Home Blog Page 1424

शीतयुद्ध का पुनर्जन्म !

img1

राष्ट्रपति विक्तोर यानुकोविच पहले भूमिगत, फिर बर्खास्त, और उसके बाद वांछित होने के बाद अब रूस में प्रकट हो गए हैं. सत्ता एक कार्यवाहक सरकार ने संभाल ली है. 25 मई को नए चुनाव होंगे. यूलिया तिमोशेंको जेल से छूट गई  हैं. 2004 वाली पहली ‘नारंगी क्रांति’ की वही नेत्री थीं. जर्मनी चहक रहा है. अमेरिका बहक रहा है. रूस दहक रहा है.

उधर, जो यूक्रेन इन घटनाओं के केंद्र में है उसकी हालत बिलखने जैसी है. वह दिवालिया हो जाने के कगार पर है. दो टुकड़ों में टूट भी सकता है. वह तत्काल 35 अरब डॉलर की सहायता मांग रहा है. अमेरिका, यूरोपीय संघ, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष–सभी उसे सहायता देने के लिए उद्यत दिख रहे हैं.

गृहयुद्ध की चपेट में आने से बाल-बाल बच गए यूक्रेन में घटनाक्रम पिछले दिनों तूफानी गति से घूमा.10 वर्षों में तीन सत्तापलट और तीन-तीन सरकारों का अधूरा कार्यकाल देख चुके इस देश में हुई हालिया हिंसा में 83 लोगों की जान चली गई. वहां हिंसा का जो उबाल सारी दुनिया ने देखा, उसकी आग में घी वास्तव में एक ऐसी घटना से पड़ा, जो हुई ही नहीं. भूतपूर्व सोवियत गणतंत्र और अब यूरोपीय संघ में शामिल लिथुआनिया की राजधानी विल्नियस में 28-29 नवंबर 2013 को एक शिखर सम्मेलन हुआ था. यूक्रेनी राष्ट्रपति विक्तोर यानुकोविच को वहां एक ‘साझेदारी समझौते’ पर हस्ताक्षर करना था.यह समझौता यूरोपीय संघ में उनके देश की पूर्ण सदस्यता का मार्ग प्रशस्त कर देता. लेकिन, यानुकोविच शिखर सम्मेलन में पहुंचे ही नहीं.

1200 पृष्ठों वाला यह समझौता, यूरोपीय संघ के अनुसार, किसी देश के सामने रखा गया अब तक का ‘सबसे व्यापक’ एवं उदार साझेदारी समझौता है. इसमें यूरोपीय संघ और यूक्रेन के बीच ‘मुक्त व्यापार क्षेत्र’ के निर्माण से लेकर हर तरह के आर्थिक, राजनीतिक, तकनीकी एवं कानूनी सहयोग के वे सारे प्रावधान हैं, जो किसी देश को यूरोपीय संघ की दुर्लभ पूर्ण सदस्यता पाने के सुयोग्य बनाते हैं. यूरोपीय संघ यूक्रेन को निकट भविष्य में ही अपनी पूर्ण सदस्यता का न केवल वचन दे रहा था, उसे अगले सात वर्षों में सवा अरब यूरो के बराबर सहायता का अलग से प्रलोभन भी दे रहा था. ऐसा विशिष्ट सम्मान पहले शायद ही किसी देश को मिला है. कारण यही हो सकता था कि भू-राजनीतिक, आर्थिक, सामरिक और प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से रूस के इस दक्षिणी पड़ोसी का यूरोप के लिए इस समय जो महत्व है, वह किसी और देश का नहीं. ललचा-फुसला कर उसे रूसी छत्रछाया से बाहर निकालना और अमेरिकी प्रभुत्व वाले पश्चिमी खेमे का अभिन्न अंग बनाना सुखद भविष्य के बीमे के समान है.

पूतिन का माथा ठनका
समझौते की शर्तों पर वार्ताएं 2007 से ही चल रही थीं. नौ दिसंबर 2011 को हुए 15वें यूक्रेनी-यूरोपीय शिखर सम्मेलन में यूक्रेनी राष्ट्रपति यानुकोविच ने स्वयं मान लिया था कि समझौते की शर्तों और शब्दावली पर अब कोई मतभेद नहीं रहा. तब भी, दो वर्ष बाद अंतिम क्षण में वे मुकर गए!  मुकर इसलिए गए, क्योंकि इस बीच रूसी राष्ट्रपति व्लादीमीर पूतिन का माथा ठनकने लगा था. लंबे समय तक शांत रहने के बाद उन्हें लगने लगा था कि यूक्रेन को यूरोपीय संघ का हिस्सा बनने से यदि अब न रोका गया, तो शायद कभी न रोका जा सकेगा. उन्होंने यूक्रेन को कुछ धमकियां दीं और साथ ही कुछ ऐसे प्रलोभन भी दिए, जो यूरोपीय संघ के प्रलोभनों से भी बढ़-चढ़ कर थे.

राष्ट्रपति पूतिन इस बात की अनदेखी नहीं कर सकते थे कि यूरोपीय संघ की सदस्यता केवल यूरोपीय संघ तक ही सीमित नहीं रहती. संघ का लगभग हर देश या तो अमेरिकी नेतृत्व वाले ‘उत्तर एटलांटिक संधि संगठन’ नाटो का भी सदस्य है या फिर देर-सवेर नाटो का भी सदस्य बन कर अपने यहां अमेरिकी सैनिकों और प्रक्षेपास्त्रों की तैनाती को स्वीकार करता है. ढाई दशक पूर्व बर्लिन दीवार गिरने के बाद विभाजित जर्मनी का एकीकरण होते ही उस समय के सोवियत संघ ने तो अपने नेतृत्व वाले ‘वार्सा सैन्य संगठन’ का तुरंत विघटन कर दिया, जबकि अमेरिका ने नाटो का विघटन करने से साफ मना कर दिया. विघटन तो क्या, इस बीच उत्तरी अमेरिका व यूरोप ही नहीं, सारे विश्व को नाटो का कार्यक्षेत्र बना दिया गया है. उस के सैनिक अफगानिस्तान तक में लड़ रहे हैं.

किएव के मैदान चौक पर जमा प्रदर्शनकारी और हिंसा
किएव के मैदान चौक पर जमा प्रदर्शनकारी और हिंसा

रूस की घेरेबंदी
रूस तभी से भन्नाया हुआ था, जब 19 नवंबर 2010 को नाटो ने एक ऐसी नई रणनीति पारित की जिसका उद्देश्य रूस के पड़ोसी पूर्वी यूरोप के देशों में प्रक्षेपास्त्र-भेदी रक्षाकवच के तौर नए किस्म के रॉकेट तैनात करना है. कहा यह गया कि ये रॉकेट तीन हजार किलोमीटर दूर तक के ईरान जैसे देशों द्वारा चलाए गए प्रक्षेपास्त्रों को आकाश में ही नष्ट कर दिया करेंगे. रूस का कहना था कि यह रक्षाकवच हमारी घेरेबंदी के समान है. यदि उद्देश्य यूरोप को रक्षाकवच प्रदान करना ही है, तो एक यूरेशियाई देश होने के नाते हमें भी इस योजना में शामिल किया जाए. हम सब मिल कर यह कवच बनाएं. लेकिन, अमेरिका और उसके पिछलग्गू नाटो देशों ने रूस को इसमें शामिल करना उचित नहीं समझा.

फरवरी 2012 से नाटो की इस योजना पर काम शुरू हो गया है. 2020 तक पोलैंड, चेक गणराज्य और बाल्टिक देशों सहित कई देशों में दर्जनों अमेरिकी रॉकेट तैनात किये जाएंगे. अमेरिका और यूरोपीय संघ उन्हें यूक्रेन में भी देखना चाहेंगे. नाटो के इस रक्षाकवच का कमान केंद्र जर्मनी में रामश्टाइन स्थित अमेरिकी वायुसैनिक अड्डे को बनाया गया है. अमेरिका और रोमानिया ने 31 जनवरी 2012 को एक अलग समझौता किया है. इसके अंतर्गत अमेरिका 2015 से रोमानिया के देवेशेल्यू वायुसैनिक अड्डे पर 24 ‘एसएम-3’ प्रक्षेपास्त्र-भेदी रॉकेट तैनात करना शुरू कर देगा.

कल्पना करें कि यदि चीन नेपाल में इसी तरह का कोई रक्षाकवच बनाने लगे, तो भारत क्या उसे बधाई देगा?  साफ है कि रूसी राष्ट्रपति व्लादीमीर पूतिन भी भूल नहीं सकते थे कि 1962 में जब ख्रुश्चेव ने क्यूबा में सोवियत परमाणु राकेट भेजे, तो अमेरिका ने किस तरह आसमान सिर पर उठा लिया था. इसलिए रूस ने पिछले वर्ष ‘इस्कांदर एम’ नाम की अपनी 10 रॉकेट प्रणालियां– जिन्हें नाटो की शब्दावली में ‘एसएस-26 स्टोन’ कहा जाता है– यूरोपीय संघ वाले पूर्वी यूरोपीय देशों के निकट तैनात कर दीं. 280 किलोमीटर मारकदूरी वाले ये रॉकेट परमाणु और पारंपरिक, दोनों तरह के अस्त्र ले जा सकते हैं, हालांकि वे सही मायने में प्रक्षेपास्त्रभेदी नहीं हैं. उन्हें चलायमान प्रक्षेपण-वाहनों पर से दागा जाता है.

ukशीतयुद्ध की वापसी
इस तरह देखें तो बर्लिन दीवार गिरने के पहले का पूर्व-पश्चिम शीतयुद्ध एक बार फिर लौट आया है. एक बार फिर अमेरिका और उसके पिछलग्गू रूस को नीचा दिखाने के लिए उसकी घेरेबंदी करने लगे हैं. रूस को वे तौर-तरीके अपनाने पर पुनः मजबूर होना पड़ रहा है, जिनसे उसका सोवियत-काल कलंकित हुआ था. यूक्रेन भूतपूर्व सोवियत संघ का एक ऐसा बहुत ही महत्वपूर्ण अंग रहा है, जिसके खेत न केवल अन्न के अंबार और कारखाने शस्त्र-भंडार रहे हैं, बल्कि जिसने सोवियत-काल में लेओनिद ब्रेज़नेव जैसे कई चोटी के नेता भी दिए थे. रूस और यूक्रेन का सदियों लंबा साझा इतिहास है. 1654 में यूक्रेन स्वेच्छा से जारशाही रूस का हिस्सा बना था. उस समय बोखदान ख्मेल्नित्स्की नाम के एक यूक्रेनी राष्ट्रनायक ने तत्कालीन पोलिश राजशाही के विरुद्ध विद्रोह का झंडा उठा कर यूक्रेन का जारशाही रूस में विलय कराया था. इसी कारण पूर्वी यूक्रेन में आज भी रूसी भाषा की प्रधानता और रूस के साथ निकटता के प्रति व्यापक समर्थन है. पूर्वी यूक्रेन का ओदेसा शहर रूसी जलसेना के काला सागर बेड़े का आज भी मुख्यालय है.

यूक्रेन को रूस से अलग करने का पहला प्रयास प्रथम विश्वयुद्ध के अंतिम वर्ष, 1918 में, उसके तब के और अब के भी प्रतिद्वंद्वी जर्मनी ने ही किया था. इस वर्ष, यानी जुलाई-अगस्त 1914 में, प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने की शतवार्षिकी पड़ रही है. जर्मनी की ही सहायता और संभवतः उसी के पैसे से रूसी समाजवादी क्रांति के महानायक व्लादीमीर लेनिन स्विट्जरलैंड में अपने निर्वासन को त्याग कर 1917 में रूस लौटे थे. युद्ध का अंतिम वर्ष आने तक जर्मनी उत्तर में बाल्टिक सागर से लेकर दक्षिण में काला सागर तक के अपने कब्जे वाले भूभाग पर अपनी पसंद के कई पिछलग्गू देश बना चुका था. यूक्रेन उनमें सबसे प्रमुख था.

जर्मनी सोच रहा था कि वह यूक्रेन के अत्यंत उपजाऊ खेतों के अनाज से अपनी जनता और पश्चिमी मोर्चें पर अपने सैनिकों के पेट भरेगा. लेकिन, उसका यह ख्याली पुलाव पक नहीं पाया. यूक्रेनी जनता ने जर्मनी की कठपुतली सरकार को चलने नहीं दिया. युद्ध में जर्मनी और उसके साथी ऑस्ट्रिया की हार होते ही लेनिन की लाल सेना ने 1920 में यूक्रेन पर कब्जा कर लिया. दिसंबर 1922 में रूसी दबदबे वाले कई देशों को मिला कर सोवियत संघ की स्थापना होने के साथ ही यूक्रेन एक सोवियत गणतंत्र बन गया. 1991 में वह दुबारा एक स्वतंत्र देश तब बना, जब बर्लिन दीवार गिरने और जर्मनी के फिर एक होने के साथ ही स्वयं सोवियत संघ का विघटन हो गया. जर्मनी, यूरोपीय संघ और अमेरिका तभी से उसे रूस से परे हटाने और अपने गुट में मिलाने के लिए मचल रहे हैं.

‘चलो पश्चिम’ चला नहीं
यूक्रेनी नेता और जनता भी नई स्वाधीनता के समय से ही इस उलझन में हैं कि किसका हाथ पकड़ा और किसका छोड़ा जाए. एक तरफ यूरोपीय संघ द्वारा दिखाया जा रहा कथित असीम संभावनाओं का सब्जबाग है, तो दूसरी तरफ रूस के साथ सदियों पुरानी स्लाव उद्भव वाली जातीय बिरादरी. इसी दुविधा के बीच तथाकथित ‘नारंगी क्रांति’ (ऑरेंज रिवल्यूशन) के बाद 2004 में हुए चुनावों में अभी-अभी अपदस्थ राष्ट्रपति विक्तोर यानुकोविच को उस समय राष्ट्रपति बने विक्तोर युश्चेंको के हाथों मात खानी पड़ी थी. युश्चेंको और उस समय मात्र 44 वर्ष की उनकी सुंदर युवा प्रधानमंत्री यूलिया तिमोशेंको ने– जनवरी 2005 में अपना पदभार संभालते हुए– यूरोपीय संघ और नाटो, दोनों की  सदस्यता पाने पर लक्षित ‘चलो पश्चिम’ नीति अपनाने की घोषणा की थी. लेकिन, दोनों नेता न तो जनता को वैसा स्वच्छ प्रशासन दे पाए और न देश की आर्थिक दशा ही सुधार पाए, जिसके वादे पर वे चुनाव जीते थे. सात ही महीनों के भीतर राष्ट्रपति युश्चेंको और डॉलर-करोड़पति उनकी महिला प्रधानमंत्री यूलिया तिमोशेंको के आपसी संबंधों में भी कुछ ऐसे मरोड़ आ गए कि राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री की छुट्टी कर दी. इस सबसे न तो यूरोपीय संघ ने और न ही नाटो ने उस समय ‘चलो पश्चिम’ वाली उनकी बातों को गंभीरता से लिया.

लेकिन, 2010 में हुए पिछले चुनावों के बाद स्थिति एकदम बदल गई. तत्कालीन राष्ट्रपति युश्चेंको मतदान के पहले दौर में ही औंधे मुंह गिरे. दूसरे दौर में यूलिया तिमोशेंको रूस-समर्थक समझे जाने वाले उन्हीं विक्तोर यानुकोविच से हार गईं जिनके विरुद्ध 2004 में उन्होंने ‘नारंगी क्रांति’ का नेतृत्व किया था. यानुकोविच स्पष्ट बहुमत के साथ नए राष्ट्रपति बने. फरवरी 2010 में अपने पदारोहण के समय उन्होंने कहा कि यूक्रेन अपने आप को ‘रूस और यूरोपीय संघ के बीच सेतु समझता है,’ इसलिए दोनों के प्रति तटस्थ रहेगा. यूलिया तिमोशेंको को उन्होंने 2011 में इस आरोप में जेल भिजवा दिया कि पिछली सरकार में प्रधानमंत्री रहने के दौरान उन्होंने अपने पद का भारी दुरुपयोग किया था. जर्मनी सहित पश्चिमी देशों ने उन्हें जेल से छुड़ाने के लिए एड़ियां घिस डालीं, पर सफल नहीं हो पाए.

रूस ये सारी घटनाएं तब तक शांतिपूर्वक देखता रहा, जब तक यूरोपीय संघ ने यह घोषणा नहीं कर दी कि नवंबर 2013 में लिथुआनिया की राजधानी विल्नियस में एक ऐसा शिखर सम्मेलन होगा जिसमें भूतपूर्व सोवियत गणराज्यों मोल्दाविया और आर्मेनिया के साथ-साथ यूक्रेन भी यूरोपीय संघ की सह-सदस्यता जैसे साझेदारी समझौते पर हस्ताक्षर करेगा.

उल्लेखनीय है कि ‘संयुक्त राज्य यूरोप’ बनने का आकांक्षी यूरोपीय संघ अभी से इतना भारी-भरकम, समस्या-ग्रस्त और अहंकारी हो गया है कि बेरोजगारी और ऋणों के बोझ से कराह रहे अपने वर्तमान 28 सदस्य देशों के बीच ही संगति नहीं बैठा पा रहा है. ऐसे में, भूतपूर्व सोवियत संघ का हिस्सा रहे देशों को अपने साथ बांधने का 2009 से ‘पूर्वी साझेदारी’ (ईस्टर्न पार्टनरशिप) नाम से एक ऐसा जोखिम भरा कार्यक्रम भी चला रहा है, जिसके अंतर्गत यूक्रेन, आर्मेनिया और मोल्दाविया के अतिरिक्त बेलारूस, जार्जिया और अजरबैजान पर भी सदस्य बनने के लिए डोरे डाले जा रहे हैं. आर्मेनिया, अजरबैजान और जार्जिया तो यूरोप में पड़ते ही नहीं, एशिया में पड़ते हैं, तब भी उन्हें यूरोपीय संघ की तरफ खींचा जा रहा है. रूस इसे अपनी घेरेबंदी नहीं तो और क्या माने?

रूसी चाबुक और चाशनी
विल्नियस  में 28 नवंबर के यूरोपीय शिखर सम्मेलन से कुछ ही दिन पहले रूस ने अचानक कुछ ऐसे नए नियमों की घोषणा कर दी, जिन के कारण यूक्रेन और रूस के बीच की सीमा पर ट्रांजिट यातायात लगभग ठप पड़ गया. यूक्रेन से मांस और रेलवे वैगनों का आयात भी रोक दिया गया. अस्त्र-शस्त्र बनाने वाली यूक्रेनी कंपनियों के साथ सहयोग बंद कर देने की धमकी दी गई. रूस की सरकारी गैस कंपनी ‘गाजप्रोम’ ने कहा कि यूक्रेन गैस-आपूर्ति के एक अरब अस्सी करोड़ डॉलर के बराबर बकाये का अविलंब भुगतान करे, वर्ना गैस की आपूर्ति बंद कर दी जाएगी. यूक्रेन के आर्थिक जगत और स्वयं राष्ट्रपति यानुकोविच के हाथ-पैर फूलने लगे. उन्होंने रूसी राष्ट्रपति पूतिन से कई मुलाकातें व टेलीफोन वार्ताएं कीं. आखिरकार जब उन्होंने तय कर लिया कि 28 नवंबर को वे विल्नियस  शिखर सम्मेलन में नहीं जाएंगे और यूरोपीय संघ के साथ समझौते पर हस्ताक्षर नहीं करेंगे, तब रूसी राष्ट्रपति ने भी उन्हें पुरस्कृत करने का मन बना लिया. उन्होंने आश्वासन दिया कि यूक्रेन के लिए रूसी प्राकृतिक गैस की दर एक-तिहाई घटा दी जाएगी और अपनी आर्थिक समस्याओं से निपटने के लिए उसे 15 अरब डॉलर के बराबर उदार ऋण दिए जाएंगे.

तब तक यूक्रेन की राजधानी कियेव के केंद्रीय चौक ‘मैदान’ पर उन लोगों की भीड़ जुटनी शुरू हो गई थी जो रूस और राष्ट्रपति यानुकोविच के विरोधी थे और यूरोपीय संघ के फ्रांस और जर्मनी जैसे देशों की चमक-दमक से चकाचौंध थे. इस प्रचार के बहकावे में आ गए थे कि केवल यूरोप-अमेरिका का लोकतंत्र ही मोक्ष-तंत्र है, बाकी सब परलोकतंत्र है. न तो देख पा रहे थे और न देखना चाहते थे कि यूरोपीय संघ की सदस्यता उन के देश को एक नए शीतयुद्ध के भंवर में घसीट सकती है. तीन महीनों से लगातार हर दिन भीड़ जुटती रही. चौबीसों घंटे धरने और प्रदर्शन चलते रहे. कड़ाके की सर्दी, बर्फ और बरसात की अनदेखी होती रही. सैकड़ों, हजारों, कभी-कभी एक लाखों लोग उमड़ते रहे. तोड-फोड़, आगजनी, अराजकता का राज बढ़ता गया.

क्लिच्को, तिमोशेंको और यानुकोविच
क्लिच्को, तिमोशेंको और यानुकोविच

बॉक्सिंग विश्व चैंपियन अगला राष्ट्रपति­?
भीड़ को डटे रहने का भाषण पिलाने और किंकर्तव्यविमूढ़ सरकार के साथ वार्ताएं चलाने में एक नाम सबसे नामी बन गया– विताली क्लिच्को. आयु 43 वर्ष. कद दो मीटर. हैवीवेट बॉक्सिंग के कई बार के विश्व चैंपियन. प्रथमाक्षर संक्षेप के अनुसार ‘ऊदार’ नाम की पार्टी के सर्वेसर्वा. जर्मन शहर हैम्बर्ग में एक मार्केटिंग मैनेजमेंट कंपनी ‘केएमजी’ के मालिक– और कुछ लोगों के अनुसार, यूक्रेन में जर्मनी के एजेंट भी. विताली क्लिच्को 1996 से हैम्बर्ग में रहते रहे हैं. वहां अब भी उनका एक घर है. जर्मन चांसलर अंगेला मेर्कल से भी मिलते रहते हैं. मेर्कल चाहती हैं कि वे ही यूक्रेन के अगले राष्ट्रपति बनें. जर्मनी के साथ-साथ उन्हें यूरोपीय रूढ़िवादी पार्टियों के संघ का भी आशीर्वाद प्राप्त है. जर्मनी के म्युनिक शहर में हर साल जनवरी में होने वाले अंतरराष्ट्रीय रक्षानीति सम्मेलन में इस बार अमेरिकी विदेशमंत्री जॉन केरी और नाटो के महासचिव रासमुसन सहित अनेक पश्चिमी नेता विताली क्लिच्को के साथ मिल-बैठने के लिए बेचैन होते देखे गए.

क्लिच्को और उनकी पार्टी के प्रमुख सदस्यों को राजनीति का ककहरा जर्मन चांसलर मेर्कल की पार्टी सीडीयू द्वारा संचालित ‘कोनराड आदेनाउएर प्रतिष्ठान’ ने सिखाया है. यह प्रतिष्ठान ही उनकी पार्टी को जर्मनी की ओर से ‘लॉजिस्टिक सपोर्ट’ देता है. इस ‘समर्थन’ के लिए चांसलर मेर्कल के साथ क्लिच्को की सबसे नयी मुलाकात गत 17 फरवरी को बर्लिन में हुई थी. ‘जर्मनी और यूरोपीय संघ वर्तमान संकट के एक सकारात्मक अंत के लिए योगदान देने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे,’ चांसलर मेर्कल ने क्लिच्को का मनोबल बढ़ाते हुए कहा. 2010 में उन्हें जर्मनी के एक सरकारी अलंकरण वाले क्रॉस से विभूषित भी किया जा चुका है. कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि कियेव के मैदान-चौक पर जो दंगे हुए हैं और जो खून बहा है, उन्हें विताली क्लिच्को के माध्यम से जर्मनी ने ही भड़काया है. जर्मनी क्लिच्को को यूक्रेन का वह यशस्वी नेता बनते देखना चाहता है, जो यूक्रेन को एक दिन यूरोपीय संघ की गोद में बिठा कर ही दम लेगा. चीन के बाद संसार की दूसरी सबसे बड़ी निर्यात-प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देश जर्मनी की नजर चार करोड़ 70 लाख जनसंख्या वाले यूक्रेन के उस बाज़ार पर है, जहां फिलहाल सब कुछ बेचा जा सकता है. उसके प्राकृतिक संसाधनों का निर्बाध दोहन हो सकता है. वे सस्ते इंजीनीयर, डॉक्टर तथा औद्योगिक कुशलकर्मी भी वहां मिल सकते हैं जिनकी जर्मनी में भारी कमी पड़ने वाली है.

‘अमेरिका तुम्हारे साथ है’
28 देशों वाला यूरोपीय संघ एक ऐसी मालगाड़ी है, जर्मनी जिसका इंजन है. इंजन जहां जाएगा, मालगाड़ी भी वहीं पहुंचेगी ही. बाद में अमेरिका भी वहां पहुंचने और बहती गंगा में हाथ धोने से नहीं चूकता. 1990 वाले दशक में तत्कालीन युगोस्लाविया को खंडित करने के अभियान में यह रणनीति खरी उतर चुकी है. अब बारी है सीधे रूस के पड़ोस में सेंध लगाने की. वियतनाम युद्ध में भाग ले चुके 77 वर्षीय अमेरिकी सेनेटर जॉन मैकेन ने गत दिसंबर में कियेव के मैदान-चौक पर जमा यानुकोविच-विरोधियों को संबेधित करते हुए कहा– ‘यूक्रेन के लोगों, यही मौका है! स्वतंत्र दुनिया तुम्हारे साथ है! अमेरिका तुम्हारे साथ है!’

अमेरिका  के एक भूतपर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ज़्बिग्नियेव ब्रेज़िन्स्की अपनी पुस्तक ‘द ग्रैंड चेस बोर्ड’ (शतरंज की महाबिसात) में वर्षों पहले लिख चुके हैं कि अमेरिका क्यों यूक्रेन का साथ देगा– ‘यूक्रेन के बिना रूस मिल-मिलाकर बस एक एशियाई साम्राज्यवादी देश रह जायेगा.’ मध्य एशियाई देशों के झगड़ों में घसीटे जाने का खतरा तब उस पर मंडराया करेगा. लेकिन, यदि यूक्रेन को वह अपने नियंत्रण में रख पाता है, तो वह एक ‘शक्तिशाली साम्रज्यवादी सत्ता’ कहलाएगा. ब्रेज़िन्स्की का यह कथन अमेरिका की विदेशनीति का आज भी आधारभूत सिद्धांत है. यानी, रूस को कमजोर करना है, तो बस यूक्रेन को उससे अलग कर दो.

भाड़े के क्रांतिकारी
जर्मनी और यूरोप के ही नहीं, अमेरिका के भी दर्जनों सरकारी और गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) कियेव में दंगाइयों की भीड़ जमा करने, भीड़ को खिलाने-पिलाने और घायलों की दवा-दारू के लिए खुले हाथ पैसे लुटा कर यही कर रहे हैं. ऐसे ही एक धन्नासेठ जॉर्ज सोरोस ने एक ऑनलाइन पत्रिका से कहा कि उनके बनाए ट्रस्ट स्लोवाकिया में व्लादीमीर मेचियर, क्रोएशिया में फ्रान्यो तुजमान और युगोस्लाविया में स्लोबोदान मिलोशेविच को गिराने में हाथ बंटा चुके हैं. उनका ‘ओपन सोसायटी फाउन्डेशन’ अब यही काम यूक्रेन में कर रहा है. अमेरिका की पूर्व विदेशमंत्री मैडलेन ऑल्ब्राइट जैसे बहुत से वर्तमान या पुराने सरकारी प्रतिनिधियों सहित अनेक नामी-गिरामी लोग इस फाउंडेशन को अपना सहयोग देते हैं. कोका-कोला, एक्सन मोबाइल या वॉशिंगटन टाइम्स जैसी बड़ी-बड़ी कंपनियां भी किसी-न-किसी ट्रस्ट, फाउन्डेशन या एनजीओ की आड़ लेकर यूक्रेन में सक्रिय हैं.

कहने की आवश्यकता नहीं कि बाहर से जो स्वतःस्फूर्त जन-आन्दोलन लगता है, वह भीतर से पूर्व-पश्चिम शीतयुद्ध वाले दिनों को पुनर्जीवित करने की सुनियोजित योजना है. फिलहाल यह योजना सफल होती लग रही है. पश्चिमी गुट का पलड़ा भारी है. लेकिन, इस गुट के प्रमुख देश जर्मनी की ही कहावत है, ‘शाम बीतने से पहले दिन की प्रशंसा नहीं करनी चाहिये.’ वैसे भी, देखने में यही आता है कि सत्ता-पलट क्रांतियां अंततः भ्रांतियां ही सिद्ध होती हैं.

फैसलों का भविष्य

दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग (बाएं) और अरविंद केजरीवाल
दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग (बाएं) और अरविंद केजरीवाल

यूं तो देश के सभी राज्यों की भांति केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली का बजट भी आम तौर पर वहां की विधान सभा में ही पास होता है. लेकिन राष्ट्रपति शासन लागू होने की स्थिति में राज्यों के साथ ही दिल्ली का बजट बनाने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार के हाथों में आ जाती है. लिहाजा केजरीवाल सरकार के इस्तीफे और फिर राष्ट्रपति शासन लग जाने के चलते इस बार दिल्ली का बजट संसद में पास हुआ. इस बजट के जरिए केंद्र सरकार ने अगले एक साल तक दिल्ली के लिए बहुत सी योजनाओं का खाका खींच लिया है. लेकिन उसने चंद दिन पुरानी दिल्ली सरकार के एक ऐसे फैसले को इस बजट में जगह नहीं दी जो आने वाले दिनों में पूरी दिल्ली का सियासी पारा बढा सकता है. केंद्र सरकार ने दिल्ली की पूर्ववर्ती केजरीवाल सरकार द्वारा घोषित उस बिजली सब्सिडी के प्रावधान को इस बजट से बाहर कर दिया है जिसके सहारे आम आदमी पार्टी की सरकार ने दिल्ली की जनता को बिजली के दामों में पचास फीसदी रियायत बख्शी थी. केंद्र ने दिल्ली के लिए वित्तीय वर्ष 2014-15 की पहली छमाही के लिए पारित किए गए लेखानुदान प्रस्ताव में आगामी पहली अप्रैल से बिजली की सब्सिडी देने का प्रावधान नहीं रखा है. जबकि इस सब्सिडी को अलगे छह महीने तक बरकरार रखने के लिए दिल्ली सरकार ने लेखानुदान मांग के जरिए केंद्र से गुजारिश भी की थी. वित्त राज्यमंत्री नमो नारायण मीणा ने राज्यसभा में कहा कि केजरीवाल सरकार ने जिन सब्सिडियों की घोषणा की थी, उनके लिए नए बजट में कोई आवंटन नहीं किया गया है.

इस तरह केंद्र के इस फैसले के बाद साफ हो गया कि चार दिनों की चांदनी के बाद आगामी एक अप्रैल से दिल्ली के साढ़े 34 लाख उपभोक्ताओं को बिजली के बढ़े हुए दाम चुकाने होंगे. इस फैसले से आम आदमी पार्टी आगबबूला हो गई और उसने इसे कांग्रेस और भाजपा की मिलीभगत बता दिया. केंद्र सरकार से नाराज पार्टी का सवाल था कि जब दिल्ली के 90 फीसदी विधायक बिजली बिल में 30 फीसदी कमी करने के हिमायती थे तो ऐसे में सब्सिडी खत्म करने का क्या आधार था. गौरतलब है कि भाजपा ने भी अपने चुनावी घोषणापत्र में बिजली दरों में 30 फीसदी कमी करने की बात कही थी. उधर, कांग्रेस और भाजपा ने इसका ठीकरा केजरीवाल सरकार के 49 दिनों के कार्यकाल पर फोड़ना शुरू कर दिया.

तीनों पार्टियों के बीच छिड़े इस वाक युद्ध नें अभी गर्मी पकड़ी ही थी कि एक और खबर ने इस आग में घी उड़ेल दिया. इस खबर का ताल्लुक भी बिजली को लेकर आम आदमी पार्टी के एक दूसरे फैसले से था. लेकिन इस बार खबर संसद के बजाय न्यायपालिका के रास्ते से आई. 21 फरवरी को दिल्ली हाईकोर्ट ने राजधानी की सरकार को निर्देश दिया कि वह अक्तूबर 2012 से दिसंबर 2013 तक के बिजली बिल नहीं चुकाने वाले उपभोक्ताओं को दी गई 50 फीसदी माफी को लागू न करे. यह वह छूट थी जिसे केजरीवाल सरकार ने पिछले साल आंदोलन के दौरान बिजली के बिल नहीं भरने वाले तकरीबन 24 हजार लोगों के लिए लागू किया था. गौरतलब है कि दिल्ली में कांग्रेस पार्टी की सरकार के दौरान आम आदमी पार्टी जब बिजली को लेकर आंदोलन कर रही थी तो उसने लोगों से बढ़े हुए बिल नहीं देने की अपील की थी. इसके बाद कई लोगों ने बिजली के बिल जमा नहीं कराए थे. सत्ता में आने के बाद केजरीवाल सरकार ने इन लोगों के बिलों में 50 फीसदी छूट का फैसला किया था. लेकिन अब हाई कोर्ट ने इस छूट को खत्म करके पूरा बिल वसूलने का आदेश सरकार को दे दिया है.

इस तरह देखा जाए तो बिजली जैसे मुद्दे को लेकर लिए गए केजरीवाल सरकार के दो अहम फैसले एक ही दिन में पलट गए. इसके अलावा दिल्ली की इस भूतपूर्व हो चुकी सरकार का 700 लीटर मुफ्त पानी देने का फैसला भी खतरे की जद में बताया जा रहा है. क्योंकि संसद में पास हुई दिल्ली सरकार की लेखानुदान मांगों में इस सब्सिडी को भी शामिल नहीं किया गया है. ऐसे में बिजली वाले फैसले की भांति इसकी मियाद भी 31 मार्च तक सिमटनी तय लग रही है. जानकारों की मानें तो जब तक दिल्ली में नई सरकार का गठन नहीं हो जाता तब तक सब्सिडी समेत दूसरे सभी फैसलों को लागू रखने के लिए केंद्र का फैसला ही बरकरार रहेगा. ऐसे में केजरीवाल सरकार के कार्यकाल के दूसरे कई फैसलों का भविष्य भी खतरे में दिख रहा है.

दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर पुष्पेश पंत की मानें तो केजरीवाल सरकार के फैसलों को बदला जाना किसी भी नजरिए से अप्रत्याशित नहीं माना जाना चाहिए. वे कहते हैं, ‘केजरीवाल सरकार के फैसले पलटकर कांग्रेस पार्टी अपनी उस गलती को सुधारने की कोशिश कर रही है जो उसने अाप को समर्थन देकर की थी. बहुत संभव है कि बिजली पानी के बाद केंद्र केजरीवाल के दूसरे फैसलों को भी बदल दे, लेकिन यह भी साफ है कि इस तरह की हरकतों से नुकसान उसको ही उठाना पड़ेगा.’

केजरीवाल सरकार द्वारा लिए गए फैसलों के जारी रहने या खारिज हो जाने की संभावनाओं और आशंकाओं के बीच एक सरसरी नजर उसके 49 दिनों के कामकाज पर दौड़ाते हैं. 28 दिसंबर 2013 को रामलीला मैदान में शपथ लेने वाली आम आदमी पार्टी की सरकार ने अपने ड्रीम प्रोजेक्ट यानी जनलोकपाल बिल के मुद्दे पर 14 फरवरी को इस्तीफा दे दिया था. तमाम विवादों के बावजूद इस बहुत छोटे कार्यकाल में केजरीवाल सरकार ने कुछ उल्लेखनीय निर्णय भी लिए. इनमें वीआईपी कल्चर खत्म करने, भ्रष्टाचार रोकने के लिए हेल्पलाइन चलाने, बिजली-पानी के दाम घटाने और बिजली कंपनियों का आडिट करने जैसे निर्णय थे. साथ ही कॉमनवेल्थ खेलों में भ्रष्टाचार के आरोपों पर पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और गैस के दामों में गड़बड़ी की शिकायत पर मुकेश अंबानी से लेकर केंद्रीय मंत्री वीरप्पा मोइली तक के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के आदेश देने जैसे अहम फैसले भी थे. इसके अलावा महिलाओं और बुजुर्गों की सुरक्षा के लिए सुरक्षा दल बनाने तथा संविदा कर्मियों के नियमितीकरण को लेकर भी आम आदमी पार्टी की सरकार कुछ कदम बढ़ा चुकी थी. लेकिन अब उसके इस्तीफे और फिर दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लग जाने के बाद इन फैसलों के भविष्य को लेकर सवाल खड़े होने शुरू हो गए हैं.  बिजली-पानी के फैसलों को लेकर जिस तरह पहले केंद्र सरकार और फिर हाईकोर्ट का फैसला आया है उसे देखते हुए इन फैसलों के पूरे होने पर भी संदेह बढ़ने लगा है. हालांकि केजरीवाल सरकार के इस्तीफे के बाद उप राज्यपाल नजीब जंग आम आदमी पार्टी की सरकार के आदेशों को जारी रखने की बात कही थी. सरकार के इस्तीफे के फौरन बाद उन्होंने दिल्ली सरकार के उच्च अधिकारियों के साथ एक बैठक भी की जिसके बाद केजरीवाल सरकार के आदेशों को जारी रखने का फैसला लिया गया. उपराज्यपाल ने जन शिकायत प्रकोष्ठ व एंटी करप्शन हैल्पलाइन को जारी रखने के निर्देश देकर इस बात के संकेत भी दिए हैं. लेकिन जानकारों का मानना है कि इन संकेतों के बावजूद बहुत संभव है कि केजरीवाल सरकार के हल्के-फुल्के आदेशों को ही लागू रखा जाएगा जबकि बड़े फैसलों को रोल बैक या फिर स्लो मोशन वाले काम चलाऊ तरीके से निपटाया जा सकता है. कानूनी पहलुओं की पड़ताल करने पर जो पता चलता है उसका लब्बोलुआब यही है कि उप राज्यपाल और केंद्र सरकार ही अब दिल्ली को लेकर कोई फैसला करने के अधिकारी हैं. संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप कहते हैं, ‘किसी भी राज्य अथवा केंद्र शासित प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगने की स्थिति में सरकारी फैसले लेने का अधिकार राज्यपाल अथवा उप राज्यपाल के पास रहता है. इसके अलावा केंद्र सरकार चाहे तो जरूरी समझे जाने पर उनके फैसलों में फेरबदल कर सकता है. इस लिहाज से देखा जाए तो दिल्ली को लेकर किसी भी तरह के फैसले लेने की ताकत इस वक्त उप राज्यपाल नजीब जंग के पास ही है और अगर केंद्र सरकार चाहे ते उनके फैसलों को बदल भी सकती है.’ दिल्ली की वर्तमान संवैधानिक परिस्थितियों के संदर्भ में देंखे तो बिजली पानी के दामों पर उप राज्यपाल द्वारा केंद्र को भेजी गई लेखानुदान मांग का जो हश्र हुआ है वह सुभाष कश्यप की बातों को साफ तौर पर सिद्ध करता नजर आता है. ऐसे में इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भले ही आम आदमी पार्टी की सरकार के बाकी फैसलों को सर के बल खड़ा न किया जाए लेकिन उन्हें तिरछा कर लटकाया तो जा ही सकता है. आम आदमी पार्टी भी इस आशंका से इंकार नहीं कर रही है. पार्टी प्रवक्ता गोपाल राय का कहना है कि पार्टी उपराज्यपाल के सभी आदेशों पर लगातार नजर रखे हुए है और सरकार द्वारा जनहित में लिए गए फैसलों को लेकर किसी भी तरह का रोल बैक मंजूर नहीं किया जाएगा. उनका यह भी कहना था कि बिजली और पानी को लेकर केजरीवाल सरकार के फैसले को बरकरार रखा जाना चाहिए था.

बिजली और पानी को लेकर केंद्र सरकार के रोल बैक के बाद आम आदमी पार्टी द्वारा लिए गए ऐसे दूसरे प्रमुख फैसलों पर नजर डालते हैं जिनके भविष्य को लेकर आशंका नजर आती है.

अस्थाई कर्मियों का नियमितीकरण
दिल्ली में अलग-अलग सरकारी विभागों में तकरीबन ढाई लाख कर्मचारी अस्थाई तौर पर काम करते हैं. ये लोग काफी समय से नौकरी स्थाई किए जाने या नियमितीकरण की मांग कर रहे हैं. आम आदमी पार्टी ने इस मुद्दे को अपने घोषणापत्र में प्रमुखता से शामिल भी किया था. सरकार में आने के बाद केजरीवाल सरकार ने ठेके पर काम करने वाले लोगों को नियमित करने के लिए एक उच्च स्तरीय कमेटी का गठन किया. तत्कालीन लोक निर्माण मंत्री मनीष सिसोदिया का कहना था कि यह कमेटी ढाई लाख लोगों को नहीं, बल्कि इन ढाई लाख पदों को नियमित करेगी. इस कमेटी को एक महीने के अंतर्गत अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपनी थी. लेकिन अब सरकार के इस्तीफे के बाद इस कमेटी और उसकी रिपोर्ट को लेकर अनिश्चितता  है. क्योंकि सवाल यह है कि अगर यह कमेटी नियत समय में अपनी रिपोर्ट सौंप भी देती है तब भी उस रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई कर पाना मुश्किल होगा. जानकारों की मानें तो जब तक नई सरकार का गठन नहीं होता इस रिपोर्ट पर कोई एक्शन नहीं लिया जा सकता. वैसे भी अगले कुछ दिनों में लोकसभा चुनाव से संबंधित अधिसूचना जारी होने वाली है लिहाजा तब तक कोई नया फैसला संभव नहीं लगता.

सुरक्षा दस्ता बनाने की घोषणा
महिलाओं और वरिष्ठ नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आप ने चुनाव प्रचार के दौरान महिला सुरक्षा दल के गठन का वादा किया था. सरकार में आने के बाद इस वादे पर अमल करते हुए केजरीवाल सरकार ने मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया. इस समिति में गृह सुरक्षा के महानिदेशक, महिला एवं बाल विकास विभाग के निदेशक के साथ ही दूसरे क्षेत्रों के विशेषज्ञों को शामिल किया गया. लेकिन यह कमेटी अपना काम शुरू करती इससे पहले ही सरकार चली गई. हालांकि उपराज्यपाल के आदेश के मुताबिक सरकारी विभागों में ठेके पर काम कर रहे कर्मचारियों को नियमित करने व महिला सुरक्षा दल पर सिफारिश देने के लिए गठित की गई कमेटियां अपना काम करती रहेंगी, लेकिन माना जा रहा है कि  इन कमेटियों की सिफारिशों का भविष्य नई सरकार के आने के बाद ही तय होगा. इन कमेटियों द्वारा दी गई संस्तुतियों के पक्ष में एक संभावना यह भी है कि उप राज्यपाल नजीब जंग इसके लिए केंद्र सरकार से अनुरोध करें. लेकिन केंद्र इसकी मंजूरी देगा या नहीं यह उसके विवेक पर निर्भर करेगा. सुभाष कश्यप कहते हैं, ‘उप राज्यपाल और केंद्र सरकार चाहे तो खुद ही इन पर कोई निर्णय ले सकती है या फिर इन्हें नई सरकार के लिए छोड़ सकती है’. यहां एक दिलचस्प तथ्य यह भी गौर करने वाला है कि दिल्ली के उप राज्यपाल द्वारा बिजली और पानी की सब्सिडी जारी रखने के हालिया अनुरोध को केंद्र पहले ही टरका चुका है.

दीक्षित, मोइली और अंबानी  के खिलाफ जांच
दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले आम आदमी पार्टी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पर कामनवेल्थ खेलों के दौरान घपले करने का आरोप लगाया था. पार्टी का कहना था कि यदि उनकी सरकार बनी तो दीक्षित के खिलाफ जांच की जाएगी. सत्ता में आने के बाद पार्टी ने इस दिशा में कदम भी बढ़ाया और कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान लगाई गईं स्ट्रीट लाइटों की खरीद में हुए घोटाले में तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी. इसके अलावा आप सरकार ने प्राकृतिक गैस की कीमतों में गड़बड़ी के आरोपों के आधार पर कांग्रेस पार्टी के साथ ही देश के सबसे बड़े औद्योगिक घराने यानी रिलायंस इंडस्ट्रीज से भी सीधी टक्कर ली. एक शिकायत के आधार पर मुख्यमंत्री केजरीवाल ने मुकेश अंबानी, केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली, पूर्व पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा सहित चार लोगों के खिलाफ मुकदमे दर्ज कराने के आदेश दिए. दिल्ली सरकार की एंटी करप्शन ब्रांच ने इन मामलों में जांच शुरू कर दी थी. लेकिन अब केजरीवाल के इस्तीफे के बाद इन मामलों की जांच की रफ्तार को लेकर सूबे की नौकरशाही में अंदरखाने बहुत सारी चर्चाएं चल रही हैं. नाम न बताने की शर्त पर दिल्ली सरकार के एक अधिकारी का कहना है कि भले ही भ्रष्टाचार निरोधक शाखा अपनी जांच जारी रखे लेकिन निजाम बदलने का असर जरूर पड़ सकता है. इस बात की संभावना इसलिए भी बहुत हद तक बलवती दिख रही है कि दिल्ली सरकार की जिस एंटी करप्शन ब्रांच ने गैस की कीमतें बढ़ाने की साजिश रचने के मामले में केंद्रीय मंत्री वीरप्पा मोइली, मुकेश अंबानी, और मुरली देवड़ा समेत अन्य के खिलाफ एफआईआर दर्ज की है उसी एंटी करप्शन ब्रांच ने समान प्रकृति के एक दूसरे मामले को अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर बता कर जांच करने से हाथ खड़े कर दिए हैं. दरअसल कुछ दिन पहले एक व्यक्ति ने दिल्ली सरकार के एंटी करप्शन ब्यूरो में केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे के खिलाफ एक शिकायत दर्ज की थी.यह शिकायत पूर्व गृह सचिव आरके सिंह द्वारा शिंदे के खिलाफ लगाए गए उन आरोपों के आधार पर की गई थी जिनके मुताबिक एसएचओ के तबादलों के लिए गृह मंत्री के दफ्तर से दिल्ली पुलिस कमिश्नर को पर्चियां भेजी जाती थीं. शिकायतकर्ता ने शिंदे के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मांग की थी. लेकिन एंटी करप्शन ब्यूरो ने एफआईआर दर्ज करने के बजाय उस शिकायत को दिल्ली सरकार के सतर्कता निदेशालय के पास भेज दिया. बाद में इस बाबत जानकारी मांगी गई तो एंटी करप्शन ब्रांच का कहना था कि केंद्रीय मंत्रियों के खिलाफ शिकायत की जांच करना उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है. ऐसे में बहुत संभावना है कि मोइली और देवड़ा के खिलाफ जांच को लेकर भी ऐसा रुख अपनाया जा सकता है. हालांकि इस दशा में आम आदमी पार्टी के पास अदालत का दरवाजा खटखटाने का विकल्प होगा, लेकिन ऐसा होने के बाद इस जांच प्रक्रिया में तेजी आने की संभावना ढीली पड़नी निश्चित है.

इन फैसलों के अलावा रिटेल सेक्टर में एफडीआई को मंजूरी न देने वाले केजरीवाल सरकार के फैसले को लेकर भी राजनीतिक पंडित ‘न’ होने की संभावना से इंकार नहीं कर रहे हैं. गौरतलब है कि तमाम राज्यों के विरोध के बावजूद केंद्र सरकार एफडीआई की जम कर पैरवी करती रही है. दिल्ली में शीला दीक्षित सरकार ने भी केजरीवाल के आने से पहले एफडीआई को मंजूरी दी थी. इसके अलावा 1984 के सिख विरोधी दंगों की जांच के लिए केजरीवाल सरकार द्वारा एसआईटी जांच की मांग उप राज्यपाल द्वारा मान लिए जाने के बाद भी इसकी रफ्तार पर कुछ नहीं कहा जा सकता. इस मामले में गौर करने वाली बात यह भी है कि केजरीवाल सरकार द्वारा एसआईटी की मांग का उस वक्त कांग्रेस विधायकों ने विरोध किया था.

जेएनयू में समाजशास्त्र के प्रोफेसर और कुछ ही समय पहले आम आदमी पार्टी से जुड़ने वाले प्रोफेसर आनंद कुमार कहते हैं, ‘बिजली पानी पर लिए गए आप सरकार के अहम फैसलों के पलट जाने के बाद अगर सरकार के कुछ और फैसलों पर  कैंची चलती है तो जाहिर तौर पर कांग्रेस और भाजपा इसे केजरीवाल सरकार की नाकामी के रूप में ही प्रचारित करेंगे. लेकिन दिल्ली की जनता इसकी असल वजह अच्छे से समझ चुकी है.’  वे बात आगे बढ़ाते हैं, ‘आम आदमी पार्टी इन सभी मुद्दों पर जनता के बीच जाने को तैयार है. हालांकि पार्टी के सामने बड़ी चुनौती यह भी है कि वह अपने पक्ष में बने जनता के भरोसे को  बचा कर रखे.’

प्रोफेसर आनंद कुमार की बातों को सच माना जाए तो यह भी एक बड़ी वजह है जिसके चलते आप अपने दूसरे फैसलों के भविष्य को लेकर सशंकित है. पार्टी का मानना है कि उसके कार्यकाल में लिए गए निर्णयों को बदले जाने की सूरत में भाजपा और कांग्रेस इसकी जिम्मेदारी उसके सर पर ही डालेगी. इन सब बातों के निकलने वाले नफे नुकसान को ध्यान में रखते हुए पार्टी ने दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लागू किए जाने के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है. पार्टी की तरफ से दायर याचिका में कहा गया है कि यह फैसला न सिर्फ मनमाना व अवैध है बल्कि दिल्ली के नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन भी है. पार्टी ने याचिका के जरिए दिल्ली में जल्द से जल्द चुनाव कराने की मांग भी की है. आम आदमी पार्टी की इस याचिका को सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से 10 दिनों में जवाब मांगा है. इस मामले में अगली सुनवाई सात मार्च को होनी है. इस तरह देखा जाए तो सात मार्च का दिन दिल्ली सरकार के फैसलों के संदर्भ में कई मायनों में महत्वपूर्ण साबित हो सकता है.

कुल मिलाकर देखा जाए तो केजरीवाल सरकार द्वारा लिए गए फैसलों को लागू करने का पूरा जिम्मा आम आदमी पार्टी के हाथों से निकल कर दिल्ली के उप राज्यपाल और केंद्र सरकार के दरबार में पहुंच चुका है.इन दोनों के साथ आम आदमी पार्टी के संबंध कितने मधुर हैं, जन लोकपाल बिल को लेकर केजरीवाल सरकार का इस्तीफा इस बात का प्रमाण पहले ही दे चुका है.

पिसी हुई सफेद शक्कर वाले बूरे के साइड इफेक्ट्स

िफल्म » शादी के साइड इफेक्ट्स
फिल्म » शादी के साइड इफेक्ट्स
निदेर्शक» साकेत चौधरी
लेखक » साकेत चौधरी, जीित लखािी
कलाकार » फरहाि अख्तर, विद्या बालन, राम कपूर, वीर
दास, पूरब कोहली

खराब फिल्म के साइड इफेक्ट्स कई सारे होते हैं. वक्त का जाया होना आखिर में आता है. उससे पहले आपके लिए फरहान अख्तर साधारण हो जाते हैं. हिंदी फिल्मों की हीरोइन होने के लिए वर्णित नियमों के विरोध में खड़ी विद्या बालन तारीफ के काबिल नहीं लगती. यह भी समझ नहीं आता कि अब जो वे कर रही हैं वह विरोध है या किसी भी तरह से खुद को न बदलने की हठ. इसके बाद इस औसत फिल्म के सामने आपको छह-आठ साल पुरानी एक फिल्म ज्यादा याद आने लगती है जिसे आप पूरी तरह भूल चुके हैं, जो खुद भी कुछ खास नहीं थी, लेकिन इस फिल्म को देखते हुए जब भी वो याद आती है, और उसके थोड़े-छोटे हिस्से, तो वे पर्दे पर चलने वाले दृश्यों से ज्यादा हंसाते है. आधिकारिक तौर पर आज वाली फिल्म उस फिल्म का सीक्वल है, लेकिन कहानी तो छोड़िए हास्य के स्तर पर भी यह फिल्म ‘प्यार के साइड इफेक्ट्स’ जैसी नहीं है. इस फिल्म के साइड इफेक्ट्स की तुलना असल जिंदगी में लोकल सफेद शक्कर को सिर्फ पीसकर बनने वाले बूरे से बने लड्डू से की जा सकती है. कितना भी घी डाल लो, बेसन चक्की जाकर पिसवालो, सफेद पिसी शक्कर के लोकल बूरे के बने लड्डू और खांड के बूरे के बने लड्डू कभी एक नहीं होते!

फिल्म कुछ जगह हंसाती जरूर है. अच्छे से. फरहान के खड़े चेहरे से उपजे संवादों से. लेकिन फरहान अख्तर राहुल बोस नहीं है. उनका हास्य कहीं उखड़ा है कहीं सुस्त है. उनमें उस स्तर की स्वाभाविकता और अप्रत्याशित होने की कला नहीं है जिससे हास्य ज्यादा रोचक बनता है. हालांकि वे कहीं-कहीं अच्छे हैं और जहां अच्छे हैं, और उनके पास अच्छे संवाद हैं, मजा आता है. लेकिन जहां इन सब की कमी है और विद्या साधारण हैं, वहां फिल्म रुक कर खड़ी हो जाती है. और वो कई बार रुकती है, खड़ी होती है. फिल्म के पास कोई खास साइड किरदार भी नहीं है, मजेदार वीर दास को छोड़कर, जो कहानी को थोड़ा अगल-बगल करें. सभी मुख्य किरदारों के जीवन की धुरी, एक बार फिर वीर दास को छोड़कर, शादी और बच्चे हैं. शादी और बच्चों के मामले में भी फिल्म का नजरिया जरूरत से ज्यादा मर्दों वाला है. उसे महिलाओं को स्टीरियोटाइप कर शिकायती पत्नी बनाकर ही हास्य उत्पन्न करने की विधा का ज्ञान है. उसे पत्नी के नजरिए से कहानी कहने में दिलचस्पी नहीं है. और वैसे तो एक शोध के अनुसार ऑस्कर के लिए नामित इस साल की ज्यादातर इंग्लिश फिल्मों में हीरोइनों को हीरो की तुलना में औसतन बेहद कम स्क्रीन स्पेस मिला है, उतना कम जितना हमारी फिल्मों में महिला किरदारों को हमेशा से मिलता रहा है और इसलिए उस पर हर बार कुछ कहना बात का वजन कम करना ज्यादा है, लेकिन फिर भी शादी और बच्चों पर निर्भर एक फिल्म को अपनी हीरोइन के नजरिए को नजरअंदाज नहीं करना था. कम से कम उस नजर का हास्य ही तलाश लेना था.

फिल्म इंटरवल से पहले वाले भाग में औसत से बेहतर है. दूसरे भाग में वो कामेडी और फलसफे को मिलाने की नाकाम कोशिश में विद्या को एक बार फिर से घनचक्कर बनाती है. फिल्म के पास कहने के लिए भी एक ही बात है जिसके आस-पास उसे आग जला कर नाचना है. और उसकी आग पीली नहीं है. इसलिए धधकती नहीं है. रोचक नहीं है.

कसमें, वादे प्यार, वफा सब…

फोटोः कृष्ण मुरारी ‘ककशन’
फोटोः कृष्ण मुरारी ‘किशन’

लोकसभा चुनाव के ठीक पहले बिहार में राजनीति जैसे अनायासी मुद्रा में है. सबकुछ अनायास हो रहा है. कहीं अब तक किसी की नजर में चढ़े रहे अचानक उसकी नजर में बस जा रहे हैं तो कहीं इसका उलटा हो रहा है. रातों-रात खेल बदल देने का खेल चल रहा है. सभी दलों की धुकधुकी बढ़ी हुई है. कल क्या होगा, किसी को पता नहीं.

सत्ताधारी जदयू की ही बात करें. दल के कई नेता राज्यसभा जाने के लिए बेचैन थे. सूत्रों की मानें तो कुछ ने अपनी सीट पक्की मानकर पार्टी वगैरह भी दे दी थी. लेकिन नीतीश कुमार ने रातों-रात पासा पलटते हुए तीन ऐसे लोगों को अपनी पार्टी की ओर से राज्यसभा भेज दिया जिनकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी.

दूसरी तरफ लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) और उसके मुखिया रामविलास पासवान हैं. करीब एक दशक पहले वे नरेंद्र मोदी के नाम पर ही एनडीए से अलग हुए थे. उसके बाद उन्होंने पिछले नौ साल से लालू प्रसाद और कांग्रेस के साथ फेवीकोल टाइप जोड़ बनाया हुआ था. कुछ दिनों पहले उन्होंने दिल खोलकर नीतीश कुमार की तारीफ की थी और नीतीश ने उनकी. इससे कुछ दूसरी संभावनाओं के संकेत भी मिले थे. लेकिन वह सब दिखावे की कवायद साबित हुई. पासवान आज अपने पुराने दुश्मन नरेंद्र मोदी को ही प्रधानमंत्री बनवाने के अभियान में अपने भाई,  बेटे आदि के साथ पूरी ऊर्जा लगाने के लिए तैयार हो चुके हैं.

इस सबके बीच सबसे बड़ा सियासी खेल लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) में हुआ. रातों-रात पार्टी के 13 विधायकों के टूटने की खबर जंगल में आग की तरह फैली. राजनीतिक गलियारों में  दिन भर गहमागहमी रही कि राजद के 22 में से 13 विधायकों ने अलग गुट बनाकर जदयू का साथ दे दिया है. लेकिन  शाम होते-होते छह विधायक फिर राजद के ही कार्यालय में पहुंचकर प्रमाण देने में लग गए कि वे हर तरह से लालू प्रसाद के साथ हैं. जब यह खबर सामने आई थी तो लालू दिल्ली में थे. उधर, पटना में नीतीश कुमार तो उस पर चुप्पी साधे रहे लेकिन जदयू के सिपहसालार बयान पर बयान देते रहे कि इसमें हर्ज क्या है, अनैतिक क्या है,  हर दल अपनी मजबूती चाहता है, हमने भी चाही तो गलत क्या?

लेकिन जदयू नेता ऐसे बयान दिन भर ही दे सके. शाम होते-होते बाजी बदलने लगी.  लालू के खेमे से नीतीश के खेमे में गए या ले जाए गए विधायक वापस अपने कुनबे यानी राजद में लौटने लगे. शाम तक छह लौटे और अगले दिन लालू प्रसाद के दिल्ली से लौटते ही संख्या छह से नौ हो गई. जदयू की बोलती बंद हुई और छीछालेदर करने-कराने का एक नया सिलसिला शुरू हुआ.

आने वाले समय में और भी उथलपुथल के संकेत मिल रहे हैं. सूत्र बता रहे हैं कि जिस तरह से राजद में तूफानी गति से विद्रोह के संकेत मिले हैं वैसा ही कुछ भाजपा में भी दिख सकता है. संभावित लोजपा-भाजपा गठबंधन को लेकर बिहार भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री अश्विनी कुमार चौबे विरोध जताकर इसके संकेत दे चुके हैं. बताया जाता है कि भाजपा के कई नेता जदयू से अलगाव के बाद लोकसभा चुनाव लड़ने के आकांक्षी हैं. लोजपा को सीटें देने पर उनकी उम्मीदें टूटेंगी तो वे बगावत की राह अपना सकते हैं.

इस सबके बीच बिहार में वाम दलों के बीच बंटवारा तो साफ-साफ हो ही चुका है. कुछ माह पहले तक पानी पी-पी कर बिहार सरकार को कोसने वाले भाकपा और माकपा जैसे दो बड़े वाम दल जदयू की शरण में जा चुके हैं. बिहार में तीसरा वाम दल भाकपा माले जदयू,  भाजपा के साथ अपनी बिरादरी के इन दो वाम दलों से भी लड़ने की तैयारी में है. सियासत के ऐसे पेंच बिहार में रोज-ब-रोज फंस रहे हैं. इन सबके बीच आम आदमी पार्टी, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी जैसे दलों की उछलकूद का अपना गुणा-गणित है.

Nitish

अब सवाल यह उठता है कि सियासत के इस खेल में फिलहाल पेंच फंसा कर आगे की योजना पर काम कर रहे दलों को दो माह बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में वाकई उतना फायदा भी होगा या फिर दांव उलटा भी पड़ सकता है. सवाल और भी हैं. मसलन क्या भाजपा का दामन थामकर लोजपा और पूर्व राज्यसभा सांसद उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का बेड़ा पार होगा? क्या ये नये संगी-साथी भाजपा को भी फायदा दिला पाने की स्थिति में होंगे? नीतीश कुमार की पार्टी जदयू क्या राजद तोड़फोड़ प्रकरण के बाद मजबूत होने की ओर बढ़ेगी या फिर इस घटना से पार्टी की छवि और साख पर उलटा बट्टा ही लगेगा? पुराने साथी रामविलास पासवान का साथ छूटने और इकलौती बड़ी राजनीतिक ख्वाहिश के तौर पर कांग्रेस का साथ मिलने के बाद लालू प्रसाद की पार्टी राजद को फायदा होगा या नुकसान? और सवाल यह भी है कि बिहार में सीटों की राजनीति में हाशिये पर पहुंच चुके दोनों प्रमुख वाम दल भाकपा और माकपा क्या नीतीश का साथ मिलने के बाद फिर से उठ खड़े होंगे या यह कवायद फुस हो जाएगी. बड़ा सवाल यह भी है कि क्या विशेष राज्य दर्जे की मांग को फिर मुद्दा बनाने की तैयारी में जुटी जदयू इस काठ की हांडी को फिर से चढ़ा पाने की स्थिति में आ जाएगी. और क्या फेडरल फ्रंट की जिस कवायद में नीतीश कुमार इन दिनों दिन-रात एक किए हुए हैं, उसका असर बिहार की सियासत पर भी पड़ेगा?

तो ऐसे तमाम सवाल हैं. लेकिन निश्चित जवाब किसी सवाल का नहीं मिलता. जवाब के रूप में तरह-तरह के अनुमान और आकलन मिलते हैं. एक-एक करके समझने की कोशिश करते हैं.

लालू और उनकी पार्टी का क्या होगा?
बिहार के सियासी गलियारे में जो कुछ हालिया दिनों में हुआ, उसमें सबसे चर्चित मामला रहा लालू प्रसाद की पार्टी राजद के 13 विधायकों द्वारा हस्ताक्षर कर अलग गुट बनाते हुए जदयू को समर्थन देना. हालांकि डैमेज कंट्रोल करते हुए लालू ने 24 घंटे से भी कम समय में इन 13 में से नौ विधायकों को वापस लाकर सबके सामने खड़ा कर दिया. एक तरीके से उन्होंने नीतीश कुमार की पार्टी जदयू के अभियान पर न सिर्फ ब्रेक लगाया बल्कि अरसे बाद जदयू को जवाब भी दिया. लेकिन जानकारों की मानें तो राजद में ऐसा होना पहले से ही रसातल में पहुंच चुकी पार्टी के लिए खतरनाक संकेत लेकर आया है. नौ की वापसी के बाद भी कुल 22 विधायकों वाली पार्टी के पास अब फिलहाल 18 विधायक ही बच गए हैं. यानी डैमेज कंट्रोल के बाद भी उसे चार का झटका लगा. जदयू के कोटे से विधानसभा अध्यक्ष ने गड़बड़ी कर राजद विधायकों के गुट को मान्यता दी है, यह सब जानते हैं. लेकिन यह बात भी सामने आ रही है कि यह सब खेल राजद के एक विधायक सम्राट चौधरी का है जिन्होंने खुद खगड़िया से लोकसभा टिकट पाने और अपने पिता शकुनी चौधरी को विधान परिषद का सभापति बनवाने के लिए जदयू के पक्ष में खेल किया.

Paswanबात इतनी ही नहीं है. इस खेल में जदयू के अलावा राजद के कुछ दूसरे नेताओं की मिलीभगत की बात भी कही जा रही है. लालू प्रसाद अपने विधायकों के तोड़े जाने के बाद जोश में हैं. वे रिक्शे से राजभवन जाकर नए नारे और जुमले चला चुके हैं. राजद जागा, नीतीश भागा तक के नारे.

बेशक नौ विधायकों को वापस करा लेना लालू प्रसाद के लिए कोई मामूली सफलता नहीं है और नीतीश की पार्टी के लिए कोई मामूली विफलता भी नहीं, लेकिन क्या इतने से ही लालू प्रसाद की पार्टी का लोकसभा में बेड़ापार होगा? राजनीतिक जानकार कहते हैं कि  इससे लालू प्रसाद को ज्यादा ऊर्जा नहीं मिलने वाली. अब उनके सामने चुनौती और बढ़ गई है. उनके दल की क्या आंतरिक स्थिति है, उसका पता उन्हें चल गया होगा. दल के एक वरिष्ठ नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी पर जदयू की ओर से डोरे डालने की बात सामने आ ही चुकी है. बताते हैं कि नीतीश कुमार की तरफ से उन्हें मधुबनी से लोकसभा चुनाव लड़ने और फिलहाल उपमुख्यमंत्री बनने तक का प्रस्ताव दिया जा चुका था, लेकिन उन्होंने यह ठुकरा दिया. राजद के अंदरूनी सूत्र बता रहे हैं कि सिद्दीकी  उचित समय की तलाश में अब भी हैं. उन्हें राजद अगर मधुबनी से टिकट नहीं दे पाएगा तो वे कभी भी पार्टी को अलविदा कह सकते हैं. यहीं पेंच फंसा हुआ है. माना जा रहा है कि लालू प्रसाद के लिए उन्हें मधुबनी सीट देना मुश्किल होगा. जानकारों के मुताबिक वहां से कांग्रेस के शकील अहमद चुनाव लड़ना चाहते हैं और लालू फिलहाल कांग्रेस के सामने नतमस्तक दिखते हैं.

लालू के लिए सिर्फ सिद्दीकी के लिए ही रास्ता निकालना मुश्किल नहीं होगा. राजद में ऐसे कई नेता अब भी कतार में हैं, जो चुनाव आते-आते पाला बदलकर दूसरी राह जा सकते हैं. लालू प्रसाद के वर्षों तक करीबी रहे विधान पार्षद नवल किशोर यादव कहते हैं, ‘जो चार सीट है, वह बचाना भी मुश्किल होगा इस बार लालू प्रसाद के लिए. लालू की राजनीति की भविष्यवाणी करना अभी से ठीक नहीं लेकिन रामविलास पासवान के अलग होने से भी उन्हें एक झटका लगा है, क्योंकि राज्य में करीब पांच प्रतिशत मत पासवानों का है और रामविलास उसके चैंपियन नेता हैं.’

नीतीश आखिर चाहते क्या हैं?
वैसे लालू प्रसाद अगर परेशानी में हैं तो बिहार में सत्ता संभाले नीतीश कुमार भी उनसे कम मुश्किल में नहीं दिख रहे. उनकी पार्टी जदयू ने राजद विधायकों को अपने खेमे में शामिल करने की जो कोशिश की और उसे जो झटका लगा उससे जदयू और नीतीश कुमार की राजनीति, दोनों की साख पर बट्टा लगा है. राज्य में विरोधी दल अब इस बात को हवा देने लगे हैं कि भाजपा से अलगाव के बाद नीतीश कुमार के पास सभी 40 सीटों पर चुनाव लड़ाने को उम्मीदवार तक नहीं हैं इसलिए वे दूसरे दलों से नेताओं को तोड़ने की असंवैधानिक कोशिश करने से भी बाज नहीं आ रहे. यह बात सबको समझ में आ भी सकती है  क्योंकि राजद से अगर कम से कम 15 विधायक टूटते तो ही उन्हें एक अलग समूह के तौर पर मान्यता दी जा सकती थी. लेकिन 13 पर ही यह मान्यता देकर विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी ने एक राजनीतिक खेल का समर्थन ही किया है. राजद के सांसद रघुवंश प्रसाद सिंह कहते हैं कि नीतीश की तरह विधानसभा अध्यक्ष भी इस खेल के अपराधी हैं और इस मामले को लेकर अब पूरे बिहार में संग्राम होगा, क्योंकि रक्षक के पद पर रहते हुए विधानसभा अध्यक्ष भक्षक हो गए. दूसरी ओर उदय नारायण चौधरी अब भी यही कह रहे हैं कि उनका फैसला कानूनन एकदम सही था.

इस मामले में सबसे ज्यादा मुश्किल में नीतीश कुमार फंसे हुए दिख रहे हैं. अब तक वे दूसरे दलों को नैतिक तौर पर निशाने पर लेते रहे थे, लेकिन इस प्रकरण के बाद वे सवालों से मुंह मोड़ने की स्थिति में दिख रहे हैं. नीतीश कुमार कहते हैं कि उन पर तो कोई भी कुछ भी आरोप लगा देता है, इस जोड़तोड़ का भी आरोप लगाया जाएगा तो क्या कहें! वे भले ही इससे ज्यादा कुछ नहीं बोले, लेकिन उनके ही दल के एक नेता श्रवण कुमार कुछ ढिठाई से जवाब देकर पार्टी की मिट्टीपलीद कराने के अभियान में ही लगे हुए दिखे. बकौल श्रवणकुमार, ‘हर दल अपनी मजबूती चाहता है, राजद के विधायक टूटकर खुद आने को तैयार थे तो हम इससे भला क्यों न इतराते. हमारी पार्टी मजबूत है और भविष्य में संभावना अच्छी है इसलिए लोग हमारे दल से जुड़ने के लिए परेशान हैं.’

bjp
फोटोः विकास कुमार

नीतीश कुमार के लिए परेशानी एक नहीं है. उनके चहेते आईएएस अधिकारी अफजल अमानुल्लाह की पत्नी और उनके प्रिय मंत्रियों में एक रहीं परवीन अमानुल्लाह हालिया दिनों में उनसे अलग हो चुकी हैं. इतना ही नहीं, अलग होने और आम आदमी पार्टी का दामन थामने के बाद वे नीतीश कुमार की सरकार के खिलाफ आग उगलने का अभियान शुरू कर चुकी हैं. परेशानियां पार्टी के भीतर से भी हैं. शायद यही वजह है कि 27 फरवरी को खबर आई कि बिहार में जदयू ने पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में अपने पांच सांसदों को पार्टी से निष्कासित कर दिया है. निष्कासित सांसदों में पार्टी के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी के अलावा पूर्णमासी राम, मंगनी लाल मंडल, सुशील सिंह और जय नारायण निषाद शामिल हैं.

नीतीश कुमार के लिए यह भी मुश्किल है कि लोकसभा चुनाव में वे क्या मुद्दा चुनें. उनकी पूरी ऊर्जा इन दिनों दो अभियानों में लगी हुई है. एक तो वे किसी तरह फिर से इस चुनाव में भी विशेष राज्य दर्जा के मसले को जिंदा करके उसे चलाना चाहते हैं. इसके लिए वे दो मार्च को अपने द्वारा ही शासित राज्य बिहार को बंद करवाने का एलान कर चुके हैं. असर क्या होगा यह देखा जाएगा, लेकिन विशेष राज्य दर्जा का अभियान अब इस बार भी चुनाव में चल पाएगा,  इसमें संदेह है. जदयू के ही एक नेता कहते हैं, ‘हम जानते हैं कि काठ की हांड़ी बार-बार नहीं चढ़ती, लेकिन हमारे सामने संकट कार्यकर्ताओं को रीचार्ज करने का भी है, इसलिए बंदी का एलान कर  हम अपने कार्यकर्ताओं को रीचार्ज करने में लगे हुए हैं.’ उधर, जिस दूसरे मोर्चे यानी फेडरल फ्रंट पर नीतीश काफी ऊर्जा खर्च कर रहे हैं, उसके बारे में जानकार मानते हैं कि उसका असर बिहार में कम होगा, दूसरी जगह चाहे जो हो.

इसके अलावा बिहार में रामविलास का भाजपा की ओर जाने का संकेत देना जितना लालू प्रसाद के लिए नुकसानदायी है, उससे कोई कम नुकसानदायक नीतीश के लिए नहीं है. वजह यह है कि रामविलास के तौर पर उनके पास कम से कम एक संगी था, जो नरेंद्र मोदी की जोरदार आलोचना करता था. दूसरी ओर कभी उनके साथ रहे और कुशवाहा नेताओं में से एक उपेंद्र कुशवाहा एक अलग पार्टी बनाकर पहले ही भाजपा के पाले में बैठ चुके हैं.

भाजपा का क्या होगा?
बिहार में भाजपा का क्या होगा, यह सिर्फ सर्वेक्षणों या अधिक से अधिक सहयोगियों के जुड़ जाने से तय होता नहीं दिखता. राज्य में भाजपा के नेता इन दिनों रोज हवाई किले बनाने में व्यस्त दिखते हैं. एक तो कुछ चुनावी सर्वेक्षणों ने उन्हें दिवास्वप्न देखने का अधिकार दे दिया है.  दूसरे रामविलास पासवान या उपेंद्र कुशवाहा जैसे संगी साथी मिलने से भी उनकी खुशी बढ़ी है. भाजपा को उम्मीद है कि रामविलास पासवान के आने से उसे दलितों के बीच पैठ बढ़ाने में सहूलियत होगी. लेकिन जो भी थोड़ी बहुत बिहार की राजनीति की समझ रखते हैं वे जानते हैं कि रामविलास पासवान अब दलितों नहीं बल्कि सिर्फ पासवानों के नेता भर रह गए हैं और हाल के समय में सत्ता में बने रहने के लिए उन्होंने समय-समय पर सहयागियों को फटाफट बदला है. साथ ही पासवान की अब एक बड़ी पहचान राजनीति में किसी तरह अपने परिवार को स्थापित करवाने के अभियान में लगे नेता के तौर पर भी उभरी है. ऐसे में रामविलास पासवान के आने से भाजपा को फायदा होगा, इसमें कई जानकार संदेह जताते हैं. हालांकि भाजपा को लगता है कि बिहार में पासवान समुदाय का पांच फीसदी वोट उसे काफी फायदा पहुंचा सकता है. उधर, लोजपा को लगता है कि इस बार नरेंद्र मोदी की लहर में शायद पार्टी बिहार में अपना खोया जनाधार वापस पा सकती है. पार्टी नेता सूरजभान सिंह कहते हैं,  ‘पार्टी सोचसमझकर फैसला ले रही है, क्योंकि इससे हमें फायदा होगा.’ दूसरी ओर भाजपा को उपेंद्र कुशवाहा में भी बड़ी संभावना दिख रही है. कुशवाहा वर्षों तक नीतीश कुमार के संगी साथी रहने के बाद अब नीतीश के घोर विरोधी नेताओं में से एक हैं. बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार की ताकत के तौर पर लव-कुश समीकरण यानी कोईरी कुरमी गठजोड़ को भी माना जाता है. भाजपा को विश्वास है कि उपेंद्र कुशवाहा के साथ आने से यह गठजोड़ टूटेगा और नीतीश से कोईरी मतदाताओं का मोह भंग होगा.

ये बातें अभी आकलन और अनुमान के आधार पर कही जा रही है लेकिन भाजपा के सामने दूसरे सवाल बड़े हैं और बड़ी चुनौती भी इंतजार में है. भाजपा में ऐसे गठबंधनों पर विरोध के स्वर अंदर ही अंदर तेज होते जा रहे हैं. पार्टी के कई नेताओं का मानना है कि पार्टी को बिहार में अकेले दम पर ही चुनावी मैदान में उतरना चाहिए, इससे पार्टी को फायदा होगा. साथ ही भाजपा के कई नेताओं को यह भी अखर रहा है कि अगर पार्टी दस सीटें पासवान और कुशवाहा को दे देगी तो इससे उनकी उम्मीदों के ही पर तो कतरे जाएंगे. भाजपा के सामने एक बड़ा सवाल जाति की राजनीति साधने को लेकर भी है. बेशक आज नंदकिशोर यादव विधानसभा में दल के नेता हैं, जो पिछड़े समुदाय से आते हैं. सुशील मोदी बड़े नेता हैं जो पिछड़े समुदाय से आते हैं. रामविलास के आने के बाद दलित के बीच जाने का भी मौका मिलेगा, ऐसी उम्मीद कुछ भाजपा नेताओं को है लेकिन भाजपा के सामने मुश्किल यह है कि उसकी पहचान सवर्णों की पार्टी के रूप में हो गई है और इस लोकसभा चुनाव तक आसानी से शायद ही यह छवि बदल सके.

उनके साथ उनके रस्ते पर

इलस्ट्रेशनः मनीषा यादव
इलस्ट्रेशनः मनीषा यादव

मिश्रा मन ही मन कितना मुदित था, उसे देखकर कोई भी जान सकता था! खुशी चेहरे से एकदम फूटी पड़ रही थी, हालांकि वह इसे उतना प्रकट नहीं होने देना चाहता था.

हम जिले के एसपी के साथ उनकी जिप्सी में सवार होकर उस डेंटल कॉलेज जा रहे थे जहां हाल ही में उसके बेटे का एडमिशन हुआ था. इस खुशी में आज उसका सूट ही नहीं, उसका तीन चौथाई गंजा सिर भी चमक रहा था, मानो यह कोई बारात हो और वह दूल्हे का बाप हो! और इस बारात में मात्र हम दो लोग शामिल थे- मैं और देवांगन. हम दोनों उसके इस जुगाड़ की दाद दे चुके थे.

‘अबे तूने तो इस बार बहुत लंबा हाथ मारा, यार!’  मैं उसकी इस पकड़ पर जलन होने के बाद भी दंग था.

‘बेटा टोपी, ये तो तेरा तुरूप का इक्का निकला!’ देवांगन बोला था. देवांगन उसे तब से टोपी कहता आ रहा है जब हम तीनों शिक्षक की पोस्टिंग एक गांव में थी, और उन दिनों अपने तेजी से झड़ते बालों को छुपाने के लिए वह दिन भर टोपी पहने रहता था. ‘कहां तो साले तेरे बेटे का एडमिशन मुश्किल था और कहां अब वहीं से ऐसा बुलावा मिल रहा है. तेरे डेढ़ लाख बच गए सो अलग!’

मिश्रा पाई-पाई बचा कर रखने वाले लोगों में से है. ग्रुप में कभी भी चाय-नाश्ते के बाद उसकी जेब से पैसा नहीं निकलता. दूसरा कोई कितना खिला दे, खाने में कोई कमी नहीं करेगा. उसका दूसरा गुण तमाम बड़े अधिकारियों की जी-हुजूरी करके उनका कृपापात्र बने रहना है. फिर इस बार तो एसपी का संग है.

स्कूल स्टाफ में आजकल इसी की चर्चा थी. मैडम लोग बहुत हंसकर मिश्रा को इसके लिए बधाई दे रही थीं. बहुत खुश होकर! वे उसके बेटे का अपने टैलेंट के दम पर राठी इंस्टीट्यूट में एडमिशन हो जाने पर भी शायद ही इतनी खुशी जाहिर करतीं. उनके यों चहकने की असल वजह थी- शहर के नए एसपी गौतम अवस्थी! गौतम अवस्थी में हाल ही में इस जिले का चार्ज संभाला है. और उन पर आलोक मिश्रा की पकड़ से सब हैरान थे. यहां तक कि मैं और देवांगन, जो पिछले पच्चीस सालों से उसके करीबी मित्र हैं. हमको इतना तो पता था कि मिश्रा का साढ़ू भाई राजधानी में सचिवालय में है. चार साल पहले शहर के इस सबसे महत्वपूर्ण स्कूल में मिश्रा का ट्रांसफर सीधे मुख्यमंत्री के आदेश से उसके साढ़ू भाई ने ही करवाया था. इसी बात को बताकर वह अब तक जब-तब इसको-उसको इसकी धौंस भी देता रहता है. यहां तक कि हमारे विभाग के अधिकारी भी जान गए हैं कि इसकी किसी काम में ड्यूटी लगाना ठीक नहीं है, तुरंत सचिवालय से उसका नाम हटाने फोन आ जाता है.

मिश्रा की पकड़ का मुख्य आधार उसका साढ़ू भाई है जो मुख्यमंत्री के सचिवालय में है. दूसरी बात यह कि उसका साढ़ू भाई एसपी गौतम अवस्थी के काॅलेज के दिनों का क्लासफेलो रह चुका है, और यह मित्रता उसके मुख्यमंत्री के सचिवालय में होने के कारण भी है. यह संयोग ही था कि इसी दौरान राज्य पीएमटी की परीक्षा के नतीजे निकले, जिसमें मिश्रा का बेटा चूक गया था. अंक कम होने के कारण अब उसका एडमिशन डेंटल काॅलेज में मैनेजमेंट कोटे से ही हो सकता था.

मिश्रा गया था एडमिशन के लिए इस फेमस इंस्टीट्यूट के चेयरमैन से मिलने. वे साढ़े तीन लाख डोनेशन  मांग रहे थे.

‘सर, कुछ कम नहीं हो सकता? मैं एक स्कूल में मास्टर हूं सर. इतना बड़ा एमाउंट पे करना मेरे लिए बहुत मुश्किल है. अगर दो लाख भी होता तो मैं कर सकता हूं. पर…’ मिश्रा, जो मौके के अनुकूल अपने चेहरे पर भाव ले आने में अभिनेताओं को मात करने की हैसियत रखता है, अपने चेहरे पर सर्वथा दयनीय और उनकी कृपा पर आश्रित भाव लाकर बोला.

पर चेअरमैन मदनलाल राठी भी बहुत घुटे हुए खिलाड़ी थे. बोले, ‘सर, मैं तो स्कूल टीचरों की बहुत इज्जत करता हूं. पर बात मेरे अकेले की नहीं है, ट्रस्ट कमेटी की है. आप दो लाख दे रहे हैं, तो ठीक है, बाकी हम आपको बैंक से फाइनेंस करा देते हैं. आप तो यों भी सरकारी कर्मचारी हैं, बहुत इजी वे में हो जाएगा. इसके लिए आप डोंट वरी. आपके हां कहने की देर है. बैंकों में हमारी पकड़ है. कइयों को हमने लोन दिलवाया है.’

‘पर सर, मैं तो अभी अपने हाऊस-लोन से ही नहीं उबर पा रहा हूं. टेन थाउजेंड मंथली आलरेडी कट रहे हंै मेरी पेमेंट से.’ मिश्रा ने अपना दुखड़ा रोया.

‘पर सर, हम भी मजबूर हैं. हमने तो आपको कम ही बताया है क्योंकि आप एक टीचर हैं. हम तो चाहते ही हैं कि साधारण घर-परिवार के बच्चों को ज्यादा से ज्यादा एडमिशन दें, क्योंकि ये पढ़ने वाले होते हैं. बड़े घरों के बच्चे तो बिगड़े नवाब होते हैं, पढ़ाई-लिखाई में उनका वैसा ध्यान नहीं रहता. इसलिए साधारण घर के बच्चे एडमिशन लेते हैं तो हमको सच्ची खुशी मिलती है. पर मैनेजमेंट कोटे का प्रेशर तो आप भी जानते हैं. लोग एप्रोच और थैला दोनों लिए खड़े हैं. बोलते हैं, आप आदेश तो करो राठी साहब. ऐसी कंडीशन में आपको यही सलाह दूंगा कि फाइनेंस करवा लीजिए… बच्चे का भविष्य का सवाल सबसे बढ़कर है भाई. बाहर कितना टफ काॅम्पीटिशन है आपको पता ही होगा. इस साल चूके कि नेक्स्ट ईयर उसे दुगुने लोगों से कम्पीट करना पड़ेगा. ऐसा मौका आप मत गंवाइये. पैसे तो आप फिर भी कमा लेंगे.’ चेअरमैन ने उसे समझाया था.

मिश्रा तत्काल कोई निर्णय नहीं ले सका था, ‘ठीक है सर, मैं डिसाइड करके आपसे मिलता हूं.’ ‘सर, थोड़ा जल्दी डिसाइड करिएगा… क्योंकि सब सीटें जल्दी ही भर जाती हंै.’ चेयरमैन ने उन्हें चेताया.

निराश और विचारों में डूबा मिश्रा कमरे से बाहर निकला तो पाया, बाहर गैलरी में मिलने वालों की लाइन और लंबी हो गई है.

मिश्रा की यह भी आदत है कि कहीं कोई समस्या उसके सामने आई नहीं कि वो इसे सबको बताते फिरेगा. स्कूल का पूरा स्टाफ जान चुका था कि मिश्रा के बच्चे का डेंटल काॅलेज में एडमिशन का प्लान चल रहा है, साढ़े तीन लाख मांग रहे हैं. सब कह रहे थे लोन ले लो. बच्चे के फ्यूचर से बढ़के कुछ नही. क्या होगा अधिक से अधिक? कुछ बरस तंगी में कटेंगे न? फिर तो जब बच्चा कमाने लगेगा सब कष्ट दूर हो जाएंगे. बच्चे के लिए इतना रिस्क लेने में कोई हर्ज नहीं है. फिर ये अच्छा रेप्युटेड काॅलेज है.

मिश्रा फिर भी तय नहीं कर पा रहा था क्या करे. तमाखू हाेंठ के नीचे दबाए हुए, अपनी आदत के मुताबिक कभी मुझसे तो कभी देवांगन से पूछता, ‘बताओ न यार क्या करूं मैं..? क्या एडमिशन लेना ठीक रहेगा?’ और हमने देखा है, मिश्रा को सलाह दो इसके बावजूद वो अक्सर ही अनिर्णय का शिकार हो जाता है, फिर जिस-तिस को अपनी समस्या बताकर हल पाने की कोशिश करेगा… आदत से मजबूर मिश्रा ने इस बार फिर अपने साढ़ू भाई को कष्ट दिया. बताया, ‘यार, मैं बहुत परेशान हूं. कुछ समझ नहीं आ रहा. डोनेशन की इतनी ज्यादा रकम देने की स्थिति नहीं है मेरी. ऐसे ही कर्ज में डूबा हुआ हूं… तुम कुछ कर सकते हो क्या?’

और उसके साढ़ू भाई ने जो किया वो सबके सामने था. एसपी अवस्थी ने चेअरमैन को फोन किया, चेअरमैन ने इसे फ्राॅड समझा. एसपी ने दूसरे ही दिन उसकी तीन बसों को चैकिंग के लिए खड़ा करवा दिया. और काम हो गया! एक लाख में ही. और आगे कोई परेशानी न हो, संबंध मधुर बने रहे, इसलिए आज फाइनल ईयर डेंटल स्टुडेंट्स के फेयरवेल फंक्शन में चेअरमैन ने एसपी को बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित किया है.

इस बीच मिश्रा साढ़ू भाई की मध्यस्थता से एसपी से अपनी जान-पहचान बढ़ा चुका है. जब इसका आमंत्रण मिला तो एसपी ने कहा, ‘भई, ये तो मुझे तुम्हारे कारण मिला है. तुम भी चलो उस दिन अपने दोस्तों को लेकर.’

मिश्रा तो सदैव ऐसे किसी अवसर की तलाश में रहता है जिसमें उसे अपना रुतबा दिखाने मिल सके. उसने हम दोनों को भी बुला लिया, ताकि उसके जीवन के इन ऐतिहासिक गौरवमयी क्षणों के हम गवाह रहें. ताकि बाद में वह जिस-तिस से आरआईटी (राठी इंस्टीटयूट आॅफ टेक्नोलाजी) में हुए अपने स्वागत-सत्कार के बारे में बताते हुए यह भी बता सके कि मैं तो इन दोनों को भी वहां ले गया था, पूछ लो इनसे….

हमारी जिप्सी दायां टर्न लेकर उनके एम्पायर में प्रवेश कर रही है. सामने बहुत बड़े-बड़े होर्डिंग लगे हैं इंस्टीट्यूट के, जिसमें हंसते-मुस्कुराते यंग्सटर्स अपनी उंगलियों से जीत का ‘वी’ बनाए हुए हैं, अंग्रजी में यहां की विशेषताओं और उपलब्धियों का बखान है. एक अन्य होर्डिंग इस संस्थान में संचालित तमाम कोर्सेस को बता रहा है. विशाल गेट के बाद लगभग चौथाई किलोमीटर आगे संस्थान के चौमंजिले भवन नजर आ रहे हैं. गाड़ी पलक झपकते वहां हाजिर. सारी बिल्डिंग्स ‘वेल अप टू डेट कंडीशन में, अपनी चमक से देखने वालों को चमत्कृत करते. खिड़कियों में लगे ग्लासेस हों या रेलिंग्स में लगे सिल्वर चमक लिए स्टील के पाइप्स… सब झकास!’

हम संस्थान के विशाल पोर्च के सामने हैं, जिसके आगे संस्थान के विभिन्न आॅफिस हैं. सब पारदर्शी ग्लास मढ़े. यहां पर लड़के-लड़कियों की गहमा-गहमी है. यूथ का ड्रेसकोड हो चुके जींस टी-शर्ट में नई उम्र के लड़के-लड़कियां, जिनमें एक उम्रगत कमनीयता होती है, अपनी ओर सबका ध्यान बरबस खींचते… बायीं ओर जो स्टैंड है वहां ढेर सारे स्कूटी और बाइक्स खड़े हैं… नए से नए माडल के.

इस बिल्डिंग से कुछ पीछे नई बिल्डिंग का निर्माण कार्य चल रहा है. वहां देहाती मजदूर स्त्री और पुरुष काम में जुटे हैं. ईंट-रेत ढोते या दीवार जोड़ते मिस्त्री. ये सांवले, पसीने से भीगे मजदूर… मैं सोचता हूं यहां पढ़ने वाले कितने स्टुडेंट्स का ध्यान इन लोगों की तरफ जाता होगा, या कभी ये इनके बारे में क्षण भर को भी कभी सोचते होंगे? कि इनके बच्चे कहां पढ़ते हैं? क्या इनके मन में कभी भूले से भी नहीं आता होगा कि काश, हमारे बच्चे भी यहां पढ़ सकते?  मैं यह सवाल किसी से नहीं पूछता. ये सवाल यहां करना बेमानी है. यहां ये बस लेबर हैं, जिनका पेमेंट ठेकेदार को दे दिया जाता है. इनका बाकी लोगों से भला क्या लेना-देना?

चेयरमैन पोर्च के नीचे हमारे स्वागत में खड़े हैं- दुल्हन के पिता की तरह.

‘वेलकम सर!’ हमारे गाड़ी से उतरते ही वह बहुत तत्परता से हम सबसे हाथ मिलाते हैं. चौवन-पचपन के राठी जी में गजब की व्यावसायिक दक्षता है. मिश्रा गदगद है.

वहां खड़े स्टुडेंट्स एसपी की गाड़ी देख हमें किंचित भय और आदर के मिश्रित भाव से देख रहे हैं. स्वागत में चेयरमैन आए हैं. निश्चय ही हम लोगों की सूरतें तो ऐसे किसी भव्य अतिथि का लुक कतई नहीं देते. एसपी साहब का लुक ही है मुख्य अतिथि के लायक. सिविल ड्रेस में होने के बावजूद उन्हें पहचानना मुश्किल न था.

हम आॅफिस की ओर बढ़ रहे हैं जो कुछ राउंड लेके जाना पड़ता है, चूंकि बीच में खूब हरा-भरा लाॅन है जिसके चारों ओर क्यारियां हैं जिनमें कहीं-कहीं रंग-बिरंगे फूल खिले हुए हैं. देवांगन मेरे कान में फुसफुसाता है, ‘पहले ये लोग राइस मिल चलाते थे, नेताओं के आगे-पीछे घूमते थे. अब इतनी तरक्की कर ली है कि नेता इनके पीछे घूमते हैं. वो भी सिर्फ दस-बारह बरस में!’

हमें शानदार एअर-कंडीशंड हाल के साॅफ्ट लग्जरी सोफे में बिठाया गया है. मैं और देवांगन इस लग्जरियत से तनिक सकुचा रहे हैं, लेकिन मिश्रा बेपरवाह पूरी शान से धंसा बैठा है. और उनके साथ बातचीत में लग गया है. दिल खोलकर संस्थान की तारीफ कर रहा है.

चेअरमैन अपने अर्धवृत्ताकार टेबल के पीछे के शानदार कुर्सी में धंस गए हैं. उनके सामने लैपटाॅप है और एक स्क्रीन है जिसमें वो अपने पूरे साम्राज्य के जिस हिस्से को देखना चाहें देख सकते हैं. हम इनके इन सब नए-नए तकनीकी वैभव से अभिभूत हैं.

युनिफाॅर्म पहना वेटर ट्रे में पानी सर्व कर रहा है.

‘सर, लीजिए पानी…’ राठी साहब में जबानी का फर्ज बहुत अच्छी तरह निभाते हुए बोले, ‘सर, हम तो कब से आपको बुलाना चाह रहे थे…’

‘फुर्सत नही मिल पाती काम के मारे, राठी साहब.’ अवस्थी साहब ने अपनी व्यस्तता जताई, ‘पर ये तो आपका स्नेह है जिसके चलते मैं आ गया.’

‘बड़ी मेहरबानी सर जी आपका जो आपने हमारे लिए अपना कीमती समय निकाला.’ चेअरमैन ने अपनी कृतज्ञता जाहिर की.

एसपी साहब ने कहा, ‘बहुत फैला हुआ काम है आपका. कितने एकड़ में है?’

‘अभी तो अस्सी एकड़ में है… इधर तीस और खरीदने की डील हो गई है, इसके बाद अपन हंड्रेड प्लस में आ जाएंगे…’ अपनी सफलता पर एक बड़ी मुस्कुराहट आई है उनके चेहरे पर. इसके बाद वे अपनी संस्था की तरक्की का इतिहास बताने लगे कि कैसे एक छोटे-से कम्प्यूटर डिप्लोमा सर्टिफिकेट कोर्स से इसकी शुरुआत हुई थी, और कब समय बीतता गया और कब वे यहां तक आ पहुंचे, ये खुद उन्हें भी पता नहीं चला.

देवांगन ने जोड़ा, ‘इधर इंजीनियरिंग और टेक्निकल कोर्सेस ने मार्केट में जो बूम पकड़ा उसके चलते सब अब इसी तरफ आ रहे हैं. अब देखिए न, अपने ही शहर में कितने इंजीनियरिंग कालेज खुल गए हैं! पहले यह कोई सोच भी नहीं सकता था. पूरे छत्तीसगढ़ में ले दे के एक ही ठो इंजीिनयरिंग काॅलेज था, और आज देखे तो पचास के पार हो गई है.’

इस बीच काॅफी आ गई है. चंूकि राठी साहब काॅफी नहीं लेते इसलिए उनके लिए लेमन टी. लगता है दिन भर इसी तरह आगंतुकों की खातिर-तवज्जो में लगे रहते हैं, आखिर कोई दिन भर कितनी चाय और काॅफी पियेगा? पर हम लोग पी रहे थे. इसलिए कि करोड़पति पार्टी की चाय-काॅफी कैसी होती है, ये हम बिचले-निचले लोगों को भी तो पता चले! कप हाथ में लेते हुए लगता रहा, जैसे ताज होटल में चाय सौ रुपये की हो जाती है, और उसकी इस कीमत के कारण ही वह चाय फाइवस्टारी चाय हो जाती है, लगा कुछ वैसे ही यह कुछ स्पेशल होगी. बहरहाल हम संस्थान की साधारण काॅफी भी कुछ ऐसे ही भ्रम और विभोरता में पी रहे थे. और स्वाभाविक है, इस भ्रम और विभोरता का सबसे अधिक प्रदर्शन करना मिश्रा का कर्तव्य था, और इस प्रयास में उसका सांवला रंग कुछ गोरा हो रहा था.

इस समय राठी साहब बता रहे थे, ‘हमारे संस्थान के तीन प्रोफेसर अब विभिन्न विश्वविद्यालयों के चांसलर हो गए हैं, ये बड़ी उपलब्धि है हमारी.’

एसपी साहब ने पूछ लिया, ‘आपके बेटे क्या कर रहे हैं?’

‘सर, यही संभाल रहे हैं. इसे ही संभालने में हालत खराब हो जाती है. वैसे अभी छोटा बेटा जर्मनी से एमबीए कर रहा है. और आपके बच्चे, सर?’ उन्होंने पूछ लिया.

‘एक बेटा है, वो एमबीबीएस कर रहा है बेलगाम से.’ फिर जाने क्या सोचकर बोले, ‘साला, जैसे उसके शहर का नाम है, वैसे ही वहां की फीस भी है- बे-लगाम!’  और हंसने लगे.

साहब के हंसने पर बाकी सब भी हंस पड़े. लगा, एसपी साहब मजेदार आदमी हैं. उन्होंने आगे कहा, ‘बीस-पच्चीस लाख तो अब तक खर्च हो गए हैं. कार्डियोलाजिस्ट बनना चाहता है लड़का. मैंने पूछा, डिग्री के बाद तू नौकरी करेगा कि प्रैक्टिस? तो बोला, नौकरी. मैं बोला, यार तू बेवकूफ है! तेरे पीछे जो इतना खर्च हो रहा है, वसूल कैसे होगा? मैंने कह रखा है, प्रैक्टिस ही करना. तेरे हॉस्पिटल खोलने की जिम्मेदारी मेरी!’

cut-out

राठी साहब ने कहा, ‘बिल्कुल ठीक सोच रहे हैं, सर. सरकारी नौकरी में ज्यादा से ज्यादा क्या मिलेगा- 30 हजार या 40 हजार! इसमें क्या बनेगा आदमी? इसीलिए आप देखो अपने यहां के टैलेंट बाहर जा रहे हैं और लाखों कमा रहे हैं. हमारे यहां से ही कितने तो बच्चे आज बाहर हैं.’

‘आपके यहां हॉस्टल है?’ एसपी ने पूछा.

‘अरे क्या बताएं साहब! हमारे हाॅस्टल का काम ही नहीं रुक रहा है. हर साल कम पड़ जाते हैं. लड़कों के हाॅस्टल बढ़ाने का इरादा तो हमने पिछले साल से ड्राॅप करके रखा है, क्योंकि लड़के तो कहीं भी एडजस्ट हो जाते हैं… किराए से या पेइंग गेस्ट. पर लड़कियों के लिए तो सोचना पड़ता है. उनके पैरेंट कैंपस के बाहर उन्हें कहीं रखना नहीं चाहते. और बात भी सही है. माहौल बड़ा खराब हो चला है. तो अभी सात सौ लड़कियां हाॅस्टल में रह रही हैं. अगले साल फिर बनवाना पड़ेगा.’

‘और खाना? खाना ठीक है?’

‘सर, आप हाॅस्टल में रहने वाली किसी भी लड़की से पूछ लीजिए खाना कैसा बनता है! मैं अपने मुंह से अपनी तारीफ करूं तो अच्छा नहीं लगेगा. सर, हमारे मेस में हमारे घर जैसा ही खाना बनता है. आज तक हमको किसी से कोई शिकायत नहीं मिली. जबकि हर हाॅस्टलर से साल में पचास बार तो खाने की पूछता हूं. इसमें कोई शिकायत नहीं मिलनी चाहिए.’

‘और मिलेगी भी नहीं’, एसपी साहब बोले, ‘वो इसलिए कि खाने में मारवाडि़यों का कोई मुकाबला नहीं! मैं तो यहां बैठकर अपने बेटे के नसीब को रोता हूं. वो अच्छा नार्थ इंडियन खाने के लिए तरस जाता है! काश कि उसको यहां के जैसा खाना मिल पाता! सुनिए एक मजेदार बात! हमारे एक भाई हंै. मुझसे उमर में पांच साल बड़े. एडवोकेट हैं. तो केस के सिलसिले में उनको अक्सर यहां-वहां जाना पड़ता है. तो वे सीधे कंडक्टर को पकड़ते हैं. और कहते हैं, देखिये, मेरे पास केवल प्लेटफार्म टिकट है. और मुझे फलानी जगह तक जाना है. मान लीजिए वहां तक का किराया तीन सौ है तो वे कंडक्टर को सीधे छह सौ देंगे, और कहेंगे बर्थ का इंतजाम कर दो… इस डबल रकम देने पर कंडक्टर गौर से देखता है तो भाई साहब उनसे कहते हैं, देखिये, अगर आपकी लिस्ट में अग्रवाल, जैन या मारवाड़ी हों तो मुझे उनके पास की बर्थ मिल जाए तो बहुत अच्छा. इस पर कंडक्टर पूछते हैं, क्यों, आप क्या मारवाड़ी हैं? भाई साहब बोलते हैं, जी नहीं. मारवाड़ी तो नहीं हूं. लेकिन ये लोग खाने-पीने का बहुत सा सामान लेके चलते हैं, और थोड़ी मित्रता हो जाने पर खाना फ्री में हो जाता है.’

सब लोग उनके किस्से पर दिल खोल के हंसे. सब खुश थे कि आमंत्रित मुख्य अतिथि के द्वारा हंसाए जा रहे हैं. इस पर ज्यादा प्रसन्न राठी साहब थे. कहने लगे, ‘देखिए, आप आए हैं तो कितना अच्छा लग रहा है! लगता है अपने घर का ही कोई आया है! वहीं नेताओं को बुलाओ तो उनके दस ठो नखरे सहो. वो तो उद्घाटन करके चले जाएंगे, और सहयोग एक नहीं करेंगे. बड़ी मुश्किल  होती है इन नेताओं से. मगर क्या करें, उनके बगैर हमारा काम नहीं चलता!’

‘और आपके बगैर उनका?’

‘हां, ये भी बात ठीक है.’ धीरे से बोले राठी साहब. फिर जैसे उन्होंने विषय बदलने के लिहाज से कहा, ‘हम अपने गेस्ट को अपने इंस्टीट्यूट का विजिट जरूर कराते हैं. हमने आज आपका भी विजिट रखा है. इसमें कोई आधा घंटा लगेगा. इसके बाद फंक्शन में चलेंगे.’

अब हम चार लोग चेयरमैन के साथ संस्था का भ्रमण कर रहे हैं.

बड़ी-बड़ी बिल्डिंग्स. इनमें आलीशान एयर कंडीशंड हाल. कमरों या हाल के दरवाजों के बगल में उनके विभागों को दर्शाती गोल्डन नाम-पकिएं लगी हैं. राठी साहब हमें एक हाल में ले जाते हैं. यह किसी थिएटर की तरह सीढ़ीदार है, क्रमश: ऊंची होती हुई. लंबे-लंबे डेस्क हैं, जिनमें हर स्टुडेंट के लिए डेस्कटाप एलसीडी कम्प्यूटर फिट हैं.

राठी साहब बहुत गर्व से बता रहे हैं, ‘सर, हमारे यहां स्टुडेंट्स को कागज-कलम की बिल्कुल जरूरत नहीं! सारा एजुकेशन कम्प्यूटर पर! हमारा जोर-ई लर्निंग सिस्टम पर है. ये देखिए, हमारे टीचर इस मिरर से हर एक बच्चे के कम्प्यूटर पर नजर रख सकते हैं! ढेर सारी वेबसाइट पर काम करते हैं, लेकिन कोई भी अवांछित वेबसाइट नहीं खोल सकता. हमने इसकी सुरक्षा तगड़ी रखी है. हमको तुरंत इंफरमेशन मिल जाती है.’

और हमें मिरर में वाकई सबके कम्प्यूटर दिख रहे हैं. कुछेक सिस्टम आन हैं… उनके माॅनीटर चमक रहे हैं.

‘आइए, आपको एक और चीज बताते हैं.’ उनके कहने पर हम जो मानो किसी म्युजियम में चकित भाव से सब देख रहे हैं, उनके पीछे-पीछे मंत्रमुग्ध चलते जाते हैं.

वे हमको कांच से बने एक कक्ष में ले आए हैं, जहां दो नौजवान लैपटाॅप लिए काम कर रहे हैं.

राठी साहब बताते हैं, ‘इसे हम अपना कंट्रोल रूम कह सकते हैं. हमारे सारे सिस्टम यहां से कंट्रोल होते हैं. हमने इसे प्ठड के सहयोग से तैयार किया है. आप देख सकते हैं ये सर्वर…’

वहां मौजूद दाढ़ी वाला युवक इसकी टेक्निकल बातें हमको समझाने लगता है. हम सब सर्वर में चमकते लाल-हरी टिमकियों को चमकता देखते हुए अपना अज्ञान खाली हां-हूं करके छिपाते हैं, मन ही मन अपनी तकनीकी अज्ञानता पर खुद को कोसते और कमतर महसूस करते हुए. हमारी समझ में क्या खाक आता! हम बाहर आते हैं. बाहर एक बड़ा स्टेज है, तीन तरफ बड़ी बिल्डिंग से घिरा हुआ. काफी स्पेस लिए हुए.

वे बता रहे हैं, ‘ये देखिए हमारा स्टेज… इतना बड़ा स्टेज आपको आस-पास के और किसी इंस्टीट्यूट में नहीं मिलेगा. चार सौ आदमी बड़े आराम से आ जाएंगे. बीच में इतना बड़ा गार्डन, और उसके चारों तरफ स्टुडेंट्स के बैठने की व्यवस्था. हमारे एनुअल फंक्शन यहीं होते हैं. देश के जाने-माने सेलिबि्रटि कलाकार यहां आ चुके हैं… सोनू निगम, सुनिधि चौहान, इमरान हाशमी, अमीषा पटेल… हम हर साल देश के किसी जाने-माने सेलिबि्रटि को बुलाते हैं, यही है आज के जनरेशन की चाॅइस. खूब इंजाॅय करते हैं बच्चे.’ फिर मिश्रा से मुखातिब होके बोले, ‘मिश्रा जी, अब आपका बेटा भी हमारे परिवार में शामिल हो गया है. वो भी इंजाॅय करेगा ये सब!’

‘श्योर-श्योर!’ मिश्रा मुस्कुराकर कृतज्ञ भाव से हामी भरता है, ‘सर, हमने तो उसे आपको सौंप दिया है.’

हमारे चारों तरफ राठी साहब का अस्सी एकड़ का साम्राज्य फैला हुआ है. ऊंची-ऊंची बिल्डिंग… अत्याधुनिक भवन निर्माण शैली… वेल पाॅलिश्ड, वेल फर्निश्ड…. सब कुछ साफ-सुथरा और निथरा. सुसज्जित. जगह-जगह तैनात सफाई कर्मचारी और सुरक्षागार्ड… हम लोग सोचने लगे, इतनी जमीन, इतनी बिल्डिंगेें, इतनी जायदाद कि हिसाब लगाना मुश्किल. ये कैसे संभालते हैं? कैसे मैनेज करते हैं? फिर इनके यहां तो लक्ष्मी हर साल यों आती जान पड़ती है जैसे बांध का गेट खोलने पर पानी का रेला! इनका ये कई करोड़ों का कारोबार हमारी साधारण बुद्धि से परे है.

गैलरी में चलते-चलते देवांगन फिर धीमे से मेरे कान में फुसफुसाता है, ‘ये तो यहां के अंबानी हैं! टाटा बिरला हैं!’

मैं हताश भाव से मुस्कुराकर रह जाता हूं. शिक्षा का नया कारोबार इन्हें अकूत मुनाफा दे रहा है, तभी तो खड़ा है इनका ये साम्राज्य!

एक कोने में बांस सरीखे पेड़ों के झुरमुट हंै, खूब हरे. उनकी पतली लचकती शाखों में ढेर सारे घोंसले लटक रहे हैं. घास की बहुत महीन बुनावट वाले सुंदर और अद्वितीय घोंसले. ये बया के हैं.

इंजीनियरिंग काॅलेज में इंजीनियर बर्ड! मैंने सोचा, चलो कुछ तो यहां ऐसा है जो उनकी मुनाफा-नीति के कारण नहीं है. लगता है, राठी साहब की नजर इन पर नहीं पड़ी, वरना इनसे भी डोनेशन वसूलते!

img1एक शानदार तिमंजिले इमारत के सामने राठी साहब रुके हैं.

‘ये हमारे डेंटल काॅलेज की बिल्डिंग है.’ अपनी गर्वीली विनम्रता से राठी साहब बता रहे हैं, ‘हमारे यहां डेंटल की एक सौ बीस सीट है. हर साल इतने ही डाॅक्टर यहां से निकल रहे हैं. इस हिसाब से हमने पांच सौ डाॅक्टर बना दिए.’

हम ग्राउंड फ्लोर की ग्रे मारबल की चिकने फर्श वाली गैलरी में चल रहे हैं. इससे लगे बड़े-बड़े हाल है,ं जिनमें थोड़ी-थोड़ी दूर पर जाने कितने डेंटल चेयर्स सेट हैं. इन्हें गिन पाना मुश्किल है. अभी तक हमने किसी डेंटिस्ट के यहां ही देखे हैं, एक या दो.

राठी साहब सगर्व बताते हैं, ‘सर, देखिए हमारे डेंटल चेअर्स. अपने यहां है- वन चेअर फाॅर वन स्टुडेंट! ऐसी फेसिलिटि आस-पास और कहीं नहीं.’

बिल्डिंग के आखिरी हिस्से में प्रिंसिपल का आॅफिस है. यही से ऊपरी मंजिल के लिए सीढि़यां गई हैं. डेंटल काॅलेज के प्रिंसिपल डाॅ. चावरे हैं, अधेड़, मोटे और नाटे व्यक्ति. हमसे लपककर मिलते हैं. खुशमिजाज आदमी जान पड़ते हैं. अब वह भी हमारे साथ सीढि़यां चढ़ने लगते हैं. सामने जो कमरा है वहां हमें थोड़ी भीड़ नजर आती है लोगों की. ये गांव-देहात के लोग लगते हैं, दुबले, काले, अधेड़, बीमार….

राठी साहब बहुत उत्साहित होकर बताते हैं, ‘सर, ये देखिए हमारी समाज-सेवा. हमारा ओपीडी… यहां हम मरीजों का बहुत नाॅमिनल चार्ज पे इलाज करते हैं. आस-पास के गांवों से आते हैं ये पेशेंट…’

दस-बारह मरीज बाहर लगी बेंच पर बैठे हैं, अपनी बारी का इंतजार करते.

‘गुड!’ एसपी साहब खुशी जाहिर करते हैं.

खुशमिजाज चावरे एसपी साहब से मजाक करते हैं, ‘सर, कभी हमको सेवा का मौका दीजिए न…. कभी आपको दांत तुड़वाना हो, या दांतों की कैसी भी तकलीफ हो… हम बहुत सस्ते में करते हैं. …प्लीज… वेलकम!’

‘अरे, भगवान न करे कभी वो दिन आए.’

‘अरे ऐसा मत बोलिए, सर,’ चावरे तुरंत बोले, ‘बल्कि बोलिए कि भगवान करे वो दिन जल्दी आए, वरना हम लोगों की रोजी-रोटी का क्या होगा? ये लड़के बेचारे जो सीखने आए हैं, कैसे सीखेंगे? ये सीखने के लिए ही तो आए हैं. इसीलिए तो हम हर पंद्रह दिन में आसपास के गांव में कैम्प लगाते हैं. फ्री चेकअप और दवाई फ्री. विदाउट प्रैकिटस दे वोंट बिकम अ गुड डाॅक्टर…’

सामने ओपीडी काउंटर है. कांच के पीछे एक लड़का बैठा है. हमें देखते ही उठ खड़ा हुआ. राठी साहब उससे पूछते हैं, ‘क्यों भई, कितने पेशेंट हुए आज?’

लड़का रजिस्टर देखकर बताता है, ‘सर, एक सौ सत्ताइस.’

राठी साहब बोले, ‘दो सौ पेशेंट तो रोज के हैं, साहब! कई बार तो इनको लौटाना पड़ जाता है.’

आगे डेंटल के अलग-अलग डिपार्टमेंट हैं, जिनमें लड़के-लड़कियां काम में जुटे हैं, दांतों से संबंधित तरह-तरह के काम करते. हम उन्हें देख रहे हैं. इस हाल में अपेक्षाकृत नए चेअर्स हैं, बहुतों के तो जिलेटिन कवर नहीं निकले हैं. ये नए हैं, चमकते हुए, पिस्ता रंग के.

चेअरमैन राठी हमें बताते हैं, ‘सर, ये चेअर्स इंपोर्टेड हैं. इन्हें हमने ब्राजील से मंगवाया है.’

‘वाह!’ एसपी साहब के मुंह से निकला, ‘ये तो बहुत बढि़या हैं!’ फिर मुझसे मुखातिब हो बोले, ‘बनवासी जी, मैं लेखक तो नहीं हूं, लेकिन छिट-पुट पढ़ता जरूर हूं. जरा सोचो, इनमें लेटकर पढ़ने में कितना मजा आएगा!’

हम सब एसपी साहब की ऐसी कल्पनाशीलता पर हंस पड़े.

उन्होंने राठी साहब से पूछा, ‘क्यों राठी साहब, क्या कीमत होगी इसकी? सोचता हूं एक ठो घर में रख ही लूं.’

‘सर, एक-एक कम से कम अस्सी हजार की होगी.’

‘बाप रे! तब तो ये आपको ही मुबारक!’ मुस्कुराकर कहा.

‘चलिए सर, अब हम अपने फंक्शन हाल में चलते हैं.’ राठी साहब ने कहा.

‘चलिए.’ हम उनके सभा कक्ष में हैं. खूबसूरत हाल. फाइनल ईयर के स्टुडेंट्स, जिनमें ज्यादातर लड़कियां हैं. अपनी फेयरवेल पार्टी के लिए उन्होंने भिड़कर इस हाल की सीलिंग और दीवारों को रंगबिरंगे फूलों, गुब्बारों, रिबनों, और पन्नियों से सजाया है. ये किसी के जन्मदिन या शादी के सालगिरह का माहौल ज्यादा लग रहा है, डाॅक्टरों के फेयरवेल का कार्यक्रम कम.

कुछ ही देर बाद कार्यक्रम शुरू हो गया. हम सबका फूलों से स्वागत. स्वागत भाषण राठी साहब दे रहे हैं जिसमें वे बहुत कर्मठ और ईमानदार एसपी गौतम अवस्थी साहब के आने को अपने इंस्टीट्यूट और बच्चों का बहुत बड़ा सौभाग्य बता रहे हैं.

इसके बाद मुख्य अतिथि को बोलना है. उन्हें इन डाॅक्टर बनने जा रहे युवक-युवतियों को आशीष और शुभकामनाएं देनी हैं.

एसपी साहब संस्था के चेअरमैन, प्रिंसिपल आदि को अपने यहां बुलाने का धन्यवाद देते हुए कहते हैं, ‘प्यारे नौजवान दोस्तों, मुझे लगता है, इन लोगों ने गलत आदमी को आपके सामने खड़ा कर दिया है. हमारा विभाग तो ऐसे ही मारने-पीटने के लिए बदनाम है. मुझे लगता है, एक ही हिंसक समानता हममें आपमें है, वो ये कि आप मरीजों के दांत तोड़ते हैं, और हम अपराधियों की कुटाई करते हैं. बहरहाल, अभी हम लोगों को आपके काॅलेज का भ्रमण करवाया गया, जिसे देखने के बाद मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि इससे बड़ा, प्रतिष्ठित  और सारे इक्विपमेंट से सुसज्जित इंस्टीट्यूट इस प्रदेश में दूसरा और कोई नहीं! (तालियां!) आप लोग भाग्यशाली हैं जो ऐसे हर लिहाज से परफेक्ट और प्रोफेशनल इंस्टीट्यूट में बीडीएस की पढ़ाई कर रहे हैं. (राठी साहब के इशारे पर तालियां!) आप लोग तरक्की कीजिए. अच्छे कुशल डाॅक्टर बनिए और देश की सेवा कीजिए. डाॅक्टर्स आज अपनी मोटी फीस के लिए बदनाम हैं. मैं आशा करता हूं आप कम फीस लेकर गरीबों की सहायता करेंगे. अपनी सेवाएं शहरों को नहीं, गांवों को देंगे, जहां आप जैसों की बहुत जरूरत है. मुझे फिल्म काला पत्थर के डाॅक्टर राखी और संजीव कुमार याद आ रहे हैं… शायद आप लोगों ने भी देखी हो… जो कोयले खदान के गरीब, लाचार और बीमार मरीजों का इलाज करते हैं. मुझे देश के एक महान चिकित्सक डाॅक्टर कोटनिस की याद रही है. सुना है आप लोगों ने उनके बारे में? (श्रोताओं से कोई जवाब नहीं मिलता) डाॅक्टर कोटनिस चीन गए थे. वहां महामारी फैली थी और वे अपनी जान की चिंता किए बगैर उनकी जान बचाने में लगे रहे. ठीक ऐसे ही हमारे महात्मा गांधी कुष्ठ रोगियों की सेवा किया करते थे. आपको इन महान लोगों से प्रेरणा लेकर देश के लिए काम करना चाहिए. मैं आप सबके अच्छे उज्जवल कैरियर और सुखमय भविष्य की कामना करता हूं.’

तालियां. ये तालियां वैसी ही औपचारिक थीं जैसे किसी बड़े-बुजुर्ग की बात हम इस कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं. बल्कि उनकी असल उत्सुकता और रोमांच भाषण के बाद होने वाले अपने डांस कार्यक्रम को लेकर थी.

इधर हम लोग नाश्ता कर रहे थे, उधर वे मंच पर नाच रहे थे, ‘मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए….’

(यह कहानी तहलका के संस्कृति विशेषांक में स्थानाभाव के कारण प्रकाशित नहीं हो सकी थी)

गागर में सागर भरने की कोशिश

imgसाप्ताहिक समाचार पत्रिका शुक्रवार की साहित्य वार्षिकी प्रकाशित हो चुकी है. साहित्य केंद्रित इस अंक में संस्मरण और यात्रा वृत्तांत जैसी उन विधाओं को प्रमुखता दी गई है जिन पर इन दिनों अधिक जोर है. राजेंद्र माथुर, धर्मवीर भारती, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, नरेश सक्सेना, अरविंद कुमार, निदा फाजली, अखिलेश, मंजूर एहतेशाम जैसे विभिन्न विधाओं के प्रमुख रचनाकारों के संस्मरण पाठकों की स्वादग्रंथियों को संतुष्ट करते हैं. नामवर सिंह का निराला से जुड़ा संस्मरण जहां इस अंक की अहम उपलब्धि है वहीं ओमप्रकाश वाल्मीकी का आत्मकथात्मक अंश भी बेहद महत्वपूर्ण है. वाल्मिकी जी का ‘त्रासदी के बीच बनते रिश्ते’ शीर्षक वाला यह आत्मकथांश उनके अंतिम दिनों में लिखा गया जब वे अस्पताल में कैंसर से जूझ रहे थे. इसमें उन्होंने समाज में धीरे-धीरे ही आ रहे सकारात्मक बदलाव को न केवल महसूस किया बल्कि उसे रेखांकित भी किया है. इस अंक की केंद्रीय चर्चा हिंदी प्रदेशों की सांस्कृतिक स्थिति पर है. तमाम वरिष्ठ रचनाकारों ने इसमें अपनी राय रखी है. संस्मरणों और यात्रा वृत्तांत के अलावा कविताओं, डायरी, व्यंग्य और उपन्यास अंश को भी स्थान दिया गया है. हालांकि कहानी खंड में केवल एक रचना दी गई है जो समझ से परे है क्योंकि समकालीन कहानी संसार बेहद समृद्ध है और उसमें कुछ बेहद सशक्त रचनाकार हैं. काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘उपसंहार’ के अंश के अलावा प्रेमचंद गांधी, शेखर जोशी और पंकज बिष्ट के यात्रा वृतांत भी अत्यंत पठनीय हैं. कविताओं का जिक्र किए बिना इस अंक की बात पूरी न हो सकेगी.

कविताओं को भरपूर स्थान दिया गया है लेकिन उनसे गुजरते हुए इस बात का अहसास तीव्रता से होता है कि यहां गुणवत्ता के बजाय मात्रा को ध्यान में रखा गया है. नए और पुराने दोनों कवियों को अधिकाधिक संख्या में शामिल करने की हड़बड़ाहट ने कविता वाले हिस्से के स्तर को प्रभावित किया है. जाहिर है इस साहित्य वार्षिकी के अन्य पठनीय व समृद्ध हिस्सों से गुजरता हुआ पाठक जब कविताओं तक आता है तो उसे कमोबेश निराशा हाथ लगती है. एक कवि संपादक के नेतृत्व में निकले साहित्य विशेषांक में ऐसा होना थोड़ा चकित भी करता है. हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं तथा विशेषांकों में यदि अन्य भाषाओं के अनुवादों को भी स्थान दिया जाए तो पाठकों का हासिल बढ़ेगा. शुक्रवार की इस साहित्य वार्षिकी का मूल्य 80 रुपये रखा गया है जो थोड़ा अधिक प्रतीत होता ह,ै लेकिन केवल तभी तक जब तक आप अंदर प्रकाशित सामग्री पर एक नजर डाल नहीं लेते.

एक और पूर्वज से संवाद

book'युवा कवि यतीन्द्र मिश्र के नए कविता संग्रह ‘विभास’ को नया कहने की कई वजहें हैं. एक तो यह अभी-अभी प्रकाशित हुआ है, लेकिन उससे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस संग्रह में यतीन्द्र ने कबीर बानी और कबीरी पदों के प्रचलित संदर्भों से अलग मायने पेश किए हैं.

गुलज़ार, अशोक वाजपेयी, लिंडा हेस, पुरुषोत्तम अग्रवाल, प्रह्लाद टिपान्या, मनीष पुष्कले की भूमिकाओं  से इस पुस्तक की कविताओं को आधार प्रदान करने की कोशिश की गई है. ‘मां तो अब है नहीं’, ‘अपनी पुकार से  उज्जवल’, ‘21 वीं और 15 वीं शताब्दी के कवि मिलते हैं’, ‘कवि का कवि से संवाद’, ‘खूब रंगी झकझोर’, ‘दरार की देहरी पर’ शीर्षकों के गद्य से यतीन्द्र की कविताओं की प्रकृति पर प्रकाश पड़ता है.

यतीन्द्र की काव्यदृष्टि की नवीनता के कई प्रमाण ‘विभास’ की कविताओं में मिलते हैं. वे कबीरी चादर को जस की तस धर देने से अधिक उन पर दर्ज दागों की विशिष्टता की ओर पाठकों का ध्यान दिलाते हैं. एक कविता की कुछ पंक्तियां देखें- ‘हम पर इतने दाग़ हैं/ जिसका कोई हिसाब नहीं हमारे पास/ जाने कितने तरीकों से/ उतर आये ये हमारे पैरहन पर/ राम झरोखे के पास बैठकर/ जो अनिमेष ही देख रहा हमारी तरफ़/ क्या उसे भी ठीक ठाक पता होगा/ कितने दाग़ हैं हम पर/ और कहां-कहां से लगाकर लाये हैं हम इन्हें?/ क्या कोई यह भी जानता होगा/ दाग़ से परे जीवन/ वैसा ही संभव है/ जैसा उन लोगों के यहां संभव था/ जो अपनी चादर को/ बड़े जतन से ओढ़ने का हुनर जानते थे.’ इन दाग़ों में जीवन संघर्षों के दौरान प्राप्त अनुभवों की पूंजी है. यतीन्द्र किसी भावुक दार्शनिकता का सहारा नहीं लेते, इसीलिए विभिन्न घटनाओं के दृश्य भरने से बच जाते हैं. ऐसा कवि-संयम और नवीन निष्कर्ष देखने के लिए ‘तानाभरनी’, ‘अव्यक्त की डाल पर’, ‘क्या तुम’, ‘कहन’, ‘सन्मति’, ‘काशी, मगहर और अयोध्या’, ‘दरवेशों के गिले शिक़वे’ आदि कविताएं पढ़ी जा सकती हैं.

इस संग्रह का महत्व इसलिए भी अधिक है कि शैव साधिका और मध्यकालीन कवयित्री अक्क महादेवी के बाद यह युवा कवि अपने एक और पूर्वज कवि कबीर से संवाद स्थापित कर रहा है. कविताओं की भाषा सरल है, बस जहां-जहां यतीन्द्र दार्शनिक मुद्रा अपनाने की कोशिश करते हैं, वे हिस्से अखरते हैं.

उम्मीद के नए रंग

उरांव चित्रकला की अकेली महिला चित्रकार

अग्नेश केरकट्टा
अग्नेश केरकट्टा

भोपाल यूं तो झीलों के लिए जाना जाता है लेकिन इसकी एक खास पहचान तरह-तरह के संग्रहालयों की वजह से भी बनती जा रही है. इसी शहर में गए साल और एक संग्रहालय वजूद में आया तो खुद भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी इसे देखने चले आए. असल में यह संग्रहालय कई मायनों में देश भर में है भी अनूठा. नाम है- जनजाति संग्रहालय. जनजाति संग्रहालय को तरह-तरह की जनजातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले कलाकारों ने जैसा गढ़ा है उससे यह और अधिक अनूठा बन गया है. लेकिन इसमें प्रवेश करने से पहले जो बात आपको रोक लेती है वह है इसके मुख्य द्वारा पर बनी लोक आदिवासी चित्रकला के कुछ रूप और रंग. दरअसल यह उरांव जनजाति की चित्रकला के रंग और रुप हैं. इन्हें कुछ समय पहले तक विलुप्त मान लिया गया था. लेकिन खुशी की खबर यह है कि इस चित्रकला की एक बड़ी चित्रकार अब भोपाल में मौजूद हैं. इनका नाम है, अग्नेश केरकट्टा.

अग्नेश केरकट्टा को जानने से पहले यह समझते हैं कि आखिर उरांव चित्रकला अन्य जनजातियों की चित्रकला से इतनी भिन्न क्यों है. दरअसल इस चित्रकला की विशेषता है कि इसमें चित्रों को केवल हाथों और उसमें भी हाथों की अंगुलियों से बनाया जाता है. यानी इन्हें बनाते समय कूची का प्रयोग कतई नहीं किया जाता है. छत्तीसगढ़ के रायगढ़ के कुछ जनजाति बहुल गांवों में प्रचलित रही इस चित्रकला के पीछे जाएं तो पुराने जमाने में उरांव आदिवासी नई फसल के घर आने पर इष्ट देव को धन्यवाद देने के लिए घर की साफ-सफाई करते थे. यह मौका उन्हें साल में एक ही बार मिला करता था. फसल काटकर जब खेतों से खलिहानों तक पहुंचा दी जाती तो घर की महिलाएं थोड़े समय के लिए फुर्सत हो जातीं और इसी खाली समय में वे घर की दीवारों को गोबर से लीप-पोतकर चिकना किया करतीं. उसके बाद उस पर चटख रंगों से तरह-तरह की कृतियां बनातीं. जैसे कि पेड़-पौधे, फल-फूल और पशु-पक्षी इत्यादि. इन रचनाओं में समय के साथ एकरूपता आने लगी और ये उरांव चित्रकला के रूप में विकसित हो गई.

अग्नेश केरकट्टा को कोई 15 बरस पहले तक इन चित्रों का ज्ञान तो था लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि जिस प्रकार से यह चित्रकला विलुप्ति की कगार तक पहुंच चुकी है उस हाल में उसका महत्व क्या है.  अग्नेश उरांव जनजाति की नृत्य कला में भी पारंगत हैं. इस नृत्य विधा में मुख्य तौर पर दो रूप होते है एक तो कर्मा और दूसरा सरहूर. इन दोनों रुपों में निपुण अग्नेश केरकट्टा को जब कला और संस्कृति के क्षेत्रों में काम करने वाले जानकारों से यह पता चला कि जानकारों के बीच आज भी उरांव चित्रकला की काफी पूछ-परख है तो उन्होंने इस कला शैली में अपना हाथ आजमाना शुरू किया. नतीजा यह है कि डेढ़ दशक के बाद आज उनकी मेहनत रंग ला रही है. आज उरांव जनजाति की चित्रकला दुबारा सांस ले रही है.

अग्नेश केरकट्टा के चित्रों का देश के कई शहरों में प्रदर्शन हो चुका है. उनके कई चित्र अब भारत भवन जैसे कई नामी कला भवनों में सार्वजनिक हो चुके हैं. और उससे भी बड़ी बात कि उरांव चित्रकला के बहाने ही सही अग्नेश जैसी जनजाति प्रतिभाओं को भी अब जगह-जगह पर मान और सम्मान मिल रहा है. उनके चित्रों की मांग तेजी से बढ़ रही है.

1972 में जन्मीं अग्नेश  ने अपनी पुरानी पीढ़ी से ही उरांव चित्रकला सीखी है. लिहाजा वे अब इस चित्रकला को आने वाली पीढ़ी तक पहुंचाना चाहती हैं. यही वजह है कि वे सुमंती देवी नाम की एक युवा कलाकार को उरांव चित्रकला के गुर सिखा रही हैं. तीस बरस की सुमंती देवी भी अग्नेश केरकट्टा के साथ ही उनके नृत्य समूह में नाचते और गाते हुए बड़ी तल्लीनता से उरांव चित्रकला को सीख रही हैं. कहने को सुमंती देवी अग्नेश केरकट्टा की कोई सगी बेटी नहीं हैं. लेकिन उरांव जनजाति की यह कला आगे तक जिंदा रहे सो सुमंती देवी अग्नेश केरकट्टा की बेटी बन गई हैं. और अग्नेश सुमंती देवी की मां बन गई हैं.


महिला मजदूर से लोक कला के शिखर तक

भूरी बाई
भूरी बाई

करीब पच्चीस साल पहले जब भूरी बाई नाम की एक भील महिला को मध्य प्रदेश का सबसे बड़ा राजकीय सम्मान  ‘शिखर सम्मान’ मिला तो बहुतों के लिए यह आदिवासी कलाकर एक पहेली की तरह सामने उपस्थित हुई थी. भूरी बाई प्रथम भील आदिवासी चित्रकार के तौर पर जब पूरी दुनिया में शोहरत हासिल करने लगीं तो कला प्रेमियों के मन में एक सहज सवाल यह उठा कि आखिर वे कैसे इस मुकाम तक पहुंचीं.

भूरी बाई आज जिस मुकाम पर हैं वहां तक पहुंचने का सपना भी उन्होंने कभी नहीं देखा था. लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि आपके साथ घटी एक घटना ही आपके पूरे भविष्य की बुनियाद बन जाती है. भूरी बाई के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. यदि उनके जीवन में वह सुखद घटना नहीं घटती तो इतनी महान आदिवासी कलाकार के रूप में हम और आप उनकी कला को कभी नहीं देख पाते.

भूरी बाई की कहानी बड़ी दिलचस्प है. वे अपने पति के साथ मजदूरी की तलाश में जब सैकड़ों मील दूर का फासला तय करके राजधानी भोपाल पहुंचीं तो उन्हें एक बड़े भवन की दीवारों को खड़ा करने के काम में मजदूरी मिली. दरअसल उन दिनों वे देश और दुनिया के कला जगत की एक मजबूत नींव भारत भवन की दीवारों को खड़ा कर रही थीं. उन्हीं दिनों महान कलाकार और भारत भवन की बुनियाद के एक मजबूत स्तंभ स्वर्गीय जे स्वामीनाथन उनके पास आए. वे भूरी बाई से कुछ बातें करने लगे लेकिन हिन्दी न आने के चलते भूरी बाई को उनकी बातें समझ नहीं आईं. तब उनके साथी मजदूरों ने भूरी बाई को समझाया कि दरअसल साहब उनकी चित्रकला के बारे में समझना चाह रहे हैं. स्वामीनाथन को उन्होंने बाबा कहते हुए बताया कि यह चित्रकारी यहां संभव नहीं है. वजह यह है कि इसके लिए जो बहुत सारे रंग चाहिए वे भोपाल में नहीं मिल सकते. उन्होंने बताया कि भील आदिवासी अपने इलाके की खास किस्म की मिट्टी से काला रंग और खास किस्म की पत्तियों से हरा रंग बनाती हैं. उन्होंने बताया कि इसके लिए जो दीवार चाहिए वह भी भोपाल में नहीं मिलेगी. और उससे भी बड़ी बात तो यह है कि इसके लिए जो समय चाहिए वह भी उनके पास नहीं है. वजह यह थी कि तब उन्हें भारत भवन को बनाने के काम में छह रुपये दिन मिला करते थे. लेकिन श्री स्वामीनाथन ने जब जिद की और साथ ही यह भी कहा कि वे उनकी कला का मेहनताना देगें तो भूरी बाई ने उनके लिए कागजों पर भील चित्रकला के कुछ नमूने बनाए. स्वामीनाथन की आंखों में चमक आ गई. उन्होंने भूरी बाई से पूछा कि इस चित्रकला को आप अपनी बोली में बोलते क्या हो? भूरी बाई ने जवाब दिया बाबा यह हम भीलों के लिए पिथोरी चित्रकला है.

भूरी बाई की स्वामीनाथन से हुई यह बातचीत और उनके लिए बनाए गए पिथोरा चित्रकला के नमूनों ने आगे चलकर उन्हें लोक कला संसार में एक नई पहचान दी. वर्तमान में भूरी बाई अपनी कला का प्रदर्शन पूरे देश भर में कर चुकी हैं. उन्होंने भील पिथोरा चित्रकला को दुनिया में एक खास पहचान दिलाने के लिए अमेरिका सहित कई देशों की यात्रा भी की है. उनकी चित्रकला से प्रभावित हुए हर कलाप्रेमी को वे बताना चाहती हैं कि पिथोरा भील आदिवासी समुदाय की एक ऐसी कला-शैली है जिसमें गांव के मुखिया की मौत के बाद उन्हें हमेशा अपने बीच याद रखने के लिए गांव से कुछ कदमों की दूरी पर पत्थर लगाया जाता है. और फिर इस पत्थर पर एक विशेष किस्म का घोड़ा बनाया जाता है. यह विशेष किस्म का घोड़ा ही पिथोरा चित्रकला को खास पहचान देता है. किंतु भीलों में यह विशेष किस्म का घोड़ा बनाने की इजाजत केवल पुरुषों को ही दी जाती है. यही वजह है कि भूरी बाई ने अपनी चित्रकला की शैली में घोड़े की डिजाइन बदल दी है.

दरअसल भील आदिवासी पिथोरा चित्रों को अपने घरों की दीवारों पर बनाते हुए उनके भीतर बहुत ही सुव्यवस्थित तरीके से एक कहानी बुनते हैं. इस प्रकार पिथोरा चित्रकला में कुल चार प्रकार की कहानियां होती हैं. इन कहानियों का संदेश सिर्फ इतना होता है कि वे तीज और त्यौहारों पर अपने पुरखों को याद कर रहे हैं. दरअसल मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में प्रचलित इस पिथोरा चित्रकला के भीतर भीलों की अपनी ही दुनिया है. इसमें उन्हीं की दुनिया का रंग और रूप झलकता है. शहरी लोगों के लिए भले ही वह मनोरंजन का जरिया हो लेकिन आदिवासी तबके के लिए उनकी कला उस प्रकृति के सामने कृतज्ञता प्रकट करने का माध्यम है जिससे उनका जीवनभर भरण-पोषण चलता रहता है.

‘उस सवाल का जवाब आज भी नहीं है…’

मनीषा यादव
मनीषा यादव

बात वर्ष 2011 की है. उन दिनों मैं तहलका के लिए पटना में रहकर काम किया करता था. बिहार के दो इलाकों मुजफ्फरपुर और गया में दिमागी बुखार (इंसेफलाइटिस) से बच्चों के मरने की खबरें सुर्खियों में थीं. यूं तो इस बीमारी से मरने वाले बच्चे आम तौर पर गरीब परिवारों से ही ताल्लुक रखते हैं और इसलिए वे कोई खबर नहीं होते लेकिन उस वर्ष मृतकों का आंकड़ा थोड़ा ज्यादा था. तीन महीने में 85 बच्चों की मौत हो चुकी थी और सौ से अधिक अस्पतालों में थे. जाहिर है मामला मीडिया में उछल चुका था.

हमने भी इस पर रिपोर्ट करना तय किया. पटना से गया तकरीबन सौ किलोमीटर की दूरी पर है, इसलिए मैं अपने साथी रिपोर्टर के साथ शाम ढले निकल गया ताकि रात तक गया पहुंच कर अगली सुबह काम शुरू कर सकें. सबसे पहले हम गांवों में उन परिवारों से मिलने पहुंचे जिनके बच्चे इस बीमारी की वजह से काल के गाल में समा चुके थे. उनके दुख की कहानी भी बड़ी अजीब थी. हम जिन-जिन परिवारों के पास गए उनमें से ज्यादातर के घर पर ताले झूलते हुए मिले. पूछताछ करने पर पता चला कि बच्चे के मां और बाप धान काटने गए हैं. खेत में मिलेंगे. सुनकर आश्चर्य हुआ. हमने जब जानकारी देने वाले से पूछा कि कल ही तो इनके बच्चे की मौत हुई है और ये आज ही काम पर चले गए! तो सामने से सीधा-सा जवाब आया- साहेब, जाने वाला तो गया. अब जो जिंदा है ऊ कमाएगा नहीं तो खाएगा क्या? और खाएगा नहीं तो क्या भूखा मरेगा? इस जवाब में भूख, गरीबी और जीवन का पूरा दर्शन था. बहरहाल, कुछ परिवारों से हमने खेत में ही जाकर मुलाकात की.

इस बीच दिन चढ़ चुका था. हमें खबर और तस्वीरों के लिए गया शहर में स्थित अनुग्रह नारायण मेडिकल कॉलेज ऐंड हॉस्पिटल भी जाना था. बीमार बच्चों का इलाज वहीं हो रहा था. यकीन मानिए अस्पताल की जो हालत हमने देखी उसे अगर पन्नों पर उतारूं तो कई पन्ने भर जाएंगे लेकिन उसकी दुर्दशा की खबर पूरी तरह नहीं आ पाएगी. यह अस्पताल क्या था, उसके नाम पर पूरा मजाक था. कोई सुविधा नहीं, मशीनें खराब, दवाएं नदारद. लेकिन इलाज चल रहा था और बच्चे मर रहे थे.

एक डॉक्टर को यह कहा गया कि वे हमें इस बीमारी से पीड़ित बच्चों के वार्ड में ले जाएं. वे हमें एक कमरे में ले गए जिसके बाहर दरवाजे के ठीक ऊपर हरे रंग का एक बोर्ड लगा था, जिस पर लिखा था- इंसेफलाइटिस वार्ड. हम कमरे में घुसे. वहां की हालत भी दूसरे कमरों से अलग नहीं थी. तमाम बिस्तरों पर बच्चे लेटे हुए थे. उनके नाक, मुंह और हाथों में तरह-तरह के पाइप लगे हुए थे जो कमरे के सन्नाटे को और घना बना रहे थे. मुझे तस्वीरें लेनी थीं, लेकिन मैं इस खामोशी को भंग करने का साहस नहीं जुटा पा रहा था. मुझे याद है कि पहले 10-15 मिनट तक तो मैंने कोई तस्वीर नहीं खींची.

मैं एक कोने में खड़ा कमरे का मुआयना कर रहा था कि कहां से तस्वीरें लेना ठीक होगा. मेरी नजर एक बिस्तर पर लेटी लड़की पर पड़ी. छह या सात साल की उम्र होगी उसकी. पूरा शरीर काला पड़ चुका था, बस उसकी आंखें चमक रही थीं और इस नीम कालेपन में उन आंखों की सफेदी कुछ ज्यादा ही उभर आई थी. मैं उसके करीब गया. वह एकटक ऊपर की तरफ देख रही थी. मैं टॉप एंगल से उसकी तस्वीर उतारने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उसकी बड़ी-बड़ी आंखें लेंस के भीतर से और साफ नजर आने लगतीं. मानो वे मुझसे पूछ रही थीं कि क्यों ले रहे हो मेरी तस्वीर. तुम्हें नजर नहीं आ रहा मैं कितनी बीमार हूं!

तमाम कोशिशों के बावजूद मैं उसकी तस्वीर नहीं ले सका. वे आंखें मेरे पूरे वजूद पर छाने लगी थीं. मैं वहां से हट ही रहा था कि साथ आए डॉक्टर की बातें सुनकर कांप उठा. उसने पूरी बेफिक्री से कहा, ‘यह लड़की दिमागी तौर पर मर चुकी है. आप चाहें तो फोटो ले सकते हैं उसे कुछ नहीं नजर आ रहा. एक-दो दिन में यह शारीरिक तौर पर भी मर जाएगी.’

डॉक्टर ने मुझे जो कुछ कहा वह उसकी कोशिश थी मुझे सामान्य बनाने की, लेकिन इस बात से मैं पूरी तरह असामान्य हो गया. हालांकि पेशेवर होने के नाते मैंने कुछ तस्वीरें लाजिमी तौर पर लीं. बाद में भी मैंने कभी जानना नहीं चाहा कि उस बच्ची का क्या हुआ, शायद मर गई होगी. वह तस्वीर अब भी मेरे पास है. खाली वक्त में मैं अपने कैमरे में तमाम तस्वीरें देखता हुआ अतीत को जीता हूं लेकिन उस तस्वीर पर मैं एक पल भी नहीं ठहरता. जानते हैं क्यों? क्योंकि उन आंखों में जो सवाल हैं उनका जवाब मेरे पास अब भी नहीं है!

अंतिम विदा

alto

भारत के इतिहास में वर्ष 1983 दो वजहों से हमेशा याद रखा जाएगा. उस साल जून में देश ने पहली बार एकदिवसीय क्रिकेट का विश्व कप जीता और ठीक छह महीने बाद दिसंबर में पहली मारुति 800 कार राजधानी दिल्ली की सड़कों पर दौड़ी. क्रिकेट की उस जीत ने जहां इस खेल को धर्म बना दिया तो मारुति 800 ने भारत को एक नया विश्वास दिया. कहा गया कि ये कार नहीं, भारत के ‘पहिये’ हैं. बीती 18 जनवरी को कंपनी के गुड़गांव संयंत्र में जब आखिरी मारुति 800 बनी तो वह सड़क पर आने के पहले ही ऑटोमोबाइल इतिहास के चमकदार पन्ने पर अपनी जगह सुनिश्चित कर चुकी थी.

सड़क से उतरकर मारुति 800 इतिहास के पन्नों में भले ही समा गई हो लेकिन लोगों के दिलों से वह लंबे समय तक नहीं उतरेगी. आम जनता की जिस कार का ख्वाब संजय गांधी ने सन 1970 के दशक में देखा था वह 1983 में हकीकत में तब्दील हुआ. पहली मारुति 800 जब बनकर तैयार हुई तो सवाल उठा कि इसकी चाबी किसे सौंपी जाए. तमाम शुरुआती ग्राहकों के नाम का लकी ड्रॉ निकाला गया और सबसे तकदीर वाले निकले इंडियन एयरलाइंस के कर्मचारी हरपाल सिंह. 14 दिसंबर 1983, को एक भव्य समारोह में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पहली मारुति 800 की चाबी उन्हें सौंपी.

उसके बाद क्या हुआ वह इतिहास का हिस्सा है. जिस समय मारुति 800 आई, देश में एंबेसडर और फिएट की प्रीमियर पद्मिनी जैसी कारें मौजूद थीं. लेकिन भारत के दिल में जिस तरह मारुति 800 उतरी, वैसी जगह शायद ही किसी देश के लोगों के मन में किसी अन्य कार ने बनाई होगी. मारुति के शुरुआती दौर में लोगों ने सालों इस कार की प्रतीक्षा सूची में इंतजार किया. 50,000 रुपये की इस कार के लिए वे एक लाख रुपये तक चुकाने के लिए तैयार रहे. तमाम कंपनियों द्वारा अलग-अलग ब्रांड बनाने के कई किस्से हैं, लेकिन मारुति 800 एक ऐसा ब्रांड बनी जिसने देश में न सिर्फ एक कंपनी बल्कि एक समूचे उद्योग को फलने-फूलने का अवसर मुहैया कराया. 2004 तक यह देश की सबसे अधिक बिकने वाली कार थी. अब तक करीब 27 लाख मारुति 800 कारें बिक चुकी हैं.

1991 के आर्थिक सुधारों यानी उदारीकरण के बाद देश में तमाम देसी-विदेशी कार कंपनियां आईं, लेकिन मारुति 800 का जलवा बरकरार रहा. कंपनी ने पहले साल केवल 850 कारों का निर्माण किया, लेकिन उसकी छोटी-सी दस्तक ने देश के कार बाजार को पूरी तरह बदल दिया था. दो साल के अंदर यह बाजार सालाना 40,000 से बढ़कर एक लाख का आंकड़ा पार कर गया था. 1997 के आंकड़े बताते हैं कि उस साल देश में बिकने वाली हर 10 कारों में से आठ मारुति की थीं और मारुति का अर्थ था मारुति 800.

प्रीमियर पद्मिनी और एंबेसडर के भारी-भरकम और गोल आकार के उलट शुरुआती मारुति 800 काफी स्पोर्टी नजर आती थी. इस बात ने युवाओं में इस कार को जबरदस्त लोकप्रियता दिलाई. उन्होंने इन कारों को खरीदा और अपने मनपसंद ढंग से सजाया-संवारा. उसमें टेलीविजन और एसी लगाए यहां तक कि 50,000 रुपये की कार की सजावट पर लोगों ने 60,000 रुपये तक खर्च कर दिए. यह दीवानापन था, जुनून था, प्रेम था… यह मारुति थी.

सात फरवरी 2014, को कंपनी ने कहा कि उसने 18 जनवरी, 2014 से इस कार का निर्माण बंद कर दिया है. कहा गया कि उत्सर्जन मानकों में सुधार के चलते इसे अपग्रेड करना होगा जिससे इसकी कीमत बहुत अधिक बढ़ जाएगी.

मारुति की छाप देश पर इतनी गहरी पड़ी कि उसने ग्राहकों को लगभग विकल्पहीन बना दिया था. वह यूं ही दशकों तक देश की सबसे अधिक बिकने वाली कार नहीं बनी रही. आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और हाल ही में भारत रत्न से सम्मानित किए गए दिग्गज क्रिकेटर सचिन तेंडुलकर की पहली कार भी देश के लाखों अन्य लोगों की तरह मारुति 800 ही थी. मारुति 800 हमारे मां-बाप की कार थी, वह हमारी भी कार थी. हमारे बाद वाली पीढ़ी जब बड़ी होगी तो हो सकता है उसे मारुति 800 का किस्सा कुछ इस तरह सुनाया जाए- दुनिया में दो तरह के लोग हैं, एक जिन्होंने मारुति 800 देखी है और दूसरे जिन्होंने नहीं देखी.