Home Blog Page 1423

रण अंतिम क्षण में

बुकोणीय दंगल ओमप्रकाश चौटाला, भूपिंदर हुड्डा और योगेंद्र यादव (बाएं से दाएं)
बुकोणीय दंगल ओमप्रकाश चौटाला, भूपिंदर  हुड्डा और योगेंद्र यादव (बाएं से दाएं). फोटोः पवकास कुमार

कुछ समय बाद जब पूरे देश में लोकसभा चुनाव होंगे, उसके कुछ ही समय बाद हरियाणा में विधानसभा का भी चुनाव होना है. जहां सामने दो-दो चुनाव खड़े हों वहां राजनीतिक गतिविधियां बढ़ना स्वाभाविक ही है. आम आदमी पार्टी के प्रवेश ने जहां हरियाणा के मुकाबले में एक और कोण जोड़ दिया है वहीं पहले से राज्य में राजनीति कर रही पार्टियां भी उथल-पुथल से गुजर रही हैं. राज्य का चुनावी तापमान जानने के लिए लिए प्रदेश के राजनीतिक दलों के स्वास्थ्य का परीक्षण जरुरी है. शुरुआत करते हैं उस कांग्रेस से जो राज्य में पिछले 10 सालों से सत्ता पर काबिज है.

कांग्रेस
भुपेंदर सिंह हुड्डा सरकार हरियाणा में अपने शासन का एक दशक पूरा करने जा रही है. 2009 के लोकसभा चुनावों में भी पार्टी को बहुत अच्छी सफलता मिली थी. आज हरियाणा की 10 लोकसभा सीटों में से नौ उसकी झोली में हैं. पिछले साल ही राज्य में प्रमुख विपक्षी दल और कांग्रेस की कट्टर विरोधी इंडियन नेशलन लोकदल (आईएनएलडी) के नेता ओमप्रकाश चौटाला और उनके बेटे अजय चौटाला को कोर्ट ने भ्रष्टाचार के एक मामले में 10 साल की सजा सुनाकर जेल भेज दिया. दोनों जेल में हंै. 2009 के नतीजों और मुख्य विपक्षी पार्टी के प्रमुख नेताओं के जेल जाने के बाद पैदा हुई परिस्थितियों में माना जा रहा था कि कांग्रेस की स्थिति आगामी चुनावों में भी ठीक-ठाक रहने वाली है. लेकिन पिछले आठ महीने में सूबे और कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में जिस तरह के परिवर्तन हुए हैं उससे पार्टी की उम्मीदों को गहरा आघात लगा है. राज्य की राजनीति के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार नवीन एस ग्रेवाल कहते हैं, ‘आज स्थिति यह है कि जिस पार्टी के पास 10 में नौ लोकसभा सीटें है उसके लिए 2014 में रोहतक छोड़कर किसी और सीट के जीतने की संभावना नहीं है. आगामी विधानसभा चुनाव में भी पार्टी हार की संभावना को काफी हद तक स्वीकार कर चुकी है.’ पार्टी को अपनी खिसकती जमीन का अहसास है इसलिए उसने कुछ आपातकालीन उपाय भी किए हैं. सालों से लंबित पड़े प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर टीम राहुल के सदस्य और लोकसभा सांसद अशोक तंवर को नियुक्त किया गया है. लेकिन भागाभागी में देर से लिया गया यह फैसला कांग्रेस का कितना भला कर पाएगा इसके बारे में अभी कुछ कहा नहीं जा सकता.

पिछले साल फरवरी में जब आईएनएलडी के मुखिया ओमप्रकाश चौटाला और उनके बेटे अजय चौटाला को सजा मिली तब कहा गया कि अब प्रदेश कांग्रेस की चुनौतियां खत्म हो गई हैं. एक तरफ मुख्य विपक्षी दल के कर्ताधर्ताओं को जेल हो चुकी थी तो दूसरी तरफ राज्य में हरियाणा जनहित कांग्रेस-भाजपा गठबंधन की राजनीतिक हैसियत ऐसी नहीं थी कि वह कांग्रेस को कोई खास चुनौती दे पाए. लेकिन बिना बाधा के 2014 की लोकसभा और विधानसभा जीतने का सपना देख रहे मुख्यमंत्री हुड्डा और पूरी पार्टी को आज आंतरिक गुटबाजी ने जैसे पस्त कर दिया है. कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता अपनी ही पार्टी और सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं. इनमें वरिष्ठ नेता और राज्य सभा सदस्य चौधरी वीरेंद्र सिंह, राज्य सभा सांसद कुमारी शैलजा, राज्य सभा सांसद ईश्वर सिंह, और फरीदाबाद से सांसद अवतार सिंह भड़ाना प्रमुख हैं. कोई भेदभाव का आरोप लगा रहा है, कोई मुख्यमंत्री बनने के सपने संजो रहा है तो कोई प्रदेश में अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने के लिए प्रयासरत है. इस सबका शिकार अंततः पार्टी हो रही है. जानकर बताते हैं कि इसी गुटबाजी के कारण आगामी लोकसभा चुनाव में उसकी फजीहत होनी निश्चित है. विधानसभा चुनाव में इस फजीहत का विस्तार भर होगा. बीते ही दिनों गुड़गांव से पार्टी के सांसद रहे राव इंद्रजीत सिंह भाजपा में चले गए. इससे पहले राव ने हर संभव तरीके से न सिर्फ हुड्डा की फजीहत कराने की कोशिश की बल्कि उनके विरोध की चिंगारी रॉबर्ट वाड्रा तक भी पहुंच गई थी.

10 साल से राज्य की कमान संभाले कांग्रेस सत्ता विरोधी लहर का भी सामना कर रही है.  इसके अलावा उसे कांग्रेसनीत केंद्र सरकार के पिछले 10 सालों के किए धरे का भी नुकसान उठाना होगा. गुटबाजी के साथ ये कारक जैसे कोढ़ में खाज बनकर आए हैं. राजनीतिक विश्लेषक बलवंत तक्षक कहते हैं, ‘राज्य में पार्टी की हालत बहुत खराब है. सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं. साथ में सत्ता विरोधी लहर और आंतरिक गुटबाजी के कारण पार्टी बुरे समय की तरफ अग्रसर है.’

लेकिन सबसे बड़ी चुनौती उस मुख्य विपक्षी पार्टी यानी आईएनएलडी की तरफ से आ रही है जिसे साल भर पहले वह राजनीतिक रुप से मरा हुआ मान चुकी थी. हाल के दिनों में आईएनएलडी अपने शीर्ष नेतृत्व की अनुपस्थिति के बावजूद कांग्रेस सरकार के लिए डरावना सपना बन चुकी है. कुछ महीने पहले उसने सीडियों की एक पूरी सीरीज जारी की जिसमें कैमरे के सामने तमाम कांग्रेस के विधायक, नेता और उनके परिजन घूस के एवज में लैंड यूज बदलवाने (सीएलयू) की बात करते हुए दिखाई दिए. सीडी में हुड्डा सरकार में मुख्य संसदीय सचिव और बवानीखेड़ा से विधायक तथा हुड्डा के करीबी रामकिशन फौजी भी लेनदेन करते दिखे. इसमें वे लैंड यूज बदलवने के बदले पांच करोड़ रु की रिश्वत मांगते दिखाई दिए थे. रामकिशन के अलावा प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री राव नरेंद्र सिंह, मुख्य संसदीय सचिव विनोद भयाना, रतिया के विधायक जरनैल सिंह और बरवाला के विधायक रामनिवास घोड़ेला की सीएलयू और अन्य मामलों में कथित रूप से काम करवाने के बदले करोड़ों रुपये मांगने वाले टेप भी आईएनएलडी ने जारी किए हैं. इन सीडियों ने कांग्रेस पर न सिर्फ चौतरफा दबाव बनाने का काम किया है बल्कि जो कांग्रेस कुछ समय पहले तक विजय रथ पर सवार होने की तैयारी कर रही थी उसके रास्ते में जबर्दस्त ब्रेकर खड़े कर दिए हैं.

चुनौती यहीं खत्म नही होती. लोकदल को जमीनी स्तर पर जाट समाज के बड़े तबके से सहानुभूति भी मिल रही है. यह हरियाणा का वह प्रभावशाली समूह है जो ओमप्रकाश चौटाला और अजय चौटाला के जेल जाने से दुखी है. ग्रेवाल कहते हैं, ‘राज्य सरकार के कई कर्मचारी संगठन भी सरकार के खिलाफ सड़कों पर हैं. ऐसे में कांग्रेस की नैया पार लगती तो बहुत मुश्किल दिख रही है.

चुनावी आंधी में दीप! हजकां के कुलदीप विश्नोई
चुनावी आंधी में दीप! हजकां के कुलदीप विश्नोई

हालांकि कांग्रेस इन सब बातों में कोई गंभीर समस्या नहीं देखती. गुटबाजी, सत्ता विरोधी लहर और अंदरूनी खींचतान जैसे आरोपों के जवाब में हरियाणा कांग्रेस के प्रवक्ता करमवीर सैनी कहते हैं, ‘ कांग्रेस में नेताओं की कतार बहुत लंबी है. जिसे आप गुटबाजी कह रहे हैं वह असल में सत्ता पाने की स्वाभाविक इच्छा है. पार्टी का हर आदमी मुख्यमंत्री बनना चाहता है, अब सीएम तो एक ही आदमी बन सकता है. जो आज आपको नाराज दिख रहे हैं चुनाव के समय एक साथ आ जाएंगे. हुड्डाजी के कद का दूसरा नेता पूरे हरियाणा में नहीं है. हम लोकसभा की सारी की सारी सीटें भी जीतेंगे और विधानसभा में भी बहुमत हासिल करेंगे. राव इंद्रजीत सिंह जैसे लोग सत्ता के लालची हैं. जल्द ही उन्हें अपनी गलती का अहसास होगा.’

पार्टी के रणनीतिकारों का एक और भी आकलन है. हरियाणा कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, ‘बहुत संभव है कि केंद्र सरकार के खिलाफ देश में जो माहौल है उसका नुकसान हमें लोकसभा चुनाव में उठाना पड़े. लेकिन विधानसभा चुनाव तक आते-आते जनता का गुस्सा खत्म हो जाएगा. जनता फिर से हमारे साथ आ जाएगी.’ जिस बात पर कांग्रेस की उम्मीद कायम है उसका जिक्र करते हुए वे तर्क देते हैं, ‘हरियाणा का जाट समुदाय जाट के अलावा किसी और समुदाय के नेता को अपना सीएम स्वीकार नहीं करेगा. चूंकि चौटाला पिता-पुत्र जेल में है और उस परिवार के दूसरे किसी व्यक्ति का कद हुड्डा के बराबर नहीं है तो ऐसे में जाट समुदाय अपने आदमी के रूप में फिर से हुड्डा को ही चुनेगा.’ जानकार भी मानते हैं कि अगर ओमप्रकाश चौटाला जेल से बाहर नहीं आते तो ऐसी स्थिति में हुड्डा इस लाइन को आगे बढ़ा सकते हैं कि ओमप्रकाश चौटाला तो है नहीं. चौटाला परिवार के बाकी लोग राजनीति में अभी नौसिखिए हैं. वरिष्ठ पत्रकार मीनाक्षी शर्मा कहती हैं, ‘जाट मतदाता हुड्डा से इस बात को लेकर खफा तो हैं कि कैसे एक जाट ने दूसरे जाट को जेल भिजवा दिया. लेकिन उसके पास कोई और विकल्प है नहीं. ऐसे में वह हुड्डा को जीवनदान देने के बारे में जरूर सोच सकता है.’ डूब रही कांग्रेस को आप रूपी तिनके का सहारा भी मिल सकता है. कांग्रेस को उम्मीद है कि आप के आने से मुकाबला चौतरफा हो जाएगा और सत्ता विरोधी लहर बंटेगी. इसका सीधा फायदा कांग्रेस को ही होगा. मीनाक्षी कहती हैं, ‘राज्य में कांग्रेस के खिलाफ माहौल तो है लेकिन वह किसी के पक्ष में नहीं हैं. ऐसे में सत्ता विरोधी वोटों का बंटवारा तय है.’

आईएनएलडी
राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी आईएनएलडी के सामने यक्ष प्रश्न बना हुआ है कि अगर उसके दोनों नेता जेल से बाहर नहीं आते तो पार्टी दोनों चुनावों में कैसे जाएगी, हालांकि पार्टी की पिछले एक साल की गतिविधियों पर अगर नजर दौड़ाएं तो एक संभावना यह भी दिखती है कि पार्टी उनके दूसरे पुत्र अभय चौटाला और दोनों पोतों दिग्विजय और दुष्यंत चौटाला के नेतृत्व में आगे बढ़ेगी. हालांकि अभय पर भी भ्रष्टाचार के कई मामले दर्ज हैं. दूसरी तरफ दिग्विजय और दुष्यंत की उम्र 24-25 साल है. ऐसे में भविष्य बेहद अनिश्चित है. संकट के इस दौर में पार्टी ने गठबंधन के जरिए एक सहारा ढूंढ़ने का प्रयास भी किया लेकिन यह किसी सिरे नहीं लग सका. अतीत में काफी समय तक उसका भाजपा के साथ गठबंधन रहा है. लेकिन आज की स्थिति यह है कि आईएनएलडी ने कई मौकों पर भाजपा से गठबंधन की अपनी इच्छा जताई लेकिन भाजपा ने उसे भाव नहीं दिया.

आईएनएलडी पिछले 10 सालों में लोकसभा की एक भी सीट नहीं जीत पाई है. राज्य में आज भाजपा-हजकां का गठबंधन है. पार्टी खुद को हजकां की जगह देखना चाहती है लेकिन भाजपा इस पर चुप्पी साधे है. ग्रेवाल कहते हैं, ‘भाजपा के आईएनएलडी से गठबंधन न करने के पीछे पार्टी की भष्टाचार वाली छवि है. भाजपा पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बना रही है. ऐसे में वह ऐसी पार्टी के साथ गठबंधन से बच रही है जिसके शीर्ष नेता ही भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में हैं.’ वैसे गठबंधन न होने की स्थिति में भी पार्टी के नेता दस की दसों सीटों पर प्रत्याशी खड़ा करने का खम ठोंक रहे है, लेकिन अनौपचारिक बातचीत में कई नेता इस बात को मानते हैं कि अगर गठबंधन नहीं हुआ तो इस बार भी लोकसभा में पार्टी का खाता शायद ही खुल पाए. हालांकि एक संभावना के द्वार हमेशा खुले हुए हैं. अगर पार्टीं लोकसभा में एक दो सीट जीतती है तो भाजपा विधानसभा चुनावों में उसके साथ गठबंधन के लिए मजबूर होगी. तक्षक कहते हैं, ‘लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा-आईएनएलडी के गठबंधन की पूरी संभावना है.’ लोकदल के नेता लगातार कह रहे हैं कि वे चाहते हैं कि मोदी प्रधानमंत्री बनें और वे इसके लिए भाजपा का समर्थन करेंगे. भाजपा इस प्रेम का तिरस्कार कब तक करेगी यह देखना दिलचस्प होगा.

विधानसभा चुनावों को लेकर पार्टी उत्साहित है. उसे लगता है कि भले ही उसके नेता जेल से बाहर आकर चुनाव न लड़ पाएं लेकिन कांग्रेस के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का न सिर्फ उसे फायदा मिलेगा बल्कि उसके नेताओं के जेल में जाने से उपजी सहानुभूति भी वोटों में जरुर तब्दील होगी. पार्टी नेता दुष्यंत चौटाला कहते हैं, ‘जनता जानती है कि कांग्रेस ने जानबूझकर श्री ओमप्रकाश चौटाला और अजय चौटाला को फंसाया है. विधानसभा चुनाव में जनता कांग्रेस की इस करतूत का मुंहतोड़ जवाब देगी. मैं पूरे राज्य में घूम रहा हूं. हमें अभूतपूर्व समर्थन मिल रहा है.’

भाजपा-हजकां गठबंधन
हरियाणा में वर्तमान स्थिति यह है कि एक दल का राजनीतिक भविष्य काफी हद तक दूसरे पर निर्भर है. कुछ ऐसा ही हाल कुलदीप बिश्नोई की हरियाणा जनहित कांग्रेस (हजकां) का भी है. एक तरफ जहां आईएनएलडी भाजपा के साथ गठबंधन के लिए अपना पूरा जोर लगा रही है वही हजकां ऐसा कुछ भी होने से रोकने के लिए कमर कस कर तैयार है. लोकसभा की 10 सीटों में से भाजपा-हजकां के बीच 8-2 का बंटवारा हो चुका है. लेकिन हजकां की नजर लोकसभा से ज्यादा आगामी विधानसभा चुनाव पर टिकी हुई है. पार्टी को पूरी उम्मीद है कि कांग्रेस सत्ता विरोधी लहर और आपसी गुटबाजी के कारण ढलान पर है और आईएनएलडी के नेता जेल में हैं तो ऐसे में उसकी लॉटरी निकल सकती है. पूरे खेल में भाजपा का भी उत्साह बढ़ा हुआ है. उसका आकलन है कि मोदी का जादू हरियाणा के वोटरों पर सिर चढ़कर जरुर बोलेगा. भाजपा नेताओं के मुताबिक पूरे देश में मोदी के पक्ष में लहर चल रही है और कांग्रेस के खिलाफ जबर्दस्त माहौल है. ऐसे में हरियाणा की अपने खाते की आठ लोकसभा सीटों में से वह 5-6 जीतने का ख्वाब संजोए हुए है. पार्टी के स्थानीय नेता रामकिशन यादव कहते हैं, ‘यह हमारा अतिआत्मविश्वास नहीं है. आप देखिएगा मोदी जी के नेतृत्व में हमारा गठबंधन दस की दसों सीटें जीतेगा.’

लेकिन क्या ऐसा होने की संभावना है? जानकारों का मानना है कि जिन आठ सीटों को जीतने का भाजपा ख्बाव देख रही है, वर्तमान में वे सारी कांग्रेस के पास है. यह सही है कि केंद्र से लेकर राज्य तक कांग्रेस के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर के कारण पार्टी फिलहाल बैकफुट पर है लेकिन उसने इससे निपटने की काट भी ढूंढने की कोशिश की है. पहला उपाय पार्टी ने किया है वर्तमान सांसदों को हटाकर नए चेहरों को टिकट देने का. हालांकि इस रणनीति की कामयाबी संदिग्ध ही है. भाजपा और हजकां के बीच गठबंधन से दोनों दलों को कोई खास फायदा होते राजनीतिक पंडित नहीं देखते. वे मानते हैं कि चूंकि दोनों दलों का समर्थक वर्ग एक ही है. अर्थात शहरी मतदाता जिसमें व्यापारी और मध्य वर्ग शामिल है. ऐसे में दोनों दल एक दूसरे को कोई फायदा नहीं पहुंचाएंगे. कुलदीप बिश्नोई के बारे में कहा जाता है कि उनका पूरा राजनीतिक प्रभाव हिसार तक सीमित है. ग्रेवाल कहते हैं, ‘कुलदीप राज्य स्तर के नेता का कद अभी तक हासिल नहीं कर पाए हैं. ऐसे में वे भाजपा और खुद का भला कितना कर पाते हैं, यह देखने वाली बात होगी. हां, 2014 में मोदी अगर पीएम बनते हैं तो जरूर प्रदेश में भाजपा कुछ उथल-पुथल मचा सकती है.’ ग्रेवाल एक और संभावना का जिक्र करते हैं. अगर किसी तरह से भाजपा, आईएनएलडी और हजकां तीनों के बीच महागठबंधन हो जाता है तो फिर वे लोकसभा और विधानसभा, दोनों मोर्चों पर बड़ा उलटफेर कर सकते हैं.

आम आदमी पार्टी
हरियाणा में इस समय चर्चा का सबसे बड़ा विषय अरविंद केजरीवाल, योगेंद्र यादव और आम आदमी पार्टी बने हुए हैं. आगामी लोकसभा चुनाव में पार्टी ने गुड़गांव से अपने वरिष्ठ नेता योगेंद्र यादव को न सिर्फ उम्मीदवार बनाया है बल्कि विधानसभा चुनाव के लिए उन्हें बतौर मुख्यमंत्री भी प्रोजेक्ट कर रही है. जहां तक लोकसभा चुनावों का सवाल है तो आप गुड़गांव में राव इंद्रजीत को कड़ी टक्कर देने की स्थिति में दिख रही है. इसके अलावा दिल्ली से सटे फरीदाबाद की सीट पर भी पार्टी के असर डालने से इंकार नहीं किया जा सकता. राज्य में आप के प्रभाव के बारे में बताते हुए राजनीतिक विश्लेषक बलवंत तक्षक कहते हैं, ‘हरियाणा में आप का असर शहरी इलाकों तक ही सीमित है. ग्रामीण इलाकों में पार्टी को लेकर चर्चा तो है लेकिन समर्थन की कोई सूरत दिखाई नहीं देती.’  यह उसी तरफ इशारा करता है जिस ओर कांग्रेस उम्मीद किए बैठी है. अगर शहरी क्षेत्र जिन्हें कि भाजपा-हजकां का बड़ा आधार माना जाता है, वहां पर आप सेंध लगाने में कामयाब होती है तो फायदा सिर्फ कांग्रेस को ही मिलेगा. हरियाणा की जातिगत राजनीति में पार्टी के लिए चुनौती पर मीनाक्षी शर्मा कहती हैं, ‘आसान तो बिलकुल नहीं है. यह जाट बहुलता वाला राज्य है. जाट मनोविज्ञान के ऊपर तो आप का कोई असर नहीं होगा. हां, उन युवाओं एवं शहरी क्षेत्रों के लोगों पर इसका असर हो सकता है जिनके लिए भ्रष्टाचार एक गंभीर मसला है और वे वर्तमान राजनीतिक दलों से ऊब चुके हैं.’

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर प्रेम कुमार के मुताबिक हरियाणा के सबसे बड़े हिस्से यानी ग्रामीण क्षेत्र मेंं आप शायद ही कोई असर छोड़ सके. ग्रामीण इलाकों में जाति की भूमिका सबसे बड़ी होती है. वहां आप के जातिविहीन राजनीतिक नारेबाजी को सुनने वाला कोई नहीं है. हालांकि आप इस वर्ग को खुद से जोड़ने का प्रयास कर रही है. इसके तहत पार्टी के लोग विभिन्न खाप नेताओं से लगातार बातचीत और समझ स्थापित करने की प्रक्रिया में हैं. इसी रणनीति के तहत आप ने खाप जैसे संगठनों को सामाजिक और सांस्कृतिक जरूरतों को पूरी करने वाला बताकर उसके पास आने की कोशिश की है.

हरियाणा के मानस में लोकसभा के नतीजों से ज्यादा उत्सुकता आप के विधानसभा परिणामों के प्रति है. दिल्ली के नतीजों को देखते हुए राजधानी से सटे हरियाणा की 13-14 विधानसभा सीटों पर आप के प्रभाव की पूरी संभावना है. अगर आप ये सीटें जीतती है तो हरियाणा की अगली राज्य सरकार में वह महत्वपूर्ण ताकत होगी. कहा जा रहा है कि अगला विधानसभा चुनाव परिणाम त्रिशंकु विधानसभा को जन्म दे सकता है. ऐसे में आप के सपने परवान चढ़ सकते हैं.

यानी हरियाणा में फिलहाल न तो किसी के पक्ष में लहर दिखती है और न ही किसी पार्टी की चुनावी सफलता की संभावना को पूरी तरह से खारिज ही किया जा सकता है. प्रोफेसर प्रेम कुमार के शब्दों में ‘किसी बड़ी लहर के अभाव में अब सारा दारोमदार चुनाव प्रबंधन और प्रत्याशियों की योग्यता पर निर्भर है.’

‘नागरिकता नहीं मिली तो जिएंगे कैसे’

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार

कौन
पाकिस्तान से आए हिंदू शरणार्थी

कब
19 फरवरी से 22 फरवरी 2014 तक

कहां
जंतर मंतर (नई दिल्ली)

क्यों
धरना देखने-समझने के बाद हम चलने को होते हैं कि रवींद्र सिंह हमारे पास आते हैं. शायद उन्हें हमसे तसल्ली देने वाले किसी जवाब की उम्मीद है. वे कहते हैं, ‘क्या साहब? हमारा कुछ होगा? पांच साल तो हो गए यहां-वहां भटकते.’

रवींद्र सिंह पाकिस्तान के सिंध से भारत आए हैं. वे एक लाख से भी ज्यादा उन पाकिस्तानी हिंदुओं में से हैं जिनका बड़ा हिस्सा राजस्थान के जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर और जोधपुर के अलावा मध्यप्रदेश व गुजरात के सीमांत इलाकों में रहता है. पाकिस्तान से आए हुए ये हिंदू शरणार्थी अपने लिए भारत की नागरिकता चाहते हैं. आज से नहीं, कई साल से. राजस्थान के जोधपुर में रहने वाले इन 500 शरणार्थी हिंदुओं के इस दल की भी मांग यही है. सामाजिक संस्था सीमांत लोक संगठन के अध्यक्ष हिंदू सिंह सोढ़ा इस जत्थे का नेतृत्व कर रहे हैं. सोढ़ा कहते हैं, ‘देखिए, ये लोग खुशी से अपने देश को छोड़ के नहीं आ रहे. वहां उन्हें जीने और रहने में परेशानी आ रही है तभी ये लोग यहां आ रहे हैं. अगर हम भी इन्हें यहां नहीं रखेंगे, इन्हें यहां की नागरिकता नहीं देंगे तो ये लोग जाएंगे कहां?’ वे आगे कहते हैं, ‘जो भी पाकिस्तानी हिंदू भारत में आ रहे हैं उनमे से अधिकतर तीर्थयात्रा के नाम पर आते हैं क्योंकि इसके लिए वीजा आसानी से मिल जाता है. जब वे यहां आ जाते हैं तो यहां से वापस नहीं जाना चाहते और ऐसी हालत में वे यहां नरक जैसी जिंदगी जीने को मजबूर हो जाते हैं.’ पाकिस्तान से आए इन हिंदुओं की दशा बहुत खराब है. किसी पहचान के बगैर इन्हें कोई काम नहीं मिलता. कोई परेशान करे तो ये कहीं गुहार भी नहीं लगा सकते.

भारत ने 1951 की अंतरराष्ट्रीय शरणार्थी संधि और 1967 में उसके प्रोटोकॉल पर दस्तखत नहीं किए हैं, न ही यहां राष्ट्रीय स्तर का कोई कानून शरणार्थियों के संबंध में मौजूद है. नागरिकता पाने के लिए न्यूनतम सात साल भारत प्रवास का नियम है लेकिन इतने लंबे समय तक टिकने के लिए इन शरणार्थियों के पास कोई संसाधन नहीं.

लोढ़ा कहते हैं, ‘हम कुछ भी ज्यादा नहीं चाह रहे. ये लोग जो पाकिस्तान में प्रताड़ित होते रहे हैं उन्हें यहां थोड़ी राहत दी जाए. कम से कम इन्हें यहां बसने का तो अधिकार दिया जाए. इन्हें हिंदू-मुस्लिम से अलग करके देखें तो ये भी इंसान हैं और इन्हें भी बाकियों की तरह अपनी जिंदगी जीने का अधिकार है.’

पिछले साल दिसंबर में राज्यसभा में नागरिकता कानून 1955 में संशोधन के लिए नागरिकता संशोधन विधेयक 2013 पारित किया गया था. इसे संसद के इस सत्र में लोकसभा में पारित किया जाना था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. सत्र के आखिरी के दिन तेलंगाना विवाद की भेंट चढ़ गए और धरने पर बैठे लोग निराशा के साथ वापिस लौट गए.

हम लोढ़ा से पूछते हैं कि अब क्या करेंगे? क्या लड़ाई आगे भी जारी रहेगी? वे कहते हैं, ‘इनके पास इसके सिवाय कोई रास्ता ही नहीं है. ये लोग पाकिस्तान वापिस जाना नहीं चाहते. यहीं रहना चाहते हैं. अगर इन्हें यहां रहना है तो नागरिकता जरूरी है. बगैर नागरिकता के ये लोग यहां कुछ भी नहीं कर सकते.’

सीआईएसएफ विद्रोह: बोकारो

cosfभारत में सुरक्षाबलों के विद्रोह की घटनाएं गिनती की ही हुई हैं. इनमें सीआईएसएफ (केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षाबल) में विद्रोह की घटना काफी चर्चित रही है. इस बल का गठन 1968 में केंद्रीय प्रतिष्ठानों की सुरक्षा के लिए किया गया था. उस समय तक सरकारी कारखानों और सार्वजनिक प्रतिष्ठानों का सकल घरेलू उत्पाद में लगभग आधा योगदान था और इनकी सुरक्षा के लिए एक प्रशिक्षित बल की जरूरत थी. यही दौर मजदूर आंदोलन के उभार का भी रहा है. सीआईएसफ के गठन का एक उद्देश्य हिंसक मजदूर आंदोलनों से सरकारी संपत्ति को बचाना भी था. इस बल के गठन के बाद कुछ ही सालों में लगभग सभी सार्वजनिक उपक्रमों की सुरक्षा इसको सौंप दी गई.

सीआईएसएफ के विद्रोह की घटना बोकारो (झारखंड) स्थित स्टील प्लांट में तैनात यूनिट से जुड़ी है. 1979 में यहां तकरीबन 2000 जवान तैनात थे. चूंकि इन जवानों की तैनाती हमेशा सार्वजनिक उपक्रमों में होती थी इसलिए वहां के मजदूर आंदोलनों से वे भी अछूते नहीं थे. ऐसे में जब यहां तैनात जवानों ने अपने काम करने की बुरी स्थितियों और मासिक वेतन से जुड़े मुद्दों पर चर्चा शुरू की तो जल्दी ही बल के भीतर इन मसलों पर एक राय बन गई और सीआईएसएफ के भीतर ही जवानों ने अपना एक संगठन बना लिया.

कहा जाता है कि बल के भीतर विद्रोह की घटना का शुरुआती बिंदु वह था जब रांची में कथिततौर पर एक कमांडेंट की प्रताड़ना से एक जवान की मौत हो गई थी. इसके बाद बोकारो में सीआईएसएफ कर्मियों ने प्रदर्शन शुरू कर दिया. देशभर से बल के कुछ चुने हुए प्रतिनिधि दिल्ली में अपनी मांगों को लेकर दिल्ली भी गए. लेकिन यहां उन्हें विरोध प्रदर्शन करने पर हिरासत में ले लिया गया. इन दोनों घटनाओं ने बोकारो के जवानों को पूरी तरह आंदोलित कर दिया.

जून के महीने में इन जवानों ने अपने वरिष्ठों के आदेश मानने से पूरी तरह इनकार कर दिया. आखिरकार इनको नियंत्रित करने के लिए केंद्र सरकार को सेना भेजनी पड़ी. 25, जून को जब सेना यहां पहुंची उसके पहले ही सीआईएसफ के विद्राेही जवान अपने आवासीय परिसरों के आसपास सशस्त्र संघर्ष की तैयारी कर चुके थे. उन्होंने सेना से मुठभेड़ के लिए रेत की बोरियां जमा करके बैरकें बना ली थीं. सेना जब इस क्षेत्र में आगे बढ़ी तो इन जवानों ने फायरिंग कर दी. दोनों पक्षों में मुठभेड़ शुरू हो गई और तीन घंटों की मुठभेड़ के बाद आखिरकार विद्रोही जवानों ने आत्मसमर्पण कर दिया. लेकिन इस पूरी घटना का सबसे दुखद पक्ष यह रहा कि सेना की कार्रवाई में दर्जनों जवानों की मौत हो गई. सेना को अपने तीन जवान खोने पड़े तो सीआईएसएफ के तकरीबन 60 जवान मारे गए. इस घटना के बाद स्टील प्लांट से सीआईएसएफ हटा ली गई. इस यूनिट के तकरीबन 500  जवानों को बर्खास्त कर दिया गया और उनपर मुकदमा चलाया गया.

आरोपों के लपेटे में चैनल

मनीषा यादव

जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, नेताओं के आपसी आरोप-प्रत्यारोप भी तीखे और व्यक्तिगत होने लगे हैं. न्यूज मीडिया हमेशा से ऐसे आरोप-प्रत्यारोपों का मंच और अखाड़ा बनता रहा है. लेकिन इस बार पहली दफा खुद न्यूज मीडिया खासकर चैनल इन आरोप-प्रत्यारोपों के लपेटे में आ गए हैं.  प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी से लेकर गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे और पूर्व सेनाध्यक्ष पलट नेता बने जनरल वीके सिंह तक खुलेआम न्यूज मीडिया पर खुन्नस निकाल रहे हैं. यहां तक कि आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने तो न्यूज मीडिया खासकर चैनलों के खिलाफ पूरा मोर्चा ही खोल दिया है. उनका आरोप है कि कई मीडिया कंपनियों में मुकेश और अनिल अंबानी का पैसा लगा हुआ है और इस कारण वे व्यक्तिगत तौर पर उनके खिलाफ झूठी खबरें दिखा रही हैं.

भाजपा नेताओं और मोदी समर्थकों का आरोप है कि अखबार और चैनल केजरीवाल का महिमामंडन कर रहे हैं क्योंकि उनके ज्यादातर पत्रकार वामपंथी, छद्म धर्मनिरपेक्ष और कांग्रेसी हैं. भाजपा नेता सुब्रमणियम स्वामी और संघ से जुड़े एस गुरुमूर्ति ने तो एनडीटीवी पर मनी लॉन्डरिंग का आरोप लगाते हुए अभियान छेड़ रखा है. खुद मोदी ने एक न्यूज चैनल के कार्यक्रम में एनडीटीवी पर सरकारी पैसे से चलने और बाद में दिल्ली की एक रैली में इसी चैनल की एक पत्रकार पर नवाज शरीफ की मिठाई खाने का आरोप लगाया था. इतना ही नहीं, सोशल मीडिया- ट्विटर और फेसबुक पर भी चैनलों और उनके संपादकों/एंकरों को मोदी और केजरीवाल समर्थक जमकर गरिया रहे हैं. इससे चैनलों और मीडिया के साथ पत्रकारों में भी बेचैनी है. नतीजा, एडिटर्स गिल्ड को न्यूज मीडिया के बचाव में उतरना पड़ा. लेकिन लगता नहीं है कि न्यूज मीडिया खासकर चैनलों पर हमले कम होंगे. वजह यह है कि इस बार चुनावों में न सिर्फ दांव बहुत ऊंचे हैं, केजरीवाल जैसे नए खिलाड़ी ‘नियमों को तोड़कर’ खेल रहे हैं बल्कि इस बार खेल में न्यूज मीडिया खासकर चैनल खुद खिलाड़ी बन गए हैं.

आप मानें या न मानें लेकिन 2014 के चुनाव जितने जमीन पर लड़े जा रहे हैं, उतने ही चैनलों पर और उनके स्टूडियो में भी. केजरीवाल और मोदी की ‘लार्जर दैन लाइफ’ छवि गढ़ने में चैनलों की भूमिका किसी से छुपी नहीं. यह पहला आम चुनाव है जिसमें चैनल इतनी बड़ी और सीधी भूमिका निभा रहे हैं. हर रविवार को होने वाली मोदी की रैलियां जिनका असली लक्ष्य चैनलों पर लाइव टेलीकास्ट के जरिये करोड़ों वोटरों तक पहुंचना है, आश्चर्य नहीं कि उनकी टाइमिंग से लेकर मंच की साज-सज्जा तक और कैमरों की पोजिशनिंग से लेकर भाषण के मुद्दों तक का चुनाव टीवी दर्शकों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है.

चुनावी दंगल में इस बढ़ती और निर्णायक भूमिका के कारण ही चैनल नेताओं और पार्टियों के निशाने पर आ गए हैं. इसके जरिये चैनलों पर दबाव बनाने और उन्हें विरोधी पक्ष में झुकने से रोकने की कोशिश की जा रही है. लेकिन इसके लिए काफी हद तक खुद चैनल भी जिम्मेदार हैं. सच यह है कि चैनल खुद दूध के धोए नहीं हैं. यह किसी से छुपा नहीं है कि कई चैनल चुनावी दंगल की तथ्यपूर्ण और वस्तुनिष्ठ रिपोर्टिंग और व्याख्या के बजाये खेल में खुद पार्टी हो गए हैं. यह भी सही है कि उनमें से कई की डोर बड़े कार्पोरेट्स के हाथों में है और वे उन्हें अपनी मर्जी से नचा रहे हैं. कुछ बहती गंगा में हाथ धोने में लग गए हैं और कुछ बेगानी शादी में अब्दुल्ला की तरह झूम रहे हैं.

ऐसे में, हैरानी क्यों? जब चैनल खेल में पार्टी बनते जा रहे हैं तो आरोप-प्रत्यारोपों के उछलते कीचड़ से भला कब तक बचते?

प्रहसन एक पूर्व प्रधानमंत्री की मौत का

राजीव गांधी की शवयात्रा

[wzslider autoplay=”true” transition=”‘slide'” info=”true” lightbox=”true”]

क्या राजीव गांधी हत्याकांड में न्याय हुआ है? इस घटना के 23 साल बाद भी शायद इस सवाल का कोई निश्चित जवाब नहीं दिया जा सकता. 26 दोषियों को फांसी की सजा से शुरू हुआ यह न्यायिक मामला अब सभी दोषियों की रिहाई का राजनीतिक मामला बन चुका है. पिछले 23 साल के सफर में कई बार इस मामले में न्याय की परिभाषाएं बदली, कई बार फैसले आए, कई बार अपील हुई और कई बार अंतिम फैसले भी आए. लेकिन राजनीतिक दांव-पेचों ने उन्हें अंतिम नहीं रहने दिया. यह मामला आज भी न्यायालय में है और अपना अंतिम न्याय लिखे जाने का इंतजार कर रहा है. आज न्याय की मांग पीड़ितों के लिए नहीं बल्कि दोषियों के लिए होने लगी है जबकि यह मामला असल में उन 18 लोगों को न्याय दिलाने का था जिनकी इन दोषियों ने हत्या कर दी थी. लोक स्मृति में धुंधली हो चुकी इस हत्याकांड से जुड़ी बातें और घटनाक्रम मिलकर एक दिलचस्प सिलसिला बनाते हैं. न्यायालय के फैसलों, जांच आयोगों और समितियों की रिपोर्टों, हजारों पन्नों के दस्तावेजों, संबंधित लोगों के बयानों और साक्षात्कारों के आधार पर इसे समझते हैं.

राजीव गांधी हत्याकांड के पूरे मामले को समझने के लिए जरूरी है कि इसकी शुरुआत आजादी से की जाए. भारत की नहीं, श्रीलंका की आजादी से. इस मामले में श्रीलंका के इस इतिहास की इतनी अहमियत है कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने फैसले में इसे विस्तार से लिखा है. भारत की आजादी के अगले ही साल श्रीलंका आजाद हुआ था. तब इसे सीलोन कहा जाता था. आजादी से पहले हजारों तमिल लोगों को श्रीलंका के चाय बागानों में मजदूरी के लिए लाया गया था. भारत से गए इन तमिलों को भारतीय-तमिल कहा जाता था जबकि वहां पहले से रह रहे तमिलों को श्रीलंकन-तमिल या जाफना-तमिल कहते थे. श्रीलंका में बहुसंख्यक आबादी बौद्ध धर्म को मानने वाले सिंहला लोगों की थी और तमिल भाषियों को लगातार उनकी उपेक्षा का शिकार होना पड़ता था. आजादी के बाद भारतीय तमिलों से वोट देने का अधिकार भी छीन लिया गया. श्रीलंका की लगभग 23 प्रतिशत आबादी तमिलों की थी. इतनी बड़ी आबादी से वोट देने का अधिकार छीना जाना एक बड़ा झटका था. समय के साथ स्थितियां खराब होती गईं. 1956 में श्रीलंका सरकार ने घोषणा कर दी कि देश की एक मात्र आधिकारिक भाषा सिंहला होगी. सरकार के इस फैसले से तमिल भाषी लोगों को सरकारी नौकरी मिलना भी लगभग असंभव हो गया. इसके बाद 1972 में बने श्रीलंका के संविधान में बौद्ध धर्म को देश का प्राथमिक धर्म घोषित कर दिया गया. साथ ही सिंहला लोगों को बहुसंख्यक होने के बावजूद भी हर जगह वरीयता और आरक्षण दिया जाने लगा. धीरे-धीरे तमिल लोग नौकरियों से लेकर शिक्षा तक हर क्षेत्र में हाशिये पर धकेल दिए गए.

इस भेद-भाव का नतीजा यह हुआ कि अंततः तमिलों ने हथियार उठा लिए. उत्तरी और पूर्वी श्रीलंका में तमिलों के कई छोटे-छोटे संगठन बनने शुरू हुए. एक तमिल युवा वेलुपिल्लई प्रभाकरन ने भी अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर ‘तमिल न्यू टाइगर्स’ नाम का एक संगठन बनाया. उस वक्त प्रभाकरन सिर्फ 18 साल का था. धीरे-धीरे यह संगठन मजबूत होने लगा. पांच मई, 1976 को प्रभाकरन ने इसका नाम बदल कर ‘लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम’ कर दिया. इसे आम तौर से लिट्टे नाम से जाना जाने लगा. 1980 का दशक आते-आते लिट्टे सबसे मजबूत, अनुशासित और  बड़ा तमिल आतंकवादी संगठन बन गया. लिट्टे ने उस वक्त के सभी छोटे संगठनों को या तो अपने साथ शामिल कर लिया या खत्म कर दिया. श्रीलंका में भारत के उच्चयुक्त रहे एनएन झा एक साक्षात्कार में कहते हैं, ‘लिट्टे ने उन सभी तमिल नेताओं को भी समाप्त कर दिया जो बातचीत में विश्वास रखते थे. प्रभाकरन तमिलों का एकमात्र प्रतिनिधि बन गया था.’ लिट्टे जितना मजबूत गुरिल्ला लड़ाई में था उतना ही मजबूत उसका संचार तंत्र भी था. लगभग 30 साल तक लिट्टे और श्रीलंका से जुड़े विषयों पर लिखते रहे वरिष्ठ पत्रकार श्याम टेकवानी के अनुसार लिट्टे का लंदन में मीडिया हेडक्वाटर था. लिट्टे द्वारा हर खबर यहां पहुंचा दी जाती थी. लंदन स्थित यह मुख्यालय इन ख़बरों को प्रेस विज्ञप्ति के रूप में सभी अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसियों और प्रकाशकों को भेज देता था. इस कारण लिट्टे जल्द ही दुनिया भर में मशहूर हो गया.

श्रीलंका में तमिलों के साथ हो रहे भेदभाव के कारण तमिलनाडु के लोग उनके प्रति सहानुभूति रखते थे. इस कारण भारत पर तमिलों की मदद करने का भारी दबाव था. प्रभाकरन तमिलों का एकमात्र प्रतिनिधि बन चुका था. उसने भारत से मदद मांगी. भारत इसके लिए तैयार हो गया. तमिलनाडु तथा श्रीलंका में तमिल छापामारों को भारत सरकार द्वारा प्रशिक्षण दिया जाने लगा. इस बात का खुलासा सबसे पहले इंडिया टुडे पत्रिका के रिपोर्टर शेखर गुप्ता ने किया. एक साक्षात्कार में वे बताते हैं, ‘भारत सरकार लिट्टे के लोगों को सैन्य ट्रेनिंग दे रही थी. तमिलनाडु में तो यह एक खुले रहस्य की तरह था. इसकी जानकारी वहां सबको थी लेकिन सबको शायद यही स्वीकार  था इसलिए कोई इस पर लिख नहीं रहा था.’ लिट्टे को भारत से पूरी मदद मिल रही थी. ट्रेनिंग, हथियार, बम, पेट्रोल, वायरलेस, दवाइयां, कपड़े सब कुछ भारत द्वारा उन्हें दिया जाने लगा था.

मजबूत संचार तंत्र के कारण लिट्टे को दुनिया भर के तमिलों से भी मदद मिलने लगी थी. प्रभाकरन लगातार मजबूत हो रहा था. 23 जुलाई, 1983 को प्रभाकरन ने श्रीलंकाई सेना के खिलाफ पहला बड़ा कदम उठाया. लिट्टे ने श्रीलंका के 13 सैनिकों की हत्या कर दी. इसके साथ ही श्रीलंका में नरसंहारों और खूनी संघर्ष का सबसे वीभत्स दौर शुरू हो गया. पूरे श्रीलंका में तमिल विरोधी दंगे भड़क गए. लेखक एमआर नारायणस्वामी इन दंगों के बारे में कहते हंै, ‘जुलाई 1983 में श्रीलंका में जब तमिलों को मारा जा रहा था तो वहां की सरकार इसमें पूरी तरह से मिली हुई थी. उग्रवादियों के हाथ में वोटर लिस्ट थी और वे तमिलों को घर-घर जाकर मार रहे थे. सेना की गाड़ियों में उग्रवादी घूम रहे थे और पुलिस सब कुछ देख रही थी.’ दंगों के इस दौर को ‘ब्लैक जुलाई’ कहा गया. इसके बाद से श्रीलंका में गृह युद्ध की शुरुआत हुई. हजारों की संख्या में तमिल शरणार्थी भारत आने लगे. यहीं से अलग तमिल राष्ट्र- ‘ईलम’ की भी मांग तेज हो गई. पूर्व उच्चायुक्त एनएन झा के शब्दों में, ‘ब्लैक जुलाई से पहले ज्यादा लोग अलग राष्ट्र की मांग से सहमत नहीं थे. लेकिन इसके बाद तो तमिलों के मन में यह बात बैठ गई कि अलग हुए बिना न्याय नहीं हो सकता.’ लिट्टे तो पहले से ही ईलम की मांग कर रहा था. इस घटनाक्रम से इस मांग को व्यापक जनसमर्थन मिल गया.

ब्लैक जुलाई के बाद से लिट्टे और श्रीलंकाई सेना के बीच लगातार मुठभेड़ होती रही. इनमें दोनों तरफ के सैकड़ों लोग हर रोज मारे गए. भारत अब भी लिट्टे की पूरी मदद कर रहा था. तमिलनाडु में लिट्टे की सक्रियता बढ़ती जा रही थी और राज्य सरकार न सिर्फ उसे नजरंदाज कर रही थी बल्कि उसका समर्थन भी कर रही थी. नवंबर 1986 में तमिलनाडु पुलिस ने कुछ ईलम संगठनों पर छापा मारकर कई हथियार, वायरलेस और अन्य अवैध समान बरामद किए. इसके विरोध में प्रभाकरन मद्रास में भूख हड़ताल पर बैठ गया. उसने हथियार तो नहीं लेकिन अपने वायरलेस और संचार साधन वापस करने की मांग की. मीडिया ने भी इस मामले को खूब हवा दी. अंततः सरकार ने उसे जूस पिलाते हुए जब्त समान वापस कर दिया. इसके बाद तो तमिलनाडु में पहले से ही प्रसिद्ध प्रभाकरन की तमिलों में भगवान सरीखी छवि बन गई.

उधर, श्रीलंका में गृह युद्ध जारी था और इसमें हजारों लोग मारे जा चुके थे. श्रीलंका और भारत सरकार के बीच इसे रोके जाने को लेकर बातें भी चल रही थी. 1987 में यह तय किया गया कि भारत और श्रीलंका के बीच एक शांति समझौता किया जाएगा. नटवर सिंह उस वक्त विदेश राज्य मंत्री थे. एक साक्षात्कार में वे बताते हैं, ‘मैं और पी चिदंबरम साहब प्रभाकरन से मिले. हमने उन्हें समझाने की बहुत कोशिशें की लेकिन वे ईलम की मांग पर कोई समझौता करने तो तैयार नहीं थे. हमने उन्हें कहा कि ईलम का बनना मुमकिन नहीं है, इसे भूल जाओ. उन्होंने कहा कि मैं ईलम को नहीं भूल सकता.’

इसके बाद 28 जुलाई, 1987 को प्रभाकरन को राजीव गांधी से मिलने बुलाया गया. इस मुलाकात के बाद प्रभाकर ने प्रेस को बयान दिया और कहा, ‘प्रधानमंत्री तमिलों की समस्या समझते हैं और इस दिशा में काम कर रहे हैं. हम प्रधानमंत्री के इस रुख से संतुष्ट हैं.’ लेकिन प्रभाकरन ने खुलकर इस समझौते से संबंधित कोई भी बयान नहीं दिया. इसके अगले ही दिन राजीव गांधी श्रीलंका पहुंचे और राष्ट्रपति जेआर जयवर्धने के साथ शांति समझौते पर दस्तखत कर दिए.

भारत और श्रीलंका के बीच हुआ यह समझौता कितना घातक होने वाला था इसके संकेत जल्द ही मिलने लगे. समझौते पर किए गए राजीव गांधी के दस्तखत की स्याही सूखी भी नहीं थी कि उन पर जानलेवा हमले की कोशिश हुई. यह हमला श्रीलंका में ही हुआ और हजारों लोगों की मौजूदगी में हुआ. समझौते के अगले दिन राजीव गांधी को श्रीलंका सेना द्वारा सैनिक सलामी दी जा रही थी. राष्ट्रपति जयवर्धने के साथ राजीव गांधी सलामी ले रहे थे कि तभी सबसे आगे पंक्ति में खड़े एक श्रीलंकाई सैनिक ने उन पर बंदूक के बट से हमला कर दिया. खुद को संभालते हुए राजीव गांधी नीचे झुक गए जिस कारण उनके सिर पर चोट नहीं आई. बंदूक का यह वार उनकी गर्दन और कंधे पर जाकर लगा. सारे देश ने इस घटना को दूरदर्शन के माध्यम से देखा. इस हमले के कुछ साल बाद सोनिया गांधी ने कहा था कि ‘उस हमले के बाद राजीव लंबे समय तक न तो अपना कंधा पूरी तरह से उठा पाते थे और न ही उस करवट सो पाते थे.’

समझौते के दिन प्रभाकरन दिल्ली में ही था. पूर्व उच्चायुक्त एनएन झा का मानना है कि ‘प्रभाकरन कभी भी इस समझौते के पक्ष में नहीं था. लेकिन उस पर भारत का दबाव था इसलिए उसने कुछ समय तक इसका खुलकर विरोध नहीं किया.’ समझौते के अनुसार भारत से एक विशेष सैन्य दल भी श्रीलंका भेजा जाना था. इस दल को ‘इंडियन पीस कीपिंग फोर्स’ (आईपीकेएफ) कहा गया. समझौते वाले दिन ही आईपीकेएफ को भी श्रीलंका रवाना कर दिया गया. इसका काम था लिट्टे से आत्मसमर्पण करवाना. प्रभाकरन ने आईपीकेएफ को लिख कर दिया कि वह आत्मसमर्पण के लिए तैयार है. आईपीकेएफ के कमांडर रहे दीपेंदर सिंह ने अपनी किताब में इसका जिक्र करते हुए लिखा है, ‘अन्य आतंकी संगठनों के मुकाबले लिट्टे बड़े ही सुनियोजित तरीके से आत्मसमर्पण कर रहा था. वे हमें समय बताते थे और ठीक समय पर उनके ट्रक हथियार लेकर पहुंच जाते थे.’

लेकिन समझौते के तीन हफ्ते बाद ही 21 अगस्त को लिट्टे ने हथियारों का समर्पण बंद कर दिया. प्रभाकरन ने आईपीकेएफ के अधिकारियों को बताया कि भारतीय खुफिया विभाग लिट्टे के विरोधी संगठनों को हथियार दे रहे हैं. इस कारण लिट्टे अब समर्पण नहीं करेगा.

प्रभाकरन ने जब हथियार डालने से इनकार कर दिया तो श्रीलंका में मौजूद भारतीय अधिकारियों की एक बैठक बुलाई गई. इस बैठक में प्रभाकरन को भी बातचीत के लिए बुलाया गया था. जेएन दीक्षित उस वक्त भारत के उच्चायुक्त थे और यह बैठक उन्हीं की अध्यक्षता में होनी थी. आईपीकेएफ के मेजर जनरल रहे हरकीरत सिंह एक साक्षात्कार में बताते हैं, ‘इस मीटिंग से एक रात पहले मुझे उच्चायुक्त दीक्षित साहब का फोन आया था. उन्होंने मुझे कहा कि जनरल, कल जब प्रभाकरन मीटिंग में आए तो आप उसे गोली मार देना. मैंने जनरल दीपेंदर सिंह से इस बारे में बात की और फिर दीक्षित साहब को जवाब दिया कि हम फौजी हैं, हम कभी भी पीठ पर गोली नहीं मारते.’ यह मीटिंग हुई और प्रभाकरन इसमें शामिल भी हुआ. लेकिन अब तक लिट्टे ने जो उम्मीदें भारत से लगा रखी थी वे टूटने लगी थी. तमिल लोगों को जिस तरह से बसाया जा रहा था उससे लिट्टे समर्थक संतुष्ट नहीं थे. आईपीकेएफ द्वारा भी तमिलों पर अत्याचार की बातें सामने आ रही थी. इसके विरोध में 15 सितंबर को थिलीपन नाम का एक लिट्टे सदस्य भूख हड़ताल पर बैठ गया. उसका कहना था कि न तो समझौते की बातों पर अमल हो रहा है और न ही भारत सरकार अपनी भूमिका निभा रही है. 12 दिनों कि भूख हड़ताल के बाद थिलीपन की मौत हो गई. इस मौत ने एक बार फिर से लिट्टे में बदले की आग को हवा दे दी. यह मामला अभी शांत भी नहीं हुआ था कि एक और हादसा हो गया. अक्टूबर के पहले हफ्ते में श्रीलंका सेना ने लिट्टे के 17 सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया. इन्हें पूछताछ के लिए कोलंबो ले जाया जाने लगा. लिट्टे ने इनकी रिहाई के लिए भारत सरकार से मांग की. भारत सरकार ने लिट्टे की इस मांग पर कोई तेजी नहीं दिखाई. इस बीच इन गिरफ्तार सदस्यों में से 12 लोगों ने सायनाइड खाकर आत्महत्या कर ली. थिलीपन की मौत से भड़की आग में इस हादसे ने घी का काम किया. इसके बाद लिट्टे ने भारत और आईपीकेएफ को भी अपना दुश्मन मान लिया. कुछ दिन के भीतर ही लिट्टे ने आईपीकेएफ के 11 सैनिकों को जिंदा जलाकर मार डाला.

यहां से लिट्टे और आईपीकेएफ आमने-सामने आ गए. जो सेना भारत से शांति बहाली के लिए गई थी अब वही युद्ध में लग गई. आठ अक्टूबर को भारतीय जनरल ने आईपीकेएफ को लिट्टे पर खुले हमले के आदेश दे दिए. इस दिन के बाद से प्रभाकरन लगभग ढाई साल तक भूमिगत रहा.

भारत में राजीव गांधी द्वारा आईपीकेएफ को श्रीलंका भेजे जाने का विरोध होने लगा. संसद से लेकर सड़कों तक प्रदर्शन और रेल रोको आंदोलन तक हुए. देश के इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा था कि श्रीलंका में भारतीय सेना के जवान मारे जा रहे थे और राजनीतिक दल सेना का ही विरोध कर रहे थे. 1989 में सत्ता परिवर्तन हुआ और राजीव गांधी प्रधानमंत्री पद से हट गए. नए प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने आते ही आईपीकेएफ को वापस बुलाने को फैसला किया. 24 मार्च 1990 को आईपीकेएफ का अंतिम बेड़ा श्रीलंका से वापस लौट आया. आईपीकेएफ के कुल 1248 जवान श्रीलंका में मारे गए थे लेकिन इस दौरान आईपीकेएफ ने लिट्टे को बहुत हद तक सीमित कर दिया था.

इसके बाद से भारत में राजनीतिक समीकरण लगातार बदल रहे थे. राजीव गांधी के फिर से प्रधानमंत्री बनने की प्रबल संभावनाएं थी. इस बीच अगस्त 1990 में राजीव गांधी का एक साक्षात्कार अमृत बाजार पत्रिका में प्रकाशित हुआ. इसमें उन्होंने भारत-श्रीलंका शांति समझौते का समर्थन किया था और अखंड श्रीलंका की बात कही थी. इस समझौते के कारण लिट्टे का ईलम का सपना टूट रहा था. लिट्टे को डर था कि राजीव गांधी का प्रधानमंत्री बनना उनके लिए घातक सिद्ध हो सकता है लिहाजा उसने उनकी हत्या का षड्यंत्र रचना शुरू किया. इस षड्यंत्र के मुख्य पात्र थे लिट्टे चीफ प्रभाकरन, लिट्टे की खुफिया इकाई के मुखिया पोट्टू ओम्मान, महिला इकाई की मुखिया अकीला और सिवरासन. सिवरासन ही राजीव गांधी की हत्या के षड्यंत्र का मास्टरमाइंड भी था. राजीव गांधी का साक्षात्कार प्रकाशित होने के एक महीने बाद ही उनकी हत्या करने के उद्देश्य से लिट्टे के आतंकियों की पहली टुकड़ी शरणार्थी बनकर भारत आई. इसके बाद कुल सात अलग-अलग टुकड़ियों में लोग आए और उन्होंने भारत में अलग-अलग जगह अपने ठिकाने बनाए. इन लोगों को हत्याकांड से पहले और उसके बाद छुपने के लिए जगह तलाशने का काम भी सौंपा गया था. इनमें से दो आरोपितों जयकुमार और रोबर्ट पयास के ठिकानों पर वायरलेस लगाए गए. यहां से लगातार जाफना संदेश भेजे जाते थे. पत्रकार राजीव शर्मा द्वारा लिखी गई किताब ‘बियोंड द टाइगर्स: ट्रैकिंग राजीव गांधीज असैशिनेशन’ में यह भी लिखा गया है कि भारतीय नौसेना और रॉ ने राजीव गांधी की हत्या से संबंधित ये संदेश पकड़ भी लिए थे, लेकिन इनको हत्या के कई महीनों बाद ही डिकोड किया जा सका.

इस षड्यंत्र को अंजाम देने वालों में से एक था मुरुगन. वह जनवरी 1991 में भारत आया. यहां आकर वह नलिनी के परिवार के साथ उसके घर पर ठहरा. नलिनी तब एक निजी कंपनी में नौकरी करती थी और अपने परिवार से अलग रहती थी. मुरुगन से मिलने के बाद नलिनी की उससे नजदीकियां बढ़ी और उन्होंने बाद में शादी कर ली. मुरुगन ने नलिनी को बताया कि सिवरासन श्रीलंका से दो लड़कियों को लेकर आने वाला है और नलिनी को उन्हें अपने साथ रखना होगा. 1 मई, 1991 को सिवरासन लिट्टे के सबसे समर्पित और इस षड्यंत्र के सबसे महत्वपूर्ण लोगों को लेकर भारत आया. इनमें मानव बम धनु और उसकी सहेली सुबा सहित कुल नौ लोग शामिल थे. सुबा और धनु भारत आकर नलिनी से मिलीं. नलिनी को उनके साथ उनके अभिभावक की तरह रहने की जिम्मेदारी दी गई थी. इसी बीच सुबा ने नलिनी को बताया कि आईपीकेएफ ने तमिलों पर बहुत अत्याचार किए हैं. सुबा ने उसे यह भी बताया कि भारतीय सेना के जवानों ने सात तमिल लड़कियों का बलात्कार करके उनकी हत्या कर दी. श्रीलंका में तमिलों पर हुए अत्याचार की बातें बताते हुए सुबा और धनु ने नलिनी को बताया कि इसके लिए राजीव गांधी जिम्मेदार हैं. बताया जाता है कि इसके बाद से नलिनी के मन में भी राजीव गांधी के प्रति बदले की भावना पैदा हो गई.

सिवरासन ने भारत आने के बाद धनु और सुबा को ट्रेनिंग भी दी. सात मई को मद्रास में वीपी सिंह की सभा होने वाली थी. सिवरासन इस रैली में धनु, सुबा और नलिनी को लेकर गया ताकि वे एक पूर्व प्रधानमंत्री के सुरक्षा घेरे में जाकर उसे माला पहनाने का अभ्यास कर सकें. नलिनी, मुरुगन, पेरारिवलन और हरी बाबू भी इनके साथ ही सभा में गए थे. वीपी सिंह के मंच पर आने से पहले सुबा और धनु ने उन्हें माला पहनाई. अपनी ट्रेनिंग में मिली इस सफलता से दोनों लड़कियों के इरादे और भी ज्यादा मजबूत हो गए. उन्होंने अगले ही दिन जाफना संदेश भिजवाया कि अब उनका आत्मविश्वास बहुत मजबूत है और वे इसी महीने में अपना उद्देश्य पूरा कर लेंगी. 11 मई को नलिनी धनु के साथ टेलर के पास गई और उसके लिए नया सलवार-कुर्ता सिलवाया. यह कपड़े इस मकसद से ढीले सिलवाए गए थे कि इनमें विस्फोटक छिपाए जा सकें.

19 मई 1991 के अखबारों में राजीव गांधी का चुनावी कार्यक्रम प्रकाशित हुआ. यहीं से सिवरासन को मालूम हुआ कि 21 मई को राजीव गांधी श्रीपेरंबदूर आने वाले हैं. यह मौका वह चूकना नहीं चाहता था. उसने नलिनी से जगह के बारे में मालूम किया और उसे 21 मई को आधे दिन की छुट्टी लेने को कहा. 20 मई को सिवरासन ने पेरारिवलन को बैटरी खरीदने को कहा और साथ ही उससे एक कैमरे का रोल भी मंगवाया.

इसके बाद वह दिन आया जिसका इन लोगों को इंतजार था. सिवरासन ने सुबा और धनु को अंतिम उद्देश्य के लिए तैयार होने को कहा. धनु ने अपने शरीर में विस्फोटक लगाए और वही नया सिलवाया सलवार-कुर्ता पहन लिया. इसके बाद सिवरासन ने अपने एक साथी को ऑटो लेने भेजा और साथ ही उसे निर्देश दिए कि ऑटो को घर के नजदीक नहीं लाना है. यहां से सिवरासन, धनु और सुबा ऑटो लेकर नलिनी के घर पहुंचे. सुबा ने नलिनी को उनकी मदद करने के लिए धन्यवाद दिया और कहा कि ‘धनु आज राजीव गांधी को मारकर इतिहास बनाने जा रही है.’

लगभग पांच बजे सिवरासन के साथ ही ये तीनों महिलाएं पास के एक बस स्टॉप पर पहुंचीं. यहां हरी बाबू पहले से ही एक कैमरे और एक माला लिए मौजूद था. सभी पांचों लोग यहां से श्रीपेरंबदूर के लिए बस से रवाना हुए. लगभग 7.30 बजे ये लोग उस स्थान पर पहुंच गए जहां राजीव गांधी की सभा होनी थी. सिवरासन ने नलिनी को बताया कि उसे हर समय धनु और सुबा के साथ रहना है और इस बात का ध्यान रखना है कि कोई भी उन्हें उनकी श्रीलंकाई भाषा के कारण पहचान न ले. साथ ही उसने नलिनी को यह भी समझया कि हत्या के बाद वह सुबा को लेकर पास में बनी इंदिरा गांधी की मूर्ति के पास आ जाए और वहां दस मिनट तक उसका इंतजार करे. इसके बाद नलिनी, सुबा और धनु महिलाओं के लिए आरक्षित जगह पर बैठ गए.

राजीव गांधी के पहुंचने से कुछ समय पहले घोषणा हुई कि जो भी लोग उन्हें माला पहनाना चाहते हैं वे एक पंक्ति में खड़े हो जाएं. सिवरासन ने धनु को उसकी जगह से उठाया और उसे लेकर मंच के पास चला गया. वहां एक 14 साल की बच्ची और उसकी मां भी मौजूद थे. कोकिला नाम की यह बच्ची राजीव गांधी को हिंदी में एक कविता सुनाने वाली थी. हरी बाबू भी मंच के पास ही मौजूद था. वह एक पत्रकार के रूप में वहां मौजूद था. उसका काम था इस पूरे हत्याकांड की तस्वीरों को कैद करना. कुछ ही देर में राजीव गांधी वहां पहुंच गए. इस पर धनु ने सिवरासन और सुबा को वहां से हट जाने का इशारा कर दिया. राजीव गांधी कोकिला नाम की उस बच्ची से मिलने को रुके. कोकिला के लिए राजीव गांधी के चेहरे की वह मुस्कान उनकी जिंदगी की आखिरी मुस्कान थी. अगले ही पल एक धमाका हुआ और चारों तरफ सिर्फ लाशें, खून, चीख और आंसू पसर गए.

राजीव गांधी सहित कुल 18 लोगों की इस धमाके में मौत हो गई और कई लोग घायल हुए. धनु के साथ ही इस षड्यंत्र में शामिल हरी बाबू की भी मौत हो गई. हरी बाबू का काम फोटो खींचने का था. लिट्टे के हर ऑपरेशन की तस्वीरें और वीडियो बनाई जाती थी. ऐसा दो कारणों से होता था. पहला, लिट्टे के अन्य सदस्यों को इन तस्वीरों के आधार पर असल घटनाओं का उदाहरण देते हुए ट्रेनिंग देना. और दूसरा, जब ईलम अलग राष्ट्र बने तो इसके संघर्ष में जान गंवाने वाले क्रांतिकारियों के बारे में आने वाली पीढ़ियों को बताया जा सके. लेकिन लिट्टे की यही दूरगामी सोच इस मामले में उसके गले का फंदा बनी. हरी बाबू की लाश के साथ  पुलिस ने यह कैमरा बरामद किया जो इस षड्यंत्र को बेनकाब करने में सबसे अहम साबित हुआ.

हत्याकांड के तीन दिन बाद ही इसकी जांच सीबीआई को सौंप दी गई. इसके बाद गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरू हुआ. एक महीने के भीतर ही नलिनी और मुरुगन जैसे मुख्य लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया. सिवरासन और सुबा सहित कई आरोपितों ने गिरफ्तारी से पहले ही आत्महत्या कर ली. सीबीआई ने पूरे एक साल में मामले की जांच पूरी की और विशेष न्यायालय में आरोपपत्र दाखिल कर दिया. इसमें कुल 41 लोगों को इस हत्याकांड का आरोपी बताया गया था. इनमें से 12 लोगों की मौत हो चुकी थी, तीन फरार थे और बाकी 26 गिरफ्तार कर लिए गए थे. फरार में प्रभाकरन, पोट्टू ओम्मान और अकीला शामिल थे.

इस हत्याकांड में एक पूर्व प्रधानमंत्री और कांग्रेस के प्रभावशाली नेता की मौत हुई थी. इसलिए इस हत्याकांड का राजनीतिक होना और इस हत्याकांड पर राजीनति होना दोनों ही स्वाभाविक थे. न्यायालय में चल रहे मामले के साथ ही हत्या के एक हफ्ते बाद ही एक जांच आयोग भी बना दिया गया था. जस्टिस वर्मा की अध्यक्षता वाले इस आयोग का काम था राजीव गांधी की सुरक्षा में हुई चूक की जांच करना. कुछ समय बाद ही जस्टिस वर्मा से इस हत्याकांड के पीछे के षड्यंत्र की भी जांच करने को कहा गया.उन्होंने यह जांच करने से इनकार कर दिया और अपनी जांच को सुरक्षा में हुई चूक तक ही सीमित रखने की बात कही. इसके बाद यह काम जस्टिस मिलाप चंद जैन को दिया गया. 23 अगस्त, 1991 को जैन आयोग का गठन हुआ. यह आयोग कई तरह के विवादों में घिरता रहा. कभी सीबीआई के दस्तावेजों की जांच को लेकर तो कभी न्यायालय की प्रक्रिया में बाधा बनने संबंधी सवाल जैन कमीशन पर लगतार होते रहे. जैन कमीशन तब सबसे ज्यादा चर्चा का विषय बना जब इसकी अंतरिम रिपोर्ट लीक हुई. इस रिपोर्ट में तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री करुणानिधि की भी राजीव गांधी की हत्या में भूमिका होने की बात कही गई थी. रिपोर्ट में बताया गया था कि तमिलनाडु सरकार तब भी लिट्टे को पूरी तरह समर्थन कर रही थी जब भारत और श्रीलंका के बीच समझौता हो चुका था और भारतीय सेना लिट्टे के खिलाफ लड़ रही थी. रिपोर्ट के अनुसार करुणानिधि जब 1989 में मुख्यमंत्री बने तो इसके बाद प्रदेश में लिट्टे की हर अवैध गतिविधि को नजरअंदाज किया जाने लगा और लिट्टे की सक्रियता यहां काफी बढ़ गई. जैन रिपोर्ट में करुणानिधि पर सबसे गंभीर आरोप खुफिया विभाग की दो रिपोर्ट्स के आधार पर लगाए गए हैं. 1990 में लिट्टे ने मद्रास में एक तमिल संगठन के नेता पद्मनाभ और उसके 15 अन्य साथियों की हत्या कर दी थी. इन हत्याओं के नौ दिन बाद खुफिया  विभाग ने दो रिपोर्ट जमा की थी. इनमें से एक रिपोर्ट में बताया गया कि ‘मुख्यमंत्री नातेसन (एक लिट्टे नेता) को बता रहे हैं कि अपनी गतिविधियों और छिपने के ठिकानों की जानकारी पहले ही देते रहना ताकि पुलिस को ऐसी जगहों से दूर रखा जा सके.’ इसके साथ ही इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि मुख्यमंत्री ने पद्मनाभ के गद्दार होने की बात भी कही थी. साथ ही जैन कमीशन की रिपोर्ट में तमिलनाडु के गृह सचिव का एक बयान भी है जो करुणानिधि पर गंभीर सवाल करता है. गृह सचिव नागराजन का बयान है, ‘पद्मनाभ की हत्या के बाद राज्य के डीजीपी ने मुझे बताया कि मुख्यमंत्री ने निर्देश दिए हैं कि पुलिस को तब तक इस मामले में आरोपितों को ढूंढने में दिलचस्पी दिखाने की कोई जरूरत नहीं है जब तक मुख्यमंत्री लौटकर आगे के निर्देश नहीं देते.’ पद्मनाभ हत्याकांड इसलिए भी ज्यादा प्रासंगिक है क्योंकि इसे भी उन्हीं लोगों ने अंजाम दिया था जिन्होंने बाद में राजीव गांधी की हत्या की. जैन कमीशन ने राजीव गांधी हत्याकांड में सीबीआई द्वारा की गई जांच पर भी सवाल खड़े किए थे और कई मुद्दों पर पुनः जांच की बात कही थी. लेकिन जैन कमीशन पर यह भी आरोप लगते रहे हैं कि इसकी रिपोर्ट बहुत हद तक राजनीतिक रूप से प्रभावित थी और इस रिपोर्ट का लीक होना भी सुनियोजित था.

जैन कमीशन की रिपोर्ट पूरी होने तक न्यायालय की कार्रवाई भी पूरी हो चुकी थी. इस मामले को आतंकवादी प्रवृति का मानते हुए सभी आरोपितों पर टाडा कानून लागू किया गया था. इस कानून के अनुसार पुलिस के सामने दिया गया इकबालिया बयान भी न्यायालय में स्वीकार्य होता है. लिहाजा इन सभी आरोपितों के बयान इस मामले में बहुत अहम साबित हुए. इनके अलावा लगभग एक हजार गवाहों के लिखित बयान, 288 गवाहों से जिरह, 1477 दस्तावेजों जिनकी कुल संख्या 10000 से ज्यादा थी, 1,180 नमूनों एवं सबूतों और वकीलों के हजारों तर्कों के बाद विशेष न्यायालय ने सभी 26 दोषियों को हत्या और षड्यंत्र का दोषी पाया और सबको मौत की सजा सुना दी. विशेष न्यायालय के अनुसार यही इस मामले में न्याय था.

इस फैसले को चुनौती देने सभी आरोपित सर्वोच्च न्यायालय पहुंचे. यहां तीन जजों की बेंच को यह मामला सौंपा गया. विशेष न्यायालय के फैसले के एक साल बाद ही इस मामले में न्याय की परिभाषा पूरी तरह से बदल गई. सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि विशेष अदालत का फैसला न्याय नहीं बल्कि ‘न्यायिक नरसंहार’ है. देश की सबसे बड़ी अदालत ने 1999 में इन 26 में से 19 लोगों को रिहा कर दिया. कोर्ट ने इन सभी को हत्या और षड्यंत्र का दोषी नहीं माना और कहा कि जो अपराध इन पर बनते थे उनकी सजा ये लोग आठ साल जेल में रह कर पूरी कर चुके हैं. तीन अन्य आरोपितों के अपराध को भी कम गंभीर पाते हुए न्यायालय ने उनकी फांसी को आजीवन कारावास में बदल दिया. नलिनी, मुरुगन, संथन और पेरारिवलन के अपराध को ही कोर्ट ने अक्षम्य मानते हुए फांसी की सजा सुनाई. इस फैसले में एक जज रहे जस्टिस थॉमस नलिनी की फांसी को माफ करने पक्ष में थे. लेकिन दो-एक के बहुमत से उसकी फांसी बरक़रार रही.
गिरफ्तार होने के कुछ महीनों बाद ही नलिनी की एक बेटी हुई थी. यह बेटी काफी समय तक जेल में उसके साथ ही रही. जस्टिस थॉमस द्वारा नलिनी की फांसी माफ करने का एक कारण यह भी था कि उसकी एक छोटी बेटी थी और  यदि मुरुगन और नलिनी दोनों को फांसी होती तो यह बच्ची अनाथ हो जाती. सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद सोनिया गांधी व्यक्तिगत तौर पर राष्ट्रपति से मिलीं और उनसे नलिनी की फांसी माफ करने की अपील की. साल 2000 में दया याचिका को मंजूर करते हुए नलिनी की फांसी माफ कर दी गई. जेल से बाहर रहते हुए नलिनी ने राजीव गांधी की हत्या की कुख्याति प्राप्त की तो जेल में रहते हुए एक कीर्तिमान भी अपने नाम किया. वह जेल में रहते हुए एमसीए की पढ़ाई पूरी करने वाली पहली भारतीय बन गई है. यह भी एक संयोग ही है कि उसे अपनी यह डिग्री ‘इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय’ से मिली है.

नलिनी की फांसी माफ होने के बाद इस मामले में तीन ही आरोपित फांसी की राह पर रह गए थे. इन्होने राष्ट्रपति के सामने 2000 में दया याचिका दाखिल की. इस दया याचिका पर 11 साल बाद फैसला लिया गया. भारतीय इतिहास में सबसे ज्यादा फांसियां माफ करने वाली राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने इनकी फांसी को माफ नहीं किया. उन्हें इन तीन आरोपितों को मौत की सजा देना ही न्याय लगा. 2011 में राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका खारिज हो जाने के बाद इन तीनों आरोपितों को फांसी देने के लिए नौ सितंबर 2011 का दिन तय किया गया. लेकिन अब मद्रास उच्च न्यायालय ने इसे अन्याय माना और इस पर रोक लगा दी. मामला एक बार फिर से सर्वोच्च न्यायलय में पहुंच गया. फरवरी 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह माना कि अब फांसी देना सही नहीं है क्योंकि इनकी दया याचिका को 11 साल तक लंबित रखा गया था. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इन तीन आखिरी आरोपितों की भी फांसी माफ कर दी गई. इस फैसले के अगले ही दिन तमिलनाडु सरकार ने जेल में कैद सभी सात आरोपितों को रिहा करने की घोषणा भी कर दी. लेकिन केंद्र सरकार ने इसका विरोध किया और यह मामला फिर से न्याय तलाशता हुआ सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया.

न्याय की किताबी परिभाषाओं से इतर यदि व्यावहारिकता देखी जाए तो न्यायालय का फैसला ही न्याय माना जाता है. इस तरह से 18 लोगों की हत्या के इस मामले में जो भी और जब भी हुआ न्याय ही हुआ है. 26 लोगों को फांसी होना भी न्याय था, 19 लोगों का बरी होना भी न्याय था, चार लोगों को फांसी होना भी न्याय था और सबकी फांसी माफ होना भी न्याय था. अब बाकी सात लोगों पर फैसला चाहे रिहाई का आए या आजीवन कारावास का, जो भी फैसला होगा वह न्याय ही होगा.

किलों के प्यार ने जिसे भारतीय बना दिया था

imgफ्रांसिस का जन्म एक पुर्तगाली जहाज पर हुआ जो उनके परिवार को फ्रांस से क्यूबा ले जा रहा था. साढ़े चार साल क्यूबा में रहने के बाद फ्रांसिस का परिवार वापस फ्रांस चला गया और दो साल बाद मोरक्को. मोरक्को में आठ साल रहने के बाद, जहां फ्रांसिस ने स्कूली शिक्षा हासिल की, उनका परिवार वापस फ्रांस आकर बस गया जहां उन्होंने कॉलेज और एमबीए किया. फिर आगे की पढ़ाई के लिए वे एक साल ब्रिटेन में रहे. इसके बाद फ्रांस का नागरिक होने के नाते एक साल की अनिवार्य मिलिट्री ट्रेनिंग के लिए जर्मनी भेजे गए. अगले दो साल मैक्सिको और ब्राजील में गुजारने के बाद उन्होंने भारत का रुख किया. पिछले 41 साल से फ्रांसिस यहीं रह रहे थे.
तहलका ने कुछ समय पहले उनसे मुलाकात की थी. खुद को आखिरी समय तक वामपंथी मानने वाले फ्रांसिस पहली बार भारत 1969 में एक कट्टर वामपंथी पत्रकार दोस्त के साथ आए जो नक्सलबाड़ी आंदोलन कवर करना चाहता था. ये दोनों कई वामपंथी नेताओं से मिले जिनमें ईएमएस नंबूदिरीपाद  (केरल और देश की पहली वामपंथी सरकार के मुख्यमंत्री) भी थे. तहलका से बात करते हुए उनका कहना था, ‘नंबूदिरीपाद बेहद अच्छे इंसान थे, खुले विचारों के और सीधा बोलने वाले. काफी संपन्न और रुढ़िवादी परिवार से होने के बाद भी उन्होंने अपना सब-कुछ छोड़ कर लोगों के लिए काम किया.’ लेकिन बाद में फ्रांसिस नंबूदिरीपाद की विचारधारा के विरोधी हो गए.उनका कहना था, ‘तब मैं सिर्फ 26 का था. उस उम्र में समाज को बदलने और चीजों को सुधारने को लेकर आप ज्यादा उत्साहित रहते हैं. लेकिन आज जब पलट कर देखता हूं तो काफी मुद्दों पर उनका नजरिया सही नहीं लगता.’ उसी दौरान वे फ्रांसिस मृणाल सेन और सत्यजीत रे के भी करीब आए. उस दौर की नई धारा के सिनेमा के आंदोलन में भी शामिल हुए और श्याम बेनेगल, कुमार साहनी, मणि कौल जैसे दिग्गजों के साथ काम भी किया.

दूसरी तरफ पत्रकार दोस्त यहां वामपंथ की हालत से नाराज एक महीने में ही वापस लौट गया मगर फ्रांसिस अगले तीन महीनों के लिए यहीं रुक गए. उन्हें भारत से प्यार हो गया था. कुछ लव एट फस्ट साइट जैसा. उन्होंने ट्रेन के थर्ड क्लास डिब्बे से लेकर लोकल बसों में सफर किया. इस देश के आम लोगों को करीब से जाना और उनसे खूब बातचीत की. लोगों के साथ यह संपर्क ही वह चीज थी जिसकी तरफ फ्रांसिस सबसे ज्यादा आकर्षित हुए. मगर उन्होंने हमेशा के लिए भारत में रुकने का फैसला कर्नाटक में एक गरीब जुलाहों के गांव में कुछ हफ्ते बिताने के बाद लिया. बकौल फ्रांसिस, ‘उस गांव की जगह अगर दिल्ली या मुंबई में वह वक्त गुजारता तो शायद मैं यहां रहने का फैसला नहीं करता. वह भारत के साथ मेरे लव अफेयर की शुरुआत थी.’

इसके बाद फ्रांसिस ने मुंबई स्थित फ्रांस के वाणिज्य दूतावास में सहायक वाणिज्य आयुक्त की नौकरी कर ली. वहीं फ्रांसिस के घरवालों ने उनके फैसले का समर्थन तो किया मगर चिंता भी जताई. दरअसल 1970 के उस दौर में बाहर देशों में भारत की पहचान गाय, फकीर, गरीबी और गंदगी के तौर पर ही थी.

कुछ साल बाद 1977 में फ्रांसिस शेखावटी के भित्तिचित्रों पर अपने दोस्त अमरनाथ के साथ मिलकर लिखी जा रही एक किताब के सिलसिले में राजस्थान के सीकर और झुंझुनू जिलों में गए. यहां शोध के दौरान उन्होंने पहली बार नीमराना किले को देखा जो पिछले 40 सालों से खंडहर था. इस किले के बारे में फ्रांसिस का कहना था ‘उस किले को देख कर हमें उससे इस कदर प्यार हो गया कि हमने 1986 में वहां के महाराजा से उसे सात लाख में खरीद लिया. उस समय हमें नहीं पता था कि हम इसे होटल में तब्दील करेंगे. लेकिन बाद में जब हमने कुछ कमरों का नवीनीकरण कर अपने दोस्तों को दिखाया तो उन लोगों ने इसे इतना पसंद किया कि वे यहां रहने चले आए. हम लोगों को पता चलता उससे पहले ही नीमराना किला एक होटल बन चुका था.’

kile
नीमराना किला जिसे नवीनीकरण करने के बाद होटल में बदल दिया गया.

नीमराना होटलों की श्रृंखला के तहत अब तक 26 पुराने महलों, किलों और इमारतों का नवीनीकरण कर उन्हें हेरीटेज होटलों में तब्दील किया जा चुका है. नीमराना के हर होटल में वहां की स्थानीय संस्कृति को तरजीह दी जाती है और शिल्पकृतियां और फर्नीचर भी स्थानीय होते हैं. यहां नामचीन कालेजों से प्रोफेशनल नहीं लिए जाते और एमबीए डिग्री वाले भी कम ही हैं. हर होटल में उस जगह के स्थानीय लोगों को नौकरी दी जाती है. फ्रांसिस ने ऐसा जानबूझकर किया था. उनके मुताबिक वे दो चीजों के प्रति प्रतिबद्ध थे, स्थानीय लोगों को मौका देने और धरोहरों का संरक्षण करने के लिए.

दूसरे लोगों को यह जानकर ताज्जुब होगा कि उनके कई होटलों में ऐसे लोग काम करते हैं जो शुरू में उनके लिए पत्थर काटा करते थे या दीवारों का निर्माण करते थे. वे लोग आज वेटर, कैप्टन से लेकर मैनेजर तक हैं. इस अपरंपरागत सोच की एक वजह शायद यह भी है कि खुद फ्रांसिस कभी व्यवसायी नहीं रहे. उनके दोस्त भी ऐसे ही थे जिनमें किसी के पास होटल मैनेजमेंट की डिग्रियां नहीं थीं.

नीमराना के ज्यादातर होटलों का नवीनीकरण पुराने परंपरागत तरीकों से होता है. यह काम उन मिस्त्री और कारपेंटरों का है जो पुरानी विधा में पारंगत होने की वजह से आज भी झरोखे, वृत्ताकार छत वगैरह बनाने में माहिर हैं. ये लोग चूना और पत्थर से दीवारें बनाते हैं और आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल करने से बचते हैं. यह जानकर किसी को भी हैरत हो सकती है कि फ्रांसिस ने नीमराना होटलों के निर्माण में जिस चूने का उपयोग किया उसकी पिसाई का काम ऊंटों द्वारा ही हुआ था. फ्रांसिस का कहना था, ‘ आपको ज्यादातर नीमराना होटलों के कमरों में न टीवी मिलेगा न टेलीफोन. साथ ही रूम सर्विस का भी प्रावधान नहीं है. इसलिए शुरुआत में हमारे होटलों में भारतीय कम ही आते थे क्योंकि उन्हें ज्यादा आवभगत की आदत होती है लेकिन धीरे-धीरे लोगों को हमारा फलसफा समझ आने लगा और अब हमारे यहां आनेवालों में ज्यादातर भारतीय ही हैं.’

अगर रूपक में बात करें तो फ्रांसिस नावों के एक ऐसे समूह का हिस्सा रहे जो कई देशों की संस्कृति, पहचान, भाषा, खान-पान, पहनावे के बीच तैरते रहे. लेकिन बकौल फ्रांसिस, ‘मेरे अंदर पहचान को लेकर कोई द्वंद नहीं रहा. मैं दो संस्कृतियों के बीच में बैठा हूं और देखने वाले को यह तकलीफदेह लग सकता है लेकिन मुझे इस तरह जीने में बहुत मजा आता है.’ उनका भारतीय नागरिकता लेने का अनुभव भी कम रोचक नहीं है. उन्होंने 1984 में भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन दिया था और छह साल बाद 1990 में फ्रांसिस को यहां नागरिकता मिली. उस साल 31 दिसंबर की शाम को उन्होंने संविधान की शपथ ली और उसके अगले दिन नए साल वे भारतीय नागरिक बन गए. पिछले 21 साल से भारत में वोट कर रहे फ्रांसिस के लिए भारतीय नागरिकता लेने का फैसला व्यवहारिक या बिजनेस से जुड़ा न होकर भावनात्मक ज्यादा था. उनका कहना था, ‘मैं बहुत गहराई तक भारतीय संस्कृति से जुड़ा हुआ हूं. काफी लंबे अरसे से मैं यहां रह रहा हूं. मेरे साथ अक्सर होता है कि विदेश से भारत लौटने पर जब मैं एयरपोर्ट पर भारतीय नागरिकों वाली कतार में खड़ा होता हूं तो लोग मुझे टोकते हैं कि मैं गलत कतार में हूं. तब मैं उन्हें बताता हूं कि नहीं, मैं सही जगह खड़ा हूं. और ऐसा करते वक्त मुझे बहुत खुशी होती है.’

‘दस हजार में टाइपिस्ट तक नहीं मिलेगा’

मनीषा यादव
मनीषा यादव
मनीषा यादव

दिल्ली में सऊदी अरब के दूतावास में स्थायी हिंदी अनुवादक की जरूरत थी. मेरे पास कॉल आई. उस वक्त जिंदगी बुरी तरह से बेपटरी थी. जेब में गिनती के पैसे थे, करने को काम नहीं और रहने को घर नहीं वाली नौबत थी. मैं किसी चमत्कार के इंतजार में था. कॉल आई तो दिल बाग़-बाग़ हो गया. उम्मीद कमाल की चीज होती है. यह आती है और सारी उदासी हवा हो जाती है, खासकर तब जब आप बेहद बुरे दौर से गुजर रहे हों. जिस दिन कॉल आई उसी दिन मैं भोपाल पहुंचा था. एक दोस्त के पास दस-पंद्रह दिन गुजारने का दिल था ताकि कुछ दिन तमाम उलझनों से दूर रहूं. स्टेशन के पास ही दो सौ रुपये में किराए पर कमरा लिया था, जहां मेरा दोस्त मुझे शाम को मिलता और फिर मैं उसके साथ हो लेता. पर किस्मत कहीं और ही ले जाना चाहती थी.

कॉल आने के बाद तो मैं जैसे खुशी से पागल हो गया था क्योंकि मुझे हमेशा यकीन रहता था कि अगर इंटरव्यू तय हो गया है तो नौकरी तो पक्की है. बहरहाल मैंने अपने दोस्त को कॉल करके आने से मना किया और रात की ट्रेन पकड़कर वापस दिल्ली चला आया.

जेब लगभग खाली थी. जेएनयू में दोस्तों के कमरे ही अपना आशियाना थे. वहीं एक दोस्त के पास पहुंचा. नहा-धोकर तैयार हुआ और वसंत विहार में स्थित दूतावास के लिए रवाना हुआ. लगातार सोलह घंटों के सफर के बाद, बिना आराम किए मैं इंटरव्यू के लिए निकल चुका था पर थकान जैसी कोई चीज महसूस नहीं हो रही थी.

मेरे सामने दूतावास का आलीशान भवन था. कला और शिल्प की सैकड़ों निशानियां भवन के बाहर से देखी जा सकती थी. अच्छी तरह तस्दीक कर लेने के बाद सुरक्षाकर्मी ने मुझे अंदर जाने की इजाजत दी. अंदर मौजूद एक-एक चीज मुझे अपनी ओर आकर्षित कर रही थी. चाहे वो फर्श पर बिछी कालीन हो, या रिसेप्शन पर लगी मेज और कुर्सियां, गमले की नक्काशी हो या झूमर की साइज! लग रहा था जैसे किसी दूसरी दुनिया में पहुंच गया हूं. ये शान-ओ-शौकत देखकर मैंने मन ही मन यह विचार करना शुरू कर दिया था कि कितनी तनख्वाह मांगनी है. मुझे दूतावास में पदस्थ संस्कृति विभाग के मुखिया से मिलना था. उनका नाम अरबी लफ्जों से बना था.

इन साहब का दफ्तर बेडरूम की औसतन साइज का तीन गुना तो बेशक था. उन्होंने मुझे भी सामने वाली कुर्सी पर बैठने का इशारा किया. हिंदी उन्हें आती नहीं थी सो अंग्रेजी में बातचीत शुरू हुई. साहब का पहला सवाल कुछ यूं था- तो राहुल, तुम्हें पता है, तुम यहां क्यों हो? उस आलीशान भवन का असर मुझ पर कुछ ऐसा हुआ था कि मुझे वो साधारण-सा सवाल भी बड़ा दार्शनिक-सा लगा. हालांकि मुझे दार्शनिक जवाब सूझा नहीं- बतौर हिंदी अनुवादक काम करने के लिए. इसके बाद मेरे अनुभवों और शैक्षणिक डिग्रियों पर बात हुई. फिर टेस्ट लिया गया, जिसमें मैं अच्छे नंबर से पास हो गया.

इस बीच यह बताना जरूरी है कि डॉक्टर साहब की अंग्रेजी भी थोड़ी अरबी टोन में थी तो कई बार मुझे उन्हें समझने में भारी मशक्कत करनी पड़ती. इसी टोन में उन्होंने मुझे बताया, तुम्हारी नौकरी पक्की है, तुम्हारी तनख्वाह इतनी है और तुम आज से ही काम शुरू कर दो. मैंने सब कुछ सुना पर तनख्वाह समझने में फेर हुई.

मुझे एचआर के पास ले जाया गया जो भारतीय थे और उन्हें हिंदी आती थी. उन्होंने दस्तखत करने के लिए मेरी और कागजात बढ़ाया तो उस पर तनख्वाह थी दस-हजार रुपये प्रति माह. मेरे तो पैर के नीचे से जमीन खिसक गई. ‘ये तो भारत के प्रकाशकों और सरकारी विभागों से भी गए गुजरे निकले’, मैंने मन ही मन सोचा. ‘दस हजार… सच में’, मुझे यकीन नहीं हो रहा था. मैंने एचआर को कहा कि दस्तखत करने से पहले मैं डॉक्टर साहब से एक बार और मिलना चाहता हूं.

साहब ने कहा, ‘राहुल, मैंने तो तुम्हें पहले ही तनख्वाह बता दी थी और तुमने हामी भी भर दी थी.’ मैंने कहा, ‘सर, आप वाकई दस हजार ऑफर कर रहे थे?’ जवाब आया- हां. मैंने कहा, ‘सर, इतने में आपको हिंदी टाइपिस्ट भी नहीं मिलेगा, अनुवादक तो भूल ही जाइए.’ फिर याद आया, यहां रहकर भी किसी और ही दुनिया में रहने वाले यही तो लोग हैं जिन्हें खाने और रहने के लिए कभी अपने बटुए का इस्तेमाल नहीं करना पड़ता. इन्हें लगता है दुनिया अब भी वहीं अटकी है जहां पांच और दस रुपये में पेट भर खाना मिल जाता है और जहां दस हजार हैंडसम अमाउंट है. मैं वहां से निकल पड़ा- खुद पर हंसते और झल्लाते हुए.

(लेखक मीडिया से जुड़े हैं और मुंबई में रहते हैं.)

एक सरकार मंत्री हजार!

फोटोः प्रमोद सिंह

राजनीति में भले ही मुलायम सिंह यादव और मायावती में 36 का आंकड़ा हो, लेकिन पूर्ववर्ती बसपा सरकार के एक विवादास्पद कदम का इस्तेमाल करने में मौजूदा सपा सरकार को कोई हिचक नहीं. दरअसल उत्तर प्रदेश सरकार पूर्ववर्ती बसपा सरकार द्वारा 2007 में जारी एक शासनादेश (ऑफिस मेमोरेंडम) के आधार पर ‘मंत्रियों’ की एक ऐसी परिषद का संचालन कर रही है जिसका आकार राज्य कैबिनेट से करीब तीन गुना बड़ा है. उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्रीपद का दर्जा पाए 200 से ज्यादा ये लोग प्रदेश के कई बोर्डों या परिषदों के प्रमुख हैं या सरकारी विभागों के सलाहकार की भूमिका में हैं. ये सभी समाजवादी पार्टी में दूसरी या तीसरी पांत के नेता हैं  और किसी न किसी जाति या समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं. इनको मायावती सरकार के दौरान जुलाई, 2007 में जारी एक शासनादेश के आधार पर कैबिनेट मंत्री, राज्य मंत्री या उप मंत्री का दर्जा दिया गया है. सरकार द्वारा इन अतिरिक्त ‘ मंत्रियों ‘ की नियुक्ति को चुनौती देते हुए इस मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर करने वाले सच्चिदानंद गुप्ता कहते हैं, ‘ इन लोगों का समूह अपने आप ही एक अलग कैबिनेट हो गई. यह चोर दरवाजे से बनाई गई मंत्रिेयों की परिषद है, जो संवैधानिक रूप से बने मंत्रिमंडल जिसके मुखिया मुख्यमंत्री अखिलेश यादव हैं, से बहुत बड़ी है. यह सीधे-सीधे संविधान का उल्लंघन है. संविधान में 2003 में हुए 91वें संशोधन के मुताबिक सरकार राज्य विधानसभा के कुल सदस्यों की संख्या के 15 फीसदी से ज्यादा मंत्री नहीं बना सकती है और इसमें मुख्यमंत्री भी शामिल है.’

इस याचिका पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 13 दिसंबर, 2013 को एक अंतरिम आदेश जारी करके उत्तर प्रदेश में इस तरह की नई नियुक्तियों पर पाबंदी लगा दी थी. इसी आदेश में निगमों, स्थानीय निकायों, प्राधिकरणों के अध्यक्षों, उपाध्यक्षों व सलाहकारों के पद पर बैठे इन लोगों द्वारा लाल बत्ती के इस्तेमाल पर भी पाबंदी लगा दी गई है. बाद में उत्तर प्रदेश सरकार उच्च न्यायालय के इस आदेश के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय चली गई. जहां यह अपील 15 फरवरी को खारिज हो चुकी है. इस माह के अंत तक इस मामले की अगली सुनवाई इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ में होनी है.

प्रदेश सरकार ने जब इन लोगों को मंत्री का दर्जा दिया है तो उन पर सरकारी खजाने से खर्च भी होता होगा. तहलका ने जब यह जानने की कोशिश की तो पता चला कि इसका आंकड़ा किसी एक जगह मिलना मुश्किल है. उत्तर प्रदेश में बजट अनुदान के लिए 92 विभाग प्रमुख हैं. इनके जरिए ही प्रदेश के सभी खर्चों के लिए पैसा दिया जाता है. हालांकि वित्त विभाग के मुताबिक हर महीने ही इन लोगों पर खर्चा करोड़ों रुपये में है. ‘

उत्तर प्रदेश में मंत्रियों की अधिकतम संख्या 60 हो सकती है जबकि चोर दरवाजे से बने इन मंत्रियों की वजह से यह संख्या 200 के पार पहुंच गई है. ‘ गुप्ता कहते हैं, ‘ ये राजनेता खुद को मंत्री की तरह से पेश कर रहे हैं जो कि साफतौर पर संविधान का उल्लंघन है. संविधान में 91 वें संशोधन के द्वारा सरकार में मंत्रियों की संख्या सीमित कर दी गई है, इस हिसाब से प्रदेश में इतने लोगों को मंत्री का दर्जा देना न सिर्फ असंगत और मनमाना फैसला है, यह असंवैधानिक भी है. ‘ संविधान तो खैर इन दर्जा प्राप्त मंत्रियों में बारे में जो भी कहता हो, लेकिन ये अपने को कहीं से कम नहीं समझते. इन्होंने अपने-अपने गृहजिलों में खुद को मंत्री बताने वाले बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगवाए हैं. यही नहीं, ये अपने लेटरहेडों पर खुद को मंत्री बताते हुए सरकारी विभागों तक में सिफारिशी पत्र भेजते हैं. बतौर मंत्री मुख्यमंत्री तक को इनके सिफारिशी पत्र जाते हैं.

सच्चिदानंद ने अपनी याचिका में दलील दी है कि सरकार के पास यह कानूनी अधिकार नहीं है कि वह लोगों को सलाहकार, अध्यक्ष और विभागों, बोर्डों, निगमों और आयोगों आदि का प्रमुख बनाकर कैबिनेट या राज्य मंत्री का दर्जा दे. इन नियुक्तियों का कोई कानूनी आधार नहीं है. इन लोगों के पास सरकार से जुड़ी जानकारियां होती हैं और इनकी पहुंच आधिकारिक दस्तावेजों तक होती है. ऐसे दस्तावेज जो सरकार की निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं और उन तक सिर्फ उन्हीं लोगों की पहुंच होनी चाहिए जिन्होंने गोपनीयता की शपथ ली है. इस तरह से इन दर्जा प्राप्त ‘मंत्रियों’ के पास सरकार के फैसले प्रभावित करने के पर्याप्त मौके होते हैं.

गुप्ता बताते हैं, ‘ राज्य सरकार ने अभी तक जुलाई, 2007 में जारी हुए शासनादेश को रद्द नहीं किया है. जबकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय इसे बीते दिसंबर में खारिज कर चुका है. ऐसे में तो यह न्यायालय की अवमानना का मामला बनता है. इन कैबिनेट मंत्रियों और राज्य मंत्रियों के आधिकारिक वाहनों में लाल बत्ती का इस्तेमाल और  इनकी सहूलियतों के लिए जनता के पैसे का दुरुपयोग न सिर्फ असंवैधानिक है बल्कि गैरकानूनी भी है.’

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के पूर्व प्रदेश सचिव अशोक मिश्रा भी सच्चिदानंद की बात का समर्थन करते हैं. वे कहते हैं कि राजनीतिक नियुक्तियों पर आए इन लोगों के पास अपने दर्जे के हिसाब से काम करने के अधिकार नहीं हैं. मिश्रा कहते हैं, ‘ इस तरह से राजनीतिक संरक्षण देना आजकल की राजनीति में बहुत चल रहा है लेकिन सरकार के विभिन्न विभागों में सलाहकार, सदस्य या अध्यक्ष बनाने के तरीके बिल्कुल नाजायज हैं. ये जल्दबाजी में कुछ लोगों को राजनीतिक संरक्षण देने के लिए सत्ता का दुरुपयोग है. ये नियुक्तियां अवैधानिक और मनमानी तो हैं ही ये जनता के पैसे की बर्बादी भी है.’

[box]

दर्जा और सुख-लाभ

मायावती सरकार द्वारा 2007 में जारी शासनादेश के तहत मंत्री और राज्य मंत्री का दर्जा जिन लोगों को दिया जाएगा उन्हें कई सुविधाएं मिलेंगी

  • मंत्री और राज्य मंत्रियों को हर महीने 40,000 रुपये का मानदेय दिया जाएगा और यह मानदेय उस संबंधित निकाय या उससे जुड़ी प्रशासनिक इकाई को वहन करना होगा. उप मंत्री के लिए मानदेय की राशि 35,000 रुपये है.
  • ऐसे हर विशिष्टजन को वाहन चालक के साथ वाहन की सेवाएं उपलब्ध करवाई जाएंगी. इसमें लाल बत्ती होगी. ईंधन और अन्य खर्चे सरकार देगी
  • हर एक मंत्री को दो टेलीफोन कनेक्शन (एक घर में और एक कार्यालय में), दो निजी सहायक और दो चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी उपलब्ध कराए जाएंगे
  • राज्य संपत्ति विभाग इन लोगों को सरकारी आवास देगा. यदि कोई मंत्री इस आवास में नहीं रहता तो सरकार उसे हाउस रेंट के रूप में 10,000 रुपये देगी. उपमंत्री के लिए यह अलाउंस 8,000 रुपये है.
  • आधिकारिक दौरे पर मंत्रियों को उनके सहायक के साथ हवाई जहाज या रेलवे का एसी प्रथम श्रेणी का टिकट दिया जाएगा
  • मंत्रियों के परिवार के सदस्यों का इलाज मुफ्त में होगा. निजी अस्पताल के खर्चे सरकार वहन करेगी
  • ये लोग यदि राज्य का दौरा कर रहे हैं तो प्रतिदिन के हिसाब से इन्हें 100 रुपये महंगाई भत्ता मिलेगा. राज्य के बाहर जाने पर यह 750 रुपये होगा
  • अतिथियों के लिए नाश्ते और खानपान के लिए मंत्रियों को हर महीने 10,000 रुपये का भत्ता देने का प्रावधान है. राज्य मंत्रियों के लिए यह राशि 7,500 रुपये और उप मंत्रियों के लिए 6,500 रुपये है

[/box]

इस पूरे मसले पर उत्तर प्रदेश सरकार के अतिरिक्त महाधिवक्ता जफरयाब जिलानी सरकार की स्थिति को मुश्किल मानते हैं. वे कहते हैं, ‘ इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह फैसला कि सरकार ने जिन लोगों को कैबिनेट या राज्य मंत्री का दर्जा दिया है वे  लाल बत्ती लगे वाहनों का इस्तेमाल नहीं कर सकते, बिल्कुल स्पष्ट है. क्योंकि इन लोगों की किसी संवैधानिक पद पर नियुक्ति नहीं हुई है. हालांकि इस फैसले में नई नियुक्तियों पर ही पाबंदी लगाई गई है. इस अंतरिम आदेश के पहले जिन लोगों को मंत्री और राज्य मंत्री दर्जा दिया गया है उनको राज्य सरकार पहले की तरह सुविधाएं दे सकती है क्योंकि अदालत ने इस पर प्रतिबंध नहीं लगाया है.’

इस पूरी बहस के बीच एक पक्ष उन नेताओं का भी है जिन्हें ऐसे पदों से नवाजा गया है. इन्हीं में से एक सुरेश पांडे दावा करते हैं कि सरकार उनके लिए कोई अतिरिक्त सुविधाएं नहीं देती. वे कहते हैं, ‘ मैं चार दशकों से सार्वजनिक जीवन में हूं. मुझे नहीं लगता कि सरकार ने कुछ सुविधाओं के साथ मुझे मंत्री का दर्जा देकर कोई विशेष कृपा की है.’ राज्य योजना आयोग में सलाहकार पांडे यह भी कहते हैं, ‘ उच्च न्यायालय के आदेश का पालन करने के लिए सरकार जो भी कदम उठाएगी मैं उसके साथ हूं. हालांकि जहां तक मुझे लगता है तो सरकार जल्द ही जुलाई,2007 के शासनादेश में बदलाव करेगी और कुछ सुविधाओं और लाभों में कटौती करेगी.’

‘अटल भी भाजपा से नाराज’

karuna_shukla-congress-neatपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी भाजपा की वर्तमान कार्यप्रणाली से खुश नहीं है. भले ही वे स्वास्‍थ्यगत कारणों से कुछ भी नहीं बोल पा रहे हों, लेकिन वे भाजपा पर हावी एक गुट को लेकर चिंतित रहते हैं. ये आरोप हैं पूर्व प्रधानमंत्री की भतीजी करुणा शुक्ला का. कभी भाजपा की टिकट से लोकसभा सांसद रहीं करुणा शुक्ला हाल ही में कांग्रेस में शामिल हुई हैं. शुक्ला का कहना है कि कांग्रेस में शामिल होने के पहले और बाद में वे अटल जी से मिलने उनके आवास गई थीं. तब अटल जी के साथ रह रहे अन्य परिजनों ने उनके कदम का समर्थन करते हुए उनकी हौसला अफजाई की थी.

कांग्रेस का पक्ष लेते हुए करुणा शुक्ला ने कहा कि भाजपा भ्रष्टाचारियों से भरी पड़ी है. जबकि कांग्रेस ने हमेशा अपने भ्रष्ट नेताओं पर कार्रवाई कर कड़ा संदेश दिया है. शुक्ला ने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह पर कटाक्ष करते हुए कहा कि भ्रष्टाचार को लेकर सीएम के जीरो टॉलरेंस की परते उधड़नी अभी बाकी हैं. अभी तो भाजपा सरकार को कई तरह का ‘टॉलरेंस’ सहना होगा. शुक्ला ने ये आरोप भी लगाया कि जिस राम जेठमलानी ने अटल बिहारी बाजपेयी के खिलाफ बगावती तेवर अपनाकर चुनाव लड़ा था, भाजपा ने उन्हीं को राज्यसभा भेजकर अटल जी को भुला देने के संकेत दे दिए थे. करुणा शुक्ला ने नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हुए कहा कि भाजपा ने जिस व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया है, उसने ना तो पतिधर्म निभाया ना ही राजधर्म. वे ऐसी पार्टी में नहीं रहना चाहती थीं जिसने उनके स्वाभिमान की रक्षा नहीं की. शुक्ला ने आरोप लगाया कि भाजपा एक गुट विशेष की पार्टी रह गई है.

विधानसभा चुनाव के वक्त बगावती तेवर के कारण पार्टी छोड़ने वाली करुणा शुक्ला 32 साल तक भाजपा में रही हैं. इस दौरान उन्होंने भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व में भी कई महत्वपूर्ण पदों पर काम किया है. वे भाजपा महिला मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रह चुकी हैं. वे छत्तीसगढ़ भाजपा में भी पांच विभिन्न अहम समितियों में भूमिका निभाती रही हैं. हालांकि करुणा शुक्ला की मुख्यमंत्री रमन सिंह से कभी नहीं पटी. 2009 में हुए विधानसभा चुनाव में वे कोरबा लोकसभा सीट पर कांग्रेस के चरणदास महंत से हार गई थीं. तभी से उनके और भाजपा संगठन के बीच दूरियां बढ़ना शुरु हो गई थीं. फिलहाल कांग्रेस करुणा शुक्ला को एक उपलब्धि के तौर पर देख रही है. ये अलग बात है कि शुक्ला के कांग्रेस की टिकट पर बिलासपुर से चुनाव लड़ने की संभावना के कारण कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व दो फाड़ हो गया हो.

अन्ना हजारे:कब बदल जाएं क्या वे खुद जानते हैं?

Anna
फोटोः विजय पांडे

छह अप्रैल 2011 को किशन बापट बाबूराव उर्फ अन्ना हजारे ने जंतर मंतर पर जन लोकपाल के लिए पहला अनशन किया था. इस आंदोलन ने अन्ना को एक सीमित पहचान से निकालकर देश के घर-घर तक पहुंचा दिया. इस अनशन का कोई नतीजा नहीं निकला. 16 अगस्त 2011 को अन्ना एक बार फिर से रामलीला मैदान में आमरण अनशन पर बैठ गए. यह उपवास तेरह दिन तक चला. कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार पर इसका जबर्दस्त दबाव पड़ा. सरकार ने 27 अगस्त 2011 को संसद में इस विषय पर आपात बहस की. इस बहस के बाद सत्ता पक्ष और विपक्ष ने एक सुर से अन्ना के प्रस्तावित जनलोकपाल के तीन मुख्य मुद्दों को शामिल करने का आश्वासन दिया. ये मुद्दे थे सिटिजन चार्टर, लोअर ब्यूरोक्रेसी को लोकपाल के दायरे में लाना और केंद्र के लोकपाल की तर्ज पर हर राज्य में लोकायुक्त का गठन. अन्ना ने अपना अनशन यह कहते हुए खत्म किया था कि वे कुछ समय के लिए अपना अनशन तोड़ रहे हैं. अगर सरकार ने उन्हें धोखा दिया और मजबूत लोकपाल नहीं बनाया तो वे एक बार फिर से अनशन पर बैठेंगे. सरकार और टीम अन्ना के बीच गतिरोध बना रहा क्योंकि सरकार अन्ना को आश्वासन से ज्यादा कुछ नहीं दे पायी थी. इसके बाद साल 2013 आया. अब तक स्थितियां बदल चुकी थीं. अन्ना के मुख्य साथी अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण उनका साथ छोड़कर राजनीतिक पार्टी बना चुके थे. अन्ना इस दौरान बार-बार यह कहते रहे कि राजनीति कीचड़ है, मैं इसमें जाने का पक्षधर नहीं हूं. केंद्र सरकार ने इस बीच अपना लोकपाल पारित कर दिया जिसे अन्ना ने अपनी जीत घोषित करते हुए स्वीकार कर लिया. जब उनके पुराने सहयोगी अरविंद केजरीवाल ने केंद्र सरकार के लोकपाल की इस आधार पर आलोचना की कि इसमे वादे के मुताबिक तीन प्रमुख बिंदुओं को शामिल ही नहीं किया गया है तब अन्ना हजारे ने एक महत्वपूर्ण बयान दिया, ‘यह लोकपाल मजबूत है. अगर अरविंद को इससे कोई परेशानी है तो वे अपना लोकपाल खुद बना लें.’ यह अन्ना के रुख में चमत्कारिक परिवर्तन था, लेकिन अन्ना यहीं नहीं रुके. कुछ ही महीने के बाद जब अरविंद ने दिल्ली में लोकायुक्त के मसले पर अपनी सरकार गिरा दी तब अन्ना ने एक और महत्वपूर्ण बयान दिया, ‘अरविंद को केंद्र के लोकपाल पर समझौता कर लेना चाहिए था.’ उस एक मुद्दे पर जिसने अन्ना हजारे को घर-घर का जाना-पहचाना चेहरा बना दिया था, उस पर तीन सालों के भीतर तीन अलग-अलग बातें अन्ना के विचित्र और विरोधाभासी व्यक्तित्व के बारे में हमें काफी कुछ बताती हैं. अन्ना के शुरुआती जीवन से ही उनकी गतिविधियों को देख-परख रहे वरिष्ठ पत्रकार कुमार केतकर के शब्दों में, ‘अन्ना हजारे के अंदर नेटिव कनिंगनेस (गंवई चतुराई) कूट-कूट कर भरी हुई है. वे समय-समय पर अपने को रिपोजीशन करते रहते हैं. उनके भीतर वैचारिक ठहराव नाम की चीज है ही नहीं.’

अन्ना के अतीत की कुछ घटनाएं उनके व्यक्तित्व को ज्यादा गहराई और ज्यादा आसानी से समझा सकती हैं. मसलन राजनीति के बारे में उनके विचारों को थोड़ा पीछे जाकर देखने पर हम पाते हैं कि उनमें जबर्दस्त उठापटक और विसंगतियां मौजूद हैं. आम सी पारिवारिक पृष्ठभूमि से आने वाले अन्ना हजारे ने सातवीं तक की पढ़ाई मुंबई में अपनी बुआ के पास रह कर की और वहीं पर दादर स्टेशन के पास वे फूलों की दुकान भी चलाते थे. समय बीतने के साथ अन्ना भारतीय सेना में ड्राइवर बन गए. 1965 के भारत-पाक युद्ध में उन्होंने शिरकत की. वहां से रिटायर होकर वे एक बार फिर से अपने गांव रालेगण सिद्धि वापस लौट आए. यहां से उनके सामाजिक जीवन की शुरुआत हुई. शुरुआती दौर में महाराष्ट्र के कद्दावर राजनेता शरद पवार के साथ उनकी खूब छनती रही. फिर नब्बे के दशक में ऐसा समय भी आया जब अन्ना भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के निशाने पर पवार को ले बैठे. इस बात पर पवार से अन्ना के रिश्ते इस हद तक खराब हो गए कि अन्ना एक के बाद एक आंदोलन पवार के खिलाफ छेड़ते रहे. इनमें से ज्यादातर आंदोलन औंधे मुंह गिरे क्योंकि अक्सर अन्ना ऐसी सुनी-सुनाई बातों पर यकीन करके आंदोलन छेड़ बैठते थे जिनमें तथ्यों का अक्सर अभाव रहता था. ऐसे तमाम आंदोलन महाराष्ट्र और रालेगण के लोगों ने देखे जब अन्ना ने बीच में ही अपना आंदोलन वापस ले लिया. अन्ना को जानने वाले लोगों को बाद में ऐसा भी लगा कि अन्ना पवार के भ्रष्टाचार से ज्यादा उनके दंभी और नजरअंदाज करने वाले रवैये से नाराज रहते थे. यह बात उनकी गांधीवादी छवि के भी विपरीत जाती है. खैर जिस दौर में अन्ना शरद पवार को जमकर कोस रहे थे उसी समय में वे एक ऐसा काम कर रहे थे जिसे देखकर किसी को भी हैरत हो सकती है. वे एनसीपी के एक बड़े नेता आरआर पाटिल का चुनाव प्रचार भी कर रहे थे. अन्ना के गांव के ही एक निवासी के शब्दों में, ‘जिस नेता ने अच्छे से अन्ना की मिजाजपुर्सी कर दी अन्ना उसी के हो जाते हैं.’ अन्ना के आस-पास रहने वालों का भी यह मानना है कि उन्हें आसानी से प्रभावित  किया जा सकता है. यह ऐसी स्थिति है जो अन्ना के उस बयान के बिल्कुल विपरीत छोर पर खड़ी है जिसमें अन्ना हाल ही तक कहते हुए मिलते थे कि राजनीति कीचड़ है. इसी एक मुद्दे पर वे अरविंद केजरीवाल के साथ अपने संबंधों को तोड़ने से भी नहीं हिचके जबकि उनका अतीत बताता है कि उन्होंने राजनीति और राजनेताओं के साथ जमकर गलबहियां की हैं. केतकर कहते हैं, ‘वे शरद पवार, बाल ठाकरे से लेकर विलासराव देशमुख तक सबके साथ अंतरंगता के साथ काम कर चुके हैं.’

दिवंगत विलासराव देशमुख के साथ अन्ना के रिश्तों की कहानियां महाराष्ट्र की राजनीति में दंतकथाओं की तरह सुनी-सुनाई जाती हैं. मिजाजपुर्सी का जो जिक्र रालेगण के ग्रामीण ने किया है उसकी वजह शायद यही विलासराव देशमुख थे. अन्ना के व्यक्तित्व की इस कमजोरी को विलासराव ने अपनी राजनीतिक पूंजी में बदल दिया. जिस दौर में शरद पवार ने अन्ना को तिरस्कृत करने का कदम उठाया था उस दौर में देशमुख बार-बार अन्ना से मिलने उनके गांव जाते रहे, जब भी अन्ना को जरूरत पड़ी उन्हें मिलने का समय दिया. एनसीपी के नेताओं, विधायकों और मंत्रियों के खिलाफ कांग्रेस के लोग अंदरूनी खबरें लीक करते रहे और अन्ना उन तथ्यों की पड़ताल किए बिना ही अक्सर अनशन और अभियान पर निकल पड़ते थे. कई बार उनके अभियान निशाने पर लगे. कई नेताओं और मंत्रियों को अपना पद छोड़ना पड़ा. लेकिन इस जल्दबाजी और अंधविश्वास की कीमत भी उन्होंने चुकाई. 1995 में बनी शिवसेना-भाजपा की सरकार के वरिष्ठ मंत्री रहे बबन घोलप का मामला बेहद मौजूं है. अन्ना ने उनके ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए. अदालत ने घोलप को सभी आरोपो से मुक्त कर दिया. इसके बाद घोलप ने अन्ना के खिलाफ मानहानि का मामला दर्ज करवाया. इसके नतीजे में अदालत ने अन्ना को तीन महीने के कारावास की सजा सुनाई. अन्ना को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया. एक हफ्ते बाद राज्य के मुख्यमंत्री मनोहर जोशी के हस्तक्षेप के बाद दोनों पक्षों में सुलह हो गई और अन्ना रिहा हो गए. इस मामले में एक बार फिर से यह बात सामने आई कि अन्ना के पास घोलप के खिलाफ कोई पुख्ता सबूत नहीं थे लेकिन एक कांग्रेसी नेता की बात पर उन्होंने आंख मूंद कर यकीन कर लिया था. इस घटना ने अन्ना की प्रतिष्ठा को जबर्दस्त चोट पहुंचाई साथ ही शिव सेना के साथ उनके रिश्ते को भी हमेशा के लिए चौपट कर दिया. सेना प्रमुख स्वर्गीय बाल ठाकरे ने इसके बाद अन्ना के प्रति अपनी नाराजगी को कभी नहीं छिपाया. ठाकरे की नाराजगी का जबर्दस्त खामियाजा अन्ना हजारे और उनकी टीम को 27 अगस्त 2011 को उठाना पड़ा. इस दिन अन्ना हजारे ने अपने आंदोलन का खूंटा दिल्ली से उखाड़ कर मुंबई में गाड़ने का महत्वाकांक्षी फैसला लिया. सबको इस बात की उम्मीद थी कि महाराष्ट्र तो अन्ना का गृह प्रदेश है लिहाजा वहां आंदोलन को सफलता मिलने की संभावना दिल्ली से भी ज्यादा है. लेकिन सारे आकलन धराशायी हो गए. अन्ना की घोषणा के साथ ही सेना प्रमुख ने भी एक ऐलान किया कि सेना अन्ना का हरसंभव विरोध करेगी. ठाकरे का ऐलान काम कर गया. 27 अगस्त को शुरू हुआ अनिश्चितकालीन अनशन 28 अगस्त को अचानक से ही रद्द कर दिया गया. दिल्ली में जहां अन्ना के अनशन में हिस्सा लेने के लिए लोग उमड़-उमड़ कर आ रहे थे वहीं अन्ना के गृह प्रदेश के लोगों ने उन्हें लगभग नकार दिया था. जिस समय अन्ना अपने अनशन को खत्म कर रहे थे उस वक्त एमएमआरडीए के मैदान में बमुश्किल दो-तीन सौ लोग ही मौजूद थे.

एमएमआरडीए में लगे झटके के दौरान ही अन्ना हजारे ने अपनी फ्लिप-फ्लॉप वाली शैली का एक और उदाहरण दिया. इस अनशन तक अन्ना और उनकी टीम ने घोषणा कर रखी थी कि वे उत्तर प्रदेश समेत उन पांच राज्यों में कांग्रेस को हराने का अभियान छेड़ेंगे जिनमें विधानसभा के चुनाव प्रस्तावित थे. अभियान की रूपरेखा ऐसी थी कि अन्ना खुद अभियान का नेतृत्व करेंगे. लेकिन मुंबई में असमय ही अनशन खत्म करते वक्त अन्ना ने जो बयान दिया वह चौकाने वाला था. उन्होंने कहा, ‘अगर कांग्रेस संसद के शीतकालीन सत्र में जनलोकपाल को पारित करवा देती है तो मैं विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और यूपीए का समर्थन करूंगा.’ यह ऐसी हास्यास्पद स्थिति थी जिससे निपटना टीम अन्ना के अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण जैसे सदस्यों को भारी पड़ रहा था. बाद में रास्ता यह निकला कि अन्ना की तबियत ठीक नहीं है इसलिए वे उत्तर प्रदेश अभियान से अलग रहेंगे. सूत्र बताते हैं कि अन्ना के इस बयान से पहले रालेगण सिद्धि में कुछ कांग्रेसी नेताओं के साथ उनके लोगों की मुलाकात हुई थी.

राजनीति को लेकर अन्ना के विचार इतने उलझे हुए हैं कि उनके आधार पर अन्ना के प्रति कोई निष्कर्ष निकालना लगभग असंभव हो जाता है. 2012 की जुलाई आते-आते अन्ना और अरविंद के रिश्तों में गांठ पड़ने लगी थी. 25 जुलाई 2012 को टीम अन्ना के दूसरे साथियों ने उपवास शुरू किया. इसमें अरविंद केजरीवाल भी शामिल थे. यहां मंच से अन्ना ने घोषणा की कि अब वे राजनीतिक विकल्प देने के ऊपर विचार कर रहे हैं. यह उपवास इस विचार के साथ खत्म हो गया कि आंदोलन के रास्ते जितना हासिल किया जा सकता था वह हो चुका है अब इसे आगे ले जाने के लिए सक्रिय राजनीति में उतरना ही होगा. इसके  बाद इसी विषय पर अन्ना के कई रंग हमें देखने को मिले. अन्ना ने अरविंद से अलग होने की घोषणा यह कहते हुए कर दी कि वे राजनीति को कीचड़ मानते हैं और इसमें उतरने को कतई तैयार नहीं है. यह उनके जंतर मंतर पर दिए गए उस भाषण के बिल्कुल विपरीत था जिसमें उन्होंने राजनीतिक विकल्प देने की घोषणा की थी. अलगाव के उसी दौर में तहलका को दिए गए एक विस्तृत साक्षात्कार में अरविंद केजरीवाल ने इस पूरे वाकए पर रौशनी डाली है. अरविंद कहते हैं, ‘पार्टी बनाने का विचार पहली बार 29 जनवरी 2012 को सामने आया था. इसके चर्चा में आने की वजह यह थी कि पुण्य प्रसून वाजपेयी अन्ना से मिले थे. अन्ना उस समय अस्पताल में भर्ती थे. अस्पताल में ही दोनों के बीच दो घंटे लंबी बातचीत चली थी. मैं उस मीटिंग में नहीं था. पुण्य प्रसून ने ही अन्ना को इस बात के लिए राजी किया था कि यह आंदोलन सड़क के जरिए जितनी सफलता हासिल कर सकता था उतनी इसने कर ली है. अब इसे जिंदा रखने के लिए इसे राजनीतिक रूप देना ही पड़ेगा वरना यह आंदोलन यहीं खत्म हो जाएगा. अन्ना को प्रसून की बात पसंद आई थी. मीटिंग के बाद उन्होंने मुझे बुलाया. उन्होंने मुझसे कहा कि प्रसून जो कह रहे हैं वह बात ठीक लगती है. बल्कि हम दोनों ने तो मिलकर पार्टी का नाम भी सोच लिया है – भ्रष्टाचार मुक्त भारत, पार्टी का नाम होगा. मैंने अन्ना से कहा कि आप जो कह रहे हैं मेरे ख्याल से वह ठीक है. हमें चुनावी राजनीति के बारे में सोचना चाहिए. उसके बाद अन्ना तमाम लोगों से मिले और उन्होंने इस संबंध में उन लोगों से विचार-विमर्श भी किया. अब अन्ना के विचार निश्चित तौर पर बदल गए हैं. 19 सितंबर को कंस्टीट्यूशन क्लब में जो बैठक हुई थी जहां अन्ना ने हमसे अलग होने की घोषणा की वहां पर हमने उनसे यही कहा कि अन्ना आप ही तो कहते थे कि हम राजनीतिक पार्टी बनाएंगे तो अब यह बदलाव क्यों.’

anna
फोटोः एपी

अन्ना के रुख में आए बदलाव के लिए पुण्य प्रसून वाजपेयी जो हमें बताते हैं वह बहुत महत्वपूर्ण है और इससे जुड़ा एक अलग ही पक्ष हमारे सामने रखता है, ‘मेदांता में हमारी जो मुलाकात हुई थी वह राजनीतिक विकल्प को लेकर हुई थी. उसके तुरंत बाद कोई पार्टी नहीं बनी थी. उसके बाद बहुत व्यापक स्तर पर अन्ना ने लोगों के साथ राय-मशविरा किया था. आप जो बात कह रहे हैं कि अन्ना अपनी बात से पलट जाते हैं तो आप बताइए न कि देश में एक भी ऐसा नाम जो अपनी बात पर कायम रहता है. अन्ना जो बार-बार अपनी बात से मुकर रहे हैं मैं उसे उनका भटकाव नहीं बल्कि एक बेहतर विकल्प के लिए जारी उनकी खोज मानता हूं. विकल्प की खोज में वे अलग-अलग समय पर एनसीपी, शिवसेना और कांग्रेस के साथ जाते दिखे हैं. दुर्भाग्य यह है कि 2011 में इस देश के लोगों ने एक विकल्प की खोज शुरू की थी और आज 2014 में आकर भी वे विकल्पहीन ही हैं. उनके सामने आज भी जंतर मंतर या रामलीला मैदान में खड़ा होने का ही विकल्प बचा है.’

विरोधाभासों की कड़ी में या प्रसून के मुताबिक विकल्पों की सतत खोज के क्रम में कई बार ऐसा लगता है कि अन्ना अपने पिछले बयान को बौना साबित कर देना चाहते हैं. सितंबर 2012 में अरविंद केजरीवाल से अलग होने की घोषणा करने के महज दो महीने बाद चार नवंबर को तहलका को ही दिए गए एक विशेष साक्षात्कार में अन्ना ने एक बार फिर से सनसनी पैदा की. उन्होंने बेहद विस्तार के साथ इस बात पर रोशनी डाली कि उनका पूरा समर्थन अरविंद को है बल्कि उन्होंने ही अरविंद को राजनीति साफ करने के लिए भेजा है. अन्ना का शब्दश: बयान कुछ यों है- ‘हम अलग हो गए हैं, हमारे रास्ते अलग हो गए हैं लेकिन मंजिल हमारी एक ही है. चरित्रशील लोगों को संसद में भेजना जरूरी है. राजनीति एक रास्ता है. मैंने अरविंद को बोला है कि आप चरित्रशील लोगों को संसद में भेजिए मैं उनका समर्थन करूंगा. आज भी हम खुद को एक दूसरे से अलग नहीं मानते. अरविंद का रास्ता भी जरूरी है.’ हालांकि अन्ना अपने इस बयान पर भी ज्यादा दिन तक टिक कर नहीं रह सके. कुछ समय बाद ही उन्होंने एक लोकप्रिय जुमला अपना लिया कि राजनीतिक पार्टियां असंवैधानिक हैं. संविधान में इनका कोई जिक्र नहीं है इसलिए राजनैतिक पार्टियों को खत्म किया जाना चाहिए. इस नजरिए से देखने पर लगता है कि उनकी सोच बहुत एकपरतीय है. वर्तमान में अन्ना हजारे का अपने पूर्व सहयोगी अरविंद केजरीवाल के प्रति जो नजरिया है उसके मुताबिक अरविंद केजरीवाल सत्ता का लालची आदमी है और वह प्रधानमंत्री बनना चाहता है.

सीधी-सपाट सोच के चलते बार-बार अन्ना का स्थितियों की जटिलता को समझे बिना किताबी परिभाषा पर चले जाना ज्यादा चौंकाता नहीं है. एक दिलचस्प वाकए का जिक्र यहां जरूरी होगा. अक्टूबर 2012 में पाकिस्तान से सिविल सोसाइटी के सदस्यों का एक समूह भारत आया हुआ था. इसमें पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस नासिर असलम जाहिद और प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ता करामात अली शामिल थे. यहां ध्यान देने वाली बात है कि यह प्रतिनिधिमंडल अगस्त महीने में रामलीला मैदान में आयोजित अन्ना के बेहद कामयाब आंदोलन के बाद भारत आया था. वे लोग रालेगण सिद्धी में अन्ना से मिलने गए. उनकी मंशा पाकिस्तान में भी अन्ना की तर्ज पर भ्रष्टाचार विरोधी आंंदोलन खड़ा करने की थी. इसी संबंध में वे लोग अन्ना से मिले थे और उन्हें पाकिस्तान आने का न्यौता भी दिया. अन्ना ने सार्वजनिक रूप से उन्हें भरोसा दिया कि वे पाकिस्तान आएंगे और भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगाएंगे. इस मुलाकात के ठीक एक हफ्ते बाद 19 अक्टूबर को अन्ना ने पत्रकारों के साथ बातचीत करते हुए ऐसी बात कही जिसकी उम्मीद उनके जैसे कद के व्यक्ति से नहीं की जा सकती और यह बात उनके गांधीवादी चोले के भी बिल्कुल खिलाफ जाती है. जोश में अन्ना ने बयान दिया कि अगर उन्हें मौका मिलेगा तो एक बार फिर से पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध करने को तैयार हैं. यह बयान उनकी सोच-समझ का दायरा ही सीमित नहीं करता दिखता बल्कि शिष्टाचार के बुनियादी सिद्धांतों के भी खिलाफ जाता है. जिन लोगों ने अन्ना को अपने यहां आमंत्रित करके उन्हें सम्मान दिया उनके साथ अन्ना एक गैरजरूरी युद्ध की भाषा बोल रहे थे. केतकर बताते हैं, ‘मैं अन्ना को पिछले 35-36 सालों से जानता हूं. उन्होंनेे अपने पर्यावरण केंद्रित कामकाज का जमकर दोहन किया है. उनके भीतर राजनीतिक महत्वाकांक्षा की बजाय आत्मप्रशंसा की भावना भरी हुई है. टीवी आने के बाद उन्होंने जमकर अपना प्रचार-प्रसार किया है. खुद की तारीफें सुनना उन्हें बहुत अच्छा लगता है.’ केतकर की बातों की पुष्टि एक दूसरी घटना से भी होती है. साल 2006 में तहलका द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए अन्ना हजारे दिल्ली आए हुए थे. इस कार्यक्रम में अन्ना हजारे खुद ही अपने ऊपर बनी एक डॉक्युमेंट्री की सीडी लोगों में बांट रहे थे. इसी तरह हमने देखा कि साल 2011 में टाइम्स ऑफ इंडिया ने उन्हें एक दिन के लिए अखबार के अतिथि संपादक के तौर पर आमंत्रित किया था. उस दिन के अखबार में अन्ना हजारे के खुद के जीवन और उपलब्धियों के बखान में तीन पूरे पन्ने समर्पित थे. किसी अखबार का संपादक अपने ही ऊपर तीन पन्ने कैसे खर्च कर सकता है?

जितनी विचित्रता अन्ना के राजनीतिक और वैश्विक विचारों में है उतनी ही अस्थिरता और सतहीपन कई बार उनके सामाजिक बर्ताव में भी देखने को मिलते हैं. जब तक उनकी पहुंच का दायरा रालेगण सिद्धि की सीमाओं में सीमित था तब तक उनकी सामाजिक सुधारों की सोच का दायरा भी ब्राह्मणवादी और तालिबानी सोच के दायरे में सीमित था. गांव वाले बताते हैं कि बात-बात पर अन्ना एक घटना का जिक्र करना नहीं भूलते थे. वे हमेशा कहा करते थे कि शिवाजी महाराज ने चोरी करने के आरोप में एक आदमी के दोनो हाथ कटवा दिए थे. खुद अन्ना ने भी रालेगण में जिस तरीके से अपना सुधारवादी कार्यक्रम चलाया उसमें इस तरह के तमाम तरीके अपनाए गए जो गांधीवादी विचारधारा से मेल नहीं खाते. मसलन शराबबंदी का उन्होंने एकदम तालीबानी तरीका ईजाद किया था. शराब पीने वाले को गांव में एक खंबे से बांध कर सार्वजनिक रूप से उसकी कोड़ों से पिटाई होती थी. इसी प्रकार उन्होंने शाकाहार को बढ़ावा देेने के फेर में मांसाहार को अपने गांव में पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया. इसके तहत अन्ना के आह्वान पर गांव के दलितों को सवर्ण बिरादरी द्वारा जबरन मांसाहार से रोका गया. लोकतांत्रिक मूल्यों की बजाय अन्ना हमेशा प्रचलित और लोकप्रिय सामाजिक मान्यताओं के दबाव में बहते रहे हैं. रालेगण में अन्ना की समस्त प्रभुता का मूल सिद्धांत है- ‘एक नेता है और बाकी को बिना किसी सवाल-जवाब के उसके निर्देशों का पालन करना है.’ रालेगण के सरपंच जयसिंह महापारे कहते हैं, ‘अन्नाजी हमारे लिए भगवान हैं. वे जो भी निर्णय लेंगे हम उसे स्वीकार करेंगे.’

अन्ना के विचारों में गहराई का अभाव रामलीला मैदान पर हुए अनशन के बाद भी देखने को मिला. तब एक समाचार चैनल को दिए गए साक्षात्कार में अन्ना ने कहा कि भ्रष्टाचारियों को फांसी की सजा होनी चाहिए. एंकर ने जब उन्हें और कोंचा तो वे बोले कि अपने प्रस्तावित लोकपाल में इस तरह का प्रावधान करने की कोशिश करेंगे. संयोग से उस साक्षात्कार में किरण बेदी भी मौजूद थीं जिन्होंने तुरंत ही मामले को संभाल लिया और यह कहते हुए बात खत्म कर दी कि अन्ना का विचार है कि भ्रष्टाचार का आरोप सिद्ध होने पर उन्हें कठोर सजा होनी चाहिए. रालेगण में किस काम की इजाजत है और क्या करने पर दंड मिल सकता है इसके बेहद स्पष्ट प्रावधान हैं. फिल्मी गीत रालेगण की सीमा में सार्वजनिक रूप से नहीं चलाए जा सकते. फिल्में भी सिर्फ धार्मिक और सामाजिक किस्म की ही देखी-दिखाई जाती हैं. लाउडस्पीकर पर सिर्फ धार्मिक गीतों को चलाने की अनुमति है. गांववालों ने एक सुर से गांव में बीड़ी-सिगरेट की दुकान खोलने पर प्रतिबंध लगा रखा है. अन्ना के सपनों का भारत आरएसएस के उस भारत से मेल खाता है जहां कभी दूध की नदियां और सोने की चिड़िया हुआ करती थीं. उनकी मंशा ऐसा ही भारत निर्मित करने की है. उनकी लगभग हर बातचीत में भारत-पाक युद्ध की कहानियां अनायास ही टपक पड़ती हैं. उनके सशक्त भारत की अवधारणा के केंद्र में पाकिस्तान के रूप में एक शत्रु की उपस्थिति लगातार बनी रहती है जिसके साथ निपट शांतिकाल में भी वे युद्ध करने और उसे मटियामेट करने की मंशा रखते हैं वरना भारत के समाप्त होने का खतरा है. इसके अलावा गांवों का उत्थान दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा है. यही वह मुद्दा है जिसने अन्ना को प्रसिद्धि के शिखर तक पहुंचाया है.

इन सालों के दौरान अन्ना ने अपनी छवि एक ऐसे व्यक्ति की बनाई है जो सामाजिक आंदोलनों से निकला हुआ है. इस तरह के तमाम लोग हैं जो देश के अलहदा हिस्सों में आंदोलन चला रहे हैं. इन आंदोलनों का आपस में जुड़़ने का एक सूत्र भी हमेशा से मौजूद रहा है. पर अन्ना का रिकॉर्ड इस मामले में भी थोड़ा अलग रहा है. महाराष्ट्र के तमाम दूसरे सामाजिक कार्यकर्ताओं की शिकायत रही है कि अपने कद के गुमान में अन्ना ने कभी बाकियों को कोई भाव ही नहीं दिया. पिछले साल अंध श्रद्धा निर्मूलन समिति के अध्यक्ष और सामाजिक कार्यकर्ता नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के बाद अन्ना हजारे ने एक भी शब्द नहीं बोला. एक सुलझे हुए सामाजिक कार्यकर्ता के नाते यह अन्ना की जिम्मेदारी बनती थी कि वे इस हत्या का विरोध करते. केतकर के मुताबिक अन्ना हमेशा ही कुछ मसलों पर ऐसे ही चुप्पी साध लेते हैं. बिलकुल वैसे ही जैसे वे पवार के भ्रष्टाचार पर हमेशा मुखर रहे और विलासराव देशमुख के खिलाफ उन्होंने कभी एक शब्द नहीं बोला.

चुप्पी साध कर अन्ना ने कई बार अपनी साख को जैसे-तैसे बचाया है. टीम अन्ना के एक सदस्य प्रशांत भूषण ने जम्मू कश्मीर के लोगों को जनमत संग्रह का अधिकार देने संबंधी एक बयान दिया था. इस बयान ने टीम अन्ना के बीच जबर्दस्त भूचाल पैदा कर दिया. अन्ना ने 16 अक्टूबर 2011 को प्रशांत के बयान के ऊपर अपना बयान जारी किया- ‘हमारा कोर ग्रुप प्रशांत को टीम में बनाए रखने पर विचार कर रहा है. मैं उनके विचारों से कतई सहमत नहीं हूं.’ अन्ना के इस बयान के बाद देश भर का मीडिया रालेगण की तरफ दौड़ पड़ा. बात हाथ से निकलती देख अन्ना ने अपने उसी चुप्पी वाले हथियार का इस्तेमाल किया जिसका जिक्र ऊपर आ चुका है. अन्ना के सहयोगियों ने घोषणा की कि वे मौनव्रत पर चले गए हैं. तब मजबूरन बचाव के लिए अरविंद केजरीवाल को सामने आना पड़ा. उन्होंने कहा, ‘भूषण टीम अन्ना के अभिन्न अंग हैं. इस संबंध में कोर टीम की बैठक रालेगण में हुई है. अन्ना को भूषण से कोई दिक्कत नहीं है.’ इस दौरान अन्ना ने मौनव्रत धारण किए रखा.

Anna
फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय

इस तरह की अनगिनत कहानियां हमने सिर्फ पिछले तीन सालों के दौरान देखी-सुनी हैं. अपनी राजनीतिक पार्टी की घोषणा करने के बाद अरविंद केजरीवाल ने 23 मार्च 2013 को उपवास करने की घोषणा की थी. इस उपवास को सफल बनाने और समर्थन जुटाने के लिए अरविंद अन्ना मिलने रालेगण सिद्धी भी गए. यह 17 मार्च की बात है. वहां पर अन्ना ने अरविंद को भरोसा दिया कि वे एक दिन के लिए दिल्ली आएंगे और अरविंद को अपना समर्थन देंगे. पर जैसे ही अरविंद वापस दिल्ली लौटे अन्ना ने घोषणा कर दी कि वे अरविंद के अनशन पर नहीं जाएंगे. ये घटनाएं अन्ना के बारे में क्या बताती हैं? या तो वे बोलने से पहले सोचते नहीं या फिर उन्हें इन चीजों की परवाह ही नहीं रहती.

अब वही अन्ना, जिनमें पूरे देश ने गांधी का अक्स देखा था, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के समर्थन में लोकसभा चुनावों के दौरान देश भर में अलख जगाएंगे. ममता के पक्ष में खड़ा होने का अन्ना का तर्क है कि उन्होंने भारत निर्माण के लिए जो 17 सूत्रीय फार्मूला पेश किया था उसके पक्ष में सिर्फ ममता बनर्जी ने हामी भरी है इसलिए वे लोकसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस का प्रचार करेंगे. अन्ना के इस नए रुख पर कई सवाल उठते हैं. जब अन्ना को राजनीति कीचड़ लगती है या गंदी लगती है तब उसमें घुसने की कोशिश अन्ना खुद ही क्यों कर रहे थे? 17 सूत्रीय फार्मूला लेकर वे सभी राजनीतिक पार्टियों का दरवाजा क्यों खटखटा रहे थे? दूसरा, अन्ना द्वारा ममता को समर्थन देने वाले फैसले की बारीकी में जाने पर हम पाते हैं कि मिजाजपुर्सी अन्ना को पसंद है. जिसने उनकी सुन ली अन्ना उसके हो लिए. इस बात से तीसरी बात भी निकलती है कि अन्ना का विरोध हमेशा से बेहद सिलेक्टिव रहा है. रालेगण सिद्धी के सरपंच जयसिंह महापारे कहते हैं, ‘हमारी अन्ना से अभी बात नहीं हुई है लेकिन जब वे वापस आएंगे तब हम उनसे पूछेंगे कि उन्होंने ऐसा (ममता बनर्जी को समर्थन देने का) क्यों किया. मेरा मानना है कि अन्नाजी का समर्थन सिर्फ चुनाव तक है. वे सिर्फ अच्छे लोगों का समर्थन करेंगे. लेकिन हम अन्नाजी से बात करेंगे कि वे राजनीति में इतना आगे न जाएं.’

अन्ना ने जब से ममता बनर्जी का साथ पकड़ा है तब से सहयोगियों का दूसरा समूह भी उनसे छिटका हुआ है. इनमें किरण बेदी जैसे लोग शामिल हैं. 19 फरवरी को ममता बनर्जी के साथ साझा कॉन्फ्रेंस से महज चार-पांच दिन पहले तहलका से हुई बातचीत में किरण बेदी ने बड़े विश्वास के साथ दावा किया था कि अन्ना किसी हाल में राजनीतिक दलों के साथ नहीं जाएंगे. हमारा अरविंद से अलगाव ही इसी मुद्दे पर हुआ था क्योंकि उन्होंने राजनीति शुरू कर दी थी. फिलहाल हालात बदल गए हैं. किरण बेदी से अब संपर्क नहीं हो पा रहा है. इस दरम्यान देखा गया है कि वे अपने ट्विटर एकांउट पर नरेंद्र मोदी की रैलियों की पिक्चरें अपलोड कर रही हैं और उन्हें भारत का नया तारणहार बता रही हैं. किरण बेदी के सवाल पर अन्ना के एक सहयोगी वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारतीय बताते हैं, ‘जिन लोगों के अपने छिपे हुए एजेंडे थे वे एक एक करके अन्ना से अलग हो गए. चाहे वो अरविंद हों या किरण बेदी. किरण तो खुद ही मोदी का समर्थन कर रहीं थी. क्या उन्होंने अन्ना से पूछकर मोदी का समर्थन किया था.’

अन्ना के व्यक्तित्व के इन बहुरंगी अक्सों को मिलाकर क्या उनकी कोई तस्वीर बनती है? एक सरल हृदय का मानवतावादी जिसका तीन साल पहले तक इतना विस्तृत एक्सपोजर नहीं था या एक आत्मुमग्ध और आत्मप्रशंसा की ग्रंथि से पीड़ित बजुर्ग या फिर एक महत्वाकांक्षी आंदोलनकारी जो अपने सहयोगियों को किनारे कर अपना रास्ता बना रहा है या, देहाती चतुराई से भरपूर एक एनजीओवाला, या फिर सहयोगियों की बात पर आसानी से बहक जाने वाला ग्रामीण. यह आखिरी बात महत्वपूर्ण है. अन्ना के बारंबार भटकाव पर उनके पुराने सहयोगी अरविंद ने भी एक बार सार्वजनिक रूप से बयान दिया था कि अन्ना ऐसे लोगों से घिर गए हैं जो उनका इस्तेमाल कर रहे हैं. काफी कुरेदने पर उन्होंने संतोष भारतीय और जनरल वीके सिंह का नाम लिया था. संतोष भारतीय इस बात को सिरे से नकारते हैं, ‘ये बात वह आदमी कर रहा है जिसने खुद अन्नाजी का इस्तेमाल करके राजनीतिक दल बना लिया. वे कुछ भी कह सकते हैं लेकिन सच्चाई ये है कि कोई भी अन्ना का इस्तेमाल नहीं कर सकता. अन्ना, गांधी या लोहिया सेल्फमेड व्यक्तित्व हैं. ऐसे नामों के साथ लोग इस्तेमाल करने की कहानियां गढ़ ही लेते हैं.’

लंबे समय तक अन्ना के साथ रहे अरविंद केजरीवाल और आप के सदस्यों की अन्ना को लेकर क्या राय है? यह बात चुनाव के समय में बेहद अहम हो जाती है. क्या दो पुराने साथियों के बीच फिर से तालमेल की कोई संभावना है? इन दोनों के मिलन ने ही तो 2011 से 2013 के बीच एक चमत्कार किया था, एक उम्मीद पैदा की थी, एक लहर उठाई थी. आम आदमी पार्टी की शीर्ष पांच हस्तियों में शुमार एक नेता पूरी स्थिति साफ कर देते हैं, ‘अन्ना से तालमेल असंभव है. अन्ना बेहद अनप्रेडिक्टबल व्यक्ति हैं. इस वजह से उनकी बातों पर विश्वास कर पाना बहुत मुश्किल है. साथ ही उनके मौजूदा सलाहकारों की विश्वसनीयता भी बेहद संदिग्ध है.’ शायद दूरदर्शिता का अभाव, विचारो में ठहराव का अभाव उन्हें हमेशा ऐसी स्थितियों में डाल देता है जहां अन्ना हमेशा स्वार्थी लोगों के हाथ का खिलौना बन जाते हैं. लेकिन एक बात साफ है कि बौद्धिक प्रखरता, वैचारिक ठहराव और संवेदनात्मक गहराई के मामले में वे उस गांधी के आसपास भी नहीं ठहरते जिनका अक्स अन्ना में देश का मीडिया दिखाता रहा है.