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चौ. देवीलाल |1914-2001|

चौ. देवीलाल [1914-2001]
लोकसभा में महज 10 प्रतिनिधि भेजने वाले हरियाणा के नेता चौधरी देवीलाल अकेले नेता रहे जिन्होंने राष्ट्रीय राजनीति को गहरे तक प्रभावित किया. यूं तो प्रदेश से तमाम नेताओं ने समय-समय पर राजनीति में दस्तक दी है, लेकिन पूर्व उपप्रधानमंत्री स्व. देवीलाल यानी हरियाणा के ताऊ इकलौते शख्स रहे जिन्होंने एक समय में शीर्ष पद यानी प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी गंभीर दावेदारी पेश की थी. पीएम इन वेटिंग की चर्चा में देवीलाल उस फेहरिस्त में शामिल हैं जो प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए. हालांकि इस श्रेणी में जो दूसरे नाम शामिल हैं उनमें और देवीलाल में एक मूलभूत अंतर है. दूसरे तमाम नेता हर कोशिश करके भी असफल रहे लेकिन देवीलाल के बारे में माना जाता है कि उन्होंने स्वयं ही यह पद स्वीकार नहीं किया. इसकी वजह भी बेहद दिलचस्प है जो आगे स्पष्ट हो जाएगी. आजादी के बाद छह उपप्रधानमंत्री हुए हैं, इनमें से मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह को छोड़कर बाकी सब प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने में असफल रहे हैं.

आज देवीलाल की राजनीतिक विरासत के दो वारिस उनके पुत्र ओमप्रकाश चौटाला और पौत्र अजय सिंह चौटाला शिक्षक भर्ती घोटाले में दोषी सिद्ध होकर दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद हैं. अस्सी के दशक में जाट राजनीति के इस धाकड़ नेता के निधन के बाद उनके परिवार का कोई भी सदस्य लोकसभा में सांसद के तौर पर निर्वाचित नहीं हो पाया है. जबकि एक वक्त ऐसा भी था जब 1989 के आम चुनावों में देवीलाल ने राजस्थान के सीकर लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस के दिग्गज नेता बलराम जाखड़ और हरियाणा की रोहतक लोकसभा सीट पर राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को एक साथ मात दी थी. जाट राजनीति पर उनकी पकड़ का ही एक और नमूना 1987 में देखने को मिला जब पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के निधन के बाद हुए उपचुनाव में देवीलाल के प्रभाव वाले जनता दल के प्रत्याशी ने अजित सिंह के प्रति तमाम सहानुभूति होने के बावजूद उनकी पार्टी के उम्मीदवार को बड़ी मात दी. इसी समय 1987 में रोहतक संसदीय सीट पर हुए उपचुनाव में देवीलाल के उम्मीदवार ने स्व. चरण सिंह की पत्नी गायत्री देवी को भी हराया था.

1977 में जब देश आपातकाल विरोध की लहर में जकड़ा हुआ था तब देवीलाल हरियाणा में जनता पार्टी के उपाध्यक्ष थे. विधानसभा चुनाव के बाद जनता पार्टी की प्रदेश इकाई के अध्यक्ष रहे दलित नेता चौधरी चांदराम के सहयोग से उन्होंने हरियाणा के मुख्यमंत्री की कमान संभाली. हालांकि हरियाणा में जाट नेता देवीलाल का मुख्यमंत्री बनना उस समय किसान राजनीति के अगुवा चौधरी चरण सिंह को रास नहीं आया था, लेकिन एक बार मुख्यमंत्री बनने के बाद देवीलाल उत्तर भारत में कांग्रेस विरोध के बड़े क्षत्रप के तौर पर स्थापित हो गए थे. पंजाब और हरियाणा विधानसभा के कई बार सदस्य रहे चौधरी देवीलाल के जीवन में 1989 में एक महत्वपूर्ण पड़ाव आया. वे वीपी सिंह की जनता दल सरकार के उपप्रधानमंत्री बने. 11 महीने बाद ही वीपी सिंह की सरकार गिर गई. इसके बाद देवीलाल के नेतृत्व में एक वैकल्पिक सरकार के गठन की चर्चा जोरों पर थी. उनके समर्थकों के मुताबिक देवीलाल ने खुद ही उस सरकार का नेता बनने से मना कर दिया क्योंकि उनकी पढ़ाई-लिखाई दसवीं से भी कम की थी यानी उन्होंने जान-बूझकर प्रधानमंत्री पद स्वीकार नहीं किया.

उनके इनकार के बाद चंद्रशेखर चार महीने की समाजवादी सरकार के मुख्यमंत्री बन गए और देवीलाल को इतिहास ने दोबारा वह मौका कभी नहीं दिया. इस दौरान घटी कुछ दूसरी घटनाओं ने भी उनके राजनीतिक जीवन को अस्थिर किया. 1989 में रोहतक संसदीय सीट पर उन्होंने दो लाख से ज्यादा मतों से जीत दर्ज की थी पर उन्होंने लोकसभा में सीकर का प्रतिनिधित्व करने का फैसला लिया. हरियाणा की जनता ने अपने ताऊ को इस बात के लिए कभी माफ नहीं किया. इसके बाद अगले तीन लोकसभा चुनावों में रोहतक की जनता ने देवीलाल को हराया और वर्तमान मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा लगातार तीन बार ताऊ को हरा कर कांग्रेस और हरियाणा की राजनीति में स्थापित होते चले गए. इसी दौरान हरियाणा के महम कस्बे में हुए महम कांड ने भी देवीलाल की छवि पर विपरीत असर डाला. इन दो घटनाओं के साथ ही ताऊ की पार्टी की पकड़ जाट पट्टी का दिल कहे जाने वाले रोहतक संसदीय क्षेत्र के इलाके में कमजोर होती चली गई. अपने जीवन के अंतिम पांच साल वे राज्यसभा सांसद रहे और अप्रैल, 2001 में उनका निधन हो गया. इस तरह हरियाणा का यह जाट नेता हमेशा के लिए पीएम इन वेटिंग वाली लिस्ट में ही रह गया.

चंद्रशेखर

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चंद्रशेखर

बड़ी आशाओं के साथ  जनता पार्टी सरकार 1977 में सत्ता में आई थी. पर जब यह लगने लगा कि यह व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ रही है तो उस वक्त सरकार चलाने वालोें को कुछ शुभचिंतकों ने सलाह दी कि इन  टकरावों को टालने का रास्ता यह है कि किसी युवा नेता को प्रधानमंत्री बना दिया जाए. उस वक्त जिन नेताओं का नाम चल रहा था उनमें चंद्रशेखर का नाम सबसे पहले था. व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के शिकार नेताओं ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया. कई राजनीतिक जानकार मानते हैं कि अगर 1977 की जनता सरकार की कमान चंद्रशेखर के हाथों में दे दी जाती तो वहां से देश के राजनीतिक इतिहास में नया मोड़ आ सकता था. गैरकांग्रेसवाद की एक मजबूत शुरुआत हो सकती थी. लेकिन ऐसा हो न पाया और जनता पार्टी सरकार आधा कार्यकाल भी पूरा न कर सकी.

प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से अपनी राजनीति शुरू करने वाले चंद्रशेखर पहली बार लोकसभा 1967 में कांग्रेस के टिकट पर पहुंचे थे. लेकिन भारतीय राजनीति में युवा तुर्क कहे जाने वाले चंद्रशेखर ने कांग्रेस में रहते हुए भी इंदिरा गांधी की गलत नीतियों का विरोध किया. यह उस दौर में बड़ी बात थी. 1975 में उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी. आपातकाल के दौरान वे जनता पार्टी के अध्यक्ष बने.1977 के प्रयोग की असफलता के बाद जब 1988 में वीपी सिंह की अगुवाई में एक ऐसे ही प्रयोग की बात आई तो चंद्रशेखर इसमें शामिल हुए. राजीव गांधी की सत्ता उखड़ गई और वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने. लेकिन इस सरकार के कामकाज से वे खुश नहीं थे.1990 में वे इससे 64 सांसदों के साथ अलग हो गए. राजीव गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस के समर्थन से वे 10 नवंबर, 1990 को प्रधानमंत्री बने. हालांकि, उनका और कांग्रेस का साथ चला नहीं और कुछ ही महीनों में कांग्रेस ने उनकी सरकार से समर्थन वापस ले लिया.

चौधरी चरण सिंह

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चौधरी चरण सिंह

1977 में जिन दलों के सहयोग से मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने थे उनमें चौधरी चरण सिंह का लोक दल भी था. जब मोरारजी को प्रधानमंत्री बनाया गया था तो उस वक्त भी चरण सिंह इस फैसले से खुश नहीं थे. उन्हें लगता था कि प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार तो वे हैं. उन्हीं की पार्टी के चुनाव चिह्न पर लोकसभा चुनाव भी लड़े गए थे. उस वक्त राजनारायण ने चरण सिंह को यह समझाया कि वे अभी मोरारजी को प्रधानमंत्री बनने दें, कुछ समय बाद उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया जाएगा. चरण सिंह को मोरारजी सरकार में उप- प्रधानमंत्री बनाकर मनाया गया था.

जिन लोगों ने मोरारजी की अगुवाई वाली जनता सरकार के कामकाज को देखा है, वे कहते हैं कि उस सरकार में नेतृत्व को लेकर खींचतान पहले दिन से ही थी. चरण सिंह वह मौका तलाशते रहते थे जिससे मोरारजी को हटाकर वे खुद प्रधानमंत्री बन जाएं. 1979 में एक ऐसा ही मौका आया. 1977 के चुनावों में हारी कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी ने चरण सिंह को यह भरोसा दिलाया कि अगर वे जनता सरकार से बाहर आकर सरकार बनाने का दावा पेश करते हैं तो कांग्रेस उनका समर्थन करेगी. 64 सांसदोें के साथ चरण सिंह बाहर आ गए और 28 जुलाई, 1979 को उन्हें प्रधानमंत्री पद का शपथ दिलाई गई. चौधरी चरण सिंह देश के इकलौते ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो लोकसभा का सामना तक नहीं कर पाए. जिस दिन उन्हें लोकसभा में अपना बहुमत साबित करना था, उसके एक दिन पहले कांग्रेस ने लोक दल से अपना समर्थन वापस ले लिया और चरण सिंह को इस्तीफा देना पड़ा.

मोरारजी देसाई

मोरारजी देसाई
मोरारजी देसाई
मोरारजी देसाई

1977 में जब मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने तो इस पद के लिए उनका तकरीबन दो दशक लंबा इंतजार खत्म हुआ था. मोरारजी पहले कांग्रेस में थे. प्रधानमंत्री पद के लिए उनका नाम तब से चलता था जब से भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बाद इस पद के लिए नामों की चर्चा होती थी. जब 27 मई, 1964 को नेहरू नहीं रहे तो देश के सामने सबसे बड़ा संकट था कि उनकी जगह पर किसे प्रधानमंत्री बनाया जाए. मुश्किल यह भी थी कि बतौर प्रधानमंत्री या यों कहें कि बतौर राजनेता नेहरू का जो कद था, उससे नए प्रधानमंत्री की तुलना चाहे-अनचाहे होनी ही थी. उस वक्त भी बेहद मजबूती से मोरारजी का नाम चला. लेकिन बाजी मारी लाल बहादुर शास्त्री ने.

शास्त्री प्रधानमंत्री तो बने लेकिन खराब सेहत ने उनका बहुत दिनों तक साथ नहीं दिया. प्रधानमंत्री बनने के दो साल के भीतर ही 11 जनवरी, 1966 का ताशकंद में उनकी रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हुई. इसके बाद एक बार फिर से मोरारजी देसाई के सामने प्रधानमंत्री बनने का अवसर पैदा हुआ. लेकिन इस बार भी उन्हें निराश होना पड़ा और कांग्रेस ने इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री चुन लिया. हालांकि, इस दफा मोरारजी ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था. इसके बाद वे 1969 में कांग्रेस से अलग हो गए. 1975 में आपातकाल के खिलाफ जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जो आंदोलन चला उसमें मोरारजी भी शामिल थे और इस आंदोलन से निकली जनता पार्टी जब 1977 के चुनावों में जीतकर आई तो अंततः मोरारजी देसाई का प्रधानमंत्री पद के लिए लंबा इंतजार समाप्त हुआ.

काछाथीवू: भारत-श्रीलंका विवाद

Huaपिछले कुछ दिनों से श्रीलंका के नौसैनिकों द्वारा तमिलनाडु के मछुआरों की गिरफ्तारी, उसपर भारत सरकार के एतराज और तमिलनाडु में आक्रोश की खबरें सुर्खियों में हैं. और इस पूरी हलचल की वजह से श्रीलंका का काछाथीवू द्वीप फिर से चर्चा में आ चुका है. रामेश्वरम से तकरीबन 10 मील दूर भारत और श्रीलंका के बीच पाक जलडमरूमध्य में स्थित 280 एकड़ का यह बंजर द्वीप एक समय भारतीय क्षेत्र में शामिल था.

ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि काछाथीवू मद्रास प्रांत के राजा रामनद की जमींदारी के अंतर्गत आता था. रामनद ने यहां एक चर्च का निर्माण करवाया था. तमिलनाडु के मछुआरे दशकों से यहां मछली पकड़ने और जाल सुखाने आते रहे हैं. हालांकि 1920 के आस-पास मद्रास प्रांत और तत्कालीन सीलोन सरकार के प्रतिनिधियों के बीच बातचीत में सीलोन ने काछाथीवू पर अपना अधिकार जताया था.

हालांकि दोनों देशों की आजादी के बाद सालों तक यह मुद्दा प्रमुखता से कहीं नहीं उठा. काछाथीवू सरकारी दस्तावेजों में भारत का हिस्सा बना रहा और यह स्थिति 1974 तक कायम रही. इस समय श्रीलंका में श्रीमाओ भंडारनायके प्रधानमंत्री थीं. और यही वह दौर था जब वे अपने राजनीतिक जीवन के सबसे मुश्किल दौर में थीं. इस साल उन्होंने भारत की यात्रा की. कहा जाता है वे इंदिरा गांधी की काफी करीबी थीं. उनकी इस यात्रा के दौरान ही काछाथीवू को विवादित क्षेत्र मानते हुए एक समझौते के तहत श्रीलंका को सौंपा गया था. भंडारनायके के लिए यह समझौता अपनी राजनीतिक ताकत दोबारा हासिल करने का जरिया बना तो भारत सरकार की सोच थी कि इससे दोनों देशों के मैत्री संबंध प्रगाढ़ होंगे. समझौते में प्रावधान किया गया था कि तमिलनाडु के मछुआरे काछाथीवू के आसपास  आगे भी बेरोकटोक मछली पकड़ सकते हैं.

1976 में भारत और श्रीलंका के बीच समुद्री सीमा तय करने के लिए एक और समझौता हुआ. इसमें प्रावधान था कि श्रीलंका समुद्र के विशेष आर्थिक क्षेत्र में भारतीय मछुआरों को मछली पकड़ने की अनुमति नहीं होगी. इसमें पहले के प्रावधान पर कोई स्पष्टीकरण नहीं था. हालांकि इस समझौते के बाद भी तमिलनाडु के मछुआरे काछाथीवू के आस-पास मछली पकड़ने का काम करते रहे. लेकिन पिछले कुछ सालों के दौरान श्रीलंका नौसेना ने इस पर आपत्ति जताते हुए कई मछुआरों को हिरासत में लिया है. कुछ नौसेना की गोलीबारी में मारे भी गए. इसको देखते हुए हाल ही में तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री करुणानिधि ने सर्वोच्च न्यायालय में काछाथीवू द्वीप श्रीलंका से वापस लेने के लिए एक याचिका दाखिल की थी. इसके बाद से यह मामला दोनों देशों में चर्चा का विषय बना हुआ है.
-पवन वर्मा  

लालू प्रसाद यादव: दौर बुरा, तौर वही

साभारः बिहार फोटो डॉट कॉम
साभारः बिहार फोटो डॉट कॉम

बात 1977 की है. आपातकाल के बाद आम चुनाव हुआ था. तब बिहार से एक युवा सांसद भी लोकसभा पहुंच गया था. महज 29 साल की उम्र में. उस युवा सांसद का नाम था लालू प्रसाद यादव. गोपालगंज जिले के फुलवरिया जैसे सुदूरवर्ती गांव से निकलकर, दिल्ली के संसद भवन में पहुंचने का लालू का यह सफर चमत्कृत करने वाला था. लेकिन तब मीडिया की ऐसी 24 घंटे वाली व्यापक पहुंच नहीं थी.  इसलिए लालू का एकबारगी वाला उभार भी उस तरह से चर्चा में नहीं आ सका. तब तो फुलवरिया गांव में रहने वाली लालू प्रसाद की मां मरछिया देवी ने ही अपने बेटे की इस बड़ी छलांग पर कोई टिप्पणी नहीं की थी. 1990 में जब लालू प्रसाद बिहार के मुख्यमंत्री बने और रातों-रात बिहार के बड़े नायक के तौर पर उभरे, चहुंओर उनकी चर्चा होने लगी और हर जगह लालू के नाम पर जश्न का माहौल बना तब मरछिया देवी को लगा कि उनका बेटा कुछ बन गया है. यही वजह है कि लालू जब मां से मिलने पहुंचे तो उन्होंने पूछा, ‘का बन गइल बाड़ हो.’ लालू प्रसाद ने तब अपनी मां को समझाने के लिए गोपालगंज के ही एक पुराने राजा हथुआ महाराज का बिंब के तौर पर इस्तेमाल किया और बताया कि अब तुम्हरा बेटा हथुआ महाराज से भी बड़का राजा बन गया है. मां को तसल्ली हुई.

लालू प्रसाद यादव ने अपनी अपढ़ मां को समझाने के लिए अपने पड़ोस के राजा ‘हथुआ नरेश’ से खुद की तुलना की. यही नहीं, फुलवरिया गांव से निकलने के बाद उन्होंने एक-एक कर दो और जुमले हवा में उछाले. एक यह कि अब रानी के पेट से ही राजा का जन्म नहीं होगा और दूसरा यह कि एक न एक दिन वे प्रधानमंत्री भी जरूर बनेंगे. लालू प्रसाद बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, बिहार की एक बड़ी आबादी की आकांक्षा जगी थी, उम्मीदों का संचार हुआ था और बहुतेरे सपनों के सच होने की उम्मीद जगने लगी थी.

लेकिन लालू प्रसाद बिहार को संभालने के साथ ही देश को संभालने-थामने का सपना बार-बार देखने लगे और गाहे-बगाहे यह भी रटने लगे कि वे प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं, वे प्रधानमंत्री जरूर बनेंगे, उनका योग कहता है कि एक दिन प्रधानमंत्री जरूर बनेंगे. लालू प्रसाद यादव इस सपने का ख्वाब जनता दल का नेता बनकर बुनते रहे और ऐसा करते हुए यह भी भूल गए कि जनता दल में वे अकेले नेता नहीं जो सिर्फ अपने सपनों को पर लगाने के लिए सारे निर्णय खुद ले सकते हैं. उनके संगी-साथी नीतीश कुमार ने सबसे पहले साथ छोड़ा,  शरद यादव, जॉर्ज फर्नांडिस जैसे नेताओं ने भी. 1996 में देवगौड़ा के प्रधानमंत्री बनने के वक्त लालू के दरवाजे पर भी संभावनाओं ने दस्तक दी थी, लेकिन आखिर में समीकरण उनके हिसाब से नहीं बैठे. उनके अपने समाजवादी नेताओं ने ही उनका विरोध किया. लालू प्रसाद मन मसोसकर किंग बनने के बजाय खुद को किंगमेकर कहना-कहलाना ज्यादा पसंद करने लगे.

तब से लेकर 2009 के लोकसभा चुनाव के परिणाम आने तक लालू प्रसाद उस यूटोपिया से बाहर नहीं निकल सके और समय-समय पर दुहराते रहे कि उनका योग है, वे एक न एक दिन पीएम बनेेंगे जरूर. जो लालू प्रसाद बोलते रहे, वही उनके दल के कुछ नेता भी दुहराते रहे. उनकी पत्नी और बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने भी यह बात कही. बिहार के गायकों ने लालू प्रसाद को पीएम बनाने वाले गीत भी गढ़े, लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में इनमें से कोई कवायद काम नहीं आई. 2005 में बिहार की सत्ता गंवा चुके राष्ट्रीय जनता दल के मुखिया लोकसभा चुनाव में भी बुरी तरह परास्त हुए और लोकसभा में सिर्फ चार सांसदों वाली पार्टी के नेता भर बन गए.

वर्षों तक लालू प्रसाद के संगी-साथी रहे रामबिहारी सिंह कहते हैं, ‘अब बूढ़ीपंथी पार्टियों के बड़े नेताओं को स्थिति को समझना चाहिए. आज नया जमाना है. नई चीज गढ़ने की तैयारी है. पुराने जमाने की बात कहकर जितने दिन लालू प्रसाद जैसे नेता अपना काम चला सकते थे, चला लिए. अब वह सब नहीं चलने वाला है.’ दूसरे शब्दों में कहें तो अब केंद्रीय राजनीति में लालू प्रसाद का करिश्मा नहीं चलने वाला है.

वर्षों तक पीएम बनने का ख्वाब देखते रहने वाले लालू प्रसाद यादव वैसे भी फिलहाल बेहद मुश्किल दौर में हैं, लेकिन उनके लिए एक धुंधली उम्मीद भी दिखती है. लालू प्रसाद खुद सजायाफ्ता हो चुके हैं, सांसदी जा चुकी है और आगे जितने वर्षों तक के लिए वे चुनाव लड़ने से वंचित हुए हैं, उतने वर्षों के बाद वे राजनीति में शायद ही चलने लायक सिक्के की तरह रहें. और रही बात केंद्रीय राजनीति में अब किंगमेकर बनने की तो लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं की प्राथमिकता अब किसी तरह बिहार में अपनी खोई हुई जमीन को वापस पाना है.

यह बात लालू प्रसाद भी जानते हैं और उनके दल के नेता भी, लेकिन अब भी वे उन दिनों को याद करके एक नए किस्म का यूटोपिया बनाए रखना चाहते हैं, जिन दिनों लालू प्रसाद देवगौड़ा को प्रधानमंत्री बनाने में भूमिका निभा रहे थे या फिर यूपीए वन में रेल मंत्री बनकर देश-दुनिया में वाहवाही लूट रहे थे. राजद नेता प्रेम कुमार मणी कहते हैं, ‘राजनीति वर्षों पहले ही बदल चुकी है और समय के साथ बदलती रहती है. नेहरू के बाद इंदिरा युग अलग था. नेहरू समाजवादी ढांचेे से काम चलाते थे, लेकिन इंदिरा के समय में समाजवादी सरकार की ही चाहत जनता में जगी. 1990 के बाद राजनीति पूरी तरह बदल गई. पहचान की राजनीति का जमाना आ गया. अब उसका दौर भी समाप्त हो रहा है. दिल्ली में जो छोटी-सी घटना हुई वह नई आकांक्षाओं का जनतांत्रिक ज्वार है. बिहार की राजनीति का जो सबसे बड़ा लक्षण है, वह है कि 11 प्रतिशत शहरीकरण है ऐसे में अब जो नए तरीके से सोचेगा, वही यहां की जनता की उम्मीदों को वोटों में बदलने में कामयाब होगा.’ मणी आगे कहते हैं, ‘हां यह तय है कि बिहार में नरेंद्र मोदी या भाजपा का खुलकर विरोध करने और उसके खिलाफ वोटों का धुव्रीकरण करने में लालू प्रसाद ही सफल होंगे.’

कई बड़े नेताओं से बात होती है. राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं से भी और दूसरे दल के नेताओं से भी. कोई खुलकर नहीं कहता कि लालू प्रसाद या उनकी पार्टी के लिए केंद्र की राजनीति में करिश्माई भूमिका निभाने की संभावनाएं खत्म- सी हो गई हैं. राजद के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘नीतीश कुमार से बिहार में नाराजगी की एक लहर है. भाजपा से जदयू का अलगाव हो चुका है. लालू प्रसाद खुलकर और जमकर भाजपा अथवा नरेंद्र मोदी के खिलाफ बोल सकेंगे. उसका फायदा मिलेगा. लेकिन इतना फायदा मिलेगा कि वे या उनकी पार्टी केंद्र मंे अहम भूमिका निभाने की स्थिति में आएगी, ऐसा फिलहाल संभव नहीं दिखता.’ लोक जनशक्ति पार्टी के बिहार के प्रवक्ता रोहित कुमार सिंह कहते हैं, ‘गठबंधन की राजनीति का दौर है. लालू प्रसाद एक समय में उस हैसियत वाले नेता रहे हैं. आगे क्या

होगा, इसका आज की राजनीति में पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता.’

लाल कृष्ण आडवाणी: चिरयात्री

फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय

भाजपा में हर तरफ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की बतौर प्रधानमंत्री उम्मीदवार जय-जयकार के बीच हाल ही में दिल्ली के रामलीला मैदान में पार्टी की राष्ट्रीय परिषद आयोजित की गई थी. उसमें भी लाल कृष्ण आडवाणी ने मोदी को आगाह करने का मौका नहीं गंवाया. भाजपा के इस दिग्गज ने इस मौके पर मोदी की सराहना तो की लेकिन साथ ही साथ यह भी कहा कि पार्टी अगले लोकसभा चुनावों में जीत को लेकर अतिआत्मविश्वास से ग्रस्त हो गई दिखती है. आडवाणी ने आगाह करते हुए कहा कि 2004 में भाजपा लोकसभा चुनाव इसी वजह से हारी थी, इसलिए इससे बचते हुए अगले चुनाव में उतरना चाहिए. इस मौके पर उन्होंने एक और महत्वपूर्ण बात कही. उन्होंने कहा, ‘मैं पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह और उन अन्य सहयोगियों को बधाई देना चाहूंगा जिन्होंने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाने का फैसला किया.’

साफ है कि आडवाणी भले ही मोदी की सराहना कर रहे हों लेकिन वे बार-बार इस तथ्य को स्थापित कर रहे हैं कि मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाने के फैसले में उनकी कोई हिस्सेदारी नहीं है. जो दूसरा संकेत उनके बयानों से निकलता है, वह यह है कि उन्हें इस बात का अंदाजा है कि मोदी की अगुवाई की वजह से अतिआत्मविश्वास की शिकार भाजपा बहुमत के आंकड़े तक नहीं पहुंच रही है.

यही वजह है कि कई सालों से प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब संजोए आडवाणी उम्र के नवें दशक के करीब पहुंचकर भी अपने सपने का साथ छोड़ने को तैयार नहीं हैं. वे राजनीति में पूरी तरह सक्रिय हैं. राज्यसभा जाने की चर्चाओं को विराम देते हुए उन्होंने साफ कर दिया है कि वे इस बार भी लोकसभा चुनाव लड़ेंगे. इससे पहले एक साक्षात्कार में वे कह चुके हैं कि वे उसी गांधीनगर से लड़ेंगे जहां से गुजरात सरकार की कमान संभालते हुए मोदी, आडवाणी को ही पीछे करके भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बन गए.

उनकी राय की अनदेखी करते हुए नरेंद्र मोदी को भाजपा की चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया गया था. इसके बाद जब उन्होंने इस्तीफा दिया और फिर इसे उन्होंने वापस लिया, तो लगने लगा कि आडवाणी ढलान पर हैं और अब उनके लिए आज की राजनीति में जगह नहीं है. इस चर्चा को उस वक्त और मजबूती मिली जब उनकी अनिच्छा के बावजूद  मोदी को भाजपा ने अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना दिया. हालांकि, आडवाणी ने इस्तीफा इस शर्त पर वापस लिया था कि भाजपा को लेकर उनकी जो आपत्तियां हैं उन्हें दूर करने की प्रक्रिया शुरू की जाएगी. तय हुआ था कि पार्टी के बड़े फैसले आपसी सहमति से होंगे और चुनाव अभियान समिति के बड़े फैसलों के लिए भी संसदीय बोर्ड की मंजूरी अनिवार्य होगी. आडवाणी को यह कहकर भी मनाया गया कि मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार नहीं बल्कि सिर्फ चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष घोषित किया गया है. लेकिन बाद में उनकी सभी चिंताओं को दरकिनार कर दिया गया.

आडवाणी के पुराने वफादारों में से जो नरेंद्र मोदी के पाले में नहीं गए हैं और अब भी उनके प्रति वफादार हैं, उन लोगों ने और खुद आडवाणी ने भी अपने आप को समझाया कि नाराज होकर बैठ जाना सबसे आसान रास्ता है. इसलिए उन्होंने तय किया कि वे पार्टी में ही नहीं बल्कि चुनावी राजनीति में सक्रिय रहकर अपने प्रधानमंत्री बनने के सपनों को पूरा करने के लिए प्रयासरत रहेंगे. हाल ही में अपनी पुस्तक के लोकार्पण के अवसर पर पुस्तकों से अपने लगाव का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा, ‘अनेक पुस्तकें मुझे फादर एजनेल हाईस्कूल दिल्ली के फादर बेंटों राड्रिग्स ने भेंट की हैं. नरसिम्हा राव के शासनकाल में मेरे विरुद्ध लगाए गए आरोपों के चलते न केवल मैंने लोकसभा से त्यागपत्र दे दिया था बल्कि यह घोषणा भी की थी कि जब तक मुझे न्यायालय द्वारा इन आरोपों से मुक्त नहीं किया जाता तब तक मैं संसद में प्रवेश नहीं करूंगा. 1970 में मैं पहली बार संसद के लिए चुना गया था. उसके बाद से सिर्फ इन दो वर्षों (1996-1998) में मैं संसद में नहीं था. इस अवधि के दौरान फदर राड्रिग्स ने मुझे एक प्रेरणास्पद पुस्तक ‘टफ टाइम्स डू नॉट लास्ट! टफ मैन डू’ भेंट की. कुछ महीने पूर्व उन्होंने मुझे एक और रोचक पुस्तक दी जिसका शीर्षक है ‘दि शिफ्ट’. पुस्तक के लेखक हैं डा. वायने डब्ल्यू डायर. पुस्तक का उपशीर्षक है ‘टेकिंग युअर लाइफ फ्रॉम एम्बीशन टू मीनिंग’. इस उपशीर्षक ने तत्काल मेरे मस्तिष्क को झंकृत कर दिया.’ जिन पुस्तकों का उल्लेख आडवाणी कर रहे हैं, उनके नामों से ही साफ है कि वे अभी हार मानने के लिए नहीं बल्कि भिड़ने के लिए तैयार हैं.

प्रधानमंत्री बनने की आडवाणी की आकांक्षा नई नहीं है. 1990 के दशक में राम मंदिर आंदोलन के बाद जिस तरह से भाजपा का उभार हुआ था उसमें वे ही पार्टी के सबसे बड़े नेता थे. लेकिन भाजपा को केंद्र की सत्ता में पहुंचाने की रणनीति के तहत आडवाणी ने अटल बिहारी वाजपेयी का नाम पीएम पद के लिए आगे किया. तब उनकी छवि एक कट्टरपंथी नेता की थी और वाजपेयी उदार छवि वाले माने जाते थे. ऐसे में आडवाणी को लगता था कि गठबंधन राजनीति के दौर में वाजपेयी के नाम पर सहयोगी दलों को जुटाना आसान होगा. हुआ भी ऐसा ही. 1996, 1998 और 1999 में भाजपा वाजपेयी की अगुवाई में केंद्र में सरकार बनाने में कामयाब हुई.

जो लोग उस दौर के आडवाणी को जानते हैं, वे बताते हैं कि वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में आडवाणी ने हर वह कोशिश की जिससे उनकी छवि थोड़ी उदार बने ताकि भविष्य में उनके प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ हो. अपनी छवि उदार बनाकर वे प्रधानमंत्री बनना चाहते थे, यह 2002 में तब साफ हो गया जब राष्ट्रपति चुनाव होने वाले थे. उस दौरान चल रहे राजनीतिक घटनाक्रम से जो लोग वाकिफ हैं वे जानते हैं कि आडवाणी चाहते थे कि 2002 में वाजपेयी को राष्ट्रपति बनवा दिया जाए और वे खुद प्रधानमंत्री बन जाएं. पार्टी के कुछ नेताओं ने इस प्रस्ताव पर वाजपेयी की राय जानने की कोशिश भी की थी. लेकिन वाजपेयी इस प्रस्ताव के पक्ष में नहीं थे और इसका नतीजा यह हुआ कि आडवाणी और वाजपेयी में इस बारे में सीधी बातचीत नहीं हो पाई. इसके बाद 2002 में ही वे उपप्रधानमंत्री बने ताकि अगर 2004 में फिर से भाजपा वापस सत्ता में लौटती है तो उनके लिए पीएम पद का रास्ता साफ रहे. वे जानते थे कि खराब सेहत की वजह से वाजपेयी अगला कार्यकाल पूरा नहीं कर पाएंगे और ऐसे में उनके लिए प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ हो जाएगा. इसके पीछे आडवाणी की सोच यह भी थी कि अगर वाजपेयी के नेतृत्व में 2004 का चुनाव लड़ा जाए तो इसका फायदा मिलेगा. लेकिन आडवाणी की वह योजना इसलिए धरी की धरी रह गई कि भाजपा की अगुवाई वाला राजग चुनाव हार गया.

इसके बाद वाजपेयी धीरे-धीरे नेपथ्य में चले गए. इसमें उनकी बिगड़ती सेहत की भी भूमिका रही. ऐसे में 2009 के लोकसभा चुनावों की तैयारी के लिहाज से आडवाणी ने यह तय किया कि वे  आगे आकर नेतृत्व करेंगे. 2004 की हार के बाद वे खुद भाजपा के अध्यक्ष बने. अपनी उदार छवि गढ़ने के लिए वे पाकिस्तान गए. वहां मुहम्मद अली जिन्ना की मजार पर पहुंचे और बयान दिया कि जिन्ना धर्मनिरपेक्ष थे. संघ में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई और उन्हें अध्यक्ष पद के लिए बचे हुए कार्यकाल के लिए राजनाथ सिंह के लिए रास्ता साफ करना पड़ा. लेकिन 2009 के लोकसभा चुनावों से पहले आडवाणी ने खुद को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कराया पर रथयात्रा सहित उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद पार्टी 2004 से भी कम सीटें जीत पाई. उनका सपना फिर अधूरा रह गया.

एक बार फिर लगा कि अब आडवाणी चूक गए और उनके लिए प्रधानमंत्री बनने के लिए सारे रास्ते बंद हो गए. संघ और भाजपा की तरफ से यह संकेत दिया गया कि भाजपा में बदलाव का दौर शुरू होगा और नए लोगों को जिम्मेदारी दी जाएगी. नितिन गडकरी को पार्टी अध्यक्ष बनाकर लाना उसी दिशा में बढ़ाया गया एक कदम था. लेकिन बदलाव का जो दौर चला उसमें एक-दो चेहरों को छोड़कर बाकी चेहरे वही पुराने रहे. जिन राजनाथ सिंह को 2009 में पार्टी अध्यक्ष पद से हटाकर गडकरी को लाया गया था, आज वही राजनाथ सिंह एक बार फिर से पार्टी के अध्यक्ष हैं. यानी बदलाव की बात हवा-हवाई रह गई और पार्टी एक बार फिर अपने पुराने ढर्रे पर लौट आई. ऐसे में शायद ही कोई आडवाणी को यह जाकर कहे कि आपको 2014 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ना चाहिए और प्रधानमंत्री पद का मोह छोड़ देना चाहिए.

ऐसी स्थिति में आडवाणी को लगता है कि उनके लिए संभावनाएं अभी खत्म नहीं हुई हैं. उन्हें लगता है कि भले ही मोदी को लेकर कितना भी माहौल बन रहा हो, लेकिन भाजपा अपने या मौजूदा सहयोगियों के बूते 272 का जादुई आंकड़ा नहीं छू पाएगी और इसलिए उनके लिए प्रधानमंत्री बनने की संभावना अब भी बनी हुई है. उन्हें उम्मीद है कि ऐसी स्थिति में उनके साथ वे सहयोगी दल भी आ सकते हैं जो भाजपा से दूर हो गए हैं और कुछ नए सहयोगी दल भी उनके साथ आ सकते हैं.

मायावती: मायामोह

फोटोः प्रमोद सिंह असिकारी
फोटोः प्रमोद सिंह अधिकारी

सात जुलाई, 2013. अपने ट्रेडमार्क दलित-ब्राह्मण सम्मेलनों के समापन के अवसर पर बसपा अध्यक्ष मायावती ने लखनऊ में एक बड़ी रैली आयोजित की थी. गर्मी और धूल-धक्कड़ से पस्त 50 हजार का जनसमूह इसी अवसर का साक्षी बनने के लिए उत्तर प्रदेश के कोने-कोने से लखनऊ पहुंचा था. मायावती मंच पर निर्धारित समय से थोड़ी देर से पहुंची थीं. उनके आने के साथ ही मंच से पंडितों का एक समूह वैदिक मंत्रोच्चार करने लगा. घंटे-घड़ियाल की गूंज और शंखनाद के चलते रैली स्थल पर किसी धार्मिक सीरियल का सा दृश्य उपस्थित हो गया था. इन सब औपचारिकताओं से निपटने के बाद जब माहौल थोड़ा शांत हुआ तब भीड़ से एकसुर नारा लगना शुरू हुआ- ‘औरों की मजबूरी है – मायावती जरूरी है’.

यह उन मायावती की चुनावी रैली में हो रहा था जिन्होंने एक समय मनुवाद और वैदिक परंपराओं की हर संभव शब्दों में निंदा की थी. जो नारा गूंज रहा था उसका संकेत यह था कि आज की तारीख में मायावती ब्राह्मणों की मजबूरी हैं. उसी सभा में मायावती ने लोकसभा के 38 उम्मीदवारों के नाम भी घोषित किए.

इनमें 21 ब्राह्मण और 17 दलित थे. इस सभा में मायावती ने जो भाषण दिया उसका सार यही था कि सब मिलकर यदि कोशिश करें तो इस बार वे केंद्र की सत्ता में जरूर पहुंचेंगी. दूसरे शब्दों में कहें तो उनकी आकांक्षा सर्वसमाज के सहयोग से दिल्ली की कुर्सी पर काबिज होने की है.

मायावती उन कुछेक नेताओं में से हैं जिन्होंने प्रधानमंत्री पद की अपनी इच्छा को कभी दबाया-छिपाया नहीं. 2009 के लोकसभा चुनावों से पहले भी उन्होंने ऐसी ही इच्छा जाहिर की थी और अब 16वीं लोकसभा के लिए होने वाले आम चुनाव से ठीक पहले उनकी यह इच्छा फिर से बलवती हो गई है. मायावती का प्रधानमंत्री बनना कई लिहाज से ऐतिहासिक होगा. वे महिला हैं, दलित हैं, क्षेत्रीय पार्टी की मुखिया हैं और इन सबसे ऊपर वे ‘सेल्फमेड’ हैं. फिलहाल उनके कद का दूसरा कोई भी दलित नेता भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में नजर नहीं आता. बाबू जगजीवन राम के बाद वे इकलौती दलित नेता हैं जो दिल्ली की शीर्ष सत्ता के इतने करीब आती दिखती हैं. उनके पास पीएम पद के सपने देखने की पर्याप्त वजहें भी हैं. पहली वजह है उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें. मायावती की रणनीति इनमें से कम से कम 40-45 सीटें जीतने की है. ऐसी स्थिति में बहुत संभव है कि केंद्र में बिखरा हुआ जनादेश आए. किसी एक पार्टी या गठबंधन का बहुमत न आने की सूरत में 40-45 सीटों वाली मायावती पीएम पद की रेस में खुद-ब-खुद शामिल हो जाएंगी. दरअसल मायावती समेत तमाम वे क्षेत्रीय नेता जो शीर्ष पद की इच्छा रखते हैं, उनकी उम्मीदों का आधार यही है-अपने लिए अधिक से अधिक सीटें और साथ में राष्ट्रीय स्तर पर एक क्षीण जनादेश.

मायावती के पास दलितों का एक समर्पित वोटबैंक है, लेकिन अकेले यह वोटबैंक उन्हें इतनी सीटों पर कामयाबी नहीं दिला सकता. जबकि अगर दलित-ब्राह्मण गठजोड़ का फार्मूला कामयाब हो जाता है तो इतनी सीटें बहुत आसानी से जीती जा सकती हैं. स्थितियां कई लिहाज से मायावती के पक्ष में हैं. प्रदेश में सत्तारूढ़ दल समाजवादी पार्टी की दशा और आत्मविश्वास रसातल को छू रहा है. पिता-पुत्र की सरकार के प्रति एक बार फिर से उसी तरह के मोहभंग की स्थिति पैदा हो गई है जैसी 2007 में थी. तब विधानसभा के चुनावों में मायावती स्वाभाविक पसंद और विजेता बनकर उभरी थीं. इस बार मुलायम सिंह और समाजवादी पार्टी के खिलाफ जो चीज जा रही है वह है मुसलमानों का उनसे पूरी तरह मोहभंग. अगर इस अलगाव का एक हिस्सा मायावती अपने साथ जोड़ पाती हैं तो वे दिल्ली की सत्ता के एक कदम और करीब पहुंच जाएंगी. मुजफ्फरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों के दो स्वाभाविक लाभार्थी बसपा और भाजपा ही दिखाई पड़ते हैं. हालांकि यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की स्थिति है, मध्य और पूरब के इलाकों में उन्हें मुसलमानों से जुड़ने के गंभीर प्रयत्न करने होंगे.

उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था वह मुद्दा है जिसकी सवारी मायावती आसानी से कर सकती हैं. इस मोर्चे पर देखा जाए तो उनका रिकॉर्ड ठीक-ठाक है. सपा के छुटभैये बेलगाम नेता और कार्यकर्ता फिर से सड़कों पर निकल चुके हैं. प्रदेश में उनके उपद्रव की घटनाएं सुर्खियां बन रही हैं. एक वरिष्ठ समाजवादी नेता का एक बयान यहां फिर से मौजूं हो गया है- ‘सपाई कार्यकर्ता को तब तक यह विश्वास नहीं होता कि सूबे में उसकी सरकार है जब तक वह किसी दरोगा को दो तमाचा न मार ले.’

पर राजनीति को सिर्फ आंकड़ों से परिभाषित नहीं किया जा सकता. 2009 के लोकसभा चुनावों में मायावती ने कुल 20 ब्राह्मण, छह ठाकुर और 14 मुसलमान उम्मीदवारों को टिकट दिया था. यानी 80 में से 40 सीटें गैरदलितों को दी गई थीं. लेकिन इनमें से सिर्फ 13 पर बसपा को जीत हासिल हुई. बसपा उन चुनावों में सिर्फ 20 सीटों पर सिमट गई थी. ऐसा नहीं है कि स्थितियां पूरी तरह से मायावती के अनुकूल हैं. आज भी उनके पीएम बनने की राह में कुछ वाजिब अड़चनें बनी हुई हैं. मसलन उनका हद से ज्यादा एक जाति और पहचान की राजनीति पर केंद्रित होना. वैचारिक स्तर पर उनकी नीतियों में ज्यादा स्पष्टता नहीं है. आर्थिक और अंतरराष्ट्रीय मसलों पर उनकी नीतियों की डोर पाकिस्तान और चीन से खतरों तक जाकर सीमित हो जाती है. और दिल्ली के गलियारों में ग्रोथ और सेंसेक्स की भाषा बोलने-समझने वाले उन्हें शायद ही खुले दिल से स्वीकार करें.

बीती 15 जनवरी को लखनऊ में हुई रैली में उन्होंने मध्यवर्ग और उद्योग जगत की आंखों के तारे नरेंद्र मोदी को संकीर्ण मानसिकता वाला आदमी बताते हुए उनके पीएम बनने की किसी भी संभावना को दरकिनार कर दिया. अगर मायावती के इस आरोप का विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि मायावती खुद भी इसी आलोचना के दायरे में आती हैं. अंतर सिर्फ इतना है कि उनकी संकीर्णता जाति के दायरे में सीमित है और जातिगत संकीर्णता को अभी तक सांप्रदायिकता जितनी बड़ी बुराई नहीं माना गया है.

मायावती की सात रेसकोर्स की दौड़ में एक और बड़ी बाधा है तीसरे मोर्चे की व्यावहारिकता. यह अवसरवादिता का निपट उदाहरण है. इसकी परिकल्पना उन स्थितियों पर आधारित है जिसमें चुनाव के बाद सारे क्षेत्रीय दल अच्छी खासी सीटें जीतकर लाएंगे, दोनों राष्ट्रीय पार्टियां फेल हो जाएंगी, तब ये सारे दल मिलकर एक नई सरकार की रूपरेखा तय करेंगे. चुनाव से पहले कोई भी एक साथ राष्ट्रीय गठजोड़ बनाकर चुनाव लड़ने को तैयार नहीं है. अवसरवाद की यह कड़ी उत्तर प्रदेश में आकर बुरी तरह से उलझ जाती है. यहां तीसरे मोर्चे के उतने ही स्वाभाविक साझेदार मुलायम सिंह यादव भी हैं. ऐसे में अगर चुनाव के बाद सरकार बनने की कोई संभावना बनती भी है तो पीएम पद के लिए ये दोनों एक-दूसरे को कभी  स्वीकार नहीं करेंगे.

इस राजनीतिक समस्या के इतर मायावती के लिए दूसरी महत्वपूर्ण समस्या है उनका रहस्यवादी जीवन और तानाशाही रवैया. छह-छह महीने के लिए वे पूरे राजनीतिक परिदृश्य से ही ओझल रहती हैं. किसी को भी पता नहीं रहता कि पार्टी में चल क्या रहा है, उनके खास सिपहसालारों को भी नहीं. एक जननेता की छवि के लिहाज से यह बड़ी विपरीत स्थिति है. कांशीराम के अवसान के बाद मायावती के पास पूरे देश के दलित आंदोलनों को लामबंद करके उन्हें देशव्यापी ताकत बनाने का ऐतिहासिक अवसर था, लेकिन ऐसा कोई भी प्रयास उनकी तरफ से कभी देखने को नहीं मिला. बसपा उत्तर प्रदेश के बाहर दिल्ली और मध्य प्रदेश की इक्का-दुक्का सीटों पर सिमट कर रह गई. 2006 में कांशीराम के देहांत के बाद से बसपा ने एक भी व्यापक स्तर का अभियान नहीं चलाया है. जनता से जुड़ाव के नाम पर छठे-चौमासे मायावती लखनऊ में रैलियां करके अपनी जिम्मेदारियों की इतिश्री मान लेती हैं. मायावती से मिलना-जुलना उनके पार्टीजनों के लिए ही एवरेस्ट फतह के समान है. इसी तरह के रिश्ते उन्होंने मीडिया से भी बना रखे हैं. लंबे समय बाद 15 जनवरी को पहली बार अपने संबोधन में उन्होंने मीडिया को उत्तर प्रदेश सरकार के कामकाज की आलोचना के लिए तारीफ के दो शब्द कहे हैं.

एक और समस्या वैकल्पिक नेतृत्व को लेकर है. पार्टी में दूसरी पांत का एक भी चेहरा अभी तक उभर कर सामने नहीं आया है. जानकार इसकी वजह मायावती के असुरक्षात्मक व्यक्तित्व को मानते हैं. वे पार्टी के भीतर किसी भी समांतर नेतृत्व को उभरने नहीं देतीं. कांशीराम के बाद पार्टी के पास कोई वैचारिक मार्गदर्शक भी नहीं रहा है. डीएस फोर और बामसेफ के जमाने के ज्यादातर पुराने नेताओं को जिन्हें बड़े जतन से कांशीराम ने खोज-खोज कर इकट्ठा किया था उन्हें मायावती ने बीते दस-पंद्रह साल में एक-एक कर किनारे कर दिया है. राज बहादुर, रामसमुझ पासी और डॉ. मसूद जैसे तमाम नाम इस सूची में हैं. आज हालत यह है कि पार्टी में शीर्ष स्तर पर मायावती के अलावा एक भी पुराना और वैचारिक रूप से समर्पित नेता बचा नहीं है. केंद्र की राजनीति में इन चीजों का अपना एक महत्व होता है.

फिर भी मायावती अगर प्रधानमंत्री बनती हैं तो वह भारतीय राजनीति का ‘ओबामा मोमेंट’ होगा. एक वर्ग है जो मानता है कि अगर श्वेत बहुलता वाले देश में एक अल्पसंख्यक एफ्रो-अमेरिकन, अश्वेत राष्ट्रपति बन सकता है तो भारत में बहुसंख्यक आबादी वाले एक दलित को काफी पहले प्रधानमंत्री बन जाना चाहिए था.

मुलायम सिंह यादव: भभकती भट्टी

मुलायम सिंह यादव
मुलायम सिंह यादव

‘अखिलेश को जिता कर सीएम बना दिया. अब मुझे क्या बनाओगे…मेरे दिल में भट्टी जल रही है. मेरा दिल भी कुछ चाहता है. मुझे भी कुछ दोगे कि नहीं. मैं कोई साधु-संन्यासी तो हूं नहीं…’ चौधरी चरण सिंह की जयंती के मौके पर 23 दिसंबर को लखनऊ में कार्यकर्ताओं और मीडिया के बीच जब मुलायम सिंह यादव यह अपील कर रहे थे तो उनकी बेताबी साफ झलक रही थी. उनका एक-एक शब्द दिखा रहा था कि प्रधानमंत्री बनने के लिए वे किस हद तक आतुर हैं.

मुलायम की यह आतुरता यों ही नहीं है. उम्र के जिस पड़ाव पर वे हैं उस पर यह संभावना बहुत अधिक नहीं है कि 2014 के बाद होने वाला अगला लोकसभा चुनाव यदि पूरे पांच साल बाद ही हो, तो उसमें भी वे इतने ही दमखम से दावेदारी पेश कर सकेंगे. फिर प्रदेश में उनकी समाजवादी पार्टी की जितनी मजबूत स्थिति आज है उतनी न तो आज से पहले कभी रही और न ही भविष्य में इसकी ऐसी कोई संभावना ही दिखती है.

केंद्र में सत्तारूढ़ यूपीए सरकार से लोगों की नाराजगी साफ दिख रही है और उसे चुनौती देती भाजपा कभी अपने सहयोगियों तो कभी अपने ही नेतृत्व के अंतर्विरोधों के कारण अपनी चुनौती को खुद ही कमजोर बनाती दिखती है. ऐसे में किसी तीसरे मोर्चे का बनना और उस मोर्चे का नेतृत्व मुलायम और उनकी पार्टी के हाथों में आ जाना महज कोरी कल्पना ही नहीं कहा जा सकता. इसी संभावना ने मुलायम को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर किसी भी तरह एक बार बैठ पाने के लिए बेताब बना दिया है.

मुलायम सिंह के लिए प्रधानमंत्री का पद एक बहुत पुराना सपना है. एक तरह से यह उनके राजनीतिक जीवन का अंतिम लक्ष्य भी है. स्कूली दिनों के दौरान कुश्ती के अखाड़ों में विरोधियों को चित्त करने के जो दांव उन्होंने सीखे थे उन्हें राजनीति के खेल में कब और कैसे इस्तेमाल किया जाए, वे बखूबी जानते हैं.  1967 में जसवंतनगर से विधानसभा चुनाव जीत कर मुलायम उस समय विधानसभा के सबसे कम उम्र के विधायक बने थे. संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से शुरू हुआ उनका यह सफर उस दौर की भारतीय राजनीति की उथल-पुथल का साझीदार होता हुआ भारतीय क्रांति दल, जनता पार्टी, लोक दल, लोक दल (ब) और फिर जनता दल तक पहुंचा, जब पांच दिसंबर, 1991 को मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन हुए. चार नवंबर, 1992 को समाजवादी पार्टी की स्थापना करके उन्होंने उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपना सबसे बड़ा दांव खेला. अयोध्या में छह दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौर में मुलायम ने जाति और संप्रदाय के आधार पर एक नए वोटबैंक को जन्म दिया. इसी दौर में उन्होंने 1984 में बनी कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन करके विधानसभा चुनाव लड़ने का एक और क्रांतिकारी दांव खेला. जाति और धर्म के आधार पर उत्तर प्रदेश के के लिए यह एक अचूक गणित था. इसकी सफलता ने 1993 में मुलायम को दूसरी बार प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया.

लेकिन सत्ता का यह सुख मुलायम बहुत अधिक समय तक भोग नहीं पाए. दो जून, 1995 को उनके बेलगाम कार्यकर्ताओं ने लखनऊ के मीराबाई मार्ग स्थित स्टेट गेस्ट हाउस में बसपा नेता मायावती के साथ जो शर्मनाक व्यवहार किया उसकी परिणति मुलायम की बेदखली के रूप में हुई. यहीं से उनके लिए एक स्थायी राजनीतिक प्रतिद्वंदी के रूप में मायावती का भी उदय हो गया. मुलायम न सिर्फ सत्ता से बेदखल हुए बल्कि उन पर समाज के सबसे निचले तबके के साथ विश्वासघात का आरोप भी लग गया. लेकिन मुलायम ने  हार नहीं मानी. 1996 में ग्यारहवीं लोकसभा में उनके 17  सांसद ही थे लेकिन उस समय के राजनीतिक घटनाक्रम में वे प्रधानमंत्री पद की दौड़ में प्रबल दावेदार के तौर पर मौजूद थे. मुलायम खुद अनेक मौकों पर इस बात का उल्लेख कर चुके हैं कि किस तरह उनका नाम प्रधानमंत्री के लिए लगभग तय हो चुका था और किस तरह एक सजातीय क्षत्रप (वे लालू यादव का नाम कभी नहीं लेते) के ऐन मौके पर पेंच फंसा दिए जाने से वे शपथ लेते-लेते रह गए. देवगौड़ा और गुजराल सरकारों में मुलायम रक्षामंत्री रहे और केंद्र की इस पारी ने उनकी क्षेत्रीय आकांक्षाओं को राष्ट्रीय फलक पर पहुंचा दिया. 2002 में सपा उत्तर प्रदेश में 143 सीटें जीत कर सबसे बड़ी पार्टी बनी और जोड़-तोड़ में माहिर मुलायम ने लंबे इंतजार के बाद 29 अगस्त, 2003 को तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली. उस शपथ ग्रहण समारोह में एक नारा खूब उछला था-यूपी हुई हमारी है, अब दिल्ली की बारी है. 2004 के लोकसभा चुनाव में सपा इसी नारे के साथ मैदान में थी. पार्टी उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के अपने सबसे चमकदार प्रदर्शन के साथ 36 सीटों तक पहुंच भी गई. लेकिन इस बार परिस्थितियां मुलायम के साथ नहीं थीं, इसलिए सपा  यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन देने वाले दल के रूप में ही सीमित रह गई.

उत्तर प्रदेश की सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने और लोक- सभा चुनाव में लगभग आधी सीटें जीतने के बावजूद दिल्ली की गद्दी हाथ से फिसल जाने के गम ने सपा कार्यकर्ताओं को एक बार फिर बेलगाम करना शुरू कर दिया. 2007 के विधानसभा चुनाव में इसका असर भी दिखा और सपा सत्ता से बाहर हो गई. मुलायम की प्रबल विरोधी मायावती पहली बार अपने दम पर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं. समाजवादी पार्टी के लिए बुरा वक्त यहीं नहीं थमा. 2009 के लोकसभा चुनाव में भी सपा को भारी नुकसान हुआ. पार्टी 22 सीटों पर सिमट गई. मगर मुलायम सिंह ने इस हार से भी हार नहीं मानी और खुद को पूरी तरह केंद्रीय राजनीति में व्यस्त रखने का निर्णय किया. यूपी को उन्होंने नेता प्रतिपक्ष के रूप में अपने भाई शिवपाल यादव के जिम्मे छोड़ दिया. इस दौर में उन्होंने कई अटपटे फैसले लिए जिनमें कल्याण सिंह को पार्टी में शामिल करना भी एक था. उन्हंे आजम खां जैसे विश्वस्त साथी का साथ छोड़ना पड़ा और जनेश्वर मिश्र, लक्ष्मीकांत वर्मा तथा रामशरणदास जैसे समाजवादी साथी भी अपनी पारी खेल कर हमेशा के लिए उनसे विदा हो गए. लेकिन लगातार झटकों पर झटके झेलते रहने के बावजूद मुलायम अपनी रणनीति में डटे रहे. यूपी में पार्टी की बागडोर अपने युवा पुत्र अखिलेश के हाथ सौंप कर उन्होंने फिर एक बड़ा दांव खेला. पार्टी के अनेक नेता इसे पचा नहीं पाए, लेकिन 2012 के विधानसभा चुनाव ने साबित कर दिया कि मुलायम का दांव कितना सही था. और उप्र के इसी जनादेश के साथ मुलायम के ‘मिशन 2014’ की भी शुरुआत हो गई.

‘मिशन 2014’ का एक ही लक्ष्य है- मुलायम को देश का प्रधानमंत्री बनाना. ऐसा ही सपना 2007 के विधानसभा चुनाव के बाद मायावती ने देखा था. बसपा के हाथी को लाल किले पर पहुंचाने के लिए उन्होंने ने सर्वजन का नारा दिया, मगर उत्तर प्रदेश में सत्ता संभालते ही यह नारा ‘खास जन’ तक सीमित हो गया. पार्टी सर्वजन की पार्टी के बजाय ‘सर्वधन की पार्टी’ में बदल गई. जनता ने उन्हंे इसका जवाब भी जल्द ही दे दिया और 2009 के लोकसभा चुनावों के नतीजों ने मायावती का सपना तोड़ दिया. बसपा महज 20 सीटों पर अटकी रह गई.

2012 में जब उत्तर प्रदेश में अखिलेश की सरकार बनी थी तो यह समझा जा रहा था कि राजनीति के हर दांव को बारीकी से जानने-समझने वाले मुलायम सिंह यादव मायावती वाली भूल कतई नहीं दोहराएंगे . ‘मिशन 2014’ को पूरा करने के लिए यह पहली और अनिवार्य शर्त भी मानी जा रही थी, लेकिन अखिलेश के शपथ ग्रहण समारोह में ही मंच पर युवा पार्टी कार्यकर्ताओं ने जो उपद्रव किया उसने पूत के पांव पालने में ही दिखा दिए. सरकार के शुरुआती दिनों से ही कानून व्यवस्था को लेकर जो सवाल उठने लगे हुए थे अब तो उन पर ख्ुद मुलायम ने भी यह कह कर मोहर लगा दी है कि पार्टी कार्यकर्ताओं की गुंडई पार्टी और सरकार पर भारी पड़ रही है. इसी दबंगई के कारण मुलायम को अपनी पिछली सरकार भी गंवानी पड़ी थी. लेकिन इस बार दांव और बड़ा है. इस बार तो दांव लोकसभा चुनाव पर है. इसीलिए मुलायम बेताब भी हैं और कार्यकर्ताओं के तौर-तरीकों से बेहद परेशान भी.

कांग्रेस और यूपीए के साथ हवाओं का रुख दिखता नहीं. अगर बीजेपी की भी हवा नहीं बनती तो तीसरे या किसी अन्य मोर्चे की संभावनाएं बढ़ सकती हैं. सपा इससे भी राहत महसूस कर रही है कि आप के मैदान में उतरने से कांग्रेस और बीजेपी दोनों को ही नुकसान हो सकता है. हिंदी पट्टी में इन दोनों पार्टियों को होने वाली कोई भी संभावित हानि मुलायम के सपनों को और पंख लगा रही है. खुद मुलायम अलग-अलग क्षेत्रीय दलों के साथ बातचीत शुरू कर चुके हैं. बरेली की अपनी बड़ी चुनावी सभा में उन्होंने सभी 80 सीटों पर जीत हासिल करने के अपने लक्ष्य की सार्वजनिक घोषणा की थी. वे मोदी की दावेदारी को बार-बार चुनौती देते हुए कहते हैं, ‘मोदी कैसे प्रधानमंत्री बन सकते हैं. गुजरात में तो सिर्फ 26 सीटें है. प्रधानमंत्री तो यूपी से ही बनेगा जहां 80 सीट हैं.’ वास्तव में ऐसा कह कर मुलायम सिंह अपने कार्यकर्ताओं में यह भरोसा पैदा करना चाहते हैं कि मौजूदा दौर में मुलायम के प्रधानमंत्री बन जाने की पूरी-पूरी संभावनाएं हैं और जरा-सी कोशिश उनकी इस इच्छा को पूरी कर सकती है इसलिए वे कार्यकर्ताओं से फिर से साइकिल पर उतर आने का आह्वान करते हैं. लेकिन उनके कार्यकर्ताओं की गुंडई और पार्टी का चरित्र उनके सपने के आड़े आ रहा है. फिलहाल यही मुलायम की सबसे बड़ी चिंता है. मुजफ्फरनगर दंगों ने भी उनके गणित को काफी हद तक गड़बड़ा दिया है.

मुलायम के लिए इस बार का लोकसभा चुनाव ‘अब नहीं तो कभी नहीं’ वाली स्थिति है. एक तरफ राष्ट्रीय राजनीति की उथल-पुथल उनके सपनों को हरा -भरा बना रही है तो दूसरी ओर प्रदेश की जनता जिसके पास उनके सपने में असल रंग भरने की ताकत है, वह उनसे दूर होती दिखाई दे रही है. फिर भी मुलायम मानते हैं कि जीत के लिए सिर्फ अपनी कोशिशों के भरोसे नहीं रहा जाता. विरोधी की चूक भी कई बार जीत की वजह बन जाती है.

नरेंद्र मोदी: अग्रतम, व्यग्रतम

फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय
फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय
फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय

पिछले साल 15 अगस्त को जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह परंपरा के मुताबिक लाल किले से अपना भाषण देने वाले थे तो उससे एक दिन पहले भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार  नरेंद्र मोदी ने एक बयान दिया. गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी ने कहा कि स्वतंत्रता दिवस के दिन वे अहमदाबाद के लालन मैदान से बोलेंगे और देश की जनता प्रधानमंत्री और उनके भाषण की तुलना करके जान लेगी कि कौन क्या बोलता है. इतने से ही उनका मन नहीं भरा तो सितंबर में वे छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में लाल किले की प्रतिकृति से भाषण दे आए.

दरअसल पिछले डेढ़-दो साल में नरेंद्र मोदी  की गतिविधियों को देखें तो साफ दिखता है कि वे अभी से ही खुद को प्रधानमंत्री मानकर चल रहे हैं. जो लोग राजनीति को देखते-समझते रहे हैं, उनका मानना है कि प्रधानमंत्री बनने के लिए जितनी व्यग्रता नरेंद्र मोदी दिखा रहे हैं उतनी शायद ही किसी ने दिखाई हो.

आज मोदी जिस स्थिति में हैं, उसे समझने के लिए 2002 में लौटना जरूरी है. वे गुजरात के नए-नए मुख्यमंत्री बने थे. फरवरी, 2002 में गोधरा प्रकरण हुआ. गुजरात के इस कस्बे से गुजर रही साबरमती एक्सप्रेस में आग लगने से 59 लोगों की मौत हो गई. इस घटना के बाद पूरे गुजरात में दंगे हुए.

ये इतने भयानक थे कि खुद उस वक्त के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को राजधर्म याद दिलाना पड़ा. इस सबके बीच गुजरात में विधानसभा चुनाव हुए और मोदी ने जबरदस्त वापसी की.

इसके बाद से लेकर लगातार मोदी ने ऐसी छवि गढ़ने की सफल कोशिश की है जिसमें हिंदुत्व और विकास साथ-साथ चले. पहले से ही आर्थिक तौर पर मजबूत गुजरात की छवि उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी गढ़ी जो निवेशकों और काॅरपोरेट घरानों की पहली पसंद हो. आर्थिक मानकों पर लगातार गुजरात का प्रदर्शन सुधरा. काॅरपोरेट घराने मोदी की तारीफ करने लगे. इसी बीच 2007 में गुजरात विधानसभा चुनावों में मोदी ने एक बार फिर से गुजरात की सत्ता में वापसी करने में सफलता हासिल की. इसके बाद दबे स्वर में ही सही लेकिन भाजपा में यह चर्चा चलने लगी थी कि इस व्यक्ति में भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने का माद्दा है. लेकिन उस वक्त मोदी ने ऐसी कोई व्यग्रता नहीं दिखाई और 2009 में आडवाणी ही भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार रहे. इसके बाद जब भाजपा में युग परिवर्तन और बड़े बदलावों की बात चली तो हर तरफ से यह राय उभरी कि अब मोदी को केंद्र की राजनीति में लाने का वक्त आ गया है.

लेकिन दिल्ली में उनके साथ के नेता ही उनके विरोधी बने बैठे थे. केंद्र में उन्हें लाने का विरोध कर रहे नेताओं का तर्क यह था कि अगर मोदी को यहां लाया जाता है तो सहयोगी दल छिटक जाएंगे और गठबंधन राजनीति के इस दौर में सत्ता में आना मुश्किल होगा. लेकिन मोदी ने अपने जनसंपर्क अभियानों और ब्रांड प्रबंधन के जरिए सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा की मीडिया में सकारात्मक छवि बनाए रखने में कामयाबी हासिल की. इस बीच 2012 में गुजरात में विधानसभा चुनाव हुए. भाजपा से अलग हुए दिग्गज नेता केशुभाई पटेल, गुजरात के मुख्यमंत्री रहे सुरेश पटेल और मोदी सरकार में गृह राज्य मंत्री रहे गोर्धन जडाफिया ने अलग गुजरात परिवर्तन पार्टी बनाकर मोदी को चुनौती दी. इसके बावजूद मोदी वापसी करने में कामयाब रहे.

इसके बाद पार्टी नेतृत्व और संघ पर लगातार यह दबाव बढ़ता गया कि वह नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करे. लेकिन मोदी के विरोधी न सिर्फ भाजपा की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में थे बल्कि पार्टी के अंदर भी कई बड़े नेता उनका विरोध कर रहे थे. मोदी के पक्ष में देश भर में बने माहौल का अंदाजा संघ को इस बात से भी हुआ कि मोदी देश में जहां भी रैली कर रहे हैं, वहां भारी संख्या में लोग उमड़ रहे हैं. सहयोगियों और पार्टी के कुछ बड़े नेताओं के दबाव में सीधे मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित न करके उन्हें पहले भाजपा चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष घोषित किया गया. इसके बाद जनता दल यूनाइटेड ने भाजपा का साथ छोड़ दिया. आडवाणी की ओर से इस्तीफा आया. हालांकि, बाद में वे मान गए. लेकिन पार्टी और संघ ने यह साबित कर दिया कि वे मोदी के साथ हैं.

लेकिन पार्टी के अंदर जिस तरह का विरोध था उसे देखते हुए मोदी को पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित करने को लेकर तारीखें आगे खिसकती रहीं. भाजपा में चले इस शह और मात के दौर के बारे में पार्टी के ही एक नेता बताते हैं, ‘नरेंद्र मोदी के लिए स्थिति इतनी मुश्किल होनी लगी थी कि उन्होंने संसदीय बोर्ड की एक बैठक में यहां तक कह दिया कि अगर मुझे प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाने के बाद अगर पार्टी की सरकार नहीं बनती है तो मैं गुजरात के मुख्यमंत्री का पद भी छोड़ दूंगा और मुझे जहां मन हो वहां प्रचारक बनाकर भेज दीजिएगा.’ इस दौरान मोदी ने कुछ ऐसे बयान भी दिए जिससे लगा कि वे पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के लिए अब और कोशिश नहीं करेंगे. दबाव की यही राजनीति काम आई और उन्हें भाजपा ने अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया. पार्टी में जो नेता मोदी का विरोध कर रहे थे उन्हें यह समझाया गया कि मोदी के पक्ष में माहौल है इसलिए इसका चुनावी लाभ लेना चाहिए और बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में दूसरों के लिए भी प्रधानमंत्री बनने का विकल्प खुला हुआ है.

नरेंद्र मोदी आज की तारीख में हैं तो भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार ही, लेकिन उनकी कई गतिविधियों से ऐसा लगता है कि वे खुद को प्रधानमंत्री मानकर चल रहे हैं. उन्हें मिलने वाले ज्ञापनों को इस तरह से प्रचारित-प्रसारित किया जाता है जैसे वे ज्ञापन प्रधानमंत्री को ही मिले हों. जिस तरह से मोदी पूरे देश के लोगों से जुड़ने की व्यग्रता में सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं, उससे भी प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने की उनकी बेचैनी दिखती है. वे मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को नीचा दिखाने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देते. उनके निशाने पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी खास तौर पर रहते हैं. शायद ही नरेंद्र मोदी की कोई ऐसी सभा होती है जब वे इन तीनों का मजाक नहीं उड़ाते.

प्रधानमंत्री बनने की इच्छा मन में लिए नरेंद्र मोदी दावा करते हैं कि वे पूरे भारत को गुजरात की तरह विकसित बनाना चाहते हैं. लेकिन इस दावे के बीच वे गुजरात के स्याह पक्ष को भूल जाते हैं, जिसे सुधारने के लिए अभी उन्हें अपने राज्य में ही काफी काम करने की जरूरत है. अगर सरकारी दस्तावेजों को ही देखें और गुजरात के प्रमुख शहरों में जाएं तो पता चलता है कि राज्य में समृद्धि सड़कों, फ्लाइओवरों, औद्योगिक प्रतिष्ठानों और अन्य इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के मामले में आई है. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण रिपोर्ट बताती है कि अस्थायी ग्रामीण मजदूरों को मजदूरी देने के मामले में देश के 20 बड़े राज्यों में गुजरात 14वें स्थान पर है. अस्थायी शहरी मजदूरों को मजदूरी देने के मामले में गुजरात सातवें स्थान पर है. स्थायी ग्रामीण मजदूरों और स्थायी शहरी मजदूरों को मजदूरी देने के मामले में गुजरात क्रमशः 17वें और 18वें स्थान पर है. इसका मतलब यह है कि गुजरात में मजदूरों की हालत बुरी है. उनकी आमदनी कम होने की वजह से उनकी क्रय शक्ति कम है. अध्ययन बताते हैं कि ऐसे परिवारों में कुपोषण और अशिक्षा जैसी स्थितियां सामान्य होती हैं. सरकारी रिपोर्टें बताती हैं कि शिशु मृत्यु दर के मामले में अच्छा प्रदर्शन करने वाले राज्यों में गुजरात सातवें स्थान पर है. अब भी यहां प्रति हजार नवजात बच्चों में से 50 काल के गाल में समा रहे हैं. औसत उम्र के मामले में गुजरात आठवें स्थान पर है. मातृ मृत्यु दर के मामले में भी प्रदेश आठवें स्थान पर है. लिंग अनुपात के मामले में भी गुजरात आठवें स्थान पर है और यहां 1000 पुरुषों की तुलना में 886 महिलाएं ही हैं. गुजरात के शहरी इलाकों में जहां सबसे अधिक विकास की बात मोदी सरकार करती है, वहां यह औसत घटकर 856 पर पहुंच जाता है. चार साल से कम उम्र के बच्चों के आयु वर्ग में यह औसत घटकर 841 पर पहुंच जाता है. पहली से दसवीं कक्षा के बीच पढ़ाई छोड़ने के मामले में गुजरात का औसत 59.11 फीसदी है. यह 56.81 फीसदी के राष्ट्रीय औसत से थोड़ा ही बुरा है लेकिन इस मामले में 13 राज्यों का प्रदर्शन गुजरात से अच्छा है. घरों में पानी की आपूर्ति के मामले में गुजरात देश के सभी राज्यों में 14 वें स्थान पर है. यहां के 58 फीसदी घरों में ही नल के जरिए पानी पहुंचता है.

लेकिन इन तथ्यों के उलट मोदी देश भर में ऐसा माहौल बनाने में कामयाब रहे हैं कि उन्होंने गुजरात का खासा विकास किया है और विकास का अगर कोई माॅडल पूरे देश के लिए हो सकता है तो वह है गुजरात माॅडल. मोदी के मुताबिक सारी समस्याओं का समाधान विकास के गुजरात माॅडल में है.

जानकार मानते हैं कि मोदी को बड़ा बनाने में कहीं न कहीं विपक्ष की भी अपनी भूमिका रही है. विपक्ष न तो गुजरात और न ही गुजरात के बाहर मोदी की नाकामियों को सही ढंग से रखने में सफल हुआ है. वहीं मनमोहन सिंह एक ऐसे कमजोर प्रधानमंत्री रहे हैं कि इससे पैदा हुई रिक्तता में मोदी काफी बड़े लगने लगते हैं और इसी में वे खुद यह भूल जाते हैं कि वे भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री के उम्मीदवार मात्र हैं न कि प्रधानमंत्री.