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‘सामाजिक न्याय भूलकर लालू यादव परिवार का न्याय करने में लग गए हैं’

ramराजद को छोड़कर भाजपा में जाने का फैसला अचानक ही लिया या लंबे समय से इस दिशा में विचार चल रहा था?
राजद में लगातार कार्यकर्ताओं और दूसरे नेताओं की उपेक्षा से मन काफी आहत था, लेकिन यह सब बहुत पहले से विचार कर नहीं किया है. एक हद होती है, उसके बाद हमारे सामने क्या उपाय था? सामाजिक न्याय करते-करते लालू प्रसाद सिर्फ अपने परिवार के पक्ष में न्याय करने तक सिमट गए हैं. पार्टी से सालों से जुड़े हुए कार्यकर्ता लगातार उपेक्षित महसूस कर रहे थे.

यह पहली बार तो नहीं हुआ कि लालू प्रसाद परिवार मोह से इस कदर ग्रस्त हुए हों. कई अवसरों पर उन्होंने परिवार के साथ न्याय करने का काम किया है. तो क्या यह माना जाए कि उन्होंने आपको टिकट नहीं दिया, सिर्फ इसी वजह से आपने वर्षों पुराना रिश्ता तोड़ दिया?
मैंने कहा न कि हर चीज की हद होती है. जब टिकट बंटवारे की बारी आई तो हर दिन कहते थे कि फलां को टिकट देंगे, फलां को नहीं देंगे. उस वक्त मैंने भी कुछ नहीं बोला कि क्योंकि उनका काम था और हमें उम्मीद थी कि वे ईमानदारी से करेंगे. कार्यकर्ता, नेता सालों-साल तक पार्टी के लिए काम करते रहते हैं और जब टिकट देने की बारी आई तो अपने परिवारवालों के साथ अपने पीए तक को टिकट देने पर विचार करने लगे.

आप तो राजद के महासचिव थे, लालू प्रसाद के बाद दूसरे सबसे महत्वपूर्ण नेता. क्या आपको पहले खबर नहीं थी कि आपकी जगह अपनी बिटिया मीसा भारती को टिकट देने का निर्णय ले चुके हैं?
राजद में किसी को कुछ भी बाहर पता नहीं चलता. सब फैसले घर में बैठकर लिए जाते हैं, परिवार के बीच सलाह-मशविरा करके. तो हमें कैसे पता चलता पहले.

आज आप लालू प्रसाद के खिलाफ जितनी आग उगल रहे हैं और पार्टी की बुराई कर रहे हैं, इतने वर्षों से पार्टी में रहते क्या कभी लालू प्रसाद को समझाने की कोशिश की आपने या कार्यकर्ताओं की ओर से कोई शिकायत रखी आपने?
कुछ माह पहले मैंने उन्हें समझाया था और उनसे इन विषयों पर बात भी की थी.

राजद छोड़ने का फैसला करने के बाद आप भाजपा और जदयू में से किसी एक को चुनने को लेकर बेहद दुविधा में थे. ऐसा लग रहा था कि भाजपा में जाने से हिचक हो रही थी?
वास्तव में बहुत दुविधा में था और परेशान भी. यह फैसला करना इतना आसान नहीं था. राजनीतिक दुविधा थी, और भी कई तरह के सवाल थे. लेकिन सहयोगियों और कार्यकर्ताओं से लगातार विचार-विमर्श करने के बाद भाजपा में जाने का निर्णय लिया.

तो भाजपा में आपको ऐसी क्या खासियत लगी कि आपने इसमें शामिल होने का फैसला किया?
कांग्रेस को लगातार देखा जा रहा है. भ्रष्टाचार-महंगाई चरम पर है. देश के अहम सवालों के प्रति कांग्रेस में कोई चिंता ही नहीं है. देश में आज भाजपा के प्रति एक लहर है और देश को आगे ले जाने वाले नेता के तौर पर नरेंद्र मोदी को देखा जा रहा है. ऐसी कई बातों को ध्यान में रखकर मैंने फैसला किया.

राजद में रहते हुए आप तो भाजपा और नरेंद्र मोदी को सबसे ज्यादा निशाने पर लेने वाले नेता रहे हैं. अब क्या कहकर नरेंद्र मोदी के पक्ष में वोट मांगेंगे?    
कार्यकर्ताओं के सामने एक ही नारा लगेगा- ‘छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी, नए दौर में लिखेंगे, मिलकर नई कहानी’. कोर्ट ने नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दे दी है. आखिर ऐसे ही तो कोर्ट ने क्लीन चिट नहीं दी होगी. अब नया समय है, देश के सामने नई चुनौतियां हैं. इन सबसे निपटने के लिए नरेंद्र मोदी जैसे नेता की जरूरत आज देश को है.

तो क्या मोदी अब आपके लिए सांप्रदायिक नहीं रहे?
जो लोग नरेंद्र मोदी को जुबानी जमा खर्च कर सांप्रदायिक कहते रहते हैं, उन्हें यह भी देखना चाहिए कि मोदी जी के शासनकाल में मुसलमानों व अल्पसंख्यकों का कितना हित और विकास हुआ है. अगर वे सांप्रदायिक होते तो अल्पसंख्यकों का भला नहीं सोचते.

तो आगामी चुनाव में बिहार का परिदृश्य कैसा होगा? आपकी नई पार्टी का क्या होगा और पुरानी पार्टी का?
हमारी पुरानी पार्टी यानी लालू जी की पार्टी की स्थिति और बुरी होगी. उनकी सीटें और कम होंगी. यह वे खुद भी जानते हैं. भाजपा की लहर है बिहार में यह सिर्फ मेरे कहने से नहीं मानिए, खुद जाकर महसूस कीजिए.

वह भी एक दौर था

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फोटो: विकास कुमार

मेरे वालिद फरीदुद्दीन खान बड़े जमींदार हुआ करते थे. 1929 में उनका इंतकाल हुआ. इलाके के मुसलमानों में ही नहीं, हिंदुओं में भी उनकी काफी इज्जत थी. लोग झगड़ों के हल के लिए अक्सर उनके पास आया करते थे. वे जो फैसला करते, दोनों ही पक्ष उसे बिना किसी बहस के मान लेते थे. हमारे इलाके में हिंदुओं की आबादी ज्यादा थी, लेकिन मेरे वालिद को कभी किसी सांप्रदायिक समस्या का सामना नहीं करना पड़ा. वे मजहब के पाबंद भी थे और उदार सोच वाले भी. वे अगर देखते कि किसी को मदद की जरूरत है तो बिना जताए उसकी मदद कर देते थे. जैसे अगर कोई अपना घर बना रहा है और उसे लकड़ी की जरूरत है तो वे उससे कहते कि मेरी जमीन में एक पेड़ काट लो. एक बार किसी हिंदू परिवार की बारात हमारे घर के पास से गुजर रही थी. रात हो चुकी थी इसलिए मेरे वालिद ने उनसे कहा कि आप लोग इस अंधेरे में कहां जा रहे हैं? रात हमारे घर गुजारिए. सुबह चले जाइएगा. पूरी बारात उस रात हमारे घर पर रुकी और सबके खाने और सोने का बंदोबस्त किया गया.

देश में उस वक्त या कहें कि 20वीं सदी की शुरुआत तक ऐसा ही माहौल हुआ करता था. ऐसी सोच या बर्ताव वाले सिर्फ मेरे वालिद नहीं थे. उन दिनों ज्यादातर रसूखदार लोग ऐसे ही थे. यह माहौल देश के उन कई इलाकों में 1947 के बाद भी रहा जो हिंदू-मुस्लिम टकराव की बीमारी से प्रभावित नहीं हुए थे. यह बात कई हिस्सों के बारे में आज भी कही जा सकती है.

हमारे ही गांव में एक मुस्लिम जमींदार भी हुआ करता था. उम्र में वह मुझसे छोटा था और बड़े जिद्दी मिजाज वाला भी. उसके पास एक लाइसेंसी बंदूक थी जिसे वह अक्सर साथ लेकर ही चलता था. हमारे गांव से बमुश्किल एक किलोमीटर के फासले पर बकिया नाम का एक और गांव था. वहां एक हिंदू राजपूत रहता था जिसका नाम था छत्रधारी सिंह. दोनों में जमीन या पैसे का कोई झगड़ा नहीं था लेकिन शायद अहम के टकराव की वजह से दोनों एक-दूसरे के दुश्मन बन गए. यह 1966 की बात होगी. दोनों ही ट्रेन से आजमगढ़ जा रहे थे. संजरपुर में वे एक-दूसरे के सामने पड़ गए और किसी बात को लेकर उनकी बहस शुरू हो गई. मुसलमान जमींदार हमेशा की तरह बंदूक साथ लेकर चल रहा था. उसने बंदूक निकाली और गोली दाग दी. छत्रधारी सिंह की मौके पर ही मौत हो गई.

खबर जंगल में आग की तरह फैली. बड़ी तादाद में हिंदू छत्रधारी सिंह के घर के पास इकट्ठा होने लगे. सब बहुत गुस्से में थे. वे सिर्फ उस जमींदार से नहीं बल्कि बल्कि पूरे गांव से इसका बदला लेना चाहते थे.

वह उन्मादी भीड़ जब हमारे गांव में दाखिल हुई तो हमारा पूरा गांव आसानी से जलकर खाक हो सकता था, लेकिन तभी एक ऐसी बात हुई जिसके बारे में शायद ही किसी ने सोचा हो. छत्रधारी सिंह के भाई इस भीड़ के सामने खड़े हो गए और बोले, ‘ऐसा कभी नहीं हो सकता. हम बदला जरूर लेंगे लेकिन सारे मुसलमानों से नहीं, बल्कि सिर्फ उस मुसलमान से जिसने मेरे भाई की हत्या की है. और हमारा बदला यह नहीं होगा कि हम उसकी हत्या कर दें. हम इस उसे कोर्ट में ले जाएंगे और कानून के मुताबिक उसे सजा दिलवाएंगे.’ यही हुआ भी. हत्यारे के खिलाफ मामला दर्ज हुआ और अदालत ने उसे लंबी कैद की सजा सुनाई.

तो हालात तब ऐसे हुआ करते थे. और यह सिर्फ हमारे इलाके की बात नहीं है, पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में ऐसा था. इसी तरह हिंदू और मुसलमान आपस में शांति से रहा करते थे. यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है और मेरी उम्र के लाखों लोगों ने अपनी आंखों से इसे देखा और महसूस किया है.

तो फिर ऐसी घातक राजनीति कैसे पनपी जिसने हिंदू और मुसलमानों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने का काम किया और जिसके नतीजे में 1947 में भारत का बंटवारा हो गया? जवाब यह है कि बंटवारा हिंदू और मुसलमानों के बजाय उनके कुछ नेताओं के दिमाग की उपज था. बंटवारा आम हिंदू या मुसलमान की नहीं बल्कि कुछ नेताओं की समस्या थी जो अपने समुदाय का प्रतिनिधि होने का दावा करते थे. हिंदू और मुसलमान तो सहजता के साथ मिलजुलकर रहा करते थे जैसा मैंने ऊपर जिक्र किया. लेकिन बाद में जब अखबार का दौर आया तो चीजें बदलने लगीं. अखबारों के साथ एक नया नेतृत्व उभरने लगा. हिंदुओं और मुसलमानों के बीच जो सहज संवाद था उसकी जगह नेताओं ने ले ली. ये नेता ही अपने समुदाय के मार्गदर्शक बन गए. यहीं से हमारी सारी राजनीतिक समस्याओं की शुरुआत हुई.

नेता कौन बनता है? नेता ऐसे लोग होते हैं जो आम लोगों से ज्यादा चतुर होते हैं. और अनुभव बताते हैं कि जो ज्यादा योग्य, तजुर्बेकार और चतुर होता है उसमें जाने-अनजाने एक अहम आ जाता है. लगभग हर नेता के पास एक बड़ा अहम होता है. भारतीय उपमहाद्वीप में शायद इस नियम का अपवाद एक ही नेता था और वह थे महात्मा गांधी.

ज्यादातर सांप्रदायिक त्रासदियां सिर्फ एक कारण से उपजती हैं और वह है दो प्रतिद्वंदी नेताओं के बीच अहम का टकराव. 1971 में पाकिस्तान का विभाजन जुल्फिकार अली भुट्टो और शेख मुजीबुर्रहमान के बीच अहम के ऐसे ही टकराव के कारण हुआ. इसी तरह कश्मीर विवाद आज तक अनसुलझा है तो इसकी मुख्य वजह यही है कि शेख मुहम्मद अब्दुल्ला और मुहम्मद अली जिन्ना के बीच भी अहम का एक ऐसा ही टकराव हुआ था. उदाहरण कई हैं.

दक्षिण एशियाई राजनीति का एक अध्ययन हमें अहम सबक देता है. बंटवारा आम हिंदू और मुसलमान की वजह से नहीं हुआ था. इसे हिंदू और मुसलमान नेताओं ने आम हिंदू और मुसलमान के नाम पर अंजाम दिया था.  आदमी का अहम उसकी सोच को एक सीमा से आगे नहीं बढ़ने देता. ये नेता उस सीमा से आगे नहीं जा सके. नतीजा, पूरे देश को उनके इस अहम की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी.

(लेखक प्रसिद्ध इस्लामिक विद्वान और लेखक हैं. यह लेख उनकी आने वाली किताब का अंश है )     

झीरम घाटी में फिर नक्सल हमला

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फाईल फोटो: शैलेंद्र पांडेय

छत्तीसगढ़ के जगदलपुर जिले में स्थित झीरम घाटी में एक बार फिर नक्सलवादियों ने बड़ी वारदात को अंजाम दिया है. नक्सली हमले में केंद्रीय रिजर्व सुरक्षा बल के 11 जवान और स्थानीय पुलिस के चार कर्मी शहीद हो गए हैं. ये जवान तोंगपाल से वापस लौटते वक्त नक्सलियों के एंबुश में फंस गए. लोकसभा चुनाव के ठीक पहले नक्सलियों द्वारा की गई इस बड़ी वारदात को दहशत फैलाने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है. साथ ही इसने मई, 2013 में झीरम घाटी में कांग्रेस नेताओं के काफिले पर हुए हमले की यादें भी ताजा कर दी हैं. इसमें तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और महेंद्र कर्मा सहित कांग्रेस के 30 नेता मारे गए थे.

केंद्रीय रिजर्व सुरक्षा बल की 80-बटालियन के 50 जवान तोंगपाल में बन रही सड़क को सुरक्षा देने के लिए सर्चिंग पर निकले थे. सर्चिंग कर जब ये जवान लौट रहे थे तब नक्सलियों ने घात लगाकर इन पर हमला कर दिया. हमले में कई  जवान घायल भी हुए हैं. घटना के बाद छत्तीसगढ़ पुलिस महानिदेश एएन उपाध्याय और एडीजी नक्सल ऑपरेशन आरके विज भी घटनास्थल रवाना हो गए हैं. मौके से 16 लोगों के शव मिले हैं इनमे एक ग्रामीण भी है लेकिन आशंका जताई जा रही है कि मृत जवानों की संख्या बढ़ सकती है. पुलिस सूत्रों के मुताबिक नक्सलियों की संख्या 300 के करीब थी. प्रथम दृष्टया ऐसा लगता है जैसे माओवादियों ने यह हमला सुनियोजित तरीके से किया है. नक्सलियों ने पहले बारूदी सुरंग में विस्फोट कर जवानों का रास्ता बाधित किया. इसके बाद जवानों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाकर कर उन्हें संभलने का मौका नहीं दिया.

पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने इसे राज्य सरकार की विफलता करार दिया है. जबकि मुख्यमंत्री रमन सिंह ने माओवादी वारदात की कड़ी निंदा करते हुए अपना दिल्ली दौरा रद्द कर दिया है. रमन सिंह शाम को रायपुर पहुंचकर आपात बैठक लेंगे.

अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक मुकेश गुप्ता के अनुसार हमला तोंगपाल की दरभा (झीरम) घाटी में हुआ है. 44 जवान सड़क निर्माण के काम की सुरक्षा के लिए जगदलपुर-सुकमा रोड़ पर गश्त कर रहे थे. उसी समय नक्सलियों ने घात लगाकर हमला कर दिया. पुलिस और माओवादियों के बीच एक घंटे तक मुठभेड भी चली.

घटना स्थल पर मिले खून के निशान के आधार पर पुलिस ने दो नक्सलियों के मारे जाने की संभावना भी जता रही है. हालांकि नक्सलियों के शव बरामद नहीं किए जा सके हैं.

‘हम अपनी आलोचनाओं का ठीक से जवाब नहीं दे पाए’

milindजल्द ही आगामी लोकसभा चुनावों की घोषणा हो जाएगी. मौजूदा हालात में कांग्रेस के लिए आपको क्या उम्मीदें नजर आती हैं?
अर्थव्यवस्था में आई गिरावट के कारण पिछले कुछ सालों के दौरान हम बहुत बुरे दौर से गुजर रहे  हैं. इसी दौरान कांग्रेस में भी पीढ़ीगत बदलाव चल रहा है. बावजूद इसके एक साल पहले के मुकाबले आज स्थितियां काफी बेहतर हैं. हमारे पास अभी भी थोड़ा समय है. उम्मीद है कि अगले कुछ महीनों में हम खुद को और बेहतर स्थिति में पहुंचा सकेंगे.

देश में जो आम भावना है वह कांग्रेस के खिलाफ है, विशेषकर नए वोटरों में. आप उन्हें कैसे संतुष्ट करेंगे?
हमारी सबसे बड़ी असफलता यह रही कि हम एक सरकार और एक पार्टी दोनों ही रूपों में अच्छा प्रदर्शन करने में असफल रहे. जो पार्टी सत्ता में होती है उसके प्रति जनता यह फर्क नहीं करती कि सरकार अलग है और पार्टी अलग है. न तो हम युवाओं को सकारात्मक संदेश दे पाए और न ही अपनी आलोचनाओं का सही से जवाब दे पाए. हम इस समस्या का  हल ढूंढ़ रहे हैं. जल्द ही हम विपक्षी पार्टियों को पीछे छोड़ देंगे. पिछले कुछ सालों के दौरान हमने देखा है कि तकनीकी और संचार के साधनों ने लोगों की जीवनशैली में बड़ा बदलाव किया है. आज देश में 16 करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता हैं. इन चीजों से हम बेहतर तालमेल बिठा नहीं पाए. हमारे ऊपर टूजी और कोल घोटाले के आरोप लगे लेकिन हम लोगों को यह संदेश दे नहीं पाए कि ये नीतियां तो हमें विरासत में मिली थीं. हमने कोई नए कानून नहीं बनाए थे. इस मुद्दे को न समझा पाने की हमारी नाकामी को देश ने हमारी गलती समझ लिया. प्रभावी और लगातार संवाद के अभाव में यह छवि बनी है.

आप एक शहरी निर्वाचन क्षेत्र से सांसद है. कांग्रेस और यूपीए के प्रति पैदा हुई नाराजगी से खुद को अलग करने और जनता को संतुष्ट करने के लिए आप क्या करेंगे?
दक्षिण मुंबई में दो तरह के लोग रहते हैं-एक पढ़ा-लिखा व्यापारी वर्ग और दूसरा शहरी गरीब. अर्थव्यवस्था की अहमियत दोनों को पता है. अर्थव्यवस्था के मसले पर मैं उन्हें समझाने की कोशिश करूंगा कि कांग्रेस और यूपीए का अकलन पिछले दो साल के प्रदर्शन के आधार पर न करें क्योंकि दस सालों के दरम्यान करीब तीन-चौथाई समय तक हमारी वित्त व्यवस्था खूब फली-फूली है. आप उसका श्रेय हमसे छीन नहीं सकते. हमें इन बातों को पूरे संदर्भ के साथ रखना होगा, यही एकमात्र रास्ता है.

राहुल गांधी द्वारा दागी सांसदों को बचाने वाले अध्यादेश के विरोध से पहले आपने एक ट्वीट किया था. क्या आपको पहले से अनुमान था कि इसका हश्र यही होने वाला है?
मैं खूब ट्वीट करता हूं लेकिन मेरे ट्वीट कभी चर्चित नहीं होते. एक या दो दिन बाद पार्टी नेताओं ने अध्यादेश को समाप्त करके इस पर प्रतिक्रिया जताई. मुझे खुशी है कि मेरे विचारों को बाद में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने संज्ञान में लिया. लेकिन में कोई कांग्रेस का भविष्यवक्ता नहीं हूं जो पहले ही घटनाओं पर ट्वीट करता है. पार्टी में इस तरह से चीजें नहीं चलतीं.

राहुल गांधी को कांग्रेस उपाध्यक्ष बने एक साल से ऊपर हो गया है. क्या इसके बाद से पार्टी के महत्वपूर्ण और निर्णायक पदों पर अन्य युवाओं को तरजीह दी गई है?
पिछले एक साल में पार्टी संगठन में कई बड़े बदलाव हुए हैं. मुझे नहीं लगता कि राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी मंत्रिमंडल या पार्टी का नेतृत्व पूरी तरह से युवाओं के हाथ में चला जाएगा. हर संगठन पुराने और नए लोगों के तालमेल से चलता है. कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी या सरकार चलाना कोई आसान काम नहीं है. इसके लिए निश्चित तौर से युवाओं की ऊर्जा और उत्साह की जरूरत होती है लेकिन साथ ही बड़ों का अनुभव और जानकारी की भी जरूरत पड़ती है. राहुल ने पार्टी और सरकार में दोनो चीजों का मिश्रण बनाए रखा है.

महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन में टकराव चल रहा है. राज्य के टोल बूथों में तोड़फोड़ करने वालों के साथ नरमी बरतने के आरोप कांग्रेस पर लग रहे हैं. क्या यह सही है?
हमने किसी के साथ नरमी नहीं बरती है. पिछले चुनावों में भी हम पर ऐसे आरोप लगे थे. कहा जा रहा था कि हम मनसे जैसी पार्टियों को बढ़ावा दे रहे हैं. लेकिन हमें एक सख्त संदेश देने की जरूरत है. बर्बरता या उपद्रव बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. कानून को तोड़ने की अनुमति किसी को भी नहीं दी जा सकती. हम 1999 से एनसीपी के साथ गठबंधन में हैं. इतने समय से चल रहे किसी भी रिश्ते में स्वाभाविक तौर से कुछ उठापटक चलती रहती है. लेकिन हमारा गठजोड़ आगे भी बना रहेगा.

अपने निर्वाचन क्षेत्र और महाराष्ट्र में मोदी लहर को कैसे रोकेंगे?
पिछले पांच साल से मैं अपने निर्वाचन क्षेत्र में हर महत्वपूर्ण मुद्दे पर आवाज उठता रहा हूं. अपने इसी काम को लेकर मैं अपने क्षेत्र की जनता के पास जाऊंगा. मुझे पूरा विश्वास है कि यहां मुझसे बेहतर कोई नहीं है. मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती लोगों तक यह संदेश पहुंचाने की है कि अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी में फर्क है. भारत के लोगों ने वाजपेयी के रूप में एक कट्टर पार्टी का नरम चेहरा देखा था. लेकिन मोदी पहले से ही कट्टर पार्टी के भी सबसे चरम हिस्से का प्रतीक हैं

छत्तीसगढ़ में ‘आप’ की शुरुआत

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रायपुर में ‘आप’ के कार्यक्रम में हुंकार भरती सोनी सोरी

लोकसभा चुनाव की रणभेरी बजते ही छत्तीसगढ़ में आम आदमी पार्टी (आप) ने भी अपनी सक्रियता बढ़ा दी है. भाजपा तो पहले से ही कमर कसकर मैदान में जुटी हुई है. लेकिन लगता है कि कांग्रेस की नींद खुलना अभी बाकी है. कांग्रेस ने अभी तक किसी बड़े कार्यक्रम का ऐलान नहीं किया है. जबकि लोकसभा की तारीखों के ऐलान के साथ ही जहां भाजपा राजनाथ सिंह ने छत्तीसगढ़ में दो आम सभाएं ले ली हैं. वहीं आप नेता सोनी सोरी ने भी राज्य सरकार के खिलाफ हुंकार भरना शुरू कर दिया.

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में बुलाए गए कार्यकर्ता सम्मेलन में आप नेता सोनी सोरी ने राज्य सरकार को चुनौती देते हुए कहा कि हमें कमजोर समझने की भूल ना करें. सोरी ने कहा कि वे राजनीति में इसलिए आई हैं ताकि व्यवस्था रहकर उसमें सुधार कर सकें. उन्होंने मुख्यमंत्री रमन सिंह पर आरोप लगाया कि सीएम नक्सलियों को गले लगा रहे हैं लेकिन आम आदिवासी पर अत्याचार करवा रहे हैं. सोनी यहीं नहीं रुकी. उन्होंने यह भी कहा कि जो उनके साथ हुआ है यदि वह सीएम की बहन या बेटी के साथ होता तो वे क्या करते. उन्होंने कहा कि मुझे जेल में बार-बार निर्वस्त्र किया गया.  मैने राष्ट्रपति से लेकर मुख्यमंत्री तक सबको चिट्ठी लिखी लेकिन उनकी सुनवाई कहीं नहीं हुई. सोनी ने कहा कि उनके पास राज्य सरकार के खिलाफ कई सबूत हैं जिनका समय आने पर खुलासा किया जाएगा.

आप की सभा में प्रदेश भर के कार्यकर्ताओं ने बड़ी संख्या में रायपुर पहुंचकर शक्ति प्रदर्शन किया. पूरे कार्यक्रम के दौरान सोनी सोरी अपने तेवरों के साथ आकर्षण का केंद्र भी बनी रही.

आप की सभा के ठीक एक दिन पहले भाजपा ने भी कांकेर और दुर्ग लोकसभा सीट पर दो सभाएं आयोजित करवाईं. इन सभाओं में पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह कार्यकर्ताओं में जोश तो भरा ही साथ ही कांग्रेस की तुलना बिल्ली से करते हुए कहा कि बिल्ली को हम पाल तो सकते हैं लेकिन दूध की सुरक्षा की उम्मीद नहीं कर सकते. वैसा ही हाल कांग्रेस का है. जिसने देश को लूटने का काम किया है. राजनाथ ने कहा कि यूपीए सरकार हर मोर्चे पर विफल रही है. इस बार चुनाव सरकार बनाने के लिए नहीं बल्कि देश बनाने के लिए हो रहा है. कांकेर लोकसभा सीट भाजपा के लिए एक बड़ी चुनौती है. कांकेर लोकसभा में आठ विधानसभा क्षेत्र हैं जिनमें से छह कांग्रेस के पास हैं जबकि केवल दो विधानसभा सीटों अंतागढ़ और सिहावा में भाजपा को सफलता मिली थी. कांकेर लोकसभा सीट भाजपा के लिए इसलिए भी सरदर्द बन गई हैं क्योंकि यहां के सांसद भाजपा नेता सोहन पोटाई पर आरोप लगे हैं कि नक्सलियों का शहरी नेटवर्क उनसे जुड़ा हुआ था. पुलिस द्वारा पिछले दिनों पकड़े गए नक्सली मददगार धर्मेंद्र चोपड़ा और नीरज चोपड़ा पोटाई के करीबी बताए जा रहे हैं. ऐसे पोटाई से साथ-साथ भाजपा को भी आरोप-प्रत्यारोप का सामना करना पड़ रहा है. यही कारण है कि भाजपा ने अपने चुनावी अभियान की शुरुआत कांकेर से की है.

कांग्रेस की बात करें तो पार्टी अभी कछुआ चाल ही चल रही है. पार्टी ने अभी तक ना तो कोई बड़ा कार्यक्रम घोषित किया है ना ही अपने आपसी झगड़ों से छुटकारा पाया है. हालांकि कांग्रेस कार्यकर्ताओं को उम्मीद है कि जल्द ही आप जैसी नई नवेली पार्टी से सीख लेकर उनका स्थानीय नेतृत्व कार्यकर्ताओं में जान फूंकने का काम शुरू कर देगा.

‘हर्पीज और एलर्जी अलग हैं’

मनीषा यादव
मनीषा यादव

मुझे बहुत से पाठकों ने कहा कि आप ‘हर्पीज’ पर लिखें- ‘हर्पीज’ यानी ‘हर्पीज जॉस्टर’, (जैसे गांधीजी बोलो तो लोग यह मान लेते हैं कि महात्मा गांधी.)

पर ‘हर्पीज जॉस्टर’ की बात बताऊंगा तो चिकनपॉक्स की बात भी स्वत: निकलेगी. दोनों ही बीमारियों में बदन पर दाने निकल आते हैं. चिकनपॉक्स में पूरे शरीर पर, ‘हर्पीज’ में शरीर के किसी छोटे से हिस्से पर ही. दोनों ही बीमारियां एक ही तरह के कीटाणु (वायरस) से होती हैं जिसे ‘वेरिसेल्ला-जॉस्टर वायरस’ कहा जाता है. इसे यूं समझें कि वायरस दोनों में वही चिकनपॉक्स वाला ही है पर बीमारियां अलग हैं. कभी यह न समझें कि हर्पीज जॉस्टर चिकनपॉक्स जैसा है. दोनों एकदम अलग बीमारियां हैं. हां, दाने चिकनपॉक्स जैसे ही निकलते हैं. पर दोनों यहीं से एकदम अलग हो जाते हैं. यूं समझें कि यदि आपको बचपन में कभी चिकनपॉक्स हुआ था, या मात्र उस बीमारी से आप एक्सपोज भी हुए थे- तो वर्षों बाद, बल्कि दशकों बाद, कभी आपको हर्पीज जॉस्टर नामक बीमारी हो सकती है. इस बीमारी में होता यह है कि आपके शरीर में तब प्रवेश कर गए चिकनपॉक्स वायरस (वेरिसेल्ला वायरस) चुपके से जाकर आपकी नसों की गांठों में छुप जाते हैं. वहीं वर्षों तक छुपे रहते हैं. फिर एक दिन, उस गांठ से निकलकर, त्वचा के उस पूरे टुकड़े पर छा जाते हैं जिसे यह नस, स्नायुतंत्र तथा सेंसेशनस सप्लाई करती है. त्वचा में पहुंचकर ये उस छोटे से इलाके में चिकनपॉक्स जैसे दाने, पैदा कर देते हैं. चूंकि एक नस में यह बीमारी हुई है तो बेहद दर्द भी होता है.

मरीज मूलत: यही कहता हुआ आता है कि सर देखिए, छाती (या हाथ, पांव, पीठ, नितंब, चेहरे या पांव आदि में कहीं भी) ये दाने निकल आए हैं और बड़ा तेज दर्द भी हो रहा है. मरीज प्राय: समझता है कि किसी एलर्जी की वजह से ये दाने हो गए हैं. वह बताता है कि शायद किसी कीड़े ने काट लिया है. या शायद सोते में मकड़ी दब कर कुचल गई और उसका

द्रव्य निकल कर त्वचा में लग गया, सो यह एलर्जी हो गई है.

याद रहे. यदि शरीर के एक हिस्से में अचानक चिकनपॉक्स जैसे दाने निकल आएं तो यह हर्पीज जॉस्टर हो सकता है. यदि दानों के साथ उस इलाके में तेज जलन जैसा या चमक वाला दर्द भी हो रहा है तो यह हर्पीज हो सकता है. यदि शरीर के एक ही तरफ (बाएं या दाएं दाने आए हों) पर मध्य के हिस्से को पार करके दूसरी तरफ बिल्कुल न हों तब पक्के से यह हर्पीज की बीमारी है. चिकनपॉक्स की भांति इसमें बुखार नहीं होता. फिर यह बच्चों की बीमारी भी नहीं है. प्राय: पांचवें-छठवें दशक के बाद के बुढ़ापे में कदम रखते लोगों या अधेड़ों की बीमारी है. ऐसे दानों को एलर्जी न मानें. फालतू में एलर्जी की दवाई या क्रीम पोतने न बैठ जाएं. यह एकदम अलग ही बीमारी है. इसका इलाज भी एलर्जी से एकदम अलग है. और, खराब बात यह है कि दाने सूख जाने के बाद भी उस इलाके में इतना तेज दर्द बना रह सकता है कि जिंदगी दूभर कर डाले. यदि अधिक उम्र में ‘हर्पीज जॉस्टर’ हो जाए तो इस दर्द के बने रह जाने का डर और ज्यादा रहता है इसे ‘पोस्ट हर्पीटिक न्यूरेल्सिया’ कहते हैं. इस दर्द की कुछ विशिष्ट दवाएं हैं. यह आम दर्द की दवाओं से ठीक नहीं होता. कई बार ये विशिष्ट दवाईयां भी काम नहीं करती हैं. इस न्यूरेल्सिया के कारण कभी-कभी तो लोग आत्महत्या तक कर लेते थे.

वैसे यह बीमारी किसी भी उम्र में हो सकती है सो यह न मान लें कि जवानी में हुई है तो ‘हर्पीज’ हो ही नहीं सकती. हां, प्राय: यह बाद की उम्र की बीमारी है.

यदि यह चेहरे पर हो जाए तो कभी आंख की पुतली पर दाने भी बन जाते हैं तब इससे आंख की रोशनी तक जा सकती है. जुबान तथा कान के अंदर तक दाने हो जाने पर ऐसा हो सकता है कि आधी जीभ में स्वाद का ही पता न चले. चेहरे की ‘हर्पीज’ में चेहरे की नस खराब हो जाए तो चेहरा (चांद के मुंह की तरह) टेड़ा हो सकता है.

प्राय: ये दाने आएं, दर्द उससे पूर्व ही चालू हो जाता है. आदमी दर्द से तड़प कर अस्पताल जाता है जहां उस दर्द को कुछ भी समझकर कुछ भी जांचें तथा इलाज शुरू हो सकता है. मैंने छाती की ‘हर्पीज’ के ऐसे रोगियों को देखा है जिनको ‘हार्ट अटैक’ की लाइन पर इलाज चल पड़ा और एक दो दिन में जब छाती पर दाने निकल आए तब जाकर पता चला कि असली मामला क्या है! हां, एक अलर्ट डॉक्टर दर्द के विवरण से ही जान जाता है कि शायद ‘हर्पीज’ हो रहा है.

क्या ‘हर्पीज’ वाला मरीज दूसरे को हर्पीज कर सकता है? नहीं. ‘हर्पीज’ सालों का मामला है. अलबत्ता, कमजोर बूढ़ों या जिनको चिकनपॉक्स का टीका न लगा हो और कभी चिकनपॉक्स भी न हुआ हो वे यदि हर्पीज जॉस्टर के मरीज के सघन संपर्क में रहें तो उनको इससे चिकनपॉक्स अवश्य हो सकता है. एचआईवी, बहुत ज्यादा उम्र, बहुत कमजोर लोग, कैंसर की कीमोथैरेपी ले रहे लोगों में हर्पीज बिगड़ भी सकती है- पूरे शरीर में फैल भी सकती है. वर्ना, प्राय: यह दो तीन सप्ताह में ठीक हो जाने वाली बीमारी है.

इसका इलाज क्या है डॉक्टर साहब?
इलाज है. घरेलू इलाज न लेने बैठ जाएं. न ही, केमिस्ट से लेकर एलर्जी की कोई गोली खा लें. खासकर, बहुत ज्यादा दाने हों तब तो पक्का ही इलाज लें. यदि एकदम शुरुआत में एंटी वायरल दवाइयां दी जाएं तो बाद में ठीक रहेंगे. वर्ना दाने ठीक हो जाने के बाद भी उस इलाके में बेहद तेज दर्द बना रह सकता है जिसका ठीक से इलाज किसी के पास भी नहीं. तुरंत किसी अच्छे डॉक्टर

की सलाह लें!

साहित्य से किसका हित!

मनीषा यादव
मनीषा यादव

हिंदी साहित्य जगत में किसी किताब का एक बेस्ट सेलर हो जाना एक चर्चा लायक घटना है. शायद यही वजह थी कि मई, 2013 में सारा हिंदी साहित्य जगत अचानक चौंक गया. लोगों को पता चला कि हिंदी की एक युवा लेखिका का एक कहानी संग्रह ‘बेस्ट सेलर’ हो गया है. यह खबर लोगों के बीच तब पहुंची जब प्रकाशन गृह वाणी प्रकाशन ने इसके उपलक्ष्य में नई दिल्ली स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एक आयोजन किया. वहां वाणी प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अरुण माहेश्वरी ने गर्व के साथ बताया कि दो महीने के भीतर कहानी संग्रह की 1,000 प्रतियां बिकने के बाद इसे बेस्ट सेलर घोषित किया गया है. यानी 50 करोड़ से अधिक लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली हिंदी में किसी पुस्तक की महज 1,000 प्रतियों का बिकना उसे बेस्ट सेलर का दर्जा दिलाने के लिए पर्याप्त है!

इसकी तुलना में अगर हम अंग्रेजी साहित्य पर नजर डालें तो हिंदी किताबों की बिक्री सागर में एक बूंद के समान नजर आती है. चेतन भगत के पिछले उपन्यास ‘रिवॉल्युशन 2020’ को 10 लाख प्रतियों के साथ बाजार में उतारा गया था और पहले ही दिन इसकी बिक्री लाखों में हुई. अब तक आ चुके उनके पांच उपन्यासों की बिक्री 50 लाख का आंकड़ा पार कर चुकी है. वहीं अमीष त्रिपाठी की शिवा ट्राइलॉजी (द इमॉर्टल्स ऑफ मेलुहा, द सीक्रेट ऑफ नागाज और द ओथ ऑफ वायुपुत्राज) की तकरीबन 20 लाख प्रतियां बिक चुकी हैं और इससे 50 करोड़ रुपये से अधिक की खुदरा आय हो चुकी है.

अब हम हिंदी में बेस्ट सेलर वाली घटना पर वापस लौटते हैं. दरअसल इस घटना से हिंदी साहित्य जगत की कई गुत्थियों को समझा जा सकता है. इसी से यह भी समझा सकता है कि  लेखन,पठन और प्रकाशन के खेल में प्रकाशक सारे नियम तय करने वाले कैसे बन बैठे हैं. सबसे पहले लेखक की बात करते हैं. पिछले साल जिन लेखिका की किताब बेस्ट सेलर घोषित की गई थी उनके बारे में कहा जाता है कि वे अपनी आजीविका के लिए पूर्ण रूप से साहित्य लेखन पर निर्भर नहीं हैं. यदि ऐसा किसी बेस्ट सेलर की लेखिका के लिए कहा जा सकता है तो बाकी साहित्यकारों के लिए यह मानने में कोई मुश्किल नहीं है कि केवल लेखन के जरिये अपनी आजीविका चलाना उनके लिए लगभग असंभव है. वैसे यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि हिंदी के सभी स्थापित लेखक अपनी आजीविका के लिए नौकरी या व्यवसाय पर निर्भर हैं.

उधर दूसरी तरफ पाठकों की यह आम शिकायत है कि हिंदी में उत्कृष्ट और पठनीय सामग्री कम मिलती है जबकि अंग्रेजी में शोधपरक और तथ्यात्मक रचनाओं की भरमार है. हिंदी में फिक्शन और नॉन फिक्शन किताबों के निम्न स्तर तथा हिंदी व अंग्रेजी किताबों की तुलना के बारे में कवि एवं दखल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अशोक कुमार पांडेय कहते हैं, ‘चूंकि प्रकाशक पैसे नहीं देते इसलिए हिंदी के अधिकतर लेखक पार्ट टाइम लेखक हैं. नौकरी या व्यापार से बचे हुए समय में लिखने वाले. उनके पास अंग्रेजी के लेखकों की तरह शोध करने, घुमक्कड़ी करने या मूड के हिसाब से लिखने का वक्त भी नहीं और सुविधा भी नहीं.’ अशोक ने कुछ समय पहले ही अपने कुछ साथियों के साथ प्रकाशनगृह शुरू किया है.

पाठकों कमी बस एक बहाना है
यह एक बड़ा सवाल है कि तकरीबन आधा अरब लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली भाषा हिंदी जिसमें देश के सर्वाधिक प्रसार वाले अखबार प्रकाशित होते हैं, उसमें किताबों की बिक्री की दशा इतनी शोचनीय क्यों है? अगर पढ़ने वाले इतने ही कम होते तो हिंदी में इतने सारे अखबार हर साल प्रसार संख्या का नया रिकॉर्ड नहीं बना रहे होते. पिछले दिनों तहलका समेत हिंदी की प्रमुख राजनीतिक और विमर्श पत्रिकाओं ने साहित्य-संस्कृति पर केंद्रित जो विशेषांक निकाले उन्हें पाठकों ने खूब पढ़ा और सराहा. इसी तरह हिंदी में साहित्य और विचार पर आधारित अनेक मासिक पत्रिकाएं निकलती हैं जिनकी अच्छी-खासी प्रसार संख्या है. ऐसे में किसी को भी इस बात पर आश्चर्य हो सकता है कि क्या ये पाठक साहित्यिक किताबों में रुचि नहीं रखते?  दरअसल किताबें की बिक्री का सीधा संबंध उनकी कीमतों से जुड़ता है. यदि आप एक ही किताब, जो अलग-अलग प्रकाशनगृह ने छापी है को ही देख लें तो आप समझ सकते हैं कि हिंदी साहित्यजगत में कीमतों का कोई नियम नहीं है. एक प्रकाशनगृह अगर 150 पृष्ठ की किताब को 70 रुपये में बेच रहा है तो दूसरा उसी को 200 रुपये में और तीसरा 500 रुपये में भी बेच सकता है. हिंदी के प्रतिष्ठित कवि विष्णु खरे ने कुछ अरसा पहले अपने एक आलेख में हिंदी प्रकाशन जगत पर जबरदस्त प्रहार करते हुए कहा था कि वे अपनी पुस्तकों का दाम लागत से कम से कम छह गुना अधिक रखते हैं और इस तरह वे केवल संस्थागत खरीद के ही लायक रह जाती हैं. इसी आलेख में खरे यह सुझाव भी देते हैं कि पुस्तकों के मूल्य निर्धारण के लिए एक समिति का गठन किया जाना चाहिए जिसमें लेखक, प्रकाशक और सरकार सभी के प्रतिनिधि शामिल हों. ऐसा करने से इसमें कुछ हद तक पारदर्शिता लाई जा सकती है.

आधिकारिक तौर पर इस बात को कोई स्वीकार नहीं करना चाहता है लेकिन हिंदी प्रकाशन जगत की एक बड़ी सच्चाई यह है कि पाठक बड़े प्रकाशकों की सोच की जद से पूरी तरह बाहर हो चुके हैं. हिंदी के एक बड़े कहानीकार नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, ‘ हमारे लेखन का मकसद है कि वह ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे. लेकिन हमारी तमाम शिकायतों पर प्रकाशकों का एक ही जवाब है कि हिंदी में साहित्य के पाठक नहीं हैं.’ प्रकाशकों के संबंध में इन कहानीकार की बात बिल्कुल सही प्रतीत होती है. औपचारिक-अनौपचारिक हर तरह की चर्चा में तमाम बड़े प्रकाशक पाठकों की कमी को हिंदी प्रकाशन उद्योग के लिए एक खतरे की तरह बताते हैं. यदि इस बात में सच्चाई है तो पिछले सालों दर्जनों प्रकाशन गृहों को बंद हो जाना चाहिए था? लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उल्टे बीते एक दशक में कई प्रकाशन गृह न सिर्फ स्थापित हुए बल्कि छपने वाली किताबों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है. इस उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि प्रकाशक किताबों के प्रकाशन के वक्त पुस्तकालयों और सरकारी खरीद को ही ध्यान में रखते हैं. यही वजह है कि उनकी किताबों के दाम बहुत ज्यादा होते हैं. प्रकाशन जगत के एक और स्याह पहलू को उजागर करते हुए अशोक कहते हैं, ‘कुछ बड़े लेखक जो सत्ता प्रतिष्ठानों पर काबिज होते हैं वे बड़े प्रकाशकों के साथ होते हैं. वे सारे इंतजामात में मदद करते हैं. पाठकों की कमी का रोना दरअसल लेखकों को उनकी हद में रखने और रॉयल्टी आदि से बचने के लिए किया जाता है. इससे प्रकाशक बहुत बड़ा और लेखक बहुत छोटा बनता चला गया है.’ अशोक अपनी बात आगे बढ़ाते हुए हिंदी में बेस्ट सेलर की असलियत बताते हुए एक और बात उजागर करते हैं, ‘ हिंदी में बेस्ट सेलर जैसा कुछ नहीं होता, इसे प्रकाशक गढ़ता है. पिछले दिनों एक युवा लेखिका की बेहद औसत किताब को जबरदस्ती चर्चा में लाया गया. बेस्टसेलर घोषित किया गया. बाद में पता चला कि वह हिंदी के दो बड़े प्रकाशक भाइयों की प्रतिद्वंद्विता का फल था.’

हिंदी साहित्य जगत में कई छोटे प्रकाशक भी हैं. ये अपनी आमदनी के लिए सर्वथा अलग तरीका अपनाते हैं. ऐसा तरीका जिसे अनैतिकता की बहस से बाहर जाकर देखें तो यह अपने आप में काफी दिलचस्प है. दरअसल हिंदी पट्टी में साहित्यकार कहलाने की चाहत रखने वाले कुछ स्तरहीन लेखकों की बड़ी जमात मौजूद है. ये किसी भी कीमत पर किताब छपवाने के लिए व्याकुल रहते हैं. इनका फायदा ऐसे प्रकाशक उठाते हैं. वे लेखकों से प्रकाशन मूल्य से अधिक पैसे लेकर सौ-दो सौ प्रतियां छाप देते हैं. यहां किताब छपने से पहले ही प्रकाशक को अपने हिस्से का मुनाफा हासिल हो जाता है. खैर पाठकों को तो ऐसे ‘ साहित्यकारों ‘ से कुछ लेनादेना ही नहीं होता. फेसबुक और ब्लॉग जैसे त्वरित माध्यमों के आने के बाद ऐसे लेखकों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है. नतीजतन छोटे प्रकाशक भी उसी अनुपात में बढ़े हैं. हाल ही में दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में इसकी एक मजेदार बानगी देखने को मिली. एक प्रकाशक ने बाकायदा लेखकों से अपील की कि वह उचित दर पर पुस्तकें छापने का उनका सपना पूरा कर सकता है. उस प्रकाशक ने न केवल किताब छापने बल्कि सभा, गोष्ठी करवाने तथा पुस्तक की समीक्षा करवाने जैसी मार्केटिंग रणनीतियां अपनाने का भी आश्वासन दिया.

रॉयल्टी का गणित
हिंदी लेखकों को मिलने वाली रॉयल्टी एक ऐसा मुद्दा है जिसको सुलझाने से यदि शुरुआत की जाए तो पाठकों और साहित्यकारों की कई शिकायतें दूर हो सकती हैं. लेखकों को उनकी हर बिकने वाली किताब पर मुनाफे का एक हिस्सा, वार्षिक आधार पर दिया जाता है. यही रॉयल्टी होती है. आमतौर पर हार्डबाउंड पुस्तकों के मूल्य का 10 से 15 फीसदी जबकि पेपरबैक पर तकरीबन 7.5 फीसदी रॉयल्टी देने का चलन है. लेकिन यह गणित कागज पर जितना आकर्षक दिखता है वास्तव में उतना है नहीं. क्योंकि लेखकों को मिलने वाली रॉयल्टी का किताबों की बिक्री से सीधा संबंध है और किताबों की बिक्री के आंकड़े प्रकाशन समूह के पास रहते हैं. ऐसे में ज्यादातर साहित्यकारों को अपनी कृतियों पर नाममात्र रॉयल्टी ही मिल पाती है. वरिष्ठ साहित्यकार मधु कांकरिया बताती हैं कि उनके चार उपन्यास और एक कहानी संग्रह राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हो चुके हैं जिनके लिए उन्हें एक साल में तकरीबन 8,000 रुपये की रॉयल्टी मिलती है. इसके अलावा वाणी प्रकाशन, किताबघर और ज्ञानपीठ से प्रकाशित किताबों के लिए कांकरिया को क्रमश: 6,000 और तीन-तीन हजार रुपये रॉयल्टी के रूप में मिले हैं. वहीं जब उनकी किताब ‘सेज पर संस्कृति’ त्रिवेंद्रम विश्वविद्यालय के बीए के पाठ्यक्रम में शामिल की गई तो राजकमल प्रकाशन ने उसका विद्यार्थी संस्करण प्रकाशित किया. इस नए संस्करण के बारे में काफी लिखत-पढ़त के बाद उनको 500 रुपये की रॉयल्टी दी गई जो ऊपर लिखी गई 8,000 रुपये की राशि में शामिल है.

रॉयल्टी के इस खेल को स्पष्ट करते हुए कांकरिया बताती हैं, ‘ प्रकाशकों का पूरा जोर नई किताबें छापने पर होता है क्योंकि उन किताबों की सरकारी खरीद और पुस्तकालयों में आपूर्ति आदि की संभावना रहती है. ऐसे में पुरानी किताबों की बिक्री अगर होती भी है तो उसके आंकड़े प्राय: सार्वजनिक नहीं किए जाते हैं. इसका असर लेखक को मिलने वाली रॉयल्टी पर पड़ता है.’

एक सीधा गणित है कि यदि किताबें ज्यादा से ज्यादा बिकें तो लेखकों को रॉयल्टी के जरिए ज्यादा आमदनी होगी वहीं प्रकाशकों को भी फायदा होगा. लेकिन इसके लिए किताबों को पाठकों के बजट के भीतर लाना होगा. यानी उनकी कीमतों में कमी करनी होगी. किताबें सस्ती करने के खिलाफ प्रकाशक चाहे जो भी तर्क दें लेकिन यह इतना मुश्किल भी नहीं है. इस समय प्रकाशक सीधे वितरकों को अपनी किताबें बेचने के लिए 20 से 30 फीसदी तक की छूट दे देते हैं. अगर यह छूट पाठकों तक पहुंचे तो क्या किताबों की बिक्री में जबरदस्त इजाफा नहीं होगा?

हिंदी के प्रकाशक और लेखक किताबों की मार्केटिंग को भी तवज्जो नहीं देते जबकि यह किताबों की बिक्री के लिए खासी अहम है. कुछ अरसा पहले अमीष त्रिपाठी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि कोई भी लेखक अगर यह सोचता है कि अच्छी किताब खुद लोगों को अपनी ओर आकर्षित करेगी तो वह गलत है. बगैर मार्केटिंग के ऐसा संभव नहीं है. भारतीय इतिहास में सबसे तेज बिक्री वाली किताबें लिखकर रिकॉर्ड बुक में अपना नाम दर्ज करा चुके अमीष ने खुद जब अपनी पहली किताब लिखी थी तो उसे बाजार में उतारने के पहले उसके कुछ चैप्टर उन्होंने प्रतिष्ठित बुक स्टोर पर रखवाए थे. ये चैप्टर वहां से खरीदारी करने वाले हर ग्राहक को मुफ्त दिए जाते थे. आश्चर्य नहीं कि बाजार में आने के पहले ही उनकी किताब की भारी मांग तैयार हो चुकी थी. शायद यही वजह है कि चेतन भगत और अमीष त्रिपाठी समेत आज देश के बेस्टसेलर लेखकों में से ज्यादातर आईआईएम के पासआउट हैं.

क्या आज की परिस्थितियों के देखते हुए यह माना जाए हिंदी साहित्य जगत अपने असली बेस्टेसेलर की खोज का कोई उपाय नहीं है और इसका निर्णय हमेशा की तरह प्रकाशक ही करते रहेंगे? युवा साहित्यकार सत्यनारायण पटेल इसका एक सटीक समाधान देते हैं, ‘ हमारे यहां लेखकों को किताबें छपवाकर अनुगृहीत होने का भाव त्यागना चाहिए. यदि उन्हें प्रकाशकों की जरूरत है तो प्रकाशकों के लिए भी वे जरूरी हैं. इस संबंध में जितनी बराबरी आएगी, उतनी अच्छी किताबें छपेंगी, उतने ज्यादा पाठक बढ़ेंगे.’

मजबूर मजदूर!

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार

फरवरी की एक सुबह. गुड़गांव के जिला एवं सत्र न्यायालय में सामान्य दिनों की तरह ही कामकाज चल रहा है. अलग-अलग मामलों में आरोपित लोगों को पेशी के लिए लाया जा रहा है. इस सब के बीच हिमाचल से आईं 22 वर्षीय पूनम और उनके पिता विनोद कुमार शर्मा बड़ी ही बेताबी से किसी की तलाश कर रहे हैं. दोनों उन लोगों के चेहरों को बड़े ही गौर से देख रहे हैं जिन्हें पुलिस कोर्ट में पेशी के लिए ले जा रही है. एकाएक पूनम किसी को देखती है और हाथ हिलाकर इशारा करती है. इसके जवाब में सामने से 24-25 साल का एक नौजवान जिसे पुलिस के दो लोग कोर्ट में ले जा रहे हैं, हाथ हिलाता है और मुस्कुराता है. इस दौरान पूनम के चेहरे पर एक साथ दो विपरीत भाव उभरते हैं. वे गीली आंखों के साथ मुस्कुराती हैं. जिसे देखकर पूनम के चेहरे पर ये भाव आते हैं वह उनका बड़ा भाई राहुल रत्न है.

राहुल उन 147 मजदूरों में शामिल है जो जुलाई 2012 को मारुति के मानेसर इकाई में मजदूरों और प्रबंधन के बीच हुई झड़प के बाद से जेल में बंद हैं. इसी घटना में कंपनी के महाप्रबंधक (एचआर) अवनीश कुमार देव की जलने से मौत हो गई थी.

जुलाई 2012 की इस घटना से कोई चार महीने पहले तहलका ने मारुति के मानेसर इकाई में काम करने वाले मजदूरों में फैले गहरे असंतोष पर एक रिपोर्ट की थी – ‘क्या अब भी देश मारुति में सफर करना चाहता है?’  इस रिपोर्ट में तहलका की कई मजदूरों से बातचीत हुई थी. इनमें से एक गजेंद्र सिंह ने मारुति में काम करने वाले मजदूरों की हालत को कुछ इस तरह बयान किया था, ‘हमें नौ घंटे की शिफ्ट में साढ़े सात मिनट के दो ब्रेक मिलते हैं. इसी में आपको पेशाब भी करना है और चाय-बिस्कुट भी खाना है. ज्यादातर मौकों पर तो ऐसा होता है कि हमारे एक हाथ में चाय होती है और एक हाथ में बिस्कुट और हम शौचालय में खड़े होते हैं.’

छुट्टियों और मेडिकल सुविधाओं को लेकर भी मारुति के मानेसर इकाई में काम करने वाले मजदूरों में असंतोष था. उस समय मारुति प्रबंधन के खिलाफ चल रहे अभियान में मजदूरों के बीच समन्वय का काम करने वाले सुनील कुमार ने बताया था, ‘कागजी तौर पर तो हमें कई छुट्टियां दिए जाने का प्रावधान है लेकिन हकीकत यह है कि यहां छुट्टी पर जाने पर काफी पैसे कट जाते हैं. एक कैजुअल लीव लेने पर कंपनी प्रबंधन 1,750 रुपये पगार में से काट लेती है. यह प्रबंधन पर निर्भर करता है कि वह कितना पैसा काटेगा. महीने में आठ हजार रुपये तक छुट्टी करने के काट लिए जाते हैं. आपने चार दिन की छुट्टी ली और यह इस महीने की 29 तारीख से अगले महीने की दो तारीख तक की है तो आपके दो महीने के पैसे यानी 16,000 रुपये तक कट जाएंगे.’

उस वक्त मजदूर, कंपनी प्रबंधन की वादाखिलाफी से भी बहुत नाराज थे. प्रबंधन और मजदूरों के बीच हुए समझौते के कई महीने बाद तक भी प्रबंधन ने शिकायत निवारण और मजदूर कल्याण समिति का गठन नहीं किया था. वर्ष 2011 में मानेसर संयंत्र में हुई हड़ताल के बाद कंपनी ने मजदूरों के सामने काम पर आने से पहले ‘गुड कंडक्ट बॉंड’ साइन करने की शर्त रख दी थी . इसके जरिये मजदूरों पर कई तरह के प्रतिबंध लगाए गए थे. तत्कालीन श्रममंत्री मल्लिकार्जुन खड़गे ने संसद में ही इस बॉंड की आलोचना की थी. इसी तरह के माहौल में कंपनी में जुलाई 2012 की घटना घट गई.

हालांकि इस घटना के बाद तहलका से बात करते हुए मारुति के मुख्य परिचालन अधिकारी (एडमिनिस्ट्रेशन) एसवाई सिद्दीकी ने मजदूरों के सभी आरोपों को खारिज कर दिया था. समितियों के गठन न करने के बारे में सिद्दीकी का कहना था कि मजदूरों ने ही अपने प्रतिनिधियों को नामित नहीं किया इसलिए समितियों का गठन नहीं हो सका.

जब हम पूनम से बात करते हैं तो जानकारी मिलती है कि उसकी शादी पिछले साल नवंबर में हुई है और उसका भाई तब शादी में शामिल नहीं हो पाया था सो इस दफा वे अपने पापा के साथ उससे मिलने गुड़गांव आई हैं. पूनम कहती हैं, ‘पापा ने तब भईया की छुट्टी के लिए कोर्ट में अर्जी लगाई थी. लेकिन कोर्ट से एक ही दिन की छुट्टी मंजूर हुई थी सो वो नहीं आ सका. अब जज साहब को कौन समझाए कि हिमाचल जाकर कोई एक दिन में नहीं लौट सकता है.’

अभी पूनम ने अपनी बात खत्म ही की थी कि पास ही खड़े राहुल के पिता जो अब तक हमारी बातचीत सुन रहे थे बोल पड़े, ‘इससे तो अच्छा यही होता कि बेटा पहाड़ में ही रहता. आज तो स्थिति यह है कि हर दस-पंद्रह दिन में हिमाचल से गुड़गांव आना पड़ता है. रात स्टेशन पर गुजारनी पड़ती है. और कोर्ट-कचहरी के चक्कर अलग से.”

राहुल के पिता और बहन अकेले नहीं हैं जो पिछले डेढ़ साल से गुड़गांव में कोर्ट और वकीलों के चक्कर लगा रहे हैं. इनके जैसे और भी लोग हैं. 55 वर्षीय प्यारो देवी भी हिमाचल से ही आईं हैं. इनका 25 वर्षीय बेटा सुरेश भी इन्हीं  147 मजदूरों में शामिल है. प्यारो देवी हर सुनवाई पर आती हैं ताकि सुरेश को देख सकें. सुरेश इनका इकलौता बेटा है. जब हम प्यारो से सुरेश के बारे में पूछते हैं तो वे कहती हैं, ‘मेरा बेटा तो कमाने के लिए घर से आया था. पता नहीं कंपनी वाले कैसे यह कह रहे हैं कि उसने कंपनी में आग लगा दी. वो तो कभी गांव में भी किसी से नहीं उलझा.’ इतना कहकर प्यारो देवी फफक-फफक कर रोने लगती हैं.

हम आगे बढ़ते हैं. प्यारो देवी, पूनम और विनोद शर्मा जैसे और भी बहुत से लोग हैं जिनके पास अपनी-अपनी कहानी है. इनके भाई, बेटे और भतीजे मारुति संयंत्र में जुलाई 2012 में घटी घटना के सिलसिले में पिछले 19 महीनों से जेल में बंद हैं. इनमें से किसी को भी अभी तक जमानत नहीं मिल सकी है.

फोटोः गरिमा जैन
फोटोः गरिमा जैन

इस मामले में मजदूरों की तरफ से केस की पैरवी रघुवीर सिंह हुड्डा कर रहे हैं. ‘देेखिए पुलिस ने अपनी चार्जशीट में इन सब पर आईपीसी की धारा 302(हत्या), 307(हत्या करने का प्रयास करना), 147(दंगा करना), 353(सरकारी काम में बाधा पहुंचाना), 436(आग लगाना) और 120बी(साजिश करना) के तहत मामला बनाया है. ये सारी गैर जमानती धाराएं हैं. आमतौर पर ऐसे मामलों में निचली अदालतें जमानत नहीं देतीं. ऊपर से यह मामला थोड़ा ज्यादा ही चर्चित हो चुका है’ हुड्डा कहते हैं, ‘हमने नौ मजदूरों की जमानत के लिए हरियाणा उच्च न्यायालय में भी अपील की थी लेकिन न्यायालय ने जमानत देने से ये कहकर इनकार कर दिया कि इससे हरियाणा में हो रहे वैश्विक पूंजी निवेश पर विपरीत असर पड़ेगा. हमने हरियाणा उच्च न्यायालय के इस फैसले को उच्चतम न्यायालय में चैलेंज किया तो वहां से कहा गया कि पहले सभी गवाहों के बयान दर्ज हो जाएं फिर सोचा जा सकता है इस बारे में.’

इसी बातचीत के दौरान रघुवीर सिंह हमें पुलिस द्वारा इस मामले में जमा की गई चार्जशीट का एक हिस्सा दिखाते हैं. चार्जशीट के इस हिस्से में चश्मदीद गवाहों के बयान दर्ज हैं. गवाह नंबर नौ ने अपने बयान में कुल 25 मजदूरों के नाम लिए हैं जिनके नाम अंगेजी के अक्षर  ‘ए’ से ‘जी’ तक हैं. गवाह नं.10 ने भी अपने बयान में गिनकर 25 मजदूरों को ही देखने की बात स्वीकारी है. इनके नाम क्रम से अंग्रेजी के अक्षर ‘जी’ से ‘पी’ तक हैं. गवाह नंबर 11 ने जिन पच्चीस मजदूरों के नाम लिए हैं वे अंग्रेजी के ‘पी’ से ‘एस’ तक हैं.  गवाह नंबर 12 ने अपने बयान में 14 मजदूरों के नाम लिए हैं और ये नाम अंग्रेजी के ‘एस’ से ‘वाई’ तक हैं. इसके अलावा इन सभी चार गवाहों के बयान बिल्कुल एक जैसे ही हैं. जैसेकि इन सभी गवाहों ने अपने बयान के अंत में कहा है, ’इनके अलावे और तीन-चार सौ मजदूर थे जो अपने हाथ में डोरबीम लिए हुए थे और कंपनी के बाहर चले गए और मैंने बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचाई.’

पुलिस चार्जशीट का यह हिस्सा दिखाने के बाद रधुवीर सिंह कहते हैं. ‘पहली ही नजर में यह साफ जान पड़ता है कि ये सारे बयान किसी एक ही आदमी ने लिखे हैं और इनमें जो नाम लिए गए हैं वो कंपनी के किसी रजिस्टर से देखकर लिखे गए हैं. ऐसा कैसे संभव है कि सभी गवाह कुछ खास अक्षर से शुरू होने वाले 25 नामों को ही देखते है.’

वहीं जुलाई 2012 की उस घटना के बाद मारुति ने अपनी मानेसर इकाई से 546 स्थायी और 1800 अस्थाई मजदूरों को काम से हटा दिया था. गुड़गांव निवासी राम निवास मारुति की मानेसर इकाई में पिछले नौ साल से काम कर रहे थे. इन्हें भी नौकरी से निकाल दिया गया. कंपनी से निकाले जाने के बाद से वे बेरोजगार हैं. मारुति से निकाले जाने वाले लोगों को कहीं और काम मिलने में बेहद परेशानी पेश आ रही है.

‘हर तरफ घूम लिए जी. कोई काम नहीं दे रहा. सो अब इस लड़ाई में ही लग गए हैं. सोच रहे हैं कि जब कामधाम है नहीं तो क्यों न लड़ा ही जाए’ रामनिवास कहते हैं, ‘जुलाई वाली घटना से कंपनी को कोई नुकसान हुआ है क्या. कंपनी का केस हरियाणा सरकार लड़ रही है. प्लांट में फिर से काम शुरू हो चुका है. और उस घटना में जो थोड़ा बहुत नुकसान हुआ उसके पैसे बीमा से मिल ही गए होंगे.’ रामनिवास पूरे रौ में हैं वे आगे कहते हैं, ‘अब दूसरे पक्ष को देखिए. देखिए कि उस घटना से किसकी रीढ़ की हड्डी टूटी और कौन आज भी पिस रहा है. उस दिन जिस एचआर मैनेजर की मौत हुई वो मजदूरों के हिमायती थे. मजदूरों से उनकी अच्छी पटती थी. उनकी हत्या हो गई. इस हत्या का दोष लगाकर कंपनी के यूनियन के ज्यादातर साथियों को और दूसरे निर्दोष मजदूरॊं को जेल में ठूंस दिया गया. बाकियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.’

मारुति में काम करने वाले एक मजदूर हमें बताते हैं, ‘इस घटना के बाद पूरे गुड़गांव के मजदूरों में एक भय है. उन्हें प्लांट में यह कहा जाता है कि अगर किसी ने भी ज्यादा यूनियनबाजी की तो उसका भी वही हश्र होगा जो मारुति वाले मजदूरों का हो रहा है. यह सब केवल मजदूरों की आवाज को दबाने का एक तरीका है.’

इन तर्कों में दम लगता है और तथ्यों के उभार के संकेत भी मिलते हैं. हम इसकी पड़ताल के लिए मारुति प्रबंधन से संपर्क करने की कोशिश करते हैं. कई अधिकारियों से बात भी होती है लेकिन वे आधिकारिक तौर पर कुछ भी कहने को तैयार नहीं होते. हां, कुछ यह जरूर कहते हैं कि मजदूरों द्वारा कही गई तमाम बातों को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता.

गर आदमी हो तो क्या आदमी हो!

मनीषा यादव
मनीषा यादव

‘आज केवल आदमी होने से काम नहीं चलता है.’

‘दद्दा, मुझे लगता है आदमी होना ही बड़ी बात है.’

‘अगर आदमी ही होना बड़ी बात होती तो, आदमी को मयस्सर नहीं है इंसा होना, गालिब ने फिर क्यों कहा!’

‘आदमी और इंसान एक ही बात है!’

‘तुम भ्रमित हो! फर्क है!’

‘अगर फर्क होगा भी तो रत्ती भर!’

‘नहीं, जमीन आसमान का फर्क है!’

‘चलिए तो एक पल को मान लेते है कि दोनों एक ही है’

‘तो फिर मैं कहना चाहूंगा कि मात्र आदमी होने से काम नहीं चलता.’

‘अच्छा एक बात बताओ!’

‘पूछिए!’

‘पुरुष कितने प्रकार के होते हैं!’

‘तीन प्रकार के’

‘कौन-कौन से!’

‘प्रथम पुरुष, उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष’

‘और विकास पुरुष, लौह पुरुष भूल गए!’

‘अरे!’

‘अब बताओ, पुत्र कितने प्रकार के होते है!’

‘दो… जैविक पुत्र, दत्तक पुत्र’

‘एक और होता है!’

‘कौन सा.’

‘मानस पुत्र’

‘यह कैसा पुत्र!’

‘जो आपका जैविक पुत्र न हो, मगर आपकी विचारधारा से एकमत हो!’

‘दद्दा एक पुत्र और होता है!’

‘कौन-सा!’

‘धरती पुत्र!’

‘बहुत सही! अब तुम राजनीतिक बातें करने लगे!’

‘हा हा हा’

‘देखो बहुत मौके से याद आया.’

‘क्या दद्दा!’

‘गॉड फादर जानते हो’

‘माने जो आपको अवसर दे, जो आपका करियर, जिंदगी बनाए.’

‘तो जिनके गॉड फादर होते है उनके फादर नहीं होते होंगे.’

‘होते होंगे!’

‘लेकिन काम कौन आ रहा! एक अनजाना आदमी.’

‘दद्दा समझा नहीं!’

‘देखो यहां जैसे एक बाप से काम नहीं चलता, वैसे ही मात्र आदमी होने से काम नहीं चलता…’

‘यानी किसिम-किसिम के आदमी…’

‘हां मगर, अपना आदमी आदमी की एक खास किसिम होती है.’

‘अच्छा!’

‘जो काम दे, जिससे काम निकले… इसे यूं समझो… जिससे काम मिलना है, जिससे काम निकलवाना हो, कैसे निकलवाओगे!’

‘काबिलियत के दम पर’

‘ओय काबिलियत के दम भरने वाले! जीवन में जाति, धर्म, क्षेत्र, वर्ण न जाने कितने पेंच फसते हंै, इन्हीं पेंचों को ढीला करने के लिए भी… छोड़ो! एक जवाब दो!’

‘पूछें दद्दा’

‘दो समान काबिलियत के दावेदार आ जाए तो तुम किसको मौका दोगे!’

‘आप ने तो फंसा दिया!’

‘अब फर्ज करो! तुम में काबिलियत नहीं है, तो तुम दूसरे को कैसे रोकोगे! तुम दौड़ने में फिसड्डी हो तो रेस कैसे जितोगे!’

‘लंगड़ी लगाकर!’

‘यह नकारात्मक भाव है.’

‘फिर दद्दा आप बताए!’

‘इत्ती देर से समझा रहा हूं, अबे कैसा आदमी है!’

‘क्या दद्दा…’

‘अपना आदमी बन कर घोंचू.’

फटा पोस्टर निकली ‘हीरोइन’

स्वीडन में कुछ महीने पहले एक नई तरह की रेटिंग शुरू हुई है. इसका मकसद यह है कि जिस तरह फिल्मों में सेक्स, हिंसा और अभद्र भाषा या गालियों पर सेंसर द्वारा शिकंजा कसा जाता है, उसी तरह उन फिल्मों को भी नहीं बख्शा जाएगा जिनमें महिलाओं के रोल कमज़ोर दिखें या उनके किरदार में किसी भी तरह का पक्षपात नजर आए. नियम के मुताबिक ‘ए’ रेटिंग पाने के लिए फिल्म को बेकडेल टेस्ट पास करना होगा. यह टेस्ट कहता है कि फिल्म में कम से कम दो महिला किरदार होने चाहिए जो आपस में ‘पुरुष’ के अलावा किसी और विषय पर बात करें. मज़ेदार बात ये है कि इस टेस्ट में ‘लॉर्ड ऑफ द रिंग्स’, ‘स्टार वॉर्स’ और ‘पल्प फिक्शन’ जैसी लोकप्रिय फिल्में भी फेल हो गईं.

ब्रिटेन के अखबार ‘दि गार्डियन’ के मुताबिक ऑस्कर 2014 की सबसे प्रबल दावेदार ‘ग्रैविटी’ भी इस टेस्ट में पास नहीं हो पाई. इसके बावजूद कि इस फिल्म में अभिनेत्री सैंड्रा बुलक ने एक वैज्ञानिक की मुख्य भूमिका निभाई थी जिसके सभी साथी अंतरिक्ष में मारे जाते हैं और वह अकेले ही धरती पर लौटने में कामयाब हो पाती है. पूरी फिल्म इस महिला वैज्ञानिक के धरती पर सुरक्षित पहुंचने की उठापटक को दिखाती है. पूरी फिल्म में सिर्फ सैंड्रा हैं और अभिनेता जॉर्ज क्लूनी का एक छोटा सा रोल है. फिर भी फिल्म बेकडेल टेस्ट में फेल हो गई. आलोचकों का कहना है कि आखिरी पलों में इस महिला वैज्ञानिक को अपने एक पुरुष साथी (जॉर्ज क्लूनी) का ही ख़्याल आता है जो उसे इस मुसीबत से बाहर निकालने का रास्ता दिखाता है और इस लिहाज से असली हीरो सैंड्रा नहीं जॉर्ज हुए, भले ही वे फिल्म में थोड़ी देर के लिए ही क्यों न आए हों.

खैर, ये रेटिंग स्वीडन के सिनेमा घरों के लिए ही है और महिलाओं के चित्रण को लेकर ये टेस्ट कितना सही है या गलत, इसे लेकर अलग अलग स्तर पर बहस भी जारी है. इस मुद्दे पर अपनी बात रखने वालों के पास कई सवाल हैं. मसलन क्या स्त्रीवादी विचारों का डंका पीटने वाली फिल्में ही सही कहानी कहती हैं या फिर वे फिल्में बेहतर हैं जो स्त्री को ‘स्त्री’ ना दिखाकर एक आम इंसान की तरह अपनी कहानी कहने और सुनने के लिए स्वतंत्र छोड़ देती हैं? जैसे ‘हैरी पॉटर’ सीरिज़ की किरदार हरमाइनी जो अक्सर अपने दोनों दोस्तों को अपनी बुद्धिमानी और चतुरता के बल पर मुसीबत से बाहर निकालती है, उस समझ के बलबूते पर जो किसी स्त्री या पुरुष के फेर में नहीं पड़ती.

हालांकि ऐसी किसी कसौटी को भारतीय सिनेमा की सबसे लोकप्रिय धारा बॉलीवुड के संदर्भ में देखना काफी दिलचस्प भी हो सकता है और विवादास्पद भी. भारत में बहुत पहले से कला और व्यावसायिक सिनेमा को अलग अलग देखा जाता रहा है. आज जरूर इन दोनों के बीच की लकीर धुंधली होती जा रही है, लेकिन लोकप्रिय फिल्मों में स्त्रियों के मुद्दे और नायिका को दी जाने वाली भूमिकाओं को लेकर अलग अलग विचारधाराएं पनपती रही हैं. बॉलीवुड में शुरु से एक फार्मूला चला जिसके तहत सिनेमा मतलब एक नायक, एक नायिका और खलनायक. बदलते दौर के साथ नायक और खलनायक के बीच की दूरी खत्म हुई और एंटी हीरो को लाया गया. यहां खास बात ये भी थी कि पुरुष शासित समाज में ज्यादातर पुरुष केंद्रीय फिल्में ही बनी, लेकिन उन्हें नैतिकता का पाठ अक्सर नारी पात्रों द्वारा ही पढ़ाया गया. इन सबके बीच कुछ ही फिल्में ऐसी बनीं जिन्होंने दर्शकों को ये बताया कि हीरो या अभिनेता के बगैर भी सिनेमा मनोरंजक लग सकता है.

आठ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर ‘गुलाब गैंग’ और ‘क्वीन’  रिलीज़ हो रही हैं. पर्दे पर इन दोनों ही फिल्मों की कमान अभिनेत्रियों ने ही संभाली है और दोनों ही फिल्मों में नायक के नाम पर कोई बड़ा नाम नहीं है. इससे पहले इम्तियाज़ अली की ‘हायवे’ में सिर्फ एक फिल्म पुरानी आलिया भट्ट, वीरा के लीड रोल के साथ काफी न्याय करती नज़र आईं.

हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है. 1937 में फिल्मकार वी शांताराम द्वारा बनाई गई ‘दुनिया ना माने’ में अभिनेत्री शांता आप्टे ने एक ऐसी स्त्री की भूमिका निभाई थी जो पिता के उम्र के विधुर से अपनी शादी का जमकर विरोध करती है. ये कहना गलत नहीं होगा कि पूरी फिल्म में शांता अपने संवाद और अभिनय से छाई रही.

शांताराम की एक और फिल्म ‘दहेज’ भी काफी चर्चित रही थी. फिल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे अपनी किताब ‘महात्मा गांधी और सिनेमा’ में इस फिल्म के एक सीन का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं – फिल्म में नायिका के पिता अपना सब कुछ बेचकर दहेज का सामान जुटाते हैं और अपने बेटी से कहते हैं कि वो देहज का सामान ले आए हैं. नायिका कहती है कि पिताजी आप एक चीज लाना भूल गए. पिता पूछते हैं क्या ? नायिका कहती है ‘कफन ’ और मर जाती है. सिनेमाघरों में इस दृश्य पर महिला दर्शक चीख पड़ी थी. कुछ शहरों में महिलाएं बेहोश भी हो गईं थी. इस फिल्म के प्रभाव से दहेज विरोधी नियम की पहल की गई और बिहार जैसे कुछ प्रांतों में नियम लागू भी किया गया.

30 से लेकिर 60 के दशक में दहेज, सीमा, जोगन, मदर इंडिया जैसे लोकप्रिय फिल्मों ने नायिका के किरदार की अहमियत को बरकरार रखा. लेकिन 70 के दशक में ‘एंग्री यंग मैन’ के आने के बाद हीरोइन का काम जैसे इस ‘मैन’ के गुस्से को शांत करने का ही रह गया था. इस दौरान महिलाओं की कहानी या उनको अच्छे या दमदार रोल देने का बीड़ा मानो आर्टहाउस सिनेमा ने ही उठा लिया था. ‘मिर्च-मसाला’, ‘भूमिका’, ‘हज़ार चौरासी की मां’ जैसी कई फिल्मों में अभिनेत्रियों ने अपने काम का लोहा मनवाया, वहीं उस दौर के कमर्शियल सिनेमा में हीरोइन ज्यादातर रोने, नाच-गाने और हीरो को ढांढस बंधाने के काम आती रही.

ellहीरो की गैर मौजूदगी
लेकिन पिछले कुछ सालों से आर्ट और कमर्शियल सिनेमा के बीच मिटती दूरी की वजह से ऐसी फिल्में दोबारा थिएटर हॉल में लोगों का ध्यान खींच रही हैं जो बीच के दशक में रडार से गायब हो चुकी थी. ‘कहानी’, ‘द डर्टी पिक्चर’,‘सात खून माफ’ या ‘नो वन किल्ड जेसिका’ जैसी फिल्मों में नायक की कम या गैर मौजदूगी ने शायद ही दर्शकों को परेशान किया हो. अनेक प्रयोगों से गुज़र रहे बॉलीवुड में अब हीरोइन भी धीरे-धीरे मनोरंजन में आगे की सीट लेती जा रही है. मसलन कुछ महीने पहले आई ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ को लें जिसमें शाहरुख खान के होने के बावजूद दीपिका पादुकोण की पीठ ज्यादा थपथपाई गई. कई समीक्षकों का कहना था कि यदि इस फिल्म में से दीपिका को हटा दिया जाए तो इसमें देखने लायक कुछ नहीं बचेगा.

बॉलीवुड में इस नई शुरुआत का सहरा अभिनेत्री विद्या बालन के सिर बांधा जाता है जिन्होंने ये साबित कर दिया कि बगैर जीरो फिगर बनाए या किसी बड़े हीरो के साथ के बिना भी दर्शकों के दिल पर राज किया जा सकता है. लेकिन अपनी फिल्म के लिए अभिनेत्रियों पर इस तरह का भरोसा दिखाना आसान नहीं है. गुलाब गैंग में अपने समय की दो मशहूर कलाकार – जूही चावला और माधुरी दीक्षित को पहली बार एक साथ दिखाने वाले निर्देशक सौमिक सेन बताते हैं कि इस फिल्म के लिए निर्माता ढूंढना आसान काम नहीं था. कई निर्माताओं ने उनकी फिल्म को इसलिए नकार दिया क्योंकि उनकी कहानी में कोई नायक नहीं था. इसके पीछे की वजह बताते हुए सौमिक कहते हैं कि बॉलीवुड में ऐसा हमेशा नहीं होता ना कि महिलाओं को लेकर एक पूरी मसाला फिल्म बनाई जाए इसलिए एक नए निर्देशक के तौर पर उनके पास ऐसा कोई पुराना और सफल मॉडल भी नहीं था जिसका तकाजा निर्माताओं को दिया जा सकता.

वैसे ये हाल सिर्फ हिंदी नहीं हॉलीवुड फिल्मों का भी है. अमरीकी पत्रिका ‘दि अटलैंटिक’ के मुताबिक 2013 की सबसे चर्चित फिल्म ‘ग्रैविटी’ के निर्देशक अलफान्सो कुआरों पर भी स्टूडियो का काफी दबाव था कि वे अपनी फिल्म में एक प्रेम-प्रसंग डालें और अंत में महिला वैज्ञानिक को अंतरिक्ष से धरती पर कोई बचाकर लाया जाए. लेकिन निर्देशक ने इस दबाव के आगे घुटने टेकने से इंकार कर दिया.

जोखिम कौन उठाए
भारत में दुनिया की सबसे बड़ी फिल्म इंडस्ट्री है जहां हर साल 1100 से भी ज्यादा फिल्में बनाई जाती हैं. यह आंकड़ा अमेरिकी फिल्म इंडस्ट्री से दो गुना और ब्रिटेन से 10 गुना ज्यादा है. इनमें से लगभग 200 फिल्में अकेले बॉलीवुड में बनती हैं और बॉक्स ऑफिस पर आगे रहने की होड़ में यहां तमाम तरह के गठजोड़ किए जाते हैं. ऐसे में मुनाफा कमाने के जमे जमाए फॉर्मूले से हटकर नायिका प्रधान फिल्म को बनाने का जोखिम उठाना बॉलीवुड में अब भी आसान नहीं है. ट्रेड विशेषज्ञ कोमल नाहटा कहते हैं, ‘आज से पांच छ साल पहले तक किसी ‘हीरोइन-लीड’ वाली फिल्म का आयडिया सुनकर ही कह दिया जाता था कि फिल्म चलने ही नहीं वाली है, जनता ये देखेगी ही नहीं. अब काफी कुछ बदल गया है, कहानी जैसी फिल्में बन रही हैं. लेकिन माहौल इतना भी नहीं बदला है कि अक्षय कुमार, ऋतिक रोशन या सलमान खान की फिल्मों के व्यवसाय से टक्कर ली जा सके. इतना ज़रुर हुआ है कि अगर सीमित बजट में हीरोइन को लीड में लेकर कोई फिल्म बनाई जाए तो वह ठीक-ठाक मुनाफा कमा सकती है. इतनी स्वीकृति तो मिली है.’

ऐसे में विद्या बालन की फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर नज़र रखने वालों को हैरान कर दिया है. उनकी फिल्म   ‘द डर्टी पिक्चर’ के अकेले हिंदी संस्करण का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन करीब 80 करोड़ रहा. वहीं 2012 को महिला दिवस के मौके पर ही रिलीज़ हुई विद्या की फिल्म ‘कहानी’ ने बेहद ही ढीली शुरुआत के बाद तीन हफ्ते में भारतीय और विदेशी बाज़ारों में करीब 70 करोड़ का व्यवसाय किया था. कोमल मानते हैं कि विद्या द्वारा चुने गए विषय उनकी फिल्मों को औरों से अलग बनाते हैं. वे कहते हैं, ‘वैसे भी अगर कहानी तगड़ी हो तो शुरुआती हिचिकचिहाट झेलने के बाद फिल्म रफ्तार पकड़ ही लेती है. डर्टी पिक्चर में तीन हीरो थे लेकिन याद सबको विद्या बालन ही है.’

विद्या भी मानती हैं कि पहले ज्यादातर फिल्में पूरी तरह हीरो पर आधारित होती थी और उसके चलने ना चलने का दारोमदार हीरो पर ही रहता था इसलिए उनकी फीस भी ज्यादा होती है. लेकिन अब फॉर्मूला बदल रहा है और इसके शायद इंड्स्ट्री की सोच भी.

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार आने वाली फिल्म ‘शादी के साइड इफेक्ट्स’ के लिए विद्या बालन ने फरहान अख़्तर से ज्यादा फीस मांगी थी. ये सही है कि बीते समय में विद्या समेत प्रियंका चोपड़ा, करीना कपूर और कटरीना कैफ ने 2 से 7 करोड़ के बीच का आंकड़ा छू लिया है लेकिन इंडस्ट्री के खान, कुमार और देवगन की बराबरी करने के लिए उन्हें अब भी काफी दूरी पाटनी है.

सिर्फ औरत का ‘दर्द’ क्यों ?
इसमें कोई दो राय नहीं कि सिर्फ बॉलीवुड ही नहीं, विश्व सिनेमा ने अपने-अपने तरीके से औरतों की तकलीफों और उनके मुद्दों को अपनी फिल्मों में जगह दी है, लेकिन नारीवादियों का एक वर्ग शिकायत करता है कि फिल्मों में औरतों की तकलीफों का डंका ही क्यों पीटा जाता है.  बेलडेक टेस्ट की ही तरह फिल्मों में स्त्रियों के चित्रण पर ज़ोर देने वाले एक और टेस्ट का नाम ‘माको मोरी’ है जो 2013 में आई अमरीकी फिल्म ‘पैसेफिक रिम’ के एक महिला किरदार के नाम पर रखा गया है. इस टेस्ट का मानदंड है कि फिल्म में कम से कम एक महिला किरदार हो जो नायक की स्टोरी को सहारा न देकर, अपनी एक अलग कहानी को लेकर फिल्म में आगे बढ़े.

कंगना रानौत की फिल्म ‘क्वीन’ ऐसी ही एक फिल्म है. इस फिल्म के निर्देशक विकास बहल मानते हैं कि क्वीन, किसी औरत के दुख-दर्द को बयां नहीं करती बल्कि ये तो किसी पुरुष की कहानी भी हो सकती है. विकास के अनुसार महिलाएं मर्दों से ज्यादा अच्छा मनोरंजन कर सकती हैं और इसलिए वे चाहते थे कि उनकी फिल्म को एक औरत ही कहे जबकि उसके एक पुरुष के ज़रिए दिखाए जाने की भी पूरी गुंजाइश थी. फिल्मों में नायिका के लिए गढ़ी जाने वाली भूमिका को लेकर विकास कहते हैं, ‘पर्दे पर औरतों को अबला, बेचारी और दुखियारी दिखाना बंद किया जाना चाहिए. उनके पास बताने, सुनने, सुनाने के लिए और कई बातें हैं जिन्हें पर्दे पर मज़ेदार तरीके से दिखाया जा सकता है. औरतों से जुड़े मुद्दों को नकारा नहीं जाना चाहिए लेकिन उनके उस पहलू को भी तो दिखाया जाए जो किसी भी तरह के ‘स्त्री-पुरुष वाद’ से परे हो.’

पिछले साल आई फिल्म ‘अय्या’ ऐसी ही एक लड़की की कहानी थी जिसे एक दक्षिण भारतीय लड़के की तरफ ‘शारीरिक’ आकर्षण हो जाता है. हालांकि फिल्म की बॉक्स ऑफिस पर हवा निकल गई थी लेकिन हिंदी सिनेमा में शायद कभी कभार ही ऐसा होता है जब पुरुष को ‘उपभोग की वस्तु’ की तरह प्रस्तुत किया जाए.

हालांकि सिनेमा के जानकार प्रकाश रे को लगता है कि हिंदी फिल्मों में शुरु से ही महिलाओं की भावनाओं का ख़्याल रखा गया है और ये कहना गलत होगा कि सिर्फ उनकी तकलीफों का ही बखान किया गया है. ‘आवारा’ फिल्म का गाना ‘दम भर जो उधर मुंह फेरे, ओ चंदा मैं उनसे प्यार कर लूंगी’ या फिर 1957 में ‘नया दौर’ का ‘उड़े जब जब ज़ुल्फें तेरी, कंवारियों का दिल धड़के’ जैसे गीत काफी साफगोई से एक औरत के दिल की बात कह रहे हैं.

सिनेमा को समाज का आईना मानने वाले रे मानते हैं कि सिनेमा से किसी तरह के समाज-सुधार की उम्मीद करना अन्याय होगा. वे कहते हैं, ‘आजादी से पहले और उसके बाद जिस तरह भारतीय समाज में धीरे धीरे बदलाव आए हैं और हमारा लोकप्रिय सिनेमा भी उसी की नव्ज़ को पकड़कर आगे बढ़ रहा है. इसलिए औरतों के संदर्भ में भी सिनेमा उतना ही प्रगतिशील या पिछड़ा हो सकता है जितना हमारा समाज है.’

बदलते दौर के साथ सिनेमा का चेहरा भी बदल रहा है. पर्दे के पीछे निर्देशन से लेकर एडिटिंग, कास्टिंग और मेक-अप तक औरतें धीरे-धीरे ही सही, लेकिन मजबूती के साथ कब्ज़ा जमाती जा रही हैं. जहां तक पर्दे पर दिखने वाले चेहरों की बात है तो उस दिन का इंतज़ार रहेगा जब क्वीन, कहानी या गुलाब गैंग जैसी नायिका प्रधान फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर लोगों का ध्यान खींचने के लिए किसी महिला दिवस का इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा.