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…तो मैं तुमसे प्रेम नहीं कर पाऊंगी

img(इस लेख में ‘मैं’ आज के भारत में रहने वाली एक सचेत, जागरूक और संवेदनशील स्त्री है. प्रेम और देह को लेकर इस स्त्री की संवेदनाएं जितनी दिल्ली-मुंबई की किसी लड़की के विचारों से जुड़ती हैं उतनी ही बैतूल-हरदा के कस्बों में डर-छिपकर प्रेम करने वाली कस्बाई लड़की से भी)

एक इंसान और शायद एक स्त्री के तौर पर भी मुझे पहला प्यार अपने आप से ही हुआ था. बचपन में मुझे अपने लंबे बाल और गहरी भूरी आंखें बहुत पसंद थीं. अपने आप से ही बातें करने की पुरानी आदत की वजह से मैं हमेशा ही अपने अंदर हो रहे शारीरिक और मानसिक बदलावों को लेकर बेहद सजग रही. एक स्त्री के तौर पर मैंने बहुत गहराई से अपने बड़े होने को महसूस किया है और घंटों अपने शरीर से बातें भी की हैं. किशोरावस्था आते-आते मुझे विश्वास हो गया था कि सौन्दर्य सिर्फ स्त्रियों के पास है और मुझे हमेशा अपनी नाजुक, रहस्यमयी और खूबसूरत शारीरिक बनावट पर नाज होता रहा. और सच, इस बीच कभी भी मेरे मन में ‘पुरुष’ या उसकी तरह बनने की इच्छा नहीं जागी. शायद इसलिए कि मैं हमेशा स्त्री होने के अद्वितीय अहसास को बहुत गहराई से जीती रही.

मैं तेजी से बदलते भारत में बड़ी हो रही थी. मेरे चारों तरफ सब कुछ तेजी से बहा जा रहा था. इस दौरान अपनी एक पहचान, अपने कौशल द्वारा कमाए गए अपने एक स्थान और आत्म-सम्मान की जद्दोजहद ने प्यार को भी कई परतों में उलझा कर मेरे सामने पेश किया.

मामला बहुत पहले ही उलझ गया था. बचपन में ठीक तब जब मेरे एक ममेरे भाई ने एक लड़ाई के दौरान अकड़ते हुए मुझसे कहा था कि वह जब चाहे मुझे पीट सकता है क्योंकि वह लड़का है. 12 साल की छोटी-सी उम्र में इस बात ने मेरे दिल पर गहरा असर किया. मैं दौड़ कर अपनी मां के पास गई थी और उनसे कहा था कि वे मुझे सीमेंट की एक बोरी लाकर दें. उनके चौंकने पर मैंने बताया कि मैं उस पर मुक्के मार-मार कर ताकतवर बनना चाहती हूं. घर में सब जोर से हंस दिए थे. शायद उसी दिन मेरे अंदर यह बात बैठ गई थी कि मैं किसी से कमतर नहीं बनूंगी. मैं जिससे भी प्रेम करूंगी, भले ही वह मेरा दोस्त, भाई या पिता ही क्यों न हों, कोई मुझे लड़की होने की वजह से कमजोर या कमतर नहीं आंकेगा. यहां प्रेम से पहले बराबरी का दर्जा आ गया था. एक ऐसी समानता जिसे मैंने पूरी ईमानदारी और कड़ी मेहनत से हासिल किया हो, पूरे सम्मान के साथ.

अपने यूनिवर्सिटी के सालों में मैंने धीरे-धीरे दुनिया की कुछ और दबी-छिपी परतों को डिकोड करना सीखा. मैंने महसूस किया कि अभी भी कट्टर उत्तर भारतीय मानसिकता ज्यादातर पुरुषों पर हावी है. मैंने पाया कि ज़्यादातर मामलों में वर्दी पहनने वाले पहरेदारों, बड़े अधिकारियों, नेताओं से लेकर गली-मोहल्लों में गुटका खाकर सफेद दीवारों पर थूकने और सीटियां बजाने वाले शोहदों तक की सोच स्त्रियों को लेकर बदली नहीं है. उनके लिए स्त्रियां सिर्फ मां-बहन की गालियां देकर गुस्सा निकालने या फिर शराब के प्यालों के बीच उछाले गए किसी भद्दे मज़ाक से उपजी किसी सेक्सुअल फंतासी तक सिमट कर रह गई हैं. पुरुषों द्वारा अपने परिवारों में रहने वाली मांओं, बहनों और पत्नियों को दिया जाने वाला सम्मान मुझे कभी संतुष्ट नहीं कर पाया. मैंने हमेशा अपने आसपास के पुरुषों की नजरों में छिपे उस भद्दे मजाक को पकड़ लिया था जो उन्होंने अपनी किसी महिला मित्र या किसी अन्य की महिला मित्र के वक्षों के ‘प्रोमिसिंग’ होने को लेकर किए थे. बस, उस लम्हे के बाद से मैं ऐसे लोगों से सहजता का कोई रिश्ता नहीं बना पाई.

ऐसे क्षणों में मुझे अपने उन सहपाठियों की याद आ जाती जो शाम को मिलने पर सार्त्र, कामू और फूको जैसे दार्शनिकों की सूक्तियां सुनाया करते थे और अपनी करीबी महिला मित्रों का एक फोन वेट पर आते ही उन पर ऐसे चिल्लाते जैसे वे उनकी बंधुआ मजदूर हों. उन पत्रकार साथियों की भी जो अपने लेखों में और स्टेज से महिला अधिकारों की गलाफाड़ बातें करते हैं और अपनी पत्नियों और अपनी महिला सहकर्मियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करते हैं. इस तरह के उलझे हुए दोगले वर्ग से मैं कभी प्रेम करने की नहीं सोच पाई.

पुरुषों के पाखंड पर भी मुझे उतनी आपत्ति नहीं रही, जितनी कि उसे कभी स्वीकार न कर पाने की उनकी कायरता से. यहां यह कहना भी ज़रूरी है कि इस बारे में मेरी जैसी तमाम अन्य स्त्रियों के उलझे होने की भी पूरी संभावना है. पर मैं उस दोगलेपन को स्वीकार करके उस पर बात करना चाहती हूं. क्योंकि इतनी उलझनों के बाद भी आखिर मैं प्रेम करना चाहती हूं.

एक स्वतंत्र स्त्री होने और इसे अपने साथी द्वारा पूरी तरह पचा न पाने के बावजूद मैंने प्रेम करने की कोशिश की. अब सबसे विस्फोटक उलझन सामने आई. मेरी तरफ से पहले हुए प्रेम के निवेदन को बाद में ‘उन्मुक्तता’ का नाम दे दिया गया. प्रेम और विश्वास में डूबे मेरे अस्तित्व ने जब सहजता के उजले शिखर पर पहुंचकर प्रेम से जुड़ी अपनी कल्पनाएं, इच्छाएं और जानकारियां साझा कीं तो परंपराओं और आधुनिकता के बीच झूल रहे उत्तर भारतीय पुरुष ने तुरंत तरह-तरह के सवाल उठा दिए. तब मैंने उससे कहा कि प्रेम का हर स्वरूप जितना उसके लिए हैं, उतना ही मेरे लिए भी है. मैं अपने अस्तित्व, अपने शरीर और उनको लेकर मेरे व्यवहार में पूरी तरह सहज हूं और अपनी असहजता दूर करना उसकी जिम्मेदारी है. उसे यह याद रखना होगा कि ‘गुनाहों का देवता’ पढ़कर अंकुरित होने वाली लिजलिजी प्रेम कहानियों का दौर अब समाप्त हो चुका है. आज अगर प्रेम में मेरी स्वाभाविक उत्सुकता और भागीदारी से तुम्हारे मन में संदेह उपजता है तो मैं तुमसे प्रेम नहीं कर पाऊंगी.

वक्त बीतने के साथ मैंने इंसानों की परतों को भी डिकोड करना सीख लिया और आत्मविश्वास से भरकर फिर से प्रेम करने की कोशिश की. इस बार मेरे साथी ने खुद को मेरे सामने एक मसीहा के तौर पर स्थापित करना चाहा. वह उस ‘गुड बॉयफ्रेंड’ की भूमिका में आना चाहता था जो सालों से भाइयों और पिताओं की संरक्षण रूपी सलाखों की कैद के पीछे सड़ रही लड़की को पहली बार अपनी मोटर-बाइक पर बैठाकर दुनिया दिखाता है. उसे झील किनारे ले जाकर एक वनीला आइसक्रीम खिलाता है और लड़की रोते हुए उससे कहती है कि वह उससे बहुत प्यार करती है. फिर लड़का उसे दुनिया भर का ज्ञान पिलाते हुए दुनियादारी समझाता है और हिदायत देते हुए कहता है, ‘तुम बहुत भोली हो, दुनिया बहुत खराब है. ज्यादा लड़कों से मेलजोल ठीक नहीं. जो भी करना है, सब मेरे साथ करो. मैं हूं न.’ भारत के तमाम शहरों और कस्बों में बसने वाले ऐसे ही तमाम मसीहा अपने खोखले व्यक्तित्व से उपजी असुरक्षा के आगे घुटने टेकते हुए अपनी प्रेमिकाओं के चेहरों पर रोज तेजाब फेंकते हैं, उन्हें जिंदा जला देते हैं या उनके साथ बिताए अंतरंग क्षणों को इंटरनेट या मोबाइल फोन के जरिए सार्वजनिक कर देते हैं.

पर अफसोस कि इस बार ऐसा नहीं होगा. मैंने तो पहले ही तय कर लिया था कि दुनिया अपनी ही आंखों से देखूंगी, किसी स्वघोषित ज्ञानी मसीहा की आंखों से नहीं. अपनी बेड़ियां मैं खुद खोलूंगी. मैं किसी को मेरे मना करने या असहमत होने पर मेरे साथ कुछ भी बुरा करने की इजाजत नहीं दूंगी. मैं प्यार के नाम पर ब्लैकमेल करने वालों की आंखें नोंच लूंगी और सड़क पर ज़बरदस्ती करने वालों को पलट कर मारूंगी. पुलिस हेल्प लाइन नंबरों के बारे में मैं और मेरी तमाम महिला परिचित जानती हैं. अब हम सब जानने लगी हैं और जो नहीं जानते उन्हें बता रही हैं कि यदि स्त्री किसी संबंध में खुश नहीं है या उसके साथ किसी भी तरह की मानसिक-शारीरिक हिंसा हो रही है तो वह तुरंत उस संबंध से बाहर आ सकती है. और ऐसा करने पर उस पर कोई नैतिक निर्णय नहीं थोपा जा सकता. तो अगर तुम पहले ऐसे ही ‘फरेबी मसीहा’ के रूप में मुझसे प्रेम करके, बाद में अपने आप को तकनीक का एक्सपर्ट मानने वाले कोई ‘जिल्टेड लवर’ हो तो मैं तुमसे प्रेम नहीं कर पाऊंगी.

हमारे समाज में स्त्री और पुरुष ऐसे क्यों हैं और उनमें आपस में हमेशा एक किस्म की रस्साकशी क्यों चलती रहती है, ये सवाल हमेशा मेरे दिमाग में कौंधते रहते थे. जवाब की तलाश में जो कुछ मिला उसने कुछ नए सवाल खड़े कर दिए. सत्रह साल की उम्र में पढ़ी गई ‘द सेकंड सेक्स’ स्त्री को समझने की दिशा में मेरा पहला प्रयास था. उन दिनों मैंने स्त्री और महिला आंदोलनों से जुड़ी तमाम किताबों को दूंढ-ढूंढ कर पढ़ना शुरू कर दिया था. एक बार मां ने मेज़ पर रखी स्थापित मूल्यों से उलट जाती कुछ किताबों को देख लिया. उन्होंने गुस्से में किताबों का बंडल पिता जी के सामने पटकते हुए कहा, ‘देखिए, ये लड़की क्या उल्टा-सीधा पढ़ रही है. इसीलिए कहती थी कि लड़कियों को बहुत नहीं पढ़ाया जाना चाहिए.’ मैंने रोते हुए अपनी किताबें वहां से उठा लीं और बेहद अपमानित महसूस किया. मैं किसी को समझाना नहीं चाहती थी कि मैं क्या और क्यों पढ़ रही हूं.

हमारे यहां के स्त्री-पुरुष संबंधों को समझने की राह में यह मेरा पहला सबक था. ज्ञान, शिक्षा, सुविधा, पोषण और निश्चल प्रेम से सदियों तक महरूम रही स्त्री किसी से भी सामान्य रूप से प्रेम कैसे कर सकती है? ऐसा सरलीकृत प्रेम जहां उसकी कोई पहचान या सम्मान न हो, वह सिर्फ उसके अंदर एक निरीह महिला और उपभोग की वस्तु होने के अहसास को ही और बढ़ाएगा. इसलिए स्त्री प्रेम की जटिलता को हमारे अपने सामाजिक ताने-बाने के परिणाम की तरह ही स्वीकार करना होगा.

दरअसल एक स्त्री के तौर पर मैं प्रेम को लेकर इतनी सशंकित क्यों हूं? क्यों प्रेम को लेकर मेरी बातें किसी ‘फेमिनिस्ट मैनीफेस्टो’ जैसी लगती हंै? जवाब शायद यह हो सकता है कि प्रेम करने का माध्यम भी तो आखिर मेरा यही अस्तित्व है न. और लंबे समय से मेरे अस्तित्व को नकारने वाले समाज ने मुझे ऐसा बना दिया है. मेरे अस्तित्व को नकारकर मुझे हासिल करने या अपने कब्जे में रखने की पुरुषों की भूख ने मुझे बागी बना दिया है. मुझ पर दिन-रात सालों से थोपे जा रहे नैतिक निर्णयों से अब मुझे कोफ्त होती है. मेरे लिए अब सम्मान पाने का एक ही रास्ता है, वह है मेरा काम और शिक्षा. और इस सब में प्रेम कहीं पीछे छूट-सा गया है. पर मेरा विश्वास करो, मैं वाकई प्रेम करना चाहती हूं. पर शर्तों में बंधा, एकतरफा प्रेम नहीं. मुझमें वाकई बहुत प्रेम है, करुणा है, जो बिखरने के लिए तुम्हारे साथ के लालित्यपूर्ण आकाश की राह देख रहा है. लेकिन जब तक तुम मेरे स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं करोगे और बहुत मेहनत से बनाई, छोटी-मोटी, जो भी मेरी पहचान है, उसे नहीं स्वीकारोगे, तब तक मैं तुमसे प्रेम नहीं कर पाऊंगी. यहां तुमसे यह कहना भी बहुत जरूरी है कि मुझे तुमसे बहुत आशाएं हैं. तुम अगर साथ नहीं आए तो भी मैं यह सफर पूरा कर ही लूंगी…पर अगर तुम आओगे तो जीवन के मायने ही बदल जाएंगे.

प्रेम, राजनीति और नेहरू-गांधी परिवार

indhraभारत के सार्वजनिक जीवन में नेहरू-गांधी परिवार की उपस्थिति इतनी व्यापक रही है कि उसे प्रेम जैसे संदर्भ में याद करने के अपने कई खतरे हैं. सबसे बड़ा खतरा जानी-पहचानी सूचनाओं और तरह-तरह के अतिरेकी निष्कर्षों के जाल में फंसने का है. फिर इस परिवार की निजता का इतनी बार उल्लंघन हुआ है कि उसकी कथाओं में कुछ भी गोपनीय नहीं रह गया है. उल्टे इन पर तथ्यों से ज्यादा कल्पना की धूल चढ़ चुकी है.

मिसाल के तौर पर, जवाहरलाल नेहरू और एडविना माउंटबेटन के प्रेम प्रसंग पर कई तरह की चर्चाएं रहीं. 1980 में रिचर्ड हफ ने माउंटबेटन की जीवनी लिखते हुए पहली बार इसे तथ्य के रूप में स्वीकार किया, हालांकि माउंटबेटन परिवार ने तत्काल इसका खंडन किया. बाद में माउंटबेटन के दामाद लॉर्ड ब्रेबॉर्न ने नेहरू और एडविना के बीच हुए पत्र-व्यवहार और उनके जीवनीकारों फिलिप जीग्लर और जेनेट मोर्गन का हवाला देते हुए कहा कि नेहरू और एडविना के बीच कभी कुछ शारीरिक नहीं रहा.

एक और लेखिका एलेक्स वॉन तंजेलमान की किताब ‘इंडियन समर, द सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ द एंड ऑफ एन एंपायर’ से यह विवाद कुछ और तीखा हो गया. तब किताब पर आधारित एक फिल्म बनाई जा रही थी जिसकी स्क्रिप्ट पर भारत सरकार ने आपत्ति जताई और स्क्रिप्ट में मौजूद चुंबन, नृत्य और साथ लेटने के दृश्य हटाने की मांग की. हालांकि यह फिल्म बन नहीं सकी. फ्रेंच लेखिका कैथरीन क्लेमेंट ने नेहरू और एडविना के प्रसंग पर पूरा उपन्यास लिख डाला और दावा किया कि एडविना ने माउंटबेटन को लिखे एक पत्र में कहा था कि नेहरू से उनके रिश्ते ज्यादातर प्लेटॉनिक- आध्यात्मिक- थे. ‘ज्यादातर’ का मतलब था कि निश्चय ही दोनों के बीच करीबी संबंधों के मौके आए होंगे.

बहरहाल इस संबंध में निहित ऊष्मा, आत्मीयता और द्वंद्व को समझे बगैर नेहरू-विरोधी अक्सर इसे नेहरू के चरित्र की किसी भारी विसंगति की तरह पेश करते हैं. वे यहां तक आरोप लगाते हैं कि इस रिश्ते की वजह से कश्मीर, पंजाब और बंगाल बंट गए. इस अतिवादी निष्कर्ष में न इतिहास की समझ दिखती है, न व्यक्ति की. निश्चय ही नेहरू के व्यक्तित्व के अपने कई अंतर्विरोध थे जिनका एक सिरा उनकी राजनीति से जुड़ता है तो दूसरा उस निजी ज़िंदगी से जिसमें पत्नी कमला नेहरू के साथ उनके संबंधों में अपनी तरह की दूरी बताई जाती रही. आखिरी दिनों में कमला नेहरू की बीमारी ने नेहरू विरोधियों को जैसे यह कहने का अधिकार सुलभ करा दिया कि नेहरू ने उनकी उपेक्षा की थी. अब इस उपेक्षा के साथ एडविना के प्रेम प्रसंग को जोड़ दें तो नेहरू का वह खलनायकत्व संपूर्ण हो जाता है. जाहिर है, इन संबंधों की निजता और नजाकत की परवाह किए बिना इनके बारे में टिप्पणी करने वालों को उनके राजनीतिक-सामाजिक पूर्वाग्रह संचालित करते रहे हैं.

वैसे इस पूर्वाग्रह के निशाने पर जितना नेहरू रहे, उससे कहीं ज़्यादा उनकी बेटी इंदिरा गांधी रहीं. इंदिरा गांधी ने फिरोज गांधी से प्रेम किया और फिर पिता की मर्जी के विरुद्ध जाकर विवाह किया. बताते हैं कि फिरोज और इंदिरा की मुलाकात मार्च, 1930 में हुई थी जब आजादी की लड़ाई के क्रम में एक कॉलेज के सामने धरना दे रही कमला नेहरू बेहोश हो गई थीं और फिरोज गांधी ने उनकी देखभाल की थी. संयोग से यह सिलसिला काफी आगे तक गया. फिरोज भुवाली के टीबी सैनिटोरियम में कमला नेहरू के साथ रहे और जब कमला इलाज के लिए यूरोप गईं तो वहां भी उन्हें देखने पहुंचे. 1936 को जब कमला नेहरू का देहांत हुआ तब भी फिरोज गांधी उनकी मृत्युशैया के पास थे. शायद फिरोज गांधी के भीतर सेवा और संवेदना का यह नितांत आत्मीय तत्व था जिसने युवा इंदिरा को उनकी ओर आकृष्ट किया होगा. मार्च, 1942 में आखिरकार उन्होंने शादी कर ली. नेहरू ने भी अंत में इसे अपनी स्वीकृति दी. इसके तत्काल बाद भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ जिसमें पति-पत्नी ने जेल भी काटी.

हालांकि बाद के दौर में यह रिश्ता जटिल हुआ. कहना मुश्किल है, पति और पिता के निजी और राजनीतिक संबंधों के बीच बंटी इंदिरा गांधी वह संतुलन नहीं बैठा पाईं, या उनकी निजी जिंदगी में ऐसे झंझावात आए कि तीस के दशक में परवान चढ़ा प्रेम धीरे-धीरे परस्पर खिन्नता की तरफ बढ़ता गया. 1949 में इंदिरा गांधी अपने बच्चों को लेकर पिता का घर संभालने चली आईं जबकि फिरोज लखनऊ में बने रहे. 1952 में रायबरेली से लोकसभा चुनाव जीतने के बाद फिरोज दिल्ली आ गए, लेकिन तब भी इंदिरा जवाहरलाल नेहरू के आवास तीन मूर्ति भवन में ही बनी रहीं. हालांकि फिरोज गांधी का चुनाव अभियान रायबरेली जाकर इंदिरा गांधी ने ही संभाला था.

बाद के वर्षों में यह दूरी कुछ और बढ़ी जब राजनीतिक विवादों ने नेहरू और फिरोज गांधी को आमने-सामने ला खड़ा किया. 1956 में फिरोज गांधी ने तब देश के सबसे अमीर लोगों में एक रामकिशन डालमिया का घपला उजागर किया जो सरकार के बहुत करीब थे. डालमिया को दो साल की जेल हुई. इसके फौरन बाद 1958 में फिरोज ने चर्चित हरिदास मूंदड़ा घोटाला उजागर किया तो एक बार फिर नेहरू सरकार की काफी किरकिरी हुई. मूंदड़ा को जेल जाना पड़ा और वित्त मंत्री टीटी कृष्णमचारी को इस्तीफा देना पड़ा.

हालांकि एक साल बाद ही फिरोज गांधी को दिल का दौरा पड़ा. इस दौर में फिर इंदिरा गांधी ने उनकी देखभाल की. लेकिन 1960 में दूसरे दिल के दौरे के साथ फिरोज चल बसे और आजादी की लड़ाई के समय परवान चढ़ी एक प्रेमकथा अपने अनिश्चित और धुंधले अंत के साथ खत्म हो गई.

फिरोज और इंदिरा गांधी के दोनों और एक-दूसरे से काफी अलग मिजाज के बेटों ने भी प्रेम विवाह किया- संजय गांधी ने मेनका के साथ और राजीव गांधी ने सोनिया के साथ. यह देखना बेहद दिलचस्प है कि इन दोनों जोड़ियों का अपनी पारिवारिक विरासत के साथ क्या रिश्ता रहा.

कहते हैं, मेनका जब सिर्फ 17 साल की थीं तब बॉम्बे डाइंग के एक विज्ञापन में उन्हें देख संजय उनकी तरफ आकृष्ट हुए. महज एक साल बाद उन्होंने मेनका से शादी कर ली. संजय गांधी दुस्साहसी और महत्वाकांक्षी नौजवान थे जिन्होंने अपनी मां की सत्ता का भरपूर इस्तेमाल किया. एक दौर में संजय और मेनका देश के दो सबसे ताकतवर नौजवान थे जिनके इशारों पर सरकार चलती थी. इमरजेंसी के दौर की ज्यादतियों और इंदिरा गांधी के पतन के लिए भी संजय को जिम्मेदार बताया जाता रहा. हालांकि कई लोग 1980 में इंदिरा गांधी की वापसी का श्रेय भी संजय को देते रहे. 23 जून 1980 को दिल्ली में एक विमान हादसे में संजय गांधी की मौत हो गई. कुछ ही समय के बाद मेनका अपनी सास से नाराज होकर अपने छोटे-से बेटे वरुण का हाथ थामे घर से निकल गईं. इसके बाद तो मेनका और वरुण जीवन और राजनीति की राहों पर इतने दूर और अलग हो चुके हैं कि यह याद करना अजीब-सा लगता है कि कभी यह परिवार इंदिरा और नेहरू-गांधी की विरासत संभालने का सबसे आक्रामक दावेदार था.

दूसरी तरफ इंदिरा और संजय गांधी के रहते राजीव गांधी विमान चलाकर खुश थे. 1965 में कैंब्रिज के एक रेस्टोरेंट में उनकी सोनिया गांधी से मुलाकात हुई थी. तीन साल बाद, 1968 में उन्होंने सोनिया से शादी कर ली. यह देखना भी कम दिलचस्प नहीं कि देश के सबसे ताकतवर घराने का सबसे बड़ा बेटा होते हुए भी राजीव की सत्ता में दिलचस्पी नहीं थी. उनकी पत्नी सोनिया भी खुद को इन सबसे दूर रखना चाहती थीं. जब 1977 में इंदिरा गांधी चुनाव हार गईं तब यह अफवाह भी उड़ाई गई कि राजीव इटली जाकर बस सकते हैं. 1980 में संजय गांधी की मौत के बाद इंदिरा आखिरकार उन्हें राजनीति में ले आईं. सोनिया ने ख़ुद स्वीकार किया है कि वे इस फैसले के पूरी तरह खिलाफ थीं और नहीं चाहती थीं कि राजीव राजनीति में आएं. लेकिन आखिरकार उन्होंने महसूस किया कि नेहरू-गांधी परिवार में होने की कुछ क़ीमत तो उन्हें अदा करनी ही पड़ेगी.

और यह कीमत एक लिहाज से काफी महंगी साबित हुई. 1984 में इंदिरा गांधी की आकस्मिक मौत हो गई और राजनीति में नितांत अनुभवहीन राजीव गांधी ने देश की कमान संभाल ली. फिर 1991 में 21 मई का वह दिन भी आया जब श्रीपेरुंबदूर की एक सभा में मौत माला लिए आई, उनके पांव के पास झुकी और फट गई.

सोनिया गांधी इसके बाद बिल्कुल अकेली थीं- दो छोटे-छोटे बच्चों राहुल और प्रियंका का हाथ थामे. उन्होंने खुद को राजनीति से दूर रखने की कोशिश की. पूरे सात साल उन्होंने दस जनपथ का वह दरवाजा बंद रखा जो कांग्रेस मुख्यालय में खुलता है. लेकिन सोनिया घर के दरवाजे बंद कर सकती थीं, उस नियति और विरासत के नहीं जिसके साथ वे जाने-अनजाने जुड़ चुकी थीं.

इसके बाद का सफर भी कम नाटकीय नहीं है. उनके राजनीति में आने पर संदेह जताया गया, उनके विदेशी मूल पर सवाल उठे, उनकी हिंदी की खिल्ली उड़ाई गई,  उन्हें कमजोर बताया गया. लेकिन 2004 आते-आते तस्वीर बदल चुकी थी. 2004 में यूपीए को मिली चुनावी कामयाबी ने यह सुनिश्चित कर दिया कि वे देश की प्रधानमंत्री बनेंगी. उनके समर्थन में राष्ट्रपति को चिट्ठियां तक चली गईं. उनके विरोध में सुषमा स्वराज और उमा भारती जैसी नेत्रियों ने बाल मुंडाने तक के एलान कर दिए.

लेकिन इन सबके बीच बिल्कुल आखिरी लम्हे में सोनिया मुड़ीं, उन्होंने कहा कि उन्हें प्रधानमंत्री पद नहीं चाहिए. अब इस फैसले की बहुत तरह से व्याख्या होती है. चापलूस कांग्रेसी संस्कृति इसे सोनिया के त्याग और उनकी महानता के बहुत सतही और कभी-कभी भोंडे बखान में बदल डालती है. विरोधी इसे ऐसा चालाकी भरा कदम बताते हैं जिसके बाद सोनिया सुपर प्रधानमंत्री हो गईं.

लेकिन शायद वह झिलमिलाता हुआ लम्हा एक बहुत मानवीय लम्हा है. उस लम्हे में सोनिया गांधी को अपना पूरा भारतीय अतीत याद आया होगा, राजीव गांधी याद आए होंगे, सत्ता की ताकत और उसकी सीमाएं याद आई होंगी, इसका नशा और वह विडंबना भी याद आई होगी, जिसने एक ओर नेहरू-गांधी परिवार को देश का सबसे ताकतवर परिवार भी बनाया और दूसरी ओर सबसे वेध्य भी. शायद ये सारे धागे कहीं ज्यादा मजबूत साबित हुए- सत्ता का मोहपाश कम से कम उस घड़ी में सोनिया को नहीं बांध सका. इस एक फैसले से वे भारतीय राजनीति में सबसे बड़ी, सबसे ऊपर हो गईं. राजीव गांधी के प्रेम का इससे बड़ा प्रतिदान और क्या हो सकता है.

नेहरू-गांधी परिवार की यह प्रेम कहानी और आगे बढ़ चुकी है. प्रियंका ने रॉबर्ट वाड्रा से विवाह किया है. राहुल गांधी को लेकर तरह-तरह की अटकलें चलती रही हैं. लेकिन इन सबके बीच कम से कम दो-तीन बातें साफ हैं. एक तो यह कि जीवन अलग-अलग खानों में पूरी तरह बंट नहीं पाता. ऐसा संभव नहीं है कि प्रेम अपनी जगह रहे, राजनीति अपनी जगह. निजता अपनी जगह और सार्वजनिकता अपनी जगह. सब एक-दूसरे में घुसपैठ करते हैं- जीवन और रिश्तों का रसायन शायद बनता भी इसी तरह है. फिर जब आप एक ऐसे परिवार से हों जिस पर पूरे देश की निगाह रहती हो तो निजता बार-बार खंडित होती है, रिश्ते बार-बार कसौटी पर चढ़ाए जाते हैं और अकसर अलग-अलग ढंग से उनकी कीमत चुकानी पड़ती है. नेहरू-गांधी परिवार ने भी यह कीमत चुकाई- आपसी रिश्तों की चुभन से लेकर बाहरी चर्चाओं तक की छाया उनके प्रेम पर पड़ी.

लेकिन इसमें शक नहीं कि उन्होंने सरहदें तोड़ीं, प्रेम किए, जोखिम उठाए और अंततः अपनी शर्तों पर जीते रहे, जी रहे हैं.

राजुला-मालूशाही (उत्तराखंड)

कत्यूरी राजवंश के एक राजकुमार मालूशाही और तिब्बत सीमा निवासी एक साधारण व्यापारी की पुत्री राजुला के प्रेम से उपजी यह कथा सदियों बाद भी उत्तराखंड के लोक गीतों में जिंदा है. सभी प्रेम कथाओं की तरह इस कथा में भी सामाजिक, जातीय, क्षेत्रीय और परंपरागत विषमताओं की बाधाएं हैं. कहानी का खलनायक दूसरे देश तिब्बत का है. पर दोनों प्रेमी अपनी जान की बाजी लगाते हुए दुनिया के इन बंधनों को तोड़ कर अंतत: एक होते हैं.

कथा की शुरुआत बैराठ (अब कुमाऊं में पड़ने वाला चौखुटिया क्षेत्र) से होती है जहां का संतानहीन राजा दुलाशाह संतान प्राप्ति के लिए बागनाथ में भगवान शिव की आराधना कर रहा है. वहीं पर शौका प्रदेश का एक व्यापारी सुनपत भी संतान की आकांक्षा लिए तप कर रहा है. दुलाशाह सुनपत को वचन देता है कि यदि उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है तो वह उस पुत्र की शादी भगवान के ही आशीर्वाद से होने वाली सुनपत की पुत्री से करेगा.

दुलाशाह के घर राजकुमार मालूशाही का जन्म होता है और सुनपत के घर सुंदर कन्या राजुला का. पर दुर्योग से राजकुमार के पैदा होने के कुछ समय बाद दुलाशाह की मृत्यु हो जाती है. राजा के मरते ही राजपरिवार अपना वचन भी भूल जाता है. बड़ा होते-होते राजकुमार की वीरता और राजुला की सुंदरता के किस्से कुमाऊं सहित पड़ोसी देशों में भी फैल जाते हैं. इन चर्चाओं को सुन कर हूणदेश (तिब्बत) का एक ताकतवर व्यापारी विखीपाल राजुला के पिता से उसका हाथ मांगता है. वह धमकी भी देता है कि यदि प्रेम-पूर्वक राजुला की शादी उससे नहीं की गई तो वह शौका प्रदेश को तहस-नहस करके राजुला को जबरदस्ती ले जाएगा. वर्षों से वैराठ से कोई संदेश न आने से असमंजस में पड़ा सुनपत, विखीपाल की धमकी से डरते हुए उसके आगे झुक जाता है.

इधर, राजुला और मालूशाही एक-दूसरे के सपने में आते हैं और एक-दूसरे को देखते ही मिलने के लिए व्याकुल हो जाते हैं. अपनी मां से रंगीले प्रदेश बैराठ के बारे में सुन कर राजुला हीरे की एक अंगूठी ले कर अकेली मालूशाही से मिलने पहुंचती है. उधर राजपरिवार मालूशाही को एक जड़ी सुंघा कर सुला देता है. राजुला अपने प्रियतम को अंगूठी पहना कर और संदेश छोड़ कर वापस अपने पिता के पास आ जाती है जहां उसके विवाह की तैयारियां चल रही होती हैं. जागने पर मालूशाही को जब राजुला का संदेश मिलता है तो वह उसे साधु भेष में पाने के लिए शौका प्रदेश की ओर बढ़ता है. वहां पहुंच उसे पता चलता है कि विखीपाल शादी करके रालुजा को हूण-देश ले जा चुका है. मालूशाही हूण-देश की ओर बढ़ता है. रास्ते में उसे मारने की कोशिश होती है. लेकिन वह राजुला के महल तक पहुंचने में कामयाब होता है. लेकिन यहां विखीपाल उसे जहर देकर मार देता है. पर गुरु गोरखनाथ मालूशाही को अपनी तांत्रिक विद्या से बचा लेते हैं. अंत में प्यार की जीत होती है. विखीपाल को युद्ध में हरा कर मालूशाही राजुला को बैराठ लाकर उससे विवाह करता है.

लोरिक चंदा (छत्तीसगढ़)

लोक जीवन में रचने-बसने वाली गाथाएं सिर्फ इसलिए जिंदा नहीं रहतीं कि वे एक आश्चर्य लोक का निर्माण करती हैं. वे लोगों के दिलों में इसलिए भी धड़कती हैं कि उनमें प्रेरणा देने वाले अनिवार्य तत्व के तौर पर प्रेम रहता है. छत्तीसगढ़ की सर्वाधिक चर्चित लोकगाथा लोरिक चंदा भी ऐसी ही है. इसकी नायिका चंदा राजा महर की लड़की है. राजा ने उसकी शादी एक ऐसे व्यक्ति से कर दी है जो अक्सर बीमार रहता है. चंदा जब अपने पति के घर जा रही होती है तभी एक व्यक्ति बठुआ उसकी इज्जत लूटने की कोशिश करता है. इसी समय लोरिक वहां पहुंच जाता है और चंदा को बचाता है.  चंदा इस शादीशुदा व्यक्ति की वीरता पर मुग्ध हो जाती है. चंदा की सुंदरता को देखकर लोरिक भी अपनी सुध-बुध खो बैठता है. दोनों की मेल-मुलाकात परवान चढ़ती है. एक दिन दोनों घर से भागने का फैसला कर लेते हैं. विवाहित प्रेमियों के इस फैसले से क्षुब्ध चंदा का पति वीरबावन उन्हें मारने की कोशिश करता है लेकिन नहीं मार पाता. मार्ग में लोरिक को सांप काट लेता है, लेकिन वह महादेव और पार्वती की कृपा से ठीक हो जाता है. आगे चलकर लोरिक करिंघा के राजा से भी युद्ध करते हुए जीत हासिल करता है. चंदा के साथ सुखपूर्वक जीवनयापन के दौरान एक रोज लोरिक को यह खबर मिलती है कि उसकी पहली पत्नी मंजरी भीख मांगने के कगार पर आ खड़ी हुई है और गायें भी कहीं चली गई हैं. लोरिक पत्नी को बचाने और गायों की खोज के लिए चंदा के साथ वापस अपने गांव आता है. सौतिया डाह की वजह से मंजरी और चंदा के बीच मारपीट होती है. इस मारपीट में मंजरी जीत जाती है. लोरिक यह देखकर दुखी होता है और फिर सब कुछ छोड़कर हमेशा के लिए कहीं चला जाता है. वस्तुतः लोरिक चंदा की गाथा असमानता के बीच समानता पैदा करने की एक जादुई कड़ी के रूप में भी देखी-समझी जाती है क्योंकि नायक यदुवंशी है और गाय चराता है जबकि नायिका राजा की बेटी है. प्रसिद्ध लोक मर्मज्ञ रामहृदय तिवारी इस गाथा को दो मानवीय प्राणों के प्यार की तलाश की अतृप्त आकांक्षा मानते हैं. लोकगाथाओं पर विशद अध्ययन करने वाले कथाकार रमाकांत श्रीवास्तव कहते हैं कि समाज विवाहित स्त्री और पुरुष के प्रेम प्रसंग  को अच्छे नजरिये से नहीं देखता लेकिन लोरिक-चंदा की गाथा में रूढ़ियां टूटती हुई दिखती हैं. इसमें हम विवाहितों के परिपक्व प्रेम से परिचित होते हैं.

छैला संदू (झारखंड)

झारखंड की राजधानी रांची के आसपास कई झरने हैं. लेकिन इन सबसे अलग है दशमफॉल. कई लोग कहते हैं कि यहां झरने से गिरने वाले पानी के प्रवाह से संगीत की ध्वनि निकलती है. कुछ को बांसुरी की आवाज सुनाई पड़ती है तो कइयों को बंसी के साथ नगाड़े-ढोल की थाप का भी एहसास होता है. इस धुन और ध्वनि के पीछे एक प्रेम कहानी को जोड़ा जाता है.

लोकमानस में रची-बसी कहानी यह है कि एक आदिवासी युवक था छैला संदू. देखने में बेहद आकर्षक. गीत-संगीत में महारत रखनेवाला. उसकी बांसुरी की धुन सुनकर एक राजकुमारी (बूंदी) उस पर फिदा हो गई. राजा को प्रेम मंजूर नहीं था. राजकुमारी जिद कर बैठी कि वह उसी से विवाह करेगी. राजा ने एक शर्त रखी कि संगीत की एक प्रतियोगिता होगी. उसमें छैला का राजदरबार के संगीत विशेषज्ञ से मुकाबला होगा. जीत छैला की ही होती है. मजबूरन राजा को हामी भरनी पड़ती है. राजकुमारी के जंगल में रहने और गरीबी में दुख सहन करने की बात सोच छैला इस विवाह प्रस्ताव को ठुकरा देता है. छैला की शादी दूसरी जगह करवा दी जाती है.

दूसरी ओर छैला की भाभी भी उससे बेपनाह मोहब्बत करती है. अपने पति की मृत्यु के बाद वह उससे विवाह करना चाहती है. लेकिन छैला नदी पार के गांव में नारो नाम की लड़की से प्रेम करने लगता है. वह रोज शाम को ढोल, नगाड़ा और बांसुरी पीठ पर बांध कर गोरार नामक एक जंगली लता से लटककर नदी पार करता है और रात भर नारो के साथ नाचता-गाता है. छैला की भाभी को यह नागवार गुजरता है. एक दिन जब छैला नदी पार कर रहा होता है तो उसकी भाभी के इशारे पर कुछ लोग वह लता काट देते हैं.  बरसात का मौसम. नदी अपने पूरे उफान पर. अपने वाद्ययंत्रों के साथ नदी में गिरकर छैला मर जाता है. इससे अनजान नारो उसका बिना खाए-पीए उसका इंतजार करती है और सातवें दिन उसकी भी मौत हो जाती है. कहा जाता है कि छैला आज भी बंसी और नगाड़ा बजाकर नारो को बुलाता है.

ढोला-मारू (कच्छ)

यों तो थार के चप्पे-चप्पे पर प्रेमकथाएं बिखरी पड़ी हैं लेकिन ढोला-मारू की प्रेमकथा सबसे लोकप्रिय है. यहां हर तीज-त्योहार पर गाए जाने वाले लोकगीतों से लेकर लोकचित्रों और लोकनाटकों में ढोला-मारू को आदर्श दंपति का दर्जा मिला हुआ है. कथा में पूंगल देश का राजा अपने यहां अकाल पड़ने पर नरवर राज्य आता है. यहां वह अपनी बेटी मारू का विवाह नरवर के राजकुमार ढोला से करता है. उस समय ढोला की उम्र तीन और मारू की डेढ़ साल होती है. सुकाल आने पर पूंगल का राजा परिवार सहित अपने महल लौट जाता है. कई साल बीत जाते हैं.

ढोला बचपन के विवाह को भूल जाता है. बड़ा होने पर उसका दूसरा विवाह मालवणी से हो जाता है. मालवणी को अपनी सौतन मारू और उसकी सुंदरता का किस्सा मालूम है. इसलिए वह पूंगल से आया कोई भी संदेश ढोला तक नहीं पहुंचने देती. उधर मारू एक रात सपने में ढोला को देखती है. उसके बाद उसके जी को चैन नहीं मिलता. मारू की यह हालत देख पूंगल का राजा एक चतुर गायक को नरवर भेजता है. गायक गाने के बहाने ढोला तक मारू का संदेश पहुंचाता है. गीतों में पूंगल और मारू का नाम सुनते ही ढोला को अपने पहले विवाह की याद आ जाती है. ढोला मारू से मिलने के लिए बेचैन हो उठता है, मगर मालवणी उसे किसी न किसी बहाने रोकती रहती है. एक दिन ढोला मारू से मिलने तेज ऊंट पर सवार होकर निकल ही पड़ता है. मारू ढोला को देख झूम उठती है. जब वह मारू को लेकर नरवर के लिए लौटता है तो रास्ते में खलनायक उमर सूमरा मारू को छीनने की चाल चलता है. उमर सूमरा घोड़े पर बैठ कर उनका पीछा करता है, लेकिन हवा की रफ्तार से ऊंट दौड़ाता ढोला कहां उसके हाथ आने वाला. नरवर लौटकर वह मालवणी को भी मना लेता है. अंततः ढोला-मारू के साथ मालवणी भी खुशी-खुशी रहने लगती है. राजस्थानी भाषा के नामी नाट्यकर्मी डॉ अर्जुनदेव चारण ने दो स्त्रियों के बीच बंटी इस कथा को प्रेम की बजाय जीवन की समरसता और उसमें संतुलन बनाने की कथा माना है.

जेठवा-उजली (राजस्थान)

जेठवा के विरह में उजली के छंदों को जोड़कर बुनी गई बड़ी मार्मिक लोककथा है जेठवा-उजली. खास तौर पर गुजरात और राजस्थान के सीमावर्ती इलाकों में लोकप्रिय यह कथा यहां की संस्कृति के दो अहम पहलुओं ‘प्रेम’ और ‘शरणागत की रक्षा’ को दिखाती है. कथा में शिकार खेलने निकला धूमलीनगर का राजकुमार जेठवा अपने साथियों से बिछुड़ जाता है. एक तो पौष की ठंड भरी रात और उस पर भारी ओलावृष्टि. वह जंगल में ही बेहोश हो जाता है. अंधियारी रात में एक झोपड़ी से आती रोशनी देख जेठवा का घोड़ा उसे बेहोशी की हालत में झोपड़ी के पास ले आता है. यहां अमरा चारण अपने बूढ़े शरीर का बोझा लिए जाग रहा है. घोड़े की हुनहुनाहट सुन जब वह बाहर आता है तो एक अनजान आदमी का अकड़ा शरीर देख दंग रह जाता है. शरणागत की रक्षा को वह अपनी नैतिक जिम्मेदारी तो समझता है लेकिन उसके शरीर को गर्म करने के लिए उसके पास न आग जलाने की लकडि़यां हैं और न पर्याप्त कपड़े. तब वह अपनी बेटी उजली को उसकी जवान देह की गर्मी से शरणागत के शरीर को गर्म करने के लिए कहता है. उजली के आनाकानी करने पर वह शरणागत की रक्षा को मनुष्य का पहला धर्म बताता है. यहां सामाजिक विवाह के सभी दबावों को तोड़कर उजली अपनी देह की गर्मी से जेठवा को नया जन्म देती है. होश में आने के बाद परदेसी उसे अपना लगने लगता है. जेठवा भी उसे विवाह का वचन देकर धूमलीनगर लौट जाता है. लंबी प्रतीक्षा के बाद भी जब जेठवा उजली की सुध नहीं लेता तो उजली उसे कई संदेश भेजती है. लेकिन कोई जवाब न आने पर वह उससे मिलने धूमलीनगर जाती है. यहां राज्य की व्यवस्था उजली के त्याग को पहचान नहीं पाती और जेठवा का पिता चारण की बेटी के राजपूतों की बहन होने का हवाला देकर विवाह की बात नामंजूर कर देता है. जेठवा भी पिता के क्रोध का सामना नहीं कर पाता. इसके बाद उजली के रोम-रोम से आग फूट पड़ती है, वह जल उठती है और गुस्से में अपनी देहलीला को जल की अथाह गहराई में शांत कर देती है. राजस्थानी भाषा के महान हस्ताक्षर विजयदान देथा ने जेठवा-उजली की कथा को स्त्री की अस्मिता और जातीय विमर्श की बहुत पुरानी कथाओं में से एक महत्वपूर्ण कथा के तौर पर चुना है.

प्रश्नों से घिरा प्रेम

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मंगलवार, 14 जनवरी. नए साल में फ्रांस के राष्ट्रपति का पहला पत्रकार सम्मेलन. लगभग 600 पत्रकार राष्ट्रपति भवन एलिजे प्रासाद में उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे. पूरा  मंत्रिमंडल भी वहां बैठा हुआ था. शाम साढ़े चार बजे राष्ट्रपति फ्रोंस्वा ओलांद आए. फ्रांसीसी तिरंगे और नीली पृष्ठभूमि पर बारह सितारों वाले यूरोपीय संघ के झंडे के बीच खड़े हो कर वे अगले 45 मिनट तक फ्रांस की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था, यूरोपीय संघ, देश में नस्लवाद और यहूदियों के प्रति घृणा से ले कर अफ्रीका में तैनात फ्रांसीसी सैनिकों जैसे अनेक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय विषयों पर बड़े धैर्य से बोले.

लेकिन, उनके धैर्य की असली परीक्षा तब हुई जब घड़ी में पांच बज कर 18 मिनट होने जा रहे थे. एक वरिष्ठ पत्रकार ने वह चुटीला प्रश्न हॉल में उछाल ही दिया जो फ्रांस के जनमानस को पिछले पांच दिन से कुरेद रहा था–‘क्या वालेरी त्रियरवाइलर आपकी आगामी अमेरिका यात्रा के समय अब भी प्रथम महिला के तौर पर ही साथ रहेंगी?’

वालेरी त्रियरवाइलर राष्ट्रपति ओलांद के भाषण के समय तक उनकी जीवनसंगिनी थीं. दोनों का विवाह नहीं हुआ था, तब भी त्रियरवाइलर को ही देश की प्रथम महिला होने का सम्मान मिला हुआ था. उनके बारे में कोई प्रश्न उठता ही नहीं, यदि फ्रांसीसी पत्रिका ‘क्लोजर ‘ का नवीनतम अंक 10 जनवरी से बाजार में नहीं होता और त्रियरवाइलर इस बीच अस्पताल में न पहुंचतीं. राष्ट्रपति की नई प्रणय-लीला के ‘मानसिक आघात’ ने उन्हें अस्पताल पहुंचा दिया था. अपने नए प्रेम के लिए कुछ भी कर गुजरने के बंबइया फिल्मों जैसे राष्ट्रपति महोदय के मनचले अंदाज के बारे में पत्रिका ने सात पृष्ठों वाली एक चटपटी रिपोर्ट छापी थी. इसके मुताबिक 59 वर्षीय राष्ट्रपति महोदय 41 वर्षीय फिल्म अभिनेत्री जूली गाये के प्रेम-पाश में इस तरह सुध-बुध खो बैठे हैं कि रातें उनके साथ बिताने के लिए राष्ट्रपति भवन से गायब हो जाते हैं और दुपहिया स्कूटर पर बैठ कर प्रेमिका के घर के फेरे लगाते हैं.

रोमांस के रसिया राष्ट्रपति
जूली गाये जिस फ्लैट में रहती हैं वह राष्ट्रपति भवन के पास ही है. बात कानोंकान दूर तक न पहुंचे, इसलिए केवल एक ही अंगरक्षक राष्ट्रपति ओलांद के साथ रहा करता है. स्कूटर-सवारों के लिए सिर पर हेलमेट लगाने की अनिवार्यता राष्ट्रपति ओलांद के लिए अपना चेहरा छिपाने का सबसे उपयुक्त मुखौटा बन गई है. रातों को सड़कों की रोशनी में  हेलमेट से ढका चेहरा साफ-साफ पहचान सकना वैसे भी मुश्किल ही है.

सौतिया-डाह के चलते अस्पताल पहुंच चुकी उनकी जीवनसंगिनी के भावी दर्जे के बारे में भी पत्रकार सम्मेलन के दौरान सवाल हो सकता है, इसके लिए राष्ट्रपति ओलांद भी मन ही मन शायद तैयार रहे होंगे. इस ठेठ प्रश्न पर वे बौखलाए या तिलमिलाए नहीं. स्वर किंचित कांपा, पर अपना संतुलन बनाए रखते हुए उन्होंने कहा, ‘मैं आपका प्रश्न समझ रहा हूं… अपने निजी जीवन में हम मनुष्यों को (कुछ) परीक्षाएं देनी पड़ती हैं. ऐसी परीक्षाएं, जो संबंधों की अंतरंगता के दायरे में हल करनी होती हैं. मेरा सिद्धांत है कि जो कुछ निजी है, उसका हल भी निजी तौर पर ही निकाला जाए. यह जगह और यह समय इस प्रश्न पर चर्चा करने के उपयुक्त नहीं है. लेकिन, मैं आपसे वादा करता हूं कि मैं इस प्रश्न का उत्तर उस यात्रा (अमेरिका यात्रा) की तारीख से पहले ही दे दूंगा जिसका यहां उल्लेख हुआ है.’

सच स्वीकार
राष्ट्रपति महोदय ने प्रश्न का कोई सीधा उत्तर भले ही नहीं दिया, लेकिन सच्चाई को अप्रत्यक्ष ढंग से पूरे देश के सामने स्वीकार करने में कोई टालमटोल भी नहीं की. अपने उत्तर से उन्होंने यह अप्रत्यक्ष संकेत भी दे दिया कि वे अपनी नई प्रेम-कहानी को उजागर करने वाली पत्रिका के विरुद्ध कोई कानूनी कार्रवाई भी नहीं करेंगे. पत्रिका का नया अंक जब बाजार में आया था तब उन्होंने धमकी दी थी कि वे उसके विरुद्ध कानूनी कदम उठाएंगे. उनकी नई हृदयेश्वरी हालांकि पत्रिका पर 50 हजार यूरो (लगभग 37 लाख रुपये) का दावा ठोकने को उद्यत मालूम पड़ती हैं.

अपनी जीवनसंगिनी और देश की ‘प्रथम महिला’ वालेरी त्रियरवाइलर के दर्जे के बारे में राष्ट्रपति ओलांद का कहना था –‘इस तरह का कोई (औपचारिक) दर्जा नहीं है, यह केवल एक चलन है. मेरे लिए महत्व इस पारदर्शिता का है कि (मेरी) जीवनसंगिनी का नाम सार्वजनिक हो और सबको पता रहे.’ लेकिन, उस समय अस्पताल में पड़ी मदाम त्रियरवाइलर की तबीयत के बारे में उनका उत्तर जरूर बहुत ही बेरुखा और टरकाऊ था– ‘वे आराम कर रही हैं. और कोई टिप्पणी नहीं.’ इससे यही संकेत मिल रहा था कि राष्ट्रपति की 41 वर्षीया फिल्मी प्रेमिका के आगे 48 वर्षीया पत्रकार-जीवनसंगिनी का पत्ता साफ ही समझा जाए.

मदाम त्रियरवाइलर राष्ट्रपति भवन में रहते हुए भी फ्रांसीसी सचित्र-साप्ताहिक ‘पारी माच’ (अंग्रेजी में पेरिस मैच) के लिए लिखती रही हैं. इस पत्रिका में उनके एक पत्रकार-मित्र फ्रेदरीक गेर्शेल भी काम करते हैं. गेर्शेल के हवाले से पेरिस के सर्वाधिक बिक्री वाले दैनिक ‘ले पारििजयें’ ने 14 जनवरी को लिखा कि साप्ताहिक पत्रिका ‘क्लोजर’ की रिपोर्ट आने के साथ ही राष्ट्रपति ओलांद ने अपनी जीवनसंगिनी को पहली बार बताया कि उनके और फिल्म अभिनेत्री जूली गाये के बीच क्या चल रहा है. राष्ट्रपति महोदय की बातें सुन कर त्रियरवाइलर को ऐसा लगा मानो फ्रांस की सबसे तेज बुलेट-ट्रेन ‘टीजीवी मेरे ऊपर से गुजर गई.’ इससे पहले वे यही सोच रही थीं कि ‘क्लोजर’ पत्रिका में जो कुछ छपा है वह बकवास है.

दैनिक ‘ले पारिजियें’ के अनुसार, त्रियरवाइलर ने अपने पत्रकार-मित्र को बताया कि राष्ट्रपति ओलांद ने पत्रिका में छपी सारी बातें स्वीकार कीं, कोई बहानेबाजी नहीं की. न तो उन्होंने रातों को चोरी-छिपे अपनी स्कूटर-यात्राओं को झुठलाया और न ही यह कि वे अपनी नई प्रेमिका गाये के यहां कितनी रातें बिता चुके हैं. उनके नए प्रणय की अफवाहें कुछ समय से हवा में थीं. लेकिन, मदाम त्रियरवाइलर ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया था. इसलिए सच्चाई सुनने के बाद उनकी हालत ऐसी थी जैसे उन्हें किसी ‘राजनीतिक-भावनात्मक सुनामी’ ने झकझोर दिया हो. इसीलिए उन्हें आनन-फानन में अस्पताल में भर्ती होना पड़ा.

क्षमा करने को तैयार
‘ले पारिजियें’ के अनुसार, त्रियरवाइलर ने अपने पत्रकार मित्र से संभवतः यह भी कहा कि वे राष्ट्रपति ओलांद को क्षमा करने के लिए तैयार हैं, बशर्ते कि वे जल्द ही तय करें कि क्या वे (त्रियरवाइलर) ही अब भी देश की ‘प्रथम महिला’ हैं. दोनों भले ही बिना शादी किए छह वर्षों से साथ-साथ रह रहे थे, फिर भी त्रियरवाइलर के लिए एक अलग सरकारी स्टाफ और कार्यालय था. देश-विदेश में होने वाले औपचारिक समारोहों में वे राष्ट्रपति ओलांद के साथ इस तरह उपस्थित होती रही हैं मानो वही उनकी पत्नी हैं. बीती सात जनवरी को दोनों अंतिम बार सार्वजनिक तौर पर साथ-साथ देखे गए थे. त्रियरवाइलर अगली 16 फरवरी को 49 साल की हो जाएंगी. 11 फरवरी को राष्ट्रपति ओलांद को अमेरिका जाना है. अपने पत्रकार सम्मेलन में उन्होंने वादा किया था कि इस तारीख से पहले ही स्पष्ट कर देंगे कि उनके साथ कोई ‘प्रथम महिला’ होगी या नहीं.

हालांकि इस बीच जो हुआ उससे ऐसा लग तो रहा नहीं था कि राष्ट्रपति ओलांद की अमेरिका यात्रा के समय कोई ‘प्रथम महिला’ उनके साथ होंगी. मदाम त्रियरवाइलर लगभग एक सप्ताह अस्पताल में रहीं. राष्ट्रपति महोदय उन्हें देखने केवल एक बार अस्पताल गए– 16 जनवरी के दिन. दो दिन बाद मदाम त्रियरवाइलर को वहां से छुट्टी मिल गई. लेकिन, राष्ट्रपति महोदय ने उन्हें राष्ट्रपति भवन के बदले पेरिस के पास वर्साई के ‘ला लांतेर्न’ नाम के एक पुराने महल में भिजवा दिया, जो देश के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों की आरामगाह के काम आता है. अपने पत्रकार सहकर्मी के साथ हुई त्रियरवाइलर की बातचीत के आधार पर उनकी अपनी ही पत्रिका ‘पारी माच’ ने लिखा कि राष्ट्रपति महोदय अपने लिए और समय चाहते हैं और उनकी अब तक की जीवनसंगिनी को डर लगने लगा है कि वे कहीं ‘बेघर’ न हो जाएं.

त्रियरवाइलर के साथ अनबन के बाद राष्ट्रपति ओलांद अपनी पहली विदेश यात्रा पर 21 जनवरी को नीदरलैंड (हॉलैंड) में थे– अकेले. वहां पत्रकारों द्वारा यह पूछने पर कि क्या वालेरी त्रियरवाइलर अब भी उनकी जीवनसंगिनी हैं, उनका टका-सा जवाब था-‘वालेरी त्रियरवाइलर अब बेहतर हैं.’ लेकिन, बताया जाता है कि पत्रकार सम्मेलन के बाद कुछ पत्रकारों से उन्होंने कहा कि ‘भविष्य में मैं एलिजे प्रासाद में कोई प्रथम महिला नहीं चाहता.’ दूसरी ओर, अब तक की प्रथम महिला ने ट्वीट द्वारा उन सभी लोगों के प्रति आभार प्रकट किया जिन्होंने उन्हें ईमेल या सोशल नेटवर्क द्वारा अपना समर्थन दिया. लेकिन, उनका आभार प्रदर्शन बहुत क्षणिक निकला. रविवार 26 जनवरी को मदाम त्रियरवाइलर को भारत जाना था. राष्ट्रपति ओलांद ने उनकी भारत-यात्रा की ठीक पूर्वसंध्या पर फ्रांसीसी समाचार एजेंसी एफपी को लिख कर बताया कि मदाम त्रियरवाइलर के रवाना होने से पहले ही वे इस बात को ‘सार्वजनिक कर देना चाहते हैं’ कि अब दोनों अलग हो गए हैं. सीधे संबंधित पक्ष से मिली यह खबर एजेंसी के लिए एक बड़ा स्कूप थी. उसने इसे तुरंत प्रचारित कर दिया.

चुनाव लड़ते लड़ी आंखें
बताया जाता है कि अपनी नई स्वप्न-सुंदरी जूली गाये से राष्ट्रपति ओलांद का परिचय अक्टूबर, 2011 में उस समय हुआ जब वे राष्ट्रपति-पद का चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे. गाये ने एक चुनाव-विज्ञापन के माध्यम से उनके चुनाव-प्रचार में हाथ बंटाया था. चुनाव मई, 2012 में हुए थे. फ्रांस की सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार ओलांद तत्कालीन राष्ट्रपति निकोला सार्कोजी को हराकर फ्रांस के 24वें राष्ट्रपति बने थे. 17 वर्ष बाद फ्रांसीसी सोशलिस्ट पार्टी का कोई नेता दुबारा सत्ता के शिखर पर पहुंचा था और 31 साल बाद समाजवादियों को संसद में एकछत्र बहुमत मिला था. नए राष्ट्रपति ओलांद और 2007 से उनकी नई जीवनसंगिनी वालेरी त्रियरवाइलर के बीच उन्हीं दिनों पहली बड़ी खटपट भी हुई थी. कारण जूली गाये नहीं, 2007 तक 30 वर्षों से ओलांद की अविवाहिता जीवनसंगिनी रह चुकी सेगोलेन रोयाल थीं. रोयाल 2007 में सोशलिस्ट पार्टी की ओर से राष्ट्रपति-पद का चुनाव लड़ चुकी थीं और उस समय राष्ट्रपति बने निकोला सार्कोजी से बहुत थोड़े अंतर से हार गई थीं. ओलांद के चार वयस्क बच्चों की मां सेगोलेन रोयाल, 2012 वाले चुनाव के समय, सोशलिस्ट पार्टी की ओर से संसद के लिए चुनाव लड़ रही थीं. मतदान के पहले दौर में वे अपने निर्वाचन क्षेत्र में सबसे आगे थीं. लेकिन, दूसरे दौर में एक ऐसे उम्मीदवार से हार गईं जिसका समर्थन ओलांद की नई जीवनसंगिनी वालेरी त्रियरवाइलर कर रही थीं. रोयाल यदि जीत जातीं तो सारी संभावना यही थी कि वे आज फ्रांसीसी संसद की अध्यक्ष होतीं.

सौतिया-डाह की आह
ओलांद को अपनी पुरानी जीवनसंगिनी और अपने चार बच्चों की मां सेगोलेन रोयाल को हराने के लिए उनके प्रति अपनी नई जीवनसंगिनी वालेरी त्रियरवाइलर का घटिया सौतिया-डाह बिल्कुल पसंद नहीं आया. दोनों के बीच बातचीत कई दिनों तक बंद रही. लेकिन, बाद में दोनों के बीच फिर से सुलह-सफाई भी हो गई, हालांकि ओलांद के चारों बच्चे त्रियरवाइलर से हमेशा दूर ही रहे. बताया जाता है कि राष्ट्रपति ओलांद को उनकी प्रेमिका से मिलाने में उनके एक बेटे का भी हाथ रहा है.

हो सकता है. कहते हैं कि अपने कुछ कर्मों का फल अगले जन्म में नहीं, प्रायः इसी जन्म में मिल जाता है. पश्चिमी जगत का एक बड़ा हिस्सा धर्म-कर्म में विश्वास नहीं करता, लेकिन फ्रांसीसी राष्ट्रपति के जीवन में पदार्पण कर रही तीसरी जीवनसंगिनी तक की उनकी जीवन-यात्रा यही दिखाती है कि 30 वर्षों तक उनका साथ दे चुकी उनकी पहली जीवनसंगिनी का पत्ता जिस दूसरी जीवनसंगिनी ने काटा, उसका पत्ता काटने के लिए अब तीसरी जीवनसंगिनी ड्योढ़ी पर पहुंच चुकी थी. राष्ट्रपति ओलांद ने मदाम त्रियरवाइलर से आखिरकार अपना पल्ला झाड़ ही लिया. कई मतसर्वेक्षणों के अनुसार फ्रांसीसी जनता का भारी बहुमत भी यही चाहता था.

स्त्री-पुरुष संबंधों के संदर्भ में फ्रांस चाहे जितना उदारवादी समाज हो, स्वयं राष्ट्रपति ओलांद को भी यह मानना पड़ा कि वे इस समय ‘परीक्षा की घड़ी’ से गुजर रहे हैं. यानी, वे भी कहीं न कहीं अंतर्द्वंद्व से, अंतरात्मा की किसी कचोट से मुक्त नहीं हैं. फ्रांस जैसे एक महत्वपूर्ण देश का राष्ट्रपति होते हुए अपना समय देश की समस्याओं के हल में लगाने के बदले स्कूल-कॉलेज के लड़कों की तरह स्कूटर पर बैठकर रात-बिरात किसी महिला के घर के फेरे लगाना भला किस परिपक्वता का प्रमाण है?

भोग-विलासी नारी समानता
फ्रांस और उसके जैसे दूसरे पश्चिमी देश नारी-समानता का भी बहुत ढोल पीटते हैं. यदि वे नारी-समानता को सचमुच महत्व देते हैं तो यह कैसे हो रहा है कि एक समाजवादी नेता होते हुए भी ओलांद अपनी जीवन संगिनियों की मानसिक पीड़ाओं की परवाह किए बिना उन्हें भोग-विलास की किसी वस्तु के समान कभी अपनाते और कभी ठुकराते रहे हैं. उनकी अपनी उम्र जितनी बढ़ गई होती है, हर नई जीवनसंगिनी पिछली की अपेक्षा उतनी ही युवा होती है. तब भी मतसर्वेक्षणों में 89 प्रतिशत तक लोग इसमें कोई बुराई नहीं देखते– स्वयं महिलाएं भी नहीं?

मनचले राष्ट्रपतियों का लंबा इतिहास
यह भी नहीं है कि फ्रोंस्वा ओलांद अपने ढंग के फ्रांस के पहले दिलफेंक और मनचले राषट्रपति हैं. उनसे लगभग दो दशक पहले के समाजवादी राष्ट्रपति फ्रोंस्वा मितेरां की अपनी विवाहिता पत्नी दानियेल के अलावा एक प्रेमिका भी थी. उससे उनकी एक बेटी भी थी. वे अपना अधिकतर समय उसी के साथ बिताते थे. उनके समय के बहुत-से पत्रकार यह जानते भी थे कि उन- की इस दूसरी प्रेमिका अन पिंजो और बेटी मजारीन पिंजो की सुरक्षा और निर्वाह का सारा खर्च करदाता को उठाना पड़ता है, पर मुंह कोई नहीं खोलता था.

1974 से 1981 तक राष्ट्रपति रहे वालरी जिस्कार द’एस्तां के बारे में भी सुनने में आता रहा है कि उनके भी विवाहेतर संबंध हैं. 2009 में उनकी लिखी एक पुस्तक आई– ‘द प्रिंसेस ऐंड द प्रेसिडेंट.’ हालांकि वे दावा यही करते रहे कि इस पुस्तक की कहानी काल्पनिक है, लेकिन मीडिया में यही अटकल लगाई जाती थी कि यह पुस्तक ब्रिटेन के युवराज चार्ल्स की पत्नी रही राजकुमारी डायना के साथ उनके गुप्त संबंधों पर आधारित है.

‘मिस्टर पांच मिनट’
1995 से 2007 तक राष्ट्रपति रहे जाक शिराक के अपनी पत्नी बेर्नादेत से इतर भी इतने सारे संबंध रहे कि लोग उन्हें ‘मोंस्योर (मिस्टर) पांच मिनट’ कहने लगे. राष्ट्रपति ओलांद के पूर्ववर्ती निकोला सार्कोजी ने 2007 में राष्ट्रपति बनते ही अपनी पत्नी सेसिलिया को छोड़ दिया. अन फुल्दा नाम की एक पत्रकार के साथ कुछ समय तक इश्क लड़ाने के बाद 2008 में उन्होंने इतालवी मॉडल कार्ला ब्रूनी को अपनी पत्नी बना लिया.

फ्रांसीसी संस्कृति काम-वासना के मामले में यूरोप के अन्य देशों की अपेक्षा हमेशा से ही इतनी उदार रही है कि कुछ लोग उस पर कामांधता का आरोप भी लगाते हैं. वहां प्रति एक लाख जनसंख्या में भारत की अपेक्षा कई गुना अधिक बलात्कार होते हैं, तब भी वहां के लोगों को इसका आभास तक नहीं है. इसी तरह राष्ट्रपतियों की रंगरेलियों भी वहां के लोगों ने आपत्तिजनक विषय कभी नहीं माना. इस बार भी नहीं है. लोगों की मुख्य परेशानी इतनी ही है कि आतंकवाद के इस जमाने में देश का राष्ट्रपति– और वह भी संसार की तीसरी सबसे बड़ी परमाणु शक्ति का सर्वोच्च कमांडर– स्कूटर पर बैठ कर रातों को सड़कों पर जो फेरे लगाता रहा है, वह कहां तक उचित है.

उत्तर भारतीय युवा के सपने

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पुस्तक ः लूज़र कहीं का!
लेखक ः पंकज दुबे
मूल्य ः 125 रुपये
पृ ः 200
प्रकाशन ः पेंगुइन बुक्स, नई ददल्ली

एक अरसे के बाद एक ऐसा उपन्यास आया है जिसमें भरपूर ठेठपन मौजूद है. हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में छपे उपन्यास ‘लूज़र कहीं का!’ की खास बात यह है कि दोनों ही भाषाओं में यह मौलिक है, अनुवाद नहीं. उपन्यासकार पंकज दुबे फिलहाल फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े हुए हैं. इसका एहसास पाठकों को भी होगा क्योंकि उपन्यास किसी फिल्मी कथानक की तरह हमारे सामने से गुजरता है. इस कहानी का नायक या कहें लूज़र, पांडे अनिल कुमार सिन्हा उर्फ पैक्स उन लाखों नौजवानों का प्रतिनिधि है जो छोटे शहर या कस्बे से सैकड़ों सपने लेकर दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों में हर रोज आते हैं. इन सपनों में कुछ उनके खुद के होते हैं, कुछ माता-पिता के तथा कुछ दूसरों के. पैक्स इनमें खुद के सपनों को तरजीह देता है. तमाम देश के बाबू जी समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले पैक्स के बाबूजी उसे लताड़ते हैं, डांटते हैं, समझाते हैं और आखिर में समाज और मां की उम्मीदों की चादर में लपेट कर भावनात्मक ब्लैकमेलिंग का विफल नुस्खा भी अपनाते हैं लेकिन हर बार हार कर अपने बेचारेपन में लौट जाते हैं. पैक्स के सपने किसी आदर्शवादी विद्रोही पुत्र जैसे नहीं हैं, वह कोई क्रांति नहीं करना चाहता. पैक्स साधारण-सा नौजवान है जो बस किसी भी तरह अपनी कुछ कामनाएं पूरी करना चाहता है. इसमें किसी मिल्की व्हाइट पंजाबी लड़की से सेक्स करना उसकी तमाम इच्छाओं के केंद्र में है और इसके ही इर्द-गिर्द उसके अंग्रेजी बोलने, कूल दिखने जैसे कुछेक दूसरे सपने भी पलते हैं.

दिल्ली के मुखर्जी नगर और दिल्ली विश्वविद्यालय कैंपस में घूमते इस उपन्यास की शुरुआत किसी संस्मरण का भ्रम कराती है. पैक्स के जीवन में घटती घटनाएं, पात्र और संवाद उत्तर भारत के किसी भी दूसरे युवा की कहानी जैसे ही हैं. वे युवा जो सिविल सर्विस के सपने को पूरा करने के लिए बरसों दिल्ली के इस इलाके में रहते हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति, जातिगत दबंगई, शिक्षा व्यवस्था के पैबंदों के बीच अपने-अपने सपने को सहेजे नौजवान सब कुछ भोगे हुए यथार्थ-सा लगता है. लेखक की सफलता यही है कि सब कुछ देखे-समझे को भी उन्होंने बेहद पठनीय और रोचक भाषा में उतार दिया है. पंकज के लेखन में दृश्यात्मकता का तत्व इतना है कि उपन्यास किसी स्क्रीनप्ले जैसा लगता है.

‘ले आएंगे बाजार से जाकर दिलो जां और’

मनीषा यादव

आदमी का पैदाइशी सपना है कि वह अमर हो जाए.

इधर चिकित्सा विज्ञान का भी सदियों से यही स्वप्न है कि वह जीवन और मृत्यु के रहस्य को समझ ले. आयुर्वेद, यूनानी से लेकर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान तक यह कोशिश जारी है. पुरातन तथा पौराणिक कथाओं में इस तरह की कई कोशिशों का जिक्र है. हम अभी तक इसे मात्र किस्सा-कहानी मानते रहे. पर अब यह बात गल्प का हिस्सा नहीं रह गई है. बड़ी जल्दी यह एक वास्तविकता होने वाली है. अजर और अमर होने की कुंजी तलाशने के विज्ञान को ‘रीजनरेटिव मेडिसिन’ का नाम दिया गया है. ‘पुनर्नवा’ करने की कला को समझने की कोशिश कर रहा है आज का चिकित्सा विज्ञान.

कोशिश हो रही है कि शरीर का जो भी हिस्सा बीमारी से खराब हो जाए, काम करना बंद कर दे, हम उसे बाहर ही बना कर शरीर में फिट कर सकें, या उसे वहीं, शरीर के भीतर ही भीतर किसी कारीगरी से एकदम नया बना दें. कैसा रहे कि ऐसी दुकानें उपलब्ध हों जहां आपका लिवर, दिल, फेफड़े, यहां तक कि दिमाग भी ‘शेल्फ’ पर मोटरपार्ट्स की भांति उपलब्ध हों? चचा गालिब ने जो शेर बेवफाई के सिलसिले में कहा था कि ‘ले आएंगे बाजार से जाकर दिलो जां और’ उसके दूसरी तरह से चरितार्थ होने के दिन आ रहे हैं.

वैसे शरीर के खराब अंग को निकाल कर नया लगाने की कोशिश दशकों से जारी है. किडनी प्रत्यारोपण, हृदय या पैंक्रियाज के प्रत्यारोपण इसी सोच का नतीजा हैं. पर ऐसे प्रत्यारोपण के लिए आपको किसी और शख्स की किडनी या हृदय आदि दान में चाहिए. ऐसे दानवीर बहुत कम मिलते हैं. लाखों किडनी फेल्योर के केस किडनी के लिए प्रतीक्षारत हैं. लाखों का दिल लगभग बैठा हुआ है. इन्हें अंग मिल जाते तो ये भी स्वस्थ जीवन जीते. अभी तो ये सब इंतजार करते मर जाते हैं. इन्हें डोनर नहीं मिल पाते हैं. कुछ ऐसा हो पाता कि हम प्रयोगशाला में ये सारे अंग बना पाते, तो जीवन में क्रांतिकारी बदलाव आ जाता. इसलिए शुरुआती दिनों में, जब जीवन की हमारी समझ उतनी गहरी नहीं थी अर्थात ‘न्यूक्लियर बायोलॉजी’ का ज्ञान उतना नहीं था, तब एक अलग ही तरह से इसका समाधान खोजने का प्रयास हुआ. यह प्रयास अब भी चल रहा है. यह माना गया है कि आदमी का दिल, गुर्दे, लिवर आदि अंतत: एक मशीन ही तो हैं. ऐसे ही आदमी का दिमाग भी एक कंप्यूटर या कह लें कि सुपर कंप्यूटर ही तो है. सो इन अंगों के संचालन को यदि मशीन की भांति समझ लिया जाए तो क्यों नहीं वैसी ही एक मशीन बायोइंजीनियरिंग की वर्कशॉप में बनाई जाए? जो भी खराब अंग हो उसी को हटाकर यह मशीनी अंग वहां फिट कर दिया जाए?

तो लंबे समय से मशीनी (मैकेनिकल) दिल आदि बनाने की कोशिशें जारी हैं. ऐसा दिल तो लगभग बना भी लिया गया है. उतना ही छोटा, उतना ही बढ़िया. छोटी-सी बैटरी से चलने वाला. प्रायोगिक तौर पर मरीजों पर इसका प्रयोग भी किया गया है. शायद, वह दिन अब बहुत दूर नहीं जब दवा की दुकान पर कृत्रिम हृदय कुछ लाख रुपये में उपलब्ध होगा. चलिए, दिल की बात तो भविष्य के गर्भ में है. पर जोड़ तो बना ही लिए गए हैं. खूब मिल रहे हैं. वर्कशॉप में बने घुटनों, कूल्हों या मेरुदंड का प्रत्यारोपण तो आज इतना आम हो गया है कि हम इसे चमत्कार जैसा कुछ मानते ही नहीं. घुटना बदलना कितना सरल तथा प्रभावी हो गया है. शुरुआती दिनों के कृत्रिम घुटने आदि एक सीमा तक ही मुड़ते थे. आज वे उसी रेंज में मुड़-तुड़ सकते हैं जैसे कि भगवान के बनाए घुटने. इंसुलिन पंप आदि भी ऐसी ही मशीनें हैं. पर एक सक्षम मशीन, जिसे लिवर आदि की जगह लगाया जा सके, अभी सपना ही है. वह बहुत महंगी भी होगी. कुछ साल ही चलेगी. उसमें मेंटीनेंस भी लगेगी. मशीनें फिलहाल तो किसी भी अंग का स्थान लेती दिखती नहीं.

तो एक तरफ तो मानव अंगों को दूसरे मानव से लेकर प्रत्यारोपित करने का अंग प्रत्यारोपण विज्ञान विकसित हो रहा है जिसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा डोनर्स अर्थात अंगदान करने वालों का अभाव है, तो दूसरी तरफ मैकेनिकल अंगों के निर्माण की कोशिशें हैं जो अभी भी अपने शैशवकाल में हैं. मानव अंगों की रचना तथा कार्य करने की माया बेहद ही जटिल है. उसे समझे बिना मशीनी अंग बनाना असंभव है.

इसीलिए एक नई, तीसरी दिशा से चिकित्सा विज्ञान को बड़ी आशाएं हैं. यही स्टेम सेल थेरेपी है यानी शरीर से ऐसी कोशिकाएं निकालना जिनमें कुछ भी अंग बनाने की क्षमता हो. ये कोशिकाएं ही स्टेम सेल कहलाती हैं. तो क्या हम शरीर से कुछ कोशिकाएं लेकर, प्रयोगशाला में उनकी पैदावार (कल्चर) करके लाखों-करोड़ों कोशिकाएं बना सकते हैं जिन्हें नियंत्रित तरीके से मनचाहे अंग का रूप दिया जा सके? क्या हम आपके शरीर से कुछ कोशिकाएं निकालकर, उनसे ठीक वैसा ही दिल, किडनी, आंख, पैंक्रियाज, लिवर आदि बना सकते हैं जैसा कि ईश्वर ने आपके शरीर में बनाकर आपको पैदा किया है? तब तो शरीर में जो भी अंग खराब होता जाए, लाकर नया फिट कर लिया जाएगा. एकदम मूल अंग जैसा ही विश्वसनीय तथा वैसा ही बढ़िया काम करने वाला. तब तो यदि डायबिटीज के रोगी की बीमार पैंक्रियाज को बदल लें तो डायबिटीज की बीमारी खत्म. किडनी लगा दें तो डायालिसिस का झंझट खत्म. लिवर सिरोसिस हो भी गया हो तो जाकर नया लिवर लगवाइए और ठाठ से वापस दारू चालू रखिए. इस तरह जो अंग बनेंगे वे ठीक आपके अपने जैसे ही होंगे. शरीर द्वारा इन्हें अस्वीकार करने का कोई झंझट ही नहीं जिसका डर अभी दूसरे की किडनी आदि प्रत्यारोपित करने पर बना रहता है. सारा विचार ही रोमांचित करने वाला है तो क्या अमरता की कुंजी चिकित्सा विज्ञान के हाथ लग गई है?

शायद, ऐसा ही है. स्टेम सेल का जो विज्ञान है वह मानव जीवन को अमर न भी कर पाए पर उसी दिशा में एक बड़ा कदम तो जरूर है. एक बड़ा उत्तर स्टेम सेल चिकित्सा में छिपा है. इसी उत्तर से आपको अगली बार अवगत कराया जाएगा.