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साहस या मजबूरी?

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फोटो: प्रशांत रवि

16 मई को लोकसभा चुनाव परिणाम आने के साथ-साथ देश भर में भाजपा की भारी जीत की धूम मचने लगी थी. कांग्रेस व वामपंथी दलों समेत कई क्षेत्रीय क्षत्रप अपनी करारी हार के चलते चिंता में डूबे जा रहे थे. उधर, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जद यू के नेताओं की टकटकी लोकसभा चुनाव परिणाम के समानांतर ही एक दूसरे नतीजे पर भी लगी हुई थी. दरअसल वह बिहार में पांच विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के परिणामों का भी दिन था. लोकसभा में जदयू की 20 सीटों का दो तक सिमट जाना ही नीतीश और उनकी पार्टी को निराशा की गर्त में भेजने के लिए काफी था, लेकिन विधानसभा उपचुनाव के परिणाम तो जले पर नमक छिड़कने जैसे हो गए. जदयू पांच सीटों में से सिर्फ एक पर जीत सकी. लोकसभा चुनाव में बदतर प्रदर्शन को लेकर जदयू का कोई नेता बोलने की स्थिति में नहीं था. भाजपा से अलगाव के बाद और लोकसभा चुनाव करीब आने के पहले दिल्ली में मोदी और बिहार के लिए नीतीश ही सबसे फिट हैं, का जो मिथ गढ़ा या रचा गया था वह इस आंधी में भरभराकर बिखर गया.

रही-सही कसर अपनों ने पूरी कर दी. कल तक नीतीश के करिश्मे और चमत्कार के सहारे ही मोदी से लड़कर जंग जीतने का दम भरने वाले जदयू नेताओं के बयान पलटने लगे. जदयू के एक धाकड़ विधायक ज्ञानू सिंह ने कहा, ‘नीतीश कुमार में आत्मबल की कमी है. उनका यही रवैया रहा तो अगले विधानसभा चुनाव में भी पार्टी की लुटिया डूबेगी.’ चुनाव में चुप्पी साधे रहनेवाले ज्ञानू सिंह आगे बोले, ‘पांच-पांच टिकट कुशवाहा, यादव और मुसलमानों को देने की क्या जरूरत थी? ज्यादा से ज्यादा बाहर से आये दलबदलुओं को टिकट देने की क्या जरूरत थी?’

ज्ञानू सिंह का यह कहना सिर्फ हार से उपजी पीड़ा भर नहीं थी बल्कि वे सीधे-सीधे नीतीश कुमार की राजनीतिक समझ और रणनीति को चुनौती दे रहे थे. शाम तक अंदरखाने में यह बात तैरने लगी कि ज्ञानू सिंह ने नये अध्याय की शुरुआत कर दी है, अब इस अध्याय को बढ़ाने का सिलसिला कल से जारी होगा. जदयू से हाल में निकाले गए शिवानंद तिवारी जैसे नेता नसीहत देने लगे कि नीतीश को अब इस्तीफा दे देना चाहिए. नैतिकता के आधार पर नीतीश से इस्तीफा मांगनेवाले और लोग भी सामने आए. हवा में भाजपा के वरिष्ठ नेता सुशील कुमार मोदी की वह बात भी तैरने लगी जो उन्होंने कुछ दिनों पहले कही थी. मोदी ने कहा था कि जदयू के 50 से अधिक विधायक उनके संपर्क में हैं.

16 मई को जब यह सब हो रहा था और तमाम बातें एक-दूसरे से टकरा रही थीं तो नीतीश कुमार मौन साधे हुए थे. जदयू के नेता उनसे मिलने जा रहे थे, लेकिन उनमें से कइयों को बैरंग लौटना पड़ रहा था. शाम होते-होते बातें होने लगीं कि नीतीश फिर कोई चौंकानेवाला फैसला लेंगे. अगले दिन 17 को वह समय भी आ गया जब शाम को अचानक खबर फैली कि नीतीश ने राजभवन को अपना इस्तीफा भेज दिया है. लेकिन साथ ही यह भी सामने आया कि उन्होंने विधानसभा भंग करने की सिफारिश नहीं की है. नीतीश कुमार ने संक्षिप्त प्रेस कांफ्रेंस कर कहा कि वे हार की नैतिक जिम्मेवारी लेते हुए इस्तीफा दे रहे हैं. यह भी कि यह कदम सोच समझकर और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से सलाह लेने के बाद उठाया गया है. नीतीश कुमार अपनी ओर से अगर यह नहीं भी बताते तो भी सबको यह बात समझ में आ जाती कि उन्होंने यह फैसला सोच समझकर ही लिया होगा. सोचने समझने के लिए ही वे चुनाव परिणाम वाले दिन कोई प्रतिक्रिया देने, टिप्पणी करने या बयान देने से बचे होंगे. लेकिन असल सवाल यह है कि आखिर नीतीश कुमार ने इस्तीफा देने का रास्ता क्यों चुना. क्या वाकई नैतिक आधार पर ही या मजबूरी में एक आखिरी दांव खेलकर वे एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश कर रहे हैं?

नैतिकता के आधार पर नीतीश कुमार इस्तीफा दे सकते हैं. जानकारों के मुताबिक ऐसा फैसला करनेवाले नेता के तौर पर उन्हें माना जा सकता है, क्योंकि नरेंद्र मोदी के नाम पर भाजपा से अलग होने के जदयू के फैसले में सबसे अहम भूमिका उनकी ही थी. तब भी नीतीश कुमार जानते थे कि भाजपा से अलग होने और कांग्रेस का साथ नहीं मिलने के बाद उनकी स्थिति कमजोर होगी. इसके बावजूद उन्होंने तब यह फैसला लिया था. लेकिन 17 मई को नीतीश कुमार ने जिस तरह से अचानक इस्तीफे का ऐलान किया तो इसे लेकर तमाम तरह की बातें की जाने लगीं. मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद उन्होंने विधानसभा भंग करने की सिफारिश नहीं की तो यह माना गया कि यह एक तीर से कई शिकार करने की चाल भी है.

नीतीश के सामने अगर सिर्फ लोकसभा में बुरी तरह से हार जाने का मामला होता तो शायद वे इस रास्ते को नहीं अपनाते. लेकिन वे कई तरफ से घिर रहे थे. विधानसभा उपचुनावों में भी बुरी तरह से हार जाना, हार के बाद तुरंत पार्टी नेताओं का विरोध में बयान आने लगना, विधानसभा में भी संख्या बल के लिहाज में रिस्क जोन में पहुंच जाना उनके लिए बड़ी परेशानी खड़ी करता दिख रहा था. बिहार में विधानसभा की कुल 243 सीटें हैं. एक सीट खाली है. नीतीश कुमार की पार्टी के खाते में फिलहाल 113 सीटें है. कांग्रेस के चार, भाकपा के एक और छह निर्दलीय विधायकों के सहारे उनकी सरकार चल रही है. कुल मिलाकर बहुमत बनाए और सरकार चलाए रखने के लिए उन्हें 122 सीटें चाहिए. वैसे तो नीतीश कुमार के पास 124 सीटें हैं. बहुमत से दो ज्यादा. लेकिन मुश्किल यह है कि अब उनका बुरा समय है तो निर्दलीय सरकार को बचाए रखने की कीमत तो वसूलने की कोशिश करेंगे ही. उधर, कांग्रेस जो राष्ट्रीय स्तर पर अब तक के सबसे बुरे दौर में आ चुकी पार्टी है, किसी भी समय नीतीश से दामन छुड़ा सकती है. लोकसभा चुनाव तक तो कांग्रेस लालू प्रसाद और नीतीश कुमार, दोनों को एक साथ साधती रही. दिल्ली की सत्ता के लिए उसने लालू का साथ लिया और बिहार में नीतीश की सरकार को भी समर्थन देकर बचाए रखा. बिहार में विधानसभा चुनाव भी अगले ही साल होनेवाला है, इसलिए जानकारों के मुताबिक कांग्रेस को तय करना होगा कि वह लालू और नीतीश में से किसका साथ लेगी या देगी. प्रदेश में 40 लोकसभा सीटों पर हुए चुनाव में करीब 34 सीटें ऐसी थीं जहां भाजपा से राजद ही लड़ाई में रहा. यानी राजद की स्थिति ठीक रही. इसलिए संभव है कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस नीतीश की बजाय लालू के साथ ही जाए. उधर, सब जानते हैं कि बिहार की राजनीति में भी नीतीश कुमार और उनकी पार्टी का भविष्य अब कांग्रेस के ही आजू-बाजू जाकर सिमट गया है, भले ही कांग्रेस बुरे दौर में आ गई पार्टी हो.

जानकारों के मुताबिक नीतीश कुमार जानते हैं कि भाजपा या दूसरे दलों के खेल की बात तो बाद में आती है, अब उनके लिए अपने ही दल के नेताओं की बगावत झेलना या उनका खेल समझना इतना आसान नहीं होगा. इसलिए उन्होंने आखिरी दांव के तौर पर यह चाल चली और विधानसभा भंग करने की सिफारिश नहीं की. विश्लेषक कह रहे हैं कि ऐसा करके नीतीश कुमार ने शहादत भी दी और विकल्प भी अपने पाले में बचाए रखा. उन्होंने यही सोचकर विधानसभा भंग करने की सिफारिश नहीं की ताकि फिर उनके दल के नेता उनमें विश्वास जताएं और तब वे अपनी पार्टी के नेताओं को हिदायत दे सकें कि यदि उनके साथ, उनके नेतृत्व में चलना है तो फिर विधानसभा चुनाव तक उनके कहे अनुसार चलना होगा. नीतीश कुमार के लिए अब यह जरूरी हो गया था कि वे अपने विधायकों को एक साथ बिठाकर निकट भविष्य में बगावत के उभरनेवाले स्वर को अभी से ही दबाने की कोशिश करें. वरना खतरा जदयू विधायकों के ही विद्रोह से नेता के बदलने से लेकर उनके भाजपा के संग मिलकर नयी सरकार बना लेने तक का था. उनका यह दांव काम करता भी लग रहा है. खबर लिखे जाने तक कई विधायक और मंत्री इस फैसले के विरोध में मुख्यमंत्री निवास के बाहर जमा भी हो गए थे. एक ने तो नीतीश द्वारा इस्तीफा वापस न लिए जाने पर आत्मदाह की धमकी भी दे डाली.

नीतीश के सामने मुश्किलें और भी मोर्चों पर हैं. पिछले कई महीने से मंत्रिपरिषद की 12 सीटें खाली हैं. इतने विभागों का काम नीतीश अपने पास ही रखे हुए हैं और उन विभागों को आईएएस अधिकारी संचालित करते हैं. इससे जदयू नेताओं में नाराजगी पहले से ही है. नीतीश पर दबाव होगा कि वे मंत्रिमंडल का विस्तार जल्द करें. उन्हें मजबूरी में यह विस्तार करना होगा. लेकिन इसकी अपनी मुश्किलें हैं. जदयू के विधायक पहले से उम्मीद लगाए बैठे हैं. निर्दलीय समर्थन देने के एवज में मलाईदार विभाग मांगेंगे. सौदेबाजी करेंगे. एक की सुनें तो दूसरा नाराज.

नीतीश कुमार को लोकसभा चुनाव में बुरी हार के बाद हार के कारणों की समीक्षा की बजाय इतने सारे सवालों से पहले निपटना था. उनकी पार्टी अलग-थलग पड़ चुकी है. वे खुद भी अलग-थलग पड़ चुके हैं. ऐसे में नीतीश के सामने यही एक मजबूत वैकल्पिक रास्ता था कि वे इस्तीफा देकर एक साथ कई मसले सुलझा लें. यानी राष्ट्रीय स्तर पर नैतिकता के रास्ते चर्चा में आ जाएं. अपने दल का अंतर्कलह शांत कर लें. बागी-विरोधी नेताओं को साधकर फिर से अपनी पार्टी पर मजबूत पकड़ बना लें ताकि अगले साल होनेवाले विधानसभा चुनाव को भी अपनी रणनीति के साथ लड़ सकें.

नीतीश के इस्तीफे की वजह नैतिक रही या यह एक आखिरी दांव की तरह रहा, इसे तब तक कोई नहीं जान सकता जब तक नीतीश खुद के पत्ते खुद ही न खोल दें. अगर वे फिर से पार्टी नेताओं के दबाव की दुहाई देकर मुख्यमंत्री बन जाते हैं तो माना जाएगा कि यह नाखून कटाकर शहीद होने जैसा था. हालांकि जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव ने साफ कर दिया है कि विधायक दल के नेता का चुनाव होगा. लेकिन नीतीश के इस्तीफे का एक मतलब यह भी है कि वे चाहते हैं कि भाजपा आनन-फानन में कोई खेल करे ताकि वे अभी से ही जनता की अदालत में चले जाएं और सबको समझाएं कि आप तय कीजिए कि बिहार में कौन चाहिए! लेकिन भाजपा भी अभी इस तरह का जोखिम नहीं लेना चाहती. पार्टी विधायक दल के नेता नंदकिशोर यादव कहते हैं, ‘नीतीश कुमार ने अपने दल के अंदर के विद्रोह को दबाने की कोशिश में इस्तीफा दिया है. इसका कोई दूसरा मतलब नहीं है.’ भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय कहते हैं, ‘यह इस्तीफा एक नाटक है. नीतीश कुमार अपने काम के आधार पर ही लोकसभा चुनाव में वोट मांग रहे थे, लोगों ने उनके काम को नकार दिया, वोट नहीं दिया तो उन्हें मुकम्मल इस्तीफा देना चाहिए था. आगे क्या होगा, आगे की बात है.’

फड़फड़ाती उम्मीद की लौ

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फोटो: विकास कुमार

कुल डेढ़ साल पहले बना कोई राजनीतिक दल 433 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ना चाहे तो राजनीतिक पंडित इसे दुस्साहस की संज्ञा तो देंगे ही. 2014 के लोकसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी और उसके मुखिया अरविंद केजरीवाल ने यही दुस्साहस किया था. चुनाव के नतीजे बता रहे हैं कि उन्हें ऐसा करना महंगा पड़ा है.

वैसे आम आदमी पार्टी का अपनी स्थापना से पहले और बाद का इतिहास ऐसा ही रहा है. अपनी स्थापना के महज साल भर के भीतर ही यह पार्टी दिल्ली राज्य की सत्ता तक पहुंच गई थी. जनलोकपाल आंदोलन के रूप में शुरू हुआ कुछ गैर सरकारी संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का आंदोलन जल्द ही एक ऐसे मास मूवमेंट में तब्दील हो गया जिसने अपने दो साल के अल्पकालिक जीवन में तीन-तीन बार शक्तिशाली भारतीय गणराज्य को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया. दिल्ली के विधानसभा चुनाव के बाद तो यह धारणा बन गई थी कि अरविंद केजरीवाल और आप कोई गलत कदम उठा ही नहीं सकते. किस्मत पूरी तरह से उनके साथ थी. बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी, फिल्म कलाकार, उद्योगपति और दूसरी पार्टियों के लोग आप से जुड़ रहे थे. आम आदमी पार्टी के लिए सब कुछ अच्छा ही अच्छा हो रहा था.

फिर अचानक ही कुछ अलग हुआ. 16 मई को वाराणसी में लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद आप के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल ने मीडिया से कहा, ‘हम काफी अच्छा कर सकते थे. हमसे कुछ गलतियां हुई हैं. हमें निराशा है.’ वह पार्टी जिसका हर कदम पारस पत्थर सिद्ध हो रहा था, उसके मुखिया को ऐसा क्यों लगा कि उससे कुछ गलतियां हुई हैं.

इसकी वजह है 16 मई को आए लोकसभा चुनाव के नतीजे. इन नतीजों में आम आदमी पार्टी ने उसके नेताओं के अनुमानों से बहुत नीचे प्रदर्शन किया है. पार्टी के अपने गढ़ दिल्ली में उसका सूपड़ा साफ हो गया. खुद अरविंद बनारस से लोकसभा चुनाव हार गए. उनके नजदीकी सहयोगी कुमार विश्वास को अमेठी में कुल जमा पच्चीस हजार वोट हासिल हुए हैं. पार्टी के बाकी दो जाने-पहचाने नेता शाजिया इल्मी और योगेंद्र यादव की जमानत तक जब्त हो गई है. पार्टी का पूरा शीर्ष नेतृत्व ही हार गया है.

इस विपरीत माहौल में पंजाब से अनपेक्षित रूप से मिली चार सीटों ने आप की थोड़ी सी इज्जत बचा ली है. पूरे देश में वैकल्पिक और बदलाव की राजनीति की उम्मीद जगाने वाली एक पार्टी के साथ ऐसा क्या गलत हुआ? क्या आप के साथ जो हुआ है वह राजनीति की सामान्य प्रक्रिया है या फिर पार्टी राजनीतिक यथार्थ को नजरअंदाज कर अपनी क्षमताओं से परे सपने देख रही थी. महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि इस झटके के बाद उस नई राजनीतिक उम्मीद और आप का भविष्य क्या होगा? वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी कहते हैं, ‘आप का भविष्य उज्ज्वल है. आप देखिए कि बसपा साफ हो गई, सपा साफ हो गई, लेफ्ट का सफाया हो गया उसमें भी आप का उभरना महत्वपूर्ण है.’

पंजाब में मिली जीत के अलावा थानवी जी का इशारा दिल्ली में आप को मिले कुल वोट प्रतिशत की तरफ भी है. दिल्ली के विधानसभा चुनाव में आप को कुल 30 फीसदी वोट मिले थे जबकि दिल्ली के लोकसभा चुनाव में उसका वोट प्रतिशत बढ़कर 33.1 फीसदी हो गया. दिल्ली की सातों लोकसभा सीटों पर आप दूसरे स्थान पर रही है. लेकिन इतने भर से क्या आप देश भर के लोगों में किसी नई वैकल्पिक राजनीति का भरोसा जगा सकती है? आम जनता को फिलहाल छोड़ भी दें तो क्या आप के अपने कार्यकर्ताओं में इन नतीजों से कोई भरोसा बढ़ेगा?

ये ऐसे सवाल है जिनका फिलहाल सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है. एक बात तो बेहद साफ थी कि जितने संसाधन आप के पास थे उनके दम पर 433 सीटों पर लड़ने का फैसला समझदारी भरा नहीं था. जिस समय लोकसभा चुनावों की घोषणा हुई उस समय तक आप के कोषागार में महज 37 करोड़ रूपए थे. खुद पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रशांत भूषण ने नतीजे आने के बाद कहा, ‘हमारे पास भाजपा के मुकाबले दशमलव एक (0.1) प्रतिशत संसाधन थे.’ थानवी आप की इस चूक को एक राजस्थानी कहावत के जरिए रखते हैं, ‘ठंडा कर-कर के खाना चाहिए, हड़बड़ी में मुंह जल जाता है. लेकिन इस नतीजे से कुछ जरूरी सबक मिलेंगे जो आने वाले समय में आप को पहले से ज्यादा जरूरी सिद्ध करेंगे.’

notaआप के अंदरूनी लोगों से बातचीत में जो बात सामने आती है उसके मुताबिक आज भले ही लोग इतनी सीटों पर चुनाव लड़ने को गलत बता रहे हों लेकिन जब यह फैसला लिया गया था उस समय इतने ही लोग इसके पक्ष में भी थे. एक आकलन यह था कि जनता में आप को लेकर एक सकारात्मक माहौल है, अगले लोकसभा चुनाव पांच साल बाद होंगे तो क्यों न इस सकारात्मक माहौल का फायदा उठा लिया जाए. एक राजनीतिक दल के लिहाज से ऐसा सोचना गलत भी नहीं था.

लेकिन ऐसा करने में कुछ गलतियां हुईं जिनका अहसास पार्टी को भी है. मसलन लोकसभा की हड़बड़ी में दिल्ली की सरकार से इस्तीफा देने का फैसला. खुद अरविंद केजरीवाल इसे एक बड़ी भूल स्वीकार कर चुके हैं. अकेले इस कदम ने उनकी लोकसभा की लड़ाई को पटरी से उतार दिया. एक राजनेता के रूप में उनकी विश्वसनीयता को जबर्दस्त धक्का पहुंचाया. पूरे लोकसभा कैंपेन के दौरान उनका सामना ‘दिल्ली का भगोड़ा’ जैसें नारों से होता रहा. खुद को शहीद साबित करने की केजरीवाल की सारी कोशिशें व्यर्थ रहीं. ऊपर से उनके सामने जो प्रतिद्वंद्वी था उसके संसाधनों और प्रचार तंत्र ने इस माहौल को जमकर फैलाने का काम किया. पार्टी के भीतर शीर्ष स्तर पर इसे लेकर चाहे जो विचार चल रहे हों पर पार्टी के एक वरिष्ठ सदस्य और सबसे विश्वसनीय चेहरा योगेंद्र यादव को इस बात का अहसास है, ‘मेरे साथियों का आकलन था कि दिल्ली का चमत्कार पूरे देश में दोहराया जा सकता है. लेकिन इसमें काफी समय लगता है.’

दूसरी गलती यह कि फायदा उठाने का लालच भी कुछ ज्यादा ही हो गया. पार्टी के पास न तो किसी भी तरह के संसाधन थे और न ही जरूरी समय. ऐसे में ज्यादा से ज्यादा 50 ऐसी सीटें जीतने की कोशिश करना ही व्यावहारिक था जहां आप का प्रभाव होने की उम्मीद थी. लेकिन पार्टी ने 433 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया.

इसी तरह का एक फैसला था अरविंद के बनारस से चुनाव लड़ने का. बनारस के एक वोटर ने मोदी के समर्थन और केजरीवाल के विरोध के सवाल पर एक न्यूज चैनल से एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही, ‘मोदी ने बनारस को, बनारस के कारण चुना है जबकि केजरीवाल ने बनारस को मोदी के कारण चुना है. वैसे केजरीवाल का बनारस से कोई लेना-देना नहीं है.’

चुनाव के आखिरी पूरे महीने अरविंद सिर्फ मोदी को हराने की राजनीति करते दिखे जबकि राष्ट्रीय चुनाव में मोदी के रूप में जनता ने उस नेता को देखा-पाया जो विकास की उम्मीद जगा रहा था. उधर केजरीवाल का पूरा अभियान एक सूत्रीय और लगभग एकसुरा हो गया था. उनके हर भाषण के केंद्र में मोदी-अंबानी-अडानी ही थे. बनारस जैसे घनघोर राजनीतिक डीएनए वाले समाज को ऐसे मुद्दों से प्रभावित कर सकना आसान नहीं है जिसका उनसे सीधा कोई जुड़ाव नहीं हो. यहां अरविंद ने एक राष्ट्रीय नेता के सामने एक छोटे-मोटे नेता जैसी छवि बना ली. इस छवि ने जितना नुकसान उनका किया उससे कहीं ज्यादा नुकसान उनकी पूरी पार्टी का हुआ. आप के नेता बंगलोर-चेन्नई से लेकर सुदूर पूर्वोत्तर के राज्यों में खम ठोंक रहे थे. और उनका राष्ट्रीय नेता सिर्फ अपनी सीट पर धूनी रमाकर बैठ गया था. अरविंद केजरीवाल बिहार, झारखंड आदि राज्यों का दौरा तक करने नहीं गए. एक समय चुनाव के बीच ऐसा भी आया जब अमेठी से राहुल गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ रहे आप नेता कुमार विश्वास ही उनसे नाराज होकर बैठ गए. नाराजगी का यही आलम लगभग सारे उम्मीदवारों में देखा गया. बंगलोर से चुनाव लड़ रहे वी बालाकृष्णन की भी यही शिकायत रही.

जाहिर है ऐसे में चुनावी नतीजों के आने के बाद पार्टी के भीतर असंतोष के सुर उभरने ही थे. पार्टी की राजनीतिक सलाहकार कमेटी के सदस्य इलियास आजमी ने अरविंद केजरीवाल पर एकतरफा फैसले करने का आरोप लगाया है. पार्टी के छोटे-बड़े कार्यकर्ता दबे-छिपे अब यह सवाल उठाने लगे हैं कि जब केजरीवाल को अमेठी और बनारस से ही चुनाव लड़ना था तो इतने बड़े तामझाम की जरूरत क्या थी. आने वाले कुछ दिनों में पार्टी के भीतर उखाड़-पछाड़ की घटनाएं तेज होंगी. इलियास आजमी उसकी बानगी हैं. संभव है कि इस झटके के बाद पार्टी से जुड़े कई लोग उसे छोड़कर अपने-अपने रास्ते चले जाएं. उस स्थिति से निपटना आप के लिए चुनौतीपूर्ण होगा. फिर जो लोग रह जाएंगे वही शायद असली आप के लोग होंगे.

हालांकि बनारस से चुनाव लड़ने के अपने फायदे थे. इसकी वजह से केजरीवाल हर वक्त मीडिया में एक बेहद महत्वपूर्ण नेता के तौर पर छाए रहे लेकिन कुछ लोगों को यह भी लगता है ऐसा करके उन्होंने संसद में जाने का मौका खो दिया जिससे पार्टी को कई फायदे मिल सकते थे. हालांकि ओम थानवी इससे इत्तफाक नहीं रखते, ‘सांसद बनना इतना महत्वपूर्ण नहीं है. संसद से बाहर रहकर ही अरविंद ने वाड्रा और गडकरी के खिलाफ मोर्चा खोला था. बनारस की लड़ाई का प्रतीकात्मक महत्व है. कॉरपोरेट, धनबल से सक्षम एक आदमी के सामने संसाधनविहीन आदमी की लड़ाई का प्रतीक है बनारस का चुनाव.’

जहां तक प्रतीकों की राजनीति का सवाल है तो उसकी भी एक लिहाज से अरविंद केजरीवाल ने हद कर दी थी. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि मुख्यमंत्री रहते हुए सड़क पर सोने से लेकर बनारस के चुनाव के जरिए मीडिया कवरेज पाने की कोशिशों ने भी आम आदमी के मन में आप के लिए कुछ नकारात्मक भावना पैदा कर दी थी. ऊपर से 49  दिन के दिल्ली शासन का हर दिन विवादित रहा और आप के हिस्से में कई अनावश्यक सुर्खियां आईं.

सवाल है कि इतने सीमित संसाधनों और सीमित अपील वाली पार्टी का भविष्य क्या होगा. मनीष सिसोदिया कहते हैं, ‘नतीजों से हमें निराशा हुई है लेकिन हमारे लिए उम्मीद बाकी है. दिल्ली में हमारे वोट प्रतिशत में साढ़े तीन फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है. हम फिर से दिल्ली में मेहनत करेंगे.’ यह बात तय है कि दिल्ली में जल्द ही अब विधानसभा के चुनाव फिर से होंगे. पर आम आदमी पार्टी को यह मुगालता नहीं पालना चाहिए कि वह फिर से यहां वही चमत्कार कर देगी. इतिहास इतनी जल्दी और बार-बार मौका दे ऐसा कम ही होता है. ले दे कर पार्टी के पास उस मूल विचार पर लौटने के सिवा कोई चारा नहीं है जिसका जिक्र गाहे-बगाहे योगेंद्र यादव करते रहते हैं- ‘राजनीति लंबी प्रक्रिया है. यहां पहला चुनाव हारने के लिए दूसरा चुनाव हराने के लिए और तीसरा चुनाव जीतने के लिए लड़ा जाता है.’

आप को लेकर सवाल और भी कई हैं. मसलन क्या आप वास्तव में देशव्यापी, पंथ निरपेक्ष, सर्व समावेशी विकल्प के रूप में खड़ी हो सकेगी या फिर वह दिल्ली जैसे राज्य की एक क्षेत्रीय पार्टी बनकर रह जाएगी. या फिर धूमकेतु की तरह क्षणिक चमक बिखेर कर लुप्त हो जाएगी. इन सवालों के जवाब आने वाले दिनों में पार्टी के क्रिया-कलापों से खुद ब खुद मिलने लगेंगे. उम्मीद की एक लौ आप उस भाजपा से भी उधार ले सकती है जिसने आज उसे इस दुर्गति तक पहुंचाया है.

हार पर सवार

MP-Issueइस लोकसभा चुनाव के लिए यह रिकॉर्ड ही कहा जाएगा कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने आधे दर्जन राज्यों की सभी सीटें जीती हैं. इसमें भी विशेष बात है कि राजस्थान, गुजरात, हिमाचल, उत्तराखंड, दिल्ली और गोवा की इन सभी सीटों पर उसका कांग्रेस से सीधा मुकाबला था, यानी चुनाव में यहां कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया. इन राज्यों में यदि गुजरात को छोड़ दें तो भाजपा की जीत से फिलहाल कांग्रेस से जुड़े कोई दीर्घकालिक नतीजे नहीं निकाले जा सकते. लेकिन इसके साथ देश में दो राज्य ऐसे भी हैं जहां कहने के लिए तो कांग्रेस का सूपड़ा साफ नहीं हुआ लेकिन बीते एक दशक में वह ऐसी हालत में पहुंच चुकी है जहां से उसकी वापसी दिन प्रतिदिन मुश्किल होती जा रही है. हम बात कर रहे हैं मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की. इन दोनों राज्यों में कांग्रेस को क्रमश: दो और एक सीट मिली है.

पिछले तीन विधानसभा और इस आम चुनाव में मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की पराजय औचक रूप से नहीं हुई. दरअसल इसकी पटकथा पिछले दो दशकों से लिखी जा रही थी. इसकी इबारत बताती है कि यदि कांग्रेस मध्य प्रदेश (कुल सीट 29) में 12 में से दो सीटों पर सिमट गई या छत्तीसगढ़ (कुल सीट 11) में चरणदास महंत, अजीत जोगी जैसे दिग्गज नेता चुनाव हार गए तो इसकी पीछे कथित ‘मोदी लहर’ से बड़ी वजहें जिम्मेदार हैं. ये वजहें, कांग्रेस के नजरिए से कहें तो कमजोरियां, इस हद तक पार्टी पर हावी हैं कि निकट भविष्य में पार्टी के लिए उनसे निजात पाना मुश्किल ही लग रहा है. तो आखिर क्या हैं वे वजहें और कैसे वे कांग्रेस के लिए इन दोनों राज्यों में विलुप्ति का सबब बन सकती हैं.

पार्टी से बड़े क्षत्रप

दोनों ही प्रदेशों में कांग्रेस का दुर्भाग्य है कि उसके कई क्षत्रप मैदान में हैं. इन्हीं की आपसी खींचतान और खुद को सबसे ऊपर रखने की होड़ ने कांग्रेस के ताबूत में कील ठोकने का काम किया है. मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ, अजय सिंह राहुल (कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे अर्जुन सिंह के पुत्र) की सियासी खींचतान ने पार्टी को मृत्युशैया पर पहुंचा दिया है. वहीं छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी, चरणदास महंत, शुक्ल गुट, सत्यनारायण शर्मा, मोतीलाल वोरा जैसे दिग्गज नेताओं ने अपने अहम की पूर्ति के आगे पार्टी हितों को बौना कर दिया है. छत्तीसगढ़ में चुनाव का पूरा वक्त नेताओं की आपसी लड़ाई में बीत गया. अजीत जोगी को आगे बढ़ने से रोकने के लिए पहले सारे गुट एक होकर जोगी बनाम संगठन की लड़ाई को हवा देते रहे फिर ऐन चुनाव के वक्त कई विधायकों ने अपने-अपने क्षेत्रों में काम करने के बजाय अपने आकाओं के इलाके में हाजिरी लगानी शुरू कर दी. यही कारण था कि विधानसभा चुनाव में जिन सीटों पर कांग्रेस जीती थी उसका फायदा लोकसभा चुनाव में पार्टी को नहीं मिल पाया. इसका सबसे सटीक उदाहरण छत्तीसगढ़ की सरगुजा सीट है. अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित इस लोकसभा सीट में आने वाली आठ विधानसभा सीटों में से सात पर कांग्रेस का कब्जा है. महज चार महीने पहले संपन्न विधानसभा चुनाव में सरगुजा में कांग्रेस को पांच लाख पचहत्तर हजार से ज्यादा वोट मिले थे. जबकि भाजपा को चार लाख सड़सठ हजार वोट. यानी यहां की आठ विधानसभा सीटों पर कांग्रेस को करीब एक लाख वोट से अधिक की बढ़त मिली थी. विधानसभा चुनाव के दौरान पूरे छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का सबसे अच्छा प्रदर्शन सरगुजा लोकसभा क्षेत्र में ही रहा है. लेकिन मतों की इस बढ़त को कांग्रेस लोकसभा चुनाव में कायम नहीं रख पाई और हार गई.

congressनेतृत्व का अभाव

चाहे मध्य प्रदेश हो या छत्तीसगढ़, दोनों ही राज्यों में कांग्रेस के पास बरसों से मजबूत नेतृत्व की कमी है. दोनों ही राज्यों में बार-बार नए गुट को प्रदेश की कमान सौंपी गई लेकिन कोई भी पार्टी को मजबूती नहीं दे पाया. प्रदेश अध्यक्षों ने सबको साथ लेकर चलने के बजाय गुटबाजी को ही बढ़ावा दिया. मध्य प्रदेश में सुभाष यादव, सुरेश पचौरी, कांतिलाल भूरिया, अरुण यादव पार्टी प्रमुख बने लेकिन कोई भी कांग्रेस को संजीवनी नहीं दे पाया. प्रदेश नेतृत्व ने कार्यकर्ताओं में असंतोष बढ़ाने का ही काम किया परिणामस्वरूप इस लोकसभा चुनाव में वर्तमान अध्यक्ष अरुण यादव, पूर्व अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया, पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह राहुल, सज्जन सिंह वर्मा, प्रेमचंद गुड्डू, मीनाक्षी नटराजन (टीम राहुल की अहम सदस्य) सरीखे दिग्गज नेता चुनाव हार बैठे. वहीं छत्तीसगढ़ में भी धनेंद्र साहू, चरणदास महंत, भूपेश बघेल जैसे नेताओं ने पार्टी को हाशिए पर पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. खासतौर पर चरणदास महंत और भूपेश बघेल ने प्रदेश अध्यक्ष रहते नासमझी भरे बयान दे-देकर पार्टी को कई टुकड़ों में बांट दिया. केवल नंदकुमार पटेल ऐसे अध्यक्ष बनकर आए थे जो सभी को साथ लेकर चलने की रणनीति पर काम कर रहे थे. लेकिन कांग्रेस का दुर्भाग्य कि वे झीरम घाटी नक्सल हमले में मारे गए.

भाजपा का ‘वन लीडरशिप फार्मूला’

भाजपा का ‘एक नेतृत्व’ फार्मूला भी नेतृत्व विहीन कांग्रेस के लिए भारी पड़ रहा है. मध्य प्रदेश में हर छोटे बड़े फैसले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को लेने की स्वतंत्रता है तो वहीं छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री रमन सिंह भी पार्टी के अघोषित सर्वेसर्वा हैं. चाहे टिकट वितरण का मामला हो या सत्ता और संगठन में नियुक्तियों का, मुख्यमंत्री की मर्जी के बगैर संगठन कोई फैसला नहीं करता. दोनों ही राज्यों में पार्टी अध्यक्ष भी अप्रत्यक्ष रूप से दोनों मुख्यमंत्रियों के अधीन होकर ही काम करते हैं. भाजपा का वन लीडरशिप फार्मूला ही है जो पूरी पार्टी को एक सूत्र में बांधने का काम करता रहा है.

शिवराज सिंह चौहान और डॉ रमन सिंह ने इन प्रदेशों में पार्टी का पूरा नियंत्रण अपने हाथ ले रखा है जिससे वे कांग्रेस पर भारी पड़ते हैं  

जितने नेता, उतने मुख्यमंत्री के दावेदार

यह कांग्रेस का दुर्भाग्य ही रहा कि जो भी प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया उसके मन में पहले ही दिन से सूबे का मुखिया बनने की इच्छा बलवती होती चली गई. यही कारण था कि मध्य प्रदेश में 2008 के विधानसभा चुनाव में सुरेश पचौरी ने 100 ब्राह्मण उम्मीदवारों को मैदान में उतारने का घातक निर्णय लेकर कांग्रेस को लकवाग्रस्त कर दिया था. पचौरी की योजना था कि यदि उनके ब्राह्मण उम्मीदवार जीतकर आते हैं तो कांग्रेस के बहुमत में आने की स्थिति में उन्हें मुख्यमंत्री बनने से कोई नहीं रोक पाएगा. उनके बाद कांतिलाल भूरिया, दिग्विजय सिंह की रबर स्टैम्प के रूप में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बने. लेकिन इसके पीछे दिग्विजय की मंशा प्रदेश की राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत करना ही थी. छत्तीसगढ़ में चरणदास महंत अध्यक्ष बने तो वे भी मुख्यमंत्री बनने का सपना देखने लगे. भूपेश बघेल ने भी वही कहानी दोहराई. बतौर प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए यह बघेल की ही नाकामी थी कि दो सीट पर पार्टी ने बार-बार प्रत्याशी बदले और अपनी किरकिरी करवाई. कांग्रेस नेताओं के यही सपने हर चुनाव में पार्टी पर भारी पड़े हैं.

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घटता मत प्रतिशत

छत्तीसगढ़ में भाजपा का ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा है. 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 47.78 प्रतिशत मत मिले थे. वहीं इस बार के लोकसभा चुनाव में पार्टी का मत प्रतिशत 1.02 प्रतिशत इजाफे के साथ 48.8 हो गया. जबकि कांग्रेस फिर अपना वोट प्रतिशत कम कर बैठी. 2009 में कांग्रेस को 40.16 फीसदी वोट मिला था लेकिन इस बार उसके मत प्रतिशत में 1.76 की कमी दर्ज की गई है. दिसंबर, 2013 में संपन्न विधानसभा चुनाव के मुकाबले भी कांग्रेस घाटे में नजर आ रही है. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 40.29 प्रतिशत मत मिले थे, जो महज चार महीने बाद हुए लोकसभा चुनाव में घटकर 38.04 प्रतिशत रह गया है. वहीं भाजपा ने विधानसभा चुनाव के मुकाबले अपने मत प्रतिशत को बढ़ाने में कामयाबी हासिल की है. 2013 के अंत में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा को कुल 41.04 वोट मिले थे जबकि लोकसभा चुनाव के नतीजों में भाजपा को कुल 48.8 फीसदी मत मिले.

वहीं मध्य प्रदेश की बात करें तो 2009 में भाजपा को कुल 43.45 फीसदी मत मिले थे, वहीं 2014 में इसमें 10.55 फीसदी की वृद्धि हुई है. भाजपा को इस लोकसभा चुनाव में 54 फीसदी मत मिले हैं. जबकि कांग्रेस को 2009 में 40.14 फीसदी मत मिले थे जो 1.10 फीसदी घटकर 39.04 रह गया है. बसपा, अन्य और निर्दलीय उम्मीदवारों को 6.06 फीसदी वोट मिले. नई नवेली आम आदमी पार्टी को नोटा से भी कम वोट मिले. मध्य प्रदेश में नोटा (नन ऑफ द अबव) में कुल 1.3 यानी 3, 91, 797 वोट पड़े, वहीं आप को 1.2 फीसदी यानी 3,49,472 वोट मिले. कांग्रेस ये जानती है कि भाजपा को मिले 10 फीसदी वोटों के अंतर को पाटना उसके लिए कितना मुश्किल भरा होगा. मतदाताओं को दोबारा रिझाने के लिए कांग्रेस को अच्छे नेतृत्व, लंबे समय और संसाधनों की जरूरत होगी.

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जहां तक लोकसभा चुनाव की बात है तो कांग्रेस नेता जितनी रुचि विधानसभा चुनावों में ले रहे थे उतनी उन्होंने इन चुनावों में नहीं दिखाई क्योंकि यहां उनका कोई व्यक्तिगत फायदा नहीं था. कांग्रेस नेताओं के दुर्भाग्य का अंदाजा चरणदास महंत को देखकर सहज लगाया जा सकता है. चार महीने पहले तक वे न केवल प्रदेश अध्यक्ष थे, बल्कि लोकसभा सांसद और केंद्रीय राज्य मंत्री भी थे. लेकिन महंत ने पहले प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी खोई, लोकसभा चुनाव हारने के बाद न तो वे सासंद बचे और मंत्री पद तो उनका जाना ही था.

कुल मिलाकर इस समय मध्य भारत में यदि कांग्रेस इन कमजोरियों से नहीं उबर पाती तो वह गुजरात की तरह ही मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ को भाजपा का अभेद्य किला बनने से नहीं रोक पाएगी.

परिणाम और परेशानी

harish_rawatलोकसभा चुनाव के नतीजों के साथ ही उत्तराखंड के राजनीतिक आकाश में अस्थिरता के बादल मंडराने लगे हैं. प्रदेश की पांचों सीटों पर कांग्रेस पार्टी की करारी हार के बाद हरीश रावत की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार का भविष्य कितना सुरक्षित होगा, इसको लेकर प्रदेश के राजनीतिक गलियारों में तरह-तरह की चर्चाएं शुरू हो गई हैं. जीत से लबरेज भाजपाइयों की मानें तो पार्टी को मिली शानदार जीत हरीश रावत सरकार की उल्टी गिनती का आधार तैयार कर चुकी है. सियासी हलकों में इस बात को लेकर भी चर्चा शुरू हो चुकी है कि तमाम गुटों में बंटे कांग्रेसी विधायक कहीं सरकार को झटका तो नहीं देने वाले हैं? इसके अलावा सरकार में शामिल निर्दलीय और बसपा विधायकों के रुख पर भी सबकी नजरें टिकी हुई हैं. इस सबके बीच लोकसभा चुनावों से ऐन पहले भाजपा में शामिल होने वाले आध्यात्मिक गुरु और पूर्व कांग्रेसी सतपाल महाराज ने तो एक कदम आगे बढ़ते हुए हरीश रावत से इस्तीफे की मांग तक कर दी है. उनका कहना था, ‘हरीश रावत ने लोक सभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करने की कीमत पर ही विजय बहुगुणा से सीट हथियाई थी लिहाजा उन्हें नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे देना चाहिए.’ हालांकि जानकारों की एक बड़ी जमात सतपाल की इस मांग को उनके सीएम बनने की छटपटाहट का नतीजा मान रही है, लेकिन यह भी उतना ही सही है कि हरीश रावत सरकार पर खतरे की जो चर्चाएं चल रही हैं यदि वे निकट भविष्य में हकीकत में तब्दील होती हैं तो इसमें महाराज की भूमिका बहुत निर्णायक हो सकती है.

सतपाल महाराज के इस कदर निर्णायक होने की यह पूरी कहानी इस साल फरवरी से शुरू हुई. तब आरटीआई से मिली एक जानकारी से पता चला था कि प्रदेश की उद्यान मंत्री रहते हुए सतपाल महाराज की पत्नी अमृता रावत ने किसानों को मिलने वाली सब्सिडी अपने पति और बेटे को दिलवाई है. लोकसभा चुनावों से ठीक पहले हुए इस खुलासे से उत्तराखंड की सियायत में बवाल मच गया और विपक्षी दल भाजपा को प्रदेश सरकार पर वार करने का एक और मौका मिल गया. समूची भाजपा ने सतपाल महाराज का पुतला फूंकने के अलावा उनकी पत्नी अमृता रावत का इस्तीफा मांगा और मामले की सीबीआई जांच की मांग भी कर दी. आम चुनाव सिर पर थे और आपदा पुनर्वास कार्यों की नाकामी के बाद यह मामला महाराज के लिए दोहरी मुश्किलें पैदा कर चुका था. ऐसे में अपनी तय दिख रही हार को भांपते हुए उन्होंने एक दांव खेला. सरकार पर अपने संसदीय क्षेत्र की उपेक्षा का आरोप लगा कर पहले तो उन्होंने चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया, और फिर अपनी ही पार्टी के खिलाफ बगावत करके भाजपा में शामिल हो गए. आध्यात्मिक गुरु से राजनेता बने सतपाल महाराज का यह ऐसा पैंतरा था जिसने कांग्रेस को पूरी तरह से सकते में डाल दिया. प्रवचन करने में सिद्धहस्त सतपाल महाराज के इस कदम का असर इतना चमत्कारिक रहा कि भाजपा की तरफ से उनके खिलाफ होने वाली आलोचनाएं प्रशस्तिगान में तब्दील हो गईं और कल तक बरछे, भाले लेकर तैयार बैठे भाजपाई ‘सतपाल महाराज-जिंदाबाद’ के नारे लगाने लगे. अब न तो भाजपा को अमृता रावत का इस्तीफा चाहिए था और न ही इस मामले की सीबीआई जांच में उसकी कोई दिलचस्पी रह गई थी. इस तरह देखा जाए तो सतपाल महाराज ने चुनाव में होने वाली संभावित हार से पीछा तो छुड़ाया ही साथ ही भाजपा में भी बड़े कद के नेता बन गए. भाजपा द्वारा खुद को हाथों-हाथ लिए जाने के बाद उन्होंने अपने बयानों से बार-बार संकेत दिए कि लोकसभा चुनावों के बाद उत्तराखंड की सरकार कभी भी गिर सकती है. उनके अलावा रविशंकर प्रसाद और नितिन गडकरी जैसे बड़े भाजपाई भी लोक सभा चुनाव प्रचार के दौरान ऐसे संकेत देते दिखे.

लोकसभा चुनाव हो चुके हैं. भाजपा ने उत्तराखंड में कांग्रेस को शून्य पर समेट दिया है. अब क्या वास्तव में उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार गिर सकती है? और अगर ऐसा होता है तो इसमें सतपाल महाराज की क्या भूमिका होगी ?

प्रदेश की राजनीति को समझने-परखने वाले एक वर्ग की मानें तो लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिले अभूतपूर्व जनसमर्थन के बाद उत्तराखंड में भी पार्टी के अच्छे दिन आ सकते हैं. ऐसी स्थिति में महाराज की भूमिका को इसलिए महत्वपूर्ण माना जा रहा है क्योंकि 70 सदस्यीय उत्तराखंड विधानसभा में 33 विधायकों वाली कांग्रेस पार्टी की सरकार में तकरीबन आधा दर्जन ऐसे विधायक हैं जो महाराज के पक्के चेले माने जाते हैं. माना जा रहा है कि वे इनसे इस्तीफा दिलवाकर राज्य सरकार को अल्पमत में लाने के साथ ही भाजपा के लिए सरकार बनाने का एक अदद मौका भी बना सकते हैं. वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत कहते हैं, ‘इसमें कोई दो राय नहीं है कि गढवाल संसदीय क्षेत्र में सतपाल महाराज के मुकाबले कांग्रेस के पास कोई बड़ा नेता नहीं था. इसके बाद भाजपा ने महाराज को अपनाकर कांग्रेस की ताकत बेहद सीमित कर दी. अब महाराज हरीश रावत सरकार को वेंटिलेटर पर पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहेंगे. लेकिन हरीश रावत भी मंझे हुए नेता हैं लिहाजा अपनी सरकार पर किसी भी तरह के संभावित खतरे को खत्म करने में वे भी कोई कसर नहीं छोड़ेगें, वह भी तब जब चुनौती देने वाला उनका सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी हो.’

हरीश रावत और सतपाल महाराज के बीच राजनीतिक प्रतिद्वंदिता जग जाहिर है. 2002 में रावत के प्रदेश का मुख्यमंत्री न बन पाने का मुख्य कारण महाराज को ही माना जाता है. कहा जाता है कि उनके विरोध की वजह से ही मुख्यमंत्री की कुर्सी रावत के बजाय नारायण दत्त तिवारी के पास चली गई थी. इसके बाद 2012 में हुए राज्य विधान सभा के चुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद हरीश रावत के साथ वे खुद भी मुख्यमंत्री पद के प्रमुख दावेदार थे. लेकिन तब पार्टी हाईकमान ने टिहरी से सांसद विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बना दिया और हरीश रावत को केंद्रीय मंत्रिमंडल में एडजस्ट करके कुछ समय के लिए उन्हें शांत कर दिया. मुख्यमंत्री न बन पाने के बाद तब सतपाल महाराज मंत्री बनने से भी महरूम रह गए थे. इसके बाद हाल ही में कांग्रेस पार्टी ने विजय बहुगुणा को हटा कर उत्तराखंड की कमान हरीश रावत के हाथों में थमा दी और सतपाल महाराज की झोली एक बार फिर से खाली रह गई. आधा दर्जन विधायकों के समर्थन का दावा करने के बावजूद उनकी राजनीतिक हैसियत इस पूरे घटनाक्रम के बाद तब और सिमटती दिखने लगी जब रावत ने अपनी कैबिनेट की सदस्य और महाराज की पत्नी अमृता रावत से कुछ महत्वपूर्ण विभाग छीन लिए. जय सिंह रावत कहते हैं, ‘अपनी इस कदर उपेक्षा से नाराज महाराज कांग्रेस में अपना भविष्य कहीं से भी उजला नहीं देख पा रहे थे. उन्हें सबसे बड़ा दुख यह था कि उनके कट्टर प्रतिद्वंदी हरीश रावत को सूबे की सत्ता मिल गई थी. बेहद महत्वाकांक्षी प्रवृत्ति वाले महाराज के लिए इस दोहरे झटके से उबर पाना आसान नहीं था. लिहाजा भाजपाई बेड़े में सवार होना उनको ज्यादा मुफीद लगा.’

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हालांकि महाराज के भाजपा में शामिल होने के बाद मुख्यमंत्री हरीश रावत समेत अन्य कांग्रेसी नेताओं ने प्रदेश सरकार को पूरी तरह सुरक्षित बताते हुए उनके इस कदम को ज्यादा तवज्जो नहीं दी, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने इसे उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार के लिए उल्टी गिनती का संकेत बताया. विधानसभा में विपक्ष के नेता अजय भट्ट कहते हैं, ‘अब प्रदेश की सत्ता में हमारी वापसी तय है और इस काम में सतपाल महाराज की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रहेगी.’

महाराज की जिस महत्वपूर्ण भूमिका की बात अजय भट्ट कर रहे हैं उसको लेकर दो तरह की संभावनाएं जताई जा रही हैं. पहली यह कि अपने समर्थक विधायकों की संख्या बढ़ा कर सतपाल महाराज हरीश रावत की सरकार को अल्पमत में ला दें और भाजपा को सरकार बनाने के लिए जरूरी बहुमत मिल जाए. दूसरी संभावना यह जताई जा रही है कि यदि भाजपा बहुमत के आंकड़े तक नहीं पहुंच पाती है तो महाराज अपने समर्थक विधायकों को फिदाईन बनाकर रावत सरकार को ही गिरा दें ताकि प्रदेश में चुनाव की नौबत आ जाए.

ऐसे में सवाल यह है कि यदि इन दोनों में से कोई भी संभावना सफल हो जाती है तो क्या भाजपा सतपाल महाराज को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा सकती है. सतपाल समर्थक माने जाने वाले कई कांग्रेसी दबी जुबान इस संभावना को स्वीकार कर रहे हैं. लेकिन वरिष्ठ पत्रकार दाताराम चमोली इस बात से पूरी तरह इत्तेफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, ‘जहां तक मैं समझता हूं भाजपा महाराज को राज्यसभा में तो ला सकती है, लेकिन मुख्यमंत्री पद पर शायद ही बिठाएगी. आखिर पार्टी के पुराने नेता और कार्यकर्ता इस बात को कैसे पचा पाएंगे?’

चमोली की यह बात काफी हद तक सही मालूम पड़ती है. बताया जाता है कि महाराज के भाजपा में शामिल होने से पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी और पूर्व कृषि मंत्री त्रिवेंद्र सिंह समेत और भी कुछ पुराने भाजपाई खुश नहीं थे. ऐसे में इस बात की संभावना भी है कि सतपाल महाराज को भविष्य में प्रदेश की राजनीति में अहम जिम्मेदारी दिए जाने पर भाजपाई कुनबे के कई सदस्य भड़क सकते हैं. हालांकि ऐसी स्थिति में भाजपा सतपाल महाराज को  उस सीट से राज्यसभा में भेज सकती है जो अभी-अभी भगत सिंह कोश्यारी के लोकसभा पहुंचने के बाद खाली हुई है. लेकिन इसके लिए भी सतपाल महाराज को हरीश रावत की सरकार में सेंधमारी करनी होगी.

लेकिन क्या महाराज के लिए हरीश रावत को निपटाना इतना आसान होगा ? कांग्रेस पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता और मीडिया प्रभारी सुरेंद्र अग्रवाल की माने तो महाराज का ऐसा कर पाना असंभव है. वे कहते हैं, ‘जिन आधे दर्जन विधायकों के समर्थन का दावा सतपाल महाराज कर रहे हैं, वे सभी हरीश रावत की सरकार को समर्थन जारी रखने की बात पहले ही कर चुके हैं. ऐसे में महाराज सिर्फ ख्याली पुलाव पका रहे हैं.’ गौरतलब है कि महाराज के भाजपा में शामिल होने के तुरंत बाद उनके करीबी माने जाने वाले सभी विधायकों ने महाराज का अनुसरण करने की बातों को खारिज कर दिया था.

‘भाजपा महाराज को राज्यसभा में तो ला सकती है, लेकिन मुख्यमंत्री पद पर शायद ही बिठाएगी. पार्टी के पुराने नेता और कार्यकर्ता यह कैसे पचा पाएंगे?’

लेकिन कई लोगों का मानना है कि महाराज समर्थक विधायकों का यह रुख बदल भी सकता है, बशर्ते कांग्रेस छोड़ने में उन्हें अपना हित दिखाई दे. वरिष्ठ पत्रकार राजीव नयन बहुगुणा कहते हैं, ‘उत्तराखंड के विधायकों का चरित्र हमेशा से ही सत्ताधारी दल की जी हुजूरी करने वाला रहा है, ऐसे में बड़ा लालच मिलने पर वे किसी भी पाले में जाने को तैयार रहेंगे.’ यह बात इस लिए भी काफी हद तक सही लगती है क्योंकि उत्तराखंड की सियासत में कई मौकों पर ऐसा नजारा दिख चुका है. सतपाल समर्थक माने जाने वाले मौजूदा बदरीनाथ विधायक राजेंद्र भंडारी का 2007 में भाजपा को समर्थन देना इसका सटीक उदाहरण है. तब नंदप्रयाग विधानसभा से निर्दलीय जीत कर आए राजेंद्र भंडारी ने भुवन चंद्र खंडूरी की भाजपा सरकार को समर्थन दे दिया था. राजेंद्र भंडारी पूरे पांच साल तक भाजपा की सरकार में मंत्री भी रहे. इसके अलावा महाराज के एक और समर्थक माने जाने वाले निर्दलीय विधायक मंत्री प्रसाद नैथानी भी इस बार कांग्रेस सरकार को समर्थन देकर मंत्री बन चुके हैं, जबकि कांग्रेस पार्टी ने विधान सभा चुनाव में उनका टिकट काट दिया था.

aam_chunavलेकिन विधायकों के सत्ता की तरफ झुकाव के इन दो उदाहरणों के बीच राजीव नयन बहुगुणा एक और बात भी कहते हैं, ‘राजनीतिक कौशल के मोर्चे पर सतपाल महाराज के मुकाबले हरीश रावत ज्यादा सक्षम नेता माने जाते हैं, और बहुत संभव है कि महाराज की पत्नी को छोड़ उनके खेमे के बाकी विधायकों को वे आसानी से अपने पाले में खींच लेंगे.’ वे सवालिया अंदाज में कहते हैं, ‘दशक भर तक सर-पैर पटकने के बाद सीएम की कुर्सी पाने वाले हरीश रावत क्या इतनी आसानी से हथियार डाल देंगें?’

डैमेज कंट्रोल की कला में माहिर होने के जिस गुण की ओर राजीव नयन बहुगुणा इशारा कर रहे हैं, उसकी एक झलक रावत हाल ही में दिखा भी चुके हैं. चुनाव परिणाम घोषित होने से पहले ही उन्होंने अपनी पार्टी के सात विधायकों को संसदीय सचिव बनाकर राज्यमंत्री स्तर का दर्जा दे दिया है. इन संसदीय सचिवों में से अधिकतर असंतुष्ठ खेमों के विधायक माने जाते हैं. इसके अलवा कहा जा रहा है कि दूसरे विधायकों के कानों तक भी वे भविष्य में उपकृत करने का दिलासा पहुंचा चुके हैं. ऐसे में यदि ये माननीय उनकी सरकार की ऑक्सीजन सप्लाई जारी रखते हैं तो फिर कोई भी स्थिति हरीश रावत की सरकार के लिए खतरा पैदा करती नहीं दिखती है, क्योंकि यदि इसके बाद सतापाल महाराज की पत्नी अमृता रावत विधायकी से इस्तीफा दे भी देती हैं, तब भी सरकार के पास 39 विधायकों का समर्थन रहेगा, जो कि बहुमत की संख्या से अधिक है. गौरतलब है कि बसपा और निर्दलीयों के गठजोड़ से बने पीडीएफ के सात सदस्य पहले से ही सरकार में सहयोगी हैं. हालांकि जानकारों की मानें तो सतपाल और भाजपा पीडीएफ पर भी लगातार डोरे डालने का काम जारी रखे हुए हैं.

एक संभावना पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के उन कदमों को लेकर भी बन रही है जिनको लेकर पिछले कुछ दिनों से उत्तराखंड के राजनीतिक हलकों में खुसुर-फुसुर हो रही थी. दरअसल कुछ दिन पहले पत्रकारों ने विजय बहुगुणा से उनको सीएम की कुर्सी से हटाए जाने को लेकर सवाल पूछा था. टिहरी सीट पर अपने बेटे के चुनाव प्रचार के दौरान पूछे गए इस सवाल पर बहुगुणा ने 16 मई के बाद जवाब देने की बात कही थी. उनके इस जवाब के बाद एक आशंका यह बनी कि यदि भाजपा उनके राजनीतिक पुनर्वास का ठीक-ठाक इंतजाम करती है तो अपने समर्थक विधायकों के साथ वे भी भाजपा में शामिल हो सकते हैं. लेकिन जानकारों का एक वर्ग इस बात की बेहद कम गुंजाइश मान रहा है. दाताराम चमोली कहते हैं, ‘इस बात की संभावना न के बराबर है कि विजय बहुगुणा भाजपा में चले जाएं. 16 मई के बाद जवाब देने से उनका मतलब शायद यह रहा होगा कि हरीश रावत अपने नेतृत्व में कितनी सीटें ला पाते हैं. वैसे भी महाराज के भाजपा में जाने पर बहुगुणा ने हरीश रावत के खिलाफ हमले किए थे और आलाकमान तक संदेश पहुंचाया था कि महाराज को मनाया नहीं जा सका, जबकि वे अपने कार्यकाल में सभी को साथ लेकर चलने में कामयाब रहे थे. अब कांग्रेस के इतने खराब प्रदर्शन के बाद बहुगुणा का निशाना भी हरीश रावत की तरफ ही होगा.’

बहरहाल इन सारी आशंकाओं और संभावनाओं को लेकर जितने मुंह उतनी बातों वाला माहौल चरम पर है, ऐसे में सबकी निगाहें इसी बात पर टिकी हैं कि हरीश रावत का मिशन डैमेज कंट्रोल कामयाब हो पाता है या अपने भक्तों के बीच अवतारी पुरुष के रूप में प्रसिद्ध सतपाल महाराज उत्तराखंड की राजनीति में किसी नए अवतार को जन्म देते हैं.

मोदी या प्रचारतंत्र की जीत?

manisha_illus2014 के आम चुनावों में नरेंद्र मोदी और भाजपा/एनडीए कई रिकॉर्ड बनाते हुए जीत गए हैं. हालांकि मोदी की इस जीत के पीछे कई कारक और कारण हैं. लेकिन इस जीत में मोदी की सुनियोजित तरीके से गढ़ी हुई ‘लार्जर दैन लाइफ’ छवि और उसकी जबरदस्त मार्केटिंग की बड़ी भूमिका है. इसे अनदेखा करना मुश्किल है कि गुजरात दंगों और फर्जी मुठभेड़ों से लेकर एक महिला की जासूसी करवाने और चहेते कॉरपोरेट समूहों को लाभ पहुंचाने जैसे विवादों और आरोपों से घिरे रहने के बावजूद कॉरपोरेट मीडिया-पीआर-विज्ञापन कॉम्प्लेक्स ने मोदी की एक ‘सख्त, प्रभावी और सफल प्रशासक और विकासपुरुष’ की छवि निर्मित करने और फिर उसे मतदाताओं को सफलतापूर्वक बेचने में कामयाबी हासिल की है.

इस अर्थ में, यह निस्संदेह हजारों करोड़ रुपये के विशाल प्रचारतंत्र की भी जीत है. कॉरपोरेट मीडिया-पीआर/विज्ञापन उद्योग के इस विशाल प्रचारतंत्र ने जिस तरह से मोदी के पक्ष में खुलकर अभियान चलाया और चुनाव का एजेंडा सेट किया, उसकी हालिया भारतीय राजनीति में कोई मिसाल नहीं है. हर चैनल पर मोदी, हर अखबार में मोदी, रेडियो पर मोदी, हर सोशल मीडिया में मोदी, होलोग्राम/3-डी में मोदी और इस तरह हर घर में मोदी थे.

इस ‘मोदी महिमा’ का असर न्यूज चैनलों पर साफ तौर पर देखा जा सकता है. मीडिया शोध एजेंसी सीएमएस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, न्यूज चैनलों के प्राइम टाइम (रात 8-10 बजे) पर कवरेज/चर्चाओं में मोदी को 33 फीसदी जगह मिली जबकि राहुल गांधी को सिर्फ चार फीसदी. इस असंतुलित कवरेज का ही एक और नमूना है कि ‘आप’ नेता अरविंद केजरीवाल को 10 फीसदी कवरेज मिली. प्रचार के आखिरी दौर में मोदी की कवरेज बढ़कर 40 फीसदी तक पहुंच गई. वाम और क्षेत्रीय पार्टियां, उनके नेता और मुद्दे चैनलों के प्राइम टाइम से न सिर्फ गायब थे बल्कि उन्हें गठबंधन की राजनीति में राजनीतिक अस्थिरता और ब्लैकमेल के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए ‘खलनायक’ की तरह पेश किया गया.

यही नहीं, कॉरपोरेट मीडिया-पीआर-विज्ञापन उद्योग के गठजोड़ ने नेताओं, पार्टियों और मुद्दों की फ्रेमिंग इस तरह की कि उसका सबसे सीधा फायदा मोदी के प्रधानमंत्री अभियान को मिला. सच पूछिए तो यह देश का पहला टेलीविजन पर राष्ट्रपति शैली में लड़ा गया चुनाव था जिसमें छवि, मुद्दा और एजेंडा गढ़ने में चैनलों ने सीधी और सक्रिय भूमिका निभाई. इसके लिए हवा बनानेवाले चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों से लेकर प्रायोजित साक्षात्कारों और चुनावी रैलियों की लाइव कवरेज तक क्या नहीं किया गया?

इस लिहाज से इन चुनावों में कॉरपोरेट मीडिया वह करने में कामयाब रहा जो वह 2004 में नहीं कर पाया था. उस समय इंडिया शाइनिंग अभियान मुंह के बल गिर गया था. हालांकि 2009 में यूपीए की कामयाबी में भी काफी हद तक कॉरपोरेट मीडिया की बड़ी भूमिका थी. उस चुनाव में कॉरपोरेट मीडिया ने जिस तरह से न्यूक्लीयर डील के पक्ष में माहौल बनाया और वामपंथी पार्टियों समेत तीसरे मोर्चे की क्षेत्रीय पार्टियों को विकास विरोधी और सत्तालोलुप साबित करने में कोई कसर नहीं उठी रखी, उससे राष्ट्रीय राजनीति का एजेंडा बनाने, छवि निर्मित करने, जनमत गढ़ने और धारणाएं बनाने में उसकी बढ़ती भूमिका दिखने लगी थी.

लेकिन 2014 के चुनावों में एक अहम फैसलाकुन फैक्टर के रूप में बड़े कॉरपोरेट मीडिया की निर्णायक भूमिका साबित हो गई है. वह अब राजनीतिक घटनाक्रम और बदलावों का वस्तुनिष्ठ और तथ्यपरक वर्णनकर्ता भर नहीं बल्कि सक्रिय खिलाड़ी बन चुका है. वह ‘फोर्स मल्टीप्लायर’ है और जनमत को तोड़ने-मरोड़ने और गढ़ने के मामले में उसकी बढ़ती ताकत भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है.

क्या देश यह घंटी सुन रहा है?

उदारता के आकांक्षी

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इलेस्ट्रेशन: आनंद नॉरम

नरेंद्र मोदी को मिला प्रचंड जनादेश क्या मनमोहन सरकार के प्रति लोगों के गुस्से का परिणाम है? भाजपा भले इसे मोदी लहर बताती रही और दूसरे कांग्रेस विरोधी लहर- लेकिन यह सबने माना कि लहर थी. इस लिहाज से देखें तो भारतीय जनता ने हाल ही में व्यक्त की गई मनमोहन सिंह की यह अपेक्षा पूरी नहीं की है कि इतिहास उनके साथ शायद बहुत सख्त नहीं होगा. वैसे इस जनादेश से ठीक पहले मनमोहन सिंह के मातहत काम करने वाले दो लोगों संजय बारू और पीसी पारख की दो किताबों, ‘द ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ और ‘ क्रूसेडर ऑर कॉन्सपिरेटर’ ने भी मनमोहन सिंह के प्रति कोई सदाशयता नहीं दिखाई. हालांकि कहा जा सकता है कि यह इतिहास नहीं, वर्तमान है जिसमें अपनी तरह की हड़बड़ाहट होती है, लेकिन फिर भी यह वर्तमान कुछ इशारे तो करता ही है.

लेकिन मनमोहन सिंह को यह उम्मीद क्यों करनी चाहिए कि इतिहास उनके साथ सदाशय होगा? समय वैसे ही मनमोहन सिंह के साथ उदार रहा है. एक अरब की आबादी के हिंदुस्तान के जिस नेतृत्व का सपना लिए कई नेता तिरोहित हो गए, जिसके लिए लोग राजनीति की गलियों में बरसों खाक छानते रहते हैं, जिसके लिए तरह-तरह के राजनीतिक गठजोड़ करने पड़ते हैं, वह 10 साल पहले उन्हें बिल्कुल थाली में सजा कर दे दिया गया. मई 2004 में जब यूपीए बहुमत के बेहद करीब था, जब लेफ्ट फ्रंट उनके साथ आ गया था और जब तमाम दलों ने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के समर्थन की चिट्ठी राष्ट्रपति को सौंप दी थी, तभी सोनिया गांधी ने अचानक मनमोहन सिंह को 10 जनपथ के सामने खड़े अपने समर्थकों, वफादारों और चापलूसों के हुजूम के बीच ला खड़ा किया और उनके जज्बाती विरोध के बावजूद मनमोहन के नाम पर मुहर लगवा ली.

जाहिर है, यह त्याग और प्राप्ति, दोनों इतने बड़े थे जो भरोसे और वफादारी के बहुत गहरे संबंध के बिना संभव नहीं होते. इसलिए यह स्वभाविक था कि मनमोहन सोनिया गांधी के प्रति वफादार बने रहें और सोनिया भी मनमोहन में वह भरोसा बनाए रखें जिससे सरकार चलती रहे. इसमें संदेह नहीं कि 10 साल के दौरान आए छिटपुट मौकों को छोड़कर सोनिया और मनमोहन दोनों ने इस रिश्ते की मर्यादा निभाई. मनमोहन कभी सोनिया की सीधी अवज्ञा करते नहीं दिखे तो सोनिया ने कभी मनमोहन पर अविश्वास की तलवार नहीं लटकाई. बीच के दौर में जब कांग्रेस के भीतर किसी को उप प्रधानमंत्री बनाने की एक नकली बहस खड़ी की गई तो सोनिया ने स्पष्ट कहा कि मनमोहन  सरकार के इकलौते नेता हैं. इसी तरह 2009 में जब कुछ जोशीले कांग्रेसी राहुल गांधी को आगे लाने की मांग कर रहे थे तब भी सोनिया गांधी ने कांग्रेस का घोषणापत्र जारी करते हुए साफ किया कि मनमोहन सिंह ही अगली सरकार के प्रधानमंत्री होंगे.

लेकिन ये दस साल मनमोहन-सोनिया के रिश्तों के दस साल भर नहीं हैं, इक्कीसवीं सदी में बनी पहली केंद्रीय सरकार के भी दस साल हैं. इस कसौटी पर देखें तो मनमोहन सिंह का पूरा कार्यकाल दो तरह के अंतरविरोधों को साधते हुए बीतता दिखाई पड़ता है. उनके एक तरफ कांग्रेस की जीन में शामिल वह ढुलमुल समग्रतावादी विरासत है जिसमें एक हल्का समाजवादी रुझान विद्यमान रहता है तो दूसरी तरफ उनकी अपनी विचारधारा है जो मूलतः बाजार और उदारीकरण के रास्तों में बहुत गहरी आस्था से पैदा हुई है. इसलिए एक तरफ वे उद्योगों का भरोसा जीत रहे हैं, नव उदारवादी मॉडल को आगे बढ़ा रहे हैं तो दूसरी तरफ सामाजिक सुरक्षा से जुड़े कानून भी पास कर रहे हैं. मनरेगा यानी महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना और सूचना का अधिकार इस सरकार की उजली उपलब्धियां हैं. शिक्षा का अधिकार, भोजन की गारंटी, आवास का अधिकार आदि इसके अगले कदम हैं. दूसरी तरफ इसी दौर में विकास दर करीब 10 फीसदी के पार जा रही है जो आजाद भारत में कभी नहीं दिखी. इस दौर में उद्योग-धंधे भी फूल-फल रहे हैं. कांग्रेस के अपने इस अंतर्विरोध के साथ वाम मोर्चे का प्रतिरोध भी शामिल है जो मनमोहन सरकार को कई मोर्चों पर बेलगाम नहीं होने देता.

sanghलेकिन एक बार जब यह संतुलन टूटता है तो चीजें जैसे बिखर जाती हैं. 2008 की वैश्विक मंदी का असर 2009 के भारत पर पड़ता है और हम पाते हैं कि अचानक औद्योगिक वृद्धि दर नीचे जा चुकी है, शेयर बाजार गोते खा रहा है, कंपनियां नई परियोजनाएं बंद कर रही हैं और नौजवानों की बड़े पैमाने पर छंटनी हो रही है. अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री इस मोड़ पर बेबस है. इसी दौर में सरकार के द्वारा पारित सूचना का अधिकार कानून के मार्फत अचानक कई पुरानी फाइलें खुलनी शुरू होती हैं और टू जी स्पेक्ट्रम और कोयला खदानों के आवंटन जैसे मामले मनमोहन सरकार की ईमानदारी का मुंह चिढ़ाने लगते हैं. कॉमनवेल्थ खेलों की तैयारी में हुई गड़बड़ी और आदर्श घोटाले जैसे मूलतः राज्य केंद्रित मुद्दे भी अंततः मनमोहन सरकार की अलोकप्रियता में इजाफा करते हैं. इसी समय आर्थिक मंदी से बिलबिलाया उद्योग जगत अपने लिए तरह-तरह की राहतें मांग रहा है और न मिलने पर सरकार पर नीतियों की अपाहिजता का आरोप लगा रहा है. और यही दौर है जब लोकतंत्र के दूसरे प्रहरियों में एक हमारी न्यायपालिका के दबाव में कई मामलों की जांच शुरू हो रही है और मनमोहन सरकार के मंत्री और अफसर जेल के पीछे दिखाई पड़ रहे हैं. इस ठहरी हुई अर्थव्यवस्था में सिर्फ महंगाई दर बढ़ रही है और जो मध्यवर्ग इसी दौरान पहले छोटी और फिर बड़ी गाड़ियां खरीदता रहा, वह पेट्रोल से प्याज तक के दाम बढ़ने पर नाराज है.

वाकई यह एक बुरा समय था जिसके बीच अण्णा हजारे और उनके साथियों ने जनलोकपाल के लिए आंदोलन शुरू किया और मनमोहन सिंह के विरुद्ध एक देशव्यापी लहर पैदा की. लेकिन निजी संकल्पों के पहाड़ों से निकला प्रतिरोध का यह झरना चाहे जितना भी सुंदर और वेगवान रहा हो, उससे बिजली पैदा कर सकने लायक संगठन-व्यवस्था टीम अण्णा और बाद में उसकी राजनीतिक उत्तराधिकारी आम आदमी पार्टी में नहीं थी. मूलतः एक विचारहीनता के बीच चले इस जज्बाती आंदोलन का भाजपा या संघ परिवार की विचारधारा से कोई विरोध भी नहीं था. इसलिए पहले संघ परिवार ने परदे में रह कर इस आंदोलन का समर्थन किया और जब यह लहर बिल्कुल देशव्यापी हो गई तो इसकी पीठ पर नरेंद्र मोदी को बिठा दिया- बताते हुए कि उनके पास एक चमकता-दमकता गुजरात है और बाकी भारत को भी वे ऐसा ही चमकता-दमकता बना देंगे.

सवाल है, मनमोहन सिंह इन सबके मूकदर्शक क्यों बने रहे? वे इन स्थितियों को संभाल क्यों नहीं पाए? जवाब है- क्योंकि मनमोहन सिंह मूलतः एक प्रशासक रहे जिन्हें सरकारी फाइलों को पढ़ना तो आता था, माहौल को पढ़ना और बदलना उनके बूते में नहीं था. सोनिया गांधी को दरअसल ऐसा ही आदमी चाहिए था जो उनकी या कांग्रेस की योजनाओं को मूर्त रूप दे सके. जब तक यह काम होता रहा, सरकार ठीक से चलती रही, लेकिन जहां दूरंदेशी के मोड़ आए, वहां मनमोहन बुरी तरह फिसलते दिखे. सोनिया गांधी और मनमोहन के बीच पहली बड़ी दरार ऐटमी करार के वक्त दिखाई पड़ती है जब लेफ्ट के विरोध के बीच यूपीए एक तरह से इस करार से पीछे हटने का मन बना चुका था, लेकिन मनमोहन ने इसे बिल्कुल निजी जिद का मसला बना लिया. वाम के अलग होने, समाजवादी पार्टी के समर्थन देने और संसद में नोट उछाले जाने की शर्मनाक कहानी इसी के बाद शुरू होती है जिसके कुछ दाग सीधे-सीधे मनमोहन सिंह तक भी पहुंचते हैं.

दरअसल पहले दौर में मनमोहन सिंह की कामयाबी या स्वीकृति एक ऐसे व्यक्ति को बाजार की तरफ से मिली स्वीकृति थी जो बिल्कुल पश्चिम की पढ़ाई किताबों के हिसाब से सोचता और चलता था. मनमोहन सिंह जैसा ही कोई प्रधानमंत्री हो सकता था जो 2005 में ऑक्सफोर्ड जाकर बोल आए कि भारत को इंग्लैंड ने ही आधुनिकता और नए जमाने की तालीम दी और 2008 में अमेरिका जाकर जॉर्ज बुश को बता आए कि भारतीय उससे कितना प्यार करते हैं. ऐसा ही प्रधानमंत्री शर्म अल शेख में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के साथ ऐसा साझा वक्तव्य जारी कर सकता था जिसके बचाव में कांग्रेस तक नहीं आई.

बहरहाल, मनमोहन सिंह की इन विफलताओं या सीमाओं के बावजूद 10 साल की यूपीए सरकार ऐसी निकम्मी या बेमानी सरकार नहीं थी जो बताई जा रही है. इन दस सालों की औसत विकास दर 8.5 फीसदी के आसपास रही जो शायद पहले कभी नहीं रही. इन्हीं वर्षों में सूचना, रोजगार, रोटी और शिक्षा के हक के साथ दूसरे मानवाधिकारों पर ढेर सारे फैसले हुए जिनकी वजह से सरकार भी पारदर्शी हुई और जनता भी अधिकारसंपन्न. बेशक, इस दौर में महंगाई बढ़ी, लेकिन साथ-साथ कमाई भी बढ़ी.

सवाल है, फिर मनमोहन विफल कहां रहे? उस हिंदुस्तान को समझने में जिसे पहले अटल-आडवाणी भी नहीं समझ पाए थे. 2004 में फील गुड और शाइनिंग इंडिया के नारों के बावजूद अगर एनडीए हारा तो इसलिए कि उसने उस गरीब हिंदुस्तान की परवाह नहीं की जो सबसे ज्यादा वोट देता है. मनमोहन सिंह आंकड़े पेश करते हैं- और शायद वे ठीक भी हों- कि उनके दौर में गरीबी बड़े पैमाने पर कम हुई है, लेकिन ज्यादा बड़ी सच्चाई यह है कि इस दौर में गरीबों के साथ छल भी बहुत हुए. उनकी जमीन छीनी गई, उनके स्कूल-अस्पताल छीने गए, शिक्षा और सेहत का बजट वैसे नहीं बढ़ा जैसे बढ़ना चाहिए था. इस दौर में बड़े हुए नक्सलवाद को मनमोहन देश का सबसे बड़ा खतरा भर बताते रहे, यह नहीं समझ पाए कि यह नक्सल गलियारा वैसे-वैसे बड़ा हो रहा है जैसे-जैसे विशेष आर्थिक क्षेत्रों की सरहदें बड़ी हो रही हैं.

लेकिन मनमोहन को सिर्फ इसकी सजा नहीं मिली. उन्हें उस कॉरपोरेट इंडिया का एजेंडा आगे न बढ़ा पाने की भी सजा मिली जिसने एक दौर में उन पर बहुत भरोसा किया. यह कारपोरेट इंडिया आज नरेंद्र मोदी के पीछे खड़ा है. वही मनमोहन सिंह का मूल्यांकन कर और करवा रहा है. विकास के नए मिथक इसी कारपोरेट इंडिया में गढ़े जा रहे हैं- शायद यह हिंदुस्तान के गरीबों पर नए सिरे से भारी गुजरे.

बहरहाल, मनमोहन संतोष कर सकते हैं कि इत्तिफाक ने उन्हें जो जिम्मेदारी सौंपी, उसे उन्होंने पूरा किया. वे नेहरू और इंदिरा के बाद सबसे ज्यादा समय तक प्रधानमंत्री रहे. वे राजनीति के एक ऐसे दौर में प्रधानमंत्री रहे जब क्षेत्रीय महत्त्वाकांक्षाएं और ग्लोबल हसरतें साथ-साथ चल भी रही थीं और टकरा भी रही थीं- वे एक तरह से मंडल-कमंडल के बाद की भूमंडलीकृत राजनीति के पहले प्रधानमंत्री रहे. वे जब तक दोनों के बीच संतुलन साध पाए, तब तक चले, जब यह संतुलन बिगड़ा तो गिर पड़े. अब नया दौर राष्ट्रवादी सपनों और ग्लोबल हसरतों की जुगलबंदी का है. इस जुगलबंदी का  हश्र  वह वास्तविक परिप्रेक्ष्य देगा जिसमें हम मनमोहन सिंह का कायदे से मूल्यांकन कर सकेंगे. तब तक मनमोहन सिंह को यह उम्मीद करने का हक है कि इतिहास उनके साथ नरमी बरतेगा.

चारों खाने चित्त

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इलेस्ट्रेशन: एम. दिनेश

उत्तर प्रदेश की जन सभाओं में जब नरेंद्र मोदी बार-बार यह कहते थे कि ‘इस बार सबका सफाया करना है– ‘सबका’ यानी सपा, बसपा और कांग्रेस इन तीनों का सफाया’ तब शायद किसी को भी बात का गुमान नहीं था कि यह बात उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों में एकदम सही साबित होने जा रही है. मगर चुनाव नतीजों ने दिखा दिया कि उत्तर प्रदेश में दो परिवारों की ‘चमत्कार पूर्ण’ विजय को छोड़ कर वाकई सबका सफाया हो गया.

कांग्रेस तो फिर भी राष्ट्रीय पार्टी है. कुछ राज्यों में उसकी सरकारें भी हैं, लेकिन असली आफत तो सपा और बसपा की है. दोनों व्यक्ति आधारित पार्टियां हैं और दोनों अपने खास जातीय-धार्मिक और वर्गीय वोट बैंक के सहारे खड़ी हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में भारी बहुमत पाने के बाद जिस तरह बसपा ने मायावती को प्रधानमंत्री बनाने का सपना देखा था ठीक वैसा ही सपना अखिलेश यादव की जीत के बाद सपा ने भी देखा था. मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनाने के लिए  सपा ने ‘मिशन 2014’ की घोषणा भी की थी. लेकिन शायद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी में ही कुछ ऐसा ऐब है कि उस पर बैठते ही सारे ‘मिशन’ गड़बड़ हो जाते हैं. मायावती की तरह अखिलेश सरकार भी गठन के बाद से ही लोगों की आकांक्षाओं से दूर होती चली गई. मुलायम के बार-बार के उलाहनों के बाद भी पार्टी के कारिंदों का डीएनए बदला नहीं और नतीजा मुलायम के प्रधानमंत्री बनने की जगह कुनबे के प्रधान बनने में ही सिमट कर रह गया. यूं तो मुलायम ने पार्टी से खुद को प्रधानमंत्री बनवाने के लिए खुद ही आग्रह भी किया था और ठीक से काम न करने वालों को कड़े शब्दों में चेताया भी था लेकिन न उनकी चेतावनी काम आई न आग्रह.

सपा सत्ता की धमक में यह भूल गई कि लोकतंत्र में जनता सबसे बड़ी होती है. उसके नेताओं-कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों का सार्वजनिक व्यवहार पार्टी को भारी पड़ गया. केंद्र सरकार की तरह ही लैपटाप, बेरोजगारी भत्ता या मुस्लिम छात्राओं के भत्ते आदि-आदि तरीकों से जनता के पैसे की बंदरबांट करके पार्टी इस दिवास्वप्न में खोई रही कि सूबे में हर ओर उसका गुणगान ही हो रहा है. सपा यह नहीं समझ पाई कि मुजफ्फरनगर दंगों और उसके आस-पास की घटनाओं ने अल्पसंख्यकों का भरोसा कमजोर किया है और जातीय रैलियों के जरिए वोट बटोरने की तरकीब भी बेकार हो रही है. नतीजा पूरे सफाए के रूप में सामने आया.

पहले सपा ने मुलायम सिंह को राष्ट्रीय राजनीति के लिए मुक्त कर दिया था मगर अब यह समझा जा रहा है कि वे खुद ही पार्टी के कामकाज पर फिर से नियंत्रण करके पार्टी को ऊपर उठाने की कोशिश करेंगे. सपा इस वक्त ऐसी स्थिति में है कि अगर वह वाकई संभलने की गंभीर कोशिश करती है तो उसके पास कुछ सभावनाएं बरकरार दिखती हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि  सपा और अखिलेश सरकार जल्द ही कुछ बेहद कड़े कदम उठाएगी. इनमें मंत्रिमंडल की सफाई से लेकर पार्टी संगठन और लाल बत्तियों की छंटाई जैसे काम जल्द ही हो सकते हैं. अगर यहां से भी पार्टी ने कोई सबक नहीं लिया तो अखिलेश सरकार के कार्यकाल के बाद सपा के लिए एक काली अंधेरी सुरंग का रास्ता खुला है. वैसी ही सुरंग जिससे उसकी प्रतिदद्वंदी बसपा पहले ही गुजर रही है.

muslim_saansadबसपा के लिए तो लोकसभा चुनाव एक भयानक स्वप्न ही बन गए हैं. मायावती के अति आत्मविश्वास को चुनाव नतीजों ने बुरी तरह झकझोर दिया है.  पार्टी के लिए यह हार इसलिए भी खतरनाक संकेत है क्योंकि पार्टी की यह लगातार दूसरी बड़ी हार है. बसपा के लिए विधानसभा की पराजय का अवसाद अभी खत्म भी नहीं हो पाया था कि यह नई और भीषण पराजय सामने आ गई है. इस हार ने लगातार अकेली पड़ती जा रही मायावती को और अकेला बना दिया है. इससे मायावती की कथित सोशल इंजीनियरिंग की तो भद्द पिटी ही है. मायावती का भरोसेमंद वोट बैंक भी बिखरता हुआ दिखाई देने लगा है. हालांकि चुनाव के अंतिम दौर में मायावती को इस बात का अंदेशा हो गया था और इसीलिए उन दिनों वे लगातार लखनऊ मंे प्रेस कॉन्फ्रेंस करके अपने वोटरों को सचेत करने की कोशिश करने में लगी थीं. मगर न उनकी अपील से दलित मुस्लिम गठजोड़ कायम रह सका और न ही उनका खुद का अपना वोट बैंक. मायावती अब इस सबके लिए भले ही भाजपा और उनके नेताओं के ‘शैतानी भरे हथकंडों’ को दोषी ठहराएं, भले ही दलितों के हिंदू होने पर यह कह कर सवाल उठाएं कि दलितों ने तो बाबा साहब के नेतृत्व में बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था और भले ही यह कह कर सफाई दें कि उनका वोट बैंक जस का तस है, लेकिन यह तय है कि मायावती के लिए आगे की राह बहुत आसान नहीं रह गई है. दलित मतदाताओं के बीच तो विश्वास का संकट कायम है. मुस्लिम मतदाताओं के लिए वे खुद कह रही हैं कि वे पहले गलती करते हैं फिर पछताते हैं और ऐसी ही कुछ धारणा अपर कास्ट के बारे में भी उनकी है कि वे भी वोट देते वक्त बहक जाते है. इसलिए अगले विधानसभा चुनाव उनके लिए अग्नि परीक्षा होने जा रहे हैं. मायावती किस तरह की तैयारी करके अपनी आगे की राह बनाती हंै, यही बात उनका भविष्य तय करेगी.

लोकसभा चुनाव में 31 सीटों पर दूसरे नंबर पर रही  सपा और 34 सीटों पर नंबर दो रही बहुजन समाज पार्टी दोनों के लिए ही भाजपा की एकतरफा जीत एक बड़ी आफत बनने जा रही है. यह तय है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा के अगले चुनाव में सत्ता के दो नए दावेदार भी सामने आ सकते हैं. लोकसभा चुनाव के नतीजे संकेत हैं कि सपा और बसपा दोनों के लिए ही उत्तर प्रदेश की सूबेदारी के दिन अब लदने जा रहे हैं. अगर मोदी सरकार जन अपेक्षाओं के अनुरूप कार्य करती रही तो उत्तर प्रदेश में भाजपा सत्ता की दावेदार होगी और अगर मोदी सरकार असफल सरकार साबित हुई तो सत्ता विरोधी लहर के तहत कांग्रेस पुर्नजीवित होकर उत्तर प्रदेश की सत्ता की दावेदार होगी.

नरेंद्र मोदी

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इलेस्ट्रेशन: एम दिनेश

लोकसभा की 543 में से 282 सीटें जीतकर भारतीय जनता पार्टी पहली बार इतिहास में अपने बूते सरकार बनाने जा रही है. इसमें उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार रहे नरेंद्र मोदी का सबसे बड़ा हाथ है. मोदी के काम करने का अपना ही तरीका है. उनके द्वारा अब तक चलाई गई गुजरात सरकार के काम करने का तरीका भी अलग ही था. खुद की उदार छवि और मजबूती से स्थापित करने की उनकी कुछ मजबूरी भी है. और मुख्यमंत्री बनने के बाद से उनके संघ से कभी उतने सहज संबंध नहीं रहे जितने शिवराज सिंह सरीखे उनकी जैसी ही पृष्ठभूमि वाले अन्य भाजपाई शासकों के रहे हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि मोदी के नेतृत्व में सरकार चलाने वाली भाजपा का स्वरूप भविष्य में कैसा हो सकता है. क्या उनका अब तक का राजनीतिक आचरण आने वाले समय में पार्टी के किसी और दिशा में जाने के संकेत भी देता है? क्या मोदी वह व्यक्ति होंगे जिनकी वजह से आने वाले समय में समाज के सभी वर्ग भाजपा को किसी भी अन्य पार्टी की तरह स्वीकार्य मानने लगेंगे? क्या पार्टी मोदी के नेतृत्व में ही पूर्व की कांग्रेस की तरह पूरे देश में विस्तार वाली पार्टी बन जाएगी? और क्या संघ के शिंकजे से बाहर निकलकर भाजपा सही मायनों में एक स्वतंत्र राष्ट्रीय पार्टी के रूप में स्थापित हो जाएगी. धुर दक्षिणपंथी नहीं बल्कि सिर्फ दक्षिणपंथी रुझान वाली.

एक वर्ग ऐसा है जो मानता है कि भाजपा को बंदर की तरह नचाने के संघ के दिन अब खत्म हो चुके हैं. ऐसा सोचने के पीछे आधार है. और वह है नरेंद्र मोदी और संघ के बीच का पिछले एक दशक का संबंध. पिछले 10 सालों में मोदी और संघ के संबंध अर्श से फर्श पर पहुंच गए. मोदी ने पिछले 10 सालों में गुजरात में संघ और उससे जुड़े संगठन अर्थात पूरे संघ परिवार को नाथने में कोई कसर बाकी नहीं रखी.

जब 2001 में नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे तो इससे सबसे ज्यादा खुश होने वालों में संघ परिवार भी था. उसका खुश होना लाजिमी भी था. उसके कार्यालय में कपड़े धोने, कमरा साफ करने से लेकर चाय पिलाने वाला उसका स्वंयसेवक किसी राज्य का मुख्यमंत्री बना था. संघ को उम्मीद थी कि उसकी वैचारिक फैक्ट्री में तैयार हुआ उसका यह खाकी नेकर वाला लाडला राज्य का मुखिया बनने के बाद अपने परिवार की विचारधारा को जहां भी संभव हो फैलाने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखेगा. संघ को विश्वास था कि उसके सपनों के ‘अखंड भारत’ – जिसकी सीमा भारतीय सीमा के पार पाकिस्तान, अफगानिस्तान और उससे भी आगे तक जाती है – के निर्माण की नींव रखने का काम उसका यही स्वंयसेवक गुजरात से करेगा.

लेकिन अखंड हिंदुस्तान और राज्य की हर दरो-दीवार को भगवा रंग से रंगना तो दूर संघ का यह मानस पुत्र संघ के अस्तित्व को ही निपटाने में लग गया. गुजरात संघ के पदाधिकारी बताते हैं कि कैसे संघ के कार्यकर्ता यदि राज्य में गोवध आदि को लेकर प्रदर्शन करते और वह जरा भी बेकाबू होता तो पुलिस उन पर न सिर्फ लाठियां भांजती बल्कि जेल की हवा खिलाने भी ले जाती. कैसे अहमदाबाद में 200 से ऊपर मंदिर मोदी के आदेश पर अतिक्रमण हटाने के लिए तोड़ दिए गए. कैसे विश्व हिंदू परिषद के प्रवीण तोगड़िया जो पूरे भारत में आगे उगलते नजर आते हैं उन्हें मोदी ने अपने प्रदेश में शांत करा दिया. और कैसे पूरे संघ परिवार को न सिर्फ मोदी ने बिखरा दिया बल्कि इससे जुड़े एक-एक संगठन को राज्य में बेअसर करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी.

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार

मोदी और संघ के इसी ऐतिहासिक संबंध के आधार पर एक तबका मानता है कि मोदी अब प्रधानमंत्री बनने के बाद भी संघ से उसी तरह का व्यवहार करेंगे जैसा उन्होंने गुजरात में किया. वे संघ की हर बात को तो कम से कम नहीं ही सुनेंगे. ऐसे में जिस तरह से गुजरात भाजपा संघ परिवार के किसी नियंत्रण या निर्देश के बाहर स्वतंत्र होकर काम करती थी वैसे ही भाजपा केंद्र और अन्य राज्यों में करने लग सकती है.

यह तो हुआ एक नजरिया. एक दूसरी दृष्टि भी है जो मानती है कि भले ही गुजरात में संघ और मोदी के संबंध, तनावग्रस्त की श्रेणी में आते थे, लेकिन मोदी के दिल्ली आ जाने के बाद स्थिति दूसरी होगी. इसका सबसे बड़ा कारण है कि मोदी को गुजरात विधानसभा के चुनावों में अपना परचम लहराने के लिए संघ की जरूरत नहीं पड़ती थी. लेकिन दिल्ली स्थिति 7 आरसीआर पहुंचने के लिए जो चुनावी सड़क मोदी और भाजपा ने बनाई है, उसे बनाने में संघ ने भी अपना खून पसीना बहाया है. अर्थात मोदी को दिल्ली तक पहुंचाने में संघ ने भी बड़ी भूमिका अदा की है.

jogi_ki_jagatयह जरूर था कि मोदी का प्रधानमंत्री के लिए नाम उछलने पर संघ नेतृत्व अपने गुजरात अनुभव के कारण सशंकित था. लेकिन बाद में चौतरफा बने माहौल और कैडरों के दबाव में उसे मोदी को भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के तौर पर स्वीकार करना पड़ा. इसके बाद से चुनाव अभियान के आखिरी दिन तक संघ के स्वंयसेवक मोदी को पीएम बनाने के लिए देश भर में प्रचार करते रहे. संघ के एक पदाधिकारी कहते हैं, ‘संघ के हमारे स्वंयसेवकों ने गांव-गांव, घर-घर जाकर लोगों से मोदी जी के लिए वोट मांगा है. संघ जितना सक्रिय इस चुनाव में था उतना कभी नहीं रहा. इस बात को मोदी जी अच्छी तरह से जानते हैं.’
तो क्या ऐसे में संभव है कि मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद संघ की अनदेखी करेंगे? वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक अजय बोस कहते हैं, ‘ये चुनाव भाजपा ने नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत की पार्टनरशिप में जीता है. ऐसे में भाजपा संघ से कैसे स्वतंत्र हो पाएगी. जिस तरह संघ के स्वंयसेवकों ने दिन-रात मेहनत करके मोदी को पीएम की कुर्सी तक पहुंचाया है, ऐसे में ये संभव नहीं है कि मोदी संघ की अनदेखी कर सके.’

जानकार आगे जाकर संघ और मोदी के बीच रस्साकसी की स्थिति उत्पन्न होने की संभावना जताते हैं. उनके अनुसार संघ पर उसके समर्थक और स्वयंसेवक, अभी नहीं हुआ तो फिर कभी नहीं के तहत अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने का दबाव डालेंगे. संघ की तरफ से भी भाजपा पर अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने का दबाव होगा. भाजपा खुद कह रही है कि यह वोट उसे विकास के नाम पर मिला है. मोदी को बहुत बड़ी तादाद में उन युवाओं ने वोट दिया है जिनका संघ की राजनीति से कोई मतलब नहीं है. यह नए भारत का सपना देखने वाले युवाओं का वोट है. मोदी ने भी अपने पूरे चुनाव प्रचार में कोई ऐसी भाषा भी नहीं प्रयोग की जो केशव कुंज से निकली हो. जहां मोदी अमेरिका और जापान जैसा विकास करने की बात करेंगे और संघ कहेगा कि हमें तो ‘राम राज्य’ चाहिए. ऐसे में संघ के साथ मोदी कैसे सामंजस्य बैठा पाएंगे यह देखने वाली बात होगी.

बोस कहते हैं, ‘अटल जी से संघ के नेता जब भी आरएसएस के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए कहते थे. वे तपाक से बोल देते थे कि भई बहुमत नहीं है. गठबंधन में आपका एजेंडा लागू नहीं हो सकता. लेकिन मोदी तो गठबंधन का रोना नहीं रो पाएंगे. हालांकि संघ पर ‘ब्रदरहुड ऑफ सैफरन’ नामक किताब लिखने वाले वाल्टर एंडरसन मीडिया से बातचीत में कहते हैं, ‘मोदी अगर पीएम बने तो आरएसएस का अपना अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा.’

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साभार: आउटलुक

जानकारों का एक समूह मानता है कि चूंकि मोदी विकास के नारे के साथ चुनाव जीतकर आए हैं, ऐसे में विचारधारा के स्तर पर वे खुद को एक्सट्रीम राइट में ले जाने की बजाय ‘राइट ऑफ द सेंटर’ जैसी विचारधारा के साथ चलने की कोशिश करेंगे. लेकिन इसमें भी कई पेंच है. पहला यह कि क्या संघ हिंदुत्व से भाजपा को कहीं और खिसकने देगा वह भी उस स्थिति में जब पार्टी अपने दम पर बहुमत में आई है. संघ के एक नेता कहते हैं, ‘हिंदुत्व के कारण ही भाजपा को इतना वोट मिला है. वरना विकास के नारे पर इतना वोट मिलता. दोनों के मेल से ये सुनामी आई है.’

भाजपा और मोदी को एक परेशानी भाजपा के अपने उन मुद्दों से भी होने वाली है जो भाजपा की पहचान रहे हैं और जिस पहचान को व्यक्त करने में उसने हमेशा गर्व महसूस किया है. क्या होगा धारा 370, समान नागरिक संहिता और राम मंदिर जैसे भाजपा की पहचान से जुड़े मुद्दों का. पूर्व में इन मुद्दों पर भाजपा से जब भी पूछा जाता था वह कहती थी कि गठबंधन के लोग उसे ऐसा करने नहीं देंगे इसलिए वह इन तीनों मुद्दों पर चुप है. लेकिन अब पार्टी को मिले प्रचंड बहुमत के बाद वह क्या कहेगी. जानकार मानते हैं कि ये प्रश्न इसलिए भी जरूरी हैं क्योंकि भाजपा को मिलने वाले इस बार के बड़े समर्थन में उन लोगों का भी योगदान है जो मोदी को एक हिंदुत्ववादी नेता के तौर पर देखते हैं और जिन्हें उम्मीद है मोदी हिंदू राष्ट्र के सपने को पंख देने की जरूर कोशिश करेंगे.

राजनीतिक टिप्पणीकार रशीद किदवई कहते हैं, ‘भविष्य की भाजपा का स्वरूप कैसा होगा इस बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी. मोदी पीएम बनने के बाद कैसे व्यवहार करते हैं ये देखना बाकी है. पद बदलने का असर व्यक्तित्व पर भी तो पड़ता है.’ हालाकि रशीद एक संभावना जताते हुए कहते हैं, ‘मोदी विकास और संघ के एजेंडे, दोनों के बीच एक तालमेल बिठाने की कोशिश करेंगे. ये कुछ-कुछ मध्य प्रदेश सरकार की तरह का होगा जहां सरकार विकास के साथ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर थोड़ा बहुत संघ का एजेंडा भी चलाती रहती है. जैसे सूर्य नमस्कार आदि. ऐसे में मोदी भी कुछ इसी तर्ज पर करेंगे.’

कुछ लोग इस दिशा में भी इशारा करते हैं कि मोदी संघ और उसके एजेंडे से दूर रहने की भरपूर कोशिश करेंगे. बोस कहते हैं, पूरे पश्चिमी मीडिया में मोदी के पीएम बनने की बडी होस्टाइल कवरेज हुई है. दूसरी बात देश का एक बड़ा वर्ग भी बहुत करीब से मोदी की हर हरकत को देखेगा .ऐसे में वो ऐसा कुछ भी करने से बचेंगे जो 24 घंटे के न्यूज चैनल और सोशल मीडिया के जमाने में नकारात्मक बहस का कारण बने. राष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने कुछ भी गड़बड़ की तो उनके पॉलिटिकल करियर के लिए ये घातक होगा. वो आरएसएस का साथ उतना ही देंगे जिससे जनता के बीच कोई नकारात्मक मैसेज न जाए.’

धर्म, वर्ग के पार

भाजपा चुनाव परिणामों में 300 का आंकड़ा पार करने पर खुशी से झूम रही है. उसकी खुशी का जितना बड़ा कारण उसको मिलने वाला बहुमत है उतना ही बड़ा कारण उसके प्रसन्न होने का यह भी है कि उसने सारे सामाजिक समीकरणों को सिर के बल खड़ा कर दिया है. कई टिप्पणीकारों ने भी इस ओर इशारा किया है कि कैसे इस चुनाव में मंडल, कमंडल को जनता ने नकार दिया. जाति, धर्म , वर्ग का गणित फेल हो गया.

ऐसा सोचने के पीछे मजबूत आधार है. भाजपा की सूनामी में दलित राजनीति की चैंपियन बसपा शून्य पर पहुंच गई वहीं यूपी के माध्यम से लाल किले पर झंडा फहराने को बेताब मुलायम सिंह यादव की सपा के हिस्से में न मुस्लिम आए न यादव. उनके हिस्से में सिर्फ परिवार आया. भाजपा ने सारे अनुमानों को ध्वस्त करते हुए उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 71 पर अपना झंडा फहराया. यही हाल बाकी राज्यों में भी रहा. पार्टी कहती है कि लोगों ने पहचानों को किनारे रखकर नरेंद्र मोदी को वोट दिया. न प्रत्याशी देखा और न जाति.

देश के वोटरों में 17 फीसदी यानी 13.8 करोड़ दलित मतदाता हैं. दलितों के लिए आरक्षित 84 सीटों में से इस बार भाजपा को 40 सीटें मिलीं. इनमें से पिछली बार उसे सिर्फ 12 सीटें मिली थीं. वहीं देश में आदिवासी वोटरों की संख्या करीब 10 करोड़ है जिनके लिए 47 सीटें आरक्षित हैं. 2009 में भाजपा ने जहां इन सीटों में से 14 पर जीत दर्ज की थी वहीं इस बार आंकड़ा 29 पर पहुंच गया. आदिवासी सीटों पर जीतने वाली भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बन गई. पिछड़ा वर्ग की स्थिति भी लगभग ऐसी ही है. पिछड़ी राजनीति भी इस बार भाजपा के साथ आकर खड़ी हो गई. यूपी की 30 और बिहार की 9 सीटों पर ओबीसी वोटर निर्णायक की भूमिका में हैं. इन में से भाजपा ने क्रमशः 25 और 4 सीटें जीत लीं. उत्तर प्रदेश और बिहार में इस बार मिलीं कुल 29 सीटों की तुलना में पिछली बार भाजपा को मात्र छह सीटें हासिल हुईं थी.

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार

ऐसा भी कहा गया कि मोदी की इस शानदार जीत में उन मुसलमानों का भी योगदान है जिनको भाजपा का डर दिखाकर सारे दल अपने पाले में करने के लिए सारे करतब करते दिखाई दिए. परिणाम के आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि मुस्लिम प्रभाव वाली 92 सीटों में से भाजपा को 41( शिवसेना-3) सीटें हासिल हुईं. पिछली बार से यह संख्या 28 अधिक है.

जो पार्टी सवर्ण हिंदुओं, ब्राह्मणों और बनियों की मानी जाती थी उस पार्टी का जमीन पर सारे सामाजिक समीकरणों को ध्वस्त करना सभी को हैरान कर गया.

ऐसे में इस बात को लेकर भी चर्चा शुरू हो गई है कि क्या भविष्य में स्थायी तौर पर भाजपा एक ऐसी पार्टी का रूप ले सकती है जिसपर मुस्लिम सहित समाज के सभी वर्ग अपना भरोसा जता सकें?

अजय बोस कहते हैं, ‘भाजपा की ऐसी इच्छा जरूर रहेगी लेकिन ऐसा संभव होता नहीं दिखता. ये तात्कालिक था. ये चुनावी मोबिलाइजेशन था. इस प्रक्रिया में पार्टी खड़ी नहीं हुई है.’ रशीद भी बोस जैसी ही सोच रखते हैं. वे कहते हैं, ‘ये बिलकुल सही है कि मोदी ने इस बार न सिर्फ जातिगत समीकरणों को तोड़ा है बल्कि उसे मुस्लिम मत भी ठीकठाक मिले हैं. लेकिन अभी कोई फैसला देना जल्दबाजी होगी.’

हालांकि रशीद मोदी को लेकर मुस्लिम समुदाय में परिवर्तन की संभावना से इनकार भी नहीं करते हैं. वे कहते हैं, ‘हमें ये सोचना होगा कि केवल वाल्मीकि का ही हृदय परिवर्तन का अधिकार थोड़े ही है. मोदी को लेकर मुसलमानों का नजरिया बदलने पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए. ये ध्यान रखना जरूरी है कि अब तक जिस नेहरूवियन मॉडल को मुस्लिम अपना समर्थन देते आए हैं. उसमें ये संभव है कि वो अब किसी और मॉडल को परखने की सोच रहे हैं.

खैर विभिन्न वर्गों के लोगों के मन में चाहे जो भी हो यह तय है कि भाजपा जरूर खुद को समाज के सभी वर्गों की पार्टी बनाने की कोशिश करेगी. जिससे आने वाले समय में वर्तमान लोकसभा की सफलता को फिर से दोहराया जा सके.

पूरा देश

भाजपा को हमेशा से इस बात का कष्ट था कि वह भले ही कांग्रेस के समान एक राष्ट्रीय पार्टी है लेकिन देश के हर कोने में उसकी उपस्थिति नहीं है. पूर्वोत्तर और दक्षिण में पार्टी की अनुपस्थिति उसे हमेशा सालती रहती थी. लेकिन इस बार के चुनाव परिणाम ने पार्टी को सही अर्थों में राष्ट्रीय बना दिया. 13 से बढ़ते हुए भाजपा इस बार 21 राज्यों में फैल गई. 2009 में पार्टी का जो वोट शेयर 18.8 फीसदी था वह बढ़कर 33.7 फीसदी पर पहुंच गया. अपनी स्थापना के 34 साल बाद आज भाजपा पूरे भारत में दिखाई दे रही है.

उत्तर और पश्चिमी भारत में जहां पहले से उसका अपना एक आधार था वहां सूनामी सरीखी सफलता पा चुकी भाजपा इस बार पूर्वोत्तर और दक्षिण के राज्यों में भी- जहां नॉन प्लेयर मानी जाती थी – हलचल पैदा करने में सफल रही.

पूर्वोत्तर की बात करें तो भाजपा ने असम में अपनी परफॉर्मेंस से सभी को चौंका दिया. सत्ताधारी कांग्रेस की भाजपा ने वहां वह फजीहत की कि मुख्यमंत्री इस्तीफा देने की पेशकश करते दिखाई दिए. पूरे देश में बताई जा रही मोदी लहर नॉर्थ इस्ट में सबसे ज्यादा असम में ही दिखी. भाजपा ने इस बार असम से सात सीटें जीतीं और 36 फीसदी वोट शेयर उसके नाम रहा.

इस बार अरूणाचल में भी भाजपा को एक सीट हासिल हुई. पूर्वोत्तर के आठ राज्यों (सिक्किम,अरूणाचल,असम, मिजोरम,मेघालय,मणिपुर, त्रिपुरा, नागालैंड की 25 सीटों में से भाजपा को आठ सीटें मिलीं हैं जो पिछली बार की तुलना में चार अधिक हैं.

वहीं दक्षिण की बात करें तो आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल को मिलाकर कुल 129 सीटों में से भाजपा को 21 सीटें हासिल हुईं. पार्टी ने आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में फिर से खाता खोलने में सफलता पाई. मोदी लहर पर सवार होकर भाजपा 10 साल बाद कन्याकुमारी सीट जीतने में सफल रही. तो उसकी सहयोगी पीएमके को एक सीट मिली.

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार

आंध्र में भाजपा से जुड़ने का टीडीपी को भी फायदा मिला. कहा जा रहा है कि शहरी इलाकों में यह मोदी के असर का ही कमाल था कि वायएसआर कांग्रेस नेता जगन रेड्डी की मां विजयम्मा भाजपा से हार गईं. कर्नाटक में पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा तीसरे नंबर पर चली गई थी लेकिन इस चुनाव में उसे मात्र दो सीटों का घाटा हुआ और उसने 17 सीटें जीतीं. राज्य में अभी भी वह लोकसभा में सबसे बडी पार्टी के रुप में है. हालांकि केरल में अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद भाजपा अपना खाता नहीं खोल पाई. तिरुवनंतपुरम में भाजपा के राजगोपाल ने शुरुआत में शशि थरूर पर बढ़त बनाई थी. लेकिन अंत में मात्र 15 हजार वोटों से हार गए. लेकिन राज्य में भाजपा का मत प्रतिशत जरूर दोगुना होकर 10 फीसदी पहुंच गया. उड़ीसा में एक तो आंध्र प्रदेश में उसे तीन सीटें मिली.

यही स्थिति पश्चिम बंगाल में भी रही जहां भाजपा अपनी सीट एक से दो करने में सफल रही. हालांकि उसके वोट प्रतिशत में काफी इजाफा हुआ और वह 18 फीसदी वोटों के साथ टीएमसी और लेफ्ट के बीच अपना स्थान बनाने में सफल रही. गुजरात, राजस्थान, दिल्ली उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और गोवा की सभी सीटें जीतने वाली भाजपा ने जीत को छत्तीसगढ, मध्य प्रदेश, यूपी और बिहार में लगभग एकतरफा बना दिया और महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में कांग्रेस को हाशिए पर ठकेल दिया. हरियाणा जहां भाजपा की लोकसभा में बहुत अच्छी स्थिति नहीं रही है, वहां वह 7 सीटें और 33 फीसदी मत जीतने में सफल रही.

तो इन परिणामों के आधार पर क्या हम कह सकते हैं कि भाजपा अब एक ऐसी पार्टी के रूप में विकसित हो गई है जो आने वाले समय में दक्षिण से लेकर पूर्व तक की राजनीति में एक महत्वपूर्ण रोल अदा करेगी.

जानकार मानते हैं कि ऐसा सोचना जल्दबाजी होगी. बोस कहते हैं, ‘ये सही है कि इस बार भाजपा को पूर्वोत्तर और दक्षिण तक प्रेरित करने वाले मत मिले हैं लेकिन ये लोकसभा चुनाव तक ही सीमित रहेंगे ऐसी संभावना है.’ बोस के मुताबिक, इन राज्यों में भाजपा का अपना कोई संगठन नहीं है ऐसे में वहां स्थानीय स्तर पर विधानसभा से लेकर जो भी चुनाव होंगे, पार्टी उसमें हाशिए पर ही रहेगी. अब यहां  मोदी जी सीएम के उम्मीदवार तो होंगे नहीं. इस बार का चुनाव राष्ट्रपति पद्धति वाले चुनाव सरीखा था सो वहां पार्टी को कुछ सपोर्ट मिला है.’

भले ही भाजपा की इन राज्यों में जीत छोटी हो लेकिन उसने पार्टी को इतना हौसला जरूर दिया है कि वह कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक अपना झंडा फहराने का सपना देख सके. रशीद कहते हैं, इसमें कोई शक नहीं है कि भाजपा की 100 फीसदी राष्ट्रीय छवि बन गई है. अब वह लगभग हर क्षेत्र में पहुंच चुकी है. ये बडी बात है. मोदी को जरूर इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने वो काम कर दिखाया है जो अटल जी नहीं कर पाए.’

जानकार यह भी कहते हैं कि अब इस मामले में सबकुछ इस पर निर्भर करेगा कि अगले पांच सालों में मोदी कैसी सरकार चलाते हैं. उसमें ही ऊपर के सभी सवालों के जवाब छिपे हैं. क्योंकि पांच साल बाद वोट मांगते वक्त वे इस बार की तरह गुजरात मॉडल का उदाहरण नहीं दे पाएंगे.

नेहरू, इंदिरा और मोदी

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार

आजादी के बाद पहले चुनाव सन् 1951 में हुए थे. नेहरू जी के नेतृत्व में. तब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को 364 सीटें मिली थीं. 489 सीटों में से. करीब तीन चौथाई बहुमत था. जब तक नेहरू जी जीवित रहे तकरीबन ऐसा ही बहुमत उन्हें मिलता रहा.

इसके बाद उनकी बेटी इंदिरा को भी अपने दम पर बहुमत मिला. 1967 में न भी मानें तो 1971 में उन्हें कमोबेश अपने पिता सरीखा ही बहुमत मिला. 518 में से 352 सीटें. यह बांग्लादेश बनने के बाद का चुनाव था जब इंदिरा और इंडिया में कोई भेद नहीं रह गया था.

इसके बाद 80 में इंदिरा एक बार फिर जनता पार्टी के बिखराव के बाद उतने ही प्रचंड बहुमत से चुनाव में विजयी होकर आईं. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके पुत्र राजीव को आजादी के बाद का, और अब तक का भी, सबसे बड़ा बहुमत मिला. 1984 के चुनाव में उन्हें 514 में से 404 सीटें मिली थीं. अगर इसके तुरंत बाद 1985 में हुए असम और पंजाब के लोकसभा चुनावों को भी मिला दें तो उन्हें मिली कुल सीटों की संख्य 414 थी. यह अभूतपूर्व था. लेकिन इसमें राजीव गांधी का योगदान था ही कितना!

उस वक्त तक न तो यह देश ही राजीव को राजनेता के तौर पर पहचानता था और न ही राजीव गांधी ही राजनीति को ठीक से पहचानते थे. उनकी पहचान इंडियन एयरलाइंस के एक पूर्व हवाई जहाज पायलट और संजय गांधी के कामचलाऊ विकल्प की थी. जाहिर सी बात है कि जीत का श्रेय राजीव को नहीं बल्कि दिवंगत इंदिरा गांधी को ही जाना चाहिए. हालांकि जीवित रहते हुए उनके लिए भी इतना प्रचंड बहुमत पाना असंभव ही था.

इसके बाद वर्ष 2009 तक सात बार आम चुनाव हुए लेकिन कांग्रेस और भाजपा सहित किसी को भी पूरा बहुमत नहीं मिला.

इसका मतलब नरेंद्र मोदी, पंडित जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद अकेले ऐसे नेता हैं जिनके नेतृत्व की वजह से उनकी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला है.

और नेहरू-इंदिरा की कभी पार्टी रही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का क्या?

उसका हाल वाकई बुरा है. इतना बुरा कि उसकी हालत सदन में विपक्षी दल बनने लायक भी नहीं. भारतीय लोकतंत्र के किसी भी सदन में विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए 10 फीसदी सीटों की आवश्यकता होती है. कांग्रेस को सिर्फ 44 ही मिली हैं. जरूरी से 11 कम. अब मुख्य विपक्षी दल बनने के लिए उसको भाजपा की सद्भावना का ही सहारा है. वैसी ही सद्भावना जैसी राष्ट्रीय जनता दल के प्रति पिछला चुनाव जीतने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दिखाई थी.

अगर एक दूसरे नजरिये से देखें तो कांग्रेस ने अपने पिछला सबसे बुरा प्रदर्शन 1999 में किया था. तब कांग्रेस को कुल सीटों में से 114 ही मिली थीं. देश को आजादी दिलाने वाली पार्टी के लिए यह अपने आप में ही बहुत बुरा प्रदर्शन था. लेकिन इस बार तो वह इसके भी आधे से भी बहुत कम पर सिमट गई है. कांग्रेस को 10 राज्यों में एक भी सीट हासिल नहीं हुई है. पिछली बार साढ़े तीन लाख मतों से जीतने वाले पार्टी के सबसे ताकतवर नेता राहुल गांधी इस बार अपने गढ़ अमेठी में सारा जोर लगाकर भी सिर्फ एक लाख वोटों से ही चुनाव जीत सके हैं. एक आंकड़ा यह भी है कि भाजपा ने कांग्रेस के मुकाबले करीब साढ़े छह गुना सीटें जीती हैं.

तो क्या कांग्रेस को चुका हुआ मान लिया जाए जैसा कि कुछ लोग आशंका जता रहे हैं. उनकी आशंका गलत हैं और सही भी. गलत इसलिए कि जब पार्टियां जमीन से शुरू होकर आसमान पर पहुंच सकती हैं तो एक सवा सौ साल पुरानी पार्टी राजनीति में वापसी क्यों नहीं कर सकती? फिर भारतीय राजनीति तो इस बात की गवाह है कि कई बार यहां वापसी के लिए अपनी मेहनत से भी कम या बराबर दूसरों की गलतियां काम आती रही हैं.

अगर आने वाली मोदी सरकार जनता की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरती या कांग्रेस नेतृत्व आमजन से जुड़कर उससे भी अच्छा करने की आशा जगा सके तो कांग्रेस का दुबारा अच्छी हालत में आना असंभव क्यों होना चाहिए. राख में से उठकर खड़े होने का उदाहरण खुद भाजपा का ही है जिसने 1984 में सिर्फ दो सीटें जीती थीं और आज देश की सबसे बड़ी और लगभग हर हिस्से में पहुंच वाली पार्टी बन गई है.

गांधी जी का कहना था कि छटांक भर किया गया कार्य भी मनों की गई बातों से ज्यादा असर डालने वाला होता है. अपने उपनाम वाले, अपनी पार्टी और विश्व के सबसे विलक्षण रहे उस महान व्यक्ति की इस बात को कांग्रेस नेतृत्व को मंत्र की तरह भजना होगा. उसे केंद्र में विपक्ष की सकारात्मक-सशक्त भूमिका के जरिये और जिन भी राज्यों में उसकी सरकारें हैं उनके सुशासन के जरिये खुद को देश की सत्ता का जायज अधिकारी साबित करना होगा. राहुल गांधी अगर चाहते हैं कि वे अपनी पार्टी और देश की राजनीति में आगे भी प्रासंगिक बने रहें तो उन्हें जनता को समझ में आ सकने वाली जिम्मेदारियां हाथ में लेकर देश की सत्ता पर अपना दावा पक्का करना होगा. नहीं तो फिर ऐसा कर सकने की क्षमता और इच्छा रखने वाले के लिए अपना स्थान छोड़ना होगा. कांग्रेस नेतृत्व को समझना होगा कि कंप्यूटरों पर तैयार की गई योजनाओं को हवाई जहाज में घूमकर कार्यान्वित करना बुरी बात नहीं है. अंग्रेजी में हिंदी बोलने वालों को अपने सलाहकारों में रखना भी कोई बुरी बात नहीं है. लेकिन केवल ऐसा करना और ऐसों की ही मानना जरूर ठीक नहीं है. केवल जी-हुजूरी, जोर-जुगाड़ और विरासत के दम पर पार्टी और सत्ता में जगह बनाने की संस्कृति सही नहीं है और जब तक उसे नहीं बदला जाएगा तब तक पार्टी का कायाकल्प होना तो दूर उसके अस्तित्व पर ही संकट बना रहेगा. जानकारों को संदेह है कि कांग्रेस ऐसा कर सकती है और इसी से कांग्रेस को चुका हुआ मान लेने वालों की आशंकाओं को थोड़ा बल मिलता है.

चुनौती मोदी के सामने भी छोटी नहीं है. उनके पास इतना और ऐसा बहुमत है जो उन्हें कुछ भी जरूरी न कर सकने और गैर-जरूरी करने की हालत में बचाव के बहाने नहीं देता. वे नहीं कह सकते कि वे, अलाना गठबंधन की मजबूरी के चलते और फलाना, अपनी पार्टी की अंदरूनी समस्याओं के चलते नहीं कर पाए. उनकी पार्टी, मैनिफेस्टो में होने के बावजूद, राम मंदिर, धारा 370 और समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों पर कुछ भी करने से, यह कहकर अपनी पिछली सरकारों में बचती रही है कि ऐसा करना गठबंधन सरकार में संभव नहीं. अब मोदी पर यदि संघ आदि का दबाव पड़ा तो वे इन विवादित मुद्दों पर क्या करेंगे, देखना दिलचस्प होगा.

अगर मोदी संकीर्ण राजनीति से ऊपर उठकर सिर्फ सामान्य तरीके से भी प्रधानमंत्री पद के उत्तरदायित्व को निभा पाए तो वे भारतीय राजनीति के न जाने कितने स्थापित दुर्गुणों को मटियामेट कर सकते हैं. इनमें सांप्रदायिकता को रोकने के नाम पर केवल सत्ता पाने के लिए होने वाले बेमेल गठबंधन और भाजपा का डर दिखाकर अल्पसंख्यकों को अपना जरखरीद मानने वाली निकृष्ट सोच भी शामिल है.

अगर मोदी ‘खंड-खंड’ और ‘अखंड’ भारत वाली सोच से ऊपर उठकर ऐसा कर पाए तो वे देश के इससे भी बड़े नायक बन सकते हैं. नहीं तो वे अपनी पार्टी के महानायक तो बन ही चुके हैं.

प्रवीर चंद्र भंजदेव : अा‌‌दिवासी आंदोलन

preveerआदिवासियों की दशा समझने और सुधारने के लिए आजादी के बाद कई समितियां बनी हैं इनमें पहली मानवशास्त्री वेरियर एल्विन की अध्क्षता में बनी थी. और पहला आयोग कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष यूएन धेबर की अध्यक्षता में 1960 में बना. लेकिन शुरुआत में ही ये प्रयास खोखले साबित होने लगे. इसका नतीजा यह रहा कि 1960-70 के दशक के दौरान बस्तर में आदिवासी आंदोलन में भारी उभार देखा गया. इसका नेतृत्व बस्तर के पूर्व राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के हाथों में था. आदिवासियों के लिए वे भगवान सरीखे थे.

प्रवीर चंद्र ने ही भारत में बस्तर रियासत के विलयपत्र पर दस्तखत किए थे और बाद में वे कांग्रेस में शामिल हो गए. कांग्रेस का सदस्य रहते हुए 1957 में प्रवीर चंद्र विधायक बने लेकिन आदिवासियों के प्रति सरकार के रवैए से निराश होकर 1959 में विधानसभा सदस्यता से इस्तीफा दे दिया. सरकारी नीतियों के खिलाफ जब पूर्व राजा की सक्रियता बढ़ गई तब 1961 में उन्हें कुछ दिनों के लिए हिरासत में भी लिया गया. केंद्र सरकार ने कार्रवाई आगे बढ़ाते हुए एक आदेश के जरिए राजा के रूप में मिली उनकी सुविधाएं भी समाप्त कर दीं. बस्तर के आदिवासी सरकार के इस कदम से हैरान थे.

सरकार के इस फैसले के खिलाफ छत्तीसगढ़ के सुदूरवर्ती क्षेत्रों तक आदिवासियों की सभाएं होने लगीं. इसी समय एक गांव लोहड़ीगुड़ा में पुलिस ने प्रदर्शनकारी आदिवासियों पर गोलियां चलाईं जिसमें सरकारी आंकड़े के मुताबिक तकरीबन दर्जन भर आदिवासी मारे गए थे.

आजाद भारत में पुलिस की फायरिंग से आदिवासियों के मारे जाने की यह पहली घटना है.

इन घटनाओं ने प्रवीर चंद्र को बस्तर में और मजबूत कर दिया. 1962 के विधानसभा चुनाव में बस्तर की दस में से आठ सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार प्रवीर चंद्र के चुने हुए उम्मीदवारों के सामने बुरी तरह हार गए. एक तरह से यह सरकार की पराजय थी. इसके बाद से प्रवीर चंद्र दिल्ली से लेकर भोपाल तक आदिवासियों के पक्ष में बड़े-बड़े विरोध प्रदर्शन करने लगे. पुलिस और पूर्व राजा के नेतृत्व में आदिवासियों के बीच पहली झड़प की कथित घटना इसी समय की है. मार्च, 1966 में आदिवासी राजमहल में एक त्योहार के सिलसिले में जुटे हुए थे. आदिवासी अपनी परंपरागत वेशभूषा के साथ तीर-कमानों से लैस थे. कहा जाता है कि इसी दिन किसी दूसरे क्षेत्र में पुलिस की आदिवासियों से एक झड़प हुई और संदिग्धों की तलाश में पुलिस ने राजमहल को घेर लिया. अचानक यहां पुलिस और आदिवासियों के बीच संघर्ष शुरू हो गया. पुलिस ने आदिवासियों पर फायरिंग शुरू कर दी और दर्जनों आदिवासियों के साथ प्रवीर चंद्र की भी इस इसमें मौत हो गई. इसी के साथ उस दौर में आदिवासियों का सबसे बड़ा नेतृत्व खत्म हो गया.

कहा जाता है सरकार ने जानबूझकर बस्तर के पूर्व राजा की हत्या करवाई थी क्योंकि वे सरकार के लिए चुनौती बन गए थे. हालांकि पुलिस का दावा था कि आदिवासी प्रवीर चंद्र के नेतृत्व में उनके ऊपर तीरों से हमला कर रहे थे और इसकी प्रतिक्रिया में पुलिस को कार्रवाई करनी पड़ी.