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राजनीतिक बिसात पर पिता-पुत्र

छत्तीसगढ़ में इन दिनों दो शीर्ष राजनीतिज्ञ अपने-अपने बेटों का राजतिलक करने को लालायित हैं. इनमें पहले हैं अजीत जोगी. राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री अपने बेटे अमित जोगी को मरवाही से विधायक बनवाकर एक कदम आगे बढ़ चुके हैं. वहीं दूसरे, राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री रमन सिंह अपने बेटे अभिषेक को सीधे देश की सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा में भेजने की तैयारी कर रहे हैं. दोनों ही पिता लंबी राजनीतिक पारी खेल चुके हैं और अब अपने बेटों को राजनीति में स्थापित करने के लिए बेकरार हैं.

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रमन के अभिषेक
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह यूं तो इन दिनों लोकसभा चुनाव के प्रचार में व्यस्त हैं. उनके ऊपर राज्य की जिम्मेदारी तो है ही साथ में वे मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और ओडिशा में भी जाकर चुनावी सभाएं कर रहे हैं. हालांकि उनके करीबी बताते हैं कि इस दौरान भी वे अपने बेटे अभिषेक सिंह (32 वर्ष) की लोकसभा सीट पर नजर रखे रहते हैं. मुख्यमंत्री मोबाइल फोन और इंटरनेट के जरिए पल-पल राजनांदगांव लोकसभा सीट पर चल रहे अभिषेक के चुनाव अभियान की जानकारी लेते रहते हैं.

हालांकि अभिषेक का यह पहला चुनाव है लेकिन इसी में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह उन्हें अपने पिता से भी अच्छा वक्ता करार दे चुके हैं. जहां तक रमन सिंह की बात है तो उनकी तैयारी देखकर यह अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि वे भाषण कला के अलावा राजनीति में भी अभिषेक को खुद से आगे देखना चाहते हैं. यही वजह है कि मुख्यमंत्री ने अपने बेटे के चुनाव प्रचार में सहायता के लिए सबसे युवा, होनहार और तकनीक से लैस कार्यकर्ताओं की टीम काम पर लगाई है. लोधी बहुल सीट होने के कारण कांग्रेस ने जाति कार्ड खेलते हुए राजनांदगांव सीट से कमलेश्वर वर्मा को टिकट दिया है. वर्मा इसे हल और महल की लड़ाई बता रहे हैं. वहीं भाजपा कार्यकर्ता इसे युवा वर्ग की बढ़त बता रहे हैं क्योंकि अभिषेक सिंह के रूप में लंबे समय बाद राजनांदगांव को वाकई ‘युवा’ उम्मीदवार मिल पाया है.

भाजपा आईटी सेल के प्रदेश सहसंयोजक प्रकाश बजाज कहते हैं, ‘ अभिषेक सिंह खुद उच्च शिक्षित हैं. उन्होंने इंजीनियरिंग के बाद बिजनेस मैनेजमेंट की शिक्षा भी ली है. अभिषेक की एक खूबी ये भी है कि वे मुख्यमंत्री के बेटे होते हुए भी बहुत जमीनी व्यक्ति हैं.  यही उनकी ताकत है. चुनावी मैनेजमेंट में उन्हें महारथ हासिल है, जो हाल ही में हुए विधानसभा में वे साबित कर चुके हैं.’

भाजपा ने 2009 में यह सीट 1,19,074 वोट के अंतर से जीती थी. लेकिन बीते विधानसभा चुनाव के नतीजे पार्टी के लिए चुनौती पेश करते हैं. राजनांदगांव की आठ विधानसभा सीटों में से कांग्रेस और भाजपा के पास चार-चार सीटें हैं. भाजपा ने राजनांदगांव, डोंगरगढ़, पंडरिया और कवर्धा सीट जीती जबकि कांग्रेस ने खैरागढ़, डोंगरगांव, खुज्जी और मोहला मानपुर सीट जीतीं. लेकिन बावजूद इसके अभिषेक अपनी जीत को लेकर आश्वस्त दिखाई देते हैं. वे कहते हैं, ‘कई बार चुनाव प्रचार के दौरान महिलाएं उन्हें गोंदली (प्याज) देते हुए कहती हैं कि रख लो, इससे तुम्हें लू नहीं लगेगी. बस यहीं मुझे लगता है कि मैं उनका बेटा हूं, उनके बीच का हूं. तब ऐसे में मुझे लगता है कि मेरी जीत सुनिश्चित है.’

मुख्यमंत्री रमन सिंह और उनके बेटे अभिषेक दोनों ही क्रिकेट के शौकीन हैं. दोनों ही राजनीति के विषय पर जितना ज्ञान रखते हैं उतनी ही क्रिकेट पर भी पकड़ है. लेकिन राजनीति और क्रिकेट में कब कौन बाजी मार ले जाए इसका अंदाजा पहले से नहीं लगाया जा सकता. कुछ इसी तर्ज पर यहां भी कहा जा सकता है कि पिता-पुत्र की स्टार जोडी की जुगलबंदी तो काफी अच्छी चल रही है लेकिन राजनांदगांव की घरेलू राजनीतिक पिच पर अंतिम फैसला आने में अभी वक्त है.

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अजीत के मैनेजर अमित
छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के साथ दो मिथक जुड़े हुए हैं. पहला यह कि वे हारने के लिए नहीं लड़ते (मध्य प्रदेश में शहडोल चुनाव जैसे एकाध अपवाद को छोड़कर) और दूसरा यह कि वे प्रदेश स्तर पर सर्वाधिक मतों से जीतते हैं. ऐसा ही कुछ उनके सुपुत्र अमित जोगी (36 वर्ष) के साथ है. उनके नजदीकी लोग बताते हैं कि इतिहास और राजनीति शास्त्र के छात्र रह चुके अमित बेहद तेज दिमाग हैं और अपने पिता की ही तरह किसी भी तरह के चुनाव के कुशल प्रबंधक भी. दोनों का नाम अक्सर सुर्खियों में रहता है. इस समय पिता-पुत्र की यह जोड़ी भी छत्तीसगढ़ में आकर्षण का केंद्र बनी हुई है.

अजीत जोगी महासमुंद लोकसभा क्षेत्र से किस्मत आजमा रहे हैं. चुनाव की रणभूमि में उनके पुत्र अमित जोगी सारथी की भूमिका निभा रहे हैं. अजीत जोगी के चुनाव का पूरा प्रबंधन अमित ने अपने हाथ में ले रखा है. रायपुर स्थित सागौन बंगले को वॉर रूम में तब्दील कर दिया गया है. अमित ना केवल रायपुर के अपने वॉर रूम से चुनाव संचालित कर रहे हैं, बल्कि समय मिलने पर अपने पिता के लोकसभा क्षेत्र में जाकर भी चुपचाप समीकरण बदलने में जुटे हुए हैं. अमित जोगी ने इसके लिए विशेष रणनीति बनाई है. इसके तहत महासमुंद के मतदाताओं को कई हिस्सों में विभाजित कर दिया गया है ताकि उन तक व्यवस्थित तरीके से पहुंचा जा सके. उनका सबसे ज्यादा फोकस सामाजिक संगठनों पर है. महासमुंद में बहुतायात में रहने वाले साहू (22 फीसदी), कुर्मी (अघरिया पटेल 20 फीसदी), सतनामी (15 फीसदी), गणा (5 फीसदी) महार (5 फीसदी) और तांडी व कोलता (उड़िया समुदाय) को रिझाने का काम अमित ने अपने जिम्मे ले रखा है. वे इन समुदाय के लोगों से व्यक्तिगत रूप से मिल रहे है. महासमुंद में बड़ी संख्या में ईसाई मतदाता भी निवास करते हैं. इस समुदाय को लेकर जोगी गुट निश्चिंत है. माना जा रहा है कि महासमुंद के ईसाई वोट अजीत जोगी के पक्ष में ही पड़ेंगे क्योंकि ‘छुईपाली’ का कैथोलिक चर्च अजीत जोगी को समर्थन दे रहा है. लेकिन हिंदू वोट साधने के लिए जोगी जोड़ी को ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है. इसका कारण उनके लोकसभा क्षेत्र में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सक्रियता है. संघ की सक्रियता का ही नतीजा है कि महासमुंद में ईसाई बनाम हिंदू फैक्टर भी काम कर रहा है.

लेकिन इन सबके परे अमित जोगी की टीम के सदस्य के रूप में काम कर रहे सुबोध हरितवाल बताते हैं, ‘ अमित पूरे लोकसभा क्षेत्र का दौरा कर चुके हैं. बूथ स्तर पर बैठकें ले चुके हैं. युवाओं से मुलाकात कर रहे हैं. वे अपनी टीम के सदस्यों को काम तो सौंप ही रहे हैं, साथ ही हरेक की मॉनिटरिंग भी कर रहे हैं. खुद के दफ्तर को उन्होंने वॉर रूम बना लिया है. उनकी रणनीति के अगले चरण में वे 11 अप्रैल के बाद से सभाएं भी लेना शुरू करेंगे. लेकिन सभाओं के पहले सभी महत्वपूर्ण व्यक्तियों से खुद मिलकर अपने पिता के पक्ष में माहौल बनाने में जुटे हुए हैं.’ खुद अजीत जोगी भी मानते हैं, ‘अमित का चुनाव प्रबंधन बेजोड़ है. वे लगातार लोगों के संपर्क में रहते हैं. क्षेत्र के लोगों में उनकी अच्छी पकड़ भी है. ‘

2009 के पिछले चुनाव में भाजपा की टिकट पर इस सीट से चंदूलाल साहू मैदान में उतरे थे. कांग्रेस ने मोतीलाल साहू को अपना उम्मीदवार बनाया था. तब यह सीट जीतने वाली भाजपा को 47 फीसदी वोट मिले थे. कांग्रेस के पक्ष में 41 फ़ीसदी वोट पड़े थे. इस चुनाव में भाजपा को सरायपाली, बसना, महासमुंद, बिंद्रानवागढ़ विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल हुई थी. जबकि कांग्रेस खल्लारी, राजिम, कुरुद और धमतरी विधानसभा क्षेत्रों में आगे रही. 2013 के पिछले विधानसभा चुनाव में महासमुंद लोकसभा क्षेत्र में कांग्रेस की स्थिति काफी खराब रही. इस चुनाव में क्षेत्र अंतर्गत आने वाली धमतरी सीट ही कांग्रेस के खाते में आई. जबकि सरायपाली, बसना, खल्लारी, राजिम, बिंद्रानवागढ़ और कुरुद सीटों पर भाजपा का परचम लहराया. महासमुंद की सीट निर्दलीय के हिस्से में आई. कुल मिलाकर महासमुंद लोकसभा क्षेत्र के आठ विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा को करीब सत्तासी हजार वोट की बढ़त मिली. अब एक बार फिर चंदूलाल साहू भाजपा के उम्मीदवार हैं और उनका चुनाव प्रचार भी तयशुदा रणनीति के तहत हो रहा है. इस बार अजीत जोगी के मुकाबले में होने की वजह से माहौल थोड़ा अलग है. महासमुंद के अंतिम गांव बलोदा (इसके बाद ओडिशा शुरू हो जाता है) के निवासी और उड़िया समुदाय के प्रमुख नेता महेंद्र बाघ इस बात की पुष्टि करते हैं, ‘अजीत जोगी खुद अपने आप में सक्षम नेता हैं. वे अपनी योजना खुद बनाते हैं. लेकिन उनके पुत्र अमित भी उनकी मदद कर रहे हैं क्योंकि उनकी अपनी अलग टीम है. जो चुनाव संचालन में पूरी तरह दक्ष है.’

विधानसभा चुनाव के परिणामों पर गौर करें तो महासमुंद के समर में भाजपा की स्थिति मजबूत दिखाई दे रही है. वहीं जोगी का इतिहास भी अपने आप में उनके लिए काफी सकारात्मक तस्वीर बनाता है. ऐसे में यदि इसबार भाजपा के इस अभेद्य किले में वे सेंध लगा दें तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा. वहीं एक दूसरी बात यह भी है जोगी पिता-पुत्र साम-दाम-दंड-भेद की सभी नीतियों में एक समान ही कुशल माने जाते हैं. उनकी चुनावी रणनीति का एक हिस्सा तो उजागर है लेकिन इनका एक पक्ष ऐसा भी है जिसके बारे में कोई नहीं जानता. इस बात का प्रमाण यह है कि अमित जोगी की टीम के कई समर्पित स्थाई सदस्य इन दिनों ना तो कहीं दिखाई दे रहे हैं, ना ही वे मोबाइल फोन पर उपलब्ध हैं. उनके फोन लगातार स्विच ऑफ वाले मोड में हैं. चर्चा है कि अमित ने अपने इन विश्वस्तों को अंडरग्राउंड सक्रिय किया हुआ है. अब अंडरग्राउंड होकर वे किस तरह से अजीत जोगी के पक्ष में माहौल बनाने में जुटे हैं इस पर तो कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना जरूर है कि भाजपा के गढ़ को ढहाने और अपने पिता की जीत पक्की करने के लिए अमित कोई कोर-कसर छोड़ना नहीं चाहते.

शेर के दांत दिखाने के

फोटो: शैलेंद्र पाण्डेय
फोटो: शैलेंद्र पाण्डेय

छह दशक पहले 25 नवंबर 1949 को बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा की बैठक में देश की संसदीय प्रणाली को लेकर एक वक्तव्य दिया था. उन्होंने कहा था, ‘राजनीति के क्षेत्र में हम लोग ‘एक व्यक्ति – एक वोट’ की नीति को स्वीकृति देने जा रहे हैं.’ इसके साथ ही उन्होंने आशंका और हिदायत के मिले-जुले भाव में एक दूसरी बात भी कही थी. संसद के केंद्रीय हाल में भाषण देते हुए उन्होंने कहा था, ‘कौन कह सकता है कि भारत के लोगों तथा उनके राजनीतिक दलों का व्यवहार कैसा होगा? भारतवासी देश को अपने पंथ से ऊपर रखेंगे या पंथ को देश से ऊपर रखेंगे? मैं नहीं जानता. लेकिन यह बात निश्चित है कि यदि राजनीतिक दल पंथ को देश से ऊपर रखेंगे तो हमारी स्वतंत्रता फिर से खतरे में पड़ जाएगी…’

बेशक बाबा साहब ने कभी नहीं चाहा होगा कि उनका यह अंदेशा भविष्य में सच साबित हो, लेकिन हालिया चुनावी मौसम के दौरान घटी कुछ घटनाओं में ऐसा होने के साफ संकेत नजर आ चुके हैं. बीते दिनों उत्तर प्रदेश की अलग-अलग जगहों पर भाजपा और समाजवादी पार्टी के नेताओं अमित शाह और आजम खान ने धर्म विशेष के प्रति राग-द्वेष पैदा करने वाली बयानबाजी करके जहां ‘देश को पंथ से पहले’ रखने के विचार को उलट दिया, वहीं महाराष्ट्र में अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को दो-दो बार वोट डालने का नुस्खा सिखा कर केंद्रीय मंत्री शरद पवार ने ‘एक व्यक्ति – एक वोट’ के सिद्धांत को भी आंखें दिखा दी. इन घटनाओं के बीच बीते 14 अप्रैल को बाबा साहब की 123 वीं जयंती भी मनाई गई.

इस बीच केंद्रीय चुनाव आयोग ने आचार संहिता के उल्लंघन वाले इन मामलों का संज्ञान ले कर आजम खान और अमित शाह की चुनावी रैलियों पर प्रतिबंध लगाने के साथ ही उन पर मुकदमा दर्ज करने के आदेश जारी कर दिए. इससे पहले चुनाव आयोग शरद पवार को भी नोटिस भेज चुका था. लेकिन जब तक इन कदमों को लेकर उसकी सराहना होती, भाजपा और समाजवादी पार्टी ने उस पर सवाल उठा दिए. अपने-अपने नेताओं को निर्दोष बताते हुए दोनों ही पार्टियां आयोग की कार्रवाई को गलत बताने में लग गई. भारतीय जनता पार्टी ने अमित शाह के खिलाफ आयोग के फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया और आयोग के फैसले के खिलाफ अदालत जाने समेत सभी विकल्पों पर विचार करने की बात भी कही. बाद में शाह के गलती मान लेने के बाद आयोग ने उन पर लगाया प्रतिबंध हटा दिया.

अभी आजम के साथ ऐसा नहीं हुआ है क्योंकि वे अपनी गलती मानने को तैयार नहीं हैं और उलटे आयोग को तरह-तरह से दोषी ठहराने में लगे हुए हैं. इसमें उनका साथ सपा के तमाम अन्य नेता भी समय-समय पर दे रहे हैं. आयोग के फैसले को गलत बताते हुए पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव का चेतावनी-भरे अंदाज में कहना था, ‘आयोग के रवैये से उनकी पार्टी का हर कार्यकर्ता आजम खान बन जाएगा. ऐसे में चुनाव आयोग किस-किस पर कार्रवाई करेगा?’ इस पूरे घटनाक्रम के बीच मामला तब और खतरनाक हो गया जब आजम ने आयोग पर केंद्र सरकार का मुलाजिम होने तक का आरोप लगा दिया. बकौल आजम, ‘चुनाव आयोग भी सीबीआई की तरह केंद्र के इशारे पर काम कर रहा है.’ लेकिन अपनी इतनी आलोचना और आरोपों पर कोई और कदम उठाने की बजाय आयोग चुप्पी साधे हुए है..

इस सबके बीच एक और घटना का जिक्र किया जाना बेहद जरूरी है. यह घटना शरद पवार को भेजे गए उस नोटिस से संबंधित है जो उन्हें अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से दो-दो बार वोट डालने की बात कहने के चलते आयोग ने भेजा था. भारतीय दंड संहिता की धारा 171 D के तहत दो-दो बार वोट देना तथा ऐसा करने के लिए किसी को प्रेरित करना दोनों ही अपराध हैं. इस मामले के सामने आने पर शरद पवार ने इसे मजाक में कही हुई बात बताया और आयोग को जवाब भेज कर इस पर खेद जता दिया. पवार के इस जवाब से चुनाव आयोग संतुष्ट नहीं था, बावजूद इसके उसने इस मामले का पटाक्षेप कर दिया. शरद पवार को भेजे गए आदेश में आयोग ने लिखा, ‘हालांकि आयोग आपके जवाब से संतुष्ठ नहीं है, फिर भी आपके द्वारा खेद जताने के बाद मामले को समाप्त किया जाता है.’ आयोग ने शरद पवार को अनुभवी नेता होने की दुहाई देकर भविष्य में ऐसा न करने की सलाह भी दी. लेकिन अगर आयोग शरद पवार के जवाब से संतुष्ट नहीं था तो फिर उसने मामले को खत्म क्यों किया ?

आचार संहिता से जुड़े मामलों पर स्पष्टीकरण और जानकारी के लिए चुनाव आयोग के अधिकारियों से बात करने की कई निष्फल कोशिशों के बाद तहलका ने सूचना के अधिकार का इस्तेमाल किया. हमने यह जानने की कोशिश की कि संहिता के उल्लंघन की ज्यादातर शिकायतों पर आयोग आखिर कैसी कार्रवाइयां करता है. सूचना के अधिकार तथा अन्य स्रोतों से भी जुटाई गई जानकारियां बताती हैं कि आचार संहिता के उल्लंघन संबंधी ज्यादातर मामलों को चुनाव आयोग पवार की तरह संतोषजनक जवाब न मिलने के बावजूद उनके मामले की तरह ही निपटाता है. तहलका के पास ऐसे मामलों की अच्छी-खासी फेहरिस्त है जो भड़काऊ भाषण देने, धार्मिक आयोजनों में सरेआम नोट बांटने, आचार संहिता के बावजूद नई योजनाओं की घोषणा करने और पेड न्यूज से संबंधित हैं. लेकिन इन सभी मामलों का हश्र लगभग एक जैसा ही रहा.

सूचना के अधिकार के तहत तहलका ने चुनाव आयोग से पूछा कि 2012 में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान आचार संहिता के उल्लंघन की उसे कितनी शिकायतें मिलीं. बेहद जटिल हिंदी में आयोग की तरफ से मिले जवाब का मजमून यह था कि इस तरह की शिकायतों को संकलित करना संभव नहीं है. जब चुनाव आयोग से यह पूछा गया कि इन शिकायतों पर उसने क्या कार्रवाई की तो भी आयोग ने यही जवाब दिया कि न तो उसके पास इसका पूरा ब्यौरा रहता है और न ही ऐसा किया जाना संभव है.

इसके बाद तहलका ने सवाल किया कि आयोग इतना ही बता दे कि आचार संहिता का उल्लंघन करने की शिकायत मिलने पर वह क्या कार्रवाई कर सकता है. इस सवाल का जवाब आया कि ऐसे मामलों में आयोग नोटिस देने और दोषी पाए जाने पर चेतावनी जारी करता है.

आयोग से मिले इन जवाबों के बाद हमने उसके प्रकाश में आए नवीनतम दस मामलों में की गई कार्रवाइयों का व्यौरा मांगा. इस पर आयोग ने जो जानकारी दी उनमें दोषी पाए जाने पर सबसे बड़ी कार्रवाई चेतावनी थी. इन दस मामलों में से सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर बैठे दो लोगों के मामले दिलचस्प हैं:

भाजपा नेता अमित शाह पर आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में एफाआईआर दर्ज हुई है.
भाजपा नेता अमित शाह पर आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में एफाआईआर दर्ज हुई है.

पिछले साल त्रिपुरा विधान सभा चुनाव के दौरान चुनाव आयोग नें प्रदेश के मुख्यमंत्री माणिक सरकार को आचार संहिता का उल्लंघन करने पर नोटिस भेजा. प्रदेश के प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने निर्वाचन आयोग को दी गई एक शिकायत में आरोप लगाया था कि उन्होंने चुनाव आचार संहिता के दौरान मुख्यमंत्री कार्यालय में एक स्थानीय टेलीवीजन चैनल को इंटरव्यू दिया जिसके जरिए उन्होंने राजनीतिक बयानबाजी की और अपनी सरकार की प्रशंसा की. आदर्श आचार संहिता के मुताबिक आचार संहिता की समयावधि में राजनीतिक उद्देश्य से सरकारी मशीनरी का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए. सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी बताती है कि आयोग ने इसे आचार संहिता का उल्लंघन माना था. लेकिन कार्रवाई के नाम पर उसने बस इतना किया कि माणिक सरकार को सरकारी मशीनरी का दोबारा दुरुपयोग न करने की चेतावनी देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली.

दूसरा मामला भी 2013 में ही हुए कर्नाटक विधानसभा चुनावों का है. एक चुनावी रैली में प्रदेश के तत्कालीन उप मुख्यमंत्री केएस ईश्वरप्पा ने एक समुदाय विशेष के खिलाफ आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल करते हुए भाषण दिया. इस भाषण पर चुनाव आयोग ने उन्हें 12 अप्रैल, 2013 को नोटिस भेज कर ‘जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 और ‘भारतीय दंड संहिता’ की धारा 505 के उल्लंघन के लिए जवाब मांगा. आरटीआई से मिली जानकारी के मुताबिक आयोग मान चुका था कि ईश्वरप्पा का बयान आचार संहिता के उल्लंघन के साथ ही सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने वाला और नागरिकों के विभिन्न वर्गों में वैमनस्य को बढ़ावा देने वाला था. आईपीसी की धारा 505 के तहत अपराधी पाए जाने पर तीन साल तक कैद हो सकती है. लेकिन 23 अप्रैल को दिए अपने फैसले में आयोग ने ईश्वरप्पा को सिर्फ फटकार लगाई और भविष्य में सावधानी बरतने की नसीहत देकर मामले को खत्म कर दिया.

साफ है कि आचार संहिता के उल्लंघन के बाद आयोग की कार्रवाई नोटिस देने, अफसोस जताने और भविष्य में ऐसा न करने की नसीहत वाले तयशुदा खांचे में ही बंधी हुई है. लेकिन क्या यह तरीका वाकई में असरकार है?

इस सवाल के जवाब के लिए हम एक और बड़े नेता से जुड़ा मामला देखते हैं. हाल ही में केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ उत्तर प्रदेश की एक चुनावी रैली में अशोभनीय टिप्पणी की थी, जिस पर उन्हें नोटिस भेजा जा चुका है. इन्हीं बेनी बाबू को दो साल पहले भी आचार संहिता के उल्लंघन के आरोप में आयोग ने तलब किया था. 2012 में हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान बेनी बाबू ने एक चुनावी सभा में कहा कि यदि प्रदेश में उनकी पार्टी की सरकार आई तो मुसलमानों को दिए जाने वाले आरक्षण में बढोतरी की जाएगी. बेनी प्रसाद ने तब यह भी कहा कि चुनाव आयोग चाहे तो उन्हें इस बात के लिए नोटिस दे सकता है. इस तरह देखें तो उन्होंने आचार संहिता का उल्लंघन तो किया ही था साथ ही चुनाव आयोग को खुलेआम चुनौती भी दी थी. बाद में बेनी प्रसाद वर्मा ने चुनाव आयोग के नोटिस के जवाब में अफसोस जताने के उसी कुख्यात तरीके का सहारा लिया, जिसके बाद चुनाव आयोग ने उन्हें भविष्य में ऐसा नहीं करने की सलाह देकर छोड़ दिया.

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क्या है आदर्श चुनाव आचार संहिता ?

आदर्श चुनाव आचार संहिता यानी वे नियम जिनका पालन उम्मीदवारों और उनकी पार्टियों के लिए चुनाव के दौरान करना जरूरी है. इन नियमों को राजनीतिक दलों के साथ समन्वय और उनकी सहमति के साथ ही बनाया गया है, ताकि चुनाव के दौरान पारदर्शिता होने के साथ ही सभी राजनीतिक दलों के लिए समान अवसर प्रदान किए जा सकें. चुनाव की तारीखों के एलान के साथ ही संबंधित राज्य में चुनाव आचार संहिता भी लागू हो जाती है और सभी सरकारी कर्मचारी चुनाव प्रक्रिया पूरी होने तक निर्वाचन आयोग के कर्मचारी बन जाते हैं. आचार संहिता की मुख्य बातें :

  • कोई भी राजनीतिक पार्टी या प्रत्याशी ऐसा कोई काम नहीं करेगा जिससे अलग-अलग समुदायों के बीच वैमनस्य की भावना को बढ़ावा मिले.
    राजनीतिक पार्टी या प्रत्याशियों पर निजी हमले नहीं किए जा जाने चाहिए, हालांकि उनकी नीतिगत आलोचना की जा सकती है.
  • 12चुनाव प्रचार के लिए धार्मिक स्थलों का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. साथ ही वोट हासिल करने के लिए जाति या धर्म आधारित अपील नहीं की जा सकती.
  •  मतदाताओं को किसी भी प्रकार के प्रलोभन या किसी धमकी के जरिए वोट देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है.
  •  मतदान से 48 घंटे पहले चुनाव प्रचार संबंधी किसी भी तरह की सार्वजनिक रैली और बैठक प्रतिबंधित है.
  • मतदान के दिन मतदान केंद्र के 100 मीटर के दायरे में चुनाव प्रचार नहीं किया जा सकता.
  • प्रत्याशी या राजनीतिक दल मतदान केंद्रों पर वोटरों को लाने लेजाने के लिए वाहन मुहैया नहीं करा सकते.
  • चुनाव प्रचार के दौरान आम लोगों की निजता या व्यक्तित्व का सम्मान होना चाहिए.
  • प्रत्याशी या राजनीतिक दल किसी व्यक्ति की निजी संपत्ति का इस्तेमाल उसकी इजाजत के बिना नहीं कर सकते.
  • राजनीतिक पार्टियों को सुनिश्चित करना जरूरी है कि उनके कार्यकर्ता दूसरी राजनीतिक पार्टियों की रैली आथवा सभाओं में किसी भी तरह से  बाधा नहीं डालेंगे.
  • राजनीतिक पार्टी या प्रत्याशी को रैली, जुलूस अथवा मीटिंग करने से पहले स्थानीय पुलिस को जानकारी देकर प्रस्तावित कार्यक्रम का समय और स्थान बताना होगा.
  • किसी इलाके में निषेधाज्ञा लागू होने पर इससे छूट पाने के लिए प्रशासन की अनुमति जरूरी होगी.
  • किसी भी स्थिति में पुतला जलाने की इजाजत नहीं होगी

सत्ताधारी पार्टी के लिए  दिशानिर्देश

  • चुनाव की घोषणा होने के बाद संबंधित सरकार आदर्श चुनाव आचार संहिता के दायरे में आ जाएगी.
  • इस दौरान प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री कोई भी नई घोषणा नहीं कर सकते.
  • सरकारी दौरों को चुनाव प्रचार के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.
  •  चुनाव प्रचार के लिए सरकारी धन का इस्तेमाल नहीं हो सकता.
  • सरकारी मशीनरी, सरकारी वाहन, सरकारी आवास तथा अन्य सुविधाओं का इस्तेमाल चुनाव संबंधी गतिविधियों के लिए प्रतिबंधित है.
  • चुनाव आचार संहिता के दौरान सरकार कैबिनेट की बैठक नहीं कर सकती.
  • अधिकारियों, कर्मचारियों के तबादले और तैनाती संबंधी  मामलों में चुनाव आयोग की अनुमति ली जानी अनिवार्य है.

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सपा नेता आजम खान और कांग्रेस नेता बेनी प्रसाद वर्मा(नीचे) तो आयोग की चेतावनियों की जरा भी परवाह नहीं करते दिखते.
सपा नेता आजम खान और कांग्रेस नेता बेनी प्रसाद वर्मा(नीचे) तो आयोग की चेतावनियों की जरा भी परवाह नहीं करते दिखते.

बेनी बाबू जैसे कई उदाहरण हमारे सामने हैं जिनमें एक ही व्यक्ति अलग-अलग चुनावों में अलग-अलग तरीके से आचार संहिता का उल्लंघन करता है मगर चुनाव आयोग हर बार उससे निपटने का एक ही तरीका अपनाता है नोटिस देना, जवाब लेना और दोषी पाए जाने पर चेतावनी देना. इसका मतलब साफ है कि आचार संहिता के उल्लंघन वाले मामलों को निपटाने का यह ‘नोटिसछाप’ फार्मेट कहीं से भी कारगर नहीं है. ऐसे में सवाल उठता है कि जब मामला ढाक के तीन पात जैसा ही होना है तो फिर चुनाव आयोग नियमतोड़ू राजनेताओं के खिलाफ नोटिस देने से आगे कोई कदम क्यों नहीं उठाता?

संविधान के अनुच्छेद 324 के मुताबिक चुनाव आयोग को देश में चुनाव प्रक्रिया के संचालन संबंधी जितने भी अधिकार प्राप्त हैं वे सभी पारदर्शी ढंग से चुनाव संपन्न कराने के लिए हैं, ताकि देश का संचालन धर्मनिरपेक्ष, सामाजिक और लोकतांत्रिक ढांचे के अनुरूप हो सके. लेकिन असलियत यह है कि चुनाव प्रक्रिया के जटिल दौर में इन ढाचों को तोड़ने-मरोड़ने वाली ताकतों से निपटने के लिए आयोग के हाथ में कुछ भी नहीं है. नेशनल इलैक्शन वाच के संस्थापक सदस्य प्रोफेसर त्रिलोचन शास्त्री बताते हैं, ‘भले ही कितना ही गंभीर मामला क्यों न हो, चुनाव आयोग आचार संहिता के उल्लंघन की स्थिति में संबंधित व्यक्ति अथवा पार्टी को नोटिस देने और दोषी पाए जाने की स्थिति में फटकार लगाने के सिवाय कुछ नहीं कर सकता. रिप्रजेंटेशन आफ पीपुल एक्ट 1951 में भी आयोग को ऐसा अधिकार नहीं मिला है कि वो आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों का नामांकन रद्द कर सके. उसके पास इतना ही अधिकार है कि वो चुनावों को लेकर बनाई गई व्यवस्था का जहां तक संभव हो सके पालन कराए.’

जिस रिप्रजेंटेशन आफ पीपुल एक्ट 1951 की बात प्रोफेसर शास्त्री कर रहे हैं उसमें चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन पर सजाओं के संबंध में आयोग को जो अधिकार दिए गए हैं वे बेहद सीमित हैं. इस एक्ट के आधार पर चुनाव आयोग आचार संहिता तोड़ने वालों के अपराध को श्रेणीबद्ध तो कर सकता है, लेकिन उन्हें दंडित करने का अधिकार सिर्फ अदालत के पास ही है. ऐसे में आदर्श चुनाव आचार संहिता की उपयोगिता और प्रासंगिकता पर ही सवाल खड़ा हो जाता है.

यह सवाल इस लिए भी सोचने योग्य है कि आयोग की तमाम कोशिशों के बावजूद देश में आचार संहिता के उल्लंघन के मामले रुक नहीं रहे हैं. 2012 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में ही आचार संहिता के उल्लंघन की साढे सात लाख से अधिक शिकायतें पाई गई थी. इस बार के लोकसभा चुनाव की बात करें तो अब तक चुनाव आयोग आजम खान, अमित शाह और बेनी प्रसाद वर्मा से लेकर कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया, दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित और सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव जैसे बड़े नेताओं को कारण बताओ नोटिस थमा चुका है. यह रफ्तार बताती है कि आचार संहिता की धज्जियां उड़ाने में नेताओं को कोई खतरा नहीं दिख रहा है.

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) डॉ एस वाई कुरैशी इस मसले को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि, ‘आदर्श चुनाव आचार संहिता कोई कानून नहीं है. यह आयोग द्वारा बनाई गई ऐसी नैतिक व्यवस्था है जिसके जरिए राजनीतिक दलों से अपेक्षा की जाती है कि चुनाव प्रक्रिया को साफ सुधरा बनाने में वे आयोग की मदद करें. यही वजह है कि आचार संहिता के उल्लंघन के मामलों में आयोग के अधिकार नोटिस देने और चेतावनी जारी करने तक सिमट जाते हैं.’

क्या सीमित अधिकार की यह दुहाई चुनाव आयोग की लाचारी को नहीं दिखाती? अगर आयोग के पास अधिकार ही नहीं हैं तो फिर उसके द्वारा दिए जाने वाले नोटिस और चेतावनियों का क्या औचित्य है? यह सवाल इस लिए भी लाजिमी है कि आयोग द्वारा खींची गयी आचार संहिता की लगभग सभी लकीरें चुनावों के दौरान तोड़ी जाती रहीं हैं जिसके परिणाममस्वरुप नियम तोडने वाले शख्स को फौरी लाभ मिल जाता है. इस तरह की करतूतों में भड़काऊ भाषण देने, सार्वजनिक मंचों से पैसा बांटने, नई योजनाओं की घोषणा करने और धारा 144 के उल्लंघन से लेकर निर्धारित राशि से ज्यादा धन खर्च करने तक के मामले शामिल हैं.

निर्धारित राशि से ज्यादा धन खर्च करने का एक मामला तो पिछले साल काफी गरमाया भी था. यह मामला लोकसभा में विपक्ष के उपनेता और भाजपाई सांसद गोपीनाथ मुंडे के उस बयान से उपजा जिसमें उन्होंने दावा किया कि 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने चुनाव प्रचार पर आठ करोड़ रुपये खर्च किए थे. आदर्श चुनाव आचार संहिता कहती है कि कोई भी प्रत्याशी चुनाव आयोग द्वारा तय की गई राशि – जो 2009 में 25 लाख थी – से अधिक धन खर्च नहीं कर सकता है.

चुनाव आचार संहिता के दौरान नई योजनाओं की घोषणा करने का एक मामला पिछले साल तमिलनाडु की एक विधानसभा सीट पर उपचुनाव के दौरान भी सामने आ चुका है. दरअसल यहां अपनी पार्टी के प्रत्याशी का प्रचार करने पहुंची जयललिता ने आचार संहिता लगी होने के बावजूद इलाके के स्कूल और अस्पताल के उच्चीकरण करने समेत और भी कुछ नई घोषणाएं कर दी. आयोग के पास इस मामले की शिकायत पहुंची जिसे उसने सही पाया और जयललिता को नोटिस भेज दिया. लेकिन आयोग को भेजे अपने जवाब में जयललिता ने ऐसी किसी भी नई घोषणा करने की बात से इंकार कर दिया. उनका कहना था कि उन्होंने पुरानी घोषणाओं को दोहराने के साथ ही नई बातों को लेकर सिर्फ आश्वासन दिए थे. जयललिता के इस जवाब से असंतुष्ठ होते हुए भी आयोग के पास उन्हें भविष्य में ऐसा न करने की नसीहत देने के सिवा कोई और चारा नहीं था.

सवाल फिर से वही खड़ा हो जाता है कि यदि ऐसा है तो आचार संहिता की जरूरत ही क्या है. प्रोफेसर त्रिलोचन शास्त्री कहते हैं कि, ‘चुनाव आयोग अगर आचार संहिता के उल्लंघन संबंधी मामलों का संज्ञान लेना और नोटिस देना भी बंद कर दे तो चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले कारणों की बाढ़ आ जाएगी. कम से कम आचार संहिता के होने से ऐसे मामलों में अंकुश तो लगाया ही जा सकता है.’

‘इस बात से इनकार नहीं किया जाना चाहिए कि सीमित शक्ति के बावजूद चुनाव आयोग ने काफी हद तक आचार संहिता के उल्लंघन वाले मामलों को नियंत्रित करने का काम किया है.’ इस बात से सहमति जताते हुए डा. कुरैशी कहते हैं, ‘सब कुछ नहीं से कुछ तो सही वाली स्थितियां है जिन्हें चुनाव सुधारों के जरिए ही ठीक किया जा सकता है.’

चुनाव सुधारों की जिस जरूरत की ओर कुरैशी का इशारा है, उस पर एक नजर डाले बिना यह कथा अधूरी होगी.

दरअसल चुनाव सुधार कोई आज का मुद्दा नहीं है. सामाजिक और राजनीतिक मोर्चों पर चुनाव सुधार की मांगें वर्षों से उठती आई हैं. 90 के दशक के बाद आयोग ने इस दिशा में गंभीरता से विचार करना शुरू किया हालांकि चुनाव सुधारों को लेकर आयोग ने कानून मंत्रालय के सामने पहला प्रस्ताव 1970 में ही रख दिया था. इसके बाद 1975 में आठ राजनीतिक दलों ने भी मिल कर एक साझा प्रस्ताव सरकार के सामने रखा था. इसके बाद 1977 और 1982 में फिर से चुनाव आयोग ने सरकारों को चुनाव सुधारों से संबंधित प्रस्ताव भेजे.

इस तरह देखा जाए तो चुनाव आयोग लगातार सरकार को अपनी तरफ से चुनाव सुधारों की याद दिला रहा था, लेकिन सरकार इन पर आंखें मूंदे रही. 1990 में चुनाव आयोग ने इस मसले पर अपने तेवरों में कड़कपन लाना शुरू कर दिया. इसका असर यह हुआ कि सरकार ने पहली बार तब के कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी की अध्यक्षता में एक समिति बना दी. समिति के गठन के दो साल बाद 1992 में तब के मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव को एक पत्र लिखकर गोस्वामी समिति की रिपोर्ट लागू करने की सिफारिश की. ऐसा करने के बजाय सरकार ने अगले साल वोहरा समिति और फिर 1998 में इंद्रजीत गुप्त समिति बना दी. इन दोनों समितियों ने भी चुनाव व्यवस्था में सुधार के लिए कई महत्त्वपूर्ण सिफारिशें की जिन पर धूल की मोटी परत जम चुकी है.

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एक ही पाले में राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी

वैसे भले ही वे विपरीत ध्रुवों पर हों, लेकिन आचार संहिता के उल्लंघन की बात हो तो भाजपा से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी और कांग्रेस की नैय्या के खिवैय्या राहुल गांधी एक ही पाले में खड़े नजर आते हैं. दोनों के खिलाफ आयोग की कवायद भी एक जैसी ही रस्मअदायगी वाली रही है.

बात पिछले साल छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के दौरान की है. एक चुनावी रैली में पहुंचे नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में कांग्रेस पार्टी की आलोचना करते हुए ‘खूनी पंजा’ शब्द का प्रयोग किया. इसे आचार संहिता का उल्लंघन मानते हुए चुनाव आयोग ने उन्हें नोटिस थमा दिया. आयोग के नोटिस के जवाब में मोदी की सफाई थी कि उन्होंने प्रचलित मुहावरे के अनुरूप इस तरह के शब्दों का प्रयोग किया था. मोदी के इस जवाब के बाद आयोग ने उन्हें दुबारा ऐसा न करने की सलाह देकर इस मामले को निपटा दिया.

फोटो: शैलेंद्र पाण्डेय
फोटो: शैलेंद्र पाण्डेय

इसी दौरान मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी एक चुनावी रैली में इंदौर पहुंचे. अपने भाषण में मुजफ्फरनगर दंगों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि उन दंगों से प्रभावित कुछ मुस्लिम युवाओं को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी बरगलाने की कोशिश कर रही हैं. इस बयान से पूरे देश में बवाल मच गया. भाजपा ने राहुल गांधी पर धार्मिक सौहार्द बिगाड़ने का आरोप लगाते हुए चुनाव आयोग से शिकायत की. आयोग ने उन्हें नोटिस भेज जवाब मांगा. जवाब में राहुल ने कहा कि उन्होंने जो कुछ बातें कहीं वे धार्मिक आधार पर बंटवारे के लिए नहीं बल्कि आपसी सौहार्द बढ़ाने के लिए थी. उनके इस जवाब से चुनाव आयोग संतुष्ठ नहीं हुआ और उसने उन्हें आचार संहिता के उल्लंघन का दोषी मानते हुए भविष्य में संयत रहने की चेतावनी दी.

इन दोनों ही मामलों में एक बात बेहद महत्वपूर्ण यह है कि दोनों ही नेताओं को आयोग ने अपना जवाब सौंपने के लिए पहले तय किए गए वक्त से ज्यादा मोहलत दी थी. मोदी ने चुनाव प्रचार में व्यस्त होने की दलील दी थी तो वहीं राहुल गांधी का तर्क था कि छुट्टियों के चलते वे जवाब देने के विए और वक्त चाहते हैं. जिस उदारता की बात उपर की गई है ये घटनाएं उसकी तरफ साफ इशारा करती हैं.

इससे पहले 2012 में भी राहुल गांधी कानपुर में आचार संहिता का खुलेआम उल्लंघन कर चुके थे. तब उन्होंने प्रशासन द्वारा तय की गई दूरी से बहुत आगे तक रोड शो किया था. चुनाव आयोग तक शिकायत पहुंचने के बाद कानपुर के तत्कालीन जिलाधिकारी हरिओम ने राहुल गांधी के अलावा इस रोड शो के आयोजक कांग्रेसी नेता महेश दीक्षित पर भी धारा 144 का उलंलंघन करने के चलते मामला दर्ज किया. लेकिन ऐसा होते ही पूरी कांग्रेस आयोग के खिलाफ जहर उगलने लगी थी. पार्टीनेता और तत्कालीन केंद्रीय मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने तब आयोग को सीधी चुनौती देते हुए यहां तक कह दिया कि, ‘आयोग में अगर हिम्मत है तो उनके खिलाफ भी कार्रवाई करके दिखाए, क्योंकि राहुल गांधी को इस रोड शो में मैं ही लेकर गया था.’ चुनाव आयोग को खुलेआम चेतावनी देने वाले वे अकेले नेता नहीं हैं. उनसे पहले भी दो और केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद तथा बेनी प्रसाद वर्मा इसी तरह आयोग को ललकार चुके थे. 2007 में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह को भी आचार संहिता उल्लंघन के दोषी करार दिए जाने के बावजूद आयोग ने चेतावनी देकर छोड़ दिया था. सवाल स्वाभाविक है कि आयोग को इस कदर खुले आम आंख दिखाने वालों के खिलाफ वह कुछ करता क्यों नहीं.

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अप्रैल 2012 में तत्कालीन सीईसी एसवाई कुरैशी ने चुनाव सुधारों को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक कड़ा पत्र लिखा. इस पत्र में उन्होंने अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोकने और चुनाव में धनबल की भूमिका पर डंडा चलाने का खास तौर पर जिक्र किया गया था. उन्होंने पत्र में एक समाचार पत्रिका में छपी रिपोर्ट का हवाला भी दिया जिसके मुताबिक 2004 से 2009 के दौरान लोकसभा की चर्चा में शरीक होने वाले सांसदों की संख्या मात्र 174 थी. कुरैशी ने पत्र में लिखा कि, ‘हमें कुछ जिम्मेदार प्रतिनिधि चाहिए जिसके लिए चुनाव सुधार बेहद जरूरी हैं.’ उन्होंने पत्र में यह भी लिखा कि आयोग द्वारा भेजे गए बहुत से सुझावों को बिना संविधान संशोधन के ही लागू किया जा सकता है.

इस सबके बाद भी हुआ कुछ नहीं. यहां पर एक और गौर करने वाला तथ्य यह भी है कि चुनाव आयोग इससे पहले 1998 से लेकर 2006 तक चार बार सरकार से इसी तरह की मांग कर चुका है. सरकार के रवैये से दुखी कुरैशी कहते हैं, ‘बहुत हैरानी की बात है कि चुनाव सुधारों को लेकर इतनी उदासीनता क्यों है. दो दशक से सरकार के पास दो दर्जन से अधिक सुझाव पड़े हैं, लेकिन इनको लागू करने के बजाय सरकार आम सहमति नहीं बन पाने का बहाना बना कर हर बार चुनाव सुधारों से भाग रही है.’

राजनीतिक दलों के बीच रायशुमारी नहीं होने की जिस बात को सरकार कह रही है, क्या वाकई में चुनाव सुधारों में हो रही देरी का असली कारण यही है. यह जानने के लिए इस कथा को एक दूसरे घटना क्रम की तरफ मोड़ते हैं.

बात पिछले साल मई की है. चुनाव सुधार को लेकर राजनीतिक दलों की राय जानने के लिए विधि आयोग ने देश की सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियों को पत्र भेज कर उनके सुझाव मांगे थे. लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और कर्नाटक के एक राजनीतिक दल वेल्फेयर पार्टी ऑफ इंडिया के अलावा किसी भी पार्टी ने कोई सुझाव देने की जहमत नहीं उठाई. हैरानी की एक बात और भी यह थी कि संसद के सभी सांसदों में से सिर्फ आठ ने ही सुधारों को लेकर अपने सुझाव आयोग को भेजे. राजनीतिक दलों के इस उदासीन रवैये पर बीते दिनों विधि आयोग के अध्यक्ष सेवानिवृत्त न्यायाधीश अजित प्रकाश शाह ने भारी निराशा भी जताई थी.

तो क्या अब भी यह माना जाना चीहिए कि चुनाव सुधारों को लेकर राजनीतिक दलों में आम राय नहीं है? इस पर चुटकी लेते हुए कुरैशी का कहना था, ‘चुनाव सुधारों को लेकर भले ही इनके बीच आम राय न बन रही हो, लेकिन इस बात पर तो सभी पार्टियां एक मत हैं कि किसी भी सूरत में चुनाव सुधार के लिए सुझाव नहीं सौंपेंगे.’

चुनाव आयोग द्वारा सरकार को सौंपे गए चुनाव सुधारों की सूची देखे जाने पर मालूम पड़ता है कि इनमें से बहुत सारे सुधार वर्तमान परिस्थितियों में सख्त जरूरत बनते जा रहे हैं. जानकारों का मानना है कि इन सुधारों के जरिये देश में साफसुथरी राजनीति की स्थापना करने में बड़ी मदद मिल सकती है. पॉलिटिकल फंडिंग में पारदर्शिता के सुझाव का जिक्र किया जाना यहां पर बेहद प्रासंगिक है. आयोग का मानना है कि राजनीतिक पार्टियों को मिल रहे धन के स्रोत सार्वजनिक होने चाहिए ताकि यह पता लगाया जा सके कि उन्हें मिलने वाला पैसा काला धन तो नहीं. लेकिन इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाने के बजाय सभी राजनीतिक दल इस बात के जिक्र तक से नाराज दिखते हैं.

केंद्रीय सूचना आयोग द्वारा राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे में लाने के फैसले पर उनकी नाराजगी इसका सटीक प्रमाण है. पिछले साल सूचना आयोग ने एक अपील पर सुनवाई करते हुए फैसला दिया कि छह राष्ट्रीय पार्टियां – कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, एनसीपी और बसपा – आरटीआई एक्ट की धारा 2 के तहत सार्वजनिक इकाइयां हैं. इस आदेश का उद्देश्य राजनीतिक दलों को मिलने वाले अनुदान के स्रोतों का पता लगाना था. लेकिन इस आदेश के आते ही ज्यादातर पार्टियां नाराज हो गई और एकजुट होकर इसकी जबर्दस्त मुखालफत करने लगीं. इस फैसले को निष्प्रभावी बनाने के लिए सरकार ने संसद में एक संशोधन प्रस्ताव भी पेश किया. हालांकि यह बिल संसद की स्थायी समिति को भेज दिया गया है, लेकिन इसने राजनीतिक दलों की मंशा की ओर तो इशारा किया ही है. प्रोफेसर त्रिलोचन शास्त्री कहते हैं ‘राजनीतिक दल कभी नहीं चाहेंगे कि उनके आय के स्रोत सार्वजनिक हों.’

लेकिन यहां पर यह सवाल तब भी उठता है कि अगर राजनीतिक दल चुनाव सुधारों को लेकर आगे भी गंभीर नहीं होते हैं, तो क्या चुनाव आयोग को भी हाथ-पैर चलाना बंद कर देना चाहिए?

‘बेशक चुनाव सुधारों को लेकर कानून बनाने का काम संसद का है, लेकिन वहां ऐसे लोगों और दलों की अधिकता है जो चुनाव प्रक्रिया की खामियों को लेकर ही आगे बढ रहे हैं. ऐसे में आयोग को इस लिए दोष दिया जाना चाहिए कि उसने इन खामियों को दूर करने के लिए सुझाव तो दिए लेकिन उन सुझावों को लागू करवाने के लिए जिद नहीं पकड़ी. ‘ समाजशास्त्री तथा अब आम आदमी पार्टी के नेता प्रोफेसर आनंद कुमार कहते हैं, ‘चुनाव आयुक्तों को चाहिए कि वे इस संस्था को और मजबूती देने वाले अधिकारों की मांग को लेकर और गंभीरता दिखाएं वरना लोग सीबीआई की तरह चुनाव आयोग को भी सरकार का टूल कहने लगेंगे.’ आजम खान द्वारा आयोग पर लगाये हालिया आरोप के संदर्भ में देखा जाए तो इन आशंकाओं का ट्रेलर अभी से दिखाने लगा है.

हालांकि आईआईएम के पूर्व प्रोफेसर तथा एडीआर के सदस्य जगदीप छोकर इसके लिए चुनाव आयोग को पूरी तरह दोष देने से इनकार करते हैं. आयोग के अब तक के रवैये को सकारात्मक बताते हुए वे कहते हैं कि, ‘वर्तमान परिस्थियों में जिस तरह सीमित अधिकारों के सहारे चुनाव आयोग अपना काम कर रहा है वह सराहनीय है. लेकिन यह बात भी उतनी ही जरूरी है कि अगर वह अपनी तरफ से अतिरिक्त प्रयास ना करे तो सरकार से सुधारों की उम्मीद करना दिवास्वप्न देखने जैसा ही होगा.’ वे आगे कहते हैं, ‘ऐसी सूरत में न्यायपालिका का विकल्प भी है लेकिन उसपर निर्भरता बढने से आयोग की खुद की क्षमताओं पर गंभीर सवाल उठने शुरू हो जाएंगे.’

प्रोफेसर छोकर की कही बात के उदाहरण हम हाल ही में देख चुके हैं. पिछले साल चुनाव सुधारों के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने सभी प्रत्याशियों को खारिज करने (‘इनमें से कोई नहीं’) और सजायाफ्ता लोगों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने संबंधी दो महत्वपूर्ण फैसले सुनाए. इन दोनों ही मुद्दों को बहुत पहले से ही चुनाव सुधारों की सूची में डाल कर आयोग सरकार की हां की बाट जोहता आ रहा था. दागी नेताओं के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने का सुझाव उसने 1989 में ही दे दिया था जबकि नकारात्मक मतदान के अधिकार का सुझाव उसने 2001 में सरकार को सुझाया था. लेकिन सरकार ने इन्हें कभी कोल्ड स्टोर से बाहर ही नहीं निकाला. चुनाव आयोग इसके बाद चुप बैठ गया. बाद में भ्रष्टाचार विरोधी अभियान चलाने वाले कुछ सामाजिक संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी. इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने दोनों फैसले सुनाए.

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धूल फांकते सुझाव

  • राजनीति का अपराधीकरण रोकना- 15 जुलाई 1998 को चुनाव आयोग द्वारा सरकार को एक प्रस्ताव भेजा गया जिसके तहत ऐसे लोगों पर चुनाव लड़ने से रोक का प्रस्ताव दिया गया था जिन पर आपराधिक मामले चल रहे हों.1999, 2004 और 2006 में आयोग ने सरकार को इस बाबत फिर से याद दिलाई.
  • राजनीतिक दलों के लिए पारदर्शी कार्यप्रणाली – राजनीतिक दलों के कामकाज पर निगरानी रखने के लिए आयोग ने एक प्रस्ताव दिया जिसके मुताबिक उनकी आय के सभी स्रोतों के साथ ही सभी खर्चों को भी सार्वजनिक किया जाना चाहिए.
  • चुनावी लाभ के लिए धर्म का दुरुपयोग रोकना -1994 में लोकसभा में एक विधेयक पेश किया गया था. जिसके तहत राजनीतिक दलों द्वारा धर्म के दुरुपयोग रोकने को रोके जाने के प्रावधानों को विकसित किए जाने की बात की गई. लेकिन 1996 में लोकसभा के भंग हो जाने के बाद से इस पर कोई पहल नहीं हुई. आयोग ने 2010 में प्रस्ताव दिया कि इस पर फिर से विचार किया जाना चाहिए.
  • ‘पेड न्यूज’ को चुनावी अपराध घोषित करने के लिए कानून में संशोधन  (2011)
  • कार्यकाल समाप्त होने से छह माह पहले से ही सरकारी विज्ञापनों पर रोक (2004)
  • उम्मीदवारों द्वारा झूठे शपथ पत्र के लिए सजा (2011)
  • भ्रष्ट आचरण में लिप्त रहने वाले हारे हुए उम्मीदवारों के खिलाफ भी याचिका दाखिल करने का अधिकार (2009)
  • चुनाव से ठीक पहले आयोग की सहमति के बिना चुनाव अधिकारियों के स्थानांतरण पर प्रतिबंध (1998) जुलाई, 2004 में आयोग ने इस बात को दोहराया.
  • आरपी अधिनियम के तहत आयोग को नियम बनाने की शक्ति (1998)
  • पंजीकरण रद्द करने का अधिकार- 1998 में चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार से  दलों का पंजीकरण रद्द करने का अधिकार मांगा. मामला अब तक लंबित है.
  •  जनमत सर्वेक्षणों पर पाबंदी – इस बार लोक सभा चुनावों की घोषणा के मौके पर मुख्य निर्वाचन आयुक्त वीएस संपत का कहना था कि उन्होंने जनमत सर्वेक्षणों पर पाबंदी के अपने प्रस्ताव को एक बार फिर से कानून मंत्रालय को भेजा है. गौरतलब  है कि चुनाव आयोग ने 2004 में ही जनमत सर्वेक्षणों और मतदान के बाद होने वाले सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश कर दी थी, लेकिन सरकार ने सिर्फ एग्जिट पोल पर रोक लगाना ही उचित समझा.

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इस तरह जो श्रेय आयोग के हिस्से आ सकता था वह सुप्रीम कोर्ट के खाते में जुड गया. हालांकि दागियों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने वाले सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर केंद्र सरकार ने अध्यादेशी गिद्ध-दृष्टि डाल दी थी, लेकिन जन-दबाव के चलते वह इस कदम से पीछे हट गई. कई लोगों का यह भी मानना है कि राहुल गांधी के हस्तक्षेप की वजह से सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटने वाला अध्यादेश नहीं आया. लेकिन उनके हस्तक्षेप के पीछे भी जनता का दबाव ही तो था.

इस आदेश के खिलाफ अध्यादेश नहीं ला पाने के जो भी कारण रहे हों, लेकिन यह साफ है कि चुनाव सुधारों को लेकर वर्तमान सरकार का रुख कतई सकारात्मक नहीं रहा.

देश की मौजूदा व्यवस्था के मुताबिक चुनाव संबंधी नियमों में सुधार अथवा संशोधन की जिम्मेदारी कानून मंत्रालय की होती है. चुनाव संचालन नियमन 1961 तथा जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में फेरबदल की पहल भी कानून मंत्रालय द्वारा ही की जा सकती है. इसे लेकर चुनाव आयोग केवल अपने सुझाव ही दे सकता हैं जिसे मानना या न मानना पूरी तरह सरकार पर निर्भर करता है. लेकिन चुनाव सुधारों को लेकर सरकार द्वारा उठाए गये कदमों की पड़ताल करने पर हालिया सरकार की कुल जमा उपलब्धि इतनी ही रही है कि उसने चुनाव आयोग द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठकों में हर बार ‘पाक साफ’ काम करने का बयान दिया है. असलियत में उसका व्यवहार हमेशा इसके उलट रहा है. पिछले बीस सालों में चुनाव सुधारों को लेकर आयोग द्वारा भेजे गये सुझावों पर अमल करने के बजाय सरकार उन पर कुंडली मार कर ही बैठी है. अनिश्चतता के भंवर में हिचकोले खा रहे इन सुझावों की संख्या दो दर्जन से अधिक हो चुकी है (देखें बाक्स). लेकिन इससे भी चिंताजनक बात यह है कि सरकार ने ऐसे उपक्रम भी किये हैं जिनमें चुनाव आयोग की बची-खुची शक्तियों को पूरी तरह खत्म कर देने की साजिश भी नजर आती है. आगे बताई जा रही घटना इस का जीता जागता प्रमाण है.

2012 में उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के विधानसभा चुनावों के दौरान सियासी गलियारों से एक खबर निकली. खबर का मजमून यह था कि केंद्र सरकार आचार संहिता को कुछ इस तरह की वैधानिक शक्ल दे रही है कि इससे चुनाव आयोग के अधिकार काफी सीमित हो जाएंगे. इस पर बवाल होते ही सरकार के तीन मंत्री इसका खंडन करने में जुट गए. तत्कालीन केंद्रीय मंत्री और वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी इस जमात में शामिल थे. इस बीच सितंबर 2011 का एक कैबिनेट नोट मीडिया में लीक हो गया. इस दस्तावेज ने मंत्रियों का झूठ सामने ला कर रख दिया. दस्तावेज की भाषा साफ तौर पर चुनाव आयोग के खिलाफ थी. इसके मुताबिक चुनाव आचार संहिता को विकास कार्यों की राह का स्पीड ब्रेकर बताते हुए उसे वैधानिक शक्ल देने की जरूरत पर बल दिया गया था. सरकार की इस मंशा से आगबबूला हो कर चुनाव आयोग ने तुरंत अपनी नाराजगी जाहिर की थी. तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त कुरैशी का कहना था कि आयोग सरकार के इन मंसूबों को किसी भी हाल में कामयाब नहीं होने देगा. आखिरकार आयोग के तेवरों और विपक्ष के दबाव के बाद सरकार को इस योजना को टालना पड़ा.

एक और उदाहरण है जो यह दिखाता है कि आयोग अगर अपने रवैये को लेकर सख्ती अपना ले तो वह सरकारों को अपनी बात मनवाने के लिए मजबूर कर सकता है. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ उसका टकराव इसकी ताजा मिसाल है. चुनाव आयोग ने पश्चिम बंगाल में चुनाव के दौरान कुछ अधिकारियों के तबादलों के निर्देश दिए थे. लेकिन ममता ने ऐसा करने से इंकार करते हुए आयोग को सीधी चुनौती दे दी. गुस्साए आयोग ने जब समूचे पश्चिम बंगाल में चुनाव रद्द करने की धमकी दी तो ममता को बैक फुट पर आना पड़ा.

जानकारों की मानें तो अतीत में आयोग द्वारा जिस तरह से चुप्पीनुमा कार्यप्रणाली को अंजाम दिया जाता रहा है उससे सत्ता में बैठे लोगों को हिम्मत मिलती रही है. आयोग को चाहिए कि चुनाव सुधारों को लेकर वह अब अपनी पूरी ताकत झोंक दे. इतना साफ है कि चुनाव सुधारों को लेकर सरकार समेत राजनीतिक दल समय-समय पर भले ही अपनी प्रतिबद्धता जताते रहे हों लेकिन असलियत में चुनाव आयोग की सेंसरशिप उन्हें किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं है. ऐसे में यदि चुनाव आयोग भी इसे अपनी नियति मान लेता है तो वक्त आ गया है कि उससे भी कुछ कड़े सवाल पूछ लिए जाएं.

‘भूख न लगे, तो कारण पचासों !’

bhukh‘डॉक्टर साहब, मुझे भूख क्यों नहीं लगती?’,

इस प्रश्न के दसों उत्तर हो सकते हैं.

एक साहब तो यही पूछने लगे कि खाना खाने के बाद मुझे भूख लगती ही नहीं- क्या करूं? याद रहे कि यदि पेट पहले ही खुशी, विषाद, चिंता या खाने से भरा हो, तो भूख के लिए उसमें जगह नहीं बचेगी. बहरहाल, भूख न लगने के कारण पेट में हो सकते हैं, शरीर में अन्यत्र शुरू हो रही कोई छोटी बड़ी बीमारी हो सकती है, और कारण मन में भी हो सकते हैं. भूख के लिए सीधे ही टॉनिक-वॉनिक खरीदकर पीने से पहले तनिक इन कारणों को ठीक से जान लें. ऐसा न हो कि हम टॉनिक ही पीते रह जाएं और डॉक्टर बाद में हमें बताए कि आपकी तो दिल का पंप फेल (कार्डियक फेल्योर) होने से आंतों तथा लिवर पर सूजन आ जाने के कारण भूख खत्म थी, और आप टॉनिक पीकर बस बीमारी बढ़ाते रह गए. जी हां, भूख न लगना एकदम सामान्य, अस्थाई सा लक्षण हो सकता है और कैंसर से लेकर किडनी फेल्योर तक की निशानी भी.

हम थोड़ा विस्तार में जाकर इन सब पर चर्चा करेंगे.

भूख न लगे तो हमारा ध्यान सबसे पहले पेट पर ही जाता है. पेट में कुछ गड़बड़ है सर, आजकल मुझे भूख ही नहीं लग रही. सत्य है कि जो एक दो दिन कभी भूख न लगे तो यह ‘पाचन तंत्र’ की ऊंच नीच से भी हो सकता है. पर यह कभी लंबा नहीं चलेगा. लेकिन यह भी सच है कि यदि पेट के कारण ही भूख गड़बड़ हो रही है तब भी डॉक्टर को कारण की तलाश तो करनी होगी. और यदि भूख खत्म हुए लंबा समय हुआ है, या यह एकदम ही खत्म है तो यह कोई सामान्य बात नहीं. आपका पाचन तंत्र अमाशय (stomach) से आंतों तक फैला है. फिर इसमें पाचन रस मिलाने वाले अंग लिवर, पित्राशय (gall bladder) और पेंक्रियाज भी महत्वपूर्ण  हैं. इन सभी अंगों में खून पहुंचाने वाली नलियां हैं. इनसे रस ले जाने वाली नलियां भी हैं. पाचन रस न बने, बने पर रुकावट के कारण नलियां इसे पहुंचा न सकें, पहुंचे पर आंतों में ही कोई बीमारी पल रही हो तो भूख तो चली ही जाएगी. अमाशय सूख रहा हो (जिसे हम क्रॉनिक गेस्ट्राइटिस कहते हैं) तो खाना पचाने का एसिड ही ठीक से नहीं बनेगा. खाना खाओगे और पाचन की बिस्मिल्लाह ही नहीं होगी. शुरुआत स्टमक से होती है न. उम्र बढ़ जाने पर, दारू के आदी लोगों को या अन्य कारण से (जैसे कि विटामिन बी-12 की कमी से) अमाशय की कोशिकाएं सूखने लगती हैं. उनसे पाचन के लायक एसिड ही नहीं बनता. दो कौर खाते ही पेट भरा लगने लगता है. कभी अमाशय में कैंसर पल रहा हो, तब भी यह सब हो सकता है. डॉक्टर्स ऐसी सि्थति में प्रायः ‘इंडोस्कोपी’ कराने की सलाह देते हैं. यह बस पंद्रह मिनट की जांच होती है. सो घबराएं नहीं. ‘मुंह से नली डालेंगे तो बड़ा कपट होगा’- ये न सोचें. आजकल तो बहुत कोमल किस्म के इंडोस्कोप आ गए हैं. डॉक्टर इंडोस्कोपी की सलाह दे तो जरूर करा लीजिए. प्रायः इंडोस्कोपी तथा पेट के अल्ट्रासाउंड से बहुत सारी बीमारियों का पता चल जाता है. यदि भूख लंबे समय से बंद है, यदि साथ में वजन भी गिर रहा है, या पेट दर्द भी रहता है- तब तो ये सारी जांचें कराने को आपका डॉक्टर कहेगा ही अवश्य करा लें.

भूख खत्म होना किसी और ही बीमारी का लक्षण भी हो सकता है. मान लें कि पेट ठीक है. पाचनतंत्र भी बढ़िया हो परंतु शरीर में कोई इंफेक्शन है. पेशाब में जलन है. बुखार है. तो भी भूख नहीं लगेगी. बुखार के रोगी प्रायः शिकायत करते हैं कि भूख एकदम खत्म है डॉक्टर साहब. ऐसे में धैर्य रखें. बुखार उतरने पर ही भूख लगेगी. कुछ अन्य बीमारियों में भूख खत्म हो सकती है. उदाहरण के लिए गुर्दों का खराब हो जाना (किडनी फेल्योर) एक अत्यंत गंभीर बीमारी है. कई बार इसमें न तो पेशाब की कोई तकलीफ होगी, न ही शरीर पर सूजन ही आएगी- बस, भूख गिर जाएगी. ऐसे में डॉक्टर भी धोखा खा सकते हैं. यदि भूख लंबे समय से गायब है, मान लें कि एकाध माह या उससे ऊपर हो गए हों तब तो सतर्क हो जाएं. यह कोई सामान्य चीज नहीं. टीबी, कैंसर, लिवर सिरोसिस से लेकर गुर्दे या हार्ट के फेल्योर की निशानी भी हो सकती है यह. इसे गंभीरता से लें. जांचें कराएं. उत्तर खोजें कि ऐसा क्यों हो रहा है. खुद को टॉनिकों में बहलाने न बैठ जाएं. पत्नी से लड़ने न बैठ जाएं कि तुम आजकल इतना खराब खाना क्यों बना रही हो कि थाली देखते से भूख मर जाती है.

अब एक बेहद महत्वपूर्ण सलाह.

भूख खत्म हो तो सबसे पहले यह पड़ताल कर लें कि आप किसी भी तरह की कोई गोलियां तो नहीं ले रहे हैं. ऐलोपेथी से लगाकर आयुर्वेद तक की बहुत सी दवाइयां आपकी भूख पर असर डाल सकती हैं. डॉक्टर को पूछें. दवा की दुकान से उसका रेपर लेकर पढ़ डालिए. इसमें साइड इफेक्ट्स लिखे रहते हैं.

एक आखिर बात जो रोचक भी है.

भूख मन का भी खेल है. पिछली बार हमने बताया था कि दिमाग का हाइपोथैलेमस वाला हिस्सा ही भूख का नियंत्रण केंद्र है. मन, इच्छा, मूड, सोच, अवचेतन ये सब इस केंद्र पर अपना असर डालते हैं. इसलिए कई मानसिक बीमारियों में भूख घट,बढ़ सकती है. खासकर, जीरो फिगर को समर्पित कोई लड़की यदि दिन-रात अपने वजन का ही सोचा करे तो ‘एनोरेक्सिया नर्वोसा’ जैसी बीमारी तक पहुंच सकती है. खाना बंद. और व्यायाम, जिम-खूब. दुबले ऐसे हो रहे हैं कि हड्डे निकल आए हैं, पर अभी भी संतुष्ट नहीं. फिगर ठीक रखनी है. दुनिया चिंतित है या हंस रही है, अपने दुबलेपन के लिए जान देने को राजी हैं. माहवारी बंद हो गई है. हड्डियां कमजोर. इनमें से पांच प्रतिशत तो मर तक सकती हैं. पर मन है कि कहता है कि खाओगी तो मोटी हो जाओगी. कुछ तो खाती हैं और उंगली डालकर उल्टी कर देती हैं, पर जुलाब लेकर निकाल देती हैं. ये सब गंभीर मानसिक रोग हैं. इनका इलाज फिजीसियन तथा मनोरोग विशेषज्ञ मिल कर करते हैं. घर में ऐसा कोई हो तो उसे यूं ही अकेला न छोड़ दें. उसे डॉक्टर के पास ले जाएं.

मैं फिर कहूंगा कि टॉनिकों के धोखे में न पड़ें. पहले जानें कि भूख क्यों खत्म हो रही है?

बड़ा कागजी है पैरहन

िफल्म » 2 स्टेट्स    निर्देशक»  अभिषेक वर्मन    लेखक » चेतन भगत                          कलाकार » अर्जुन कपूर, आलिया भट्ट, रोनित राय, शिव सुब्रमण्यम, अमृता सिंह
िफल्म » 2 स्टेट्स
निर्देशक» अभिषेक वर्मन
लेखक » चेतन भगत
कलाकार » अर्जुन कपूर, आलिया भट्ट, रोनित राय, शिव सुब्रमण्यम, अमृता सिंह

2 स्टेट्स आसानी से 3 इडियट्स हो सकती थी. उसे बस अर्जुन कपूर को छिपाना था और हिरानी-आमिर को फिल्म से जोड़ना था. और अगर यह मुश्किल था तो कम से कम उसे हिरानी की 3 इडियट्स को बार-बार देखना था ताकि वह समझ सके कि जिस फील गुड सिनेमा का पैरहन वह पहनने जा रही है उसकी भावुकता और गहराई को हिरानी सबसे बेहतर समझते हैं. उन्हें पता है कि चेतन भगत की कहानी को कितना फिल्म के अंदर रखना है और कितना बाहर. तब शायद 2 स्टेट्स जिसमें कालेज लाइफ का रोमांस, बाहर की दुनिया का संघर्ष, उसी दुनिया के लोगों से किरदारों की टकराहट, मल्टीनेशनल के क्यूबिकल के अंदर बैठने की कसमसाहट और लेखक बनने की चाहत की सामान्य से थोड़ी-सी अलग कहानी है, अपना खुद का गुरुत्वाकर्षण खोजती जो फिल्म की तरफ हमें खींच सकता. तब फिर हम अर्जुन कपूर को भी स्वीकार लेते क्योंकि हमने 40 पार के आमिर को 20 से कम के छात्र के तौर पर भी स्वीकारा था. लेकिन फिल्म ऐसा कुछ नहीं करती. और हमारे पास अर्जुन और आलिया रह जाते हैं फिल्म की सपाट कहानी को जीवंत बनाने के लिए.

इस कठिन काम पर निकले अर्जुन आधी से ज्यादा फिल्म में अपने चेहरे पर जो एक-सा एक्सप्रेशन रखते हैं उसकी व्याख्या कुछ इस तरह है : कपाल भाती के दौरान जिस वक्त आपको सांस छोड़नी है, आपने गलती से थोड़ी और सांस अंदर खींच ली और पेट से क्रिया भी चालू रखी, तब कष्ट में जिस तरह का चेहरा दो पलों के लिए आपका हो जाता है ठीक वैसा ही चेहरा अर्जुन तकरीबन आधी फिल्म तक रखते हैं. ऐसे में हर फ्रेम को, और फिल्म को, आलिया ही संभालती हैं. उनका और अर्जुन का कालेज का रोमांस हालांकि कच्चा है लेकिन अच्छा लगता है क्योंकि उसमें आलिया हैं और आज के जमाने का बिना झंझट वाला प्यार जो सच्चा ज्यादा और फिल्मी थोड़ा कम है.

कालेज से निकलकर फिल्म पंजाबी और तमिल के बीच के कल्चरल डिफरेंसिस को खूब दिखाती है, लेकिन उसके पास दो समुदायों के बीच कल्चरल हारमनी लाने वाली समझ नहीं है, और वैसे दृश्य भी नहीं है. वह पंजाबी-तमिल परिवारों में शादी के माध्यम से समझौता तो करा देती है, लेकिन दोस्ती नहीं करा पाती. वैसे उसे दोस्ती की फ्रिक भी नहीं है, उसने चिकन और इडली के बीच की दूरियों को कम करने का जिम्मा आप पर छोड़ा हुआ है. फिल्म चीजों को जनर्लाइज करने में भी दिलचस्पी लेती है. हीरो बैंक की ही नौकरी करता है और हीरोइन शेंपू बनाने वाली कंपनी की है. कमाल है भाई, उल्टा नहीं हो सकता था क्या!  वह अपनी सबसे बड़ी ताकत आलिया को भी हलका दिखाने से पीछे नहीं हटती. ‘हिटलर भी दिल का बुरा आदमी नहीं था’ जैसे संवाद एक समझदार लड़की के किरदार के लिए तो नहीं ही होने चाहिए थे. लेकिन फिर भी आलिया फिल्म में चमकती हैं और सिर्फ वे ही चमकती हैं. आलिया हमारी फिल्मों का भविष्य है, यह तय है. आलिया के अलावा फिल्म में सिर्फ रोनित रॉय हैं जिनका जिक्र करना बेहद जरूरी है. उनका चेहरा क्रोध और अकड़ को ऐसे बोलता है जैसा कम ही अभिनेता बोल पाते हैं.

अपने कागजी पैरहन में खुश 2 स्टेट्स सिर्फ एक लकड़ी से जली आग के आगे ढाई घंटे नाचती है. खुद भी थकती है, हमें भी थकाती है.

‘भाजपा उत्तर प्रदेश में 50 से अधिक सीटें जीतेगी’

फोटो: शैलेन्द्र पाण्डेय
फोटो: शैलेन्द्र पाण्डेय

भाजपा का दावा है कि देश भर में जबर्दस्त नरेंद्र मोदी की लहर है और उनके अभियान से उत्तर प्रदेश में पार्टी के लिए व्यापक जनसमर्थन तैयार हुआ है. फिर भी आपको सुरक्षित सीट की तलाश करनी पड़ी. आपको अपनी पुरानी सीट गाजियाबाद छोड़कर लखनऊ क्यों आना पड़ा?

यह कहना सही नहीं होगा कि मैं लखनऊ इसलिए आया क्योंकि यह सुरक्षित सीट है. देखिए, सभी चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में कहा गया है कि गाजियाबाद भाजपा के लिए सुरक्षित सीट है. मीडिया ने इस बारे में खूब खबरें दिखाई हैं. पार्टी ने रणनीति के तहत कुछ कदम उठाए हैं. उसी के तहत ही केंद्रीय चुनाव समिति ने यह फैसला किया कि नरेंद्र मोदी पूर्वी उत्तर प्रदेश से चुनाव लड़ेंगे. इससे स्वाभाविक तौर पड़ोसी राज्य बिहार की भी कुछ सीटों पर असर पड़ेगा. मुझे मध्य उत्तर प्रदेश से लड़ने को कहा गया ताकि अवध और बुंदेलखंड इलाके को प्रभावित किया जा सके.

लखनऊ से पार्टी के मौजूदा सांसद लालजी टंडन के बारे में माना जा रहा है कि वे टिकट न दिए जाने से नाराज हैं. वे  प्रदेश के इकलौते वर्तमान सांसद हैं जिन्हें टिकट नहीं दिया गया.
इसमें कोई सच्चाई नहीं है. टंडन जी पूरी लगन से पार्टी के लिए काम कर रहे हैं. बल्कि वे तो मेरा चुनाव प्रबंधन संभाल रहे हैं. यह कहना सही नहीं होगा कि उन्हें टिकट नहीं दिया गया. उन्होंने खुद ही लोकसभा चुनाव न लड़ने की मंशा जताई थी.

लखनऊ में बड़ी मुस्लिम आबादी है. 2002 के दंगे और मोदी की छवि अभी तक लोगों के मन में छाई हुई है. उनका विश्वास जीतने के लिए आपने क्या योजना बनाई है?
हम जाति-धर्म की राजनीति नहीं करते. हम समाज के सभी वर्गों की समानता में यकीन रखते हैं, फिर चाहे वे किसी भी जाति या धर्म के हों. मेरा विश्वास सामाजिक न्याय और मानवता की राजनीति में है और मुझे यकीन है कि इन लोकसभा चुनावों में समाज का हर वर्ग भाजपा का समर्थन करेगा.

लखनऊ में सवर्णों की आबादी भी अच्छी-खासी  है, खासतौर पर ब्राह्मणों की संख्या काफी है. लेकिन वे आपको राजपूतों का नेता मानते हैं.
मैं अपनी बात को दोहराता हूं. मैंने कभी जाति की राजनीति नहीं की. मैंने कभी किसी ऐसे लोकसभा क्षेत्र से चुनाव नहीं लड़ा जहां मेरी बिरादरी के लोग बड़ी संख्या में हों.

आप अटल बिहारी वाजपेयी की उदार राजनीति के वारिस हैं जिन्होंने लगातार पांच लोकसभा में लखनऊ का प्रतिनिधित्व किया जबकि मोदी की छवि मुस्लिम विरोधी है. क्या मोदी आप पर बोझ बन जाएंगे?
गुजरात के मुसलमानों की प्रति व्यक्ति आय देश में सबसे अधिक है. मोदी के खिलाफ लगाए गए आरोप निराधार थे और सर्वोच्च न्यायालय ने उन पर लगे तमाम आरोपों को खारिज कर दिया है. उन पर जो भी आरोप लगे वे सब राजनीति से प्रेरित थे और उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के दुष्प्रचार का हिस्सा हैं. जनता मोदी के खिलाफ किए गए कुप्रचार का भरपूर जवाब देगी.

आप वाजपेयी की विरासत का दावा करते हैं जो समावेशी सोच वाली है जबकि मोदी एक तानाशाह की तरह काम करते हैं, उनका खुद का एजेंडा है. क्या आपको दोनों में विरोधाभास नहीं नजर आता.
मोदी जी बहुत विनम्र और उदार हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो उन्हें 2013 में लगातार तीसरी बार गुजरात विधानसभा के चुनावों में जीत नहीं मिलती. मोदी जी के बारे में कही जा रही ऐसी तमाम बातें निराधार हैं और हमारे विरोधियों द्वारा फैलाई जा रही हैं.

एक धारणा यह भी है कि अगर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) लोकसभा चुनाव में 272 का आंकड़ा छूने में नाकाम रहता है और गठबंधन के साझेदार मोदी के नाम पर तैयार नहीं होते हैं तो आप प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं.
इस धारणा में कोई सच्चाई नहीं है. यह हमारे विरोधियों द्वारा फैलाया गया एक और झूठ है.

कोबरापोस्ट द्वारा किए गए एक स्टिंग ऑपरेशन में साफ हुआ है कि 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाने में संघ परिवार और भाजपा के नेताओं की मिलीभगत सामने आई है. उस वक्त कल्याण सिंह राज्य के मुख्यमंत्री थे और आप उस सरकार में कैबिनेट मंत्री थे. क्या आपको मस्जिद विध्वंस के षडयंत्र की जानकारी थी?
मुझे कोबरापोस्ट के खुलासों के बारे में कुछ नहीं कहना है. मैं यह जरूर कहना चाहूंगा कि जब भी चुनाव करीब होते हैं तब तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल ऐसी सांप्रदायिक चालें चलते हैं. कांग्रेस और अन्य तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल चुनाव के पहले मतों के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए इस तरह के हथकंडे अपनाते हैं.

सभी जातियों और सामाजिक समूहों के राज्य कर्मियों, जिनमें अन्य पिछड़ा वर्ग, मुस्लिम और सवर्ण भी शामिल हैं, ने सरकारी सेवाओं में पदोन्नति में अनुसूचित जातियों को आरक्षण दिए जाने के खिलाफ एकजुटता दिखाई है. सपा ने राज्य सभा में इस विधेयक का विरोध किया था जबकि आपकी पार्टी ने समर्थन.
दिल्ली में सरकार बनने दीजिए. भाजपा सरकार इस मसले का ऐसा हल निकालेगी जो समाज के सभी वर्गों को स्वीकार्य होगा.

इस लोकसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश से क्या उम्मीद है?
यहां चुनाव परिणाम उम्मीद से परे रहेंगे. भाजपा उत्तर प्रदेश में 50 से अधिक सीटें जीतेगी.

‘तसल्ली तब हुई जब शाख़ पे एक फूल आया’

फोटोः एपी
फोटोः एपी

उनकी कविताएं- जानम, एक बूंद चांद, कुछ नज़्में, कुछ और नज्में, साइलेंसेस, पुखराज, चांद पुखराज का, आॅटम मून, त्रिवेणी, रात चांद और मैं, रात पश्मीने की, यार जुलाहे, पन्द्रह पांच पचहत्तर एवं प्लूटो में संकलित हैं. उन्होंने बच्चों के लिये ‘बोसकी का पंचतंत्र’ भी लिखा है. यही नहीं, मेरे अपने, आंधी, मौसम, कोशिश, खुशबू, किनारा, नमकीन, मीरा, परिचय, अंगूर, लेकिन, लिबास, इजाजत, माचिस और हू तू तू जैसी सार्थक फिल्मों के निर्देशन के अलावा गुलज़ार ने मिर्जा गालिब पर एक प्रामाणिक टीवी सीरियल भी बनाया है.

वे आॅस्कर अवाॅर्ड, ग्रैमी अॅवार्ड, पद्म भूषण, साहित्य अकादेमी पुरस्कार, इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ एडवांस स्टडीज, शिमला के प्रतिष्ठित लाइफ टाइम अचीवमेंट फेलोशिप सहित तमाम अन्य अलंकरणों से सम्मानित हैं. साथ ही 20 बार फिल्मफेयर पुरस्कार एवं सात बार नेशनल अवार्ड से विभूषित किए गए हैं. पेश है गुलज़ार से विशेष बातचीत.

भारतीय सिनेमा के लिए शिखर उपस्थिति रखने वाले दादा साहब फाल्के पुरस्कार की यात्रा में एक कलाकार के बतौर जीवन में कुछ सुस्त कदम रस्ते और कुछ तेज कदम राहें बार-बार आई होंगी. यहां पहुंचकर कैसा लगता है?
इसमें एक परिपूर्णता की बात है. मुझे लगता है कि मैंने सिनेमा की परिधि पर चलते हुए एक ऐसा वृत्त पूरा किया है, जो कहीं भीतर से पूर्णता और संतुष्टि का एहसास कराता है. यह इसलिये भी कि यह सम्मान किसी एक फिल्म या एक गाने या एक स्क्रिप्ट या एक किताब या एक किसी खास चीज के लिये नहीं है, बल्कि वह आपके पूरे सृजन को एक ही बड़े परिसर में समेटता हुआ पुरस्कार है. मतलब आपको आॅस्कर भी दो बार मिल सकता है, ग्रैमी भी तीन बार मिल सकता है, फिल्मफेयर भी बीस बार मिल सकता है, राष्ट्रीय पुरस्कार भी सात बार मिल सकता है, जो मुझे सौभाग्य से मिला भी है, मगर दादा साहब फाल्के पुरस्कार तो एक ही बार मिलता है. वह भी तब, जब आपके काम की समग्रता को पूरे जीवन के हासिल के तौर पर जांचा जाए. इसलिये यह महत्त्वपूर्ण है. ऐसा लगता है कि जब घर से निकले थे, तब मैखाने जाकर रुके और संकरी तंग गलियों से गुजरकर आखिरकार मंजिल तक पहुंच ही गए. आप भी एक शायर हैं, अगर मैं आपकी जबान में इसे कहूं तो यह कुछ ऐसा ही है- हरे पत्ते भी थे, सरसब्ज थी शादाब थी टहनी/तसल्ली तब हुई जब शाख पे एक फूल आया. यह पुरस्कार मेरे लिये, मेरे रचनात्मकता के हरे-भरे जीवन में फूल की तरह आया है.

इस मौके पर, जब आपने उत्कृष्टता के स्वीकार का सर्वोच्च छू लिया है, अपने गुरु विमल राॅय को किस तरह याद करना चाहेंगे?
इस मुकाम तक पहुंचाने के लिये विमल दा ही पूरी तरह जिम्मेदार हैं. अभी स्टेट्समैन के किसी पत्रकार ने भी मुझसे यही पूछा था कि क्या आप इस पुरस्कार को अपने पिता को समर्पित करना चाहेंगे. उस समय मैंने उनसे यही कहा कि मैं इसे पिता को या परिवार में किसी को अर्पित करके उन सबको किसी तरह के धोखे में नहीं रखना चाहता, क्योंकि यह पुरस्कार तो आज इसीलिये मेरे पास तक आया है कि अगर मेरे गुरु विमल राॅय न होते, तो मैं यहां न होता. वे ही थे, जो मोटर गैराज से निकालकर मेरा हाथ पकड़कर अपने स्टूडियो लेकर आए और मुझसे कहा कि तुम कविता और गीत वगैरह लिखते रहो, मगर तुम्हें दुबारा लौटकर वहां नहीं जाना है, वह तुम्हारी जगह नहीं है, न ही तुम्हें अपनी जिंदगी को इस तरह जाया करना है. तुम यहीं रहकर सिनेमा की भाषा और उसका काम सीखो और इस माध्यम को अपनाओ, जो तुम्हारे शायर को भी एक नयी अभिव्यक्ति दे सकता है. मुझे याद है कि किस तरह इस बात पर मैं फूट-फूटकर रोया था. अब आप बताइए, ऐसे गुरु का हाथ पकड़कर जबरन फिल्मों में प्रवेश करने की हिमाकत, जिसने मेरी बाकी की पूरी जिंदगी का मानी और शायरी का किरदार ही बदलकर रख दिया, उससे अलग फाल्के या किसी भी पुरस्कार का श्रेय मैं किसको दे सकता हूं?

आपसे पहले जिन अन्य हिंदी फिल्म-निर्देशकों को यह पुरस्कार मिला, उनमें राजकपूर, बीआर चोपड़ा, ऋषिकेश मुखर्जी, श्याम बेनेगल और यश चोपड़ा जैसे मूर्धन्य शामिल हैं. इनमें से आप खुद को किस तरह अलग करके देखते हैं?
मैं इन सारे बड़े और नामचीन लोगों को पूरे आदर के साथ देखता हूं, लेकिन इसी में एक शख्स ऐसा भी है, जिसको बड़ी चाहत से देखता रहा हूं. वे हैं कवि पं. प्रदीप जी. उनकी यात्रा देखिए. उन्होंने ही सबसे पहले कहा था- ‘दूर हटो ऐ दुनियावालों हिन्दुस्तान हमारा है’ और अपने यात्रा के अन्तिम पड़ाव तक आते हुए वे ही यह लिख पाये- ‘ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी’. यह कितनी बड़ी बात है कि आजादी से पहले और बाद की दो परिस्थितियों को उन्होंने जिस तरह देखा व भोगा था, उसे अपनी कलम से इस तरह दो विभिन्न दशाओं में जाकर उतनी ही शिद्दत से महसूस और व्यक्त भी किया. यह कमाल की बात लगती है और उनकी यात्रा भी शायद इसीलिये एक महान यात्रा है. उनको मिला हुआ फाल्के पुरस्कार मुझे इसीलिये बेहद अपील करता है कि वह सिनेमा को ऊंचाई पर ले जाने वाले एक कवि का सम्मान है.

इस मुकाम पर पहुंचकर सिनेमाई अभिव्यक्ति के क्षेत्र में वे कौन सी दरारें और खरोंचे हैं, जो अभी भी आपको एक कलाकार के बतर्ज कचोटती हैं?
किसी भी क्रिएटिव प्रोसेस में दरारें नहीं होतीं बल्कि जैसे-जैसे हम बढ़ते जाते हैं या अपने फन में बढ़त लेते हैं, वो गैप नजर आता है जो पहले नहीं दिखता था. वह किसी तरीके से कोई निगेटिव बात नहीं होती, न ही किसी भी तरह का नकार होता है. उसे हम अपने बढ़ते जाने के दौरान थोड़ा परिपक्व होने के रूप में ले सकते हैं कि हमारी समझ का दायरा थोड़ा फैला है या कि हम उन्हीं बातों को तमाम दूसरे कोणों से भी देख और सोच सकते हैं. एक तरीके से वह रचनात्मक उपज होती है, जो कोई भी फनकार समय के साथ धीरे-धीरे विकसित करता है. सिनेमा कला का रोज-रोज विकसित होने वाला माध्यम है. हम जब फिल्मों में आये थे, तब से लेकर अब तक भाषा, जुबान, तकनीकी, मुहावरा, रेकार्डिंग, सेट और पूरा फिल्मांकन सब कुछ न सिर्फ बदल गया है, बल्कि देखते-देखते तमाम नयी और बेहतर चीजों को अपने दायरे में समेट चुका है. ऐसे में सिर्फ खुद को विकसित करते चलने में ही तमाम दरारों और खरोचों को बेमानी किया जा सकता है. यह कुछ-कुछ उसी तरह का काम होगा, जैसे कोई माली किसी पेड़ को सुंदर और लुभावना बनाने के लिये लगातार उसकी काट-छांट, तराश और सिंचाई करते हुए खुद की कला को भी निखारता रहे, जिससे उसका लगाया हुआ पेड़ एक दिन चलकर मुकम्मल और मजबूत दरख्त के रूप में नजर आए.

आपकी साहित्यिक और सिनेमाई यात्रा में चांद हमसफर की तरह मौजूद रहा है. वह आपका दोस्त भी है, नज्मों का किरदार भी और आपका सवाली भी. कभी सूरज से दोस्ती करने का मन नहीं हुआ?
(हंसते हुए) सूरज की ओर जब भी देखा, तो उसने आंखें चुंधिया दीं. इसीलिये उसको देखने के लिये हर बार आईने की जरूरत पड़ी. मैंने आईने में ही सूरज का पूरा अक्स देखा होगा. ठीक वैसे ही, जैसे खिलजी ने आईने में पद्मिनी के सौंदर्य को देखा था. मैं सूरज की आभा को चांद के माध्यम से ही देखता हूं.

आज इस मौके पर, अपने मित्रों खासकर शैलेंद्र, आरडी बर्मन, किशोर कुमार और संजीव कुमार की अनुपस्थिति का कितना अभाव महसूस करते हैं?
वह तो अब तक महसूस करता हूं. इस मौके पर ही नहीं, हमेशा ही इन सब की कमी खलती है. शैलेंद्र जिसने फिल्मों की ओर भेजा और डांटा था, विमल दा, जिन्होंने हाथ पकड़ा था. पंचम जिसने हमेशा साथ निभाया और एक व्यक्ति देबू सेन जो हाथ पकड़कर विमल दा के पास मुझे लेकर गया था. जब इस पुरस्कार की घोषणा हुई, तो उसका फोन आया और वह खुशी से हंस रहा था. उसने कहा, ‘यार मुझे याद है कि मैं तेरा हाथ पकड़कर दादा के पास ले गया था और तुमने आज वह ऊंचाई छू ली है, जिसकी शायद तुमने तमन्ना भी न की थी, जब फिल्मों हम दोस्तों के दबाव के कारण आए थे. आज सचमुच बहुत अच्छा लग रहा है.’ और यह शायद मेरे लिये सबसे बड़ा काॅम्पलीमेण्ट और प्यार है, जो मेरे दोस्त मुझे दे सकते थे. फिर हरी भाई (संजीव कुमार) को भी कैसे भुला सकता हूं जो मेरी कोई भी फिल्म करने के लिये तैयार रहते थे और किशोर दा, जिन्होंने मेरे गीतों को गाकर अमर बनाया.

क्या आप मीनाकुमारी जी की जिंदगी पर रोशनी डालने वाली किसी फिल्म का निर्माण करने की तमन्ना रखते हैं? आप ही वह व्यक्ति हैं, जो मीना जी की शखि़्सयत का सबसे मकबूल चेहरा हमारे सामने लाकर रख सकते हैं?
जिस तरह का माहौल आज हो गया है, उसमें बड़े एहतियात की जरूरत है कि हम किसी ऐसे बड़े किरदार के बारे में कुछ सोचें या बनाएं तो उस पर किस तरह की प्रतिक्रिया सामने आएगी. वे जिस तरह की पाकीजा शख्सियत थीं और महान अदाकारा, उनके प्रति कुछ भी बनाने से पहले बहुत सम्मान से सोचने और उसी तरह के सम्मानजनक परिवेश को टटोलने की आवश्यकता महसूस होती है. मुझे लगता है कि आज चीजों को मिसइण्टरप्रेट करने का जो चलन चल पड़ा है, ऐसी महान हस्ती को उसमें पड़ने से बचाना चाहिए और फिल्म नहीं बनानी चाहिए. मेरी जिंदगी में वे एक बड़ी रूह की तरह मौजूद रही हैं और उस संजीदगी व पवित्रता को आज के समय में सिनेमा की शर्तों पर ले जाने का काम मैं नहीं कर सकता.

यदि मैं आपके गीतों से मेटाफर उधार लेकर एक प्रश्न पूछूँ, तो आपके वे कुछ सामान किसके लिए हैं? किसकी ख़ातिर भीगे से खत लिखे गए हैं? और उनसे लिपटी कितनी रातें हैं, जो आपके पास लौटने के लिये बार-बार अपने शायर का चेहरा देखती हैं?
वह कोई एक चेहरा या एक किरदार नहीं होता जिसके लिये शायर कुछ सोचने के लिये मजबूर होता है. एक चेहरे के पीछे पूरी कायनात होती है या आप उसे पूरी कायनात के चेहरे के रूप में देख सकते हैं. अब यदि हम ‘हमने देखी है इन आंखों की महकती खुशबू’ कहें, तो उसमें ही यह लाइन आती है- ‘नूर की बूंद है सदियों से बहा करती है’. आंखों की महकती खुशबू से होते हुए नूर की बूंद तक पहुंचना और उसका सदियों से बहते हुए देखा जाना, यह कैसे संभव हो पाता है? इसका मतलब है कि कविता में कोई भी चीज एक ही चेहरे, किरदार या समय के पीछे नहीं होती, बल्कि उसमें पूरी जिंदगी और पूरे कायनात का चेहरा मिला होता है. तो ये सारे भीगे हुए खत, ढेरों रातें और सावन की बूंदें सभी कुछ पूरे कायनात में फैले हुए ढेरों चेहरों और किरदारों से मुखातिब हैं.

फोटोः त्रिलोचन कालरा
फोटोः त्रिलोचन कालरा

जिस तरह मोमिन के एक शेर पर फिदा होकर गालिब ने अपना पूरा दीवान ही उनको नजर करना चाहा था, ठीक उसी तर्ज पर वह कौन सा ऐसा फिल्म-गीत है, जो आपके वरिष्ठ गीतकार, समवयसी मित्र या नये शायर ने लिखा होगा, जिसके लिए आप अपने गीतों को उसके सजदे में डालना चाहेंगे?
कोई एक नाम नहीं है, बल्कि कई आवाजें हैं. इनमें से शैलेंद्र को मैं सबसे ऊपर रखता हूं, जो हल्के-फुल्के ढंग से यह कहते हुए ‘मेरा जूता है जापानी यह पतलून इंग्लिस्तानी’ के साथ अचानक से यह कह डालता है ‘होंगे राजे राज कुंवर हम बिगड़े दिल शहजादे, हम सिंहासन पर जा बैठें, जब-जब करें इरादे’ तब उसकी सोच की बुलंदी को देखकर आश्चर्य होता है. एक आम आदमी के जज्बे का इतना बड़ा फलसफा हैरानी में डालता है. फिल्मों की आम सिचुएशन में इतने बड़े इरादों की बात कह देने वाला शैलेंद्र है, जो बार-बार आपको पढ़ने और सोचने के लिये मजबूर करता है. आजकल चुनावों का मौसम है और आप देखें कि आम आदमी की जो बात और जद्दोजहद है, उसे पचासों साल पहले किस तरह एक फिल्म गीत में ढालकर शैलेंद्र अवाम तक पहुंचा चुके हैं. दूसरी तरफ साहिर लुधियानवी हैं, जिन्होंने फिल्म माध्यम को नहीं अपनाया, बल्कि फिल्म माध्यम ने ही उनकी शर्तों पर उनको स्वीकार करके अपना बनाया. आप उनके एक गाने का टुकड़ा देखिए- ‘पेड़ों की शाखों पे सोयी-सोयी चांदनी/और थोड़ी देर में थक के लौट जाएगी’. यह देखने वाली बात है कि चांदनी का थकना और लौट जाना किसी भी शायर ने मेरी जानकारी में आज तक नहीं लिखा है. मैं ऐसे बड़े और संजीदा गीतकारों, शायरों का एहतराम करता हूं और आप दीवान की बात कह रहे हैं, मैं तो इन लोगों और इनके गीतों पर अपनी पूरी दीवानगी न्यौछावर करने को तैयार हूं.

कोई कमी, अधूरापन, अभाव, रिक्तता या छूट जाने का भाव बचा है आपके रचनात्मक जीवन में, जिसे पूरा कर लेने की हसरत मन में अभी भी पल रही हो?
मुझे लगता है कि जिंदगी और कला दोनों में ही हासिल किया हुआ कम है और छूट ज्यादा गया है. एक आदमी के जीवन में जो जान लिया गया है, उससे ज्यादा अनजाना रहता है, जो ज्ञान बटोर लिया है उससे कहीं अधिक अज्ञान की बंजर जमीन भी अंदर मौजूद रहती है. यह मैं जरूर कहूंगा कि मुझे मिला बहुत है, मगर उससे ज़्यादा सीखने को भी बाकी रह गया है. अगर यह कहूं कि मैं समझदार हो गया हूं, तो वह गलत होगा अभी बहुत कुछ ऐसा बचा है, जिसे समझना और पाना बाकी है.

कुछ सच्चे बारू और कुछ विरोधी भी

फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय
फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय

अगर मनमोहन सिंह राजनेता और उसपर भी महत्वाकांक्षी दिखने वाले होते तो वे न तो प्रधानमंत्री बनते और न ही शायद पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में वित्तमंत्री बनते. 2004 में अगर उन्हें मनोनीत किया गया (वे अंत तक मनोनीत प्रधानमंत्री ही रहे और कभी लोकसभा का चुनाव तक नहीं लड़ा) तो इसकी वजह उनका भारतीय राजनीतिज्ञों के किसी भी खांचे में फिट नहीं होना ही था. अब संजय बारू अपनी किताब के जरिये उन्हीं मनमोहन सिंह को राजनेता बनाने पर तुले हुए हैं. वे यह बताना चाहते हैं कि मनमोहन सिंह ने तो तमाम ऐसे काम किए जो एक योग्य प्रधानमंत्री को करने चाहिए लेकिन यदि किसी को उनके बारे में पता नहीं है तो इसलिए कि उन्होंने अपने इन कृत्यों को कभी प्रचारित नहीं किया. उनकी किताब से यह बात भी निकलती है कि ऐसा उन्होंने नेहरू-गांधी परिवार को श्रेय देने की वजह से नहीं किया.

बारू ने अपनी किताब में यह भी कहा है कि प्रधानमंत्री के रूप में वे ऐसे कई काम नहीं कर सके जिन्हें करना चाहते थे. लेकिन अगर वे, उन्होंने जो किया उससे अलग या बड़ा करने के इतने ही काबिल थे तो उनमें ऐसे कामों को करने के रास्ते निकालने की काबिलियत भी होनी चाहिए थी. और अपने कृत्यों का श्रेय खुद लेने और अपनी विफलताओं के सही कारणों को दुनिया के सामने लाने की हिम्मत भी.

सोनिया गांधी ने जब 2004 में लोकसभा चुनाव की सफलता के बाद प्रधानमंत्री का पद ठुकराया था तो क्षुद्र से क्षुद्र स्वार्थों के लिए मरने-मिटाने वाली राजनीति के बीच कई लोगों ने इसे उनका अद्भुत त्याग माना. इस कथित त्याग ने उन्हें तब के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी के भी ऊपर स्थापित कर दिया. हालांकि सच यही था कि वे प्रधानमंत्री इसलिए नहीं बनी क्योंकि बन नहीं सकती थीं. जिस तरह का अभियान भाजपा, संघ और उनके खुद के पूर्व सहयोगियों ने उस वक्त विदेशी मूल के मुद्दे पर चला रखा था उसके चलते उनका प्रधानमंत्री बनना असंभव था. ऊपर से 90 के दशक की तरह के गठबंधन वाली संप्रग-1 सरकार पर भी शायद वे उतना भरोसा नहीं कर पा रही थीं. उन्होंने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवा दिया.

कोई अनाड़ी भी बता सकता है कि उस वक्त मनमोहन सिंह से ज्यादा अनुभवी और योग्य कई लोग कांग्रेस में थे जिन्हें प्रधानमंत्री बनाना ज्यादा उपयुक्त होता. लेकिन वे तिकड़मी भी थे. और इसीलिए शायद राजनेता भी. तो मनमोहन सिंह खुद में कुछ खासियतें न होने की वजह से प्रधानमंत्री बने थे उसके लिए जरूरी गुणों के होने की वजह से नहीं. उनकी सबसे बड़ी खासियत ही यही थी कि वे बिना किसी तीन-पांच के जैसा कहो वैसा करने वाले का सा आभास देते थे. यानी कि उनके नाम पर खुद की सत्ता चलाई जा सकती थी. वे सत्ता साधने का सहारा बने, सत्ता त्यागने का नहीं.

अगर सत्ता त्यागने और पार्टी का भला चाहने की ऐसी ही निष्काम प्रवृत्ति सोनिया गांधी में थी जैसे कांग्रेसी बताते हैं तो वह उस समय क्यों नहीं दिखी जब 1999 में उनके पुराने सहयोगियों – संगमा, पवार और तारिक अनवर आदि – ने पार्टी के भीतर विदेशी मूल का मुद्दा उठाया था. इनका मानना था कि सोनिया गांधी के विदेशी होने के मुद्दे को संघ और विपक्ष जोर-शोर से उठाने वाले हैं इसलिए इस पर पार्टी में बहस हो और इसे भोंथरा करने के लिए विदेशी मूल के व्यक्ति को सर्वोच्च पद पर बैठने से रोकने वाला संविधान संशोधन लाने की बात पार्टी के घोषणापत्र में शामिल की जाए. इन नेताओं का यह भी मानना था कि सोनिया खुद इस संशोधन को संसद में पारित करवाने की पहल करें.

लेकिन सोनिया गांधी ने इस पर बहस कराना तो दूर अध्यक्ष पद से अपना इस्तीफा देकर ऐसी स्थितियां पैदा कर दीं कि समूची पार्टी ने न केवल उनके कदमों में झुककर उन्हें अपना इस्तीफा वापस लेने के लिए ‘मजबूर’ किया बल्कि विरोध का झंडा उठाने वालों को बाहर का रास्ता भी दिखा दिया.

तो फिर बारू की किताब के मुताबिक मनमोहन और सोनिया ने जो किया उसमें आश्चर्य कैसा? सोनिया ने वही किया जिसकी उनसे उम्मीद होनी चाहिए थी और मनमोहन सिंह ने भी वही किया जिसकी सोनिया गांधी को उनसे उम्मीद होनी चाहिए थी. नहीं तो वे अपने दो-दो कार्यकाल पूरे ही कैसे कर सकते थे.

रही बात बारू की किताब का विरोध करने वालों की तो उनके विरोध में भी कुछ सच्चाई तो है ही. उनकी किताब आने के समय पर उंगली उठाई जा रही है. कहा जा रहा है कि ऐसा उन्होंने किताब को चर्चा में लाने और व्यावसायिक फायदे के लिए किया. बारू अगर इस बात से इनकार करते हैं तो वह सच नहीं होगा. वे एक बेहद पढ़े-लिखे वरिष्ठ पत्रकार हैं जो यह तो समझते ही होंगे मनमोहन की विरासत का मूल्यांकन तो दो महीने बाद भी हो सकता है लेकिन एक चुके हुए ‘राजनेता’ और (शायद) हारी हुई सोनिया के बारे में पढ़ने में ज्यादा लोगों की दिलचस्पी नहीं होगी.

किताब के जवाब में यह भी कहा जा रहा है कि संजय बारू की प्रधानमंत्री कार्यालय में वह हैसियत और प्रधानमंत्री तक वैसी पहुंच नहीं थी कि वे इतनी और ऐसी बातें लिख सकें जितनी और जैसी उन्होंने लिखी हैं. बात सही है. वे प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव तो थे नहीं कि देश से जुड़ी गोपनीय जानकारियों और प्रधानमंत्री के निजी क्षणों तक भी उनकी पहुंच हो. लेकिन वे प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार और मुख्य प्रवक्ता होने के साथ-साथ एक बेहद वरिष्ठ पत्रकार भी तो थे जिसके लिए अपने आसपास की घटनाओं के बारे में जानना और ठीकठाक अंदाजा लगाना उतना मुश्किल भी नहीं रहा होगा.

लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि उनकी किताब में लिखी कुछ बातों की तीव्रता सुविधानुसार थोड़ी कम या ज्यादा भी हो सकती है. यदि वे व्यावसायिक मकसद से किताब को ऐन चुनाव के बीच बाजार में ला सकते हैं तो इसी मकसद से उसे थोड़ा-बहुत रंगीन भी बना ही सकते हैं. यदि वे ऐसा नहीं कर सकते तो आज की राजनीति में प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार और प्रवक्ता भी नहीं हो सकते.

‘राजनीतिक पार्टी बनाने का विचार अन्ना जी का था लेकिन बाद में वे ही पीछे हट गए’

फोटोः तरुण सहरावत
फोटोः तरुण सहरावत

बमुश्किल साढ़े पांच फुट कद वाले अरविंद केजरीवाल से मिलना कहीं से भी संकेत नहीं देता कि यही शख्स बीते दो सालों में कई बार कई-कई दिनों के लिए ताकतवर भारतीय राजव्यवस्था की आंखों की नींद उड़ा चुका है. जब तक अरविंद किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर बात न करें , उनके साधारण चेहरे-पहनावे और तौर-तरीकों को देखकर विश्वास ही नहीं होता कि वे कभी इन्कम टैक्स कमिश्नर थे, देश में आरटीआई कानून लाने में उनकी एक महत्वपूर्ण भूमिका थी. पिछले साल देश के एक-एक व्यक्ति की जुबान पर उनका नाम था और यही व्यक्ति देश को एक वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था देने के सपने खुद भी देखता है और औरों को भी दिखाता है. अरविंद की घिसी मोहरी वाली पैंट, साइज से थोड़ी ढीली शर्ट और साधारण फ्लोटर सैंडलें उस आम आदमी की याद दिलाती हैं जो हमारे गांव- कस्बों और गली-कूचों में प्रचुरता में मौजूद है.

अरविंद से बातचीत करना भी उतनी ही सहजता का अहसास कराता है. अर्थ और कानून जैसे जटिल विषय को जिस सरलता से वे आम आदमी को समझाते हैं उससे उनके असाधारण हुनर का कुछ अंदाजा मिलता है. उनके हर आह्वान पर जब सैकड़ों युवा गुरिल्ला शैली में केंद्रीय दिल्ली की सड़कों पर निकल पड़ते है तब उनकी जबरदस्त संगठन क्षमता का भी दर्शन होता है. उनके साथ थोड़ा अधिक समय बिताने पर एक ऐसा व्यक्तित्व उभरता है जिसकी देशभक्ति और ईमानदारी तमाम संदेहों से परे हो.

लेकिन उन पर ये आरोप भी लगते रहे हैं कि उन्होंने अन्ना का इस्तेमाल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को साकार करने के लिए किया. हालांकि अरविंद अपने राजनीतिक जुड़ाव को आंदोलन की तार्किक परिणति मानते हैं, मगर उनके और उनके इस कदम के विरोधियों का मानना है कि उनकी तो शुरुआत से ही यही मंशा थी. अरविंद सवाल करते हैं कि यही लोग पहले हमें संघ और भाजपा का मुखौटा कहते थे और अब राजनीतिक महत्वाकांक्षी कह रहे हैं. तो वे लोग पहले यह तय कर लें कि वे किस बात पर कायम रहना चाहते हैं.

एक समाजसेवी के रूप में अन्ना की प्रतिष्ठा ज्यादातर महाराष्ट्र तक ही सीमित थी. आज अगर अन्ना देश के घर-घर में पहुंचे हैं तो इसके पीछे अरविंद केजरीवाल की भूमिका बहुत बड़ी रही है. आज अन्ना और अरविंद के रास्ते अलग हो चुके हैं. अन्ना ने खुद को राजनीति से दूर रखने और साथ ही अपना नाम और फोटो राजनीति के लिए इस्तेमाल नहीं करने देने के संकल्प का एलान कर दिया है. इतने बड़े झटके के बाद भी तहलका से हुई पहली विस्तृत बातचीत में अरविंद के उत्साह में किसी भी कमी के दर्शन नहीं होते, न ही लक्ष्य के प्रति उनके समर्पण में कोई कमी समझ में आती है. अन्ना के साथ रिश्तों की ऊंच-नीच, उन पर लग रहे विभिन्न आरोपों, राजनीतिक पार्टी और उसके भविष्य पर अरविंद केजरीवाल के साथ बातचीत.

राजनीतिक पार्टी ही आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए क्यों जरूरी है?
हम लोगों के पास चारा ही क्या बचा था. सब कुछ करके देख लिया, हाथ जोड़कर देख लिया, गिड़गिड़ाकर देख लिया, धरने करके देख लिया, अनशन करके देख लिया, खुद को भूखा मारकर देख लिया. दूसरी बात है कि देश जिस दौर से गुजर रहा है उसमें हम क्या कर सकते हैं. कोयला बेच दिया, लोहा बेच दिया, पूरा गोवा आयरन ओर से खाली हो गया, बेल्लारी खाली हो गया. उड़ीसा में खदानों की खुलेआम चोरी चल रही है. महंगाई की कोई सीमा नहीं है, इस देश में डीजल-पेट्रोल की कीमतें आसमान पर हैं. कहने का अर्थ है कि हमारे पास कोई विकल्प ही नहीं बचा है. व्यवस्था में परिवर्तन लाए बिना यहां कोई बदलाव ला पाना संभव नहीं है.

पर कहा यह जा रहा है कि आपने जुलाई से काफी पहले ही पार्टी बनाने का मन बना लिया था. जुलाई का अनशन जिसमें आप भी भूख हड़ताल पर बैठे थे- एक तरह से स्टेज मैनेज्ड था. आप घोषणा करने से पहले जनता को इकट्ठा करना चाहते थे.
किसने आपसे कहा कि हमने पहले ही राजनीतिक पार्टी बनाने का फैसला कर लिया था?

टीम के ही कई लोगों का यह कहना है. बाद में आपसे अलग हो गए लोग भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि जनवरी में पालमपुर में हुई आईएसी की वर्कशॉप में ही चुनावी राजनीति में उतरने का फैसला कर लिया गया था.
ये सब झूठ है. पालमपुर की वर्कशॉप जनवरी में नहीं बल्कि मार्च में हुई थी. ये सच है कि 29 जनवरी को पहली बार पार्टी बनाने और चुनाव लड़ने का विषय हमारी बैठक में सामने आया था. इसके चर्चा में आने की वजह यह थी कि उसी समय पुण्य प्रसून वाजपेयी अन्ना से मिले थे. अन्ना उस समय अस्पताल में भर्ती थे. अस्पताल में ही दोनों के बीच दो घंटे लंबी बातचीत चली थी. मैं उस मीटिंग में नहीं था. पुण्य प्रसून ने ही अन्ना को इस बात के लिए राजी किया था कि यह आंदोलन सड़क के जरिए जितनी सफलता हासिल कर सकता था उतनी इसने कर ली है. अब इसे जिंदा रखने के लिए इसे राजनीतिक रूप देना ही पड़ेगा वरना यह आंदोलन यहीं खत्म हो जाएगा. अन्ना को प्रसून की बात पसंद आई थी. मीटिंग के बाद उन्होंने मुझे बुलाया. उन्होंने मुझसे कहा कि प्रसून जो कह रहे हैं वह बात ठीक लगती है. बल्कि हम दोनों ने तो मिलकर पार्टी का नाम भी सोच लिया है – भ्रष्टाचार मुक्त भारत, पार्टी का नाम होगा. फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि तुम्हें क्या लगता है. मेरे लिए यह थोड़ा-सा चौंकाने वाली बात थी. मैं तुरंत कोई फैसला नहीं कर पाया. तो मैंने अन्ना से कहा कि मुझे थोड़ा समय दीजिए. मैं सोचकर बताऊंगा. दो-तीन दिन तक सोचने के बाद मैंने अन्ना से कहा कि आप जो कह रहे हैं मेरे ख्याल से वह ठीक है. हमें चुनावी राजनीति के बारे में सोचना चाहिए. उसी समय पहली बार इसकी चर्चा हुई. उसके बाद अन्ना तमाम लोगों से मिले और उन्होंने इस संबंध में उन लोगों से विचार-विमर्श भी किया. तो राजनीतिक विकल्प की चर्चा तो चल ही रही थी लेकिन जो लोग यह कह रहे हैं कि पहले से फैसला कर लिया गया था और हमारा अनशन मैच फिक्सिंग था वह गलत बात है. अगर यह मैच फिक्सिंग होती तो इसे दस दिन तक खींचने की क्या जरूरत थी. मैं तो शुगर का मरीज था. मेरे पास तो अच्छा बहाना था. दो दिन बाद ही मैं डॉक्टरों से मिलकर अनशन खत्म कर देता. दो दिन बाद मैं एक नाटक कर देता कि मेरी तबीयत खराब हो गई है और मैं अस्पताल में भर्ती हो जाता और हम राजनीतिक पार्टी की घोषणा कर देते.

आप कह रहे हैं कि राजनीतिक दल का प्रस्ताव अन्ना का था. खुद अन्ना ने भी मंच से कई बार यह बात कही थी कि हम राजनीतिक विकल्प पर विचार करेंगे. और अब अन्ना मुकर गए हैं. तो क्या आप इसे इस तरह से देखते हैं कि अन्ना ने धोखा दिया है आपको?
मैं इसे धोखा तो नहीं कहूंगा, लेकिन उनके विचार तो निश्चित तौर पर बदल गए हैं. अब वे क्यूं बदले हैं इसका मेरे पास कोई जवाब नहीं है. देखिए, धोखा कोई नहीं देता. इतने बड़े आदमी हैं अन्ना तो मैं इसे धोखा तो नहीं कहूंगा. पर उनके विचार क्यों बदले हैं इस बात का जवाब मेरे पास नहीं है. 19 तारीख को कंस्टीट्यूशन क्लब में जो बैठक हुई थी उसमें हम सबने यही तो कहा उनसे कि अन्ना आप ही तो सबसे पहले कहते थे कि हम राजनीतिक पार्टी बनाएंगे तो अब यह बदलाव क्यों. उनका जवाब था कि पहले मैं वह कह रहा था अब यह कह रहा हूं. जब पहले मेरी बात मान ली थी तो अब भी मान लो. उनके विचार तो बदल गए हैं इस दौरान.

आप भी हमेशा कहते थे कि जो अन्ना कहेंगे हम वह मान लेंगे. तो अब आप ही उनकी बात क्यों नहीं मान लेते, यह मनमुटाव क्यों?
मैं आपकी बात से सहमत हूं. मैंने कहा था कि अगर अन्ना कहेंगे कि पार्टी मत बनाओ तो मैं मान जाऊंगा. अब मेरे सामने यह धर्म संकट है. मुझे लगता था कि अन्ना पूरा मन बना कर ही राजनीतिक विकल्प की बात कर रहे हैं. और फिर उन्होंने अपना मन बदल दिया. मैं धर्मसंकट में फंस गया हूं. एक तरफ मेरा देश है दूसरी तरफ अन्ना हैं. दोनों में से मैं किसको चुनूं. तो मेरे पास कोई विकल्प नहीं बचा है सिवाय इसमें कूदने के क्योंकि मेरे सामने सवाल है कि भारत बचेगा या नहीं. जिस तरह की लूट यहां मची है संसाधनों की उसे देखते हुए पांच-सात साल बाद कुछ बचेगा भी या नहीं यही डर बना हुआ है.

एक समय था अरविंद जी, जब आप कहते थे कि मैं अन्ना को सिर्फ दफ्तरी सहायता मुहैया करवाता हूं, नेता तो अन्ना ही हैं. फिर आप यह भी कहते रहे कि अन्ना अगर कहेंगे तो मैं राजनीतिक पार्टी नहीं बनाऊंगा. और अब आप अलगाव और राजनीतिक  पार्टी की जिद पर अड़ गए हैं. क्या इससे यह संकेत नहीं मिलता कि यह सिर्फ आपकी महत्वाकांक्षा के चलते हो रहा है?
किस चीज की महत्वाकांक्षा?

सत्ता की महत्वाकांक्षा.
लोग किसलिए राजनीति में जाते हैं. सत्ता से पैसा और पैसा से सत्ता. अगर पैसा ही कमाना होता मुझे तो इनकम टैक्स कमिश्नर की नौकरी क्या बुरी थी मेरे लिए. एक कमिश्नर एक एमपी से तो ज्यादा ही कमा लेता है. अगर सत्ता का ही लोभ होता तो कमिश्नर की नौकरी छोड़ पाना बहुत मुश्किल होता मेरे लिए. आप सोचिए कि सत्ता का मोह होता तो इस तरह की नौकरी छोड़ पाने की मानसिकता मैं कभी बना पाता? कुछ लोगों का कहना है कि आपने तो शुरू से ही राजनीति में आने का तय कर रखा था. ये बड़ी दिलचस्प बात है. 2010 के सितंबर में मैंने जन लोकपाल बिल का मसौदा तैयार किया, फिर मैंने सोचा कि अब मैं इन-इन लोगों को एक साथ लाऊंगा, फिर अन्ना से संपर्क करूंगा, फिर अन्ना चार अप्रैल को अनशन पर बैठेंगे, फिर खूब भीड़ आ जाएगी और फिर संयुक्त मसौदा समिति बनेगी जो बाद में हमें धोखा देगी और फिर उसके बाद अगस्त का आंदोलन होगा जिसमें पूरा देश जाग जाएगा, और फिर संसद तीन प्रस्ताव पारित करेगी, फिर संसद भी धोखा दे देगी, और फिर मैं राजनीतिक पार्टी बना लूंगा. काश कि मैं अगले तीन साल के लिए इतनी रणनीति बना पाऊं.

आप लोगों ने एक सर्वेक्षण की आड़ में राजनीतिक दल की जरूरत स्थापित करने की कोशिश की. पर उस सर्वेक्षण की अहमियत क्या है? न तो उसका कोई वैज्ञानिक आधार है न ही सैंपल का क्राइटेरिया. 80 फीसदी लोगों ने दल का समर्थन किया है. जब तक हम सैंपल, एज ग्रुप, विविध समुदायों की बात नहीं करेंगे तब तक इसकी क्या अहमियत है? किसी खास सैंपल ग्रुप में हो सकता है कि सारे लोग नक्सलियों को सड़क पर खड़ा करके गोली मारने के पक्षधर हों, या फिर समुदाय विशेष को देश से निकाल देने के पक्षधर हों ऐसे में आपका सर्वेक्षण कोई वैज्ञानिक आधार रखता है?
दो चीजें आपके प्रश्न में हैं. एक तो ये कहना कि जो लोग इस आंदोलन से जुड़े थे वे इस मानसिकता के थे या उस मानसिकता के थे. मैं इस बात से सहमत नहीं हूं. ये सारे लोग इसी देश का हिस्सा हैं. इस देश के लोगों को इस तरह से बांटना ठीक नहीं है. दूसरी बात जो आप कह रहे हैं मैं उससे सहमत हूं कि सर्वे इसी तरह से होते हैं. तमाम लोग सर्वे करवाते हैं. हर सर्वे किसी न किसी सैंपल पर आधारित होता है. अब यह आप पर निर्भर है कि आप उसे तवज्जो देना चाहते हैं या नहीं. उस सर्वे के आधार पर आप कोई निर्णय लेना चाहें या न लेना चाहें यह आपके ऊपर निर्भर है. यह तो अन्ना जी ने ही कहा था कि एक बार सर्वे करवा कर जनता का मिजाज जान लेते हैं. देखते हैं वह क्या सोचती है. उनके कहने पर हम लोगों ने सर्वे करवाया. अन्नाजी ने ही कहा था कि इस विधि से सर्वे करवाया जाए. हमने उसी तरीके से सर्वे करवाया. लेकिन उस सर्वे के बावजूद अन्नाजी ने अपना निर्णय इसके खिलाफ दिया. ये यही दिखाता है कि सर्वे आप करवाकर लोगों का मिजाज भांप सकते हैं फिर निर्णय आप अपना ले लीजिए. उस सर्वे ने हमारे निर्णय को प्रभावित किया हो ऐसा मुझे नहीं लगता, लेकिन सर्वे आपको एक मोटी-मोटा आइडिया तो देता है.

ये बात बार-बार आ रही है कि चुनावी विकल्प का इनीशिएटिव अन्ना का था…
इनीशिएटिव अन्ना का था,  लेकिन बाद में वे ही पीछे हट गए.

हम इसको कैसे देखें… 19 तारीख की बैठक के बाद आपकी इस संबंध में फिर से अन्ना से कोई बात हुई?
उसके बाद तो कोई बात नहीं हुई लेकिन उसके पहले मैं लगातार उनके संपर्क में था. लेकिन उनके निर्णय की वजह क्या रही मैं खुद नहीं समझ पा रहा हूं.

दोनो व्यक्ति मिलकर एक-दूसरे को संपूर्ण बनाते थे. अरविंद की संगठन और नेतृत्व क्षमता और अन्ना की भीड़ को खींच लाने की काबिलियत मिलकर दोनों को संपूर्णता प्रदान करती थी. उनके जाने से इस पर कितना असर पड़ा है? इस नुकसान को कैसे भरेंगे?
अन्नाजी के जाने से नुकसान तो हुआ ही है. इस पर कोई दो राय नहीं है.

कोई संभावना शेष बची है अन्ना के आपसे दुबारा जुड़ने की…
बिल्कुल. अन्ना एक देशभक्त व्यक्ति हैं. देश के लिए जो भी अच्छा काम होता है अन्नाजी उसका समर्थन जरूर करेंगे ऐसा मुझे विश्वास है.

हमारी राजनीतिक व्यवस्था में धनबल और बाहुबल का बहुत महत्व रहता है. उससे निपटने का कोई वैकल्पिक तरीका है आपके पास या फिर उन्हीं रास्तों पर चल पड़ेंगे?
नहीं. उसी को तो बदलने के लिए हम राजनीति में जा रहे हैं. आज की जो राजनीति है वही तो सारी समस्या की जड़ है. आज हमारे सरकारी स्कूल ठीक से काम नहीं कर रहे हैं, सरकारी अस्पतालों में दवाइयां नहीं मिलतीं, सिर्फ इसलिए क्योंकि हमारी राजनीति खराब है. बिजली, पानी, सड़कें ये सब इस अक्षम राजनीति की वजह से ही आज तक खराब बनी हुई हैं. यह तो भ्रष्टाचार का अड्डा बन चुकी है. पैसे और बाहुबल का जोर है. उसी को बदलने के लिए हम राजनीति में जा रहे हैं.

तो तरीका क्या है? क्योंकि पैसे के बिना तो इतने बड़े देश में आप राजनीति नहीं कर पाएंगे, यह सच्चाई है.
इधर बीच मुझसे कई ऐसे लोग मिले हैं जिन्होंने कम से कम पैसे में चुनाव जीतकर दिखाया है. उन लोगों से हम उनके तरीकों पर विचार करेंगे और उन्हें अपनाने की कोशिश करेंगे.

जैसे… कौन लोग हैं?
जैसे बिहार के विधायक हैं सोम प्रकाश. उन्होंने सिर्फ सवा लाख रुपये खर्च करके चुनाव जीता था. और यह पैसा भी वहां के स्थानीय लोगों ने ही इकट्ठा किया था. ऐसे कई लोग आजकल मुझसे मिल रहे हैं देश भर से. बाला नाम का एक लड़का है जिसने अमेरिका से वापस आकर जिला परिषद का चुनाव जीता है. उसके पास भी पैसा नहीं था. पर उसने जीतकर दिखाया है. ये लोग हमसे जुड़ भी रहे हैं.

तो उम्मीदवारों के चयन की क्या प्रक्रिया होगी? इसी तरह के लोग जुटाए जाएंगे?
हम लोग कई सारे मॉडलों का अध्ययन कर रहे हैं. बहुत सारे सुझाव लोगों की तरफ से भी आए हैं. यह कोई पार्टी नहीं है, यह इस देश के लोगों का सपना है. हमने लोगों से पूछा कि इसका नाम क्या होना चाहिए, उम्मीदवार चयन की प्रक्रिया क्या होनी चाहिए, पार्टी का एजेंडा क्या होना चाहिए आदि. बीस हजार लोगों ने हमें चिट्ठियां भेजी हैं. भारत सरकार ने जब जन लोकपाल बिल पर लोगों से सुझाव मांगे थे तब तेरह हजार सुझाव आए थे. तब सरकार ने अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन भी दिए थे. हमारे पास कोई विज्ञापन मशीनरी नहीं है सिर्फ जुबानी आह्वान पर बीस हजार से ज्यादा सुझाव लोगों के आ गए. ये दिखाता है कि जनता के भीतर इसको लेकर कितना उत्साह है. इन सभी सुझावों को संकलित करके हमने कुछ ड्राफ्ट तैयार किए हैं. दो अक्टूबर को हम यह पहला ड्राफ्ट जनता के सामने रखेंगे. यह एक तरह से पहला ड्राफ्ट होगा जिसे फाइन ट्यून किया जाएगा लोगों के सुझाव के आधार पर.

बार-बार ड्राफ्टिंग-रीड्राफ्टिंग से जनता का उत्साह कम नहीं हो जाएगा? यह हमने जन लोकपाल की ड्राफ्टिंग के समय भी देखा.
जनता तो इसमें इंटरेस्ट ले रही है. जितनी बार हम उनसे राय मांगते हैं, लोग बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं. जनता तो नीतियों के बनाने में हिस्सेदारी चाहती है.

पार्टियों के साथ हमने देखा है कि जब चुनाव सिर पर आते हैं तब वे सभी विचारधारा को त्याग कर जाति-धर्म और समीकरणों के आधार पर उम्मीदवार चुनती हैं. ये समस्या आपके सामने भी आएगी. तो इससे निपटने का क्या तरीका होगा आपके पास?
देखिए, जब जन चेतना जागती है तब बहुत सी दीवारें टूटती हैं. जैसे पिछली बार जब अगस्त का आंदोलन चल रहा था तब मुझसे दिल्ली पुलिस का एक कांस्टेबल मिला. उसने मुझे बताया कि मैं पिछले 16 साल से रिश्वत ले रहा था लेकिन पिछले दस दिन से मैंने रिश्वत नहीं ली है. जितने आनंद का अनुभव मैंने इन दस दिनों में किया है वह पहले कभी नहीं किया था. उसके भीतर से ही चेतना जागी. गुड़गांव में एक अल्टो गाड़ी डेढ़ साल पहले चोरी हो गई थी. उस पर अन्ना का स्टीकर चिपका हुआ था. इस बार जुलाई में जब हम अनशन कर रहे थे तब उस व्यक्ति ने कार एक थाने के पास ले जाकर छोड़ दी.कार पर एक चिट लगी थी कि अन्ना की गाड़ी अन्ना को मुबारक. जब जन चेतना जागती है तब यह धर्म-जाति की सारी दीवारें तोड़ देती है. मुझे विश्वास है कि भारत में वह समय आ गया है. ये वर्जनाएं धीरे-धीरे टूटेंगी.

चुनाव से पहले या बाद में किसी पार्टी से गठबंधन करेंगे?
कभी नहीं.

किरण बेदी को लेकर सवाल उठ रहे हैं. शुरुआत से ही वे साथ रही हैं. अब लग रहा है कि वे दुविधा में हैं. अन्ना के साथ भी दिखना चाहती हैं और आईएसी के साथ भी.
उनकी क्या योजनाएं है ये तो उनसे ही पूछना पड़ेगा. इस बारे में वही बता पाएंगी. उनके मन की दुविधा को मैं नहीं समझ सकता हूं.

दुविधा में हैं वो…
निश्चित तौर पर दुविधा में तो हैं. पर उनके प्रश्न आप उन्हीं से पूछें.

आप लोग लंबे समय से साथ रहे हैं, बातचीत के स्तर पर, कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी के स्तर पर आप उन्हें किस दशा में पाते हैं. कुछ तो संकेत मिल रहा होगा..
मैं कैसे बताऊं उनके मन की बात.

तो मैं ये मान लूं कि पहले वाली गरमाहट रिश्तों में नहीं रही?
यह बात तो साफ ही है कि वे राजनीतिक विकल्प के साथ नहीं जुड़ना चाहती. उनके अपने कारण हैं उसके लिए. मैं क्या कहूं.

किरण और अन्ना के अलावा सारे लोग आपकी राय से सहमत हैं…
सारे लोग.

शिवेंद्र सिंह चौहान (जिन्होंने फेसबुक पर पहली बार इंडिया अगेंस्ट करप्शन का पन्ना तैयार किया था) आंदोलन के शुरुआती लोगों में से थे. उनसे आपकी किस बात को लेकर तनातनी हो गई?
मुझे कोई आइडिया नहीं है कि शिवेंद्र क्यों नाराज हैं.

आपने उन्हें मनाने की कोशिश की…
मैंने कई बार कोशिश की.

कोई नाम सोचा है आपने अपनी पार्टी का?
अभी तो कोई नहीं.

अगली गतिविधि क्या होगी?
दो अक्टूबर से पहले 29 सितंबर को एक बार दिल्ली के सारे वॉलेंटियर्स की एक बैठक होगी. यह छोटी सी बैठक है.

जब आप राजनीति में उतरेंगे तो सिर्फ भ्रष्टाचार पर तो राजनीति नहीं होगी. तब आपको कश्मीर से लेकर नक्सलवाद और अयोध्या विवाद जैसे मुद्दों पर एक स्पष्ट राय रखनी पड़ेगी. जो लोग आपका राजनीति में उतरने का समर्थन करते हैं, वही लोग प्रशांत जी के कश्मीर पर विचार का विरोध करते हैं. इनसे कैसे निपटेंगे?
सारे लोग मिलकर बातचीत के जरिए यह बात तय करेंगे. चार लोग बैठकर पूरे देश की नीति तय कर देते हैं. ऐसे ही तो यहां राजनीतिक पार्टियां काम करती हैं. हम सबके साथ बैठकर बात करेंगे कि आखिर देश क्या चाहता है. हम एक ऐसा मंच तैयार करना चाहते हैं जहां सारे लोग बैठकर आपस में मुद्दे सुलझा सकें. किसी मुद्दे पर अगर समाज दो हिस्सों में बंटा है तो उस पर चर्चा होनी चाहिए.

आप किसी पर भरोसा नहीं करेंगे तो कैसे काम चलेगा और जब हम पर्याय देने की बात करते हैं तब लोग कहते हैं कि महत्वाकांक्षी हो गया है. मेरा सवाल है कि देश को पर्याय कहां से मिलेगा और उम्मीद क्या बची है. जो रवैया है राजनीतिक पार्टियों का उससे यह देश बर्बाद नहीं हो जाएगा कुछ दिनों में?

राजनीतिक विकल्प आ जाने के बाद भी क्या आंदोलन किसी रूप में बचा रहेगा या फिर यह खत्म हो जाएगा?
यह आंदोलन ही रहेगा पार्टी नहीं बनेगा. पहले आंदोलन के पास तीन-चार हथियार थे – अनशन एक हथियार था, धरना एक हथियार था, याचिका दायर करना एक हथियार था. अब उसके अंदर राजनीति एक और हथियार जुड़ गया है. मुख्य मकसद आंदोलन ही है, राजनीति एक अतिरिक्त हथियार के तौर पर जुड़ जाएगी.

 (15 अक्टूबर 2011)

‘‘हमने देसी किसान पार्टी बनाई है, लेकिन हम पक्के भाजपाई हैं…’’

रणवीर सेना के सुप्रीमो रहे ब्रह्मेश्वर सिंह मुखिया के बेटे व उनके उत्तराधिकारी इंदुभूषण सिंह.
रणवीर सेना के सुप्रीमो रहे ब्रह्मेश्वर सिंह मुखिया के बेटे व उनके उत्तराधिकारी इंदुभूषण सिंह.
रणवीर सेना के सुप्रीमो रहे ब्रह्मेश्वर सिंह मुखिया के बेटे व उनके उत्तराधिकारी इंदुभूषण सिंह.
रणवीर सेना के सुप्रीमो रहे ब्रह्मेश्वर सिंह मुखिया के बेटे व उनके उत्तराधिकारी इंदुभूषण सिंह.

आपके पिता की संस्था भारतीय किसान संगठन का मुख्य दायरा तो हमेशा से आरा और भोजपुर का इलाका रहा, फिर आप अचानक पाटलीपुत्र से चुनाव लड़ने क्यों आ गये?
हमने नयी राजनीतिक पार्टी बनायी है, जिसका नाम देसी किसान पार्टी है. हमने 10 मार्च को पार्टी बनायी, 12 मार्च को हमने घोषणा की कि हम बिहार की सभी 40 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे. हम चाहते थे आरा से ही चुनाव लड़ना लेकिन पार्टी के कार्यकर्ताओं व पदाधिकारियों ने तय किया कि पाटलीपुत्र से ही चुनाव लड़ा जाए तो ठीक रहेगा.

लोकसभा चुनाव की घोषणा तो बहुत पहले से थी, आखिर आनन-फानन अंतिम क्षण में राजनीतिक पार्टी बनाकर फिर सिर्फ पाटलीपुत्र से चुनाव लड़ने का? 40 सीटों पर तो आप लड़े नहीं!
राजनीतिक पार्टी बनाने का इरादा पहले से ही था, हां आधिकारिक तौर पर हमने उसे 10 मार्च को मूर्तरूप दिया. और एक बात बता दें कि हम सिर्फ पाटलीपुत्र से चुनाव नहीं लड़ रहे. औरंगाबाद से भी हमारे प्रत्याशी राकेश सिंह मैदान में हैं. बात जहां तक आरा की बजाय पाटलीपुत्र आने की है तो आरा में हमने देखा कि वहां भाजपा अच्छी स्थिति में है, वहां के प्रत्याशी आरके सिंह भी अच्छे हैं. वहां भाजपा की जीत संभव है, इसलिए हमने वहां जाना ठीक नहीं समझा.

पाटलीपुत्र में भी तो आप एक जाति विशेष के भरोसे ही आये होंगे और भाजपा का ही वोट काटेंगे!
नहीं, ऐसा नहीं है. हम यहां लालू प्रसाद के चेलों से लड़ने आये हैं, भाजपा से नहीं. लालू प्रसाद की बेटी चुनाव लड़ रही हैं. उनके दो चेले जदयू से प्रो रंजन यादव और भाजपा से रामकृपाल यादव लड़ रहे हैं. तीनों लालू प्रसाद से ही जुड़े रहे लोग हैं, इसलिए मैं यहां उनसे लड़ने आया हूं. रही बात लोगों के कहने की तो लोग तो बहुत कुछ कह रहे हैं, उनका क्या किया जाए.

यह तो हास्यास्पद बात कर रहे हैं आप. लोग खुलेआम कह रहे हैं कि आपने अंतिम समय में लालू प्रसाद के इशारे पर पार्टी बनायी, पाटलीपुत्र से चुनाव लड़ने का फैसला किया ताकि भाजपा का वोट कटे, उनकी बेटी की जीत सुनिश्चित हो. कुछ तो मोटी रकम लेकर इस सौदे को करने की बात भी कह रहे हैं?
सबसे पहले तो यह बता दें कि हम भाजपा का नुकसान कभी नहीं चाहते. हम लोग तो पक्के भाजपाई हैं. रही बात आरोप लगाने की तो जिसे जो मन में आ रहा है, आरोप लगा रहा है. हमने भी सुना है कि लोग ऐसी बातें कह रहे हैं.

पक्के भाजपाई हैं तो भाजपा ने संपर्क नहीं किया आपसे? और सवाल तो स्वाभाविक तौर पर उठेंगे, क्योंकि आपने अपने गढ़ आरा को छोड़ ही दिया है इस चुनाव में, जबकि आपके पिताजी जेल में रहते हुए भी आरा से ही चुनाव लड़े थे और बेहतर वोट लाए थे.
भाजपा ने हमसे सीधे संपर्क कभी नहीं किया. उनके एक वरिष्ठ नेता ने हमारे लोगों से बात की थी. दूसरी बात यह कि अभी हमारी पार्टी नयी है, हम अभी पहली बार चुनाव लड़ रहे हैं. विधानसभा चुनाव तक पार्टी का विस्तार होगा. लोकसभा चुनाव के पहले पार्टी बनाने का एलान करने पर रिस्पांस बेहतर ही मिला. कई उम्मीदवार हमारी पार्टी से लड़ने को तैयार हुए. लोकसभा के बाद पार्टी का विस्तार होगा और फिर हम अपनी ताकत का अहसास करायेंगे.

आप अब क्या ताकत दिखायेंगे? आपकी या आपके संगठन की पहचान एक जाति विशेष भूमिहारों से जुड़ी रही है और भूमिहार भाजपा के पाले में जा चुके हैं.
हमारी पार्टी किसी जाति विशेष के लिए नहीं है. हमारे लिए सिर्फ दो ही जाति है. एक भूधारी किसानों की और दूसरी जाति भूमिहीन किसानों की. हम दोनों के मसले को लेकर राजनीति करेंगे. मजदूरों को रोजाना पांच सौ रुपये मेहनाताना मिले, इसकी कोशिश करेंगे. किसानों के संबंध में अपने पिताजी के बनाये सिद्धांतों पर चलेंगे.

पिताजी के सिद्धांतों पर चलेंगे तो रणवीर सेना की छाया भी आप पर रहेगी. नरसंहारों का एक लंबा इतिहास भी साथ रहेगा. उस पहचान के साथ चुनाव लड़ेंगे?
मैं विशुद्ध रूप से राजनीति करने आया हूं. मेरा उन घटनाओं से कोई लेना-देना न था, न है. आप देसी किसान पार्टी बनाकर चुनाव लड़ रहे हैं और अभी भी भोजपुर समेत कई इलाकों में रणवीर सेना के नाम का इस्तेमाल कर बहुत कुछ हो रहा है. हां हमें भी सूचनाएं हैं लेकिन हम तो कभी उससे संबद्ध थे ही नहीं. लेकिन एक और बात है. रही बात किसी घटना की तो वह परिस्थितियों से उभरती है. सरकार को भी इस पर अपना रवैया और नजरिया साफ रखना होगा. एक मामले में आप सुप्रीम कोर्ट तक जायेंगे, दूसरे में चुप्पी साधे रहेंगे तो इसका भी असर पड़ता है.

‘उस कर्फ्यू ने मुझे हमेशा के लिए बदल दिया’

मनीषा यादव
मनीषा यादव
मनीषा यादव

चुनाव का मौसम है और तमाम राजनीतिक दल जीत के लिए हर हथकंडा अपनाने को बेकरार नजर आ रहे हैं. यह बहस भी जोरों पर है कि कौन सांप्रदायिक है, कौन नहीं. बात दंगों तक भी पहुंच रही है. हालांकि व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए ये बातें बार-बार एक सांप्रदायिक तनाव की उस स्मृति को ताजा कर रही हैं जो शायद मेरे जीवन की सबसे डरावनी यादों में शामिल है.

अयोध्या में वर्ष 1992 में घटी घटनाएं ऐसी रही हैं जिन्होंने मेरी मानसिकता को बहुत गहरे तक प्रभावित किया. कुछ रिश्ते रातों रात बदल गए लेकिन इसके बावजूद मैंने वह सब एक बाहरी के तौर पर ही महसूस किया था. लेकिन जुलाई, 2008 में इंदौर में कर्फ्यू के बीच बिताए चंद दिनों ने तो मेरी जिंदगी को हमेशा के लिए बदल दिया. उस दिन के बाद मैं वह रश्मि नहीं रह गई नही. सांप्रदायिक तनाव और हिंसा तथा कर्फ्यू की खबरें मेरे लिए उतनी सहज नहीं रह गईं जितनी सहजता से उनको आम पाठक पढ़ते हैं.

जुलाई के पहले सप्ताह की बात है. मैं भोपाल में अपनी मां का जन्मदिन मनाकर इंदौर पहु्ंची थी. ठीक उसी दिन मेरे पति भी मुंबई से इंदौर आए. उन्हें वहां नौकरी के लिए एक साक्षात्कार देना था. हम तकरीबन एक साथ इंदौर पहुंचे. हम जहां उतरे वहां से हमारा घर कुछ दूर था और हमने तय किया कि घर चलने से पहले पास ही रहने वाले एक दोस्त के यहां एक-एक प्याला चाय पीते हैं. हम दोस्त के यहां पहुंचे, दुआ-सलाम के बाद चाय और चर्चा का दौर शुरू ही हुआ था कि एक फोन आया. फोन हमारी खैरियत जानने के लिए था क्योंकि इंदौर के जिस इलाके में हमारा घर था वहां सांप्रदायिक तनाव फैलने के बाद कर्फ्यू लगा दिया गया था. हम सकते में थे क्योंकि वह हमारा अपना शहर था. धीरे-धीरे कर्फ्यू ने शहर भर को अपनी चपेट में ले लिया. हम जहां अपने दोस्त के घर कुछ घंटे बिताने की सोच कर आए थे, वहीं हमें चार दिन तक वहां रुकना पड़ा.

मेरे मन में सबसे पहला ख्याल अपनी एक पुरानी दोस्त का आया. वह मुस्लिम थी. मैंने तत्काल उसे फोन लगाया. फोन उसके भाई ने उठाया. मैंने अपनी दोस्त से बात करने की इच्छा जाहिर की लेकिन उसके भइया ने बहुत सख्त आवाज में कहा कि वह घर पर नहीं है. साफ जाहिर था कि वे झूठ बोल रहे थे. आखिर कर्फ्यू में वह कहां जा सकती थी. मेरे कुछ कहने से पहले उन्होंने फोन रख दिया. उनकी आवाज का बेगानापन देखकर मेरी हिम्मत न हुई दोबारा फोन करने की. यह तो महज आगाज था. अपने ही शहर से यह एक नए किस्म की पहचान थी. जहां कई नजदीकी दोस्तों से अब बस रस्मी बातचीत ही बचनी थी. कुछ फितूरी लोगों की हरकतों ने हमारी पहचानों को बचपन की पुरानी यादों से समेटकर बस हिंदू और मुस्लिम में सीमित कर दिया था. जब तक कर्फ्यू लगा रहा तब तक हमारी सांसें टंगी रहीं. टेलीविजन और अखबारों में लगातार दिल दहलाने वाली खबरें आती रहीं. ऐसी खबरें जिनको देख-सुनकर इंसानियत पर से यकीन उठ जाए. पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था कि हम कोई बुरी फिल्म देख रहे हैं जो जल्दी ही खत्म हो जाएगी. लेकिन वह फिल्म नहीं थी. लोगों की जिंदगियों, उनकी संपत्ति के साथ खिलवाड़ हो रहा था और हम देखते रहने के लिए बेबस थे. हमारी फिक्र में केवल हमारा घर शामिल नहीं था, आसपड़ोस के लोगों तक की उतनी ही चिंता थी. लगता था पड़ोस वाले शुक्ला जी का क्या हाल होगा? नुक्कड़ पर जो आदिल चाचा लजीज बिरयानी बनाया करते थे, क्या अब भी वे अपनी दुकान खोलते होंगे?

कर्फ्यू खुला, हम अपने घर गए. ताला खोला, सामान रखा और अपनी दोस्त के घर पहुंची. वह घर पर ही थी. मैंने उसका हाथ अपने हाथों में थाम लिया. उससे भाई के साथ फोन पर हुई बात बताई. उसने कहा, ‘रश्मि किस्मत से मैं आज यहां हूं. हो सकता है यहां तुम्हें हमारी जगह सिर्फ एक जला हुआ घर, कुछ राख हो चुकी हड्डियां मिलतीं. तुमको लगता है लगातार मौत के अहसास के बीच कोई सामान्य रह पाएगा.’ मैं आवाक थी. मैं उस एक पल में अल्पसंख्यक होने का दर्द कुछ-कुछ महसूस कर सकी. बहुत मुश्किल है यह कहना कि वे लोग पहले जैसे थे या बदल चुके थे लेकिन अपने बारे में मैं पूरे यकीन के साथ कह सकती हूं कि मैं बदल चुकी थी. वह पुरानी रश्मि कहीं गुम हो चुकी थी. यह एक नई रश्मि थी. जो बात-बात पर चौंकती थी, सामने दिखते शख्स में कोई हिंसक परछाई तलाश करती थी, बिना बात के सहमी रहती थी.

लेखिका गाजियाबाद में रहती हैं और कामकाजी महिला हैं.