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भारतीय क्रिकेट टीम पर सवाल

इंग्लैंड के खिलाफ आखिरी टेस्ट में पारी और 244 रन की शर्मनाक हार के साथ 1-3 के बड़े अंतर से टेस्ट श्रृंखला गंवाने वाली भारतीय टीम की चौरतफा आलोचना हो रही है. कयास लगाए जा रहे हैं कि इस लचर प्रदर्शन के बाद महेंद्र सिंह धोनी की टेस्ट कप्तानी जा सकती है. दिग्गज खिलाड़ी सुनील गावस्कर का बयान आया है कि जो खिलाड़ी क्रिकेट के इस लंबे फॉर्मैट में खेलने में दिलचस्पी नहीं रखते, उन्हें टेस्ट टीम छोड़ देनी चाहिए. एक शो में गावस्कर ने कहा कि धोनी और उनकी टीम ने टेस्ट सीरीज में लचर प्रदर्शन कर देश को शर्मसार किया है. इसी शो में इंग्लैंड के पूर्व कप्तान माइकल वॉन ने भी भारतीय खिलाड़ियों की प्रतिबद्धता को कटघरे में खड़ा किया. उन्होंने कहा कि अच्छी पिच के बावजूद भारतीय टीम का सिर्फ 29 ओवरों में सिमट जाना वाकई शर्मानक है. वॉन ने तो भारतीय टीम का मजाक उड़ाते हुए ट्विटर पर एक सफेद झंडे की फोटो पोस्ट की और लिखा कि यह भारतीय क्रिकेट का नया झंडा है.

आयोग की जगह थिंक टैंक

सरकार द्वारा योजना आयोग खत्म करने के फैसले की विभिन्न दलों द्वारा आलोचना के बीच अब खबर आ रही है कि जल्द ही आयोग की जगह पांच सदस्यों वाला थिंक टैंक ले सकता है. बताया जा रहा है कि यह पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश प्रभु की अध्यक्षता में बन सकता है. चर्चा है कि इस थिंक टैंक में अर्थशास्त्री अरविंद पाणगरिया और बिबेक देबरॉय को भी जगह मिल सकती है. विज्ञान और तकनीक के किसी विशेषज्ञ और संघ परिवार की सोच से जुड़े किसी समाजशास्त्री को भी इसके परामर्श बोर्ड में शामिल किया जा सकता है. गौरतलब है कि देबरॉय और पाणगरिया लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी की कोर टीम से बतौर सलाहकार जुड़े हुए थे. बताया जा रहा है कि इस थिंक टैंक का नाम और इसमें कितने सदस्य होंगे, यह अभी तक तय नहीं हुआ है. चर्चा है कि इस थिंक टैंक के पास दूसरे क्षेत्रों के विशेषज्ञों से मदद लेने का अधिकार होगा.

भारत पाक वार्ता रद्द

भारत ने पाकिस्तान के साथ विदेश सचिव स्तर की वार्ता रद्द कर दी है यह वार्ता अगस्त को होने वाली थी. पाकिस्तानी उच्चायुक्त अब्दुल बासित द्वारा कश्मीरी अलगाववादी समूहों को बातचीत के लिए बुलाए जाने के बाद यह फैसला हुआ. विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता सैयद अकबरूदीन ने इस फैसले की पुष्टि करते हुए कहा कि भारत की तरफ से आपसी रिश्तों को बेहतर बनाने की कोशिशों के बावजूद पाकिस्तानी उच्चायुक्त का तथाकथित कश्मीरी नेताओं से मिलना पाकिस्तान की गंभीरता दिखाता है. उनका कहना था, ‘पाकिस्तान भारत के अंदरूनी मामलों में दखल दे रहा है. हमें नहीं लगता कि ऐसे में भारतीय विदेश सचिव सुजाता सिंह की इस्लामाबाद यात्रा से कुछ हासिल होगा. इसलिए उस यात्रा को रद्द किया जाता है.’

इससे पहले सोमवार शाम को पाक उच्चायुक्त ने अलगाववादी नेता शब्बीर शाह के साथ दिल्ली में मुलाकात की थी. मंगलवार को वह कई दूसरे अलगाववादी नेताओं से मिलने वाले थे. इस पर भारत सरकार ने आपत्ति जताई थी. इसके अलावा, पाकिस्तान लगातार युद्धविराम का उल्लंघन कर रहा था. रविवार रात ही पाकिस्तान रेंजर्स ने जम्मू सेक्टर में सीमा चौकियों पर अत्याधुनिक हथियारों और मोर्टारों से हमला किया था. सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) ने भी पाकिस्तानी गोलीबारी का मुंहतोड़ जवाब दिया. दोनों पक्षों के बीच गोलीबारी सोमवार सुबह 6:30 बजे तक चली. बताया जा रहा है कि मोर्टार दागे जाने के कारण अतर सिंह नाम के एक बुजर्ग ग्रामीण घायल हो गए. यह इस साल संघर्षविराम के उल्लंघन की सबसे बड़ी घटना बताई जा रही है.

भागवत के एक और बयान पर बवाल

New Imageराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत का एक और बयान विवादों में घिर गया है. रविवार को मुंबई में विश्व हिंदू परिषद की स्थापना की स्वर्ण जयंती पर एक आयोजन में भागवत ने कहा था कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और हिन्दुत्व उसकी पहचान है. कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने इसके लिए उन पर निशाना साधते हुए उन्हें हिटलर कहा है. ट्विटर पर अपनी टिप्पणी में उनका कहना है–हम लोग एक ही हिटलर को जानते थे. लेकिन यहां दो हैं. अब भारत को भगवान ही बचाए. इससे पहले उड़ीसा के कटक में भी भागवत ने कहा था कि सभी भारतीयों की सांस्कृतिक पहचान हिन्दुत्व है और वे इस महान संस्कृति के वंशज हैं. उनका तर्क था कि जब इंग्लैंड के निवासी को इंग्लिश, जर्मनी को जर्मन और अमेरिका को अमेरिकी कहा जाता है तो फिर हिन्दुस्तान के निवासियों को हिन्दू क्यों नहीं कहा जा सकता. दिग्विजय सिंह ने अपने दूसरे ट्वीट में भागवत से पूछा है कि जब हिन्दुत्व एक धार्मिक पहचान है, तो सनातन धर्म क्या है? उन्होंने संघ की तुलना तालिबान से करते हुए कहा है कि ऐसी सोच रखने वाले लोग देश की शांति को बिगाड़ रहे हैं.

कट्टी न हुए जो दोस्त कभी…

Chacha-choudrary--1यह उस पीढ़ी के बारे में है जिसका कम्प्यूटर से तार्रुफ पहली बार चाचा चौधरी ने ही कराया. उसके सामने बैठे वे कई साल बाद. यह उस पीढ़ी के बारे में है जो अपनी मासूमियत वाले पलों में चाचा चौधरी-साबू की डायमंड कॉमिक्स पढ़ा करती और अगले मोड़ पर खड़ी जवानी तक पहुंचने की जल्दी में नागराज-ध्रुव-डोगा की राज कॉमिक्स. यह उस पीढ़ी के बारे में है जिनके जीवन में गर्मी की छुट्टियां किराए पर चाचा चौधरी की कामिक्स घर लाने के लिए ही आती. यह वह पीढ़ी है, जिसकी गर्मी की छुट्टियां दीवाली-सी गुलजार होती थीं.

उन गुलजार दिनों में शहर के कई घर साहूकारी के अड्डे हो जाते और उन घरों के अंदर रहने वाले लड़के-लड़कियां कम-उम्र साहूकार (अच्छे वाले). वे अपने घरों में किराए पर कॉमिक्स देने के लिए कुटीर उद्योग का बचपन संस्करण खोलते और दो विपरीत छोरों की खूंटियों पर एक के नीचे एक चार-पांच रस्सियां बांध उन पर बीस-पच्चीस कॉमिक्स उसी तरह डालते जाते जैसे उनकी मांएं छत की रस्सियों पर सुबह कपड़े सुखाने डाला करतीं. न शहर में कहीं पोस्टर लगते, न इन दुकानों के इश्तिहार छपते, लेकिन दिन-भर इन घरों में रौनक रहती, बच्चों की मोलभाव वाली दुनिया सजती. बच्चे थे, एडवांस डिपॉजिट वाला महंगा सिस्टम नहीं था, एक-दो रुपये में जहान अपना था, बच्चे रोज दो कॉमिक्स फांकते और दिन-भर क्रिकेट-फुटबाल खेलते. एक-दो रुपये में गुड़िया के बाल भी आते, पिस्ता आइसक्रीम भी, जहां-भर की टाफियां भी और किराए पर चाचा चौधरी और साबू एक दिन के लिए घर भी. उन दिनों, जिन घरों में गर्मी की छुट्टियों में आम होते थे और कॉमिक्स की आवक लगातार होती थी, उन घरों में बच्चे खुश रहा करते थे.

प्राण के रचे और हम सब में गहरे बसे चाचा चौधरी, साबू, पिंकी, बिल्लू, बिन्नी चाची, राका, श्रीमतीजी, रमन, चन्नी चाची को लेकर यह रूमानियत और नॉस्टेल्जिया की खुमारी उस पीढ़ी के बारे में है जिसने सरकारी किताबों में छिपाकर कॉमिक्स पढ़ने का सुख लिया है. यह उस पीढ़ी के बारे में है जो आज जब छुट्टियों में भारत आती है तो उसकी आंखें वापस ले जाने के लिए देसी चीजों को तलाशते समय चाचा चौधरी की कॉमिक्स को भी तलाशती है. हवाई यात्राओं में सूटकेसों के भार की अपर लिमिट 40 किलो से छुट्टियों-भर दबे रहने के बावजूद लौटते वक्त 10-15 कॉमिक्स साथ ले जाना जिनके लिए जरूरी होता है. यह उस पीढ़ी के बारे में है जो चाचा चौधरी की दस पसंदीदा कॉमिक्स को आपस में सिलवाकर हार्ड बाउंड बनाने के बाद उसे आज भी अपने दीवान में अमरचित्र कथा की वैसी ही हार्ड बाउंड किताब के ऊपर संभालकर रखती है.

ऐसी एक पूरी पीढ़ी का प्राण साहब को नमन. उनकी तरफ से भी जो उस पीढ़ी के थोड़ा-सा पहले और थोड़ा-सा बाद वाली पीढ़ियों के थे. गिनती मुश्किल है, लेकिन इन सभी पीढ़ियों के लिए उस किवाड़ को खोलने वाले, जिसके पार कहानियां ही कहानियां थी, पहले जादूगर प्राण ही थे. प्राण की इन कॉमिक्सों की दुनिया नंदन, चपंक, चंदा मामा से अलग दुनिया थी. प्राण की दुनिया में ढेर-मन अक्षर एक-दूसरे से चिपककर खड़े रहकर सांस लेने की कोशिश में अधमरे नहीं हुए जाते थे, उनके ऊपर पंचतंत्रीय आभा से भरी समझदार बातें करने का दबाव नहीं था, वे होठों के कोरों पर उभर आई मुस्कान को जीवन मानते थे. सीख देने के भारी गुरुत्वाकर्षण से दूर प्राण की ये कॉमिक्स बादल बना उनके भीतर छोटे-छोटे वाक्यों में बड़ी बात कहकर मन गुदगुदाती थीं. आज की पीढ़ी जिसके लिए सविता भाभी ही कॉमिक्स है, काश प्राण को पढ़ती, अपने बचपन को फिर यूं न खोती.

प्राण की कहानियों की यादें कई ऐसे इशारों से भरी हुईं थी जो हमें उनकी कॉमिक्सों की तरफ वापस लौटा लातीं. साबू को गुस्सा आता है तो कहीं ज्वालामुखी फटता है. चाचाजी के पास फॉर्मूले की एक लंबी-चौड़ी लिस्ट है जिसमें ढेर सारे उपाय हैं, धोबी पछाड़ है. सबसे अच्छा, जाहिर है, बुलबुले के अंदर संवाद लिखने के बाद आखिर में छोटा-सा सूरज बनाना, वैसा वाला सूरज जैसा चित्रकला प्रतियोगिता में बच्चे बनाते हैं – एक लाल गोला जिसके चारों तरफ किरणें निकलती हैं, जो पन्ने के आखिर में ले जाकर कहता, ‘चाचा चौधरी का दिमाग कम्प्यूटर से भी तेज चलता है’.

प्राण दूसरे मशहूर हिंदुस्तानी कार्टुनिस्टों-मारियो मिरांडा, आरके लक्ष्मण, अबू अब्राहम से भी अलग थे. न वे डिटेल-प्रेमी थे, न राजनीति पर नुकीले तंज कसते थे, न रोजमर्रा के किस्से गढ़ते, न लंबे-चौड़े कैप्शन और संवाद लिखते थे. एक बड़ा फर्क जिसने प्राण को बाकी कार्टूनिस्टों से अलहदा बनाया, वह था उनका राजनीति शास्त्र में पढ़ाई करने के बावजूद अपनी कहानियों में राजनीति को शामिल नहीं करने का फैसला. हमारे देश में ज्यादातर देसी कार्टून राजनीति के आस-पास की ही बातें करते हैं, रोज होने वाली राजनीतिक चर्चाओं पर ‘रिएक्शन’ देना ही उनके लिए कुछ नया क्रिएट करना है. प्राण ऐसा नहीं करते थे, इसलिए हमारा बचपन उनके किरदारों से दोस्ती करते हुए बीता. दोस्ती करने के लिए हम आज भी ऐसे किरदार, ऐसे कार्टून ढूंढते हैं, लेकिन यह कार्टून-विधा राजनीति की उस संकरी गली में जाकर फंस गई है, जिससे बाहर उसका निकलना जरूरी है, लेकिन बाहर निकलने की उसे फिक्र ही नहीं है.

‘तह कर के रखा था बचपन
तुम सब आए और इस्त्री बिगाड़ दी ‘

प्राण के किरदार ऐसे ही जीवन में स्थिर-बचपन को चलायमान बनाने चले आए थे. उन उदास दोपहरों में जब घर मेंे बिजली के तारों पर करंट नहीं दौड़ता था, मैदानों में दौड़कर जिस्म थकता था, पुराने थके खेलों से मन ऊबता था, इस बासी दुनिया में अपनी एक अलग दुनिया की बसावट करने का मन होता था तब चाचा चौधरी अपने साथियों संग बचपन खुशहाल करने डगडग पर बैठे चले आते थे.

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रॉकेट यानी चाचा चौधरी का कुत्ता.

नाटा ज्ञानी, छड़ी पुरानी, मैन सुपर है पगड़ीधारी, सही-गलत की समझ निराली : चाचा चौधरी
प्राण के किरदार मौलिक थे. हिन्दुस्तानी इतिहास और वर्तमान के ऐसे ही कुछ गिने-चुने मौलिक किरदारों में से चाचा चौधरी एक हैं. चाचा चौधरी की पहली कॉमिक्स में उनकी पगड़ी का रंग पीला था. बाद में यह हमेशा के लिए लाल हुआ. शुरुआत की कॉमिक्स में वे सीधे-सादे गांववाले थे जो पगड़ी और धोती-कुर्ता पहना करते और हाथ में लट्ठ रखते. प्राण कहते थे कि चाचा चौधरी की प्रेरणा उन्हें चाणक्य से मिली. शायद इसलिए नए जमाने के लिए उन्होंने चाणक्य को कंप्यूटर बना दिया, लट्ठ को छड़ी और चाचा चौधरी को सूट-बूट पहना हाजिरजवाबी का उस्ताद. फिर किंवदंती बनी कि चाचा चौधरी की सफेद मूंछों के हरेक बाल में अलग-अलग तजुर्बे छुपे हैं, इसीलिए वे इतने होशियार हैं.

चाचाजी के हमेशा के दो साथियों में एक साबू है और एक राकेट जिसे सेब खाना पसंद है. चाचा चौधरी घर के लेटरबाक्स से मैगजीन के गायब हो जाने की चाचीजी की शिकायत का निवारण भी करते हैं, मुर्गी चोर को भी पकड़ते हैं और किसी के घर में दूध में पानी मिलाने वाले शैतान को भी धर दबोचते हैं. वे लोकल तकलीफें भी दूर करते हैं और खतरनाक जुर्म भी चुटकी में हल करते हैं. जुर्म अगर उनके घर से काफी दूर होता है तो वे वहां अपने ट्रक डगडग से जाते हैं, जिसकी छत पर साबू बैठता है और उनकी ड्राइविंग सीट के बगल में राकेट. जब इंटरनेशनल क्राइम रोकना होता है, साबू प्लेन के ऊपर दोनों तरफ पैर लटकाकर बैठता है और चाचाजी प्लेन के अंदर दोनों पैर समेट कर.

अपराधियों के बीच चाचा चौधरी के कई नाम हैं. डान अफलातून उन्हें खीर में काकरोच कहता है, डान बाबूका गिठमुठिये और धमाकासिंह, गोबरसिंह, गुरु बामा जैसे कई बदमाश लाल पगड़ी. पूरी दुनिया के इन बुरे लोगों का सामना करने के लिए चाचा चौधरी की छड़ी ही उनका एकमात्र हथियार है, जिससे वार करने के बाद का काम साबू पूरा करता है. उनकी पगड़ी भी कमाल है, वह कभी रस्सी बन जाती है, कभी गले का फंदा. और उनके कम्प्यूटर से तेज चलने वाले दिमाग की हार्डडिस्क कभी क्रैश नहीं होती, इसलिए बुद्धि उनकी हमेशा फ्रैश रहती है!

चाचा चौधरी जब अपने ट्रक डगडग से कहीं जाते तो उसकी छत पर साबू बैठता और उनकी  सीट के बगल में राकेट यानी उनका कुत्ता

मटका लस्सी पीता सारी, बाजू हैं चट्टान से भारी : साबू
प्राण ने अपने करियर की शुरुआत 1960 में मिलाप नामक दैनिक अखबार से की थी. इसमें वे एक कॉमिक स्ट्रिप बनाते थे, दाबू. साबू का उदय दाबू से ही हुआ होगा. बाद के सालों में जब चाचा चौधरी का किरदार सफल होने लगा तो प्राण ने उसे साबू का साथ दिया. और साबू को एक भाई, दाबू.

साबू ज्यूपिटर वासी था, अब पृथ्वी का निवासी है. वह आया ज्यूपिटर से है और जाहिर है यह विदेशी सुपरहीरोज से प्रेरित कैरेक्टर स्केच था, लेकिन उसके पास कोई सुपर पावर नहीं है, सिर्फ शारीरिक शक्ति में वह बेजोड़ है. यह बहुत बड़ी बात थी कि स्कोप होने के बावजूद प्राण ने साबू को कोई सुपर पावर नहीं दीं. सुपरहीरोज के लिए दीवानी दुनिया में फिर भी साबू स्थापित हो गया, यह प्राण के हुनर का ही कमाल था.

प्राण का साबू सिर्फ इसलिए धरती पर निवास करने लगता है क्योंकि उसे चाची के हाथ के बने स्वादिष्ट परांठों से प्यार हो जाता है

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प्राण का साबू

साबू के पृथ्वी पर आने की जो वजह थी, वह रचनात्मकता को सर के बल कैसे खड़ा किया जाता है, इसमें प्राण की समझ और महारत को दर्शाती है. जब दुनिया-भर के सुपरहीरोज दूसरे ग्रहों से पृथ्वी पर या तो बदला लेने आ रहे थे, या अपने ग्रह के गृह-युद्ध से भागकर, या फिर मानवता की ही रक्षा के लिए पृथ्वी को घर बना रहे थे, प्राण का साबू सिर्फ इसलिए पृथ्वी पर निवास करने लगता है क्योंकि उसे चाची के हाथ के बने स्वादिष्ट परांठों से प्यार हो जाता है. यह गजब रचनात्मकता थी. एकदम अलहदा. प्राण सुपरहीरोज के यूनिवर्सल स्ट्रक्चर से विपरीत गए और फिर भी एक सुपरहीरो गढ़ दिया, जो पूर्णत: देसी है, मटके से लस्सी पीता है और परांठों का शौकीन है. उसमें सुपरपावर कोई नहीं है, यह भी उसी सर के बल खड़ी रचनात्मकता की पैदाइश थी.

साबू कपड़ों के मामले में फैशन ज्यूपिटर का ही फालो करता है. उसे अलग-अगल रंग के बूट पहनना पसंद है और उसके मूड पर है, कभी वह सिर्फ चड़्डी पहनता है तो कभी हरी-पीली-लाल पैंट, लेकिन दोनों के ऊपर ही अलग-अलग रंग की बेल्ट जरूर लगाता है…हां चड्डी के ऊपर भी! कभी-कभी टी-शर्ट भी पहनता है, डबल एक्सएल गुणा चार साइज वाली. खाने में वह सौ से ऊपर रोटी/परांठे और बीस लीटर लस्सी लेता है. और व्रत कभी नहीं रखता!

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राका

 

दुश्मन बड़ा है सख्त, मरता नहीं कमबख्त : राका
सत्तर के दशक में जब देश डाकुओं की समस्या से जूझ रहा था, प्राण ने कई डाकू किरदारों को जन्म दिया. गोबर सिंह, धमाका सिंह. पर सबसे खतरनाक है राका. शुरू में इंसान था, पर वैद्य चक्रमाचार्य का जादुई अर्क पीकर अमर-सा हो गया. और खूंखार इतना कि उसे रोकने में हर बार साबू के पसीने छूटने लगे. राका साबू से किसी मामले में कम भी नहीं है. शारीरिक शक्ति में भी और गुस्से में भी. कहते हैं कि जब राका को गुस्सा आता है तो समुद्र में तूफान आता है. लेकिन राका के पास चाचा चौधरी नहीं थे, इसलिए साबू हमेशा राका को हरा देता. चाचा चौधरी और साबू मिलकर उसे एक अंक के आखिर में मारते और दूसरे अंक की शुरुआत में वह बदला लेने कब्र फाड़कर बाहर आ जाता. फिर घमासान होता और अंक के आखिर में राका फिर मरकर कब्र में जाता, अगले अंक में वापस आने का इंतजार वहीं लेटे-लेटे करता!

पगलट पंगा-खोर बड़ी ये, धुन की पक्की और बड़ी ये : पिंकी
पिंकी ‘लेडी चाचा चौधरी’ हो सकती थी क्योंकि उसे भी लोगों की मदद का चस्का है. लेकिन उसकी मदद ‘उलटी मदद’ ज्यादा है, मदद को दर्द दे दे ऐसी उलट दवा. वह पगलट है इसलिए मदद करते हुए पंगा लेने में माहिर है, लेकिन धुन की इतनी पक्की है कि उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाता. वह उस जमाने की लड़की है जब बॉब-कट बाल रखना और उन बालों में रंग-बिरंगे मोटे हेयरबैंड लगाना लड़कियों का लेटेस्ट फैशन हुआ करता था, यह विद्रोही स्वभाव की निशानी भी. प्राण को जानवरों से प्यार था इसलिए उन्होंने पिंकी को भी एक गिलहरी दी, नाम कुटकुट. कुटकुट इंसानों की मदद करने के लिए खासतौर पर फेमस है, बिलकुल पिंकी की तरह!

प्राण खुद भी अपनी कॉमिक्स में किरदार बने थे. पिंकी के अंकलजी का मोबाइल नामक कॉमिक्स में ‘नाम’ नाम की कहानी में. इसमें वे पिंकी के हाथों अपने नाम का मजाक उड़वाते हैं, और एक बार फिर, सुपरहीरो-सा कुछ नहीं करते हैं!

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बिल्लू

न बलवान न बुद्धिमान, आंख छुपाके करता मुस्कान से वार : बिल्लू
बिल्लू की मुस्कान ही उसका हथियार है और उसकी आंखों पर लंबे बालों का परदा है. सन् 2000 से पहले के बच्चों का वह हीरो है क्योंकि उसके बाल हीरो माफिक हैं और वह दूसरे बच्चों की तरह बालों में तेल चिपड़कर कंघी नहीं करता है. वह इसलिए भी हीरो है क्योंकि उसकी एक गर्लफ्रेंड है, जोजी. उसका एक परमानेंट दुश्मन है पहलवान बजरंगी, जिससे कभी वह पिटता है, कभी उसे छकाता है, लेकिन अपने बाल आंखों के सामने से कभी नहीं हटाता है!

गुस्सैल बहुत हैं बेलन हथियार, चाचाजी कांपे आठ बार, चाची डांटे एक बार : बिन्नी चाची
चाचा चौधरी पहले सिगरेट पीते थे, शादी के बाद चाचीजी ने छुड़वा दी. चाचीजी दबंग महिला हैं और डरती किसी से नहीं हैं. चाचाजी उन्हें गहने कम बनवाकर देते हैं, इसकी शिकायत वे बेलन का मुंह चाचाजी की तरफ करके कई बार कर चुकी हैं. लेकिन बावजूद इस घर-दबंगई के, चाचीजी का चित्रण पारंपरिक ही रहा. वे स्टीरियोटाइप्ड हो चुकी घरेलू महिलाओं-सी ही हैं, खाना बनाती हैं, चाचाजी से नौंक-झौंक से जीवन चलाती हैं और साबू से स्नेह रखती हैं. विभिन्न सामाजिक बदलावों से नारी के गुजरने के बावजूद प्राण ने कभी उनका चित्रण नहीं बदला, बदलना चाहिए था.

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पिंकी

इन मुख्य किरदारों के अलावा कुछ और भी हैं जिनकी स्मृतियां स्थाई बनी हुई हैं. श्रीमतीजी रोजमर्रा के जीवन संकटों में हास्य उत्पन्न करतीं, रमन रोज दफ्तर देर से पहुंचता. श्रीमतीजी अपने पति के साथ नोंक-झोंक में व्यस्त रहतीं, रमन मिडिल क्लास की दिक्कतों का स्कूटर लेकर रोज घर से निकलता और दफ्तर की जगह पचड़े में फंसता. इन सबके बीच बड़े-से जूड़े वाली गुस्सैल चन्नी चाची भी हैं जिनसे उनके पतिदेव उतने ही परेशान रहते हैं जितने चाचा चौधरी की कॉमिक्स आने के बाद विदेशी फैंटम, सुपरमैन और मेंड्रेक.

एक मजेदार चीज जिसने प्राण को बचपन में ऐसा चिह्नित किया कि आज भी उसका टैटू अमिट है, उनकी नाम लिखने की कैलीग्राफी. वे प्राण के ‘ण’ को जब शून्य और एक को साथ लाकर लिखते, तो उसे हम अलग-अलग उम्र में अलग-अलग तरह से समझते. बहुत बचपन में तो समझ ही नहीं आया कि ये प्राण लिखा है! कुछ बाद में जीरो वन से ण बनने लगा. फिर जब पढ़ाई उच्च हो गई, लगा कि ण को लिखने का तरीका बाइनरी नंबर सिस्टम को समर्पित है. अब पता नहीं कंप्यूटर का उनकी कॉमिक्स में एक किरदार-सा होना, और कंप्यूटर में बाइनरी नंबरों का महत्व का होना इसकी वजह थी या यह कैलीग्राफी बस यूं ही थी. इस तरह के बचकाने सवाल और कई सारे जरूरी सवाल अब जवाब तक नहीं पहुंचेंगे, क्योंकि प्राण पर किताबें नहीं के बराबर हैं, किसी ने उनकी रचनात्मकता पर गहरी निगाह डालने की कोशिश ही नहीं की. चंद इंटरव्यू, लेख, ढेर सारी कॉमिक्स, और ढेर सारे हमारे जैसे ही मामूली किरदार, प्राण को जानने-समझने के लिए यही बचा है अब हमारे पास.

‘मलेशियाई विमान को किसने गिराया?’

Malaysia Airlines Boeying 777 flight crashes in east Ukraine
यूक्रेन में गिरे मलेशियाई विमान का मलबा

ठीक सौ साल पहले यही हुआ था. केवल तीन गोलियां चली थीं. पहला विश्वयुद्ध छिड़ गया था. आज का बोस्निया तब ऑस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य का हिस्सा था. साम्राज्य के युवराज फ्रांत्स फर्डिनान्ड अपनी पत्नी सोफी के साथ दौरे पर सरायेवो आए थे. 28 जून 1914 का दिन था. पौने ग्यारह बजे थे. तभी 19 साल के एक बोस्नियाई-सर्ब छात्र गवरीलो प्रिंत्सिप ने देशभक्ति के जोश में होश गंवा कर युवराज और उनकी गर्भवती पत्नी पर गोली चला दी. दोनों की मृत्यु हो गई. युद्ध की आग फैलने के और भी कई कारण थे लेकिन, आग भड़काने वाली चिनगारी गवरीलो की गोलियां ही बनीं. पकड़े जाने पर उसने कहा कि उसे पता होता कि युवराज की पत्नी गर्भवती हैं तो वह यह काम कभी नहीं करता.

17 जुलाई 2014 को जिस किसी ने पूर्वी यूक्रेन के अशांत क्षेत्र के ऊपर मलेशियाई यात्री विमान को मार गिराया, वह भी अपने बचाव में शायद यही कहेगा कि उसे यदि पता रहा होता कि विमान में सवार 298 लोगों में तीन नवविवाहित जोड़ों और तीन दुधमुंहों सहित 80 बच्चे भी थे, तो वह ऐसा नहीं करता. 298 निर्दोष जीवनों का अनायास अंत अपने आप में चाहे जितना दुखद व निंदनीय है, उससे भी निंदनीय और वीभत्स है इस घटना के बहाने से राजनीतिक लाभ उठाने की घटिया हेराफेरी. सभी प्रमुख समाचार एजेंसियां और टेलीविजन चैनल क्योंकि अमेरिका और यूरोप के पश्चिमी देशों के हाथों में हैं, इसलिए ऐसी हेराफेरी में उन्हीं का हाथ सबसे ऊपर रहता है. वे जिस सफेद को काला कह दें, वह काला है और जिस काले को सफेद कह दें, वह सफेद है.

मलेशियाई विमान यूक्रेन के दोनबास कहलाने वाले और रूसी सीमा से सटे जिस पूर्वी भूभाग पर गिरा, वहां यूक्रेन से अलग होने के लिए लड़ रहे रूसी-भाषी विद्रोहियों का बोलबाला है. पश्चिमी देशों और यूक्रेनी सरकार की शब्दावली में वे रूस समर्थक ‘आतंकवादी’ हैं. इसलिए यह आरोप पहली नजर में काफी विश्वसनीय लगना स्वाभाविक ही है कि विमान को इन्हीं रूस समर्थक और रूस द्वारा समर्थित- ‘आतंकवादियों’ ने ही मार गिराया होगा.

इस वर्ष के शुरू में यूक्रेन में कथित ‘जनक्रांति’ के बाद से जब से वहां अमेरिका और उसके साथी यूरोपीय संघ की मनभावन सरकार सत्ता में आई है, दोनबास के रूसी-भाषी तभी से अपने आप को उपेक्षित एवं अवांछित महसूस कर रहे हैं. वहां के पृथकतावादियों को इसी जनभावना के कारण रूसी बिरादरी का व्यापक जनसमर्थन भी मिला. वे आशा करने लगे कि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, क्रीमिया की ही तरह, दोनबास को भी रूस में मिला लेंगे. पश्चिमी देश भी यही प्रचार करते रहे हैं, जबकि पुतिन और उनके विदेशमंत्री लावरोव कई बार दुहरा चुके हैं कि यूक्रेन को खंडित करना न तो रूस की मंशा है और न ही यह उसके हित में है.

श्रीलंका के तमिल विद्रोह से समानता
यह स्थित कुछ वैसी ही है, जैसी श्रीलंका में तमिल विद्रोह के समय भारत की थी. तब भारत पर भी आरोप लगाए जाते थे कि वह तमिलों को उकसा कर श्रीलंका का बंटवारा करना चाहता है. सारी सहानुभूति के बावजूद जिस तरह भारत ने श्रीलंकाई तमिलों की मनोकामना कभी पूरी नहीं की, उसी तरह रूस भी यूक्रेन के रूसी-भाषियों की मनोकामना पूरी करने से कतरा रहा है. यही नहीं, श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे ने जिस तरह सत्ता में आते ही पूरी निर्ममता के साथ तमिल विद्रोह को कुचल कर रख दिया, उसी तरह यूक्रेन के नए राष्ट्रपति पेत्रो पोरोशेंको भी, सत्ता में आते ही, दोनबास के पृथकतावादी संघर्ष को मसल देने पर उतारू हैं. अमेरिकी नेतृत्व वाला सारा पश्चिमी जगत न केवल उनकी पीठ थपथपा रहा है बल्कि तन-मन-धन से उनका साथ भी दे रहा है. पोरोशेंको ने जून में सत्ता संभालते ही रूसी-भाषी कथित ‘आतंकवादियों’ के विरुद्ध बाकायदा ‘युद्ध’ छेड़ दिया है. मलेशियाई विमान की त्रासदी के चार ही दिन बाद, 21 जुलाई से, विद्रोहियों वाले हिस्से पर तोपों और टैंको से गोले ही नहीं दागे जा रहे हैं, अब तो विमानों से बम भी बरसाए जा रहे हैं. कल तक जिसे पृथकतावाद कहा जा सकता था, सरकारी बमबारी से अब वह एक गृहयुद्ध बन गया है. पहली अगस्त से देश के नागरिकों को अपनी आय का डेढ़ प्रतिशत ‘युद्ध-कर’ के तौर पर देना पड़ रहा है. इस गृहयुद्ध में पश्चिमी देश यूक्रेनी सरकार का साथ देना यदि अपना अधिकार समझते हैं, तो अपने समर्थकों का साथ देने में रूस ही भला क्यों पीछे रहना चाहेगा?

युद्ध छिड़ जाने के सारे बहाने
17 जुलाई को एम्स्टर्डम से कुआलालंपुर जा रहे उड़ान संख्या ‘एमएच17’ वाले मलेशियाई बोइंग-777 को चाहे जिसने मार गिराया हो, उसका राजनीतिकरण कुछ ही दिनों में इतना अवसरवादी रूप ले चुका है कि यूरोप में, जाने-अनजाने, 21वीं सदी का पहला युद्ध छिड़ जाने के सारे बहाने मौजूद हैं. पश्चिमी मीडिया और सरकारों ने पहले ही क्षण से यही राग आलापना शुरू कर दिया था कि विमान का मलबा क्योंकि पूर्वी यूक्रेन में गिरा है, इसलिए यह नीचतापूर्ण कार्य केवल वहां के रूस समर्थक पृथकतावादियों का ही कारनामा हो सकता है. कहा तो यह भी गया कि हो सकता है कि रूस ने स्वयं ही यह नीचता दिखाई हो, या फिर विमानभेदी रॉकेट चलाने के रूसी जानकार दोनबास के पृथकतावादियों की मदद कर रहे हों. इन्हीं अनुमानों को सच्चाई मान कर रूस के विरुद्ध और भी कठोर दंडात्मक प्रतिबंधों की घोषणा कर दी गई.

सच्चाई यह है कि घटना के एक महीने बाद तक भी, पश्चिमी देश उपग्रहों द्वारा ली गई किन्हीं तस्वीरों, अपने राडार पर्यवेक्षणों के आंकड़ों, विमान के डेटा व वॉइस रिकॉर्डरों की आरंभिक जांच या जमीन पर मिले मलबे के आधार पर ऐसे कोई प्रमाण पेश नहीं कर सके हैं कि विमान यदि वाकई मार गिराया गया है, तो किसने मार गिराया. प्रमाणित केवल इतना ही किया जा सका है कि विमान के बाहरी आवरण में मिले वृत्ताकार छेद उसे किसी विमानभेदी अस्त्र द्वारा मार गिराने का संकेत देते हैं. ये छेद ‘बूक-एम1’ (अमेरिकी नाम एसए-11) कहलाने वाले उस विमानभेदी रॉकेट द्वारा भी बने हो सकते हैं, जो संभवतः पृथकतावादियों के पास भी हैं, और वे किसी युद्धक विमान द्वारा दागे गए रॉकेट से भी बने हो सकते हैं. ‘बूक’ रॉकेट यूक्रेनी सेना के अलावा पृथकतावादियों के पास भी हैं, जबकि युद्धक विमान केवल यूक्रेनी सेना के पास हैं. जरूरी नहीं कि पृथकतावादियों को ‘बूक-एम1’ रूस से ही मिले हों. बीते जून में पृथकतावादियों ने बड़े गर्व से खुद ही कहा था कि उनके नियंत्रण वाले इलाके से खदेड़ दी गई यूक्रेनी सेना की दो ‘बूक-एम1’ प्रणालियां उनके हाथ लगी हैं. उन्हें इन रॉकेटों को दागने के लिए रूसी प्रशिक्षण की भी जरूरत नहीं है. यूक्रेनी सेना के बहुत से रूसी-भाषी सैनिक और अफसर पहले ही पृथकतावादियों से मिल गए हैं. इसी कारण पृथकतावादी यूक्रेनी सेना के कम से कम आधा दर्जन परिवहन एवं युद्धक विमान 17 जुलाई से पहले ही धराशायी कर चुके थे. तब भी, उनकी इस कुशलता से यह प्रमाणित नहीं होता कि पूर्वी यूक्रेन से हर दिन गुजरने वाले लगभग 300 विमानों के बीच से मलेशियाई विमान को चुन कर मार गिराना भी उन्हीं का कारनामा है. यही नहीं, उस क्षेत्र के आस-पास यूक्रेनी सेना की ‘बूक-एम1’ प्रणालियां भी तैनात हैं, जबकि सभी जानते हैं कि पृथकतावादियों के पास अपने कोई विमान नहीं हैं. क्या यह संभव नहीं है कि पृथकतावादियों की जुझारुता के आगे दांत पीस रही और रूसी राष्ट्रपति से खार खाए बैठी यूक्रेन की दीवालिया सरकार कुछ ऐसा कमाल करना चाहती रही हो, जिससे सांप भी मर जाता और लाठी भी नहीं टूटती? कुछ ऐसा, जिससे अमेरिका के हाथों रूस की धुनाई भी हो जाती और यूक्रेन की कमाई भी! चार महीने पूर्व ही मलेशिया एयरलाइन्स का एक ऐसा ही बोइंग-777 ( उड़ान संख्या एमएच 370) पेकिंग जाते हुए ऐसे गायब हुआ कि आज तक उसका रत्ती भर भी नामोनिशान नहीं मिला है. मलेशिया की सरकार ने उस समय जिस निरीहता और नौसिखुएपन का परिचय दिया, उससे वहां के विमान एक ऐसा ‘सरल लक्ष्य’ (सॉफ्ट टार्गेट) तो बन ही गए थे जिन्हें साधने का लोभ बहुतों को हो सकता था. जब शक किसी दूसरे पर डालने का बहाना मौजूद हो, तब तो बात ही क्या है.

यूक्रेनी सेना का हाथ तो नहीं?
रूस ने 17 जुलाई वाले दिन के ऐसे उपग्रह चित्र एवं राडार आंकड़े 21 जुलाई को प्रकाशित किए, जिनसे, उसके कहने के अनुसार, पता चलता है कि मलेशियाई विमान को यूक्रेनी वायुसेना के संभतः एक ‘सुखोई-25’ युद्धक विमान ने मार गिराया. रूस का कहना है कि उस दिन सामान्य से कहीं अधिक यूक्रेनी राडार सक्रिय थे. ले. जनरल आंद्रेई कार्तोपोलोव ने मॉस्को में बताया कि हवाई उड़ानों पर नजर रखने वाले रूसी राडारों से मिले आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि यूक्रेनी ‘एसयू-25’ मलेशियाई विमान के ‘तीन से पांच किलोमीटर तक’ निकट आ गया था. इसके तुरंत बाद, मॉस्को-समय के अनुसार अपराह्न पांच बजकर 20 मिनट पर विमान की गति में गिरावट दर्ज की गई. तीन मिनट बाद ही विमान रूसी राडारों के पर्दों पर से लुप्त हो गया. रूस ने अपने उपग्रहों से मिली तस्वीरें और राडार-आंकड़े इंटरनेट पर भी डाले. जबकि अमेरिका और यूक्रेन, घटना के चार सप्ताह बाद भी, अपने आरोपों की पुष्टि करने वाली कोई विश्वसनीय सामग्री पेश नहीं कर पाए.

रूसी विशेषज्ञों का कहना है कि विमान की गति में गिरावट आना इस बात का संकेत है कि उस पर जमीन से हवा में दागा गया कोई भारी रॉकेट नहीं, बल्कि किसी विमान द्वारा हवा से हवा में चलाया गया कोई हल्का रॉकेट टकराया था. जमीन से हवा में मारक रॉकेटों की विस्फोटक शक्ति इतनी अधिक होती है कि 10 किलोमीटर ऊपर उड़ रहे बोइंग-777 के तुरंत परखच्चे उड़ जाते. लेकिन, हवा से हवा में किसी हल्के रॉकेट से टकराने पर विमान पहले तो लड़खड़ाने लगता और बाद में गिरते-गिरते जब करीब दो किलोमीटर की ऊंचाई पर रह जाता, तब हवा के साथ भारी घर्षण के कारण छिन्न-भिन्न होने लगता. विमान के 25 किलोमीटर के दायरे में जमीन पर गिरे सभी टुकड़े अभी तक जमा नहीं किये जा सके हैं, इसलिए रूसी विशेषज्ञों की बातों या पश्चिमी दावों का खंडन या मंडन फिलहाल संभव नहीं.

Russian
पूर्वी यूक्रेन के दोनाबास में रूस समर्थक अलगाववादी

200 विशेषज्ञ निठल्ले बैठे रहे
विमान के मलबे और शवों की जांच-परख के लिए विदेशों से आए लगभग 200 विशेषज्ञ अधिकतर समय किएव में निठल्ले बैठे रहे. पृथकतावादी उन्हें अपने यहां आने देने के लिए तैयार थे. विमान का पूरी तरह अक्षत वॉइस एवं फ्लाइट डेटा रिकॉर्डर भी उन्होंने ही इन विशेषज्ञों को सौंपा था. 19 जुलाई के दिन ‘यूरोपीय सुरक्षा एवं सहयोग संगठन’ के विशेषज्ञों ने तीन घंटों तक पृथकतावादियों के इलाके में मलबे की जांच-परख भी की. तब भी, यूक्रेनी सरकार का दावा था कि वे मुश्किल से आधा घंटा ही वहां बिता पाए. सरकार को शायद यह सब सुहा नहीं रहा था, इसलिए 21 जुलाई से पृथकतावादियों के विरुद्ध सैनिक अभियान तेज करते हुए उसने अचानक वहां ऐसी बमबारी शुरू कर दी कि विदेशी विशेषज्ञ दो सप्ताहों तक उस इलाके में जा ही नहीं सके. बाद में कुछ सीमित घंटों के लिए जब वहां जाना संभव भी हुआ, तब तक विमान के बहुत सारे टुकड़े या तो अपनी मूल अवस्था या फिर मूल स्थान पर नहीं रह गए थे. सात अगस्त से विशेषज्ञों का वहां जा सकना पुनः संभव नहीं रहा. सरकार ने अपने कथित ‘युद्ध-विराम’ का अंत कर दिया है. तीन दिन राह देखने के बाद सभी 200 विशेषज्ञ 10 अगस्त को यूक्रेन से नीदरलैंड्स चले गए. यूक्रेनी सरकार के हाथ यदि बेदाग हैं और सच्चाई उजागर करने में उसकी सच्ची दिलचस्पी थी, तो वह अपना सैनिक अभियान कुछ दिनों के लिए टाल भी तो सकती थी! पश्चिमी देशों ने भी ऐसा कोई दबाव नहीं डाला.

पश्चिमी सरकारें और मीडिया इस बात को भी छिपाने में लगे हैं कि विमान का मलबा जिस क्षेत्र में गिरा है, वह सारा क्षेत्र पृथकतावादियों के नियंत्रण में नहीं है. वहां यूक्रेनी सेना के सैनिक, गृह मंत्रालय के सशस्त्र बल, घोर दक्षिणपंथी पार्टी ‘स्वोबोदा’ तथा फासिस्ट संगठन ‘प्रावो सेक्तोर’ के हथियारबंद स्वंसेवी भी पृथकतावादियों से लड़ रहे हैं. किसके पास कैसे हथियार हैं और कहां से मिल रहे हैं, कोई नहीं जानता. उन्हें अपना समर्थन देकर यूक्रेनी गृहयुद्ध में पश्चिमी देश भी एक पक्ष बन गए हैं, पर चाहते हैं कि रूस केवल तमाशा देखता रहे. जर्मनी हालांकि इस गृहयुद्ध में यूक्रेनी सरकार के साथ है, तब भी उस के विदेशमंत्री फ्रांक-वाल्टर श्टाइनमायर ने रूस के विरुद्ध नए कठोर प्रतिबंधों के संदर्भ में जर्मन दैनिक ‘जयुइडडोएचे त्साइटुंग’ से दोटूक कहा ः एमएच-17 यूक्रेन में जहां गिरा है, वहां के पृथकतावादियों का बर्ताव क्योंकि अशोभनीय था, इसलिए रूस पर अब नए प्रतिबंध थोपे जा रहे हैं, हालांकि अमेरिकी गुप्तचर सेवाएं अब तक यही कहती रही हैं कि इस अभागी उड़ान के संदिग्ध मार गिराए जाने में रूस का सीधा हाथ होना सिद्ध नहीं किया जा सकता.

रूस ने दावा किया कि जिस समय मलेशियाई विमान दुर्घटनाग्रस्त हुआ उस समय उसके पास यूक्रेन का एक युद्धक विमान उड़ रहा था

चालक कक्ष में सब कुछ सामान्य
कुछ और बातें एक महीने के बाद भी सिद्ध नहीं हो पाई हैं. विमान के चालक-कक्ष में रहने वाला वॉइस रिकॉर्डर जांच-परख के लिए इस समय ब्रिटेन में है. बोइंग-777 का वॉइस रिकॉर्डर चालकों की आपसी बातचीत, उड़ान नियंत्रण टॉवर और रास्ते में पड़ने वाले हवाई यातायात नियंत्रण केंद्रों के साथ उनकी अंतिम दो घंटों की बातचीत चार चैनलों पर स्वचालित ढंग से रिकॉर्ड करता रहता है. मलेशियाई पत्र ‘न्यू स्ट्रेट्स टाइम्स’ के अनुसार, वॉइस रिकार्डर के जांचकर्ता-दल के एक निकटस्थ सूत्र ने उसे बताया कि विमान के गिरने से पहले चालक-कक्ष में ‘कुछ भी असामान्य होने का कोई संकेत नहीं मिला. अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं मिला है, जिससे संकेत मिलता कि चालकों ने कुछ भी असामान्य देखा या महसूस किया हो.’

वॉइस रिकॉर्डर के अतिरिक्त हर विमान में एक ‘फ्लाइट डेटा रिकॉर्डर’ भी होता है. ‘न्यू स्ट्रेट्स टाइम्स’ ने तीन अगस्त को लिखा कि यूक्रेनी सरकार द्वारा प्रचारित इस बात की ‘पुष्टि नहीं मिलती’ कि डेटा-रिकॉर्डर के आंकड़ों की प्रांरभिक जांच के अनुसार, विमान के गिरने से पहले, ‘किसी भारी विस्फोट के कारण उसके भीतर वायु-दबाव तेजी से घट गया’ था. तर्कसंगत भी यही है कि विस्फोट और वायु-दबाव का गिरना चालक भी महसूस करते और कुछ न कुछ ऐसा बोलते, जो वॉइस रिकार्डर पर भी अपने आप दर्ज हो जाता. उल्ल्खनीय यह भी है कि रूस समर्थक जिन पृथकतावादियों को विमान मार गिराने का दोषी ठहराया जा रहा है, विमान के दोनों रिकार्डर उन्होंने ही खोज निकाले थे और उनके साथ कोई छेड-छाड़ किये बिना उन्हें मलेशियन एयरलाइंस के प्रतिनिधियों को सौंप दिया था. वे चाहते तो दोनों को नष्ट या गायब भी कर सकते थे.

अमेरिकी थोथा चना बाजे घना
कहा जा रहा है कि अपने उपग्रहों के चित्रों की अपूर्व बारीकियों की डींग हांकने वाला अमेरिका ऐसे चित्र या राडार आंकड़े इसलिए नहीं प्रकाशित करना चाहता, ताकि उसके शत्रुओं को इससे किन्हीं दूसरे गोपनीय सुरागों का आभास न मिल जाये. इस तरह तो दुनिया के सामने केवल यही उपाय बचता है कि या तो वह अमेरिका और उसके साथियों की सारी बातें आंख मूंद कर मान ले या उन्हें सिरे से खारिज कर दे. दोनों ही बातें इसलिए अब कोई विकल्प नहीं रहीं, क्योंकि यूक्रेनी गृहयुद्ध इस बीच उससे कहीं अधिक जान-माल की बलि ले रहा है, जितनी मलेशियाई विमान के मार गिराए जाने से क्षति हुई है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की पांच अगस्त को हुई एक विशेष बैठक में संयुक्त राष्ट्र के आपात सहायता कार्यालय की ओर से बताया गया कि पूर्वी यूक्रेन में 39 लाख लोग इस समय हिंसा की छाया में जी रहे हैं. हर दिन कम से कम एक हजार लोग हिंसाग्रस्त क्षेत्र से भाग रहे हैं. अब तक 1376 लोग अपने प्राण गंवा चुके हैं. 4000 से अधिक घायल हुए हैं. इस बैठक में रूसी राजदूत विताली चुर्किन ने कहा कि यूक्रेन के लगभग आठ लाख शरणार्थियों को रूस अब तक अपने यहां शरण दे चुका है. संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त अंतोनियो गुतेरेस ने बताया कि 1,17,000 विस्थापितों को स्वयं यूक्रेन के भीतर शरण लेनी पड़ी है. तब भी यूक्रेनी सेना ने लाखों की जनसंख्या वाले दोनेत्स्क और लुगांस्क की घेरेबंदी कर रखी है और वहां भीषण गोलाबारी कर रही है. मध्यस्थता करने और रक्तपात रोकने का कहीं कोई प्रयास देखने में नहीं आ रहा.

अमेरिका और यूरोपीय संघ के देश रूस के विरुद्ध नित नए प्रतिबंधों की घोषणा करने में लगे हैं. रूस उनके कृषि उत्पादों और खाद्य पदार्थों का बहिष्कार कर रहा है और पश्चिमी देशों वाले नाटो सैन्य संगठन के अमेरिका-भक्त महासचिव आंदेर्स फोग रास्मुसन गुहार लगा रहे हैं कि रूसी खतरे से निपटने के लिए ‘नाटो के सभी 28 सदस्यों को अपना रक्षा बजट बढ़ाना होगा.’ डेनमार्क जैसे उदारवादी देश के प्रधानमंत्री रहे रास्मुसन आजकल उन लोगों के अगुआ नजर आते हैं, जो रूस और रूसी राष्ट्रपति पुतिन को फूटी आंखों भी नहीं देख सकते.

‘ब्याह हमें किस मोड़ पे ले आया…’

1-1

हम अपने आप को इक्कीसवीं सदी की स्त्रियां मान बैठे हैं. यही वजह है कि हम पितृसत्ता के नियमों-कानूनों से अपना विरोध जताते हुए भरपूर प्रतिरोध की पहचान बनाने पर गर्व करते हैं. हम चाहते हैं कि दबी सहमी स्त्री छवि नदारद हो जाए. लेकिन जरा रुक कर सोचिए, कहीं यह हमारी खामखयाली तो नहीं? क्योंकि हम ऐसा सोच ही रहे होते हैं कि अचानक हमें पुरुष सत्ता के किले की ईंट से ईंट बजा देने वाली नारियों का दूसरा चेहरा नजर आता है. जिसको हम ने आत्मसजग माना था वही स्त्री झुकी हुई कमर वाली समर्पिता के रूप में हम से मुखातिब है.

यह क्या हुआ? यह ब्याह का मामला है.

( ब्याह हमें किस मोड़ पे ले आया)

मैं बार-बार कहती हूं कि स्त्री जब तक प्यार में रहती है, उससे ज्यादा ताकतवर और खुदमुख्तार कोई नहीं होता मगर विवाह उसे घेर लेता है. बेशक आज भी औरत विवाह के ऐसे चक्रव्यूह में फंसी है जिसे भेदने की कला उसके पास नहीं. भेदने की कला या विद्या इसलिए भी उसके पास नहीं कि वह खुद भी विवाह संस्था को अपने लिए सुख, सुरक्षा और संतोष का गढ़ मान बैठी है.

पिछले दिनों बनारस में घटित स्त्री हिंसा की चर्चा हर जगह है. कहीं चोरी छिपे तो कहीं खुलकर उस पर बात हो रही है. इस घटना के मुख्य पात्र एक प्रोफेसर और उनकी पत्नी हैं. यह मोहब्बत और शादी के बीच अपना करिश्मा दिखाता कोई अजूबा नहीं है, बल्कि ऐसा हो जाता है की तर्ज पर जन्मी स्थिति है. प्रोफेसर साहब की पत्नी जाहिल नहीं हैं, एिक्टविस्ट रही हैं जागरूक और समझदार हैं, पढ़ी-लिखी हैं और सत्रह अठारह साल पहले तक प्रोफेसर साहब की जाने अदा रही हैं. वह तो प्यार की दीवानगी ही थी कि विवाह के सिवा कुछ न सूझा. वैसे भी लोग शादी हो जाने को ही पक्का प्रेम मानते हैं. प्रेम को सामाजिक दायरे में वैध बनाते हैं. साथ ही खाली प्रेम पर पुख्ता यकीन कौन करे, कल के दिन शादी किसी और से कर ली तो प्यार टूटे न टूटे भरोसा छूट जाता है. धैर्य विहीन लोगों को प्रेम नहीं करना चाहिए क्योंकि अधीरता में अक्सर अन्याय और हिंसा घटित हो जाती है.

खैर, हम प्रोफेसर साहब की शादी पर थे. शादी हुई. बेटा हुआ. गृहस्थी बसी. मेरा मानना यह भी है कि प्रेम विवाह में प्रेम तो शादी के मंडप में ही स्वाहा हो जाता है, अब आपकी जिंदगी विवाह की कब्जेदारी में आ जाती है. लोग कहते हैं कि जिससे प्यार किया है उसके साथ प्रेम निभाना है. विवाह के बाद आप प्रेम नहीं विवाह निभाते हैं और नहीं निभता तो तलाक लेने चल देते हैं किसी कोर्ट कचहरी में. प्यार के साथ तो ऐसा नहीं होता. प्रोफेसर साहब और उनकी पत्नी के साथ भी यही हुआ कि विवाह से पहले प्रेम खट्टा तक नहीं हुआ, शादी के बाद सड़ने लगा. प्रेम के समय जिस पुरुष-सा पुरुष दुनिया में नहीं था और जिस लड़की-सी हूर कहीं नहीं थी वही रिश्ता इतना बिगड़ जाता है! अनजाने ही कोई महीन दरार फटते-फटते भयानक खाई में तब्दील हो जाती है जिसकी प्रेमी युगल ने कल्पना तक नहीं की होती. क्या साथ-साथ रहने की अबूझ ललक अब ऊब में तब्दील होने लगी? क्योंकि पत्नी रह गई प्रेमिका गायब!

कोई क्या करे जब प्रोफेसर साहब को अपनी पत्नी रूपी प्रेमिका बासी, चिड़चिड़ी और उबाऊ लगने लगी. दिल हाथ पकड़ने लगा- कोई तरोताजा लड़कीनुमा हंसमुख, मन लुभावन नारी मिले. वे दिल के हाथों पहले हारे थे दिल के ही हाथों फिर हारने लगे! यह अकेले उनके मन की मुराद नहीं है, हमारे आगे ऐसी बड़ी दुनिया है जिसमें प्रोफेसर, समाजकर्मी, लेखक, कलाकार, राजनीतिज्ञ आते हैं जो ‘ये अपना दिल तो आवारा’ के बैनर तले रहना पसंद करते हैं.

मैं यहां पुरुषों की बातों के बाद स्त्रियों के उस पक्ष पर आती हूं जिसमें उनका दिल भी किसी पर आ जाता है. मानती हूं की यह मर्द का जज्बा ही नहीं है, स्त्री में भी ऐसी ग्रन्थियां हो सकती हैं. फिर भी उक्त घटना के चलते एक बात का जवाब चाहती हूं कि कोई स्त्री उस पुरुष से क्या अपेक्षा करती है जो अपनी पत्नी को घर से बलपूर्वक निकाल रहा है? अपनी स्त्री को सड़क पर घसीट रहा है. अपने बेटे की मां के बदन के उघड़ने से बेखबर है. अगर वह औरत अपनी इच्छा से किसी के सामने विवस्त्र हो जाती तो यह पति उसको क्या नाम नवाजता? अपना ही जाया बेटा उसे लाठी से पीट रहा है साथ ही ये बाप बेटे इस ‘परित्यक्त’ औरत का गुजारा भत्ता भी खाए पचाए जा रहे हैं. याद रखिए कि यह भी प्रेम विवाह ही था.

‘विश्वास किसी मर्द का नहीं, इंसान का किया जा सकता है और इंसान होने के लिए पुरुष होना जरूरी नहीं. स्त्री सशक्तिकरण के लिए आत्मविश्वास की जरूरत है जिसे पितृसत्ता हमसे छीनने की फिराक में रहती है’

प्रोफेसर साहब की मनचाही नई स्त्री तुम इस घर के बाशिंदों पर कितना भरोसा कर रही हो? यहां प्यार की आशा में आई हो तो हमें भी तुम्हारे लिए अफसोस है क्योंकि यह घर हमदर्द इंसानों का तो कतई नहीं. ये डिग्रीधारी होंगे शिक्षित और सभ्य होने के नाम पर जीरो हैं. तुमने स्त्री सशक्तिकरण क्या इसी रूप में अपनाया है कि किसी स्त्री के हक पर डाका दाल दें? क्या ऐसे भी प्यार होता है की दूसरी औरत को सड़कों पर घसीटा जाये और महसूस किया जाये कि घर में बैठी स्त्री पहली से सौ दर्जे बेहतरीन है? उस बेटे से भी आगे क्या उम्मीद बांधी है जो सोलह साल की अल्पायु में मां को तड़ातड़ पीट रहा है. यह अपनी मां का ही न हुआ तो सौतेली मां का क्या होगा? वह तो अपने बाप की मर्दानगी की रिहर्सल कर रहा है जो बीबी को काबू में रखने के काम आयेगी. सोच लो कि एक स्त्री जहां उजड़ रही है तो नई औरत के लिए अपनी बसावट का सपना भ्रम के सिवा क्या है?

1-2

स्त्री सशक्तिकरण संपन्नता में छलांग लगाने से नहीं होता, यहां तो सजग विचारों के खजाने चाहिए क्योंकि देश में महिला विचारकों की बहुत कमी है. सादगी सशक्तिकरण की पहली शर्त है और अभावों से लड़ना, चेतना सम्पन्न स्त्रियों का पहला कदम होता है. इसी कदम के आगे अत्याचारों, प्रताड़नाओं और घरेलू-बाहरी हिंसा से निजात के लिए पितृसत्ता से टकराने के लम्हे आमने-सामने होते हैं.

क्या हमारा स्त्री विमर्श किसी न किसी बिंदु पर डगमगाने लगता है?

प्यार, मोहब्बत, अपनत्व और हमदर्दी भरा लगाव, ऐसे कुदरती लक्षणों से लैस स्त्री अपनी मनुष्यता के लिए प्रतिबद्ध होती है लेकिन यह क्या कि अब उसे प्यार के नाम पर संपत्तियों की जागीरें नजर आने लगी हैं. यह प्यार है या प्यार का बाजार? पढ़ी लिखी ‘समझदार’ युवा स्त्रियां विवाह के नाम पर बूढ़े वरों को चुनकर अपने आप को प्यार का इश्तहार बना रही हैं और सात फेरों के जादुई असर से घंटे-भर में संपत्ति की स्वामिनी बन बैठती हैं. कहां गई प्रेमचंद के उपन्यास ‘निर्मला’ की त्रासदी और किधर गया बेमेल विवाह का अन्यायी चलन? मैं मानती हूं कि प्रेम की अपनी ताकत होती है सो कहा भी गया है- प्रेम न जाने जात कुजात/भूख न माने बासी भात. अब जब मोहब्बत का जलवा है तो कभी किसी समझदार आधुनिक युवती को किसी कंगाल बूढ़े से प्रेम क्यों नहीं होता? यदि कहीं ऐसा हुआ हो तो मुझे बताइये. मैं उस मौहब्बत को सलाम भेजूंगी.

पितृसत्ता दीमक की तरह स्त्री के जीवन से चिपटी है जो जिंदगी को भीतर ही भीतर खोखला करती जाती है. हम यहां आगे बढ़ने के उत्साह में अगली योजनाएं बना रहे हैं और वे वहां अपने धन-ऐश्वर्य और पद का लालच दिखाकर जागरूक स्त्रियों पर भी मर्दानगी की मूठ मार रहे हैं कि नई प्रेमिका के प्रेम में वे क्या-क्या नहीं कर गुजरेंगे. पहली औरत के लिए यातना-प्रताड़ना उनका जन्म सिद्ध अधिकार हो जैसे.

आखिर में यही कहूंगी विश्वास किसी मर्द का नहीं, इंसान का किया जा सकता है और इंसान होने के लिए पुरुष होना जरूरी नहीं. स्त्री सशक्तिकरण के लिए आत्मविश्वास की जरूरत है जिसे पितृसत्ता हमसे छीनने की फिराक में रहती है.

(मैत्रेयी पुष्पा द्वारा लिखित आलेख का सम्पादित अंश)

फूलन बनाई जाती है

Sunyakal
फोटो: शैलेंद्र पाण्डेय

उन दिनों आज की तरह के 24 घंटेवाले चैनलों की दुनिया नहीं थी जो अपने दर्शकों को फूलन देवी की सच्ची-झूठी कहानियों से दहलाती और बहलाती. लेकिन तब भी कल्पनाशीलता में कमी नहीं थी और उन दिनों के अखबारों में फूलन देवी की खबरें ‘चंबल के बीहड़ों में दस्यु सुंदरी का आतंक’ जैसे शीर्षक के साथ छपा करती थीं. स्त्री से जुड़े हर खौफनाक अनुभव को एक रोमानी त्रासदी बनाकर बेचनेवाला हिंदी सिनेमा तब भी फूलन देवी के बंबइयां संस्करण तैयार करने में जुटा था और मशहूर फिल्मी पत्रिका ‘माधुरी’ के एक पन्ने पर बड़ी ग्लैमरस सी मुद्रा में जंजीरों में जकड़ी रीता भादुड़ी की तस्वीर छपी थी जो किसी फिल्म में फूलन देवी का रोल कर रही थी. यह नहीं पता कि उस फिल्म का क्या हुआ, लेकिन नब्बे के दशक में शेखर कपूर ने बैंडिट क्वीन के नाम से फूलन की जिंदगी पर एक फिल्म बना भी डाली. तब असली फूलन किसी जेल में सड़ रही थी और उसने शेखर कपूर की फिल्म के खिलाफ शायद मुकदमा भी किया था जिसे उन दिनों फूलन देवी के लालच से जोड़कर देखा गया था.

महज बीस बरस की उम्र में उत्तर प्रदेश के गांव-देहातों को अपनी दहशत से दहला देनेवाली यह लड़की जब आत्मसमर्पण के बाद लोगों के सामने आई तब सबने अचरज से देखा कि यह कोई दस्यु सुंदरी नहीं है, उनके पास पड़ोस में रहने वाली ही किसी लड़की की तरह है- इस फर्क के सिवा कि उसने फौजी कपड़े और बूट पहन रखे हैं, बेल्ट बांध रखी है और कंधे पर एक राइफल लेकर चल रही है.

यह सच है कि फूलन कहीं से देवी नहीं थी. वह एक मामूली-सी लड़की थी. लेकिन उसके साथ जो कुछ हुआ, वह गैरमामूली था. उत्तर प्रदेश के एक गांव में एक मल्लाह परिवार के घर पैदा हुई इस लड़की ने अभाव और गरीबी भी देखी और अपनी पिछड़ी पृष्ठभूमि का अभिशाप भी. बहुत सारी लड़कियां शायद यह सब देखती और झेलती हैं, लेकिन फूलन का जुर्म यह था कि उसने इसे ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं किया, इसका प्रतिरोध किया. बिल्कुल किशोर उम्र में उसने अपने कमजोर पिता की जमीन हड़पनेवाले अपने चचेरे भाई का विरोध किया, जिसके इशारे पर पहले उसे पुलिसवाले ले गए और फिर वह डाकुओं के साथ हो ली. दोनों जगहों पर उसने अपने पिछड़े और औरत होने की सजा झेली. उसके साथ बार-बार बलात्कार हुए, वह सार्वजनिक तौर पर बेलिबास की गई, उसे मारा-पीटा गया- इन सबके बावजूद, धूल और खून में लिथड़ी वह बची रही तो यह उसका जीवट था, जिंदा रहने की बिलकुल ढीठ जिद थी. वह इन सब से बच निकली, फिर डाकू गिरोह में शामिल हुई, अपना गिरोह भी बनाया और आखिरकार एक दिन वह अपने आततायियों को खोजती हुई बेहमई नाम के उस गांव में पहुंच गई, जिसने उसकी सार्वजनिक जिल्लत न सिर्फ देखी थी, बल्कि इसमें साझेदार भी रहा था. यह 1981 का साल था. फूलन ने गांव के अगड़े मर्दों को कतार में खड़ा करके गोली मार दी. 22 लोग देखते-देखते मौत के घाट उतार दिए गए.

उत्तर भारत की मैदानी पट्टी में सामूहिक बलात्कार नई बात नहीं है. जो कुछ फूलन के साथ हुआ, वह बहुत सारी दूसरी लड़कियों के साथ भी होता रहा होगा- शायद इसलिए कुछ कम कि दूसरों में प्रतिरोध का इतना बल नहीं रहा होगा. लेकिन नया वह प्रतिशोध था जो फूलन देवी ने लिया. अचानक बेहमई राष्ट्रीय सुर्खियों में चला आया. इस मल्लाह ने वक्त की नाव दूसरी तरफ मोड़ दी थी.

यह कहना आसान है कि फूलन ने जो रास्ता चुना, वह सही नहीं था. लेकिन क्या यह सही होता कि फूलन बेहमई से पहले मारी जाती?

इसके बाद की कहानी कम नाटकीय नहीं है. बेहमई के दो साल बाद फूलन ने आत्मसमर्पण कर दिया- इस शर्त के साथ कि आठ साल में उसका मुकदमा ख़त्म हो जाना चाहिए. लेकिन वह 11 साल ग्वालियर की सेंट्रल जेल में सड़ती रही और मुकदमा कायदे से शुरू भी नहीं हुआ. शुक्र है कि इस दशक तक आते-आते भारतीय राजनीति मंडल की गिरफ़्त में आ चुकी थी और निचली और पिछड़ी मानी जाने वाली जातियां अपनी अस्मिता की नई लड़ाई लड़ रही थीं. यूपी में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी और फूलन को रिहा कराया गया. मिर्जापुर से चुनाव लड़कर वह सांसद बनी. माला सेन ने उस पर किताब लिखी और शेखर कपूर ने फिल्म बनाई. खुद फूलन ने दूसरे लेखकों की मदद से अपनी आत्मकथा लिखी. लेकिन जिस जातिवादी घृणा और प्रतिशोध ने उसके जीवन को शुरू से छलनी रखा, उसी ने 2001 में उसे गोली मार दी. 13 साल बाद, बीते हफ्ते जब फूलन देवी की हत्या के गुनहगार शेर सिंह राणा को निचली अदालत से सजा सुनाई गई तो अचानक सबको वह दस्यु सुंदरी याद आई जो बाद के दिनों में खाती-पीती गृहस्थन लगा करती थी और जिसे आधुनिक समय की सबसे बड़ी विद्रोहिणियों में एक माना जाता रहा.

यह कहना आसान है कि फूलन ने जो रास्ता चुना, वह सही नहीं था. यह भी कहा जा सकता है कि उसे संसद तक भेजनेवाले नेताओं के भीतर इंसाफ के सब्र से ज्यादा राजनीतिक हिसाब-किताब की हड़बड़ी रही होगी. लेकिन क्या यह सही होता कि फूलन बेहमई से पहले मारी जाती? या वह ग्वालियर की सेंट्रल जेल में सड़कर खत्म हो गई होती? उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव गोरहा का पूर्वा से बरास्ता बेहमई दिल्ली पहुंची फूलन देवी दरअसल याद दिलाती है कि फूलन पैदा नहीं होती, बनाई जाती है. आज भी कई बेहमई हैं जहां फूलन जैसी लड़कियां बेलिबास की जा रही हैं. गरीबी, अभाव, जातिगत जकड़बंदी और राजनीतिक दुरभिसंधि के ठहरे हुए तालाब में फूलन जैसी कोई बागी किसी पत्थर की तरह गिरती है तो उसकी सड़ांध सामने आती है. यह अनायास नहीं है कि समाज से अपना दाय मांग रही पिछड़ी अस्मिताएं फूलन नाम के पत्थर में अपनी देवी भी खोज और देख रही हैं.

मेरठ बलात्कार मामला: बवाल पर सवाल

meerutतारीख तीन अगस्त, दिन रविवार, जगह दिल्ली से करीब 70 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश का मेरठ शहर. करीब 20 वर्ष की एक युवती मीडिया के सामने आती है और अपने गांव के मदरसे के हाफिज और कुछ अन्य लोगों पर उसका अपहरण करने, बलात्कार करने और जबरन धर्मपरिवर्तन कराने के आरोप लगाकर सनसनी फैला देती है. कविता (बदला हुआ नाम) काफी समय से सरावां गांव के मदरसे में हिंदी और अंग्रेजी पढ़ाती थी. वह, यह आरोप भी लगाती है कि जबरदस्ती उसका एक ऑपरेशन भी कराया गया और कई दिनों तक उसे एक मदरसे में बंधक बनाकर रखा गया. वहां उसके जैसी 40 से अधिक युवतियां और थीं जिन्हें जल्द ही मुंबई और फिर खाड़ी देशों में भेज दिया जाएगा.

मीडिया ने इस मामले को जमकर उछाला. पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति में, जो पहले से ही सांप्रदायिक दंगों और महिलाओं के प्रति लगातार बढ़ रहे अपराधों के चलते गर्माई हुई थी, इस घटना से उबाल आ गया. जगह-जगह हिंदूवादी संगठनों के धरने-प्रदर्शन शुरू हो गए. दंगों के हालात बन गए. मेरठ के सांसद ने इस मामले को संसद में उठाया और केंद्र सरकार ने कानून-व्यवस्था को लेकर पहले से ही बैकफुट पर चल रही राज्य सरकार से मामले की प्रगति रिपोर्ट मांगी.

अब पुलिस द्वारा किये जा रहे खुलासे और तहलका की तहकीकात, पीडि़ता और उसके परिवार को ही इस मामले में किसी और अपराध के लिए न भी हों तो सामाजिक दबाव के चलते और शायद कुछ अन्य वजहों से भी, झूठ बोलने का अपराधी तो ठहरा ही रहे हैं. ऐसे झूठ जो प्रशासन की लापरवाही की हालत में कई जानों पर भारी पड़ सकते थे. कविता और उसके परिवार वालों ने अलग-अलग जगह पर इस मामले में जिस तरह के बयान दिए उन्होंने इसको इतना पेचीदा बना दिया है कि इस पर किसी भी तरह के अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचना अभी भी बेहद मुश्किल है.

पीडि़ता द्वारा खरखौदा थाने में दर्ज करवाई गई एफआईआर में मेडिकल रिपोर्ट में दर्ज 29 जून की बलात्कार वाली और उसके बाद की किसी घटना का कोई जिक्र नहीं है.

मेरठ के सरावा गांव की रहने वाली कविता तीन अगस्त को अपने पिता के साथ खरखौदा थाने पहुंची. तहलका के पास मौजूद, कविता के पिता द्वारा लिखाई गई रिपोर्ट के मुताबिक दिनांक 23 जुलाई 2014 को गांव के ही प्रधान नवाब, मदरसे के हाफिज सनाउल्लाह, सनाउल्लाह की पत्नी और उसकी बेटी निशात ने उनकी बेटी का अपहरण कर लिया और हापुड़ के एक मदरसे में ले गए. वहां कई लोगों ने उसके साथ बलात्कार किया. पीडि़ता के पिता ने अपनी रिपोर्ट में यह भी दर्ज करवाया कि आरोपियों ने उनकी बेटी का जबरन धर्म परिवर्तन करवाया. इस एफआईआर में पीड़िता के पिता का यह भी कहना था कि ‘उपरोक्त घटना को गवाह नरेंद्र पुत्र जयप्रकाश, संदीप पुत्र राजेंद्र आदि ने देखा है.’ पीडि़ता ने मीडिया को दिये गए अपने बयान में यह भी कहा कि उसे गौ-मांस और मछली भी खिलाई गई. उसने आरोपियों पर उसका ऑपरेशन करने का भी आरोप लगाया.

पीडि़ता का यह बयान आने के साथ ही पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश का राजनीतिक माहौल गर्मा गया और हिंदूवादी संगठन सड़कों पर उतर आए. पुलिस ने तुरत-फुरत में कार्रवाई करते हुए मामले में नामजद पांच आरोपियों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया और पीडि़ता के बयान के आधार पर तफ्तीश शुरू कर दी।

लेकिन तीन अगस्त को रिपोर्ट लिखाने से तीन दिन पहले – 31 जुलाई 2014 को – भी पीडि़ता के पिता ने खरखौदा थाने में  अपनी पुत्री के गायब होने की एक सूचना दी थी (इसकी भी एक प्रति तहलका के पास है). इस गुमशुदा सूचना में उन्होंने बताया था कि ‘मेरी पुत्री दिनांक 29 जुलाई 2014 की शाम को करीब 8:30 बजे घर से सिर दर्द की दवाई लेने गई थी. उसके बाद से अब तक घर नहीं लौटी है.’ उन्होंने यह भी लिखा कि पीडि़ता अपना मोबाइल घर पर ही छोड़ गई है जिसपर कई नंबरों से फोन आ रहे हैं और उठाने पर कोई बात नहीं कर रहा है.

अगर मीडिया में दिए गए पीड़िता और उसके परिवार के बयानों की बात न भी करें तो भी पुलिस को दो अलग समय में पीड़िता के परिवार द्वारा दी गई जानकारियां बिलकुल अलग थीं. लेकिन विरोधाभासों की श्रृंखला यहीं खत्म नहीं हो जाती. पुलिस द्वारा मामला दर्ज करने के बाद पीडि़ता को मेरठ के राजकीय जिला महिला चिकित्सालय में जांच के लिये ले जाया गया. यहां जांच रिपोर्ट के मुताबिक पीड़िता एक अलग ही कहानी सुनाती है. मेडिकल के समय तैयार किये जाने वाले कागजातों में पीडि़त के साथ हुई घटना का संक्षिप्त विवरण उसे देखने वाले डॉक्टर को पीड़िता के ही शब्दों में लिखना होता है. इस विवरण में पीडि़ता बताती है कि दिनांक 29 जून 2014 को हापुड़ से गांव लौटते समय उसे गांव के ही रहने वाले हाफिज सनाउल्लाह, जिसे वह पहले से जानती थी, ने धोखे से गाड़ी में बैठा लिया और हाफिज और एक अन्य युवक द्वारा उसे कुछ नशीला पदार्थ सुंघाकर खेत में ले जाकर उसके साथ बलात्कार किया गया. बलात्कार के बाद उसे शाम पांच बजे हापुड़ तहसील के पास छोड़ दिया गया.  वह वापस अपने घर आ गई.

पीडि़ता के अनुसार बलात्कार के बाद उसे कई शारीरिक समस्याएं होने लगीं जिसके बाद वह फिर उसी व्यक्ति के पास गई जिसने उसके साथ बलात्कार किया था.  ‘मैं फिर हाफिज जी के पास इस समस्या के लिए चली गई. उन्होंने मुजफ्फरनगर ले जाकर मेरा ऑपरेशन कराया. ऑपरेशन के टांके कटने के बाद अपने आप दोबारा घर वापस आ गई.’ मेडिकल रिपोर्ट में एक जगह यह भी लिखा गया है कि ऑपरेशन के बाद एक अगस्त को पीड़िता के टांके निकाल दिए गए.

आश्चर्य की बात है कि पीडि़ता द्वारा खरखौदा थाने में दर्ज करवाई गई एफआईआर में मेडिकल रिपोर्ट में दर्ज 29 जून की बलात्कार वाली और उसके बाद की किसी घटना का कोई जिक्र नहीं है. दूसरी तरफ जहां एफआईआर के मुताबिक कविता 23 जुलाई को गायब हुई थी वहीं 31 जुलाई को पीड़िता के पिता द्वारा पुलिस को दी गई गुमशुदा सूचना के मुताबिक कविता 29 जुलाई को गायब हुई थी.

लेकिन इस मामले की विचित्रता अभी भी खत्म नहीं होती. पुलिस द्वारा पीडि़ता को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया जहां उसने सीआरपीसी की धारा 164 के तहत अपने बयान दिए. इस बयान में पीडि़ता 29 जून को अपने साथ बलात्कार होने और उसके बाद 23 जुलाई को आरोपियों के साथ जाकर ऑपरेशन की बात तो बताती है पर यह भी बताती है कि ऑपरेशन के बाद वह 27 जुलाई को घर वापस आ गई थी और आरोपियों ने उसे 29 जुलाई को दुबारा अगवा कर लिया था. इसके बाद वह तीन अगस्त को उनके चंगुल से बचकर भाग निकली थी.

मेरठ के एसएसपी ओंकार सिंह तहलका को बताते हैं कि तहकीकात में सामने आया है कि पीडि़ता की बीते एक माह में मेरठ के उलधन गांव के निवासी कलीम से 150 से अधिक बार बात हुई. पुलिस ने जब कलीम को पूछताछ के लिये हिरासत में लिया तो उसने बताया कि वह 23 जुलाई को पीड़िता को मेरठ मेडिकल कॉलेज में लेकर गया था जहां उसका ऑपरेशन किया गया. एसएसपी का कहना है कि मेडिकल कॉलेज में लगे सीसीटीवी कैमरे ने 23 जुलाई को पीडि़ता और कलीम की फुटेज दर्ज कर ली थी. सिंह के मुताबिक कविता 23 जुलाई को दोपहर 12:30 बजे ऑपरेशन के लिए मेडिकल कॉलेज में भर्ती कराई गई थी. वहां से वह 27 जुलाई की सुबह 10 बजे डिस्चार्ज हुई. साथ ही एसएसपी यह भी बताते हैं कि 23 जुलाई से पूर्व पीडि़ता कलीम के साथ मेरठ में ही एक महिला डॉक्टर के यहां इलाज के लिये आई थी जिसका सारा रिकॉर्ड भी पुलिस के पास है. पुलिस के मुताबिक कलीम और कविता सात जून और 29 जून को मेरठ के सोतीगंज स्थित होटल रंजीत में रुके थे.

मामले की जांच में लगे एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर संवाददाता को बताते हैं कि पीडि़ता द्वारा दिए गए बयान उसकी कहानी को झूठा साबित कर रहे हैं. इस अधिकारी का कहना है कि अगर पीडि़ता के साथ 29 जून को बलात्कार हुआ था तो यह कैसे मुमकिन है कि 24 दिन के अंदर पीडि़ता को गर्भवती होने का पता चल गया और उसने गर्भपात भी करवा लिया. इस अधिकारी का यह भी कहना है कि मेडिकल में पीडि़ता ने लिखवाया है कि ऑपरेशन के बाद उसके टांके एक अगस्त को कटे हैं तो इस बात की संभावना है कि पीडि़ता मजिस्ट्रेट को दिए बयान के मुताबिक 27 को घर वापिस आकर 29 जुलाई को टांके कटवाने के लिये फिर चली गई हो.

इलाज के लिए गाजियाबाद के एक अस्पताल में भर्ती हुई पीडि़ता से जब इस संवाददाता ने बात की तो उसका कहना था ‘मुझे वह जगह याद नहीं है जहां मेरा ऑपरेशन हुआ था लेकिन एक बार मैं उस बिल्डिंग को देखूंगी तो पहचान लूंगी. मैं अस्पताल जाते समय बुरके में नहीं थी. मैंने अपने मुंह को दुपट्टे से छुपा रखा था.’ इसके अलावा पीडि़ता ने माना कि वह कलीम को पहले से जानती थी और उसके साथ ही ऑपरेशन करवाने अस्पताल गई थी. इसके बारे में पूछने पर उसका कहना था ‘मेरे ऊपर आरोपियों द्वारा ऑपरेशन करवाने का बहुत दबाव बनाया गया था और मैं उस समय बहुत डरी हुई थी.’

अस्पताल में मौजूद पीडि़ता के एक रिश्तेदार का कहना था कि उसके साथ 29 जून को बलात्कार तो हुआ था. 23 जुलाई को उसने घर पर अपनी छोटी बहन को फोन किया कि वह अपने कॉलेज की कुछ सहेलियों के साथ मथुरा टूर पर जा रही है और दो-तीन दिन में आ जाएगी. 27 जुलाई को वह अपने घर वापस आ गई और उसने आने के बाद अपनी छोटी बहन को बताया कि उसका अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ है. इसके बाद 29 जुलाई को आरोपी उसका अपहरण करके ले गए और तीन अगस्त को वह आरोपियों के चंगुल से छूटकर घर वापस आई. हालांकि मेरठ पुलिस द्वारा यह दावा किए जाने के बाद कि पीडि़ता कलीम के साथ ऑपरेशन करवाने गई थी, उसके परिजन उसे जबरदस्ती गाजियाबाद के अस्पताल से डिस्चार्ज करवाकर घर ले गए.

इस मामले के सभी पहलुओं को जानने वालों में से कुछ लोगों को यह, ऐसे प्रेम संबंध का मामला लगता है, जो सामाजिक दबाव में आए परिवार के दबाव में पुलिस का मामला बन गया. दूसरी तरफ परिवार से सहानुभूति रखने वाले लेकिन मामले को केवल बाहर-बाहर से जानने वालों में से कुछ का मानना है कि अपने साथ बुरा होने के बावजूद भी परिवार के डर की वजह से एक 20 साल की नादान लड़की ने इसे इतना जटिल बना दिया. वजह चाहे जो भी हो लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कविता इस मामले में पीड़िता ही है. फिर चाहे उसके साथ बलात्कार हुआ हो या नहीं.

अमर सिंह होने का मतलब

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यह राजनीति का विरोधाभासी चरित्र ही है कि जिन जनेश्वर मिश्र के कहने पर मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी से अमर सिंह की विदाई पर अंतिम मोहर लगाई थी उन्हीं की जयंती पर लखनऊ में आयोजित एक समारोह के जरिए अमर सिंह की सपा में पुनः प्राण-प्रतिष्ठा की तैयारी सार्वजनिक हुई है. जब अमर सिंह सपा में थे तब पार्टी में उनके वर्चस्व और भूमिका को लेकर उठे हर विरोध के स्वर को मुलायम शांत कर देते थे. लेकिन जब जनेश्वर मिश्र यानी ‘छोटे लोहिया’ ने सिद्धांतों का सवाल उठा दिया तो मुलायम सिंह के लिए भी उन बातों की अनदेखी संभव नहीं रह गया.

फरवरी 2010 में अमर सिंह जयाप्रदा और अपने कुनबे को लेकर समाजवादी पार्टी से अलग हो गए. लेकिन चार साल तक राजनीति के अलग-अलग घाटों का पानी पी-पी कर अमर सिंह को यह समझ आ गया कि उनका असल घाट समाजवादी पार्टी ही हो सकती है. इसलिए सपा के मुखिया मुलायम सिंह यादव और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के साथ मंच साझा करने के दौरान अपने संबोधन में वे यह कहना नहीं भूले कि ‘एक बार जनेश्वर जी ने मुझसे कहा था, तुम बड़े घर के हो, तुम समाजवादी नहीं हो सकते. समाजवादी होने के लिए राजनीतिक कारणों से जेल जाना होता है. गरीब के पसीने की कीमत समझनी होती है. चुनाव लड़ना होता है. अगर आज वे होते तो मैं पूछता कि राजनीतिक कारणों से जेल हो आया. चुनाव भी लड़ लिए. गली-गली घूम रहा हूं तो क्या अब समाजवादी हो गया हूं.’

अमर सिंह और समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव दोनों आज एक जैसी ही स्थिति में हैं. सपा से अलग होकर अमर सिंह को यह समझ में आ गया कि जिस तरह के राजनीतिक जलवे का चस्का उन्हें लग चुका है वह सिर्फ सपा ही उन्हें वापस दिलवा सकती है. उनकी सारी जनसंपर्क और धनसंपर्क की कलाएं अगर कहीं निखर सकती हैं तो सिर्फ समाजवादी पार्टी के ही मंच पर. एक व्यक्ति, एक नेता या एक प्रवक्ता के रूप में उनको अतिविशिष्ट बने रहने का महत्व भी अगर कहीं मिल सकता है, तो वह भी सिर्फ समाजवादी पार्टी में. राजनीति के गलियारों में खास बने रहने की आदत ने भी उनके मन में मुलायमवादी होने की छटपटाहट बढ़ा दी है.

ऐसा ही कुछ हाल मुलायम सिंह यादव का भी है. उनकी पार्टी भले ही उत्तर प्रदेश में सत्ता-सुख भोग रही है मगर उनका खुद के लिए तैयार किया गया मिशन 2014 मोदी की सूनामी में पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है. पांच साल बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में परिस्थितियां उनके कितने अनुकूल होती हैं, यह सोचना तो बाद की बात है फिलहाल तो अगला विधानसभा चुनाव ही हाथों से फिसलता दिख रहा है. लोकसभा के अंदर चार सदस्यों का उनका पारिवारिक समाजवादी कुनबा राष्ट्रीय राजनीति में उन्हें प्रासंगिक बनाने के लिए पर्याप्त नहीं. राज्यसभा में भी नरेश अग्रवाल और रामगोपाल यादव के बावजूद समाजवादी पार्टी बहुत चमक नहीं दिखा पा रही. ऐसे में मीडिया के जरिए चर्चा में बने रहने के लिए अमर सिंह समाजवादी पार्टी की हर जरूरत पूरी कर सकने के लिए सर्वाधिक सक्षम व्यक्ति साबित हो सकते हैं. इसलिए मुलायम भी अमर सिंह के सारे जुबानी गुनाह भूलने को तैयार दिखते हैं.

सपा के लिए अमर सिंह की दूसरी बड़ी उपयोगिता धनसंपर्क के क्षेत्र में हो सकती है. उत्तर प्रदेश सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी उत्तर प्रदेश में पैसा नहीं आ पा रहा है. पूंजीनिवेश की कमी से सूबे का विकास भी प्रभावित हो रहा है और पार्टी का भी. मुलायम सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में अमर सिंह उत्तर प्रदेश में निवेश लाने के लिए बनाई गई संस्था के प्रमुख रह चुके हैं और अनेक अवसरों पर उन्होंने अनिल अंबानी सहित देश के कई बड़े उद्योगपतियों को यूपी में हाजिर-नाजिर भी किया था. समाजवादी पार्टी को आज फिर इसी दोस्ती की जरूरत है. उद्यमियों से रिश्तों की गर्माहट समाजवादी पार्टी के चेहरे को फिर से गुलाबी बना सकती है और इस काम के लिए मुलायम सिंह यादव को अमर सिंह से ज्यादा अच्छा साथी दूसरा मिल नहीं सकता. नरेश अग्रवाल पूरी कोशिशों के बावजूद इस कला में कोई बड़ा कमाल नहीं कर पाए हैं. जबकि अमर सिंह इस मामले में वाकई कमाल के हैं.

अमर सिंह की एक और भूमिका जोड़-तोड़ के मामले में भी हो सकती है. अभी जो हालात हैं उनमें लग रहा है कि अगले विधानसभा चुनावों के लिए समाजवादी पार्टी को कई तरह के राजनीतिक जोड़-तोड़ की बहुत जरूरत पड़ सकती है. चाहे लोकदल जैसे दलों से गठबंधन की संभावना हो या फिर ठाकुर राजनीति के ध्रुवीकरण की, अमर सिंह हर जगह उपयोगी हो सकते हैं. हालांकि समाजवादी पार्टी के नेता अभी अमर सिंह की भावी उपयोगिताओं के बारे में कुछ कहने से बच रहे हैं मगर विपक्षी दल के एक नेता का कहना है कि अमर सिंह की सबसे बड़ी उपयोगिता तो यह है कि वे समाजवादी कुनबे को टैक्स हैवन कंट्रीज में एकाउंट खुलवाना सिखा सकते हैं.

वैसे अमर सिंह की जरूरत मुलायम सिंह यादव को लोकसभा चुनाव से पहले ही महसूस होने लगी थी. भारत-पाकिस्तान के रिटायर्ड फौजियों की एक अनौपचारिक बैठक में छह महीने पहले अमर सिंह के घर पर शिवपाल सिंह की मौजूदगी ने इसके संकेत दे दिए थे. लोकसभा चुनाव के दौरान भी मुलायम सिंह यादव ने अमर सिंह के बारे में कहा भी था कि मेरे दिल की बात सिर्फ एक ही आदमी समझता है. नवंबर 2012 में अमर सिंह के खिलाफ कानपुर की एक अदालत में चल रहे मनी लांड्रिंग के मामले में अखिलेश सरकार द्वारा क्लोजर रिपोर्ट लगा देने से भी यह साफ हो गया था कि अमर सिंह को लेकर समाजवादी पार्टी में चल रही कड़वाहट अब खत्म हो रही है.

लेकिन अमर सिंह की वापसी की राह बहुत आसान नहीं है. मुलायम सिंह इस बात को बखूबी समझते हैं. इसलिए वे इस मामले में ‘जोर का झटका धीरे से’ वाली रणनीति अपना रहे हैं. अमर सिंह के साथ मुलायम ने मंच तो साझा किया, लेकिन अमर सिंह की कुर्सी उनसे और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से दूर ही रही. मंच पर प्रवेश के समय भी मुलायम सिंह यादव ने उनसे अभिवादन की सामान्य औपचारिकता ही निभाई, उसमें कहीं भी आत्मीयता नहीं थी. हालांकि बाद में मुलायम और अमर सिंह पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार फ्लाइट में अगल-बगल की सीटों पर बैठ कर ही दिल्ली गए. मुलायम जानते हैं कि अमर की सपा में घुसपैठ से पार्टी के भीतर कई तरह के समीकरण बन-बिगड़ सकते हैं. पार्टी के अंदर अमर सिंह से पीड़ित नेताओं की संख्या कम नहीं है और उनके विरोधियों की भी कमी नहीं हैं. लखनऊ के कार्यक्रम में न तो नरेश अग्रवाल दिखाई दिए, न ही रामगोपाल यादव. आजम खान तो लखनऊ में मौजूद होने के बावजूद कार्यक्रम में नहीं पहुंचे. बाद में उन्होने यह कहकर सफाई दी कि ‘मुझे उस कार्यक्रम में जाना चाहिए था. नहीं जा सका. इसका मुझे अफसोस है.’ मगर वे यह कहना भी नहीं भूले कि’राजनीतिक मंच पर सभी तरह के लोग होते हैं. कुछ हम जैसे फकीर होते हैं, कुछ खेल वाले खिलाड़ी और कुछ मदारी होते हैं.’ ऐसा ही कुछ दिल्ली में राम गोपाल यादव ने भी कहा. उन्होने कहा कि लखनऊ के समारोह में दस हजार लोग मौजूद हैं. वे उन दस हजार में से एक हैं.

मगर यह तय है कि इन कठोर सुरों को अब कोमल होना ही होगा, क्योंकि अमर सिंह और मुलायम अब एक ही फ्लाइट की अगल-बगल की सीटों पर बैठ चुके हैं. अमर सिंह यह घोषित कर ही चुके हैं कि वे मुलायमवादी हो गए हैं. नवंबर में राज्य सभा का अपना कार्यकाल पूरा होने से पहले वे समाजवादी कुनबे की सेवा के लिए पूरी तरह समाजवादी भी हो जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. अमर सिंह तो कहते ही हैं कि ‘हम बने तुम बने, एक दूजे के लिए.’