Home Blog Page 1390

टाइमबम !

आसन्न खतरा : खतरे के मुहाने पर श्रीनगर शहर
आसन्न खतरा : खतरे के मुहाने पर श्रीनगर शहर. फोटो: प्रदीप सती

दुनियाभर की सभ्यताओं के विकास में नदियों का योगदान किस कदर रहा है, यह बताने के लिए इतिहास की किताबों में अनेकों घटनाएं दस्तावेजों की भांति मौजूद हैं. सिंधु घाटी से निकले हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से लेकर नील नदी की छत्रछाया में पले-बढे़ मैसोपोटामिया के आधुनिक मिस्र बनने तक का सफरनामा भी बताता है कि सिर्फ नदियों की मदद से ही मानव ने जीवन-यापन की बुनियादी जरूरतों से लेकर विकास के तमाम पहलुओं तक को सफलतापूर्वक अर्जित किया है. इसके अलावा दुनियाभर में अनेकों और भी प्रमाण मौजूद हैं, जो बताते हैं कि कैसे नदियों ने अपने योगदान से तमाम सभ्यताओं और संस्कृतियों को आबाद किया है. लेकिन समृद्धि की वाहक रहने वाली नदियों से यदि विनाश की आशंकाओं का जन्म होने लगे तो इसे क्या कहा जाए! हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड राज्य के श्रीनगर इलाके में पिछले लंबे अर्से से उलटबांसियों भरी ऐसी ही एक इबारत लिखी जा रही है. इस इलाके के बीचों-बीच बहने वाली अलकनंदा नदी पर बिजली बनाने के उद्देश्य से चल रही एक परियोजना आज ऐसी अवस्था में पहुंच चुकी है कि, अगर सबकुछ ठीक-ठाक नहीं रहा तो इस नदी का पानी काल बनकर कभी भी इस पूरे इलाके को हमेशा-हमेशा के लिए इतिहास के अंधेरे कोने में धकेल सकता है. वैसे बीते जुलाई की 26 तारीख ने इस परियोजना में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं होने का संकेत भी दे दिया है. इस पूरी कहानी को समझने के लिए 26 जुलाई की उस घटना के कुछ समय पहले से शुरुआत करते हैं.

बात इसी साल तीन जून की है. श्रीनगर में निर्माणाधीन 330 मेगावाट की अलकनंदा जल विद्युत परियोजना का काम अंतिम चरण में था. इस दिन परियोजना के अधिकारियों ने बिजली उत्पादन की संभावनाएं जांचने के मकसद से परियोजना के पावर हाउस में लगी चार टरबाइनों में से एक की टेस्टिंग की. 82.5 मेगावाट की टरबाइन में की गई यह टेस्टिंग पूरी तरह सफल रही और परियोजना का पावर हाउस अपनी खुद की बिजली से जगमगा उठा. इसके साथ ही उत्साहित परियोजना अधिकारियों ने ऐलान कर दिया कि तीन महीने के अंदर इस पावरहाउस से 330 मेगावाट बिजली का उत्पादन शुरू हो जाएगा. लेकिन इस बीच 26 जुलाई की सुबह एक ऐसी घटना घट गई, जो बिजली उत्पादन के लिए पूरी तरह तैयार बताई जा रही इस परियोजना पर ही बिजली बन कर गिरी. उस दिन परियोजना के डि-सिल्टेशन बेसिन टैंक यानी डीएसबी टैंक की एक ऐसी महत्वपूर्ण दीवार टूट गई जिस पर इस टैंक में जमा पानी को थामने का अहम जिम्मा था. डीएसबी टैंक, बिजली परियोजना का वह हिस्सा होता है जिसमें नदी के पानी को पावर हाउस तक पहुंचाने से पहले इसलिए जमा किया जाता है, ताकि उसमें मौजूद गाद, पत्थर और अन्य कचरा इसकी सतह में बैठ जाए और टरबाइनों तक साफ पानी पहुंचे. एशिया का सबसे बड़ा बताया जाने वाला यह डीएसबी टैंक लगभग 200 मीटर लंबा, 158 मीटर चौड़ा तथा 19 मीटर ऊंचा था. पानी से लबालब भरे इतने विशालकाय टैंक की दीवार के टूटते ही समूचे श्रीनगर में सनसनी फैल गई और अफरातफरी का माहौल पैदा हो गया. स्थानीय लोग हड़बड़ी में अपने घरों से भागने लगे और निचले इलाके के लोगों को भी इसके बारे में बताने लगे. डीएसबी टैंक वाली जगह से बमुश्किल एक किलोमीटर दूर रहने वाले चौरास निवासी नागेंद्र सिंह बताते हैं, ‘अफरा-तफरी का माहौल ऐसा था कि हमें लगा शायद परियोजना का मुख्य बांध टूट गया है.’ इस टैंक के टूट जाने के बाद क्षतिग्रस्त दीवार की तरफ से निचले इलाकों में पानी के रिसाव का खतरा बढ़ने लगा तो प्रशासन ने आनन-फानन में परियोजना के मुख्य बांध के गेट खुलवा दिए. इस कवायद के बाद टैंक का पानी धीरे-धीरे अलकनंदा की मुख्यधारा में समाहित हो गया और फौरी तौर पर ही सही मगर एक बड़ा खतरा टल गया. लेकिन यह घटना तब तक समूचे श्रीनगर शहर को सकते में डाल चुकी थी.

सुरक्षा की दृष्टि से बेहद मजबूत माने जाने वाले डीएसबी टैंक के टूट जाने की इस घटना ने परियोजना का संचालन कर रही कंपनी की कार्यप्रणाली को कटघरे में लाने के साथ ही समूचे बांध प्रभावित क्षेत्र के सामने सुरक्षा का संकट पैदा कर दिया है. ऐसे में एक अहम सवाल खड़ा हो गया है कि, अगर कंपनी की कार्यप्रणाली आगे भी ऐसी ही चलती रही तो श्रीनगर से देवप्रयाग और यहां तक कि ऋषिकेश से लेकर हरिद्वार तक में रह रहे लाखों लोगों के जीवन को सुरक्षित कैसे माना जा सकता है ? वह भी तब जबकि इस परियोजना का संचालन करने वाली कंपनी की कार्यप्रणाली कई बार पहले भी सवालों के घेरे में आ चुकी हो.

परियोजना के डीएसबी टैंक की दीवार क्षतिग्रस्त होने से कई दिन पहले से इस टैंक से पावर हाउस तक पानी पहुंचाने वाली नहर से भी पानी का रिसाव हो रहा था

dam
परियोजना का डीएसबी टैंक जिसकी दीवार का एक हिस्सा बीती 26 जुलाई को टूट गया था. फोटो: समीर रतौड़ी

2006 से इस परियोजना का संचालन जीवीके हाइड्रोलैक्ट्रिक कंपनी कर रही है. जीवीके को यह परियोजना उत्तर प्रदेश सरकार के सिंचाई विभाग से लेकर टाटा और डक्कन गोयनका जैसी कंपनियों के हाथ खड़े करने के बाद हासिल हुई. हस्तांतरण की यह कथा भी बेहद अनूठी है. दरअसल गढ़वाल क्षेत्र में बिजली की कमी को देखते हुए 1985 में केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने उत्तरप्रदेश सरकार को यह जल विद्युत परियोजना लगाने की अनुमति दी थी. मंजूरी देते समय मंत्रालय ने साफ तौर पर कहा था कि इस क्षेत्र में बिजली की समस्या को दूर करने के लिए ही इस परियोजना को मंजूरी दी जा रही है. पर्यावरण मंत्रालय से ग्रीन सिग्नल मिल जाने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार के सिंचाई विभाग ने यहां काम शुरू कर दिया था, लेकिन कुछ रिहाइशी कालोनियां बनाने के बाद ही उसने यह प्रोजेक्ट टाटा कंपनी को बेच दिया. इसके बाद टाटा ने इस परियोजना को डक्कन गोयनका नामक कंपनी के हवाले कर दिया. इस कंपनी ने कुछ साल काम करने के बाद इस प्रोजेक्ट का निर्माण रोक दिया. इसके बाद साल 2006 में यह परियोजना जीवीके कंपनी के जिम्मे आ गई. इस तरह देखा जाए तो जिस जल विद्युत परियोजना को लगाने के लिए इस इलाके में बिजली की कमी का तर्क दिया गया था, उस परियोजना के शुरू होने के पहले 21 सालों तक सिर्फ कंपनियों की अदला-बदली ही चलती रही. 1985 में 200 मेगावाट की अनुमति वाली यह परियोजना 2006 तक आते आते 330 मेगावाट की हो गई थी. बहरहाल इस परियोजना को अपने हाथों में लेने के बाद से अब तक जीवीके कंपनी के कामकाज का बहीखाता खंगाला जाय तो इसके द्वारा बरते गए लापरवाह रवैये और घटिया निर्माण कार्यों की एक लंबी श्रंखला बन चुकी है. लापरवाही और उदासीनता की सबसे ताजा मिसाल तो यही है कि परियोजना की दृष्टि से बेहद अहम माने जाने वाले डीएसबी टैंक के टूटने के पखवाड़े भर बाद तक भी कंपनी के कर्ता-धर्ता इसके कारणों का पता तो दूर अंदाजा तक नहीं लगा पाए हैं. इस दीवार के टूटने के बाद कंपनी अधिकारियों ने कारणों का पता लगाने के लिए एक टीम बनाने की बात कही थी, लेकिन यह टीम कब तक अपना काम पूरा कर लेगी इसको लेकर वे कुछ नहीं बोल पाए थे. तहलका ने भी इस बाबत जीवीके कंपनी से सवाल पूछे थे, लेकिन इन सवालों पर भी उसने कोई जवाब नहीं दिया. अहम सवालों पर कंपनी की यह चुप्पी साफ बताती है कि दीवार टूटने के कारणों का पता लगाने में उसके हाथ अभी तक खाली हैं.

प्रख्यात अर्थशास्त्री और इस परियोजना का मुखर विरोध करने वाले डॉ भरत झुनझुनवाला कहते हैं, ‘जीवीके कंपनी द्वारा नियमों को ताक पर रखते हुए इतना बड़ा टैंक बना दिया गया था जिसकी उसे अनुमति ही नहीं थी. यह टैंक इस परियोजना को स्वीकृति मिलने के वक्त तैयार की गई डीपीआर के मुकाबले कहीं अधिक बड़ा था.’ दरअसल इस परियोजना को 1985 में स्वीकृति मिली थी. तबसे लेकर अब तक कंपनी ने दुबारा कभी भी इस परियोजना के लिए पर्यावरण मंत्रालय की स्वीकृति लेने की जहमत नहीं उठाई.  झुनझुनवाला कहते हैं, ‘नियमों के मुताबिक इस तरह की किसी भी परियोजना को प्रत्येक पांच साल में पर्यावरणीय स्वीकृति लेनी जरूरी होती है. लेकिन जीवीके कंपनी इस परियोजना को जारी परियोजना (कंटीन्यूइंग प्रोजक्ट) बता कर हर बार इस प्रक्रिया से बचती रही.’

डीएसबी टैंक के टूटने की घटना को लेकर पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट के निदेशक और जानेमाने पर्यावरणविद रवि चोपड़ा एक और चौंकाने वाली बात बताते हैं. वे कहते हैं, ‘पिछले साल उत्तराखंड में आई आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट ने आपदा में हुए नुकसान में बांधों की भूमिका की पड़ताल करने के लिए एक कमेटी बनाई थी, जिसमें मैं भी शामिल था. इसी क्रम में इस साल जनवरी में हमने श्रीनगर परियोजना की साइट का दौरा किया. उस वक्त इस टैंक की दीवार पर कोटिंग का काम चल रहा था. इस दौरान हमने देखा कि टैंक की दीवारों के अलग-अलग जोड़ों को भरने के लिए कंपनी के कर्मचारी एपाक्सी यानी एक खास तरह की गोंद का प्रयोग कर रहे थे. इसके बाद हमारी टीम में शामिल एक इंजीनियर ने इस टैंक के असुरक्षित होने की आशंका जाहिर कर दी थी. अब इस टैंक के टूट जाने के बाद वह आशंका सही साबित हो गई है.’

info-graphic
इंफोग्राफिक्स : मनीषा यादव

अलकनंदा नदी पर निर्माणाधीन इस बिजली परियोजना के डीएसबी टैंक की दीवार क्षतिग्रस्त होने से कई दिन पहले से इस टैंक से पावर हाउस तक पानी पहुंचाने वाली नहर में भी पानी का रिसाव हो रहा था. इसको लेकर चौरास स्थित मंगसूं गांव के ग्रामीण पिछले महीने भर से धरना भी दे रहे थे. क्योंकि नहर से रिसने वाला पानी मंगसू गांव के कई घरों में घुस रहा था. इसके अलावा पावरहाउस के पास स्थित किल्किलेश्वर इलाके के नौर गांव के कई घरों को भी इस नहर का पानी तालाब बनाने पर आमादा था. इसको लेकर स्थानीय लोगों ने प्रशासन के साथ ही कंपनी के अधिकारियों से कई बार शिकायत कर चुके थे. नौर गांव के प्रधान आशीष गैरोला बताते हैं, ‘हमारी शिकायत पर कंपनी के लोगों के साथ ही प्रशासन ने भी पहले तो यह मानने से ही इंकार कर दिया कि रिसने वाला पानी परियोजना की नहर का है, बाद में जब हमने उन्हें इसके सबूत दिखाए, तब भी कंपनी ने इसे मामूली बात बता कर खारिज कर दिया.’ नहर से होने वाले रिसाव के विरोध में धरना दे रहे मंगसू गांव के प्रधान राजेश बहुगुणा बताते हैं, ‘इस रिसाव को रोकने की मांग को लेकर हम लोगों ने महीने भर पहले ही धरना शुरू कर दिया था, मगर कंपनी इसकी अनदेखी करती रही. अब डीएसबी टेंक के टूट जाने के बाद हमारा डर और भी बढ़ गया है क्योंकि इस टैंक के ठीक सामने हमारा गांव ही पड़ता है.’ धरने पर बैठे मंगसू गांव के ग्रामीणों को समर्थन देने पहुंचे इस इलाके के पूर्व ब्लॉक प्रमुख विजयंत सिंह कहते हैं, ‘नहर में होने वाले रिसाव के चलते निचले इलाकों की जमीन कई जगहों पर बुरी तरह धंस चुकी है, जिससे भविष्य में कोई भी बड़ी अनहोनी हो सकती है.’

तहलका ने जब इस पूरे इलाके का दौरा किया तो इस परियोजना के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक उसे ऐसे कई प्रमाण मिले जो इस परियोजना में हुए घटिया निर्माण कार्यों के बारे में खुद ही बता रहे थे. डीएसबी टैंक से पावर हाउस तक जाने वाली नहर की ही बात करें तो, इस नहर के बाहरी हिस्से में कई जगहों पर दरारें दिख रही थीं. इन दरारों को ढंकने के लिए कंपनी ने इन पर सीमेंट स्प्रे पोत दिया था. इसके अलावा नहर के अंदरूनी हिस्से भी कई जगहों पर उखड़े हुए थे. इस परियोजना में काम करने वाले एक इंजीनियर नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं कि, ‘इस नहर को जिस तरीके से बनाया गया है उसमें सीमेंट स्प्रे के टिकने की कोई संभावना नहीं रहती है. यह तो कंपनी द्वारा अपनी लापरवाही छुपाने के लिए अपनाया गया एक पैंतरा मात्र है.’

इन सभी तथ्यों, आरोपों तथा आशंकाओं को देखते हुए एक और अहम सवाल उठता है कि, क्या ऐसा कोई भी आधार है जिसके दम पर यह कहा जा सके कि यह परियोजना महफूज है?

असुरक्षित : परियोजना की नहर की दीवार के अंदर और बाहर पड़ी दरारें और उन्हें भरने की असफल कोशिश
असुरक्षित: परियोजना की नहर की दीवार के अंदर और बाहर पड़ी दरारें और उन्हें भरने की असफल कोशिश. फोटो: प्रदीप सती

हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय में कार्यरत भूगर्भ शास्त्री प्रोफेसर वाईपी सुंदरियाल कहते हैं, ‘परियोजना शुरू होने के पहले दिन से ही जिस तरह की कार्यप्रणाली इसको लेकर अपनाई जा रही थी, तब से ही इसके पूरी तरह सुरक्षित होने पर संशय के बादल मंडरा रहे थे. लेकिन अब डीएसबी टैंक जैसे अहम हिस्से के टूट जाने की घटना के बाद तो कोहरा पूरी तरह छंट गया है.’ विश्व विद्यालय में कार्यरत एक और भूगर्भशास्त्री डॉ. एसपी सती भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं. वे कहते हैं, ‘2007 में ही एक रिपोर्ट के जरिए हमने बता दिया था कि श्रीनगर में बन रही बिजली परियोजना के निर्माण कार्य में कई तरह की लापरवाहियां बरती जा रही हैं जो भविष्य में इस पूरे प्रोजेक्ट के साथ ही श्रीनगर के सामने भी मुसीबतों का पहाड़ खड़ा कर सकती हंै. दरअसल डीएसबी टैंक से पावर हाउस तक पानी पहुंचाने के लिए जिस चौरास इलाके में नहर बनाई गई है. उस जमीन के निचले हिस्से की मिट्टी बेहद दलदली है. इसमें इतना सामर्थ्य नहीं है कि वह इतनी बड़ी और ऐसी नहर का वजन संभाल सके जिसमें चौबीसों घंटे पानी का प्रवाह जारी हो. इस सबके बादजूद न तो कंपनी और न ही सरकारों ने इन बातों को गंभीरता से लिया, जिसका परिणाम सबके सामने हैं.’ वे आगे कहते हैं, ‘पिछले साल जून महीने में आई आपदा से श्रीनगर शहर को हुए नुकसान में इस परियोजना की भूमिका जगजाहिर है. उस वक्त इस परियोजना का तकरीबन पांच लाख घन मीटर मलवा अलकनंदा नदी में बहा था, जिसने समूचे श्रीनगर को पाट दिया था. ऐसे में अब नहर से होने वाले रिसाव के साथ ही डीएसबी टेंक के पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाने की घटनाओं को देखते हुए सुरक्षा की दृष्टि से इस परियोजना को खतरनाक बताने के लिए और क्या प्रमाण दिया जाए?’

प्रोफेसर सुंदरियाल तथा प्रोफेसर एसपी सती द्वारा जाहिर की गई इन आशंकाओं की पड़ताल करने के क्रम में कुछ प्रमुख घटनाओं की तरफ एक सरसरी निगाह डालना जरूरी हो जाता है जो इस परियोजना की लचर कार्यप्रणाली का प्रमाण तो प्रस्तुत करती ही हैं, साथ ही यह भी बताती हैं कि इस परियोजना के चलते श्रीनगर और उसके आसपास के इलाकों को किस तरह का नुकसान अब तक उठाना पड़ा है.

आपदा के बाद जांच में पता चला कि बांध के नजदीक वाले इलाकों में 47 प्रतिशत और बांध से दूर वाले इलाकों में 20 प्रतिशत मलबा इसी परियोजना का था

पिछले साल जून महीने की आपदा के बाद तथा इसी साल केदारनाथ यात्रा शुरू होने से ठीक पहले तहलका ने दो समाचार रिपोर्टों में इस परियोजना से श्रीनगर शहर में मची तबाही का पूरा ब्यौरा सामने रखा था. उन दोनों ही रिपोर्टों में साफ तौर पर इस बात का जिक्र था कि इस परियोजना के मलबे ने श्रीनगर के शक्तिविहार इलाके के कई घरों को रहने लायक नहीं छोड़ा था. इसके अलावा तब से लेकर अब तक कई दूसरी रिपोर्टों में भी इस बात की तस्दीक हो चुकी है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई रवि चोपड़ा कमेटी ने भी इसी साल अप्रैल में प्रस्तुत की गई अपनी रिपोर्ट में उत्तराखंड में हुई आपदा के नुकसान को बढ़ाने में बांधों की भूमिका को स्वीकार किया है. इस बारे में रवि चोपड़ा कहते हैं, ‘2013 की आपदा के बाद हमारी टीम ने श्रीनगर के अलग-अलग इलाकों से मलबे के सेंपलों की जांच की थी. इस जांच में पता चला कि बांध के नजदीक वाले इलाकों में 47 प्रतिशत और बांध से दूर वाले इलाकों में 20 प्रतिशत मलबा इसी परियोजना का था. खुद जीवीके कंपनी ने भी तब इस बात को स्वीकार किया था कि श्रीनगर और उसके आसपास के इलाकों में घुसे मलबे का बीस प्रतिशत तक हिस्सा इसी परियोजना के मलवे का था. ऐसे में कंपनी की यह स्वीकारोक्ति साफ तौर पर बताती है कि स्थितियां कितनी चिंताजनक हैं.’

असुरक्षित: परियोजना की नहर की दीवार के अंदर और बाहर पड़ी दरारें और उन्हें भरने की असफल कोशिश. फोटो: प्रदीप सती
असुरक्षित: परियोजना की नहर की दीवार के अंदर और बाहर पड़ी दरारें और उन्हें भरने की असफल कोशिश. फोटो: प्रदीप सती

अब इस परियोजना के काफर डैम के क्षतिग्रस्त होने की घटनाओं का जिक्र करते हैं. 330 मेगावाट बिजली की उत्पादन क्षमता वाले इस पावर प्रोजेक्ट के लिए श्रीनगर शहर से ठीक पहले कोटेश्वर नामक जगह पर परियोजना का मुख्य बांध बनाया गया है. 90 मीटर ऊंचे इस बांध का निर्माण करने के लिए कंपनी ने इसके ठीक आगे काफर बांध बनाया था. दरअसल इस तरह की बिजली परियोजनाओं के लिए मुख्य बांध की दीवार का निर्माण करने से पहले काफर बांध बनाया जाता है. इस काफर बांध की मदद से नदी के पानी को एक तरफ से रोका जाता है जिसके बाद उस जगह पर मुख्य बांध का निर्माण किया जाता है. इसके बाद इसी तर्ज पर पानी को दूसरी तरफ से रोक कर पूरा बांध तैयार किया जाता है. इस तरह देखा जाए तो मुख्य बांध की निर्माण प्रक्रिया में काफर डैम की बेहद अहम भूमिका होती है. लेकिन 2008 में श्रीनगर परियोजना का काफर बांध अचानक टूट गया. उस वक्त मुख्य बांध का निर्माण कार्य प्रगति पर था. इसके बाद अगले ही साल 27 जुलाई को एक बार फिर से इस घटना की पुनरावृत्ति हो गई. 27 जून, 2010 को इसके तीसरी बार ढह जाने से परियोजना की घटिया कार्यप्रणाली खुल कर सतह पर आ गई. तीनों ही मौकों पर काफर डैम के टूटने से नदी किनारे स्थित बस्तियों को काफी नुकसान पहुंचा था. 2009 में दूसरी बार काफर बांध टूटने के बाद पौड़ी जिले के तत्कालीन अपर जिलाधिकारी की अध्यक्षता में एक जांच कमेटी बनाई गई, जिसका काम काफर डैम के टूटने के कारणों का पता लगाने के साथ ही, बांध के निर्माण कार्यों की गुणवत्ता जांचने तथा नदी किनारे की बस्तियों को हुए नुकसान का आकलन करना था. इस कमेटी ने जांच के दौरान परियोजना की कार्यप्रणाली में बहुत सारी अनियमितताएं पाई. बावजूद इस सबके कंपनी के खिलाफ कोई भी कड़ा कदम नहीं उठाया गया. भाकपा (माले) के गढ़वाल संयोजक इंद्रेश मैखुरी इसे सीधे तौर पर प्रशासन और कंपनी की मिलीभगत बताते हैं. वे कहते हैं, इस परियोजना का संचालन करने वाली जीवीके कंपनी की कारगुजारियों के खिलाफ जितनी भी बार स्थानीय स्तर पर विरोध प्रदर्शन हुए, इक्का-दुक्का मौकों को छोड़ दिया जाए तो प्रशासनिक पैंडुलम हमेशा कंपनी की तरफ ही झुका रहा.

कंपनी के पक्ष में प्रशासनिक तरफदारी की जिन बातों को इंद्रेश मैखुरी कह रह हैं उन बातों के सहारे थोड़ा आगे बढ़ा जाए तो मालूम पड़ाता है कि प्रशासन की दरियादिली के साथ ही स्थानीय जनप्रतिनिधियों का मन भी जीवीके कंपनी के प्रति हमेशा मेहरबान रहा है. 2011 में इस परियोजना पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा पाबंदी लगाई जाने के बाद गढ़वाल के तत्कालीन सांसद सतपाल महाराज तथा उत्तराखंड सरकार में कैबिनेट मंत्री, मंत्री प्रसाद नैथानी परियोजना के समर्थन में भारी दलबल के साथ नई दिल्ली स्थित जंतर-मंतर पहुंच गए थे. उस वक्त इस परियोजना का समर्थन करने वालों में मंगसूं गांव के वे ग्रामीण भी शामिल थे जिनका जिक्र इस रिपोर्ट की ऊपरी पंक्तियों में किया जा चुका है. इस बारे में पूछे जाने पर मंगसू के निवासी राजेंद्र मुयाल कहते हैं, ‘उस वक्त कंपनी ने हमें तमाम तरह की सुविधाएं देने की बात कही थी. इसके अलावा मंत्री प्रसाद नैथानी तथा सतपाल महाराज ने भी तब स्थानीय हितों का खयाल रखने की बात कही थी. लेकिन जैसे ही इस परियोजना पर लगी रोक हटी, कंपनी और जनप्रतिनिधियों, दोनों ने हमसे मुंह मोड़ लिया.’ वे आगे कहते हैं, ‘हालांकि 26 जुलाई को मंत्री प्रसाद नैथानी ने इस इलाके का दौरा किया था, लेकिन कंपनी के खिलाफ कार्रवाई करने का कोरा आश्वासन देने के बाद से उनका कोई अता-पता नहीं है.’ धरना स्थल पर बैठे ग्रामीणों में से जितनों से भी तहलका ने बात की वे सभी खुद को ठगा महसूस कर रहे थे.

आपदा के बाद जांच में पता चला कि बांध के नजदीक वाले इलाकों में 47 प्रतिशत और बांध से दूर वाले इलाकों में 20 प्रतिशत मलबा इसी परियोजना का था

2011 में इस परियोजना का समर्थन करने दिल्ली पहुंचे सतपाल महाराज तथा मंत्री प्रसाद नैथानी ने तब इस परियोजना को राज्यहित में बताया था. उस वक्त इन दोनों नेताओं का तर्क था कि श्रीनगर परियोजना से मिलने वाली बिजली राज्य को समृद्धि की ओर ले जाएगी. इसके अलावा राज्य के दो पूर्व मुख्यमंत्री भुवनचंद्र खंडूरी तथा विजय बहुगुणा भी बिजली की कमी का तर्क देकर श्रीनगर परियोजना की पैरवी कर चुके हैं. लेकिन श्रीनगर परियोजना राज्य की बिजली जरूरतों को पूरा करने में कितनी भूमिका निभा सकती है, जरा इस पर भी एक नजर दौड़ा लेते हैं.

2002 में बनी राज्य की ऊर्जा नीति के मुताबिक इस परियोजना की निर्माता कंपनी को उत्तराखंड राज्य को 12.5 प्रतिशत बिजली मुफ्त देने की बाध्यता के साथ ही अगले 45 सालों तक कुल बिजली का 87.5 प्रतिशत हिस्सा बेचने का अधिकार मिला हुआ है. ऐसे में यदि यह बांध महफूज भी रहता है और बेरोकटोक बिजली का उत्पादन भी करता है तब भी 330 मेगावाट क्षमता वाली इस परियोजना से केवल 39.60 मेगावाट बिजली ही उत्तराखंड के हिस्से में आना निश्चित है. बाकी बिजली को यह कंपनी किसी अन्य राज्य को भी बेच सकती है. इसी के तहत उसने उत्तर प्रदेश सरकार के साथ बाकी पूरी बिजली बेचने का करार कर लिया है. जबकि 1985 में इसको मंजूरी देते समय पर्यावरण मंत्रालय का साफ कहना था कि यह मंजूरी क्षेत्र में बिजली की समस्या को दूर करने के लिए ही दी जा रही है. इंद्रेश मैखुरी कहते हैं, ‘चालीस मेगावाट बिजली के लिए इतनी बड़ी आबादी को दांव पर लगा कर नीति नियंताओं ने एक ऐसी कंपनी का हित साधने का काम किया है जिसने श्रीनगर क्षेत्र के सिर पर बांध के रूप में एक ऐसा टाइम बम रख दिया है जिसका ट्रिगर अपने आप कभी भी दब सकता है.’ झुनझुनवाला कहते हैं, ‘अगर जीवीके कंपनी की कार्यप्रणाली ऐसी ही रही तो बहुत संभव है कि इस परियोजना का मुख्य बांध भी किसी दिन जवाब दे दे. अगर ऐसा हुआ तो यह घटना इस इलाके के लिए ही नहीं बल्कि पूरे प्रदेश के लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर देगी.

अलकनंदा नदी पर बन रही इस परियोजना को खतरनाक बताने वाले कारणों मंे एक बड़ा कारण इस बांध की ऊंचाई को भी बताया जा रहा है. परियोजना के शुरुआती प्रस्ताव में मुख्य बांध की ऊंचाई 63 मीटर तय की गई थी, लेकिन जीवीके के जिम्मा संभालने के बाद इसकी ऊंचाई को बढ़ाकर 90 मीटर कर दिया गया. बढ़ी हुई ऊंचाई की वजह से बांध से बनने वाली झील का दायरा 15 किलोमीटर तक फैल गया है. ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि इतनी बड़ी झील में जमा पानी अप्रिय स्थितियों में किस कदर खतरनाक हो सकता है. वह भी तब जब यह झील एक ऐसे इलाके में बनी हो जो भूस्खलन की दृष्टि से बेहद खतरनाक है. तकरीबन डेढ़ दशक पहले सीमा सड़क संगठन ने ऋषिकेश से बद्रीनाथ के बीच तकरीबन नब्बे छोटे-बड़े भूस्खलन क्षेत्र चिह्नित किए थे. श्रीनगर परियोजना इसी मार्ग के बीच में बन रही है. इसरो रिमोट सेंसिंग और भूगर्भ सर्वेत्रण विभाग द्वारा तैयार भूस्खलन हैजार्ड मैपिंग के अनुसार भी इस मार्ग का 441.57 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र भूस्खलन से प्रभावित होनेवाला है.

बहरहाल काफर डैम टूटने से लेकर डीएसबी टैंक के क्षतिग्रस्त हो जाने तक की अब तक की तमाम परिस्थितियां ऐसी हैं जिनके आधार पर इस परियोजना को सुरक्षा के नजरिए से खतरनाक करार दिया जा सकता है. तहलका ने इस सबको लेकर जीवीके कंपनी से दस सवाल पूछे थे. इन दस सवालों में एक सवाल यह भी था कि, क्या कंपनी ऐसा कोई आश्वासन दे सकती है जिससे इस इलाके के लोग इस परियोजना के चलते भविष्य में खुद को पूरी तरह महफूज समझ सकें ? बाकी नौ सवालों के साथ ही यह सवाल भी अब तक जवाब की प्रतीक्षा में है.

pradeep.sati@tehelka.com

परंपरा के पोषक या शोषक !

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार

बीते 21अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी झारखंड की राजधानी रांची में थे. उनके आगमन का शोर काफी दिनों से था. तैयारी भी बहुत समय से चल रही थी. प्रशासन तो अपने स्तर पर तैयारी कर ही रहा था, भाजपा के नेता-कार्यकर्ता उससे ज्यादा तैयारी में जुटे थे. भाजपा की ओर से यह तैयारी स्वाभाविक ही थी. दल के सबसे बड़े नेता के आने पर, वह भी प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली और उसमें भी निकट भविष्य में विधानसभा चुनाव के माहौल में आने पर भाजपा ने अगर अपने नेता के स्वागत में पूरी ताकत लगाई तो इसमें अटपटा जैसा बहुत कुछ नहीं था. इस कोशिश में यह जरूर हुआ कि कार्यक्रम भाजपा के लिए अपने नेता का अतिविशिष्ट आयोजन बन गया. सभा स्थल पर आम आदमी कम, अपने-अपने नेताओं के पीछे जय-जयकार करने वाले भाजपा कार्यकर्ताओं की भीड़ अधिक थी. खैर, यहां तक तो फिर भी ठीक रहा लेकिन इसका बात का अंदाजा ज्यादातर लोगों को नहीं था कि भाजपाई भीड़ अतिउत्साह में कुछ ऐसा भी कर जाएगी जो सामान्य शिष्टाचार और लोकतांत्रिक परंपराओं पर भारी पड़ जाएगा.

रांची में मोदी भाजपा नेता के बजाय प्रधानमंत्री के तौर पर आए थे. प्रधानमंत्री के साथ मंच पर राज्य के राज्यपाल डॉ सैयद अहमद, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद समेत कई नेता मौजूद थे. मोदी ने रांची में कई योजनाओं का ऑनलाइन शिलान्यास किया. रांची से सटे बेड़ो में पावर ग्रिड स्टेशन का, राष्ट्रीय डिजिटल साक्षरता मिशन का, उत्तरी कर्णपुरा बिजली परियोजना का, जसीडीह तेल टर्मिनल का, रांची में सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान आदि का. अपनी शैली में उनका लच्छेदार भाषण भी हुआ. इसमें कई बातें शामिल थीं. व्यवस्था व प्रक्रिया बदलाव का संकल्प लिया गया, केंद्र में सत्ता परिवर्तन के लिए जनता का आभार प्रकट किया गया. मोदी ने हेमंत सोरेन को अपनी बातों में शामिल करते हुए यह भी कहा, ‘ हम चाहते हैं कि हेमंत को कभी दिल्ली न आना पड़े इसलिए योजनाओं की सौगात लेकर हम रांची आए हैं.’

नरेंद्र मोदी अपने भाषण में प्रधानमंत्री के तौर पर जो बोल सकते थे, बोले और बातों ही बातों में भाजपा नेता के तौर पर अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा को विजयी बनाने की अपील भी करते रहे. यहां तक तो फिर भी ठीक रहा लेकिन इस दरम्यान एक और घटना घटी जो शर्मनाक रही और लोकतांत्रिक व संघीय चरित्र वाले भारत के लिए भयावह भी. इसी मंच पर मुख्यमंत्री की हैसियत से जब हेमंत सोरेन बोलने को खड़े हुए और अपना भाषण शुरू किया तो उनके भाषण की हूटिंग शुरू हो गई. एक-दो बार नहीं ब‌ल्कि सात-आठ बार ऐसा हुआ. हालांकि बीच में मोदी ने इशारे में लोगों को शांत होने को कहा लेकिन हूटिंग करनेवाले भाजपाइयों पर अपने सबसे बड़े नेता के इशारे का भी असर नहीं हुआ. यह भी कहा जा सकता है कि वह इशारा इतने असरदार तरीके से नहीं किया जा रहा था. वहीं दूसरी तरफ झारखंड के युवा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की यह समझदारी और परिपक्वता ही थी कि वे इसके बाद भी संयत होकर अपनी बात आगे बढ़ाते रहे. बेहद गंभीरता के साथ, तथ्यों के साथ, भावुकता के साथ प्रधानमंत्री के सामने झारखंड की असल तसवीर पेश करते रहे. इस उम्मीद के साथ कि शायद प्रधानमंत्री गौर से सुनें तो आगे झारखंड की इन समस्याओं का भी समाधान हो. लेकिन हेमंत जिस तरह से सार्वजनिक मंच पर प्रधानमंत्री के सामने बातें रखना चाहते थे, भाजपाइयों की हरकत की वजह से वह नहीं कर पाए. प्रधानमंत्री के साथ इस मंच पर राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा, झारखंड के कोटे से केंद्र में मंत्री बने सुदर्शन भगत, रांची के सांसद रामटहल चौधरी, धर्मेंद्र प्रधान, रविशंकर प्रसाद जैसे कई दिग्गज नेता मौजूद थे. इन सबकी उपस्थिति में भाजपाई मंच के सामने मैदान में हूटिंग करते रहे.

जिन हेमंत की भाजपाई हूटिंग कर रहे थे, वे धीर-गंभीर बने रहे. उन्होंने मंच पर प्रधानमंत्री का पूरा लिहाज किया. प्रधानमंत्री को विदा करने के बाद मुख्यमंत्री ने मुंह खोला. उन्होंने कहा कि वे अगली बार नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा करने से पहले सोचेंगे. हेमंत ने यह भी कहा कि यह परंपरा संघीय ढांचे और लोकतांत्रिक देश की बुनियाद पर प्रहार है. हेमंत ने बस इतना ही कहा. हालांकि उनके दल के नेता इस घटना पर ज्यादा आक्रामक थे. उनकी तरफ से बयान आए कि वे केंद्रीय मंत्रियों को झारखंड में आने से रोकेंगे. वैसे झारखंड मुक्ति मोर्चो (झामुमो) की यह प्रतिक्रिया स्वभाविक है. लेकिन झामुमो ही नहीं भाजपाइयों के इस कारनामे की आलोचना चारों तरफ हो रही है.

भाजपा के लोगों का कहना है कि आयोजन में हूटिंग करनेवाले उनकी पार्टी के लोग नहीं थे. हालांकि इस बात भरोसा करने की एक भी वजह नहीं है. यदि ये लोग पार्टी से जुड़े नहीं थे तो इतनी भारी संख्या में मौजूद भाजपा कार्यकर्ताओं ने उन्होंने आयोजन स्‍थल से बाहर क्यों नहीं निकाला. एक के बाद एक कई बार हू‌टिंग हुई तो इसपर भी क्या भाजपाई अपने और गैर को नहीं पहचान सके. यदि पार्टी के नेताओं को यह पता था कि हूटिंग करने वाले उनके लोग नहीं हैं तो वे मंच से ही इस बात को जाहिर कर खेद जता सकते थे. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. झारखंड के सभी राजनीतिक दलों ने इस घटना के विरोध में बयान दिए हैं पर भाजपा का मौन अभी-भी कायम है. राजनीति के जानकार कह रहे हैं कि हो सकता है भाजपा अपने पक्ष में किसी नए तर्क के साथ मौनव्रत को तोड़े.

भाजपाई कुछ भी तर्क गढ़ लें लेकिन एक बात में कोई संदेह नहीं कि ‌प्रधानमंत्री मोदी की सभा में जो हुआ, उससे उन्होंने खुद अपना ही नुकसान किया. हेमंत की हूटिंग झारखंड के निर्वाचित मुख्यमंत्री का बहिष्कार था. यह झारखंड के मुख्यमंत्री का अपमान सरीखा था. और इस तरह से झारखंडियों के अपमान जैसा भी. इसे देश के संघीय ढांचे का जो नुकसान होगा, लोकतांत्रिक मूल्यों की जो गरिमा खत्म होगी, वह तो अलग बात है लेकिन ऐसी घटनाओं से विरोधी दलों के बीच वैमनस्यता का जो बीज बोया जा रहा है उसके नतीजे आशंका से ज्यादा घातक साबित हो सकते हैं. भाजपा ने जो किया, वह तो उन महान और प्राचीन भारतीय परंपराओं का भी अपमान है जिनकी दुहाई भाजपा के नेता हमेशा देते रहे हैं. देश के आजाद होने, विधिवत लोकतांत्रिक देश बनने, संघीय ढांचे के साथ गणतांत्रिक देश बनने के बहुत पहले से भारत में यह यह परंपरा रही है कि अगर दुश्मन भी दरवाजे पर आए या बुलाओ तो उसे मान-सम्मान दो. हेमंत तो भाजपा के लिए फिर भी पुराने दोस्त थे और महज राजनीतिक विरोधी. लेकिन संभव है कि आने वाले दिनों में इस घटना के चलते यह समीकरण अपने सबसे विद्रूप रूप में दिखाई देने लगे.

शराब पर सख्त केरल

liquor-223x300केरल में सत्तासीन कांग्रेस नेतृत्व वाले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) ने पांच सितारा से कम दर्जे वाले होटलों से संबद्ध 700 बार बंद करने और रविवार को ड्राई डे (शराब की बिक्री के लिए निषिद्ध) घोषित करने का फैसला किया है.

यह फैसला यूडीएफ नेतृत्व की एक बैठक में लिया गया जिसकी अध्यक्षता मुख्यमंत्री ओमान चांडी ने की. बैठक में इसके अलावा गुणवत्ताहीन पाए गए 418 बार के लाइसेंस का नवीनीकरण न करने पर भी सहमति बनी. यह मुद्दा लंबे समय से कांग्रेस की राज्य इकाई और गठबंधन के बीच विवाद का विषय बना हुआ था. इन फैसलों की औपचारिक अनुशंसा चांडी सरकार से की जाएगी ताकि वह आगे कदम उठा सके.

इससे पहले यूडीएफ नेतृत्व ने कहा था कि वह राज्य में आम लोगों को शराब की उपलब्धता कम करने के लिए कड़े कदम उठाएगी और चरणबद्ध तरीके से राज्य को शराबमुक्त बनाने की दिशा मे आगे बढ़ेगी.

बैठक के बाद संवाददाताओं को संबोधित करते हुए चांडी ने कहा कि गत अप्रैल से बंद पड़े 418 बार दोबारा नहीं खोले जाएंगे. इसके अलावा कानूनी मशविरा मिलने पर 312 और बार बंद किए जा सकते हैं. अगर उनको तत्काल बंद करने में कोई कानूनी अड़चन आती है तो भी उनको अगले वित्त वर्ष से कारोबार नहीं करने दिया जाएगा.

इसका अर्थ यही हुआ कि अगले कुछ दिनों में राज्य में पांच सितारा होटल के अलावा कहीं कोई बार नहीं होगा. यह भी जानकारी दी गई कि स्टेट बेवरेज कॉर्पोरेशन की खुदरा दुकानों के जरिये की जाने वाली बिक्री में कमी लाने के लिए ऐसी दुकानों की संख्या में हर साल 10 फीसदी की कमी की जाएगी.

हर महीने की पहली तारीख समेत मौजूदा ड्राई डे के अलावा राज्य में हर रविवार को ड्राई डे घोषित किया जाएगा. इसका मतलब है राज्य में कम से कम 52 दिन और शराबंदी सुनिश्चित होगी. बंद बारों के लाइसेंस के नवीनीकरण के मसले पर राज्य कांग्रेस बंटी हुई है. केरल प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष वी एम सुधीरन पद संभालने के बाद से ही सुविधाओं की कमी के चलते अस्थायी तौर पर बंद किए गए 428 बार के लाइसेंस के नवीनीकरण के खिलाफ हैं. जबकि पार्टी का एक धड़ा मानता है कि सरकार को अधिक व्यावहारिक रवैया अपनो हुए बार मालिकों को सुविधाएं मुहैया कराने का वक्त देना चाहिए. यूडीएफ की प्रमुख साझेदार इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग भी शराब की उपलब्धता कम कराने के पक्ष में है.

बैठक में इस बात पर भी सहमति बनी कि राज्य में बड़े पैमाने पर शराब विरोधी अभियान चलाया जाएगा जिसके लिए बेवरेज कॉर्पोरेशन की कुल बिक्री का एक फीसदी इस्तेमाल किया जाएगा.

‘भगवान वही है जिसका भय हो’

यह बात सन 1994 की है. हम पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया शहर में रहते थे. उस वर्ष मैंने स्नातक में दाखिला लिया था. हमारे किरायेदार यादव जी भारतीय नौसेना से रिटायर होकर आए थे. उनकी दो बेटियां थीं, बड़ी बेटी नवीं में और छोटी सातवीं में पढ़ती थी.

जुलाई का महीना था. एक दिन सुबह पता चला कि उनकी छोटी बेटी को बुखार है. ‘सीजनल होगा… दवा दिलाइए…’ मैंने सलाह दी. बोले, ‘दवा दी है, बुखार उतर जाना चाहिए.’ ‘किसको दिखाया?’ बोले, ‘मैंने ही दी है.’ ‘आपने दी है मतलब?’ मैं हैरान हुआ. बोले, ‘नौकरी करते हुए होम्योपैथी का कॉरेस्पॉन्डेस कोर्स भी कर लिया था…तो कुछ दवाइयां रखता हूं. हर इतवार को गांव भी जाता हूं… मेरी क्लीनिक है वहां, लोगों की निशुल्क सेवा करता हूं.’ थोड़ा गौरवान्वित होकर मुस्कुराए. ‘अरे महाराज बुखार तेज है इसको (मैंने उसका माथा छुआ), मीठी गोली के वश की बात नहीं, अंग्रेजी वाले को दिखाइए.’ बोले, ‘देखते हैं.’

शाम तक बच्ची की हालत बिगड़ने लगी थी. हमलोग भागकर जिला अस्पताल गए. वहां डॉक्टर ने कहा तुरंत बनारस ले जाइए. वह परेशान हुए कि बनारस में तो हमारी कोई पहचान नहीं है. उनकी पत्नी और मैंने कहा कि सब भगवान है. खैर, यादव जी अपनी पत्नी और बेटी के साथ ट्रेन से बनारस के लिए रवाना हो रहे थे. अचानक बिना कुछ सोचे समझे मैं भी उनके साथ चल पड़ा. हालांकि न मैंने कभी बनारस देखा था और न ही मेरे पास पैसे थे कि वहां कोई जरूरत पड़ती तो कुछ कर पाता. लेकिन फिर भी मैं उनके साथ हो लिया.

बनारस पहुंचते-पहुंचते आधी से ज्यादा रात बीत गई थी और बच्ची की हालत और भी खराब होती जा रही थी. भारी बारिश में एक ऑटो पकड़कर हम बीएचयू पहुंच गए. ऑटो वाले की मदद से चाइल्ड वार्ड पहुंचे तो वहां बरामदे तक भीड़ लगी हुई थी. मौजूद जूनियर डॉक्टरों ने उसे देखना भी मुनासिब नहीं समझा. मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था. मैंने तो बस नाम सुना था बीएचयू का. बड़ा अस्पताल, बड़े-बड़े डॉक्टर हैं, लेकिन यहां तो बदतर स्थिति है… दिमाग में ये सब चल ही रहा था कि ऑटो वाले ने राह सुझाई कि कबीरचौरा में एक प्राइवेट ‘काशी विश्वनाथ’ अस्पताल है. वहां बीएचयू के सारे बड़े डॉक्टर आते हैं. उसी ऑटो से हम लोग रात करीब डेढ़ बजे वहां पहुंचे और 30 मिनट में ही चार बड़े डॉक्टर हाजिर हो गए. पता चला बिटिया को मस्तिष्क ज्वर है. ‘बहुत फैला हुआ है. बच्चे रोज मर रहे हैं.’ एक तीमारदार अनायास ही बताने लगा.

‘मैंने तो बस नाम सुना था बीएचयू का. बड़ा अस्पताल, बड़े-बड़े डॉक्टर हैं, लेकिन यहां तो बदतर स्थिति है . . .’

इलाज शुरू हुआ, जैसा कि होता है, नकद राशि पहले ही जमा करा ली गई. थोड़ी तसल्ली हुई कि भगवान… सही समय से सही जगह आ गए. रात बीती, सुबह हुई फिर दोपहर, लेकिन परिणाम कुछ नहीं. आखिरकार दो बजे दोपहर में उसे एक एंबुलेंस सहित ‘रेफर’ कर दिया गया कबीरचौरा हॉस्पीटल. हमलोग कुछ समझ पाते कि चंद मिनट में वहां पहुंच गए. पता चला ये सरकारी अस्पताल है. वहां डॉक्टरों ने देखते ही कहा ‘कोई फायदा नहीं, यहां क्यों लाये?’ मैंने कहा ‘उन्होंने यहां रेफर किया है.’ जवाब मिला ‘और वे क्या? डेथ सर्टिफिकेट तो यहीं से मिलेगा’. हे भगवान… इस चीख के बाद दोनों मां-बाप बदहवास हो गए और मैं हतप्रभ. इस पूरी हताशा के बीच मैं अकेले उन्हें वापस बलिया लाने की जुगत में लगा. लेकिन मुझ अज्ञानी को क्या पता था कि किसी ‘लाश’ के साथ कोई टैम्पो वाला बैठाएगा नहीं. बड़ी देर तक मैं सैकड़ों ऑटो वालों से स्टेशन चलने की गुहार लगाता रहा. मैं सड़क पर हर ऑटो वाले को हाथ मारता… लेकिन कोई फायदा नहीं. अब मैं भी हताश होने लगा था कि न जाने किसने मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोला… क्या बात है? वाकया सुनते ही उसने एक ऑटो वाले को रोका और कुछ कहा. वह हमें बस स्टैंड लेकर गया. बलिया वाली बस के कंडक्टर से उसने कान में कुछ कहा. कंडक्टर धीरे से बोला, ‘सबसे पीछे वाली लंबी सीट पर आप इसे (लाश को) गोद में लिटाकर बैठ जाइए, कोई पूछे तो कहिएगा तबियत खराब है. वरना लोग नाराज हो जाएंगे.’

मेरा दिमाग उस अजनबी पर अटका था जिसके एक इशारे पर ये सब कुछ आसान हुआ. क्यों उसने मदद की? क्यों सभी उसकी बात मान रहे हैं? क्या वह भगवान है? कौन था वो? आखिर मैंने ऑटो वाले से पूछ ही लिया. बोला, ‘अध्यक्ष जी थे न… आप नहीं जानते? अरे… बीएचयू वाले…’ हमलोग नाटकीय अंदाज में बस में बैठने की कोशिश करने लगे. लेकिन औलाद खो चुके मां-बाप की आंखों का सैलाब कहां रुकने वाला था. यात्रियों की घूरती नजरों के बीच मेरे मन में सवाल कौंध रहा था कि इंसानों में भगवान कहां था? वह ऑटो चालक जो अस्पताल ले गया. या वे सारे डॉक्टर जो रात के दो बजे नींद छोड़ इलाज करने आए या फिर वह छात्र नेता जिसने एक असहाय की मदद की…? अब जब मैंने भी दुनिया देख ली है तो समझ आया कि भगवान वही है, जिसका भय हो.

‘नक्सलवाद’ की खूंटी

तृतीय प्रस्तुति कमेटी के सदस्य

10 अगस्त 2014.  हम झारखंड की राजधानी रांची से खूंटी के लिए निकले हैं. यात्रा की शुरुआत में ही दो बड़े-बड़े स्कूल दिखते हैं. पहला वर्ल्ड क्लास स्कूल, दूसरा इंटरनेशनल स्कूल. इनकी भव्यता देखते ही बनती है. बताया जाता है कि ये पूर्वी भारत के चुनिंदा स्कूलों में से हैं. महंगे और हर तरह की सुविधाओं से संपन्न. कुछ आगे बढ़ने पर हिरण पार्क दिखता है. हिरणों की धमाचौकड़ी से भरे इस पार्क की खूबसूरती भी लाजवाब है.

लेकिन इस पार्क के बाद वही सड़क और उसके इर्द-गिर्द पसरा वीराना एक डरावना माहौल बनाने लगता है. थोड़ी ही देर बाद हम उस जिले में प्रवेश करने वाले हैं जो नक्सलवाद से जुड़ी घटनाओं के मामले में सबसे खूंखार आंकड़ा रखता है. माहौल में भय घुलना स्वाभाविक है.

लगभग एक घंटे के सफर के बाद हम खूंटी पहुंचते हैं. यह कस्बा जिला मुख्यालय भी है. माहौल में रक्षाबंधन की चहल-पहल के साथ दहशत भी घुली दिखती है. इसकी वजह स्थानीय अखबारों के पहले पन्ने में छपी एक खबर है. वैसे तो खबर यहां से बहुत दूर पलामू जिले की है. वहां के छोटकी कौडि़या नाम के एक गांव में माओवादियों ने तृतीय प्रस्तुति कमिटी यानी टीपीसी के 16 उग्रवादियों को रात में घेरकर मार दिया है. मार्च 2013 में चतरा जिले के कुंदा में टीपीसीवालों ने 10 माओवादियों को मार डाला था. खबर बता रही है कि माओवादियों ने उसी का बदला लिया है. पलामू में इस खबर से दहशत होने का अंदाजा स्वाभाविक है. लेकिन खूंटी में भी उसे लेकर इतना आतंक क्यों?

खूंटी चौक पर चाय की दुकान पर बैठे पुरुषोत्तम से हम यह सवाल करते हैं. वे कहते हैं, ‘टीपीसी-माओवादियों के टकराव का असर हमारे यहां भी पड़ेगा. यहां टीपीसी-माओवादी तो नहीं टकराएंगे, लेकिन वर्चस्व स्थापित करने के लिए दो-तीन ग्रुपों का टकराव होगा. फुटकर हत्याएं अचानक नरसंहार का रूप लेंगी. यह जिला और गर्त में जाएगा.’

उनकी आशंका गलत नहीं लगती. माओवाद या नक्सलवादी हिंसा की जब बात होती है तो अक्सर छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा, महाराष्ट्र के गढ़ चिरौली, पश्चिम बंगाल के लालगढ़ या झारखंड के पलामू-सारंडा का जिक्र होता है. लेकिन इसी झारखंड में राजधानी रांची से सटे खूंटी की उतनी चर्चा नहीं होती जबकि नक्सलवाद के नाम पर होने वाली हत्याओं के आंकड़े में यह देश के सभी खतरनाक जिलों को पीछे छोड़ता है. पिछले पांच साल के दौरान यहां 498 लोगों की हत्या के मामले दर्ज हुए हैं. अपराध की कुल घटनाओं में  हत्याओं का आंकड़ा यहां सबसे ज्यादा है. कभी इसी खूंटी से यह मुहावरा निकला था कि झारखंड में बोलना ही संगीत होता है और चलना ही नृत्य. लेकिन अब यहां लोग चलने और बोलने, दोनों से डरते हैं.

खूंटी में यह पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट ऑफ इंडिया यानी पीएलएफआई के खिलाफ चल रहे पुलिसिया अभियान ऑपरेशन कारो के परवान चढ़कर ढलान की ओर जाने का समय है. पुलिस कुछ दिनों से इस संगठन के खिलाफ अभियान चला रही थी. उसका दावा है कि कई उग्रवादी पकड़े गए हैं और हथियार भी जब्त हुए हैं. इनमें पीएलएफआई का जोनल कमांडर और सुप्रीमो दिनेश गोप के बाद संगठन में दूसरे नंबर का पदाधिकारी जेठा कच्छप भी है. कच्छप पर खूंटी व रांची के विभिन्न थानों में 56 से अधिक मामले दर्ज हैं जिनमें से 50 तो हत्याओं के ही हैं. चाय की दुकान पर ही हम पुरुषोत्तम से कहते हैं, ‘अब तो आपके यहां पुलिस ने पीएलएफआई के खिलाफ अभियान भी चलाया है. जेठा कच्छप पकड़ लिया गया है. अशांति के बीच शांति की कुछ उम्मीद तो जगी ही है.’ गंभीर मुसकान के साथ उनका जवाब आता है, ‘न तो एक जेठा कच्छप पीएलएफआई का वजूद था और न ही एक पीएलएफआई की वजह से खूंटी का यह हाल है. यहां हर कुछ किलोमीटर की दूरी पर किसी न किसी जेठा कच्छप का वास है और हर दूसरे इलाके में अलग-अलग पीएलएफआई टाइप संगठन हैं. हां, अपनी पीठ थपथपा लेने के वास्ते पुलिस के लिए यह बड़ी सफलता हो सकती है.’

IMG
जेठा कच्छप की रिरफ्तारी(बायें) कुछ समय पहले पुलिस से मुठभेड़ में मारा गया पीएलएफआई का एक सदस्य. फोटो:राजेश कुमार

पुरुषोत्तम की बात हंसी के साथ शुरू हुई थी जिसमें अब आक्रोश घुल गया दिखता है. लेकिन यह अटपटा नहीं लगता. खूंटी में तमाम लोग मिलते हैं जिनकी बातों में स्वाभाविक तौर पर हंसी का भाव होता है और बात निकलने पर उतने ही स्वाभाविक तौर पर गुस्सा. इसकी ठोस वजहें भी हैं. खूंटी की चर्चा भले ही मसलन पलामू, गिरिडीह, लातेहार, चतरा या सारंडा जैसे झारखंड के दूसरे नक्सल प्रभावित हिस्सों की तरह नहीं होती, भले ही देश के दूसरे खतरनाक इलाकों की सूची में इसका नाम नहीं दिखता, लेकिन सच यही है कि राजधानी रांची से सटा यह जिला अपने बनने के सात साल के भीतर ही ऐसा खतरनाक इलाका बन चुका है जहां औसतन हर रोज हत्याएं होती हैं. जहां हवाओं, रास्तों, पानी सहित हर चीज पर या तो अपराधियों का कब्जा है, या नक्सलवाद का खोल पहनकर रॉबिनहुड बनने की कोशिश करते गिरोहबाजों का या माओवादियों का या फिर जंगल माफियाओं का.

इलाके में काम करनेवाले और जनमाध्यम संस्थान से जुड़े प्रवीण कहते हैं, ‘यहां लकड़ी और लड़की माफियाओं का राज चलता है. उसी के लिए सब होता है. यहां कुछ भी हो सकता है. यहां नक्सलवादियों की खाल पहनकर माफिया गिरोहों को खड़ा करते हैं और फिर वे सबकुछ करते हैं.’ प्रवीण कहते हैं, ‘आप आंकड़ों की भाषा में खूंटी को समझने की कोशिश नहीं कीजिएगा. यहां हर वह बहू-बेटी थाने तक नहीं पहुंच पाती जिसके साथ अत्याचार होता है. हर सताया हुआ थाने तक नहीं पहुंच पाता.’ उनकी बात जारी रहती है, ‘आप इतना ही समझिए  कि इस जिले का निर्माण ही इसलिए हुआ था ताकि राजधानी रांची का चेहरा साफ-सुथरा बना रहे. पास में जो अत्याचार-अनाचार हो, खतरनाक खेल हो उसका दाग खूंटी के माथे पर लगे. ताकि देश और दुनिया में यह छवि न बन सके कि झारखंड की राजधानी रांची सबसे अशांत शहरों में एक है.’

यह जिला अपने बनने के सात साल के भीतर ही ऐसा खतरनाक इलाका बन चुका है जहां औसतन रोज ही हत्याएं होती हैं

प्रवीण की बातों में दम लगता है. वे आंकड़ों के जरिये खूंटी जिले को नहीं समझने की सलाह देते हैं. फिर भी हम एक आंकड़े के जरिये समझने की कोशिश करते हैं. 2009 से 2014 के फरवरी महीने तक का यह आंकड़ा हैरान करता है. यह बताता है कि निर्धन जिला खूंटी खतरनाक होते हुए भी लूटपाट, डकैती आदि से उतना प्रभावित नहीं है, जितना कि हत्याओं से. यह विचित्र जिला है जहां अपराध के नाम पर दूसरे किस्म की घटनाएं कम होती हैं, हत्याएं ज्यादा. पांच सालों में इस जिले में सामान्य अपराध की घटनाओं के 343 मामले सामने आते हैं जबकि इसी दौरान 498 लोगों की हत्या के मामले दर्ज होते हैं. 2014 में ही फरवरी तक यानी सिर्फ दो माह के जो आंकड़े मिलते हैं वे बताते हैं कि इस दौरान 15 हत्याएं हो चुकी हैं जबकि डकैती या लूटपाट की एक भी घटना नहीं हुई है. एक आंकड़ा और मिलता है जो बताता है कि 2012 से 2014 के बीच पूरे राज्य में हत्या की 296 घटनाएं दर्ज हुई हैं जिनमें अकेले खूंटी में 62 घटनाएं दर्ज हैं. यानी कुल घटनाओं का 21 प्रतिशत.  (बॉक्स देखें )

ये सारे आंकड़े बताते हैं कि खूंटी में स्थिति भयावह है. लेकिन जो बात ये नहीं बताते वह यह है कि स्थिति इससे कहीं ज्यादा भयानक हो सकती है. खूंटी में घूमकर, लोगों से बात करने के बाद अहसास होता है कि यहां हत्या भले ही आम बात है, लेकिन हत्या के बाद मामला दर्ज कराने की हिम्मत उतनी आम नहीं.

खूंटी में हैरान करने वाले और भी आंकड़े मिलते हैं. यहां आनेवाले अधिकारियों से जुड़ा आंकड़ा ही लीजिए जो बताता है कि यहां अधिकारियों का जी रत्ती भर भी नहीं लगता. जो आते हैं वे आने के दिन से ही जाने का जुगाड़ लगाते रहते हैं. खूंटी को जिला बने सात साल हुए हैं और अब तक यहां आठ पुलिस अधीक्षक और छह उपायुक्त आ-जा चुके हैं. पहले अधिकारी का औसतन कार्यकाल जहां 10 महीने का है वहीं दूसरे का 13 महीने का. ऐसे में जिले की कल्याणकारी योजनाएं कैसे चल रही होंगी और अपराध पर लगाम लगाने की क्या योजना बनती होगी, अंदाजा लगाया जा सकता है. खूंटी के साथ ही बने रामगढ़ जिले में इन पदों की पोस्टिंग के लिए करोड़ों की बोली लगने की बात कही जाती है जबकि खूंटी की पोस्टिंग आने पर तमाम पैरवियां पोस्टिंग टलवाने के लिए की जाती हैं.

2535 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैला खूंटी 12 सितंबर 2007 को वजूद में आया था. सात सालों का सफरनामा देखें तो यही पता चलता है कि जब देश में अशांति-उपद्रव और हिंसा की धार कम करने का दम भरा जा रहा है तो यह इकलौता जिला है जो दिन-ब-दिन अशांति और हिंसा के रास्ते पर जाने को मजबूर है. यह झारखंड का वह जिला भी है, जहां आदिवासियों की सबसे अधिक बसावट है. कुल आबादी में करीब 73 प्रतिशत आदिवासी. इसी आदिवासी आबादी के बूते यहां के इतिहास में कई क्रांतिकारी आंदोलन हुए. अंग्रेजों से लड़कर बिरसा मुंडा के नायक बन जाने की कहानी हो या कोयलकारो आंदोलन की कथा या फिर दयामनी बरला के नेतृत्व में स्टील किंग लक्ष्मी निवास मित्तल की कंपनी के खिलाफ चली लड़ाई, इस इलाके में बसे आदिवासियों ने आंदोलन, क्रांति, साहस और पराक्रम की ऐसी कई मिसालें पेश कीं. लेकिन जैसे-जैसे हम खूंटी जिला मुख्यालय से मुरहू कस्बे की ओर बढ़ते जाते हैं, यही आदिवासी राज्य के किसी दूसरे जिले से आदिवासियों से ज्यादा निरीह और सहमे हुए दिखते हैं.

पीएलएफआई के पास अचानक इतनी ताकत कैसे आ गई कि उससे टकराने के बाद माओवादी तक अपना गढ़ छोड़ने को मजबूर हुए? 

मुरहू बाजार में हमारी मुलाकात गंदरू मुंडा से होती है. वे कहते हैं, ‘हम क्या करें, हमारी मजबूरी है. पुलिसवाले समझते हैं कि हम साहेब या पाहनजी के आदमी हैं और साहेब या पाहनजी के लोग समझते हैं कि हम पुलिस के आदमी हैं. हम पर हर हाल में जुल्म होता है इसलिए अब जो लड़के हैं वे या तो इलाका छोड़ दूर-देस कमाने चले जा रहे हैं या फिर सच में किसी न किसी के आदमी हो जा रहे हैं.’ गंदरू आगे कहते हैं, ‘यहां रहते हुए जीने की जरूरी शर्त ही यह है कि किसी न किसी का आदमी होना पड़ेगा.’

WEQ
खूंटी में विरसा मुंडा (उनके गांव लिहातु में लगी उनकी मूर्ति) जन्मे थे जिन्हें आजादी की लड़ाई के महान नायकों में से एक माना जाता है.

साहेब और पाहनजी से उनका आशय दो लोगों से है. साहेब वे दिनेश गोप के लिए कहते हैं और पाहन जी कुंदन पाहन के लिए. दिनेश गोप पीएलएफआई का सुप्रीमो है. कुंदन पाहन यानी पहले भाकपा माओवादी संगठन में  प्रमुख पदों पर काम करने के बाद अब स्वतंत्र रूप से काम करनेवाला उग्रवादी है. राजनेताओं, ठेकेदारों, माफियाओं के गठजोड़ के साथ नक्सलवाद की खाल ओढ़कर तरह-तरह की घटनाओं को अंजाम देने वाले ये दोनों नाम हाल के दौरान इस इलाके को सबसे ज्यादा अशांत करते रहे हैं. दोनों ने खूंटी जिले को दो हिस्सोंे में बांटकर अपने-अपने कब्जे में कर लिया है. अब सब कुछ इनकी ही मर्जी से तय होता है. कुंदन पाहन का गुट बुंडू, तमाड़ आदि इलाके में लोगों का उठना-बैठना-बोलना-चलना तय करता है तो दिनेश गोप का गुट जिले के बाकी हिस्से में अपना सिक्का जमाए हुए है.

गंदरू से हम आग्रह करते हैं  कि वे इस इलाके के पुराने बाशिंदे हैं तो बताएं कि कैसे वीर बिरसा का यह इलाका इतना खतरनाक बन गया. गंदरू कहते हैं,  ‘हम बताएंगे आपको. विस्तार से बताएंगे. हमें किसी का डर नहीं है. अधिक से अधिक कोई क्या करेगा? मार डालेगा! यहां रहनेवाला हर कोई हमेशा ही मरने को तैयार रहता है तो हम मार ही दिए जाएंगे तो कौन सा आश्चर्य हो जाएगा.’

गंदरू जो बताते हैं उसका लब्बोलुआब यह है–पहले इस इलाके में जयनाथ साहू नाम का गिरोह चलता था. उससे साहू जाति का वर्चस्व कायम हुआ. फिर सुरेश गोप नामक एक अपराधी हुआ. वह जयनाथ साहू से भिड़ने लगा, लेकिन उससे  पार नहीं पा सका. बाद में सुरेश पुलिस द्वारा मार डाला गया. दिनेश गोप सुरेश का ही भाई है. सीमा सुरक्षा बल में काम करने वाला दिनेश ट्रेनिंग खत्म करके अपने गांव लप्पा बकसपुर में आया था. उसका भाई मारा गया तो वह फिर नौकरी करने नहीं गया. गांव में ही रहने लगा. उसने समाज बदलने का नारा लगाना शुरू किया और धीरे-धीरे झारखंड लिबरेशन टाइगर नाम का एक गिरोह बना लिया. गिरोह बनाकर उसने भी हत्याओं का खेल खेलना शुरू किया. वह रंगदारी भी वसूलने लगा. गिरोह के साथ जातीय अस्मिता जुड़ी. जो साहू जाति के वर्चस्व से परेशान थे वे दिनेश गोप के पक्ष में खड़े होने लगे.  गोप भी साहू गिरोह से लड़ता रहा. इस बीच भाकपा (माओवादी) से अलग हुआ मसीह चरण पूर्ति दिनेश के संपर्क में आया. उसके पास माओवादी दस्ते में शामिल रहने का अनुभव था. दिनेश के पास गिरोह. मसीह पूर्ति के शामिल होते ही अचानक दिनेश गोप और उसका संगठन मजबूत हो गया. उसका दायरा बढ़ता गया. लेकिन जल्द ही वह यह भी समझ गया कि मसीह पूर्ति को साथ रखने के जो फायदे हो सकते थे, हो चुके हैं. गंदरू कहते हैं, ‘दिनेश ने पुलिस से मिलीभगत कर मसीह को जेल भिजवा दिया. मसीह जेल में जाकर राजनीति में भाग्य आजमाने लगा. उसने 2009 में जेल से ही खूंटी से विधानसभा चुनाव भी लड़ा और मजबूत उम्मीदवार के तौर पर दूसरे नंबर पर आया भी.’

रामायण बांचने की तर्ज पर गंदरू लगातार किस्सा सुनाते रहते हैं. कहते हैं ‘दिनेश शातिर है, उसने मसीह का उपयोग करने के बाद माफियाओं और राजनेताओं से संपर्क साधना शुरू किया. उनसे गठजोड़ करके वह आतंक और कमाई का दायरा बढ़ाने लगा. अब तक झारखंड लिबरेशन टाइगर पीएलएफआई हो चुका था. लगातार नौजवानों को अपने गिरोह में भर्ती कर दिनेश ने लेवी वसूली के धंधे का विस्तार किया. धीरे-धीरे दिनेश के गुट में इतने नौजवान आ गए कि माओवादियों को यह इलाका छोड़ना पड़ा. फिर दिनेश गोप के इशारे पर ही सब कुछ होने लगा.’

गंदरू की कहानी चलती रहती है. हमारे मन में सवाल उठता है कि टीपीसी और भाकपा माओवादी के बीच बराबरी का टकराव तो फिर भी समझ में आता है कि दोनों एक ही जगह से निकले हैं और दोनों में ताकतवर लोग हैं. टीपीसी को पुलिस का भी संरक्षण मिलता रहता है इसलिए टीपीसीवाले माओवादियों से आसानी से हार नहीं मानते. लेकिन पीएलएफआई के पास अचानक इतनी ताकत कैसे आ गई कि उससे टकराने के बाद माओवादी तक अपना गढ़ छोड़ने तक को मजबूर हुए? सवाल यह भी उठता है कि आखिर पीएलएफआई के पास इतना पैसा कहां से आता है कि वह इतने बड़े संगठन का विस्तार करने के साथ ही दर्जन भर स्कूल भी चलाने लगा है.

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के बयान से साफ होता है कि अपराधियों को नक्सलियों की खाल ओढ़ाकर राज्य पुलिस ने ही इतने सारे संगठन खड़े किए

गंदरू से हम यह सवाल नहीं पूछते. हमें पूछने की जरूरत भी नहीं पड़ती क्योंकि इन सवालों के आधिकारिक जवाब पहले से ही मौजूद होते हैं. खूंटी में पुलिस ने जब पीएलएफआई के खिलाफ अभियान शुरू किया तो तभी झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने विधानसभा में यह बयान दिया कि टीपीसी, पीएलएफआई जैसे जो भी संगठन हैं वे सब बीडीराम ने खड़े किए थे. मुख्यमंत्री के तौर पर हेमंत द्वारा ऐसी बातें कहना कितना सही-गलत था, यह अलग बहस का विषय है. लेकिन बतौर मुख्यमंत्री जब वे यह कहते हैं तो साफ होता है कि अपराधियों को नक्सलियों की खाल ओढ़ाकर राज्य पुलिस ने ही इतने सारे संगठन खड़े किए हैं. यह भी स्पष्ट होता है कि आज अगर खूंटी खूबसूरत से खतरनाक इलाका बन गया है तो उसमें भी सरकार की भी अहम भूमिका है. दरअसल बीडीराम पहले राज्य के डीजीपी थे और अब पलामू से भाजपा सांसद हैं. मुख्यमंत्री के इस आरोप पर बीडीराम कहते हैं, ‘मुख्यमंत्री को ऐसा कुछ भी बोलने से पहले सोचना चाहिए. जब खुद स्थिति नहीं संभाल पा रहे तो ऐसे बयान दे रहे हैं.’

3
बिरसा मुंडा का जिला आज खूंखार अपराधियों का गढ़ बन गया है, पुलिस की गिरफ्त में पीएलएफआई के सदस्य

यह तो दो नेताओं की बयानबाजी की एक बात हुई. खूंटी जिले में फैली अशांति की दूसरी कहानी भी है जो बताती  है कि राजनीति और जंगल माफियाओं ने ही मिलकर इस इलाके को जानबूझकर इतना अशांत किया ताकि उनका खेल आसानी से चलता रहे. अभी हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में यहां से झारखंड पार्टी के एक उम्मीदवार एनोस एक्का भी थे. आम आदमी पार्टी से दयामनी बरला भी चुनाव मैदान में थीं. बरला समर्थकों को एनोस एक्का के लोगों द्वारा खूब परेशान करने की खबरें आईं. आप समर्थकों पर हमले भी हुए. एनोस के बारे में यह कहा जाता है कि चुनावी मैदान में उनकी ताकत की वजह सिर्फ यही थी कि उनके साथ पीएलएफआई ने समझौता किया था और इसके एवज में उनसे मोटी रकम ली थी. गिरफ्तार जेठा कच्छप भी पुलिस के सामने इकबालिया बयान में यह कह चुका है कि एनोस को समर्थन देने का फैसला दिनेश गोप ने लिया था और इसके लिए विशेष निर्देश भी जारी हुए थे. विधायक और ग्रामीण विकास मंत्री रह चुके एनोस पर अपराधियों को संरक्षण देने के िलए मुकदमा दर्ज हुआ. फिलहाल वे फरार हैं. हाल ही में आय से अधिक संपत्ति के एक मामले में 100 करोड़ रु से भी अधिक कीमत की बताई जाने वाली उनकी कई संपत्तियां कुर्क हुई हैं.

एनोस-दिनेश के गठजोड़ का खुलासा इस चुनाव के बाद हुआ. लेकिन ऐसा नहीं है कि ऐसा पहली बार हुआ है. दरअसल खूंटी में राजनीति के पहले माफियाओं ने पीएलएफआई जैसे संगठनों को आगे बढ़ाया ताकि उन्हें जंगल काटने या लड़कियों की तस्करी करने में ज्यादा परेशानी न हो. दयामनी बरला कहती हैं, ‘हमें कुछ नहीं कहना लेकिन यह सोचना होगा कि आखिर क्यों सबसे साहसी, पराक्रमी और सकारात्मक नजीर पेश करनेवाला जिला आज इस खतरनाक मुहाने पर पहुंच चुका है.’

IMG
कुंदन पाहन, खूंटी के खुंखार चेहरों में से एक हैं. इलेस्ट्रेशन: एम दिनेश

दयामनी ज्यादा नहीं बोलतीं. वे जानती हैं कि आदिवासियों की सबसे ज्यादा बसावट वाले इस इलाके में अब बोलना भी उतना ही खतरनाक है, जितना चलना. जैसा कि पहले भी जिक्र हुआ, कभी इसी खूंटी से यह मुहावरा  निकला था कि झारखंड में बोलना ही संगीत होता है और चलना ही नृत्य.

खैर! खूंटी के इलाके में हम आगे बढ़ते जाते हैं. शाम ढलते-ढलते यह साफ होता जाता है कि कैसे पीएलएफआई जैसा एक संगठन दिन-ब-दिन तेज रफ्तार से अपने दायरे का विस्तार करके खूंटी के अलावा गुमला, सिमडेगा और रांची शहर तक पहुंच जाता है और फिर अपने संगठन को फ्रेंचाइजी पर देकर झारखंड से सटे उड़ीसा के सुंदरगढ़ जिले में और छत्तीसगढ़ के जशपरु जिले तक में फैल जाता है. राजनीति की शह पर पीएलएफआई बढ़ा है, यह भी साफ हो जाता है और जंगल माफियाओं ने इसे खड़ा किया और पुलिस परोक्ष तौर पर इसका सहयोग करती रही है, यह भी. इससे जुड़े कई किस्से सुनने को मिलते हैं जो कोरे नहीं होते.

जैसे खूंटी से आगे बढ़ने पर तिलेश्वर साहू का किस्सा सुनने को मिलता है. साहू झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण परिषद के अध्यक्ष हुआ करते थे. कुछ माह पहले उनकी हत्या हो गई. बताया जाता है कि साहू ही थे जो एनोस एक्का को राजनीति में लाए थे. माओवादियों से परेशानी न हो और साहू से भी ज्यादा परेशानी न हो, इसलिए एनोस साहू जाति का विरोध करनेवाले दिनेश गोप के करीब हो गए और फिर पैसे से सहयोग करके पीएलएफआई को आगे बढ़ाने में लगे रहे.

सवाल उठता है कि आखिर कितना पैसा है पीएलएफआई के पास कि महज सात साल में यह किसी बड़ी घटना को अंजाम दिए या पुलिस से मुठभेड़ किए बगैर इतना फैल गया है और दहशत का पर्याय बनने के साथ ही इलाके के नौजवानों को अपने से जोड़ने में सफल भी रहा है. झारखंड पुलिस के पूर्व प्रवक्ता रहे एसएन प्रधान कहते हैं कि सिर्फ लेवी से ही पीएलएफआई की सालाना इनकम करीब 150 करोड़ रुपये है. प्रधान सिर्फ डेढ़ अरब रुपये सालाना की बात बताते हैं, लेकिन एक दूसरे पुलिस अधिकारी बताते हैं कि यह तो अकेले पीएलएफआई प्रमुख दिनेश गोप की कमाई है.

हम पीएलएफआई द्वारा लेवी वसूली का तरीका समझने की कोशिश करते हैं. मालूम होता है कि सरकारी कामों में लेवी लेने के साथ ही पीएलएफआई से खुद को जुड़ा बताने वाले लोग नौकरीपेशा जमात से भी हर माह लेवी वसूलते हैं. पेंशनधारियों से भी  नियमित लेवी ली जाती है. इसके अलावा जिले के जंगल को कटवाने में भूमिका निभाकर वे जंगल के ठेकेदारों से भी मोटी कमाई करते हैं.

सिर्फ लेवी से ही पीएलएफआई की सालाना इनकम करीब 150 करोड़ रुपए है. कुछ यहां तक कहते हैं कि यह तो अकेले दिनेश गोप की कमाई का आंकड़ा है

खूंटी में घूमते हुए हमें दिनेश गोप के बारे में दूसरी बातें भी सुनने को मिलती हैं. कहा जाता है कि वह भविष्य में राजनीति के अखाड़े में उतरने के लिए अभी से ही बड़े स्तर पर तैयारी भी कर रहा है. लोगों का उस पर विश्वास जमा रहे इसके लिए वह इलाके में विद्या विहार नाम से कई स्कूल भी चलाता है. कुछ लोग बताते हैं कि पीएलएफआई को लोगों से मान्यता मिले, इसके लिए भी दिखाने का यह काम होता है. हालांकि इस स्कूल में काम करनेवाले शिक्षक साफ मना करते हैं कि पीएलएफआई से उनका कोई लेना-देना है, लेकिन सब जानते हैं. पीएलएफआई का जोनल कमांडर जेठा कच्छप भी पुलिस से इकबालिया बयान में कह चुका है  कि ये स्कूल पीएलएफआई के सहयोग और संरक्षण में चलते हैं.

पीएलएफआई का स्कूल देखने हम इलाके के अंदरूनी हिस्से में जाते हैं. रनिया के कोटांगेर-गरई के पहाड़ी इलाके में बड़े परिसर में फैला स्कूल परिसर रांची के स्कूलों के कैंपस को झुठलाता है. वैसे आज स्कूल बंद है. मालूम होता है कि स्कूल में पढ़ाई के लिये नाममात्र की रकम ली जा रही है, मात्र 700 रुपये प्रति माह. इसी रकम में रहने, खाने और पढ़ने का कॉम्बो पैक ग्रामीण क्षेत्र की जनता के लिये किसी वरदान से कम नहीं. अनाथ बच्चों के लिए स्कूल में फ्री सेवा भी है. खेल का बड़ा मैदान भी दिखता है. घुड़सवारी होती है, यह भी पता चलता है. ऐसे दर्जन भर स्कूलों के बारे में जानकारी दी जाती है जिन्हें सुदूर इलाकों में चलाया जाता है. ग्रामीणों की इस स्कूल से सहानुभूति दिखती है. हम स्कूल देखने जाते हैं तो हम स्कूल के बारे में जितना पूछते हैं उससे ज्यादा कुछ नौजवान हमसे हमारे बारे में ही पूछते हैं. एक-एक सवाल कि आप कौन हैं, कहां से आए हैं, क्यों आए हैं, कहां जाएंगे, किसने बताया है स्कूल के बारे में आदि-आदि. हम उन नौजवानों से नहीं पूछते कि स्कूल का इतना बखान कर रहे हो और पीएलएफआई को महान संगठन बता रहे हो तो आखिर क्यों इसी संगठन ने इसी जुलाई में 400 सरकारी स्कूलों को बंद करवाकर 40 हजार बच्चों की पढ़ाई रुकवा दी थी. पढ़ाई तो उनके लिए भी जरूरी है, जो सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं. यह सवाल करने के अपने खतरे हैं सो हम सवाल को छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं. स्कूल से आगे बढ़ने पर ही हमें यह जानकारी भी दी जाती है कि पीएलएफआई मजदूर संगठन नाम से एक एनजीओ भी चलाता है.

DSC_1360
पीएलएफआई सुदूर इलाकों में ऐसे दर्जन भर स्कूल चला रहा है जिनमें बहुत कम फीस में बच्चों के लिए सारी सुविधाएं. दिनेश गोप इन स्कूलों के जरिये छवि सुधारना चाहता है ताकि वह राजनीति में दांव आजमा सके. फोटो: सुशील सिंह

स्कूल देख हम लौटने को होते हैं तो अड़की में राजबीर से मुलाकात होती है. अड़की की पहचान खूंटी में भी सबसे खतरनाक इलाके की है. बीती जुलाई में यहीं पुलिस ने मुठभेड़ के बाद भाकपा माओवादी के सबजोनल कमांडर तुलसी दास उर्फ विशालजी को मार गिराया था. तुलसी पर दो लाख रुपये का इनाम था. राजबीर हमारा सवाल सुनने से पहले अपना सवाल पूछते हैं. कहते हैं, ‘आपने कभी गौर किया है कि हालिया वर्षों में इसी खूंटी से होकर रांची से सारंडा जानेवाले और अपराध-माओवादी मुक्त करनेवाले नेताओं की फौज आती-जाती रही है. लेकिन इस बीच खूंटी की ओर ध्यान किसी ने नहीं दिया, ऐसा क्यों?’ जवाब भी वे खुद देते हैं, ‘इससे भी समझ सकते हैं कि सरकारों की ज्यादा रुचि इलाके को अपराध मुक्त बनाने या आमलोगों के बीच शांति बहाली की बजाय कहीं और होती है. चूंकि सारंडा में कॉरपोरेट के लिए रास्ता खोलना था इसलिए वहां ऑपरेशन सारंडा बचाओ चला, लेकिन खूंटी निर्धनतम जिला है और यहां सबसे ज्यादा गरीब आदिवासी रहते हैं इसलिए यहां अभियान नहीं चलता. यहां जंगल एक संपत्ति थी जिसका नाश कर दिया गया है तो भला इस जिले के नागरिकों को बचाने के लिए विशेष अभियान क्यों कर चलता. दिल्ली तक से लोग क्यों बड़ी-बड़ी बातें इस जिले के लिए करते.’ राजबीर आगे बताते हैं, ‘खूंटी को सिर्फ खूंटी के हिसाब से नहीं देखिए. अब यह ऐसा जिला बन गया है, जो आसपास के कई जिलों में माओवादी और आपराधिक घटनाओं की नब्ज तय करता है. खूंटी में माओवादियों का प्रभाव कम हुआ है तो वे पास के जिलों में आतंक मचा रहे हैं. माओवादी जानते हैं  कि वे चतरा और पलामू में टीपीसी से घिर चुके हैं और खूंटी-रांची सिमडेगा-गुमला आदि में पीएलएफआई का वर्चस्व बढ़ गया है, इसलिए वे बीच में पड़नेवाले लोहरदगा आदि जिले में अपने को मजबूत करने में लगे हुए हैं.’ उनकी बात जारी रहती है, ‘आपने सुना होगा कि अभी हाल में नवसशस्त्र पीपुल्स मोर्चा नाम से एक नए संगठन का जन्म हुआ है जो ग्रामीणों से जबरिया बच्चे मांग रहा था और नहीं देने पर ग्रामीणों की पिटाई भी कर रहा था. 40 बच्चों को गांव से उठा ले जाने की सूचना भी आई थी.’

‘अपने-अपने इलाके में एक संगठन बनाओ. जाति, अपराध, राजनीति का थोड़ा घालमेल करो. फिर क्रांति की बयार बहाने के बहाने तमाम कुकृत्य करते रहो’

राजबीर की बात हम ध्यान से सुनते हैं. वे गंभीर विश्लेषक की तरह आगे कहते हैं, ‘रांची शहर में अब पीएलएफआई मुठभेड़ करता है, पुलिस कुछ नहीं करती. पुलिस कुछ करेगी भी नहीं इनका. जो हो रहा है या अभी अभियान के नाम पर हुआ, वह दिखावे के लिए हुआ.’ वे आगे बताते हैं, ‘पीएलएफआई से सिर्फ एक पीएलएफआई के होने का खतरा नहीं है, नवसशस्त्र पीपुल्स मोर्चा जैसे कई पीएलएफआई खड़े होंगे, क्योंकि यह आसानी से नाम, दाम और काम, तीनों बनाने का जरिया बन गया है. खूंटी जिला बेरोजगारों का ध्यान एक नये धंधे की ओर खींच रहा है. अपने-अपने इलाके में एक संगठन बनाओ. जाति, अपराध, राजनीति का थोड़ा घालमेल कर. फिर उसमें लिबरेशन जैसा शब्द जोड़ो और नक्सलवाद के नाम पर क्रांति और बदलाव की बयार बहाने के बहाने हर तरह के कुकृत्य करते रहो.’ राजबीर चलते-चलते कहते हैं, ‘हम अपना नाम गलत बताए हैं आपको. असली नाम कैसे बताएंगे, रहना तो इसी इलाके में है.’

राजबीर से बात खत्म होती है. हम वापस खूंटी जिला मुख्यालय होते हुए रांची आते हैं. यहां मुख्य सचिव सजल चक्रवर्ती ऐसे संगठनों और माओवादियों को रोकने के लिए उत्साहित बयान देते हैं. कहते हैं कि आरपार की लड़ाई होगी. डीजीपी राजीव कुमार के मुताबिक माओवादी घटनाओं का असर कम हो गया है. 35 प्रतिशत कम हो गया है.

DSC_1371
पीएलएफआई सुदूर इलाकों में ऐसे दर्जन भर स्कूल चला रहा है जिनमें बहुत कम फीस में बच्चों के लिए सारी सुविधाएं.

उनकी बात सही है लेकिन बात का दूसरा पक्ष वे नहीं बताते. माओवादी असर कम हुआ है, लेकिन पीएलएफआई का असर बढ़ा है. 2011 में कुल घटनाओं में माओवादियों की सहभागिता 59 प्रतिशत थी. 2013 में यह घटकर 35 प्रतिशत हो गई. यह राहत की बात लग सकती है. लेकिन यह राहत तब काफूर हो जाती है जब पता चलता है कि 2011 में पीएलएफआई की सहभागिता 15 प्रतिशत थी जो 2013 में बढ़कर 37 प्रतिशत हो गई. इसका जवाब किसी के पास नहीं होता कि क्या पीएलएफआई जैसे संगठनों का अपराध अपराध नहीं होता. क्या सिर्फ माओवादियों से ही राज्य अशांत होता है? अगर हां तो क्या इसलिए कि माओवादी पुलिस से भी भिड़ते हैं और पीएलएफआई जैसे संगठन पुलिस से कभी नहीं भिड़ते बल्कि आमलोगों की रोजमर्रा की जिंदगी मुश्किल करते हैं.

इन सवालों का जवाब झारखंड में आधिकारिक तौर पर कोई दे भी नहीं सकता, क्योंकि यहां के मुख्यमंत्री ही पीएलएफआई से मुक्ति की बजाय पीएलएफआई के निर्माण और गठन की प्रक्रिया का इतिहास बताते हुए एक पूर्व डीजीपी को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करके अपने दायित्वों का निर्वहन करते हैं.

आखिर में हमारी बात फिर दयामनी बरला से होती है. वे कहती हैं, ‘इस इलाके में भाजपा के नेताजी ही सांसद हैं पिछले कई टर्म से. उन्हें भी कुछ बोलना चाहिए, एक शांत इलाके के अशांत इलाके में बदलने पर भी उनका हमेशा खामोशी साधे रहना इलाके के लिए ठीक नहीं.’ दयामनी का इशारा कड़िया मुंडा की तरफ है. वही कडि़या मुंडा जो भाजपा के दिग्गज नेता हैं और पिछली लोकसभा के उपाध्यक्ष थे. लेकिन खूंटी की दुर्गति से उठे सवालों का जवाब कोई नहीं देना चाहता.

खूंटी और आसपास के इलाकों में ऑपरेशन कारो चलाने में अहम भूमिका निभाने वाले झारखंड के मुख्य सचिव सजल चक्रवर्ती को अब इस पद से हटा दिया गया है. सियासी गलियारों में चर्चा है कि यह फैसला कुंदन पाहन और पीएलएफआई, दोनों के दवाब में लिया गया. कहा जा रहा है कि ये दोनों ही संगठन खूंटी में पुलिस से आक्रामक अभियान के चलतेे उन्हें हो रहे नुकसान से चिंतित थे.

लेकिन खूंटी को हो रहा असल नुकसान यहां के आम बाशिंदों के सिवा किसी के लिए चिंता का सबब नहीं है.

niralabidesia@gmail.com

न्यायिक नियुक्ति आयोग पर सु्प्रीम कोर्ट में याचिका

supreme-court-300x199केंद्र की एनडीए सरकार ने काफी समय से चर्चा में रहे न्यायिक नियुक्ति विधेयक को भले ही संसद में आसानी पारित करवा लिया हो लेकिन इसकी राह अभी-भी पूरी तरह से आसान नहीं हुई है.

जजों की नियुक्ति करने वाली कॉलेजियम व्यवस्‍था को हटाने से जुड़े 121 वें संविधान संशोधन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में चार जनहित याचिकाएं दायर की गई हैं. इनपर अगले सोमवार को सुनवाई होनी है. सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं में कॉलेजियम व्यवस्‍था के स्‍थान पर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) की स्‍थापना को असंवैधानिक बताया गया है.

ये याचिकाएं पूर्व अतिरिक्त महा न्यायाधिवक्ता बिश्वजीत भट्टाचार्य, एडवोकेट आरके कपूर व मनोहर शर्मा और सुप्रीम कोर्ट की एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड असोसिएशन की ओर से दायर की गई हैं.

याचिकाकर्ताओं का कहना है कि संविधान में 121 वां संशोधन विधेयक और एनजेएसी विधेयक 2014, असंवैधानिक हैं क्योंकि ये संविधान के बुनियादी ढांचे में बदलाव करते हैं.

उनका यह भी तर्क है कि न्यायपालिका और कार्यपालिका को संविधान की धारा 50 के मुताबिक स्पष्ट रूप से अलग-अलग किया गया है और इससे न्यायप्रणाली को स्वतंत्र होकर कार्य करने की ताकत मिलती है. याचिकाओं के मुताबिक संविधान में राज्य के नीति निर्देशक प्रावधानों के तहत यह अनुच्छेद निचली अदालतों के साथ-साथ ऊपरी अदालतों तक बराबरी से लागू होता है.

याचिकाकर्ताओं में से एक भट्टचार्य का कहना है कि संविधान भारत के मुख्य न्यायाधीश को सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति का अधिकार देता है. वे तर्क देते हैं, ‘ अब यह अधिकार एनजेएसी को दिया जा रहा है. आयोग में शामिल चीफ जस्टिस और उनके साथ दो और जस्टिसों की राय को कानून मंत्री वीटो पावर के इस्तेमाल से कभी-भी नकार सकते हैं. इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता बाधित होती है और यह संविधान की उस मूल भावना, जिसके तहत न्यायपालिका को अलग से अधिकार दिए गए हैं, के खिलाफ है.’

राज्य सभा में बीते 14 अगस्त को ही 121वें संविधान संशोधन और एनजेएसी विधेयक को पारित किया है और इससे एक दिन पहले यह लोकसभा में पारित हुआ था.

बिहार उपचुनाव: कौन मारेगा बाजी?

lalu-nitish

बिहार में आज 10 विधानसीटों के उपचुनाव के लिए मतदान हो रहा है. इन चुनावों को बेहद अहम माना जा रहा है क्योंकि इन चुनावों के नतीजे यह तय करेंगे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जादू राज्य में अब भी चल रहा है या लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के गठबंधन के हाथ जीत का फार्मूला लग चुका है. निर्वाचन आयोग के मुताबिक दोपहर एक बजे तक सभी सीटों पर मिलाकर 27.89 फीसदी मतदान हुआ था.

मई में हुए आम चुनाव के बाद यह सबसे बड़े उपचुनाव हैं और इनसे यह अंदाजा लगेगा कि अगले साल होने विधानसभा चुनाव से पहले राज्य में हवा का रुख किस ओर है. चुनावी नतीजे यह भी बताएंगे कि क्या लालू प्रसाद यादव (राजद), नीतीश कुमार (जदयू) और कांग्रेस के रूप में ‘मंडल ताकतों’ के दोबारा एकजुट होने का प्रयोग भाजपा की आंधी को सफलतापूर्वक रोक सकेगा?

लालू प्रसाद और नीतीश कुमार को अच्छी तरह अंदाजा है कि ये उपचुनाव उनके राजनीतिक अस्तित्व के लिए कितने आवश्यक हैं. यही वजह है कि दोनों नेता सभी 10 विधानसभा क्षेत्रों में कई फेरे लगा चुके हैं.

राजग उम्मीदवारों के प्रचार के लिए राज्य के बाहर से कोई बड़ा नेता नहीं आया लेकिन राज्य भाजपा नेताओं, लोकजनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष रामविलास पासवान और उनकी सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समता पार्टी ने समर्थन जुटाने के लिए पूरे राज्य का सघन दौरा किया.

ये उपचुनाव हाजीपुर, छपरा, मोहिउद्दीनगर, परबत्ता, भागलपुर, राजनगर (अनुसूचित जाति), जाले, मोहनिया (अनुसूचित जाति), नरकटियागंज और बांका में हो रहे हैं.

निर्वाचन आयोग के वक्तव्य के मुताबिक सभी सीटों पर 5 महिलाओं समेत कुल 94 उम्मीदवार हैं. हाजीपुर में अधिकतम 15 उम्मीदवार हैं जबकि बांका और राजनगर में सबसे कम 6-6 उम्मीदवार हैं. इन सीटों पर कुल 2422 बूथों पर 26,42,407 मतदाता अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर रहे हैं.

माओवाद प्रभावित हाजीपुर परबत्ता और बांका में मतदान सुबह सात बजे से शाम चार बजे तक जबकि शेष स्थानों पर सुबह सात से शाम छह बजे तक होगा.

अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (मुख्यालय) गुप्तेश्वर पांडेय ने कहा कि सीआरपीएफ, बिहार मिलिट्री पुलिस और राज्य पुलिस बल के 1962 अधिकारी और करीब 6,000 जवान सुरक्षित चुनाव कराने के लिए मुस्तैद हैं. उन्होंने कहा कि राज्य के कुल पुलिस बल का 40 फीसदी चुनावों में सुरक्षा प्रदान करने के काम पर लगाया गया है.

चुनाव के लिए प्रचार अभियान कल समाप्त हो गया था. प्रचार अभियान के दौरान राजद, जदयू और कांग्रेस के गठजोड़ तथा राजग के बीच कटुता चरम पर रही.

लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला करने का कोई मौका नहीं गंवाया. प्रसाद ने खासतौर पर दोस्त से दुश्मन बने राम विलास पासवान पर निशाना साधा.

उन्होंने पासवान को ‘मौसम विज्ञानी’ और माहौल को भांपने वाला भी कहा. वहीं लोजपा प्रमुख ने प्रसाद को ‘जेल में विशेषज्ञ’ करार दिया.

हार से निकली जीत

जापानी फौज आईएनए की मदद से इंफाल और उसके आसपास  के क्षेत्रों पर नियंत्रण करना चाहती थी ताकि अंग्रेजों को बर्मा की तरफ बढ़ने से रोका जा सके.
जापानी फौज आईएनए की मदद से इंफाल और उसके आसपास के क्षेत्रों पर नियंत्रण करना चाहती थी ताकि अंग्रेजों को बर्मा की तरफ बढ़ने से रोका जा सके.

15 नवंबर, 1941. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पर्ल हार्बर पर जापानी हमला होने के लगभग एक महीने पहले की तारीख. इसी दिन जापानी नेतृत्व ने एक योजना को मंजूरी दी थी. इसका मकसद था अमेरिका और ब्रिटेन के साथ चल रही लड़ाई को तेजी से अपने पक्ष में एक नतीजे तक पहुंचा देना. भारत और ऑस्ट्रेलिया को अंग्रेजी राज से मुक्त करवाना और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में मदद करना भी इस रणनीति का एक अहम हिस्सा था. उस समय जापान के प्रधानमंत्री हिदेकी तोजो ने डाइट (जापान की संसद) में भाषण देते हुए कई बार भारत का जिक्र किया था. भारतीयों से उनका कहना था कि वे विश्वयुद्ध का फायदा उठाएं, ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ खड़े हो जाएं और भारतीयों के लिए एक भारत की स्थापना करें.

फरवरी, 1942 के दौरान ब्रिटेन की फौज कई मोर्चों पर जापान के सामने पस्त हो चुकी थी. इसके बाद तोजो का कहना था, ‘भारत की स्वतंत्रता के बिना वृहत्तर पूर्वी एशिया में वास्तविक पारस्परिक समृद्धि नहीं आ सकती.’ फिर चार अप्रैल को उन्होंने कहा, ‘ब्रितानी हुकूमत और भारत में सैन्य प्रतिष्ठान पर निर्णायक वार करने का फैसला हो चुका है.’

लेकिन जापान के सामने एक समस्या थी. कांग्रेस और मोहनदास गांधी इसके समर्थन में नहीं थे. उन्हें आशंका थी कि इसके बाद टोक्यो भारत को अपना अधीनस्थ देश बनाने की कोशिश करेगा. हालांकि यह निराधार थी. भारत और जापान पर लिखने वालीं अमेरिकी इतिहास लेखक जॉयसी सी लेब्रा अपनी किताब द इंडियन नेशनल आर्मी एंड जापान में लिखती हैं, ‘ भारत में घुसपैठ और उसे वृहत्तर पूर्वी एशियाई देशों के किसी संगठन में लाने की जापान की कोई योजना नहीं थी जैसा कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वाले ज्यादातर नेता सोच रहे थे.’ कांग्रेस के नेता इस बारे में अपनी राय बना चुके थे. इसलिए तोजो की घोषणा के बाद भी टोक्यो ने भारत में घुसने की अपनी योजना टाल दी. यदि 30 करोड़ से ज्यादा भारतीय कांग्रेस के अनुगामी हों ऐसे में जापान का जबर्दस्ती भारत में प्रवेश अपने लिए एक और मुसीबत खड़ी करने जैसा था.

नेताजी का जादू कुछ ऐसा था कि जापानी भी उनके मुरीद बन गए. जापानी फौज के प्रमुख सुगीयामा की सहानुभूति उनके साथ हो गई

अब जापानियों ने एक अलग युक्ति सोची. उन्होंने उपमहाद्वीप में प्रवेश के लिए इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) या आजाद हिंद फौज को अपनी रणनीति में अहम भूमिका दे दी. जापान ने फरवरी, 1942 में सिंगापुर में ब्रिटेन की फौज को हराया था और आईएनए में ब्रिटेन की तरफ से लड़ने वाले तकरीबन 50 हजार युद्धबंदी शामिल थे. जापान शुरुआत में चाहता था कि आईएनए को वह ब्रिटेन के खिलाफ दुष्प्रचार के लिए इस्तेमाल करे. जापानी सेना के टोक्यो स्थित मुख्यालय में इस बात को लेकर काफी चर्चा हुई थी कि उसे भारत की स्वतंत्रता को समर्थन देने के लिए किस हद तक जाना चाहिए. आखिरकार जापानी सेना के अधिकारियों को आईएनए के प्रशिक्षण और उसे हथियारों से लैस करने की जिम्मेदारी दे दी गई. इनमें मेजर इवाइची फुजीवारा जैसे सैन्य अधिकारी भी थे. इनका मानना था कि ब्रितानी भारत पर हमले के लिए जापान आईएनए को पूरी मदद दे. हालांकि इसपर टोक्यो की अपनी कुछ चिंताएं थीं. जापानियों के लिए भारत पहली प्राथमिकता नहीं था क्योंकि रूस और अमेरिका उसके लिए बड़ा सिरदर्द थे. जापान के लिए ब्रितानी राज के अधीन भारत पर हमले का सर्वश्रेष्ठ समय वह था जब वह एशिया में कुछ जगह शुरुआती जीत हासिल कर ले. ‘ऐसे कई मौके आए जब यदि जापान ने योजना बनाई होती तो वह भारत में प्रवेश कर सकता था ‘ लेब्रा लिखती हैं, ‘ जैसे इसका सबसे अच्छा समय 1942 का वसंत और उसके बाद गर्मी का मौसम था क्योंकि इसके पहले जापानी फौजें मलाया (मलेशिया का एक हिस्सा) और बर्मा के संघर्ष में अपनी क्षमता साबित कर चुकी थीं. हवाई, समुद्री और जमीनी ताकत में ब्रिटेन जापान के आगे कहीं ठहर नहीं पाया था, लेकिन उसने भारत में घुसने के मौके छोड़ दिए.’

नेताजी सुभाषचंद्र बोस का पदार्पण
जापान की फौज जब यूरोपीय ताकतों को एशिया में नेस्तोनाबूत करने में लगी थीं तब तक सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस छोड़ चुके थे और बर्लिन में रह रहे थे. उन्होंने जर्मनी में रह रहे भारतीय युद्धबंदियों को साथ लेकर एक सैन्य टुकड़ी बनाई थी. वे कोशिश कर रहे थे कि जर्मन फौज उन्हें एरविन रोमेल (हिटलर के सबसे काबिल सैन्य अधिकारियों में शुमार) के साथ अंग्रेजों का मुकाबला करने की अनुमति दे. नेताजी की योजना बेहतरीन थी : जब ब्रिटिश-भारतीय सेना के जवान अपने सामने जर्मनी की फौज के साथ अपने ही भाई बंधुओं को देखते तो उनके लिए लड़ाई आसान नहीं रहती. हो सकता है वे बड़े पैमाने पर व्रिदोह कर देते. ‘दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त’ वाली जिस नीति पर नेताजी आगे बढ़ना चाहते थे उसे रोमेल और हिटलर नहीं मानते थे. भारतीय टुकड़ी को नाजियों से वैसा समर्थन नहीं मिला जैसी उसे जरूरत थी. ‘सार्वजनिक रूप से नस्लवाद का समर्थन और यूरोप केंद्रित नीतियां हिटलर की सोच का हिस्सा थीं. इसके अलावा धुरी शक्तियों का भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के पक्ष में न होना भी इसकी बड़ी वजह थी’ राजनीति शास्त्री और लेखक एंटन पेलिंका ने अपनी किताब डेमोक्रेसी इंडियन स्टाइल : सुभाष चंद्र बोस एंड द क्रिएशन ऑफ इंडियाज पॉलिटिकल कल्चर (2003) में लिखा है, ‘हिटलर श्वेत नस्ल की श्रेष्ठता की धारणा का प्रबल पक्षधर था और वह अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में खुद को अश्वेत लोगों के साथ खड़ा नहीं देखना चाहता था.’ वहीं जर्मनी का विदेश मंत्रालय भारतीय मूल के युद्धबंदियों को छोड़ना नहीं चाहता था क्योंकि वे ब्रिटेन के साथ युद्ध के दौरान मोलभाव का सबसे बड़ा जरिया थे.

नेताजी मई,1943 में टोक्यो पहुंचे. इस एशियाई देश में उनकी उपस्थिति ने चमत्कारिक असर पैदा किया. वहां भारतीय मूल के तकरीबन 50 हजार युद्ध बंदी थे. शुरुआत में इनमें से लगभग आधे ही आईएनए में शामिल होने के लिए तैयार हुए, लेकिन नेताजी के समर्पण को देखकर जल्दी ही तकरीबन सभी आईएनए में शामिल हो गए. नेताजी का जादू कुछ ऐसा था कि जापानी भी उनके प्रभाव से अछूते नहीं रह सके. जापानी फौज के प्रमुख सुगीयामा और तोजो की सहानुभूति उनके साथ हो गई.

लड़ाई के बदलते लक्ष्य
जापानी आईएनए के समर्थक थे, लेकिन उनका पारस्परिक संबंध सहज नहीं रहा. टोक्यो का साफतौर पर मानना था कि आईएनए एक छद्म हथियार है- एक गुप्त युद्ध जो भेदियों, घुसपैठ और मनोवैज्ञानिक हमले और गोरिल्ला तकनीक के हथियार से लड़ा जाना था. जबकि नेताजी की मंशा थी कि भारत पर घुसने की कार्रवाई हो तो उसका नेतृत्व आईएनए करे. लेब्रा लिखती हैं, ‘ बोस चाहते थे कि लड़ाई में भारत भूमि पर गिरने वाली लहू की पहली बूंद किसी भारतीय की होनी चाहिए. ‘ इस स्थिति में दोनों पक्ष एक समझौते वाले बिंदु पर पहुंचे. समझौता यह था कि आईएनए जापानी कमान में आगे बढ़े, लेकिन उसकी टुकड़ियों का नेतृत्व भारतीयों के हाथ में हो. हालांकि यह समझौता कारगर साबित नहीं हुआ. ‘ आईएनए-जापानी फौज ने जब ब्रिटिश भारत पर आक्रमण किया तो इस दौरान बोस का एकमात्र लक्ष्य था भारत की पूर्ण आजादी. जबकि जापान के लिए प्रशांत महासागर क्षेत्र के अन्य अभियान ज्यादा महत्वपूर्ण थे और इंफाल पर कब्जा करना इन अभियानों का एक हिस्सा था.’ लेब्रा लिखती हैं, ‘बोस जापान से सैन्य सहायता बढ़ाने की मांग कर रहे थे, लेकिन जापान इस मामले में धीरे-धीरे कमजोर हो रहा था. ये मुद्दे कभी सुलझे नहीं. इस वजह से दोनों पक्षों के बीच दरार आने लगी.’

bossभारत में युद्ध
अभी तक सैन्य अभियानों में जापान को बढ़त मिली हुई थी लेकिन जनवरी, 1944 तक वह पस्त पड़ने लगा. इसी समय उसने ब्रितानी-भारत में लड़ाई तेज कर दी. अभी भी टोक्यो के सैन्य मुख्यालय से अपनी फौज को यही निर्देश था वे इंफाल के आसपास और उत्तर-पूर्वी भारत में रणनीतिक महत्व के क्षेत्रों पर कब्जा करे ताकि बर्मा (उस समय बर्मा पर जापान ने कब्जा कर लिया था) की रक्षा की जा सके. इंफाल और कोहिमा में जब ब्रितानी-भारतीय फौज के सामने जापानियों ने घुटने टेके उस समय आईएनए के केवल 15 हजार जवानों ने सीधी लड़ाई में हिस्सा लिया था. बाकी जवान  खुफिया सूचनाएं जुटाने और छापामार युद्ध में लगे थे. आईएनए की इंजीनियरिंग शाखा के साथ हवलदार रहे वी वैद्यलिंगम ने युद्ध के मोर्चे पर अपने अनुभव साझा करते हुए 2004 में द हिंदू अखबार को बताया था, ‘इंफाल की लड़ाई सबसे लंबे समय तक चली. लेकिन आईएनए के लिए इस लड़ाई की शुरुआत काफी देर से हुई. गर्मी के आखिरी दिनों से. जल्दी ही उसके लिए मानसून ब्रितानी फौज से बड़ा दुश्मन बन गया.’ यदि नेताजी को दो साल पहले पूरी क्षमता के साथ ब्रितानी भारत पर हमला करने का मौका मिलता तो इस लड़ाई का नतीजा और इतिहास काफी अलग होता.

मौसम और युद्ध की रणनीतियां आईएनए के खिलाफ जा रही थी. ऊपर से अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिरा दिए और अभी तक सिर्फ पिछड़ रहे जापान की एक झटके में हार हो गई. उधर रूस ने भी उसके कुछ उत्तरी इलाकों पर कब्जा कर लिया. इसके साथ आईएनए अपने आप निरस्त्र हो गई.

हालांिक युद्ध में हारने के बाद भी जापान ने अपने इस छद्म हथियार से वह लक्ष्य हासिल कर लिया जो वह चाहता था. भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों को इससे नवजीवन मिल गया. क्रांति की आग और भड़कने लगी. इन घटनाओं ने ब्रितानी सरकार के भीतर एक भय पैदा कर दिया. दो शताब्दियों से भारतीय सैनिक ही उपमहाद्वीप में अंग्रजों की सुरक्षा सुनिश्चित कर रहे थे. यह वफादारी अंग्रेजी सरकार की बुनियाद थी और अब उनको समझ आ रहा था कि वफादारी कम होने का मतलब है कि अब उनके भारत से विदा होने का वक्त नजदीक आ चुका है.

जापान के लिए प्रशांत महासागर क्षेत्र के अन्य अभियान ज्यादा महत्वपूर्ण थे और इंफाल पर कब्जा करना इन अभियानों का एक हिस्सा था

विश्व प्रसिद्ध रूसी लेखक लियो टॉल्स्टॉय ने भारत में एक क्रांतिकारी तारक नाथ दास को दिसंबर,1908 में भेजे एक पत्र में लिखा था, ‘ भारत के लोग जब यह शिकायत करते हैं कि अंग्रेजों ने उन्हें गुलाम बना लिया तो यह कुछ ऐसा है कि कोई शराबी कहे कि शराब के ठेकेदार ने उसे गुलाम बना लिया है… महज 30 हजार सामान्य लोग, जो शारीरिक रूप से भी ताकतवर नहीं कहे जा सकते यदि एक देश के जोशीले, बुद्धिमान और स्वतंत्रता की चाह में मतवाले 20 करोड़ लोगों को गुलाम बना लें तो इस बात का क्या मतलब है? क्या यह संख्या नहीं बताती कि अंग्रेजों ने नहीं बल्कि भारतीयों ने खुद अपने को गुलाम बनाया है?’ टॉल्सटॉय के शराबी की तरह ही जब आईएनए के सैनिकों को पहली बार समझ में आया कि उन्हें जापानियों के साथ मिलकर देश की आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ लड़ना है तो पहले उनके भीतर एक हिचक थी. यह सेना ब्रितानी-भारत की फौज में काम कर चुके सैनिकों और उन लोगों से मिलकर बनी थी जिनके परिवार के सदस्य कई सालों तक ब्रिटेन की खिदमत करते आ रहे थे. उनकी वफादारी इस तथ्य के बाद भी पक्की थी कि उनके साथ भेदभाव किया जाता है.

अतीत के उदाहरण को देखें तो आईएनए की हार के बाद उन हजारों सैनिकों को औपनिवेशिक सरकार द्वारा फांसी पर लटका दिया जाना चाहिए था. 1857 की क्रांति के बाद ऐसा हो चुका था. इतिहासकार और लेखक अमरेश मिश्रा ने अपनी किताब वॉर ऑफ सिविलाइजेशन : इंडिया एडी 1857 में बताया है कि भारत की आजादी की पहली लड़ाई में अंग्रेजों ने एक लाख भारतीय सैनिकों को सजा देते हुए मरवा दिया था. इसके बाद एक अनकहा ‘होलोकॉस्ट’ का दौर शुरू हुआ जिसमें दस साल के भीतर एक करोड़ से ज्यादा भारतीय मारे गए.

लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की परिस्थितियां बिल्कुल अलग थीं. भारत क्रांति के मुहाने पर खड़ा था. ब्रितानी-भारतीय सेना के जवान आईएनए के जवानों पर मुकदमे की कार्रवाई पर नजर रख रहे थे. तकरीबन 20 लाख भारतीय सैनिक यूरोप से वापस आ चुके थे और उन्हें अंग्रेजों की सैन्य कमजोरियों का भी अनुभव हो चुका था. एक लंबा युद्ध लड़ चुके इन सैनिकों में से ज्यादातर क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने के लिए बिल्कुल तैयार थे. इन सभी कारकों का नतीजा यह हुआ कि आखिरकार अंग्रेजों ने लगभग सभी आईएनए सैनिकों को रिहा कर दिया. कल्याण कुमार घोष अपनी किताब हिस्टरी ऑफ द इंडियन नेशनल आर्मी (1966) में लिखते हैं, ‘जापान की हार के बावजूद भारत में आईएनए की लोकप्रियता ने यह तय कर दिया कि अंग्रेज भारत से चले जाएं. ‘ भारत की आजादी में जापान की भूमिका आंदोलनकारी गतिविधियों को और तेज करने की रही. हिलेरी कॉनरॉय अपनी किताब जापान एक्जामिन्ड (1983) में लिखती हैं, ‘ जापान ने दक्षिणपूर्व एशिया में लगभग 3,53,000 सैनिकों को प्रशिक्षण दिया था.’ यही वे सैनिक थे जिन्होंने आगे चलकर इन क्षेत्रों को दोबारा यूरोप का उपनिवेश बनने से रोका.

क्षतिपूर्ति से हितपूर्ति

offबीती 10 जून को छत्तीसगढ़़ के मुख्यमंत्री डॉ रमनसिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद दोनों नेताओं की यह पहली मुलाकात थी. इस मुलाकात के दौरान रमन सिंह ने प्रधानमंत्री से राज्य के पिछड़े इलाकों के विकास के लिए केंद्र से ‘विशेष आर्थिक पैकेज’ तो मांगा ही, राज्य में चल रही केंद्रीय योजनाओं पर भी चर्चा की. बताया जाता है कि इसी क्रम में उन्होंने प्रधानमंत्री से मांग की कि ‘कैंपा फंड’ के तहत छत्तीसगढ़़ को मिलने वाली बकाया राशि उन्हें एकमुश्त दे दी जाए.

‘कैंपा फंड’ वह कोष है जिसे साल 2009 में वनीकरण एवं पर्यावरण संरक्षण के लिए केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा गठित किया गया था. रमन सिंह का तर्क था कि यह पूरी राशि एक साथ मिल जाने से उनकी सरकार इसके तहत होने वाले कामों को तेजी से अंजाम दे सकेगी. खबरों के मुताबिक उन्होंने प्रधानमंत्री के सामने कैंपा के तहत राज्य सरकार द्वारा अब तक किए गए कामों का खूब बखान किया जिसके बाद प्रधानमंत्री ने उनकी इस मांग पर विचार करने की बात कही.

लेकिन इस मुलाकात के अगले ही दिन उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर हो गई. रमन सिंह के दावों के उलट याचिका में राज्य सरकार पर ‘कैंपा फंड’ के दुरुपयोग के गंभीर आरोप लगाये गए थे. इस याचिका के मुताबिक छत्तीसगढ़ में पिछले पांच सालों के दौरान कैंपा की राशि से बहुत सारे ऐसे काम किए गए जो नहीं किए जाने चाहिए थे. कैंपा के उद्देश्यों से इन कामों का न तो दूर-दूर तक कोई वास्ता था और न ही ये ऐसे थे कि आम लोगों को ही इनसे किसी तरह का लाभ पहुंच पाया. इस याचिका में आरोप लगाया गया कि राज्य के आला अधिकारियों तथा सरकार के नुमाइंदों ने मिलाभगत करके इस राशि का उपयोग अपने हित किया और खूब चांदी काटी. कैंपा कोष की निगरानी के लिए केंद्रीय स्तर पर गठित की गई सेंट्रल एंपावर्मेंट कमेटी को भी इसके दुरुपयोग की पूरी जानकारी थी, इसके बावजूद राज्य में कैंपा का पैसा गलत तरीके से खर्च किया जाता रहा. इस याचिका के जरिए यह भी अंदेशा जताया गया कि राज्य सरकार, केंद्र से ‘कैंपा कोष’ की राशि का एकमुश्त भुगतान इसलिए चाहती है ताकि वह इसका और भी दुरुपयोग करके लाभ कमा सके. बताया जा रहा है कि कैंपा फंड के तहत अगले पांच सालों में छत्तीसगढ़ को करीब 3000 करोड़ रु की धनराशि मिलनी है. याचिका के जरिए उच्चतम न्यायालय से मांग की गई है कि किसी स्वतंत्र एजेंसी से इस पूरे मामले की जांच की जाए और दोषी अधिकारियों से सारे धन की वसूली की जाए. मामले की गंभीरता को देखते हुए उच्चतम न्यायालयने इस याचिका को स्वीकार कर लिया है. इसके बाद से कैंपा फंड की राशि एक साथ दिए जाने की मुख्यमंत्री रमन सिंह की मांग सवालों के घेरे में आ गई है.

उच्चतम न्यायालय में यह याचिका छत्तीसगढ़ के एक स्वतंत्र पत्रकार तथा सामाजिक कार्यकर्ता नारायण सिंह चौहान ने दायर की है. चौहान ने इस याचिका मे  कैंपा के कोष का गलत उपयोग करने वाली छत्तीसगढ़ सरकार की सभी करतूतों का सिलसिलेवार तरीके से जिक्र किया है. कैंपा कोष के दुरुपयोग की यह कहानी नियम विरुद्ध निर्माण कार्यों से लेकर आलीशान वाहनों की खरीद, इको टूरिज्म एक्टिविटी, संरक्षित वनों को काटने और आला अधिकारियों के सैर सपाटे तक फैली हुई है. याचिका के मुताबिक सरकार ने इन सभी कामों पर ‘कैंपा कोष’ से तकरीबन 100 करोड़ रुपये खर्च किए. चौहान का कहना है कि इस पूरे खेल में राज्य के आधा दर्जन से अधिक बड़े अधिकारी सीधे तौर पर शामिल हैं.

छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा ‘कैंपा कोष’ के गलत उपयोग की इस कथा का वर्णन करने से पहले एक नजर कैंपा के गठन के पीछे की वजहों और उसके उद्देश्यों पर डालते हैं.

दिशा-निर्देशों को ताक पर रखते हुए कैंपा की राशि का भयानक दुरुपयोग हुआ. बुनियादी सुविधाओं के नाम पर नौकरशाहों के लिए शानदार बंगले बनाए गए

कैंपा यानी कंपंसेटरी एफारेस्टेशन फंड मैनेजमेंट एंड प्लानिंग अथोरिटी का गठन 2009 में उच्चतम न्यायालय द्वारा एक जनहित याचिका पर दिए गए निर्णय के आधार पर किया गया था. इस याचिका के जरिए आधा दर्जन से अधिक सामाजिक संगठनों ने देश भर में होने वाली औद्योगिक गतिविधियों के चलते पर्यावरण को हो रहे नुकसान पर चिंता जाहिर करते हुए शीर्ष अदालत का ध्यान इस ओर खींचा था. इन संगठनों की मांग थी कि विकास की कीमत पर पर्यावरण को होने वाले नुकसान की भरपाई हर हाल में की जानी चाहिए. उच्चतम न्यायालय ने इन चिंताओं से इत्तेफाक रखते हुए एक आदेश जारी किया ताकि विकास और पर्यावरण एक साथ कदमताल मिला सकें. उसने केंद्र सरकार से देश के अलग-अलग हिस्सों में पूरी तरह उजड़ चुके वनों के साथ ही बिगड़े स्वरूप वाले वनों को फिर से हरा-भरा बनाने के लिए क्षतिपूर्ति वनीकरण कोष प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (कैंपा) का गठन करने को कहा. केंद्र को 14 राज्यों के साथ मिल कर एक कोष बनाने को कहा गया. उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार से कहा कि इस कोष की मदद से वनीकरण और पर्यावरण संरक्षण के लिहाज से जरूरी समझी जाने वाली सभी गतिविधियों को अमली जामा पहनाया जाना चाहिए ताकि औद्योगीकरण संबंधी क्रियाकलापों के चलते होने वाले पर्यावरणीय नुकसान के असर को कम किया जा सके. यानी उद्योगों को दी गई भूमि के बदले पेड़ लगाने के लिए फंड इकट्ठा किया जाना था ताकि जितने वन क्षेत्र को उद्योगों के लिए दिया गया उतनी जमीन पर कहीं और पेड़ लगाए जाएं.

इसके बाद केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने 28 अप्रैल 2009 को कैंपा के गठन का आदेश जारी किया, दो जुलाई 2009 को मंत्रालय ने इस संबंध में दिशा-निर्देश जारी किए. इनमें उन सभी बातों को लेकर प्रावधान बनाए गए जिनके आधार पर कैंपा कोष का उपयोग किया जाना था. मंत्रालय ने उन सभी क्षेत्रों का जिक्र तो किया ही जिनमें इस कोष के तहत मिलने वाले धन का उपयोग किया जा सकता है, साथ ही उन क्षेत्रों को भी साफ-साफ चिन्हित किया जिनमें इस फंड का पैसा लगाने की मनाही है. उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के अनुसार ‘कैंपा कोष’ में जमा राशि का 10 फीसदी हिस्सा हर साल संबंधित राज्यों के वन विभाग को दिया जाता है. इसी आधार पर 2009-10 से लेकर 2012-13 तक छत्तीसगढ़ को क्रमश: 123.21 करोड़, 134.11 करोड़, 99.54 करोड़ तथा 114.38 करोड़ रुपए दिए गए.

यहीं से इस कोष के दुरुपयोग की कहानी भी शुरू होती है. उच्चतम न्यायालय में दायर की गई याचिका में इस कहानी का विस्तार से वर्णन किया गया है. यह याचिका बताती है कि वन मंत्रालय के दिशा-निर्देशों को ताक पर रखते हुए छत्तीसगढ़ में कैंपा की राशि का भयानक दुरुपयोग किया गया है. जो पैसा नए जंगल लगाने के लिए इस्तेमाल होना चाहिए था उससे अधिकारियों और मंत्रियों के लिए महंगी गाड़ियां खरीदी गईं,  इंन्फ्रास्टक्चर यानी बुनियादी सुविधाओं के नाम पर नौकरशाहों के लिए शानदार बंगले और हॉस्टल बनवाए गए. दुरुपयोग की यह सूची लंबी है.

2010-11 तथा 2011-12 में आई कैग की रिपोर्टों में भी कैंपा कोष के दुरुपयोग की बातें उजागर हुई थी. इसके अलावा आरटीआई तथा अन्य स्रोतों से प्राप्त दस्तावेज भी इस याचिका में लगाए गए आरोपों की सत्यता को साबित करते हैं. ये सभी दस्तावेज बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में कम से कम आधा दर्जन ऐसे क्षेत्रों में ‘कैंपा कोष’ का पैसा खर्च किया गया जिनमें इसे खर्च नहीं किया जाना चाहिए था.

इन सभी क्षेत्रों मे हुए कैंपा राशि के दुरुपयोग को लेकर नारायण सिंह चौहान ने केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से लेकर छत्तीसगढ़ के राज्यपाल, मुख्यमंत्री तथा लोक आयोग (लोकायुक्त) तक से शिकायत की थी. लेकिन सभी मोर्चों से उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ा. इसके बाद अब वे इस मामले को न्यायालय में ले गए हैं.

राज्य सरकार द्वारा कैंपा मद के दुरुपयोग के मामले कई तरह के हैं. सबसे पहले अधिकारियों के लिए महंगी गाड़ियों की खरीद संबंधी मामले का जिक्र करते हैं. आरटीआई से प्राप्त दस्तावेज बताते हैं कि 2009 से लेकर 2013 तक छत्तीसगढ़ में कैंपा की राशि से तकरीबन 20 करोड़ रुपये सिर्फ गाड़ियों की खरीद पर ही खर्च कर दिए गए. केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की गाइड लाइन के मुताबिक कैंपा राशि से केवल बेहद जरूरी परिस्थितियों में ही से रेंज आफिसर (रेंजर) तथा इससे निचले स्तर के कर्मचारियों के लिए ही वाहन खरीदे जा सकते थे. लेकिन इस कोष से खरीदी गई अधिकतर गाड़ियों को रेंजर स्तर से उपर के अधिकारियों को आवंटित किया गया. इन गाड़ियों में टाटा सफारी, टाटा मांजा, टोयटा तथा एंबेसडर जैसी गाड़ियां शामिल हैं जबकि कैंपा की राशि से महंगे वाहनों की खरीद की मनाही थी. कैंपा के दिशानिर्देशों के विपरीत जाकर वाहनों की खरीद का मामला 2011-12 की कैग रिपोर्ट में भी सामने आया था. इस रिपोर्ट के मुताबिक सरकार ने उस साल कैंपा कोष से 23 वाहन खरीदे. रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश के वन मंत्री तथा प्रमुख सचिव (वन) के लिए ही तकरीबन 20 लाख रुपये खर्च करके कैंपा की राशि से दो टाटा सफारी खरीदी गईं.

रामपुर गांव जिसे श्रीरामपुर के नाम से एक दूसरी जगह पर बसाया गया है.

नारायण सिंह चौहान कहते हैं, ‘यह पूरी तरह से कैंपा के पैसों का खुला दुरुपयोग है. कैंपा के दिशानिर्देशों के मुताबिक रेंजर स्तर से ऊपर के अधिकारियों के लिए कोई भी वाहन नहीं खरीदा जाना चाहिए था, लेकिन यहां जितने भी वाहन खरीदे गए उनमें से अधिकांश वाहनों को बड़े अधिकारियों को ही दिया गया.’

गाड़ियों की खरीद के बाद कैंपा के पैसों के दुरुपयोग का यह क्रम आलीशान बंगलों के निर्माण की तरफ बढ़ता है. बीते पांच सालों में छत्तीसगढ़ में कैंपा की राशि से दर्जन भर से अधिक बंगलों का निर्माण किया गया. राज्य की अलग-अलग वन रेंजों के मुख्यालयों में बने इन बंगलों को डीएफओ से लेकर वंन संरक्षक स्तर तक के अधिकारियों को आवास के रूप में आवंटित किया गया है. इन बंगलों और कार्यालयों पर 24 करोड़ से अधिक रुपए फूंके गए. कैग की रिपोर्ट ने भी इस निर्माण पर सवाल खड़े किए थे लेकिन तब राज्य सरकार ने कैंपा के कुछ नियमों का हवाला देते हुए अपने इस कदम का बचाव किया था. दरअसल कैंपा के दिशा-निर्देशों के मुताबिक कैंपा संबंधी गतिविधियों के कुशल संचालन हेतु राज्य सरकारों को बुनियादी सुविधाओं के लिए कैंपा की राशि का उपयोग करने की छूट दी गई थी. वन मंत्रालय का कहना था कि वनीकरण संबंधी कामों के लिए आवश्यक संसाधन और सुविधाएं जुटाने के क्रम में राज्य सरकारें जरूरत पड़ने पर रेंजर तथा उससे नीचे के स्तर के कर्मचारियों के लिए आवासीय योजना बना सकती है, लेकिन सरकार ने इस प्रावधान की आड़ लेकर आला अधिकारियों के लिए आवास बना दिए. इसके अलावा तीन जगहों दुर्ग, विलासपुर और रायपुर में तीन ट्रांजिट हास्टल भी कैंपा की राशि से बनाए गए. इन हॉस्टलों के निर्माण पर भी 16 करोड़ रु से ज्यादा खर्च हुआ. कैंपा राशि के दुरुपयोग को रोकने के लिए बनाए गए दिशानिर्देशों के अलावा केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के आईजी फारेस्ट एवं मुख्य कार्यकारी अधिकारी सीडी सिंह ने भी आठ सितंबर 2013 को छत्तीसगढ़ के प्रधान मुख्य वन संरक्षक को पत्र लिख कर कैंपा मद के उपयोग संबंधी दिशा निर्देशों की प्रतिलिपि सौंपी थी. इसके मुताबिक नवीनीकरण, निर्माण, वाहनों की खरीद, विदेश यात्राओं तथा ईको टूरिज्म जैसी गतिविधियों पर होने वाले खर्च को कैंपा राशि से अलग रखा गया था. लेकिन इन सभी क्षेत्रों में कैंपा के पैसे लगाए गए.’

मुख्यमंत्री रमन सिंह का ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ बताई जाने वाली ‘जंगल सफारी परियोजना’ पर भी कैंपा की राशि के दुरुपयोग का आरोप लग रहा है

नियमों के मुताबिक ईको टूरिज्म संबंधी गतिविधियों में भी कैंपा की राशि का उपयोग प्रतिबंधित था, लेकिन इस राशि के बंटाधार की यह कहानी आगे बढ़ते हुए उसी ईको टूरिज्म के क्षेत्र में प्रवेश करती है. उच्चतम न्यायालय में दायर की गई याचिका के मुताबिक प्रदेश में ईको टूरिज्म को बढ़ावा देने के नाम पर कैंपा की राशि से तकरीबन 12 करोड़ रुपए खर्च किए गए. 2011-12 की कैग रिपोर्ट में भी इस पर सवाल उठाए जा चुके हैं. रिपोर्ट के मुताबिक सरकार ने प्रदेश की 77500 हैक्टेयर वन भूमि का उपयोग ईको टूरिज्म संबंधी गतिविधियों के लिए किया, जबकि वन संरक्षण अधिनियम के तहत ऐसा किया जाना प्रतिबंधित था. प्रदेश की ईको टूरिज्म परियोजना का एक अहम हिस्सा और मुख्यमंत्री रमन सिंह का ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ बताई जाने वाली ‘जंगल सफारी परियोजना’ पर भी कैंपा की राशि के दुरुपयोग का आरोप इस याचिका में लगाया गया है. 2011-12 का ऑडिट रिपोर्ट का हवाला देते हुए याचिका में कहा गया है कि कैंपा की राशि से इस परियोजना पर दो करोड़ 40 लाख के करीब रुपये खर्च किए गए. इस खर्च पर ऑडिट रिपोर्ट ने गंभीर सवाल उठाए थे. नारायण सिंह चौहान बताते हैं कि राज्य में पहले से ही नंदनवन के रूप में एक पार्क मौजूद था लेकिन सिर्फ मुख्यमंत्री की इच्छा पर जंगल सफारी परियोजना बनाई जा रही है, जिसका मकसद सिर्फ केंद्रीय मदद झटकना भर ही है. जंगल सफारी परियोजना को लेकर छत्तीसगढ़ में विपक्ष भी कई बार रमन सिंह सरकार की आलोचना कर चुका है. चौहान के मुताबिक उन्होंने केंद्र सरकार से भी ‘जंगल सफारी परियोजना’ में कैंपा की राशि के दुरुपयोग की शिकायत की थी, लेकिन इसको लेकर किसी भी तरह की कार्रवाई नहीं हुई. वे कहते हैं, ‘केंद्र सरकार द्वारा बरती गई इस उदासीनता के चलते किसी भी राज्य सरकार के हौसले बढ़ने स्वाभाविक हैं, ऐसे में रमन सिंह की सरकार डरे भी तो क्यों.’

जिस हौसले की तरफ चौहान इशारा करते हैं उसके साक्षात दर्शन रमन सरकार के एक और कारनामे में देखे जा सकते हैं. यह कारनामा केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के दिशा निर्देशों का खुला उल्लंघन करने के साथ ही ‘कैंपा कोष’ की अवधारणा को भी सवालों के घेरे में डालता नजर आता है. यह मामला राज्य के 25 गांवों के विस्थापन तथा पुनर्वास संबंधी योजना से संबंधित है.

[box]

कायदे से ऊपर फायदे

  • नियमों के मुताबिक कैंपा कोष से रेंज आफिसर (रेंजर) तथा इससे निचले स्तर के कर्मचारियों के लिए ही वाहन खरीदे जा सकते थे, वह भी बेहद जरूरी परिस्थितियों में, लेकिन छत्तीसगढ़ में इस कोष के जरिये अधिकतर गाड़ियां रेंजर स्तर से ऊपर के अधिकारियों के लिए खरीदी गईं. इन गाड़ियों में टाटा सफारी जैसे कई महंगे वाहन शामिल हैं जबकि महंगी गाड़ियां खरीदने की मनाही थी
  • ईको टूरिज्म संबंधी गतिविधियों में भी कैंपा की राशि का उपयोग प्रतिबंधित था, लेकिन प्रदेश में ईको टूरिज्म को बढ़ावा देने के नाम पर भी कैंपा कोष से करोड़ों खर्च किए गए. कैग ने भी इस पर सवाल उठाए
  • बिगड़े वनों को संवारने के लिए 400 पौधे प्रति हैक्टेयर के हिसाब से दो वर्षों के लिए प्रति हैक्टेयर 15,100 रुपए का खर्च निर्धारित किया था, लेकिन कहीं-कहीं तो 52,704 रुपये प्रति हैक्टेयर की दर से पैसा खर्च किया गया
  • बताया गया कि नए पौधे लगाने के लिए गैरवनभूमि उपलब्ध नहीं है. इसके बाद जहां पौधारोपण दिखाया गया वहां पहले से ही घना जंगल था

[/box]

कैंपा संबंधी गतिविधियों को बेहतर स्वरूप देने के उद्देश्य से छत्तीसगढ़ सरकार ने 2010 में बारनवापारा अभयारण्य के अंतर्गत आने वाले 25 गांवों को अभयारण्य से बाहर बसाने का फैसला किया. इसके लिए सरकार ने पहले चरण में तीन गांवों रामपुर, लाटादादर तथा नवापारा को चिन्हित किया. इन गांवों में से एक रामपुर के 135 परिवारों को लगभग 58 किलोमीटर दूर महासमुंद जिले में श्रीरामपुर नाम देकर बसाने की योजना बनाई गई. इन परिवारों के लिए मकान बनाने, खेती के लिए जमीन देने तथा अन्य बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लिए प्रति परिवार दस लाख रुपये खर्च किए जाने थे. इस तरह 135 परिवारों के लिए कुल 13 करोड़ 50 लाख का रुपये का व्यय निर्धारित किया गया. यहां पर एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि इन परिवारों के पुनर्वास के लिए केंद्र सरकार ने 2009 में छत्तीसगढ़ को अलग से पांच करोड़ 40 लाख रुपए की राशि भी आवंटित की थी. इस तरह कैंपा के तहत सिर्फ आठ करोड़ 10 लाख रुपए ही खर्च किए जाने चाहिए थे. लेकिन आरटीआई से मिली सूचना बताती है कि श्रीरामपुर गांव के पुनर्वास में कैंपा कोष से 14 करोड़ 60 लाख रुपए खर्च किए गए. इसकी पड़ताल करने पर एक हैरान करने वाली जानकारी सामने आती है. दरअसल केंद्र द्वारा मिली पांच करोड़ 40 लाख की उस अतिरिक्त राशि में से साल 2010-11 तक छत्तीसगढ़ सरकार सिर्फ 81 लाख रुपए ही खर्च कर सकी थी, जिसके चलते यह राशि लैप्स हो गई. इसके बाद कैंपा के फंड से ही पुनर्वास कार्यों को पूरा किया गया.

श्रीरामपुर गांव के पुनर्वास की इस पूरी प्रक्रिया में कैंपा के पैसों के दुरुपयोग का एक और कारनामा दर्ज है. आरटीआई से मिले दस्तावेजों के मुताबिक जून 2012 में हुए इस गांव के लोकार्पण कार्यक्रम में ही सरकार ने तकरीबन 16 लाख रुपए फूंक दिए थे. इस लोकार्पण कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में मुख्यमंत्री रमन सिंह ने शिरकत की थी. नियमों को देखें तो यह साफ तौर पर कैंपा फंड के दुरुपयोग का मामला नजर आता है.

पांच करोड़ 40 लाख रुपए की उस राशि पर वापस आते हैं जिसमें से 81 लाख रुपये के अतिरिक्त बाकी पैसा लैप्स हो गया था. सरकार का कहना था कि इस राशि को पुनर्जीवित करने के लिए उसने केंद्र से गुहार लगाई थी. लेकिन आरटीआई से सूचना मांगे जाने के बाद भी अब तक वह इस राशि को लेकर कोई सटीक जानकारी नहीं दे पाई है. छत्तीसगढ़ के एक सामाजिक कार्यकर्ता की मानें तो सरकार जानती है कि देर-सवेर यह राशि उसको मिल ही जाएगी, इसलिए जब तक संभव हो सके वह कैंपा के पैसों को ही खर्च करना चाहेगी ताकि इस राशि से कुछ और कारनामों को अंजाम दिया जा सके.

img
आरटीआई से मिले दस्तावेज साफ बताते हैं कि किस तरह नियम(बाएं) तोड़े(दाएं और नीचे) गए.

अब तक के पूरे घटनाक्रम से ‘कैंपा फंड’ के दुरुपयोग को लेकर छत्तीसगढ़ सरकार के कारनामों की एक लंबी सूची तैयार हो चुकी है. इसके बाद भी कई और घटनाएं ऐसी हैं जो साबित करती हैं कि राज्य सरकार कैंपा फंड के दुरुपयोग का कोई भी मौका नहीं गंवाना चाहती थी. जनवरी 2012 के एक घटनाक्रम से इस बात को आसानी से समझा जा सकता है. राज्य के वन विभाग के पांच आला अधिकारियों ने विदेश भ्रमण का कार्यक्रम बनाया. इनमें प्रधान मुख्य वन संरक्षक से लेकर वन मंडलाधिकारी स्तर तक के अधिकारी शामिल थे. छत्तीसगढ़ शासन ने इन अधिकारियों की विदेश यात्रा के संबंध में शर्त रखी कि इनकी यात्रा का पूरा खर्च ‘कैंपा कोष’ से किया जाएगा. यह फैसला कैंपा दिशा-निर्देशों के तहत बने प्रावधानों के प्रतिकूल था. इस बात का पता चलते ही कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आरटीआई का इस्तेमाल करके इन यात्राओं के खर्च को लेकर जानकारी मांग ली. खुद को घिरता देख छत्तीसगढ़ शासन ने आनन-फानन में इस फैसले को बदल दिया. इन अधिकारियों की विदेश यात्रा पर होने वाले खर्च का भुगतान कैंपा निधि से करने की शर्त को संशोधित करके शासन ने भुगतान का जिम्मा वन विभाग को सौंप दिया. लेकिन यदि आरटीआई से यह सूचना नहीं मांगी जाती तो क्या तब भी छत्तीसगढ़ सरकार इस शर्त में संशोधन करती ? नारायण चौहान इसका जवाब न में देते हैं. वे कहते हैं, ‘अगर अधिकारियों की इस यात्रा को लेकर सूचना नहीं मांगी जाती तो ‘कैंपा कोष’ के एक और बड़े हिस्से की कुर्बानी तय थी.’ दस्तावेज बताते हैं कि प्रदेश के अधिकारियों की इस विदेश यात्रा पर लगभग 22 लाख रु से भी ज्यादा की रकम खर्च हुई ती. साफ है कि ‘कैंपा कोष’ के उपयोग को लेकर छत्तीसगढ़ को केंद्रीय सरकार द्वारा बनाए गए प्रावधानों की कोई परवाह नहीं है.

पौधारोपण के लिए महंगी से महंगी दरों पर गलत प्रजातियों की खरीद की गई जिससे एक करोड़ रु से भी अधिक की अतिरिक्त रकम खर्च हुई

एक और मामले का जिक्र किए बिना कैंपा के दुरुपयोग की यह कथा अधूरी होगी. 2009 में कैंपा कोष के गठन के पीछे सबसे प्रमुख मकसद यही था कि वनीकरण तथा अन्य पर्यावरणीय गतिविधियों की मदद से जंगलों की सूरत को संवारा जा सके. लेकिन दस्तावेजों की भाषा कहती है कि छत्तीसगढ़ में इस उद्देश्य का सहारा लेकर बेहद सुनियोजित तरीके से कैंपा की राशि का बंटाधार किया गया. 2011-12 की ऑडिट रिपोर्ट के मुताबिक राज्य के प्रधान मुख्य वन संरक्षक ने बिगड़े वनों को संवारने के लिए 400 पौधे प्रति हैक्टेयर के हिसाब से दो वर्षों के लिए प्रतिहैक्टेयर 15,100 रुपए का खर्च निर्धारित किया, लेकिन दो जगहों, धमतरी और पूर्वी सरगुजा में इस राशि से कहीं अधिक 52,704 रुपये प्रति हैक्टेयर की दर से पैसा खर्च किया गया. इस कवायद में करीब ढाई करोड़ रु अतिरिक्त खर्च हुए. इसी रिपोर्ट के मुताबिक वनीकरण के लिए गैर वन भूमि उपलब्ध होने के बावजूद वनविभाग ने इसकी अनुपलब्धता बताई. जिन जगहों पर घना जंगल था वहीं पौधारोपण दर्शाया गया. इसके अलावा दस्तावेज यह भी बताते हैं कि कैंपा की राशि से छत्तीसगढ़ में रोपण परियोजना के लिए महंगी से महंगी दरों पर गलत प्रजातियों की खरीद की गई, जिसके चलते एक करोड़ रु से भी अधिक की अतिरिक्त रकम खर्च हुई.

उधर, अधिकारी इन सभी आरोपों को खारिज करते हैं. राज्य के कैंपा प्रभारी बीके सिन्हा कहते हैं, ‘कैंपा कोष के दुरुपयोग के सारे आरोप गलत हैं. कहीं भी इस कोष का दुरुपयोग नहीं हुआ है.’ सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिका पर वे कहते हैं, ‘सरकार अदालत में ही अपना पक्ष रखेगी.’ आरोपों का जवाब अदालत में देने वाली इस बात से इत्तेफाक भी रखा जाय तब भी सवालों का गोलमोल जवाब देने का यह रवैया खुद कई सवाल खड़े करता है. नारायण सिंह चौहान कहते हैं, ‘दरअसल अधिकारियों के पास कोई जवाब है ही नहीं, यही वजह है कि वे हर सवाल पर ‘आरोप गलत हैं’ कह तक पल्ला झाड़ लेते हैं.’

कुल मिलाकर देखा जाए तो कैंपा कोष के दुरुपयोग की यह पूरी कहानी छत्तीसगढ़ सरकार की एक ऐसी सूरत पेश करती है जो उसकी ‘गुड गवर्नेंस’ वाली बहुप्रचारित छवि के बिल्कुल उलट है. पिछले साल के आखिरी दिनों में इसी ‘गुड गवर्नेंस’ के सहारे छत्तीसगढ़ में रमन सिंह सरकार ने तीसरी बार जीत हासिल की थी. तब उन्होंने इस जीत को ‘अच्छे काम के लिए मिला ईनाम’ बताया था. इस बात में कोई दो राय नहीं कि जनता की अदालत से रमन सिंह ने तब वाकई में शानदार जनादेश हासिल किया था. लेकिन हो सकता है कि जल्द ही उनके कामकाज का आकलन करने वाला एक और आदेश आए. यह आदेश शीर्ष अदालत से आ सकता है.

pradeep.sati@tehelka.com

वॉट्सएप पर लग सकती है लगाम!

downloadदूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ‘ओवर-द-टॉप’ (ओटीटी) सेवाएं जैसे वॉट्सएप, स्काइप, वीचैट इत्यादि के नियमन के लिए जल्दी ही एक कंसल्टेशन पेपर जारी कर सकता है ताकि इस आधार पर एक नीति तैयार की जा सके.

पिछले काफी समय से दूरसंचार कंपनियां इन सेवाओं को उपलब्‍ध करवाने वालीं ‘ओवर-द-टॉप’ (ओटीटी) कंपनियों पर नियमन की मांग कर रही थीं. ओटीटी सेवाएं देने वाली कंपनियां फोन पर मुफ्त में मैसेज और वॉइस मेल की सुविधा देती हैं. इसके लिए दूरसंचार उपभोक्ताओं को सिर्फ इंटरनेट सुविधा के लिए पैसा देना होता है.

दूरसंचार कंपनियों का कहना है कि वॉट्सएप और स्काइप जैसी सेवाओं की वजह से उनके मैसेज व वॉयस मेल जैसी सेवाओं का उपयोग कम हो गया है और उन्हें नुकसान उठाना पड़ रहा है. जबकि वैश्विक स्तर पर इंटरनेट संचालन से जुड़ी कंपनियां ओटीटी कंपनियों पर किसी भी तरह के नियंत्रण का विरोध कर रही हैं. उनका कहना है कि इससे ऑनलाइन सेवाएं महंगी हो सकती हैं और लोगों की सूचनाओं से पहुंच दूर हो जाएगी.

पिछले काफी समय से देश में ब्रॉडबैंड की धीमी गति पर भी बहस चल रही है. ट्राई इस विषय पर भी कुछ महत्वपूर्ण फैसले करने वाला है. इस बारे में संस्‍था के चेयरमैन राहुल खुल्लर कहते हैं, ‘ हमें उम्मीद है कि ब्रॉडबैंड सेवाओं पर परामर्श लेने के लिए हम अगले महीने के आखिर आम लोगों से सुझाव के लिए प्रक्रिया शुरू कर देंगे.’ इस संबंध में खुल्लर ने नेशनल ऑप्‍टिकल फाइबर नेटवर्क की उस वृहद् परियोजना का भी जिक्र किया जिसके माध्यम से देश की ढाई लाख पंचायतों को तीव्र गति की इंटरनेट सेवा से जोड़ा जाना है. यह परियोजना सन 2017 तक पूरी होनी है.

ट्राई के प्रावधानों के मुताबिक अपनी नीतियों में किसी तरह के बदलाव के पहले उसे आम जनता की राय लेना अनिवार्य है और इसी के आधार पर वह सरकार को अपनी नई नीति भेजता है. ब्रॉडबैंड सेवा और ओटीटी के लिए भी ट्राई यही प्रक्रिया शुरू करने वाला है.