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पाटलीपुत्र, बिहार

Patliputraरामदर्शन पटना की बोरिंग रोड पर बने गणेश अपार्टमेंट में दरबानी का काम करते हैं. जाति से यादव हैं. पढ़ाई-लिखाई स्कूल तक हुई है, लेकिन राजनीति उनकी रग-रग में है. उनका गांव पाटलीपुत्र में पड़ता है जो परिसीमन के बाद दूसरा चुनाव देख रहा है. हम उनसे पूछते हैं कि चाचा-भतीजी यानि मीसा और रामकृपाल की लड़ाई में कौन किस पर भारी पड़ेगा. रामदर्शन कहते हैं, ‘ई बात तो अभी ताल ठोंक के रामकृपाल भी नहीं कह सकते, मीसा भी नहीं कह सकती और ना लालू यादव बता सकते हैं तो हम कहां से बता दें? लेकिन जान लीजिए कि पाटलीपुत्र इस बार और दिलचस्प मुकाबला देखेगा. फिर कोई करिश्मा होगा जैसा 2009 में हुआ था. लालू प्रसाद यादवजी इस नई संसदीय सीट से खड़े हो गए थे कि यह तो यादव बहुल इलाका है और वे यादवों के एकछत्र-सर्वमान्य नेता हैं. लेकिन लालूजी के ही चेला रहे दूसरे यादवजी यानी रंजन यादव ने उन्हें पटखनी दे दी थी. वह भी कोई हजार-दो हजार नहीं बल्कि करीब 24 हजार मतों से.’

रामदर्शन की तरह पाटलीपुत्र में कोई भी 100 फीसदी दावे के साथ कुछ नहीं कह पा रहा. वजह भी साफ है. एक ओर लालू प्रसाद यादव की बेटी मीसा भारती हैं. उनके साथ लालू जैसे दिग्गज का जोर है. उनका ससुराल भी पाटलीपुत्र इलाके में ही पड़ता है, तो उसका भी असर है. जिस अंदाज में वे चुनाव प्रचार कर रही हैं, उससे उनका एक अलग तरीके का असर उभर रहा है. वे बेहद शालीन तरीके से मतदाताओं के पास जा रही हैं, उनके घर  खा-पी रही हैं और बच्चों को गोद में उठाकर प्यार से चूम भी रही हैं. यह सब चुनावी नाटक भी कहा जा सकता है, लेकिन बहुत से लोग हैं जो मानते हैं कि अब ऐसा नाटक करनेवाले भी कम दिखते हैं इसलिए मीसा ऐसा करके लोगों को आकर्षित करने में सफल हो रही हैं.

दूसरी ओर भाजपा उम्मीदवार के तौर पर रामकृपाल यादव हैं. वे लंबे अरसे से मीसा के पिता लालू प्रसाद के सबसे करीबी मित्र व सहयोगी रहे हैं. उन्हें चाचा कहने वाली मीसा उनकी ताकत भी जानती हैं. रामकृपाल की खासियत यह है कि चुनाव हो या न हो, वे एक ऐसे नेता के तौर पर जाने जाते रहे हैं, जो एक बुलावे पर लोगों के बीच हाजिर हो जाता है. भले ही वे दो दशक से भाजपा को निशाने पर लेने के अभ्यस्त रहे हों, लेकिन कभी उन्होंने जाति विशेष को निशाने पर रखकर बयान नहीं दिए. इसलिए उन्हें और उनके सहयोगियों को उम्मीद है कि रामकृपाल को यादवों का एक हिस्सा तो वोट देगा ही, यादवों के बाद पाटलीपुत्र संसदीय क्षेत्र में जो दूसरी बड़ी आबादी रखने वाले भूमिहार भी नये भाजपाई बने रामकृपाल को दिल से गले लगाएंगे और समर्थन देंगे. पाटलीपुत्र में यादवों के बाद भूमिहार, कुरमी, कुशवाहा, वैश्य, महादलित, मुस्लिम और अतिपिछड़े समुदाय के वोट हैं. इस संसदीय क्षेत्र में छह विधानसभा क्षेत्र आते हैं. फिलहाल तीन पर भाजपा का कब्जा है, दो पर जदयू और एक पर राजद का. रामकृपाल को उम्मीद है कि संसदीय क्षेत्र में तीन भाजपाई विधायक होने का फायदा उन्हें मिलेगा. भूमिहार उन्हें खुलकर समर्थन देंगे और कुशवाहा वोट छिटककर उनके पाले में आएगा. हालांकि इस बीच रणवीर सेना के सुप्रीमो रहे ब्रहमेश्वर मुखिया के बेटे इंदुभूषण भी पाटलीपुत्र से ही निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर परचा भरकर रामकृपाल का खेल बिगाड़ने की कोशिश में हैं. माना जा रहा है कि वे भूमिहार समुदाय के वोट काटेंगे क्योंकि भूमिहारों का एक खेमा है, जो भाजपा से नाराज है.

उधर, अपनी बेटी के जरिये राजनीति कर रहे लालू की पूरी ऊर्जा यादवों को साधने में लगी हुई है. जिस दिन रामकृपाल ने राजद से अलग होने के संकेत दिए थे, उस दिन लालू प्रसाद ने एक प्रेस कांफ्रेंस की थी. इसमें उन्होंने मीसा को यादव जाति के उन तीन पूर्व व वर्तमान विधायकों के साथ बिठाया जिनका ताल्लुक पाटलीपुत्र इलाके से कभी-न-कभी रहा है. वे यादवों को संकेत देना चाहते थे कि रामकृपाल ने पाला बदला है, लेकिन यादव नेता इधर ही हैं. इतना ही नहीं, जब कुख्यात रीतलाल यादव ने निर्दलीय परचा भरने का एलान किया तो बिना वक्त गंवाए लालू उनके घर पहुंचे. मानमनौव्वल की कवायद में उन्होंने रीतलाल को संत पुरुष बताते हुए रातों-रात महासचिव पद भी उनके  हवाले कर दिया.

चाचा-भतीजी की इस लड़ाई के अलावा पाटलीपुत्र में रंजन यादव भी केंद्रीय भूमिका में हैं. जदयू के वर्तमान सांसद रंजन यादव के समर्थकों में इस बार ज्यादा उत्साह है. उनके अपने ठोस तर्क हैं. उन्हें चाचा-भतीजी के बीच यादव मतों के बिखराव से फायदे की उम्मीद है. वे कुरमी, महादलित और मुस्लिम समुदाय के एकमुश्त वोटों की भी उम्मीद कर रहे हैं.  उनके एक समर्थक कहते भी हैं, ‘ रंजन यादव जब लालू प्रसाद को हरा दिए तो मीसा और रामकृपाल की क्या बिसात.’

बागपत, उत्तर प्रदेश

Baghpatहर बार के चुनाव में अलग-अलग राजनीतिक दलों के साथ गठबंधन करने के बावजूद राष्ट्रीय लोक दल को उत्तरप्रदेश की पश्चिमी बेल्ट से अच्छा खासा वोट मिलता रहा है. इसका सबसे बड़ा कारण इस इलाके का जाट बाहुल्य होना है. अकेले पार्टी के सर्वेसर्वा अजित सिंह की ही बात करें तो बागपत संसदीय क्षेत्र के रास्ते से वे अब तक छह बार संसद पहुंच चुके है. इस बार भी उन्होंने चौधरी परिवार की परंपरागत मानी जाने वाली इसी सीट से दावेदारी ठोकी है. लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने उनके खिलाफ एक ऐसे शख्स को मैदान में उतार दिया है जो अनका ही हम बिरादर है. इसके अलावा इस शख्स के बारे में बारे में एक रोचक बात यह भी है कि 1989 में जब अजित सिंह पहली बार केंद्र सरकार में मंत्री बने तो वह निजी सचिव की हैसियत से उनका खास मददगार था. डेढ़ साल पहले मुंबई पुलिस के आयुक्त की नौकरी छोड़ कर राजनीति में आए इस शख्स का नाम है डाक्टर सत्यपाल सिंह.

इस तरह देखा जाए तो एक पुराने सहयोगी ने दो दशक बाद प्रतिद्वंदी के रूप मंे सामने आकर अजित सिंह के लिए निष्कंटक मानी जाने वाली बागपत की जमीन में प्रथम दृष्टया कुछ स्पीड ब्रेकर तो खड़े कर ही दिए हैं. यदि नए परिसीमन के हिसाब से भी देखा जाए तो मोदीनगर विधानसभा क्षेत्र के बागपत में शामिल होने से भी कुछ समीकरण बदल सकते हैं. राजनीतिक समीक्षकों का मानना है कि यह इलाका मुजफ्फरनगर जिले से पूरी तरह लगा हुआ है और ऐसे में वहां हुए दंगे की आंच भी बागपत सीट पर असर डाल सकती है.

इन सब परिस्थितियों का गुणा भाग करके समाजवादी पार्टी ने भी विधायक गुलाम मोहम्मद को टिकट थमाकर मुस्लिम वोट साधने की पूरी जुगत भिड़ा ली है. यानी ऐसे में यदि कुल लगभग 30 प्रतिशत जाट वोटों का थोड़ा बहुत भी बंटवारा और 18 फीसदी के करीब मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण होता है तो छोटे चौधरी के लिए 1998 जैसा संकट पैदा हो सकता है. 1998 में अजित सिंह बागपत से चुनाव हार गए थे. उस वक्त भाजपा प्रत्याशी सोमपाल शास्त्री ने उनका विजय रथ रोका था. इसके अलावा मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण ने भी अजित सिंह का तब बड़ा नुकसान पहुंचाया था. इस बार भी इस तरह की परिस्थितियों के बनने को लेकर तरह तरह की चर्चाएं हैं. भाजपा प्रत्याशी सत्यपाल सिंह ने मोदी लहर का सहारा लेने के साथ ही बागपत के पिछड़ेपन को मुद्दा बना अजित सिंह को घेरने का अभियान लगातार छेड़ा हुआ है. चुनाव प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ने के मूड में दिख रहे सत्यपाल सिंह ने अपने संसदीय क्षेत्र में नरेंद्र मोदी की रैली करवाने के साथ ही फिल्मी पर्दे पर हैंडपंप उखाड़ने वाले जाट बिरादरी के अभिनेता सन्नी देओल का रोड शो तक करवा दिया है. इसके अलावा चूंकि लोकदल ने इस बार कांग्रेस के साथ गठबंधन किया है लिहाजा केंद्र सरकार के खिलाफ दिख रहा देशव्यापी गुस्सा भी अजित सिंह के लिए मुश्किलें पैदा कर सकता है.

हालांकि इस सबके बावजूद कई जानकार हैं जो अब भी बागपत में अजित सिंह की संभावना मजबूत मानते हैं. उनका मानना है कि भले ही मुजफ्फरनगर दंगों को लेकर जाट बिरादरी अजित सिंह के रवैये से पूरी तरह संतुष्ट नहीं है लेकिन केंद्रीय सेवाओं में जाटों को आरक्षण दिला कर उन्होंने अपने बिखरे वोट बैंक को समेटने में काफी हद तक सफलता हासिल कर ली है. गौरतलब है कि मुजफ्फरनगर दंगों के बाद अजित सिंह ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश का रुख नहीं किया था जिससे जाटों में उनके प्रति नाराजगी बढ़ी थी. बागपत में 10 अप्रैल को वोट डाले जाने हैं.

1998 के चुनाव को छोड़ दें तो जाट लैंड का केंद्र मानी जाने वाली बागपत सीट संसदीय सीट पर 1977 से लेकर 2009 तक चौधरी परिवार का एकछत्र राज रहा है. बावजूद इसके वर्तमान हालात को देखते हुए इतना तो कहा ही जा सकता है कि एक आईपीएस अधिकारी की आमद नें 2009 में साठ हजार से ज्यादा मतों से से जीतने वाले आईआईटी खड़गपुर के पूर्व छात्र अजित सिंह के सामने रोमांचक बिसात तैयार कर दी है.

चांदनी चौक, दिल्ली

chandni-chowkकहते हैं कि 17वीं सदी में महान मुगल शासक शाहजहां ने चांदनी चौक को आबाद किया. सोच भले ही उनकी रही हो, लेकिन इस इलाके की रूपरेखा शाहजहां की बेटी जहांआरा ने बनाई थी. तब इसकी मुख्य सड़क के बीच से एक नहर बहती थी. चांदनी रात के दौरान आसमान में रोशन चांद और नीचे नहर में बहता पानी एक दूसरे से मिलकर पूरे इलाके में झिलमिलाती चांदनी का खूबसूरत नजारा बिखेर देते थे. ऐसा माना जाता है कि इसी सुंदरता से प्रभावित होकर इलाके का नाम चांदनी चौक रख दिया गया.

हालांकि आज स्थिति इसके बिल्कुल उलट है. आज के चांदनी चौक में सड़कों पर केवल वाहनों का रेला दिखता है. सड़क के दोनों तरफ एक के बाद एक दुकानंे दिखती हैं और इधर से उधर आते-जाते ठेला गाड़ी और रिक्शे भी. आज का चांदनी चौक व्यापार, जामा मस्जिद और पतली गलियों के लिए जाना जाता है.

इलाके के इतिहास और वर्तमान पर एक नजर मारने के बाद यहां का चुनावी गणित देखा जाए. यहां से कांग्रेस, भाजपा और आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार मैदान में हैं. भारतीय जनता पार्टी ने इस सीट पर अपने प्रदेश अध्यक्ष डॉ. हर्षवर्धन को उतारा है तो कांग्रेस ने अपने अनुभवी नेता और केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल को. कपिल सिब्बल ने 2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को इस क्षेत्र से जीत दिलाई है. उधर, आम आदमी पाटी ने पत्रकार से नेता बने आशुतोष को मैदान में उतारा है.

कांग्रेस जहां महाघोटालों, महंगाई और सत्ताविरोधी लहर से जूझ रही है तो वहीं आप के उम्मीदवार केजरीवाल के मैदान छोड़ने से परेशान हंै. उधर, नरेंद्र मोदी के नाम वाली हवा इस क्षेत्र में बहती नहीं दिख रही है. ऐसे में यहां के नतीजे लोगों के लिए चौंकाने वाले हो सकते हैं. आम आदमी पार्टी की स्थिति चांदनी चौक में कुछ खास अच्छी नहीं है. महज 49 दिनों में दिल्ली की सत्ता का त्याग करने का पार्टी का फैसला अब उसके लिए नकारात्मक असर वाला साबित होता दिख रहा है.

फिर भी इस इलाके में लड़ाई दिलचस्प है. किसी एक उम्मीदवार को बहुत बढ़त मिल रही हो ऐसा दिखता नहीं है. 2008 में परिसीमन के बाद इस संसदीय सीट में 10 विधानसभा सीटें शामिल कर दी गई थीं. चांदनी चौक संसदीय क्षेत्र में 14 लाख के करीब वोटर हैं. यह संसदीय सीट दिल्ली की सातों लोकसभा सीटों मंे क्षेत्रफल और वोटरों की संख्या, दोनों लिहाज से सबसे छोटी है. चांदनी चौक से अब तक चुने गए 14 सांसदों में नौ कांग्रेसी रहे हैं. बीते एक दशक से कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल यहां से सांसद हैं. उनसे पहले पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष जेपी अग्रवाल 1984, 1989 और 1996 में इसी सीट से सांसद बने. भाजपा नेता विजय गोयल भी यहां से लगातार दो बार जीत चुके हैं. चांदनी चौक क्षेत्र में व्यापारी वर्ग की संख्या काफी है. इस सीट पर 30 से 35 प्रतिशत व्यापारी वर्ग का कब्जा है. 2008 के परिसीमन से पहले इस सीट पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में होते थे. ऐसा माना जाता था कि इसी वजह से कांग्रेस के प्रत्याशी भारी अंतर से जीत दर्ज कराते रहे हैं. परिसीमन के बाद जो बदलाव इस सीट पर हुए हैं उसके बाद ऐसा माना जा रहा है कि कांग्रेस प्रत्याशी कपिल सिब्बल के लिए मुश्किलें बढ़ गई हैं. बीते विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने इलाके की 10 में से चार विधानसभा सीटों पर जीत दर्ज की थी. कांग्रेस के हाथ दो सीटें आई थीं जबकि भाजपा ने तीन सीटें अपनी झोली में डाली थीं.

जीत-हार की इन बातों से इतर सबसे दिलचस्प बात यह है कि पुरानी दिल्ली की इस महत्वपूर्ण सीट पर लोकसभा का यह चुनाव स्थानीय मुद्दों जैसे सीवर लाइन, साफ-सफाई और पार्किंग पर लड़ा जा रहा है. तो जो भी इन मुद्दों पर ज्यादा लोगों को खुद से जोड़ पाएगा उसकी जीत की संभावना बढ़ जाएगी.

चंडीगढ़

chandigarhपूर्व केंद्रीय मंत्री हरमोहन धवन, पूर्व सांसद सतपाल जैन और चंडीगढ़ इकाई के भाजपा अध्यक्ष संजय टंडन चंडीगढ़ सीट से भाजपा के दावेदार थे. तीनों ही अपने-अपने स्तर से टिकट पाने के भरसक प्रयास भी कर रहे थे. लेकिन कुछ दिन पहले जब चंडीगढ़ सीट से किरण खेर का नाम भाजपा प्रत्याशी के रूप में घोषित हुआ तो तीनों दावेदार ठगे से रह गए. हरमोहन धवन और संजय टंडन ने तो संयुक्त रूप से पार्टी हाईकमान को यह भी कहा कि टिकट उन दोनों में से किसी को भी दे दिया जाए तो वे एक-दूसरे का पूरा समर्थन करेंगे. लेकिन भाजपा ने किरण खेर के नाम पर ही अंतिम मोहर लगाई. नतीजा यह है कि यहां भाजपा सबसे ज्यादा भितरघात की शिकार हो रही है.

इस सीट का चर्चाओं में आने का एक कारण कांग्रेस द्वारा पवन बंसल को टिकट दिया जाना भी है. बंसल यहां से चार बार सांसद रह चुके हैं. लेकिन पिछले साल रेलवे रिश्वत कांड में उन पर आरोप लगे थे और उन्हें रेल मंत्री के पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था. भले ही सीबीआई ने उन्हें क्लीन चिट दे दी थी लेकिन उनका भांजा विजय सिंगला ही इस घूसकांड का मुख्य आरोपित है. बंसल को टिकट दिए जाने से भी दिलचस्प यह है कि आज भी उनके जीतने की संभावना भाजपा से कहीं ज्यादा मानी जा रही है. चंडीगढ़ उच्च न्यायालय के अधिवक्ता मनीष बाली बताते हैं, ‘भाजपा अब टक्कर में ही नहीं रह गई है. यहां के सभी मुख्य चेहरे बाहरी व्यक्ति को टिकट दिए जाने से नाराज हैं. कार्यकर्ता ही भाजपा के साथ नहीं हैं. इसका सीधा फायदा पवन बंसल को है. बंसल का मुकाबला अब आप से है.’

आप ने यहां से युवा और चर्चित चेहरे गुल पनाग को उतारा है. 5.87 लाख मतदाताओं वाली इस सीट में 2.65 लाख महिलाएं हैं. लगभग 50 प्रतिशत मतदाता यहां 45 साल से कम उम्र के हैं जिनमें से लगभग दो लाख 30 से भी कम उम्र के हैं. युवाओं से भरी इस सीट पर गुल पनाग को सबसे मजबूत दावेदार माना जा रहा है. एबीपी न्यूज-नील्सन सर्वे ने भी यह सीट गुल पनाग के नाम ही की है. गुल पनाग अपना चुनाव प्रचार भी बिलकुल यहां के युवाओं के अनुसार ही कर रही हैं. बुलेट पर सवार होकर अपने युवा साथियों के साथ वे जहां भी जा रहीं हैं उनको जबरदस्त जनसमर्थन मिल रहा है.

इस सीट पर मोदी की हालिया रैली से भाजपा की स्थिति में कुछ सुधार जरूर देखा जा रहा है. रैली के दौरान चंडीगढ़ भाजपा के सभी बड़े चेहरे पहली बार किरण खेर के साथ नजर आए. मोदी ने यहां लोगों से अपील की है कि ‘किरण खेर को जिताकर सीट मेरी झोली में डाल दो.’ इसके जवाब में अरविंद केजरीवाल ने अपनी चंडीगढ़ रैली में कहा है ‘मैं सीट झोली में नहीं डालूंगा बल्कि गुल पनाग को आपकी सेवा में लगा दूंगा.’

चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी के छात्र हरकीरत सिंह बताते हैं, ‘यहां किरण खेर को जो भी वोट मिलेगा वो मोदी के कारण ही मिलेगा. हरमोहन धवन को अगर भाजपा टिकट देती तो उनकी जीत पक्की थी. लेकिन किरण खेर का जीतना बहुत मुश्किल है. यूनिवर्सिटी के ज्यादातर युवा तो गुल पनाग के ही साथ हैं.’ चंडीगढ़ सीट में निम्न आय वर्ग के मतदाताओं का भी एक तबका है. इसी मतदाता वर्ग को यहां निर्णायक भी माना जाता है. कांग्रेस अधिकतर इस वर्ग को रिझाने में कामयाब रही है. स्थानीय लोगों के अनुसार यदि इस बार भी कांग्रेस ऐसा कर पाई तो जीत बंसल की भी हो सकती है.

गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश

Ghaziabadगाजियाबाद सीट पर चुनाव दिलचस्प होगा क्योंकि भाजपा ने ‘फौजी’, कांग्रेस ने ‘मौजी’ और आप ने ‘भौजी’ को टिकट दिया है.’ सोशल मीडिया पर इस सीट की चर्चा कुछ इसी तरह से हो रही है. इस चर्चा में ‘फौजी’ हैं पूर्व थल सेना अध्यक्ष जनरल वीके सिंह, ‘मौजी’ हैं राज बब्बर और ‘भौजी’ हैं आप प्रत्याशी शाजिया इल्मी. गाजियाबाद सीट पर टक्कर इन्हीं तीनों के बीच मानी जा रही है. दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इस संसदीय सीट के अंतर्गत पांच विधान सभाएं आती हैं. इनमें से चार पर बसपा का कब्जा है. इसके बावजूद भी बसपा प्रत्याशी मुकुल उपाध्याय को जीत की दौड़ से लगभग बाहर ही समझा जा रहा है. वैसे कुछ राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि बसपा यदि दलित और ब्राह्मणों दोनों को साधने में कामयाब रही तो उपाध्याय भी जीत के करीब पहुंच सकते हैं.

यह सीट इसलिए भी चर्चा में है क्योंकि पहली बार भारतीय सेना का सबसे बड़ा अधिकारी लोकसभा चुनाव में उतरा है. लेकिन जनरल वीके सिंह को यहां अपने ही लोगों का विरोध भी झेलना पड़ रहा है. भाजपा कार्यकर्ता किसी स्थानीय को टिकट दिए जाने की मांग कर रहे थे. उनका मानना है कि जनरल वीके सिंह का यहां कोई व्यक्तिगत जनाधार नहीं है. कार्यकर्ता काले झंडे दिखाकर जनरल सिंह का विरोध भी कर चुके हैं. ऐसे में थल सेना के पूर्व अध्यक्ष अपनी पहली चुनावी उड़ान सिर्फ मोदी की कथित हवा के भरोसे ही भर रहे हैं. इस सीट का पारंपरिक तौर से भाजपा का होना जनरल सिंह को जरूर मजबूती देता है. 2004 लोकसभा चुनाव को यदि अपवादस्वरूप छोड़ दिया जाए तो 1991 से इस सीट पर भाजपा प्रत्याशियों का ही कब्जा रहा है.

सेना के जवानों से खेतों के किसानों की ओर बढ़ रहे जनरल सिंह को मुख्य चुनौती इल्मी और फिल्मी से है. दिल्ली विधान सभा चुनावों में मात्र 326 वोटों से हारने वाली शाजिया इल्मी के साथ लोगों की सहानुभूति है. गाजियाबाद का आम आदमी पार्टी की कर्मभूमि होना भी शाजिया को मजबूत करता है. पार्टी का मुख्य कार्यालय और अरविंद केजरीवाल का घर दोनों इसी संसदीय क्षेत्र में हंै. स्थानीय लोग बताते हैं कि दिल्ली में आप की सरकार के दौरान इस क्षेत्र में भी पार्टी की लोकप्रियता बढ़ रही थी. लेकिन सरकार गिरने के बाद से यहां पार्टी कुछ कमजोर हुई है.

पैराशूट प्रत्याशी होने की जो चुनौती भाजपा और आप की है, कांग्रेस प्रत्याशी राज बब्बर की भी पहली चुनौती वही है. उनकी दूसरी है अपना ही दिया हुआ एक बयान. पिछले साल गरीबी रेखा पर बहस के दौरान बब्बर ने कहा था कि ‘भरपेट भोजन तो 12 रुपये में ही मिल जाता है.’ अब विपक्षी उन्हें इस बयान पर घेर रहे हैं. वैसे जनरल सिंह और शाजिया के मुकाबले राज बब्बर फिल्मी सितारा होने के कारण एक जाना पहचाना चेहरा जरूर हैं. 45 प्रतिशत ग्रामीण आबादी वाले इस संसदीय क्षेत्र में यह तथ्य उनको फायदा पहुंचा सकता है. देश की पांच सबसे बड़ी सीटों (मतदाताओं की संख्या के अनुसार) में से एक इस सीट पर लगभग 15 प्रतिशत मुस्लिम हैं. लेकिन कांग्रेस के इन पारंपरिक वोटों का इस बार इल्मी और फिल्मी में बंटवारा तय है.

भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह की वर्तमान सीट होने के कारण यह भाजपा की नाक का भी सवाल मानी जा रही है. परंपरागत तौर से भाजपा और कांग्रेस की इस सीट पर पिछले 52 साल से कोई भी महिला जीत दर्ज करने में नाकाम रही है. इस तथ्य के बावजूद भी आप ने इल्मी को यहां से मैदान में उतार कर लड़ाई को त्रिकोणीय बना दिया है. सोशल मीडिया की भाषा पर ही लौटें तो यह फौजी, मौजी और भौजी की दिलचस्प लड़ाई है.

आजमगढ़, उत्तर प्रदेश

Azamgarhआजमगढ़ की लड़ाई प्यादे और वजीर की लड़ाई है. ऐसा इसलिए क्योंकि आजमगढ़ के मौजूदा सांसद रमाकांत यादव ने कभी मुलायम सिंह की उंगली पकड़ कर राजनीति का ककहरा सीखा था. इस लिहाज से आजमगढ़ दिग्गजों की लड़ाई वाले इस खांचे में फिट नहीं होता. लेकिन इसकी भौगोलिक स्थितियों पर नजर डालने पर हम पाते हैं कि अकेले मुलायम सिंह ने ही इसे  दिग्गजों की लड़ाई में शुमार कर दिया है. आजमगढ़ के एक सिरे पर बनारस है और दूसरे सिरे पर गोरखपुर. यानी इसके दाहिने कोने पर नरेंद्र मोदी हैं और बाएं कोने पर योगी आदित्यनाथ. इन दो दक्षिणपंथी नेताओं के बीच में खड़े होकर मुलायम सिंह ने आजमगढ़ की लड़ाई को बड़ा बना दिया है. इस कस्बेनुमा शहर का इतिहास बताता है कि सपा के अस्तित्व में आने के बाद से यह उनके गढ़ के रूप में स्थापित हुआ है. थोड़ा और अतीत में झांकें तो हम पाते हैं कि इस शहर का देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस से मुहब्बत का रिश्ता कभी नहीं रहा. अधिकतर समय इसे समाजवादी भाते रहे हैं. जिले के बड़े नेता और फिलहाल मध्य प्रदेश के राज्यपाल रामनरेश यादव ने भी सूबे का मुख्यमंत्री पद जनता पार्टी में रहते हुए प्राप्त किया था.

समाजवादियों की जिले पर पकड़ आज भी कायम है. यहां की 10 में से नौ विधानसभा सीटें सपा के कब्जे में हैं. ऐसा होने के पीछे इसकी जनसांख्यिकी की बड़ी भूमिका रही. जिन दो समुदायों की नींव पर मुलायम सिंह ने अपनी पार्टी खड़ा करने का सपना देखा था वे दोनों ही आजमगढ़ में प्रचुरता में हैं. जिले का लगभग 22 फीसदी वोटर यादव है. इसी तरह यहां लगभग 2.5 लाख मुसलिम मतदाता हैं. आजमगढ़ ही नहीं बल्कि अगल बगल की मऊ, गाजीपुर, जौनपुर सीटों पर भी यही समीकरण प्रभावी है. इन दोनों का मिलना हमेशा मुलायम सिंह के लिए फलदायी सिद्ध हुआ है.

लेकिन फिलहाल स्थितियां थोड़ा अलग हैं. सुरक्षित इलाका होने के बावजूद मुलायम सिंह या उनका परिवार कभी भी इस इलाके से चुनाव लड़ने के लिए नहीं उतरा. यह पहली बार हो रहा है. 2014 में मुलायम सिंह के आजमगढ़ जाने की वजहें दिलचस्प हैं. 2008 में दिल्ली के बटला हाउस इलाके में हुई मुठभेड़ के बाद से आजमगढ़ धार्मिक पहचानों में बुरी तरह से बंट गया है. बटला हाउस के नतीजे में यहां धार्मिक पहचान वाली एक पार्टी उलेमा काउंसिल का उदय भी हो चुका है. धार्मिक आधार पर हुए दोफाड़ का नतीजा यहां 2009 के लोकसभा चुनाव में साफ दिखा. भाजपा इस इलाके में राममंदिर आंदोलन के दौरान भी कभी अपने पांव नहीं जमा सकी थी, जबकि यह जिला अयोध्या से महज 80 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद है. उसी भाजपा के उम्मीदवार रमाकांत यादव ने यहां 50 हजार वोटों से जीत दर्ज की. तो जो आजमगढ़ 90-92 के पागलपन भरे दौर में अपना मन-मिजाज बनाए रख सका था वह  अब सिर्फ धार्मिक पहचान के खांचों में सोचता है.

इसी दौरान कुछ और घटनाएं भी हुईं हैं जिनमें मुलायम सिंह के आजमगढ़ से लड़ने के सूत्र छिपे हैं. मुजफ्फरनगर के दंगों ने हालात बदल दिए हैं. मुसलमान मुलायम सिंह से बुरी तरह बिदका हुआ है. इन्हीं दंगों के साए में मुलायम सिंह ने आजमगढ़ से अपने लोकसभा चुनाव का श्रीगणेश किया था और मुसलमान भरे जलसे से पूरी तरह नदारद था. बटला हाउस से लेकर मुजफ्फरनगर तक जिस तरह की स्थितियां बनी हैं उनमें आजमगढ़ मुसलिम राजनीति की धुरी बनकर उभरा है. इसके बाकी निहितार्थ चाहे जो रहें पर एक नतीजा स्पष्ट रूप से दिख रहा है कि मुसलमानों में सपा को लेकर मोहभंग की स्थिति है. दूसरा अहम बदलाव यह हुआ है कि आजमगढ़ के जुड़वां शहर बनारस से भाजपा के नरेंद्र मोदी ने चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है. बनारस हिंदू आस्था का केंद्र है और मोदी जैसे दक्षिणपंथी नेता के लिए इस शहर के अपने राजनीतिक निहितार्थ हैं. तीसरी बात जिस यादव पर अब तक मुलायम सिंह अपना एकाधिकार मानते आ रहे थे उसने भी बदली परिस्थितियों में मुलायम सिंह के यादव पर भाजपा के यादव को तरजीह देना शुरू कर दिया, जिसका एक नमूना 2009 के लोकसभा चुनाव में दिखा. इन तीन परिस्थितियों ने मुलायम सिंह और समाजवाद पार्टी के भीतर चिंता की एक लहर पैदा की है. इससे निपटने के लिए मुलायम सिंह ने आजमगढ़ का दांव चला है. वे पूरी तरह से आजमगढ़ के हो गए हैं, ऐसा कहने और मानने की कोई वजह नहीं है क्योंकि उन्होंने मैनपुरी की अपनी सीट अभी छोड़ी नहीं है. जानकार मानते हैं कि इस समय मुलायम सिंह के सामने दो प्राथमिक चुनौतियां हैं- पहली यादव-मुसलिम वोटबैंक को एकजुट और स्थायी रखना दूसरा, दूसरे बेटे प्रतीक यादव को राजनीति में स्थापित करना. पहली चुनौती के लिए उन्हें आजमगढ़ जीतना जरूरी है और दूसरी चुनौती के लिए मैनपुरी.

अमृतसर, पंजाब

Amritsarअमृतसर लोकसभा सीट से भाजपा के अरुण जेटली और कांग्रेस के कैप्टन अमरिंदर सिंह के बीच का मुकाबला वैसे तो कई आरोपों प्रत्यारोपों के बीच लड़ा जा रहा है. लेकिन जिस एक मुद्दे को कांग्रेस की तरफ से सबसे ज्यादा उछाला जा रहा है वह है अरुण जेटली के बाहरी होने का मसला. कांग्रेस जनता को समझा रही है कि जेटली को वोट मत दीजिए. यह आदमी जीत जाएगा तो फुर्र हो जाएगा. आपके बीच अमृतसर में नहीं रहेगा.

अमृतसर सीट से चुनाव लड़ने की इच्छा जेटली के मन में कोई तीन साल पहले से ही कुलबुला रही थी, लेकिन पूर्व क्रिकेटर एवं अमृतसर से तीन बार सांसद नवजोत सिंह सिद्धू के न तो सीट खाली करने की कोई संभावना दिखाई दे रही थी और न ही उनसे सीट झपटने की कोई तरकीब सूझ रही थी. लेकिन पिछले दो सालों में सिद्दू और भाजपा की पंजाब में सहयोगी अकाली दल के बीच हुए संघर्ष खासकर अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर बादल के साले एवं रसूखदार मंत्री विक्रम मजीठिया से उनकी भिड़ंत उनके अमृतसर से राजनीतिक विस्थापन का कारण बनी.

सिद्दू की पत्नी और भाजपा विधायक नवजोत कौर सिद्दू कहती हैं, ‘स्थानीय भाजपा ने अकालियों के साथ मिलकर हमारे खिलाफ षड़यंत्र किया है. ठीक है. हमें टिकट नहीं दिया गया. लेकिन हमसे पार्टी का चुनाव में प्रचार करने की उम्मीद क्यों की जा रही है. हम अमृतसर में चुनाव प्रचार नहीं करेंगे. हमसे कहा गया कि सिद्दू को हटाना गठबंधन की मजबूरी है. तो ठीक है गठबंधन बचाएं आप.’

खैर, सिद्दू का अमृतसर से टिकट कटवाने के बाद जेटली को यहां से जिताना अब अकाली दल के लिए नाक का प्रश्न बन गया है. अमृतसर की नौ विधानसभा सीटों में से चार अकाली दल के पास हंै. अमृतसर पंजाब के माझा क्षेत्र में आता है. यहां अकाली दल का अच्छा खासा प्रभाव है. साथ में अमृतसर में सिखों की जनसंख्या 67 फीसदी के करीब है. ऐसे में अकाली दल को सीट निकालने का भरोसा है.

कुछ समय पहले तक जेटली की अमृतसर से जीत में किसी को कोई बाधा दिखाई नहीं दे रही थी. लेकिन कांग्रेस पार्टी द्वारा सीट से राज्य के अपने कद्दावर नेता और पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के उतारने पर मामला कांटे का हो गया है. हालांकि अमरिंदर लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए इच्छुक नहीं थे, लेकिन पार्टी हाईकमान के कहने पर वे राजी हुए. एएनआई से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार रॉबिन कहते हैं, ‘पहले ये जेटली के लिए केकवॉक था लेकिन कैप्टन के आने के बाद मुकाबला कड़ा हो गया है.’

खैर, कांग्रेस ने जेटली के खिलाफ बाहरी होने का जो सबसे बड़ा मुद्दा उठाया है उसका जवाब देने की जेटली भरसक कोशिश कर रहे हैं. पंजाबी में चुनावी सभाओं से लेकर पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करने के साथ ही जेटली लगातार अमृतसरी जनता को बता रहे हैं कि उनकी पैतृक जड़ें पंजाब से ही निकलती हैं.

जेटली भले ही बाहरी हों लेकिन वे पंजाब और अमृतसर के लिए कितने फायदेमंद हो सकते हैं, शायद यही बताने के लिए अकाली नेता और पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल आम जनता को संबोधित करते हुए कहते हैं, ‘जेटली कल की केंद्र सरकार में उप प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री बनने वाले हैं. ऐसा होने पर पंजाब के विकास के लिए फंड की कमी नहीं पडेगी. ऐसे में अमृतसर का खूब विकास होगा.’

राज्य में कांग्रेस के सबसे लोकप्रिय और प्रभावशाली नेता तथा पूर्व मुख्यमंत्री होने के अलावा एक और महत्वपूर्ण कारण है जिस पर कांग्रेस को भरोसा है कि वह अमरिंदर सिंह के पक्ष में जाएगा. अमरिंदर सिंह ने ऑपरेशन ब्लू स्टार के विरोध में कांग्रेस पार्टी और संसद सदस्यता से उस समय त्यागपत्र दे दिया था. ऐसे में पार्टी को उम्मीद है कि स्वर्ण मंदिर के इस शहर में अमरिंदर को सिखों का अभूतपूर्व समर्थन जरूर मिलेगा.

रॉबिन कहते हैं, ‘जेटली के साथ एक दिक्कत और है कि वे अपनी जीत को लेकर पूरी तरह से अकालियों पर आश्रित हैं. इसके अलावा जेटली की छवि एक बेहद सॉफ्ट नेता की है जो अमृतसर की तबीयत से मेल नहीं खाती. यहां की जनता आक्रामक नेताओं को पसंद करती है. जिसके तेवर तीखे हों. इस मामले में भी कैप्टन जेटली पर भारी पड़ते दिख रहे हैं.’

अमृतसर लोकसभा सीट के इतिहास को देखें तो इस सीट से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता आरएल भाटिया छह बार जीत कर संसद जा चुके हैं. हालांकि 2004 में जब भाजपा ने इस सीट से नवजोत सिद्दू को उतारा तब से इस सीट पर भाजपा का कब्जा है. लेकिन भाजपा के लिए चिंता की बात यह है कि 2009 के लोकसभा चुनावों में सिद्धू कांग्रेस के ओम प्रकाश सोनी से मात्र 6900 वोटों से जीत सके. इसके अतिरिक्त पिछले पांच सालों में बीजेपी सांसद सिद्दू के खिलाफ स्थानीय जनता में काफी नाराजगी देखी गई. ऐसे में कइयों को यह भी आशंका है कि कहीं इस नाराजगी का ठीकरा जेटली पर न फूटे.

दिलदार और दुनियादार एक सरदार

खुशवंत सिंह
खुशवंत सिंह | 1915-2014
खुशवंत सिंह
खुशवंत सिंह | 1915-2014

मैं उनके निधन पर उतना ही दुखी हूं जितना उनके जीने पर था. खुशवंत सिंह का अकारण और अतार्किक हिंदी विरोध कइयों की तरह मुझे भी सालता था. सालता इसलिए था कि उन जैसा सुपठित, सुचिंतित और देसी ठसक वाला अंग्रेजी लेखक विरल है. वरना हिंदी समेत कई जायज मुद्दों का अंधा और काना विरोध तो कई लोग करते रहते हैं.

बेबाक, बिंदास और दूसरों सहित खुद की भी खाल खींचने वाले लेखन का सॉफ्टवेयर  खुशवंत ने उर्दू लेखक सआदत हसन मंटो से लिया था. दोनों समकालीन थे. खुशवंत हिंदी-उर्दू को चाहे जितना भी कोसते रहे हों, वे उर्दू खूब पढ़ते थे, और पुरातन से लेकर आधुनिक तक कई उर्दू शायरों के अशआर उन्हें कंठस्थ थे.

खुशवंत सिंह की सबसे बड़ी खूबी उनका खिलदंड़पन था. यह विशेषता उनके लेखन और व्यक्तित्व दोनों में थी. उनमें स्वयं का उपहास उड़ाने और खुद को बेनकाब करने का अद्भुत साहस था. तभी वे निर्भीक होकर दूसरे पर टूट पड़ते थे. इसके समर्थन में मैं अपने साथ उनकी पहली और अंतिम मुलाकात का जिक्र करना चाहूंगा. हम दोनों दिल्ली में एक पार्टी किस्म के समारोह से झूमते हुए बाहर निकले. दरअसल झूम तो मैं ही रहा था, खुशवंत सिंह मुझे अपनी वजह से ही लहराते दिखे होंगे. वे अपने शराबी होने का जितना ढिंढोरा पीटते थे, स्थिति उसके ठीक उलट थी. वे नियत समय पर, नियत मात्रा में नियत ब्रांड पीते थे. खैर, मैं अपनी बुलेट मोटर साइकिल से टिहरी से दिल्ली पहुंचा था, मैंने हिलते हुए अपनी बाइक स्टार्ट करते हुए उनका आह्वान किया कि मेरे साथ बुलेट पर घूम कर अपनी शाम को और मस्त बनाएं. उन्होंने हंसते हुए हाथ जोड़ कर कहा, ‘ओ तू तो कहीं मुझे ठोक देगा मेरे बाप.’ मैंने फिर बात आगे बढ़ाई, ‘कभी टिहरी मेरे घर पर आएं या मुझे अपने घर बुलवा लें.’ इस पर वे बोले, ‘तुम्हंे अंग्रेजी नहीं आती और मुझे हिंदी. हम दोनों एक दुसरे को बोर करने के सिवा क्या करेंगे?’

अपने सारे उचक्केपन के बावजूद समाज, राजनीति, पर्यावरण, संस्कृति आदि के बारे में न सिर्फ उनकी समझ गहरी थी, बल्कि समर्पण भी अगाध था. लगभग तीन दशक पहले उन्होंने मेरे पर्यावरणवादी पिता (सुंदर लाल बहुगुणा) को साक्षी मानकर संकल्प किया था कि उन्हें मृत्योपरांत जलाने की बजाय दफनाया जाए क्योंकि यही पर्यावरणसम्मत पद्धति है. यह घोषणा उन्होंने बाकायदा प्रकाशित करवाई. इसी तरह पंजाब में अशांति के चरम काल में खाड़कुओं ने उन पर आरोप लगाया कि वे सिख होकर भी उन्हें उग्रवादी कहते हैं इसलिए क्यों न उन्हें दंडित किया जाए. इस पर खुशवंत सिंह ने उन्हें दो टूक जवाब दिया, ‘मैंने तुम्हंे उग्रवादी कभी नहीं कहा, बल्कि हमेशा लुच्चा कहा क्योंकि तुम लोग यही हो.’ भूमिगत होने से पहले एक बार उनका सामना जनरैल सिंह भिंडरावाला से हो गया. भिंडरावाला ने उनकी दाढ़ी छू कर ललकारा, ‘ऐसे भी पथभ्रष्ट सिख हैं जो दाढ़ी रंगते हैं. उन्हें सबक सिखाना होगा.’ खुशवंत सिंह ने जवाब दिया–’मैं न सिर्फ दाढ़ी रंगता हूं बल्कि शराब भी पीता हूं.’और फिर पास बैठे प्रकाश सिंह बादल की और इशारा कर कहा, ‘मेरे साथ कभी-कभी ये भी पीते हैं.’ स्वाभाविक है कि बादल ने स्वयं को असहज महसूस किया.

खुशवंत सिंह के पास अनुभव और विचारोत्तेजना की यह संपदा उनके व्यापक भ्रमण के कारण भी आई . एक रईस का बेटा होने के कारण उन्हें बचपन से ही देशाटन का भरपूर लाभ मिला. लेकिन युवा होने पर उन्होंने खानदानी रईस होने के बावजूद मामूली नौकरियों से जीवन की शुरुआत की. जो परिवार आधी नई दिल्ली का मालिक समझा जाता रहा हो उसके कुंवर ने बग्घियों पर चलने की बजाय अगर साइकिल पर पैडल मारते हुए नौकरी करना पसंद किया तो एक एक बड़ा कारण खुशवंत सिंह की स्वाभिमानी और आत्मनिर्भर होने की प्रवृत्ति ही थी. विचारों से वे निसंदेह दक्षिणपंथ की ओर झुके हुए थे लेकिन थे मनुष्य की अस्मिता और चेतना के प्रबल पक्षधर. अपने सुदीर्घ जीवन में उन्हें छोटे-बड़े अगणित लोगों का सान्निध्य मिला जिसका उन्होंने भरपूर उपयोग किया. अप्रतिम चित्र शिल्पी अमृता शेर गिल से सबंधित संस्मरण में वे बिंदास अंदाज में लिखते हैं – गर्मी की भरी दोपहर वह मेरे घर पहुंची. मेरी पत्नी ने कहा भी वे घर पर नहीं हैं . लेकिन वह अनसुना कर मेरे बेडरूम में घुस गई. मेरा फ्रिज खोला और बीयर की बोतल निकालकर पीने लगी. फिर मेरे शिशु की तरफ इशारा करते हुए बोली, ‘छी, यह इतना गंदा बच्चा किसका है, एकदम सूअर के बच्चे जैसा.’ उन्होंने संजय और मेनका गांधी से अपने प्रगाढ़ संबंधों के बारे में भी बेबाक लिखा. साफ-साफ लिखा कि किस तरह संजय गांधी की वजह से उन्हें राज्य सभा की सदस्यता और हिंदुस्तान टाइम्स की संपादकी मिली. कुछ इतना तिक्त भी लिखा कि मेनका गांधी के साथ मुकदमेबाजी तक हो गई. वही मेनका गांधी जिनका पक्ष लेने के कारण इंदिरा गांधी उनसे नाराज हो गई थीं.

सरदार जी पूरे दुनियादार भी थे. अपने घर आने वाले हर अतिथि से वे अपेक्षा रखते थे कि वह अपनी ड्रिंक साथ लाए. इमरजेंसी में कभी पिलानी भी पड़ जाए , तो दो पैग के बाद बोतल को ताले में रख देते थे. इसी तरह भगत सिंह के विरुद्ध गवाही देने वाले अपने पिता का वे हमेशा बचाव करते रहे. यह कहने का साहस नहीं जुटा पाए कि हां, मेरे पिता से वह गलती हुई थी.

जो भी हो, वे थे तो सवा लाख में एक सरदार.

‘मुख्तार अब्बास नकवी बिना जमीन और बिना जमीर वाले नेता हैं’

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार

भाजपा में आपका जाना और आना बहुत जल्द हो गया. अब आगे क्या करेंगे?
मैं पूरी तरह से स्तब्ध हूं. इतनी बड़ी एक राष्ट्रीय पार्टी थी. मैंने सोचा था कि पार्टी के साथ लगकर सालों-साल से दोनों समुदायों के बीच जो लाइन खिंची हुई है उसे खत्म करूंगा. लेकिन अभी मैंने भविष्य के बारे में कुछ नहीं सोचा है.

मुख्तार अब्बास नकवी ने आपके ऊपर बेहद संगीन आरोप लगाए हैं. इस पर आप क्या कहेंगे?
इतने सालों से भाजपा में रहकर भी ये एक आदमी को भाजपा के साथ जोड़ नहीं सके. ये बिना जमीन और बिना जमीर के नेता हैं. इन्हें इस बात का डर सता रहा था कि अगर कोई जमीनी नेता पार्टी में आ जाएगा तो इनकी दुकान बंद हो जाएगी. पार्टी के बड़े-बड़े नेताओं ने मुझे भरोसा दिया था. जो आरोप लगा रहे हैं उनकी दिक्कत ये है कि सालों तक ये मुसलमानों को भाजपा से जोड़ नहीं सके.

अब आपकी पत्नी भी नकवी के आवास के सामने धरने पर बैठ गई हैं. आपकी मांग क्या है?
सीधी सी बात है, अब तो मैं पार्टी में हूं नहीं. मैंने तो उसी दिन चुनौती दी थी कि या तो अपने आरोप सिद्ध करें या फिर 72 घंटों के भीतर माफी मांगें. पर ये साब मुंह छिपाकर बिल में घुस गए हैं. कहां हैं. अगर आप किसी के ऊपर आरोप लगा रहे हैं तो आपके पास उसे साबित करने के लिए सबूत भी होंगे. मैंने तो कहा कि आप बहस-मुबाहिसा कर लीजिए, आमने-सामने बैठकर मुझसे बात कर लीजिए. पर आप तो मुंह छुपाकर बैठे हैं. दम है तो रूबरू होकर बात करिए. आप देखिए कि मैं राज्यसभा का सदस्य हूं और इस देश की एजेंसियां कितनी नकारा है कि जिस देशद्रोही की खबर नकवी साब को है उसके बारे में एजेंसियों को कोई खबर ही नहीं है. महज 10 दिन पहले वे (मुख्तार अब्बास नकवी) मुझसे एयरपोर्ट पर मिले थे. मेरी खुलकर बातचीत हुई थी. मैंने अपनी मंशा उनके सामने रखी थी. तब उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी. इन 10 दिनों के दरम्यान भी उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई. ऐन जिस दिन मैंने पार्टी ज्वाइन की उसी दिन उनके पेट में दर्द हुआ. वे डरे हुए हैं.

पर आपके ऊपर आरोप लगते रहे हैं, मसलन भटकल के साथ ताल्लुकात की खबरें भी आपको पार्टी से निकाले जाने की एक महत्वपूर्ण वजह बताई गई.
दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है भटकल से मेरा. है कोई सबूत किसी के पास तो उसे मेरे सामने रखिए. मैं सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लूंगा. पर ये हवा-हवाई आरोप लगाकर आप किसी के राजनीतिक जीवन पर कीचड़ नहीं उछाल सकते. जाने कहां की पैदावार है भटकल. मुझे तो पता भी नहीं ऐसे किसी शख्स के बारे में. मैंने तो इस पार्टी में कभी काम किया नहीं है. मुझे नहीं पता कि यह पार्टी कैसे काम करती है.

जो आरोप आपको भाजपा में लेने के बाद लगाए गए वे तो काफी पुराने हैं. तो क्या पार्टी की निगाह में वे पहले से नहीं थे? किन लोगों से पार्टी में आपकी बात हुई थी?
पार्टी के सभी बड़े नेताओं के साथ मेरी बात हुई थी. किसी को मुझे पार्टी में शामिल करने पर कोई आपत्ति नहीं थी. मेरे ऊपर कोई आरोप है ही नहीं.

आपके ऊपर आरोप है कि गुलशन कुमार की हत्या से आपके तार जुड़े हुए हैं. यह क्या मामला है?
मेरी मुंबई में ट्रैवेल एजेंसी थी. वहां 40 से ज्यादा कर्मचारी काम करते थे. मेरी एजेंसी से तीन लोगों का टिकट कटवाया गया था. उन लोगों के ऊपर हत्या के षडयंत्र में शामिल होने का आरोप था. उन्हीं के साथ मुझे भी गिरफ्तार किया गया था. पर वे सारे लोग बरी कर दिए गए. मैं भी बाइज्जत बरी हो गया था.

आपके ऊपर यह आरोप भी लग रहा है कि जितनी कम उम्र और सामान्य सी पढ़ाई-लिखाई के बावजूद थोड़े से समय में जितनी तरक्की आपने की उसके पीछे दाउद इब्राहिम का हाथ था.
जो लोग हमारी पढ़ाई-लिखाई की बात कर रहे हैं आकर मुझसे बात कर लें. उन्हें पता चल जाएगा. मेरी उम्र 44 साल है. मैंने अपने जीवन के 26 साल मुंबई में गुजारे हैं. इतने साल मुंबई में काम करने के बाद मैं 10-20 करोड़ रुपए भी नहीं कमा सकता. क्यों? क्या मुसलमान इस देश में 10-20 करोड़ भी नहीं कमा सकता अपनी मेहनत से? कोई रिलायंस से पूछता है कि चालीस साल में उन्होंने हजारों करोड़ का साम्राज्य कैसे खड़ा कर लिया?

आपने नीतीश कुमार का साथ क्यों छोड़ दिया?
नीतीश कुमार ने हमसे वादा किया था कि वे राज्यसभा में भेजेंगे. पर बाद में उन्होंने मुझे धोखा दिया. मैं इतनी सारी मेहनत करूं, रुपया-पैसा भी लगाऊं और चुनाव हार जाऊं तो क्या फायदा. जब उन्होंने वादा करके मुझे धोखा दे दिया तो मैं कैसे उनके ऊपर विश्वास करूं. तो मैंने भी मौका देखकर अपने लिए बेहतर फैसला कर लिया.

तो क्या भाजपा ने भी आपसे कोई वायदा किया था?
देखिए मुझे राजनीति करनी है. बिहार में तीनों पार्टियां एक-एक नेताओं की जेब में हैं. जदयू नीतीश की जेब में है, शरद यादव की वहां क्या हैसियत है? इसी तरह लालू यादव और रामविलास पासवान भी हैं. भाजपा एक राष्ट्रीय पार्टी है. मुझे उम्मीद थी कि उनके साथ जुड़कर मैं मुसलमानों को भाजपा से जोड़ने की दिशा में काम कर सकूंगा. पर कुछ लोगों को शायद यह मंजूर नहीं है

‘व्यापक समाज अब आदिवासियों के संघर्ष को महसूस कर रहा है’

फोटोः रेयाज उल हक
फोटोः रेयाज उल हक

अपने आगामी उपन्यास  ‘गायब होता देश’  के जरिए आपने फिर से आदिवासी समुदाय पर चारों तरफ से बढ़ रहे दबावों और हमलों को दर्ज किया है. और आपके पहले उपन्यास का केंद्र भी इसी तबके के इर्द-गिर्द था.
हां, मेरे आगामी उपन्यास ‘गायब होता देश’ की विषयवस्तु आदिवासी मुंडा समुदाय के असह्य शोषण, लूट, पीड़ा, विक्षोभ पर ही केंद्रित है. ‘ग्लोबल गांव के देवता’ में आदिम जाति असुर समुदाय के संकट को रेखांकित करने की कोशिश की गई थी.

‘गायब होता देश’ में मुंडा समुदाय है जो इतिहास के एक दौर में शासक रहा है और प्रगत कृषक समुदाय था – है. ‘धान’ जैसी फसल मुंडाओं द्वारा ही मानव सभ्यता को दिया गया अनमोल उपहार है. यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि राजा मदरा मुंडा छोटानागपुर के नागवंशी शासकों के वर्चस्व स्थापित होने के पूर्व इस ‘सोने जैसे देश’ के अंतिम मुंडा राजा थे. पशुचारी मानव समुदायों को कृषि जैसी प्रगत जीवनयापन का माध्यम प्रदान करने वाला, मानवीय सभ्यता को ऊंची छलांग प्रदान करने वाला यह मुंडा समुदाय ही था. आजादी के बाद विकसित देशों के कथित विकास मॉडल ने विस्थापन के वज्र से जो आघात आरंभ किया उसकी चोट ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थायी बंदोबस्ती, जमींदारी प्रथा से भी ज्यादा गहरी और मारक थी. 1991  के बाद उपभोक्तावादी पूंजीवाद को ज्यादा खनिज, ज्यादा जंगल, ज्यादा जमीन चाहिए.

कल तक बाहुबली बिल्डर दबंगई के बल पर अपना पेशा चला रहे थे. नई आर्थिक नीति और 2008 की महामंदी ने रियल एस्टेट को सबसे ज्यादा मुनाफा देने वाले सेक्टर में बदल दिया है. वही रंगदार-बिल्डर अब प्रतिष्ठित कॉरपोरेट है. जमीन की लूट की गति हमारे अनुमान से भी ज्यादा तेज है. स्वाभाविक है कि झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा आदि राज्यों में इस सेक्टर का सबसे बड़ा शिकार आदिवासी समुदाय है. उनकी गलती है कि उनके पूर्वजों ने हजारों साल पहले घने जंगलों को काटा, खेत बनाया, कृषि सीखी और पूरी सभ्यता को कृषि सिखाई. सामंती-पूंजीवादी सभ्यताओं की तरह दूसरों को लूट कर धनपशु बनना नहीं सीखा. वे आसान शिकार हैं क्योंकि उन्हें ठगने, झूठ बोलने की चालाकियां नहीं आतीं. वे कमजोर हंै क्योंकि उनका मध्यवर्ग व्यक्तिवादी हो गया है और राजनैतिक वर्ग स्वार्थी. सबों को उनकी जमीनें चाहिए ही चाहिए. छल-बल, दंड-भेद से ही सही किंतु हर हाल में चाहिए. यही जलते प्रश्न नए उपन्यास की अंतर्वस्तु हैं.

ऐसा क्यों है कि आज आदिवासी समाज के संकट और उनके संघर्ष देश के व्यापक समाज के संकट और संघर्षों के प्रतिनिधि लगते हैं ?
हम सब इस तथ्य से सुपरिचित हैं कि आजादी के तुरंत बाद नेहरू-महालानोबिस मॉडल की विशालकाय परियोजनाएं आधुनिक तीर्थस्थल बन कर अवतरित हुईं. तर्क यह था कि विशाल राष्ट्र को विशालकाय परियोजनाएं ही शोभेंगी. इस शोभने वाले विकास की बलिवेदी पर जिस समुदाय ने सबसे ज्यादा शहादतें दीं वह आदिवासी समुदाय था.

1991 के बाद विकास की गति बहुत ज्यादा तेज हो गई है. वैश्वीकृत बाजार में मध्यवर्ग की एषणाएं आसमान छू रही हैं. ‘छठा वेतन आयोग’ और ‘कैंपस सेलेक्शन विद एट्रैक्टिव पैकेज’ एक ही झटके में सपनों को पूरा कर रहा है. ‘इक बंगला बने न्यारा’ और ‘मोटरगाड़ी’ के लिए अब बरसों प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती. अतः सारा लौह अयस्क, बॉक्साइट, तांबा, यूरेनियम आज ही चाहिए. आज ही सारी बाइक्स और तरह-तरह की कारें बाजार में उतारी जानी हैं. नतीजतन 1991 ईस्वी के पहले कंपनियों को निर्गत खनन पट्टों की संख्या कुछ सौ थी वह बढ़कर आज कुछ हजार हो गई है. जितने मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टेंडिंग झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, कर्नाटक आदि राज्यों में हुए हैं, अगर वे जमीन पर उतर गए तो विस्थापन नहीं विपदा आ जाएगी. एक जलजला आ जाएगा. अर्थशास्त्री अमित भादुड़ी ने इसे ‘विकास के आतंकवाद’ के रूप में रेखांकित किया है.

कल तक बड़े बांधों, कारखानों, खनन परिसरों के लिए जब 1894 के औपनिवेशिक भूमि अधिग्रहण कानून के सहारे जमीनें इन आदिवासी इलाकों में जबरिया छीनी जा रही थीं तो मुख्यधारा को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था. लेकिन आज तो रियल एस्टेट का दिल भी ‘मोर-मोर’ मांग रहा है. इस सेक्टर का आकाश तो असीम है. उसे रांची-रायगढ़ से नोयडा, गाजियाबाद तक हर कहीं जमीन चाहिए. सरकारें स्पेशल इकोनॉमिक जोन के लिए जमीनें अधिगृहीत कर रही हैं और उसे रियल एस्टेट इकोनॉमिक जोन को हस्तांतरित कर रही हैं. न जाने कितने हजार बहुफसली सिंचित कृषि भूमि इस ‘विकास के आतंकवाद’ की अजगरी आंत मे समा गई है और कितनी और निगली जानी बाकी हैं. अब जाकर मुख्यधारा को लघु-सीमांत किसानों का जीवन-आधार, भूख के विस्तार खेत के जबरिया छीने जाने की पीड़ा की गहराई का अहसास हो रहा है. इन्हीं कारणों से आदिवासी इलाके का संकट और संघर्ष व्यापक समाज के संकट और संघर्ष का प्रतिनिधि बनता लगने लगा है.

साहित्य में अलग-अलग अस्मिताओं को केंद्र में रखकर लेखन का चलन काफी बढ़ा है. जैसे दलित, स्त्री, पिछड़े आदि. यह रुझान साहित्य को और समाज को किस दिशा में ले जाएगा? इसके व्यापक राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक निहितार्थ क्या है?
आदिवासी, दलित, स्त्री, पिछड़े मुसलमान आदि हाशियाकृत समुदायों  अस्मिताओं की अपनी विशिष्ट समस्याएं रही हैं. वे अलग से रेखांकित किए जाने की प्रतीक्षा कर रही थीं पर कई कारणों से उपेक्षित रहीं. अब सीके जानू का ही उदाहरण लें. वे केरल में जिस आदिवासी समुदाय से आती थीं उस समुदाय पर वन विभाग के अधिकारियों का दबाव बढ़ता जा रहा था. जानू एक वामदल की सक्रिय कार्यकर्ता, जिला कमेटी की सदस्य थीं किंतु पार्टी उनके आदिवासीपन और आदिवासी होने के कारण समुदाय पर आ रहे संकट को अलग से सुनने के लिए तैयार नहीं था. जब वे लोग जंगलों से खदेड़ दिए गए, सड़कों के किनारे टेंट लगाकर रहने को विवश हो गए तब भी पार्टी अपना रुख बदलने को तैयार नहीं थी. अंततः सीके जानू को पार्टी छोड़कर अपनी समस्या के समाधान के लिए खुद ही नेतृत्व संभालना पड़ा.

पुरुलिया में लगभग एक दशक पूर्व पंचायती संस्थाओं के सर्वेक्षण के क्रम में पंचायतों के दलित जन-प्रतिनिधियों ने अपनी पीड़ा बताई कि उनके ही वामदल का पंचायत-जिला परिषद में वर्चस्व है. पर उन्हें और उनके समुदाय की समस्याओं की इसलिए अनदेखी की जाती है क्योंकि वे दलित हैं. सामाजिक-राजनैतिक तौर पर उनकी आवाज कमजोर है.

सामान्यतया पति कॉमरेड हो या न हो पत्नियों को कोई फर्क नहीं पड़ता. पितृसत्ता का वर्चस्व उन्हें एक ही तरह से प्रताड़ित करता रहता है. उसी तरह सामान्य तौर पर कॉमरेड नेतृत्व-कार्यकर्ता, रचनाकार-विचारक का वर्णवादी-जातिवादी अदृश्य ऐंटीना भी सक्रिय रहता है. उनकी भी बेटी और रोटी तो जाति में ही शोभती है, वह भी पूरे कर्मकांड-अनुष्ठान के साथ. वैचारिकता और व्यवहार के इस फांक ने अस्मितावादी आंदोलनों को हवा देने में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई हैं.

9/11 के बाद बुश महोदय ने तो पूरी दुनिया को मुसलमान के रूप में एक स्थायी  ‘अंदर-अन्य’  दे दिया है. उन्होंने उसके माथे पर  ‘आतंकी’  होने का स्टिकर भी चिपका दिया है. 1925 से जो फासीवादी संगठन हमारे देश में इसी प्रयास में लगे थे उनके लिए तो बुश का यह घृणा अभियान ऐसा रहा मानो उनके भाग्य से छींका ही टूट गया हो.

केवल ये कटु सच्चाइयां ही नहीं बल्कि इसके साथ कई अन्य कारक भी हैं जिन्होंने अस्मितावादी आंदोलनों को खड़ा करने, प्रचारित-प्रसारित करने में भूमिका निभाई है. ‘पॉलिटिक्स ऑफ आइडेंटिटी’ एक वैश्विक परिघटना है. इसे ‘सर्वहारा के महाआख्यान’ के खिलाफ खड़ा करने के लिए काफी समर्थ और प्रतिबद्ध विचारक-दार्शनिक मिले. पहले ‘अन्य’ या ‘अदर्स’ की पहचान की जाए, उसके खिलाफ सैद्धांतिक दर्शन गढ़ा जाए. फिर उसके खिलाफ पूरी ताकत और घृणा के साथ अभियान चलाया जाए. ‘घृणा’ की अपनी क्षमता है. किंतु ऐतिहासिक तथ्य है कि ‘घृणा’ अंततः होलोकॉस्ट की ओर ही ले जाती है. आज अस्मितावादी राजनीति का कटु यथार्थ उत्तर-पूर्व की मिलिशिया आधारित हिंसक राजनीति है या अफ्रीकी देशों को गृहयुद्ध की ओर ले जाती आत्मघाती राजनीति. ‘अस्मितावादी आंदोलन’ के मुखौटे के पीछे का चेहरा यह भी है. वंचित-शोषित-हाशियाकृत तबकों को अपनी विशिष्ट समस्याओं के रेखांकन के बाद संघर्ष के लिए इकट्ठा एक मंच पर न जुटने दिया जाए तो लाभ किसे है? अतः अस्मितावादी आंदोलन कोई निश्छल भाव से चलने वाला आंदोलन नहीं है. वैश्विक पूंजीवादी राजनीति उसके पीछे खड़ी है.

यह सही है कि हमारी अग्रज पीढ़ी और हमारी पीढ़ी के कई रचनाकार हाशियाकृत समुदायों की विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-मनोदैहिक समस्याओं को समझने, उनमें डूबने और क्षमतानुसार सृजित करने में अनवरत प्रयत्नशील हैं. लेकिन हमारी कामनाएं भी स्पष्ट हैं कि अगर वैश्विक पूंजीवाद ईश्वर की तरह सर्वव्यापी हो गया है तो उसके खिलाफ संघर्ष करने के लिए ज्यादा एकजुटता, ज्यादा मजबूती की जरूरत है. मानवता की मुक्ति के सपने के रंग को और भी गाढ़ा करना होगा. आज के दिन जो विशिष्टताओं के नाम पर अलग-अलग मोर्चे, अलग-अलग प्रतिष्ठान के संचालन को उतारू हैं, उनकी नीयत पर हमें शक है.

gayabआजकल नए लिखने वाले ज्यादातर कहानी और कविता लिखते हैं. उपन्यास की तरफ उनका रूझान कम ही दिखता है. लेकिन आप एक उपन्यासकार के रूप में अधिक सक्रिय दिखते है, ऐसा क्यों?
मेरी मजबूरी यह है कि मेरा जो अनुभव संसार है वह मुख्य रूप से आदिवासी समाज का ही है. यहां समस्याएं इतनी जटिल, जीवन इतना कठिन, दबाव इतना चौतरफा है कि इन्हें चाहकर भी किसी दूसरी विधा में नहीं अंटा सकते. इसीलिए ‘ग्लोबल गांव का देवता’ 2009 में प्रकाशित होता है तो ‘गायब होता देश’ 2014 में प्रकाशित हो रहा है.

‘ग्लोबल गांव के देवता’   ने आपको उपन्यासकार के रूप में बहुत ख्याति दिलाई. लेकिन आप कवि हैं और कहानीकार भी. क्या आपको कभी लगा कि  ‘ग्लोबल गांव के देवता’  ने उनके हिस्से की ख्याति भी अपने हिस्से में ले ली?
वैसे ‘ग्लोबल गांव के देवता’ के पहले ‘रात बाकी’ कहानी ने मुझे पहचान दिला दी थी, आत्मविश्वास दिया था. अब किताबें भी प्रोडक्ट हैं और बाजार भी यथार्थ है सो बाजार तो ब्रांडिंग करेगा ही. या यह भी हो सकता है मेरी कविताएं और कहानियां कमजोर हों. कविता में जिस सूक्ष्म भाव, भाव-लहर की प्रतिध्वनियों को पकड़ने और उकेरने की कोशिश की जाती है, मैं ही सूक्ष्मता से उस भाव को पकड़ने में असफल रहा हूं. अब सही बात क्या है ठीक-ठीक कह नहीं सकता.