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मनुवादी माया?

Mayawati
फोटोः शैलेंद्र पाण्डेय
Mayawati
फोटोः शैलेंद्र पाण्डेय

वे मनुवादी हैं, यह एक ऐसा आरोप है जो बहुजन समाज पार्टी (बसपा) नेता मायावती ने समय-समय पर तमाम राजनीतिक दलों से लेकर मीडिया तक पर लगाया है. उनके अनुसार दूसरी पार्टियों में दलित समाज के लोगों के लिए जगह नहीं है. मायावती मानती हैं कि बाकी पार्टियां सवर्णवादी हैं क्योंकि वे दलितों को प्रतिनिधित्व नहीं देती, उन्हें टिकट नहीं देतीं.

इसका दूसरा मतलब यह है कि बसपा में तस्वीर ऐसी नहीं होगी. यानी जो पार्टी खुद को दलितों की पार्टी कहती है, जिसका उदय दलित आंदोलन से हुआ है, जिसका वोट बैंक दलित माने जाते हैं, जो दलितों की प्रतिनिधि पार्टी कही जाती है, उसमें वह नहीं होना चाहिए जिसका आरोप मायावती दूसरी पार्टियों पर लगाती हैं. लेकिन क्या ऐसा वास्तव में है?

हाल ही में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों पर अपने प्रत्याशियों की सूची जारी की. लखनऊ में उम्मीदवारों के नाम का ऐलान करते हुए मायावती ने कहा कि उन्होंने टिकट देने में समाज के हर वर्ग का ख्याल रखा है और सभी वर्गों को टिकट के माध्यम से उचित प्रतिनिधित्व दिया गया है. बसपा द्वारा बांटे गए इन 80 टिकटों में से 21 ब्राह्मण प्रत्याशियों के खाते में गई हैं तो आठ सीटों पर क्षत्रियों को टिकट दिया गया है. 19  सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार बनाए गए तो 15 सीटों पर पार्टी ने पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखने वाले उम्मीदवार उतारे हैं. बाकी बची हुई 17 लोकसभा सीटें आरक्षित हैं सो वहां से पार्टी ने अनुसूचित जाति के लोगों को टिकट दिया है. इन 17 में से 10 जाटव, छह पासी और एक कश्यप समुदाय से हैं.

पार्टी द्वारा बांटे इन टिकटों को अगर बेहद ध्यान से देखें तो एक दिलचस्प तस्वीर उभरती है. पता चलता है कि पिछले लोकसभा चुनावों की तर्ज पर पार्टी ने इस बार भी दलितों को सिर्फ सुरक्षित सीट से टिकट दिया है. अनुसूचित जाति के किसी व्यक्ति को इन सुरक्षित सीटों के अलावा किसी भी और सीट से टिकट नहीं दिया गया. सुरक्षित सीटों पर अनुसूचित जाति के व्यक्ति के अलावा कोई और नहीं खड़ा हो सकता है, ऐसे में अगर दूसरी तरह से देखें तो कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में पार्टी ने अनुसूचित जाति के किसी भी व्यक्ति को टिकट नहीं दिया.

स्वाभाविक सवाल उठता है कि दलितों की सबसे बड़ी हितैषी होने का दावा करने वाली पार्टी उसी दलित समाज के व्यक्ति को सुरक्षित सीट से बाहर टिकट क्यों नहीं देती. भाजपा हो या कांग्रेस या फिर कोई अन्य पार्टी, सुरक्षित सीटों पर तो सबको आरक्षित समुदाय का उम्मीदवार ही उतारना होता है. तो फिर दलितों की पार्टी कहे जाने वाली बसपा बाकियों से कहां अलग हुई? मायावती के मुताबिक दूसरे दल इसलिए मनुवादी हैं कि उनमें दलित समाज के लोगों के लिए जगह नहीं है या वे दलितों को टिकट नहीं देते, लेकिन उनकी पार्टी भी तो ऐसा करती दिख रही है.

तो क्या मायावती मनुवाद से लड़ते लड़ते खुद मनुवादी हो गई हैं ? उनके आलोचक कहते हैं कि आज बसपा की स्थिति ऐसी है कि उसमें दलितों को न टिकट मिल रहा है और न उन्हें पार्टी में कोई खास स्थान हासिल हो रहा है. कहा जा रहा है कि अगर सुरक्षित सीटों पर दलितों को ही टिकट देने की बाध्यता न होती तो शायद बसपा किसी दलित को टिकट देती ही नहीं.

मायावती की जीवनी ‘बहन जी’ के लेखक और वरिष्ठ पत्रकार अजय बोस इस पर कहते हैं, ‘ ऐसा नहीं है कि यह कोई आज हो रहा है कि बसपा में दलितों को टिकट नहीं दिया जा रहा है. यह सब तो कांशीराम के जमाने से हो रहा है. बसपा में टिकट देने का एकमात्र आधार है कि व्यक्ति सीट जीत सकता है या नहीं. चूंकि सामान्य सीटों पर किसी दलित के जीतने की संभावना न के बराबर रहती है इसीलिए इन सीटों पर दलितो को टिकट नहीं मिलता. ’

बोस की बात को विस्तार देते हुए वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक शरत प्रधान कहते हैं, ‘बसपा का टिकट बांटने का तरीका बहुत सीधा है. ये सिर्फ दो चीजें देखते हैं. पहला जो टिकट चाह रहा है वह चुनाव जीत सकता है या नहीं और दूसरा, उसके पास पैसा कितना है. पहले पार्टी उनको टिकट देती है जो जीत सकता है. बाकी जिन सीटों पर पार्टी को लगता है कि वह जीत नहीं सकती वहां वह पैसा लेकर टिकट बेच देती है. पैसा दो और टिकट लो. ऐसे में पार्टी के पास दलितों को टिकट देने की कहां फुर्सत है ?’ बोस एक रोचक तथ्य की तरफ इशारा करते हुए आगे कहते हैं, ‘ बसपा में टिकट पाने के लिए आपको पार्टी का कार्यकर्ता बनने की जरूरत भी नहीं है. पार्टी किसी को भी टिकट दे देती है. बस आपका अपना एक आधार होना चाहिए. आप आधार लेकर आते हैं और फिर पार्टी उस क्षेत्र में अपना दलित वोट आपको ट्रांसफर कर देती है.’

हालांकि दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर विवेक कुमार दलितों को टिकट न देने के सवाल पर बसपा का बचाव करते हुए कहते हैं, ‘भारतीय समाज के जातिवादी होने का यह सबसे बेहतर प्रमाण है. सभी को पता है कि किसी सामान्य सीट से किसी दलित का जीत पाना लगभग असंभव है. क्या आपको लगता है कि अगर बसपा किसी दलित को गैरसुरक्षित सीट से खड़ा करती है तो सर्वण लोग उसे वोट देंगे? नहीं देंगे. यही कारण है कि बसपा चाहकर भी किसी दलित को टिकट नहीं दे पाती. जैसे ही कोई दलित खड़ा होता है दूसरी जातियां उसके खिलाफ लामबंद हो जाती हैं.’

जीत की संभावना न होने के कारण बसपा दलित व्यक्ति को सामान्य सीट से टिकट नहीं देती. तो उन सीटों पर पार्टी का हाल क्या है जो सुरक्षित कही जाती हैं? यूपी की सुरक्षित लोकसभा सीटों का वर्तमान और इतिहास खंगालने पर पता चलता है कि पार्टी का इन सीटों पर प्रदर्शन निराशाजनक ही रहा है. उदाहरण के लिए 2009 के लोकसभा चुनाव में इन 17 सुरक्षित सीटों में से सपा के हिस्से में जहां नौ सीटें आईं वहीं बसपा को मात्र दो सीटें ही हासिल हुईं. बसपा सिर्फ लालगंज और मिश्रिख सुरक्षित सीट जीत पाने में ही सफल रही थी. इतिहास में भी उसकी स्थिति कमोबेश ऐसी ही रही है. 1999 में भाजपा की सात के मुकाबले बसपा को पांच सीटें मिलीं. 2004 में सपा को आठ तो बसपा को पांच सीटें मिलीं.

और यह सिर्फ लोकसभा चुनाव की बात नहीं है. बसपा का विधानसभा चुनावों में भी कमोबेश यही हाल रहा है. 1993 में दलितों के लिए आरक्षित कुल 88 विधानसभा सीटों में से जहां भाजपा को 33 सीटें मिली थीं वहीं बसपा को मात्र 23 सीटें हसिल हुईं. इतनी ही सीटें सपा को भी मिली थीं. सन 96 में भाजपा को 35 सीटें मिलीं तो बसपा को मात्र 20. 2002 में सपा को 36 सीटें मिलीं और बसपा को 24. हां, 2007 में पार्टी को 61 सीटें जरूर हासिल हुईं, लेकिन 2012 में जाकर उसकी हालत फिर खराब हो गई.

उत्तर प्रदेश की आबादी में 21 फीसदी दलित हैं. तो जिस पार्टी को दलितों की पार्टी कहा जाता है उसका सुरक्षित सीटों पर भी बेहद कमजोर प्रदर्शन किन संदेशों की तरफ इशारा करता है? बोस कहते हैं, ‘सुरक्षित सीटों पर चूंकि सारे दलों को दलितों को ही टिकट देना होता है. इस कारण से दलित मतों का विभाजन हो जाता है. ऐसी स्थिति में दलित प्रत्याशी का जीतना इस बात पर निर्भर करता है कि सवर्ण मतदाता किसको समर्थन देते हैं. जिसको सवर्णों का समर्थन मिल जाता है वह विजयी होता है. यही कारण है कि भाजपा और सपा इन सीटों पर अपेक्षाकृत अच्छा प्रदर्शन करते हैं.’

2009 में हुए लोकसभा चुनाव में देश की 84 आरक्षित लोकसभा सीटों में सबसे अधिक 30 कांग्रेस की झोली में गई थीं. दूसरे नंबर पर 12 सीटों के साथ भाजपा रही. वाम मोर्चा नौ सीटें जीतकर दलितों की तीसरी सबसे बड़ी पसंद बना. फिर मायावती की पार्टी बसपा का नंबर आया जिसे मात्र दो सीटें हासिल हुईं. .

विवेक कुमार सुरक्षित सीट के गणित को कुछ इस तरह बताते हैं, ‘यह सही है कि सुरक्षित सीटों पर बसपा अच्छा प्रदर्शन नहीं करती. आप देखेंगे कि पूरे देश में कांग्रेस और भाजपा इन सीटों पर कब्जा जमाती हैं. इसके पीछे जातिवाद मुख्य कारण है. होता यह है कि अगर सर्वण वोटर को दलित को वोट देने की मजबूरी हो जाए तो उस स्थिति में भी वह बसपा के दलित उम्मीदवार के बजाय कांग्रेस या भाजपा के दलित उम्मीदवार को वोट देना बेहतर समझता है.’

विवेक सुरक्षित सीटों पर भी सवाल खड़ा करते हैं. वे कहते हैं, ‘जिस परिसीमन के तहत सुरक्षित सीटों का निर्धारण हुआ वह भी गलत है. किसी भी सुरक्षित सीट पर दलित मतदाता 20-30 फीसदी से ज्यादा नहीं हैं. यही कारण है कि बाबा साहब अंबेडकर ने इन सुरक्षित सीटों की यह कहकर आलोचना की थी कि इससे सवर्ण समाज के चमचे पैदा होंगे क्योंकि सवर्ण की मदद बिना दलित इन सीटों से जीत ही नहीं सकता. इस तरह से इसमें बसपा की कोई गलती नहीं है. उसकी कमजोरी नहीं है कि उसके दलित प्रत्याशी नहीं जीत पाते.’

दूसरी तरफ बोस दलितों को टिकट मिलने और बसपा में उनके प्रतिनिधित्व के प्रश्न को व्यापक रूप से देखने की बात करते हैं.  वे कहते हैं, ‘टिकट छोड़िए यहां तो पार्टी का संगठन ही बेहद अजीबोगरीब है. जिस तरह से बाकी पार्टियों में है कि लोग संगठन से जुड़कर आगे बढ़ते हैं वैसा बसपा में नहीं है. आप अगर संगठन से जुड़ भी गए तो यह तय नहीं है कि पार्टी भविष्य में आपको टिकट दे या फिर संगठन में ही आप बहुत आगे जा पाएं. सब बहन जी की इच्छा पर ही निर्भर है. यही कारण है कि पार्टी संगठन में दलितों का प्रतिनिधित्व भी बेहद कम है.’

बसपा के संस्थापक सदस्य रहे रामाधीन अहिरवार पार्टी और दलित समाज के बीच के संबंधों पर बात करते हुए कहते हैं, ‘मायावती दलित समाज को मूर्ख समझती हैं. उन्हें पता है कि वे जिसे भी खड़ा कर देंगी उसे दलित समाज वोट दे देगा. यही कारण कि वे दलितों को न टिकट देती है, न पार्टी में उन्हें स्थान और न ही उन्हें आगे बढ़ने देती हैं. दलितों की पार्टी को चुनाव लड़ने वाला कोई दलित नहीं मिलता. वे जानती हैं कि ये लोग बेचारे अपनढ़ हैं. इनका कौन है? ये हमें छोड़कर के कहां जाएंगे. मायावती का चले तो वे सुरक्षित सीट पर भी दलितों को टिकट न दें.’

जानकारों की मानें तो यही कारण है कि दलित आंदोलन से निकली पार्टी के पास गिनने के लिए भी ढंग के दलित नेता नहीं हैं. पार्टी में दलित नेताओं के उभरने के लिए स्थान नहीं है. अपने अलावा कोई और दलित नेता मायावती को मंजूर नहीं है. ऐसे कई नेता हैं जो बसपा के संस्थापक सदस्य रहे, बड़े नेता रहे, लेकिन बाद में पार्टी से बाहर कर दिए गए. जैसे आरके चौधरी, रामसमुझ पासी, राजबहादुर, बरखूराम वर्मा आदि पार्टी में मायावती के अलावा किसी और दलित नेता का उभार न होने और दलितों की पार्टी में दलितों के लिए जगह न होने के सवाल पर बोस कहते हैं, ‘मायावती अपने अलावा किसी और नेता खासकर के दलित नेता को पार्टी में उभरते हुए नहीं देखना चाहतीं. पार्टी में जैसे ही कोई नेता उभरने की कोशिश करता है, वे उसे बाहर का रास्ता दिखा देती हैं. संगठन के स्तर पर भी दलितों का प्रतिनिधित्व बेहद सीमित है.’

यही कारण है कि पिछले कुछ समय में दलितों के बसपा से दूर जाने जैसी बातें भी सामने आती रही हैं. उदाहरण के लिए 2009 में दिल्ली स्थित सीएसडीएस द्वारा किए एक अध्ययन में सामने आया कि 2004 में बसपा के पास दलितों का वोट शेयर जो 65 फीसदी था वह 2009 में गिरकर 52 फीसदी पर आ गया.

दलितों के बसपा से दूर जाने के सवाल पर बोस कहते हैं, ‘जाटवों का वोट तो पहले से लेकर आज तक मायावती और बसपा के साथ पूरी तरह से जुड़ा हुआ है. लेकिन हां, 2012 के विधानसभा चुनाव में देखा गया कि दलितों में से गैर जाटव या कहें महादलितों का वोट बसपा से खिसकता हुआ दिखाई दिया. जबकी 2007 में पूरे दलित समाज ने बसपा को वोट किया था.’ बोस की बात का समर्थन करते हुए  ‘द मेकिंग ऑफ दलित रिपब्लिक’ के लेखक और राजनीतिक विश्लेषक बद्रीनारायण कहते हैं, ‘जाटव तो नहीं, लेकिन बाकी दलित जरूर पार्टी से दूर जाते हुए दिखाई देते हैं. बसपा के लिए यह चिंता का विषय जरूर होना चाहिए.’

2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव परिणामों का विश्लेषण करते हुए सीएसडीएस ने जाटव वोटों के बसपा से सपा की तरफ जाने की बात कही. उसके अध्ययन में दावा किया गया कि 1998 के बाद बसपा को इस बार सबसे कम जाटव मत मिले हैं. 2007 के बाद से बीएसपी के जाटव वोटों में 24 फीसदी की गिरावट आई है. दलितों में भी महादलित के मायावती से दूर जाने के सवाल पर शरत कहते हैं, ‘जिस जातिवाद के खिलाफ लड़ने की बात बसपा करती है वह खुद उसी जातिवाद से ग्रस्त है. यही कारण है कि पार्टी में जाटव और गैर जाटव के बीच में अलग संघर्ष चलता रहता है. मायावती भी पूरे दलित समाज के बजाय जाटवों की नेता बनती दिख रही हैं.’

सजावटी संहिता

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फोटो: अंकित अग्रवाल

दिल्ली समेत देश के पांच राज्यों में इन दिनों चुनावी बयार चल रही है. आठ दिसंबर को चुनाव के नतीजे सामने आने तक यह बनी रहेगी. यह बयार बदबू न बने यानी चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक दलों का व्यवहार मर्यादा में रहे, इसके लिए चुनाव आयोग भी भारी-भरकम तामझाम के साथ मैदान में उतर चुका है. राजनीतिक दलों की इस लड़ाई में उसकी भूमिका रेफरी की है. हाथ में ‘आदर्श चुनाव आचार संहिता’ का चाबुक लिए आयोग ने सभी पार्टियों को आचार संहिता के दायरे में रहने संबंधी निर्देश दे दिए हैं. अकेले दिल्ली में ही वह अब तक आचार संहिता उल्लंघन के 100 से अधिक मामले ‘ट्रैक’ कर चुका है. दूसरे राज्यों में भी आचार संहिता की लक्ष्मण रेखा लांघने वालों से वह ‘ऐसा क्यों किया?’  पूछ रहा है. इसी क्रम में पिछले दिनों उसने मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री और भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय को कारण बताओ नोटिस थमाया. उन पर एक धार्मिक समारोह में लोगों को पैसे बांटने का आरोप था. लेकिन विजयवर्गीय ने ‘ऐसी आचार संहिता को ठोकर मारता हूं.’ कह कर चुनाव आयोग के नोटिस को तवज्जो देने से इनकार कर दिया.

पहले आचार संहिता के उल्लंघन और फिर आयोग की अवमानना का यह अकेला उदाहरण नहीं है. हाल के समय में ऐसे कई मामले देखे गए हैं जब नेताओं ने आचार संहिता तोड़ी और आयोग के चेतावनी देने के बावजूद सीनाजोरी की. वैसे चुनाव आयोग से नेता डरें भी तो क्यों जब वे जानते हैं कि बिना नाखून और दांत वाली यह संस्था उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती.

करीब छह महीने पहले कर्नाटक में विधानसभा चुनावों के चलते इसी तरह की आदर्श आचार संहिता लगी हुई थी. तब भी चुनाव आयोग पूरी मुस्तैदी के  साथ चुनाव अभियान पर नजर बनाए हुए था. विभिन्न दलों द्वारा अपने प्रत्याशियों के पक्ष में जनसभाओं और सम्मेलनों के बीच भारतीय जनता पार्टी द्वारा राज्य के शिमोगा इलाके में एक सम्मेलन बुलाया गया. उस सम्मेलन में प्रदेश के तत्कालीन उपमुख्यमंत्री केएस ईश्वरप्पा ने एक समुदाय विशेष के खिलाफ आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल करते हुए गंभीर बातें कहीं. इस भाषण की शिकायत चुनाव आयोग के पास पहुंची. उसने 12 अप्रैल, 2013 को ईश्वरप्पा को नोटिस जारी कर दिया. ‘जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1961’ और ‘भारतीय दंड संहिता’ की धारा 505 के उल्लंघन के लिए उनसे जवाब मांगा गया. आईपीसी की इस धारा के मुताबिक  किसी धर्म, समुदाय विशेष के खिलाफ भावनाएं भड़काने वाली बात कहने वाले को तीन साल तक कैद हो सकती है. आयोग मान चुका था कि ईश्वरप्पा का बयान आचार संहिता के उल्लंघन के साथ ही सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने वाला और नागरिकों के विभिन्न वर्गों में वैमनस्य को बढ़ावा देने वाला था लिहाजा ऐसा लगा कि उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई तय है. लेकिन 23 अप्रैल को दिए अपने फैसले में आयोग ने बजाय ऐसा करने के ईश्वरप्पा को सिर्फ फटकार लगाई और भविष्य में सावधानी बरतने की नसीहतनुमा बात कहकर मामले को खत्म कर दिया.

आचार संहिता की धज्जियां उड़ाने वाले नेताओं को पता है कि नोटिस मिलने की सूरत में खेद प्रकट कर बच जाने का विकल्प मौजूद है

इसी तरह का एक वाकया 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान भी हुआ. केंद्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा फर्रुखाबाद जिले की कायमगंज विधानसभा में एक चुनावी सभा को संबोधित कर रहे थे. आदर्श चुनाव आचार संहिता के प्रावधानों के मुताबिक चुनाव के दिनों में किसी भी तरह की घोषणा नहीं की जा सकती. इसके बावजूद बेनी ने एलान किया कि अगर प्रदेश में उनकी पार्टी की सरकार आई तो मुस्लिम समुदाय के लोगों को दिए जाने वाले आरक्षण में बढ़ोतरी की जाएगी. वे यह तक कह बैठे कि चुनाव आयोग चाहे तो उन्हें इस बात के लिए नोटिस दे सकता है. आयोग ने उन्हें नोटिस दे कर कार्रवाई के संकेत दे दिए. लेकिन बेनी द्वारा अपने बयान पर अफसोस जताने के साथ ही आयोग का गुस्सा काफूर हो गया और उसने उन्हें भविष्य में ऐसा न करने की सलाह दे कर मामला खत्म कर दिया.

ये दो घटनाएं आचार संहिता का खुला उल्लंघन करने वाले मामलों को इस तरह निपटा देने की  झलक भर हैं. आयोग के अब तक के इतिहास में बीसियों मामले हैं जब आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों को चेतावनी देते हुए भविष्य में ऐसा न करने की बात कह कर बरी कर दिया गया है. इनमें प्रतिबंधित क्षेत्रों में चुनाव सामग्री बंटवाने, मतदाताओं को पैसा देने, आचार संहिता के दौरान सरकारी सुविधा का लाभ लेने, समुदाय विशेष के खिलाफ बयान देने, धार्मिक उन्माद फैलाने और चुनाव आयोग को खुलेआम चुनौती देने जैसे गंभीर मामले भी शामिल हैं.

इससे स्वाभाविक-सा सवाल उठता है कि फिर आदर्श आचार संहिता का क्या मतलब रह जाता है. यह सवाल इसलिए भी मौजूं है कि आयोग की तमाम कोशिशों के बावजूद देश में आचार संहिता के उल्लंघन के मामले रुक नहीं रहे हैं. बताया जाता है कि पिछले साल उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव के दौरान ही आचार संहिता के उल्लंघन के लिए करीब 9000 एफआईआर दर्ज की गई थीं. यह रफ्तार बताती है कि चुनाव आचार संहिता की धज्जियां उड़ाने में प्रत्याशियों को कोई खतरा नहीं दिख रहा है. जानकारों के मुताबिक राजनेताओं को पता है कि नोटिस मिलने की सूरत में खेद प्रकट करते हुए बच जाने का विकल्प मौजूद है.

लेकिन क्या कारण है कि चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करने वाले प्रत्याशियों को भविष्य में ऐसा न करने की नसीहत देकर ही छोड़ दिया जाता है? जानकारों का एक वर्ग इसे चुनाव आयोग की इच्छा शक्ति से जोड़कर देखता है. समाजशास्त्री और दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर आनंद कुमार कहते हैं, ‘ चुनाव आयोग द्वारा शिकायतों का संज्ञान लेने और संबंधित व्यक्ति को नोटिस भेजे जाने तक जैसी तेजी दिखाई जाती है वह बेशक काबिले तारीफ है. पर समस्या तब शुरू होती है जब कड़ी कार्रवाई करने के बजाय आयोग ऐसे प्रत्याशियों को चेतावनी देकर छोड़  देता है. कागजों में शेर जैसे दिखने वाले आयोग की उपलब्धि का आलम यह है कि उसने आज तक एक भी बड़ा शिकार नहीं किया.’ हालांकि इसके लिए वे आयोग की सीमित शक्तियों का हवाला भी देते हैं.

इससे सवाल उठता है कि आखिर क्यों आयोग की कार्रवाई नोटिस देने और डांट-डपटने तक ही सिमट कर रह जाती है. दरअसल संवैधानिक संस्था होने के बावजूद भले ही चुनाव आयोग बाहर से मजबूत दिखाई देता है लेकिन असलियत इससे उलट है. नेशनल इलेक्शन वाच के संस्थापक सदस्य प्रोफेसर त्रिलोचन शास्त्री बताते हैं, ‘चुनाव आयोग आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में संबंधित व्यक्ति अथवा दल को नोटिस देने और दोषी पाए जाने की स्थिति में फटकार लगाने के सिवाय कुछ नहीं कर सकता भले ही मामला कितना गंभीर क्यों न हो. जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1961 में भी आयोग को ऐसा अधिकार नहीं मिला है कि वह आचार संहिता तोड़ने वालों का नामांकन रद्द कर सके. उसके पास इतना ही अधिकार है कि वह चुनावों को लेकर बनाई गई व्यवस्था का जहां तक संभव हो सके पालन करवाए.’ पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त डॉ एसवाई कुरैशी इस बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं, ‘आदर्श चुनाव आचार संहिता कोई कानून नहीं है. यह आयोग द्वारा बनाई गई ऐसी नैतिक व्यवस्था है जिसके जरिए राजनीतिक दलों से अपेक्षा जी जाती है कि चुनाव प्रक्रिया को साफ सुथरा बनाने में वे आयोग की मदद करें. यही वजह है कि आचार संहिता तोड़ने के मामलों में आयोग के अधिकार नोटिस देने और चेतावनी जारी करने तक सिमट जाते हैं.’

‘आचार संहिता कानून नहीं है. यह आयोग द्वारा बनाई गई नैतिक व्यवस्था है इसलिए हमारे अधिकार नोटिस और चेतावनी देने तक सिमट जाते हैं ‘

लेकिन क्या सीमित अधिकार की यह दुहाई सवाल का ठोस जवाब होने से ज्यादा आयोग की लाचारी को नहीं दिखाती? क्योंकि अगर आयोग के पास अधिकार ही नहीं हैं तो फिर उसके द्वारा दिए जाने वाले नोटिस और चेतावनियों का क्या औचित्य है? यह सवाल इसलिए भी लाजिमी है कि आयोग द्वारा खींची गई आचार संहिता की लगभग सभी लकीरों से छेड़छाड़ की जाती रही है. इस तरह की गतिविधियों में धारा 144 के उल्लंघन से लेकर निर्धारित राशि से ज्यादा धन खर्च करने तक के मामले शामिल हैं. निर्धारित राशि से ज्यादा धन खर्च करने का एक मामला तो पिछले दिनों काफी गरमाया भी था. यह मामला लोकसभा में विपक्ष के उपनेता और भाजपा के सांसद गोपीनाथ मुंडे के उस बयान से उपजा जब उन्होंने दावा किया कि अपने पिछले लोकसभा चुनाव में उन्होंने आठ करोड़ रुपये फूंके थे. यह राशि चुनाव आयोग द्वारा तय की गई राशि के मुकाबले 32 गुना ज्यादा थी.

लेकिन इस सबके बावजूद कुछ जानकार चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली का बचाव करते हैं. त्रिलोचन शास्त्री कहते हैं, ‘चुनाव आयोग अगर आचार संहिता के उल्लंघन संबंधी मामलों का संज्ञान लेना और नोटिस देना भी बंद कर दे तो चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले कारणों की बाढ़ आ जाएगी. कम से कम आचार संहिता के होने से ऐसे मामलों में अंकुश तो लगाया ही जा सकता है.’ डॉ कुरैशी कहते हैं, ‘नोटिस देने तक की सीमित शक्ति के बावजूद आयोग ने काफी हद तक आचार संहिता को बचाए रखने और उल्लंघन के मामलों को नियंत्रित करने का काम किया है इससे इनकार नहीं किया जाना चाहिए. बकौल उनके अभी ‘सब कुछ नहीं से कुछ तो सही’ वाली स्थिति है जिसे चुनाव सुधारों के जरिए ही ठीक किया जा सकता है.

चुनाव सुधारों की जिस जरूरत की ओर कुरैशी इशारा कर रहे हैं, वह कोई नई बात नहीं है. सामाजिक और राजनीतिक मोर्चों पर यह मांग 1980 के दशक से ही उठती रही है. प्रोफेसर आनंद कहते हैं, ‘चुनावों को स्वतंत्र और निष्पक्ष बनाने के लिए संविधान ने चुनाव आयोग को कुछ जिम्मेदारियां दी हैं. 80 और 90 के दशक में इन जिम्मेदारियों को निभाने में आयोग के पूरी तरह विफल होने के बाद चुनाव सुधारों और आयोग की कार्यशैली बदलने की बात प्रमुख रूप से सामने आई. इसके बाद टीएन शेषन और जेएम लिंगदोह ने कुछ हद तक सक्रियता दिखाते हुए आयोग को मजबूत बनाने का काम भी किया, इसी के बाद बूथ कैप्चरिंग और नकली मतदाता बनाने जैसे कामों पर भी कुछ रोक लग सकी. लेकिन पिछले एक दशक से चुनाव सुधारों को लेकर आयोग की मांगों पर कोई सुनवाई नहीं हो पाई है जो काफी चिंताजनक है.’

प्रोफेसर आनंद इसके लिए आयोग के साथ ही संसद के रवैये पर भी सवाल उठाते हैं. वे कहते हैं, ‘चुनाव सुधारों को लेकर कानून बनाने का काम संसद का है, लेकिन वहां ऐसे लोगों और दलों की अधिकता है जो चुनाव प्रक्रिया की खामियों को लेकर ही आगे बढ़ रहे हैं.’ उनके मुताबिक आयोग को इसलिए दोष दिया जाना चाहिए कि उसने इन खामियों को दूर करने के लिए सुझाव तो दिए लेकिन उन सुझावों को लागू करवाने के लिए जिद नहीं पकड़ी. वे कहते हैं, ‘लगता है आयोग ने इस दिशा में दिमाग दौड़ाना बंद कर दिया है.’

प्रोफेसर आनंद की बातों का मर्म टटोलने के क्रम में आयोग द्वारा चुनाव सुधारों के लिए की गई कवायदों की पड़ताल करने पर मालूम पड़ता है कि उनका यह तर्क काफी वजनदार है. दरअसल चुनाव सुधारों को लेकर समय- समय पर आयोग की तरफ से सरकार के सामने कई तरह के सुझाव रखे जरूर गए, लेकिन अधिकतर मौकों पर सरकार ने उन्हें तवज्जो ही नहीं दी. चुनाव आयोग ने 1970 में पहली बार सरकार को पहली बार चुनाव सुधार का प्रस्ताव भेजा था.  इसके बाद 1977 में दूसरी और 1982 में तीसरी बार प्रस्ताव भेजा गया.  राजनीतिक दलों द्वारा भी सरकार को समय-समय पर इस संबंध में प्रस्ताव दिए गए. जयप्रकाश नारायण ने इस संबंध में एक कमेटी भी बनाई थी लेकिन ये सारे प्रस्ताव सिर्फ सुझाव तक सीमित रह गए. 1990 में सरकार ने इस मुद्दे पर एक समिति का गठन किया. पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी की अध्यक्षता वाली इस समिति ने उसी साल अपनी रिपोर्ट भी सौंप दी. 1992 में तत्कालीन चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने इस रिपोर्ट को लागू करने के लिए केंद्र सरकार को पत्र भी लिखा, लेकिन नतीजा सिफर ही रहा.

‘चुनाव सुधारों पर कानून बनाने का काम संसद का है, लेकिन वहां ऐसे लोगों की अधिकता है जो चुनाव प्रक्रिया की खामियां लेकर ही आगे बढ़ रहे हैं ‘

नब्बे के दशक में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम का रास्ता खुलने, मतदान की उम्र 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष करने और फोटो पहचान पत्र की अनिवार्यता हो जाने को जरूर चुनाव सुधारों की दिशा में सकारात्मक माना जा सकता है. लेकिन इस सबके बीच सरकार द्वारा बहुत सारे ऐसे सुझावों को दरकिनार भी किया जाता रहा. 1993 में वोहरा समिति और फिर 1999 में न्यायमूर्ति बी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाली समिति की सिफारिशें भी आईं, लेकिन कुछ नहीं हुआ. उस वक्त केंद्र में एनडीए की सरकार थी. बाद में 2004 में चुनाव आयोग ने नए सिरे से एक विस्तृत प्रस्ताव भेजा, लेकिन पूरे कार्यकाल के दौरान मनमोहन सरकार मौन रही. अब जब कुछ मामलों में  न्यायालय का हस्तक्षेप हुआ है तो जाकर सरकार चेती है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल ही में राइट टू रिजेक्ट के अधिकार को लेकर जो फैसला सुनाया गया है वह इसका सबसे पुख्ता प्रमाण है. 1989 में ही चुनाव आयोग सरकार को सुझा चुका था कि दागी नेताओं को चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य करार दिया जाए. इसके बाद 2001 में उसने नकारात्मक मतदान के अधिकार का प्रस्ताव भी दिया, लेकिन सरकार की तरफ से कोई जवाब नहीं आया. 2004 में तत्कालीन चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति ने सुझाव दिया कि प्रत्याशियों को खारिज करने का विकल्प ईवीएम में शामिल हो, लेकिन सरकार ने उनकी इस राय को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया. चुनाव आयोग भी इसके बाद चुप बैठ गया और पुराने ढर्रे पर ही काम करता रहा. बाद में भ्रष्टाचार विरोधी अभियान चलाने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं ने दबाव बढ़ाना शुरू किया और पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर दी जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने ताजा फैसला सुनाया है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस अधिकार पर मुहर लगा देने से साफ होता है कि चुनाव आयोग अगर थोड़ी और दृढता दिखाता और इस अधिकार की अनिवार्यता को लेकर मुखर प्रयास करता तो बहुत पहले ही ऐसा किया जा सकता था. आयोग की उस राय को सरकार ने तब स्वीकार नहीं किया और अब सुप्रीम कोर्ट ने इसे आदेश के जरिए उसके सामने बाध्यकारी रूप में रख दिया है. इस तरह जो श्रेय उसके हिस्से आ सकता था वह न्यायपालिका के खाते में जुड़ गया.

चुनाव सुधारों को लेकर काम करने वाले संगठन एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के संस्थापक सदस्य जगदीप छोकर इसके लिए चुनाव आयोग को पूरी तरह दोष देने से इनकार करते हैं. चुनाव आयोग के अब तक के रवैये को सकारात्मक बताते हुए वे कहते हैं , ‘वर्तमान परिस्थियों में जिस तरह सीमित अधिकारों के सहारे चुनाव आयोग अपना काम कर रहा है वह सराहनीय है. जरूरत इस बात की है कि सरकार उसके द्वारा दिए गए सुझावों पर अमल करते हुए उसे मजबूती देने का काम करे.’ हालांकि वे यह भी कहते हैं कि अगर आयोग अपनी तरफ से अतिरिक्त प्रयास न करे तो सरकार से इस तरह की उम्मीद करना दिवास्वप्न देखने जैसा ही होगा.

आईआईएम के पूर्व प्रोफेसर छोकर की इन बातों से दो अहम सवाल खड़े होते हैं. पहला- चुनाव आयोग का सीमित अधिकारों की दुहाई दे कर चुप बैठ जाना कितना सही है? और दूसरा- चुनाव सुधारों को लेकर आयोग के सुझावों में सरकार की दिलचस्पी क्यों नहीं है?

चुनाव आयोग की चुप्पी पर बात करने से पहले सवाल नंबर दो पर आते हैं. चुनाव सुधारों को लेकर सरकार द्वारा उठाए गए कदमों की पड़ताल करने पर हालिया समय तक की सरकार की कुल जमा उपलब्धि इतनी ही रही है कि उसने चुनाव आयोग द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठकों में हर बार ‘पाक साफ’ काम करने का बयान दिया है. लेकिन असल में देखें तो उसका व्यवहार हमेशा इसके उलट रहा है. पिछले बीस सालों में चुनाव सुधारों को लेकर आयोग द्वारा भेजे गए सुझावों पर अमल करने के बजाय सरकार उन पर कुंडली मार कर बैठी है. अनिश्चितता के भंवर में हिचकोले खा रहे इन सुझावों की संख्या दो दर्जन से अधिक हो चुकी है (नीचे दिया गया लिंक देखें).

लेकिन इससे भी चिंताजनक बात यह है कि सरकार की कार्यप्रणाली आयोग के सुझावों का कचरा बना देने तक ही सीमित नहीं रही है बल्कि उसने ऐसे उपक्रम भी किए हैं जिनमें चुनाव आयोग की बची खुची शक्तियों को पूरी तरह खत्म कर देने की साजिश नजर आती है. बात पिछले साल उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के दौरान की है. आचार संहिता का उल्लंघन करने के चलते केंद्र सरकार के दो मंत्रियों, सलमान खुर्शीद और बेनी प्रसाद वर्मा समेत कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी को चुनाव आयोग द्वारा नोटिस दिया गया. इस बीच सियासी गलियारों से एक खबर निकली कि केंद्र सरकार आचार संहिता को वैधानिक शक्ल देकर चुनाव आयोग के पर कतरने का मन बना रही है. इस पर बवाल होता कि इससे पहले ही सरकार के तीन मंत्री इसका खंडन करने में जुट गए. तत्कालीन केंद्रीय मंत्री और वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी इस जमात में शामिल थे.

‘आचार संहिता कानून नहीं है. यह आयोग द्वारा बनाई गई नैतिक व्यवस्था है इसलिए हमारे अधिकार नोटिस और चेतावनी देने तक सिमट जाते हैं ‘

यहां तक सब कुछ ठीक था लेकिन इस बीच सितंबर 2011 में हुई मंत्री समूह की बैठक का एक गोपनीय दस्तावेज (कैबिनेट नोट) मीडिया के हाथ लग गया. इस दस्तावेज ने मंत्रियों की पोल खोल दी. दस्तावेज की भाषा साफ तौर पर चुनाव आयोग के खिलाफ थी और कैबिनेट द्वारा चुनाव आचार संहिता को विकास कार्यों की राह का स्पीड ब्रेकर बताते हुए उसे वैधानिक शक्ल देने की जरूरत पर बल दिया गया था. इसके बाद गुस्साए चुनाव आयोग ने तत्काल अपनी नाराजगी भरी प्रतिक्रिया जाहिर कर दी थी. साफ़ हो गया था कि इसके पीछे सरकार की मंशा क्या थी.

लेकिन ऐसे हालात क्यों उभरे यह अपने आप में एक बड़ा विषय है और सवाल नंबर एक का जवाब भी इसके जरिए ढूंढा जा सकता है. जानकारों की मानें तो अतीत में आयोग की जैसी चुप्पी वाली कार्यप्रणाली रही है उससे सत्ता में बैठे लोगों को इस तरह की हिम्मत मिलती है. प्रोफेसर आनंद कहते हैं, ‘चुनाव आयुक्तों को चाहिए कि वे इस संस्था को और मजबूती देने वाले अधिकारों की मांग को लेकर और गंभीरता दिखाएं वरना वह दिन दूर नहीं जब लोग सीबीआई की तरह चुनाव आयोग को भी सरकार का हथियार कहने लगेंगे.’

इस सबके बीच आयोग की चिंता जस की तस है कि सीमित अधिकारों के दम पर वह आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों से कैसे निपटे क्योंकि कई मामलों में उसे सख्ती दिखाने के चलते राजनीतिक दलों की आलोचना का शिकार भी होना पड़ा है. कर्नाटक विधान सभा चुनाव के दौरान यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के पर्स की तलाशी लेने के चलते उसे जातिगत दुर्भावना का आरोप तक झेलना पड़ गया था. पश्चिम बंगाल के महाधिवक्ता ने तो वहां के राज्य चुनाव आयोग को बेहताशा मांग की सनक रखने वाली खूबसूरत महिला की संज्ञा तक दे डाली थी. जबकि इन दोनों ही मामलों में आयोग अपना काम कर रहा था. इसके अलावा सत्ताधारी पार्टियां तो हमेशा से चुनाव आयोग को अपना दुश्मन नंबर वन कहती रही हैं.

इन घटनाओं से यह बात साफ जाहिर होती है कि चुनाव सुधारों को लेकर राजनीतिक दल समय-समय पर भले ही अपनी प्रतिबद्धता जताते रहे हों लेकिन असलियत में चुनाव आयोग की सेंसरशिप उन्हें किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं है. इससे सवाल उठता है कि क्या अब भी आयोग को चुनाव सुधारों को लेकर दिए गए खुद के सुझावों के पक्ष में मुखर होकर खड़ा नहीं होना चाहिए.

इस सिलसिले में तहलका ने काफी समय तक चुनाव आयोग के अधिकारियों से बात करने की कोशिश की. लेकिन जवाब मिला कि पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के चलते अधिकारी मंत्रणाओं में व्यस्त हैं. बहुत संभव है कि इन मंत्रणाओं का विषय ‘नोटिस और डांटने-डपटने वाले रस्मी कार्यक्रम’ के इर्द गिर्द ही होगा. लेकिन फिर भी उम्मीद तो की ही जा सकती है कि इस बार ‘वार रूम’ में उन उपायों पर भी चर्चा हो रही होगी जिनके जरिए आदर्श चुनाव आचार संहिता का वह मकसद हासिल किया जा सके जिसे खुद आयोग ने ‘नैतिक जिम्मेदारी’ का नाम दिया है.


 

जब उड़ी आचार संहिता की धज्जियां


 

मुस्लिम आरक्षण पर सलमान खुर्शीद का बयान
2012 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद ने एक चुनावी सभा के दौरान ओबीसी को मिलने वाले 27 प्रतिशत आरक्षण में से नौ फीसदी मुसलमानों को देने की घोषणा की. इसके बाद आयोग द्वारा फटकारे जाने के बावजूद उन्होंने अपने बयान पर कायम रहने की बात दोहराई. इस पर चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति को पत्र लिख कर दखल देने की मांग की. राष्ट्रपति ने चुनाव आयोग की शिकायत पर ‘उचित कार्रवाई’ के लिए पत्र प्रधानमंत्री कार्यालय को सौंप दिया. जिसके बाद खुर्शीद द्वारा अपने बयान पर अफसोस प्रकट करते ही मामला ठंडा हो गया

आरआर पाटिल का भड़काऊ भाषण
महाराष्ट्र के गृह मंत्री आरआर पाटिल ने कर्नाटक विधान सभा चुनाव के दौरान मराठी बाहुल्य वाले बेलगाम में भड़काऊ भाषण दिया जिस पर आयोग ने उन्हें नोटिस दे कर चेतावनी दी.

चुनावी खर्च को लेकर गोपीनाथ मुंडे का बयान
लोकसभा में विपक्ष के उपनेता गोपीनाथ मुंडे ने एक कार्यक्रम में दावा किया कि पिछले चुनाव में उन्होंने आठ करोड़ रुपये खर्च किए. जबकि चुनाव आयोग कोे दिए गए अपने चुनावी खर्च के ब्यौरे में उन्होंने लगभग 20 लाख रुपए का व्यय दिखाया था. इस बयान के बाद चुनाव आयोग ने उन्हें नोटिस थमाया जिसके बाद मुंडे अपने बयान से मुकर गए

राहुल गांधी द्वारा जनप्रतिनिधित्व कानून का उल्लंघन
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान कानपुर में राहुल गांधी के रोड शो में आचार संहिता का खुला उल्लंघन किया गया. वहां के तत्कालीन जिलाधिकारी ने भी इस बात को माना. यह रोड शो तय समय सीमा से अधिक देर तक और अधिक दूरी तक चला. बाद में आरोप-प्रत्यारोपों के बीच इस मामले में लीपापोती की कोशिश की गई

नवजोत सिंह सिद्धू को फटकार
गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा सांसद नवजोत सिंह सिद्धू ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर व्यक्तिगत टिप्पणी की. आयोग ने उन्हें फटकार लगाई

खुलेआम पैसे लेते दिखे लोकदल प्रत्याशी
2012 में एक चुनावी रैली के दौरान लोकदल के प्रत्याशी को मंच  पर समर्थकों के हाथों पैसे लेते हुए देखा गया. इस मंच पर पार्टी के युवा सांसद जयंत चौधरी भी देखे गए. बाद में उन्होंने इसे आचार संहिता का उल्लंघन मानने से इनकार किया

चर्च में प्रचार करते सांसद
पिछले साल ही आंध्र प्रदेश के घानपुर इलाके में कांग्रेस पार्टी के दो सांसदों और विधानसभा सीट से पार्टी उम्मीदवार को एक चर्च में चुनावी सभा करते देखा गया. चुनाव आयोग ने तीनों को नोटिस भेजा. जवाब में उन्होंने किसी भी सभा से इनकार करते हुए कहा कि वे चर्च में आशीर्वाद लेने गए थे न कि चुनाव प्रचार के लिए. इसके बाद आयोग ने तीनों को फटकार लगा कर चेतावनी जारी की.

सिफारिशों का नतीजा सिफर
15 जुलाई 1998 को चुनाव आयोग द्वारा सरकार को एक प्रस्ताव भेजा गया. इसके तहत उन लोगों के चुनाव लड़ने पर रोक की मांग की गई थी जिन पर ऐसे मामलों में आरोपपत्र दाखिल हो चुका हो जिनमें पांच साल या इससे ज्यादा की सजा हो सकती है.  1999, 2004 और 2006 में आयोग ने सरकार को इस बाबत फिर से याद दिलाई.

राजनीतिक दलों के कामकाज पर निगरानी रखने के लिए 1998 में ही आयोग ने एक प्रस्ताव दिया. इसका मजमून यह था कि पार्टियां अपनी आय के सभी स्रोत और सभी खर्च भी सार्वजनिक करें. इसके अलावा यह भी जोड़ा गया कि आयोग के पास दलों का पंजीकरण निरस्त करने का भी अधिकार होना चाहिए. इस प्रस्ताव को भी दो बार 2004 और 2006 में दोहराया जा चुका है.

1994 में लोकसभा में एक विधेयक पेश किया गया था. इसके तहत राजनीतिक दलों द्वारा धर्म का दुरुपयोग रोके जाने के प्रावधान बनाने की बात की गई. लेकिन 1996 में लोकसभा के भंग हो जाने के बाद से इस पर कोई पहल नहीं हुई. आयोग ने 2010 में दोबारा प्रस्ताव दिया कि उसकी बात पर फिर से विचार हो.

  • 2011 में आयोग ने ‘पेड न्यूज’ को चुनावी अपराध घोषित करने के लिए कानून में संशोधन का सुझाव दिया.
  • 2004 में उसने सरकार का कार्यकाल समाप्त होने से छह माह पहले से ही सरकारी विज्ञापनों पर रोक लगाने की सिफारिश की.
  • 2011 में उसने कहा कि उम्मीदवारों द्वारा झूठा शपथ पत्र दाखिल करने पर उन्हें सजा होनी चाहिए.
  • 2009 में आयोग ने कहा कि उसके पास भ्रष्ट आचरण में लिप्त हारे हुए उम्मीदवारों के खिलाफ भी याचिका दाखिल करने का अधिकार हो.
  • 1998 में आयोग ने मांग की कि चुनाव से ठीक पहले आयोग की सहमति के बिना चुनाव अधिकारियों के स्थानांतरण पर प्रतिबंध लगना चाहिए. जुलाई, 2004 में उसने इस बात को दोहराया.
  • 1998 में आयोग ने सुझाव दिया कि उसके पास जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत नियम बनाने की शक्ति होनी चाहिए.

विदिशा, मध्यप्रदेश

Vidishaपिछले दिनों दिग्विजय सिंह का बयान आया कि सुषमा स्वराज, नरेंद्र मोदी से बेहतर प्रधानमंत्री साबित हो सकती हैं. इसके बाद सिंह के ही अंदाज में स्वराज ने भी चुटकी ली कि वे राहुल गांधी से बेहतर प्रधानमंत्री बनेंगे. इस राजनीतिक चुहल के दोनों के लिए अपने-अपने मायने हों या न हों, लेकिन इस लोकसभा चुनाव में राहुल व मोदी के बजाय इन दोनों को एक दूसरे के खिलाफ ही सबसे ज्यादा मेहनत करनी है.

विदिशा से सुषमा स्वराज के खिलाफ कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह के छोटे भाई लक्ष्मण सिंह को टिकट दिया है. इतिहास बताता है कि पार्टी से पांच बार लोकसभा (राजगढ़ सीट पर कांग्रेस से चार और भाजपा से एक बार) और दो बार विधानसभा सदस्य रहे लक्ष्मण का प्रभाव अपनी पुश्तैनी रियासत राघौगढ़ के आगे नहीं जा पाता. स्थानीय पत्रकार नावेद खान बताते हैं, ‘ऐसे में विदिशा जैसी सीट पर उनकी उम्मीदवारी का सीधा मतलब है कि मुकाबला दिग्विजय सिंह बनाम सुषमा स्वराज है.’  यह इस बार विदिशा में लोकसभा चुनाव का सबसे दिलचस्प पहलू है. दूसरे दिलचस्प पहलू के बारे में यहां के एक अन्य रहवासी अमर यादव बताते हैं, ‘चुनाव लड़ने वाले नाम जरूर बड़े हैं, लेकिन क्षेत्र में लहर अभी किसी की नहीं है. कुछ दिन पहले सुषमा स्वराज की रैली हुई थी लेकिन उसमें भीड़ ही नहीं जुटी. ‘

अपने बनने यानी 1967 के बाद से ज्यादातर भाजपा के कब्जे में रही है. तकरीबन 35 फीसदी सवर्ण मतदाता वाले इस लोकसभा क्षेत्र में सवर्णों से लेकर अनुसूचित जाति (20 प्रतिशत), पिछड़ा वर्ग (15 प्रतिशत), अनुसूचित जनजाति (12 प्रतिशत) और मुस्लिम (10 प्रतिशत) तक का मतदाता वर्ग है लेकिन कोई पार्टी यह दावा नहीं कर सकती कि उसका किसी वोटबैंक पर कब्जा है. वैसे 1989 से यहां की जनता लगातार भाजपा उम्मीदवारों को जिताती रही है. पार्टी के लिए सुरक्षित सीट का दर्जा पा चुकी विदिशा से रामनाथ गोयनका (इंडियन एक्सप्रेस अखबार के प्रकाशक) और अटल बिहारी वाजपेयी (1991) जैसे दिग्गज भी चुनाव लड़ चुके हैं. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह यहां से चार बार लोकसभा सांसद रह चुके हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में बुदनी के साथ-साथ उन्होंने इस सीट से भी चुनाव लड़ा और जीता. बाद में उन्होंने यहां से इस्तीफा दे दिया था. सुषमा स्वराज को 2009 में शिवराज ही यहां लाए थे. कुछ उनके प्रभाव और कुछ कांग्रेस उम्मीदवार की ‘मेहरबानी’ से स्वराज साढ़े तीन लाख वोटों के भारी अंतर से जीती थीं. उस समय यह आंशिक तौर पर दिग्विजय सिंह की हार थी. चुनाव में राजकुमार पटेल कांग्रेस के उम्मीदवार थे लेकिन चुनाव नामांकन के ठीक आखिरी दिन उन्होंने उम्मीदवारी का पर्चा भरा और वह खारिज हो गया. इसके बाद यह चर्चा जोरों पर चल पड़ी कि पटेल ने भाजपा से सांठगांठ कर नामांकन पत्र भरने में गलती की थी. पटेल चूंकि दिग्विजय सिंह के करीबी माने जाते हैं इसलिए उनपर भी उंगलियां उठीं. इस बार लक्ष्मण सिंह के उम्मीदवार बनने पर माना जा रहा है कि दिग्विजय सिंह पिछली बार की गलती को सुधारना तो चाहते ही हैं साथ ही उन्हें भाजपा में जाकर वापस आए अपने भाई का पार्टी में पुनर्वास भी करना है. हालांकि क्षेत्र में पार्टी का अतीत देखते हुए कहा जा सकता है कि सिंह बंधुओं के लिए विदिशा से आश्वस्त होने की ज्यादा वजहें नहीं हैं.

लेकिन सुषमा स्वराज भी यहां आम लोगों के लिए ऐसी जनप्रतिनिधि साबित नहीं हो पाईं जिन्हें वे सरमाथे पर बिठाना चाहें. ग्रामीण क्षेत्रों में लोग उनसे खासे नाराज हैं. स्वराज ने पिछली बार चुनाव जीतने के बाद इस क्षेत्र में कुछ गांवों को चिह्नित कर उन्हें गोद लेने की बात कही थी लेकिन उस दिशा में उन्होंने कुछ नहीं किया. ऐसे और भी वादे हैं जो हकीकत नहीं बन सके. इन वजहों से पांच साल में उनकी कहने लायक कोई विरासत नहीं है. इसबार भी उन्हें जो समर्थन मिलेगा वह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की वजह से होगा. लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में खुद चौहान विदिशा सीट से सिर्फ 15 हजार मतों के अंतर से जीत पाए थे. इसके अलावा पिछले विधानसभा चुनाव में पूरे प्रदेश में भाजपा की लहर के बावजूद यहां की आठ विधानसभा सीटों में से दो सीटें भाजपा, कांग्रेस के हाथों गंवा चुकी है. बाकी में भी जीतहार का अंतर 2008 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले कम हुआ है. ये तथ्य कांग्रेस के लिए उम्मीद पैदा कर रहे हैं. लक्ष्मण सिंह के बहाने दिग्विजय सिंह की उपस्थिति ने इस क्षेत्र में पार्टी की गुटबाजी को एक हद तक खत्म कर दिया है. यदि हम लक्ष्मण सिंह और सुषमा स्वराज को एक बार किनारे कर दें तो आने वाले चुनाव में यह सीट एक पूर्व और एक वर्तमान मुख्यमंत्री के बीच जोरआजमाइश का नजारा दिखाने के लिए बिल्कुल तैयार है.

अमेठी, उत्तर प्रदेश

Amethi1977 में संजय गांधी के अमेठी से पर्चा भरते ही देश के राजनीतिक नक्शे पर लगभग गुमनाम रही यह सीट अचानक खास हो गई थी. तबसे लेकर आज तक इसका वह रुतबा कायम है. 77 से पहले अमेठी में कांग्रेस उम्मीदवार विद्याधर बाजपेयी ही जीतते आ रहे थे. संजय गांधी इस कारण भी आश्वस्त थे और इसलिए भी क्योंकि उनकी मां और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बगल की ही रायबरेली सीट से चुनाव लड़ रही थीं.

लेकिन नतीजा उनकी उम्मीद के उलट रहा. आपातकाल के खिलाफ जनता का गुस्सा फूटा और जनता पार्टी के उम्मीदवारों ने मां-बेटे की जोड़ी को पटखनी दे दी. इंदिरा को राजनारायण ने हराया तो संजय को रवींद्र प्रताप सिंह ने. हालांकि तीन साल बाद ही इस जोड़ी ने इन दोनों सीटों पर वापसी की. तब से लेकर अब तक 98-99 के एक अपवाद को छोड़ दें तो अमेठी गांधी परिवार के पीछे खड़ा रहा है. संजय, राजीव, सोनिया और राहुल गांधी और गांधी परिवार के वफादार कैप्टन सतीश शर्मा यहां से संसद पहुंच चुके हैं. बीते दो लोकसभा चुनाव में अमेठी ने राहुल गांधी को चुनकर भेजा है.

शायद यही वजह है कि कांग्रेस अमेठी को लेकर बेफिक्र दिखती है. इस कदर कि चुनाव अधिसूचना के बाद खबर लिखे जाने तक यहां राहुल गांधी का एक भी दौरा नहीं हुआ था. न ही प्रियंका गांधी की यहां कोई खास हलचल दिख रही है. सपा ने पहले की तरह एक बार फिर प्रत्याशी न उतारकर अमेठी में राहुल गांधी को वॉकओवर दे दिया है. बसपा से धर्मेंद्र प्रताप सिंह जरूर मैदान में हैं, लेकिन खबरों के मुताबिक क्षेत्र में उनकी सक्रियता कम ही नजर आती है. फिलहाल चुनाव प्रचार के नाम पर आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार कुमार विश्वास अमेठी में सबसे ज्यादा सक्रिय दिखते हैं. 12 जनवरी को अमेठी में हुई विशाल जनसभा के बाद से वे क्षेत्र में जमे हैं और दावा कर रहे हैं कि जनता उनके पक्ष में फैसला कर चुकी है. उधर, भाजपा ने यहां से स्मृति ईरानी को उतारकर मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया है.

हालांकि कोण कितने और कैसे भी रहे हों, अमेठी में गांधी परिवार के आगे कोई नहीं ठहर सका. शरद यादव से लेकर कांशीराम तक यहां से रण में उतरे, लेकिन खेत रहे. मेनका गांधी और महात्मा गांधी के पोते राजमोहन गांधी ने भी किस्मत आजमाई पर एक जैसा कुलनाम भी उनके काम न आया.

दरअसल अमेठी के मतदाताओं का बड़ा हिस्सा मानता है कि गांधी परिवार से जुड़ाव ही अकेली चीज है जो उन्हें एक तरह का रसूख देती है. अमेठी में एक स्थानीय अखबार के प्रतिनिधि कहते हैं, ‘अमेठी में और है क्या? जमीन खारी है जिससे खेती कोई खास नहीं होती और उद्योग जैसी कोई चीज है नहीं. अमेठी के लिए प्रासंगिक रहने का एक ही तरीका है और वह है गांधी परिवार से जुड़े रहना.’ इसके अलावा यहां मुस्लिम वोटर करीब 20 फीसदी हैं जो कई पीढ़ियों से गांधी परिवार से जुड़े रहे हैंै.

लेकिन नई पीढ़ी की सोच अब बदल रही है. जैसा कि भोय में रहने वाले मुदस्सर अली एक अखबार से बातचीत में कहते हैं, ‘हमारे अब्बा और दादा कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता थे. चुनाव कोई भी रहा हो, हमारे परिवार से हर वोट कांग्रेस को गया है. लेकिन आज की पीढ़ी, जिसमें मेरा बेटा भी शामिल है, ज्यादा व्यावहारिक है. वह समझती है कि वोट नेता के काम के आधार पर मिलना चाहिए.’ अमेठी में कई लोग यह भी मानते हैं कि राजीव और सोनिया गांधी इलाके के लोगों के लिए कहीं ज्यादा सुलभ थे जबकि राहुल की तरफ से वे एक तरह की दूरी महसूस करते हैं. कुछ समय पहले एक समाचार वेबसाइटसे बात करते हुए यहां के एक कांग्रेस समर्थक त्रिवेणी सिंह की टिप्पणी थी, ‘अमेठी का जिस तरह से विकास होना चाहिए नहीं हुआ है. मात्र कह देने से विकास नहीं होता है. उनको यदि केंद्र की राजनीति करनी है तो करें, अमेठी किसी और को चुन लेगी.’ बदलाव के कुछ संकेत मिल भी रहे हैं. 2012 के विधानसभा चुनाव में अमेठी की पांच में से तीन विधानसभा सीटें समाजवादी पार्टी ने जीती थीं, जबकि कांग्रेस के हाथ दो सीटें लगीं.

तो क्या अमेठी में 1977 का इतिहास दोहराया जा सकता है जैसा कि कुमार विश्वास दावा करते हैं. अमेठी में कई लोग हैं जो मानते हैं कि 77 की हार का इंदिरा विरोधी लहर से ज्यादा लेना-देना नहीं था. जमो निवासी और पेशे से वकील मोहम्मद अनवर एक अखबार से बातचीत में कहते हैं, ‘उसके लिए संजय गांधी खुद जिम्मेदार थे. नसबंदी की उनकी नीति और उसे जबर्दस्ती लागू करने की कवायद ने लोगों को नाराज कर दिया था. उन्होंने सैकड़ों लोगों की जबरन नसबंदी कर थी. उस साल मुसलमानों का एक भी वोट कांग्रेस को नहीं गया था.’

इस बार कांग्रेस की मुश्किल नसबंदी की जगह घेरेबंदी है. आप और भाजपा की.

वाराणसी, उत्तर प्रदेश

जैसे ही भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी वाराणसी से तय हुई यह शहर 2014 Varanasiलोकसभा की सबसे बड़ी चुनावी लड़ाइयों का केंद्र बन गया. मोदी की उम्मीदवारी तय होने के चंद दोनों बाद ही ‘मेरे जीवन का एक ही उद्देश्य है मोदी को हराना ’ की तर्ज पर उन्हें पटखनी देने के उद्देश्य से अरविंद केजरीवाल भी बनारस पहुंच गए. सपा मुखिया कथित मोदी लहर पर कहर ढाने के लिए ताल ठोकते हुए आजमगढ़ आ गए. इस तरह काफी समय से केंद्रीय राजनीति में चर्चा से बाहर रहा बनारस आज देश में होने वाली हर राजनीतिक चर्चा का मुख्य विषय बन गया है.

वाराणसी लोक सभा सीट ऐतिहासिक तौर पर भाजपा की सुरक्षित सीट रही है. 2004 में कांग्रेस के राजेश मिश्रा की जीत को अगर छोड़ दें तो इस सीट पर 1991 से लगातार भाजपा का कब्जा है. मोदी को बनारस से लड़ाने के पीछे पार्टी की ये रणनीति है कि मोदी के यहां से लड़ने पर पूर्वांचल और बनारस से लगी हुई बिहार की सीटों पर भी पार्टी को मोदी की लहर का जबर्दस्त फायदा होगा. मोदी की देश में लहर है और ऐसे में अगर लहर बनारस से उठेगी तो जाहिर सी बात है उसका बनारस के चारों तरफ असर होगा ही.

लेकिन क्या सच में ऐसा है ? क्या भाजपा बनारस से सटी हुई सीटों पर कमाल करने जा रही है, जहां उसकी हालत लंबे समय से खस्ता है ? वरिष्ठ पत्रकार शरद कहते हैं, ‘यहां पूर्वांचल में भाजपा की बहुत खराब स्थिति है. भाजपा जिस उद्देश्य से मोदी को यहां लाई है वे पूरा होने वाला नहीं है. पूर्वांचल में उसकी स्थिति सुधरने की की सूरत दिखाई नहीं देती.’

बनारस में वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति को देखते हुए मोदी की जीत पर बहुत कम लोग ऐसे हैं जो संदेह व्यक्त करते हैं. जानकार भी मानते हैं कि मोदी के बनारस जैसे भाजपाई गढ़ से चुनाव जीतने में कोई अड़चन नहीं है. ऐसे में बनारस की गलियों में सवाल मोदी की जीत का नहीं है बल्कि उस अंतर का है जिससे मोदी जीतेंगे. शरद करते हैं, ‘बनारस में मोदी जीतेंगे या नहीं ये प्रश्न ही नहीं. प्रश्न ये है कि कितने वेटों से वे जीतेंगे. वेट प्रतिशत से तय होगा कि वे वास्तव में जीते हैं या नहीं.’

इस तरह मोदी की बनारस से विजय उनके जीतने से नहीं बल्कि उन मतों के अंतर से नापी जाएगी जिससे वे यहां से जीतेंगे. संघ के एक स्थानीय प्रचारक कहते हैं, ‘देखिए पिछली बार यहां से मुरली मनोहर जोशी मात्र 17 हजार वेटों से जीत पाए थे. उस जीत को क्या आप जीत कहेंगे. उसी तरह से मोदी को लेकर पार्टी ने जो पूरे देश में माहौल बनाया उसके बाद अगर बहुत बड़े अंतर से मोदी नहीं जीते तो फिर वे जीत हार से भी ज्यादा शर्मनाक होगी. इसके साथ ही ये भी देखा जाएगा कि मोदी की लहर पूर्वांचल में पार्टी को कितना ऊपर उठाती है.’

खैर फिलहाल मोदी के सामने अरविंद केजरीवाल ताल ठोक रहे हैं. केजरीवाल का दावा है कि मोदी बनारस से हार रहे हैं. जानकार बताते हैं कि केजरीवाल के काशी पहुंचने पर भले ही कुछ लोगों ने उन पर अंडे और स्याही फेंक कर उनका विरोध किया ल, किन बनारस में उनको लेकर एक कौतुहल का माहौल है. हालाकि ये कौतुहल वेट में कितना तब्दील होगा ये तो भविष्य बताएगा. लेकिन मुस्लिम जनसंख्या की तरफ से केजरीवाल के प्रति एक लगाव जरूर दिखाई देता है. शरद कहते हैं, ‘मुसलमानों को लगता है कि यही आदमी नरेंद्र मोदी को चुनौती दे सकता है. ये मुस्लिम विरोधी नहीं है. और दिल्ली में सत्ता को ठोकर मारकर यहां आया है.’

हालाकि एक तबका बनारस के 22 फीसदी मुस्लिम आबादी में से दो फीसदी के करीब व्यापारी वर्ग के मोदी के पक्ष में मतदान करने की संभावना भी जताता है. ऐसी भी खबर है कि भाजपा बनारस में मुसलमानों को मोदी के पक्ष में जोड़ने के लिए गुजरात से मुसलमानों का एक दल बनारस लाने जा रही है. दैनिक आज से जुड़े रहे वरिष्ठ पत्रकार देवकांत पाठक कहते हैं, ‘बनारस शहर में तो अरविंद की स्थिति ठीक नहीं है लेकिन शहर के बाहर आस-पास के ग्रामीण इलाकों में अरविंद के प्रति थोड़ा लगाव दिखता है. कारण बताते हुए वे कहते हैं, आप पास के क्षेत्रों में जमीन अधिग्रहण भी एक बड़ा मुद्दा है. ऐसे में किसानों को लगता है कि ये आदमी अधिग्रहण विरोधी है और वे उनकी लड़ाई लड़ सकता है.’

शरद कहते हैं, ‘शहर के पढ़े लिखे एलिट टाइप लोगों भी अरविंद को लेकर चर्चा है. लेकिन ये चर्चा वेटों में कितना बदलेगी कहा नहीं जा सकता.’

मोदी को पटखनी देने के लिए मुख्तार अंसारी भी बनारस सीट से अपनी किस्मत आजमाने वाले हैं. नेतागिरी से ज्यादा अपने आपराधिक कर्म कुकर्म के कारण पहचाने जाने वाले अंसारी पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी के चुनावी जोश को ठंडा कर पाने में काफी सफल रहे थे. उस चुनाव में जोशी मात्र 17 हजार वेटों से मुख्तार को हरा पाए थे. मुख्तार को इस बार उम्मीद है कि मोदी के कारण इस बार पूरा का पूरा मुस्लिम वेट उन्हीं की झोली में आ गिरेगा. ऐसे में थोड़ा बहुत इधर-उधर से वेट मिल गया तो भले ही वे चुनाव हार जाएं लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि व्यक्ति का कद इस बात से भी तय होता है कि उसका प्रतिद्दंदी कौन है, उसी तर्ज पर वे भी याद रखे जाएंगे.

कांग्रेस अभी ये तय नहीं कर पाई है कि बनारस से मोदी को उसका कौन सा सिपाही चुनौती देगा. हां, पिछले कुछ समय में कई नेताओं के नाम जरूर सामने आए हैं. राष्ट्रीय स्तर पर दिग्विजय सिंह से लेकर प्रियंका गांधी तक का नाम उछला. स्थानीय स्तर पर पार्टी के विधायक अजय राय से लेकर पूर्व सांसद विजय मिश्रा, काशी नरेश के भाई अभिभुषण सिंह से लेकर संकट मोचन मंदिर के महंत के बेटे तक को चुनावी मैदान में मोदी के सामने उतारने की चर्चा गर्म रही है.बनारस की राजनीति को जानने वाले बताते हैं कि कांग्रेस के लिए मोदी को बनारस में हराना तो लगभग नामुमकिन जैसा है लेकिन वह चाहे तो मोदी को अच्छी चुनौती जरूर दे सकती है. लेकिन इसके लिए जरूरी है कि वह कोई स्थानीय प्रत्याशी उतारे.

शरद कहते हैं, ‘अगर कांग्रेस बाहर से दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं को लाकर मोदी के खिलाफ लड़ाएगी तो उसकी जमानत जब्त होना तय है. उसे स्थानीय नेता को खड़ा करना चाहिए. ऐसा करने पर वे सम्मानजनक लड़ाई जरूर लड़ पाएगी.’

लेकिन बनारस में कांग्रेस के पास ऐसा नेता कौन है ? पाठक कहते हैं, ‘अभी की स्थिति में अजय राय सबसे सही कैंडिडेट हो सकता है. अपने क्षेत्र में इस आदमी की छवि रॉबिनहुड की है. ये कांग्रेस की इज्जत बचा सकता है. बनारस में लोग इसे जानते और मानते हैं.’

सपा और बसपा ने ‘इस सीट पर दिमाग लगाना ही व्यर्थ है’ की तर्ज पर प्रत्याशी खड़ा कर दिया है.

भले आज बनारस में मोदी की जीत की संभावना ज्यादा प्रबल बताई जा रही है लेकिन पिछले पांच सालों में इस सीट पर भाजपा को लेकर जनता में एक तीखी नाराजगी की भावना भी है. हालाकि इसका लेना देना यहां भाजपा सांसद रहे मुरली मनोहर जोशी से है. स्थानीय लोग बताते हैं कि अगर इस बार भी पार्टी ने जोशी को टिकट दिया होता तो वे जरूर भयानक हार का सामना करते. बीएचयू से पीएचडी कर रहे सुजीत प्रताप सिंह कहते हैं, ‘वो आदमी इतना जनता से कटा रहता था जिसकी कोई सीमा नहीं है. इस दर्जे के वे पंडित जी थे कि जनता से नजर बचा के चलते थे कि कहीं दूसरे की नजरों से वे गंदे ना हो जाएं. अपने कार्यकाल में उन्होंने बनारस के लिए कुछ नहीं किया.’

बनारस के स्थानीय लोगों के साथ बीतचीत में ये बात सामने आती है कि हिंदुत्व के छौंक के साथ उसे सबसे अधिक उम्मीद इस बात की है कि मोदी आएंगे तो शायद इस ऐतिहासिक शहर की गलियों, सड़कों और मोहल्ले की सूरत बदलेगी. लोग बताते हैं कि कैसे कमलापति त्रिपाठी के बाद बनारस को कोई अच्छा सांसद नहीं मिला.

खैर, जिस तरह से बनारस में बहस देश के एक कदम आगे हो रही है. उसी के तहत ये चर्चा और आशंका भी सामने आ रही है कि बनारस और वड़ोदरा दोनों सीटें जीतने के बाद मोदी कहीं ‘बना रहे बनारस कहकर’ आगे न निकल लें.

बाडमेर, राजस्थान

Badmer70 के दशक में किस्सा कुर्सी का जैसी विवादास्पद फिल्म बनाने वाले अमृत नाहटा भी दो बार बाड़मेर से सांसद रहे. नाहटा अब दुनिया में नहीं हैं, लेकिन बाड़मेर में कुर्सी का किस्सा न सिर्फ जारी है बल्कि पूरे देश का ध्यान भी खींच रहा है. मुख्य रूप से भाजपा और कांग्रेस का द्वंद देखने वाली इस सीट से इस बार निर्दलीय हो चुके एक हालिया भाजपाई और भाजपाई हो चुके एक हालिया कांग्रेसी की टक्कर ज्यादा सुर्खियां बटोर रही है. बाड़मेर के जसोल गांव में जन्मे और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में रहे जसवंत सिंह ने जिंदगी का आखिरी चुनाव अपने घर से लड़ना चाहा था, लेकिन टिकट मिला कुछ दिन पहले ही कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए सोनाराम चौधरी को. जसवंत ने पार्टी से बगावत करके निर्दलीय के रूप में परचा दाखिल किया और उनके ऐसा करते ही बाड़मेर की लड़ाई दो की बजाय तीन ध्रुवों में बंट गई. तीसरा ध्रुव हैं कांग्रेस उम्मीदवार और मौजूदा सांसद हरीश चौधरी.

क्षेत्रफल की दृष्टि से बाड़मेर देश की सबसे बड़ी लोकसभा सीट है. बाड़मेर और जैसलमेर, दो जिलों को मिलाकर बनने वाले इस निर्वाचन क्षेत्र में कुल आठ विधानसभा सीटें हैं. इनमें से आज सात भाजपा के पास हैं. वैसे पारंपरिक रूप से यहां से कांग्रेस जीतती रही है जिसने 15 आम चुनावों में नौ बार यह सीट अपनी झोली में डाली है. सोनाराम खुद यहां से तीन बार सांसद रहे हैं. भाजपा यहां सिर्फ एक बार 2004 में विजयी रही है जब जसवंत के बेटे मानवेंद्र सिंह ने सोनाराम को ढाई लाख से भी ज्यादा वोटों से हराया था. 2009 में हरीश चौधरी ने करीब एक लाख 20 हजार वोटों के अंतर से मानवेंद्र सिंह को पटखनी दी थी. देश के कई दूसरे इलाकों की तरह बाड़मेर में भी बड़े मुद्दों से ज्यादा असर जात-बिरादरी के समीकरणों का रहता है. करीब 16 लाख मतदाताओं वाली इस सीट पर जाट मतदाताओं की संख्या तीन लाख से ऊपर है. राजपूत समुदाय के वोट दो लाख से ऊपर माने जाते हैं. करीब डेढ़ लाख वोट अनुसूचित जाति के हैं और दो लाख के लगभ सिंधी और मुस्लिम समुदाय के. सोनाराम चौधरी और हरीश चौधरी जाट समुदाय से हैं जबकि जसवंत सिंह राजपूत समुदाय से. बाकी दो समुदायों को कांग्रेस का पारंपरिक वोट माना जाता है. कांग्रेस को आशा है कि सोनाराम के उतरने से जाट वोट बंट जाएंगे जबकि उसका पारंपरिक वोट उसके साथ रहेगा और वह जीत जाएगी. जसवंत राजपूत और अल्पसंख्यक वोट का समीकरण बिठाकर अपनी नैय्या पार लगाने की उम्मीद में हैं. इलाके के क्षत्रिय संगठन उनका साथ देने का ऐलान भी कर चुके हैं. उधर, बीते विधानसभा चुनाव में हार का मुंह देख चुके सोनाराम का दावा है कि उनकी हार कांग्रेस के भितरघात के कारण हुई थी. वैसे हो सकता है कि जसवंत सिंह के पक्ष में उमड़ी सहानुभूति के चलते एक ऐसा ही भितरघात भाजपा में भी उनका इंतजार कर रहा हो.

जसवंत की जिद पर वसुंधरा की जिद को तरजीह मिलने की वजह से राजनीतिक प्रेक्षक बाड़मेर की जंग को इन दोनों दिग्गजों के बीच की लड़ाई के रूप में भी देख रहे है. नामांकन दाखिल करने के बाद जसवंत सिंह ने कहा भी कि वसुंधरा राजे ने उनके साथ धोखा किया है. सोनाराम रिटायर्ड कर्नल हैं और जसवंत सिंह पूर्व मेजर. दो पूर्व फौजियों की इस जंग के नतीजे पर पूरे देश की नजर रहेगी.

सारण, बिहार

Saran1लालू प्रसाद यादव के शासनकाल की जब भी बात आती है तो एक बात सभी कहते हैं कि उनकी राजनीतिक छवि को सबसे ज्यादा नुकसान उनके दोनों सालों यानी साधु-सुभाष ने पहुंचाया. हालांकि साधु और सुभाष उनके कार्यकाल में नक्षत्र की तरह अगर उग आए थे और चमकदार तारे की तरह वर्षों चमकते रहे थे तो उसमें लालू से ज्यादा राबड़ी देवी की भूमिका थी. वक्त का फेर देखिए. अब उन्हीं दोनों भाइयों में से एक अनिरूद्ध उर्फ साधु यादव अपनी दीदी राबड़ी देवी का ही खेल बिगाड़ने सारण पहुंचे हैं. वह भी उस समय में, जब लालू खुद चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य साबित हो चुके हैं और अपने पति की सीट को बचाने के लिए सबसे मुश्किल लड़ाई लड़ने राबड़ी वहां पहुंची है. एक समाचार वेबसाइट से बातचीत करते हुए इस पर उनका कहना था, ‘चुनाव लड़ने का फैसला लिए तो क्या हो गया. सारण की सीट पर लालू यादव और राबड़ी देवी ने रजिस्ट्री या बैनामा करवा लिया है क्या?’

सारण संसदीय सीट, जिसे प्रचलित तौर पर छपरा के नाम से जाना जाता है, की लालू के राजनीतिक जीवन में अहम भूमिका रही है. 1977 से ही छपरा ने उनका साथ दिया है. छपरा से उनका ऐसा नाता जुड़ा कि पास के गोपालगंज जिले के मूलवासी होने के बावजूद उन्होंने कभी भी उस सीट से चुनाव नहीं लड़ा. हां, साधु यादव को जरूर उन्होंने एक बार गोपालगंज से चुनाव लड़वाकर सांसद बन जाने का शौक पूरा करवा दिया था. बताते हैं कि साधु के लोकसभा पहुंचने के बाद लालू के दूसरे चर्चित साले सुभाष यादव ने अपनी बहन राबड़ी के पास पहुंचकर संसद पहुंचने की जिद मचा दी थी. कहा जाता है कि दोनों भाइयों को बराबर माननेवाली राबड़ी देवी ने लालू से जिद कर सुभाष को भी राज्यसभा भिजवा दिया था.

आज सुभाष अपने कारोबार की दुनिया में मगन हैं और साधु घाट-घाट का पानी पीकर परिवार के मुकाबले ही आ खड़े हुए हैं. इस बीच उन्होंने घाट-घाट का पानी पिया. बहनोई और बहन का साथ छूटने के बाद उन्होंने कांग्रेस का दामन थामा था. वहां सफलता नहीं मिली तो गुजरात पहुंचकर भाजपा का साथ पाने के लिए बेताब हुए. दोनों जगह बात नहीं बनी तो अब निर्दलीय होकर अपनी बहन राबड़ी के खिलाफ सारण पहुंचे हैं. हालांकि यह जीतने से ज्यादा जमानत बचाने की लड़ाई है. सारण का असली रण पुराने दिग्गजों के बीच ही है. जब लालू लड़ते थे, तब भी उनके सामने 1999 में एक बार छपरा से सांसद बने राजीव प्रताप रूडी ही रहे और इस बार राबड़ी के सामने भी रूडी ही हैं.

सारण यादवों का गढ़ है. राबड़ी देवी को भी यहां से उतारने का मतलब यही रहा है. साधु उसी यादव वोट में किसी तरह सेंधमारी करना चाहेंगे, ताकि उनकी दीदी का खेल बिगड़े. दूसरी ओर इस बार रूडी बिना जदयू के समर्थन के चुनाव लड़ रहे हैं तो उनके सामने मुश्किलें ज्यादा हैं. उनके लिए एक बड़ा वोट बैंक जदयू समर्थकों का भी रहा है जो इस बार जदयू के प्रत्याशी सलीम परवेज की ओर जा सकता है. सलीम विधान परिषद के उप सभापति हैं और 2009 में बसपा के टिकट पर सारण से लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं. तब उन्होंने 35 से 40 हजार वोट बटोरे थे. सलीम को टिकट देने से जदयू में मतभेद भी उभरे हैं, लेकिन सूत्र बताते हैं कि नीतीश कुमार ने यही सोचकर उन्हें टिकट दे दिया है कि एक मुस्लिम उम्मीदवार की संख्या बढ़ जाएगी और कई दावेदारों के बीच के मतभेद को खत्म भी किया जा सकता है. खैर! यह तो जदयू की बात है जो करिश्मे की उम्मीद में है. राबड़ी पति के वोट के सहारे चुनाव लड़ने पहुंची हैं. इसी सारण में आने वाली सोनपुर विधानसभा सीट से राबड़ी देवी पिछला विधानसभा चुनाव लड़ी थीं और भाजपा से हार गई थीं. सारण संसदीय इलाके में छह विधानसभा क्षेत्र आते हैं. तीन पर भाजपा का कब्जा है, दो पर जदयू है और एक पर ही राजद का कब्जा है. रूडी तीन भाजपा विधायकों के सहारे चुनाव पार करने की उम्मीद में हैं और राबड़ी लालू के प्रभाव के सहारे.

इस लड़ाई में सबसे बड़ा सवाल यही उठा है कि आखिर साधु आखिरी दिनों में कैसे टपक गए. अनुमान यही लगाया जा रहा है कि साधु ने इसी उम्मीद के साथ अचानक मैदान में उतरने का एलान किया ताकि उन्हें भी लालू प्रसाद मनाने आएं और फिर से कोई अहम स्थान पार्टी में दे दें. लालू प्रसाद ने पाटलीपुत्र संसदीय क्षेत्र में बेटी के खिलाफ बिगुल फूंकने का एलान करने के बाद रीतलाल यादव के साथ यही किया था. लेकिन साधु को उनके जीजा ने वह भाव नहीं दिया. भाई-बहन की लड़ाई और तेज हो, यह भाजपा तो चाहती ही है, लेकिन उससे ज्यादा जदयू नेता चाहते हैं ताकि किसी तरह भाजपा-राजद के बीच फंसा यह अभेद्य गढ़ टूटे.

वडोदरा, गुजरात

Saranआज भले ही वे दो ध्रुवों पर हों, लेकिन एक समय था जब वे एक ही धुरी पर घूमते थे. भाजपा से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी और वडोदरा लोकसभा सीट पर उन्हें चुनौती देने उतरे कांग्रेस महासचिव मधुसूदन मिस्त्री, दोनों का ही संघ से पुराना नाता रहा है. मोदी 80 के दशक में संघ से राजनीति में आए तो मिस्त्री ने तब राजनीति का दामन थामा जब 1995 में शंकर सिंह बाघेला ने गुजरात भाजपा से बगावत की और राष्ट्रीय जनता पार्टी बनाई. 1999 में इसका कांग्रेस में विलय हो गया और मिस्त्री भी कांग्रेस में आ गए. साझा अतीत के अलावा दोनों विरोधियों में और भी कई समानताएं हैं. मोदी और मिस्त्री दोनों ही जमीनी राजनीति और चुनावी प्रबंधन में माहिर हैं. यही नहीं, गुरु गुड़ ही रहा और चेला शक्कर हो गया की कहावत को दोनों ने चरितार्थ किया है. मोदी, अपने राजनीतिक गुरू लालकृष्ण आडवाणी को पीछे छोड़ चुके हैं और मिस्त्री वाघेला को.

लोकसभा चुनाव के रण में पहली बार और वह भी प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा लिए उतर रहे मोदी के लिए वडोदरा शायद सबसे जोखिम रहित सीट है. 1996-98 के अपवाद को छोड़ दें तो 1991 से लेकर आज तक यह उनकी पार्टी के पास ही रही है. 1991 में यहां से भाजपा ने दीपिका चिखलिया को मैदान में उतारा था जो तब तक रामानंद सागर के धारावाहिक रामायण में सीता की भूमिका करके काफी मशहूर हो चुकी थीं. राम मंदिर लहर ने सीता मैय्या को संसद पहुंचाया और वडोदरा को लंबे समय के लिए भाजपा के पाले में. 2009 में पार्टी के बालकृष्ण शुक्ला ने यह सीट करीब डेढ़ लाख वोटों के विशाल अंतर से जीती थी. वडोदरा में पड़ने वाली 10 विधानसभा सीटों में से नौ भाजपा के पास हैं. शहर के भाजपाई कहने भी लगे हैं कि वाराणसी और वडोदरा, दोनों की स्पेलिंग वी से शुरू होती है इसलिए मोदी के लिए वी से ही शुरू होने वाली विक्टरी यानी विजय तय हो गई है.

लेकिन क्या ऐसा वास्तव में है? वडोदरा से पहले कांग्रेस ने नरेंद्र रावत को टिकट दिया था. वे पार्टी विकेंद्रीकरण के लिए चलाई जा रही राहुल गांधी की खास कवायद प्राइमरीज के जरिये चुनकर आए थे. लेकिन जब मोदी ने यहां से उम्मीदवारी की घोषणा कर दी तो रावत ने दौड़ से हटने का फैसला कर लिया. माना जा रहा है कि कांग्रेस यह संदेश नहीं देना चाहती थी कि वह मोदी को आसान लड़ाई दे रही है इसलिए उसने मिस्त्री को मैदान में उतारा है. राहुल गांधी के काफी करीबी माने जाने वाले मिस्त्री को चुनाव प्रबंधन की कला में भी माहिर माना जाता है. 2011 में केरल और 2013 में कर्नाटक विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत का श्रेय उनकी रणनीतियों को दिया जाता है. बताते हैं कि 2004 में गुजरात की साबरकांठा लोकसभा सीट पर मिस्त्री को हराने के लिए मोदी और उनके सबसे विश्वस्त सिपहसालार अमित शाह की जोड़ी ने पूरा जोर लगा दिया था, लेकिन वे नाकामयाब रहे. हालांकि 2009 में यह जोड़ी मिस्त्री पर भारी पड़ी. इस बार क्या होगा, देखना दिलचस्प होगा. टिकट मिलने के बाद मिस्त्री का कहना था, ‘मैं काफी सालों से इस मौके का इंतजार कर रहा था.  मोदी को वडोदरा से चुनाव लड़ने दीजिए. मैं भी वहां से लडूंगा और उन्हें हराऊंगा.’

लेकिन उत्तरी गुजरात के साबरकांठा या बनासकांठा जैसे आदिवासी इलाकों में मजबूत पकड़ रखने वाले मिस्त्री वडोदरा जैसे शहरी इलाके में कितने वोट खींच पाएंगे? अहमदाबाद में सामाजिक कार्यकर्ता और राजनीतिक विश्लेषक हरिणेश पंड्या एक अखबार से बातचीत में कहते हैं, ‘ अब मुद्दा यह नहीं है कि वडोदरा में कौन जीतेगा या हारेगा, बल्कि यह है कि अब यहां वास्तव में एक मुकाबला होगा जिसे मोदी को भी गंभीरता से लेना होगा. अब यहां उन्हें वॉकओवर जैसी स्थिति नहीं रही.’ अब वाराणसी और वडोदरा, दोनों ही मोर्चों को मोदी हलके में नहीं ले सकते. यहां उन्हें पहले से ज्यादा ऊर्जा खर्च करनी पड़ेगी जिसका असर देश में बाकी जगहों पर उनके अभियान पर पड़ेगा.

यह भी दिलचस्प है कि भाजपा से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी और कांग्रेस महासचिव मधुसूदन मिस्त्री की भिड़ंत कई तरह से हो रही है. वडोदरा में दोनों सीधे लड़ रहे हैं तो कई मोर्चों पर उनकी लड़ाई अप्रत्यक्ष है. मिस्त्री पर दिल्ली की गद्दी के लिए अहम माने जाने वाले उस उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस की नैय्या पार लगाने का जिम्मा है जहां से लोकसभा की 80 सीटें आती हैं. इसी सूबे में भाजपा की जिम्मेदारी उन अमित शाह ने संभाली हुई है जिन पर आज मोदी सबसे ज्यादा भरोसा करते हैं. वे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व वाली पांच सदस्यीय चुनाव समन्वय समिति में भी हैं. इसलिए उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि पूरे देश में कांग्रेस के टिकट वितरण पर उनका अहम प्रभाव रहा है. उधर, देश भर में भाजपा पर छाए मोदी प्रभाव पर तो शायद ही किसी को शक हो. यानी लड़ाई के कई पहलू हैं तो नतीजों के भी होंगे ही.

मथुरा, उत्तर प्रदेश

Mathuraबागपत के अलावा मथुरा संसदीय सीट भी जाटलैंड की हॉट सीट मानी जाती है. अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी यहां के सांसद हैं. लेकिन मशहूर फिल्म अदाकारा हेमा मालिनी ने इस बार मथुरा को हॉट होने की एक और वजह दे दी है. ड्रीमगर्ल को भारतीय जनता पार्टी ने यहां से अपना उम्मीदवार बनाकर जयंत चौधरी के मुकाबले खड़ा किया है जिसके बाद से मथुरा लोकसभा सीट ग्लैमरस होने के साथ ही रोचक मुकाबले के लिए भी तैयार हो गई है.

इस सीट पर लोक दल का अच्छा खासा प्रभाव माना जाता है. काफी जद्दोजहद के बाद भी भाजपा यहां की जाट बिरादरी के वोट में सेंध नहीं लगा पा रही थी. हालांकि यहां से चुनाव लड़ने के लिए भाजपा के कई दिग्गजों ने दावेदारी की थी लेकिन पार्टी ने हेमा की ग्लैमरस छवि के साथ ही जाट पृष्ठभूमि वाले अभिनेता धर्मेंद्र की पत्नी होने के डबल डोज के सहारे ही मथुरा फतह की आस लगाई है.

जानकारों का मानना है कि इस रणनीति पर अगर ठीक से काम किया गया तो जयंत चौधरी के लिए मुकाबला मुश्किल हो सकता है. गौरतलब है कि कांग्रेस ने फिल्म अभिनेत्री नगमा को मेरठ से तथा आम आदमी पार्टी ने पूर्व टीवी एंकर शाजिया इल्मी को गाजियाबाद से उतार कर पश्चिम यूपी के चुनावी माहौल को पहले से ही ग्लैमरस कर दिया है. ऐसे में माना जा रहा है कि हेमामालिनी को मथुरा से उतार कर भाजपा मोदी लहर के साथ ही इस लहर का लाभ भी लेने की फिराक में हैं. एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि पिछले लंबे वक्त से हेमा मालिनी इस इलाके में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुतियां देती रही हैं तथा राज्यसभा सदस्य रहते हुए अपनी सांसद निधि के कुछ हिस्से को वृंदावन तथा मथुरा में खर्च भी कर चुकी हैं. ऐसे में यह बात भी उनके पक्ष में जा सकती है.

हालांकि मथुरा संसदीय सीट का इतिहास टटोला जाए तो मालूम पड़ता है कि महिला प्रत्याशियों के लिए यहां की राजनीतिक जमीन कभी भी उपजाऊ नहीं रही है. 65 साल के संसदीय इतिहास में मथुरा से कोई भी महिला सांसद नहीं रही. यहां तक कि जाट बिरादरी के बड़े नेता चौधरी चरणसिंह की पत्नी गायत्री देवी और बेटी तक को यहां हार का सामना करना पड़ा है. इस लिहाज से देखा जाए तो हेमा मालिनी के लिए यह चुनाव बड़ी चुनौती है. ऐसे में अगर वे यहां से जीतती हैं तो यह एक रिकार्ड भी होगा. महत्वपूर्ण बात यह भी है कि 2009 में जयंत चौधरी ने मथुरा की सीट भाजपा की मदद से ही जीती थी. उन चुनावों में लोकदल ने भाजपा के साथ गठबंधन किया था. लेकिन इस बार पार्टी ने चुनावी बैतरणी पार करने के लिए कांग्रेस से हाथ मिलाया है. ऐसे में भाजपा ने भी हेमा को जिताने के लिए पूरा जोर लगाना शुरू कर दिया है. समाजवादी पार्टी और बसपा भी मथुरा सीट पर पूरी ताकत के साथ मैदान में उतर चुके हैं. इसके अलावा आम आदमी पार्टी ने भी युवा प्रत्याशी अनुज गर्ग को टिकट थमा दिया है. ऐसे में मथुरा में चुनावी जंग के रोचक और रोमांचक होने के पूरे आसार बनते दिख रहे हैं.

उत्तर-पूर्व मुंबई, मुंबई

Mumbaiउत्तर-पूर्व मुंबई लोकसभा क्षेत्र से सबसे ज्यादा बार कांग्रेसी उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की है. सात बार यह सीट कांग्रेस के खाते में गई है. जनता पार्टी के नेता सुब्रमण्यम स्वामी (1977 और 1980) को छोड़कर दूसरा कोई भी उम्मीदवार, इस सीट से लगातार दो बार लोकसभा चुनाव नहीं जीत पाया है. इस बार लड़ाई, त्रिकोणीय दिखती है. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के नेता संजय दीन पाटिल यहां के मौजूदा सांसद हैं. पाटिल को भारतीय जनता पार्टी उम्मीदवार किरीट सोमैया और आम आदमी पार्टी की उम्मीदवार मेधा पाटकर से कड़ी चुनौती मिलने की संभावना है. 2009 में पाटिल ने केवल 3000 मतों के अंतर से जीत दर्ज की थी. तब यह सीट भाजपा के कब्जे में थी और किरीट सोमैया यहां से सांसद थे. इस चुनाव में मनसे के उम्मीदवार शिशिर शिंदे को दो लाख के आसपास वोट मिले थे और इसी वजह से भाजपा के उम्मीदवार की हार हुई थी. परंतु इस बार स्थिति राकांपा उम्मीदवार के खिलाफ जाती दिख रही हैं. इस चुनाव में मनसे ने अलग से अपना उम्मीदवार नहीं उतारा है सो ऐसा माना जा रहा है कि भगवा वोट एकमुश्त भाजपा उम्मीदवार के खाते में जाएगा. वहीं दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी की मेधा पाटकर से भी राकांपा उम्मीदवार और मौजूदा सांसद संजय दीन पाटिल को नुकसान होता दिख रहा है. पाटकर को गरीब और झुग्गी वाले इलाकों से ज्यादा वोट मिलने की उम्मीद है और यह कांग्रेस-रांकपा का वोट बैंक है. अपनी उम्मीदवारी की घोषणा होने के बाद मेधा पाटकर ने मीडिया से बात करते हुए कहाथा, “उत्तर पूर्वी मुंबई के लोगों से हमारा पुराना जुड़ाव है. हमने साल 1976 से 1979 तक उस क्षेत्र में एक हिस्से में 80 हजार परिवारों के बीच काम किया है.”  मेधा पाटकर अपने आंदोलनों को लेकर इन इलाकों में वर्षों से सक्रिय रही है और वे मराठी भी हैं. इसलिए जानकार मानते हैं कि मेधा को अलग-अलग योजनाओं से विस्थापित हुए उत्तर भारतीयों, झुग्गियों में रहने वाले गरीब मुसलमानों और स्थानीय मराठियों के वोट भी मिल सकते हैं. कई सालों से मुंबई की राजनीति पर नजर रखने वाले स्वतंत्र पत्रकार अभिमन्यु सितोले का मानना है कि इस सीट पर लड़ाई आम आदमी पार्टी की मेधा पाटकर और भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार किरीट सोमैया के बीच ही होने वाली है. वे कहते हैं, ’देखिए…मेधा के आ जाने से इस सीट पर मुकाबला काफी दिलचस्प हो गया है. इस सीट पर हर किस्म के वोटर हैं. जैसे मेट्रो आदि की वजह से विस्थापित हुए लोगों का वोट है. झुग्गी में रह रहे लोगों के वोट हैं और शहरी मध्यमवर्गीय मतदाता तो है ही. और एक बात, गुजराती वोटर भी यहां अच्छी संख्या में है.’ वे आगे समझाते हैं, ’फिलहाल जो सांसद हैं उनकी छवि ठीक नहीं है. वैसे भी इस सीट से कोई उम्मीदवार लगातार दो बार चुनाव नहीं जीतता और इस बार भी ऐसा ही होना तय दिखता है. लड़ाई भाजपा और आप में है. ‘आप’ के पास हर तरह के वोटर आ सकते हैं. अभी तो ऐसा लगता है कि भाजपा को बढ़त मिल जाएगी, लेकिन कुछ कहा नहीं जा सकता. अगर मध्यमवर्गीय वोटरों का एक हिस्सा ‘आप’ के पास चला गया तो भाजपा को इस बार भी यह सीट गंवानी पड़ सकती है.’