकों के बहाने उन्हें भी पहचान मिल जाएगी इसलिए वो भी इनके साथ शामिल हो गए. उनमें तो पता नहीं यौन संबंध बनाने की इच्छा होती भी है या नहीं.’ क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट पुलकित शर्मा इसके जवाब में कहते हैं, ‘यौन इच्छा हर व्यक्ति में होती है. वह उतनी ही किन्नरों में भी होती है जितनी किसी स्त्री या पुरुष में. लोग उन्हें जानते-समझते नहीं तो यह मान लेते हैं कि उनमें शायद इच्छा ही नहीं होती होगी. कई लोगों में यह भ्रम होता है कि किन्नर अन्य लोगों की तरह यौन संबंध नहीं बना सकते तो शायद उन्हें इसकी जरूरत भी महसूस नहीं होती होगी.’

धारा 377 की एक दिलचस्प बात यह भी है कि यह हर तरह के समलैंगिकों पर रोक नहीं लगाती. अधिवक्ता अरविंद नारायण बताते हैं, ‘धारा 377 में विशेष तौर पर यह स्पष्टीकरण लिखा गया है कि ‘इस धारा में वर्णित अपराध के लिए आवश्यक इंद्रिय भोग करने के लिए प्रवेशन(पेनिट्रेशन) पर्याप्त है’. महिला समलैंगिकों के लिए यह संभव ही नहीं है. लिहाजा उनको धारा 377 के अंतरगत दंडित नहीं किया जा सकता.’ हालांकि ऐसे भी कुछ मामले हुए हैं जब समलैंगिक महिलाओं पर भी इस धारा का उपयोग किया गया है. लेकिन एलजीबीटी कार्यकर्ता और कानून के जानकार इसे 377 का दुरुपयोग ही बताते हैं.

समलैंगिकता और धारा 377 से जुड़े मुद्दे यहीं समाप्त नहीं होते. धारा 377 को पुनर्जीवित करवाने वाले ज्योतिषाचार्य सुरेश कौशल काफी आगे की बातें भी करते हैं. वो कहते हैं, ‘समलैंगिकता को अनुमति देना पृथ्वी को उल्टा घुमाने के समान है. समलैंगिक जोड़ों को बच्चे कैसे होंगे? यदि इसको अनुमति दी जाती है तो आने वाले पचास या सौ साल में मानव जीवन समाप्त हो जाएगा.’ अपनी ज्योतिष विद्या का जिक्र करते हुए कौशल बताते हैं, ‘मैंने अपने ज्योतिष के हिसाब से ही उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी थी. सर्वोच्च न्यायालय का जब फैसला आने वाला था तभी मुझे अंदाजा हो गया था कि देश की कुंडली में जो विपदा आई थी वो अब समाप्त होने जा रही हैं. समलैंगिकता को मान्यता देकर हम भारतीय संस्कृति को नष्ट नहीं कर सकते. इन समलैंगिक लोगों को इलाज की जरूरत है.’

सुरेश कौशल की ही तरह ऐसे लाखों लोग हैं जो समलैंगिकों को इलाज की सलाह देते हैं. कई ऐसे भी हैं जिनके मन में एलजीबीटी के प्रति कई सवाल हैं. जैसे, एलजीबीटी चाहते क्या हैं? एलजीबीटी आम लोगों की तरह क्यों नहीं हैं? एलजीबीटी जन्म से ही ऐसे हैं या बाद में बने हैं? एलजीबीटी कौन हैं? दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपना फैसला सुनाते वक्त इन सवालों के जवाब तो नहीं दिए थे लेकिन एक महत्वपूर्ण बात कही थी – ‘भारतीय संविधान यह अनुमति नहीं देता कि एक आपराधिक कानून इस लोकप्रिय भ्रम में जकड़ा रहे कि आखिर एलजीबीटी कौन हैं’

‘मैंने पार्टी का घोषणापत्र नहीं पढ़ा था’

आम आदमी पार्टी से बाहर निकाले गए विधायक विनोद कुमार बिन्नी
आम आदमी पार्टी से बाहर निकाले गए विधायक विनोद कुमार बिन्नी
आम आदमी पार्टी से बाहर निकाले गए विधायक विनोद कुमार बिन्नी. फोटो: विकास कुमार

बड़े शोर-शराबे के साथ आपने अरविंद केजरीवाल की सरकार के खिलाफ भूख हड़ताल शुरू की थी. तीन घंटे में खत्म कैसे कर दी?

देखिए, मैंने भूख हड़ताल शुरू नहीं की थी. शुरू करने वाला था. लेकिन तब तक मेरे पास गवर्नर साहब, जो मुझे अपना छोटा भाई मानते हैं और अन्ना जी का मैसेज आया. दोनों ने मुझसे कहा कि मुझे सरकार को 10 दिन की मोहलत देनी चाहिए. मैंने उनकी बात मान ली.

आप अब 10 दिन की मोहलत देने की बात कर रहे हैं. लेकिन सरकार के खिलाफ आप पिछले 15 दिन से मोर्चा खोले हुए हैं…
मैंने 16 तारीख को पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी. इन लोगों ने अन्ना जी वाला जनलोकपाल पास करने का वादा पूरी दिल्ली और देश से किया था. इन्होंने खुद कहा था कि जैसे ही हम सरकार में आएंगे वैसे ही 15 दिनों के अंदर अन्ना जी वाला लोकपाल पास करेंगे. इस हिसाब से 28 (दिसंबर) को सरकार बनी तो 13 (जनवरी) तक लोकपाल बन जाना चाहिए था. इसके साथ इन्होंने दो वादे जो किए उसमें इन्होंने पूरी दिल्ली की जनता को धोखा दिया. इन्होंने सरकार में आने के बाद हर घर को 700 लीटर पानी फ्री देने की बात की थी. लेकिन इन्होंने धोखे से इसमें शर्त डाल दी थी, जिसके मुताबिक 700 लीटर से 701 होने पर 701 लीटर तक के पूरे पैसे देने होंगे. साथ में सरचार्ज अलग. इन्होंने मेनिफेस्टो में बहुत चतुराई से इस शर्त को डाल दिया था.

दूसरा बड़ा धोखा इन्होंने बिजली के मामले में किया. बिजली की कीमत में 50 फीसदी कमी करने की बात की. इसके लिए इन्होंने तीन महीने का समय रखा था. अगर ऐसा था तो इन्होंने दूसरे दिन ही घोषणा क्यों की? और इसके तहत इन्होंने सिर्फ पांच फीसदी लोगों को फायदा क्यों पहुंचाया? 95 फीसदी लोगों को इससे बाहर क्यों रखा?

आपने इस प्रश्न को तब क्यों नहीं उठाया जब घोषणापत्र तैयार हो रहा था?
मैं मनिफेस्टो कमेटी में नहीं था.

लेकिन आपकी जानकारी में तो होगा.
नहीं, मैं अपना चुनाव लड़ने में मस्त था. मुझे इन लोगों ने नहीं बताया.

आपने पार्टी का घोषणापत्र नहीं पढ़ा था?
पूरी दिल्ली में कितने लोग हैं जो घोषणापत्र पढ़ते हैं? मैंने घोषणापत्र नहीं पढ़ा था.

क्या आपको नहीं लगा कि सरकार को काम करने के लिए कुछ और समय दिया जाना चाहिए था?
हम समय दे तो रहे हैं. पहले 15 दिन दिया. फिर 10 दिन दे रहे हैं. अब जो जनता हमारा सर फोड़ने को तैयार है उससे किया वादा तो आपको पूरा करना होगा. मार्च में जब पार्टी की तरफ से दिल्ली में बिजली-पानी आंदोलन चलाया गया था उस समय 10 लाख 52 हजार लोगों ने पार्टी को समर्थन पत्र दिया था. उनसे वादा किया गया था कि जैसे ही सरकार बनेगी उनके बिजली-पानी के बिल माफ कर दिए जाएंगे. लेकिन सत्ता में आने के बाद पार्टी उन्हें भूल गई. आज इन लोगों के लाखों रुपये बिल हो गए हैं. पार्टी और सरकार अब उन लोगों को भूल चुकी है. वादा करने वाले लोग अब सत्ता में बैठ गए. मुसीबत हो गई हम जैसे लोगों की जो लोगों के बीच में रहते हैं. जनता हमसे पूछती है.

इन्होंने चुनाव से पहले ये भी वादा किया था कि भ्रष्टाचारियों की जांच करके उन्हें तुरंत जेल में भेजा जाएगा. लेकिन आज तक न कोई जांच हुई और न कोई जेल गया. शीला दीक्षित के खिलाफ भ्रष्टाचार का ये सबूत है, वो सबूत है कहते थे. सरकार बनाने के बाद सारे सबूत गायब हो गए. यानी चुनाव में आप झूठे वादे और दावे करते थे.

पार्टी का आरोप है कि बिन्नी पहले मंत्री पद चाहते थे. उसके बाद लोकसभा चुनाव का टिकट मांग रहे थे. जब उनकी मांग नहीं मानी गई तो पार्टी और सरकार पर अनर्गल आरोप लगाने लगे.
देखिए, मैं दोनों बातें मान लेता हूं. लेकिन मैंने जो प्रश्न उठाए हैं क्या उसका इन लोगों ने आज तक जवाब दिया? दूसरी बात ये कि क्या लोकसभा का कोई टिकट आज तक किसी को दिया गया है. किसी को टिकट की घोषणा की गई है? ये लोग झूठ बोल रहे हैं. आप 24 तारीख का अरविंद केजरीवाल का बयान देखिए.

उसमें उन्होंने कहा था कि बिन्नी मेरे घर पर आए थे. उन्होंने स्वयं मना किया है कि मुझे मंत्री पद नहीं चाहिए. उन्हें किसी पद का लालच नहीं है. वो सिर्फ पार्टी के लिए काम करना चाहते हैं.

अरविंद खुद ही चुनावों से पहले मुझे आदर्श व्यक्ति बताते थे. उन्होंने कहा था कि अगर बिन्नी चुनाव नहीं लड़ेगा तो मैं किसी भी सीट पर चुनाव प्रचार करने नहीं जाऊंगा. आज मैं बुरा हो गया.

30 तारीख को संजय सिंह ने खुद मुझे फोन करके कहा था कि अरविंद भाई ने कहा है कि आप पूर्वी दिल्ली से लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए आवेदन कर दें. एक जनवरी की सुबह मैं अरविंद केजरीवाल के यहां गया था. मैंने उनसे कहा कि अरविंद भाई, मेरे पास संजय भाई का फोन आया था. आप बताएं मुझे क्या करना है. आवेदन देना है या नहीं. उन्होंने कहा लोकसभा टिकट के लिए आवेदन कर दीजिए. इससे पहले मेरी उनसे कभी टिकट को लेकर कभी बात नहीं हुई.

यानी टिकट का प्रस्ताव पार्टी की तरफ से आया था?
हां. यहां तक कि लक्ष्मीनगर सीट से विधानसभा का चुनाव लड़ने से भी मैंने मना कर दिया था. मैंने कहा था कि आप मुझे छोड़कर किसी वॉलेंटियर को वहां से टिकट दे दो. मेरी ये सोच थी कि अगर मैं चुनाव लड़ा तो सिर्फ अपनी सीट तक ही सीमित हो जाऊंगा. ऐसे में बाकी सीटों पर काम नहीं कर पाऊंगा. मैं पार्टी के लिए पूरी दिल्ली में काम करना चाहता था. उस समय भी उन्होंने मुझे जबरदस्ती चुनाव लड़ाया था और उसी तरह लोकसभा भी मुझे लड़ाना चाहते थे. ये लोग आज जो चाहे कहें लेकिन ये जानते हैं कि मैं पार्टी से तब जुड़ा था जब दूर-दूर तक उसका कोई नाम लेने वाला भी नहीं था.

आपके ऊपर बीजेपी का एजेंट होने का आरोप लग रहा है. बीजेपी भी आपको शहीद बता रही है.
वास्तविकता से सब लोगों का हमेशा प्रेम होता है. हो सकता है मेरा समर्थन करने में बीजेपी का अपना स्वार्थ हो. लेकिन जंतर-मंतर पर मैंने उस दिन गीता पर हाथ रखकर ये कसम खाई थी कि आज मैं जो कुछ भी बोल रहा हूं वो मेरी अंतरात्मा की आवाज है. न इसमें भाजपा का कोई रोल है, न कांग्रेस का. भाजपा और कांग्रेस के खिलाफ तो मैं पूर्व में दो बार चुनाव लड़ चुका हूं. मेरी दोनों में से किसी से दोस्ती नहीं है. कांग्रेस या बीजेपी अगर हमारा फायदा उठा रही है तो इसमें मेरी क्या गलती है?

क्या बीजेपी या दूसरी पार्टियों ने आपसे इस बीच संपर्क किया है?
नहीं.

सरकार ने एक माह का कार्यकाल पूरा किया है. बीते 30 दिन में क्या सरकार ने कोई भी अच्छा काम किया है?
एक महीने में सरकार ने दिल्ली और देश की जनता को सिर्फ गुमराह करने का काम किया है. धोखा देने का काम किया है.

क्या पार्टी के अन्य कार्यकर्ता और विधायक आपके साथ हैं?
मेरा उद्देश्य पार्टी तोड़ना नहीं है, ना पार्टी को नुकसान पहुंचाना है. लेकिन दिल्ली की जनता को ये धोखा देंगे तो मैं इसे कतई बर्दाश्त नहीं करुंगा. दिल्ली की जनता के हित में ये लोग जब भी फैसला करेगें मैं इनका समर्थन करूंगा. मैं इन्हें इनकी जिम्मेदारियों से भागने नहीं दूंगा. इन्हें याद दिलाता रहूंगा. मेरी पार्टी के किसी विधायक से कोई बात नहीं हुई. मैं बस ये जानता हूं कि अगर उनके अंदर का जमीर जिंदा होगा तो वो मेरा साथ देंगे.

आपके हिसाब से पार्टी में होने वाली गड़बड़ियों के लिए जिम्मेदार कौन है?
पार्टी में पारदर्शिता बिल्कुल नहीं है. चार-पांच लोग हैं, जो पार्टी चला रहे हैं. वो बंद कमरे में फैसले लेते हैं. इसमें अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, संजय सिंह, कुमार विश्वास, प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव शामिल हैं. सारे फैसले ये लोग बंद कमरे में खुद करते हैं और फिर पूरे देश के सामने दिखावा करते हैं कि ये फैसला पूरी पार्टी का है. इनमें से कुछ एक-दूसरे के पुराने और बचपन के दोस्त हैं. जैसे कुमार विश्वास और मनीष सिसोदिया बचपन के दोस्त हैं. अरविंद और मनीष एनजीओ के जमाने से एक-दूसरे के साथ हैं. चार दोस्त हैं जो मिलकर पूरे देश को गुमराह कर रहे हैं.

क्या भविष्य में पार्टी के टूटने की आपको कोई संभावना दिखाई देती है?
पार्टी बंट गई है. योगेंद्र यादव जी ने कहा कि उन्हें मेरे पार्टी से निकाले जाने का बहुत दुख है. इससे पता चलता है कि अंदर कुछ तो गड़बड़ चल रही है. लेकिन तानाशाह लोग किसकी सुनते हैं. उन्होंने मुझे पार्टी से बाहर करने का फैसला सुना दिया.

कौन है ये तानाशाह?
सबसे बड़े तानाशाह तो अरविंद केजरीवाल हैं.

गली-गली में शंकराचार्य

guruबनारस में गंगा महासभा के कार्यालय में चौपाल लगी है. बात धार्मिक गुरुओं से होते हुए शंकराचार्यों तक जा पहुंचती है. सवाल उछलता है कि जब चार शंकराचार्यों की ही व्यवस्था थी तो अब इतने शंकराचार्य कैसे हो गए. गंगा महासभा के आचार्य जितेंद्र तुरंत यह सवाल लपकते हैं और हिसाब-किताब की भाषा में समझाने की कोशिश करते हैं, ‘आप खुद सोचें कि ढाई हजार साल पहले जब आदि गुरु शंकराचार्य ने चार शंकराचार्यों और चार मठों की व्यवस्था बनाई थी तब अभी का जो भारत है उस दायरे में हिंदुओं की आबादी करीब एक करोड़ की रही होगी. अब यह लगभग 80 करोड़ है, जबकि असली-नकली, सभी को मिलाकर अभी भी शंकराचार्यों की संख्या 86 तक ही पहुंच सकी है. आदि गुरु शंकराचार्य के ही फॉर्मूले और दृष्टि को देखें तो बढ़ी हुई हिंदू आबादी को सनातनी बनाए रखने के लिए आनुपातिक रूप से 320 शंकराचार्यों की जरूरत तो है ही. इसीलिए सोच रहा हूं कि अब भी 234 शंकराचार्यों की जो कमी है उनके लिए वैकेंसी निकाल दूं!’

आचार्य जितेंद्र यह बात व्यंग्य-विनोद में कहते हैं. भले ही वे कोई वैकेंसी नहीं निकालेंगे, लेकिन संभव है कि वास्तव में अगले कुछ साल के भीतर देश के भीतर शंकराचार्यों की फौज मौजूद हो और उनकी संख्या 320 का आंकड़ा भी पार कर जाए. अभी ही देश में कितने शंकराचार्य हो गए हैं इसका सही-सही अनुमान लगा पाना आसान नहीं. रांची से लेकर हरियाणा तक हर जगह कोई न कोई शंकराचार्य दिख जाता है. एक-एक शहर में भी कई शंकराचार्य देखे जा सकते हैं और बनारस का तो हाल यह है कि एक ही मकान में दो-दो शंकराचार्य नजर आते हैं. अगर आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार प्रमुख मठों की ही बात हो तो वहां भी असली शंकराचार्यों के साथ कई और शंकराचार्य अपनी-अपनी दावेदारी के साथ मौजूद हैं और मठ किसका हो, इस पर सालों से जंग लड़ रहे हैं.

कई जानकारों की मदद से हम इस समय देश में शंकराचार्यों की संख्या का अनुमान लगाने की कोशिश करते हैं. सभी अपने आंकड़े देते हैं और आखिर में यह जोड़ते हैं कि इतने तो हमारी जानकारी में हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि इतने ही हों, और भी होंगे. बनारस स्थित भारतीय विद्वत परिषद के सार्वभौम संयोजक कामेश्वर उपाध्याय की जानकारी में फिलहाल देश में 59 शंकराचार्य हैं. गंगा महासभा के आचार्य जितेंद्र यह संख्या 86 बताते हैं. पुरी गोवर्धन पीठ के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती के मुताबिक शंकराचार्यों का कुल आंकड़ा 100 के पार होगा. अखिल भारतीय छद्म शंकराचार्य अन्वेषी समिति बनाकर 2011 के माघ मेले में फर्जी शंकराचार्यों की तलाश करने वाले राकेश 55 शंकराचार्यों से मिल चुके हैं और विवरण के साथ उनके पैंफलेट भी छाप चुके हैं.

शंकराचार्यों की संख्या में दनादन हो रही वृद्धि, इस बढ़ोतरी की प्रक्रिया और इसके परिणामों को समझने के लिए कुछ जगहों पर भटकने पर कई दिलचस्प जानकारियां सामने आती हैं. बनारस में भटकने पर तो हैरान करने वाला यह तथ्य भी सामने आता है कि इस धर्मनगरी में पिछले कई सालों से शंकराचार्यों का उत्पादन भी हो रहा है. फैक्टरी के किसी प्रोडक्ट की तरह.

हाल में चार पीठों के शंकराचार्य तब सुर्खियों में आए जब उन्होंने इलाहाबाद में चल रहे कुंभ का बहिष्कार करने का एलान किया. शंकराचार्य चाहते थे कि कुंभ मेले में संगम किनारे चारों पीठों को अलग-अलग जगह देने के बजाय उन्हें एक जगह जमीन दी जाए. लेकिन प्रशासन ने इनकार कर दिया लिहाजा शंकराचार्यों ने महाकुंभ का बहिष्कार कर दिया. हालांकि प्रशासन की कई कोशिशों के बाद उन्होंने बाद में यह बहिष्कार खत्म कर दिया.

बनारस में हमारी मुलाकात सबसे पहले स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद से होती है. वे ज्योतिषपीठ और शारदापीठ के जगदगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद के प्रतिनिधि हैं और बनारस श्रीविद्या मठ के प्रमुख भी. अविमुक्तेश्वरानंद हमें मठामनाय महानुशासन नामक एक पुस्तिका देते हुए कहते हैं, ‘आप स्वयं देख लें, इसमें आदि गुरु शंकराचार्य के मठों के बारे में सब कुछ साफ लिखा हुआ है. चार मठ होंगे देश में और चार ही शंकराचार्य भी. अब जो इन चारों के अलावा शंकराचार्य बने हैं, वे कैसे बने हैं, यह समझा जा सकता है और उनसे ही पूछिए.’ अविमुक्तेश्वरानंद की मानें तो कुछ शंकराचार्य तो चंदे के लिए बने हैं और कुछ आवश्यकता के आविष्कार की तर्ज पर माफियाओं और राजनीतिज्ञों के बीच मध्यस्थता करके धंधा चलाने के लिए बनाए गये हैं. उनके मुताबिक बहुत-से शंकराचार्यों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संगठन जैसी संस्थाओं और दूसरे राजनीतिक दलों ने भी खड़ा किया है. वे कहते हैं, ‘चूंकि हिंदू धर्म में ईसाई धर्म या इस्लाम की तरह धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था आरंभिक अवस्था से नहीं है, सो इसे लेकर लोग सचेत नहीं रहते या विरोध नहीं करते. इसलिए यह सब आसानी से हो भी रहा है.’  अविमुक्तेश्वरानंद काशी विद्वत परिषद के बारे में भी समझाते हैं. कहते हैं, ‘बताइए, आदि गुरु शंकराचार्य का 2,519वां साल चल रहा है और विद्वत परिषद 110 साल पुरानी संस्था है, वह कैसे अभिषेक वगैरह करवाकर शंकराचार्य घोषित कर देती है किसी को?’

अविमुक्तेश्वरानंद से लंबी बातचीत के बाद हम उनके मठ से कुछ ही दूरी पर असी घाट किनारे बने शंकराचार्यों के एक मठ में पहुंचते हैं. यहां एक मकान में फिलहाल दो महानुभावों ने जगदगुरु शंकराचार्य उपनाम के साथ अपने-अपने बोर्ड लगा रखे हैं, एक नरेंद्रानंद और दूसरे चिन्मयानंद. दोनों ही खुद को ऊर्ध्वामनाय सुमेरु पीठ काशी का शंकराचार्य कहते हैं. अविमुक्तेश्वरानंद की मानें तो कुछ साल पहले तक इस एक मकान में छह व्यक्ति जगदगुरु ऊर्ध्वामनाय सुमेरु पीठ के शंकराचार्य बनकर ही रहा करते थे.

शंकराचार्यों के इस बसेरे में हमारी मुलाकात नरेंद्रानंद सरस्वती से होती है. वे भी जगदगुरु शंकराचार्य हैं! अक्सर विश्व हिंदू परिषद के आयोजनों में गर्जना के साथ मौजूद दिखते हैं. कुछ समय पहले पटना में भी अशोक सिंहल, सुब्रहमण्यम स्वामी के साथ दिखे थे और खून खौलाओ- स्वाभिमान जगाओ जैसे वाक्यों के साथ खूब गरजे थे.

नरेंद्रानंद बातचीत करने के लिए हमें उस मकान के एक छोटे-से कमरे में ले जाते हैं. कमरे में आसन से लेकर सिंहासन तक का प्रबंध दिखता है. बिना इधर-उधर की बात किए हमारा पहला सवाल यही होता है, ‘मठामनाय महानुशासन पुस्तक के हिसाब से तो चार शंकराचार्य ही होने चाहिए, आप शंकराचार्य कैसे हुए?’ नरेंद्रानंद सामने की तख्ती से एक पुस्तिका जैसा कुछ निकालते हैं और उसे पढ़ते हुए कहते हैं, ‘अज्ञानियों ने भरमाया और समझाया है आपको! खेमराज प्रेस से प्रकाशित ब्रह्मसूत्र शारीरिक मीमांसा भाष्य है भ्रांति टीका के साथ, इसके पृष्ठ संख्या 23/24 को पढि़ए, इसमें 35 शंकराचार्यों और मठों का उल्लेख है.’ नरेंद्रानंद किसी मठामनाय उपनिषद और मठामनाय सेतुग्रंथ का हवाला देते हुए तर्क देते हैं कि उसमें भी सात आमनायों यानी दिशाओं और सात मठों का जिक्र है. वे कहते हैं, ‘सच यह है कि स्वरूपानंद, निश्चलानंद और भारती तीर्थ, जो खुद को असली शंकराचार्य कहते हैं, वे खुद ही शास्त्रीय आधार पर सही शंकराचार्य नहीं हंै. मैं तो काशी सुमेरु पीठ का शंकराचार्य हूं, सभी सीमारक्षक शंकराचार्यों के बीच राष्ट्रपति की तरह. मुझसे आकर सभी को सर्टिफिकेट लेना होगा, मुझे किसी के प्रमाण पत्र की दरकार नहीं.’

बोलते-बोलते नरेंद्रानंद कुछ भी बोलने लगते हैं. वे आगे कहते हैं, ‘सोचिए, प्रलय आने पर सभी मठ ध्वस्त हो जाएंगे, लेकिन शंकर के त्रिशूल पर बसे होने के कारण यह काशी नगरी जस की तस रहेगी और यहां का शंकराचार्य ही बचा-बना रहेगा.’ नरेंद्रानंद कहते हैं कि जिस मठामनाय महानुशासन की बात हमें समझाई गई है उस किताब की असली पांडुलिपि कोई दिखा दे तो वे उसकी गुलामी करेंगे. वे चुनौती देते हुए कहते हैं, ‘और स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती, जो 90 वर्ष की अवस्था पार करने के बावजूद आदि गुरु शंकराचार्य के दो मठों पर कब्जा जमाए हुए हैं, जब चाहें तब आकर हर की पौड़ी में हमसे शास्त्रार्थ कर लें, जो हारेगा वह अपनी संपत्ति दे देगा और वहीं पर जल समाधि ले लेगा.’

नरेंद्रानंद बड़ी-बड़ी बातें एक सुर में बोल जाते हैं. उनके बारे में वैसे भी कहा जाता है कि वे बोलने के उस्ताद हैं. वे जो कह रहे हैं, यह उनका दंभ है, भ्रम है, अतिआत्मविश्वास है या सच्चाई, यह तो वही जानें, लेकिन उनकी बातों से यह साफ हो जाता है कि शंकराचार्यों की इस दुनिया में जो झोलझाल है, वह राजनीति की दुनिया में होने वाले दांव-पेंच से कोई कम जटिल और मजेदार नहीं. यह भी साफ होता है कि शंकराचार्यों की इस दुनिया में सभी एक-दूसरे की पोल खोलने को हर वक्त तैयार बैठे हैं, बस उन्हें जरा-सा उकसाने की दरकार है. नरेंद्रानंद काशी के जिस सुमेरु पीठ का शंकराचार्य होने का दावा करते हैं, उस पर फिलहाल जगदगुरु शंकराचार्य चिन्मयानंद भी दावेदारी में लगे हुए हैं. उस पीठ पर तरह-तरह के विवाद होते रहते हैं. विद्वानों का एक वर्ग हवाला देता है कि काशी को ऊर्ध्वामनाय (ऊपर की ओर स्थित) माना जाता है, इसलिए इसे ऊर्ध्वामनाय पीठ या सुमेरु पीठ कहते हैं. कुछ विद्वान कहते हैं कि 1950 के दशक में हिंदू धर्म सम्राट के नाम से प्रसिद्ध करपात्रीजी महाराज के सौजन्य से यह पीठ अस्तित्व में आया था और पहली बार यहां शंकराचार्य बनाने का चलन शुरू हुआ था. हालांकि नरेंद्रानंद सरस्वती ने अपने लिए जो बुकलेट छपवा रखी है उसमें वे खुद को काशी में 62वें शंकराचार्य के रूप में दिखाते हैं. दूसरी ओर शंकराचार्य के प्रतिनिधिगण इसे महज कल्पना बताते हैं. स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद कहते हैं, ‘जिस सात आमनायों के जरिए सात मठों का हवाला दिया जा रहा है, उसमें तीन अप्रत्यक्ष हैं. यदि कोई ऊर्ध्वामनाय का ही शंकराचार्य बनना चाहता है तो उसे काशी के बजाय कैलाश में बैठना चाहिए, क्योंकि ऊर्ध्वामनाय कैलाश को कहा गया है, काशी को नहीं.’

यह तो काशी में रहने वाले दो प्रमुख संतों जिनमें एक खुद शंकराचार्य हैं और दूसरे शंकराचार्य के प्रतिनिधि, उनके बीच सवाल-जवाब से पैदा हुई नोक-झोंक और विवाद की झलक भर है. देश के अलग-अलग हिस्सों में जब शंकराचार्यों की पड़ताल करने की थोड़ी कोशिश भर करते हैं तो और भी अजब-गजब तर्क सामने आते हैं और अजब-गजब शंकराचार्य भी. शो रूम में चमकने वाले कुछ शंकराचार्यों के किस्से जानकर गोदाम की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है.

पिछले दिनों एक शंकराचार्य उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर इलाके के एक रेलवे क्रॉसिंग के पास खुद मारुति 800 कार चलाते हुए दिखे थे. रेलवे क्रॉसिंग पर उनकी गाड़ी लगी थी, उनसे पूछा गया कि शंकराचार्य की गाड़ी है, वे किधर हैं. उनका जवाब था, ‘बताइये क्या बात है, मैं ही शंकराचार्य हूं.’ यह पूछने पर कि क्या अकेले ही चलते हैं, उनका जवाब था, ‘हां, इसी में सिंहासन-आसन सब रख लेता हूं, घूमता रहता हूं, एक चेला भी रहता है साथ में, लेकिन अभी नहीं है.’

एक अंगदशरणजी महाराज के शंकराचार्य बन जाने की कथा भी कई जगह सुनाई जाती है. अविमुक्तेश्वरानंद और आचार्य जितेंद्र उनके बारे में लगभग एक सा ही किस्सा बताते हैं. अंगदजी कथा-प्रवचन किया करते थे. लेकिन एक रोज कुछ विद्वानों को मैनेज करके वे खुद ही शंकराचार्य बन बैठे और अपने नाम के आगे जगदगुरु शंकराचार्य लगाकर घूमने लगे. अविमुक्तेश्वरानंद कहते हैं, ‘अंगदजी महाराज चार-चार बार शंकराचार्य बने, फिर वापस कथा-प्रवचन की दुनिया में लौटे. अब वे दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनकी पत्नी अपर्णा भारती प्रथम महिला शंकराचार्य बन गई हैं. हरियाणा के यमुनानगर जिला के रादौर नामक एक स्थान में भी शंकराचार्य पाए जाते हैं, जिन्हें अब रादौर पीठाधीश्वर जगदगुरु शंकराचार्य महेशाश्रमजी महाराज कहा जाता है.’ आचार्य जितेंद्र बताते हैं, ‘ये शंकराचार्य बिहार के गोपालगंज जिले के बरनैया गांव के रहने वाले हैं, वहां पहुंचकर उन्होंने पहले खुद एक पीठ बनाया, फिर उसके ईश्वर यानी पीठाधीश्वर बने और फिर नाम के आगे शंकराचार्य लिखने लगे.’ झारखंड की राजधानी रांची में भी कुछ साल पहले तक वनांचल पीठ बनाकर एक जगदगुरु शंकराचार्य रहा करते थे, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं. पुणे में भी एक शंकराचार्य के किस्से सुनाए जाते हैं कि कैसे कुछ साल पहले वहां एक साधु पहुंचते हैं, 27 नक्षत्रों को लेकर पांच एकड़ जमीन में एक पार्क बनवाते हैं, यज्ञ करवाते हैं और बाद में कुछ विद्वान उन्हें शंकराचार्य बना देते हैं. अमृतानंद, जो मालेगांव बम विस्फोट के बाद चर्चा में आए, उन्हें भी काशी के कुछ विद्वानों ने सर्वज्ञ पीठ का शंकराचार्य बनाया था. इसी तरह विशाखापत्तनम में स्वामी स्वरूपानंदेंद्र, कर्नाटक के सिमोगा में राघेश्वर भारती स्वामी, विद्याविनव विद्यारण्यमहास्वामी, कर्नाटक के ही सिरसी में गंगाधरेंद्र सरस्वती महास्वामी, बेंगलुरु में स्वामी केशवानंद भारती, अभिनव विद्याशंकर भारती स्वामी, कर्नाटक के ही चिकमंगलूर में स्वामी कृष्णनंदातीर्थ, स्वामी सच्चिदानंद सरस्वती महास्वामी, महाराष्ट्र के कोल्हापुर में विद्यावारसिम्हाभारती स्वामी, बेल्लारी में विद्यानंदभारती स्वामी, आंध्र प्रदेश के पुष्पागिरी में विद्यानरसिम्हा भारती स्वामीगल जैसे कई नाम मिलते हैं. ये सभी देश के अलग-अलग हिस्सों में जगदगुरु शंकराचार्य बनकर अध्यात्म और उसके संग धर्म के कारोबार को फला-फूला रहे हैं. इतने लोगों ने शंकराचार्य की उपाधि कैसे ले ली, पूछने पर जवाब मिलेगा- बनारस है ना! बनारस के विद्वान हैं ना!

दरअसल बनारस में पहले एक काशी विद्वत परिषद हुआ करती थी. अब पिछले कुछेक सालों में अलग-अलग नामों से विद्वत परिषदों की संख्या आधे दर्जन तक पहुंच चुकी है. इनमें कई विद्वत परिषद और उनसे जुड़े कुछेक विद्वान यहां ऐसे रहे हैं जो चट मंगनी-पट ब्याह की तर्ज पर शंकराचार्य बनाने का माद्दा हर समय रखते हैं. हालांकि अमृतानंद के मालेगांव कांड में आरोपित बनने के बाद बनारस की विभिन्न विद्वत परिषदें थोड़ी सचेत हुई हैं और अब दे-दनादन शंकराचार्य बनाने से बचती हैं. फिर भी चुनाव के समय इधर-उधर से छिप-छिपाकर वे कुछ शंकराचार्यों का उत्पादन कर ही देती हैं.

यह तो कथित तौर पर फर्जी या मनमर्जी से बने शंकराचार्यों की बात है. लेकिन जो असली शंकराचार्य हैं और आदि गुरु शंकराचार्य के स्थापित मठों में रहते हैं, वहां का विवाद तो इनसे भी ज्यादा गहरा और पेचीदा है. पहला विवाद तो यही है कि चार पीठ हैं तो फिर पिछले कई सालों से तीन ही शंकराचार्य उन्हें क्यों देख रहे हैं.

दरअसल स्वामी स्वरूपानंद 1973 से ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य तो थे ही, 1982 में वे द्वारका पीठ के शंकराचार्य भी बन गए. अब सवाल उठ रहे हैं कि इतने वर्षों में किसी एक मठ पर दावेदारी छोड़कर वे अपने किसी शिष्य को यह जिम्मा क्यों नहीं दे रहे, जबकि उनकी खुद की उम्र 90 के करीब पहुंच चुकी है. दिलचस्प बात यह है कि जब स्वरूपानंद दूसरे मठ का भी जिम्मा संभालने लगे तो यह तर्क भी दिया गया था कि जैसे किसी राज्य में आपात स्थिति में व्यवस्था बनाए रखने के लिए एक राज्यपाल को दूसरे राज्यपाल का भी जिम्मा दे दिया जाता है वैसे ही यह व्यवस्था हुई है. लेकिन स्वरूपानंद के विरोधी अब यह सवाल पूछते हैं कि राज्यपाल हमेशा के लिए ही दो राज्यों की देखरेख नहीं करता.

दूसरा विवाद यह है कि अब भी चारों प्रमुख मठ यानी द्वारका, ज्योतिष, गोवर्धन और शृंगेरी पीठ के शंकराचार्य तमिलनाडु के कांचीपुरम स्थित कांचीपीठ को आदि पीठ नहीं मानते और न ही वहां के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती को शंकराचार्य कहने को राजी होते हैं. यह अलग बात है कि वक्त की मांग पर जयेंद्र सरस्वती का आसन भी शंकराचार्यों के समानांतर लगाया जा चुका है. फिलहाल यदि कांची पीठ और जयेंद्र सरस्वती के विवाद को हटा भी दें तो तीसरा अहम पक्ष यह है कि पिछले कई सालों से आदि गुरु शंकराचार्य के इन चार पीठों, जिनका जिक्र मठामनाय महानुशासन में है, में कई-कई शंकराचार्य अपनी-अपनी दावेदारी की लड़ाई लड़ रहे हैं. पुरी के गोवर्धन पीठ पर स्वामी निश्चलानंद सरस्वती तो जगदगुरु शंकराचार्य हैं ही, वहां अधोक्षजानंद सरस्वती भी पिछले कई सालों से खुद को उसी पीठ का शंकराचार्य कहते हैं. अधोक्षजानंद के बारे में कहा जाता है कि वे कांग्रेस के समर्थन से बने. शारदा पीठ द्वारका पर स्वामी स्वरूपानंद तो जगदगुरु शंकराचार्य हैं ही, उसी पर राज राजेश्वर आश्रम का भी दावा है जो ज्यादातर हरिद्वार में रहते हैं और उनके बारे में कहा जाता है कि उन्हें संघ का समर्थन प्राप्त है. बद्रीनाथ में ज्योतिष पीठ है. वहां के भी शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद तो हैं ही, लेकिन स्वामी वासुदेवानंद भी खुद को उसी मठ का शंकराचार्य कहते हैं और इन दोनों के बीच वर्षों से चलने वाली जुबानी जंग चर्चित रही है. इसी मठ पर तीसरी दावेदारी माधवाश्रम की भी है. दक्षिण यानी कर्नाटक में बसे मठ शृंगेरी की बात करें तो वहां के शंकराचार्य भारती तीर्थ हैं, लेकिन उनके समानांतर 14 अन्य स्वामीगण शंकराचार्य उपनाम से जगदगुरु बने हुए हैं और सभी अपना-अपना काम चला रहे हैं, ज्यादा किचकिच नहीं है.

यह सब खेल उस आदि गुरु शंकराचार्य के नाम पर चल रहा है जो महज 32 साल की उम्र में ही दुनिया से विदा हो गए थे, जिन्हें घुमक्कड़ संन्यासी कहा गया था, जो शास्त्रार्थ के महारथी थे, जो बौद्ध धर्म के विस्तार को रोकते हुए हिंदुओं के लिए नायक सरीखे उभरे थे, जिन पर अब तक 1,500 से अधिक रिसर्च पेपर तैयार हो चुके हैं और तीन करोड़ से अधिक थीसिस लिखे जा चुके हैं. अखिल भारतीय विद्वत परिषद के संयोजक कामेश्वर उपाध्याय कहते हैं, ‘आदि गुरु शंकराचार्य तो दंड और कमंडल के अलावा कुछ नहीं लेकर चलते थे लेकिन अब के शंकराचार्य के आसन-सिंहासन को ही देखकर उनकी भव्यता और फिर उनके मठों तक पहुंचकर उनकी अकूत संपत्ति का अंदाजा लगाया जा सकता है.’ प्राचीन इतिहास के जानकार डॉ. एचएस पांडेय भी कुछ ऐसा ही कहते हैं. वे बताते हैं, ‘दरअसल यह संपत्ति और वर्चस्व की लड़ाई है क्योंकि इसके जरिए आमदनी के अथाह स्रोत भी खुलते हैं.’

संपत्ति और वैभव-ऐश्वर्य के साथ नाम की लड़ाई है, यह तो साफ पता चलता है. जानकार यह भी बताते हैं कि हिंदू धर्म के इस शीर्ष पद को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे हिंदुत्ववादी संगठन और देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस ने मिलकर तरीके से इस्तेमाल भी किया है और बर्बाद भी. उनके मुताबिक हालिया अपने-अपने शंकराचार्य खड़े करने की परंपरा रामजन्मभूमि आंदोलन और बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद परवान चढ़ी. पुरी गोवर्धन पीठ के शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती कहते हैं कि बाबरी ध्वंस के बाद शृंगेरी मठ के शंकराचार्य, वैष्णवाचार्य आदि का दिल्ली में चातुर्मास हुआ. उसी समय रामालय ट्रस्ट की स्थापना भी हुई. स्वरूपानंद की अगुवाई में बने इस ट्रस्ट के बारे में कहा जाता है कि इसे तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने विश्व हिंदू परिषद के नियंत्रण वाले रामजन्मभूमि न्यास के मुकाबले खड़ा किया था. निश्चलानंद कहते हैं, ‘हमारे पास भी 67 करोड़ रुपये दिए जाने का प्रस्ताव आया बशर्ते हम एक कागज पर हस्ताक्षर कर दें. ऐसा नहीं करने पर हमारे मठ, पद आदि को बर्बाद करने की धमकी भी दी गई थी.’ निश्चलानंद कहते हैं कि उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि उस कागज पर मंदिर के साथ मस्जिद का भी जिक्र था. उसके बाद गोवर्धन पीठ पर चंद्रास्वामी की मदद से एक दूसरे शंकराचार्य स्वामी अधोक्षानंद को खड़ा कर दिया गया. बताया जाता है कि बाद में यह चलन भाजपाइयों ने लपका.  कांग्रेस ने एक शंकराचार्य खड़ा किया तो जवाब में भाजपाइयों और संघियों ने पूरे देश को शंकराचार्यों से पाट दिया.

उधर, स्वरूपानंद के प्रतिनिधि अविमुक्तेश्वरानंद उलट बात कहते हैं. वे बताते हैं, ‘रामजन्मभूमि आंदोलन के समय संघ-विहिप के लोगों ने स्वरूपानंद से संपर्क किया था. वे लोग स्वामी स्वरूपानंद को रामजन्मभूमि न्यास से जोड़ना चाहते थे लेकिन कोई भी शंकराचार्य उस संगठन से नहीं जुड़ सकता जिसमें नीति-निर्धारक वह स्वयं न हो, सो स्वरूपानंद ने मना कर दिया तो रामजन्मभूमि न्यास वाले लोगों ने दूसरे शंकराचार्य को उनके मुकाबले खड़ा किया, यह सब जानते हैं.’

हालांकि इन सबके बीच नरेंद्रानंद जैसे शंकराचार्य संघ-विहिप का पक्ष लेते हुए कहते हैं कि जो खुद को असली शंकराचार्य कहते हैं वे अपनी जिम्मेदारी निभा ही नहीं रहे. वे कहते हैं, ‘कश्मीर से लेकर चीन तक के मसले पर बोलते ही नहीं, धर्मांतरण पर बोलते ही नहीं, यात्राएं करते ही नहीं तो किसी राष्ट्रवादी संगठन द्वारा राष्ट्रप्रेमी शंकराचार्यों को सहयोग करने पर हो-हल्ला क्यों मचाया जा रहा है?’

जानकारों के मुताबिक संघ और कांग्रेस द्वारा समानांतर शंकराचार्य खड़े करने की इस राजनीति का एक नतीजा तो फटाफट दिखने लगा था. जब भाजपा-कांग्रेस ने अपने-अपने शंकराचार्य बनाने की परंपरा शुरु की तो कई साधु-संत बनारस पहुंचकर विद्वत परिषद के सौजन्य से शंकराचार्य बनने को बेताब होते गए. जिन्हें विद्वत परिषद से भी सहयोग नहीं मिला, वे खुद किसी कोने में कुटिया बनाकर शंकराचार्यनामी बोर्ड लगाकर जगदगुरु शंकराचार्य बन बैठे. इन स्वयंभुओं में जिन्हें आदि गुरु शंकराचार्य की पुस्तक मठामनाय महानुशासन की जानकारी थी, उन्होंने उस पुस्तक में वर्णित शंकराचार्यों के दस उपनामों में से कोई एक अपने नाम के पीछे लगाने की सावधानी बरती. ये दस नाम क्रमशः वन, तीर्थ, अरण्य, सरस्वती, भारती, पुरी, आश्रम, गिरी, पर्वत और सागर हैं. जिन्हें इसकी जानकारी नहीं थी, वे सिर्फ अपना असल नाम बदलकर आगे आदि गुरु शंकराचार्य जोड़कर ही शंकराचार्य बन बैठे.

आखिर में सवाल फिर वही कि क्या सच में कुछ सालों में 320 शंकराचार्य देश में बन जाएंगे और आबादी के अनुपात में फिट बैठकर आदि गुरु का मान रखेंगे. या फिर यह किसी दूसरी परिणति की ओर इशारा कर रहा है? शंकराचार्यों की जो व्यवस्था हुई थी उसके कुछ कमजोर पहलू थे. पहला कमजोर पहलू तो यही था कि इस पद पर ब्राह्मण को ही विराजमान होना था. जानकारों का मानना है कि बदलते वक्त और समाज में आती जागरूकता के साथ सत्ता-सियासत और सामाजिक वर्चस्व में ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणवादी व्यवस्था के दिन लद गए हैं, सो ब्राह्मणवाद के इस एक बड़े प्रतीक की नियति भी ऐसी ही होनी है. स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद भी यह बात मानते हैं. वे कहते हैं, ‘इस पर पुनर्विचार की जरूरत है क्योंकि शंकराचार्यों के मठों में सिर्फ ब्राह्मण बच्चे पढ़ेंगे तो अब यह सामाजिक समीकरण नहीं चलने वाला है, पूरे हिंदू समाज के बारे में सोचना होगा.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘हमारी निजी राय तो यह है कि शंकराचार्यों को भी सोचना चाहिए कि आबादी बढ़ती जा रही है तो दूसरे काबिल संतों और विद्वानों को भी अहम जिम्मेवारी देकर व्यवस्था का विकेंद्रीकरण करना चाहिए. लेकिन इसके लिए कई शंकराचार्य बनाने की जरूरत नहीं है.’ अविमुक्तेश्वरानंद के अनुसार ऐसा भी नहीं है कि सभी फर्जी शंकराचार्य धूर्त ही हैं. वे कहते हैं, ‘उनमें कई काबिल और योग्य भी हैं,  उनसे बात कर उनके बीच दायित्वों का बंटवारा करना चाहिए.’ दूसरी बात यह भी है कि परंपरानुसार यह तय था कि जो शंकराचार्य होगा वह देश की सीमा नहीं लांघ सकता. आज भी जो कथित तौर पर असली वाले शंकराचार्य हैं वे इसका पालन करते हैं. लेकिन हालिया वर्षों में बने कई शंकराचार्य विदेशों की फुरफुरिया उड़ान भरते रहते हैं. उनकी नजर विदेशों में बसे भारतीय हिंदुओं पर रहती है जिनकी आबादी काफी है और उन्हें जजमान या शिष्य बनाने के फायदे भी बहुतेरे हैं. अखिल भारतीय विद्वत परिषद के कामेश्वर उपाध्याय कहते हैं, ‘देश में तो कई पीठ और बनने ही चाहिए, विदेश जाने से भी बंदिश हटाने की जरूरत है क्योंकि आज विदेशों में रहने वाले 12-14 करोड़ हिंदुओं को त्याज्य मानकर उन्हें छोड़ा नहीं जा सकता. उन्हें भी धार्मिक शिक्षा-दीक्षा की जरूरत है.’ श्री श्री रविशंकर, रामदेव, आसाराम बापू आदि जैसे संतों का उदय और उनके दायरे का अपरंपार विस्तार भी शंकराचार्यों के लिए चुनौती ही है. एक तो समुदाय पर उनकी पकड़ भी ज्यादा है और वे किसी जाति या सीमा के नियमों में बंधे नहीं होते, इसलिए देश-विदेश कहीं भी आते-जाते रहते हैं. इस तरह के कई सवालों और चुनौतियों में उलझे शंकराचार्य आपस में गुत्थमगुत्थी कर रहे हैं.

हम शंकराचार्यों की दुनिया को समझने की जितनी कोशिश करते हैं, नए सवाल पेंच और बढ़ाते जाते हैं. हम आखिर में फिर आचार्य जितेंद्र से पूछते हैं कि हमने यह-यह जानकारी जुटाई, क्या-क्या बचा रह गया. वे कहते हैं, ‘आपने असल चीज तो किसी से पूछी ही नहीं. जब आदि गुरु शंकराचार्य थे तब भारत अखंड भारतवर्ष हुआ करता था. म्यांमार, पाकिस्तान, अफगानिस्तान से लेकर अन्य देशों तक इसका दायरा था. कई वर्षों में एक-एक कर सभी देश अलग होते गए और भारत सिमटकर एक अलग देश के तौर पर बचा रहा. देश के इतने बंटवारे और  टुकड़े होने के बाद भी आदि गुरु शंकराचार्य के चारों पीठ अभी वाले भारत में ही कैसे पड़ गए. क्या इस दायरे को भी फिर से तय करने में झोलझाल किया गया है?’

(15 फरवरी 2013)

अनेक हैं टाइगर: लेकिन वैसे नहीं जैसे सलमान खान

पाकिस्तानी सेना में 15 साल तक नौकरी और जासूसी करने के बाद रवींद्र कौशिक ने 18 साल पाकिस्तान की जेल में बिताए. वहीं उनकी मौत हुई.
पाकिस्तानी सेना में 15 साल तक नौकरी और जासूसी करने के बाद रवींद्र कौशिक ने 18 साल पाकिस्तान की जेल में बिताए. वहीं उनकी मौत हुई.

दुनिया भर में मीडिया के लिए वह साल का सबसे बड़ा आयोजन था. यह जुलाई, 2001 की  बात है. पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ और भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के बीच आगरा में शिखरवार्ता चल रही थी. माहौल उम्मीद से भरा हुआ था. ठीक इसी समय आगरा के पश्चिम-उत्तर में तकरीबन एक हजार किमी दूर पाकिस्तान की मियांवली जेल की एक बैरक का भी माहौल कुछ-कुछ ऐसा ही था. पिछली शाम को ही जेल सुपरिंटेंडेंट ने वहां कैद एक भारतीय जासूस को खबर दी थी कि वह रिहा होने वाला है. यह भारतीय जासूस अपने साथियों के साथ उन सब सपनों को साझा कर रहा था जो उसे जेल से रिहा होने के बाद पूरे करने थे. वह जासूसी की जिंदगी हमेशा के लिए छोड़कर श्रीगंगानगर (राजस्थान) लौट जाना चाहता था. अपनी पाकिस्तानी पत्नी और बेटे के साथ उसे एक नई जिंदगी शुरू करनी थी.

शाम को बीबीसी रेडियो के उर्दू बुलेटिन की खबरें शुरू हुईं तो पहली बड़ी खबर थी कि मुशर्रफ-बाजपेयी वार्ता असफल हो गई है. खबर पूरी भी नहीं हो पाई थी कि जेल सुपरिंटंेडेंट ने भारतीय जासूस को सूचना दी कि उसकी रिहाई का आदेश रद्द कर दिया गया है. अब बैरक का माहौल पूरी तरह बदल चुका था. खबर सुनकर वह भारतीय जासूस खामोश हो गया. उसे इतना गहरा सदमा लगा कि उसकी तबीयत खराब रहने लगी और कुछ महीनों के बाद उसकी मौत हो गई. वह जासूस था रवींद्र कौशिक उर्फ नबी अहमद. देश की खुफिया एजेंसियां उसके बड़े-बड़े कारनामों के चलते उसे ब्लैक टाइगर के नाम से पहचानती थीं. रवींद्र की मौत के बाद भी बदकिस्मती ने उसका साथ नहीं छोड़ा. रवींद्र का शव कभी भारत वापस नहीं आ पाया. उस बैरक में रवींद्र के साथ रहे एक और भारतीय जासूस गोपालदास बताते हैं, ‘कौशिक की मौत के बाद जेल सुपरिंटेंडेंट ने हमें बताया था कि उसने भारतीय उच्चायोग से लाश रवींद्र के घर (भारत) पहुंचाने के लिए कहा था. लेकिन उच्चायोग का जवाब था कि उसे वहीं दफना दिया जाए.’

रवींद्र कौशिक का नाम हाल ही में एक बार फिर चर्चा में आ गया जब सलमान खान अभिनीत फिल्म ‘एक था टाइगर’ रिलीज होने वाली थी. रवींद्र के परिवार का आरोप है कि फिल्म निर्माताओं को फिल्म बनाने से पहले उनसे अनुमति लेनी चाहिए थी क्योंकि इसकी कहानी रवींद्र के जीवन पर आधारित है. मगर इस सारे विवाद के बीच भारतीय जासूसों के प्रति भारत सरकार और खुफिया एजेंसियों के उस उपेक्षापूर्ण और कहीं-कहीं बर्बर रवैये की ओर किसी का ध्यान नहीं गया जिसके चलते रवींद्र कौशिक जैसे कई जासूस गुमनामी की मौत मर गए. और जो किसी तरह अपने देश वापस आ पाए वे आज तक उस दिन को कोस रहे हैं जब उन्होंने इन एजेंसियों के लिए जासूस बनना स्वीकार किया था.

पंजाब सहित पाकिस्तान की सीमा से सटे राज्यों में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जिन्होंने भारतीय खुफिया एजेंसियों के लिए पाकिस्तान में जासूसी की है. इनमें से ऐसे जासूसों की संख्या कम नहीं जो जासूसी करते हुए पाकिस्तान में पकड़े गए और उन्हें 25 से 30 साल तक की सजा हुई. कुछ को फांसी भी हुई, कुछ सजा काटने के बाद भी दशकों तक पाकिस्तानी जेल में सड़ते रहे. इनमें से कुछ अब भी वहीं हैं. हाल ही में पाकिस्तान से 30 साल की सजा काट कर आए सुरजीत की तरह ही कई ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपनी पूरी जवानी जेल में ही बिता दी. कइयों की पाकिस्तानी जेल में ही मौत हो गई. परिवारवालों को उनका शव तक नहीं मिला क्योंकि भारतीय सरकार ने उनका शव लेने से ही इनकार कर दिया.

सूत्र बताते हैं कि खुफिया एजेंसियों की सबसे ज्यादा नजर भारत की सीमा से जुड़े गांवों पर ही होती है. वजह यह है कि यहां के लोगों का रहन-सहन, बातचीत, खान-पान, पहनावा-ओढ़ावा या यह कहें कि लगभग पूरी जीवन संस्कृति उस पार (पाकिस्तान) रहने वालों से काफी मिलती-जुलती है. इन गांवों में खुफिया विभाग का अपना एक व्यापक नेटवर्क है, जो लगातार ऐसे लोगों पर नजर बनाए रखता है जिनसे जासूसी करवाई जा सके. ऐसे लोगों को मनाने के लिए एजेंसियां हर तरह के हथकंडे इस्तेमाल करती हैं. पहले उन्हें अच्छे पैसे और सुनहरे भविष्य का लालच दिखाया जाता है. उनसे कहा जाता है कि अगर वे एजेंसी के लिए काम करते रहे तो उन्हें बहुत जल्दी विभाग में स्थायी कर दिया जाएगा. उन्हें तमाम तरह की सुविधाएं देने का वादा एजेंसियों द्वारा किया जाता है. कहा जाता है कि अगर वे पाकिस्तान में गिरफ्तार हो गए तो उनके घरवालों का पूरी तरह से ख्याल रखा जाएगा. अगर वे गिरफ्तार हो भी गए तो परेशान होने की जरूरत नहीं है क्योंकि सरकार उन्हें दो से तीन महीने के अंदर आराम से छुड़वा लेगी.

इसके बाद भी अगर सामने वाला तैयार नहीं होता तो अंत में एजेंसियां आखिरी के पहले वाला दांव खेलती हैं. इसके बाद सामने वाला गर्व से सीना फुलाए पाकिस्तान जाने का प्रस्ताव मान लेता है. सामने वाले से अधिकारी कहते हैं कि उन्हें वे जो देश-सेवा का मौका दे रहे हैं वह बहुत कम भारतीयों को नसीब होता है. यह दांव 95 फीसदी से अधिक लोगों को चित कर देता है और वे बिना ज्यादा सवाल-जवाब किए जासूस बनने को राजी हो जाते हैं. बाकी जो पांच फीसदी बचते हैं उनका भी इलाज है एजेंसियों के पास. वह इलाज ऐसा है जिसे सुनकर आपके पैरों तले जमीन खिसक जाएगी.

जीवन संस्कृति में समानता होने के अलावा और भी कई वजहों से एजेंसियों की नजर सीमा पर बसे गांवों के लोगों पर होती है. सबसे पहली बात यह कि बॉर्डर के इन गांवों में प्रायः गरीबी अपनी सभी कलाओं के साथ मौजूद रहती है. न तो इन गांवों में शिक्षा की व्यवस्था है, न स्वास्थ्य की. और न ही यहां कोई रोजगार है. लोग बमुश्किल दो जून की रोटी जुटा पाते हैं. जिन लोगों के पास थोड़ी-बहुत खेती लायक जमीन है, वे अलग परेशान रहते हैं. सीमा पर कंटीले तारों, बारूदी सुरंगों और बाकी अन्य सुरक्षा एहतियातों के कारण खेती करने में कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है. ऐसे में इन लोगों के पास जीवनयापन का कोई विकल्प नहीं बचता.

अशिक्षा और गरीबी का संयोग अन्य जगहों पर घातक हो सकता है लेकिन जासूसी के लिए यह सबसे मुफीद होता है. ऐसे में लोगों को जासूसी के लिए तैयार करना आसान हो जाता है. भर्ती करने के बाद शुरू होती है ट्रेनिंग की प्रक्रिया. इन जासूसों को शुरू में दो से तीन महीने की ट्रेनिंग दी जाती है. जब ये काम करना शुरू कर देते हैं तो बीच-बीच में विशेष प्रशिक्षण भी दिया जाता है. प्रशिक्षण में इन्हें विभिन्न हथियारों की पहचान कराई जाती है. पाकिस्तान के बारे में बताया जाता है, वहां की सेना के बारे में बताया जाता है और नक्शा देखना और पढ़ना सिखाया जाता है. इन भावी जासूसों को उर्दू बोलना और इस्लाम धर्म की तमाम बारीकियां भी सिखाई जाती हैं. यहां तक कि कुछ मामलों में इनका खतना तक किया जाता है. फिर उन्हें एक मुसलिम नाम और पाकिस्तानी पहचान दी जाती है.

प्रशिक्षण की पूरी प्रक्रिया से गुजरने के बाद इन लोगों को तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है. पहले वर्ग में वे लोग होते हैं जिन्हें लंबे समय तक प्रशिक्षित किए जाने के बाद पाकिस्तानी नागरिक बनकर वहीं पाकिस्तान में रहना होता है. इन्हें ‘रेजीडेंट एजेंट’ कहा जाता है. रवींद्र कौशिक ऐसा ही एजेंट था. कौशिक को रॉ ने1973 में एजेंट बनाया था और कुछ सालों के बाद ही वह पाकिस्तान में रेजीडेंट एजेंट बन गया था. वहीं उसने एक कॉलेज में एडमिशन लिया और एलएलबी की डिग्री पूरी की जिसके बाद वह पाकिस्तानी सेना में क्लर्क बन गया. 1983 में अपनी गिरफ्तारी तक उसने रॉ को कई खुफिया सूचनाएं भेजीं थीं. रेजीडेंट एजेंटों में से कई अविवाहित होते हैं और किसी पाकिस्तानी लड़की से शादी करके स्थायी नागरिकों की तरह रहने लगते हैं. रवींद्र ने भी पाकिस्तानी सेना के एक अधिकारी की लड़की से शादी की थी.

जासूसों के दूसरे वर्ग में वे लोग आते हैं जिनका काम पहले वर्ग के लोगों तक पैसे आदि पहुंचाना और उनके द्वारा दी गई खुफिया जानकारी को पाकिस्तान जाकर वहां से लाने का होता है. ये लोग सीमा पार करके थोड़े-थोड़े अंतराल पर वहां जाते-आते रहते हैं.

तीसरे वर्ग में वे लोग आते हैं जो ‘गाइड’ कहलाते हैं. इन लोगों का काम दूसरे वर्ग के लोगों को इस पार से उस पार लाना-ले जाना होता है. ये जासूसों को पाकिस्तान बॉर्डर क्रॉस कराते हैं. जासूसों को पाकिस्तान की सीमा में ‘लॉन्च’ कराके ये लोग उन्हें आगे का रास्ता समझाकर वापस आ जाते हैं. लॉन्च शब्द जासूसी की भाषा में सीमा पार कराने के लिए प्रयोग किया जाता है.

लंबे समय तक रॉ के लिए जासूसी कर चुके गोपालदास बताते हैं, ‘हमें पाकिस्तानी फौजी ठिकाने, फौजी हवाई अड्डे, सेना के मूवमेंट्स की डिटेल, तोप, हथियारों और गोला-बारूद की जानकारी, पुलों की फोटो और नक्शे आदि अपनी खुफिया एजेंसियों को देने होते थे.’  इसके साथ ही जो सबसे बड़ा काम इन लोगों को करना होता है वह है ऐसे पाकिस्तानी नागरिकों की तलाश जो भारत के लिए जासूसी कर सकें. इनमें से सबसे ज्यादा डिमांड सेना और विभिन्न सुरक्षा बलों और सत्ता प्रतिष्ठानों से जुड़े लोगों की है. गोपालदास 1978 में रॉ के एजेंट बने थे. उनका काम था सीमापार जाकर पाकिस्तान में तैनात एजेंटों से जानकारी लाना और एजेंसी को सौंपना. 1984 में वे पाकिस्तान में गिरफ्तार हो गए. उन्हें 25 साल की सजा सुनाई गई. पिछले साल ही वे पाकिस्तान की जेल से रिहा होकर भारत आए हैं.

पाकिस्तान में भारत के जासूस रहे करामत राही बताते हैं, ‘मेरे काम का बड़ा हिस्सा यह था कि मैं पाकिस्तानी सेना के उन सैनिकों और अधिकारियों को भारत लेकर आऊं जो भारत सरकार के लिए काम करते हैं.’ करामत के मुताबिक ये लोग रॉ के अधिकारियों से बातचीत करते थे और बाद में भारतीय जासूस ही उन्हें सकुशल सीमा पार करवा देते थे.

जासूसों को मिलने वाला पारिश्रमिक भी उनके काम की तरह ही जटिल है. कुछ जासूस ऐसे हैं जिन्हें हर महीने की एक निश्चित रकम दी जाती है, कुछ को सरहद पार की हर ‘ट्रिप’ के हिसाब से पैसा दिया जाता है. लेकिन बाकी जगहों की तरह यहां भी हफ्ता वसूली और भ्रष्टाचार है. कई ऐसे मामले हैं जहां वरिष्ठ अधिकारी जासूस को मिले पैसों में से एक हिस्से की मांग करते हैं. चूंकि मामले को लेकर न कोई पारदर्शिता है और न ही जासूसों को रखने के लिए कोई लिखा -पढ़ी होती है. पूरी नौकरी जबान पर ही चलती है, ऐसे में जासूसों को भी पता नहीं चलता कि आखिर उन्हें देने के लिए ऊपर से कितना पैसा आता है. कई साल तक देश के लिए जासूसी करते रहे एक शख्स हमें बताते हैं कि कई जासूस स्थायी नौकरी की चाहत में वरिष्ठ अधिकारियों को खुश करने में लगे रहते हैं. वे सोचते हैं, साहब खुश रहेंगे तो जल्द ही वे उसे परमानेंट कर देंगे.

पाकिस्तान में जासूसी के लिए 10 साल की सजा काट चुके 60 वर्षीय बलविंदर सिंह कहते हैं, ‘एजेंसियां जासूसों को एक-दूसरे के पास थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद भेजती रहती हैं. जैसे कि आज आप रॉ के लिए काम कर रहे हैं, तो कुछ महीनों बाद आपको मिलेट्री इंटेलीजेंस के पास भेज दिया जाएगा. फिर आईबी वालों के यहां. ये लोग ऐसा इसलिए करते हैं ताकि जासूस लंबे समय तक काम करने के बाद स्थाई नौकरी की मांग ना करने लगे. इसलिए वे तीन साल की सर्विस एक साथ पूरी नहीं होने देते, उसके पूरा होने के पहले जासूसों को दूसरी एजेंसी को सौंप दिया जाता है.’ गंभीर रूप से बीमार बलविंदर सिंह इस समय अमृतसर के नजदीक गौंसाबाद में रहते हैं.

स्थायी नौकरी के लालच में ये जासूस अधिकारियों के हर जायज-नाजायज आदेशों का पालन करते रहते हैं. लेकिन उन्हें पता नहीं होता कि ये लोग एजेंसियों के लिए तभी तक उनके आदमी हैं जब तक वे पकड़े नहीं जाते. पकड़े जाने के बाद उन्हें एजेंसियां अपने काम के लिए खतरा ही मानती हैं और वे उन्हें पहचानने तक से इनकार कर देती हैं.

अगर ये लोग सजा पूरी करके भारत आ भी गए तो एजेंसियां इन पर नजर रखती हैं. दरअसल पाकिस्तान की खुफिया एजेंसियां भी ऐसे जासूसों की ताक में रहती हैं जो भारत के लिए पाक में काम कर रहे हों. जासूस गोपालदास बताते हैं, ‘पाकिस्तानी अधिकारी कहते हैं कि हम तुम्हें यहां इतना प्रताड़ित करेंगे कि तुम ऐसे ही मर जाओगे. अगर बच गए तो शारीरिक और मानसिक किसी लायक नहीं छोड़ेंगे. इतना डराने-धमकाने के बाद हमें कहा जाता है कि यदि हम उनके लिए काम करना स्वीकार कर लें तो वे हमें छोड़ सकते हैं. जासूसी की भाषा में ऐसे लोगों को डबल एजेंट कहा जाता है.’

डबल एजेंट बनाने की भी प्रकिया बेहद फिल्मी है. भारतीय खुफिया एजेंसियों के लिए लंबे समय तक पाकिस्तान में जासूसी करने वाले तथा जासूसी के जुर्म में ही पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में 18 साल तक कैद रहे मोहनलाल भास्कर अपनी आत्मकथा ‘मैं पाकिस्तान में भारत का जासूस था’ में इसका जिक्र करते हैं, ‘वह बोला, ‘देखो, बेवकूफी की बात मत करो. हम तुम्हें एक मौका दे रहे हैं अपनी जिंदगी बनाने का. हिंदुस्तानवालों ने तो तुम्हारी जिंदगी खराब कर दी. अब अगर तुम लौट भी जाओ, जिसकी अभी 10-15 साल तक कोई उम्मीद नहीं, तो वे ही तुम्हें शक की निगाह से देखेंगे, दूसरे वे तुम्हें कौड़ी के मोल नहीं पूछेंगे. वे अफसर जिन्होंने तुम्हें भेजा है, तुम्हें पहचानने से इनकार कर देंगे. तुम तो यहां आराम से बैठे जेल की रोटियां तोड़ रहे हो, उधर तुम्हारी बेबस मां लोगों के बर्तन मांजकर गुजारा चलाती है और तुम्हारी बीवी नौकरानियों जैसी जिंदगी गुजार रही है. अपने बेटे की तरफ सोचो, जिसका अभी मुंह तुमने नहीं देखा. हम जेल से तुम्हारे फरार होने का नाटक रचेंगे. तुम्हारी फरारी की खबर अखबारों और रेडियो में देंगे. … तुम्हें सिर्फ इतना करना है कि या तो किसी तरह खत लिखकर अपने मां-बाप को यहां बुला लो या अपनी बीवी या बहन को. वह जमानत के तौर पर हमारे पास रहेंगे. हम उन्हें मेहमानों की तरह रखेंगे. जब तुम पांच साल तक हमारे लिए काम कर चुके होगे, तो हम उन्हें वापस भेज देंगे.’

जासूसों के पाकिस्तान में पकड़ लिए जाने के बाद उनके साथ वहां की एजेंसियों द्वारा जिस तरह से पूछताछ की जाती है वह पूरी प्रक्रिया हाड़ कंपाने वाली है. पकड़ने के बाद जासूसों की आंख पर पट्टी बांधकर उन्हें पाकिस्तानी सुरक्षा एजेंसियों के इंटेरोगेशन सेंटर में ले जाया जाता है. जासूस बताते हैं कि उन्हें एक छोटी-सी कोठरी में रखा जाता है जहां 24 घंटे और बारहों महीने रात रहती है. जासूस गोपालदास बताते हैं कि उन्हें पकड़े जाने के 15 दिन तक न कोई खाना दिया गया और न ही पानी. पानी उतना ही मिलता था कि जिससे जीभ गीली हो सके. यहां सुरक्षा एजेंसियों के सबसे बर्बर अधिकारियों को पूछताछ के लिए लगाया जाता है.

गोपालदास अपनी हिरासत के शुरुआती दिन याद करते हुए कहते हैं, ‘जब मैं वहां पहुंचा तो सबसे पहले उन्होंने मेरे पूरे कपड़े उतरवा दिए और फिर थर्ड डिग्री का टॉर्चर शुरू कर दिया. इस दौरान वे रस्सी के सहारे आपको उल्टा लटकाकर हंटर और डंडे से बिना कुछ कहे और पूछे पीटने लगते हैं. एक समय पर एक आदमी को लगातार चार से पांच लोग तब तक पीटते रहते हैं जब तक कि आप बेहोश न हो जाएं, फिर जैसे ही कुछ समय बाद आप होश में आते हैं वे फिर से पीटने लगते हैं. बिजली के शॉक देते हैं, गुप्तांगों में मिर्ची का पावडर लगाते हैं. प्रताड़ना का आलम कुछ ऐसा होता है कि आप चाहते हैं कि कोई आए और आपको गोली मार दे.’

यह पूरी प्रताड़ना जासूसों के पकड़े जाने से लेकर अगले तीन से पांच साल तक लगातार चलती है. पकडे़ जाने के बाद सभी जासूसों को इस चरण से गुजरना होता है. जब फौज के अधिकारी आपको हर तरह से प्रताड़ित कर चुके होते हैं तब आपका मामला वे कोर्ट में ले जाते हैं. गोपालदास कहते हैं, ‘ बहुत-से जासूसों की मौत तो इस तीन से पांच साल तक चलने वाली पूछताछ के दौरान ही हो जाती है. पाक अधिकारियों का यह प्रयास होता है कि वे आपसे पहले पूरी सूचना निकलवा लें. उसके बाद आपको इतना प्रताड़ित करें कि आप जिंदा तो रहें लेकिन शारीरिक और मानसिक रूप से आपकी मौत हो जाए.’ ऐसे ही एक जासूस रॉबिन मसीह के पिता याकूब मसीह कहते हैं, ‘मेरा बेटा 15 साल पाकिस्तान की जेल में सजा काट कर छूटा, जब वह यहां आया तो एक जिंदा लाश में तब्दील हो चुका था. वहां उन्होंने उसे इतना प्रताड़ित किया कि वह शादी के लायक तक नहीं बचा.’

जासूस बताते हैं कि जब कोर्ट से उन्हें जेल की सजा हो जाती है तब जाकर उनकी जान में जान आती है. हर जासूस चाहता है कि उसे जल्द से जल्द जेल की सजा हो जाए क्योंकि इसके बाद ही जिंदा बच पाने की उम्मीद बनती है.

यहां यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य है कि जासूसों को ट्रेनिंग के दौरान सबसे पहला पाठ यह पढ़ाया जाता है कि उनके परिवार, दोस्त और नाते-रिश्तेदार किसी को भी यह नहीं पता चलना चाहिए कि वे जासूसी का काम करते हंै. जासूस करामत राही बताते हैं, ‘मैं सालों तक भारतीय एजेंसियों के लिए जासूसी करता रहा लेकिन मेरी पत्नी तक को नहीं पता था कि मैं जासूस हूं.’ यह स्थिति हर जासूस के साथ होती है. सुरजीत सिंह का ताजा मामला हमारे सामने है.

सन 1982 में पाकिस्तान में सुरजीत सिंह की गिरफ्तारी होती है. घरवालों को कुछ पता नहीं होता कि वे कहां हैं. दिन महीनों में और महीने सालों में बदल जाते हैं. जब कहीं से कोई खबर नहीं मिलती तब घरवाले यह मानने को मजबूर हो जाते हैं कि वे अब कभी नहीं आएंगे. 23 साल बाद पाकिस्तान की जेल से एक कैदी रिहा होकर भारत आता है तो अपने साथ एक अन्य कैदी की चिट्ठी भी लाता है. वह उस कैदी के घर जाकर उसकी पत्नी को चिट्ठी सौंपता है. चिट्ठी पढ़कर उस महिला को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं होता. यह महिला सुरजीत सिंह की पत्नी हैं जिन्हें सुरजीत ने जेल से रिहा हुए कैदी के माध्यम से यह बताया है कि वह जिंदा है और पाकिस्तान की जेल में कैद है. उन्हें

जासूसी के आरोप में गिरफ्तार किया गया है और सजा-ए-मौत सुनाई गई है.

सुरजीत जैसे दर्जनों उदाहरण हैं. इनके आधार पर कहा जा सकता है कि गिरफ्तार होने के बाद सिर्फ यह खबर अपने घरवालों तक पहुंचाने में कि वे पाकिस्तानी जेल में हैं, एक जासूस को दो दशक से ज्यादा लग सकते हैं.

यहीं भारतीय सुरक्षा एजेंसियों का क्रूरतम चेहरा सामने आता है. जासूस कहते हैं कि यह मान लिया कि पाकिस्तान तो उनसे दुश्मनी निकाल रहा है लेकिन भारतीय एजेंसियों का तो यह फर्ज है कि वे उनके घरवालों किसी तरह उनके बारे में बताएं. गोपालदास कहते हैं, ‘ये मान लेते हैं आप जासूसी की बात मत बताओ लेकिन इतना तो हमारे घरवालों को बता ही सकते हो कि हम जिंदा हैं. लेकिन एजेंसी वाले यह तक नहीं करते. जो आदमी इनके लिए अपनी जान पर खेल कर पाकिस्तान में जासूसी कर रहा हो उसकी गिरफ्तारी पर ये लोग उसके घरवालों से न तो कोई संपर्क करते हैं, न ही उन तक कोई सूचना पहुंचाते हैं और न ही उनका कुशलक्षेम पूछते हैं.’

अगर सुरजीत सिंह की ही बात करें तो जेल से छूट कर जब वे अपने घर आए तो उन्हें पता चला कि पिछले 30 साल में कोई उनके घरवालों का हाल-चाल तक लेने नहीं आया था. इस बीच उनके सात भाइयों की मौत हो गई, एक बेटा ब्रेन हैमरेज के चलते चल बसा, उनकी पत्नी चलने-फिरने के लायक नहीं रही, घरवालों के पास इतने पैसे भी नहीं बचे कि वे अपनी रोजी-रोटी चला सकें.

खुफिया एजेंसियों के लिए पाकिस्तान में जासूसी कर चुके और 15 साल पाकिस्तान जेल में सजा काट चुके 65 वर्षीय मोहिंदर सिंह आज अमृतसर की सड़कों पर रिक्शा चलाते हैं. 1986 में जब वे रिहा होकर वापस आए तब उन्होंने शादी की, लेकिन पत्नी कुछ महीनों के बाद ही गंभीर रूप से बीमार हो गईं. खैर,  किसी तरह रिक्शा चलाकर उन्होंने पत्नी का इलाज कराया. लेकिन थोड़े दिन बाद ही उनकी मृत्यु हो गई. ‘आप मुझे देख ही रहे हैं, जिस उम्र में आदमी शांति से जीता है, उस उम्र में मुझे रिक्शा चलाकर रोटी कमानी पड़ रही है. पूरी जवानी तो इस देश ने ले ली अब बुढ़ापे में रिक्शा चलवा रहा है…’ मोहिंदर हारेे-से स्वर में कहते हैं.

किसी तरह जब जेल की सजा ये जासूस काट लेते हैं तो उसके बाद इन्हें एक नई लड़ाई लड़नी होती है. जेल से बाहर निकलने की. स्थिति यह है कि पाकिस्तानी जेलों में कई ऐसे जासूस अभी तक कैद हैं जिनकी सजा आठ से 10 साल पहले पूरी हो चुकी है. गोपालदास बताते हैं, ‘पाकिस्तानी जेल में मेरी ऐसे कई कैदियों से मुलाकात हुई जिनकी सजा 10 साल पहले ही पूरी हो चुकी थी, लेकिन कोई उनकी रिहाई के लिए प्रयास नहीं करता. पाकिस्तान से कोई क्या शिकायत करे जब आपके अपने देश की सरकार को ही इस बात से कोई मतलब नहीं है.’  वे ऐसे ही एक व्यक्ति रामलाल के बारे में बताते हैं जिसे बॉर्डर

क्रॉस करने के जुर्म में एक साल की सजा हुई लेकिन वह पिछले 10 साल से जेल में है.

गोपालदास के मुताबिक भारत सरकार अगर थोड़ा-बहुत प्रयास करती भी है तो सिर्फ उन मामलों में जो मीडिया में काफी चर्चित रहे हों. उदाहरण के रूप में सरबजीत का मामला है. इसके अलावा उसे उन सैकड़ों भारतीयों से कोई मतलब नहीं है जो बेचारे जेलों में अपनी सजा खत्म होने के बाद भी सड़ रहे हैं. ‘सरकार जासूसों को मरने के लिए छोड़ देती है और उनके मरने के बाद उनकी लाश तक उनके घरवालों को नहीं पहुंचाती’, गोपालदास बताते हैं, ‘रवींद्र कौशिक के अलावा भी ऐसे कई जासूस है जिनकी मौत पाकिस्तान की जेल में हुई लेकिन उनकी लाश कभी अपने वतन नहीं लौट पाई. पंजाब के पठानकोट के रहने वाले इनायत मसीह को सन 1983 में जासूसी के आरोप में पाकिस्तान में पकड़ा गया था. उसे पाकिस्तान में पूछताछ के दौरान इतना प्रताड़ित किया गया कि उसकी मृत्यु हो गई. इस बार भी भारत सरकार ने उसका शव लेने से इनकार कर दिया.’ ऐसा ही एक मामला अमृतसर के रहने वाले किरपाल सिंह का था. उन्हें जासूसी करने के आरोप में पाकिस्तान में सन 2000 में फांसी दे दी गई. लेकिन उनका शव भी कभी भारत नहीं आ पाया.

इन त्रासदियों और प्रताड़नाओं से गुजरने के बाद जब कोई जासूस किसी तरह रिहा होकर वापस भारत आ जाता है तो उसे उम्मीद होती है कि वह जिन लोगों और एजेंसियों के लिए काम करता था वे उसके किए के लिए उसके कृतज्ञ होंगे और पूरी जवानी देश के लिए पाकिस्तानी जेल में खपा देने का कुछ उसे मुआवजा भी देंगे. लेकिन जब भारत वापस आकर वे उन अधिकारियों से मिलते हैं जिन्होंने उन्हें जासूसी करने पाक भेजा था तो वे उनके योगदान को स्वीकारने और उन्हें सम्मानित करने के बजाय उन्हें पहचानने तक से इनकार कर देते हैं. फिर शुरू होती है एक ऐसी लड़ाई जिसका अंत खुद जासूसों को पता नहीं. ऐसे ही कई जासूसों ने अपने प्रति हुए इस अन्याय के खिलाफ अदालत में शरण ली है. इनका केस लड़ रहे वरिष्ठ वकील रंजन लखनपाल कहते हैं, ‘इन जासूसों के पास ऐसे तमाम सबूत हैं जो ये प्रमाणित कर सकें कि इन लोगों ने भारत की विभिन्न खुफिया एजेंसियों के लिए पाकिस्तान में जाकर जासूसी की है. इन लोगों का योगदान एक सैनिक से बढ़कर है. इन्होंने देश की सेवा में अपना पूरा जीवन होम कर दिया, लेकिन इनके साथ देश की सरकार और खुफिया एजेंसियों द्वारा जिस तरह का व्यवहार किया जा रहा है वह बताता है कि इन्हें बहुत बड़ा धोखा दिया गया है.’

ऐसा नहीं है कि सिर्फ सरकार और खुफिया एजेंसियां इनके जख्मों पर नमक छिड़कने का काम कर रही हंै.  कुछ अदालतें भी इस काम में काफी आगे हैं. ऐसा ही एक मामला करामत राही का है. करामत राही के मामले को लेकर रंजन लखनपाल ने पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में अपील की थी. जज ने मामले की सुनवाई के दौरान लखनपाल को तुरंत केस वापस लेने के लिए कहा. लखनपाल से कहा गया कि इस तरह के केस लेना देश के साथ गद्दारी है, इसलिए तुरंत यह केस वापस लिया जाए. गोपालदास कहते हैं, ‘जब हम कोर्ट में जाते हैं तो हमसे प्रमाण मांगा जाता है कि दिखाओ क्या सबूत है कि तुम जासूस थे. क्या हमारी कोर्ट यह मानती है कि पाकिस्तानी अदालतें बिना बात के ही किसी को जासूसी के आरोप में सजा दे देती हैं. अगर वे ऐसे ही फर्जी फैसले देतीं तो सारे भारतीय मछुआरे जो पाकिस्तानी सीमा में कभी-कभी चले जाते हैं उन पर भी वे जासूसी का केस ही डालतीं.’

जासूसों से जुड़े इन सभी मसलों पर बात करने के लिए जब तहलका ने खुफिया एजेंसियों के अधिकारियों से संपर्क करने की कोशिश की तो ज्यादातर ने इसे संवेदनशील मसला बताते हुए टिप्पणी करने से इनकार कर दिया. हालांकि इनमें से रॉ के एक पूर्व प्रमुख ने यह माना कि एजेंसी पाकिस्तान में जासूसी करवाती है लेकिन ऐसे सभी एजेंटों को पहले ही यह बता दिया जाता है कि उनके पकड़े जाने की दशा में एजेंसी उन्हें पहचानने से इनकार कर देगी. वे कहते हैं, ‘जासूसों के साथ एक मौखिक समझौता होता है. और हर एजेंसी का जासूसों की सहायता या पुनर्वास करने का अपना अलग तरीका होता है. चूंकि जासूसी का पूरा तरीका ही गैरपारंपरिक और सीक्रेट होता है इसलिए हम गुपचुप तरीके से ही उनकी मदद करते हैं.’ लेकिन कई सालों से मीडिया में जासूसों के ऐसे मामले सामने आ रहे हैं जहां उनको कोई मुआवजा नहीं मिला या पुनर्वास नहीं किया गया. इस पर रॉ के ये पूर्व प्रमुख कहते हैं, ‘शोर मचाने वाले लोग चोर-उचक्के होते हैं. यदि कोई सच में जासूस है तो उसकी अच्छे से व्यवस्था की जाती है.’ लेकिन जैसा कि यही अधिकारी स्वीकार करते हैं कि जासूस बनाने का काम अतिगोपनीय होता है, ऐसे में इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि निचले स्तर पर इन जासूसों के साथ कितना बुरा बर्ताव होता है. रवींद्र कौशिक के भानजे विक्रम बताते हैं, ‘आज तक रॉ का कोई अधिकारी हमारे परिवार से मिलने नहीं आया. न किसी तरह की कोई सहायता की. मामा जी (कौशिक) की मृत्यु के बाद कुछ समय तक नानी (रवींद्र की मां) के नाम से 500 रुपये का चेक आता था जो बाद में 2000 रुपये हो गया लेकिन 2008 में वह भी बंद हो गया.’

सीमा के नजदीक गांवों में ऐसे कई जासूसों के उदाहरण भी हैं जिन्होंने दस से पंद्रह साल जासूसी के आरोप में जेल में गुजारे. उनके परिवारों को इस दौरान कोई मुआवजा नहीं मिला और वे बेहद बुरी हालत में रहने को मजबूर हैं. बेशक कुछ मामलों में खुफिया एजेंसियों द्वारा जासूसों के पुनर्वास के दावे सही हों लेकिन ऐसे उदाहरण इन इलाकों में एजेंसियों की छवि भी खराब कर रहे हैं साथ ही इससे वे लोग भारतीय सुरक्षातंत्र से दूर भी हो रहे हैं जिनकी मदद के बिना देश की सुरक्षा को पुख्ता बनाना असंभव है.

(31 अगस्त 2012)

यह शहर नहीं दिल्ली है

delhiडार्विन का कहना था कि प्रकृति में वही जिएगा, जो सबसे काबिल होगा. प्रकृति के बारे में डार्विन कितना जानते थे, इस पर तो वैज्ञानिक बेहतर बात करेंगे लेकिन कम से कम दिल्ली को वे ठीक से जानते थे. दिल्ली पहले आपको चूसती है और फिर चाहती है तो इनाम भी देती है. भारत में तो दिल्ली बाधा दौड़ की उस बाधा की तरह है कि इसे जो लांघ गया वह आखिर तक दौड़ में रहेगा.

दिल्ली को देश की राजधानी बने 100 साल पूरे हो गए हैं और ऐसे में यह देखना और भी जरूरी हो जाता है कि दिल्ली आखिर है क्या और है किसकी. क्या यह साकेत के किसी मल्टीप्लेक्स में ‘नो वन किल्ड जेसिका’ देखकर देश की हालत पर रोती उन लड़कियों की है जिनका प्लान है कि वहां से निकलकर पीजा खाएं और फिर किसी डिस्क में जाएं या बवाना में दिन भर पैरों से शीशे तोड़ती और उनमें से गोल शीशे छांटती शकुंतला की, जिसे इस काम के शाम को 40 रुपये मिलेंगे? क्या दिल्ली उस दलाल की भी है जो अभी-अभी एक आलीशान घर दिखाने आपको लाया है या सिर्फ उस घर के मालिक की ही? क्या यह सवाल भी पूछने लायक है कि क्या दिल्ली उस औरत की भी है जो उस घर का फर्श चमका रही है? या उसके पति की, जो अभी कुछ देर पहले एक मोड़ पर गुब्बारे बेच रहा था? या उससे कुछ पहले एक व्यस्त चौराहे पर आपकी कार की खिड़की से ऐसी अंग्रेजी पत्रिकाएं दिखाने वाले उसके साल साल के बेटे की जिनमें से एक पर ऐश्वर्या राय का खुशी से दमकता चेहरा था? इनमें से कुछ पत्रिकाओं की एक प्रति की कीमत उसकी दिन भर की अधिकतम कमाई से कई गुना है. क्या दिल्ली उन आपराधिक करतूतों के मुकदमों की भी है जिनमें रोज गवाह मुकरते हैं और ज्यादातर सफेदपोश मुस्कुराते हुए अदालत से बाहर आते हैं? या दो-चार इंच दिल्ली निठारी के उन बच्चों की भी है जो गुस्सैल शिक्षकों वाले किसी सरकारी स्कूल में हर सुबह प्रार्थना गाया करते थे और सोचते थे कि दुनिया अच्छी है?

जो भी हो, दिल्ली पहली बार देखने पर या खबरें सुनकर जितनी डरावनी और तेज लगती है, बाद में उतनी नहीं रहती. यह धीरे-धीरे आपको अपनी गति समझाती है और उसके हिसाब से ढलने के नियम. यदि आप उन्हें समझ गए तो यह आपमें उम्मीद भी भरने लगती है. सब बड़े शहरों की तरह इसकी भी अच्छी बात है कि यह सबको अपने में खपा लेती है और सबमें खप जाती है, लेकिन अपनी शर्तों पर ही. कभी-कभी यह आपसे प्यार भी करने लगती है और तब अगर आपने इससे सच्चा इश्क किया तो हो सकता है कि एक दिन यह आपके कदमों में बिछी हो.

दिल्ली में दर-ब-दर

यह महरौली से हौज खास की तरफ आने वाली सड़क का किनारा है. इसी किनारे पर जैसे-तैसे बनाया गया एक आवरण है, जिसे आप झोपड़ी भी कह सकते हैं. दिन ढले का समय है. पति को देखकर लगता है कि वह अभी काम से लौटा है और इतना थका है कि जैसे अब कभी काम नहीं कर पाएगा. चार बच्चे इधर-उधर दौड़ रहे हैं, रो रहे हैं. उनकी मां, जिसने ईंटों से एक चूल्हा बनाकर उस पर दाल का पतीला चढ़ा रखा है, बच्चों को रोक नहीं रही जबकि मुश्किल से दस कदम दूर दिल्ली की व्यस्ततम सड़कों में से एक है और समय भी ज्यादा ट्रैफिक वाला है. एफएम वाले सबसे हिट गाने भी इसी वक्त बजाते हैं क्योंकि महानगरों की संस्कृति में रेडियो अलग से नहीं बल्कि सफर में ही सुना जाता है.

इस थकान और खाने के दृश्य में खलल डालने मोटरसाइकिल पर दो पुलिसवाले आते हैं. उनमें से एक सरदार जी हैं और एक हरियाणवी. उनके आते ही घर (यदि आप इसे घर मानें) का मुखिया हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर खड़ा हो जाता है. वे गालियां देते हुए उनसे कहते हैं कि अभी कहीं चले जाएं, यहां झोपड़ी नहीं बनाई जा सकती. बच्चे अपनी मां के पीछे छिप जाते हैं. औरत सर्दी और छोटे बच्चों का हवाला देते हुए एक दिन की मोहलत मांगती है जो सौ रुपये खर्च करने के बाद मिलती है. पुलिसवाले अगली शाम आने का कहकर चले जाते हैं.

झोपड़ी से बमुश्किल दस कदम दूर आईआईटी दिल्ली की दीवार है, जिसके उस पार भारत की सारी उम्मीदें हैं. वे लड़के-लड़कियां हैं जो साल-दो साल में उस दीवार से बाहर आएंगे और महरौली से आगे गुड़गांव को जाने वाली इसी सड़क से उस शहर में पहुंच जाएंगे जहां घर नहीं हैं, सिर्फ महल और झुग्गियां हैं.

दक्षिणी दिल्ली के शाहपुर जाट में पार्किंग स्पेस पर निर्देश लिखा है कि यह सीमित पार्किंग की जगह डीडीए स्टाफ के लिए है. उसी के नीचे किसी ने और बड़े अक्षरों में लिखा है- और झुग्गियों के लिए कोई जगह नहीं?

आधुनिक दिल्ली (यदि आप उसमें नोएडा, गुड़गांव, गाजियाबाद और फरीदाबाद को जोड़ लें या न भी जोड़ें) का यही सबसे नया यथार्थ है. अभी-अभी जो बिहारी परिवार इतना उदास हो गया है कि बनी हुई दाल को भी नहीं खा पा रहा, वह आईआईटी के बारे में नहीं जानता. वह नहीं जानता कि एशिया की सबसे बड़ी कॉलोनी द्वारका में बसाई जा रही है, कि लुटियन दिल्ली को क्या से क्या बनाना चाहता था. वह नहीं जानता कि दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश का अश्वेत राष्ट्रपति जब इस शहर में आया था तब हम नहीं चाहते थे कि शहरनुमा चांद के काले दाग उसे दिखें. वह राष्ट्रमंडल खेलों और दिल्ली मेट्रो के बारे में जानता है, लेकिन आपकी और हमारी तरह नहीं. जब आप चाहते हैं कि मेट्रो का काम जल्द से जल्द खत्म हो और हम जापान बन जाएं, तब वह चाहता है कि यह काम हमेशा चलता रहे. सुरंग की गर्मी में रोज़ बारह घंटे खुद को झोंकने पर भी वह यह चाहता है. वह चाहता है कि राष्ट्रमंडल खेल जैसे आयोजन कभी न हों, बस उनकी तैयारी चलती रहे क्योंकि वही उसे रोटी देती है और खेल का आयोजन उसे एक धक्का देता है, जिसमें खेलों की अवधि के दौरान हजारों लोगों को जबरदस्ती दिल्ली से बाहर भेज दिया जाता है, वापस बिहार, यूपी और बंगाल के उन कस्बों और गांवों में, जहां से वे भाग कर यहां आए थे. इस हिदायत के साथ कि खेल खत्म होने से पहले इस शहर को तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है.

जैसा लुटियन ने नक्शा बनाया था कि जिनकी जमीन लेकर नई दिल्ली बसाई गई, जिन्होंने उसकी भव्य इमारतें बनाने में पसीना बहाया, उन्हें ही उस नई दिल्ली में जगह नहीं दी गई. बिल्कुल वही आज की दिल्ली में भी हो रहा है. 1961 में ही दिल्ली की दो तिहाई से भी अधिक आबादी इस स्थिति में नहीं थी कि वह दिल्ली में एक कमरे से ज्यादा का घर खरीद सके. नई दिल्ली को बसाने की सारी योजना ही शायद इस आधार पर टिकी है कि बागों, खाली-चौड़ी सड़कों, बड़े घरों का एक शहर इतना महंगा कर दिया जाए कि आम आदमी उसके दायरे में घुसने तक के बारे में नहीं सोचे. उस दायरे के बाहर की दिल्ली यहां आने की लोगों की मजबूरी के कारण लगातार बढ़ती रही. वह और ज्यादा घनी होती गई. मगर इससे प्रत्येक आदमी के हिस्से में आने वाली हवा यहां कम होती गई. उस हवा को स्वस्थ बनाने के लिए आयोग तो समय-समय पर कई बैठे पर ऐसा कभी कुछ नहीं हुआ जो दिखा हो. एक बारिश में लोदी रोड की एक सड़क को सुंदर बनाने के लिए 18.6 करोड़ रुपये खर्च किए गए, जबकि शहर की पुरानी इमारतें गिर रही थीं और उनके नीचे दबकर दर्जनों लोग मर रहे थे.

आपातकाल का फायदा उठाकर केंद्रीय दिल्ली में से करीब डेढ़ लाख लोगों की झुग्गियों को उखाड़कर उन्हें दिल्ली की सीमा पर फेंक दिया गया था. 1976 में तुर्कमान गेट पर अपने घरों को बचाने के लिए आंदोलन कर रही भीड़ पर हुई गोलीबारी में जो बारह लोग मारे गए थे वे दिल्ली की याददाश्त में भी नहीं हैं. दिल्ली के सामान्य ज्ञान में यह आंकड़ा भी नहीं है कि इस शहर में रोज कम से कम 10 बेघर लोग सड़क पर मरते हैं. सर्दियों में यह संख्या और भी बढ़ जाती है. 2005 में ऐसे बेघरों के लिए आश्रय बनाने के लिए पूरे देश के लिए जो बजट रखा गया था वह चार करोड़ रुपये का था. जबकि अकेली दिल्ली में ही ऐसे लोगों की संख्या एक लाख से अधिक है. ऐसे 250 से भी अधिक परिवार हर रात निजामुद्दीन के एक पार्क में सोते हैं. उनमें से काफी संख्या ऐसे हताश लोगों की है जो ऐसी परिस्थितियों में जिंदा रहने के लिए नशे का सहारा लेते हैं. आप यह भी पूछ सकते हैं कि उनके लिए जिंदा रहना इतना जरूरी क्यों है. लेकिन यह प्रश्न आपका अपना नहीं है. बिल्कुल यही सवाल तो दिल्ली का श्रेष्ठि वर्ग और दिल्ली की सरकार इतने बरसों से उनसे पूछ रही है.

झुग्गियों को खत्म करने की जो संस्कृति आपातकाल में शुरू हुई थी, आपातकाल हटने और इंदिरा गांधी की सरकार गिरने के बाद गरीब के साथ दिखने के चक्कर में कुछ सालों तक पीछे छिपकर बैठी रही. लेकिन 1997 से झुग्गियों को हटाने का जो सिलसिला चल रहा है उसमें ज़्यादातर बार अदालत ने ऐसा करने के आदेश दिए हैं. ये या तो अदालत ने अपनी पहल पर दिए हैं या किसी कॉलोनी के मध्यवर्ग की ऐसी याचिका पर जिसमें वे उन झुग्गियों को अपने आस-पास बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे. उन पर इल्जाम है कि वे

वातावरण को प्रदूषित कर रहे हैं, जबकि है इसका ठीक उल्टा. वातावरण को प्रदूषित करने में उनका सबसे कम योगदान है, लेकिन वे उसका सबसे ज्यादा असर झेलते हैं. अब भी वे जिन परिस्थितियों में और जिन सीमांत इलाकों में रह रहे हैं, वहां से उन्हें अपने काम की जगहों तक जाने के लिए रोज कई घंटे और एक तिहाई कमाई खर्च करनी पड़ती है. इस चक्कर में उनमें से अधिकतर हफ्ते के हफ्ते अपने घर लौटते हैं.

1998 से 2010 तक दिल्ली में करीब 10 लाख लोगों को एक विश्वस्तरीय शहर बनाने के लिए विस्थापित किया गया है. विडंबना यह है कि

इस शहर को तथाकथित विश्वस्तरीय बनाने में सबसे ज़्यादा योगदान इन्हीं 10 लाख लोगों का है.

तमाम काम

भव्य इमारतों और गाड़ियों के साथ-साथ इस शहर को मैकडॉनाल्ड, कैफे कॉफी डे, बड़ी कंपनियों और उनके कॉल सेंटरों की जरूरत है. अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप उसके किस तरह काम आते हैं. आप किसी रेस्तरां में वेटर भी बन सकते हैं और किसी सॉफ्टवेयर कंपनी में मैनेजर भी. आप बिहार से दिल्ली, सड़कें बनाने भी आ सकते हैं और आईएएस बनने भी. आप यहां ऑटो भी चला सकते हैं और रात के वक्त किसी सुनसान ज़गह पर अपनी सवारियों को लूट भी सकते हैं. आप कनॉट प्लेस में घूमते जोड़ों को पच्चीस रुपये का चश्मा हज़ार का बताकर तीन सौ रुपये में भी बेच सकते हैं और अगर आपको यह रास्ता पसंद नहीं तो आप राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर बाढ़ की तरह उतरने वाली भीड़ में से किसी बेखबर सज्जन का मोबाइल भी पार कर सकते हैं. आप किसी नेता के अहाते में जैसे-तैसे शरण पाकर प्रधानमंत्री बनने का सपना भी पाल सकते हैं और किसी न्यूज चैनल में नौकरी करके देशवासियों को नई-नई किस्म के ‘प्रलयों’ से रोज डरा सकते हैं. आप कई तरह की ‘कोशिशें’ करके किसी सरकारी दफ्तर में क्लर्क बन सकते हैं या हमेशा आपके साथ रहने वाली दिल्ली पुलिस में भी भर्ती हो सकते हैं. तब आप मोबाइल पार करने वाले को खोज रहें हो, यह जरूरी नहीं. जरूरत के किसी दिन आप किसी बाइकवाले को रोककर बाइक के पेपर से पहले पैसे भी मांग सकते हैं.

एक जिम्मेदार पुलिसवाले ने मुझे एक दफ़ा बताया था कि हर दिन ही जरूरत का दिन होता है. इसी तरह एक जिम्मेदार कचरा उठाने वाले ने मुझे बताया कि वह और उसके कुछ साथी मिलकर हर दिन करीब पांच टन कचरा इकट्ठा करते हैं और उसे रीसाइकल करने के लिए भेजते हैं. आपको मालूम न हो तो जान लीजिए कि दिल्ली हर दिन करीब 8000 टन ठोस कचरा अपने घरों से बाहर ऐसे फेंक देती है जैसे यह आसमान में उड़ जाएगा. वह आसमान में नहीं उड़ता. उसे हम जैसे ही हाड़-मांस वाले कुछ लोग, जो अकल्पनीय रूप से अमानवीय परिस्थितियों में काम करते हैं, अलग-अलग हिस्सों में बांटते हैं. जो रीसाइकल हो सकता है, उसे फैक्ट्ररियों में भेजा जाता है और बाकी को शहर के बाहर फेंक दिया जाता है. इसमें से अधिकतर किसी न किसी रूप में यमुना के हिस्से आता है. 380 करोड़ लीटर द्रव कचरा इससे अलग है, जो हर दिन यमुना में शरण पाता है. अधिकांश दिल्लीवालों की तरह जो यमुना के बारे में जानकर भी नहीं जानते, उन्हें यहां बताते चलें कि यमुना एक नदी थी जिसे देश की राजधानी ने नदी नहीं रहने दिया. वही राजधानी जिसके लोगों को सामान लाने के लिए घर से थैला अपने साथ ले जाना अपनी तौहीन लगती थी, चाहे पॉलीथिन उनकी सांस की राह में ही क्यों न आ रही हो.

हर सुबह किसी पॉश कॉलोनी के किसी घर की मालकिन की मालिश के लिए जाती एक बूढ़ी कुपोषित औरत से लेकर रिक्शावालों, कामवाली बाइयों, धोबियों, प्रेस करने वालों, बिजली मैकेनिक या सड़क किनारे 15-20 रुपये में ‘घर जैसी थाली’ देने वालों तक एक बड़ी आबादी है, जो दिल्ली को चला रही है लेकिन कोई श्रेय नहीं पा रही. छोटे-मोटे काम करने वाले तीन लाख लोग दिल्ली की अर्थव्यवस्था को हर साल 500 करोड़ देते हैं. उनमें से 20 प्रतिशत स्ट्रीट फूड बेचने वाले हैं.

बड़े शहरों की तरह दिल्ली के बारे में भी चलते-फिरते लोग कह देते हैं कि यहां कोई भूखा नहीं सोता, सब अपने लायक काम ढूंढ़ ही लेते हैं. यह अपने आपको सुकून देने वाला कथन हो सकता है. लेकिन कैब में बेल्ट से गला घोंट देने वाले, यूपी-हरियाणा के सीमांत जिलों के युवा अपराधियों से लेकर सुबह-सुबह मोटर साइकिलों और कारों की सफाई करने वालों तक, दिल्ली में आने वाले लोगों ने अपनी क्षमता और शहर की जरूरत के मुताबिक नए-नए काम खोज ही लिए हैं.

ऐसा भी हो सकता है कि किसी शाम आपको कोई फ़ोन करके कहे कि साल के 400 रुपये देने पर उनकी कंपनी आपको एक खास तरह का बीमा देगी जिसमें रात को आपकी गाड़ी पंक्चर होने पर या तेल खत्म होने पर एक फोन कॉल पर उनका मैकेनिक पंद्रह मिनट में पहुंच जाएगा. या फिर आप किसी मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने जाएं तो बाहर आपको एक स्टॉल मिले, जहां आप अपना बैग छोड़कर और फोन चार्जिंग पर लगाकर आराम से फिल्म देख सकते हैं. या किसी शाम आपके दरवाजे पर आपकी रसोई गैस की कंपनी से मिलते जुलते नाम की कंपनी का आईकार्ड लिए कोई युवक दस्तक दे. आप उस पर भरोसा करके अपना सिलेंडर चेक करवाएं और तब वह आपकी अच्छी ट्यूब को दो सौ रुपये लेकर अपनी खराब ट्यूब से बदल जाए. संयोग यह भी हो सकता है कि एक महीने बाद उसी कंपनी के नाम से एक दूसरा लड़का आपके दरवाजे पर दस्तक दे और वही बातें दोहराए. आप ठगी के आरोप में उसे पकड़ लें, पुलिस में देने की धमकी दें तब वह रुआंसा होकर आपको बताए कि वह भी रोहतक रोड की किसी दुमंजिला इमारत में चल रही यह फर्जी कंपनी छोड़ना चाहता है लेकिन उसके पास कोई और काम ही नहीं है. वह दसवीं पास है, अंग्रेजी बोल लेने का उसे आत्मविश्वास है लेकिन लिख नहीं सकता. उसे गोरखपुर के किसी गांव में रह रहे अपने परिवार को पैसे भेजने होते हैं. वह बताता है कि वह तीन हजार रुपये किराये वाले एक कमरे में दो और लड़कों के साथ रहता है. वह ड्राइवरी सीख रहा है और जल्दी ही यह नौकरी छोड़कर आपसे ड्राइवर बनने का वादा करता है. आप भावुक हो जाते हैं. हो सकता है कि उसकी कहानी सच हो लेकिन दिल्ली अक्सर यहीं वार करती है. आप लोगों पर आसानी से भरोसा कर लेते हैं तो हो सकता है कि किसी दिन करोलबाग के एक चौराहे पर आपको मध्य प्रदेश का एक परिवार मिले, जिसमें पति-पत्नी, दो बच्चे और दो भरे हुए सूटकेस हों. वे आपको अपने दिल्ली आने का टिकट दिखाकर कहें कि वे यहां काम के लिए आए थे लेकिन काम तो मिला नहीं और लुट अलग से गए. इतने कि अब उनके पास लौटने के भी पैसे नहीं हैं. वे स्टेशन जाकर अपने गांव भाग जाने के लिए उतावले दिखेंगे और आप उन्हें पचास-सौ रुपये भी दे देंगे लेकिन महीने भर बाद भी किसी दिन वे वहीं आपका रास्ता रोककर अपनी परेशानी दोहराएंगे.

वह परिवार चाहे मध्य प्रदेश का हो या उड़ीसा का, लेकिन दिल्ली के बारे में यह भी कहा जाता है कि यहां सब बाहरवाले हैं और दिल्लीवाला जैसे कोई है ही नहीं. फर्क सिर्फ इतना है कि कौन राजस्थान से 2004 में आया और किसके दादा 1947 में पंजाब से शरणार्थी बनकर आए थे. उससे पुराने दिल्लीवाले अक्सर दिल्ली को भ्रष्ट करने के लिए बाहर के लोगों को जिम्मेदार मानते हैं और दुखी भी रहते हैं. दिल्ली में दिल्ली से बाहर का होना इतना आम है कि दो अनजान लोग पहली बार मिलने पर यह अक्सर पूछते हैं कि आप हैं कहां से. यदि संयोगवश सामने वाला दिल्ली का निकलता है तो थोड़ी निराशा होती है. इसके बाद वह सामने वाला चाह सकता है कि काश वह कहीं और का होता तो अपने ही शहर में इस तरह अल्पसंख्यक न होता.

सड़कें, बाजार, घर और कार

दिल्ली की सड़कों, वाहनों और बाजारों के बारे में बात किए बिना दिल्ली की कोई भी बात पूरी नहीं कही जा सकती. दिल्ली में रोज 38 गाड़ियां चोरी होती हैं और हर रोज करीब 1000 नए वाहन सड़कों पर उतरते हैं. ट्रैफिक नियमों की अनदेखी करने में दिल्ली सबसे बदनाम महानगर है. यह अतिशयोक्ति नहीं है कि दिल्ली के आधे ट्रैफिक जाम इस वजह से होते हैं कि एक साहब की गाड़ी को दूसरे साहब की गाड़ी छूने वाली ही होती है, हालांकि छूती नहीं. लेकिन ऐसी संभावना भर से दोनों का उत्तरभारतीय खून खौल उठता है और वे अपना गालियों का शब्दकोश बीच सड़क में अपनी-अपनी गाड़ियां रोककर कम से कम आधे घंटे तक लुटाते हैं. जब तक एक पक्ष ज्यादा कमजोर न हो, तब तक यह हिंसा शाब्दिक ही रहती है. यह भी शायद बड़ी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि दिल्ली में गाड़ियां बच्चों से भी ज्यादा तेजी से बढ़ती जा रही हैं. इसलिए आधी लड़ाइयां पार्किंग के लिए भी होती हैं. किसी के घर के सामने आपने गाड़ी खड़ी कर दी, यह उसके घर के सामने कचरा डालने से बड़ा अपराध है. इतना बड़ा कि यदि तृतीय विश्वयुद्ध दिल्ली से शुरू हुआ तो वह पार्किंग को लेकर ही होगा. लेकिन जो गाड़ी खरीद सकते हैं वे इस समस्या को समस्या तक नहीं मानते. नतीजा यह होता है कि वे गलियां, जहां लोग थोड़े आराम से गुजर सकते थे, उनकी गाड़ियां घेर लेती हैं और चूंकि गाड़ियां हैं तो इधर-उधर जाएंगी भी, इसलिए शहर की जाने कितनी जमीन पार्किंग बनाने में चली गई है. अब दिल्ली के लिए पार्किंग ज्यादा जरूरी है, इसलिए इसके लिए दर्जनों पार्कों का नामोनिशान मिटा दिया गया है. जो बचे भी हैं उनके छोटे-से क्षेत्रफल में भारी जनसंख्या देखकर विश्वास ही नहीं होता कि जरा-जरा से पौधे कुछ खास काम कर पा रहे होंगे. जगह इतनी ही होती है कि बच्चों को क्रिकेट भी खेलना हो तो यह बहुत मुश्किल है कि दो मैचों की पिचें आपस में टकरा न रही हों. आप दिल्ली सरकार के बड़े-बड़े स्पॉर्ट्स कॉम्प्लेक्सों को देखकर उत्साहित तो हो सकते हैं, लेकिन वहां खेलने की फीस भरना उनके लिए बहुत मुश्किल है जिनके पास कारें नहीं हैं.

दिल्ली के 20 प्रतिशत क्षेत्रफल पर सड़कें हैं और हम या हमारी कारें यह नहीं देखतीं. नई नौकरियां पैदा हो रही हैं और बैंक आपके घर आकर लोन देने को तैयार बैठे हैं. तो किसे पड़ी है कि बसों में धक्के खाए. कारें, ऑटो रिक्शा और दुपहिया वाहन दिल्ली के ट्रैफिक का 90 प्रतिशत हैं और 15 प्रतिशत लोग उनसे फायदा पाते हैं, जबकि बसें 2-2.5 प्रतिशत जगह लेती हैं और 60 प्रतिशत लोगों के काम आती हैं. इसके बावजूद दिल्ली की नैतिक शिक्षा में ऐसा कोई पाठ नहीं जो पब्लिक ट्रांसपोर्ट का ज्यादा इस्तेमाल करने की शिक्षा दे. और तो और, बीआरटी जैसा सिस्टम, जिसमें बसों के लिए अलग कॉरीडोर की व्यवस्था की गई है और उससे उनकी गति पर भी काफी फर्क पड़ा है, उसे भी मीडिया के विरोध का सामना करना पड़ा क्योंकि यह कारों में सफर कर रहे उसके शक्तिशाली हिस्से को नुकसान पहुंचा रहा था. दिल्ली के नक्शे की तरह दिल्ली की सड़कें भी लोकतांत्रिक होने को तैयार नहीं हैं.

मेट्रो के आने का भी दिल्ली के गरीब को कोई खास फायदा नहीं हुआ क्योंकि उसकी जेब उसे उसमें चढ़ने की इजाजत नहीं देती. माना कि हर साल नए फ्लाईओवर बन रहे हैं लेकिन ऐसी कम ही जगहें हैं जहां इनसे ट्रैफिक कुछ आसान हुआ हो. फ्लाईओवरों ने रिंग रोड को सिगनल फ्री तो बना दिया है लेकिन रुकावट फ्री नहीं. नतीजा यह कि दिल्ली के ज्यादातर लोग जब एक मुश्किल सफर करके शाम को अपने घर लौटते हैं तो ऐसा लगता है जैसे युद्ध हारकर आए हों.

घरों की बात आई है तो यह कहावत भी महत्वपूर्ण है कि दिल्ली में आपको भगवान मिल सकता है लेकिन आप घर में आंगन मांग रहे हैं तो आप पिछड़े हुए कस्बाई तो हैं ही, बहुत डिमांडिंग भी हैं. आप यह बात किसी प्रॉपर्टी डीलर को कहिए तो सबसे पहले उसके चेहरे पर हंसी आएगी और फिर उसके दिमाग में यह बात कि आप नए-नए बाहर से आए हैं इसलिए आपके साथ ज्यादा लूटने वाली रस्म निभाई जाए.

प्रॉपर्टी डीलर से याद आया कि दिल्लीवालों का पहला प्रिय व्यवसाय मकान-मालिकी है और दूसरा, प्रॉपर्टी डीलर बनना. आपका अपना घर है तो उसे किराए पर देकर आप मजे की जिंदगी जी सकते हैं और नहीं है, तब आप ‘सेल पर्चेज रेंट’ का बोर्ड लगाकर उन दुकानों में शामिल हो सकते हैं जो दिल्ली के हर इलाके में इफरात में मिलती हैं. आप किराए का मकान तलाशते हुए उनसे पहली बार मिलेंगे तो यह एक अविस्मरणीय अनुभव होगा. आप उन्हें अपने खर्च का स्तर बताएंगे तो वे अपने पंजाबी या हरियाणवी लहजे में यह जरूर कहेंगे कि इससे एक हजार ज्यादा से ही थोड़े ठीक-ठाक घर मिलने शुरू होंगे. वे आपको आपकी तंगहाली के लिए हिकारत से देखेंगे और आप अपने आप ही अपने खर्च का स्तर बढ़ा लेंगे. लेकिन दिल्ली के कई मकान मालिक भी इन मध्यस्थों से कम नहीं हैं. चूंकि दिल्ली पुलिस उन्हें बरसों से सावधान करती रही है कि कोई भी नौकर या किराएदार आतंकवादी हो सकता है, इसलिए उनमें से कई पहली नजर में आपको आतंकवादी मानकर ही बातचीत शुरू करते हैं. मकानों के किराए तेजी से बढ़ने से ऐसा एक मकान-मालिक-वर्ग बना है जिसका पारिवारिक व्यवसाय ही मकान किराए पर देना है.

वैसे तो पैदल चलने वालों के लिए दिल्ली की सड़कें ही मौत के कुएं की तरह हैं क्योंकि ज्यादातर जगह उनके और साइकिल वालों के लिए कोई अलग लेन ही नहीं है और जहां है भी वहां जल्दबाज मोटरसाइकिल वाले उन्हें नहीं बख्शते. आप ऊपर तक लदे हुए किसी रिक्शे के मालिक को किसी चौराहे को पार करते देखेंगे तो शायद समझेंगे कि वह सही-सलामत अपने घर पहुंचता होगा तो इसी भर से उसे कितनी तसल्ली होती होगी. लेकिन पार करना तो दूर, सड़क पर चलते हुए किसी से रास्ता पूछना भी नुकसानदायक हो सकता है. अगर कोई रास्ता नहीं जानता होगा तो यह उसे अपने अपमान की तरह लगेगा और अपमान इस शहर में किसी को बर्दाश्त नहीं है, इसलिए वह आपको पूरे आत्मविश्वास से किसी न किसी दिशा में जरूर भेज देगा. हां, ऑटोवाले रास्ता हमेशा सही बताएंगे.

दिल्ली के आधे ऑटोरिक्शों के पीछे ‘डैडी कोच’ या ‘मेरा भारत महान’ लिखा होता है और बाकी आधे शिव खेड़ा की कोई ‘जागो भारत जागो’ शैली की पंक्तियां लिखे रखते हैं. फिर भी वे बदनाम हैं. दूसरे शहरों से आने वाले लोगों को उनके अनुभवी शुभचिंतक यह जरूर कहकर भेजते हैं कि दिल्ली के ऑटोवालों से सावधान रहना, वे दोनों तरह से लूट सकते हैं – कंपनियों की शैली में चार किलोमीटर को बीस बताकर और डाकुओं की शैली में चाकू दिखाकर भी. हालांकि यह कोई नहीं बताता कि उनका एक बड़ा वर्ग रात को अपने ऑटो में ही सोता है. आप किसी आधी रात दरियागंज की सड़क पर पहुंचिए तो कतार में रिक्शों पर सो रहे रिक्शावाले आपको दिल्ली की मुझसे कहीं बेहतर परिभाषा बताएंगे. सरकार बेघरों के लिए कोई इंतजाम नहीं कर पाती, इसलिए जामा मस्जिद के आसपास एक नया इंतजाम कुछ लोगों ने किया है. वे एक रात के लिए 10 रुपये में रजाई देते हैं और 10 और रुपये में सोने को चटाई भी. पूरी कमाई में से एक हिस्सा पुलिस को भी जाता है, जो इस हिस्से के बाद उनकी नींद को लाठियों से नहीं तोड़ती.

फिर भी उनकी नींद और जागने से बेखबर दिल्ली में मॉल वैसे ही उल्लास से बन रहे हैं जैसे 80 के दशक में चाणक्य सिनेमा कॉम्प्लेक्स में निरूला का फास्ट फूड आउटलेट था- वहां आने वाले खास लोगों के लिए मस्ती की जगह. मॉल भी बाजार से ज्यादा, लोगों के मिलने की जगह बन गए हैं. लड़के-लड़कियों के लिए डेट पर जाने की और कुछ गर्मी के मारों के लिए ठंडी हवा खाने की भी. दिल्ली में मध्य वर्ग और उच्च वर्ग के लिए वह समय लगभग जा चुका

है जब मिलना किसी एक पक्ष के घर में होता था. अब मिलने के लिए मॉल या बरिस्ता हैं.

मॉल के अलावा दिल्ली में कई तरह की दुकानें, दुकानदार और बाजार मिलेंगे. दिल्ली हाट, प्रगति मैदान और जनपथ की प्रादेशिक हस्तकला की दुकानों के बारे में तो आपको स्कूल की किताबें या पर्यटन विभाग ही बहुत कुछ बता देगा और मॉल- मल्टीप्लेक्स के बारे में हिंदी फिल्में, लेकिन वे आपको सरोजिनी नगर, लाजपत नगर, चांदनी चौक और कमला नगर के भीड़ भरे बाजारों या ग्रेटर कैलाश और साउथ एक्सटेंशन जैसे इलाकों के रईस बाजारों के बारे में उतना नहीं बता पाएंगे. नए बाजार कम्युनिटी सेंटर भी कहलाते हैं. ऐसे सामुदायिक केंद्र जहां कोई समुदाय नहीं दिखता. इसी तरह अनजान लोग जान लें कि मुनीरका या ढाका गांव, गांव नहीं हैं.

वैसे महंगे बाजारों और सस्ते बाजारों में एक मूल अंतर यह भी है कि महंगे बाजार पैसे ज्यादा लेंगे और इज्जत भी ज्यादा देंगे. सस्ते बाजार पैसे कम लेंगे और इज्जत भी कम देंगे. यहां छोटे शहरों की तरह यह नहीं होगा कि आप दुकानदार को अपने काम के न लगें, तब भी वह आपको दो मिनट बैठने दे. यहां आप सामान लेकर पैसे देते ही भूतपूर्व ग्राहक हो चुके होते हैं और दुकान की सामने की दीवार पर लगा ‘फैशन के दौर में गारंटी की इच्छा न करें’ या ‘बिका हुआ सामान वापस नहीं होगा’ का बोर्ड आपके लिए ही होता है. ‘आप कौन हैं’ का एक अदृश्य बोर्ड भी.

खैर, मान लेते हैं कि सरोजिनी नगर या पहाड़गंज के बारे में कोई बता भी दे, लेकिन कोई आपको लाल किले के पीछे के उस कबाड़ी बाजार के बारे में नहीं बताएगा जहां अमीरों के फेंके हुए सामान में से काम के सामान छांटकर या उनको काम का बनाकर बेचा जाता था- मुख्यत: जूते, कोट, जैकेट, सजावट की चीजें. उसे हटवा दिया गया ताकि वहां साफ-सुथरा पार्क रह सके. सालों बाद उन्हें एक श्मशान के पास छोटी-सी जगह दी गई. वहां इतनी दुर्गंध है कि ग्राहक आते नहीं और दुकानदारों की सांसें कम होती जा रही हैं.

यही हाल महरौली, चांदनी चौक और बाबा खड़ग सिंह मार्ग के फूलों के तीनों बड़े बाजारों का है, जिन्हें पूर्वी दिल्ली के गाजीपुर में ले जाने की योजना है (चिकन और मछली के बड़े बाजार के लिए मशहूर). जबकि वे पार्किंग की जगह का रात में इस्तेमाल करते हैं और सुबह नौ बजे बंद हो जाते हैं.

दिल्ली को ‘विश्वस्तरीय’ बनाने के लिए कई बाजारों का रूप ही बिल्कुल बदल दिया गया है और वहां अब कुछ खरीद पाना उनके पुराने ग्राहकों के सपनों के भी बाहर की चीज है. ऐसा ही खान मार्केट के साथ हुआ है. जो लोग वहां से किताबें खरीदते थे, चाट खाते थे या दांत के डॉक्टर के पास जाते थे, अब वह उनके लिए बंद सा ही है. खाने के लिए उनके पास हल्दीराम या बीकानेरवाला जैसे विकल्प ही हैं और कुछ खरीदना चाहें तो 70,000 रुपये में एक कुत्ता जरूर खरीद सकते हैं.

महिलाएं अपनी सुरक्षा की खुद जिम्मेदार हैं

जिस राज्य की विधानसभा के 70 सदस्यों में से केवल तीन महिलाएं हों, जिसकी पुलिस में सात प्रतिशत महिलाएं हों, जहां हर हज़ार आदमियों पर औरतें केवल 821 हों, देश के महानगरों में होने वाले हर तीन बलात्कारों में से एक बलात्कार जिस शहर में होता हो, उसे शहर भी कहना एक तरह से वहां की औरतों का अपमान करना ही है.

मान लीजिए कि आप दिल्ली की आम औरत हैं और आप कुछ ज्यादा नहीं मांगतीं. बस इतना ही कि आप अपने काम पर जाएं तो बस में चढ़ते हुए और सफर करते हुए डरी न रहें, किसी ठेले पर अकेली खड़ी होकर भी बेपरवाही से खा सकें, कहीं-कहीं ही सही लेकिन एक साफ-सुथरा टॉयलेट मिल जाए और कहीं भी व्यस्त हों तो अंधेरा होते ही घर भागने की जल्दी न करनी पड़े. क्या कहा? आप इतना कुछ मांग रही हैं? आप आखिर खुद को समझती क्या हैं? माफ कीजिए मैडम लेकिन यह शहर आपको इनमें से एक भी नहीं दे सकता. यह शहर आपको भीड़ भरी वे बसें जरूर दे सकता है जिनमें कोई भी मर्द आपको कभी भी, कहीं भी छू सके और आप अपने आप में और सिमटती जाएं. यह शहर आपको सड़क पर अकेले खड़े होने की अनुमति भी तब दे सकता है जब आपमें इतनी हिम्मत हो कि गुजरने वाली लगभग हर कार के आपके पास आने पर धीमा होने को आप बर्दाश्त कर सकें और उसमें से फेंके जाने वाले ऐसे किसी वाक्य को भी जिसका लगभग अर्थ यह होगा कि आप कितने पैसे लेंगी. और आप अपने लिए पब्लिक टॉयलेट चाहती हैं तो इतना कर दिया गया है कि हर 100 टॉयलेट में से चार औरतों के लिए भी हैं. अब आपको नहीं लगता कि उन्हें साफ मांगना कुछ ज्यादा है? और जो आखिरी बात आपने कही है कि आप चाहती हैं कि अँधेरा होने पर भी घर से बाहर रह सकें और यह शहर आपकी सुरक्षा की गारंटी ले तो यह शहर इस पर हंसने के अलावा कुछ और नहीं कर सकता. क्या आपने सौम्या विश्वनाथन और जिगिशा घोष के बारे में नहीं सुना, जो एक ऐसी ही रात अपने काम से घर लौटना चाह रही थीं लेकिन कभी लौट नहीं सकीं? क्या आप रोज सुबह टीवी पर पिछली रात हुए बलात्कारों के बारे में नहीं सुनतीं? क्या आप दिन में भी भीड़ भरे बाजारों से अकेली निश्चिंत होकर गुजर सकती हैं? क्या ऐसा एक भी दिन बीता है जब आपने सड़क पर एक भी फिकरा न सुना हो, कोई अनचाही छुअन न झेली हो?

जैसा हमने कहा, दिल्ली की किसी सड़क पर किसी अकेली लड़की या औरत का किसी के इंतजार में खड़ा होना ही उसे पुरुष राहगीरों के लिए वेश्या के समकक्ष ला खड़ा कर सकता है. इसलिए वे बस में न भी जाने वाली हों, तब भी बस स्टॉप पर ही किसी का इंतजार करती हैं. आप उन्हें समूह में तो किसी पार्क में बैठा फिर भी देख लेंगे, लेकिन अकेले नहीं. यह सब आम कामकाजी लड़कियों-औरतों के लिए है, जिन्हें बचपन से ही सिखाया गया है कि सड़क पर चलते हुए अपने आसपास ध्यान रखो, हर आदमी को शक से देखो, तेज चलो, सुरक्षा के लिए कुछ साथ रखो. लेकिन आप थोड़ी संपन्न हैं और आपको बस स्टॉप पर खड़े होने और बस में जाने की जरूरत नहीं है तो जीवन थोड़ा आसान जरूर हो जाता है. तब आप किसी कॉफी शॉप या मॉल में बैठ सकती हैं और अपनी कार में थोड़ी देर से भी लौट सकती हैं, लेकिन तब भी आपको याद रहेगा कि सौम्या विश्वनाथन भी अपनी कार से ही लौट रही थीं.

आप कुछ अलग हैं या गरीब हैं तो आपके लिए खतरा कई गुना बढ़ जाता है. उत्तर-पूर्व की बहुत सारी लड़कियां, जिन्हें चिंकी कहकर पुकारा जाता है, दिल्ली में पढ़ती या काम करती हैं और अपने चेहरे और स्टाइल के कारण अलग से पहचान में आती हैं. उन्हें दिल्ली के शिकारी पुरुष आसान शिकार मानते हैं.

दिल्ली की एक बड़ी आबादी शौच के लिए बाहर जाती है और निश्चित रूप से उसमें औरतें भी हैं. तो जो दिल्ली बस में शालीनता से बैठी औरत को नहीं बख्शती वह उस कमजोर औरत के साथ क्या-क्या कर सकती है, यह आप सोच सकते हैं? दिल्ली की जो बेघर आबादी है उसमें से 10 प्रतिशत औरतें हैं (यमुना पुस्ता में इन महिलाओं के लिए जो दिल्ली की इकलौती शरणगाह थी वह 2007 में बंद कर दी गई) और उन्हें भी नींद आती है, इसलिए वे हर रात खुले में सोती हैं, तब दिल्ली उनके साथ कैसा सुलूक करती होगी, यह ठीक से बताना मुश्किल है. इतना जरूर कहा जा सकता है कि बिना मर्द के इस तरह शहर के जंगल में रहना उनके लिए असंभव हो जाता है और इसलिए वे किसी पुरुष की छत्रछाया में जाती हैं. वह उनके शरीर और आत्मा को छीलकर और गोद में बच्चा थमाकर गायब हो जाता है. फिर वे नया पुरुष ढूंढ़ती हैं और फिर खोती हैं क्योंकि

एक जानवर का शिकार बनना कई जानवरों का शिकार बनने से हमेशा बेहतर विकल्प है.

मगर आशावादी लोगों की मानें तो कुछ मुश्किलें कम भी हुई हैं. मेट्रो ने महिलाओं के लिए अलग डिब्बा आरक्षित करके कम से कम उनके सफर को तो काफी बेहतर किया है. बाकी चीजें सुधर नहीं रहीं या कम से कम सुधरती दिख तो नहीं रहीं. इसी साल जब सारी दुनिया महिला दिवस मना रही थी, धौलाकुआं के पास एक भीड़ भरे पुल पर चल रही 20 साल की राधिका तंवर को एक लड़के ने गोली मार दी और गायब हो गया, जैसे लड़कियों के सब हत्यारे गायब हो जाते हैं. जैसे एक समय तक जेसिका लाल को किसी ने नहीं मारा था, जैसे आरुषि तलवार को किसी ने नहीं मारा.

लेकिन फिर भी आप गौर कीजिए कि वे इस इंतजार में घर नहीं बैठीं कि आप उनके लिए बेहतर शहर बनाएंगे. ऐसी एक भी जगह नहीं है, जहां किसी डर से दिल्ली की औरतों ने जाना छोड़ दिया हो. हर सुबह वे उसी उत्साह से इस शहर की सड़कों पर निकलती हैं, अपने स्कूल-कॉलेज, सिनेमाघरों, डिस्को और दफ्तरों को जाती हुई, मौका मिलते ही छू लेने वालों को कभी-कभी मां-बहन की जबरदस्त गालियाँ देती हुईं, काम ढूंढ़ती और पाती हुई, उन क्षेत्रों में घुसती हुई जिन्हें पुरुष अपनी बपौती समझते थे, साइकिलों पर काम पर जाती हुई क्योंकि आप बसों में उन्हें आसानी से नहीं जाने देते. सड़क पर अपने कानों पर ईयरफोन लगाए जैसे वे पूरे समाज पर थूकती हुई, जिसे वे सुनना भी नहीं चाहतीं.

सपनों की दिल्ली

हो सकता है कि फलां-फलां किताब या अखबार आपको यह बताएं कि हर दिन मुंबई में कितने हजार लोग ऐक्टर बनने आते हैं इसलिए वह सपनों का शहर है या फिर मायानगरी, लेकिन कोई आपको दिल्ली के बारे में ऐसा आंकड़ा नहीं बताता. जबकि पूरे उत्तर भारत से न जाने कितने लड़के-लड़कियां हर रोज दिल्ली आते हैं, यह सोचकर कि उन कस्बों-गांवों में कभी नहीं लौटेंगे जहां अवसरों के नाम पर शादी या एक पैतृक दुकान थी. वे दिल्ली में पढ़ने आते हैं और साहब, पढ़ना किसी का उद्देश्य नहीं होता, वह बस एक जरिया होता है, कुछ बन जाने का या उन विद्यार्थियों की भाषा में कहें तो वे कुछ न कुछ फोड़ने दिल्ली में आते हैं. हर दिन जब वे मेट्रो में खड़े होकर किसी कोचिंग इंस्टीट्यूट या अपने कॉलेज जा रहे होते हैं और पचास बार सुनते हैं कि ‘सहयात्रियों को धक्का न दें’ तो उनका एक ही सपना होता है कि वे इन सब सहयात्रियों को धक्का देकर किसी सबसे ऊंची मीनार पर पहुंच जाएं. हालांकि आप बहुत-से समय उन्हें मोमबत्ती लेकर इंडिया गेट पर बैठे देखते होंगे क्योंकि एक तो यह लेटेस्ट फैशन है जिसे अन्ना के आंदोलन ने और भी उत्साह दे दिया है और दूसरा, दिल्ली में हर दिन कोई न कोई ऐसा बेकसूर मारा ही जाता है जिसे न्याय देने को कोई तैयार नहीं होता. आपमें से कुछ लोग उन्हें प्रकाश की गति से भी तेज गति से देश भर में पहुंचने वाले एमएमएस स्कैंडलों में भी देखते होंगे और हो सकता है कि यह भी सोच लेते हों कि ये सब लड़के-लड़कियां यही करते हैं. लेकिन ऐसा है नहीं. न वे सब दिन भर मोमबत्ती जलाकर आंदोलन करते हैं, न एमएमएस बनाते हैं और न ही पालिका बाजार की तथाकथित जन्नत के चक्कर लगाते हैं. जब एडमिशन के दिनों में सब न्यूज चैनल और अखबार दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों की मेरिट लिस्ट की ऊंचाई बताते हैं तो आप समझ सकते हैं कि दिल्ली में सपनों के स्कूल या कॉलेज में पढ़ना क्या चीज है! आपको दिल्ली के मध्यवर्गीय माता-पिता इस बात पर हमेशा उदास दिखेंगे कि फलां स्कूल में उनके बच्चे का नर्सरी में एडमिशन नहीं हो पाया और वे चाह रहे होंगे कि आप इसी को दिल्ली की सबसे बड़ी समस्या मानें. यह बात और है कि वे अपने बच्चों को दिल्ली सरकार के उन स्कूलों में कभी नहीं पढ़ाना चाहेंगे जिनमें भी पढ़ना एक बड़े वर्ग के लिए सौभाग्य जैसा है.

जैसे दिल्ली का एक हिस्सा देश के सब बड़े नेताओं की मौजूदगी के कारण भ्रष्ट व्यक्तियों के घनत्व में देश में पहले स्थान पर है, उसी तरह दिल्ली के कई हिस्सों का बुद्धि घनत्व अकल्पनीय है. आधिकारिक रूप से वे हिस्से आईआईटी, एम्स या जेएनयू हो सकते हैं लेकिन अनाधिकारिक रूप से वे बेर सराय, जिया सराय या मुखर्जी नगर जैसी जगहें हैं, जहां पहुंचकर आप एक अलग समय में दाखिल होंगे. ऐसे लोगों के बीच जिनकी जीवनशैली को आपको प्रेरित करना चाहिए था, लेकिन अब वह डराती ज्यादा है.

बाहर से इन इलाकों का विकास कमोबेश बाकी औसत दिल्ली जैसा ही है, लेकिन आप उनकी तंगतम गलियों के घरों में कतार में बने उन कमरों में जाइए जिनका आकार 6 बाई 8 से ज्यादा नहीं होगा और जिनमें आमने-सामने बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान या उड़ीसा से आए दो जुनूनी लड़कों के पलंग बिछे होंगे, जो सिविल सर्विस की परीक्षा या ऐसा ही कुछ बड़ा मटका फोड़ने आए हैं. कमरे में बाकी जितनी जगह बची होगी उसमें से अधिकतम जगह में किताबें, अखबार और पत्रिकाएं होंगी. आप उनसे बात करेंगे तो पाएंगे कि पौराणिक कथाओं से बाहर कहीं तपस्या होती होगी तो लगभग ऐसी ही होती होगी. सामान्य अध्ययन को पढ़ते-पढ़ते वे सामान्य दुनिया को भुलाए हुए मिलेंगे. कितने ही ऐसे लड़के जो तीन-चार साल से अपने घर तक नहीं गए, जिन्हें यह तो पता है कि कमरे से बाहर निकलकर बाईं तरफ को जाने वाली सड़क उनकी कोचिंग तक जाएगी, लेकिन दाईं तरफ का उन्हें बिल्कुल अंदाजा नहीं. उनमें जो जितना पुराना होगा (मतलब जितनी बार असफल हो चुका होगा), बहुत संभावना है कि वह उतना ही हताश मिलेगा और आत्मघाती रूप से अपने जीवन के बाकी अधिकांश विकल्प खत्म कर चुका होगा. उसकी हताशा बारहवीं पास करके मेडिकल या इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहे छात्र से बहुत गहरी होगी क्योंकि उसकी उम्र 26 साल है और जब भी वह घर से पैसे मांगता है, उसे बुरा लगता है. उसके आसपास अपना कोई कैंपस भी नहीं है, न उसका कोई ढाबा या कैंटीन, जहां वह अपने हमउम्र दिल्लीवालों की तरह मस्ती कर सके. वह तीन-चार साल से घर नहीं गया और न ही दिल्ली का हो सका. उसकी भाषा ही यह बात आपको बता देगी. उसकी मेज के ऊपर जो टाइमटेबल लगा होगा वह बता रहा होगा कि सुबह सात से 12 तक डेढ़ घंटे के ब्रेक के अलावा उसे खुद से पढ़ना है या ऐसे किसी टीचर की क्लास में जाना हो जो खुद इस जंग को कई बार हार चुका है लेकिन इसी चक्कर में उसने जीतने का कोई सूत्र पा लिया है.

कुछ दूसरी तरह से जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय आपको पूरी दिल्ली या पूरे देश से अलग समय और संस्कृति में ले जाएगा. यह अपनी बौद्धिक बहसों की संस्कृति के कारण देश के बाकी संस्थानों से अलग है. इतना अलग कि इसके अंदर और बाहर के कुछ लोगों का तो यह भी मानना है कि जेएनयू असल में एक द्वीप है और मार्क्स का यूटोपियन समाज अगर दुनिया में कहीं है तो वह यहीं है. इसी तरह कुछ दूर आईआईटी का लगभग उतने ही आईक्यू वाला समाज है, लेकिन उसके जीवन में अपने बाहर के समाज के बारे में ऐसी बहसों के लिए कोई समय नहीं है.

जो भी हो, दिल्ली की अच्छी बात यह है कि आप चाहे कितने भी कट्टर हों, कितने भी उदार, कितने भी आत्मकेन्द्रित हों, कितने भी सामाजिक चिंतक, यह आपको आपके जैसे कुछ साथी जरूर देगी और कभी-कभी अपनी बात कहने के मौके भी. जब कुछ नहीं देगी तो सपने पालने का हौसला तो देगी ही, चाहे सोने के लिए छत न दे सके.

(दिल्ली से प्यार करने वाले अनेक शोधकर्ताओं को आभार सहित)

(31 दिसंबर 2011)