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हक पर नाहक लड़ाई!

छत्तीसगढ़ में आदिवासियों का एक बड़ा तबका आजीविका के लिए वन उत्पादों पर निर्भर है. फोटो: विनय शर्मा

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राजनीतिक पार्टी चाहे कोई भी हो मध्य भारत में सरकारों के लिए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके अर्जुन सिंह की राजनीति हमेशा अनुकरणीय रही है. यह नीति थी लोकप्रिय सरकारी फैसलों से अपने मूल वोटबैंक को मजबूत करने और बढ़ाते जाने की. हाल ही में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह द्वारा अपने तीसरे कार्यकाल की शुरुआत में किए गए एक फैसले ने एक बार फिर अर्जुन सिंह की यादें ताजा कर दी हैं. रमन सिंह ने पद संभालते ही एलान किया कि पांच प्रमुख लघु वनोपजों की शासकीय खरीद की जाएगी. इससे जहां आदिवासियों को सीधे फायदा मिलने की उम्मीद है वहीं भाजपा को लग रहा है कि उससे दूर हो रहा आदिवासी समुदाय फिर उसके पाले में आ जाएगा. लेकिन यह फैसला अब पार्टी के लिए गले की फांस बनता दिख रहा है. इन लघु वनोपजों के कारोबार से फल-फूल रहा भाजपा से जुड़ा व्यापारी वर्ग पार्टी से नाराज हो गया है.

सरकार के ताजा फैसले के तहत अब इमली, चिरौंजी, कोसा-ककून, महुआ-बीज और लाख की सरकारी खरीद की जाएगी. सरकारी खरीद होने से इन वनोपजों को संगृहीत करने वाले आदिवासियों को सीधा लाभ मिल पाएगा. केंद्र और राज्य सरकार दोनों ही इस फैसले पर सहमत हैं. इसलिए केंद्र भी जल्द ही इन वनोपजों का समर्थन मूल्य घोषित करने की तैयारी कर रही है. दूसरी ओर, राज्य सरकार लघु वनोपज संघ के मार्फत इस व्यवस्था को पुख्ता बनाने की शुरुआत कर चुकी है. हालांकि छत्तीसगढ़ में वनोपजों की शासकीय खरीद का एलान तब किया जा रहा है जब उसके पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश ने हर्रा, साल बीज समेत जंगलों में पैदा होने वाली कई अहम वस्तुओं को राष्ट्रीयकरण से मुक्त कर दिया है. वहीं दूसरे पड़ोसी राज्य ओडिशा ने भी हर्रा, चिरौंजी, कोसा, महुआ बीज, साल बीज और गोंद समेत 91 लघु वनोपजों की शासकीय खरीद समाप्त कर दी है. लेकिन रमन सिंह ने अपने संकल्प पत्र में किया वादा निभाते हुए एलान किया है कि इमली, चिरौंजी, कोसा-ककून, महुआ-बीज और लाख की खरीद लघु वनोपज सहकारी समितियों के माध्यम से तेंदूपत्ते की तर्ज पर की जाएगी. राज्य में इन लघु वनोपजों का लगभग 450 करोड़ रुपये का कारोबार है.

मुख्यमंत्री रमन सिंह इस फैसले पर कहते हैं, ‘लघु वनोपज सहकारी समितियों के माध्यम से इनकी खरीद होने पर लगभग 14 लाख वनवासी परिवारों को इनका उचित मूल्य प्राप्त होगा. सरकार पहले इनकी दर निर्धारित करेगी फिर इनकी खरीदी की जाएगी. जिन क्षेत्रों में इन लघु वनोपजों का उत्पादन होता है वहां के साप्ताहिक हाट-बाजारों में इनकी खरीद की व्यवस्था की जाएगी.’

राज्य में पांच अन्य वनोपजों की खरीद का फैसला मध्य प्रदेश में तेंदूपत्ता की सरकारी खरीद की तर्ज पर लिया गया है. अविभाजित मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए अर्जुन सिंह ने 1988 में तेंदूपत्ता नीति में परिवर्तन करते हुए इसकी शासकीय खरीद की घोषणा की थी. इसके बाद 1990 में पहली बार तेंदूपत्ता की शासकीय खरीद की गई. हालांकि तेंदूपत्ता का राष्ट्रीयकरण 1964 में ही कर दिया गया था, लेकिन तब इसका सीधा लाभ संग्राहकों को नहीं मिल पाया था. अर्जुन सिंह ने जब तेंदूपत्ता नीति में बदलाव किए तो उनका कहना था कि इससे सीधे संग्राहकों को लाभ मिलेगा. लेकिन राजनीतिक जानकार बताते हैं कि इसके पीछे उनकी मंशा राजनीतिक लाभ लेने की तो थी ही साथ ही भाजपा समर्थित व्यापारी वर्ग को कमजोर करने की भी थी. जहां तक छत्तीसगढ़ की बात है तो यहां मामला थोड़ा उल्टा पड़ता दिखाई दे रहा है. सरकार इस फैसले से आदिवासियों को अपने पाले में लाना चाहती है लेकिन भाजपा से जुड़ा व्यापारी वर्ग इससे आक्रोशित हो गया है. दरअसल बस्तर के इलाके में व्यापार-व्यवसाय करने वाले व्यापारी भाजपा के समर्थक माने जाते हैं और सरकार के इस कदम से उनके कारोबार पर बहुत बुरा असर पड़ेगा.

छत्तीसगढ़ लघु वनोपज व्यापार महासंघ के राष्ट्रीय महासचिव मुकेश धोलकिया इसे अफसरों की तानाशाही से जोड़कर देख रहे हैं. धोलकिया का मानना है कि नीति निर्धारक आला अफसर पांचों लघु वनोपजों का राष्ट्रीयकरण करके मुक्त और स्वस्थ बाजार की प्रतिस्पर्धा को नकाराते हुए खरीद का रूप बदलना चाह रहे हैं. मुकेश के मुताबिक, ‘इससे वनवासियों का शोषण ही बढ़ेगा. वनोपजों का संग्राहक अपनी उपज को स्थानीय बाजार में ही बेचने को बाध्य होगा. नई नीति के तहत लघु वनोपज को दूसरे स्थानों पर ले जाकर बेचना अपराध हो जाएगा.’  मुकेश यह भी आरोप लगाते हैं कि प्रदेश में हर्रा का राष्ट्रीयकरण पहले ही कर दिया गया था. राज्य सरकार हर साल औसतन 45 से 50 हजार क्विंटल ही खरीदी कर पाती है. जबकि राज्य में हर्रे का कुल उत्पादन करीब दो लाख क्विंटल है. लेकिन हर्रा की शासकीय खरीद होने के बाद बचा हुआ हर्रा कोई व्यापारी नहीं खरीद सकता और वह बर्बाद हो जाता है.

छत्तीसगढ़ में वनोपज से जुड़ी किसी भी नीति में बदलाव यूं ही हलचल नहीं मचाते. दरअसल यहां का 44 प्रतिशत इलाका वनों से आच्छादित है. वन क्षेत्रफल और वन राजस्व के हिसाब से छत्तीसगढ़ देश का तीसरा बड़ा राज्य है. यहां की जलवायु भी जैव विविधता वाली है. यही कारण है कि यहां हर तरह के वनोत्पाद पैदा होते हैं. लकड़ी के अलावा करीब 200 लघु वन उत्पादों पर स्थानीय आदिवासियों की आजीविका निर्भर रहती है. लेकिन इनका सही दाम संग्राहकों यानी जंगलों से इन्हें बीनने वाले आदिवासियों को नहीं मिल पाता. यहां तक कि बस्तर के आदिवासी चिरौंजी (चारोली) जैसे मेवे को नमक के बदले व्यापारियों को बेच देते हैं. बस्तर के हाट-बाजारों में आज भी वस्तु विनिमय (वस्तु के बदले वस्तु) की प्रणाली चलती है. यही कारण है कि बाहरी व्यापारी सीधे-सादे आदिवासियों को चावल और नमक देकर महंगे वनोत्पाद खरीद लेते हैं.

हालांकि राज्य के व्यापारी उनके द्वारा आदिवासियों के शोषण की बात नकारते हैं. बस्तर चैंबर ऑफ कॉमर्स एेंड इंडस्ट्रीज, जगदलपुर के अध्यक्ष भंवर बोथरा कहते हैं, ‘ हम ऐसे निर्णयों का पहले भी विरोध जता चुके हैं और भविष्य में भी विरोध करते रहेंगे. हम चाहते हैं कि संग्राहकों को उनकी उपज और संगृहीत वस्तुओं का उचित मूल्य मिले. लेकिन जब एकाधिकार की बात आती है तो चाहे व्यापारी हो या अन्य, वह उत्पादकों का शोषण ही करता है.’  बोथरा सरकारी फैसले का विरोध इस आधार पर भी करते हैं कि शासकीय खरीद के तहत इमली को भी शामिल किया गया है लेकिन यह वनोपज की श्रेणी में नहीं आती है. भारतीय वन अधिनियम 1927 में इसे वनोपज में उल्लिखित नहीं किया गया है. अलग-अलग राज्यों ने भी, जहां इमली प्रचुरता में पाई जाती है, इसे कहीं मसाले तो कहीं सब्जी या किराने की श्रेणी में रखा है.

1984 के पहले तक इन वनोपजों की सरकारी खरीद ही होती थी. उसके बाद इन्हें खुले बाजार में बेचने की अनुमति दे दी गई. प्रधान मुख्य वन संरक्षक धीरेंद्र शर्मा बताते हैं कि यह व्यवस्था संग्राहकों को फायदा पहुंचाने के लिए की गई थी लेकिन ऐसा हुआ नहीं. वे बताते हैं, ‘ जब खुले बाजार में संग्राहकों को अपनी वनोपज का उचित मूल्य नहीं मिला तो सरकार को इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा. सरकार संग्राहक को ही वनोपज का मालिक बनाना चाहती है. उसे उचित मूल्य दिलवाना चाहती है. इसलिए यह फैसला लिया गया है. राज्य सरकार ने वनोपज व्यापार विनियमन अधिनियम 1969 के तहत अब पांच वनोपज की सरकारी खरीद करने का फैसला लिया है. इसके तहत समर्थन मूल्य तय करके हम वनोपज की खरीद भी करेंगे. दूसरी बात यह है कि संग्राहकों पर इस बात की जबरदस्ती नहीं है कि वे सरकार को ही अपना उत्पाद बेचें. यदि खुले बाजार में उन्हें सही कीमत मिलती है तो वे वनोपज वहां बेच सकते हैं. लेकिन नई नीति से यह फायदा होगा कि व्यापारी कम दामों पर उसे नहीं खरीद पाएंगे. कम से कम तय समर्थन मूल्य तो संग्राहकों को मिलेगा ही.’

व्यापार और आदिवासियों के हकों से अलग राजनीतिक विश्लेषक सरकार के इस फैसले में राजनीतिक रणनीति भी देख रहे हैं. इस बार के ‌विधानसभा चुनाव में भाजपा ने आदिवासी विधानसभा सीटों पर मुंह की खाई है. बस्तर की 12 सीटों में से आठ कांग्रेस के खाते में चली गईं. कहा जा रहा है कि आदिवासी मतदाताओं की नाराजगी दूर करने के लिए ही राज्य सरकार ने बिचौलियों को दूर कर सीधे जंगल की उपज बटोरने वाले संग्राहकों को उपकृत करने की योजना बनाई है. हालांकि अब पार्टी के भीतर भी इस फैसले के लेकर नाराजगी बढ़ रही है. बस्तर से भाजपा के सासंद दिनेश कश्यप सरकार के इस निर्णय से असंतुष्ट हैं. वे कहते हैं, ‘इससे पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच विद्रोह की स्थिति पैदा हो रही है. पार्टी की आगामी बैठक में इस मुद्दे को उठाया जाएगा.’

यह भी दिलचस्प है कि छत्तीसगढ़ राज्य का गठन वनवासियों के हितों को ध्यान में रखते हुए ही किया गया था लेकिन प्रचुर वनसंपदा का मालिक होने के बाद भी बीते सालों में वनवासियों के बड़े तबके को गरीबी और फाके में जीवन काटना पड़ा है. अगर सरकार की नई योजना से उन्हें उनका वाजिब हक मिलता है तो यह आदिवासियों के लिए ‘वनदेवी’ से मिले किसी वरदान से कम नहीं होगा. लेकिन जहां तक राजनीतिक फायदे की बात है तो अंदरूनी विरोध और उठापठक के बीच वह सीधे-सीधे भाजपा को मिले इसमें थोड़ा संदेह दिख रहा है.

‘अराजक स्वतंत्रता के उपभोग से उपजे चित्र’

Husen

समकालीन भारतीय चित्रकला के सर्वाधिक चर्चित एवं विवादित कलाकार मकबूल फिदा हुसैन पर कुछ भी लिखने-बोलने के पहले मुझे एक श्वेत-श्याम चित्र सहसा याद आता है. उस चित्र में तत्कालीन प्रगतिशील चित्रकारी की आकाशगंगा के नक्षत्र बैठे हैं. सूजा, रजा आदि आगे बैठे हैं तथा इन दीप्त किरदारों के पीछे, एक ‘डि-क्लास’ सा लगता, काली टोपी और लंबी दाढ़ी वाला शख्स बैठा है- लगभग अचिह्नित-सा. उसके चेहरे पर कोई तेज नहीं है. एक नजर में लगता है, गालिबन उसे वहां पकड़कर बैठा दिया गया है. लेकिन, इतिहास की यह गति रही कि एक दिन वही पृष्ठभूमि का धूमिल चेहरा भारतीय चित्रकला के आकाश में सबसे तेजोमय होकर सामने आया. यकीनन यह उसके काम का सामर्थ्य था कि वह अपनी काम करने की जबरदस्त गति से अपने समय और समाज को कला में महत्वपूर्ण ढंग से दर्ज करता आगे बढ़ता रहा. मकबूल फिदा हुसैन की कला यात्रा की यही बेलाग सच्चाई है. यदि हम उस दौर में कला की वैश्विक हलचल के संदर्भों को खंगालें तो पाते हैं कि यह वही दौर था जब शीत युद्ध की रणनीतियां पूरी दुनिया में एक अधिक सतर्कता और अतिरिक्त चातुर्य से प्रगतिशील शक्तियों से सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी छाया युद्ध लड़ने में लगी हुई थीं. चूंकि, उन्हें रूस की प्रगतिशील कला दृष्टि को संदिग्ध और संकटग्रस्त करना था. इसी उद्देश्य के तहत लगभग पैंतीस राष्ट्रों में उन्होंने वहां की उस कला दृष्टि को अपने अप्रकट वर्चस्व में घेरना शुरू किया जो ‘प्रगतिशीलता’ से सरोकार रखती थी. निश्चय ही भारत में भी प्रगतिशील कलाकारों का समूह उभर रहा था- हालांकि, उसके नाम के आगे जरूर प्रगतिशील शब्द जुड़ा था, लेकिन उनका किसी किस्म की मार्क्सवादी सौंदर्यदृष्टि से कोई रिश्ता नहीं था. अलबत्ता वे आधुनिकतावाद से आसक्त और ग्रस्त थे. निश्चय ही इस समूह के दो कलाकार भाषा में सर्वाधिक अभिव्यक्तिसक्षम थे. ये कलाकार थे रजा और सूजा.

यही वह दौर था जब अमेरिका में येल विश्वविद्यालय के ग्रैजुएटों को कला में सांस्कृतिक रणनीति की पैरोकारी में जोत दिया गया था. वे ‘सारगर्भित लगने वाली वाचालता’ के जरिए ‘साम्राज्यवादी एजेंडे’ को पूरा करने में आम तौर पर आधुनिक कला की और उसमें भी अमूर्तन की खास तौर पर पुरजोर वकालत कर रहे थे. ये तभी के रेडीमेड तर्क थे, जिसके तहत ‘मिथ्या दार्शनिकता’ का मुखौटा लगा कर कहा जा रहा था कि ‘अब कला अपने अभीष्ट में शब्द हो जाना चाहती है.’ बहरहाल, इन स्थापनाओं ने ‘कैनवास पर अराजक होकर कर दी गई मूर्खता’ में भी नए सौंदर्यशास्त्र को आविष्कृत करने का मार्ग खोल दिया. कृति से बड़ी उसकी व्याख्या हो गई. कहना न होगा कि ऐसा भारत में भी होने लगा था. मसलन, सूजा के काम की अधिकांश व्याख्याएं पढ़ें तो आप देखेंगे कि ‘शब्द के सहारे जिस महान सौंदर्यदृष्टि’ को उनकी कृतियों में खोजा जा रहा था वह वहां थी ही नहीं. उनके ‘विरूपित चित्रों’ की महिमा में ‘येल ग्रैजुएटों’ की तब की ईजाद शब्दावली का हास्यप्रद इस्तेमाल यहां के कला टिप्पणीकारों की भाषाओं में आज भी देखा जा सकता है. हां, रजा के पास ऐसा नहीं था. उन्होंने ज्यादा सोच-समझकर अपना मार्ग तय किया. आप देखें कि उनके आरंभिक काम में लैंडस्केप्स भी हैं, जिन्हें देखकर पता चलता है कि वे आगे चलकर, उसमें अपने लिए कोई रास्ता नहीं बना पाएंगे. आकृतिमूलकता के तत्कालीन रास्ते पर भी उनका तब का कोई खास काम दिखाई नहीं देता- उन्हें वस्तुत: उनकी चिंतन-क्षमता ने उस मार्ग को खोजने में मदद की जिस पर वे लगातार चलते आए हैं. दार्शनिकता उनके लिए सबसे बड़ा भरोसा बनकर सामने आई. इसमें किसी किस्म की तुलना की आक्रामकता से कोई खतरा नहीं था. रंग, रेखा और रूपाकार से ज्यादा, उनकी व्याख्या ही कवच की भूमिका में रहनी थी. रचना और संरचना के तमाम उत्तर उस कृति के भीतर से नहीं, कलाकार की चिंतन क्षमता से आने वाले थे. हालांकि, रामकुमार में भी एक लेखक वाली भाषा संपदा थी, लेकिन वे अत्यंत अल्पभाषी थे. उन्होंने अपने काम के बारे में बहुत कम शब्दों में बोला और आक्रामकता के साथ तो कदाचित एक पंक्ति भी नहीं कही.

लेकिन हुसैन का मार्ग इन सबसे एकदम अलग था. उन्होंने आकृतिमूलकता को अपना एकमात्र अभीष्ट बनाया. मसलन, आप देखिए कि वे जीवन भर मुंबई में समुद्र के पड़ोस में रहे लेकिन उन्होंने कभी समुद्र को लैंडस्केप की तरह नहीं पकड़ा, न देखा. सर्वाधिक बेचैन यायावरी वृत्ति के बावजूद उनके काम में जगहों से अधिक लोग हैं. कहने को बनारस चित्र शृंखला का हवाला दिया जा सकता है लेकिन वह उनकी प्राथमिकता में नहीं रहा. बहरहाल, शायद ही कोई ऐसा विषय शेष रहा जो उनकी रंगरेखा के दायरे में न आया हो तथा उस पर उन्होंने अपनी कोई कृति न रची हो. हुसैन ने रंग संयोजन की आरंभिक युक्ति, जो जीवन भर उनके साथ रही, अपने शिक्षा काल में इंदौर स्कूल के अपने सहपाठी डीजे जोशी से ली थी तथा रेखांकन में सारल्य, अपने दूसरे साथी विष्णु चिंचालकर से. उन्होंने स्वयं आकाशवाणी इंदौर पर दिए गए अपने 45 मिनट लंबे साक्षात्कार में यह बात इंदौर की स्मृतियों को बटोरते हुए स्वीकार की थी. उन्होंने कहा था, ‘मैंने कलर स्कीम डीजे जोशी से सीखी और आइकनोग्राफिक सिंपलीफिकेशन ऑफ लाइंस विष्णु चिंचालकर से.’ इसके साथ यह भी कहा था कि आधुनिक भारतीय कला का उद्भव इंदौर से माना जाना चाहिए. यह अलग बात है जब मृत्यु से कुछ वर्ष पूर्व उन्हें अपने इन मित्रों की रचनात्मकता के साहचर्य की बात याद दिलाई गई तो वे अपने ही कहे से साफ मुकर गए थे.

बहरहाल, लगातार और ज्यादा तादाद में काम करना उनकी प्रकृति में था, जिसके चलते रचना और अपने रचे हुए को पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाना उनकी विवशता थी. यह एक गहरी रचनात्मक बेचैनी थी उनमें. यह वृत्ति ही उनमें रिजेक्ट टु अवर ओन सेल्फ वाले बर्गसां के कथन को चरितार्थ करती थी.

अत: जब आप उनकी कृतियों में से किसी एक कृति को रखकर उसको डिकोड करें तो बहुत सारे प्रश्न और तर्क आपको घेर लेंगे. हुसैन की कृतियां यों भी अपने लिए व्याख्या की जगह नहीं छोड़तीं. वे गूढ़ को छिपाने के यत्न में नहीं रची गई हैं. वे अधिकतम लोगों से अधिकतम तादात्म्य के लिए सदैव खुली और तत्पर रहती हैं. वे संरचना के स्तर पर भी दु:साध्य कलात्मकता का दावा नहीं करतीं. उनकी किसी भी कृति में ऐसा कुछ भी नहीं है जो व्याख्याओं की अनुपस्थिति में प्रकट होकर सामने न आ सके. वे अर्थाभिव्यक्ति में स्वयंसिद्ध हैं. इसीलिए उनकी किसी एक कृति के बजाय, उनकी कुछ विवादित कृतियों को सामने रखकर बात करना चाहेंगे, जिन्हें हमारी समकालीन कला के कारोबारी किस्म के समीक्षक अपने वाग्जाल में ऐसा ‘अज्ञेय’ सा बताते रहे हैं जिसे सौंदर्यशास्त्र या कला का गहन अध्ययन किए बगैर समझा नहीं जा सकता. इसके अतिरिक्त हुसैन के उन विवादित चित्रों का बचाव करने वे लोग भी आगे आते रहे हैं जो ‘मिथ्या धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा लगाए बगैर जनतांत्रिक नहीं कहलाएंगे’ के भय से भयभीत रहते हैं.

दरअसल हुसैन के द्वारा बनाए गए सीता से संबंधित वे विवादित चित्र अपने आप में कोई मुकम्मल चित्रकृतियां नहीं हैं. वे महज उस आरंभिक दौर में सिद्ध किए गए आइकनोग्राफिक सिंपलीफिकेशन ऑफ लाइंस के अभ्यास के उत्पाद हैं. ये मकबूल फिदा हुसैन की स्वभावगत उतावली में, धर्मानुभव को सरल कला-अनुभव में बदलने की चेष्टा की विफलता के प्रमाणीकरण हैं जिसमें विषय के साथ अपनी तरह के ट्रीटमेंट को लेकर ली गई अराजक और निर्बाध स्वतंत्रता नजर आती है. जबकि धर्मानुभव की संलिष्टता को आकृतिमूलकता में व्यक्त करते समय ऐसे सरलीकरण का मार्ग चित्रकृति को संदिग्ध और संकटग्रस्त बनाता है. बखान के जरिए सृजित अलौकिकता को रंग रेखाओं में ले जाकर लौकिक बनाते हुए एक कलाकार को संभावित खतरों की पुख्ता पहचान और संभावनाओं के सूक्ष्म और सुरक्षित दोहन की जरूरत होती है. फिर हुसैन के पास धर्मानुभव के नाम पर भारतीय पुराकथाओं और मिथकों के सपाट बखान से बनी स्मृति की बहुत सीमित पूंजी रही है जबकि ऐसी सामग्री को चित्र भाषा में उभारने के लिए मूर्त-अमूर्त की कलागत युक्ति, जिसे ‘डायलेक्टिकल डबलिंग’ कहा जाता है, बहुत जरूरी है. लेकिन हुसैन के लिए यह अपने अभ्यस्त कला मुहावरे के चलते संभव ही नहीं था. चूंकि वे हिंदू प्रतीकों या मिथकीय चरित्रों को लेकर ली जाती रही छूट से परिचित थे लेकिन बावजूद बतौर एक गंभीर कलाकार क्रीड़ावृत्ति या चित्रण की स्वतंत्रता भी आपसे किसी एक बिंदु तक पहुंचने के बाद ठिठकने की मांग करती है. ऐसा नहीं हो सकता कि यदि स्त्री देहाकृति किसी कृति के विषय में समाहित है तो आप चाक्षुष संभावनाओं को खोजते हुए ‘पवित्र में विकृति’ का विन्यास रचने लगें.

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मकबूल फिदा हुसैन के लिए तथाकथित विवादित चित्र में सीता को हनुमान की पूंछ के बजाय कंधों पर बिठाने की अलग मुश्किलें थीं.

बहरहाल, हुसैन के लिए सीता के उस तथाकथित विवादित चित्र के अभ्यांतर में हनुमान की पूंछ रैखिकता के वितान को रचने में एक सहज आश्रय थी. उन्होंने उसे लंबा करते हुए उसके छोर पर सीता का चित्र बना दिया. कारण यह था कि चित्र में सीता को हनुमान के कंधों पर बिठाने की भी कुछ मुश्किलें थीं. मसलन, यदि वे सीता को कंधे पर अलांग-फलांग बिठाते तब वस्त्र रहित बनाई गई सीता की जांघों पर हनुमान के हाथ होते, तब तो राजनीतिक हिंदुत्व में लंका से भी बड़ा अग्निकांड हो जाता. तो कुल मिलाकर कहना यही है कि ये रेखांकन अलौकिकता को लौकिक युक्ति से उकेरने में हुई त्रुटि से ज्यादा ‘पवित्र में विद्रोह’ का अभीष्ट प्रकट करने का लांछन बन गए. इसके साथ हुआ यह भी कि अबाधित स्वतंत्रता की उपलब्धता ने एक बड़े कलाकार को अपने सृजनकर्म की अंतर्निहित प्रश्नात्मकता पर एकाग्र ही नहीं होने दिया. उन्हें शायद स्वप्न में भी यह प्रतिप्रश्न नहीं आया होगा कि पवित्रता से घिरे मिथकीय चरित्र का रेखांकन परंपरागत चित्रण से अलग और अराजक ढंग से करने पर कुछ प्रश्न भी खड़े हो सकते हैं. फिर उन दिनों सेक्स को पारदर्शी बनाने की कोशिश में तर्कमूलक भाववाद का सहारा लेते हुए, एक मॉडर्न आचार्य संभोग से समाधि की ओर यात्रा पर ले जा रहा था. इसी के चलते, दैहिकता के गोपन के विरुद्ध सामान्य साहसिकता भी दुस्साहस में बदलने के लिए बेचैन हो रही थी.

अत: निर्विवाद रूप से इस तरह का रेखांकन किसी को ठेस पहुंचाने के लिए नहीं, सिर्फ स्वतंत्रता का अराजक होने की सीमा तक किया गया असावधान उपभोग भर है. फिर सहज रूप से एक सामान्य कलाप्रेक्षक यह प्रश्न भी उठा सकता है कि क्या पुरा कथाओं या पवित्र और पूज्य के रूप में परंपरागत रूप से चित्रित पात्रों को आधुनिकता का संस्पर्श देने के लिए क्या यह कोई अपरिहार्य रूढ़ि है कि उन्हें वस्त्रहीन ही बनाया जाए. क्या उससे वे देवाकृतियां अतिदैवी हो जाएंगी या उनका अधिकाधिक मनुष्यवत होना प्रमाणित हो सकेगा? क्या वस्त्रहीन चित्रित न किए जाने पर वे समकालीन या आधुनिक कृति बनने से स्थगित हो जाएंगी या वे आधुनिक दृष्टि से बहिष्कृत हो जाएंगी?

husenचूंकि तब उन्हें रचते हुए स्वयं हुसैन को भी इस बात का स्पष्ट विश्वास था कि उनके नए तथा आधुनिक रचनात्मक प्रयास को राम मनोहर लोहिया जैसा देश का प्रखरतम राजनैतिक बुद्धिजीवी देखने वाला है या कि आक्टोवियाे पाज जैसा विश्वस्तरीय मैक्सिकन कवि देखने वाला है, उनका बौद्धिक समर्थन मिलने वाला है. शायद इसीलिए उन्होंने सामान्य दृष्टि वाले कला रसिक की इरादतन, निर्भयता के साथ अवहेलना की, जो कि निश्चय ही उत्कृष्ट कला के लिए नितांत जरूरी भी होती है. लेकिन मिथकीयता के चित्रण में अतिरिक्त छूट लेने के बारे में आशंकित होकर किसी ईमानदार संदेह के साथ देखा ही नहीं. क्योंकि हिंदू धर्म में देवी-देवताओं की देहाकृति का कोई प्रतिमानीकरण नहीं है. लोक में तो बिना आंख-नाक का एक गोल पत्थर, सिंदूर से पुतने के पश्चात, गणपति, हनुमान या भैरव हो सकता है और आपादमस्तक, कलात्मकता के साथ उत्कीर्ण देवमूर्ति के समकक्ष ही उसकी प्रतिष्ठा होगी. कलात्मकता का अभाव उसके देवत्व में कोई कमी नहीं पैदा करता. दिलचस्प बात है कि चकमक पत्थर, वहां शीतला माता है, वहां कछुआ, सांप, सुअर जैसे डरावने देवता भी हैं और कृष्ण या कामदेव जैसे अत्यंत सुंदर भी. वहां पवित्र में विद्रोह की वैधता प्राप्त है. पंचकन्याएं कुंवारेपन में गर्भवती हो सकती हैं तथा यमी अपने भाई सूर्यपुत्र यम के समक्ष संसर्ग का प्रस्ताव भी रख सकती है. बहरहाल, ऐसे सारे आख्यान साहित्य या कला के सर्जक को खुलकर कर सकने वाले ध्वंस की प्रेरणा के समान लगते हैं. वह संशयमुक्त रहता है कि उसके पास निर्विघ्न स्वतंत्रता है. हुसैन ने इसका बेधड़क होकर उपभोग किया. उन्हें लगा कि एकेश्वरवादियों की सी कट्टरता से यहां भला काहे की मुठभेड़ होनी है, लेकिन उन्हें यह कहां पता था कि आर्थिक उदारता के आगमन के साथ ही सांस्कृतिक उदारता का प्रस्थान शुरू हो जाएगा.

एक सावधान सर्जक को यह नहीं भूलना चाहिए कि ये तमाम अंतर्विरोधी चीजें शास्त्र या पुराकथाओं से उठकर जब सामाजिक जीवन के अतिपरिचय की परिधि में प्रवेश करती हैं तो वे लोक के अनुरूप ही अपनी वैधता का प्रवेश पत्र प्राप्त करती हैं. मसलन ब्रह्मा ने वाणी (सरस्वती) को जन्म दिया और उस प्रलयशून्यता में उस वाणी को सुनने या ग्रहण करने वाला कोई था ही नहीं. अत: उसे पैदा करने के बाद ब्रह्मा ने ही उसे ग्रहण किया. लेकिन सृष्टि कथा में लीला भाव की रूपकात्मकता अर्जित करते हुए वह पिता ही द्वारा पुत्री को भोगने का रूपक बन जाता है. लेकिन क्या आधुनिक कलायुक्ति से सरस्वती को ब्रह्मा से मैथुनरत किया जा सकता है? यह मिथकों का कैसा कलान्वय होगा? इसे इन्सेस्ट (परिवार के भीतर होने वाला व्यभिचार) की तरह मजा लेते हुए पेंट नहीं किया जा सकता. शायद कोई मोटी बुद्धि का व्यक्ति ही ऐसी व्याख्या कर सकता है कि भाइयों, भारतीयों की परंपरा में तो पिता द्वारा पुत्री को भोगना होता रहा है, अत: यह सब स्वीकार्य होना चाहिए. इन्सेस्ट भारतीयता का यथार्थ है. उस पर या उसके चित्रण पर निषेध नहीं खड़े किए जा सकते. फिर हुसैन के पास अपराजेय तर्कों का जखीरा नहीं था न ही वे सारगर्भित लगने वाली वाचालता से तर्कों का कोई स्थापत्य खड़ा करने में समर्थ थे. वैसे जहां भी जीवन है और कल्पना के लिए अवकाश है, कला का प्रवेश वहां वर्जित नहीं किया जा सकता. फिर चाहे किसी को उससे ठेस ही क्यों न लगती हो, कला का तो काम ही ठेस लगाना है. बिना ठेस लगाए वह अपना कोई उद्यम नहीं करती. अत: हुसैन के वे चित्र विवादित ही हुसैन की उस ठेस की वजह से हुए. इसके लिए किसी कलाकार को क्षमा मांगने की भी जरूरत नहीं है लेकिन उसे परिणाम भुगतने के लिए तैयार भी रहना चाहिए. पिकासो महान अराजक माने जाते रहे लेकिन मरियम को लेकर वैसा ‘पवित्र में ध्वंस’ का साहस उन्होंने नहीं किया. हुसैन की उन विवादित कृतियों की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए हमारी बुद्धिजीवियों की फौज लगातार जो तर्क देती रही वे बहुत हास्यास्पद ही रहे. उस रेखांकन का महान कलात्मकता से कोई रिश्ता नहीं था न है. वे एक बड़े चित्रकार के रोजमर्रा के उत्पाद से अधिक हैसियत ही नहीं रखते.

(यह लेख तहलका के संस्कृति विशेषांक में स्थानाभाव के कारण प्रकाशित नहीं हो सका था)      

धान से धनवान

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फोटो: प्रतुल दीक्षित

2014 की शुरुआत मध्य प्रदेश के उन किसानों के लिए खुशी का संदेश लेकर आई है जो बासमती धान की खेती करते हैं. उत्पादों की ‘भौगोलिक सीमा’ तय करने वाली राष्ट्रीय संस्था जियोग्राफिकल इंडीकेशन रजिस्ट्रार (जीआईआर) ने प्रदेश को भी बासमती धान उत्पादक राज्यों में शामिल करने का निर्देश दिया है. इससे राज्य के लाखों बासमती उत्पादकों के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार खुलेगा और उन्हें अपने बासमत का वाजिब दाम मिलेगा.

हालांकि यह कहानी अप्रैल, 2000 से शुरू होती है जब एक अमेरिकी कंपनी के बासमती धान की कई किस्मों पर पेटेंट के दावे के खिलाफ भारत ने मोर्चा खोला था. हुआ यह था कि राइसटेक नामक यह कंपनी सालों से कासमती और टैक्समती के नाम से चावल बेच रही थी. 1994 में इस कंपनी ने बासमती धान की बीस किस्मों का पेटेंट प्राप्त करने के लिए ‘संयुक्त राज्य पेटेंट एवं व्यापार संस्थान’ में आवेदन भी भेजा. 1997 में इसे ये सभी पेटेंट मिल भी गए. लेकिन इस मामले में भारत की सख्त आपत्ति के बाद अंततः राइसटेक ने बासमती की चार किस्मों के पेटेंट को तुरंत वापस ले लिया. बाद में उसे 11 और किस्मों के पेटेंट को वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा. भारत का दावा था कि बासमती धान हिमालय की तराई में उगाए जाने वाले लंबे और कोमल चावल की एक उत्कृष्ट किस्म है. इसी तरह, बासमती यानी ‘खुशबू वाला धान’ की किस्म का नाम भी यहीं प्रचलित है. यानी यह न तो दुनिया के किसी अन्य भाग में पैदा होता है और न ही किसी स्थान पर पैदा किया गया धान बासमती कहलाता है. भारत की इस दलील का नतीजा यह हुआ कि बासमती धान को भारतीय क्षेत्र में उत्पादित होनी वाली ‘भौगोलिक सूचक’ फसल की सूची में दर्ज कर लिया गया. इस निर्णय ने दुनिया के बाजार में बासमती के निर्यात का ऐसा दरवाजा खोला कि भारतीय किसानों के चेहरों पर चमक आ गई.

लेकिन यह चमक अधूरी थी. इसका कारण था एक पक्षपात. दरअसल केंद्र सरकार ने कृषि उत्पादों का निर्यात बढ़ाने के लिए अधिकृत संस्था एपीडा (कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण) को भारत में बासमती के क्षेत्र तय करने की जिम्मेदारी सौंपी थी. लेकिन एपीडा ने बासमती के ‘भौगोलिक सीमांकन’ के पंजीयन में उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों को ही मान्यता दी. यह मध्य प्रदेश जैसे राज्य के साथ नाइंसाफी थी जहां कई इलाकों में बड़े पैमाने पर बासमती धान की खेती होती है जिसके चलते यह उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा बासमती धान उगाने वाला क्षेत्र बनकर उभरा है. एपीडा ने अपने निर्णय से पहले इस पर गौर करना भी जरूरी नहीं समझा कि मध्य प्रदेश में पिछले 100 साल से बासमती धान उगाने के प्रमाण मौजूद हैं. इसकी मार प्रदेश में बासमती उगाने वाले किसानों पर पड़ी. 31 दिसंबर, 2013 को चेन्नई स्थित जीआईआर ने प्रदेश को भी बासमती धान उत्पादक राज्यों में शामिल करने का निर्देश दिया. बासमती उत्पादकों के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार खुलने और उन्हें वाजिब दाम मिलने के अलावा इससे और भी कई फायदे होंगे. बासमती धान का रकबा बढ़ने के साथ ही निर्यातकों की संख्या भी बढे़गी. इसके अलावा बासमती चावल प्रसंस्करण इकाइयां लगाने के लिए उद्योगपति प्रदेश का रुख करेंगे. राज्य के उद्योग विभाग का कहना है कि फिलहाल चावल प्रसंस्करण इकाइयां लगाने के लिए एक दर्जन से ज्यादा आवेदक आए हुए हैं. कृषि विशेषज्ञ केके तिवारी कहते हैं, ‘बासमती की अधिक पैदावार से राज्य को दोतरफा मुनाफा होगा. प्रसंस्करण की जितनी इकाइयां लगेंगी उतना ही ज्यादा लोगों को रोजगार मिलेगा.’

इस जीत की कहानी इतनी आसान नहीं रही. लगभग एक दशक तक केंद्र सरकार की ओर से ठंडी प्रतिक्रिया पाने के बाद आखिर 30 अगस्त, 2011 को राज्य सरकार ने इस मुद्दे पर एक बार फिर नए सिरे से पहल की. एपीडा के खिलाफ राज्य सरकार के कृषि विभाग सहित कई बासमती कृषि समितियों, बासमती चावल प्रसंस्करण इकाइयों और बासमती निर्यात संघों ने जीआईआर का दरवाजा खटखटाया. उनका तर्क था कि राज्य के 50 में से 14 जिलों में बासमती धान की कई किस्में उगाई जाती हैं. राज्य में सालाना आठ लाख मैट्रिक टन से भी ज्यादा बासमती पैदा होता है. बताया गया कि बढ़ती मांग को देखते हुए राज्य के बीज एवं कृषि विकास कॉरपोरेशन द्वारा 1990 से बासमती धान की उन्नत किस्मों का वितरण किया जा रहा है. मध्य प्रदेश के चावल की देश और दुनिया के कई हिस्सों में मांग बढ़ रही है. प्रदेश की करीब 80 हजार क्विंटल बासमती चावल पंजाब, हरियाणा और दिल्ली की कंपनियों द्वारा खरीद बताती है कि यह देश का कितना बड़ा धान उत्पादक क्षेत्र है. इसी कड़ी में बीते साल मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की वह पहल भी अहम साबित हुई जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात करके बताया था कि पिछली एक सदी से प्रदेश बासमती धान उत्पादक राज्य है, फिर भी उसे बासमती धान के भौगोलिक क्षेत्र में शामिल न करने से किसानों का हक मारा जा रहा है. इस प्रकरण के प्रभारी अधिकारी और राज्य कृषि संचनालय के अपर संचालक संजय तिवारी बताते हैं, ‘राज्य ने एपीडा के निर्णय के विरोध में कुल 22 साक्ष्य रखे. प्रदेश के 1908 और 1931 के जिला गजेटियर पेश किए गए. इनमें बताया गया कि चंबल, बेतवा और नर्मदा किनारे के गांवों में 100 साल पहले से बासमती धान उगाया जा रहा है.’ तिवारी आगे कहते हैं, ‘यह प्रमाणित करने के लिए कि बासमती धान की खेती के मामले में प्रदेश की जलवायु बिल्कुल अनुकूल है, वर्षा के अधिकृत आंकड़े और बीजों की डीएनए रिपोर्ट दी गई.’

उधर, राज्य सरकार ने धान की कई प्रजातियों के अधिक उत्पादन के लिए तीन लाख हेक्टेयर क्षेत्र में विशेष कार्यक्रम चलाया है. ऐसे कार्यक्रमों की वजह से प्रदेश में खेतीबाड़ी की तस्वीर बदल रही है. नतीजा यह कि यहां धान सहित सभी फसलों के उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है. 2002-03 में फसलों का कुल उत्पादन 142.45 लाख मीट्रिक टन था जो 2011-12 में बढ़कर 301.74 लाख मीट्रिक टन हो गया. राज्य कृषि विभाग के प्रमुख सचिव राजेश राजौरा कहते हैं, ‘राज्य की आबादी का करीब 70 प्रतिशत हिस्सा खेती से जुड़ा है. इसलिए यदि बासमती धान जैसी फसलों के क्षेत्र में तरक्की हुई तो न केवल बड़ी आबादी की जीवनशैली में सुधार होगा बल्कि कृषि पर निर्भर दूसरे क्षेत्रों की तरक्की से प्रदेश का अर्थतंत्र बदलेगा.’

लेकिन कृषि क्षेत्र में हासिल उपलब्ध्यिों का ताज अकेले कृषि विभाग के सिर पर नहीं रखा जा सकता. दरअसल कृषि विभाग से जुड़े अन्य विभागों के बीच बेहतर तालमेल के लिए पिछले साल प्रदेश में कृषि कैबिनेट का गठन किया गया था. इसके बाद ही कृषि विभाग का उद्यानिकी, खाद्य प्रसंस्करण, पशुपालन, ऊर्जा, सिंचाई और सहकारिता विभागों से बेहतर तालमेल हो पाया है. विशेषज्ञों का मानना है कि 60 के दशक में चली हरित क्रांति में अगर मध्य प्रदेश पिछड़ गया था तो उसका लाभ उसे अब मिलेगा. वजह यह है कि तब पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में सिंचाई के साधन, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से वहां मिट्टी और बीज दोनों की गुणवत्ता गिरी है. करीब चार लाख हेक्टेयर में जैविक खेती होने से मध्य प्रदेश की एक खास पहचान बन रही है. अब जबकि दुनिया भर में बासमती चावल की मांग बढ़ रही है तो ऐसे में रासायनिक दुष्प्रभावों से मुक्त राज्य का बासमती चावल सोने पर सुहागे जैसा होगा.

‘काश उसने गले लगा लिया होता’

एम. दिनेश

हमारी प्रेम कहानी एकदम फिल्मी थी. वही पहली नजर का प्यार. शायद यही वजह थी कि मन के किसी कोने में एक उम्मीद थी कि इस कहानी का अंत भी ज्यादातर हिंदी फिल्मों की तरह ही होगा, सुखद. हमने बहुत नहीं सोचा था प्यार करने के पहले, लेकिन एक बार प्यार हो जाने के बाद जरूर हमने आगे सोचना आरंभ किया. यही वजह थी कि मैंने ऐसे पत्रकारिता संस्थान में दाखिला ले लिया जो नौकरी दिलाने का वादा भी करता था. मैं थोड़ी हड़बड़ी में इसलिए भी था कि उसके घरवाले लड़का तलाश रहे थे. किस्मत और मेहनत रंग ला रही थी. संस्थान में दाखिला भी हो गया. लग रहा था कि अब सब कुछ एकदम ठीक हो जाएगा, लेकिन हिंदी फिल्मों की तर्ज पर नाटकीय मोड़ आना ही था सो आया. कोर्स में दाखिला लेने के एक महीने के भीतर ही उसकी शादी तय हो गई.

वह बहुत घबराई हुई थी. बल्कि हम दोनों ही बहुत घबराए हुए थे. जी में आ रहा था कि अभी भागकर शादी कर लें. लेकिन नौकरी नहीं थी और इसी वजह से मैं पीछे हट गया. मैं बार-बार उसे और खुद को समझाता रहा कि ‘जो भी होगा अच्छा होगा’. दोनों की बात भी हुई कि शादी की बात अपने-अपने घरों में करें लेकिन हर बार हमारी कोशिश जाति, उम्र, हैसियत, बेरोजगारी जैसी वजहों की भेंट चढ़ जाती. वक्त बहुत तेजी से हाथ से निकल रहा था. मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई और कोर्स छोड़कर कॉल सेंटर में नौकरी करने की सोची. लेकिन प्यार के रास्ते पर पहले चल चुके कुछ अनुभवी लोगों ने इससे होने वाले नुकसान को इतना बड़ा करके बताया कि मैं इस दिशा में भी आगे नहीं बढ़ सका. हमारी हालत सांप छछूंदर की हो चली थी. प्यार तो हमने कर लिया था लेकिन उसके आगे की बातें हमने नहीं सोची थीं. यही वजह थी कि प्यार के सफर पर निकल जाने के बाद जब बात शादी की आ रही थी तो कभी उसे अपने भाई-बहन की शादी का डर सता रहा था तो कभी मुझे परिवार की इज्जत और भविष्य की चिंताओं का.

समय ऐसे बीत रहा था जैसे वह काले तेज घोड़े पर सवार हो. रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था. रुकता भी तो कैसे उसका काम ही है लगातार चलना. शादी की तारीख आ रही थी और बेबसी, बेचैनी की अजीब-सी भावनाओं ने मन में घर बना लिया था. ऐसी परिस्थितियों में दोस्त सबसे अच्छे और अनोखे विकल्प देते हैं. मुझे भी कई सुझाव मिले. उसकी शादी का दिन आते-आते हर बड़े से छोटे मंदिर तक नंगे पांव जाने और 101 रुपये का प्रसाद चढ़ाने का वादा भगवान से मैं कर चुका था पर महंगाई के इस दौर में 101 रुपये से होता क्या है तो शायद भगवान को भी यह मंजूर नहीं था. निराश होकर मैंने नास्तिकता और वास्तविकता की ओर कदम बढ़ा दिए. शादी तय होने से लेकर शादी के दिन तक लड़के का फोन नंबर और पता फेसबुक से निकालकर कुछ जुगत भिड़ाने की कोशिश भी नाकाम रही थी. उसकी शादी वाला पूरा दिन मैंने मंदिर में ही बिताया. कुछ उम्मीदें शायद अभी बाकी थीं, हालांकि सूरज ढलने के साथ उनमें भी तेजी से कमी आ रही थी. हिंदी फिल्मों को मैंने अपनी जिंदगी में कुछ ज्यादा ही उतार रखा था, इसलिए शाम होते ही आखिरी सलाम करने पहुंच गया मैरिज हॉल. दुल्हन के तैयार होने वाले कमरे में किसी तरह पहुंचकर उसे बोल दिया कि मैं स्टेज पर आऊंगा तू मुझे गले लगा लियो, मेरी थोड़ी पिटाई तो पड़ेगी लेकिन सब ठीक हो जाएगा. शादी कैंसिल हो जाएगी. इतना कहकर मैं तीर की तरह कमरे से बाहर निकल गया. मेरा जोश दोबारा जाग चुका था. अब यह मेरा ब्रह्मास्त्र था. जयमाल होते ही मैं पहुंच गया स्टेज पर. मन में ब्रह्मास्त्र के चलने के बाद पिटने का डर तो था पर साथ में सफलता की उम्मीद भी. स्टेज पर उसके करीब पहुंचा तो उम्मीद थी कि वह गले लगा लेगी, मैंने इशारा भी किया लेकिन उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था. पर कुछ मिनट रुकने के बाद फोटोग्राफर ने कहा भैया अब उतर भी जाओ. एक झटके में मैं अपनी सपनीली फिल्मी दुनिया से हकीकत में आ चुका था. वह किसी और की दुल्हन बन चुकी थी. पता नहीं किसी ने उसे मुझसे छीन लिया था या मैंने अपनी बर्बादी की यह दास्तान खुद लिखी थी.

‘यह सामाजिक सरोकार एक साहित्यिक व्यभिचार है’

इलस्ट्रेशनः आनंद नॉरम
इलस्ट्रेशनः आनंद नॉरम
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सामाजिक सरोकारों की प्रहरी- शालिनी माथुर जी!

मुझे मालूम नहीं कि आप वयोवृद्धा हैं या प्रौढ़ा या युवती, इसलिए वयोचित संबोधन नहीं कर पाने के लिए क्षमा चाहती हूं. तहलका में प्रकाशित आपका लेख ‘मर्दों के खेला में औरत का नाच’ पढ़ा, जिसमें आपने समकालीन स्त्री लेखन की समीक्षा करते हुए अपने सामाजिक सरोकारों की दुहाई दी है. लेखकों को आलोचनाओं से विचलित होकर उत्तर-प्रत्युत्तर के पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए, लेकिन आलोचना जब सामान्य शिष्टाचार और शालीनता की सारी हदों को एक नियोजित और बेशर्म ढिठाई के साथ पार कर लेखकों की मानहानि पर उतर जाए तो प्रतिरोध जरूरी हो जाता है. मैं औरों की कहानियों के बारे में तो नहीं कह सकती, पर अपनी कहानियों के हवाले से यह जरूर कहना चाहती हूं कि इस क्रम में आपने न सिर्फ संदर्भों से काटकर अपने मतलब भर की पंक्तियों को उद्धृत किया है बल्कि जो कहानी में नहीं है उसे भी कहानी पर आरोपित करके उसका कुपाठ रचने की कोशिश की है.

मेरा मानना है कि दुनिया की सारी स्त्रियों के दुख एक से होते हैं और एक स्त्री दूसरी स्त्री का प्रतिरूप या विस्तार होती है. ऐसे में इस लेख में वर्णित चीर हरण का-सा दृश्य, यदि आपके ही शब्द उधार लूं तो, ‘अपने ही शरीर का अवयवीकरण’ है. बहनापे की यह बात भी आपको खल रही होगी, कारण कि स्त्री हितों के हक में आवाज उठाने वाली एक महान स्त्री का देह-व्यापार करने वाली किसी तवायफ से कैसा बहनापा हो सकता है? शालीन शालिनी माथुर जी! माफ कीजिएगा ये शब्द मेरे नहीं आपके ही हैं और इन्हें दुहराते हुए भी मैं घोर यंत्रणा से गुजर रही हूं. आप हमारे लेखन को हारे-चुके, वृद्धवृंद संपादकों-समीक्षकों को रिझाने के लिए किया गया नाच कहती हैं, लेकिन मेरा विवेक और मेरी प्रवृत्ति उसी तर्ज पर आपके लिखे को, किन्हीं ‘न हारे’, ‘न चुके’, समर्थ और युवा संपादकों-पाठकों के लिए लिखा हुआ कहने की इजाजत नहीं देते. हम वही देखते हैं जो देखना चाहते हैं. वरना मेरी उन्हीं कहानियों में, स्त्रियों के संदर्भ में कही गई घरेलू हिंसा, असमानता, यौन शोषण, अवसर का अभाव, उपेक्षा, संपत्ति का अधिकार, विवाह संस्था में अपमानजनक स्थिति, शिक्षा आदि जैसी बातों पर आपकी नजर क्यों नहीं गई? और जहां आपकी नजर गई भी वहां पितृसत्ता से पोषित पूर्वाग्रहों के साथ गलबहियां करके! स्त्रियों को दोयम दर्जे का नागरिक मानने की पुरुषवादी मानसिकता से संचालित होने का ही नतीजा है कि किसी स्त्री का अपनी मर्जी के पुरुष के साथ संबंध बनाना, वह भी प्रेम में, आपको स्वीकार नहीं होता और उसकी सजा देने के लिए आप उन्हीं मर्दवादी नख-दांतों से निजी होने की हद तक लेखिकाओं पर आक्रमण करने लगती हैं. पितृसत्ता से उपहार में प्राप्त शुचिताबोध आप पर इस कदर हावी है कि आप भावना, संवेदना और प्रेम से सिक्त स्त्री-मन की न सिर्फ अनदेखी करती हैं बल्कि बिना पात्रों की पृष्ठभूमि और मनोदशा को समझे ही पूर्वनिर्धारित निष्कर्षों को कहानी पर थोप देती हैं.

आपको ‘औरत जो नदी है’ की नायिका से शिकायत है कि वह एक शादीशुदा पुरुष से संबंध बनाती है. आप उसकी इस मान्यता से भी असहमत हैं कि वह विवाह संस्था को वेश्यावृत्ति मानती है. इस क्रम में आप यह भी आरोप मढ़ती हैं कि मैंने ‘पत्नी घर में, प्रेयसी मन में’ की मर्दवादी अवधारणा के अनुरूप खुद को ढाल लिया है इसी कारण कहानी के पुरुष पात्र अशेष के जीवन में तीन स्त्रियां हैं- पत्नी उमा तथा प्रेयसियां दामिनी और रेचल. आपने जिस चालाकी से यहां बिना दामिनी के मन में झांके अपना फतवा मेरी कहानी और मेरे व्यक्तित्व पर चस्पा किया है, उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए. दामिनी अपनी मां के जीवन में विवाह संस्था का असली रूप देख चुकी है, उसके पिता की उपेक्षा ने उसकी मां की हत्या कर दी थी. विवाह संस्था में उसका अविश्वास अकारण नहीं है. जहां तक अशेष के साथ उसके संबंध की बात है तो वह उसके प्रेम में है और अशेष बार-बार उससे अपने असफल दांपत्य की बात भी कहता है. दामिनी को जिस दिन यह पता चलता है कि अशेष प्रेम के नाम पर उसे छल रहा है, वह उसे उसी क्षण अपने प्रेम और अपनी जिंदगी से बेदखल कर देती है. मुझे आश्चर्य है कि अपनी मां के दांपत्य की त्रासदी को देख चुकी और खुद प्रेम में छली गई दामिनी का आत्मसम्मान से दमकता चेहरा आपको बिल्कुल भी नहीं दिखता. बिना स्त्री-मन में झांके उस पुरुष के व्यवहार के आधार पर, जिसने एक स्त्री को छला तथा उसके प्रेम और भरोसे की हत्या की, आप कहानी के सिर पर अपने निष्कर्षों का बोझ लाद देती हैं. पुरुषवादी नैतिकता यही तो करती रही है हमेशा से! शालिनी माथुर जी! एक स्त्री ने शादीशुदा पुरुष से प्रेम क्यों किया, उसने विवाह संस्था में अविश्वास क्यों जताया, जैसे तर्कों का यह संजाल उसी पुरुषवादी व्यवस्था की देन है. क्या यह सच नहीं कि दो वक्त का खाना-कपड़ा देकर पुरुष स्त्री की देह, उसका मन, विचार, अस्मिता, पहचान सब खरीद लेता है? रोटी-कपड़े और एक मर्द के नाम के बदले खरीद ली गई कोई स्त्री क्या आजीवन किसी पुरुष का अपमान इसलिए झेलती है कि वह अपने पति से प्रेम करती है, या इसलिए कि वह शारीरिक, आर्थिक, मानसिक और सामाजिक रूप से निर्भर और विपन्न है?

क्या किसी कहानी को सिर्फ इसलिए नकार देना चाहिए कि वह हमारे संस्कारों और नैतिक मूल्यबोध से मेल नहीं खाती? ‘समंदर, बारिश और एक रात’ के जिन पात्रों को आपने कोसा है वे विदेशी हैं. जो आपसे अलग है उसे स्वीकार नहीं करने का यह रवैया तालिबानी नहीं तो और क्या है? आपका यह तर्क भी समझ से परे है कि जिस परिवेश में लोग अपनी पसंद के साथी के साथ संबंध बना रहे हों वहां बलात्कार कैसे संभव है. ऐसे ही तर्क अपने उत्कर्ष पर जाकर हर स्वतंत्रचेता स्त्री को ‘छिनाल’ तक कहने से भी नहीं चूकते. अपनी मर्जी से अपने चुने हुए साथी के साथ संबंध बनाने वाली स्त्री को इतनी गिरी हुई मानना कि उसका बलात्कार अविश्वसनीय और असहज लगने लगे का तर्क आपको उन्हीं नरपिशाचों की जमात में ला खड़ा करता है जो किसी ‘निर्भया’ का बलात्कार इसलिए करते हैं कि उसने अपने प्रेमी के साथ रात के अंधेरे में घर से बाहर निकलने का दुस्साहस किया था.

यह कितना सुखद है कि आपकी दुनिया इतनी पवित्र और निर्दोष है जहां प्रेम हमेशा अपने प्लेटोनिक और उदात्त स्वरूप में ही होता है. प्रेमी युगल आपस में देह-संबंध नहीं बनाते, जहां कोई विवाहेतर संबंध नहीं होता और प्रेम के दीवाने अपने खून से लिखी चिट्ठियों में उस पवित्र संबंध की दुहाई देते हुए एक-दूसरे का हाथ थामे एक दिन किसी नदी में छलांग लगा देते हैं. मैं आपकी उस महान दुनिया को देखना चाहती हूं. क्या सचमुच वैसा कोई समाज है इस धरती पर? कभी गोवा आइएगा, आपको न सिर्फ यहां की उन पार्टियों की बानगी दिखाऊंगी बल्कि उन पात्रों से भी मिलवाऊंगी जिनके जीवन और उनके साथ घटने वाली त्रासदियों को अस्वाभाविक कहते हुए आप सिर्फ इसलिए नकार देती हैं कि आपकी आंखों ने उस दुनिया का संस्पर्श नहीं किया है. अब मैं इस कहानी में घटित बलात्कार के उस दृश्य की कुछ पंक्तियां उद्धृत करना चाहती हूं जिसमें आपको न तो बलात्कृत स्त्री की यातना का लेशमात्र वर्णन दिखता है न पुरुष की दरिंदगी के प्रति क्षोभ – ‘जेनी जोर से चीखना चाहती थी, मगर उसकी आवाज उसके गले में ही घुटकर रह गई थी. उसने भय और आतंक की गहरी, काली घाटी में डूबते हुए देखा था, चारों लड़के उसे गिद्ध की तरह घेरकर खड़े हैं और मैल्कम एक-एक कर उसके जिस्म से कपड़े उतार रहा है. सबकी गंदी फब्तियां, हंसी, छिपकली जैसी देह पर रेंगती घिनौनी छुअन… वह सबकुछ अनुभव कर पा रही है, मगर पत्थर के बुत की तरह अपनी जगह से एक इंच भी हिल नहीं पा रही है. एक गूंगे की तरह वह अपने अंदर पूरे समंदर का हाहाकार छिपाए बेबस पड़ी थी और वे चारों उसके चारों तरफ अशरीरी छायाओं की तरह नाच रहे थे. उसने देखा था, वे बारी-बारी से उसके जिस्म को नोच रहे हैं, खसोट रहे हैं और वह एक शव की तरह उनके बीच लावारिस पड़ी हुई है.’ मुझे आश्चर्य से ज्यादा दुख हो रहा है कि सामाजिक सरोकारों की पैरोकार एक अतिसंवेदनशील स्त्री को इन शब्दों में ‘बलात्कार कैसे करें’ का दिशानिर्देशक हैंडबुक दिख रहा है. काश! आपकी संवेदनशीलता ने उस लड़की की पीड़ा और बेबसी को महसूस किया होता जो भले आपकी भाषा नहीं बोलती, आपके महान मूल्यबोधों से संचालित नहीं होती पर उसके सीने में भी ठीक वैसी ही स्त्री का दिल धड़कता है जैसा कि आपके सीने में!

कहानियों के कुपाठ का यह खेल मेरी कहानी ‘देह के पार’ तक आते-आते तो अपनी सारी मर्यादाएं लांघ जाता है जब आप यह कहती हैं कि ‘देह के पार’ कहानी में प्रौढ़ स्त्री नव्या एक पुरुष वेश्या को खरीद लाती है. कल्पना और यथार्थ की महान अन्वेषी शालिनी माथुर जी! यह किस कहानी की बात कर रही हैं आप? मेरी कहानी में तो ऐसा कुछ नहीं होता. आपका खोजी आलोचक इस झूठ के पक्ष में कोई नया तर्क गढ़े इससे पहले आइए सीधे अपनी कहानी से कुछ पंक्तियां उद्धृत करती हूं-

‘तुम्हारी दोस्त हूं… तुम्हें खरीदकर, तुम्हारी कीमत लगाकर तुम्हारा अपमान नहीं करना चाहती… फिर तो उन्हीं की जमात में खड़ी हो जाऊंगी जिन्होंने तुम्हें आज यहां ला खड़ा किया है- पतन की कगार पर…’

स्पष्ट है कि मेरी कहानी का पात्र अभिनव पुरुष वेश्या जरूर है, पर नव्या ने उसे खरीदा नहीं है, वह उससे प्रेम करती है. आपकी बारीक दृष्टि से इन चीजों के छूट जाने की बात करके मैं आपकी काबिलियत पर कोई प्रश्न नहीं खड़ा करना चाहती पर एक सवाल तो मेरे मन में जरूर है कि कहीं यह चीजों को जान-बूझ कर अनदेखा करने का सुनियोजित आलोचकीय विवेक तो नहीं है? माफ कीजिएगा, आपका यह सामाजिक सरोकार एक साहित्यिक व्यभिचार है जिसके तहत एक आलोचक किसी लेखक की कृति पर अपने निष्कर्षों को बलात आरोपित कर देता है. असफल दांपत्य की त्रासदी झेलती एक स्त्री के प्रेम की तलाश को हो सकता है आपका उच्च कुल-शील स्त्रीवाद हेय मानता हो, पर मुझे एक स्त्री और मनुष्य होने के नाते ऐसी हर स्त्री का दुख अपना लगता है. इस कहानी पर बात करते हुए आपने पात्रों की भाषा पर भी सवाल खड़े किए हैं, इस तरह के प्रश्न खड़े करना आपका आलोचकीय हक है और हम लेखकों को ऐसी आलोचनाओं पर ध्यान भी देना चाहिए. लेकिन, अपनी आपत्ति के पक्ष में जो तर्क आप रखती हैं वह एक बार फिर अपराधियों को जाति, लिंग और वर्गीय पृष्ठभूमि से जोड़कर देखने वाली उसी सामंती नैतिकता से संचालित होता है जिसमें गरीबों को अनिवार्यत: चोर, स्त्रियों को कुलटा और कुलीनों को सदाचारी मान लिया जाता है.

कथा-संदर्भों से पूरी तरह काट कर अभिव्यक्ति की व्यंजनात्मकता की अनदेखी तो आप करती ही हैं, कथानक और कथाकार का उपहास करना भी नहीं भूलतीं. यही कारण है कि एक लंपट पुरुष की मानसिकता पर व्यंग्य करती कहानी ‘छुट्टी के दिन’ की व्याख्या करते हुए आप मुझे ‘पुरुष बनकर मर्दों के खेला में नाचती हुई भारी नितंबोंवाली स्त्री के पीछे चलने वाली’ कहती हैं. परकाया प्रवेश समर्थ लेखन की अनिवार्य विशेषता है. दूसरों के अनुभव को आत्मसात करके अपना बनाने के इस क्रम में एक लेखक को भीषण तकलीफ और यंत्रणा से गुजरना होता है. इसलिए किसी कहानी के लंपट पात्र को देखकर लेखक को ही लंपट मान लेने की आलोचकीय दृष्टि हास्यास्पद है. यदि आपका यह तर्क मान लें तो बलात्कार, हत्या और लूट पर लिखने वाला लेखक बलात्कारी, हत्यारा और लुटेरा करार दिया जाएगा.

आपका प्रश्न है कि ‘यदि स्त्री और पुरुष के रचे में भिन्नता है ही नहीं तो स्त्री लेखन को अलग से रेखांकित क्यों किया जाए?’ लेकिन खुद स्त्री और पुरुष पात्रों की मानसिकता की व्याख्या करते हुए दोनों को एक ही पैमाने पर तौलने लगती हंै. यही कारण है कि किसी लंपट पुरुष द्वारा रोशनदान से झांक कर किसी नहाती हुई स्त्री को सायास देखने और किसी निश्छल स्त्री द्वारा अनायास किसी पुरुष के नहाते दिख जाने को आप एक ही तरह की प्रवृत्ति मानती हैं.

आपको अफसोस इस बात का भी है कि मर्दों के खेला में शामिल न होने के कारण इस दौर का बेहतर स्त्री लेखन अचर्चित रह गया. आपकी नजर से न गुजरा हो, पर मैंने भी लगभग पचास कहानियां लिखी हैं, जो हिंदी की जानी-मानी पत्रिकाओं में ही प्रकाशित हुई हैं और उनमें से अधिकांश में ‘सेक्स’ शब्द का नामोनिशान तक नहीं है जिसे पढ़कर आप जैसे संस्कारवानों की शुचिता को खतरा पैदा हो, इसलिए आपकी इस चिंता में मैं भी शरीक हूं. लेकिन आपकी चिंता घड़ियाली है. यदि ऐसा नहीं तो आपने ही क्यों नहीं उन रचनाओं पर चर्चा कर ली? आपके अनुसार हम लेखिकाएं तो असमर्थ और चूके हुए संपादकों को खुश करने के लिए ऐसा लिखती हैं, लेकिन आपके सामने तो ऐसी कोई बाध्यता नहीं है. फिर आपने क्यों उस बेहतर लेखन को प्रकाश में लाने से परहेज किया? कहीं आपका पाठकीय आस्वाद भी तथाकथित ‘पॉर्न आख्यानों’ से ही गुजर कर तो तृप्त नहीं होता है?

आपके मुताबिक आपने यह लेख साहित्यिक नहीं सामाजिक सरोकारों के कारण लिखा है, लेकिन आपका सरोकार इतना असामाजिक और सामंती है कि वह यह तक मानने को तैयार नहीं कि लेखिकाएं अपनी मर्जी से लिखती हैं. स्त्रियों की उपलब्धि को हमेशा शंका की दृष्टि से देखने का यह नजरिया विशुद्ध मर्दवादी है जो उसकी हर सफलता का राज उसकी देह को ही मानता है, चाहे वह सफलता स्कूल-कॉलेज के परीक्षा परिणामों में दिखे या दफ्तरों की ‘प्रोमोशन-लिस्ट’ में.

स्त्रियों की सफलता के मूल्यांकन का यही मर्दवादी नजरिया स्त्रियों के लेखन को किसी और का लिखा हुआ बताने से भी बाज नहीं आता. अब तो ऐसे आरोपों पर न आश्चर्य होता है न दुख. लेकिन आपको इस भाषा में बात करते देखना इसलिए तकलीफदेह है कि आपका नाम स्त्रियों जैसा है. इस तकलीफ का कारण यह है कि कैसे पितृसत्ता स्त्रियों को ही स्त्रियों के खिलाफ खड़ी करके उनके मर्द होते जाने का उत्सव मना रही है. पितृसत्ता का यह उत्तरआधुनिक चेहरा किसी रचना को उसकी समग्रता में न देखकर ‘कट-पेस्ट’ के फौरी और पूर्वाग्रही पाठ के सुनियोजित प्रशिक्षण का नतीजा है. तभी तो आप मेरी कहानियों की स्त्री पात्रों की संवेदनाओं, चाहतों, भावनाओं, प्रेम की तलाश और उसमें छले जाने के बाद उनकी यंत्रणाओं की अनदेखी करके उनकी अभिलाषाओं को विशुद्ध देह के स्तर पर देखती और कोसती हैं. एकनिष्ठ या प्रतिबद्ध होने का मतलब अशरीरी या ब्रह्मचारिणी हो जाना नहीं होता है. प्रेम-पगी स्त्री के यौन संबंधों को हिकारत की दृष्टि से देखना क्या वही मध्यकालीन सामंती नजरिया नहीं है जो यह सोच तक नहीं पाता कि देह सुख पर स्त्रियों का भी हक है?

आपने मेरी जिन चार कहानियों का जिक्र किया है, उनमें से दो हंस (राजेन्द्र यादव), एक कथादेश (हरिनारायण/अर्चना वर्मा) तथा एक पाखी (प्रेम भारद्वाज) में प्रकाशित हुई हैं. असमर्थ और चुके हुए संपादकों को खुश करने के लिए उनकी मर्जी से कहानी में कांट-छांट का आपका आरोप मेरे साथ इन संपादकों पर भी है. राजेन्द्र जी तो रहे नहीं, बाकी के संपादक इन आरोपों का बेहतर जवाब दे सकते हैं.

यह पत्र मैंने गहरी पीड़ा और यंत्रणा से गुजरने के बाद लिखा है. बतौर आलोचक आपको किसी रचना के पाठ-पुनर्पाठ का पूरा हक है और मैं इसका सम्मान भी करती हूं. लेकिन रचनाओं में व्यक्त तथ्यों से परे जाकर मनगढ़ंत बातों और अर्धसत्यों के आधार पर किसी रचना का कुपाठ करते हुए रचनाकारों का चरित्र-हनन आलोचना कर्म नहीं है. उम्मीद है आप पूर्वनिर्धारित निष्कर्षों से मुक्त होकर मेरी इन असहमतियों पर भी गौर करेंगी.

‘गायक तो बस परफॉर्मर होता है’

sukhwinder-singhआपके बॉलीवुड करियर की शुरुआत 1990 में ही हो गई थी. लेकिन वैसी नहीं जैसी आप चाहते थे. आम तौर पर ऐसे में लोग हड़बड़ी करते हैं या हताश हो जाते हैं. लेकिन आप एक लंबी छुट्टी पर निकल गए. कई साल तक प्लेबैक गायकी से दूर रहे, क्यों?
कई बार जब आप कुछ कर रहे होते हैं तो आपको ऑब्जर्वेशन भी चाहिए होता है. आप आंख बंद करके नहीं चल सकते भले ही सड़क कितनी भी चिकनी हो. आम तौर पर जब हम कोई काम करते हैं तो खुद को ऑब्जर्व नहीं कर पाते. मेरा मानना है कि अगर हमने किसी नए रास्ते पर चलना शुरू किया है तो उस पर साथ-साथ समानांतर ही अपनी नजर रखनी चाहिए ताकि हम कोई गलती कर रहे हों तो उसे सुधार सकें. और आगे जाकर उसे बड़ी गलती न बनने दें. अगर आप सही वक्त पर अपनी गलती का एहसास करके रुक जाते हैं तो इसका मतलब आप उस गलती को पालना नहीं चाहते. फिर जब आप दोबारा शुरुआत करते हैं तो आप ध्यान रखते हैं कि कोई गलती ना हो. अगर आप ऐसा करते हैं तो इसका मतलब है कि आपको फिर कोई नहीं रोक सकेगा. फिर आप सिर्फ आगे ही बढ़ेंगे. जब मैंने देखा कि मेरा करियर सही दिशा में नहीं जा रहा, तो मैंने खुद को वक्त दिया. खुद को जांचा और नई शुरूआत की.

मैं दुनिया घूमा क्योंकि मैं बाहर के संगीत को समझना चाहता था. मैं इंगलैंड गया, अमेरिका गया, रूस गया, फ्रांस घूमा, मोरोक्को भी, बल्कि ऑस्ट्रिया के वियाना में तो मैं करीब डेढ़ महीने ठहरा. इंग्लैंड में रेडियो पर मैंने सूफी संगीत खूब सुना. मुझे याद है, जेब में दो सौ पाउंड होते थे, नीचे कैपरी, ऊपर रंग-बिरंगी सैंडो बस. कई बार तो मुझे उंगली पकड़कर वापसी के जहाज पर बिठा दिया जाता था.

अपने इस खुद को आंकने के सफर पर क्या आपने दुनिया भर में संगीत सुनने वालों के बीच भी किसी तरह का फर्क महसूस किया?
मैंने हर जगह अलग-अलग सुनने वाले पाए. कोई गजल पसंद करता है, तो कोई रॉक, रेट्रो, तो कोई पॉप. दुनिया भर में अलग-अलग तरह के लोग हैं. अलग नस्लें हैं, अलग भाषाएं, जीने का अंदाज भी मुख्तलिफ लेकिन महसूस करने का अंदाज अलग नहीं होता. इसलिए संगीत के हर फॉर्म की अपनी जगह है, अपना मकाम है. यह मायने नहीं रखता कि आप क्या सुन रहे हैं. क्योंकि सुनने वाला तो दिल से ही सुनता है.

आपको किस तरह का संगीत पसंद है?
अच्छा संगीत.

कुछ साल पहले तक आप फिल्मों के लिए म्यूजिक कंपोज भी करते थे पर अब यह सिलसिला थमता हुआ नजर आ रहा है. क्या आपके अंदर का गायक ज्यादा जगह चाहता है?
जी हां, अब मैं अपने अंदर के म्यूजिक को गायक की मदद करता हुआ देखता हूं. रहमान सर हमेशा कहते हैं कि जब भी मैं तुम्हारे साथ काम करता हूं लगता है जैसे दो म्यूजिक कंपोजर एक गाना बना रहे हैं. उसी तरह जब विशाल भारद्वाज के साथ काम करो तो वे कहते हैं तुम्हारे साथ काम करते समय लगता है जैसे एक पूरी टीम अभी मिलकर गाना बनाएगी. उसके बावजूद कुछ लोग हैं जो सिर्फ गाने से नहीं मानते. वे कंपोजिंग पर जोर देते हैं, जैसे राज कुमार संतोषी हों या सुभाष घई हों. लेकिन मैंने महसूस किया कि गायकी मुझे ज्यादा सुकून देती है.

आपकी आवाज प्लेबैक के लिहाज से काफी स्ट्रॉंग या कहें बहुत ही अलग मानी जाती है, ऐसे में ऐक्टर पर आवाज भारी पड़ना बहुत आसान होता है. फिल्मों के लिए गाते वक्त किस बात का ख्याल रखते हैं?
मैंने कभी अपने लिए गाना नहीं गाया. फिल्मों में मैं हमेशा कैरेक्टर के लिए गाता हूं. उसी तरह ऐक्टर अपने लिए फिल्म नहीं करता वह कैरेक्टर के लिए फिल्म करता है. अब देखिए, मैंने शाहरुख खान के लिए कई गाने गाए हैं, चाहे ‘चक दे इंडिया’ का टाइटल ट्रैक हो या फिर ‘ओम शांति ओम’ का ‘दर्द-ए-डिस्को’. दोनों ही गानों में ऐक्टर एक है, लेकिन कैरैक्टर अलग हैं. जब शाहरुख भाई ने दो अलग किरदार निभाए हैं तो मेरा भी तो फर्ज बनता है कि मैं दोनों गानों को अलग एहसास के साथ गाऊं.

गीत बनने की प्रक्रिया को शॉर्टकट में बताइए.
गाने पर सबसे पहला हक और जिम्मेदारी संगीतकार की होती है. वह फिल्म और सिचुएशन के हिसाब से संगीत बनाता है. फिर बारी आती है गीतकार की जो उसे अल्फाज में पिरोता है. उसके बाद कहीं जाकर गायक का काम शुरू होता है. गायक तो बस परफॉर्मर होता है.

तो इस हिसाब से बॉलीवुड का बेस्ट परफॉर्मर कौन है?
लता दीदी. मेरे ख्याल से मैं वह पहला बच्चा हूं जिसने लता दीदी को लाल जोड़े में देखा. यही कोई दस साल का था, जब लता दीदी मेरे ख्वाब में आई थीं. ख्वाब में, मैं अपनी उम्र से बहुत छोटा था, शायद 4 महीने का. उन्होंने लाल जोड़ा पहना हुआ था, मैंने उनकी उंगली थामी हुई थी और वे कह रही थीं मैं लता हूं.

हिंदी सिनेमा में पहले भी विदेशी गीतों से धुनें प्रेरित होती थीं, लेकिन आजकल ऐसा होता है कि इंटरनेट की वजह से तुरंत ही लोग असली गाने तक पहुंच जाते हैं. धुनों की इस विदेशी प्रेरणा को कैसे देखते हैं?  
प्रेरणा बहुत ही सुंदर शब्द है. यह कमाल का एहसास है. आप अपने दोस्तों के बीच उठते-बैठते हैं तो उनकी कुछ अच्छी आदतें अपना लेते हैं. उनके बोलने का ढंग सीखने लगते हैं, उस पर अमल करने लगते हैं. वैसे ही कोई गाना आपको बहुत अच्छा लगता है तो आप उससे प्रेरणा लेते हैं और उसे अपने तरीके से ‘रीजेनरेट’ करते हैं. यह तो अच्छी बात होती है. इसे प्रेरणा कहते हैं. और एक होती है चोरी. चाहे कोई अंग्रेजी गाना हो या किसी और भाषा का. चाहे हिंदी फिल्मों का ही कोई पुराना गाना हो या बेगम अख्तर की कोई पुरानी गजल हो, आप उसे उठाते हैं और उसके आगे अपना नाम ऐसे लिखवाते हैं जैसे आप ही उसके कर्ता-धर्ता हों, उसे कहते हैं चोरी. यह गुनाह है. मुझे इंडस्ट्री के उन लोगों से बड़ा ऐतराज है जो अपनी फिल्मों के क्रेडिट में उन संगीतकारों का नाम लिखते हैं जिन्होंने गाने का मुखड़ा आरडी बर्मन या नौशाद साहब के किसी गीत का उठा लिया और अंतरा बिल्कुल टूटा-फूटा बना दिया. मैं कहता हूं अगर यह डायरेक्टरों और प्रोड्यूसरों की मर्जी से हो रहा है तो कम से कम क्रेडिट में साफ-साफ लिखें कि संगीत फलां-फलां से प्रेरित है.
भारत में पड़ोसी मुल्कों से कलाकार आते रहे हैं और उनमें से कई को यहां खूब काम और शोहरत मिली है. हिंदी फिल्मों के कुछ गायक इस बात पर ऐतराज करते हैं. उनका मानना है कि बॉलीवुड के गानों पर हिंदुस्तानी गायकों का हक है.

इस पर आपकी क्या राय है?
इससे ज्यादा बेहूदा तो मुझे कुछ लगता ही नहीं. क्या कभी लता दी ने कहा कि पड़ोसी मुल्क के गायकों को यहां नहीं आना चाहिए? या रफी साहब ने, किशोर कुमार ने? नहीं, इन्होंने नहीं कहा. मैंने भी कभी ऐसा नहीं कहा. मुझे लगता है कि अगर वे यहां आकर नहीं गाएंगे तो कहां जाएंगे. वहां हालात इतने खराब हैं कि वहां उन्हें कोई नहीं पूछता. तो जहां काम होगा वे वहीं जाएंगे.

यह बताइए आपने आज तक एक ही सिंगिंग रियलिटी शो जज किया है, वह भी जब ऐसे शो टीवी पर आना शुरू ही हुए थे. बाद में कई गायक, गायिकाएं और संगीतकार इन शो में जज बनकर आने लगे लेकिन आप किसी शो में फिर नहीं आए.
मुझे रियलिटी शो वाले कहते हैं कि आपको जज नहीं बनाएंगे क्योंकि आप शो में भाग ले रही लड़कियों से बहुत फ्लर्ट करते हैं. आप उन्हें तो दस में से दस नंबर देते हैं और लड़कों को बस तीन या चार पर लाकर अटका देते हैं. असल में मुझे लगता है कि इन प्रतिभागियों को वोट नहीं मिलते. सुनिधि चौहान के बाद से कोई भी फीमेल सिंगर सिंगिंग रियलिटी शो नहीं जीती. मुझे लगता है कि कम से कम मैं ही अपनी तरफ से उन्हें अच्छे नंबर दे दूं.

‘जय हो’  को ऑस्कर मिला, मगर आप अवॉर्ड समारोह में नहीं पहुंच सके. अगर आप पहुंचते तो एआर रहमान के साथ उस मंच पर गाने का मौका मिलता. अफसोस होता है इस बात का?
मुझे सिर्फ इस बात का बुरा लगता है कि ऑस्कर या ग्रैमी में स्टेज पर परफॉर्मेंस के वक्त बैकग्राउंड में मेरी आवाज थी और उस पर एक लड़की ‘माइम’ कर रही थी. रहमान सर खुद इतने बड़े संगीतकार है, उन्हें तकनीक की अच्छी समझ है फिर ये कैसे हो गया. एक आदमी की आवाज पर औरत ‘माइम’ कर रही थी. और वे खुद भी मेरी आवाज पर मुंह चला रहे थे. मैंने जब उनसे यह शिकायत की थी तो उन्होंने हंसते हुए अपनी गलती मान ली थी.

हर कीमत पर जो प्रधानमंत्री बनने को आतुर रहे

 

येन केन प्रकारेण सफल रहे | जो रह गए | जिन्होंने सोचा न था…

modiनरेंद्र मोदी: अग्रतम, व्यग्रतम

पिछले साल 15 अगस्त को जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह परंपरा के मुताबिक लाल किले से अपना भाषण देने वाले थे तो उससे एक दिन पहले भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार  नरेंद्र मोदी ने एक बयान दिया. गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी ने कहा कि स्वतंत्रता दिवस के दिन वे अहमदाबाद के लालन मैदान से बोलेंगे और देश की जनता प्रधानमंत्री और उनके भाषण की तुलना करके जान लेगी कि कौन क्या बोलता है.  Read More>>

yadavमुलायम सिंह यादव: भभकती भट्टी

‘अखिलेश को जिता कर सीएम बना दिया. अब मुझे क्या बनाओगे…मेरे दिल में भट्टी जल रही है. मेरा दिल भी कुछ चाहता है. मुझे भी कुछ दोगे कि नहीं. मैं कोई साधु-संन्यासी तो हूं नहीं…’ चौधरी चरण सिंह की जयंती के मौके पर 23 दिसंबर को लखनऊ में कार्यकर्ताओं और मीडिया के बीच जब मुलायम सिंह यादव यह अपील कर रहे थे तो उनकी बेताबी साफ झलक रही थी. उनका एक-एक शब्द दिखा रहा था कि प्रधानमंत्री बनने के लिए वे किस हद तक आतुर हैं. Read More>>

mayavatoमायावती: मायामोह

सात जुलाई, 2013. अपने ट्रेडमार्क दलित-ब्राह्मण सम्मेलनों के समापन के अवसर पर बसपा अध्यक्ष मायावती ने लखनऊ में एक बड़ी रैली आयोजित की थी. गर्मी और धूल-धक्कड़ से पस्त 50 हजार का जनसमूह इसी अवसर का साक्षी बनने के लिए उत्तर प्रदेश के कोने-कोने से लखनऊ पहुंचा था. मायावती मंच पर निर्धारित समय से थोड़ी देर से पहुंची थीं. Read More>>

lalलाल कृष्ण आडवाणी: चिरयात्री

भाजपा में हर तरफ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की बतौर प्रधानमंत्री उम्मीदवार जय-जयकार के बीच हाल ही में दिल्ली के रामलीला मैदान में पार्टी की राष्ट्रीय परिषद आयोजित की गई थी. उसमें भी लाल कृष्ण आडवाणी ने मोदी को आगाह करने का मौका नहीं गंवाया. भाजपा के इस दिग्गज ने इस मौके पर मोदी की सराहना तो की लेकिन साथ ही साथ यह भी कहा कि पार्टी अगले लोकसभा चुनावों में जीत को लेकर अतिआत्मविश्वास से ग्रस्त हो गई दिखती है. आडवाणी ने आगाह करते हुए कहा कि 2004 में भाजपा लोकसभा चुनाव इसी वजह से हारी थी. Read More>>

lauलालू प्रसाद यादव: दौर बुरा, तौर वही

बात 1977 की है. आपातकाल के बाद आम चुनाव हुआ था. तब बिहार से एक युवा सांसद भी लोकसभा पहुंच गया था. महज 29 साल की उम्र में. उस युवा सांसद का नाम था लालू प्रसाद यादव. गोपालगंज जिले के फुलवरिया जैसे सुदूरवर्ती गांव से निकलकर, दिल्ली के संसद भवन में पहुंचने का लालू का यह सफर चमत्कृत करने वाला था. लेकिन तब मीडिया की ऐसी 24 घंटे वाली व्यापक पहुंच नहीं थी.  इसलिए लालू का एकबारगी वाला उभार भी उस तरह से चर्चा में नहीं आ सका.  Read More>>


येन केन प्रकारेण सफल रहे


jpgमोरारजी देसाई

1977 में जब मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने तो इस पद के लिए उनका तकरीबन दो दशक लंबा इंतजार खत्म हुआ था. मोरारजी पहले कांग्रेस में थे. प्रधानमंत्री पद के लिए उनका नाम तब से चलता था जब से भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बाद इस पद के लिए नामों की चर्चा होती थी. जब 27 मई, 1964 को नेहरू नहीं रहे तो देश के सामने सबसे बड़ा संकट था कि उनकी जगह पर किसे प्रधानमंत्री बनाया जाए.   Read More>>

charansinghचौधरी चरण सिंह

1977 में जिन दलों के सहयोग से मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने थे उनमें चौधरी चरण सिंह का लोक दल भी था. जब मोरारजी को प्रधानमंत्री बनाया गया था तो उस वक्त भी चरण सिंह इस फैसले से खुश नहीं थे. उन्हें लगता था कि प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार तो वे हैं. उन्हीं की पार्टी के चुनाव चिह्न पर लोकसभा चुनाव भी लड़े गए थे. उस वक्त राजनारायण ने चरण सिंह को यह समझाया कि वे अभी मोरारजी को प्रधानमंत्री बनने दें, कुछ समय बाद उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया जाएगा.   Read More>>

chandचंद्रशेखर

बड़ी आशाओं के साथ  जनता पार्टी सरकार 1977 में सत्ता में आई थी. पर जब यह लगने लगा कि यह व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ रही है तो उस वक्त सरकार चलाने वालोें को कुछ शुभचिंतकों ने सलाह दी कि इन  टकरावों को टालने का रास्ता यह है कि किसी युवा नेता को प्रधानमंत्री बना दिया जाए. उस वक्त जिन नेताओं का नाम चल रहा था उनमें चंद्रशेखर का नाम सबसे पहले था. व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के शिकार नेताओं ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया. Read More>>


जो रह गए


Arunsinghअर्जुन सिंह |1930-2011|

घटना 23 जून, 1981 की है. अर्जुन सिंह को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बने एक पखवाड़ा भी नहीं बीता था कि उन्हें इस कुर्सी पर बैठाने वाला शख्स हमेशा के लिए दृश्य से ओझल हो गया. उस दिन संजय गांधी की हवाई दुर्घटना में मृत्यु हो गई. तब सिंह 100 विधायकों के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिले. उन्होंने श्रीमती गांधी से उनके पुत्र राजीव गांधी को राजनीति में लाने का निवेदन किया. दरअसल अर्जुन सिंह जानते थे कि कांग्रेस की राजनीति गांधी परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमेगी.  Read More>>

devilalaचौ. देवीलाल |1914-2001|

लोकसभा में महज 10 प्रतिनिधि भेजने वाले हरियाणा के नेता चौधरी देवीलाल अकेले नेता रहे जिन्होंने राष्ट्रीय राजनीति को गहरे तक प्रभावित किया. यूं तो प्रदेश से तमाम नेताओं ने समय-समय पर राजनीति में दस्तक दी है, लेकिन पूर्व उपप्रधानमंत्री स्व. देवीलाल यानी हरियाणा के ताऊ इकलौते शख्स रहे जिन्होंने एक समय में शीर्ष पद यानी प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी गंभीर दावेदारी पेश की थी.   Read More>>

basuज्योति बसु |1914-2010|

देखा जाए तो प्रधानमंत्री बनने को लेकर साम, दाम, दंड, भेद करने वाले नेताओं की जमात के बीच ज्योति बसु को शामिल करना इन मायनों में असंगत लगता है क्योंकि वे कभी भी प्रधानमंत्री बनने को लेकर लालायित नहीं दिखे. लेकिन इस कथा में उनका जिक्र न करना इसलिए भी तर्कसंगत नहीं होगा कि प्रधानमंत्री बनने के बेहद करीब पहुंच कर भी उनके साथ ऐसा नहीं हो सका. 1996 में गैरकांग्रेसी और गैरभाजपाई दलों ने संयुक्त मोर्चे का गठन किया.  Read More>>

bhabuबाबू जगजीवन राम |1908-1986|

1977 के आम चुनावों में सत्ताधारी कांग्रेस की करारी हार के बाद जनता पार्टी के नेतृत्व में पहली बार गैरकांग्रेसी सरकार बनने का रास्ता बना. तब प्रधानमंत्री पद के संभावित दावेदारों में बाबू जगजीवन राम का नाम भी था. 1952 से लगातार सांसद चुने जाने वाले जगजीवन राम पहले नेहरू और फिर इंदिरा सरकार में मंत्री रह चुके थे.  Read More>>


जिन्होंने सोचा न था


manmohanजिन्होंने सोचा न था…

भारतीय राजनीति के इतिहास में ऐसे भी व्यक्तित्व मिलते हैं जिनके प्रधानमंत्री बनने को लेकर किसी दूसरे ने तो क्या खुद उन्होंने भी शायद ही कल्पना की हो. वैसे तो पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री और फिर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, वीपी सिंह, नरसिंहा राव तक की ताजपोशी में अप्रत्याशितता का थोड़ा-बहुत अंश रहा है, लेकिन 1996 के बाद प्रधानमंत्री बनने वाले तीन नाम विशेष तौर पर ऐसे हैं जिन्होंने देश और दुनिया को हैरत में डाल दिया. Read More>>


जिन्होंने सोचा न था…

मनमोहन सिंह

भारतीय राजनीति के इतिहास में ऐसे भी व्यक्तित्व मिलते हैं जिनके प्रधानमंत्री बनने को लेकर किसी दूसरे ने तो क्या खुद उन्होंने भी शायद ही कल्पना की हो. वैसे तो पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री और फिर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, वीपी सिंह, नरसिंहा राव तक की ताजपोशी में अप्रत्याशितता का थोड़ा-बहुत अंश रहा है, लेकिन 1996 के बाद प्रधानमंत्री बनने वाले तीन नाम विशेष तौर पर ऐसे हैं जिन्होंने देश और दुनिया को हैरत में डाल दिया.

एचडी देवगौड़ा का नाम इस जमात में सबसे ऊपर है. प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने से पहले देवगौड़ा के बारे में लोगों का (विशेष तौर पर उत्तर भारतीयों का) सामान्य ज्ञान लगभग शून्य था. देश की बहुसंख्यक जनता को उनके बारे में उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद ही मालूम हुआ. ‘हरदन हल्ली डोडेगौड़ा देवगौड़ा’ नाम छात्रों के सामान्य ज्ञान की परीक्षा में शामिल हो गया.

1953 में सक्रिय राजनीति में आए देवगौड़ा 1991 में पहली बार संसद पहुंचे थे. 1994 में जनता दल का अध्यक्ष बनने के बाद वे कर्नाटक के मुख्यमंत्री भी बने. उस वक्त कर्नाटक की राजनीति में देवगौड़ा के सितारे भले ही बुलंद थे, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उनकी कोई खास पहचान नहीं थी. इस बीच 1996 में 13 दिन पुरानी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार संसद में बहुमत साबित करने में असफल रही. इस मौके पर गैरकांग्रेसी और गैरभाजपाई दलों ने मिलकर संयुक्त मोर्चा बनाया और देवगौड़ा इस मोर्चे के नेता बने. लेकिन उनके प्रधानमंत्री बनने से पहले दूर-दूर तक उनका नाम इस दौड़ में नहीं था. संयुक्त मोर्चे ने तब प्रधानमंत्री पद को लेकर पूर्व पीएम वीपी सिंह के नाम पर सहमति बनाई थी. लेकिन दूध के जले वीपी सिंह ने इस बार प्रधानमंत्री वाला छाछ पीने से इनकार कर दिया. वीपी सिंह के पास कांग्रेस पर भरोसा नहीं करने की पर्याप्त वजहें थीं.

इसके बाद दिग्गज वामपंथी नेता और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु का नाम प्रधानमंत्री के लिए प्रस्तावित हुआ. स्वयं ज्योति बसु भी इसके लिए सहमत थे. जब तक बात इससे आगे बढ़ती, सीपीएम की सेंट्रल कमेटी ने घोषणा कर दी कि अभी दिल्ली की सत्ता में वामपंथ प्रवेश का अवसर नहीं आया है. हालांकि अब वामपंथी इसको अपनी सबसे बड़ी गलती मानते हैं.

संयुक्त मोर्चे पर सरकार बनाने का दबाव बढ़ता जा रहा था. मुलायम सिंह के नाम पर भी विचार शुरू हुआ लेकिन उनके अपने सजातीय नेताओं की महत्वाकांक्षा ने उनका खेल खराब कर दिया. तब देवगौड़ा के भाग्य से छींका टूटा और वे सात रेसकोर्स रोड पहुंच गए. इस बीच कांग्रेस संगठन की कमान सीताराम केसरी के हाथ में आ चुकी थी. जानकार बताते हैं कि बेहद महत्वाकांक्षी प्रवृत्ति वाले केसरी को इस बात का बड़ा मलाल था कि सबसे बड़ा दल होने के बावजूद वे प्रधानमंत्री क्यों नहीं हैं? प्रधानमंत्री बनने के अरमान उनके मन में भी मचल रहे थे. लिहाजा देवगौड़ा के कामकाज से असंतुष्टि जताते हुए उन्होंने संयुक्त मोर्चे की सरकार को समर्थन जारी रखने से इनकार कर दिया. इस तरह देवगौड़ा 10 महीने में ही विदा हो गए. जब तक लोगों को उनका पूरा नाम याद हो पाता तब तक वे प्रधानमंत्री से पूर्व प्रधानमंत्री हो गए.

एचडी देवगौड़ा
एचडी देवगौड़ा

देवगौड़ा के इस्तीफे के बाद इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने. खुद के प्रधानमंत्री बनने की कहानी को बयान करते हुए गुजराल ने अपनी आत्मकथा ‘मैटर्स ऑफ डिस्क्रेशन’ में लिखा है कि प्रधानमंत्री पद को लेकर उनके नाम की चर्चा सबसे पहले पी चिदंबरम ने की थी. देवगौड़ा के कार्यकाल से असंतुष्ट हो कर जिस कांग्रेस ने सरकार से समर्थन वापस लिया था वही कांग्रेस गुजराल के नाम पर फिर से सरकार के साथ हो गई. लेकिन गुजराल का नाम तब प्रधानमंत्री पद को लेकर कहीं से भी प्रत्याशित नहीं था. स्वभाव से ही गैरराजनीतिक लगने वाले गुजराल का प्रधानमंत्री बनना भी देवगौड़ा अध्याय की तर्ज पर तात्कालिक राजनीतिक स्थितियों की उपज था. जानकारों का मानना है कि खुद को प्रधानमंत्री बनाने के मकसद के चलते ही सीताराम केसरी ने देवगौड़ा को कुर्सी से हटवाया था. वे चाहते थे कि संयुक्त मोर्चा सरकार को बाहर से समर्थन देने के बजाय कांग्रेस को खुद सरकार बनाने का दावा करना चाहिए. लेकिन ऐसा नहीं हुआ मजबूरन एक बार फिर से संयुक्त मोर्चे की सरकार बनी और गुजराल उसके नेता बने.

बेशक गुजराल राजनयिक से लेकर केंद्र में बतौर मंत्री भी काम कर चुके थे, लेकिन एक जननेता से कहीं ज्यादा उनकी छवि एक ब्यूरोक्रेट की थी जो नेता बन गया. चूंकि देवगौड़ा के इस्तीफे के बाद प्रधानमंत्री पद को लेकर संयुक्त मोर्चे में मुलायम सिंह जैसे तगड़े दावेदार थे जो देवगौड़ा के समय भी प्रधानमंत्री बनने से रह गए थे, लिहाजा उनकी तरफ से तिकड़मों की इस बार भी प्रबल संभावना थी. सीपीएम महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने भी इस बार मुलायम सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का मन बना लिया था. लेकिन ऐन वक्त पर उन्हें मास्को जाना पड़ गया और उनकी अनुपस्थिति में गुजराल संयुक्त मोर्चे के नेता चुन लिए गए. इस लिहाज से देखा जाए तो बिना मैदान में उतरे ही गुजराल ने प्रधानमंत्री बन कर ‘राजनीति में कुछ भी संभव है’ के शाश्वत सिद्धांत को और मजबूत किया.

‘राजनीति में सब कुछ संभव है’ वाला शाश्वत सत्य 2004 में एक बार फिर से प्रकट हुआ. इस बार इसकी अप्रत्याशितता पिछले मामलों से भी ज्यादा थी. 2004 में आम चुनाव होने थे और ‘इंडिया शाइनिंग’ तथा ‘भारत उदय’ के जुमलों के जरिए एनडीए की वापसी की चौतरफा चर्चाएं चल रही थीं. चुनाव परिणाम सामने आए तो वाजपेयी के नेतृत्व वाले एनडीए पर कांग्रेस की अगुवाई वाला यूपीए भारी पड़ गया. यह एक बड़ा राजनीतिक भूचाल था.

लेकिन इससे भी बड़ा धमाका अभी होना बाकी था. कांग्रेस की अगुवाई में पूर्ण बहुमत हासिल कर चुके यूपीए के नेता के तौर पर सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता लगभग साफ हो गया था. लेकिन इससे पहले कि देश की राजनीति में नेहरू-गांधी वंश के नए उत्तराधिकारी को लेकर लिखी जा रही यह पटकथा फलीभूत होती कि 22 मई, 2004 को प्रधामनंत्री के रूप में अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने शपथ ले ली. दरअसल सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे को हथियार बना कर विपक्षी दल भाजपा ने एक नई बहस छेड़ दी जिसमें बाद में शरद पवार जैसे खांटी कांग्रेसी भी कूद गए. इसके बाद सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इनकार करते हुए मनमोहन सिंह का नाम आगे कर दिया.

इंद्रकुमार गुजराल
इंद्रकुमार गुजराल

मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने की घटना से उस वक्त आम लोगों के साथ ही राजनीति के तमाम जानकार भी सन्न रह गए थे. सभी के लिए यह बेहद असाधारण घटना थी. इसकी बहुत बड़ी वजह उनका 24 कैरेट गैरराजनीतिक होना थी. हालांकि वे इससे पहले वित्तमंत्री के रूप में अपनी छाप छोड़ चुके थे, लेकिन उनका चयन इस लिहाज से आश्चर्यजनक था कि उस वक्त कांग्रेस में प्रणव मुखर्जी, अर्जुन सिंह जैसे धुरंधर नेता मौजूद थे. बावजूद इसके बाजी मनमोहन सिंह के हाथ लगी.

तमाम तरह की समानताओं और असमानताओं के बीच इन तीनों हस्तियों के मामले में एक बेहद दिलचस्प तथ्य यह भी है कि प्रधानमंत्री पद पर काबिज होते वक्त इनमें से कोई भी आम जनता द्वारा चुना गया प्रतिनिधि यानी लोक सभा का सदस्य नहीं था.

कुल मिला कर देखा जाए तो देवगौड़ा, गुजराल और मनमोहन का प्रधानमंत्री बनना राजनीति में सब कुछ संभव है वाले  सिद्धांत को बेशक सार्थक करता है. लेकिन इस सिद्धांत की सफलता के लिए जिस तरह के जोड़तोड़ और तिकड़मबाजी की जरूरत होती है इन तीनों के मामले में यह सब उस पैमाने पर नहीं हुआ. इसलिए इनका प्रधानमंत्री बनना एक तरह से ‘अंधे के हाथ बटेर’ वाली कहावत को भी बल देता नजर आता है.

बाबू जगजीवन राम |1908-1986|

बाबू जगजीवन राम |1908-1986|
बाबू जगजीवन राम |1908-1986|
बाबू जगजीवन राम |1908-1986|

1977 के आम चुनावों में सत्ताधारी कांग्रेस की करारी हार के बाद जनता पार्टी के नेतृत्व में पहली बार गैरकांग्रेसी सरकार बनने का रास्ता बना. तब प्रधानमंत्री पद के संभावित दावेदारों में बाबू जगजीवन राम का नाम भी था. 1952 से लगातार सांसद चुने जाने वाले जगजीवन राम पहले नेहरू और फिर इंदिरा सरकार में मंत्री रह चुके थे. उस समय चुनाव जीतकर आए बड़े नेताओं के बीच उनकी दावेदारी मजबूत मानी जा रही थी. लेकिन नए प्रधानमंत्री के रूप में 24 मार्च, 1977 को मोरारजी देसाई की शपथ के साथ ही यह संभावना खत्म हो गई. आजादी के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाले जगजीवन राम प्रधानमंत्री बनने से रह गए.

दरअसल इमरजेंसी के दौरान अधिकांश विपक्षी नेता जेल में थे और कांग्रेस पार्टी की स्थिति काफी मजबूत थी. सत्ता में वापसी को लेकर आश्वस्त इंदिरा गांधी ने तब समय से पहले ही चुनाव की घोषणा कर दी थी. लेकिन इसी समय जगजीवन राम ने सरकार से बगावत कर दी और मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी नाम से नई पार्टी बना ली. इसके बाद देश की राजनीति में जो तूफान आया उसने शीर्ष पर बैठी इंदिरा सरकार का तख्त गिरा दिया. जगजीवन राम की पार्टी ने वह चुनाव जनता पार्टी के साथ मिल कर लड़ा था. उस वक्त उत्तर भारत के दलितों ने पूरी तरह से कांग्रेस के खिलाफ वोट दिया था. दलित पृष्ठभूमि वाले जगजीवन राम को इसका काफी श्रेय भी दिया गया लेकिन बावजूद इसके वे प्रधानमंत्री नहीं बन सके. हालांकि बाद में चौधरी चरण सिंह के प्रधानमंत्री बनने पर जगजीवन राम उपप्रधानमंत्री बने, लेकिन बताया जाता है कि चौधरी चरण सिंह और जेबी कृपलानी के विरोध के चलते ही वे प्रधानमंत्री नहीं बन पाए थे.

ज्योति बसु |1914-2010|

देखा जाए तो प्रधानमंत्री बनने को लेकर साम, दाम, दंड, भेद करने वाले नेताओं की जमात के बीच ज्योति बसु को शामिल करना इन मायनों में असंगत लगता है क्योंकि वे कभी भी प्रधानमंत्री बनने को लेकर लालायित नहीं दिखे. लेकिन इस कथा में उनका जिक्र न करना इसलिए भी तर्कसंगत नहीं होगा कि प्रधानमंत्री बनने के बेहद करीब पहुंच कर भी उनके साथ ऐसा नहीं हो सका. 1996 में गैरकांग्रेसी और गैरभाजपाई दलों ने संयुक्त मोर्चे का गठन किया. देश की दोनों बड़ी वामपंथी पार्टियां इस मोर्चे में अहम भूमिका में थीं.

इस बीत 13 दिन पुरानी वाजपेयी सरकार बहुमत न होने के चलते गिर गई और कांग्रेस ने संयुक्त मोर्चे को सरकार बनाने की सूरत में बाहर से समर्थन देने की हामी भर दी. लेकिन प्रधानमंत्री के तौर पर मोर्चे में वीपी सिंह के नाम पर आम राय के बावजूद उन्होंने इससे इनकार कर दिया. बताया जाता है कि तब उन्होंने ही प्रधानमंत्री के तौर पर ज्योति बसु का नाम मोर्चे को सुझाया. बसु प्रधानमंत्री बनने के लिए तैयार भी हो चुके थे लेकिन उनकी पार्टी की सेंट्रल कमेटी ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया और वे प्रधानमंत्री बनने से रह गए. बाद में बसु ने इस कदम को बड़ी राजनीतिक भूल भी कहा था.