भारत सरकार ने कारखाना अधिनियम 1970 में संशोधन कर श्रमिकों के हितों के लिए विशेष प्रावधान किए हैं. इनके मुताबिक किसी भी कंपनी को ठेका श्रमिकों का रिकॉर्ड रखना अनिवार्य होता है. जिस प्रारूप में श्रमिकों का रिकॉर्ड रखा जाता है उस प्रारूप को फॉर्म-14 कहा जाता है. देश के सबसे बड़े एल्युमिनियम प्लांट कहे जाने वाले कोरबा स्थित भारत एल्युमिनियम कंपनी (बाल्को) में कारखाना अधिनियम के इसी प्रावधान का उल्लंघन हो रहा है. बालको के श्रमिकों का आरोप है कि उनका फॉर्म- 14 नहीं भरा जा रहा है. जबकि नियमानुसार बगैर इस फॉर्म को भरे कंपनी प्रबंधन श्रमिकों को परिसर में प्रवेश नहीं दे सकती. श्रमिकों का यह भी कहना है ऐसा करके उन्हें उनके हक से वंचित किया जा रहा है. छत्तीसगढ़ संविदा एवं ग्रामीण मजदूर संघ (इंटक) के महासचिव संतोष सिंह का आरोप है, ‘ हमारी मांग केवल इतनी है कि हमें हमारा फॉर्म-14 दिखाया जाए. लेकिन जब प्रबंधन ने उसे भरा ही नहीं तो हमें दिखाएगा कहां से. ऐसे में कोई दुर्घटना होती है तो हमें इसका मुआवजा नहीं मिल सकेगा.’
अपने अधिकारों को लेकर संगठन ने 19 अप्रैल को प्रबंधन को पत्र लिखा था और चेतावनी दी थी कि यदि सात दिनों के अंदर उनकी मांगें पूरी नहीं हुईं तो श्रमिक हड़ताल पर चले जाएंगे. इसके बाद भी कंपनी प्रबंधन के कान पर जूं तक नहीं रेंगी. इसके बाद श्रमिक 25 तारीख से हड़ताल पर चले गए. बाल्को में प्रतिदिन पहली पाली में लगभग पांच हजार श्रमिक कार्य पर पहुंचते थे, लेकिन उन्होंने इस तारीख के बाद काम पर आना बंद कर दिया. इसके साथ ही अन्य पालियों के श्रमिक भी काम पर नहीं आ रहे हैं.
वैसे कंपनी द्वारा फॉर्म-14 न भरे जाने से जुड़ी श्रमिकों की आशंकाएं अकारण नहीं हैं. दरअसल आज से ठीक साढ़े चार साल पहले सितंबर, 2009 बाल्को परिसर में एक निर्माणाधीन चिमनी भरभरा कर गिर गई थी. 240 मीटर ऊंची इस चिमनी के गिरने से 40 श्रमिकों की मौत हुई थी. उस समय बाल्को प्रबंधन पर आरोप लगा था कि हादसे में कहीं ज्यादा श्रमिकों की मौत हुई है लेकिन कंपनी में इन ठेका मजदूरों की कोई वैध पंजीयन की व्यवस्था न होने की वजह से बाकी लोगों को मुआवजा नहीं मिल पाया.
तहलका ने ताजा हड़ताल के बारे में बाल्को के सीईओ रमेश नायर से बात करने की कोशिश की तो उनका कहना था कि उन्हें इस बारे में कुछ जानकारी नहीं है. वहीं कंपनी के जनसंपर्क अधिकारी विनोद श्रीवास्तव को फॉर्म-14 न भरवाने के प्रबंधन के फैसले में कुछ भी गड़बड़ी नहीं दिखती. वे कहते हैं, ‘ छत्तीसगढ़ के किसी भी संस्थान में फॉर्म-14 नहीं भरवाया जाता इसलिए हम भी यह नहीं भरवाते. ‘ बालको कारखाना अधिनियम के इस नियम का उल्लंघन कर न सिर्फ श्रमिकों के साथ अन्याय कर रही है बल्कि वह कानून की नजर में अवैध गतिविधियों में भी शामिल है. कोरबा के सहायक श्रम आयुक्त सत्यप्रकाश वर्मा कहते हैं, ‘ कोई भी कंपनी ऐसा करती है तो यह कारखाना अधिनियम की धारा 92 के तहत दंडनीय अपराध है.
साथ-साथ कुछ समय पहले एक आयोजन में संघ के मुरिया मोहन भागवत और भाजपा नेता सुशील मोदी
बिहार के कटिहार में संघ के एक पुराने और समर्पित कार्यकर्ता रहते हैं. विश्व हिंदू परिषद के लिए नित्य और निरंतर काम करते हैं. हमारी उनसे बात होती है. हम पूछते हैं कि इस बार चुनाव में तो वे खुल्लमखुल्ला राजनीति के खेल में लगे रहे. वे पक्के संघी होते हुए भी चतुर-चालाक नहीं हो सके हैं, सो सहज और सरल तरीके से बताते हैं. कहते हैं कि इस बार या तो नरेंद्र मोदी चुनाव लड़ रहे हैं या संघ परिवार लड़ रहा है. भाजपा चुनाव लड़ती तो यह माहौल नहीं बनता. वे कहते हैं, ‘जानते हैं, इतने दिनों से हम लोग चुनाव लड़वा रहे हैं, लेकिन इस बार पहली बार भाजपा ने संघ के स्वयंसेवकों व कार्यकर्ताओं के लिए भी चारचकिया वाहन का इंतजाम करवाया और हमलोग उसी गाड़ी से प्रचार काम करते रहे. नहीं तो पहले तो हम लोगों को वह महत्व ही नहीं मिलता था. एक गाड़ी पर सवार हमलोग का मतलब हुआ- संघ का एक स्वयंसेवक, विश्व हिंदू परिषद और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का एक-एक कार्यकर्ता और कहीं-कहीं एक भाजपाई भी.’
कटिहार वाले संघ के ये कार्यकर्ता जब पहली बार चुनाव में खुद को और खुद के साथियों को विशेष महत्व देने की बात बताते हैं तो ऐसी ही बातें कई जगहों से और भी बतायी जाती हैं. झारखंड की राजधानी रांची में एक स्वयंसेवक बताते हैं, ‘अब तक तो चुनावी मौसम में हमलोगों को प्रातः शाखा के बाद घर-घर जाकर मतदाताओं को जागरूक करने का दायित्व दिया जाता था और उसमें परोक्ष तौर पर ही भाजपा की चर्चा करने की बात कही जाती थी. लेकिन इस बार पहली बार संघ ने भाजपा का झंडा थमाकर शाखा आने वाले स्वयंसेवकों को घर-घर भेजा और भाजपा के पक्ष में मतदान करवाने की अपील करवाई.’ रांची वाले संघ के स्वयंसेवक कहते हैं, ‘बहुत कुछ पहली बार हुआ इस बार, कितनी छोटी-छोटी बातें बताएं.’ धनबाद में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक पदाधिकारी कहते हैं, ‘इस बार हमलोगों ने पूरी ऊर्जा ही लगा दी है. छुपछुपाकर खेल खेलने वाला झंझट इस बार नहीं था, इसलिए टेंशन फ्री होकर भाजपा के पक्ष में काम करने का मजा आया.’
फारबिसगंज से लेकर धनबाद तक संघ व उसकी आनुषंगिक इकाइयों के सामान्य कार्यकर्ताओं से बात होती है तो वे खुलकर बताते हैं कि इस बार के चुनाव में उन्होंने खुल्लमखुल्ला मेहनत की और इसके लिए उन्हें विशेष दिशा-निर्देश भी मिलते रहे. लेकिन इसी बात की पुष्टि जब हम संघ और उसके इन संगठनों के पदाधिकारियों से करना चाहते हैं तो वे बस एक लाइन का जवाब देते हैं कि हम तो हर चुनाव में इस मतदाता जागरूकता का काम करते रहे हैं, इस बार भी किया, इसमें खास और नया क्या है? अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, बिहार के संगठन मंत्री निखिल कुमार कहते हैं, ‘संघ का अपना सामाजिक दायित्व है, उसके 55 आनुषंगिक संगठन हैं, वे समाज सेवा का अपना काम अपने तरीके से सालों भर करते हैं. राजनीति में सिर्फ मतदाता जागरूकता अभियान तक हमारा फर्ज होता है, जो देश हित में होता है.’
निखिल कुमार का जवाब वैसा ही होता है, जैसा संघ के किसी पदाधिकारी का होता है लेकिन सच यह नहीं है. सच यह है कि इस बार के चुनाव में संघ के साथ अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, विश्व हिंदू परिषद, भारत विकास परिषद, सहकार भारती, वनवासी कल्याण केंद्र, संस्कार भारती, सेवा भारती, राष्ट्रवादी शैक्षिक संघ, प्रज्ञा प्रवाह, संस्कृत भारती, सीमा जागरण मंच, क्रीड़ा भारती जैसे उसके करीब 55 आनुषंगिक संगठन इस बार बिहार-झारखंड में सक्रिय रहे. संघ के पदाधिकारी भले ही यह कहें कि हम चुनाव में सिर्फ लोक जागरण मंच के जरिये मतदाता जागरण का काम करते हैं, लेकिन जानने वाले जानते हैं कि इस बार लोक जागरण मंच से ज्यादा हिंदू जागरण मंच जैसी संस्था सक्रिय रही.
संघ की भूमिका में बदलाव भी देखने को मिले. बिहार-झारखंड के बंटवारे के पहले संघ परिवार का सबसे ज्यादा ध्यान दक्षिण बिहार यानी वर्तमान झारखंड वाले इलाके में हुआ करता था. उसी इलाके में संघ के विभिन्न संगठनों के बड़े आयोजन भी हुआ करते थे. लेकिन हालिया वर्षों में संघ परिवार की ऊर्जा झारखंड की बजाय बिहार के इलाके में ज्यादा लगी हुई दिखी. विश्व हिंदू परिषद के एक वरिष्ठ पदाधिकारी कहते हैं, ‘हमलोगों को बहुत पहले से ही पता था कि नीतीश भाजपा के साथ लंबे समय तक नहीं चलने वाले हैं, इसलिए बिहार जैसे प्रदेश में हमलोगों ने पहले से ही पूरी तैयारी शुरू कर दी थी और उसी हिसाब से तैयारी भी कर रहे थे.’
संघ के कुछ लोग बताते हैं कि इस बार बिहार-झारखंड जैसे राज्य में चुनाव के वक्त राजनीतिक दर्शन का मार्गदर्शन करने के लिए खुद संघ के तीसरे नंबर के पदाधिकारी कमान संभाले हुए थे. हालांकि आधिकारिक तौर पर इस बात की पुष्टि कोई नहीं करता. बताया जाता है कि उनके ही हस्तक्षेप से सुपौल से राम जन्मभूमि के शिलान्यासकर्ता कामेश्वर चौपाल जैसे संघी स्वयंसेवक को इस बार टिकट आसानी से मिल सका और कई जगहों पर टिकट बंटवारे में गहरा असंतोष होने के बावजूद कहीं विरोध के कोई स्वर नहीं उभरे.
इस बार बिहार में लोकसभा चुनाव में जिस तरह संघ परिवार की सक्रियता दिखी, उससे यह साफ हुआ कि भाजपा की तैयारी भले ही नीतीश कुमार से आधिकारिक तौर पर अलगाव के बाद शुरू हुई हो, लेकिन संघ की तैयारी पुरानी थी, जिसका फलाफल लेने की कोशिश में भाजपा लगी हुई है.
29 और 30 नवंबर 2012 राजधानी पटना के एक प्रतिष्ठित सरकारी अध्ययन व अनुसंधान संस्थान का वह आयोजन संघ परिवार की तैयारियों की ओर संकेत देता है जब संस्कृति के नाम पर हुए एक आयोजन में विश्व हिंदू परिषद के मुखिया अशोक सिंघल, सुब्रहमण्यम स्वामी, उमा भारती समेत कई नेताओं ने पटना पहुंचकर हिंदुत्व के उभार के लिए आग उगली थी और एक तरह से भाजपा के पक्ष में एक माहौल बनाने की कोशिश की थी. यह वह समय था, जब बिहार में मजे से भाजपा और जदूय साथ मिलकर सरकार चला रहे थे और दोनों के बीच अलगाव की कहीं कोई आहट तक नहीं थी. पटना में वह दो दिनी आयोजन संस्कृति को ढाल बनाकर हुआ था. तभी साफ संकेत मिल गए थे कि दक्षिण बिहार में सक्रिय रहने वाली संस्थाएं अब बिहार में सक्रिय हैं और बिहार को हिंदुत्व का नई प्रयोगशाला बनाने की राह पर हैं. संकेत पहले भी मिले थे लेकिन स्पष्टता और अस्पष्टता के बीच के. बेगुसराय के सिमरिया में अर्द्धकुंभ हुआ तो उसे धार्मिक आयोजन की परिधि में बांधा गया था. उस धार्मिक आयोजन में भी प्रवीण तोगडि़या धार्मिक गर्जना की बजाय कुछ और ही बोलकर निकले थे. राष्ट्रीय जनता दल के अब्दुल बारी सिद्दिकी कहते हैं, ‘अचरज जैसी कोई बात नहीं. बिहार में जब से एनडी सरकार बनी थी, तोगडि़या, सिंघल आदि आते रहते थे, अपनी बात बोलते रहते थे. राजगीर में ही संघ ने अपना राष्ट्रीय सम्मेलन भी किया था. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने अपना राष्ट्रीय अधिवेशन भी बिहार में किया था और सूर्य नमस्कार को लेकर विवाद पैदा होने के बावजूद बिहार में डंके की चोट पर बड़े आयोजन हुए थे और नीतीश कुमार कुछ नहीं कर सके थे.’
विश्व हिंदू परिषद के एक वरिष्ठ पदाधिकारी इन सभी सवालों को सामने रखने पर कहते हैं, ‘आप हमारे गणित को इतनी आसानी से नहीं समझ पाएंगे. फोरम फॉर इंटिग्रेटेड नेशनल सिक्यूरिटी या सीमा जागरण मंच जैसे संस्थाओं के बारे में कितना जानते हैं? ये संस्थाएं संघ की छतरी तले चलने वाले संगठन ही हैं और सालों भर सीमा की रक्षा-सुरक्षा के नाम पर अपना काम करते हैं. आप किस-किस के काम को समझिएगा. पांच दर्जन संस्थाएं एक साथ अलग-अलग दिशा में काम करती हैं और सबका मकसद एक होता है. इस बार सभी संस्थाएं अपने-अपने हिसाब से सक्रिय रहीं.’
जाने माने मानवशास्त्री और चार्ल्स डार्विन के परपोते फेलिक्स पैडल को वर्तमान संदर्भों में उपनिवेशवाद का अध्ययन करना था. लेकिन जब उन्होंने ओडिसा के एक गांव को अपना घर बनाया तो उनकी शिक्षा दीक्षा इस इलाके में उपनिवेशवाद के प्रतिरोध की आवाज बन गई
मेक्सिन बर्नसन के लिए मराठी सिर्फ एक भाषा न होकर सामाजिक ऊंच-नीच मिटाने का जरिया है और इस रास्ते पर आगे बढ़ते हुए वे महाराष्ट्र के एक गांव को अपना घर बना चुकी हैं
दिल्ली में रहने वाले जस्टिन मेकार्थी पिछले तीन दशकों से भरतनाट्यम सीख और सिखा रहे हैं. उन्हें पूरी उम्मीद है कि एक दिन यह नृत्य विधा शाष्त्रीय नृत्य के विशिष्ट दर्शकों से निकलकर आम लोगों के बीच भी लोकप्रिय होगी
नई दिल्ली के झुग्गी झोपड़ी वाले इलाके में रहने वाले ज्यां द्रेज के लिए अर्थशास्त्र सिर्फ अकादमिक विषय नहीं है. उन्होंने इसके कल्याणकारी पक्ष को न सिर्फ जमीन पर उतारा बल्कि इसके लिए वे लोगों को लामबंद करने में भी जुटे हैं
ज्यां द्रेज मूल देश बेल्जियम. फोटोः शैलेंद्र पाण्डेय
विगत साल ज्यां द्रेज का एक इंटरव्यू करना था. मनरेगा के मसले पर. उन्हें फोन किया. उनका जवाब था- सवाल मेल के जरिए भेज दो. सवाल भेजे. ज्यां ने एक-एक कर सबके जवाब दिए. तसल्ली से. विस्तार से. साथ ही ज्यां ने यह भी कहा कि किसी भी तरह की दुविधा हो तो कभी-भी पूछ लेना. इस शृंखला के लिए एक बार फिर उनके इंटरव्यू का आग्रह किया. उन्हें फोन मिलाया. पहली बार की तरह ही उन्होंने फिर से सवालों को मेल से भेजने को कहा. दर्जन भर के करीब सवाल भेजे. लेकिन सवाल भेजे जाने के करीब 14 घंटे बाद ज्यां की ओर से जो मेल आया, उसमें किसी भी सवाल का जवाब नहीं था. बस! तीन-चार लाइन में कुछ बातें थीं. उन वाक्यों का सार कुछ इस तरह है- मैं तुम्हें निराश कर रहा हूं, इसके लिए दुखी हूं. फिलहाल फील्ड वर्क के साथ बहुत व्यस्त हूं और तुम्हारे जो सवाल हैं, उनका जवाब इतनी आसानी से और इतनी जल्दबाजी में नहीं दिया जा सकता. और सच कहूं तो मुझे अपने व्यक्तित्व-कृतित्व के बारे में बात करने से ही एलर्जी है. बहुत सारे जरूरी सवाल हैं, मसले हैं, उन पर बात करो, जरूर करूंगा. इस बार माफ करना…!
ज्यां द्रेज की ओर से इस बार कुछ ऐसा ही जवाब आएगा, बहुत हद तक पहले से ही इसका अनुमान था. उन्हें बहुत करीब से जानने वाले उनके परिचितों-मित्रों में से कइयों ने कहा था कि मुश्किल ही है कि ज्यां अपने व्यक्तित्व-कृतित्व के बारे में बातचीत करने को तैयार हों. फिर भी सवाल मांगे हैं तो भेजो, शायद तैयार हो जाएं…!
ऐसा कतई नहीं कि ज्यां द्रेज ने खुद को आत्मप्रचार से दूर रखने का दिखावा करने के लिए यह लिख दिया कि उन्हें अपने बारे में बात करने से एलर्जी है और महत्वपूर्ण मसले पर बात करने को वे हमेशा तैयार हैं. बल्कि यह स्वभावतः उनके व्यवहार का अहम हिस्सा है. पिछले करीब तीन दशक से द्रेज भारत के अलग-अलग हिस्से में, अलग-अलग सवालों को उठाने और फिर उसका जवाब ढूंढने का ही काम कर रहे हैं. ज्यां द्रेज भले अपने व्यक्तित्व-कृतित्व की दुनिया पर बात करने से परहेज करते हैं लेकिन जिन्होंने भी उन्हें एक बार करीब से देखा है, वे उनके बारे में बहुत कुछ जानते हैं, महसूस करते हैं.
ज्यां ऐसे शख्स हैं जो देश और दुनिया का एक बड़ा नाम बन जाने के बाद भी दिल्ली के एक झुग्गी झोपड़ी वाले इलाके में रहते हैं. वहां से साइकिल चलाते हुए उन्हें दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ाने के लिए पहुंचने में कोई संकोच नहीं होता. ऐसे ही झारखंड के पलामू स्थित सुदूरवर्ती गांवों में रहने में भी उन्हें कोई परेशानी नहीं होती. रांची या पटना जैसे शहर में पहुंचने पर वे ठहरने के लिए किसी होटल की तलाश नहीं करते बल्कि किसी साधारण हैसियत वाले मित्र के यहां ही रुकना ज्यादा पसंद करते हैं. रेलवे में रिजर्वेशन नहीं मिलने का ज्यादा टेंशन नहीं पालते, सामान्य श्रेणी के डब्बे में बैठकर भी वे आसानी से लंबी यात्राएं करते रहते हैं. और किसी सभा-समारोह में उन्हें मंच या सभागार में बैठने को कुर्सी नहीं मिलती तो वे आम दर्शकों-श्रोताओं के बीच घंटों खड़े होकर सहभागी बने रहने में जरा भी नहीं हिचकते.
ज्यां के व्यक्तित्व के ऐसे कई पहलू रांची, पटना से लेकर पलामू तक के लोग सुनाते हैं. पटना में रहने वाले महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘ ज्यां अपनी पार्टनर बेला भाटिया के साथ पटना में मेरे घर पर भी रुक चुके हैं और दिल्ली के स्लम वाले उनके घर में मैं गया भी हूं. वे कभी दिखावटी दुनिया में नहीं जीते, बल्कि भारत के हाशिये की जीवन पद्धति को उन्होंने अपनी मूल जीवनशैली बना लिया है. वे एक्टिविस्ट एकेडेमिशियन हैं. कर्मयोगी साधक हैं.’ रांची में रहने वाले उनके एक संगी बलराम कहते हैं, ‘ ज्यां द्रेज जैसा सहज-सरल और प्रपंचों-दिखावों से दूर रहने वाला आदमी दुर्लभतम है.’
ज्यां के बारे में ऐसी कई बातें, कई लोग बताते हैं. यह सब उस ज्यां द्रेज के व्यक्तित्व का हिस्सा है जो बेल्जियम के मशहूर अर्थशास्त्री जैक्वेस एच द्रेज के बेटे हैं. जैक्वेस द्रेज को इकोनॉमिक थ्योरी, इकोनोमेट्रिक्स तथा इकोनॉमिक पॉलिसी में उनकी अहम भूमिका के लिए सिर्फ बेल्जियम ही नहीं, दुनिया भर में जाना जाता है. वे यूरोपियन इकोनॉमिक एसोसिएशन और इकोनॉमिक सोसाइटी जैसी संस्थाओं के अध्यक्ष रह चुके हैं और अर्थशास्त्र पर उनकी कई किताबें दुनिया भर में मशहूर हंै. ऐसे मशहूर और मेधावी पिता की पांच संतानों में से एक हैं ज्यां द्रेज. पिता का प्रोफाइल देखने पर साफ लगता है कि ज्यां का अर्थशात्री बनने में पिता का गहरा प्रभाव और असर रहा होगा लेकिन ज्यां ने अर्थशास्त्री होने के साथ-साथ पहचान की अपनी दूसरी रेखा भी कायम की. इसी वजह से वे आज भारत जैसे विशाल मुल्क में बौद्धिक होने के बावजूद आम जनों के बीच चेहरे से भी पहचाने जाते हैं.
ज्यां द्रेज के बारे में संक्षिप्त जानकारी यह है कि उनका जन्म 1959 में हुआ. 1980 में उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ एसेक्स से मैथेमैटिकल इकोनॉमिक्स की पढ़ाई की. उसके बाद दिल्ली के इंडियन स्टेटिस्टिकल इंस्टिट्यूट से पीएचडी पूरी की. हालांकि 2002 में उन्हें भारतीय नागरिकता मिली लेकिन वे जब से भारत आए तब से ही पूरी तरह भारत की मिट्टी में रमते रहे और भारत के प्रति ओहदेदारों भारतीयों से कोई कम चिंतित नहीं रहे. कई मायनों में तो ज्यादा. फिलवक्त ज्यां इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र विभाग के प्लानिंग एंड डेवलपमेंट यूनिट के ऑनररी चेयर प्रोफेसर हैं. वे दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में भी ऑनररी विजिटिंग प्रोफेसर हैं. लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में भी अध्यापन का कार्य करते रहे हैं. नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन और कई महत्वपूर्ण अर्थशास्त्रियों और लेखकों के साथ मिलकर उन्होंने कई किताबों की रचना की है और संपादन कार्य भी किया है. हंगर एंड पब्लिक एक्शन, नंबर-1 क्लैफम रोडः द डायरी ऑफ स्क्वाट, द पॉलिटिकल इकोनॉमी ऑफ हंगर, सोशल सिक्यूरिटिज इन डेवलपिंग कंट्रीज, इंडियाः इकोनॉमिक डेवलपमेंट एंड सोशल ऑपोर्च्यूनिटी, इंडियन डेवलपमेंटः सेलेक्टेड रिजनल पर्सपेक्टिव्स, द डैम एंड द नेशनः डिस्प्लेसमेंट एंड रिसेटलमेंट इन द नर्मदा वैली, पब्लिक रिपोर्ट ऑन बेसिक एजूकेशन इन इंडिया, द इकोनॉमिक्स ऑफ फेमिन, वार एंड पीस इन द गल्फः टेस्टिमोनिज ऑफ द गल्फ पीस टीम, इंडियाः डेवलपमेंट एंड पार्टिसिपेशन आदि कुछ प्रमुख कृतियां हैं. द्रेज यूपीए सरकार की नेशनल एडवाजरी काउंसिल के सदस्य भी रहे हैं. भारत में नरेगा के सूत्रधारों में से एक रहे हैं और उसका पहला ड्राफ्ट तैयार करने वाले सदस्य भी. यह भी खास रहा कि जिस नरेगा योजना के वे सूत्रधार रहे, उसी नरेगा योजना की जांच करने के लिए वे देश के गांवों में घूमने भी लगे कि यह सफल है तो कितना, विफल है तो क्यों. इसके बारे में ज्यां का विचार है, ‘मनरेगा कुछ राज्यों में भले ही विफल योजना जैसी लगी हो लेकिन इस वजह से इस पूरी योजना के मकसद का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता. लाखों लोगों को अति गरीबी से बचाने के साथ-साथ यह खेतिहर मजदूरी बढ़ाने, पलायन कम करने, कार्यक्षेत्रों की स्थिति सुधारने, महिलाओं को रोजगार के अवसर प्रदान करने, ग्राम सभा को पुनर्जीवित करने आदि में भी सहायक रहा है. यहां तक कि कई राज्यों में भ्रष्टाचार को कम करने में भी इसकी भूमिका रही है.’
ज्यां की उपलब्धियों का संसार और कृतित्व की दुनिया काफी बड़ी है और सबमें उनकी पहचान की स्वतंत्र रेखाएं भी हैं. अकादमिक दुनिया में वे इतनी बड़ी हस्ती हैं कि अगर वे तय करें तो उन्हें लेक्चर आदि देने से ही फुर्सत न मिले. पटना के महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘ज्यां आज जिस हैसियत में हैं वे दुनिया के किसी भी बड़े विश्वविद्यालय या अकादमिक संस्थान से जुड़कर सुविधापूर्ण जीवन गुजार सकते हैं, साथ ही सिद्धांतकार बने रह सकते हैं, जैसा कि भारतीय बौद्धिक लोग करते हैं लेकिन ज्यां और उनकी पार्टनर बेला भाटिया को, जो फिलहाल टाटा इंस्टीट्टयूट ऑफ सोशल साइंस, मुंबई से संबद्ध हैं, यह सब पसंद नहीं.’
ज्यां बौद्धिक दुनिया के जीवट नायकों में से एक हैं. वे अपराधियों-दलालों आदि का विरोध झेलकर झारखंड के पलामू के गांवों में हफ्तों रहना पसंद करते हैं. वे उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले के पालनपुर गांव में कई माह तक ग्रामीणों की तरह खेतिहर-पशुपालक बनकर गांवों में हो रहे बदलाव का अध्ययन करने वाले अध्येता बनना पसंद करते हैं. वे लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में प्राध्यापक बन जाते हैं तो वहां बेघरों के साथ आंदोलन करना पसंद करते हैं, 1990-91 में जब इराक में युद्ध शुरू होता है तो शांति के प्रयासों के साथ वे कुवैत की सीमा पर कैंप कर अपनी भूमिका निभाना पसंद करते हैं और भारत जैसे मुल्क में राइट टू इनफॉर्मेशन, राइट टू फूड आदि के लिए चलने वाले आंदोलन में जनता की ओर से अपनी भूमिका निभाना पसंद करते हैं. वे कितनी भी भीड़ में जनता के साथ समाहित हो जाना चाहते हैं, वे साधारण आदमी बने रहना चाहते हैं लेकिन भारत जैसे मुल्क में वे असाधारण भारतीय हैं. रांची विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के प्रमुख प्रो. रमेश शरण कहते हैं, ‘भारत में बहुतेरे अर्थशास्त्री हैं लेकिन ज्यां जैसा शायद कोई नहीं. वे जमीनी अर्थशास्त्री हैं, दुर्लभ एकेडेमिक हस्ती.’
रोमूलस वीटेकर: मूल देश अमेरिका. फोटो साभार: व्हाइटले फंड फॉर नेचर
चार साल की उम्र में अपना पहला सांप पकड़ने वाले वन्य जीव संरक्षणकर्ता और सरीसृप विज्ञानी रोमूलस वीटेकर, भारत के रेप्टाइल मैन के नाम से मशहूर हैं. रोमूलस भारत में मगरमच्छ, घड़ियाल, सांप और कछुओं के संरक्षण के क्षेत्र में एक जाना-पहचाना नाम है. पहला सांप पकड़ने वाली बात 1940 के दशक में न्यूयार्क की है जहां रोमूलस, जो रोम के नाम से जाने जाते हैं, अपनी मां और बहन के साथ रहते थे. मां ने रोम को सांप पकड़ने के लिए प्रोत्साहित किया और देखते ही देखते रोम ने विभिन्न प्रजातियों के सांपों को घर में पालना शुरू कर दिया. इसके बाद रोम के जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब उनकी मां ने भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में काम करने वाले राम चट्टोपाध्याय से शादी की और पूरा परिवार मुंबई आ गया. इसके बाद उन्होंने अगले 10 साल दक्षिण के पहाड़ों में ऊटी और कोडैकनाल के बोर्डिंग स्कूलों में बिताए जो भारत के मशहूर जैव विविधता हॉटस्पॉट, पश्चिमी घाट के ठीक मध्य में स्थित थे. रोम के सप्ताहांत आसपास के जंगलों में सांपों की तलाश और स्थानीय शिकारियों से जंगलों के बारे में दिलचस्प किस्से सुनने में गुजरते थे और सप्ताह के बाकी दिन आठ फुट लंबे अजगर की तलाश में जो ज्यादातर मौकों पर उन्हें हॉस्टल में अपने पलंग के नीचे छिपा मिलता था.
18 साल की उम्र में रोम अपनी आगे की पढ़ाई के लिए वापस अमेरिका आ गए. मगर पढ़ाई में मन नहीं रमा और एक साल बाद ही कॉलेज छोड़ भविष्य की तलाश में अपनी मंजिल मियामी की तरफ निकल पड़े जहां पहुंचकर उन्होंने दिग्गज स्नेक मैन विलियम हास्ट द्वारा चलाए जा रहे मियामी स्नेक पार्क में काम करना शुरू किया. अगले कुछ साल रोम के लिए बहुत सुखद रहे. इस दौरान वे अपना काफी समय विभिन्न प्रजातियों के सांपों के बीच रहते हुए बिता रहे थे. उन्होंने अपने गुरु विलियम से कई गुर सीखे, दूसरे स्नेक हंटरों के साथ घूमे-फिरे, आसपास के जंगलों की खाक छानी और स्थानीय कॉफी शाप में बाब डेलान के गानों पर खूब झूमे.
मगर अच्छा वक्त जल्दी चला जाता है. वियतनाम युद्ध शुरू हो चुका था और अमेरिकी आदेश था कि या तो दो साल आर्मी में बिताओ या तीन साल जेल में. रोम आर्मी में चले गए. मगर वहां अधिकारियों को संगठित हिंसा के प्रति रोम की स्वाभाविक नफरत को समझते देर न लगी और उन्हें टेक्सस और जापान में ब्लड बैंक संभालने की जिम्मेदारी दे दी गई. अपने अनिवार्य दो साल खत्म होते ही रोम एक यूनानी मालवाहक जहाज में बैठ सीधे हिंदुस्तान लौट आए.
1967 में मुंबई वापस आने के कुछ वक्त बाद ही रोम ने सांपों का विष निकालने वाले उपक्रम की शुरुआत की. ‘वापस लौटने के बाद मेरा एकमात्र मकसद भारत में उसी तरह के स्नेक पार्क की स्थापना करना था जैसा मियामी में मेरे गुरु विलियम हास्ट चलाते थे. इसी दौरान मुझे सांप पकड़ने वाली इरुला नाम की एक असाधारण जनजाति के बारे में पता चला जो सांपों की खाल के लिए उनका शिकार करती थी. जब मद्रास जाकर मैंने उनका कला-कौशल देखा तो मैं दंग रह गया. मैंने फैसला किया कि अब चाहे जो भी हो मैं इन लोगों के साथ काम करूंगा, इनसे सीखूंगा और इनको अपने सपने में भागीदार बनाऊंगा. इसीलिए मैंने अपना पूरा काम मद्रास शिफ्ट कर लिया और इस तरह भारत के पहले स्नेक पार्क की शुरुआत हुई.’ मद्रास स्नेक पार्क रातों-रात मशहूर हो गया और रोम रुढ़िवादी शहर मद्रास में एक जाना-पहचाना नाम बन गए. बिखरे सफेद बालों में रोम जब तीन फुट लंबे सैंड बोआ नाम के अजगर को लपेट भड़कीले हिप्पी कपड़ों में अपनी मोटरसाइकिल पर निकलते तो लोग उनको ताज्जुब से घूरते रहते. लोगों को और ज्यादा आश्चर्य होता जब वे रोम को स्थानीय भाषा तमिल में गालियां देते सुनते. स्थानीय संस्कृति और लोगों के बीच में खुद को स्थापित करने के लिए यह काफी था.
इसके बाद रोम ने मद्रास क्रोकोडाइल बैंक की स्थापना की. इसी दौरान उन्हें अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह के बारे में भी पता चला. लेकिन यहां किसी भी विदेशी को काम करने की इजाजत नहीं थी. लेकिन रोम वहीं काम करना चाहते थे और उस काम की कीमत थी अमेरिकी नागरिकता छोड़ भारतीय नागरिक बनना. रोम के लिए यह एक तीर से दो निशाने वाली बात थी. वे भारत का नागरिक तो बन ही रहे थे साथ में उन्हें ऐसी जगह काम करने का मौका मिल रहा था जो बकौल रोम, ‘मूंगा चट्टानों, जंगलों से ढके हुए सैंकड़ों द्वीपों, ऐसे कबीले जिनका बाहरी दुनिया से अभी तक कोई संपर्क नहीं था और जानवरों की कई दुर्लभ प्रजातियों से पटी पड़ी हुई थी. एक प्रकृतिवादी के लिए इससे ज्यादा दिलचस्प और रहस्यमय आखिर और क्या हो सकता है?’
रोम ने अपने सारे अनुभवों और जानकारी के आधार पर तकरीबन आठ किताबें, 150 से अधिक लेख लिखे और साथ ही महत्वपूर्ण मंचों से लोगों को संबोधित भी किया. लेकिन जब इसके बाद भी लोगों को जागरूक होते नहीं देखा तब उन्होंने फिल्मों का रुख किया. उन्होंने ‘बाय एंड द क्रोकोडाइल’ नामक तमिल फिल्म बनाई जिसे 1989 में यूनिसेफ का सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का पुरस्कार मिला और फिर ‘किंग कोबरा’ जिसे ऐमी अवार्ड मिला. इस फिल्म में किंग कोबरा के कई ऐसे दृश्य थे जो इससे पहले कभी फिल्माए नहीं गए थे. कुछ हद तक रोम के काम करने का तरीका आस्ट्रेलिया के मशहूर दिवंगत क्रोकोडाइल हंटर स्टीव इरविन जैसा ही है. खुद खतरे से भरे जंगलों में जाना, खतरनाक जानवरों का सामना करना, उन्हें नियंत्रण में रखना, खुद को खतरे में डालना और यह सब सिर्फ इसलिए कि आप और हम अपने टीवी सेटों के सामने बैठ प्रकृति को बेहद नजदीक से देख-जान सकें. लेकिन रोम इरविन की तरह अपने तरीकों और तकनीकों में आक्रामक नहीं हैं. वे मनोरंजन के साथ शिक्षा देने की भी कोशिश करते हैं. रोम अपने आपको एक ऐसा संरक्षणकर्ता मानते हैं जो शिक्षाविद ज्यादा है.
अब तक तकरीबन 23 चर्चित डाक्यूमेंटरी फिल्में बना चुके रोम ने हाल के वर्षों में बीबीसी, एनीमल प्लेनेट और नेशनल जियोग्राफिक के लिए कई फिल्मों का निर्माण भी किया है जिसमें ‘क्रोकोडाइल ब्लूज’ उल्लेखनीय है. ‘क्रोकोडाइल ब्लूज’ विलुप्ति की कगार पर खड़े भारत के घड़ियालों की दुर्दशा के बारे में है. इसके लिए 2010 में जयराम रमेश ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश से गुजरने वाली चंबल नदी के मुहाने पर स्थित राष्ट्रीय चंबल अभ्यारण्य में घड़ियाल संरक्षण के लिए एक राष्ट्रीय कमेटी के गठन की घोषणा की थी. रोम काफी समय से इस परियोजना की वकालत कर रहे थे ताकि भारत में 200 से भी कम बचे वयस्क घड़ियालों की संख्या को बढ़ाने और इन्हें विलुप्त होने से बचाने के लिए सरकार कुछ ठोस कदम उठाए.
रोम ने कर्नाटक में अगुंबे रेनफॉरेस्ट रिसर्च स्टेशन की स्थापना भी की है जिसका उद्देश्य भारत के मशहूर जैव विविधता हॉटस्पॉट पश्चिमी घाट के बारे में अनुसंधान, संरक्षण और पर्यावरण संबंधी शिक्षा देना और किंग कोबरा के व्यवहार और उसके पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों का अध्ययन करना है. वे बताते हैं, ‘किंग कोबरा ओडिशा, पश्चिमी बंगाल, पूर्वी हिमालय में भी पाए जाते हैं लेकिन मेरी जानकारी वेस्टर्न घाट के बारे में ज्यादा थी क्योंकि मेरा बचपन यहीं ऊटी और कोडैकनाल में बीता था. जब पहली बार मैं अगुंबे गया तो मैंने दो वयस्क 12 फीट लंबे किंग कोबराओं को अकेले पकड़ा. उस घटना ने मेरे उस विश्वास को और मजबूत किया कि पूरे भारत में सबसे ज्यादा किंग कोबरा अगुंबे में ही पाए जाते हैं और मुझे यहां कुछ न कुछ जरूर करना चाहिए.’
प्रकृति और वन्य जीव-जंतुओं के बीच हंसी-खुशी से जीवन बिताने वाले रोम कहते हैं, ‘मैंने अपनी पूरी जिंदगी में कभी नौ से पांच वाली नौकरी नहीं की और अगर आपको जंगल बेहद पसंद है तो आप ऐसा कुछ कर भी नहीं सकते हैं. मेरे लिए जिंदगी एक नदी की तरह है जो आपको अपने साथ बहा ले जाती है और इसीलिए मैं वही काम करता हूं जो मेरी तरफ आते जाते हैं.’ आप इसी तरह संरक्षणकर्ता, सरीसृप विज्ञानी, वाइल्डलाइफ एक्सपर्ट और फिल्मकार रोम के लंबे, दिलचस्प अनुभवों और घटनाओं से भरे पड़े जीवन को परिभाषित कर सकते हैं. भारत से प्रकृति और वन्य जीव-जंतुओं जितना ही प्यार करने वाले रोम हमारे लिए चलते-चलते अपने घर को परिभाषित भी करते हैं, ‘भारत मेरा घर है. जब मैं यहां आया था तब आठ साल का था और आज मैं किसी और देश को इतना बेहतर नहीं जानता-समझता. यह स्वाभाविक भी है कि जहां आप पले-बढ़े होते हैं उस जगह से आप सबसे ज्यादा प्यार करते हैं.’
जस्टिन मेकार्थी मूल देश अमेरिका. फोटोः तरुण सहराित
कुछ लोग आदतन अलग होते है. उनका घर छोड़ना, नया घर बसाने के लिए होता है. दिल्ली स्थित श्रीराम भारतीय कला केंद्र में युवा नर्तकों को भरतनाट्यम सिखाते जस्टिन मैकार्थी को देख कर कुछ ऐसा ही महसूस होता है. 21 साल की उम्र में जस्टिन ने अमेरिका छोड़कर भरतनाट्यम सीखने के लिए भारत का रुख किया और पिछले 32 सालों से उनका घर भारत ही है. जस्टिन हमेशा से डांसर बनना चाहते थे. मगर बचपन में घरवालों ने पियानो सीखने भेज दिया. पांच साल की उम्र से पियानो सीख रहे जस्टिन का वैसे तो पियानो आज भी साथी है लेकिन नृत्य सीखने की ललक नहीं गई. संगीत (पियानो) की शिक्षा लेते रहे और अलग-अलग डांस-फार्म की तरफ आते-जाते रहे. 19 साल की उम्र में टैप-डांस से लेकर बैले और एक्रोबैटिक तक में हाथ आजमा लिया. मगर किसी में मन नहीं रमा. आखिर में गोल्डन पार्क, कैलिफोर्निया में पहली बार भरतनाट्यम मंच पर देखा और उनके शब्दों में, ‘देखने के बाद ही दिल-दिमाग में कुछ हो गया.’
जिंदगी के अंतिम फैसले दिल-दिमाग में एक साथ ही होते हैं. भरतनाट्यम को देखते हुए जस्टिन को उसी क्षण यह बात समझ आ गई. उन्होंने ही कुछ ही दिनों बाद भरतनाट्यम नृत्यांगना बाला सरस्वती के दो अमेरिकी शिष्यों से इस नृत्य विधा की शिक्षा लेनी शुरू कर दी. एक साल तक अमेरिका में भरतनाट्यम सीखने के बाद जब लगा कि इस नृत्य साधना में गहरे उतरना है तो जस्टिन ने भारत आने का फैसला किया. वे सन् 1979 में मद्रास पहुंचे और एक साल तक सुब्बारया पिल्लई से भरतनाट्यम सीखा. लेकिन जब मद्रास की गर्मी और खाना बर्दाश्त नहीं हुआ तो एक डांसर दोस्त, नवतेज जौहर, की सलाह पर दिल्ली आ गए. उसके बाद दस साल तक श्रीराम भारतीय कला केंद्र में मशहूर नृत्यांगना लीला सैमसन से भरतनाट्यम विस्तार में सीखा. उधर अमेरिका में जस्टिन की मां को लग रहा था कि उनका बेटा हाथी पर बैठकर क्लास जा रहा है, सफेद चादर लपेट कर सड़कों पर घूम रहा है. उस दौर में विदेशी आंखों को हिंदुस्तान कुछ ऐसा ही नजर आता था. मगर जस्टिन आने से पहले हिंदुस्तान के बारे में काफी कुछ पढ़ चुके थे और नई चीजों को जानने के इच्छुक थे. मां-बाप को समझाकर और उन्हें भारत के बारे में सही जानकारी दे जस्टिन अपनी साधना में लगे रहे. साथ ही स्थानीय लोगों से बातचीत करने और भरतनाट्यम नृत्य और कर्नाटक संगीत को बेहतर समझने के लिए उन्होंने तमिल और संस्कृत सीखी. हिंदी और तमिल भाषा किताबों और लोगों से बातचीत करते-करते सीखी. दिल्ली में एक गुरू के साथ रहकर आठ साल तक संस्कृत का अध्ययन किया. संस्कृत सीखने की वजह बताते हुए जस्टिन कहते हैं, ’जयदेव का गीतगोविंदम् संस्कृत में पढ़ने की बड़ी इच्छा थी, इसलिए संस्कृत सीखी. बाद में पता चला कि संस्कृत में इसके अलावा भी बहुत कुछ पढ़ने के लिए है.
संस्कृत ऐसी भाषा है जो सारी जिंदगी पढ़ने के बाद भी आपको पूरी तरह से नहीं आ सकती.’ शायद इसलिए स्कूलों में जिस तरह ‘तोतागीरी’ करके गलत तरीके से संस्कृत सिखाई जाती है उससे भी जस्टिन बेहद नाराज हैं और इसी को संस्कृत के आज के लोगों के बीच पैठ न बना पाने की मुख्य वजह मानते हैं. जस्टिन हिंदी भी इतने प्रवाह से बोलते हैं कि आप भी हैरान और आप का शब्दकोश भी.
जस्टिन पिछले 15 साल से सरकारी रूप से भारतीय नागरिक हैं. भारतीय नागरिकता के लिए जस्टिन ने 1994 में अर्जी डाली थी और ढाई साल अलग-अलग दफ्तरों के चक्कर लगाने के बाद आखिरकार 1997 में वे इस देश के नागरिक बन पाए. आखिर में जब वे दिल्ली की तीस हजारी अदालत शपथ लेने गए तो वहां एक चपरासी ने इशारे से रिश्वत की मांग कर दी. जस्टिन सीधे मजिस्ट्रेट के दफ्तर में घुस गए और शपथ लेकर लौटे, साथ ही चपरासी को डांट भी लगवाई. जस्टिन की नजर में भारत की नागरिकता लेना भावनात्मक से ज्यादा व्यावहारिक था, ’मुझे यहां रहते 16-17 साल हो चुके थे और मेरा काम यहीं पर था. और अब जब में आधिकारिक रूप से भारत का नागरिक बन चुका हूं तो मुझे इस बात की काफी खुशी होती है.’ मगर जस्टिन के लिए अमेरिकी नागरिकता छोड़ना और भारतीय नागरिकता लेना कोई ‘आइडेंटिटी क्राइसिस’ नहीं था. वे स्वंय को वैश्विक नागरिक मानते हैं, ‘मैं अपने आपको इस तरह नहीं देखता कि मैं भारतीय हूं या अमेरिकी. मैं अपने को ग्लोबल सिटीजन मानता हूं और यह सीख मैंने बचपन में अपने प्यानो टीचर से ली थी जो कहा करते थे कि कलाकार किसी एक देश का नहीं होता.’ जस्टिन नागरिकता मिलने के बाद से ही लगातार भारत में वोट करते आ रहे हैं. शुरू में पोल बूथ पर देख कर लोग आश्चर्य तो करते थे मगर साल-दर-साल साथ-साथ वोट करने से जस्टिन को जानने लगे. वे हिंदुस्तानी राजनीति को भी अच्छे से जानते हैं और लोकपाल बिल पर चल रही नौटंकी पर साफ दिल से कहते हैं, ‘कानून से तो नहीं जाएगा भ्रष्टाचार. वह तो समाज में पहले से ही रचा-बसा हुआ है जो सिर्फ पढ़ाई और सतर्कता से ही आहिस्ता-आहिस्ता जाएगा.’
जस्टिन को पहली बार स्टेज पर देखने वाले शायद हैरान हो सकते हैं कि विदेशी होने के बाद भी कोई इतना अच्छा भरतनाट्यम नृत्य कैसे कर सकता है लेकिन जस्टिन को एक बार करीब से जानने के बाद आप खुद जान जाऐंगे कि वे कितने भारतीय हैं और भरतनाट्यम के लिए कितने जरूरी भी. भरतनाट्यम के अलावा जस्टिन को छऊ, मणिपुर की रासलीला, केरल का कुड्डियाटम जैसे दूसरे भारतीय नृत्य भी बेहद पसंद हंै, ‘कुड्डियाटम बड़ा ही अद्भुत नृत्य है. इसके बारे में विशेषज्ञ कहते हैं कि कालिदास के समय में कुछ इसी तरह का नृत्य होता था. साथ ही मुझे ओडिसी भी बेहद पसंद है. ओडिसी शुरू में तीन साल सीखा भी. लेकिन जब मुझे लगा कि मैं दो शैलियां एक साथ ठीक से नहीं कर पा रहा हूं तो मैंने फिर भरतनाट्यम को ही अपना पूरा समय दिया.’ भरटनाट्यम नृत्य के वक्त धोती की तरह बांधी जाने वाली कांचीवरम साड़ियों का जस्टिन के पास काफी बड़ा कलेक्शन है. धोती से अपने विशेष लगाव को उत्साह के साथ बयान भी करते है, ‘मुझे धोती बहुत पंसद है, मेरा बस चले तो मैं हर रोज धोती बांधू. लेकिन अगर धोती पहनकर घूमने जाऊंगा तो लोगों को अजीब लगेगा इसलिए सिर्फ नृत्य के समय ही पहनता हूं.’
जस्टिन को हिंदुस्तानी खाना भी हिंदुस्तान की ही तरह पसंद है. अमेरिकी लाइफस्टाइल की कमी महसूस नहीं करने वाले शाकाहारी जस्टिन के अनुसार, ‘मुझे बंगाली, मराठी, गुजराती, उत्तर भारतीय खाना बहुत ही पसंद है. मीठे में मुझे गुलाबजामुन पसंद है और खासतौर पर सर्दियों में गरम चावल घी और शक्कर के साथ मेरा पसंदीदा है.’ वे हिंदी फिल्मों की बात भी इसी उत्साह से करते हैं, ‘पुरानी फिल्मों में मुझे पड़ोसन, साहब बीवी और गुलाम बेहद पसंद है. एक जमाने में हिंदी सीखने के लिए अमिताभ बच्चन, रेखा, हेमा मालिनी और जितेंद्र की ढेर सारी हिंदी फिल्में देखा करता था.’
श्रीराम कला केंद्र के साथ जस्टिन का जुड़ाव भी कम रोचक नहीं है. उन्हीं के शब्दों में, ’यहां पर 10 साल तक भरतनाट्यम सीखने के बाद मैं पिछले 21 साल से यहां भरतनाट्यम सिखा रहा हूं. पहले मैं असिस्टेंट टीचर बना और फिर पूर्णकालिक. अर्थात पिछले 31 साल से मैं इस केंद्र से जुड़ा हुआ हूं और एक चपरासी के बाद सबसे पुराना आदमी भी हूं यहां पर.’ जस्टिन ने दिल्ली के मशहूर मंडी हाउस को भी काफी बदलते देखा है, ‘पहले मंडी हाउस कला, संस्कृति और नृत्य की फलती-फूलती, जानदार और धूम-धड़ाके वाली जगह हुआ करती था. यह वो जमाना था जब नसीरुद्दीन शाह, नीना गुप्ता जैसे कलाकार एनएसडी में थे और जींस, खादी कुर्ता और झोला टांगे लड़के-लड़कियां मंडी हाउस के बंगाली मार्केट में पाए जाते थे. अलग ही तरह का माहौल हुआ करता था तब. आज के मंडी हाउस में वह बात नहीं रही. काफी बदल गया है.’
जस्टिन मैकार्थी ने कभी सोचा नहीं था कि वह भरतनाट्यम में इस मुकाम पर पहुंचेंगे. आखिर तक हिंदुस्तान में रहने की चाहत रखने वाला यह भरतनाट्यम गुरू आज की पीढ़ी के लिए आदर्श है. भले ही भरतनाट्यम के प्रति युवाओं, खासकर लड़कों, के घटते रुझान पर जस्टिन मैकार्थी चिंतित हंै लेकिन उनकी यह उम्मीद खत्म नहीं हुई है कि युवा इस शास्त्रीय नृत्य शैली की तरफ जरूर मुड़ेंगे और भरतनाट्यम कुछ-एक शास्त्रीय समारोहों से निकल कर पूरे देश में वह सम्मान जरूर पाएगा जिसका वह हकदार है.
‘कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी’ वाले हमारे देश में सुदूर देश/गांव की भाषा समझना आम लोगों के लिए भी व्यवहारिक दिक्कतें खड़ी कर देता है. और अगर समझने के बाद उसका ज्ञाता होना और उसमें शिक्षक की तरह निपुण होकर छोटे बच्चों को पढ़ाया जाना भी शामिल हो तो भाषा की यह मुश्किल हद दर्जे की दुरूह हो जाती है. जैसा की मशहूर भाषाविद नोम चोमस्की कहा करते हैं, ‘बच्चों में कई भाषाओं को एक साथ सीखने-समझने की क्षमता वयस्कों से ज्यादा होती है.’ लेकिन अमेरिका की मेक्सिन बर्नसन कुछ अलग ही तरह की वयस्क और भाषाविद हैं. उन्होंने भारत की एक क्षेत्रीय भाषा मराठी वयस्क होने पर ही सीखी. और इस गहराई के साथ आत्मसात कर ली कि अब वे कई सालों से महाराष्ट्र के सतारा जिले के फाल्टन कस्बे में गरीब बच्चों को मराठी सिखाती हैं. लेकिन 76 वर्षीय मेक्सिन की उपलब्धि यहीं खत्म नहीं होती.
मेक्सिन को फाल्टन में भूले-बिसरे तबकों के गरीब दलित बच्चों को बेहतर शिक्षा देने के लिए प्रगत शिक्षण संस्था जैसी एक सार्थक पहल करने के लिए भी जाना जाता है. इस संस्थान में दलित वर्ग से आए बच्चे सामान्य श्रेणी के बच्चों के साथ इस तरह घुल-मिलकर पढ़ते हैं सामाजिक ऊंच-नीच यहां सूक्ष्मदर्शी की जांच में भी पकड़ में न आए. हमारे देश के कई सरकारी और गैर-सरकारी स्कूल इस असमानता से पटे पड़े हैं और महंगे प्राइवेट स्कूलों के इस दौर ने इस खाई को और गहरा कर दिया है. ऐसे समय में एक छोटे कस्बे में यह सफल प्रयोग करने का श्रेय मेक्सिन को जाता है जिनका मानना है, ‘भाषाई अनुसंधान से यह साबित होता है कि अगर सभी तबकों के बच्चे साथ मिलकर पढ़ते हैं तो बर्ताव और बात करने के तरीके से यह पता करना बेहद मुश्किल होता है कि वह कथित निचले तबके से आता है.’ यही फलसफा इस संस्था को और साथ ही मेक्सिन को अलहदा रूप देता है. यही इस संस्था की सच्ची शिक्षा भी है.
मिशीगन, अमेरिका के एक छोटे-से कस्बे एस्कनाबा में जन्मी मेक्सिन के पिता नार्वे से विस्थापित हो अमेरिका आए थे और मां का परिवार फिनलैंड से. भारत से पहला परिचय ग्यारहवीं क्लास में हुआ जब एक पत्रकार ने 1950 के अपने भारत भ्रमण का जिक्र करते हुए बताया कि कैसे आजादी के बाद भारत सिर्फ तीन साल में ही लोकतांत्रिक तरीके से बेहतर ढंग से आगे बढ़ रहा है. वे बताती हैं, ‘वह बात बड़ी रोचक और साथ ही विस्मित करने वाली थी क्योंकि भारत के पड़ोसी चीन ने ठीक विपरीत साम्यवादी रास्ता अपनाया हुआ था. तभी मैंने फैसला कर लिया था कि मैं एक दिन खुद भारत जाकर यह लोकतांत्रिक प्रयोग जरूर देखूंगी.’ शुरू से ही मिली-जुली संस्कृति में पढ़ने वाली मेक्सिन ने कोलंबिया विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एमए करने के बाद भारत आकर हैदराबाद के विवेकवर्धनी कालेज में अंग्रेजी लेक्चरर के तौर पर पढ़ाना शुरू किया. इसी समय मेक्सिन ने पहली बार मराठी सीखी और मराठी का क्रेश कोर्स करने पुणे भी गई. दो साल यहां काम करने के बाद मेक्सिन अपनी पीएचडी के लिए वापस अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ पेनसिलवेनिया लौट गईं. यहां उनका विषय था भाषाविज्ञान और भारतीय भाषाएं. वहीं उनकी मुलाकात इरावती पर्वे नाम की एक शिक्षिका से हुई. चूंकि मेक्सिन के शोध का विषय मराठी की विभिन्न बोलियों पर था और इरावती ने फाल्टन कस्बे का सोशल सर्वे किया हुआ था, इसलिए इरावती ने शोध के लिए मेक्सिन को फाल्टन जाने की सलाह दी. इस तरह वे 1966 में अपनी पीएचडी के लिए फाल्टन आई और फिर यहीं की होकर रह गयी. ‘मैं 1966 में भारत आई और 1972 तक आते-आते मुझे लगने लगा कि अंदर ही अंदर मैं भारत में ही रहने का फैसला कर चुकी हूं.’ इसके बाद भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन देने की वजह बताते हुए मैक्सिन कहती हैं, ‘मैं यहां तभी रुकना चाहती थी जब मैं भारतीय समाज को अपना पूरा योगदान दे सकूं और वह देश की नागरिकता हासिल करने के बाद ही संभव था.’
इसी दौरान मेक्सिन ने कुछ और शिक्षकों के साथ मिलकर स्कूल नहीं जाने वाले दलित बच्चों के लिए ‘आपली शाला’ की नींव रखी. वे बताती हैं, ‘शुरू में हमने इसे शिक्षा के वैकल्पिक प्रोग्राम की तरह लिया ताकि जो गरीब दलित बच्चे स्कूल नहीं जा सकते थे उन्हें लिखना-बोलना-पढ़ना सिखाया जा सके. लेकिन हमें जल्द ही यह बात समझ आ गई कि हमारा मुख्य काम उन बच्चों को मुख्यधारा के स्कूलों में दाखिला दिलवाना, उन्हें पढ़ाई जारी रखने के लिए प्रोत्साहित करना और कक्षा में सफल बनाना है.’ 1978 से 1985 तक वे आपली शाला संभालती रहीं और अपना भाषा संबंधी शोध भी करती रहीं. साथ ही अपनी जीविका के लिए हर साल कुछ वक्त के लिए अमेरिका जाकर कालेज के छात्रों को मराठी भी पढ़ाती रहीं. मेक्सिन आगे कहती हैं, ‘इस दौरान काफी लोगों ने कहा कि मुझे एक पूर्णकालिक स्कूल खोलना चाहिए. लेकिन मैंने हर बार इस विचार का विरोध किया क्योंकि मैं सरकारी स्कूलों की शिक्षा प्रणाली पर ज्यादा विश्वास करती थी न कि प्राइवेट स्कूलों की. इसलिए जो भी मुझसे स्कूल खोलने के लिए कहता तो मेरा सीधा जवाब होता कि मैं अपना वक्त दलितों के बच्चों को पढ़ाने के लिए लगाना चाहती हूं न कि एलीट क्लास के बच्चों को.’ मगर धीरे-धीरे उन्हें यह समझ आने लगा कि अच्छी शिक्षा की जरूरत दलितों के अलावा दूसरे बच्चों को भी है. इस बात को समझते हुए उन्होंने 1984 में प्रगत शिक्षण संस्था को पंजीकृत कराया. इसके अंतर्गत कमला निंबकर बालभवन की शुरुआत हुई. बालवाड़ी से शुरू हुए इस स्कूल में हर साल एक नई कक्षा जुड़ती गई और अब यहां दसवीं तक की कक्षाएं लगती है. 1997 में निकले दसवीं के पहले बैच के सभी 14 बच्चे पास हुए और तब से अब तक दसवीं का रिजल्ट 100 फीसदी रहा है.
कमला निंबकर बालभवन में दाखिल होते ही आप समझ जाएंगे कि यह स्कूल बाकी स्कूलों से कितना अलग है. हो सकता है आपको किसी कक्षा में छात्र छोटे-छोटे समूहों में सब्जियां और फल काटते हुए मिलें जिनको मिलाकर कुछ देर में सलाद बनाया जाएगा. साथ ही एक शिक्षक भी मिले जो बता और पूछ रहा हो कि किस सब्जी या फल में कौन-सा विटामिन है. यह भी हो सकता है कि अगली कक्षा में किसी पाठ का नाट्य रूपांतर चल रहा हो जिसमें छात्रों के अलावा शिक्षक भी कोई पात्र अभिनीत कर रहा हो. इस स्कूल की नींव रखते वक्त ही कुछ नियम बना दिए गए थे जिन्हें आज भी कोई नहीं तोड़ता. स्कूल में सभी धर्म-संप्रदाय-जाति के बच्चों को दाखिला मिलेगा और पिछड़ी जाति के बच्चों के दाखिले के लिए सम्मिलित रूप से विशेष प्रयास किए जाएंगे. स्कूल का वातावरण बोझिल न होकर हंसी-खुशी और आजाद ख्यालों का होगा. पढ़ाई का माध्यम मराठी होगा लेकिन अंग्रेजी भी पहली कक्षा से ही पढ़ाई जाएगी और उसपर जरूरी ध्यान दिया जाएगा. यहां कक्षाएं बड़ी और हवादार हैं, लाइब्रेरी में अनेकों विषयों की किताबों की भरमार है, लड़के-लड़कियां साथ पढ़ते-खेलते हैं और शिक्षकों को बाहर ट्यूश्न देने की मनाही है. कमला निंबकर बालभवन के छात्रों की प्यारी मेक्सिन मौसी के अनुसार, ‘मैंने शुरू में ही फैसला कर लिया था कि यह स्कूल शिक्षा के मरुस्थल में सिर्फ एक खूबसूरत उद्यान की तरह नहीं होगा बल्कि एक ऐसा केंद्र होगा जहां पर दूसरे स्कूलों को भी बेहतर बनाने के लिए काम किया जाएगा, खासतौर पर सरकारी स्कूलों को.’ इसीलिए यहां एक प्रोग्राम चलाया जाता है जिसमें संस्थान के शिक्षक दूसरे सरकारी स्कूलों में नियमित तौर पर जाकर वहां के छात्रों को कुछ नया सिखाने का प्रयास करते हैं.
1986 में मेक्सिन ने इस अवधारणा के साथ इस स्कूल की नींव रखी थी कि यहां बच्चे जाति आधारित असमानता को नजरअंदाज करते हुए हंसते-खेलते शिक्षा प्राप्त कर सकें और जहां सिर्फ इम्तिहानों में अच्छे नंबर लाना ही आखिरी मंजिल न हो. आज, यहां की शिक्षा कार्यप्रणाली, ‘ हमारी हिंदुस्तानी शिक्षा प्रणाली की कमजोर जड़ों को कैसे मजबूत किया जाए?’ वाले सवाल का एक बेहतर जवाब बन चुकी है.
उनके निजी जीवन के बारे में लिखना जितना मुश्किल है, उतना ही सहज है उनसे आदिवासियों और उनके संघर्षों के बारे में बात करना. पहली नजर में ही विनम्र और आत्मीय लग जाने वाले फेलिक्स जॉन पैडल को आप विकासवाद के सिद्धांत के जनक चार्ल्स डार्विन के वंशज के रूप में जान सकते हैं लेकिन वे इसपर बात करने में संकोच करते हैं. यह संकोच अपनी निजी जिंदगी के तथ्यों को बात करते हुए और बढ़ जाता है. हालांकि खनन व हथियार उद्योग के बीच रिश्ते, विश्व की सत्ता संरचना पर विश्व बैंक की हुकूमत, दुनिया की राजनीतिक नब्ज में दौड़ते कर्जे और भ्रष्टाचार को पहचानने की कोशिश करते हुए वे बहुत आसानी से आपको उस दुनिया में ले जाते हैं जो इंसानों के शोषण के लिए विकसित की जा रही है.
फेलिक्स उसी लंदन जन्मे और पलेबढ़े हैं जहां मौजूद लंदन मेटल एक्सचेंज दुनिया के खनिज व्यापार और इसके साथ ही हथियारों के निर्माण की एक अहम कड़ी है. और इसीलिए फेलिक्स की दिलचस्पी भारत में जगी जहां दुनिया के सबसे पुराने समुदाय बसते हैं. जहां की खनिज संपदा पर पूरी दुनिया के कॉरपोरेट जगत की निगाह शुरू से रही है. वे याद दिलाते हैं कि किस तरह हिटलर या उसके एक धातुविज्ञानी ने कहा था, ‘जिसका ओडिसा के लोहे पर कब्जा होगा वह दुनिया पर कब्जा कर सकता है.’
फेलिक्स उस भारत के बारे में सुनते आए थे जहां की संपदा और संसाधनों पर ब्रिटेन का साम्राज्य खड़ा था. एक ब्रिटिश मनोविश्लेषक जॉन हंटर पैडल और हिल्डा बर्लो, हिल्डा चार्ल्स डार्विन की परपोती थीं, के बेटे फेलिक्स को भारत के संसाधन और ब्रिटिश समाज की संपन्नता के बीच के संबंध हमेशा से अपनी ओर खींचते थे. उनके चिंतन का केंद्र यह भी रहा कि आखिर समाज कैसे बनते हैं. उनके बीच फर्क कैसे आते हैं.
इन सवालों के जवाब की तलाश करते हुए फेलिक्स खनन की दुनिया तक पहुंचे जहां उनकी नजर एंथ्रोपोलॉजिस्ट यानी मानवशास्त्री की थी. उन दिनों वे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के छात्र थे और गंभीरता से खनन उद्योग और मानव समाजों पर इसके प्रभावों का अध्ययन करना चाहते थे. उनकी क्लास में पढ़ने वाले उनके एक दोस्त अमिताभ घोष (जिन्होंने सी ऑफ पॉपीज और द हंगरी टाइड जैसे उपन्यास लिखे हैं) ने सलाह दी कि ऑक्सफोर्ड के समाजशास्त्र के अध्यापक बस दिमागी खेल खेलते रहते हैं अगर गंभीरता से पढ़ाई और अध्ययन करना है तो दिल्ली विश्वविद्यालय जाना चाहिए.
भारत में आने के फैसले ने उनके जीवन की दिशा बदल दी. या कहें कि एक तरह से तय कर दी. 1979 में एक छात्र के रूप में भारत आने वाले फेलिक्स हमेशा के लिए भारत में बस जाने वाले थे. हालांकि तब वे यह बात नहीं जानते थे. तब तो उन्हें मानवशास्त्र के एक उत्सुक और उत्साही छात्र के रूप में शोध करना था. उन आदिवासी समुदायों के बीच रहना था जो पिछली अनेक शताब्दियों से उस जमीन पर रहते आ रहे थे जिसके नीचे अथाह खनिज भंडार था. ये वे समुदाय हैं जिनकी जिंदगी की बुनियादी गतिविधियां जिन प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं, वे आधुनिक उद्योगों और युद्धों के लिए महत्वपूर्ण बनते जा रहे थे.
दिल्ली विश्वविद्यालय में उन्हें जेपीएस ओबरॉय और वीणा दास जैसे अध्यापक मिले जिन्होंने आदिवासी समाजों और उनमें प्रचलित रीति-रिवाजों को समझने में मदद की. फेलिक्स ने अपने अध्ययन की शुरुआत आदिवासी समाज और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के बीच के एक अजीब-से अंतर्विरोध से की. ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने जिन आदिवासी इलाकों पर कब्जा किया उनमें धरती को संतुष्ट करने के लिए इंसानों की बलि दी जाती थी. पश्चिमी समाज के लिए यह अमानवीय, बर्बर जीवनशैली थी. लेकिन फेलिक्स ने इस पर गौर किया कि इसके बावजूद यह रिवाज कम से कम इंसानी जिंदगी की पवित्रता और इसके महान मूल्य की तरफ इशारा करता है. उन्होंने देखा कि आधुनिक कहे जाने वाले समाजों में हिंसा का स्तर कहीं ज्यादा है. उनके मुताबिक, ‘एक मुट्ठी भर अभिजात वर्ग के मुनाफे के लिए चलाए जा रहे युद्ध और हथियारों के उद्योग और कारोबार जिस तरह टकरावों को बढ़ावा देते हैं वे न सिर्फ समाज पर हिंसा को थोपते हैं बल्कि वे इंसानी जिंदगी की महत्ता को भी पूरी तरह नकारते हैं. इस तरह पश्चिमी समाजों से पैदा हुई ताकत और अधिकार दूसरी संस्कृतियों के लोगों को सभ्य बनाने के नाम पर उन पर थोपे जाते हैं. इस पूरी प्रक्रिया में जो क्रूरता और अमानवीयता शामिल होती है, वह इंसानी बलि से कई गुणा अधिक है.’
फेलिक्स ने अपने शोध को ओडिशा के कोंड आदिवासी समुदाय पर केंद्रित किया और इस समाज पर ब्रिटिश उपनिवेशवाद के प्रभावों की कई पहलुओं से पड़ताल की. इस शोध के लिए वे आदिवासी समुदायों के बीच कई वर्षों तक रहे और इस दौरान वे एक छात्र या शोधकर्ता के बतौर नहीं बल्कि आदिवासियों से सीखने और उन्हें समझने की ललक के साथ गए. वे अपने उस देश की क्रूरताओं और अमानवीय शोषण से रूबरू थे जिसका साम्राज्य दुनिया को सभ्य बनाने के अभियान पर था और हर उस चीज का प्रतिनिधि और मालिक होने का दम भरता था जो दुनिया में अच्छी और महत्वपूर्ण थी. फेलिक्स 1830 से 1860 के दशकों के बीच औपनिवेशिक हमले में कोंड आदिवासी समुदाय के दर्जनों गांवों को तबाह किए जाने और अनगिनत हत्याओं की यादों को जी रहे समुदाय के साथ अपने दिन और रातें बिता रहे थे.
फेलिक्स ने आदिवासी समाज को ही क्यों चुना? वे हंसते हैं, ‘इसके लिए आदिवासी इलाकों को लेकर ब्रिटिश औपनिवेशिक आकर्षण जिम्मेदार है. मेरे मन में हमेशा यह सवाल उठता रहा कि ब्रिटिश लोग भारत में शासन करने क्यों आए? और भारत में भी हमेशा वे आदिवासी इलाकों को अपने कब्जे में लाने की कोशिश क्यों करते रहे? और क्यों वे कभी इन इलाकों पर पूरा कब्जा नहीं जमा पाए? आदिवासियों से मेरे लगाव की यह वजह थी, यह बात भी मुझे उनकी तरफ खींचती थी कि आखिर वह क्या था, जिसकी वजह से आदिवासियों ने कभी अपना संघर्ष नहीं छोड़ा और हमेशा लड़ाई जारी रखी.’
एक बार आदिवासी इलाके में लंबा समय गुजार लेने के बाद फेलिक्स को बार-बार वे गांव अपनी तरफ खींचते रहे. भारत में अपने निवास के बीसवें साल में वे स्थायी रूप से ओडिशा में बस गए- अपनी उड़िया आदिवासी पत्नी के साथ रायगढ़ा जिले के एक दूर-दराज के गांव में. अपने आलोचकों और कार्यकर्ताओं के प्रति मौजूदा सरकारों के दमनकारी तौर-तरीकों के कारण फेलिक्स इस गांव की पहचान को आम करने से बचते हैं.
लेकिन ओडिशा के इन गांवों में रहते हुए उन्होंने दुनिया में सत्ता के सारे तौर- तरीकों को पहचानने की कोशिश की है. वे बताते हैं, ‘दुनिया में सत्ता की संरचना जिस तरह काम करती है उसे आप आदिवासी इलाकों में बहुत आसानी से पहचान और समझ सकते हैं. यहां की पुलिस, एनजीओ, मिशनरियों और व्यवस्था के दूसरे अंगों का जो रवैया होता है वह दुनिया की सत्ता संरचना के वास्तविक चरित्र का प्रतिनिधित्व करता है.’ दुनिया पर शासन कर रहा सत्ता तंत्र तरक्की को अपने हरेक कदम के जायज तर्क के रूप में पेश करता है. लेकिन एक मानवशास्त्री के रूप में वे तरक्की के इस दावे पर शक करते हैं. इसके लिए इतिहास भी उन्हें काफी ताकत मुहैया कराता है जिसमें तरक्की के साथ जोड़ी जाने वाली सारी सभ्यताएं असल में युद्धों और हथियारों के कारोबारों के दम पर स्थापित हुई थीं- चाहे वह रोमन सभ्यता हो या यूनानी सभ्यता. तब से लेकर आज तक हर साल युद्धों और लड़ाइयों में अथाह पैसा खर्च किया जाता है और इसे तरक्की के तर्क के साथ जायज ठहराया जाता है.
फेलिक्स दलील देते हैं, ‘यह कैसी तरक्की है, जिसमें सीआरपीएफ आदिवासियों को मारती है उनकी जान ले लेती है और उनको यह तक भरोसा नहीं है कि वह पुलिस या अदालत के पास जाएगा तो उन्हें इंसाफ मिलेगा? विकास तो तब कहा जाएगा जब आदिवासी को ऐसा यकीन हो. अभी तो आदिवासी इस कथित विकास की कीमत चुका रहे हैं. रास्ते और कारखाने बनाने को तरक्की बताया जा रहा है, जबकि ये गरीबों को और गरीब बनाते हैं.’
अपने शुरुआती अध्ययन में आदिवासी समुदायों पर गौर करने के बाद अब फेलिक्स दुनिया की अर्थव्यवस्था, हथियार उद्योग और खनन उद्योग के आपसी रिश्ते और पर्यावरण आदि मुद्दों पर गहरे अध्ययन में लगे हैं. वे इसे साफ करते हैं कि कैसे विकास की मौजूदा राजनीति के पीछे बड़ी कॉरपोरेट कंपनियां और विश्व बैंक की लुटेरी नीतियां हैं जो दुनिया भर के देशों को कर्जे में उलझा कर जनता और उसके संसाधनों को लूट रही हैं. उनका मानना है कि विश्व बैंक दुनिया की सत्ता संरचना को कर्जे के जरिए नियंत्रित करता है. वह इसके लिए निजीकरण को एक जरूरी औजार के रूप में इस्तेमाल करता है और भ्रष्टाचार का मुद्दा इसमें एक अहम भूमिका निभाता है. वे एक मिसाल देते हैं, ‘मान लीजिए विश्व बैंक के लोग अगर भुवनेश्वर आएंगे तो वे यहां के स्वास्थ्य मंत्रालय में भ्रष्टाचार को खोजेंगे. कहेंगे कि स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण कर दीजिए. लेकिन वे कभी नहीं देखेंगे कि खनन उद्योग में काम कर रही निजी कंपनियों में कितना भ्रष्टाचार है.’
यह फेलिक्स का शोध ही था जिसने कुछ साल पहले बॉक्साइट, जिसके अयस्क से अल्युमिनियम बनता है, के खनन के लिए वेदांता कंपनी द्वारा नियामगिरी पहाड़ की खुदाई का विरोध कर रहे कार्यकर्ताओं के पक्ष में मजबूत दलीलें मुहैया करवाई थीं. इस शोध में फेलिक्स ने दिखाया है कि किस तरह बमबार हवाई जहाजों, एटम बमों और दूसरी युद्ध सामग्री के निर्माण में अल्युमिनियम सबसे महत्वपूर्ण धातु है और आज के युद्ध बिना अल्युमिनियम के मुमकिन नहीं हैं.
फेलिक्स के अध्ययन को पेश करने वाली तीन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं- पहली किताब सैक्रिफाइसिंग पीपुल है, जो उनके डॉक्टरल शोध का संशोधित रूप है. दूसरी किताब आउट ऑफ दिस अर्थ है, जिसमें अपने सह लेखक समरेंद्र दास के साथ मिलकर फेलिक्स ने अल्युमिनियम की बढ़ती मांग, हथियार उद्योग और बॉक्साइट के खनन के कारण उत्तरी भारत के आदिवासियों की जिंदगी की तबाही के बारे में बताया है. तीसरी किताब इकोलॉजी इकोनॉमी है, जो उन्होंने अजय दांडेकर और जीमोल उन्नी के साथ मिलकर लिखी है. इसमें पर्यावरण के लिहाज से बेहतर अर्थव्यवस्था की तलाश की गई है.
फेलिक्स एक स्वतंत्र मानवशास्त्री के रूप में व्याख्यान देते हैं, निबंध लिखते हैं और एक कार्यकर्ता के रूप में आदिवासियों के बीच भी रहते हैं. साथ ही, उनको संगीत का बेहद शौक है और वे बहुत अच्छी सांगीतिक प्रस्तुतियां भी देते हैं. उन्हें वायलिन पर बॉब डेलान के उन गीतों को गाते हुए सुना जा सकता है जिनमें गैरबराबरी और नाइंसाफी के खिलाफ गुस्से की गूंज है. और लगभग हर बार उनका यह गुस्सा भारत में युद्धों, बड़े बांधों, खनन, विस्थापन और जनसंहारों के खिलाफ आवाजों के साथ जुड़ जाता है.
आपका नया उपन्यास ‘फरिश्ते निकले’ एक तरह से यौन हिंसा की शिकार ग्रामीण स्त्रियों की कहानियों का कोलाज है. इन कहानियों के माध्यम से आप क्या बताना चाहती हैं?
उपन्यास में दो मुख्य पात्र हैं- बेला बहू और उजाला. इनकी ही कहानी मुख्य हैं. बाकी स्त्रियों की कहानियां पूरक हैं. ये दोनों स्त्रियां चाहती तो प्रेम हैं पर उन्हें प्रेम नहीं मिलता, यौन प्रताड़ना मिलती है. यह कितनी दुखदायी बात है कि प्रेम चाहने वाली स्त्री को समाज यौन हिंसा का पुरस्कार देता है. मेरा प्रश्न इस समाज से है कि आज भी स्त्रियों को यही सजा क्यों मिलती है? प्रेम का हक स्त्री को क्यों नहीं है? उपन्यास में लिली, बसंती आदि और भी लड़कियां हैं. इनके घर से भागने के पीछे कोई न कोई कारण जरूर रहा है. उदाहरण के लिए बसंती डाकुओं को खाना पहुंचाती है जिसके बदले में उसे पैसा मिलता है और घर का खर्च चलता है. यानी वह जरिया बन जाती है घर में पैसा लाने का. अब यह क्या है? वेश्यावृत्ति तो दिखाई देती है पर इस विनिमय को हम क्या कहेंगे? समाज को भी इससे समस्या नहीं है. स्त्री का सबकुछ करना स्वीकार है पर प्रेम करना स्वीकार नहीं है. इस उपन्यास में एक और बात ध्यान देने लायक है जब उजाला का बलात्कार हुआ तो उसे सीने से लगाने वाली बेला बहू ही है कोई पुरुष नहीं. मैं यह कहना चाहती हूं कि स्त्री-स्त्री की दुश्मन नहीं बल्कि उसका विस्तार है.
बेला बहू विवाह संस्था के भीतर भी उत्पीड़ित है और प्रेम में भी. प्रेम उन्हें विवाह से भी बदतर स्थिति में पहुंचा देता है. ऐसे में स्त्री के पास विकल्प क्या है?
मेरे हर उपन्यास में एक विकल्प है. स्त्री के सच्चे साथी के रूप में एक पुरुष पात्र मेरे उपन्यासों में जरूर मौजूद होता है. इस उपन्यास में ऐसा साथी बलवीर है. दरअसल बेला बहू ने विवाह की अमानवीयता से किसी तरह छुटकारा पाने के लिए प्रेम का सहारा लिया पर उन्हें प्रेम की आड़ में एक शिकारी ही मिला जैसे जीवन के तमाम फैसले हमेशा सही नहीं होते वैसे ही प्रेम में चयन का फैसला भी गलत हो सकता है, किंतु इसमें बेला बहू का कोई कसूर नहीं है. उन्होंने तो पूरी ईमानदारी से प्रेम किया. प्रेम में धोखा नहीं मिलता तो उनकी मुक्ति संभव थी. मेरा मानना है कि सच्चा प्रेम ही विकल्प है.
आपकी स्त्री पात्र इतनी सशक्त और चेतना संपन्न होते हुए भी प्रेम के मामले में एकदम बेबस और लाचार क्यों नजर आती हैं? उनकी सोचने-समझने की शक्ति कहां चली जाती है?
प्रेम में हर स्त्री का बुद्धि विवेक एक सा नहीं होता. वैसे भी प्रेम का बुद्धि और तर्क से विरोध का ही रिश्ता है. मेरी स्त्रियां निश्छल और ईमानदार हैं. इसी कारण प्रेम में धोखा खाने के बाद उनका प्रतिरोध अपने तीव्रतम रूप में दिखाई देता है. मेरी स्त्रियां अगर निश्छल प्रेम नहीं करती तो क्रांति भी नहीं कर सकती थी. जब कोमल भावनाओं की हत्या होती है तभी वह अपने प्रचंडतम रूप में अभिव्यक्त होती है. मेरा मानना है कि प्रेम स्त्री की ताकत का बीज है.
आपके रचना संसार में ऐसी विवाहित या अविवाहित स्त्रियों की भरमार है जो अपने रोजमर्रा के जीवन में पुरुषों की यौन हिंसा झेलने को अभिशप्त है तो दूसरी तरफ नई पीढ़ी की कुछ बहुप्रचारित लेखिकाओं की रचनाओं में स्त्रियां पुरुषों के साथ बराबरी पर सौदेबाजी कर रही हैं. आपमें और इनमें इतना अंतर कैसे है? मेरे लेखन का क्षेत्र इनके लेखन के क्षेत्र से भिन्न है. गांव की स्त्री का दुख उसकी आवाज और उसकी मुक्ति के रास्ते इनके लेखन से नदारद हैं. जब हम खाप पंचायतों की कहानियां लिखेंगे तो वहां समानता कैसे दिखेगी. हम खाप पंचायतों के फरमानों का क्या करें? गांव की तो छोड़ दीजिए ये लोग अपनी कहानियों में जो स्थितियां दिखा रही हैं क्या वह शहरों की भी वास्तविकता है? क्या शहरों में यौन हिंसा और बलात्कार की घटनाएं नहीं हो रही हैं. आज दिल्ली जो ‘रेप कैपिटल’ बन गई है, वह क्या है? वह जो दिखा रही हैं वह बड़े शहरों के एक छोटे से तबके की सच्चाई हो सकती है जो अपवाद है. शहरों में भी स्त्रियां कम उत्पीड़ित नहीं हैं. यह अपने-अपने सरोकार का सवाल है. मेरा सरोकार स्त्री को लेकर मौज-मस्ती वाला नहीं है.
आपकी रचनाओं में आई ग्रामीण स्त्रियां शहरों की पढ़ी-लिखी स्त्रियों की तुलना में अधिक संघर्षशील और चेतना संपन्न हैं. क्या आप मानती हैं कि आधुनिक शिक्षा और आधुनिकता ने स्त्री सशक्तिकरण की दिशा में कुछ खास नहीं किया है?
चेतना सिर्फ किताबों से नहीं अनुभव और संघर्ष से पैदा होती है. मैंने शहरों में अनेकों डिग्रीधारी स्त्रियों को देखा है जो स्त्री चेतना से पूरी तरह रहित हैं. दरअसल, शहरी समाज ने इस ‘मिथ’ को गढ़ा कि ग्रामीण स्त्रियां मूर्ख और जाहिल होती हंै. मैंने अपनी रचनाओं के द्वारा इसी मिथ को तोड़ा है. मैं खुद ग्रामीण स्त्री हूं. मेरी चेतना को शहर ने पैदा नहीं किया है. शहरों की पढ़ी-लिखी लेखिकाओं की तुलना में मेरी रचनाएं क्या स्त्री चेतना से कम संपन्न हंै? ग्रामीण स्त्रियां शहरी स्त्रियों की तुलना में अधिक कर्मठ, साहसी और ईमानदार होती हैं.
अापने पितृसत्ता पर निर्मम प्रहार किए हैं. बावजूद इसके हिंदी साहित्य में आपका मुखर विरोध पुरुष रचनाकारों ने नहीं बल्कि स्त्री रचनाकारों ने किया है. यह विरोध आज भी उसी तरह जारी है. लेखिकाओं द्वारा अपने विरोध को कैसे देखती हैं?
स्त्री रचनाकारों का यह विरोध मेरे द्वारा पितृसत्ता को निशाने पर लेने के कारण नहीं है. यह आपसी ईर्ष्या-द्वेष के कारण हो सकता है. इन लेखिकाओं को लगा कि हम लोगों के बीच यह गांव की स्त्री कहां से आ गई. ठीक उसी तरह जैसे आज राजनीतिक दलों को लग रहा है कि यह केजरीवाल कहां से आ गया? मुझे लगता है कि उनका विरोध स्वाभाविक ही था क्योंकि वे बीस-तीस वर्षों से लिख रही थी और साहित्य में बिल्कुल नई होने के बावजूद मेरा ‘इदन्नमम’ उपन्यास आया और तहलका मच गया. यहीं से मैं सबको खटकने लगी. इसके बाद मेरे उपन्यास एक-एक करके जबरदस्त चर्चित होते गए और उसके साथ मेरा विरोध भी बढ़ता गया.
इस विरोध का बड़ा कारण राजेंद्र यादव के साथ आपका घनिष्ठ जुड़ाव तो नहीं था क्योंकि राजेंद्र यादव ने हिंदी में स्त्री विमर्श के नाम पर देह विमर्श को आगे बढ़ाया और आप उसकी प्रतीक बना दी गईं. उनके साथ जुडऩे से आपको साहित्यिक लाभ हुआ या हानि?
मैं बताना चाहती हूं कि जब ‘इदन्नमम’ आया तो उसमें स्त्री विमर्श जैसा कुछ भी नहीं था, फिर भी उसका विरोध हुआ. राजेंद्र यादव ने जिस तरह से उस पर पांच समीक्षाएं हंस में छापीं, मुझे लगता है इस कारण इस उपन्यास का विरोध शुरू हो गया. वैसे अन्य जगहों पर भी उसकी अच्छी समीक्षाएं आई थीं जहां राजेंद्र यादव का कोई दखल नहीं था. मैं आज तक तय नहीं कर पायी हूं कि राजेंद्र यादव से साहित्यिक संबंध के कारण मुझे लाभ हुआ या हानि. कुछ लोगों का मानना है कि इससे मेरा नुकसान हुआ है. जो पुरस्कार वगैरह मुझे मिल सकते थे, नहीं मिले. उनके सारे विरोधी उनसे कहीं अधिक मेरा विरोध करने लगे. लेकिन मैं इस साहित्यिक संबंध को अपने लिए अच्छा ही मानती हूं.
विभूति नारायण राय प्रकरण को लेकर राजेंद्र यादव से आपकी जबरदस्त लड़ाई हुई. लोगों का कहना है कि राजेंद्र यादव से जितने फायदे लेने थे आपने ले लिया. अब आप उनसे अलग दिखना चाहती थीं इसलिए इसे बहाना बनाया.
पता नहीं यह क्यों कहा गया? यह बहाना नहीं था विरोध का कारण था. अगर फायदे की ही बात है तो मुझे तो बहुत पहले अलग हो जाना चाहिए था. मैंने तो यह तथाकथित फायदा तो बहुत पहले ही उठा लिया था. इस बात में कहीं से कोई तथ्य नहीं है. उन्होंने विभूति नारायण राय के पक्ष में तीन-तीन संपादकीय लिखे. जब मैं स्त्रियों के पक्ष में वी एन राय के खिलाफ लड़ रही थी तो राजेंद्र यादव को कैसे माफ कर देती जो वी एन राय के पक्ष में खड़े हो गए थे.
फिर उन्हीं वी एन राय से संवाद के लिए आप कैसे तैयार हो गईं?
तब दो-तीन साल हो चुके थे. पाखी के संपादक ने कहा कि हम उसी विषय पर आप दोनों के बीच संवाद करना चाहते हैं. मैंने कहा कि अगर आप समझते हैं कि मैं डर रही हूं तो ऐसी बात नहीं है, मैं आऊंगी. बल्कि सच तो यह है कि जब वी एन राय ने सुना कि मैं आ रही हूं तो वे कतराने लगे. मैं यह भी देखना चाहती थी कि जिस व्यक्ति ने अपनी अभिव्यक्ति के लिए माफी मांगी है वह वास्तव में भी कुछ बदला है या सिर्फ पद बचाने के लिए माफी मांगी है. मैंने देखा उनकी सोच में कोई बदलाव नहीं आया है.
आप विवाह संस्था की तमाम सुविधाओं का लाभ उठा रही हैं. सफल वैवाहिक जीवन भी जी रही हैं. ऐसे में आपको विवाह संस्था की मुखालफत करने का नैतिक आधिकार कैसे है? आप खुद उदाहरण प्रस्तुत करतीं.
विवाह संस्था को मैं त्याग भी सकती थी, किंतु दूसरे पक्ष की भी तो भूमिका होती है जो जाने नहीं देती. मैं विरोध के लिए विरोध नहीं करती. विवाह संस्था में अगर पति साथी की तरह चले तो मैं उसके कतई विरोध में नहीं हूं. मेरा विरोध उन जकड़बंदियों से है जो स्त्री का जीवन दूभर कर देते हैं. सबसे कठिन होता है पुरुष को बदलना. छोड़ना तो आसान है. अगर स्त्री एक पुरुष को छोड़कर दूसरे के पास जाती है तो वह भी वैसा ही मिलता है. इसलिए मेरा कहना है कि स्त्रियां पुरुषों को छोड़ें नहीं, उन्हें बदलें. अगर बदलाव की कोई गुंजाइश ही न हो तो बात अलग है. मैंने भी अपने पति को बदला है.
क्या ‘थकान लगना’ भी कोई बीमारी है? या कि यह मात्र अन्य बीमारियों का एक लक्षण मात्र है? या कि यह कुछ भी नहीं- बस मन की एक स्थिति है? दरअसल, तीनों ही बातें सही हो सकती हैं.
जब भी आपको बेहद थका-थका लगे और आप इस सिलसिले में अपने डॉक्टर से मिलने जाएं तो इन तीनों ही संभावनाओं के बारे में मन को तैयार करके जाएं. यही काफी नहीं. पहले मेरी लिखी यह टिप्पणी भी पढ़ लें. समझ लें. फिर बाकायदा तैयार होकर जाएं. वर्ना प्राय: आप कोई टॉनिक या विटामिन की गोलियों का नुस्खा झुलाते हुए
वापस आएंगे.
थकान को लेकर कुछ बातें जान लें और कुछ प्रश्नों का उत्तर तैयार रखें :
1. यह सब थकान ही है, या हम किसी और तकलीफ को थकान का नाम दे रहे हैं?
यह बात सबसे महत्वपूर्ण है. प्राय: हम अपनी ही तकलीफ को बेहद उड़ती-उड़ती और लापरवाह भाषा में डॉक्टर को बताते हैं. ‘सर, दो-चार-दस दिनों से, कुछ बुखार-फुखार टाइप हो रहा है’- ऐसा कहकर आप मात्र भ्रम ही पैदा करते हैं. तो पहले यह तय करें कि जो भी आपको हो रहा है वह थकान ही है? कहीं काम करने पर सांस फूल जाती हो और उसे ही आप थकान का नाम देकर कम आंकने की कोशिश तो नहीं कर रहे? कहीं जरा सी मेहनत में ही आंखों के सामने अंधेरा या चक्कर तो नहीं आ जाते जिसे आप थकान बता रहे हो? कहीं जरा सा परिश्रम करने पर छाती तो भर नहीं जाती और आगे चलने से रोकती है- और इसे थकान मान बैठे हों आप?
मेरे पास बहुत बार ऐसे ही मरीज आते हैं. मालूम पड़ा कि एक सौ तीन बुखार है पर वे उसकी बात ही नहीं कर रहे. वे कह रहे हैं कि सर, बड़ी थकान लग रही है. बस. यदि बुखार होगा तो थकान तो होगी ही न. थकान का अर्थ थकान ही है. बैठे-बैठे भी हाथ-पांव थके से लगते हैं. काम करने की मानो क्षमता ही नहीं बची. हाथ-पांव टूटते से हैं. उठते ही नहीं. हम मानते हैं कि यह सब थकान के कारण हो सकता है, सो इसे भी थकान का नाम दे देते हैं. यदि डॉक्टर जल्दी में हो या गहराई से न पूछे तो उनसे कोई बड़ी बीमारी छूट सकती है. तो सोच समझकर अपनी तकलीफ सही से पूछें.
2. क्या थकान के साथ और भी कोई लक्षण हैं?
यदि थकान किसी अन्य बीमारी की वजह से हो रही है तो और लक्षण भी अवश्य होंगे. कई बार थकान इतनी ज्यादा होती है कि हम दूसरे ‘छोटे-मोटे’ लक्षणों पर ध्यान ही नहीं देते. डॉक्टर को पूरी बात न बताई तो वह आपके हाथ में टॉनिक नाम का ‘जांबाजी का द्रव्य’ पकड़ा देगा.
सोचिए थकान के साथ कुछ और तो नहीं हो रहा?
कहीं हल्का बुखार तो नहीं हो रहता? (यह टीबी हो सकती है. मलेरिया तक ऐसा कर सकता है. औरतों में विशेषतौर पर, पेशाब तथा ‘पेल्विक’ क्षेत्र के इंफेक्शन ऐसे हो सकते हैं कि हल्का बुखार हो और बेहद थकान लगे. वैसे तो शरीर में किसी भी इंफेक्शन के चलते यह हो सकता है.)
सोचिए कि पेशाब और प्यास का क्या हाल है?(डायबिटीज का पहली बार पता कई बार इसी तरह से चलता है. बहुत थकान तो लगती ही है, साथ में कई बार, बहुत प्यास और बार-बार पेशाब भी लगती है.)
क्या आपका वजन भी कम हुआ है? (डायबिटीज, टीबी, कैंसर, हाईपरथायराइड आदि में थकान के साथ वजन भी गिर सकता है.)
क्या वजन बढ़ रहा है? थकान खूब लगती है और लोग यह कह रहे हैं कि ‘हेल्थी’ हो रहे हो बॉस! (वजन का बढ़ना थायरॉयड की हाइपोथायरायडिज्म नामक बीमारी, कई और इंडोक्राइन बीमारियों, डिप्रेशन तथा डायबिटीज में हो सकता है. डायबिटीज में वजन बढ़ भी सकता है और घट भी सकता है. इस लिहाज से यह बड़ी मायावी बीमारी है.)
भूख कैसी है?
क्या थकान हरदम रहती है या बस कभी-कभी? ‘डॉक्टर साहब, कभी तो एकदम बढ़िया लगता तो है, कभी बहुत थकान लगती है.’ या आपको ऐसा तो नहीं लगता कि सुबह उठकर तो बड़ी थकान रहती है, पर ‘एक बार काम करने लग जाऊं तो सब ठीक लगने लगता है.’ (यह सब मानसिक अवसाद, तनाव आदि के कारण हो सकता है.)
3. आप किसी और बीमारी के लिए कोई और दवाइयां तो नहीं ले रहे? हो सकता है कि आपकी थकान किसी दवा के कारण हो? ब्लडप्रेशर से लेकर सूजन कम करने की दवाइयां तक आपमें बेहद कमजोरी कर सकती हैं. आप तो यह मानकर चलें कि कोई भी दवा ऐसा कर सकती है. इसमें आयुर्वेदिक, हकीमी, यूनानी, देसी जड़ी-बूटी आदि भी शामिल हैं. यदि कोई भी दवाई ले रहे हों तो डॉक्टर के पास जाते समय वे दवाइयां, प्रिस्क्रिप्शन आदि भी लेकर जाएं. खुद भी इंटरनेट पर जाकर या दवाई के रैपर को पढ़कर समझने की कोशिश कर सकते हैं कि यह दवाई का दुष्प्रभाव तो नहीं?
4. प्राय: थकान का कोई कारण नहीं निकलता परंतु अपनी जांच अवश्य करा लें.
थकान लगती है तो जांच तो आवश्यक है. एनीमिया से लेकर टीबी, कैंसर, लीवर की बीमारी- कुछ भी निकल सकता है. प्राय: कुछ भी नहीं निकलता. यह सब मात्र तनाव, बहुत काम और डिप्रेशन के कारण भी लग सकता है. आजकल विशेषतौर पर मानसिक डिप्रेशन का यह एक महत्वपूर्ण शुरुआती लक्षण हो सकता है. आप कहेंगे कि मैं तो बिल्कुल डिप्रेस नहीं. बस यह बिना बात की थकान ही लगी रहती है. तो मित्र यह बिना बात की थकान नहीं है. वो कहते हैं न कि यूं ही कोई बेवफा नहीं होता.
5. विटामिन डी, बी-12 तथा विटामिन सी आदि की कमी, खून में आयरन की कमी आदि भी थकान पैदा करते हैं.
पर उन पर बातें फिर कभी.