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‘अनिवासी’ सारंडावासी!

फोटोः  जसिन्ता केरकेट्टा
फोटोः जसिन्ता केरकेट्टा

जुलाई-अगस्त, 2011 में सरकार ने औपचारिक रूप से माना था कि झारखंड का नक्सल प्रभावित क्षेत्र सारंडा माओवादियों के कब्जे से मुक्त करा लिया गया है. उससे पहले पश्चिम सिंहभूम जिले का यह इलाका तकरीबन 11 साल से माओवादियों के नियंत्रण में था. इसके बाद अक्टूबर के महीने से ही यहां विकास कार्यक्रम बनने लगे. लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर सारंडा सुर्खियों तब आना शुरू हुआ जब जुलाई, 2012 में जयराम रमेश केंद्रीय ग्रामीण मंत्री बने. उन्होंने मंत्री बनते ही इस इलाके के विकास के लिए योजनाएं बनाने के लिए केंद्र और राज्य स्तर पर नए सिरे से कवायद शुरू की. इसके बाद सारंडा विकास योजना बनी और उसके तहत कुछ काम भी हुए. साल 2013 में गणतंत्र दिवस के अवसर पर जयराम ने सारंडा जंगल के दीघा गांव में विकास की बात कही थी. इसके बाद एकीकृत विकास योजना के अंतर्गत दीघा में कुछ काम शुरू हुए हैं. इस योजना में 56  और गांवों को भी शामिल किया गया है जो वनग्राम या राजस्व ग्राम घोषित हैं.

लेकिन इस सबके बीच आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इसी सारंडा में जंगल के बीच तकरीबन सौ गांव ऐसे हैं जिनके बारे में औपचारिक रूप से राज्य या केंद्र सरकार को कोई जानकारी नहीं है. जाहिर है कि तब यहां के निवासियों की गिनती भी राज्य के बाशिंदों में नहीं होती. ये न वनग्राम हैं, न राजस्वग्राम. इस ‘प्रोटेक्टेड फोरेस्ट’ में रहने वाले करीब 25 हजार आदिवासी व अन्य वन निवासी बिना किसी ‘पता’ के हैं. पहचान पत्र नहीं होने के कारण उन्हें वोट देने का अधिकार भी नहीं. इस क्षेत्र में वनविभाग की अनुमति के बिना प्रवेश निषिद्ध है. विभाग से अनुमति मिलने के बाद जब हम घने जंगलों के बीच बसे इन गांवों तक पहुंचे तो हमें पता चला कि पहचान या कागजों पर ‘पता’ न होने से इतर इन लोगों की पीड़ा कहीं ज्यादा है.

सारंडा के ऐसे ही गुमनाम गांवों में से एक जंबईबुरू गांव की सुकुरमुनी तोरकोद अपनी पीड़ा बयान करते हुए बताती हैं कि उनके बड़े बेटे बिरसा तोरकोद, जो स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया (सेल) में काम करता था, को पुलिस ने दो साल पहले नक्सली होने के आरोप में पकड़ लिया था. बुरी तरह प्रताड़ित करने के बाद ही उसे छोड़ा गया. यह सिर्फ सुकुरमुनी के बेटे की बात नहीं है. यहां के आम युवकों को पुलिस के इस दुराग्रह से अक्सर जूझना पड़ता है. पुलिस माओवाद उन्मूलन के नाम पर इन गांवों के युवाओं को पकड़ लेती है. सरकारी पहचान न होने की वजह से वे तब ही पुलिस के चंगुल से छूट पाते हैं जब पुलिस ऐसा चाहे. सुकुरमनी जानकारी देती हैं, ‘ सालों पहले 17 किलोमीटर दूर कुंदलीबाग गांव से 250 लोगों का समूह वहां आकर बस गया था. लेकिन सरकारी अधिकारी इस पहचानते नहीं.’

जंबईबुरू की सुकुरमुनी नदी का गंदा पानी देखाते हुए जो वे खाने-पीने में उपयोग करती हैं
जंबईबुरू की सुकुरमुनी नदी का गंदा पानी देखाते हुए जो वे खाने-पीने में उपयोग करती हैं. फोटोः जसिन्ता केरकेट्टा

इस क्षेत्र में एक नदी है जो इन लोगों के लिए जीवनरेखा सरीखी है. लेकिन इस क्षेत्र में सेल सहित खनन करने वाली अन्य कंपनियां खनिजों की धुलाई के बाद निकला गंदा पानी इसमें बहाती हैं. इसकी वजह से नदी का पानी पूरी तरह लाल हो गया है. अपने घर के बर्तन में रखे पीने के पानी को दिखाती हुई सुकुरमुनी बताती हैं कि घर के लोग उसी लाल पानी को कई बार छान कर पीते हैं. इसी गांव के सरगिया तोरकोद जानकारी देते हैं, ‘ नदी की मछलियां और केकड़े तक इस पानी में मर चुके हैं. लेकिन हमारे पास कोई विकल्प नहीं है. सभी गांववाले इसी को इस्तेमाल करते हैं. हम इसकी शिकायत कंपनी के लोगों से कर चुके हैं लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई.’

सरकार गरीब लोगों को खाने के अनाज पर भारी रियायत देती है, लेकिन यहां के लोगों को यह भी मयस्सर नहीं है. इन लोगों में किसी के पास भी राशन कार्ड नहीं है. इसी गांव के 33 वर्षीय तुरपा सुरीन की उम्र 33 साल है. उनकी दो बेटियां हैं जो चार किलोमीटर दूर कलईता गांव के आंगनबाड़ी केंद्र में पढ़ने जाती हैं. चूंकि सरकार जंबईबुरू को गांव का दर्जा नहीं देती तो वहां कोई स्कूल या आंगनबाड़ी भी नहीं है. तुरपा बताते हैं, ‘ गांव के हालात के बारे में  बीडीओ को जानकारी दी थी पर बीडीओ ने कोई कदम नहीं उठाया.’

जंबईबुरू से जंगल के और अंदर करीब चार किलोमीटर की दूरी पर बालेहातु गांव है. इस गांव की 69 वर्षीया सोमारी जानकारी देती हैं कि उनके गांव में 26 परिवार रहते हैं. यहां के कुछ बच्चे पढ़ने के लिए थोलकोबाद जाते हैं. बालेहातु के ही खोतो होनहागा बताते हैं कि इस गांव में कोई मुखिया या बीडीओ कभी नहीं आया. इस गांव के आगे चेरवांलोर, कादोडीह, धरनादिरी गांवों की भी ऐसी ही स्थिति है.

सारंडा में करमपदा एक बड़ा गांव है जिसका तमाम सरकारी दस्तावेजों में नाम आता है लेकिन इसी के पास कई और गांव हैं जो अपना नाम अब तक इनमें दर्ज नहीं करवा पाए हैं. करमपदा के बिमल होनहागा का दावा है कि इस इलाके में करीब चालीस ऐसे गांव हैं जिन्हें अब तक वनग्राम घोषित नहीं किया गया है और जो हर तरह की सुविधा से वंचित हंै. उनके मुताबिक यहां चेरवांलोर, धरनादिरी, कादोडीह, टोपकोय, कलमकुली, ओकेतबा, कुलातुपु, सरचीकुदर, तोगबो, जोजोबा, बनरेड़ा आदि गांव बसे हैं.

संरक्षित वन, असंरक्षित लोग

ह्यूमन राइट्स एेंड लॉ नेटवर्क नाम की संस्था से जुड़े चाईबासा हाई कोर्ट के अधिवक्ता अली हैदर इसे विडंबना मानते हैं कि आजादी के 64 साल बाद भी सारंडा के अंदर कई गांवों को वनग्राम का दर्जा नहीं मिला है और वे सरकारी, गैरसरकारी सुविधाओं से पूरी तरह वंचित हैं. वे इस बात को व्यंग्यात्मक लहजे में कहते हैं, ‘ जबकि इसी बीच जंगलों को संरक्षित वन घोषित कर दिया गया है.’  रांची हाई कोर्ट के अधिवक्ता अनूप अग्रवाल कहते हैं, ‘ यहां कोई कम आबादी नहीं है. 25,000 लोग रहते हैं जंगल के बीच. ऐसे में सरकारी जिम्मेदारी बनती है कि वह सर्वे के माध्यम से ऐसे गुमनाम गांवों का पता लगाए और उन्हें वनग्राम व राजस्व ग्राम घोषित करे.’

सरकार इन गांवों से पूरी तरह अनजान नहीं है लेकिन वह जिस कछुआ गति से आगे बढ़ रही है उससे इन गांवों को सरकारी पहचान मिलने में सालों लग सकते हैं. जगन्नाथपुर अनुमंडल एसडीओ जयकिशोर प्रसाद कहते हैं कि ऐसे गांवों का सर्वे होकर उन्हें बहुत पहले ही वनग्राम घोषित किया जाना चाहिए था. लेकिन अब इसकी जानकारी धीरे-धीरे मिल रही है. फिर भी काम प्रक्रिया के तहत होगा. सर्वे होने, वनग्राम घोषित करने, मतदाता सूची में नाम जाने में अभी लंबा समय लग सकता है. नोवामुंडी प्रखंड भाग-एक की जिला परिषद सदस्य देवकी कुमारी के अनुसार इस समय पांच गांवों को चिह्नित किया गया है. इनमें जंबईबुरू, बालेहातु, धरनादिरी, चेरवांलोर व कादोडीह शामिल हैं. ये पांचों नोवामुंडी प्रखंड भाग-एक के अंतर्गत आते हैं. चाईबासा के डिप्टी कलेक्टर अबुबकर सिद्दीकी ने नोटिफिकेशन पेपर दे दिया है. इसमें इन गांवों को राजस्व ग्राम घोषित करने की बात कही गई है. अब इन गांवों में ग्रामसभा कराना बाकी है. देवकी कुमारी खुद बताती हंै, ‘अभी लगभग सौ और ऐसे गांव हैं, जिन्हें ढूंढ कर राजस्व ग्राम घोषित करना है.’

फिलहाल सारंडा के अंदर दीघा गांव को छोड़कर और कहीं विकास की कोई रोशनी नहीं पहुंच रही है. दरअसल सारंडा के जंगल को ‘ प्रोटेक्टेड फोरेस्ट’ घोषित करने के पहले पूरे क्षेत्र का गहन सर्वे जरूरी था. जंगल के अंदर के अचिह्नित गांवों की पहचान करके  उन्हें वनग्राम और राजस्व ग्राम घोषित करना था. ग्रामीणों को वनभूमि का पट्टा देना था. पर सरकार ने बिना सर्वे कराए ही पूरे वनक्षेत्र को संरक्षित कर दिया. ऐसे में सरकार वहां पहुंची नहीं और उस एक चूक ने इन हजारों लोगों की जिंदगी कई और महीनों के लिए पीछे धकेल दी.

ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर

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2014 का आम चुनाव दल और विचारधारा बदलने वाले नेताओं के कारण भी याद किया जाएगा. इस चुनाव में कई बड़े नेता अपनी पार्टी का दामन छोड़कर विरोधी दलों में शामिल हो गए. इनकी फेहरिस्त तो बेहद लंबी है. लेकिन जो नाम चौंकाते हैं, उनमें उत्तराखंड के वरिष्ठ कांग्रेस नेता सतपाल महाराज, पूर्व केंद्रीय मंत्री पुरंदेश्वरी, रामकृपाल यादव, राव इंद्रजीत सिंह जैसे नाम शामिल हैं. लालू प्रसाद यादव के बेहद करीबी रहे रामकृपाल यादव अब लालू का साथ छोड़ भाजपा के हो चुके हैं. वहीं गुजरात दंगों के बाद एनडीए से अलग हुए रामविलास पासवान ने बिहार में फिर भाजपा का दामन थाम लिया है. 36 साल तक गुड़गांव से कांग्रेस के सांसद रहे राव इंद्रजीत सिंह जहां भाजपा में शामिल हो गए हैं. वहीं झारखंड की कांग्रेस सरकार में मंत्री रह चुके चंद्रशेखर दुबे कांग्रेस छोड़कर तृणमूल कांग्रेस में शरीक हो चुके हैं. शिबू सोरेन के सबसे छोटे भाई लालू सोरेन झारखंड मुक्ति मोर्चा का साथ छोड़ तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए हैं तो यूपीए सरकार में मंत्री रही पुरंदेश्वरी ने भी कांग्रेस को अलविदा कह भाजपा का दामन थाम लिया है. ऐसे में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के नेता कैसे इस दौड़ में पीछे रह सकते थे. दोनों प्रदेशों के आधा दर्जन नेताओं ने इस चुनाव के पहले अपना दल बदल लिया.

आम धारणा है कि नेता टिकट ना मिलने की नाराजगी में दल बदल लेते हैं. लेकिन कांग्रेस के एक नेता डॉ भागीरथ प्रसाद ने टिकट मिलने के बाद अपनी पार्टी को हाथ झटक कर भाजपा से गठबंधधन कर लिया. मध्य प्रदेश में भिंड से लोकसभा चुनाव का टिकट मिलने की घोषणा होने के बाद भी भागीरथ प्रसाद ने भाजपा में प्रवेश ले लिया. 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस ने भागीरथ प्रसाद को टिकट दिया था. लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा था.

मध्य प्रदेश के खाद्य और नागरिक आपूर्ति मंत्री विजय शाह के बड़े भाई और “मकड़ाई” रियासत के कुंवर अजय शाह कांग्रेस में शामिल हो गए हैं. शाह ने इस हफ्ते ही प्रदेश कांग्रेस कमेटी (पीसीसी) अध्यक्ष अरुण यादव की उपस्थिति में कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की है. प्रदेश में शाह के कांग्रेस प्रवेश को हाल ही में भाजपा में शामिल हुए भागीरथ प्रसाद की प्रतिक्रिया के तौर पर देखा जा रहा है. ध्यान रहे कि शाह का परिवार वर्षों से जनसंघ और फिर भाजपा से जुड़ा रहा है. उनके भाई विजय शाह तो कैबिनेट मंत्री हैं ही, उनकी भाभी भावना शाह खंडवा से महापौर हैं. वहीं उनके दूसरे भाई संजय शाह टिमरनी (हरदा) से भाजपा विधायक हैं.

मध्य प्रदेश के शिवपुरी से भाजपा नेता गणेश गौतम ने अपनी पुरानी पार्टी कांग्रेस का दामन थाम लिया है. गौतम 2007 में कांग्रेस पार्टी को छोडकर भाजपा में शामिल हो गए थे. गौतम ने वर्ष 2008 के चुनाव के ठीक पहले उमा भारती की भारतीय जनशक्ति पार्टी की सदस्यता ले ली थी. उमा भारती की भाजपा में वापसी के बाद वे भाजपा में शामिल हो गए थे. गौतम कांग्रेस की टिकट पर दो बार विधायक रहे हैं.

इसके पहले एक पॉलीटिकल ड्रामा के पटाक्षेप के रूप में कांग्रेस नेता चौधरी राकेश सिंह ने भाजपा ज्वाइन कर ली थी. यह विधानसभा चुनाव के पहले की बात है. जिस वक्त चौधरी भाजपा में शामिल हुए, वे कांग्रेस की तरफ से विधानसभा में उपनेता की जिम्मेदारी निभा रहे थे.

भाजपा नेता राकेश शुक्ला ने भी मेहगांव सीट से टिकट ना मिलने पर नाराज होकर विधानसभा चुनाव के दौरान ही लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी का साथ पकड़ लिया था. वहीं पूर्व केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया की रिश्तेदार कलावती भूरिया ने कांग्रेस से मुंह फेरकर झाबुआ विधानसभा सीट से निर्दलीय ताल ठोंक दी थी.

मध्य प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता अभय दुबे कहते हैं, ‘दल बदलने वाले नेता राष्ट्र निर्माण के भाव से कभी किसी पार्टी से नहीं जुड़ते. उनके लिए आदर्श मायने नहीं रखते बल्कि वे निजी हितों को सर्वोपरि रखने वाले लोग होते हैं. यही कारण है कि किसी पार्टी को बदलने में उन्हें कोई हिचकिचाहट नहीं होती.’

वहीं मध्य प्रदेश भाजपा के प्रवक्ता हितेश बाजपेयी मानते हैं, ‘यदि विचारधारा से प्रेरित होकर कोई व्यक्ति दल बदलता है तो इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए, लेकिन टिकट या दूसरे प्रलोभन में विचारधारा से समझौता करता है तो ये ठीक नहीं है.’

छत्तीसगढ़ में 32 साल तक भाजपा में रहने वाली करुणा शुक्ला ने लोकसभा चुनाव के वक्त कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली है. वे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की भतीजी तो हैं ही, साथ ही भाजपा महिला मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष और जांजगीर लोकसभा क्षेत्र से सांसद भी रह चुकी हैं. फिलहाल करुणा शुक्ला कांग्रेस की टिकट पर बिलासपुर से लोकसभा चुनाव लड़ रही हैं.

इस बारे करुणा शुक्ला कहती हैं, ‘भाजपा ने उनके स्वाभिमान की रक्षा नहीं की. उन्हें अत्यधिक उपेक्षित किया गया. इस कारण उन्होंने बीजेपी को अलविदा कहकर कांग्रेस का साथ ले लिया है.’

विधानसभा चुनाव के पहले बहुजन समाज पार्टी (बसपा) छोड़कर कांग्रेस में शामिल हुए पूर्व विधायक सौरभ सिंह अब लोकसभा चुनाव के वक्त कांग्रेस को भी गुडबाय कह दिया है. सौरभ सिंह कांग्रेस छोड़कर बसपा में शामिल हुए थे. वे बसपा की टिकट पर जीतकर अकलतरा विधानसभा क्षेत्र से विधायक भी रहे.

कांग्रेस के पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ के अध्यक्ष मोतीलाल साहू भी पार्टी को अलविदा कह चुके हैं. महासमुंद से टिकट ना मिलने पर नाराज होकर उन्होंने अपना इस्तीफा प्रदेश कांग्रेस कमेटी को सौंप दिया है.

नेता के दल बदलने की इस होड़ में छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच के प्रदेश अध्यक्ष दीपक साहू भी अपने 120 पदाधिकारियों समेत भाजपा में शामिल हो गए हैं. दीपक साहू स्वाभिमान मंच के संस्थापक व छत्तीसग़़ढ भाजपा के पहले प्रदेशाध्यक्ष दिंवगत ताराचंद साहू के पुत्र हैं. भाजपा सांसद रहे ताराचंद साहू ने पार्टी से नाराज होकर स्वाभिमान मंच की स्थापना की थी. भाजपा में शामिल होने के बाद दीपक साहू का कहना है, ‘ यह मेरी घर वापसी है.’

छत्तीसगढ़ में दल बदलने में जिस नेता की छवि सबसे ज्यादा खराब हुई, वे विद्याचरण शुक्ल थे. शुक्ल ने वर्षों कांग्रेस में रहने के बाद भाजपा की टिकट से वर्ष 2004 में महासमुंद सीट से लोकसभा चुनाव लड़ा था. 1957 में कांग्रेस की टिकट से जीतकर शुक्ल भारतीय संसद में सबसे युवा सांसद बने. आपातकाल के वक्त सूचना प्रसारण मंत्री रहते हुए इंदिरा गांधी के प्रति पूरी वफादारी भी निभाई. लेकिन समय के साथ कभी जनमोर्चा का हिस्सा रहे तो कभी जनता दल (एस) का. कभी एनसीपी का हाथ थामा तो कभी भाजपा का. बीच-बीच में वापस कांग्रेस में आते-जाते रहे. मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने भी भाजपा छोड़कर भारतीय जनशक्ति पार्टी बना ली थी. लेकिन उनकी भी घर वापसी हो गई. ऐसे कई नेता रहे हैं, जिन्होंने पूरी दुनिया का चक्कर लगाने के बाद घर की राह पकड़ ली. वैसे कहा तो यह भी जाता है कि जहाज का पंछी लौटकर जहाज पर ही आता है. यही हाल इन नेताओं का भी है. मौकापरस्ती के चलते वे भले ही कितने ही दल बदल लें या बना लें लेकिन सबसे ज्यादा संभावना उनके अपनी ही पार्टी में लौटने की होती है.

सबसे बड़ा दांव

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मार्च के दूसरे हफ्ते खबर आई कि बिहार के मुख्यमंत्री और जदयू के मुखिया नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री पद के लिए खुद को अन्य उम्मीदवारों के मुकाबले ज्यादा योग्य बताया है. एक समाचार चैनल से बात करते हुए और इशारों में भाजपा से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हुए उनका कहना था, ‘जितने लोग घूम रहे हैं उनको अगर मेरे जितना एक्सपीरिएंस हो तो बता दीजिए. एक दिन भी पार्लियामेंट का तजुर्बा है? आप संसद का नेतृत्व करना चाह रहे हैं.’

नीतीश की अगुवाई में ही पुराना जनता दल परिवार एक नए मोर्चे के साथ उतरने की तैयारी में है. फेडरल फ्रंट के नाम से बन रहे इस मोर्चे में जदयू के  साथ समाजवादी पार्टी और जनता दल (सेकुलर) के प्रमुख भूमिका निभाने की बातें हो रही हैं. बीती फरवरी में सहरसा में एक रैली में नीतीश का कहना भी था, ‘देश का प्रधानमंत्री वही हो सकता है जो सभी धर्म, जाति, वर्ग के लोगों को साथ लेकर चल सके. देश में फेडरल फ्रंट आकार ले रहा है. यही फ्रंट सरकार बनाएगा.’

इससे एक दिलचस्प सवाल उठता है. राजनीति में जो राष्ट्रीय संभावनाएं नीतीश कुमार में थीं या हैं या राष्ट्रीय राजनीति में जो उनकी महत्वाकांक्षाएं रही हैं, इस बार के लोकसभा चुनाव में उनका पटाक्षेप हो जाएगा? या पल-पल बदल रहे सियासी समीकरण उनके लिए संभावनाओं के नए द्वार खोल रहे हैं?

नीतीश के पुराने साथियों में से एक और इन दिनों राष्ट्रीय जनता दल के नेता प्रेम कुमार मणि कहते हैं, ‘पहले तो आप सवाल में जरा सुधार कर लें. नीतीश कुमार की राजनीति में कभी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा नहीं रही है. राष्ट्रीय चेतना या राष्ट्र का क्या नक्शा होता है, वे अब तक तो यही नहीं समझ पाए हैं तो राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा उनकी क्या रहेगी? उनके लिए राजनीति में उनकी निजी आकांक्षा-महत्वाकांक्षा ही सर्वोपरि रही है.’ विधान परिषद के सदस्य रहे मणि आगे कहते हैं, ‘पटेल, नरेंद्र मोदी जैसे कई नेता हुए हैं, जिनसे सहमत-असहमत हुआ जा सकता है. लेकिन वे क्षेत्र और प्रांत की राजनीति से होते हुए आगे आए और तब उन्होंने राष्ट्रीय फलक पर अपार विस्तार किया. लेकिन नीतीश कुमार राजनीति में उलटी दिशा के राहगीर बने. केंद्रीय स्तर पर कई बार मंत्री बनने के बाद वे खुद में राष्ट्रीय राजनीति के तत्व नहीं पनपा सके. और अंत में जब उन्हें बिहार की सत्ता मिली तो प्रांतीय और स्थानीय राजनीति को ही मुख्य आधार बनाकर और उसका ही विस्तार करके  किसी तरह सत्ता समीकरण साधने में ऊर्जा लगाने में लगे रहे, जो अब भी जारी है.’ मणि कहते हैं, ‘नीतीश कुमार अक्सर बातचीत में कहा करते थे कि जिन क्षेत्रीय नेताओं ने प्रधानमंत्री का सपना देखना शुरू किया उनका राजनीति में डाउनफाल भी शुरू हो जाता है इसलिए वे पीएम का सपना नहीं देखेंगे. लेकिन अब उनके कुछ साथियों ने फिर से उन्हें भ्रमजाल में फंसा दिया है कि वे पीएम बन सकते हैं तो रह-रहकर वे अपनी रणनीति बदलते रहते हैं.’

मणि के बाद शिवानंद तिवारी से बात होती है जो ताजा-ताजा जदयू और नीतीश के दुश्मन हुए हैं. वे नीतीश के संकटमोचक और हनुमान तक कहे और माने जाते थे. तिवारी से भी हम वही सवाल करते हैं.  वे कहते हैं, ‘दो-तीन साल पहले तक देश के कई बौद्धिक लोग जिस तरह से नीतीश कुमार का नाम पीएम पद के लिए बार-बार उछाल रहे थे, क्या अब भी वैसा है? क्या हालिया दिनों में किसी ने नीतीश को करिश्माई व्यक्तित्व वाला नेता कहा है?’  तिवारी आगे कहते हैं, ‘अब अपनी राजनीति के बारे में सर्टिफिकेट या तो नीतीश कुमार खुद देते हैं या उनके चंगू-मंगू, जबकि दो-तीन साल पहले स्थिति ऐसी नहीं थी. 2010 में जब नीतीश कुमार ने विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को दिए भोज को रदद कर दिया था और गुजरात से मिली बाढ़ सहायता की राशि भी लौटा दी थी तब से ही इनकी राजनीति का डाउनफाल शुरू हुआ. राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें अगंभीर नेता की तरह देखा जाने लगा. सत्ता बचाए रखने के लिए वे अति महत्वाकांक्षी नेता के तौर पर स्थापित होते गए.’ तिवारी आगे कहते हैं, ‘अगर भाजपा के नेताओं के साथ भोज रद्द कर दिया था तो फिर आगे भाजपा के साथ बने रहने का कोई मतलब नहीं था. उसी समय भाजपा से अलग हुए होते तो बिहार में भाजपा एक मामूली पार्टी होती.’  लेकिन नीतीश कुमार ऐसा नहीं कर सके. भाजपा से अलगाव के बाद वे कांग्रेस का गुणगान करने लगे. कांग्रेस सियासत को आगे बढ़ाने में मददगार साबित होती नहीं दिखी तो फेडरल फ्रंट की कवायद में लग गए. तिवारी कहते हैं, ‘खुद ही सोचकर बताइए कि क्या इस तरह उछल-कूद करने वाले नेता को कभी राष्ट्रीय राजनीति में गंभीर तरीके से लिया जा सकता है?’

प्रेम कुमार मणि या शिवानंद तिवारी इन दिनों नीतीश से दूर हैं, इसलिए कुछ लोग कह सकते हैं कि विरोध में आ गए तो बातें भी वैसी ही कर रहे हैं. लेकिन ये दोनों नेता नीतीश के साथ रहते हुए भी उनको खरी-खोटी सुनाने के लिए जाने जाते रहे हैं. नीतीश कुमार की राजनीति को लेकर ऐसे सवाल जदयू के कई नेताओं के मन में भी हैं, लेकिन कोई खुलकर बोल नहीं पाता. सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि लोकसभा चुनाव करीब आने के बाद भी पार्टी से बिना कोई राय-सलाह किए लगातार इतनी तरह के दांव खेलकर नीतीश क्या जदयू को मजबूत कर रहे हैं. या फिर वे राष्ट्रीय राजनीति में खुद को किसी तरह मजबूत करने के लिए अंधा जुआ खेलते हुए आगे की राह भी खोखली कर रहे हैं?

बिहार में नीतीश कुमार इकलौते नेता हैं और उनकी पार्टी जदयू इकलौती पार्टी है जिसका रुख अब तक साफ नहीं हो सका है कि लोकसभा चुनाव में उसका गणित क्या होगा. लोजपा का निर्णय भला रहा हो या बुरा लेकिन उसने साफ कर दिया कि वह भाजपा के साथ रहेगी. लालू प्रसाद की चाहे जो मजबूरी रही हो लेकिन उनका स्टैंड साफ रहा है कि वे हर हाल में कांग्रेस के साथ बने रहना चाहेंगे. भाजपा ने भी साफ कर दिया है कि उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी और रामविलास पासवान की लोजपा के साथ ही वह लोकसभा चुनाव की वैतरणी पार करेगी. लेकिन जदयू का अब तक कुछ भी स्पष्ट नहीं. प्रदेश में भाकपा और माकपा के साथ उसका तालमेल होगा, यह साफ किया जा चुका है, लेकिन खुद भाकपा-माकपा वाले भी जानते हैं कि आखिरी समय में नीतीश उनका साथ छोड़ सकते हैं. शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘जिस फेडरल फ्रंट की अगुवाई नीतीश कुमार कर रहे हैं, वह टाइम पास अभियान है, उसे वे कभी भी छोड़ सकते हैं, यह सबको पता है.’

फेडरल फ्रंट के कभी भी छोड़ने, कांग्रेस के साथ कभी भी जाने की बातें बिहार के सियासी गलियारे में कोई भी आसानी से कह देता है तो यूं ही नहीं कहता. नीतीश कुमार के बीते 30 साल के राजनीतिक सफर की जानकारी रखने वाले लोग जानते हैं कि वे आसानी से ऐसा करते रहे हैं. नीतीश दांव बदलने मेंे उस्ताद नेता के रूप में देखे जाते रहे हैं और उनके तीन दशकों के राजनीतिक करियर में यह बार-बार देखा जा चुका है कि वे एक रुख पर कभी भी लंबे समय तक कायम नहीं रहते. न ही वे किसी एक मित्र को भरोसेमंद मानकर लंबे समय तक उसके साथ चलते हैं. कभी वे लालू प्रसाद के सिपहसालार माने जाते थे. उनसे अलग हुए तो लालू विरोध का आधार बनाते हुए जार्ज फर्नांडिस के सहयोग से उन्होंने समता पार्टी का गठन किया. समता पार्टी का तालमेल भाकपा माले जैसी घोर वामपंथी पार्टी के साथ हुआ. अक्टूबर, 1994 में समता पार्टी की सात सीटें आईं. नीतीश कुमार ने घोर वामपंथी साथी को छोड़ा और दो साल बाद 1996 में दक्षिणपंथी चरित्र रखने वाली पार्टी भाजपा के साथ जा मिले. 2000 में सात दिन के लिए बिहार की सत्ता में भी आए. भाजपा के साथ बने रहे. 2002 में गुजरात दंगा हुआ. नीतीश कुमार केंद्र में मंत्री थे. लेकिन वे चुप्पी साधे रहे. 2005 में बिहार में फिर विधानसभा चुनाव की बारी आई. नीतीश और भाजपा ने जीत का परचम लहराया. सरकार बनी. 2009 का लोकसभा चुनाव आया. नीतीश के सामने गुजरात दंगे का सवाल आया. उन्होंने कहा कि गुजरात दंगा काठ की हांडी है, एक बार चढ़ाई जा चुकी है, बार-बार नहीं चढ़ाई जा सकती. नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी को एक तरीके से क्लीन चिट दी और सरपट आगे बढ़ गए. 40 में से 32 सीटों पर भाजपा-जदयू गठबंधन ने कब्जा जमा लिया. 20 नीतीश की पार्टी के खाते में आईं, 12 भाजपा के खाते में.

लेकिन यह बात 2009 की थी. जानकारों की मानें तो अगले ही साल नीतीश कुमार को यह लगा कि 2010 में प्रदेश की सियासत को साधने के लिए और सत्ता को फिर से प्राप्त करने के लिए कुछ दांव बदलने होंगे. तो उन्होंने भाजपा से दोस्ती जारी रखते हुए नरेंद्र मोदी के विरोध का अभियान शुरू किया. वह अभियान रंग लाया. लालू प्रसाद से छिटककर मुसलमान नीतीश की ओर आ गए. नीतीश फिर से चैंपियन बन गए. 2010 के विधानसभा चुनाव में जब उनकी पार्टी को ठीक-ठाक सीटें मिल गईं तो नीतीश कुमार ने लोकसभा चुनाव का गणित लगाना शुरू किया और भाजपा से अलगाव के लिए रास्ता तलाशने लगे ताकि सारे पुराने धब्बे दूर हों, राष्ट्रीय राजनीति में उनका महत्व बढ़े और लोकसभा चुनाव आते-आते वे बड़े धर्मनिरपेक्ष नेता के तौर पर उभरें.

एक हद तक वे कामयाब भी रहे. नीतीश, नरेंद्र मोदी को सबसे पहली चुनौती देने वाले नेता के तौर पर उभरे और छा गए. लेकिन वे मोदी की तरह भाजपा को चुनौती नहीं दे सके. नीतीश कुमार आखिरी समय तक नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने से रोकने में लगे रहे. सफल नहीं हुए तो भाजपा से अलग हुए. भाजपा का साथ छोड़ा तो भाकपा और कांग्रेस के सहयोग से राज्य में सरकार बचाने में उन्हें कोई अतिरिक्त कवायद नहीं करनी पड़ी.

राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो दरअसल नीतीश की यह खासियत भी रही है  कि वे एक साथ दो ध्रुवों की राजनीति साधते रहते हैं. वाम से दक्षिण और दक्षिण से वाम की ओर जानेे में उन्हें महारत रही है. भाजपा से अलगाव के बाद सियासत के गलियारे में उन्होंने जो कहानी लिखनी शुरू की, उसकी अहम परीक्षा अब सामने है. इस अलगाव के बाद नीतीश कुमार और उनकी पार्टी अब तक कोई ठोस रास्ता तय नहीं कर सके हैं. नीतीश जानते हैं कि धर्मनिरपेक्षता का ज्यादा राग उनके लिए नुकसानदाई भी हो सकता है. यही वजह है कि वे सबसे बड़ा दांव विशेष राज्य दर्जे पर लगाना चाहते हैं. इसलिए वे कांग्रेस के प्रति कभी नरम, तो कभी गरम होने की राजनीति लगातार करते रहते हैं. जानकारों के मुताबिक नीतीश मानते हैं कि तमाम बुरे वक्त के बावजूद उनके लिए कांंग्रेस अब भी उम्मीदों वाली पार्टी है, जो भाजपा के अलग होने के बाद उन्हें हुए नुकसान की भरपाई कर सकती है. इसलिए कुछ दिन पहले तक भी स्थिति यह रही कि कांग्रेस अगर विशेष राज्य दर्जे पर सिर्फ आश्वासन भी दे देती तो नीतीश उसके साथ सटकर इस बार का चुनाव पार कर लेना चाह रहे थे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. वे बीच में पासवान की ओर भी टकटकी लगाए रहे, दिल खोलकर उनकी तारीफ करते रहे, कहते रहे कि रामविलास पासवान बहुत ही अच्छे नेता और इंसान हैं. कोशिश थी कि किसी तरह पासवान उनके खेमे में आ जाएं. इसके दो कारण थे. नरेंद्र मोदी का विरोध करने में उन्हें दोगुनी ऊर्जा मिलती. साथ ही महादलितों की राजनीति करने में पासवान जाति जो उनके लिए विरोधी-सी हो गई है और जिसकी आबादी कुल वोटरों की करीब चार प्रतिशत है, उसे भी साधने में सहूलियत होती. लेकिन सत्ता की सियासत में किसी तरह बने रहने के अभ्यस्त रामविलास पासवान उस्ताद निकले. नरेंद्र मोदी का विरोध करते-करते वे खुद ही मोदी के पाले में चले गए. नीतीश कुमार अब कहते हैं कि रामविलास पासवान का राजनीतिक चरित्र शुरू से ऐसा ही रहा है, वे ही ऐसा कर सकते हैं. इस पर लोजपा के प्रवक्ता रोहित सिंह कहते हैं कि नीतीश अब रामविलास पासवान के राजनीतिक चरित्र पर अब उंगली उठा रहे हैं लेकिन कुछ दिन पहले तक तो वे पासवान के साथ जुड़ने के लिए बेचैन से थे.

हालिया दिनों में नीतीश कुमार की राजनीति पर सबसे ज्यादा सवाल तब उठे जब उनकी पार्टी ने सारे नियम-कानूनों को ताक पर रखकर लालू प्रसाद यादव की पार्टी के 13 विधायकों को अपने पाले में करने का खेल किया. अलग गुट के तौर पर राजद के विधायकों को मान्यता देने के लिए कम से कम 15 की संख्या चाहिए थी. लेकिन जदयू नेता व विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी ने 13 को ही मान्यता दे दी. वे 13 भी जदयू के साथ नहीं रह सके. लालू प्रसाद ने खेल बदल दिया. वे नौ को फिर से अपने पाले में लेकर चले आए. लालू प्रसाद को चार विधायकों का नुकसान हुआ लेकिन उससे ज्यादा नुकसान नीतीश कुमार की छवि को हुआ. नीतीश के सिपहसालार व पूर्व राज्यसभा सांसद साबिर अली कहते हैं, ‘हर दल अपनी मजबूती चाहता है. हमारी पार्टी ने किया, क्या गलत किया?’ नीतीश कुमार ने पहले कहा कि उन पर बेजा आरोप मढ़ा जा रहा है, वे कुछ नहीं जानते. इस पर शिवानंद तिवारी का कहना था, ‘नीतीश की ऐसी मासूमियत पर तो कुर्बान हो जाने को जी चाहता है. सभी विधायकों से बात कर वही सेटिंग-गेटिंग किए, अब कह रहे हैं, कुछ नहीं जानते.’ बाद में नीतीश कुमार की ओर से बयान आया, ‘लालू प्रसाद तो जिंदगी भर जोड़-तोड़ ही करते रहे हैं, अब उनको क्यों बुरा लग रहा है?’

प्रेम कुमार मणि कहते हैं, ‘नीतीश कुमार अगर ऐसा सोचते हैं कि जो लालू प्रसाद ने किया है, वही वे करेंगे तो फिर यह भी स्वीकार करें कि लालू की तरह ही वे भी सत्ता साधने और सियासत करने के उस्ताद हैं और इसके लिए कुछ भी कर सकते हैं.’

नीतीश कुमार पर ऐसे आरोप इन दिनों लगातार लग रहे हैं. इसका नुकसान उन्हें अगले चुनाव में उठाना पड़ सकता है. अब उनकी पार्टी के कांग्रेस के साथ जाने की संभावना पर बात हो रही है तो जनता दल के कई नेता घबरा भी रहे हैं. एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘नीतीश कुमार ने तो पेंडुलम की तरह बना दिया है. कभी कहते हैं, कांग्रेस का विरोध करो, कभी इशारा देते हैं, कांग्रेस को पुचकारो. अब लोकसभा चुनाव में एक माह रह गया है, कांग्रेस के साथ गए भी तो जनता को क्या समझाएंगे.’ एक और वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘जैसे रामविलास पासवान ने रातों-रात पलटी मारकर नरेंद्र मोदी का गुणगान शुरू कर दिया, क्या नीतीश कुमार भी वैसे कांग्रेस का गुणगान शुरू करेंगे और अगर ऐसा करेंगे तो क्या जनता हजम कर पाएगी?’

केंद्र की सियासत, राज्य के समीकरण
फिलहाल कई तरह के प्रयोग करके नीतीश कुमार लोकसभा चुनाव में अपनी 20 सीटें बचाए रखने की जुगत में लगे हुए हैं. समानांतर रूप से वे केंद्रीय स्तर पर भी अपनी महत्ता बनाए रखने की कोशिश में लगे हुए हैं. लेकिन सवाल उठता है कि केंद्र में महत्ता बनाए रखने की बात तो बाद में, फिलहाल बिहार में ही जो सियासी समीकरण बने हैं, वे क्या इसकी इजाजत दे रहे लगते हैं. हालिया दिनों में आए चुनावी सर्वेक्षण बता रहे हैं कि नीतीश कुमार की साख तेजी से घटी है और जदयू की सीटों में भारी कमी होने वाली है. लेकिन सर्वेक्षणों को छोड़ भी दें, जिन्हें नीतीश कुमार बुलबुला कहते हैं, तो भी जमीनी हकीकत उनके पक्ष में जाती हुई नहीं दिखती. भाजपा से अलगाव के बाद अपनी ही पार्टी में नीतीश या तो बिल्कुल अकेले पड़ गए नेता के तौर पर दिखे हैं या फिर अकेले ही सारे निर्णय करते हुए नेता के तौर पर. कहने को तो उनकी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव हैं लेकिन जदयू में हर कोई जानता है कि पार्टी ‘न खाता- न बही, जो नीतीश कहें, वही सही’ की तर्ज पर चलती है.

अपने इस अकेलेपन की बुनियाद भी नीतीश कुमार ने खुद ही तैयार की है. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि पिछले आठ सालों की सत्ता के दौरान उन्होंने बिहार में पार्टी को खड़ा होने का मौका ही नहीं दिया. संगठन के स्तर पर भी दूसरी कतार का कोई ऐसा नेता नहीं पनप सका जो पार्टी की बातों को बिना नीतीश की इजाजत के रख सके. जानकार मानते हैं कि पार्टी का कोई ढांचा नहीं होने की वजह से चुनाव में नीतीश को कई मुश्किलें होंगी. राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव हैं, लेकिन उनके बारे में सब जानते हैं कि या तो वे नीतीश की जुबान बोलने तक का अपना फर्ज निभाते हैं या फिर मौका पाकर नीतीश की हवा निकालने के लिए जुबान खोलते हैं. ऐसा एक बार नहीं, कई बार देखा भी जा चुका है. नीतीश कुमार जब भाजपा से अलगाव के पहले एनडीए पर पीएम पद का उम्मीदवार घोषित करने के लिए दबाव की राजनीति कर रहे थे, तब भी शरद यादव ने उनसे अलग जाते हुए कहा था कि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की इतनी हड़बड़ी क्या है. ऐसा कहकर शरद ने नीतीश के मंसूबों पर पानी फेरने वाली राजनीति करने की कोशिश की थी, लेकिन बाद में शरद यादव को अपने ही कहे से पलटना पड़ा था. भाजपा से अलगाव के अगले ही दिन शरद यादव ने एक और बयान देकर नीतीश की हवा निकालने की कोशिश की थी. नीतीश जहां चहुंओर भाजपा से अलगाव को एक मजबूत सियासी कदम बताने के अभियान में लगे हुए थे, वहीं शरद ने यह कहकर सबको चौंका दिया कि अगर आडवाणी के नाम पर भाजपा अब भी विचार करे तो जदयू को फिर से साथ आने में कोई परेशानी नहीं. शरद यादव ही नहीं, जदयू के और कई नेता भी जब तब नीतीश की हवा निकालने की कोशिश में लगे रहे हैं. और नीतीश पार्टी के उन नेताओं का हिसाब-किताब बराबर करने वाले नेता भी माने जाते रहे हैं. अभी हाल ही में जदयू ने पांच सांसदों शिवानंद तिवारी, गोपालगंज के सांसद पूर्णमासी राम, औरंगाबाद के सांसद सुशील कुमार सिंह, झंझारपुर के सांसद मंगनी लाल मंडल और मुजफ्फरपुर के सांसद जयनारायण निषाद को निष्कासित किया. हालांकि इनका निष्कासन तय था, लेकिन ये पांचों ऐसे नेता होने की वजह से जदयू से निष्कासित हुए क्योंकि एक समय में इन्होंने नीतीश का विरोध करने का साहस जुटाया था.

ये तो वे नेता हैं जिन्हें हालिया दिनों में नीतीश ने निष्कासित किया. लेकिन इस कड़ी में कई नेता ऐसे भी हैं जो तेजी से नीतीश कुमार का साथ छोड़कर जा भी रहे हैं. कुछ दिनों पहले उनके मंत्रिमंडल की सदस्य परवीर अमानुल्लाह उनका साथ छोड़कर चली गईं. उन्होंने आम आदमी पार्टी का दामन थाम लिया. परवीन अमानुल्लाह सैयद शहाबुद्दीन की बिटिया हैं. मुसलमानों में उनकी विशेष अपील तो है ही, वे उदार छवि वाली नेता भी मानी जाती हैं. अब वे रोजाना बिहार के मुख्यमंत्री की कार्यप्रणाली पर सवाल उठा रही हैं. कल तक नीतीश कुमार के खासमखास माने जाने वाले देवेश चंद्र ठाकुर भी जदयू को बाय-बाय बोल चुके हैं. लालू के खास रहे रामकृपाल यादव ने बीते दिनों जब राजद छोड़ने के संकेत दिए तो बताया जाता है कि नीतीश ने व्यक्तिगत तौर पर उन्हें अपने पाले में लाने की खूब कोशिश की. लेकिन रामकृपाल ने भाजपा का हाथ थाम लिया.

शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘नीतीश कुमार किसकी राजनीति साधना चाहते हैं? मुसलमानों की क्या? तो उन्हें याद रखना होगा कि हालिया दिनों में उन्होंने खुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारी है. भले ही राजद के दो मुसलमान विधायकों को और लोजपा के इकलौते मुसलमान विधायक को अपने पाले में कर वे दूसरे किस्म का संकेत देना चाह रहे हों, लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी तो है.’ लोजपा से जदयू में साबिर अली इसी उम्मीद में आए थे कि उन्हें राज्यसभा का सीट दे दी जाएगी लेकिन उन्हें राज्यसभा नहीं भेजा गया. आज साबिर अली भले नीतीश के पक्ष में बोल रहे हैं लेकिन उनका स्वर कभी भी बदल सकता है. तिवारी कहते हैं, ‘जदयू से इकलौते अल्पसंख्यक सांसद मोनाजिर हसन हैं जो बेगुसराय के सांसद हैं. लेकिन इन दिनों नीतीश कुमार को कामरेड बनना है तो सिटिंग सीट बेगुसराय को भाकपा को देकर वे इकलौते मुसलमान सांसद मोनाजिर को रुखसत करने में लगे हुए हंै.’

तिवारी ऐसे कई सवाल उठाते हैं. वे कहते हैं, ‘इस बार नीतीश कुमार को कई सवालों का जवाब देना होगा, उनका भ्रम दूर होगा. मुसलमानों की राजनीति, जिनकी आबादी बिहार में करीब 16 प्रतिशत है, उस पर नीतीश कुमार को जवाब तो देना ही होगा.’

ऐसे कई सियासी समीकरण भी नीतीश के लिए चुनौती की तरह सामने आते जा रहे हैं. लड़ाई सीधे-सीधे भाजपा और जदयू के बीच होने के आसार हैं. दोनों दल 17 साल बाद एक-दूसरे को आजमाएंगे, सो कौन किस पर भारी पड़ेगा, इसका अनुमान लगाने की स्थिति में अभी कोई नहीं है.

भाजपा से टकराने की राह
भाजपा-जदयू ने साथ मिलकर आखिरी चुनाव 2010 में लड़ा था. वह बिहार विधानसभा का चुनाव था. जनता दल यूनाइटेड को कुल 22.61 प्रतिशत वोट मिले थे जो पिछली बार उसे मिले वोट की तुलना में 2.15 प्रतिशत ज्यादा थे. भाजपा को 16.48 प्रतिशत मत मिले थे, जो पिछली बार की तुलना में 0.81 प्रतिशत ज्यादा थे और लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद को 18.84 प्रतिशत मत मिले थे जो पिछली बार की तुलना में 4.61 प्रतिशत कम थे. कुछ विश्लेषक बार-बार यह हवाला देते हैं कि जदयू 141 सीटों पर चुनाव लड़कर 115 सीटों पर जीत हासिल कर सकी थी, लेकिन भाजपा ने 102 सीटों पर चुनाव लड़कर 91 सीटों को अपने खाते में किया था. यानी ज्यादा लंबी छलांग भाजपा की रही थी. इसका संदर्भ इतिहास के पन्ने पलटकर समझने की कोशिश करते हैं. 1995 में समता पार्टी का भाकपा माले के साथ गठजोड़ हुआ था. विधानसभा में समता पार्टी की सीटों की संख्या दो अंकों तक भी नहीं पहुंच सकी थी. लेकिन 1996 में केंद्रीय स्तर पर भाजपा से गठजोड़ होने के बाद समता की सीटों में उछाल और उभार का दौर शुरू हुआ. बाद में दो बार विधानसभा चुनाव में खिचखिच होने की वजह से राज्य स्तर पर दोनों दलों में गठजोड़ नहीं हो सका. दोनों को आशानुरूप सफलता भी नहीं मिली. लेकिन जब 2005 में दो बार फरवरी और नवंबर में हुए विधानसभा चुनाव में दोनों ने एक साथ मिलकर लालू का मुकाबला किया तो अभेद्य माने जाने  वाले लालू प्रसाद यादव और उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का किला ही ढह गया.

इस पूरी प्रकि्रया में भाजपा की बढ़त गौर करने लायक है. 1990 में भाजपा ने 237 सीटों पर प्रत्याशी खड़े किए थे. 11.61 प्रतिशत वोट के साथ उसे 39 सीटों पर कामयाबी मिली थी. 1995 में उसे 12.96 प्रतिशत वोट मिले और 41 सीटें उसके खाते में आईं. 2000 में 167 सीटों पर उसके प्रत्याशी उतरे. पार्टी को 14.64 प्रतिशत वोट मिले और 67 सीटों पर सफलता मिली. गौर करें कि यह सब तब हो रहा था जब बिहार-झारखंड एक था और सीटों की संख्या 324 थी. तब यह कहा जाता था कि भाजपा की पकड़ दक्षिण बिहार यानी वर्तमान झारखंड इलाके में ज्यादा है. लेकिन राज्य के बंटवारे के बाद 2005 के अक्टूबर में हुए चुनाव में भी भाजपा ने बिहार में 15.65 प्रतिशत वोट हासिल किए और 55 सीटें जीतीं. 2010 में तो भाजपा ने रिकॉर्ड ही बनाया.

लोकसभा की बात करें तो राज्य की 40 लोकसभा सीटों में आधे यानी 20 पर जदयू का कब्जा है तो 12 सीटों के साथ भाजपा भी मजबूत स्थिति में है. अब दोनों एक-दूसरे से निपटने की तैयारी में हैं. लेकिन मुश्किल यह है कि दोनों दलों में से किसी को भी अभी तक ठीक से नहीं पता कि असल में उनका अपना अलग-अलग कौन सा आधार है, जिसके बारे में वे दावा ठोक सकें कि चाहे कुछ हो जाए, वह हमारा है और रहेगा भी! पिछले 17 साल में यह होता रहा है कि जहां से जदयू चुनाव लड़ती रही है, वहां भाजपा का वोट सीधे जदयू के खाते में आसानी से जाता रहा है और जहां भाजपा लड़ती रही है, वहां जदयू का वोट भाजपा के खाते में. इसीलिए अब भी बिहार के राजनीतिक गलियारे में यह सवाल रहस्य की तरह है कि भाजपा और जदयू में कौन किसकी वजह से मजबूत हुआ है. नीतीश के सामने दूसरी मुश्किलें भी हैं. जैसे चुनौती यह है कि वे एक हद के बाद भाजपा को निशाने पर नहीं ले सकेंगे. अगर सांप्रदायिक पार्टी कहेंगे तो खुद हंसी का पात्र बनेंगे, क्योंकि तब सवाल होगा कि यह दाग तो पुराना है, इतने दिनों तक फिर क्यों साथ रहे. बताते हैं कि भाजपा ने अलग से वीडियो तैयार करवा रखे हैं, जिनमें नीतीश कुमार नरेंद मोदी की तारीफ करते और उन्हें विकास पुरुष कहने के साथ ही यह कहते हुए दिखाई पड़ते हैं कि नरेंद्र भाई मोदी की जरूरत देश को है. नीतीश कुमार या उनकी पार्टी भाजपा को विकास विरोधी पार्टी भी कह सकने की स्थिति में नहीं होगी, क्योंकि कम से कम बिहार में अच्छाइयों या बुराइयों के लिए दोनों की भूमिका समान रूप से रही है. भाजपा में सवर्ण नेताओं की बहुतायत है तो क्या नीतीश कुमार भाजपा को सवर्णों की पार्टी कहने का जोखिम ले सकेंगे? शायद नहीं, क्योंकि उनके खुद के दल में न सिर्फ सवर्ण नेताओं की भरमार है बल्कि वे प्रभावी स्थिति में भी हैं. नीतीश खुद सवर्ण राजनीति साधने में लगातार ऊर्जा लगाए हुए दिखते हैं.

तो क्या अलगाव की स्थिति में सिर्फ नरेंद्र मोदी के विरोध का हथियार ही जदयू के पास बचेगा? सवाल यह भी कि वह हथियार मुस्लिम वोटों को अपने पक्ष में एकजुट करने के लिए कुछ हद तक कारगर तो हो भी सकता है, लेकिन दूसरी ओर क्या उससे उनके अपने वोट बैंक के बिखर जाने का डर नहीं है. जानकारों के मुताबिक मोदी के नाम पर भाजपा की कोशिश हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की तो होगी ही, नरेंद्र मोदी को अतिपिछड़ा समूह का नेता बताकर भी भाजपाइयों ने बिहार के सुदूरवर्ती इलाके में मोदी को स्थापित करने की कोशिश परवान चढ़ा दी है. नरेंद्र मोदी ने मुजफ्फरपुर की अपनी रैली में कहा भी कि भाजपा अब बनियों और ब्राह्मणों की पार्टी नहीं रह गई है बल्कि वह पिछड़ों की पार्टी हो गई है. दरअसल भाजपा हर हथकंडा अपनाकर नीतीश के अतिपिछड़े समूह को और पिछड़ों में गैरयादव समूह को तोड़ने की कोशिश में है.

अतिपिछड़ा समूह बिहार की राजनीति में सबसे प्रभावी भूमिका में है. इसके अलावा बिहार की राजनीति आखिर में घूम-फिरकर जाति के खोल में समा जाने के लिए भी ख्यात रही है, सो नरेंद्र मोदी को अतिपिछड़ा जाति का बताकर राजनीतिक फसल काटने की कोशिश भाजपा पुरजोर तरीके से कर रही है. इस समूह को लुभाने के लिए एक ओर तो शीर्ष पर नरेंद्र मोदी तो हैं ही, निचले स्तर पर भाजपा ने बूथ मैनेजमेंट में अतिपिछड़ों को तरजीह देने की योजना बनाई है.

बिहार में जातीय राजनीति का ककहरा बहुत साफ है. सवर्ण कुल मिलाकर 12 प्रतिशत के करीब हैं. नीतीश कुमार जिस कुरमी समुदाय से हैं उसकी राज्य में करीब 2.4 प्रतिशत आबादी है. पिछड़ी जाति में ही महत्वपूर्ण कोईरी जाति की आबादी करीब चार प्रतिशत मानी जाती है. यादव 11 प्रतिशत के करीब हैं. दलितों की आबादी करीब 15 प्रतिशत है और मुस्लिम समुदाय की लगभग 16.5 प्रतिशत. आदिवासी लगभग एक प्रतिशत हैं और शेष बची आबादी अतिपिछड़े समूह की है. इस समूह मेंं 119 जातियां आती हैं. यादव, कोईरी, कुरमी और बनिया को छोड़ अमूमन सभी पिछड़ी जातियां इसी समूह मेें शामिल हंै. पिछले चुनाव में इस समूह का सबसे ज्यादा फायदा नीतीश कुमार को मिला था. इनकी आबादी करीब 42 प्रतिशत के करीब है, इसलिए इस दृष्टि से बिहार की राजनीति में फिलहाल यह सबसे मजबूत समूह है. नीतीश ने पिछड़ों और अतिपिछड़ों का बंटवारा किया था, सो स्वाभाविक तौर पर वे इस समूह के उम्मीदों और आकांक्षाओं के सबसे बड़े नेता बने थे. लेकिन अब इसी अतिपिछड़े समूह में नीतीश के प्रति नाराजगी का भाव भी उभरा है. प्रशासन और सत्ता पर सवर्णों का दबदबा और ठेके-पट्टे आदि में पिछड़ों का ही दबदबा कायम रहना अतिपिछड़ा समूह को नाराज किए हुए है.

साफ है कि मात्र 2.4 प्रतिशत आबादी वाले कुरमी समुदाय से आने वाले नीतीश कुमार के लिए भाजपा से अलग होने के बाद अपने बूते आगे का सफर तय करना इतना आसान भी नहीं दिख रहा. नीतीश की नजर अतिपिछड़ा, महादलित और मुसिलम वोटों पर है. अगर सिर्फ अपनी जाति की बात होगी तो लालू प्रसाद सदैव बड़े नेता बने रहेंगे, क्योंकि यादव आबादी करीब 11 प्रतिशत है. भाजपा ने भी पिछले कुछ सालों में कांग्रेस के सवर्ण खेमे में अपनी पकड़ बनायी है और अलगाव की सिथति में 12 प्रतिशत आबादी वाले सवर्णों का भाजपा की ओर तेजी से ध्रुवीकरण हुआ भी है. भाजपा रामविलास पासवान को साथ करके दलितों के वोट में सेंधमारी की कोशिश में है. उपेंद्र कुशवाहा को साथ करके बिहार में फेविकोल टाइप जातीय समीकरण कोईरी-कुरमी को तोड़ने की जुगत में वह लगी हुई है. उधर, नीतीश किसी तरह कोईरी-कुरमी समीकरण बचाने में लगे  हैं.

साख का सवाल
संभव है, नीतीश कुमार जातीय समीकरण साधकर बिहार में सियासी गणित फिट भी बैठा लंे. फेडरल फ्रंट या कांग्रेस के सहारे चुनावी नैया को अपने अनुकूल कर भी लंे. नीतीश जानते हैं कि विशेष राज्य दर्जे को चुनावी मसला बनाकर वे इस बार आसानी से बाजी नहीं जीत सकते. इस मुद्दे पर उन्होंने दो मार्च को बिहार बंद भी करवा दिया, सत्याग्रह भी किया, लेकिन उनके लोग इस सवाल का जवाब नहीं दे पा रहे कि नीतीश विशेष राज्य दर्जे के बजाय आठ साल के सुशासन को क्यों नहीं आधार बना रहे. नीतीश कुमार आठ साल में किए काम को मसला बनाने का साहस क्यों नहीं जुटा पा रहे? जदयू के दूसरे नेता ही नहीं, खुद नीतीश कुमार भी इन सवालों का जवाब देने की स्थिति में नहीं हंै. जानकार मानते हैं कि बावजूद इसकेे वे विशेष राज्य दर्जा, धर्मनिरपेक्षता आदि का कॉकटेल बनाकर एक नई किस्म का समीकरण बनाने की कोशिश करेंगे.

नीतीश कुमार यह भी जानते हैं कि अगर वे अपने ही राज्य में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाए तो केंद्र की राजनीति में उन्हें कोई नहीं पूछेगा. वे एक माहौल बनाना चाहते हैं, लेकिन मुश्किल यही है कि अब तक उसकी दिशा तय नहीं. उनके सामने लालू प्रसाद, भाजपा, उपेंद्र कुशवाहा, रामविलास पासवान आदि चुनौती के तौर पर हैं. इन सबके खिलाफ नीतीश को अकेले लड़ना है. नीतीश जानते हैं, जो उनके साथ हैं, वे रातों-रात पलटी मार सकते हैं. नीतीश की अपनी तमाम खासियतंे हैं. वे अपने व्यक्तित्व के बल पर सबसे लड़ेंगे. लेकिन कुछ कमियां उन्हें परेशान करेंगी. वे हालिया वर्षोें में जिस स्वभाव के नेता हो गए हैं, क्या वह स्वभाव उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित होने देगा? वे अपनी जरूरत के अनुसार साथी चुनते रहते हैं और मतलब निकल जाने के बाद उसे किनारे भी करते रहते हैं. जार्ज फर्नांडिस, दिग्विजय सिंह से लेकर अब तक कई नेता ऐसे रहे हैं, जो कभी नीतीश कुमार की राजनीतिक पारी को आगे बढ़ाने में मददगार रहे, लेकिन नीतीश सबको दरकिनार करके आगे बढ़ते रहे हैं. समय-समय पर वे अपनी मंडली के साथी भी बदलते रहे हैं और संगी-साथी के तौर पर राजनीतिक पार्टियों का समूह भी. भाकपा माले, भाकपा, माकपा से लेकर भाजपा तक को वे आजमाते रहे हैं. अब कांग्रेस पर उम्मीद टिकाने के साथ ही वे मुलायम, नवीन पटनायक, देवगौड़ा आदि पर नजर जमाए हुए हैं. ये नेता नीतीश का साथ दे भी दें तो क्या जब आखिरी बारी आएगी तो वे नीतीश के साथ खड़े हो सकेंगे? क्योंकि नीतीश कुमार के बारे में यह धारणा अब मजबूत हो चुकी है कि नीतीश के साथ जाने का मतलब है- यूज ऐंड थ्रो की तरह इस्तेमाल होना और इस धारणा की वजह से नीतीश अब जिसको साधने की कोशिश करते हैं, वह भी उनको उतनी ही चतुराई से साधने की कोशिश करता है. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘राजनीति संभावनाओं का खेल है. नीतीश कुमार का राष्ट्रीय राजनीति में क्या होगा, इस पर अभी बात करना उचित नहीं. क्षेत्रीय दलों के क्षत्रप किंगमेकर की भूमिका में आते रहते हैं. संभव है नीतीश किंगमेकर की भूमिका में रहंे और यह भी होता रहा है कि कई बार किंगमेकर लक-बाय-चांस किंग भी बन जाते हैं. अभी से क्या कहा जाए! पहले यह तो तय हो कि नीतीश किसके साथ लड़ेंगे. अकेले, कांग्रेस के साथ या फिर किसी और रास्ते! यह भी तो तय हो कि लालू प्रसाद की क्या रणनीति होगी. इन सब बातों पर नीतीश का भविष्य निर्भर करेगा.’

किल्वेनमनी हत्याकांड

भाimgरत के दक्षिणी राज्यों में तमिलनाडु का इतिहास जातिगत खूनी संघर्षों के लिए सबसे ज्यादा कुख्यात रहा है. यहां पंद्रहवीं शताब्दी तक के इदांकी और वालांकी जातियों के बीच हिंसक संघर्षों से जुड़े ऐतिहासिक दस्तावेज मिलते हैं. हालांकि आज से तकरीबन साढ़े पांच दशक पहले का किल्वेनमनी हत्याकांड न सिर्फ इस राज्य बल्कि स्वतंत्र भारत में भी इस तरह की घटनाओं की शुरुआत माना जाता है.

किल्वेनमनी नाम का यह कस्बा तंजावुर जिले में है. 1960-70  के दशक में यहां कम्युनिस्ट आंदोलन काफी मजबूत था. यह आंदोलन उन हजारों दलित मजदूरों और भूमिहीन किसानों की बुनियाद पर टिका था जिनकी आजीविका बड़े किसानों, जो ज्यादातर सवर्ण थे, के यहां काम करके चलती थी. कम्युनिस्ट आंदोलन की वजह से ये एकजुट थे और समय-समय पर अपनी मजदूरी बढ़ाने के लिए आंदोलन करते रहते थे. इन्हीं सालों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) से जुड़े कुछ स्थानीय नेताओं की मौत के बाद यह आंदोलन कमजोर पड़ गया. लेकिन इसी दशक में 1966-67 में तंजावुर और आस-पास के क्षेत्रों में आंशिक सूखा पड़ा और एक बड़ी आबादी, जिनमें सभी मजदूर शामिल थे, की आजीविका पर संकट आ गया.

वे बड़े किसानों द्वारा कम मजदूरी दिए जाने की वजह से पहले से आक्रोशित थे लेकिन इस समय उनकी हालत और खराब हो गई. सीपीआई की सोच थी कि इन लोगों के बीच पैठ बढ़ाने का यह एक अवसर है, इसलिए वह इन लोगों को एकजुट करने लगी. इसी दौरान एक बड़े किसान की हत्या हो गई. इस घटना ने अचानक बड़े किसानों को एकजुट कर दिया.

किल्वेनमनी हत्याकांड को इसी के प्रतिशोध की घटना कहा जाता है. इन सवर्ण किसानों के इशारे पर उनके कुछ लोगों ने 25 दिसंबर, 1969 को किल्वेनमनी में दलितों की एक बसाहट पर हमला बोल दिया. एक भवन जिसमें कई दलित परिवार इकट्ठे हुए थे, में इन लोगों ने आग लगा दी. स्वतंत्र भारत में दलितों के ऊपर हमले की यह पहली बड़ी घटना थी. ताज्जुब की बात है कि उस समय की अन्नादुरई सरकार (डीएमके) ने इस मामले पर कार्रवाई करने में शुरुआती हिचक दिखाई और यह घटना सुर्खियों में तब आ पाई जब विधानसभा में सीपीआई के नेताओं से इससे जुड़े सवाल पूछे. लेकिन इस घटना को सीपीआई दलित बनाम सवर्ण के बजाय वर्गीय संघर्ष की तरह पेश कर रही थी हालांकि राज्य के इतिहास को देखते हुए इस घटना को जातिगत उत्पीड़न की तरह ही देखा गया.

किल्वेनमनी हत्याकांड का सबसे हैरान करने वाला पहलू यह था कि जिला न्यायालय ने हत्याकांड के लिए आठ लोगों को दोषी ठहराया. लेकिन जब इन लोगों ने मद्रास उच्च न्यायालय में अपील की तो अदालत ने इन सभी को निर्दोष करार दे दिया और इस तरह दिन दहाड़े हुए हत्याकांड में एक भी व्यक्ति दोषी नहीं ठहराया जा सका.

‘जंगल हम-आपका, नहीं किसी के बाप का ’

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मनीषा यादव

अवधेश की उम्र का हिसाब रखने के लिए न तो उसके पास मां है और न बाप. शायद इसलिए हमने उससे उसकी उम्र जाननी चाही तो उसने तपाक जवाब दिया, ‘चौथी कक्षा में पढ़ता हूं.’ चौथी कक्षा ही उसकी उम्र को बयां करती है. झट हम भी हिसाब लगाते हैं- दस साल.

अवधेश सिंह पनिका दस साल का बच्चा है. आदिवासी परिवार में पैदा हुआ. मध्य भारत के घने जंगलों से घिरे अपने गांव अमिलिया में जब उसने होश संभालना शुरू किया तो उसको संभालने वाले मां-बाप इस दुनिया से विदा हो चुके थे. पहले पिता और एकाध-दो साल बाद मां भी.

अवधेश की कहानी इसलिए जरूरी नहीं है कि उसके मां-बाप नहीं हैं या फिर उसकी उम्र का हिसाब रखने वाला कोई नहीं है. उसकी कहानी इससे आगे की है. एक तरफ गांववालों की नजर में पला-बढ़ा, आधा पेट खाया, बिना नहाया, लंबे बेतरतीब बाल और थोड़ा-थोड़ा कुपोषण की आशंका को लादे लटका पेट- अवधेश. दूसरी तरफ कंपनीवालों से संघर्ष कर रहे गांववालों की लड़ाई का सबसे छोटा सिपाही- अवधेश सिंह पनिका.

जब अवधेश अपने गांव के दूसरे बच्चों के साथ खेलने और जंगल घूमने जाना सीख रहा था तभी दिल्ली और भोपाल में बैठे हुक्मरान उसके जंगल को खत्म करने के लिए निजी कंपनियों के साथ साजिश बुनने में लगे थे. उसके गांव का निस्तार महान जंगल में है. 54 गांवों के करीब एक लाख लोगों की जीविका के स्रोत महान जंगल को महान कोल लिमिटेड (एस्सार व हिंडाल्को की संयुक्त उपक्रम) को कोयला खदान के लिए दिया गया है. इस प्रस्तावित कोयला खदान के खुलने से अवधेश जैसे हजारों बच्चों की जिंदगी खतरे में है. अपनी जीविका को बचाने के लिए अवधेश के गांववालों ने दूसरे गांववालों के साथ मिलकर महान संघर्ष समिति बनाई है. भले ही महान कोल ब्लॉक को पर्यावरण क्लीयरेंस देते वक्त मंत्री-अधिकारियों ने महान जंगल की अहमियत ना समझी हो लेकिन अवधेश बहुत ही मासूम ढंग से ही सही जंगल की अहमियत और आदिवासी होने के नाते उसके  मायने समझा जाता है. उसके ही शब्दों में, ‘जंगल से हम महुआ बीनते (चुनते) हैं. तेंदुपत्ता, लकड़ी, चिरौंची भी. फिर इसको बेचकर कपड़ा खरीदते हैं, मिठाई खरीदते हैं और पैसा बच गया तो गेंद भी.’ अवधेश कंपनी द्वारा उछाले गए विकास के दावों को भी समझता है. वह बड़े आराम से कहता है, ‘कंपनी वाला बोला- इंजीनियर बनाएंगे. प्रदूषण से मर जाएंगे तो कैसे इंजीनियर बनाएगा.’

सिंगरौली देश की बिजली राजधानी है. पावर प्लांट्स और कोयला खदान के बहाने निजी कंपनियों ने यहां ऐसा जाल बुना है कि सरकार और कंपनी के बीच फर्क मिट-सा जाता है. यहां के गांवों में कई सरकारी सुविधाओं को कंपनी के नाम पर परोसा जाता है, जिससे कंपनियों की छवि लोगों के बीच अच्छी बन सके. चाहे वह स्कूली बच्चों को दी जा रही सरकारी साइकिल पर महान कोल लिमिटेड छपा नाम हो या फिर उनकी यूनिफॉर्म. अवधेश के स्कूल में भी एक दिन कंपनीवाले यूनिफॉर्म बांटने आए थे लेकिन उसने लेने से साफ-साफ इनकार कर दिया. न जाने कितने जाड़ों में पहनी जा चुकी उसकी फटी जैकेट और पुरानी शर्ट कंपनी वालों के नये लक-दक स्कूली यूनिफॉर्म पर भारी पड़ गई थी.

अवधेश की अवयस्क चेतना इस बात को समझ चुकी है कि – कंपनी उसका भविष्य बिगाड़ेगी, उसके प्यारे से जंगल को छीन लेगी. ‘आज मिठाई बांटता है, कभी कपड़ा बांटने आता है. एक दिन कंपनीवाला बोला कि दस रुपये लोगे?  हम बोले दो तो बोला कि बोलो कंपनी के तरफ हो कि प्रिया (प्रिया महान संघर्ष समिति की कार्यकर्ता है और पिछले तीन साल से क्षेत्र में जंगल-जमीन बचाने के लिए संघर्षरत है) पाल्टी  (पार्टी) की तरफ? हम बोले, ‘प्रिया पाल्टी की तरफ, तो हमको भगा दिया.’

चार अगस्त, 2013 को महान संघर्ष समिति की तरफ से एक विशाल वनाधिकार सम्मेलन का आयोजन किया गया था. उससे एक दिन पहले तीन अगस्त को गांव वालों ने एक मशाल रैली निकाली थी. उस दिन रात में रैली को कंपनी कार्यालय के पास पुलिसवालों ने रोक लिया था. गांव के लोगों में थोड़ी-सी डर की लकीर थी लेकिन अवधेश वहां भी खड़ा था. मेरे पास आकर बोलता है, ‘ हम महान संघर्ष पाल्टी में हैं, आप नारा लगाइए न.’ महान संघर्ष समिति की हर बैठक में वह आस-पास मौजूद रहता है. समिति के कार्यकर्ताओं को बताता दिखता है, ‘देखिए! ई कंपनी का मनई (आदमी) है. देखिए वो मीटिंग की बात रिकॉर्डिंग कर रहा है.’

समिति के कार्यकर्ताओं को देखते ही जिंदाबाद का संबोधन करने वाले अवधेश को आंदोलन के दौरान बोले जाने वाले नारे मुंहजबानी याद हैं. वह भी दूसरे साथियों के साथ नारे लगाता है- ‘जंगल हमारा आपका, नहीं किसी के बाप का.’ ‘कमाने वाला- खाएगा, लूटने वाला-जाएगा, नया जमाना-आएगा, नया जमाना कौन लाएगा- हम लायेंगे, हम लायेंगे’

इस हारे हुए लोकतंत्र के जीते हुए सिपाही भले अवधेश जैसे बच्चों के लिए नया जमाना लाने में हार गए हों उसके द्वारा नया जमाना लाने की यह कवायद शायद सफल हो.

यूरोप के अनाथ भारतवंशी

माना जाता है कि यूरोप में रोमा-सिंती समुदाय के एक करोड़ से भी अधिक लोग रहते हैं.

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सारा हैकान्सन सिर्फ दो साल की एक बच्ची है. सितंबर, 2013 में वह सारे स्वीडन में चर्चा का विषय बन गई. हुआ यह कि अगस्त, 2011 में, जब वह मात्र तीन महीने का नवजात शिशु थी, उसका नाम पुलिस के एक गोपनीय डाटाबैंक में दर्ज हो गया. डाटाबैंक के सभी पांच हजार नाम रोमा कहलाने वाले जातीय अल्पसंख्यकों के हैं. उन्होंने कुछ किया नहीं था. उनका रोमा होना ही काफी था. भारतीय मूल वाली लगभग 40 हजार जनसंख्या की यह बिरादरी पिछले 500 वर्षों से स्वीडन में रह रही है.

स्वीडिश दैनिक ‘दागेन न्यिहेतर’ ने ‘घुमंतू जन’ शीर्षक वाले इस डाटाबैंक का रहस्योद्घाटन किया था. पुलिस ने पहले तो इस डाटाबैंक के अस्तित्व से ही इंकार कर दिया. बाद में उसने कहा कि यह अपराधों की रोकथाम के विश्लेषण में काम आता है. उसमें संबद्ध व्यक्ति के 19वीं सदी तक के पूर्वजों का भी रिकॉर्ड रखा जाता है. अखबार ने एक और डाटाबैंक खोज निकाला. उसमें 10 साल से कम के 106 बच्चों सहित 997 रोमा लोगों का विवरण दर्ज था. याद रहे कि नोबेल पुरस्कारों का देश स्वीडन संसार के सबसे खुशहाल, सुशासित और भ्रष्टाचार-मुक्त कल्याणकारी देशों में गिना जाता है.

15 साल की लेओनार्दा दिब्रानी नौ अक्टूबर, 2013 को, पूर्वी फ्रांस के लेवियेर में अपने स्कूल के दोस्तों के साथ पिकनिक मनाने जा रही थी. पुलिस ने स्कूल-बस रास्ते में ही रोक ली. लेओनार्दा को बलपूर्वक बस से उतार लिया गया और तुरंत ही उसे शेष परिवार के साथ कोसोवो भेज दिया गया. लेओनार्दा का रोमा का परिवार कोसोवो से ही आया था और पांच साल से फ्रांस में शरण लेने की कोशिशें कर रहा था. किस्सा यहीं खत्म हो जाता. लेकिन, हजारों छात्रों ने लेआनार्दा के निष्कासन के विरुद्ध प्रदर्शन करना शुरू कर दिया. मामला तूल पकड़ने लगा. मीडिया ने भी सरकारी निष्ठुरता को आड़े हाथों लिया. बात यहां तक पहुंची कि राष्ट्रपति फ्रोंस्वा ओलांद को, 20 अक्टूबर के दिन, टेलीविजन पर कहना पड़ा कि लेओनार्दा यदि चाहे तो अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए ‘अकेले’ वापस आ सकती है. कोसोवो से लेओनार्दा का दो टूक उत्तर आया, ‘मैं अकेले फ्रांस वापस नहीं जाऊंगी, अपने परिवार को नहीं छोडूं़गी.’

सिर्फ 18 लाख जनसंख्या वाला मुस्लिम देश कोसोवो यूरोपीय संघ और पश्चिमी देशों के ‘नाटो’ सैन्य संगठन की सहायता से बना यूरोप का सबसे नया देश है. फरवरी, 2008 में अपनी स्वतंत्रता की घोषणा से पहले वह सर्बिया का, और 1990 वाले दशक में यूगोस्लाविया के विघटन से पहले सर्बिया यूगोस्लाविया का हिस्सा हुआ करता था. 1999 में यूरोपीय संघ और नाटो की मदद से कोसोवो का कथित स्वतंत्रता संग्राम शुरू होने पर वहां रह रहे एक लाख 20 हजार रोमा अल्पसंख्यकों में से ज्यादातर को भाग कर दूसरे देशों में शरण लेनी पड़ी है.

कभी भारत से आए और पूर्वी यूरोप के देशों में सदियों से रहने वाले लाखों रोमा लोगों का जीना इन दिनों दूभर है. इन देशों की बहुमत जनसंख्या उन्हें ही अपने हर क्षोभ का कोपभाजन बनाती है. हर चोरी में, खासकर बच्चों के गायब होने में उन्हीं का हाथ देखा जाता है. नवंबर के शुरुआत में यूनान और आयरलैंड में पुलिस ने गोरे-चिट्टे रंग और सुनहले बालों वाले बच्चों को उनके घरवालों से इसलिए छीन लिया कि घरवाले रोमा थे. रोमा बच्चे आम तौर पर बहुत गोरे नहीं होते, इसलिए पू्र्वाग्रह-ग्रस्त पुलिस ने मान लिया कि ये गोरे बच्चे जरूर कहीं से चुराए गए हैं. लेकिन, डीएनए जांच ने दोनों मामलों में पुलिस को गलत ठहराया.

इस्तवान पिसोंत फुटबॉल खिलाड़ी था. उस की गणना हंगरी के सबसे होनहार फुटबॉल खिलाड़ियों में हुआ करती थी. 1980 वाले दशक में वह ‘होनवेद बुडापेस्ट’ क्लब के लिए खेला करता था. वह खेल-समीक्षकों से लेकर दर्शकों तक का दुलारा था. अपनी प्रसिद्धि को अपनी सिद्धि मान बैठा. 18 साल का होते ही एक टेलीविजन इंटरव्यू में कह बैठा कि उसके माता-पिता ‘रोमा’ हैं. इसके बाद तो वह फुटबॉल प्रेमियों की नजरों में ऐसा गिरा कि हीरो से जीरो बन गया. भद्दी फब्तियां कसी जानें लगीं, ‘साला बंजारा है…बंजारा…’ इस्तवान पिसोंत अपने देश के दर्शकों से दुखी होते हुए भी राष्ट्रीय ही नहीं, 31 अंतरराष्ट्रीय मैचों में भी खेल चुका है. कहता है, ‘हंगरी के कई नामी फुटबॉल खिलाड़ी रोमा हैं. पर, अपने अपमान और तिरस्कार के डर से वे कभी यह कहने की हिम्मत नहीं करते कि उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि रोमा बंजारों की है.’ हंगरी की करीब एक करोड़ की जनसंख्या में छह लाख रोमा हैं. उनके नाच-गाने तो पसंद किए जाते हैं, पर आए दिन हमले होना, उनके घर-बार जला देना और पुलिस द्वारा उन्हें तंग करना भी आम बात है. वहां के दक्षिणपंथी अतिवादी 2007 के बाद से 10 रोमा लोगों की हत्या कर चुके हैं.

लोकतंत्र में रोमा संत्रस्त
दो दशक पूर्व पूर्वी यूरोप की कम्युनिस्ट सरकारों के पतन के बाद से लोकतंत्र बन गए वहां के हंगरी और रोमानिया से लेकर स्लोवाकिया और चेक गणराज्य तक डेढ़ दर्जन देशों में भारतीय पूर्वजों की संतान रोमा लोगों की हालत बद से बदतर होती गई है. अपने आप को लोकतंत्र और कानून के राज का आदर्श नमूना मानने वाले जर्मनी, फ्रांस, स्पेन, इटली या स्वीडन जैसे पश्चिमी यूरोपीय देशों में भी रोमा लोगों के लिए वह सामाजिक मान्यता व समानता सपना ही है जो इस बीच समलैंगिकों तक को पूरे आदर-सम्मान के साथ मिलने लगी है.

मुख्य रूप से जर्मन-भाषी देशों में सिंती कहलाने वाले लोग भी रोमा बिरादरी की ही एक उपजाति हैं. पर, वे रोमा हैं या सिंती हैं, पूर्वी यूरोप में हैं या पश्चिमी यूरोप में, निपट गरीब ही हैं. अनपढ़ हैं. बदनाम कर दिए गए हैं कि भीख मांगने या चोरी-उठाईगीरी करने के सिवा कुछ नहीं जानते. उन्हें पास-पड़ोस में फटकने तक नहीं दिया जाता. उनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार किया जाता है. न कोई घर-द्वार मिलता है और न नौकरी-धंधा. यह सब पहले भी था. लेकिन, जब से पू्र्वी यूरोप के भूतपूर्व समाजवादी देशों में ‘लोकतंत्र’ आया है, तब से उनका अपमान और तिरस्कार पराकाष्ठा पर है. नौबत यहां तक आ गई है कि पू्र्वी यूरोपीय देशों के हजारों रोमा अपने साथ नस्लवादी भेदभाव, अपनी गरीबी और मजबूरी से तंग आ कर पश्चिमी यूरोप के जर्मनी, फ्रांस, नीदरलैंड या बेल्जियम जैसे देशों में शरण मांगने लगे हैं. पर, कोई देश उन्हें शरण नहीं देना चाहता. भारत जैसे देशों को गाहे-बगाहे अल्पसंख्यकों के साथ न्याय और मानवाधिकारों की रक्षा का उपदेश देने वाले यूरोपीय देश, अपने सारे आदर्श भुला कर, रोमा लोगों को निकाल बाहर करने की ही जुगाड़ में रहते हैं. फ्रांस के पू्र्व राष्ट्रपति निकोला सार्कोजी ने तो वहां 2012 वाले चुनावों से पहले अवसरवादिता की हद ही कर दी. उन्होंने रोमानिया से आए हजारों रोमा शरणार्थियों को यह सोच कर बैरंग वापस भेज दिया कि इससे फ्रांसिसी जनता बाग-बाग हो जाएगी और चुनाव में जीत पक्की हो जाएगी. हालांकि वे चुनाव फिर भी हार गए. जर्मनी के कुछ राजनेता भी शोर मचा रहे हैं कि देश भिखमंगे व जेबकतरे रोमा शरणार्थियों से भरता जा रहा है.

जर्मनी का रोमा इतिहास
जर्मनी का इतिहास यहूदियों के ही नहीं, रोमा और सिंती जनों के खून से भी सना हुआ है. हिटलर की तानाशाही के समय यूरोप के 60 लाख यहूदियों के जातिसंहार के पाप का प्रायश्चित करते रहना जर्मनी में शाश्वत राजधर्म बन गया है. लेकिन, इस बात पर यथासंभव पर्दा ही डाला जाता रहा है कि हिटलर के आदेश पर, यहूदियों की ही तरह, यूरोप भर में पांच लाख रोमा और सिंती भी मौत के घाट उतार दिए गए थे. आम जर्मनों की नजर में रोमा और सिंती, आज भी, कहीं न टिकने वाले घुमंतू बंजारे ही हैं. उनके लिए ‘त्सिगोएनर’ (बंजारे) या ‘फ़ारन्डे फ़ोल्क’ (घुमंतू जाति) जैसे हिकारत भरे शब्द आज भी इस्तेमाल किए जाते हैं.

‘त्सिगोएनर’ नाम से ही जर्मनी में पहली बार 1407 में हिल्डेसहाइम नगर के इतिहास में उनका उल्लेख मिलता है. शुरू में उन्हें तत्कालीन रजवाड़ों और सामंतों का संरक्षण भी मिला हुआ था, क्योंकि वे अच्छे हस्तशिल्पी, वाद्ययंत्र-निर्माता और आज्ञाकारी सैनिक हुआ करते थे. लेकिन 15वीं सदी का अंत आते-आते उनका व्यापक शोषण और दमन होने लगा. स्थानीय जर्मन हस्तशिल्पी उनसे जलने लगे. उन्हें गांवों-शहरों से दूर भागने के लिए विवश किया जाने लगा. ईसाई धर्माधिकारियों को भी यह पसंद नहीं था कि वे गैर-ईसाई देवी-देवताओं को पूजते थे. उनकी औरतें टोने-टोटके व भविष्यवाणियां करती थीं. लिंदाऊ और फ्राइबुर्ग के तत्कालीन शासकों ने तो यहां तक आदेश दे दिया कि जिसे अपनी जमीन-जायदाद पर कोई बंजारा दिखाई पड़ जाए, वह उसे मौत के घाट उतार सकता है. 1589 से तत्कालीन जर्मनी के कई प्रदेशों में पुलिस को यह अधिकार था कि वह बंजारों का माल-सामान छीन कर उन्हें खदेड़ बाहर कर सकती है. इस तरह उन्हें दर-दर भटकने और खानाबदोशों की तरह रहने पर मजबूर होना पड़ा.

वे बच्चे उठा ले जाते हैं
18वीं-19वीं सदी में यूरोप के जर्मन-भाषी क्षेत्रों में उन्हें एक जगह टिकाने-बसाने का विफल प्रयास भी हुआ. विफलता का एक बड़ा कारण यह भी था कि तत्कालीन ऑस्ट्रिया में, 1773 के बाद से, रोमा-सिंती बंजारों के बच्चों को उनसे छीन कर कोई रोजगार सिखाना और बाद में सेना में भर्ती किया जाने लगा. इससे होता यह कि बच्चे अपने माता-पिता के पारंपरिक हस्तशिल्पों से कट जाते और उन पर माता-पिता के संस्कारों की छाप भी नहीं पड़ती. चूंकि माता-पिता को यह सब पसंद नहीं था, इसलिए बाल-शिविरों से वे अपने बच्चों को भगा ले जाते थे. प्रचारित कर दिया गया कि वे तो बच्चों का अपहरण करके उन्हें उठा ले जाते हैं. यह मान्यता एक रूढ़ि बन कर सारे यूरोप मंे आज भी जीवित है.

पूर्वी यूरोप के देशों में रोमा बंधुआ मजदूरों और गुलामों की तरह रखे व बेचे-खरीदे भी जाते थे. उनकी पहचान करने के लिए मवेशियों की तरह तपते लोहे से उन्हें दागा जाता था. साढ़े चार सौ वर्षों से चल रही इस दास प्रथा का अंत 1864 में रोमानिया और बुल्गारिया द्वारा उसे त्याग देने के साथ हुआ. दास प्रथा से मुक्त हुए रोमा जर्मनी जैसे पश्चिमी यूरोप के देशों में रहने-बसने की कोशिश करने लगे, पर हर जगह वे दुत्कारे ही जाते थे. जर्मनी में रह रहे रोमा या सिंती लोगों का 1899 से पंजीकरण शुरू कर दिया गया. इसी पंजीकरण के बल पर हिटलर के शासनकाल में उन्हें चुन-चुन कर पकड़ा गया, गोलियों से उड़ा दिया गया या फिर यहूदियों के साथ-साथ उन्हें भी यातना शिविरों की गैस-भट्ठियों में ठूंस कर मार डाला गया.

हिटलर की बलि चढ़े पांच लाख रोमा
हाल ही में प्रकाशित खोजपूर्ण पुस्तकों के अनुसार, हिटलर के शासनकाल में जर्मनी में करीब 30 हजार रोमा और सिंती रहते थे. उनमें से 90 प्रतिशत औरतों, बच्चों और मर्दों को यातना शिविरों में मौत के घाट उतार दिया गया. यही हाल जर्मनी से बाहर यूरोप के उन देशों के रोमा और सिंतियों का भी हुआ, जिन पर द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हिटलर की सेना ने कब्जा कर लिया था. उनकी संख्या करीब पांच लाख आंकी जाती है.

अखिल जर्मन सिंती एवं रोमा केंद्रीय परिषद  जर्मनी में रोमा व सिंती लोगों की मान्यता प्राप्त देशव्यापी प्रतिनिधि संस्था है. इसका काम है रोमा और सिंती संस्कृति का संरक्षण और प्रोत्साहन. इसके अध्यक्ष रोमानी रोजे के अपने परिवार के भी 13 सदस्य हिटलर के शासनकाल वाले आउश्वित्स और रावेंसब्रुइक यातना शिविरों में मौत के घाट उतार दिए गए थे. तब भी वे आज के जर्मनी में रोमा बिरादरी की रोजमर्रा जिंदगी को, सारी कमियों और विरोधाभासों के बावजूद कहीं बेहतर बताते हैं. तहलका के लिए एक विशेष बातचीत में वे कहते हैं, ‘जर्मनी में भी नस्लवाद और भेदभाव है. तब भी जर्मनी कानून के राज वाला देश है. यहां एक व्यापक जनाधार वाला नागरिक समाज है जो दूसरे देशों की अपेक्षा कहीं अधिक मुखर है. जर्मनी में पहले से ही रह रहे और जर्मन नागरिकता प्राप्त करीब 70 हजार रोमा और सिंती हैं. यहां ऐसे भी रोमा हैं जिनके पास तुर्की या ग्रीस की, रोमानिया या बुल्गारिया की नागरिकता है. लेकिन, वे रोमा होने की अपनी पहचान छिपाते हैं, क्योंकि उन्हें जर्मनी में भी अपने साथ भेदभाव होने और सामाजिक तिरस्कार का डर रहता है. पश्चिमी यूरोप के दूसरे देशों में, जैसे कि फ्रांस, इटली, हॉलैंड, बेल्जियम, नॉर्वे आदि में भी यही स्थिति है. वहां भी भेदभाव और नस्लवाद का शिकार बनने से बचने के लिए रोमा लोगों को यथासंभव गुमनामी में ही जीवन बिताना पड़ता है.’ जर्मनी में रोमा-सिंती लोगों की कुल संख्या एक लाख 20 हजार आंकी जाती है.  हालांकि रोजे यह भी मानते हैं कि रोमा अल्पसंख्यकों के साथ ‘जर्मनी में सरकारी स्तर पर भेदभाव अब भी होता है.’

यूरोप में रोमा आबादी
रोमा लोग वैसे तो इस बीच अमेरिका, ब्राज़ील और तुर्की में भी मिलते हैं, लेकिन उनका मुख्य निवासक्षेत्र यूरोप ही है. यूरोप के विभिन्न देशों में उनकी अनुमानित संख्या इस प्रकार हैःरोमानिया 24 00 000
बुल्गारिया 8 00 000
स्पेन 8 00 000
रूस 6 00 000
हंगरी 6 00 000
सर्बिया 5 00 000
तुर्की 5 00 000
स्लोवाकिया 4 50 000
फ्रांस 4 00 000
मेसेडोनिया 2 50 000
चेक गणराज्य 2 50 000
ग्रीस 2 20 000
यूक्रेन 2 00 000
ब्रिटेन 1 50 000
जर्मनी 1 40 000
इटली 1 00 000इसके अलावा अल्बानिया, बोस्निया, पुर्तगाल,  पोलैंड, क्रोएशिया, स्वीडन, आयरलैंड,  बेल्जियम, स्विट्जरलैंड आदि यूरोपीय देशों में भी रोमानी लोगों की काफी तादाद है

भारत से पहुंचे थे यूरोप
जर्मनी के कोलोन शहर में रोमा बच्चों के लिए एक अलग स्कूल और किंडरगार्टन है. रोमा बिरादरी द्वारा संचालित इस विशेष स्कूल में पूर्वी यूरोप से आए रोमा शरणार्थियों के दो से 13 साल तक के 46 बच्चों को दो साल के भीतर किसी सामान्य जर्मन स्कूल में पढ़ने लायक बनाया जाता है. स्कूल का नाम है ‘अमारो खेर.’ रोमानी भाषा में इस नाम का अर्थ है ‘हमारा घर.’ साफ है कि राजस्थान जैसे राज्यों में प्रचलित ‘अमारो घर’ सदियों के समय और हजारों किलोमीटर की दूरी के बाद भी अपनी पहचान बनाए हुए हैं.

भाग्य की मार और परिस्थितियों से हार कर सदियों से घुमंतू बंजारा जीवन बिताने वाले रोमा लोगों को लिखने-पढ़ने का न तो कभी ठीक से मौका मिला और न ही उन्होंने इसमें दिलचस्पी ली. इसीलिए, उनके पास अपना कोई लिखित साहित्य, इतिहास या ऐसे दस्तावेज भी नहीं हैं जिनसे साफ पता चल सके कि वे कब, कहां से और कैसे यूरोप पहुंचे. वे जहां पहुंचे वहीं के बन गए. उन्होंने वहां प्रचलित धर्मों और नामों को तो अपना लिया पर अपने रीति-रिवाज, रहन-सहन, गीत-संगीत और पुरानी बोली-भाषा को यथासंभव संजोए रखा. उन्हीं के आधार पर भाषाविदों और इतिहासकारों का 18वीं सदी के बाद से यही मानना रहा है कि उनके पूर्वज कोई हजार-डेढ़ हजार साल पहले भारत के उन हिस्सों से चले थे जो आज राजस्थान, सिंध और पंजाब कहलाते हैं. समय के साथ वे तीन चरणों में पूरे  यूरोप और अमेरिका तक फैल गए. पश्चिमी यूरोप में उनका फैलना 15वीं सदी में शुरू हुआ.

इन विद्वानों का यह भी कहना है कि आज की विभिन्न रोमा उपजातियों के बीच हालांकि कई प्रकार की बोलियां और भाषाएं मिलती हैं पर उनके मूल शब्द, बहुत-से संख्यावाचक और पारिवारिक संबंधसूचक शब्दों, शारीरिक अंगों और कार्यकलापों के नाम भारतीय उदगम के ही हैं. उनकी बोलियों-भाषाओं पर संस्कृत, हिंदी और पश्चिमोत्तर भारत की बोलियों की अमिट छाप है. भारत से वे कब और क्यों चले, इस बारे में नवीनतम आनुवंशिक अध्ययनों के आधार पर कहा जा रहा है कि उनके सबसे आरंभिक पूर्वज डोम जाति के थे. वे कोई डेढ़ हजार वर्ष पूर्व पांचवीं सदी में भारत से निकलना शुरू हुए. कई अलग-अलग रास्तों से और कई अलग-अलग झोंकों में वे पहले पश्चिम एशिया की तरफ बढ़े. कुछ तो पश्चिम एशिया या मध्य पूर्व में ही रह गए और कुछ दक्षिणी भूमध्यसागर के तटवर्ती देशों में भी पहुंच गए. कहते हैं कि 11वीं सदी में इन भारतीयों का एक हिस्सा आज के रोमानिया, बुल्गारिया और भूतपूर्व यूगोस्लाविया वाले बाल्कन प्रायद्वीप पर पहुंच कर दो भागों में बंट गया. एक भाग दक्षिण-पूर्वी यूरोप की तरफ और दूसरा भाग मध्य यूरोप की तरफ बढ़ने लगा.

यह बात पश्चिमी इतिहासकारों के एक वर्ग के इस कथन का किसी हद तक समर्थन करती लगती है कि रोमा जनजातियों के पूर्वज अधिकतर ऐसे अनार्य (दलित) सैनिक भी रहे हो सकते हैं जिन्हें शायद महमूद गजनी से पहले के इस्लामी आक्रमणकारियों से तंग आ गए उस समय के भारतीय राजाओं को अपनी सेनाओं में भर्ती करना पड़ा था. इन इतिहासकारों के अनुसार, वे मूल रूप से डोम, लोहार, गुज्जर और टांडा जाति के थे; राजस्थान, पंजाब और सिंध जैसे भारत के पश्चिमी अंचलों में रहा करते थे और मुस्लिम आक्रमणकारियों का पीछा करते-करते ईरान के रास्ते से पश्चिम एशिया तक पहुंच गए. भारत से कट जाने और पश्चिम एशिया में पैर जमाए इस्लाम से लोहा लेने में असमर्थ होने के कारण हो सकता है कि वे उत्तर की ओर मुड़ कर रोमानिया जैसे पूर्वी यूरोपीय देशों में पहुंचे हों. रोमानिया में आज भी 24 लाख, यानी पूरे यूरोप में सबसे अधिक रोमा रहते हैं.

इससे कुछ हट कर पश्चिमी इतिहासकारों के एक दूसरे वर्ग का मानना है कि रोमा लोगों के पूर्वज भारतीय राजाओं के सैनिक नहीं थे, बल्कि पश्चिमोत्तर भारत के सामान्य निवासी थे. नवीं-दसवीं सदी में भारत पर जब मुस्लिम अरबों का आक्रमण बढ़ने लगा, तब वे इन निवासियों से गुलामी करवाने या उस समय के रोमन साम्राज्य के सैनिकों से लड़ने-भिड़ने के लिए उन्हें बंदी बना कर अपने साथ ले जाने लगे. उनका यह भी कहना है कि महमूद गजनी के 997 से 1030 के बीच भारत पर किए गए 17 आक्रमणों के दौरान तत्कालीन पश्चिमी भारत के लगभग पांच लाख निवासियों और बंजारों को बंदी बना कर भारत से दूर ले जाया गया और बाद में उन्हें गुलामों के तौर पर यूनान, रोमानिया, सर्बिया आदि बाल्कन देशों में बेच दिया गया. वहीं से कुछ तो गुलामों के तौर पर बिकते हुए और कुछ अपने बलबूते पर नए ठौर-ठिकानों की तलाश करते हुए यूरोप के दूसरे देशों में पहुंचे.

रोमा बिरादरी की सिंती जाति के बारे में कहा जाता है कि ‘सिंती’ नाम सिंधी से ही बना होना चाहिए, यानी उनके पूर्वज सिंध के रहे होंगे. वे स्वयं भी यही मानते हैं. पश्चिमी यूरोप के रोमा खुद को सिंती कहना ही पसंद करते हैं. रोमानी भाषा में ‘रोमा’ का अर्थ मनुष्य है. फ्रांस में उन्हें ‘मौनूष’ और स्पेन तथा पुर्तगाल में ‘काले’ भी कहा जाता है.

भारतवंशी होने की वैज्ञानिक पुष्टि
इसकी वैज्ञानिक पुष्टि भी हो चुकी है कि रोमा और सिंती के पूर्वज पश्चिमोत्तर भारत के रहने वाले भारतीय ही थे. 2012 में विज्ञान पत्रिका ‘करंट बायोलॉजी’ में प्रकाशित अपने एक शोधपत्र में नीदरलैंड में रोटरडाम के एरास्मस विश्वविद्यालय के मान्फ्रेड काइजर ने लिखा कि रोमा और सिंती बिरादरी के पू्र्वज करीब 1,500 साल पहले भारत में रहा करते थे. करीब 900 साल पूर्व, यानी 11वीं-12वीं सदी में, वे बाल्कन प्रायद्वीप (यूनान, रोमानिया, बुल्गारिया, भूतपूर्व यूगोस्लाविया) के रास्ते से यूरोप में फैलने लगे थे.

काइजर की टीम ने उत्तरी, पूर्वी और पश्चिमी यूरोप में रहने वाली रोमा बिरादरी की 13 उपजातियों से जुड़े 152 लोगों के जीनों का तुलनात्मक अध्ययन किया है. उनका कहना है कि भारत से चलने के बाद वाले आरंभिक चरण के उनके जीनोम (समग्र जोन)  में पश्चिम एशिया, मध्य एशिया या कॉकेशिया के निवासियों के जीनों की मिलावट नहीं मिलती. यानी, शुरू-शुरू में वे एक ही समुदाय रहे और आपस में ही शादी-विवाह करते रहे. लेकिन, बाद में वे कई हिस्सों में बंट गए और अलग-अलग रास्तों पर चल पड़े. काइजर लिखते हैं, ‘रोमा लोग हालांकि आज भी बहुत कम ही स्थानीय लोगों से शादी-विवाह करते हैं, तब भी उनके जीनों में स्थानीय वैवाहिक संबंधों के आनुवंशिक निशान भी मिलते हैं.’ नए जीन अधिकतर हंगरी, रोमानिया, बुल्गारिया, क्रोएशिया या स्लोवाकिया के मूल निवासियों से संबंध रखते हैं, जहां वे सबसे लंबे समय से और कहीं अधिक संख्या में बसे हुए हैं. पश्चिमी यूरोप के स्पेन, पुर्तगाल या जर्मनी जैसे देशों मंे रहने वाले रोमा लोगों के जीनोम में स्थानीय मूल निवासियों के जीनों की संख्या बहुत कम ही मिलती है. शायद इसलिए कि पश्चिमी यूरोप के निवासी रोमा जनों के साथ अछूतों जैसा व्यवहार करते हैं, इसलिए उनसे दूर ही रहते हैं.

बराबरी की लंबी लड़ाई
यूरोपीय देशों की सरकारों ही नहीं, अदालतों को भी रोमा लोगों को बराबरी का नागरिक मानने में काफी समय लगा है. स्वयं जर्मनी के सर्वोच्च न्यायालय ने 1956 में अपने एक फैसले में लिखा, ‘बंजारे अपराधवृत्ति वाले लोग हैं, विशेषकर चोरी और धोखाधड़ी करते हैं. दूसरों की वस्तुओं के प्रति आदारभाव का उनमें नैतिक अभाव है, क्योंकि वे आदिकालीन घटिया मनुष्यों की तरह सब कुछ बेझिझक हथियाने की फिराक में रहते हैं.’ यह फैसला 1963 तक वैध था. इसी कारण आज के लोकतांत्रिक जर्मनी को भी हिटलर के समय के सिंती-रोमा जातिसंहार को यहूदियों जैसा ही जातिसंहार मानने में काफी समय लगा.

अपने लिए मान्यता और नागरिक समानता पाने के उद्देश्य से ही 1970 में लंदन में रोमा बिरादरी का पहला विश्व सम्मेलन हुआ था. इसमें आए 25 देशों के रोमा प्रतिनिधियों ने अपनी बिरादरी का एक अलग झंडा और राष्ट्रगीत भी तय किया, हालांकि वे जिस किसी भी देश में रहते हैं, अपने आप को उसी देश का पुराना नागरिक मानते हैं. ऊपर नीले और नीचे हरे रंग की पट्टी के बीच में लाल रंग के अशोक-चक्र वाला रोमा झंडा भारत के प्रति उनके जीवंत लगाव के बारे में कोई संदेह नहीं रहने देता. इसी सम्मेलन में आठ अप्रैल, 1970 को यह भी तय हुआ कि दूसरे लोग उन्हें चाहे जिस हेय-सूचक नाम से पुकारें, वे खुद को हमेशा ‘रोमा’ ही कहेंगे और इसी नाम की मान्यता व अपने लिए समानता की मांग करेंगे. तब से आठ अप्रैल हर साल अंतरराष्ट्रीय रोमा दिवस के तौर पर मनाया जाता है. यूरोपीय संघ ने भी अब इस प्रथा को अपना लिया है.

यूरोप में रहने वाले रोमा लोगों की सही संख्या कोई नहीं जानता. अपने अपमान और तिरस्कार से बचने के लिए बहुत-से रोमा अब भी अपनी सही पहचान छिपाने की कोशिश करते हैं. तब भी, यूरोपीय संघ ने भी औपचारिक तौर पर मान लिया है कि वे ही यूरोप का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक जातीय समुदाय हैं. संघ के सभी 28 देशों को मिला कर उनकी संख्या एक से सवा करोड़ तक हो सकती है. संघ ने 2005 से 2015 तक के समय को ‘रोमा दशक’ घोषित किया है और दो वर्ष पूर्व उनके शैक्षिक और सामाजिक उत्थान की एक रणनीति भी तैयार की है.

रोमानी भाषा में संस्कृत-हिंदी 
रोमा खुद को भले ही एक ही बिरादरी मानते हों, उनके धर्म अनेक हैं. वे जहां भी हैं, वहीं के धर्म में रंग गए हैं. हिंदू तो शायद ही कोई खुद को मानता होगा. लेकिन, वे यूरोप की अपनी स्थानीय भाषाओं के शब्दों को लेते हुए ‘रोमानी’ या ‘रोमानेस’ नाम की जो साझी भाषा विकसित कर रहे हैं, उसके लगभग 800 सबसे आम शब्द संस्कृत और हिंदी के ही शुद्ध या अपभ्रंश रूप बताए जाते हैं. ‘रोमानी’ के बोलने वालों की संख्या 35 लाख से अधिक आंकी जाती है.

भाषा और भारत के नाम पर जर्मनी की केंद्रीय सिंती और रोमा परिषद के अध्यक्ष रोमानी रोजे बहुत भावुक हो जाते हैं. वे कहते हैं, ‘मैं 1984 में भारत गया था. वह मेरे लिए बहुत ही भावप्रवण यात्रा थी. अपनी जड़ों को जानने की यात्रा थी…मैं दिल्ली गया था, चंडीगढ़ गया था. वहां दुनिया भर के रोमा कलाकारों की मंडलियां आई थीं. रोमा भारत से जो कुछ कभी यूरोप ले गए थे, उसे एक बार फिर भारत लाए थे. वहां एक बड़े महोत्सव में उन्होंने अपनी रोमा संस्कृति को याद किया और प्रदर्शित भी किया.’ रोमानी भाषा का प्रसंग छिड़ने पर रोमानी रोजे ने बड़े गर्व से बताते हैं कि हजार साल बाद और हजारों किलोमीटर की दूरी के बावजूद उनकी भाषा संस्कृत और हिंदी से अब भी कितनी जुड़ी हुई है. उदाहरण के लिए, नाक को वे भी ‘नाक’, कान को ‘कान्त’, पिता या दादा के लिए ‘पापू’, दादी के लिए ‘मामी’, पानी के लिए ‘पानी’, बड़े लोगों के लिए ‘राई’ (राय साहब), मुंह के लिए ‘मुई’, दांत के लिए ‘दान्त’, जीभ के लिए ‘चीब’ या दिल के लिए  ‘जी’ (जैसे, ‘जी करता है’ में ‘जी’ का अर्थ दिल है) कहते हैं. गिनती भी हिंदी से मिलती-जुलती है– एक, दुइ, द्रीन, स्तार, पांज, शोब, एस्ता, ओर्ता, एन्या, देस.

कत्थक बना फ्लामेंको
रोमानी रोजे के अनुसार, रोमा लोगों के नाच-गानों और संगीत में, उनकी गाथाओं और कलाओं में भारत अब भी बसा हुआ है. भारत का कत्थक नृत्य उन्हीं के माध्यम से स्पेन पहुंचा और अब वहां ‘फ्लामेंको’ के नाम से स्पेनी पहचान का प्रतीक बन गया है. लेकिन, उन्हें भारत की सरकार और जनता से यह शिकायत भी है कि मॉरीशस, फिजी या दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतवंशियों को तो बहुत सराहा-दुलारा जाता है, जबकि उनसे भी कहीं पहले यूरोप गए रोमा लोगों को भूल कर भी याद नहीं किया जाता. हिटलर के शासनकाल में हुए रोमा-जातिसंहार की याद में लंबे संघर्ष के बाद बर्लिन में बने स्मारक का 24 अक्टूबर, 2012 को लोकार्पण था. रोजे का कहना है कि इस समारोह में जर्मनी की चांसलर, जर्मन राष्ट्रपति तथा अमेरिका और फ्रांस सहित सभी प्रमुख देशों के राजदूत भी आए थे. उन्होंने भारतीय राजदूत (सुजाता सिंह, जो अब विदेश सचिव हैं) को भी अलग से आमंत्रित किया था. लेकिन वे नहीं आए. रोजे कहते हैं, ‘भारत और भारतीयों ने दक्षिण अफ्रीका को नस्लवाद से आजादी दिलाने में मदद दी, पर नस्लवाद के विरुद्ध हम रोमा लोगों की लड़ाई में कभी कोई मदद नहीं की.’

जर्मन रोमा बिरादरी के अध्यक्ष ने बताया कि भारत तो रोमा लोगों की उपेक्षा कर रहा है जबकि चीन उनमें दिलचस्पी ले रहा है. चीन ने उन्हें वहां के जातीय अल्पसंख्यकों की स्थिति दिखाने के लिए आमंत्रित किया. वे कहते हैं, ‘हम अल्पसंख्यक मामलों के चीनी मंत्री से भी मिले. बाद में चीनी मंत्री जब जर्मनी आए, तो हाइडेलबर्ग में हमारी केंद्रीय परिषद में भी आए.’ चीन की यह चाल भारत के लिए अलार्म जैसी होनी चाहिए. उसे सोचना चाहिए कि वह यूरोप के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय की– जो कि सौभाग्य से भारतवंशी भी है– क्या इसी तरह उपेक्षा करता और चीन को उस पर डोरे डालते देखता रहेगा.

जर्मन केंद्रीय रोमा परिषद के पास 700 वर्गमीटर जगह के बराबर एक बड़ी प्रदर्शनी है. वह पूरे यूरोप सहित कई दूसरे देशों में भी दिखाई जा चुकी है. जहां भी गई, वहां के प्रधानमंत्री या विदेशमंत्री ने उसका उद्घाटन किया. परिषद के अध्यक्ष रोमानी रोजे की हार्दिक इच्छा है कि रोमा बिरादरी के जातिसंहार की कहानी कहती यह प्रदर्शनी एक बार उस देश में भी दिखाई जाए जहां से उनके पूर्वज आए थे. वे सवाल करते हैं, ‘यह प्रदर्शनी क्यों नहीं एक बार नई दिल्ली में भी दिखाई जा सकती? ‘रोमा बिरादरी का एक बड़ा ऑर्केस्ट्रा भी है. रोजे कहते हैं, ‘ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि भारत सरकार यह प्रदर्शनी लगाती और ऑर्केस्ट्रा को भी निमंत्रित करती? किसी विश्वविद्यालय में रोमा-जातिसंहार पर एक व्याख्यान होता?’

सरकार ही नहीं, भारत की गैरसरकारी संस्थाएं, सामाजिक संगठन या शिक्षा संस्थान भी उन्हें उनकी पुरानी जड़ों से जोड़ने के लिए आगे आ सकते हैं. प्रवासी भारतीयों की तरह रोमा भी भारत के अनौपचारिक दूत बन सकते हैं. उनकी बिरादरी संसार का एकमात्र ऐसा शांतिप्रिय समुदाय है जो यहूदियों, कुर्दों या (अरबी राष्ट्रवाद का हिस्सा होते हुए भी) फिलिस्तिनियों की तरह कोई अलग जनता या अलग राष्ट्र होने का दावा अथवा नया देश देने की मांग नहीं करता. जिसका न कोई नेता है और न कोई आंदोलन है. जो न पृथकतावादी है और न आतंकवादी. वह तो एक बहुत ही दलित और व्यथित बिरादरी है. शायद यही वजह है कि उसकी इस प्रार्थना को भी कोई नहीं सुनता कि वह जहां भी है, उसे वहीं का बन कर रहने दिया जाए. हां, जिप्सी या बंजारा नहीं, बस ‘रोमा’ (मनुष्य) कहा और यही समझा जाए.

अपने पूर्वजों के देश भारत की याद शायद हर रोमा के रोम-रोम में बसी हुई है. पर क्या भारत को भी कभी इन बिछड़े हुए भारतवंशियों की याद आएगी?

रणछोड़!

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2009 यानी पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए ने सत्ताधारी यूपीए के सामने एक दिलचस्प चुनौती रखी थी. चुनौती यह थी कि जिस तरह अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार टीवी पर आकर सीधी बहस में हिस्सा लेते हैं उसी तरह मनमोहन सिंह भी बहस के मैदान में उतरें. यूपीए ने यह चुनौती खारिज कर दी थी. इसके बाद एनडीए ने लगभग सभी चुनावी रैलियों में इसे मनमोहन सिंह की कमजोरी के रूप में प्रचारित किया था. प्रधानमंत्री पद के दावेदारों के बीच खुली बहस का सवाल उठाने वाली जमात में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी उस वक्त खूब जोर-शोर से सक्रिय थे. उस दौरान मोदी ने समाचार चैनलों को जितने भी साक्षात्कार दिए उनमें अधिकांश मौकों पर उन्होंने इस ‘सीधी बहस’ की तरफदारी की थी.

पांच साल बाद आज देश फिर आम चुनावों की चपेट में है और एनडीए की अगुवाई इस बार खुद नरेंद्र मोदी कर रहे हैं. लेकिन पांच साल पहले तक प्रधानमंत्री पद के दावेदारों के बीच खुली बहस की हिमायत करने वाले मोदी इस बार अपनी बारी आने पर इस विचार से पूरी तरह पलटी मारते दिख रहे हैं. पीएम उम्मीदवार घोषित होने के बाद से देश भर में रैलियां करते मोदी भले ही एकतरफा संवाद अदायगी से दावे और वादों की झड़ी लगाने में जुटे हैं, लेकिन प्रधानमंत्री पद के दावेदारों के बीच खुली बहस के सवाल के सामने उनका अश्वमेध अभियान बुरी तरह हांफता नजर आता है. इस तरह की खुली बहस तो दूर की बात है, वे समाचार चैनलों द्वारा आयोजित किए जा रहे इंटरव्यू और ऐसे परिचर्चा कार्यक्रमों तक में भाग लेने से बच रहे हैं जिनमें आम जनता को बतौर भागीदार शामिल किया जा रहा है.

पिछले दिनों एक ऐसे ही कार्यक्रम में इंटरव्यू देने की हामी भरने के बावजूद ऐन मौके पर वे इससे कन्नी काट गए. यह इंटरव्यू सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक और यूट्यूब चैनल न्यूजलॉन्ड्री द्वारा बनाए गए कार्यक्रम ‘कैंडिडेट्स 2014’ के लिए किया जाना था. इस कार्यक्रम में आने के लिए मोदी पहले राजी थे. इस बात की तस्दीक खुद  ‘कैंडिडेट्स 2014’ की प्रस्तोता मधु त्रेहन ने कार्यक्रम के पहले एपिसोड में की. चार मार्च को अरविंद केजरीवाल के साथ किए गए उस कार्यक्रम की शुरुआत में ही मधु ने कहा कि, ‘नरेंद्र मोदी ने पहले हामी भरने के बाद, बाद में किसी कारणवश शो में आने से मना कर दिया.’ कार्यक्रम के दौरान मधु त्रेहन ने मोदी को एक बार फिर से सोचने और कार्यक्रम में शामिल होने के लिए दुबारा न्योता भी दिया. इससे पहले उनके चैनल न्यूजलॉन्ड्री ने भी प्रेस रिलीज के जरिए नरेंद्र मोदी के नहीं आने की जानकारी सार्वजनिक कर दी थी. प्रेस रिलीज के मुताबिक न्यूज लांड्री ने तीन मार्च, 2014 को होने वाले पहले इंटरव्यू के लिए नरेंद्र मोदी को महीने भर पहले ही तैयार कर लिया था. 19 फरवरी से कार्यक्रम के प्रोमो भी चलाए जा रहे थे और हजारों सवाल भी आ चुके थे. लेकिन कार्यक्रम से ठीक दो दिन पहले मोदी की ओर से कुछ शर्तें रख दी गईं. इन शर्तों को लेकर न्यूजलॉन्ड्री के इनकार के बाद मोदी ने इंटरव्यू रद्द कर दिया. इस घटनाक्रम के बीच ‘कैंडिडेट्स 2014’ नाम का यह कार्यक्रम लगातार जारी है और इसमें ममता बनर्जी से लेकर अखिलेश यादव तक जनता से सीधा संवाद कर चुके हैं. इनके अलावा दूसरे दलों के नेता भी आने वाले दिनों में इस मंच पर आकर जनता के सवालों से सीधे मुखातिब होंगे.

तो आखिर चुनावी समर में एनडीए के सेनापति घोषित हो चुके नरेंद्र मोदी इस शो में आने को लेकर क्यों कन्नी काट गए. उनका टीवी इंटरव्यू में आने से कतराना इसलिए भी चौंकाता है कि देश भर के सभी राजनीतिक धड़ों में सिर्फ वही एक शख्स हैं जिसे प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया है.  सितंबर 2013 में बीजेपी के पीएम कैंडिडेट घोषित होने के बाद मोदी ने एक भी टीवी इंटरव्यू नहीं दिया है. जबकि तबसे लेकर अब तक वे देश भर में घूम कर सैकड़ों रैलियां कर चुके हैं जिनके जरिए वे यूपीए को तो कोस ही रहे हैं साथ ही खुद को प्रधानमंत्री पद का सबसे श्रेष्ठ उम्मीदवार भी बता रहे हैं. ऐसे में यह जानना बेहद जरूरी हो जाता है कि खुद को पीएम पद के लिए सबसे मुफीद घोषित कर चुका यह राजनीतिक लड़ाका मीडिया के अखाड़े में आकर जनता के सीधे सवालों से आखिर क्यों बचना चाह रहा है.

जानकारों के मुताबिक मोदी के मीडिया मिलन का पिछला ट्रैक रिकॉर्ड खंगाला जाए तो इन सवालों का जवाब आसानी से मिल जाता है. इस बात की गहराई में जाने पर मालूम पड़ता है कि मीडिया से बात करने के लिए पहले हामी भरना और फिर पलटी मारना नरेंद्र मोदी की स्वाभाविक प्रवृत्ति रही है. पिछले कुछ सालों के दौरान मीडिया के साथ उनके सीधे संवादों की संख्या वैसे ही बहुत ही सीमित रही है. इस पर भी गजब यह कि इनमें से बहुत-से मौकों पर वे अहम सवालों का जवाब देने के बजाय या तो उन्हें गोल-मोल घुमाते रहे हैं या फिर इंटरव्यू को बीच में ही छोड़ कर खत्म कर चुके हैं.

नरेंद्र मोदी और टीवी इंटरव्यू को लेकर उनके रणछोड़ बनने की घटनाओं का जिक्र किए जाने के क्रम में सबसे पहले 2007 के दौर में चलते हैं. अंग्रेजी समाचार चैनल सीएनएन-आईबीएन के कार्यक्रम ‘डेविल्स एडवोकेट’ के लिए वरिष्ठ पत्रकार करण थापर ने उस साल नरेंद्र मोदी का साक्षात्कार किया था. इंटरव्यू शुरू होने के कुछ ही समय बाद करण थापर ने गुजरात दंगों पर माफी मांगने संबंधी सवाल मोदी के सामने दाग दिया. इस सवाल से भौंचक मोदी पहले तो इधर-उधर की बातें करते रहे, लेकिन जब उन्हें लगा कि थापर अपने सवाल पर अड़े हुए हैं तो पानी मांगने के बहाने मोदी ने इंटरव्यू बीच में ही छोड़ दिया. यह इंटरव्यू साढ़े तीन मिनट तक ही रिकॉर्ड हो पाया था. इस बारे में करण थापर का कहना था कि साढ़े तीन मिनट की रिकॉर्डिंग के बाद लगभग घंटे भर तक वे मोदी को समझाते रहे कि इंटरव्यू पूरा नहीं होने की सूरत में इसे एक खबर की तरह न्यूज बुलेटिन में दिखाया जाएगा. लेकिन बावजूद इसके मोदी ने इंटरव्यू पूरा करने से इनकार कर दिया. इसके बाद सीएनएन-आईबीएन ने अगले दिन लगभग 40 बार अपने चैनल पर इस अधूरे इंटरव्यू को समाचार बुलेटिनों के जरिए प्रसारित किया. तब से अब तक इंटरनेट पर इस वीडियो को लाखों बार देखा जा चुका है, जिसको लेकर मोदी की काफी किरकिरी भी होती रही है. इस बारे में वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी कहते हैं, ‘गुजरात दंगों के भूत से पीछा छुड़ाने की जुगत में लगे मोदी के सामने जब यह सवाल एक बार फिर आया तो उनका असहज होना स्वाभाविक था क्योंकि उनके पास इसका कोई जवाब नहीं है. यह भी एक वजह है कि इसके बहुत बाद तक भी मोदी टीवी पर आने से कतराते रहे हैं.’

इस संदर्भ में इसके दो साल बाद की एक और घटना का जिक्र प्रासंगिक है. अप्रैल, 2009 में टेलीविजन चैनल एनडीटीवी के लिए वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी ने नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू किया था. उस वक्त लोकसभा चुनाव के चलते नरेंद्र मोदी गुजरात में धुआंधार रैलियां कर रहे थे. त्रिवेदी अहमदाबाद से मोदी के साथ हेलिकॉप्टर में बैठे और उन्होंने इंटरव्यू शुरू कर दिया. एक समाचार वेबसाइट के साथ बातचीत में विजय त्रिवेदी कहते हैं, ‘शुरुआती सवाल- जवाब  के लगभग 5-7 मिनट बाद जब इंटरव्यू कुछ गंभीर सवालों की तरफ बढ़ने लगा तो मोदी थोड़े असहज दिखने लगे. इसके बाद जब मैने गुजरात दंगों का जिक्र छेड़ा तो मोदी बुरी तरह असहज हो गए और बिना कोई जवाब दिए इंटरव्यू रोकने का इशारा करने लगे.’ इस वाकये की रिकॉर्डिंग देखने पर पता चलता है कि इस बार भी मोदी ने इंटरव्यू खत्म करने के लिए पानी मांगने का वही पुराना पैंतरा आजमाया था.  बकौल विजय त्रिवेदी, ‘इंटरव्यू बंद होने के 10-15 मिनट तक मोदी और मैं अगल-बगल बिना एक-दूसरे की तरफ देखे चुपचाप बैठे रहे.’ इस तरह नरेंद्र मोदी ने दूसरी बार किसी इंटरव्यू को बीच में ही अटका दिया. बताया जाता है कि इंटरव्यू से पहले यह तय किया गया था कि त्रिवेदी को इंटरव्यू खत्म होने के बाद हेलिकॉप्टर से वापस छोड़ा जाएगा. लेकिन हेलीकॉप्टर से उतरते ही नरेंद्र मोदी उनकी वापसी के लिए एक गाड़ी की व्यवस्था की बात कह कर चलते बने. इस तरह देखा जाए तो मोदी ने इस बार सिर्फ इंटरव्यू को ही नहीं बल्कि इंटरव्यू लेने वाले पत्रकार को भी लटका दिया था.

मीडिया के सामने मोदी के असहज होने की एक और घटना 2012 में भी हुई. यह वाकया स्वामी विवेकानंद की 150वीं जयंती पर गुजरात सरकार द्वारा निकाली गई ‘विवेकानंद युवा विकास यात्रा’ के दौरान हुआ. सीएनएन-आईबीएन के पत्रकार राजदीप सरदेसाई इस यात्रा के दौरान गुजरात भर में घूम रहे मोदी के साथ उनके रथ में सवार थे. इंटरव्यू की शुरुआत में सरदेसाई ने उनसे लोकसभा चुनावों और गुजरात मॉडल को लेकर बातचीत शुरू की. राजदीप के सवालों का जवाब मोदी बड़ी बेबाकी से दे रहे थे. इस बीच राजदीप ने सवालों का स्टीयरिंग गोधरा दंगों की तरफ मोड़ दिया. दरअसल सोनिया गांधी ने गुजरात की एक चुनावी रैली में नरेंद्र मोदी को ‘मौत का सौदागर’ कहा था. राजदीप ने मोदी से इस बाबत सवाल किया, लेकिन कोई भी जवाब देने के बजाय मोदी ने पहले तो चुप्पी साध ली और फिर रथ से उतर कर जनता के बीच चले गए. उसके बाद दुबारा शुरू हुए इंटरव्यू के आखिर में राजदीप ने जब मोदी से गोधरा दंगों पर माफी मागने को लेकर सवाल पूछा तो मोदी ‘बहुत- बहुत धन्यवाद’ कह कर पूरी तरह खामोश हो गए.

2007,- 2009 और 2012 में घटी इन घटनाओं की तुलना की जाए तो एक बात साफ तौर पर यह निकलती है कि तीनों ही मौकों पर मोदी गुजरात दंगों के सवाल पर असहज हुए थे. लेकिन अब जबकि इन दंगों को लेकर वे बहुत-से मामलों में क्लीन चिट पा चुके हैं, ऐसे में टीवी इंटरव्यू से बचने की और क्या वजहें हो सकती हैं. वरिष्ठ पत्रकार राजीव नयन बहुगुणा इसे मोदी द्वारा हाल के समय में अपने भाषणों में की गई तथ्यात्मक गलतियों और विकास के गुजरात मॉडल की आलोचना से जोड़ते हैं. वे कहते हैं, ‘जिस तरह की भयंकर तथ्यात्मक गलतियां मोदी इन दिनों लगातार अपनी चुनावी रैलियों के दौरान कर रहे हैं, उन्हें देखते हुए मोदी को डर है कि टीवी इंटरव्यू अथवा जनता की भागीदारी वाले कार्यक्रमों में उनसे इन गलतियों को लेकर सवाल किए जा सकते हैं. इसके अलावा गुजरात के विकास मॉडल को लेकर जो तमाम तरह की मीडिया रिपोर्टें हालिया समय में सामने आई हैं उन पर भी मोदी की घिग्घी बंध सकती है.’ इससे सहमति जताते हुए ओम थानवी कहते हैं, ‘पिछले दिनों आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने गुजरात जाकर नरेंद्र मोदी से 16 सवालों का जवाब मांगा था जिसको लेकर न तो मोदी और न ही उनकी पार्टी कोई जवाब दे पाई है. ऐसे में समझा जा सकता है कि मीडिया को लेकर मोदी के मन में किस तरह का डर है क्योंकि इतना साफ है कि मीडिया के सवाल भी केजरीवाल के सवालों जितने कड़े हो सकते है.’

यह बात बहुत हद तक सही मालूम पड़ती है. मोदी के गुजरात मॉडल को लेकर उनसे सवाल पूछे जाने शुरू हो गए हैं. केजरीवाल के अलावा ममता बनर्जी भी उनके इस मॉडल पर हाल ही में उसी ‘कैंडिडेट्स 2014’ के मंच पर आकर सवाल कर चुकी हैं जिस मंच पर मोदी ने आने से इनकार कर दिया था.

हालांकि नरेंद्र मोदी के मीडिया से बचते रहने की घटनाओं को लेकर वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई एक दूसरा नजरिया भी सामने रखते हैं. वे कहते हैं, ‘भारत की चुनावी प्रक्रिया में चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों और मीडिया के बीच सवाल-जवाब की न तो कोई बाध्यता है और न ही यह उम्मीदवारों की काबिलियत का एक-मात्र घोषित पैमाना है. किसी नेता का मीडिया के सामने आकर अपनी बात कहना या न कहना पूरी तरह उसकी निजी इच्छा पर निर्भर करता है. इसके अलावा इन चुनावों में अपने वोट बैंक को लेकर जिस कदर नरेंद्र मोदी गदगद हैं उसे देखते हुए भी वे शायद यह मान बैठे हैं कि मीडिया के साथ सवाल-जवाब करने या न करने से उनकी छवि पर कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ेगा.

लेकिन एकबारगी यदि यह मान भी लिया जाए कि मोदी अपने पक्ष में उमड़ रहे जनसमर्थन के दम पर मीडिया के सवालों से बेपरवाह हैं, तब भी यह सवाल तो उठता ही है कि प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को अहम सवालों का सामना करना चाहिए या नहीं. इस पर किदवई खुद कहते हैं, ‘टीवी कैमरा फेस करने या न करने के स्वैच्छिक विकल्प के बावजूद यह बात भी उतनी ही तर्कसंगत है कि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित हो चुके नेताओं को जनता के सीधे सवालों का जवाब देने की परंपरा शुरू करनी चाहिए. लेकिन यह भी कोई छुपा तथ्य नहीं है कि कुछ सवालों पर मोदी हमेशा से असहज रहते आए हैं, लिहाजा जब तक संभव हो वे मीडिया से सीधे संवाद से बचना ही चाहेंगे.’

इस सबके बीच एक तथ्य यह भी है कि इस दौरान नरेंद्र मोदी ने कुछ पूरे इंटरव्यू भी किए हैं. लेकिन इन इंटरव्यू को लेकर बहुत-से जानकारों का यह भी मानना है कि इनमें पूछे जाने वाले सवालों को लेकर फिक्सिंग की आशंका से इनकार नहीं किया जाना चाहिए. ओम थानवी कहते हैं, ‘भाजपा का मीडिया मैनेजमेंट इस तरह के कामों में बेहद पारंगत है. और समय-समय पर यह पार्टी अपनी सहूलियत वाले पत्रकार साथियों के जरिए लाभ भी लेती रही है.’

उर्दू पत्रिका नई दुनिया के संपादक और पूर्व सांसद शाहिद सिद्दीकी ने जुलाई, 2012 में नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू किया था. इस इंटरव्यू को लेकर हुए कुछ वाकयों से भी थानवी की बातों का मतलब समझा जा सकता है. एक समाचार वेबसाइट के साथ बातचीत करते हुए शाहिद सिद्दीकी का कहना था कि इंटरव्यू लिए जाने से पहले उनसे सवालों की सूची मांगी गई थी, लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इंकार कर दिया. हालांकि सिद्दीक़ी के इनकार के बाद मोदी ने उन्हें इंटरव्यू दे दिया था, लेकिन उन्होंने इस पूरे इंटरव्यू की खुद भी वीडियो रिकॉर्डिंग करवाई थी. इस घटनाक्रम से इतना तो समझा ही जा सकता है कि मीडिया द्वारा पूछे जाने वाले सवालों को लेकर मोदी कितने आशंकित रहते हैं.

नरेंद्र मोदी की जीवनी ‘नरेंद्र मोदी: द मैन द टाइम्स’ लिखने वाले पत्रकार निलंजन मुखोपाध्याय ने भी इसकी भूमिका में लिखा है कि अपनी जीवनी लिखे जाने को लेकर नरेंद्र मोदी शुरुआती दौर में सहयोगात्मक मुद्रा में नहीं थे. उन्हें लगता था कि किताब में किए जाने वाले कुछ उल्लेख उनकी छवि को असहज कर सकते हैं. मुखोपाध्याय के मुताबिक हालांकि यह किताब मोदी की जीवनी है फिर भी वे गुजरात दंगों और अपनी पारिवारिक जिंदगी जैसे कठिन सवालों पर जवाब देने से बचते नजर आए हैं. गौरतलब है कि इस किताब में नरेंद्र मोदी की पत्नी जसोदा बेन का खूब जिक्र है. इसके अलावा मोदी द्वारा इस तथ्य को छिपाए जाने को लेकर भी कई जानकारियां इस किताब में हैं. जानकार मानते हैं कि इस तरह के कई दूसरे सवाल जो कि अभी तक पब्लिक डोमेन में नहीं हैं उनसे बचने के लिए भी मोदी मीडिया का सामना नहीं करना चाहते. ओम थानवी कहते हैं, ‘क्या मोदी चाहेंगे कि कोई पत्रकार सीधे इंटरव्यू में उनसे उनकी पत्नी के बारे में सवाल पूछे.’

हालांकि ऐसा नहीं है कि मीडिया से भागने, बचने वाली जमात में नरेंद्र मोदी एकमात्र राजनेता हैं. देश भर के लगभग सभी राजनीतिक दलों में ऐसे बहुत-से नेता हैं जो मीडिया के सीधे सवालों से हमेशा बचते रहे हैं. यह भी एक गौर करने वाला तथ्य है कि खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने 10 साल के कार्यकाल के दौरान तीन-चार बार ही मीडिया से रूबरू हुए हैं. इसके अलावा कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी पिछले दस साल के दौरान हाल ही में अपना पहला टीवी इंटरव्यू दिया. लेकिन नरेंद्र मोदी का मामला इस लिए इन सबसे अलग है कि देश भर के तमाम चुनावी सर्वेक्षणों में उन्हें प्रधानमंत्री पद पर जनता की सबसे बड़ी पसंद के रूप में प्रचारित किया जा रहा है. ऐसे में देश के मूलभूत मुद्दों को लेकर उनकी राय और उस पर सवाल-जवाब जैसी चीज बहुत जरूरी और अहम हो जाती है. तब भी वे इंटरव्यू से भागने वाली जमात के प्रतिनिधि बने हुए हैं. राजीव नयन बहुगुणा कहते हैं, ‘कोई भी नेता अगर अंदर से साफ हो तो उसे मीडिया के सवालों का सामना करने में किसी भी तरह की दिक्कत नहीं होनी चाहिए. लेकिन चूंकि मोदी खुद अंदर से साफ नहीं हैं इसलिए चोर की दाढ़ी में तिनके वाली कहावत के जरिए उनकी स्थिति को समझा जाना चाहिए.’

कुल मिलाकर देखा जाए तो मीडिया के सवालों से बेपरवाह नरेंद्र मोदी का चुनावी अभियान लगातार जारी है. चुनाव सर्वेक्षणों में बाजी मार चुके मोदी को सट्टा बाजार में भी नंबर वन बताया जा रहा है. लेकिन इस सबके बावजूद यह सवाल बना हुआ है कि क्या मोदी कभी उन बहुत सारे सवालों का सामना करने को तैयार होंगे जिनका जवाब उनसे हर कीमत पर पूछे जाने की जरूरत है. मसलन सिकंदर के बिहार आने का वाकया और शहीद भगत सिंह को अंडमान जेल में डाले जाने का जिक्र उन्होंने किस किताब में पढ़ा था?

मोदी की राह में, मोदी की चाह में

Amit-Shahनरेंद्र मोदी देश की बागडोर अपने हाथों में लेने के लिए किस कदर बेताब हैं इसकी जानकारी लगभग सभी को है. लेकिन मोदी के अलावा कोई और भी है जो उनके सर पर प्रधानमंत्री का ताज देखने के लिए उतना ही बेताब है. इसके लिए वह दिन-रात एक किए हुए है. यह व्यक्ति अपने ‘साहब’ के गांधीनगर से सात आरसीआर तक के रास्ते में मौजूद हर अड़चन, हर ठोकर को हटाने की जी-जान से कोशिश कर रहा है. मोदी के इस विश्वासपात्र का नाम है अमित अनिलचंद्र शाह. शाह, नरेंद्र मोदी के हनुमान कहे जाते हैं, उनके लिए मोदी भगवान से कम नहीं हैं और वे भी शाह पर ही सबसे अधिक भरोसा करते हैं.

पार्टी महासचिव अमित शाह वर्तमान में उत्तर प्रदेश में भाजपा के चुनाव प्रभारी हैं. भाजपा को पता है कि अगर पिछले 10 साल का संन्यास खत्म करना है तो उत्तर प्रदेश में उसे चमत्कार करना ही होगा. देश को सबसे अधिक सांसद और अब तक सबसे अधिक प्रधानमंत्री देने वाले उसी उत्तर प्रदेश में शाह अपने साहब और भाजपा की जीत सुनिश्चित करने में लगे हुए हैं. Read More>>

 


Mayawati

ईमां मुझे रोके है तो खेंचे है मुझे कुफ्र, 
काबा मेरे पीछे है, कलीसा मेरे आगे

गालिब का यह शेर मायावती और उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक तबके मुस्लिम समुदाय के लिए भी फिलहाल बेहद मौजूं है. उत्तर प्रदेश की वर्तमान राजनीतिक स्थिति ऊपरी तौर पर मायावती और मोदी के लिए सबसे मुफीद दिख रही है. लेकिन बसपा के नजरिये से इसमें अभी कुछ ऐसे छोटे-छोटे छेद हैं जिन्हें बंद किया जाना जरूरी है. यदि मुफीद हालात को सीटों में तब्दील करना है तो इन छोटे-छोटे कामों को करने का यह आखिरी समय है. बसपा के अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक बहनजी हर कसर को पूरी करने में चुपचाप लगी हुई हैं. जानकारों की मानें तो मायावती की कोशिश बदसूरत पैबंद लगाने की नहीं बल्कि बारीक रफू करने की है. हाल के कुछ दिनों में बसपा सुप्रीमो ने उन तमाम गलतियों को दूर करने के कई दूरगामी उपाय किए हैं जो अतीत में उनसे जाने-अनजाने हुईं.

बसपा का मानना है कि अगर उनका 2007 वाला सर्वजन फार्मूला बना रहे और मुजफ्फरनगर के बाद पैदा हुए हालात में मुसलमान भी उसके साथ जुड़ जाए तो उत्तर प्रदेश में एक ऐसा जातिगत गठजोड़ खड़ा हो जाएगा जिसके आगे सारे समीकरण धराशायी हो जाएंगे. लेकिन जहां मुसलमान के उनसे जुड़ने की बारी आई वहीं उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण समुदाय को मोदी की हवा लगने के हालात भी बनने लगे हैं. इसके इतर अतिपिछड़ी जातियों का जो कुनबा कभी कांशीराम ने जोड़ा था वह भी उनके जाने के बाद कुछ कमजोर हो गया है. लेकिन पिछले कुछ महीनों के दौरान उन्होंने इस दिशा में जो काम किए हैं उनसे ऐसा माहौल जरूर बना है जिसमें सिर्फ बसपा ही अपने पिछले प्रदर्शन को या तो सुधारते हुए दिखती है या फिर पिछले प्रदर्शन को कायम रखने की स्थिति में है. Read More>>

मायावती: मोदी की राह में

सुधार और विचार हो- हल्ले से दूर चुपचाप लोकसभा चुनाव की तैयारी में लगीं मायावती
सुधार और विचार हो- हल्ले से दूर चुपचाप लोकसभा चुनाव की तैयारी में लगीं मायावती
सुधार और विचार हो-हल्ले से दूर चुपचाप लोकसभा चुनाव की तैयारी में लगीं मायावती

ईमां मुझे रोके है तो खेंचे है मुझे कुफ्र, 
काबा मेरे पीछे है, कलीसा मेरे आगे

गालिब का यह शेर मायावती और उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक तबके मुस्लिम समुदाय के लिए भी फिलहाल बेहद मौजूं है. उत्तर प्रदेश की वर्तमान राजनीतिक स्थिति ऊपरी तौर पर मायावती और मोदी के लिए सबसे मुफीद दिख रही है. लेकिन बसपा के नजरिये से इसमें अभी कुछ ऐसे छोटे-छोटे छेद हैं जिन्हें बंद किया जाना जरूरी है. यदि मुफीद हालात को सीटों में तब्दील करना है तो इन छोटे-छोटे कामों को करने का यह आखिरी समय है. बसपा के अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक बहनजी हर कसर को पूरी करने में चुपचाप लगी हुई हैं. जानकारों की मानें तो मायावती की कोशिश बदसूरत पैबंद लगाने की नहीं बल्कि बारीक रफू करने की है. हाल के कुछ दिनों में बसपा सुप्रीमो ने उन तमाम गलतियों को दूर करने के कई दूरगामी उपाय किए हैं जो अतीत में उनसे जाने-अनजाने हुईं.

बसपा का मानना है कि अगर उनका 2007 वाला सर्वजन फार्मूला बना रहे और मुजफ्फरनगर के बाद पैदा हुए हालात में मुसलमान भी उसके साथ जुड़ जाए तो उत्तर प्रदेश में एक ऐसा जातिगत गठजोड़ खड़ा हो जाएगा जिसके आगे सारे समीकरण धराशायी हो जाएंगे. लेकिन जहां मुसलमान के उनसे जुड़ने की बारी आई वहीं उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण समुदाय को मोदी की हवा लगने के हालात भी बनने लगे हैं. इसके इतर अतिपिछड़ी जातियों का जो कुनबा कभी कांशीराम ने जोड़ा था वह भी उनके जाने के बाद कुछ कमजोर हो गया है. लेकिन पिछले कुछ महीनों के दौरान उन्होंने इस दिशा में जो काम किए हैं उनसे ऐसा माहौल जरूर बना है जिसमें सिर्फ बसपा ही अपने पिछले प्रदर्शन को या तो सुधारते हुए दिखती है या फिर पिछले प्रदर्शन को कायम रखने की स्थिति में है.

जैसा कि ऊपर लिखी बातों से भी स्पष्ट है इस समय मायावती के सामने तीन तात्कालिक चुनौतियां हैं. यदि समय रहते वे इनसे निपट लेती हैं तो एक बात आसानी से कही जा सकती है कि भाजपा के अलावा अकेली बसपा ही होगी जो 2009 के अपने आंकड़े में सुधार करेगी. बसपा की पहली चुनौती है ब्राह्मणों के भाजपा प्रेम को नियंत्रित करने की, दूसरी दलितों को मोदी लहर से बचाकर दलित पहचान पर कायम रखने की और तीसरी मुसलमानों के मन से अपने पुराने भाजपा से प्रेम वाले अतीत से जुड़ी आशंकाएं खत्म करने की. जब पूरे प्रदेश में भाजपा और सपा एक-दूसरे की टक्कर में रैली पर रैली करने में लगे हुए हैं, उसी दौरान मायावती ने अंदरखाने में ऐसे कई तमाम सुधारवादी कदम उठाए हैं जिनके चुनावी प्रभाव को लेकर कयासों और अटकलों की शुरुआत हो गई है.

मुसलमान
कहा जा सकता है कि इस तबके को अपने साथ जोड़ने के लिए पिछले कुछ दिनों में बसपा ने सबसे अधिक काम किया है. 2012 में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनाने में बहुत बड़ा योगदान मुस्लिम समुदाय का था. लेकिन इन दो सालों के दौरान जो हालात उत्तर प्रदेश में रहे हैं उनमें सबसे ज्यादा मोहभंग भी इसी समुदाय का हुआ है. प्रदेश में छोटे-बड़े करीब 100 दंगे सपा के दो साल के शासन में हुए हैं. पिछले साल अक्टूबर महीने में मुजफ्फरनगर में हुए दंगों के बाद स्थितियां पूरी तरह से सपा के हाथ से निकल गई लगती हैं. वरिष्ठ पत्रकार गोविंद पंत राजू बताते हैं, ‘सपा के साथ मुसलमानों की पैदा हुई दूरी का फायदा उठाने के लिए मायावती ने कई उपाय किए हैं. उन्होंनेे जामा मस्जिद के शाही इमाम अब्दुल्ला बुखारी को अपने साथ जोड़ा है. बुखारी का बयान आया है कि वे उत्तर प्रदेश और पूरे देश में बसपा के साथ मिलकर दलित-मुस्लिम गठजोड़ खड़ा करने का प्रयास अगले चुनाव में करेंगे. उन्होंने मुसलमानों से बसपा के पक्ष में वोट डालने की अपील भी की है. इसका कोई तार्किक महत्व भले ही न हो लेकिन पिछड़े मुस्लिम समाज में इसके जरिए एक राजनीतिक संदेश जरूर पहुंच जाता है.’

मुसलमानों को करीब लाने की गंभीर कोशिशों की बाबत बसपा के वरिष्ठ नेता और नेता प्रतिपक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य का कहना है, ‘अब्दुल्ला बु्खारी एक बड़े मजहबी नेता हैं. उनकी अपने समुदाय पर जबरदस्त पकड़ है. जिस तरह से सपा और भाजपा ने पिछले एक साल के दौरान आपस में मिलकर पूरे प्रदेश को सांप्रदायिकता की आग में धकेला है, उससे इस प्रदेश के अल्पसंख्यकों में भारी नाराजगी है. बुखारी साहब ने इन दोनों को सबक सिखाने के लिए यह सकारात्मक कदम उठाया है.’

मुस्लिम समुदाय के साथ बसपा के प्रगाढ़ होते रिश्तों की दिशा में एक और पहल जमीयत-उलमा-ए-हिंद के मुखिया महमूद मदनी ने भी की है. उन्होंने बसपा के मुस्लिम सांसद सलीम अंसारी के साथ मुलाकात करके आगामी चुनाव में जमात का समर्थन बसपा को देने की इच्छा जताई है. इस दिशा में बात आगे बढ़ चुकी है, किसी भी दिन महमूद मदनी की मुलाकात बसपा के शीर्ष नेतृत्व के साथ हो सकती है.

पूरे प्रदेश में जब सपा और भाजपा लोकसभा के चुनाव को अपने बीच का मामला दिखाने की कोशिश में हैं तब बसपा की तरफ से चुपचाप एक ऐसा काम किया गया जिसका जवाब चुनाव प्रबंधन के महारथी मुलायम सिंह के पास भी फिलहाल नहीं है. बसपा के लोकसभा उम्मीदवारों की संभावित सूची में कुल 18 मुस्लिम हैं. यह संख्या सपा के 14 उम्मीदवारों से चार ज्यादा है. हालांकि बसपा ने अभी अपने उम्मीदवारों की औपचारिक घोषणा नहीं की है. लेकिन जैसा कि स्वामी प्रसाद मौर्य बताते हैं, ‘हमारे उम्मीदवार तो डेढ़ साल पहले से ही तय हैं और उन्हें चुनावी तैयारी करने का इशारा भी दिया जा चुका है. इसमें कोई फेरबदल नहीं होगा.’ इनमें से लगभग आठ मुस्लिम उम्मीदवार मुजफ्फरनगर और उसके आस-पास की सीटों से चुनाव लड़ेंगे. एक नजरिये से यह बसपा का मुसलमानों को लुभाने का अतिउत्साही कदम भी माना जा सकता है. राजनीतिक विश्लेषक हेमंत तिवारी के शब्दों में यह काउंटर प्रोडक्टिव भी हो सकता है. यानी कि बसपा को इसका नुकसान भी हो सकता है.

लेकिन फिलहाल बसपा इसे बड़ी समस्या नहीं मान रही है. मुस्लिम समुदाय को विश्वास में लेने और उनके साथ दीर्घकालिक रिश्ते बनाने की दिशा में पार्टी ने अपने राज्यसभा सांसद मुनकाद अली को पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभारी भी नियुक्त किया है. इन उपायों के साथ एक और सच्चाई यह भी है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसपा का पलड़ा हमेशा सपा पर भारी ही रहा है. हेमंत तिवारी बताते हैं, ‘पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों का एकमुश्त वोट बसपा को मिलेगा और अगर मायावती ने कोई बड़ा हेर-फेर नहीं किया तो प्रदेश के दूसरे हिस्सों में भी उन्हें मुसलमानों का अच्छा समर्थन मिल सकता है. बसपा के 70 फीसद प्रत्याशी अपने-अपने क्षेत्रों में पिछले डेढ़ साल से काम कर रहे हैं, जबकि सपा ने हाल ही में अपने 77 में से 39 उम्मीदवारों को बदल दिया है. इससे सपा में जबरदस्त भितरघात होगी.’

मायावती को अपने लिए उम्मीद की एक किरण 2009 के लोकसभा चुनाव से भी मिल रही है. उस साल के आम चुनावों में हालांकि बसपा कोई खास प्रदर्शन नहीं कर पाई थी. उसे कुल 2० लोकसभा सीटें प्राप्त हुई थीं. पर इन 20 में से उसके पास चार मुसलमान सांसद थे, जबकि मुसलमानों के मसीहा के रूप मे स्थापित मुलायम सिंह का एक भी मुसलमान प्रत्याशी उन चुनावों में जीत नहीं सका था. उस वक्त बसपा के कुल 47 उम्मीदवार बेहद कम अंतरों से चुनाव हारे थे. आंकड़ों को थोड़ा और खंगालने पर कुछ नई सच्चाइयां सामने आती हैं. उत्तर प्रदेश में करीब 18 फीसदी मुस्लिम आबादी है. 23 फीसदी के करीब दलित आबादी है. इस लिहाज से देखा जाए तो अगर मायावती केवल दलित-मुस्लिम गठजोड़ ही खड़ा कर पाती हैं तो उन्हेंे हरा पाना किसी भी सियासी दल के लिए लगभग असंभव होगा. राजनीतिक टिप्पणीकार और बीबीसी के पूर्व पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, ‘अगर बसपा दलित-मुस्लिम गठजोड़ खड़ा कर ले तो वह हमेशा के लिए उत्तर प्रदेश की राजनीति पर कब्जा कर लेगी और राष्ट्रीय राजनीति को भी प्रभावित करने की हालत में होगी. पर यह मुश्किल काम है क्योंकि इसके आड़े मायावती का अपना अतीत आता है जो मुसलमानों को बताता है कि वे बार-बार भाजपा के साथ आती-जाती रही हैं.’

मायावती ने दिल्ली गमन की इच्छा अपनी रैली में सार्वजनिक रूप से जता दी है. फोटो: प्रमोद अधिकारी

यह जो समस्या मायावती के आड़े आ रही है उससे निपटने की गंभीर कोशिशें उन्होंने हाल के दिनों में की हैं. 15 जनवरी को लखनऊ स्थित रमाबाई रैली स्थल पर आयोजित बसपा की विशाल रैली में मायावती ने एलान किया कि वे चुनावों के बाद न तो भाजपा के साथ जाएंगी न ही कांग्रेस के साथ. उनके लिए एक नागनाथ है तो दूसरा सांपनाथ. राजनीतिक विश्लेषक उनके इस बयान के दो निष्कर्ष निकालते हैं. एक तो वे उस मुसलमान को साफ संदेश देना चाह रही हैं जिसके मन में उनके भाजपा से जुड़ाव को लेकर थोड़ी-बहुत आशंका है. राजनीतिक टिप्पणीकार और मायावती की जीवनी बहन जी के लेखक अजय बोस कहते हैं, ‘मुसलमान इस समय चुप है क्योंकि वह सपा को सबक सिखाना चाहता है. वह सपा को दुविधा में रखकर आखिरी वक्त में मायावती को वोट करेगा.’

इसके अलावा उन्होंने कांग्रेस से दूरी बनाकर पूरे देश में कांग्रेस के खिलाफ जो हवा है उससे हो सकने वाले किसी भी नुकसान की संभावना को खत्म करने की कोशिश की है. जनवरी से पहले इस बात की खूब अटकलें लग रही थीं कि कांग्रेस-बसपा के बीच लोकसभा चुनाव से पहले गठबंधन हो सकता है. केंद्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने इस संभावना से जुड़ा एक चर्चित बयान भी दिया था, ‘उत्तर प्रदेश और देश भर में सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के लिए कांग्रेस और बसपा को साथ आना चाहिए. अगर यह गठजोड़ हो जाता है तो लोकसभा चुनाव में बाकी सभी पार्टियों का पत्ता साफ हो जाएगा.’ बेनी बाबू की यह इच्छा धरी की धरी रह गई. इसी तरह की बेरुखी मायावती ने मोदी या भाजपा के प्रति नरमी दिखाने वालों के साथ भी दिखाई है. कुछ महीने पहले राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण बुंदेलखंड क्षेत्र से बसपा सांसद विजय बहादुर सिंह ने मोदी की तारीफ कर दी थी. मायावती ने उन्हें अगले ही दिन पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. यानी मुसलमानों के मन में विश्वास बढ़ाने का वे कोई मौका छोड़ नहीं रही हैं.

ब्राह्मण
2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा को अभूतपूर्व जीत हासिल हुई थी. पहली बार उत्तर प्रदेश में बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी थी. बसपा के वोटों का आंकड़ा 30 फीसदी तक पहुंच गया था. इस चमत्कारिक जीत के पीछे मायावती की सोशल इंजीनियरिंग की बड़ी भूमिका बताई गई थी. सुर्खियों के पायदान पर सतीश चंद मिश्रा का नाम बड़ी तेजी से ऊपर चढ़ा था. उनकी प्रतिष्ठा मायावती के विश्वस्त लेफ्टिनेंट के तौर पर स्थापित हो गई थी. हालांकि गोविंद पंत राजू का आकलन दूसरा है, ‘जितना कहा सुना गया उतना ब्राह्मण वोट बसपा को 2007 में नहीं मिला था. यह मुलायम के कुशासन से पीड़ित जनता का उनके खिलाफ दिया गया वोट था जिसमें सभी समुदायों ने मायावती का साथ दिया था.’ उस दौर में सतीश मिश्रा के बारे में कहा जाता था कि उन्होंने एक साल तक लगातार पूरे प्रदेश में घूम-घूमकर दलित-ब्राह्मण एकता से जुड़ी सर्वजन रैलियां की थीं जिसका फायदा 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा को मिला.

लेकिन 2014 में हालात बदल चुके हैं. इस दौरान बसपा को दो बड़ी हार का सामना करना पड़ा है. 2009 के लोकसभा चुनाव और 2012 के विधानसभा चुनाव में बसपा की हालत खराब रही है. उसकी वोटों की हिस्सेदारी पांच फीसदी तक घट गई है. जाहिर-सी बात है कि दलित ब्राह्मण फार्मूला इन चुनावों में काम नहीं कर सका है. जानकारों की मानें तो आगामी लोकसभा चुनावों में भी ब्राह्मणों का बसपा से दुराव बना रह सकता है. उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रवक्ता सुरेंद्र राजपूत कहते हैं, ‘लोकसभा चुनाव में बसपा को ब्राह्मणों का वोट किसी हालत में नहीं मिलेगा. ब्राह्मणों ने 2009 में भी इन्हें वोट नहीं दिया था. फिलहाल तो ब्राह्मण मोदी और भाजपा के पीछे खड़ा है क्योंकि उसे पता है कि प्रधानमंत्री भले ही मोदी बन जाएं लेकिन चुनाव जीतने की स्थिति में पार्टी और संघ के जरिए ब्राह्मण ही सबसे ज्यादा ताकतवर रहने वाले हैं.’

ब्राह्मण और शहरी मध्यवर्ग के ऊपर मोदी का असर साफ-साफ देखा जा सकता है. मोदी के इस बहाव ने उत्तर प्रदेश की जातिगत खांचों में बंटी राजनीति में एक नए तरह का ध्रुवीकरण पैदा किया है. अजय बोस एक दिलचस्प विचार रखते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में लंबे समय बाद ऐसा चुनाव हो रहा है जो काफी हद तक बाईपोलर है. इसमें ब्राह्मण, ठाकुर और मध्यवर्ग मोदी के समर्थन में है जबकि दलित, मुसलिम और महापिछड़ी जातियां बसपा के पाले में हैं. कांग्रेस यहां पर पहले से ही दौड़ से बाहर हो चुकी है. मुलायम सिंह के पास केवल अपना यादव वोटबैंक ही बचा हुआ है. हो सकता है कि यादवों का भी एक बड़ा हिस्सा उनसे कट जाए क्योंकि जिस तरह से उन्होंने पिछले दो सालों में अपने परिवार को आगे बढ़ाने का काम किया है उससे यादवों के एक बड़े वर्ग में नाराजगी है.’

यहां अहम सवाल है कि जिस दलित-ब्राह्मण गठजोड़ के जरिए मायावती ने चमत्कार किया था उसमें से ब्राह्मण के अलग होने का कितना नुकसान बसपा को हो सकता है और पार्टी इसकी भरपाई कैसे करेगी. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता बताते हैं, ‘फिलहाल पार्टी का ध्यान 40 फीसदी वाले फार्मूले (दलित-मुस्लिम) को ठोस रूप देने पर है न कि तीस फीसदी (दलित-ब्राह्मण) वाले फार्मूले पर.’ जाहिर-सी बात है बसपा के भीतर ब्राह्मणों के मोदी की तरफ जाने की कोई खास चिंता नहीं है. अजय बोस के शब्दों में, ‘बसपा को इतना ब्राह्मण वोट कभी नहीं मिला है, हल्ला ज्यादा हुआ है.’ इसके बावजूद ब्राह्मण समुदाय को आश्वस्त करने और उसके साथ हर-संभव मधुर रिश्ते कायम रखने की कोशिश दो स्तरों पर चल रही है. पहला, पार्टी महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा 2006 की तर्ज पर प्रदेश भर में घूम-घूम कर दलित-ब्राह्मण गठजोड़ वाली रैलियां कर रहे हैं. दूसरा, पार्टी ने अपने घोषित लोकसभा उम्मीदवारों में करीब 18 टिकट ब्राह्मण समुदाय को दिए हैं. यहां पार्टी की रणनीति यह है कि उम्मीदवारों के निजी प्रभाव के जरिए ब्राह्मण वोटों का एक हिस्सा भी पार्टी अपने हक में कर लेती है तो यह उसके लिए बोनस होगा.

महापिछड़ी जातियां
कांशीराम ने जिस सोशल इंजीनियरिंग के जरिए राजनीतिक सत्ता तक पहुंचने का रोडमैप बनाया था उनमें दलितों के साथ-साथ उत्तर प्रदेश की 15-16 महापिछड़ी जातियां भी शामिल थीं. कांशीराम की इस विशाल छतरी  के नीचे बिंद, राजभर, बरई, कुशवाहा और पासी आदि अत्यंत पिछड़ी जातियां शामिल थीं. लेकिन 1998 के बाद बसपा में कांशीराम का प्रभाव धीरे-धीरे कम होता गया और उनकी जातियों की छतरी छिन्न-भिन्न होती गई. कांशीराम ने पहले ही मायावती को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था. पार्टी में मायावती का प्रभाव बढ़ गया था. जानकार इस छतरी के बिखरने के पीछे मायावती के निरंकुश रवैये को जिम्मेदार मानते हैं. मायावती ने उन नेताओं को एक-एक कर किनारे लगाना शुरू कर दिया जिनसे उनके एकाधिकार को चुनौती मिल सकती थी. अफरा-तफरी के इस दौर में कांशीराम के इकट्ठा किए गए तमाम साथी बसपा से बाहर निकाल दिए गए. इनमें बरखूराम वर्मा, आरके चौधरी, रामसमुझ पासी, डॉ. मसूद, किशनपाल जैसे तमाम नेता शामिल थे. यह 2001 के आस-पास की घटना है. इनके जाने के बाद बसपा में मायावती की एकल सत्ता स्थापित हो गई. लेकिन हाल के दिनों में मायावती को इस बात का इल्म हुआ है कि दलितों को दिल्ली के दरबार तक पहुंचाने के लिए उसी रास्ते पर चलना होगा जिस पर चलने का सपना कभी कांशीराम ने देखा था.

पिछले कुछ महीनों के दरमियान मायावती ने इस दिशा में कई सुधारवादी कदम उठाए हैं जिनसे महापिछड़ी जातियों के बसपा के साथ एक बार फिर से जुड़ाव की संभावना बलवती हो गई है. पार्टी में दलितों के साथ अतिपिछड़ों की हिस्सेदारी फिर से बढ़ी है. बसपा की अंदरूनी समझ रखने वाले अजय बोस बताते हैं, ‘आरके चौधरी को बहनजी एक बार फिर से पार्टी में वापस लाने जा रही है. चौधरी, कांशीराम के साथी और बसपा के संस्थापक सदस्य थे. इसी तरह से पासियों के बड़े नेता रामसमुझ पासी की भी बसपा में वापसी की बात चल रही है. उत्तर प्रदेश में पासी समुदाय की बड़ी आबादी है.’

महापिछड़ी जातियों का छाता बसपा ने काफी फैलाया है. फिलहाल पार्टी के पास सुखदेव राजभर, रामअचल राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे तमाम अतिपिछड़े नेता हैं. पुराने साथियों की वापसी के सवाल पर स्वामी प्रसाद मौर्य इशारों ही इशारों में पुष्टि करते हैं, ‘बसपा व्यक्तियों पर ध्यान नहीं देती. हमारा लक्ष्य सर्वजन को साथ लाने का है. जो लोग किसी कारणवश दूर हो गए थे, अगर वे चाहेंगे तो बहनजी उन पर विचार करेंगी.’

संगठन और मुद्दे
अजय बोस के शब्दों में, ‘मोदी के पक्ष में हवा तो है लेकिन उस हवा में 1990 के मंदिर आंदोलन जैसा भावनात्मक लगाव नहीं है.’ वे हमें उत्तर प्रदेश के दलित मध्यवर्ग में मायावती के प्रति फिर से पैदा हुए भावनात्मक लगाव के बारे में भी बताते हैं. प्रमोशन में आरक्षण का मुद्दा पिछले दिनों काफी चर्चा का

विषय रहा था. बसपा को छोड़कर शेष सभी पार्टियों ने इसका विरोध किया था विशेषकर सपा और भाजपा ने. बोस के मुताबिक दलितों के नौकरीपेशा तबके और मध्यवर्ग में इस बात को लेकर गुस्सा है कि सभी पार्टियां प्रमोशन में आरक्षण की विरोधी हैं. सिर्फ मायावती ही उन्हें यह अधिकार दिला सकती है.

बसपा ने भी अपने कोर वोटबैंक के बीच इस मुद्द को काफी आक्रामक ढंग से आगे बढ़ाया है.

इस काम को आगे बढ़ाने में बसपा अपने पुराने संगठनों का इस्तेमाल कर रही है. बसपा के सांगठनिक ढांचे पर रोशनी डालते हुए गोविंद पंत राजू बताते हैं, ‘डीएसफोर और कांशीराम द्वारा 70 के दशक में खड़े किए गए दलित कर्मचारी संगठन आज भी बसपा के लिए काडर का काम करते हैं. अंबेडकर जयंती, महात्मा फूले जयंती, रविदास जयंती के अलावा तमाम दलित महापुरुषों की जयंतियों और पुण्यतिथियों के माध्यम से ये संगठन साल भर जिलों-तहसीलों में सक्रिय रहते हैं. इनमें दलित और अतिपिछड़े समुदायों की जमकर हिस्सेदारी होती है. इन आयोजनों के जरिए बसपा अपने दलित वोटरों को लामबंद करने और अपनी बात को नीचे तक पहुंचाने में सफल रहती है. ये संगठन बसपा के अपने राजनीतिक ढांचे के साथ बहुत गहराई से जुड़े हुए हैं. इसमें प्रदेश स्तर की कमेटियां, जोनल कमेटियां, उसके नीचे जिला कमेटियां और ब्लाक स्तरीय कमेटियां होती है. इसके जरिए छोटा से छोटा संदेश भी देखते-देखते मायावती से आम वोटर तक और आम वोटर से मायावती तक पहुंच जाता है.’

ऊपर से देखने पर मायावती भले ही ज्यादा सक्रिय नहीं दिखती हों लेकिन इस ढांचे के जरिए उनका जमीन से संपर्क लगातार बना रहता है.

बसपा की दिक्कत
मुलायम सिंह यादव को चुनाव प्रबंधन का बड़ा खिलाड़ी माना जाता है. यह चर्चा लगातार बनी हुई है कि मुलायम सिंह अपना दावा यूं ही नहीं छोड़ेंगे. लिहाजा उनके तरकश से निकलने वाले तीर का सबको इंतजार है. सुरेंद्र राजपूत के मुताबिक ‘मुसलमानों को अपने पाले में खींचने के लिए मुलायम सिंह ने मुस्लिम उलेमाओं की एक पूरी फौज खड़ी कर रखी है जो गांव-गांव जाकर सपा के पक्ष में वोट मांगने का काम करेंगे.’

इसके अलावा मुलायम सिंह की उम्मीद नरेंद्र मोदी भी हैं. जानकारों के मुताबिक मुलायम सिंह की फौज मुजफ्फरनगर को भुलाकर मुसलमानों के बड़े दुश्मन के रूप में मोदी को आगे बढ़ाएगी. अगर यह दांव कामयाब होता है तो मायावती के लिए रास्ता कठिन हो जाएगा. अगर मुसलमान काबा और कलीसे के फेर में फंस गया तो मायावती का खेल खराब हो जाएगा क्योंकि उनके सर्वजन फार्मूले से ब्राह्मण पहले ही अलग होकर मोदी के पक्ष में मन बनाता दिख रहा हैै.

अब बात आती है बसपा को मिलने वाली संभावित सीटों की. इस मुद्दे पर ज्यादातर लोग किसी तरह की भविष्यवाणी करने से बचते हैं. रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, ‘सीटों के बारे में विश्वास से तभी कुछ कहा जा सकता है जब फाइनल उम्मीदवारों के नाम सामने आ जाएं क्योंकि अंतिम समय में उम्मीदवार और उसकी व्यक्तिगत क्षमता सबसे अहम होती है.’

जानकारों की इस मुद्दे पर सहमति है कि भाजपा के अलावा सिर्फ बसपा उत्तर प्रदेश में अपने पिछले प्रदर्शन को दोहराने में कामयाब रहेगी और यदि मायावती के हालिया उपाय काम कर गए तो उत्तर प्रदेश में और शायद राष्ट्रीय राजनीति में भी मोदी का रथ रोकने का काम मायावती ही कर सकती हैं.

अमित शाह: मोदी की चाह में

नरेंद्र मोदी देश की बागडोर अपने हाथों में लेने के लिए किस कदर बेताब हैं इसकी जानकारी लगभग सभी को है. लेकिन मोदी के अलावा कोई और भी है जो उनके सर पर प्रधानमंत्री का ताज देखने के लिए उतना ही बेताब है. इसके लिए वह दिन-रात एक किए हुए है. यह व्यक्ति अपने ‘साहब’ के गांधीनगर से सात आरसीआर तक के रास्ते में मौजूद हर अड़चन, हर ठोकर को हटाने की जी-जान से कोशिश कर रहा है. मोदी के इस विश्वासपात्र का नाम है अमित अनिलचंद्र शाह. शाह, नरेंद्र मोदी के हनुमान कहे जाते हैं, उनके लिए मोदी भगवान से कम नहीं हैं और वे भी शाह पर ही सबसे अधिक भरोसा करते हैं.

पार्टी महासचिव अमित शाह वर्तमान में उत्तर प्रदेश में भाजपा के चुनाव प्रभारी हैं. भाजपा को पता है कि अगर पिछले 10 साल का संन्यास खत्म करना है तो उत्तर प्रदेश में उसे चमत्कार करना ही होगा. देश को सबसे अधिक सांसद और अब तक सबसे अधिक प्रधानमंत्री देने वाले उसी उत्तर प्रदेश में शाह अपने साहब और भाजपा की जीत सुनिश्चित करने में लगे हुए हैं.

आखिर अमित शाह नाम का यह व्यक्ति है कौन? क्या है इस व्यक्ति की काबिलियत? क्या कारण है कि इतने बड़े और अनुभवी नेताओं वाले इतने महत्वपूर्ण प्रदेश की जिम्मेदारी अमित शाह को दे दी गई है? क्यों नरेंद्र मोदी को शाह पर इतना भरोसा है कि वे उत्तर प्रदेश में पार्टी में न सिर्फ जान फूंक देंगे बल्कि यहां से क्रांतिकारी चुनाव परिणाम भी लाएंगे.

इन सभी प्रश्नों का जवाब तलाशने के लिए हमें थोड़ा पीछे चलना होगा. चलना होगा गुजरात. नरेंद्र मोदी से अमित शाह की पहली मुलाकात अहमदाबाद में लगने वाली संघ की शाखाओं में हुई थी. बचपन से ही दोनों इनमें जाया करते थे. हालांकि जहां मोदी एक बेहद सामान्य परिवार से आते थे, वहीं शाह गुजरात के एक रईस परिवार से ताल्लुक रखते थे. युवावस्था में एकाएक सब कुछ छोड़कर, सभी से संपर्क काटते हुए मोदी कथित तौर पर ज्ञान की तलाश में हिमालय कूच कर गए. वहीं शाह संघ से जुड़े रहते हुए शेयर ट्रेडिंग तथा प्लास्टिक के पाइप बनाने के अपने पारिवारिक व्यापार से जुड़ गए. समय गुजरता रहा.

अस्सी के दशक की शुरुआत में वापस आने के बाद मोदी फिर से संघ से जुड़ गए और बेहद सक्रियता से उसके लिए काम करना शुरू कर दिया. धीरे-धीरे वे संघ की सीढ़िया चढ़ते गए. इसी दौरान उनकी अमित शाह से फिर मुलाकात हुई. शाह उस समय संघ से तो जुड़े थे लेकिन मुख्य रूप से अपने पारिवारिक व्यवसाय में रचे-बसे थे. अमित शाह ने मोदी से भाजपा में शामिल होने की अपनी इच्छा जाहिर की. मोदी, शाह को लेकर गुजरात भाजपा के तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष शंकरसिंह वाघेला के पास गए. वर्तमान में गुजरात विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री वाघेला उस दिन को याद करते हुए कहते हैं, ‘मैं पार्टी ऑफिस में ही बैठा था. मोदी अपने साथ एक लड़के को लेकर मेरे पास आए. कहा कि ये अमित शाह हैं. प्लास्टिक के पाइप बनाने का व्यापार करते हैं. अच्छे व्यवसायी हैं. आप इन्हें पार्टी का कुछ काम दे दीजिए.’

इस तरह से अमित शाह भाजपा में शामिल हो गए. पार्टी में शामिल होने से लेकर लंबे समय तक शाह की पहचान एक छुटभैये नेता की ही थी. लेकिन वे धीरे-धीरे नरेंद्र मोदी के और भी करीब होते जा रहे थे.

नब्बे के दशक में जब गुजरात में भाजपा मजबूत हो रही थी उस समय अमित शाह के राजनीतिक जीवन में सबसे बड़ा मौका आया. वर्ष 1991 में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सांसद का चुनाव लड़ने के लिए गांधीनगर का रुख किया. उस समय शाह ने नरेंद्र मोदी के सामने लालकृष्ण आडवाणी के चुनाव प्रबंधन की कमान संभालने की इच्छा जाहिर की. शाह का दावा था कि वे अकेले बहुत अच्छे से पूरे चुनाव की जिम्मेदारी संभाल सकते है. अगर आडवाणी यहां अपना चुनाव प्रचार नहीं करते हैं तब भी वे इस सीट को आडवाणी के लिए जीत के दिखाएंगे. शाह के इस आत्मविश्वास से मोदी बड़े प्रभावित हुए और आडवाणी की उस सीट के चुनावी प्रबंधन की पूरी कमान उन्हें सौंप दी गई. आडवाणी उस चुनाव में भारी मतों से जीते. इसका असली सेहरा बंधा मोदी और उनके बेहतरीन चुनावी प्रबंधन के माथे पर. उधर मोदी और आडवाणी भी जानते थे कि जो कुछ हुआ था उसमें अमित शाह की काबिलियत की बहुत बड़ी भूमिका थी. इस चुनाव के बाद शाह का कद गुजरात की राजनीति में बढ़ता चला गया.

इसी तरह का मौका 1996 में भी अमित शाह के पास आया. जब पार्टी नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने गांधीनगर (गुजरात) से चुनाव लड़ने का तय किया. मोदी के कहने पर उस चुनाव की पूरी जिम्मेदारी फिर से अमित शाह को ही सौंपी गई. उस समय अटल पूरे देश में पार्टी का प्रचार कर रहे थे. ऐसे में उन्होंने अपने क्षेत्र में न के बराबर समय दिया. पूरा दारोमदार पार्टी ने अमित शाह के कंधे पर दे रखा था. मोदी को यकीन था कि जिस व्यक्ति को पार्टी ने गांधीनगर की जिम्मेदारी सौंपी है, वह इसमें जरूर सफल होगा. और हुआ भी वैसा ही.

राज्य की राजनीति को जानने-समझने वाले बताते हैं कि इन दो चुनावी सफलताओं ने शाह के जीवन पर तीन तरह से असर किया. सबसे बड़ा प्रभाव यह पड़ा कि अमित शाह छुटभैये नेता की छवि से बाहर निकलकर एक ऐसे नेता के रूप में स्थापित हो गए जो चुनावी प्रबंधन में बेहद माहिर है.

दूसरा, भाजपा के दो शीर्ष नेताओं के सफल चुनाव प्रबंधन के चलते वे उन नेताओं यानी वाजपेयी और आडवाणी की नजरों में आ गए थे.

तीसरा, वे नरेंद्र मोदी के और अधिक विश्वासपात्र और करीबी हो गए. मोदी को शाह की क्षमताओं से अपने राजनीतिक भविष्य की तस्वीर भी सुनहरी होती दिखाई देने लगी. गुजरात की राजनीति को लंबे समय से देख रहे एबीपी न्यूज से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार ब्रजेश कुमार सिंह कहते हैं, ‘पॉलिटिकल स्टैटजी तैयार करने और चुनाव प्रबंधन में अमित शाह की मास्टरी रही है. वो चुनावी व्यूह रचना करने और कैंडिडेट जिताने-हराने में महारत रखते हैं. अपनी इसी काबिलियत के दम पर वो मोदी पर प्रभाव डाल पाने में सफल रहे.’

शुरुआत में काफी लंबे समय तक शाह की राजनीति अहमदाबाद शहर के इर्द-गिर्द ही सीमित थी लेकिन अटल-आडवाणी के आशीर्वाद और मोदी के वरदहस्त ने शाह के राजनीतिक सपनों को उड़ान दे दी. अब उनकी नजर गुजरात की सहकारी संस्थाओं पर थी. पूरे राज्य में, बैंकों से लेकर दूध तक से जुड़ी कोऑपरेटिव संस्थाओं पर कांग्रेस पार्टी का कब्जा था. अमित शाह ने अहमदाबाद में इन संस्थाओं पर भगवा फहराने की शुरुआत कर दी. ब्रजेश कहते हैं, ‘अमित शाह की ये सबसे बड़ी सफलता थी. गुजरात की सहकारी संस्थाओं पर अगर आज भाजपा का कब्जा है तो वो अमित शाह के कारण ही है. इसी व्यक्ति ने अपनी काबिलियत और प्रबंधन से कांग्रेस को दशकों पुराने उसके कब्जे से उखाड़ फेंका.’

प्रदेश की राजनीति को समझने वाले लोग कांग्रेस की राज्य में बदहाल स्थिति को कोऑपरेटिव पर उसके खत्म हुए प्रभाव से भी जोड़ कर देखते हैं. ब्रजेश कहते हैं, ‘इन सहकारी संस्थाओं का गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों पर एक व्यापक प्रभाव था. जिस रफ्तार से कांग्रेस का कंट्रोल इन संस्थाओं पर से कम हुआ, उसी अनुपात में प्रदेश में पार्टी की राजनीतिक सेहत कमजोर होती चली गई.’

सहकारी संस्थाओं के बाद शाह का अगला निशाना गुजरात क्रिकेट संघ था. जानकार बताते हैं कि प्रदेश के क्रिकेट संघ पर वर्षों से कांग्रेस नेता नरहरि अमीन का कब्जा था. शाह ने यहां भी अपनी तैयारी और तिकड़म से कांग्रेस को पटखनी दे दी और डेढ़ दशक से ज्यादा के उसके एकाधिकार को खत्म कर दिया. कालांतर में उन्होंने संघ की कुर्सी पर अपने साहब नरेंद्र मोदी को बिठाया. बदले में मोदी ने शाह को संघ के उपाध्यक्ष की कुर्सी दे दी. यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि उस समय जो भी राजनीतिक कलाबाजियां शाह दिखा रहे थे उसमें उनके मार्गदर्शक नरेंद्र मोदी ही थे.

जिस तरह आज मोदी देश के शीर्ष पद पर बैठने को बेताब ह,ैं उसी तरह की बेकरारी से वे उस समय भी ग्रस्त थे जब केशुभाई पटेल गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. मोदी की नजर प्रदेश के मुखिया की कुर्सी पर थी. उन्होंने अपनी व्यूहरचना जारी रखी. शाह के माध्यम से प्रदेश में अपनी राजनीतिक स्थिति मजबूत करने की दिशा में वे काम करते रहे.

जानकार बताते हैं कि इसी राजनीतिक तैयारी के तहत मोदी ने अमित शाह को केशुभाई पटेल के करीब भेजा था. मोदी चाहते थे कि अमित शाह केशुभाई के साथ रहते हुए अंदर की सारी बातें उन तक ले आएं. केशुभाई को इसकी भनक तक नहीं लगी.

हालांकि पार्टी में कुछ लोगों को इस बात का अंदाजा था कि अमित शाह पार्टी में रहकर उससे ज्यादा मोदी के लिए काम करते हैं. शंकरसिंह वाघेला कहते हैं, ‘मोदी ने जब अमित शाह को मुझसे मिलाया और कुछ काम देने के लिए कहा तो मैंने हां कर दी. कुछ समय बाद ही मुझे पता चल गया कि ये आदमी मेरी जासूसी करता है. वो मेरी बातें जाकर मोदी को बताता था. मोदी ने मेरी जासूसी कराने के लिए उसे मेरे पास रखा था. अमित शाह और मोदी की जिस जासूसी वाली हरकत की चर्चा आज है. उस काम को ये दोनों दशकों पहले से करते आए हैं.’

खैर, प्रदेश के राजनीतिक समीकरण आने वाले समय में कुछ इस कदर बदले कि मोदी को केशुभाई पटेल और तत्कालीन संगठन मंत्री संजय जोशी ने गुजरात से बाहर भिजवाने का इंतजाम कर दिया. वर्ष 1986 में मोदी राष्ट्रीय सचिव बनकर दिल्ली आ गए. यहां आकर वे कई राज्यों के प्रभारी बने और कुशाभाऊ ठाकरे के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद महासचिव भी बनाए गए. लेकिन मोदी का मन गुजरात से दूर नहीं हो पाया था. वे वहां की गतिविधियों पर लगातार नजर बनाए हुए थे. इस दौरान अमित शाह ने केशुभाई पटेल के करीबी लोगों में अपनी जगह बना ली थी. उन्हें प्रदेश सरकार और केशुभाई पटेल की हर हरकत का पता होता था, जिसकी सूचना वे बिना देरी किए मोदी तक पहुंचाया करते थे.

उधर केशुभाई पटेल के नेतृत्व में प्रदेश भाजपा की स्थिति लगातार कमजोर होती जा रही थी. पार्टी स्थानीय चुनावों से लेकर उपचुनावों तक में हार का मुंह देख रही थी. इसी बीच 2001 में गुजरात को भयानक भूकंप का सामना करना पड़ा. भूकंप पीड़ितों को राहत पहुंचाने के मामले में भी प्रदेश सरकार की काफी आलोचना होने लगी. इसके बाद तो पूरा एक ऐसा माहौल बना कि केशुभाई पटेल के नेतृत्व में अगर सरकार को छोड़ा गया तो आगामी चुनावों में भाजपा की हार तय है. केशुभाई के खिलाफ दिल्ली में खूब लॉबीइंग हुई. स्थानीय अखबारों से लेकर राष्ट्रीय पत्रिकाओं के पास गुजरात भाजपा की तरफ से ही केशुभाई के खिलाफ खबरें आने लगीं. केशुभाई के खिलाफ बने माहौल के सूत्रधार मोदी थे और इसमें उनकी मदद अमित शाह कर रहे थे. पदमश्री से सम्मानित गुजरात के वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक देवेंद्र पटेल कहते है, ‘केशुभाई के खिलाफ माहौल बनाने का काम नरेंद्र मोदी के लिए अमित शाह ने ही किया था.’

खैर, केशुभाई के जिस तख्तापलट की उम्मीद नरेंद्र मोदी लगाए बैठे थे और जिसके लिए अमित शाह दिल्ली में फील्डिंग सजा रहे थे वह अंततः सफल रही. मोदी और शाह की मेहनत रंग लाई. केशुभाई को प्रदेश के मुखिया की गद्दी से हटाकर मोदी को प्रदेश की कमान सौंप दी गई.

यहां से मोदी और अमित शाह के संबंधों के एक नए दौर की शुरुआत होती है. उस अमित शाह के बनने की शुरुआत होती है जो आज हमारे सामने है.

2002 में अमित शाह को पार्टी ने सरखेज विधानसभा से टिकट दिया. चुनाव में वे रिकॉर्ड एक लाख 60 हजार मतों से जीत कर आए. जीत का यह आंकड़ा मोदी की चुनावी जीत से भी बड़ा था. यह 2007 में जाकर 2 लाख 35 हजार पर पहुंच गया.

खैर, 2002 में जब प्रदेश में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की फिर सरकार बनी तो सरकार में सबसे कम उम्र के अमित शाह को गृह (राज्य) मंत्री बनाया गया. यही नहीं, सबसे अधिक 10 मंत्रालय उन्हें दे दिए गए. मोदी ने शाह को 90 फीसदी से अधिक कैबिनेट समितियों का सदस्य भी बनाया जिनसे उनके विभागों का कोई लेना-देना तक नहीं था. जानकार बताते है कि यह भी मोदी की अपने मंत्रियों पर नजर रखने की रणनीति ही थी. कुछ लोगों की नजर में शाह पर ये मेहरबानियां केशुभाई के तख्तापलट में उनका साथ देने का इनाम थीं.

अमित शाह के रसूख में दिन दोगुनी, रात चौगुनी तरक्की होने की यह सिर्फ शुरुआत भर थी. धीरे-धीरे प्रदेश में स्थिति ऐसी होती गई कि अमित शाह राज्य में मोदी के बाद सबसे अधिक प्रभाव वाले नेता बन गए. कैबिनेट में शाह का रुतबा मोदी से कम नहीं था.

ऐसा नहीं है कि मोदी और शाह के संबंधों में कोई उतार-चढ़ाव नहीं आया या फिर शाह को किसी तरह की कोई चुनौती नहीं मिली. शाह के लिए भी मोदी के मन पर एकछत्र राज कर पाना बहुत आसान नहीं था. इसका सबसे बड़ा कारण थीं वर्तमान में गुजरात की शिक्षा मंत्री आनंदी बेन पटेल.

गुजरात में नरेंद्र मोदी जिन दो लोगों के बेहद करीब थे उनमें से एक थे अमित शाह और दूसरी थीं आनंदी बेन. मोदी के बेहद करीबी मानी जाने वाली आनंदी और अमित शाह के बीच लंबे समय तक शीतयुद्ध चलता रहा. दोनों मोदी पर किसी और के प्रभाव को देखने को तैयार नहीं थे. लेकिन मोदी ने कभी दोनों में से किसी एक को चुनने का काम नहीं किया. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘अमित शाह मोदी जी की परछाई हैं लेकिन आनंदी बेन मोदी जी के बेहद करीब हैं. ये दोनों लोग आरएसएस के समय से ही एक साथ हंै. शाह और आनंदी के बीच में असहमति हो सकती है. लेकिन मोदी जी कभी इस बात को बर्दाश्त नहीं करते कि शाह आनंदी बेन से कंपटीशन करें.’ दोनों के साथ काम कर चुके शंकरसिंह वाघेला कहते हैं, ‘दोनों बहुत अलग-अलग स्वभाव के लोग है. शाह जहां षड़यंत्र वाले कामों में महारत रखते हैं वहीं आनंदी की प्रशासन पर बेहतर पकड़ रही है.’

हालांकि कैबिनेट के तमाम सदस्यों और पार्टी के अन्य नेताओं की तरफ से भी शाह के प्रति नापसंदगी की खबरें दबे-छिपे आती रही हैं. लेकिन मोदी से नजदीकी की वजह से किसी ने मुंह खोलकर शाह का विरोध करने की हिम्मत नहीं की. ब्रजेश कहते हैं, ‘मोदी सरकार में अमित शाह सब कुछ थे. मोदी के बाद वही सरकार थे. इस वजह से कैबिनेट के बाकी लोग, जो उम्र और अनुभव में शाह से  वरिष्ठ थे, उनका शाह से नाराज होना स्वाभाविक था.’ खैर मोदी ने हरसंभव तरीके से शाह को आगे बढ़ाया और शाह ने भी उन्हें प्रसन्न करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी.

देवेंद्र पटेल कहते हैं, ‘अब तक गुजरात में मोदी ने जो भी रणनीति अपनाई है जो कुछ भी किया है उसके पीछे असली दिमाग अमित शाह का ही रहा है. भले ही पर्दे के सामने मोदी दिखाई देते हों. अब तक के अपने राजनीतिक करियर से उन्होंने ये स्थापित किया है कि वो एक बेहद चालाक, सोशल और पॉलिटिकल इंजीनियरिंग में माहिर व्यक्ति हैं.’

शाह का व्यक्तित्व विश्लेषण करते हुए शंकरसिंह वाघेला कहते हैं, ‘ये आदमी बहुत बढ़िया मैनेजर है. अपने मालिक के प्रति वफादार रहता है. इसी आदमी ने गुजरात में कांग्रेस को तोड़ा. सहकारी संस्थाओं से कांग्रेस को खत्म करने का काम किया. ये आदमी 24 घंटे राजनीतिक षडयंत्र में लगा रहता था. आज भी वही करता है. उत्तर प्रदेश में वही करने वो गया है.’

चुनावी राजनीति में माहिर अमित शाह के नाम यह रिकॉर्ड भी है कि अपने जीवन में उन्होंने अभी तक कुल 42 छोटे-बड़े चुनाव लड़े लेकिन उनमें से एक में उन्होंने हार का सामना नहीं किया. दूसरी ओर अमित शाह पर कई फर्जी एनकाउंटर कराने, हत्या कराने, फिरौती, अपहरण जैसे संगीन आरोप भी हैं. हाल ही में उन पर यह आरोप भी लगा कि जब वे गृह राज्य मंत्री थे तो उन्होंने मोदी के आदेश पर अवैध तरीके से एक महिला की जासूसी करवाई थी.

सोहराबुद्दीन शेख की फर्जी मुठभेड़ के मामले में अमित शाह को 2010 में गिरफ्तारी का सामना करना पड़ा. शाह पर आरोपों का सबसे बड़ा हमला खुद उनके बेहद खास रहे गुजरात पुलिस के निलंबित अधिकारी डीजी बंजारा ने किया. फर्जी मुठभेडों के मामले में ही जेल में बंद बंजारा ने एक चिट्ठी लिखकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर फर्जी मुठभेड़ का आरोप लगाते हुए कहा कि ये दोनों नेता भी फर्जी मुठभेड़ में हुई उन मौतों के आरोपी हैं जिसके चलते वे और 31 अन्य अधिकारी वर्षों से जेल में कैद हैं. साबरमती केंद्रीय कारागार से लिखे गए इस पत्र में वंजारा ने शाह पर पुलिस अधिकारियों को धोखा देने का आरोप लगाया. बंजारा ने लिखा कि वह नरेंद्र मोदी को लंबे समय तक एक भगवान की तरह मानता था, लेकिन उसे यह कहते हुए खेद हो रहा है कि ‘मेरा भगवान अमित भाई शाह जैसे शैतान के प्रभाव से नहीं उबर सका.’ शाह पर गुजरात में ईमानदार पुलिस अधिकारियों को हाशिये पर धकेलने और मनमानी करने के भी आरोप हैं.

अपने अब तक के राजनीतिक करियर में शाह ने एक बेहद लो-प्रोफाइल रखने वाले व्यक्ति की छवि बनाई है. एक ऐसा व्यक्ति जो मीडिया से मोदी के समान ही दूरी बरतता है. बेहद नपे-तुले शब्दों में अपनी बात रखने वाले शाह पर पार्टी के नेता तानाशाह और घमंडी होने समेत कई आरोप लगाते रहे हैं.

गुजरात में पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष कानजी एस ठाकुर इन आरोपों का खंडन करते हुए कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है. वो सभी को साथ में लेकर चलते हैं. उनमें कोई घमंड नहीं है. हां, ये है कि वो जो सच होता है वो सीधे मुंह पर बोल देते है. किसी को अच्छा लगे या बुरा.’

उत्तर प्रदेश में उन्हें भेजे जाने के सवाल पर कानजी कहते हैं, ‘जो व्यक्ति यहां गुजरात में कमाल कर सकता है, उसे पार्टी आगे क्यों ना बढ़ाए. हमें विश्वास है कि वो वही करिश्मा उत्तर प्रदेश में दिखाएंगे जो उन्होंने यहां किया है. मोदी जी को किससे क्या काम लेना है ये अच्छी तरह से आता है.’

उत्तर प्रदेश
मोदी और शाह के बीच के अब तक के आपसी संबंध और शाह की चुनावी काबिलियत से यह बात समझी जा सकती है कि क्यों मोदी ने उनको उत्तर प्रदेश का चुनाव प्रभारी बनाया. उत्तर प्रदेश का चुनाव प्रभारी बनने के बाद से अमित शाह ने प्रदेश में भाजपा की जीत के लिए युद्ध स्तर पर काम करना शुरू कर दिया है.

भाजपा के स्थानीय पार्टी नेता बताते हैं कि प्रभारी बनने के बाद लखनऊ में अमित शाह अकेले नहीं आए बल्कि उनके साथ एक पूरी टीम आई है. इसमें बड़ी संख्या में लोगों को वे गुजरात से लेकर आए हैं, ये सभी लोग अमित शाह के मार्गदर्शन में पार्टी की रणनीति बनाते रहे हैं. इनके अलावा आईआईटी और आईआईएम के लड़कों की भी एक टीम शाह ने बनाई है. इसी टीम के माध्यम से शाह उत्तर प्रदेश की व्यूहरचना करने में जुटे हैं. उन्होंने लखनऊ में अपना एक पूरा तंत्र स्थापित किया है.

Amit-Shahअमित शाह ने सालों से मरणासन्न पड़े संगठन को सक्रिय करने से अपने काम की शुरुआत की है. पार्टी नेता बताते हैं कि एक रणनीति बनाई गई है जिसके तहत लखनऊ से लेकर राज्य के हर बूथ तक पार्टी संगठन को सक्रिय बनाने की कोशिश की जा रही है. पार्टी प्रवक्ता मनोज मिश्रा कहते हैं, ‘सबसे पहले अमित शाह जी के नेतृत्व में पार्टी ने कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने का काम किया है. उन्होंने तेजी से जनसंपर्क किया है और सभी आठ क्षेत्रों में व्यक्तिगत दौरा किया है. पूरे राज्य में वैज्ञानिक तरीके से बूथ कमेटियां बनाई जा रही हैं.’ शाह के उत्तर प्रदेश में आने के बाद हुए बदलावों की चर्चा करते हुए वाजपेयी कहते हैं, ‘आज लगभग 80 प्रतिशत जगहों पर हमारी बूथ कमेटियां तैयार हो चुकी हैं. पहले ऐसा नहीं होता था. होता ये था कि अगर मुझे टिकट नहीं मिला तो फिर बूथ जाए भाड़ में मैं पार्टी के औपचारिक प्रत्याशी के खिलाफ काम करूंगा. इस बार ऐसा नहीं है. इस बार व्यक्ति नहीं पार्टी चुनाव लड़ रही है. संगठन के तंत्र से चुनाव लड़ा जा रहा है.’

इसके अलावा शाह के नेतृत्व में पार्टी उत्तर प्रदेश में कुछ उसी तरह से तकनीक के साथ गलबहियां कर रही है जिस तरह का प्रयोग प्रमोद महाजन ने अपने समय में किया था. पार्टी नेता बताते हैं कि तकनीक का जैसा प्रयोग इस बार के चुनाव में हो रहा है वैसा उत्तर प्रदेश में पहले कभी नहीं हुआ. हाल ही में अति अत्याधुनिक 400 मोदी रथों को पूरे राज्य में रवाना किया गया है.

पार्टी के नेता बताते हैं कि शाह के यहां आने के बाद एक बड़ा बदलाव यह आया है कि प्रदेश के नेताओं की आपसी सिर-फुटौव्वल बंद हुई है. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘पहले बड़े नेता आपस में खूब जूतमपैजार करते थे. लेकिन अमित शाह के आने के बाद कार्यकर्ताओं की सुनवाई शुरू हुई है. इन नेताओं को पता है कि शाह मोदी के आदमी हैं. मोदी भाजपा का वर्तमान और भविष्य हैं, ऐसे में जिसे अपने भविष्य की चिंता है वो शाह के सामने जी सर वाली मुद्रा में रहने में ही अपनी भलाई समझ रहा है. सभी कार्यकर्ता इससे बेहद खुश हैं.’

शाह से जुड़े अपने अनुभव को साझा करते हुए एक भाजपा कार्यकर्ता राकेशचंद्र त्रिपाठी कहते हैं, ‘वो प्रैक्टिकल एप्रोच वाले व्यक्ति हैं. उत्तर प्रदेश के उन पुराने नेताओं की तरह नहीं हैं कि पांच घंटे भाषण देंगे जिसमें से तीन लाइनें ही काम की निकलेंगी. वो तीन लाइनें ही बोलते हैं और सभी काम की होती हैं.’ पार्टी के एक जिलाध्यक्ष शाह के काम करने के तरीके पर चर्चा करते हुए कहते हैं, ‘उनकी बातचीत से एक बात साफ हो जाती है कि उन्हें सिर्फ जीत से मतलब है. उनके लिए कुछ और मायने नहीं रखता. आप देख सकते हैं कि प्रदेश में तमाम लोगों को पार्टी से जोड़ा जा रहा है. उन्होंने साफ कर रखा है किसी भी कीमत पर हमें नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री बनाना है. हमको ये चुनाव किसी भी तरह से जीतना ही होगा.’ भाजपा के उत्तर प्रदेश से लेकर गुजरात और दिल्ली तक के नेताओं से बातचीत में यह बात सामने आ जाती है कि कैसे मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए कोई पूरी पार्टी में पागलपन की हद तक मेहनत कर रहा है तो वह अमित शाह ही हैं.

लक्ष्मीकांत बाजपेयी कहते हैं, ‘अमित शाह को पूरी तरह से फ्री हैंड मिला हुआ है. वो प्रदेश में  सब कुछ कर रहे हैं जो करना चाहते हैं.’ शाह के माध्यम से आए नवाचारों में एक व्यवस्था यह भी शामिल है कि इस बार पार्टी किसी प्रत्याशी को कैश में कोई रकम नहीं दे रही. लक्ष्मीकांत कहते हैं, हम लोग लोकसभा के स्तर पर पार्टी का बैंक एकाउंट खुलवा रहे हैं. पार्टी प्रत्याशी को जो भी पार्टी की तरफ से सहयोग होगा वो इसी तरह से जाएगा और प्रत्याशी तीन अन्य लोगों की सहमति के बाद ही उस एकाउंट से पैसे निकाल सकता है. बाद में उसको खर्च का पूरा ब्यौरा देना होगा. काले-नीले धन की कोई गुंजाइश नहीं रहने देंगे. ये सब शाह जी की रणनीति का हिस्सा है.’

हालांकि पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेताओं से विस्तार से बातचीत करने पर शाह के तौर-तरीकों को लेकर उनकी अप्रसन्नता भी सामने आ जाती है. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक शरत प्रधान कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में शाह दो तरह के लोगों को साथ लेकर काम कर रहे हैं. एक उन्होंने संघ के लोगों की टीम बनाई है. दूसरी गुजरात से वो अपने लोगों को लाए हैं. प्रदेश के नेताओं को वो तवज्जो नहीं दे रहे. यही कारण है कि प्रदेश के बड़े नेताओं में उनको लेकर नाराजगी है. लेकिन लोग डर के मारे मुंह नहीं खोल रहे.’

शाह की कार्यप्रणाली और प्रदेश के वरिष्ठ नेताओं से उनकी नाराजगी के प्रश्न को जब हम प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी के सामने रखते हैं तो वे कुछ यूं जवाब देते हैं, ‘जो वरिष्ठ नेता राज्य में पार्टी को 10 और 47 पर ले आए वो आज राज्य में अपने अस्तित्व का संकट झेल रहे हैं. इसीलिए वो ऐसा माहौल बना रहे हैं. इन लोगों से शाह जी बात करते हैं. उनकी राय ली जाती है लेकिन अब नीतियों के कार्यान्वयन में उनकी बात नहीं माना जाएगी ये तय है. अगर वही निर्णय होना है जो ये काबिल नेता आज तक करते आए हैं तो फिर नई टीम का मतलब क्या रह जाएगा? इन नेताओं ने प्रदेश में हुई रैलियों में अब तक न एक नए पैसे की मदद की है और न भीड़ में एक आदमी बढ़ाने में मदद की है. बस इन लोगों से आप भाषण दिलवा लीजिए.’

उधर शाह के आने से पार्टी के जिला स्तर के नेता और सामान्य कार्यकर्ता खुश नजर आते हैं. वाराणसी महानगर के भाजपा जिलाध्यक्ष तुलसी जोशी कहते हैं, ‘शाह जी पार्टी को हर वार्ड और हर घर से जोड़ने की रणनीति पर काम कर रहे हैं. पहले ऐसा नहीं था. पार्टी को उनके जैसे चार लोग और मिल जांए तो पूरे भारत में वो पार्टी की सूरत बदल देंगे. वो आम कार्यकर्ता को खुद फोन करते हैं. हम जब चाहें वो फोन पर उपलब्ध रहते हैं. ऐसा पहले कभी नहीं था.’

गुजरात, दिल्ली से लेकर उत्तर प्रदेश के राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा है कि अगर नरेंद्र मोदी किसी तरह से पीएम बन जाते हंै तो फिर भारतीय राजनीति और खासकर भाजपा की अपनी राजनीति में अमित शाह सबसे अधिक राजनीतिक प्रभाव वाले नेता होंगे.

खैर, मोदी को गुजरात का सीएम बनाने में सफल भूमिका अदा करने वाले अमित शाह अपनी तरफ से तो वह हर कोशिश करते नजर आ रहे हैं जिससे मोदी को वे पीएम बनवा सकें लेकिन समय की बंद मुट्ठी में क्या है यह तो वक्त ही बताएगा.