किसी अभिनेता के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है कि उसे सिर्फ 29 साल की उम्र और चार पांच फिल्मों के बाद ही राष्ट्रीय पुरस्कार मिल जाए. ऐसे उद्योग में जहां आपको पहचान बनाने में ही दशकभर लग सकता है वहां राजकुमार राव को इतनी जल्दी अच्छी भूमिकाएं और एक मुकाम हासिल करते हुए देखना आपको हैरान कर सकता है. इसी बात का दूसरा पहलू यह भी है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री अब राजकुमार जैसी प्रतिभाओं को पहचान रही है और उन्हें बेहिचक मौके दे रही है. या कहें कि मजबूर हो रही है. राजकुमार कहते हैं, ‘ फिल्मों के लिए कास्टिंग डायरेक्टरों का महत्वपूर्ण हो जाना मेरी पीढ़ी के अभिनेताओं के लिए सबसे अच्छी बात रही है. अब अभिनेता ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जिसे वे अपना काम दिखा सकें. इन दिनों कास्टिंग डायरेक्टरों को अच्छा पैसा भी मिलता है और उन्हें गंभीरता से लिया जाता है.’
राजकुमार अभी से यह साबित कर चुके हैं कि वे बहुत अच्छे अभिनेता हैं, लेकिन अपने परिवार में वे पहले सदस्य हैं जो इस क्षेत्र में आए. इसके लिए भी वे अपनी प्रतिभा को श्रेय नहीं देते. गुड़गांव में प्रेमनगर इलाके के एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे राजकुमार मानते हैं कि उनके माता-पिता ने जिस तरह से हर काम में उनका साथ दिया उसकी वजह से वे फिल्मों में अपनी जगह बना पाए. वे कहते हैं, ‘ मेरे पिता ने राजस्व विभाग में नौकरी की है. मुझे बचपन से ही डांस, मार्शल आर्ट और एक्टिंग करना पसंद था. मेरे माता-पिता को अहसास था कि मुझे यही पसंद है. उन्होंने कभी इसके लिए मुझ से रोकटोक नहीं की.’
राजकुमार को फिल्म शाहिद में अपनी भूमिका के लिए इस बार का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया है. यह फिल्म मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील शाहिद आजमी के जीवन पर बनी है. यह भूमिका कई मायनों में चुनौतीपूर्ण थी. पहली मुश्किल तो यही थी कि आजमी अपने किरदार को कुछ भी बताने-सिखाने के लिए उपलब्ध नहीं थे. 32 साल के इस युवा वकील की 2010 में हत्या कर दी गई थी.
एक बात यह भी रही कि फिल्म बनने के पहले ही इसके प्रति पूर्वाग्रही प्रतिक्रिया देने वाले लोगों की फौज तैयार थी. दरअसल कानून की पढ़ाई करने से पहले आजमी पाकिस्तान स्थित आतंकी कैंप में ट्रेनिंग ले चुके थे. बाद में वे दिल्ली पुलिस की गिरफ्त में आए और सात साल तक तिहाड़ जेल में रहे. कैद के दौरान ही आजमी ने कानून की पढ़ाई पूरी की. यहां से निकलने के बाद उन्होंने अपनी पूरी ताकत उन मुसलमान युवकों के केस लड़ने में लगा दी जो झूठे आरोपों में जेलों में बंद थे.
‘ फिल्म करने से पहले मैं कई लोगों से मिला जो कहते थे कि वह इसका आदमी था, उसका आदमी था. लेकिन जब मैं उन परिवारों से मिला जिनकी आजमी ने मदद की थी तब मैंने उन्हें समझना शुरू किया. ‘ राजकुमार कहते हैं, ‘ मैं नहीं मानता था कि शाहिद भारत विरोधी थे. वे उन लोगों की मदद कर रहे थे जिन्हें बिना किसी अपराध के जेलों में बंद कर दिया गया था. फिर यह बात भी है कि उन्होंने जिन लोगों का केस लड़ा उनमें से कइयों को अदालत ने बरी कर दिया.’
आजमी ने अपने सात साल के करियर में 17 ऐसे निर्दोष लोगों को जेल से रिहा करवाया जिनपर आतंकवादी गतिविधियों के गंभीर आरोप थे. आजमी खुद आतंकवाद के आरोप में जेल में रह चुके थे और वहां पुलिस उत्पीड़न को भलीभांति जानते थे. उन्होंने अपने इन अनुभवों का वकालत के दौरान बखूबी इस्तेमाल किया. राजकुमार ने शाहिद फिल्म में इस पक्ष को बहुत वास्तविकता के साथ उभारा है.
हालांकि शाहिद पहली फिल्म नहीं थी जहां राजकुमार ने यथार्थवादी किरदार को परदे पर उतारा हो. 2010 में आई ‘लव, सेक्स औरा धोखा’ उनकी पहली फिल्म थी जिसमें अपने इसी तरह के अभिनय से वे समीक्षकों और फिल्मकारों की नजर में आए थे. आम दर्शकों ने भी उनमें ऐसा अभिनेता देखा जो किरदार से साथ-साथ अपने अभिनय के जरिए उनमें जिज्ञासा पैदा कर पा रहा था. उनके इस अभिनय में दिल्ली के दिनों का किया गया थियेटर और पुणे के फिल्म संस्थान से मिला प्रशिक्षण का योगदान तो था लेकिन एक बात जो उन्हें अलग करती थी वह थी उनके द्वारा किरदारों का मानवीकरण करना. नाटकीयता रहित ऐसे किरदार जिनमें दर्शक असली आदमी को देखें, पहचानें. शाहिद के निर्देशक और राजकुमार को लेकर अगली फिल्म बना रहे हंसल मेहता कहते हैं, ‘मुझे नहीं लगता है पुणे फिल्म संस्थान का राज की प्रतिभा में कोई खास योगदान है. वह बिल्कुल सहज है. कैमरे के सामने आते ही किरदार में ढल जाता है. उसके जैसा अभिनेता निर्देशकों के लिए वरदान है. उसे इससे फर्क नहीं पड़ता कि वह क्लोजअप शॉट में कैसा दिखेगा. यदि वह एक लाइन में बहुत से लोगों के बीच भी खड़ा है तो अपनी भूमिका के लिए सौ फीसदी गंभीर रहेगा.’
हाल ही में आई फिल्म क्वीन में भी राजकुमार राव को काफी सराहा गया है. इसमें वे एक दिखावा पसंद पुरुषवादी लड़के के किरदार में हैं. क्वीन के निर्देशक विकास बहल कहते हैं, ‘ यदि कोई एक्टर अपनी फिल्मों को खास बनाने के लिए एक कदम आगे जाने लगता है तो वह ऐसी फिल्म बन जाती है जिसे हमेशा याद रखा जाए. राज जानता है कि कैसे स्क्रीन पर बाकी लोगों के बीच अपनी भूमिका को यादगार बनाया जाए. काई पो चे देखते हुए जब वह पांच मिनट के लिए भी सीन से अलग होता था तो मैं उसे परदे पर मिस करता था.’
राजकुमार के लिए ये बातें यूं ही नहीं कही जातीं. हर भूमिका के लिए उसकी तैयारी इस अभिनेता के लिए एक बड़ा हथियार है. शाहिद में अपनी भूमिका के लिए राजकुमार ने एक लंबा वक्त शाहिद आजमी के परिवार के साथ बिताया था. इसकी वजह से वे मुंबई के इस युवा वकील के अंदर की पीड़ा परदे पर आसानी से व्यक्त कर पाए. वे बताते हैं, ‘शाहिद की तरह मैं भी जब सुनता हूं कि कोई निर्दोष जेल के भीतर है तो मेरी बेचैनी बढ़ जाती है. शाहिद के अनुभवों ने हमारे समाज के द्वारा की जाने वाली बर्बरता का काफी करीब से मुझे एहसास करवाया.’
अपने हिसाब से चुने गए किरदार और उनके लिए की गई तैयारी ने राजकुमार को फिल्म उद्योग में अलग पहचान दिला दी है. लेकिन इन दिनों हिंदी फिल्मों की निर्माण प्रक्रिया में आ रहे पेशेवर रवैऐ का भी इसमें अहम योगदान है. राजकुमार फिल्मों में अपनी पहली महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में बताते हैं, ‘लव, सेक्स और धोखा (एलएसडी) के लिए मैं दिबाकर बनर्जी के ऑफिस में गया और वहां मेरा परिचय अतुल मोंगिया से हुआ. वे फिल्म के कास्टिंग डायरेक्टर थे. एक बार मुलाकात के बाद मैंने उन्हें फेसबुक पर भी ढूंढ़ लिया. इसके बाद उन्हें ईमेल करने लगा और फोन भी करता था. आखिर में एक दिन उन्होंने मुझे ऑडिशन के लिए बुला लिया. मैं बार-बार अतुल से मिलता था क्योंकि मुझे पता था कि एलएसडी के लिए दिबाकर को नए लोगों की तलाश है और यह मेरे लिए बहुत बड़ा मौका साबित हो सकता है.’ हिट और फ्लॉप के परे एलएसडी ऐसी फिल्म थी जिसने खास दर्शक वर्ग जिसे प्रयोगवादी सिनेमा, जिसमें मनोरंजन भी हो, बहुत आकर्षित किया. फिल्मी दुनिया के लोगों ने भी इस फिल्म को बहुत सराहा.
एलएसडी से दिल्लीछाप यह लड़का और फिल्मकारों की नजर में भी आया. एकता कपूर की फिल्म रागिनी एमएमएस में काम मिलने के पीछे एलएसडी की महत्वपूर्ण भूमिका थी. 2011 में आई इस इस हॉरर फिल्म में उनके हिस्से एक छोटी-सी भूमिका आई लेकिन यहां भी बतौर दर्शक आपके दिमाग में उनकी उपस्थिति स्थायी रूप से दर्ज होती है. अनुराग कश्यप की ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर 2’ और रीमा कागती की ‘तलाश’ उनकी अगली दो फिल्में थीं. हालांकि उन्हें असली पहचान मिली फिल्म ‘काई पो चे’ से. इस फिल्म में वैसे तो वे तीन मुख्य किरदारों में थे लेकिन उनका किरदार कुछ ऐसे गढ़ा गया था कि दो के मुकाबले वह कुछ कम महत्वपूर्ण था. फिर भी 2013 की इस हिट फिल्म से उन्हें पहली बार वह सराहना मिली जो आमतौर पर हिंदी फिल्मों के सफल कहे जाने वाले अभिनेताओं के खाते में आती है. राजकुमार मुस्कराते और थोड़ा झिझकते हुए स्वीकार करते हैं, ‘अब ठीकठाक संख्या में मेरे भी प्रशंसक हैं. इनमें महिलाओं की संख्या भी काफी है. यह सब काई पो चे के बाद हुआ.’ राजकुमार हिंदी फिल्मों के उन कुछ एक कलाकारों में से हैं जो समकालीन अभिनेताओं की खुलकर तारीफ कर सकते हैं. वे रणबीर कपूर से बहुत प्रभावित हैं. राजकुमार कहते हैं, ‘मैं सब लोगों के साथ काम करना चाहता हूं और हर तरह की फिल्में करना चाहता हूं. हां, लेकिन स्क्रिप्ट में वो बात होनी चाहिए.’
राजकुमार की अगली फिल्म सिटी ऑफ लाइट्स है और इसमें काम करने की एक बड़ी वजह है इसकी स्क्रिप्ट. इसकी कहानी ब्रिटेन के फिल्म निर्देशक सीन एलिस की चर्चित फिल्म मेट्रो मनीला (2013) से प्रेरित है. सिटी ऑफ लाइट्स में मुंबई आए एक प्रवासी मजदूर की कहानी है. वे इस भूमिका की तैयारी के बारे में बताते हैं, ‘मैं शूटिंग से लौटने के बाद भी इस किरदार को अपने दिमाग से नहीं हटाता. इस समय मैं इस किरदार को जी रहा हूं. कुछ ऐसा हो गया है कि इस फिल्म ने मुझे पूरी तरह निचोड़ लिया है. एक अभिनेता के लिए यह बहुत थकाने वाली प्रक्रिया है. मैं दीपक नाम के व्यक्ति का किरदार निभा रहा हूं जो मुंबई में रहने के लिए कई तरह की जद्दोजहद में फंसा है. पर शायद यही काम का मजा है. इसी के बाद आखिर में आपको अपने काम से संतुष्टि होती है.’
आज राजकुमार अपनी तरह से एक सेलिब्रिटी हैं. बिना राष्ट्रीय अवार्ड के भी. सार्वजनिक जगहों पर आप उनके प्रशंकों को उनके साथ फोटो खिंचवाते हुए देख सकते हैं. अब वे ऑडी कार में चलने लगे हैं. अपने लिए ऐसा अपार्टमेंट खरीदना चाहते हैं जहां से समंदर दिखता हो. उनका निजी जीवन भी लोगों की जिज्ञासा का विषय है. दूसरे अभिनेताओं की तरह उनका नाम भी अभिनेत्रियों (सिटी ऑफ लाइट्स की नायिका, चित्रलेखा) से जोड़ा जाने लगा है. लेकिन ऐसा नहीं लगता राजकुमार इन बातों से बहुत प्रभावित हों. अभी भी इस आम सेलीब्रिटी के लिए अभिनय पहले है, स्टारडम बाद में.
आपकी कहानियों में आपके घर-परिवार और बहुत करीब के लोग ही पात्र के तौर पर आते हैं.
करीब से ही तो अनुभव होते हैं. कसाईबाड़ा, भरतनाट्यम, ख्वाजा ओ मेरे पीर से लेकर तिरिया चरित्तर तक के जो पात्र हैं वे बिल्कुल करीब के ही हैं. वे उसी रूप में तो मिलते, जैसी कहानियों में मौजूद दिखते हैं बस रंग गाढ़ा करना पड़ता है.
आपकी कहानियों का प्लॉट गांव होता है, जबकि आप चार दशक से शहर के वासी हैं. क्या शहरी जीवन में कहानी का प्लॉट नहीं मिलता? मैं गांव में ही पैदा हुआ. उनका दुख-दर्द अपना लगता है. यह सच है कि पिछले करीब 40 सालों से शहर में हूं लेकिन अंदर गांव उसी तरह बसा है और निरंतर गांव से संपर्क में भी रहता हूं. मैं खुद गांव जाता हूं और मुझसे ज्यादा मेरी पत्नी गांव जाती हैं, वहां रहती हैं. उनके पास गांव के, रिश्तेदारों के सुख-दुख होते हैं, उससे ही पात्र मिलते हैं. रही बात शहरी जीवन पर कहानी लिखने की तो जब शहर आया और जिनसे मेरा परिचय हुआ, वे भूखे-नंगे लोग तो थे नहीं. खाये-पीये-अघाये लोग थे. दूसरों की जेब काट लेने वाले, अधिक से अधिक कर चोरी करने वाले, मुनाफाखोरी करने वाले ज्यादा मिले. उनमें ऐसा कुछ न दिखा, जिस पर लिखा जाए.
पिछले दो दशक में तो गांव के मिजाज में भी तेजी से बदलाव आया है.
एक कहानी मन में है. वह कहानी स्त्री की यौन स्वतंत्रता पर होगी. मेरी पत्नी की बहन आई थी. उन्होंने गांव की एक स्त्री के बारे में बताया जो अब 70 की हो चुकी हैं. 1960-62 में ही उन्होंने गांव में रहते हुए यौन स्वतंत्रता ली और उसी तरह का जीवन गुजारा. कहानी पुरानी है लेकिन पाठकों को लगेगा कि आज की कहानी है.
स्त्री यौन स्वतंत्रता पर आपके क्या विचार हैं? कोई सीमा होनी चाहिए या उन्मुक्त होना चाहिए.
स्त्री-पुरुष दोनों के लिए चीजें वक्त और हालात के हिसाब से तय होती हैं. उसी हिसाब से निर्णय भी लिया जाना चाहिए. एक बेरोजगार आदमी क्या निर्णय लेगा यह उसके सामने उपजे हालात पर निर्भर करेगा. हो सकता है वह चोर बन जाए, डाकू बन जाए या शायद कोई अच्छा काम करे. लेकिन वह रास्ता खुद तय करता है. ऐसा ही स्त्री-पुरुष के जीवन में भी होता है. महिलाओं पर उनकी सीमा को लेकर ज्यादा बातें इसलिए की जाती है, क्योंकि वह सदा दबायी जाती रही हैं. पुरुष यौन स्वतंत्र जीवन गुजारे तो भला उस पर क्या फर्क पड़ता है लेकिन स्त्री पर तो असर रह जाता है, वह गर्भ तक धारण कर लेती है.
पिछले दो तीन दशकों में तो महिलाओं की स्वतंत्रता बढ़ी है, वे हर क्षेत्र में आगे भी बढ़ी हैं लेकिन उन पर हिंसा भी उसी अनुपात में बढ़ी है. इसकी क्या वजह लगती है?
हां, हिंसा बढ़ी है, क्योंकि पुरुष मानसिकता बदलने को तैयार नहीं. एक दिन में बदलाव आ भी नहीं सकता. ऐसा केवल स्त्रियों के मामले में नहीं है. अब किसी सवर्ण को लीजिए, दलित पहले उसके सामने खड़ा तक नहीं होता था लेकिन अब साथ में बैठता है क्योंकि उसमें भी सामर्थ्य आ गया है. वह जब सामने बैठता है, समान रूप से बात करता है तो यह खटकता तो है ही अंतर्मन में लेकिन जो थोड़े समझदार होते हैं, बुद्धिजीवी होते हैं वे मन को समझाते हैं. ऐसा स्त्रियों के मामले में भी होता है लेकिन जो खटकता है, उसे सभी दबा नहीं पाते.
आप पुरुष मानसिकता की बात कर रहे हैं. मान लिया कि पुरानी पीढ़ी के जो पुरुष हैं, वे जड़ मानसिकता के होंगे लेकिन 90 के बाद पैदा हुए बच्चे, जिन्होंने नए युग को देखा है, स्त्रियों को मजबूत होते हुए ही देखा है, वे स्त्रियों के प्रति इतने हिंसक कैसे नजर आते हैं और उन्हें भी तो स्त्री एक वस्तु की तरह नजर आती है. उसके लिए हम सब ही जिम्मेदार हैं. पहले बच्चों को जीवन मूल्य, नैतिक मूल्य आदि के पाठ भी पढ़ाये जाते थे लेकिन अब वह जरूरी नहीं लगता. किसी बच्चे के निर्माण में तीन लोगों की भूमिका बड़ी होती है और तीनों अब उस तरह ध्यान नहीं देते. एक तो अभिभावक, जिनके हाथ में दस साल तक बच्चा रहता है लेकिन अभिभावकों के पास उतना समय नहीं कि वे बच्चों को कुछ सिखा सकें. दूसरे गुरू तो अब कुछ सिखाते-बताते नहीं और तीसरा समाज.
आप 1962 के प्लॉट पर कहानी लिख रहे हैं. हिंदी में अतीत को आधार बनाकर ज्यादातर रचनाएं होती हैं जबकि पश्चिमी देशों के साहित्य में एक परंपरा फ्यूचरोलॉजी की भी है. वहां भविष्य भी साहित्य का विषय होता है. हिंदी में ऐसा क्यों नहीं है? हिंदी में लेखन गंभीरता या जिम्मेदारी का काम नहीं है. हिंदी में लेखन से कुछ मिलता भी तो नहीं. दूसरी भाषाओं में मिलता है तो वे प्रोजेक्ट बनाकर लिखते हैं. हिंदी में तो जो लिखने वाले हैं, उनमें अधिकांश नौकरीपेशा वाले लोग हैं. वे 10 घंटा अपने दफ्तर को देते हैं. वहां से थक हारकर आते हैं तो लेखन में लगते हैं. थके हुए मन से लेखन कैसा होगा, समझ सकते हैं. इसलिए हिंदी में लेखन हॉबी की तरह होता है.
क्यों इतने सालों बाद भी हिंदी लेखन में यह स्थिति नहीं बन सकी कि पूर्णकालिक लेखक बनकर ही जीवन गुजारा जा सके.
ऐसे लेखक हुए हैं लेकिन उनके अनुभव भी बहुत अच्छे नहीं रहे. हिंदी साहित्य की स्थिति यह है कि पाठक ही नहीं है और जो प्रकाशक हैं, वे लेखक को ब्रांड बनने ही नहीं देना चाहते. प्रकाशक लेखक को बंधुआ मजदूर मानते हैं. वे तो कहते ही हैं कि लेखक की वजह से किताब नहीं बिकती. इसलिए वे लेखक को भाव देने की बजाय रात के अंधेरे में लिफाफा और बुके लेकर साहब लोगों से मिलने पहुंचते हैं. लेकिन यह स्थिति अब ज्यादा दिनों तक नहीं रहने वाली. प्रकाशकों का वर्चस्व टूटेगा और लेखक पाठकों तक अपनी रचनाएं पहुंचाने के लिए दूसरे माध्यम की तलाश कर लेगा.
लेकिन प्रकाशकों की एक शिकायत सही भी तो है कि हिंदी समाज में साहित्य पढ़ने को लेकर उस तरह की परंपरा भी नहीं है. ऐसा क्यों, जबकि हिंदी इलाके की आबादी बड़ी है, समृद्धि भी अब कोई कम नहीं.
इस परंपरा अथवा संस्कृति के अभाव की शुरुआत किताबों की अनुपलब्धता से ही हुई. हम 1963-64 में गांव में ही थे, आठवीं क्लास के छात्र थे. तब हर गांव में छोटी-बड़ी लाइब्रेरी हुआ करती थी. हम उस समय गांव में ही धर्मयुग से लेकर नवनीत जैसी पत्रिकाएं पढ़ते थे. हमारे पुरखे यह काम करते थे. वे किताबों का महत्व समझते थे लेकिन हमारी पीढ़ी ने उस दायित्व से मुंह मोड़ लिया. हम दूसरे की बात क्यों करें, मैं भी अपने बच्चे को अधिक से अधिक दो-तीन बार किताब खरीदकर दिया हूं, इससे ज्यादा नहीं जबकि हमारी जिम्मेदारी बनती है कि बाहर जा रहे हैं तो किताबें लाकर दें. जब पूरे संस्कार में ही दरिद्रता आ गई तो ऐसा माहौल तो बनेगा ही.
इतने विश्वविद्यालयों, कॉलेजों में भी तो हिंदी की पढ़ाई हो रही है, लाखों बच्चे पढ़ रहे हैं हिंदी साहित्य, फिर भी हिंदी साहित्य इतनी दरिद्रता में क्यों है?
वहां जो पढ़ाते हैं, उन्हें ही नहीं पता कि क्या लिखा जा रहा है. कौन सी रचनाएं आ रही हैं. वे अपने छात्र-छात्राओं से, हम जैसे लेखकों से पूछते हैं कि इधर कौन सी रचनाएं आई हैं. उन्हें खुद पूछने में भी शर्म आती है. जो शिक्षक हैं, उनकी जांच कर लीजिए, वे खुद शुद्ध हिंदी तक नहीं लिख सकते, वही पढ़ा रहे हैं. मैंने तो जांच की है.
हिंदी पर एक आरोप यह भी है कि जिन बोलियों ने हिंदी को मजबूत किया, बाद में हिंदी ने उन्हीं के रचना संसार को ही हाशिए पर डाल दिया.
अपने यहां बोलियों को लेकर एक अजीब सी भावना भी तो रही है. रेणु ने जब मैला आंचल लिखा तो उस समय के महान आलोचक रामविलास शर्मा ने कह दिया कि रेणु तो भाषा को ही भ्रष्ट कर रहे हैं. अब रामविलास शर्मा ने उस समय ऐसा कहा होगा तो क्या रेणु को दुख नहीं हुआ होगा. कई वजहें रही होंगी रामविलास शर्मा द्वारा ऐसा कहने के पीछे. हो सकता है वे रेणु को दबाना चाहते हों, अपने फंदे के नीचे रखना चाहते हों.
रामविलास शर्मा की बात कही आपने. अब तो हिंदी में यह बात भी कही जा रही है कि जिस तरह का आलोचना कर्म चल रहा है, उसमें आलोचक की जरूरत ही क्या है?
आलोचक की जरूरत हमेशा रहेगी लेकिन आलोचक यदि अपना काम सही तरीके से करे तब. जो कठिन कृतित्व है, उसकी सहज व्याख्या कर पाठकों को समझाए लेकिन आलोचक तो लकड़हारे की भूमिका में आ गए हैं, माली बने ही नहीं रहना चाहते. वे गॉडफादर बनना चाहते हैं. यह आज की बात नहीं है. रामविलास शर्मा की ही बात कीजिए. वे जितनी भाषाएं जानते थे, उतने से ही सबको नापते थे. मैं तो बार-बार सोचता हूं कि कैसे उन्होंने रेणु की रचना पर कह दिया होगा कि वे तो भाषा भ्रष्ट कर रहे हैं. रामविलास जी आंखों पर कौन सा चश्मा लगाते थे. हिंदी में कोई अभी है क्या ऐसा जो रेणु की तरह लिख दे. मैला आंचल में जितनी बातें उन्होंने हर अध्याय में, चार-चार पन्ने में लिख दी हैं, उतनी ही बातें लिखने के लिए आज के लेखकों को चौदह पन्ने चाहिए. कुछ माह पहले नामवर जी बोलने आए. कथाकार संजीव पर पाखी का एक अंक निकला था. नामवर जी आए तो कहने लगे कि वे माफी चाहते हैं और उन्हें अफसोस है कि उन्होंने संजीव को पढ़ा ही नहीं. संजीव चार दशक से लिख रहे हैं और चार दशक से नामवर जी भी कहानी आलोचना के शीर्षस्थ बने हुए हैं. उन्होंने क्यों जरूरत नहीं समझी संजीव जैसे कथाकार की कहानी पढ़ने की. उस पर लिखने और बोलने की तो बात ही दूर. और अब कह रहे हैं कि अफसोस है. दरअसल किसी को नहीं पढ़ने की भी वजह होती है. जिसकी चार कहानियां छपती हैं, उसको तो वह पढ़ लेते हैं, उस पर लिखते भी हैं, बोलते भी हैं लेकिन जिसने 200 कहानियां लिखी, उसको एक बार पढ़ते तक नहीं. नामवर सिंह सुविधानुसार आलोचना कर्म करते हैं. ऐसी वजहों से ही आलोचकों की साख खत्म हो गई है.
इस समय देश के सामने सबसे बड़ा संकट क्या है?
देश के सामने यही संकट है कि जो बौद्धिक हैं, वे अपनी भूमिका नहीं निभा रहे. वे सिर्फ चिल्लाते रहते हैं कि बहेलिया आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा, झांसे में नहीं आना है और एक-एक कर उसमें फंसते भी जाते हैं. फंसने के बाद भी चिल्लाते रहते हैं वही राग. कभी अध्यक्ष का पद लेकर फंसते हैं, कभी वीसी बनकर फंसते हैं. जिन्हें समाज को राह दिखानी चाहिए, वे ही जाल में फंसकर चिल्ला रहे हैं, उनका कितना असर होगा. राजनीति में वाम दलों से अपेक्षा की जाती है लेकिन वे भी बार-बार सत्ता के फेर में शासक दलों का साथ देते हैं और हर बार कहते हैं कि अब नहीं. जब इन दोनों वर्गों की हालत यह है तो देश में दूसरे की क्या स्थिति होगी, समझ सकते हैं.
उत्तर प्रदेश व बिहार में सालों से प्रचलित और फिल्म दबंग के ‘मुन्नी बदनाम हुई…’ के बाद चर्चा में आए गीत ‘लौंडा बदनाम हुआ, नसीबन तेरे लिए…’ का मूल लेखक कौन है यह किसी को नहीं पता. लेकिन इस क्षेत्र में लगभग सभी यह जरूर जानते हैं कि इसे गा-गाकर लोकमानस में रचाने-बसाने का काम ताराबानो फैजाबादी ने किया है. ताराबानो ने अपनी दिलकश अदाओं के साथ प्रस्तुति देते हुए इसे लोकप्रिय तो बनाया लेकिन अनजाने में ही इससे ‘लौंडों’ को बदनाम होने की रवायत शुरू हो गई.
‘लौंडा’ यानी हल्के-फुल्के अंदाज में समझें तो इसका अर्थ है, लड़का. एक इलाके विशेष के अंदाज में मानें तो वे लड़के जो स्त्रियों की वेशभूषा धारण कर नाचने-गाने का काम करते हैं उन्हें ‘लौंडा’ कहा जाता है और इस विधा को लौंडा नाच. पहली नजर में इस विधा में बदनामी की अपार संभावनाएं दिखती हैं. सो ऐसा हुआ भी. प्रकाश झा ने अपनी चर्चित व राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म ‘दामुल’ में ‘हमरी चढ़ल बा जवनिया गवना ले जा राजा जी…’ गीत के साथ लौंडा नाच का इस्तेमाल किया तो मशहूर फिल्म ‘नदिया के पार’ में ‘जोगीजी धीरे-धीरे, नदी के तीरे-तीरे…’ होली गीत में लौंडा नाच मजेदार अंदाज में सामने आया था. वहीं अनुराग कश्यप को भी ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के लिए भी लौंडा नाच की जरूरत महसूस हुई. इन सबके बाद राजनीति की बात करें तो लालू प्रसाद का लौंडा नाच प्रेम हर बिहारी जानता है. आरंभ से ही लालू अपने राजनीतिक आयोजनों में लौंडा नाच करवाते रहे हैं. पिछले साल उनकी परिवर्तन रैली के बाद भी पटना की सड़कों पर लौंडा नाच का जलवा बिखरा था. यानी लौंडा नाच का उपयोग सबने अपनी-अपनी सहूलियत से किया लेकिन गांव-गिरांव, लोकगायन, सिनेमा में धूम मचाने के बाद लौंडा नाच की विधा और उसके कलाकार गति-दुर्गति को प्राप्त करते रहे और चला-चली की बेला में आ गए.
तो आखिर क्या है इस विशिष्ट कला विधा से जुड़े कलाकारों की पीड़ा? वे लोक कलाकार से नचनिया के रास्ते लौंडा कब से कहलाने लगे और लौंडा कहलाए तो उन्हें बदनामी का पर्याय क्यों बनाया गया. फिर जब बदनाम हुए तो एक पीढ़ीगत परंपरा गति से दुर्गति को प्राप्त क्यों करने लगी? सबसे पहले हम ये सवाल हसन इमाम के सामने रखते हैं. हसन इमाम रंगकर्मी हैं और लोक-कलाओं के गहरे अध्येता भी. दलित लोक कला में प्रतिरोध उनकी चर्चित किताब रही है और हालिया दिनों में उन्होंने एक शोध ‘बिहार के लोक कलाकार-प्रजातांत्रिक अधिकारों के सांस्कृतिक प्रवक्ता’ शीर्षक से किया है. वे कहते हैं, ‘नाम होने, बदनाम होने की बात तो बाद की है लेकिन प्लीज, आप लोक कलाकारों व नर्तकों को लौंडा शब्द से संबोधित न करें. यह नाम ही सामंतमिजाजी समाज की देन है. किसी भी किस्म का नाच प्रतिरोध का प्रतीक है. चूंकि दलित-दमित जाति के लोक कलाकारों ने ही इस नाच को परवान चढ़ाया है. इस नाच को सामाजिक स्वीकृति न मिले और यह गौरव का विषय न बने तो सामंतों ने उपहास उड़ाने के लिए इसे लौंडा नाच कहा था. लौंडा नाच जैसी कोई कला फॉर्म नहीं होती और न ही इसकी चर्चा कहीं मिलती है.’ हसन इमाम आगे कुछ बताने के बजाय सवाल पूछते हैं, ‘गांव के नाटकों में लड़के ही लड़की बन अभिनय, नाच, गान सब करते रहे हैं. सबको लौंडा कहते हैं आप? मनोहर श्याम जोशी महिला की भूमिका ही निभाते थे, उन्हें लौंडा कहेंगे? हबीब तनवीर के नाटक में, रतन थियेम के नाटक में लड़के ही लड़की बनकर आते रहे हैं. उन्हें लौंडा कहते हैं? और आप बिरजू महाराज या कथक के दूसरे मशहूर कलाकारों को लौंडा कहेंगे? वे भी तो नाचते ही हैं, स्त्री जैसा बनकर?’ हसन कहते हैं, ‘आप गौर कीजिए कि कब से लौंडा शब्द चलन में आया और कब से वे बदनामी के पर्याय बने. बिहार के मशहूर लोक कलाकार भिखारी ठाकुर दलितों, दमितों, उपेक्षितों के बीच बड़े कलाकार माने जाते थे, सम्मान पाते थे और सामंतों-संभ्रांतों के बीच लौंडा कहे जाते थे.’ ऐसे ही सवालों के साथ हम वरिष्ठ नाटककार हृषिकेश सुलभ से भी बातचीत करते हैं. सुलभ कहते हैं, ‘पुरुषों द्वारा नर्तकी बनकर नाचने की परंपरा कोई आज की नहीं है. दक्षिण के मंदिरों में इसकी समृद्ध परंपरा रही है और पुरी के मंदिर में तो ‘गोटीपुआ’ नामक एक नाच परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है जिसमें कम उम्र के बच्चे नाचते हैं. हरम में लौंडों के रखने का वर्णन भी मिलता है.’
लोककलाओं के अध्येता बताते हैं कि इस परंपरा में बिगड़ाव सामंतवादी युग में आया क्योंकि सामंतवाद अपनी विकृत मानसिकता को लोक कलाओं पर थोपता रहा है. स्त्री के लिए वर्जनाओं के दौर में पुरुष कलाकार ही नचनिया बनकर नाचते थे लेकिन सामंतों ने उनकी मजबूरी का फायदा उठाया. नाच दल निम्नवर्गीय लोग चलाते थे. दो-चार माह की व्यस्तता के बाद उनके पास काम नहीं होता था. ऐसे में सामंतों ने ‘लौंडों’ को अपने यहां काम पर रखना शुरू किया. काम भी लेतेे, नचवाते भी थे और यौन उत्पीड़न भी करतेे. बिहार में कई सामंत हुए हैं जिन्होंने ‘लौंडों’ को अपने यहां रखा और उनकी कारगुजारियों से ‘लौंडा’ बनने वाले लड़के बदनाम होते गए. सुलभ याद करते हैं कि एक लौंडे को उन्होंने अपने साथियों की मदद से आरा के एक प्रोफेसर साहब के यहां से निकलवाया था. प्रोफेसर उसका यौन उत्पीड़न करते थे. बकौल सुलभ, ‘लौंडा नाच को विकृत कर उसे खत्म करने में सामंत मिजाजियों की भूमिका सबसे ज्यादा रही है. अब तो यह विधा चलाचली की बेला में ही आ चुकी है. क्योंकि उनकी जगह बांग्लादेश, नेपाल की लड़कियां गांव में भी नाच करने जाने लगी हैं.’
सुलभ की यह बात बिल्कुल सही है. अब यह नाच विधा हाशिये पर सिसकियां ले रही है लेकिन एक जमाना था जब इसकी धूम थी और हर इलाके में मशहूर पुरुष नचनिए हुआ करते थे. वे बजाप्ता एक दल चलाते थे. उनके दल का नाम दूर-दूर तक होता था. इस परंपरा और विधा के परवान चढ़ने के पीछे एक वजह और दिखती है. इसे समझने के लिए थोड़ा गहराई से परिस्थितियों पर गौर करना होगा. नाच मनोरंजन की एक महत्वपूर्ण विधा सदियों से, पीढ़ियों से रही है लेकिन उसका दायरा हमेशा अलग किस्म का रहा. जब नामचीन तवायफों का दौर था और उनकी धूम देश भर में थी तो वे राजा-महाराजाओं के महलों तक सीमित रहती थीं. जिस राजा-महाराजा के पास सामर्थ्य होता था वह उन्हें अपने यहां बुलाता था. नचवाता-गवाता था. तवायफों के बाद बाईजी युग का अवतरण हुआ तो उन पर जमींदारों और धनाढ्यों का कब्जा हुआ. ये पैसे और रसूखदार लोग थे. शादी-ब्याह, खास आयोजन में बाईजी को अपने यहां बुलाने लगे और नचवाने-गवाने लगे, उन पर पैसे उड़ाने लगे और उनकी कलाई पकड़ने लगे, सार्वजनिक तौर पर उनके हाथ-गाल को छूने लगे. नाच मनोरंजन की एक महत्वपूर्ण विधा होने के बावजूद एक दायरे में जकड़ी रही. एक बड़ा वर्ग, हाशिए और वंचितों का समूह इसके आसपास फटक भी नहीं सका. वह इससे वंचित रहा तो खुद ही इसके विकल्प में, प्रतिरोध में एक शैली विकसित की. पुरुष ही स्त्री की तरह बनने लगा. वंचितों के यहां नाचने लगा. राह चलते भी नाचने लगा. जो लोग इस महत्वपूर्ण मनोरंजन विधा से सदियों से वंचित थे वे जनाना बने पुरुष को ही देखकर सीटियां बजाने लगे. उसका हाथ पकड़ने लगे. यहां उस पर भी पैसा उड़ाया जाने लगा. देखते ही देखते इस नाच विधा ने लोकप्रियता के पैमाने में बाईजी आदि को काफी पीछे छोड़ दिया. वंचित समुदाय ने खुद लौंडा बनकर सिर्फ मनोरंजन की एक महत्वपूर्ण विधा नाच का सामान्यीकरण कर इस पर सदियों से वर्चस्व जमाए बैठे सामंतों, जमींदारों और राजे-रजवाड़ों को चुनौती ही नहीं दी बल्कि इस परंपरा में नायक भी खड़े करने लगे.
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तमाशे से आगे…
अरसे बाद एक बार फिर ‘लौंडा’ अपनी बदनामी के साथ रंगकर्म के जरिए जलवा बिखेरने की अकुलाहट में है. जलवा बिखेरने भी लगा है. कभी मनोरंजन के लिए सबसे सुलभ और लोकप्रिय रहे ‘लौंडों’ को बदनामी के पर्याय से निकालकर, गांव की गलियों में गुम हो जाने के बाद शहरी संभ्रांतों के बीच उन्हें लाने के लिए कई सूत्रधार उभर रहे हैं. बिहार के नालंदा जिले के दोसुत गांव में जन्मे कुमार उदय सिंह लौंडा नाच को नए फॉर्मेट में लेकर दुनिया के दूसरे मुल्कों तक पहुंच चुके हैं तो ‘झूलन लौंडे का डीएनए’ नाम से बने नाटक में बिहार के कलाकार लौंडों की असल जिंदगी के श्याम व शुक्ल पक्ष को सामने ला रहे हैं. लौंडा नाच और लौंडों की जिंदगी पर चल रहे नए प्रयोग में ही एक अहम सूत्रधार बनकर उभरे हैं बिहार के सुपौल के रहने वाले रंगकर्मी पंकज पवन (बाएं) . पंकज पवन इन दिनों अपने नाटक शो ‘लौंडा बदनाम हुआ…’ के जरिए चर्चा में हैं और आमजन, बौद्धिकों से लेकर संभ्रांतों के बीच जोरदार दस्तक दे रहे हैं. लेकिन पंकज लौंडे को उस तरह बदनाम नहीं करवा रहे जैसा पहले से होता रहा था. वे लौंडा बनकर नाचने वाले समूह की पीड़ा लेकर सामने आ रहे हैं. खुद स्त्री वेश धारण कर लौंडा बनकर मंच पर आ रहे हैं, पुरुषों के नजरिए का आकलन कर रहे हैं. लोगों को यह बता रहे हैं कि जनाब आप एक लड़के के लड़की जैसा बन जाने पर फब्तियां कसने और छेड़ने को इतने आतुर हो जा रहे हैं तो सच में किसी लड़की या महिला को देखने के बाद आप जरूर कुंठित होते होंगे और एक क्रूर-घृणित इतिहास रचने को बेचैन भी हो जाते होंगे.
बात पिछले साल की है. पंकज पवन ने ‘लौंडा बदनाम हुआ’ का शो इंडिया हैबिटेट सेंटर में किया था. देखने वाले टिकट लेकर पहुंचे. अधिकतर संभ्रांत थे. ‘लहरिया लूट ए राजा, मुंहवा पर डाली के चदरिया, लहरिया लूट ए राजा…’ गीत से नाटक की शुरुआत हुई थी. शो के आखिरी में किसी ने पंकज पवन से कहा, ‘आप हिल रहे थे तो मजा आ रहा था.’ पंकज की त्वरित प्रतिक्रिया थी, ‘मैं लड़का हूं, आप जानते हैं, फिर भी मेरे हिलने-हिलाने पर इतने डूब गए. बाकी नाटक में कुछ नहीं दिखा.’ पटना में भी इसी शो को लेकर आए थे पंकज. तब एक बुजुर्ग अपनी पोती के साथ नाटक देखने पहुंचे. वहां भी ‘लहरिया लूट ए राजा…’ से ही नाटक की शुरुआत हुई थी… वह बुजुर्ग नाटक का बहिष्कार करते हुए अपनी पोती के साथ सभागार से निकल गए लेकिन नाटक के बाद पंकज से मिलकर बोले, ‘मुझे नहीं पता था कि आरंभ में कुछ देर तक के लटके-झटके के बाद लौंडा बनकर इतनी गंभीरता से समाज को आइना दिखाएंगे और क्रूर सच्चाइयों को सामने लाएंगे.’ पंकज लौंडों की पीड़ा को सामने लाकर लोगों का दिल जीत रहे हैं और उन्हें सफलता भी मिल रही है. वे कहते हैं, ‘मेरे सामने ‘लौंडा बदनाम हुआ’ नाटक को लेकर कई तरह की चुनौतियां थीं. मैंने आज तक, अब तक आमने-सामने से लौंडा नाच कभी नहीं देखा. जो देखा वह यू-ट्यूब और कुछ सिनेमा में देखा.’ पंकज नाटक के लिए बेगुसराय के अपने एक मित्र को प्रेरणास्त्रोत बताते हुए कहते हैं, ‘मेरा वह मित्र स्त्रैण स्वभाव का था. पुरुष होते हुए भी स्त्री की तरह रहना चाहता था लेकिन सभ्य समाज में यह संभव नहीं था. वह अपनी आकांक्षा के साथ एक दिन सदा-सदा के लिए अपना गांव छोड़कर चला गया.’ यहीं से पंकज के मन में बिहार की लोकप्रिय शैली लौंडा नाच का ख्याल आया. उन्होंने झटपट इसकी स्क्रिप्ट लिख ली. फिर इसके लिए अभिनेता की तलाश शुरू की. लेकिन यह खोज उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती साबित हुई. पंकज बताते हैं, ‘मैंने जितने कलाकारों से यह नाटक करने को कहा सभी मुकर गए. लगभग सभी का कहना था कि वे लौंडा बनकर अपने कैरियर को दांव पर नहीं लगाएंगे.’ आखिरकार पंकज ने खुद मंच पर उतरने का फैसला किया और तब से वे ‘लौंडा बदनाम हुआ’ का शो कर रहे हैं.
पंकज पवन के पास जिद है, जुनून है. संभव है वे ‘लौंडा बदनाम हुआ…’ को आगे भी करते रहें. लेकिन असल में जिन लोककलाकारों को लौंडा की परिधि में लाया गया, उनके सामने सिर्फ बदनाम होने, पुरुष होकर स्त्री की तरह रंग-रूप धरकर नाचने में आनेवाली मुश्किलों से उपजी पीड़ा भर नहीं है. वे पीड़ा के अथाह समंदर में गोता लगाते-लगाते इस लोकप्रिय और समृद्ध परंपरा से ही तौबा करते जा रहे हैं.
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रामअगेया ’लौंडा नाच’ विधा के सबसे बुजुर्ग कलाकार हैं.
इस नाच परंपरा से इतर एक सवाल यह भी हो सकता है कि ‘लौंडा’ शब्द कब से चलन में आया? यह भले ही मालूम न हो लेकिन यह तो साफ दिखता है कि जो जिंदगी भर स्त्री वेष धारण कर एक कला विधा को स्थापित करने, जनता के संघर्ष को आवाज देने, लोगों का मनोरंजन करने में अपनी ऊर्जा लगाते रहे और आखिरी में उनके हिस्से फकत गुमनामी नसीब हुई. हृषिकेश सुलभ बिहार के गोपालगंज जिला के रहनेवाले रसूल का किस्सा बताते हैं. वह कहते हैं, रसूल नाचते तो थे ही लेकिन वे देश की आजादी की लड़ाई में भी अपनी भूमिका नाच के जरिए निभा रहे थे. गांधी के मरने पर रसूल ने एक गीत रचा, उस पर नाचे, प्रतिरोध किया. गीत के बोल थे, ‘के मारल हो, हमरा गांधी के तीन गो गोली , धकाधक…!’ सुलभ कहते हैं, कौन जानता है रसूल को. क्या उन्हें महज लौंडा कहकर उपेक्षित या खारिज किया जा सकता है? सुलभ रसूल की बात करते हैं. भोजपुरी लोककलाओं के अध्येता बीएन तिवारी उर्फ भाईजी भोजपुरिया चाईं ओझा के बारे में बताते हैं. भाईजी भोजपुरिया कहते हैं, ‘चाईं ओझा लोक मानस में गहरे रचे-बसे लोक कलाकार रहे हैं. वे ब्राह्मण जाति से थे. 12 साल की उम्र में ही नाच से मोह हुआ. नाच के प्रति दीवानगी बढ़ी तो इलाके के दलितों को लेकर नाच करने लगे. उनके नाच दल का नाम दूर-दूर तक हुआ. वे राज्य में और राज्य के बाहर मशहूर होते रहे लेकिन उन्हें अपने समाज, गांव से बहिष्कृत कर दिया गया. उन्हें बदनामी का ऐसा पर्याय माना गया कि आज भी उनका नाम उस इलाके के ब्राह्मण समाज के लोग खुलकर नहीं लेना चाहते.’ चाईं ओझा के बारे में यह ख्यात है कि वे स्त्री वेष धारण कर नाचने में इतने उस्ताद थे कि अनजान लोग बिना बताए यह नहीं जान सकते थे कि यह कोई पुरुष नाच रहा है. लेकिन आज चाईं ओझा और उनके नाम पर सम्मान का भाव कहीं नहीं दिखता. यहां तक कि उनकी पहचान को सदा-सदा के लिए दफन कर दिए जाने का अभियान आज भी एक वर्ग चला रहा है.
यदि हम लोक मानस के इतिहास में कैद रसूल, चाईं ओझा को छोड़ वर्तमान की ही बात करें तो रामअंगेया राम को भला कितने लोग जानते होंगे. रामअंगेया भिखारी ठाकुर के साथ नाचा करते थे, अभिनय करते थे. अब उनकी उम्र 105 साल की हो गई है. अब भी एक दल चलाते हैं. आरा के पास गांव में रहते हैं. भिखारी ठाकुर का नाटक करते हैं. खुद मुख्य अभिनेता बनकर उतरते हैं मंच पर. उनका मन नाचने को हमेशा बेताब रहता है. चट मरद, फट मेहरारू बनकर मंच पर उतरने में उस्ताद हैं वे. रामअंगेया भारत में इतनी उम्र में सिर्फ जिंदा ही नहीं सक्रिय कलाकारों में संभवतः अपने तरीके के इकलौते कलाकार होंगे लेकिन उनको देश और राज्य क्या उनका अपना इलाका ही ठीक से नहीं जानता. भाईजी भोजपुरिया रामअंगेया के बारे में बात करते हुए अपनी एक ही टिप्पणी में इस विधा और इन कलाकारों के हाशिये पर जाने की वजह स्पष्ट करते हैं, ‘ जो संभ्रांत और सामंतमिजाजी हैं, वे आज भी वही कहते हैं- कौन रामअंगेया, अच्छा लौंडा रामअंगेया…! इस जमाने में लौंडा का ठप्पा लगे होने की वजह से जब रामअंगेया जैसा महान अभिनेता, नर्तक और कलाकार उपेक्षित है तो दूसरों की क्या स्थिति होगी, समझ सकते हैं और यह भी महसूस सकते हैं कि लौंडों को बदनाम कौन करता रहा है…! ‘
नातजुर्बेकार लौंडे! एक दौर में इस विशेषण का प्रयोग कांग्रेस पार्टी के बुजुर्ग नेता अपने मन की भड़ास निकालने के लिए करते थे. चिढ़न से उपजे इन शब्दों का इस्तेमाल बुजुर्ग कांग्रेसी नेता उन युवाओं को कमतर ठहराने के लिए किया करते थे जिनको लेकर राजीव गांधी भविष्य की कांग्रेस तैयार करना चाहते थे. पार्टी में आमूलचूल परिवर्तन करने और बुजुर्ग नेताओं को नेपथ्य में भेजकर पार्टी की कमान पूरे देश में युवाओं के हाथों में देने की राजीव की योजना से पुराने नेता खार खाए थे. इस योजना के तहत ही तारिक अनवर को बिहार भेजा गया, अशोक गहलोत को राजस्थान, ऑस्कर फर्नांडिस को कर्नाटक और अहमद पटेल को गुजरात. उस समय इन कथित ‘नातजुर्बेकार लौंडों’ के बारे में राजीव गांधी का कहना था कि ‘अहमद जैसे युवा ही 21वीं सदी की कांग्रेस का चेहरा होंगे.’
सोनिया गांधी के 64 वर्षीय राजनीतिक सचिव अहमद पटेल हाल के दिनों में दो कारणों से चर्चा में आए. पहला कारण भाजपा नेता नरेंद्र मोदी का वह इंटरव्यू था, जिसमें उन्होंने पटेल को अपना अच्छा दोस्त बताते हुए कहा था ‘अहमद भाई कांग्रेस में मेरे सबसे अच्छे दोस्तों में से रहे हैं. हम उन्हें ‘बाबू भाई’ बुलाते थे और कई बार उनके यहां मैं खाना खाने भी जाता था. मेरी उनसे अच्छी दोस्ती रही है और मैं चाहता था कि यह ऐसे ही बनी रहे. लेकिन अब वह मुझसे दूरी बनाए रखते हैं. शायद उन्हें अब कोई कठिनाई हो रही है. वह मुझसे बचते हैं इसलिए अब मेरा फोन भी नहीं उठाते.’ दूरदर्शन द्वारा लिए इंटरव्यू में संपादित किए गए इस अंश के सामने आने के बाद पटेल ने मोदी के दोस्ती के दावे को पूरी तरह से खारिज कर दिया.
अहमद पटेल के चर्चा में आने की दूसरी वजह रही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू की किताब ‘द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर. किताब में बारू ने अहमद पटेल की राजनीतिक शख्सियत और कांग्रेस तथा मनमोहन सिंह सरकार में उनकी भूमिका को लेकर कई खुलासे किए. बारू ने अपनी किताब में लिखा कि कैसे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के सभी संदेश प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक पहुंचाने का काम नियमित तौर पर पटेल और प्रधानमंत्री के प्रिंसिपल सेक्रेटरी पुलक चटर्जी ही किया करते थे. बारू लिखते हैं, ‘पुलक जहां नीतिगत विषयों पर सोनिया गांधी को जानकारी देने के साथ महत्वपूर्ण निर्णयों पर दिशानिर्देश लेने के लिए नियमित तौर पर उनसे मिला करते थे. वहीं अहमद पटेल सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बीच की राजनीतिक कड़ी थे.’ अर्थात सोनिया को सरकार से जो भी कराना होता था, प्रधानमंत्री तक जो भी मैसेज भिजवाना होता था वे पटेल ही लेकर पीएम के पास जाते थे.
यूपीए सरकार के दौरान अहमद पटेल की गतिविधियों पर प्रकाश डालते हुए बारू ने बताया है कि पटेल साउथ ब्लॉक में पुलक चटर्जी से कांग्रेसी नेताओं को राष्ट्रीयकृत बैंकों और सार्वजनिक उद्यमों के बोर्ड में शामिल कराने के लिए लॉबिंग किया करते थे. बारू के मुताबिक प्रधानमंत्री निवास सात रेसकोर्स में जब अचानक पटेल की आवाजाही बढ़ जाती थी तो यह इस बात का संकेत होता था कि कैबिनेट में फेरबदल होने वाला है. पटेल ही उन लोगों की सूची प्रधानमंत्री के पास लाया करते थे जिन्हें मंत्री बनाया जाना होता था या जिनका नाम हटाना होता था. बारू यह भी बताते हैं कि कैसे पटेल सामने से इतने ज्यादा विनम्र रहते थे कि आप अंदाजा नहीं लगा सकते थे कि यह शख्स कितना शक्तिशाली है. उनके पास किसी भी निर्णय को बदलवाने की ताकत थी. बारू एक उदाहरण सामने रखते हैं, ‘एक बार ऐसा हुआ कि ऐन मौके पर जब मंत्री बनाए जाने वाले लोगों की सूची राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए प्रधानमंत्री निवास से जाने ही वाली थी कि पटेल प्रधानमंत्री निवास पहुंच गए. उन्होंने लिस्ट रुकवाकर उसमें परिवर्तन करने को कहा. उनके कहने पर तैयार हो चुकी सूची में एक नाम पर वाइट्नर लगाकर पटेल द्वारा बताए गए नाम को वहां लिखा गया.’
खैर, बारू की इस किताब में खुद से जुड़े तथ्यों के सामने आने पर पटेल ने इन्हें भी खारिज कर दिया. बारू की किताब में पटेल से संबंधित इन तथ्यों से भले आम जनमानस अंजान हो लेकिन कांग्रेस की राजनीति और खासकर अहमद पटेल की कांग्रेस में राजनीतिक हैसियत को जानने-समझने वाले बताते हैं कि बारू ने अहमद पटेल के बारे में जो लिखा है वह सच है.
ऐसे में यह प्रश्न सहज ही खड़ा होता है कि आखिर कौन हैं अहमद पटेल, जिन्हें कांग्रेस के धुर विरोधी नरेंद्र मोदी भी – जिन्हें कांग्रेस का कोई नेता फूटी आंख भी नहीं भाता – अपना दोस्त बताते हैं और उनके द्वारा फोन न उठाने पर दुख प्रकट करते हैं. कैसे पटेल के पास इतनी राजनीतिक ताकत आ गई कि वे कांग्रेस की पिछली सरकार में अपने मुताबिक मंत्रियों की सूची बदलवाते रहे? कैसे वे सोनिया गांधी के इतने खास हो गए कि प्रधानमंत्री और उनके बीच की राजनीतिक कड़ी बन गए? जानना यह भी दिलचस्प होगा कि जो आदमी इतना ताकतवर रहा है वह मीडिया की नजरों से कैसे बचा रहा. कांग्रेस का संकट मोचक, क्राइसिस मैनेजर, फायर फाइटर, बैकरूम मैनेजर से लेकर न जाने किन-किन विशेषणों से नवाजे जाने वाले कौन हैं वे, क्या है उनका राजनीतिक इतिहास जिन्हें राजनीतिक गलियारे में तमाम लोग गांधी परिवार के बाद कांग्रेस का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति मानते हैं.
अहमद पटेल गुजरात के भरूच जिले से आते हैं. वहां बाबूभाई के नाम से जाने जाने वाले अहमद पटेल की राजनीतिक यात्रा सन् 70 के आसपास शुरू होती है. गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान में गुजरात विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष शंकर सिंह वाघेला अहमद पटेल की राजनीतिक यात्रा की चर्चा करते हुए कहते हैं, ‘सन् 70 के आसपास गुजरात कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हरीश जी महेडा और माधव सिंह सोलंकी की नजर अहमद भाई मुहम्मद भाई पटेल पर पड़ी. इन दोनों नेताओं ने ही इंदिरा गांधी से पटेल के बारे में चर्चा की थी. उस समय पटेल युवा कांग्रेस के उपाध्यक्ष थे यहां. कांग्रेस का प्लान था कि गुजरात में एक युवा माइनॉरिटी लीडर के रूप में पटेल को उभारा जाए.’
युवा कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनने से पहले पटेल भरूच में तालुका पंचायत के अध्यक्ष भी रह चुके थे. गुजरात कांग्रेस से अपनी राजनीति की शुरूआत करने वाले पटेल के जीवन का सबसे बड़ा मौका तब आया जब उन्हें 1977 के लोकसभा चुनावों में भरुच से चुनाव लड़ने का टिकट मिला. उस दौर को जानने वाले लोग बताते हैं कि देश में आपातकाल के बाद कांग्रेस विरोधी जो माहौल बना था, उसमें लोग यह मानकर बैठे थे कि जो भी लड़ेगा हारेगा ही. इसलिए 26 साल के युवा अहमद पटेल को टिकट दे दिया गया. लेकिन 77 के उस चुनाव में जहां इंदिरा गांधी अपना चुनाव हार गईं वहीं अहमद पटेल भरूच से चुनाव जीतने में सफल रहे. उस दौर में चुनाव जीतकर अहमद पटेल ने न सिर्फ सभी को चौंका दिया था बल्कि उनकी जीत ने उनके मजबूत राजनीतिक भविष्य की तरफ भी इशारा कर दिया था. अहमद पटेल अपनी इस जीत से इंदिरा गांधी और पूरी पार्टी की नजर में आ गए. उनकी राजनीतिक हैसियत तेजी से बढ़ने वाली थी. गुजरात कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, ‘उस समय पार्टी बहुत बुरी स्थिति से गुजर रही थी. पटेल युवा थे, चुनाव जीते थे और मुस्लिम थे सो पार्टी ने उन्हें आगे बढ़ाने की शुरूआत की.’ इंदिरा गांधी ने आगे चलकर पटेल को पार्टी का ज्वाइंट सेक्रेटरी बनाया और 1980 में जब इंदिरा गांधी फिर प्रधानमंत्री बनीं तो उन्होंने पटेल को मंत्री बनने का प्रस्ताव दिया. लेकिन उन्होंने मंत्री बनने से इंकार कर दिया. तब से लेकर आज तक कई बार पटेल को मंत्री बनाने की पेशकश हुई लेकिन उन्होंने हर बार मना कर दिया. खैर, बतौर ज्वाइंट सेक्रेटरी पटेल राजीव गांधी के भी तेजी से करीब आते गए जो उस दौरान पार्टी के महासचिव हुआ करते थे.
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब राजीव गांधी ने कांग्रेस की कमान संभाली तो अहमद पटेल उनके सबसे करीबी लोगों में से थे. बताया जाता है कि उस समय राजीव गांधी के सलाहकारों में प्रमुख रुप से जो तीन लोग शामिल थे उन्हें अमर, अकबर, एंथनी कहा जाता था. इनमें अमर यानी अरुण सिंह (दून स्कूल के जमाने से राजीव गांधी के दोस्त), एंथनी यानी ऑस्कर फर्नांडिस और अकबर यानी अहमद पटेल शामिल थे. प्रधानमंत्री बनने के बाद राजीव गांधी ने भी पटेल को मंत्री बनने के लिए कहा लेकिन पटेल ने संगठन में काम करने की बात कहकर इस बार भी इंकार कर दिया. राजीव के कार्यकाल में अहमद पटेल संसदीय सचिव और पार्टी के महासचिव बनाए गए. अहमद पटेल की कांग्रेस पार्टी में जड़ें तेजी से गहरी होती जा रही थीं. पार्टी में युवा जोश भरने की अपनी रणनीति के तहत राजीव गांधी ने अहमद पटेल को गुजरात का प्रदेश अध्यक्ष बनाकर भेज दिया. गुजरात में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बनने वाले पटेल सबसे कम उम्र के नेता थे. कुछ समय के बाद वह दौर भी आया जब पार्टी के ही दूसरे मुस्लिम नेता जैसे तारिक अनवर, गुलाम नबी आजाद और आरिफ मुहम्मद खान आदि पटेल की चमक के आगे फीके पड़ते दिखाई देने लगे.
ऐसा कहा जाता है कि जब भी राजीव गांधी गुजरात के दौरे पर जाते थे तो पूरे दौरे में अहमद पटेल उनके साथ ही रहते थे. गांधी परिवार और राजीव से नजदीकी होने के पीछे लोग एक और कारण भी बताते हैं. गुजरात कांग्रेस के नेता बताते हैं कि राजीव गांधी के पिता फिरोज गांधी भी भरूच के ही रहने वाले थे. वहां उनका पैतृक आवास आज भी है. जब भी राजीव गांधी या गांधी परिवार का कोई आदमी दक्षिणी गुजरात के दौरे पर आता था तो पटेल उसे भरूच स्थिति फिरोज गांधी का पैतृक घर दिखाने जरूर ले जाते थे. इससे भी उनका गांधी परिवार से एक करीबी संबंध बना. खैर, राजीव गांधी की हत्या के बाद अहमद पटेल कुछ समय तक राजनीतिक अंधकार का शिकार हुए. उस दौर में वे भरूच से लोकसभा का चुनाव भी हार गए.
पटेल के राजनीतिक करियर ने एक बार फिर से उड़ान उस समय भरी जब 1992 में तिरुपति में हुई कांग्रेस पार्टी की बैठक में दशकों बाद कांग्रेस वर्किंग कमिटी के चुनाव हुए. उस चुनाव में पटेल को तीसरे नंबर पर सबसे ज्यादा वोट मिले थे. वे वर्किंग कमिटी के सदस्य बनाए गए. पटेल को उसी दौर में ही जवाहर भवन ट्रस्ट की जिम्मेदारी भी बतौर सचिव मिली. ट्रस्ट से जुड़ने के बाद अहमद पटेल सोनिया गांधी के नजदीक आए. उस दौर में भले ही सोनिया राजनीति से दूर थीं लेकिन उन्हें ट्रस्ट के कामों में बहुत रूचि थी. पटेल ने ट्रस्ट से जुड़े कार्यों को पूरा करने के लिए न सिर्फ कड़ी मेहनत की बल्कि उसके लिए जरूरी पैसों का भी इंतजाम किया. इसके अलावा राजीव गांधी फाउंडेशन की स्थापना में भी पटेल की सबसे अहम भूमिका रही. सोनिया के दिल के सबसे करीब रहे इस प्रोजेक्ट को पूरा करने और उसका बेहतर संचालन करने में पटेल ने कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी. कहते हैं, इसी दौर में पटेल को सोनिया गांधी के और निकट पहुंचने का मौका मिला जो बाकी अन्य नेताओं को हासिल नहीं था. शंकर सिंह वाघेला कहते हैं, ‘ये भी हकीकत है कि राजीव गांधी की हत्या के बाद पटेल ने सोनिया गांधी से लेकर राहुल और प्रियंका सभी की जिम्मेंदारी संभाली. चाहे राहुल और प्रियंका की पढ़ाई हो या फिर परिवार की आर्थिक या अन्य जरूरतें. पटेल ने एक सेवक की तरह परिवार की सेवा की.’
जानकार बताते हैं कि नरसिम्हा राव के जमाने में कांग्रेस वर्किंग कमिटी के सदस्य बने अहमद पटेल वैसे तो राव से बेहद विनम्रता से पेश आते थे लेकिन उन्होंने कभी भी राव की सत्ता को स्वीकार नहीं किया. पटेल के मन में राव से जुड़ा एक घाव अब तक हरा था. हुआ यूं था कि पटेल के लोकसभा चुनाव हारने के बाद उनकी मित्र रहीं नजमा हेपतुल्ला ने राजधानी के मीना बाग इलाके में उनके रहने के लिए सरकारी गेस्ट हाउस की व्यवस्था कराई थी. लेकिन राव पटेल को मिल रही इस सुविधा के खिलाफ थे. उस समय पटेल को गेस्ट हाउस खाली करने या कार्रवाई का सामना करने को कहा गया. पटेल के एक करीबी बताते हैं, ‘उस समय पटेल के बच्चों की परीक्षाएं चल रही थीं. उन्हें मजबूरन उस घर को खाली करना पड़ा.’ राव को किनारे लगाने के लिए माहौल बनाने वालों में अहमद पटेल सबसे आगे थे. पटेल ने राव की कांग्रेस अध्यक्ष पद से विदाई में बड़ी भूमिका निभाई. सीताराम केसरी जब कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए तो उस समय उन्होंने पटेल को पार्टी का कोषाध्यक्ष बनाया. उस समय पटेल कांग्रेस के सबसे कम उम्र के कोषाध्यक्ष बने. हालाकि कुछ समय बाद सोनिया गांधी के निजी सचिव वी जॉर्ज से मतभेद होने पर उन्होंने कोषाध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया.
राजीव की मौत के सात साल बाद तक खामोश रहने वाली सोनिया गांधी ने जब अंततः अपनी राजनीतिक चुप्पी तोड़ी तो उनके सारथी बनकर पटेल उनके साथ आगे आए. वाघेला कहते हैं, ‘सोनिया गांधी को पार्टी की कमान संभालने के लिए तैयार करने में पटेल की बहुत बड़ी भूमिका थी. सीताराम को बाहर करके सोनिया गांधी की ताजपोशी में पटेल ने महत्वपूर्ण रोल अदा किया.’ सोनिया गांधी के पार्टी संभालने के बाद पटेल का राजनीतिक कद और रूतबा दिनों-दिन बढ़ता ही गया. पटेल के राजनीतिक प्रभाव का आलम यह हो गया कि पार्टी में यह कहा जाने लगा कि गांधी परिवार के बाद कांग्रेस में सर्वाधिक ताकतवर आदमी यदि कोई है तो अहमद पटेल ही हैं.
अहमद पटेल की राजनीतिक पहचान का एक कारण और भी है. वे गुजरात से आने वाले पार्टी के दो मुस्लिम सांसदों में से एक रहे हैं. दूसरे सांसद थे एहसान जाफरी जिन्हें 2002 में दंगाइयों ने जलाकर मार डाला. जाफरी लंबे समय से सक्रिय राजनीति से दूर थे. जानकार बताते हैं कि शुरुआत में दोनों को कांग्रेस ने मुस्लिम चेहरे के रूप में आगे बढ़ाया. लेकिन गुजरात में दक्षिणपंथी ताकतों के मजबूत होने और प्रदेश में पार्टी के सिकुड़ते जनाधार के कारण जहां जाफरी सक्रिय राजनीति से सन्यास लेकर विदेश में रहने लगे वहीं अहमद पटेल सक्रिय बने रहे.
पटेल के बारे में यह भी कहा जाता है कि गांधी परिवार के इतने करीब और प्रभावशाली होने के बावजूद उन्होंने कभी अपनी राजनीतिक हैसियत का न दुरूपयोग किया और न ही अपने फायदे के लिए उसका इस्तेमाल किया. उन्होंने कभी खुद के लिए कुछ नहीं किया. न अपने शक्तिशाली होने का ढिंढोरा पीटा और न ही सत्ता के करीब होने का. पद्मश्री से सम्मानित गुजरात के वरिष्ठ पत्रकार देवेंद्र पटेल कहते हैं, ‘यूपीए की पिछली दो सरकारों में सभी जानते थे कि प्रधानमंत्री से ज्यादा अहमद पटेल शक्तिशाली थे लेकिन उन्होंने कभी इसे सार्वजनिक तौर पर जाहिर नहीं होने दिया.’ वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई भी इस बात को रेखांकित करते हैं कि कैसे पिछले 10 सालों में जिन लोगों का भी पार्टी से लेकर सरकार तक में चयन किया गया वह अहमद पटेल की सहमति से ही हुआ लेकिन पटेल ने कभी इसका प्रदर्शन नहीं किया.
पटेल के राजनीतिक-आर्थिक हैसियत का बखान करते हुए गुजरात कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, ‘अहमद भाई के पास यूपीए की पिछली दो सरकारों में इतनी ताकत थी कि वो जिसे चाहते मंत्री बनवा सकते थे. वो चाहते तो 10 मिनट में 100 करोड़ रुपये की व्यवस्था एक फोन पर ही कर सकते थे.’ कांग्रेस पार्टी को लंबे समय से देख रहे एक पत्रकार अपना अनुभव साझा करते हुए कहते हैं, ‘बहुत से पत्रकारों ने अहमद पटेल के ऑफिस से बोरे भरकर रुपये पार्टी कार्य के लिए बाहर जाते-आते देखे हैं. पार्टी के लिए पूरा फंड मैनेज करने का काम वही देखते रहे हैं. पार्टी को चंदा देने वाले उद्योगपति उन्हीं से संपर्क करते हैं. लेकिन आज तक उनके ऊपर किसी तरह की वित्तीय अनियमितता का आरोप नहीं लगा.’
पटेल के अपने गृह जिले भरूच में तमाम ऐसे लोग हैं जो यह बताते मिल जाएंगे कि कैसे भरूच के विकास के लिए अहमद पटेल ने हर संभव प्रयास किया. यहां वे तमाम विकास योजनाएं और उद्योग धंधे ले आए जिससे लोगों को रोजगार के तमाम अवसर मिले. सूरत के पूर्व मेयर कादिर पीरजादा कहते हैं, ‘बाबुबाई के कारण भरुच-अंकलेश्वर का खूब विकास हुआ. यहां कैमिकल फक्ट्रियां आईं. कोई ऐसी महत्वपूर्ण ट्रेन नहीं है जो भरूच न रुकती हो. पूरे भरूच में घर-घर में उन्होंने गैस पाइपलाइन पहुंचवाई है. तमाम उद्योग यहां आए हैं. यहां तक कि राज्य में गोहत्या के खिलाफ चले आंदोलनों का उन्होंने न सिर्फ पूरा समर्थन दिया बल्कि खूब आर्थिक मदद भी की. देवेंद्र, कादिर के दावे से सहमत दिखाई देते हैं. वे कहते हैं, ‘भरूच के लिए पटेल ने काफी काम किया है. वो यहां तमाम योजनाएं लेकर आए. लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात ये है कि उन्होंने कभी किसी काम का श्रेय नहीं लिया.’
पटेल को जानने वाले बताते हैं कि वे किसी से किसी तरह के संघर्ष से बचते हैं. पूरा प्रयास करते हैं कि किसी को उनसे कोई नाराजगी न हो. कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘कोई उनसे क्या नाराज होगा. कोई अहमद के खिलाफ सोनिया जी को शिकायती चिट्टी भेजेगा तो उसको पता है कि सोनिया जी वापस उसे पटेल को ही फॉरवर्ड कर देंगी कि देखो क्या मामला है. किसी को याद नहीं कि पिछली बार कब कांग्रेस अध्यक्ष पटेल से किसी विषय पर सख्ती से पेश आई थीं.’ कांग्रेस के सूत्र यह भी बताते हैं कि कैसे पिछले 10 सालों में सोनिया गांधी द्वारा लिए गए हर निर्णय के पीछे अहमद पटेल का ही दिमाग रहा. पार्टी के एक पूर्व महासचिव कहते हंै, ‘पिछले 10 सालों में पार्टी में कोई भी ऐसा निर्णय नहीं हुआ जिसमें पटेल की सहमति न हो. जब भी मैडम ने यह कहा कि वो सोच कर बताएंगी कि इस विषय पर क्या करना है पार्टी के लोग समझ जाते थे कि अब वो अहमद पटेल से सलाह लेंगी फिर फैसला करेंगी.’
तीन बार लोकसभा सदस्य रह चुके पटेल के काम करने के तौर-तरीकों की चर्चा करते हुए देवेंद्र पटेल कहते हैं, ‘वो रात को 9 बजे के बाद से काम करना शुरू करते हैं. अगर आपने उनसे मिलने के लिए आवेदन किया है तो इस बात के लिए तैयार रहिए कि वो रात को 2 बजे भी आपको मिलने के लिए बुला सकते हैं.’ अपना अनुभव साझा करते हुए दवेंद्र कहते हैं, ‘पहली बार जब मैंने उनके ऑफिस में उनसे एक मुलाकात के लिए आवेदन किया तो मुझे शाम को फोन आया कि क्या आप रात को दो बजे आ सकते हैं? मेरे लिए ये चौंकाने वाली बात थी. मिलने के लिए रात के दो बजे. बाद में पता चला वो ऐसे ही काम करते हैं. इसके साथ ही वो अपने काम को लेकर बेहद सजग और व्यवस्थित रहते हैं. कभी भी वो आपको फालतू के हंसी-मजाक करते हुए दिखाई नहीं देंगे.’
कई लोग पटेल के व्यवहार के कायल हैं. कोई उनके विनम्र व्यवहार की चर्चा करता है तो कोई उनकी ईमानदारी की. पार्टी के भीतर पटेल की पहचान बेहद सादगी और ईमानदारी से रहने वाले व्यक्ति की है. ऐसा नेता जो बाकी कांग्रेसियों की तरह शराब पार्टियों में नहीं जाता. जो तमाम फाइव स्टार पार्टियों से दूर रहता है. राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई कहते हैं, ‘ये गुण कांग्रेस में बहुत दुर्लभ है. पटेल की सबसे बड़ी खासियत ये है कि वो ताकतवर होने के बावजूद लो प्रोफाइल रहते हैं, खामोश रहते हैं, उनकी कोई व्यक्तिगत महात्वाकांक्षा नहीं है, साथ में मीडिया से दूर रहते हैं जबकी कांग्रेस में तमाम नेता आपको ऐसे दिखाई दे जाएंगे जो प्रचार के लिए हमेशा भूखे रहते हैं. इसके साथ ही पार्टी के बाहर के नेताओं से भी उनके अच्छे संबंध हैं. वो एक बेहतरीन पॉलिटिकल मैनेजर हैं.’
कादिर पीरजादा अपना अनुभव साझा करते हुए कहते हैं, ‘वो किसी तरह के प्रचार से दूर रहते हैं. एक बार कुछ लोगों ने मिलकर उनके काम के ऊपर किताब लिखने की सोची. लेकिन जैसे ही उन्हें इस बारे में पता चला उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया. कहा कि उन्हें किसी तरह का प्रचार पसंद नहीं है.’ ऐसी ही एक घटना का जिक्र करते हुए देवेंद्र पटेल कहते हैं, ‘एक बार मैंने उन पर एक स्टोरी की थी. जिसमें इस बात पर चर्चा थी कि पटेल इतना पावरफुल होने के बावजूद इतने लो-प्रोफाइल क्यों रहते हैं? उनका फोन आ गया कि भई आपने क्यों मेरे ऊपर लिख डाला. मैंने कहा इसमें आपकी आलोचना नहीं है. उन्होंने कहा, मेरे बारे में अच्छा भी मत लिखो. कुछ मत लिखो. उन्हें परेशान करने के लिए बस इतना ही काफी है कि आप उनके बारे में कुछ लिख दें.’
पटेल को जानने वाले बताते हैं कि वो इस कदर चर्चा और मीडिया से दूरी बरततें हैं कि हर शुक्रवार को दिल्ली की अलग-अलग मस्जिदों में जाकर नमाज पढ़ते हैं. ताकि वो मीडिया या लोगों की नजर में न आएं. पीरजादा कहते हैं, ‘बाबुभाई एक बेहतरीन इंसान हैं. ऐसा व्यक्ति मैंने आज तक नहीं देखा. वो मुस्लिम समाज से आते हैं लेकिन उनके मुस्लिम से ज्यादा हिंदू दोस्त हैं. बाकी नेताओं की तरह हवाई जहाज से नहीं बल्कि आज भी ट्रेन से सफर करना पसंद करते हैं. लोग मंत्री बनने के लिए मरने-मारने पर उतारू रहते हैं लेकिन इन्होंने मंत्री पद को हमेशा ठुकराया. सत्ता मिलने के बाद लोग पागल हो जाते हैं. बड़ा होने के बाद कैसे रहा जाता है ये आप अहमद पटेल से सीख सकते हैं.’
इंदिरा गांधी के जमाने से कांग्रेस से जुड़े पटेल के मजबूत होने का यह कारण भी माना जाता है कि जहां पार्टी में समय-समय पर तमाम नेताओं ने पार्टी में आए उतार-चढावों के दौर में पार्टी छोड़कर कहीं और अपना ठिकाना ढूंढ लिया वहीं उन्होंने आज तक पार्टी से कभी मुंह नहीं फेरा. रशीद किदवई कहते हैं, ‘अहमद पटेल इस मामले में भी बेहद खास रहे कि कांग्रेस में चाहे जो सत्ता परिवर्तन होता रहा लेकिन वो कभी पार्टी छोड़कर नहीं गए. पार्टी के प्रति हमेशा वफादार रहे. हमेशा ईमानदारी से पार्टी के लिए काम किया.’ देवेंद्र पटेल कहते हैं, ‘एक तरफ जहां मुस्लिम नेताओं सहित दलित या अन्य समुदाय से आए नेताओं में खुद को पूरे समुदाय का नेता बताने की होड़ लगी रहती है वहीं अहमद पटेल ने कभी खुद को मुस्लिम नेता के तौर पर प्रोजेक्ट नहीं किया. जबकि यहीं कांग्रेस पार्टी में ही लोग मुसलमानों का सच्चा हितैषी दिखने के लिए जूतमपैजार करते रहते हैं.’
अहमद पटेल के गांधी परिवार के बाद कांग्रेस में सबसे प्रभावशाली होने के सवाल पर कांग्रेस के एक पूर्व महासचिव कहते हैं, ‘देखिए इसके तीन बड़े कारण हैं. पहला ये कि वो बेहद लो प्रोफाइल रहते हैं. मीडिया से दूर, बयानबाजी से दूर रहते हैं. दूसरी बात ये कि उन्होंने गांधी परिवार की उस तरह सेवा की जैसे एक भक्त अपने भगवान की करता है. वो पूरी तरह ईमानदार रहे. तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि वो हमेशा अपना मुंह बंद रखते हैं. मुंह बंद रखने में उनका कोई सानी नहीं है. इंदिरा जी के जमाने से ही वो चुप रहना सीख गए थे. सत्ता के लगातार करीब रहे लेकिन अपने लिए कभी कोई लाभ नहीं लिया. वो क्या कर सकते हैं से ज्यादा गांधी परिवार के करीब वो इसलिए हैं कि उन्होंने क्या -क्या नहीं किया.’
हालांकि कांग्रेस में अहमद के आलोचक भी हैं. जो उन्हें बेहद औसत सोच-समझ वाला नेता बताते हैं. कांग्रेस की केंद्रीय राजनीति में सक्रिय एक नेता कहते हैं, ‘वे कोई विलक्षण आदमी नहीं हैं, न करिश्माई हैं. बेहद सामान्य राजनीतिक सोच समझ वाले शख्स हैं. हां, वे चुप रहना जानते हैं. उन्हें देख-सुन कर कोई नहीं कह सकता कि वे भारत की सबसे शक्तिशाली महिला को सलाह देते हैं. खैर खुदा उन पर मेहरबान है.’ कांग्रेस में अहमद पटेल के आलोचकों की चर्चा करते हुए रशीद कहते हैं, ‘गुलाम नबी आजाद, सलमान खुर्शीद, मधुसूदन मिस्त्री, जयराम रमेश, अंबिका सोनी समेत कई नेता इनसे चिढ़ते आए हैं.’ पटेल के एक आलोचक कहते हैं, ‘उनका एकसूत्रीय काम उन सभी लोगों की सेटिंग कराना है जो उनकी गुड बुक्स में हंै. ये सबका जुगाड़ सेट करने का ही काम करते हैं. जो इनकी निगाह में अच्छा लग गया उसको सेट करा देंगे.’
मोदी और गुजरात हाल ही में मोदी ने जब अहमद पटेल से अपने मधुर संबंधों का हवाला दिया तो कांग्रेस में कई नेता बिना आग के धुंआं नहीं उठता वाली कहावत सुनाते नजर आए. गुजरात कांग्रेस से लेकर केंद्रीय कांग्रेस में एक तबका ऐसा है जो समय-समय पर दबे-छुपे मोदी और अहमद के संबंधों की बात कहता आया है. गुजरात कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘हम यहां भी सुनते हैं. कार्यकर्ता भी हमसे कहते हैं कि साहब कुछ ठीक नहीं है. मैं तो बस इतना जानता हूं कि गुजरात में विधानसभा से लेकर लोकसभा तक का टिकट वही बांटते हैं. अब विधानसभा में पार्टी की क्या स्थिति है ये सबके सामने हैं. स्थिति ये है कि उनके जिले में ही कांग्रेस लगातार हार रही है. भाजपा उनके अपने गांव पिरामन तक में घुस गई है. उनके अपने गृहक्षेत्र में पार्टी कोई कद्दावर उम्मीदवार नहीं उतारती. हर बार हारती है. लोग कहते हैं कि बस उन्हें उतनी ही सीटों की फिक्र है जिससे गुजरात से उनकी राज्यसभा सीट बनी रहे. ’
भरुच में ईटीवी का काम देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार हितेश शुक्ला कहते हैं, ‘अहमद पटेल के गांव तक में भाजपा का दबदबा है. अहमद पटेल न चाहते तो मोदी कभी मजबूत नहीं होते. उन्होंने जान-बूझकर कभी भी मोदी और भाजपा के खिलाफ कोई मजबूत कांग्रेस प्रत्याशी नहीं उतारा. ऐसा लगता है मानो पटेल चाहते ही नहीं है कि कांग्रेस यहां मजबूत हो.’
अहमद के सियासी सफर पर कुछ दाग भी हैं. उन पर सबसे बड़ा आरोप उस समय लगा जब यूपीए-1 के कार्यकाल में न्यूक्लियर डील के मसले पर संसद में वोटिंग हुई. कहा गया कि सरकार के पक्ष में मतदान करने के लिए तत्कालीन सपा नेता अमर सिंह के साथ मिलकर अहमद पटेल ने भाजपा सांसदों को खरीदने का काम किया. भाजपा सांसदों को यूपीए सरकार के पक्ष में वोट डालने के लिए पैसे दिए गए थे. हालांकि इस मामले की जांच करने वाली संसद की एक कमिटी ने पटेल को बाद में आरोपमुक्त कर दिया.
साल 2013. दिल्ली में इस साल की शुरुआत धरनों, प्रदर्शनों, भूख हड़ताल और नारों से हुई थी. 16 दिसंबर 2012 की शाम जो हादसा निर्भया के साथ हुआ उसने दिल्ली ही नहीं पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था. इसके बाद लाखों लोग सड़कों पर उतर आए थे. कहीं निर्भया को न्याय दिलाने की मांग थी तो कहीं महिलाओं की सुरक्षा के लिए नए कानून बनाने के आंदोलन हो रहे थे. दिल्ली का जंतर मंतर इस आंदोलन का सबसे बड़ा प्रतीक बना. देश के कोने-कोने से आए आंदोलनकारी यहां एकजुट हुए. लुधियाना (पंजाब) से आई हरप्रीत कौर (बदला हुआ नाम) भी इन्हीं में से एक थीं. हरप्रीत सिर्फ निर्भया के लिए ही नहीं बल्कि अपने लिए भी न्याय की मांग लेकर यहां आई थीं. उनका आरोप था कि पंजाब कैडर के एक आईपीएस अफसर ने उनके साथ बलात्कार किया है.
अप्रैल 2013 में बलात्कार संबंधी कानूनों को राष्ट्रपति की सहमति मिलने के बाद निर्भया आंदोलन समाप्त हो गया. इसके साथ ही देश भर से आए आंदोलनकारी भी अपने-अपने घर लौट गए. लेकिन हरप्रीत आज भी न्याय के इंतजार में जंतर मंतर पर ही बैठी हैं. निर्भया के अपराधियों को तो सितम्बर 2013 में फांसी की सजा सुना दी गई थी लेकिन हरप्रीत की शिकायत पर आज तक प्रथम सूचना रिपोर्ट तक दर्ज नहीं हुई है. हरप्रीत को जंतर मंतर पर धरना देते 16 महीने बीत चुके हैं. उनकी मांग है कि उनकी शिकायत पर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की जाए और मामले की जांच हो. हरप्रीत के अनुसार यह घटना 2010 की है. तब से अब तक वे इस संबंध में पंजाब और दिल्ली के पुलिस थानों से लेकर पुलिस के सर्वोच्च अधिकारियों, राज्य और केंद्र के लगभग सभी मंत्रालयों, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और संयुक्त राष्ट्र संघ तक को शिकायत भेज चुकी हैं. उनकी शिकायतों पर विभागीय जांच तो कई बार हो चुकी है लेकिन दंड प्रक्रिया संहिता के अनुसार आज तक कुछ भी नहीं हुआ.
कानूनी प्रक्रिया के अनुसार बलात्कार की सूचना मिलने पर पुलिस का पहला काम प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करना होता है. पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रक्रिया को और भी मजबूती दी है. नवंबर 2013 में मुख्य न्यायाधीश सदाशिवम की अध्यक्षता में पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने इस संबंध में एक ऐतिहासिक फैसला दिया. इसके बाद से पुलिस द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करना अनिवार्य हो गया है. फैसले में न्यायालय ने यह भी कहा था कि प्रथम सूचना दर्ज न करने पर संबंधित पुलिस अधिकारी के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई भी की जाएगी. लेकिन हरप्रीत का मामला इस फैसले से भी प्रभावित नहीं हुआ. दिल्ली पुलिस के सहयोग से महिलाओं के हित में काम करने वाली संस्था ‘प्रतिधि’ के प्रतिनिधि योगेश कुमार बताते हैं, ‘प्रभावशाली लोगों के खिलाफ आज भी आसानी से रिपोर्ट दर्ज नहीं होती. हालांकि निर्भया मामले के बाद हालात बदले हैं और पुलिस पर रिपोर्ट दर्ज करने का दबाव काफी बढ़ गया है. लेकिन अब भी बड़े अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करना आसान नहीं है. दिल्ली से बाहर तो स्थिति और भी ज्यादा गंभीर है.’
पिछले लगभग डेढ़ साल से देश की राजधानी में धरना दे रहीं हरप्रीत के अनुसार चार साल पहले उनके साथ बलात्कार हुआ था. इतने समय में सामान्यतः बलात्कार के मामलों की जांच पूरी होकर न्यायालय का फैसला भी आ जाता है. लेकिन हरप्रीत का मामला अब तक आपराधिक प्रक्रिया की पहली सीढ़ी भी नहीं चढ़ सका है. दिलचस्प यह है कि उनके मामले में एकमात्र यही विरोधाभास नहीं है. यह पूरा मामला विरोधाभासों की एक ऐसी श्रृंखला है जो देश के बलात्कार संबंधी कानूनों की हर तस्वीर बयान करती है. हरप्रीत का मामला बलात्कार संबंधी कानूनों के उपयोग, दुरूपयोग और सुविधानुसार उपयोग का एक दुर्लभ उदाहरण है. इस मामले को समझने की शुरुआत जंतर मंतर से ही करते हैं जहां हरप्रीत कई महीनों से धरने पर बैठी हैं.
जंतर मंतर पर सड़क के दोनों ओर लगे दर्जनों टेंटों में से एक हरप्रीत का है. टेंट के बाहर एक बड़ा-सा बैनर लगा है. इस पर एक तरफ पंजाब कैडर के आईपीएस अफसर डीआईजी नौनिहाल सिंह की तस्वीर बनी है और दूसरी तरफ उतनी ही बड़ी तस्वीर हरप्रीत की है. बैनर पर लिखा है ‘हरप्रीत कौर से बलात्कार करने और जान से मारने की धमकी देने के आरोप में नौनिहाल सिंह के खिलाफ प्रथम सूचना रिपोर्ट और गिरफ्तारी की मांग हेतु 12 जनवरी 2013 से अनिश्चितकालीन धरना.’ टेंट के अंदर दो बक्से, कुछ कपड़े और एक चारपाई रखी है. हरप्रीत अपने कुछ साथियों के साथ इसी चारपाई पर बैठी हैं. उनसे बात शुरू करने से पहले ही एक व्यक्ति हरप्रीत के पास एक पत्र लेकर आता है. इस पत्र पर बाहर लिखा है – ‘हरप्रीत कौर, कैंप नंबर 7, जंतर मंतर. दिल्ली.’ यह पत्र प्रधानमंत्री कार्यालय से आया है. पिछले काफी समय से हरप्रीत के सभी पत्र इसी पते पर आते हैं. जंतर-मंतर उनकी पहचान से अब इस तरह जुड़ चुका है कि उनके आधार कार्ड पर भी यही पता लिखा गया है. लंबे समय से यहीं रह रही हरप्रीत सबसे पहले अपने इसी अनुभव के बारे में बताती हैं. वे कहती हैं, ‘पिछले डेढ़ साल से मैं यहां हूं. यहां धरना देने के लिए सिर्फ सर्दी या गर्मी ही नहीं बल्कि और भी बहुत कुछ सहना होता है. कई बार नगर निगम वाले आकर मेरा टेंट उखाड़ देते हैं. पुलिस वाले भी कई तरह के आते हैं. कुछ अच्छे से बात करते हैं तो कुछ बदतमीजी की सारी हदें पार कर जाते हैं.’ सब तकलीफों के बावजूद भी हरप्रीत ने खुद को जंतर मंतर के अनुसार ढाल लिया है. सुबह उठकर वे पास के गुरुद्वारे चली जाती हैं. स्नान आदि के साथ ही नाश्ते की व्यवस्था भी गुरुद्वारे में ही हो जाती है. इसके बाद जब वे लौटकर जंतर मंतर आती हैं तो अन्य लोगों के धरनों में भी शामिल हो जाती हैं. अपने मन का गुबार निकालने के लिए उन्हें यहां किसी न किसी नेता के पुतले को जूता मारने का मौका लगभग रोज ही मिल जाता है.
जंतर-मंतर पर बने अपने अस्थाई ठिकाने में हरप्रीत कौर. फोटो: विजय पांडेय
अपनी कहानी सुनाते हुए हरप्रीत बताती हैं, ‘मैं ह्यूमन राइट्स मंच नाम की एक संस्था में कई सालों से काम करती थी. इसके चलते मैं कई अधिकारियों से भी मिलती रहती थी. 16 जून 2010 को मैं एक शिकायत लेकर नौनिहाल सिंह के ऑफिस गई थी. मेरे साथ तीन अन्य लोग भी थे. मैंने एक व्यक्ति को 40 हजार रुपये उधार दिए थे जो मुझे वापस नहीं मिल रहे थे. वह व्यक्ति संगरूर जिले का रहने वाला था. नौनिहाल सिंह उस वक्त संगरूर का एसएसपी था.’ हरप्रीत आगे बताती हैं, ‘जब हम नौनिहाल के ऑफिस पहुंचे तो संत्री ने बताया कि साहब अपने आवास पर हैं. उनका आवास ऑफिस के साथ ही पिछली तरफ था. मेरे साथ आए लोगों को संत्री ने बाहर ही बैठने को कहा और मुझे अकेले नौनिहाल के पास भेज दिया. नौनिहाल ने मेरी शिकायत सुनी और मुझे कॉफी के लिए भी पूछा. मैं जब बैठ कर कॉफी पी रही थी तो नौनिहाल कमरे में इधर-उधर घूम रहा था. मुझे नहीं पता उसने कब कमरे का दरवाजा बंद किया. इसके बाद उसने मुझे पीछे से आकर पकड़ लिया. मेरे शोर मचाने पर मेरे साथ आए लोगों ने अंदर आने की कोशिश की लेकिन पुलिस वालों ने उन्हें अंदर नहीं आने दिया. नौनिहाल ने मेरा बलात्कार किया और मुझे धमकी दी कि मैं किसी को भी ये नहीं बताऊं.’
हरप्रीत आगे बताती हैं, ‘मैं जब नौनिहाल के कमरे से बाहर निकली तो मेरे साथ आए लोग वहां मौजूद नहीं थे. मैंने उनके बारे में पता किया तो मालूम हुआ कि पुलिस ने उनसे मारपीट की है और उन्हें वहीं एक कमरे में बंद कर दिया है. मैंने जब बाकी पुलिसवालों को यह बताया कि एसएसपी नौनिहाल सिंह ने मेरे साथ बलात्कार किया है तो उन्होंने नौनिहाल को बुला लिया. इसके बाद नौनिहाल ने उन्हें मुझे मारने के आदेश दिए. नौनिहाल के आदेश पर उसके स्टाफ के गुरमैल सिंह और परमजीत सिंह ने मुझे लाठियों से पीटा. मेरे पूरे शरीर में चोटें आई और हाथ और पैर की हड्डी टूट गई.’
हरप्रीत के अनुसार इस घटना के बाद पुलिस उन्हें थाने ले गई और उनसे एक डीडीआर (डेली डायरी रिपोर्ट) पर हस्ताक्षर करवाए गए. इस डीडीआर में लिखा था कि हरप्रीत और उनके साथियों को बस के दरवाजे से फिसलने के कारण चोटें आई हैं. हरप्रीत बताती हैं, ‘घटना के अगले दिन जब मेरे गांव वालों को यह बात पता लगी तो गांव के सैकड़ों लोग शिकायत दर्ज कराने पहुंचे. हमने पुलिस अधिकारियों से लेकर जिलाधिकारी तक को शिकायत की. मामले की विभागीय जांच हुई और दो पुलिस वाले कुछ महीनों के लिए सस्पेंड भी हुए लेकिन आज तक बलात्कार की प्रथम सूचना रिपोर्ट तक दर्ज नहीं हुई.’ इसके कुछ समय बाद ही नौनिहाल सिंह का तबादला चंडीगढ़ हो गया था.
दिल्ली आने के बारे में हरप्रीत कहती हैं, ‘पंजाब और चंडीगढ़ में मेरी कोई सुनवाई नहीं हुई. मैं उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय तक अपना मामला लेकर जा चुकी हूं. लेकिन पुलिस ने न्यायालय को बताया कि इस मामले में पहले ही कई बार जांच हो चुकी है. न्यायालय ने पुलिस के इस जवाब को स्वीकार भी कर लिया. 2012 में जब निर्भया मामले के बाद दिल्ली में आंदोलन हुआ तो मुझे लगा कि शायद मुझे भी न्याय मिल जाए. मैं 12 जनवरी 2013 को दिल्ली आ गई. मैंने यहां आकर कई दिनों तक भूख हड़ताल की. मेरी इतनी तबीयत बिगड़ गई कि मुझे अस्पताल में दाखिल किया गया. मैंने तब भी भूख हड़ताल जारी रखी. इसी बीच मेरे पिताजी की भी दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई. मुझे घरवालों ने पिताजी की मौत के बारे में नहीं बताया क्योंकि मेरी तबीयत ठीक नहीं थी. मैंने कई दिनों के बाद अपनी भूख हड़ताल तब तोड़ी जब किरण बेदी ने मुझे विश्वास दिलाया कि वे मुझे न्याय दिलाएंगी. आज मेरे साथ कोई नहीं है. लेकिन मुझे यकीन है कि भगवान मेरे साथ है और मुझे एक दिन न्याय मिलेगा.’
अब तक लिखी गई बातें हरप्रीत की कहानी का वह हिस्सा हैं जो हरप्रीत ने खुद तहलका को पहली मुलाकात में बताया. कहानी का यही पहलू हरप्रीत अपने हालिया पत्रों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा समेत अन्य कई लोगों को भी भेज चुकी हैं. इसके बाद जब तहलका ने हरप्रीत से उनके दस्तावेज मांगे तो कुछ आना-कानी के बाद हरप्रीत दो दिन बाद दस्तावेज देने को तैयार हुई. अपने बक्से में से लगभग पांच सौ पन्नों की एक फाइल निकाल कर हरप्रीत ने अपने सहयोगी को उसकी एक फोटो-कॉपी कराने को कहा. दिल्ली में हरप्रीत के साथ उनके तीन सहयोगी ऐसे हैं जिन्हें उन्होंने नौकरी पर रखा है. ये सहयोगी हरप्रीत के साथ ही जंतर मंतर पर ही रहते हैं और विभिन्न विभागों को पत्र पहुंचाने से लेकर सभी छोटे-बड़े काम करते हैं. जंतर मंतर पर हरप्रीत अपने दस्तावेजों की नकल ही रखती हैं. असली दस्तावेजों के लिए उन्होंने पास के ही ओवरसीज बैंक में एक लॉकर ले लिया है. कुछ पंजाबी और कुछ अंग्रेजी भाषा के लगभग पांच सौ पन्नों के इन दस्तावेजों को खंगालने पर हरप्रीत की कहानी का एक नया ही पहलू सामने आता है.
नौनिहाल सिंह पर बलात्कार का आरोप लगा रहीं हरप्रीत कौर की शुरूआती शिकायतों में कहीं भी बलात्कार का जिक्र तक नहीं है. 16 जून 2010 की इस घटना के बाद जो शिकायत हरप्रीत ने जमा कराई थी उसमें सिर्फ यह कहा गया था कि गुरमैल सिंह और परमजीत सिंह नाम के दो पुलिस वालों द्वारा हरप्रीत को बुरी तरह पीटा गया है. दिलचस्प बात यह भी है कि यह शिकायत सबसे पहले हरप्रीत और उसके साथियों द्वारा नौनिहाल सिंह को ही दी गई थी. नौनिहाल सिंह ने ही 16 जून की घटना पर जांच के आदेश दिए थे और आज नौनिहाल सिंह पर ही 16 जून को हरप्रीत से बलात्कार करने का आरोप है. साल 2010 में हरप्रीत ने नौनिहाल सिंह के अलावा जिलाधिकारी संगरूर, डीजीपी पंजाब और पंजाब मानवाधिकार आयोग को भी अपनी शिकायत भेजी थी. इन शिकायतों में भी पुलिस द्वारा मारपीट के ही आरोप लगाए गए थे और बलात्कार का कहीं जिक्र नहीं था. हरप्रीत की इन शिकायतों पर संगरूर जिले के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक लखविंदर सिंह को जांच सौंपी गई. इस जांच के दौरान उन दोनों पुलिस कर्मचारियों को सस्पेंड कर दिया गया था जिन पर हरप्रीत ने मारपीट के आरोप लगाए थे.
पुलिस अधीक्षक लखविंदर सिंह द्वारा की गई जांच में हरप्रीत की तरफ से 64 गवाहों के बयान दर्ज किए गए. इन गवाहों में वे तीन लोग भी शामिल थे जो घटना वाले दिन हरप्रीत के साथ ही नौनिहाल सिंह के ऑफिस गए थे. इन तीनों में से एक भी गवाह ने यह बयान नहीं दिए कि हरप्रीत के साथ बलात्कार हुआ है. इनके अलावा सभी 64 गवाहों ने अपने बयानों में कहा कि पुलिस ने हरप्रीत को बुरी तरह से पीटा और जूतों की माला पहना कर पूरे परिसर में घुमाया. पुलिस अधीक्षक ने जब इन 64 लोगों की वहां मौजूदगी पर सवाल किए तो इनमें से अधिकतर का कहना था कि वे एक फॉर्म जमा करने नौनिहाल सिंह के ऑफिस पहुंचे थे. लेकिन जांच अधिकारी की रिपोर्ट में लिखा है कि उस दिन छुट्टी थी और बहुत ही सीमित स्टाफ ऑफिस में मौजूद था. साथ ही जांच रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि उस तारीख को सिर्फ दो ही फॉर्म जमा हुए हैं. ये दो फॉर्म भी जिन लोगों के थे वे हरप्रीत के गवाहों में शामिल नहीं थे. ऐसे में जांच अधिकारी ने इनकी गवाही को झूठा पाया और अंततः दोनों पुलिस कर्मचारियों को दोषमुक्त कर दिया. इस जांच में यह भी पाया गया कि हरप्रीत और उसके भाई के खिलाफ पहले से ही कई आपराधिक मुकदमें दर्ज हैं. जनवरी 2011 में जांच पूरी हुई और दोनों पुलिस वालों की नौकरी बहाल कर दी गई.
हरप्रीत के गवाहों में शामिल रहे लोगों से भी तहलका ने संपर्क किया. मुर्थला मंडेर गांव के रहने वाले जसप्रीत सिंह इस मामले में गवाह नंबर 12 थे. ‘मैं हरप्रीत को नहीं जानता था. मुझे अपने मामा की बेटी की पुलिस में भर्ती करानी थी. मुझे गांव के एक आदमी ने हरप्रीत से मिलवाया और कहा कि ये भर्ती करवा देगी. हरप्रीत ने मुझसे एक कागज पर दस्तखत करवाए. मुझे बाद में पता चला कि मेरी गवाही हो गई है. उसके बाद अगर हरप्रीत मुझे मिल जाती तो मैं उसका गला दबा देता.’ अपनी गवाही के बारे में पूछे जाने पर जसप्रीत सिंह बताते हैं, ‘मैंने चंडीगढ़ जाकर भी पुलिस को बताया था कि मैंने कोई गवाही नहीं दी थी.’
पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय में भी हरप्रीत ने एक याचिका दाखिल की थी. इस याचिका में हरप्रीत ने नौनिहाल सिंह से जान का खतरा बताते हुए सुरक्षा की मांग की थी. न्यायालय ने पाया कि हरप्रीत के खिलाफ कई आपराधिक मामले दर्ज हैं और उन्हें सुरक्षा देने का कोई भी आधार नहीं है. हरप्रीत की इस याचिका को न्यायालय ने खारिज कर दिया. कुछ समय बाद हरप्रीत यही मामला लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक भी पहुंचीं लेकिन वहां से भी उनकी याचिका खारिज हुई. चंडीगढ़ में हरप्रीत के वकील रहे फरियाद सिंह बताते हैं, ‘हरप्रीत ने बलात्कार की कोई बात नहीं की थी. उन्होंने सिर्फ सुरक्षा मांगी थी लेकिन वो याचिका खारिज हो गई थी.’
हरप्रीत द्वारा दो पुलिस अधिकारियों पर लगाए गए मारपीट के आरोप जब साबित नहीं हुए तो उन्होंने कई अन्य मंत्रालयों और लोगों को शिकायत भेजना शुरू किया. इसी कड़ी में 23 मार्च 2011 को हरप्रीत ने पंजाब के उप मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल को एक पत्र भेजा. इस पत्र में पहली बार हरप्रीत ने नौनिहाल सिंह पर बलात्कार का आरोप लगाया था. यह आरोप भी उस कहानी से बिलकुल अलग था जो हरप्रीत आज बताती हैं. इस पत्र में मुख्य तौर से उन्हीं दो पुलिसवालों की शिकायत की गई थी जिनकी शिकायत हरप्रीत पहले ही करती आ रही थीं और जिनकी जांच संगरूर के पुलिस अधीक्षक कर चुके थे. लेकिन मुख्य शिकायत के साथ ही इस पत्र में लिखा था, ‘आईपीएस नौनिहाल सिंह न सिर्फ 2001 से मेरा बलात्कार कर रहा है बल्कि अब उसने मेरा जीना मुश्किल कर दिया है. मैं इस डर से इसकी यातनाएं झेल रही हूं कि कहीं ये मेरे पति या घरवालों को न बता दे. मेरे पास चंडीगढ़ के शिवालिक व्यू होटल में कमरे की बुकिंग की रसीद है और एक वीडियो भी है. यह वीडियो मैंने ही सबूत के तौर पर बनाई थी. मैं कभी भी यह वीडियो पेश कर सकती हूं.’
2012 में निर्भया बलात्कार मामले के बाद लाखों लोग सड़क पर उतर आए थे. फोटो: विकास कुमार
यह पत्र हरप्रीत के बलात्कार की कहानी को बिलकुल अलग दिशा में मोड़ देता है. इस संबंध में पूछने पर हरप्रीत पहले तो इस बात से इनकार करती हैं कि वे कभी नौनिहाल सिंह से होटल में मिली थी. लेकिन उन्हीं का दिया और हस्ताक्षर किया हुआ पत्र दिखाने पर वे इस बात को स्वीकार करती हैं. हरप्रीत बताती हैं, ‘2011 में मैंने ही होटल में कमरा बुक करवाया था. वहां नौनिहाल सिंह आया और मैंने वीडियो भी बनाई. वह वीडियो आज भी मेरे पास है. लेकिन मैं गुरुग्रंथ की कसम खाती हूं कि 2010 में नौनिहाल ने मेरा बलात्कार किया था और उससे पहले हमारे कोई शारीरिक संबंध नहीं रहे हैं.’ हरप्रीत का यह बयान भी उस पत्र में लिखी बातों से मेल नहीं खाता जिसमें उन्होंने कहा था कि नौनिहाल सिंह 2001 से ही उनका बलात्कार कर रहा है. तहलका ने जब हरप्रीत के मामले में और जानकारी जुटाई तो यह तथ्य भी सामने आया कि यह मामला बलात्कार का नहीं बल्कि हरप्रीत द्वारा नौनिहाल सिंह को बदनाम करने का है.
पिछले साल जब निर्भया आंदोलन के दौरान हरप्रीत दिल्ली आई थी तो सबसे पहले उनकी मुलाकात भगत सिंह क्रांति सेना के तेजिंदर बग्गा से हुई थी. तेजिंदर बताते हैं, ‘हमने शुरुआत में उनकी मदद की. उन्हें कई संस्थाओं से भी मिलवाया. फिर हमें उन पर कुछ शक हुआ तो हम खुद ही पीछे हट गए. वे कभी कहती थीं मेरा बलात्कार हुआ है, कभी कहती मैंने सीडी बनाई है और कभी कहती थी कि मैंने तीन बार सीडी बनाई है.’ तेजिंदर सवालिया अंदाज में कहते हैं, ‘कोई महिला अपने बलात्कार की तीन बार सीडी कैसे बना सकती है?’
तेजिंदर के अलावा हरप्रीत की मुलाकात रिची लुथारिया से भी हुई थी. रिची निर्भया आंदोलन के दौरान जंतर-मंतर पर प्रदर्शनकरियों का नेतृत्व करने वालों में से एक थे. रिची से जब हरप्रीत के बारे में पूछा गया तो वे बताते हैं, ‘उस महिला का मामला पूरी तरह से झूठा है. हमें भी शुरू में उनके आंसू देख कर धोखा हुआ और हमने उनका साथ दिया. कई छात्रों ने तो हरप्रीत की कहानी सुनकर नुक्कड़ नाटक भी तैयार किया. जंतर मंतर से लेकर शहर के कोने-कोने में छात्रों ने हरप्रीत के समर्थन में नुक्कड़ नाटक किए. मैं खुद हरप्रीत को लेकर मानवाधिकार आयोग भी गया था. लेकिन जब भी मैं उनसे उनके दस्तावेज मांगता था वे किसी बहाने से टाल देती थीं. उस समय निर्भया आदोलन अपने चरम पर था और हम बहुत ज्यादा व्यस्त थे. इसलिए हमें भी कभी इतना समय नहीं मिला.’ रिची आगे बताते हैं, ‘अप्रैल के बाद जब आंदोलन सफल हो गया तब मैंने हरप्रीत के दस्तावेजों को ध्यान से देखा. उनसे मुझे पता चला कि इनमें कहीं बलात्कार का जिक्र ही नहीं है. हरप्रीत मुझसे कहने लगीं कि किसी तरह पुराने कागजों में भी बलात्कार का जिक्र जोड़ दो. मुझे बड़ी हैरानी हुई और मैंने उनसे कहा कि मैं तुम्हारा साथ नहीं दूंगा. मैं समझ गया कि वह कोई पीड़ित नहीं है बल्कि ब्लैकमेल करने के लिए या किसी अन्य दुर्भावना से बलात्कार का ढोंग कर रही है. मैंने निर्भया आंदोलन के फेसबुक पेज पर इस बारे में लिखा भी था. इसके बाद तो हरप्रीत ने मुझ पर हमला करवा दिया. अपने कुछ गुंडों के साथ उसने मेरे कपड़े फाड़ दिए और मुझे मारा. मैंने संसद मार्ग थाने में हरप्रीत से जान का खतरा बताते हुए रिपोर्ट भी दर्ज कराई थी.’
तहलका ने जब आईपीएस अफसर नौनिहाल सिंह से उन पर लग रहे आरोपों के बारे में पूछा तो उनका कहना था, ‘इस मामले की 15-16 बार अलग-अलग स्तर पर जांच हो चुकी है. मैंने हर बार जांच में पूरा सहयोग किया है. यह मामला उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक जा चुका है लेकिन कभी कुछ नहीं निकला. उस महिला का या तो मानसिक संतुलन ठीक नहीं है या फिर उसके पीछे कुछ अन्य लोग हैं जो मुझे बदनाम करना चाहते हैं.’ यह पूछे जाने पर कि वे हरप्रीत के खिलाफ मानहानि का मुकदमा क्यों नहीं करते नौनिहाल सिंह बताते हैं, ‘मुझे जिस भी जांच में अपनी बात रखनी थी मैंने रखी है. मेरे परिवार के लोग मुझ पर विश्वास करते हैं इसके अलावा मुझे किसी बात से फर्क नहीं पड़ता.’ नौनिहाल सिंह हरप्रीत के बारे में बताते हैं, ‘उसकी पहली शिकायत पर सबसे पहले मैंने ही जांच के आदेश दिए थे. तब उसकी शिकायत थी कि कुछ पुलिस वालों ने उससे मारपीट की है. मुझे अपने सूत्रों से पता चला है कि हरप्रीत गांव के लोगों से पुलिस में भर्ती कराने के नाम पर पैसे लेती थी. उसने मेरे नाम पर भी कई लोगों से पैसे लिए. जब लोगों की भर्ती नहीं हुई और लोग उससे सवाल करने लगे तो उसने मुझ पर ही ऐसे आरोप लगा दिए.’
निर्भया आंदोलन से जुड़े रहे और हरप्रीत के मामले को नजदीक से देख चुके एक सामाजिक कार्यकर्ता नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘हरप्रीत कई बार यह जिक्र कर चुकी हैं कि उसके पास नौनिहाल सिंह की कोई वीडियो है. शायद यही कारण है कि नौनिहाल हरप्रीत के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करते. कानूनन तो हरप्रीत ऐसा कुछ भी नहीं कर सकतीं जिससे नौनिहाल पर कोई आंच आए. यह बात नौनिहाल भी अच्छे से जानते हैं. लेकिन यदि उन्होंने हरप्रीत के खिलाफ कोई कार्रवाई की और वह वीडियो सार्वजनिक हो गया तो नौनिहाल सिंह ज्यादा बदनाम होंगे. हरप्रीत का भी उद्देश्य प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करवाना नहीं है. यदि ऐसा होता तो वे कभी भी कोर्ट में जाकर शिकायत दर्ज करवा सकती थीं. ऐसा करते ही मामले की सुनवाई शुरू हो जाती. लेकिन वे जानती हैं कि उन्हें भी कोर्ट से कुछ नहीं मिलेगा. इसलिए वे बस समाज के बीच पीड़िता बनी रहना चाहती हैं और नौनिहाल सिंह को ऐसे ही बदनाम करना चाहती हैं.’
हरप्रीत के दस्तावेजों के आधार पर दिल्ली उच्च न्यायालय के अधिवक्ता गौरव गर्ग बताते हैं, ‘दस्तावेजों से यह मामला पहली नजर में ही झूठा प्रतीत होता है. यह किसी भी तरह से बलात्कार का मामला नहीं है. लेकिन यह भी सही है कि बलात्कार की शिकायत पर प्रथम सूचना रिपोर्ट का दर्ज न होना कहीं से भी सही नहीं ठहराया जा सकता. भारतीय दण्ड संहिता में हुए हालिया संशोधन के बाद तो बलात्कार जैसे गंभीर मामलों में प्रथम सूचना दर्ज करना आनिवार्य हो गया है. इनकार करने पर पुलिस वालों के खिलाफ धारा 166ए (सी) के तहत कार्रवाई की जा सकती है जिसमें दो साल तक की सजा का भी प्रावधान है. रिपोर्ट दर्ज करने के बाद जांच में यदि मामला झूठा निकले तो उल्टा शिकायतकर्ता पर धारा 211 के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है.’ गौरव आगे बताते हैं, ‘बलात्कार के मामलों में दो तरह की गड़बड़ियां देखने को मिलती हैं. एक, प्रभावशाली लोगों के खिलाफ पुलिस मामला दर्ज ही नहीं करती. दूसरा, यदि रिपोर्ट दर्ज हो जाए तो पुलिस तुरंत ही आरोपित को गिरफ्तार कर लेती है. कानूनन प्रथम सूचना दर्ज करना अनिवार्य है, गिरफ्तारी नहीं. ऐसी गिरफ्तारी ही बलात्कार संबंधी कानूनों के दुरूपयोग को जन्म देती है.’
बीते कुछ समय में ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं जहां बलात्कार के आरोप कई बड़े नामों पर लगे हैं. लेकिन इन सभी में व्यक्तियों के अनुसार कानून को बदलते भी साफ देखा जा सकता है. मसलन तरुण तेजपाल पर जब आरोप लगा था तो पीड़िता के पुलिस तक पहुंचने से पहले ही गिरफ्तारी की मांग शुरू हो गई थी और जल्द ही गिरफ्तारी भी हुई. वहीं जब ऐसा ही आरोप जस्टिस गांगुली पर लगा तो गिरफ्तारी तो दूर उन्होंने मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद से इस्तीफा तक नहीं दिया. ठीक ऐसे ही जब आसाराम ने न्यायालय से अपने मामले की मीडिया रिपोर्टिंग पर रोक लगाने की मांग की तो न्यायालय ने उनकी मांग को ठुकरा दिया. वहीं जब सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश पर बलात्कार का आरोप लगा तो सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं ही मीडिया को आरोपित का नाम तक प्रकाशित करने से प्रतिबंधित कर दिया.
गिरफ्तारी के संबंध में ‘अमरावती बनाम उत्तर प्रदेश राज्य’ का फैसला बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है. यह फैसला इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा 2004 में दिया गया था. जस्टिस मार्कंडेय काट्जू की अध्यक्षता में सात न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने इस फैसले में कहा था, ‘दुर्भाग्यवश हमारे देश में जब भी किसी संज्ञेय अपराध की सूचना दर्ज होती है तो पुलिस तुरंत जाकर आरोपित को गिरफ्तार कर लेती है. हमारी नजर में ऐसा करना गैर कानूनी है. यह संविधान के अनच्छेद 21 में दिए गए मौलिक अधिकार का भी हनन है.’ इसी फैसले में संवैधानिक पीठ ने कहा है, ‘यदि प्रथम सूचना रिपोर्ट या शिकायत में संज्ञेय अपराध के होने की बात का खुलासा होता भी है तो भी गिरफ्तारी अनिवार्य नहीं है.’ इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय भी सही ठहरा चुका है. लेकिन इस फैसले में दिए गए निर्देश किताबों तक ही सिमट कर रह गए हैं.
पुरुष अधिकारों के लिए काम करने वाली एक संस्था ‘सेव इंडियन फैमिली फाउन्डेशन’ के संस्थापक सदस्य राजेश वखारिया बताते हैं, ‘सिर्फ लड़की के बयान को ही परम सत्य मानते हुए आरोपित को गिरफ्तार करना एकदम गलत है. लेकिन आज सारे देश में यही होता है. इसमें मीडिया भी दोषी है. आरोप लगते ही मीडिया किसी को भी बलात्कारी घोषित कर देता है. ऐसे में जज पर भी इतना सामाजिक दबाव बन जाता है कि वे आसानी से जमानत भी नहीं देते. यही सब बातें झूठे बलात्कार के मामले दर्ज करने वालों को बढ़ावा देती हैं. ऐसे लोग जानते हैं कि उनकी एक शिकायत भर से आरोपित तुरंत गिरफ्तार होगा और उसे जमानत भी नहीं मिलेगी.’ राजेश आगे बताते हैं, ‘निर्भया मामले के बाद कानूनों को एक-तरफा मजबूती दी गई है. इससे फर्जी मामलों की बाड़ सी आ गई है.’
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े भी राजेश की इन बातों का काफी हद तक समर्थन करते हैं. दिल्ली में 2012 में जहां बलात्कार के मामलों में 46 प्रतिशत लोग ही बरी हुए थे वहीं 2013 के शुरुआती आठ महीनों में यह आंकड़ा बढ़कर 75 प्रतिशत हो गया. इसका मतलब है कि इस दौरान दिल्ली में सिर्फ 25 प्रतिशत आरोपितों को ही सजा हुई है और बाकी सब बरी हुए हैं. हालांकि इन आंकडों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि बरी होने वाले सभी 75 प्रतिशत मामले झूठे ही थे. लेकिन कई न्यायाधीशों के फैसलों और टिप्पणियों से झूठे मामलों की पुख्ता जानकारी जरूर मिलती है.
दिल्ली के एक अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश वीरेंद्र भट्ट ने तो कुछ समय पहले यह तक कहा था कि दिल्ली इसलिए ‘रेप कैपिटल’ कहलाती है क्योंकि यहां झूठे बलात्कार के कई मामले दर्ज होते हैं. इसका कारण बताते हुए राजेश वखारिया कहते हैं, ‘जस्टिस वर्मा कमेटी के सुझावों पर जो संशोधन कानून में किए गए हैं वो विवेकशील नहीं बल्कि भावनात्मक होकर किए गए.’ निर्भया मामले के बाद जब सारा देश बलात्कार संबंधी कानूनों को कठोर करने की मांग कर रहा था तब भी राजेश और उनकी संस्था के लोग यह बात उठा रहे थे कि इन कानूनों को ऐसा न बना दिया जाए कि इनका दुरूपयोग बढ़ जाए. राजेश बताते हैं, ‘हमने हजारों सुझाव वर्मा कमेटी को भेजे थे. हमारी मुख्य मांग थी कि बलात्कार और यौन अपराधों के कानून लैंगिक आधार पर तटस्थ हों. साथ ही बलात्कार के झूठे मुकदमे करने वालों को भी सजा देने का प्रावधान बने. लेकिन उस वक्त सारा देश भावनाओं में बहकर कुछ सुनना नहीं चाहता था. आज परिणाम सबके सामने हैं.’ बलात्कार के झूठे मामलों पर टिप्पणी करते हुए इसी साल दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जीपी मित्तल ने कहा था, ‘बलात्कार पीड़िता को बहुत ज्यादा पीड़ा और अपमान सहना पड़ता है. लेकिन ठीक इसी तरह बलात्कार के झूठे आरोप लगाए जाने पर आरोपित को भी उतनी ही पीड़ा और अपमान का सामना करना पड़ता है. झूठे बलात्कार के मुकदमों से किसी आरोपित को बचाने की भी पूरी कोशिश की जानी चाहिए.’
मई 2013 में दिल्ली उच्च न्यायालय के जस्टिस कैलाश गंभीर ने भी यह माना है कि ‘बलात्कार संबंधी कानूनों को दुर्भावना से एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है.’ जस्टिस गंभीर के इस बयान का समर्थन करते दर्जनों मामले पिछले कुछ समय में सामने भी आए हैं. इसी साल दिल्ली के एक युवक को बलात्कार के आरोप से बरी करते हुए अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश वीरेंद्र भट्ट ने कहा था, ‘बलात्कार के झूठे आरोप में फंसे व्यक्ति को राज्य द्वारा या शिकायतकर्ता द्वारा मुआवजा दिए जाने की व्यवस्था होनी चाहिए.’ इस मामले में आरोपित व्यक्ति पर उसकी मकान मालकिन द्वारा बलात्कार का आरोप लगाया गया था. बाद में महिला ने यह स्वीकार किया कि उसने यह आरोप इसलिए लगाया क्योंकि उसके पति को आरोपित से उसके संबंधों के बारे में पता चल गया था. राजेश वखारिया बताते हैं, ‘यह कमी हमारे कानून की ही है कि कोई महिला अपनी सहमति से संबंध बनाने के बाद कभी भी बलात्कार का मुकदमा करने के लिए आजाद है. बलात्कार के ज्यादातर फर्जी मामले ऐसे ही हैं जहां पहले तो लड़का-लड़की साथ रहते हैं और बाद में यदि उनके रिश्ते में खटास आई तो लड़की बलात्कार का मुकदमा कर देती है.’ राजेश आगे कहते हैं, ‘आजकल लाखों युवा लिव-इन में रहते हैं. ऐसे में यदि लड़की शादी से इनकार कर दे तो सब ठीक रहता है. लेकिन लड़के ने शादी से इनकार किया तो लड़की मुकदमा कर देती है और लड़का बलात्कारी हो जाता है. यदि लड़कों को भी ऐसे मामले में लड़कियों पर बलात्कार का मुकदमा करने का अधिकार हो तो उतनी ही लड़कियां भी बलात्कारी घोषित हो सकती हैं.’
शादी के वादे से मुकरने पर बलात्कार का मुकदमा दर्ज होने के सैकड़ों मामले इन दिनों न्यायालयों में लंबित हैं. इस मामले में न्यायाधीशों की राय भी अलग-अलग हैं. बीते दिसंबर ऐसे ही एक मामले में आरोपित को बरी करते हुए अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेश शर्मा ने माना था कि ‘जब आरोपित को लड़की की कुछ अनुचित बातों का पता लगा तो उसके पास शादी से इनकार करने का वाजिब कारण था.’ दूसरी तरफ ऐसे भी कई मामले हैं जहां शादी का वादा करके शारीरिक संबंध बनाने और बाद में शादी से इनकार करने को न्यायाधीशों ने बलात्कार माना है. इसके अलावा ऐसे मामलों की भी लंबी-चौड़ी सूची मौजूद है जहां पैसे ऐंठने, बकाया वसूलने, जमीन जायदाद के झगड़े निपटाने या विवाहेत्तर संबंधों के कारण बलात्कार के झूठे मुकदमे दर्ज किए गए हों. दिल्ली में ही न्यायाधीश रेनू भटनागर ने पिछले साल एक ऐसे आरोपित को बलात्कार के मुकदमे में बरी किया था. इस मामले में जमीन के झगड़े के चलते आरोपित पर बलात्कार का झूठा मुकदमा दर्ज किया गया था.
कानून के दुरुपयोग पर अधिवक्ता गौरव गर्ग बताते हैं, ‘बलात्कार के मामलों में सहमति सबसे अहम मुद्दा होता है. ऐसे मामलों में कानून का दुरुपयोग भी उसे ही कहा जाता है जब सहमति से संबंध बनाने के बाद महिला इस बात से मुकर जाए कि उसने सहमति दी थी. या महिला यह कहे कि उसकी सहमति किसी दबाव में या किसी झूठे वादे के चलते ली गई थी. अधिकतर मामलों में आरोपितों के बरी होने का भी यही कारण है. न्यायालय में जिरह के दौरान या तो पीड़िता स्वयं ही यह स्वीकार कर लेती है या किसी अन्य माध्यम से यह साबित हो जाता है कि उसने स्वयं ही सहमति दी थी.’
इस संबंध में मनोवैज्ञानिक रजत मित्रा एक साक्षात्कार में बताते हैं, ‘अधिकतर बलात्कार के मामलों में पीड़िता परामर्श के दौरान यह बात स्वीकार कर लेती है कि उसने संबंध बनाने की सहमति दी थी. लेकिन यही बात वे अपने माता-पिता के सामने स्वीकार नहीं कर पातीं.’ वखारिया इस बारे में कहते हैं, ‘सहमति से संबंध बनाने के बाद महिलाएं कई कारणों से बाद में मुकर जाती हैं. समाज का डर, माता-पिता का दबाव या विवाहेत्तर संबंधों में पति को ऐसे रिश्तों का पता चलने पर कई महिलाएं बलात्कार का आरोप लगाने को ही आसान विकल्प के तौर पर चुन लेती हैं.’ राजेश आगे बताते हैं, ‘बलात्कार बहुत ही गंभीर अपराध है. लेकिन इसका झूठा आरोप लगाना भी उतना ही बड़ा अपराध है. इससे आरोपित का जीवन तो हमेशा के लिए प्रभावित होता ही है साथ ही न्यायालय में मुकदमों की संख्या में भी अनावश्यक बढ़ोत्तरी होती है. ऐसे में उन लोगों को न्याय मिलने की भी उम्मीद कम हो जाती है जिनके साथ सच में ये भयानक हादसे होते हैं. हमारी संस्था इसीलिए यह मांग करती आई है कि बलात्कार के झूठे मामले दर्ज करने वालों को गंभीर सजा मिलनी चाहिए. इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हर उस मामले में शिकायतकर्ता को सजा हो जाए जिसमें आरोप सिद्ध न हुए हों. लेकिन जिन मामलों में यह साफ साबित हो कि पूरा आरोप या मुकदमा ही झूठा था वहां तो सख्त सजा होनी ही चाहिए. जब तक हमारे कानून संतुलित नहीं होंगे तब तक उनका उपयोग भी संतुलित नहीं हो सकता.’
बलात्कार संबंधी कानूनों में भले ही संतुलन न हो लेकिन हरप्रीत कौर का मामला कई तरह से संतुलित जरूर है. एक तरफ हरप्रीत महीनों से जंतर मंतर पर बैठी हैं लेकिन न्यायालय जाकर अपनी शिकायत दर्ज नहीं करवाती. दूसरी तरफ नौनिहाल सिंह भी एक-एक कर सभी जांच अधिकारियों को अपना जवाब देते हैं लेकिन हरप्रीत पर मानहानि का मुकदमा नहीं करते. शायद इसलिए कि इस विचित्र मामले में इससे आगे बढ़ने पर दोनों ही पक्षों की हार है.
बसपा नेता वेदपाल तंवर के हिसार फार्महाउस में स्थित विस्थापितों के कैंप. फोटो: विकास कुमार
हिसार के पश्चिमी छोर पर स्थित एक विशाल फॉर्महाउस विरोधाभासों की जमीन है. इसके आधे हिस्से में एक शानदार कोठी, लॉन और पोर्टिको बने हैं जबकि बाकी का आधा हिस्सा बेतरतीब काली पॉलीथीन से ढंकी करीब 60-70 झुग्गियों से पटा हुआ है. जहां-तहां पानी के गड्ढे हैं जिनमें मच्छर और मक्खियां बहुतायत में पल-बढ़ रहे हैं. इसी झुग्गी बस्ती में अपनी कुछ मुर्गियों और दो सुअरों के साथ 80 साल के सूबे सिंह एक आम के पेड़ के नीचे अपनी खटिया डाले मिलते हैं. पिछले साढ़े तीन साल से यही उनका ठिकाना है. यहां आने से पहले वे हिसार से लगभग 60 किलोमीटर दूर मिर्चपुर गांव में रहते थे. वहां इनका पैतृक आवास था, आज भी है, लेकिन अब वहां कोई रहता नहीं. मिर्चपुर के पैतृक आवास से हिसार के फार्महाउस तक आने की कहानी बताते हुए 80 साल के इस बुजुर्ग की लिजलिजी आंखों में भय और आतंक का एक पूरा दौर गुजर जाता है.
21 अप्रैल 2010 की बात है. सुबह सात बजे ही मिर्चपुर गांव में स्थित वाल्मीकि बस्ती को गांव के ताकतवर जाटों ने घेर लिया था. सूबे सिंह उस रात अपने एक मंजिला घर की छत पर सोए थे. सुबह जब उन्होंने इस घेरेबंदी को देखा तो छत से नीचे उतरने की बजाय सीढ़ी की कुंडी बंद करके छत पर ही एकांत में दुबक गए. बाहर हजारों की संख्या में मौजूद जाटों की भीड़ आक्रामक होती जा रही थी. बूढ़े सूबे सिंह दुबक कर छत के एक कोने में अपने भगवान को याद कर रहे थे. साढ़े दस बजते-बजते इस उन्मादी भीड़ ने घरों के ऊपर मिट्टी का तेल और डीजल छिड़क कर उनमें आग लगाना शुरू कर दिया. आग में घिरा एक घर सूबे सिंह का भी था. जब लपटें ऊपर उठने लगीं तब सूबे सिंह जान बचाने के लिए चिल्लाने लगे. उनकी आवाज सुनकर उन्मादी भीड़ के कुछ लोग छत से उन्हें घसीटते हुए नीचे ले आए और उनके ऊपर भी मिट्टी के तेल से भरा कनस्तर उड़ेल दिया. यह सब गांव के सामने हो रहा था. सूबे सिंह की जान खतरे में देखकर कुछ वाल्मीकि युवकों ने हिम्मत कर भीड़ से लोहा लिया और किसी तरह उन्हें भीड़ से छुड़ाकर सुरक्षित स्थान पर ले गए.
इस दौरान बस्ती के बाकी दूसरे घर भी धू-धू कर जलने लगे थे. इन्हीं में एक घर बजुर्ग ताराचंद का था जो अपनी 18 साल की विकलांग बेटी सुमन के साथ घर पर ही छूट गए थे. ताराचंद के तीन बेटों समेत गांव के ज्यादातर लोगों ने एक सुरक्षित घर में शरण ले रखी थी. 42 वर्षीय रमेश कुमार बताते हैं, ‘भीड़ जब घरों में आग लगाकर छंटने लगी तब हम लोग वापस अपने घरों की तरफ गए. तारांचद और उनकी बेटी सुमन की जली हुई लाश उनके घर में ही पड़ी हुई थी. भीड़ ने उन्हें जलाकर मार दिया था.’
इस घटना के बाद मिर्चपुर के लगभग डेढ़ सौ दलित परिवारों ने गांव छोड़ दिया. कुछ अपने रिश्तेदारों के यहां चले गए कुछ हिसार आ गए. हिसार में बसपा नेता वेदपाल तंवर ने इन परिवारों को अपने फॉर्म हाउस में रहने के लिए जगह दी. शुरुआत के दिनों में उन्होंने इनके खाने-पीने का भी इंतजाम किया. इसी फार्महाउस का जिक्र ऊपर आया है. आज भी इस फार्महाउस में मिर्चपुर के 80 दलित परिवार रह रहे हैं. लगभग 35 परिवारों ने अपने रिश्तेदारों और दूसरे शहरों में शरण ले रखी है. कोई भी वापस मिर्चपुर नहीं जाना चाहता. सूबेसिंह के शब्दों में, ‘मेरे जीने और मरने के बीच माचिस की एक तीली का अंतर था. आप मुझसे उनके बीच वापस जाने के लिए कह रहे हैं. वे न तो हमसे बोलते हैं, न हमारे साथ उठते-बैठते हैं. वे धमकियां भी देते रहते हैं. तो हम गांव में जाकर क्या करेंगे. हम सरकार से चाहते हैं कि हमें अलग से कहीं जमीन देकर बसा दिया जाए.’
मिर्चपुर की घटना ने हरियाणा से लेकर दिल्ली तक हड़कंप मचा दिया था. कह सकते हैं कि यह घटना सदियों से दलित समाज के साथ हो रहे दुर्व्यवहार का ही एक और नमूना थी लेकिन इसके कुछ और भी संदेश थे. पहले से ही गांवों में दलित-बस्तियां अलग-थलग होती थीं लेकिन इस घटना ने बताया कि वहां के सवर्ण, दलितों को रहने के लिए अलग-थलग जगह भी देने को तैयार नहीं थे.
घटना से दो दिन पहले 19 अप्रैल 2010 को रात में आठ बजे के करीब जाट बिरादरी के कुछ लड़के वाल्मीकि बस्ती से गुजर रहे थे. उन्हें देखकर करण सिंह वाल्मीकि के कुत्ते ने भोंकना शुरू कर दिया. इससे नाराज होकर जाट लड़कों ने कुत्ते को पत्थर मारना शुरू कर दिया. पत्थर मारने वालों में राजेंदर, ऋषि और सोनू के नाम सामने आए. जाट लड़कों के इस कृत्य का योगेश वाल्मीकि ने विरोध किया. जाट लड़कों ने योगेश को पीटना शुरू कर दिया. करण सिंह ने किसी तरह से जाटों को शांत करके वापस भेजा. जाट संतुष्ट नहीं हुए. अगले दिन उन्होंने दलितों से माफी की मांग की. इस पर करण सिंह और बीरभान जाटों से माफी मांगने के लिए पहुंचे. पर जाट मानने को तैयार नहीं हुए. वहां एक बार फिर से जाटों ने करण सिंह और बीरभान की जमकर पिटाई कर दी. इस मारपीट में बीरभान को इतनी गंभीर चोटें आई कि उसे हिसार के सरकारी अस्पताल में ले जाना पड़ा. इसके बाद अगले दिन यानी 21 अप्रैल को गांव के जाटों ने सुबह से ही दलित बस्ती के ऊपर अपनी ताकत का नंगा नाच शुरू कर दिया. घर लूटे गए, 19 घरों को जलाकर राख कर दिया गया, 20 लोगों को गंभीर चोटें आईं, दो लोगों की मौत हो गई. पर जाटों का गुस्सा और इच्छा अभी पूरी नहीं हुई थी. 24 अप्रैल को अपने तालिबानी फैसलों के लिए बदनाम इलाके की 42 खापों ने मिलकर घोषणा की कि इस मामले में गिरफ्तार 35 जाटों को नहीं छोड़ा गया तो नौ मई को वे सरकार के खिलाफ बड़ा आंदोलन छेड़ेंगे.
इसके बाद यह मामला पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया, देश भर की मीडिया मिर्चपुर की ओर दौड़ पड़ा. मामला अदालत में पहुंच गया. मामले से जुड़े चश्मदीदों को जाटों ने डराना-धमकाना शुरू कर दिया. इस पर दलितों की पैरवी कर रहे वकील रजत कल्सना ने सर्वोच्च न्यायालय से मामले की निष्पक्ष सुनवाई के लिए मामले को हरियाणा से बाहर स्थानांतरित करने की मांग की. सर्वोच्च न्यायालय ने मामला दिल्ली में शिफ्ट कर दिया. दिल्ली की रोहिणी अदालत ने 24 सितंबर 2011 को इस मामले का निर्णय सुना दिया. इस मामले में कुल 97 अभियुक्त थे. कोर्ट ने 15 को दोषी करार दिया, बाकी 82 अभियुक्तों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया. इन 15 दोषियों में से तीन आरोपियों को आजीवन कारावास की, पांच को पांच साल की और सात आरोपियों को दो-दो साल की सजा हुई है.
कानूनी तौर पर एक कदम आगे बढ़ जाने के बावजूद इस मामले की कई गिरहें अभी खुलनी बाकी हैं. रजत कल्सन जिन्हें इस मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए एक सु्रक्षा गार्ड मिला हुआ है, बताते हैं, ‘हमने मामले की अपील उच्च न्यायालय में की है. उच्च न्यायालय ने बरी कर दिए गए 82 में से 57 अभियुक्तों को दोबारा से नोटिस जारी किया है. इतने बड़े पैमाने पर हुई घटना को सिर्फ 15 लोग अंजाम नहीं दे सकते हैं.’
इस आपराधिक मामले के अलावा मिर्चपुर कांड से जुड़ा एक और मामला सर्वोच्च न्यायालय में चल रहा है. यह पीड़ितों के पुनर्वास और मुआवजे से जुड़ा है. सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर राज्य सरकार ने कुछ पीड़ितों को नौकरी और नकद मुआवजा देने जैसी औपचारिकताएं पूरी कर दी हैं. जो घर फूंक दिए गए थे उनका भी निर्माण कर दिया गया है. लेकिन उनमें रहने को कोई तैयार नहीं. चूंकि इस घटना में एक ही परिवार के दो लोगों की मौत हुई थी इसलिए मृतक ताराचंद के तीनों बेटों को तो सरकारी नौकरियां मिल चुकी हैं. लेकिन बाकियों के रोजगार की कोई व्यवस्था नहीं की गई है. जिन 4-6 और लोगों को नौकरियां मिली हैं वे अस्थायी हैं. यह एक बड़ी वजह है जिसके चलते वेदपाल तंवर के फार्म हाउस और अपने रिश्तेदारों के यहां रह रहे लोग वापस अपने घरों में लौटने के लिए तैयार नहीं हैं.
वेदपाल तंवर बताते हैं, ‘हरियाणा के गांवों का मिजाज देश के बाकी हिस्सों से अलग है. यहां एक तबका बहुत ज्यादा संपंन और सक्षम है तो दूसरा बिल्कुल भूमिहीन और हाशिए पर है. ये दलित हैं जिनकी आजीविका पूरी तरह से जाटों के ऊपर निर्भर है. जब जाट इन्हें कोई काम नहीं देगें अपने खेतों पर तो ये लोग गांव में खाएंगे क्या. इनकी आजीविका का संकट है. जाटों की खापें इतनी प्रभावशाली हैं कि उनके खिलाफ कोई जा नहीं सकता. खापों ने इनके बहिष्कार की घोषणा कर रखी है. इसलिए इनकी मांग है कि इन्हें हिसार के आस-पास कहीं बसा दिया जाय. पर राज्य सरकार इसके लिए तैयार नहीं है.’
हरियाणा की सरकार दलितों को किसी भी कीमत पर अलग से बसाने के लिए तैयार नहीं है. उसका दबाव है कि दलित एक बार फिर से मिर्चपुर के अपने पैतृक गांव वापस लौट जाएं. रजत कल्सन बताते हैं, ‘हरियाणा सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में कहा है कि उसने मिर्चपुर के पीड़ितों के पुनर्वास पर 19 करोड़ खर्च किए हैं. इसकी सच्चाई यह है कि इनमें से 15 करोड़ रुपया सीआरपीएफ और पुलिस की तैनाती पर खर्च किए गए हैं. एक करोड़ कानून व्यवस्था से जुड़े दूसरे एहतियाती उपायों पर खर्च हुए हैं. बाकी तीन करोड़ दलितों के पुनर्वास और मुआवजे पर खर्च हुए हैं. इनमें भी मोटी रकम उन अस्थायी सुविधाओं के ऊपर खर्च हुई है जिनका आदेश कोर्ट ने शुरुआत में विस्थापितों की स्थायी व्यवस्था होने तक के लिए दिया था. हरियाणा सरकार ने पांच लाख रुपये प्रति सुनवाई पर अभिषेक मनु सिंघवी को इस मामले में वकील नियुक्त कर रखा है. जितना समय और पैसा हरियाणा सरकार केस लड़ने पर व्यय कर रही है उतने में इन दलितों का अच्छे से पुनर्वास हो जाता.’
कांग्रेस की स्थिति इस मामले में विचित्र और विरोधाभासी है. अभिषेक मनु सिंघवी इस मामले में कोर्ट में हरियाणा सरकार की तरफ से लड़ रहे हैं. दूसरी तरफ कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी मिर्चपुर जाकर वहां के पीड़ितों को हर संभव सहायता करने का आश्वासन दे चुके हैं. हालांकि राहुल गांधी के दौरे का नतीजा उनके बाकी दौरों की तरह ही बेनतीजा रहा है. इससे ज्यादा विचित्र स्थिति हरियाणा के मुख्यमंत्री भुपेंदर सिंह हुड्डा की है. मुख्यमंत्री स्वयं जाट बिरादरी से आते हैं लिहाजा जातिगत समीकरणों के मद्देनजर इतनी बड़ी अमानवीय घटना के बावजूद उन्होंने मिर्चपुर का दौरा करना तक मुनासिब नहीं समझा. साथ ही वे ऐसा कोई कदम उठाते हुए भी दिखना नहीं चाहते जिससे जाटों में उनके प्रति कोई नाराजगी पैदा हो.
मिर्चपुर वापस न लौटने की एक वजह दलितों में असुरक्षा की जबर्दस्त भावना भी है. पिछले साल भर के दौरान दो घटनाएं ऐसी हुई हैं जिसने मिर्चपुर के दलितों में भय का माहौल और बढ़ा दिया है. इस मामले में अभियोजन पक्ष के दो गवाहों की संदिग्ध हालत में मौत हो चुकी है. 23 वर्षीय विक्की पुत्र धूप सिंह की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई. विक्की ने इस मामले के कुल चालीस अभियुक्तों की शिनाख्त कोर्ट में की थी. इसी मामले के एक अन्य गवाह संजय पुत्र राजा की भी संदिग्ध हालात में मौत हो चुकी है. संजय अच्छा-भला रात में सोया और सुबह उसकी लाश मिली. इतने संदेनशील मामले में गवाह होने और मौत की परिस्थितियां संदिग्ध होने के बावजूद संजय का पोस्टमार्टम करवाए बिना अंतिम संस्कार कर दिया गया.
प्रसिद्ध जनवादी कवि अदम गोंडवी ने लखनऊ में एक मुलाकात के दौरान कहा था- ‘हिंदुस्तान के गांवों की जात उनकी सड़कों पर लिखी होती है, बस पढ़ने वाली नजर चाहिए.’ मिर्चपुर गांव उनकी बात पर सौ टका खरा उतरता है. हिसार-जींद मार्ग पर स्थिति मिर्चपुर गांव में जाने के दो रास्ते हैं. एक रास्ता सीधा वाल्मीकि बस्ती को जाता है और दूसरा जाटों की बस्ती से होकर जाता है. गांव के आखिरी सिरे पर दोनों मिल जाते हैं. इन दोनों सड़कों पर दलित और सवर्ण का अंतर पूरी नग्नता से मौजूद है. दलित बस्ती से होकर जाने वाली सड़क कच्ची, धूलभरी है. इस सड़क पर जगह-जगह कीचड़ भरा है, नाला मुख्य सड़क पर बह रहा है, दुर्गंध का भभका उठ रहा है. जाटों के मुहल्ले से जाती सड़क कंक्रीट की बनी है. नालियां व्यवस्थित हैं, सड़क साफ-सुथरी है. एक और बात पूरे गांव के नाले दलित बस्ती के किनारे मौजूद एक पोखरे में गिरते हैं, जहां से दुर्गंध लगातार उठती रहती है.
साल 2010 में मिर्चपूर में जलाया गया एक दलित का घर
इसी गांव में चार साल पहले एक तूफान आया था जिसकी कई निशानियां यहां आज भी मौजूद हैं. पलायन के कारण ऐसे तमाम घर हैं जिनके घरों के दरवाजे बंद पड़े हैं. सीआरपीएफ के जवान यहां किसी दुश्मन के इंतजार में अपने बंकरों में हथियार ताने तैनात हैं. घटना के बाद से ही गांव में सीआरपीएफ तैनात कर दी गई थी जो अब तक जारी है. गांव में करीब चालीस परिवार या तो रह गए थे या सरकार के भरोसा दिलाने पर वापस लौट आए हैं. पर सबका कहना यही है कि जब तक सीआरपीएफ यहां है तभी तक हम लोग यहां रहेंगे. 28 वर्षीय कुलदीप कहते हैं, ‘हमें जाटों पर कोई भरोसा नहीं है. अगर सीआरपीएफ यहां से जाएगी तो हम भी चले जाएंगे.’ ऐसा पहले हो भी चुका है. साल भर पहले तत्कालीन एसपी ने सीआरपीएफ को हटाने की घोषणा कर दी थी. पीछे-पीछे सारे परिवार भी अपना बोरिया-बिस्तर लेकर चल पड़े थे. बड़ी मुश्किल से एसपी ने उन्हें मनाया और सीआरपीएफ को वापस तैनात करना पड़ा. पूरी दलित बस्ती के चारों तरफ सीआरपीएफ ने अपने बंकर बनाकर उसे घेर रखा है.
मिर्चपुर के जाटों का पक्ष बिल्कुल अलहदा है. गांव की सरपंच कमलेश कुमारी के पति प्रेम ढांडा जो एक दिन पहले ही किसी मामले में जेल से छूटकर आए हैं, बताते हैं, ‘हमें दलितों से कोई दिक्कत नहीं है. जो लोग गांव से बाहर रह रहे हैं वे अपनी इच्छा से रह रहे हैं. जैसे आप रोजी-रोटी के लिए अपना घर छोड़कर इतनी दूर दिल्ली आए हो उसी तरह यहां के दलित भी हिसार में रोजी-रोटी के लिए रहते हैं.’
सरपंच के आवास पर ही मौजूद कुछ दूसरे जाट युवकों से बातचीत में एक ही कहानी सामने आती है कि वाल्मीकि टोले के लोगों ने खुद ही अपने घरों में आग लगा दी. पैसे के लालच में उन्होंने ऐसा किया. इसी लालच में घर छोड़कर हिसार में रह रहे हैं. हमारे लोगों को फर्जी फंसा दिया गया है. हमारा गांव सबसे पढ़ा-लिखा गांव है. मिर्चपुर गांव से सबसे ज्यादा शिक्षक हरियाणा के स्कूलों में हैं. ये कहानियां घटना के चार साल बाद घटना के सभी कानूनी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए तैयार की गई हैं. जब गांव वालों से पूछा जाता है कि अगर आग खुद लगाई गई थी तो उसमें दो लोग मर क्यों गए तो वे कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पाते. हम गांव में जहां भी जाते हैं हमारे सभी सवालों के एक जैसे रटे-रटाए जवाबों से सामना होता है.
गांव वालों का एक आरोप यह भी है कि वहां हिसार में उनका एक नेता है वेदपाल तंवर. उसने राजनीति के लिए वाल्मीकियों को अपने पास रख छोड़ा है. वेदपाल तंवर इस आरोप के जवाब में कहते हैं, ‘मेरा इसमें कोई हित नहीं है. मैं तो इस इलाके से चुनाव भी नहीं लड़ता हूं. मेरा तो इसमें सिर्फ नुकसान ही हुआ है. जिस जमीन पर लाखों की खेती होती थी उस पर अब इन लोगों के घर हैं. मुझे तो एक भी चवन्नी नहीं मिलती किसी से.’
एक फौरी मुआयना करने पर हम पाते हैं कि हिसार और जींद के आस-पास का इलाका दलितों के खिलाफ अत्याचार का केंद्र बनकर उभरा है. कुछ दिन पहले ही हिसार के भगाणा गांव की चार दलित युवतियों को अगवा करके उनके साथ सामूहिक बलात्कार की भयावह घटना सामने आई थी. ये लड़कियां न्याय की आस में फिलहाल दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना दे रही हैं. कुछ माह पहले हिसार के ही एक गांव की एक दलित लड़की अपनी भैंस लेकर जाटों के घर के सामने से गुजर रही थी. इस बात पर एक जाट युवक को गुस्सा आ गया और उसने लड़की को तालाब में धक्का दे दिया जिससे लड़की की पानी में डूबकर मृत्यु हो गई.
गुड़गांव स्थित गुरू द्रोणाचार्य कॉलेज में समाजशास्त्र विभाग के प्रोफेसर भूप सिंह इन घटनाओं के मनोविज्ञान और उनकी सामाजिकता को दिलचस्प अंदाज में सामने रखते हैं, ‘यह हरियाणा की राजनीति के जाटाइजेशन और जाटों के हनुमानाइजेशन का नतीजा है. भजन लाल और बंसीलाल के अवसान के बाद हरियाणा की राजनीति में जाट प्रभुत्व बढ़ा है. जाटों के दबाव में राजनीतिक पार्टियां दूसरे सभी तबकों को नजंरअंदाज करती जा रही हैं. समस्या पिछले दो-ढाई दशकों में और भी गंभीर हुई है. परंपरागत रूप से दलित भूमिहीन थे और जाटों के ऊपर निर्भर थे. दो-तीन दशकों के दरम्यान दलित वर्ग संपंन और शिक्षित हुआ है, सरकारी नौकरियों से उनमें आत्मनिर्भरता भी बढ़ी है और दलितों ने गांव छोड़कर शहरों की तरफ बड़ी संख्या में पलायन भी किया है. इसके परिणामस्वरूप युवा दलितों का एक ऐसा वर्ग तैयार हो गया है जो किसी भी तरह के अपमान या दुर्व्यवहार का पलट कर जवाब दे देता है. रूढ़िवादी जाट समाज इस बदलाव को स्वीकार नहीं कर पा रहा है. फलस्वरूप वो इस तरह की अमानवीय प्रतिक्रिया कर रहा है.’
इन्हीं वर्षों के दौरान जाटों में धार्मिकता का प्रभाव भी काफी बढ़ा है. परंपरागत रूप से जाट पहले कभी अपनी धार्मिकता को लेकर इतने सजग नहीं थे. लेकिन पिछले दो-तीन दशकों में आर्य समाज और संघ की लगातार कोशिशों ने जाटों में भी हिंदूवादी भावनाएं भरी हैं. प्रो भूपसिंह के शब्दों में, ‘संघ ने व्यवस्थित तरीके से जाटों के बीच में हनुमान को जाटों के देवता के रूप में स्थापित किया है.’ हिंदूवादी भावनाओं के बढ़ने के साथ ही जाटों में वर्णव्यवस्था की खामियां भी बढ़ीं हैं.
मिर्चपुर के वाल्मीकी बस्ती के पास तैनात सीआरपीएफ जवान. फोटो: विकास कुमार
जाटों की राजनीति पर कब्जा करने के लिए हरियाणा की दो राजनीतिक पार्टियों के बीच होड़ मची हुई है. मुख्यमंत्री भुपिंदर सिंह हुडा, जिन्होंने अपनी एक चुनावी सभा के दौरान घोषणा की थी कि उन्हें जाट होने पर गर्व है, ने एक अलिखित नियम बना रखा है. वे दलितों पर हुए किसी भी अत्याचार के मामले में पीड़ितों से मिलने की भी जहमत नहीं उठाते. जाहिर है कोर्ट के दबाव में जो करना है वह सरकार करती है. लेकिन खुद मुख्यमंत्री अपने लोगों (जाटों) के बीच ऐसा कोई संदेश नहीं देना चाहते कि वे जात के खिलाफ काम कर रहे हैं.
दूसरी तरफ इंडियन नेशनल लोकदल है. इसके दो शीर्ष नेता ओमप्रकाश चौटाला और अजय चौटाला इस समय जेल में हैं. इनकी पूरी राजनीति ही जाटों के इर्द-गिर्द घूमती है. हिसार से इस चुनाव में ओमप्रकाश चौटाला के पौत्र दुष्यंत चौटाला चुनाव लड़ रहे हैं. यह पूरा निर्वाचन क्षेत्र जाट बहुल है. मिर्चपुर लौट आए कुछ दलित परिवारों में एक 35 वर्षीय दलशेर का भी है. दलशेर इस समय एक अदृश्य खतरे से डरे हुए हैं. वे कहते हैं, ’16 मई के बाद हमारे लिए स्थितियां खराब हो सकती हैं. अगर दुष्यंत चौटाला चुनाव हार जाता है तो जाट हमारा जीना मुहाल कर देंगे.’ इस अतिशय जाटवादी राजनीति का साइड इफेक्ट भी राजनीतिक पार्टियों पर पड़ रहा है. फिलहाल कांग्रेस की स्थिति ज्यादा सोचनीय है. जाट से इतर जातियों के कई नेता पार्टी का साथ छोड़ चुके हैं क्योंकि उन्हें अपने लोगों के बीच जवाब देना दुष्कर सिद्ध हो रहा था. इनमें राव इंद्रजीत सिंह, विनोद शर्मा, धर्मवीर और गोपाल कांडा जैसे तमाम नेता शामिल हैं.
कुछ बातें हमारे संविधान में लिखी हुई है और हमने उन बातों को संविधान के पन्नों तक ही सीमित कर दिया है. जाति, धर्म-संप्रदाय के लिए हमारे संविधान में भले ही कोई जगह नहीं हो लेकिन समाज में इसके लिए भरपूर उपजाऊ जमीन मौजूद है. जाति आज भी भारतीय समाज की कड़वी सच्चाई है. इसकी एक वजह यह भी है कि राजनीतिक स्तर पर जातिगत व्यवस्था को जड़ से उखाड़ने का कोई ईमानदार प्रयास हो ही नहीं रहा है. जाति तोड़ने का मुद्दा इस देश में कभी महंगाई, भ्रष्टाचार, सामाजिक न्याय जैसे मुद्दों की तरह राष्ट्रीय चुनावी मुद्दा नहीं बना. मिर्चपुर के मसले को ही देखें तो हम पाते हैं कि किसी भी बड़े राजनेता ने इस मुद्दे पर हरियाणा की विधानसभा या संसद भवन में सवाल तक
नहीं पूछा. चुनाव का मौसम है लेकिन अपनी जड़ों से उखड़े हुए 80 परिवारों के पास किसी भी राजनीतिक दल का प्रतिनिधि उनका पुरसाहाल लेने के लिए नहीं पहुंचा है. रमेश कुमार कहते हैं,
‘तब से पंचायत का चुनाव हो चुका है, लोकसभा का चुनाव हो चुका है लेकिन कोई नेता हमारे पास नहीं आता. जो हमारे पास आएगा उसे जाट वोट नहीं देंगे.’
आठ साल की साजिदा इतनी डरी हुई है कि हम उससे बात करें, उससे पहले ही वह दौड़कर एक टेंट में छिप जाती है. यह टेंट उस राहत शिविर का हिस्सा है जो असम के बक्सा जिले में बेकी नदी के किनारे एक जगह पर लगाया गया है. साजिदा यहां अपने अब्बा और एक बहन के साथ रह रही है. उसकी मां और एक छोटी बहन दो मई को इलाके में हुई हिंसा की भेंट चढ़ गए.
वह दोपहर बक्सा जिले के खगराबाड़ी और नारायणगुड़ी गांवों पर कहर बनकर टूटी. अचानक जंगलों से हथियारबंद लोग प्रकट हुए और अंधाधुंध गोलियां चलाने लगे. घबराए गांव वाले बेकी नदी के दूसरी पार बसे भंगरपार की तरफ भागे. बात करने की काफी कोशिशों के बाद साजिदा बताती है, ‘हम खाना खा रहे थे. अब्बा बाजार गए हुए थे. तभी अचानक धमाकों की आवाजें आने लगीं. हम बाहर निकले तो देखा कि कई घरों में आग लगी हुई है. मुंह पर काला नकाब लगाए लोगों की एक टोली तेजी से हमारी तरफ आ रही थी. ये लोग गोलियां चला रहे थे. मां ने मुझे और दो बहनों से चिल्लाकर कहा कि भागो. सब लोग बेकी नदी की तरफ भाग रहे थे. सो हम भी भागने लगे.’
इतना कहकर साजिदा रुक जाती है. यह स्वाभाविक ही है क्योंकि आगे क्या हुआ यह बताना उसके लिए सबसे पीड़ादायक अनुभव है. वह बताती है, ‘मैं भाग रही थी. पीछे मुड़कर देखा तो मां गिर गई थी. जब तक मैं कुछ समझती तब तक मेरी छोटी बहन अमीना भी मां के पास ही गिर गई. दोनों के बहुत खून निकल रहा था. मैंने अपनी दूसरी बहन हफीजा का हाथ पकड़ा और नदी में छलांग लगा दी. इसके बाद हम तैरकर दूसरी तरफ निकल आए.’
दो दिन तक चले इस खूनखराबे की सबसे बड़ी गाज बच्चों पर ही पड़ी. 40 से ज्यादा मृतकों में 20 बच्चे ही थे. अकेले बक्सा में ही 32 लोग मारे गए. तहलका ने इस जिले में लगाए गए एक राहत शिविर का दौरा किया जहां नारायणगुड़ी और खगराबाड़ी के करीब 500 लोग शरण लिए हुए हैं. साजिदा के अब्बा सैफुल इस्लाम कहते हैं, ‘हम लोग वापस नहीं जाना चाहते. शायद हम कभी जा भी नहीं पाएंगे. मैंने अपनी बीवी और बच्ची खो दी. लगभग हर घर में एक मौत हुई है. गैर बोडो लोगों के लिए यहां कोई सुरक्षा नहीं है.’
यहां से उनका मतलब बोडोलैंड टेरिटोरियल एरिया डिस्ट्रिक्ट्स यानी बीटीएडी से है. कोकराझार, चिरांग, बक्सा और उदलगुड़ी जिलों से मिलकर बना असम का यह हिस्सा काफी समय से जातीय और क्षेत्रीय तनाव की आग में झुलसता रहा है. लेकिन जो इस समस्या को सुलझा सकते हैं उन्होंने ऐसा करने की बजाय एक बड़ी हद तक इस तनाव से अपने राजनीतिक हित साधने की कोशिश की है. यानी आगे के आसार भी अच्छे नहीं हैं. स्थिति इसलिए भी और खराब होने की आशंका जताई जा रही है क्योंकि इस लोकसभा चुनाव में कोकराझार सीट पर एक गैरबोडो उम्मीदवार विजयी हुआ है. उल्फा के पूर्व सदस्य हीरा सरनिया ने बीटीएडी में पड़ने वाली इस लोकसभा सीट पर लंबे समय से कब्जा जमाए हुए बोडो पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) को मात दे दी है. इसके चलते बोडो और गैर बोडो गुटों के बीच टकराव का एक नया दौर शुरू हो सकता है.
2012 में भी बोडो आदिवासियों और बांग्लाभाषी मुसलमानों के बीच हुए खूनी टकराव में 100 से भी ज्यादा लोगों की जान चली गई थी और पांच लाख से भी ज्यादा लोगों को विस्थापित होना पड़ा था. इससे पहले ही नाजुक हो चुके बोडो और गैर बोडो समुदायों के संबंध और बिगड़ गए थे. हालिया हिंसा का दौर एक मई को शुरू हुआ जब बक्सा के एक दूरस्थ गांव में एक ही परिवार के तीन सदस्यों को गोली मार दी गई. ये सभी बांग्लाभाषी मुस्लिम समुदाय से थे. इस हमले के तुरंत बाद ही कोकराझार जिले के बालापाड़ा गांव में एक और हमला हुआ. यहां आठ लोगों की हत्या कर दी गई. यहां भी मरने वालों में ज्यादातर बांग्लाभाषी मुस्लिम समुदाय की महिलाएं और बच्चे थे. इससे संकेत मिला कि सब कुछ बहुत सोच समझकर किया जा रहा है. जल्द ही कोकराझार से 190 किमी दूर खगराबाड़ी से और ज्यादा शव बरामद किए गए.
इन बर्बर हत्याओं के पीछे गहरी राजनीतिक साजिश के संकेत मिल रहे हैं. सैफुल कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि जिस तरह से लोगों ने इस बार लोकसभा चुनाव में वोट दिया उसके चलते हम पर हमला हुआ. गैर बोडो लोगों में से ज्यादातर और खासकर मुस्लिम समुदाय ने गैर बोडो उम्मीदवार को वोट दिया. ये हमलावर बोडोलैंड लिबरेशन टाइगर्स (बीएलटी) के पूर्व सदस्य थे जिन्हें वन विभाग में नौकरियां मिल गई हैं. ये लोग बोडो पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) का समर्थन करते हैं जो इस चुनाव में हार गया है.’
बीटीएडी में ज्यादातर लोग हिंसा की इस हालिया कड़ी का कारण वही मानते हैं जो सैफुल को लगता है. 1952 से कोकराझार लोकसभा सीट पर बोडो उम्मीदवार ही जीतता रहा है. लेकिन इस बार गैरबोडो समुदायों ने एकमुश्त उल्फा के पूर्व कमांडर नबा सरनिया उर्फ हीरा सरनिया के पक्ष में वोट किया. उनको इलाके में रह रहे गैर बोडो लोगों के 21 जातीय और भाषाई समूहों से मिलकर बने संगठन सम्मिलित जनगोष्ठी एक्यमंच का समर्थन भी हासिल था.
2012 में हुई हिंसा के बाद बोडो और गैरबोडो लोगों के बीच की खाई और चौड़ी हो गई थी. 2013 में अलग तेलंगाना राज्य बनने के साथ अलग बोडोलैंड की पुरानी मांग ने फिर जोर पकड़ लिया. दरअसल एक अलग राज्य की मांग को लेकर 1987 में बोडोलैंड आंदोलन शुरू हुआ था. ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन (एबीएसयू) के उपेंद्रनाथ ब्रह्मा इसकी अगुवाई कर रहे थे. उनकी मांग थी कि असम को दो बराबर हिस्सों में बांटा जाए. आंदोलन को पहली सफलता 1993 में मिली. इस साल बोडोलैंड आटोनॉमस काउंसिल (बीएसी) बनी. लेकिन यह प्रयोग विफल रहा. इसके बाद नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) और बीएलटी ने कई साल तक इलाके में अस्थिरता फैलाए रखी. बीएलटी के हथियार डालने के फैसले के बाद 2003 में बोडोलैंड समझौता हुआ. एनडीए सरकार के समय हुए इस समझौते के बाद बीटीसी वजूद में आया. लेकिन इससे भी हिंसा नहीं थमी. उल्टे नए तनाव पैदा हो गए. दरअसल गैर बोडो समुदायों के लोग बोडो शासन या कहें कि राजनेता बने पूर्व उग्रवादियों के अधीन खुद को असहज महसूस करने लगे. खासकर बंगाली मुसलमानों को लगा कि उन्हें भी राजनीतिक रूप से खुद को मजबूत करना होगा. इसके चलते राज्य में ऑल इंडिया यूनाइटेड फ्रंट (एआईयूडीएफ) का उभार हुआ. तब से पार्टी इस इलाके में बड़ी संख्या में वोट पाती रही है. यह इस बात से समझा जा सकता है कि बदरुद्दीन अजमल की अगुवाई वाला एआईयूडीएफ राज्य विधानसभा में आज दूसरा सबसे बड़ा दल है. यही वजह है कि बीटीएडी का इलाका राजनीतिक रूप से इतना अहम हो गया है.
इस इलाके में दंगों का पुराना इतिहास है. बोडो समुदाय का पहले भी उन दूसरे लोगों से टकराव होता रहा है जिन्हें वे बाहरी मानते हैं. इनमें आदिवासी और बंगाली हिंदू-मुसलमान शामिल हैं. हालांकि 2012 की हिंसा के बाद ऐसा लग रहा था कि लोग बार-बार की हिंसा से तंग आ चुके हैं. लेकिन हालिया हिंसा से यह बात गलत साबित हो गई. गैर बोडो जिन्हें ओबोडो भी कहा जाता है, इस इलाके की आबादी का कुल 70 फीसदी हैं. इन लोगों की प्रतिनिधि संस्थाओं में से ज्यादातर अलग बोडोलैंड के खिलाफ हैं. उन्हें डर है कि अगर अलग राज्य बना तो वे पूरी तरह से दब जाएंगे. उधर, बोडो नेताओं को लगता है कि गैर बोडो समुदाय के विरोध की वजह से ही उनकी मांगें कमजोर पड़ जाती हैं. इससे इस इलाके में तनाव लगातार बढ़ रहा है.
गैर बोडो चाहते हैं कि बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद (बीटीसी) में पड़ने वाले 3000 गांवों में से 600 को परिषद से बाहर किया जाए जहां दूसरे समुदायों की आबादी ज्यादा है. इस परिषद की कमान हग्राम मोहिलारी के नेतृत्व वाले बीपीएफ के हाथ है. उग्रवाद का रास्ता छोड़कर राजनीति में आए मोहिलारी 2006 से राज्य में कांग्रेस के सहयोगी की भूमिका निभा रहे हैं. विधायी, कार्यकारी व न्यायिक अधिकार रखने वाली इस परिषद के अधिकार क्षेत्र में पड़ने वाली 40 विधानसभा सीटों में से 30 आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित हैं. हीरा सरनिया की जीत 2015 में होने वाले बीटीसी के चुनावों पर गहरा असर डाल सकती है. कुछ आदिवासी समुदायों के साथ मिलकर दूसरे गैर बोडो बोडो समुदाय के खिलाफ जा सकते हैं. इसलिए कई हैं जो मानते हैं कि समय रहते उस टकराव को रोकना बहुत जरूरी है.
ओबोडो सुरक्षा समिति के सचिव दिलावर हुसैन कहते हैं, ‘कई साल से गैर बोडो लोग हिंसा और डर से जूझ रहे हैं. असम सरकार, खासकर मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने हमें बोडो उग्रवादियों की दया पर छोड़ दिया है. इसलिए हमने सोचा कि अगर संख्या के मामले में हमारे वोट सबसे ज्यादा हैं तो हम इस समस्या को शायद चुनाव के जरिये सुलझा सकें. अतीत में हम लोगों ने बोडो उम्मीदवारों को ही चुना है जो न सिर्फ हमें सुरक्षा देने में नाकाम रहे हैं बल्कि इन हत्याओं का समर्थन भी करते हैं. वे हर बंगाली मुसलमान को बांग्लादेशी कह देते हैं. इसलिए हमने तय किया कि हम हीरा सरनिया को वोट देंगे. हम गैर बोडो समुदायों के अधिकारों की खातिर लड़ने के लिए उन जैसा मजबूत आदमी चाहिए.’ बक्सा में कॉलेज में पढ़ रहे रहमत अली भी कुछ ऐसा ही कहते हैं, अगर हमारे पास संख्या है तो हम राजनीतिक रूप से और भी ज्यादा दावेदारी चाहते हैं. बोडो उग्रवादियों के चलते हम पहले से ही दंगा, फिरौती और वसूली की मार झेल रह रहे हैं. उस पर अगर बोडोलैंड बन गया तो हमें बाहर निकाल दिया जाएगा.
चुनाव से पहले हुई हिंसा पर सरनिया कहते हैं, ‘उन्हें (बीपीएफ को) डर है कि उनका बुरा वक्त शुरू हो चुका है. मुझे बक्सा के दुर्गम इलाकों में भी मजबूत समर्थन मिला है. बीपीएफ कैडर ने इन्हीं इलाकों में महिलाओं और बच्चों की हत्या की है. उनका मकसद यह संदेश देना है कि हमारे खिलाफ वोट करने की हिम्मत मत करो. लेकिन लोग बदलाव चाहते हैं. वे चाहते हैं कि यह अराजकता खत्म हो.’
हालांकि एक और गहरा और चिंताजनक पहलू भी है जिसकी कोई बात नहीं कर रहा. यह है इलाके के आर्थिक नियंत्रण का. राज्य इंटेलीजेंस के एक अधिकारी कोकराझार की रणनीतिक अहमियत बताते हैं. पूर्वोत्तर के इस एंट्री प्वाइंट की सीमा पश्चिम बंगाल के श्रीरामपुर से मिलती है जहां यह शेष भारत के साथ चिकन नेक कॉरीडोर कहे जाने वाले एक संकरे गलियारे के जरिये जुड़ता है. ये अधिकारी बताते हैं, ‘श्रीरामपुर गेट पर एक सिंडीकेट हर महीने करोड़ों की रकम वसूल करता है. यह पैसा इसके बाद उग्रवादियों, राजनेताओं, पुलिस और बोडो उग्रवादियों में बंटता है. यह अवैध टैक्स चुकाए बिना कोई भी ट्रक पूर्वोत्तर में नहीं घुस सकता.’ इलाके में चल रहे दूसरे कई हथियारबंद गुट भी श्रीरामपुर गेट की अहमियत समझ चुके हैं और वे भी इस रकम में अपनी हिस्सेदारी चाहते हैं. यही वजह है कि इलाके में अवैध हथियारों की बहुतायत है.
24 अप्रैल को हुए चुनाव से पहले कोकराझार में हिंसा की कई घटनाएं हुईं. चुनाव के दिन एक नाराज भीड़ ने, जिसमें ज्यादातर मुस्लिम समुदाय के लोग थे, गोसाईगंज सबडिविजन के पोलिंग बूथ पर तोड़फोड़ की. भीड़ ने ईवीएम मशीनें तोड़ दीं और मतदान अधिकारियों और सुरक्षाकर्मियों पर पथराव किया. एक घायल पुलिसकर्मी की बाद में मौत हो गई. खबरें आईं कि इलाके के मुसलमान सरनिया का समर्थन कर रहे थे और ईवीएम के ठीक से काम न करने की अफवाह के बाद वे हिंसक हो गए. इस घटना के बाद राजनीतिक बदले की बातें होने लगीं थीं. यह तब लगभग साफ हो गया जब पता चला कि बलपाड़ा गांव, जहां आठ लोगों की गोली मारकर हत्या की गई, के ज्यादातर लोग गोसाईंगंज में चुनाव के दिन हुई हिंसा के मामले में वांछित थे. रात को बलपाड़ा के ज्यादातर पुरुष घरों से बाहर नहीं निकले कि कहीं पुलिस उन्हें गिरफ्तार न कर ले. हमलावरों को गांव पर हमला करते हुए यह बात मालूम रही होगी कि उन्हें अपने शिकार घर के भीतर ही मिलेंगे.
बलपाड़ा में हुए इसी हमले में आबिदा बेवा ने अपनी बेटी खोई. 57 साल की आबिदा कहती हैं, ‘हम डरे हुए थे. हमने जिला प्रशासन से और ज्यादा सुरक्षा की मांग की थी. बीएसएफ की एक गश्ती टुकड़ी इलाके में आई और हमसे कहा गया कि सब कुछ ठीक है. आधा घंटे बाद ही हमलावर आ गए और इतने लोगों की हत्या कर दी. मेरी बेटी भी मारी गई. वे जंगल से आए थे और पैदल ही आए थे. कोई उन्हें रोकने वाला नहीं था.’
राज्य की कांग्रेस सरकार बार-बार इस इलाके में सुलगती जातीय हिंसा पर काबू पाने में असफल रही है. इसकी बजाय वह इससे राजनीतिक रोटियां सेंकने की कोशिश करती दिखी है. इसलिए जब कांग्रेस ने यह कहा कि भाजपा के प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की इलाके में रैलियों से यह सांप्रदायिक हिंसा हुई तो उसकी काफी आलोचना हुई. मोदी ने गुवाहाटी की अपनी रैली में अवैध घुसपैठियों का मुद्दा उठाया था. भाजपा ने भी कांग्रेस पर जवाबी वार करते हुए कहा कि वह वोटबैंक के लिए बांग्लादेशी घुसपैठियों का इस्तेमाल करती है.
चिंता की बात यह है कि इस राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के चलते असल मुद्दा एक बार फिर उपेक्षित हो रहा है. पत्रकार और पूर्वोत्तर के मामलों पर निगाह रखने वाले राजीव भट्टाचार्य कहते हैं, ‘असम में अवैध घुसपैठियों की बाढ़ और उनके निचले असम के मैदानी इलाके में बसने से जमीन और दूसरे संसाधनों पर निश्चित रूप से दबाव बढ़ा है. बीटीएडी में तो ये मुद्दे कहीं ज्यादा जटिल हैं.’ भट्टाचार्य बताते हैं कि आगे के लिए भी स्थितियां चुनौतीपूर्ण हैं. बीटीसी पर पूर्व उग्रवादियों का कब्जा है. वे बाहुबल के जरिये अपनी चलाते हैं. ये इलाके कम विकसित हैं. ऊपर से बोडोलैंड आंदोलन की शुरुआत से ही यहां हिंसा आम रही है. इसलिए भी क्योंकि सरकार ने भी इसके जवाब में हिंसा ही की. 30 साल से यहां अलग राज्य को लेकर न सिर्फ बोडो उग्रवादी बल्कि दूसरे समुदायों के सशस्त्र संगठन भी सक्रिय हैं. इसकी वजह से यहां अवैध हथियारों का बोलबाला है. यही हथियार दंगों के दौरान इस्तेमाल होते हैं. असम के पूर्व डीजीपी हरेकृष्णा डेका कहते हैं, ‘इस इलाके में अवैध हथियारों की बहुतायत है. सिर्फ भूमिगत उग्रवादी गुट ही इनका इस्तेमाल नहीं कर रहे, बल्कि आत्मसमर्पण कर चुके उग्रवादी भी इनका सहारा लेते हैं. जब तक ये हथियार रहेंगे, स्थिति चिंताजनक बनी रहेगी. इन अवैध हथियारों को जब्त करने के लिए विशेष अभियान छेड़ा जाए.’
सांप्रदायिक और राजनीतिक लिहाज से बीटीएडी का इलाका बीते कुछ समय से बहुत संवेदनशील रहा है. डेका कहते हैं, ‘सुरक्षा के लिहाज से माहौल वहां हमेशा से चिंताजनक रहा है. लेकिन सुरक्षा व्यवस्था में कोई खास व्यवस्थागत बदलाव नहीं हुए. यहां की भौगोलिक स्थिति के चलते यहां संचार व्यवस्था मुश्किल हो जाती है. तिस पर बुरी तरह बंटा हुआ यहां का सामाजिक ढांचा. जरूरत इस बात की है कि आवाजाही की व्यवस्था को सुगम बनाते हुए इस इलाके में संचार व्यवस्था बढ़ाई जाए व और भी ज्यादा पुलिस चौकियां खोली जाएं. बीटीएडी में जिस तरह की हिंसा होती है, उससे निपटने के लिए एक विशेष तरह के सुरक्षा बल के गठन के बारे में भी सोचा जा सकता है.’ भट्टाचार्य कहते हैं, ‘अगर किसी के पास दूरदृष्टि होती तो एक-एक करके इन मुद्दों पर ध्यान दिया जाता, लेकिन ऐसी नजर पूरी तरह से गायब है.’
इसकी बजाय सरकार अब एक समुदाय को लाइसेंसी हथियार थमाने की भी सोच रही है. कइयों को आशंका है कि इससे हालात और बिगड़ेंगे डेका कहते हैं, ‘यह ठीक नहीं होगा. उग्रवादियों के पास अत्याधुनिक हथियार हैं और ये हथियार उनका मुकाबला नहीं कर पाएंगे. बल्कि आशंका यही है कि उनसे ये हथियार छिन जाएं और उग्रवादियों या अपराधी गिरोहों तक पहुंच जाएं. वैसे भी नागरिकों को सुरक्षा देना सरकार की बुनियादी जिम्मेदारी है. इसकी बजाय वह छोटे-मोटे सामाजिक संगठनों को हथियार पकड़ाने की सोच रही है.’
2001 से सत्ता पर काबिज तरुण गोगोई सरकार पर लंबे समय से असम के आदिवासियों के अधिकारों की उपेक्षा करने का आरोप लगता रहा है. कांग्रेस द्वारा पृथक बोडोलैंड की मांग ठुकराए जाने के बाद अब बोडो संगठन भाजपा की तरफ निगाहें लगाए हुए हैं. हालांकि उनके अलग-अलग गुट अपने मकसद को हासिल करने के लिए अलग-अलग रास्तों पर यकीन करते हैं. एबीएसयू इसका उदाहरण है जिसने बीपीएफ का विरोध किया. इसके अध्यक्ष प्रमोद बोरो कहते हैं, ‘हमने बीपीएफ के खिलाफ निर्दलीय उम्मीदवार का समर्थन क्यों किया? इसलिए कि सिर्फ गैर बोडो ही नहीं, हमारा बोडो समुदाय भी हिंसा से आजिज आ चुका है. हम नहीं चाहते कि सत्ता उन लोगों के हाथ में रहे जो सिर्फ बंदूकों की भाषा समझते हैं. सालों की उपेक्षा के चलते बोडो युवाओं ने हथियार उठाए थे. असम सरकार के अधीन एक क्षेत्रीय परिषद भी बन गई थी. लेकिन इससे लोगों की उम्मीदें पूरी नहीं हुईं. बोडो भी मर रहे हैं. सशस्त्र गुट उनसे भी वसूली कर रहे हैं. इसलिए हम एक अलग राज्य चाहते हैं. एक शांतिपूर्ण बोडोलैंड.’
सिमसैंग बोरो एक ब्लॉगर हैं जो इलाके के बारे में लिखते रहते हैं. वे कहते हैं, ‘यहां समुदायों को बांटने का एक बड़ा राजनीतिक खेल चल रहा है. बोडोलैंड में निर्दोष बोडो युवा भी सुरक्षा बलों की गोलियों से मर रहे हैं. उन पर कोई मीडिया फोकस क्यों नहीं है? कुछ दिन पहले कुछ मुसलमानों ने एक बोडो लड़की के साथ गैंगरेप कर दिया. 2008 की हिंसा में मुसलमानों ने एक गांव में पाकिस्तान का झंडा लगा दिया था. इन घटनाओं की रिपोर्ट मीडिया में क्यों नहीं आती? इन पर टीवी पर बहस क्यों नहीं होती? कई साल से कोकराझार में बोडो लोगों को निशाना बनाया जाता रहा है. असम के नेताओं ने मूल निवासियों की उपेक्षा की है.’
हर पक्ष के अपने आरोप हैं. जब हिंसा इतने नियमित रूप से हो रही हो तो ऐसा होना स्वाभाविक भी है. शिवनाथ ब्रह्मा इलाके की कुछ संतुलित आवाजों में से हैं. बोडोलैंड गार्डियन के संपादक शिवनाथ मानते हैं कि विकास के जरिये इस समस्या को खत्म किया जा सकता है. वे कहते हैं, ‘बोडो हो या गैर बोडो, आम आदमी शांति चाहता है. जानबूझकर कोशिशें हो रही हैं कि इलाका बंटा रहे और बोडो लोगों की छवि उग्रवादियों जैसी बनी रहे. यह सच नहीं है. बोडो यहां दूसरे समुदायों के साथ शांति से रहते आ रहे हैं. अगर सरकार में इच्छाशक्ति हो तो वह समस्या को आसानी से हल कर सकती है. बोडोलैंड की युवा पीढ़ी विकास चाहती है.’
स्थानीय लोग मानते हैं कि हिंसा तब भड़की जब बीपीएफ की एक शीर्ष नेता प्रमिलारानी ब्रह्मा ने कथित रूप से बयान दिया कि गैर बोडो लोगों ने बीपीएफ को वोट नहीं दिया है. बीटीसी मुखिया हग्रामा मोहिलारी इस आरोप से इनकार करते हुए अपनी सहयोगी कांग्रेस को चेताते हैं. वे कहते हैं, ‘जब भी हिंसा होती है तो आरोप बीपीएफ पर लगता है. हम क्यों चिंता करें जब पुलिस पहले ही कह चुकी है कि यह एनडीएफबी उग्रवादियों की कारस्तानी है. अगर कांग्रेस हम से रिश्ता खत्म करना चाहती है तो हमें कोई दिक्कत नहीं. हमने सभी समुदायों के लिए काम किया है. और किसने कहा कि पूर्व उग्रवादी प्रशासन नहीं चला सकते?’ उधर, एनडीएफबी के संगभिजित धड़े ने, जिसे हालिया हत्याओं के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, इस घटना में किसी भी तरह की संलिप्तता से इनकार किया है.
उधर, मुस्लिम समुदाय गुस्से में है. उनके संगठन चाहते हैं कि बोडोलैंड की अवधारणा पर ही फिर से विचार हो. ऑल असम माइनॉरिटी स्टूडेंट्स के सचिव रजाउल करीम सरकार कहते हैं, ‘सारे बंगाली मुसलमान बांग्लादेशी नहीं हैं. इसी तरह हर बोडो उग्रवादी नहीं है. अलग-अलग समुदायों के बीच शांति हो, इसके लिए जरूरी है कि हथियार वाले लोगों को सत्ता से बाहर फेंका जाए.’ दरअसल असम में एक समय कांग्रेस का बड़ा वोट बैंक रहा बंगाली मुसलमान समुदाय अब खुद राजनीतिक रूप से मुखर होने की कोशिश कर रहा है. कांग्रेस और भाजपा, दोनों से उसकी दूरी उसे आसान निशाना बना देती है.
उधर, गुवाहाटी में अफवाहें हैं कि तरुण गोगोई सरकार को पटरी से उतारने के लिए एक राजनीतिक साजिश चल रही है. 2011 के विधानसभा चुनावों में जीतकर कांग्रेस लगातार तीसरी बार राज्य की सत्ता में आई थी. लेकिन कहा जा रहा है कि अब सरकार में गुटों का टकराव चल रहा है. चर्चा है कि गोगोई के कभी करीबी रहे और स्वास्थ्य मंत्री एचबी शर्मा की अगुवाई में मुख्यमंत्री के खिलाफ अभियान चल रहा है. गोगोई के पास गृह मंत्रालय भी है इसलिए कोकराझार हिंसा के चलते वे विरोधियों के निशाने पर हैं. ऊपर से लोकसभा चुनाव में राज्य में कांग्रेस की दुर्गति के बाद वे बिल्कुल ही बैकफुट पर आ गए हैं. यही वजह है कि नतीजे आने के तुरंत बाद उन्होंने इस्तीफे की पेशकश कर दी. इससे पहले उन्होंने कोकराझार हिंसा को अपने खिलाफ हो रही एक राजनीतिक साजिश बताया था. 2012 में हुई हिंसा के बाद भी उन्होंने कुछ ऐसा ही बयान दिया था.
ऐसे बयानों से तो यही लगता है कि राजनीति एक बार फिर इंसानी जिंदगियों से ऊपर रखी जा रही है. संकेत साफ है कि कोकराझार के दिन जल्द बहुरने वाले नहीं.
लोकसभा की 543 में से 282 सीटें जीतकर भारतीय जनता पार्टी पहली बार इतिहास में अपने बूते सरकार बनाने जा रही है. इसमें उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार रहे नरेंद्र मोदी का सबसे बड़ा हाथ है. मोदी के काम करने का अपना ही तरीका है. उनके द्वारा अब तक चलाई गई गुजरात सरकार के काम करने का तरीका भी अलग ही था. खुद की उदार छवि और मजबूती से स्थापित करने की उनकी कुछ मजबूरी भी है. और मुख्यमंत्री बनने के बाद से उनके संघ से कभी उतने सहज संबंध नहीं रहे जितने शिवराज सिंह सरीखे उनकी जैसी ही पृष्ठभूमि वाले अन्य भाजपाई शासकों के रहे हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि मोदी के नेतृत्व में सरकार चलाने वाली भाजपा का स्वरूप भविष्य में कैसा हो सकता है. क्या उनका अब तक का राजनीतिक आचरण आने वाले समय में पार्टी के किसी और दिशा में जाने के संकेत भी देता है? क्या मोदी वह व्यक्ति होंगे जिनकी वजह से आने वाले समय में समाज के सभी वर्ग भाजपा को किसी भी अन्य पार्टी की तरह स्वीकार्य मानने लगेंगे? क्या पार्टी मोदी के नेतृत्व में ही पूर्व की कांग्रेस की तरह पूरे देश में विस्तार वाली पार्टी बन जाएगी? और क्या संघ के शिंकजे से बाहर निकलकर भाजपा सही मायनों में एक स्वतंत्र राष्ट्रीय पार्टी के रूप में स्थापित हो जाएगी. धुर दक्षिणपंथी नहीं बल्कि सिर्फ दक्षिणपंथी रुझान वाली.
एक वर्ग ऐसा है जो मानता है कि भाजपा को बंदर की तरह नचाने के संघ के दिन अब खत्म हो चुके हैं. ऐसा सोचने के पीछे आधार है. और वह है नरेंद्र मोदी और संघ के बीच का पिछले एक दशक का संबंध. पिछले 10 सालों में मोदी और संघ के संबंध अर्श से फर्श पर पहुंच गए. मोदी ने पिछले 10 सालों में गुजरात में संघ और उससे जुड़े संगठन अर्थात पूरे संघ परिवार को नाथने में कोई कसर बाकी नहीं रखी.
भयंकर मोदी लहर के बावजूद अपने-अपने राज्यों में एकतरफा जीत हासिल करने वालीं ममता बनर्जी और जयललिता भारतीय राजनीति के इस नए दौर की सबसे ताकतवर महिलाएं बन गई हैं. Read More>
विश्व रैंकिंग: 12 सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन : 1994 और 2010 में ग्रुप स्टेज
खास बात
दृढ़ता. यह इस टीम की ऐसी ताकत है जिसे कोच सांतोस कतई छेड़ना नहीं चाहते. दो-तीन खिलाडियों के योग से टीम अपने डिफेंडर्स का उपयोग सामने वाली टीम को चकमा देने के लिए कर सकती है. यह एक कठिन रणनीति है लेकिन इसकी आड़ में टीम को अचानक आक्रामक हमला करने में मदद मिलेगी. तनावपूर्ण स्थितियों में यह रणनीति बहुत निर्णायक साबित हो सकती है
6 फुट 2 इंच का यह स्ट्राइकर ही ग्रीस की सबसे बड़ी ताकत है. क्वालीफाइंग दौर में पांच बार गोल मार चुके इस खिलाड़ी को प्रशंसक पिस्टलेरो के नाम से भी जानते हैं. मितरोग्लोउ के पास वह तेजी है जो मजबूत से मजबूत डिफेंस को भी भेद सकती है. इसके अलावा ग्रीस के पास अपने कप्तान जियोर्जोस कैराग्यूनिस का अनुभव भी है. कैराग्यूनिस के मार्गदर्शन में ही टीम ने 2004 में पुर्तगाल में यूरो कप जीता था. यह जीत ही ग्रीस का आज तक का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन है. दुर्भाग्य से ग्रीस अपनी इस सफलता को कभी भी विश्व कप में नहीं उतार पाया. उनके नीरस, रक्षात्मक खेल और गेंद से कुछ सार्थक करने के बजाय बस उस पर कब्जा बनाए रखने वाली प्रवृति ने कभी खेल के प्रशंसकों को भी रोमांचित नहीं किया. हालांकि सिर्फ रोमांच कभी भी टीम की पारंपरिक ताकत की भरपाई नहीं कर सकता. वर्तमान टीम में मजबूत मिडफील्ड और काबिल स्ट्राइकरों के होने का दावा किया जा रहा है. मितरोग्लोउ और कैराग्यूनिस के अलावा जियोर्जोस समारा की मौजूदगी भी टीम को मजबूती देती है. कोच फर्नांडो सांतोस उनसे यह उम्मीद कर रहे हैं कि उनके बेहतरीन पास से टीम के स्ट्राइकरों को गोल दागने में बहुत मदद मिलेगी. फुटबॉल के मैदान में यदि टीम अच्छा प्रदर्शन करती है तो यह देश के लिए भी बहुत अहम साबित होगा.
अतीत बताता है कि व्यक्तिगत जीवन और राजनीतिक मोर्चे पर ममता बनर्जी और जयललिता में बहुत सारी समानताएं रही हैं. फिल्मी पर्दे से उतर कर राजनीति की पथरीली जमीन नापते हुए मुख्यमंत्री बनने तक का सफर जहां जयललिता के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण रहा वहीं ममता को भी वामपंथ के तीन दशक पुराने अभेद्य किले को फतह करने में पहाड़ जैसी मुश्किलें पेश आईं. इन दोनों अविवाहित नेत्रियों के बारे में एक समानता यह भी है कि अपने-अपने राजनीतिक दलों का एकमात्र चेहरा ये खुद ही हैं. इसके अलावा कई दूसरी बातें और भी हैं जो समानता की कसौटी पर इन दोनों को एकरूपता देती हैं. इन बातों से आगे बढ़कर इस बार के चुनावी नतीजों की बात करें तो मोदी के पक्ष में बही देशव्यापी बयार को अपने-अपने राज्यों में बेअसर करके इन दोनों ने एक बार फिर से समानता की इस एकरूपता को बरकरार रखा है.
नरेंद्र मोदी की जिस सुनामी ने कांग्रेस के साथ ही सपा, बसपा, और जेडीयू जैसी क्षेत्रीय ताकतों को इस बार के चुनाव में ठिकाने लगा दिया वही सुनामी पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में हल्की-फुल्की बूंदा-बांदी ही कर सकी. भारत विजय के अभियान पर निकले मोदी के अश्वमेध रथ को इन दोनों राज्यों में ममता बनर्जी और जयललिता ने अपने बूते थाम लिया. इतना ही नहीं बल्कि चुनाव परिणामों के बाद सामने आई तस्वीर ने तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और आल इंडिया अन्ना द्रमुक कड़गम (एआईएडीएमके) को बंगाल और तमिलनाडु का सबसे बड़ा राजनीतिक दल भी बना दिया है. 42 सीटों वाले पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने 34 और 39 सीटों वाले तमिलनाडु में जयललिता ने 37 सीटों पर फतह हासिल करके 2009 के अपने प्रदर्शन के सूचकांक को इतना ऊपर पहुंचा दिया है कि वहां से उनके विपक्षी दल नजर ही नहीं आ रहे. तमिलनाडु में द्रमुक (डीएमके) का सूपड़ा साफ हो गया तो पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे का. पांच साल पहले 2009 में टीएमसी और एआईएडीएमके के सांसदों की संख्या क्रमश: 18 और नौ थी. इस लिहाज से देखा जाए तो इस बार दोनों ही दलों ने पिछली बार के मुकाबले बहुत अधिक संख्या में सीटें जीत कर अपने-अपने प्रमुख प्रतिद्वंद्वियों (वाम मोर्चे और डीएमके) को हाशिये पर धकेल दिया है. कांग्रेस पार्टी तो देश के कई दूसरे राज्यों की भांति इन दोनों राज्यों में भी हाशिए से बाहर चली गई है. बहुत संभावना है कि पस्त पड़ चुकी कांग्रेस के मुकाबले ये दोनों दल लोकसभा के अंदर खुद को बेहतर विपक्ष साबित करने में शायद ही कोई कसर बाकी छोड़ें.
कहा जा सकता है कि अम्मा और दीदी भारतीय राजनीति के इस नए दौर की सबसे ताकतवर महिलाएं बन गई हैं. जानकारों की मानें तो इन चुनाव के नतीजे सिर्फ इस बात की मजबूती से पुष्टि करते हैं. गौरतलब है कि देश की प्रभावशाली महिला नेत्रियों की जमात में इन दोनों के अलावा सोनिया गांधी और मायावती का नाम भी प्रमुखता से लिया जाता रहा है. लेकिन मायावती की बसपा का इस बार पूरी तरह से पत्ता साफ हो चुका है और सोनिया गांधी की अगुआई वाली कांग्रेस को जो भयानक झटका लगा है उससे उबरने में उसे अभी लंबा वक्त लगेगा. ऐसे में ममता बनर्जी और जयललिता के लिए पूरा मैदान खाली है. वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘बंगाल और तमिलनाडु में पहले से ही मजबूत रही ममता और जयललिता इस बार दुगनी ताकत के साथ सामने आई हैं. ऐसे में केंद्र की राजनीति में खुद को और भी मजबूती के साथ स्थापित करने का उनके पास यह सुनहरा मौका है. वैसे भी कांग्रेस के मुकाबले इनके सांसदों की संख्या कुछ ही कम है.’ कांग्रेस पार्टी की अंदरूनी समझ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं, ‘जनता द्वारा बुरी तरह नकार दिए जाने के बाद फिर से उसका विश्वास हासिल करना अब कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती होगी. कांग्रेस हरसंभव कोशिश करेगी कि विपक्ष में रह कर लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रहे. इसके लिए उसे तमाम सहयोगियों की जरूरत होगी लिहाजा तृणमूल कांग्रेस और एआईएडीएमके की भूमिका काफी महत्वपूर्ण मानी जा सकती है. हालांकि इस बात पर भी काफी कुछ निर्भर करेगा कि लोकसभा के अंदर उनके सांसद क्षेत्रीय मुद्दों के मुकाबले राष्ट्रीय मुद्दों को कितनी तवज्जो देते हैं.’
ममता और जया द्वारा किए गए इस शानदार प्रदर्शन के बीच यह जानना भी बेहद दिलचस्प है कि देश भर में चली मोदी लहर के बावजूद ऐसा क्या था कि ममता बनर्जी और जयललिता की पार्टियां इसकी जद में आने से न केवल बच गई, बल्कि अपने-अपने राज्यों में सबसे बड़ी पार्टियां भी बनने में कामयाब रहीं. यह जानना इस लिए भी दिलचस्प हो जाता है कि मायावती, मुलायम और नीतीश जैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों की भाजपा के सामने दुर्गति हो चुकी है. ऐसे माहौल में बंगाल और तमिलनाडु में दोनों नेत्रियों ने अपने विरोधियों की यह हालत कैसे कर दी, इसे समझने के लिए दोनों के राजनीतिक अतीत के साथ उनकी चुनावी रणनीति को समझना होगा.
पहली वजह तो यही है कि इन दोनों राज्यों में भाजपा का कोई मजबूत आधार नहीं है. जानकारों की मानें तो ममता बनर्जी और जयललिता हमेशा से दिल्ली के सियासी फलक की नायिका बनने की हसरत रखती आई हंै, लेकिन इनका क्षेत्र विशेष तक सीमित रहना इनकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा है. देश के दूसरे राज्यों में इन दोनों नेत्रियों के नाम की चर्चा तो खूब होती है लेकिन इलके दलों का अस्तित्व बंगाल और तमिलनाडु की सीमा से बाहर नहीं जा सका है. ऐसे में दिल्ली तक पहुंचने के लिए कांग्रेस और भाजपा से अलग राह चुनना ही इन दोनों के लिए एक मात्र रास्ता था. इन दोनों की रणनीति पर नीरजा कहती हैं, ‘इनके निशाने पर मुख्य रूप से वही वोटर था जो कांग्रेस से नाराज होने के अलावा नरेंद्र मोदी से भी इत्तेफाक नहीं रखता था. यही वजह थी कि मोदी के गुजरात मॉडल के मुकाबले ममता बनर्जी हर रैली में बंगाल मॉडल की बात करती रहीं. इसी तर्ज पर जयललिता भी तमिलनाडु को गुजरात से बेहतर राज्य बताकर खुद को उनके मुकाबले बेहतर प्रशासक साबित करने की कोशिश करती रहीं.’ एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि मोदी के प्रचार अभियान की तरह ही जयललिता का चुनावी अभियान भी काफी हद तक व्यक्ति केंद्रित रहा. तमिलनाडु की सड़कों पर अन्ना द्रमुक के पोस्टरों में उन्हें साफ तौर पर भावी प्रधानमंत्री बताया गया था. यहां तक कि फोटोशॉप की मदद से तैयार किए गए इन पोस्टरों में बराक ओबामा से लेकर श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे तक को जयललिता के आगे दंडवत होते दिखाया गया था. इसके अलावा उनके प्रचार अभियान की एक और खासियत यह थी कि अपने हर मंत्री को एक-एक सीट का जिम्मा देकर उन्होंने हार-जीत को लेकर उनकी जिम्मेदारी भी तय कर दी थी. ममता बनर्जी के बारे में भी कमोबेश इसी तरह की बातें कही जा सकती हैं. रशीद किदवई कहते हैं, ‘ममता और जयललिता की पूरी चुनावी रणनीति इस बात पर आधारित थी कि बिना उनके कोई भी सरकार न बन पाए. हालांकि ऐसा नहीं हो सका.’
चुनाव के नतीजों में इस बार बहुत पहले ही भाजपा के सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने का अनुमान लगाया जा रहा था. लेकिन इस बात की अटकलें भी उतनी ही थीं कि सरकार बनाने के लिए उसे अन्य दलों की जरूरत पड़ेगी. यह भी एक बड़ी वजह थी कि तमाम अटकलों के बाद भी ममता बनर्जी और जयललिता ने चुनाव से पहले किसी भी राष्ट्रीय दल से गठबंधन नहीं किया और खंडित जनादेश की स्थिति में तीसरे मोर्चे के जरिए सात रेसकोर्स रोड पहुंचने के मौके का इंतजार करती रहीं. यह बात दीगर है कि अपने दम पर बहुमत हासिल कर चुकी भाजपा को अब इन दोनों में से किसी की भी जरूरत नहीं पड़ने वाली.
इसके बावजूद क्या तृणमूल कांग्रेस और एआईएडीएमके को नजरअंदाज किया जा सकता है?
इस सवाल का जवाब आसानी से राजनाथ सिंह की उन बातों में तलाशा जा सकता है जो उन्होंने 16 मई को बहुमत हासिल करने के बाद पत्रकारों से बातचीत करते हुए कही हैं. दरअसल राजनाथ सिंह से तब पत्रकारों ने ममता बनर्जी, जयललिता और नवीन पटनायक के समर्थन को लेकर सवाल पूछा था. राजनाथ सिंह का कहना था कि बेशक उनकी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिल चुका है, फिर भी वे अपनी सरकार का समर्थन करने वाले किसी भी दल का स्वागत करने को तैयार है. जानकारों की मानें तो राजनाथ इस बयान के जरिए एनडीए के कुनबे को तो बढ़ाना चाहते हैं साथ ही विपक्ष की ताकत को भी कमजोर करना चाहते हैं, ताकि संसद में मनमुताबिक काम करने में उनकी सरकार को कोई दिक्कत न हो. इस लिहाज से देखा जाए तो जयललिता और ममता बनर्जी दो अहम फैक्टर हैं. लेकिन इस बात की संभावना बेहद कम है कि ये दोनों एनडीए में शामिल होंगी. इतना अच्छा प्रदर्शन करने के बावजूद सरकार का हिस्सा नहीं बन पाने का मलाल दोनों ही पार्टियों को हो सकता है, लेकिन यह बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि विपक्ष में रहते हुए वे इन पांच सालों में बहुत कुछ ऐसा कर सकते हैं जिसके जरिए इनकी स्वीकार्यता का दायरा बढ़ सकता है. नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘विपक्ष में रहने का विकल्प ममता बनर्जी और जयललिता के लिए वाकई में एक बड़ा अवसर हो सकता है.’
ममता बनर्जी और जयललिता को देश की राजनीति में प्रभावशाली आंकने वाली इन संभावनाओं के बीच एक वर्ग ऐसा भी है जिसके मुताबिक अभी केंद्रीय राजनीति में जया और ममता के लिए इतना स्पेस नहीं है कि उन्हें बहुत प्रभावशाली माना जा सके. सीनियर पत्रकार अजय बोस कहते हैं, ‘बेशक लोकसभा में विपक्ष की बेंचों पर कांग्रेस के बाद सबसे ज्यादा सदस्य इन्हीं दोनों दलों के होंगे. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कांग्रेस के मुकाबले ये ज्यादा प्रभाव छोड़ पाएंगे. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि इन दलों की अगुआई करने वाली ममता बनर्जी और जयललिता खुद मुख्यमंत्री के पद पर हैं, और इस नाते राज्य की राजनीति पर ही उनका अधिक ध्यान रहेगा.’ नीरजा चौधरी का अलग मत है. वे कहती हैं, ‘भले ही ममता और जयललिता राज्य की राजनीति को ही संभालेंगी, लेकिन लोकसभा के लिए चुने गए उनके सभी सिपहसालार पूरी तरह उनके प्रति निष्ठावान हैं. इसके अलावा यह नहीं भूलना चाहिए कि कोलकाता और चेन्नई के बीच वाया भुवनेश्वर वाली ‘हॉटलाइन’ बहुत पहले से ही चालू है.’