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भूख का सिस्टम

मनीषा यादव
मनीषा यादव
मनीषा यादव

डॉक्टरों के कमरे में यह वाली प्रार्थना इतनी बार की जाती है कि यदि कभी झाड़ू मार कर प्रार्थनाओं को बुहारने की कोई तकनीक निकल आए तो उनके चैंबर से रोज बड़ा-सा ढेर इसी प्रार्थना का निकले. मैं खुद भी नहीं जानता परंतु यदि चिकित्सा क्षेत्र में बहते, लहराते हुए टॉनिकों के इस दरिया की कभी नपती की जा सके तो मामला जरूर अरबों रुपये का निकलेगा. इनमें से ज्यादातर वे टॉनिक होंगे जिनकी मरीज को जरूरत ही नहीं होती. प्राय:इन इधर-उधर के टॉनिकों को लेते-लेते मरीज इतनी देर कर देता है कि उसकी बीमारी पकड़ में आते-आते बहुत देर हो चुकी होती है. याद रहे कि भूख न लगना, स्वयं में किसी तरह की बीमारी नहीं है लेकिन यह अन्य बीमारियों का लक्षण जरूर है. भूख खत्म करने वाली इतनी बीमारियां हैं कि कोई सहृदय, सक्षम और चुस्त डॉक्टर ही उसकी जड़ तक पहुंच सकता है. भूख अर्थशास्त्रियों के लिए जितना जटिल विषय है उससे जटिल यह चिकित्साशास्त्र के लिए है.

पहले तो यह समझ लें कि हमें भूख क्यों लगती है? यूं मान लें कि ईश्वर चाहता है कि आपके जीवन का कार्य-व्यापार चलता रहे. इसलिए भूख लगती है. आप जीवन में जो भी काम करते हैं (इसमें श्वास और हृदय का लगातार चलते रहना भी शामिल है) उसके लिए ऊर्जा की जरूरत होती है. आप रात-दिन शारीरिक ऊर्जा खर्च कर रहे हैं लेकिन इसे आप पाएंगे कहां से? भोजन से. ईश्वर चाहता है कि आप भोजन करें. आपको ऊर्जा मिले. यह जीवन चले. इधर मनुष्य मूलत: आलसी प्राणी है. ईश्वर को पता है कि यदि इसे भोजन की तड़प पैदा न हो तो यह तो पांव फैलाकर लेटा रहेगा. तभी भगवान ने भूख पैदा की. जो प्रगतिशील शायर शिकायत करते फिरते हैं कि खुदा, तूने भूख पैदा ही क्यों की…तो बेटा वह इसलिए ताकि तुझमें जिंदा रहकर शायरी करने की ऊर्जा बची रहे. भूख एक जीवनरक्षक प्रणाली है. हर जीव में यह अपनी तरह से काम करती है. हम मनुष्य की इसी भूख की चर्चा करेंगे.

याद रहे कि चिकित्सा विज्ञान को अभी भी इस बात का अंतिम उत्तर नहीं मिला है कि हमें भूख क्यों लगती है? कुछ मोटा-मोटी बातें पता हैं जिन्हें मैं यहां आपको बताता हूं. भूख को समझेंगे तो मेरी आगे आने वाली बाकी बातें आपकी समझ में आएंगी. वास्तव में भूख मन और मस्तिष्क का खेल है. आपका मस्तिष्क भूख पैदा करता है पेट नहीं. भरपेट भोजन के बाद यही आपको तृप्ति भी महसूस कराके आगे खाने से रोकता है. और मन का खेल अलग है. वह अपनी पर आ जाए तो मस्तिष्क भी उसके बस में. मन का मतलब है आपका चेतन तथा अवचेतन मानसिक जगत. यह मनोवैज्ञानिक पथ है भूख का. तभी तो पचासों ऐसी मनोवैज्ञानिक बीमारियां हैं जिनमें भूख लगनी बंद हो सकती है. शरीर स्वस्थ्य और मन बीमार तो भी भूख लगनी बंद हो सकती है. तो भूख मन के कब्जे में है. हां, इसका कंट्रोल स्टेशन बना है मस्तिष्क के हाईपोथैलेमस नामक हिस्से में. एक बेहद जटिल-सा कंप्यूटर है आपका मस्तिष्क. इसमें हाईपोथैलेमस नामक ड्राइव में दो प्रोग्राम बने हुए हैं. एक हिस्से में भूख महसूस होने का प्रोग्राम है तो दूसरे में तृप्ति का. इन्हीं को चिकित्सा की तकनीकी भाषा में क्रमश: ‘हंगर (Hunger) ‘ और सेटाइटी (Satiety) सेंटर्स कहा जाता है.

मस्तिष्क में भूख तथा तृप्ति को महसूस करने के ये केंद्र एक जटिल संतुलन में काम करते हैं. यहां प्रश्न यह भी उठता है कि इन केंद्रों को कंट्रोल करने का खटका किसके हाथ है?  कौन है जो इनको चलाता, बंद करता, कम-ज्यादा करता है? सच तो यह है कि यह रहस्य पूरी तरह से खुला ही नहीं है. शरीर में बहुत से हार्मोंस हैं. मेटाबोलिक पदार्थ हैं, तंत्रिकाएं हैं, मस्तिष्क के अन्य हिस्से भी हैं. कंट्रोल का काम ये सब मिलकर करते हैं. इतने कंट्रोल हैं साहब, तब तो बहुत छीनाझपटी का माहौल रहता होगा हाईपोथैलेमस के आसपास! कोई खटका दबा रहा है तो कोई उलटा या सीधा घुमा रहा है. पर ऐसा नहीं होता है. सब नियम से चलता है. भगवान के बनाए सिस्टम में यही एक बात मनुष्य से अलग है कि उसमें एक जटिल अनुशासन होता है. हर कंट्रोल सिस्टम को पता है कि उसे क्या तथा कितना कंट्रोल करना है. इसीलिए कोई आपाधापी नहीं होती. हां, जब होती है तब शरीर बीमार हो जाता है.

हाईपोथैलेमस को अपनी तरह से कंट्रोल करने वाले ये सारे हार्मोन आदि कहां से आते हैं? दरअसल ये विभिन्न पदार्थ शरीर में विभिन्न स्थानों से पैदा होकर रक्त में प्रवेश करते हैं. मैं इनके तकनीकी  नाम लेकर कोई भ्रम नहीं पैदा करूंगा. कठिन-कठिन से नाम लेकर पाठकों पर अपने ज्ञान का आतंक पैदा करने का सुनहरा अवसर छोड़ रहा हूं. ऐसा समझ लें कि कुछ पदार्थ आमाशय में बनते हैं, कुछ छोटी आंत में, कुछ पैंक्रियाज आदि में. कुछ तो आपकी चर्बी से पैदा होते हैं. फिर पेट खाली होने पर अमाशय तथा आंतें पिचक जाती हैं. अंदर से इस प्रकार एक संदेश वेगस नामक तंत्रिका द्वारा मस्तिष्क को भेजा जाता है कि साहब यहां पेट खाली पड़ा है, तनिक इस आदमी को याद तो दिलाओ कि कुछ खाए. भूख लगना आपको यह याद दिलाता है कि पेट खाली है.

भूख पर असर डालने वाले ये सारे पदार्थ तथा तंत्रिकाएं दो तरह से काम करते हैं- या तो ये हाईपोथैलेमस का भूख बढ़ाने वाला खटका दबा देते हैं या फिर तृप्ति पैदा करने वाला. इधर मन भी अपना काम करता रहता है. मन के अलावा फिर आपकी आदतें, भेजना को लेकर बचपन से आजतक का सांस्कृतिक पारिवारिक माहौल भी अपना असर डालते हैं. मां की बनाई कोई पसंदीदा डिश क्योंकर जीवनभर में कभी-भी आपकी भूख बढ़ा देती है? …तो ये सारे असर हाईपोथैलेमस पर पड़ते हैं जो भूख पैदा करता है या भूख मारता है.

मुद्दों की गहरी पड़ताल

विषयांतर
पुस्तक ः विषयांतर लेखक ः चैतन्य प्रकाश मूल्य ः 250 रुपये प्रकाशन ः सुमेधा प्रकाशन, नई दिल्ली
विषयांतर
पुस्तक: विषयांतर
लेखक: चैतन्य प्रकाश
मूल्य:  250 रुपये
प्रकाशन : सुमेधा प्रकाशन, नई दिल्ली

डा. चैतन्य प्रकाश की पुस्तक ‘विषयांतर’ पिछले 10 वर्षों में विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित आलेखों का संकलन है जिसमें सामाजिक, राजनीतिक, कला, साहित्य, आध्यात्म आदि पर लिखे लेख शामिल हैं. यह संग्रह साहित्यिक पत्रकारिता की दिशा में महत्वपूर्ण पड़ाव है. पुस्तक आध्यात्म की जमीन से उपजे विचारों की बात करती है. परंतु इसको आधुनिक संदर्भों से भी खूब समर्थन प्राप्त है. पुस्तक उलटबांसियों में बात करती हुई अपने समय, व्यक्तित्वों और घटनाओं की चीरफाड़ करती है.  संकलन की विशेषता इसकी देशज पृष्ठभूमि है. भाषा और विचारों को जिस कलम से लेखक ने छुआ है वह अज्ञेय, विद्यानिवास मिश्र और निर्मल वर्मा की सहज याद दिलाती है. यहां पुस्तक में वर्णित दो-एक विषयों की चर्चा करना समीचीन होगा. अन्ना हजारे के आंदोलन के अंतरविरोध और उसके मूल महत्वाकांक्षी राजनीतिक स्वरूप पर डॉ. चैतन्य प्रकाश ने सितंबर 2011 में जो लिखा है वह आज के समाज और राजनीति पर गहरी टिप्पणी है और उससे अरविंद केजरीवाल फिनोमिना को समझने में मदद मिल सकती है. ‘क्या सचमुच यह व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई की धमाकेदार शुरुआत है? क्या यह जनसक्रियता का शानदार आगाज है या उत्तर आधुनिक समाज की तमाशाई प्रवृत्ति का नमूनाभर है? क्या यह एनजीओ बिरादरी के कुशल प्रबंधन का एक उदाहरण है या राजनीतिक दलों, नेताओं के प्रति जनता के मन में उपज रहे विकर्षण, विरोध, रोष और अविश्वास की सशक्त सार्वजनिक अभिव्यक्ति है? इन सवालों के बीच में भारत की सार्वजनिकता के एक नए पड़ाव की आहट सुनी जा सकती है।

‘क्या स्कूल जाना जरूरी है लेख राजेश जोशी की कविता के इस पाठ से शुरू होता है- बच्चे काम पर जा रहे हैं. वे लिखते हैं– “एक शताब्दी पहले विचारक-लेखक अज्ञेय के उपन्यास ‘शेखर एक जीवनी की एक पंक्ति बरबस याद आती है- शेखर स्कूल नहीं गया, इसलिए वह व्यक्ति बना, टाइप नहीं बना. आपने कभी बच्चों की नजर से स्कूल देखा है. मध्यांतर में या पूरी छुट्टी के बाद स्कूल के गेट के बाहर पूरी ताकत से दौड़ते बच्चों को देखा है? सुबह, सवेरे स्कूल जाते बच्चों के सूने, सपाट और सहमे चेहरे को देखा है? अगर इन सवालों का जवाब आपके भीतर हां के रूप में आ रहा है तो नादानी की मिसाल कहे जा सकने वाले इस सवाल को आप शिद्दत से महसूस कर सकते हैं- क्या स्कूल जाना जरूरी है? पुस्तक अपनी मौलिकता, दर्शन की जमीन, आध्यात्म की खाद, समय की धड़कन को समझने के लिए महत्वपूर्ण है.