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बेनीवाल पर बहुत से सवाल

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डॉ. कमला बेनीवाल को मिजोरम के राज्यपाल पद से बर्खास्त किए जाने का मामला लगातार तूल पकड़ता जा रहा है. कांग्रेस का इल्जाम है कि बेनीवाल को गुजरात के राज्यपाल पद पर रहने के दौरान राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री (और अब प्रधानमंत्री) नरेंद्र मोदी से उलझने की कीमत अपना पद गंवा कर चुकानी पड़ी है. उधर, भाजपा का कहना है कि इस बर्खास्तगी की वजह उनके द्वारा की गई अनियमितताएं हैं. खबरों के मुताबिक बेनीवाल को हटाने का फैसला तब लिया गया जब यह उजागर हुआ कि उन्होंने जनता के पैसे का उपयोग कई हवाई यात्राओं में किया. इनमें उनके गृहराज्य राजस्थान के लिए की गई यात्राएं शामिल थीं. बताया जा रहा है कि बेनीवाल ने वर्ष 2011 से 2014 के दौरान 63 बार राज्य सरकार के विमान का इस्तेमाल किया. इनमें से 53 यात्राएं जयपुर की थीं.

बेनीवाल की बर्खास्तगी की एक और वजह भी बताई जा रही है. कहा जा रहा है कि गुजरात के राज्यपाल पद पर रहते हुए उन्होंने एक महत्वपूर्ण विधेयक पर हस्ताक्षर नहीं किए जिसकी वजह से राज्य को 1,200 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान हुआ. इतना ही नहीं, उनके एक जमीन घोटाले में शामिल होने और विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति के मामलों में रुचि लेने की बात भी कही जा रही है.

इससे पहले कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने बेनीवाल की बर्खास्तगी पर सवाल उठाते हुए कहा था कि अगर उन्हें हटाना ही था तो मिजोरम क्यों भेजा गया. पार्टी के दूसरे नेता राजीव शुक्ला ने इसे भाजपा का राजनीतिक बदला करार दिया था. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने भी इस फैसले का विरोध किया था. उधर, कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद का कहना था कि यह फैसला संविधान के नियमों के अनुरूप हुआ है और महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने इसकी अनुमति दी है. पुडुचेरी के उपराज्यपाल वीरेन्द्र कटारिया को हटाए जाने के बाद बेनीवाल बर्खास्त की जाने वाली दूसरी राज्यपाल हैं.

गौरतलब है कि गुजरात में लोकायुक्त और कुछ अन्य मुद्दों पर राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी तत्कालीन राज्यपाल बेनीवाल के बीच लंबा टकराव चला था. बेनीवाल ने गुजरात सरकार से सलाह लिए बगैर जस्टिस आरए मेहता को गुजरात का लोकयुक्त नियुक्त कर दिया था. मोदी सरकार ने इसे असंवैधानिक करार देते हुए राज्यपाल के फैसले को अदालत में चुनौती दी थी. अदालत ने मेहता की नियुक्ति को सही ठहराया था, लेकिन बाद में जस्टिस मेहता ने लोकायुक्त बनने से ही इंकार कर दिया था. इसके अलावा बेनीवाल ने राज्य विधानसभा में पारित विभिन्न विधेयकों को भी रोक दिया था.
स्थाई व्यवस्था होने तक मणिपुर के राज्यपाल वीके दुग्गल को मिजोरम के राज्यपाल का प्रभार सौंपा गया है.

इबोला का तांडव

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पश्चिमी अफ्रीकी देशों में इबोला वायरस के भयंकर संक्रमण के चलते विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने वैश्विक आपात स्थिति का ऐलान कर दिया है. इस मुद्दे पर डब्ल्यूएचओ की आपात समिति की बैठक के बाद जारी बयान में कहा गया है कि इबोला को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फैलने से रोकने के लिए वैश्विक स्तर पर प्रयास किए जाने की आवश्यकता है. गौरतलब है कि गिनी, लाइबेरिया, नाइजीरिया और सिएरा लियोन में इस वायरस के संक्रमण से 932 लोगों की मौत हो गई है.लाइबेरिया में तो इसके चलते आपातकाल का ऐलान भी हो चुका है. वहां से लोगों द्वारा इबोला से ग्रस्त अपने परिजनों को सड़कों पर छोड़ देने की खबरें भी आ रही हैं. उधर, सऊदी अरब ने घोषणा की है कि वह पश्चिम अफ़्रीका के तीन देशों- लाइबेरिया, गिनी और सिएरा लियोन के लोगों को हज के लिए वीज़ा नहीं देगा जहां इबोला की समस्या बहुत गंभीर है.

क्या है इबोला
डब्ल्यूएचओ के मुताबिक इबोला एक तरह की वायरल बीमारी है. इसके मरीजों में अचानक बुख़ार, कमजोरी, मांसपेशियों में दर्द और गले में ख़राश जैसे लक्षण होते हैं. हालांकि ये बीमारी की शुरुआत भर होते हैं. बीमारी के अगले चरण में मरीज को उल्टी, डायरिया और कुछ मामलों में अंदरूनी और बाहरी रक्तस्राव होता है. इंसानों में यह वायरस संक्रमित जानवरों जैसे चिंपैंजी, चमगादड़ और हिरण आदि के साथ संपर्क के जरिये आता है. इंसानों में इसका संक्रमण संक्रमित खून या किसी द्रव या फिर अंगों के माध्यम से होता है. इबोला के शिकार व्यक्ति का अंतिम संस्कार भी खतरे से खाली नहीं होता और संक्रमित व्यक्ति का शव छूने वाला भी इसकी चपेट में आ सकता है. पर्याप्त सतर्कता न बरतने पर डॉक्टरों के भी इससे संक्रमित होने का भारी ख़तरा रहता है. संक्रमण के अपने चरम पर पहुंचने में दो दिन से लेकर तीन सप्ताह तक का वक़्त लग सकता है. इबोला संक्रमण की पहचान और इलाज, दोनों अभी तक मुश्किल बने हुए हैं.

डब्ल्यूएचओ द्वारा जारी दिशा निर्देशों के मुताबिक इससे पीड़ित रोगियों के साथ सीधे संपर्क से बचना चाहिए. इसका इलाज करने वालों को दस्ताने और मास्क पहनने चाहिए और समय-समय पर हाथ धोते रहना चाहिए.

बिन इंटरनेट फेसबुक

facebookअब मोबाइल पर इंटरनेट भले ही न हो, फेसबुक या गूगल सर्च हो सकता है. फेसबुक की अगुवाई में बनाई गई इंटरनेटडॉटओआरजी नाम की एक संस्था ने एक ऐसा ऐप लांच किया है जो मोबाइलधारकों को इंटरनेट कनेक्शन के बगैर ही फेसबुक, गूगल सर्च और विकीपीडिया सहित कुछ दूसरी सेवाएं मुहैय्या कराएगा.

जांबिया में इस सेवा को लांच करते हुए फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग ने कहा कि उनकी इस पहल का लक्ष्य उन लोगों तक इंटरनेट पहुंचाना है जो अभी इसका खर्च नहीं उठा सकते.

इंटरनेटडॉटआर्ग के प्रोडक्ट मैनेजमेंट डायरेक्टर गे रोजेन के मुताबिक यह ऐप एंड्रायड के अलावा साधारण फीचर वाले मोबाइल फोनों पर भी काम करेगा. गौरतलब है कि इंटरनेटडॉटओआरजी को फेसबुक ने नोकिया, सैमसंग, क्वालकॉम जैसी कंपनियों के साथ मिलकर बनाया है. इसका लक्ष्य है दुनिया की उस दो तिहाई आबादी को जागरूक करना जिसके पास अभी इंटरनेट की सुविधा नहीं है. अभी जांबिया में एयरटेल के ग्राहकों तक ही इस सेवा की पहुंच है, लेकिन इसे जल्द से जल्द पूरी दुनिया में सभी तक पहुंचाने की योजना है.

नागपुर की नकेल!

फोटोः कनार्टक न्यूज इमेजजस/जी मोहन
फोटोः कनार्टक न्यूज इमेजेज/जी मोहन
फोटोः कनार्टक न्यूज इमेजेज/जी मोहन

एक साल पहले तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपनी राजनीतिक शाखा, भाजपा से संवाद के लिए सिर्फ एक व्यक्ति नियुक्त करता था. पिछले एक दशक से यह काम सुरेश सोनी कर रहे थे. कुछ समय से उनके साथ सुरेश भैयाजी जोशी (संघ में सरकार्यवाह यानी मोहन भागवत के बाद दूसरे महत्वपूर्ण पदाधिकारी), सह सरकार्यवाह (संयुक्त महासचिव)  दत्तात्रेय होसबोले और रामलाल भी भाजपा में आ चुके हैं. लेकिन हाल ही में संघ ने एक चौंकाने वाला फैसला करते हुए अपने दो और वरिष्ठ पदाधिकारियों राम माधव एवं शिव प्रकाश को पार्टी के कामकाज पर नजर रखने के लिए भेज दिया है.

करीब चार माह पहले की बात है जब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने संघ सदस्यों को मोदी के उभार के प्रभाव से बचने की सलाह दी थी. बेंगलुरू में आयोजित एक सार्वजनिक कार्यक्रम में उनका कहना था, ‘हम राजनीति में नहीं हैं… नमो-नमो का उच्चारण हमारे लिए नहीं है.’ हालांकि उसके बाद उन्हें खुद अपने निर्देशों और सलाहों से अलग जाना पड़ा. भागवत ने अभी तक की परिपाटी से इतर बहुत से वरिष्ठ संघ पदाधिकारियों को भाजपा में भेजकर उसके साथ तालमेल बिठाने के काम पर तैनात कर दिया है. यह इस बात का संकेत है कि पार्टी और उसके मातृ संगठन के बीच संवाद के तौर-तरीके और स्तर में बड़े बदलाव आ रहे हैं.

जुलाई के पहले सप्ताह में संघ के 23 वरिष्ठ पदाधिकारी मध्य प्रदेश के राजगढ़ में दो दिवसीय सत्र के लिए एकत्रित हुए. इस आयोजन का उद्देश्य संघ की संगठनात्मक नीति में ऐसे बदलाव की शुरुआत करना था जिनसे वह समकालीन राजनीतिक और अन्य चुनौतियों से निपट सके. भाजपा के कई नेता इसमें शामिल होने के इच्छुक थे लेकिन उनको आयोजन से दूर रखा गया.

ये घटनाएं ऐसे ही नजरअंदाज नहीं की जा सकतीं. भाजपा और संघ के रिश्ते बदलाव के जटिल दौर से गुजर रहे हैं. हाल में हुए आम चुनावों में भाजपा को निर्णायक चुनावी जीत मिलने के बाद इस खेमें में एक किस्म की आश्वस्ति का भाव तो है लेकिन इस बीच कुछ ऐसा भी घटित हो रहा है जो निहायत ही जटिल और गूढ़ है. अपने मीडिया प्रभारी राम माधव की भाजपा में हालिया तैनाती से संघ यह सुनिश्चित करना चाहता है कि पार्टी की चुनावी जीत यूं ही न गंवा दी जाए. संघ की यह चिंता अपने उस घोषित विचार से एकदम उलट है जिसमें वह कहता रहा है कि राजनीतिक भूमिका पूरी तरह भाजपा के हवाले है और उसका उद्देश्य सिर्फ सामाजिक व सांस्कृतिक गतिविधियां आयोजित करना और उन्हें आगे बढ़ाना है.

इस समय भाजपा पर संघ का नियंत्रण और सख्त हो चुका है. दिल्ली में केशव कुंज स्थित संघ के स्थानीय मुख्यालय के अंदरूनी सूत्र इस बदलाव की अलग-अलग व्याख्या करते हैं. मध्य प्रदेश के एक वरिष्ठ संघ पदाधिकारी कहते हैं, ‘जनता ने जो भारी जनादेश दिया है उसे संगठनात्मक कमजोरी के चलते गंवाया नहीं जा सकता है. संघ को पता है कि रोज-रोज की राजनीतिक जरूरतें कई बार क्षणिक समझौतों की ओर ले जाती हैं. हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारे संदेश की मूल भावना नष्ट न होने पाए.’

 सुरेश ‘भैयाजी’ जोशी, सुरेश सोनी, राम माधव, कृष्ण गोपाल दत्तात्रेय होसबोले (ऊपर से)
सुरेश ‘भैयाजी’ जोशी, सुरेश सोनी, राम माधव, कृष्ण गोपाल दत्तात्रेय होसबोले (ऊपर से)

जब चुनाव के नतीजे एकतरफा रहे हों तब संघ की यह अतिसक्रियता हैरान करती है. अगर संघ के अंदरूनी लोगों पर भरोसा किया जाए तो इस जनादेश ने ही उसे चिंता में डाला है. हिंदुत्व की विचारधारा पर आधारित संगठनों के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई एक व्यक्ति संघ परिवार पर इतना निर्णायक प्रभाव डालने की स्थिति में पहुंचा हो जितना कि मोदी पहुंचे हैं. इससे संघ के कुछ धड़ों में आशंकाएं पैदा हुई हैं. मोदी-अमित शाह के बीच के समीकरणों से ये और भी गहरा गई हैं. एक समय ऐसा भी रहा है जब संघ और भाजपा के बीच इस कदर दबाव नहीं होता था. उस कालखंड में पार्टी के मामलों पर नजर रखने के लिए आमतौर पर केवल एक व्यक्ति की नियुक्ति की जाती थी. दुर्भाग्यशाली रहे केएन गोविंदाचार्य का मामला छोड़ दिया जाए तो (काफी धूमधाम से भाजपा में शामिल किए गए गोविंदाचार्य की अटल बिहारी के नेतृत्व से खटक गई और उनको बाहर का रास्ता दिखा दिया गया) तो संघ से भेजे गए बाकी लोग चुपचाप अपना काम करते रहे हैं. इस साल हुए आम चुनावों में भारी बहुमत और उससे पैदा हुई उम्मीदों के दबाव ने मजबूर कर दिया है कि संघ अपने संगठनों के लिए केवल मंथन शिविर से इतर कुछ और कामों को अंजाम दे.

मोहन भागवत वर्ष 2009 में केएस सुदर्शन के बीमार होने के के बाद संघ प्रमुख बने थे. दूसरी पीढ़ी के पहले संघ प्रमुख इस मायने में अपने पूर्ववर्तियों से बिल्कुल अलग हैं कि वे अब सक्रिय राजनीतिक भूमिका निभा रहे हैं. लेकिन 2009 में जहां चुनावी हार के बाद संघ को नए सिरे से नीतियां तैयार करनी थीं वहीं 2014 में मामला बिलकुल उलटा है. एक साल पहले नाराज लालकृष्ण आडवाणी ने भाजपा के तीनों महत्वपूर्ण पदों से इस्तीफा दे दिया था. उस वक्त पूर्वलिखित पटकथा की तरह एस गुरुमूर्ति बीच-बचाव करने पहुंचे और उन्होंने अपने मोबाइल से भागवत को फोन किया. भागवत के करीबी माने जाने वाले एक कारोबारी दिलीप देवधर बताते हैं, ‘आरएसएस प्रमुख ने आडवाणी को ऐसा कदम उठाने से रोका और अन्य बातों के अलावा उन्होंने इस बात का हवाला दिया इस समय सबसे बड़ी जरूरत सभी के एकजुट रहने और दिखने की है.’ इन दबावों के चलते आडवाणी को अपना रुख नर्म करना पड़ा.

इस पूरे प्रकरण का संदेश तब साफ हो गया जब कुछ समय बाद राजनाथ सिंह ने घोषणा कर दी कि आडवाणी अपना इस्तीफा वापस ले चुके हैं. पार्टी के वरिष्ठ नेता जाने-अनजाने यह मानते हैं कि पार्टी की आंतरिक राजनीतिक मुश्किलों को हल करने के लिए संघ महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है. संघ 2009 में जिस काम को ‘सूक्ष्म प्रबंधन’ कहता था उसकी सूक्ष्मता अब गायब हो चुकी है और इसको स्पष्टरूप से देखा जा सकता है. संघ के कामों पर नजर रखने वाले कई विश्लेषकों ने पिछले दिनों में यह दोहराया है कि 2004 के बाद से संगठन का असर भाजपा पर बढ़ता गया है. हालांकि भागवत के आने के बाद यह नियंत्रण ज्यादा कड़ा हो गया. ऐसे में हैरानी नहीं कि आडवाणी को अपने से 20 साल कनिष्ठ उस संघप्रमुख की बात माननी पड़ी जिसके जन्म के पहले ही वे संघ कार्यकर्ता बन चुके थे.

पिछले दिनों की कुछ घटनाओं से ऐसा लगता है कि भाजपा वापस अपने शुरुआती दिनों में पहुंच रही है जब संघ अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से पार्टी के हर कदम पर नजर रखता था. लेकिन इस बार ये तौर तरीके काफी अलग हैं. भाजपा इस समय जिस तरह से एक व्यक्ति के आसपास केंद्रित लग रही है उसी का असर है कि संघ की ‘सूक्ष्म प्रबंधन’ वाली नीति में खास तरह से बदलाव आए हैं. इसी का नतीजा था राजनाथ के मोदी कैबिनेट में जाने के बाद भाजपा अध्यक्ष पद पर नई नियुक्ति में रहस्यमयी देरी हुई. यदि पिछले साल संघ का पूरा ध्यान मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने पर था तो इस साल वह बहुत सावधानी से दूसरे काम पर ध्यान दे रहा है. संघ के जो लोग भाजपा में भेजे गए हैं उन्हें भागवत की तरफ से स्पष्ट निर्देश हैं. इन र्निर्दशों का सार है कि इस समय देश में उसके पक्ष को भारी समर्थन मिला है और मुख्य विपक्ष नेस्तनाबूत है, ऐसे में भाजपा नेतृत्व पार्टी के लिए जो भी फैसले करे लेकिन उसके प्रतिनिधियों को सुनिश्चित करना है कि संघ की पकड़ पार्टी पर मजबूत होती जाए.

नए भाजपा अध्यक्ष की घोषणा में तीन हफ्ते की देरी  पीछे भी संघ की दुविधा थी. संघ में अमित शाह के अलावा दो और लोगों के नाम पर विचार किया जा रहा था. इनमें से एक थे जेपी नड्डा. हिमाचल प्रदेश के नड्डा लंबे अरसे से संघ से जुड़े हैं और उन्हें संघ के बड़े तबके का समर्थन भी हासिल था. ओम माथुर को भी अध्यक्ष बनाने की बात चल रही थी जो मोदी के गृहराज्य गुजरात से हैं. लेकिन जब अध्यक्ष पद के लिए अमित शाह के नाम पर मुहर लगी तो संघ ने मजबूरी में ही सही इस फैसले को अपनी सहमति दे दी. मध्य प्रदेश से आने वाले संघ के एक वरिष्ठ सदस्य बताते हैं कि संघ पार्टी पर ज्यादा नियंत्रण चाहता है और इसके लिए वह ‘ पार्टी से संवाद के तरीके’ को बदलेगा. वे यह भी कहते हैं कि अब भाजपा पर नजर रखने के लिए संघ पदाधिकारियों की सक्रियता और बढ़ चुकी है. इसकी एक वजह भाजपा के इतिहास में आया यह महत्वपूर्ण मौका है. दूसरी बात यह भी है कि संघ यह नहीं चाहता कि मोदी या शाह का कद पार्टी में ऐसा न हो जाए जिसे वह काबू में न रख सके.

राजनीतिक विश्लेषक सौम्यजीत साहा कहते हैं, ‘ उत्तर प्रदेश में शाह ने एक तरह का चमत्कार किया है लेकिन यहां भाजपा की जीत में संघ की महत्वपूर्ण भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. पहले संभावित उम्मीदवार और फिर जीतने की संभावना वाले उम्मीदवारों के अंतिम चयन तक में भाजपा के मातृ संगठन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. यह सही है कि शाह ने चुनावी रणनीति का चेहरा बने लेकिन संघ का काम भी उससे कम महत्वपूर्ण नहीं था. हर लोकसभा क्षेत्र में संघ के तकरीबन 34 सबसे महत्वपूर्ण लोग थे जो जमीनी स्तर पर काम कर रहे थे. और यह काम लोकसभा चुनावों के कहीं पहले शुरू हो चुका था. संघ इससे पहले कभी ग्रामीण मतदाताओं को अपने पक्ष में करने में इतना सफल नहीं रहा जितना इस बार रहा. लखनऊ के राजनीतिक विश्लेषक प्रभाष बाजपेयी कहते हैं, ‘ इन लोगों ने गैर समाजवादी और एक समय कांग्रेस का वोट बैंक रहे तबके को अपने पक्ष में करने के लिए बहुत मेहनत की है.’ वे अपनी बात आगे बढ़ाते हैं,  ‘ बहुजन समाज पार्टी का जाटव वोट जिस तरह से उसके लिए अप्रभावी साबित हुआ इसमें भी संघ की जमीनी स्तर पर की गई मेहनत की भूमिका है.’  ऐसे में संघ द्वारा भाजपा पर नियंत्रण की कोशिश एक तरह से उसका मेहनताना भी है.

इस कड़ी में राम माधव और शिव प्रकाश की पार्टी में तैनाती से नागपुर मुख्यालय का यह संदेश समझा जा सकता है कि भले ही मोदी ने पार्टी के लिए जो भी किया हो पर वह अब पर्दे के पीछे की भूमिका में नहीं रहने वाला.

सड़कछाप काम !

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पिछले सप्ताह छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के निवासी घरों से बाहर निकले तो चौंक पड़े. शहर की सड़कों पर कुछ युवा धान की रोपाई कर रहे थे. धान के कटोरे के रूप में मशहूर इस प्रदेश में धान की फसलें लहलहाती ही हैं, लेकिन सड़कों पर धान की रोपाई लोगों के लिए कौतूहल का विषय था. हालांकि थोड़ी ही देर में सारा सस्पैंस खत्म हो गया. आम लोगों को यह पता चल गया कि ये युवक कांग्रेस के कार्यकर्ता हैं और नियंत्रक व महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में उजागर हुए लोक निर्माण विभाग के भ्रष्टाचार का विरोध कर रहे हैं. कैग की हाल ही में विधानसभा में पेश रिपोर्ट में कहा गया है कि छत्तीसगढ़ के लोक निर्माण विभाग की लापरवाही, कुप्रबंधन और भ्रष्टाचार के चलते सरकारी खजाने को कराड़ों रुपये का चूना लगा है.

कैग ने लोक निर्माण विभाग की कई गड़बड़ियां पकड़ी हैं. इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जहां एक तरफ राज्य के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सड़कों का जाल बिछाकर विकास की बात हो रही है वहीं दूसरी ओर कैग ने प्रदेश की सड़क परियोजनाओं में भारी लापरवाही होने की बात कही है. नक्सल प्रभावित जिले कोंडागांव में निर्माण कार्य में नियत छह साल की देरी होने के बावजूद ठेकेदारों से 2.94 करोड़ रुपये का जुर्माना नहीं वसूला गया. उल्टा उन्हें मूल लागत में 49.02 लाख रुपये की मूल्य वृद्धि कर भुगतान भी कर दिया गया. इसी तरह नांदघाट-चंद्रखुरी सड़क निर्माण में ठेकेदार ने फुटकर मिलने वाले डामर का उपयोग किया, जबकि उसे पैकेज्ड डामर का उपयोग करना था. विभाग को ठेकेदार से 10.66 लाख रुपये के डामर का अंतर वसूलना चाहिए था पर ऐसा नहीं किया गया. कैग के मुताबिक कवर्धा-रेगाखार सड़क निर्माण का भुगतान भी संदिग्ध है. विभाग ने ठेकेदार को इसके लिए 18.07 लाख रुपये का भुगतान बगैर काम करवाए ही कर दिया. विभाग उक्त स्थान पर काम पूर्ण दिखा रहा है जबकि वहां कोई सड़क बनाई ही नहीं गई. लापरवाही का एक मामला कांकेर-भानुप्रतापुर-संबलपुर सड़क का भी है. नियमानुसार इसकी चौड़ाई 5.5 मीटर होनी थी लेकिन इसे सात मीटर चौड़ा कर दिया गया. इस पर 1.40 करोड़ रुपये  का गैरजरूरी खर्च हुआ.

धांधली के मामले इंदिरा आवास योजना में भी सामने आए हैैं. राज्य सरकार ने आवासों पर एक प्रतीक चिन्ह बनाने के लिए 30 रुपये की दर निर्धारित की थी. लेकिन जगदलपुर जिले में ठेकेदार को इसके लिए प्रति प्रतीक चिन्ह 270 रुपए का भुगतान

किया गया.

छत्तीसगढ़ के महालेखाकार वीके मोहंती इस रिपोर्ट पर कहते हैं, ‘ योजनाओं का उचित क्रियान्वयन एवं प्रबंधन नहीं होने से सरकारी धन का दुरुपयोग हुआ है एवं करोड़ों रुपये की क्षति हुई है. कृषि क्षेत्र में राष्ट्रीय कृषि विकास योजनाओं में निधियों को विलंब से जारी किया गया और उसका उपयोग कुशलतापूर्वक नहीं किया गया. इस कारण प्रदेश सरकार को केंद्र द्वारा आगामी निधियां जारी नहीं की गईं. वहीं इंदिरा आवास योजना का लक्ष्य विभाग ने प्राप्त तो कर लिया लेकिन हितग्राहियों के चयन एवं प्रतीक्षा सूची बनाने में अनियमितता हुई है. राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना के तहत सरकार आईटी जैसी प्रमुख आधारभूत ढांचा एवं परियोजना परिचालन को स्थापित करने में विफल साबित हुई है.’ मोहंती यह भी कहते हैं कि नौ अलग-अलग विभागों ने हमें कई गड़बड़ियों पर जवाब ही नहीं दिए. सामाजिक कार्यकर्ता गौतम बंदोपाध्याय इस मसले पर बात करते हुए कहते हैं, ‘राज्य सरकार हमेशा भ्रष्टाचार पर जीरो टालरेंस की बात करती है लेकिन यह व्यवहार में नहीं दिखता. कैग की रिपोर्ट को छोड़िए प्रदेश के किसी भी कोने में चले जाइए. सड़कें, पुल, पुलिया देखकर ही सहज अंदाजा हो जाएगा कि विकास कागजों पर हो रहा है या जमीन पर.’ इस विषय पर जब तहलका ने लोकनिर्माण विभाग के अफसरों से बात करनी चाही तो उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली.

कैग की रिपोर्ट आने के एक सप्ताह पहले ही राज्य के मुख्य सचिव विवेक ढांड ने विभाग के अधिकारियों के साथ एक बैठक की थी. यह बैठक नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में केंद्र सरकार की मदद से बनी सड़क निर्माण योजना के तहत स्वीकृत और निर्माणाधीन सड़कों तथा पुल-पुलियों से संबंधित कार्यो की विस्तृत समीक्षा के लिए आयोजित की गई थी. मुख्य सचिव ने बैठक में यह भी कहा था कि राज्य के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सड़कों का बेहतर नेटवर्क तैयार कर इस समस्या पर नियंत्रण किया जा सकता है.

राज्य सरकार ने अपनी इसी रणनीति के तहत छत्तीसगढ़ में दो हजार 897 करोड़ रुपये की लागत से 53 सड़कें स्वीकृत की हैं जिनकी लंबाई दो हजार 21 किलोमीटर है. राजधानी रायपुर से जगदलपुर होते हुए कोंटा तक नेशनल हाइवे बनाने का काम भी जल्द शुरू होना है. लेकिन कैग की रिपोर्ट आने और उस पर राज्य सरकार से लेकर मुख्य सचिव और लोक निर्माण विभाग तक के अधिकारियों की चुप्पी के बाद ये सभी परियोजनाएं जमीन पर शुरू होने से पहले ही संदिग्ध लगने लगी हैं.

भूपेंद्र सिंह हुड्डा: हाईकमान मेहरबान तो…

साभारः द विब्यून
साभारः द ट्रिब्यून
साभारः द ट्रिब्यून

साल 2005. मार्च का महीना. हरियाणा विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद प्रदेश कांग्रेस सातवें आसमान पर थी. उसे 90 सदस्यीय विधानसभा में 67 सीटें हासिल हुई थीं. इस पूरी कामयाबी का सेहरा तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष भजनलाल के सिर बांधा जा रहा था. चूंकि पार्टी ने भजनलाल की अध्यक्षता में चुनाव लड़ा था और इतनी शानदार सफलता पाई थी इसलिए यह लगभग तय था कि प्रदेश के अगले मुख्यमंत्री पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल ही बनेंगे. लेकिन पार्टी ने सभी को चौंकाते हुए रोहतक से सांसद भूपेंद्र सिंह हुड्डा को प्रदेश का अगला मुखिया घोषित कर दिया.

पूरे प्रदेश में भजनलाल के समर्थकों ने पार्टी के इस निर्णय का जमकर विरोध किया. भजनलाल कांग्रेस नेतृत्व पर अपनी पीठ में छुरा घोंपने का आरोप लगाते रहे. लेकिन पार्टी ने अपना फैसला बदलने से इंकार कर दिया. हां, भजनलाल के जख्म पर मरहम लगाने के लिए उनके बेटे चंद्रमोहन को, जो बाद में चांद मोहम्मद के रूप में भी जाने गए, उप मुख्यमंत्री बना दिया गया. भजनलाल जब तक जीवित रहे उन्हें इस बात का दुख बना रहा.

2005 में मुख्यमंत्री बनने वाले भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में पार्टी ने 2009 का विधानसभा चुनाव लड़ा. चुनाव में पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में तो उभरी लेकिन बहुमत से काफी दूर थी. जहां 2005 में उसे 67 सीटों की शानदार सफलता मिली थी वहीं इस बार यह संख्या घटकर 40 रह गई थी. खैर, जोड़-तोड़ करते हुए हुड्डा ने भजनलाल के पुत्र कुलदीप विश्नोई की नईनवेली पार्टी हरियाणा जनहित कांग्रेस (हजकां) के विधायकों को तोड़ लिया.

इससे उनकी सरकार तो बन गई लेकिन उसकी वैधता पर पहले दिन से ही सवाल उठने लगे थे.

हाल ही में हुए 16 वीं लोकसभा के चुनावों में भी पार्टी को प्रदेश में भयानक हार का सामना करना पड़ा. हरियाणा उन प्रदेशों में शामिल रहा जहां कांग्रेस का लगभग सूपड़ा साफ हो गया. प्रदेश की 10 लोकसभा सीटों में से उसे सिर्फ एक सीट पर ही जीत मिल सकी. बाकी नौ पर वह बुरी तरह से हार गई. 2009 के लोकसभा चुनाव में राज्य में पार्टी को 10 में से 9 सीटों पर विजय हासिल हुई थी.

आज प्रदेश में पार्टी के भीतर माहौल यह है कि अधिकांश कार्यकर्ता और नेता इस बात को लेकर निश्चित हैं कि आगामी विधानसभा चुनावों में भी पार्टी की दुर्दशा लोकसभा चुनावों जैसी ही होने वाली है. नेताओं के साथ ही प्रदेश की राजनीति को जानने-समझने वाले भी इस बात को बेहद मजबूती के साथ कह रहे हैं. प्रदेश के वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक नवीन एस ग्रेवाल कहते हैं, ‘जिस पार्टी के पास 10 में से नौ लोकसभा सीटें थी आज उसके पास सिर्फ रोहतक सीट बची है. यह कोई आश्चर्य नहीं है. सभी को पता था कि लोकसभा चुनावों में ऐसा ही होगा. आगामी विधानसभा चुनाव में भी पार्टी अपनी हार की संभावना को काफी हद तक स्वीकार कर चुकी है.’

लेकिन ऐसी हालत हुई कैसे? जो पार्टी 2005 में 67 सीटों के साथ सत्ता में आई थी, जो अभी भी सत्ता में है और जिसने 2009 में लोकसभा की 10 में से 9 सीटें जीती थीं वह आज ऐसी स्थिति में कैसे पहुंच गई कि लोकसभा में उसे सिर्फ एक सीट मिली और आगामी विधानसभा चुनाव में उसकी करारी हार की भविष्यवाणियां की जा रही हैं.

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  • 2005 में भजनलाल को पछाड़ते हुए हुड्डा हरियाणा के मुख्यमंत्री बने थे
  • पार्टी नेताओं द्वारा तमाम विरोध के बाद भी हुड्डा हाईकमान के चहेते बने हुए हैं
  • हुड्डा पर हाईकमान की कृपा के तार उनके पुत्र दीपेंद्र हुड्डा की राहुल गांधी से नजदीकी से भी जुड़े हैं
  • जिस हरियाणा में 1972 के बाद से हर पांच साल पर सरकार बदल जाने का चलन रहा था. वहां पर पहली बार हुड्डा के नेतृत्व में 2009 में दोबारा कांग्रेस की सरकार बनी
  • हरियाणा की राजनीति के पितामह पूर्व उप प्रधानमंत्री देवीलाल को लोकसभा चुनावों में तीन बार हराने का रिकॉर्ड हुड्डा के नाम है
  • 2014 लोकसभा चुनाव में हरियाणा से कांग्रेस के टिकट पर सिर्फ हुड्डा के पुत्र दीपेंद्र हुड्डा चुनाव जीते.
  • राहुल की युवा टीम में से केवल ज्योतिरादित्य सिंधिया और दीपेंद्र ही हैं जो पिछला लोकसभा चुनाव जीतने में सफल रहे

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पार्टी के इस कगार तक पहुंचने में भजनलाल की जगह 2005 में मुखिया बनाए गए भूपेंद्र सिंह हुड्डा की प्रमुख भूमिका बताई जाती है. प्रदेश कांग्रेस के एक नेता कहते हैं,‘2005 में सोनिया जी के आशीर्वाद से मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही हुड्डा ने दो चीजों पर फोकस किया. एक उन्होंने उन नेताओं और विधायकों को चुन-चुनकर निपटाया जो उनके मुख्यमंत्री बनने के विरोध में थे. फिर उन्होंने प्रदेश के उन नेताओं को हाशिए पर फेंकना शुरू कर दिया जो भविष्य में उनको चुनौती दे सकते थे. इस तरह पार्टी का संगठन लगातार बर्बाद होता चला गया.’

इसके चलते कुछ समय बाद भजनलाल पार्टी छोड़कर चले गए. वे अकेले बाहर नहीं गए बल्कि अपने साथ पूरे प्रदेश से बड़ी संख्या में कार्यकर्ताओं और नेताओं को भी ले गए. यह पार्टी के लिए एक बड़ा झटका इसलिए भी था कि भजनलाल के साथ ही गैर जाटों की एक बडी संख्या उससे छिटक कर बाहर हो गई थी. 2005 में हुड्डा को मुख्यमंत्री बनवाने में अन्य कई नेताओं के साथ प्रदेश के वरिष्ठ नेता और राज्य सभा सदस्य चौधरी बीरेंद्र  सिंह, गुड़गांव से कांग्रेस के पूर्व सांसद रॉव इंदरजीत सिंह, पूर्व केंद्रीय मंत्री कुमारी शैलजा और फरीदाबाद से पूर्व सांसद अवतार सिंह भड़ाना आदि ने सकारात्मक भूमिका निभाई थी. इंद्रजीत चुनाव से पहले भाजपा में शामिल हो गए और आज केंद्र में राज्य मंत्री हैं. हुड्डा के मुख्यमंत्री बनने के कुछ समय बाद ही इनमें से कइयों ने अपने निर्णय पर अफसोस जताना शुरू कर दिया.

हुड्डा के पहले कार्यकाल के आधे समय तक सबकुछ ठीक ही चलता रहा लेकिन उसके बाद प्रदेश के नेताओं ने हुड्डा के खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी. हालाकि तब हुड्डा विरोध का यह काम पर्दे के पीछे से ही होता था. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक कमल जैन कहते हैं, ‘उस समय कोई खुलकर हुड्डा का विरोध करने की स्थित में नहीं था. क्योंकि उन्होंने देखा था कि कैसे भजनलाल जैसे कद्दावर नेता को मजबूरन पार्टी छोड़कर जाना पड़ा था.’ 2009 के विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद इस स्थिति में बदलाव हुआ. चुनाव में बहुमत नहीं मिलने के बाद उनसे नाराज चल रहे नेताओं का हौसला बढ़ता गया. इस तरह पहले जो बातें सतह के नीचे हुआ करती थीं, धीरे-धीरे सार्वजनिक होती चली गईं. आज स्थिति यह है कि कांग्रेस के प्रदेश नेताओं को अपनी सरकार और खासकर हुड्डा से जितनी शिकायतें हैं उतनी तो शायद अन्य राज्यों में विपक्ष को भी सत्तापक्ष से नहीं होंगी.

यह पार्टी के लिए एक बड़ा झटका इसलिए भी था कि भजनलाल के साथ ही गैर जाटों की एक बडी संख्या उससे छिटक कर बाहर हो गई थी

हुड्डा को घेर रहे इन नेताओं की दो प्रमुख शिकायतें रही हैं. पहली यह कि हुड्डा ने विकास के मामले में भेदभाव का बर्ताव किया. अपने पुत्र दीपेंद्र सिंह हुड्डा के संसदीय क्षेत्र रोहतक और उससे लगे क्षेत्रों को छोड़कर अपने नौ साल के कार्यकाल में हुड्डा ने किसी और क्षेत्र पर ध्यान ही नहीं दिया. पार्टी नेताओं का कहना है कि हुड्डा ने जानबूझकर उनके क्षेत्रों में काम नहीं कराया ताकि उन लोगों को क्षेत्र की जनता की नजरों में कमजोर दिखाया जा सके. हुड्डा का विरोध कर रहे नेताओं की दूसरी शिकायत यह है कि हुड्डा ने पूरी प्रदेश कांग्रेस पर अपना कब्जा जमा लिया है.

हुड्डा विरोध की मशाल जला रहे इन नेताओं में आज चौधरी बीरेंद्र  सिंह, कुमारी शैलजा,  राव इंद्रजीत सिंह, अवतार सिंह भड़ाना और राज्य सभा सांसद ईश्वर सिंह आदि प्रमुख हैं. चौधरी बीरेंद्र  सिंह कहते हैं, ‘कांग्रेस के अन्य नेताओं को हुड्डा ने न सिर्फ जानबूझकर कमजोर करने की कोशिश की बल्कि उन नेताओं के क्षेत्रों के साथ विकास के मामले में भेदभाव किया. ऐसे में लोगों का लोकसभा चुनाव हारना अचरज की बात नहीं है. जब आपकी पार्टी की प्रदेश में सरकार है और आप अपने इलाके में ही काम नहीं करा पा रहे हैं तो लोग आपको क्यों वोट देंगे.’

चुनाव से पहले भाजपा का दामन थामने वाले गुड़गांव से सांसद रॉव इंदरजीत सिंह भी जब तक कांग्रेस में रहे हुड्डा पर लगातार हमलावर थे. इंदरजीत का आरोप था कि हुड्डा ने विकास कार्यों को सिर्फ अपने गृहक्षेत्र रोहतक तक सीमित रखा. उन्होंने उस समय आरटीआई के माध्यम से मिली जानकारियां साझा करते हुए दावा किया था कि 2007 से 2012 के बीच हुड्डा सरकार द्वारा की गई घोषणाओं में से 60 फीसदी अकेले रोहतक, झज्जर और पानीपत के लिए की गई थीं.

पार्टी की एक और बड़ी नेता कुमारी शैलजा पिछले तीन सालों से लगातार अपने संसदीय क्षेत्र को विकास के मामले में नजरअंदाज करने का आरोप लगाती रही हैं. शैलजा का कहना है कि हुड्डा सरकार जान-बूझकर उनके संसदीय क्षेत्र अंबाला की अनदेखी करती आ रही है. फरीदाबाद से पार्टी के पूर्व लोकसभा सांसद अवतार सिंह भड़ाना प्रदेश की सरकारी नौकरियों में हुड्डा सरकार द्वारा एक खास समुदाय को तवज्जो देने का आरोप लगाते रहे हैं.

कमल जैन कहते हैं,‘इन नेताओं के आरोप बिलकुल सही थे. विकास के मामले में हुड्डा ने भेदभाव किया है इसमें कोई शक नहीं है. आप रोहतक जाइए. उसके बाद राज्य के बाकी क्षेत्रों को देख आइए. भेदभाव आपको साफ दिख जाएगा.’ चौधरी बीरेंद्र  सिंह कहते हैं, ‘गुड़गांव के विकास को आप हरियाणा का विकास नहीं मान सकते. मध्य हरियाणा के हिस्से जैसे जींद, हिसार समेत फतेहाबाद, कैथल, कुरुक्षेत्र, करनाल आदि इलाकों में तो विकास का कोई नामोनिशान तक नहीं है.’

विकास को लेकर भेदभाव और सुनवाई न होने का आरोप लगाते हुए पिछले कुछ समय में कई कांग्रेसी नेताओं ने पार्टी छोड़ दी है. पानीपत शहर के विधायक बलबीर शाहपाल उन शुरुआती लोगों में से हैं जिन्होंने हुड्डा पर अपने क्षेत्र के साथ भेदभाव का आरोप लगाते हुए पिछले साल के अंत में पार्टी छोड़ी थी. कुछ समय पहले ही पार्टी के पूर्व विधायक कुलबीर सिंह बेनिवाल भी कांग्रेस छोड़कर इंडियन नेशनल लोकदल में शामिल हो गए. इसी तरह हरियाणा कांग्रेस के प्रवक्ता रहे कर्मवीर सैनी ने भी मुख्यमंत्री पर कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करने, विकास में भेदभाव करने  का आरोप लगाते हुए पार्टी से अपने संबंध समाप्त करने की घोषणा कर दी. बेनिवाल कहते हैं, ‘मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने पार्टी के निष्ठावान नेताओं और कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की है. कई सालों से मैं मुख्यमंत्री से आदमपुर क्षेत्र में विकास कार्यो की गुहार लगाता आ रहा था लेकिन कोई सुनवाई नहीं की गई. इसलिए मैंने पार्टी छोड़ दी.’

प्रदेश के वरिष्ठ नेता और बिजली मंत्री कैप्टन अजय यादव भी लंबे समय से हुड्डा से नाराज चल रहे हैं. हुड्डा द्वारा उन्हें जानबूझकर साइड-लाइन करने के आरोप लगाने वाले अजय यादव की नाराजगी का आलम यह है कि उन्होंने हाल ही में कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था. वे मुख्यमंत्री पर आरोप लगाते हैं कि उनके कार्यकाल में दक्षिण हरियाणा (अजय यादव का प्रभाव क्षेत्र) की जानबूझकर उपेक्षा की गई. हालांकि चौबीस घंटे होते-होते उन्होंने इस्तीफा वापस ले लिया. अजय यादव की नाराजगी इस बात से भी थी कि हुड्डा की वजह से उनके बेटे रॉव चिरंजीव को गुड़गांव से लोकसभा चुनाव का टिकट नहीं मिल पाया.

पार्टी के एक नेता तहलका को बताते हैं कि अभी तो यह केवल नेताओं की लिस्ट हैं. पिछले एक साल में हजारों कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर जा चुके हैं.

हुड्डा ने सीएम बनने के बाद ही सरकार से लेकर संगठन तक चारों तरफ अपना एकछत्र राज स्थापित करने की शुरूआत कर दी थी. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘मुख्यमंत्री बनने के कुछ महीने बाद ही ये बात पानी की तरफ साफ हो चुकी थी कि प्रदेश में सरकार से लेकर संगठन तक अब वही होगा जो हुड्डा चाहते हैं.’ हुड्डा के ऊपर पार्टी पर एकाधिकार स्थापित करने का आरोप लगाने वाले नेताओं का मानना है कि 2007 में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए फूलचंद मुलाना को उन्होंने एक रबर स्टैंप अध्यक्ष के रूप में तब्दील कर दिया. इसका नतीजा यह हुआ कि समय के साथ सरकार और पार्टी के बीच का अंतर खत्म हो गया. 2011 में हिसार लोकसभा उपचुनाव में पार्टी की करारी हार के बाद मुलाना ने इस्तीफा दे दिया था लेकिन उसके बाद भी वे लंबे समय तक प्रदेश अध्यक्ष के पद पर काबिज रहे. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘जब आपका सीएम आपकी बात नहीं सुनता तो आप पार्टी के पास जाते हैं लेकिन यहां तो पार्टी अध्यक्ष भी सीएम के इशारों पर नाचता है.’  राज्य की राजनीति के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार मुकेश भारद्वाज कहते हैं, ‘ मुलाना का पूरा कार्यव्यवहार हुड्डा की कठपुतली जैसा ही रहा.’

आज प्रदेश के नेताओं को अपनी सरकार और खासकर हुड्डा से जितनी शिकायतें हैं उतनी तो शायद अन्य राज्यों में विपक्ष को भी सत्तापक्ष से नहीं होंगी

मुलाना के बाद अशोक तंवर को पार्टी ने हरियाणा का अध्यक्ष बनाया लेकिन मुख्यमंत्री का रबर स्टैंप होने की छवि को तंवर भी नहीं तोड़ पाए. लोकसभा चुनाव हारने के बाद उन्होंने सभी कमेटियों को भंग कर दिया और नए सिरे से कमेटी के गठन की बात की. कमेटियों का गठन शुरु हुआ तो उस पर भी सवाल उठने लगे हैं. तंवर पर ये आरोप लग रहे हैं कि चुन-चुन कर उन्होंने हुड्डा समर्थकों को जिला कमेटियों में शामिल किया है. हुड्डा के विरोधी किसी नेता के समर्थकों को उन कमेटियों में जगह नहीं दी गई है. पार्टी के नेता यह आरोप भी लगाते हैं कि कमेटियों का पुनर्गठन विधानसभा चुनाव से पहले पूरे संगठन में हुड्डा के समर्थकों को भरने के लिए किया गया है ताकि टिकट देने के समय राय लेने की नौबत आए तो वहां हुड्डा समर्थक ही मौजूद रहें.

कुछ नेता हुड्डा पर इस बात का भी आरोप लगाते हैं कि उन्होंने जानबूझकर बीते लोकसभा चुनावों में पार्टी के लोकसभा प्रत्याशियों को हरवाया. हार के कारणों की समीक्षा के लिए बनाई गई एंटनी समिति के समक्ष अपनी बात रखते हुए फरीदाबाद से चुनाव हार चुके अवतार सिंह भड़ाना का कहना था कि मुख्यमंत्री और उनके करीबी लोगों ने पार्टी उम्मीदवारों को हराने के लिए भाजपा उम्मीदवारों का साथ दिया. उनका कहना था कि हुड्डा को केवल अपने बेटे दीपेंद्र सिंह हुड्डा के रोहतक से जीतने से मतलब था. भड़ाना कहते हैं, ‘मैंने समिति को लिखित में सबूत दिये और कहा कि हुड्डा विधानसभा चुनावों में भी यही काम कर सकते हैं.’ यह कहानी बस भड़ाना की नहीं है. बल्कि हारने वाले अधिकांश सांसदों ने पैनल के समक्ष अपनी हार के लिए हुड्डा को ही जिम्मेवार ठहराया.

हुड्डा सरकार में स्वास्थ्य मंत्री किरण चौधरी भी अपने परिजनों के हारने के बाद मुख्यमंत्री पर हमलावर हैं. किरण की बेटी श्रुति चौधरी ने भिवानी महेंद्रगढ़ से चुनाव लड़ा और तीसरे स्थान पर रहीं. किरण का आरोप है कि हुड्डा ने उनकी बेटी को जिताने के लिए कोई प्रयास नहीं किया.

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जो पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी छोड़कर भाजपा के टिकट पर लड़े और जीते

  • कांग्रेस के वरिष्ठ नेता इंद्रजीत कांग्रेस के टिकट पर 2009 में संसद पहुंचे थे. हुड्डा का विरोध करते हुए लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी छोड़ दी और भाजपा में शामिल हो गए. 2014 का लोकसभा चुनाव भाजपा से लड़ा और जीता
  • लोकसभा चुनाव से एक महीने पहले तक हुड्डा सरकार में मुख्य संसदीय सचिव (सीपीएस) रहे धर्मवीर सिंह कांग्रेस पार्टी से त्यागपत्र देकर भाजपा से जुड़ गए. भिवानी महेंद्रगढ़ सीट से चुनाव लड़े और जीत दर्ज की
  • लोकसभा चुनाव से साल भर पहले भाजपा से जुड़ने वाले पूर्व कांग्रेसी रमेश कौशिक सोनीपत से चुनाव लड़े और जीतने में सफल रहे

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पार्टी के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सांसद ईश्वर सिंह हुड्डा सरकार में दलितों पर लगातार बढ़ रहे अत्याचार का प्रश्न भी उठाते हैं. वे कहते हैं, ‘हुड्डा के कार्यकाल में दलितों पर अत्याचार लगातार बढ़ा है और प्रदेश सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी.’ इस मुद्दे को लेकर राज्य में कई दलित सम्मेलन कर चुके ईश्वर कहते हैं, ‘हरियाणा के बगल में ही पंजाब है, आप बताइए पिछली बार आपने कब सुना था कि दमन के कारण पूरा का पूरा गांव पलायन कर गया ?’

सदन में सक्रिय राहुल गांधी

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एक बड़े अंतराल के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी लोकसभा के भीतर हमलावर अंदाज में दिखे. सांप्रदायिक हिंसा बिल पर चर्चा कराने की मांग को लेकर वे अपनी पार्टी के सांसदों के साथ सदन के वेल में पहुंच गए और हंगामा करने लगे. इसके बाद उन्होंने तानाशाही नहीं चलेगी और प्रधानमंत्री जवाब दो जैसे नारे लगाए. इस दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी सदन में मौजूद थे. हंगामा थमता न देखकर लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने सदन की कार्रवाई 10 मिनट के लिए स्थगित कर दी. हालांकि कार्रवाई दोबारा शुरू होने पर भी हालात में कोई फर्क नहीं आया. कांग्रेस, राजद, जदयू, और आम आदमी पार्टी के सदस्य अध्यक्ष के आसन के पास नारेबाजी करते रहे. बाद में संवाददाताओं से बात करते हुए राहुल गांधी ने इशारों ही इशारों में लोकसभा अध्यक्ष महाजन पर पक्षपात का आरोप लगाया. उनके मुताबिक संसद में ऐसी भावना है कि देश में किसी बात पर केवल एक व्यक्ति की ही बात मायने रखती है. उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया कि उसने किसी भी चर्चा को स्वीकार न करने की मानसिकता बना ली है.

उधर, भाजपा ने राहुल गांधी के इस व्यवहार को अर्यादित बताया. पार्टी नेता राजीव प्रताप रूडी का कहना था कि राहुल गांधी बोलना चाहते हैं, यह ठीक है, लेकिन इसकी एक तय प्रक्रिया होती है जिसका उन्हें पालन करना चाहिए. पार्टी नेता अरुण जेटली ने चुटकी लेते हुए कहा कि राहुल गांधी अगर कुछ करते हुए दिखना ही चाहते हैं तो पहले अपनी पार्टी में कुछ करते हुए दिखें जो कई नेताओं के विद्रोही तेवरों के चलते संकट का सामना कर रही है.

 

 

नहीं रहे प्राण

Shooting-Cartoonist-Pran-(Chacha-Chaudhary)मशहूर कार्टूनिस्ट प्राण का बुधवार सुबह गुड़गांव के मेदांता अस्पताल में निधन हो गया. 75 वर्षीय प्राण पिछले कुछ समय से कैंसर से जूझ रहे थे. चाचा चौधरी, साबू, बिल्लू, पिंकी, श्रीमती जी जैसे उनके कार्टून एक पूरी पीढ़ी को न सिर्फ गुदगुदाते रहे बल्कि उनमें छिपे सामाजिक संदेशों ने लोगों को अच्छा इंसान बनने की प्रेरणा भी दी

प्राण का जन्म अविभाजित हिंदुस्तान में लाहौर के निकट हुआ था. उन्होंने ग्वालियर से स्नातक की डिग्री ली और आगे के अध्ययन के लिए जेजे स्कूल ऑफ आर्ट, मुंबई में दाखिला ले लिया. लेकिन वहां से अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर उन्होंने दैनिक अखबारों में कार्टून बनाने का सिलसिला चालू कर दिया. इस तरह सन 1960 के दशक में प्राण ने पहली बार भारतीयों को अपने कार्टून कैरेक्टरों से मिलवाया. उसके पहले देश में कार्टूनों को पसंद करने वाले लोग पश्चिमी देशों के कार्टूनों पर निर्भर थे. लोगों को यह बात बहुत शिद्दत से महसूस होती थी कि ऐसे कार्टून कैरेक्टर हों जो उनकी दुनिया से हों और उनके जैसे हों. उनकी यह चाह पूरी हुई सन 1971 में जब चाचा चौधरी कार्टून की दुनिया में अवतरित हुए. चाचा चौधरी को पढ़ने वाले जानते हैं कि लाल पगड़ी और घनी सफेद मूंछों वाले नाटे कद के चाचा चौधरी का दिमाग कंप्यूटर से भी तेज चलता है लेकिन उनकी सजधज बिल्कुल पड़ोस में रहने वाले किसी चाचा या ताऊ की तरह ही है. चाचा चौधरी और साबू की जोड़ी ने न जाने कितनी पीढ़ियों के बचपन को संवारा. उन्हें हास्य, रोमांच, विज्ञान फंतासी की दुनिया की सैर कराई. इसी तरह शरारती बिल्लू की बात करें तो चेहरे पर झूलते घने बालों के चलते चाहे आज तक कोई बिल्लू की आंखें न देख पाया हो लेकिन बिल्लू न जाने कितनी पीढ़ियों की आंखों का तारा बना रहा.

प्राण के कार्टून किरदारों की खासियत यह थी कि वे अपनी तरह के अनूठे सुपरहीरो थे. उनके पास कोई अलौकिक शक्तियां नहीं थीं वे बिल्कुल आम लोगों जैसे थे लेकिन अपनी मेधा और तीव्र बुद्धि का प्रयोग करके वे किसी भी मुसीबत से बाहर निकल सकते थे.

हमारे देश में जहां राजनीतिक कार्टूनों की पुरानी परंपरा रही हैं वहीं कार्टून कला को लोकप्रिय बनाने की शुरुआत प्राण ने ही की. उनके योगदान को इस बात से समझा जा सकता है कि प्राण को भारतीय कार्टूनों का जनक तक कहा जाता है. वर्ल्ड इनसाइक्लोपीडिया ऑफ कार्टून्स के संपादक मॉरिस हॉर्न ने प्राण को भारत का वाल्ट डिज्नी करार दिया था. अपने काम से उन्हें कितना गहरा लगाव था उसे इस बात से समझा जा सकता है कि 14 जुलाई को अस्पताल में दाखिल कराए जाने तक वे कार्टून बनाने के काम में लगे हुए थे. वेबसाइट डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यूडॉटचाचाचौधरीडॉटकॉम में प्राण को उद्घृत करते हुए कहा गया है, ‘अगर मै लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाने में कामयाब रहा तो अपने जीवन को सफल समझूंगा.’.

 

माइक्रोमैक्स नंबर वन

download (1)सैमसंग को पछाड़ते हुए माइक्रोमैक्स भारतीय मोबाइल बाजार की सबसे बड़ी कंपनी बन गई है. बाजार के आंकड़ों पर नजर रखने वाली कंपनी काउंटरप्वाइंट रिसर्च की हालिया रिपोर्ट बता रही है कि माइक्रोमैक्स की अगुवाई में भारतीय मोबाइल कंपनियों का इस बाजार के दो-तिहाई हिस्से पर कब्जा हो गया है. काउंटरप्वाइंट की रिपोर्ट के मुताबिक 2014 की दूसरी तिमाही में माइक्रोमैक्स की बाजार हिस्सेदारी 17 फीसदी तक पहुंच गई. मोबाइल फोन बनाने वाली वह अब दुनिया में दसवीं सबसे बड़ी कंपनी है. सैमसंग के लिए थोड़ी राहत की बात यही है कि स्मार्टफोन श्रेणी में 25 फीसदी की हिस्सेदारी के साथ वह अभी भी माइक्रोमैक्स से आगे बना हुआ है जिसके लिए यह आंकड़ा 19 फीसदी है. रिपोर्ट के मुताबिक अपने हालिया मॉडल मोटो-जी और मोटो-ई की मोटी बिक्री के चलते मोटोरोला को भारतीय बाजार में एक नई जिंदगी मिल गई है और नोकिया और सोनी जैसी कंपनियों को पीछे छोड़ते हुए उसकी बाजार हिस्सेदारी चार फीसदी से भी ऊपर पहुंच गई है.

 

भारत का इजरायल प्रेम!

रक्ा कवच ! कहा जा रहा है कक भारत इजरायल की किसाइल प्रकतरोधी प्रणाली ‘आयरन डोि’ खरीदने िें कदलचस्पी कदखा रहा है
रक्ा कवच ! कहा जा रहा है कक भारत इजरायल की किसाइल प्रकतरोधी प्रणाली ‘आयरन डोि’ खरीदने िें कदलचस्पी कदखा रहा है
कहा जा रहा है कि भारत इजरायल की मिसाइल  प्रतिरोधी प्रणाली ‘आयरन डोम’ खरीदने में दिलचस्पी दिखा रहा है.
कहा जा रहा है कि भारत इजरायल की मिसाइल प्रतिरोधी प्रणाली ‘आयरन डोम’ खरीदने में दिलचस्पी दिखा रहा है. फोटोः एपी

इजरायल के साथ भारत के संबंधों में पहली बार एक अलग रणनीतिक बदलाव दिख रहा है. आजादी के बाद पहली बार ऐसा हुआ है जब केंद्र में किसी सरकार ने इजरायल के गाजा पट्टी क्षेत्र में आक्रामक कार्रवाई पर अपना पक्ष रखने से मना कर दिया. हालांकि इससे पहले भारत की नीति फलस्तीन के पक्ष में झुकी रही है. लेकिन अब ऐसा नहीं है. यूपीए-एक और दो के बाद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनी एनडीए सरकार में यह और साफ हो चला है. और इसकी बुनियाद में हैं भारत और इजरायल के बीच बढ़ते रक्षा संबंध.

पिछली फरवरी में इजरायल के अखबार हारेत्ज में एक रिपोर्ट आई थी. इसके मुताबिक, ‘इस समय इजरायल की आयुध कंपनियों के लिए भारत सबसे बड़ा आयातक है हालांकि दोनों देश रक्षा सौदों की प्रकृति और मात्रा के बारे में जानकारी सार्वजनिक नहीं करते… भारत एक से डेढ़ अरब डॉलर के बीच आयात करता है, आगे इसमें और भी गुंजाइश है.’ नई खबरों के मुताबिक इजरायल के मिसाइल प्रतिरोधी तंत्र (आयरन डोम) के निर्यात के लिए भी भारत में संभावना देखी जा रही हैं. हाल ही में फलस्तीन-इजरायल संघर्ष के दौरान आयरन डोम की काफी चर्चा हुई है. यह रक्षा तंत्र इजरायल की तरफ अब तक दागे गए 90 फीसदी रॉकेटों को हवा में ही नष्ट कर चुका है. कहा जा रहा है कि इजरायल एयरोस्पेस इंडस्ट्री (आईएआई) और राफेल को इजरायली सरकार के माध्यम से यह संदेश भेजा गया है कि क्या आयरन डोम का एक उन्नत संस्करण भारत के लिए भी डिजाइन किया जा सकता है. हालांकि यह मुश्किल है फिर भी इजरायल से एक सूत्र बताते हैं, ‘सवाल यह नहीं है कि इजरायल ऐसा उन्नत सिस्टम बना सकता है या तकनीकी हस्तांतरण कर सकता है. असल सवाल है कि क्या वह भारत के सैन्य तकनीकी विशेषज्ञों को मिसाइल ट्रैक करना और डोम की प्रतिरोधी मिसालों से उसे भेदने का प्रशिक्षण दे सकता है.’

भारत में जिस आयरन डोम को लेकर इतनी चर्चा है उसके बारे में ज्यादातर लोगों को यह जानकारी नहीं है कि यह प्रणाली स्वचालित या ऑटोमैटिक नहीं है. इसके एंटी मिसाइल रॉकेटों को इजरायली सेना के उन उच्च प्रशिक्षित जवानों के द्वारा दागा जाता है जो हमास के रॉकेट और छोटे एयरक्राफ्ट के बारीक अंतर को पहचान सकें. इसमें एक छोटी-सी चूक भी भयानक अंतरराष्ट्रीय विवाद का कारण बन सकती है.

फिलहाल एशिया में दो देश अपनी जरूरतों के मुताबिक उन्नत किए गए आयरन डोम को खरीदने में सबसे ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे हैं. सिंगापुर में यह प्रणाली लगाई जा रही है. वहीं 2013 के आखिरी महीनों के दौरान भारत के रक्षा मंत्रालय ने काफी सतर्क रवैय्या अपनाते हुए इस प्रणाली में दिलचस्पी जाहिर की थी. वहीं अमेरिका भी अपनी वायु सीमा को सुरक्षित बनाने के लिए इस तरह की प्रणाली विकसित करने के लिए इजरायल से तकनीकी सहयोग पर विचार कर रहा है. हालांकि इन दोनों देशों के बीच संबंध रक्षा सौदों से कहीं आगे हैं. जबकि भारत के पास आयरन डोम और तकनीक के बदले सिवाय पैसा देने के और कोई विकल्प नहीं है.

इजरायल की अपनी जरूरतों के लिए यह सौदा काफी जरूरी है. पिछले कई सालों से वहां के सैन्य प्रतिष्ठानों को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ रहा है और भारत उसे इस तंगी से उबार सकता है. भारत अरबों रुपये सैन्य साजो ने सामान और कई देशों से हथियार खरीद पर खर्च करता हैै. अंतरराष्ट्रीय स्तर भारत की खरीद प्रक्रिया पर आम धारणा है कि ये कछुआ चाल से चलती है और इसमें भारी कुप्रबंधन है. दूसरे देशों के रक्षा प्रतिष्ठान यह भी मानते हैं कि भारत में ज्यादातर हथियार पुराने हैं और कई तो जुगाड़ तकनीक से चल रहे हैं. ऐसे में भारत की उन्नत संस्करण वाले आयरन डोम में दिलचस्पी से इजरायल भ्रम की स्थिति में है.

एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या आयरन डोम से भारतीय आकाश को सुरक्षित किया जा सकता है. इजरायल में इस प्रणाली से सिर्फ 20,770 वर्ग किमी की सुरक्षा की जाती है. इस भौगोलिक क्षेत्र को भी मोटे तौर पर चार भागों में विभाजित किया जा सकता है. इसकी तुलना भारत से करें तो इस प्रणाली के हवाले 3,28,7590 वर्ग किमी क्षेत्र होगा यानी इजरायल से 158 गुना ज्यादा. दुनिया में जितने मौसम हो सकते हैं उन सबके बीच इस प्रणाली को काम करना पड़ेगा.

आयरन डोम प्रणाली मुख्य रूप से रॉकेट लॉन्चर वाले वाहनों पर आधारित है. इन्हें जरूरत के हिसाब से कुछ किमी की दूरी पर तुरंत भेजा जा सकता है. इनके जरिए कम दूरी (5-70 किमी) से दागे गए रॉकेटों को भेदा जा सकता है. सुरक्षा तंत्र को सेटेलाइट से हमलावर रॉकेट या मिसाइल का पता चलता है और उसके बाद तुरंत ही ये उस पर सटीक निशाने के लिए तय जगह पर पहुंच जाते हैं. इजरायल के किसी भी पड़ोसी देश के पास इतनी उन्नत प्रणाली नहीं है. वहां के सूत्र बताते हैं कि भारत का अति विविध मौसम तो इजरायल के लिए चुनौती है ही, साथ ही इस प्रणाली की तैनाती पाकिस्तान के खिलाफ होगी जो खुद सैटेलाइट तकनीक से संपन्न है.

आयरन डोम का उन्नत संस्करण एक सपना है- भारत के लिए एक रणनीतिक सपना तो इजरायल के लिए आर्थिक तंगी से उबरने का सपना.

इसके अलावा छोटे हथियारों की खरीद में भी भारत-इजरायल की निकटता बढ़ी है. 2013 की शुरुआत में भारत सरकार ने घोषणा की थी कि वह उस साल तकरीबन 7-8 अरब डॉलर छोटे हथियारों के आयात और देश में ही उनके निर्माण के लिए खर्च करेगा. इसी के तहत भारतीय सेना ने तकरीबन 2372 टवोर टीएआर-21 गन खरीदी थीं. ये गन इजरायल की आईएमआई कंपनी बनाती है. इससे पहले भारतीय नौ सेना के विशेष दस्ते ‘मारकोस’ के लिए ऐसी ही 500 गन दिसंबर, 2010 में खरीदी गई थीं. 2011 में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल को 12,000 एक्स 95/माइक्रो टवोर गन दी गई थीं.

भारत पहले भी इजरायल से ड्रोन आयात कर चुका है लेकिन इतनी संख्या में नहीं जिसकी संभावना अब व्यक्त की जा रही है

तहलका को यह भी जानकारी मिली है कि भारत सरकार मध्य प्रदेश और पुणे में ऐसी जगह तलाश रही है जहां ऊजी गनों की निर्माण इकाई लगाई जा सके. ऊजी को भी आईएमआई बनाती है. इजरायल सहित दुनिया के कई देशों में सेना इस गन का इस्तेमाल करती है. भारतीय सेना के तकरीबन 11.3 लाख जवानों, अर्ध सैन्य बलों के एक लाख 13 हजार और रिजर्व बलों के 11.5 लाख जवानों में हो सकता है सभी को ऊजी न दी जाए लेकिन यदि इनकी संयुक्त संख्या के तीसरे हिस्से को भी इस हथियार की जरूरत हुई तो इजरायल के लिए यह खजाना पूरा भर जाने जैसा सौदा होगा.

इजरायल ने भारत के माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में भी मदद का प्रस्ताव सरकार को दिया है. इसके तहत इन क्षेत्रों के लिए अर्द्ध स्वचालित ड्रोन दिए जा सकते हैं. सूत्र बताते हैं कि भारत सरकार ने इस प्रस्ताव पर सकारात्मक रुख दिखाया है और हो सकता है दो-तीन सालों के भीतर ऐसे तकरीबन 100 ड्रोनों का आयात कर लिया जाए. हालांकि भारत पहले भी इजरायल से ड्रोन आयात कर चुका है लेकिन इतनी संख्या में नहीं जिसकी संभावना अब व्यक्त की जा रही है. दिसंबर, 2013 में रक्षा मामलों की कैबिनेट कमिटी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में 15 हेरॉन ड्रोनों की खरीद को मंजूरी दी थी. इनकी कीमत 30 करोड़ डॉलर थी.

रक्षा संबंधों के अलावा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान सरकार का इजरायल की तरफ झुकाव की अपनी भी वजहें हैं. गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी के संबंध इजरायल से काफी गर्मजोशी भरे थे. उन्होंने राज्य में जल नवीनीकरण और सिंचाई की ड्रिप तकनीक पर इजरायल के सहयोग को काफी समर्थन दिया था. मोदी सरकार के सत्ता में आने के चालीस दिन पहले सुषमा स्वराज ने दोहराया था कि इजरायल भारत का ‘भरोसेमंद सहयोगी’ है. वे अप्रैल में भारत-इजरायल संसदीय मैत्री समूह के प्रमुख के रूप में इजरायल की तीन दिन की यात्रा पर थीं. तब कांग्रेस ने भी स्वराज का समर्थन किया था. जाहिर है जब दोनों मुख्य दलों का रवैय्या एक जैसा हो तो भविष्य में भारत के इस नीति से पलटने की संभावना और कम ही होगी.