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खूंटे से बंधी जम्हूरियत

मनीषा यादव

दोनों ने लंबा हाथ मारा था. मगर पहली बार सफलता पर खुश होने के बजाय वे दोनों बुरी तरह डरे हुए थे. एक-दूसरे का चेहरा देखते, जब उकता जाते तो लाए हुए माल का ख्याल आता. और जैसे ही उस पर नजर फेंकते, भीतर का डर और सघन हो जाता.

‘बहुत बड़ी गलती हो गई!’ उनमें से एक बोला. ‘गलती नहीं गुनाह…!’ दूसरा बोला. फिर दोनों के बीच देर तक खामोशी पसरी रही. इधर उनके चोरी के माल यानी भैंसों के बीच भी बातचीत हो रही थी.

‘कमाल है न!’ मुर्रा भैंस बोली. ‘क्या बहन, क्या!’ साहीवाल भैंस बोली. ‘यही कि ये दोनों अपराध पहले भी करते रहे हैं, मगर आज पहली बार अपराध को अपराध कह रहे हैं और कबूल भी कर रहे हैं.’ ‘वो इसलिए दीदी कि अब आया है ऊंट पहाड़ के नीचे.’ ‘नहीं, नहीं इसकी जगह ये कहो बहन कि इनका तो सब गुड़ गोबर हो गया…’ ‘ही-ही-ही.’ ‘खी-खी-खी.’

‘तू भी अक्ल के पीछे लठ्ठ लिए फिरता है… सेंध मारने से पहले पता लगाना चाहिए था कि नहीं!’ ‘यार, मुझे क्या मालूम था कि शहर से दूर यह फार्म हाउस किसका है!’ ‘ऊपर वाले का भी विधान समझ में नहीं आता…’ ‘वो क्या!’ ‘गरीब के घर चोरी के लिए कुछ होता नहीं, अमीर के घर चोरी करने को मिलता नहीं…’ ‘अब हम बचेंगे नहीं!’ ‘कोई न कोई रास्ता तो निकालना ही पड़ेगा!’

‘बचने का रास्ता ढूंढ़ रहे हैं बच्चू!’ गदराई भैंस बोली. ‘जानती हो दीदी, जब ये हमें यहां ले कर आ रहे थे, तब हमें जोर-जोर की हंसी आ रही थी.’ नवयौवना भैंस बोली. ‘क्यों भला!’ ‘यही कि यह हमें ढोर-डंगर समझ रहे हैं.’ ‘ऐसे ही मूर्खों के लिए तो कहा गया है… काला अक्षर भैंस बराबर!’ ‘ही-ही-ही.’ ‘खी-खी-खी.’

‘ठीक ही सुना था, क्या!’ ‘यही कि कानून के हाथ लंबे होते हंै!’ ‘लेकिन हम यूं ही हाथ पर हाथ धरे बैठे भी तो नहीं रह सकते…’ ‘न जाने किस मनहूस घड़ी में चोरी करने चले थे!’ ‘सुना है कि कई थानों की पुलिस आ गई है!’ ‘पुलिस! अबे क्राइम ब्रंाच, सीआईडी वाले, सूंघने वाले कुत्ते तक आ चुके हैं… तीन पुलिसवाले तो लाइन हाजिर भी कर दिए गए हंै… छापे पे छापे पड़ रहे हैं! ऐसे तो पुलिस खूनी-आतंकवादी के पीछे नहीं पड़ती है, जैैसे हमारे पीछे पड़ी हुई है! ‘कसम है! अब जो आगे से चोरी की तो!’

‘इससे पहले तो कभी पुलिस- वाले यूं हाथ धो के हमारे पीछे नहीं पड़े…’ ‘…तो इससे पहले हमने कब किसी मंत्री के यहां हाथ मारा था!’ ‘भैंसंे मिल जाएं, तो शायद पुलिसवाले हम पर रहम कर दें.’  ‘मुझे तो आंखों के आगे अंधेरा ही अंधेरा दिख रहा है…’ ‘अंधेरे में इन भैंसों को हम आजाद कर देगें! तब शायद हमारी जान बच जाए.’

अरे यह क्या! यहां तो ‘हाथ आया मुंह न लगा’ वाली कहावत चरितार्थ हो रही है. चोर चोरी के माल को अपने कब्जे से स्वत: मुक्त करने जा रहे हैं. अब जब वे दोनों भैंसों को बंधनमुक्त कर रहे हैं, तब भैंसें उत्साह और गर्व से जोर-जोर से नारे लगा रही हैं.

‘हम कोई उठाई हुई साइकिल नहीं!’ ‘हम कोई छिनी हुई चेन नहीं! ‘हम कोई छेड़ी हुई लड़की नहीं!’ ‘हम कोई जली हुई झोपड़ी नहीं!’ ‘हम कोई विस्थापित नहीं!’ ‘हम कोई राहत शिविर नहीं!’ ‘हम कोई ठंड से मरते शिशु नहीं!’ ‘हम कोई गरीब की लुगाई नहीं!’ ‘हम कोई दंगाई नहीं!’

इस वक्त भैंसें आजाद हो गई हैं और आजाद भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था के एकल दिशा मार्ग पर कूल्हे मटकाते हुए उनका झुंड बड़ी बेफिक्री से अपने ठिकाने की ओर चला जा रहा है.

चरार-ए-शरीफ आतंकवादी हमला

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कश्मीर घाटी के श्रीनगर से तकरीबन 40 किमी दूर स्थित चरार-ए-शरीफ में राज्य की सबसे पुरानी और पवित्र दरगाह है. सूफी संत नूरुद्दीन नूरानी, जिन्हें नंद ऋषि भी कहा जाता है, के नाम पर बनी यह दरगाह तकरीबन 600 साल पुरानी है.

भारत-पाकिस्तान सीमा के नजदीक स्थित होने की वजह से सीमापार से यहां श्रद्धालु आते-जाते रहे हैं. लेकिन 1990 के दशक में जब कश्मीर में आतंकवाद का दौर शुरू हुआ तब भौगोलिक स्थिति की वजह से यह शहर आतंकवादियों की सुरक्षित पनाहगाह साबित होने लगा. दिसंबर, 1994 से सुरक्षाबलों को इस बात की खबरें मिल रही थीं कि सीमापार के आतंकवादी चरार-ए-शरीफ में दाखिल होने की कोशिश कर रहे हैं. हालांकि तब सेना ने यहां किसी तरह की कार्रवाई नहीं की. लेकिन मार्च, 1995 में जब शहर के भीतर बीएसएफ के दो जवानों की गोली मारकर हत्या कर दी गई तब सेना और सरकार को मामले की गंभीरता का अहसास हुआ. सरकार को अपने गुप्त सूत्रों से पता चला कि चरार-ए-शरीफ में तकरीबन 75-80 आतंकवादी भारी असलहे के साथ मौजूद हैं. इसके बाद सेना ने पूरे शहर की घेरा बंदी कर दी और वहां कर्फ्यू लगा दिया गया. सेना की सोच थी कि बिना किसी कठोर कार्रवाई के ये आतंकवादी आत्मसमर्पण कर देंगे. धीरे-धीरे डेढ़ महीने बीत गए. आतंकवादियों ने आत्मसमर्पण का कोई संकेत नहीं दिया.

अब सेना यहां बड़ी कार्रवाई करने को तैयार हो रही थी. इसलिए सबसे पहले शहर को खाली करने की प्रक्रिया शुरू हुई. कुछ ही दिनों में यहां से तकरीबन 20,000 लोगों को सुरक्षित स्थानों पर भेज दिया गया. मई की शुरुआत में जब सेना ने चरार-ए-शरीफ में तलाशी अभियान शुरू किया तो उस पर आतंकवादियों ने फायरिंग कर दी. इसके बाद सेना और सतर्कता के साथ आगे बढ़ी तो पता चला कि आतंकवादियों ने जगह-जगह बारूदी सुरंगें बिछा रखी हैं. इससे बड़ी चुनौती का अहसास सुरक्षाबलों को तब हुआ जब उन्हें खबर मिली कि आतंकवादियों ने दरगाह पर कब्जा कर लिया है.

दरगाह में किसी भी तरह की कार्रवाई का मतलब था पूरे राज्य की जनता की धार्मिक भावनाओं को आहत करना. लेकिन इसके साथ ही यथास्थिति भी कायम नहीं रखी जा सकती थी.

कहा जाता है कि इसी बीच नौ मई को आतंकवादियों के कमांडर मस्त गुल के निर्देश पर उसके साथियों ने शहर के एक इलाके में आग लगा दी. कुछ ही घंटों में यह आग शहर के एक बड़े हिस्से में फैल गई. चरार-ए-शरीफ की दरगाह भी इस आग की चपेट में आ गई. इस मौके का फायदा उठाकर आतंकवादी भागने लगे तो सेना से उनकी मुठभेड़ हुई और इस दौरान 20 आतंकवादी मारे गए. सेना अब दोनों स्तर पर काम कर रही थी. आखिरकार जब आग पर काबू पाया गया तब तक शहर का दो तिहाई हिस्सा जलकर खाक हो चुका था. चरार-ए-शरीफ दरगाह का एक बड़ा हिस्सा भी इसमें जलकर तबाह हो गया. उधर मरने वाले आतंकवादियों की संख्या 25-30 हो चुकी थी.  इस पूरी कार्रवाई में आखिरकार शहर को आतंकवादियों के कब्जे से मुक्त करवा लिया गया लेकिन इसकी एक असफलता यह रही कि आतंकवादियों का कमांडर अपने कई साथियों के साथ चरार-ए-शरीफ से सुरक्षित निकलकर सीमापार पहुंचने में कामयाब रहा.

बाद में केंद्र सरकार ने इस दरगाह का पुनर्निर्माण करवा दिया, लेकिन यह घटना उस समय कई महीनों तक जम्मू-कश्मीर में विरोध प्रदर्शनों की वजह बनी रही.

मोदी का सवाल और उत्तर प्रदेश

फोटोः प्रमोद सिंह
फोटोः प्रमोद सिंह

इसमें कोई शक नहीं कि पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में नरेंद्र मोदी की रैलियों के बाद राज्य में कलह से ग्रस्त भाजपा कुछ हद तक संभली हुई दिखने लगी है. पार्टी का लक्ष्य अगले लोकसभा चुनाव में 272 से ज्यादा सीटें जीतना है और प्रदेश के पार्टी नेता मानते हैं कि मोदी का प्रभाव इसमें अहम भूमिका निभाएगा.

पर क्या मोदी फैक्टर पार्टी को 90 के दशक में चली राम मंदिर लहर से भी ज्यादा वोट दिला सकता है ? पार्टी वरिष्ठ नेता और विधानपरिषद के सदस्य महेंद्र सिंह कहते हैं, ‘ यदि हमारे पक्ष में 1990 की तरह की लहर न भी हो फिर भी पार्टी पूरी कोशिश करेगी कि एक वैसी ही लहर बन सके और इसका श्रेय मोदी के चुनाव अभियान को जाता है. ‘ एक और वरिष्ठ नेता बात को आगे बढ़ाते हुए यहां तक कहते हैं, ‘ हम पूरी कोशिश कर रहे हैं कि पार्टी के भीतर आपसी कलह खत्म हो जाए. वैसे भी इस पर मोदी की लहर भारी पड़ेगी.’

दरअसल 1990 का दशक राज्य में भाजपा के लिए स्वर्ण काल रहा है. अक्टूबर,1990 में कार सेवा के चलते राम मंदिर आंदोलन अपने चरम पर पहुंचने लगा था. नतीजतन 1991 के विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा प्रदेश की सत्ता पर काबिज हो गई. सफलता की कुछ यही कहानी लोकसभा चुनाव में भी दोहराई गई. 1989 में पार्टी को प्रदेश में लोकसभा की नौ सीटें मिली थीं तो दो साल में यह आंकड़ा 52 पर पहुंच गया और 1998 के लोकसभा चुनावों में उसकी सीटों की संख्या बढ़कर 57 हो गई. फिर एक साल बाद मध्यावधि चुनाव हुए. इनमें भाजपा 26 सीटें ही जीत सकी. उत्तर प्रदेश में उस समय से भाजपा की गिरावट का जो दौर शुरू हुआ तो पार्टी आगे नहीं बढ़ पाई. 2004 के लोकसभा चुनावों में जहां उसे 11 सीटें मिलीं वहीं तो 2009 में यह संख्या घटकर 10 हो गई.

इस बार मोदी प्रदेश में पांच रैलियां कर चुके हैं, राष्ट्रीय स्तर पर इनकी खूब चर्चा भी हुई. हालांकि इसके बाद भी उत्तर प्रदेश भाजपा में एक ऐसा वर्ग है जो  मानकर चल रहा है कि मोदी का जादू सवर्णों और शहरी वर्ग तक ही सीमित है. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘ पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जातियों का वोट बैंक सीधे-सीधे समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से जुड़ा हुआ है, ऐसे में मोदी के लिए इस वर्ग को भाजपा से जोड़ पाना एक बड़ी चुनौती है. हां, लेकिन भाजपा के पाले में कुछ वोट जरूर बढ़ेंगे, लेकिन इस पर यह कहना कि मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए खड़ा करने से पार्टी को राम मंदिर आंदोलन जैसा समर्थन मिल जाएगा तो यह अतिशयोक्ति के अलावा कुछ नहीं है.’ पिछड़ा वर्ग से ताल्लुक रखने वाले और  भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह के करीबी एक नेता कहते हैं, ‘ मोदी को पार्टी अतिपिछड़े वर्ग के नेता के तौर पर पेश कर रही है. राजनाथ सिंह जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री (2000-2002) थे तब उन्होंने पिछड़े वर्ग के 27 फीसदी कोटे के भीतर इस वर्ग को अलग से आरक्षण का फायदा देने की कोशिश की थी लेकिन बाद में पार्टी इस कोशिश को किसी नतीजे तक नहीं ले गई. इसलिए इस बात की संभावना कम ही है कि मोदी इस वर्ग के मतदाताओं को अपनी ओर खींच पाएं.’

हालांकि सब ऐसा नहीं मानते. पार्टी के वरिष्ठ नेता लोटन राम निषाद जो खुद अतिपिछड़े वर्ग से आते हैं, कहते हैं, ‘ पिछड़े वर्ग के तहत जो 17 जातियां आती हैं वे आज तक सपा और बसपा के राजनीतिक खेल का मोहरा बनती रही हैं. इन्होंने दोनों पार्टियों को परख लिया है और इसलिए इन वर्गों के लोग अब भाजपा को भारी समर्थन देंगे.’

हालांकि प्रदेश के एक राजनीतिक विश्लेषक ऐसी उम्मीद को अतिउत्साह बताते हुए कुछ आंकड़ों  का हवाला देते हुए कहते हैं, ‘ 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का वोट  प्रतिशत महज 15 फीसदी था. यह अचानक 35 फीसदी नहीं बढ़ सकता. यही बात सीटों पर भी लागू होती है. इस समय भाजपा के पास दस सीटें हैं तो ये अधिकतम 20 तक पहुंच सकती हैं लेकिन इनमें तीन गुना बढ़ोतरी मुमकिन नहीं है.’

बढ़चढ़कर किए जा रहे भाजपा के तमाम दावों के साथ ही इस समय पार्टी नेताओं के बीच सबसे बड़ा सवाल फिर वही है कि क्या मोदी का व्यक्तित्व ऐसा है जिससे एक बार फिर पार्टी के पक्ष में राम मंदिर आंदोलन के समय जैसी लहर चल जाए. इस सवाल के सकारात्मक जवाब में सबसे बड़ी बाधा राज्य में पिछले सालों का भाजपा का प्रदर्शन है. इससे ये संकेत भी मिलते हैं कि इस साल के लोकसभा चुनावों में पार्टी कहां पहुंच सकती है. 2009 के आम चुनाव में भाजपा को 10 सीटें मिली थीं, सात सीटों पर वह दूसरे, 22 पर तीसरे और 16 लोकसभा सीटों पर चौथे स्थान पर रही. 25 सीटों पर उसने अपना कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं किया था. उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से सात ऐसी हैं जिन पर भाजपा आज तक नहीं जीती. 10 पर वह एक बार ही जीती है जबकि 23 सीटों पर उसे दो बार जीत मिली है. इसके अलावा पार्टी के वरिष्ठ नेता चाहे जो दावा करें लेकिन लोकसभा टिकट के लिए पार्टी में अब भी गुटबाजी और मारामारी दिख रही है.

प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कलराज मिश्र की ही मिसाल लें. खुद को पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह से भी वरिष्ठ मानने वाले मिश्र इस समय विधायक हैं. चर्चा है कि वे लोकसभा चुनाव लड़ना चाह रहे हैं ताकि एनडीए सरकार बने तो अपनी वरिष्ठता की वजह से वे केंद्रीय मंत्री बन सकें. अभी भाजपा ने औपचारिक रूप से लोकसभा उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया शुरू नहीं की है, लेकिन मिश्र पहले ही कानपुर से खुद को पार्टी का उम्मीदवार घोषित कर चुके हैं. वे इस सीट को अपने लिए सबसे उपयुक्त इसलिए मानकर चल रहे हैं कि यहां एक बड़ा ब्राह्मण मतदाता वर्ग है. लेकिन उनकी दावेदारी के खिलाफ कानपुर जिले से भाजपा के विधायक- सत्यदेव पचौरी और सतीश महाना भी खुलकर आ गए हैं. वे भी कानपुर से चुनाव लड़ना चाहते हैं और कई बार मिश्र की आलोचना कर चुके हैं. दूसरी तरफ, प्रदेश में पार्टी के पदाधिकारियों और पार्टी अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी की ठनी रहती है. पदाधिकारी यदि भाजपा के राष्ट्रीय सचिव विनोद पांडे और विधान परिषद के सदस्य महेंद्र सिंह को किसी कार्यक्रम में आमंत्रित करते हैं तो वे तुरंत बाजपेयी के निशाने पर आ जाते हैं. बाजपेयी भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी के करीबी हैं और पांडे व सिंह को राजनाथ सिंह का खास माना जाता है. यही बात भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रमापति राम त्रिपाठी के मामले में भी है.

पार्टी के भीतर इन हालात पर लक्ष्मीकांत बाजपेयी कहते हैं, ‘ पार्टी के सामने जो चुनौतियां हैं हमें उनका अहसास है. हो सकता है हमारा वोट प्रतिशत अभूतपूर्व तरीके से न बढ़े, लेकिन इसके बाद भी हमें कोशिश करनी होगी कि हम कम से कम 1999 के लोकसभा चुनावों में मिले वोटों (36.49) के करीब पहुंच सकें. पिछले एक दशक में मतदाताओं ने देख लिया है कि सपा और बसपा को वोट देने की वजह से ही कांग्रेस को मदद मिली और वह केंद्र में सरकार बना पाई. हम जानते हैं कि हमें इन दोनों पार्टियों की जातिवादी राजनीति से टकराना है लेकिन हम इसका मुकाबला मतदाताओं से यह अपील करके करेंगे कि वे भारत के अच्छे भविष्य के लिए वोट दें.’

शिकागो से शिकोहाबाद तक…

facebookइस दौर में ज्यादातर लोगों को चार तरह के घरों में जाना बुरा लगता है. एक वे जिनमें जूते बाहर उतार अंदर जाना पड़े. दूसरे वे जहां पैर छूने को परंपरा/संस्कृति की सर्वोत्तम कसौटी माना जाए. तीसरे वे जहां 40 पार का मनुष्य दूसरे 40 पार के मनुष्य को सामने देखते ही चेहरे की झुर्रियों में चिंता भर सिर्फ ‘तबीयत’ से जुड़े सवाल-जवाब करता मिले, ‘कैसी तबीयत है आपकी?’,‘तबीयत ठीक नहीं लग रही, आराम करिए आप’. और फिर चौथे वे घर जहां लोग चेहरे पर, कपड़ों पर और बातों में रुपये-पैसे चिपकाए घूमते-बैठते मिलें. आपका फेसबुक इन चारों तरह के घरों से अलग है. यहां न भेद है, न वेद है. यह यत्र तत्र सर्वत्र है.

आभासी दुनिया की किसी चीज को इस तरह रूपक से जोड़ना अपने आप में एक नया अनुभव है. आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से लदी-फदी यह किताबी चेहरे वाली दुनिया कब इतनी मानवीय हो लोगों रूपी बिंदुओं को जोड़ते-जोड़ते खूबसूरत पोर्ट्रेट हो गई, पता ही नहीं चला. इसका ऐसा भविष्य होना किसी ने सोचा भी नहीं था. मार्क जकरबर्ग ने भी नहीं. जब 2005 में एक इंटरव्यू के दौरान ‘द फेसबुक’ के भविष्य पर सवाल किए गए तो जवाब देने में संघर्ष करता 20 साल का यह लड़का इतना ही कह पाया था, ‘कोई जरूरी नहीं है कि फेसबुक अभी दी जा रही सुविधाओं के अलावा भी कुछ नया, या आज से ज्यादा बेहतर आने वाले वक्त में दे सके.’

लेकिन फेसबुक ने काफी कुछ दिया. बहुत सारे परिवर्तन किए और खुद कई बार परिवर्तित भी हुआ. इसलिए आपके फेसबुक पन्ने को घर कहना, पूरे फेसबुक को एक शहर कहना बतकही नहीं है. किसी एक उपमहाद्वीप की किसी खास तरह की मिट्टी वाली जमीन पर इसकी बसाहट नहीं है फिर भी दुनिया के नक्शे के हर कोने को छूते इस शहर में बने घरों में रह हम सब खुश हैं. आप शिकागो के हैं, फिर भी आप शिकोहाबाद को जान सकते हैं. शिकोहाबाद की रबड़ी पर लोगों के साथ वाद-विवाद कर सकते हैं, देसी घी वाली सोन पपड़ी और बेड़ई-सब्जी के जायकों की तस्वीरों से इलाके के लोगों के रहन-सहन की झलक ले सकते हैं. हूबहू ऐसे ही एक शिकोहाबादी शिकागो से भी रूबरू हो सकता है. और फिर यह भी तो है कि घर बनाने के लिए यहां किसी को भी किसी राजीव गांधी आवास योजना की जरूरत नहीं! उसके आगे-पीछे की राजनीति की भी नहीं.

फेसबुक की तरह ही विशाल शहर है ट्विटर. लेकिन वहां घर नहीं है. घर के होने वाली जगहों पर बड़े-बड़े होर्डिंग हैं जिन पर लिखे 140 अक्षरों के ज्ञान को रंग-बिरंगे लट्टुओं की झालर से जगमग-चकमक कर दुनिया के सामने रोशन करने की कवायद रोज का कारोबार है. फेसबुक में ‘घर-घर’ खेल वाली आत्मीयता है तो ट्विटर में बड़े-ऊंचे लोगों के बीच जगह बनाने की कोशिश करने वाले एक प्रवासी का संघर्ष. और 140 अक्षरों की ऐंठन. जहां ट्विटर की कुलीनता कुछ वक्त बाद काटने को दौड़ती है, फेसबुक का घरेलूपन परायेपन को काटता है. लोगों को अपनाता है. शायद यही वजह है कि हर महीने ट्विटर का सक्रिय रूप से उपयोग करने वाले 23.2 करोड़ वाले उसके संपूर्ण यूजर बेस के बराबर के लोगों को तो फेसबुक सिर्फ पिछले साल ही अपने से जोड़ चुका है. अर्थात, पिछले साल फेसबुक अपने अंदर एक पूरा ट्विटर बसा चुका है!

इस चार फरवरी को जब फेसबुक दस का हुआ तो एक दिन बाद अभिषेक बच्चन 48 में दस कम के हुए. 2004 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में जब एक 19 साल का सोफोमोर (दूसरे साल का अंडर ग्रैजुएट) छात्र ‘द फेसबुक’ लॉन्च कर चुका था तब तक अभिषेक बच्चन 13 खराब फिल्मों में 13 बार खराब अभिनय कर चुके थे. और इत्तफाकन, द फेसबुक के लांच होने के बाद ही उन्होंने पहली बार अच्छा अभिनय किया और पहली बार ही किसी हिट बॉलीवुड शाहकार का हिस्सा रहे. ये क्रमश: युवा और धूम थीं! लेकिन उसके बाद कुछ फिल्मों को छोड़ दें तो उनका फिल्मी करियर कट चुकी पतंग के जमीन पर गिर चुकने से पहले के  जीवन को चरितार्थ कर रहा है. ठीक इसी तरह का जीवन फेसबुक के पहले-साथ-बाद आए कई दूसरे सोशल नेटवर्क भी चरितार्थ कर रहे हैं/थे. ये एक जमाने में फेसबुक के प्रतिद्वंद्वी थे, अब अभिषेक बच्चन हैं.

फेसबुक पर आज हर महीने करीब 1.2 अरब एक्टिव यूजर अपना वक्त गुजारते हैं. यह आंकड़ा लिंक्डइन, ट्विटर और गूगल प्लस अपने-अपने यूजरों को एक साथ जोड़ कर भी नहीं छू पा रहे हैं. अपने प्रतिद्वंद्वियों के लिए फेसबुक शुरू से ही इतना अपराजेय रहा है. फेसबुक शुरू होने के एक साल बाद ‘कॉलेज टूनाइट’ (college tonight) आया, और चुपचाप गायब हो गया. ‘एनीबीट’ (anybeat) भी आया और उसकी भी चाप कोई नहीं सुन पाया. इन छोटे और कम सुने नामों के अलावा ‘मायस्पेस’ (Myspace) था, जो 2008 के बाद से ही फेसबुक की छाया से मुक्त नहीं हो पाया और अब नए सिरे से शुरुआत करने को विवश है. ऐसा ही कुछ ‘फ्रेंडस्टर’ (Friendster) के साथ भी हुआ. और समीक्षकों द्वारा सराहे गए ‘डाइस्पोर’ (diaspora) के साथ भी. आज के जीवित दूसरे सोशल नेटवर्कों में लिंक्डइन और ट्विटर अपनी सीमाओं की वजह से फेसबुक जैसा नहीं बन पा रहे, वहीं गूगल प्लस की कहानी में मनोरंजन ज्यादा है. जीमेल की बदौलत मिले वृहत यूजर बेस के बावजूद गूगल प्लस की असफलता के बाद अब जब कोई ज्ञानी फेसबुक और गूगल प्लस की तुलना करता है तो लगता है जैसे कोई वालमार्ट और वी-मार्ट पर तुलनात्मक शास्त्रार्थ कर रहा हो!

जन-धन फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में कंपनी का आईपीओ लॉन्च करते हुए
जन-धन फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में कंपनी का आईपीओ लॉन्च करते हुए

लेकिन ऐसी कई सफलताओं के बावजूद फेसबुक को शुरू से खारिज करने वालों की बड़ी संख्या रही है. इनका निराशावाद से सामंजस्य ऐसा है कि इन लोगों व संस्थाओं द्वारा फेसबुक आज भी खारिज हो रहा है. कभी कोई इनवेस्टर आने वाले कुछ सालों में फेसबुक के गायब होने की भविष्यवाणी कर देता है तो कभी कोई लेखक लिखता है कि फेसबुक इंटरनेट के इतिहास में सिर्फ एक फुटनोट बन कर रह जाएगा. प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने हाल ही में निष्कर्ष निकाला है कि फेसबुक 2015 तक खत्म हो जाएगा. इंटरनेट के जनक  विंट सर्फ जो गूगल के वाइस प्रेजिडेंट भी हैं, ने 2011 में कहा कि फेसबुक चारों तरफ से बंद एक ऐसा गार्डन बन चुका है जो अपने उपभोक्ताओं की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरेगा और जल्द ही एओएल (AOL – America Online Inc.) की तरह हो कर असफल हो जाएगा. 2012 में जब फेसबुक अपना आईपीओ लाया, तब उसके शेयर खरीदने के लिए लगी लंबी कतार में वॉरेन बफे (विश्वप्रसिद्ध निवेशक और दुनिया के सबसे धनी लोगों में शुमार) नहीं थे. उनका तर्क था कि फेसबुक जैसी कंपनियों की कीमत आंकना टेढ़ा काम है क्योंकि यह अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल है कि आने वाले 5-10 साल में फेसबुक कहां पहुंचेगा. वॉरेन बफे के बिजनेस पार्टनर चार्ली मुंगर थोड़े ज्यादा तीखे थे, ‘मैं उन चीजों में निवेश नहीं करता जिन्हें मैं नहीं समझता. और मैं फेसबुक को समझना ही नहीं चाहता.’ युवा भी पीछे नहीं थे. आईपीओ के समय रेडिट (Reddit) के को-फाउंडर ऐलेक्स ओहानियन भी तल्ख थे, ‘अगर फेसबुक ऐसे ही यूजर्स की प्राइवेसी का अनादर करता रहा तो वह जल्द ही गुजरे कल की बात हो जाएगा.’

लेकिन फेसबुक टिका है. दुनिया की आबादी के 17 प्रतिशत से ज्यादा लोगों को सक्रिय रूप से खुद से जोड़कर. और हर महीने 1.23 अरब एक्टिव यूजर और एक अरब के नजदीक पहुंचते मोबाइल यूजरों के साथ. इन आंकड़ों में चीन शामिल नहीं है क्योंकि चीन के ज्यादातर हिस्सों में फेसबुक पर पाबंदी है. लेकिन एक-दूसरे से विपरीत दिशा में होने के बावजूद चीन और फेसबुक आने वाले वक्त में एक अनोखे रिश्ते में बंध सकते हैं! एक अनुमान के अनुसार अगर फेसबुक का यह यूजर बेस इसी रफ्तार से बढ़ता रहा तो 2015 तक इस सोशल नेटवर्क के यूजर्स चीन की जनसंख्या से ज्यादा हो जाएंगे.  इस जनसंख्या विस्फोट को संभालने के लिए अभी फेसबुक के पास 6,000 से ज्यादा कर्मचारी और विश्व भर में 37 से ज्यादा दफ्तर हैं. वैसे यह वही 2015 है जब फेसबुक के खत्म हो जाने की भविष्यवाणी शोध के माध्यम से की जा चुकी है! लेकिन इंटरनेट कंपनियों के बाजार को समझने वाले जानते हैं कि दस साल तक अपना ऑनलाइन साम्राज्य और अस्तित्व बनाए रखना इस युग में कितना मुश्किल है. कुछ ही और इंटरनेट कंपनियां हैं जो दस साल में फेसबुक जैसी ऊंचाइयों पर पहुंची हैं. और गूगल, अमेजन जैसी एक-दो कंपनियों को छोड़ शायद ही कोई हो जिसके आने वाले भविष्य पर इतने विमर्श होते हों. यही वजह है कि बाजार उन अटकलों से भरा पड़ा है कि आने वाले दस साल में फेसबुक क्या-क्या करेगा.

फेसबुक के पिछले दस साल वैसे ही गुजरे जैसा मार्क जकरबर्ग को शुरू में अपने इस स्टार्ट-अप से उम्मीद थी. हालांकि उसका दायरा उम्मीदों से ज्यादा वृहत होता गया लेकिन वह विचार, कि आभासी दुनिया में एक ऐसा स्पेस बनाया जाए जहां नए लोग मिलें और आपस में नई जानकारियां बांटें आज भी कंपनी के काम का आधार है. फेसबुक के शुरुआती दिनों में जकरबर्ग का कहना था, ‘जब हमने इसे लॉन्च किया तो उम्मीद थी कि 400 से 500 लोग इससे जुड़ेंगे. अब जब एक लाख लोग फेसबुक से जुड़ चुके हैं, हो सकता है हम एक ‘कूल’ चीज बना जाएं.’ फेसबुक के कूलत्व ने उसके दस साल के सफर को तो आरामदायक बना दिया, लेकिन अब आने वाले दस साल का क्या?

फेसबुक की सबसे बड़ी सफलता है कि इसमें ‘सभी कुछ’ है. यह एक सर्च इंजन है, लोगों को जोड़ने वाला नेटवर्क है, डेटिंग साइट है, फैमिली फोटो एलबम है, एक एड्रेस बुक है, इंस्टेंट चैट है, बर्थडे अलार्म है, नई-नवेली शादी का उद्घोषक है, कॉलेज के दोस्तों की रि-यूनियन है, और एक अखबार है. लेकिन फेसबुक की यही सफलता – सोशल मीडिया की सारी जरूरी चीजों को समाहित कर सभी कुछ एक जगह देना – अब उसे परेशान कर रही है.  मतलब अब ऐसा क्या नया है, जो फेसबुक खुद को प्रासंगिक बनाए  रखने के लिए कर सकता है?

पिछले दो पैराग्राफों के आखिर में किए दो सवालों के जवाब आगे के तीन सवालों में हैं. क्या आने वाले वक्त में फेसबुक अभी की तरह एक ‘सोशल नेटवर्क’ ही रहेगा या एक ‘मीडिया कंपनी’ बनेगा? जिस तरह आज गूगल को लोग एक सर्च इंजन के तौर पर कम और एक बड़ी मीडिया कंपनी के तौर पर ज्यादा जानते हैं, क्या आने वाले दस साल में फेसबुक भी उसी राह पर चलेगा? क्या 2024 का फेसबुक अपने आज के यूजर बेस में एक और अरब लोगों को जोड़ने वाला सोशल नेटवर्क होते हुए भी एक मीडिया कंपनी के तौर पर ज्यादा जाना जाएगा? फेसबुक द्वारा उठाए गए कुछ नए कदम उसकी मीडिया कंपनी की आधारशिला की तरफ ही इशारा करते हैं.

पहला कदम है मोबाइल स्पेस में उसकी बदली हुई रणनीति. आपको आपके फेसबुक मोबाइल पर नए-नए फीचर देने की बजाय फेसबुक अब गूगल जैसी मीडिया कंपनी के तरह अलग-अलग प्रकार के एप बाजार में ला रहा है और उन्हें मोबाइल पर आपके फेसबुक पेज से जोड़ रहा है. जैसे पहले मैसेंजर एेप आया, व्हाट्सएप को टक्कर देने के लिए. उसके बाद स्नैपचैट को टक्कर देने के लिए पोक आया. हालांकि मैसेंजर साधारण निकला और पोक बुरी तरह फ्लॉप रहा, लेकिन इससे 2014 में कई नए एप बाजार में लाने की फेसबुक की स्ट्रैटजी पर कोई फर्क नहीं पड़ा. और इसी रणनीति के तहत अपनी दसवीं वर्षगांठ के ठीक एक दिन पहले फेसबुक ने ‘पेपर’ नाम का एेप लांच किया. ‘पेपर’ ने ही इस बात को पुख्ता किया है कि आने वाले वक्त में फेसबुक की मंशा खुद को एक मीडिया कंपनी के तौर पर स्थापित करना ही है. किसी भी मीडिया कंपनी के लिए कंटेंट क्रिएट करना एक मुख्य काम होता है. और ‘पेपर’ का कंटेंट सिर्फ यूजर्स से ही नहीं आ रहा. खबर है कि फेसबुक ने इसके कंटेंट को रचने के लिए खास तौर पर एडिटरों की नियुक्ति की है. अभी संपादक आए हैं, हो सकता है कुछ समय बाद फेसबुक लेखकों को नियुक्त करे, और फिर अभिनेताओं को. और इन सभी को साथ लेकर हो सकता है आने वाले समय में फेसबुक टीवी शो भी प्रोड्यूस करे! ये पतंग को कुछ ज्यादा ऊंचा उड़ाना लग सकता है लेकिन कुछ वक्त पहले किसने सोचा था कि अमेजन जैसी विशालतम ई-कॉमर्स कंपनी अपने खुद के टीवी शो और फिल्में बनाएगी?

अगर ऐसा हुआ और फेसबुक कंटेंट रचने लगा तो उसके बाद एपल, गूगल और अमेजन को टक्कर देने के लिए उसे हार्डवेयर के बाजार में भी उतरना होगा. और इसके बाद आपको आपका पन्ना देने वाला एक सोशल नेटवर्क एक विशाल मीडिया कंपनी में तब्दील हो जाएगा, जिसका मुख्य लक्ष्य आज की तरह सिर्फ लोगों को अपने सोशल नेटवर्क से जोड़ना नहीं रह जाएगा. 2024 का फेसबुक ऐसा ही होने की उम्मीद है. लेकिन उम्मीद यह भी है कि फेसबुक का उपयोग करने वाले यूजर्स के लिए यह तब भी लोगों से जुड़ने और संवाद स्थापित करने का माध्यम बना रहेगा. क्योंकि हमारे लिए कल भी फेसबुक का आज जैसा होना ही जरूरी है.

फेसबुक के आज के स्वरूप के परिपक्व होने की कई वजहें हैं. ये वजहें परिवर्तन है. वे परिवर्तन जो फेसबुक अपने मौजूदा रूप में दुनिया भर के समाज में लाया है. दुनिया छोटी है, इसे फेसबुक ने ही सच किया. जितने लोगों को फेसबुक ने आपस में जोड़ा, उतने लोगों को आज तक के इतिहास में किसी और कंपनी ने आपस में नहीं जोड़ा. आपस में जुड़ने के बाद जिस तरह लोग एक-दूसरे से कनेक्ट हुए, पहले कभी नहीं हुए. पूरी दुनिया को ‘ऑनलाइन’ करने का परिवर्तन फेसबुक ही लाया. फेसबुक ने यूजर को आत्म-मोहित नहीं बनाया, उसे सोशल शेयरिंग का नया चलन सिखाया जिसमें लोगों ने ऐसी चीजों को भी खूब शेयर किया जिसमें ‘वे’ नहीं थे, सिर्फ उनसे जुड़ी खबरें, गाने, वीडियो नहीं थे. और इसी नये चलन वाली शेयरिंग ने ‘न्यूज फीड’ को एक गैर-पारंपरिक और मजेदार अखबार बना दिया. फेसबुक ने राजनीति को भी बदला. लगभग हर देश की. ओबामा ने 2008 में जिस तरह फेसबुक का अपने कैंपेन के लिए उपयोग किया उसकी नकल हम आज-कल भारत के फेसबुक पन्नों पर देख ही रहे हैं. लेकिन फेसबुक ने सबसे ज्यादा राजनीति को मिडिल ईस्ट में बदला, इतना कि फेसबुक को उस क्रांति का ‘जीपीएस’ तक कहा गया. फेसबुक ने भाषा को भी बदला. इंग्लिश शब्दकोशों को फ्रेंड, लाइक, पोक, वॉल, टैग, अनलाइक, अनफ्रेंड जैसे हर्फों के नए अर्थ देकर.

हिंदुस्तान में फेसबुक ने कई चीजों के साथ हिंदी को भी बदला. क्षेत्रीय भाषाओं को भी. नए लेखक दिए. चिरकुट नज्म लिखने वाले कवियों को अपने-अपने पन्नों पर छपने का मौका भी. अभिव्यक्ति की एक नई और बड़ी खिड़की खोली. जिज्ञासु मगर हिंदी साहित्य से दूर हिंदी प्रेमियों को ‘नौकर की कमीज’ और मुक्तिबोध से परिचित करवाया. खत्म होते जा रहे ब्लॉग कल्चर को नया ‘लिंक’ दिया. भाषाओं को सहेजा, उनमें नए शब्द जोड़े.

भाषाओं से हटकर, इसने हमें प्यार भी करवाया. यह भी बताया कि एक किताब है जो कभी खत्म नहीं होगी. और वैसे तो यह फेसबुक के नाम प्रेम-पत्र नहीं है, लेकिन उसके लिए हमारा प्रेम कम भी नहीं है!

डिजिटल मीडिया का वायरल फीवर!

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वे दिन लद गए जब लोकप्रिय होने के लिए टीवी या फिल्मों में अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता था. डिजिटल मीडिया और खास तौर पर सोशल मीडिया नेटवर्क ने इन सभी जमे-जमाए समीकरणों को बदल कर रख दिया है. आजकल लोकप्रियता बस एक क्लिक की दूरी पर है. तो इसी दौर में आप एक रोज फेसबुक पर लॉग-इन करते हैं और देखते हैं कि यूट्यूब का एक मजेदार वीडियो वायरल हो गया है. इसे कुछ नौजवानों की टीम ने मिलकर बनाया है. आपकी लिस्ट में मौजूद ज्यादातर लोग उस वीडियो को शेयर कर रहे हैं, उसके बारे में बात कर रहे हैं. इस तरह एक दूसरे से सुनते-सुनाते, कुछ ही दिनों में यूट्यूब के इस वीडियो को बिना किसी टीवी या अखबार की मदद के एक करोड़ से भी ज्यादा बार देख लिया जाता है.

पिछले कुछ दिनों से ऐसा ही एक वीडियो, सोशल मीडिया की आंखों का तारा बना हुआ है. एक लोकप्रिय न्यूज चैनल के प्राइमटाइम शो की नकल करते इस वीडियो का नाम ‘बॉलीवुड आम आदमी पार्टी – अरनब क्यूटियापा’ है. इसने भारतीय राजनीति और बॉलीवुड की समानताओं को काफी मज़ेदार ढंग से सामने रखा है. जिस तरह राजनीति में आम आदमी पार्टी (आप) ने तहलका मचा रखा है, उसी तरह इस वीडियो में बाप यानी (बॉलीवुड आम आदमी पार्टी)  के नेता ‘अर्जुन केजरीवाल’(जीतेंद्र कुमार) बॉलीवुड में फैले वंशवाद की छुट्टी करके देश के ‘महापात्रा, शुक्ला और बंसल’ को लॉन्च करने का दावा करते दिखाई देते हैं. यही नहीं, लोकपाल बिल की ही तरह वे एक ‘स्क्रीनपाल बिल’ को पास करने की बात करते हैं जिससे बॉलीवुड की दक्षिण भारतीय और हॉलीवुड फिल्मों से कहानी ‘चुराने’ की आदत की पोल खोली जा सके. भारतीय राजनीति और सिनेमा के मौजूदा हालात को मुंह चिढ़ाते इस वीडियो को 8 दिन में करीब 21 लाख बार देखा गया.

इस वीडियो को एंटरटेनमेंट कंपनी टीवीएफ नेटवर्क के ऑनलाइन कॉमेडी चैनल ‘क्यूटियापा’ ने बनाया है जो इससे पहले भी इसी तरह के करीब 50 वीडियो बना चुका है. अपने व्यंग्य और हास्य की वजह से ‘क्यूटियापा’ के ये वीडियो सोशल मीडिया नेटवर्क से होते हुए कॉलेज कैंटीन और ऑफिस के गलियारे का हिस्सा बन गए हैं. यूट्यूब पर टीवीएफ – क्यूटियापा चैनल के करीब चार लाख सब्सक्राइबर हैं.

टीवीएफ के फाउंडर और क्रिएटिव एक्सपेरिमेंट ऑफिसर (सीईओ) अरुणाभ कुमार बताते हैं कि जब शुरुआत में कुछ नामी यूथ चैनलों ने उनके शो को यह कहकर रिजेक्ट किया कि भारत में कोई भी इस तरह का शो नहीं देखना चाहता तब उन्होंने खुद यह देखने का फैसला किया कि इस बात में कितनी सच्चाई है.

आईआईटी खड़गपुर से इंजीनियरिंग ग्रैजुएट अरुणाभ कहते हैं, ‘मैंने एमटीवी के लिए कॉलेज क्यूटियापा नाम का एक शो तैयार किया था, लेकिन जब मुझसे बोला गया कि लोग ऐसा कुछ नहीं देखना चाहते तब मुझे लगा कि मैं इतना क्यूतिया तो नहीं हूं.  कुछ सही ही सोच रहा हूं. तब मुझे यूट्यूब ही एक ऐसा माध्यम लगा जहां मैं अपनी पसंद का कंटेंट बनाकर दर्शकों तक सीधे पहुंचा सकता हूं और तभी से मैंने अपने शो को यूट्यूब पर डालना शुरू कर दिया.’

टीवीएफ के शुरुआती वीडियो में से एक ‘राऊडीज’ था जो 2012 में रिलीज किया गया था और यह एमटीवी के चर्चित शो ‘रोडीज’ का हास्य संस्करण था. उस वक्त अरुणाभ की टीम में सात लोग थे जो अब बढ़कर 21 हो गए हैं.

इनमें से एक बिश्वपति सरकार हैं जो टीवीएफ के क्रिएटिव डायरेक्टर हैं और टीवीएफ-क्यूटियापा के शो भी लिखते हैं. बिश्वपति ने यूट्यूब इंडिया पर नंबर वन ट्रेंड करने वाले ‘बाप’ वीडियो में अरनब का रोल भी निभाया है. आईआईटी खड़गपुर से ही ताल्लुक रखने वाले बिश्वपति ने बताते हैं कि उनकी टीम में ज्यादातर लोग लेखक और एक्टर दोनों का काम करते हैं और सभी कॉलेज के वक्त से अभिनय करते आ रहे हैं. रोजमर्रा की बातें और देश-दुनिया की ताजा खबरों में से हास्य व व्यंग्य ढूंढने में उन्हें मजा आता है.

टीवीएफ-क्यूटियापा की ही तरह यूट्यूब का एक और चैनल ‘ऑल इंडिया बक**’ (एआईबी) भी अपने वीडियो को लेकर सोशल मीडिया पर काफी लोकप्रिय है. इस चैनल ने भी पिछले दिनों अरविंद केजरीवाल के सुर्खियां बटोरने  के बाद ‘नायक 2’ नाम का वीडियो बनाया था. केजरीवाल के क्रांतिकारी लहज़े को हास्य-व्यंग्य के अंदाज में प्रस्तुत करने वाले इस वीडियो में अभिनेता आलोक नाथ, ‘बाबूजी’ की भूमिका में नजर आए थे और इसे 20 दिन में 22 लाख से भी ज्यादा बार देखा गया.  एआईबी की टीम में तन्मय  गुरसिमरन खम्बा, रोहन और आशीष शामिल हैं. ये सभी पेशे से लेखक और स्टैंड अप कॉमेडियन हैं.

सिर्फ हंसी मजाक के लिए ही नहीं, ये चैनलों अपनी लोकप्रियता का इस्तेमाल सामाजिक संदेश देने के लिए भी करते हैं. जैसे भारत में लगातार बढ़ रही बलात्कार की घटनाओं पर एआईबी ने अभिनेत्री कल्की केकलां और वीजे जूही पांडे के साथ इट्स युअर फॉल्ट (ये तुम्हारी गलती है) नाम का वीडियो बनाया था जो बलात्कार पीड़ित के प्रति समाज के रवैये पर एक कटाक्ष था और इसे 30 लाख से भी ज्यादा बार देखा गया.

हाल ही में गूगल द्वारा करवाए एक अध्ययन से पता चला है कि यू ट्यूब देखने वाले एक तिहाई भारतीय दर्शक महीने के 48 घंटे इस वेबसाइट पर बिताते हैं, यानी औसतन एक दिन में डेढ़ घंटे से भी ज्यादा. इससे इन वीडियो के देखे जाने की बढ़ती संभावनाओं का अंदाजा लगाया जा सकता है.

पैसा कहां से आता है ?
इन वीडियो के इतना लोकप्रिय होने की एक बड़ी वजह है इनकी आला दर्जे की निर्माण गुणवत्ता जो दर्शकों को उनके निर्माण के पीछे की गंभीरता से भी परिचित करवाती है. जाहिर-सी बात है कि इन पर खर्च भी काफी आता होगा. इस बारे में बात करते हुए टीवीएफ के अरुणाभ कहते हैं, ‘हमारी कंपनी टीवीएफ का टर्नओवर अच्छा-खासा है. हम एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री का हिस्सा हैं और अपना काम करने के लिए जितना पैसा होना चाहिए उतना हमारे पास हमेशा होता है. बल्कि कई मामलों में हम टीवी कंपनियों से ज्यादा प्रोफेशनल हैं. हमारे एक्टर्स और क्रू को टीवी के स्टैंडर्ड पेमेंट से 50 % ज्यादा ही मिलता है.’

मुनाफा कमाने के विभिन्न जरियों का जिक्र करते हुए अरुणाभ बताते हैं, ‘हमारी कंपनी टीवीएफ का एक डिविजन भारत के नामी-गिरामी कॉलेज में लाइव शो करता है जिससे हमें अच्छा-खासा पैसा मिलता है. इसके अलावा हम कई ब्रांड्स के लिए कॉरपोरेट फिल्में बनाते हैं. ऑनलाइन व्यूअरशिप और प्रायोजकों से भी हम पैसा कमाते हैं.’ अरुणाभ दावा करते हैं कि टीवीएफ उन सभी मीडिया कंपनियों से कहीं ज्यादा बड़ी है जिन्हें बाकी लोग दरअसल ‘बड़ा’ समझते हैं.’

तो क्या टीवी और सिनेमा की तरह यूट्यूब पर भी लोकप्रिय होने या शो बनाने के लिए जेब में पैसे या फिर किसी बड़े नाम का साथ होना जरूरी है? मुंबई के एक प्रसिद्ध रेडियो स्टेशन के क्रिएटिव हेड कीर्ति शेट्टी की मानें तो यूट्यूब पर पैसे का नहीं, टैलेंट का खेल खेला जाता है. पिछले कुछ महीनों से यूट्यूब के एक चैनल ‘मैं-डक’ पर कीर्ति ने ‘छपरी चमाट’ नाम का वीडियो शुरू किया है जिसमें वे देश और दुनिया की खबरों को एक मवाली के नजरिये से प्रस्तुत करते हैं. कीर्ति बताते हैं कि वे मुंबई के रेडियो पर मवाली भाई नाम का एक किरदार करते थे जिसे सुनने के बाद उनसे Mainduck (मेंडक) चैनल ने खुद संपर्क किया था.

मेंडक की ही तरह कई कंपनियां, यूट्यूब के साथ मुनाफा साझा करने वाले मॉडल पर काम करती हैं और इसलिए ये पार्टनर लगातार नए टैलेंट की खोज में रहते हैं जो इन्हें कंटेंट दे सकें, साथ ही चैनल का चेहरा बन सकें. वीडियो के शूट, एडिट और प्रमोशन की जिम्मेदारी पार्टनर्स की ही होती है. यानी अगर आपके पास टैलेंट है तो यूट्यूब की दुनिया में आप कहीं किसी के काम आ सकते हैं. और अगर आप चल निकले तो आपकी अच्छी खासी कमाई भी हो सकती है.

कीर्ति का कहना है, ‘ डिजिटल मीडिया के फ्री होने की वजह से यहां आपको अपनी बात रखने के लिए किसी का मुंह नहीं देखना पड़ता. आप चाहें तो अपने मोबाइल से वीडियो बनाकर अपलोड कर दीजिए और क्या पता लोगों को आपकी बनाई चीज इतनी पसंद आ जाए कि आप रातों-रात सुपरस्टार बन जाएं. आलोक नाथ  को ही देख लीजिए, डिजिटल मीडिया की बदौलत वे आज हर तरफ छाए हुए हैं. जो काम टीवी या फिल्मों को करने में बरसों लग जाते हैं, यूट्यूब और सोशल मीडिया उसे बहुत छोटे-से वक्त में कर देता है.’

कीर्ति और अरुणाभ जैसे लोगों का नाम व काम यदि इस समय करोडों लोगों तक पहुंचा है तो इसकी सबसे बड़ी वजह है यूट्यूब जैसी वेबसाइट का लोकतांत्रिक होना. यहां आपको किसी कंपनी या व्यक्ति के आगे चिरौरी नहीं करनी. लेकिन इसकी यही ताकत इस वेबसाइट पर पहले से छाए लोगों के लिए चुनौती बन जाती है क्योंकि उन्हें यहां लगातार स्पर्धा करना है. इस समय अगर कॉमेडी में ही देंखे तो कई छोटे-बड़े यूट्यूब चैनल चर्चित और गैरचर्चित चेहरों के साथ सबका ध्यान बटोरने में लगे हुए हैं. इस मसले पर कीर्ति कहते हैं, ‘ यूट्यूब पर फायदे ज्यादा नुकसान कम हैं. मेंडक चैनल को ही ले लीजिए. इस पर मशहूर वीजे सायरस ब्रोचा के वीडियो भी होते हैं. और जब कोई उन्हें देख रहा होता है तो साइड में मेरा वीडियो भी रिकमेंडेशन के रूप में दिखाई देता है जो मेरे लिए फायदेमंद ही है ना.’

वहीं अरुणाभ की मानें तो यह अच्छी बात है कि यूट्यूब का इकोसिस्टम बड़ा हो रहा है क्योंकि अगर किसी खेल में आप अकेले ही प्लेयर हैं तो इसका मतलब कोई और यह गेम खेलना नहीं चाहता. प्रतिस्पर्धा से प्रेरणा मिलती है और अगर इससे ज्यादा लोग जुड़ रहे हैं तो कहीं  कहीं उन्हें इसमें कुछ फायदा ही नजर आ रहा होगा.

टीवी बनाम डिजिटल मीडिया
गूगल द्वारा किया गया अध्ययन बताता है कि भारत में यूट्यूब को देखने वाले दो तिहाई दर्शक 35 साल से कम उम्र के हैं और भारतीय यूजर30 प्रतिशत यूट्यूब वीडियो अपने मोबाइल पर देखते हैं. ऐसे में यह सवाल सहज ही उठता है कि क्या ये चैनल इन युवाओं की पसंद के अनुरूप कंटेंट बनाकर यूट्यूब पर जमे रहना चाहेंगे या फिर टीवी या बड़ा पर्दा ही इनकी अगली या आखिरी मंजिल है.

अरुणाभ के मुताबिक, ‘ यूट्यूब के बढ़ते यूजर्स को नकारा नहीं जा सकता लेकिन यह भी सच है कि भारत में टेलीविजन बहुत ज्यादा बड़ा है. यूट्यूब उसे अकेले टक्कर नहीं दे सकता. जहां तक हमारी बात है तो जहां भी हमें हमारी तरह की चीज बनाने का मौका दिया जाएगा हम बनाएंगे. हम बतौर क्रिएटर ताकतवर होना चाहते हैं. माध्यम कोई भी चलेगा.’

अपने वीडियो की बढ़ती लोकप्रियता के बारे में अरुणाभ बताते हैं कि उनके चैनल द्वारा बनाया गया ‘लगे रहो शेट्टी भाई’ वीडियो देखकर विधु विनोद चोपड़ा, राजकुमार हिरानी और अभिजात जोशी ने उन्हें बुलाकर उनके काम की सराहना की थी जिसने उनके लिए काफी हौसलाअाफजाई का काम किया.

वहीं बिश्वपति सरकार मानते हैं कि बतौर शो निर्माता और लेखक, यूट्यूब के जरिए लोगों की नब्ज समझने का ज्यादा अच्छा मौका मिल पाता है जो लंबी रेस में काफी फायदेमंद साबित होता है. यूट्यूब से जिस तरह की तुरंत प्रतिक्रिया मिलती है, वह अन्य पारंपरिक माध्यमों से मिलना नामुमकिन है.

बिश्वपति कहते हैं, ‘ट्रेडिशनल मीडिया आपको कभी ठीक से जज नहीं कर सकता. यूट्यूब पर आप वीडियो डालिए, आपको तुरंत अच्छे-बुरे का पता चल जाता है. लोग कमेंट्स करते हैं, आंकड़े सामने होते हैं. कितने लोगों ने देखा, कितनों ने शेयर किया, किस किस जगह देखा गया, कितने लोगों ने सब्सक्राइब किया. जबकि टीवी से आपको कभी भी दर्शकों की पसंद-नापसंद के बारे में सही जानकारी नहीं मिल सकती जिस वजह से या तो आप एक ही चीज परोसते रहेंगे या फिर बाहर निकल चुके होंगे.’

एक तरफ जहां यूट्यूब उन प्रतिभाओं को मौका दे रहा है जिन्हें टीवी पर शायद एक लंबा इंतजार करना पड़ सकता था, वहीं उसने उन दर्शकों का ध्यान अपनी तरफ खींचा है जिन्हें टेलीविज़न पर अपनी पसंद का कंटेंट नहीं मिल पा रहा था. लेकिन इस बात में कोई दोराय नहीं कि अब-भी एक बहुत बड़ा तबका इंटरनेट से ज्यादा टीवी पर ही कार्यक्रम देखना पसंद करता है. पश्चिम की तरह भारत में फिलहाल इंटरनेट पर टीवी शो देखने के चलन ने जोर नहीं पकड़ा है. ऐसे में क्या क्यूटियापा या एआईबी किस्म के चैनल, भविष्य में टेलीविजन की ताकत को कम आंकना का जोखिम उठा सकते हैं?

समाजविद पुष्पेश पंत की मानें तो डिजिटल मीडिया निश्चित रूप से अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता का माध्यम तो है लेकिन भारत जैसे देश में पारंपरिक मीडिया की छुट्टी करना इतना आसान नहीं है. भारत में साक्षरों की संख्या अब-भी कम है और यहां ‘पढ़ना’ अब भी एक उपलब्धि है. एफएम के जरिए रेडियो का पुनर्जन्म हुआ है और कई घरों का दूरदर्शन से अभी भी रिश्ता बना हुआ है. अगर स्क्रीन के साइज को एक बार अलग रख दिया जाए तब भी ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी की समस्या, डाउनलोड की स्पीड और बफरिंग में लगने वाला समय डिजिटल मीडिया को भारत में मजबूत विकल्प बनने से रोक रहा है. इन यूट्यूब वीडियो को देखने वाले युवाओं के पास अगर हाई-एंड फोन नहीं है तो वे कितनी देर तक अपनी आंखों को सिकोड़ कर स्क्रीन को देख सकते हैं?

इसमें कोई शक नहीं कि डिजिटल मीडिया ने लोगों को अपनी बात रखने की पूरी आज़ादी दी है. नेता, अभिनेता से लेकर सरकारी नीतियों और कोर्ट के फैसलों तक यहां किसी को बख्शा नहीं जाता. यहां यूजर न्यायाधीश की भूमिका में किसी को अदालत पहुंचने से पहले ही सजा सुनाने को आतुर दिखाई देते हैं तो कभी वे किसी अपराधी को बेकसूर साबित करने के लिए लामबंद हो जाते हैं. इसी डिजिटल मीडिया ने समाज में अपनी पहचान बनाने के एक नए तरीके को भी जन्म दिया है जहां सिर्फ संजीदा और गंभीर बातें ही नहीं, पागलपंती भी जरूरी है. और इसके साथ ही अब वक्त के साथ देखना दिलचस्प होगा कि न्यू मीडिया के ये उभरते हुए नाम, लोगों की लगातार कुछ नया देखने की भूख को शांत कर पाएंगे या फिर यह वायरल फीवर जल्द ही उतर जाएगा

‘कुछ नहीं हुआ तो ‘आप’ ने एफआईआर दर्ज करवा दी’

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दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के वोट में 15 फीसदी की गिरावट आई. आपको इसकी क्या वजह लगती है? दिल्ली मेट्रो से पहले तक घर से दफ्तर आने-जाने में जूझते रहे वर्ग ने कांग्रेस के बजाय आम आदमी पार्टी को वोट देने का फैसला क्यों किया?
मुझे लगता है कि इसकी सिर्फ एक वजह नहीं थी. कई कारण थे. शायद पूरे देश में भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ गुस्सा था और इसलिए वह गुस्सा खासकर दिल्ली में निकला क्योंकि केंद्र सरकार यहां से चलती है और मीडिया का जमावड़ा भी यहीं रहता है.  घोटाले की खबर लोग देश के किसी भी कोने में सुन सकते हैं, लेकिन उसका असर सबसे ज्यादा दिल्ली में ही महसूस किया जाता है.

दूसरा मुझे लगता है कि हमारी पार्टी को और ज्यादा मिलजुलकर काम करना चाहिए था. हो सकता है कि ऐसा इसलिए भी हुआ हो कि जनता हमसे ऊब चुकी थी. हम 15 साल सत्ता में रहे हैं. लोगों ने सोचा हो कि एक बार बदलाव करके देखते हैं. यह भी याद रखिए कि दिल्ली में त्रिकोणीय मुकाबला था. आम आदमी पार्टी ने ऐसे कई वादे किए जो पॉश इलाकों में रह रहे एक बड़े वर्ग को काफी भाए–बिजली की कीमतों में 50 फीसदी की कमी, 700 लीटर मुफ्त पानी, सबको नौकरियां, दो लैपटॉप, ठेकेदारी पर काम कर रहे लोगों को स्थायी नौकरी आदि. अब ये वादे आकर्षक तो हैं, लेकिन व्यावहारिक नहीं. अगर ऐसा संभव होता तो मैं बिजली की कीमतें 70 फीसदी घटा देती. हमारे यहां वैसे भी बिजली की दरें देश में सबसे कम हैं. दिल्ली में पांच हजार मेगावॉट बिजली की खपत होती है, लेकिन यहां पैदा होती है सिर्फ 300-400 मेगावॉट. बाकी हम एनटीपीसी और दूसरी कंपनियों से खरीदते हैं. हमने बवाना में 1, 500 मेगावॉट का एक प्लांट लगाया था, लेकिन हमें उतनी गैस ही नहीं मिल सकी इसलिए यह सिर्फ 100-150 वॉट बिजली बना रहा है. कहने का मतलब यह है कि दिल्ली में बिजली नहीं बनती. हमारे पास जमीन नहीं है. यहां तक कि हमारा पानी भी हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश से आता है. इसके पास कोई प्राकृतिक संसाधन नहीं हैं न ही यहां खेती होती है. तो यहां और जगहों की तुलना में एक अलग आर्थिक परिदृश्य में काम करना पड़ता है.

अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों ने आप पर दो मुद्दों को लेकर हमला किया है. उनका दावा है कि राष्ट्रमंडल खेल गांव के निर्माण में भ्रष्टाचार हुआ. दूसरा आरोप 1, 200 कॉलोनियों के नियमितीकरण को लेकर है.
केजरीवाल शुंगलू कमेटी और कैग रिपोर्ट के बारे में बात कर रहे हैं. लेकिन सीबीआई मुझे सारे आरोपों से क्लीनचिट कर चुकी है. मेरे खिलाफ अकेला आरोप यह है कि मैंने कुछ लाइटों का चयन अपने आवास पर किया. हां, मैंने ऐसा किया था. आप जरा जाइए और दिल्ली सेक्रेटेरिएट को देखिए. यह देश की सबसे खूबसूरत जगहों में से एक है. वहां की हर चीज मैंने ही चुनी है. केजरीवाल और उनके साथियों को पता होना चाहिए कि कोई मंत्री मनमाना फैसला नहीं लेता. मंत्री (कार्यपालिका) एक निर्णय पर पहुंचते हैं और किसी चीज के लिए बजट का आवंटन कर देते हैं. राष्ट्रमंडल खेलों के लिए बने बजट पर जैसे भारत सरकार या डीडीए या अन्य संस्थाओं का हक था, वैसे ही हमारा हक भी था. बजट आवंटन के बाद इंजीनयर और अफसर यह तय करते हैं कि कितना पैसा किस मद में जाएगा. यह पैसा कभी किसी मंत्री तक नहीं आता, मुख्यमंत्री की बात तो छोड़िए. तो यह पूरी तरह से गलत आरोप है. आप लोगों को बरगलाने की कोशिश कर रही है. उनसे कुछ नहीं हो रहा था तो उन्होंने एक एफआईआर दर्ज करवा दी.

शुंगलू कमेटी की रिपोर्ट में एक इतना-सा वाक्य और भी है कि मुख्यमंत्री ने स्ट्रीट लाइटों के चयन में कुछ दिलचस्पी दिखाई थी. स्ट्रीट लाइटें कैसी होंगी, इसका चयन संबंधित विभागों ने किया था यानी पीडब्ल्यूडी और एमसीडी ने. हमने इस आरोप के बाद न सिर्फ मेरे बल्कि पूरी सरकार के संदर्भ में एक बिंदुवार जवाब लिखा था. यह जवाब शुंगलू कमेटी और प्रधानमंत्री कार्यालय के पास गया था. वह फाइल बिना किसी टिप्पणी के हमारे पास वापस लौट आई जिसका मतलब है कि इसमें कुछ नहीं था. सीबीआई ने भी यह फाइल बिना किसी टिप्पणी के वापस भेज दी थी.

तो जब आप आरोप लगाने के बाद कुछ नहीं ढूंढ़ पाए तो आपने एक ऐसी चीज शुरू कर दी जो स्पष्ट ही नहीं है. लेकिन आम आदमी को लगता है कि एफआईआर दर्ज हो गई तो कुछ गड़बड़ तो रही ही होगी. बस यही बात है. अब वे सलीमगढ़ फोर्ट फ्लाइओवर का मुद्दा उठा रहे हैं जिसका निर्माण रिकॉर्ड समय में हो गया था. वे चाहते हैं कि किसी भी तरह मेरे खिलाफ कुछ मिल जाए. लेकिन जब भी संसद या लोक लेखा समिति, कैग या शुंगलू कमेटी ने कोई सवाल उठाया है हमने उसका जवाब दिया है. मैं आपको वे जवाब दिखा सकती हूं.

‘आप’ यह भी आरोप लगा रही है कि आपने सिर्फ वोट बटोरने या अमीर व मध्य वर्ग के लोगों की मदद करने के लिए अधिकृत कॉलोनियों को नियमित कर दिया.
नहीं, ऐसा नहीं है. अभी भी 1,400 से ज्यादा अनधिकृत कॉलोनियां हैं.

इनको वैध करने की अनुमति शहरी विकास मंत्रालय को देनी थी और केंद्र सरकार ने इसमें कुछ समय लिया. चुनाव के पहले (2008 में) हमने इन कॉलोनियों को प्रॉविजनल सर्टिफिकेट (अस्थायी नियमन प्रमाणपत्र) दिए थे. जो कॉलोनियां लाखों लोगों का घर हैं क्या आप उन्हें ढहा सकते हैं? और वे अमीरों की कॉलोनियां नहीं हैं. वहां मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग के लोग रहते हैं. हमने एक प्रक्रिया शुरू की थी जहां वे एक तयशुदा रकम देकर अपने घर का मालिकाना हक ले सकते थे. लेकिन यह भी आसान नहीं था क्योंकि कुछ कॉलोनियां आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग) के तहत चिह्नित इलाकों में आती हैं या वन्य क्षेत्र में. उन्हें नियमित नहीं किया जा सकता था.

नगर निगम, जिनमें भाजपा सत्ता में है, को भी यह प्रमाणपत्र देना था कि ये कॉलोनियां किसी नियम का उल्लंघन नहीं कर रही हैं. वहां भी इस प्रक्रिया को धीमा करने की कोशिश की गई. यदि ‘आप’ को लगता है कि वह इन कॉलोनियों को नियमित करने जा रही है तो यह प्रक्रिया पहले ही शुरू हो चुकी है और मेरे हिसाब से 895 कॉलोनियों को नियमित किया जा चुका है. इंदिरा गांधी के समय कई झुग्गी-झोपड़ी वालों को इन कॉलोनियों में बसाया गया था, उनको हाल तक मालिकाना हक नहीं मिला था. हमने इन 40 लाख लोगों को उनके आवास का मालिकाना हक दिया है.

तो फिर दिल्ली में कांग्रेस को इतने कम वोट क्यों मिले? क्या देश की आर्थिक मंदी को इसके लिए किसी हद तक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है?
मैं नहीं जानती कि वास्तव में आर्थिक मंदी से दिल्ली की आबादी कितनी प्रभावित हुई है. हां, लेकिन हमारी पार्टी इस मोर्चे पर जरूर नाकाम रही कि हम अपनी उपलब्धियों के बारे में जनता को नहीं बता पाए.

तो क्या यह कहना सही होगा कि सरकार जनता से कटी हुई थी?
नहीं, हम जनता से कटे हुए नहीं थे. यदि ऐसा होता तो हम वे काम नहीं कर पाते जो हमने सरकार में रहते हुए किए.

हां, लेकिन वह अलग तरह के जुड़ाव की बात है. आप लोगों की कोई जरूरत महसूस करते हैं और उसे पूरा कर देते हैं. लेकिन एक अन्य तरह का जुड़ाव भी होता है जहां आप जनता से कहते हैं कि देखिए यह काम हमने किया है, आप यह कर सकते हैं, फलाना काम आपके लिए इस वजह से जरूरी था. मेरा मतलब जनता से जुड़कर लगातार उसकी प्रतिक्रिया लेने से है.
हां, इसकी कमी रही क्योंकि हमारी पार्टी उतनी सक्रिय नहीं थी. विधायक अपने-अपने विधानसभा क्षेत्रों में काम कर रहे थे. फिर ये ‘आप’ वाले आए जो एक कल्पनालोक बनाना चाहते थे चाहे वह कितना भी बेसिरपैर का या अव्यावहारिक हो. बिना यह समझे कि उनकी बात का क्या मतलब है वे दावा कर रहे थे कि भ्रष्टाचार का नामोनिशान मिटा दिया जाएगा. मेरे ख्याल से लोग इसकी वजह से भावनाओं में बह गए. जैसा मैंने कहा कि यह त्रिकोणीय मुकाबला था और लोग थक भी चुके थे कि हो गया, 15 साल हो गए. तो चलो एक बदलाव करके देखते हैं.

दिल्ली में ऐसा नहीं हुआ कि बहुत लोगों को अपनी नौकरी खोनी पड़ी हो लेकिन यह भी सही है कि पिछले सालों में रोजगार के अवसर भी नहीं बढ़े. साथ ही जैसा राष्ट्रीय आंकड़ों से साफ होता है कि युवाओं को उनकी योग्यता के हिसाब से रोजगार नहीं मिला. यह एक तरह की बेबसी और खुद को कमजोर समझने की भावना थी जिसकी वजह से ‘आप’ को मजबूती और समर्थन मिला.
नहीं, यह तो पूरे देश में हुआ है. लेकिन दिल्ली के लिए यह सच नहीं है. यदि ऐसा होता तो उत्तर-पूर्व या गुजरात से लड़के दिल्ली के कॉलेजों में पढ़ने के लिए क्यों आते और इसके साथ यह भी याद रखा जाए कि देश में एनसीआर वह क्षेत्र है जहां रोजगार के सबसे ज्यादा अवसर होते हैं. लोग गुड़गांव जा सकते हैं, नोएडा जा सकते हैं. इस आने-जाने में 30-40 मिनट ही तो लगते हैं. मेरे हिसाब से तो ऐसा नहीं था कि लोगों के भीतर कोई असुरक्षा की भावना हो. पर मुझे यह जरूर लगता है कि लोग एकरसता से ऊब गए थे या कहें कि वे बदलाव चाहते थे. 2012 का निर्भया मामला भी हमारे लिए काफी नुकसानदायक साबित हुआ. बदकिस्मती से वह हमारे नियंत्रण के बाहर की चीज थी. पुलिस दिल्ली सरकार के अधीन नहीं आती, लेकिन लोगों ने यह बात नहीं समझी. इसकी वजह से छात्रों में काफी असंतोष था.

लेकिन क्या एक सरकार को बदलने भर से असली बदलाव आ सकते हैं?
नहीं, बिल्कुल नहीं. आज भी दिल्ली में बलात्कार हो रहे हैं. आखिर बाकी चीजें तो वैसी ही हैं. खिड़की एक्सटेंशन मामले को ही देख लीजिए. लेकिन निर्भया मामले के समय लोगों ने यह महसूस किया था कि सरकार के बदलने से ही बदलाव आएगा. दुर्भाग्य से लोग दिल्ली में सरकार के अधिकार क्षेत्र और कार्य करने के तौर-तरीकों के बारे में नहीं जानते.

‘आप’ लोकपाल कानून के तहत मुख्यमंत्री को भी लाना चाहती है.  ‘चपरासी से मुख्यमंत्री तक’ यह उनका नारा है. क्या यह व्यावहारिक है? यदि मुख्यमंत्री को इस कानून के तहत लाया जाता है तो इसका क्या असर होगा?
मुझे यह बात समझ नहीं आती कि एक निर्धारित प्रक्रिया का पालन करने में सरकार को क्या दिक्कत है. केंद्र सरकार तो पहले ही लोकपाल कानून पास कर चुकी है. अन्ना हजारे जी ने कांग्रेस और राहुल गांधी को इसके लिए बधाई भी दी थी. लेकिन हमारे जैसे देश में जहां संघीय व्यवस्था लागू है क्या ऐसा कानून बनाया जा सकता है जो पहले से संसद द्वारा बनाए गए कानून की कुछ बातों का विरोध करता हो? तो आप कर क्या रहे हैं, आप क्या संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं? यह कि देखो मेरे एक जनलोकपाल कानून है और जिसे मैं बिना संविधान में अपने अधिकारों को समझे लागू करना चाहता हूं. आप लोगों से यह कहने की कोशिश कर रहे हैं कि देखो मैं यह चाहता हूं. मैं यह करूंगा. लेकिन मैं किसी प्रक्रिया का पालन नहीं करूंगा. प्रक्रिया यह है कि इसे पहले उपराज्यपाल के पास जाना चाहिए. अब यहां तो ऐसा लग रहा है कि उपराज्यपाल से उन्हें कोई मतलब ही नहीं है. अब यदि आप प्रक्रिया का पालन नहीं करना चाहते और सरकार भी चलाना चाहते हैं तो आप या तो धरना कार्यकर्ता हैं या ऐसे ही कुछ और.

‘आप’ ने विधानसभा से जुड़े प्रशासनिक कामकाज के नियमों से संबंधित खामियों पर कुछ विशेष सवाल उठाए थे. आप भी सरकार के काम करने की इन सीमाओं पर चिंता जाहिर कर चुकी थीं. क्या अब आप इन प्रावधानों को खत्म करना चाहती हैं? जैसे कि कम से कम दिल्ली पुलिस पर कुछ आंशिक नियंत्रण दिल्ली सरकार का भी होना चाहिए.
हां कुछ सीमाओं के भीतर मैं भी ऐसा चाहती. हमें यह भी याद रखना चाहिए कि दिल्ली देश की राजधानी है. यहां अतिविशिष्ट लोग और विदेशी दूतावास के कर्मचारी रहते हैं. इसलिए इसे पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं है. मुझे लगता है हमें जमीन जैसी कुछ चीजों पर ज्यादा अधिकार मिलना चाहिए क्योंकि सरकार स्कूल बनाती है, अस्पताल बनाती है. दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) यह नहीं करता. तो उसके पास जमीन के सारे अधिकार क्यों हैं? हर बार जब आप कोई स्कूल बनाना चाहते हैं आपको डीडीए के पास जाना पड़ता है. फिर एक बात यह भी है कि पुदुचेरी, गोवा, अंडमान और निकोबार और दिल्ली के सरकारी अधिकारी एक ही कैडर से आते हैं. इतना बड़ा इलाका है और कैडर सबका साझा है. इन सब इलाकों की संस्कृतियां और चुनौतियों में काफी फर्क है, इसलिए कैडर एक ही होने से बहुत मुश्किल हो जाती है. इस मसले को सुलझाने के लिए केंद्र सरकार द्वारा तीन समितियां बनाई जा चुकी हैं. मोइली समिति हाल ही की है. इससे पहले वेद प्रकाश समिति और बालकृष्णन समिति का गठन भी किया गया था. इन तीनों ने कहा है कि कम से कम कानून व्यवस्था और ट्रैफिक के लिए दिल्ली सरकार की अपनी पुलिस होनी चाहिए. आप पुलिसबल को विभाजित कर सकते हैं. अतिविशिष्ट लोगों की सुरक्षा गृह मंत्रालय अपने पास रख ले. मैं बस यही कहना चाहती थी लेकिन इसे लागू नहीं किया गया.

तीन समितियों ने यही बात कही है?
बिल्कुल, तीन समितियों ने कही, लेकिन किसी की संस्तुति को लागू नहीं किया गया.

यानी केजरीवाल मजबूत तर्कों की जमीन पर खड़े हैं.
उनके पास भले ही तर्क हों लेकिन उन्हें सबसे पहले प्रक्रियाओं को समझना होगा. मेरा मानना है कि फिलहाल उन्हें इसकी समझ नहीं है.

लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में आप किसी तरह का बदलाव होता देख रही हैं? इस समय ऐसी स्थिति है जिनमें अधिकतर लोग राहुल गांधी को देख कर कहते हैं कि राजनीति कुछ चुनिंदा लोगों के लिए ही है, आम आदमी इसमें घुस ही नहीं सकता. आम आदमी के मन में यह भावना भर गई है कि वे राज्य के बंधक हैं. छुटभैये सरकारी अधिकारी उनके ऊपर एकतरफा फैसले थोपते हैं और उनसे उगाही करते हैं. अगर हम केजरीवाल की तमाम बातों का केंद्रीय बिंदु तलाशें तो वह यही है कि आम आदमी के प्रति नौकरशाही का जो गैरजवाबदेह और अत्याचारी रवैया है उसका अंत होना चाहिए. आपके हिसाब से राजनीतिक वर्ग को इस चुनौती का जवाब कैसे देना चाहिए क्योंकि यह चुनौती तो वास्तविक है?
मैं केजरीवाल से सिर्फ एक सवाल करना चाहती हूं. आपको ऐसा करने से कौन रोक रहा है? अगर आप अपनी सरकार को ज्यादा से ज्यादा सुलभ बनाना चाहते हैं तो इसे और प्रभावी बनाइए, इसे और ज्यादा पारदर्शी बनाइए. आपके पास सूचना का अधिकार है, इसका बेहतर तरीके से इस्तेमाल करिए. दिल्ली से इसकी शुरुआत कीजिए क्योंकि दिल्ली जो आज सोचती है बाकी देश उसे अगले दिन सोचता है. आप दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं, आप नौकरशाही को बदल सकते हैं, उसे आधुनिक बना सकते हैं. किसी दूर-दराज के गांव में आप ई-रजिस्ट्रेशन नहीं करवा सकते लेकिन यहां पर करवा सकते हैं. आप मिनट भर में यहां जन्म प्रमाणपत्र, मृत्यु प्रमाणपत्र हासिल कर सकते हैं. कोई आपको रोक नहीं रहा है, बस इच्छाशक्ति की जरूरत है. हमें सिर्फ वादे करने और धोखा देने वाली इच्छाशक्ति नहीं चाहिए. अपने वादों को लेकर बेहद यथार्थवादी होना पड़ता है. आप बिजली कीमतें ऐसे ही कैसे कम कर सकते हैं? कीमतें पहले से ही बेहद दबाव में हैं. पहले उन्होंने कहा कि कीमतों में 50 फीसदी कमी का लाभ सबको मिलेगा, बाद में कहने लगे नहीं सिर्फ 400 यूनिट तक ही लागू होगा जो कि हमने पहले ही कर दिया था.

केजरीवाल को भारत के दूसरे हिस्सों में भी जबरदस्त समर्थन मिल रहा है. लोगों को लग रहा है कि उन्हें एक नया विकल्प मिल गया है. वे उम्मीदों पर खरा उतरें या नहीं लेकिन फिलहाल लोगों को एक नई उम्मीद का अहसास तो हो ही रहा है. राजनीतिक दलों को अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए इसका जवाब ढूंढ़ना होगा. मैं आपसे दो बातें विशेष तौर पर पूछना चाहता हूं. पहला, ये जो राजनीतिक भ्रष्टाचार का मुद्दा है उसकी जड़ में राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने के लिए होने वाली भारी-भरकम पैसे की जरूरत है. और यह पैसा लेने का कोई कानूनी जरिया नहीं है. व्यक्तिगत चंदा या व्यक्तिगत कॉरपोरेट चंदा पर्याप्त नहीं है. इस पर काफी बहस पहले ही हो चुकी है. सरकारी खर्च पर चुनाव को लेकर आपकी क्या राय है?
बिल्कुल, मैं सरकारी खर्च पर चुनाव के पक्ष में हूं. आपको अपने चुनाव का खर्च खुद ही जुटाना पड़ता है. हम इतना पैसा कहां से इकट्ठा करेंगे और अगर नहीं कर पाएंगे तो पेट्रोल का पैसा भी नहीं चुका पाएंगे.

दूसरी बात पर भी काफी बहस हो चुकी है. फंडिंग के मामले में हमेशा आपसी लेन-देन की बात सामने आती है. लोगों से पैसा लोन के रूप में लिया जाता है और बदले में उन्हें तमाम तरीकों से फायदा पहुंचाया जाता है.
नहीं, मुझे नहीं लगता कि कोई भी लोन लेता है. मैंने आज तक किसी के लोन लेने की बात नहीं सुनी क्योंकि इसमें बहुत खतरा है. अगर मैं हार गई तो मैं क्या करूंगी?

आपके पास उन्हें लाभ पहुंचाने के तमाम रास्ते होते हैं.
जो भी हो, आपसी लेन-देन की स्थिति तब पैदा होती है जब कोई व्यक्ति आपकी जरूरत के समय आपका साथ देता है. अगर सरकार इस मुद्दे पर विचार करे तो इसमें और पारदर्शिता लाई जा सकती है. आप एक चीज के लिए इतना दे दें, पेट्रोल के लिए इतना दे दें, वगैरह-वगैरह. राज्य सरकार को इसकी पहल करनी चाहिए. हम पश्चिमी यूरोप और ऑस्ट्रेलिया की तर्ज पर भी आगे कदम बढ़ा सकते हैं. इन चीजों पर लगातार विचार होता रहना चाहिए क्योंकि लोकतंत्र को सजीव बनाए रखने के लिए चुनाव बेहद जरूरी हंै.

नौकरशाही की गैरजवाबदेही बहुत चिंताजनक है. यह बात जाहिर है कि भ्रष्टाचार एक तरह की सरकारी उगाही है. यह ऐसा है कि हम आपको वह सब करने की छूट देंगे बदले में आप हमें कुछ देते रहिए, यह एक किस्म की उगाही है. सिटिजन चार्टर के जरिए जवाबदेही की दिशा में एक कदम बढ़ाया गया है. अगला कदम धारा 311 में संशोधन का हो सकता है. इसके जरिए ऐसे लोगों को सजा देने का प्रावधान किया जा सकता है जो अपना काम ईमानदारी से नहीं कर रहे हैं. क्या यह संभव है?
नौकरशाही कानून के दायरे में काम करती है. कोई भी नौकरशाह इस दायरे से बाहर जाकर कोई काम नहीं कर सकता. वह इससे बाहर कैसे जा सकता है?  आप नौकरशाहों को दिए जा रहे प्रशिक्षण पर ध्यान दीजिए. जो व्यवस्था इतने सालों में हमने विकसित की है, वह बेहद जटिल है. आप जानते हैं मुझे अपनी पेंशन के लिए दस पन्ने का फॉर्म भरना पड़ा जो कि मेरा अधिकार है. मेरा मन खिन्न हो गया. मैंने कहा मैं दस्तखत कर देती हूं, आपका जो मन करे करना. हमने ऐसा सिस्टम बनाया है जिसमें अधिकारी कह सकता है कि फलां नियम का अर्थ यह है. और जब हम उसे दूसरा अर्थ बताते हैं तो वह कहता है कि यहां वह अर्थ लागू नहीं होता. फलां नियम सही है, फलां नियम गलत है. हमें इन जटिलताओं को समाप्त करके उन्हें आसान बनाना होगा, हम अंग्रेजी राज में नहीं रह रहे. हमें लोगों पर विश्वास करना होगा. अगर आप आपसी विश्वास और भरोसे पर काम करते हैं तो आपके सफल होने की संभावना काफी बढ़ जाती है. नौकरशाह इस सोच के साथ काम करता है कि अच्छा, शीला दीक्षित आ रही है, जरूर उसे कोई गलत काम करवाना होगा, और मैं सोचती हूं कि वह मेरे सही काम के लिए भी पैसा जरूर मांगेगा. यह सोच बदलनी होगी.

आप कह रही हैं कि जटिल नियम-कायदों का इस्तेमाल नौकरशाहों को जवाबदेही से बचाने के लिए हो रहा है. तो फिर शुरुआत कहां से होगी? यहां असंख्य विभाग हैं, और आपको हर विभाग के भीतर जाकर इन प्रक्रियाओं को सुधारना होगा. इसके लिए किस तरह की संस्था की जरूरत है? 
मैं किसी नई संस्था के पक्ष में कतई नहीं हूं. यहां पहले से ही अनगिनत संस्थाएं और समितियां हैं. मेरे हिसाब से मैं उन दो-चार संस्थाओं को चुनूंगी जो आम आदमी की रोजमर्रा की गतिविधियों को प्रभावित करते हैं. कोई दो या तीन विभाग चुन लीजिए. इसके बाद उनमें मौजूद समस्याओं को समझने के लिए दो या तीन महीने से ज्यादा नहीं लगने चाहिए. बड़ी-बड़ी चीजों की शुरुआत ऐसे ही छोटे-छोटे बदलावों से होती है. आपको अपने यहां टाटा मोटर्स का प्लांट लगाना है, इसमें छह महीने लगते हैं, आप एक छोटी-सी परचून की दुकान खोलना चाहते हैं, इसमें भी छह महीने लग जाते हैं. मेरा कहना बस यह है कि चीजों का कोई तुक होना चाहिए.

शरहीन शरद!

फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय
फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय

बात इसी फरवरी के पहले दिन की है. भारत के एक प्रमुख हिंदी अखबार के पहले पन्ने पर एक खबर छपी. बिहार में सत्तासीन जद यू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव के हवाले से छपी खबर का लब्बोलुआब यह था कि यादव के मुताबिक उनकी पार्टी आम चुनाव के बाद फिर से एनडीए का हिस्सा बन सकती है. यानी भाजपा का साथ ले-दे सकती है.

यह बयान छपते ही पटना के जदयू कार्यालय में एक अजीब-सा माहौल दिखने लगा. ऐसा लग रहा था जैसे न किसी को कुछ उगलते बन रहा है, न निगलते. शरद के हवाले से मीडिया में आई यह बात एक ऐसी बात थी, जिससे साफ तौर पर नीतीश का राजनीतिक नुकसान होता था और उनकी साख पर बट्टा लगाने के लिए भी यह बड़ी बात थी. फिर भी पार्टी के गलियारों में फुसफुसाहट में ही बात होती रही. और वह भी बस इतनी कि शरदजी को ऐसा नहीं कहना चाहिए था. हालांकि एक छोटे खेमे का यह भी कहना था कि शरदजी ने कोई गलत बात नहीं कही है, वे जानते हैं कि ऐसा हो सकता है, इसलिए कहा है. सबसे हैरत वाली बात यह थी कि कोई भी ऐसा नहीं मिला जो डंके की चोट पर कह सके कि शरद यादव ऐसा कह ही नहीं सकते.

अगले दिन उसी अखबार में शरद यादव के हवाले से छपी बातों का खंडन हुआ. कहा गया कि जदयू के फिर से एनडीए का हिस्सा बन जाने की संभावना वाला बयान बेबुनियाद है. इसके तुरंत बाद जदयू के छुटभैय्ये नेताओं से लेकर बड़े सूरमाओं तक के बयान आपस में टकराने लगे. सबने एक सिरे से मीडिया को झूठ-झूठ-झूठ कहना शुरू किया. उधर, शरद यादव की ओर से स्पष्टीकरण आया कि जहां नीतीश हैं, वहां वे हैं और पार्टी में नीतीश और उनकी राय अलग-अलग नहीं है.

दरअसल कुछ समय पहले तक एनडीए के राष्ट्रीय संयोजक रहे शरद यादव अब हाशिये पर हैं. जानकार बताते हैं कि बिहार में सत्तासीन जद यू के राष्ट्रीय अध्यक्ष का काम बस अब घोषणा करना रह गया है. उनका आधिकारिक जिम्मा बस यही है कि नीतीश कुमार उन्हें जो भी पर्ची थमाएं, वे बिना हिचकिचाहट उसका वाचन कर दें.

हालांकि नीतीश कुमार कहते हैं कि पार्टी के सभी फैसले सर्वसम्मति से होते हैं. यह भी कि बतौर पार्टी अध्यक्ष व नेतृत्वकर्ता शरद यादव कोई भी फैसला लेने या सलाह देने के लिए आधिकारिक तौर पर अधिकृत हैं और ऐसा होता भी है. खुद शरद यादव भी कहते हैं कि जो वे कहते हैं और जो नीतीश कहते हैं, दोनेों में पार्टी के स्तर पर कोई फर्क नहीं होता, लेकिन हाल में कई बार दिखा है कि अाधिकारिक धमक होने की बजाय उनके सुर में घोषणा भर कर देने की एक औपचारिकता दिखती है. हैं. ऐसा उस दिन भी देखा गया था जिस दिन दिल्ली से पटना पहुंचे शरद यादव को भाजपा से अलगाव का आधिकारिक ऐलान करना था. शरद यादव एलान करते वक्त संकोच भाव से, कृत्रिम तरीके से बात कहे जा रहे थे और उनके पास खड़े नीतीश कुमार किसी बच्चे की तरह कुरता पकड़कर बार-बार उन्हें याद दिला रहे थे कि एनडीए के संयोजक पद से भी इस्तीफा देने की घोषणा कीजिए, आप भूल क्यों रहे हैं? तब भी इसकी हल्की झलक दिखी जब जदयू की ओर से राज्यसभा के लिए तीन नामों की घोषणा हो रही थी. महिला आयोग की अध्यक्ष कहकशां परवीन, वरिष्ठ पत्रकार हरिवंश और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री व कर्पूरी ठाकुर के बेटे रामनाथ ठाकुर. इन तीनों नामों की घोषणा शरद यादव ने ही आधिकारिक तौर पर की. तीनों राज्यसभा के लिए निर्विरोध निर्वाचित भी हो चुके हैं, लेकिन जदयू के लोग जानते हैं कि शरद यादव ने यह घोषणा भी अध्यक्ष रहते हुए वाचिक परंपरा का निर्वहन करके ही की थी. शरद यादव की पार्टी में क्या स्थिति रह गई है इसका सबसे ताजा आकलन जदयू के फिलवक्त जारी एक अभियान को देखकर किया जा सकता है. नीतीश कुमार इन दिनों लोकसभा चुनाव के पहले फेडरल फ्रंट बनाने की कवायद में पूरी ऊर्जा लगाए हुए हैं. दिल्ली से लेकर पटना तक की दौड़ लगा रहे हैं. बैठकों पर बैठकें हो रही हैं. मुलायम सिंह यादव, नवीन पटनायक, एसडी देवगौड़ा, प्रकाश करात, एबी वर्धन समेत 11 दलों के नेताओं के साथ बैठकी के बाद यह तय हो चुका है कि मार्च में फेडरल फ्रंट की घोषणा के लिए पटना में एक विशाल रैली होगी. कह सकते हैं कि यह जदयू की ओर से लोकसभा चुनाव के पहले चलाया जा रहा एक राष्ट्रीय अभियान है. लेकिन पार्टी के इस राष्ट्रीय अभियान के सूत्रधार भी राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव नहीं बल्कि नीतीश कुमार ही बने हुए हैं. वे ही पहलकर्ता हैं और सूत्रधार भी. राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर शरद यादव फिर से अपनी ही बातों को बदलकर एक अनुसरणकर्ता और वाचक की भूमिका में आकर बार-बार सिर्फ दुहरा भर रहे हैं- इस मोरचे का गठन बेहद महत्वपूर्ण है. यह एक बड़ी कोशिश है. सार्थक राजनीतिक प्रयास है. आदि-इत्यादि. शरद यादव की यह बेबस भाषा है. नहीं तो कुछ माह पहले सरकारी न्यूज चैनल दूरदर्शन के एक इंटरव्यू में उनहोंने साफ-साफ एलानिया अंदाज में ही कहा था- कोई तीसरा या अन्य किस्म का मोर्चा चुनाव के पहले नहीं बनेगा.

niteshशरद यादव और नीतीश कुमार एक ही दल में रहते हुए अलग-अलग बयान देने के लिए पहले भी सुर्खियों में आ चुके हैं. कुछ समय पहले जब गुजरात में विधानसभा चुनाव होनेवाला था तो जदयू की ओर से यह घोषणा हो चुकी थी कि नीतीश कुमार भी गुजरात में चुनावी मैदान में उतरे जदयू प्रत्याशियों का प्रचार करने जाएंगे. लेकिन नीतीश ने इसे एक सिरे से खारिज कर दिया था. उसके बाद जब भाजपा से अलगाव के पहले दोनों दलों यानि जदयू-भाजपा में रार ठनी हुई थी, तब भी दोनों के बयान अलग-अलग आए थे. नीतीश कुमार बार-बार कह रहे थे कि भाजपा को चाहिए कि वह प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी का नाम पहले घोषित कर दे. जदयू के अधिकांश नेता भी इस पक्ष में थे लेकिन तब शरद यादव ने सबसे विपरीत जाते हुए यह बयान देकर सबको चौंका दिया था कि प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी का नाम घोषित करने की हड़बड़ी क्या है, यह तो आराम से चुनाव के बाद भी हो सकता है. छपरा में हुई मिड डे मील त्रासदी में भी दोनों नेताओं के अलग-अलग सुर सुने गए. सवाल तब भी यही उठे थे कि आखिर क्यों शरद और नीतीश एक ही दल के दो बड़े नेता होने के बावजूद, कभी-कभी दो ध्रुवों के नेता दिखते हैं? क्यों शरद कभी-कभी नीतीश कुमार की बातों को एक सिरे से खारिज करने की कोशिश करते हैं?

इसका बड़ा ही विचित्र जवाब जदयू से फिलहाल बागी रुख अपनाए हुए पार्टी के एक चर्चित नेता देते हैं. वे कहते हैं, ‘शरद यादव की परेशानी को समझना होगा. वे राष्ट्रीय राजनीति मंे हमेशा कुछ महत्वपूर्ण जिम्मेवारी चाहते हैं जिससे दिल्ली में उनका रसूख बना रहे. जब तक भाजपा-जदयू साथ थे और जदयू एनडीए का हिस्सा था, तब तक एनडीए संयोजक होने के नाते उनके पास एक भ्रमयुक्त पद भी था. लेकिन जदयू-भाजपा के अलगाव के बाद वह पद भी गया. रही बात जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष होकर कुछ खास करने की तो उसकी संभावना नीतीश कुमार ने बहुत पहले से ही खत्म कर दी है.’

कभी राष्ट्रीय स्तर पर धूम मचाने वाले एक नेता की यह स्थिति क्यों हुई? इतिहास बताता है िक शरद वही नेता हैं जिसने आपातकाल से पहले 1974 में मध्यप्रदेश की जबलपुर लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में कांग्रेस के गढ़ को जेल में रहते हुए ही चुनाव लड़कर ध्वस्त कर दिया था. उसके बाद मध्यप्रदेश से बिहार पहुंचकर राजनीति करते हुए वे इतना आगे बढ़ गए कि फिर कभी पीछे देखने की नौबत नहीं आई. सात बार लोकसभा और दो बार राज्यसभा सांसद रहे. केंद्र में मंत्री बने. उपराष्ट्रपति पद के प्रत्याशी के तौर पर उनकी बात हुई. उनके पास बिहार में लंबे समय तक सत्ताधारी पार्टी के साथ जुड़कर रसूखदार बने रहने का इतिहास और वर्तमान भी है. जब लालू प्रसाद यादव का राज रहा, तो शुरुआत में लंबे समय तक उनके खास सलाहकार और सिपहसालार बने रहे. बाद में जब नीतीश कुमार की बारी आई तो भी उन्हें अहमियत मिली. पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए. लेकिन आज उसी बिहार में, राज्य की प्रमुख पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के बावजूद उनका रसूख वह नहीं रहा जिसके वे आधिकारिक तौर पर हकदार हैं.

दरअसल जदयू मूलतः बिहार की पार्टी भर रह गई है. जो बिहार के नेता हैं उन्हें मालूम है कि शरद यादव राष्ट्रीय अध्यक्ष हों या कुछ और, अगर चुनाव जीतना है, टिकट लेना है, संगठन में भी कोई पद पाना है तो शरद की बजाय नीतीश परिक्रमा करना और उनके सुर में सुर मिलाना ही बेहतर होगा. जदयू के ही एक नेता कहते हैं, ‘वे तो एक ऐसे राष्ट्रीय अध्यक्ष हो गए हैं जिसे अपनी पार्टी की जितनी चिंता है, उतनी ही चिंता किसी तरह अपनी लोकसभा सीट पर फिर से किसी तरह जीत जाने की है.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘शरद यादव मधेपुरा के सांसद हैं. मधेपुरा में वे लालू प्रसाद यादव को हरा चुके हैं. मधेपुरा यादवों का गढ़ रहा है, लेकिन वहां के अधिकांश यादवों में नेता के तौर पर लालू यादव और पार्टी के तौर पर राजद की ही ज्यादा अपील है. शरद के यादव होने के बावजूद वहां उनकी जीत की गारंटी अब तक गैर यादव मतदाता ही देते रहे हैं. लेकिन इस बार भाजपा से अलगाव के बाद शरद के पक्ष में जाने वाले मतों का विभाजन साफ हो चुका है, इसलिए उनकी चिंता वाजिब है.’ सूत्रों के मुताबिक इसलिए बीच में बात भी हवा में फैली कि शरद यादव मधेपुरा की बजाय नीतीश कुमार के गढ़ नालंदा से चुनाव लड़कर अपनी सांसदी  जारी रखना चाहते हैं.’ हालांकि शरद कहते हैं कि यह सब गलत बात है, वे मधेपुरा से ही चुनावी मैदान में उतरेंगे और मीडिया अपनी मर्जी से बयानों को छाप रहा है.

आईआरएस सर्वेक्षण-2013: सर्वे पर सब रुष्ट

  • नागपुर में 60,000 की प्रसार संख्या वाले अंग्रेजी दैनिक हितवाद की पाठक संख्या शून्य है.
  • चेन्नई के बिजनेस अखबार बिजनेस लाइन की पाठक संख्या चेन्नई के मुकाबले मणिपुर में तीन गुना ज्यादा है.
  • आंध्र प्रदेश में हर अखबार की रीडरशिप 30 से 65 फीसदी तक गिर गई है.
  • हरियाणा में दैनिक हरिभूमि सबसे तेजी से बढ़ रहा हिंदी अखबार है.
  • दैनिक हिंदुस्तान पाठक संख्या के मामले में दैनिक भास्कर को पछाड़ कर दूसरे स्थान पर आ गया है.
  • मुंबई में अंग्रेजी अखबार की पाठक संख्या में 20.3% की दर से वृद्धि हो रही है, जबकि दिल्ली में अंग्रेजी अखबार की पाठक संख्या 19.5% की दर से गिर रही है.

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ये इंडियन रीडरशिप सर्वे (आईआरएस) के कुछ अविश्वसनीय आंकड़े हैं. यह सर्वे मीडिया रिसर्च यूजर्स काउंसिल (एमआरयूसी) करवाती है.  2013 की आखिरी तिमाही के इन नतीजों ने अखबारों की दुनिया में भूचाल ला दिया है. 28 जनवरी को इन नतीजों के सार्वजनिक होने के 24 घंटे के भीतर ही इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी (आईएनएस) ने इनको खारिज करते हुए एमआरयूसी से मांग की कि वे इस सर्वे को वापस लें अन्यथा नतीजा भुगतने के लिए तैयार रहें.

नतीजा लगभग सभी बड़े मीडिया समूहों का एमआरयूसी से संबंध तोड़ने की शक्ल में सामने आ सकता है. आईएनएस की इस धमकी से आगे बढ़ते हुए कुछ मीडिया समूहों ने एमआरयूसी के साथ अपने संबंध खत्म करने के साथ ही उसे कानूनी नोटिस भी भेज दिया है. इनमें मध्य प्रदेश का दैनिक भास्कर समूह पहला है. भास्कर समूह के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘हमारी याचिका पर विचार के बाद ग्वालियर की अतिरिक्त जिला जज ने 10 फरवरी को आईआरएस के ताजा सर्वे पर प्रतिबंध लगा दिया है. कोर्ट ने एमआरयूसी को आदेश दिया है कि जब तक इस संबंध में अगला आदेश नहीं आ जाता तब तक वे अपनी वेबसाइट से यह विवादास्पद सर्वे हटा लें और साथ ही किसी भी सदस्य को इसका इस्तेमाल न करने दें.’ आईआरएस के विवादास्पद आंकड़ों के विरोध में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, टाइम्स ऑफ इंडिया, द हिंदू, अमर उजाला, आनंद बाजार पत्रिका और मलयाला मनोरमा समेत कुल 18 बड़े मीडिया समूहों ने इसे रद्द करने का साझा बयान जारी किया है.

आईआरएस के कुछ आंकड़े वास्तव में बेहद चौंकाने वाले और अविश्वसनीय हैं. मसलन जब सर्वे पूरे देश में अखबारों की पाठक संख्या में गिरावट का संकेत दे रहा है तब एचटी समूह के तीनों प्रमुख अखबारों (हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक हिंदुस्तान और मिंट) में जबरदस्त उछाल देखने को मिल रहा है. एमआरयूसी ने एक और दिलचस्प आंकड़ा दिया है कि प्रति कॉपी हिंदुस्तान टाइम्स की पाठक संख्या टाइम्स ऑफ इंडिया से लगभग चार गुना ज्यादा है. प्रति कॉपी पाठक संख्या किन मानकों पर तय की गई है इसका खुलासा 13 पन्नों की आईआरएस रिपोर्ट में नहीं किया गया है.

हैरानी की बात नहीं कि प्रिंट जगत के दिग्गज इन आंकड़ों पर यकीन करने को तैयार नहीं. राज्यसभा सांसद और लोकमत अखबार के मालिक विजय दर्डा बताते हैं, ‘ये लोग (नील्सन) न जाने क्या करते हैं. मेरे अखबार का जितना सर्कुलेशन है उसकी पाठक संख्या उससे भी कम बताई है इन लोगों ने. कैसे इन पर यकीन किया जाए?’

रीडरशिप के आंकड़े समय-समय पर विवाद का विषय बनते रहे हैं. एमआरयूसी से पहले रीडरशिप के आंकड़ों का सर्वेक्षण नेशनल रीडरशिप सर्वे (एनआरएस) करवाता था. यह अपने दौर के कुछ गिने-चुने बड़े मीडिया समूहों की संस्था थी और रीडरशिप सर्वे पर इसका एकाधिकार हुआ करता था. इस एकाधिकार को तोड़ने और छोटे-मोटे मीडिया समूहों के साथ न्याय करने के मकसद से 1994 में एमआरयूसी का गठन हुआ. मुख्य विज्ञापनदाताओं, विज्ञापन एजेंसियों, प्रकाशकों और प्रसारकों से मिलकर बनी इस संस्था में फिलहाल 250 सदस्य हैं. 2006 तक ज्यादातर एडवर्टाइजर और मीडिया समूह दोनों ही (आईआरएस और एनआरएस) सर्वेक्षणों का इस्तेमाल करते थे. इस दौरान ही एनआरएस अपने आंकड़ों की अनियमितता और अवैज्ञानिक तौर-तरीकों के चलते अप्रासंगिक हो गया था. उधर, जैसे-जैसे आईआरएस का प्रभाव बढ़ रहा था उसके सर्वेक्षणों से आहत होने वालों की संख्या भी बढ़ रही थी. पर यह इतनी मुखर कभी नहीं रही जितनी आज देखने को मिल रही है.

खुद पर लग रहे आरोपों से बचने के लिए 2009 में एमआरयूसी ने सुधारवादी कदम उठाते हुए ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन के साथ हाथ मिलाया. इन्होंने मिलकर रीडरशिप स्टडीज काउंसिल ऑफ इंडिया (आरएससीआई) का गठन किया. पारदर्शिता लाने के उद्देश्य से एमआरयूसी रिसर्च के बाद आंकड़ों को इसी आरएससीआई को सौंप देती है. इससे आईआरएस की साख में बढ़ोतरी हुई. 2012 के अंत में एमआरयूसी ने विश्व प्रसिद्ध बाजार सर्वेक्षण संस्था नील्सन को आईआरएस की जिम्मेदारी सौंपी. इससे पहले यह काम हंसा रिसर्च करती थी. गौरतलब है कि नील्सन वही संस्था है जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए टीआरपी के आंकड़े भी तैयार करती है जिनकी विश्वसनीयता पर हजार संदेह खड़े होते रहे हैं. विजय दर्डा बताते हैं, ‘मैं उस समय एमआरयूसी का चेयरमैन था जब नील्सन को सर्वे की जिम्मेदारी सौंपी गई. लेकिन जिस तरह का इन लोगों का कामकाज है वह सही नहीं है.’

समस्या की शुरुआत नील्सन के आने के साथ ही हुई है. लेकिन इसी दौरान ‘कुछ और’ भी हुआ है. एमआरयूसी इसी ‘कुछ और’ को अपने बचाव में इस्तेमाल कर रही है. एमआरयूसी के चेयरमैन रवि राव ने चार फरवरी को एक प्रेस रिलीज जारी करके अपनी स्थिति को स्पष्ट किया है. रिलीज का लब्बोलुआब कुछ यूं है- ‘हम पहले ही दिन से कह रहे हैं कि ताजा आंकड़ों की तुलना पिछले आंकड़ों से नहीं की जा सकती, लेकिन आईएनएस हमारी बात सुन ही नहीं रहा. सर्वे के पुराने तौर-तरीके, सैंपलिंग, इंटरव्यू, विश्लेषण आदि सब कुछ इस बार बदल गया है. 2012 तक आईआरएस के आंकड़े 2001 की जनसंख्या के आंकड़ों पर आधारित होते थे, लेकिन इस बार हमारे पास 2011 की जनसंख्या के आंकड़े मौजूद थे. इसमें तमाम पुरानी चीजें बदल गई हैं. शहरों की सीमाएं फिर से निर्धारित हुई हैं, शहरी-ग्रामीण इलाकों के मायने बदले हैं. ताजा सर्वे में जो उठापटक दिख रही है उसकी एक बड़ी वजह प्रिंट मीडिया के पाठकों में आई जबरदस्त गिरावट है. 2012 में प्रिंट के पाठकों की संख्या 35 करोड़ 30 लाख थी जो 2013 में घट कर 28 करोड़ 10 लाख रह गई है.’ एमआरयूसी के एक सदस्य 1990 के एक उदाहरण से ताजा नतीजों को उचित ठहराने की कोशिश करते हैं. उनके मुताबिक 1990 में रेटिंग का डायरी सिस्टम बदल कर पीपुल मीटर सिस्टम लागू कर दिया गया था. इसके नतीजे में उस साल अलग-अलग मानकों पर लगभग 20 फीसदी तक की गिरावट देखने को मिली थी. ये सदस्य कहते हैं, ‘तब भी हम यही कहते थे कि पीपुल मीटर की तुलना डायरी सिस्टम से नहीं की जा सकती.’

इसके बावजूद ताजा आंकड़ों में जिस तरह की अनियमितताएं हैं उन्हें नजरअंदाज करना मुश्किल है. मसलन, किसी अखबार की पाठक संख्या उसकी सर्कुलेशन संख्या से कम कैसे हो सकती है या 60,000 के सर्कुलेशन वाले अखबार की पाठक संख्या शून्य कैसे हो सकती है? एक अखबार को दिए साक्षात्कार में रवि राव इन सवालों का जवाब कुछ यूं देते हैं, ‘अगर वास्तव में आंकड़ों में कुछ गड़बड़ियां हैं तो हम उन्हें सही करेंगे, लेकिन पूरे सर्वेक्षण को खारिज करना ठीक नहीं है.’

एमआरयूसी के अपने सर्वे पर अड़ने की कुछ और भी वजहें हैं. 20 सदस्यों वाली संस्था के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में पांच प्रतिनिधि महत्वपूर्ण प्रिंट मीडिया समूहों से आते हैं. इसी तरह से एमआरयूसी की टेक्निकल कमेटी भी है जिसमें छह सदस्य प्रिंट मीडिया के हैं. महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि यही टेक्निकल कमेटी आईआरएस के नए तौर-तरीकों के लिए जिम्मेदार है. एमआरयूसी का कहना है कि सर्वेक्षण की नई गाइडलाइनें इन्हीं लोगों की निगरानी में तय हुई थी. यह मई, 2012 की बात है. तब प्रिंट मीडिया के प्रतिनिधियों को इस पर कोई आपत्ति क्यों नहीं हुई?

इसकी दो ही वजहें हो सकती हैं या तो तब उन्हें इन नई गाइडलाइनों की गंभीरता का अंदाजा नहीं था या फिर वे इस प्रक्रिया में शामिल ही नहीं थे. स्वतंत्र रूप से विचार करने पर हम पाते हैं कि पहली वाली वजह ज्यादा संभव है कि उन्हें नई गाइडलाइंनों के नतीजों का अंदाजा ही नहीं था. मई, 2012 में इसकी शुरुआत हुई थी. तब एमआरयूसी और आरएससीआई ने मिलकर तय किया था कि अगला सर्वे नए तरीके से होगा. यह बात लंबे समय से सबकी जानकारी में थी. एक दिलचस्प तथ्य और भी है जिस पर अनायास ही ध्यान चला जाता है. एमआरयूसी के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में जो पांच सदस्य प्रिंट मीडिया के हैं उनमें बिनय रॉय चौधरी हिंदुस्तान टाइम्स के हैं और कुलबीर चिकारा हरिभूमि के हैं. यह संयोग ही है कि आईआरएस के नए नतीजों में इन दोनों अखबारों को सबसे ज्यादा बढ़त मिलती बताई गई है.

जिन 18 अखबार समूहों ने सामूहिक रूप से आईआरएस के बहिष्कार की घोषणा की है, उनकी सबसे बड़ी मजबूरी है 22,400 करोड़ रु. का सालाना विज्ञापन राजस्व जिसका बंटवारा इसी सर्वे के आधार पर होता है. दैनिक भास्कर समूह के निदेशक गिरीश अग्रवाल एक अखबार को बताते हैं, ‘एक बार सार्वजनिक हो जाने के बाद यह सर्वे सिर्फ व्यक्तिगत राय नहीं रह जाता बल्कि ब्रह्मवाक्य हो जाता है.’ देश भर के एडवर्टाइजर और मीडिया एजेंसियां इन आंकड़ों का इस्तेमाल ऐड रेवेन्यू के बंटवारे के लिए करती हैं. जाहिर है इन नतीजों में किसी भी बड़े फेरबदल का इस्तेमाल मीडिया और ऐड एजेंसियां मोलभाव के लिए करेंगी. यही कारण है कि लगभग 80 फीसदी प्रिंट मीडिया संस्थानों ने एमआरयूसी के साथ रिश्ते तोड़ लिए हैं. लगभग सबने एमआरयूसी को कानूनी नोटिस भी भेज दिया है.

अब सवाल यह है कि अगर गतिरोध बना रहा तो फिर आगे किस आधार पर प्रिंट मीडिया समूह और ऐड एजेंसियां आपस में लेन-देन करेंगे. क्या आने वाले दिनों में एक नई मीडिया सर्वेक्षण संस्था की नींव पड़ सकती है? मीडिया ट्रेंड और विज्ञापन जगत की गतिविधियों से जुड़ी ‘समाचार 4 मीडिया’ नाम की वेबसाइट के संपादक अनुराग बत्रा बताते हैं, ‘मर्डर कर दिया है आईआरएस ने. एडवर्टाइजर आईआरएस के आधार पर ही विज्ञापन राजस्व का बंटवारा करते थे. लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है कि ऐड एजेंसियों ने गड़बड़ियों के सामने आने के बाद इस सर्वे को नजरअंदाज कर दिया है. कोई भी इसे गंभीरता से नहीं ले रहा है. आगे कोई नया रास्ता निकलेगा. विज्ञापन बांटने के लिए किसी न किसी आधार की जरूरत तो पड़ेगी ही. मेरा मानना है कि जब समुद्र मंथन होता है तब कुछ अच्छी चीजें बाहर निकलती हैं.’

फिलहाल दोनों पक्षों के बीच गतिरोध बना हुआ है. एमआरयूसी ने कानूनी नोटिसों और प्रिंट मीडिया समूहों के भारी दबाव के बावजूद आईआरएस को वापस लेने से इनकार कर दिया है. रवि राव ने जो प्रेस रिलीज जारी की है उसके मुताबिक – ‘सर्वेक्षण के नतीजों पर अब आरएससीआई का अधिकार है. एमआरयूसी के पास अब एकतरफा सर्वे को वापस लेने की आजादी नहीं है विशेषकर ऐसी कठिन परिस्थितियों में जैसी इस समय बन गई हैं. एमआरयूसी बेसब्री से आरएससीआई की आगामी 19 फरवरी को होने वाली बैठक का इंतजार कर रही है. सर्वे के सभी नतीजों पर उसी दौरान आरएससीआई विचार करेगी.’ यानी 19 फरवरी तक एमआरयूसी अपने सर्वेक्षण से किसी भी तरह से पीछे हटने को तैयार नहीं है. दूसरी तरफ प्रिंट मीडिया संस्थानों का हुजूम है जो कतई इंतजार नहीं कर सकता. आखिर उसका इतना बड़ा हित जो दांव पर लगा है.

नीडो प्रकरण के निहितार्थ

imgदेश की राजधानी में पूर्वोत्तर के लोगों के साथ होने वाला नस्ली भेदभाव एक ऐसा बर्बर और कड़वा सच है जिसे जानते सब हैं, लेकिन सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करने के लिए कम ही तैयार होते हैं. चाहे पुलिस-प्रशासन हो या मीडिया या फिर सिविल सोसाइटी, सब अलग-अलग कारणों से उससे आंख चुराते हैं या बहुत दबी जुबान में चर्चा करते हैं. अफसोस की बात यह है कि दिल्ली और देश के अन्य राज्यों या शहरों में पूर्वोत्तर के लोगों को जिस तरह का नस्ली भेदभाव, उत्पीड़न और अपमान झेलना पड़ता है, उसे मुद्दा बनाने और न्यूज मीडिया सहित नागरिक समाज की चेतना को झकझोरने के लिए अरुणाचल प्रदेश के छात्र नीडो तानिया को अपनी जान देनी पड़ी.

अफसोस यह भी कि शुरू में कई चैनलों और उनके रिपोर्टरों ने पुलिस के तोते की तरह नीडो की मौत को ‘मामूली मारपीट और ड्रग्स के ओवरडोज’ जैसी स्टीरियोटाइप ‘स्टोरी’ से दबाना-छिपाना चाहा. लेकिन सलाम करना चाहिए पूर्वोत्तर के उन सैकड़ों छात्र-युवाओं और प्रगतिशील-रैडिकल छात्र संगठनों का जिन्होंने नीडो की नस्ली हत्या के बाद लाजपतनगर से लेकर जंतर-मंतर तक अपने गुस्से और विरोध का इतना जुझारू इजहार किया कि मीडिया से लेकर राजनीतिक पार्टियों-नेताओं और सरकार-पुलिस-प्रशासन को उसे नोटिस करना पड़ा. उन चैनलों और अखबारों का भी जिन्होंने पुलिस की प्लांटेड स्टोरीज को खारिज करके इसे मुद्दा बनाया.

नतीजा, पूर्वोत्तर के लोगों के साथ नस्ली भेदभाव का मुद्दा एक बार न्यूज मीडिया की सुर्खियों में है. हालात कितने खराब हैं, इसका अंदााजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि नीडो की हत्या का खून अभी सूखा भी नहीं था कि राजधानी में मणिपुर की एक बच्ची के साथ बलात्कार और एक युवा पर जानलेवा हमले का मामला सामने आ गया.

ऐसा नहीं है कि इससे पहले ऐसी घटनाएं नहीं होती थीं लेकिन होता यह था कि या तो उन्हें दबा दिया जाता था या फिर उन्हें रूटीन अपराध के मामले मानकर निपटा दिया जाता था. नस्ली छींटाकशी और उपहास तो जैसे आम बात थी.   लेकिन नीडो की मौत के बाद लगता है उत्तर-पूर्व के युवाओं का धैर्य जवाब देने लगा है. वे इसे और सहने के बजाय इससे लड़ने और चुनौती देने का मन बना चुके हैं. इससे चैनलों-अखबारों से लेकर सिविल सोसाइटी की अंतरात्मा भी जागी दिखती है. अगले लोकसभा चुनावों के कारण नेताओं का दिल भी फटा जा रहा है. क्या स्थिति बदलेगी या फिर कुछ दिनों बाद फिर किसी नीडो को जान देनी पड़ेगी? यह सवाल पूछना इसलिए जरूरी है कि पूर्वोत्तर के लोगों के साथ लंबे समय से जारी नस्ली भेदभाव के लिए एक खास सवर्ण हिंदू राष्ट्रवादी-मर्दवादी-नस्लवादी मानसिकता जिम्मेदार है जिसकी जड़ें पुलिस-प्रशासन से लेकर मीडिया तक में फैली हुई हैं. इसके शिकार सिर्फ पूर्वोत्तर के लोग ही नहीं बल्कि सभी कमजोर वर्ग और अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम-सिख और आदिवासी आदि हैं.

यह इतनी आसानी से खत्म होने वाला नहीं है. इससे लड़ने के लिए न सिर्फ इस मानसिकता को चुनौती और एक सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन की जरूरत है बल्कि नस्लभेद के उन सभी दबे-छिपे रूपों और स्टीरियोटाइप्स को खुलकर नकारना और सार्वजनिक मंचों को ज्यादा से ज्यादा समावेशी भी बनाना होगा. अपने न्यूज चैनलों को ही देख लीजिए, उनके कितने एंकर/रिपोर्टर पूर्वोत्तर के हैं? इन चैनलों पर पूर्वोत्तर की खबरों को कितनी जगह मिलती है? कितने चैनलों के पूर्वोत्तर में रिपोर्टर हैं? मनोरंजन चैनलों पर कितने धारावाहिकों के पात्र पूर्वोत्तर के हैं? पूर्वोत्तर को लेकर उपेक्षा, भेदभाव और स्टीरियोटाइप्स की यह सूची बहुत लंबी है.

क्या नीडो की मौत के बाद न्यूज मीडिया अपने अंदर भी झांकेगा? क्या इस ‘पब्लिक स्फीयर’ में भी हम कुछ बदलाव की उम्मीद करें?

प्रधानमंत्री मोदी

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बीती 14 फरवरी को दो खबरें एक साथ आईं. पहली यह थी कि भारत में अमेरिका की राजदूत नैंसी पॉवेल ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की है. दूसरी खबर एक सर्वे की थी. इंडिया टीवी, टाइम्स नाउ और सी वोटर द्वारा करवाए गए इस सर्वे में कहा गया था कि मौजूदा हालात को देखते हुए अगले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के खाते में अब तक की सबसे ज्यादा सीटें जाएंगी. सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक, भाजपा को 543 लोकसभा सीटों में से अपने दम पर 202 सीटें मिलने की उम्मीद है और उसके सहयोगियों को 25 सीटें मिल सकती हंै. यानी कुल मिलाकर राजग को 227 सीटें मिलने का अनुमान है.

पहली घटना के बाद माना जा रहा है कि अगले आम चुनाव में मोदी की जीत की संभावना को ध्यान में रखते हुए अमरीका ने बातचीत की पहल की है. इससे पहले ब्रिटेश के उप विदेश मंत्री और भारत में ब्रिटेन के राजदूत भी मोदी से मिल चुके हैं. सर्वे के नतीजों के बाद मोदी की अगुवाई में चुनावी समर में जा रही भाजपा भी उत्साहित है.

2014 का लोकसभा चुनाव जिस एक व्यक्ति पर सबसे ज्यादा केंद्रित है, वे हैं भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी. मोदी न सिर्फ पार्टी में तमाम तरह के आंतरिक संघर्षों से लड़ते-भिड़ते हुए खुद को पार्टी का पीएम प्रत्याशी बनवा पाने में सफल हुए बल्कि बेहद अन्य राजनीतिक दलों से काफी पहले ही उन्होंने अपने आक्रामक चुनावी अभियान की शुरुआत भी कर दी. पिछले डेढ़ दशक में भारत के सर्वाधिक विवादित राजनेता रहे मोदी ने पूरे देश में अब तक कई दर्जन चुनावी सभाएं की हैं. अपनी सभाओं में वे विकास के अपने गुजरात मॉडल की खूब तारीफ तो करते ही हैं, कुछ वैसा ही राष्ट्रीय स्तर पर दुहराने की भी बात करते हैं. सभाओं में वे जनता से कांग्रेस के 60 साल के शासन की तुलना में उन्हें 60 महीने देने की मांग करते हैं. नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद अगले पांच साल में देश की तस्वीर और तकदीर बदलने का दम भर रहे हैं. ऐसे में मोदी अगर किसी तरह प्रधानमंत्री बन पाने में सफल हो जाएं तो देश की तस्वीर कैसी हो सकती है? कैसा हो सकता है वह भारत जिसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होंगे? उनके आने के बाद देश और समाज के विभिन्न क्षेत्रों और वर्गों पर किस तरह के बदलाव और प्रभाव दिखाई दे सकते हैं? एक-एक करके समझने की कोशिश करते हैं.

मुस्लिम समाज
अगर मोदी देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो क्या वे मुस्लिम समुदाय के लिए पहले की तुलना में कुछ अलग होंगे? क्या 2002 के दंगे ने मोदी और मुसलमानों के बीच जिस अविश्वास को जन्म दिया वह कम होगा या बढ़ेगा? वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई सहित अन्य जानकारों का एक वर्ग है जो मानता है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी की तरफ से पूरे देश और अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को यह दिखाने का प्रयास होगा कि वे किसी वर्ग, धर्म या संप्रदाय के खिलाफ नहीं हैं.

इसके प्रमाण मोदी की रैलियों में दिए उनके भाषणों से भी मिलने लगे हैं जिनमें वे अल्पसंख्यकों को मुख्यधारा में शामिल करने की बात करते हैं, मौकों के अभाव में उनके रोजगार और शिक्षा में पिछड़े होने की बात करते हैं. उधर, पार्टी के अल्पसंख्यक मोर्चे को जिम्मेदारी दी गई है कि मोदी जिस भी रैली में जाएं वहां ज्यादा से ज्यादा तादाद में मुस्लिम महिलाएं और पुरुष अपने पारंपरिक परिधान में मौजूद हों. कई जगहों पर मोर्चे ने रैली में आने के लिए अपने मुस्लिम सदस्यों के लिए ड्रेस कोड तय किया. यानी महिलाएं बुर्के में आएंगी और पुरुष कुर्ता पाजामा और टोपी पहनकर.पार्टी इस बीच लगातार यह दिखाने का प्रयास कर रही है कि वह कैसे मुस्लिम समाज के खिलाफ नहीं है. जानकारों का एक वर्ग मानता है कि मुसलमानों को लेकर उपजा मोदी का यह प्रेम सत्ता पाने की उनकी बेताबी से उपजा है. नहीं तो क्या कारण है कि जो मुख्यमंत्री अपने प्रदेश की नौ फीसदी जनता के मताधिकार और उनके राजनीतिक अस्तित्व का यह कहकर मजाक उड़ाता रहा हो कि उसे मुसलमानों का वोट नहीं चाहिए, वह मुसलमानों को अपनी रैलियों में लाने के लिए, उनका विरोधी न दिखने के लिए तमाम तिकड़म अपना रहा है. जानकार मानते हैं कि मोदी को अहसास हो गया है कि सात रेसकोर्स का सफर कई गलियों से होकर गुजरता है और इनमें कुछ गलियां उन मुसलमानों की भी हैं जिनके अस्तित्व को वे आज तक गुजरात में नकारते आए हैं.

हालांकि माना जाता है कि मोदी के इस मुस्लिम प्रेम की भी अपनी एक निश्चित सीमा है. उनके लिए जितना ज्यादा जरूरी यह दिखाना है कि वे मुस्लिम विरोधी नहीं हैं उतना ही जरूरी यह दर्शाते रहना भी है कि वे मुसलमानों से कोई विशेष प्रेम नहीं करने जा रहे हैं. जानकार बताते हैं कि आज नरेंद्र मोदी का जो समर्थक वर्ग है उसका एक बड़ा हिस्सा उनकी मुस्लिम विरोधी छवि के कारण ही उनसे जुड़ा है. ऐसे में मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद किसी भी कीमत पर अपने इस वोट बैंक को नाराज नहीं करना चाहेंगे. इस तरह वे मुसलमानों से खुद को जोड़ते हुए तो दिखेंगे लेकिन समुदाय की बेहतरी के लिए वे कुछ खास करेंगे नहीं.

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई कहते हैं, ‘ मोदी अगर प्रधानमंत्री बनते हैं तो वे यह दिखाने की कोशिश जरूर करेंगे कि वे मुस्लिम विरोधी नहीं हैं. लेकिन इसके साथ ही वे समाज में हस्तक्षेप करने की कोशिश भी करेंगे. जैसे शेरवानी, टोपी और बुर्का मत पहनो, उर्दू मत बोलो आदि-आदि. यह सब आधुनिक बनाने के नाम पर किया जाएगा. कुल मिलाकर आप उनके राज में रह तो सकते हैं लेकिन आपके ऊपर नियंत्रण करने की कोशिश जारी रहेगी.’ बात आगे बढ़ाते हुए जनसत्ता के संपादक ओम थानवी कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री बनने के बाद भी मोदी की अल्पसंख्यकों के प्रति सोच में बदलाव की संभावना नहीं है क्योंकि वे जिस संघ से आते हैं उसकी सोच में बदलाव की सूरत दिखाई नहीं देती.’

सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार मानते हैं कि मुस्लिम समुदाय ही नहीं, समाज के अन्य पिछड़े और शोषित वर्गों को भी मोदी से कोई खास उम्मीद नहीं करनी चाहिए. वे कहते हैं, ‘जिस तरह से गुजरात में संसाधनों की लूट हुई है, उन्हें लूट कर बडे़ पूंजीपतियों को सौंप दिया गया है, उसे देखते हुए अगर मोदी कल को प्रधानमंत्री बन जाते हैं तो यह डर है कि संसाधनों की भयंकर पैमाने पर लूट होगी. इससे भयंकर आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक हिंसा उपजेगी. समस्याएं पैदा होंगी जो लंबे समय तक इस पूरे भूभाग को अस्थिर करेंगी. मोदी का प्रधानमंत्री बनना इस भूभाग के लिए एक बड़ी दुर्घटना साबित होगी.’

भारतीय राजनीति  
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारतीय राजनीति और राजनीतिक संस्कृति में आमूलचूल परिवर्तन की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. इस परिवर्तन के कुछ लक्षण अभी से दिखाई देने लगे हैं.

यह मोदी के व्यक्तित्व की ध्रुवीकरण क्षमता का ही प्रभाव है कि वर्तमान चुनाव काफी तक  सांप्रदायिकता बनाम गैरसांप्रदायिकता के खांचे में सीमित हो गया है. हालांकि इसमें बीच-बीच में विकास, रोजगार आदि की बातें भी होती हंै, लेकिन वे कम्युनल सेक्युलर की लड़ाई पर कभी भारी पड़ती नहीं दिखतीं. विभिन्न विरोधी पार्टियों के राजनीतिक व्यवहार को देखें तो लगता है जैसे उन्होंने तय कर लिया है कि वे मोदी से किसी और मसले पर नहीं बल्कि सांप्रदायिकता के मसले पर ही भिड़ना चाहती हैं. क्या कांग्रेस, सपा, बसपा और क्या वाम दल, सभी के तरकश में मोदी से निपटने के लिए एक ही तीर है–सांप्रदायिकता का. कुल मुलाकर यह चुनाव ‘तुम सांप्रदायिक, हम धर्मनिरपेक्ष’ के आधार पर लड़े जाने की संभावना दिखती है. जानकारों के मुताबिक ऐसे में मोदी प्रधानमंत्री बन जाते हैं तो यह लड़ाई आगे भी चलेगी. अर्थात सांप्रदायिकता के मुद्दे पर भारतीय राजनीति का ध्रुवीकरण तय है.

इसका प्रभाव उस राजनीतिक संस्कृति पर भी पड़ेगा जिसके तहत तमाम मतभेदों के बावजूद राजनीतिक दल एक दूसरे को लेकर सामान्य तौर पर मेलजोल की संस्कृति चलाते आए हैं. किदवई कहते हैं, ‘मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद राजनीतिक दलों के बीच गुप्त समझौते की संस्कृति में कमी आएगी. एक-दूसरे की दुखती रग पर हाथ न रखने यानी सेटिंग की राजनीति प्रभावित होगी. हम रंजन भट्टाचार्य को नहीं छुएंगे, तुम वाड्रा को हाथ न लगाओ जैसी चीजें लगभग खत्म हो जाएंगी.’

हालांकि मोदी को राजनीतिक तौर पर अशिष्ट मानने वाला एक तबका मानता है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद के देश की राजनीतिक संस्कृति में गिरावट आएगी. न सिर्फ ध्रुवीकरण बढ़ेगा बल्कि राजनीतिक शिष्टाचार की जो परंपरा पिछले 65 साल में विकसित हुई है उसके अवसान की भी आशंका है जो अंततः लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं होगा.

भाजपा
मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भाजपा का स्वरुप क्या होगा, इस प्रश्न का जवाब काफी कुछ उस पूरी प्रक्रिया और समय में पीछे जाने से मिल सकता है जिससे गुजरते हुए मोदी भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बने हैं. कैसे वे पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व पर दबाव बना पाने में सफल रहे, कैसे लौहपुरुष और पार्टी के पितृपुरुष कहे जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी की अनिच्छा के बावजूद पार्टी ने पहले उन्हें चुनाव अभियान की कमान सौंपी और कुछ समय बाद ही उन्हें 2014 में भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भी घोषित कर दिया.

आज पूरी पार्टी मोदीमय है. कुछ स्वेच्छा से तो कुछ विकल्पहीनता के कारण. आडवाणी युग लगभग चलाचली की बेला में है. और दिल्ली की राजनीति करने वाले सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह जैसे नेता मोदी का सारथी बनने में ही फिलहाल गर्व प्रकट कर रहे हैं. विश्लेषकों के मुताबिक जमीनी ताकत के अभाव में उन्हें लगता है कि हवा का रुख भांपते हुए हर-हर मोदी, घर-घर मोदी का नारा लगाना ही विकल्प है.

जाहिर सी बात है जब चुनाव से पहले यह स्थिति है तो मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने की सूरत में अन्य नेता जूनियर पार्टनर की स्थिति में ही होंगे. जानकारों के मुताबिक जैसा मोदी का व्यक्तित्व और काम करने का तरीका है और जिस तरह से उन्होंने गुजरात में शासन किया है उससे तो यही लगता है. किदवई कहते हैं, ‘देखना दिलचस्प होगा कि मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद केंद्रीय नेताओं के साथ क्या सलूक करते हंै. वे आई, मी और माइसेल्फ की मानसिकता वाले व्यक्ति हैं. ऐसे में पूरी संभावना है कि वे पीएम बनने के बाद दिल्ली में कोई दूसरा पावर सेंटर न उभरने दें.’  किदवई के मुताबिक मोदी ने गुजरात में पार्टी और सरकार को जिस तरह से चलाया है उससे यह संभावना मजबूत होती है कि पीएम बनने के बाद मोदी का यह प्रयास होगा कि सरकार से लेकर पार्टी की पूरी सत्ता उनके हाथों में केंद्रित हो. उनके इतर कोई दूसरा सत्ता केंद्र न पार्टी में हो और न सरकार में.

गुजरात में मोदी द्वारा केशुभाई पटेल से लेकर संजय जोशी समेत अन्य कई नेताओं को राजनीतिक तौर पर निपटाने के किस्से सत्ता के गलियारों में तैरते रहे हैं. भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘आशंका है कि नरेंद्र भाई सर्वेसर्वा बनने की कोशिश करें. लेकिन मेरा अपना मानना है कि गुजरात में जो हुआ वैसा ही दिल्ली की राजनीति में होना आसान नहीं है.’

राजनीतिक विश्लेषकों का एक वर्ग भी मानता है कि मोदी ने भाजपा की केंद्रीय राजनीति और नेतृत्व को अपने हिसाब से जरुर ढाल दिया है, लेकिन उनकी असली चुनौती शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह जैसे भाजपा के वे मुख्यमंत्री होने वाले हैं जो जीत-हार की चुनावी राजनीति में उनसे कुछ ही कदम पीछे हैं. राजनीतिक प्रेक्षकों का आकलन है कि अगर ये मुख्यमंत्री इसी तरह मजबूत होते गए तो निश्चित तौर पर भाजपा के भविष्य निर्धारण में न सिर्फ उनकी एक महती भूमिका होगी वरन वे प्रधानमंत्री मोदी के लिए एक बड़ी चुनौती साबित होंगे.

संघ
अपने स्वयंसेवक को पीएम पद का दावेदार देखकर संघ खुश भी है, नाराज भी और सशंकित भी. खुश इसलिए कि उसकी शाखाओं में खेल-कूद कर बड़ा हुआउसका एक प्रचारक हिंदुस्तान-जिसे संघ हिंदुस्थान कहता है-का प्रधानमंत्री बनने की दहलीज पर खड़ा दिखता है. नाराज इसलिए कि कैसे उसे बेहद दबाव में लाकर मोदी ने उससे अपने नाम की मोहर लगवा ली जबकि वह तो किसी के दबाव में आने वाला संगठन है ही नहीं. आशंका इसलिए कि उसके पास मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल काल में गुजरात में संघ से जुड़े संगठनों के बर्बाद होने का उदाहरण है. यह वजह है कि संघ मोदी के के पीएम बनने के बाद की स्थितियों को लेकर सशंकित है.

नरेंद्र मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री बनने पर संघ और विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठन बेहद खुश थे. उन्हें लगा कि वे प्रदेश में अपनी विचारधारा और कार्यक्रम को बिना किसी रोक-टोक के आगे बढ़ा सकते हैं. लेकिन उनका यह ख्वाब उनका अपना स्वयंसेवक ही तोड़ देगा इसका उन्हें भान नहीं था. लंबे समय तक विहिप के लिए काम करने वाले और पिछले विधानसभा चुनाव में केशुभाई पटेल की गुजरात परिवर्तन पार्टी से जुड़े रहे एक स्वयंसेवक बताते हैं, ‘किसी भी सामाजिक संगठन की समाज में पहचान तब  बनती है जब लोगों को यह लगता है कि इस संगठन की बात सुनी जाती है. अगर हम कहीं कोई विरोध प्रदर्शन करते थे तो वहां कानून-व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर जो पुलिसवाले हम पर लाठी चलाते थे उन पर मोदी की सरकार कोई कार्रवाई ही नहीं करती थी. अगर हम लोगों की कोई वाजिब शिकायत लेकर किसी प्रशासनिक अधिकारी के पास पहुंचते थे तो वहां हमारी बात नहीं सुनी जाती थी. इससे लोगों को धीरे-धीरे यह लगने लगा कि विश्व हिंदू परिषद की बात तो यहां कोई सुनने ही वाला नहीं है. बस लोग हमसे कटते गए. आज हालत यह है कि गुजरात में न सिर्फ संघ और विश्व हिंदू परिषद बल्कि संघ के सभी आनुषंगिक संगठनों की हालत खस्ता है.’ 2008 में मोदी सरकार के उस निर्णय से भी संघ बेहद खफा हुआ जब राजधानी गांधीनगर में अवैध कब्जे के खिलाफ चले अभियान के तहत सरकार ने 80 के करीब छोड़े-बड़े मंदिरों को तुड़वा दिया.

यही कारण है कि संघ का एक धड़ा मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाने के सख्त खिलाफ था. उसने ऐसा न हो, इसके लिए पूरी ताकत लगा दी थी. लेकिन मोदी के पक्ष में माहौल कुछ ऐसा बना कि इस धड़े को अपने पांव पीछे खींचने पड़े. मोदी के विरोधी रहे संघ के एक पदाधिकारी कहते हैं, ‘संघ में इस बात को लेकर एक राय नहीं थी कि मोदी को पीएम प्रत्याशी बनाया जाए. गुजरात में जो आदमी संघ को बर्बाद कर चुका है उसके हाथों में कमान देकर संघ ने खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है. प्रधानमंत्री बनने के बाद आप देखेंगे कि ये सेक्यूलर बनने के चक्कर में और सारी सत्ता अपने हाथों में रखने के लिए–जैसा कि इन महाशय का तरीका है–संघ के प्रभाव को तहस-नहस करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे. इनके नेचर में है ये.’

हालांकि सब ऐसा नहीं मानते. मोदी के समर्थक माने जाने वाले और पांचजन्य के पूर्व संपादक बलदेव शर्मा कहते हैं, ‘मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी संघ पर कोई असर नहीं पड़ेगा. संघ एक पद्धति है. ऐसी छवि बना दी गई है कि संघ मोदी से डरता है. लोग ये जान लें कि संघ मोदी से नहीं डरता.’

केंद्र-राज्य संबंध
मोदी को लेकर जिस तरह विभिन्न राजनीतिक दल आक्रामक रवैया अख्तियार किए हुए हैं उससे इस बात की झलक मिलती है कि केंद्र में अगर मोदी के नेतृत्व में सरकार बनती है तो राज्य सरकारों और केंद्र के बीच किस तरह के संबंध होंगे.

राजनीतिक पंडितों के एक तबके का ऐसा आकलन है कि ठीक-ठाक बहुमत के साथ अगर मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो ऐसी स्थिति में उनका राज्य सरकारों से टकराव होने की पूरी संभावना है. ऐसा सोचने के पीछे इतिहास भी एक आधार है. राजनीतिक विरोधी होने पर विभिन्न राज्य सरकारें केंद्र पर सौतेला व्यवहार करने और राज्य के विकास को बाधित करने का आरोप लगाती हंै तो वहीं केंद्र भी राज्य सरकारों को अपने राजनीतिक गुणा-गणित के आधार पर फंड और सहूलियतें देता है. ऐसे में मोदी इससे उलट कुछ करेंगे ऐसा सोचने के लिए कोई खास आधार नहीं. हां, जिस अनुपात में विभिन्न दलों द्वारा शासित राज्य सरकारों के नेता मोदी के प्रति राजनीतिक कटुता का प्रदर्शन कर रहे हैं वह बताने के लिए काफी है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद अन्य दलों द्वारा शासित राज्य सरकारों से मोदी का कैसा टकराव हो सकता है.

किदवई कहते हैं, ‘केंद्रीय सरकार की प्रवृत्ति में यह होता है कि वह देश का कंट्रोल अपने पास चाहती है. ऊपर से जिस केंद्र सरकार के केंद्र में मोदी हों जिनका व्यक्तित्व ही सत्ता को खुद तक केंद्रित रखना है तो मुठभेड़ होना लाजिमी है.’

हालांकि राजनीतिक टिप्पणीकारों का एक समूह इसे दूसरे नजरिए से देखता है. उसका मानना है कि केंद्र में आने के बाद देश एक नये नरेंद्र मोदी को देख सकता है. वे मानते हैं कि केंद्र में सत्ता में आने के बाद मोदी की कार्यप्रणाली में बड़ी तब्दीली आएगी.गुजरात के उलट वे सबको साथ लेकर चलने की कोशिश करेंगे और राज्य सरकारों के साथ किसी तरह के संघर्ष से बचेंगे. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक शरत प्रधान कहते हैं, ‘राज्य से केंद्र में आने के बाद व्यक्ति के नजरिये में फर्क आ जाता है. जो व्यक्ति केंद्र में बैठता है उसे संतुलन बनाना ही पड़ता है. मोदी भी राज्य सरकारों के साथ संघर्ष छोड़ संतुलन स्थापित करने की कोशिश करेंगे.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘कोई भी राज्य सरकार केंद्र की मदद और सहयोग के बगैर नहीं चल सकती. ठीक उसी तरह से केंद्र की सरकार राज्य सरकार के सहयोग के बिना ठीक से काम नहीं कर सकती. दोनों को एक दूसरे की जरुरत है.’

कश्मीर एवं अन्य तनावग्रस्त क्षेत्र
क्या नरेंद्र मोदी ने अभी तक की अपनी राजनीतिक-प्रशासनिक यात्रा से भारत की आंतरिक चुनौतियों से निपटने का कोई रोड मैप सुझाया है ? क्या उनके पास भारत की आंतरिक चुनौतियों जिन्हें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बताते हैं, उनसे निपटने की कोई दृष्टि है. अगर देश की कमान उनके हाथ आती है तो वे इन चुनौतियों से कैसे निपट सकते हैं ?

दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में नेल्सन मंडेला सेंटर फॉर पीस एंड कॉनफ्लिक्ट रेजोल्यूशन में प्रोफेसर तनवीर फजल कहते हैं, ‘मोदी एफिशिएंट स्टेट की बात करते हैं. ऐसी व्यवस्था अक्सर सेना और पुलिस केंद्रित होती है. नौकरशाही वहां जरूरत से अधिक ताकतवर होती है. सबसे बड़ी बात यह कि ऐसे राज्य में राजनीतिक प्रक्रियाओं को गैर जरूरी बताते हुए उन्हें खारिज किया जाता है. अब ऐसी व्यवस्था मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद ले आएंगे तो समस्याएं और संघर्ष सुलझने की बजाय  बढ़ेंगे.’

कई जानकार मानते हैं कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पुलिस, सेना तथा अन्य सुरक्षा एजेंसियों को खुली छूट होगी. उनकी सरकार पोटा जैसे और बर्बर कानून लेकर आएगी. मानवाधिकारों का और अधिक हनन होगा, लेकिन इससे देश की समस्याएं कम होने के बजाय और बढ़ेंगी. ठीक वैसे ही जैसे भाजपा की अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार के समय हुआ था.

तनवीर फजल कहते हैं, ‘भाजपा मोदी के नेतृत्व में क्या करने वाली है इसकी झलक इस बात से ही मिलती है कि उसके नेता मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को अर्बन गुरिल्ला कहते हैं यानी नक्सलियों या माओवादियों के शहरी समर्थक और कार्यकर्ता. अब ऐसे में ये सरकार बनाते हैं तो तय है कि बिनायक सेन जैसे सैकड़ों लोगों को ये लोग जेल में ठूंस देंगे.’

हालांकि इसके उलट राय रखने वाला भी एक तबका है. वह मोदी के प्रधानमंत्री बनने की स्थिति में आंतरिक संघर्षों समेत कश्मीर जैसे विवादों के हल होने की संभावना भी जताता है. कुछ ऐसे ही लोगों की बात कश्मीर स्थित पार्टी पीडीपी की नेता और कश्मीर विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष महबूबा मुफ्ती करती हैं. कुछ समय पहले एक अखबार को दिए साक्षात्कार में उनका कहना था, ‘जम्मू कश्मीर में एक तबका ऐसा है, जो ये मानता है कि मोदी में निर्णय लेने की क्षमता है और वे कश्मीर मसले का कोई सकारात्मक हल निकाल सकते हैं.’

इस पर तनवीर फजल कहते हैं, ‘पूरे विश्व का उदाहरण हमारे सामने है. जहां-जहां कोई एग्रेसिव स्टेट रहा है वहां समस्याओं के हल होने की संभावना और कम हुई है.’ वे आगे कहते हैं, ‘संघर्ष को हल करने के लिए राज्य का दिल बड़ा होना चाहिए. लेकिन मोदी के मामले में ऐसा नहीं है. ऐसे में भारत की आंतरिक चुनौतियां सुलझने के बजाय और बढ़ती और उलझती जाएंगी.’

देश का विकास
नरेंद्र मोदी हर सभा में गुजरात के विकास का हवाला देना नहीं भूलते. गुजरात उनके नेतृत्व में कैसे आगे बढ़ा है, इसको लेकर हर रैली में उनके पास कोई न कोई कहानी होती है. गुजरात के विकास को ही वे पूरे भारत में भुनाते हुए दिखाई देते हैं. कुछ इस तर्ज पर कि जिस तरह से उन्होंने बतौर मुख्यमंत्री गुजरात का विकास किया है, उसी तरह से वे प्रधानमंत्री बनने पर पूरे देश का विकास कर देंगे.

लेकिन विकास का गुजरात मॉडल आखिर है क्या? अर्थशास्त्री भरत झुनझुनवाला मोदी की आर्थिक सोच और उनके मॉडल की चर्चा करते हुए कहते हैं, ‘मोदी अर्थशास्त्र के ट्रिकल डाउन थ्योरी में विश्वास करते हैं. यही उनका मॉडल है.’  यानी आर्थिक विकास से ऊंचे तबके को होने वाले मुनाफे का फायदा एक न एक दिन निचले तबके तक भी अपने आप पहुंच जाएगा.

माना जाना चाहिए कि इस थ्योरी ने उस गुजरात में अपना असर जरूर दिखाया होगा जो पिछले कई दशकों से विकास के पूंजीवादी मॉडल पर काम कर रहा है, जहां नरेंद्र मोदी पिछले 15 साल से लगातार इसी मॉडल के आधार पर राज्य का विकास करने के काम में लगे हैं.

गुजरात में आर्थिक वृद्धि के कई प्रमाण दिखाई देते हैं. सड़कें, बिजली, फैक्ट्रियां और कारखाने तो जैसे दिन दोगुनी रात चौगुनी जैसी रफ्तार से बढ़े हैं. इनमें दिन-रात उत्पादन हो रहा है. लेकिन जैसे ही आप राज्य में हाड़-मांस के लोगों की स्थिति अर्थात मानव विकास को जानने की कोशिश करते हैं इस मॉडल का खोखलापन सामने आ जाता है. पता चलता है कि कैसे राज्य में हो रही आर्थिक वृद्धि के आंकड़ों का वहां पैदा होने वाले बच्चों की जीवन वृद्धि से कोई लेना-देना नहीं है. दिन-रात उत्पादन में लगे कारखाने राज्य के 46 फीसदी बच्चों के लिए न्यूनतम पोषण भी पैदा नहीं कर पा रहे हैं. विकास के लिए 56 इंच का सीना होने की बात कहने वाले मोदी के गुजरात में पांच साल से कम उम्र के 46 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं. 70 फीसदी बच्चों में खून की कमी है. 15 से 45 वर्ष की 55 फीसदी महिलाओं में खून की कमी है.  राज्य की 22 फीसदी आबादी को पर्याप्त भोजन ही नहीं मिल रहा. ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट के मुताबिक तो भुखमरी के शिकार राज्यों में गुजरात का 13 वां नंबर है. यहां तक कि उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, बंगाल और असम भी उससे ऊपर हैं. कृषि विकास में राज्य देश में आठवें स्थान पर है. राष्ट्रीय सैंपल सर्वे संस्थान (एनएसएसओ) के आंकड़े बताते हैं कि गुजरात में पिछले 12 साल में रोजगार वृद्धि लगभग न के बराबर रही है. एनएसएसओ की 2011 की सर्वे रिपोर्ट कहती है, ‘गुजरात का आर्थिक विकास मूलभूत मानव विकास सूचकांकों को ताक पर रख कर हो रहा है.’ एनएसएसओ के मुताबिक, गुजरात के शहरी इलाकों में दिहाड़ी मजदूरी की दर 106 रुपये है. जबकि केरल में यह 218 रुपये है. इसी तरह (मनरेगा छोड़कर) गुजरात के ग्रामीण इलाकों में दिहाड़ी मजदूरी की दर 83 रुपये है और इस लिहाज से राज्य देश भर में 12वें स्थान पर है. पहले नंबर पर पंजाब है जहां दिहाड़ी 152 रुपये है. प्रति व्यक्ति आय में गुजरात का स्थान 11वां है.

मोदी के कार्यकाल में (2001-13) में राज्य पर लदा कर्ज करीब चार गुना बढ़ गया. जो कर्ज 2001 में 42,780 करोड़ था, वह 2013 में एक लाख 76 हजार 490 करोड़ हो गया. गुजरात में प्रति व्यक्ति ऋण पहले से ही पूरे देश में सबसे ज्यादा है. अगले तीन सालों में उसमें 46 फीसदी से ज्यादा वृद््धि की संभावना है. यूएनडीपी के अनुसार गुजरात में स्कूल ड्रॉप आउट रेट 58 फीसदी है. यानी 100 में से 58 बच्चे हाईस्कूल में पहुंचने के पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं. यह राष्ट्रीय अनुपात से भी ज्यादा है. हाल ही में यूनीसेफ ने अपनी एक रिपोर्ट में इशारा किया कि कैसे राज्य सरकार सरकारी स्कूली शिक्षा को सुधारने के बजाय प्राइवेट स्कूलों को बढ़ावा दे रही है. जिससे कमजोर तबके के बच्चे ऊंची शिक्षा तक पहुंच ही नहीं पा रहे हैं. सारा जोर निजीकरण की तरफ है. यह शिक्षा इतनी महंगी है कि आम आदमी की पहुंच से बाहर है.

2010 में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट ने बताया कि कैसे बाल विवाह की सर्वाधिक घटनाएं गुजरात में हुई हैं. देवालय से पहले शौचालय का नारा देने वाले मोदी के गुजरात में 2011 की जनगणना के मुताबिक 43 फीसदी घरों में शौचालय नहीं हंै. ग्रामीण क्षेत्रों में तो हालत और भी खराब है जहां 67 फीसदी घरों में यह सुविधा नहीं है.

2013 में वर्तमान रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन की अध्यक्षता में बनी एक कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में विकास के मामले में गुजरात को पूरे देश में 12 वें स्थान पर रखा. कमेटी ने सभी राज्यों का कुल 10 मानदंडों के आधार पर अध्ययन किया था. इनमेंें प्रति व्यक्ति व्यय, शिक्षा, स्वास्थ्य, घरेलू सुविधाएं, गरीबी दर, महिला साक्षरता,  दलित और आदिवासी समुदाय का प्रतिशत, शहरीकरण, वित्तीय समावेश, और कनेक्टिविटी आदि शामिल थे.

गुजरात के कई इलाकों से भयंकर सूखे की खबरें आती रहती हैं. मोदी अपने भाषणों में पूरे राज्य में पानी के पाइपों का जाल बिछाने की बात करते हैं. लेकिन पिछले ही साल राज्य के सौराष्ट्र और कच्छ इलाके को मिलाकर लगभग आधे गुजरात में पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ था. कई इलाकों से ऐसी खबरें आईं जहां लोगों के पास पीने तक के लिए पानी नहीं था.

तो यह है गुजरात के विकास की चमचमाती तस्वीर जहां मानव विकास के आईने में राज्य के नागरिकों का अस्थिपंजर दिखाई दे रहा है. लेकिन इसके बावजूद मोदी मगन हैं. अमेरिकी अखबार वॉल स्ट्रीट जर्नल को दिए साक्षात्कार में राज्य में कुपोषण के सवाल पर वे कहते हैं, ‘गुजरात में कुपोषण इसलिए है क्योंकि गुजराती मुख्य रूप से शाकाहारी हैं. दूसरी बात ये कि गुजरात मध्यवर्ग के लोगों का राज्य भी है. मध्यवर्गीय महिलाएं स्वास्थ्य की अपेक्षा अपने सौंदर्य के प्रति अधिक चिंतित रहती हैं. यदि एक मां अपनी बेटी को दूध पीने के लिए कहती है तो वह झगड़ने लगती है. वह मां से कहती है कि दूध लेने से मैं मोटी हो जाऊंगी.’

इसी सोच और अपने गुजरात के विकास मॉडल को मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद पूरे देश पर लागू करना चाहते हैं. देश के विकास के लिए वे ऐसी ही दृष्टि, मॉडल और रोडमैप की जरूरत बताते हैं.

झुनझुनवाला कहते हैं, ‘देखिए मोदी की इस बात के लिए तारीफ होनी चाहिए कि वे एक अच्छे प्रशासक हैं. तीन दिन के अंदर देश ने देखा कि कैसे मोदी बंगाल से नैनो को लेकर गुजरात चले आए. लेकिन दिक्कत यह है कि उनका जो विकास मॉडल है उसमें निवेश तो होगा, आर्थिक वृद्धि भी होगी लेकिन उसमें आम आदमी की कोई जगह नहीं होगी. देश आर्थिक तौर पर विकास करेगा लेकिन उस विकास यात्रा में आम आदमी कहीं पीछे छूट जाएगा.’

गुजरात वह राज्य है जो पहले से ही विकसित माना जाता है. कई अर्थशास्त्री आशंका जताते हैं कि मोदी के विकास मॉडल ने जब वहां मानव विकास के पैमाने पर इतनी गड़बड़ी मचा दी तो पूरे देश में उसे लागू करने पर क्या होगा. देश में तमाम ऐसे इलाके हंै जो सालों से भीषण गरीबी, कुपोषण और मानव विकास के विभिन्न पैमानों पर बेहद पिछड़े हैं. प्रधानमंत्री बनने पर मोदी अगर गुजरात का मॉडल देश में लागू करने लगे तो क्या कोहराम मचेगा? आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर और अर्थशास्त्री रितिका खेड़ा कहती हैं, ‘मैं गुजरात से आती हूं. गुजरात में जो आर्थिक विकास हुआ है उसमें मोदी की कोई भूमिका नहीं है क्योंकि यह विकास कोई मोदी के कार्यकाल में नहीं हुआ है. मोदी के आने से दशकों पहले से गुजरात आर्थिक तौर पर विकसित रहा है. हां, मोदी के कार्यकाल में यह जरूर हुआ है कि जो गुजरात मानव विकास के पैमानों पर बहुत अच्छा था वह नीचे गया है. पिछले 10-15 साल में मानव विकास में राज्य की स्थिति काफी खराब हुई है.’

ओम थानवी कहते हैं, ‘अर्थव्यवस्था को लेकर मोदी की कोई समझ हमारे सामने स्पष्ट नहीं है. एक राज्य को चलाना और देश को चलाना दो अलग अलग चीजें हैं. उन्हें समझना होगा कि देश गुजरात नहीं है. ऐसे में मोदी के अब तक के भाषणों से स्पष्ट नहीं है कि वे किस तरह देश चलाएंगे.’मोदी के आर्थिक मॉडल की आलोचना नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन भी करते हैं. कुछ समय पहले एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि गुजरात में स्वास्थ्य और शिक्षा की स्थिति ठीक नहीं है. इस दिशा में वहां बहुत काम करने की जरुरत है.

अंतरराष्ट्रीय संबंध
मोदी अगर प्रधानमंत्री बनते हैं तो विदेश संबंध भी एक बड़ा ऐसा क्षेत्र होगा जिस पर सभी की निगाहें होंगी. सामान्य परिस्थितियों में प्रायः अंतरराष्ट्रीय संबंध काफी हद तक ऑटो मोड में होते हैं अर्थात सरकार बदलने के साथ दूसरे देशों के साथ संबंधों में कोई खास परिवर्तन नहीं आता. देश के प्रधानमंत्री एक के बाद एक बदलते रहते हैं और थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ विश्व बिरादरी से संबंध पुरानी लीक के आसपास चलता रहता है. लेकिन जानकारों का मानना है कि अगर मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो फिर इस क्षेत्र में बड़े बदलावों से इंकार नहीं किया जा सकता.

सबसे बड़ा मामला तो अमेरिका का है.  2002 में हुए गुजरात दंगे के बाद अमेरिका ने न सिर्फ मोदी की जमकर आलोचना की बल्कि उन्हें मानवता विरोधी ठहराते हुए उनके अमेरिका में प्रवेश करने पर पाबंदी लगा दी. अमेरिका की इस पाबंदी को आज लगभग 12 साल हो गए. जिस बीच न मोदी ने अमेरिकी वीजा के लिए अर्जी दी और न ही अमेरिका मोदी को लेकर अपने रुख में कोई नरमी लाया. बीते दिनों पावेल ने मोदी से मुलाकात तो की लेकिन अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने साफ भी कर दिया कि उसके राजदूत की मुलाकात का वीजा नीति पर कोई असर नहीं होगा. ऐसे में मोदी अगर प्रधानमंत्री बनते हैं तो एक बड़ा सवाल यह होगा कि क्या भारत के प्रधानमंत्री पर अमेरिका अपने यहां न आने की पाबंदी लगा सकता है. दूसरी तरफ अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान भारत के प्रधानमंत्री को अगर अपने यहां आने नहीं देगा तो फिर वह भारत से किसके माध्यम से संबंध रखेगा? अमेरिका के जिस तरह के आर्थिक,राजनीतिक और सामरिक हित भारत के साथ जुडे़ हैं, उन्हें देखते हुए क्या वह अपने पुराने रुख पर कायम रहेगा? वहीं दूसरी तरफ मोदी भी क्या विश्व महाशक्ति से प्रधानमंत्री बनने के बाद मुठभेड़ या उसकी अनदेखी करने का जोखिम उठा सकते हैं?

मोदी समर्थक मोदी की क्षमताओं को लेकर न सिर्फ उत्साहित हैं बल्कि वे अमेरिका को घुटने टेकते हुए भी देखना चाहते हैं. पांचजन्य के पूर्व संपादक बलदेव शर्मा कहते हैं, ‘मोदी अमेरिका से वीजा मांगने नहीं जाएंगे. उनको पीएम तो बनने दीजिए, आप देखेंगे कि अमेरिका कैसे खुद मोदी के सामने घुटने टेकता है.’

शर्मा अमेरिका से जिस दबंगई से निपटने की बात करते हैं उसका विचार खुद मोदी ने अपने समर्थकों और आम जनता के बीच फैलाया है. वे कहते हैं, ‘आप लोग देखते रहिए एक दिन ऐसा आएगा जब भारत उस मुकाम पर पहुंच जाएगा कि अमेरिका से लेकर दुनिया के दूसरे मुल्कों से लोग भारत का वीजा पाने के लिए लाइन में खडे़ मिलेंगे.’  अब मोदी ऐसा अपने समर्थकों को उत्साहित करने के लिए कहते हैं या अपमान से उपजी खीज छुपाने के लिए, यह तो वही बता सकते हैं.

पाकिस्तान को लेकर मोदी के विचारों का अध्ययन करें तो वे एक तनावग्रस्त भविष्य की तरफ ही इशारा करते हैं. जानकार बताते हैं कि संघ की जिस वैचारिक फैक्ट्री में मोदी के मानसिक कलपुर्जों का निर्माण हुआ है उसकी सोच पाकिस्तान को लेकर बहुत स्पष्ट है. यानी वह एक दुश्मन देश है जो भारत की तमाम समस्याओं का कारक है, जिसे उसकी बांह मरोड़कर ही ठीक किया जा सकता है. मोदी भी अपने तमाम भाषणों में पाकिस्तान को देख लेने वाले अंदाज में ही संबोधित करते दिखाई देते हैं. उधर, जो उनका समर्थक वर्ग है उसकी बड़ी संख्या कभी यह बर्दाश्त नहीं करेगी कि मोदी पाक को लेकर कभी कोई नरमी बरतें. विदेश नीति के जानकारों के मुताबिक ऐसे में मोदी के पीएम बनने के बाद दोनों देशों के बीच संवाद और घटेगा और संघर्ष और बढ़ेगा. ओम थानवी कहते हैं, ‘मोदी की वर्तमान स्थिति ये है कि पश्चिम के देश उनकी तरफ सम्मान से नहीं देखते हैं. अमेरिका समेत बड़े देशों से उनका संबंध पहले से ही तनावपूर्ण है. यूरोपीय देशों में से कुछ ने पिछले समय में उनके प्रति नरम रुख दिखाया है.  दूसरी तरफ पड़ोसी देशों से संबंध में जिस विशाल हृदय की जरुरत होती है उसकी उम्मीद मोदी से नहीं है. इसमें पाकिस्तान और बांग्लादेश भी हैं जहां मुसलमानों की एक बड़ी संख्या है और उस आबादी को लेकर संघ जिससे मोदी आते हैं, की समझ घृणा की है. ऐसे में मोदी के पीएम बनने के बाद दूसरे देशों से भारत के संबंधों का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है.’

हालांकि जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) में अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान के प्रोफेसर कमल मित्र चिनॉय विदेश संबंधों में किसी बड़े बदलाव से इनकार करते हैं. वे कहते हैं, ‘गठबंधन के जमाने में कोई एक नेता विदेश नीति में अपने मन मुताबिक परिवर्तन कर दे यह संभव नहीं है. मोदी के पीएम बनने के बाद भी विदेश नीति में कोई खास परिवर्तन होने की सूरत दिखाई नहीं देती. हां, वे इतना कर सकते हैं कि चीन और पाकिस्तान के खिलाफ हो-हल्ला करें. इससे ज्यादा कुछ नहीं.’

मोदी के प्रधानमंत्री बनने की स्थिति में एक वर्ग लोकतांत्रिक संस्थाओं और उदारवादी दायरे पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की भी शंका जताता है. ओम थानवी मीडिया समेत विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा होने की बात करते हुए कहते हैं, ‘जिस तरह की विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मीडिया और समाज उपभोग कर रहा है, उस पर मोदी के पीएम बनने के बाद ग्रहण लगने की पूरी संभावना है.’ उदाहरण देते हुए वे कहते हैं, ‘आज आप इंटरनेट या किसी सोशल प्लेटफॉर्म पर अगर किसी रूप में मोदी की आलोचना करते हैं तो उनके समर्थक तुरंत गाली-गलौज समेत तमाम असभ्य तौर तरीकों से आपको परेशान करने की कोशिश करते हैं. कल्पना कीजिए मोदी प्रधानमंत्री बन गए तो उनके ये समर्थक क्या करेंगे. मीडिया की आजादी पर अभी से खौफ हावी है. मोदी की असहनशीलता और असहिष्णुता उनके अनुयायियों में भी कूट कूट कर भरी है. सत्ता में आने के बाद क्या होगा इसकी कल्पना की जा सकती है. मोदी का रवैया पीएम बनने के बाद भी लोकतांत्रिक नहीं होने वाला.’

जिस समस्या की तरफ थानवी इशारा करते हैं, उसका शिकार अमर्त्य सेन भी हो चुके हैं. मोदी की आलोचना करने के कुछ समय बाद से ही शरारती तत्वों ने एक अश्लील तस्वीर को सोशल मीडिया पर ये कहकर प्रचारित करना शुरू किया कि यह अमर्त्य सेन की बेटी है. और जो आदमी अपनी बेटी को नहीं संभाल पा रहा है वह मोदी और गुजरात पर टिप्पणी कर रहा है.

कई मीडिया संस्थानों से ऐसी खबरें आ रही हैं कि कैसे वहां मोदी की आलोचना का स्थान खत्म हो रहा है. मोदी की आलोचना करने वालों को कैसे बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है. मीडिया जगत से जुड़े लोग बताते हैं कि कैसे मोदी के प्रति आलोचनात्मक रवैया रखने के कारण टीवी 18 समूह के अंग्रेजी समाचार चैनल सीएनएन आईबीएन में वरिष्ठ पत्रकार सागरिका घोष पर लगातार दबाव बना हुआ है. उन्हें मोदी की आलोचना करने वाले ट्वीट न करने की हिदायत तक दी गई है. स्क्रॉल डॉट इन वेबसाइट से बातचीत में सागरिका  बताती भी हैं कि कैसे मोदी समर्थकों के कारण इंटरनेट पर मोदी की आलोचना करना बेहद मुश्किल होता जा रहा है और कैसे धीरे-धीरे यह असहिष्णुता इंटरनेट के बाहर भी फैल रही है. वे कहती हैं,  ‘पहले भी मैंने कई मौकों पर कांग्रेस और गांधी परिवार की आलोचना की है, लेकिन कभी मुझे किसी ने जान से मारने, गैंग रेप करने या नौकरी से निकालने की धमकी नहीं दी.’

सूत्र बताते हैं कि मोदी के प्रति आलोचनात्मक रवैया रखने वाले आईबीएन लोकमत के संपादक निखिल वागले पर भी प्रबंधन का दबाव है. वागले ने हाल ही में ट्विटर पर टिप्पणी भी की थी- ‘इंदिरा गांधी ने आपातकाल के समय पत्रकारों को डराने धमकाने काम किया. लेकिन वे सफल नहीं हो पाईं. आरएसएस और मोदी को इतिहास से सबक लेना चाहिए. पत्रकारों को धमकाना बंद करिए नहीं तो यह दांव उलटा पड़ जाएगा.’ अंग्रेजी अखबार द हिंदू के पूर्व संपादक सिद्धार्थ वरदराजन के संस्थान छोड़ने के पीछे भी मोदी का हाथ होने की अपुष्ट खबरें मीडिया जगत में आती रहीं. छह फरवरी को ट्विटर पर उनकी टिप्पणी आई- आपातकाल के समय में जब मीडिया मालिकों को झुकने के लिए कहा गया तो वे रेंगने लगे. इसी तर्ज पर आदेश पाकर कई मीडिया मालिकों ने फिर रेंगने की शुरुआत कर दी है जबकि आदेश देने वाला अभी सत्ता में आया भी नहीं है.’ उदाहरण और भी हैं अंग्रेजी पत्रिका ओपन के राजनीतिक संपादक हरतोष सिंह बल को मैनेजमेंट द्वारा संस्थान छोड़ने के लिए कहने के पीछे भी मोदी फैक्टर बताया गया. चर्चा है कि मैनेजमेंट बल द्वारा अपने लेखों में मोदी की आलोचना से नाराज था. गुजरात में मोदी की आलोचना करने वाले पत्रकारों पर देशद्रोह का मुकदमा करने से लेकर तमाम तरह से उन्हें प्रताड़ित करने के उदाहरण भरे पड़े हैं. यानी भविष्य के लिए आशंकाओं की तादाद आशाओं से ज्यादा है.