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विश्वशक्ति के देसी खिवैया

सितारे (बाएं से) बॉबी जजंदल, सबीर भाजिया, नीना दावुलूरी, एस जिचाई, इंद्रा नूयी और (बीच में) सत्या नाडेला
सितारे (बाएं से) बॉबी जजंदल, सबीर भाजिया, नीना  दावुलूरी, एस जिचाई, इंद्रा नूयी और (बीच में) सत्या नाडेला. कॉलाजः मनीषा यादव

कोई भारतीय सबसे पहले अमेरिका कब पहुंचा, इस सवाल का जवाब दो सदी से भी लंबी दूरी तय करता हुआ हमें 1790 तक पहुंचाता है. इसी साल अमेरिका के पूर्वी प्रांत मैसाच्यूसेट्स के तटीय कस्बे सेलेम में एक भारतीय दिखाई दिया था. यह जानकारी नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक एस चंद्रशेखर द्वारा संपादित और 1982 में प्रकाशित किताब फ्रॉम इंडिया टू अमेरिका में मिलती है–इस संभावना के साथ कि भारतीय उपमहाद्वीप का वह यात्री किसी मालवाहक जहाज के साथ वहां पहुंचा होगा. सूचना के महासागर गूगल सर्च पर काफी वक्त बिताने के बाद भी उससे जुड़ी और कोई जानकारी नहीं मिलती.

लेकिन इसी गूगल सर्च पर सत्या नाडेला टाइप करें तो पल भर में ही जानकारी का महाद्वीप उभर आता है. सर्च इंजन तुरंत ही बताता है कि उसके पास इस नाम से जुड़े करीब 17 करोड़ खोज परिणाम हैं. भारत में पले-बढ़े नाडेला ने हाल ही में आईटी जगत की सबसे बड़ी कंपनी माइक्रोसॉफ्ट की कमान संभाली है. संयोग देखिए कि महीना भर पहले तक जब माइक्रोसॉफ्ट के अगले मुखिया के बारे में कयास लग रहे थे तो एक और भारतीय सुंदर पिचाई की भी बड़ी चर्चा हो रही थी. पिचाई उसी गूगल के शीर्ष प्रबंधन में शामिल हैं जिसका सर्च इंजन नाडेला से जुड़े 17 करोड़ खोज परिणाम देता है.

करीब दो सदियों के सिरे पर खड़े ये उदाहरण दुनिया की महाशक्ति कहे जाने वाले अमेरिका में भारतीयों की यात्रा के ओर- छोर भी बनाते हैं. इनमें से एक छोर का रिश्ता महत्वहीनता और गुमनामी से जुड़ता है तो दूसरे का अहमियत और प्रसिद्धि  से. नाडेला अमेरिका जा बसे भारतीयों की सफलता के सिलसिले की सबसे नई और बड़ी कड़ी हैं. इस सूची में एडोबी के सीईओ शांतनु नारायण, पेप्सी की कमान थाम रहीं इंद्रा नूयी, मास्टरकार्ड के मुखिया अजय बंगा, लुजियाना के गवर्नर पीयूष बाबी जिंदल और 2014 की मिस अमेरिका नीना दावुलूरी जैसे कई नाम मिलते हैं.

2010 की अमेरिकी जनगणना बताती है कि अमेरिका की करीब 30 करोड़ की आबादी में लगभग चार करोड़ अप्रवासी हैं. उनमें से करीब 28 लाख भारतीय मूल के हैं. यह संख्या कुल आबादी के एक फीसदी से भी कम है. लेकिन यह तथ्य तब चौंकाने लगता है जब पता चलता है कि इस छोटी-सी आबादी की उपलब्धियां इससे कई गुना ज्यादा हैं. चर्चित पत्रिका फोर्ब्स के एक हालिया लेख में जोसेफ रिशवाइन लिखते हैं कि आबादी का एक फीसदी से भी कम होने के बावजूद भारतीय अमेरिका के कुल इंजीनियरों का तीन फीसदी हैं. सॉफ्टवेयर इंजीनियरों का वे सात फीसदी हैं तो डॉक्टरों का आठ फीसदी. यानी औसत अमेरिकी की बात करें तो उसके लिए किसी सड़क से गुजरता कोई आदमी भारतीय है इससे आठ गुना ज्यादा संभावना इस बात की है कि उसका डॉक्टर भारतीय हो.’

लेकिन जैसा कि हर सुखांत कथा में होता है, महत्वहीन से महत्वपूर्ण होने तक के इस सफर में भी मुश्किलों और संघर्ष के कई मोड़ हैं. और कुछ अहम सबक भी.

1790 के बाद अमेरिका में भारतीयों का जिक्र 1851 की एक घटना में मिलता है. उस साल चार जुलाई यानी अमेरिका के स्वतंत्रता दिवस के मौके पर सेलेम में हुई परेड में छह भारतीयों ने भी हिस्सा लिया था. छोटी-छोटी बूंदों के रूप में वे आते गए और 19वीं सदी खत्म होते-होते अलग-अलग अनुमानों के मुताबिक अमेरिका में करीब 2000 भारतीय बस चुके थे. मुख्य रूप से कैलीफोर्निया जैसे पश्चिमी हिस्सों में रहने वाले इन लोगों में से ज्यादातर पंजाब से आए सिख थे और उन्हें खेती, कारखानों और रेल या सड़क से जुड़े निर्माण कार्यों में रोजगार मिला हुआ था. 20 वीं सदी के शुरुआती दशक में भारतीयों की यह संख्या और भी तेजी से बढ़ी. 1901 से लेकर 1911 तक के आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि तब तक अमेरिका में कानूनी रूप से 6,250 भारतीयों को प्रवेश मिल चुका था. लेकिन गैरकानूनी रूप से रहने वाले भारतीयों की संख्या इससे कहीं ज्यादा थी. दरअसल अमेरिका के ही पड़ोस में स्थित कनाडा ब्रिटिश उपनिवेश था. वहां जाने के लिए भारतीयों को वीजा की जरूरत नहीं होती थी क्योंकि भारत भी तब तक ब्रिटिश अधिकार में ही था. कनाडा आने के बाद अमेरिका में घुस जाना आसान था. इसलिए अमेरिका में भारतीयों की वास्तविक संख्या उनकी आधिकारिक संख्या से कहीं ज्यादा हो गई थी.

imgयहीं से मुश्किल शुरू हुई. भारतीय ही नहीं बल्कि एशिया के दूसरे देशों जैसे चीन, कोरिया और जापान से भी बड़ी संख्या में लोग अमेरिका आने लगे थे. अपने काम में कुशल ये एशियाई ही अपनी-अपनी जड़ें छोड़कर सात समुंदर पार आए थे–सिर्फ इसलिए कि उनमें नए अवसर खोजने और उन्हें भुनाकर सफल होने की भूख थी. स्वाभाविक ही था कि वे कम पैसे में ज्यादा काम करने के लिए तैयार रहते थे. इसलिए काम देने वालों में उनकी पूछ भी बढ़ रही थी. यही वजह थी कि स्थानीय श्वेत समाज में धीरे-धीरे इनके खिलाफ असंतोष पनपने लगा. सामाजिक दबाव बढ़ा तो 1882 में आए चाइनीज एक्सक्लूजन एक्ट के साथ ऐसे कानूनों और अदालती फैसलों की शुरुआत हुई जो भारत सहित तमाम एशियाई देशों के लोगों को या तो अमेरिका आने से रोकते थे या पहले से वहां रह रहे लोगों को नागरिकता सहित दूसरे मूलभूत अधिकारों से वंचित करते थे.

एक तरफ कानून का कहर था तो दूसरी तरफ स्थानीय समाज की नफरत. अपने एक लेख में न्यूयॉर्क स्थित संगठन ग्लोबल ऑर्गेनाइजेशन फॉर पीपुल ऑफ इंडियन ओरिजिन के पूर्व अध्यक्ष इंदर सिंह लिखते हैं, ‘शुरुआती भारतीयों में से ज्यादातर सिख थे. उनके सिर की पगड़ी की वजह से उन्हें अपमानजनक लहजे में रैगहेड्स कहा जाता था. उसी दौर में अमेरिका में एक एशियाटिक एक्सक्लूजन लीग भी हुआ करती थी जो अमेरिका में हिंदुओं (तब भारतीय उपमहाद्वीप के सभी लोगों को हिंदू कहकर ही पुकारा जाता था) के खिलाफ दुष्प्रचार करती थी और मीडिया पर उनके खिलाफ लिखने का दबाव बनाती थी. 1907 में वाशिंगटन के बेलिंघम कस्बे में हुई एक घटना में करीब 500 लोगों की भीड़ ने वहां के बोर्डिंग हाउसों और कारखानों में घुसकर करीब 300 भारतीयों को नौकरी और कस्बा छोड़ने पर मजबूर कर दिया. पुलिस की भी उनके सामने एक न चली.’

फिर भी ये भारतीय अपने हक के लिए लड़ते रहे, सरकार पर नागरिकता के लिए दबाव बनाते रहे. लेकिन यह तभी संभव हो सकता था जब संसद में इसके लिए कानून लाया जाता. 1946 में यह संभव हुआ. राष्ट्रपति हैरी एस ट्रुमन ने इसमें दिलचस्पी दिखाई और संसद ने ल्यूस-सैलर नामक बिल पर मुहर लगा दी. इसके बाद अमेरिका में रह रहे इन भारतीयों को नागरिकता का हक तो मिला ही, उन्हें कुछ और भी फायदे हुए. जैसे अब वे भारत जाकर अपनी पत्नी और बच्चों को अमेरिका ला सकते थे. हर साल 100 लोग भारत से कानूनी रूप से अमेरिका आकर नागरिकता भी पा सकते थे. यह भारतीय अमेरिकियों की पहली विजय थी. इससे कुछ रास्ते खुले. इसके लिए दबाव बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले दिलीप सिंह सौंद 1957 में एक डेमोक्रेट के रूप में हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव के पहले भारतीय सदस्य बने.

इसके बाद 1965 में बना इमिग्रेशन एेंड नेशनैलिटी एक्ट तो जैसे भारतीयों के लिए अवसरों की बाढ़ लेकर आया. इसके मुताबिक अमेरिका आने और नागरिकता प्राप्त करने के लिए हर देश का 20000 सालाना कोटा तय कर दिया गया. वैसे यह कानून बनाना उसकी मजबूरी बन गई थी. दरअसल वह अमेरिका में नागरिक अधिकारों के लिए आंदोलनों का दौर था. वहां और दुनिया भर में सवाल किए जा रहे थे कि फ्रीडम और लिबर्टी फॉर ऑल की बात करने वाले देश की सोच इतनी संकरी क्यों है कि वह अपने यहां रहने वाली एक बड़ी अश्वेत आबादी को उसका जायज हक नहीं दे रहा. अपने लेख में यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया में इतिहास के अध्यापक विनय लाल लिखते हैं, ‘1965 से अमेरिका में भारतीयों के समकालीन इतिहास का सबसे नया दौर शुरू होता है.’ ये लोग शिक्षित थे, कुशल थे और अपनी योग्यता का अधिकतम इस्तेमाल करना चाहते थे. वे अमेरिका में भारतीय आबादी की दूसरी लहर जैसे थे. उनका लक्ष्य भी वही था जो उनसे पहले वाली पीढ़ी का था. यानी सफल होना. लेकिन वे इस मायने में अलग थे कि उनके पास नए ज्ञान की शक्ति थी. आइआइटी सहित दूसरे अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेजों से निकली ये प्रतिभाएं अपने देश में उचित अवसरों की कमी और लालफीताशाही से त्रस्त होकर अमेरिका पहुंची थीं.

हालांकि मुश्किलें उनके लिए भी कम नहीं थीं. तब तक भले ही. रवींद्रनाथ टैगोर अपनी साहिित्यक और सीवी रमन अपनी वैज्ञानिक मेधा के लिए नोबेल जीत चुके थे, लेकिन अमेरिका में भारतीयों की छवि काफी कुछ 1927 में आए कैथरीन मायो के मदर इंडिया उपन्यास जनित ही थी–सांप-संपेरों, भालू-मदारियों और गंदगी से उफन रहे एक ऐसे देश के लोग जो अपना पेट तक ठीक से नहीं भर सकते. अपने एक लेख में चर्चित अमेरिकी-भारतीय उद्यमी कंवल रेखी कहते हैं, ‘कोई भारतीय किसी अमेरिकन कंपनी का मुखिया बनेगा यह सोचना 1967 में असंभव था जब मैं वहां पहुंचा था.’ फोर्ब्स में छपे एक लेख में स्टैंडफोर्ड यूनिवर्सिटी में शोधकर्ता निशा बापट लिखती हैं, ‘ 50 या 60 के दशक के दौरान अमेरिका में जो चंद भारतीय मिलते थे वे कंपनी में निचले स्तरों पर काम करने वाले कुछ ऐसे इंजीनियर होते थे जो अमेरिका पढ़ने आए और वहीं रह गए. भारतीयों की आम छवि भिखारियों और संपेरों की थी. अमेरिका में शीर्ष पदों पर उनके होने की कल्पना तो बहुत दूर की कौड़ी ही थी.’

लेकिन 1965 के बाद जब धीरे-धीरे बड़ी संख्या में भारतीय छात्र वहां पहुंचने लगे और न सिर्फ अपने रंग-रूप बल्कि अपनी मेधा की वजह से भी वहां के आम छात्रों से अलग पहचाने जाने लगे तो यह छवि बदलने लगी. जैसा कि रेखी कहते हैं, ’70 के दशक के शुरुआती वर्षों तक अमेरिका थोड़ा शिकायती लहजे में ही सही पर मानने लग गए थे कि उनमें कुछ तो खास है. इन आरंभिक युवाओं में से कई डॉक्टरेट कर गए. सफलता की शुरुआत प्रोफेसर जैसे पदों के साथ हुई.’ धीरे-धीरे इन छात्रों को उद्योग जगत में अच्छी नौकरियां भी मिलती गईं.. भारतीयों को उनकी गणितीय कुशलता की वजह से अच्छे इंजीनियरों और प्रोग्रामरों के रूप में पहचाना जाने लगा. धीरे-धीरे भारत के मेडिकल स्कूलों और बिजनेस स्कूलों से निकली प्रतिभाएं भी वहां पहुंचने लगीं और डॉक्टर या वित्तीय प्रोफेशनल के तौर पर सफल होने लगीं. 1980 के दशक में भारतीय उद्यमी भी बन गए. रेखी कहते हैं, ‘ सिलिकॉन वैली जहां दुनिया भर की प्रतिभाएं इकट्ठा हो रही थीं, ऐसी सफलताओं का केंद्र बन गई. भारतीयों ने यहां कई असाधारण उपलब्धियां अर्जित कीं.’ फिर 1990 का दशक आया जिसे सिलिकॉन वैली में भारतीयों का स्वर्णकाल कहा जाता है. पेंटियम चिप के जनक कहे जाने वाले विनोद धाम, सन माइक्रोसिस्टम्स के सहसंस्थापक विनोद खोसला, गूगल के शुरुआती निवेशक और वर्तमान में इसके बोर्ड मेंबर केआर श्रीराम और हॉटमेल के सबीर भाटिया जैसे कई नामों की अमेरिका ही नहीं बल्कि दुनिया भर में चर्चा हुई.

लेकिन तब भी अमेरिका में आम धारणा यह थी कि भारतीय बड़ी कंपनियों के सीईओ नहीं बन सकते. 21 वीं सदी के पहले दशक ने यह धारणा भी ढहा दी. 2004 में आरईसी राउरकेला से पढ़े सूर्या महापात्रा फॉर्च्यून 500 में आने वाली कंपनियों में से एक क्वेस्ट डॉयाग्नोस्टिक्स के सीईओ बने. 2006 में इंद्रा कृष्णमूर्ति नूयी ने पेप्सी की कमान संभाली. इस सूची में सिटीबैंक के विक्रम पंडित, काग्निजेंट के फ्रैंक डिसूजा, स्कैनडिस्क के संजय मेहरोत्रा जैसे कई नाम जुड़ते गए और सत्या नाडेला ने तो इस मोर्चे पर अब तक की सबसे बड़ी गूंज पैदा की है.

अमेरिका स्थित यूसी-बर्कले स्कूल ऑफ इनफॉर्मेशन के डीन एन्ना ली सक्सेनियन ने 1999 में एक अध्ययन किया था. पता चला कि 1980 से 1998 के बीच सिलिकॉन वैली में जो नई कंपनियां स्थापित हुई उनमें सात फीसदी भारत में जन्मे उद्यमियों ने शुरू की थीं. सक्सेनियन ने इसके आठ साल बाद यानी 2007 में ड्यूक यूनिवर्सिटी में शोध निदेशक प्रोफेसर विवेक बाधवा और स्टैनफोर्ड लॉ स्कूल के प्रोफेसर एफ डैनियल सिसिलियानो के साथ मिलकर एक अध्ययन किया. नतीजे चौंकाने वाले थे. पता चला कि सिलिकान वैली में चल रही कंपनियों में से 13.4 फीसदी भारतीयों की हैं और पूरे अमेरिका के लिए यह आंकड़ा 6.5 फीसदी है. अमेरिका में दूसरे सात अल्पसंख्यक समूहों को मिला दें तो भी भारतीय उनसे आगे हैं. बाहर से आए लोगों द्वारा अमेरिका में शुरू किए कुल उद्यमों से से 33.2 फीसदी हिस्सा भारतीयों का है. दिलचस्प यह भी है कि 2008 की मंदी और अमेरिका की जटिल आव्रजन नीति के चलते बीते कुछ समय के दौरान ऐसे उद्यमों और उद्यमियों का आंकड़ा गिरा है, लेकिन भारतीय तब भी धारा के विपरीत चलने में सफल रहे हैं. 2007 से भारतीयों द्वारा शुरू की गई कंपनियों का आंकड़ा 13.04 से बढ़कर 14 फीसदी हुआ है. यूएस सेंसस ब्यूरो के कुछ समय पहले के एक आंकड़े के मुताबिक अमेरिका में करीब तीन लाख कंपनियां हैं जो भारतीय अमेरिकियों की हैं. इन कंपनियों में करीब साढ़े आठ लाख लोगों को रोजगार और उन्हें सालाना करीब 26 अरब डॉलर वेतन के रूप में मिलते हैं.

क्या है वजह
आखिर क्या वजह है कि अमेरिका में भारतीय वहां बसे चीनियों या रूसियों से इतना आगे हैं. कई जानकार मानते हैं कि उनकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि उन्हें दूसरों की तुलना में बढ़त देती है. विवेक वाधवा कहते हैं, ‘भारतीयों को अपनी विरासत का फायदा मिलता है, वे अंग्रेजी बोलते हैं और एक लोकतांत्रिक समाज से आते हैं. अमेरिका की तरह भारतीय भी अपनी सरकार की आलोचना के लिए स्वतंत्र होते हैं. इसीलिए उनमें आजादख्याली का एक अहम गुण होता है.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘सांस्कृतिक रूप से अमेरिकी और भारतीय समान हैं और यही खासियत उन्हें दूसरे देशों के लोगों की तुलना में फायदा देती है. जब वे अमेरिका आते हैं तो तुरंत फिट हो जाते हैं.’ वाधवा कहते हैं, ‘चीन में आप सरकार की आलोचना की हिम्मत नहीं कर सकते क्योंकि हो सकता है कि आपको अगले दिन उठा लिया जाए. आम चीनी अथॉरिटी से आतंकित रहता है. जो सत्ता के सख्त बंधन वाले देशों से आते हैं वे नियमों के परे जाने से डरते हैं. जबकि उद्यमी बनने के लिए आपको नियम तोड़ने का जोखिम उठाना होता है.’

एक और कारण यह भी है कि अमेरिका आने वाले भारतीय युवा एक तरह से प्रतिभाओं का सबसे ऊंचा स्तर होते हैं. सिलिकॉन वैली के अनुभवी पेशेवर और सिंफनी टेक्नॉलॉजी ग्रुप के संस्थापक रोमेश वाधवानी अपने एक लेख में कहते हैं, ‘भारत से अमेरिका आने वाले छात्रों की एक बड़ी संख्या पहले ही एक कठिन परीक्षा से गुजरकर अपनी प्रतिभा साबित कर चुकी होती है. आईआईटी सहित कई दूसरे अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेजों से यहां आए हम लोग डार्विन के श्रेष्ठतम की उत्तरजीविता वाले सिद्धांत के तहत आगे बढ़े हैं.’  विवेक वाधवा इसकी वजह उस नेटवर्क को भी बताते हैं जो शुरुआत में वहां सफल होने वाले भारतीयों ने अगली पीढ़ी के उद्यमियों के लिए बनाया. वे कहते हैं, ’30 साल पहले जब भारतीयों को सिलिकॉन वैली में शुरुआती सफलताएं मिलीं तो उन्होंने खास तौर पर इस मकसद से संस्थाएं बनाईं और सफल उद्यमियों की एक दूसरी पीढ़ी खड़ा होने में अहम योगदान दिया.’

एक अहम वजह यह भी है कि अपना धंधा जोड़ना भारतीय समाज में एक प्रतिष्ठा की बात समझी जाती है. यह एक सांस्कृतिक प्रवृत्ति है. वाधवा कहते हैं, ‘इसके लिए भारत में सामाजिक प्रोत्साहन मिलता है.’ समाज की भूमिका यहीं सीमित नहीं होती. भारतीय समाज में अकादमिक उपलब्धि पर भी बहुत जोर होता है क्योंकि पारंपरिक रूप से वहां ज्ञान सबसे बड़ा गुण माना जाता रहा है. अमेरिका में होने वाली स्पेलिंग प्रतियोगिताओं में अगर भारतीय बच्चे चैंपियन हैं तो उन्हें दिन में कई घंटे पढ़ना पड़ता है और शब्द व उनकी उत्पत्ति का विज्ञान याद करना पड़ता है. इसमें दूसरी चीजों से कहीं ज्यादा बौद्धिक स्तर पर दूसरों से आगे आने का रोमांच होता है.

लेकिन साधारण से अति असाधारण बनने के लिए शिक्षा और संस्कृति ही काफी नहीं. प्रकृति प्रदत्त प्रतिभा होनी भी जरूरी है. आपकी बुद्धिमत्ता यानी आईक्यू स्वाभाविक रूप से औरों से ज्यादा होनी चाहिए. आपका दिमाग सहज ही औरों से ज्यादा परिष्कृत होना चाहिए. करीब एक दशक पहले प्रिंसटन  युनिर्सिटी ने अपने एक सर्वे यानी न्यू इमिग्रेंट नामक सर्वे में पाया था कि अप्रवासी भारतीयों का औसत आईक्यू न सिर्फ अमेरिकियों से बल्कि बुद्धिमान कहे जाने वाले अश्केनाजी यहूदी समुदाय से भी ज्यादा होता है. हालांकि छोटे-से सैंपल साइज और इसकी पुष्टि करते किसी अध्ययन की गैरमौजूदगी में इस निष्कर्ष पर सवाल उठाया जा सकता है, लेकिन भारतीयों की जो उपलब्धियां देखी जा रही हैं वे तो इसे वजन देती ही लगती हैं.

अपनी शिक्षा, सामाजिक संस्कृति और संभावित सहज प्रतिभा के बूते भारतीय अमेरिकी अमेरिका में एक आर्थिक ताकत बन चुके हैं. क्या वे राजनीतिक क्षेत्र में भी ऐसी ही सफलता हासिल कर पाएंगे? क्या गवर्नर जिंदल जैसे उदाहरण आगे और भी हो सकते हैं? जानकारों के मुताबिक यह इस पर निर्भर करेगा कि वे उन क्षेत्रों में कितनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करवा पाते हैं जिन्हें राजनीतिक करियर के लिहाज से अहम माना जाता है. रिशवाइन कहते हैं, ‘अमेरिका में राजनीतिक करियर के लिए सबसे अनुकूल क्षेत्र हैं लॉ और फायनैंस. यहां अभी भारतीयों का प्रभाव उतना नहीं है.’

लेकिन बाकी क्षेत्रों में उन्होंने जो प्रभाव पैदा किया है उसने बीती एक सदी के दौरान भारतीयों की आम छवि बिलकुल बदल दी है. रेखी कहते हैं, ‘आज अमेरिका में भारतीयों को एक आदर्श की तरह देखा जाता है जो जीवन के अच्छे पहलुओं को देखते हैं और परिवार को समय देते हैं. एक औसत अमेरिकी आज उन्हें क्लास में सबसे तेज बच्चे, यूनिवर्सिटी में सबसे अच्छे प्रोफेसर और अस्पताल में सबसे बढ़िया डॉक्टर की तरह देखता है. ‘

अमेरिका में भारतीयों के करीब डेढ़ सदी लंबे सफर का एक अहम सबक यह भी है कि उदारता की तरफ बढ़ने वाले समाज की ताकत भी बढ़ती रहती है.

लाचारी में हुआ ‘आपदा प्रबंधन’

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फोटोः शांतनु राय

उत्तराखंड में हुआ हालिया नेतृत्व परिवर्तन केदारनाथ आपदा के नहीं बल्कि पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के बाद दिल्ली में आई आपदा के फलस्वरूप हुआ. उत्तराखंड की विडंबना है कि राज्य गठन के बाद यहां के विधायक अब तक एक बार भी अपना मुख्यमंत्री नहीं चुन पाए हैं. कांग्रेस और भाजपा दोनों के आलाकमान ने यहां मुख्यमंत्री रोपे और थोपे. कांग्रेस को बहुमत मिलने के बाद दोनों बार, 2002 और 2012 में विधायकों का बहुमत हरीश रावत के साथ था. लेकिन सूबों में जनाधारविहीन और कमजोर मुख्यमंत्री रखने के पक्षधर कांग्रेस आलाकमान ने पहले मौके पर कूड़ेदान में फेंके हुए नारायण दत्त तिवारी को झाड़-पोंछ कर उत्तराखंड भेज दिया. ये वही तिवारी थे जिन्होंने उत्तराखंड आंदोलन के दौरान घोषणा की थी कि अलग राज्य उनकी छाती पर बनेगा. आखिर में उन्हीं को नवगठित राज्य की छाती पर ला कर बिठा दिया गया. तिवारी चूंकि उम्र की गोधूलि बेला में थे और प्रधानमंत्री के सिवा अन्य कोई भी पद उनकी महत्वाकांक्षाओं के परे था इसलिए वे राज्य में आराम की मुद्रा में ही रहे. पूरे पांच साल में वे शायद एक हफ्ते भी अपने दफ्तर में नहीं बैठे होंगे. उनका राज शयन कक्ष से ही चलता रहा.

पांच साल के वनवास के बाद 2012 में कांग्रेस दोबारा सत्तासीन हुई तो तब भी विधायकों का बहुमत हरीश रावत के पक्ष में था. लेकिन कांग्रेस आलाकमान की पसंद अब तक के सर्वाधिक अवांछित और अलोकप्रिय मुख्यमंत्री कहे जा रहे विजय बहुगुणा बने. तब रावत समर्थक विधायकों ने कई दिन तक दिल्ली में बवाल काटा था. लेकिन किसी भय या लालच के कारण हरीश रावत ने हथियार डाल दिए और दुर्गम भौगोलिक परिस्थितियों वाले राज्य में चार कदम भी पैदल चल पाने की इच्छा और शक्ति से विहीन विजय बहुगुणा अपने पांचसितारा कल्चर के साथ यहां आ धमके.

क्या आपने विश्व में कोई ऐसा लोकतांत्रिक शासक देखा है जिसके राज्य के एक हिस्से में आपदा के कारण हजारों लाशें मलबे में दबी पड़ी हों और वह मौके पर जाने के बजाय दिल्ली के फेरे लगा रहा हो? महाआपदा के चार दिन बाद जब बहुगुणा वहां गए भी तो किसी पर्यटक या दर्शक की तरह हवाई दौरे पर कुछ देर के लिए. यह भी एक तथ्य है कि विजय बहुगुणा ने ऐसा पहला मुख्यमंत्री होने का रिकॉर्ड कायम किया  जिसने एक रात भी अपने राज्य के किसी जिले में रात्रि विश्राम की जहमत नहीं उठाई. आपदा हो या उत्सव, उन्होंने शाम ढलते ही देहरादून या दिल्ली के लिए उड़ान भर ली. इन तमाम परिस्थितियों के चलते जब उत्तराखंड में कांग्रेस की दुर्गति होने की आशंका की रिपोर्ट दिल्ली पंहुची, और पांच राज्यों के चुनाव परिणामों में कांग्रेस मुंह के बल गिरी तो घबराहट में हरीश रावत को यहां भेजा गया.

भले ही रावत उत्तराखंड कांग्रेस में सर्वाधिक जनाधार वाले नेता हैं, लेकिन यह भी विडंबना है कि उन्हें भी आलाकमान की इच्छा से भेजा गया. जब कांग्रेस के 32 में से 22 विधायक उनके समर्थन में दिल्ली में डेरा जमाए हुए थे तो कांग्रेस आलाकमान ने उन सभी को धमका कर वापस खदेड़ भगाया था.

रावत की सबसे बड़ी शक्ति यह है कि वे  जमीनी राजनीति से उठकर शीर्ष पर आने वाले नेताओं की परंपरा से हैं. उत्तराखंड का शायद ही कोई ऐसा गांव होगा जहां कोई उन्हें न जानता हो. लेकिन यही उनका सबसे बड़ा अभिशाप भी है. उन पर जन अपेक्षाओं का भारी बोझ है और उनके अनगिनत समर्थकों की अपूरित कामनाओं का दबाव भी. वे जहां भी जा रहे हैं, भारी भीड़ उन्हें घेर रही है. उन्हें अपना चेहरा दिखा कर शुभ-लाभ पाने के आकांक्षी भी उनके लिए जी का जंजाल हैं. मुख्यमंत्री बनने के बाद उनकी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में कांग्रेस के हाली-मवाली भारी तादाद में पत्रकारों की कुर्सियों, और यहां तक कि मंच पर भी आ जमे. नौबत यहां तक पहुंची कि उन्हें धक्के मार कर बाहर करना पड़ा.

चुनौतियां भीतर से भी हैं. उन्हें नेता चुनने के लिए बुलाई गई बैठक के दौरान ही कथा वाचक और कांग्रेस नेता सतपाल महाराज ने अलग से अपने और विजय बहुगुणा के समर्थक विधायकों का मजमा जोड़ लिया. कांग्रेस विधायक दल की अधिकृत बैठक में वे तभी पहुंचे जब दिल्ली से उन्हें धमकाया गया. रावत के मुख्यमंत्री बनने के बाद सतपाल महाराज ने बयान दिया कि उनका दिल्ली में कोई गॉडफादर नहीं है इसलिए उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया. यह अलग बात है कि कुछ ही दिन बाद ‘गॉड मैन’ खुद सपत्नीक रावत से मिलने चले आए, क्योंकि उनकी पत्नी राज्य सरकार में मंत्री हैं और मंत्रियों को विभाग अभी तक नहीं बांटे गए थे.

हरीश रावत को अपना मंत्रिमंडल अपनी पसंद और विवेक से बनाने की छूट भी नहीं मिली. उन्हें वही सारे पुराने मंत्री यथावत ढोने पड़े जिनमंे से कई नाकारा और मलिन सिद्ध हो चुके हैं. मंत्रिमंडल गठन के एक पखवाड़े बाद भी मंत्रियों को विभाग न बांट पाना भी उन पर बने दबाव और उनकी किंकर्तव्यविमूढ़ता को दर्शाता है. पद ग्रहण करने के बाद सबसे पहले केदारनाथ के आपदा क्षेत्र में जाकर उन्होंने अपनी प्रतिबद्धता दर्शाई है, लेकिन अब तक काफी कुछ बिगड़ चुका है. ताजा भात बनाना आसान है, लेकिन जले भात को सुधारना एक चुनौती है जिससे उन्हें दो-चार होना है. चटोरे और उन्मत्त हो चुके नौकरशाहों पर काबू पाना भी कष्ट और समयसाध्य काम होगा.

उत्तराखंड में नारायण दत्त तिवारी ने एक नई परिभाषा गढ़ दी थी–विकास का अर्थ मोटर सड़क. राज्य गठन यानी 2000 तक यहां सिर्फ सात हजार किलोमीटर मोटर मार्ग था. आज यह आंकड़ा 18 हजार किमी है. जंगलों और उपग्रामों तक अंधाधुंध सड़कें खोद दी गईं. उदाहरण ऐसे भी हैं कि जिस नदी में 20 साल से एक बूंद भी पानी नहीं है, उस पर दो करोड़ का पुल बना दिया गया. सड़क और पुलों में सीधा पैसा निहित है , इसलिए विधायकों की पहली पसंद सड़क निर्माण ही है. मेरे जिले टिहरी में कुल छह विधायक हैं जिनमंे से तीन बाकायदा रजिस्टर्ड ठेकेदार हैं.

इन सारे सवालों से घिरे और विभिन्न दबावों से दबे हरीश रावत कैसे पार पाते हैं, यह देखना शेष है. लेकिन जब सब कुछ रसातल में चला गया हो, ऐसे में उम्मीद के सिवा किया भी क्या जा सकता है?

प्रियंका गांधी: देश में लिंगभेद का सबसे बड़ा प्रतीक?

priyanka

बात तकरीबन 27 साल पुरानी है. नाइजीरिया के एक स्कूल ने क्लास मॉनीटर बनाने के लिए यह नियम बनाया कि क्लास में फर्स्ट आने वाले बच्चे को ही मॉनीटर चुना जाएगा. खड़े होकर अपने सहपाठियों की निगरानी करना और शोर मचाने वालों के नाम ब्लैक बोर्ड पर लिखना नौ साल की एक बच्ची को भी खूब रोमांचित करता था. उसने जमकर मेहनत की और क्लास में फर्स्ट आ गई. इसके बावजूद कक्षा में दूसरे स्थान पर आने वाले एक लड़के को मॉनीटर बना दिया गया. इस फैसले को लेकर टीचर की दलील थी कि क्लास की मॉनीटर लड़की नहीं बल्कि लड़का होना चाहिए. इस तरह उस बच्ची का सपना परवान चढ़ने से पहले ही टूट गया. लेकिन चीमामंदा गोजी अदिची नाम की यह बच्ची अब एक मशहूर लेखिका बन चुकी है और अपने लेखन से अफ्रीकी साहित्य के पाठकों पर गहरी छाप भी छोड़ चुकी है. दर्जन भर से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुकी अदिची को प्रतिष्ठित टाइम मैगजीन ने पिछले साल दुनिया की सौ प्रभावशाली महिलाओं में भी शामिल किया. किंतु मॉनीटर न बन पाने की वह टीस आज भी अदिची के मन में जिंदा है.

लड़की और लड़के में भेदभाव करने वाली तमाम जमातों के लिए अदिची की ये उपलब्धियां एक बड़ा सबक हो सकती हैं. बहुत संभव है कि इससे सीख लेकर बहुत सारे लोग भेदभाव से परे काम भी कर रहे हों. लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के सबसे प्रभावशाली राजनीतिक परिवार को शायद इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. कई लोगों के मुताबिक एक लंबे समय से यह परिवार दूसरे दर्जे वाले लड़के को पहले दर्जे की हकदार लड़की के आगे तवज्जो देने पर तुला हुआ है. पिछले एक दशक से राहुल गांधी को आगे लाने की जैसी कोशिशों में कांग्रेस पार्टी और उसकी सर्वेसर्वा सोनिया गांधी लगी हुई हैं, उसे देखते हुए अगर एक निष्पक्ष नजर प्रियंका गांधी की तरफ डाली जाए तो कुछ लोगों को वे नाइजीरियाई लेखिका की कहानी चरितार्थ करती भी लग सकती हैं.

हालांकि प्रियंका गांधी ने अब तक ऐसी कोई परीक्षा पास नहीं की है जिसमें उन्हें राहुल गांधी से आगे आंका गया हो लेकिन यह भी उतना ही सच है कि ऐसी किसी परीक्षा में उन्हें अब तक बैठने भी तो नहीं दिया गया है. इसके बावजूद उन्होंने जो कुछ अब तक किया है उसमें तमाम लोग इस बात के संकेत तलाशते हैं कि यदि मौका मिला होता तो वे राजनीति में राहुल से  बीस साबित हुई होतीं. आज की सच्चाई यह है कि एक राजनीतिक शख्सियत के रूप में उनके और राहुल गांधी के बीच एक बहुत बड़ी लकीर है जबकि उम्र के मामले में उनमें सिर्फ दो साल का मामूली अंतर ही है. पार्टी में नंबर दो बनाए जाने और मनमोहन सिंह के इनकार के बाद जहां राहुल आगामी लोकसभा चुनावों के लिए कांग्रेस का चेहरा घोषित हो चुके हैं, वहीं प्रियंका के हिस्से इस बार भी अमेठी और रायबरेली ही हैं. उस पर भी विडंबना यह कि यहां भी वे खुद के बजाय राहुल और मां सोनिया की राजनीतिक जमीन को ही सींचेंगी.

भारतीय राजनीति में मौजूद परिवारवाद पर ब्रिटिश लेखक पैट्रिक फ्रेंच ने अपनी किताब ‘इंडिया अ पोट्रेट’ में गजब की तहकीकात की है. उनका शोध बताता है कि 2009 में चुने गए 40 साल तक की उम्र वाले 66 सांसदों में से दो तिहाई का ताल्लुक किसी न किसी राजनीतिक परिवार से है. अकेले कांग्रेस सांसदों को लेकर वे लिखते हैं कि पार्टी का हर ग्यारहवां सदस्य परिवारवाद की जमीन पर ही उगा है. अपनी किताब में महिलाओं के बारे में उनका लिखना है कि 70 फीसदी महिलाएं परिवारवाद की सीढ़ी चढ़कर ही संसद तक पहुंची हैं. वंशवाद की इस कड़वी सच्चाई को स्वीकार करते हुए कुछ प्रमुख राजनीतिक कुनबों की बात की जाए तो मुलायम सिंह यादव से लेकर वर्षों से व्हील-चेयर पर बैठे करुणानिधि तक ने अपनी राजनीतिक जागीर में बेटियों और यहां तक कि बहुओं और पोतियों तक का हिस्सा तय किया है. इसके अलावा पंजाब के बादल खानदान से लेकर राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने वाले मणिपुरी संगमा भी महिला सदस्यों को राजनीति में पूरे तामझाम के साथ उतार चुके हैं. लेकिन गांधी परिवार की चौथी पीढ़ी में सिर्फ बेटे राहुल गांधी को ही इस आरक्षण का सुपात्र समझा गया है.

आज से तकरीबन दो दशक पहले ही पत्रकारों ने प्रियंका के सक्रिय राजनीति में आने को लेकर सवाल पूछने की शुरुआत कर दी थी. तब सोनिया खुद भी सक्रिय राजनीति में नहीं आई थीं. बताया जाता है कि इस तरह के सवालों पर वे हर बार यही कहती थीं कि ‘राहुल और प्रियंका जब खुद चाहेंगे राजनीति में आ जाएंगे.’ फौरी तौर पर देखा जाए तो यह एक रस्मी जवाब लग सकता है, लेकिन गौर से देखने पर इसमें छिपे अर्थ को समझा जा सकता है. एक लंबे समय तक कांग्रेस को कवर करने वाले और कांग्रेस व सोनिया गांधी पर दो किताबें लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई इस बारे में बताते हैं, ‘सिर्फ और सिर्फ प्रियंका गांधी पर केंद्रित सवालों के जवाब में भी सोनिया अक्सर राहुल गांधी का नाम जोड़ देती थीं. इस तरह साफ मालूम पड़ता है कि तब से ही सोनिया की दिलचस्पी प्रियंका के बजाय राहुल में ज्यादा रही है.’ इसके अलावा राशिद एक और वाकया सुनाते हैं, ‘प्रियंका के राजनीति में आने को लेकर गंभीर अंदाज में पूछे गए सवालों पर एक बार तो सोनिया ने लगभग नाराज होते हुए यह तक कह दिया था कि, ‘क्या आपको नहीं मालूम कि उनके दो छोटे-छोटे बच्चे हैं.’

हालांकि किदवई को सोनिया के इस जवाब में प्रियंका के साथ भेदभाव जैसा कुछ नहीं लगता, लेकिन राहुल के प्रति उनके झुकाव को वे नकारते भी नहीं हैं. अगर हाल के समय की कुछ खास घटनाओं पर बारीक नजर डाली जाए तो तस्वीर थोड़ी और साफ हो सकती है.

पिछले दिनों प्रियंका गांधी ने पार्टी के बहुत ही खास और बड़े नेताओं के साथ दिल्ली में एक बैठक की. राहुल गांधी की गैरमौजूदगी में हुई इस मुलाकात की भनक जैसे ही खबरनबीसों को लगी, तमाम समाचार चैनलों पर उनके सक्रिय राजनीति में उतरने की खबरें फ्लैश होने लगीं. इस खबर का प्रवाह इतना था कि अमेठी से लेकर रायबरेली और इलाहाबाद तक के कांग्रेसियों का रक्त हिलोरें मारने लगा. प्रियंका को राजनीति में लाने के दबे-ढके हामी रहे कुछ बड़े कांग्रेसी नेता इसके बाद टीवी पर आकर उनके पक्ष में बोलने-बतियाने भी लगे. ये प्रियंका के सक्रिय राजनीति में उतरने को पार्टी के लिए शुभ संकेत बता रहे थे. समाचार चैनल इस खबर को प्राइम टाइम के लिए पकाने में जुटे ही थे कि इसका जोरदार खंडन हो गया. कांग्रेस के मीडिया प्रभारी और राहुल गांधी की टीम के अहम सदस्य अजय माकन ने फौरन प्रेस के सामने साफ कर दिया कि प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में उतरने को लेकर उठी खबरें कोरी अफवाह थीं. उन्होंने यह भी कहा कि वे सक्रिय राजनीति में नहीं उतरेंगी.

इसी तरह की एक और घटना पिछले साल अक्टूबर में भी हुई थी. तब इलाहाबाद के फूलपुर लोकसभा क्षेत्र में लगे कुछ पोस्टरों और होर्डिगों ने मीडिया का ध्यान बिल्कुल ऊपर वाली घटना की तरह अपनी ओर खींचा था. इन होर्डिंगों में पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की परंपरागत सीट से लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए प्रियंका गांधी का आवाहन किया गया था. सोनिया गांधी की बीमारी और राहुल के कंधों पर बढ़ती जिम्मेदारी का तर्क देकर प्रियंका को आगे लाए जाने की मांग इन होर्डिंगों में की गई थी. खबर फैलते ही आनन-फानन में न केवल सारे होर्डिंग उतार दिए गए बल्कि इन्हें लगाने वाले कार्यकर्ताओं को भी अनुशासनहीनता के जुर्म में टांग दिया गया.

लेकिन राहुल गांधी के समर्थन में होने वाली इस तरह की गतिविधियों की पड़ताल की जाए तो मामला एकदम सर के बल खड़ा दिखता है. चाहे 2006 के हैदराबाद अधिवेशन में उन्हें पार्टी का महासचिव चुने जाने की मांग हो या फिर हाल ही में मिशन 2014 का मुख्य चेहरा बनाने की कवायद, उनके पक्ष में उठने वाली लगभग सभी मांगों को उनकी इच्छानुसार लगातार पूरा किया जाता रहा है. हाल ही में दागी नेताओं पर अध्यादेश लाने के केंद्र सरकार के फैसले के बाद जब राहुल ने इसे कूड़ेदान में जाने लायक बताया तो पार्टी के नेता भी उनकी हां में हां मिलाते दिखे. इससे पहले यही नेता इस अध्यादेश की जोरदार हिमायत कर चुके थे. इस मुद्दे पर सरकार और प्रधानमंत्री की खूब फजीहत हुई मगर अध्यादेश को पारित नहीं किया गया. इस तरह देखा जाए तो प्रियंका के मामले में पैरवी करने वाले कार्यकर्ताओं को जहां पार्टी द्वारा निष्कासित किया गया वहीं खुल कर सरकार की खिलाफत करने के बावजूद न तो राहुल को और न ही राहुल-राग गाने वाले कांग्रेसियों को कभी भी कुछ भी कहा गया. बल्कि इस तरह की घटनाओं को राहुल गांधी की बढ़ती लोकप्रियता बता कर इनका ढोल ही पीटा गया.

priyanka_gandiप्रियंका को सक्रिय राजनीति में लाने की कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की मांग तथा इन पर पार्टी की प्रतिक्रियाएं दो अहम सवालों को जन्म देती हैं. पहला यह कि आखिर प्रियंका गांधी के राजनीति में आने की मांग समय-समय पर क्यों उठती रही है? और दूसरा यह कि इसके बावजूद प्रियंका को खुल कर राजनीति के मैदान में न उतारने की वजह क्या है?

वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई की मानें तो इस बात से शायद ही किसी को एतराज होगा कि कांग्रेस के अंदर प्रियंका को चाहने वाली एक अच्छी-खासी जमात मौजूद है. वे कहते हैं, ‘राहुल के मुकाबले प्रियंका को बेहतर मानने वाली यह जमात मन ही मन इस बात को भी स्वीकार कर चुकी है कि उनकी अगुआई में पार्टी को कुछ भी हासिल नहीं होने वाला. लिहाजा प्रियंका को आगे लाया जाना चाहिए. लेकिन राहुल गांधी के प्रति सोनिया के लाड़ और अन्य कांग्रेसियों की ‘यस मैडम’ वाली संस्कृति को देखते हुए यह जमात खुल कर अपनी बात रखने का साहस नहीं कर पाई है.’ किदवई की बातों को आगे बढ़ाते हुए वरिष्ठ पत्रकार अजय बोस कहते हैं, ‘प्रियंका के पक्ष में कुछ कांग्रेसियों का झुकाव पहले से ही रहा है और राहुल गांधी के नाकाम दिखने के बाद से यह झुकाव खुल कर बाहर निकलना चाहता है. यही वजह रही कि राहुल को 2014 का टीम लीडर बनाए जाने के बावजूद प्रियंका को आगे लाए जाने की बातें सामने आईं. लेकिन यह भी सच है कि इस खबर का खंडन होते ही कांग्रेसी फिर से राहुल-राग गाने लगे हैं.’

अजय बोस की बातें बहुत हद तक सही मालूम पड़ती हैं क्योंकि इस प्रकरण पर बात करने के लिए तहलका ने जब कांग्रेस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी से बात करनी चाही तो उन्होंने यह कहकर हाथ खड़े कर दिए कि ‘प्रियंका को सक्रिय राजनीति में लाने की मांग उनके समर्थकों की निजी भावना है.’ वरिष्ठ कांग्रेसी सत्यव्रत चतुर्वेदी भी इस मसले पर बच कर निकलने वाली मुद्रा में जबाव देते हैं, ‘प्रियंका पहले ही राजनीति में आने से इनकार कर चुकी हैं, इसलिए इन मांगों को उतनी गंभारता से नहीं लिया जाना चाहिए.’ बकौल सत्यव्रत अगर प्रियंका के पक्ष में उठी मांगों को गंभीरता से लिए जाने की जरूरत नहीं है तो फिर इन मांगों का इतनी तेजी के साथ खंडन क्यों किया गया?

वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘जिस तरह तैराकी का मुकाबला जीतने के लिए तरणताल में उतरना जरूरी होता है उसी तरह राजनीति में सफल होने के लिए आपको लगातार हलचल बनाए रखने की जरूरत होती है. हाल की कुछ घटनाओं को छोड़ दें तो राहुल गांधी सक्रियता के उस जरूरी पैमाने को सिर्फ छूते भर दिखे हैं. उत्तर प्रदेश की ही बात करें तो वे अचानक ही लंबे समय के लिए यहां से गायब हो जाते हैं. इसके अलावा एक और गौर करने वाली बात यह है कि भले ही उनका आगाज 2004 में हो गया था लेकिन पार्टी उपाध्यक्ष का पद उन्होंने अब जाकर लिया है. देखा जाए तो नौ साल की यह समयावधि एक तरह से शून्य ही पैदा करती है. इसके अलावा संसद में भी उनकी भूमिका न के बराबर ही रही है. यह भी एक बहुत बड़ा कारण हो सकता है जिसके चलते कांग्रेस के अंदर कई मौकों पर प्रियंका-प्रसंग छिड़ता रहा है क्योंकि इस बात में कोई दो राय नहीं कि पहली नजर में ही देखने पर प्रियंका गांधी को लेकर स्वाभाविक नेत्री का भाव  पैदा होता है.’

ऐसे में यह सवाल की काफी महत्वपूर्ण हो जाता है कि जरूरत होने के बावजूद प्रियंका को खुल कर राजनीति के मैदान में न लाने की वजह क्या है. ‘साफ है कि कांग्रेस की प्राथमिकता राहुल गांधी को ही मुख्य मुकाबले में बनाए रखने की है.’  अजय बोस कहते हैं, ‘राहुल को लेकर कांग्रेस की आसक्ति का आलम यह है कि पार्टी पहले ही उन्हें भाजपा के पीएम कैंडीडेट नरेंद्र मोदी के मुकाबले लाने से बचती रही है. इसके अलावा अरविंद केजरीवाल के आने से भी पार्टी के लिए खासी दिक्कतें पैदा हो चुकी हैं. इसलिए इन हालात में अगर प्रियंका खुल कर मैदान में आती हैं तो उन्हें राहुल गांधी के विकल्प के तौर पर ही देखा जाएगा.’ नीरजा चौधरी भी इन बातों से सहमति जताते हुए कहती हैं, ‘ऐसे समय में जबकि कांग्रेस बहुत ही मुश्किल दौर में है प्रियंका के आते ही ऐसा होना अवश्यंभावी हो जाएगा.’

अब सवाल यह उठता है कि प्रियंका का कांग्रेस की राजनीति में समांतर केंद्र बनना क्या राहुल के लिए पार्टी और सरकार में परम पद की संभावनाएं पहले धुंधली और फिर ध्वस्त भी कर सकता है. और क्या इसी वजह से प्रियंका को राजनीति में न लाने का निर्णय इतनी मजबूती से लिया गया है? इन सवालों का आशय ठीक से समझने के लिए इन दोनों भाई-बहनों के राजनीतिक दमखम की तुलना जरूरी हो जाती है.

राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता को लेकर बात करें तो 2004 के आम चुनावों के जरिए उन्होंने राजनीति में कदम रखा था. लेकिन नेहरू-गांधी परिवार के झंडाबरदार के तौर पर लान्च किए गए राहुल तब से लेकर अब तक कोई खास असर नहीं डाल पाए हैं. यूपीए सरकार के दोनों कार्यकालों में उन्होंने कोई ऐसा पद नहीं संभाला जिससे उनके प्रशासनिक कौशल का आकलन हो सके. इसके अलावा जिस संगठन को मजबूती देने के नाम पर वे अन्य अहम जिम्मेदारियों से बचते रहे उस संगठन की स्थिति भी पिछले कुछ सालों में हुए विधान सभा चुनावों ने साफ कर दी है. कर्नाटक, हिमाचल और उत्तराखंड को छोड़कर अधिकांश राज्यों में पार्टी की हार ही हुई है. देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की बात करें तो राहुल गांधी द्वारा खुद चुनावी कमान संभाले जाने के बावजूद 2012 के चुनाव में उनकी पार्टी चौथे नंबर से ऊपर नहीं बढ़ सकी. इतने समय तक संगठन को मजबूत करने के बाद भी पार्टी को प्रदेश में अपने बूते अच्छे प्रत्याशी तक नहीं मिल सके थे और उसने जी खोल कर दूसरी पार्टियों के बागियों को अपने यहां टिकट दिए थे. इसके साथ ही कुछ दिनों पहले पांच में से चार राज्यों में हुई हार को लेकर भी वे सवालों के घेरे में आ चुके हैं. कहा जाता है कि इन राज्यों की चुनावी रणनीति उनकी निगरानी में ही बनाई गई थी. इस तरह देखा जाए तो उनको लेकर कांग्रेस के अंदर खुसर-फुसर तो हुई ही साथ ही विपक्ष को भी उन्हें ‘खुली मुट्ठी’ कहने का वाजिब हक मिल गया.

पिछले दिनों नई दिल्ली में कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ. कांग्रेस उपाध्यक्ष की हैसियत से राहुल गांधी ने यहां ऐसा जोरदार भाषण दिया कि कांग्रेसियों की धमनियां हरकत करने लगीं. सोनिया गांधी ने भी कहा कि इस भाषण को सुनने से रह जाना बहुत कुछ मिस कर जाने जैसा है. सोशल मीडिया से लेकर तमाम टीवी बहसों में भी राहुल के इस मेकओवर की खूब सराहना हुई. स्मृति पटल पर बहुत सारा जोर डालने के बाद भी यह याद नहीं पड़ता कि इससे पहले राहुल गांधी के किसी भी भाषण को इतनी सराहना कब मिली थी. बताया जाता है कि राहुल के इस भाषण की मुख्य पटकथा निर्देशक प्रियंका गांधी थीं. भाषण देते हुए राहुल गांधी जिस तरह जोश से भरी भाव  भंगिमाएं दिखा रहे थे, बहुत लोगों को वह प्रियंका गांधी की बॉडी-लैंग्वेज से मेल खाता दिखता है. नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘इस भाषण के जरिए राहुल गांधी जिस तरह फ्रंट फुट पर खेल रहे थे वह बहुत हद तक प्रियंका की शैली से मेल खाता दिख रहा था.’ वैसे भी 2004 में अमेठी से पहली बार लोकसभा का नामांकन दाखिल करने से लेकर पिछले साल जयपुर में पार्टी के उपाध्यक्ष बनने जैसी राजनीतिक गतिविधियों को देखें तो प्रियंका हर जगह राहुल के साथ दिखती रही हैं. इसके अलावा हर साल राजीव गांधी की पुण्यतिथि पर उनके समाधिस्थल वीरभूमि जाने या फिर क्रिकेट मैच का आनंद लेने किसी स्टेडियम पहुंचने जैसी व्यक्तिगत गतिविधियों में भी वे राहुल के आस-पास ही रहती हैं. एक तरह से कहा जा सकता है कि राहुल गांधी अपना लगभग हर कदम प्रियंका के सानिध्य में ही रखते आए हैं. ऐसे में बहुत संभव है एआईसीसी में दिए गए राहुल के भाषण की नीति-नियंता प्रियंका ही रही होंगी. राशिद किदवई भी इस बात से इनकार नहीं करते. वे कहते हैं, ‘प्रियंका गांधी जिस दृढ़ मिजाज के लिए जानी जाती रही हैं वह इस भाषण के जरिए राहुल में भी दिखाई दिया.’

भाई के मुकाबले प्रियंका गांधी का राजनीतिक कौशल तौलने के बहुत सारे उदाहरणों के बीच 1999 के उस दौर में जाना भी जरूरी हो जाता है जब सोनिया गांधी ने पहली बार संसदीय चुनाव में कदम रखा था. कर्नाटक के आदिवासी बहुल वेल्लारी संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ रही सोनिया के खिलाफ तब भाजपा ने फायरब्रांड नेत्री सुषमा स्वराज को मैदान में उतारा था. शानदार भाषण शैली और विशुद्ध भारतीय महिला वाली छवि की बदौलत सुषमा स्वराज, सोनिया के खिलाफ विदेशी मूल के मुद्दे पर सवार होकर शुरुआती बढ़त हासिल कर चुकी  थीं. लेकिन चुनाव प्रचार के आखिरी चरण में प्रियंका गांधी ने सोनिया के पक्ष में उतर कर सुषमा समेत पूरी भाजपा का जायका बिगाड़ दिया. प्रियंका गांधी ने वेल्लारी में धुआंधार तरीके से रोड-शो किए और सोनिया गांधी भारी-भरकम अंतर से वह चुनाव जीत गईं.

चुनावी राजनीति के दांव-पेंचों को गहराई से समझने वाले विश्लेषक इस जीत को बहुत हद तक प्रियंका गांधी के सम्मोहन से जोड़ते हैं. अजय बोस कहते हैं, ‘प्रियंका गांधी के व्यक्तित्व में जिस तरह का आत्मविश्वास उस दौरान वेल्लारी की जनता ने देखा वह उसका मन जीतने के लिए एकदम कारगर साबित हुआ.’ इस तरह देखा जाए तो लोकतंत्र में जनता के मन में छा जाने की पहली परीक्षा  प्रियंका ने तभी पास कर ली थी. इसी तरह का अविस्मरणीय प्रदर्शन उन्होंने उस साल रायबरेली में भी किया. भाजपा प्रत्याशी अरुण नेहरू पर किये गए उनके भावुक हमले ने तब वहां भी चुनाव का रुख बदल दिया था. कांग्रेस प्रत्याशी कैप्टन सतीश शर्मा के समर्थन में प्रियंका ने एक चुनावी सभा में लोगों से शिकायती लहजे में पूछा कि उनके पिता राजीव गाधी को धोखा देने वाले अरुण नेहरू को उन्होंने रायबरेली में घुसने कैसे दिया. प्रियंका के भावुक भाषण के बाद कांग्रेस वहां से न केवल चुनाव जीती बल्कि अरुण नेहरू चौथे स्थान पर सिमट भी गए.

लेकिन प्रियंका गांधी के राजनीतिक कौशल का और भी परिष्कृत रूप अभी सामने आना बाकी था. 2004 के लोकसभा चुनाव में इसकी भी शुरुआत हो गई. इन चुनावों के जरिए प्रियंका ने अमेठी और रायबरेली में राहुल और सोनिया के चुनाव प्रबंधन की कमान पूरी तरह अपने हाथों में ले ली. बतौर स्टार प्रचारक प्रियंका ने दोनों संसदीय क्षेत्रों में रोड शो तो किए ही, साथ ही रैलियों के जरिए भी लोगों से संवाद कायम किया. राहुल गांधी के पक्ष में उनके भाषण और प्रचार करने का तरीका तब देखते ही बनता था. सुरक्षा घेरे की परवाह किए बिना महिलाओं से घिरी प्रियंका की तस्वीरें टीवी और अखबारों के जरिए देश के कोने-कोने में पहुंचीं तो उनकी छवि का दायरा अमेठी और रायबरेली से निकलकर अखिल भारतीय होता दिखने लगा था. इसके बाद 2009 के चुनावों में भी मां और भाई के चुनाव अभियान की ड्राइविंग सीट पर वे ही रहीं. इस बार के चुनाओं के लिए भी वे बहुत पहले ही कमर कस चुकी हैं. 2013 के विधानसभा चुनाओं में पार्टी को अमेठी और रायबरेली में करारी हार मिली थी. लेकिन पिछले एक साल से लगातार यहां आकर प्रियंका ने पार्टी संगठन के ढीले पुर्जों को कस दिया है. इसी क्रम में उन्होंने इस बार ब्लाक और जिला स्तर के पदाधिकारियों का चुनाव खुद साक्षात्कार लेकर किया. इस तरह देखा जाए तो संगठन की मजबूती के लिए आवश्यक बुनियादी पहलुओं की पहचान करने का गुण प्रियंका की राजनीतिक काबिलियत को खुद ही बयान कर देता है.

जानकारों के मुताबिक प्रियंका गांधी का सहज और स्पष्ट रवैया भी राहुल गांधी के मुकाबले उन्हें बीस साबित करता है. राशिद किदवई कहते हैं कि किसी मुद्दे पर अपनी बात रखने को लेकर जहां राहुल गांधी अक्सर असहज नजर आते हैं वहीं प्रियंका की राय शीशे की तरह साफ होती है. वे उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘अपने पहले टीवी इंटरव्यू के दौरान राहुल गांधी से नरेंद्र मोदी द्वारा उन्हें शहजादा कहे जाने पर उनकी प्रतिक्रिया चाही गई. इधर-उधर की बातें करते हुए वे इस सवाल से ही बच गए. जबकि इन्हीं नरेंद्र मोदी द्वारा एक बार कांग्रेस को बूढ़ी पार्टी बताने पर प्रियंका की प्रतिक्रिया ने सबको लाजवाब कर दिया था. स्वाभाविक उत्साह से लबरेज प्रियंका का सवालिया जवाब था – ‘क्या मैं आपको बूढ़ी दिखती हूं?’ नीरजा चौधरी इसे प्रियंका गांधी के नैसर्गिक आत्मविश्वास और वाक्पटुता का अद्भुत संयोजन बताती हैं. वे कहती हैं कि प्रियंका गांधी के विचारों की साफगोई उनके व्यवहार में भी साफ झलकती है जबकि राहुल गांधी की करनी और कथनी में आपको कई तरह के विरोधाभास देखने को मिल जाएंगे.

नीरजा की बातों के जरिए अगर राहुल की करनी और कथनी का अंतर निकाला जाए तो सचमुच में उदाहरणों का ढेर खड़ा किया जा सकता है. एक बहुत बड़े विरोधाभास का जिक्र किया जाए तो कुछ दिनों पहले दागियों के चुनाव लड़ने संबंधी अध्यादेश को फाड़कर राहुल गांधी ने साफ-सुथरी राजनीति को अपनी प्रतिबद्धता बताया था. लेकिन बिहार के राजनीतिक परिदृश्य से लंबे समय से गायब अपनी पार्टी को वे उन्हीं लालू की लालटेन के सहारे ढूंढ़ने की तैयारी में हैं जो इस अध्यादेश के खारिज होने का पहला शिकार बने थे. इसके अलावा एक उदाहरण खुद प्रियंका गांधी का भी है. राजनीति में प्रतिभाशाली महिलाओं और युवाओं को प्रोत्साहित करने की बात करने के बावजूद राहुल गांधी कई मोर्चों पर इसके उलट काम करते दिखे हैं. महिलाओं को आगे करने का एक अजब उदाहरण तो इसी साल राजस्थान के विधानसभा चुनाव में देखने को मिलता है. यहां कांग्रेस पार्टी ने 80 साल की एक बुजुर्ग महिला को विधानसभा का टिकट थमा दिया था. ऐसे में सवाल यह भी है कि अगर वंशवाद राहुल के लिए कोई समस्या नहीं है तो फिर उनकी टीम में प्रियंका गांधी का नाम क्यों नहीं हैं. युवाओं और महिलाओं के सशक्तीकरण का राग गाने वाले राहुल क्या यह नहीं जानते कि प्रियंका गांधी युवा भी हैं, महिला भी और प्रतिभाशाली भी?

अब तक की इस समाचार कथा से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि प्रियंका पार्टी में कम से कम कुछ समय के लिए ही सही राहुल के लिए एक समांतर सत्ता केंद्र बन सकती हैं और ज्यादा से ज्यादा अपनी नैसर्गिक क्षमताओं से उन्हें पीछे धकेल सकती हैं. इसीलिए शायद उन्हें सक्रिय राजनीति में लाने का जोखिम नहीं उठाया जा रहा. लेकिन यह जोखिम तो केवल राहुल गांधी के लिहाज से हो सकता है पार्टी के लिहाज से नहीं. दबे-ढके पार्टी के बहुत-से कार्यकर्ताओं-नेताओं और खुले तौर पर तमाम राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि प्रियंका के आने का कुछ न कुछ फायदा तो पार्टी को मिलेगा ही. यह फायदा तात्कालिक होगा या दूरगामी, यह उनकी राजनीतिक क्षमताओं पर निर्भर करेगा.

इसके बाद भी यदि प्रियंका को कांग्रेस की सक्रिय राजनीति का हिस्सा नहीं बनाया जा रहा है तो इसमें कुछ लोगों को सोनिया का राहुल के प्रति अत्यधिक झुकाव या लाड़ दिखाई दे सकता है और कुछ लोगों को नाइजीरियाई लेखिका अदिची की कहानी की छाप. सोनिया गांधी हमेशा यही चाहेंगी कि राहुल गांधी को हर संभव मौका दिया जाता रहे. वरिष्ठ पत्रकार अजय बोस कहते हैं, ‘भारत और इटली दोनों देशों में लंबे समय से ‘मेल सेंट्रिक’ राजनीति ही होती रही है.’

कुछ लोग राहुल के बड़े होने को भी प्रियंका को सक्रिय राजनीति में मौका न दिए जाने के कारण के तौर पर देखते हैं. लेकिन यह भी सच है कि यह कोई अनिवार्य नियम नहीं है. बल्कि खुद गांधी-नेहरू कुनबे में ही संजय गांधी राजनीति में राजीव गांधी से पहले सक्रिय हो चुके थे. इसके अलावा मौजूदा दौर में भी तमिलनाडु के बुजुर्ग करुणानिधि जहां छोटे बेटे स्टालिन को उनके बड़े भाई आलागिरी से आगे कर चुके हैं वहीं लालू यादव भी बड़े बेटे तेज प्रताप के बजाय उनसे छोटे तेजस्वी यादव को ही आगे करने का संकेत दे चुके हैं. स्टालिन और तेजस्वी के पक्ष में उनके पिताओं का मानना है कि उनमें अपने बड़े भाइयों से ज्यादा मास अपील है. लेकिन क्या प्रियंका और राहुल के मामले में भी ऐसा ही नहीं है?

हालांकि इस मसले पर प्रियंका की खुद की अपनी राय भी है जिसका जिक्र किए बगैर यह बहस अधूरी होगी. राजनीति में आने को लेकर पूछे गए सवालों पर खुद प्रियंका कई बार साफ इनकार कर चुकी हैं. लेकिन यह भी सच है कि उन्होंने ऐसे ही एक सवाल के जवाब में यह भी कहा है कि जैसा राहुल कहेंगे वे वैसा ही करेंगी. और उनके पति रॉबर्ट वाड्रा भी समय आने पर उनके राजनीति में आने की बात कह चुके हैं. राशिद किदवई भी प्रियंका की ‘न’ को अंतिम सत्य की तरह नहीं देखते, ‘भले ही प्रियंका लाख मना करती रहें लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि राजनीति में उनकी दिलचस्पी है. क्योंकि पिछले लंबे समय से अमेठी और रायबरेली में रहकर भाई और मां का चुनावी अभियान संभालकर वे एक तरह से राजनीति ही कर रही हैं.’

किदवई की बातों में दम नजर आता है. अगर प्रियंका राजनीति को लेकर वास्तव में विरक्ति पथ पर होंती तो फिर पिछले एक दशक से इन दोनों लोकसभा क्षेत्रों में जिला और ब्लाक स्तर के पदाधिकारियों तक का चुनाव करने में इतनी दिलचस्पी क्यों दिखातीं? बेशक इसे सोनिया और राहुल के पक्ष में उनकी तरफ से किया जाने वाला काम बताया जा सकता है जो बहुत हद तक सही भी है, लेकिन ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या सोनिया और राहुल गांधी बिना प्रियंका के अपने इन किलों को फतह नहीं कर सकते. अगर ये दोनों नेता राजनीति में न आने के प्रियंका के फैसले का इतना ही सम्मान करते हैं तो फिर जबरदस्ती अपने मतलब के लिए उन्हें बैसाखी बनाने का क्या औचित्य है? सवाल तो यह भी है कि चुनावी सफर में हांफ रहे इन दोनों दिग्गजों को अगर प्रियंका ही आक्सीजन मुहैया करा रही हैं तो फिर प्रियंका को खुद अपने और पूरी पार्टी के लिए भी दौड़ क्यों नहीं लगानी चाहिए?

प्रियंका की राय की बात करते समय इस पर विचार करना भी महत्वपूर्ण है कि सोनिया गांधी भी पहले राजनीति में आना नहीं चाहती थीं. यहां तक कि उन्होंने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी से भी राजनीति में नहीं आने का आग्रह किया था. लेकिन बावजूद इसके सच यही है कि राजीव और सोनिया दोनों ही राजनीति में आए. इसी तरह देखा जाए तो राहुल गांधी भी कई मौकों पर राजनीति में दिलचस्पी नहीं होने के भूतपूर्व अनुभवों को साझा करते रहे हैं. ऐसे में अगर प्रियंका भी राजनीति में आने को लेकर ना-नुकर जैसा भाव दिखा रही हैं तो उसे अंतिम सत्य क्यों माना जाना चाहिए?

ऐसा नहीं है कि प्रियंका के सक्रिय राजनीति में आ जाने के बाद उनके हिस्से में सिर्फ और सिर्फ जय-जयकार ही आएगी. जानकारों का मानना है कि उनके राजनीति में उतरते ही राबर्ट वाड्रा के बहाने विपक्ष निश्चित तौर पर उनका आक्रामक इस्तकबाल करेगा. अजय बोस कहते भी हैं, ‘पिछले एक साल के दौरान राबर्ट वाड्रा की जो छवि सामने आई है निश्चित रूप से वह प्रियंका के आड़े ही आएगी.’ नीरजा चौधरी भी इस पर आशंका जताते हुए कहती हैं, ‘प्रियंका के राजनीति में उतरने से राबर्ट वाड्रा के मामले फिर से चर्चा में आ जाएंगे.’ लेकिन प्रियंका को लेकर क्या इस तरह की कोई दलील कांग्रेस पार्टी दे सकती है? अतीत बताता है कि अपने नेताओं पर लगने वाले भ्रष्टाचार के आरोपों का पार्टी सिर्फ खंडन ही नहीं करती बल्कि उन्हें पारितोषिक भी देती रही है. दो साल पहले सामने आया सलमान खुर्शीद प्रकरण इसका सटीक उदाहरण है. अक्टूबर, 2012 में सलमान खुर्शीद पर अपनी संस्था के जरिए विकलांगों के लिए मिली सरकारी मदद में घपला करने का आरोप लगा था. इसके बाद उनके इस्तीफे की जोरदार मांग भी उठी थी. लेकिन तब कांग्रेस न केवल उनका समर्थन करती दिखी बल्कि  उन्हें प्रोन्नति देकर उन्हें विदेश मंत्रालय सौंप दिया. इसके अलावा कई राज्यों में भी कांग्रेस की सरकार चला रहे नेता भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद भी अभयदान पर चल रहे हैं. आगामी लोकसभा चुनावों को लेकर भी माना जा रहा है कि जरूरत पड़ने पर पार्टी चारा घोटाले में दोषी साबित हो चुके लालू समेत कई दागियों के साथ गलबहियां कर सकती है. इसके अलावा वाड्रा से जुड़ा हो-हल्ला तो पिछले दो-तीन साल से ही शुरू हुआ है. जबकि प्रियंका को उससे काफी पहले ही राजनीति में लाया जा सकता था.

बहरहाल प्रियंका को लेकर धड़कने वाले कांग्रेसियों का एक धड़ा मानता है प्रियंका का राजनीति में आना तय है. नाम न बताने की शर्त पर एक बड़े नेता कहते हैं कि राहुल गांधी के जादू का खर्च होना जिस तरह से इन चुनावों में तय लग रहा है उसके बाद कांग्रेस को प्रियंका की तरफ देखना ही होगा. यदि इन नेता महोदय की बात सच मान ली जाए तो यह भी मानना होगा कि ऐसी हालत में प्रियंका को ढेर सारी चुनौतियों से एक साथ रूबरू होना पड़ेगा. तब राहुल की सारी असफलताओं का जवाब देने और नया समाधान खोजने के अलावा कांग्रेसियों की उम्मीदों से भरी पोटली भी उनके सिर पर ही होगी.

नीडो तानिया प्रकरण: नस्लवाद-विवाद

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नीडो तानिया

31 जनवरी, 2014. मीडिया में पूर्वोत्तर के एक छात्र की नस्ली हिंसा में मौत की ख़बरें आई. नीडो तानिया नाम का यह छात्र मूल रूप से अरुणाचल प्रदेश का था और उसके पिता वहां विधान सभा सदस्य हैं. 29 जनवरी को नीडो और उसके साथियों की लाजपत नगर के एक दुकानदार से मारपीट हुई थी जिसके अगले दिन नीडो की मौत हो गई. मीडिया ने आनन-फानन में इसे नस्ली हिंसा बताया और लगभग सभी समाचार चैनलों ने ‘नस्लभेद’ पर बहस शुरू कर दी. दिल्ली में मौजूद पूर्वोत्तर के जनप्रतिनिधि तक शुरुआत में नीडो की मौत को नस्ली हिंसा मानने से इनकार करते रहे लेकिन चैनल इस मामले को नस्लभेद का मुद्दा बनाने की ठान चुके थे. जल्द ही यह मुद्दा देश भर में फैल गया.

नस्लभेद के खिलाफ कानून बनाने और नीडो को इंसाफ दिलाने के लिए जगह-जगह प्रदर्शन होने लगे. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी इन प्रदर्शनकारियों का खुलकर समर्थन किया.

इस पूरे प्रकरण का एक सकारात्मक परिणाम यह हुआ कि नस्लभेद के खिलाफ मौजूदा कानूनों की समीक्षा के लिए सरकार पर दबाव बन गया. इसके चलते सरकार ने एक कमेटी का गठन भी कर दिया. इस छह सदस्यीय कमेटी को पूर्वोत्तर के लोगों के साथ होने वाली हिंसा और भेदभाव की रोकथाम के लिए दो महीने के भीतर सुझाव देने हैं. दिल्ली हाई कोर्ट ने भी इस मामले का स्वतः संज्ञान लेते हुए पुलिस से इस पर रिपोर्ट मांगी है. साथ ही कोर्ट ने सरकार से दिल्ली में रह रहे पूर्वोत्तर के लोगों की सुरक्षा व्यवस्था पर रिपोर्ट पेश करने को भी कहा है.

मीडिया और प्रदर्शनकारियों के दबाव में हाई कोर्ट और सरकार ने जो किया उसे तो सही कहा जा सकता है, लेकिन सरकार के दबाव में पुलिस इस मामले में जो कर रही है उस पर कई गंभीर सवाल खड़े होते हैं. इस मामले में पुलिस की भूमिका पर आगे चर्चा करेंगे. पहले बात करते हैं उस सवाल की जिसे सबसे पहले पूछा जाना चाहिए – क्या सच में नीडो तानिया का मामला नस्ली हिंसा का मामला था? लाजपत नगर निवासी सामाजिक कार्यकर्ता आशीष तिवारी बताते हैं, ‘नीडो की मौत के मामले को सिर्फ मीडिया ने नस्लभेद का मुद्दा बनाया है. यह कहीं से भी नस्लभेद नहीं था. यह एक ऐसा झगड़ा था जो पूर्वोत्तर के ही नहीं बल्कि कहीं के भी व्यक्ति के साथ उन परिस्थितियों में हो सकता था.’ आशीष आगे बताते हैं, ‘इस मामले के बाद जो नस्लभेद पर बहस छिड़ी है और जो कानून बनाने की मांग हो रही है उसका स्वागत किया जाना चाहिए. लेकिन नीडो के मामले को इस तरह से प्रदर्शित करना जैसे उसे नस्ली हिंसा में मार दिया गया हो गलत है.’ पुलिस द्वारा निचली अदालत में दाखिल की गई रिपोर्ट और नीडो के दोस्त लोकम लूलू के बयान भी काफी हद तक आशीष की बात को ही सही ठहराते हैं. लोकम घटना वाले दिन नीडो के साथ थे और उन्होंने ही इस मामले में एफआईआर भी दर्ज करवाई थी. लोकम द्वारा पुलिस को दिया गया बयान कहता है, ‘मैं और नीडो पता पूछने दुकान में गए लेकिन दुकानदार नीडो के बाल देखकर हंसने लगा. इस पर नीडो को गुस्सा आया और उसने दुकान के काउंटर का शीशा मुक्का मारकर तोड़ दिया. इसके बाद दुकानदार और उसके तीन साथियों ने नीडो को बुरी तरह से पीटा और उसे जातीय एवं नस्ली अपशब्द कहे.’ इस बयान के साथ ही पुलिस द्वारा दाखिल की गई रिपोर्ट भी कहती है, ‘नीडो के बाल देख कर फरमान (दुकानदार) हंसने लगा जिससे नीडो को गुस्सा आया और उसने फरमान की दुकान का काउंटर तोड़ दिया. इसके बाद फरमान द्वारा नीडो को पीटा गया.’ इन दोनों ही बातों से यह साफ होता है कि झगडे़ की शुरुआत किसी भी नस्ली टिप्पणी या भेदभाव के कारण नहीं हुई थी. हालांकि एफआईआर में जरूर लोकम ने यह आरोप लगाया है कि झगड़ा नस्ली टिप्पणी से ही शुरू हुआ लेकिन एफआईआर की बातों पर संदेह के कई कारण हैं जिन पर आगे चर्चा करेंगे.

इस मामले की बारीकियों में जाने से पहले घटना को मोटे तौर पर जानते हैं. हालांकि इस घटना के कई पहलू ऐसे हैं जिनके बारे में अलग-अलग पक्षों द्वारा अलग-अलग बातें बताई जा रही हैं.

29 जनवरी को नीडो अपने तीन अन्य दोस्तों के साथ लाजपत नगर गया. यहां उसका एक दोस्त रहता था जिसकी तबीयत खराब थी. लगभग दोपहर दो बजे लाजपत नगर पहुंचने पर नीडो ने एक दुकान पर जाकर अपने दोस्त के घर का पता पूछना चाहा. यह दुकान फरमान नाम के एक लड़के की है. फरमान के साथ ही उसके छोटे भाई रिजवान और फैजान भी दुकान पर बैठते थे. नीडो जब इस दुकान पर पहुंचा तो फरमान और उसके साथियों द्वारा कोई ऐसी टिप्पणी या व्यवहार किया गया जिससे उसे गुस्सा आ गया. गुस्से में उसने दुकान के काउंटर पर लगे कांच को मुक्का मार कर तोड़ दिया. इस पर फरमान और नीडो के बीच मारपीट हुई. थोड़ी देर में किसी ने पुलिस को फोन कर दिया. पुलिस आकर नीडो और फरमान को थाने ले गई. इस बीच नीडो ने काउंटर का कांच तोड़ने की भरपाई के लिए फरमान को सात हजार रुपये भी दिए. नीडो ने अपने घरवालों को भी उसी वक्त घटना की जानकारी दी. फरमान और नीडो द्वारा मामला दर्ज करवाने से इनकार करने के बाद पुलिस ने दोनों के बीच लिखित समझौता करवा दिया. इस समझौते पर दो निष्पक्ष गवाहों के दस्तखत भी कराए गए. शाम को लगभग चार बजे नीडो के दोस्त और रिश्तेदार नीडो को लेने लाजपत नगर थाने पहुंचे. नीडो उनके साथ चला गया. फरमान भी लौटकर अपनी दुकान पर आ गया. नीडो और फरमान दोनों को ही कुछ चोटें आई थीं. पुलिस के अनुसार दोनों ने ही मेडिकल जांच करवाने और मामला दर्ज करने से इनकार कर दिया था, इसलिए किसी का भी मेडिकल नहीं करवाया गया. नीडो के दोस्त के अनुसार नीडो ने शाम को टेटनेस का एक इंजेक्शन लगवाया. रात को उसने छाती में हल्के-से दर्द की शिकायत भी की. दोस्त के अनुसार उस रात वह और नीडो रात भर जगते रहे और सुबह लगभग छह बजे सोए. इसके बाद दोपहर (30 जनवरी) लगभग ढाई बजे जब दोस्तों ने नीडो को उठाना चाहा तो वह नहीं उठा. दोस्त नीडो को लेकर एम्स पहुंचे तो डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया. अगले दिन यानी 31 जनवरी को शाम 6 बजकर 45 मिनट पर नीडो के दोस्त लोकम लूलू ने लाजपत नगर थाने में नीडो की हत्या की एफआईआर दर्ज करवाई.

घटना के इस विवरण की जिन बातों में विरोधाभास है उनमें से सबसे प्रमुख है कि झगड़ा एक बार हुआ या दो बार. शुरुआत में पुलिस के आधिकारिक बयानों में कहा गया कि झगड़ा सिर्फ एक ही बार हुआ था. लाजपत नगर इलाके के निवासी भी झगड़ा एक बार होने की ही बात बताते हैं. दूसरी तरफ नीडो के दोस्त एवं परिवारवाले बताते हैं कि झगड़ा दो बार हुआ. उस दिन नीडो के साथ मौजूद उनके दोस्त रिकम बताते हैं, ‘पहली बार नीडो और लोकम दुकान पर गए थे. तब दुकानदार ने नीडो को मारा था. इसके बाद हम अपने दोस्त के घर चले गए थे. लेकिन जब हम वहां से लौट रहे थे तो हम चार दोस्त साथ में थे. दुकान वालों को लगा कि हम ग्रुपिंग करके (संगठित होकर) आ रहे हैं. तो उन्होंने नीडो को दोबारा मारा. इस बार वहां 48 लोग मौजूद थे.’ रिकम के इस बयान से उलट नीडो के परिवारवालों का बयान था कि ‘पुलिस ने झगड़ा होने के बाद नीडो को दोबारा उसी जगह छोड़ दिया था जहां झगड़ा हुआ था, जिस वजह से नीडो को दोबारा मारा गया.’ लेकिन पुलिस और नीडो के दोस्त यह बताते हैं कि नीडो को लेने उसके परिचित थाने ही गए थे और फिर वहां से नीडो उनके साथ चला गया था. इसके अलावा रिकम की यह बात कि दूसरी बार झगड़े के वक्त वहां कुल 48 लोग मौजूद थे अपने आप में बेहद विचित्र है. सामान्य हालात में ही जब तक 48 लोग किसी व्यवस्थित तरीके से न खड़े हों, उन्हें ठीक-ठीक गिनना बेहद मुश्किल है. तो फिर मारपीट की हालत में रिकम ने ऐसा कैसे कर लिया? साथ ही एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि रिकम द्वारा बताई जा रही इस दूसरी मारपीट में उसको और नीडो के बाकी अन्य दो दोस्तों को कोई चोट नहीं आई.

अब बात करते हैं इस घटना के बाद हुई पुलिस कार्रवाई की. 30 जनवरी को नीडो की मौत हुई जिसकी सूचना लाजपत नगर थाने में भी आई. इसके अगले दिन यानी 31 जनवरी को नीडो के दोस्त लोकम लूलू ने एफआईआर दर्ज करवा दी. इसमें कहा गया कि 29 जनवरी को फरमान और उनके साथियों ने नीडो को मारा था. लोकम द्वारा इस रिपोर्ट में कहीं भी समझौते की बात नहीं कही गई. बल्कि यह कहा गया कि ‘फरमान और उनके साथियों ने हमसे बलपूर्वक सात हजार रुपये ले लिए. इसमें से पांच हजार मुझसे और दो हजार नीडो से लिए गए.’ यह आरोप इस एफआईआर के अलावा और कहीं नहीं है. नीडो के अभिभावक समेत खुद लोकम भी अपने बयानों में समझौते के तौर पर हर्जाना चुकाने की बात स्वीकार चुके हैं. एफआईआर में नीडो की मौत के दोष के बारे में आगे कहा गया कि ‘अब मुझे पूरा शक है कि नीडो की मौत 29 जनवरी को फरमान और उसके साथियों द्वारा मारे जाने के कारण ही हुई है.’ इस पर पुलिस ने आईपीसी की धारा 302 के अंतर्गत मामला दर्ज किया. फरमान के रिश्तेदारों के मुताबिक 31 जनवरी को ही पुलिस फरमान को पकड़ कर थाने ले गई. अगले दिन पुलिस फरमान के दो नाबालिग भाइयों को भी थाने ले गई. फरमान के वकील विशेष कुमार राघव बताते हैं, ‘फरमान और उसके भाइयों को पुलिस ने तीन दिन तक गैरकानूनी तरीके से बंद रखा. उनकी गिरफ्तारी नहीं दिखाई और इसलिए उन्हें कोर्ट में पेश ही नहीं किया.’

फरमान के भाइयों की गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने एक फरवरी को ही पवन और सुंदर नाम के दो भाइयों को भी गिरफ्तार किया. ये दोनों भाई घटना स्थल के सामने ही चौथे माले पर रहते हैं. सुंदर ने ही घटना वाले दिन पुलिस को सूचना दी थी जिसके बाद पुलिस मौके पर पहुंची थी (तहलका के पास इसकी कॉल डिटेल मौजूद है). सुंदर की मां विमला देवी बताती हैं, ‘जिस दिन ये झगड़ा हुआ था उस दिन मैंने ही पहले बालकनी से देखा कि नीचे सड़क पर काफी भीड़ थी. सुंदर को मैंने बाहर बुलाया. मुझे लगा शायद कोई एक्सीडेंट हुआ है. वो नीचे देखने चला गया. जब उसे झगडे़ का पता चला तो उसने ही पुलिस को फोन किया.’ विमला देवी आगे बताती हैं, ‘पुलिस ने उस दिन दुकानवाले और उस लड़के का समझौता भी करवाया था. उसमें दो गवाहों के दस्तखत भी करवाए थे. मेरे बेटे पवन ने तो उस समझौते पर गवाह बनकर दस्तखत किए थे. अब पुलिस ने उसको ही बंद कर दिया. गवाह पर ही आरोप डाल दिया. अगर मेरे बेटों को कुछ होता है तो आगे से कोई किसी की मदद करने भी नहीं आएगा.’

फरमान और उसके भाइयों की तरह पुलिस ने पवन और सुंदर की गिरफ्तारी को दर्ज नहीं किया. पवन के वकील शलभ गुप्ता बताते हैं, ‘पवन और सुंदर को पुलिस एक फरवरी की सुबह 10.30 बजे ले गई थी. तीन फरवरी तक पुलिस ने उन्हें गैरकानूनी तरीके से बंद रखा और कोई गिरफ्तारी नहीं दिखाई. जब पवन के एक दोस्त ने डीसीपी को एक मेल भेज कर इसके बारे में बताया तब पुलिस ने उनकी और फरमान की गिरफ्तारी तीन फरवरी को दिखाई.’ अपने दोनों बेटों की गिरफ्तारी के बारे में विमला देवी बताती हैं, ‘पुलिसवाले ये बोल कर मेरे बेटों को ले गए थे कि ये तो गवाह हैं. इन्हें बस गवाही देनी है, शाम तक वापस आ जाएंगे. लेकिन रात को पुलिस ने घर से कंबल मंगवाए और कहा कि ये आज हमारे साथ ही थाने में रहेंगे. दो-तीन दिन तक पुलिसवाले यही कहते रहे कि थोड़ी देर में छोड़ देंगे. तब तक उनके मोबाइल भी उनके पास ही थे तो मेरी बात होती थी उनसे. फिर चार जनवरी को उनको जेल भेज दिया. सुंदर ने मुझे ये भी बताया कि फरमान को पुलिस ने थाने में बहुत मारा और कहा कि तुम इन दोनों भाइयों को भी मारपीट में शामिल बताना.’

पवन के अलावा उनके पड़ोस में रहने वाले एक वृद्ध ने भी घटना वाले दिन समझौते पर दस्तखत किए थे. पवन और सुंदर के साथ पुलिस उन्हें भी थाने ले गई थी. विमला देवी बताती हैं, ‘हमारे पड़ोसी को रात लगभग दस बजे वापस भेज दिया था. उनकी बहू ने थाने में जाकर बताया कि इनको दिल की बीमारी है और थाने में इनकी तबीयत खराब हो सकती है तो पुलिस ने उनको छोड़ दिया. अब वे हमसे बात भी नहीं कर रहे. मैंने उनसे कहा कि मेरे बेटे ने तो आपको देखकर ही दस्तखत किए थे. अब पुलिस उसको फंसा रही है तो आप मदद करो. उन्होंने मुझे कहा कि मैं कुछ नहीं कर सकता, मेरा कोई मतलब नहीं इस मामले से.’
इन सबकी गिरफ्तारी के बाद भी पुलिस के पास इन लोगों को हत्या का आरोपित बनाने का कोई ठोस कारण नहीं था. लिहाजा पुलिस ने अदालत में दाखिल की गई रिपोर्ट में लिखा कि ‘अभी इन सभी लोगों को एससी/एसटी एक्ट में आरोपित बनाया गया है. पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने के बाद इन्हें हत्या का आरोपित भी बनाया जा सकता है.’

पोस्टमार्टम रिपोर्ट इस मामले में सबसे महत्वपूर्ण है. इसी के आधार इन सभी आरोपितों पर हत्या का आरोप लगाया गया है. लेकिन यह रिपोर्ट भी विवादों से परे नहीं है. शुरुआती पोस्टमार्टम के दौरान एम्स के डॉक्टरों ने बयान दिया कि नीडो के शरीर में कुछ मामूली चोटें हैं और गर्दन तथा दिमाग में हलकी सूजन पाई गई है. लेकिन इसके साथ ही यह भी कहा गया कि इनमें से कोई भी चोट मौत का कारण नहीं है. प्राथमिक पोस्टमार्टम में मौत का कारण स्पष्ट नहीं था, इसलिए नीडो के विसरा सैंपल को सीएफएसएल भेजा गया. कहा गया कि वहां से रिपोर्ट आने के बाद ही मौत का कारण बताया जा सकता है. दिल्ली हाई कोर्ट ने इस बीच पुलिस को फटकारते हुए पोस्टमार्टम रिपोर्ट जल्दी दाखिल करने को कहा. लेकिन हाई कोर्ट द्वारा दी गई समय सीमा के भीतर पुलिस ने रिपोर्ट पेश नहीं की.

अंततः 10 फरवरी यानी सोमवार को पुलिस ने दिल्ली हाई कोर्ट में पोस्टमार्टम रिपोर्ट दाखिल कर दी. लेकिन यह रिपोर्ट और भी ज्यादा चौंकाने वाली है. रिपोर्ट में कहा गया कि नीडो की मौत सिर एवं चेहरे पर किसी ‘ब्लंट ऑब्जेक्ट’ द्वारा पहुंचाई गई चोटों के कारण हुई है. इस रिपोर्ट पर कई सवाल खड़े होते हैं. पहला तो यह कि विसरा सैंपल के आधार पर सिर एवं चेहरे की चोट के बारे में नहीं कहा जा सकता. भारत के चिकित्सीय न्याय शास्त्र के स्थापित मानकों (मोदी और कॉक्स) में कहीं ऐसा जिक्र नहीं है जिसमें विसरा का सैंपल देख कर यह बताया गया हो कि मौत सिर की चोट के कारण हुई है. ‘किसी भी मामले में यदि सिर या चेहरे पर आई चोट के कारण मौत हुई हो तो यह बात प्राथमिक पोस्टमार्टम में ही साफ हो जाती है. दस दिन बाद इस बात का सामने आना संदेह तो पैदा करता ही है.’ दिल्ली उच्च न्यायलय के अधिवक्ता गौरव गर्ग आगे बताते हैं, ‘यदि प्राथमिक पोस्टमार्टम में मौत का कारण स्पष्ट नहीं था और सिर पर किसी गंभीर चोट का जिक्र तक नहीं था तो दुनिया की ऐसी कोई विधि नहीं है जिसके द्वारा दस दिन बाद यह बताया जा सके कि मौत सिर की चोट के कारण हुई है.’

इस रिपोर्ट पर सवाल उठने का दूसरा कारण यह भी है एफआईआर से लेकर गवाहों के बयान तक में यह बात कहीं नहीं आई है कि नीडो को किसी ब्लंट ऑब्जेक्ट से पीटा गया हो. इन सभी जगह हाथापाई होने की ही बात कही गई है. इस कारण पोस्टमार्टम में ब्लंट ऑब्जेक्ट द्वारा चोट की बात अजीब-सी लगती है.

इन सभी सवालों से इतर हकीकत यह भी है कि नीडो ने अपनी जान गंवाई है. यह तथ्य अकेला ही सभी तर्कों पर भारी पड़ता है. इस मामले में आरोपित पवन की मां कहती हैं, ‘मैं उस मां का दर्द समझ सकती हूं जिसने अपना बेटा खोया है. मेरे बच्चे तो सुरक्षित हैं, आज नहीं तो कल लौट आएंगे. लेकिन उस मां ने तो अपना बेटा हमेशा के लिए खो दिया है. उसके साथ भी पूरा इंसाफ होना चाहिए. लेकिन किसी बेगुनाह को यदि सजा होगी तो यह उस लड़के के साथ भी अन्याय होगा जिसने अपनी जान गंवा दी.’

नीडो की हत्या के मामले में लाखों लोग जल्द से जल्द दोषियों को सजा देने की मांग कर रहे हैं. न्याय के बारे में कहावत भी है कि ‘देर से मिला न्याय अन्याय के समान है.’ लेकिन हकीकत यह भी है कि हड़बड़ी में किया गया न्याय भी अकसर अन्याय ही करता है. इस मामले ने नस्लभेद के खिलाफ सख्त कानून बनाने की जिस मांग को जन्म दिया है वह सराहनीय है. लेकिन जनभावनाओं को शांत करने के लिए यदि इस कानून की नींव ही कुछ बेगुनाहों की जिंदगी की कीमत चुका कर रखनी पड़े तो क्या वह न्यायपूर्ण होगा?

किताब और सबक

विचार का जवाब विचार होना चाहिए या कानूनी प्रतिबंध या फिर हिंसा, इस सवाल पर फिर से बहस छिड़ गई है. इस बार इसकी वजह बना है प्रकाशक द्वारा एक विवादित किताब को बाजार से वापस लेने और नष्ट करने का फैसला. पेंगुइन इंडिया ने यह निर्णय अमेरिकी लेखिका वेंडी डॉनिगर की किताब ‘द हिंदूज़: ऐन ऑल्टरनेटिव हिस्ट्री’ पर लिया है. यह किताब 2009 में प्रकाशित हुई थी. दरअसल शिक्षा बचाओ आंदोलन नाम के एक संगठन ने 2011 में पेंगुइन इंडिया के खिलाफ मामला दायर किया था. उसका कहना था कि कि इस किताब में कई पूर्वाग्रह और तथ्यात्मक गलतियां हैं और यह हिंदुओं का अपमान करती है. पेंगुइन इंडिया इस पुस्तक को वापस लेने और उसकी बची प्रतियों को नष्ट करने पर सहमत हो गई और मामला निपट गया.

किताब 'द हिंदूज़: ऐन ऑल्टरनेटिव हिस्ट्री' की लेखिका वेंडी डॉनिगर
किताब ‘द हिंदूज़: ऐन ऑल्टरनेटिव हिस्ट्री’ की लेखिका वेंडी डॉनिगर

1940 में न्यूयॉर्क में जम्मी डॉनिगर को भारतीय संस्कृति की गहरी अध्येता माना जाता है. फिलहाल वे शिकागो विश्वविद्यालय में धर्मों के इतिहास विषय की प्रोफेसर हैं. वे एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका के अंतरराष्ट्रीय संपादकीय बोर्ड में भी हैं. उनकी इस किताब को दो साल पहले प्रतिष्ठित रामनाथ गोयंका पुरस्कार भी मिल चुका है. शिक्षा बचाओ आंदोलन के अध्यक्ष दीना नाथ बत्रा का आरोप है कि उनकी यह किताब ‘सेक्स और कामुकता’ पर आधारित है. उनका कहना है कि किताब के मुख्य पृष्ठ पर छपी तस्वीर तो आपत्तिजनक है ही, साथ ही किताब में देवी देवताओं और महापुरुषों के बारे में भी ओछी टिप्पणियां की गई हैं. इससे पूरे समाज की भावनाओं को इससे ठेस पहुंची है.

उधर, वेंडी डोनिगर ने फैसले पर अफ़सोस जताया है. बीबीसी से बातचीत में उनका कहना था कि उन्हें इस बात की आशंका थी. हालांकि जिस तरह से भारत और पूरी दुनिया में इसकी प्रतिक्रिया हुई उस पर वे चकित भी थीं. उन्होंने कानून बदलने की जरूरत भी बताई. डोनिगर का कहना था, “कानून काफी क्रूर है. किसी हिंदू को आहत करने वाली किताब के प्रकाशक को ये अपराधी साबित करता है.” किताब हिंदुओं के लिए अपमानजक है, इस आरोप पर उनका कहना था, ” बहुत से हिंदुओं को किताब काफी अच्छी लगी और उन्होंने इस बारे में मुझे लिखा भी है. किताब काफी बिकी भी है. इसलिए ऐसा नहीं है कि किताब बस हिंदू विरोधी है.

दरअसल तो ये काफ़ी हिंदू समर्थक किताब है. ये कुछ ख़ास तरह के हिंदुओं को बुरी लगेगी. दक्षिणपंथी हिंदुओं को, कट्टरपंथी हिंदुओं को और ऐसे लोगों को जो किताब को दबाना चाहते हैं.”

इस मामले की बौद्धिक समाज में तीखी प्रतिक्रिया हो रही है. अपने एक लेख में चर्चित इतिहास रामचंद्र गुहा कहते हैं, ‘डॉनिगर का मामला सबसे ताजा उदाहरण है कि अदालतें, प्रकाशक और राजनेता बौद्धिक आजादी की सुरक्षा नहीं कर पा रहे.’ जाने माने साहित्यकार अशोक वाजपेयी का कहना है कि ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है. उनके मुताबिक दीनानाथ बत्रा पूरे समाज के प्रतिनिधि नहीं हैं. एक समाचार वेबसाइट से बातचीत में वे कहते हैं कि जिसे नहीं पढ़ना है वह न पढ़े, लेकिन प्रतिबंध या रोक अच्छी बात नहीं है.”

भारत में सोशल मीडिया पर भी इस मुद्दे को लेकर काफी आलोचना देखी जा रही है. कई लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लग रही इन पाबंदियों पर चिंतित हैं. हालांकि एक वर्ग ऐसा भी है जिसका मानना है कि धार्मिक भावनाओं को ख्याल रखना भी जरूरी है.

बीबीसी से बातचीत में साहित्यकार उमा वासुदेव कहती हैं कि वे किताबों पर किसी तरह के प्रतिबंध के पक्ष में तो नहीं हैं, लेकिन लेखकों को भी चाहिए कि वे धार्मिक भावनाओं को ठेस न पहुंचाएं.

उधर, पेंगुइन इंडिया का तर्क है कि दूसरों की तरह वह भी देश के कानून का पालन करने को बाध्य है. अपने बयान में उसने कानून पर सवाल उठाते हुए कहा कि भारत में आपराधिक धाराओं के कुछ हिस्से ऐसे हैं, जिनकी वजह से कानून तोड़े बगैर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बचाए रखना मुश्किल है. प्रकाशक का कहना था, “हम समझते हैं कि इसकी वजह से भारत में किसी भी प्रकाशक के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर बनाकर रखना मुश्किल होगा.”

किताबों पर विवाद भारत में नया नहीं है. कई लोग मानते हैं कि इस मुद्दे पर पहली और बुनियादी गलती 1989 में राजीव गांधी की सरकार ने की थी. तब उन्होंने सलमान रश्दी की किताब द सेटेनिक वर्सेस को यह कहकर प्रतिबंधित कर दिया था कि इससे मुसलमानों की भावनाएं आहत हो रही हैं. भारत ने ईरान और पाकिस्तान जैसे इस्लामिक देशों से भी पहले यह काम कर दिया था. उस समय इतिहासकार धर्म कुमार ने लिखा कि यह प्रतिबंध सरकार की कमजोरी का संकेत है. किसी धर्मनिरपेक्ष राज्य में ईशनिंदा की भी जगह होनी चाहिए. भारत के राष्ट्रपति किसी धर्म या सारे धर्मों के रक्षक नहीं हैं.

एक वर्ग मानता है कि राजीव गांधी के इस कमजोर कदम ने हर तरह के कट्टरपंथियों की हिम्मत बढ़ा दी. बाद के दिनों में महाराष्ट्र में जेम्स लेन की शिवाजी पर लिखी किताब को भी निशाना बनाया गया. ऐसा करने वालों ने राज्य सरकार को किताब पर प्रतिबंध लगाने के लिेए मजबूर कर दिया. सरकार के प्रतिबंध को उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था लेकिन ऑक्सफोर्ड प्रेस फिर भी किताब बेचने को लेकर डरी हुई थी. उसे लग रहा था कि उसके दफ्तर पर गुंडे हमला करेंगे और पुलिस सिर्फ देखती रहेगी. जोसेफ लेलेवेल्ड की किताब पर भी भारत में 2011 में हंगामा हो चुका है, जिसमें दावा किया गया था कि महात्मा गांधी समलैंगिक थे. गुजरात सरकार ने इस पर पाबंदी लगा दी है.

अपने लेख में रामचंद्र गुहा कहते हैं, ‘यह बड़ी दुखद बात है. कुछ साल पहले मेरे प्रकाशक ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने भी निचली अदालत में याचिकाकर्ता से अदालत के बाहर ही समझौता कर लिया था और के रामानुजन द्वारा लिखा गया एक निबंध वापस ले लिया था.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘डॉनिगर और रामानुजन उन विद्वानों में से हैं जिन्होंने हमारी धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं का बहुत गहराई से अध्ययन किया है. उन्होंने अपने बारे में हमारी समझ को और समृद्ध किया है. हिंदू धर्म के ठेकेदार होने का दावा करने वाले चंद संकीर्ण सोच वाले लोग अगर ऐसे शोधपूर्ण और सार्थक काम को प्रतिबंधित करवा देते हैं तो यह देश के लिए अच्छा संकेत नहीं.’

एक वर्ग का मानना है कि बड़े प्रकाशकों को इतनी आसानी से हथियार नहीं डालने चाहिए. पेंगुइन और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, दोनों ही बड़े प्रकाशक हैं. उनके पास लड़ने के लिए संसाधन भी हैं. जैसा कि गुहा कहते हैं, ‘उम्मीद करना स्वाभाविक ही था कि वे अपनी लड़ाई लड़ेंगे. ऊपरी अदालतों तक जाएंगे. ताकि उनके प्रतिष्ठित लेखकों की स्वतंत्रता का अधिकार सलामत रहे. आखिर उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया.’

जानी-मानी लेखिका अरुंधती राय भी एक लेख में कहती हैं, ‘आप क्यों डर गए? क्या आप भूल गए आप कौन हैं? आप दुनिया के सबसे पुराने और बड़े प्रकाशकों में से हैं. आपने इतिहास के कुछ सबसे बड़े लेखकों को प्रकाशित किया है. आप प्रकाशक का धर्म निभाते हुए हमेशा लेखकों के साथ खड़े रहे हैं, हिंसा और विषमता के बावजूद अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ लड़े हैं. और अभी तो कोई फतवा प्रतिबंध या अदालती आदेश भी नहीं था. अदालत के बाहर चुपचाप दूसरे पक्ष से समझौता करके आपने खुद को ही शर्मसार किया. आपके पास कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए सारे साधन थे. आपको जवाब देना होगा. कम से कम अपने लेखकों को तो आपको जवाब देना ही चाहिए.’

कई जानकार मानते हैं कि इसका एक कारण यह हो सकता है कि उनकी मंशा नुकसान को कम से कम रखने की रही होगी. फैसले के बाद पेंगुइन का बयान भी आया कि अपने कर्मचारियों को धमकियों और प्रताड़ना से बचाने की उसकी नैतिक जिम्मेदारी है. कुछ के मुताबिक प्रकाशक के इतनी जल्दी हथियार डालने की एक वजह यह भी हो सकती है कि डॉनिगर और रामानुजन दोनों का ही ताल्लुक अमेरिकी विश्वविद्यालयों से जुड़ता है. जैसा कि गुहा कहते हैं, ‘अगर वे भारतीय विद्वान होते तो इस पर उठा हंगामा शायद प्रकाशकों पर दबाव बना देता कि वे अपनी लड़ाई लड़ें.’

गुहा यह भी मानते हैं कि उनके ऐसा न करने का तीसरा और शायद सबसे अहम कारण यह हो सकता है कि भारत सरकार और राज्यों की सरकारें भी वास्तव में बौद्धिक स्वतंत्रता में यकीन नहीं करतीं. वे कहते हैं, ‘अलग-अलग पार्टियों के नेता ही कई बार यह जाहिर कर चुके हैं कि किताबों पर प्रतिबंध लगाने और लेखकों को परेशान करने से उन्हें कोई दिक्कत नहीं है.’

इस मामले में हर पार्टी का दामन दागदार है. यहां तक कि वामपंथियों का भी. अपने उपन्यास लज्जा के चलते मुस्लिम कट्टरपंथियों के निशाने पर आने के बाद बांग्लादेश से निर्वासित तसलीमा पश्चिम बंगाल में रहना चाहती थीं. यहां वे सांस्कृतिक रूप से सहज महसूस करती थीं. लेकिन 2007 में वहां कट्टरपंथियों के बवाल के बाद वाम मोर्चा सरकार ने हाथ खड़े कर दिए कि वह कोलकाता में उनकी सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकती. मजबूरन उन्हें कहीं और शरण लेनी पड़ी.  मकबूल फिदा हुसैन का भी उदाहरण है जो डॉनिगर और रामानुजन से पहले हिंदू कट्टरपंथियों के निशाने पर आए थे. उनका काम दर्शाती प्रदर्शनियों में तोड़फोड़ की घटनाएं हुईं. फिर एक अभियान के तहत अलग-अलग जगहों में उनके खिलाफ कई मामले दायर कर दिए गए. हताशा में उन्हें देश छोड़कर जाना पड़ा.

अब सवाल यह है कि इस शोषण और प्रताड़ना को खत्म कैसे किया जाए. गुहा लिखते हैं, ‘एक उपाय तो यह हो सकता है कि निचली अदालतें धड़ाधड़ ऐसे मामलों को स्वीकार ही न करें जिनकी नीयत ही विवाद पैदा करना हो. दूसरा यह है कि प्रकाशक भी थोड़ी हिम्मत दिखाएं. डरे नहीं. और सबसे ज्यादा मदद इस बात से होगी कि देश का राजनीतिक वर्ग यह संदेश दे कि संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी के जो आदर्श हैं उन्हें वह खंडित नहीं होने देगा.’

तीनों ही चीजों की उम्मीद नहीं लगती. गुहा मानते हैं कि सरकार में साहस के साथ-साथ दूरदृष्टि की भी कमी है. वे कहते हैं, ‘आगे के लिए भी आसार ठीक नहीं लगते.’ अरुंधती कहती हैं, ‘चुनाव होने में भी कुछ महीने हैं. फासीवादी ताकतें अभी चुनाव प्रचार कर रही हैं. माहौल उनके पक्ष में भी दिख रहा है. लेकिन अभी वे सत्ता में तो नहीं हैं और आप अभी से झुक गए. इसका हम क्या अर्थ निकालें. क्या अब हमें ऐसी किताबें लिखनी होंगी, जिनमें हिंदुत्व की जरा भी आलोचना न हो. या फिर हमें जोखिम के लिए तैयार रहें कि हमारी किताबें बिकेंगी नहीं.’

तो फिर आगे क्या हो? अपने एक लेख में दिवंगत पत्रकार प्रभाष जोशी कहते हैं कि एक समय जब भारत में बौद्ध धर्म प्रधान हो गया था तो सनातन धर्म का प्रचार करने निकले शंकराचार्य अपने साथ उपद्रवियों का झुंड लेकर नहीं चले थे. पूरा भारत घूमकर उन्होंने सिर्फ अपने विचारों की शक्ति से अपने धर्म को पुनर्जीवन दे दिया था.

दूसरा उदाहरण अमेरिकी लेखिका कैथरीन मायो की चर्चित किताब मदरइंडिया का है. 1927 में आई और उस दौर की सबसे चर्चित और बिकने वाली कृतियों में रही इस किताब में भारत को मानव सभ्यता के शरीर में मौजूद एक ट्यूमर बताया गया था. मायो का कहना था कि अगर जल्द ही इसका इलाज नहीं किया गया तो जल्द ही सारी दुनिया इससे होने वाली प्राणघातक महामारियों की चपेट में आ जाएगी. उनका यह भी तर्क था कि ब्रिटिश राज ही दुनिया को इस ट्यूमर से होने वाले नुकसान से बचा सकता है इसलिए भारत की आजादी की मांग बेतुकी है.

मदरइंडिया का भारत में भारी विरोध हुआ. किताब के साथ मायो के पुतले भी जलाए गए. लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस किताब के विरोध में 50 से भी ज्यादा किताबें और पर्चे छपे. सोशल नेटवर्किंग साइट टिवटर पर अपनी एक टिप्पणी में रामचंद्र गुहा लिखते भी हैं, “अगर किसी को कोई किताब पसंद नहीं आती है तो उसका जवाब है एक और किताब न कि उस पर प्रतिबंध या कानूनी कार्रवाई या फिर मार-पिटाई की धमकी.”

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नारी तुम केवल श्रद्धा... जयशंकर प्रसाद के महाकाव्य ‘कामायनी’ पर आधारित डॉ उत्तमा दीक्षित की बनाई चित्रावलियों में शामिल एक चित्र.
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हिंदी की दुनिया में प्रेम की कविता शताब्दियों के लंबे काल-प्रवाह में बहुत असरदार तरीके से मिलती है. हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध काल-विभाजन में तो प्रेम और रति के साहित्य को अलग से ही एक काल में मान्यता दी गई है, जिसे ‘रीतिकाल’ या ‘श्रृंगारकाल’ के नाम से जाना जाता है. अनगिनत कवियों एवं सूफी भावधारा की कविता कहने वाले लोगों ने प्रेमाख्यान को अपनी रचनाधर्मिता में अत्यंत वरीयता दी है. ऐसे में हम आसानी से घनानंद, आलम, बोधा, ठाकुर, देव, पद्माकर, मतिराम और बिहारी के नाम ले सकते हैं, जिन्होंने स्नेह और राग की अवधारणा को अत्यंत प्रमुखता से और लगभग उन्मुक्त होती हुई भाषा में स्थान दिया. बोधा की यह उक्ति आज भी प्रेम के संदर्भ में बहुत मार्मिक और गालिब के इश्क के संदर्भ में लगभग मुहावरा बन गए शेरों की तरह लगती है. बोधा ने कहा था, ‘यह प्रेम को पन्थ कराल महा, तलवार की धार पे धावनो है.’ भक्तिकालीन समय में मलिक मोहम्मद जायसी ने अपने प्रेमाख्यान काव्य ‘पद्मावत’ में जनश्रुति, इतिहास और कल्पना के योग से प्रेम को वृहत्तर अर्थों में उकेरा है. इस महाकाव्य में हिरामन तोता (गुरु) रतनसेन (आत्मा) के मन में पद्मावती (परमात्मा) के लिए पूर्वराग जगाता है, जिसकी परिणति आत्मा और परमात्मा के तादात्म्य से अपना उत्कर्ष पाती है. बहुत बाद में आधुनिक काल तक आते हुए और हिंदी के पुनर्जागरण के दौर में भी भारतेंदु हरिश्चंद्र और पंडित बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ जैसे अमर चितेरों ने अपने गीतों एवं कजरियों के माध्यम से श्रृंगार का एक बिल्कुल अभिनव अर्थ ही खड़ी बोली की भाषा परंपरा में संभव किया.

यह देखना प्रासंगिक है कि हिंदी परिदृश्य में सबसे महत्वपूर्ण और विचारोत्तेजक काम प्रेम और रति को लेकर जयशंकर प्रसाद ने सबसे पहले अपने महाकाव्य ‘कामायनी’ के माध्यम से प्रस्तुत किया. ‘कामायनी’ चालीस के दशक के मध्य में प्रकाशित होने वाला ऐसा अमर-ग्रंथ बन सका, जिसके द्वारा स्त्री और पुरुष के रिश्ते में पहली बार उद्दाम लालसा और रति से उत्पन्न आनंद का एक वैश्विक-दर्शन रचा गया. यह अकारण नहीं है कि स्त्री-पुरुष के दैहिक संबंधों की नींव पर खड़ी यह अमर रचना एक हद तक सृष्टि की उत्पत्ति और उसके आनंदवाद पर भी प्रतीकात्मक अर्थों में गहराई से विमर्श रचती है. ठीक इसी तरह का वैभव इसके बाद रामधारी सिंह दिनकर की पुस्तक ‘उर्वशी’ में भी संभव होता दिखाई पड़ता है. ‘उर्वशी’ और ‘पुरुरवा’ के पौराणिक कथानक को आधार बनाकर लिखी गई यह लंबी काव्य-रचना अपने समय में जितनी मशहूर हुई, उतनी ही अधिक विवादित भी. कईयों ने इसमें देह और प्रेम के निरूपण में अश्लीलता की हदों को पार जाता हुआ मांसल किस्म का आस्वाद पाया, तो कई इस तर्क के समर्थन में खड़े हुए कि दिनकर ने अपने समय से आगे की ऐसी क्लासिक की रचना कर दी है, जिसका मूल्यांकन मात्र देह और गेह के संदर्भ में करना जरूरी नहीं. कविता से इतर, उपन्यासों की गंभीर दुनिया में ‘कामायनी’ और ‘उर्वशी’ के मिलन-बिंदु पर खड़ी हुई रचना ‘चित्रलेखा’ बनती है. यह उपन्यास आज भी भगवतीचरण वर्मा के सदाबहार अप्रतिम उपन्यासों में गिना जाता है. ‘चित्रलेखा’ के माध्यम से दूसरी बार साहित्य की दुनिया में कामाध्यात्म जैसी युक्ति सफल होती साबित हुई, जो कि इससे पहले व्यापक स्तर पर उर्वशी के बहाने हिंदी में संभव हो चुकी थी. चित्रलेखा, बीजगुप्त, कुमारजीव एवं श्वेतांक के बहाने यह उपन्यास पाप और पुण्य, रति और सौंदर्य, वैभव और साधना तथा दर्प और संयम के सर्वथा विरोधाभासी प्रत्ययों में उलझाता हुआ भोग और आनंद की पराकाष्ठा पर जाकर समाप्त होता है. यह कहना ज्यादा मुनासिब होगा कि उर्वशी और चित्रलेखा ने पहली बार हिंदी साहित्य में प्रणय और उससे उपजे भोग, साथ ही भोग से निवृत्त आनंद और निर्बाध की दशा की ओर इशारा किया था. बाद में एक पूरी परंपरा ही चल पड़ी, जिसमें कई ऐसे भी बेतुके वाद और मत प्रभावी होने से कुछ दिनों के लिए साहित्य में सामने आये, जिनकी कोई ठोस भूमिका साहित्य में निभती हुई दिखाई नहीं पड़ी और इनका प्रभाव भी बहुत असरकारी नहीं बन पाया.

इसी समय छायावादोत्तर अनेक कवियों और गीतकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से कुछ प्रणय और विरह के गीत भी रचे, जिनका तत्कालीन प्रभाव उनके एक विशिष्ट श्रोता व पाठक-वर्ग पर जबर्दस्त था. इनमें हम प्रमुख रूप से हरिवंशराय बच्चन, नरेंद्र शर्मा, गोपाल सिंह नेपाली, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, शंभुनाथ सिंह, जानकी वल्लभ शास्त्री, नीरज एवं रमानाथ अवस्थी आदि गीतकारों को याद कर सकते हैं. इनमें से लगभग सभी कवियों ने अपने समय में श्रेष्ठ गीतकार के रूप में ख्याति अर्जित की है. गीत और गज़ल की दुनिया के बरक्स इस दौर के कुछ ऐसे महत्वपूर्ण उपन्यासों का जिक्र भी आवश्यक है, जिनमें प्रेम एवं देह के कथानक को बौद्दिक आशयों के तहत परखा गया है. ऐसे में हम आसानी से अज्ञेय की महत्वपूर्ण कृति ‘शेखरः एक जीवनी’, निर्मल वर्मा की ‘लाल टीन की छत’ एवं कृष्णा सोबती की ‘मित्रो मरजानी’ को रेखांकित कर सकते हैं. इसी के समानांतर थोड़ा भावुक धरातल पर लिखा गया धर्मवीर भारती का ‘गुनाहों का देवता’ जैसा उपन्यास एक समय में युवा दिलों की धड़कन के रूप में लोकप्रिय होता उपन्यास बन पड़ा था. साठ-सत्तर के दौर में सुधा और चंदर की अति भावुक प्रणय-कथा जैसे हर एक कॉलेज जाने वाले लड़के-लड़कियों का सबसे जरूरी अध्ययन बन गई थी. इसी के साथ-साथ उस समय के उन काव्य नाटकों की ओर ध्यान देना भी जरूरी लगता है जिनमें प्रेम की अजस्र रसधारा बह रही थी. इसमें सबसे प्रमुख रूप से उभरी काव्य-नाटिका को काव्य-रूपक में धर्मवीर भारती ने बांधा था. इस काव्य-नाटिका की कुछ पंक्तियां आज तक लोकप्रिय हैं. जैसे, एक प्रसंग है जिसमें राधा कृष्ण से मान करती हुई यह प्रश्न करती हैं,‘इतिहास में अर्थ गूंथने वाले तुम्हारे हाथ/आज मेरी वेणी में फूल क्यों नहीं गूंथ पाते?’

हिंदी के दृश्य-पटल पर एक दौर वह भी था जब घरेलू पाठक लाइब्रेरी योजना के तहत महिला कथाकारों की ढेरों कहानियां, उपन्यसिकाएं एवं उपन्यास घर-घर महिलाओं के भीतर प्रचलित हो गए थे. यह साठ से अस्सी के बीच बीस वर्षों का वह समय था जब शिवानी जैसी कथाकार घर-घर आदर के साथ पढ़ी जाती थीं. उनके उपन्यासों का कथानक अक्सर प्रेम में चोट खाई हुई नायिका के साथ उसके प्रेमी या पति को लेकर संबंधों के इर्द-गिर्द बुना जाता था, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण विषय प्रेम ही होता था. इस प्रेम की अभिव्यक्ति में विरह और उसके संत्रास से उपजी हुई नायिका की संघर्ष भरी जिंदगी ही खूब चाव से पढ़ी जाती थी. एक पूरी लंबी फेहरिस्त है शिवानी के उपन्यासों की, जिसमें प्रेम अपने मोहक, उदात्त, रचनात्मक और यातना भरे सभी तरह के रूपों में प्रकट हुआ है. ‘अतिथि’, ‘चौदह फेरे’, ‘कृष्णवेणी’, ‘करिए छिमा’, ‘चिर स्वयंवरा’, ‘जालक’ जैसी पुस्तकें आज भी लोकप्रिय हैं और आसानी से किसी भी पुस्तक मेले में खरीददारों को आकर्षित करती रहती हैं.

हाल के वर्षों में प्रेम का स्वरूप बदला है. प्रेम भी कई बार अपने चेहरे बदलकर कविता, कहानी, उपन्यास आदि में व्यक्त होता रहा है. प्रेम कविताओं को व्यापक स्तर पर विमर्श और कविता के परिसर का जरूरी प्रत्यय बनाने वाले कवियों में अशोक वाजपेयी का नाम पूरे आदर के साथ लिया जा सकता है. उनके अब तक प्रकाशित चौदह कविता-संग्रहों में पहले संग्रह ‘शहर अब भी संभावना है’ से लेकर बिल्कुल नव्यतम संग्रह ‘दुःख चिट्ठीरसा है’ में प्रेम की दुनिया आकाश तक फैली हुई नजर आती है. इसी तरह उन्हीं के समकालीन कवि-कथाकार विनाेद कुमार शुक्ल ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ उपन्यास में निम्न मध्यमवर्गीय परिवेश में स्त्री-पुरुष के दांपत्य प्रेम का सर्वथा मनोहारी अंकन करते हैं. पवन करण जैसे युवा कवि का अत्यंत संवेदनशील कविता-संग्रह ‘स्त्री मेरे भीतर’ में स्त्री के कई आयाम बिल्कुल नये संदर्भों में व्यक्त हुए हैं, जहां प्रेम की परिभाषा भी बिल्कुल बेबाकी व साहस के साथ अभिव्यक्ति पा सकी है.

कहने का आशय यह है कि रीतिकाल से शुरू होने वाली प्रेम की अजस्र धारा इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभिक बारह वर्षों तक आकर बारहों तरीके से अपनी अभिव्यक्ति की राह तलाशती नजर आती है. इसमें कहीं कथ्य का बांकपन है, तो कहीं चित्रण की सलोनी आभा. कहीं प्रेम का उदात्त रूप मौजूद है, तो कहीं उसका अत्यंत दैहिक पक्ष भी उसे कई कोणों से घेरे रहता है. फिर भी घनानंद के शब्दों में यदि कहें तो, साहित्य में प्रेम ‘अति सूधो सनेह को मारग’, जैसा स्नेहिल प्रेम भी है और कामुकता के आवरण में लिपटा हुआ अत्यंत झीने किस्म का प्रणय भी.

इजहार-ए-इश्क का फच्चर

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आनंद नॉरम

गालिब का इश्क, काम के आदमी गालिब को निकम्मा बनाता है. पता नहीं आपका इश्क आपको क्या बनाता है! चलिए हम मान लेते हैं कि वह आपको भी निकम्मा बनाता है. इश्क चाहे आपको कितना भी निकम्मा बनाए, मगर एक काम तो आपको करना ही पडे़गा, भले ही वह काम आप ‘मरता क्या न करता’ की तर्ज पर करें. मोहब्बत की है, तो मोहब्बत का इजहार भी तो करना होगा, क्योंकि बिना इजहार के इश्क जैसे बिन राह की मंजिल. जैसे बिन सिंदूर के सुहागन. जैसे बिन सेहरे के दूल्हा. जैसे किसी को अंधेरे में मारी गई आंख.

इश्क पर बहुत कुछ लिखा-बोला जा चुका है, तो इश्क पर कुछ न बोल कर इजहार-ए-इश्क के मीठे और प्यारे तरीकों के सफर पर एक लांग ड्राइव पर चलते हैं. हां मगर प्यार से!

सबसे पहले आदम और ईव के प्रेम का साधन कहिए या साक्षी या तरीका, सेब बना. यह इजहार-ए-मोहब्बत न होता, तो आज न आप होते न हम. अति प्राचीन प्रेमियों ने इजहार-ए-इश्क के लिए प्रकृति को चुना. मेघ जो बरसते थे, गरजते थे, वे प्रेमियों के लिए ओवर टाइम करने लगे. प्रेमी अपनी शकुंतला से अपने प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए मेघों को दूत बना कर भेजा करते. इसी काम के लिए किसी प्रेमी ने परिंदों से चाकरी करवाई. किसी ने हवाओं को अपना हरकारा बनाया. किसी ने चांद की सेवा ली. किसी ने यह ठेका समुंदर की लहरों को दिया, तो किसी ने सितारों को अपना अनुचर बनाया, अपना प्रेम संदेश प्रीतम प्यारे तक पहुंचाने के लिए. यहां तक कि अगम पेड़ों को भी नहीं छोड़ा गया. उनको भी जोत दिया करते थे प्रेमी लोग अपने ह्नदय के उद्गार व्यक्त करने के लिए. क्या करते बेचारे! आज की तरह इतनी तो न सुविधा थी, न आधुनिक संचार व्यवस्था.

प्रेम कहानियों में लैला-मजनूं, हीर-रांझा, शीरी-फरहाद की सुपर हिट जोड़ियां हैं, मगर क्या किसी ने सोचा है कि इनके बीच इजहार-ए-इश्क कैसे हुआ? साहबान, तब जमाना बहुत बेरहम, बेदर्द था (कमोबेश जमाना अब भी अपने व्यवहार में ऐसा ही है, ये जमाना कब सुधरेगा!) तो इजहार-ए-इश्क का पावन,  महती और रिस्की कार्य सर-आंखों पर आंखों ने लिया. आंखों-आंखों में प्यार होता था और आंखों ही आंखों में इजहार. जमाना कितना भी नजर रखे या नजर लगाए, नजर गड़ाए प्रेमियों पर, मगर नजरों को उधर जाने से कौन रोक सका है जिधर वे जाना चाहती हैं, जिधर उनका प्रियतम है. सीधी-सी बात यह है,  ‘इजहार हुआ इनकार हुआ, कुछ टूट गए कुछ हार गए’,

‘इजहार-ए- मोहब्बत रह-रह के आंखों से पिया दीवानों ने.’ नजरों ने बड़ी मदद की प्रेमियों की. खास तौर से कच्चे दिल के प्रेमियों की क्योंकि नजरों की एक खासियत है कि वे अपना काम तो कर जाती हैं और मौका-ए-वारदात पर कोई सबूत भी नहीं छोड़तीं. नजरें ही वे दोस्त, सखी होती थी जो प्रेमियों का हाल-ए-दिल बयां करती थीं. होंठ जब-जब दिल की बात कहने में हिचकिचाए, थर्राए, तो नजरों ने उनकी भूमिका बखूबी अदा की और मौन भाषा में कह दिया कि हमें तुमसे प्यार है. अगर प्रेमियों को उर्दू जुबान आती (माशाअल्हा! ), तो कहा, हमें तुमसे मोहब्बत है. अगर अंग्रेजी लैंग्वेज आती तो कहा, आई लव यू. कहने का मतलब कि नजरों को कोई भी भाषा सीखने की जरूरत नहीं, क्योंकि वे हमेशा दिल की भाषा बोलती हैं. इसलिए इजहार-ए-इश्क के लिए नजर एक अति महत्वपूर्ण जरिया बनी. जो आज भी बनी हुई है.

नजरों के अतिरिक्त अपने प्रेम को व्यक्त करने का एक तरीका अपने मित्र या उनकी सखी से अपने दिल की बात कहलवाना या कहना था. कई बार कई प्रेमियों ने अपने इजहार-ए-मोहब्बत के लिए अपने-अपनी विश्वसनीय दोस्त-सखी की सहायता ली. लेकिन इजहार-ए-मोहब्बत का यह तरीका खतरों से खाली नहीं था. एक तो इसमंे प्रेम त्रिकोण बनने का खतरा बना रहता था. दूसरे, सनम की रुसवाई का डर बना रहता था.

तीसरे विश्वसनीय दोस्त होना सबके भाग्य में कहां बदा रहता है!

लिहाजा, इजहार-ए-मोहब्बत का यह तरीका कुछ भाग्यशाली प्रेमियों के ही खाते में रहा.

नजरें कह तो देतीं, मगर कुछ अनकही की कसर फिर भी रह ही जाती है न! इजहार-ए-मोहब्बत का कोई ऐसा तरीका हो जिसमें दिल खोल कर रख दिया जाए! इन गांठों को सुलझाया खत ने. फिर एक दौर ऐसा आया कि प्रेमी अपना इजहार-ए-इश्क खत के जरिए करने लगे. खत इतना पुख्ता तरीका सिद्ध हुआ इजहार-ए-मोहब्बत का, कि प्रेमी उसमें अपना दिल तक भेजने लगे और भावातिरेक में झूम झूम गाने लगे कि फूल तुम्हें भेजा है खत में, फूल नहीं मेरा दिल है. सृजनात्मक लेखन में तो ‘लव लेटर’ नाम की एक विधा-सी ही बन गई.

इसमें कोई शकोशुबहा नहीं कि खत ने बहुत साथ दिया आशिकों का. मगर खत भेजने में पेंच यह था कि कहीं किसी ऐसे-वैसे के हाथ लग गया, तो वह खत जमाने भर की जुल्मत का फरमान बन जाता था. अपने इस ऐब के बावजूद खत इजहार-ए-इश्क का एक लोकप्रिय जरिया बना. आशिक का दिल जब प्यार से लबालब होता है, तो वह अपने जज्बात का इजहार भी डूब कर करना चाहता है. इसके लिए खत से बेहतर तरीका और कोई नहीं. ‘अपनी अफ़सुरदा (मुरझाई, उदास) निगाहों के दो आंसू रखकर खत मुझे भेज दिया और लिखा कुछ भी नहीं.’ इजहार-ए-मोहब्बत के इस नेक, मगर कठिन काम को खतों ने बखूबी अंजाम दिया और आज भी दे रहे हैं.

इजहार-ए-मोहब्बत के तरीकों में मील का पत्थर बना एक तरीका. फूल. वह भी खासकर गुलाब. चटक लाल रंग आशिक की बेचैनी या प्यार की तीव्रता का, तो गुलाब प्रेम का प्रतीक बन गया. जब बसंत ऋतु प्रेम का प्रतीक है, तो उसकी आत्मा फूल को तो बनना ही बनना था! शोख फूल राज-ए-उलफत का पर्दाफाश करने लगे. लाल गुलाब ने कई खाली दिलों में मोहब्बत का रंग भरा. आशिकों के बीच फूल देने और लेने का यह तरीका बहुत मकबूल हुआ. संभावित प्रेमियों में जब कभी किताबों का आदान-प्रदान हुआ, तो किताबों के बीच फूल रखकर हुआ. और जब कभी विछोह के क्षण आए, तो किताबों के बीच सूखे फूल ने ढांढस भी बंधाया. फूल ने वह काम कर दिया जो बड़े से बड़े कवि, लेखक न कर सके. अंग्रेजों में तो फूलों की इस विशेषता के कारण एक कहावत भी है- से इट विद फ्लावर्स. और हमारे यहां ‘हम उनके लिए ढूंढ़ते अल्फ़ाज़ रह गए, वो चार फूल देकर सारी बात कह गए.’ इजहार-ए-मोहब्बत के इस तरीके के विषय में क्या अब कुछ कहने की जरूरत है!

आज की बात की जाए तो प्रेमियों को बहुत सुविधा है (प्रेम करने की नहीं, प्रेम को व्यक्त करने की). चॉकलेट! चॉकलेट ने आशिकों की जिंदगी और प्रेम कहानी में खूब मिठास घोली. यहां तक कि एक कंपनी ने अपनी पंचलाइन में इसे इजहार-ए-मोहब्बत का एकमात्र प्रतीक ही बना दिया.

इजहार-ए-मोहब्बत में चॉकलेट को किसी ने टक्कर दी, तो वह है ग्रीटिंग कार्ड. इस काम में ग्रीटिंग कार्ड ने चॉकलेट से खूब होड़ की. ग्रीटिंगकार्ड देने से एक फायदा यह भी होता कि भाषा संबंधी अशुद्धियां नहीं होतीं और भेजने वाले का बौद्धिक स्तर क्या है, यह पता करना मुश्किल होता, जो खत लिखने में पकड़े जाने की संभावना होती (इसलिए कुछ चालाक प्रेमी किसी आलिम से खत लिखवा लेते हैं), इन सब विशेषताओं के चलते ग्रींटिग कार्ड दो दिलों को मिलाने में एक मजबूत सेतु बना.

ग्रीटिंग कार्ड के अलावा मोबाइल आज के प्रेमियों की बड़ी सेवा कर रहा है. एसएमएस के जरिए फट कह दी अपने दिल की बात. न कोई देख रहा न कोई पकड़ रहा. पूर्ववर्ती समय की तुलना में आज इजहार-ए- मोहब्बत करना काफी सेफ हो गया. इंटरनेट के जरिए खट से ईमेल कर दिया. चैट करके दिल की बात कर ली. प्रेमियों के लिए मात्र चौदह फरवरी (वैलेनटाइन डे) का एक खास दिन ही नहीं, प्रेम की पींगें बढ़ाने के लिए फरवरी में पूरे एक हफ्ते का मौका मिलता है, जैसे रोज डे (7 फरवरी), प्रपोज डे (8 फरवरी), चॉकलेट डे (9 फरवरी ), टेडी डे (10 फरवरी ), प्रॉमिस डे (11 फरवरी ), किस डे (12 फरवरी ), हग डे, हग से यहां मतलब आलिंगन से है, (13 फरवरी ), तो फिर उन्हें किस बात की चिंता. इसीलिए तो चांस पर डांस कर रहे हैं आज के भाग्यशाली युवा प्रेमी.

आशिकों की समस्या ‘इजहार-ए-मोहब्बत कैसे करें!’ को किसी ने समझा न समझा हो, बाजार ने इसे अच्छे तरीके से समझा है. आज उसने ग्रीटिंगकार्ड, टेडीबीयर, चॉकलेट, बैलून (ये सभी आइटम दिल शेप में भी हो सकते हैं) के अतिरिक्त तरह-तरह के आकर्षक गिफ्ट को उतार दिया है. कुछ पुराने तरीकों के साथ बहुतेरे नये तरीके आ गए हों आज, लेकिन सौ बात की एक बात–अगर आपके दिल में किसी के प्रति प्यार है, तड़प है, तो आपको इजहार-ए-मोहब्बत का कोई तरीका सूझे न सूझे, आपका प्यार अपने को व्यक्त करने का कोई न कोई तरीका जरूर ढूंढ़ लेगा, क्योंकि वह सच्चा है.

प्रेम रोग है या संजीवनी ?

आनंद नॉरम
आनंद नॉरम

प्रेम में यही मजा है. प्रेम हर पल नए प्रश्न प्रस्तुत करता है. कह लें कि प्रेम का यही मजा है कि यहां प्रश्न ही प्रश्न हैं और उत्तर ‘एक्को’ नहीं. उत्तर हों भी तो उन्हें खोजने, देने की किसी प्रेमी के पास फुर्सत नहीं. प्रेम स्वयं में ‘फुल टाइम जॉब’ टाइप चीज है भाई साहब. किसके पास टाइम है कि आपके प्रश्न सुने? किसके पास फुर्सत है कि उत्तर तलाशता फिरे? प्रेम में तो हर एक प्रश्न को सदियों से ऊपर वाले की मर्जी पर छोड़ देने का रिवाज चला आता है. उसी ने हमें प्रेम में डाला, महबूब से मिलवाया, जूते पड़वाए इत्यादि, वही यह प्रश्न भी देखेगा.

प्रेम में एक यही प्रश्न नहीं है भाई साहब कि यह रोग है या संजीवनी? ढेर से और भी प्रश्न हैं. जिन्होंने प्रेम किया है, या जो एक प्रेम से निकलकर दूसरे और फिर तीसरे, चौथे में उसी सहजता से जाते रहते हैं जैसे कि सर्कस के झूलों पर करतब दिखाने वाले कलाकार एक झूले से दूसरे झूले पर किया करते हैं, या कि वे जो क्रॉनिक डीसेंट्री- भगंदर तथा बवासीर की भांति प्रेम से अहर्निश पीड़ित हैं तथा जिनका इलाज न एलोपैथी में मिलता है न ही यूनानी दवाखाने में, या कि वे प्रेमी जिन्हें प्रेम तो विकट होता है पर किसी को भी, यहां तक कि महबूब तक को बता नहीं पाते, या कि वे जिन्हें प्रेम बिगड़े जुकाम की भांति निरंतर पकड़े रहने के बावजूद कोई उनकी बीमारी को सीरियसली लेता ही नहीं – इन सबसे कभी आप यही प्रश्न पूछ कर देखिएगा कि प्रेम रोग है या संजीवनी पूछेंगे तो वे बताएंगे कि यही तो एक ऐसा विचित्र रोग है जो लग जाए तो संजीवनी भी सिद्ध हो सकता है.

फिर भी मैंने आपके इस प्रश्न पर साहित्यिक, सामाजिक तथा चिकित्सीए कोणों से विचार किया है. मेरे साहित्यिक मन ने इस प्रश्न से और आगे जाकर कई इसी तरह के प्रश्न मुझसे और भी पूछ लिए. वह कहता है कि जब प्रेम पर ऐसे ऊलजुलूल प्रश्न पर विचार करने पर उतारू ही हो तो प्रेम से जुड़े कुछ अौर प्रश्न भी लगे हाथों क्यों नहीं निपटाते चलते? चलो, न भी निपटा पाओ पर से प्रश्न भी कम से कम सुन तो ले ही. तो आप भी सुनें.

कुछ और प्रश्न जो बनते हैं वे इस प्रकार हैं’ प्रेम आंवला है या मुरब्बा? कहीं प्रेम वह अचार तो नहीं जो मर्तबान में बहुत दिनों तक संयम का ढक्कन लगाकर सामाजिक वर्जनाओं की परछत्ती पर धर कर छोड़ दो तो उसमें फफूंद लग जाता है? इस अचार को फफूंद न लगने के लिए क्या किया जाना चाहिए? क्या नया अचार डाल लिया जाए, फफूंद हटा कर वही पुराना अचार चाटते रहें या कि अचार की बरनी को परछत्ती से उतारें ही नहीं और मात्र दाल-रोटी खाकर ही मन बहलाया जाए? प्रश्न है कि क्या प्रेम दाढ़ी बढ़ाने का बहाना मात्र है जैसा कि असफल प्रेम में देखा या दिखाया जाता है? क्या प्रेम वजन घटाने का शर्तिया ‘वेट लॉस प्रोग्राम’ है क्योंकि पारंपरिक प्रेमकथाओं में प्रेमियों को सूख कर कांटा होते बताया जाता है? मेरे परम मित्र अंजनी चौहान इस संदर्भ में यह व्यावहारिक प्रश्न भी उठाया करते हैं कि यदि हर तरह के प्रेम तथा उससे जुड़े ठनगनों का हश्र शयनकक्ष में होने वाली कतिपय अनिवार्य उठापटक में ही हाेना है जिसके लिए प्रेम भाव के अतिरिक्त अन्य कूव्वतों की भी उतनी ही आवश्यकता होती है तो फिर प्रेम अकेले का स्साला इत्ता हल्ला क्यों? चौहान साहब कहते हैं कि प्रेम तो खूब हो और मान लो कि कूट-कूट कर भी भरा हो तब भी फायनली तो बात इस पर जाकर ही टिकेगी न कि  प्रेम में आप बस ‘हें हें’ ही करते रहोगे या कुछ और भी ‘ठीकठाक’ कर पाते हो प्रेम के वायवीय या ‘प्लेटोनिक’ पक्ष पर तो बड़ी प्रेमकथाएं लिखी, पढ़ी तथा सरेआम सराही जाती हैं, परंतु जब इससे जुड़े असली खेल की बात पर बात आती है तो आप उसे अश्लील घोषित कर देते हो? ‘वैसा कुछ’ लिखा हो तो छिप कर पढ़ते हो?

तो प्रश्न तो अनेक हैं. चलो, हम आपसे पूछते हैं कि क्या प्रेम लेमनचूस की गाेली है कि जिसे ठीक से चूसो तो कुछ देर में ही खत्म हो जाती है पर स्वाद छोड़ जाती है, या कि यह च्यूंगम टाइप कोई चीज है जो खत्म ही नहीं होती और आप अभ्यासवश या परंपरावश उसे स्वादहीन होने के बावजूद चबाए चले जाते हो और फिर भी समझते हो कि कोई महत्वपूर्ण काम कर रहो हो? प्रेम जीवन की गाड़ी है, या गाड़ी का पहिया है, या कि पहिए में भरी हवा मात्र है? कहीं प्रेम, जीवन की गाड़ी में लगे पहिये से जुड़ा पंक्चर की रबर का छोटा-सा टुकड़ा और ‘सिलोचन’ मात्र तो नहीं है? या प्रेम इस पहिये में लगा गैटर तो नहीं है जो नियमित अंतराल पर यादों के पहिये को जीवन भर दचके देता रहता है? प्रेम कुहासा है कि साफ दृश्य? प्रेम दृष्टि है कि दृष्टि में उतरा मोतियाबिंद, या मात्र अंधापन, या कि दिव्य दृष्टि? प्रेम पागलपन है या पागल दुनिया के बीच एकमात्र सही दिमाग वालों का ईश्वरीय करतब? प्रेम स्वयं को मूर्ख बनाने का तरीका है या कि जीवन को सबसे समझदारी से देखने वालों का काम? प्रेम काम है या कामचोरी? प्रेम प्राइवेट सेक्टर की गतिविधि है तो इसमें ‘पब्लिक’ सेक्टर द्वारा इतना दखल क्यों दिया जाता है? प्रेम यदि आग का दरिया है तो इस पर कोई भी पुल टिक कैसे सकता है और टिकेगा भी तो उतने गर्म पुल पर से आवाजाही कोई कैसे कर सकता है? समाज इस दरिया पर अपनी खाप पंचायतों, जाति, गोत्र, मान्यताओं और वर्जनाओं के बांध बांधने की कोशिश क्यों करता है? प्रेम कहीं वह गुलाब तो नही जो अंततः गुलकंद बनने को अभिशप्त हो?

अनेक प्रश्न हैं जो इस समय मेरे साहित्यिक मन में उठ रहे हैं. पर इन्हें यहीं छोड़ना श्रेयस्कर होगा. ये अतिप्रश्न जैसे हैं. अभी मैं आपके दिए प्रश्न पर बात करूं. मैं एक चिकित्सक के तौर पर प्रेम का अध्ययन करूं तो पाता हूं कि प्रेम को रोग भी कहा तो जा सकता है. प्रेम को बाकायदा एक रोग की भांति भी समझा जा सकता है जिसके लक्षण होते हों, डायग्नोसिस की जा सकती हो, टेस्ट किए जा सकते हों तथा कुछ हद तक इस रोग के शर्तिया टाइप के इलाज भी संभव हों.

पहले प्रेमरोग के लक्षणों की बात कर ली जाए. प्रेम के रोगी को हल्की हरारत-सी लगी रहती है. तेज बुखार तो खैर नहीं आता परंतु बदन गर्म रहता है जो प्रेमी को देखकर एकाध डिग्री और बढ़ जाता है. यह बुखार थर्मामीटर में रिकॉर्ड नहीं हो पाता. कई बार समाज इसे अपने जूते से रिकॉर्ड करने की कोशिश अवश्य करता है, परंतु जूते के चमड़े की तासीर ठंडी होती है जबकि प्रेमी की खाल गर्म – दोनों का तालमेल नहीं बैठता. प्रेमरोगी का हृदय धड़कता रहता है. छाती में धक-धक होती है जो महबूब की गली की तरफ जाने में और बढ़ जाती है. कुछ को छाती में मीठा-मीठा दर्द भी होता है जिसके लिए वह कोई दवाई लेना पसंद नहीं करता. प्रेम के रोगी के हाथ कांपते हैं, मुंह सूखता है, आंखों के सामने ठीक से कुछ सूझता ही नहीं अर्थात ठीक वे सारे लक्षण होते हैं जो ज्यादा दस्त लग जाने पर डीहाइड्रेशन में हुआ करते हैं. इसलिए किसी को भी ये लक्षण हों और उसे दस्त न लगे हों तो जान लें कि उसे प्रेमरोग हो सकता है. पर कई बार ऐसे रोगी को लड़की के बाप या भाई को देखकर दस्त भी लग सकते हैं. तब यह थीसिस काम नहीं करेगी. प्रेम के रोगी को नींद नहीं आती और रात भी दिल खाली-खाली और छाती भरी-भरी लगती है. प्रेम की चपेट में आए रोगी का अपने पांवों पर नियंत्रण खत्म-सा हो जाता है. उसके पांव स्वतः महबूब की गली की तरफ चलने लगते हैं. प्रेमरोगी में ऐसा अजीब अंधापन भी देखा जाता है जहां काला चश्मा या सफेद घड़ी के बगैर भी वह बिना किसी से टकराए सड़क तो पार कर ही जाता है जिसके उस तरफ महबूब खड़ा हो या इस तरफ बाप जूता लेकर उसे तलाश रहा हो. प्रेमरोग से पीड़ित व्यक्ति इसके इलाज के लिए नहीं आता क्योंकि उसे लगता है कि इलाज कहीं और ही है.

क्या कोई टेस्ट होते हैं इस रोग के?
इस रोग की खासियत तथा परेशानी यही है कि इसे किसी खून, पेशाब, मल या एक्स-रे की जांच द्वारा नहीं पकड़ा जा सकता. डीएनए टेस्ट द्वारा भूतपूर्व प्रेमी तो पकड़े जा सकते हैं परंतु वर्तमान के अभूतपूर्व प्रेम रोगी को नहीं पकड़ा जा सकता है. ऐसा इसीलिए है कि प्रेम में मुब्तिला प्रेमरोगी अपना डीएनए स्वयं रच रहा होता है. वास्तव में प्रेमरोग तो एक क्लीनिकल डायग्नोसिस है और मरीज को ठीक से देखने से ही यह पकड़ में आ जाती है.

अब प्रेमरोग का इलाज
है न. बहुत-से इलाज हैं. मिर्गी के अलावा इस रोग के इलाज में भी जूते का एक आदरणीय स्थान सदियों से रहा है. जूते में फायदा यह भी है कि जूता हमेशा उपलब्ध रहता है, इसे तुरंत इस्तेमाल किया जा सकता है, यह इलाज लगभग मुफ्त होता है, एक ही जूते को कई रोगियों पर और बार-बार प्रयोग किया जा सकता है, और इसे पास या दूर खड़े रोगी पर उतनी ही तत्परता से प्रयोग किया जा सकता है. प्रेमरोग के इलाज में डंडों, थप्पड़, लात, घूंसों अादि का भी अपना स्थान है, पर ये औषधियां प्रायः बिगड़े हुए रोगी में ही ट्राई की जाती हैं. ये सारे इलाज कारगर होते तो हैं पर कई बार नहीं भी होते. हां, एक इलाज जो हर प्रेमरोगी को एकदम दुरुस्त कर देता है वह यह है कि आप ऐसे रोगी की उसी लड़की (या लड़के) से शादी करा दें. विवाह इस रोग का शर्तिया इलाज है.

अब हम आते हैं आपके प्रश्न पर कि प्रेम रोग है या संजीवनी. प्रेम रोग है, यह तो हमने अभी सिद्ध कर दिया. पर सच यह भी है कि इससे बड़ी संजीवनी भी आज तक खोजी नहीं गई. सो आपका यह प्रश्न मुर्गी और अंडे वाला शाश्वत प्रश्न है जिस पर हमेशा ही माथापच्ची होती रही है. यूं कह लें कि प्रेम रोग तो है पर यह किसी जीवनदायी टीके का काम भी करता है. जैसे पोलियो के टीके में बीमारी के कीटाणु शरीर में डाले जाते हैं ठीक वैसे ही. प्रेमरोग कभी हुआ हो तो आप जीवन को इतना अच्छा, इतनी तरह से, इतना गहरा समझने लगते हैं कि फिर जीवन का आनंद ही अलग हो जाता है. सो प्रेमरोग कितना भी रोग हो परंतु संजीवनी भी है – यही विरोधाभास है प्रेम का, क्या करें?


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