सूर्यनाथ सिंह के नए कहानी संग्रह ‘धधक धुआं धुआं’ के केंद्र में गांव है. इस संग्रह में शामिल छह कहानियों को गांवों पर लिखी गई बेहद सशक्त कहानियां करार दिया जा सकता है. यह महत्वपूर्ण है क्योंकि उदारीकरण के बाद के दौर में गांवों पर लिखने और बगैर अतीतजीवी हुए कटु यथार्थ लाने वाले कम ही रह गए हैं. ऐसा इसलिए हुआ है कि नए लेखकों के जीवन में ही गांव अनुपस्थित है. ये कहानियां उन गांवों की कहानियां हैं जो तेजी से परिवर्तित होते हमारे समाज में आधे बाहर और आधे भीतर हैं. ये बेहद तेज बदलावों से प्रभावित हो रहे हैं लेकिन उनसे कदमताल करने में कामयाब नहीं हैं.
संग्रह की पहली कहानी ‘जो है सो’ हर उस गांव की कहानी है जहां विकास एक्सप्रेसवे पर सवार होकर पहुंचा है. वहीं संग्रह के शीर्षक वाली कहानी ‘धधक धुआं धुआं’ फेसबुक के जरिए अरसा बाद संपर्क में आए दोस्तों में से एक के नॉस्टेल्जिक होने और यथार्थ से टकराहट के बाद उसे होने वाली निराशा की कहानी है. अरसा पहले साहित्यालोचकों के एक धड़े ने राग दरबारी में गांवों की नकारात्मक छवि पेश करने की बात कहते हुए श्रीलाल शुक्ल की आलोचना की थी. शायद उनके सपनों में गांव अब भी हिंदी फिल्मों में सत्तर के दशक में दिखाए जाने वाले सुरम्य गांव होंगे. लेकिन सूर्यनाथ सिंह की कहानियां हमें बताती हैं कि गांव अब बदल चुके हैं. वे राजनीति के अखाड़े हैं, वे कारोबारी-नेता गठजोड़ की नजर में कमाई का अच्छा जरिया हैं और वे शहरों में रह रही पीढ़ी के लिए जरूरत पडऩे पर पैसे जुटाने का एक साधन हैं. उपयोगितावाद का चरम हैं. हर चीज, हर रिश्ता इस्तेमाल के लिए है. पेशे से पत्रकार सूर्यनाथ सिंह की कहानियों के विषय जाहिर तौर पर रोजमर्रा में खबरों में प्रमुखता से आने वाले विषय हैं. इसके अलावा उनकी भाषा भी बेहद साधारण और सधी हुई है. ये कहानियां महत्वपूर्ण हैं क्योंकि निरंतर हो रहे शहरीकरण के बावजूद हमारा देश आज भी गांवों का देश है और ये गांव अब सीधे-सादे सरलहृदय लोगों के फिल्मी गांव नहीं हैं. वहां भी जीवन उतना ही जटिल और कष्टसाध्य है जितना कि कहीं और. सूर्यनाथ सिंह इससे पहले एक कहानी संग्रह, एक उपन्यास तथा बच्चों के लिए बेहद विविधतापूर्ण साहित्य की रचना कर चुके हैं.
बीती 25 फरवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि फतवे किसी पर थोपे नहीं जा सकते. अदालत का कहना था कि मुफ्ती किसी मसले पर फतवा दे सकते हैं, लेकिन उसकी अहमियत एक मसले पर किसी की राय जितनी ही है.
अदालत का यह फैसला शरिया के अनुरूप ही है. शरिया फतवा और कजा के बीच फर्क करता है. फतवा यानी राय जो किसी को तब दी जाती है जब वह अपना कोई निजी मसला लेकर मुफ्ती के पास जाए. फतवा का शाब्दिक अर्थ असल में सुझाव ही है और इसका मतलब यह है कि कोई इसे मानने के लिए कानूनी रूप से बाध्य नहीं है. यह सुझाव भी सिर्फ उसी व्यक्ति के लिए होता है और वह भी उसे मानने या न मानने के लिए आजाद होता है.
दूसरी तरफ कजा का मतलब है कानूनी फैसला. किसी भी मुफ्ती को कजा जारी करने की इजाजत नहीं है. कजा राज्य अधिकृत अदालत का अधिकार है और हर कोई इसका पालन करने के लिए बाध्य है.
भारत धर्मनिरपेक्ष देश है जहां कानून का राज है. संसद जो कानून बनाती है वे मुसलमानों सहित तमाम समुदायों पर एक तरह से लागू होते हैं. अलग शरिया कानून हो, मुसलमानों को ऐसी मांग करने की कोई जरूरत नहीं है. इबादत से जुड़े मामलों में वे शरिया के हिसाब से चलने के लिए आजाद हैं जो कि बेहद निजी मसला है. लेकिन सामाजिक मसलों में उन्हें उन्हीं कानूनों के हिसाब से चलना होगा जो बाकी सभी समुदायों पर लागू होते हैं.
मुसलमानों के लिए एक अलग कानूनी दर्जे की अवधारणा अंग्रेजों की देन है. ऐसा उन्होंने 1937 में मुस्लिम पर्सनल लॉ बनाकर किया. इसलिए यह अंग्रेजों की विरासत है, कोई इस्लामी सिद्धांत नहीं. दरअसल कानूनी रूप से एक समुदाय को अलग दर्जा देकर अंग्रेज शासकों ने अपना राजनीतिक हित साधा था. लेकिन आजाद भारत में इस नीति को जारी रखने की कोई जरूरत नहीं है.
623 ईसवी में पैगंबर मोहम्मद मक्का छोड़कर मदीना में रहने लगे थे. हालांकि तब से पहले भी मदीना में कुछ मुसलमान रह रहे थे, लेकिन प्रभुत्व वहां यहूदियों का था. उनकी संख्या और आर्थिक ताकत दोनों ही ज्यादा थी. वहां एक यहूदी अदालत ही थी और उस समय के मुसलमान अपने मामले लेकर उसी अदालत में जाते थे. उन्होंने कभी किसी अलग अदालत की मांग नहीं की.
जब पैगंबर नहीं रहे तो कई मुसलमानों ने अरब छोड़ दिया और पड़ोसी देशों में जाकर बस गए. इतिहास बताता है कि उन्होंने इन देशों की कानूनी व्यवस्था को ही स्वीकार कर लिया और किसी अलग कानूनी व्यवस्था की मांग नहीं की. यह सहाबा की मिसाल है जो पैगंबर के साथी थे. इस्लाम के मुताबिक पैगंबर के साथियों की मिसाल जायज है और भारत के संदर्भ में भी लागू होती है.
इसलिए न तो यह सही है कि एक अलग अदालत की मांग की जाए और न यह कि फतवे के जरिए एक समानांतर व्यवस्था स्थापित की जाए. सही तरीका सिर्फ यही है कि मुसलमान भी दूसरे समुदायों की तरह देश के कानून का पालन करें. निजी दायरे में इबादत के तरीके जैसी चीजों के लिए वे आजाद हैं, लेकिन यह सही नहीं है कि वे अपने समुदाय के लिए भारत में अलग से एक कानूनी व्यवस्था की मांग करें.
पश्चिमी दुनिया में मुसलमानों ने इस मसले पर एक व्यावहारिक तरीका अपना लिया है. अलग कानून की मांग करने के बजाय वे स्थापित कानूनों से तालमेल बिठाने के तरीके निकाल लेते हैं. जैसे उत्तराधिकार का कानून वहां उससे अलग है जैसा इस्लामी कानून बताते हैं. लेकिन जहां तक मुझे मालूम है, वहां मुसलमानों ने कभी भी उत्तराधिकार का एक अलग कानून बनाने की मांग नहीं की. इसके बजाय उन्होंने एक बहुत व्यावहारिक हल ढूंढ़ लिया है. उत्तराधिकार का मसला इस्लामी कानूनों के हिसाब से हल हो, इसके लिए वे वसीयत लिखने की परंपरा का अनुसरण करते हैं.
कुरान के मुताबिक इस्लाम के दो हिस्से हैं. दीन और शरिया. दीन में वे बुनियादी सिद्धांत हैं जो हर जगह लागू होते हैं. इनमें ईमानदारी, आस्था, नैतिक मूल्यों और इबादत से जुड़े वे सबक हैं जिनका पालन एक मुसलमान को हर हाल में करना चाहिए. ये बातें निजी प्रकृति की हैं इसलिए किसी भी समाज में औरों के लिए कठिनाई पैदा किए बगैर इनका पालन करने में कोई दिक्कत नहीं है.
दूसरी तरफ शरिया का ताल्लुक उन सामाजिक नियमों से है जिनका पालन कैसे होगा यह उस समाज विशेष की परिस्थितियों पर निर्भर करता है. मुसलमानों के लिए यह जरूरी नहीं है कि वे इन नियमों का शब्दश: पालन करें. वे उस हद तक इनका पालन कर सकते हैं जहां तक समाज इसकी इजाजत देता है. फतवों पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला किसी इस्लामी सिद्धांत के उलट नहीं जाता और भारत के मुसलमानों को इसका सम्मान करना चाहिए.
भारत में हमारी क्रिकेट टीम का कप्तान होना शायद ऐसा है जैसे आपको लगातार अग्निपरीक्षाओं से गुजरना हो. ये परीक्षाएं कभी-कभी भारत के प्रधानमंत्री के सामने आ रही चुनौतियों से भी बड़ी हो सकती हैं. यहां सफलता का जश्न मनाया जाता है तो असफलता बर्दाश्त के बाहर होती है. हालांकि इस समय भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी टीम चयनकर्ताओं के उस बने-बनाए फॉर्मूले को चुनौती दे चुके हैं जिसके तहत टीम की असफलता के लिए कप्तान जिम्मेदार होता है.
इस समय भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) या चेन्नई सुपरकिंग्स के ड्रेसिंग रूम से जुड़े लोगों को छोड़ दें तो बाहर उन लोगों की तादाद तेजी से कम हुई है जो इस सोच से सहमति रखते हों कि धोनी को आगे भी भारतीय टीम की कप्तानी करनी चाहिए. गली-मोहल्लों में रहने वाले क्रिकेट के मुरीद, टीवी पर क्रिकेट के पंडित (जिनमें इस आलेख का लेखक का भी शामिल है और जिन्हें ज्यादातर मौकों पर गंभीरता से नहीं लिया जाता) और देसी व विदेशी टीमों के पूर्व कप्तान इस समय उनके नेतृत्व पर गंभीर सवाल उठा रहे हैं, लेकिन ऐसा लगता नहीं कि इसका चयनकर्ताओं, बीसीसीआई या खुद धोनी पर कोई असर हो रहा है.
यदि आपने धोनी के नेतृत्व में भारतीय टीम को खेलते हुए गौर किया हो तो आपकी स्मृति में उनके चेहरे की दो भाव-भंगिमाएं स्थायी होंगी. मंद-मंद मुस्कुराता हुआ चेहरा जो अपनी जीत को लेकर आश्वस्त है तो दूसरा सपाट और थका हुआ हताशा से भरा चेहरा, जो तब दिखता जब टीम की हार लगभग तय हो चुकी होती हो. उनकी कप्तानी को भी ऐसे ही दो बिंदुओं के बीच रखा जा सकता है. एक ऐसा खिलाड़ी जो ‘फंसे’ हुए एकदिवसीय मैचों का भरोसेमंद फिनिशर है और जिसने कई टी-20 मैंचों में अपनी बल्लेबाजी से मैचों के नतीजे बदले हैं. एक ऐसा कप्तान जिसने गेंदबाजी और क्षेत्ररक्षण में चतुराई भरे बदलाव करके अपनी विरोधी टीम को कई मौकों पर चौंकाया, छकाया और हराया है. लेकिन जब टेस्ट मैचों की बारी आती है तो क्रिकेट का यही जादूगर ऐसा लगने लगता है मानो अपनी जादुई छड़ी ड्रेसिंग रूम में भूलकर आया हो.
कई पूर्व कप्तान इस समय भारतीय क्रिकेट टीम के चयनकर्ताओं द्वारा इस दूसरे ‘ धोनी ‘ को नजरअंदाज करने के रवैये पर बहुत हैरान हैं. यहां हम जिस जादूरहित धोनी की चर्चा कर रहे हैं उसके नेतृत्व में ही भारतीय टीम विदेशी मैदानों पर खेलती है. ऑस्ट्रेलिया के सबसे आक्रामक कप्तानों में शामिल और अब कमेंटेटर बन चुके इयान चैपल, कुछ उन्हीं की तरह के खिलाड़ी और भारतीय टीम में जीत का भरोसा जगाने वाले सौरव गांगुली और कपिल देव तक धोनी के बारे में कह चुके हैं कि कम से कम टेस्ट मैचों में टीम की कमान धोनी के बजाय किसी और को देनी चाहिए. यही नहीं बयानबाजी और चर्चा से दूर रहने वाले राहुल द्रविड़ भी लगभग यही राय जता चुके हैं. दर्शकों और विश्लेषकों-पत्रकारों की उपेक्षा की जा सकती है क्योंकि हर बात पर सवाल खड़े करना उनकी फितरत में माना जाता है लेकिन चैपल, गांगुली, कपिल या द्रविड़ के बारे में तो ऐसा नहीं कहा जा सकता.
1989-90 के बाद से क्रिकेट की हर सीरीज के बाद भारत का दबदबा इस खेल में बढ़ता गया है. इसमें प्रदर्शन से ज्यादा इस बात का योगदान था कि भारतीय टीम जिस टूर्नामेंट में शामिल होती थी उसमें बाकियों से कहीं ज्यादा पैसा क्रिकेट के संचालकों को मिलता था. उस दौर में पाकिस्तान में खेली गई एक सीरीज, जहां कृष्णमाचारी श्रीकांत कप्तान थे, के बाद भारतीय टीम को सात कप्तान मिल चुके हैं. मोहम्मद अजहरुद्दीन, सचिन तेदुलकर, गांगुली, द्रविड़, वीरेंद्र सहवाग, अनिल कुंबले और धोनी. इनमें धोनी को 2008 में तब मौका मिला जब अनिल कुंबले को चोट की वजह से रिटायर होना पड़ा.
अजहरुद्दीन काफी लंबे समय तक कप्तान रहे. लेकिन इसी समय भारतीय टीम पर यह लेबल चस्पा कर दिया गया कि ‘घर में शेर, बाहर ढेर’. उनके नेतृत्व में विदेशी मैदानों पर टीम ने कुल 27 मैच खेले और उसे सिर्फ एक में जीत मिली. जहां तक भारतीय मैदानों की बात है तो यहां अजहरुद्दीन की टीम ने 13 टेस्ट मैच जीते हैं. कुल मिलाकर बतौर कप्तान उनकी जीत-हार का रिकॉर्ड 47 टेस्ट के लिए 14-14 का है. इसे भारतीय क्रिकेट की एक पहेली ही कहा जाएगा कि कप्तान के रूप में तेंदुलकर का प्रदर्शन काफी फीका रहा. उनके नेतृत्व में भारतीय टीम ने 25 टेस्ट मैच खेले जहां सिर्फ चार में वह जीत पाई. नौ मैच भारतीय मैदानों पर खेले गए और टीम के खाते में आई कुल चार जीत भी इन्हीं में से हैं. तेंदुलकर जब कप्तान थे तब भारत की टीम विदेशी जमीन पर एक भी टेस्ट मैच नहीं जीत पाई.
पहली बार भारतीय टीम ने विदेशी जमीन पर टेस्ट मैचों को जीतना तब शुरू किया जब टीम की कमान गांगुली के हाथ में आई. उनकी अगुवाई में टीम ने विदेशी जमीन पर 11 टेस्ट मैच जीते वहीं 10 में उसे हार का मुंह देखना पड़ा. इस तरह पहली बार जीत-हार का अनुपात भारत के पक्ष में आया. उस समय की एक उपलब्धि यह भी रही कि दक्षिण अफ्रीका और न्यूजीलैंड को छोड़कर टीम ने सभी टेस्ट खेलने वाले देशों में जाकर कम से कम एक मैच जरूर जीता. हालांकि जिंबॉब्वे और बांग्लादेश के खिलाफ जीत को उतना भाव नहीं दिया जाता, लेकिन इस दौर में भारतीय टीम ने वेस्टइंडीज (2001-02), इंग्लैंड (2002), ऑस्ट्रेलिया (2003-04) और पाकिस्तान (2003-04) जैसी टीमों को भी टेस्ट मैचों में शिकस्त दी है. द्रविड़ के कप्तान के बनने बाद भी यह सिलसिला चलता रहा. उनके नेतृत्व में भारत को जिन आठ मैचों में जीत मिली उनमें से पांच मैच विदेशी जमीन पर खेले गए थे. इस टीम को जिन छह मैचों में हार मिली उनमें से भी सिर्फ एक मैच घरेलू मैदान पर हुआ था. कुंबले की कप्तानी में भारतीय टीम ने तीन मैच जीते थे इनमें भी दो मैच विदेशी जमीन पर खेले गए थे. बेगलुरु के इस खिलाड़ी की कमान में पांच मैच भारतीय टीम हारी लेकिन उनमें से सिर्फ एक टेस्ट मैच भारत में खेला गया था.
अनिश्चितताओं से भरे खेल में आंकड़े किसी खिलाड़ी की योग्यता मापने का सही पैमाना नहीं हो सकते. लेकिन इसके बाद भी इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि भारतीय टीम विदेशों में लगातार चार टेस्ट सीरीज हार चुकी है. पहले भारत 0-4 से इंग्लैंड के खिलाफ हारा, फिर इसी अंतर से उसे ऑस्ट्रेलिया ने हराया. इसके बाद 0-1 के अंतर से दक्षिण अफ्रीका और न्यूजीलैंड के खिलाफ धोनी ब्रिगेड को सीरीज गंवानी पड़ी. इन सभी मैचों में सिर्फ एक, जो ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ एडीलेड (बॉक्स देखें) में हुआ था, में वीरेंद्र सहवाग कप्तान रहे थे. बाकी की अगुवाई धोनी ने की थी.
भारत विदेशी जमीन पर खेलते हुए पिछले 12 टेस्ट मैचों में से 10 हार चुका है. दो मैच ड्रॉ रहे. हालांकि ऐसा कभी नहीं रहा कि विदेशों में भारतीय टीम लगातार टेस्ट मैच जीती हो और उसका दबदबा कायम हो गया हो, लेकिन हाल के दिनों में ऐसी हार के दोहराव से भी उसका सामना नहीं हुआ है. हाल की पराजयों के पहले भी धोनी के ही नेतृत्व में भारतीय टीम ने 2010-11 में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ तीन टेस्ट मैचों की सीरीज एक-एक से बराबर की थी और अपेक्षाकृत कमजोर समझी जाने वाली वेस्टइंडीज को जून-जुलाई में संपन्न हुई तीन मैचों की सीरीज में 1-0 से हराया था.
भारतीय टीम का विदेशी जमीन पर हाल का सिलसिला दिसंबर, 2011 से शुरू होकर इस साल फरवरी तक चलता रहा है. हालांकि इस बीच में घरेलू मैदान पर उसे जीत भी मिली. भारत ने न्यूजीलैंड को दो मैचों की सीरीज में 2-0 से हराया तो ऑस्ट्रेलिया चार मैचों की सीरीज में चारों मैच हारा. इसी तरह वेस्टइंडीज भी दो मैचों की सीरीज में दोनों मैच हार गया. इनमें से एक सीरीज में टीम को इंग्लैंड के खिलाफ 2-1 से हार का सामना भी करना पड़ा. यह सीरीज 2012 के आखिर में हुई थी.
विदेशी जमीन पर ऐसे रिकॉर्ड, विवाद, उनके द्वारा खिलाड़ियों का टीम में ‘पक्षपाती’ चयन और अति रक्षात्मक नेतृत्व के बाद भी यह बात चकित करती है कि धोनी अब भी टेस्ट टीम का नेतृत्व संभाल रहे हैं. वे टीम से कभी-कभार बाहर होते हैं लेकिन वह तब जब वे चोटिल हो जाएं.
भारतीय क्रिकेट का अतीत बताता है कि टीम की असफलता की जिम्मेदारी हमेशा कप्तानों पर आती रही है. 1970 के आस-पास विदेशों में टेस्ट मैच जीतना भारत के लिए विशेष उपलब्धि हुआ करती थी. अजीत वाडेकर की कप्तानी में 1971 में भारत ने वेस्टइंडीज और इंग्लैंड दोनों को 1-0 से हराया था. इसके बाद जब इंग्लैंड की टीम भारत आई तो वाडेकर की टीम ने लगातार तीसरी टेस्ट सीरीज जीतते हुए इंग्लैंड को 2-1 से हराया था. लेकिन 1974 में इंग्लैंड के मैदानों पर खेलते हुए भारत टेस्ट सीरीज 0-3 से हार गया तो इसकी गाज वाडेकर पर ही गिरी. गुस्साए क्रिकेट प्रेमियों ने उनके और चयनकर्ताओं के घरों पर पत्थर फेंके. नतीजा? जल्द ही बोर्ड हरकत में आ गया और वाडेकर की जगह मंसूर अली खान पटौदी को 1974-75 की एक सीरीज के लिए कप्तान बना दिया गया. इसके कुछ दिन बाद ही पटौदी ने क्रिकेट को अलविदा कह दिया. इसी साल श्रीनिवास वेंकटराघवन ने टीम की कमान संभाली और घरेलू मैदान पर टीम वेस्टइंडीज और इंग्लैंड के खिलाफ सीरीज हार गई. लेकिन 1979 में जब इंग्लैंड में उसी के सामने भारतीय टीम 1-0 से सीरीज हारी तब वेंकटराघवन को भी अपनी कप्तानी गंवानी पड़ी.
फिर बिशन सिंह बेदी जब टीम के कप्तान थे उस दौर में सुनील गावस्कर की अगुवाई में भारतीय टीम ने न्यूजीलैंड के खिलाफ एक टेस्ट और घरेलू मैदानों पर लगातार तीन सीरीजों में जीत दर्ज की. बेदी जब टीम का नेतृत्व कर रहे थे तब भारतीय टीम इंग्लैंड के खिलाफ एक टेस्ट सीरीज हारी और उसके बाद विदेशी जमीनों पर ऑस्ट्रेलिया (2-3 ) और पाकिस्तान (0-2) के खिलाफ भी उसे हार का सामना करना पड़ा. बेदी की कप्तानी इसके बाद चली गई और सुनील गावस्कर नए कप्तान बने. इंग्लैंड में हार (पांच टेस्ट मैचों की सीरीज में 1-2 से) के बाद भारतीय टीम की कमान कपिल देव को सौंप दी गई. फिर 1986-87 में पाकिस्तान में उसके खिलाफ जब पांच टेस्ट मैचों की सीरीज भारत 0-1 से हारा तो इस ऑल राउंडर और एक समय भारतीय टीम को विश्व कप जिताने की गौरवशाली उपलब्धि दिलाने वाले कपिल को भी कप्तानी छोड़नी पड़ी.
दिलीप वेंगसरकर को वेस्टइंडीज में 3-0 से परास्त होने के बाद कप्तानी गंवानी पड़ी, रवि शास्त्री ने भारत में खेले गए एक टेस्ट मैच में टीम का नेतृत्व किया और श्रीकांत ने 1989-90 में पाकिस्तान में चार टेस्ट मैचों की सीरीज में टीम की कप्तानी की जो बराबरी पर छूटी. उसके बाद अजहरुद्दीन टीम के कप्तान बने. तब से लेकर धोनी के कप्तान बनने तक टीम का नेतृत्व छह लोगों के हाथ में गया. एक के बाद एक सीरीजों में हार की बात करें तो धोनी का रिकॉर्ड किसी भी अन्य कप्तान की तुलना में खराब रहा है.
लेकिन हालात हमेशा इतने बुरे नहीं थे. धोनी की कप्तानी में हमने वर्ष 2007 में टी-20 विश्व कप और 2011 में एकदिवसीय क्रिकेट का विश्व कप जीता. लेकिन वह समय ऐसा था जब धोनी के अंदर निरंतर नए प्रयोग करने की इच्छा नजर आती थी. यह यकीन करना थोड़ा मुश्किल है कि वही धोनी टेस्ट मैचों में इतने रक्षात्मक हो गए हैं. कई लोगों का कहना है कि वे अक्सर चीजों को केवल और केवल अपने तरीके से अंजाम देना चाहते हैं.
याद कीजिए किस तरह उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ टी-20 विश्व कप के फाइनल में लगभग अनजाने खिलाड़ी जोगिंदर सिंह को गेंदबाजी का जिम्मा सौंपा था! या फिर श्रीलंका के खिलाफ एकदिवसीय विश्व कप फाइनल में खुद को बैटिंग ऑर्डर में ऊपर लाकर मैच को अंजाम तक पहुंचाया था! यह एक प्रेरक नेतृत्वकर्ता का प्रदर्शन था. यहां तक कि वर्ष 2010-11 में दक्षिण अफ्रीका और फिर वेस्ट इंडीज में भी टेस्ट मैचों में भी उनको ठीक-ठाक सफलता हासिल हुई थी.
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लेकिन दिसंबर, 2011 के बाद से अचानक हमें एक नए धोनी का दीदार होने लगा. खेल के लंबे प्रारूप यानी टेस्ट मैचों में सफलता उनसे दूर होने लगी. इस दौरान सहवाग, गौतम गंभीर और वीवीएस लक्ष्मण जैसे दिग्गज खिलाड़ी जिनमें कप्तान बनने की काबिलियत थी, टीम से बाहर कर दिए गए. ऐसी चर्चाएं सामने आने लगीं कि गांगुली, द्रविड़ और यहां तक कि लक्ष्मण भी और खेलना चाहते थे लेकिन धोनी की कप्तानी में उन्हें ऐसा करना कठिन प्रतीत हुआ. लक्ष्मण ने तो खुलकर कहा कि जब वे अपने भविष्य की योजनाओं पर चर्चा करना चाह रहे थे तब उनका कप्तान उपलब्ध ही नहीं था.
लेकिन इसके बावजूद धोनी अपनी जगह पर बने रहे. एक साल पहले तक कहा जाता था कि वरिष्ठ खिलाड़ियों के एक समूह की विदाई के बाद धोनी का कोई विकल्प नहीं है. लेकिन अब विराट कोहली के रूप में एक विकल्प हमारे सामने है. विराट बारे में कहा जा सकता है कि वे महेंद्र सिंह धोनी के संरक्षण में पनपे हैं. उसी समय से धोनी की नई टीम (कुछ लोग इसे धोनी के लड़के भी कहते हैं) का दबदबा है. कोहली के शानदार प्रदर्शन को छोड़ दिया जाए तो टीम में ऐसे कई खिलाड़ी हैं जिनको एक के बाद एक विफलताओं के बावजूद लगातार मौके दिए गए. जबकि उनके वरिष्ठ खिलाड़ियों को ऐसे अवसर नहीं मिल सके थे. यह कुछ ऐसा मामला था मानो धोनी उन वरिष्ठ खिलाड़ियों को बाहर का रास्ता दिखाना चाहते थे और बोर्ड तथा चयनकर्ताओं ने इसे सुनिश्चित किया.
मैदान पर भी धोनी छोटे प्रारूप में ही नियंत्रण में नजर आते हैं. टेस्ट मैचों में जैसा कि इयान चैपल ने लिखा भी है, धोनी बहुत अधिक वक्त लेते हैं और खेल को बहक जाने देते हैं. उनकी कोशिश रहती है कि सामने वाले की गलती का इंतजार करें. विशेषज्ञ याद दिलाते हैं कि वेस्टइंडीज में उन्होंने नई गेंद लेने का मौका होने के बावजूद काफी देर तक ऐसा नहीं किया और अभी हाल ही में न्यूजीलैंड में उन्होंने आक्रामक रुख न अपनाकर ब्रेंडन मैककुलम और बीजे वाल्टिंग के बीच एक मैचजिताऊ साझेदारी हो जाने दी.
अपने प्रिय खिलाड़ियों से इतर किसी और पर ध्यान न देने की उनकी प्रवृत्ति के चलते ही भारतीय क्रिकेट की यह दशा हुई है. उदाहरण के लिए सुरेश रैना ने 17 टेस्ट खेले हैं (सभी मार्च, 2013 के पहले). उन्हें एस बद्रीनाथ और मनोज तिवारी पर तवज्जो दी गई जबकि इन दोनों खिलाड़ियों ने घरेलू क्रिकेट में काफी अच्छा प्रदर्शन किया था. गेंदबाजी की बात करें तो स्पिनरों के चयन में रविचंद्रन अश्विन को हमेशा प्राथमिकता दी गई. यहां तक कि प्रज्ञान ओझा और अमित मिश्रा जैसे मंझे हुए स्पिन गेंदबाजों की जगह रविंद्र जडेजा को तवज्जो दी गई. उमेश यादव, वरुण एरॉन और अभी हाल ही में ईश्वर पांडेय जैसे गेंदबाजों को हाशिये पर डाल दिया गया. यह सूची और लंबी हो सकती है. यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि धोनी के ‘लड़कों’ को प्राथमिकता दी गई. एक बात यह है कि इनमें से कई चेन्नई सुपर किंग्स के खिलाड़ी थे. रोहित शर्मा जैसे कुछ खिलाड़ियों को भी जरूरत से बहुत अधिक मौके दिए गए.
लेकिन अब हार का सिलसिला शुरू होने के बाद क्या धोनी का आकलन उन्हीं पैमानों पर नहीं होना चाहिए जिन पर उनके पूर्ववर्तियों का किया गया? यह कोई रहस्य नहीं है कि चेन्नई सुपरकिंग्स (वह टीम जिसमें बीसीसीआई के अध्यक्ष एन श्रीनिवासन की अच्छी-खासी हिस्सेदारी है) के कप्तान के रूप में उनकी स्थिति ने उनकी मदद की है. जो बातें अब तक केवल फुसफुसाहट थीं वे अब तेज हो गई हैं: भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान का आईपीएल की एक टीम का कप्तान होना उसकी मार्केटिंग के लिए बढि़या है और जब बीसीसीआई प्रमुख ही उस टीम का मालिक हो तो फिर कहना ही क्या. ऐसे में हितों के टकराव को एक पल के लिए किनारे किया जा सकता है.
अब जबकि धोनी एक बार फिर चोटिल हैं तो कप्तानी का भार कोहली को सौंपा गया है. अनेक लोग उनके बारे में कह रहे हैं कि वे वर्तमान कप्तान के सही उत्तराधिकारी हैं. कोहली की शुरुआत भी ठीक ही रही है. एशिया कप में बांग्लादेश की धीमी पिच पर उन्होंने पहले ही मैच में मेजबान टीम के खिलाफ न केवल शतक जड़ा बल्कि टीम को जीत भी दिलाई. हालांकि श्रीलंका और पाकिस्तान के साथ टीम को नजदीकी मुकाबलों में हार का स्वाद चखना पड़ा. लेकिन इस बार की उम्मीद बहुत ज्यादा है कि भविष्य में थोड़े और अच्छे प्रदर्शन से वे चयनकर्ताओं को अपनी ओर कर सकते हैं. पर सवाल अब भी यह है: क्या बोर्ड देश के खेल जगत में मार्केटिंग के लिहाज से सबसे सफल खिलाड़ी का स्थानापन्न तलाश कर सकेगा? या उसने कर लिया है?
जोश का अभाव ऐसा लग रहा हैजैसेकांग्रेस नेतृत्व नेभी मान ललया है लक पाटीर् को 100 से ज्यादा सीटें नहीं लमलने वालीं
वोट पड़ने से पहले ही पराजित घोषित की जा चुकी कांग्रेस के लिए यह मुश्किल वक्त है. पार्टी के कई बड़े नेता लोकसभा चुनाव में नहीं उतरना चाहते और कैडर में निराशा का माहौल है. विडंबना यह भी है कि कांग्रेस के जो वरिष्ठ नेता चुनाव लड़ने तक से घबरा रहे हैं उन्हें आलाकमान इसके लिए तैयार करने की कोशिशों में लगा हुआ है और दूसरी तरफ जो नेता चुनाव लड़ने को तैयार हैं उन्हें संदेह की नजर से देखा जा रहा है.
दिल्ली का ही उदाहरण लें. देश के अन्य राज्यों के विपरीत दिल्ली के सातों मौजूदा सांसद फिर अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्र से चुनावी समर में उतरना चाहते हैं लेकिन पार्टी नेतृत्व अभी इस पर असमंजस में है. कांग्रेस के कई नेताओं को समझ में नहीं आ रहा कि आखिर क्या सोचकर पार्टी ने दिल्ली में प्राइमरीज आयोजित करवाने का फैसला किया. प्राइमरीज यानी लोकसभा प्रत्याशी चुनने के लिए लोकसभा के स्तर पर चुनाव कराके व्यवस्था विकेंद्रित करने की कवायद जो पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी का सपना है.
दिल्ली में सबसे पहले प्राइमरीज की घोषणा चांदनी चौक और उत्तर-पश्चिम दिल्ली सीट के लिए की गई थी. लेकिन जब पार्टी में ही इसके आधार को लेकर सवाल होने लगे तो इसके बाद इसे नई दिल्ली और उत्तर-पूर्व दिल्ली की सीट पर स्थानांतरित कर दिया गया. लेकिन इन दोनों सीटों के चयन के लिए भी कोई वजह नहीं बताई गई. अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक ये दोनों सीटें प्राइमरीज के लिए सबसे अनुपयुक्त थीं और इन पर इस प्रक्रिया को विफल होना ही था. नई दिल्ली में मौजूदा सांसद अजय माकन के अलावा किसी ने भी प्राइमरीज में अपनी दावेदारी ही पेश नहीं की. वहीं उत्तर-पूर्व दिल्ली सीट पर प्राइमरीज में विवादास्पद नेता जगदीश टाइटलर ने मौजूदा सांसद जेपी अग्रवाल को चुनौती दी. पूर्व विधायक और कांग्रेस के दलित नेता राजेश लिलोठिया ने भी यहां से दावेदारी पेश की. दिल्ली कांग्रेस का पूर्व अध्यक्ष होने के नाते अग्रवाल ने प्राइमरीज में अपनी जीत सुनिश्चित कर ली, लेकिन उस पूरी प्रक्रिया का महत्व ही खत्म हो गया.
हैरानी इस बात पर भी जताई जा रही है कि कांग्रेस नेतृत्व दिल्ली से अपने दो मौजूदा सांसदों को चुनाव ही नहीं लड़ाना चाहता. ये सांसद हैं दक्षिण दिल्ली से रमेश कुमार और पश्चिम दिल्ली से महाबल मिश्र. उधर, आम कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को समझ में नहीं आ रहा कि क्यों पार्टी नेतृत्व ऐसा करने पर अड़ा हुआ है. यह तय हो चुका है कि पार्टी इन दोनों सीटों पर बदलाव का मन बना चुकी है लेकिन यह काम कब और कैसे होगा, इस पर फैसला होना अभी बाकी है.
कांग्रेस ने 194 प्रत्याशियों की जो पहली सूची जारी की उसमें दो बड़े नामों की अनुपस्थिति ने कइयों का ध्यान खींचा. सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी और पंजाब कांग्रेस के प्रमुख प्रताप सिंह बाजवा के नाम पंजाब के उम्मीदवारों की सूची से नदारद थे.
सूत्रों के मुताबिक तिवारी चंडीगढ़ से टिकट हासिल करने के लिए लामबंदी कर रहे हैं, लेकिन मौजूदा सांसद पवन कुमार बंसल यह सीट छोड़ने को तैयार नहीं हैं. इसलिए जब तिवारी ने केंद्रीय निर्वाचन समिति की एक बैठक में कहा कि दागी नेताओं को टिकट नहीं दिया जाना चाहिए तो साफ हो गया था कि उनका संकेत बंसल की ओर है. बंसल को रेलवे बोर्ड में नियुक्तियों से जुड़े घोटाले में कथित रूप से शामिल होने के कारण पिछले साल मंत्री पद छोड़ना पड़ा था. उधर, बाजवा ने हालांकि खुद चुनाव न लड़ने की इच्छा जताई थी लेकिन सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस नेतृत्व उनसे अमृतसर से चुनाव लड़ने को कह सकता है.
इस दौरान कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी किरकिरी की वजह मध्य प्रदेश से आई. पार्टी ने पूर्व आईएएस अधिकारी भगीरथ प्रसाद को भिंड से उम्मीदवार घोषित ही किया था कि अगले ही दिन उन्होंने घोषणा कर दी कि वे भाजपा में शामिल हो रहे हैं. मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने प्रसाद से फोन पर बात करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने फोन उठाना तक गवारा न किया. इसके बाद एक अन्य वरिष्ठ महासचिव तथा पार्टी की केंद्रीय चुनाव समिति के सदस्य का बयान आया कि अगर नामों की छंटनी करने वाली समिति और प्रभारी महासचिव भिंड से एक ही नाम भेजेंगे तो यही होगा. बीते दिसंबर विधानसभा चुनाव में जबरदस्त पराजय के बाद राज्य में कांग्रेस के प्रभारी महासचिव मोहन प्रकाश पहले ही सदस्यों के निशाने पर थे.
राजस्थान में जहां विधानसभा चुनाव में पार्टी का सफाया हो गया था वहां भी उसे लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी तय करने में कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है. राज्य कांग्रेस के प्रमुख सचिन पायलट इस बार अपनी मौजूदा सीट अजमेर से चुनाव लड़ने के इच्छुक नहीं थे, हालांकि बाद में उन्हें अपना मन बदलना पड़ा.
राज्य में प्रत्याशियों की जो पहली सूची जारी की गई है उसमें नागौर की मौजूदा सांसद ज्योति मिर्धा का नाम भी शामिल नहीं है. दिलचस्प यह है कि मिर्धा की सास कृष्णा गहलोत पहले ही भाजपा में शामिल हो चुकी हैं. एक और बड़ा नाम सीपी जोशी का है. मौजूदा लोकसभा में वे भीलवाड़ा से सांसद हैं. पार्टी के अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक जोशी इस बार चुनाव लड़ना ही नहीं चाहते और पार्टी महासचिव बनकर ही काम करते रहना चाहते हैं. वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को राजस्थान की 25 में से 21 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. लेकिन सूत्रों के मुताबिक इस बार पार्टी के उस आंकड़े के आस-पास पहुंचने की भी संभावना नहीं है.
बिहार में कांग्रेस ने लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के साथ चुनावपूर्व गठजोड़ किया है. समझौते के तहत मधुबनी संसदीय सीट राजद को दे दी गई है. इससे कांग्रेस के मौजूदा सांसद और कांग्रेस महासचिव शकील अहमद को बच निकलने का रास्ता मिल गया है क्योंकि सूत्रों के मुताबिक वे चुनाव लड़ने के इच्छुक ही नहीं हैं. अहमद पार्टी महासचिवों की उस बढ़ती जमात की ही एक कड़ी हैं जिसमें प्रकाश, जोशी, सिंह और मधुसूदन मिस्त्री जैसे लोग हैं जो चुनावी समर में नहीं उतरना चाहते. हाल ही में मिस्त्री ने मीडिया से बात करते हुए कहा था कि वे गुजरात में साबरकांठा से चुनाव लड़ेंगे. उन्होंने उस वक्त चुटकी लेते हुए यह भी पूछा था कि मोदी कहां से चुनाव लड़ेंगे लेकिन दो दिन के भीतर ही उन्हें राज्य सभा भेज दिया गया. जब उनसे इस बारे में सवाल किया गया तो उन्होंने खास कांग्रेसी अंदाज में कहा कि उन्हें आलाकमान के आदेश का पालन करना ही था.
झारखंड से इकलौते कांग्रेस सांसद सुबोधकांत सहाय को टिकट मिलने में मुश्किल हो रही है. जब से उनके परिजनों का नाम कोयला घोटाले में उछला है पार्टी उन्हें फिर से लोकसभा टिकट देने के प्रति सशंकित है. हालांकि एक वर्ग है जिसका मानना है कि कोई दमदार उम्मीदवार नहीं मिलने की वजह से रांची से सहाय को टिकट मिल भी सकता है. महाराष्ट्र में पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण, जिन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद वर्ष 2010 में पद छोड़ना पड़ा था, एक बार फिर नांदेड़ से पार्टी टिकट के दावेदार हैं. कांग्रेस के एक अन्य दागी नेता हैं सुरेश कलमाड़ी, जिन पर वर्ष 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान भ्रष्टाचार के कई आरोप लगे थे. उन्हें आशा है कि पुणे की उनकी सीट से उनकी पत्नी को पार्टी का टिकट मिल जाएगा, हालांकि अभी इस बारे में कोई अंतिम फैसला नहीं हो सका है.
वरिष्ठ मंत्रियों में एके एंटनी ने जहां चुनाव लड़ने से ही मना कर दिया है वहीं चिदंबरम के बारे में अभी कुछ निश्चित नहीं है. कर्नाटक में दक्षिण कन्नड़ सीट के लिए प्राइमरीज में पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली के बेटे हर्ष मोइली को रिटर्निंग अधिकारी ने यह कहते हुए अयोग्य घोषित कर दिया था कि उन्होंने अपने आवेदन में खुद को सामाजिक कार्यकर्ता बताया है जबकि ऐसा है नहीं. अब उस सीट से पूर्व केंद्रीय मंत्री जनार्दन पुजारी चुनाव लड़ेंगे.
कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि कांग्रेस नेताओं ने पहले ही यह बात स्वीकार कर ली है कि लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को 100 से अधिक सीटें नहीं मिलेंगी. शायद यही वजह है कि वे जोखिम उठाने से बच रहे हैं. पार्टी में ऊपर से माहौल ठंडा नजर आ रहा हो, लेकिन सतह के नीचे तनाव उबल रहा है. कई-कई स्क्रीनिंग कमेटियों और राज्य प्रभारी महासचिवों से पार्टी का कैडर निराश है. हालांकि पार्टी को होने वाले नुकसान के वास्तविक आकलन के लिए चुनाव तक प्रतीक्षा करनी होगी.
विरोध हड़ताली डाक्टरों का विरोध प्रदशर्न. फोटोः प्रमोद अवधकारी
हड़ताली डाक्टरों का विरोध प्रदशर्न. फोटोः प्रमोद अवधकारी
कानपुर के गणेश शंकर विद्यार्थी मेमोरियल मेडिकल कालेज में अब सब कुछ पहले की तरह ही चलने लगा है. वही भीड़-भाड़, वही दर्द से कराहते चेहरे और वही भागमभाग, लेकिन पिछले दिनों समाजवादी सत्ता और उसकी पुलिस ने मिल-जुल कर जो अमानवीय, बर्बरतापूर्ण और अलोकतांत्रिक तांडव मचाया था उसकी अनुगूंज अब भी इस मेडिकल कालेज के गलियारों में सुनी जा रही है. सिर्फ कानपुर ही नहीं, इसका दर्द समूचे उत्तर प्रदेश को झेलना पड़ा और सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कुल 69 लोगों को इस कारण अपनी जान गंवानी पड़ी.
कानपुर का वाकया उत्तर प्रदेश सरकार के अक्षम नेतृत्व, चहेतों के प्रति अविवेकपूर्ण पक्षपात, परिस्थितियों के आकलन में बार-बार होने वाली चूक और समाजवादी नेताओं की दंभपूर्ण सोच के कारण हुआ. अन्यथा कानपुर में 28 फरवरी की जिस घटना के कारण सात दिन तक समूचे उत्तर प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाएं अस्त-व्यस्त रहीं उसे बहुत छोटे-से प्रयास से तत्काल सुलझाया जा सकता था. मेडिकल कालेज के बाहर जूनियर डॉक्टरों और विधायक इरफान सोलंकी के बीच जो विवाद हुआ था अगर स्थानीय पुलिस उस विवाद में तार्किक और व्यावहारिक रवैया अपनाती तो निश्चित रूप से कुछ देर में ही बात खत्म हो जाती, लेकिन सत्ता का नशा सिर पर चढ़ाए विधायक इरफान सोलंकी ने इसे अपनी शान में गुस्ताखी मान लिया और रही-सही कसर कानपुर के स्वनामधन्य एसएसपी यशस्वी यादव ने पूरी कर दी. आनन-फानन में पुलिस ने मेडिकल कालेज के अंदर घुस कर अपने शौर्य और पराक्रम का जो परिचय दिया उसके कारण चार सौ से ज्यादा लोग घायल हुए और गंभीर रूप से घायल दो दर्जन से ज्यादा भावी डाक्टरों को अपना इलाज भी करवाना पड़ा. और इनमें से दो तो ऐसे हैं कि जिनके जख्म भरने में अब भी काफी समय लगेगा. विधायक का गुस्सा और पुलिस का तांडव इसके बाद भी स्थिति को लगातार बिगाड़ता रहा. विधायक की ओर से झूठी एफआईआर लिखाई गई. मेडिकल छात्रों के खिलाफ झूठे मुकदमे दर्ज कराए गए. विधायक के गंभीर रूप से घायल होने के फर्जी रिकार्ड बनाए गए और विधायक ने मेडिकल छात्रों की धरपकड़ के बाद सफाई दी कि वे तो एक बुजुर्ग और मेडिकल छात्रों के बीच हुए विवाद को सांप्रदायिक होने से रोकने के लिए बीच-बचाव करने आए थे. उन्होंने छात्रो पर अपने गनर की कारबाइन छीनने और खुद पर जानलेवा हमला करने जैसे आरोप भी लगाए. बात यहीं खत्म नहीं हुई. पुलिस ज्यादती के खिलाफ जब छात्रों ने रिपोर्ट लिखाने का प्रयास किया तो पुलिस ने उससे भी इनकार कर दिया. अगली सुबह छात्रों ने विरोध प्रदर्शन करना चाहा तो उसकी भी इजाजत नहीं दी गई और नतीजा जूनियर डाक्टरों की हड़ताल के रूप में सामने आया.
छात्र रिपोर्ट लिखाने की मांग करते रहे. मगर विधायक और पुलिस मामले को झूठी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर उलझाते रहे, फिर मेडिकल कालेज के डाक्टरों सहित सूबे के सभी मेडिकल कालेजों में हड़ताल फैल गई और पहली बार मेडिकल कालेज की हड़ताल के समर्थन में आईएमए की पहल के बाद सारे निजी डाक्टर भी हड़ताल पर चले गए. इस हड़ताल का सीधा असर गरीब मरीजों पर पड़ा और मेडिकल कालेजों में इलाज के अभाव में मरीज दम तोड़ने लगे. लेकिन सूबे की समाजवादी सरकार लोहिया जी के आर्दशों और सिद्धांतों को ताक पर रख कर अपने विधायक और यशस्वी यादव के बचाव में ही जुटी रही. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा कि वे मामले की जांच करांएगे और दोषियों को छोड़ा नहीं जाएगा. फिर उन्होंने विधायक को पूछताछ के लिए अपने पास बुलाने की औपचारिकता भी पूरी की. मगर इस बीच पेट्रोल पंप के सीसीटीवी फुटेज की खबर ने विधायक और पुलिस दोनों के होश उड़ा दिए क्योंकि यह एक ऐसा सबूत था जिससे सरकारी थ्योरी की पूरी कलई खुल सकती थी. लेकिन पुलिस ने यहां भी अपना माल दिखाया और फुटेज में से अपने खिलाफ जाने वाले हिस्सों को एडिट कर दिया.
इधर हड़ताल बढ़ती जा रही थी और अस्पताल खाली होते जा रहे थे. मगर सरकार टस से मस नहीं हो रही थी और पुलिस के दमनकारी कदम बढ़ते जा रहे थे. उसने आईएमए अध्यक्ष आरती लाल चंदानी के खिलाफ भी मुकदमा लिखा दिया और डाक्टरों का दमन बंद नहीं किया. अंततः जब मौतों का आंकड़ा 40 से ऊपर पहुंच गया तो इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने मामले का स्वतः संज्ञान लेते हुए राज्य सरकार को तलब कर लिया और पूछा कि उसने हड़ताल खत्म करने के लिए अब तक क्या किया. अदालत ने कड़ा रुख अपनाते हुए कानपुर के पुलिस अधिकारियों को तत्काल हटाने और एक न्यायिक आयोग बनाकर तीन सप्ताह में जांच पूरी कराने का निर्देश दिया.
अदालत ने हड़ताली डाक्टरों को भी हड़ताल खत्म करने को कहा. सरकार ने अदालत के कडे़ रुख के बाद यह जवाब दिया कि न्यायिक आयोग तो वह पहले ही गठित कर चुकी है और बाकी सारी बातें भी वह मानने को तैयार है. लेकिन अदालत में इस तरह का वादा करने के बाद भी अपने चहेते विधायक और चहेते पुलिस अधिकारी के मोह में धृतराष्ट्र बनी अखिलेश सरकार ने हड़ताल खत्म कराने की किसी गंभीर कोशिश के बजाय डाक्टरों की हड़ताल पर एस्मा लागू कर दिया. इस पर एक बार फिर सरकार को अदालत की कड़ी फटकार सुननी पड़ी. अगले दिन हड़ताल पर एक जनहित याचिका की नियमित सुनवाई में अदालत ने सरकार से पूछा कि जब अदालत ने हड़ताल खत्म करवाने का निर्देश दिया था तो सरकार ने एस्मा क्यों लागू किया. एस्मा पहले लागू क्यों नहीं किया गया. अदालत की इस लताड़ के बाद सरकार की नींद खुली और आनन-फानन में आईएमए के नुमाइंदों को मुख्यमंत्री से बातचीत के लिए बुलाया गया. विधायक के खिलाफ एक एफआईआर दर्ज कराई गई और गिरफ्तार किए 24 छात्रों को रिहा करने का आदेश दिया गया. और इस तरह सात दिन पूरे प्रदेश को परेशान करने के बाद हड़ताल खत्म हो सकी.
सवाल उठता है कि जिस समाधान तक पहले दिन ही पहुंचा जा सकता था उस तक पहुंचने के लिए सरकार को एक हफ्ते का समय क्यों लगा. क्यों मुख्यमंत्री सिर्फ ‘हम जांच करा रहे हैं,’ कह कर जिम्मेदारी से बचते रहे? क्यों पीडि़त डाक्टरों की एफआईआर दर्ज नहीं की गई? क्यांे अदालत की फटकार के बाद ही सरकार हरकत में आ पाई? मगर सरकार के निष्क्रिय होने का यह पहला मामला ही नहीं है. 2013 के अंतिम महीनों में राज्य कर्मचारियों की हड़ताल के दौरान भी सरकार का यही रूख रहा था जब दस दिन तक राज्य के तमाम सरकारी दफ्तरों मंे हड़ताल रहने, चिकित्सा सेवाओं के ठप पड़ जाने के बावजूद सरकार की तरफ से कर्मचारियों से बातचीत का रास्ता तक नहीं खोला गया था. मगर जब एक जनहित याचिका में इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने सरकार को फटकार लगाई तब जाकर सरकार होश में आई और कर्मचारियों की हड़ताल खत्म हो सकी.
कानपुर की घटना भी ठीक मुजफ्फरनगर की घटना की तरह ही थी. मुजफ्फरनगर में जिस तरह एक हत्याकाण्ड के बाद प्रशासनिक अक्षमता और राजनीतिक दबाव ने हत्याकांड को सांप्रदायिक दंगों की श्रृंखला में बदल दिया उसी तरह कानपुर में भी हुआ. इरफान सोलंकी 2011 में भी कानपुर में केसा की एमडी और आईएएस अधिकारी रितु माहेश्वरी के आफिस में तोड़-फोड़ और अभद्रता करने के आरोप में गिरफ्तार किए गए थे. 2012 में भी फरीदाबाद में काले शीशे लगी गाडि़यों के काफिले को रोके जाने पर स्थानीय पुलिस कर्मियों से उनकी जोरदार झड़प हुई थी लेकिन वे अखिलेश सरकार के चहेते हैं और इसीलिए हाल में विदेश दौरे पर गई मंत्रियों की टीम में भी उन्हें शामिल किया गया था. इसी तरह यशस्वी यादव भी महाराष्ट्र कैडर में इतनी ख्याति अर्जित कर चुके हैं कि एक बार उनकी बर्खास्तगी तक की नौबत आ गई थी. लेकिन अपनेपन के चलते समाजवादी पार्टी उन्हें महाराष्ट्र कैडर से यूपी में ले आई. ये दोनों ही लोग समाजवाद के इतने लाड़ले हैं कि सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने हड़ताल के कारण लोगों के मरते जाने के बारे में एक सवाल के जवाब में उल्टे पत्रकार को ही झिड़ककर यह पूछ लिया कि क्या तुम्हारे परिवार का कोई मर गया है.
फिलहाल मुजफ्फरनगर के बाद कानपुर के कलंक का दाग समाजवाद के दामन पर लग चुका है और हाई कोर्ट के आदेश से यशस्वी यादव यशहीन होकर डीजीपी मुख्यालय मंे नत्थी हो चुके हंै. अदालत ने बाकी अधिकारियों को अभी तक न हटाए जाने पर फिर सरकार को लताड़ लगाई है मगर उत्तर प्रदेश सरकार है कि मानती ही नहीं. वह तो कहती है कि सूबे में सब कुछ ठीक-ठाक है और उसका दावा है कि उससे बेहतर कोई भी नहीं.
यदि आप इन दिनों अचानक अपने मोबाइल फोन पर अमेरिकी नंबर से आ रही कॉल देखें तो हैरान होने की जरूरत नहीं है. दरअसल इस समय अमेरिका से ‘नरेंद्र मोदी के पक्ष में वोट’ देने की अपील वाली हजारों फोन कॉल भारत में की जा रही हैं. मोदी के साथ ही भाजपा की तरफ से लोकसभा चुनाव के अन्य उम्मीदवारों के लिए भी अमेरिका से ऐसे ही फोन किए जा रहे हैं. इस सबके लिए भारतीय मतदाताओं के फोन नंबर और अन्य जानकारियां अमेरिका में रह रहे अप्रवासी भारतीयों (एनआरआई) को लगातार भेजी जा रही हैं. दूसरे देशों में रह रहे भारतीयों को भी मोदी के पक्ष में लामबंद किया जा रहा है. इसके लिए उन्हें बस एक दिए गए नंबर पर मिस्ड कॉल देनी है और इसके बाद उनका रजिस्ट्रेशन मोदी के पक्ष में हो जाएगा. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर यह सारी पहल ofbjp272.com नाम की वेबसाइट से शुरू की गई है. भाजपा का चुनावी अभियान फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग साइटों पर तो चल ही रहा है लेकिन इसके साथ ही ofbjp272.com इंटरनेट पर पार्टी के पक्ष में अलग अभियान छेड़े हुए है.
इसके अलावा अमेरिका के बड़े शहरों में नमो चाय पार्टी, ‘योगा फॉर यूनिटी’ और ‘रन फॉर यूनिटी’ अभियान भी चलाए जा रहे हैं. यह सारी कवायद ‘ओवरसीज फ्रेंड्स ऑफ बीजेपी (ofbjp)’ के बैनर तले हो रही है. चार हजार अप्रवासी भारतीयों का यह संगठन अमेरिका में रह रहे तकरीबन 30 लाख भारतीयों को मोदी के पक्ष में एकजुट करने का काम कर रहा है. हमने ऊपर जिस वेबसाइट का जिक्र किया है वह भी यही संगठन चला रहा है. इन लोगों की मांग पर जल्दी ही मोदी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए एनआरआई समुदाय को संबोधित करेंगे. इस संगठन की अमेरिकी शाखा के अध्यक्ष चंद्रकांत पटेल बताते हैं, ‘आने वाले चुनावों में अप्रवासी भारतीय भी एक बड़ी भूमिका निभाने वाले हैं. हम अमेरिका से फोन करके मतदाताओं से मोदी के पक्ष में अपील कर रहे हैं और चुनाव के समय प्रचार के लिए भारत भी आएंगे.’
संगठन ने भाजपा के प्रचार के लिए विदेशों में बसे भारतीयों में से स्वयंसेवकों की भरती भी की है. इनमें से आधे लोग भारत आकर पार्टी का प्रचार करेंगे. पटेल जानकारी देते हैं, ‘इनमें से आधे लोग हर दिन कम से कम दो सौ लोगों को फोन या मैसेज करेंगे.’ पटेल मूल रूप से छत्तीसगढ़ के चिरमिरी जिले के रहने वाले हैं और उनका परिवार सालों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा रहा है. 1989 में फ्लोरिडा जाने से पहले वे खुद भाजपा के जिला अध्यक्ष थे. माइक्रो चिप निर्माण उद्योग में काम करने वाले पटेल अमेरिका पहुंचने वाले भाजपा नेताओं के कार्यक्रम आयोजित करते हैं. साथ ही उनके पास यहां पार्टी के खिलाफ दुष्प्रचार का जवाब देने की जिम्मेदारी भी है.
अमेरिका में ofbjp की अमेरिकी शाखा की स्थापना भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने 1991 में की थी. इस संगठन के सदस्यों में विद्यार्थियों से लेकर बुजुर्गों तक सब शामिल हैं और यह विदेशों में कार्य कर रहे भाजपा के सबसे बड़े संगठनों में है. इस संगठन में शामिल होने के लिए सदस्यों को 1 से 100 डॉलर तक की फीस देनी पड़ती है. इस संगठन ने’मोदी फॉर पीएम’ और ‘डोनेट फॉर पीएम’ जैसे अभियान चलाए हैं. यहां अप्रवासी भारतीय मोदी के लिए धन भी दान कर रहे हैं. यह राशि सीधे भाजपा के खाते में जा रही है. जबकि संगठन का कोर ग्रुप अपने स्तर पर भी चंदा इकट्ठा कर रहा है. यह अमेरिका में ही चल रहे प्रचार पर खर्च किया जा रहा है.’ भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव जगतप्रकाश नड्डा कहते हैं, ‘नरेंद्र मोदी को लेकर एकतरफा लहर चल पड़ी है. इससे विदेशों में रहने वाले भारतीय कैसे बच सकते हैं. हमारे अप्रवासी भारतीय बंधु भी वातावरण बनाने में सहयोग कर रहे हैं. अप्रवासी भारतीय भी अब परिवर्तन चाहते हैं. यही कारण है कि वे खुले दिल से मोदी जी को सपोर्ट कर रहे हैं.’ हालांकि कांग्रेस मोदी फॉर पीएम नाम के इस अंतरराष्ट्रीय अभियान से कोई इत्तेफाक नहीं रखती. इस बारे में कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव मुकुल वासनिक कहते हैं, ‘हर दल अपने तरीके से चुनाव जीतने की कोशिश कर रहा है. लेकिन केंद्र में सरकार तो हमारी ही बनेगी. कांग्रेस पार्टी अपनी 10 साल की उपलब्धियों के बल पर जनता से वोट मांगेगी. हमें पूरा भरोसा है, जैसे-जैसे चुनाव का वक्त नजदीक आएगा, वातावरण में कई बदलाव आएंगे. जहां तक भारत के बाहर मोदी की बढ़ती लोकप्रियता की बात है, इसमें कोई तथ्य नहीं है. यह भाजपा का भ्रामक प्रचार है.’ हालांकि कांग्रेस के दावों-वादों से इतर इस बात में कोई संदेह नहीं कि पार्टी भाजपा की तर्ज पर इस तरह अप्रवासी भारतीयों के किसी संगठन की मदद से इतना आक्रामक प्रचार शुरू नहीं कर पाई है. भाजपा की इस सहयोगी इकाई का एकमात्र लक्ष्य है पार्टी की सीटों की संख्या को 272 के पार पहुंचाना ताकि वह अपने दम पर सरकार बना सके. भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के साथ संगठन के लोगों की कई दौर की बैठकें हो चुकी हैं. पार्टी के कई नेता नियमित तौर पर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए एनआरआई समुदाय के प्रभावशाली लोगों से संवाद स्थापित कर चुके हैं.
इस समय जब पूरी दुनिया की नजर भारत में होने जा रहे लोकसभा चुनाव पर है, अप्रवासी भारतीयों का इससे अछूता रहना असंभव ही था. इनमें ज्यादातर टीवी और इंटरनेट से पल-पल बदल रहे राजनीतिक परिदृश्य की खबर रख रहे हैं. इसमें भी एक तबके द्वारा मोदी के पक्ष में इतना आक्रामक अभियान चलाने की कवायद इस लोकसभा चुनाव के लिए बिल्कुल अलहदा है. हालांकि स्थानीय स्तर पर इसका असर फिलहाल तो कहीं दिखाई नहीं दे रहा है.
मुख्यमंत्री रमन सिंह और केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे सुरक्षा अधिकारियों के साथ; फोटोः संतोष पांडे
छत्तीसगढ़ में झीरम घाटी को पिछले साल मई के माओवादी हमले के बाद कौन भुला सकता है. इसमें कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष नंद कुमार पटेल सहित पार्टी के कई नेताओं की मौत हो गई थी. यह ऐसी घटना थी जिसने सुरक्षा बलों से लेकर राजनीतिक स्तर तक ऐसा हड़कंप मचाया कि ऐसा लगा जैसे अब ये हमले अतीत की बात हो जाएंगे. लेकिन इस घटना को एक साल भी पूरा नहीं हुआ और एक बार फिर माओवादियों ने झीरम घाटी में सुरक्षा बलों के 15 जवानों को निशाना बनाकर मौत के घाट उतार दिया. नक्सलियों के हमले में एक ग्रामीण की भी मौत हुई है. यह महज एक बड़े माओवादी हमले का दोहराव भर नहीं है. राजनीतिक प्रतिक्रिया से लेकर घटना के पहले खुफिया सूचनाएं मिलना और उन पर अमल न होना, इस घटना में भी पहले की तरह ही हुआ है.
ताजा माओवादी हमले की पृष्ठभूमि भी पूर्व में हुए कई हमलों की तरह रही. 11 मार्च को केंद्रीय रिजर्व सुरक्षा बल की 80 बटालियन के 44 जवान जगदलपुर और सुकमा के बीच में स्थित तोंगपाल में बन रही सड़क को सुरक्षा देने के लिए सर्चिंग पर निकले थे. सर्चिंग करके जब ये जवान लौट रहे थे तब नक्सलियों ने घात लगाकर इन पर हमला कर दिया. हमले में जहां 15 जवान शहीद हो गए, वहीं तीन जवान घायल भी हुए हैं. जवानों के मुताबिक हमला करने वाले नक्सलियों की संख्या 300 के करीब थी.
आरंभिक जांच और सूचनाओं से पता चल रहा है कि ओडिशा से आए माओवादियों ने यह हमला सुनियोजित तरीके से किया था. नक्सलियों ने पहले बारूदी सुरंग में विस्फोट करके जवानों का रास्ता बाधित किया. इसके बाद जवानों पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसाकर उन्हें संभलने का मौका नहीं दिया. नक्सलियों ने आस-पास के गांववालों को हमले से पहले ही सतर्क कर दिया था. यही वजह रही कि घटना स्थल के पास स्थित टाहकवाड़ा स्कूल में मंगलवार (घटना वाले दिन) को शिक्षक तो पहुंचे पर विद्यार्थी एक भी नहीं आया.
पुलिस का खुफिया तंत्र भले ही कमजोर हो लेकिन नक्सलियों को इस बात की पूरी जानकारी थी कि तोंगपाल थाने से कितने जवान निकले हैं. उनके पास कौन-से हथियार हैं. वे बुलेटप्रूफ जैकेट पहने हैं या नहीं और उनका मूवमेंट क्या होगा. यही कारण है कि माओवादियों ने ‘एरो हेड फॉर्मेशन’ के आकार का एंबुश (घात लगाकर हमला करने की रणनीति जिसमें आक्रमणकारी तीर की नोक वाली आकृति में तैनात होते हैं) लगाया. इसमें जवानों पर चारों तरफ से ताबड़तोड़ हमला किया जा सकता है. गंभीर बात यह थी कि अधिकांश जवानों ने बुलेटप्रूफ जैकेट नहीं पहने थे.
झीरम घाटी में दोनों हमलों से जुड़ी सबसे हैरान करने वाली समानता यह रही कि इस बार भी पुलिस मुख्यालय के पास नक्सलियों के मूवमेंट की सटीक सूचनाएं थीं. लेकिन वे सूचनाएं इस्तेमाल में नहीं लाई जा सकीं और नक्सली अपने इरादों में सफल हो गए. पुलिस मुख्यालय से आम तौर पर रोजाना दो अलर्ट जारी किए जाते हैं. हालांकि अब तक के अनुभव बताते हैं कि इसे जिले के पुलिस अधीक्षक उतनी गंभीरता से नहीं लेते. इसका एक कारण यह भी है कि पुलिस मुख्यालय केवल अलर्ट भेजकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है. अलर्ट के साथ ऐसे कोई दिशानिर्देश नहीं होते कि किस प्रकार की सावधानी बरती जानी चाहिए या सुरक्षाबलों का मूवमेंट कैसा रखा जाना चाहिए.
हमले के बाद प्रतिक्रिया देने की बारी आई तो अपना चार दिवसीय दिल्ली दौरा रद्द करके रायपुर पहुंचे मुख्यमंत्री रमन सिंह ने भी माना कि पुलिस विभाग को मिली गुप्तचर सूचनाएं सही थीं. मुख्यमंत्री का यह भी कहना था कि बस्तर में जारी विकास कार्यों की सुरक्षा में तैनात सुरक्षा बलों की आवाजाही से नक्सली दबाव महसूस कर रहे हैं. यह घटना उसी दबाव की प्रतिक्रिया में हुई है. रमन सिंह ने यह भी कहा कि केंद्र ने लोकसभा चुनाव संपन्न करवाने के लिए 65 कंपनियां देने की बात कही है जबकि राज्य को इससे चार गुना ज्यादा फोर्स की जरूरत है. मुख्यमंत्री ने सीएम हाउस में राज्य के अफसरों की बैठक लेकर घटना की दंडाधिकारी जांच के आदेश दिए हैं. इसके साथ ही अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (नक्सल ऑपरेशन) आरके विज भी घटना की अलग से जांच करेंगे.
घटना के दूसरे दिन छत्तीसगढ़ पहुंचे केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने जगदलपुर में कहा कि नक्सलियों से जवानों की शहादत का बदला लिया जाएगा. उनका यह भी कहना था कि नक्सली कमजोर हो रहे हैं इसलिए ऐसी घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं. केंद्र और राज्य सरकार ज्वाइंट ऑपरेशन चलाकर नक्सलियों का सफाया करेगी. लोकसभा चुनाव की तारीख नहीं बदली जाएगी. गृहमंत्री ने कहा कि छत्तीसगढ़ में हुए नक्सली हमलों की जांच एनआईए करेगा. इसको लेकर मुख्यमंत्री रमन सिंह से सहमति ले ली गई है. शिंदे ने रायपुर और जगदलपुर में मुख्यमंत्री रमन सिंह, मुख्य सचिव विवेक ढांड, पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) एएन उपाध्याय समेत प्रदेश के आला अफसरों के साथ बैठकें भी लीं.
इसी बीच कांग्रेस ने 14 मार्च को छत्तीसगढ़ बंद का एलान करते हुए प्रदेश अध्यक्ष भूपेश बघेल और नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव ने मुख्यमंत्री रमन सिंह से इस्तीफे की मांग कर डाली. कांग्रेस के नेताओं ने घटना के लिए मुख्यमंत्री को नैतिक रूप से जिम्मेदार बताया. साथ ही नक्सली हमले को राज्य सरकार की विफलता करार दिया.
वहीं प्रदेश के नवनियुक्त डीजीपी एएन उपाध्याय ने नक्सल हमले के बाद वही रटा-रटाया बयान दिया जो उनसे पहले के अधिकारी देते रहे हैं, ‘हम इस नक्सल हमले से सबक ले रहे हैं. हम सीखेंगे कि हमसे भूल कहां हुई है.’ हालांकि इस बात को कोई खुलेआम नहीं कह रहा, लेकिन राज्य में पिछले दिनों खाली पड़े पुलिस महानिदेशक पद के लिए जो खींचतान चली उससे सरकार की प्रशासन को लेकर गंभीरता पर सवाल तो उठे ही हैं.
एएन उपाध्याय (1985 बैच) को हाल ही में पुलिस महानिदेशक बनाया गया है. उपाध्याय पिछले पांच साल से मंत्रालय में पदस्थ थे. भले ही उनकी नियुक्ति गृह विभाग में ही थी लेकिन उनकी फील्ड की प्रैक्टिस लंबे समय तक छूटी हुई थी. राज्य सरकार ने केंद्र के कार्मिक मंत्रालय से विशेष अनुमति लेकर उन्हें समय से पहले पदोन्नत करते हुए डीजीपी बनाया है. पहले राज्य सरकार आईबी में एडिशनल डायरेक्टर के पद पर अपनी सेवाएं दे रहे मध्य प्रदेश काडर के आईपीएस अधिकारी आनंद कुमार (1981 बैच) को छत्तीसगढ़ लाना चाह रही थी. लेकिन विरोध के चलते ऐसा नहीं हो पाया.
इन सबके बीच गिरधारी नायक (1983 बैच) (डीजी जेल) पीछे ही छूट गए. जबकि नायक को न केवल नक्सल ऑपरेशन का लंबा अनुभव है, बल्कि उन्हें एक सख्त, ईमानदार और अनुशासित अधिकारी के रूप में भी देखा जाता है. डीजीपी का पद भी पुलिस मुख्यालय में लंबे समय से चल रही राजनीति का शिकार हो गया. राज्य सरकार पीएचक्यू को एक अदद डीजीपी भी नहीं दे पाई है. जबकि राज्य के लिए यह बेहद संवेदनशील मुद्दा है.
इस पूरी घटना के संदर्भ में यह बात भी ध्यान देने लायक है कि इसके दो दिन पहले से कांकेर जिले में सुरक्षा बलों ने नक्सलियों की तलाश में बड़ा ऑपरेशन चला रखा था. बीएसएफ और जिला पुलिस बल के जवान संयुक्त रूप से दो दिन से दुर्ग और राजनांदगांव की सीमा से लगे इलाकों में माओवादियों की तलाश कर रहे थे. यह इलाका महाराष्ट्र से सटा हुआ है. इसी बीच नक्सलियों ने झीरम घाटी में वारदात को अंजाम दे दिया. पुलिस मुख्यालय (पीएचक्यू) के एक वरिष्ठ अफसर की मानें तो यह नक्सलियों की पुरानी रणनीति है. वे दूसरी तरफ ध्यान खींचने के लिए हमले करते हैं.
नक्सली हमले में घायल जवान फोटोः एएफपी
पुलिस को थी नक्सलियों के मूवमेंट की जानकारी
झीरम घाटी और आस-पास के इलाके में नक्सलियों के मूवमेंट की सूचना पुलिस को पांच मार्च से ही मिलनी शुरू हो गई थी. इसे सीआरपीएफ के आला अफसरों से भी शेयर किया गया था. इंटेलीजेंस ब्यूरो ने भी राज्य सरकार को भेजी अपनी रिपोर्ट में सात मार्च को एक बड़े नक्सल हमले की आशंका जताई थी. पीएचक्यू की मानें तो पांच मार्च को ही जगदलपुर एसपी अजय यादव और सुकमा एसपी अभिषेक शांडिल्य को नक्सलियों के मूवमेंट की सूचना भेज दी गई थी. सूचना में पुलिस अफसरों को अलर्ट किया गया था कि ओडीशा सीमा से नक्सलियों का दल झीरम घाटी और उससे लगे क्षेत्रों में घुसा है. दूसरा अलर्ट छह मार्च को जारी किया गया. इसमें पुलिस इंटेलीजेंस ने बताया था कि माओवादी भगत उर्फ पंकज उर्फ गगन्ना अपने साथियों के साथ उनागुर, कालेंग, गुप्तेश्वर इलाकों में घूमता हुआ देखा गया है. इस दौरान तोंगपाल के प्रतापिगिरी में माओवादी सुखराम और उसके साथियों को देखा गया था. नक्सली कमांडर जगदीश उइके को भी सुकमा और कटेकल्याण इलाके में देखा गया था. पुलिस के सूचना तंत्र ने पहले ही बता दिया था कि नक्सली झीरम घाटी के पास चल रहे सड़क निर्माण के कार्य पर नजर रख रहे हैं. नौ मार्च को पीएचक्यू ने फिर से दोनों जिलों के पुलिस अधीक्षकों को सूचना भेजकर सतर्क रहने के निर्देश दिए थे. यह अलर्ट भी किया गया था कि भगत उर्फ गगन्ना 150 से अधिक साथियों के साथ तोंगपाल में देखा गया है और ये लोग सुरक्षा बलों पर हमला कर सकते हैं. कहा जा रहा है कि इस घटना को अंजाम देने के लिए माओवादियों के मलकानगिरी (ओडीशा) से छत्तीसगढ़ पहुंचने की सूचना भी पुलिस मुख्यालय को पहले ही मिल चुकी थी.
फिलहाल इस घटना की जांच भी राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) करेगी. लेकिन जब पिछली जांचों के सबक ही अब तक लागू नहीं हो पाए उस स्थिति में यह कहना मुश्किल होगा कि इन नतीजों से सुरक्षा बलों को वास्तव कितनी सुरक्षा मिल पाएगी.
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बीते 10 साल में 2,129 लोगों की मौत
इंस्टीट्यूट ऑफ कॉनफ्लिक्ट मैनेजमेंट के आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस साल में छत्तीसगढ़ में माओवादी हिंसा में 2,129 लोग मारे गए हैं. इनमें सुरक्षा बल के जवानों और आम नागरिकों की मौत का आंकड़ा 1,447 है. पिछले चार साल मे नक्सली हमलों में तेजी आई है. वर्ष 2011 के बाद माओवादियों ने अपने पुराने मिथक तोड़ते हुए बीते चाल साल में राजनेताओं और आम लोगों को भी अपना निशाना बनाना शुरू कर दिया है. 2011 से लेकर 2014 तक माओवादियों ने कई बड़ी घटनाओं को अंजाम दिया है. वहीं साउथ एशिया टैरोरिज्म पोर्टल से उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक माओवादी हिंसा के कारण 2005 से 2012 के बीच छत्तीसगढ़ में कुल 1,855 मौतें हुई हैं. इनमें 569 आम नागरिकों, सुरक्षा बलों के 693 जवान और 593 माओवादियों की मौत शामिल है.
न्यूज चैनल ‘आज तक’ के एंकर-पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी और आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल के बीच ‘ऑफ द रिकॉर्ड’ बातचीत का एक वीडियो इन दिनों सोशल मीडिया से लेकर न्यूज मीडिया और चैनलों पर सुर्खियों में है. अरुण जेटली जैसे वरिष्ठ भाजपा नेताओं से लेकर कुछ न्यूज चैनल तक एंकर-पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी पर पत्रकारिता की नैतिकता (एथिक्स) और मर्यादा लांघने का आरोप लगा रहे हैं. इस ‘ऑफ द रिकॉर्ड’ बातचीत में वाजपेयी की केजरीवाल से अतिनिकटता और सलाहकार जैसी भूमिका को निशाना बनाते हुए उनकी निष्पक्षता पर उंगली उठाई जा रही है.
आरोप लगाया जा रहा है कि वाजपेयी आम आदमी पार्टी (आप) की ओर झुके हुए हैं और चैनल के अंदर पार्टी के प्रतिनिध या प्रवक्ता की तरह काम कर रहे हैं. इस कारण केजरीवाल के साथ उनका इंटरव्यू ‘फिक्स्ड’ और पीआर किस्म का है जिसका मकसद ‘आप’ के नेता की सकारात्मक छवि गढ़ना है और जिसमें शहीद भगत सिंह तक को इस्तेमाल किया जा रहा है.
सवाल यह है कि क्या वाजपेयी और केजरीवाल की ‘ऑफ द रिकॉर्ड’ बातचीत सिर्फ एक स्वाभाविक सौजन्यता या औपचारिकता या हद से हद तक एक तरह का बड़बोलापन है या फिर इसे पत्रकारीय निष्पक्षता और स्वतंत्रता के साथ समझौता माना जाए. हालांकि पत्रकारिता के नीरा राडिया और पेड न्यूज काल में पुण्य प्रसून और केजरीवाल की बातचीत काफी शाकाहारी लगती है, लेकिन इसमें पत्रकारिता की नैतिकता, मानदंडों और प्रोफेशनलिज्म के लिहाज से असहज और बेचैन करने वाले कई पहलू हैं. इस बातचीत में वाजपेयी किसी स्वतंत्र पत्रकार और नेता के बीच बरती जाने वाली अनिवार्य दूरी को लांघते हुए दिखाई पड़ते हैं.
दूसरे, पत्रकारिता और पीआर में फर्क है और पत्रकार का काम किसी भी नेता (चाहे वह कितना भी लोकप्रिय और सर्वगुणसंपन्न हो) की अनुकूल ‘छवि’ गढ़ना नहीं बल्कि उसकी सच्चाई को सामने लाना है. असल में, किसी भी पत्रकारीय साक्षात्कार में पत्रकार-एंकर अपने दर्शकों का प्रतिनिधि होता है और इस नाते उससे अपेक्षा होती है कि वह साक्षात्कारदाता से वे सभी सवाल पूछेगा जो उसके दर्शकों को मौका मिलता तो उससे पूछते. याद रहे कि कोई भी पत्रकारीय इंटरव्यू पत्रकार और साक्षात्कारदाता खासकर सार्वजनिक जीवन में सक्रिय या पद पर बैठे नेता के बीच की निजी बातचीत नहीं है. सच यह है कि जब कोई नेता खुद को इंटरव्यू के लिए पेश करता है तो इसके जरिए लोगों के बीच यह संदेश देने की कोशिश करता है कि वह अपने विचारों या क्रियाकलापों में पूरी तरह पारदर्शी है. कुछ भी छिपाना नहीं चाहता है और हर तरह के सार्वजनिक सवाल-जवाब और जांच-पड़ताल के लिए तैयार है. ऐसे में, पत्रकार से अपेक्षा की जाती है कि वह उस नेता से कड़े से कड़े और मुश्किल सवाल पूछे ताकि उसके विचारों या क्रियाकलापों से लेकर उसकी कथनी-करनी के बीच के फर्क और अंतर्विरोधों को उजागर किया जा सके. क्या पुण्य प्रसून वाजपेयी, केजरीवाल से इंटरव्यू करते हुए इस कसौटी पर खरे उतरते हैं?
इसका फैसला दर्शकों पर छोड़ते हुए भी जो बात खलती है, वह यह है कि ‘ऑफ द रिकॉर्ड’ बातचीत में केजरीवाल कॉरपोरेट और प्राइवेट सेक्टर के बारे में बात करने से बचने की दुहाई देते नजर आते हैं क्योंकि इससे मध्यवर्ग नाराज हो जाएगा. लेकिन क्या यह वही अंतर्विरोध नहीं है जिसे इंटरव्यू में उजागर किया जाना चाहिए? यही नहीं, यह और भी ज्यादा चिंता की बात है कि वाजपेयी जैसा जनपक्षधर पत्रकार केजरीवाल को अपनी ‘क्रांतिकारी’ छवि गढ़ने के लिए भगत सिंह के इस्तेमाल का मौका दे.
कहने की जरूरत नहीं है कि यहीं से फिसलन की शुरुआत होती है जब कोई पत्रकार किसी नेता-पार्टी के साथ ‘नत्थी’ (एम्बेडेड) दिखने लगता है.
‘जी बताइए, कैसे आना हुआ?’ उन्होंने पूछा. ‘एक सवाल पूछना है आपसे’, मैंने जवाब दिया. ‘क्या आप पत्रकार हैं?’ उन्होंने अपनी नजरें मुझ पर गड़ा दी. ‘जी नहीं!’ मैंने स्पष्ट किया. मैंने देखा वह मुझे घूर रहे थे. उनकी आंखें धीरे-धीरे लाल हो रही थीं. उनकी आंखें मुझे तौल रही थीं. ‘मैं आपके निर्वाचन क्षेत्र का मतदाता हूं…’, मैंने हड़बड़ी में उन्हें बताया. उनकी आंखों की पुतलियां नाच गईं. चेहरा सौम्य हो गया. अचानक ही वे रबर की तरह लचीले हो गए. सोफा पर पहले फैले, फिर सिकुड़ गए. उनके क्षेत्र का मतदाता होना इसका आंशिक कारण था. अभी वहां जल्द ही मतदान होने वाला था, यह उनके सिकुड़ने का मुख्य कारण था. वे बहुत विश्वास से बोले, ‘पूछिए! पूछिए! हम यहां आप लोगों के लिए ही तो बैठे हैं.’
जिस वक्त वे यह सब कह रहे थे ठीक उस वक्त मैं वहां बिछे हुए कीमती कालीन को देख रहा था. ‘ईरान का है…’ उन्होंने उस कालीन के जन्म स्थान से मेरा परिचय करवाया. ‘जी, क्या मैं इस कालीन को उठा सकता हूं!’ ‘जी, मैं कुछ देखना चाहता था…’, मैंने खुलासा किया. ‘मुझे तो आप सीबीआई वाले लगते हैं!’ उन्होंने अपने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा. उनका आशंकित होना स्वाभाविक था. कुछेक सालों से आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में वे जांच के घेरे में थे. ‘जी, अगर आपको आपत्ति है, तो नहीं उठाते. कम से कम आप अपनी सैंडल तो उतार ही सकते हैं!’ मैंने उन्हें विकल्प सुझाया. वे शंकित हो बोले,‘आप मेरी सैंडल क्यों उतरवाना चाहते हैं?’ ‘जी कुछ देखना है!’, मैंने बताया. ‘आखिर आप चाहते क्या हैं?’, उनकी आंखें सिकुड़ीं. ‘चलिए, आप पैर उठाकर अपने तलवे दिखा दीजिए!’ ‘अगर आप अंगूठा दिखाने को कहते तो मैं फौरन आपको दिखा देता!’ उन्होंने फिकरा कसा. ‘जी वह तो आप बिन कहे ही दिखा देते हैं…’, मेरे मुंह से अचानक यह वाक्य कैसे निकल गया. मैं हैरान था. हैरान तो वे भी कम नहीं हुए. ‘आखिर आप चाहते क्या हैं?’, वे झल्लाकर बोले. ‘जी मैं जड़़ देखना चाहता हूं..’ ‘जड़…कैसी जड़?’ ‘जी आपकी…जी, आप ही तो कहते हंै कि आप जमीन से जुडे़ नेता हैं…’, वे फिच्च! से हंस पडे़. बोले,‘ आप बहुत हंसोड़ आदमी हैं भाई!’ ‘आप अगर जमीन से जुडे़ हुए हैं तो चलते कैसे हैं!’ मैंने दूसरी तरह से प्रश्न किया. वे लोलक की भांति सिर हिलाते हुए बोले,‘अरे भई, जमीन से जुड़ा हुआ मगर उसमें गड़ा नहीं हूं…’ ‘क्या आपने कभी खेती-किसानी की है?’ ‘मेरे बाप-दादाओं ने कभी की थी, मगर हां मेरे बडे़-बड़े कई फार्म हाउस है.’ उन्होंने जवाब दिया. ‘फिर जमीन से क्या ताल्लुक है आपका?’ ‘जमीन से जितना ताल्लकु मेरा है उतना तो किसान का भी न होगा. जमीन की खरीद-फरोख्त करके ही तो आज इतना बड़ा प्रॉपर्टी डीलर बना हूं. आज जो कुछ भी जमीन की वजह से हूं…’, बोलते-बोलते अचानक वे रुक गए. फिर मेरी आंखों में झांकते हुए बोले,‘अच्छा,अब मैं समझा! अगर जमीन खरीदनी हो तो बोलो, सस्ते में दे दूंगा. अपने आदमियों का ख्याल मैं नहीं रखूंगा तो कौन रखेगा! अरे भाई, आखिर मैं जमीन से जुड़ा आदमी हूं, एक नजर में पहचाना जाता हूं कि सामने वाले को क्या चाहिए!’ उन्होंने ऑफर के साथ अपनी विशेषता फिर रेखांकित की. ‘बाजार में आटे और दाल का क्या भाव चल रहा है, आपको मालूम है!’ मैंने बात बदली. उन्होंने फौरन अपने नौकर को हांक लगाई. फिर मेरी तरफ मुखातिब हो बोले, ‘वह क्या है कि घर का सौदा-सुलफ मेरे नौकर-चाकर ही लाते हंै न! वैसे महंगाई बहुत बढ़ गई है.’ मैंने तत्काल वहां से जाने की उनसे अनुमति मांगी, जो उन्होंने सहर्ष दे दी. जाते वक्त मैंने मुड़कर देखा. बगल में खड़ा उनका नौकर उन्हें कुछ बता रहा था और वे अपनी बगलें झांक रहे थे.
‘चक्कर’ आना एक बेहद आम-सी तकलीफ है. यह कहने के बाद मैं इसमें यह बात जोड़ना चाहूंगा कि ‘चक्कर आने’ वाले मरीज को ‘चक्कर’ होता ही नहीं फिर भी वह न केवल यही कहता फिरता है कि मुझे चक्कर आ रहे हैं बल्कि डॉक्टर भी चक्कर की दवाएं देते रहते हैं. यह विरोधाभास की स्थिति है, पर है. ऐसा क्यों है? पहले यह जान लें. फिर ‘चक्कर’ की भी बात करेंगे. दरअसल, हम स्वयं भी ‘चक्कर आने’ का बयान बेहद गैरजिम्मेदारी से देते हैं और डॉक्टर भी उतनी ही गैरजिम्मेदारी से उसी को सच मानकर, बिना आगे पूछताछ/पड़ताल किए दवा भी पकड़ा देता है. ठीक-सा न लगना, कमजोरी लगना, थका होना, मन न लगना, आंख के सामने अंधेरा-सा छाना, लड़खड़ाना, बुखार-सा लगना, सिर में सनसनाहट-सी होना, जिंदगी में मजा न आना, भूख न लगना आदि कुछ भी हो रहा हो, हम डॉक्टर को कहते हैं कि डॉक्टर सा’ब, चक्कर-से आ रहे हैं. ‘चक्कर’ शब्द का यह निहायत गलत इस्तेमाल है जो डॉक्टर को भटका सकता है. यदि घूमने का अहसास नहीं है तो फिर या तो कुछ और ही बीमारी है या फिर वह ‘स्यूडो वर्टिगो’ (झूठा चक्कर) है.
इसीलिए मैं आपको चक्कर के बारे में थोड़ा-सा ज्ञान देना चाहूंगा. इससे आप ‘चक्कर विशेषज्ञ’ हो जाएंगे, यह तो नहीं कहता परंतु यह अवश्य जान जाएंगे कि ‘सही चक्कर’ क्या तथा क्यों होता है. यह ज्ञान प्राप्त करके यदि आप ‘चक्कर’ को ही ‘चक्कर’ कहना सीख जाएंगे तो आपका बड़ा भला होगा. जैसा कि मैंने कहा चक्कर का मतलब है ‘घूमने’ की अनुभूति. जैसी कभी-कभी आपको झूले में बैठकर हो जाती है न, वैसी ही. आसपास की वस्तुएं घूमती-सी लगेंगी. ऐसा लगे, तभी यह सही मायने में चक्कर है. कमजोरी लगती है तो यही बताएं कि कमजोरी लगती है. यह जो घूमने की अनुभूति होती है वह शरीर के ‘बैलेंसिंग मेकेनिज्म’ के गड़बड़ा जाने से होती है. इसीलिए जब भी आप ‘चक्कर’ कहते हैं तो डॉक्टर की सोच तुरंत उस चक्कर की तरफ चली जाती है जो आपके ‘बैलेंसिंग मेकेनिज्म’ की खराबी से पैदा हो सकता है. डॉक्टर फिर उसी की दवाई भी दे देता है. अब मान लो कि यदि वह सही मायनों में चक्कर था ही नहीं तो? आप तो फालतू ही ‘बैलेंसिंग’ ठीक करने वाली दवाइयां खाते चले जाएंगे न? तब ‘मर्ज बढ़ता गया, ज्यों ज्यों दवा की’ वाली स्थिति हो जाएगी न आपकी? तब तो शरीर के ‘बैलेंसिंग मेकेनिज्म’ के बारे में भी थोड़ा पता चल जाए तो बड़ी कृपा कहाएगी डॉक्टर-कम-लेखक महोदय. बिलकुल. हम बताते हैं न. देखिए, ‘चक्कर’ क्या है? बैलेंस की गड़बड़ी ही न? आपके शरीर का बैलेंस बिगड़ते ही तो चक्कर-सा लगता है न? तो यह भी जान लें कि शरीर अपना बैलेंस कैसे बनाए रखता है? बैलेंस ठीक रखने, उस पर नियंत्रण रखने के लिए दो तरह के सिस्टम हैं हमारे शरीर में. एक सिस्टम तो हमारे मस्तिष्क में है और दूसरा मस्तिष्क से बाहर, हमारे कान के अंदर. यह बात का अतिसरलीकरण तो है पर बात जितनी सरल हो सके उतना ही अच्छा. तो कान में स्थिति ‘अंातरिक कान’ की अतिसंवेदनशील पतली नलियों में बह रहे द्रव्य या कण चौबीसों घंटे शरीर की पोजिशन तथा बैलेंस पर निगाह रखकर मस्तिष्क में स्थित हेड ऑफिस को खबर देते रहते हैं जहां पूरे शरीर से भी बैलेंस की सूचनाएं पहुंचती रहती हैं. हेड ऑफिस का मेडिकल नाम ‘सेरीबेलम’ नाम का मस्तिष्क का हिस्सा है. सोते, जागते, नशे में, होश में – यही सिस्टम आपको गिरने नहीं देता, या छोड़ देता है तो आप (दारू पीकर) नाली में घुस जाते हैं.
आप कहेंगे कि बात पूरी तरह समझ में नहीं आई. करें क्या? बड़ा पिचपिच वाला सिस्टम ही है. इतना ही समझ सकें तो बड़ी बात कहलाएगी कि चक्कर या तो कान के ‘बैलेंसिंग मेकेनिज्म’ के खराब होने से आएगा, या फिर मस्तिष्क की बीमारी से. कान की बीमारियों से लगाकर आंतरिक कान के वायरल इन्फेक्शन आदि से जो चक्कर आएगा उसमें बहरापन, कान की सनसनाहट आदि भी साथ में होंगे. ब्रेन के कारण जो चक्कर आएंगे उसमें चक्कर के साथ एक चीज का दो-दो दिखना (डबल विजन), गटकने में तकलीफ, लड़खड़ाहट, लकवा आदि भी मिलेंगे. तो सही मायने में कभी चक्कर हो तो ध्यान दें कि साथ में इन तकलीफों में से भी कुछ हो रहा है क्या. यदि यह सूचना डॉक्टर को बता देंगे तो वह सतर्क हो जाएगा. वर्ना एक अच्छा डॉक्टर तो वैसे भी स्वयं ही यह सब आपसे पूछेगा ही.
तो, अंततः इसी सारी राम कहानी तथा प्रवचन से आपने क्या सीखा? या क्या कराना चाह रहा था मैं? मेरे इस लेख के कुछ महत्वपूर्ण संदेश इस प्रकार हैं –
पहला संदेशः चक्कर आने का मेडिकल तात्पर्य होता है घूमने की अनुभूति. आपके चारों तरफ की चीजें घूम रही हैं, जब तक यह न लगे तब तक डॉक्टर को यह न कहें कि चक्कर आ रहा है.
दूसरा संदेशः यदि घूमने की अनुभूति न लगे पर ‘चक्कर-सा’ लगता है तो सोचकर साफ बताएं कि वह क्या चीज है जिसे आप ‘चक्कर-सा’ कह रहे हैं.
तीसरा संदेशः चक्कर के साथ और क्या तकलीफें हो रही हैं, इस पर भी ध्यान दें. डॉक्टर को बताएं.
चौथा संदेशः प्रायः चक्कर स्वयं सीमित बीमारी है, परंतु कई बार यह ब्रेन आदि की किसी अत्यंत सीरियस बीमारी का द्योतक भी हो सकता है. यह ब्रेन ट्यूमर से लगाकर लकवे जैसी स्थिति का संकेत भी हो सकता है. इसलिए चक्कर हो, और सही में चक्कर ही हो तो डॉक्टर को अवश्य दिखा लें.
कुल लब्बोलुआब यह कि ‘चक्कर आ रहा है’ कहने से पहले सोच लें कि आप कह क्या रहे हैं और उसका मतलब भी समझा पा रहे हैं कि नहीं. बाद में डॉक्टर को गरियाते रहने से कुछ न होगा.