भारत और तिब्बत के बीच सीमा निर्धारण का पहला समझौता शिमला में हुआ था. 1914 के इस समझौते में ब्रितानी-भारत, तिब्बत और चीन के प्रतिनिधि शामिल थे और इसी में मैकमोहन रेखा को सीमारेखा बनाया गया. हालांकि चीन ने तब से लेकर अब तक इसे कभी स्वीकार नहीं किया. इसके बाद मार्च, 1947 में भारत की अंतरिम सरकार के मुखिया के रूप में जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने एशियाई देशों का एक सम्मेलन दिल्ली में आयोजित किया तो वहां चीन के साथ-साथ तिब्बत के प्रतिनिधि भी बुलाए गए थे. लेकिन तिब्बत को अलग दर्जा देने की यह नीति 1949 में चीनी गणतंत्र (पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना) के गठन के साथ ही खत्म हो गई. भारत ने ‘एक चीन’ की नीति अपना ली. वहीं इसके एक साल बाद चीन ने तिब्बत पर पूर्ण अधिकार के लिए घुसपैठ कर दी. अंतरराष्ट्रीय मंचों पर चीन का दावा था कि यह क्षेत्र उसके अधीन भी एक स्वायत्तशासी क्षेत्र बना रहेगा. भारत ने भी इस दावे को 1954 में चीन से संधि के दौरान मान लिया. हालांकि तिब्बतवासियों को यह मंजूर नहीं था. उसके खांपा क्षेत्र में चीन के खिलाफ विद्रोह हो गया. यह कई महीनों तक चला. इसी दौरान 1959 में दलाई लामा अपने सैकडों अनुयायियों के साथ भारत आ गए. उनके बाद कई तिब्बतवासी शरणार्थी के रूप में धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) और उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों में पहुंचे.
दलाई लामा के भारत आने के तकरीबन तीन साल बाद ही भारत-चीन युद्ध और एसएफएफ (स्पेशल फ्रंटियर फोर्स) का गठन हुआ था. नवंबर, 1962 में जब यह लगभग तय हो चुका था कि भारत चीन के सामने पराजित हो चुका है, भारतीय गुप्तचर संस्था रॉ ने सरकार के सामने एक गुप्त सैन्य बल के गठन का प्रस्ताव रखा. सरकार ने इसे मान लिया. यह चीन के साथ अगले संघर्ष की पूर्व तैयारी थी इसलिए इस बल में सभी जवान तिब्बती मूल के रखे गए. इसका मुख्यालय चकराता (उत्तराखंड) में बनाया गया जहां काफी तादाद में तिब्बतवासी रहते हैं. इस बल को छापामार युद्ध और खुफिया सूचनाएं जुटाने के लिए प्रशिक्षित किया गया था. एसएफएफ से जुड़ी एक और खास बात यह थी कि इसे अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए से भी प्रशिक्षण मिला था.
एसएफएफ का गठन बेशक चीन को ध्यान में रखकर किया गया लेकिन 1962 के युद्ध के बाद ऐसी नौबत कभी नहीं आई कि इस मकसद के लिए बल का इस्तेमाल किया जाए. इसके बाद भी इस बल ने कई मोर्चों पर अपनी उपयोगिता सिद्ध की. 1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के समय एसएफएफ ने वहां कई पुलों को उड़ाकर पाकिस्तानी सेना को पस्त कर दिया था. नंदा देवी पर्वत पर परमाणु ईंधन से चलने वाली जासूसी डिवाइस को लगाने की जिम्मेदारी भी एसएफएफ के जवानों को दी गई थी, हालांकि विपरीत मौसम की वजह से वे इसमें सफल नहीं हो सकेे.
1970-80 का दशक आते-आते चीन के साथ संबंधों में सुधार होने के साथ ही एसएफएफ की वह जरूरत नहीं रह गई जिसके लिए इसका गठन किया गया था. बाद के सालों में इसके जवानों को आतंकवाद निरोधी बल के रूप में प्रशिक्षित किया जाने लगा और ये ऑपरेशन ब्लू स्टार से लेकर कारगिल की लड़ाई तक भारतीय सैन्य रणनीति में महत्वपूर्ण साबित हुए. आज एसएफएफ भारत के सबसे प्रमुख आतंकवाद विरोधी बलों में माना जाता है. हालांकि अभी-भी इस बल के जवानों को विशेषरूप से छापामार युद्ध की ट्रेनिंग दी जाती है और यह रॉ की एक शाखा के रूप में ही काम करता है.
दिल्ली की एक अदालत ने आज 2जी मामले में डीएमके प्रमुख एम करुणानिधि की पत्नी दयालू अम्मल को जमानत दे दी. दयालू, पूर्व केंद्रीय दूरसंचार मंत्री ए राजा और कुछ अन्य लोगों पर इस मामले में काले धन से हेराफेरी के आरोप हैं.
सीबीआई की विशेष अदालत के जज ओपी सैनी ने 83 साल की दयालू को पांच लाख के निजी मुचलको को भरने के बाद जमानत दी. इससे पहले उन्होंने एक याचिका में अपने खराब स्वास्थ्य, मानसिक हालत और उम्र का हवाला देते हुए अदालत से खुद को आरोपमुक्त करने का आग्रह किया था. लेकिन अदालत ने इसे खारिज कर दिया.
इस मामले में राजा के साथ-साथ, करुणानिधि की बेटी व डीएमके की सांसद कनिमोरी और अन्य आरोपितों की जमानत पर फैसला भी आज ही आना है. प्रत्यावर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा दायर इस केस में दस लोग और नौ फर्मों को आरोपित किया गया है. सीबीआई द्वारा अदालत में दाखिल किए गए आरोपपत्र के मुताबिक ये सभी आरोपित डीएमके के आधिपत्य वाले कलैनार टीवी को मिले 200 करोड़ रुपये के अवैध लेनदेन में शामिल थे और इस रकम के बदले डीबी ग्रुप ऑफ कंपनीज को 2जी स्प्रैक्ट्रम के लायसेंस मिले थे. दयालू की कलैनार टीवी में 60 प्रतिशत की हिस्सेदारी है और कनिमोरी व शरद कुमार 20-20 प्रतिशत के हिस्सेदार हैं.
दयालू, राजा और कनिमोरी के अलावा ईडी ने इस मामले में स्वान टेलीकॉम के प्रोमोटर शाहिद बलवा और विनोद गोयनका, कुसेगांव फ्रूट्स और वेजीटेबल्स प्राइवेट लिमिटेड के आसिफ बलवा व राजीव अग्रवाल और कलैनार टीवी के एमडी शरद कुमार, हिंदी फिल्मों के प्रोड्यूसर करीम मोरानी के साथ-साथ पी अमृतम को आरोपित बनाया है.
इन लोगों के अलावा इस मामले में स्वान टेलिकॉम प्राइवेट लिमिटेड, कुसेगांव रियलिटी प्राइवेट लिमिटेड, सिनेयुग फिल्म्स मीडिया एंड एंटरटेनमेंट प्राइवेट लिमिटेड, कलैनार प्राइवेट टीवी प्राइवेट लिमिटेड, डानामिक्स रियलिटी, एवरस्माइल कंस्ट्रक्शन कंपनी प्राइवेट लिमिटेड, कॉनवुड कंस्ट्रक्शंस एंड डेवलपर्स प्राइवेट लिमिटेड, डीबी रियलिटी एंड निहार कंस्ट्रक्शंस प्राइवेट लिमिटेड पर भी आरोप हैं.
एलबमः मैरी कॉम
गीतकार » प्रशांत इंगोले, संदीप सिंह
संगीतकार » शशि सुमन, शिवम पाठक
एलबमः मैरी कॉम गीतकार » प्रशांत इंगोले, संदीप सिंह संगीतकार » शशि सुमन, शिवम पाठक
फिल्म मणिपुर की मैरी कॉम के बारे में है लेकिन संगीत मुंबई का है. वहीं की आवाजें हैं, वहीं के बोल, वहीं की समझ. लेकिन बस इतनी ही शिकायत है इस एलबम से. कुछ गीत हैं यहां, जिनमें मेहनत की मधुर झंकार है. इंडियन आइडल पांच के दो गायक ‘मैरी कॉम’ के संगीतकार हैं, जिन्हें ऐसा मौका देने के लिए भंसाली की तारीफ होनी चाहिए. नहीं तो इंडियन आइडल के अच्छे-अच्छे गायक अनु मलिक की छाया में काले हुए पड़े हैं.
एक आवाज की आप कितनी बार आरती उतार सकते हैं? क्या करें, अरिजित गाते ही इतना कमाल हैं. जैसे हमारे हृदय से बांसुरी सटा दूसरी तरफ से उसमें अपनी आवाज घोल रहे हों, और सबकुछ दिल के रास्ते रूह तक पहुंच रहा हो. बाकी हर चीज में साधारण ‘सूकून मिला’ ऐसा ही गीत है. एलबम के बाकी कई अच्छे गीतों में गायक अपने शुद्ध रूप में आते हैं, और इन दिनों दुर्लभ होती जा रही ऐसी गायकी के लिए संगीतकार शशि सुमन के कांधे पर गीतमय थपकी. सुनिधि चौहान ‘अधूरे’ ऐसे गाती हैं जैसे ‘चमेली’ के गीत गा रही हों, और हमें पुराना प्यार फिर हो जाता है. मोहित चौहान एक लंबे वक्त बाद ‘तेरी बारी’ से वापस मोहित चौहान हो जाते हैं, और ऐसा करते हुए वे दिल खुशी से इतना भर देते हैं कि तौलने की जरूरत आन पड़ती है. बाक्सिंग प्रेक्टिस की आवाजों को गीत में सिलता और लिखाई में लायक ‘जिद्दी दिल’ सर्वश्रेष्ठ है जिसे गाकर विशाल डडलानी कुछ वक्त से अपनी गायकी की ऊर्जा में लग चुके जालों का सफाया कर देते हैं. आखिरी, प्रियंका चोपड़ा की गाई लोरी ‘चाओरो’ पता नहीं किसी संगीत सॉफ्टवेयर के नये अपडेट का कमाल है या सच में प्रियंका की आवाज इतनी मधुर है, लेकिन जो कानों में जाता है वो बार-बार जाना चाहता है. बेहद प्यारी लोरी.
विश्वविख्यात योग गुरु और अयंगर स्कूल ऑफ योग के संस्थापक बीकेएस अयंगर का आज सुबह पुणे में निधन हो गया. वह 96 वर्ष के थे. अयंगर दिल और गुर्दे समेत कई शारीरिक तकलीफों से जूझ रहे थे.
दिसंबर 1918 में कर्नाटक के बेल्लूर में शिक्षक पिता श्री कृष्णमाचार के घर जन्मे बेल्लूर कृष्णमाचार सुंदरराजा (बीकेएस) अयंगर का योग से परिचय 16 वर्ष की उम्र में हुआ जब उनकी मुलाकात उनके गुरु श्री टी कृष्णमाचार्य से हुई. महज दो वर्ष की शिक्षा के बाद उनके गुरु ने उन्हें योग का प्रशिक्षण देने के लिए पुणे भेज दिया. उन्होंने दुनिया भर को अयंगर योग की जो शिक्षा दी वह अतुलनीय है.
पद्यविभूषण से सम्मानित बीकेएस अयंगर को निर्विवाद रूप से दुनिया का सबसे बड़ा योग गुरू कहा जा सकता है जिसने पश्चिमी दुनिया को योग की खूबियों से परिचित कराया. अमेरिकी समाचार पत्र न्यूयॉर्क टाइम्स ने सन 2002 में लिखा, ‘अयंगर ने पश्चिमी दुनिया को योग से परिचित कराने के लिए जितना कुछ किया, किसी अन्य व्यक्ति ने शायद ही किया हो.’ वर्ष 2004 में टाइम मैगजीन ने उनके वैश्विक प्रभाव को मान्यता देते हुए उनको दुनिया के चुनिंदा जीवित प्रभावशाली लोगों में शामिल किया. अयंगर की लिखी पुस्तक लाइ ऑन योगा को उसने योग की बाइबिल कहकर पुकारा.
अयंगर ने प्राचीन पतंजलि सूत्र का प्रचार प्रसार करने के अलावा अपनी विशिष्ट अयंगर योग शैली के योगों को दुनिया के करीब 60 देशों में विशिष्ट स्थान दिलाया. उस वक्त योग के जो अन्य स्वरूप प्रचलित थे उनमें व्यायाम अथवा योग को बहुत तेज गति से अंजाम दिया जाता था. इनके विपरीत अयंगर योग की अपनी निजी शैली लेकर आए जिसे अयंगर योग के नाम से जाना गया. इस योग शैली में शरीर को योग की खास मुद्राओं में काफी देर तक स्थिर रखना होता है. यह योग और ध्यान का एक मिश्रण तैयार करता है. इस शैली को अयंगर के पश्चिमी देशों में मौजूद अनुयाइयों ने काफी सराहा.
अयंगर ने योग के दर्शन को पुस्तकों में भी उतारा जिससे लाखों लोग लाभान्वित होते हैं. लाइट ऑन योग, लाइट ऑन प्रणायाम और लाइट ऑन दी योग सूत्राज आफ पतंजलि आदि उनकी प्रमुख रचनाएं हैं.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अयंगर के निधन पर शोक व्यक्त किया है. उन्होंने ट्विटर पर लिखा, ‘मुझे योगाचार्य बीकेएस अयंगर के निधन के बारे में जानकर गहरा दुख हुआ है और मैं पूरी दुनिया में उनके अनुयायियों के प्रति अपनी संवेदना प्रकट करता हूं. पीढियां बीकेएस अयंगर को एक सर्वश्रेष्ठ गुरु, विद्वान और निष्ठावान नेतृत्व के रूप में याद करेंगी, जो पूरी दुनिया में बहुत से लोगों की जिंदगी में योग को लेकर आए.’
अयंगर ने 60 से अधिक देशों में अपने संस्थान की 100 से अधिक शाखाएं स्थापित कीं. उनके योग शिष्यों में समाजवादी विचारक एवं नेता जयप्रकाश नारायण, प्रसिद्ध दार्शनिक जे कृष्णमूर्ति तथा प्रख्यात वायलिन वादक येहूदी मेनहुइन जैसे नाम शामिल हैं.
िफल्म » एंटरटेनमेंट निर्देशक» फरहाद-साजिद लेखक » फरहाद-साजिद कलाकार » अक्षय कुमार, तमन्ना, सोनू सूद, प्रकाश राज, कृष्णा
फरहाद-साजिद, साजिद खान के लिए फिल्में लिखते रहे हैं. लेकिन एंटरटेनमेंट देखने के बाद अगर साजिद खान की फिल्में याद करें तो यह तय करना मुश्किल हो जाएगा कि असल साजिद खान किसे होना चाहिए? एंटरटेनमेंट के हर फ्रेम में साजिद खान का सिनेमा किलकारियां मारता है. किल करतीं हुई कलाकारियां.
बतौर लेखक फरहाद-साजिद ने साजिद खान के लिए सिर्फ दो फिल्में लिखीं. हाउसफुल 2 और हिम्मतवाला. रोहित शेट्टी के लिए उन्होंने ढेरों फिल्में लिखीं. लेकिन उनकी ‘एंटरटेनमेंट’ में रोहित शेट्टी का बचकानापन नहीं है, साजिद खान की बेवकूफियां हैं.
सरकार को सिगरेट-बीड़ी के स्क्रीन पर आते ही ‘धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है’ की पट्टी चलाने की जगह एंटरटेनमेंट जैसी फिल्मों के हर सीन पर ‘इस दृश्य की ये हालत साजिद खान के सिनेमा के कारण है’ जैसी पट्टी चलाने के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए. उसे लागू करने के लिए राष्ट्रीय स्तर की अमानवीय गाइडलाइन्स भी बनानी चाहिए, क्योंकि तभी मानवों के बचे रहने की आधा प्रतिशत गुंजाइश बाकी रहेगी.
एंटरटेनमेंट ‘हमशकल्स’ से भी बुरी फिल्म है. लेकिन किस्मत देखिए अक्षय कुमार की, कि यह फिल्म साजिद खान ने नहीं फरहाद-साजिद ने बनाई है. अगर साजिद खान ने बनाई होती, तो जिस तरह हमशकल्स के बाद सैफ अली खान घर से महीना-भर बाहर नहीं निकल पाए थे, अक्षय कुमार भी नहीं निकल पाते. ये भारी नुकसान होता खिलाड़ी का, क्योंकि उस एक महीने में तो वे दूसरी एंटरटेनमेंट बना देते.
हमारे सिनेमा में कुछ नुस्खे इस कदर आजमाये जा रहे हैं कि वे कहावत का दर्जा पा सकते हैं. ऐसी ही एक कहावत यह हो सकती है कि जब आदमी बुजुर्गियत की तरफ बढ़ने लगता है तो उसे रंगीन कपड़े ज्यादा भाने लगते हैं. हमारी फिल्मों के सुपरस्टार इसी सिंड्रोम का शिकार हैं. युवा दिखने के लिए वे रंगीन कपड़ों से खुद को इतना रंग चुके हैं इन दिनों, कि परछाई के काले रह जाने का दुख होता होगा. अक्षय इस फिल्म में, और इन दिनों अपनी ज्यादातर फिल्मों में, युवा दिखने के लिए इसी तरह के रंगीन कपड़े पहनते हैं, जुल्फें ले आते हैं, लाल पट्टे की बड़ी साइज वाली घड़ियां पहनते हैं, और सिर को तीन सौ साठ डिग्री पर घुमा-घुमाकर नृत्य करते हैं.
और ये भी क्या दिन आए हैं, कि हमें अक्षय कुमार के कपड़ों की आलोचना को समीक्षा कहना पड़ रहा है. आलोचना होनी थी उनके अभिनय की, लेकिन जब वे सालों से उसी तरह का अभिनय कर रहे हैं, जिसकी आलोचना हमेशा से हो रही है और कोई फर्क नहीं पैदा कर पा रही, तो ऐसा अभिनय आलोचना और समीक्षाओं के परे हो ही जाता है. मगर जब अक्षय को अच्छे अभिनय का सपना आता होगा, क्या वह सपना उनपर भौंकता होगा, क्या अक्षय संघर्ष, हेराफेरी, स्पेशल छब्बीस को याद कर रात भर जागते होंगे. लगता तो नहीं ऐसा कुछ होता होगा.
फिल्म जानवरों के प्रति भी स्नेह नहीं रखती. स्क्रिप्ट तो बिलकुल नहीं रखती, और भले ही मेनका गांधी आपके साथ खड़ी हों, फिल्म के उन दृश्यों को देखकर आप पर भयंकर खीझ आती है जिनमें आप प्यारे-होशियार कुत्ते को उल्लू का पट्ठा बनाने पर तुले रहते हैं. कुत्तों पर फिर कभी फिल्म बनाएं, तो एक समझदार दिन हमारे घर आइएगा, कुत्तों की कैरेक्टर स्टडी के लिए, हम दिखाएंगे आपको गोल्डन रिट्रीवर क्या चीज होती है.
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रहीं. सरकार विरोधी प्रदर्शनकारी नेताओं ने शरीफ की बातचीत की पेशकश नामंजूर कर दी है. गौरतलब है कि पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ के नेता इमरान खान और अवामी तहरीक के नेता ताहिर उल-कादरी अपने हजारों समर्थकों के साथ सरकार के खिलाफ धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं. कादरी ने सरकार पर गरीब विरोधी नीतियों और भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है तो इमरान पिछले साल के आम चुनाव में धांधली के आरोपों को लेकर सरकार को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं. .उन्होंने शरीफ को इस्तीफा देने के लिए 48 घंटे का अल्टीमेटम दिया है. इमरान की पार्टी ने यह भी फैसला किया है कि उसके सभी सांसद और तीन राज्यों के विधायक इस्तीफा दे देंगे. इससे पहले शरीफ ने कहा था कि वे प्रदर्शनकारी नेताओं की सभी संवैधानिक और जायज मांगों पर बातचीत को तैयार हैं. इमरान की पार्टी ने जहां बातचीत के लिए प्रतिनिधि तय करने पर कोई जवाब नहीं दिया वहीं, कादरी ने शरीफ की पेशकश सिरे से खारिज कर दी.
जाहिर है, पाकिस्तान की सरकार इससे चिंता में पड़ गई है. गृह मंत्री चौधरी निसार ने बयान दिया है कि इन प्रदर्शनों से देश की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है. उन्होंने यह भी कहा कि इन नेताओं को सड़क की बजाय संसद का रास्ता चुनना चाहिए. शरीफ सरकार के खिलाफ पिछले पांच दिन से धरने-प्रदर्शन हो रहे हैं. उधर, पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि वह इस स्थिति में हस्तक्षेप नहीं करेगा और देश में जारी राजनीतिक संकट का समाधान सरकार को ही करना चाहिए.
केंद्र सरकार क्षेत्रीय परिवहन कार्यालयों (आरटीओ) की व्यवस्था खत्म करने का मन बना चुकी है. भ्रष्टाचार के लिए बदनाम देश भर में फैले इन कार्यालयों में ड्राइविंग लाइसेंस जारी करने से लेकर गाड़ियों का रजिस्ट्रेशन करने तक तमाम काम होते हैं. केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने कहा है कि फिलहाल लागू मोटर वाहन अधिनियम आज की जरूरतों के हिसाब से पुराना हो चुका है और सरकार संसद के अगले सत्र में इसमें सुधार के लिए एक विधेयक लाएगी. गडकरी के मुताबिक नई व्यवस्था में आरटीओ की कोई जरूरत नहीं होगी. यह ऑनलाइन व्यवस्था अमेरिका, जापान और सिंगापुर जैसे छह विकसित देशों की तर्ज पर तैयार की गई है जिससे भ्रष्टाचार खत्म होगा और पारदर्शिता बढ़ेगी. गडकरी के मुताबिक इसके बाद ट्रैफिक नियम तोड़ने पर चालान भरने से लेकर गाड़ियों के लिए परमिट जारी करने जैसे काम ऑनलाइन हो जाएंगे.
लंबे समय से अलग-अलग पटरियों पर चल रहे सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह और उनके पूर्व सहयोगी अमर सिंह की कुछ दिन के भीतर ही दो मुलाकातों से सियासी चर्चाओं का बाजार गरम हो गया है. माना जा रहा है कि अमर की जल्द ही सपा में वापसी हो सकती है. मंगलवार सुबह लखनऊ में अमर सिंह समाजवादी पार्टी के नेता और मुलायम सिंह के भाई शिवपाल यादव से मिले. करीब आधे घंटे की इस मुलाक़ात के बाद शिवपाल उन्हें मुलायम के पास ले गए जो उन्हें पार्टी दफ्तर लेकर गए. वहां मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी पहुंच गए. चारों नेताओं के बीच लंबी बातचीत हुई.
राजनीतिक जानकारों की मानें तो यह संयोग नहीं है कि ये मुलाकातें तब हो रही हैं जब सपा में आजम खान का क़द घटने की खबरें आ रही हैं. आज़म और अमर का विरोध जगजाहिर है और माना जाता है कि अमर के सपा से जाने की मुख्य वजह आजम ही थे. हालांकि बैठक के बाद अमर सिंह ने कहा कि यह सिर्फ एक अनौपचारिक मुलाकात थी और वे समाजवादी पार्टी में नहीं जा रहे हैं.
अमर सिंह राज्यसभा सांसद हैं. नवंबर में उनका कार्यकाल खत्म हो रहा है. कयास लग रहे हैं कि वे समाजवादी पार्टी की मदद से दोबारा राज्यसभा जा सकते हैं. इसी महीने की शुरुआत में लखनऊ में हुए एक आयोजन में मुलायम और अमर एक मंच पर नजर आए थे. अमर सिंह ने तब खुद को मुलायमवादी बताया था.
जंतर-मंतर पर भगाणा के बलात्कार पीड़ितों का कैंप. आजकर यहां सन्नाटा पसरा रहता है. फोटो: विकास कुमार
दिल्ली शहर के आंदोलनों का अड्डा सुबह के सात-साढ़े सात बजे ही गुलजार हो गया है. एक तंबू के बाहर कुछ लोग घेरा बनाकर बैठे हुए हैं. लड़ाई कैसे आगे बढ़े? अगला प्रदर्शन कब करना है? आंदोलन को और धार देने के क्या उपाय हैं? जैसे मुद्दों पर चर्चा चल रही है. बातचीत को बीच में काटते हुए एक महिला बोल पड़ती है, ‘मैंने एक लिस्ट बनाई है. आगे की लड़ाई में किस व्यक्ति की क्या जिम्मदारी होगी. इसमें लिखा है.’ सारे लोग उस लिस्ट की तरफ मुखातिब हो जाते हैं. अंत में यह लिस्ट एक व्यक्ति के हाथ में पहुंचती है. वह अचानक से हरियाणवी में फट पड़ता है, ‘यह क्या है? मीडिया को कोई और क्यों देखेगा? मीडिया से तो मैं ही बात करूंगा.’ यह कह कर वह व्यक्ति बगल में रखी कलम को उठाता है और मीडिया के सामने पुराना लिखा नाम काटकर अपना नाम दर्ज कर देता है. गोले में बैठे बाकी लोग चुप रहते हैं. थोड़ी देर की चुप्पी के बाद महिला फिर से बोल उठती है, ‘इस बात का ध्यान रखिएगा कि मीडिया से बात करते हुए उन महिलाओं का नाम जरूर लिया जाए जो इस आंदोलन से जुड़ी हैं.’ जिस व्यक्ति ने लिस्ट में पहले से लिखे नाम को काटकर अपना नाम लिखा था वे बसपा के पूर्व नेता वेदपाल तंवर थे और जिस महिला ने ऐतराज जताया था वे लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अनीता भारती थीं. यह हरियाणा के भगाणा गांव से आई चार बलात्कार पीड़िताओं का कैंप है. इनके साथ कथित तौर पर 23 मार्च को गांव के ही जाट बिरादरी के कुछ लोगों ने बलात्कार किया था. और ये न्याय की आस लिए दिल्ली के जंतर मंतर पर आज भी डेरा डाले हुए हैं.
16 अप्रैल को ये पीड़ित लड़कियां गांववालों के साथ हरियाणा के पूर्व बसपा नेता वेदपाल तंवर के कहने पर दिल्ली आईं थीं. इसके बाद भगाणा की इन पीड़िताओं के लिए जंतर-मंतर से लड़ाई लड़ी जाने लगी. भगाणा संघर्ष समिति का गठन हुआ. एक बार को उपरोक्त घटना को नजरअंदाज किया जा सकता था क्योंकि ऐसी लड़ाइयों के दौरान छोटे-मोटे मतभेद उभरते ही हैं. लेकिन तब ऐसा करना असंभव है जब इस तरह के मतभेदों के चलते पूरी लड़ाई का ही बंटाधार हो जाए.
भगाणा मामले पर शांति छा गई है. जंतर-मंतर पर पीड़िताओं का कैंप सूना रहता है. सोशल मीडिया पर लिखने-बोलने वाले अब दूसरे मुद्दों की तरफ बढ़ चुके हैं
शुरू में वेदपाल तंवर के साथ इस लड़ाई का नेतृत्व अनीता भारती, जितेंद्र यादव (जेएनयू के शोधार्थी) और प्रमोद रंजन (सलाहकार संपादक फॉरवर्ड प्रेस) कर रहे थे. इस दौरान जंतर-मतर से लेकर, सोशल मीडिया तक पर भगाणा की पीड़िताओं के बारे में बोला और लिखा जा रहा था. लेकिन आज दो महीने बाद भगाणा मामले पर चारों तरफ शांति पसरी हुई है. जंतर-मतर पर पीड़िताओं का कैंप लगभग खाली रहता है. सोशल मीडिया पर लिखने-बोलनेवाले अब दूसरे मुद्दों की तरफ बढ़ चुके हैं. लड़ाई आज भी वहीं खड़ी है और लड़ने वाले आगे बढ़ गए हैं. बिंदुवार देखने पर आपसी खींचतान, अवसरवाद, बलात्कार पीड़िताओं के दुख में अपना हित तलाशने की इतनी कहानियां इस इकलौते आंदोलन में देखने को मिलती हैं कि आधुनिक दौर के आंदोलनकारियों और आंदोलनों की असलियत का पता चल जाता है.
1. जुलाई आते-आते वे सभी चेहरे इस आंदोलन से दूरी बनाने लगे थे जो इसका नेतृत्व कर रहे थे. अनीता भारती ने इसी समय एक फेसबुक स्टेटस लिखा कि इस आंदोलन का इस्तेमाल एनजीओ से जुड़े लोग अपने हितों के लिए कर रहे हैं. वे लिखती हैं, ‘भगाणा की बेटियों को अभी न्याय मिला भी नहीं है और इन एनजीओबाजो ने बड़े-बड़े विदेशी फंडेड प्रोजेक्ट लेकर यात्राएं, रैलियां आदि निकालनी शुरू कर दी हैं ताकि ये लोग नई बनी सरकार के सामने अपने को दलितों का सबसे बड़ा हितैषी दिखा पाएं. जिस भी पार्टी की सरकार हो ऐसे एनजीओबाजों की हमेशा चांदी होती है.’ दिलचस्प बात यह है कि अनीता भारती जिस एनजीओ की तरफ इशारा कर रही हैं वह खुद उनके भाई अशोक भारती का है जिसका नाम नेशनल कन्फेडरेशन ऑफ दलित ऑर्गनाइजेशन्स (नेक्डोर) है.
अशोक भारती के बारे में भगाणा के ग्रामीणों का आरोप है कि एक दिन वे सुबह-सुबह आए और कहने लगे कि हम आपकी लड़ाई को लड़ रहे हैं. आगे भी लड़ेंगे. आप हमें एक ऐफिडेविट बनवाकर दे दीजिए कि इस लड़ाई को नेक्डोर लड़ रहा है. इस बारे में भगाणा के सतीश काजला कहते हैं, ‘हम तो गांव से इस उम्मीद पर आए थे कि दिल्ली जाएंगे तो न्याय जल्दी मिल जाएगा. लड़ाई सरकार के करीब रहकर लड़ेंगे तो सरकार जल्दी सुन लेगी. लेकिन जब अशोक भारती ने ऐफिडेफिट बनवाने वाली बात कही तब तो मेरे नीचे से जमीन ही सरक गई. हमने उन्हें साफ-साफ मना कर दिया.’ अनीता भारती के मुताबिक वे आज भी भगाणा की पीड़िताओं के साथ हैं.
2. इस मामले में दूसरे मुख्य चेहरे जीतेंद्र यादव खुद के अलग होने की वजह आंदोलन में मजदूर बिगुल दस्ते के शामिल होने को बताते हैं. उनके मुताबिक ये लोग बहुत आक्रामक तरीके से आंदोलन को आगे बढ़ाना चाहते थे. हालांकि जब इस बारे में मजदूर बिगुल दस्ता की सदस्य शिवानी से बात हुई तो यही बात सामने आई कि जीतेंद्र भी मूलत: आंदोलन के ऊपर अपने वर्चस्व को लेकर ही अलग हुए थे. शिवानी कहती हैं, ‘प्रमोद रंजन और जितेंद्र यादव जैसे लोगों की वजह से ही भगाणा की यह लड़ाई ठप पड़ गई. ये लोग इस आंदोलन को जातिगत रूप देना चाहते थे. जिसका हमने विरोध किया था.’
3. मजदूर बिगुल दस्ते और शुरुआती नेतृत्वकर्ताओं के बीच पिस रही भगाणा की पीड़िताओं की त्रासदी यहीं नहीं रुकी. आंदोलन के दौरान ही ‘नौजवान भारत सभा’ नामक संगठन को, जोकि मजदूर बिगुल दस्ता से ही जुड़ा है, इसमें हिस्सा लेने के बदले ढाई हजार रुपया दे दिए गए. तहलका द्वारा इस बारे में पूछने पर प्रमोद रंजन बताते हैं कि उन्होंने (नौजवान भारत सभा ने) हमसे आने-जाने के लिए गाड़ी के इंतजाम की बात कही थी सो हमने उन्हें पैसे दे दिए. इस पर बिगुल दस्ता की शिवानी का कहना था ‘यह प्रस्ताव हमारा नहीं था. यह उनका प्रस्ताव था. वे प्रदर्शन में ज्यादा से ज्यादा भीड़ जुटाने चाहते थे.’ अजीब सी बात है. एक जनांदोलन से जुड़े लोग पीड़ितों के लिए मिले पैसे को राजनीतिक पार्टियों की तरह भीड़ जुटाने के लिए खर्च कर रहे थे.
4.अप्रैल के आखिरी हफ्ते में अतुल तिवारी नामक एक पत्रकार को प्रेस रिलीज बनाने और मीडिया को जंतर-मंतर तक बुलाने के लिए रखा गया. इस पत्रकार को चंदे के पैसे में से प्रतिदिन एक हजार रुपये दिए गए. अतुल का काम था हर शाम को प्रेस रिलीज बनाना और उसे मीडिया संस्थानों को मेल करना. अतुल ने यहां सात दिनों तक काम किया. इस खर्चे पर भगाणा के ग्रामीणों ने आपत्ति उठाई. उनका कहना था कि चंदा मांग कर जो लड़ाई लड़ी जा रही है उसमें किसी को केवल प्रेस रिलीज बनाने के लिए एक दिन का एक हजार रुपया दिया जाना ठीक नहीं. बाद में पता चला कि मीडिया में अपनी छवि चमकाने के लिए यह नियुक्ति वेदपाल तंवर, प्रमोद रंजन, अनीता और जितेंद्र ने करवाई थी.
5. एक मई की शाम को जंतर-मंतर पर एक शर्मनाक नजारा देखने को मिला. आंदोलन का नेतृत्व कौन करे, इस बहस में मामला गाली-गलौज तक पहुंच गया. ग्रामीणों का कहना था कि कमान ग्रामीणों के हाथों में रहनी चाहिए. जबकि वेदपाल तंवर जो खुद अगुवाई करना चाहते थे इस बात पर भड़ककर बैठक छोड़कर चले गए. इस घटना के करीब एक घंटे बाद नेतृत्व के मसले पर एक बार फिर से भगाणा के ग्रामीण रामफल जांगड़ा और प्रमोद रंजन के बीच हाथापाई हो गई. रामफल कहते हैं, ‘उन्होंने शराब पी रखी थी. आते ही कहने लगे कि आ मैं सिखाता हूं तुम्हें नेता कैसे बनते हैं. उसने आगे बढ़कर मेरी गर्दन पकड़ने की कोशिश की. फिर हमने भी थोड़ा कड़ाई से काम लिया.’ इन आरोपों पर प्रमोद रंजन कहते हैं कि वे कभी-कभार शराब पीते हैं. उस शाम उन्होंने नहीं पी थी. लेकिन जितेंद्र यादव स्वीकार करते हैं कि हाथापाई हुई थी और दोनों ने शराब पी रखी थी.
6. आपसी खींचतान चल रही थी, इसी बीच आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं ने पीड़िताओं पर एक किताब प्रकाशित करने का फैसला लिया. यह किताब दुसाध प्रकाशन की तरफ से ‘भगाणा की निर्भयाएं’ नाम से छपी. दुसाध प्रकाशन के सर्वेसर्वा एचएल दुसाध, प्रमोद रंजन और जितेंद्र यादव इस किताब के संपादक बने. प्रकाशक का कहना था कि किताब की बिक्री से जो पैसा आएगा वह भगाणा की पीड़ित लड़कियों को सहायता स्वरूप दिया जाएगा. 22 जून को दुसाध फेसबुक स्टेटस के जरिए किताब का मूल्य बताते हैं. वे यह भी लिखते हैं कि किताब की 200 प्रतियां पीड़ितों को दी गई हैं और किताब उनकी आय का सम्मानजनक जरिया तथा उनको न्याय दिलाने का हथियार बनेगीं. वे लोगों से अपील करते हैं कि वे ज्यादा से ज्यादा संख्या में इस किताब को खरीदें.
अपनी इस किताब को बेचने का दुसाध का यह एक नायाब तरीका था. असल में उन्होंने पीड़ित लड़कियों के परिजनों से इस किताब को अपने कैंप के सामने स्टाल लगा कर बेचने के लिए कहा था. उनका कहना था कि एक किताब जितने में बिकेगी उसका आधा पैसा परिजन रखेंगे और आधा वे यानि एचएल दुसाध. मार्केटिंग का यह नया तरीका है. पहले पीड़िताओं पर किताब प्रकाशित करें और फिर उन्हीं से किताब बिकवाएं. ज्यादातर को तो पता भी नहीं है कि किताब में उनके बारे में क्या लिखा गया है. वे दिल्ली आए थे, न्याय पाने के लिए, यहां उन्हें किताब बेचने का काम थमा दिया गया. इस बारे में प्रकाशक एचएल दुसाध से बातचीत की कोशिश असफल रही.
जब हम इस बारे में जेएनयू के प्रोफेसर और दलित मामलों को लेकर सक्रिय रहनेवाले गंगा सहाय मीणा से बात कहते हैं तो कहते, ‘देखिए, आंदोलन पर किताब छापना कोई गुनाह नहीं है. यह अच्छी बात ही है. लेकिन जिस तरह से दुसाध जी ने किताब बेचने की कोशिश की है वो एकदम गलत है. ऐसा बिल्कुल नहीं होना चाहिए था.’
यह सब होता रहा और होते-होते इतना आगे बढ़ गया कि अब इस लड़ाई का पूरी तरह से सत्यानाश हो चुका है. फिलहाल जंतर-मंतर पर पीड़ितों के कुछ परिजन बैठे रहते हैं. चारों लड़कियां कुछ समय यहां रहती हैं, कुछ समय हिसार में. पीड़ित लड़कियों को हर कुछ दिन पर तारीख के लिए कोर्ट में जाना पड़ता है. उन्हें दिल्ली लाने वाले वेदपाल तंवर कुछ ही दिन पहले नई राजनीतिक पार्टी, हरियाणा जनहित कांग्रेस में शामिल हो गए हैं. अनीता भारती अपनी नियमित आंदोलनों (दूसरे) और नौकरी वाली दिनचर्या में व्यस्त हैं. प्रमोद रंजन अपनी पत्रिका का संपादन कर रहे हैं और जितेंद्र यादव उसी जंतर-मंतर पर किसी दूसरे मुद्दे को लेकर सभाएं आयोजित करवा रहे हैं. यही है आज के आंदोलन और आंदोलनकारियों का सच जिसे बलात्कार पीड़िता और उनके परिजन समझने की कोशिश करते अपनी लड़ाई खुद लड़ने की तैयारी कर रहे हैं.
दो सालों से सामाजिक बहिष्कार झेल रहे भगाणा के दलितों की लड़कियों के साथ बलात्कार भी किया गया. अब न्याय और सुरक्षा के लिए वे ही सड़कों पर रहने को मजबूर भी हैं. Read More>>
लबों पर नारे की जगह ‘ओ री चिरैय्या’ टाइप गाने और हाथों में मशाल की जगह मोमबत्ती और गिटार, दिल्ली की सड़कों पर दिखनेवाली यह आंदोलनकारियों की नई जमात है. बीते एक दशक में दिल्ली की सड़कों पर कार, भीड़, पिज्जा हट, मारपीट और बलात्कार के साथ ही नए तेवर वाले आंदोलन भी बहुत तेजी से बढ़े है. आंदोलनों की संख्या तो बढ़ी है लेकिन इनमें स्वत:स्फूर्तता कम होती गई है. इनमें पेशेवर चेहरे बढ़ गए हैं. नून-तेल से लेकर गाजा-इजराइल तक पर प्रदर्शन करनेवाले कुछ गिने-चुने चेहरे हर आंदोलन में आसानी से पहचाने जा सकते हैं. आंदोलन पेशेवर तरीके से आयोजित होने लगे हैं लेकिन इनका किसी नतीजे तक पहुंचना जरूरी नहीं है.
इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है- दिल्ली शहर के एक मशहूर वकील की एक गैर सरकारी संस्था में बाकायदा एक ऐसा पद है जिसका काम होता है दिनभर की घटनाओं को सूचीबद्ध करना और उनमें से ऐसे मुद्दों को छांटना जिन पर जंतर-मंतर या चाणक्यपुरी के किसी भवन अथवा दूतावास पर प्रदर्शन किया जा सके. इसके बाद संस्था का पूरा अमला फेसबुक से लेकर तमाम सोशल मीडिया और आंदोलनकारी संप्रदाय के बीच सक्रिय हो जाता है. जेएनयू, डीयू और जामिया मिलिया इस्लामिया इनके लिए कच्चे माल यानी भीड़ की आपूर्ति के सबसे बड़े हब हैं. नियत दिन-तारीख-स्थान पर आंदोलनकारीमय गाजा-बाजा-गिटार-गायक पहुंचते हैं. गाने-बजाने के साथ ही नारेबाजी और देश बदलने की ललकारें उठती हैं. कभी-कभार पुलिस बैरीकेडों पर चढ़ने की घटनाएं और पानी का हमला भी होता है. इन समस्त प्रक्रियाओं से होते हुए आंदोलन संपन्न हो जाता है. इस बात की ज्यादा परवाह किए बिना कि मुद्दे पर कोई प्रगति हुई है या नहीं. जाहिर है इनके पास हर दिन के हिसाब से दर्जनों ऐसे मामले आते हैं जिनमें प्रदर्शन का पोटेंशियल होता है. नतीजा, पिछले मुद्दे अपनी मौत मरने को पीछे छूट जाते हैं.
संख्या बढ़ने और उनके निरर्थक होते जाने तक आंदोलनों ने एक लंबी दूरी तय की है. थोड़ा गहराई में घुसने पर आंदोलनों के भीतर जबर्दस्त अवसरवाद, वास्तविक संगठनों और आंदोलनकारियों की कमी और लेफ्ट-राइट व सेंटर के बीच के अंतरविरोध सामने आते हैं. कहीं-कहीं पर ये आपस में इतना उलझे हुए हैं कि इनसे कोई साफ तस्वीर बना पाना बेहद मुश्किल है. वामपंथी आंदोलनों से जुड़े रहे अभिषेक श्रीवास्तव एक ऐसी घटना का जिक्र करते हैं जिससे आंदोलनों के अजीबोगरीब चरित्र और इनके बेमायने होते जाने का एक सूत्र पकड़ा जा सकता, है, ‘जैसे इन दिनों गाजा पर हमलों के खिलाफ इजराइल का विरोध हो रहा है ऐसा ही एक विरोध सालभर पहले इजराइली दूतावास पर आयोजित हुआ था. इस प्रदर्शन की आयोजक आंदोलनों की ‘ग्रैंड ओल्ड लेडी’ कही जानेवाली एक मशहूर नारीवादी समाजसेवी थीं. अचानक भीड़ से एक युवक खड़ा हुआ और उसने ललकारा, ‘इजराइल मुर्दाबाद’. यह सुनते ही उन महिला समाजसेवी की भृकुटियां तन गईं. उन्होंने तुरंत उस लड़के को चुप करा दिया.’ इसके बाद उन्होंने इजराइल विरोधी प्रदर्शन स्थगित कर सारे झंडा-बैनर समेट लिए. हालांकि उस लड़के के व्यवहार में कुछ भी गलत नहीं था. प्रदर्शन में जिंदाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगना आम बात है.’
यही स्थिति इन दिनों होनेवाले लगभग सभी आंदोलनों की बन रही है. क्यों आंदोलन शुरू हो रहे हैं या खत्म हो रहे हैं, साफ-साफ अंदाजा लगा पाना बेहद मुश्किल है. नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़े रहे वरिष्ठ आंदोलनकारी असित दास इसकी बड़ी वजह पर रोशनी डालते हैं, ‘आंदोलनों का एनजीओकरण हो गया है. एनजीओ किसी भी आंदोलन को प्रोजेक्ट की तरह लेते हैं. इसका परिणाम यह होता है कि आंदोलनों का राजनैतिक और जनवादी पक्ष पूरी तरह से नजरअंदाज हो जाता है. इसके अलावा इधर बड़ी संख्या में आंदोलनकारियों ने सत्ता वर्ग के साथ दबे-छुपे हाथ मिला लिया है.’ दास का इशारा बीते एक दशक के दौरान संगठनों और सरकारों के बीच पनपे प्रेम प्रसंग की तरफ है.
भगाणा का मसला दलितों की जमीनों पर कब्जे, उनके उत्पीड़न और पुनर्वास से भी जुड़ा था. लेकिन इन जरूरी मुद्दों को छुआ ही नहीं गया
सरकार के साथ गलबहियां और आंदोलनों का एनजीओकरण दोनों आपस में जुड़ी हुई चीजें हैं. वर्तमान में जो स्वरूप हम आंदोलनों का देख रहे हैं उसके पीछे इन दोनों चीजों की महत्वपूर्ण भूमिका है. इसे समझने के लिए लगभग एक दशक पीछे लौटना होगा. जून 2004 में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की स्थापना के साथ पहली बार देश के सामने एक विचित्र स्थिति पैदा हुई. जो लोग किसी न किसी आंदोलन या सरकार विरोधी खेमे का हिस्सा हुआ करते थे उनका एक बड़ा हिस्सा एकाएक सरकार के पाले में जा खड़ा हुआ. इस सूची में अरुणा रॉय, हर्ष मंदर, योगेंद्र यादव, दीप जोशी, फराह नकवी जैसे तमाम नाम शामिल थे. इसका असर दो रूपों में हुआ. आंदोलनों के क्षेत्र में एक बड़ा खालीपन पैदा हो गया और सरकार के हाथ एक तर्क यह लग गया कि जब सारे फैसले आंदोलनकारी ही कर रहे है तब बाहर से किसी तरह के आंदोलन की गुंजाइश ही कहां बचती है. इससे उन आंदोलनकारियों को भारी झटका लगा जो स्वतंत्र रूप से आंदोलनों के हामी थे. स्थितियां और भी खराब इसलिए हो गईं क्योंकि जनवादी आंदोलनों का बड़ा हिस्सा रहा वामपंथ भी तब की केंद्र सरकार को बाहर से समर्थन देकर एक प्रकार से उससे जुड़ा हुआ ही था, दूसरा राजनैतिक रूप से वह लगातार सिमटता भी जा रहा था. अगर पिछले दस सालों का इतिहास उठाकर देखें तो वामपंथी दलों ने दिल्ली में एक भी बड़े आंदोलन का नेतृत्व नहीं किया है. इनकी भूमिका पेट्रोल-डीजल की कीमतों और महंगाई के खिलाफ खानापूर्ती करनेवाले ‘भारत बंद’ जैसे आंदोलनों तक सिमट कर रह गई है.
इस खालीपन को बला की तेजी से एनजीओ वालों ने भरा. एक बार जब आंदोलनों के ज्यादातर स्पेस पर एनजीओ का कब्जा हो गया तो उनका चेहरा बड़ी तेजी से संघर्ष और राजनैतिक चेतना का चोला छोड़कर ‘प्रोजेक्ट’ केंद्रित हो गया. इस हालत की तुलना आप उस दृश्य से कीजिए जब साठ के दशक के उत्तरार्ध में लेफ्ट के एक बुलावे पर वियतनाम युद्ध के विरोध में छह लाख लोग कोलकाता की सड़कों पर उमड़ पड़े थे, वह भी बिना किसी पूर्वयोजना या पेशेवर संगठन के. दास के शब्दों में, ‘एनजीओ के रहते इस तरह के व्यापक जन आंदोलन संभव नहीं हंै क्योंकि उनके हाथ पैर तमाम जगहों पर फंसे होते हैं.’ आंदोलनों में एनजीओ का प्रभाव बढ़ने का एक असर यह भी हुआ कि जो लोग पहले सिर्फ सकारात्मक बदलावों और मांगों के लिए अच्छी नीयत से आंदोलनों का हिस्सा हुआ करते थे उनमें से भी कइयों ने अपने-अपने एनजीओ खड़े कर लिए. जानकारों की मानें तो बचे हुए जाने-पहचाने आंदोलनकारियों में कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने आज विभिन्न गैर सरकारी संगठनों के साथ हाथ मिला लिए हैं. एनजीओ इनको एक नियत मासिक शुल्क देते हैं, बदले में ये आंदोलनकारी इन संस्थाओं के कार्यक्रम को आगे बढ़ाने और उनके अभियानों को विश्वसनीयता प्रदान करने का काम करते हैं.
आगे आनेवाली कुछेक घटनाओं के जरिए कई तरह के तालमेलों और घालमेलों को और भी बेहतर तरीके से समझा जा सकता है.
लगभग चार महीने पहले हरियाणा के भगाणा से आई कुछ बलात्कार पीड़िताओं के लिए दिल्ली के जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन आयोजित किया गया था. यह आंदोलन गैर सरकारी संस्थाओं और आंदोलनकारियों की आपसी खींचतान और अवसरवादिता का बेजोड़ नमूना है. भगाणा का मसला दलितों की जमीनों पर कब्जे से जुड़ा था. हरियाणा में लगातार हो रहे उनके उत्पीड़न से जुड़ा था. इस वजह से भगाणा के सौ से ज्यादा दलित एक साल से बेघरबार हैं. लेकिन दिल्ली में ज्यादा हल्ला तब ही हुआ जब सवर्णों ने कथित तौर पर गांव की चार दलित लड़कियों को अगवा करके उनके साथ बलात्कार किया और बलात्कार की पीड़िताएं दिल्ली आ गईं. इसके बाद भी विरोध प्रदर्शन के केंद्र में महिलाओं की आजादी, उनके अधिकार, उनका सम्मान, मर्दवादी मानसिकता का विरोध जैसी फैशनेबुल क्रांतिकारिता ही रही. ऐसा नहीं है कि महिला अधिकार से जुड़े ये मुद्दे जरूरी नहीं है लेकिन दूसरे जरूरी मुद्दों को एनजीओ वालों ने कभी नहीं छुआ. आज की स्थिति यह है कि भगाणा की पीड़िताएं और ग्रामीण अभी न्याय के इंतजार में जंतर-मंतर पर ही बैठे हुए हैं लेकिन उनके साथ जुड़े सारे आंदोलनकारी लापता हो चुके हैं. इनमें जेएनयू के तमाम छात्र संगठन भी शामिल हैं(देखें बॉक्स).
कई मुद्दों को न छूनेवाली गैर सरकारी संगठनों की मजबूर भूमिका के पीछे विदेशी सहायता नियंत्रण अधिनयम (एफसीआरए-2010) को भी ध्यान में रखना होगा. 1976 के कानून को बदलते हुए इस कानून में दो चीजें की गईं, एक तो एनजीओ के लिए विदेशी सहायता प्राप्त करना आसान हो गया दूसरा, इनकी गतिविधियों के आधार पर कभी भी इनकी सहायता रोकने से लेकर मान्यता निरस्त करने तक के अधिकार सरकार के हाथ में और मजबूत कर दिए गए. आज ज्यादातर एनजीओ इस चंगुल में फंस चुके हैं. गैर सरकारी संगठनों के सबसे बड़े समूह एनएपीएम यानी नेशनल अलायंस ऑफ पीपुल्स मूवमेंट के अधिकतर सदस्य आज एफसीआरए के तहत सहायता प्राप्त हैं.
आज के आंदोलनकारियों को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है. एक हिस्सा उन आंदोलनकारियों का है जो मूलत: वर्चुअल दुनिया में सैर करता है, दूसरा हिस्सा उनका है जो सड़कों पर उतरकर हल्ला बोलते हैं. पहले वाले समूह को मजाक में फेसबुकिया क्रांतिकारी कहने का चलन भी है. ये वे लोग हैं जो एक्चुअल स्पॉट यानी जंतर-मंतर या भवन-एंबेसियों पर कम ही जाते हैं. ये आरामप्रिय आंदोलनकारियों का समूह है जो अपने घरों के ड्राइंग रूम में बैठकर क्रांति की अलख जगाने का दम भरता है. हालांकि इसकी अपनी उपयोगिता है. ये टेक-सेवी लोग हैं जो सोशल मीडिया पर इवेंट पेज बनाने से लेकर प्रेस रिलीज तैयार करने, फेसबुक और ट्विटर पर बहस बढ़ाने और फिर उसे ट्रेंड कराने का काम करते हैं. इनमें सुयश सुप्रभ, मोहम्मद अनस, महताब आलम जैसे अनगिनत नाम लिए जा सकते हैं. मौजूदा दौर के आंदोलनों में इन उपायों की भूमिका काफी बढ़ गई है. हालांकि इनके दुष्प्रभाव भी कई बार देखने को मिले हैं. हमारे देश में सोशल मीडिया इतना अपरिपक्व और फैसला-प्रेमी है कि कई बार हालात उस मुहाने पर जा खड़े होते हैं जहां हालात बेकाबू हो जाते हैं.
आंदोलनों के भीतर जबर्दस्त अवसरवाद, वास्तविक संगठनों और आंदोलनकारियों की कमी और लेफ्ट, राइट और सेंटर के बीच के अंतरविरोध दिखाई देते हैं
12 सितंबर को अमन एकता मंच के तले चाणक्यपुरी स्थित उत्तर प्रदेश भवन के सामने मुजफ्फरनगर के दंगों का विरोध करने के लिए कुछ लोग इकट्ठा हुए थे. अमन एकता मंच में खुर्शीद अनवर, अपूर्वानंद, महताब आलम समेत तमाम सामाजिक कार्यकर्ता शामिल थे. इनके साथ ही विरोध में एक गैर पंजीकृत समाजसेवी संस्था ‘बूंद’ के कुछ सदस्यों ने भी हिस्सा लिया था. इला जोशी और मयंक सक्सेना इस संस्था के प्रमुख चेहरे हैं. इस संस्था पर बाद में उत्तराखंड में राहत कार्यों में आर्थिक घपले का भी आरोप लगा. इसी टीम की एक महिला सदस्य ने खुर्शीद अनवर के ऊपर बलात्कार का आरोप लगाया. लेकिन वे अपने इन आरोपों को लेकर कभी पुलिस के पास नहीं गए. बल्कि इस मामले को लेकर वे दो मशहूर नारीवादियों के पास पहुंच गए. इनमें से एक थीं मधु किश्वर और दूसरी कविता कृष्णन. इस मामले में इन दोनों नारीवादियों की भूमिका बहुत ही विचित्र रही. टीवी पर हर किस्म का ज्ञान देनेवाली इन दोनों नारीवादियों ने भी मामले को पुलिस के संज्ञान में ले जाने की जरूरत नहीं समझी. इसके स्थान पर मधु किश्वर ने पीड़िता लड़की का एक वीडियो तैयार करवाया – जिसमें वह अपने कथित बलात्कार के बारे में बता रही थी – और उसे लड़की के कुछ अनुभवहीन युवा साथियों के हवाले कर दिया. इसके सहारे लड़की के साथियों ने फेसबुक पर खुर्शीद के खिलाफ हल्ला बोल दिया. इसमें ‘फेसबुकिया क्रांतिकारियों’ ने जमकर उनका साथ दिया. इसके बाद खुर्शीद स्वयं इस मामले में अपने खिलाफ चल रहे अभियान के खिलाफ पुलिस के पास गए लेकिन तब तक शायद बहुत देर हो चुकी थी.
उधर कविता कृष्णन ने खुर्शीद की संस्था आईएसडी को पत्र लिखकर इस मामले में कार्रवाई करने की मांग की और टीवी पर भी इस मुद्दे पर खुर्शीद अनवर के खिलाफ बयानबाजी की. इसका नतीजा यह हुआ कि दबाव में घिरे खुर्शीद अनवर ने अपने घर की चौथी मंजिल से छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली. इस घटना के बाद कविता का कहना था कि चूंकि लड़की ने सीधे उनसे शिकायत नहीं की थी इसलिए उन्होंने इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं की. लेकिन दुनिया ने देखा कि वे इंडिया टीवी पर बड़े मजबूत तरीके से खुर्शीद अनवर के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थीं. जेएनयू के एक पूर्व आइसा कार्यकर्ता, कविता की मीडिया में दिखने की भूख को इसकी वजह बताते हैं.
कविता कृष्णन का इतिहास भी बड़ा दिलचस्प है. 16 दिसंबर 2012 को हुए निर्भया कांड के साथ ही उन्होंने अपना फोकल प्वाइंट छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के मुद्दों से हटाकर दिल्ली की महिलाओं पर शिफ्ट कर दिया. देखते ही देखते वे महिला अधिकारों की बड़ी पैरोकार के रूप में स्थापित हो गईं. बाद में तरुण तेजपाल के मामले में भी कविता कृष्णन ने काफी आक्रामक आंदोलन चलाया. आजकल महिलाओं पर अत्याचार के हर मुद्दे पर बोलते हुए उन्हें टीवी पर देखा जा सकता है. उन्हीं कविता कृष्णन का एक और चेहरा भी है. जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष अकबर चौधरी और ज्वाइंट सेक्रेटरी सरफराज हामिद के ऊपर जेएनयू की एक छात्रा के यौन उत्पीड़न का आरोप है. ये दोनों लोग भी कविता के ही वामपंथी कुनबे के सदस्य हैं. लेकिन इसपर नारीवादी कविता कृष्णन का बयान था कि चूंकि आरोप लगानेवाली लड़की दूसरे ग्रुप की है इसलिए उसकी विश्वसनीयता संदिग्ध है.
कविता यहीं नहीं रुकी, ट्वीट दर ट्वीट आरोपी छात्रनेताओं के बचाव में वे तरह-तरह की दलीलें देती रहीं और पीड़िता लड़की की पहचान तक सार्वजनिक करने से नहीं चूकीं. वे शायद नए दौर की नारीवादी हैं जो महिलाओं की लड़ाई लड़ती हैं और एक पीड़िता की पहचान सिर्फ इस आधार पर सार्वजनिक करने से नहीं चूकतीं क्योंकि इस बार आरोपित उनके अपने वामपंथी कुनबे के सदस्य थे. यहां तक कि दोनों आरोपितों ने 28 जुलाई को जेएनयू कैंपस में एक पैम्फलेट अभियान तक चलाया जिसमें लिखा था कि यदि जीएसकैश (जेंडर सेंसिटाइजेशन कमेटी अगेंस्ट सेक्शुअल हरेसमेंट) ने जांच शुरू की तो दोनों नेता अपने पदों से इस्तीफा दे देंगे. शिकायत को सार्वजनिक करने के आरोप में जीएसकैश ने दोनों पदाधिकारियों को नोटिस जारी किया. जीएसकैश के नियम कहते हैं कि एक बार मामला दर्ज हो जाने के बाद शिकायतकर्ता और आरोपित इसके बारे में सार्वजनिक बात नहीं कर सकते. लेकिन दोनों ने ऐसा ही किया. इस पूरे मसले पर उनकी पार्टी जिसका प्रमुख चेहरा कविता कृष्णन हैं, ने पहले तो चुप्पी साध ली बाद में पीड़िता के प्रति वही सारे अनर्गल तर्क दोहराती दिखी जो आम तौर पर इस तरह के मामले में दूसरे आरोपी देते हैं.
आंदोलनकारियों की नीयत और उनके विरोधाभासों का एक और नमूना हाल ही के दिनों में देखने को मिला. आजकल दिल्ली के जंतर-मंतर और इजराइल के दूतावास पर गाजा में हो रहे हमलों का आए दिन विरोध हो रहा है. आंदोलनों के लिए मानव संसाधन की आपूर्ति करने वाले जेएनयू के तमाम छात्र संगठनों का इस दौरान बेहद विद्रूप चेहरा सामने आया. आयोजकों ने प्रदर्शन को किसी पार्टी, संगठन या समूह की पहचान से दूर रखने के लिए इसमें किसी को भी झंडा-बैनर लाने से मना कर दिया था. इस एक रुकावट की बुनियाद पर आइसा, एसएफआई समेत जेएनयू के तमाम आंदोलनकारी संगठनों का इंसानियत के पक्ष में खड़ा होने का दावा डोल गया. सबने एक सुर में इसमें हिस्सा लेने से इनकार कर दिया. आइसा के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता जो फिलहाल मोहभंग की स्थिति में हैं कहते हैं, ‘इनका सारा लक्ष्य मीडिया कवरेज बटोरने और बाइट देने पर केंद्रित होता है. भाकपा (माले) की शाखा (आइसा) झंडा-बैनर के साथ अपनी उपस्थिति के लिए कुख्यात हैं.’
इजराइल विरोधी प्रदर्शन में आयोजकों ने पार्टी का झंडा-बैनर लाने से मना किया तो जेएनयू के वामपंथी संगठनों ने इसमें हिस्सा लेने से इनकार कर दिया
कविता या आइसा ही इस बीमारी से ग्रसित नहीं है बल्कि पूरे वामपंथी समुदाय का रुख कुछ-कुछ ऐसा ही है. एक ही तरह के मामलों में दो अलग-अलग तर्क ढूंढ़ लेने की कला राजनीतिज्ञों से फिसल कर मानवाधिकारियों और आंदोलकारियों के हाथों में भी आ गई है. कुछ दिन पहले ही वाराणसी के बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर कृष्णमोहन और उनकी पत्नी किरण सिंह के बीच हुई मारपीट का मामला बेहद मौजूं है. दोनों ही पूर्व आइसा कार्यकर्ता रहे हैं. किसी विवाद पर कृष्णमोहन अपनी पत्नी की पिटाई करने की हद तक उतर गए. यह बीएचयू कैंपस की घटना है. पंद्रह मिनट के वीडियो में कृष्णमोहन और उनका बेटा बेरहमी से किरण सिंह को पीटते हुए दिखाई देते हैं. इतने स्पष्ट प्रमाण होने के बावजूद तथाकथित उदारपंथी-वामपंथी-नारीवादी तबका या तो चुप रहा या फिर इस हिंसा को उचित ठहराने के यत्न करता रहा. यह वही समुदाय है जो हर वक्त-बेवक्त महिला अधिकारों की बात करता है, पितृसत्ता का विरोध करता है और मर्दवादी व्यवस्था के खिलाफ लड़ने का दम भरता है. इसका बचाव करने वालों में उदीयमान साहित्यकार चंदन पांडेय भी हैं जिन्होंने अपने ब्लॉग पर बाकायदा इस पिटाई प्रकरण की आवश्यकता पर अपना ज्ञान रखा है. कृष्णमोहन के बचाव के तर्क में चंदन पांडेय पतित मीडिया, मंदबुद्धिजीवी मीडिया, लोमड़ी मीडिया जैसे विशेषण तो गढ़ते हैं लेकिन एक महिला के साथ हुई हिंसा के औचित्य पर एक भी तर्क नहीं दे पाते. बीएचयू के पुराने जानकारों की मानें तो चंदन पांडेय ऐसा करके अपना गुरु-ऋण उतार रहे थे.
ऐसा भी नहीं है कि इस मुद्दे पर आवाज उठाने की कोशिश नहीं हुई. युवा लेखकों और फेसबुक संप्रदाय ने कई बार इस पर बहस छेड़ने की कोशिश की लेकिन जिन हिस्सों से इस पर ठोस आवाजें और समर्थन की लहर उठनी चाहिए थी वहां कोई हलचल ही नहीं हुई. इस चुप्पी की एक बड़ी वजह यह उभरकर आती है कि बुद्धिजीवी तबके के एक बड़े हिस्से की निजी जिंदगी भी इसी किस्म की उठापटक और विरोधाभासों से ठसाठस है. लिहाजा कीचड़ में पत्थर उछालने पर खुद के ऊपर आने वाली छींटों के भय से भी चारों तरफ शांति पसरी हुई है.
दिल्ली के जंतर-मंतर पर गौ रक्षा के लिए अभियान चलाने वाला एक ग्रूप डेरा जमाए हुए है. इस वजह से जंतर-मंतर गौशाला जैसा दिख रहा है. फोटो: विकास कुमार
इन घटनाओं से यही साबित होता है कि ज्यादातर आंदोलनकारियों का सारा विरोध बेहद चुनिंदा और निजी हित-लाभ के इर्द गिर्द बुना जाता है. आंदोलन के चयन की प्रक्रिया कई मानकों से तय होती है. मसलन मुद्दा क्या है, आंदोलन का सेलेब्रिटी स्तर क्या है, दिल्ली बेस है या दिल्ली से बाहर है, मीडिया कवरेज की क्या संभावना है, इंटरनेट, यूट्यूब लाइव, गूगल हैंगआउट होना है या नहीं आदि आदि. मीडिया कवरेज से जुड़ा एक वाकया देना यहां लाजिमी होगा. भगाणा की पीड़िताओं को लेकर दिल्ली आने में पूर्व बसपा नेता वेदपाल तंवर की भूमिका महत्वपूर्ण थी. जंतर-मंतर पर पहुंचकर भगाणा के सारे लोग आपस में जिम्मेदारियों का बंटवारा कर रहे थे. इस दौरान मीडिया से जुड़ी जिम्मेदारियों के बंटवारे की बात आई तो लोगों ने अपने बीच की ही एक महिला का नाम इसके लिए तय कर दिया. इस बात पर वहां तंवर और अन्य आंदोलनकारियों में जबर्दस्त कहा-सुनी हो गई. वे स्वयं मीडिया से रूबरू होना चाहते थे.
अपनी पड़ताल के दौरान तहलका ऐसे तमाम लोगों से भी मिला जो अमूमन हर आंदोलन में ईमानदारी से शिरकत करते हैं और अंत में खुद को छला हुआ महसूस करते हैं. ये कोई पेशेवर या राजनैतिक रूप से तीक्ष्णबुद्धिवाला तबका नहीं है न ही इनकी कोई लंबी-चौड़ी महत्वाकांक्षाएं होती हैं. चीजों को बाहर-बाहर से देख कर ये लोग उसके बारे में अपनी राय बना लेते हैं और अपनी भलमनसाहत की वजह से आंदोलनों का हिस्सा बन जाते हैं.
इस संदर्भ में यहां दो घटनाओं का जिक्र करना बहुत जरूरी है. पहला मामला जामिया से पीएचडी कर रहे छात्र प्रदीप कुमार का है. दिल्ली में हो रहे भगाणा की पीड़िताओं के समर्थन में जंतर-मंतर पर एक प्रदर्शन आहूत था. प्रदीप जामिया से लगभग 100 लोगों का दल लेकर आंदोलन में शिरकत करने पहुंचे. उन्हें इस बात की जानकारी फेसबुक से मिली थी. वहां पहुंचकर उन्हें पता चला कि ज्यादातर आयोजनकर्ता-आंदोलनकारी मीडिया को बाइट देने और सेल्फी खींचने-खिंचाने के बाद निकल लिए हैं. सिर्फ पीड़िताएं और गांववाले वहां रह गए थे. प्रदीप अपने सौ लोगों की भीड़ के साथ काफी देर वहां भटकते रहे और अंतत: वापस चले आए.
दूसरा मामला दिल्ली विश्वविद्यालय से एमए कर रहे अविनाश पांडेय का है. अविनाश की कहानी और भी ज्यादा दिलचस्प है. अविनाश नई दिल्ली के आस-पास आंदोलन सर्किल का जाना-पहचाना चेहरा हैं. वे युवाओं की उस टोली का प्रतिनिधि चेहरा हंै जिनके जोश का फायदा उठाते हुए एनजीओ और दूसरे संगठन अपना धरना-प्रदर्शन सफल बनाते हैं. समय बीतने के साथ ही इनको महसूस होने लगता है कि उनका इस्तेमाल किया जा रहा है. पहले ये निराश होते हैं फिर आयोजकों से कुछ सवाल करते हैं. इन सवालों के जवाब देने की बजाय पेशेवर आयोजक और नेता – जिन्होंने चिरौरी कर-करके इन्हें अपने आंदोलनों से जोड़ा था- इनसे किनारा करने लगते हैं. अविनाश की कहानी के जरिए पेशेवर क्रांतिकारिता की कई परतें खुद-ब-खुद उधड़ जाती हैं.
अविनाश 2011 में दिल्ली आए. बकौल अविनाश अब तक वे सौ से ज्यादा विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा ले चुके हैं. इस दौरान उन्होंने पुलिस की लाठियां भी खाईं, एकाध बार वे घायल भी हुए. उन्हें असल चोट तब लगी जब दिल्ली में होनेवाले इन कथित आंदोलनों की सच्चाई से उनका सामना हुआ. अविनाश के मुताबिक सबसे पहले वे अन्ना आंदोलन में गए. वहां कुछ लोग उनके साथी बने और फिर आए दिन वे किसी न किसी मुद्दे पर प्रदर्शन के लिए जाने लगे. अविनाश बताते हैं, ‘अन्ना के आंदोलन में हिस्सा लेने के दौरान ही मैं असीम त्रिवेदी, आलोक दीक्षित, इला जोशी, मयंक सक्सेना आदि के संपर्क में आया. हमारा एक गुट बन गया. इसी दौरान 2012 की दिसंबर में निर्भया कांड हो गया. इस दौरान मैं कई-कई बार इंडिया गेट, जंतर-मंतर और राष्ट्रपति भवन गया.’ ये वही इला और मयंक हैं जिनकी संस्था बूंद की सदस्या ने खुर्शीद अनवर के ऊपर बलात्कार का आरोप लगाया था.
‘मुझे पहला झटका निर्भया आंदोलन के दौरान ही लगा था लेकिन तब मैंने इसे नजरअंदाज कर दिया था. हुआ यह कि 31 दिसंबर के आसपास मयंक ने फेसबुक पर एक पेज बनाया और लोगों से अपील की कि वे जंतर-मंतर पहुंचें. मैं अपने कुछ साथियों के साथ जंतर-मंतर पहुंचा. वहां हमारे साथ संतोष कोली भी थी. उसी रात अलोक दीक्षित और असीम त्रिवेदी पार्लियामेंट थाने के सामने धरना दे रहे थे क्योंकि पुलिस ने एक लड़की को चौबीस घंटे से थाने में रोक रखा था. मुझे इस बाबत बताया गया. मैं भी संसद मार्ग पुलिस थाने पर पहुंच गया. रात बारह बजते बजते मयंक-इला, असीम और आलोक एक-एक कर वहां से निकल गए. हमें बताया गया था कि सारे लोग रात भर थाने के आगे ही बैठेंगे. मैं अपने साथियों के साथ वहां अकेले फंस गया. काफी देर हो गई थी. हमें भूख भी लग गई थी. थोड़ी देर तक तो हमने जंतर-मंतर पर कुछ-कुछ जलाया और उसके सहारे बैठे रहे. फिर थोड़ी देर बाद लगा कि अब खुले में नहीं रहा जाएगा. वो रात मैंने अपने दो दोस्तों के साथ गुरुद्वारा बंगला साहेब में बिताई थी’ अविनाश आगे बताते है, ‘अपने सौ से ज्यादा प्रदर्शनों के अनुभव के आधार पर मैं जितना समझ पाया हूं उसके हिसाब से हम जिन लोगों के साथ जुड़े या जिनके बुलावे पर हर जगह पहुंच जाते हैं उनके लिए इन प्रदर्शनों का यही उपयोग है कि वे वहां पहुंचकर फोटो खिंचवा लें, मीडिया से बतिया लें, सेल्फी ले लें, यू-ट्यूब पर लाइव करवा लें और फिर जल्दी से घर पहुंच कर फेसबुक पर लंबे-लंबे स्टेटस लिख दें. क्योंकि इसी के आधार पर उनकी संस्था का प्रोफाइल आगे के लिए मजबूत होता है.’
अविनाश को दूसरी बार तब निराशा हुई जब वे एक छात्र संगठन के बुलावे पर संसद का घेराव करने संसद मार्ग पहुंचे थे. वहां पुलिस लाठी चार्ज में वे घायल भी हुए. अविनाश कहते हैं, ‘मैंने मुद्दे की तरफ ध्यान दिया तो समझ आया कि यह घेराव पूरे देश की शिक्षा व्यवस्था को ठीक करने के लिए था. मेरे मन में एक सवाल उठा कि ये छात्र संगठन अपने विश्वविद्यालयों के भीतर मौजूद समस्याओं को कभी मुद्दा नहीं बनाते. लड़ाई तो वहां से भी शुरू की जा सकती है? देश की शिक्षा को ठीक करने के लिए आप लाठियां खिलवाते हैं, लेकिन दिल्ली के ही छात्रों के मुद्दों पर कान तक नहीं देते. मैंने यह सवाल संगठन के लोगों के सामने उठाया. तो उनका तर्क था कि तुम समझते नहीं हो. यह मुद्दा बहुत लोकल है.’ अविनाश के मुताबिक कुछ लोग जोशीले युवाओं के बलबूते अपनी जमीन तैयार करते हैं, आगे चलकर कुछेक प्रदर्शन आदि के जरिए अपना एनजीओ बना लेते हैं. दिल्ली के ज्यादातर छात्र संगठनों का एक खुला ट्रेंड है. ये संगठन छात्रों के हित के लिए कम, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय और अक्सर बेमतलब के मुद्दों पर ज्यादा प्रदर्शन करते हैं. इनके अपने हॉस्टल का नाला बह रहा होता है लेकिन इनकी चिंता में अमेरिका द्वारा सहारा के मरुस्थल में किए गए मिसाइल परीक्षण से पैदा हुई पर्यावरणीय विपत्तियां सर्वोपरि होती हैं.
अक्सर देखने में आया है कि जब आंदोलनकारियों के बीच का कोई आरोपों से घिरता है तब ये लोग या तो चुप्पी साध लेते हैं या फिर कुतर्क करने लगते हैं
आए दिन जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान तक इकट्ठा होनेवाली आंदोलनकारियों की भीड़ के कुछ और भी चेहरे हैं. मसलन लगभग हर आंदोलन में एक तबका ऐसा भी पहुंचता है जो इस अवसर का इस्तेमाल सिर्फ नेटवर्किंग और अपने संपर्क बनाने के लिए करता है. इन आंदोलनों में अक्सर मेधा पाटकर, आमिर खान से लेकर तमाम नामी गिरामी नेता-अभिनेता भी शिरकत करते रहते हैं. चूंकि यहां ऐसे लोगों से मिलना-जुलना थोड़ा आसान होता है. इसलिए जाहिर है लोग इन आंदोलनों का इस्तेमाल अपने व्यक्तिगत रिश्तों को फैलाने-बढ़ाने के लिए भी करते हैं.
यहां सवाल फिर वही खड़ा हो जाता है कि आंदोलन तो हर दिन होते हैं और उनमें लोग भी खूब दिखते हैं पर इन आंदोलनों की नियति क्या है. साफ है कि जिस तरह के लोग आजकल ज्यादातर आंदोलनों का हिस्सा होते हैं उसके चलते ये आंदोलन सिर्फ एक दिन का शो बनकर दम तोड़ देते हैं.
हाल के दिनों में जंतर-मंतर के आस-पास आंदोलनकारियों का एक नया समूह उभरा है. यह दक्षिणपंथी आंदोलनकारियों का समूह है. केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद ये लोग अचानक से सक्रिय हुए हैं. इनके आंदोलनों का दायरा फिलहाल गोरक्षा दल, निर्मल गंगा-अविरल गंगा, कश्मीर बचाओ-देश बचाओ टाइप आंदोलनों तक सीमित है. इनमें से गोरक्षा आंदोलन वाले सबसे ज्यादा सक्रिय हैं लिहाजा पूरा जंतर-मंतर का इलाका गो-मूत्र और गोबर की सुवासित गंध से सराबोर रहता है. यहां गोरक्षा दल ने 20-25 गायों के साथ डेरा डाल रखा है. दूर से देखने पर जंतर-मंतर किसी तबेले का सा दृश्य प्रस्तुत करता है. दक्षिणपंथी आंदोलनकारियों के चेहरे भी काफी कुछ जाने-पहचाने से हैं. इनमें तेजिंदर बग्गा और उनके सहयोगियों का चेहरा और जिक्र बार-बार आता है. ये वही तेजिंदर बग्गा हैं जिन्होंने महान क्रांतिकारी भगत सिंह के नाम पर क्रांति सेना बनाकर सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण को पीट दिया था. इसी संगठन के लोग एक नए संगठन भारत रक्षा दल के बैनर तले आम आदमी पार्टी के कौशांबी स्थित दफ्तर पर हमला करने पहुंचे गए थे. बाद में मीडिया के कैमरों और सीसीटीवी फुटेज के आधार पर इनके बारे में पता चल गया. दस सालों तक सत्ता से बाहर रहने के कारण फिलहाल आंदोलनों में दक्षिणपंथी कुनबे का हस्तक्षेप काफी सीमित हो गया है. लेकिन जानकारों के मुताबिक आनेवाले दिनों में हर आंदोलन में इनका असर बढ़ेगा, और हो सकता है वामपंथी समूह हाशिए की तरफ चले जाएं.
लेकिन यह भी सच है कि जो पेशेवर क्रांतिकारी हैं वे यहां स्थायी रूप से टिके रहेंगे. इस चोगे में नहीं तो उस चोगे में. क्योंकि हर मौसम के साथ जीने की कला उन्हें बखूबी आती है.
यह मामला आंदोलनकारियों की अवसरवादिता और महत्वाकांक्षा का प्रतीक है.
दिल्ली शहर के आंदोलनों का अड्डा सुबह के सात-साढ़े सात बजे ही गुलजार हो गया है. एक तंबू के बाहर कुछ लोग घेरा बनाकर बैठे हुए हैं. लड़ाई कैसे आगे बढ़े? अगला प्रदर्शन कब करना है? आंदोलन को और धार देने के क्या उपाय हैं? जैसे मुद्दों पर चर्चा चल रही है. बातचीत को बीच में काटते हुए एक महिला बोल पड़ती है, ‘मैंने एक लिस्ट बनाई है. आगे की लड़ाई में किस व्यक्ति की क्या जिम्मदारी होगी. Read More>>